Home Blog Page 2565

नर्मदा कुंभ का होगा निराला आगाज

विराग पाचपोर, नागपुर (महाराष्ट्र )

माँ नर्मदा सामाजिक कुंभ में देशभर से संत, महात्माओ एवं प्रबुद्धजनो के अलावा लगभग तीस लाख लोगों के आने की संभावना है। इसकी सुचारू व्यवस्था के लिये हजारों कार्यकर्ता कुंभ में आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों की व्यवस्था में लगे है । विगत 12,13 व 14 नवम्बर को मंडला में कुंभ के संचालन हेतु लगभग पांच हजार कार्यकर्ताओं को व्यवस्था संम्बधी प्रशिक्षण दिया गया। इस कुंभ में सहभागिता हेतु बड़ी संख्या में साधु संतों के अपनी शिष्य मंडली सहित आगमन की सहमति प्राप्त हो रही है।जनजागृति के लिए मां नर्मदा के 30 लाख चित्र घर-घर स्थापित किये गए है। संपूर्ण कुंभ को मंडला महारानी दुर्गावती का नाम दिया गया है। संपूर्ण विशाल परिसर के चार भव्य प्रवेश द्वार रहेंगे। तीन बड़े मंडप-स्वामी लक्ष्मणानंदजी के नाम पर, महिलओं के लिए रानी लक्ष्मीबाई के नाम पर और युवाओं के लिए हनुमान जी के नाम पर बनाए जाएंगे। मंडला के समीप महाराजपुर के पास कुल 3500 एकड भू क्षेत्र पर कुल 45 नगर बनेंगे। प्रत्येक नगर में 5 हजार लोगों के रहने, भोजन आदि की व्यवस्था रहेगी।

मीडीया सेन्टर में पाधारे केन्द्रीय आयोजन समिति व संचालन समिति के सदस्य तथा विषकर्मा विभाग के प्रमुख श्री दिग्विजय सिंह व निर्माण विभाग के प्रमुख श्री मुकुल भाई धागठ ने बाताया कि मंडला में नर्मदा के तट पर 3500 एकड़ में रानी दुर्गावती पुरम का निर्माण किया जा रहा है। इसमें सर्वप्रथम मुख्य सभा मंडप केरी कोन टापू पर बनाया जा रहा है। जिसमें 4 मंच होंगे तथा यह मंडप लगभग 6 लाख वर्ग फुट जथा इसकी बैठक क्षमता एक लाख व्यक्तियों कि होगीं। इस अतिरिक्त दो अन्य सभा मंडप युवाओं व महिलाओं के सम्मेलन के लिये बनेगे जिनकी क्षमता 1500 व्यक्तियों की होगी। इसके साथ सम्पूर्ण देश से आनेवाले श्रद्धालुओं के लिये 50 नगरों का निर्माण किया जा रहा हैं प्रत्येक नगर की क्षमता पॉच हजार व्यक्तियों के आवास की होगी तथा इन आवासीय नगरों में पेयजल, शौचालय, मोबाईल चार्जिग, कपड़े सुखाने की व्यवस्था, भजन के लिये मंच तथा प्रत्येक नगर में व्यवस्था व सुविधा के लिये प्रबंधकर्ता , स्वच्छता प्रभारी, बिजली प्रभारी, ध्वनिप्रभारी, सुरक्षा प्रभारी, के लिये कक्षों की व्यवस्था रहेगी तथा इसके साथ नगर के बाहर दैनिक उपयोगी वस्तुओं की , चाय- नाश्ता अदि के स्थाल भी रहेंगे । इसके अतिरिक्त कुंभ में आये श्रद्धालुओं के लिये 10 प्रदर्शनी भी बनाई जा रही है इसमें पर्यावरण, जलसंर्वधन विज्ञान, मॉ नर्मदा जी के बारे में, रामजन्म भूमि, रीनीदुर्गावती रीनी अवन्तिबाई, विश्वमंगल गौ-ग्राम, और बलिदानी अदि रहेंगे । कुंभ में आने वाले समस्त श्रद्धालुओं के लिये भोजन की व्यवस्था की जा रही है। इसके लिए 8 भोजनालयों का निर्माण किया जा रहा है तथा प्रत्येक भोजनालय की क्षमता प्रतिदिन 2 लाख व्यक्तियों की होगी तथा इसमें समस्त लोगों को भोजन बैठाकर परोसकर कराया जायेगा तथा उनके बर्तन भी धोने की व्यवस्था समिति द्वारा की गई है। कुंभ स्थल पर पूज्यनीय सन्तों के लिये प्रथम आवास व्यवस्था की गयी तथा विशिष्ट जनो के लिये भी पृथक से व्यवस्था की गयी है तथा इस बात का विशेष ध्यान दिया गया है इनके आवास कार्यक्रम स्थाल तथा घाट के समीप हो तथा इनके लिये प्रथम भोजनालय भी बनाया गया है। अति विशिष्टजनों के लिये विशेष प्रकार की कुटी (स्विसकाटेज) का निर्माण किया जा रहा हैं। कुंभ पूर्णरूप से व्यवस्थित रूप से संचालित हो इसके लिये मंडला में प्रवेश करने के लिये तीन सडके जबलपुर रोड़, रायपुर रोड़, डिण्डोररी रोड में पार्किग की व्यवस्था की गयी है इस पार्किग में छोटे व बडे़ वाहनों की पृथक व्यवस्था रखी है वाहनों के प्रवेश व अधिक वाहनों की भीड़ को देखते हुये निर्गम की सड़के अलग से रखी गई है अर्थात पार्किग में एंकाकी मार्ग व्यवस्था की गयी है छोटे बडे़ वाहन में लिये लगभग 80 एकड़ में एक पार्किग की गई है । कुंभ स्थल सभी के स्वस्थ्य के लिए रोटरी क्लब द्वारा 30 बिस्तर वाला सर्वसुविधा युक्त चिकित्सालय बनाया जा रहा है जिसमें सभी विधा के विशेषज्ञ उपलब्ध रहेंगे । इसमें अतिरिक्त आवासीय नगरो के पास, सभास्थल के पास घाटों के पास व अन्य स्थालों में भी चिकित्सालयों का निर्माण किया जा रहा हैं जिसमें लगभग 150 चिकित्सक व 20 एम्बुलेंस व अन्य सभी सुविधाएँ होगी। इसके अतिरिक्त मंडला जिला चिकित्सालय भी 24 घंटे पूर्ण सुविधा के साथ उपलब्ध रहेगा। रपटा पुल के तिराहे पर एक मुख्यालय तथा पूछताछ केन्द्र निर्माण किया जा रहा है तथा इसी के साथ कन्ट्रोल रूम भी बनाया जा रहा है , जिसमें सभी विभाग के प्रमुख उपलब्ध रहेगे तथा वही इनका आवास भी रहेगा । जैसा कि विदित है कि कुंभ में महिलाये व बच्चे भी अधिक संख्या में आयेगे अतः उनकी रूचि को ध्यान में रखते हुये तीन मेले लगाये जायेगे जिसमें मनोरंजक खेल, झूले व दुकाने होंगी । कुंभ में आये लोगों के लिये तीन छवि गुह निर्माण भी किया गया है जिनमें धर्म से संबधित प्रेरणादायक सिनेमा व रामायण व महाभारत की फिल्में दिखाई जायेगी यह व्यवस्था देर शाम के समय से प्रारम्भ होगी। कुंभ में 10 अमानती गृहो का भी निर्माण किया जा रहा है जिसमें श्रद्वालु अपना समान रखकर स्वंतत्र रूप से कुंभ में घूम सकेंगे । इसके साथ 10 टेलीफोन बूथ तथा कूपन के स्थल भी लगाये जायेंगे । मीडिया को विशेष रूप से ध्यान में रखते हुए एक मीडिया सेन्टर का निर्माण किया जा रहा है जिसमे सभी प्रकार की अत्याधुनिक संचार व्यवस्थाये उपलब्ध रहेंगी तथा उसी के पास पत्रकार बन्धुओं के लिये आवास व्यवस्था भी होगी। अति विशिष्ट अतिथितियों के लिये जो वायु मार्गा से आएंगे , उनके लिये हेलीपेड का निर्माण भी किया गया है। मंडला से जुडने वाली तीनों प्रमुख रोड जबलपुर डिंडौरी, रायपुर रोड़ में भव्य प्रवेश द्वार भी बनाये जा रहे है। इसके अतिरिक्त कुंभी स्थलों में जगह-जगह पर पेयजल, शौचालय, सहायता केन्द्र, अपदा प्रबंधन व्यवस्थाये जैसे, एम्बुलेन्स, जे.सी. बी. मशीन , क्रेन, फायर ब्रिगेड आदि के लिये भी समुचित स्थान रखा गया है। इसके अलावा सभी आवासीय नगरो के बाहर, पार्किग स्थाल, मेला, छविगृह, घाटो व अन्य जगह पर स्टाले रहेंगी जिसमें चाय, नास्ता , दैनिक उपयोग कि वस्तुये, नारियल अगरबती व अन्य प्रकार की दुकाने श्रद्वालुओं की सुविधिओं को ध्यान में रखकर बनाया जा रहा है। इसी प्रकार कुंभ में पधारे सभी श्रद्वालुओं के रास्तों में दिशा निर्देश, दिशा चिन्ह, नगरों की दिशाये और रास्तों में मानचित्र, भी लगाये जा रहे है तथा सभी की छोटी-छोटी सुविधाओं को ध्यान में रखते हुये इस प्रकार कार्य योजना बनाई जा रही है जिसमे किसी को कठिनाई न हो। जैसे सभी 50 आवासीय नगरो का महानगर में विभाजन, एकांकी मार्ग वाहनों का प्रवेश वर्जित तथा सभी जगह ध्वनि विस्तारक यंत्रों आदि की व्यवस्था की गई है।

आकर्षक प्रदर्शनियां

मां नर्मदा सामाजिक कुंभ के दौरान रानी दुर्गावती, माहराणा प्रताप, पर्यावरण एवं मां नर्मदा,सिख गुरूपुत्रों की बलिदान गाथा, राष्ट्रीय एकता और विधर्मियों के कुटिल हथकंडे, विश्व मंगल गोमाता, जल संरक्षण, सामाजिक सुरक्षा और राम मंदिर केन्द्रित 10 से अधिक प्रदर्शनियां भी लगाई जाएंगी। आयोजकों ने इस सामाजिक कुंभ को समाज के अंतिम व्यक्ति तक ले जाने का निर्णय किया है। इस सामाजिक कुंभ में देश के प्रख्यात संत-महात्मा और महापुरूषों का सान्निध्य मिलेगा,वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई अ.भा. अधिकारी एवं स्वयंसेवक विशेष रूप से उपस्थित रहेंगे।

प्रमुख उपस्थिति

इस सामाजिक आयोजनद में मुख्य रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा. मोहनराव भागवत, सरकार्यवाह श्री भैयाजी जोशी, निवर्तमान सरसंघचालक श्री कुप्.सी.सुदर्शन,सह सरकार्यवाह श्री सुरेश सोनी व श्री दत्तत्रेय होसबले, श्री गोविंदगिरी महाराज (आचार्य किशोर जी व्यास), जगद्गुरू शंकराचार्य ज्योतिष्पीठाधीश्वर श्री वासुदेवानंद सरस्वती, दीदी मां ऋतंभरा, भारत माता मंदिर के संस्थापक स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि, आचार्य महामंडलेश्वर श्यामदास जी महाराज जबलपुर, अखिलेश्वरानंदजी-जबलपुर, श्री विजयकौशल जी-वृन्दावन, म.म. हरिहरानंदजी-अमरकंटक, आचार्य म.म. सुखदेवानंद जी-अमरकंटक, शंकराचार्य श्री राजराजेश्वराश्रम-हरिद्वार, रामानंदाचार्य स्वामी हंसदेवानंद, साध्वी निरंजनज्योति-कानपुर, संत श्री मानदासजी-हरिद्वार, म.म. स्वामी परमानंद गिरि-हरिद्वार, स्वामी गिरीशनंद-जबलपुर, म.म. मैत्रेयगिरिजी महाराजा-मंगलोर, ऐश्वर्यानदं सरस्वती-इंदौर, रामहृदयदास-चित्रकूट,योगीआदित्यनाथ-सांसद, म.म. शन्तिवरूपानंद गिरि-उज्जैन, शंभूनाथ माहराज-गुजरात, दशनामी पंचायती महा निर्मोही अखाड़ा के प्रमुख महामंडलेश्वर आचार्य सुखदेवानंद जी- अमरकंटक सहित अन्य अनेक संत मौजूद रहेंगे। विशिष्ट अतिथियों के आगमन हेतु हेंलीपेड की भी व्यवस्था की गई है।

कुंभ में यातायात व्यवस्था

नर्मदा सामाजिक कुंभ में पूरे देश से आने वाले श्रद्धालुओं की सुविधा हेतु नर्मदा नगर के बाहर चार मार्गो पर विशेष वाहन व्यवस्था की गई है। जबलपुर की ओर से आने वाले श्रद्धालुओं के जिये कटरा पर विशेष बस स्टेंड 1 फरवरी से प्रारंभ किया जायेगा जो मेला समाप्ति तक चलेगा । जबलपुर रेल्वे स्टेशन के दोनो और प्लेट फार्म के बाहर विशेष सहायता केन्द्र बनाये जायेंगे। रेल से जबलपुर आने वालों के लिये प्लेट फार्म क्रमांक 1 के निकनट पशुचिकित्सा महाविद्यालय के प्रांगण से मंडला के लिये विशेष बसें निरंतर उपलब्ध रह्रेगी।

भोजनालय

मेला स्थल पर 8 भोजनालयों की व्यवस्था है, जिसमें दिन के लगभग 18 घंटे लगातार भोजन उपलब्ध रहेगा।

रासलीला

मेला स्थल पर श्रद्धालुओं के लिये रासलीला का आयोजन है। रासलीला 3 फरवरी से प्रारंभ होकर 11 फरवरी तक चलती रहेगीं। कुंभ में कवि सम्मेलन भी आयोजित होगा।

