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    राजनीति में संस्‍कृति के दूत: डा. जोशी

    joshiji1एक नेतृत्व जो स्वप्न देखता है समृध्द, सशक्त और विकसित सनातन भारत का। एक नेतृत्व जिसने हिंदुस्थान को उसके गौरवशाली एवं वैभवयुक्त विरासत के साथ महान राष्ट्र के रूप में पुन:स्थापित करने का स्वप्न देखा है। उस स्वप्न के क्रियान्वयन का संपूर्ण प्रारूप भी जिसके जीवन में सोते-जागते, उठते-बैठते सतत् दिखाई देता है, उस नेतृत्व का नाम है डा. मुरली मनोहर जोशी।खेत-खलिहान, गरीब-किसान, मजदूर-जवान, लघु उद्यमी-रेहड़ी, पटरी, झुग्गी-झोपड़ी सहित संपूर्ण भारतीय मध्य वर्ग के हितों की रखवाली में डा. जोशी का अब तक का जीवन व्यतीत हुआ है। भारतीय संस्कृति और संस्कार, लोकहित और सामाजिक सरोकार उनके जीवन के कण कण और क्षण क्षण में यूं रचे बसे हैं जैसे तेल और बाती। वे राष्ट्र, समाज, धर्म-संस्कृति, शिक्षा सहित भारत की संपूर्ण आध्यात्मिक, बौध्दिक चेतना का प्रतिनिधित्व अंतरराष्ट्रीय मंचों पर करने में सक्षम आध्यात्मिक राजनेता हैं। वैसे ही जैसे हमारी यह पवित्र पुरातन नगरी काशी युगों युगों से भारत की सांस्कृतिक-आध्यात्मिक चेतना का नेतृत्व करती आ रही है। काशी भारत के सनातन और मृत्युंजयी जीवन प्रवाह, हिंदू धर्म और संस्कृति के महान केंद्र के रूप में सदियों से विश्वविख्यात है। डा. जोशी का संपूर्ण जीवन भी काशी की सनातन धारा का अवगाहन करने वाला एक श्रेष्ठ, सरल-निर्मल जीवन है। आत्मा जैसे परमात्मा से मिलकर अपनी पूर्णता प्राप्त करती है, डा. जोशी का काशी आगमन भी कुछ वैसा ही है। संसार की सर्वाधिक प्राचीन आध्यात्मिक नगरी काशी पर आज दुर्भाग्य से माफियाओं की काली छाया पड़ गई है। इस नगरी को फिर से उसकी समस्त गरिमा, वैभव के साथ सांस्कृतिक नेतृत्व देने और माफियाओं से मुक्ति दिलाने मानो एक शिवदूत ही आज हमारे बीच डा. जोशी के रूप में आ पहुंचा है।काशी की विद्वत् परंपरा के प्रतीक
    काशी वह प्राचीन पुरातन महान नगरी है जिसने मध्ययुगीन बर्बर विदेशी आक्रमणों के समय समस्त हिंदुस्थान को ज्ञान और भक्ति का महान संबल प्रदान किया। इसी भूमि ने सनातन वैदिक हिंदू धर्म व भारत भूमि पर उद्भुत अन्य संप्रदायों यथा महावीर स्वामी प्रणीत जैन पंथ, भगवान बुध्द प्रणीत बौध्द पंथ, शाक्त पंथ, शैव पंथ, वैष्णव पंथ समेत विविध आध्यात्मिक परंपराओं की उपासना पध्दतियों से अनुप्राणित करोड़ों श्रध्दावान् नागरिकों के जीवन में घोर निराशा के कालखण्ड में भी आस और विश्वास की लौ जलाए रखी। तीर्थंकर स्वामी श्रेयांसनाथ, जगद्गुरू आद्य शंकराचार्य, जगद्गुरू रामानंदाचार्य, उनकी शिष्य परंपरा के सुप्रसिध्द संत कबीर, संत रविदास, रामभक्ति में संपूर्ण देश को आकंठ डुबो देने वाले गोस्वामी तुलसी दास, अघोरी बाबा कीनाराम, धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज, देवी अहिल्याबाई होल्कर आदि समेत कितनी ही ईश्वरीय विभूतियों को जीवन और जगत् के शाश्वत सत्य का ज्ञान देकर काशी नगरी ने इन्हीं मनीषियों के द्वारा दुराचारी विदेशी-विधर्मी शासन के विरूध्द देश में महान् जनजागरण और संघर्ष का मार्ग प्रशस्त किया। सदियों से यह देश भीषण निद्रा में पड़ा अपने स्वत्व और वास्तविक स्वरूप को भुलाए बैठा था। उसे निद्रा से जगाने के लिए देवाधिदेव भोलेनाथ ने अपनी विभूतियों का ही साक्षात् प्रकटीकरण कर काशी में डम डम डम डमरू के भैरवनाद का जो स्वर निनादित किया वही स्वर भारतेंदु हरिश्चंद्र, पंडित मदन मोहन मालवीय, श्रीमती एनी बेसेंट, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, चंद्रशेखर आजाद, राजेंद्र लाहिड़ी, स्वामी विशुध्दानंद, महामहोपाध्याय पं. गोपी नाथ कविराज, राष्ट्र रत्न बाबू शिव प्रसाद गुप्त, बाबू संपूर्णानंद, श्रीयुत् श्रीप्रकाश, आचार्य नरेंद्र देव, काशीराज विभूतिनारायण सिंह, डा. रघुनाथ सिंह, लाल बहादुर शास्त्री, पंडित कमलापति त्रिपाठी, राजनारायण, बाबू विष्णु राव पराड़कर, आचार्य बलदेव उपाध्याय, पं. सीताराम चतुर्वेदी, डा. विद्यानिवास मिश्र, प्रो. राजा राम शास्त्री, डा. भगवान दास अरोड़ा, श्री त्रिभुवन नारायण सिंह, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, पंडित किशन महाराज प्रभृति अनगिनत साहित्यिक, आध्यात्मिक, क्रांतिकारी और राजनीतिक विभूतियों के रूप में प्रस्फुटित हुआ। इस विभूतिमयी परंपरा ने अपने अपने कार्यक्षेत्र में राष्ट्रीयता और संस्कृति का जो भीषण शंखनाद किया, उससे विदेशी हुकूमत भी कांप उठी। उसी के फलस्वरूप पराधीन भारत ने 1947 में विदेशी हुकूमत के चोले को उतार फेंका। नवभारत के निर्माण की प्रक्रिया में इस विभूति परंपरा ने पूरा योगदान दिया और काशी का सनातन प्रवाह संपूर्ण विश्व का मार्गदर्शन करने अपने पूरे वेग से आगे बढ चला। इसी पुण्य परंपरा में काशी से जुड़ने वाला नाम है डा. मुरली मनोहर जोशी। डा. जोशी को 15वीं लोकसभा के चुनावी महासमर के लिए भारतीय जनता पार्टी ने वाराणसी संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से अपना उम्मीदवार घोषित किया है। संप्रति वे संसद में राज्यसभा के सदस्य हैं।

    देशभक्ति और समाज सेवा के जन्मजात संस्कार
    डा0 मुरली मनोहर जोशी का जीवन विज्ञान, धर्म, संस्कृति और परंपरा का अद्भुत समन्वय है। तरूणाई से ही वह हिन्दुत्व की वैचारिक भावभूमि पर भावी हिंदुस्थान के निर्माण का स्वप्न देखते थे। 5 जनवरी, 1934 को उनका जन्म दिल्ली में हुआ। उनके पिता श्रध्देय मनमोहन जोशी केंद्रीय लोकनिर्माण विभाग, दिल्ली के मुख्य अभियंता थे। डा. जोशी जब 24 दिन के शिशु थे तभी पिता का साया उनके सर से उठ गया। माता ने अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में ननिहाल के सुंदर संस्कारित, भारतीयता व धर्मनिष्ठा से ओतप्रोत वातावरण में उनका लालन-पालन किया। बालक मुरली के दिल्ली स्थित निवास के ठीक सामने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा लगती थी, दैव विधान देखिए कि बालक मुरली उस शाखा के आकर्षणपाश में बंध गए। कालांतर में संघ पथ ही उनका जीवनपथ बन गया। उनकी प्रारंभिक शिक्षा चांदपुर, बिजनौर में संपन्न हुई। अपने गृहजनपद अल्मोड़ा से इंटरमीडिएट और मेरठ से बी.एससी. की पढाई पूर्ण कर डा. जोशी उच्च अध्ययन के लिए प्रयाग आ गए। मां द्वारा रोपे गए संस्कार-बीज के कारण वे बचपन से मेधावी, देशभक्त और हिंदुत्वनिष्ठ-धर्म अनुरागी थे, यही कारण है कि अल्पकाल में ही उन्होंने अपनी विद्या और संगठन साधना से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अधिकारियों व देश की अन्य मूर्धन्य विभूतियों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। जहां एक ओर वे भारतीय स्वातंत्र्य समर के महानायकों ऋषि अरविंद, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, पंडित महामना मालवीय, महात्मा गांधी, डा0 हेडगेवार समेत अनेक चिंतकों-विचारकों से प्रभावित और प्रेरित हुए वहीं संघ के तत्कालीन सर संघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर और महान चिंतक विचारक, एकात्म मानवदर्शन के प्रणेता पं0 दीनदयाल उपाध्याय की छत्रछाया में उनके जीवन को देशभक्ति के कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिली। वे प्रयाग विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग में पढने आए तो फिर प्रयाग के ही होकर रह गए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने भौतिकी विज्ञान में एम.एससी. और स्पेक्ट्रोस्कोपी के क्षेत्र में डी.फिल. की उपाधि प्राप्त की। यहीं उन्हें मिले प्रो. राजेंद्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया जिन्होंने उनके जीवन पर अमिट छाप छोड़ी। आगे चलकर मुरली मनोहर जोशी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग में अध्यापन करने लगे और कालांतर में प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष बने। उनकी गिनती देश के विख्यात भौतिकशास्त्रियों में होने लगी। देश-विदेश की अनेक विज्ञान शोधपत्रिकाओं में उनके 100 से अधिक शोधपत्र भी प्रकाशित हुए। एक दर्जन से अधिक छात्रों ने उनके मार्गदर्शन में डी.फिल. और डी.एससी. के लिए उत्कृष्ट शोधकार्य पूर्ण किए। विज्ञान के क्षेत्र में उन्हें अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय महत्व के पुरस्कार प्राप्त हुए हैं।

    धर्म-कर्ममय सुसंस्कारित परिवार
    किशोरावस्था में ही डा. जोशी ने सारे देश को अपना घर और सारे समाज को अपना परिवार मानकर कार्य प्रारंभ किया। एक तरफ वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में विज्ञान के जटिल सवालों का गहन अनुशीलन कर रहे थे तो दूसरी ओर साइकिल से प्रवासकर इलाहाबाद के गांव-गांव में राष्ट्रभक्ति का संदेश भी गुजा रहे थे। विद्यार्थी जीवन में ही प्रयाग और आसपास उन्होंने संघ शाखाओं के विस्तार का कार्य किया।

    जीवन यात्रा के निर्वहन में उन्हें धर्मपत्नी के रूप में भारतीयता से ओत-प्रोत एक ऐसी गृहिणी का दैवनिर्धारित संग प्राप्त हुआ जिन्होंने उनकी जीवनयात्रा के कंटकों को सावधानी से बुहारते हुए राष्ट्र साधना के उनके व्रत को कभी खण्डित नहीं होने दिया। उनकी धर्मपत्नी श्रीमती तरला जोशी हिंदी की श्रेष्ठ साहित्यकार स्वर्गीया शिवानी की छोटी बहन हैं। विवाह के समय वे रायपुर, मध्यप्रदेश के स्नातकोत्तर महाविद्यालय में अंग्रेजी की व्याख्याता थीं। डा. जोशी की साधना को अबाधित रखने के लिए उन्होंने अपना अकादमिक जीवन त्याग दिया और पूर्णरूपेण पति-पथ पर चलते रहने को अपना जीवनध्येय बना लिया। डा. जोशी की दो बेटियां हैं, बड़ी बेटी प्रियम्वदा और छोटी बेटी निवेदिता। उनका संपूर्ण परिवार सनातन धर्म के संस्कारों में रचा-पगा और परंपरागत संदर्भों के साथ आधुनिकता का अद्भुत समन्वय है।

    जीवन यात्रा के प्रमुख पड़ाव
    डा0 मुरली मनोहर जोशी पिछले 7 दशकों से भारत के सामाजिक-राजनीतिक जीवन में सक्रियतापूर्वक अपनी भूमिका का संपूर्ण तेजस्विता से निर्वहन करते आ रहे हैं। सन् 1944 में वे संघ के संपर्क में आए और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। सन् 1948 में जब संघ पर प्रथम प्रतिबंध लगा तो पुलिसिया दमन के खिलाफ सत्याग्रह करते हुए उन्होंने अपनी गिरफ्तारी दी। सन् 1949 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की स्थापना में उन्होंने अग्रणी भूमिका का निर्वहन किया और 1953 में वे विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय महामंत्री नियुक्त हुए। 1952 में जब डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अखिल भारतीय जनसंघ की स्थापना की तो वे जनसंघ के कार्य में भी सक्रिय हुए और 1954 के गोरक्षा आंदोलन व 1955-56 के किसान आंदोलन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। 1957 में वे इलाहाबाद जनसंघ के संगठनमंत्री नियुक्त हुए। 1974 में जेपी आंदोलन में डा0 जोशी की भागीदारी हुई, आपातकाल के समय वे मीसा बंदी बने और 19 महीने तक कारावास झेला। जनता पार्टी की स्थापना में डा0 जोशी की भूमिका अग्रणी थी, आपातकाल के बाद अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र से निर्वाचित होकर वे पहली बार लोकसभा में पहुंचे और जनता पार्टी संसदीय दल के महासचिव नियुक्त हुए। भारतीय जनता पार्टी की स्थापना के समय वे अटलजी, आडवाणीजी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हुए और भाजपा के संस्थापक महामंत्री बने। सन् 1996 से लेकर सन् 2004 तक उन्होंने लोकसभा में इलाहाबाद क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। वे 1996 में अटलजी के नेतृत्व में भारत के गृहमंत्री बने। 1998 में उन्हें केंद्रीय मानव संसाधन विकास, विज्ञान एवं तकनीकी तथा महासागर विकास मंत्रालयों का कार्यभार सौंपा गया।

