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    हीरामन की बैलगाड़ी अब भी है सुरक्षित

    harimancortपटना। सन 1966 में बनी यादगार फिल्म तीसरी कसम की चर्चा मात्र से साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु की खूब याद आती है। जिले के कसबा प्रखंड के बरेटा गांव में मौजूद एक बैलगाड़ी भी इसी की एक कड़ी है। यह वही बैलगाड़ी है जिसपर फिल्म के नायक हीरामन यानी हिन्दी सिनेमा के शोमैन राजकपूर ने सवारी की थी। 

    गाड़ी की खासियत यहीं खत्म नहीं होती है। इसपर अक्सर खुद रेणु भी सवार होकर गढ़बनैली स्टेशन आयाजाया करते थे। साथ ही तीसरी कसम से जुड़ी कई फिल्मी हस्तियों ने गाड़ी पर सफर किया था।

    हाल ही में एक दैनिक अखबार में छपी रपट से यह बात सामने आई। इस बैलगाड़ी को तीसरी कसम फिल्म के मुहूर्त में भी शामिल किया गया था। रेणु ने भी अपनी कुछ रचनाओं में इस बैलगाड़ी से अपने लगाव का जिक्र किया है। 

    खैर, बैलगाड़ी से रेणु के गहरे प्रेम का ही नतीजा है कि आज भी उनका भांजा और बरेटा गांव के तेजनारायण विश्वास ने उसे घर में धरोहर की तरह संभाल कर रखा है। गौरतलब है कि तीसरी कसम फिल्म रेणु की कहानी मारे गये गुलफाम पर आधारित है। साथ ही फिल्म के कई दृश्यों की शूटिंग भी इसी इलाके में की गई थी। इसी क्रम में फिल्म के नायक राजकपूर व नायिका वहीदा रहमान जिस गाड़ी पर गुलाबबाग आतेजाते दिखायी पड़ते हैं, वह गाड़ी रेणु की बड़ी बहन की थी। 

    हालांकि अब उनकी बहन इस दुनिया में नहीं रहीं। लेकिन बहन की इच्छा को ध्यान में रखते हुए उनके पुत्र आज भी इस गाड़ी को रखे हुए हैं और उसमें रेणु की छवि देखते हैं। तेजनारायण विश्वास बतलाते हैं कि रेणु जी जब कभी उनके गांव आते थे, गढ़बनैली स्टेशन उन्हें लेने यही गाड़ी जाती थी। फिर इसी गाड़ी से उन्हें स्टेशन भी छोड़ा जाता था।

    खास आकार के चलते इस गाड़ी से उन्हें बेहद प्रेम हो गया था। जब तीसरी कसम फिल्म निर्माण की बात सामने आई तो रेणु ने बिना सोचे ही फिल्म में इस गाड़ी के उपयोग की बात राजकपूर के समक्ष रखी थी। 

    विश्वास के मुताबिक एक संस्मरण में इस बात की झलक भी है। चूनांचे , रेणु की यादों को संजोये इस बैलगाड़ी का भविष्य क्या होगा, यह बताना मुश्किल है। क्योंकि, यह जानकारी कम ही लोगों के पास है।

    महात्मा गांधी का आर्थिक चिन्तन

    economics_ashram_lg1किसी भी देश की उन्नति और विकास इस बात पर निर्भर होते हैं कि वह देश आर्थिक दृष्टि से कितनी प्रगति कर रहा है तथा औद्योगिक दृष्टि से कितना विकास कर रहा है।आज भारतवर्ष का कौन ऐसा नागरिक है जो महात्मा गांधी के नाम तथा राष्ट्र-निर्माण में उनके कार्यकलाप से भली-भांति अवगत नहीं है!

    महात्मा गांधी उच्च कोटि के चिंतक थे। उनके बारे में विश्वविख्यात वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्सटाइन का यह मत है कि-”हम बड़े भाग्यशाली हैं और हमें कृतज्ञ होना चाहिए कि ईश्वर ने हमें ऐसा प्रकाशमान समकालीन पुरुष दिया है-वह भावी पीढ़ियों के लिए भी प्रकाश-स्तंभ का काम देगा।”

    ग्राम-विकास को प्राथमिकता

    महात्मा गांधी भारतवर्ष को आत्मनिर्भर देखना चाहते थे। उन्होंने माना था कि भारत की आत्मा गांवों में निवास करती है, इसलिए उनका दृष्टिकोण था कि भारत को विकास-मार्ग पर ले जाने के लिए ‘ग्राम-विकास’ प्राथमिक आवश्यकता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सर्वोपरि स्थान दिया था। उनकी दृष्टि में इस अर्थव्यवस्था का आधार था-‘ग्रामीण जीवन का उत्थान’। इसीलिए, गांधीजी ने बड़े-बड़े उद्योगों को नहीं, वरन् छोटे-छोटे उद्योगों (कुटीर उद्योगों) को महत्व प्रदान किया, जैसे-चरखे द्वारा सूत कताई, खद्दर बुनाई तथा आटा पिसाई, चावल कुटाई और रस्सी बांटना आदि।

    ‘हिन्द स्वराज’ में उन्होंने विशाल उद्योगों एवं मशीनीकरण की कड़ी भर्त्सना की है। चरखे को वह भौण्डेपन का नहीं, वरन् श्रम की प्रतिष्ठा का प्रतीक समझते थे। चरखे पर सूत कातने में ‘चित्त की एकाग्रता’ बनाने की आवश्यकता पड़ती है। सन् 1923 ई. में उन्होंने ‘अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ’ की भी स्थापना की थी, जिसका मूल उद्देश्य था-घरेलू तथा ग्रामीण उद्योगों को उन्नत बनाना।

    ट्रस्टीशिप का सिध्दांत

    गांधीजी शिक्षा से अर्थशास्त्री नहीं थे, किन्तु इस विषय में भी उनका चिन्तन क्रांतिकारी है। उन्होंने कहा था कि अपनी जरूरत से अधिक संग्रह करने का अर्थ है-‘चोरी’। उनके मतानुसार अर्थशास्त्र एक नैतिक विज्ञान है- ”इंसान की कमाई का मकसद केवल सांसारिक सुख पाना ही नहीं, बल्कि अपना नैतिक और आत्मिक विकास करना है।” इसीलिए उन्होंने त्यागमय उपभोग की बात का समर्थन किया था।

    आर्थिक समानता और पूंजीपतियों की भोगवादी महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगाने के लिए उन्होंने ‘ट्रस्टीशिप’ का विचार प्रस्तुत किया था। उनका मानना था कि पूंजीपति सामाजिक सम्पत्ति का ट्रस्टी या संरक्षक मात्र है। वस्तुत: गांधीजी का आर्थिक चिन्तन ‘नैतिक आदर्शों पर स्थापित समाजवाद’ या रामराज्य है।

    गांधीजी ने यह माना था कि हर नागरिक को अपनी आजीविका ‘शारीरिक परिश्रम’ के द्वारा कमानी चाहिए। उन्होंने बुध्दिजीवी के लिए भी ‘शारीरिक परिश्रम’ की शिक्षा दी थी। इस बात को गांधीजी ने ‘रोटी का परिश्रम’ कहा था।

    बुनियादी शिक्षा योजना

    शिक्षा के बारे में गांधीजी का दृष्टिकोण वस्तुत: व्यावसायपरक था। वह ‘बुनियादी तालीम’ के पक्षधर रहे थे। उनका मत था कि भारत जैसे गरीब देश में शिक्षार्थियों को शिक्षा प्राप्त करने के साथ-साथ कुछ धनोपार्जन भी कर लेना चाहिए जिससे वे आत्मनिर्भर बन सकें। इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने ‘बर्धा-शिक्षा-योजना’ बनायी थी। शिक्षा को लाभदायक एवं अल्पव्ययी करने की दृष्टि से सन् 1936 ई. में उन्होंने ‘भारतीय तालीम संघ’ की स्थापना की।

    गांधीजी का क्रांतिकारी चिन्तन आज भी सार्थक एवं अनुकरणीय है। उनके चिन्तन के आधार पर अनेक समस्याओं के समाधान उपस्थित किए जा सकते हैं। हमें यह बात कहने में कोई आपत्ति नहीं है कि भारत की आर्थिक-औद्योगिक व्यवस्था को लेकर गांधीजी का जो जीवन-दर्शन देशवासियों को उपलब्ध हुआ है, वह सदैव उपयोगी रहेगा।

    -डॉ. महेशचन्द्र शर्मा

    रीडर एवं अध्यक्ष,
    हिंदी विभाग, लाजपतराय कॉलेज,
    128ए, श्याम पार्क (मेन), साहिबाबाद,
    गाजियाबाद-201005

    फोटो साभार- https://www.calpeacepower.org/

    गोविंदाचार्य से ब्रजेश कुमार झा की बातचीत

    govindji__27प्रश्न- आपने गत 14 और 15 जनवरी को इलाहाबाद में देश की छोटी-छोटी पार्टियों के साथ एक बैठक की थी। इस बैठक में क्या हुआ ?

