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युवाओं के प्रेरणास्रोत स्वामी विवेकानंद

अवनीश सिंह

स्वामी विवेकानंद ने भारत में हिन्दू धर्म का पुनरुद्धार तथा विदेशों में सनातन सत्यों का प्रचार किया। इस कारण वे प्राच्य एवं पाश्चात्य देशों में सर्वत्र समान रूप से श्रद्धा एवं सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं। दुनिया में हिंदू धर्म और भारत की प्रतिष्ठा स्थापित करने वाले स्वामी विवेकानंद एक आध्यात्मिक हस्ती होने के बावजूद अपने नवीन एवं जीवंत विचारों के कारण आज भी युवाओं के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। विवेकानंद जन्म 12 जनवरी 1863 ई., सोमवार के दिन प्रात:काल सूर्योदय के किंचित् काल बाद 6 बजकर 49 मिनट पर हुआ था।

मकर संक्रांति का वह दिन हिन्दू जाति के लिए महान उत्सव का अवसर था और भक्तगण उस दिन लाखों की संख्‍या में गंगाजी को पूजा अर्पण करने जा रहे थे। अत: जिस समय भावी विवेकानंद ने इस धरती पर पहली बार साँस ली, उस समय उनके घर के समीप ही प्रवाहमान पुण्यतोया भागीरथी लाखों नर-नारियों की प्रार्थना, पूजन एवं भजन के कलरव से प्रतिध्वनित हो रही थीं।

स्वामी विवेकानंद के जन्म के पूर्व, अन्य धर्मप्राण हिन्दू माताओं के समान ही, उनकी माताजी ने भी व्रत-उपवास किए थे तथा एक ऐसी संतान के लिए प्रार्थना की थी, जिससे उनका कुल धन्य हो जाए। उन दिनों उनके मन-प्राण पर त्यागीश्वर शिव ही अधिकार जमाए हुए थे, अत: उन्होंने वाराणसी में रहने वाली अपने रिश्ते की एक महिला से वहाँ के वीरेश्वर शिव के मंदिर में विशेष पूजा चढ़ाका आशीर्वाद माँगने का अनुरोध किया था। एक रात उन्होंने स्वप्न में महादेव जी को ध्यान करते देखा, फिर उन्होंने नेत्र खोले और उनके पुत्र के रूप में जन्म लेने का वचन दिया। नींद खुलने के बाद उनके आनंद की सीमा न रही थी।

माता भुवनेश्वरी देवी ने अपने पुत्र को शिवजी का प्रसाद माना और उसे वीरेश्वर नाम दिया। परंतु परिवार में उनका नाम नरेंद्र नाथ दत्त था और संक्षेप में उन्हें नरेंद्र तथा दुलार में नरेन कहकर संबोधित किया जाता था। कलकत्ते के जिस दत्त वंश में नरेंद्र नाथ का जन्म हुआ था, वह अपनी समृद्धि, सहृदयता, पांडित्य एवं स्वाधीन मनोवृत्ति के लिए सुविख्यात था। उनके दादा श्री दुर्गाचरण ने अपने प्रथम पुत्र का मुख देखने के बाद ही ईश्वर प्राप्ति की अभिलाषा से गृह त्याग कर दिया था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ता उच्च न्यायालय में अधिवक्ता थे। उन्होंने अँगरेजी तथा फारसी साहित्य का गहन अध्ययन किया था।

उनकी माता भुवनेश्वरी देवी एक अलग ही साँचे में ढली थीं। वे देखने में गंभीर और आचरण में उदार थीं तथा प्राचीन हिन्दू परंपरा का प्रतिनिधित्व करती थीं। वे एक भरे पूरे परिवार की मा‍लकिन थीं और अपने अवकाश का समय सिलाई एवं भजन गाने में बिताती थीं। रामायण एवं महाभारत में उनकी विशेष रुचि थी तथा इन ग्रंथों के अनेक अंश उन्हें कंठस्थ भी थे। निर्धनों के लिए वे आश्रय थीं। अपनी ईश्वर भक्ति, आंतरिक शांति तथा अपनी व्यस्तता के बीच तीव्र अनासक्ति के फलस्वरूप वे सबके सम्मान की अधिकारिणी हुई थीं। नरेंद्रनाथ के अतिरिक्त उन्हें और भी दो पुत्र तथा चार पुत्रियाँ हुईं, परंतु उनमें से दो पुत्रियाँ अल्प आयु में ही चल बसी थीं।

पगड़ी़, कोड़े तथा भड़कील पोशाक में सजे अपने परिवार के संन्यासी का व्यक्तित्व उसे बड़ा लुभावना लगता था। वह प्राय: बड़े होकर वैसा ही बनने की आकांक्षा व्यक्त करता था। नरेंद्र का उसके संसार त्यागकर संन्यासी हो जाने वाले पितामह से काफी साम्य दिख पड़ता था और इस कारण कइयों का विचार था कि उन्होंने ही नरेन के रूप में पुनर्जन्म लिया है। भ्रमण करने वाले संन्यासियों में बालक की बड़ी रुचि थी और उन्हें देखते ही वह उत्साहित हो उठता।

एक दिन एक ऐसे परिव्राजक संन्यासी उसके द्वार पर आकर भिक्षा माँगने लगे। नरेंद्र ने उनको अपनी एकमात्र वस्तु-कमर से लिपटा हुआ एक छोटा से नया वस्त्र दे दिया। तब से जब कभी आस-पड़ोस में कोई संन्यासी दिख जाते तो नरेंद्र को एक कमरे में बंद कर दिया जाता। तथापि जो कुछ भी हाथ में आता, वह खिड़की के रास्ते उनकी ओर डाल देता। इन्हीं दिनों माँ के हाथों में उसकी प्रारंभिक शिक्षा का सूत्रपात हुआ। इस प्रकार उसने बंगला की वर्णमाला, कुछ अँगरेजी शब्द तथा रामायण एवं महाभारत की कथाएँ सीखीं।

1886 में रामकृष्ण के निधन के बाद स्वामी विवेकानंद ने जीवन एवं कार्यों को एक नया मोड़ दिया। 25 वर्ष की अवस्था में उन्होंने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। गरीब, निर्धन और सामाजिक बुराई से ग्रस्त देश के हालात देखकर दुःख और दुविधा में रहे। उसी दौरान उन्हें सूचना मिली कि शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन आयोजित होने जा रहा है। उन्होंने वहाँ जाने का निश्चय किया। वहाँ से आने के बाद देश में प्रमुख विचारक के रूप में उन्हें सम्मान और प्रतिष्ठा मिली। 1899 में उन्होंने पुन: पश्चिम जगत की यात्रा करने के बाद भारत में आध्यात्मिकता का संदेश फैलाया। स्वामी विवेकानंद नर सेवा को ही नारायण सेवा मानते थे।

उनका मानना था कि “जो महापुरुष प्रचार-कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रहकर पवित्र जीवनयापन करते हैं और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत् की सहायता करते हैं। इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है– अंत में उनकी शक्ति के फलस्वरूप ऐसा कोई शक्तिसम्पन्न पुरुष आविर्भूत होता है, जो संसार को शिक्षा प्रदान करता है।”

अब से करीब 118 साल पहले 11 सितंबर, 1893 को स्वामी विवेकानंद ने शिकागो ‘पार्लियामेंट आफ रिलीजन’ में भाषण दिया था, उसे आज भी दुनिया भुला नहीं पाती। इस भाषण से दुनिया के तमाम पंथ आज भी सबक ले सकते हैं। इस अकेली घटना ने पश्चिम में भारत की एक ऐसी छवि बना दी, जो आजादी से पहले और इसके बाद सैकड़ों राजदूत मिलकर भी नहीं बना सके। स्वामी विवेकाननंद के इस भाषण के बाद भारत को एक अनोखी संस्कृति के देश के रूप में देखा जाने लगा। अमेरिकी प्रेस ने विवेकानंद को उस धर्म संसद की महानतम विभूति बताया था। और स्वामी विवेकानंद के बारे में लिखा था, उन्हें सुनने के बाद हमें महसूस हो रहा है कि भारत जैसे एक प्रबुद्ध राष्ट्र में मिशनरियों को भेजकर हम कितनी बड़ी मूर्खता कर रहे थे। यह ऐसे समय हुआ, जब ब्रिटिश शासकों और ईसाई मिशनरियों का एक वर्ग भारत की अवमानना और पाश्चात्य संस्कृति की श्रेष्ठता साबित करने में लगा हुआ था।

उदाहरण के लिए 19वीं सदी के अंत में अधिकारी से मिशनरी बने रिचर्ड टेंपल ने मिशनरी सोसायटी इन न्यूयार्क को संबोधित करते हुए कहा था- भारत एक ऐसा मजबूत दुर्ग है, जिसे ढहाने के लिए भारी गोलाबारी की जा रही है। हम झटकों पर झटके दे रहे हैं, धमाके पर धमाके कर रहे हैं और इन सबका परिणाम उल्लेखनीय नहीं है, लेकिन आखिरकार यह मजबूत इमारत भरभराकर गिरेगी ही। हमें पूरी उम्मीद है कि किसी दिन भारत का असभ्य पंथ सही राह पर आ जाएगा। जब शिकागो धर्म संसद के पहले दिन अंत में विवेकानंद संबोधन के लिए खड़े हुए और उन्होंने कहा- अमेरिका के भाइयो और बहनो, तो तालियों की जबरदस्त गड़गड़ाहट के साथ उनका स्वागत हुआ, लेकिन इसके बाद उन्होंने हिंदू धर्म की जो सारगर्भित विवेचना की, वह कल्पनातीत थी। उन्होंने यह कहकर सभी श्रोताओं के अंतर्मन को छू लिया कि हिंदू तमाम पंथों को सर्वशक्तिमान की खोज के प्रयास के रूप में देखते हैं। वे जन्म या साहचर्य की दशा से निर्धारित होते हैं, प्रत्येक प्रगति के एक चरण को चिह्नित करते हैं।

स्वामी विवेकानंद ने तब जबरदस्त प्रतिबद्धता का परिचय दिया, जब एक अन्य अवसर पर उन्होंने ईसाई श्रोताओं के सामने कहा- तमाम डींगों और शेखी बखारने के बावजूद तलवार के बिना ईसाईयत कहां कामयाब हुई? जो ईसा मसीह की बात करते हैं वे अमीरों के अलावा किसकी परवाह करते हैं! ईसा को एक भी ऐसा पत्थर नहीं मिलेगा, जिस पर सिर रखकर वह आप लोगों के बीच स्थान तलाश सके..आप ईसाई नहीं हैं। आप लोग फिर से ईसा के पास जाएं। एक अन्य अवसर पर उन्होंने यह मुद्दा उठाया- आप ईसाई लोग गैरईसाइयों की आत्मा की मुक्ति के लिए मिशनरियों को भेजते हैं।

साफगोई और बेबाकी विवेकानंद का सहज गुण था। देश में वह हिंदुओं से अधिक घुलते-मिलते नहीं थे। जब उनके आश्रम में एक अनुयायी ने उनसे पूछा कि व्यावहारिक सेवा के लिए रामकृष्ण मिशन की स्थापना का उनका प्रस्ताव संन्यासी परंपरा का निर्वहन कैसे कर पाएगा? तो उन्होंने जवाब दिया- आपकी भक्ति और मुक्ति की कौन परवाह करता है? धार्मिक ग्रंथों में लिखे की किसे चिंता है? अगर मैं अपने देशवासियों को उनके पैरों पर खड़ा कर सका और उन्हें कर्मयोग के लिए प्रेरित कर सका तो मैं हजार नर्क भी भोगने के लिए तैयार हूं। मैं मात्र रामकृष्ण परमहंस या किसी अन्य का अनुयायी नहीं हूं। मैं तो उनका अनुयायी हूं, जो भक्ति और मुक्ति की परवाह किए बिना अनवरत दूसरों की सेवा और सहायता में जुटे रहते हैं। विवेकानंद की साफगोई के बावजूद जिसने उन्हें अमेरिकियों के एक वर्ग का चहेता नहीं बनने दिया, उन्हें हिंदुत्व के विभिन्न पहलुओं की विवेचना के लिए बाद में भी अमेरिका से न्यौते मिलते रहे। जहां-जहां वह गए उन्होंने बड़ी बेबाकी और गहराई से अपने विचार पेश किए। उन्होंने भारत के मूल दर्शन को विज्ञान और अध्यात्म, तर्क और आस्था के तत्वों की कसौटी पर कसते हुए आधुनिकता के साथ इनका सामंजस्य स्थापित किया। उनका वेदांत पर भी काफी जोर रहा।