    देश को दिया परमाणु बम
    1998 में पोखरण के रण में दुनिया ने हिंदुस्थान की परमाणु ताकत का करिश्मा देखा। एक के बाद एक हमारे वैज्ञानिकों ने लगातार विस्फोट कर भारत को परमाणु शक्ति संपन्न देशों की पंक्ति में ला खड़ा किया। पोखरण के इन महान् क्षणों के पीछे की स्वदेशी वैज्ञानिक प्रतिभाओं की भूमिका को तब सारे विश्व ने पहचाना था। भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में परमाणु बम संपन्न भारत की बहुप्रतीक्षित वैज्ञानिक आकांक्षा को जब मूर्त रूप मिला तब देश के विज्ञान और तकनीकी मंत्रालय का कार्यभार डा0 जोशी ही संभाल रहे थे। नियति ने भारत को दुनिया के मानचित्र पर एक विकसित राष्ट्र के रूप स्थापित करने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी और डा0 मुरली मनोहर जोशी की त्रिमूर्ति को जो दायित्व सौंपा, उसे साकार करने की दिशा में इन नेताओं के समन्वित प्रयत्नों का सार्थक परिणाम देख संपूर्ण देश आनन्द से सराबोर हो उठा। हमारे मेधा संपन्न वैज्ञानिक लंबे समय से परमाणु परीक्षण के लिए व्याकुल थे लेकिन अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण हमारे राजनेताओं ने इसे ठंडे बस्ते में डाल रखा था। राजग सरकार की इस त्रिमूर्ति ने भारत को परमाणु शक्ति संपन्न बनाने की जनसंघ के समय की अपनी कल्पना को मूर्त रूप देने में एक मिनट भी नहीं गंवाया, सारी दुनिया देखती रह गई, वैदेशिक उपग्रहों के मशीनी जासूस ताकते रह गए और भारत ने पोखरण में आधुनिक समर्थ भारत के स्वप्न को सत्य कर दिखाया।

    अमेरिका, जापान सहित यूरोप के अनेक देशों ने जब भारतीय मूल की वैज्ञानिक प्रतिभाओं को अपने अपने देश की महत्वपूर्ण परियोजनाओं से निकाल बाहर करने की गीदड़ भभकी दी, संसद में तब डा. मुरली मनोहर जोशी ने विदेशों में कार्यरत भारतीय वैज्ञानिक प्रतिभाओं को आश्वस्त किया कि वे किसी दबाव में न रहें, भारत सरकार उन्हें संपूर्ण संरक्षण और वही सुविधा-सम्मान प्रदान करेगी जो उन्हें किसी विदेशी संस्था में कार्य करते हुए मिलता रहा है। इस प्रकार की आत्माभिमानी दृष्टि से कुछ ही समय में भारत विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में न सिर्फ आत्मनिर्भर हुआ वरन् ‘परम’ नामक सुपर कंम्प्यूटर का निर्माण कर भारत ने संसार को यह भी बता दिया कि अब दुनिया का अंधानुकरण नहीं होगा और न किसी के एकाधिकार और अन्याय को ही सहन किया जाएगा, भारत अब अपना भविष्य पथ स्वयं निर्धारित करेगा।

    केंद्रीय मंत्री के रूप में डा. जोशी की प्रेरणा और मार्गदर्शन में भारतीय जैव विविधता और प्राकृतिक देशी जड़ी-बूटियों, आयुर्वेद आदि के क्षेत्र में पहली बार देश में सरकारी स्तर पर बृहत् अनुसंधान कार्य प्रांरभ हुए। हल्दी, नीम, तुलसी आदि के औषधीय गुणों सहित लगभग एक लाख प्रकार के परंपरागत जैविकीय-औषधीय पादपों, उनकी प्रजातियों के औषधीय गुणों पर आधारित ज्ञान और नुस्खों के पेटेंट को अपने पास सुरक्षित रखने के प्रयास प्रारंभ हुए। इसके लिए विशाल डिजिटल, कंप्यूटरीकृत संदर्भ संग्रह तैयार किया गया ताकि कोई विदेशी कंपनी इसे अपनी खोज बताकर पारंपरिक भारतीय ज्ञान पर भारतीयों के अधिकार को चुनौती न दे सके। प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने तब जय जवान, जय किसान के साथ जय विज्ञान का नारा देकर अपने राजनीतिक सहयोगी डा0 मुरली मनोहर जोशी सहित देश की तमाम वैज्ञानिक प्रतिभाओं को अनूठा साधुवाद प्रदान किया।

    आतंकवाद को मांद में ललकारा
    आतंकवाद के खिलाफ संपूर्ण भारत में पहली बार राजनीतिक स्तर पर यदि कोई विराट् जन जागरण अभियान चला तो यह डा0 जोशी के नेतृत्व में कन्याकुमारी से कश्मीर तक निकाली गई एकता यात्रा ही थी। इस एकता यात्रा ने हिंदुस्थान की राजनीति में परिवर्तन के नए दौर की शुरूआत की। डा0 मुरली मनोहर जोशी, जी हां यही वह नाम है जिसने भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में सन् 1992 की 26 जनवरी को आतंकवादियों की चुनौती का जवाब देते हुए कश्मीर घाटी में श्रीनगर के सुप्रसिध्द लाल चौक पर तिरंगा फहराया।

    अपने ही देश में मातृभूमि के लाखों सपूत पराए क्यों हो गए? ये वो सवाल था जिसे डा. जोशी ने तत्कालीन छद्म सेकुलर नेताओं से पूछा तो अपने स्वभाव और आचरण से हिंदू और हिंदुत्व विरोधी नेताओं ने चुप्पी साध ली। सिर्फ हिंदू होने के कारण कश्मीर के विस्थापितों को जिस प्रकार की दर्दनाक और भयानक त्रासदी झेलनी पड़ी, विस्थापितों की वह पीड़ा आतंकवाद की विभीषिका का वर्णन आज भी कर रही है। लेकिन आतंकवाद के दंश से पीड़ित कश्मीरी समाज की समस्या की परवाह किसने की। हिंदुस्थान की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी के नेत्ृत्व को छोड़कर कश्मीरी हिंदुओं के जख्मों पर मरहम लगाने कोई और सामने नहीं आया। जब सारे कश्मीर में पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद अपनी पाशविकता का नंगा नाच कर रहा था, जब सरे आम भारतीय संप्रभुता और अभिमान के राष्ट्रीय प्रतीक हमारे ध्वज तिरंगे को जलाया जाने लगा, धार्मिक पहचान के आधार पर मां-बेटियों की अस्मत से खिलवाड़ किया गया, जब लाखों कश्मीरी हिंदू घाटी छोड़कर दर दर भटकने को बाध्य कर दिए गए, तब जिस एक भारतीय राजनेता ने कश्मीरी पंडितों के आर्तनाद को सुना और कश्मीर की पीड़ा की ओर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान आकृष्ट कराया, वह नेता हैं डा0 मुरली मनोहर जोशी।

    आज जब आतंकवाद रूपी राक्षस कश्मीर से निकलकर पूरे देश को निगल जाने पर आतुर है तब डा. जोशी की आतंकवाद विरोधी राष्ट्रव्यापी एकता यात्रा और आतंकवाद के फन को कठोरता पूर्वक कुचलने के उनके वज्र संकल्प की ओर देश का ध्यान सहज ही चला जाता है। आज भी वह देश को आतंकवाद के विरूध्द सतत् सावधान करने में जुटे हैं। आतंकवाद के सभी रूपों पर चाहे वह नक्सली आतंक हो या जिहादी आतंक या फिर विदेशी पांथिक मिशनरियों द्वारा प्रेरित आतंकवाद, सभी पर डा0 जोशी ने सदैव निर्ममता से प्रहार किया है। उनके संपूर्ण राजनीतिक जीवन का यह अमिट संदेश है कि देश की एकता-अखण्डता, आन-मान और स्वाभिमान के साथ किसी प्रकार का समझौता नहीं होना चाहिए। उनका संदेश यह भी है कि आतंकवाद के विरूध्द संघर्ष में सुरक्षा बलों और समाज के मनोबल को बढ़ाने के लिए देश के राजनीतिक नेतृत्व को सदा पहल करनी चाहिए।

    इस संदर्भ में जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी की बलिदानी परंपरा सहज ही उल्लेखनीय है। पूर्ववर्ती जनसंघ और वर्तमान भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक डा0 श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कश्मीर में बलिदान दिया और पंडित दीनदयाल उपाध्याय भी उसी बलिपथ पर चलकर अमर हो गए। डा0 मुखर्जी के नारे ‘एक देश में दो निशान, दो विधान और दो प्रधान नहीं चलेगे, नहीं चलेंगे’ का नारा एक बार फिर गुंजायमान करते हुए डा0 जोशी ने जम्मू-कश्मीर से धारा 370 के खात्मे और विस्थापित कश्मीरी पंडितों के घाटी में पुनर्वास के सवाल को अपनी एकता यात्रा द्वारा राष्ट्रीय मुद्दे के रूप में परिवर्तित किया। श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहरा कर आतंकवाद के गढ़ों को उन्होंने स्पष्ट दो टूक संदेश दिया कि उनकी बर्बरता के सामने हिंदुस्थानी कभी सर नहीं झुकाएंगे और हर हालत में आतंकवाद के दानवों का संपूर्ण विनाश कर ही दम लेंगे। भारतीय सैन्य बलों के अनेक शीर्षस्थ अधिकारियों ने तब यह कह कर डा. जोशी को धन्यवाद ज्ञापित किया कि कोई तो है जो दिल्ली से आकर कश्मीर घाटी में खम ठोंकने की हिम्मत रखता है और खुलेआम ऐलान भी करता है कि कश्मीर हमारा है।

    भारतीय शैक्षिक ढ़ांचे का कायाकल्प
    केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल में डा0 जोशी ने भारतीय शिक्षा और उसके संपूर्ण ढांचे का कायाकल्प प्रारंभ किया। इस कार्य में उन्हें वामपंथी कुचक्र से भी काफी लोहा लेना पडा। शिक्षा क्षेत्र में उन्होंने संविधान में संशोधन के द्वारा 6 वर्ष से 14 वर्ष के बालक-बालिकाओं को बिना भेदभाव के नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार सुलभ कराया। उन्होंने भारत की धरती से निरक्षरता के अभिशाप को दूर करने के लिए दुनिया के सबसे बड़े शैक्षिक अभियान की शुरूआत की। इसे मूर्त रूप देने के लिए ‘सर्व शिक्षा अभियान’ का खाका डा. जोशी ने ही खींचा और इसके द्वारा बुनियादी प्राथमिक शिक्षा की बदहाली दूर करने का ठोस प्रयास प्रारंभ किया। इस दूरगामी योजना को आगे चलकर यूनेस्को ने विश्व के सर्वश्रेष्ष्ठ शिक्षा अभियानों में एक माना। इसी योजना की देन है कि देश के तमाम प्राथमिक विद्यालयों में रिक्त शिक्षकों के पदों पर नियुक्ति के लिए विशिष्ट बी.टी.सी. का सफल प्रयोग प्रारंभ हुआ। किशोर बच्चों में विज्ञान के प्रति आकर्षण और रूझान जगाने के साथ बाल भवन की गतिविधियों द्वारा भारतीय मूल्य और संस्कारों का प्रचार विदेशों में भी किया जाने लगा।

    स्वतंत्रता के बाद माध्यमिक और उच्च कक्षाओं में पढाए जा रहे मूल्यहीन, स्वाभिमान शून्य, भारत तथा भारतीय परंपराओं-महापुरूषों के प्रति हीनभाव भरने वाले जहरीले पाठयक्रम को भी सुधारने का महान कार्य डा. जोशी ने प्रारंभ किया। उन्होंने भारतनिष्ठ, योगयुक्त, मूल्यपरक-रोजगारपरक शिक्षा व्यवस्था के निर्माण के लिए समस्त शिक्षाविदों का आह्वान किया। कांग्रेस और वामपंथी गठजोड़ ने उनके प्रयासों को शिक्षा का भगवाकरण कहकर नकारा तो इसके विपरीत देश के तमाम बुध्दिजीवियों सहित सर्वोच्च न्यायालय ने भी डा0 जोशी के प्रयासों को सही अर्थों में शिक्षा का राष्ट्रीयकरण करार दिया।

    ये कांग्रेस और वामपंथी गठजोड़ ही था जो देश के लाखों विद्यालयों में बच्चों को पीढ़ी दर पीढ़ी ये शिक्षा दे रहा था कि आर्य आक्रमणकारी थे, वेदकाल में ब्राह्मण गोमांस खाते थे, गुरू तेगबहादुर लुटेरे थे, राणा प्रताप और शिवाजी देश की एकता में बाधक थे आदि आदि। डा. जोशी ने इस जहरीले पाठ्यक्रम को खत्म करने का सफल उपक्रम किया। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में डा0 जोशी ने देश में शोध और अनुसंधान कार्य के नए युग की शुरूआत की। उच्च शिक्षा के सभी क्षेत्रों में इस दृष्टि से पर्याप्त धन अवमुक्त हुआ और कोई भी अनुसंधान परियोजना धन के अभाव में रूकने नहीं दी गई।

    इसी के साथ दैव वाणी संस्कृत और संस्कृत शिक्षा की दुर्दशा को दूर करने के संकल्प को पूर्ण करने की दिशा में भी उन्होंने सार्थक प्रयास किए। समूचे देश में संस्कृत को बोलचाल की भाषा बनाने के लिए ‘वदतु संस्कृतम्’ योजना की शुरूआत की। संस्कृत में छुपी अथाह ज्ञानराशि और उसके व्यावहारिक प्रयोगों के अनुशीलन का महत् कार्य भी उनके मार्गदर्शन में प्रारंभ हुआ। विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में इस निमित्त जब ज्योतिषशास्त्र को उन्होंने वरीयता दी तब देशभर में हिंदू संस्कृति के प्रति द्वेषभाव रखने वाले कथित बुध्दिजीवियों ने हंगामा खड़ा कर दिया। किंतु सभी विरोधों को दरकिनार कर उन्होंने भारत को उसकी नींव पर खड़ा करने के अभियान को रूकने ना दिया। देश का दुर्भाग्य कि डा. जोशी द्वारा शुरू किए गए शिक्षा क्षेत्र के भारतीयकरण अभियान पर सोनिया नेतृत्व वाली यूपीए सरकार का ग्रहण लग गया। डा. जोशी द्वारा शुरू किए गए सभी सुधार कार्यों पर कांग्रेस नेतृत्व ने सत्ता में आते ही ताला मार दिया। आज समय आ गया है कि कांग्रेस से उसके सभी राष्ट्रीयता विरोधी कार्यों का हिसाब लिया जाए। काशी की जनता जिस विचार प्रवाह का प्रतिनिधित्व करती आई है, आज उस पर यह दायित्व आन पड़ा है कि यूपीए को उसकी करनी का जवाब दे।