    उत्तर- देश के विभिन्न प्रांतों में सक्रिय कई छोटी राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधि के साथ इस बैठक में सामाजिक कार्यकर्ता व विभिन्न विषयों के जानकार भी शामिल हुए। वे सभी देश की मौजूदा राजनीतिक तंत्र की बदहाली से खासे चिंतित दिखे। अब सभी इस बात से सहमत हैं कि सुधार की छोटी-बड़ी कोशिशों के बावजूद देश की राजनीति निरंतर अमीरपरस्त, विदेशपरस्त होने के साथ दबंग लोगों के गिरोह में तबदील हो रही है। वर्तमान चुनाव प्रक्रिया में सज्जन शक्ति का चुन कर आना नामुमकिन होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में चुनाव प्रक्रिया में सुधार की तत्काल जरूरत है। इस बाबत आम सहमति से राष्ट्रवादी मोर्चा का गठन किया गया है। यह मोर्चा चुनाव सुधार प्रक्रिया के लिए चौतरफा प्रयास करेगा।

    प्रश्न- इस काम को राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन अपने तरीके से कर ही रहा है। फिर नए मोर्चे की जरूरत क्यों पड़ी ?

    उत्तर- यह सही है। लेकिन, किसी राजनीतिक पार्टी का कार्यकर्ता राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन का सक्रिय सदस्य नहीं बन सकता है। जबकि, सक्रिय राजनीति में कई ऐसे लोग हैं जो वर्तमान चुनाव प्रक्रिया में बुनियादी स्तर पर मौजूद कमियों को महसूस कर रहे हैं। वे एक ऐसे मंच की तलाश में थे, जहां से इस दिशा में सार्थक पहल की जा सके। पिछले दिनों प्रवास के दौरान मेरी कई लोगों से मुलाकात हुई और तब एक सही मोर्चा के गठन की जरूरत महसूस हुई।

    प्रश्न- बैठक में किन-किन पार्टियों के प्रतिनिधि शामिल थे ?

    उत्तर- कई पार्टियों के प्रतिनिधि थे। इनमें डा. स्वामी की जनता पार्टी, भारतीय जनशक्ति पार्टी, जागृत भारत पार्टी, सद्भावना पार्टी, राष्ट्रीय क्रांति पार्टी आदि के प्रतिनिधि थे। साथ ही पहले से संविधान में सुधार व चुनाव सुधार की जरूरत पर बल देते हुए गंभीर बहस चला रहे बुद्धीजीवी भी बैठक में शामिल हुए यानी कुल 44 लोग थे।

    प्रश्न- राष्ट्रवादी मोर्चा में शामिल राजनीतिक पार्टियां आगामी आम चुनाव में क्या एक साथ मैदान में उतरने की तैयारी में है ?

    उत्तर- मैं इतना कह सकता हूं कि यह मंच सभी पार्टियों के बीच समझ का एका बनाएगा। साथ ही वर्ष 2009 में होने वाले आम चुनाव से पहले चुनाव प्रक्रिया में सुधार के लिए चुनाव आयोग के समक्ष एक संवर्धित चुनाव सुधार पत्रक प्रस्तुत करेगा।

    प्रश्न- चुनाव प्रक्रिया में सुधार के लिए आपकी क्या मांगे हैं ?

    उत्तर- आगामी लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए पहली और सबसे छोटी मांग है कि वोटिंग मशीन (ईवीएम) में तमाम बटनों के साथ एक बटन यह भी लगा हो कि इनमें से कोई प्रत्यासी उचित नहीं । ताकि उम्मीदवार पसंद न आने के बावजूद मतदाताओं के पास अपने विचार अभिव्यक्त करने का विकल्प वहां मौजूद हो। दूसरी बात चुनाव अभियान के दौरान खर्च की जाने वाली राशि ठीक व इमानदारी से तय की जाए, जिससे पार्टी या उम्मीदवार को मुकाबला मूल्यों और मुद्दों के आधार पर लड़े के लिए बाध्य किया जा सके। किसी को संसाधनों के बेजा इस्तेमाल की छूट न दी जाए। ये दो छोटी मांगे हैं। इसपर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

    प्रश्न- कई लोग मानते है कि राष्ट्रवादी मोर्चा लालकृष्ण आडवाणी के प्रधानमंत्री बनने में बाधा उत्पन्न कर सकता है !

    उत्तरसबों को सोचने व समझने का अधिकार है। पर मैं यह कहूंगा कि न काहू से दोस्ती न काहू से बैर।

    प्रश्न- राष्ट्रवादी मोर्चा में शामिल लोग यदि अपनी चुनावी सभा में आपको बुलाते हैं तो क्या आप जाएंगे ?

    उत्तर- मुझे नहीं लगता कि कोई प्रत्यासी अपनी चुनावी सभा में भीड़ कम करने के लिए ऐसा करेंगे। यदि वे ऐसा करेंगे तो देखा जाएगा।

    सुरा पर फिदा तहजीब – ब्रजेश झा

    20090129pubattackपब संस्कृति को खत्म करने के नाम पर श्रीराम सेना के लोगों ने बड़ा उत्पात मचाया। इस दौरान युवतियों के साथ जो बेअदबी हुई, उससे भारतीय संस्कृति से जुड़े कई गहरे सवाल खड़े हुए हैं। इसपर बहस जारी है और यह जरूरी है।

    दरअसल, खान-पान निहायत व्यक्तिगत पसंद की चीज है। किसी भी तरह के खाने-पीने की आदतों व शौकों से उस जगह की तहजीब खूब समझ में आती है। लेकिन, उदार बाजारवाद की बयार ने इस तहजीब को बदला है। जहांजहां यह बयार पहुंची है, वहां ठेठ देशी संस्कृति आहत हुई है। आप खुद देख लें ! अब ज्यादातर समौसे की दुकान से सरसों की चटनी गायब है। बोतलबंद सॊस हावी है। दूसरी तरफ अब लोग लिट्टी खाकर उतना लुत्फ नहीं उठाते, जितना मोमोज खाकर उठाते हैं।

    हालांकि, इस देश में पब का विकल्प भी जमाने से मौजूद है। इस देश की देहाती-दुनिया में आबादी से दूर कलाल-खाना (मद्यशाला) सेवा चलती रही है। दारू व ताड़ी के मुरीद वहां मजे से अपना शौक पूरा करते हैं। पर, इस कलाल-खाने से निकलकर कोई रईसजादा राहगीरों को नहीं कुचलता है। वहां किसी युवती को भी गोली नहीं मारी जाती है और न ही कोई सेना धमाचौकड़ी मचाती है। लेकिन, जब बाजार उदार हुआ तो इस मामले को लेकर कुछ लोग ज्यादा ही उदार हो गए। बड़े शहरों में शराबनोशी का अंदाज इससे बड़ा प्रभावित व प्रोत्साहित हुआ। मजे की बात यह है कि पहले शराबखोरी छिपकर होती थी। अब यह पार्टियों के ठाठ की पहचान बन गई है। इसके बारी-बारी से कई रंग दिख रहे हैं आम जनजीवन भी प्रभावित हो रहा है।

    सिनेमा व टेलीविजन भी इस मामले में समय के साथ कमदताल कर रहा है। पेज थ्री के नामवर बंदे यहां दर्शन देने लगे। इससे शहरी समाज में संदेश गया कि भई, शराब तो हमारी तहजीब का हिस्सा है। और पब उनमुक्तता का प्रतीक। कलाल-खाना की तरह पब शहर व आबादी से दूर नहीं खोला जाता, बल्कि प्रमुख चौराहे पर जगह तलाशी जाती है। एक और बात यह है कि शहरी समाज पर हावी हो रही इस नई तहजीब को बारीकी से समझने के लिए उन चेहरों की पहचान, उनके दैनिक जीवन की जरूरतों, उलझनों व जटिलताओं को समाजशास्त्रीय निगाह से जानना होगा।

    लेकिन, मालूम पड़ता है कि श्रीराम सेना को इतनी फुर्सत नहीं। वे लोग एक समस्या का दूसरी बड़ी समस्या खड़ी कर हल ढूंढ़ रहे हैं। दरअसल, नोट और वोट के इस दौड़ में सबों की अपनी डफली और अपना राग है। पर इसमें दोराय नहीं कि सुरा पर देशी तहजीब कुछ ज्यादा ही फिदा है। *

    वैयक्तिक अधिकार व पब कल्चर के बीच पिसता समाज व शालीनता

    20070507pub01भारतीय संस्कृति के समुद्र में अनेक संस्कृतियां समाहित हैं। भारत की धरती पर अब एक नई संस्कृति उभर रही है पब कलचर। इस नई संस्कृति के उदगम में समाज नहीं वाणिज्य और बाज़ारभाव का योगदान अमूल्य है। पर मंगलौर में एक पब में जिस प्रकार से महिलाओं और लड़कियों पर हाथ उठाया गया वह तो कोई भी संस्कृति –और कम से कम भारतीय तो बिल्कुल ही नहीं– इसकी इजाज़त नहीं देती। इसकी व्यापक भर्त्सना स्वाभाविक और उचित है क्योंकि यह कुकर्म भारतीय संस्कृति के बिलकुल विपरीत है।

    पब एक सार्वजनिक स्थान है जहां कोई भी व्यक्ति प्रविष्ट कर सकता है। यह ठीक है कि पब में जो भी जायेगा वह शराब पीने-पिलाने, अच्छा खाने-खिलाने और वहां उपस्थित व्यक्तियों के साथ नाचने-नचाने द्वारा मौज मस्ती करने की नीयत ही से जायेगा। पर साथ ही किसी ऐसे व्यक्ति के प्रवेश पर भी तो कोई पाबन्दी नहीं हो सकती जो ऐसा कुछ न किये बिना केवल ठण्डा-गर्म पीये और जो कुछ अन्य लोग कर रहे हों उसका तमाशा देखकर ही अपना मनोरंजन करना चाहे।

