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लिमटी खरे ‘हीरा लाल गुप्‍त स्‍मृति पुरूस्‍कार’ से सम्‍मानित

मध्‍य प्रदेश की संस्‍कारधानी जबलपुर के भातखण्‍डे संगीत महाविद्यालय में 24 दिसंबर को स्‍वर्गीय हीरा लाल गुप्‍त स्‍मृति पुरूस्‍कार समारोह में स्‍वर्गीय प्रमिला बिल्‍लोरे साव्‍यासाची अलंकरण से फीचर लेखक और वरिष्‍ठ पत्रकार लिमटी खरे को सम्‍मानित करते जवाहर लाल नेहरू कृषि विश्‍वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर गौतम कल्‍लू और वरिष्‍ठ पत्रकार श्‍याम कटारे।

श्री लिमटी खरे को प्रवक्‍ता डॉट कॉम की ओर से हार्दिक बधाई।

विनायक सेन को राजद्रोही साबित करने के चक्कर में मानव-अधिकारों पर हमला

श्रीराम तिवारी

विनायक सेन को काल्पनिक आरोपों की जद में आजीवन कारावास की सजा के समर्थन और विरोध के स्वर केवल भारत ही नहीं, वरन यूरोप, अमेरिका में भी सुने जा रहे हैं.इस फैसले के विरोध में दुनिया भर के लोकतान्त्रिक, जनवादी, धर्मनिरपेक्ष और वामपंथी शामिल हैं, वे जुलुस, नुक्कड़ नाटक, रैली और सेमिनारों के मार्फ़त श्री विनायक सेन की बेगुनाही पर अलख जगा रहे हैं और इस फैसले के समर्थन में वे लोग उछल-कूद कर रहे हैं जो स्वयम हिंदुत्व के नाम की गई हिंसात्मक गतिविधियों में फंसे अपने भगनी भ्राताओं की आपराधिक हिंसा पर देश की धर्मनिरपेक्ष कतारों के असहयोग से नाराज थे. ये समां कुछ ऐसा ही है जैसा कि शहीद भगतसिंह-सुखदेव-राजगुरु की शहादत के दरम्यान हुआ था, उस समय गुलाम भारत की अधिसंख्य जनता-जनार्दन ने भगत सिंह और उनके क्रन्तिकारी साथियों के पक्ष में सिंह गर्जना की थी और उस समय की ब्रिटिश सत्ता के चाटुकारों-पूंजीपतियों, पोंगा-पंथियों ने भगतसिंह जैसे महान शहीदों को तत्काल फाँसी दिए जाने की पेशकश की थी. इस दक्षिणपंथी सत्तामुखापेक्षी धारा के समकालिक जीवाणुओं ने भी निर्दोष क्रांतिकारी विनायक सेन को जल्द से जल्द सूली पर चढ़वाने का अभियान चला रखा है। इनके पूर्वजों को जिस तरह भगत सिंह इत्यादि को फाँसी पर चढ़वाने में सफलता मिल गई थी, वैसी आज के उत्तर-आधुनिक दौर में विनायक सेन को फाँसी पर चढ़वाने में उनके आधुनिक उत्तराधिकारियों को नहीं मिल सकी है. इसीलिए वे जहर उगल रहे हैं, विनायक सेन के वहाने सम्पूर्ण गैर साम्प्रदायिक जनवादी आवाम को गरिया रहे हैं.

चूँकि जिस प्रकार तमाम विपरीत धारणाओं, अंध-विश्वासों, कुटिल-मंशाओं और संकीर्णताओं के वावजूद कट्टरवादी-साम्प्रदायिकता के रक्ताम्बुज महासागरों के बीच सत्यनिष्ठ-ईमानदार व्यक्ति हरीतिका के टापू की तरह हो सकते हैं, उसी तरह कट्टर-उग्र वामपंथ की कतारों में भी कुछ ऐसे सत्पुरुष हो सकते हैं जो न केवल सर्वहारा अपितु सम्पूर्ण मानव मात्र के हितैषी हो सकते हैं, क्या विनायक सेन ऐसा ही एक अपवाद नहीं हैं ?

विगत नवम्बर में और कई मर्तबा पहले भी मैंने प्रवक्ता.कॉम पर नक्सलवाद के खिलाफ, माओवादियों के खिलाफ शिद्दत से लिखा था, जो मेरे ब्लॉग www.janwadi.blogspot.com पर उपलब्ध है, पश्चिम बंगाल हो या आंध्र या बिहार सब जगह उग्र वामपंथ और संसदीय लोकतंत्रात्मक आस्था वाले वामपंथ में लगातार संघर्ष चलता रहा है किन्तु माकपा इत्यादि के अहिंसावाद ने बन्दुक वाले माओवादिओं के हाथों बहुत कुछ खोया है, अब तो लगता है कि अहिंसक क्रांति की मुख्य धारा का लोप हो जायेगा और उसकी जगह पर ये नक्सलवादी, माओवादी अपना वर्ग संघर्ष अपने तौर तरीके से जारी रखेंगे जब तक की उनका अभीष्ट सिद्ध नहीं हो जाता देश के कुछ चुनिन्दा वाम वुद्धिजीवी भी आज हतप्रभ हैं की किस ओर जाएँ? विनायक सेन प्रकरण ने विचारधाराओं को एतिहासिक मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है. इस प्रकरण की सही और अद्द्तन तहकीकात के वाद यह स्वयम सिद्ध होता है कि विनायक सेन निर्दोष हैं, और जब विनायक सेन निर्दोष हैं तो उनसे किसे क्या खतरा हो सकता है?राजद्रोह की परिभाषा यदि यही है; जो विनायक सेन पर तामील हुई है; तो भारत में कोई देशभक्त नहीं बचता..

मैं न तो नक्सलवाद और न ही माओवाद का समर्थक हूँ और न कोई मानव अधिकार आयोग का एक्टिविस्ट; डॉ विनायक सेन के बारे में उतना ही जानता हूँ जितना प्रेस और मीडिया ने अब तक बताया. जब किसी व्यक्ति को कोई ट्रायल कोर्ट राजद्रोह का अपराधी घोषित करे, और आजीवन कारावास की सजा सुनाये; तो जिज्ञासा स्वाभाविक ही सचाई के मूल तक पहुंचा देती है. पता चला की डॉ विनायक सेन ने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच काफी काम किया है.उन्हें राष्ट्रीय -अंतर राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया जा चुका है.वे पीपुल्स यूनियंस फॉर सिविल लिबर्टीज (पी यू सी एल) के प्रमुख की हैसियत से मानव अधिकारों के लिए निरंतर कार्यशील रहे. उन्होंने नक्सलवादियों के खिलाफ खड़े किये गए ‘सलवा जुडूम’ जैसे संगठनों की ज्यादतियों का प्रबल विरोध किया.छत्तीसगढ़ स्टेट गवर्नमेंट और पुलिस की उन पर निरंतर वक्र दृष्टि रही है.

मई २००७ में उन्हें जेल में बंद तथाकथित नक्सलवादी नेता नारायण सान्याल का सन्देश लाने-ले जाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. उन्हें लगभग दो साल बाद २००९ में सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली थी.उस समय भी उनकी गिरफ्तारी ने वैचारिक आधार पर देश को दो धडों में बाँट दिया था.एक तरफ वे लोग थे जो उनसे नक्सली सहिष्णुता के लिए नफ़रत करते थे; दूसरी ओर वे लोग थे जो मानव अधिकार, प्रजातंत्र और शोषण विहीन समाज के तरफदार होने से स्वाभाविक रूप से विनायक सेन के पक्ष में खड़े थे.इनमे से अनेकों का मानना था की विनायक सेन को बलात फसाया जा रहा है. उस समय उनके समर्थन में बहुत कम लोग थे; क्योंकि उस वक्त तक नक्सलवादियों और आदिवासियों के बीच काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं में भेद करने की पुलिसिया मनाही थी.नक्सलवाद और मानव अधिकारवाद के उत्प्रेरकों में फर्क करने में छत्तीसगढ़ पुलिस की असफलता के परिणाम स्वरूप उस वक्त सच्चाई के पक्ष में खड़ा हो पाना बेहद खतरों से भरा हुआ अग्नि-पथ था.इस दौर में जबकि सही व्यक्ति या विचार के समर्थन में खड़ा होना जोखिम भरा है तब विनायक सेन का अपराध बस इतना सा था कि वे नारायण सान्याल से जेल में जाकर क्यों मिले?

भारत की किसी भी जेल के बाहर वे सपरिजन-घंटों, हफ़्तों, महीनों, इस बात का इन्तजार करते हैं कि उन्हें उनके जेल में बंद सजायफ्ता सपरिजन से चंद मिनिटों कि मुलाकात का अवसर मिलेगा, मेल मुलाकात का यह सिलसिला आजीवन चलता रहता है किन्तु किसी भी आगन्तुक मित्र -बंधू बांधव को आज तक किसी ट्रायल कोर्ट ने सिर्फ इस बिना पर कि आप एक कैदी से क्यों मिलते हैं ? आजीवन कारावास तो नहीं दिया होगा.बेशक नारायण सान्याल कोई बलात्कारी, हत्यारे या लुटेरे भी नहीं हैं और उनसे मिलने उनकी कानूनी मदद करने के आरोपी विनायक सेन भी कोई खूंखार-दुर्दांत दस्यु नहीं हैं. उनका अपराध बस इतना सा ही है कि आज जब हर शख्स डरा-सहमा हुआ है, तब विनायक महोदय आप निर्भीक सिंह कि मानिंद सीना तानकर क्यों चलते हो ?

क़ानून को इन कसौटियों और तथ्यों से परहेज करना पड़ता है सो सबूत और गवाहों कि दरकार हुआ करती है और इस प्रकरण के केंद्र में विमर्श का असली मुद्दा यही है कि इस छत्तीसगढ़िया न्याय को यथावत स्वीकृत करें या लोकतंत्र कि विराट परिधि में पुन: परिभाषित करने कि सुप्रीम कोर्ट से मनुहार करें अधिकांश देशवासियों का मंतव्य यही है ; बेशक कुछ लोग व्यक्तिश विनायक सेन नामक बहुचर्चित मानव अधिकार कार्यकर्त्ता को इस झूंठे आरोप और अन्यायपूर्ण फैसले से मुक्त करना-बचाना चाहते होंगे. कुछ लोग इस प्रकरण में जबरन अपनी मुंडी घुसेड रहे हैं और चाहते हैं कि विनायक सेन के बहाने उनके अपने मर्कट वानरों कि गुस्ताखियाँ पर पर्दा डाला जा सके जबकि उनका इस प्रकरण से दूर का भी लेना देना नहीं है. संभवतः वे रमण सरकार की असफलता को ढकने कि कोशिश कर रहे हैं..