    श्रीरामजन्मभूमि से श्रीरामसेतु तक बदल गया इतिहास
    डा. जोशी ने भारत के इतिहास को सदैव भारतीय दृष्टि से देखने और पढ़ाने और इसके नवनिर्माण का आग्रह रखा और समय आने पर स्वयं इतिहास निर्मित करके भी दिखा दिया। 6 दिसंबर 1992 के दिन अयोध्या में सैकड़ों वर्षों के गुलामी के ढांचे को कारसेवकों ने ढहा दिया। डा. जोशी ने इस घटना को इतिहास की अंगड़ाई के युगीन संदर्भ में परिभाषित किया। उनके लिए ये हिंदुस्थान के सुषुप्त अभिमान का स्वत:स्फूर्त प्रकटीकरण था और इसे होना ही था क्योंकि इसे रोकने का कोई भी ईमानदार प्रयत्न कभी भी सरकारों और मुस्लिम नेताओं द्वारा नहीं किया गया। भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष के रूप में डा. जोशी ने संसद में कानून पारित कर श्रीरामजन्मभूमि पर मंदिर निर्माण की मांग उठाई और कहा कि मुकदमेबाजी से इसका समाधान संभव नहीं है। कानून बनाकर ही इस समस्या का निपटारा किया जा सकता है। वे आज भी अपने इस निर्णय पर अडिग हैं कि अयोध्या में प्रभु श्रीराम का भव्य मंदिर बनना ही चाहिए। अच्छा हो कि मुस्लिम नेतृत्व ही आगे बढ़कर आमराय निर्मित करे ताकि राममंदिर का निर्माणकार्य प्रशस्त हो सके।

    डा. जोशी के लिए कभी भारत की परंपरा मिथक या कल्पना नहीं रही वैसे ही जैसे हिंदुस्थान की जनता ने वेद, पुराण, राम और कृष्ण सहित अपनी परंपरा को पंथनिरपेक्ष राजनेताओं या फर्जी बुद्धिजीवियों के समान कभी भ्रांत या मिथक नहीं माना। ये डा. जोशी ही थे जिन्होंने वैदिक और पौराणिक इतिहास को सत्य मानने के लिए समूचे विश्व के बुध्दिजीवियों को बाध्य किया। उन्होंने केंद्र में मंत्री रहते हुए न सिर्फ वेदों में वर्णित सरस्वती नदी के अनुसंधान और उसके पुनरुत्खनन में रुचि दिखाई वरन् समुद्र में डुबी द्वारका के अवशेषों को भी खोज निकालने के लिए सामुद्रिक पुरातत्व विशेषज्ञों को प्रेरित किया। उनके कार्यकाल में समूची भारतीय इतिहास कांग्रेस इस बात पर एकमत हो गई कि आर्य मूलत: भारतीय थे, आर्यों के आक्रमण का सिध्दांत अंग्रेजी व सेकुलर इतिहासकारों का गढ़ा हुआ सफेद झूठ है। डा. जोशी ने संस्कृति मंत्री श्री जगमोहन के साथ मिलकर विलुप्त सरस्वती के साथ श्री रामजन्मभूमि मंदिर के पुरावशेषों के सच को समूचे विश्व के सामने उजागर कर दिया। उन्हीं के मार्गदर्शन में वैज्ञानिकों व पुरातत्व विशेषज्ञों ने द्वारका के निकट समुद्र में एक 9 हजार वर्ष प्राचीन नगर के पुरावशेषों को बाहर लाकर जहां भगवान श्री कृष्ण और महाभारत को ऐतिहासिक सत्य सिध्द किया। इसी भांति रामेश्वरम् और श्रीलंका के बीच भगवान श्रीराम द्वारा बनाए गए रामसेतु की सच्चाई बताने वाले नासा तथा भारतीय संचार उपग्रहों द्वारा खींचे गए चित्रों ने भी जनमानस में अपनी श्रेष्ठ विरासत के प्रति गहन आकर्षण पैदा दिया। ऐसे कितने ही कार्यों के संदर्भ में अभिनव दृष्टिकोण अपनाकर डा. जोशी ने भारत के समूचे इतिहास को शुध्द करने के के क्रांतिकारी कार्य का सूत्रपात भी किया।

    सन् 2005 में जब केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने सेतुसमुद्रम् परियोजना की आड़ में रामसेतु को खत्म करने की साजिश रची तो ये डा. जोशी ही थे जिन्होंने सरकार के खिलाफ संसद से सड़क तक मोर्चा खोलने का ऐलान किया। आज जब ये बात दर्पण की तरह साफ हो गई है कि सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने स्पष्टत: उच्चतम न्यायालय में शपथपूर्वक कहा था कि राम तो कभी पैदा ही नहीं हुए तो रामसेतु कहां से आ गया। ऐसे समय में हमें डा. मुरली मनोहर जोशी जैसे मेधा संपन्न और भारत के सनातन सत्य के प्रति सदा जागरूक रहने वाले नेतृत्व की संसद में उपस्थिति का महत्व समझ में आता है। भारत की संसद में डा. जोशी के विजयी मुद्रा में रहने मात्र से ही भारत हितों के सौदागरों के अंतस में भयकंपन्न होने लगता है और राष्ट्रप्रेमी जनता आह्लादित हो उठती है।

    गंगा पुत्र हैं डा. जोशी
    पतित पावनी मां गंगा के साथ डा. मुरली मनोहर जोशी के सम्बंध को परिभाषित करते समय इतना ही समझना पर्याप्त है कि वे वास्तविक अर्थों में गंगापुत्र हैं। उनका मूलप्रदेश जो कभी उत्तरप्रदेश का अंग था, आज उनके प्रयासों से एक अलग राज्य उत्तराखंड के रूप में भारत के विकास में तीव्र योगदान करने लगा है। उत्तराखंड गंगा के उद्गम सहित अन्य पवित्र तीर्थ क्षेत्रों की श्रृंखला के कारण हिंदुओं के लिए अनादि काल से आकर्षण का केंद्र तो है ही, तमाम श्रेष्ठ विभूतियों के साथ यह डा. जोशी के पुरखों की निवासभूमि भी है। उसे पृथक् राज्य का दर्जा दिलवाकर मानो एक पुत्र ने पितरों के ऋण से उऋण होने की ओर कदम बढ़ाया। गंगा तट पर बसा प्रयाग तीर्थ जो डा. जोशी की कर्म साधना का साक्षी है, आज देश में उत्कृष्ट शिक्षा और सर्वसुविधा संपन्न केंद्र के रूप में अपने खोए गौरव को उन्हीं के प्रयासों से पुन: प्राप्त कर सका है। अब बारी सर्व विद्या, सभी आध्यात्मिक साधना पध्दतियों से युत भारत की सांस्कृतिक राजधानी वाराणसी की है। डा. जोशी को भारतीय जनता पार्टी ने वाराणसी का उम्मीदवार बनाया है तो यह विधाता की उसी महान योजना का हिस्सा ही है जिसके कारण उत्तराखण्ड और प्रयाग को विकास के स्वर्णिम अवसर सुलभ हो सके। काशी का गंगा तट अपनी निर्मलता और अविरलता को पाने के लिए फिर से भगीरथ जैसे एक तपस्वी की आध्यात्मिक-राजनीतिक साधना की बाट जोह रहा है।

    यह भी सच ही है कि मां गंगा के प्रवाह को टिहरी बांध के पीछे पूर्णरूपेण बांधने का जो पापकर्म कांग्रेस नेतृत्व ने 70 के दशक में प्रारंभ किया उस पाप के प्रक्षालन के लिए नियति ने डा. जोशी को ही साधन बनाया है। राजग सरकार के समय जब टिहरी बांध पूर्णरूपेण बनकर खड़ा हो चुका था, तब डा. जोशी ने एक विशेषज्ञ समिति की अध्यक्षता करते हुए प्रधानमंत्री से गंगा की अविरल धारा को मुक्त रूप से प्रवाहित होने देने की सिफारिश की। डा. जोशी ने इसके लिए पहाड़ों को काटकर गंगा के प्रचंड प्रवाह को मार्ग देने की 400 करोड़ रूपये की बृहत् योजना का प्रस्ताव भी केंद्र सरकार के सम्मुख रखा। देश का दुर्भाग्य कि 2004 में भाजपा गठबंधन की जगह कांग्रेस गठबंधन ने सत्ता संभाल ली और गंगा के प्रवाह को अविरल बनाने की डा. जोशी की संपूर्ण योजना पर विराम लग गया। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह अब गंगा को राष्ट्रीय नदी बनाने की घोषणा कर रहे हैं लेकिन गंगा का प्रवाह जब तक अविरल नहीं होता, इस घोषणा से क्या होने वाला है। डा. जोशी का स्पष्ट मानना है कि जिस दिन केंद्र सरकार में हम लौटेंगे, उसी समय अविरल-निर्मल गंगा के लिए अपनी रिपोर्ट लागू करने का उपक्रम प्रारंभ कर देंगे। स्पष्ट है कि काशी के नवविहान और अविरल-निर्मल गंगा में स्नान का ऋषि-स्वप्न एक साथ पूर्ण करने का दायित्व भी बाबा भोलेनाथ की कृपा से डा. जोशी के कंधों पर ही आने वाला है।

    आर्थिक उदारीकरण के छलावे से किया सावधान
    1991 में हिंदुस्थान को आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण की आंधी ने झकझोरना शुरू किया। अपने ही देश का नेतृत्व तब इसे यह कहकर महत्व देने लगा कि इससे हिंदुस्थान के विकास का बंद महाराजमार्ग खुल जाएगा, डा0 जोशी ने तभी इसके पीछे के विदेशी षड्यंत्रों को पहचान लिया था। उन्होंने आर्थिक उदारीकरण को छलावा कहा और प्रस्थापना दी कि विदेशी कंपनियां यदि कंम्प्यूटर चिप्स देने के लिए भारत आती हैं तो स्वागत है लेकिन इनकी मंशा तो कुछ और है। ये हमें पोटैटो चिप्स यानी आलू चिप्स और टमाटर चटनी देकर फुसलाना चाहती हैं। ये हमारी खेती और हमारे खुदरा बाजार पर आंख गड़ाए हैं, ऐसे में इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों से देश को सावधान रहने की जरूरत है। उन्होंने इसके विरूध्द हिंदुस्थान में स्वदेशी आंदोलन का नेतृत्व संभाला।

    लोकमान्य तिलक के मंत्र स्वराज्य हमारा जन्म सिध्द अधिकार है, गांधी के स्वप्न रामराज्य और महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के वैचारिक स्वदेशी आंदोलन का डा0 जोशी ने अपने जीवन में पूर्ण अनुकरण किया। बहुराष्ट्रीय कंपनियों और उनकी एकाधिकारवादी बाजारू संस्कृति पर उन्होंने अपने बौध्दिकों द्वारा जबर्दस्त हमला बोला और आज भी अपनी वैचारिक संस्थापनाओं पर कायम हैं। समय साक्षी है कि जाने कितने योध्दा अब तक इस बाजारू पश्चिमी संस्कृति और आर्थिक उदारीकरण की चकाचौंध में अपनी वैचारिक प्रखरता गंवा बैठे, डा0 जोशी आज भी आर्थिक उदारीकरण को पश्चिमी देशों का षड्यंत्र मानते हैं। दुनिया की महाशक्तियों ने लोकतंत्र के युग में अपनी औपनिवेशिक मानसिकता को छुपाते हुए सारी दुनिया पर दादागिरी चलाने के लिए अर्थ व्यवस्था और बाजार पर ध्यान केंद्रित किया है। आज जब पश्चिमी अर्थ व्यवस्था भयानक मंदी के दुष्चक्र में फंस गई है, डा. जोशी पश्चिमी इसके विपरीत भारतीय वैकल्पिक जीवन और अर्थ व्यवस्था को इसका उचित विकल्प बताते हैं। गांधी, जेपी, लोहिया और पं. दीनदयाल उपाध्याय के आर्थिक चिंतन को मथकर उन्होंने भारत के भविष्य पथ के बारे में अपनी जो राय बहुत पहले पक्की की वे आज भी उसी पर दृढ हैं।

    उन्होंने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उन षड्यंत्रों के विरूध्द देश को सफलतापूर्वक मुक्ति दिलाई जब पेटेंट कानूनों, एग्री- बिजनेस और खुदरा बाजार में बड़ी कंपनियों को काम करने की छूट दे करके मनमाने तरीके से किसानों का अपने बीज पर से और छोटे व्यापारियों का अपने व्यवसाय पर से अधिकार छीना जाने वाला था, देश के वैज्ञानिकों, औषधि निर्माताओं, छोटे व्यापारियों के काम पर बहुराष्ट्रीय-अतिकाय कंपनियों का ग्रहण लग गया था, तब डा. जोशी ने इसके खिलाफ सफलतापूर्वक देशभर में संघर्ष छेड़ा। पेटेंट कानूनों को काफी हद तक भारतीय हितों के विपरीत न जाने देने में उन्होंने महती भूमिका का निर्वहन किया। आज भी उनका यह संघर्ष जारी है।

    एकात्म मानव दर्शन के व्याख्याता
    पंडित दीनदयाल उपाध्याय हिंदू चिंतन पर आधारित जिस एकात्म मानव दर्शन के उद्गाता थे, डा. जोशी उसी दर्शन के व्याख्याता हैं। वह जानते हैं कि एकात्म मानव दर्शन का राजनीतिक प्रयोग भारत में किस प्रकार सफलीभूत किया जा सकता है। इस दृष्टि से अखिल भारतीय जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी की मूल वैचारिक थाती के वे वास्तविक प्रतिनिधि हैं। बीते तीस सालों से उन्होंने देश के विकास पथ के बारे में पंडित दीनदयाल उपाध्याय प्रणीत एकात्म मानव दर्शन पर आधारित विचार पथ का ही अवलंबन किया है और बार बार इस बात को दुहराया है कि हिंदुस्थान अपने परंपरागत ज्ञान, कौशल, तकनीकी, हुनर, संस्कृति, धर्माधिष्ठित जीवनशैली, ग्राम, कृषि, अपार पशुधन, गोधन, पवित्र प्रवाहमान नदियों, अकूत खनिज संपदा, समृध्द जैव विविधता के आधार पर न सिर्फ अपने करोड़ों नागरिकों का पेट भर सकता है वरन् सारी दुनिया की आवश्यकताओं की पूर्ति भी कर सकता है। उन्होंने बुनकरों, मछुआरों, दस्तकारों, कुटीर और लघु उद्यमियों, ग्राम आधारित उद्यमों के पक्ष को संसद में सदैव मजबूती से रखा है और जब कभी भारतीय अर्थ व्यवस्था की नींव बने इन वर्गों के हितों पर आघात हुआ है, उन्होंने संसद के भीतर और सड़क पर आंदोलनात्मक ढंग से कार्रवाई में देर नहीं की है।