    व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और उच्छृंखलता में बहुत अन्तर होता है। जनतन्त्र में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की तो कोई भी सभ्य समाज रक्षा व सम्मान करेगापर उच्छृंखलता सहन करना किसी भी समाज के लिये न सहनीय होना चाहिये और न ही उसका सम्मान। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की दोहाई के पीछे है हमारी गुलामी की मानसिकता जिसके अनुसार पश्चिमी तथा विदेशी संस्कृति में सब कुछ अच्छा है और भारतीय में बुरा। हम इस हीन भावना से अभी तक उबर नहीं पाये हैं। इसलिये हम उस सब की हिमायत करते हैं जो हमारे संस्कार व संस्कृति के विपरीत है और बाहरी संस्कृति में ग्राहय। इसलिये पब जैसे सार्वजनिक स्थान पर तो हर व्यक्ति को मर्यादा में ही रहना होगा और ऐसा सब कुछ करने से परहेज़ करना होगा जिससे वहां उपस्थित कोई व्यक्ति या समूह आहत हो। क्या स्वतन्त्रता और अधिकार केवल व्यक्ति के ही होते हैं समाज के नहीं? क्या व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और अधिकार के नाम पर समाज की स्वतन्त्रता व अधिकारों का हनन हो जाना चाहिये? क्या व्यक्तिगत स्वतन्त्रता (व उच्छृंखलता) सामाजिक स्वतन्त्रता से श्रेष्ठतम है?

    व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की दोहाई के पीछे है हमारी गुलामी की मानसिकता जिसके अनुसार पश्चिमी तथा विदेशी संस्कृति में सब कुछ अच्छा है और भारतीय में बुरा। हम इस हीन भावना से अभी तक उबर नहीं पाये हैं। इसलिये हम उस सब की हिमायत करते हैं जो हमारे संस्कार व संस्कृति के विपरीत है और बाहरी संस्कृति में ग्राहय।

    एक सामाजिक प्राणी को ऐसा कुछ नहीं करना चाहिये जो उसके परिवार, सम्बन्धियों, पड़ोसियों या समाज को अमान्य हो। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की दोहाई देने का तो तात्पर्य है कि सौम्य स्वभाव व शालीनता व्यक्तिगत स्वतन्त्रता व अधिकार के दुश्मन हैं।

    जो व्यक्ति अपना घर छोड़कर कहीं अन्यत्र –बार, पब या किसी उद्यान जैसे स्थान पर — जाता है, वह केवल इसलिये कि जो कुछ वह बाहर कर करता है वह घर में नहीं करता या कर सकता। कोई व्यक्ति अपनी पत्नी से किसी सार्वजनिक स्थान पर प्रेमालाप के लिये नहीं जाता। जो जाता है उसके साथ वही साथी होगा जिसे वह अपने घर नहीं ले जा सकता। पब या कोठे पर वही व्यक्ति जायेगा जो वही काम अपने घर की चारदीवारी के अन्दर नहीं कर सकता।

    व्यक्ति तो शराब घर में भी पी सकता है। डांस भी कर सकता है। पश्चिमी संगीत व फिल्म संगीत सुन व देख सकता है। बस एक ही मुश्किल है। जिन व्यक्तियों या महिलाओं के साथ वह पब या अन्यत्र शराब पीता है, डांस करता है, हुड़दंग मचाता है, उन्हें वह घर नहीं बुला सकता। यदि उस में कोई बुराई नहीं जो वह पब में करता हैं तो वही काम घर में भी कर लेना चाहिये। वह क्यों चोरी से रात के गहरे अन्धेरे में वह सब कुछ करना चाहता हैं जो वह दिन के उजाले में करने से कतराता हैं? कुछ लोग तर्क देंगे कि वह तो दिन में पढ़ता या अपना कारोबार करता हैं और अपना दिल बहलाने की फुर्सत तो उसें रात को ही मिल पाती है। जो लोग सारी-सारी रात पब में गुज़ारते हैं वह दिन के उजाले में क्या पढ़ते या कारोबार करते होंगे, वह तो ईश्वर ही जानता होगा। वस्तुत: कहीं न कहीं छिपा है उनके मन में चोर। उनकी इसी परेशानी का लाभ उठा कर पनपती है पब संस्कृति और कारोबार।

    व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की दोहाई के पीछे है हमारी गुलामी की मानसिकता जिसके अनुसार पश्चिमी तथा विदेशी संस्कृति में सब कुछ अच्छा है और भारतीय में बुरा। हम इस हीन भावना से अभी तक उबर नहीं पाये हैं। इसलिये हम उस सब की हिमायत करते हैं जो हमारे संस्कार व संस्कृति के विपरीत है और बाहरी संस्कृति में ग्राहय।

    इसके अन्य पहलू भी हैं। यदि हम पब कल्चर को श्रेयस्कर समझते हैं तो यह स्वाभाविक ही है कि जो व्यक्ति रात को –या यों कहिये कि पौ फटने पर– पब से निकलेगा वह तो सरूर में होगा ही और गाड़ी भी पी कर ही चलायेगा। कई निर्दोष इन महानुभावों की मनमौजी कल्चर व स्वतन्त्रता की बलि पर शहीद भी हो चुके हैं। तो यदि शराब पीने की स्वतन्त्रता है तो शराब पी कर गाड़ी चलाना –और नशे में गल्ती से अनायास ही निर्दोषों को कुचल देना– क्यों घोर अपराध है?

    एक गैर सरकारी संस्‍थान द्वारा किए गए हालिया सर्वेक्षण ने तो और भी चौंका देने वाले तथ्‍यों को उजागर किया है। दिल्‍ली में सरकार ने शराब पीने के लिए न्‍यूनतम आयु 25 वर्ष निर्धारित की है। परन्‍तु इस सर्वेक्षण के अनुसार, दिल्‍ली के पबों में जाने वाले 80 प्रतिशत व्‍यक्ति नाबालिग हैं। इस सर्वेक्षण ने आगे कहा है कि दिल्‍ली में प्रतिवर्ष लगभग 2000 नाबालिग शराब पीकर गाडी चलाने के मामलों में संलिप्‍त पाये गये हैं। वह या तो शराब पीकर गाडी चलाने के दोषी हैं या फिर उसके शिकार।

    हमारी ही सरकारों ने –जिनके नेता पब कल्चर का समर्थन कर रहे हैं– शराब पीकर गाड़ी चलाने को घोर अपराध घोषित कर दिया है और उन्हें कड़ी सज़ा दी जा रही है । हमारी अदालतों –कुछ विदेशों में भी– शराब पी कर गाड़ी चलाने वालों को आतंकवादियों से भी अधिक खतरनाक बताते है जो निर्दोष लोगों की जान ले लेते हैं।

    पब कल्चर एक बाज़ारू धंधा है। इसे संस्कृति का नाम देना किसी भी संस्कृति का अपमान करना है। यही कारण है कि इसके विरूध्द प्रारम्भिक आवाज़ चाहे हिन्दुत्ववादियों ने ही उठाई हो पर उनके सुर में उन लोगों नें भी मिला दिया है जिन्हें भारत की संस्कृति से प्यार है।

    केन्द्रिय स्वास्थ मन्त्री श्री अंबुमानी रामादोस ने पब कल्चर को भारतीय मानस के विरूध्द करार दिया है और एक राष्ट्रीय शराब नीति बनाकर इस पर अंकुश लगाने का अपना इरादा जताया है। उन्होंने कहा कि देश में 40 प्रतिशत सड़क दुर्घटनाओं का कारण शराब पीकर गाड़ी चलाना है और इसमें पब में शराब पीकर लौट रहे नौजवानों की संख्या बहुत हैं। उन्होंने आगे कहा कि एक विश्लेषण के अनुसार पिछले पांच-छ: वर्षों में युवाओं में शराब पीने की लत में 60 प्रतिशत की वृध्दि हुई है जिस कारण युवाओं द्वारा शराब पीकर गाड़ी चलाने और दुर्घनाओं में मरने वालों की संख्या में वृध्दि हुई है जिनमें बहुत सारे युवक होते हैं।

    कर्नाटक के मुख्य मन्त्री श्री बी0 एस0 येदियुरप्पा, जहां यह घटनायें हुईं, ने अपने प्रदेश में पब कल्चर को न पनपने देने का अपना संकल्प दोहराया है।

    उधर राजस्थान के कांग्रेसी मुख्य मन्त्री श्री अशोक गहलोत भी इस कल्चर को समाप्त करने में कटिबध्द हैं। इसे राजत्थान की संस्कृति के विरूध्द बताते हुये वह कहते हैं कि वह प्यार के सार्वजनिक प्रदर्शन के विरूध्द हैं। ”लड़के-लड़कियों के सार्वजनिक रूप में एक-दूसरे की बाहें थामें चलना तो शायद एक दर्शक को आनन्ददायक लगे पर वह राजस्थान की संस्कृति के विरूध्द है। श्री गहलोत ने भी इसे बाज़ारू संस्कृति की संज्ञा देते हुये कहा कि शराब बनाने वाली कम्पनियां इस कल्चर को बढ़ावा दे रही है जिन पर वह अंकुश लगायेंगे।

    अब तो पब कल्चर ने ‘सब-चलता-है’ मनोवृति व व्यक्तिगत अधिकारों और राष्ट्रीय संस्कृति, संस्कारों और शालीनता के बीच एक लड़ाई ही छेड़ दी है। अब यह निर्णय देश की जनता को करना है कि विजय किसकी हो। ***