विवेकानंद ने यह स्पष्ट किया कि अगर वेदांत को जीवन दर्शन के रूप में न मानकर एक धर्म के रूप में स्वीकार किया जाता है, तो यह सार्वभौमिक धर्म है- समग्र मानवता का धर्म। इसे हिंदुत्व के साथ इसलिए जोड़ा जाता है, क्योंकि प्राचीन भारत के हिंदुओं ने इस अवधारणा की संकल्पना की और इसे एक विचार के रूप में पेश किया। एक अलग परिप्रेक्ष्य में श्री अरबिंदो ने भी यही भाव प्रस्तुत किया- भारत को अपने भीतर से समूचे विश्व के लिए भविष्य के पंथ का निर्माण करना है। एक शाश्वत पंथ जिसमें तमाम पंथों, विज्ञान, दर्शन आदि का समावेश होगा और जो मानवता को एक आत्मा में बांधने का काम करेगा। स्पष्ट तौर पर मात्र एक भाषण ने ऐसी ज्योति प्रज्ज्वलित की, जिसने पाश्चात्य मानस के अंतर्मन को प्रकाश से आलोकित कर दिया और ऊष्मा से भर दिया।

जिला विकास संगम का संदर्भ एवं स्वरूप

के.एन. गोविन्दाचार्य

प्रत्येक देश एवं समाज की एक तासीर होती है जो उसके इतिहास एवं भूगोल से बनती चली जाती है। इसे ही संस्कृति या सांस्वृफतिक विरासत कहा जा सकता है। तासीर में स्वभाव, गुणधर्म, जीवन दर्शन, जीवन शैली, जीवन लक्ष्य, जीवनमूल्य आदि की अभिव्यक्ति होती है। अलग-अलग तासीर होने के कारण विश्व में हर एक समाज की भूमिका भी अलग-अलग होती है। एतदर्थ ही समाज संचालन की दिशा प्रत्येक समाज अपने-अपने हिसाब से निश्चित करता है। भारत जब तक अपनी तासीर से चलता रहा तब तक दुनिया का सिरमौर बना रहा।

अपने विशेष इतिहास एवं भूगोल के कारण भारत की अनेक विशेषताएं भी हैं। भारत का गुणधर्म उसी के अनुसार बनता चला गया। हम जानते हैं कि पिछले 2000 साल में भारत पर हमलों का सिलसिला प्रारंभ हुआ। बीच में कुछ ठहराव आया, परंतु पिछले 1000 सालों में इसकी निरंतरता बनी रही। पिछले 300 सालों में उपनिवेशवाद की सूरत में यूरोपीय शक्तियों का दबदबा कायम रहा, जिस दौरान भारत को लूटने-खसोटने के नए-नए तरीके खोजे गए। अंग्रेजी शासन-काल में विदेशी सोच, ढांचों और तौर-तरीकों का काफी प्रभाव पड़ा। इसके पहले समाज पर विदेशी प्रभाव बहुत कम हुआ था। अंग्रेजों के आने से पूर्व समाज ने विजातीय तत्वों, ढांचों और तौर-तरीकों से बचाव की एक प्रणाली विकसित कर ली थी।

पर पिछले 200 सालों में हम इन विजातीय तत्वों के हानिकारक प्रभावों को सोचने-समझने में कम पड़े। समय-समय पर भारत के कई सपूतों ने अपनी आवाज उठाई। चाहे स्वामी विवेकानन्द हों, महर्षि अरविन्द, महर्षि दयानन्द, महात्मा गांधी या डा. हेडगेवार रहे हों, सबने अपनी-अपनी कोशिशें की, लेकिन फिर भी विजातीय सोच, ढांचों और तौर-तरीकों का देश की भाषा, भूषा, भोजन, भेषज, भजन और भवन सहित समाज संचालन के प्रत्येक अंग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और देश की 30 प्रतिशत आबादी और 35 प्रतिशत भूगोल का हिस्सा इसकी चपेट में विशेष रूप से आ गया।

1947 में हम अंग्रेजों के शासन से मुक्त हुए परंतु उनकी सोच से मुक्त नहीं हो सके। हम विजातीय सोच, ढांचे और तौर तरीकों को ही आगे बढ़ाते चले गए, चाहे वो भाषा, भूषा, भोजन, भेषज, भजन और भवन के रूप में हो या समाज रचना के लिए राजनीति, अर्थनीति, समाजनीति के रूप में हो। इसका जीवनलक्ष्य, जीवनमूल्य, जीवन पध्दति आदि पर भी असर पड़ता गया। इसलिए उपभोगवाद एवं भौतिकवाद, जो भारत की तासीर के खिलाफ है, को भी बढ़ावा मिलता गया। समृध्दि से कोई समस्या नहीं है लेकिन अंधी समृध्दि भारत की तासीर के अनुकूल नहीं है। अधिक उत्पादन, उचित वितरण और संयमित उपभोग, यही भारत की तासीर के अनुरूप है। समृध्दि के साथ सामर्थ्य आवश्यक है। समृध्दि इसलिए कि हम दूसरों में बांट सवेंफ और सामर्थ्य इसलिए कि दूसरे आंखें न दिखा सवेंफ ।

हम अपने ही समान दूसरे समाज को मान लेने की भूल कर बैठते हैं। अपनी नीयत के प्रकाश में हम उनकी नीयत को जांचने-समझने की कोशिश करते हैं। बाजारवाद कितना व्रूफर, विधवंसक, मानव विरोधी, समाज विरोधी, प्रकृति विरोधी है, इसको हम अपने ही नजरिए से देखते रहने के कारण समझने में किल हो जाते हैं। इसलिए हम विदेशियों की चाल का शिकार अनजाने में बनते जाते हैं। इसे ही सद्गुण विकृति का नया रूप कहा जाएगा।

ऐसी स्थिति में वैश्वीकरण के जो लक्षण दिखाई देते हैं, वे हैं – वेंफद्रीयकरण, एकरूपीकरण और बाजारीकरण। बाजार आधारित उन्मुक्त उपभोग ही इसका एकमात्र लक्ष्य है। इसके खिलाफ भारत को अपनी तासीर के अनुरूप आगे बढ़कर दुनिया में अपना फर्ज निभाना होगा। इसके लिए भारत को विवेंफद्रीकरण, स्थानिकीकरण, बाजारमुक्ति और विविधीकरण की ओर अग्रसर होना होगा। इसके लिए आवश्क है समाज में सामर्थ्य और समृध्दि का प्रवाह होना, जिसका पहला लक्षण होगा ‘सबको भोजन, सबको काम’ और ‘न रहे कोई भूखा, न रहे कोई बेकार’।

इतिहास में जरा झांककर देखें तो हमें पता चलता है कि हम इस लक्ष्य को पहले भी हासिल कर चुके हैं। आज हमें फिर से इसे हासिल करना है। अतीत में जब हम विविधीकरण पर विश्वास कर रहे थे, स्थानिक तौर पर रचनाएं बनाते चल रहे थे और बाजारमुक्त होकर संयमित उपभोग के रास्ते चलकर अपनी सांस्वृफतिक विरासत एवं आर्थिक समृध्दि दोनों पर ध्यान दे रहे थे, तब भी हमने विवेंफद्रीकरण एवं स्थानिकीकरण को ही अपना आधार बनाया था। हमारे भूगोल की तासीर भी यही कहती है कि हर जगह की अपनी विशेष बात है, जैसे ‘पांच कोस पर बदले पानी, दस कोस पर बदले बानी’।

1947 के बाद भारत के इस वैशिष्टय को समाहित करते हुए यदि आवश्यक समाजनीति, अर्थनीति और राजनीति की रचना की गई होती, तो भारत की तस्वीर कुछ और ही होती। पर ऐसा नहीं हुआ। राजनीति और अर्थव्यवस्था के वेंफद्रीयकरण की प्रक्रिया जारी रही। समाज में उन्मुक्त उपभोगवाद की लहर दौड़ाने की कोशिश आज पहले से कहीं अधिक जोर-शोर से की जा रही है। इन विकृतियों का सामना करने के लिए हमें फिर से स्थानिकीकरण को आधार बनाकर ‘हमारा जिला-हमारी दुनिया’ का मूलमंत्र लेकर आगे बढ़ना होगा। ऐसा करते हुए ‘सबको भोजन-सबको काम’ की इच्छा सहज स्वभाविक रूप से सामने आएगी। इस इच्छा में विवेंफद्रीकरण, स्थानिकीकरण, बाजारमुक्ति और विविधीकरण का स्वाभाविक समावेश होगा।

आज से 100 साल पहले भारतीय गांव लगभग पूरी तरह स्वावलंबी थे। आज यदि गांवों को पूरी तरह से स्वावलंबी नहीं बनाया जा सकता, तो कम से कम जितना हो सके, उतना उन्हें स्वावलंबी बनाया जाए। जिला अपनी 80-85 प्रतिशत जरूरतों को स्वयं पूरा कर लें, इसका विशेष रूप से प्रयास होना चाहिए। अपनी व्यवस्था चलाने के लिए प्रान्त और केंद्र पर जिले की निर्भरता कम होती चली जाए, यही समाज को सबल और सफल बनाने का स्वस्थ तरीका रहेगा। इसके लिए जो प्रतिकूल है उसका शमन करना या समझने का प्रयास करना और जो अनुकूल है उसे पुष्ट करना और आगे बढ़ाना, सही तरीका रहेगा।

आज हमारा देश किसी कारपोरेट सेक्टर, पब्लिक सेक्टर या सरकारों के कारण नहीं चल रहा है। देश के अभी भी बचे, बने और टिके रहने में सामाजिक एवं सांस्वृफतिक पूंजी का बड़ा योगदान है। आर्थिक और राजनीतिक पूंजी का तो कई बार प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। आवश्यक यह है कि जो विधायक तत्व और पहलू हैं, उन्हें पुष्ट किया जाए। परिवार के बंधन को और मजबूत किया जाए, सामाजिक पूंजी का भरपूर उपयोग हो। यूरोप के नजरिए से भारत को देखना बंद करें। भारत को अपने नजरिए से देखते हुए हम अपने इतिहास का आकलन करें और समस्याओं का समाधान अपने तरीके से करें, यही समय की मांग है।

ऐसी स्थिति में अपने ही जिले की समविचारी ताकतों की खोज करना प्राथमिकता बनती है। जिले की बुध्दि, श्रम एवं साधन का उपयोग करते हुए ‘सबको भोजन-सबको काम’ की स्थिति हम कैसे पा लें, इसकी चिंता करनी होगी। ध्यान रहे ‘समाज आगे सत्ता पीछे तब ही होगा स्वस्थ विकास, सत्ता आगे समाज पीछे तब तो होगा सत्यानाश’। इसी भावना के अनुरूप जिले की सज्जन शक्ति को इकट्ठा करें। राजसत्ता और उसके सारे तंत्र का जितना सहयोग बन पड़े, लें, और सहयोग न मिलने की स्थिति में उन पर दवाब बनाने की स्थिति में हम आ जाएं, ऐसा प्रयास होना चाहिए।