चीन के जहरीले मंसूबे

डा कुलदीप चंद अग्निहोत्री

भारत सरकार चीन से संबंध सुधारने का हर संभव प्रयास कर रही है । संबंध सुधारने के जल्दी में वह किसी भी सीमा तक जाने के लिए तैयार है। पिछले दिनों चीन की सेना ने लदाख प्रांत में हो रहे एक निर्माण कार्य को बलपूर्वक रुकवा दिया । लेह के जिलाधिकारी ने मीडिया को इसका ब्योरा देते हुए यह भी बताया कि इसके विस्तृत जानकारी केन्द्र सरकार को दे दी गई है । लेकिन केन्द्र सरकार का रबैया पहले तो चीनी सेना की घुसपैठ को नकारने का ही था, बाद में उसने अपने सेनाध्यक्ष के माध्यम से बयान दिलवाया कि लदाख में भारत और तिब्बत ( जो अब चीन के कब्जे में है) की सीमा पर बनी वास्तविक नियंत्रण रेखा कागज के नक्शे पर खींची गई है जो बहुत आसान काम है। लेकिन पर्वतीय धरातल पर उसकी पहचान करना अत्यंत कठिन काम है । अतः यह पर्पेश्पन का मामला है जिसके कारण चीनी सेना भारतीय सीमा में आ जाती है । इसका कारण यह है कि इस पर्सप्रेशन के कारण चीनी सेना उसे चीन का क्षेत्र ही समझती है । दिल्ली के साउथ ब्लाक में इन दिनों यह चुटकुला प्रचलित हो गया है कि भारत सरकार लदाख में हुई घटना पर सख्त रबैया अख्तियार कर रही है और हो सकता है लेह के जिलाधिकारी पर कार्रवाई की जाए । कारण, उसने चीनी सेना की घुसपैठ की खबर मीडिया को देकर लोगों को भयभीत करने का देशविरोधी कार्य किया है । भारत सरकार की मानसिकता को लेकर दो संकेत स्पष्ट हैं । नक्शे पर वास्तविक नियंत्रण रेखा खिंचने का आसान काम भारत सरकार ने ले लिया है और उसे धरातल पर खिंचने के कठिन काम चीन को दे दिया है । लेह के जिलाधिकारी को दंड़ित करने का आसान काम भारत सरकार ने ले लिया है और भारतीय सीमा में घुसपैठ करने का कठिन काम चीन को दे दिया है । य़ह घटना कम से कम इतना तो प्रतिध्वनित करती ही है कि चीन से संबंध सुधारने के लिए भारत सरकार किस सीमा तक जाना चाहती है ।

लेकिन इसके विपरीत चीन का रबैया भारत के प्रति क्या है, इसके संकेत उसके व्यवहार से निरंतर मिलते रहते हैं । चीन के प्रधानमंत्री हु-जिन ताओ पिछले दिनों पर भारत के राजकीय दौरे पर आये थे । उन्होंने आते ही स्पष्ट किया कि भारत और चीन ( दरसल सीमा भारत और तिब्बत के बीच है ) में सीमा विवाद के ऐतिहासिक कारण हैं । अतः उसको सुलझाने में लंबा समय लगेगा । लंबे समय का संकेत चीनी भाषा में यही है कि जब चीन उसे सैन्य बल से सुलझाने में समर्थ होगा । या फिर सैन्य बल से सुलझाने के लिए वातावरण अनुकूल होगा । चीन ने 1962 में एक बार पहले भी सैन्य बल से सीमा विवाद सुलझाने का प्रयास किया था और भारत का काफी क्षेत्रफल अपने कब्जे में कर लिया था । आज तक चीन ने वह क्षेत्र छोडा नहीं है । हिमालयी सीमा से लगते भारतीय भूभाग पर अभी भी उसने अपना दावा ठोंका हुआ है ।
पाकिस्तान ने कश्मीर के जिस हिस्से पर कब्जा किया हुआ है, उसका कुछ हिस्सा उसने चीन को भी दे दिया है । जाहिर है कि चीन भारतीय क्षेत्र पर अपने दावे को पुख्ता सिद्ध करने के लिए इस हिस्से का उदाहऱण पेश करेगा ही । तिब्बत और पूर्वी तुर्कीस्तान, जिन पर चीन का कब्जा है, दोनों ही चीन की गुलामी से निकलने के लिए संघर्ष करते रहते हैं । इन दोनों देशों में स्वतंत्रता संघर्ष को कुशलता से दवाने के लिए और इनको परस्पर जोडने के लिए भारतीय क्षेत्र के लदाख के कुछ भूभाग पर चीन ने कब्जा ही नहीं किया हुआ बल्कि लदाख के ही शेष भूभाग पर ही वह अपना दावा जताता रहता है । चीनी सेना द्वारा लदाख क्षेत्र में बार बार अतिक्रमण का एक मुख्य कारण यह भी है । कश्मीर में विवाद के बने रहने से चीन के हितों की पूर्ति होती है । वह कश्मीर को विवादास्पद नहीं बल्कि पाकिस्तान का हिस्सा ही मानता है । पिछले दिनों चीन ने जम्मू कश्मीर के लोगों को भारतीय पासपोर्ट पर बीजा देने के बजाय एक अलग कागज पर बीजा देना शुरु किया था । संकेत स्पष्ट था । जम्मु कश्मीर को भारत का हिस्सा नहीं माना जा सकता । इसलिए भारत के पासपोर्ट पर वीजा कैसे दिया जा सकता है ।
चीन इस नीति का प्रयोग कर के भारत सरकार की प्रतिक्रिया भी देखना चाहता था । लेकिन भारत सरकार की प्रतिक्रिया निराश करने वाली ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय हितों पर आघात करने वाली भी रही । जुबानी जमाखर्च करने के अतिरिक्त भारत सरकार तटस्थ मुद्रा में तमाशा देखती रही । जाहिर है इसे चीन का हौंसला भी बढता और आगे की रणनीति के लिए उसे संकेत भी मिलते । भारत सरकार के वार्ताकारों की जो त्रिमूर्ति कश्मीर में समस्या सुलझाने के नाम पर अलगाववादी व आतंकवादियों से बातचीत कर रही है उसे श्रीनगर के मीरवाइज ने बता दिया है कि वे कश्मीर के मामले में चीन की सहायता भी लेंगे । राज्य के लोगों को कागज पर वीजा देने की नीति को इसकी शुरुआत माना जा सकता है ।
चीन ने अब यही प्रयोग अरुणाचल प्रदेश के लोगों के लिए करना प्रारंभ कर दिया है । वे पिछले कुछ सालों से अरुणाचल प्रदेश पर अपने दावे को लेकर मुखर हो गया है । दावा वह इस क्षेत्र पर पहले भी जताता रहा है, लेकिन पहले वह केवल प्रतीकात्मक ही होता था । पिछले कुछ सालों से वह मुखर ही नहीं हुआ बल्कि इस दावे को पुख्ता सिद्ध करने के लिए उसने व्यवहारिक कदम उठाने शुरु कर दिये हैं । अरुणाचल प्रदेश में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक के जाने पर उसने आपत्ति उठायी । पिछले दिनों दलाई लामा तवांग गये थे । तो चीन ने बाकयदा अपना विरोध दर्ज करवाया । य़ह ठीक है कि भारत सरकार ने दलाई लामा को तवांग जाने की अनुमति दे दी ( शायद यदि न देती तो अरुणाचल प्रदेश के लोग भी विरोधस्वरुप सडकों पर आ जाते) लेकिन सरकार ने उनकी तवांग की प्रेस कांफ्रैस पर पाबंदी लगा दी । जाहिर है सरकार स्वयं ही तवांग को दिल्ली से अलग मानने की बात स्वीकार करने लगी है । चीन का भी यही कहना है कि तवांग भारत के अन्य नगरों के जैसा नहीं है बल्कि वह भारत और चीन के बीच विवादास्पद है । अतः वहां कोई ऐसा काम नहीं किया जाना चाहिए जिससे दोनों देशों के बीच तनाव बढे । दिल्ली ने भी तवांग को शायद ऐसे ही दृष्टिकोण से देखा होगा । दिल्ली की इसी रबैये से चीन की हिम्मत बढी और उसने अरुणाचल प्रदेश के लोगों पर भी भारतीय पासपोर्ट पर वीजा देना बंद कर दिया और कागज पर वीजा देने की प्रक्रिया शुरु कर दी । भारत सरकार ने विरोध किया तो इस बार चीन की भाषा बदली हुई थी । उसने स्पष्ट कहा कि अरुणाचल प्रदेश के बारे में वह अपनी नीति नहीं बदलेगा । वह अरुणाचल प्रदेश के सरकारी अधिकारियों को तो किसी भी हालत में वीजा नहीं देगा बाकि लोगों को साधारण कागज पर ही बीजा मिलेगा ।

इसके बाद भारत सरकार हस्बे मामूल चुप्पी धारण कर लेती है । लेकिन अरुणाचल प्रदेश का युवा चुप्प नहीं बैठ सकता । आखिर अरुणाचल छात्र संघ ने 26 जनवरी का सरकारी कार्यक्रमों का बहिष्कार करने का निर्णय ले लिया । कारण ? भारत सरकार अरुणाचल को लेकर चीन के आगे घुटने क्यों टेक रही है । जो लडाई दिल्ली को लडनी चाहिए वह हिमालय की उपत्य़काओं में अरुणाचल प्रदेश के युवक लड रहे हैं । दिल्ली का ध्यान अरुणाचल को बचाने में उतना नहीं है जितना क्वात्रोची को बचाने में । अपनी अपनी प्राथमिकताएं हैं । कभी नेहरु ने चीन की इसी आक्रमणाकारी नीति के बारे में वहां घास का तिनका तक नहीं उगता । आज भारत सरकार लगभग उसी तर्ज पर अरुणाचल को बचाने से ज्यादा चीन से ब्यापार बढाने में उत्साह दिखा रही है । अभी तक चीन अरुणाचल के साथ लगती सीमा पर विवादास्पद ही बता रहा था, जिसे चीनी प्रधानमंत्री इतिहास की बिरासत बताते थे, लेकिन पिछले दिनों चीन सरकार ने आधिकारिक तौर पर गुगल अर्थ के मुकाबले जो विश्व मानचित्र जारी किया है उसने अरुणाचल प्रदेश को चीन का हिस्सा ही दिखाया गया है । भारत सरकार का विरोध सब मामलों में आपत्ति दर्ज करवाने तक सीमित हो कर रह जाता है । ताजुब तो इस बात का है कि अरुणाचल, लदाख इत्यादि जिन क्षेत्रों पर चीन अपना दावा पेश करता है उन क्षेत्र में रहने वाले लोग चीन के दावे का ज्यादा सख्त तरीकों से विरोध करते हैं । राज्य सरकारें , जिनकी सीमा तिब्बत (चीन) से लगती है, वे केन्द्र सरकार से बार बार आग्रह कर रही हैं कि सीमाओं पर आधारभूत संरचनाओं को चुस्त दुरुस्त किया जाए,. क्योंकि सीमा विवादों को ज्यादा नुकसना सीमांत क्षेत्रों को ही उठाना पडता है ।

हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रो. प्रेम कुमार धूमल केन्द्र सरकार से अनेक बार लिखित आग्रह कर चुके हैं कि पठानकोट-जोगेन्द्र नगर लाइन को ब्रोड गैज किया जाए और भनुप्पली से मंडी तक रेल पटरी बिछा कर उसे लेह तक ले जाया जाए ताकि सीमांत प्रदेशों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके । ध्यान रहे चीन अपनी रेल लाइन को ल्हासा तक ले आया है । उसे भारत व नेपाल की सीमा तक आते हुए ज्यादा वक्त नहीं लगेगा । इसके बावजूद हिमाचल प्रदेश की रेल लाइन की मांग को केन्द्र सरकार अपने क्षुद्र राजनैतिक चश्मे से देखती है और उसके लिए बजट का प्रावधान करने के लिए तैयार नहीं है । यदि देश की सुरक्षा का प्रश्न को भी केन्द्र सरकार दलीय स्वार्थों से देखेगी तो परिणाम का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है । अरुणाचल प्रदेश व जम्मू कश्मीर प्रदेश के मुख्यमंत्री सार्वजनिक तौर पर चीनी सेना की घुसपैठ की सूचना देते हैं और केन्द्र सरकार उसे नकारने में ही अपनी कूटनीतिक सफलता मानती है , जिसके चलते चीन सरकार को इस घुसपैठ को आधिकारिक तौर पर नकारने की भी जरुरत नहीं पडती ।
चीन से उत्पन्न सीमांत खतरे को लेकर भारत सरकार की इस चुप्पी के अनेक कारणों में से एक कारण यह भी है कि विदेश मंत्रालय में अभी भी पणिक्कर की शिष्य़ मंडली प्रभावी भूमिका में बैठी है । उनकी दृष्टि में चीन जिन क्षेत्रों की मांग कर रहा है उन्हें दे लेकर उसके साथ समझौता कर लेना चाहिए । लेकिन संभावित जन आक्रोश के खतरे को भांप कर वह ऐसा कहने का साहस तो नहीं जुटा पाते । अलबत्ता चीनी आक्रामक कृत्यों पर परदा डालने का काम अवश्य करते रहते हैं । चीन नीति को लेकर पंडित नेहरु का नाम लेकर रोने से ही कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती । यदि चीन अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा बंद नहीं करता तो भारत सरकार तिब्बत को विवादास्पद मसला क्यों नहीं मान सकती । तिब्बत में तिब्बती लोग स्वतंत्रता हेतु संघर्ष कर रहे हैं । भारत सरकार उन्हें कूटनीतिक समर्थन तो दे ही सकती है । जब चीन के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति दिल्ली आते हैं, तो उनसे आग्रह कर सकती है कि तिब्बत समस्या सुलझाने के लिए दलाई लामा से बातचीत करे ।
यदि चीन जम्मू कश्मीर व अरुणाचल प्रदेश के लोगों को भारतीय पासपोर्ट पर बीजा देने से इंकार करता है तो भारत सरकार भी तिब्बत और पूर्वी तुर्कीस्तान के लोगों को चीनी पासपोर्ट पर बीजा न देकर साधारण कागज पर बीजा दे सकती है । चीन के मामले में भारत को केवल प्रतिक्रिया और औपचारिक विरोध दर्ज तक सीमित न रह कर स्वतंत्र नीति का अनुसरण करना होगा । सुब्रमण्यन स्वामी ने अपनी पुस्तक इंडियाज चाइना पर्सपेक्टिव में एक महत्वपूर्ण घटना का वर्णन किया है । चीन के प्रधानमंत्री ने अमेरिकी राष्ट्रपति को कहा था चीन दो तीन साल में एक बार भारतीय सीमा का अतिक्रमण केवल इस लिए करता है ताकि भारतीय प्रतिक्रिया का अंदाजा लगाया जा सके । अमेरिकी राष्ट्रपति के भारतीय प्रतिक्रिया के बारे में पूछने पर उसने हंस कर कहा था, वही ढुलमुल प्रतिक्रिया । भारत सरकार चीन के इस मनोविज्ञान को समझ कर भी अनजान बनने का पाखंड कर रही है और उधर अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, व जम्मू कश्मीर के लोग चीनी अतिक्रमण को लकेर दिल्ली से गुहार लगा रहे हैं । दिल्ली में कोई सुनने वाला है

आगे देखने से परहेज

विजय कुमार

भारत में सेक्यूलर नाम की एक प्रजाति है, जिसके लोग अनेक राजनीतिक दलों और सामाजिक, सांस्कृतिक संस्थाओं में पाए जाते हैं। इन लोगों का मत है कि भारत में मुसलमानों की सामाजिक और आर्थिक दुर्दशा के लिए यहां के हिन्दू जिम्मेदार हैं।

केन्द्र की सत्ता में बैठी मैडम कांग्रेस ने इसके लिए रंगनाथ मिश्र और सच्चर आयोग जैसे कई बिजूके खड़े किये, जिनका निष्कर्ष है कि मुसलमानों को आगे बढ़ाने के लिए हिन्दुओं को हर क्षेत्र में पीछे धकेलना आवश्यक है। अर्थात श्यामपट पर बनी रेखा को छोटा करने के लिए उसके बगल में बड़ी रेखा खींचने की बजाय उस रेखा को ही मिटाकर छोटा कर देना चाहिए। कांग्रेस के साथ-साथ भारत के अधिकांश राजनीतिक दल भी इसी प्रयास में लगे हैं। उन्हें लगता है कि इससे मुसलमानों की उन्नति भले ही न हो; पर मुस्लिम वोटों के कारण उनकी और उनके दल की उन्नति अवश्य हो जाएगी।

