देश को ब्रितानियों के कब्जे से छुड़ाने में महती भूमिका अदा करने वाली सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस की वर्तमान निजाम श्रीमती सोनिया गांधी एक के बाद एक करके कांग्रेसियों को सुधरने की बात कहती जा रही हैं, वहीं मोटी चमड़ी वाले कांग्रेस के जनसेवकों को मानो सोनिया की बातों से कोई लेना देना ही नहीं रहा है। हाल ही में सोनिया ने मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को हिदायत दी है कि वे विवेकाधीन कोटे को समाप्त कर दें।
गौरतलब होगा कि इससे पहले भी कांग्रेस अध्यक्ष ने मंत्रियों विधायकों के साथ ही साथ कांग्रेसियों को तरह तरह की नसीहतें दी हैं। मंदी के दौर में सोनिया ने साफ कहा था कि कांग्रेस के हर जनसेवक को अपनी पगार का बीस फीसदी जमा कराना होगा। देश में कांग्रेस के विधायक, सांसद और अन्य जनसेवकों पर सोनिया गांधी के इस फरमान का कोई असर नहीं हुआ, किसी ने भी इसकी सुध नहीं ली,, यहां तक कि खुद सोनिया और उनकी मण्डली ने भी। इसी दरम्यान सोनिया गांधी ने सादगी बरतने का संदेष दिया। कांग्रेसियों ने इतनी सादगी बरती कि कांग्रेस के मंत्रियों ने दिल्ली में राज्यों के भवन होते हुए भी मंहगे आलीषान पांच या सात सितारा होटल में रातें रंगीन की, वह भी सरकारी खर्चे पर। कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी इन मंत्रियों से हिसाब पूछने का साहस नहीं जुटा पाए कि आखिर इन होटल्स का महंगा भोगमान किसने भोगा।
कांग्रेस के भद्रजनों को सादगी का पाठ पढ़ाने के लिए नेहरू गांधी परिवार की बहू सोनिया गांधी ने दिल्ली से मुंबई तक की यात्रा हवाई जहाज की इकानामी क्लास में कर डाली। उनके बेटे सांसद और महासचिव राहुल गांधी ने दिल्ली से चंडीगढ़ का सफर शताब्दी में किया। मीडिया ने इन दोनों ही घटनाओं को बढ़ा चढ़ा कर देष के सामने पेश किया। बाद में इन्हीं मंत्रियों में से कुछेक ने ‘‘ऑफ द रिकार्ड‘‘ कह डाला कि हवाई जहाज में बीस सीटों का किराया भरकर सोनिया गांधी ने, और शताब्दी की पूरी की पूरी एक बोगी बुक करवाकर राहुल गांधी ने कौन सी सादगी की मिसाल पेष की है।
कांग्रेस अध्यक्ष का विवेकाधीन कोटा समाप्त करने का डंडा किस कदर परवान चढ़ सकेगा कहना जरा मुश्किल ही है। कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को सोनिया की यह बात गले नहीं उतर रही है। दरअसल विवेकाधीन कोटा ही वह मलाई है, जिसे इनके द्वारा रेवडियों की तरह बांटा जाता है। अब जबकि सोनिया को अपनी नई टीम का गठन करना है, तथा केंद्र में मंत्रीमण्डल में फेरबदल मुहाने पर है तब मंत्रियों ने अवश्य ही सोनिया गांधी की चिट्ठी का जवाब देना आरंभ कर दिया है कि वे अपने विवेकाधीन कोटे का प्रयोग ही नहीं करते हैं। जैसे ही सोनिया की टीम और मंत्रीमण्डल फेरबदल पूरा होगा वैसे ही इन मंत्रियों के असली दांत अपने आप ही सामने आ जाएंगे।
वैसे देखा जाए तो कांग्रेस को इस वक्त महाराष्ट्र में सबसे अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि यहां जमीन घोटाले में कांग्रेस को अपने एक मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण की बली चढ़ानी पडी है। उनके स्थान पर भेजे गए पृथ्वीराज चव्हाण ने भी अभी तक सोनिया गांधी को यह नहीं बताया है कि वे अपने अधिकारों में कटौती करने की मंषा रख रहे हैं। देखा जाए तो महाराष्ट्र के अलावा राजस्थान, दिल्ली, हरियाण, आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में कांग्रेस सत्तारूढ़ है, फिर भी यहां के निजामों ने सोनिया गांधी के इस फरमान को ज्यादा तवज्जो नहीं दी है।
हो सकता है कि कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों द्वारा श्रीमति सोनिया गांधी को यह तर्क दे दिया जाए कि विवेकाधीन कोटा समाप्त करने से जरूरतमंद लोगों की मदद करना ही मुश्किल हो जाएगा। महाराष्ट्र के अलावा कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडू आदि राज्यों में जमीन, प्लाट, फ्लेट आदि को गलत तरीके से आवंटित करने के आरोप तेजी से सियासी फिजां में तैर रहे हैं। नब्बे के दशक में मध्य प्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री राजा दिग्जिवय सिंह ने एमपी की राजधानी भोपाल में पत्रकारों को भी तबियत से सरकारी मकान आवंटित किए थे, बाद में कोर्ट के हस्तक्षेप से यह मामला रूक पाया था। आज भोपाल के पत्रकारों पर सरकारी मकान खाली करवाने की तलवार लटक ही रही है।
एक समय था जब रसोई गैस और टेलीफोन कनेक्शन मिलना बहुत ही मुश्किल होता था। तब सांसदों को निश्चित मात्रा में रसोई गैस के कूपन मिला करते थे, इसके साथ ही साथ सांसदों को टेलीफोन कनेक्षन का कोटा भी निर्धारित था। अनेक सांसदों पर इस कोटे को बेचने के आरोप भी लगा करते थे। बाद में जब गैस और फोन की मारामारी समाप्त हुई तब इन्हें कोई नहीं पूछता है।
इसी तरह केंद्रीय विद्यालय में दाखिले के लिए उस जिले के जिलाधिकारी और क्षेत्रीय सांसद के पास दो सीट का कोटा हुआ करता है। जब इस कोटे में भी धांधलियों के आरोप आम हुए तब वर्तमान मानव संसाधन और विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने इस कोटे को ही समाप्त करने की घोषणा कर डाली। जैसे ही सिब्बल के मुंह से यह बात निकली वैसे ही सारे सांसदों ने सिब्बल को जा घेरा, मजबूरी में बाद में सिब्बल को अपनी बात वापस लेकर इस कोटे को बहाल ही करना पड़ा।
एसा नहीं है कि कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के कानों तक कांग्रेसियों की गफलतों की शिकायतें न जाती हों। सोनिया को सब पता है कि कौन सा मंत्री कितने फीसदी कमीशन लेकर काम कर रहा है, किस सूबे का कांग्रेस अध्यक्ष या महासचिव पैसा लेकर विधानसभा चुनावों की टिकिटें बेच रहा है? पर क्या करें सोनिया गांधी की मजबूरी है, चुप रहना। अगर सोनिया गांधी ने जरा भी आवाज तेज की, ये सारे कांग्रेसी ही सोनिया गांधी का महिमा मण्डन और स्तुतिगान बंद कर देंगे। इन परिस्थितियों में सोनिया गांधी की नसीहत या उनके फरमान को कांग्रेसी बहुत ज्यादा तवज्जो देने वाले नहीं। बेहतर होगा कि सोनिया गांधी इस तरह का प्रलाप करने के पहले सोचें, जब उनकी बात मानी ही नहीं जानी है तो फिर जुबान खराब करने से भला क्या फायदा।
7 दिसम्बर को भारत के प्रमुख पर्यटक स्थल वाराणसी में बम विस्फोट होता है। जिसमें दो निर्दोष लोगों की जान जाती है। एक दिन बाद गाजियाबाद के किसी साईबर कैफे से आंतकियों की धमकी आती है कि अगर भारत ने अमेरिका का सहयोग करना बन्द न किया तो काफिरों के खिलाफ ऐसे ही और अन्जाम को भुगतने के लिए तैयार रहे। इस तरह की आंतकी घटनाएं हमारे समाज और राष्ट्र की कुछ कमजोर कड़ियों की ओर इशारा करती हैं। सबसे पहले तो यह आन्तरिक सुरक्षा और कानून व्यवस्था बनाये रखने में हमारी असमर्थता का प्रमाण हैं। दुसरी ओर गठबंधन, राजनीति और क्षेत्रीय दलों के उदय ने कहीं न कहीं राष्ट्रीय सरकार की राजनीति इच्छाशक्ति को कमजोर किया है। हम अभी तक राष्ट्रीय मुद्दो पर आम राय कायम नहीं कर पाए है। चाहे आंतकवाद हो, नक्सलवाद हो, देश में कही भी विचरण, व्यवसाय या निवास की आजादी हो; राज ठाकरे द्वारा बिहारियों को भगाए जाने की घटना, कृषि व कृषकों की गिरती स्थिति; किसानों की आत्महत्या, बेरोजगारी, अशिक्षा, उच्च वर्ग द्वारा निम्न वर्गों का शोषण, भ्रष्टाचार, प्रशासनिक व राजनीतिक पारदर्शिता की कमी, पारस्थितिकीय असंतुलन या बढ़ती क्षेत्रीय अथवा आर्थिक विशमता हो, इन मुद्दो पर राजनैतिक दलों के बीच चाहे वह राष्ट्रीय स्तर के दल कांग्रेस या भाजपा हो या क्षेत्रीय स्तर के तमाम दलों के बीच आम राय का न होना और सरकार के बदलने के साथ ही समस्या से लड़ने की रणनीति भी बदल जाना, इस बात का संकेत हैं कि हम समस्याओं के समाधान का एक जुट प्रयास नहीं कर रहे हैं। इस कमजोरी का फायदा तुष्टीकरण करने वाले जनाधारविहिन नेता, राष्ट्रविरोधी तत्व, असामाजिक तत्व उठा रहे हैं। वाराणसी विस्फोट ने भले ही कुछ मासूमों की जान ली और कुछ दिनों के लिए सामान्य जनजीवन को प्रभावित किया लेकिन जनता ने आंतकियों के असली मसूंबो पर पानी फेर दिया। राष्ट्र को तोड़ना और साम्प्रदायिकता के जहर को लोगों के बीच फैलाने की साजिश नाकाम हुई है जो इस बात का सबूत है कि आम जनता अब जाति, धर्म के संकीर्ण स्वार्थों से उठ कर मानवीयता और राष्ट्रीयता के स्तर पर सोचने लगी है। 9 प्रतिशत की दर से बढ़ता विदेशी मुद्रा भंडार, अरबपतियों की बढ़ती संख्या की तुलना में आम जन की यह प्रतिक्रिया हमारे विकास का सबसे ठोस सबूत है। इस प्रतिक्रिया ने यह साबित किया है कि हमनें विकास किया है और यह विकास मात्र भौतिक नहीं है बल्कि मानसिक और संवेदनात्मक भी है। ऑख के बदले ऑख की मध्यकालीन सोच से हमारे राष्ट्र का हर सम्प्रदाय घृणा करता है। इस तरह की घटनाओं का लगातार होना हमारी प्रशासनिक अक्षमता और कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति का भी ठोस सबूत है। लंदन या मैड्रिड में होने वाले विस्फोटो के बाद जितनी तेजी से साजिशर् कत्ताओं को पकड़ा जाता है और ऐसी घटनाओं के दोहराव को रोका जाता है उससे हमें सबक लेने की जरुरत है।