वर्तमान व्यवस्थाओं में हमें तात्कालिक और दीर्घकालिक दोनों प्रकार के बदलावों के लिए संघर्ष करना होगा। इसलिए सबसे पहले अपने-अपने जिलों का अंदाज, आकलन तो कर ही लें, जिले की जनसंख्या, प्राकृतिक संसाधन, जिले में विकास की मद में आने वाली राशि का हिसाब, जिले के राजस्व और आय का ब्यौरा, जिले का गेजेटियर, जिले की देशज ज्ञान परंपरा, जिले का अनोखापन क्या है, इन सब बातों की जानकारी एकत्रित करें। यह करने के लिए अपने जिले की सज्जनशक्ति कहें या स्वदेशी प्रक्षेत्र में काम करने वाले लोग कहें, सबको एक जुट कर लें, क्योंकि यह जिले की थाती और ताकत आज भी हैं और कल भी रहेंगे।

जब अपने जिले में जिला विकास संगम कराने की बात आएगी तो अपने जिले में समान विचार से, समान अधिष्ठान से काम करने वाले जो लोग हैं, जो संगठन है पहले उनसे सपंर्क करने की जरूरत है। उसके पश्चात नैसर्गिक स्वदेशी प्रक्षेत्र के लोगों को खोजने एवं चिन्हित करने की जरफरत है।

स्वदेशी एवं विकेंद्रीकरण पर काम काम करने वाले और केवल भौतिक होकर ही नहीं, अभौतिक और आध्यात्मिक होकर भी काम करने वाले कई लोग हैं। जैसे गांधी विचार के लोग, संघ विचार के लोग, गायत्री परिवार के लोग, मध्यस्थ दर्शन विचार के लोग, आजादी बचाओ आंदोलन के लोग, नगर या जिला स्तर पर स्व स्फूर्त बने संगठन जैसे-हिन्द रक्षक संगठन, हिन्द रक्षा दल, आदि-आदि।

सबसे पहले इन सम विचारी संगठनों के लोगाें के साथ बैठकर उनसे जिला विकास संगम आदि के बारे में चर्चा करना, उनके साथ बैठकर वहां के साधनों एवं आंकड़ों का संकलन करना तथा नैसर्गिक स्वदेशी प्रक्षेत्र में काम करने वाले लोगों की सूची बनाना आवश्यक है। इसमें किसी एक स्थान को संपर्क के नाते चिन्हित कर लेना या तय कर लेना उपयोगी रहेगा, ताकि सूचनाओं का संकलन एक जगह हो सके और वहां से उनका आदान-प्रदान भी हो सके। यह एक महत्वपूर्ण पहलू है। इसलिए जिला विकास संगम की शुरुआत करने के पहले जिले में सम-विचारी लोग एवं संगठन कौन कौन से हैं, कहां हैं, उनकी क्षमताएं क्या हैं, यह सभी उन लोगाें के लिए जानना आवश्यक है, जो अपने जिलाें में जिला विकास संगम करवाना चाहते हैं।

स्वदेशी प्रक्षेत्र के लोग जैसे – कम पूंजी और कम लागत में उत्पादन के ढांचे को चलाने वाले लोग, गोरक्षा, गोपालन, गोसेवा, गो आधारित कृषि, जैविक कृषि में लगे हुए लोग, प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद आदि परंपरागत चिकित्सा में लगे हुए लोग, जिले में जल, जंगल, जमीन, जानवर के क्षेत्र में बिना विदेशी सहायता के काम कर रहे लोग, मातृ शक्ति के क्षेत्र में लगे हुए लोग, स्थानिक कारीगरी, देशज ज्ञान में लगे हुए लोग, कला, लोकनृत्य आदि सांस्वृफतिक गतिविधियों में लगे लोग, जिले की शिक्षा संस्थानों के संचालक, व्यापार मंडल के संचालक, वहां के नौजवानों के संगठन, समाज सुधार के क्षेत्र में लगे संगठन, पर्यावरण सुधार एवं रक्षा में लगे लोग, ऐसे संत-महात्मा, जिनकी जिले में प्रतिष्ठा हो, इन सबको मिला कर जिले की शक्ति, श्रम, बुध्दि और संसाधन के आधार पर ‘सबको भोजन-सबको काम’ का लक्ष्य लेकर जिले के लोग इकट्ठा हो जाएं तो इसे ही कहा जाएगा ‘जिला विकास संगम’।

इस आधार पर एकत्रित लोगों के साथ बैठ कर जिले की समस्याओं और विकास पर चर्चा हो जाए तो हम राजसत्ता से हिसाब मांगने की स्थिति में आ जाएंगे। इसलिए जिले के स्तर पर ही बौध्दिक, रचनात्मक एवं आंदोलनात्मक, तीनों तरह की गतिविधियां नियोजित की जानी चाहिए। यही ढांचा नीचे गांव तक जाए और ऊपर की तरफ भी पहुंचे। विवेंफद्रीकरण, जो भारत की तासीर के अनुरूप है, उसी को संपूर्ण गतिविधियों का आधार बनाना होगा। देश की एकता, देश की अखंडता बनी रहे, देश एकजुट होकर दुनिया द्वारा दी जाने वाली चुनौतियों और संकटों का सामना करने की स्थिति में आ सके, इसका रास्ता जिला विकास संगम से होकर निकलेगा।

कहानी : प्रैक्टिकल

-चैतन्य प्रकाश

“यह सब झूठ है, बेबुनियाद है, मेरे राजनैतिक विरोधियों की चालबाजी है।” फोन पर उत्तर देते हुए श्याम सुंदर ने कहा।

उसके चेहरे पर प्रतिक्रिया थी, जिसमें घबराहट और भय भी छुपे हुए थे। टेबिल पर आज सुबह के अखबार थे। सारे अखबारों में एक घोटाले की खबर प्रमुख थी, इस घोटाले में श्याम सुंदर के शामिल होने की खबर पर लगातार फोन आ रहे थे। वो इसी तरह सबको लगभग इसी मजमून का उत्तर दे रहा था। यही उत्तर देते-देते उसका आत्मविश्वास अब चिंता और घबराहट से ऊपर आने लगा था। मगर उसके भीतर अभी भी कुछ कांप रहा था।

‘यह आपको फंसाने की साजिश है… अरे चिन्ता न करो, राजनीति में यह सब तो चलता ही है।’

‘इस अखबार के पत्रकार पर मानहानि का दावा ठोकना चाहिए।’

‘श्याम भैया, आप फिक्र न करें, कोर्ट में आप बाइज्जत बरी होंगे, फिर दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।’

ये शुभ-चिंतकों की बातचीत के वुफछ जुमले थे जो वो आज सुबह से लगातार सुन रहा था।

श्याम सुंदर को थकान अनुभव हो रही थी। वह अपने पी.ए. को कुछ आवश्यक निर्देश देकर, कुछ देर के लिए एकांत में आ गया। कमरे के भीतर एक आदमकद शीशा लगा था। सहसा श्याम सुंदर स्वयं के प्रतिबिम्ब के सामने आ गया और कुछ देर ठहर गया। अंदर से कुछ पुर्नस्मृत होने लगा। वह पास ही पड़े सोफे पर पसर गया। उद्विग्नता भी कभी-कभी अंदर की मथनी को ऊर्जा दे देती है। मंथन हमारे अंदर के पाखंड पर प्रहार करता है। श्याम सुंदर अपने आलोड़न-विलोड़न में टूटते-पिसते पाखंड को एक नजर देख रहा था। वह अपने ही भीतर के कटघरे में खड़ा होकर स्वयं के प्रश्नों को सुनने लगा था।

”क्यों ऐसे हुआ?”

”तुम अभी भी झूठ बोल रहे हो?”

”झूठ ही जिन्दगी हो गई है।”

”तुम्हारा पतन हो गया है?”

”तुम ऐसे तो न थे।”

”कथनी और करनी में कितना अंतर है?”

प्रश्नों का उत्तर उसकी जिन्दगी की कहानी है। जज्बात और जद्दोजहद के किनारों के बीच तैरती नाव सा उसका सफर। वह एक संवेदनशील, साहसी युवक था। देशभक्ति की बातों-गीतों और कविताओं से उसके रोम-रोम में रोमांच होता था। उसकी सामाजिक सक्रियता की शुरूआत ऐसे ही हुई, कालेज के एक आंदोलन में वह सहज ही नेतृत्व का प्रतिरूप बनकर उभरा, कालेज के लड़के-लड़कियों में एक ईमानदार, संवेदनशील, सजग और समर्थ नौजवान की तरह वह धीरे-धीरे प्रतिष्ठित होता गया। वह पुस्तकालय की विविध पुस्तकों में उदाहरण ढूंढता, महापुरुषों के जीवन के प्रसंग ढूंढता… अपनी बातचीत में, भाषणों में, चर्चाओं में अपने विचार प्रभावी तरीके से रखता।

उसका नैतिक आधार प्रबल हो गया। वह अनेक महापुरुषों के जीवन के प्रसंगों एवं संदर्भों के साथ स्वयं को जोड़कर मन ही मन आनन्दित होता। उसके भीतर जैसे महान तत्व प्रस्फुटित हो रहा था। उसका आत्म गौरव प्रतिमान छू रहा था। ”इस तरह कोरी नैतिकता और आदर्शों से जिन्दगी नहीं चलती है, ये बातें सिर्फ किताबों में अच्छी लगती है।” उसके पिता अक्सर उसको समझाते थे। ”कुछ प्रैक्टिकल बनो यार। फोकट की लीडरी से पेट थोड़े ही भरेगा, हमारे देश के सारे पोलिटिशियन करप्ट है।” उसके मित्र अनेक बार उसको ऐसी सलाहें देते थे।

मगर ऐसी बातें सुनने के बाद वह और अधिक मजबूत होता, उसके भीतर एक नैतिक अहं पैदा होता, वो दुनिया के रास्ते से नहीं, अपने रास्ते से चलेगा, तमाम विरोधों में भी वह अपने आदर्शों को नहीं छोड़ेगा, हमेशा इस तरह के उत्तरों को वह पूरी तर्कशक्ति के साथ ऐसे प्रस्तुत करता कि लोग निरूत्तर हो जाते।

”पैसा जिन्दगी में अहम चीज है श्याम! फिलासफी से पेट नहीं भरता।” उसके इस सफर में भावनात्मक साथी बन चुकी प्रियंका ने एक दिन यह दलील दी थी।

मगर श्याम अपने पक्के इरादों का मालिक था, वो इन सब दलीलों के उत्तर देकर सबको संतुष्ट कर देता, लोग उसकी तर्कशक्ति के सामने परास्त हो जाते थे।

कालेज के दिन गुजरे। श्याम ने पिता की प्रिन्टिंग प्रैस में हाथ बंटाना शुरू किया। उसकी सामाजिक सक्रियता अब राजनैतिक सक्रियता बनने लगी थी। और धीरे-धीरे वह एक राजनैतिक पार्टी का सक्रिय कार्यकर्ता बन गया। घर, परिवार और व्यवसाय को जाने-अनजाने उसकी सक्रियता से लाभ होने लग गया। पार्टी में भी अनेक मित्र उसे व्यावहारिक होने का पाठ पढ़ाते, किन्तु श्याम अपनी पार्टी की विचारधारा के लिए अध्ययन करता, चर्चा करता, लोगों के बीच जाता, कार्यकर्ताओं को विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता के लिए प्रेरित करता।

अपनी इस पूरी आत्म-कथा को स्मरण करते-करते श्याम काफी गहरा डूब चला था। उसे चाय की तलब महसूस हुई, उसने आवाज देकर नौकर को बुलाया और एक चाय का कप लाने के लिए कहा। साथ ही निर्देश दिया कि अभी कोई फोन या आगंतुक आए तो कहे कि अभी मैं व्यस्त हूं।

कमरे के भीतर जुड़े बाथरूम में जाकर उसने वाशबेसिन पर ठंडे पानी से अपना मुंह धोया, पास ही टंगे तौलिये से हल्का सा पौंछ कर वह फिर सोफे पर आ बैठा। आज बहुत दिनों बाद यों अंतर्मुखी होना उसे भा रहा था। उसे अपने अंतर्मुखी होने का संदर्भ भी सूझा। वह अक्सर पढ़ी गई बातों को गहरे से विचार करता था। इसलिए मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास ‘गबन’ की एक उक्ति स्मरण हो आई।