पर वे यह भूलते हैं कि यदि कोई व्यक्ति या समाज निश्चय कर ले कि वह आगे की बजाय सदा पीछे ही देखेगा, तो भगवान भी उसका वर्तमान और भविष्य नहीं संवार सकते। दुर्भाग्य से भारत के अधिकांश मुसलमान नेताओं ने यही निश्चय कर लिया है।

देवबन्द स्थित इस्लामी शिक्षा संस्थान ‘दारुल उलूम’ का नाम कौन नहीं जानता। इस नगर का मूल नाम देववन या देववृन्द था, जो बिगड़ते हुए देवबन्द हो गया। 1866 में स्थापित मदरसा दारुल उलूम सदा से ही अलगाव और कट्टरवादी विचारों का पोषक रहा है। मुस्लिम वोटों पर इसके प्रभाव के कारण अधिकांश राजनेता यहां आकर सिर झुकाना अपना परम धर्म समझते हैं। इसके पुराने छात्र न केवल भारत, अपितु दुनिया के अन्य देशों में भी मदरसों के मुखिया तथा मस्जिदों के इमाम आदि हैं।

ऐसे मदरसे के कुलपति प्रायः कट्टर विचारों के व्यक्ति ही होते रहे हैं; पर संस्थान के इतिहास में पहली बार गत दस जनवरी, 2011 को उसके कुलपति पद पर एक गुजराती मुसलमान, मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानिया चुने गये, जो केवल अरबी और फारसी ही नहीं, अंग्रेजी और गुजराती भी जानते हैं। उन्होंने एम.बी.ए जैसी डिग्री भी ली है, जिसे पाकर इन दिनों बड़ी संख्या में युवा वर्ग देश-विदेश में 40-50 हजार रु0 महीने की नौकरी कर रहे हैं। इसके बावजूद श्री वस्तानिया ने देवबंद में कुलपति बनना पसंद किया, इससे स्पष्ट है कि वे आधुनिक होने के बावजूद कट्टर भी हैं।

लेकिन उनके साथ ‘सिर मुंडाते ही ओले पड़ने’ वाली कहावत सत्य सिद्ध हो गयी। देवबंद में आते ही एक अंग्रेजी समाचार पत्र को दिया गया उनका साक्षात्कार समाचार पत्रों में प्रकाशित हो गया, जिसमें उन्होंने कहा था कि गुजरात के मुसलमान नरेन्द्र मोदी के शासन में बहुत प्रसन्न हैं। वहां चल रही विकास की योजनाओं का उन्हें भरपूर लाभ मिल रहा है। वह उसी प्रकार उन्नति कर रहे हैं, जैसे अन्य नागरिक। अतः मुसलमानों को चाहिए कि वे 2002 के प्रकरण को पीछे छोड़कर आगे बढ़ें। उन्होंने गुजरात के मुसलमानों से पढ़ने के लिए भी कहा, क्योंकि राज्य सरकार अन्य लोगों की तरह उन्हें भी नौकरी देने को तैयार है।

पर इसके कारण कट्टरपंथी मुसलमानों ने शोर मचा दिया। कुछ छात्रों ने मदरसे में ही धरना देकर तोड़फोड़ की। यद्यपि श्री वस्तानवी ने राजनेताओं की तरह मीडिया पर उनके साक्षात्कार को ठीक से प्रकाशित न करने का आरोप लगाया; पर बात बनी नहीं। इससे दुखी होकर श्री वस्तानवी वापस अपने घर चले गये। उन्होंने कहा कि मदरसे में ऐसा वातावरण नहीं है, जिसमें वे काम कर सकें। कुछ समय बाद होने वाली दारुल उलूम की प्रबंध समिति (शूरा) की बैठक में निर्णय होगा कि श्री वस्तानवी वहां रहेंगे या नहीं ?

यद्यपि संस्थान के उपकुलपति मौलाना अब्दुल खालिक मद्रासी तथा शूरा के सदस्य मौलाना अब्दुल कासिम के नेतृत्व में कुछ छात्रों और नेताओं ने इस प्रकरण को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है। उनके मतानुसार कुलपति श्री वस्तानवी को काम करने का अवसर मिलना चाहिए था। उनमें इस्लाम की मर्यादाओं के अन्तर्गत रहते हुए संस्थान की आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति को सुधारने की क्षमता है। उनका विरोध सार्वजनिक रूप से न करते हुए मदरसे की प्रबंध समिति के सामने करना चाहिए था। उन्होंने इस संबंध में समाचार पत्रों में दिये वक्तव्यों की भी आलोचना की।

श्री वस्तानवी एवं उनके समर्थक इसका दूसरा पक्ष सामने रखते हुए विवाद का कारण मदरसे की आंतरिक राजनीति को बताते हैं। चूंकि उनका चयन चुनाव से हुआ है, इसलिए मदरसे के जो लोग किसी और को कुलपति बनवाना चाहते थे, उन्होंने अपनी पराजय से निराश होकर इस वक्तव्य को हवा दी है। उन्होंने इस विवाद को खड़ा करने के लिए उर्दू मीडिया की भी आलोचना की है। यद्यपि अब श्री वस्तानवी के पक्षधर भी क्रमशः सबल और मुखर हो रहे हैं।

यहां दारुल उलूम की आतंरिक राजनीति के बारे में टिप्पणी करने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि अपवादस्वरूप ही कोई शिक्षा संस्थान इन दिनों गंदी राजनीति से मुक्त होगा। यह मदरसा सदा से पश्चिम उ0प्र0 में राजनीतिक रूप से प्रभावी मदनी परिवार के हाथों में रहा है। कोई भी शिक्षा संस्थान जब बहुत बड़ा हो जाता है, (मुहावरे की भाषा में जिसे नाक से भारी नथ या कान से भारी कुंडल होना कहते हैं), जब उसका बजट लाखों की बजाय करोड़ों में बनने लगता है, जब भवन, वाहन और अन्य भौतिक सुविधाओं की वहां भरमार हो जाती है, तो उसकी कुर्सियों पर कब्जा करने के लिए धनपतियों और राजनेताओं में होड़ लग जाती है। केवल शिक्षा संस्थान ही क्यों, अनेक सामाजिक और धार्मिक संस्थानों की भी यही दशा है। तो फिर देवबन्द का दारुल उलूम इससे कैसे बच सकता है ?

भारत में शिक्षा निजी और सरकारी दोनों प्रकार के संस्थानों द्वारा निर्देशित होती है। सरकारी विद्यालय शासन के पूर्ण नियन्त्रण में चलते हैं। जिन संस्थानों को सरकारी अनुदान मिलते हैं, उन पर भी शासन का परोक्ष नियन्त्रण रहता ही है; पर भारत में एक तमाशा अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों के नाम पर भी होता है। इन्हें सरकारी अनुदान तो भरपूर मिलता है; पर नियन्त्रण के नाम पर सरकार वहां कुछ नहीं कर सकती। इसलिए इन संस्थानों में शिक्षा कम और राजनीति अधिक होती है।

शिक्षा संस्थानों में सरकारी हस्तक्षेप हो या नहीं, और यदि हो तो कितना, यह एक अलग विषय है; पर जिस बात से नयी पीढ़ी और देश का भविष्य निर्धारित होता है, उसमें गंदी राजनीति प्रवेश न करे, इसका कुछ प्रबंध तो होना ही चाहिए।

लेकिन वस्तानवी प्रकरण ने एक बार यह फिर सिद्ध कर दिया है कि देश का आम मुसलमान सच को स्वीकार कर आगे देखने को आज भी तैयार नहीं है। श्री वस्तानवी ने केवल वह सच प्रकट किया था, जो गुजरात के सब मुसलमान अनुभव करते हैं। पिछले कई वर्ष से गुजरात देश में सबसे तेजी से प्रगति करने वाला राज्य है। दुनिया भर के उद्योगपति वहां उद्योग लगाना चाहते हैं। इनमें केवल हिन्दू ही नहीं, तो ईसाई और मुसलमान भी हैं। प्रतिवर्ष जनवरी मास में होने वाले सम्मेलन में दुनिया भर के लोग वहां हो रही प्रगति को अपनी आंखों से देखते हैं। भारत के शीर्ष मुसलमान धनपति श्री अजीम प्रेेमजी गुजरात में ही रहकर फल-फूल रहे हैं।

परन्तु मुसलमानों के सामने जब यह सच आता है, तो वे इसे गले के नीचे नहीं उतार पाते। वे आज भी एक हजार साल पुरानी उस मानसिकता में जी रहे हैं, जो उन्हें बताती है कि उनका जन्म भारत पर शासन करने और इसे मुस्लिम देश बनाने के लिए हुआ है। वे उसी उर्दू और अरबी-फारसी से चिपके रहना चाहते हैं, जो उन्हें ज्ञान-विज्ञान और आधुनिक दुनिया में हो रहे परिवर्तनों से दूर रखती है। वे परिवार नियोजन और पोलियो की दवा से दूर रह कर अपना और अपने बच्चों का हित करना नहीं चाहते।

वस्तानवी प्रकरण ने एक बार फिर सिद्ध किया है कि सच्चर, मिश्रा और आरक्षण जैसी चाहे जितनी बैसाखी लगा दी जाएं, भारत के मुसलमानों का उद्धार तब तक नहीं हो सकता, जब तक वे अपनी मानसिकता नहीं बदलेंगे। जिस दिन वे उन्हें पिछड़ा, निर्धन और अशिक्षित बनाये रखकर अपना उल्लू सीधा करने वाले मजहबी दलालों और राजनीतिक नेताओं को चौराहे पर मुर्गा बना देंगे, देश के अन्य नागरिकों की तरह उनकी भी उन्नति होने लगेगी।

राजपथ से रामपथ पर: आचार्य गिरिराज किशोर

विजय कुमार

विश्व हिन्दू परिषद के मार्गदर्शक आचार्य गिरिराज किशोर का जीवन बहुआयामी है। उनका जन्म 4 फरवरी, 1920 को एटा, उ.प्र. के मिसौली गांव में श्री श्यामलाल एवं श्रीमती अयोध्यादेवी के घर में मंझले पुत्र के रूप में हुआ। हाथरस और अलीगढ़ के बाद उन्होंने आगरा से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की। आगरा में श्री दीनदयाल जी और श्री भव जुगादे के माध्यम से वे स्वयंसेवक बने और फिर उन्होंने संघ के लिए ही जीवन समर्पित कर दिया।

प्रचारक के नाते आचार्य जी मैनपुरी, आगरा, भरतपुर, धौलपुर आदि में रहे। 1948 में संघ पर प्रतिबंध लगने पर वे मैनपुरी, आगरा, बरेली तथा बनारस की जेल में 13 महीने तक बंद रहे। वहां से छूटने के बाद संघ कार्य के साथ ही आचार्य जी ने बी.ए तथा इतिहास, हिन्दी व राजनीति शास्त्र में एम.ए किया। साहित्य रत्न और संस्कृत की प्रथमा परीक्षा भी उन्होंने उत्तीर्ण कर ली। 1949 से 58 तक वे उन्नाव, आगरा, जालौन तथा उड़ीसा में प्रचारक रहे।

इसी दौरान उनके छोटे भाई वीरेन्द्र की अचानक मृत्यु हो गयी। ऐसे में परिवार की आर्थिक दशा संभालने हेतु वे भिण्ड (म.प्र.) के अड़ोखर क१लेज में सीधे प्राचार्य बना दिये गये। इस काल में विद्यालय का चहुंमुखी विकास हुआ। एक बार डाकुओं ने छात्रावास पर धावा बोलकर कुछ छात्रों का अपहरण कर लिया। आचार्य जी ने जान पर खेलकर एक छात्र की रक्षा की। इससे चारों ओर वे विख्यात हो गये। यहां तक कि डाकू भी उनका सम्मान करने लगे।

आचार्य जी की रुचि सार्वजनिक जीवन में देखकर उन्हें अ0भा0 विद्यार्थी परिषद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और फिर संगठन मंत्री बनाया गया। नौकरी छोड़कर वे विद्यार्थी परिषद को सुदृढ़ करने लगे। उनका केन्द्र दिल्ली था। उसी समय दिल्ली वि0वि0 में पहली बार विद्यार्थी परिषद ने अध्यक्ष पद जीता। फिर आचार्य जी को जनसंघ का संगठन मंत्री बनाकर राजस्थान भेजा गया। आपातकाल में वे 15 मास भरतपुर, जोधपुर और जयपुर जेल में रहे।

1979 में मीनाक्षीपुरम कांड ने पूरे देश में हलचल मचा दी। वहां गांव के सभी 3,000 हिन्दू एक साथ मुसलमान बने। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इससे चिंतित होकर डा0 कर्णसिंह को कुछ करने को कहा। उन्होंने संघ से मिलकर ‘विराट हिन्दू समाज’ नामक संस्था बनायी। संघ की ओर से श्री अशोक सिंहल और आचार्य जी इस काम में लगे। दिल्ली तथा देश के अनेक भागों में विशाल कार्यक्रम हुए; पर धीरे-धीरे संघ के ध्यान में आया कि डा0कर्णसिंह और इंदिरा गांधी इससे अपनी राजनीति साधना चाहते हैं। अतः संघ ने हाथ खींच लिया। ऐसा होते ही वह संस्था भी ठप्प हो गयी। इसके बाद अशोक जी और आचार्य जी को विश्व हिन्दू परिषद के काम में लगा दिया गया।

1980 के बाद इन दोनों के नेतृत्व में परिषद ने अभूतपूर्व काम किये। संस्कृति रक्षा योजना, एकात्मता यज्ञ यात्रा, राम जानकी यात्रा, रामशिला पूजन, राम ज्योति अभियान, राममंदिर का शिलान्यास और फिर छह दिसम्बर को बाबरी ढांचे के ध्वंस आदि ने विश्व हिन्दू परिषद को नयी ऊंचाइयां प्रदान कीं। आज विश्व हिन्दू परिषद गोरक्षा, संस्कृत, सेवा कार्य, एकल विद्यालय, बजरंग दल, दुर्गा वाहिनी, पुजारी प्रशिक्षण, मठ-मंदिर व संतों से संपर्क, परावर्तन आदि आयामों के माध्यम से विश्व का सबसे प्रबल हिन्दू संगठन बन गया है।

विश्व हिन्दू परिषद के विभिन्न दायित्व निभाते हुए आचार्य जी ने इंग्लैंड, हालैंड, बेल्जियम, फ्रांस, स्पेन, जर्मनी, रूस, नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क, इटली, मारीशस, मोरक्को, गुयाना, नैरोबी, श्रीलंका, नेपाल, भूटान, सिंगापुर, जापान, थाइलैंड आदि देशों की यात्रा की है। वृद्धावस्था में अनेक रोगों से घिरे होने पर भी उनकी सक्रियता बनी है। ईश्वर उन्हें स्वस्थ रखे, यही कामना है।

जनता के पैसों की होली खेलने वालों को सिखाना होगा सबक


लिमटी खरे

अस्सी के दशक के उपरांत भारत गणराज्य में भ्रष्टाचार की जड़ें तेजी से पनपना आरंभ हुईं थीं। तीस सालों में भ्रष्टाचार का यह बट वृक्ष इतना घना हो चुका है कि इसकी छांव में नौकरशाह, जनसेवक और मीडिया के सरपरस्त सुकून की सांसे ले रहे हैं, किन्तु आम जनता की सांसे इस पेड़ के नीचे सूरज की रोशनी न पहुंच पाने के कारण मचे दलदल में अवरूद्ध हुए बिना नहीं हैं।