सोशल नेटवर्किंग साइट्स के सामाजिक प्रभावों का अध्ययन जरूरी
-संजय द्विवेदी
संचार क्रांति का एक प्रभावी हिस्सा है- सोशल नेटवर्किंग साइट्स, जिन्होंने सही मायने में निजता के एकांत को एक सामूहिक संवाद में बदल दिया है। अब यह निजता, निजता न होकर एक सामूहिक संवाद है, वार्तालाप है, जहां सपने बिक रहे हैं, आंसू पोछे जा रहे हैं, प्यार पल रहा है, साथ ही झूठ व तिलिस्म का भी बोलबाला है। यह वर्चुअल दुनिया है जो हमने रची है, अपने हाथों से। इस अपने रचे स्वर्ग में हम विहार कर रहे है और देख रहे हैं फेसबुक,ट्विटर और आरकुट की नजर से एक नई दुनिया। इन तमाम सोशल साइट्स ने हमें नई आँखें दी हैं, नए दोस्त और नई समझ भी। यहां सवाल हैं, उन सवालों के हल हैं और कोलाहल भी है। युवा ही नहीं अब तो हर आयु के लोग यहां विचरते हैं कि ज्ञान और सूचना ना ही सही, रिश्तों के कुछ मोती चुनने के लिए। यह एक एक नया समाज है, यह नया संचार है, नया संवाद है, जिसे आप सूचना या ज्ञान की दुनिया भी नहीं कह सकते। यह एक वर्चुअल परिवार सरीखा है। जहां आपके सपने, आकांक्षाएं और स्फुट विचारों, सबका स्वागत है। दोस्त हैं जो वाह-वाह करने, आहें भरने और काट खाने के लिए तैयार बैठे हैं। यह सारा कुछ भी है तुरंत, इंस्टेंट। तुरंतवाद ने इस उत्साह को जोश में बदल दिया है। यह इतना सहज नहीं लगता पर हुआ और सबने इसे घटते हुए देखा है।
एक मौत, हजारों प्रश्नः
पिछले दिनों लंदन की 42 वर्षीय महिला सिमोन बैक की आत्महत्या की खबर एक ऐसी सूचना है जिसने सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर पल रहे रिश्तों की पोल खोल दी है। यह घटना हमें बताती है कि इन साइट्स पर दोस्तों की हजारों की संख्या के बावजूद आप कितने अकेले हैं और आपकी मौत की सूचना भी इन दोस्तों को जरा भी परेशान नहीं करती। सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर सिमोन ने अपनी आखिरी पंक्तियों में लिखा था-“ मैंने सारी गोलियां ले ली हैं, बाय बाय।” उसके 1048 दोस्तों ने इन्हें पढ़ा, लेकिन किसी ने यकीन नहीं किया, न ही किसी ने उसे बचाने या बात करने की कोशिश की। एक दोस्त ने उसे ‘झूठी’ बताया तो एक ने लिखा “उसकी मर्जी।” जाहिर तौर पर यह हमारे सामाजिक परिवेश के सच को उजागर करती हुई एक ऐसी सत्यकथा है जो इस नकली दुनिया की हकीकत बताती है। यह हिला देने वाली ही नहीं, शर्मसार कर देने वाली घटना बताती है कि भीड़ में भी हम कितने अकेले हैं और अवसाद की परतें कितनी मोटी हो चुकी हैं। आनलाइन दोस्तों की भरमार आज जितनी है ,शायद पहले कभी न थी किंतु आज हम जितने अकेले हैं, उतने शायद ही कभी रहे हैं।
महानगरीय जिंदगी का अकेलापनः
महानगरीय अकेलेपन और अवसाद को साधने वाली इन साइट्स के केंद्र में वे लोग हैं जो खाए-अधाए हैं और थोड़ा सामाजिक होने के मुगालते के साथ जीना चाहते हैं। सही मायने में यह निजता के वर्चस्व का समय है। व्यक्ति के सामाजिक से एकल होने का समय है। उसके सरोकारों के भी रहस्यमय हो जाने का समय है। वह कंप्यूटर का पुर्जा बन चुका है। मोबाइल और कंप्यूटर के नए प्रयोगों ने उसकी दुनिया बदल दी है, वह एक अलग ही इंसान की तरह सामने आ रहा है। वह नाप रहा है पूरी दुनिया को, किंतु उसके पैरों के नीचे ही जमीन नहीं है। उसे अपने शहर, गली, मोहल्ले या जिस बिल्डिंग में वह रहता है उसका शायद कुछ पता ना हो किंतु वह अपनी रची वर्चुअल दुनिया का सिरमौर है। वह वहां का हीरो है। मोबाइल, लैपटाप और डेस्कटाप स्क्रीन की रंगीन छवियों ने उसे जकड़ रखा है। वह एकांत का नायक है। उसे आसपास के परिवेश का पता नहीं है, वह अब विश्व नागरिक बन चुका है। दोस्तों का ढेर लगाकर सामाजिक भी हो चुका है। कुछ स्फुट, एकाध पंक्ति के विचार व्यक्त कर समाज और दुनिया की चिंता भी कर रहा है। यानि सारा कुछ बहुत ही मनोहारी है। शायद इसी को लीला कहते हैं, वह लीला का पात्र मात्र है। कारपोरेट, बाजार और यंत्रों का पुरजा।
सेहत पर भी असरः
इसके सामाजिक प्रभावों के साथ-साथ स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी अब असर दिखाने लगीं हैं। तमाम प्रकार की बीमारियों के साथ अब कंप्यूटर सिड्रोम का खतरा आसन्न है। जिसने नई पीढ़ी ही नहीं, हर कंप्यूटर प्रेमी को जकड़ लिया है। अब यहां सिर्फ काम की बातें नहीं, बहुत से ऐसे काम हैं जो नहीं होने चाहिए, हो रहे हैं। एकांत अब आवश्यक्ता में बदल रहा है। समय मित्रों, परिजनों के साथ नहीं अब यहां बीत रहा है। ऐसे में परिवारों में भी संकट खड़े हो रहे हैं। यह खतरा टेलीविजन से बड़ा दिख रहा है, क्योंकि लाख के बावजूद टीवी ने परिवार की सामूहिकता पर हमला नहीं किया था। साइबर की दुनिया अकेले का संवाद रचती है, यह सामूहिक नहीं है इसलिए यह स्वप्नलोक सरीखी भी है। यहां सामने वाले की पहचान क्या है यह भी नहीं पता, उस नाम का कोई है या नहीं यह भी नहीं पता, किंतु कहानियां चल रही हैं, संवाद हो रहा है, प्यार घट रहा है, क्षोभ बढ़ रहा है। एक वाक्य के विचार किस तरह कमेंट्स में और पल की दोस्ती किस तरह प्यार में बदलती है- इसे घटित होता हम यहां देख सकते हैं। सोशल नेटवर्किग साइट्स के सामाजिक प्रभावों का भारतीय संदर्भ में विशद अध्ययन होना शेष है किंतु यह एक बड़ी पीढ़ी को अपनी गिरफ्त में ले रहा है इसमें दो राय नहीं। नई पीढ़ी तो इसी माध्यम पर संवाद कर रही है, प्यार कर रही है, फंतासियां गढ़ रही है, समय से पहले जवान हो रही है। हमारे पुस्तकालय भले ही खाली पड़े हों किंतु साइबर कैफे युवाओं से भरे पड़े हैं और अब इन साइट्स ने मोबाइल की भी सवारी गांठ ली है, यानि अब जेब में ही दुनिया भर के दोस्त भी हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स का भारतीय संदर्भ में असर शशि थरूर के बहाने ही चर्चा में आया, जबकि ट्विटर पर वे अपनी कैटल क्लास जैसी टिप्पणियों के चलते विवादों में आए और बाद में उन्हें मंत्री पद भी छोड़ना पड़ा। भारत में अभी कंप्यूटर का प्रयोग करने वाली पीढ़ी उतनी बड़ी संख्या में नहीं हैं किंतु इन साइट्स का सामाजिक प्रभाव बहुत है। ये निरंतर एक नया समाज बन रही हैं। सपने गढ़ रही हैं और एक नई सामाजिकता भी गढ़ रही हैं।
नकली प्रोफाइलों पर पलता प्यारः
नकली प्रोफाइल बनाकर पलने वाले पापों के अलावा छल और झूठे-सच्चे प्यार की तमाम कहानियां भी यहां पल रही हैं। व्यापार से लेकर प्यार सबके लिए इन सोशल साइट्स ने खुली जमीन दी है। सही मायने में यह सूचना, संवाद और रिश्ते बनाने का बेहद लोकतांत्रिक माध्यम हो चुका है जिसने संस्कृति,भाषा और भूगोल की सरहदों को तोड़ दिया है। संचार बेहद सस्ता और लोकतांत्रिक बन चुका है। जहां तमाम अबोली भाषाएं, भावनाएं जगह पा रही हैं। आप यहां तो अपनी बात कह ही सकते हैं। यह आजादी इस माध्यम ने हर एक को दी है। यह आजादी नौजवानों को ही नहीं, हर आयु-वर्ग के लोगों को रास आ रही है, वे विहार कर रहे हैं इन साइट्स पर। यह एक अलग लीलाभूमि है। जो टीवी से आगे की बात करती है। टीवी तमाम अर्थों में आज भी सामाजिकता को साधता है किंतु यह माध्यम एकांत का उत्सव है। वह आपके अकेलेपन को एक उत्सव में बदलने का सामर्थ्य रखता है। वह आपके लिए एक समाज रचता है। आपकी निजता को सामूहिकता में, आपके शांत एकांत को कोलाहल में बदलता है। सोशल साइट्स की सफलता का रहस्य इसी में छिपा है। वे महानगरीय जीवन में, सिकुड़ते परिवारों में, अकेले होते आदमी के साथ हैं। वे उनके लिए रच रही हैं एक वर्चुअल दुनिया जिसके हमसफर होकर हम व्यस्त और मस्त होते हैं। किंतु यह दुनिया कितनी खोखली, कितनी नकली, कितनी बेरहम और संवेदनहीन है, इसे समझने के लिए सिमोन बैक की धीरे-धीरे निकलती सांसों और बाद में उसकी मौत को महसूस करना होगा। सिमोन बैक के अकेलेपन, अवसाद और उससे उपजी उसकी मौत को अगर उसके 1048 दोस्त नहीं रोक सके तो क्या हमारी रची इस वर्चुअल दुनिया के हमारे दोस्त हमें रोने के लिए अपना कंधा देगें?