छतीसगढ़ पुलिस ने विनायक सेन के खिलाफ जो मामला बनाया और ट्रायल कोर्ट ने फैसला दिया वह न्याय के बुनियादी मानकों पर खरा नहीं उतरता.पुलिस के अनुसार पीयूष गुहा नामक एक व्यक्ति को ६ मई -२००७ को रायपुर रेलवे स्टेशन के निकट गिरफ्तार किया गया था जिसके पास प्रतिबंधित माओवादी पम्फलेट, एक मोबाइल, ४९ हजार रूपये और नारायण सान्याल द्वारा लिखित ३ पत्र मिले जो डॉ विनायक सेन ने पीयूष गुहा को दिए थे.पीयूष गुहा भी कोई खूंखार आतंकवादी या डान नहीं बल्कि एक मामूली तेंदूपत्ता व्यापारी है जो नक्सलवादियों के आतंक से निज़ात पाने के लिए स्वयम नक्सल विरोधी सरकारी कामों का प्रशंसक था.

डॉ विनायक सेन को भारतीय दंड संहिता कि धारा १२४ अ (राजद्रोह) और १२४ बी (षड्यंत्र) तथा सी एस पी एस एक्ट और गैर कानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम कि विभिन्न धाराओं के तहत सुनाई गई सजा पर एक प्रसिद्द वकील वी कृष्ण अनंत का कहना है कि ”१८६० की मूल भारतीय दंड संहिता में १२४ -अ थी ही नहीं इसे तो अंग्रेजों ने बाद में जब देश में स्वाधीनता आन्दोलन जोर पकड़ने लगा तो अभिव्यक्ति कि आजादी को दबाने के लिए १८९७ में बालगंगाधर तिलक और कुछ साल बाद मोहनदास करमचंद गाँधी को जेल में बंद करने, जनता कि मौलिक अभिव्यक्ति कुचलने के लिए तत्कालीन वायसराय द्वारा अमल में लाइ गई ”

भारत के पूर्व मुख्य-न्यायधीश न्यायमूर्ति श्री वी पी सिन्हा ने केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में १९६२ में फैसला दिया था कि धारा १२४-अ के तहत किसी को भी तभी सजा दी जानी चाहिए जब किसी व्यक्ति द्वारा लिखित या मौखिक रूप से लगातार ऐसा कुछ लिखा जा रहा हो जिससे क़ानून और व्यवस्था भंग होने का स्थाई भाव हो.जैसे कि वर्तमान गुर्जर आन्दोलन के कारण विगत दिनों देश को अरबों कि हानी हुई, रेलें २-२ दिन तक लेट चल रहीं या रद्द ही कर दी गई, आम जानता को परेशानी हुई सो अलग. सरकार किरोड़ीसिंह बैसला को हाथ लगाकर देखे. यह न्याय का मखौल ही है कि एक जेंटलमेन पढ़ा लिखा आदमी जो देश और समाज का नव निर्माण करना चाहता है, मानवतावादी है, वो सींकचों के अंदर है; और जिन्हें सींकचों के अंदर होना चाहिए वे देश को चर रहे हैं.

कुछ लोग उग्र वाम से भयभीत हैं, होना भी चाहिए, वह किसी भी क्रांति का रक्तरंजित रास्ता हो भारत कि जनता को मंजूर नहीं, यह गौतम-महावीर-गाँधी का देश है. जाहिर है यहाँ पर वही विचार टिकेगा जो बहुमत को मंजूर होगा. नक्सलियों को न तो बहुमत प्राप्त है और न कभी होगा. वे यदि बन्दूक के बल पर सत्ता हासिल करना चाहते हैं तो उनको इस देश कि बहुमत जनता का सहयोग कभी नहीं मिलेगा भले ही वो कितने ही जोर से इन्कलाब का नारा लगायें.यहाँ यह भी प्रासंगिक है कि देश के करोड़ों दीन-दुखी शोषित जन अपने शांतिपूर्ण संघर्षों को भी इन्कलाब-जिंदाबाद से अभिव्यक्त करते हैं …भगत सिंह ने भी फाँसी के तख्ते से इसी नारे के मार्फ़त अपना सन्देश राष्ट्र को प्रेषित किया था … यदि विनायक सेन ने भी कभी ये नारा लगाया हो तो उसकी सजा आजीवन कारावास कैसे हो सकती है और यह भी संभव है कि इस तरह के फैसलों से हमारे देश में संवाद का वह रास्ता बंद हो सकता है जो लाल देंगा जैसे विद्रोहियों के लिए खोला गया और जो आज कश्मीरी अलगाववादियों के लिए भी गाहे बगाहे टटोला जाता है सत्ता से असहमत नागरिक समाज ऐसे रास्ते खोलने में अपनी छोटी -मोटी भूमिका यदा -कदा अदा किया करता है, डॉ विनायक सेन उसी नागरिक समाज के सम्मानित सदस्य हैं.

क्या ”फैल” भी ”विद्वान” हो जाएगा?

डॉ. मधुसूदन

(१)

बचपन में सोचा,

हुन्नर चुनुं, कोई, आसान।

पैसा ही पैसा हो, शोहरत भी हो।

शहादत भी न करनी पडे।

चित्र-तारिकाएं, भी चाहती रहे ।

तो—-मुझे ”चित्रकार” पसंद आया,

—-

वह भी ”मॉडर्न” हो,

तो, एम. एफ़. एच. सेन को, आदर्श मान,

चित्र बनाया।

बडों को दिखाया।

देर तक देख, पूछा ; किसका चित्र है?

(लगा, सफल हो गया।)

—चार पैर ? पूंछ ?

बोले जानवर लगता है !

मैंने कहा ; हां ! घोडा है।

—-

-”यह तो, गधा दिखाई देता है।”

तो ! मैंने—चित्र के नीचे, -’घोडा’ लिख दिया।

गधे को, घोडा- कह, दिया,

सोचा, काम चल जाएगा,

(२)

वैसे, घोडे को गधा, और, गधे को घोडा,

कह देने से, घोडा गधा,

और गधा घोडा, न बन पाएगा।

पर आदमी ज़रूर उलझ जाएगा।’

आज कल यही तो होता है।

आदमी को उलझाया जाता है।

(३)

कर को ’कर’ कहा जाता है,

कि करोंसे काम ”करा” जाता है।

चरण को ”चरण” भी कहते हैं।

कि चरणोंसे ”विचरण” किया करते हैं।

वैसे ही भाई!

मन को भी ”मन” इसी लिए कहते हैं

कि मनसे ”मनन” किया जाता है।

श्रवणों से वचन ”श्रवण” होता हैं।

–अब-

तेरे, मनसे थोडा ”मनन” करने कहूं,

तो नाराज़ मत हो।

चुनाव में खडा हूं,- नहीं,– मत मांगू !

कहो!

कि घोडे को, ”गधा”,

और गधे को ”घोडा” कहने से,

गधे-घोडे का भेद क्या, मिट जाएगा ?

पास को फैल, और फैल को पास कहने से,

क्या ”फैल” भी ”विद्वान” हो जाएगा?

और ”पास” भी ”बुद्धु” कहलाएगा?

कुछ नहीं होगा !

खां-मो-खां आदमी उलझ जाएगा।

शब्द तो वेदों से निकल आए हैं।

अपना अर्थ ढोते चले आए हैं।

भेद गर मिटाना है, तो मनसे मिटा।

तो?

मनुज संस्कारित हो जाएगा।

सारा ”समाजवाद” ”साम्यवाद” अरे !

समस्त वाद और वेदांत समझ जाएगा।

और -विवाद ही मिट जाएगा।

(४)

भाषा बिगाड कर तो, — शब्द-संकर हो जाएगा।

भाषा को उलझाकर,–क्या काम सुलझ जाएगा?

आदमी को उलझाकर,—क्या क्रांति आ जाएगी?

तू भी उलझ जाएगा,

हम भी उलझ जाएंगे।

सदियों सदियों की तपस्या पूरखों की

खाक में मिल जाएगी।

कूपमंडूक विचारक हतप्रभ हैं वैश्वीकरण से

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

कूपमंडूक विचारकों को वैश्वीकरण अभी तक समझ में नहीं आया है। वे यह देखने में असफल हैं कि भारत का बुनियादी आर्थिक नक्शा बदल चुका है। कूपमंडूक विचारकों में कठमुल्लापन इस कदर हावी है कि उनकी कूपमंडूकता के समाने विनलादेन भी शर्मिंदा महसूस करता है। भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारीकरण को औचक और कूपमंडूक भाव से कभी समझा नहीं जा सकता। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने विगत एक साल में अर्थव्यवस्था का जो नक्शा तैयार किया है उसको वस्तुगत रूप में देखें तो भारत की तस्वीर आगामी दशक में काफी हद तक बदल जाएगी। इस बदली तस्वीर को हमें पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर देखना होगा। कॉमनसेंस और कठमुल्लेपन से भूमंडलीकरण और नव्य आर्थिक उदारीकरण समझ में नहीं आएगा। भविष्य में भारत का प्रधानमंत्री कोई भी बने लेकिन देश में बड़े आर्थिक परिवर्तनों का आधार मनमोहन सिंह ने रख दिया है और यह काम बड़े ही कौशल और राष्ट्रीय हितों की रक्षा करते हुए किया है। विगत एक साल में मनमोहन सरकार ने अमेरिका,चीन,रूस, फ्रांस,जापान,दक्षिण कोरिया, मलेशिया,संयुक्त अरब अमीरात आदि देशों के साथ 250 से ज्यादा द्विपक्षीय समझौते किए हैं। इन समझौतों के कारण आगामी दशक में भारत की अर्थव्यवस्था में जबर्दस्त परिवर्तन होगा। महाशक्तियों और विकसित देशों के साथ परमाणु ऊर्जा,अंतरिक्ष,परिवहन,संचार आदि के क्षेत्रों में किए गए समझौते बेहद महत्वपूर्ण हैं। मसलन अमेरिका,रूस,फ्रांस चीन ,कनाडा के साथ परमाणु ऊर्जा और अन्य क्षेत्रों में किए गए समझौतों का दूरगामी असर होगा। मसलन रूस के साथ हुए समझौते के अनुसार रूस दो नए परमाणु रिएक्टर लगाएगा और लडाकू विमान के डिजायन निर्माण में मदद करेगा। आगामी 5 सालों में 3 स्थानों पर 18 परमाणु ऊर्जा रिएक्टर लगाए जाने की महत्वाकांक्षी योजना की भी घोषणा की गई है। इसके अलावा 20 बिलियन डॉलर के दुतरफा व्यापारिक समझौते भी हुए हैं। फ्रांस विभिन्न प्रकल्पों में 10 बिलियन डॉलर का निवेश करेगा। चीन ने आगामी 5 सालों में विभिन्न क्षेत्रों में दुतरफा व्यापार के क्षेत्र में 100 बिलियन डॉलर के निवेश का समझौता किया है। चीन ने ऊर्जा और अन्य क्षेत्रों 16 बिलियन डॉलर के 48 समझौते किए हैं। परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में अकेले फ्रांस 9,900 मेगावाट बिजली पैदा करने के लिए संयंत्र मुहैय्या कराएगा।