”आदमी जब तक स्वस्थ रहता है, उसको इसकी चिन्ता नहीं रहती कि वह क्या खाता है, कितना खाता है, कब खाता है, लेकिन जब विकार उत्पन्न हो जाता है, उसे याद आता है कि कल मैंने पकौड़ियां खाई थीं। विजय बहिर्मुखी होती है, पराजय अन्तर्मुखी।”

एकाएक वह मुस्करा उठा। कुछ अच्छे उदाहरण अपनी डायरी में लिख लेना उसकी अध्ययनशीलता का हिस्सा था। यह उदाहरण भी उसने डायरी में लिखा था और बार-बार डायरी लिखते-पढ़ते यह उसकी स्मृति पर भी अंकित हो गया था। अनेक बार आपसी चर्चा एवं विवेचना में वो इस उक्ति का जिक्र भी करता था।

कुछ क्षण के लिए श्याम सुंदर ने ‘गबन’ की कहानी के साथ स्वयं को जोड़ा और ‘रमानाथ’ के साथ अपनी तुलनाकर मन ही मन मुस्कराने लगा। लेकिन थोड़ी ही देर में नौकर चाय का प्याला सामने रख कर गया। और जाते-जाते एक सुझाव भी देता गया।

‘भैया आप परेशान न हों, भोलेनाथ सब ठीक करेंगे। हम उनको ग्यारह रुपए का प्रसाद चढ़ाएंगे।”

श्याम सुंदर ने हंसकर उसकी बात का रिस्पांस दिया। मूलचंद उसके कस्बे का ही निवासी है। एम.पी. का चुनाव जीतने के बाद जबसे वह दिल्ली आया है, काम के लिए उसे यहां ले आया है। वह श्याम सुंदर को अपना बड़ा भाई मानता है। पूरी लगन से काम करता है। मूलचंद अपनी बात कहकर चला गया। श्याम की विचार-श्रृंखला फिर चल पड़ी।

उसकी मेहनत और ईमानदारी से पार्टी में बहुत लोग उससेर ईर्ष्या करते थे, मगर उसका सहयोग करने को मजबूर थे। श्याम सुंदर ने पार्टी में लाबिंग को कभी बढ़ावा नहीं दिया। पर उसे चाहने वालों की भी अच्छी-खासी संख्या थी। पार्टी में युवा नेतृत्व को अवसर दिए जाने की मुहिम चली तो श्याम सुंदर अपनी ‘अविवादित छवि’ के कारण प्रदेश महासचिव बन गया। इसी बीच लोकसभा के चुनाव में उसे उसकी ही जाति के एक बुजुर्ग तथा नामी नेता से चुनाव लड़ने के लिए टिकट मिल गया।

श्याम सुंदर ने अपने विचार और व्यवहार की ताकत के बूते पर चुनाव में जोरदार प्रचार किया। पार्टी का प्रभाव भी उस इलाके में श्याम सुंदर के प्रयास का नतीजा था। गणित ऐसा बैठा कि श्याम सुंदर अपने संसदीय क्षेत्र से सांसद चुना गया।

”श्याम भैया जिन्दाबाद।”

”हमारा नेता कैसा हो…”

नारे गूंजते थे, मालाएं पहने श्याम सुंदर गांव-गांव गया, लोगों का आभार व्यक्त करने। उसके कदमों में विजयोल्लास से अधिक संतुष्टि की शक्ति थी। वह अपनी लोक शक्ति के अराधक रूप को प्रमाणित हुआ देखकर प्रसन्न था। उसे अपने आदर्शों और विचार-धारा की प्रतिबद्धता पर गर्व हुआ। उसे लगा जैसे ईश्वर ने उसके रास्ते को सहज, सुगम बना दिया है। वह मन ही मन कृतज्ञ अनुभव करने लगा। उसका संवेदनशील हृदय धन्यवाद से भर उठा। सचमुच श्याम सुंदर के लिए वह दिन स्वर्गोपम सुख का दिन था।

”मगर, हमको चुनाव खर्च का सारा ब्यौरा पार्टी कार्यालय में देना चाहिए।”

वह अपने चुनाव अभियान के संयोजक महेन्द्र से कह रहा था।

”मगर भैया सारा ब्यौरा देने में बड़ा घपला है। कुछ खर्च ऐसा है जो दिखाया नहीं जा सकता। जैसे…।”

”जैसे क्या है?”

उसने तल्खी से पूछा।

”जैसे कई जगह शराब बांटी गई, कई बूथों पर गुण्डों को लगाया था। उसका पेमेंट हुआ है। कुछ जातियों के प्रमुखों को रुपयों की थैली पहुंचाई गई है।” महेन्द्र ने उत्तर दिया।

”मगर यह सब किसके कहने पर हुआ, यह पैसा कहां से आया? तुम जानते हो, मैं इन बातों के सख्त खिलाफ हूं।” श्याम ने कहा।

”आप खिलाफ थे भैया, अब नहीं हैं, चुनाव जीतने में यह सब होता है। यह सबने मिलकर तय किया था, और आपसे पूछने पर आप बिदकेंगे, ऐसा सोचकर ही हमने आपसे यह बात नहीं पूछी।”

महेन्द्र बहुत अनुभवी, किन्तु तेज-तर्रार राजनैतिक कार्यकर्ता था। श्याम के साथ उसकी मित्रता भी थी, पर श्याम को यह बात जानकर महेन्द्र पर थोड़ी नाराजगी हो आई।

”यह ठीक नहीं हुआ महेन्द्र।”

”यह तो शुरूआत है श्याम सुंदर भैया! आपको प्रैक्टिकल होने में थोड़ी देर हो गई है। हम तो ‘परफेक्ट प्रैक्टिकल’ कभी से हो चुके हैं। खैर इसको अन्यथा न लें, पर आप इस बात को जान लें तो अच्छा होगा कि ‘पोलिटिक्स इज ए प्रेक्टिकल फील्ड, इट इज नाट ए गार्डन आफ आइडियल्स।”

महेन्द्र ने यह कहकर बात समाप्त की, श्याम सुंदर ने बहस करने में कोई भलाई नहीं समझी।

मगर सचमुच वो शुरूआत थी। फिर कभी कोई योजना, कभी कोई निविदा, कभी कोई ठेका, कभी कोई कार्यक्रम… अब पैसे के घालमेल को श्याम सुंदर ने सामान्य बात समझ लिया। उसे लगा ही नहीं कि कुछ असामान्य हो रहा है।

सत्ता, सुविधा और मान-सम्मान का चक्र ऐसे चला कि श्याम सुंदर सदैव इन सबकी सुरक्षा छिन जाने के डर से कई तरह के नैतिक मानदण्ड तोड़ता चला गया। उसको सत्ता की सुविधा ने पूरी तरह आकर्षित किया। उसका ज्यादातर समय दिल्ली में बीतने लगा। वह चुनाव क्षेत्र में अब कम ही जाता था। अपने ही क्षेत्र में अतिथि बनकर जाना ही अब उसे रुचता था।

पार्टी की आंतरिक राजनीति, बड़े नेताओं से सांठगांठ, मंत्रिमंडल में स्थान पाने की जुगत-जुगाड़ अब उसको ज्यादा रुचिकर विषय लगते थे। पार्टी के भीतर इस तरह के तत्वों से उसकी मित्रता भी होती चली गई।

अपनी कालेज की मित्र प्रियंका से शादी करते समय उसने उसको साफ-साफ बताया था, ”मैं तुम्हें सुख नहीं दे पाऊंगा। संघर्ष मेरी राह है। यदि तुम साथ चल सको तो मैं प्रस्तुत हूं।” प्रियंका ने सब स्वीकार किया था, किन्तु अब प्रियंका की जरूरतें भी बढ़ गई हैं, वह घर में श्याम के मां-बाप के साथ पिछले दस वर्षों से रह रही थी। पांच वर्ष की सोनम को बाप का प्यार कहां मिल पाया था। श्याम की राजनीति की व्यस्तता में घर उपेक्षित ही था। प्रियंका ने दिल्ली आकर रहने का प्रस्ताव रखा, श्याम ने अगले महीने शिफ्टिंग की योजना भी बना ली थी।

श्याम की इच्छा थी कि यह सब सुख-सुविधा अब उसके परिवार और रिश्तेदारों को भी मिले। उसको लगने लगा कि उसकी मेहनत का यह सुफल है। इसको भोगने में क्या बुराई है। पर एकाएक कभी जब उसके मन में अन्तर्विरोध भी जन्मते, तब वह स्वयं को समझाता, ‘आदर्शो की अति भी अच्छी नहीं’ ‘अखंड नैतिकता असंभव है।’

इन सुख-सुविधाओं की चाहत का सफर आज इस पड़ाव पर आ पहुंचा था। श्याम सुंदर को उसके प्रैक्टिकल हो जाने का मंजर अब नजर आ रहा था। उसके सामने दोनों रास्ते खुले थे। एक उसका अपना रास्ता था, जिससे वह भटक चुका है। दूसरा उसका वह रास्ता, जिस पर दुनिया चलती है, जमाना चलता है, राजनीति चलती है।

”एक्सक्यूज मी सर, एक जरूरी मैसेज है।” उसके निजी सहायक विनोद ने इस विचार श्रृंखला को दरवाजा खोलकर बोलते हुए भंग किया।

”ऊंह।” श्याम सुंदर ने रिस्पांस किया।

”सर पार्टी प्रेसीडेन्ट ने शाम 4 बजे आपको घर पर मिलने के लिए बुलाया है।”

”ठीक है, और कुछ…?” श्याम ने पूछा।

”सर घर से मैडम और मम्मी-पापा का फोन था, आप बात कर लीजिए सर।”

”ठीक है, करता हूं।”

”थैंक्यू सर!” विनोद चला गया।

श्याम सुंदर फिर अकेला हो गया। आज सचमुच इस सारी स्मृति श्रृंखला के बाद श्याम ने बेहद अकेलापन महसूस किया। एक क्षण को वितृष्णा, विराग सा छा गया भीतर…! मगर फिर संभला, सोचने लगा – अब तो पहला रास्ता बचा ही कहां है। सिर्फ एक ही विकल्प है कि पहले रास्ते पर चलने की बात की जाए। उसी का दावा किया जाए, पर चलना तो होगा दूसरे रास्ते पर ही… आखिर वह अब वापस नहीं लौट सकता है। यह सब कुछ छिन जाए तो फिर यहां तक आने का फायदा ही क्या हुआ।

वह बाहर निकलने की तैयारी कर रहा था। घर में सब कुछ समझा दिया है। क्या कहना है, क्या नहीं कहना है? ”शीघ्र ही इस संकट से हम बाहर निकलेंगे।” उसने अपनी पत्नी और माता-पिता को आश्वस्त किया।

अभी वो आगे की रणनीति तैयार करेगा। पार्टी प्रेसीडेन्ट को समझाएगा। दहाड़ कर कहेगा, ”यह मुझे बदनाम करने की साजिश है। आइ विल फाइट अगेंस्ट दिस कान्सपिरेसी, डेफिनेटली आइ विल विन इन दि कोर्ट।”

अपने भीतर के कोर्ट में हारा श्याम सुंदर बाहर के कोर्ट में जीतने के प्रति निश्चिंत है। ”आफ्टर आल इट इज ए प्रैक्टिकल वे आफ लाइफ…।”

विकास बनाम पर्यावरण

सतीश सिंह

सच कहा जाए पर्यावरण को बचाना 21वीं सदी का सबसे ज्वलंत मुद्दा है। लेकिन विश्‍व के किसी देश का ध्यान इस ओर नहीं हैं। सभी देश विकास के नाम पर प्रकृति द्वारा प्रदत्त संसाधनों का अंधाधुंध दोहन कर रहे हैं। सिर्फ दिखावे के लिए हर देश खास करके विकसित देश ‘सेव पर्यावरण’ का नारा देते हुए कुछ सम्मेलन, बैठक, वार्ता इत्यादि करने का ढोंग एक निश्चित अंतराल पर करते रहते हैं। इस समस्या के बरक्स कभी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने सच ही कहा था ‘प्रकृति हमारे जरुरतों को तो पूरा कर सकती है, परन्तु हमारे लालच को नहीं’। आज हमारी लालच के कारण ही हम ग्लोबल वार्मिंग के खतरों से रुबरु हो रहे हैं। उत्तर भारत में कड़ाके की शीतलहरी का कारंवा बदस्तुर आगे बढ़ता जा रहा है। यूरोपीय और अमेरिकी देशों में बर्फबारी के कहर से जन-जीवन तहस-नहस हो गया है।