विगत वर्षों में जितना कुछ भी अच्छा और बुरा बदलाव समाज में हुआ है, उसे दूर कर अतीत के भारत की ओर लौटना न संभव है, न वांछनीय है, इसलिए क्रमेण उपयोगी निरूपयोगी तत्वों के मानक बनाकर, हुए बदलाव को स्वीकारने और नकारने की स्थितियां निर्मित करनी होंगी।
अपने स्वर्णिम काल में भारत का समाज धर्मसत्ता, समाजसत्ता, राजसत्ता और अर्थसत्ता के सम्मिलित प्रयासों से संचालित होता था। इसमें राजसत्ता का योगदान मात्र अष्टमांश था। विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत की राजसत्ता पर अधिकार करने के पश्चात समाज संचालन में लगी अन्य शक्तियों को अपने अधीन करने का भरपूर प्रयास किया। इस्लामी हमलावरों ने जहां भारतीय समाज-संचालन में लगी शक्तियों के बाह्य स्वरूप पर प्रमुखता से प्रहार किया, वहीं अंग्रेजों ने समाज के अभ्यांतर को भी अपना निशाना बनाया।
भारतीय समाज की मूल शक्ति स्वावलंबी गांवों में निहित है, इस तथ्य को समझने के पश्चात अंग्रेजों ने इसे प्रमुखता से अपना निशाना बनाया। लैंड सेटलमेंट एक्ट, 1780 उनके इसी निर्णय का परिणाम था। इस कानून के पहले भारत में भूमि, व्यक्ति या राज्य की नहीं बल्कि गांव और समाज की सम्पत्ति थी। अंग्रेजों ने इस व्यवस्था को समाप्त कर कुछ जमीन कुछ व्यक्तियों को दे दी। 80 प्रतिशत जमीन अंग्रेजी हुकूमत के पास ही रही। इस प्रकार गांव और समाज का हिस्सा खारिज हो गया। उस समय भारत की एक-तिहाई आबादी ही खेती पर निर्भर थी, बाकी दो-तिहाई आबादी भिन्न-भिन्न पेशों में लगी थी। लैन्ड सेटलमेन्ट एक्ट के बाद ये सारे पेशे उखड़ गये और समाज का संतुलन बिगड़ गया। भूमि के व्यक्तिगत स्वामित्व के कारण ‘हमारी जमीन, हमारा हक’ की मनोवृत्ति बढ़ी और समाज का ध्यान पीछे छूट गया। गांवों की व्यवस्था छिन्न-भिन्न होने के कारण समाज में शहरीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई, जिसके अगले चरण में केन्द्रीयकरण और बाजारीकरण जैसी विनाशकारी व्यवस्थाओं का जन्म हुआ।
अपने शासनकाल में अंग्रेजों ने लैंड सेटलमेंट एक्ट के अलावा आर्म्स एक्ट, सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट जैसे कई अन्य कानून बनाकर तथा भारत की परंपरागत शिक्षा व्यवस्था और न्याय व्यवस्था में बदलाव करके हमारी सामाजिक व्यवस्था को ध्वस्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस प्रयास में उन्हें काफी सफलता भी प्राप्त हुई।
1947 में भारत को जब राजनीतिक स्वतंत्रता मिली, उससे स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ, क्योंकि तत्कालीन भारतीय नेतृत्व को समाज संचालन की भारतीय पध्दति की बजाय अंग्रजों द्वारा शुरू की गई व्यवस्था में अधिक विश्वास था। पिछले पचास-साठ वर्षों में लगभग सभी सरकारें कमोबेश उन्हीं के सिध्दांतों पर चली हैं। भारत की तासीर को न समझते हुए दूसरे देशों की व्यवस्था को हमारे ऊपर आरोपित करने का प्रयास आज भी जारी है। इसके परिणामस्वरूप पारंपरिक ग्रामीण समाज का एक ओर जहां पतन हो रहा है, वहीं शहरीकरण, बाजारीकरण और केंद्रीयकरण जैसी अमंगलकारी व्यवस्थाएं और मजबूत होती जा रही हैं। सब तरफ उपभोगवादी मूल्य समाज को दूषित कर रहे हैं। व्यक्ति, परिवार, गांव, इलाका, देश-समाज आदि इकाईयों (इयत्ताओं) के साथ व्यक्ति के मानस और सोच को संश्लेषित करने की बजाय व्यक्ति को एकाकी समझकर और राज्य को ही संचालन विधि को सर्वस्व मानकर नीतियां बनाई जा रही हैं। अब इस सबका अनुकूलन बाजारवाद के पक्ष में होता दिख रहा है। भूमंडलीकरण की पश्चिमी अवधारणा बाजारवाद का ही एक परिष्कृत रूप है। इसमें पूंजी ही ब्रह्म है, जैसे-तैसे मुनाफा कमाना ही मूल्य है और उन्मुक्त उपभोग ही मोक्ष है। ऐसी स्थिति में भारतीय समाज के एकत्व के बंधन-सूत्र कमजोर हुए हैं। व्यवस्था क्षत-विक्षत हुई है, परिवार व्यवस्था समेत समाज की पारंपरिक व्यवस्थाओं पर भी आघात हो रहा है। येन-केन-प्रकारेण अर्थोपार्जन को सुख का आधार मानकर वर्जना रहित प्रयास को उचित ठहराया जा रहा है।
वर्तमान भारतीय समाज अभिप्सा के स्तर पर विखंडित होकर तीन स्तरों पर सक्रिय दिखता है। पहले स्तर पर दस करोड़ की आबादी, जिनके परिवार के लोग विदेशों में भी हैं, या वे भारतीय जो यूरोप या पश्चिम के देशों में बसे हुए हैं, जिसमें अधिकांश लोग स्वाभिमान और आत्मविश्वास हीनता के अंतर्द्वंद्व से गुजर रहे हैं। दूसरा हिस्सा लगभग बीस करोड़ का है और भौतिक सुख-सुविधाओं से यत्ंकिचित युक्त है। तीसरा हिस्सा लगभग 70 करोड़ लोगों का है, जो आज योगक्षेम के संदर्भ में स्वयं को असुरक्षित या वंचित पा रहा है। देश के संदर्भ में विचार करते समय इन तीन अभिप्साओं के बीच समन्वय एवं संतुलन बिठाने में ही देश की ताकत सही दिशा में लग सकेगी।
भारत की वर्तमान दुर्दशा और बदहाली के पीछे केन्द्रीयकरण, शहरीकरण, समरूपीकरण, बाजारीकरण और आरोपित वैश्वीकरण जैसी परकीय व्यवस्थाओं और जीवनमूल्यों का प्रभाव हमारे सामने स्पष्ट है। इन सिध्दांतों पर आधारित व्यवस्था केवल भारत के लिए ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व के लिए अमंगलकारी है। यह संपूर्ण प्रक्रिया प्रकृति विरोधी एवं मानव विरोधी है, इसलिए यह संसार में टिकाऊ हो ही नहीं सकेगी, परंतु हां, मानव समाज के स्वस्थ संचालन पर इसका आघात अवश्य होगा और क्षति भी होगी। इसलिए सही सोच के साथ इस अस्वस्थ भूमंडलीकरण प्रक्रिया की काट हमें विकेन्द्रीकरण, विविधीकरण, बाजारमुक्ति एवं स्थानिकीकरण के रूप में विकसित करनी होगी। इस ओर मजबूती से बढ़ने और अस्वस्थ भूमंडलीकरण की मार से त्रस्त विश्व को राह दिखाने के लिए भारतीय समाज ही सक्षम है। हमें अपने इस दायित्व से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए।
पिछले 500-1000 वर्षों और विशेष तौर पर पिछले 250वर्षो में इकट्ठा हुआ कुछ कूड़ा-कचरा और कुछ गर्द-गुबार भारतीय समाज की संचालन व्यवस्था को कुंठित कर रहा है। भाषा, भूषा, भोजन, भवन, भजन, भेषज के साथ-साथ जीवनशैली, जीवनमूल्य के स्तर पर भी बहुत कुछ चाहे-अनचाहे, वांछित-अवांछित हमारे भीतर समा गया है। विगत वर्षों में जितना कुछ भी अच्छा और बुरा बदलाव समाज में हुआ है, उसे दूर कर अतीत के भारत की ओर लौटना न संभव है, न वांछनीय है, इसलिए क्रमेण उपयोगी निरुपयोगी तत्वों के मानक बनाकर, हुए बदलाव को स्वीकारने और नकारने की स्थितियां निर्मित करनी होंगी। इस विषय में कई तरह के शोधकार्य आवश्यक हैं। रचनाधर्मिता के आधार पर बहुविध प्रयोगों और परिणामों का संकलन आवश्यक है। लंबी गुलामी के कारण लदी गलत सोच, तौर-तरीके एवं दोषपूर्ण ढांचे के साथ-साथ हीनभावना की मानसिकता से उबरने हेतु बहुविध विकेन्द्रित या केन्द्रित आंदोलनों की प्रक्रिया में से देश को गुजरना होगा।
अतीत से प्रेरणा लेते हुए हमें वर्तमान में जीना है और अपना भविष्य गढ़ना है। भविष्य को अनुकूल ढंग से गढ़ने हेतु वर्तमान पर छाई धुंध और गर्द-गुबार को हटाकर अपने देश की तासीर को समझते हुए नई सोच, ढांचे और तौर-तरीके गढ़ने की जरूरत है। यह प्रक्रिया बहुविध प्रयोगों, परिणामों और अनुभवों से होकर गुजरेगी, इसके दिशा-निर्देशक तत्व होंगे – स्थानीकरण, विकेन्द्रीकरण, विविधीकरण और बाजार मुक्ति। भारत के संदर्भ में समाज की ताकत का बुनियादी महत्व है, राजसत्ता का महत्व पूरक है। इसलिए समाजसत्ता का जागरण और उसके परिणामस्वरूप राजसत्ता का अनुकूलन सही तरीका होगा।
बौध्दिक हलचलों एवं रचनात्मक प्रकल्पों के साथ आंदोलनात्मक गतिविधियों के लिए भी विकेन्द्रीकरण ही नियामक तत्व होगा। इसलिए इन सारे प्रयत्नों के लिए ‘थिंक ग्लोबली एक्ट लोकली’ के आधार पर ‘हमारा जिला हमारी दुनिया’ या ‘हमारा इलाका हमारी दुनिया’ को आधारभूत कार्यक्षेत्र बनाना होगा। इस कार्य क्षेत्र में बौध्दिक सोच और रचनात्मक गतिविधियों में लगी सज्जनशक्ति को धारदार और जुझारू भी बनाना होगा। इन सभी गतिविधियों के केन्द्र में देश के सर्वांगीण विकास के वृहत्तर लक्ष्य के साथ-साथ आज के अर्थाभाव की स्थिति में, सबको भोजन सबको
उत्तर भारत में ठंड का मौसम बूढ़े लोगों के अंतिम दिनों को काफी नजदीक ला देता है। सड़क पर, फुटपाथ पर रहने वाले शहरी गरीब ऐसी ठंडक से बचने के लिए छोटे-मोटे अपराध कर जेलों में चले जाते हैं। जो नहीं जा पाते हैं, वे किसी सवेरे ठंड से अकड़ कर दम तोड़ देते हैं।
प्राय: इस मौसम में शवयात्राओं की संख्या बढ़ जाती है। गरीब का मर जाना कोई खबर नहीं है। बड़े लोगों की तबीयत खराब होने से भी खबर बनती है। यों बेहिसाब मसले हैं जो कई-कई बरसों से खबरों में आने को मोहताज हैं। मगर खबरें अपनी सीमा खुद बनाती हैं, खुद तोड़ती हैं।
लगातार ऐसा महसूस होता है कि खबरें हंगामें रचती हैं, हंगामे लिखती हैं, हंगामे दिखाती हैं। खबरों का केन्द्रीय तत्व हंगामा है। ऐसा भी लगता है कि बहुत सारे हंगामें खबरों के लिए हैं, लगभग सारी खबरें हंगामों के लिए हैं। यह परस्पर पोषक और पूरक संबंध दिलचस्प है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि बंदरों में एक ‘सेरटानिन’ नामक विशेष हारमोन स्रावित होता है जिसके कारण बंदर दूसरों की उपस्थिति में सक्रिय हो जाता है, उछल कूद मचाता है। मनुष्यों में इस हारमोन की उपस्थिति से संबंधित शोध की जरूरत है। अपने देश का लोकतंत्र खबरों के लिए हंगामें करने की स्वतंत्रता का पर्याय बनता जाता है।
एक-दूसरे को दिखाने, चिढ़ाने के लिए आयोजन करने की भारतीय सामाजिक मानसिकता अपव्यय की बुराई के रूप में आज भी चलती है। जगह-जगह विवाह के आयोजनों की अतिभव्यता हमारे भीतर की अहंजनित रूग्णता को ही जाहिर करती है। हर वर्ष नये साल की पार्टियों में मदमस्त होती नई धनाढय पीढ़ी किसी उल्लास या आनंद से नाचती नहीं दिखती है। यों जगह-जगह पर जलसे नजर आते हैं।
राजनेताओं के जन्मदिनों, पदग्रहण समारोहों, अधिवेशनों इत्यादि की अपव्यय केन्द्रित, प्रदर्शनकामी भव्यता किसी समझदार को संताप दिये बिना नहीं रह पाती है। मानो पूरा देश जैसे हंगामा वृत्ति की भांग पीकर डोलता नजर आता है।
विनोबा ने ‘गीता प्रवचन’ में उल्लेख किया है, एक गांव देखने गये विदेशी दल के प्रतिनिधि ने चौपाल पर ताश खेलते लोगों को देखकर पूछा, ”क्या ये लोग इतने समृद्ध हैं कि इन्हें ताश खेलने का वक्त मिल जाता है?”
हमारी समृद्धि अभी आनी शेष है। मगर अंधाधुंध आयोजन-प्रियता का यह रोग समृद्धि की राह में भी रोड़ा है। इंसान अब भी फुटपाथ पर ठंड से ठिठुरकर मर रहा है। किसान कर्ज में डूब कर आत्महत्या कर रहा है और हम जश्न और जलसों में नाचते हैं, नशे में झूमते हैं। भीतर के आनंद और उल्लास से नहीं बल्कि बाहर से जुटाये झूठे और भ्रामक अहंकार के कारण।
क्या यह एक खबर नहीं है? यह खबर बाहर की नहीं अन्तर्जगत की है। देह के, मन के पार यह खबर बड़ी सनसनीखेज है…! आइए इसे सुनकर देखें! भीतर झांककर देखें!!