भारत गणराज्य के अब तक के सबसे बड़े घोटाले अर्थात टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले के मुख्य आरोपी अदिमुत्थू राजा को केंद्रीय जांच ब्यूरो ने तेरह महीने की लंबी मशक्कत और खोज के बाद गिरफ्तार कर लिया। राजा के खिलाफ सीबीआई ने 21 अक्टूबर 2009 को टूजी मामले में जांच के लिए मामला दर्ज किया था। इसके बाद सहयोगी दलों के दबाव के चलते कांग्रेस नीत केंद्र सरकार ने इस मामले की फाईल को लटका कर रखा। विपक्ष ने जब संसद नहीं चलने दी तब कांग्रेस को होश आया और बजट सत्र में फजीहत से बचने के लिए सरकार ने सीबीआई को इशारा किया और तब जाकर कहीं राजा को सीखचों के पीछे ले जाया जा सका। राजा के साथ पूर्व टेलीकाम सचिव सिद्धार्थ बेहुरा और राजा के तत्कालीन निज सचिव आर.के.चंदोलिया को भी सीबीआई ने धर लिया है।

टेलीकाम सहित सारे के सारे घपले घोटालों को इतिहास की पाठ्यपुस्तक के अध्याय के तौर पर ही समझा जाए। द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (द्रमुक) कोटे के मंत्री दयानिधि मारन के त्यागपत्र के उपरांत 16 मई 2007 आदिमत्थू राजा को वन एवं पर्यावरण से हटाकर संचार मंत्री बना दिया गया। 25 अक्टूबर 2007 को केंद्र ने मोबाईल सेवाओं के लिए टूजी स्पेक्ट्रम की नीलामी की संभावनाओं को सिरे से खारिज कर दिया। इसके उपरांत 15 नवंबर 2008 को तत्कालीन केंद्रीय सतर्कता आयुक्त प्रत्युष सिन्हा ने अपनी आरंभिक रिपोर्ट में इसमें अनेक खामियों का हवाला देतेह हुए दूरसंचार अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही करने की अनुशंसा की थी।

जब घोटाला हुआ तब केंद्र की सरकार चिर निंद्रा में लीन थी। इसके बाद बरास्ता नीरा राडिया यह घोटाला प्रकाश मंे आया। 21 अक्टूबर 2009 को सीबीआई ने टूजी स्पेक्ट्रम मामले में जांच के लिए मामला दर्ज कर लिया। इसके अगले ही दिन 22 अक्टूबर को सीबीआई ने दूरसंचार महकमे के कार्यालयों पर छापामारी की। इसके एक साल बाद 17 अक्टूबर 2010 को नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने दूरसंचार विभाग को अनेक नीतियों के उल्लंघन का दोषी पाया। नवंबर 2010 में विपक्ष ने एकजुट होकर दूरसंचार मंत्री ए.राजा को हटाने की मांग कर डाली। चारों ओर से दबाव में आई केंद्र सरकार को मजबूरन 14 नवंबर को राजा का त्यागपत्र मांगना ही पड़ा। 15 नवंबर को संचार मंत्रालय का कार्यभार कपिल सिब्बल को सौंप दिया गया।

राजा पर आरोपों की बौछारें होती रहीं और बिना रीढ़ के समझे जाने वाले देश के प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह इतना साहस नहीं जुटा सके कि वे राजा से तत्काल त्यागपत्र मांगकर उन्हें सीखचों के पीछे भेज सकें। यक्ष प्रश्न तो यह है कि अगर एक सौ छियत्तर लाख करोड़ रूपए का नंगा नाच नाचा गया तो वह पैसा गया कहां? राडिया मामले में अनेक मंत्रियों की गर्दन नपना अभी बाकी है। यही आलम कामन वेल्थ गेम्स का रहा। प्रधानमंत्री डॉ.सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी की आंखों के सामने जनता के गाढ़े पसीने की कमाई को हवा मंे उड़ा दिया गया, और ये दोनों चुपचाप ही बैठकर जनता के पैसे पर डलते डाके को देखते रहे। अनेक आरोप तो सोनिया गांधी के इटली वाले परिवार पर भी लगे हैं। जब कामन वेल्थ गेम्स आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी पर आरोप लगे तो उन्होंने सरकार को हड़काया कि हमाम में वे अकेले नंगे नहीं हैं। फिर क्या था, कलमाड़ी पर शिकंजा ढीला कर दिया गया। आदर्श हाउसिंग सोसायटी में नाम आने के बाद भी विलासराव देशमुख और सुशील कुमार शिंदे को सोनिया गांधी ने ए रेंक दिया है, जो आश्चर्यजनक है।
सरकार में मंत्रियों के बड़बोलेपन का आलम यह रहा कि संचार मंत्रालय का भार संभालते ही मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने तो सरकार के अब तक निष्पक्ष रहे आडीटर कैग की विश्वसनीयता पर ही प्रश्न चिन्ह लगा डाले। देशवासी सकते में थे, कि आखिर हो क्या रहा है? क्या सरकारी तंत्र में खोट है या सरकार चलाने वाले नुमाईंदों की नजरों में? अंततः राजा की गिरफ्तारी ने दूध का दूध पानी का पानी कर दिया। अब सिब्बल मुंह छुपाते घूम रहे हैं।

अब जबकि राजा सीखचों के पीछे हैं तब केंद्र सरकार के नुमाईंदों पर जनता के धन के अपराधिक दुरूपयोग का मामला चलना चाहिए, क्योंकि सरकार के अडियल रवैए के चलते ही संसद का शीतकालीन सत्र बह गया और देश के गरीबों के खून पसीने के लाखों करोड़ों रूपए उसमें डूब गए। सरकार के नुमाईंदों का तो शायद कुछ न गया हो, उनकी जेबें पहले से अधिक भारी हो गई हों, पर इसका सीधा सीधा बोझ तो आम जनता पर ही पड़ने वाला है।

इसके पहले आजाद भारत में अनेक मंत्रियों को सीखचों के पीछे भेजा जा चुका है। 1991 से 1996 तक संचार मंत्री रहे सुखराम इसकी जद में आ चुके हैं। पूर्व में 16 अगस्त 1996 में तत्कालीन केंद्रीय संचार मंत्री सुखराम के दिल्ली स्थित आवास पर सीबीआई ने छापा मारकर उनके पास से पोने तीन करोड़ रूपए नकद बरामद किए थे। इनके हिमाचल स्थित आवास से सवा करोड़ रूपए भी मिले थे। इन्हें 18 सितम्बर 1996 को गिरफ्तार किया गया था।

तांसी जमीन घोटाले में तमिलनाडू की मुख्यमंत्री रह चुकी जयललिता को अक्टूबर 2000 में चेन्नई की एक अदालत ने सजा सुनाई थी। इसके अलावा अरूणाचल प्रदेश के सीएम रहे गेगांप अपांग को एक हजार करोड़ रूपए के पीडीएस घोटाले में गिरफ्तार किया गया था। झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा पर चार हजार करोड़ रूपयों के घोटाले का आरोप है। इन्हें सितम्बर 2009 में गिरफ्तार किया गया था, वे आज भी जेल में ही हैं। कोयला मंत्री रहे शिबू सोरेन को अपने ही सचिव के अपहरण और हत्या की साजिश रचने के आरोप में दोषी ठहराया था। सोरेन पर आरोप था कि उन्होंने अपने सचिव शशिनाथ झा के साथ यह सब किया था। अदालत के फैसले के बाद सोरेन को गिरफ्तार कर लिया गया था। बीसवीं सदी में स्वयंभू प्रबंधन गुरू बनकर उभरे लालू प्रसाद यादव ने तो कमाल ही कर दिया था। चारा घोटाले के प्रमुख आरोपी लालू यादव को 30 जुलाई 1997 को 134 दिनों के लिए, 28 अक्टूबर 1998 को 73 दिन के लिए, फिर पांच अप्रेल 2000 को 11 दिनों के लिए जेल भेजा गया था। इन पर आय से अधिक संपत्ति का मामला है। बावजूद इसके ये सारे नेता आज भी अपनी कालर उंची करके सरकार में शामिल होने लालायित हैं।

कहने को तो देश की जांच एजेंसियां भ्रष्टाचारियों, कालाबाजारियों पर कड़ी कार्यवाही का दिखावा करती हैं। याद नहीं पड़ता कि सुखराम के अलावा किसी अन्य का प्रकरण परवान चढ़ पाया हो। एक दूसरे की पूंछ अपने पैंरों तले दबाकर रखने वाले सियासी दलों के नेताओं द्वारा जनता को इस तरह की कार्यवाहियों के जरिए भरमाया जाता है।

केंद्र सरकार इस बात को समझ नहीं पा रही है कि भ्रष्टाचार से आम जनता भरी बैठी है। रियाया चाह रही है कि भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कड़े से कड़े कदम उठाए जाएं। अगर केंद्र या राज्यों की सरकारांे ने भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कड़े कदम नहीं उठाए तो भरी हुई जनता सड़कों पर उतर सकती है, और तब उपजने वाली स्थिति इतनी बेकाबू होगी जिससे निपटना किसी के बूते की बात नहीं होगी।

विकराल चुनौती बन गई है आंतरिक सुरक्षा


लिमटी खरे

केंद्र और राज्यों की सरकारों के बीच समन्वय के अभाव का परिणाम आज साफ तौर पर देखने को मिल रहा है। अस्सी के दशक से आंतरिक सुरक्षा में गड़बड़ियां प्रकाश में आने लगी थीं। जम्मू काश्मीर के साथ ही साथ पंजाब, असम बुरी तरह सुलगा। कंेद्र सरकार ने इसके शमन के लिए प्रयास किए। मामला शांत हुआ। इसके बाद देश मंे अलगाववाद, क्षेत्रवाद, माओवाद, भाषावाद, नक्सलवाद ने तेजी से पैर पसारे।

नक्सलवाद को खाद पानी कहां से मिलता है, इस बारे में सरकारें बहुत ही अच्छी तरह वाकिफ हैं। आर्थिक विषमता ही किसी भी लड़ाई का प्रमुख कारक हुआ करती है। अस्सी के दशक में संयुक्त मध्य प्रदेश में नक्सलवाद की जड़ें काफी हद तक गहरी हो चली थीं। अलगाववाद, क्षेत्रवाद, माओवाद, भाषावाद, नक्सलवाद आदि के पनपने के पीछे कारण क्या है? क्या शासक इस बात से अंजान हैं? जाहिर है इसका उत्तर होगा सरकारें सब कुछ जानती हैं।

नक्सलवाद प्रभावित बालाघाट और मण्डला जिलों के जंगलों, आदिवासियों आदि से चर्चा के बाद हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि इस सबके पीछे सिर्फ और सिर्फ सरकारी तंत्र ही जवाबदार है। नक्सलवादियों के निशाने पर कौन हैं? जाहिर है पुलिस, वन, राजस्व महकमे के लोग। आखिर इन विभागों को नक्सलवादियों ने क्यों चुना है? हालात बताते हैं कि इन तीनों ही महकमों का आम जनता से रोजाना ही वास्ता पड़ता है। यह बात भी जगजाहिर है कि इन तीनों ही महकमों के लोगों को चढ़ोत्री चढ़ाए बिना कोई काम संभव नहीं है।

जब आम जनता को यह पता चलता है कि उनका शोषण करने वालों को ‘कोई‘ दण्ड दे रहा है तो उसका इस ‘कोई‘ का साथ देना वाजिब है। उन्हें लगने लगता है कि उन्हें न्याय दिलाने के लिए कोई तो आगे आया है। वरना कोई अनजान आदमी आकर समूचे गांव को अपने बस में कैसे कर लेता है? गांव के गांव इनका साथ देने कैसे तैयार हो जाते हैं? कैसे इनकी फौज के लिए जुझारू सिपाही मिलते हैं जो मरने मारने को तैयार हो जाते हैं? हमारे नीति निर्धारकों को इस बारे में सोचना होगा?

आंतरिक सुरक्षा के संबंध में समाज, आम आदमी और सरकार की भूमिका क्या और कैसी होना चाहिए? इस बारे में अब तक चिंतन नहीं होना दुर्भाग्य का ही विषय माना जाएगा। सरकारों, गैर सरकारी संगठनों, राजनैतिक दलों आदि की संगोष्ठियों में भी इस गंभीर विषय पर चर्चा नहीं किए जाने से साफ जाहिर हो जाता है कि इन सभी को आम आदमी की कितनी परवाह है।

आंतरिक सुरक्षा के लिए सरकारी तंत्र को जवाबदार इसलिए ठहराया जा रहा है क्योंकि विसंगतियां सरकारी तंत्र के कारण ही उपज रही हैं। आजादी के पहले के परिदृश्य में अंग्रेजों की लालफीताशाही के कारण समाज एकजुट हुआ, इतिहास साक्षी है इसी दौरान गांव में धनाड्य वर्ग ने जब भी कहर बरपाया है, इससे डकैतों की उत्पत्ति हुई है। कुल मिलाकर सामाजिक व्यवस्था का ढांचा जब भी गड़बड़ाया है तब तब अनैतिक रास्तों को अपनाकर अपना शासन स्थापित करने के प्रयास हुए हैं।

वर्तमान में आंतरिक सुरक्षा एक अत्यंत गंभीर प्रश्न बनकर उभर चुकी है, जिसकी तरफ सरकार का ध्यान गया तो है, पर हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि अपने वोट बैंक की जुगत में सरकारों ने इस मुद्दे के शमन के लिए गंभीरता से प्रयास नहीं किए हैं। यही कारण है कि देश में आतंकवाद, अलगाववाद, नक्सलवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद आदि का जहर तेजी से फैल चुका है। आप अगर महाराष्ट्र का ही उदहारण लें तो वहां शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के मराठी वाद के चलते लोगों का जीना मुहाल हुए बिना नहीं है। वोट बैंक के चलते सरकार मौन साधे हुए है।

हमारे विचार से इस मामले में काफी हद तक समाज भी दोषी है। समाज को भी इस तरह की व्यवस्था का प्रतिकार करना चाहिए। आम आदमी को भी इसके विरोध में स्वर बुलंद करने की आवश्यक्ता है। आखिर क्या कारण है कि आम आदमी अपना काम बिना रिश्वत के करवाने में अक्षम है। इसका उत्तर आईने की तरह साफ है। आज हमें भी जल्दी और नियम विरूद्ध काम करवाने की आदत सी हो गई है। हम कहीं भी जाते हैं तो चाहते हैं कि हमारा काम औरों से पहले, जल्दी और सुविधा के साथ हो जाए, इसके लिए हम हर कीमत देने को तैयार होते हैं। इसका भोगमान गरीब गुरबों को भुगतना होता है, जिनके पास संसाधनों का अभाव है।