    -अम्बा चरण वशिष्ठ

    (लेखक एक स्वतन्त्र टिप्पणीकार तथा एक पाक्षिक पत्रिका के सम्पादक मण्डल सदस्य हैं)

    सस्ता संदेश जंग का (WAR Film) – ब्रजेश झा

    war-movie-posterमुंबई में हुए आतंकवादी हमलों को बालीवुड के कई निर्माता-निर्देशक संजीदगी से नहीं ले पाए। उनपर व्यवसाय हावी है। उन्हें इस घटना में व्यावसाय नजर आ रहा है। हाल ही में ऐसी खबर आई थी कि बालीवुड के कई निर्माता-निर्देशक इस घटना को देर-सबेर रुपहले परदे पर उतारने के लिए नामों का पंजीकरण करा रहे हैं।

     

    हालांकि सिनेमा के शुरुआती दिनों से ही देशभक्ति या जंगी जज्बों से सराबोर युद्ध विषयक फिल्में बनती रही हैं। एलओसी, बार्डर के आने से पहले ललकार, हकीकत और उसने कहा था जैसी फिल्में प्रदर्शित हो चुकी थीं। जिसे दर्शकों ने खूब सराहा था। इन फिल्में में देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत होकर सैनिकों को लड़ते दिखाया गया है। साथ ही युद्ध की विभीषिका में मानवीय संबंधों को भी उजागर किया गया है।

     

    इन फिल्में का उद्देश्य लोगों की भावनाओं को भड़काना नहीं था, बल्कि उन संवेदनाओं को प्रकट करना था, जो इस भयावह माहौल में स्वतः पैदा लेती है। देश में जब नक्सली व आतंकवादी समस्याएं पैदा हुईं तो कुछ सतर्क निर्माता-निर्देशकों की निगाहें उधर भी गईं और सार्थक फिल्में बनीं। पर ऐसी फिल्में अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं, जिनमें माचिस, यहां, हजारों ख्वाहिशें ऐसी व ए वेडनस-डे जैसी कुछ फिल्मों के नाम याद आते हैं।

     

    कुछ साल पहले जब बार्डर और एलओसी जैसी फिल्में आई थीं तो कई सवाल उठे थे। लोगों का मानना था कि भाषाई स्तर पर ऐसी फिल्मों की गरिमा कम हुई है। तात्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जमाली ने भी सार्क सम्मेलन के दौरान इन फिल्मों की भाषा पर आपत्ति दर्ज की थी। यह लाजमी था। क्योंकि, जमाना जानता है कि कला का उद्देश्य रुचि व विचार को परिष्कृत करना है और सिनेमा एक कला है। केवल व्यवसाय नहीं।

     

    गत कुछ वर्षों से बालीवुड देशभक्ति के जज्बों को भुनाने की जिस बारीक कोशिश में लगा है, वहा काबिलेगौर है। फिल्म रंग दे बसंती तो इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। इन दिनों देशभक्ति से लबरेज ज्यादातर फिल्में मात्र सस्ता और उन्मादी मनोरंजन परोस रही हैं।

     

    यकीनन, बालीवुड में कुछ लोगों द्वारा मुल्क के दुखते रग को भुनाने की यह बेचैनी नई आशंका को जन्म देती है। मंबई आतंकवादी हमले पर फिल्म तैयार करने के लिए नाम पंजीकृत कराने की यह प्रक्रिया इसे और गहरा देती है।

    अजित कुमार यानि हिन्दी सहित्य का बेहद पहचाना हुआ नाम – ब्रजेश झा

    अजित कुमार यानि हिन्दी सहित्य का बेहद पहचाना हुआ नाम। सहित्य से अलग अजित कुमार को आम पाठक एक जमाने में धर्मयुग पत्रिका में खूब पढ़ा करते थे। अब नए जमाने के आम पाठकों में कम ही लोग धर्मयुग और अजित बाबु के बारे में नाम से ज्यादा कुछ जानते हैं। ऐसे में लीजिए इक याद ताजा करिए।

    इब्तिदाए इश्क

    यात्राओं के साथ शुरू से ही प्रीति, आश्चर्य और संतोष की जो भावना मेरे मन में जुड़ी रही है और अपनी जन्मभूमि की यात्रा ने इन भावों के साथ हमेशा गहरी खुशी और नई पहचान की जो अनुभूति मुझे दी है, वह सब इस बार की उन्नाव-लखनऊ यात्रा के दौरान शुरू से आखिर तक गायब रहा। यह बात अलग है कि दिल्ली की भयानकता, खीझ और थकान की तुलना में, एक हफ्ता फिर चैन से बीता लेकिन बचपन और यौवन के दिनों में यहां जो मस्ती और बेफिक्री हुआ करती थी, उसकी जगह अनवरत भागा-दौड़ी और कशमकश ने आखिरकार उन्नाव और लखनऊ को भी मेरे लिए दिल्ली बनाकर ही छोड़ा। वह सपना खंडित चाहे अभी न हुआ लेकिन बदरंग जरूर हो गया कि ऐसा वक्त आएगा जब हम अवकाश लेकर चैन और आराम की जिन्दगी अपने वतन में बिताएंगे।

    इस यात्रा ने समझाया कि चैन और आराम किसी छोटी सी छुट्टी के दौरान मनाली या गुलमर्ग में मिले तो मिले; उन्नाव, नवाबगंज और लखनऊ में तो मुकदमों, झगड़ों, फ़सादों, पटवारियों, पेशकारों, चपरासियों, अफसरों को भुगताते-निपटाते ही गुजारना होगा। सुख की कल्पना यहां तो साकार होने वाली नहीं, क्योंकि चकबंदी अधिकारी से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक मुकदमों का जाल फैला हुआ है। मेरे जीवन-काल में वह सिमटने वाला नहीं, भले ही मैं औऱ बीस वर्षों तक जीने की उम्मीद करूं। सच तो यह है कि नवाबगंज का मतलब मेरे लिए पिछले तमाम वर्षों में खीझ, गुस्से, अवरोध, भरपूर कोशिश के अलावा और कुछ नहीं रहा।

    इस यात्रा ने मुझे बार-बार यह सोचने के लिए मजबूर किया कि जिस जीवन की रक्षा और सुरक्षा की हम जी-तोड़ कोशिश करते हैं, वह जीवन तो गायब हो जाता है, सिर्फ कोशिश ही कोशिश यहां से वहां तक फैली रहती है। हम अपने कन्धों पर बोझ बढ़ाते चले जाते हैं और अगली पीढ़ी के लिए एक ऐसी गठरी छोड़ जाते हैं दुर्गन्धयुक्त, मैले कपड़ों की, जिसको धुलाने की लागत शायद हमारे पीछे छूट गये बैंक-बैलेन्स से कहीं ज्यादा होगी।

    आखिर क्यों मुझे यह यात्रा करनी पड़ी ? इसीलिए न कि मेरे पिता ने बीस साल पहले करीब ढाई हजार रुपये में ज़मीन का एक टुकड़ा खरीदा था जिसकी कीमत आज बहुत हो चुकी है और जिसके किसी हिस्से को हथियाने में एक स्थानीय गुंडा कामयाब हो गया। अब मैं बीस साल तक उसके साथ मुकदमेबाजी करूंगा फिर मुमकिन है, जीतने पर लाख-दो लाख और लगाकर, अड़ोस-पड़ोस की थोड़ी और ज़मीन खरीद अपने बेटे-भतीजों को सौंप जाऊं। फिर जब वे हिसाब-किताब बिठा कर आत्मतृप्त होने लगेंगे कि उनके खानदान की माली हैसियत अकेले नवाबगंज में पच्चीस लाख रुपये से अधिक की है और वहां आरा मिल. पेपर मिल या कोल्ड स्टोरेज का लाभकारी धन्धा मज़े से शुरू किया जा सकता है तो उन्हें पता चले कि उनकी जमीन के किसी अन्य टुकड़े पर किसी अन्य स्थानीय लठैत ने कब्जा जमा लिया है। तब वे अपनी जमीन की कीमत अस्सी लाख या दो करोड़ रुपये हो जाने तक अनवरत मुकदमेबाजी करते जाएं…

    यह सिनिरेयो दिल्ली से रवाना होते समय भीड़ भरे रेल के डिब्बे में जागते-ऊंघते कभी दिमागी तो कभी पलकों में बनता-मिटता रहा है। पहला पड़ाव था उन्नाव, जहां वकीलों से मिलने का मतलब था- एक ऐसे जाल में फंसा महसूस करना, जिससे निकलने की न कभी हम उम्मीद कर पाते हैं, न उसमें फंसे बिना अपने लिए कोई दूसरा चारा ही खोज पाते हैं। जब तुम्हारे अधिकार पर कोई दूसरा ज़बर्दस्ती दखल करे तो तुम यदि इतने विरक्त या बुद्धिमान नहीं हो कि इस कब्जे को नज़रअंदाज कर सको तो यह तय है कि तुम पुलिस कचहरी, वकील, गवाह, कागज-तारीख के अनवरत शिकंजे में जरूर ही फंस जाओगे। यह तटस्थता या होशियारी मैं अपने निजी जीवन में थोड़ी बहुत लागू कर सका, जबकि बाकी तमाम लोग इसे दब्बूपन, कायरता, सुस्ती, पलायनवाद आदि- आदि कहते समझते रहे लेकिन अपने पिता और छोटे भाई को मैं कभी नहीं समझा पाया कि ज़मीन-जायदाद और मान-मर्यादा के लिए लड़ने-झगडने में समय, शक्ति और साधन का जो अपव्यय करना पड़ता है, उससे हमेशा एक ही मसल याद आती है कि टके की बुलबुल नौ टका हुसकाई।