दिल्ली के बारे में कहा जाता है कि जो भी कंकड़ पत्थर पचाने का हाजमा रखता हो, वह भी अगर छः महीने तक दिल्ली का बिना फिल्टर का पानी पी ले तो उसे पीलिया या पेट की बीमारियां होना निश्चित है। दिल्ली के दो तिहाई इलाकों में साफ पानी भी मयस्सर नहीं है। एसे हालातों में दिल्ली की कुर्सी पर तीसरी बार बैठने वाली मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की सरकार ने लाखों रूपयों की लागत वाली लकझक लो फ्लोर बसों की चमक बनाए रखने के लिए रिवर्स आस्मोसिस प्यूरीफायर प्लांट (आरओ वाटर प्लांट) से इन बसों को धोने की सोची है। दिल्ली के डीटीसी के बेड़े मंे वर्तमान में 3200 बस हैं। इनकी चमक दमक बनाए रखने के लिए वर्तमान में 27 डिपो में से 13 में आरओ तो 14 में सॉफ्टनिंग प्लांट लगाने की तैयारियां युद्ध स्तर पर जारी हैं। अभी हसनपुर डिपो में आरओ प्लांट लगा दिया गया है। अब शीला जी को कौन समझाए कि बस खराब होती है तो होती रहे पर दिल्ली के रहवासियों की सेहत खराब होने से बचाया जाए तो बेहतर होगा, बसों की चमक धमक बनी रहे पर उनकी रियाया के चेहरे की चमक चली जाए इससे उनकी सेहत पर कोई अंतर पड़ता नहीं दिखता।
इसे विकास की संज्ञा न दी जाए जयराम जी
केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश पर्यावरण के प्रति काफी जागरूक नजर आ रहे हैं। वनों की कटाई और पर्यावरण के नुकसान को वे विनाश के कारण हुआ मानते हैं। रमेश ने पर्यावरण के नाम पर अनेक परियोजनाओं को ग्रीन सिग्नल के बजाए रेड सिग्नल दिखाते हुए अपने कदम मजबूती के साथ जमाए। हाल ही में उनके अधीन आने वाला पर्यावरण मंत्रालय जिस जगह पर बनाया जा रहा है, उसके लिए तीन दर्जन से अधिक पेड़ों की बली चढ़ाई जाने वाली है। अब सवाल यह उठता है कि राजग सरकार की महात्वाकांक्षी स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क परियोजना और उसके उत्तर दक्षिण गलियारे में वनों की कटाई के चलते अडंगा लगाने वाले वन एवं पर्यावरण मंत्री अपने ही मंत्रालय के भवन के लिए लगभग छः दर्जन पुराने झाड़ों में से तीन दर्जन झाड़ हटाने कैसे राजी हो गए। अब यक्ष प्रश्न यह है कि जयराम रमेश इसे विकास की संज्ञा देंगे या विनाश की।
बिग बी उलझे वन्य जीव नियमों के उल्लंघन में
बीते साल के अंतिम पखवाड़े में एक निजी समाचार चेनल को बाघ बचाने की सूझी और उसने आनन फानन मध्य प्रदेश के पेंच नेशनल पार्क में एक कार्यक्रम का आयोजन कर डाला। इस कार्यक्रम में जान डालने के लिए उसने सदी के महानायक अमिताभ बच्चन को भी आमंत्रित कर लिया। बिग बी आए और कार्यक्रम में हिस्सा लिया। मध्य प्रदेश के बालाघाट संसदीय क्षेत्र के सिवनी जिले और छिंदवाडा संसदीय क्षेत्र में आने वाले इस नेशनल पार्क में वन्य जीवों से संबंधित नियमों का जमकर उल्लंघन किया अमिताभ बच्चन ने। फिर क्या था सिवनी के उत्साही युवा संजय तिवारी ने मध्य प्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर में उच्च न्यायालय में दायर कर दी याचिका। यद्यपि इसमें सीधे सीधे अमिताभ बच्चन को पार्टी नहीं बनाया गया है, फिर भी याचिका में उल्लेखित तथ्यों पर अगर उच्च न्यायालय ने संज्ञान ले लिया तो आने वाले दिनों में अमिताभ बच्चन को जबलपुर आकर सफाई पेश करनी पड़ सकती है।
घोषणामंत्री बनीं ममता बनर्जी
संप्रग के पहले कार्यकाल में स्वयंभू प्रबंधन गुरू बनकर उभरे तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव का अब नाम लेवा भी नहीं बचा है। उनके बाद रेल महकमा संभालने वाली ममता बनर्जी ने आते ही अनेक चमत्कार कर दिए। सबसे पहले तो उन्होंने लीक से हटकर अपना कार्यकाल ही पश्चिम बंगाल में जाकर संभाला। इसके बाद उन्होंने त्रणमूल कांग्रेस के मंत्रियों को फरमान जारी कर दिया कि मंत्री वेस्ट बंगाल में ज्यादा समय दें। दरअसल ममता की चाहत बंगाल का मुख्यमंत्री बनने की है। रेल मंत्री रहते हुए ममता ने जितनी भी घोषणाएं की वे महज घोषणा ही रहीं, उन्हें अमली जामा नहीं पहनाया जा सका। अब लोग ममता को भारत गणराज्य की रेल मंत्री के बजाए घोषणा मंत्री के तौर पर अधिक पहचानने लगे हैं। पिछले बजट में ममता ने एक हजार किलोमीटर लंबी रेल लाईन बिछाने की घोषणा की थी, अफसोस नवंबर के अंत तक महज 123 किलोमीटर ही रेल की पांते बिछ पाईं दिसंबर समाप्त होते होते यह आंकड़ा 200 तक बमुकिल पहुंच सका। यद्यपि अधिकारियों का दावा है कि मार्च तक आठ सौ किलोमीटर की पांतें बिछा दी जाएंगी। भगवान ही जानता होगा कि घोषणावीर रेल मंत्री ममता बनर्जी की घोषणाओं को अधिकारी यात्रियों की जान के एवज में आठ सौ किलोमीटर पांते बिछाकर कैसे पूरा करेंगे?
अफसरों से हलाकान लवली
अमूमन देखा गया है कि फोन की घंटी बजती रहे और मंत्री फोन न उठाए, पर दिल्ली सरकार के परिवहन मंत्री अरविंदर सिंह लवली की परेशानी इससे उलट ही है। वे फोन लगाते हैं, और उनके मातहत अफसरान उनका फोन ही उठाने से गुरेज करते हैं। परिवहन मंत्री के सचिव एच.पी.एस.सरीन ने अपने आला मंत्री की नाराजगी का इजहार करते हुए अपने विभाग के अफसरों को पत्र लिखा है। इस पत्र की इबारत में साफ किया गया है कि परिवहन मंत्री के आवासीय या मंत्रालय के कार्यालय से जब भी अफसरों को फोन किया जाता है तो उनके फोन या तो स्विच ऑफ मिलते हैं या फिर घन्टी घनघनाती रहती है। पत्र में यह भी कहा गया है कि अगर कोई अफसर न्यायालय या जरूरी बैठक मंे व्यस्त है तो उससे कम से कम यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वह मिस्ड काल देखकर कर काल बैक करे, जो अमूमन नहीं होता है। परिवहन उपायुक्त प्रशासन ने मंत्री की नाराजगी से अफसरों को आवगत कराते हुए साफ किया है अवकाश के दिनों में भी अफसर अपना फोन बंद न रखें।
महामहिम को भी नाप दिया कलमाड़ी ने
कामन वेल्थ गेम्स में आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे सुरेश कलमाड़ी की हिमाकत तो देखिए उन्होंने भारत गणराज्य के पहले नागरिक अर्थात महामहिम राष्ट्रपति को भी नहीं बख्शा है। कलमाड़ी की मण्डली ने महामहिम के नाम का सहारा लेकर क्वींस बेटन का बजट आनन फानन छः गुना बढ़ा दिया। मई 2009 में इसका बजट दो करोड़ 20 लाख रूपए था, जो बढ़ाकर 12 करोड़ 77 लाख रूपए कर दिया गया। इसके लिए इवेंट मेनेजमेंट कंपनी मेसर्स जैक मॉर्टन वर्ल्ड वाईड एवं ए.एम.कार एण्ड वैन हायर्स को अक्टूबर 2009 में अतिरिक्त भुगतान भी कर दिया गया। उधर महामहिम के करीबी सूत्रों का कहना है कि महामहिम की लंदन यात्रा का प्रोग्राम महीनों पहले ही बन गया था, जिसका क्वींस बेटन से कोई सरोकार ही नहीं था। घाघ और शातिर राजनेता सुरेश कलमाड़ी ने महामहिम राष्ट्रपति की उपस्थिति को जिस तरह भुनाया है, उसकी जितनी निंदा की जाए कम ही होगा।
बाबा रामदेव को बाजपेयी की चुनौती
इक्कसवीं सदी में अमीरों और पहुंच सम्पन्न लोगों के योग गुरू बनकर उभरे बाबा रामदेव के मन में भले ही राजनीति करने की बलवती इच्छाएं कुलाचें मार रहीं हों पर देश के अनेक योगियों और अन्य लोगों से उन्हें निरंतर चुनौतियां मिल रही हैं। यह अलहदा बात है कि रामकिशन उर्फ बाबा रामदेव इन चुनौतियों पर कान न दे रहे हों। हाल ही में बाराबंकी जिले के शरीफाबाद निवासी भारतीय पर्वतारोही फाउंडेशन के लाईजनिंग अफसर अजय कुमार बाजपेयी ने बाबा रामदेव को नए तरीके की चुनौति दे दी है। यूपी के एक योग प्रशिक्षक और पर्वतारोही बाजपेयी का कहना है कि बाबा रामदेव भी बाजपेयी की तरह ही बर्फ से ढकी पहाड़ियों के बीच शून्य से कम तापमान पर खुले बदन योग कर दिखाएं तब दुनिया उनका लोहा मानेगी। गौरतलब है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया को अपनी जेब में रखते हुए चुनिंदा आध्यामिक चेनल्स के माध्यम से बाबा रामदेव ने अपने आप को स्थापित कर लिया है, किन्तु आज भी बाबा की कीर्ति उन्हीं के बीच है जिनकी जेबें गर्म हैं।
चोर के हाथ खजाने की चाबी!