देश की संवैधानिक व्यवस्था भी इसके लिए काफी हद तक दोषी करार दी जानी चाहिए। देश में आरक्षण को आजादी के उपरांत दस साल के लिए लागू किया गया था, जिसे आज 62 सालों बाद भी बदस्तूर जारी रखा गया है। 62 वर्षों में एक आदमी वृद्धावस्था को पा लेता है। सरकारी नौकर को भी 62 साल में सेवानिवृत किया जाता है। हमें यह कारण खोजना होगा कि आखिर क्या वजह है कि छः दशकों बाद भी हम आरक्षण पाने वालों को समाज और राष्ट्र की मुख्यधारा में नहीं ला पाए हैं? हमें इस मसले को गंभीरता के साथ लेकर सोचना होगा, मनन करना होगा और फिर प्रयास करने हांेगे कि हम इस विसंगति को दूर करें।

आखिर क्या वजह है कि आज देश में जाति के बजाए आर्थिक आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा रहा है? आखिर क्या वजह है कि सरकारी नौकरों को सेवानिवृत्ति के उपरांत पेंशन देने से परहेज किया जा रहा है और जनप्रतिनिधियों को आज भी भारी भरकम पेंशन दी जा रही है। सवाल यह है कि आखिर यह पैसा आता कहां से है? जनता के गाढ़े पसीने की कमाई ही है यह जिस पर जनता के नुमाईंदे एश किया करते हैं।

बहरहाल लंबे समय के उपरांत केंद्र सरकार ने आंतरिक सुरक्षा की सुध ली है। मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में वजीरे आजम डॉ.मनमोहन सिंह ने जिन बातों को रेखांकित किया वे संभवतः गैरजरूरी ही थीं। वस्तुतः आंतरिक सुरक्षा की रीढ़ सुरक्षा बल, खुफिया एजेंसियों का सूचना तंत्र है, जो तहस नहस ही पड़ा हुआ है। जनता और पुलिस के बीच संवादहीनता के चलते जरायमपेशा लोगों के लिए बेहतर उपजाउ माहौल तैयार हो रहा है। छोटे मोटे अपराध से ग्रसित आम जनता थाने की चारदीवारी लांघने से डरती है। अपराधियों में पुलिस का खौफ न के बराबर है, पर जनता के मानस पटल पर पुलिस का कहर आतंक बरपा रहा है। जब तक जनता और पुलिस के बीच दूरी कम नहीं होगी, आंतरिक सुरक्षा के लिए लाख कोशिशें कर ली जाएं बेकार ही होंगी।

वैसे प्रधानमंत्री का यह कहना शत प्रतिशत सही है कि आज समाज की सुरक्षा पुराने पड़ गए कानूनों के माध्यम से ही की जा रही है। पुलिस सुधार के लिए न जाने कितनी कमेटियां, न जाने कितने आयोग बैठ चुके हैं, इन सबकी सिफारिशें धूल खा रही हैं। मनमोहन सिंह किस बात से डर रहे हैं। उनके पास पुलिस सुधार की सिफारिशें हैं तो उन्हें लागू किया जाना चाहिए। वजीरे आजम इसके लिए किस महूर्त का इंतजार कर रहे हैं, यह बात समझ से ही परे है।

भारत गणराज्य के महाराष्ट्र सूबे में शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के गुर्गे सरेराह आतंक बरपाते घूम रहे हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश के निवासियों को वहां से भाग कर आना पड़ रहा है, उधर कांग्रेस को इसके पीछे भी सियासत की ही पड़ी है। बाला साहेब ठाकरे और राज ठाकरे ने दिखा दिया है कि आजाद भारत में तंत्र का नहीं उनका राज कायम है। किसी में इतनी दम नहीं कि राज या बाला साहेब की लगाम कस सकें।

आंतरिक सुरक्षा के मामले में देश में सभी राज्यों को एक ही लाठी से हांका जाता है, जो अनुचित है। पूर्वोत्तर क्षेत्रों की जमीनी हकीकत और भोगोलिक परिस्थियां अलग है, तो दक्षिण, पश्चिम की अलग। आज विदेशी ताकतें सूचना और प्रोद्योगिकी का इस्तेमाल कर अपने रास्ते आसान करती जा रहीं हैं, और हमारे सुरक्षा बल या पुलिस वही बाबा आदम के जमाने में ही जी रहे हैं। हमें इसे बदलना ही होगा।

पुलिस या सुरक्षा बलों की कार्यप्रणाली को इक्कीसवीं सदी के हिसाब से ढाले बिना आंतरिक सुरक्षा की चर्चा बेमानी है। अगर हम एसा नहीं कर पाए तो इस तरह मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन को आहूत कर करोड़ों रूपयों को बहाने के अलावा हम कुछ और नहीं करने वाले। इसका नतीजा निश्चित तौर पर सिफर ही होगा।

कुल मिलाकर अगर किसी भी राज्य में आंतरिक सुरक्षा को मजबूत किया जाना है तो उसके लिए राज्य को बाकायदा अपनी एक ठोस नीति बनाना सुनिश्चित करना होगा। महज नीति बनाने से कुछ होने वाला नहीं, इसके लिए उस नीति का ईमानदारी से पालन कैसे हो? इस बारे में कठोर कदम उठाने की जरूरत होगी। इस सबके लिए जरूरी है सरकार में बैठे नुमाईंदो, राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि और समाज के पायोनियर (अगुआ) की ईमानदार पहल की, जिसकी गुंजाईश बहुत ज्यादा दिखाई नहीं पड़ती।

धनकुबेरों के सामने घुटने टेकती सरकार


लिमटी खरे

भारत गणराज्य की सरकारों के लिए इससे अधिक शर्म की बात और क्या होगी कि देश के हर एक आदमी के गाढ़े पसीने की कमाई पर सरेआम डाका डालकर धनपति बने लोगांे ने अपनी अकूत दौलत को देश से बाहर के बैंकों में जमा कर रखा है, और सरकार उनके सामने बौनी ही नजर आ रही है। स्वयंभू योग गुरू बाबा रामदेव ने पिछले दो सालों से स्विस बैंक में जमा काला धन वापस स्वदेश लाने की हिमायत की जा रही थी। पहले तो लोगों को लगता था कि बाबा रामदेव की मति फिर गई है, बाद में जब बाबा ने गांव गांव में इस अलख को जगाया तब लगा कि वाकई हमारे कर्णधारों ने कितना काला धन विदेशों जमा कर रखा है।

भ्रष्टाचार, अनाचार, योनाचार, घपले घोटाले अब तो किंवदतीं से बनकर रह गए है। चालीस के पेटे में पहुंच चुके लोगों की स्मृति पटल से पराधीनता और आजादी के किस्से विस्मृत नहीं हुए होंगे। उन्हें यकीनन लगता होगा कि सालों साल देश पर राज करने के बाद भी महमूद गजनवी या ब्रितानियों ने देश को इस कदर नहीं लूटा होगा जिस कदर आजादी के उपरांत हमारे अपने ही लोगों द्वारा सतत लूटा जा रहा है। देखा जाए तो सरकार की जवाबदारी होती है हर नागरिक को हर तरीके से सुरक्षा प्रदाय करने की। विडम्बना ही कही जाएगी कि भारत सरकार देश के नागरिकों को आर्थिक, सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने में पूरी तरह अक्षम रही है।

यक्ष प्रश्न तो यह है कि आखिर इन धनपतियों के पास अकूत दौलत आई कहां से? क्या इनके पास कोई टकसाल है? जी नहीं आम भारत वासी सुबह उठकर जो चाय पीता है वहां से लेकर रात को सोने तक चाय, पानी, बिजली, परिवहन, खान पान आदि पर जो कर देता है, उससे ही देश चलता है, उसी से देश के जनसेवकों के एशो आराम की सुविधाएं जुगाड़ी जाती हैं। उसी से देश के विकास के प्रोग्राम का खाका खीचा जाता है, फिर उसमंे भ्रष्टाचार कर पैसा बनाया जाता है, जो काले धन के तौर पर देश और विदेश के बैंकों में जमा होता है।

कितने आश्चर्य की बात है कि देश की शीर्ष अदालत को इस बारे मेें सरकार से जवाब तलब करना पड़ा। देश के जाने माने अधिवक्ता राम जेठमलानी कहते हैं कि वे जानते हैं कि किसका कितना काला धन विदेशों में जमा है। सवाल फिर वही है कि अगर जेठमलानी जानते हैं तो वे किस मुहूर्त का इंतजार कर रहे हैं इन राष्ट्रदोहियों के नाम सार्वजनिक करने में। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से पूछा है कि अगर सरकार को पता चलता है कि एक गरीब आदमी ने बेहिसाब पैसा विदेशी बैंकों में जमा करवाया है तो वह उस आदमी का क्या करेगी? क्या सिर्फ उससे टेक्स वसूलकर ही उसे छोड़ दिया जाएग? क्या सरकार इस धन के स्त्रोत को पता करने का प्रयास नहीं करेगी? क्या इस पैसे का उपयोग देश के खिलाफ षणयंत्रों में नहीं हो सकता? और भी न जाने कितने प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही हैं।

दुनिया के चौधरी अमेरिका ने इस मामले में बहुत ही सख्त नियम बनाकर रखे हैं। अमेरिका के यूएसएस पेट्रियाट एक्ट के तहत विदेशों में जमा करने वालों का खुलासा करने का प्रावधान है। इसमें अमरिकी नागरिक की संपत्ति तक जप्त करने का प्रावधान भी है। वहां की सरकार बैंकों से अपने नागरिकों के जमा धन का ब्योरा मांग सकती है। यही कारण है कि अमेरिकी नागरिक विदेशों में जमा काले धन के मामले में काफी हद तक निचली पायदान पर हैं।

एक अनुमान के अनुसार भारत का 1400 अरब डालर, चीन का 96 अरब डाल, यूक्रेन का 100 अरब डालर, इंग्लेण्ड का 390 अरब डालर, रूस का 470 अरब डालर स्विस बैंक में जमा है। आंकड़ों पर अगर गौर फरमाया जाए तो भारत गणराज्य का साढ़े बाईस लाख करोड़ रूपया विदेशों में जमा करवाया गया है, जिसका दो तिहाई हिस्सा इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में जमा करवाया गया है।

बाबा रामदेव के काले धन को वापस लाने के एजेंडे पर अब कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी भी चल पड़े हैं। राहुल गांधी ने भी काले धन को विदेशों में छुपाने वालों के खिलाफ सख्त कार्यवाही की वकालत की है। उन्होंने कहा है कि हमें सुनिश्चित करना होगा कि देश का पैसा देश में ही रहे विदेश मंे न भेजा जाए। लाख टके का सवाल यही है कि नेहरू गांधी परिवार के इशारे पर ठुमके लगाने वाली केंद्र सरकार को क्या सोनिया और राहुल गांधी कड़े कदम उठाने पर बाध्य कर पाएंगे। हालात देखकर तो यही लगता है कि बाबा रामदेव को विदेश के काले धन एजेंडे में मिलने वाले पालीटिकल माईलेज से घबराकर राहुल गांधी ने भी यही आलाप छेड़ दिया है।

बहरहाल केंद्र सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय संधि का रोना रोकर उच्च न्यायलय में हाथ खड़े कर दिए हैं, जिसकी निंदा की जानी चाहिए। केंद्र ने बेहिसाब संपत्ति की घोषणा के लिए स्वेच्छा के दरवाजे खोलने के संकेत दिए हैं। लगता है सरकार इस मामले की गंभीरता को समझने के बजाए लोगों का ध्यान इससे भटकाना चाह रही है। देश में भ्रष्टाचार चरम पर है। देश का कोई भी सूबा एसा नहीं है जहां कि राजनेताओं, नौकरशाहों, व्यापारियों की तिजोरियों नोट न उगल रही हों। लगता है कि सरकार ने इनकी सहूलियत के लिए ही पांच सौ और एक हजार के नोट प्रचलन में लाए हैं, ताकि अधिक राशि को कम स्थान पर संग्रहित किया जा सके। सरकार की इच्छा शक्ति अगर तगड़ी है तो उसे पांच सौ और एक हजार के नोटों का चलन तत्काल ही बंद कर देना चाहिए वह भी बिना किसी नोटिस के, क्योंकि पांच सौ और एक हजार तक के नोट आम आदमी के काम के हैं ही नहीं। फिर वही स्थिति बनेगी जो पहले बनी थी, जब दस हजार के नोट बंद कर दिए गए थे। कालाबाजारियों ने बेकार हो चुके दस हजार के नोटों को जलाकर आग तापी थी। आज भी कमोबेश वही स्थिति बनी हुई है। सरकार अगर समय रहते कदम उठा ले तो ठीक वरना हालात के विस्फोटक होने में समय नहीं लगने वाला।

कांग्रेस में वंशवाद पसारेगा पैर

लिमटी खरे

कांग्रेस की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी द्वारा युवाआंे को आगे लाने की हिमायत भले ही जोर शोर से की जा रही हो, किन्तु जाने अनजाने मे वे अपनी ही तरह महाराष्ट्र प्रदेश में राजपुत्रों को सियासत में आने के मार्ग प्रशस्त करते नजर आ रहे हैं। सूबे में अमित देशमुख,सत्यजीत तांबे, राव साहेब शेखावत, प्रणिती शिंदे, नितेश राणे जैसे नेताआंे के पुत्र जल्द ही सियासत की बिसात पर कदम ताल करते नजर आएंगे। राहुल गांधी चाहते हैं कि गैर राजनैतिक पृष्ठभूमि वाले युवाओं को राजनीति में उभरने का मौका दिया जाए। इसके लिए निष्पक्ष तरीके से चुनाव करवाकर लोकसभा, विधानसभा, प्रदेशाध्यक्ष जैसे पदों के लिए युवाओं का चयन किया जाना है। 16 फरवरी तक महाराष्ट्र में सदस्यता अभियान चलाया जा रहा है, इसके उपरांत चुनाव कराया जाना सुनिश्चित है। राजनैतिक पंडितों का मानना है कि राज्य में स्थापित इन घाघ नेताओं के वारिसान अपने अपने पिताओं की लोकप्रियता का फायदा उठाकर उनके समर्थकों की फौज कार्यकर्ता के तौर पर खड़ी कर लेंगे, फिर अपने पक्ष में मतदान करवाकर अध्यक्ष के साथ ही साथ लोकसभा, विधानसभा की टिकिट भी हथिया लेंगे। हो सकता है राहुल गांधी को इस तरह का मशविरा देने वालों ने पहले ही अपनी अगली पीढ़ी का भविष्य सुरक्षित कर लिया गया हो। राहुल गांधी को सियासत भले ही विरासत मे मिली हो, पर वे राजनैतिक ककहरा से अभी अनिभिज्ञ ही लग रहे हैं।इटली का नाम न लो, अच्छा नहीं होगा

इटली का नाम आते ही कांग्रेस के नेताओं की भवें तन जाती हैं। इसका कारण कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी का इटली मूल का होना है। राकापां के प्रवक्ता डीपी त्रिपाठी ने जब इटली को गठबंधन सरकारों का घर बताया तो कांग्रेसी बिफर गए। दरअसल कांग्रेसी अपनी सुप्रीमो सोनिया को इटली से दूर रखना चाह रहे हैं। इतिहास साक्षी है कि युद्ध के बाद इटली में चार दर्जन गठबंधन सरकारें अस्तित्व में आई हैं, और सफल भी रही हैं। कांग्रेस के युवराज मंहगाई को गठबंधन सरकार से जोड़कर बयानबाजी कर रहे हैं जो केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार की राकांपा को रास नहीं आ रहा है। युवराज भूल जाते हैं कि सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी के कार्यकाल में जब कांग्रेस का एकछत्र राज कायम था तब मंहगाई ने पैर पसारे और जेपी आंदोलन का आगाज हुआ था। देखा जाए तो त्रिपाठी का कथन सही है, उन्होंने एक ही तीर से अनेक निशाने साध लिए हैं, जिनका जवाब कांग्रेस खोजने में लगी हुई है।