    चूकिं, उनकी राय मुझसे मेल न खाती थी और मैं खूद भी कभी-कभी सोचने लगता था कि गलती कहीं न कहीं मेरे ही सोच में है, और कि जो भी हो मुझे ज़रूरत के वक़्त उनके हाथ मज़बूत करने चाहिए- यह मेरा नैतिक कर्तव्य है- तो आखिरकार मुझे भी, मजबूरन इस जंजाल में फंसना पड़ा, लेकिन जब मैं इस मुहिम का हिस्सा बना, तो मैंने यह भी समझा कि यहां अधिक वास्तविक दुनिया है जो हमें जीने का ज्यादा कारगर ढंग सिखा सकती है और संसार का पूर्णतर चित्र हमारे सामने रखती है। उस एक हफ्ते में मैंने बहुत जानकारी हासिल की, जिसे विस्तार से बताना जरूरी नहीं, अपनी समझ के लिए कुछ ही मुद्दे दर्ज करता हूं ताकि सनद रहे और वक़्त जरूरत काम आय। मैंने अनुभव किया कि आम तौर से निचले दर्जे के कर्मचारी अधिक सुस्त, काहिल और भ्रष्ट हैं बनिस्पक ऊंचे दर्जे के। कार्यकुशलता और शिष्टता का भी बड़ अभाव है। लेकिन हमारी व्यवस्था का ढांचा कुछ ऐसा है कि पैसे या निजी संबंधों के बल पर हम अपना अधिकतर काम इस निचले तबके के अमले से करवा सकते हैं। पटवारी, पेशकार, सिपाही, दारोगा हमारे लिए जितना कारगर हो सकता है, उतना मंत्री, सचिव या उच्च अधिकारी वर्ग नहीं हो पाता। देश का जीवन- स्तर जिस निचले दर्जे पर सामान्य रूप से चलता है, वहां सुई की उपयोगिता तलवार की तुलना में कहीं अधिक दिखाई देती है।

    जहां तक उच्च अधिकारियों का संबंध है, वे किन्हीं मामलों में कारगर होते जरूर हैं, लेकिन तभी जब उन पर ऊपर से कोई गहरा दबाव पड़े या कोई अन्य बड़ी वजह हो, वरना आमतौर से वे हीला-हवाल कर मामले से बचने की और कीचड़ में कमल वाली छवि बनाये रखने की कोशिश करते हैं। यह जरूर है कि हमारी व्यवस्था में उनकी हैसियत ऐसी बनायी गई है कि यदि वे प्रभावकारी हस्तक्षेप का निर्णय लेते हैं तो तमाम बन्द दरवाजे अपने आप खुलने लगते हैं। हमारे मामले में भी यही बात लागू हुई कि एक मामूली पटवारी ने जमीन के कागजों में मौजूद तनिक से पेंच की जानकारी किसी स्थानीय हड़पबाज घुसपैठिये को दे दि और उसने हमारी जमीन में ऐसी लात घुसा दी कि उसे निकाल फेंकना मुश्किल हो गया। बहरहाल जब सत्ता के पहियों को हमने घुमाना शुरू किया तो ऐसा लगा कि पटवारी उनके वेग को संभाल नहीं पा रहा है, लेकिन यह तो लड़ाई की महज शुरूआत है। अभी से कुछ नहीं कहा जा सकता कि चक्के में फंसा पेंचकस उसको जाम कर देगा या खुद टूट-फूट जायेगा। बहुत सी अन्य बातों पर लड़ाई का नतीजा निर्भर करेगा। अभी तो मुझे न मामले की पूरी जानकारी है न झगड़े की शक्ल साफ़ हुई है। सिर्फ चार-छह बार पेशियों पर हाजिर होना और तारीखों का बढ़ जाना ही हाथ लगा है। इसे पूर्वजन्मों के संचित पुण्य का फल कहूं या किन्हीं पापों का फूट निकलना, मैं नहीं जानता।

    यह बेशक मालूम है कि बिना आरक्षण वाली वापसी रेल यात्रा में पिताजी द्वारा सिखाया गया मूलमंत्र मैं कितना ही जपूं कि,बैठने की जगह मिले तो खड़े मत रहना और लेटने की गुंजाइश दिखे तो बैठे रहने से बचनालेकिन इसका क्या भरोसा कि भेड़ियाधसान मुझे डिब्बे के भीतर घुसेड़ कर ही चैन लेगी या गाड़ी छूट जाने के बाद प्लेटफार्म पर अटका और अगली ट्रेन की फिक्र में डूबा मैं देर तक दोहराता ही रह जाऊंगा- इब्तिदाए इश्क है… रोता है क्या !

    आगे आगे देखिये होता है क्या !’

    श्वेत क्रांति की सच्चाई

    23706overviewहाल में दिल्ली में दूध की कीमतों में एक रूपये प्रतिलीटर की वृध्दि की गई। सहकारी डेयरी कंपनियों के अनुसार संग्रहण, भण्डारण, प्रसंस्करण और विपणन की बढती लागत के कारण दूध के दाम बढाना आवश्यक हो गया था। भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है। यहां प्रतिवर्ष 10.2 करोड़ टन दूध का उत्पादन होता है। यह उत्पादन किसी भी फसल की तुलना में अधिक है और किसानों को प्रति इकाई सबसे अधिक कमाई भी कराता है। फसलों की बर्बादी की क्षतिपूर्ति करने ओर सामाजिक सुरक्षा देने में दुग्ध उत्पादन ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। इसे किसानों की आत्महत्या पर राष्‍ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एम.एस.एस.ओ.) की रिपोर्ट से समझा जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार किसान आत्महत्या की घटनाएं उन क्षेत्रों में नाममात्र की हैं, जहां दूध उत्पादन से किसानों को नियमित आय हो रही है। दूध उत्पादन का कार्य अधिकांशत: लघु व सीमांत किसानों और भूमिहीन श्रमिकों द्वारा किया जाता है। इसमें महिलाओं की भी प्रभावी भागीदारी है। इससे इन वर्गों को आय व रोजगार का सतत स्रोत मिल जाता है।श्वेत क्रांति(दुग्ध उत्पादन) की इन उपलब्धियों के बीच कई खामियां भी हैं जो इसकी उपलब्धियों पर पानी फेर देती हैं। श्वेत क्रांति की सबसे बड़ी सीमा यह है कि दूध की कीमत का लाभ वास्तविक हकदारों (उत्पादकों) तक नहीं पहुंच पा रहा है। जिस दूध को नगरों-महानगरों में 26 से 27 रूपये प्रति लीटर बेचा जाता है, उसी दूध के लिए दूध उत्पादकों को मात्र 14 से 15 रूपये प्रति लीटर का भुगतान किया जाता है। इस कीमत अंतराल का एक बड़ा हिस्सा प्रसंस्करण, प्रशीतन, परिवहन, प्रबंधन में जाता है। दूध उत्पादकों को जो 15-16 रूपये लीटर कीमत मिलती है, उसका भी एक बड़ा हिस्सा चारे व पशु आहार, दुधारू पशुओं के रखरखाव आदि में खर्च हो जाता है। इससे दूध उत्पादकों का प्रतिफल और भी कम हो जाता है। दूसरे डेयरी सहकारिताओं के संग्रह के कारण गांव से दूध गायब हो गया। दूध उत्पादक दूध के बजाय चाय पीने लगे क्योंकि दूध की बिक्री से होने वाली आमदनी परिवार के लिए मुख्य हो गई। इससे किसानों, श्रमिकों में कुपोषण बढा। यद्यपि भारत विश्व का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है लेकिन प्रतिव्यक्ति दूध उपलब्धता 246 ग्राम प्रतिदिन है जो कि विश्व औसत (265 ग्राम प्रतिदिन) से कम है। दूध की खपत के राष्‍ट्रीय औसत में भी अत्यधिक असमानता विद्यमान है।

    दरअसल दूध संग्रह, परिरक्षण, पैकिंग, परिवहन, विपणन, प्रबंधन कार्य में वृध्दि होने से दूध की लागत बढी है। इसे कोलकाता की दूध आपूर्ति से समझा जा सकता है। आनंद (गुजरात) से कोलकाता तक प्रतिदिन रेफ्रिजरेटेड टेंकरों की रेलगाड़ी में दूध भेजा जाता है। दो हजार किलोमीटर तक ताजे दूध की नियमित आपूर्ति करना टेक्नालाजी का कमाल तो कहा जा सकता है लेकिन यह बिजली, डीजल व रेलवे की बरबादी है। जब गुजरात, राजस्थान जैसे सूखे प्रदेशों में श्वेत क्रांति संभव है तो गीले बंगाल में क्यों नहीं। असली श्वेत क्रांति तो तब मानी जाती जब दूध उत्पादन की विकेंद्रित, स्थानीय व मितव्ययी तकनीक प्रयोग में लाई जाती।