पुरानी कहावत है कि चोर के हाथ खजाने की चाबी देने से क्या खजाना सुरक्षित रह सकता है? जवाब नकारात्मक ही आएगा। महाराष्ट्र प्रदेश के नए निजाम पृथ्वीराज चव्हाण ने एक दागी नौकरशाह को ही सूबे का मुख्य सचिव बना दिया है। आदर्श घोटाले में महती भूमिका निभाने वाले नौकरशाह रत्नाकर गायकवाड़ जो मुंबई महानगर क्षेत्रीय विकास प्राधिकरण (एमआरआरडीए) के आयुक्त थे ने सूबे के नए चीफ सेकेरेटरी की भूमिका संभाल ली है। आदर्श हाउसिंग सोसायटी को मंजिल दर मंजिल निर्माण की अनुमति देने में एमआरआरडीए की भूमिका सबसे अहम रही है। एमआरआरडीए ने आठ करोड़ 11 लाख 80 हजारख् 436 रूपए लेकर 27 मंजिला इमारत की अनुमति प्रदान कर दी थी। इस अनुमति पत्र पर गायकवाड़ की सही है। इसके बाद इसमें 31 मंजिल हो गईं और एमआरआरडीए ने 39 लाख 74 हजार 235 रूपए प्रति मंजिल के हिसाब से जुर्माना वसूला था। माना जा रहा है कि आदर्श हाउसिंग घोटाले के मामले को डाल्यूट करने के लिए गायकवाड़ की तैनाती की गई है ताकि अन्य महकमों के अफसरान को हड़का कर फाईलों को दुरूस्त किया जा सके।
माननीयों के पास महंगी कार का क्या काम
हरयाणा सरकार ने कामकाज को सुगम तरीके से संचालित करने की गरज से नौ मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्ति की है। इन सीपीएस के आवागवमन को सुलभ बनाने के लिए सरकारी खजाने पर जमकर बोझ डाला गया है। सरकार ने इनके लिए नौ हॉंडा सीआरवी कार खरीदने का फरमान जारी किया है। एक कार की कीमत 21 लाख रूपए है, इस लिहाज से 1 करोड़ 89 लाख् रूपए महज खरीदी में ही खर्च हो जाएंगे। हरियाणा के एक अधिवक्ता जेएस.भट्टी को यह नागवार गुजरा और उसने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की शरण ले ली है। उधर मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा का कहना है कि राज्य में दस मंत्री हैं, जिनके पास एक से अधिक विभाग हैं, जिससे काम सुगम तरीके से नहीं हो पा रहा है, इसीलिए सीपीएस की नियुक्ति की गई है। वकील भट्टी की दलील है कि ये नियुक्तियां राजनैतिक हित साधने और सामंजस्य बनाने के लिए की जाती हैं। गौरतलब होगा कि पूर्व में हिमाचल प्रदेश के उच्च न्यायालय द्वारा इस तरह की नियुक्तियों को अवैध ठहराया जा चुका है।
राजनेताओं की भाषा बोलते नौकरशाह
अपने राजनैतिक नफा नुकसान के राजनेता तो चाहे जो भाषा का इस्तेमाल कर लेते हैं किन्तु अब तक नौकरशाहों द्वारा जनता के हितों को ध्यान में रखकर ही बयान जारी किए जाते रहे हैं, संभवतः यह पहला ही मौका होगा जब किसी सूबे के शीर्ष प्रशासनिक अधिकारी द्वारा राजनेताओं की भाषा बोली गई हो। हाल ही में देश की सबसे बड़ी अदालत द्वारा महाराष्ट्र के मुख्य सचिव द्वारा की गई टिप्पणी पर नाराजगी जाहिर करते हुए तीन सप्ताह में स्पष्टीकरण देने की बात कही है। महाराष्ट्र के एक एनजीओ द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में कहा गया है कि महाराष्ट्र के मुख्य सचिव जे.जे.डांगे का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर कोई योजना आरंभ नहीं कर सकते। यह बेघर लोगों का मामला है, इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है। एसे बहुत से आदेश हैं और हम इनकी परवाह नहीं करते। बेघर लोग महाराष्ट्र से नहीं वरन बाहरी राज्यों से हैं। यद्यपि डांगे को सीएस के पद से हटाया जा चुका है, किन्तु उन्होंने जो कुछ कहा वह चीफ सेकेरेटरी की हैसियत से कहा तो राज्य सरकार को इसका भोगमान तो आखिर भोगना ही होगा।
कमजोर हो गए हैं अहमद पटेल
कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी के राजनैतिक सलाहकार अहमद पटेल के सितारे इन दिनों गर्दिश में ही दिख रहे हैं। कांग्रेस के एक ताकतवर महासचिव राजा दिग्विजय सिंह की सोनिया गांधी से नजदीकी के बाद अहमद पटेल का ग्राफ नीचे की ओर आने लगा है। पटेल के दरबार में अब भीड़ भी कम दिखने लगी है। महाराष्ट्र के एक क्षत्रप कांग्रेस महासचिव और केंद्रीय मंत्री मुकुल वासनिक जो कल तक अहमद पटेल के नौ रत्नों में से एक हुआ करते थे, ने नजाकत को भांपते हुए अपना गाड फादर ही बदल लिया है। वैसे भी मौसम और कपड़ों की तरह अपने आका बदलना वासनिक की फितरत में शामिल है। वासनिक को एनएसयूआई में रमेश चेन्नीथेला लाए फिर सीताराम केसरी और आस्कर फर्नाडिस इनके आका रहे। इसके बाद गुलाम नवी आजाद फिर अंबिका सोनी के रास्ते वासनिक पटेल के पास पहुंचे। वासनिक आजकल गुलाम नवी की देहरी चूम रहे हैं। वैसे यह बात है कि वासनिक जिसके दरबार में हाजिरी बजाते हैं वह राजनैतिक शिखर पर गुंजायमान ही रहता है।
दिग्गी राजा हुए बाग बाग
महाराष्ट्र एटीएस चीफ हेमंत करकरे के साथ हुई बातचीत का ब्योरा देने कांग्रेस के महासचिव राजा दिग्विजय सिंह द्वारा प्रेस कांफ्रेस का आयोजन किया गया। रफी मार्ग पर कांस्टीट्यूशन सेंटर में हाल मीडिया कर्मियों से लबालब भरा था। एक के बाद एक प्रश्नों के जवाब दिग्गी राजा दे रहे थे। इसमंे खास बात यह थी कि प्रश्न का जवाब देते समय दिग्विजय सिंह द्वारा पत्रकार को बाकायदा नाम से पुकारा जा रहा था। मीडिया पर्सन्स कायल थे, कि राजा इतने सारे लोगों को नाम से पहचानते हैं। पत्रकार वार्ता के उपरांत चाय और चिरपरिचित ‘‘दिग्गी ठहाकों‘‘ का दौर चला। चुनिंदा मीडिया पर्सन्स ने राजा दिग्विजय सिंह को घेर रखा था। कुछ राजा की तारीफों में कशेदे गढ़ रहे थे। राजा भी चश्मे के भीतर से चिरपरिचित अंदाज में झांकते हुए मंद मंद मुस्करा रहे थे। इसी बीच किसी ने कह ही दिया -‘‘प्रधानमंत्री के बाद मीडिया का हाउस फुल आपकी पीसी अर्थात प्रेस कांफ्रेंस में ही रहता है।‘‘ राजा पहले तो चौंके फिर सहज होकर मुस्कराकर बोले -‘‘नहीं एसा नहीं है, भई।‘‘ आखिर तारीफ सुनना किसे बुरा लगता है।
शीला रमेश आमने सामने
कांग्रेस के अंदरखाने में नंबर दो नेताओं के बीच जबर्दस्त जंग छिड़ी हुई है। चिदम्बरम प्रणव, अहलूवालिया कमल नाथ, श्रीप्रकाश जास्वाल, वीरप्पा माईली, एस.एम.कृष्णा, आदि की आपस में नहीं बन रही है। हाल ही में पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने दिल्ली के अक्षरधाम मंदिर और खेल गांव के बारे में बयान दे डाला कि पर्यावरण अनुमति के बिना ही इन दोनों का निर्माण हो गया। दिल्ली की निजाम शीला दीक्षित को यह नागवार गुजरा। शीला ने हुंकार भरी और कह डाला कि अक्षरधाम और खेल गांव को यमुना के तट पर बनाने के लिए पर्यावरण विभाग की बाकायदा अनुमति ली गई थी। अब कौन है सच्च कौन है झूठा हर चेहरे पर नकाब है की तर्ज पर यह कहना मुश्किल है कि सच कौन कह रहा है। रमेश पर्यावरण मंत्री हैं, सो उन्हें वास्तविक स्थिति पता होना स्वाभाविक है, वहीं दूसरी ओर शीला दीक्षित तीसरी बार दिल्ली की मुख्यमंत्री बनी हैं इस लिहाज से उनकी जानकारी को भी कमतर नहीं आंका जा सकता है।
पुच्छल तारा
दिल्ली में ठंड पड़ रही है, सारी दिल्ली जम चुकी है। तापमान नीचे आता जा रहा है। ठंड के कारण लोग घरों में दुबके पड़े हैं। अपने अपने कार्यालयों से झूठ बोलकर अवकाश ले रहे हैं। कोई बीमारी का तो कोई किसे के फायनल होने का बहाना बना रहा है। दिल्ली में रोहणी में रहने वाले संजय पोतदार ने ईमेल भेजा है, संजय लिखते हैं कि एक बॉस ने अपने मातहत से पूछा -‘‘क्या तुम मृत्यु के बाद जीवन पर यकीन करते हो?‘‘
कर्मचारी बोला -‘‘जी नहीं साहेब।‘‘
बॉस फिर बोला -‘‘ठीक बात है, पर अब करने लगो। जिस दादी की मौत पर तुमने परसों अवकाश लिया था, उनका फोन तुम्हारे जाने के बाद आया था, कि तुम्हें जतला दिया जाए कि बाजार से एक पाव प्याज जरूर ले आना।‘‘
विचार पोर्टल ‘प्रवक्ता डॉट कॉम’ द्वारा गत अक्टूबर महीने में आयोजित ऑनलाइन लेख प्रतियोगिता में उमेश चतुर्वेदीने प्रथम और अनिल कुमार बैनिवालने द्वितीय स्थान प्राप्त किया है।
विदित हो कि 16 अक्टूबर 2009 से ‘प्रवक्ता डॉट कॉम’ का सफर अनवरत जारी है। प्रवक्ता ‘’पाठकों द्वारा, पाठकों के लिए और पाठकों का’’ मुक्त मंच है। समसामयिक मुद्दों पर विचारशील लेख तो हम प्रस्तुत करते ही हैं, गत एक साल से अनेक सम-सामयिक विषयों पर परिचर्चा का आयोजन कर पाठकों के बीच जन-जागरण का भी काम कर रहे हैं, जिसमें पाठकों की सहभागिता उल्लेखनीय होती है।
‘प्रवक्ता डॉट कॉम’ के दो साल पूरे होने पर हमने पाठकों की रुचि बढ़ाने और वेब-पत्रकारिता को सशक्त बनाने की दृष्टि से एक ऑनलाइन लेख प्रतियोगिता आयोजित करने का निश्चय किया। विषय था- ‘वेब पत्रकारिता : संभावनाएं एवं चुनौतियां। दो पुरस्कार देने का तय किया। प्रथम पुरस्कार- रू. 1500/- और द्वितीय पुरस्कार- रू. 1100/-
प्रतियोगिता को लेकर हम ज्यादा प्रचार-प्रसार नहीं कर पाए। केवल प्रवक्ता पर ही जानकारी प्रस्तुत की। कुल 10 लेख आए। पहले सोचा था कि मैंस्वयं ही लेखों का मूल्यांकन कर दूंगा, लेकिन जब लेख पढ़ना शुरू किया तो विषय-वस्तु की गुणवत्ता देखकर मुझे ऐसा लगा कि कहीं लेखों के साथ अन्याय न हो जाए। हमने तुरंत प्रवक्ता के दो वरिष्ठ लेखकों, कोलकाता विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी और माखनलाल राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष श्री संजय द्विवेदी, से निर्णायक मंडल में शामिल होने का अनुरोध किया। दोनों महानुभावों की अनुमति हमें सहर्ष मिल गई और उन्होंने समय से हमें अपने निर्णय से अवगत करा दिया। हम उनके प्रति आभार प्रकट करते हैं। प्रतियोगिता आयोजित करने को लेकर प्रवक्ता डॉट कॉम के प्रबंधक श्री भारत भूषण के सहयोग के लिए भी हम उनके आभारी हैं। इसके साथ ही सभी प्रतियोगी लेखकगण भी धन्यवाद के पात्र हैं।
मीडिया के सभी अनुशासनों का गुण समाहित कर वेब-पत्रकारिता नित नए सोपान रच रहा है। त्वरित दोतरफा संवाद का यह अनूठा माध्यम सस्ता, सरल और पर्यावरण की दृष्टि से भी अनुकूल है। वेब-पत्रकारिता अभी प्रारंभिक दौर में है लेकिन यही आगामी दिनों की पत्रकारिता है।
विजेताओं को ‘प्रवक्ता डॉट कॉम’ की ओर से हार्दिक बधाई एवं शुभकामना।
आप भी इन्हें इमेल के जरिए बधाई दे सकते हैं :
प्रथम स्थान – उमेश चतुर्वेदी :uchaturvedi@gmail.com
द्वितीय स्थान- अनिल कुमार बैनिवाल : anilbeniwalmmc@gmail.com
भारत में इस्लामिक बैंक की स्थापना के प्रयासों में मुँह की खाने के बाद, एक अन्य “सेकुलर” कोशिश के तहत मुम्बई स्टॉक एक्सचेंज में एक नया इंडेक्स शुरु किया गया है जिसे “मुम्बई शरीया-इंडेक्स” नाम दिया गया है। बताया गया है कि इस इंडेक्स में सिर्फ़ उन्हीं टॉप 50 कम्पनियों को शामिल किया गया है जो “शरीयत” के अनुसार “हराम” की कमाई नहीं करती हैं,यह कम्पनियाँ शरीयत के दिशानिर्देशों के अनुसार पूरी तरह “हलाल” मानी गई हैंजिसमें भारत के मुस्लिम बिना किसी “धार्मिक खता”(?) के अपना पैसा निवेश कर सकते हैं।
एक इस्लामिक आर्थिक संस्था है “तसीस” (TASIS) (Taqwaa Advisory and Shariat Investment Solutions)। यह संस्था एवं इनका शरीयत बोर्ड यह तय करेगा कि कौन सी कम्पनी, शरीयत के अनुसार “हलाल” है और कौन सी “हराम”। इस संस्था के मुताबिकशराब, सिगरेट, अस्त्र-शस्त्र बनाने वाली तथा “ब्याजखोरी एवं जुआ-सट्टा” करने वाली कम्पनियाँ “हराम” मानी गई हैं।
भारत में इस्लामिक बैंक अथवा इस्लामिक फ़ाइनेंस (यानी शरीयत के अनुसार चलने वाले संस्थानों) की स्थापना के प्रयास 2005 से ही शुरु हो गये थे जब रिज़र्व बैंक ने “इस्लामिक बैंक” की उपयोगिता एवं मार्केट के बारे में पता करने के लिये, आनन्द सिन्हा की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया था। इसके बाद राजिन्दर सच्चर की अध्यक्षता में आयोग बनाया गया, जिसने निष्कर्ष निकाला कि भारत के 50% से अधिक मुस्लिम विभिन्न फ़ायनेंस योजनाओं एवं शेयर निवेश के बाज़ार से बाहर हैं, क्योंकि उनकी कुछ धार्मिक मान्यताएं हैं। इस्लामिक बैंक की स्थापना को शुरु में केरल के मलप्पुरम से शुरु करने की योजना थी, लेकिन डॉ सुब्रहमण्यम स्वामी ने केरल हाईकोर्ट में याचिका दायर करके एवं विभिन्न अखबारों में लेख लिखकर बताया कि “इस्लामिक बैंक” की अवधारणा न तो भारतीय रिजर्व बैंक के मानदण्डों पर खरा उतरता है, और न ही एक “सेकुलर” देश होने के नाते संविधान में फ़िट बैठता है, तब “फ़िलहाल” (जी हाँ फ़िलहाल) इसे ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया है, परन्तु शरीया-50 इंडेक्स को मुम्बई स्टॉक एक्सचेंज (लिस्ट यहाँ देखें…) में लागू कर ही दिया गया है।
स्वाभाविक तौर पर कुछ सवाल तथाकथित शरीयत आधारित इंडेक्स को लेकर खड़े होते हैं – जैसे,
1) भारत एक घोषित धर्मनिरपेक्ष देश है (ऐसा संविधान में भी लिखा है), फ़िर “शरीयत” एवं धार्मिक आधार पर इंडेक्स शुरु करने का क्या औचित्य है? क्या ऐसा ही कोई “गीता इंडेक्स” या “बाइबल इंडेक्स” भी बनाया जा सकता है?