प्रणव के लिए ममता को मनाया सोनिया ने

कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी को प्रणव मुखर्जी का साथ देना मजबूरी ही माना जाता है, क्योंकि प्रणव दा ने उनके पति राजीव गांधी के मार्ग में अनेक मर्तबा शूल बोए थे। हाल ही में प्रणव मुखर्जी के पुत्र अभिजीत के लिए पश्चिम बंगाल की नोनहाटी या लवपुर सीट को सुरक्षित रखने अर्थात वहां से त्रणमूल कांग्रेस के प्रत्याशी को खड़ा न करने के मसले को लेकर सोनिया गांधी और ममता बनर्जी के बीच लंबी गुफ्त गू हुई। कांग्रेस की सत्ता और शक्ति के शीर्ष केंद्र 10, जनपथ के सूत्रों का कहना है कि सोनिया के आग्रह को ममता ने मान लिया है, पर किस शर्त पर? इसके जवाब में सूत्रों ने कहा कि पेट्रोल की बढ़ी हुई कीमतों को लेकर त्रणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी खासी खफा हैं। उन्होंने अपनी नाराजगी से सोनिया गांधी को आवगत करा दिया है। कोलकता की रायटर बिल्डिंग पर कब्जा जमाने का ख्वाब देख रहीं ममता के सामने पेट्रोल की बढ़ी कीमतें एक अवरोध बनकर उभर रही हैं। सूत्रों ने बताया कि दोनों ही महारानियों के बीच चर्चा का दौर जारी ही था कि अचानक ममता को खबर मिली कि मेदिनीपुर क्षेत्र में मकपा के कार्यकर्ताओं ने त्रणमूल कार्यकर्ताओं पर हमला बोल दिया। ममता ने वहीं चर्चा को विराम देते हुए वहां से रूखसती डाल दी। ममता की नाराजगी के उपरांत सोनिया ने तत्काल ही पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी को तलब किया। अब देखना है कि ममता के गुस्से के चलते देशवासी पेट्रोल की बढ़ी कीमतें देते हैं या फिर . . .।

तुम्हारा गोल गोल, हमारा गोल हाफ साईड

न्यायधीशों द्वारा ब्लाग्स और सोशल नेटवर्किंग वेव साईट के माध्यम से अपने विचार प्रस्तुत करना कंेद्र के गले नहीं उतर रहा है। केंद्रीय विधि मंत्रालय ने आचार संहिता का हवाला देकर सुप्रीम कोर्ट और समस्त उच्च न्यायलयों को पत्र लिखकर जवाब तलब किया है। गौरतलब होगा कि कर्नाटक के न्यायधीश शैलेंद्र कुमार ने सबसे पहले अगस्त 2009 में एक ब्लाग आरंभ किया था, जिस पर उन्होने सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम की आलोचना की थी। कोलेजियम वस्तुतः पांच न्यायधीशों का एक दल होता है, जो न्यायधीशों के स्थानांतरण और नियुक्ति करता है। केंद्र सरकार का मानना है कि अगर माननीय न्यायधीशों ने यह सिलसिला नहीं रोका तो आने वाले समय में इस बारे में केंद्र को कठोर कदम उठाने पर मजबूर होना पड़ सकता है। केंद्रीय विधि मंत्रालय द्वारा इस तरह के तुगलकी फरमान जारी करने के पहले यह बात जेहन में अवश्य ही लानी चाहिए थी कि केंद्र सरकार के पूर्व विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर ने आचार संहिता की चिंदी चिंदी उड़ाते हुए एक सोशल नेटवर्किंग वेब साईट पर अपने प्रशंसकों से न जाने क्या क्या शेयर किया था, यहां तक कि बतौर केंद्रीय मंत्री उन्होंने अपने आप को काम का बोझ तले दबे होने की बात भी कह दी थी। सवाल यह उठता है कि माननीय जनसेवक गोल मारे तो गोल और अगर कोई दूसरा गोल मारने जाए तो इन्हीं जनसेवकों में से एक उठकर सीटी बजा देगा और उसे हाफ साईड बताकर फाउल करार दे देगा।

विलास के सर पर कांटों भरा गिलास

आदर्श घोटाले में नाम आने के बाद भी ग्रामीण विकास सरीखा मलाईदार विभाग पाने वाले विलास राव देशमुख की पेशानी पर पसीनें की बूंदे देखकर लगने लगा है कि उनके सर पर कांटों भरा ताज रख ही दिया गया है। बजट सत्र में विलास राव देशमुख की अग्नि परीक्षा है। भूमि अधिग्रहण के मौजूदा कानून में उन्हें संशोधन करना ही है, वह भी उत्तर प्रदेश चुनावों के मद्देनजर। इसमें सबसे बड़ी अड़चन यह है कि त्रणमूल कांग्रेस इसके लिए किसी भी कीमत पर राजी होती नहीं दिख रही है। भूमि सुधार काननू में जरा भी बदलाव किया गया तो उसका असर पश्चिम बंगाल के चुनावों पर अवश्य ही पड़ेगा। इसके पहले विभाग के मुखिया रहे सी.पी.जोशी ने ममता बनर्जी को हरियाणा और गुजरात माडल भी दिखाया पर ममता इसमें हेरफेर को तैयार नहीं हैं। उधर ममता को बताया गया है कि मध्य प्रदेश में भूमि सुधार कानून में तब्दीली की तैयारी है, जिसमें किसान को उसकी भूमि पर लगने वाले उद्योग में भागीदारी सुनिश्चित की जा रही है। इससे उद्योग धंधे तो फलेंगे फूलेंगे ही साथ ही किसान के हितों का पूरा पूरा संरक्षण भी हो जाएगा। अब देशमुख पशोपेश में हैं कि वे आखिर ममता को मनाएं तो कैसे?

एमसीडी चुनाव: कशमकश जारी

अगले साल दिल्ली में नगर निगम चुनाव होने वाले हैं। देश की राजनैतिक राजधानी के निगम पर कब्जे के लिए सियासत बहुत तेज हो गई है। प्रमुख राजनैतिक दल कांग्रेस और भाजपा ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना ही लिया है। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कांग्रेस की कमान संभाल ली है। इसी तारतम्य में उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी से भेंट कर भावी रणनीति से उन्हें आवगत कराया। उधर भारतीय जनता पार्टी की वेतरणी को पार करवाने के लिए भाजपा के कद्दावर नेता वेंकैया नायडू ने दूसरा सिरा संभाल लिया है। नायडू ने साफ कह दिया है कि इस बार टिकिट उन्हीं पार्षदों को दी जाएगी, जिनकी कार्यप्रणाली से क्षेत्र की जनता संतुष्ट हो। 272 सीटांे वाली दिल्ली नगर निगम पर वर्तमान में भाजपा का कब्जा 170 सीटों के साथ है, वहीं कांग्रेस के खाते में महज 76 सीट ही हैं। चुनाव मई 2012 के पहले होना है। उन भाजपाई पार्षदों की रातों की नींद उड़ी हुई है, जिन्होंने इन चार सालों में सिर्फ मलाई ही काटी है। दिल्ली में प्रबुद्ध वर्ग आधिक्य में है, इसलिए कामन वेल्थ घोटाला, टूजी घोटाला और भ्रष्टाचार, अनाचार, दुराचार के साथ ही साथ दिल्ली में बढ़ता अपराध का ग्राफ कांग्रेस के लिए नकारात्मक ही साबित होने वाला है।

कहां गायब हो रहे हैं हरियाणावासी

हरियाणा सूबे से हर रोज पांच लोगों की ‘गुमइंसान‘ रिपोर्ट दर्ज हो रही है। हरियाणा पुलिस की आधिकारिक वेब साईट के आंकड़े बताते हैं कि सूबे से गायब होने वाले महिला और पुरूषों में साठ फीसदी से ज्यादा लोग 15 से 30 वर्ष की आयु वर्ग के हैं। पिछले आधे साल में सूबे से 800 से ज्यादा लोग गायब हैं, जिनमें सबसे ज्यादा फरीदाबाद से 91 हैं। आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो 16 जुलाई से 16 दिसंबर तक हिसार से 60, झज्जर, जींद से 45-45, सिरसा से 44, कुरूक्षेत्र से 39, पानीपत से 39, रोहतक से 29, पंचकुला से 26, कैथल से 24, भिवानी से 23, रेवाड़ी से 20, पलवल से 16 एवं मेवात से 2 लोग गायब हुए हैं। इतने व्यापक पैमाने पर लोगों के गायब होने से लोग हैरान और पुलिस परेशान है। माना जा रहा है कि प्रेम प्रसंग के चलते युवा हरियाणा से भाग रहे हैं, वहीं दूसरी ओर मानव तस्करी की संभावनाओं से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। दिल्ली से सटे हरियाणा राज्य की पुलिस का अन्य सूबों की पुलिस के साथ बेहतर तालमेल न होने के चलते लोगों की पतासाजी का काम मंथर गति से ही चल रहा है।

पश्चिम बंगाल चुनावों का खामियाजा भुगत रही है रेल्वे

ममता बनर्जी भारत गणराज्य की रेल मंत्री हैं। जब से उन्हें रेल मंत्रालय का प्रभार संभाला है तब से वे पश्चिम बंगाल का ही भ्रमण कर रही हैं। ममता की अनदेखी का खामियाजा भारतीय रेल को बुरी तरह भुगतना पड़ रहा है। भारतीय रेल गंभीर अर्थिक संकट के दौर से गुजर रही है, और कांग्रेस नीत संप्रग सरकार के कानों में जूं भी नहीं रेंग रही है। यह रेल बजट तो यात्रियों और माल ठुलाई के हिसाब से ठीक रहेगा, क्योंकि ममता को चुनावों की चिंता है, किन्तु आने वाले दिनों में रेल की यात्रा और माल ढुलाई इतनी मंहगी होने वाली है, जिसकी कल्पना देशवासियों को नहीं है। रेल मंत्रालय को पिछले बजट में 15 हजार 875 करोड़ रूपए मिले थे, जो फंुक चुके हैं। रेल कर्मियों और ठेकेदारों के अनेक भुगतान रोके जा रहे हैं। रेल महकमे ने वित्त मंत्रालय से तत्काल ही चालीस हजार करोड़ की मांग कर डाली है। छटवें वेतन आयोग के चलते रेल्वे पर 55 करोड़ का अतिरिक्त भार पड़ा जिसमें से 36 करोड़ रूपए तो महज एरियर का ही था। रेल्वे की आय में 1,142 करोड़ रूपयों की गिरावट आई है जबकि खर्च 1,330 करोड़ रूपए बढ़ गया है।

यूपी में राहुल फेल

कांग्रेस के की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी और युवराज राहुल गांधी उत्तर प्रदेश से हैं, और उनके निर्वाचन क्षेत्र वाले सूबे में ही कांग्रेस औंधे मुंह पड़ी है। देश को सबसे अधिक प्रधानमंत्री देने वाले इस सूबे में कांग्रेस की सांसें उखड़ने लगी हैं। राज्य में कांग्रेस का आलम यह है कि कांग्रेस के आला नेता ही सूबे में मुकाबले में खड़े होने में ही हिचक रहे हैं। पिछले दिनों राहुल गांधी ने राज्य के नेताओं से रायशुमारी की। रायशुमारी में केंद्र सरकार के घपले घोटाले की ही गूंज रही। थक हार कर राहुल गांधी को यह कहने पर मजबूर होना पड़ा कि पुरानी बातों पर धूल डालिए, नए एजेंडे और नए हौसले के साथ जनता के बीच जाया जाए। उधर कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि जनता का भरोसा कांग्रेस पर से उठ चुका है। पिछले आम चुनावों में जनता ने मनमोहन सिंह की साफ सुथरी छवि को ही वोट दिया था, जो अब पूरी तरह दागदार हो चुकी है। आसमान छूती मंहगाई से जनता बुरी तरह त्रस्त दिख रही है। कांग्रेस के केंद्रीय नेताओं का मत है कि जनता के बीच जाकर उसे बताया जाए कि मंहगाई का असली कारण राज्य सरकार की नीतियां हैं, जिस पर कार्यकर्ता सहमत होते नजर नहीं आ रहे हैं। कार्यकर्ताओं का मानना है कि अगर अभी चुनाव हो गए तो कांग्रेस चारों खाने चित्त ही नजर आएगी।

बाबा रामदेव हो गए सियासी

इक्कीसवीं सदी के योग गुरू बाबा रामदेव को सियासत का पाठ पढ़ाने वाले वाकई कुशल प्रबंधक हैं। राम किशन यादव उर्फ बाबा रामदेव दो सालों से देश भर में घूम घूम कर स्विस बैंक में जमा काला धन वापस लाने और भ्रष्टाचार मुक्त सियासत की वकालात कर रहे हैं। पहले तो उनकी बातें लोगों के दिमाग पर असर नहीं डाल पा रही थीं, किन्तु अब कांग्रेस और भाजपा के भ्रष्टाचारी चेहरे के खिलाफ जमीनी स्तर पर माहौल बनना आरंभ हो चुका है। लगता है बाबा रामदेव के सियासी गुरूओं की पढ़ाई पट्टी पर चलकर बाबा रामदेव ने जमीनी स्तर पर अपना एक प्लेट फार्म तैयार कर ही लिया है। बाबा की सभा में चालीस से पचास हजार की भीड़ जुटना आम बात है, लोग बाबा रामदेव से इसलिए भी जुड़ रहे हैं, क्योंकि बाबा दो सालों से भ्रष्टाचार को केंद्र बनाकर ही बयानबाजी कर रहे हैं। बाबा की बातों को कामनवेल्थ, टूजी, आदर्श सोसायटी, नीरा राडिया, तेल माफिया के घोटालों के कारण खासी हवा मिल रही है। कांग्रेस और भाजपा के रणनीतिकार चुनाव प्रबंधन पर जोर दे रहे हैं तो बाबा रामदेव इनका रायता फैलाने में लगे हैं। अब देखना महज इतना है कि बाबा रामदेव का अस्त्र आम चुनावों में चलता है या फिर चुनाव प्रबंधन के जरिए सरकार का गठन होता है?

सियासी मित्रों की नो एंट्री है सिंधिया दरबार में

यूं तो युवा तुर्क बनकर उभरे केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के सियासी मित्रों की कमी नहीं है, किन्तु जब उनके दरबार की बारी आती है तो सियासी मित्रों का प्रवेश वहां वर्जित ही है। 1 जनवरी 1971 को जन्मे सिंधिया ने नए साल की पहली किरण के साथ ही अपना चालीसवां जन्मदिन मनाया। यह क्या उनके जन्म दिन के जश्न में एक भी सियासी चेहरा नहीं दिखा। इस पार्टी में सिर्फ उनके मित्र ही शामिल हुए वे भी देश विदेश से आए हुए। सियासी हल्कों में इसकी गहरी प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। लोगोें का कहना है कि राजनैतिक मित्रों को वे अपना मित्र नहीं मानते हैं, यहां तक कि इसके पहले उन्होंने अपने विभाग के कबीना मंत्री आनंद शर्मा तक को अपने जन्म दिन के जश्न में बुलाना मुनासिब नहीं समझा। आखिर ज्योतिरादित्य जनाधार वाले नेता हैं, सो उन्हें राजनैतिक मित्रों की बैसाखी की भला क्या जरूरत!