इस संदर्भ में भारत के रवैये को भी बहुत सकारात्मक नहीं कहा जा सकता है। वैसे कहने के लिए भारत में पर्यावरण मंत्रालय का गठन किया गया है, जिसका काम है पर्यावरण को हर खतरे से बचाना, लेकिन हकीकत में यह मंत्रालय अपने गठन के दिनों से ही रबर स्टांप की तरह काम कर रहा है।

श्री जयराम रमेश के पर्यावरण मंत्री बनने के बाद से यह मंत्रालय सुर्खियों में रहने लगा है। जयराम रमेश ने अपने हालिया बयान में कहा है कि अक्षरधाम मंदिर के निर्माण के लिए पर्यावरण मंत्रालय से अनुमति नहीं ली गई थी। श्री रमेश के इस ताजा शगूफा से भारत में पर्यावरण का मसला फिर से गरमा गया है।

उल्लेखनीय है कि अक्षरधाम मंदिर का निर्माण यमुना के तट पर लगभग 30 एकड़ जमीन पर सन् 2005 में राजग सरकार के कार्यकाल में तत्कालीन गृहमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी की अनुमति देने के बाद किया गया था।

अब पर्यावरण मंत्रालय नदी नियमन क्षेत्र संबंधी अधिसूचना जारी करने के संबंध में गंभीरतापूर्वक विचार कर रहा है। ताकि भविष्य में इस तरह के निर्माण से किसी भी नदी को कोई नुकसान न पहुँचे।

यहाँ पर यह सवाल उठता है कि किस बिना पर यमुना के किनारे राष्ट्रमंडल खेल के लिए खेलगाँव का निर्माण किया गया था और पर्यावरण मंत्रालय के द्वारा उसे निर्माण हेतु मंजूरी भी दी गई थी? इस मौजूं सवाल के जबाव में श्री जयराम रमेष का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के कारण खेलगाँव का निर्माण संभव हो सका था।

इतना तो तय है कि आज की तारीख में यमुना की हालत खराब है। दिल्ली में यमुना का जैसा स्वरुप है उसे नदी तो कदापि नहीं कह सकते हैं। क्या श्री जयराम रमेश यमुना के इस बदतर हालत के लिए मुख्यरुप से जिम्मेदार कॉरपोरेट घरानों के गिरेबान तक कभी पहुँच पाएंगे ? आज यमुना के अलावा भी देश के अनेक नदियाँ प्रदूषण के कारण या तो सूख चुकी हैं या उसका पानी किसी काम का नहीं रहा है। पवित्र पावन नदी गंगा की जो स्थिति कानपुर और पटना में है, वह निश्चित रुप से भयावह है।

बावजूद इसके आजकल कॉरपोरेट जगत में यह चर्चा जोरों पर है कि ‘होइहें वही जे, जयराम रचि राखा’। वॉल स्ट्रीट जनरल अखबार में प्रकाशित एक आलेख में आर्थिक विकास की राह में श्री रमेश को सबसे बड़ा रोड़ा बताया गया है। आलेख में उनपर तानाषाह की तरह काम करने वाला मंत्री कहा गया है।

हाल ही में श्री रमेश के झटकों से पॉस्को का प्रोजेक्ट, वेदांता की खनन परियोजना, नवी मुम्बई का हवाई अड्डा परियोजना, आंध्रप्रदेश तथा पूर्वोतर में नदियों पर बनने वाले बांध, लवासा प्रोजेक्ट तथा अन्यान्य इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं हिल-डूल रहे हैं।

हिन्दुस्तान कंस्ट्रक्षन कंपनी की सब्सिडियरी लवासा कॉरपोरेशन को नोटिस भेजने के मामले पर तो श्री शरद पवार ने सीधे तौर पर श्री रमेश के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। इसका मुख्य कारण लवासा प्रोजेक्ट में श्री शरद पवार की बेटी की हिस्सेदारी का होना है।

वैसे पूर्व में भी अनेकानेक मामलों में श्री शरद पवार ने कॉरपोरेट घरानों का खुलकर समर्थन किया है। श्री पवार का चीनी कारोबारियों की लॉबी के साथ प्रगाढ़ संबंध होने की बात भी जगजाहिर है।

ज्ञातव्य है कि भारत में पर्यावरण को अक्षुण्ण रखने के नाम पर आदिवासियों को एक अरसे से अंग्रेजों के जमाने में बने हुए भारतीय वन कानून के प्रावधानों के कारण उत्पीड़त किया जा रहा है। श्री रमेश चाहते हैं कि बजट सत्र में इस कानून के सबसे विवादित धारा 68 में संशोधन किया जाए। इस धारा के कारण आदिवासियों के खिलाफ जंगल जाने, वन संपदा लेने इत्यादि जैसे साधरण मामलों में भी आपराधिक मामला दर्ज किया जाता है।

वन अधिकार कानून पर बनी कमेटी ने हाल ही में अपनी रपट पर्यावरण मंत्रालय को सौंपी है। इस रपट में कहा गया है कि अभी तक देश में कोई आदिवासी नीति नहीं है और न ही कोई ठोस पुनर्वास नीति। इसके कारण बडे पैमाने पर आदिवासियों और जंगल पर निर्भर रहने वाले अन्यान्य लोगों के अधिकारों का हनन हो रहा है।

एक तरफ तो श्री जयराम रमेश बड़ी-बड़ी परियोजनाओं को पर्यावरण के नाम पर रोकने का नाटक कर रहे हैं तो दूसरी तरफ उघमियों को पर्यावरण मंजूरी के लिए मैनुअल फॉर्म भरने के लिए दफ्तर न जाना पड़े और साथ ही उनसे लंबी प्रतीक्षा भी न करवाया जाए, इसके लिए भरपूर जतन भी कर रहे हैं। उनका आदिवासी प्रेम भी महज एक दिखावा है। नवी मुम्बई के हवाई अड्डा परियोजना के मामले में शुरुआत में श्री रमेश ने जरुर अड़ंगा लगाया था, किन्तु कालांतर में प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह के हस्तक्षेप के बाद उक्त परियोजना को हरी झंडी दिखा दी गई थी।

श्री रमेश और यूपीए सरकार की इस दोहरी नीति से भले ही अनपढ़ और नासमझ लोग तात्कालिक रुप से खुश हो सकते हैं, परन्तु पढ़े-लिखे प्रबुद्व जन इस दिखावे के सच को अच्छी तरह से जानते हैं।

सियासत और सेक्स की कॉकटेल-कथा-2

मोहब्बत के बदले मौत…

यौन शोषण की तोहमतों के घेरे में आए तीन विधायकों की `प्रेम? कथा’ आपने पढ़ी, अब बारी है, एक ऐसी ही लव स्टोरी की, जिसमें बात क़त्ल तक पहुंच गई।

– चण्डीदत्त शुक्ल

एक बहुत पुरानी फ़िल्म का गाना है—मोहब्बत की झूठी कहानी पे रोए…बड़ी चोट खाई, जवानी पे रोए। कुछ ऐसी ही है सियासत और सेक्स की कॉकटेल कथा, जिसे सुनकर-पढ़कर-देखकर बस माथा पीटने का मन करता है…सिर धुनने को जी कर उठता है। ऐसी ही तो थी मधुमिता-अमर की प्रेमकथा, जिसे अमरत्व नसीब नहीं हुआ। मधु थी यूपी की एक तेज़-तर्रार कवयित्री, जो शब्दों के तीर चलाकर बड़े-बड़ों को घायल कर देती थी पर उसकी निगाहों के तीर से उत्तर प्रदेश के एक विधायक जी ऐसे घायल हुए कि घर-परिवार की ज़िम्मेदारियां तक भुला बैठे।

2003 के मई महीने की एक तारीख़। अचानक यूपी के लोग ये ख़बर सुनकर थर्रा उठते हैं कि युवा छंदकार मधुमिता शुक्ला का लखनऊ की पेपर कॉलोनी स्थित घर में कोल्ड ब्लडिड मर्डर कर दिया गया है—यानी नृशंस तरीके से हत्या। किसी की समझ में नहीं आता कि मंचों की जान मानी जाने वाली मधु का मर्डर किसने और क्यों कर दिया।

पंचनामा हुआ, बयान दर्ज हुए, पोस्टमार्टम किया गया, जांच हुई, सबूत तलाशे गए और फिर सामने आया—दहला देने वाला सच। मधु की हत्या के पीछे उत्तर प्रदेश के विधायक और पूर्व मंत्री अमरमणि त्रिपाठी का हाथ बताया गया।

सच तो ये है कि मधुमिता को क़त्ल ना होना पड़ता, लेकिन उसने मंत्री-प्रेमी-नेता के कॉम्बिनेशन वाले अमरमणि से ज़िद कर ली—अब मुझे जन्म-जन्म का साथी बनाओ। ये छिप-छिपकर मिलते रहने से जो रुसवाई मेरे माथे पर आ रही है, वह बर्दाश्त नहीं होती। अमरमणि को अब तक जो मोहब्बत ज़िंदा रखती थी, मधुमिता का वही साथ अब उन्हें काट खाने दौड़ने लगा। जानकार कहते हैं, यही वो पल था, जब अमर ने ठान लिया—अब मधुमिता को अपने जीवन में शामिल नहीं करना है।

मधुमिता भी मज़बूर थी। उसके पेट में अमरमणि का बच्चा पल रहा था। शक की सुई उठने पर अमर ने इनकार किया—नहीं, मेरा मधु से कोई रिश्ता नहीं था, लेकिन डीएनए टेस्ट से साबित हुआ—मधु के गर्भ में पल रहे बच्चे के वही पिता हैं।

21 सितंबर, 2003 को अमर गिरफ्तार कर लिए गए। अदालत ने उनकी ज़मानत की अर्जी भी खारिज कर दी। इसके बाद 24 अक्टूबर को देहरादून की स्पेशल कोर्ट ने अमरमणि त्रिपाठी, पत्नी मधुमणि त्रिपाठी, उनके चचेरे भाई रोहित चतुर्वेदी और सहयोगी संतोष राय को मधुमिता शुक्ला की हत्या के मामले में दोषी करार दिया। अदालत ने अमरमणि को उम्रकैद की सज़ा सुना दी। अमर के पास अपील के मौके हैं। वो कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं, लेकिन मधु किससे दुहाई दे। उसने कब सोचा था—जिस लीडर पर सबकी रक्षा करने की ज़िम्मेदारी है, वही यूं रुसवा करेगा और जान का ही दुश्मन बन जाएगा!