    जब वे भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष बने और तब जब केंद्र सरकार के कैबिनेट मंत्री बने, अपनी वैचारिक संस्थापनाओं से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। विकास के भारतीय पथ की ही उन्होंने सदा पैरवी की। और तो और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी शिक्षण संस्थानों को भी उन्होंने गांव-गरीब के अनुकूल शैक्षिक खर्च कम करने के निर्देश दिए। आज जो भारतीय प्रबंधन संस्थान अपने प्रत्येक विद्यार्थी से तीन से साढे तीन लाख तक फीस प्रति वर्ष वसूल कर रहे हैं, डा. जोशी के मंत्रित्वकाल में उन्हें अपनी फीस 30 से 35 हजार वार्षिक करने को बाध्य कर दिया गया था। डा. जोशी का सदा से मानना रहा है कि प्रतिभा किसी बिरादरी या धन पर आश्रित नहीं रहती, इसलिए प्रतिभाओं को उनकी जाति और आर्थिक स्थिति को दरकिनार कर आगे बढ़ने का मौका देना चाहिए। हिंदुस्थान की आर्थिक नीति किस प्रकार की हो, नीति के आधारबिंदु क्या हों, इस निमित्त डा. जोशी का निम्नांकित संकल्प संक्षेप में उनके विचारों की स्पष्ट झलक हमारे सामने प्रस्तुत करता है-

    कर्ज मुक्त किसान, भूख मुक्त हिंदुस्थान
    सशक्त सैन्य कमान, रोजगार युक्त नौजवान

    विकास की अवधारणा को नवीन संदर्भ में परिभाषित करते हए डा. जोशी ने पोषणक्षम उपभोग की अवधारणा का प्रतिपादन किया जो इस सत्य पर आधारित है कि प्रकृति अपने संपूर्ण अवयवों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में समर्थ है किंतु यह हमारे लालच और भोगजनित लूट को लंबे समय तक सहन नहीं कर सकती और अंतत: दुष्परिणाम सामने आता ही है। वे कहते हैं कि विश्व की जनसंख्या का एक नगण्य-सा अंश अमर्यादित उपभोग कर रहा है। विकसित देशों की 20 प्रतिशत जनसंख्या विश्व के कुल 86 प्रतिशत संसाधनों का उपभोग कर रही है। अमीरी और गरीबी का अंतर आज पटने की बजाए बढ़ता जा रहा है। आर्थिक व्यवस्था में कहीं न कहीं भीषण त्रुटि है, इसका सहज अनुमान साधारण जन को भी हो रहा है। डा. जोशी उस त्रुटि की पहचान कर चुके हैं, बस उसे सुधारने का मौका मिलने की देरी है।

    पिछले तीन दशकों में अनेक अवसरों पर और बीते 19 वर्षों से लगातार डा0 जोशी ने देश और दुनिया को यूरोपीय माडल पर आधारित वर्तमान भौतिक विकास पथ के द्वारा हो रहे विनाश की ओर सावधान किया है। आज जब धरती वैश्विक तापमान वृध्दि के बुखार से कांपने लगी है, पारिवारिक मूल्यों की जगह बाजार संस्कृति का बोलबाला होता जा रहा है, पश्चिमी देशों को छोड़िए, अपने देश भारत में ही संस्कृति-संस्कार, धर्म-उपासना और दादा-दादी से युक्त संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और इन सबके कारण देश एक अजीब प्रकार के सामाजिक संत्रास, टूट और घुटन के वातावरण में जीने को विवश है तब उनके द्वारा प्रतिपादित विचार संपूर्ण मानवता को भारत की प्राचीन ग्राम, कृषि और परिवार आधारित संस्कृति की ओर सहज ही उन्मुख करते हैं। डा0 जोशी ने स्वदेशी मूल्यों पर आधारित विकास का समर्थन किया है, ऐसा विकास जो हमारे संपूर्ण पर्यावरणीय तंत्र और सांस्कृतिक जीवन प्रवाह को ही नष्ट कर दे, आखिर उसे कितने दिन तक हम और हमारी प्रकृति सहन कर सकती है। सारा विश्व आर्थिक मंदी और ग्लोबल वार्मिंग अर्थात वैश्विक तापमान वृध्दि की जिस विभीषिका से आज दो चार हो रहा है उससे बचने के उपायों और नीति निर्धारण में डा. मुरली मनोहर जोशी के चिंतन और विचारों के महत्व की सराहना अंतरराष्ट्रीय जगत सहित भारत के अनेक मूर्धन्य महापुरूषों ने की है। भारत के तमाम शीर्ष वैज्ञानिक चाहे पूर्व राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम हों या विख्यात भौतिक विज्ञानी प्रो एम.जी.के. मेनन हों, विख्यात अंतरिक्ष वैज्ञानिक, इसरो के पूर्व चेयरमैन डा0 कस्तूरीरंगन हों अथवा सीएसआईआर के पूर्व चेयरमैन प्रो. एस.के. जोशी अथवा सुप्रसिध्द जैव विज्ञानी वंदना शिवा, समाजविज्ञानी प्रो. वी.आर. पंचमुखी आदि सभी उन्हें वैज्ञानिक राजनेता के रूप में ही संबोधित करते आए हैं। उपरोक्त समेत देश के अनेक विशेषज्ञ चिंतकों-विद्वानों ने स्पष्टत: बार बार रेखांकित किया है कि वर्तमान वैश्विक संकटों के बीच भारत की सनातन आध्यात्मिक विचारधारा के अनुसार संकटों का समाधान सुझाने वाला अगर कोई एकमेव राजनेता हिंदुस्थान की धरती पर विचरण कर रहा है तो वह सिर्फ डा0 मुरली मनोहर जोशी ही हैं।

    जहां जोशी वहां विकास
    डा. मुरली मनोहर जोशी 15वीं लोकसभा में प्रवेश के लिए आसन्न लोकसभा चुनावों में धर्म प्राण नगरी काशी से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार हैं। लोकसभा क्षेत्रों के विगत परिसीमन के आधार पर पुनर्गठित संसदीय क्षेत्रों की सूची में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व मंडल ने उन्हें वाराणसी संसदीय क्षेत्र से चुनाव मैदान में उतरने के लिए निर्देशित किया है। वे भारतीय जनता पार्टी और राजग की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी श्री लालकृष्ण आडवाणी, पार्टी अध्यक्ष श्री राजनाथ सिंह सहित उन वरिष्ठ नेताओं की सूची में शामिल हैं जिन्हें पार्टी ने समवेत स्वर में चुनाव मैदान में उतारने का निर्णय किया है। पूर्व में इलाहाबाद संसदीय क्षेत्र का संसद में प्रतिनिधित्व करते हुए डा. मुरली मनोहर जोशी ने अपनी संसदीय क्षेत्र को देश के सर्वाधिक विकसित संसदीय क्षेत्रों की श्रेणी में अग्रणी बनाया। उनके विकास प्रयत्नों के अन्तर्गत इलाहाबाद में यमुना नदी पर निर्मित अतिविशालकाय नैनी सेतु, इंडियन इंस्टीट्यूट आफ इन्फारमेशन टेक्नोलोजी यानी टि्रपल आई.टी., उच्चीकृत एम.एल.एन.आर. अर्थात नेशनल इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलाजी, साइंस सिटी, राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन ओपन युनिवर्सिटी, के.एस.कृष्णन भू-चुंबकीय अध्ययन संस्थान सहित सैकड़ों छोटी-बड़ी उपलब्धियां दर्ज हैं। इसी श्रेणी में उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने के विधेयक को संसद में प्रस्तुत किया और काशी हिंदू विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलाजी को आई.आई.टी. बनाए जाने की अनुशंसा को भी अपने कार्यकाल में सम्मति प्रदान कर दी थी।

    डा. जोशी अपनी संपूर्ण प्रतिभा, अपने गरिमामय व्यक्तित्व और व्यापक राजनीतिक-सामाजिक-शासकीय अनुभव के साथ काशी आए हैं, उनका जीवन कृति रूप दर्शन है, वे सर्वसुलभ हैं, जन समस्याओं के निराकरण लिए सदैव तत्पर भी। पिछले दिनों सपत्नीक गृह प्रवेश कर उन्होंने काशी स्थित महमूरगंज के विराटविला में अपना निवास भी बना लिया है। एक राष्ट्रीय नेता को जिस प्रकार अपने संसदीय क्षेत्र के विकास की चिंता करनी चाहिए उसकी संपूर्ण अभिनव योजना उनके मनोमस्तिष्क में तैर रही है। डा. जोशी की विजय और केंद्र में राजग सरकार के गठन के बाद उनके नेतृत्व में काशी के विकास की प्रक्रिया नूतन स्वरूप प्राप्त करेगी, इसमें किसी को भी संदेह नहीं रहना चाहिए। काशी की जनता को आसन्न लोकसभा चुनाव में इस विद्याविभूषित, अप्रतिम और विलक्षण प्रतिभायुक्त, अनुभव संपन्न, चरित्रवान व्यक्तित्व का चयन कर काशी को उसके अनुरूप गरिमामय नेतृत्व प्रदान करना है। वाराणसी के जागरूक नागरिकों से इस संदर्भ में अपील है कि सभी मतदाता बंधु एकजुट होकर डा. जोशी के चुनाव अभियान में सक्रिय भागीदारी करें।

    लेखक- राकेश उपाध्याय

    (लेखक युवा पत्रकार हैं। वे विश्व संवाद केंद्र, काशी के प्रमुख रहे हैं और वर्तमान में राष्‍ट्रवादी साप्‍ताहिक समाचार पत्र पांचजन्य से जुड़े हैं।)

    उमा के बदले रुख से कमल खिला – सरिता अरगरे

    uma-bharti चुनाव की तारीख की ओर बढ़ते हुए सियासत भी रफ़्तार पकड़ रही है । नाराज़ प्रहलाद पटेल घर लौटने के लिए बेताब हैं । मित्तल मामले में कोप भवन में जा बैठे जेटली भी ज़िद छोड़ने को तैयार हो गये हैं । कल तक आडवाणी को पानी पी-पी कर कोस रही साध्वी  भी गिले – शिकवे भुलाकर हम साथ-साथ हैंका एलान कर रही हैं । कुल मिलाकर भाजपा में  घटनाक्रम इतनी तेज़ी से घूम रहा है कि सारा परिदृश्य बदला हुआ नज़र आ रहा है । 

     मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी उमा भारती ने सुलह की पाती भेजकर आडवाणी के नेतृत्व में आस्था जताने का दाँव खेलकर कइयों के होश उड़ा दिये हैं । उमा ने आडवाणी से मुलाकात के बाद यह कह कर सबको चौंका दिया कि पीएम इन वेटिंग का समर्थन राष्ट्र धर्म है । वे कहती हैं कि आडवाणी का समर्थन कर उन्होंने भाजपा पर कोई एहसान नहीं किया है , केवल राष्ट्र के प्रति अपना कर्तव्य निभाया है । साथ ही बीजेपी में वापसी के कयास को उन्होंने सिरे से खारिज भी कर दिया है ।  

    साफ़ छिपते भी नहीं सामने आते भी नहीं “ की तर्ज़ पर उमा भाजपा में आने की हर मुमकिन कोशिश करती हैं लेकिन पूछने पर साफ़ मुकर जाती हैं । लुका छिपी के इस खेल में उमा की राजनीतिक हैसियत  कम से कमतर होती चली जा रही है । लेकिन उनकी ठसक कम नहीं होती । अड़ियल रवैये और पल में तोला- पल में माशावाले तेवरों के कारण भाजपा में उनके  दोस्त कम और दुश्मन ज़्यादा हैं । 

     उधर, उमा की खाली जगह भरने के लिए सुषमा स्वराज ने  डेरा डालने की ग़रज से भोपाल में होली पर दीवाली मनाकर बँगले में प्रवेश क्या किया , अटकलों का बाज़ार गर्माने लगा । प्रदेश की राजनीति पर पैनी निगाह रखने वालों का कहना है कि सिविल लाइन का बँगला , जो अब सुषमा स्वराज का निवास है ,  हमेशा ही सत्ता का केन्द्र रहा है । कयास लगाये जा रहे हैं कि चुनाव बाद प्रदेश में मुखिया बदलने की भूमिका तैयार हो रही है । फ़िलहाल सुषमा विदिशा से लोकसभा चुनाव लड़ रही हैं ।  मिथक है कि विदिशा से जीतने वाले नेता की सियासी गाड़ी तेज़ रफ़्तार से दौड़ने लगती है ।  

    यहाँ से पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मीडिया हस्ती रामनाथ गोयनका तक अपनी किस्मत आजमा चुके हैं। वर्ष 1991 में हुए 10 वीं लोकसभा के चुनाव में वाजपेयी विदिशा और लखनऊ सीट पर एक साथ लडे थे । दोनों ही सीटों से जीतने के कारण वाजपेयी को लखनऊ भाया  और उन्होंने विदिशा सीट छोड दी थी। इसके बाद  उपचुनाव में शिवराजसिंह चौहान पहली बार सांसद बने थे।  विदिशा का कुछ हिस्सा विजयाराजे सिंघिया के संसदीय क्षेत्र में आने के कारण वे भी इस क्षेत्र का प्रतिनिघित्व कर चुकी हैं। अब एक बार फिर भाजपा ने पूर्व केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज को प्रत्याशी बनाकर विदिशा को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में ला दिया है।  

     प्रदेश स्तर पर विदिशा का दबदबा पहले से ही कायम है।  लगातार 5 बार क्षेत्र का प्रतिनिघित्व करने वाले शिवराजसिंह चौहान मुख्यमंत्री की कमान संभाले  हैं ।  वहीं विदिशा से सांसद रह चुके  राघवजी के  पास प्रदेश की वित्त व्यवस्था का ज़िम्मा हैं। भाजपा का गढ कहलाने वाले विदिशा संसदीय क्षेत्र में सुषमा स्वराज को मैदान में उतारे जाने से एक बार फिर काँग्रेस की मुश्किलें बढ गई हैं ।  