पुच्छल तारा

देश में मंहगाई आसमान छू रही है। चीजों के भाव कई गुना बढ़ चुके हैं। कहीं भी चाय पान या खाना खाने जाईए तो जेब हल्की होना स्वाभाविक ही है। एसी स्थिति में क्या देश में कोई जगह एसी है, जहां कम कीमत पर खाने को मिल जाए। आपका उत्तर होगा नहीं। नहीं जनाब, एसा नहीं है देश में एक जगह एसी भी है जहां माटी मोल खान पान की सामग्री बिकती है। पूना से अनुपम बहल ने ईमेल भेजकर यह जताया है। अनुपम लिखते हैं कि देश में एक जगह एसी है जहां आपको एक रूपए में चाय, साढ़े पांच रूपए में सूप, डेढ़ रूपए में दाल, एक रूपए की चपाती, साढ़े चोबीस रूपए में चिकन, चार रूपए का दोशा, आठ रूपए की वेज बिरयानी, तेरह रूपए की मछली एक प्लेट मिल सकती है। क्या आप जानना चाहेंगे कहां? यह सब कुछ गरीब लोगों के लिए है। यह है इंडियन पार्लियामेंट की केंटीन का रेट कार्ड, जहां देश के वे गरीब खाते हैं, जिन्हें रहने के लिए आवास, आने जाने के लिए एयर कंडीशन सफर सब कुछ निशुल्क के अलावा अस्सी हजार रूपए मासिक वेतन के साथ अनाप शनाप भत्ते मिलते हैं। यह सब देश के हर नागरिक से वसूले गए कर से ही निकलता है। मतलब साफ है कि मजे उड़ाएं देश के गरीब जनसेवक और भोगमान भोगे उन्हें चुनने वाली जनता।

राहुल गांधी पहले अपने गिरेबान में झांक कर देखें

समन्वय नंद

कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण बयान दिया है । उनका कहना है कि कांग्रेस में काम करने के लिए पारिवारिक पृष्ठभूमि अब मायने नहीं रखेगी। संगठन के विभिन्न पदों के लिए व्यक्तित्व और क्षमताओं के आधार पर चुनाव होगा। कांग्रेस में भाई-भतीजावाद के लिए भी कोई स्थान नहीं है। जो कार्यकर्ता संगठन के लिए काम करेगा उसे ही पार्टी में उचित पद दिया जाएगा।

यह एक निर्विवादित सत्य है कि आज राजनीति में परिवारवाद का बोलबाला है । परिवारवाद व भाई भतीजा वाद अपने चरम पर है और यही कारण है कि सामान्य व्यक्ति जिसकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं है, कडी मेहनत करने पर भी राजनीति में आगे नहीं आ पा रहा है । उसे हमेशा पीछे ढकेल दिया जाता है । यह एक दुखद पहलु है । इस दृष्टि से देखें तो राहुल गांधी ने काफी अच्छी बात कही है ।

राहुल गांधी का यह बयान काफी महत्व रखता है । राहुल गांधी कांग्रेस के महासचिव ही नहीं हैं बल्कि कांग्रेस की ओर से भारत के भावी प्रधानमंत्री भी हैं । इस कारण उनके बयान का महत्व और बढ जाता है । राहुल गांधी कांग्रेस के बडे पद पर हैं । इस पद पर बैठ कर वह उपदेश प्रदान कर रहे हैं । यहां ध्यान देना होगा कि राहुल गांधी के पास ऐसी क्या योग्यता है जिसके बल पर वह कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव के पद पर आसीन हैं । केवल इतना ही नहीं वह वर्तमान के केन्द्र सरकार के कर्ता धर्ता हैं । उनके कहने के अनुसार सरकार चलती है । वह जब ओडिशा के नियमगिरि में आ कर कह देते हैं कि वह डोंगरिया कंधों के दिल्ली में सिपाही हैं, तो अगले ही दिन दिल्ली में पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश वेदांत परियोजना को बंद करने की घोषणा करते हैं । इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह कितने शक्तिशाली हैं । अब एक प्रश्न खडा होता है राहुल गांधी आज जिस पद पर बैठे हैं, उसे हासिल करने के लिए उन्होंने क्या- क्या किया है । उन्होंने इतने बडे ओहदे पर जाने के लिए संगठन में कितना काम किया है । उन्होंने कांग्रेस के नगर- प्रखंड- जिला स्तर पर कौन कौन सी जिम्मेदारियां संभाली हैं और उसमें उनका प्रदर्शन कैसा रहा है इसका विश्लेषण किया जाना चाहिए । उन्होंने कभी नीचले स्तर पर काम ही नहीं किया है । बल्कि उन्हें बडी जिम्मेदारी सीधे ही प्रदान की गई है । राजीव गांधी के परिवार में जन्म लेने के अलावा और क्या-क्या कारण हैं और उनकी और क्या योग्यता है जिसके कारण वह कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव का पद प्राप्त हुआ हो । अगर इस बारे में सर्वे कराया जाए और देश के आम लोगों से प्रश्न किया जाए तो अधिकांश लोग यही कहेंगे कि गांधी परिवार में जन्म लेने के अलावा उनकी कोई दुसरी योग्यता नहीं है जिसके आधार पर वह इतने बडे पद पर पहुंचे हों ।

यही बात उनकी माता सोनिया गांधी पर भी लागू होती है । वह काग्रेस की अध्यक्षा है । राज परिवार में शादी होने के अलावा उनकी कांग्रेस अध्यक्ष बनने की और कोई योग्यता नहीं है । कांग्रेस ने हाल ही में अपने संविधान में परिवर्तन कर कांग्रेस अध्य़क्ष के कार्यकाल को बढाने की घोषणा की है । कांग्रेस चाहे तो सोनिया गांधी को आजीवन इस पद पर बैठा सकती है । इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं है । लेकिन लोगों को जो उपदेश देने से पहले उपदेश करने वाले को उसी तरह का आचरण करना चाहिए । जो शब्द कोई व्यक्ति कह रहा हो उसमें कोई महत्व महत्व नहीं होता । शब्द बोलने वाले व्यक्ति का आचरण कैसा है यह सबसे महत्वपूर्ण है । अगर कोई व्यक्ति उपदेश दे रहा है तो उन उपदेशों को वह अपने जीवन में उतार रहा है कि नहीं यह देखना बडा जरुरी है । अगर व्यक्ति अच्छी अच्छी उपदेश देता है और खूद ही उपदेश के अनुरूप आचरण नहीं करता तो उसे लोग पाखंडी कहेंगे । इसके लिए कई उदाहरण दिये जा सकते हैं । गांव में एक शराबी है और वह हर समय शराब के नशे में धूत रहता है । लेकिन वह लोगों से शराब व अन्य मादक द्रव्य सेवन न करने के लिए उपदेश देता है । कोई भ्रष्ट राजनेता या अधिकारी किसी विद्यालय में मुख्य अतिथि नाते आ कर बच्चों को इमानदारी का पाठ पढाता है । ऐसे में उसके बारे में लोग क्या सोचेंगे और उसके उपदेशों को कितनी गंभीरता से लेंगे । इस तरह के व्यक्ति के उपदेश को लोग पाखंड समझेंगे । इसी तरह कोई साधु यदि शराब न पीने का उपदेश देगा व इमानदार बनने की बात कहेगा तो उसे लोग गंभीरता से लेंगे ।

लगता है कि राहुल गांधी भी उपदेश देने की इस मुद्रा में आ गये हैं । वह लोगों को बता रहे हैं कि परिवारवाद अच्छा नहीं है । परिवारवाद होने के कारण योग्य लोग पिछड रहे हैं । इसे पार पाने के लिए वह आगे आ चुके हैं और आगामी दिनों में परिवारवाद के स्थान पर योग्यता को तरजीह देंगे । लेकिन राहुल गांधी को यह बात भलीभांति समझ लेनी चाहिए कि वह स्वयं भी परिवारवाद के कारण ही कांग्रेस के कर्ता धर्ता बने हैं । वह इस तरह की बात कर न सिर्फ पाखंड कर रहे हैं बल्कि आम लोगों की दृष्टि में हंसी का पात्र बन रहे हैं ।

राहुल गांधी को चाहिए वह अपना आचरण कथनी के अनुरूप बनाएं ताकि उनके शब्दों में शक्ति का संचार हो सके । यदि वह स्वयं तो राजपुत्र होने का सुख भोगते रहेंगे और इसी योग्यता के आधार पर प्रधानमंत्री बनने का सपना पालते रहेंगे तो उनके शब्द व उपदेश हास्यरस ही पैदा करेंगे न कि किसी गंभीर बहस की शुरुआत कर पाएंगे ।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आतंकवादी नहीं राष्ट्रवादी संगठन है

नीरज कुमार दुबे

 

पिछले कुछ समय से संघ परिवार को लगातार आड़े हाथ ले रहे कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द को स्थापित करने के बाद अब ‘संघी आतंकवाद’ शब्द को स्थापित करने में जी जान से जुट गये हैं इसके लिए उन्होंने 30 जनवरी 2011 को महात्मा गांधी की पुण्यतिथि के दिन बयान दिया कि संघ के आतंकवाद की शुरुआत महात्मा गांधी की हत्या से हुई। इससे दो दिन पहले ही दिग्विजय ने एक नई कहानी प्रस्तुत कर देश के विभाजन के लिए जिन्ना की बजाय सावरकर को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा था कि ‘दो राष्ट्र’ के सिद्धांत का विचार सबसे पहले वीर सावरकर ने रखा था जिसकी वजह से देश का बंटवारा हुआ। इससे पहले दिग्विजय ने मुंबई एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे की मौत को अप्रत्यक्ष रूप से भगवा संगठनों के साथ जोड़कर विवाद खड़ा कर दिया था और बाद में उन्होंने यह सुबूत तो दिया कि उनकी करकरे से फोन पर बात हुई लेकिन वह बात क्या थी यह साबित करने में वह विफल रहे। दरअसल इन सब बयानों के जरिए उन्होंने आतंकवाद के मुद्दे पर संघ को कठघरे में खड़ा करने की जो चाल चली थी उसमें वह काफी हद तक सफल रहे थे।

यह सब उस संघ को बदनाम करने की बड़ी साजिश का हिस्सा है जोकि प्रखर राष्ट्रवादी संगठन है और मंत्रिमंडल की विभिन्न समितियों से भी ज्यादा गहनता के साथ आंतरिक सुरक्षा, राष्ट्रीय एकता और आपसी सद्भावना जैसे विषयों पर चर्चा करता है और मुद्दों के हल की दिशा में काम करता है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि देश या समाज पर किसी भी विपत्ति के समय उसके साथ खड़े होने वाले इस संगठन के साथ इस समय भाजपा के अलावा कोई खड़ा नहीं दिखाई दे रहा। यह बात सभी जानते हैं कि दिग्विजय संघ विरोध की जो धारा बहा रहे हैं उसके पीछे उनकी कोई बड़ी राजनीतिक मंशा है। संघ के लिए सुखद बात यह है कि आप चाहे कितने भी आॅनलाइन फोरमों पर होने वाली चर्चा को देख लीजिए, शायद ही कोई दिग्विजय की बात से इत्तेफाक रखता हो। लेकिन यह भी सही है कि संघ को वह समर्थन खुले रूप से नहीं मिल पा रहा है जिसका वह हकदार है।

संघ को घेरने की रणनीति बनाते रहने में मशगूल रहने वाले दिग्विजय की बांछें तब और खिलीं जब कुछ समय पूर्व समझौता ट्रेन विस्फोट मामले की चल रही जांच के लीक हुए अंशों में दक्षिणपंथी संगठन अभिनव भारत के नेता असीमानंद और संघ नेता इंद्रेश कुमार का नाम कथित रूप से सामने आया। इसके बाद ता दिग्विजय ने अब संघ पर हमला और तेज करते हुए आरएसएस पर देश में संघी आतंकवाद फैलाने का आरोप लगाया है। दिग्विजय ने संघ प्रमुख मोहन भागवत से पूछा है कि अगर संघ आतंकवाद नहीं फैला रहा है तो इन मामलों में पकड़े जाने वाले लोगों के तार आरएसएस से क्यों जुड़े हुए मिलते हैं? दिग्विजय ने तो भाजपा की राज्य सरकारों पर भी कथित संघी आतंकवादियों को संरक्षण देने का आरोप लगाते हुए उदाहरण दिया कि समझौता विस्फोट मामले के आरोपी असीमानंद ने गुजरात में जाकर शरण ली थी। दिग्विजय वर्षों पहले से ही संघ पर आरोप लगाते रहे हैं कि वह अपने कार्यकर्ताओं को बम बनाने का प्रशिक्षण देता है। यह सब कह कर दिग्विजय न सिर्फ आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान का पक्ष मजबूत कर रहे हैं बल्कि एक राष्ट्रवादी संगठन को आतंकवाद के साथ जोड़कर ‘महापाप’ भी कर रहे हैं। यह पूरी कवायद आतंकवाद के खिलाफ भारत की लड़ाई से ध्यान भटकाएगी।

राजनीतिक मेधावी दिग्विजय अपने बयानों के जरिए सामंजस्य बनाने की कला भी बखूभी जानते हैं वह जहां भाजपा और संघ परिवार पर रोजाना नए तरीके से निशाना साधते हैं वहीं सरकार खासकर केंद्रीय गृह मंत्रालय को भी आड़े हाथों लेते रहते हैं। पहले उन्होंने नक्सल समस्या से निबटने की रणनीति को लेकर चिदम्बरम की कार्यशैली पर सवाल उठाए तो अब मौत की सजा पाए कैदियों की अपील पर एक समय सीमा में निर्णय करने की बात कह कर अफजल गुरु और अजमल कसाब की फांसी में जानबूझकर देरी करने के भाजपा के आरोपों को भी हवा दी। ऐसे बयानों से दिग्विजय कभी कभार खुद अपनी ही पार्टी को भी परेशानी में डाल देते हैं लेकिन वह जो ‘लक्ष्य’ लेकर चल रहे हैं उसे देखते हुए पार्टी आलाकमान भी उनके विरुद्ध सख्त रुख अख्तियार नहीं करता क्योंकि उसे पता है कि जो काम वर्षों से कोई कांग्रेस नेता नहीं कर पाया वह मात्र कुछ महीनों में दिग्विजय ने कर दिखाया है। यह कार्य है संघ को आतंकवाद से जोड़ने का। दिग्विजय अपने बयानों के जरिए संघ को संदिग्ध बना देना चाहते हैं और इसके लिए ऐसे बयान देते हैं जिससे कि लोगों का ध्यान आकर्षित हो।

बहरहाल, अब देखना यह है कि दिग्विजय की सियासत अभी और क्या गुल खिलाती है या और क्या क्या विवाद खड़े करती है लेकिन इतना तो है ही कि उन्होंने संघ के सामने कई दशकों में पहली बार कोई बड़ा संकट खड़ा कर दिया है।

व्यंग्य/पुलिस के डंडे का नागरिक-अभिनन्दन

गिरीश पंकज

हे पुलिसजी के डंडे…. आपको दूर से नमन. आप जैसे तेलपीऊ-डंडे ने इस देश की जो सिरतोड़-फोड़ सेवा की है, उसके आगे हमसब नतमस्तक है.इस डंडे को धारण करने वाली वर्दी को देख कर उसका काफिया वर्दी… बेदर्दी. गुंडागर्दी से भी मिला दिया जाता है. वैसे यह गलत है, अन्याय है. डंडे का जो ”तयशुदा” (?) काम है, वह बखूबी करता है. डंडा परम्परावादी है. परम्पराओं को निभाना परम फ़र्ज़ है. वर्दी का जो काम है, वो तो उसे करना ही पड़ेगा. क्योकि कोई ज्ञानी कवि यह टिप्स पहले ही दे चुका है कि ”दुनिया में हम आये है तो जीना ही पड़ेगा. जीवन है अगर ज़हर तो पीना ही पड़ेगा” न. अंगरेजों के समय से जो आपका गौरवशाली इतिहास रहा है, उसे आपने और अधिक (दुर) गति प्रदान की है. आपके हाथ का डंडा पहले भी सिरफोडू था, और आज भी है. कल भी रहेगा. जसे किसी को सौ सालपहले किसी से प्यार था उसके बारे में उसने साफ़-साफ़ कह दिया था कि ”सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा”.