ठेठ गंवई लोकचेतना का पुरोधा नहीं रहा

शिवानन्द द्विवेदी

भोजपुरी संगीत का एक बुलंद आवाज अब हमेशा के लिए थम गया। भोजपुरी की इस अपूरणीय क्षति से समूचा भोजपुरी समाज स्तब्ध है। बालेस्सर यादव सिर्फ एक नाम नहीं बल्कि एक ख़ास पहचान भी है क्योंकि भोजपुरी की वो ठेंठ गंवई तान जो बालेस्सर यादव में थी, शायद ही अन्यत्र कहीं मिले। मैं काफी दिनों से बालेस्सर यादव को सुनता आ रहा हूँ और शायद उनके हर गाने से मैं परिचित हूँ। भोजपुरी संगीत और साहित्य को नई दिशा एवं दशा देने का श्रेय बालेस्सर यादव एवं भिखारी ठाकुर को ही जाता है। बलेस्सर यादव उस दौर के गायक एवं गीतकार हैं जब भोजपुरी संगीत आज की तरह टी.वी, कैसेट,सिनेमा के माध्यम से मशहूर नहीं हो सकती थी और अत्याधुनिक संसाधन की तो कोई गुंजाइश ही नहीं थी। बावजूद इन सबके भोजपुरी का वह सपूत आम आदमी के दिल में घर कर गया। मेरा मानना यह है कि बालेस्सर यादव में समाज की दशा एवं द्वन्द को भांपने की विलक्षण प्रतिभा थी वो वही गाते थे जो समाज की आवश्यकता होती थी। अपने कंठ के माध्यम से उन्होंने समाज के तमाम रीतियों-कुरीतियों को दर्शाने का सफल प्रयास भी किया है। भोजपुरी संगीत की सबसे ठेंठ गंवई विधा विरहा के तो वो सम्राट थे। विरहा में रई रई रई रई और जिउ जिउ जिउ की खोज का श्रेय भी बालेस्सर यादव को ही जाता है।

उनकी सबसे मशहूर पंक्तियों में से एक ” हँसी-हँसी पनवा खियावे बेईमनवा” और “मरदा मनईया सीमा पे सोभे मउगा मरद ससुरारी में ” आज भी हर बार सुनाने के बाद एक बार और सुनने का मन करता है। उनको सीधे मंच से ना सुन पाने की कसक आज भी मुझमें है और शायद ताउम्र रहेगी। एक तरफ जब भोजपुरी में तमाम संभावनाएं उभर कर सामने आ रहीं है वहीं धीरे-धीरे भोजपुरी में उस ठेंठ गंवयिपना का अभाव भोजपुरी में देखने को मिल रहा है ऐसा लग रहा है मानो भोजपुरी का भी शहरीकरण हो रहा है। जिस त्याग और निस्वार्थ भाव से बलेस्सर यादव ने भोजपुरी मिट्टी के घोल को अपने लेखनी में उकेर कर अपने उस झनकती आवाज में जो तान दी शायद आज भोजपुरी उसे संभालने को भी तैयार नहीं है। आज का गायक समाज भोजपुरी को सिर्फ गा रहा है जबकि बलेस्सर यादव सरीखे लोग भोजपुरी को जी रहे थे। मंचों के उस दौर में बालेस्सर यादव जिस नगर, जिस शहर या गावं में गए बस वहीं के हो कर रह गए। पूर्वी उत्तरप्रदेश के लोग शायद आज भी उनके उस गीत “निक लागे टिकुलिया गोरखपुर के…” को नहीं भूल पाए होंगे। हालांकि भोजपुरी संगीत की व्यक्तिगत समस्या “अश्लीलता” से बलेस्सर यादव भी अछूते नहीं रहे, उन पर भी संगीत में अश्लीलता का लोप करने का आरोप लगता रहा। यहाँ तक की बलेस्सर यादव के गीत तमाम परिवारों में वर्जित थे और आज भी है। बहुत लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि भोजपुरी में अश्लीलता के नीव बालेस्सर यादव ने ही रखी थी। हालांकि इस मुद्दे पर अभी चर्चा करना समय की नजाकत के खिलाफ होगा क्योंकि हो सकता है कि उनके गानों में वयस्कता अथवा अश्लीलता का लोप हो लेकिन उनके द्वारा लोक गीतों में खड़े किये गए तमाम आयाम इन बातों को बौना साबित करने के लिए काफी हैं। इस सन्दर्भ मेरा तर्क सिर्फ ये है कि ” बालेस्सर यादव का मजबूत पक्ष उनकी लोकगीतों में परिशुद्धता है ना कि कमजोर पक्ष गीतों में अश्लीलता “अर्थात “वो जितने शुद्ध थे उतने अशुद्ध नहीं “। शुद्धता और अश्लीलता के मामले में उनकी तुलना आज के गायकों से करना कहीं से उचित नहीं होगा।

आज हमारे बीच वो गवईं अंदाज, वो ठेंट अदा, लोकगायकी का दीवानापन, वो खनकती आवाज नहीं रही। अपने तान से हर मौसम को जीवंत कर देने वाला वो भोजपुरी का बेटा हमेशा के लिए खामोशी के आगोश में सो गया। जिसके झनकार से माहौल खुशमिजाज हो जाता था आज वो अपनी माँ भोजपुरी को ग़मगीन करके चला गया। बालेस्सर यादव भले ही हमारे बीच आज नहीं है लेकिन जब जब बात भोजपुरी संगीत की होगी बलेस्सर यादव का नाम अग्रिम पंक्तियों में लिया जाएगा और भोजपुरी को अमर माटी के सपूत पर नाज रहेगा।

लोकगायक बालेश्वर: ‘माटी के देहियां माटी में’

प्रदीप चन्द्र पाण्डेय

लोकगायक बालेश्वर को शायद यह पता नहीं था कि ‘ माटी के देहिया माटी में’ जिस गीत को वे डूबकर गाया करते थे उनका भी अंतिम समय इतना करीब आ गया है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के कला प्रेमियों के लिये बालेश्वर का निधन हतप्रभ कर देने वाला है। अरे रे, रे रे रे रे के माध्यम से दुनियां के अनेक देशों में छा जाने वाले बालेश्वर का माटी से निकट का रिश्ता था। मऊ जनपद के बदनपुर गांव में 1 जनवरी 1942 को जन्मे बालेश्वर ने भोजपुरी लोक गीतों को ऐसे समय में ऊंचाई दिया जब कोई इसकी कल्पना भी नहीं कर पाता था। आज देश के साथ ही विदेशों में भी भोजपुरी की जो धूम दिखायी पड़ती है इस नये अध्याय के वे कर्णधार थे। ‘बालम कै चिट्ठी आइल, ‘गवनवा लइजा राजा जी’ सहित अनगिनत गीतों के माध्यम से बालेश्वर ने लोगों के दिलों में जो जगह बनाया वह वर्षों तक याद रहेगा। गीतों के माध्यम से मिली सफलता के बाद मऊ के अपने पैतृक गांव से उनका रोज का रिश्ता भले टूट गया हो किन्तु लखनऊ के हजरतगंज इलाके के संजय गांधी नगर में रहते हुये भी वे अपने गांव, खेत खलिहान और नायक, नायिका की वेदना, परदेशिया, विदेशिया के दंश को विविध रूपों में जीते रहे। भोजपुरी गीतों का यह आकाश 9 जनवरी 2011 को माटी में समाहित हो गया। मधुमेह की चोर बीमारी ने आखिर जिन्दगी की दूरी को निगल लिया।

सहजता, विनम्रता और फक्कडपन के साथ ही यारबाज रहे बालेश्वर की कमी भोजपुरी क्षेत्र के वासियों को हमेशा खलेगी। उनका असमय जाना भोजपुरी गीतो के प्रेमियों को खल गया। उनसे बड़ी उम्मीद थी। अब तो वे शोर से अलग निर्गुण परम्परा की ओर बढ रहे थे। नियति को शायद यह मंजूर नहीं था और माटी का यह पुतला पंच तत्व में समा गया। अब बालेश्वर के मुख से रे रे रे रे, की गूंज तो नहीं सुनाई देगी किन्तु कैसेट सहित अन्य माध्यमों से उनके प्रेमी बालेश्वर के गीतों में अपने अंचल का सुख, दु:ख, वेदना उछाह तलाशते रहेंगे। उन्होने अपने गीतों के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों पर भी प्रहार किया और उनके गीत सीधे जन मानस में धंस जाते थे। बालेश्वर को इस रूप में विनम्र श्रध्दांजलि कि उनके गीत सदा अमर रहे और इस अंचल की ख्याति और संत्रास को शब्द और स्वर देते रहें।

(लेखक दैनिक भारतीय बस्ती के प्रभारी सम्पादक हैं)

अनूठे गौ सेवक भाईजी

आशीष कुमार ‘अंशु’

‘कुल्लू के अंदर दूध ना देने वाली गाएं किसानों के लिए बड़ी समस्या बनती जा रहीं हैं, इसी प्रकार बिलासपुर, मंडी में बंदरों का आतंक हैं। हिन्दू समाज के लोग अपनी धार्मिक आस्था की वजह से इन्हें मारते नहीं हैं। जिसकी वजह से उन्हें नुक्सान भी उठाना पड़ता है।’

बागवानी अनुसंधान केन्द्र सेऊबाग कुल्लू के वरिष्ठ वैज्ञानिक जेपी शर्मा के अनुसार- बंदरों को संभालने और सड़क पर घूम रही गायों को आश्रय देने के लिए इन क्षेत्रों में कुछ संस्थाएं काम भी कर रहीं हैं। लेकिन सड़क पर घूम रही गायों और उत्पात मचा रहे बंदरों की तुलना में इन संस्थाओं की संख्या नगण्य है।

बात कुल्लू के आस पास के क्षेत्रों में सड़क पर छोड़ दी गई गाय की करें तो इन पर लगाम नहीं लगाया जा सकता। ना ही उन गरीब किसानों पर जुर्माना लगाना सही होगा, जो गाय का दूध बंद होते ही उसे घर निकाला दे देते हैं। चूंकि उन किसानों के लिए अपना घर चलाना मुश्किल होता है। उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होेती। अब ऐसे गाय के चारे के ऊपर प्रतिदिन चालिस से पचास रुपए खर्च करना आसान बात तो नहीं है।

कुल्लू के ही सुरेन्द्र मेहता ने ऐसी गायों की सेवा के लिए एक नायाब रास्ता निकाला है। वे ऐसे लोगों की टीम जोड़ने में लगे हैं जो गौ सेवा को अपना धर्म माने। गौ सेवा के लिए ऐसे लोग तैयार कर रहे हैं, जो थोड़ा-थोड़ा ही सही लेकिन गौ सेवा में अपना सहयोग करें। हो सकता है, आपको उन्हें सुरेन्द्र मेहता नाम से तलाशने में मुश्किल हो लेकिन उनके उपनाम ‘भाईजी’ से जानने वाले आसानी से मिल जाएंगे। फिर उन्हें ढूंढ़ना मुश्किल नहीं होगा। यहां एक खास बात यह है कि सुरेन्द्रजी ने अपने सेवा के काम के लिए कोई एनजीओ या ट्रस्ट नहीं बनाया हुआ। मीडिया से भी सम्मानजनक दूरी बनाकर रखते हैं। उनका मानना है कि व्यक्ति के अंदर प्रचार की भूख उसके काम में बाधा लाती है। सेवा के काम में लगे लोगों को अपने काम में ही विश्वास रखना चाहिए। प्रचार में नहीं।

भाईजी कुल्लू में रोगियों का प्राकृतिक चिकित्सा, योग और आयुर्वेद के माध्यम से निशुल्क ईलाज करते हैं। प्रतिदिन उनके पास तीस चालिस मरीज आ जाते हैं। रविवार के दिन इनकी संख्या 150 के आस पास होती है, चूंकि रविवार को टोकन लेकर दूसरे शहरों के मरीज भी आ जाते है। भाईजी बताते हैं, रविवार को सुबह नौ बजे से बैठे-बैठे रात के नौ भी बज जाते हैं। ईलाज के लिए आए मरीजों इनके पास ईलाज तो निशुल्क होता ही है, साथ साथ उनके चाय, नाश्ते और भोजन की चिन्ता भी भाईजी करते हैं। इसके बदले भी मरीजों या उनके परिजनों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता। ईलाज के दौरान दूसरे शहर से आए रोगी को रोकने की जरुरत है तो उनके रहने का इंतजाम भी भाईजी करते हैं।