2) भारत या विश्व की कौन सी ऐसी प्रायवेट कम्पनी है, जो “ब्याजखोरी” पर नहीं चलती होगी?
3) पाकिस्तान व सऊदी अरब अपने-आप को इस्लाम का पैरोकार बताते फ़िरते हैं, मैं जानने को उत्सुक हूं (कोई मुझे जानकारी दे) कि क्या पाकिस्तान में सिगरेट बनाने-बेचने वाली कोई कम्पनी कराची स्टॉक एक्सचेंज में शामिल है या नहीं?
4) कृपया जानकारी जुटायें कि क्या सऊदी अरब में किसी अमेरिकी शस्त्र कम्पनी के शेयर लिस्टेड हैं या नहीं?
5) क्या शराब बनाने वाली कोई कम्पनी बांग्लादेश अथवा इंडोनेशिया के स्टॉक एक्सचेंज में शामिल है या नहीं? या वहाँ की किसी “इस्लामिक” व ईमानदारी से शरीयत पर चलने वाली किसी कम्पनी की पार्टनरशिप “ब्याजखोरी” करने वाले किसी संस्थान से तो नहीं है?
इन सवालों के जवाब इस्लामिक जगत के लिये बड़े असहज सिद्ध होंगे और शरीयत का नाम लेकर मुसलमानों को बेवकूफ़ बनाने की उनकी पोल खुल जायेगी। भारत में शरीयत आधारित इंडेक्स शुरु करने का एकमात्र मकसद सऊदी अरब, कतर, शारजाह जैसे खाड़ी देशों से पैसा खींचना है। अभी भारत में अंडरवर्ल्ड का पैसा हवाला के जरिये आता है, फ़िर दाउद इब्राहीम एवं अल-जवाहिरी का पैसा “व्हाइट मनी” बनकर भारत आयेगा। ज़ाहिर है कि इसमें भारतीय नेताओं के भी हित हैं, कुछ के “धार्मिक वोट” आधारित हित हैं, जबकि कुछ के “आर्थिक हित” हैं। भारत से भ्रष्ट तरीकों से जो पैसा कमाकर दुबई भेजा जाता है और सोने में तब्दील किया जाता है, वह अब “रुप और नाम” बदलकर वापस भारत में ही शरीयत आधारित इंडेक्स की कम्पनियों में लगाया जायेगा। बेचारा धार्मिक मुसलमान सोचेगा कि यह कम्पनियाँ और यह शेयर तो बड़े ही “पवित्र” और “शरीयत” आधारित हैं, जबकि असल में यह पैसा भारत में हवाला के पैसों के सुगम आवागमन के लिये होगा और इसमें जिन अपराधियों-नेताओं का पैसा लगेगा, उन्हें न तो इस्लाम से कोई मतलब है और न ही शरीयत से कोई प्रेम है।
कम्पनियाँ शरीयत आधारित मॉडल पर “धंधा” कर रही हैं या नहीं इसे तय करने का पूरा अधिकार सिर्फ़ और सिर्फ़ TASIS को दिया गया है, जिसमें कुरान व शरीयत के विशेषज्ञ(?) लोगों की एक कमेटी है, जो बतायेगी कि कम्पनी शरीयत पर चल रही है या नहीं। यानी इस बात की कोई गारण्टी नहीं है कि भविष्य में देवबन्द से कोई मौलवी अचानक किसी कम्पनी के खिलाफ़ कोई फ़तवा जारी कर दे तो किसकी बात मानी जायेगी, TASIS के पैनल की, या देबवन्द के मौलवी की? मान लीजिये किसी मौलवी ने फ़तवा दिया कि डाबर कम्पनी का शहद खाना शरीयत के अनुसार “हराम” है तो क्या डाबर कम्पनी को शरीया इंडेक्स से बाहर कर दिया जायेगा? क्योंकि देवबन्द का कोई भरोसा नहीं, पता नहीं किस बात पर कौन सा अजीबोगरीब फ़तवा जारी कर दे… (हाल ही में एक फ़तवे में कहा गया है कि यदि शौहर अपनी पत्नी को मोबाइल पर तीन बार तलाक कहे और यदि किसी वजह से, अर्थात नेटवर्क में खराबी या लो-बैटरी के कारण पत्नी “तलाक” न सुन सके, इसके बावजूद वह तलाक वैध माना जायेगा, अब बताईये भला… पश्चिम की आधुनिक तकनीक से बना मोबाइल तो शरीयत के अनुसार “हराम” नहीं है लेकिन उस पर दिया गया तलाक पाक और शुद्ध है, ऐसा कैसे?)
बहरहाल, बात हो रही थी इस्लामिक बैंकिंग व शरई इंडेक्स की – हमारे देश में एक तो वैसे ही बैंकिंग सिस्टम पर निगरानी बेहद घटिया है एवं बड़े आर्थिक अपराधों के मामले में सजा का प्रतिशत लगभग शून्य है। एक उदाहरण देखें – देश के सर्वोच्च पद पर आसीन प्रतिभादेवी सिंह पाटिल के खिलाफ़ उनके गृह जिले में आर्थिक अपराध के मामले पंजीबद्ध हैं। प्रतिभा पाटिल एवं उनके रिश्तेदारों ने एक समूह बनाकर “सहकारी बैंक” शुरु किया था, प्रतिभा पाटिल इस बैंक की अध्यक्षा थीं उस समय इनके रिश्तेदारों को बैंक ने फ़र्जी और NPA लोन जमकर बाँटे। ऑडिट रिपोर्ट में जब यह बात साबित हो गई, तो रिज़र्व बैंक ने इस बैंक की मान्यता समाप्प्त कर दी। रिपोर्ट के अनुसार बैंक के सबसे बड़े 10 NPA कर्ज़दारों में से 6 प्रतिभा पाटिल के नज़दीकी रिश्तेदार हैं, जिन्होंने बैंक को चूना लगाया… (सन्दर्भ- The Difficulty of Being Good : on the Subtle art of Dharma, Chapter Draupadi — Page 59-60 – लेखक गुरुचरण दास)
ऐसी स्थिति में अरब देशों से शरीयत इंडेक्स के नाम पर आने वाला भारी पैसा कहाँ से आयेगा, कहाँ जायेगा, उसका क्या और कैसा उपयोग किया जायेगा, उसे कैसे व्हाइट में बदला जायेगा, इत्यादि की जाँच करने की कूवत भारतीय एजेंसियों में नहीं है। असल में यह सिर्फ़ भारत के मुसलमानों को भरमाने और बेवकूफ़ बनाने की चाल है, ज़रा सोचिये किंगफ़िशर एयरलाइन्स के नाम से माल्या की कम्पनी किसी इस्लामी देश के शेयर बाज़ार में लिस्टेड होती है या फ़िर ITC होटल्स नाम की कम्पनी शरीयत इंडेक्स में शामिल किसी कम्पनी की मुख्य भागीदार बनती है तो क्या यह शरीयत का उल्लंघन नहीं होगा? विजय माल्या भारत के सबसे बड़े शराब निर्माता हैं और ITC सबसे बड़ी सिगरेट निर्माता कम्पनी, तब इन दोनों कम्पनियों के शेयर, भागीदारी, संयुक्त उपक्रम इत्यादि जिस भी कम्पनी में हों उसे तो “हराम” माना जाना चाहिये, लेकिन ऐसा होता नहीं है, देश के कई मुस्लिम व्यक्ति इनसे जुड़ी कम्पनियों के शेयर भी लेते ही हैं, परन्तु शरीया इंडेक्स, अरब देशों से पैसा खींचने, यहाँ का काला पैसा सफ़ेद करने एवं भारत के मुस्लिमों को “बहलाने” का एक हथियार भर है। मुस्लिमों को शेयर मार्केट में पैसा लगाकर लाभ अवश्य कमाना चाहिये, भारतीय मुस्लिमों की आर्थिक स्थिति सुधरे, ऐसा कौन नहीं चाहता… लेकिन इसके लिए शरीयत की आड़ लेना, सिर्फ़ मन को बहलाने एवं धार्मिक भावनाओं से खेलना भर है। हर बात में “धर्म” को घुसेड़ने से अन्य धर्मों के लोगों के मन में इस्लाम के प्रति शंका आना स्वाभाविक है…
एक अन्य उदाहरण :- यदि तुम जिन्दा रहे तो हम तुम्हें इतना पैसा देंगे, और यदि तुम तय समय से पहले मर गये तो हम तुम्हारे परिवार को इतने गुना पैसा देंगे…। या फ़िर ऐसा करो कि कम किस्त भरो… जिन्दा रहे तो सारा पैसा हमारा, मर गये तो कई गुना हम तुम्हें देंगे… जीवन बीमा कम्पनियाँ जो पॉलिसी बेचती हैं, वह भी तो एक प्रकार से “मानव जीवन पर खेला गया सट्टा” ही है, तो क्या भारत के मुसलमान जीवन बीमा करवाते ही नहीं हैं? बिलकुल करवाते हैं, भारी संख्या में करवाते हैं, तो क्या वे सभी के सभी शरीयत के आधार पर “कुकर्मी” हो गये? नहीं। तो फ़िर इस शरीयत आधारित इंडेक्स की क्या जरुरत है?