इसके अलावा फ्रांस के साथ अन्य क्षेत्रों में 12बिलियन डॉलर का,जापान के साथ 20 बिलियन डॉलर, कनाडा के साथ 15 बिलियन डॉलर का समझौता हुआ है। विगत वर्ष राष्ट्रपति प्रतिभा देवी पाटिल की यात्रा के समय संयुक्त अरब अमीरात के साथ 100 बिलियन डॉलर के दुतरफा व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर हुए हैं। इसमें 43 बिलियन का मौजूदा व्यापार शामिल नहीं है। यह भी अनुमान है कि सन् 2010-11 में कृषि उत्पादन भी बढेगा। सन् 2010-11 में 4.4 फीसदी कृषि उत्पादन का लक्ष्य है। जबकि 2008-09 में 1.2 प्रतिशत ही कृषि उत्पादन हुआ था। इसी तरह चीनी और रूई का उत्पादन भी बढ़ेगा। भारत में जहां एक ओर तेजी से विकास हो रहा है। उत्पादन बढ़ रहा है। इन्फ्रास्ट्रक्चर में भारी निवेश बढ़ रहा है। विश्व बाजार में रूई और चीन के दाम बढ़े हैं मसलन चीनी को ही लें,सन् 2010-11 में चीन का उत्पादन 250 लाख टन होने की संभावना है जबकि 2009-10 में 188 लाख टन चीनी का ही उत्पादन हुआ था। चीनी की विश्व बाजार में बड़ी मांग है। उद्योगों में उत्पादन की गति तेज है और औद्योगिक उत्पादन का लक्ष्य 10 प्रतिशत से ऊपर रखा गया है। विगत अक्टूबर में औद्योगिक उत्पादन 10.8 प्रतिशत था और अनुमान है यह आंकड़ा बढ़ेगा। इसी तरह मशीनों के उत्पादन में 22 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। उपभोक्ता मालों का उत्पादन 31 फीसदी बढ़ा है। खान उत्खनन और बिजली उत्पादन के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय सुधार हुआ है। कारपोरेट कंपोजिट इंडेक्स बढ़कर 10.3 प्रतिशत हो गया है। जो कि पहले 6.9 फीसद था। राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद दर 9 प्रतिशत से ऊपर जा सकती है। आयात और निर्यात दोनों में वृद्धि हुई है। निर्यात में 26.7 प्रतिशत और आयात में 24 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अभी निर्यात की तुलना में विदेशों से आयात ज्यादा हो रहा है। यह चिंता का क्षेत्र है।

दूसरी ओर समानान्तर अर्थव्यवस्था या काले धन की संस्कृति का भी विकास हुआ है। एक अनुमान के अनुसार प्रति 24 घंटे में भारत 240 करोड़ रूपये खोता जा रहा है। सन् 1948-2008 की अवधि के दौरान भारत से लगभग 9.7 लाख करोड़ रूपये अवैध पूंजी के रूप में विदेशी बैंकों में जमा कराए गए हैं। इसमें 5.7 लाख करोड़ रूपये तो 2000-08 की अवधि में जमा कराए गए हैं। ये सारी जानकारी ‘ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रिटी-जीएमआई ’ की एक रिपोर्ट में दी गयी है। रिपोर्ट का शीर्षक है- ‘द ड्राइवर्स एण्ड डायनामिक्स ऑफ इल्लिसिट फाइनेंशियल फ्लोज फ्रॉम इण्डियाः1948-2008’। इस अवैध काले धन पर यदि आयकर आदि करों की राशि जोड़ दी जाए तो यह रकम 21 लाख करोड़ रूपये बैठेगी। यह सारा कालाधन है। यदि इस धन को भारत रोक देता तो 230.6 अरब डॉलर के विदेशी ऋण को चुका पाता। इसमें यदि तमाम किस्म की तस्करी आदि का धन भी जोड़ लिया जाए तो यह पूंजी 500 अरब डॉलर से ऊपर बैठेगी। मूल बात यह है कि आर्थिक उदारीकरण लागू किए जाने के बाद से विकास हुआ है साथ में विकास के नाम पर सार्वजनिक संपत्तियों की लूट भी हुई है। क्योंकि विदेशों में जमा अधिकांश कालाधन 1991 के बाद ही जमा किया गया है। कालेधन के विशेषज्ञ अर्थशास्त्रियों का मानना है भारत की 72 फीसदी काली पूंजी विदेशों में जमा है और भारत में मात्र 28 फीसदी है। अवैध कालेधन का समूचा आकार 640 बिलियन डॉलर से ज्यादा का आंका गया है। आने वाले दशक में यह आंकड़ा बढ़ेगा। नव्य उदार अर्थशास्त्र में काले धन पर नकेल लगाने का कोई नियम अभी तक सामने नहीं आया है। केन्द्र सरकार विदेशों में भारतीयों के जमा काले धन को वापस लाने के मामले में कोई ठोस कदम उठाती नजर नहीं आ रही है।

सूरीनाम में सूर्य कुंभ आयोजन समिति के अध्यक्ष से पवन कुमार अरविंद की बातचीत

दक्षिण अमेरिकी देश सूरीनाम में 14 जनवरी से सूर्य कुंभ पर्व का आयोजन किया जा रहा है। इसका उद्घाटन वहां के राष्ट्रपति श्री देसी बोतरस करेंगे। देश की राजधानी पारामारीबो में सूरीनाम नदी के तट पर आयोजित होने वाले इस कुंभ मेले का समापन 18 फरवरी को होगा। देश के इतिहास में इस प्रकार के मेले का आयोजन पहली बार हो रहा है। इसको लेकर सूरीनाम के अलावा त्रिनिडाड, अमेरिका, नार्वे, फ्लोरिडा, नीदरलैंड; आदि देशों के हिंदुओं में काफी उत्साह है। इस पर्व में भारत और सूरीनाम सहित दुनिया के सैंकड़ो विद्वान हिस्सा लेंगे। इस संदर्भ में नई दिल्ली से पवन कुमार अरविंद ने सूरीनाम में “सूर्य कुंभ पर्व आयोजन समिति” के अध्यक्ष श्री महेंद्र प्रसाद रूदी रामधनी से दूरभाष पर बातचीत की है। प्रस्तुत है अंश-

कुम्भ पर्व के आयोजन की प्रेरणा आपको कहां से मिली?

इसकी प्रेरणा मुझे आचार्य शंकर से मिली। आचार्य जी सूरीनाम के कारीगांव के निवासी हैं। वह हालैंड व सूरीनाम में सनातन धर्मसभा के अध्यक्ष हैं। उन्होंने ही मुझे इस कार्य के लिए प्रेरित किया। समय-समय पर उनसे आवश्यक सुझाव भी मुझे मिलता रहता है।

इसके आयोजन का स्वरूप क्या है?

इस आयोजन में सभी लोगों का हार्दिक स्वागत है। हमें उम्मीद है कि इसमें सूरीनाम के बाहर के लोग भी भारी संख्या में हिस्सा लेंगे। सूरीनाम व भारत के अलावा त्रिनिडाड, अमेरिका, नार्वे, गुयाना, फ्लोरिडा, नीदरलैंड समेत दुनिया के कई देशों के विद्वानों को भी आमंत्रित किया गया है, जो विश्व में सुख-शांति की स्थापना और सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार सहित कई गंभीर विषयों पर चिंतन-मंथन करेंगे।

पर्व के दौरान सूरीनाम के सभी मंदिरों से कलश पूजन करके कुंभ परिसर में लाया जाएगा। कलश पूजन में हिस्सा लेने वाले लोग कुंभ के दौरान भजन-कीर्तन भी करेंगे, ऐसी योजना बनाई गई है। इस दौरान श्रद्धालु वैरागी अखाड़ा के भारतीय संत स्वामी ब्रह्मस्वरूपानंद जी महाराज के प्रवचन का आनंद भी उठा सकते हैं। वे पिछले कई वर्षों से विदेशों में रामकथा व भागवतकथा के माध्यम से भारतीय संस्कृति और सभ्यता के प्रचार-प्रसार के कार्य में सक्रिय हैं।

कुंभ मेला भारत में लगता है, फिर सूरीनाम में आप क्यों आयोजित कर रहे हैं?

हम लोग भारतीय मूल के हैं। हमारे पूर्वज आज से करीब 170 वर्ष पूर्व गिरमिटिया मजदूर के रूप में सूरीनाम और त्रिनिडाड; आदि देशों में आए थे। भारतीय मूल का होने के कारण वहां की संस्कृति और सभ्यता से गहरा जुड़ाव है। सूरीनाम की जनसंख्या करीब पांच लाख है, जिसमें करीब 38 प्रतिशत हिंदू हैं। भारत में जो कुंभ लगता है उसका बहुत बड़ा महत्व है। उसके आयोजन का महात्म्य समुद्र मंथन से जुड़ा है। भारत में हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन में हर बारहवें एवं छठवें वर्ष क्रमशः कुंभ व अर्द्धकुंभ मेले का आयोजन होता है। इन आयोजनों में विश्व भर के लाखों लोग हिस्सा लेते हैं। इसके अलावा ऐसे भी लोग हैं जिनको आर्थिक कारणों से भारत पंहुचना संभव नहीं हो पाता। उनके लिए इसके विकल्प के तौर पर सूरीनाम में कुम्भ मेले का आयोजन किया जा रहा है। मुझे विश्वास है कि यह आयोजन उन सभी प्रवासी भारतीयों के लिए एक वरदान साबित होगा, जो भारत पंहुच कर माघ स्नान का पुण्य नहीं प्राप्त कर सकते।

इसके आयोजन का क्या उद्देश्य है?