    बहरहाल प्रदेश में भाजपा की राजनीति उबाल पर है । लम्बे  इंतज़ार के बाद आखिरकार पूर्व केन्द्रीय मंत्री और भारतीय जनशक्ति के नेता प्रहलाद पटेल की भाजपा में वापसी का रास्ता लगभग साफ़ हो गया है । उम्मीद है कि कल  21 मार्च को ग्यारह बजे प्रहलाद पटेल पूरे लाव-लश्कर के साथ चार हज़ार कार्यकर्ताओं की फ़ौज लेकर  विधिवत तौर पर घर वापसी करेंगे । मुख्यमंत्री ने भी इसकी पुष्टि कर दी है । भाजपा में आने के बाद उन्हें खजुराहो या छिंदवाड़ा से चुनावी जंग में उतारने  के आसार  है , मगर प्रहलाद फ़िलहाल चुनाव लड़ने की अटकलों को नकार रहे हैं ।  

    भाजश के दो दिग्गज नेताओं की  वापसी की संभावनाओं ने प्रदेश की उन्तीस में से छब्बीस संसदीय सीटों पर जीत का दावा कर रही भाजपा नेताओं के चेहरे कमल की मानिंद खिला दिये हैं । हालाँकि विधानसभा चुनाव में भाजश कुछ खास नहीं कर पाई , लेकिन कई जगह भाजपा

    के वोटों में सेंधमारी में कामयाब रही थी । इसका खमियाज़ा जीत के अंतर में कमी और कई जगह  काँग्रेस  को बढ़त के तौर पर भाजपा को उठाना पड़ा था ।  

    रुठों के मान जाने से भाजपा में जोश का माहौल है , वहीं गुटबाज़ी से परेशान काँग्रेस अब तक दमदार उम्मीदवारों की तलाश भी पूरी नहीं कर पाई है । विधानसभा चुनाव में नाकामी से भी पार्टी के क्षत्रपों ने कोई सबक नहीं सीखा ।  कमलनाथ , ज्योतिरादित्य सिंधिया ,कांतिलाल भूरिया सरीखे नेता अब अपनी सीट बचाने की जुगत में लग गये हैं  । मैदाने जंग में उतरने से पहले ही हार की मुद्रा में आ चुके काँग्रेस के दिग्गज नेता अपने लिए सुरक्षित सीट की तलाश में  हैं । आज हालत ये है कि प्रदेश में काँग्रेस की स्थिति दयनीय है । हाल- फ़िलहाल मध्यप्रदेश में मुकाबला पूरी तरह से एकतरफ़ा दिखाई देता है ।

    व्यवस्था परिवर्तन बनाम गोविंदाचार्य – ब्रजेश झा

    kn-govindपंद्रहवीं लोकसभा चुनाव की तारीख जैसे-जैसे नजदीक आ रही है, कई गुम्फित चेहरे चुनावी उत्सव में भाग लेने सामने आते दिखलाई पड़ रहे हैं। पिछले कई वर्षों से राजनीति की मुख्य धारा से खुद को अलग-थलग रखने वाले के.एन.गोविंदाचार्य भी चुनावी रंग को प्रभावित करने का मन बना चुके हैं। उनके संरक्षण में तैयार हुआ राष्ट्रवादी मोर्चा लोकसभा की लगभग 150 सीटों पर चुनाव लड़ने जा रहा है।इस मोर्चा का गठन 14-15 जनवरी को इलाहाबाद (प्रयाग) में आयोजित एक सम्मेलन में किया गया था। मोर्चा में फिलहाल 22 घटक दल शामिल हैं, जिनकी क्षेत्रीय स्तर पर खासा पहचान है। 15 फरवरी को मोर्चा के संचालन समिति की कोलकाता में बैठक बुलाई गई थी, जिसमें जाति एवं मजहब के आधार पर देश को बांटने के प्रयासों की निंदा की गई। साथ ही एक राजनीतिक प्रस्ताव पारित कर शक्तिशाली भारतीय राष्ट्र निर्माण की बात कही गई थी। तभी से यह अटकलें लगाई जाने लगी थी कि राष्ट्रवादी मोर्चा आगामी चुनाव में हिस्सा ले सकता है।

    अंततः राष्ट्रवादी मोर्चा के संयोजक डा. सुरजीत सिंह डंग ने गोविंदाचार्य की मौजूदगी में राष्ट्रीय राजधानी में एक संवाददाता सम्मेलन के दौरान चुनाव में जाने की घोषणा कर दी।

    आम चुनाव से ठीक पहले इस मोर्चा का गठन और बतौर संरक्षक गोविंदाचार्य के जुड़ने से राष्ट्रवादी मोर्चा का महत्व बढ़ गया है। राजनीति की बारीक देशी समझ रखने वाले और गोविंदाचार्य की काबिलीयत से वाकिफ लोगों का मानना है कि आम चुनाव में यह मोर्चा कहीं-न-कहीं राष्ट्रवाद की राजनीति करने वाली ताकतों को नुकसान पहुंचा सकता है। क्योंकि, अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों से निपटने की कला उन्हें खूब आती है। कभी अपनी इसी कला में निपुण होने और व्यापक दृष्टि रखने की वजह से वे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में अपने ही लोगों की आंखों की किरकिरी बन गए थे। जिसके बाद उन्होंने खुद को पार्टी से किनारा कर लिया था।

    हालांकि, गोविंदाचार्य ने स्पष्ट करते हुए कहा है कि उनकी न तो किसी से दुश्मनी है, न ही दोस्ती। उनका मोर्चा भारत-परस्त और गरीब-परस्त राजनीति की वकालत करने के लिए चुनावी मंच का उपयोग भर करेगा।

    संवाददाता सम्मेलन में गोविंदाचार्य ने कहा, ‘देश में गत 150 वर्षों से चली आ रही विकास की अवधारणा अब गलत प्रामाणित हो रही हैं। जरूरत इस बात की है कि विकास स्थानीय भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए किया जाए। लेकिन परिस्थितियां बिल्कुल अलग हैं। फिलहाल हमलोग विकास के जिस रास्ते पर चल रहे हैं, वह रास्ता बंद गली की तरफ जाता है। यदि नजर डालें तो विदर्भ समेत देश में कई उदाहरण मिल जाएंगे।’

    यहां पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि नजर बदलें तभी नजारा बदलेगा। अन्यथा वादे-दावे हवा में ही झूलते रह जाएंगे। अब चमक-दमक की राजनीति का बोलबाला हो गया है। दलों में जमीनी कार्य करते हुए नेता बनने की प्रक्रिया थम सी गई है। हम इन बातों को जनता तक पहुंचाएंगे।

    फिलहाल आम चुनाव के मद्देनजर राष्ट्रवादी मोर्चा दिल्ली में 24 मार्च को एक सम्मेलन की तैयारी में है, जिसमें चुनाव सुधार व भ्रष्टाचार समेत अन्य कई मुद्दों को मुद्दा बनाने को लेकर विचार-विमर्श होने की संभावना है।

    उधर, गोविंदाचार्य को जानने वालों का मानना है कि व्यवस्था परिवर्तन जैसे बड़े उद्देश्य के लिए चुना गया यह रास्ता काफी आसान है। इसके माध्यम से लक्ष्य तक पहुंच पाने की संभावना एकबारगी कम होती मालूम पड़ती है। क्योंकि, इस रास्ते में भटकाव ज्यादा हैं। देश की जनता उनसे एक व्यापक आंदोलन पैदा करने की उम्मीद रखती है और उनकी तरफ एक उम्मीद से टकटकी लगाए है। ताकि, संभावनाओं की नई किरणें पैदा हों और व्यवस्था परिवर्तन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके।

    वर्तमान आर्थिक संकट अथवा सांस्कृतिक घुसपैठ

    economic-slowdownशीर्षक पढ़कर अजीब लग रहा हैं न! आप सोच रहे होंगे कि आर्थिक जगत की बातों का संस्कृति से क्या सम्बन्ध? सच तो यही हैं कि भारतीय बाजार की आर्थिक मंदी वास्तव में भारत का संकट ही नही हैं। यह उन अल्पसंख्यक उच्च वर्ग तथा उच्चतर मध्यवर्ग के लिए खतरे की घंटी हैं जो सांस्कृतिक घुसपैठ को मौन रूप से स्वीकार चुके हैं। पाश्चात्य देशों के मूल्यों से लेकर उनके जीवन की छोटी से छोटी आदतें आज हमारे लिए अनुकरणीय हो गई है। गाँव -गाँव तक इस सांस्कृतिक फिसलन का प्रभाव आंशिक रूप से ही सही पर दिखने जरुर लगा है। भले ही आज भी बहुसंख्यक परम्परावादी या रुढिवादी हम पढ़े लिखो की नज़र मेंसमाज इससे पूर्णतः प्रभावित नही है,  और यही वजह है, संसार की वर्तमान महाशक्ति अमेरिका के आर्थिक सकत का कुछ बहुत ज्यादा असर हमारी अर्थव्यवस्था पर नही है।

    ऊपर की थोडी बहुत बातों को समझने के लिए पूर्व और पाश्चात्य के मध्य का अन्तर जानने की कोशिश नितांत आवश्यक है। भौगोलिक और संस्कृतक रूप से विपरीत होने के कारण यहाँ और वहां की जीवन शैली तथा जीवन मूल्य बिल्कुल ही अलग -अलग है। पश्चिम में मनुष्य इस बात पर बल देता है या यूँ कहें कि इसी चेष्टा में जीता है कि अधिकाधिक वैभव संग्रह कर उसका उपभोग कर ले बस जबकि, भारत में निरंतर अपनी जरूरतों को कम से कम रखने की परम्परा रही है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था -“पूर्व और पाश्चात्य का यह द्वंद ,यह पार्थक्य अभी सदियों और चलेगा। “हमारे और उनके बीच की विषमता के सूत्र एक मात्र इसी भोग -उपभोग की दर्शन (थ्योरी) से संचालित होती है। एक चीज बिल्कुल स्पष्ट कि ये महज कहने और आत्मविभुत होते की बात नही है बल्कि अमेरिका में जो कुछ घटित हुआ उसके मूल में जाने पर इस की पुष्टि होती है। भोग-विलास वादी स्वभाव के कारण (जो आधुनिक बाजारवाद ने नए तरीके से प्रोजेक्ट किया है) जिसको बढावा देने में मीडिया ने एक अहम भूमिका अदा की है, २०-२५ वर्ष आगे की पूंजी को ‘क्रेडिट कार्ड’  के जरिये खा –  पका कर मूर्खों ने (जो कल तक क्या आज भी ख़ुद को सबसे बड़ा और विकसित मानते हैं) वहां के बैंको की अर्थव्यवस्था चौपट कर दी कि ‘लेहमैन’ जैसी बड़ी वित्तीय संस्था को बर्बाद होना पड़ा।

    भारत में जो भी अस्थिरता आई वह तो अमेरिकी कंपनियों द्वारा पूर्व में निवेश कीगई पूंजी को निकल लेने का परिणाम था। पिछले ५-७ सालों में बेतहाशा दौड़ रही भारतीय अर्थ व्यवस्था ने विदेशी निवेश को कई गुना बढ़ा दिया था, अब अचानक इतनी बड़ी मात्र में बाजार से पूंजी का जाना कुछ न कुछ रंग तो लाएगी। इस दौरान भी भारतीय अर्थव्यवस्था के टिके रहने में भारतीय बहुसंख्यक वर्ग की बचत की प्रवृति ने महती भूमिका निभाई। आज भी हमारा देश गाँव का देश है जहाँ की ६०-६५ % जनसँख्या वैश्विक बाजार के चंगुल से करीब -करीब अछूती है ।शेयर बाजार के इस युग में कई सौ गाँव अब भी बैंकों की पहुँच से बाहर हैं। पैसों से भोग की बढती नक़ल के वाबजूद एक औसत भारतीय थोड़े- थोड़े पैसे जमा करता है, जमा की गई राशिः के बड़े होते ही गहने, जमीन आदि खरीद कर (अपनी-अपनी समझ के हिसाब से) भविष्य सुरक्षित करने में लगा रहता है। एक मजदुर जो ६०-७० रूपये मुश्किल से कमा पाता है वो भी शाम को घर लौटने पर १०-५ रूपये टाट में खोंसना नही भूलता । यही तो हमारी विशिष्ट संस्कृति है जो हमारे जीवन को सुख -दुःख – संतोष की मदद से जीवन को गतिशील बनाये रखता है। लेकिन एक सुनियोजित तरीके से इस विशिष्ट ताकत को हमसे दूर करने का प्रयत्न किया जा रहा है। उदहारण के तौर पर दो विज्ञापनों को देखें तो सारी हकीकत सामने है।

    (१) आजकल एक टी वी विज्ञापन में दिखाया जा रहा है किबच्चे विदेश चले जाते हैं तो माँ -बाप घर को बेच डालते हैं। इस के जरिये हमारी मान्यताओं को ग़लत ठहरा कर यह बताने की कोशिश हो रही है कि घर क्या है? कुछ भी तो नही, जब चाहेंगे बन जाएगा। जबकि हम घर को एक वास्तु नही मानते, उसे तो पूर्वजो का धरोहर, उनका आशीर्वाद मानते हैं। अरे जरा, कल्पना तो कीजिये उस व्यक्ति का जिसका अपना घर नही है।

    (२) एक अन्य विज्ञापन जिसमे पति, पत्नी के बीच लोन को लेकर बात-चित चल रही होती है तभी पत्नी कहती है सब कुछ बेच सकते हैं तो गहने क्यूँ नही? मुत्थु ग्रुप नमक एक वित्तीय संस्था के इस विज्ञापन में गहनों को परिवार की इज्जत समझने की सोच को ख़त्म करने की साजिश है। भारतीयों की अग्रसोची मानसिकता को रुढिवादी बताया जा रहा है।

    ऊपर के दो विज्ञापनों का विश्लेषण कई तरह से किया जा सकता है। बात एक ही है हमें इन चीजो को गहरे से समझना होगा। केवल नक़ल के आधार पर आधुनिक होने की कवायद कब तक? आज हमें छुटकारा चाहिए इस नकलचीपन से। न्याय हो या शिक्षा, राजनीती हो अथवा आर्थिक प्रणाली सब के सब नक़ल पर आधारित! यहाँ तक कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का तगमा लटकाए घुमने वाले इस देश का संविधान भी कट, कॉपी, पेस्ट का नतीजा है। ऐसा लगता नही बल्कि वास्तविकता यही है, बार-बार दूसरो का गुणगान करते – करते हम अपना अस्तित्व ही नकार बैठे हैं।


    जयराम चौधरी

    बी ए (ओनर्स)मास मीडिया
    जामिया मिलिया इस्लामिया
    मो: 09210907050

    तीसरे मोर्चे के चाणक्य : करात

    3rd_frontपरमाणु करार पर मनमोहन सरकार को जिस समय प्रकाश करात आर-पार की चुनौती दे रहे थे ठीक उसी समय हमारे बड़े पत्रकार और राजनीतिक समीक्षक प्रकाश करात को इतिहास के कूड़ेदान में फेंक रहे थे। लेकिन यह करात का ही करिश्मा है कि वाम दल फिर से देश में एक बड़ी ताकत बनकर उभरे हैं और देश की राजनीति फिर से वाम दलों के इर्द गिर्द घूम रही है।