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखाएं चुन-चुनकर और जानबूझकर मुस्लिम बहुल इलाकों (बंगाल के मुर्शिदाबाद, बिहार के किशनगंज एवं केरल के मलप्पुरम ) में खोलने की कवायद जारी है, कांग्रेस शासित राज्यों में से कुछ ने नौकरियों में 5% आरक्षण मुसलमानों को दे दिया है, केन्द्र सरकार भी राष्ट्रीय सिविल परीक्षाओं में मुसलमानों के लिये 5% आरक्षण पर विचार कर रही है, केरल-बंगाल-असम के अन्दरूनी इलाकों में अनधिकृत शरीयत अदालतें अपने फ़ैसले सुनाकर, कहीं प्रोफ़ेसर के हाथ काट रही हैं तो कहीं देगंगा में हिन्दुओं को बस्ती खाली करने के निर्देश दे रही हैं…। ये क्या हो रहा है, समझने वाले सब समझ रहे हैं…
“एकजुट जनसंख्या” और “मजबूत वोट बैंक” की ताकत… मूर्ख हिन्दू इन दोनों बातों के बारे में क्या जानें… उन्हें तो यही नहीं पता कि OBC एवं SC-ST के आरक्षण कोटे में से ही कम करके, “दलित ईसाईयों”(?) (पता नहीं ये क्या चीज़ है) और मुसलमानों को आरक्षण दे दिया जायेगा… और वे मुँह तकते रह जायेंगे।
बहरहाल, सरकार तो कुछ करेगी नहीं और भाजपा सोती रहेगी… लेकिन अब कम से कम हिन्दुओं को यह तो पता है कि शरीयत इंडेक्स में शामिल उन 50 कम्पनियों के शेयर“नहीं” खरीदने हैं… शायद तंग आकर कम्पनियाँ खुद ही कह दें, कि भई हमें शरीयत इंडेक्स से बाहर करो… हम पहले ही खुश थे…। बड़ा सवाल यह है कि क्या मुनाफ़े के भूखे, “व्यापारी मानसिकता वाले, राजनैतिक रुप से बिखरे हुए हिन्दू” ऐसा कर पाएंगे?
चलते-चलते : मजे की बात तो यह है कि, हर काम शरीयत और फ़तवे के आधार पर करने को लालायित मुस्लिम संगठनों ने अभी तक यह माँग नहीं की है कि अबू सलेम को पत्थर मार-मार कर मौत की सजा दी जाये अथवा अब्दुल तेलगी को ज़मीन में जिन्दा गाड़ दिया जाये… या सूरत के MMS काण्ड के चारों मुस्लिम लड़कों के हाथ काट दिये जायें…। ज़ाहिर है कि शरीयत अथवा फ़तवे का उपयोग (अक्सर मर्दों द्वारा) सिर्फ़ “अपने फ़ायदे” के लिये ही किया जाता है, सजा पाने के लिये नहीं… उस समय तो भारतीय कानून ही बड़े “फ़्रेण्डली” लगते हैं…।
यह विस्मयजनक नहीं है कि जम्मू कश्मीर राज्य के मुख्य मंत्री उमर अब्दुल्ला ने श्रीनगर में तिरंगा फहराए जाने के विरुद्ध चेतावनी दी है. उन्हें इस प्रकार की चेतावनी देश की मुख्य प्रतिपक्षी पार्टी भाजपा को देने का क्या अधिकार है? इसके पीछे उनके मन मस्तिष्क में क्या कुछ घूम रहा है वे बेहतर जानते हैं. भिन्न भिन्न बोलियां बोलने की आदत उनमें वंश-परम्परागत है. कश्मीर को मुस्लिम राज्य बनाने और उस पर काबिज़ होने का स्वप्न उनके पूर्वज शेख अब्दुल्ला ने देखा था. कश्मीर को विशेष दर्जा दिलाने और अलगाववाद की नींव कायम करने का काम भी तभी हुआ था. नेहरु जी उनके ही मायाजाल में फंसे थे और कश्मीर जो आज एक अनसुल्झी समस्या बन कर हर क्षण भारत को पीड़ा देता है सब उसी का नतीजा है.
क्या कश्मीर का मुख्य मंत्री भारत के ही एक राज्य का राजनेता है? यदि है तो क्या उसकी राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे में कोई निष्ठा है? यदि हाँ तो फिर किसी भी भारतीय द्वारा कश्मीर राज्य में तिरंगा लहराए जाने पर उन्हें परेशानी क्यों है? यदि सचमुच उन्हें वहां ऐसा करने से अतिवादी पाकिस्तान समर्थक तत्वों द्वारा भारत विरोधी प्रतिक्रिया की चिंता है तो क्या उनमें इतना दम नहीं है कि वे ऐसे तत्वों को काबू में रखने के उपाय करें? यदि उन्हें नहीं सूझता कि क्या करें तो उन्हें कोई हक नहीं कि वे मुख्य मंत्री बने रहें.
लेकिन सच यह है कि वे स्वयं कभी पाकिस्तान और कभी भारत के बीच अपनी निष्ठा को स्थिर नहीं कर पा रहे जिसके कारण वे कश्मीर के भविष्य के सम्बन्ध में पहले भी अपने असमंजस का प्रदर्शन कर चुके हैं.
भाजपा ही नहीं अपितु भारत के हर राजनीतिक दल और हर राष्ट्रीय का यह अधिकार है कि वह श्रीनगर में तिरंगा फहराए और तिरंगा ही फहराया जाता देखे. जो लोग पाकिस्तानी ध्वज वहां खुले आम फहराते हैं और भारत का अन्न जल ग्रहण करते हुए पाकिस्तान की जय बोलते हैं उन्हें रोकने का दम होना चाहिए जो लगता है किसी में नहीं है. यदि किसी देश में इतना भी दम न हो कि वह अपने मान सम्मान, अपनी भूमि, ध्वज और राष्ट्रनिष्ठ नागरिकों की रक्षा न कर पाए तो इसमें कोई संदेह नहीं कि वह बहुत कुछ खो देने के कगार पर खड़ा है.
‘कांग्रेस और भारत राष्ट्र निर्माण (Congress and the making of the Indian Nation) शीर्षक से कांग्रेस पार्टी द्वारा प्रकाशित 172 पृष्ठीय पुस्तक के मात्र दो पैराग्राफों में देश को बताया गया है कि 1975-77 के आपातकाल में क्या हुआ। ये दो पैराग्राफ निम्न है:
”आपातकाल की अवधि के दौरान सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया और मौलिक अधिकार निलम्बित कर दिए गए थे, महागठजोड़ के नेता गिरफ्तार हुए और प्रेस सेंसरशिप तथा कड़ा अनुशासन लागू किया गया। घोर साम्प्रदायिक और वामपंथी संगठनों को प्रतिबंधित कर दिया गया था। आपातकाल के 19 महीनों में एक लाख से ज्यादा लोग गिरफ्तार किए गए। न्यायपालिका की शक्तियां जबर्दस्त रुप से घटा दी गईं। सरकार और दल की असीमित शक्ति प्रधानमंत्री के हाथों में केंद्रित हो गई।
सामान्य प्रशासन सुधरने के चलते शुरु में जनता के बहुत बड़े वर्ग ने इसका स्वागत किया। लेकिन नागरिक अधिकार कार्र्यकत्ताओं ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निजी स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों का विरोध किया। दुर्भाग्य से, कुछ क्षेत्रों में अति उत्साह के चलते जबरन नसबंदी और स्लम उन्मूलन जैसे कुछ कार्यक्रमों में क्रियान्वयन अनिवार्यता बन गई। तक तक संजय गांधी महत्वपूर्ण नेता के रुप में उभर चुके थे। परिवार नियोजन को उनके समर्थन के चलते सरकार ने इसे और उत्साह से लागू करने का फैसला किया। उन्होंने भी स्लम उन्मूलन, दहेज विरोधी कदमों और साक्षरता बढ़ाने हेतु प्रोत्साहन दिया लेकिन मनमाने और तानाशाही तरीके से जोकि लोकप्रिय जनमत की इच्छा के विरुध्द थे।”
इन दोनों पैराग्राफों से पहले दो पूरे पृष्ठों में उन दो तत्वों का उल्लेख किया गया है जिनके चलते आपातकाल लगाना पड़ा, एक जयप्रकाश नारायण के ‘गैर-संवैधानिक और अलोकतांत्रिक आंदोलन‘ और दूसरी तरफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय का वह फैसला जिसमें श्रीमती गांधी पर चुनावी कानूनों का उल्लंघन कर सीट जीतने और उनका निर्वाचन अवैध ठहराने – इन दो तत्वों को आपातकाल लगाने के लिए जिम्मेदार कर चिन्हित किया गया है।
इस पुस्तक से उद्दृत दूसरा पैराग्राफ आपातकाल में देश को भुगतने वाले सभी दुष्कर्मों के लिए संजय गांधी को बलि का बकरा बनाने का भौंडा प्रयास किया गया है। पिछले साठ वर्षों में, जब भी कार्यपालिका को कोई न्यायिक निर्णय प्रतिकूल लगा है तो उसकी प्रतिक्रिया विधायिका का समर्थन जुटाकर कार्यपालिका की मंशा के अनुरुप उस निर्णय को निष्प्रभावी करने की रही है। 1975 में भी यह चुनावी भ्रष्टाचार के सम्बंध में कानून में संशोधन करके किया गया। लेकिन श्रीमती गांधी इतने तक नहीं रुकीं। अपने मंत्रिमंडल, यहां तक कि विधि मंत्री और गृहमंत्री से परामर्श किए बैगर उन्होंने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से अनुच्छेद 352 लागू कराकर लोकतंत्र का अनिश्चितकाल के लिए निलम्बित करा दिया। कांग्रेस पार्टी का प्रकाशन आपातकाल में हुई सिर्फ ‘ज्यादतियों‘ पर खेद प्रकट करता है। क्योंकि संजय गांधी ने स्लम उन्मूलन, दहेज विरोधी कदमों और साक्षरता जैसे मूल्यवान मुद्दों को प्रोत्साहित किया परन्तु मनमाने और तानाशाही तरीकों से।
मैं, आपातकाल की घोषणा को ही लोकतंत्र के विरुध्द एक अक्षम्य अपराध मानता हूं और संविधान निर्माताओं ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि स्वतंत्र भारत को कोई प्रधानमंत्री संविधान के अनुच्छेद 352 का ऐसा निर्लज्ज दुरुपयोग करेगा।
मैं इसलिए प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूं कि हाल ही (नवम्बर, 2010) में सर्वोच्च न्यायालय ने आपातकाल के संबंध न्यायाधीश में ए.एन. रे के बहुमत वाले निर्णय को गलत मानते हुए अकेले इसके विरोध में निर्णय देने वाले एच.आर. खन्ना के निर्णय पर मुहर लगाई है, आज जो देश का कानून है। फरवरी, 2009 में पूर्व मुख्य न्यायाधीश वेंकटचलैय्या ने अपने एक व्याख्यान में कहा था कि 1976 का बहुमत वाला निर्णय ‘इतिहास के कूड़ेदान में फेंकने‘ योग्य है।
कांग्रेस पार्टी ने स्वीकारा है कि आपातकाल के दौरान एक लाख से ज्यादा लोगों को जेलों में डाला गया। सही संख्या 1,10,806 थी। इनमें से 34,988 को मीसा कानून के तहत बंदी बनाया गया जिसमें उन्हें यह भी नहीं बताया गया कि बंदी बनाने के कारण क्या है: इन बंदियों में जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चन्द्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी, बालासाहेब देवरस और बड़ी संख्या में सांसद, विधायक तथा प्रमुख पत्रकार भी सम्मिलित थे।
लगभग अधिकांश मीसा बंदियों ने अपने-अपने राज्यों के उच्च न्यायालयों में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की हुई थी। सभी स्थानों पर सरकार ने एक सी आपत्ति उठाई : आपातकाल में सभी मौलिक अधिकार निलम्बित हैं और इसलिए किसी बंदी को बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करने का अधिकार नहीं है। लगभग सभी उच्च न्यायालयों ने सरकारी आपत्ति को रद्द करते हुए याचिकाकर्ताओं के पक्ष में निर्णय दिए।
सरकार इसके विरोध में न केवल सर्वोच्च न्यायालय में अपील की अपितु उसने इन याचिकाओं की अनुमति देने वाले न्यायाधीशों को दण्डित भी किया। अपने बंदीकाल के दौरान मैं जो डायरी लिखता था उसमें मैंने 19 न्यायधीशों के नाम दर्ज किए हैं जिनको एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में इसलिए स्थानांतरित किया गया कि उन्होंने सरकार के खिलाफ निर्णय दिया था !