    श्वेत क्रांति के बाद भी देश में दुधारू पशुओं की दूध देने की औसत क्षमता अधिकतम 1200 किग्रा वार्षिक ही है जबकि विश्व औसत 2200 किग्रा का है। इजराइल में तो दुधारू पशुओं की उत्पादकता 12,000 किग्रा वार्षिक तक पहुंच गई है। दूध उत्पादन में उन्नत प्रजातियों का अभी भी अभाव है। संकर प्रजाति के विकास के लिए किए जा रहे प्रयास सिर्फ प्रयोगशालाओं तक सीमित हैं। पशुधन स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के कारण प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में दुधारू पशु संक्रामक रोगों के कारण मर जाते हैं।

    शहरीकरण, औद्योगिकरण, प्रति व्यक्ति आय में बढोत्तरी, खान-पान की आदतों में बदलाव जैसे कारणों से दूध व दूध से बने पदार्थों की मांग तेजी से बढ रही है। वर्तमान में दूध का तरल रूप में उपयोग मात्र 46% ही होता है शेष दूध का उपयोग दूध उत्पादों के रूप में होता है। आने वाले समय में दूध उत्पादों के उपयोग का अनुपात बढना तय है। ऐसी स्थिति में उत्पादन में तीव्र वृद्धि अतिआवश्यक है। लेकिन यह तभी संभव है जब देश में पशुचारा व पशु आहार की प्रचुरता हो। देश में इस समय 65 करोड़ टन सूखा चारा, 76 करोड़ टन हरा चारा और 7.94 करोड़ टन पशु आहार उपलब्ध है। यह मात्रा पशुओं की मौजूदा संख्या की केवल 40% जरूरत को पूरा करने में सक्षम है। दुधारू पशुओं के लिए मोटे अनाज, खली और अन्य पौ31टिक तत्वों की भारी कमी है। स्पष्‍ट है भूखे पशुओं से न दूध उत्पादन की अपेक्षा की जा सकती है और न ही अन्य अत्पादों की। अत: पशुचारा विकास की ओर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। जिन सवा करोड़ लघु व सीमांत किसानों के बल पर दुग्ध उद्योग फल-फूल रहा है उनमें पशुपालन की वैज्ञानिक जानकारी का अभाव है। श्वेत क्रांति में गाय-भैसों की देसी नस्लों की भी उपेक्षा हुई और विदेशी नस्लों का प्रचलन बढा। इससे भारतीय गोवंश में जैव विविधता का तेजी से ह्रास हो रहा है। चारा उगाने के लिए रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों का भरपूर इस्तेमाल किया गया। दूध उत्पादन बढाने के लिए नुकसानदेह हारमोन युक्त इंजेक्शनों का प्रचलन बढा। इससे दूध में हानिकारक रसायनों की मात्रा बढी। महानगरों में सिंथेटिक दूध का प्रचलन एक बड़ी समस्या है।

    लेखक- रमेश कुमार दुबे
    (लेखक पर्यावरण एवं कृषि विषयों पर कई पत्र-पत्रिकाओं में स्‍वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं)

    फोटो साभार-www.fnbnews.com 

    गंगाजल आपरेशन का सच – ब्रजेश झा

    gangaडिब्रूगढ़ (असम) से हाल ही में दिल्ली आए एक व्यक्ति से मुलाकात हुई। वे हिन्दी सिनेमा बड़े चाव से देखते हैं। उन्होंने कहा, डिब्रूगढ़ आते-जाते जब भी ट्रेन भागलपुर स्टेशन पहुंचती है तो फिल्म- ‘गंगाजल-द हौली वैपन ‘ की खूब याद आती है। यह फिल्म शहर में हुई अंखफोड़वा कांड (गंगाजल आपरेशन) घटना पर आधारित है।

    आगे उन्होंने कहा, ‘सोचता हूं कि इस घटना का सच क्या रहा होगा ?’ इस फिल्म के निर्देशन प्रकाश झा हैं। वे यह मानने से इनकार करते रहे हैं कि फिल्म भागलपुर में हुई अंखफोड़वा कांड पर आधारित है। हालांकि वे फिल्म पर घटना के प्रभाव की बात स्वीकारते हैं।

    खैर! घटना को तीन दशक बीत गए। लेकिन तब जो सवाज उपजे थे, वे आज भी खड़े हैं। यह समझना जरूरी हो गया है कि आखिर क्यों लोगों को वह घटना यकायक याद आ जाती है। इन सवालों का जवाब सही-सही तलाशने के लिए उन परिस्थितियों को जानना जरूरी है, जिन स्थितियों में यह घटना घटी।

    शहर के कोतवाली थाने के एक तात्कालीन पुलिस अधिकारी ने बताया कि घटना की शुरुआत 1979 में भागलपुर जिले के नवगछिया थाने से हुई थी। यहां पुलिस ने गंभीर आरोपों में लिप्त कुछ अपराधियों की आंखों में तेजाब डालकर अंधा कर दिया था। इसके बाद सबौर, बरारी, रजौन, नाथनगर, कहलगांव आदि थाना क्षेत्रों से भी ऐसी खबरें आईं।

    ऐसी घटनाएं रह-रहकर अक्टूबर 1980 तक होती रहीं। घटना की जांच कर रही समिति के मुताबिक जिले में कुल 31 लोगों के साथ ऐसा बर्ताव किया गया। इनमें लक्खी महतो, अर्जुन गोस्वामी, अनिल यादव, भोला चौधरी, काशी मंडल, उमेश यादव, लखनलाल मंडल, चमनलाल राय, देवराज खत्री, शालिग्राम शाह, पटेल शाह, बलजीत सिंह जैसे लोग थे। बलजीत सिक्ख समुदाय का था। संभवतः इसलिए 6 अक्टूबर 1980 को उसके साथ ऐसी घटना होने पर मामला राजधानी दिल्ली में खूब उछला। हालांकि यह मामला उक्त समुदाय के किसी एक व्यक्ति के साथ घटित होने मात्र का नहीं था। उस समय तक जनता सरकार चुनाव हारकर सत्ता से बाहर हो गई थी और इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी। दुख की बात है कि इस मुल्क में कुछ चीजों को देखने का यही अनकहा चलन बन गया है।

    बहरहाल, बाद में दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में इन लोगों की आंखों की जांच हुई। इसके बाद डाक्टरों ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि इनकी आंखों को भेदकर उसमें क्षयकारी पदार्थ डाल दिए गए हैं। इससे आंखों की पुतलियां जल गई हैं। नेत्र-गोल नष्ट हो गए हैं, जिससे इन लोगों की दृश्य-शक्ति हमेशा के लिए समाप्त हो गई है।

    जानकारी के मुताबिक आंखों को भेदने के लिए टकुआ (बड़ी सुई) नाई द्वारा नख काटने के औजार और साइकिल के स्कोप का इस्तेमाल किया जाता था। कई महीने तक जिला पुलिस ने यह कार्य जारी रखा। इससे मालूम पड़ता है कि राज्य प्रशासन ने अशिक्षा, बेरोजगारी और गरीबी के बीच पनप रही आपराधिक प्रवृत्तियों को खत्म करने का सरल व निहायत अमानवीय रास्ता अख्तियार कर रखा था।

    अपराधी प्रवृति के इन लोगों को दिन में शहर के विभिन्न थाना क्षेत्रों में पकड़ा जाता था और रात में उनकी आंखें फोड़ दी जाती थीं। यह जानकारी घटना की जांच के लिए उच्चतम न्यायालय की ओर से भेजी गई आर. नरसिम्हन समिति को जेल में बंद कुछ अंधे कैदियों ने दी थी। इसकी चर्चा समिति ने अपनी रिपोर्ट में भी की है।

    राज्य सरकार को इस बात की जानकारी थी। फिर भी वह चुप बैठी रही। 26 अक्टूबर 1979 को अर्जुन को सेंट्रल जेल लाया गया था। उसने 20 नवम्बर 1979 को सीजीएम भागलपुर के नाम आवेदन दिया। जिसमें उसने अपने अंधेपन की जांच कराने की मांग की थी। 30 जुलाई 1980 को अन्य 11 अंधे कैदियों ने भी जांच की मांग करते हुए कानुनी सहायता की याचना की थी।

    पर, शहर की अदालत ने यह कहते हुए उनकी याचना को ठुकरा दिया कि ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिसके तहत इनको कानुनी सहायता दी जाए। हालांकि, मार्च 1979 में उच्चतम न्यायालय ने हुसैनआरा खातून मामले में सभी कैदियों को कानुनी सहायता देने की बात कह चुका था। फिर भी जिला न्यायालय इस फैसले की अंदेखी कर गया, जो संविधान के अनुच्छेद 141 का उल्लंघन था।

    राज्य सरकार से एक भारी भूल उस समय भी हुई जब 30 जुलाई 1980 को सेंट्रल जेल के अधीक्षक बच्चुलाल दास की ओर से अंधे कैदियों की जानकारी सरकार को देने के पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। यह जानकर ताज्जुब होगा कि राज्य के जेल महानिरीक्षक ने भी अपने दौरे के समय बांका जेल में देखे गए तीन अंधे कैदियों की जानकारी सरकार को दी थी। साथ ही इसे रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाने का आग्रह किया था। बिहार सरकार पर इन बातों का कोई असर नहीं हुआ। और 6 अक्टूबर 1980 को बलजीत सिंह और पटेल शाह सहित अन्य आठ कथित अपराधियों को अंधा कर दिया गया।