हे पीत वस्त्रधारिणीपुलिस के कर की शोभा, आपके कुशल-राज में चोर मस्त है, अपराधी मदमस्त है. ये और बात है कि जनता लस्त-पस्त है. आपकी पूरी टीम ”वसूली अभियान” को सफल बनाने में दिन-रात एक कर देती है. यह भी एक बड़ा काम है. ऐसा करने से इस मंहगाई के दौर में घर-बाहर के छोटे-मोटे खर्चे निकल जाते है. इस लिहाज से वसूली को एक पवित्र काम माना जा सकता है. जनता का पैसा आपके किसी काम ही आ रहा है. वसूली अभियान में आपकी सफलता के बारे में क्या कहे. मोटे डंडे को सींक दिखाने जैसा है. लेकिन सच बात कहने में किसको ऐतराज़ हो सकता है?

हे रक्तपिपासुजी,आपके कारण ही पुलिस का वसूली-अभियान सफलता के साथ संचालित होते रहता है. इस सफलता को देख कर ही सरकार इस बात पर विचार कर रही है, कि अब ऐसी पुलिस की भी नियुक्ति की जाय जो, समाज में अपराध पर नियंत्रण का अपना असली काम कर सके. वसूली भी चलती रहे और अपराध-नियंत्रण भी. (अगर ऐसा हो सके तोबड़ी कृपा हो) अभी जो पुलिस है, उसका बस एकीच्च काम है :आमलोगों का रास्ता रोक कर के वसूली. बेहद सरल काम. रस्ते में कोई गाडी खड़ी है, उसे उठाओ और ले जाओ. भले ही गाडी डैमेज हो जाये. रात को बारह बजे किसी भी आदमी को रोक कर उससे बदतमीजी करो. चाहे तो थाने ले जाओ. डंडापूजन कर दो. अपराधी तो पतली गलियों से निकल जाते है. मगर ज़रूरी काम से आने-जाने वाला ‘नालायक आदमी’ आपकी चपेट में आ जाता है. ऐसा करके आप एक बड़ा सन्देश यह देते हैं कि शरीफ आदमी को देर रात को कभी नहीं निकलना चाहिए. रात केवल अपराधियों और पुलिस के कर्मों के लिये ही ईश्वर द्वारा सुनिश्चित की गई है. इस तरह देखा जाये तो डंडाप्रसादजी, आपकी बड़ी सामाजिक उपयोगिता है. आपके कारण आम आदमी को दुःख-तकलीफ, अत्याचार, और तरह-तरह के कष्ट सहने की आदत पड़ जाती है. पुलिस गश्त करती है और पता नहीं कैसे मस्त शातिर चोर-डकैत अपनाकाम करके निकल लेते है. घर के बाहर रखी गाड़ियां आग के हवाले कर दी जाती है और आपके स्वामी (साँप निकल जाने के बाद) केवल लकीर पीटते रह जाते हैं.

हे डंडाशिरोमणि, आपकी कार्य-कुशलता के बारे में क्या कहा जाये. आप धन्य है. उधर अपराध बढ़ रहे हैं और इधर आपको धारण करने वाले की तोंद भी. आपके साथ-साथ आपकी तोंद भी आगे आना चाहती है. यह कितनी बड़ी देश-सेवा है. कि तोंद भी चाहती है, कि वह आगे आये, ”सामने” आये. तोंद को देख कर अपराधी समझ जायेंगे कि आपके खाते-पीते घर के आदमी है. कोई उनको रिश्वत नहीं दे सकता. तोंद होने के कारण अपराधी निश्चिन्त रहते है. पकड़ से भी दूर रहते है. लेकिन आप बैठे-बैठे परमपिता से प्रार्थना ज़रूर करते हैं कि वह चोर को पकड़ा दे. कई बार धुप्पल में चोर हाथ लग जाते है. तो आपकी बल्ले-बल्ले हो जाती है. लाटरी लग जाती है गोया. किस्मत भी आपका साथ देती है. जीवन भर डंडे चलाते, लोगो पर अत्याचार करते-करते आपके स्वामी एक दिन सेवा-निवृत्त हो जाते है. और कोई उनका बालबांका नहीं कर पाता.(अक्सर. अपवाद तो हर जगह होते हैं) इसलिये ऐसे महान डंडे, कानून-व्यवस्था के पंडे, आप का नागरिक अभिनन्दन करके हम बड़े प्रसन्न है. ऐसा करके हम अपने आत्मबल को और मज़बूत कर रहे है. आपकी ”’देश-भक्ति-जन सेवा” अब केवल द्वेष भक्ति-धनसेवा” में बदल चुकी है, लेकिन यह खुशी की बात है कि ”सेवा” तो जारी है. और जो सेवा करता है, उसे मेवा मिलना ही चाहिए. आपको मेवा खाने से कोई नहीं रोक सकता. नीचे से ले कर ऊपर तक एक जाल बिछा है आपके महकमे में यह गीत खूब बजता है,कि ”बाँट के खाओ इस दुनिया में, बाँट के बोझ उठाओ”. तो हे, दुष्टविकासिनी, दुर्बंलप्रहारिणी पुलिसजी के डंडे का अभिनन्दन है…वंदन है ( कृन्दन सहित ) केवल इतना ही अनुरोध है, कि कभी-कभार जनसेवा भी करें ताकि अंगरेजों के ज़माने की पुलिस आज़ादभारत की पुलिस भी लगे.लीजिये, आपकी सेवा में हम फिर आपको तेल पिला रहे है. लेकिन संभालके, कहीं हमारा सिर ही न फूट जाये. हम हैं आपके-भुक्तभोगी नागरिक.

बांग्ला बुद्धिजीवियों का असत्य हरमद संकीर्तन

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

बांग्ला में बुद्धिजीवियों का एक वर्ग वाम विरोध के बहाने मिथ्याचार पर उतर आया है। यह सच है माकपा ने अनेक गलतियां की हैं और उन गलतियों का विरोध करना जरूरी है । लेकिन माकपा के खिलाफ विवेकहीन उन्माद पैदा करना बौद्धिक अनाचार है। बांग्ला के जो बुद्धिजीवी ममताभक्ति में माकपा का अंधविरोध कर रहे हैं। उसके तराने गा रहे हैं वे सचेत ढ़ंग से बौद्धिक अपराध कर रहे हैं। यहां हम कुछ ऐसी बातों की ओर ध्यान खींचना चाहते हैं जो ममता बनर्जी के भ्रष्टाचारण और सत्ता के दुरूपयोग की कोटि में आते हैं।

मसलन ममता बनर्जी और उनके दल का मानना है लालगढ़,सालबनी,गोलटोर, झाडग्राम आदि में माकपा के तथाकथित हरमदवाहिनी के कैंप हैं। यह बात सत्य से मेल नहीं खाती। इसका सबसे बड़ा सबूत है हाल ही में सीआरपीएफ की 50 वीं बटालियन के कमांडेंट द्वारा दिया गया बयान। सीआरपीएफ कमांडेंट शंकरसेन गुप्त ने गृहमंत्री पी.चिदम्बरम् के द्वारा भेजी ‘हरमदवाहिनी’ (गुण्डावाहिनी) के तथाकथित कैंप की सूची की मौके पर जाकर तहकीकात की और पाया कि जिन जगहों पर ‘हरमद’ कैंप होने की बात कही गयी है वहां कोई कैंप नहीं हैं। सीआरपीएफ ने सूची में बताए स्थानों की तीन दिनों तक गहरी छानबीन की और पाया कि संबंधित इलाकों में कोई ‘हरमद’ कैंप नहीं है। यहां तक कि माकपा के लालगढ़ इलाके में अचानक अनेक नेताओं के घरों और माकपा पार्टी दफ्तरों पर भी छापे मारे गए लेकिन कोई अस्त्र-शस्त्र बरामद नहीं हुआ। सीआरपीएफ की छानबीन किसी तरह स्थानीय पुलिस अफसरों से प्रभावित न हो इसके लिए मिदनापुर के एसपी मनोज वर्मा और झाडग्राम के एसपी प्रवीण त्रिपाठी तीन दिन की छुट्टी पर चले गए। इन तीन दिनों में ही संयुक्त सशस्त्रबलों ने गृहमंत्री के द्वारा भेजी ‘हरमद’ कैंप सूची की चप्पे-चप्पे पर जाकर छानबीन की और पाया कि वहां कोई ‘हरमद’ कैंप नहीं है। बल्कि कुछ शरणार्थी कैंप जरूर हैं। इस छानबीन के आधार पर केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के कमाण्डेट ने जो बयान दिया है वह एक ही साथ कई काम कर गया है। उल्लेखनीय है सीआरपीएफ को सीधे केन्द्रीय गृहमंत्रालय नियंत्रित करता है और उसके अफसर सीधे उसके प्रति जबाबदेह हैं। सीआरपीएफ कमाण्डेंट शंकरसेन गुप्त के बयान का अर्थ है कि हरमद कैंपों के बारे में गृहमंत्री चिदम्बरम और ममता बनर्जी ने जो बयान दिए हैं वे एकसिरे से गलत और असत्य हैं।

दूसरा फलितार्थ है बांग्ला मीडिया में अंध माकपा विरोध के नामपर हरमदवाहिनी पर छपी खबरें कपोलकल्पित हैं। यह बांग्ला मीडिया की असत्य रिपोर्टिंग है। सीआरपीएफ के कमाण्डेंट के बयान से मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और माकपा की साख में सुधार आएगा। तीसरा फलितार्थ यह कि बांग्ला बुद्धिजीवियों के द्वारा जो हरमदभजन चल रहा है वह असत्य है।

जो बुद्धिजीवी माकपा का विरोध करना चाहते हैं और ममता बनर्जी का साथ देना चाहते हैं उन्हें ऐसा करने का लोकतांत्रिक हक है । लेकिन वे माकपा विरोध के नाम पर असत्य के प्रचारक का काम कर रहे हैं जो पश्चिम बंगाल की जनता और समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा के खिलाफ है। बुद्धिजीवी जब असत्य का प्रचार करने लगे,पार्टी के आदेश पर लिखने और बोलने लगे तो वह सत्य को सही रूप में देख ही नहीं पाता। ये बुद्धिजीवी शौक से ममता बनर्जी का साथ दें लेकिन असत्य न बोलें। वे माकपा का विरोध करें लेकिन तृणमूल के भ्रष्टाचारण का हिस्सा न बनें। ये ही वे बुद्धिजीवी हैं जिन्हें माकपा की गलतियां 33 साल तक नजर नहीं आयीं और इनमें से अधिकांश ने वाममोर्चा सरकार की मलाई खाई है लेकिन अचानक इनकी नंदीग्राम-सिंगूर की घटना के बाद तन्द्रा टूटी और कहने लगे कि माकपा में यह गलत है वह गलत है।

एक विवेकशील और ईमानदार बुद्धिजीवी वह है जो गलती की ओर सही समय पर ध्यान खींचे। वाम बुद्धिजीवी इस दुविधा में चुप रहते हैं कि बोलें या न बोलें। माकपा या वाममोर्चा गलती करे तो उसका खुलकर प्रतिवाद करना चाहिए लेकिन वे ऐसा नहीं करते ,वे मान बैठे हैं कि हम बोलेंगे तो पार्टी निकाल देगी। लेकिन सच यह है कि वे सार्वजनिक तौर पर बोलते तो माकपा और वाममोर्चे की आज यह दुर्दशा न होती। ठीक यही मनोदशा तृणमूल कांग्रेस का अंध समर्थन करने वाले बुद्धिजीवियों की है। वे ममता बनर्जी के अच्छे-बुरे सभी कामों का अंध समर्थन कर रहे हैं। वे ममता बनर्जी की गलत नीतियों पर चुप्पी लगाए हुए हैं और यह आभास दे रहे हैं कि ममता बनर्जी पक्षपातरहित और ईमानदार है। लेकिन सत्य और यथार्थ इसकी पुष्टि नहीं करता।

ममताभक्त बांग्ला बुद्धिजीवियों को रेलवे के प्रथमश्रेणी के मुफ्त पास मुहैय्या कराए गए हैं। देश में अन्य भाषाओं के बुद्धिजीवियों को ये पास क्यों नहीं दिए गए ? यह सार्वजनिक संपत्ति के दुरूपयोग और पक्षपातपूर्ण वितरण का प्रमाण है। बांग्ला के ममताभक्त बुद्धिजीवियों में यह नैतिक साहस होना चाहिए कि वे रेलवे के मुफ्त पास वापस कर दें।

बांग्ला मीडिया में छपी खबरें बताती हैं कि ममता बनर्जी अपने भक्त बुद्धिजीवियों को रेलवे की तथाकथित बोगस कमेटियों में रखकर मासिक मेहनताने के रूप में प्रतिमाह मोटी रकम दे रही हैं। इन खबरों का ममता बनर्जी और ममताभक्त बांग्ला बुद्धिजीवियों ने कभी खंडन नहीं किया। ममता बनर्जी की मंत्री के नाते इस तरह की हरकतें पक्षपात और भ्रष्टाचरण की कोटि में आती हैं। यह बुद्धिजीवियों को क्रीतदास बनाकर रखने की कोशिश है। इसके अलावा ममता बनर्जी मंत्री बनने के बाद सिर्फ पश्चिम बंगाल में ही रेल उदघाटन का काम कर रही हैं। बाकी देश में भी रेल पटरियों और स्टेशनों पर समस्याएं हैं सवाल उठता है उन्हें कभी देश के बाकी हिस्सों की याद क्यों नहीं आती ? क्या हिन्दी भाषी प्रान्तों में रेलवे लाइनों के अपग्रेडेशन की जरूरत नहीं है ? क्या रेल मंत्रालय प्रांत मंत्रालय है ? उद्योगमंत्रालय का विकल्प है ? क्या बेकारी दूर करने की रामबाण दवा रेलमंत्रालय के पास है ?