16 दिसम्बर, 1975 की मेरी डायरी के अनुसार :
सर्वोच्च न्यायालय मीसा बन्दियों के पक्ष में दिये गये उच्च न्यायालय के फैसलों के विरूध्द भारत सरकार की अपील सुनवाई कर रहा है। इसमें हमारा केस भी है। न्यायमूर्ति खन्ना ने निरेन डे से पूछा कि ‘संविधान की धारा 21 में केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं बल्कि जिंदा रहने के अधिकार का भी उल्लेख है। क्या महान्यायवादी का यह भी अभिमत है कि चूंकि इस धारा को निलंबित कर दिया गया है और यह न्यायसंगत नहीं है, इसलिए यदि कोई व्यक्ति मार डाला जाता है तो भी इसका कोई संवैधानिक इलाज नहीं है? निरेन डे ने कहा कि यह मेरे विवके को झकझोरता है, पर कानूनी स्थिति यही है।
इस अपील में बहुमत का निर्णय सुनाने वाली पीठ जिसमें मुख्य न्यायाधीश ए.एन. रे, न्यायाधीश एच.आर.खन्ना, एम.एच.बेग, वाई.वी.चन्द्रचूड़ और पी.एन. भगवती (न्यायाधीश खन्ना असहमत थे) ने घोषित किया : ”27 जून, 1975 के राष्ट्रपतीय आदेश के मुताबिक अनुच्छेद 226 के तहत किसी भी व्यक्ति को उच्च न्यायालय में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करने का कोई अधिकार नहीं है।
”अपील स्वीकार की जाती है। उच्च न्यायालयों के फैसले खारिज किए जाते हैं।”
अपने ऐतिहासिक असहमति वाले फैसले में न्यायमूर्ति खन्ना कहते हैं :
”जब संविधान बनाया जा रहा था तब जीवन और स्वतंत्रता की पवित्रता कुछ नहीं थी। यह उन उच्च मूल्यों के फलक का प्रतिनिधित्व भी करता है, जिन्हें मानव जाति ने आदिम अराजक व्यवस्था से एक सभ्य अस्तित्व के विकास क्रम में अपनाया। इसी प्रकार यह सिध्दान्त कि किसी को भी उसके जीवन और स्वतंत्रता से बगैर कानून के अधिकार के वंचित नहीं किया जाएगा भी स्वतंत्रता प्रदत्ता उपहार नहीं है। यह उस अवधारणा का अनिवार्य परिणाम है जो जीवन और स्वतंत्रता की पवित्रता से जुड़ी है; यह अस्तित्व में था और संविधान के पूर्व ही विद्यमान थी।
यह तर्क दिया गया कि जीवन और निजी स्वतंत्रता के पालन के अधिकार के लिए न्यायालय में जाने का किसी व्यक्ति का अधिकार संवैधानिक प्रावधानों के तहत निलम्बित किया गया है और इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि परिणामीक परिस्थिति का अर्थ कानून के शासन की अनुपस्थिति होगी। मेरे मत में यह तर्क कानून के शासन की मिथ्या धारणा को कानून के शासन की वास्तविकता से तुलना करने पर टिक नहीं सकता। मान लीजिए, जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा के मामले में कोई कानून बनाया जाता है, प्रशासनिक अधिकारीगण किसी भी कानून से संचालित नहीं होंगे और उनके लिए खुला होगा कि वे किसी भी कानूनी अधिकार के बगैर एक व्यक्ति को जीवन और स्वतंत्रता से वंचित कर सकें। एक तरह से, यह उन परिस्थितियों जिनमें सैकड़ों लोगों का जीवन सनकीपन और दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से बगैर कानूनी अधिकार के ले लिया जाए और तर्क यह दिया जाए कि यह तो उपरोक्त बनाए गए कानून का पालन है। अत: एक विशुध्द औपचारिक रुप में, कोई पध्दति या नियम जोकि आदेशों के तारतम्य में हैं, यहां तक कि नरसंहार आयोजित करने वाला नाजी शासन भी कानून की नजरों में योग्य ठहर सकता है।”
न्यायमूर्ति खन्ना का 25 फरवरी, 2008 को पिचानवें वर्ष की आयु में निधन हो गया। उनके द्वारा किए गए युगांतरकारी फैसले के बाद 30 अप्रैल, 1976 को द न्यूयार्क टाइम्स ने अपने सम्पादकीय में लिखा : यदि भारत कभी स्वतंत्रता और लोकतंत्र जो एक स्वतंत्र राष्ट्र के पहले 18 वर्षों में सर्वोच्च विशिष्टता बनी रही को देखेगा तो कोई न कोई निश्चित रुप से न्यायमूर्ति एच.आर.खन्ना की मूर्ति सर्वोच्च न्यायालय में अवश्य स्थापित करेगा।”
जी, हां इन्हीं शब्दों को सार्थक कर रहे हैं हरियाणा के हिसार ज़िले के गांव कैमरी में स्थित श्रीकृष्ण प्रणामी बाल सेवा आश्रम के संस्थापक बाबा दयाल दास। क़रीब 40 साल पहले बाबा दयाल दास को रास्ते में एक बेसहारा बच्चा मिला था, जिसे उन्होंने अपना लिया। और फिर यहीं से शुरू हुआ बेसहारा बच्चों को सहारा देने का सिलसिला। बाबा अनाथ और बेसहारा बच्चों को जहां माता और पिता दोनों का प्यार दे रहे हैं, वहीं मार्गदर्शक बनकर उनमें ज़िन्दगी की मुश्किल राहों में निरंतर आगे बढ़ते हुए जन सेवा की अलख जगा रहे हैं। एक छोटी-सी कुटिया से शुरू हुए इस आश्रम में आज क़रीब 150 लोग रह रहे हैं, जिनमें 63 लड़के-लड़कियां शामिल हैं। सभी एक परिवार की तरह रहते हैं।
बाबा बताते हैं कि पहले आश्रम का नाम निजानंद अनाथ आश्रम रखा गया था, लेकिन बाद में बदलकर श्रीकृष्ण प्रणामी बाल सेवा आश्रम कर दिया गया। वह कहते हैं कि वह नहीं चाहते कि किसी भी तरह बच्चों को ‘अनाथ’ होने का अहसास हो। आश्रम में हरियाणा के अलावा पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और नेपाल तक के बच्चे हैं। बच्चों को घर जैसा माहौल देने की पूरी कोशिश की जाती है। बच्चों को स्कूल और कॉलेज की शिक्षा दिलाई जाती है। उच्च शिक्षा हासिल कर अनेक बच्चे आज बेहतर ज़िन्दगी जी रहे हैं। कई तो सरकारी सेवा में भी गए हैं। अध्यापक हरिदास बताते हैं कि यहां पर बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए हरसंभव प्रयास किए जाते हैं। बच्चों की सभी सुविधाओं का विशेष ध्यान रखा जाता है, ताकि उन्हें कभी किसी चीज़ की कोई कमी महसूस न हो।
रमेश प्रणामी बताते हैं कि दो साल की उम्र में वह इस आश्रम में लाए गए थे। यहां उन्हें परिवार का प्यार मिला। गांव के ही स्कूल से उन्होंने दसवीं कक्षा पास की। इसके बाद हिसार के दयानंद कॉलेज से स्नातक की। उन्होंने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. किया। फिर पंजाब विश्वविद्यालय से नेचरोपैथी में डिप्लोमा किया। इस वक्त वह हिसार में श्रीकृष्ण प्रणामी योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा संस्थान चला रहे हैं। उनका विवाह हो चुका है। आश्रम से उन्हें इतना लगाव है कि किसी न किसी रूप में वह आज भी आश्रम से जुड़े हुए हैं। वह कहते हैं कि यह आश्रम तो उनका घर है, इससे वह कभी दूर नहीं हो सकते। वह बताते हैं कि दसवीं तक की शिक्षा उन्हें आश्रम ने ही दिलवाई। इसके बाद की शिक्षा उन्हें पार्ट टाइम जॉब करके पूरी की। मगर अब ऐसा नहीं है। आश्रम में लड़कों को उच्च शिक्षा दिलाई जाती है। वह बताते हैं कि जो लड़कियां पढ़ना चाहती हैं उन्हें भी उच्च शिक्षा दिलाई जाती है, लेकिन जो लड़कियां आगे पढ़ना नहीं चाहतीं, उनका विवाह करा दिया जाता है। अभी तक आश्रम की आठ लड़कियों का अच्छे परिवारों में विवाह कराया जा चुका है। ये लड़कियां अपनी ससुराल में ख़ुशहाल ज़िन्दगी बसर कर रही हैं।
आश्रम में रह रहे बच्चे किसी भी तरह आम बच्चों से अलग नहीं हैं। वे बाबा को अपना पिता और आश्रम को घर मानते हैं। मनमोहन, आदित्य, संदीप और हेमंत कहते हैं कि आश्रम ही उनका घर है और बाबा ही उनके पिता हैं। स्कूलों में पिता के नाम की जगह बाबा का ही नाम लिखा हुआ है। यहां उनकी सुख-सुविधाओं का अच्छे से ख्याल रखा जाता है। आश्रम में रह रही लड़कियां भी घर के काम-काज भी सीखती हैं। वे भोजन आदि बनाने में रसोइयों की मदद करती हैं, ताकि वे भी स्वादिष्ट भोजन बनाना सीख सकें। किरण, सोनिया, गीता और बबीता का कहना है कि उन्हें रसोइयों की मदद करना अच्छा लगता है, क्योंकि इससे उन्हें काफ़ी कुछ सीखने को मिलता है। आश्रम में रह रही बुज़ुर्ग महिलाओं के साथ उन्हें नानी-दादी का प्यार मिलता है। अनाथ बच्चों के अलावा आश्रम में उन बुजुर्ग़ों को भी आश्रय दिया जाता है, जिन्हें उम्र के आख़िरी पड़ाव में एक अदद छत की तलाश है। ये बुज़ुर्ग यहां आकर संतुष्ट हैं। फूला देवी कहती हैं कि यहां वह बहुत ख़ुश हैं।
बाबा दयाल दास बताते हैं कि आश्रम का सारा ख़र्च श्रध्दालुओं द्वारा दिए गए दान से चलता है। आश्रम में गऊशाला भी है, जिसमें क़रीब 60 गायें हैं। गायों की सेवा आश्रम में रहने वाले लोग ही करते हैं। आश्रम में अनाथ बच्चों के पालन-पोषण की सेवा का कार्य सुशीला प्रणामी कर रही हैं।
जहां ख़ून के रिश्ते साथ छोड़ जाते हैं, वहां बाबा दयाल दास जैसे जनसेवक आगे बढ़कर उनका हाथ थाम लेते हैं। सच ऐसे ही लोग तो सच्चे जनसेवक कहलाते हैं।