ऐसा नहीं इन सारी सेवा के बदले भाईजी को कुछ चाहिए नहीं होता, वह अपनी मांग मरीज के स्वस्थ हो जाने के बाद रखते हैं। जिसने चुका दिया तो भला, जिसने नहीं चुकाया उसका भी भला। वह अपने मरिजों की रोग मुक्ति के बाद सबसे पहले उसका मांसाहार छुड़ाते हैं। यह उनका पहला अध्याय है। दूसरा अध्याय है, पशु प्रेम। प्रतिदिन अपने घर में एक रोटी अतिरिक्त बनाने और उसे घर के आस पास किसी पशु को खिलाने की प्रेरणा भाईजी देते हैं। उनके संपर्क लोग महीने में एक बार गांव के बच्चों के साथ मिठी रोटी लेकर गांव की परिक्रमा करते हैं और उन घरों में जाते है, जहां पशु पालन होता हैं। वहां बच्चों के हाथ से पशुओं को मिठी खिलवाई जाती है। इससे गौ माता और बच्चे के बीच परस्पर एक रिश्ता बनता है। भाईजी की प्रेरणा से बहुत से गांवों में ऐसे स्वयंसेवी भी तैयार हुए हैं जो तीन महीने में एक बार गाय दांतों की सफाई नमक से करते हैं। सफाई के लिए गाय के जबड़े में अपना हाथ देना पड़ता है। इस सफाई से गाय को चारा चबाने में सुविधा होती है।

इस समय भाईजी की प्रेरणा से अलग अलग कई तरह के सेवा के कार्य कुल्लू क्षेत्र में चल रहे हैं। अनामिकता के भाव के साथ काम करने की भाईजी की यह शैली किसी को भी प्रेरित कर सकती है। भाईजी की भगवान कृष्ण में गहरी आस्था है। वे कहते हैं, मैं तो सिर्फ निमित हूं, करने वाला तो वह है जो ऊपर बैठकर सबको नचाता है।

सोशल मीडिया को और प्रासंगिक कैसे बनाएं

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

फेसबुक और दूसरे सोशल नेटवर्क पर आकर्षक और प्रासंगिक विषयवस्तु की समस्या बनी हुई है। हिन्दी वाले सोशल नेटवर्क पर ज्यादातर व्यक्तिगत खोजखबर लेने ,हंसी -मजाक करने, रसभरी बातें करने,अतीत का स्मरण करने ,दैनंदिन जीवन की बातें करने में खर्च कर रहे हैं। हिन्दी भाषी राज्यों में जिस तरह का सांस्कृतिक,विचारधारात्मक और राजनीतिक वैविध्य है उसके दर्शन सोशल नेटवर्क पर अभी नहीं हो रहे। खासकर फेसबुक पर हमारे हिन्दीभाषी राज्यों के जीवन की विविधता और दैनंदिन जीवन की चुनौतियां नजर नहीं आ रही हैं।

सोशल नेटवर्क की सफल अंतर्वस्तु की रणनीति पर अभी कोई सुसंगत चर्चा भी हम नहीं कर पाए हैं। मसलन फेसबुक और ऐसी ही सोशल नेटवर्क का किस तरह बेहतर इस्तेमाल किया जाए। इसके बारे में भारत के व्यापारी भी ज्यादा नहीं जानते और यदि जानते भी हों तो ज्यादा इस्तेमाल नहीं करते। हिन्दी में अभी इक्का-दुक्का किताब प्रकाशक हैं जो अपनी किताबों के प्रचार-प्रसार के लिए फेसबुक का बड़े असुंदर ढ़ंग से इस्तेमाल कर रहे हैं। वे किसी पेशेवर व्यक्ति की अपने काम में मदद भी नहीं ले रहे हैं।

सोशल नेटवर्क की अंतर्वस्तु को दुरूस्त करने के लिए कुछ निम्न प्रस्ताव हैं जिन पर आप काम कर सकते हैं और चाहें तो इसमें कुछ और भी जोड़ सकते हैं। सोशल वेब को अपको अपने ब्राण्ड के अनुरूप बनाना चाहिए। जिस तरह का व्यक्ति है, उसके जिस तरह के विचार, मूल्यबोध,व्यवहार और विचारधारा है उसके अनुरूप बनाना चाहिए। अथवा जिस तरह का ब्राँण्ड है उसकी प्रकृति के अनुकूल सोशल वेब को बनाया चाहिए।

हिन्दी में मनमानापन चल रहा है। ज्यादातर हिन्दीवाले अपने विचार,मूल्य,आदत, संस्कार आदि के अनुकूल सामग्री कम परोस रहे हैं। मसलन जो पत्रकार हैं उनकी सोशल वेब पर खबरें और सामयिक विचारों पर उनका लिखा कम से कम है। वे अपनी निजी मेहनत नहीं कर रहे। वे अन्य की सामग्री एकत्रित करके प्रसारित कर रहे हैं। इससे सही ब्राँण्डिंग नहीं हो पाती। इससे उनकी पेशवर क्षमता या कौशल को भी हम नहीं देख पाते हैं।

मसलन हमारे जेएनयू के दोस्तों ने फेसबुक पर अपना ग्रुप बनाया है। इस ग्रुप में सभी ज्ञानी लोग हैं। लेकिन वे इस ग्रुप के बहाने जेएनयू की और भी सुंदर बाँण्डिंग कर सकते थे लेकिन अभी तक नहीं कर पाए हैं। वे एक खास किस्म के नाँस्टेल्जिया में जी रहे हैं और जेएनयू के ढ़ावे से लेकर इधर-उधर के मृतप्रसंगों पर टिप्पणियां कर रहे हैं। मेरी राय में इतने समर्थ और ज्ञानी लोगों से वेब सोशल नेटवर्कसमाज कुछ और ही अपेक्षाएं रखता है। यही दशा हमारे अन्य फेसबुक पर सक्रिय दूसरे अनेक दोस्तों की है। हिन्दी में इंटरनेट उन्नति करे इसके लिए पहली अनिवार्य शर्त है कि वेब लेखक हिन्दी में लिखें। हिन्दी के यूनीकोड फॉण्ट का इस्तेमाल करना करें। अभी अधिकांश यूजर चैट से लेकर टिप्पणियां लिखने तक रोमन लिपि में हिन्दी लिखते हैं। यह हिन्दी के भविष्य के लिहाज से दुखद स्थिति है।जो हिन्दीभाषी नहीं हैं और हिन्दी से इतर भाषा में जिनका पठन-पाठन हुआ है वे सुविधानुसार रोमन लिपि में लिखें तो समझ में आता है। लेकिन जो हिन्दी भाषी हैं उन्हें तो हिन्दी के यूनीकोड फॉण्ट में लिखने की आदत डालनी चाहिए। अपने कम्प्यूटर या लैपटॉप में हिन्दी फॉण्ट डाउनलोड करना चाहिए। यही बात अन्य भाषाभाषियों पर भी लागू होती है वे अपनी भाषा में यूनीकोड फॉण्ट का इस्तेमाल करें।

पिछले दिनों हमारे एक दोस्त सुहेल हाशमी ने एक संदेश दिया कि फेसबुक पर उर्दू भाषा में अभिव्यक्ति की सुविधा होनी चाहिए। मैं इस कॉज के साथ हूँ। आज स्थिति यह है कि उर्दू माइक्रोसॉफ्ट के पैकेज का हिस्सा है। विण्डोज विस्टा और माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस 2007 के लैंग्वेज इंटरफेस पैक में उपलब्ध है। उर्दू को आसानी से डाउनलोड भी कर सकते हैं। लेकिन सवाल है लिखने का। फेसबुक पर उर्दू लिखने का काम उर्दूभाषियों का है। कहने का अर्थ है कि सोशल वेब पर आप अपनी स्वयं ब्राँण्डिंग ठीक से करें। दूसरी बात यह कि सोशल वेब पर लेखन सरल,रंगीन,खिलंदडी,कल्पनाशील होना चाहिए।

सोशल वेब पर लिखते समय यह भी ध्यान रहे कि आप जब भी लिखें या उसका व्यापार के लिए इस्तेमाल करें तो वह आपके नाम से,वेब से ही अभिव्यंजित हो। वहां पर आने वालों के लिए प्रासंगिक सूचनाएं उपलब्ध हों। संभावित कलैण्डर उपलब्ध हो।

वेब पर आपका कोई अनुसरण क्यों करे ? आपको पसंद क्यों करे ?इसके लिए जरूरी है आप उसमें यह एहसास पैदा करें कि आप उसे कुछ देंगे। आपके पास आने से उसे कुछ मिलेगा। बतखोरी करना अच्छी बात है लेकिन महज बतखोरी को सर्जनात्मक नहीं कहते। सोशल वेब पन्नों पर कुछ न कुछ प्रासंगिक लिखा जाए। प्रत्येक यूजर अपने हिसाब किसी न किसी प्रासंगिक समस्या,अनुभव,साहित्य,विचार,बाजार,पास-पड़ोस, कस्बा, गांव आदि के बारे में लिखे।

वेब भावों,विचारों,अनुभूतियों,वस्तुओं आदि के बारे में संप्रेषण का शक्तिशाली मंच है। यूजर को कोशिश करना चाहिए कि वह अधिकांश समय ऐसे संदेश लिखे जो ज्यादातर लोगों के काम के हों।मसलन हम संस्कृति,व्यवहार,संस्कार आदि को लेकर संवाद के विभिन्न स्तरों और परतों को खोल सकते हैं।

मनुष्य सामाजिक प्राणी है और वह स्वयं को जिंदा रखने और अपना विकास करने में इसलिए सफल रहा है क्योंकि उसने समस्याओं और सवालों के समाधान खोजे हैं। सोशल वेब के यूजरों की जिम्मेदारी बनती है कि यूजरों के सवालों और समस्याओं के समाधान की दिशा में प्रयास करें।

एक अच्छी अंतर्वस्तु कभी नकली नहीं होती। अच्छी अंतर्वस्तु को आप संचित करते हैं। फैंकते नहीं हैं। एक अच्छी अंतर्वस्तु ईमानदार और मानवीयभावों को अभिव्यक्त करती है। हम उसका पीछा करते हैं। उसे लेकर व्यस्त रहते हैं। समाज बनाते हैं। इससे ही सोशल मीडिया बनता है।

कविता / मन का शृंगार

काश।

एक कोरा केनवास ही रहता

मन…।

न होती कामनाओं की पौध

न होते रिश्तों के फूल

सिर्फ सफेद कोरा केनवास होता

मन…।

न होती भावनाओं के वेग में

ले जाती उन्मुक्त हवा

न होती अनुभूतियों की

गहराईयों में ले जाती निशा।

सोचता हूं,

अगर वाकई ऐसा होता मन

तो मन मन नहीं होता

तन तन नहीं होता

जीवन जीवन नहीं होता…।

तो सिर्फ पौधा एक पौधा होता

फूल सिर्फ एक फूल होता

फूल पौधों का उपवन नहीं होता…।

हवा सिर्फ हवा होती

निशा सिर्फ निशा होती

कोई खूशबू नहीं होती

कोई उषा नहीं होती…।

जीवन की संजीवनी है भाव

रिश्तों का प्राण है प्यार

मन और तन दोनों का

यही तो है

शाश्वत शृंगार

एक मात्र मूल आधार… ।

-अंकुर विजयवर्गीय

द्रोणाचार्य या चाणक्य?

शशांक शेखर

सर्वविदित है कि भारत विविधताओं का देश रहा है। यहाँ गुरु को गोविन्द से ऊपर का स्थान दिया जाता है। भारत सदैव अपने अस्तित्व को महान बनाए रखने के लिए अतीत का सहारा लेता आया है। साथ ही वर्तमान के धुरंधरों को सम्मानित करने के लिए अतीत के महान व्यक्तियों के नाम को उपाधि मानता रहा है। ऐसे ही महान काल्पनिक व्यक्ति थे द्रोणाचार्य जिनके नाम से भारत के गुरुओं (खेल) को सम्मानित किया जाता है।

द्रोण ने अपने काल में कुरु वंश के नौनिहालों को धनुर्विद्या के साथ-साथ युद्ध की बारीकियों से अवगत कराया। ऐसे में वह महान बन जाते हैं पर उनके साथ तमाम ऐसी बातें भी हैं जिनसे उनके महानता पर प्रश्न चिह्न लगते हैं।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय के खंडपीठ ने भी माना है कि द्रोण ने भील जाति के एकलव्य से दाहिने हाथ का अंगूठा मांग कर अपनी जातीयता और प्रिय शिष्य के प्रति अपने लगाव को उजागर किया था।

जातीयता के प्रति उनका दृष्टिकोण यहीं ख़त्म नहीं होता। प्रशिक्षण के दौरान भी निम्न जाति के प्रति उनकी हीन भाव को देखा जा सकता है। उन्होंने कर्ण को प्रशिक्षण इस आधार पर नहीं दिया कि वह क्षत्रिय नहीं थे पर उन्होंने अपने बेटे अश्वस्त्थामा को प्रशिक्षित किया जबकि द्रोण खुद क्षत्रिय नहीं थे। कुरुक्षेत्र में भी अपने बेटे के मरने की झूठी ख़बर सुन कर ही वह अस्त्र-शस्त्र त्याग कर धरा पर बैठ किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए।

ऐसे सोच को हम कैसे भारत का आदर्श मान लें? क्यों हम उनके नाम का गुणगान और सम्मान करें?