    कर्नाटक के तुमकुर में जेडी (एस) नेता एचडी देवेगौड़ा और वाम दलों की पहल पर जिस तरह से तीसरे मोर्चे के लोग जुटे, उससे क्षेत्रीय दलों की नई ताकत का एहसास यूपीए और एनडीए दोनों को बखूबी हो गया है।

    अभी तक का इतिहास तीसरे मोर्चे के लिए अच्छा नहीं रहा है। जो हालात देश में रहे हैं उसमें बिना कांग्रेस या भाजपा की मदद के तीसरे मोर्चे की कल्पना बेमानी रही है। लेकिन इस बार हालात दूसरे बन रहे हैं। अगर आज की तारीख में कोई भविष्यवाणी की जा सकती है तो सिर्फ यह कि पन्द्रहवीं लोकसभा का ताना बाना तीसरे मोर्चे के इर्द-गिर्द ही बुना जाएगा और जिन प्रकाश करात और ए.बी. बर्धन को लोग इतिहास के कूड़े के ढेर पर फेंक रहे थे, पन्द्रहवीं लोकसभा की उम्र वही करात और बर्धन ही तय करेंगे।

    ऐसा सोचना कोई गलतफहमी या खुशफहमी नहीं है। यूपीए गठबंधन की हालत पतली है। मध्य प्रदेश में उसके पास कोई फेस नहीं है, राजस्थान में भी उसके घर में आग लगी हुई है, महाराष्ट्र में राकांपा से उसकी लगी हुई है, आंध्र में वाई एस राजशेखर रेड्डी की हालत पतली है। उ0प्र0 में उसके पास पूरे 80 प्रत्याषी नही है! उसके उ0 प्र0 के दूसरे मजबूत साथी मुलायम सिंह की हालत उनके कमांडर अमर सिंह के कारण खराब है, सपा को अगर वहां दस सीटें भी मिल जाएं तो यह उसकी बड़ी उपलब्धि होगी। बिहार में कांग्रेस को सिर्फ 3 सीटें मिली हैं, फिर कांग्रेस की बढ़त कहां होगी?

    ठीक इसी तरह एनडीए का घर भी बिखरा-बिखरा है। अडवाणी की छवि उसकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा बन रही है। उसके घटक रोज छिटक रहे हैं। भाजपा में स्वयं जबर्दस्त जूतमपैजार है, जो सड़को पर भी दिखाई दे रही है। बीजद एनडीए को छोड़ ही गया, अगप शामिल हुआ भी लेकिन उसने कह दिया कि सीटों का तालमेल है, गठबंधन नहीं । अगर बिहार की बात छोड़ दी जाए तो एनडीए को भी सभी जगह नुकसान ही होना है। सबसे बड़े राज्य उ0 प्र0 में उसकी कमर टूटी हुई है। स्वयं राजनाथ सिंह गाजियाबाद में कड़े मुकाबले में फंसे हुए हैं, राष्ट्रिय लोकदल से उसे पश्चिम उ0 प्र0 में कुछ फायदा हो सकता है लेकिन वह उ0प्र0 में कुछ करिश्मा कर पाएगी ऐसा नही है, कर्नाटक में भी देवेगौड़ा के दांव से भाजपा की हालत पतली है। फिर एनडीए कहां बढ़त लेगा?

    रही बात प्रधानमंत्री तय करने की तो इस मसले को वाम दलों ने खूबसूरती के साथ हल कर लिया है। जिन दो बददिमाग देवियों पर संशय किया जा रहा था उन दोनों ने कह दिया कि चुनाव बाद यह फैसला होगा। यानी जिसकी जितनी ज्यादा संख्या बल वह प्रधानमंत्री! तो अब संदेह की क्या गुंजाइश रही?

    वामपंथी दलों की कोशिश भाजपा और कांग्रेस को चुनाव में ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाने की है जिसमें वे सफल भी हो रहे हैं। अगर कांग्रेस को बीस-तीस सीटों का और भाजपा को भी बीस-तीस सीटों का नुकसान होता है तो फिर तीसरे मोर्चे की सरकार बनने के अलावा क्या विकल्प होगा? क्या भाजपा और कांग्रेस तीसरे मोर्चे को रोकने के लिए गठबंधन कर लेंगे? अगर भाजपा और कांग्रेस को बीस बीस सीटों का भी नुकसान हुआ तो जो शरद यादव आज तीसरे मोर्चे को मेढकों को तौलना बता रहे हैं, वे ही सबसे पहले तीसरे मोर्चे के तराजू में बैठे मिलेंगे।

    जयललिता और मायावती भी अपने स्वभाव के मुताबिक जो गड़बड़ी कर सकती हैं, नहीं करेंगी क्योंकि ऐसी स्थिति में भाजपा और कांग्रेस उन्हे प्रधानमंत्री बनाने से रही! फिर जयललिता और मायावती क्यों तीसरे मोर्चे से बाहर जाएंगी? और अगर जाएंगी भी तो दोनों के अपने अपने दुश्मन न0 एक मुलायम सिंह और करूणानिधि सत्ता का स्वाद चखने के लिए करात के दरबार में अर्जी लगाए खड़े होंगे। ऐसे में न मायावती चाहेंगी और न जयललिता कि वे दौड़ से बाहर हो जाएं।

    इन सारी बातों को किनारे कर भी दिया जाए, तो भाजपा और कांग्रेस ने जिस प्रकार से तीसरे मोर्चे पर प्रतिक्रिया दी, क्या वह दोनों राष्ट्रिय दलों की घबराहट को साबित करने के लिए काफी नहीं है? अगर वाम दलों द्वारा प्रायोजित यह मोर्चा गंभीर नहीं है तो अडवाणी जी और सोनिया जी के माथे पर पसीना क्यों है? आने वाला कल निष्चित रूप से प्रकाश करात और बर्धन का ही है।

    (लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं और पाक्षिक पत्रिका ‘प्रथम प्रवक्ता’ के संपादकीय विभाग में हैं।)

    अमलेन्दु उपाध्याय
    द्वारा एससीटी लिमिटेड,
    सी-15, मेरठ रोड इंडस्ट्रियल एरिया
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    मो0- 9953007626

    इतिहास का सच — जयराम ‘विप्लव’

    kutub-minarइतिहास को जानने की जरुरत है या नही ,ये मुद्दा हम अखबारी लोगों के बीच अक्सर बहस का विषय होता है। आए दिन किसी न किसी से तो इतिहास पढने और अतीत को जानने-समझने की सलाह मिल ही जाती है। वैसे भी हमारे यहाँ मुफ्तकी नसीहत कुछ आसानी से उपलब्ध हो जाया करती है। लगता है हम मसले से दूर जा रहे हैं, चलिए वापस इतिहास के मुद्दे पर लौट जायें। यूँ देखें तो हम-आप में से हर कोई इतिहासकार है। प्रत्येक को किसी न किसी तरह का समय बोध होता ही है। कोई पढ़ कर जानकारी ग्रहण करता है, कोई वर्षों पुरानी श्रुति-स्मृति की परम्परा के माध्यम से सीखता है। हाँ ,यह बात गौर करने योग्य है कि आम इंसान हो या फिर इतिहासविद, सबों का मत एक जैसा नही होता । इसके पीछे भी तर्क दिया जाता है- हर इंसान का नजरिया अलग-अलग होता है।

    अब बात है,  इतिहास को किस स्तरपर जानना चाहिए?  क्या ख़ुद के बारे में जान लेना काफी होगा?  नही,  हमें इतिहास को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में सोचने का प्रयास करना चाहिए। हालाँकि आजकल लोगो को इतनी फुर्सत कहाँ होती है। शहरमें न जाने कितने ऐसे लोग हैं जिन्हें अपने दादा-परदादा का नाम तक मालूम नही होता! परन्तु, निराश होने की बात नही है। मानव स्वाभाव ही कुछ ऐसा है किहम जाते तो हैं निरंतर भविष्य कीओर लकिन हमारा अतीत हमें अनवरत आकर्षित करता रहता है। हम अपने दैनिक जीवन में जब भी कोई ऐसी वास्तु पा जाते हैं जिनका भुत से सम्बन्ध हो तो हमारी आँखें चमक उठती है। अतीत को जानकर-समझ कर और उससे सीख लेकर वर्तमान तथा भविष्य दोनों को बेहतर किया जा सकता है। साथ ही इतिहास जानने का एक अन्य कारण है ,सदियों भारत पर विदेशी आक्रान्ताओं का शासन । किसी ने कहा है -“जिस जाति के पास अपने पूर्व-गौरव की ऐतिहासिक स्मृति होती है वो अपने गौरव की रक्षा का हर सम्भव प्रयत्न करती है। ” अफ़सोस की आज हमारे अन्दर वो स्मृति गायब होती जा रही है! बंकिमचंद्र चटर्जी को भी यही दुःख था -‘साहब लोग अगर चिडिया मरने जाते हैं तो उसका भी इतिहास लिखा जाता है’। वैसे ये नई बात नही, अंग्रेज साहबों से सक्दो साल पहले का इतिहास भी शासकों के इशारों पर कलमबद्ध होता रहा है। अनगिनत काव्य और ग्रन्थ चाटुकारिता के आदर्श स्थापित करने हेतु लिखे गए। कलम के पुजारियों ने निजी स्वार्थ या दवाब में आकर डरपोकों को शूरवीर, गदारों को देशभक्त, जान-सामान्य के पैसो से मकबरा बनने वाले को मुहब्बत का देवता बना डाला। मुगलों से अंग्रेजो तक आते -आते हमारा वास्तविक इतिहास कहाँ चला गया ,पता भी नही चल पाया। कविश्रेष्ठ रविन्द्रनाथ ने इस सन्दर्भ में एक बार कहा था कि “एक विशेष कोटि के इतिहास द्वारा सांस्कृतिक उपनिवेश्ता इस देश के वास्तविक इतिहास का लोप कर देना चाहती है। हम रोटी के बदले, सुशासन, सुविचार, सुशिक्षा – सब कुछ एक बड़ी………….. दूकान से खरीद रहे हैं- बांकी बाजार बंद है……………..जो देश भाग्यशाली हैं वे सदा स्वदेश को इतिहास में खोजते और पते हैं। हमारा तो सारा मामला ही उल्टा है। यहाँ देश के इतिहास ने ही स्वदेश को ढँक रखा है। ”

    चर्चा तो आगे भी होगी। अगर कोई पूछे कि इस इतिहास को पढने से क्या मिला ? परीक्षाओं के अलावा इस तरह के इतिहास का कोई और फायदा ढूँढना मेरे \बस का नही। नुक्सान अवश्य बता सकता हूँ – विदेशी सभ्यताओं -संस्कृतियों को आदर्श मानकर हमारा ह्रदय स्वदेश,स्वसंस्कृति से विमुख हो चुका है। हमारी नक़ल हर दिन चलती रहती है मानो पाश्चत्य सभ्यता से बढ़ कर इस दुनिया में और कुछ है ही नही।

     

    — जयराम चौधरी

    बी ए (ओनर्स)मास मीडिया
    जामिया मिलिया इस्लामिया
    मो:09210907050

    सभ्यता का संघर्ष कब तक …..

    civilizationसंसार के समस्त जीवधारियों का जीवन परस्पर संघर्ष की कहानी है। अपने आप को मौत से बचाते हुए अच्छी जिन्दगी की तलाश में पूरा जीवजगत आपसी टकरावों में उलझा रहा है। मसलन, सर्प और मेंढक के बिच का टकराव, बड़ी मछलियों का छोटी मछलियों के साथ टकराव आदि अनेक उदहारण इस सन्दर्भ में दिए जा सकते हैं। जिजीविषा की इस लडाई में मानव को कैसे भूल सकते हैं, असल में मनुष्य- मनुष्य के मध्य जाति-धर्म-भाषा अर्थात सभ्यताओं का संघर्ष नई बात नही है। संपूर्ण वैश्विक सन्दर्भ में पिछले २००० वर्षों के इतिहास को खंगाले तो कई जानने योग्य तथ्य प्रकाश में आते हैं । यही वो समय था जब विश्व इतिहास में नया बदलाव आरंभ हो चुका था। आज के इस विवादित और आतंकित भविष्य की नीव भी पड़ चुकी थी। अब तक ईसाइयत की मान्यताओं को न मानने वाले १५० करोड निरीह लोगों की हत्या की जा चुकी है। लगभग ४८ सभ्यताओं को नष्ट किया जा चुका है। ईसाइयत के बाद प्रगट हुए इस्लाम ने भी इसी परम्परा को अपनाया। इसके पीछे धर्मान्धों की यह मानसिकता काम करती है कि उनके धर्म में जो है वही एकमात्र और अन्तिम सत्य है। समूची दुनिया को एक धर्म में रंग डालने कि कवायद ठीक वैसी ही है जैसी वर्षों पूर्व सरे संसार को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अंधेरे से ढँक दिया गया था। यही वो वक्त था, लोग कहते थे -“ब्रिटिश साम्राज्य में सूर्यास्त नही होता। “स्कूल के दिनों में एक कहानी पढ़ी थी जिसमे तरह -तरह के रंग हरा, लाल, पीला, कला, सफ़ेद सभी अपने -अपने को श्रेष्ठतम बताते हुए दुनुया को अपने अधिपत्य में शामिल करना चाहते हैं। यहाँ भी धर्म को आधार बना कर संसार का झूठा एकीकरण करने का कुप्रयास चलाया जा रहा है। इस दुनियाकि विविधता ही इसकी सबसे बड़ी संपत्ति है, इस विविधता को धर्म के नाम पर तोड़ने का काम कुछ अन्ध्भाक्तो कीदेन है। कुछ धर्मो खास कर ईसाइयत और इस्लाम में धर्म विस्तार/धर्म परिवर्तन पुन्य का काम माना जाता है। अब, जब कोई धार्मिक मान्यता पुण्य का साधन बन जाए तो यह तय करना मुश्किल हो जाता है की यह कार्य तलवारों के जोर से हो अथवा कागज – कलम के जोर से यार्था के इस युग में पैसों की चमक से। आज सारा विश्व जिस आतंक के “वाद” की परिभाषा तैयार करने में जुटी है,उसका सीधा- सीधा सम्बन्ध ऐसी ही मान्यताओं से जुडाहुआ है। हालाँकि कुछ लोग, जिन्हें आतंक और आतंकवाद के बिच का अनतर नही पता, अशोकमहान को भी आतंकी कहने से नही चुकते। उनके मुताबिक तो नक्सलवाद, क्षेत्रवाद आदि भी आतंकवाद ही है । जिस अशोक की बात की जाति है उसका युद्ध राज्य विस्तार के लिए था न की धरम विस्तार के लिए। धर्म विस्तार के लिए तो उन्हें भी प्रचार का सहारा लेना पड़ा था। आज के इस बेसिर-पैर की हिंसात्मक करवाई में विश्वास रखने वालो की तुलना सम्राट अशोक से करना मुर्खता की बात होगी। आतंक से आतंकवाद का सफर कई दशकों में तय किया गया है। हमारा भारत तो शको, हनो, तुर्को, मुगलों, और अंग्रेजों के आक्रमण और फिर शासन केसमय से ही आतंक का दंश झेलता आया है । आज भी दुनिया में सबसे ज्यादा हमले हमारे देश में होते हैं। हमेशा से रक्षात्मक रवैया अपनानाये रहने की वजह से ही तो ये दुर्गति है। मुठी भर बहरी आक्रमणकारियों ने न केवल हम पर शासन किया बल्कि अपनी धर्म और संस्कृति को भी थोपते गए। हमारी कमजोरियों का फल ये है कि५ हजार साल पुराणी सभ्यता वाला भारत, १३० करोड कि आबादी वाला भारत, पाकिस्तान से तंग आकर अमेरिका से मदद मांग रहा है! तब से अब तक हम दूसरी बार घुटने टेकते नजर आरहे हैं। अर्नाल्ड ने कहा था” भारत एक ही बार पराजित हुआ था वो भी १९४७ में “। निश्चय ही धर्म के नाम पर विभाजन हमारी हार थी। बहरहाल, सभ्यता का ये संघर्ष अनवरत जारी है,  कब तक?  पता नही ……..


    जयराम चौधरी

    बी ए (ओनर्स)मास मीडिया
    जामिया मिलिया इस्लामिया
    मो: 09210907050

    संरक्षण मुहिम बनी बाघों की मुसीबत – सरिता अरगर

    tiger1बाघों का कुनबा बढ़ाने की अफ़लातूनी कवायद से मध्यप्रदेश के प्रकृति प्रेमी खासे नाराज़ और वन्य जीव विशेषज्ञ हैरान हैं। बाघों की तादाद बढाने के लिए शुरु की गई मुहिम को लेकर कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। लेकिन वन विभाग के आला अफ़सरान इन आपत्तियों को सिरे से खारिज कर बाघों की संख्या बढाने की दुहाई दे रहे हैं। ये और बात है कि जब से प्रोजेक्ट टाइगर शुरु हुआ है बाघों की मौत का सिलसिला तेज़ हो गया है। गोया यह परियोजना बाघों की मौत सुनिश्चित करने के लिए ही बनाई गई है।

    हेलीकॉप्टर से बाघिन पहुँचाने की परियोजना सरिस्का के बाद अब मध्यप्रदेश में भी शुरु की गई है। लेकिन परियोजना का उद्देश्य अपनी मोटी बुद्धि में तो घुसता ही नहीं। इधर प्रदेश में बाघों की वंशवृद्धि के लिए नई तरकीबें आज़मायी जा रही हैं, उधर बाघों की मौतों के बढते ग्राफ़ ने तमाम सवाल भी खड़े कर दिये हैं।

    हाल ही में सुरक्षा के सख्त इंतज़ाम के बीच वायुसेना के उड़नखटोले से बाघिन को पन्ना लाया गया। कान्हा नेशनल पार्क में सैलानियों को लुभा रही बाघिन अब अपने पिया के घर पन्ना नेशनल पार्क की रौनक बन गई है। इससे पहले तीन मार्च को बाँधवगढ़ टाइगर रिज़र्व में गुमनाम ज़िन्दगी गुज़ार रही बाघिन सड़क के रास्ते पन्ना पहुँची। पन्ना के बाघ महाशय के लिए पाँच दिनों में दो बाघिन भेजकर वन विभाग योजना की सफ़लता के “दिवा स्वप्न” देख रहा है।

    मध्यप्रदेश में आए दिन बाघों के मरने की खबरें आती हैं। पिछले हफ़्ते कान्हा नेशनल पार्क में एक बाघ की मौत हो गई। वन विभाग ने स्थानीय संवाददाताओं की मदद से इस मौत को दो बाघों की लड़ाई का नतीजा बताने में ज़रा भी वक्त नहीं लगाया। वीरान घने जंगल में मरे जानवर की मौत के बारे में बिना किसी जाँच पड़ताल के तुरंत उसे बाघों का संघर्ष करार दे देना ही संदेह की पुष्टि का आधार बनता है । खैर, वन विभाग के जंगल नेताओं और अधिकारियों की चारागाह में तब्दील हो चुके हैं, अब इसमें कहने- सुनने के लिए कुछ भी बाकी नहीं रहा।

    पिछले दो माह के दौरान कान्हा में बाघ की मौत की यह तीसरी घटना है। इसी अवधि में बाँधवगढ़ टाइगर रिज़र्व में भी बाघ की मौत हो चुकी है। बुधवार को इंदौर चिड़ियाघर में भी “बाँके” नाम के बाघ ने फ़ेंफ़ड़ों में संक्रमण के कारण एकाएक दम तोड़ दिया। भोपाल के राष्ट्रीय वन विहार में भी अब तक संभवतः तीन से ज़्यादा बाघों की मौत हो चुकी हैं । पन्ना नेशनल पार्क में बाघों की तादाद तेज़ी से घटी है। वर्ष 2005 में यहाँ 34 बाघ थे। इनमें 12 नर और 22 मादा थीं। 2006-2007 की भारतीय वन्यजीव संस्थान देहरादून की गणना में यह आँकड़ा 24 रह गया।

    बाघिन को स्थानांतरित करने की मुहिम पर स्थानीय लोगों ने ही नहीं , देश के जानेमाने वन्यजीव विशेषज्ञों ने भी आपत्ति उठाई है। उन्होंने प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधान मुख्य वन संरक्षक को खत लिखकर अभियान रोकने की गुज़ारिश की थी । वन्य संरक्षण से जुड़े विशेषज्ञ बृजेन्द्र सिंह ,वाल्मिक थापर, डॉक्टर उल्हास कारंत, डॉक्टर आर. एस. चूड़ावत, पी. के. सेन, बिट्टू सहगल, फ़तेह सिंह राठौर और बिलिन्डा राइट ने बाघिन को बाँधवगढ़ से पन्ना ले जाने के बाद 7 मार्च को पत्र भेजा था। इसमें राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण और जानेमाने बाघ विशेषज्ञों से इस मुद्दे पर राय मशविरा नहीं करने पर एतराज़ जताया गया है।

    विशेषज्ञों ने वन कानून और अपने अनुभव के आधार पर कई अहम मुद्दे रखे हैं, जिनके मुताबिक पन्ना की मौजूदा परिस्थितियाँ बाघिनों के स्थान परिवर्तन के लिए कतई अनुकूल नहीं हैं। साथ ही ऎसा मुद्दा भी उठाया है जो वन विभाग की पूरी कवायद पर ही सवालिया निशान लगाता है। पत्र में पिछले एक महीने में पन्ना टाइगर रिज़र्व में किसी भी बाघ के नहीं दिखने का ज़िक्र किया गया है।

    हालाँकि पूरी कवायद फ़िलहाल अँधेरे में तीर चलाने जैसी है। जो सूरते हाल सामने आए हैं, उसके मुताबिक वन विभाग ही आश्वास्त नहीं है कि पन्ना में कोई बाघ बचा भी है या नहीं ….? तमाम विरोध और भारी मशक्कत के बीच दो बाघिनें पन्ना तक तो पहुँच गईं, मगर नेशनल पार्क में नर बाघ होने को लेकर वन विभाग भी संशय में है। दरअसल पार्क का इकलौता नर बाघ काफ़ी दिनों से नज़र नहीं आ रहा है।

    प्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक डॉक्टर पी. बी. गंगोपाध्याय का कहना है कि ज़रुरी हुआ तो एक-दो नर बाघ भी पन्ना लाये जा सकते हैं। बाघों की मौजूदगी का पता लगाने के लिए पिछले दिनों भारतीय वन्यजीव संस्थान ने कैमरे लगाये थे , जिनसे पता चला कि पार्क में सिर्फ़ एक ही बाघ बचा है।

    बाघ संरक्षण के क्षेत्र में काम कर रहे बाँधवगढ़ फ़ाउंडेशन के अध्यक्ष पुष्पराज सिंह इस वक्त बाघिन के स्थानांतरण को जोखिम भरा मानते हैं । गर्मियों में पन्ना के जलाशय सूख जाने से बाघों को शाकाहारी वन्यजीवों का भोजन मिलना दूभर हो जाता है । ऎसे में वे भटकते हुए गाँवों के सीमावर्ती इलाकों में पहुँच जाते हैं और कभी शिकारियों के हत्थे चढ़ जाते हैं या फ़िर ग्रामीणों के हाथों मारे जाते हैं । कान्हा की बाघिन को पन्ना ले जाने से रोकने में नाकाम रहे वन्यप्राणी प्रेमियों ने अब बाघिन की सुरक्षा को मुद्दा बना लिया है । अधिकारियों की जवाबदेही तय कराने के लिए हाईकोर्ट में अर्ज़ी लगाई गई है ।

    जानकारों का ये तर्क एकदम जायज़ लगता है कि पन्ना को सरसब्ज़ बनाने का सपना देखने और इसकी कोशिश करने का वन विभाग को हक तो है, मगर साथ ही यह दायित्व भी है कि वह उन कारणों को पता करे जो पन्ना से बाघों के लुप्त होने का सबब बने । बाहर से लाये गये बाघ-बाघिनों की हिफ़ाज़त के लिहाज़ से भी इन कारणों का पता लगना बेहद ज़रुरी हो जाता है।

    मध्यप्रदेश के वन विभाग के अफ़सरों की कार्यशैली के कुछ और नमूने पेश हैं,जो वन और वन्य जीवों के प्रति उनकी गंभीरता के पुख़्ता सबूत हैं –
    सारे भारत में वेलंटाइन डे को लेकर हर साल बवाल होता है, लेकिन वन विभाग के उदारमना अफ़सरों का क्या कीजिएगा जो वन्य प्राणियों के लिए भी “वेलंटाइन हाउस” बनवा देते हैं। भोपाल के वन विहार के जानवर पर्यटकों की आवाजाही से इस कदर परेशान रहते हैं कि वे अपने संगी से दो पल भी चैन से मीठे बोल नहीं बोल पाते। एकांत की तलाश में मारे-मारे फ़िरते इन जोड़ों ने एक दिन प्रभारी महोदय के कान में बात डाल दी और उन महाशय ने आनन-फ़ानन में तीन लाख रुपए ख़र्च कर इन प्रेमियों के मिलने का ठिकाना “वेलंटाइन हाउस” खड़ा करा दिया । कुछ सीखो बजरंगियों, मुथालिकों, शिव सैनिकों….। प्रेमियों को मिलाने से पुण्य मिलता है और अच्छी कमाई भी होती है।

    इन्हीं अफ़सर ने वन्य प्राणियों की रखवाली के लिए वन विहार की ऊँची पहाड़ी पर दस लाख रुपए की लागत से तीन मंज़िला वॉच टॉवर बनवा दिया। भोपाल का वन विहार यूँ तो काफ़ी सुरक्षित है, लेकिन जँगली जानवर होते बड़े चालाक हैं। वन कर्मियों की नज़र बचा कर कभी भालू, तो कभी बंदर, तो कभी मगर भोपालवासियों से मेल मुलाकात के लिए निकल ही पड़ते हैं। तिमँज़िला वॉच टॉवर पर टँगा कर्मचारी बेचारा चिल्लाता ही रह जाता है।

    — सरिता अरगर
    ई-मेल: sarjay63@gmail.com

    प्रजातांत्रिक भारत का राजवंश

    nehru-family-350x1051लोकतंत्र मूर्खों का शासन होता है पर, यहाँ तो मूर्खों ने लोकतंत्र को हीं राजशाही की ओर ठेल दिया है। राजतन्त्र नहीं तो और क्या है? गाँधी, सिंधिया, पायलट, ओबेदुल्लाह जैसे खानदान ही शासन में बचे हैं। ये तो चंद बड़े नाम हैं छोटेछोटे स्तरपर भी कई मंत्रीसन्तरी भी बाप दादा की कुर्सी जोग रहें है। आज भी तो वही हो रहा है, पहले ताजपोशी होती थी अब प्रक्रिया थोडी बदल गई है। सेवानिवृत होतेहोते राजनेता अपने उतराधिकारी(भाईबंधुओं) को मूर्खों की सभा में भेजते हैं, जहाँ उनको तथाकथित छद्म लोकतान्त्रिक तरीकों से चुना जाता है।लोकतंत्र के मंदिरों में बाप, बाप के बाद बेटा, फ़िर पोता! राजनीति का खून तो जैसे इनकी धमनियों में दौड़ता है। एक साथ दोतीन पीढियां सत्ता का रसास्वादन कर रहीं हैं। सरकार से भी बुरे हालात हैं राजनीतिक दलों के, वहां तो बगैर चुनावी ढोंग अपनाए ही वंशवादी नेतृत्व का बोझ कार्यकर्ताओं के कन्धों पर सौंप दिया जाता है।

    ५० सालों से देश कि एक बड़ी पार्टी कांग्रेस नेहरू खानदान के चंगुल में फंसी हुई है अब तक तो यही हुआ कि हर मुद्दे पर जनता की भावना को उभारकर कांग्रेस ने सालो तक राज किया। राजनीतिक रूप से थोड़े बहुत अधिकार देकर जनता को अहसान मंद बनाया गया कभी आरक्षण , कभी ऋण माफ़ी का लोलीपोप थमाया गया। चारों तरफ़ विकास का हंगामाहम भारतवासी विकास कर रहे है ! आज हमारे यहाँ कांग्रेस के राज मे ५२५३ खरबपति है! कितनी गर्व की बात है भाई !गर्व करो ख़ुद के भारतीय होने पर ! गर्व करो कि हम पाश्चात्य सभ्यतासंस्कृति के अनुरूप ख़ुद को ढाल रहे है!  वाकई गर्व की बात है ! हम पीवीआर मे सिनेमा देखते है , हम मैकडी मे पिज्जाबर्गेर खाते है , हम बड़ी बड़ी कारों मे घुमते है,  हम चाँद पर जा पहुचे है,  हमारे पास परमाणु शास्त्रों से लैस विश्व की दूसरी बड़ी सेना है(हाँ ये बात और है की हम बांग्लादेश जैसे पिद्दी राष्ट्रों से भी डरते है), हमारा विकास दर कुछ वर्षों मे बढ़ता रहा है (ये बात अलग है किअमेरिका मे मंदी की ख़बर मात्र से हमारा शेयर बाजार धराशायी हो जाता है) और जाने कितनी बातें गर्व करने लायक हो सकती हैं ।लकिन,महानगरों मे बसने वाले चंद अमेरिकापरस्त अथवा बाजारबाद के प्रचारक लोगों को हिंदुस्तान की तरक्की मानलेना न्याय पूर्ण होगा ? किसी ने सच ही कहा था – “सौ सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है, दिल पे रखके हाथ कहिये देश क्या आजाद है ? कोठियों से मुल्क की तक़दीर को मत आंकिये, असली हिंदुस्तान तो गाँव मे आवाद है।क्या वर्षो के बाद भी हमारी तकदीर बदली है ? नही, कल भी कुछ अमीर थे और आज भी हैं। हमने सामाजिक समानता जैसे शब्दों को तो केवल संसद एवं भाषण तक सीमितकर दिया है।

     

    भ्रष्टाचार को राजकीय धर्म बना दिया गय,( जिसमे पुरे समाज की भूमिका है) लोकतंत्र में वंशवाद के बीज रोपे गए जिसे जनता ने भी एकएक वोट से सींच कर उसे विशाल जंगल बना दिया है। परिवारवाद के अलावा अपराधीकरण की समस्या ने सियासत के तालाव को और भी गन्दा कर दिया है। एक समय था जब नेताजी अपने कुर्सी बचाए रखने के लिए गुंडे पालने लगे। धीरेधीरे भूमंडलीकरण के बढ़ते प्रभाव ने गुंडों की समझ भी बढाईऔर वे भी सोचने लगेभाई ,,जब इनकी जीत हम सुनिश्चित करते हैं तो क्यूँ नेतागिरी का शुभ कर्म भी ख़ुद से किया जाए ?सामाजिक दायरा भी बढेगा और पुलिस का भय भी ख़त्म। इस तरहराजनीती का अपराधीकरण, अपराध के राजनीतिकरणमें बदल चुका है। वो कहते हैं , आटे में नमक मिलाना पर यहाँ तो नमक में आटा मिलाने का रिवाज है। भ्रष्टाचार रूपी विषाणु लोकतंत्र के रागराग में फैलता जा रहा है बेरोकटोक तो उसके पास प्रतिरोध की ताकत बची है और ही उसे बचाने का कोई प्रयत्न ही हो रहा है। बस बारबार इलाज के नाम पर आश्वासन की गोलियां दी जाती है

    आख़िर कब तक एक बीमार, दयनीय और जर्जर व्यवस्था यूँ चलती रहेगी ? हम गर्व करते हैं अपने लोकतंत्र पर। कहते हैंहमारा गणतंत्र अभी शैशवावस्था में है, अरे इस विषाणु जनित महामारी के चपेट में कब बुढापा जाए पता भी चलता है। अब, जबकि बुढापा ही गया है तो आत्मा कब इस बहरी ढांचे को छोड़ जायेगी कहना मुश्किल है? इसबीमारी ने देश की लोकतान्त्रिक प्रणाली को कहा पंहुचा दिया है इसका बयां शब्दों में कर पाना असंभव है क्याक्या बताये , किस किस कमी का बखान करें? सारी खामियों में एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात है-‘कमियों को दूर करने की इच्छाशक्ति का अभाव , भ्रष्टाचार की इस बीमारी से लड़ने की दृढ़ता का अभाव आज ६०६१ वर्षों बाद भी हम रोटी , कपड़ा और मकान के झंझट में पड़े है , ऊपर से ये वंशवाद की बीमारी ये सारी बुराइयाँ हमें खाए जा रही है पर इस चिंता को त्याग कर हमें इसका विकल्प लोगो के समक्ष रखना होगा भविष्य की राजनीति कैसी हो , इस पर केवल सोचने से नही बल्कि युवाओं को सक्रीय राजनीति में आना ही सबसे बड़ा विकल्प है


    जयराम चौधरी

    (Jayram Chaudhary)

    BA(HONS) MASS MEDIA
    JAMIA MILLIA ISLAMIA
    M:09210907050

    यह क्रांति की शुरुआत हैः नवाज शरीफ

    Nawaj Sarifपाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री और मुस्लिम लीग (नवाज़) के नेता नवाज़ शरीफ़ वकीलों के लांग मार्च की अगुआई करते हुए राजधानी इस्लामाबाद की ओर रवाना हो गए हैं। देश में गत कुछ दिनों से चल रही राजनीतिक गहमा-गहमी उस समय तेज हो गई जब रविवार सुबह यह ख़बर आई कि नवाज शरीफ को नजरबंद कर लिया गया है।

    हालांकि पाकिस्तान सरकार ने ऐसी बात से साफ इनकार किया है। वैसे विपक्ष के नेता नवाज शरीफ के लांग मार्च की अगुआई करने से इस बात के साफ संकेत मिल रहे है कि पाकिस्तान राजनीतिक अस्थिरता की तरफ तेजी से बढ़ रहा है।

    दूसरी तरफ लाहौर में इस्लामाबाद की ओर बढ़ रहे वकीलों व लांग मार्च के समर्थकों और पुलिस के बीच जम कर संघर्ष हुआ। यह मार्च दो वर्ष पहले पद से हटाए गए न्यायाधीशों की फिर से बहाली की मांग के समर्थन निकाल गया है।
    मार्च का नेतृत्व कर रहे शरीफ के साथ उनकी पार्टी के दर्जनों कार्यकर्ता हैं। वे जैसे-जैसे आगे बढ़ते गए उनके समर्थकों का हुजूम लगातार बढ़ता गया।
    लाहौर में अपने आवास पर पत्रकारों को संबोधित करते हुए शरीफ ने वकीलों के इस लांग मार्च के साथ जुड़ने के लिए लोगों का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि उन्हें नजरबंद करना व इस्लामाबद जाने से रोकने की कोशिश करना गैरकानूनी था।

    एक समाचार चैनल से बातचीत में उन्होंने कहा कि इस्लामाबाद हमारी नियति है और हम इस्लामाबाद के लिए निकल पड़े हैं। लोग आश्चर्यजनक रूप से हमारा समर्थन कर रही है। यह देश में क्रांति की शुरुआत है।

    पाकिस्तान में हलचल, नवाज शरीफ नजरबंद

    PAKISTANपाकिस्तान में खड़ा हुआ राजनीति संकट गहराता जा रहा है। मुस्लिम लीग-नवाज के नेता और देश के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को लाहौर में उनके अन्य सहयोगियों के साथ नजरबंद कर लिया गया है। वकीलों के साथ विरोध प्रदर्शन जारी रखने के ऐलान के बाद उन्हें नजरबंद कर दिया गया है।

    मीडिया में आ रही खबर के मुताबिक पंजाब पुलिस ने नवाज शरीफ के साथ पूर्व क्रिकेटर व तहरीक-ए-इंसाफ के अध्यक्ष इमरान खान और जमात-ए-इस्लामी प्रमुख काजी हुसैन अहमद को भी नजरबंद किया है। इन नेताओं के घरों के बाहर बड़ी संख्या में पुलिस बल तैनात किए गए हैं।

    पीएमएल-एन के प्रवक्ता अहसान इकबाल ने भी शरीफ को नजरबंद किए जाने की है। उन्होंने कहा है कि सैकड़ों की संख्या में पुलिसकर्मियों ने नवाज शरीफ के आवास को घेर रखा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण और लोकतांत्रिक धारा के खिलाफ है। लेकिन इससे हमारे दृढ़ संकल्प पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है।

    गौरतलब है कि राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने शनिवार रात शरीफ और उनके भाई को चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहराए जाने के फैसले पर सुप्रीम कार्ट में पुनर्विचार याचिका दायर करने का प्रस्ताव रखा था, जिसे शरीफ ने ठुकरा दिया था।

    लाहौर में शनिवार रात एक जनसभा को संबोधित करते हुए शरीफ ने कहा था कि वे यहां इस बात की घोषणा करना चाहते हैं कि वकीलों का लांग मार्च इस्लामाबाद पहुंचने तक जारी रहेगा।

    भविष्य की कृषि खतरे में – जयराम ‘विप्लव’

    agricultureसभ्यता के आरभ से ही ” कृषि ” मानव की तीन जीवनदायनी आधारभूत आवश्यकताओं में से एक -भोजन की आपूर्ति के लिए अपरिहार्य बना हुआ है । कृषि के अलावा ज्ञान-विज्ञान , अध्यात्म ,चिकित्सा आदि -इत्यादि मानवीय जीवन से जुड़े हर क्षेत्र में हर दिन नव चेतना फ़ैल रही है , हर दिन कुछ नई बातें सामने आ रहीं हैं। ऐसा नही की ये सब एक दिन में हो गया बल्कि ऐसा होने में सदियाँ बीत गई । जीवन जीने की जद्दोजहद में पशुवत मांसभक्षण करने वाला मनुष्य कब शाकाहारी हो गया इसका ठीक- ठीक अनुमान लगना मुश्किल है।कालांतर में धीरे-धीरे कंदमूल खाकर भरण -पोषण करने वाला आदिमानव खेती करने लगा । सैकडों -हजारों वर्षों के मेहनत के बाद आज खेती -बड़ी अर्थात कृषि का ये उन्नत रूप हमारे समक्ष है।लेकिन आज के इस वैज्ञानिक -बाजारवादी युग में जब समूची दुनिया को एक बाज़ार बनाने की तयारी रही है , कृषि का भविष्य खतरे में दिखता है । भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जहाँ ७० %आबादी खेती के सहारे जीवन गुजारा करती है, वहां सरकारी उदासीनता के कारणआज सार्वजनिक क्षेत्र की महत्वपूर्ण व्यवस्था कृषि और अन्य असंगठित रोजगारों के कामगारों की बदहाली किसी से छुपी नही । एक कलावती का नाम लेकर हमारे तथाकथित युवराज श्रीमान राहुल गाँधी और उनकी सरकार अपने कर्तव्यों से मुक्ति चाहती है। ये संभव नही । न जाने कितनी कलावती और कितने हल्कू पूस की रात में ठिठुर कर मर रहे होंगे ? पशुओं का चारा तक निगल जाने वाले नेताओ की सरकार से उम्मीद ही बेकार है। जिस पर देश की अर्तव्यवस्था टिकी है उस सार्वजनिक क्षेत्र को बहल करने को लेकर भला ये कैसे इमानदार हो सकते हैं !
    सरकारी उदासीनता , विज्ञान के दुरूपयोग और ज्यादा मुनाफाखोरी की आदत ने भविष्य की खेती को दावपर लगा दिया है । संवर्धित बीजों और रासायनिक उर्वरको के माध्यम से बहुराष्ट्रीय कंपनिया किसानो को नजदीक के फायदे का सपना दिखाकर बरगला रही हैं। परंपरागत खेती में किसान अपने ही खेत के बीजो का इस्तेमाल करते थे अब अधिक पैदावार के लोभ में बाजार से ख़रीदे संवर्धित बीजो से एक बार ही खेती की जा सकती है , हालाँकि अभी भारत में ये चलन कम है । परन्तु गरीब -अनपढ़ किसानो को अभी से इस सब के बारे में जानलेना चाहिए ताकि भविष्य में सतर्क रहा जा सके । कभी हरित-क्रांति को जन्म देने वाली waigyanik पद्धति आज कृषकों और कृषि का विनाश करने पर उतारू है । पिछले ५० सालों में कृषि का जो विकास हुआ वो शायद २००० सालों में भी नही हुआ था । इस विकास का मुख्या आधार विज्ञान के ज्ञान का प्रयोग है। नई तकनीक के कारण खेती के स्वरुप में अपेक्षित बदलाव तो आया पर बाजार के बढ़ते प्रभाव ने यहाँ भी प्रतिकूल असर डाला । अपनी-अपनी दुकान चलाने में न तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों को और न ही देश के कर्णधार नेताओं को इसकी चिंता है । ऊपर से जनसँख्या का बढ़ते दवाब से कृषियोग्य भूमि पर कंक्रीट का जाल बढ़ताही जा रहा है । भूमि कम पड़ रही है ,उपज बढ़ने के दवाब में किसान अधिक से अधिक रासायनिक उर्वरको का अँधा-धुंध उपयोग करते हैं ।हमारे देश में सन ५७ में मुश्किल से दो हजार तन रासायनिकखादों और कीटनाशकों कि खपत थी जो कि बढ़ कर दो लाख तन का आंकडा छुने वाला है । परिणाम स्वरुप jamin की उर्वरा शक्ति नगण्य होती जा रही है ।घनी खेती कि वजह से पैदावार में वृद्धि तो होती है पर कई बड़ी मुश्किलें भी खड़ी है । इस समय भारत में करीब १४०० लाख हेक्टेयर धरती पर खेती हो रही है । बहुत कोशिश करने पर इसमे ४०० लाख हेक्टेयर भूमि जोड़ी जा सकती है । परन्तु इसके लिए हमें जंगलो को काटना पड़ेगा।और ऐसा करना व्यावहारिक नही है। भूमि उसर होती जा रही है, भूमिगत जलस्तर घटता जा रहा है ,वायुमंडल दूषित हो रहा है, कुल मिलकर संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि कृषि का संकट(या मानवीय जीवन पर खतरा ) गहराता जा रहा है और जिसे कोई समझने को तैयार नही । भविष्य में ऐसे यत्नों की जरुरत है जिनके द्वारा कृषि के भविष्य पर मंडराते बादलों को टला जा सके ।नई राहें खोजी जाए कि उपज भी बढे अर्थात जनसँख्या के सामने अन्न का संकट न हो और ऊपर बतलाई गई मुश्किलें भी khatm हो सके और इसके लिए तीन महत्वपूर्ण क़दमों को उठाने पर सरकार को विचार करना चाहिए । प्रथम, संवर्धित बीजों के व्यापार अथवा प्रयोग पर प्रतिबन्ध । दूसरा , रासायनिक उर्वरको और घटक कीटनाशकों के बरक्स नए विकल्पों जैसे जैविक खाद आदि को लेकर किसानो को जागरूक करना । तीसरा , अधिक से अधिक खेती लायक जमीं को बनाये रखना और ऐसा उपाय खोजना जिससे प्रति इकाई उपज को बढाया जा सके लेकिन वो उपाय सुरक्षित हो ।


    जयराम चौधरी

    बी ए (ओनर्स)मास मीडिया
    जामिया मिलिया इस्लामिया
    मो: 09210907050