सूरीनाम में सनातन धर्म का प्रचार-प्रसार ही इस आयोजन का उद्देश्य है। इसके अलावा सनातन धर्म को मानने वाले दुनिया के सभी साधु-संत और विद्वान एक जगह एकत्रित होकर विश्व के लिए सुख शांति का मार्ग खोज सकें, भी उद्देश्य है। इसके आयोजन के लिए ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती समेत कई संतों ने शुभकामनाएं दी हैं।

विश्व शांति में भारतीय संस्कृति और सभ्यता का क्या योगदान है?

मेरे विचार से भारतीय संस्कृति और सभ्यता को ही सनातन धर्म कहा जाता है। दुनिया में इसके प्रचार का उद्देश्य सभी मत, पंथ और सम्प्रदाय के लोगों में एकता स्थापित करना है। मुझे यह विश्वास है कि सनातन धर्म सत्य पर आधारित है और सत्य की स्थापना से ही विश्व में शांति की स्थापना हो सकेगी।

अपने बारे में कुछ बताइए?

मेरी पैदाइश और शिक्षा-दीक्षा सूरीनाम में हुई। शिक्षा के बाद मैंने व्यापार शुरू किया। ईश्वर की कृपा से मेरा व्यवसाय ठीक चल रहा है। समाजिक कार्यों को करने से मानसिक शांति की अनुभूति होती है। इसलिए जब तक शरीर में सांस है, करते रहने का प्रयास करता रहूंगा।

भोपाल से ‘विहान’ पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ

भोपाल से खबर है कि यहां से विहान नाम से पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ है. नवम्बर में शुरू हुई विहान एक मासिक पत्रिका है. इसके प्रधान संपादक प्रवीण परमार और प्रबंध संपादक रजनीश पांडे हैं. जबकि हर्षवर्धन को इस पत्रिका का स्थानीय संपादक बनाया गया है.

इस पत्रिका के साथ सबसे दिलचस्प और प्रेरणादायक बात ये है कि इससे जुड़े लगभग सभी लोग माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के सेंटर फॉर ऑडियो विसुअल स्टडी (cavs) के पास आउट छात्र हैं जिनमे गगन गुर्जर, तन्मय जैन, ललित कुचालिया, रूबी, सर्जना, नलिन, राजकुमार परमार, अक्षर पटसारिया, भूपेंद्र पाण्डे,जीतेश शामिल है। पत्रिका ने संपादकीय मण्डल मे अपने सीनियरों अरविन्द मिश्रा, रजत अभिनव, अकुर जैन, सौरभ्, अखिलेश शुक्ला, प्रशान्त झा, महेन्द्र राय को शामिल किया है.

प्रवक्‍ता डॉट कॉम से बात करते हुए इस पत्रिका के प्रधान संपादक प्रवीण परमार बताते हैं कि ऐसे समय में जब मार्केट में पहले से ही कई स्थापिक पत्रिका मौजूद हैं, अपनी पत्रिका निकालना खासा चुनौतीपूर्ण काम है. लेकिन हमें अपने युवा कंधों पर पूरा भरोसा है. लोगों का हमारे साथ जुड़ना लगातार जारी है. पत्रिका के सन्दर्भ में उन्होंने बताया कि हमारी कोशिश रहेगी कि जनसरोकार के मुद्दों को ज्यादा से ज्यादा जगह दी जाये.

संपत्ति का सदुपयोग

चन्‍द्रशेखर त्रिपाठी

आज का समाचार पत्र पढ़ा तो पता चला कि देश के मंदिरों में से एक, जहाँ रोज ही भीड़ बढ़ती जा रही है, शिरडी के साईं बाबा की संपत्ति अरबों में है. आधिकारिक दस्तावेजों के अनुसार मंदिर के पास 32 करोड़ रुपये मूल्य की ज्वेलरी है। मंदिर ट्रस्ट के पास 24.41 करोड़ से ज्यादा की गोल्ड और 3.26 करोड़ से ज्यादा की सिल्वर जूलरी है। 6.12 लाख से ज्यादा कीमत के चांदी के सिक्के और 1.28 करोड़ से ज्यादा के सोने के सिक्के हैं। सोने के ताबीज 1.12 करोड़ रुपये से ज्यादा कीमत के हैं। यह जानकारी ट्रस्ट के ऑडिटर शरद एस. गायकवाड़ ने अपनी सालाना ऑडिट रिपोर्ट 2009-10 में दी है।) और इसका निवेश 4 अरब से भी ज्यादा का है। श्री साईंबाबा संस्थान ट्रस्ट (शिरडी) का प्रशासन महाराष्ट्र सरकार की ओर बनाई गई एक मैनेजिंग कमिटी देखती है। इसका गठन 2004 में किया गया था। आज की तारीख में कमिटी के पास 51.71 करोड़ रुपये से ज्यादा के किसान विकास पत्र हैं। भारत सरकार के आठ पर्सेंट रिटर्न वाले सेविंग बॉन्ड हैं, जिनकी वैल्यू 48 करोड़ रुपये से ज्यादा ठहरती है।

कुछ ऐसी ही कहानिया हमारे तमाम बड़े हिन्दू मंदिरों की भी है. जो बात मुझे समझ में नहीं आती है वो ये है कि श्रद्धा और विश्वास के ये केंद्र के पास इतने पैसों की क्या जरूरत. आज जहाँ बहुत सारे सर्वेज में ये बात निकल के आती है कि हमारे यहाँ एक तिहाई आबादी गरीब है, जहाँ आज भी एक बड़े धड़े को दो जून की रोटी नसीब नहीं हो रही है वहीँ पर उनके भगवान् के पास इतनी संपत्ति का होना………

कुच्छ दिनों पहले एक खबर थी फ़ेसबुक के संस्थापक 26 वर्षीय मार्क ज़करबर्ग ने अपनी संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा दान करने का फैसला किया था. इसके ही साथ ही मार्क ज़ुकरबर्ग भी अब उन खरबपतियों की सूची में शामिल हो गए हैं जिन्होंने अपनी संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा दान करने का फैसला किया है. मार्क अब उन 17 लोगों में शामिल हैं जो वॉरेन बफेट और बिल गेट्स की ओर से शुरु किए गए उस क्लब के सदस्य बन गए हैं जो अमरीका के सबसे अमीर लोगों को अपनी संपत्ति का कुछ हिस्सा दान करने के लिए प्रेरित करता है. मार्क इस क्लब के सबसे कम उम्र सदस्य हैं.

और हमारे यहाँ दान तो छोडि़ये जिसका हिस्सा है वो उसे नहीं मिल पाता. अपनी धर्मं, संस्कृति का साड़ी दुनिया में दम्भ भरने वाले हम आखिर यहाँ पर इतने कमजोर क्यूँ हो जाते हैं??उस देश में जहाँ पर अरबपतियों की संख्या दिन दुगुनी बढ़ रही है और उसके साथ ही बढ़ रही है उसके भगवान की संपत्ति……….आखिर किस काम आएगी ये संपत्ति.

मुझे कुछ ऐसे मंदिर भी पता हैं जिनके truston ने कुछ सामाजिक काम में भी हाथ बताया है लेकिन उनकी संख्या सिर्फ गिनती की है.

आज हम जहाँ विदेशों से अपने नेताओं की संपत्ति वापस लाने की बात करते हैं, क्या इस पर एक पहल नहीं होनी चाहिए कि अपने भगवान की संपत्ति का सही उपयोग हो………सदुपयोग हो????????

अखबार बेचने का तरीका

लक्ष्मण प्रसाद

‘नक्सलियों ने किया विस्फोट!’ ये आवाज चार बजे भोर की गहरी नींद को तोड़ने के लिए पर्याप्त थी। हम में से कुछ यात्री जबलपुर रेलवे स्टेशन के कुछ उन इक्के-दुक्के अखबार बेचने वाले हाकरों को ढूढ़ने ट्रेन से बाहर निकल पड़े। बाहर आया तो देखा कि सिकन्दराबाद से पटना आने वाले मेरे जैसे कई यात्री अखबार खरीदने के लिए टूटे पड़े हैं। स्थिति एकदम भगदड़ जैसी थी। हर चेहरे पे खौफ की शिकन और सन्नाटा था। इस तरह की अशुभ खबर के चलते अपने गांव-देश में रहने वाले परिजनों का कुशलक्षेम जानने की जिम्मेदारी के चलते लोगों ने ढ़ाई रूपये के अखबार को पॉंच रूपये में खरीदा। इतने मे गाड़ी प्लेटफार्म से चल पड़ी और हम सब ने खबर को पढ़ने के लिए अखबार को उल्टना-पलटना शुरू किया। लेकिन इस तरह की कोई खबर हमें कहीं नही दिखी। इससे जहॉं एक ओर माओवादियों के विस्फोट जैसी खबर सें भयभीत लोगों ने कुछ ही देर मे इस तरह की कोई खबर न पा कर राहत की सांस ली। इस तरह हॉकरों ने अखबार बेचने के लिए भय और डर की सनसनी पैदा की और नक्सल हिंसा से आम लोगों के मन में जो डर व्याप्त है, को भुनाते हुए अपना अखबार बेचा ही नहीं बल्कि दोगुने दाम में खरीदने के लिए यात्रियों को मजबूर भी किया।

ट्रेन में सफर कर रहे यात्रियों की मनोदशा उस समय दखने लायक थी। समझा जा सकता है कि हाकरों ने अखबार बेचने के इस तरीके का प्रयोग सिर्फ पटना जाने वाली ट्रेनों के लिए ही नहीं किया होगा। बल्कि इस फार्मूले के पीछे राज्य विशेष व क्षेत्र विशेष से जुड़े आंतक के किस्मों की राजनीति से अपनी यह रणनीति तय करते होगें। मसलन अगर पूर्वोतर क्षेत्र या कष्मीर, दिल्ली जैसे प्रदेश जो नक्सल के बजाय आतंकी हिंसा का खतरा झेल रहे है, उधर की ओर जाने-आने वाली ट्रेन के यात्रियों को संभव है कि ये हाकर्स आतंकियों ने श्रीनगर या दिल्ली में किया विस्फोट’ की सनसनी पैदा कर लोगों के डर-भय को भुनाते हों।

लेकिन यहां सवाल यह है कि क्या हॉकरों ने इस तरह लोगों का भयादोहन करने के तरीकों को खुद इजाद किया है? क्या इस आचरण के लिए सिर्फ वही दोषी हैं या वो एक गुप-चुप और सुनियोजित तरीके से चलायी जा रही परियोजना का एक प्यादा मात्र है। दरअसल भूमंडलीकरण की नीतियों के साथ उपभोक्ता और बाजार के बीच जो सम्बंध उभरा वह कई मायनों मे इस सम्बंध के पुराने रूपों के एकदम विपरीत था। मसलन, पहले जहां किसी एक ही कम्पनी के सबसे उपर और निचले पायदान पर खड़े कर्मचारी में समाज के प्रति नजरीये में अन्तर होता था, वही भूमंडलीकरण के इस दौर में ये अन्तर खत्म होते गया है। अब किसी कम्पनी के निचले पायदान पर खड़ा आदमी भी अपने सीईओ की तरह सिर्फ मुनाफे को केन्द्र में रखकर सोचने लगा है। उदाहरण के बतौर आप याद करिए आज से बीस पच्चीस साल पहले कोई कपड़ा बेचने वाला दुकानदार ब्रान्ड के बजाय कपड़े की मजबूती और टिकाउपन बताकर आप को अपना माल बेचता था, टिकाउपन और मजबूती व अपने खरीदार की आर्थिक हैसियत को ध्यान में रख कर दाम बताता था। इस तरह उभोक्ता और बेचने वाले का सम्बंध परस्पर एक दुसरे के कल्याण पर टिका था।

इससे बेचने वाले जो कि एक आम आदमी यानी की फेरीवाला ही होता था का खरीदने वाले जो कि उसी के जैसा एक आम-आदमी ही था, के प्रति अपनी वर्गीय जिम्मेदारी भी दिखती थी।

वही दूसरी ओर भूमंडलीकरण के बाद तेजी से विकसित हुए ब्रान्ड के इस दौर में देखे तो उसी सामाजिक हैसियत पर खड़ा दुकानदार अपने ही वर्ग के खरीदार को कपड़े के टिकाउपन के बजाए उसे ब्रान्ड के नाम पर बेचता ही नही है। उसे यह भी कहता है कि फैशन के इस जमाने में गांरटी की इच्छा न करें। यह ब्रान्ड और फैशन का जुमला उस कम्पनी के सबसे उपर बैठे आदमी का प्रोडक्ट को बेचने के लिए इजाद किया हुआ रणनीतिक जुमला है जिसे उस कम्पनी के सबसे निचले पायदान पर खड़ा आदमी भी बोल रहा है। इस लिहाज से देखें तो इस एक जुमले ने उपभोक्ता और बेचने वाले के सम्बंधो को बिल्कुल उलट दिया है और एक ही वर्ग के एक हिस्से को दुसरे के खिलाफ इस्तेमाल भी कर रहा है।

दरअसल राज्य की तरह ही बाजार का नियंता वर्ग भी चाहता है कि आम आदमी भी उसी तरह उसी की भाशा मे सोचे और बात करे। इसे अखबार बेचने वाले हाकर के मामले मे भी देखा जा सकता है। मसलन, अखबार जनता को सूचना देने का एक इमानदार उपक्रम के बजाए एक प्रोडक्ट है, यह विचार बहुत संस्थाबद्ध तरीके से अखबार के मालिक से लेकर उसे बेचने वाले निचले स्तर के हॉकर तक स्थापित हो चुका है।

जबलपुर स्टेशन के हॉंकरों के इस हरकत से समझा जा सकता है कि इस एक फार्मुला मात्र ने एक गरीब हॉंकर के वर्गीय चेतना में कैसा बदलाव ला दिया है। और वो किसके खिलाफ किस तरह इस्तेमाल हो रहा है।

(म0 गां0 अं0 हिं0 वि0 में मीडिया के शोधार्थी

जनसंचार विभाग

गांधी हिल, पो0-मानस मंदिर

वर्धा, महाराष्‍ट्र-442001)

बड़े दिन के रूप में भी मनाया जाता है क्रिसमस

क्रिसमस ईसाइयों का प्रमुख त्यौहार है. यह पर्व ईसा मसीह के जन्म की ख़ुशी में मनाया जाता है. इसे बड़े दिन के रूप में भी मनाया जाता है. क्रिसमस से 12 दिन के उत्सव क्रिसमसटाइड की भी शुरुआत होती है. ‘क्रिसमस’ शब्द ‘क्राइस्ट्स और मास’ दो शब्दों के मेल से बना है, जो मध्य काल के अंगेजी शब्द ‘क्रिस्टेमसे’ और पुरानी अंगेजी शब्द ‘क्रिस्टेसमैसे’ से नकल किया गया है. 1038 ई. से इसे ‘क्रिसमस’ कहा जाने लगा. इसमें ‘क्रिस’ का अर्थ ईसा मसीह और ‘मस’ का अर्थ ईसाइयों का प्रार्थनामय समूह या ‘मास’ है. 16वीं शताब्दी के मध्य से ‘क्राइस्ट’ शब्द को रोमन अक्षर एक्स से दर्शाने की प्रथा चल पड़ी. इसलिए अब क्रिसमस को एक्समस भी कहा जाता है. भारत सहित दुनिया के ज़्यादातर देशों में क्रिसमस 25 दिसंबर को मनाया जाता है, लेकिन रूस, जार्जिया, मिस्त्र, अरमेनिया, युक्रेन और सर्बिया आदि देशों में 7 जनवरी को लोग क्रिसमस मनाते हैं, क्योंकि पारंपरिक जुलियन कैलंडर का 25 दिसंबर यानी क्रिसमस का दिन गेगोरियन कैलंडर और रोमन कैलंडर के मुताबिक 7 जनवरी को आता है. हालांकि पवित्र बाइबल में कहीं भी इसका ज़िक्र नहीं है कि क्रिसमस मनाने की परंपरा आखिर कैसे, कब और कहां शुरू हुई. एन्नो डोमिनी काल प्रणाली के आधार पर यीशु का जन्म, 7 से 2 ई.पू. के बीच हुआ था. 25 दिसंबर यीशु मसीह के जन्म की कोई ज्ञात वास्तविक जन्म तिथि नहीं है.शोधकर्ताओं का कहना है कि ईसा मसीह के जन्म की निश्चित तिथि के बारे में पता लगाना काफी मुश्किल है. सबसे पहले रोम के बिशप लिबेरियुस ने ईसाई सदस्यों के साथ मिलकर 354 ई. में 25 दिसंबर को क्रिसमस मनाया था. उसके बाद 432 ई. में मिस्त्र में पुराने जुलियन कैलंडर के मुताबिक 6 जनवरी को क्रिसमस मनाया गया था. उसके बाद धीरे-धीरे पूरे संसार में जहां भी ईसाइयों की संख्या अधिक थी, यह त्योहार मनाया जाने लगा. छठी सदी के अंत तक इंग्लैंड में यह एक परंपरा का रूप ले चुका था.

क्रिसमस का एक और दिलचस्प पहलू यह है कि ईसा मसीह के जन्म की कहानी का संता क्लॉज की कहानी के साथ कोई संबंध नहीं है. वैसे तो संता क्लॉज को याद करने का चलन चौथी सदी से शुरू हुआ था और वे संत निकोलस थे, जो तुर्किस्तान के मीरा नामक शहर के बिशप थे. उन्हें बच्चों से अत्यंत प्रेम था और वे गरीब, अनाथ और बेसहारा बच्चों को तोहफे दिया करते थे.

पुरानी कैथलिक परंपरा के मुताबिक क्रिसमस की रात को ईसाई बच्चे अपनी तमन्नाओं और ज़रूरतों को एक पत्र में लिखकर सोने से पूर्व अपने घर की खिड़कियों में रख देते थे. यह पत्र बालक ईसा मसीह के नाम लिखा जाता था. यह मान्यता थी कि फ़रिश्ते उनके पत्रों को बालक ईसा मसीह से पहुंचा देंगे. क्रिसमस ट्री की कहानी भी बहुत ही रोचक है. किवदंती है कि सर्दियों के महीने में एक लड़का जंगल में अकेला भटक रहा था. वह सर्दी से ठिठुर रहा था. वह ठंड से बचने के लिए आसरा तलाशने लगा. तभी उसकी नजर एक झोपड़ी पर पड़ी. वह झोपडी के पास गया और उसने दरवाजा खटखटाया. कुछ देर बाद एक लकड़हारे ने दरवाजा खोला. लड़के ने उस लकड़हारे से झोपड़ी के भीतर आने का अनुरोध किया. जब लकड़हारे ने ठंड में कांपते उस लड़के को देखा तो उसे लड़के पर तरस आ गया और उसने उसे अपनी झोपड़ी में बुला लिया और उसे गर्म कपड़े भी दिए. उसके पास जो रूख-सूखा था, उसने लड़के को बभी खिलाया. इस अतिथि सत्कार से लड़का बहुत खुश हुआ. वास्तव में वह लड़का एक फरिश्ता था और लकडहारे की परीक्षा लेने आया था. उसने लकड़हारे के घर के पास खड़े फर के पेड़ से एक तिनका निकाला और लकड़हारे को देकर कहा कि इसे ज़मीन में बो दो. लकड़हारे ने ठीक वैसा ही किया जैसा लड़के ने बताया था. लकडहारा और उसकी पत्नी इस पौधे की देखभाल अकरने लगे. एक साल बाद क्रिसमस के दिन उस पेड़ में फल लग गए. फलों को देखकर लकड़हारा और उसकी पत्नी हैरान रह गए, क्योंकि ये फल, साधारण फल नहीं थे बल्कि सोने और चांदी के थे. कहा जाता है कि इस पेड़ की याद में आज भी क्रिसमस ट्री सजाया जाता है. मगर मॉडर्न क्रिसमस ट्री शुरुआत जर्मनी में हुई. उस समय एडम और ईव के नाटक में स्टेज पर फर के पेड़ लगाए जाते थे. इस पर सेब लटके होते थे और स्टेज पर एक पिरामिड भी रखा जाता था. इस पिरामिड को हरे पत्तों और रंग-बिरंगी मोमबत्तियों से सजाया जाता था. पेड़ के ऊपर एक चमकता तारा लगाया जाता था. बाद में सोलहवीं शताब्दी में फर का पेड़ और पिरामिड एक हो गए और इसका नाम हो गया क्रिसमस ट्री अट्ठारहवीं सदी तक क्रिसमस ट्री बेहद लोकप्रिय हो चुका था. जर्मनी के राजकुमार अल्बर्ट की पत्नी महारानी विक्टोरिया के देश इंग्लैंड में भी धीरे-धीरे यह लोकप्रिय होने लगा. इंग्लैंड के लोगों ने क्रिसमस ट्री को रिबन से सजाकर और आकर्षक बना दिया. 19वीं शताब्दी तक क्रिसमस ट्री उत्तरी अमेरिका तक जा पहुंचा और वहां से यह पूरी दुनिया में लोकप्रिय हो गया. क्रिसमस के मौके पर अन्य त्योहारों की तरह अपने घर में तैयार की हुई मिठाइयां और व्यंजनों को आपस में बांटने व क्रिसमस के नाम से तोहफे देने की परंपरा भी काफी पुरानी है। इसके अलावा बालक ईसा मसीह के जन्म की कहानी के आधार पर बेथलेहम शहर के एक गौशाले की चरनी में लेटे बालक ईसा मसीह और गाय-बैलों की मूर्तियों के साथ पहाड़ों के ऊपर फरिश्तों और चमकते तारों को सजा कर झांकियां बनाई जाती हैं, जो दो हजार वर्ष पुरानी ईसा मसीह के जन्म की घटना की याद दिलाती हैं.

दिसंबर का महीना शुरू होते ही क्रिसमस की तैयारियां शुरू हो जाती हैं . गिरजाघरों को सजाया जाता है. भारत में अन्य धर्मों के लोग भी क्रिसमस के उत्सव में शामिल होते हैं. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

-सरफ़राज़ ख़ान

सेक्‍यूलरवादी इतिहासकारों के छलावे

हरिकृष्‍ण निगम

समय शायद बीता गया जब हमारे देश में, अंग्रेजों के शासन के बावजूद भी, इतिहास भी इतिहास को उस प्रेरणा-श्रोत की तरह पढ़ाया जाता था, जहां उसके पीले, पुराने पन्नों में भी हम देश की अपनी विरासत के प्रेरक – तत्वों को ढूंढ़ ही लेते थे। स्वतंत्रता संग्राम के समय भी तिलक, रानाडे, सुभाषचंद्र बोस आदि दर्जनों राष्ट्रीय प्रतिभाओं ने देश के इतिहास के घटनाक्रमों से ही बहुधा राष्ट्रप्रेम की पूंजी प्राप्त की थी।

फिर पिछले दशकों में वह समय आया जब हमारे देश के कथित बुध्दिजीवियों ने इतिहास को अपने राजनीतिक पूर्वाग्रहों व आयातित विचारधाराओं के लिए एक हथियार की तरह प्रयुक्त करना शुरू कर दिया। पुराने घटनाक्रमों का वही विश्लेषण स्वीकार किया गया जिस पर साम्यवादी रजामंद थे। उनकी मूल स्थापनाएं ही विकृत मंतव्यों से भरी पूरी थी जैसे प्राचीन भारत में ऐतिहासिक कालक्रमों को व्यवस्थित रूप से रखनें में कोई रूचि नहीं थी। वे दंतकथाओं और सुने-सुनाए आख्यानों या चरणों की प्रशस्तियों या विरूदावली को इतिहास मानने लगे थे। इसीलिए ऐसे इतिहासकार चाहे वे रोमिला थापर हों या इरफान हबीब या रामशरण शर्मा या उनके जैसे अनेक वामपंथी विचारक प्राचीन इतिहास के श्रोताें की विश्वसनीयता का मखौल उड़ाने से कभी नहीं चूकते थे।

इस रूझान का एक कुत्सित रूप हाल में उच्च न्यायालय के आदेश पर अयोध्या में राम जन्मभूमि के स्थान पर उत्खनन के बाद भारतीय पुरातत्व विभाग की सर्वेक्षण रिपोर्ट के संबंध में देखने को मिला है। हर छोटा बड़ा पत्रकार या राजनेता एक इतिहासकार या पुरातत्वविद में रूपांतरित हो गया और विवादास्पद बिंदुओं के नाम पर विदूषकों की पैरोडियों जैसी टिप्पणी करने लगा। जिन्हें उत्खनन या पुरातत्व की क्रियाविधि की सतही समझ भी नहीं थी वे राजनीतिक कारणों से मीडिया में छाए रहे। 10 वीं शताब्दी के विशाल मंदिरों के भूमिगत साक्ष्यों के बावजूद, अनर्गल प्रलाप की बानगी सामने है – पुरातत्व विभाग का दिल मंगवाई है, यह पुरातात्विक धोखाधड़ी है, यही होगा यह पहले से पता था, प्राचीन अवशेष मस्जिद के है, वहां राम की प्रतिमा क्यों नही निकली? वहां हडि्डयां क्यों नहीं निकली?

निर्लज्जता के साथ-साथ बेवकूफियों की भी एक सीमा होती है पर हमारे अंग्रेजी मीडिया के एक वर्ग की साजिश भी एक सारे प्रकरण के उजागर हो गई। चार तलों के उत्खनन के बाद और एक विशाल मंदिर के ढांचे के प्रचुर प्रमाण मिलने के बाद भी जो 50-30 मीटर क्रमशः उत्तर दक्षिण एवं पूर्व पश्चिम तक विस्तारित था हमारे देश के अनेक विद्वानों की आंखों में पट्टी बंधी रही। दिल्ली के एक प्रतिष्ठित हिंदी साप्ताहिक समाचार ने हिंदू-विरोधी इतिहासकार इरफान हबीब के लिए पूरे दो पृष्ठों के ऊपर मोटे अक्षरों के शीर्षक के साथ दरियादिल होकर कालॅम दे दिए थे। शीषर्क था- ‘खोदा समाधान, निकला घमासान!’ मंदिर के उत्खनन में 50 स्तंभ-आधारों का मिलना, हिंदू आस्था के अनेक कलात्मक प्रतीकों की उपलब्धि इन सबसे उन्हें जैसे कोई सरोकार नहीं था क्योंकि उनका अज्ञान व दुराग्रह उनकी मान्यताओं की धज्जियां उड़ा रहा था।

हमारे देश का इतिहास हजारों साल पुराना है और आज की राजनीतिक सीमाओं के पर वह एक बृहत्तर भारत का घटनाक्रम था। देश के अधिकांश वामपंथी इतिहासकारो ंकी मान्यतायें या व्याख्याएं सदैव पक्षपातपूर्ण होने के साथ हास्यास्पद भी लगती है। कहीं इरफान हबीब कहते हैं कि मध्ययुग के संतों ने ऐकेश्वर इस्लाम से सीखा। कहीं लिखा कि मुस्लिम आक्रांताओं का उद्देश्य सिर्फ लूट-खसोट था, धर्मांतरण या मंदिरों का विध्वंस नहीं। नोबल पुरस्कार विजेता वी. एस. नयपाल ने कुछ दिनों पहले लंदन के एक पत्र को दिए साक्षात्कार में कहा था कि भारत में मुस्लिम आक्रमणकारियों ने क्या किया यह जानने के लिए हर हिंदू को एक बार हम्पी के ध्वंसाशेषों को जरूर देखना चाहिए। उनका हृदय विदीर्ण हुए बिना नहीं रह सकता। स्थिति की गंभीरता इस बात से समझी जा सकती हैं कि वी. एस. नयपाल ने लंदन-स्थित एक पत्रकार फारूख ढोंडी को यहां तक कहा कि प्रसिध्द वामपंथी इतिहासकार रोमिला थापर एक ‘फ्रॉड’ है।

आज अनेक पत्रकार जो अपने को इतिहासकार के रूप में छापते हैं वे अपने कुंठित एवं विषाक्त तर्कों से हिंदू अतीत पर आघात कर रहे हैं। उनमें ‘एशियन एज’ में नियमित रूप से लिखने वाले अखिलेश मित्तल शायद सबसे आगे हैं। उनके तर्कों में विक्षिप्तता अधिक है और उन्हें एक लेख ने ‘नीम हकीम’ – शार्लटन – इतिहासकार भी कहा है। ‘इतिहास’ शीर्षक साप्ताहिक स्तंभ में भाषायी अभद्रता, हिंदू संगठनों व सामान्य हिंदूओं पर विषवमन करना ही इसका अकेला उद्देश्य है। उदाहरण के लिए 2 नवंबर, 2003 के ‘एशियन एज’ के रविवारीय परिशिष्ट में सन् 1192 ई. में शहाबुद्दीन गोरी की तराईन की मैदान में विजय का जिक्र करते हुए मित्तल का कहना है कि ”हिंदू सांप्रदायिक” लेखक सिर्फ मंदिरों व महलों के विनाश की बात करते हैंपर वे भूलते हैं कि 13 वीं सदी के बाद से ही तुर्की या पाश्तों-भाषी विजेताओं ने स्थापत्य के साथ-साथ ‘तराना’ कव्वाली या साहित्य की दूसरी विद्याओं के क्षेत्र में अभूत पूर्व योगदान दिया। इसी तरह 26 अक्टूबर, 2003 ‘एशियन एज’ के अंक में ‘हिंदू धर्मांधों एवं संघ के नेताओं’ की भर्त्सना करते हुए वे मंदिर के विध्वंस पर हिंदुओं को ‘राक्षसाज वेयर हिंदूज’ शीर्षक लिखते हैं कि राजपूतों की वीरता की कहानियां भी मनगढ़ंत है और सोमनाथ के मंदिर के विध्वंस पर हिंदुओं ने सुविधाजनक बातें लिखी हैं। कर्नल टॉड का 1839 में लिखा ‘द एनाल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजपूताना’ की आलोचना करते हुए कि वह ब्रिटिश सरकार के समय हिंदू-मुस्लिम तनाव बढ़ाने और हिंदुओं को शह देने लिए चरणों के प्राचीन यशोगान पर आधारित थी और इसका ऐतिहासिक मूल्य नहीं है। वह अंग्रेज अधिकारी अवश्य था सारे जीवन राजपूत जाति का सच्चा मित्र रहा और राजस्थान के ‘इतिहास का पिता’ कहा जाता है। वह 17 वर्ष भी अवधि में ईस्ट इंडिया कंपनी में बंगाल में आया और सारा जीवन राजस्थान के इतिहास सामग्री एकत्र करने में बिता दिया। उसका जन्म 1782 में हुआ था और 1835 में मात्र 53 वर्ष में उसकी मृत्यु हो गई। इसी तरह 14 सितंबर, 2003 को मित्तल द्वारा ‘द-एंग्लो-आर. एस. एस. नेक्सस’ शीर्षक लेख में उन्होंने कहानियां गढ़ी हैं कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान संघ ने किस तरह अंग्रेजों का साथ दिया था। ‘एशियन एज’ के ही 28 सितंबर, 2003 के अंक में ‘हिंदुत्व एट आगरा फोर्ट’ में उन्होंने छत्रपति शिवाजी के शौर्य पर आपत्तिजनक व भड़ाकाऊ टिप्पणी की है जैसे उनका आगरा किले से निकलना कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं थी क्योंकि वे वहां मुगलों को वर्चस्व स्वीकार करने गए थे।

इस तरह के इतिहासकारों को हम कब तक सहेंगे जो कहते हैं कि छत्रपति शिवाजी की विजयगाथा के पीछे क्षेत्रीय मराठा दृष्टिकोण था। गुरू तेग बहादुर एक लुटेरे थे, उनकी फांसी के पीछे उनके परिवार के लोगों की साजिश थी। जैन तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता संदेहजनक है। दिल्ली के मुगल शासकों की नाक में दम करने वाले विद्रोही जाट राजा लुटेरे थे।

इन सबसे अधिक खतरनाक विचारों के प्रचार में उनका यह कहना कि आर्य आक्रमणकारियों के रूप में मध्य एशिया उत्तरी ध्रुव आदि देशों से भारत आए थे और उन्होंने सिंधु घाटी की सभ्यता से जुड़े द्रविड़ों को अपदस्थ किया और दक्षिण की ओर खदेड़ दिया। कोट दीजी(सिंध), काली बंगन(राजस्थान), रोपड़(पंजाब) और लोथल (गुजरात) के नए पुरातात्विक साक्ष्यों द्वारा यह पूर्वाग्रह ध्वस्त किया जा चुका है पर उनकी यह रट अभी भी जारी है। डॉ. पी. वी. वर्तक ने अपने खगोलशास्त्र साक्ष्यों व महाभारत के कालक्रमों को वैज्ञानिक ढंग से निर्धारित करने की कोशिश की है। पर आज भी कुछ भ्रमित इतिहासकार राम से जुड़ी अयोध्या कहां हैं पर संशय प्रकट कर रहे हैं। हाल में एक दूसरे वामपंथी इतिहासकार ने रामायण शब्द के गलत उच्चारण के आधार पर धर्म के समूचे सिध्दांत को एक काल्पनिक पृष्ठभूमि पर स्थापित कर दिया। रामायण का उच्चारण ‘रम्याण’ मान कर क्रौंच-बध से संबंधित प्रसिध्द श्लोक का नया अर्थ खोज निकाला और इस श्लोक को कविता न मानकर धार्मिक सूत्र घोषित कर दिया। अयोध्या को बौध्द – धर्म का पवित्र नगर कहना भी एक घृणित राजनीति-प्रेरित साजिश लगती है। यह एक मार्मिक पीड़ा का विषय है कि यह सब लिखनेवाले अंग्रेजी मीडिया में और सरकारी संस्थानों में अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं।

देश की प्राचीन इतिहास की मार्क्सवादी प्रचलित शब्दावली द्वारा हर तरह से छीछालेदर करने का असफल प्रयास किया गया है कि वह क्रोध से अधिक हंसी का विषय लगता है। कुछ उदाहरण देखने योग्य हैं। मनु ‘मानवद्रोही’ थे, पौराणिक रचनाएं ‘काल्पनिक आख्यानों के निरर्थक कालाकर्म का थोक का काम था, विदुर नीति हिन्दुओं की सामंती-संस्कृति की एक महत्वपूर्ण आचार-संहिता है, श्रीमद्भगवदगीता युध्द और हिंसा को वैचारिक आधार देने वाला ग्रंथ है, आदि-आदि!

एक दूसरे इतिहासकार ने तो 20 वीं शताब्दी की ‘बृहत परंपरा’ व लघुपरंपरा के सूत्र ‘ॠृग्वेद’ के आख्यानो के रूप में वेदों में स्थान पा गए हैं? इस विकृत मस्तिष्क के बुध्दिजीवी को शायद यह याद नहीं रहा कि पुराणों की रचना ‘ॠृग्वेद’ के बहुत बाद हुई है। इस आशय का प्रश्न उठाने पर ऐसे विद्वानों का एक ही जवाब रहता है – भारत में रचनाओं का काल निर्धारण अत्यंत दुष्कर कार्य है।

भारतीय इतिहास के रातों-रात बने जानकारों से निर्लज्ज साम्यवादी नेता भी हैं जिन्हें हमारे देश के अंग्रेजी मीडिया के साथ-साथ विदेशों में भी, यदि उनकी टिप्पणियां हिन्दू-विरोधी हैं, तो आज खुल कर उध्दृत किया जाता है। उदाहरण के लिए अमेरिकी मीडिया आज भी साम्यवादियों को अस्पृश्य मानता है। पर जब हमारे देश के ऐसे लोग जो मार्क्सवादी तथा साम्यवादी दल से जुड़े हैं, हिंदू विरोधी टिप्पणी करते हैं, तब उनकी राजनीतिक पहचान दिए बिना, वे खुलकर उध्दृत किए जाते हैं। उन्हें मात्र एक भारतीय बुध्दजीवी या विचारक का विशेषण देकर उध्दृत किया जाता है। हिंदूओं के विरूध्द विषवमन करनेवालों में चाहे वे कुख्यात साम्यवादी ही क्यों न हो वहां स्वीकार्य हैं। कथित पूंजीपतियों व मुक्त बाजार का झंडा उठानेवालों को साम्यवादी प्रवक्ता भी स्वीकार हैं क्योंकि हिंदू-विरोध ही उसके प्रकाशन की एक बड़ी शर्त है।

* लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं।

मोदी को निर्दोष मानने के बाद

अवधेश कुमार

2 जी स्पेक्ट्रम पर संसद का गतिरोध, नीरा राडिया टेप, फिर वाराणसी विस्फोट, दिग्विजय सिंह के बयान… आदि घटनाओं के बीच जिस एक घटना पर आवश्यक चर्चा नही हो पा रही है वह है उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित विशेष जांच दल (स्पेशल इन्वेस्टिगेटिंग टीम) की रिपोर्ट में नरेन्द्र मोदी को दंगा कराने के आरोप से मुक्त करना। वास्तव में यह अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है। निस्संदेह, इससे उन लोगों की त्रासदी और पीड़ा कम नहीं होगी, जिनके परिजन उस बहशी क्रूरता का शिकार हो गए। किंतु यह अलग विचार करने का पहलू है। दंगों के बाद से मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को इसका सक्रिय अपराधी साबित करने की जो कोशिशें हुई उसके इस पहलू से लेना-देना नहीं। इस रिपोर्ट के बाद ऐसी कोशिशों पर विराम लग जाना चाहिए। गुजरात दंगा संबंधी मामले की कानूनी यात्राओं से देश वाकिफ है। बेस्ट बेकरी संबंधी जाहिरा शेख का मामला एक समय सबसे ज्यादा सुर्खियों मे रहा। नरौड़ा पाटिया, बिल्किस प्रकरण… ऐसे सभी मामलों में मोदी को अपराधी साबित करने की कोशिशें विफल हो गईं। विरोधियों की अपीलों का ही असर था कि उच्चतम न्यायालय ने सीबीआई के पूर्व प्रमुख आर. के. राघवन की अध्यक्षता में विशेष जांच दल की नियुक्ति की और उसके कार्यो की मॉनिटरिंग की। इस दल ने ही मंत्रियों सहित कई नेताओं के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कर उन्हें जेल में डाला, स्वयं मोदी से कई घंटों तक पूछताछ की। अगर यह कह रहा है कि गोधरा कांड के बाद भड़के दंगों में मोदी या उनके कार्यालय की भूमिका का प्रमाण नहीं है तो इसे स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं है।

किंतु कुछ लोग शायद ही इसे स्वीकार करें। 2002 का गुजरात दंगा केवल गुजरात नहीं, पूरे देश पर एक त्रासदपूर्ण कलंक है। यह हमारे देश की सांप्रदायिक एवं सामाजिक सद्भाव को धक्का पहुंचाने वाली ऐसी वारदात थी, जिसके अपराधियों को कतई बख्शा नहीं जाना चाहिए। किंतु अगर लक्ष्य दंगा पीड़ितों को वास्तविक न्याय एवं असली दोषियाेंं को सजा दिलवाने की जगह किसी एक व्यक्ति को खलनायक बनाना बन जाए, तो पूरा मामला गलत दिशा में मुड़ जाता है। सीट के गठन से अब तक के प्रवाह पर नजर दौड़ाएं तो साफ हो जाएगा कि उच्चतम न्यायालय या सीट भले सच सामने लाना चाहता था, पर जिनका लक्ष्य केवल मोदी थे, उनने हर अवसर को अपने अनुसार मोड़ने की कोशिश की। 11 मार्च को जब मोदी को सिट ने सम्मन जारी किया तो इसे ऐसे प्रचारित किया गया मानो अब वे जेल गए। मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र की मांग कर दी गई। मोदी के त्यागपत्र की मांग दंगों के समय से ही हो रही है। विरोधियों का सीधा आरोप है कि गोधरा रेल दहन के बाद का दंगा उनके एवं उनके सहयोगियों द्वारा प्रायोजित था। हालांकि सिट के प्रमुख आर. के. राघवन ने कहा था कि उनको सम्मन इसलिए जारी किया गया, क्योंकि अनेक गवाहों ने जो आरोप लगाए हैं उनका जवाब लिया जाए। किंतु इस पर ध्यान देना इनके उद्देश्यों में शामिल था ही नहीं। उच्चतम न्यायालय द्वारा 26 मार्च, 2008 को सिट का गठन हुआ और 27 अप्रैल, 2009 को इसे गुजरात दंगों में मोदी की भूमिका की जांच का आदेश दिया गया। गुलबर्ग सोसायटी में मारे गए कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी की पत्नी जाकिया जाफरी ने उच्चतम न्याायलय में याचिका दायर की जिसमें उन्होंने अपने पति सहित 38 लोगों की हत्या के लिए मोदी सहित 62 लोगों को जिम्मेवार ठहराया था। बाद में गुलबर्ग सोसायटी में दंगों के बाद लापता 31 लोगों को भी मृत मानकर अहमदाबाद के न्यायालय ने मृतकों की संख्या 69 कर दिया। न्यायालय ने इसे भी सिट को सौंप दिया। वैसे सिट गुलबर्ग सोसायटी हत्याकांड की जांच हाथों पहले से कर रहा था। सिट को उच्चतम न्यायालय ने गोधरा रेल दहन सहित जिन नौ मामलों में आपराधिक छानबीन का आदेश दिया था उसमें गुलबर्ग सोसायटी भी शामिल था। उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद राघवन ने 26 मई, 2009 को बयान दिया था कि अब वे अधिकृत रुप से कह सकते हैं कि हमने उच्चतम न्यायालय की उस याचिका की जांच आरंभ कर दिया है जिनमें प्रमुख राजनेताओं पर आरोप लगाए गए हैं।