हम क्यों भूल रहे हैं उस आदर्शवादी को जिसने भारत को महान बनाने में जातिवाद जैसी विकृति से ऊपर उठकर पूरे मुल्क को एक सूत्र में पिरोने की कसमें खाई।

भारत को सबसे प्रतापी राजा निम्न जाति से मिला जिसे तैयार किया एक ब्राह्मण ने। जी हां, हम बात कर रहे हैं चंद्रगुप्त मौर्य और उनके गुरू चाणक्य की। देश के मानस में स्वर्ण युग का सपना भरने वाले कौटिल्य ने कभी यह नहीं सोचा कि एक निम्न वर्ग के व्यक्ति को वह शिक्षा क्यों दें?

दरअसल, भारत में गुरू की महिमा इस कल्पना पर टिकी है कि उसका स्वयं का कोई जाति नहीं होता और अपने शिष्य में वह सिर्फ एक बच्चा देखता है। उसे बच्चे की जाति से कोई मतलब नहीं होता। अपनी शरण में लेकर गुरु शिष्य के इस अवधारणा को पुष्ट करना ही उसका काम है। वह अपने शिष्य की जाति, रंग, संप्रदाय, अमीरी, गरीबी से कोई मतलब नहीं रखता। गुरु के लिए तो सब बराबर है और यह भावना कौटिल्य में थी न कि द्रोण में । फिर वे भारत के आदर्श गुरु कैसे हो सकते हैं?

यह बात मान सकते हैं कि चाणक्य की ज्यादा प्रसिद्धि इस बात को लेकर थी कि वे राजनीति के विद्वान हैं। उन्हें राजनीतिक दांव पेंचो की वजह से शायद खेलों के लिए आदर्श गुरू नहीं माना जा सकता। लेकिन इस बात को मानने से पहले यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि राजनीति आज इतनी गंदी हो गई है वरना राजनीति अपने आप में एक पवित्र विद्या है जो कठिन साधना के बाद सीखी जाती है। जानने वाले इस बात से भी इनकार नहीं करेंगे कि चंद्रगुप्त मौर्य एक बहादुर योद्या और दमदार लड़ाका थे।

हम पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधकृष्‍णन के जन्म दिवस पर शिक्षक दिवस मनाते हैं, पर भूल जाते हैं चाणक्य को जिन्होंने मौर्य वंश के बालक को भारत का प्रधान बनाया। जिद्द पर आकर नन्द वंश का समूल नष्ट किया। सिकंदर जैसे योद्धा के सामने एकजुट होकर लड़ने की प्रेरणा दी।

कलयुग में जन्मे वे एकमात्र ऐसे धरोहर हैं जिन्हें आज पूरा विश्व उनके दिए हुए तर्कों और नीति के लिए याद करता है, पर भारत सरकार आज उनसे उदासीन है। कारण महज ही राजनीतिक है। चाणक्य की राजनीति में हत्या लूटमार, और साजिश नहीं थी। वहां जनता का विश्वास पाकर उसका शोषण करने की नीति नहीं थी। जनता का हक मारकर अपनी तिजोरी भरने की शिक्षा चाणक्य ने अपने शिष्य को कभी नहीं दिया। वोट के लिए हिन्दू मुस्लिम का मजबूत कॉन्सेप्ट नहीं था। इसलिए चाणक्य आज के राजनेताओं के लिए उपयोगी नहीं हैं।

चाणक्य नीति का पहला अध्याय है कि किसी भी सूरत में राज्य की जनता की बेहतरी और खुशहाली। जिसका आज की राजनीति में कोई स्थान नहीं है। चाणक्य की नीति में ए.राजा नहीं था, मायावती और जयललीता भी नहीं थी। नरेंद्र मोदी का गोधरा और मनमोहन सिंह का धृतराष्ट रवैया भी नहीं था। वहां मंत्री बनने के लिए जनता का करीबी होना जरूरी था, राडिया के करीबी होना जरूरी नहीं था।

इसलिए चाणक्य भारत गुरु नहीं हो सकते। मुझे अफसोस है कि मैं इस बात को तनिक देर से समझा !

व्यंग्य: गांधी जी का चश्मा

विजय कुमार

जब समाचार पत्र अरबों-खरबों रुपये के घोटालों से भरे हों, तो एक चश्मे की चोरी कुछ अर्थ नहीं रखती। इसलिए इस पर किसी का ध्यान नहीं गया कि दिल्ली में अति सुरक्षित राष्ट्रपति निवास के पास स्थित ग्यारह मूर्ति से गांधी जी का चश्मा चोरी हो गया।

यह दिल्ली का एक प्रसिद्ध स्थान है। यहां एक विशाल शिला पर ग्यारह मूर्तियां बनीं हैं। इनमें गांधी जी के पीछे भारत के विभिन्न समुदायों के लोग प्रदर्शित किये गये हैं। यह मूर्ति उस मान्यता की प्रतीक है, जिसके अनुसार स्वाधीनता आंदोलन में गांधी जी के पीछे सभी धर्म और वर्ग के लोग एकजुट होकर चल दिये थे।

पर एक खोजी पत्रकार ने यह समाचार छाप दिया कि गांधी जी की मूर्ति पर चश्मा नहीं है। पुलिस का कहना है कि चश्मा पिछले छह साल से गायब है। थाने में इसकी रिपोर्ट भी लिखी है; पर न किसी ने चोर को ढूंढने का प्रयास किया और न ही नया चश्मा लगाने का। तब से बेचारे गांधी जी बिना चश्मे के ही खड़े हैं।

वैसे इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि मूर्ति की आंख पर चश्मा है या नहीं। न जाने कितनी मूर्तियां खुले में आंधी-पानी सहती हैं और उन पर पक्षी न जाने क्या-क्या कर देते हैं। कुछ लोग मूर्ति लगाकर जमीन कब्जाने का धन्धा भी करते हैं; पर यदि मूर्ति गांधी जी की हो, तब बात सामान्य नहीं रह जाती।

जो लोग चश्मा लगाते हैं, वे ही उसकी अनिवार्यता समझ सकते हैं। बेचारे गांधी जी छह साल से बिना चश्मे के खड़े हैं, यह सोचकर मेरा हृदय द्रवित हो उठा; पर मैं ठहरा भारत का एक सीधा-सादा नागरिक। पुलिस वालों से इस बारे में कुछ पूछना खतरे से खाली नहीं था। कहीं वे मुझे ही पकड़कर थाने में न बैठा लें। इसलिए मैंने इस बारे में गांधी जी से ही मिलना उचित समझा।

अगले दिन मैं ग्यारह मूर्ति पर जा पहुंचा। आसपास देखा, सब अपने में मस्त और व्यस्त थे। मूर्ति के पास कोई सिपाही भी नहीं था। अतः मैं शिला पर जा चढ़ा। एक बार तो यह देखकर सब मूर्तियां चौंकीं; पर मेरे पास कागज, कलम, कैमरा आदि देखकर वे फिर से मूर्तिवत हो गयीं। मैंने गांधी जी से बात प्रारम्भ की।

– बापू, इतने सालों से आप यहां खड़े हैं, कैसा लगता है ?

– लगना क्या है; सब मूर्तियांे की तरह मैं भी हूं। बस यही बहुत है कि मूर्तियों में आज भी मैं सबसे आगे ही हूं।

– सुना है आपका चश्मा पिछले छह साल से गायब है, इससे आपको आसपास देखने में कष्ट होता होगा ?

– नहीं, मुझे कुछ कष्ट नहीं है। मैंने तो स्वाधीनता मिलने से पहले ही आसपास देखना बंद कर दिया था।

– क्यों ?

– पूरा देश जानता है कि जवाहर लाल नेहरू को मैंने ही कांग्रेस का नेता, अपना उत्तराधिकारी और प्रधानमंत्री बनाया था; पर उसने मेरी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ को ही कूड़े में डाल दिया। मैंने कांग्रेस को भंग करने को कहा था; पर उसने सत्ता के लिए कांग्रेस को ही सीढ़ी बना लिया। अपने सपनों को मरते देखने से क्या लाभ है ? इसलिए मैंने अपने एक बंदर की बात मानकर आंखें बंद कर लीं।

– तो आप किसी और को चुन लेते। आपकी बात कौन टालता ?

– बात तो तुम ठीक कहते हो। जनता और कांग्रेस वाले भी नेहरू की बजाय पटेल के पक्ष में थे; पर अब गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या लाभ। इतिहास की घड़ी को उल्टा नहीं घुमाया जा सकता।

– पर बापू, शासन के लिए आपके चश्मे का प्रबन्ध करना क्या कठिन है। देश में मूर्तिकारों की कमी नहीं है। आप कुछ कहते क्यों नहीं ?

– अब इस उम्र में नया चश्मा बनवा कर मैं करूंगा भी क्या ? मैंने कांग्रेस में सर्वेसर्वा होते हुए भी न स्वयं कोई पद लिया और न अपने बच्चों को लेने दिया; पर आज तो कांग्रेस खानदानी पार्टी बन गयी है। उसकी देखादेखी बाकी सब दलों का भी यही हाल हो गया है।

– हां बापू, हमारा लोकतंत्र सचमुच राजतंत्र ही बन गया है।

– इतना ही नहीं। विदेशियों को निकालने के लिए मैंने और भारत के लाखों लोगों ने जेल की यातनाएं सहीं; पर आज देश की असली कमान फिर एक विदेशी के ही हाथ में है; और इसके लिए वह मेरे नाम का सहारा लिये है। यदि मैं मूर्ति न होता, तो फिर आंदोलन करने के लिए सड़क पर उतर पड़ता।

– लेकिन आपका चश्मा ?

– तुम चश्मे की बात क्यों कर रहे हो ? चश्मा लगाते ही मुझे हर ओर फैला भ्रष्टाचार दिखने लगेगा। मेरे समय में लोग पांच रुपये लेते हुए डरते थे। अब करोड़ों रुपये पचाकर भी डकार नहीं लेते। पहले लोग कहते थे कि हम बाल-बच्चे वाले हैं, रिश्वत नहीं लेंगे। अब कहते हैं कि हम रिश्वत नहीं लेंगे, तो बच्चों को पालेंगे कैसे ? बोफोर्स से लेकर संचार घोटाले तक, सब तरफ उन्हीं के मुंह काले हो रहे हैं, जो मेरा नाम लेकर सत्ता में आते हैं। सरकारी कार्यालयों में मेरे चित्र के सामने ही यह लेन-देन होता है। इसे न देखना ही अच्छा है। यदि मैं जीवित होता, तो आत्महत्या कर लेता।

– पर चाहे जो हो, मैं आपके चश्मे का प्रबन्ध करके ही रहूंगा।

– नहीं, नहीं। तुम तो किसी तरह मेरी आंखें और कान फोड़ने का प्रबन्ध कर दो। इससे यह दुर्दशा देखने और सुनने से तो बचूंगा।

– क्षमा करें बापू। मैं यह पाप नहीं कर सकता।

इतना कहकर मैं लौट आया; पर बापू को विश्वास है कि जैसे किसी ने चश्मा चुराकर उनके कष्ट कम किये हैं, वैसे ही कोई उनके कान भी जरूर फोड़ेगा। हे राम।