    इस मामले को एस.एन.आबदी और अरुण सिन्हा जैसे पत्रकारों ने खूब उठाया। घटना के बाबत दो मामले उच्चतम न्यायालय में दर्ज किए गए। पहला- अनिल यादव और अन्य बनाम बिहार सरकार(रिट पटिसन संख्या- 5352 / 1980)। दूसरा- खत्री और अन्य बनाम बिहार सरकार (रिट पटिसन संख्या- 5760/ 1980)। न्यायालय में पीड़ितों की पैरवी अधिवक्ता कपिला हिंगोरानी कर रही थीं। बाद में दोषी पाए गए कई पुलिस अधिकारी व कर्मियों को निलंबित कर दिए गए और कईयों का तबादला।

    शहर की आम जनता पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध की जा रही कार्रवाई के सख्त खिलाफ थी। सन् 1980 के आम चुनाव में नव-निर्वाचित सांसद भागवत झा आजाद के नेतृत्व में जनता ने सरकार के खिलाफ खूब प्रदर्शन किया। वे लोग पुलिस की कार्रवाई को उचित करार दे रहे थे। लोगों का कहना था कि इन अपराधियों को राजनेताओं का संरक्षण प्राप्त था और परिस्थितियों के हिसाब से उनसे निपटने का यह रास्ता सही था।

    यकीनन ऐसी घटनाएं किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकती हैं। वह तो एक टीस छोड़ जाती है। लेकिन, आज जब देश की सबसे ऊंची पंचायत में कथित अपराधी भी पहुंच रहे हैं। समाज में भय पहले की अपेक्षा बढ़ा है तो जनता-जनार्दन क्या समाधान चुनती है ? यह बात देखऩे वाली होगी। *

    ब्रजेश झा

    brajesh-4-copy

    आटो के पीछे क्या है?

    rickshaw01सुबह-सबेरे दिल्ली की सड़कों पर चलते वक्त यदि आटो रिक्शा के पीछे लिखा दिख जाय बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला तो अन्यथा न लें बल्कि गौर करें। क्या ये चुटकीली पंक्तियां शहरी समाज के एक तबके को मुंह नहीं चिढ़ा रही हैं? गौरतलब है कि ऐसी सैकड़ों पंक्तियां तमाम आटो रिक्शा व अन्य गाडि़यों के पीछे लिखी दिख जायेंगी जो बेबाक अंदाज में शहरी समाज की सच्चाई बयां करती हैं। अंदाजे-बयां का ये रूप केवल हिन्दुस्तान तक ही सीमित नहीं है बल्कि पूरे दक्षिण एशिया में प्रचलित है। इन पंक्तियों के पीछे भला क्या मनोविज्ञान छिपा हो सकता है, इस दिलचस्प विषय पर शोध कर रहे दीवान ए सराय के श्रृंखला संपादक रविकांत ने कहा कि आटो रिक्शा के पीछे लिखी चौपाइयां, दोहे और शेरो-शायरी वहां की शहरी लोक संस्कृतियों का इजहार करती हैं। मनोभावों की अभिव्यित का ये ढंग पूरे दक्षिण एशिया में व्याप्त है। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में भी आपको आटो रिक्शा के पीछे लिखा दिखेगा कायदे आजम ने फरमाया तू चल मैं आया। कहने का मतलब यह है कि हर वैसी चीजें जो शहरी समाज का हिस्सा हैं वह शब्दों के रूप में आटो रिक्शा व अन्य वाहनों के पीछे चस्पां हैं। वह रूहानी भी हैं और अश्लील भी। सियासती भी हैं और सामाजिक भी। फिलहाल मैं और प्रभात इन लतीफों को इकट्ठा कर रहा हूं जिसे अब तक गैरजरूरी समझ कर छोड़ दिया गया था। यकी नन इससे शहरी लोक संस्कृतियों को समझने में काफी मदद मिलेगी। खैर! इसमें दो राय नहीं है कि आटो रिक्शा व अन्य गाडि़यों को चलाने वाले चालकों का जीवन मुठभेड़ भरा होता है। इन्हें व्यक्ति, सरकार और सड़क तीनों से निबटना पड़ता है। तनाव के इन पलों में ऐसी लतीफे उन्हें गदुगुदा जाते हैं। पर क्या अब दिल्ली में इजहारे-तहरीर पर भी सियासती रोक लगा दी गयी है?

    ब्रजेश झाbrajesh-4-copy (Brajesh Jha)

    भुखमरी की जड़

    _44733146_children_226अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (आईएफपीआरआई) के ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2008 के अनुसार भारत में भूख की समस्या चिंताजनक स्तर तक पहुंच गई है। भारत की स्थिति अफ्रीका के उपसहारा क्षेत्र के 25 देशों से भी बदतर है। दक्षिण एशिया में सिर्फ बांग्लादेश हमसे पीछे है। यह इंडेक्स निकालने के लिए बच्चों के कुपोषण, बाल मृत्युदर और समुचित कैलोरी से वंचित लोगों की संख्या को आधार बनाया गया। इसके अनुसार भारत में 50% से अधिक बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। इनमें 20% की हालत अत्यधिक चिंताजनक है। कुपोषण के संबंध में मुख्य बात मातृत्व और बच्चों के स्वास्थ्य का है। जो महिलाएं पहले से ही कुपोषण का शिकार रहती हैं, वे स्वाभाविक रूप से कुपोषित बच्चों को जन्म देंगी। यदि जन्म के बाद भी बच्चे को संतुलित आहार नहीं मिल पाएगा तो वह जीवन भर के लिए शारीरिक व मानसिक रूप से कमजोर हो जाएगा। अत: बच्चों के कुपोषण को परिवार से जोड़कर देखना होगा। इस संबंध में स्थिति अत्यंत निराशाजनक है।राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की 2006-07 की रिपोर्ट के अनुसार एक औसत भारतीय महीने मे खाने पर सिर्फ 440 रूपये खर्च करता है। ग्रामीण भारत में यह खर्च 363 रूपये प्रतिमाह है तो शहरी भारत में 517 रूपये। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे 2005-06 के अनुसार ग्रामीण भारत में एक व्यक्ति प्रति माह फलों पर सिर्फ 12 रूपये खर्च करता है जबकि शहरी व्यक्ति का फलों पर प्रति महीने का खर्च 28 रूपये का है। अनाज और इसके वैकल्पिक खाद्य पदार्थों पर ग्रामीण भारत में 115 रूपये और शहरी भारत में 119 रूपये खर्च होते हैं। इस उपभोग व्यय में स्वस्थ बच्चों का जन्म कैसे होगा ? देश में एक ओर भूख की समस्या बढी है तो दूसरी ओर एक छोटा वर्ग लगातार फलफूल रहा है। पिछले दो दशकों में भारत में एक ऐसा नवधनाडय वर्ग पैदा हुआ है जो उपभोग के मामले में दुनिया में किसी से पीछे नहीं रहना चाहता।

    गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, असमान विकास की उपर्युक्त स्थितियां एक दिन में पैदा नहीं हुई हैं। इसकी जड़ स्वायत्तशासी आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थतंत्र के क्रमिक पतन में निहित हैं। आजादी के बाद पूंजी प्रधान विकास रणनीति अपनाने से विकास क्रम में मानव शक्ति का महत्व गौण हो गया। इसके परिणामस्वरूप भारत के अपने शिल्प, लघु व कुटीर उद्योग, कला और पारंपरिक रूप से चलते आ रहे अन्य धंधे धीरे-धीरे खत्म होने लगे। इन धंधों से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली अधिकांश जनता को आय होती थी, लोगों की जरूरतें स्थानीय स्तर पर पूरी होती थी और गरीबों का पेट पलता था। इन धंधों के उजड़ने से गरीबों का सहारा छिनता रहा। इससे धीरे-धीरे गांव उद्योगविहीन हो गए और वहां खेती-पशुपालन के अतिरिक्त नियमित आय का कोई स्रोत नहीं रह गया। अब गांव और खेती एक दूसरे के पर्याय तथा गांव और उद्योग परस्पर विरोधी हो गए।

    आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थतंत्र के विखराव के कारण परंपरागत व्यवसायों में लगे करोड़ों लोगों की जीविका छिन गई। बढर्ऌ, लोहार, कुम्हार, चमड़े के कार्य करने वाले , दस्तकार, कपड़ा बुनने वाले लोगों के पेशे विकास की अंधी दौड़ में समाप्त हो गए। इसी के साथ वे शहर भी सूख गए जिनकी ये शान हुआ करते थे जैसे बनारस, आजमगढ, मुरादाबाद। यहां के उत्पाद अब सामान्य की जगह विशिष्ट हो गए ओर हाट-बाजार, गली-कूचे की जगह दिल्ली हाट जैसी जगहों में प्रदर्शन की वस्तु बन गए।

    आजादी के बाद खाद्यान्न क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिए कृषि क्षेत्र में पूंजी प्रधान कृषि रणनीति (हरित क्रांति) की शुरूआत हुई। हरित क्रांति ने खाद्यान्न उत्पादन में बढाेत्तरी तो किया लेकिन इसने प्रकृति व किसानों से बहुत बड़ी कीमत वसूल की। इसने ग्रामीण जनसंख्या के विस्थापन और रोजगार संकट को बढाते हुए खाद्यान्न संकट का आधार तैयार किया। इसी का दुष्परिणाम है कि एक ओर सरकारी अनाज खरीद का रिकार्ड बन रहा है वहीं दूसरी ओर 20 करोड़ से अधिक लोग ऐसी हालत में जी रहे हैं कि उन्हें सुबह उठकर पता नहीं होता कि दिन में खाना मिल पाएगा या नहीं।