सिट ने कभी यह शिकायत नहीं की कि उसे जांच में सरकार से असहयोग मिला। 19 जनवरी, 2010 को उच्चतम न्यायालय ने गुजरात सरकार को यह आदेश दिया था कि उस दौरान मोदी के भाषणों की कॉपी सिट को उपलब्ध कराई जाए ताकि उन पर लोगों को भड़काने का जो आरोप है उसकी सत्यता जांची जा सके। साफ है कि सिट का निष्कर्ष केवल मोदी के जवाबों पर ही आधारित नहीं है, उस दौरान के सारे टेप एवं दस्तावेज उसने देखे, पुलिस-प्रशासनिक अधिकारियों से पूछताछ की, उनकी नोटिंग का पूर्ण अध्ययन किया। न सिट को मोदी का भाषण सांप्रदायिक विद्वेष बढ़ाने वाला लगा न इसमें हिंसा एवं आगजनी को प्रोत्साहित करने का अंश था। उच्चतम न्यायालय के निर्देश एवं देखरेख में काम करने के कारण इस पर पक्षपात का आरोप लगाना उचित नहीं। किंतु ऐसा भी हुआ। मोदी से पूछताछ के बाद राघवन का बयान था कि पूछताछ करने वाले संतुष्ट हैं किंतु यदि साक्ष्यों को समझने के बाद आवश्यक लगेगा तो फिर उन्हें बुलाया जाएगा। विरोधियों ने प्रश्न उठाया कि राघवन ने क्यों पूछताछ की अध्यक्षता नहीं की? राघवन ने इसे आवश्यक नहीं माना। विरोधी पूछ रहे थे कि मोदी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज क्यों नहीं हुई? ये भूल गए कि अगर प्राथमिकी दर्ज करना अपरिहार्य होता तो उच्चतम न्यायालय स्वयं इसका आदेश देता। न्यायालय ने ही नानावती आयोग से पूछा कि मोदी से पूछताछ क्यों नहीं की गई? विरोधियों ने सिट की कार्यशैली पर जिस प्रकार प्रश्न उठाना आरंभ किया वह भी दुर्भाग्यपूर्ण था।

दंगों में गुजरात प्रशासन की विफलता को कतई अस्वीकार नहीं किया जा सकता। उस दौरान मुख्यमंत्री होने के नाते मोदी दोषी थे, इसे भी स्वीकारा जा सकता है। उनके मंत्रियों एवं विधायकों की गिरतारी भी सरकार की भूमिका को संदेह के दायरे में लातीं हैं। हालांकि गुजरात में दंगाेंं का पुराना इतिहास है, पर कई भयावह घटनाएं रोकी जा सकतीं थीं, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। लेकिन मोदी ने बिल्कुल योजनाबध्द तरीके से एक संप्रदाय विशेष के खिलाफ लोगों को भड़काया, उनके खिलाफ हिंसा को हर तरह से सहयोग दिया, प्रोत्साहित किया, इसके प्रमाण नहीं मिलते। यही सिट ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है। जहां तक गुलबर्ग सोसायटी का प्रश्न है तो नानावती आयोग के सामने तत्कालीन संयुक्त पुलिस आयुक्त एम. के. टंडन ने कहा कि वहां पुलिस बल कायम थी, एवं भीड़ को रोकने के लिए गोली भी चलाई, लेकिन उस पर भी हमला किया गया। टंडन के अनुसार सोसायटी के अंदर से फायरिंग होने के बाद भीड़ हिंसक हो गई। यह पूछने पर कि क्या एहसान जाफरी का कोई फोन उनके पास आया था टंडन ने कहा कि उनके पास पुलिस नियंत्रण कक्ष से संदेश आया था कि पूर्व कांग्रेसी सांसद किसी सुरक्षित जगह जाना चाहते हैं। तो आप गुलबर्ग सोसायटी क्यों नहीं गए? इस पर टंडन का जवाब था कि वे उससे ज्यादा संवेदनशील दरियापुर क्षेत्र की ओर प्रस्थान कर गए थे एवं वहां दो पुलिस उपाधीक्षक एवं केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल की एक कंपनी को भेज दिया। दूसरे पुलिस अधिकारियों की गवाही में भी ऐसी ही बाते हैं। इसका निष्कर्ष हम कुछ भी निकाल सकते हैं, पर कहीं से यह साबित नहीं होता कि मोदी ने किसी पुलिस अधिकारी को गुलबर्ग सोसायटी से दूर रहने को कहा था। बहरहाल, सिट की रिपोर्ट के बाद असली न्याय दिलाने की बजाय एक व्यक्ति को निशाना बनाने का यह सिलसिला बंद होना चाहिए। सिट के दायरे में गोधरा रेल दहन से लेकर दंगों के सभी प्रमुख कांड थे एवं उच्चतम न्यायालय की निगरानी थी। मौजूदा ढांचे में इससे समग्र और विश्वसनीय जांच कुछ नहीं हो सकती। हां, सरकार को यह कोशिश अवश्य जारी रखनी चाहिए ताकि पीड़ित यह न समझें कि उनके साथ दंगों के दौरान हिंसा भी अन्याय हुआ और यह आज तक जारी है। उन्हें महसूस हो कि उनकी पीठ पर सरकार एवं प्रशासन का हाथ है। साथ ही मनुष्यता को शर्मशार करने वाली वैसी घटना की पुनरावृत्ति नहीं हो इसका भी ध्यान रहना चाहिए। किंतु केवल मोदी को निशाना बनाकर सेक्यूलरवाद का हीरो बने रहने की चाहत वाले अपना रवैया नहीं बदलेंगे तो घाव कभी सूख नहीं पाएंगे।

भारत-चीन संबंध

संदीप कुमार श्रीवास्तव

भारत-चीन संबंधों को न सिर्फ दुनिया में बल्किं भारत और चीन में भी प्रायः सीमा विवाद के चश्में से देखा जाता रहा है। यही कारण रहा कि जब चीनी प्रधानमंत्री दिसम्बर के दूसरे सप्ताह में भारत की यात्रा पर आये तो मीडिया सहित सभी का ध्यान सीमा विवाद और उस पर होने वाली प्रगति पर केंद्रित रहा, लेकिन विश्व क्षितिज पर तेजी से उभरती इन दोनों महाशक्तियों को इस बात का आभास था कि उनके पारम्परिक सम्बन्ध न सिर्फ उनके अपने लोगों को, बल्कि तीसरी दुनिया को एक ऐसा अवसर प्रदान कर सकते हैं जो एक समतामूलक और संतुलित विश्व-व्यवस्था की स्थापना कर सकता है। नतिजन दोनों महाशक्तियों ने सीमा विवाद को परे हटाते हुए परस्पर सहयोग के उन मुद्दो पर ध्यान केंद्रित किया जो आने वाले समय में दोनों देशों के पारंपरिक संबंधों में विश्वास को और गहरा तथा स्थायी बना सकें।

चीनी प्रधानमंत्री ने भारत को इस बात के लिए आश्वस्त किया कि वह संयुक्त राष्ट्र संघ तथा सुरक्षा परिषद में भारतीय भूमिका को विस्तृत रुप में देखना चाहते हैं, तथा न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में भी वह उसके मार्ग को निश्कंटक बनाना चाहता है। इसके साथ ही साथ दोनो देशों ने असैन्य परमाणु उर्जा के क्षेत्र में भी सहयोग पर सहमति जाहिर की। संयुक्त युध्दाभ्यास तथा परस्पर व्यापारिक सहयोग को जो 1999 में महज 2 करोड़ डालर था, उसे 2010 में 60 करोड़ तक ले जाने पर सहमति जताई। इसके साथ ही साथ सीमा विवाद के स्थायी,तर्कसंगत तथा परस्पर लाभप्रद समाधान हेतु प्रतिनिधि दल का गठन और रेल, आवास पुनर्वास तथा भूप्रबंधन जैसे 12 अन्य समझौते पर भी सहमति हुई। इन आंकड़ों से इतर ज्यादा महत्वपूर्ण रहा दोनो शासनाध्यक्षों का परस्पर एक दूसरे के प्रति व्यवहार व गर्मजोशी। चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ को भारतीय प्रधानमंत्री ने रात्रि-भोज पर आमंत्रित किया और उनके स्वागत के लिए खड़े रहे और डॉ. मनमोहन सिंह की शालीनता और सादगी से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें अपना बड़ा भाई कहकर संबोधित किया। यात्रा के समापन अवसर पर चीनी प्रधानमंत्री का यह कथन कि- दुनिया में आज हो रहे बदलाव ने दोनो देशों को यह ऐतिहासिक मौका दिया है कि वे 21वीं सदी को विकास और शांति की ओर ले जाए।

इसका स्पष्ट संकेत है कि दोनों देश इस बात को समझ चुके हैं कि आने वाले समय में आपस में मिलकर दुनिया को दिशा दे सकते हैं और विश्व-व्यवस्था में बढ़ रहे असंतुलन चाहे वह पर्यावरण असंतुलन, चरमपंथ, उग्रवाद, आतंकवाद या एक राष्ट्र की मनमानि को रोकने में और अब तक कमजोर कहे जाने वाले राष्ट्रों की आवाज को शक्ति प्रदान कर सकते हैं। साथ ही साथ मिसाल बन सकते हैं परस्पर सहयोग से क्षेत्रीय संतुलन को स्थापित करने में।