    भूख, कुपोषण, असमान विकास के संकट को बढाने में उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण की नीतियों ने आग में घी का कार्य किया। इन नीतियों के माध्यम से विकसित देशों की भीमकाय कंपनियां साम,दाम, दंड, भेद को अपनाकर विकासशील देशों के आत्मनिर्भर ढांचे को तहस-नहस करती हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन जैसी वैश्विक संस्थाओं की नीतियों को भी इन्हीं की सुविधा व आवश्यकतानुसार परिवर्तित किया जाता रहा है। इन नीतियों के तहत विकासशील देशों ने जीवन-यापन की देशज परंपराओं को नकारकर खर्चीली तकनीक आधारित पध्दतियों को अपनाया। इससे प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हुआ और एक बड़ी जनसंख्या को प्रकृति प्रदत्त संसाधनों के इस्तेमाल से वंचित कर दिया गया।

    गरीबों, वंचितों, बुनकरों, अनुसूचित जातियों, जनजातियों के कल्याण के लिए जो योजनाएं चलाई गई उनका स्वरूप दान-दक्षिणा वाला ही रहा है। परंपरागत पेशों के आधुनिकीकरण, इन्हें छोटी मशीनों से जोड़ने और लोगों को बड़े पैमाने पर प्रशिक्षण देने की महती संभावना को भी भुला दिया गया। उदारीकरण, निजीकरण ने जहां किसानों, मजदूरों, बुनकरों, दस्तकारों के लिए अभाव और दरिद्रता का समुद्र निर्मित किया वहीं दूसरी ओर शिक्षित, कौशल संपन्न युवा वर्ग के लिए समृध्दि के टापू बनाया। इसका परिणाम यह हुआ देश इंडिया व भारत में विभाजित हो गया। यही असमान और विभाजनकारी विकास रणनीति गरीबों, वंचितों को भुखमरी व कुपोषण की गहरी खाई में धकेल रही है।

    लेखक- रमेश कुमार दुबे
    (लेखक पर्यावरण एवं कृषि विषयों पर कई पत्र-पत्रिकाओं में स्‍वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं)

    फोटो साभार-https://news.bbc.co.uk

    ग्रामीण स्वास्थ्य की दशा

    village20health20campभारत ने पिछले दशकों में स्वास्थ्य मानकों में महत्वपूर्ण प्रगति की है। शिशु व मातृत्व मृत्यु दर में लगातार कमी आई है। कई गंभीर बीमारियों की समाप्ति और जीवन प्रत्याशा में भी वृध्दि हुई है। इन उपलब्धियों के बाद भी जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा, विशेषकर ग्रामीण भारत उचित स्वास्थ्य देखरेख से वंचित है। अभी भी बहुमूल्य मानव समय, निवारण योग्य बीमारियों में खप जाता है। पुरानी बीमारियों के साथ-साथ संक्रामक बीमारियों के फैलाव और जीवन प्रत्याशा में वृध्दि के कारण बुजुर्गों की बढती संख्या ने स्वास्थ्य के समक्ष नई चुनौतियां प्रस्तुत की है। भौतिकवादी सुख सुविधाओं के प्रसार तथा जीवन शैली में हुए परिवर्तन के कारण किसी जमाने में शहरी बीमारी समझे जाने वाले कैंसर, हृदय रोग, मधुमेह अब ग्रामीणों को भी अपनी चपेट में ले चुके हैं।

    यद्यपि भारत ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है लेकिन अब यह जनसंख्या वृध्दि की तुलना में पिछड़ता जा रहा है। पिछले एक दशक में जनसंख्या में 16% की वृध्दि हुई है जबकि प्रति हजार जनसंख्या में बीमार व्यक्तियों की संख्या में 66%। इस दौरान प्रति हजार जनसंख्या पर अस्पताल में बेडों की संख्या मात्र 5.1% बढी। देश में औसत बेड घनत्व (प्रति हजार जनसंख्या पर बेड की उपलब्धता) 0.86 है जो कि विश्व औसत का एक तिहाई ही है। चिकित्साकर्मियों की कमी और अस्पतालों में व्याप्त कुप्रबंधन के कारण कितने ही बेड वर्ष भर खाली पड़े रहते हैं। इससे वास्तविक बेड घनत्व और भी कम हो जाता है।

    स्वास्थ्य सुविधा के उपर्युक्त आंकड़े राष्ट्रीय औसत के हैं। ग्रामीण स्तर पर देखें तो इसमें अत्यधिक कमी आएगी। आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में जहां देश की 72% जनसंख्या निवास करती है, वहां कुल बेड का 19 भाग तथा चिकित्साकर्मियों का 14 भाग ही पाया जाता है। ग्रामीण स्वास्थ्य उपकेंद्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में चिकित्साकर्मियों की भारी कमी है। इन केंद्रों में 62% विशेषज्ञ चिकित्सकों, 49% प्रयोगशाला सहायकों और 20% फार्मासिस्टों की कमी है। यह कमी दो कारणों से है। पहला जरूरत की तुलना में स्वीकृत पद कम हैं, दूसरे, बेहतर कार्यदशा की कमी और सीमित अवसरों के कारण चिकित्साकर्मी ग्रामीण क्षेत्रों में जाने से कतराते हैं। इससे ग्रामीणों को गुणवक्तायुक्त चिकित्सा सेवा नहीं मिलती और वे निजी क्षेत्र की सेवा लेने के लिए बाध्य होते हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2004 के अनुसार 68% देशवासी सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं को नहीं लेते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि यहां ठीक ढंग से इलाज नहीं होगा। सरकारी स्वास्थ्य सेवा की तुलना में अत्यधिक महंगी होने के बावजूद बहुसंख्यक भारतीय निजी चिकित्सालयों की सेवा लेते हैं।

    1983 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति ने चिकित्सा क्षेत्र में निजी भागीदारी को प्रोत्साहित किया। इसके बाद निजी स्वास्थ्य सेवा का तेजी से विस्तार हुआ। आज देश में 15 लाख स्वास्थ्य प्रदाता हैं जिनमें से 13 लाख निजी क्षेत्र में हैं। समुचित मानक और नियम-विनिमय की कमी ने निजी स्वास्थ्य सेवा को पैर फैलाने का अवसर दिया। चूंकि निजी स्वास्थ्य सुविधाएं अधिकतर नगरीय क्षेत्रों में स्थित हैं इसलिए ग्रामीण एवं नगरीय स्वास्थ्य सुविधाओं की खाई और चौड़ी हुई। निजी स्वास्थ्य सेवा इतनी महंगी होती है कि 70% देशवासी उसे वहन करने में सक्षम नहीं होते। यद्यपि सरकार ने विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य बीमा योजनाएं शुरू की हैं लेकिन केवल 12% देशवासी ही स्वास्थ्य बीमा कराते हैं।

    महंगी निजी स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण ग्रामीण वर्ग चिकित्सा खर्च के लिए बड़े पैमाने पर कर्ज लेते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के औसतन 41% भर्ती होने वाले और 17% वाह्य रोगी कर्ज लेकर इलाज कराते हैं। इस प्रकार ग्रामीण गरीबी का एक बड़ा कारण सरकारी चिकित्सालयों की अव्यवस्था भी है। इसके लिए चिकित्सा पाठयक्रम भी उत्तरदाई हैं। चिकित्सा पाठयक्रमों में रोगों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पहलुओं पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है। मेडिकल शिक्षा का मुख्य बल इस बात पर रहता है कि बीमारी हो जाने पर उसका इलाज कैसे किया जाय। जो रोग गरीबी की देन हैं उनकी या तो उपेक्षा कर दी जाती है या कामचलाऊ इलाज किया जाता है। उदाहरण् के लिए महिलाओं में खून की कमी या बच्चों के कुपोषण को इलाज इंजेक्शन या विटामिन की गोली से किया जाता है न कि इनके सामाजिक हालात को समझने की कोशिश।

    ग्रामीणों को सस्ती और जवाबदेह चिकित्सा सहायता उपलब्ध कराने के लिए 12 अप्रैल 2005 से राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की शुरूआत की गई। इसके तहत प्रतिकूल स्वास्थ्य संकेतक वाले राज्यों पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। मिशन का उद्देश्य समुदाय के स्वामित्व के अधीन पूर्णतया कार्यशील विकेंद्रित स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराना है। मिशन स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद का 2.3% खर्च करना चाहता है जो कि फिलहाल 0.9% है। इस क्षेत्र में केंद्र सरकार अपना बजट बढा रही है लेकिन राज्य सरकारों को भी प्रत्येक वर्ष कुल बजट का कम से कम 10% खर्च करना होगा। वर्तमान समय में स्वास्थ्य के क्षेत्र में केंद्र और राज्य सरकार के खर्च करने का अनुपात 80:20 है। केंद्र सरकार इसे 60:40 तक लाना चाहती है। समग्रत: ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता तभी बढेग़ी जब बिजली, सड़क, संचार की सुविधाएं बढे, मेडिकल पाठयक्रमों को ग्रामीणोनमुखी बनाया जाए और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी निवेश बढे।
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    संदर्भ-
    • स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट.
    • ग्रामीण स्वास्थ्य पर फिक्की द्वारा कराए गए अध्ययन की रिपोर्ट.
    • राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण से प्राप्त आंकड़े
    • राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के आंकड़े
    फोटो साभार-https://www.driste.org

    लेखक- रमेश कुमार दुबे
    (लेखक पर्यावरण एवं कृषि विषयों पर कई पत्र-पत्रिकाओं में स्‍वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं)