राष्ट्र के हर महत्वपूर्ण मोड़ पर वामपंथी मस्तिष्क की प्रतिक्रिया राष्ट्रीय भावनाओं से अलग ही नहीं उसके एकदम विरूध्द रही है। गांधीजी के भारत छोड़ो आंदोलन के विरूध्द वामपंथी अंग्रेजों के साथ खड़े थे। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को ‘तोजो का कुत्ता’ वामपंथियों ने कहा था। मुस्लिम लीग की देश विभाजन की मांग की वकालत वामपंथी कर रहे थे। आजादी के क्षणों में नेहरूजी को ‘साम्राज्यवादियों’ का दलाल वामपंथियों ने घोषित किया। भारत पर चीन के आक्रमण के समय वामपंथियों की भावना चीन के साथ थी। अंग्रेजों के समय से सत्ता में भागीदारी पाने के लिए वे राष्ट्र विरोधी मानसिकता का विषवमन सदैव से करते रहे। कम्युनिस्ट सदैव से अंतरराष्ट्रीयता का नारा लगाते रहे हैं। वामपंथियों ने गांधीजी को ‘खलनायक’ और जिन्ना को ‘नायक’ की उपाधि दे दी थी। खंडित भारत को स्वतंत्रता मिलते ही वामपंथियों ने हैदराबाद के निजाम के लिए लड़ रहे मुस्लिम रजाकारों की मदद से अपने लिए स्वतंत्र तेलंगाना राज्य बनाने की कोशिश की। वामपंथियों ने भारत की क्षेत्रीय, भाषाई विविधता को उभारने की एवं आपस में लड़ने की रणनीति बनाई। 24 मार्च, 1943 को भारत के अतिरिक्त गृह सचिव रिचर्ड टोटनहम ने टिप्पणी लिखी कि ”भारतीय कम्युनिस्टों का चरित्र ऐसा कि वे किसी का विरोध तो कर सकते हैं, किसी के सगे नहीं हो सकते, सिवाय अपने स्वार्थों के।” भारत की आजादी के लिए लड़ने वाले गांधी और उनकी कांग्रेस को ब्रिटिश दासता के विरूध्द भूमिगत आंदोलन का नेतृत्व कर रहे जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन जैसे देशभक्तों पर वामपंथियों ने ‘देशद्रोही’ का ठप्पा लगाया।
सबसे पहले मैं अपने एक पाठक की टिप्पणी पर ध्यान देना चाहूँगा । उन्होंने एक बड़ी समस्या की ओर ध्यान खींचा हैं। लिखा है- “भारत गांवों का देश है। यहां की ग्रामीण जनता मुख्य रूप से हिन्दी बोलती है और उसका मुख्य पेशा कृषि है। लेकिन मुझे लगता है कि भारत के कम्युनिस्टों ने दोंनों में से किसी का साथ नहीं दिया – न हिन्दी का, न ही कृषि का। गांवों का भी नहीं। अपने प्रयोजन के लिए इनका इस्तेमाल खूब किया, लेकिन इन्हें मजबूती नहीं दी।”
मैं इस बात से बुनियादी तौर पर सहमत हूँ कि हिन्दी के लिए कम्युनिस्टों ने ज्यादा कुछ नहीं किया। मैं इस पूरी समस्या को कुछ बड़े फलक पर रखकर देखना चाहूँगा। इस समस्या का एक पहलू है जो कम्युनिस्ट पार्टी के संगठनों से जुड़ा है ,दूसरा पहलू वह है जो मार्क्सवादियों के ज्ञानकांड से जुड़ा है। यह सच है कि कम्युनिस्ट पार्टियों ने संगठन के रूप में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत कम काम किया है। इससे भी बड़ा सच यह है कि हिन्दीभाषीक्षेत्र के मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों, खासकर हिन्दी के मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों ने हिन्दी साहित्य, कविता, कहानी, भाषा, आलोचना आदि के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किया है।
हिन्दी की तस्वीर सिर्फ राजनीतिक प्रौपेगैण्डा के आधार पर नहीं बनायी जानी चाहिए। यह सच है कि हिन्दीभाषी क्षेत्र में कम्युनिस्टों के प्रचार के माध्यम बेहद कमजोर हैं। उसका ही यह दुष्परिणाम है कि हिन्दीभाषी क्षेत्र में कम्युनिस्ट संगठन सिकुड़ते चले गए हैं। हिन्दी में प्रचारतंत्र की महत्ता का अभी कम्युनिस्ट पार्टियों में बोध ही पैदा नहीं हुआ है। फलतः कम्युनिस्ट आंदोलन का हिन्दीभाषी क्षेत्र में विकास नहीं हो पाया है। साथ ही अभी जो नेतृत्व है उसकी हिन्दीभाषी यथार्थ पर पकड़ कम है। इन इलाकों के संगठनकर्ताओं के प्रति उनके मन में समानता के भाव का अभाव है। वरना यह कैसे संभव है कि हिन्दीभाषी क्षेत्र से माकपा के पोलिटब्यूरो में एक भी सदस्य में न हो ! माकपा जैसी विशाल पार्टी में 50 करोड़ की आबादी का पोलिट ब्यूरो में कोई भी व्यक्ति न होना
यह इस बात का संकेत है कि पार्टी अभी भी संगठन बनाने के मामले में पुराने ढ़ंग से सोचती है। उसके पास पिछड़े क्षेत्रों से केन्द्रीय नेतृत्व में ऊपर लाने के लिए संतुलित समझ का अभी तक विकास नहीं हुआ है अथवा यो कहें कि वह अभी क्षेत्रीय दबाबों में दबी पड़ी है। आज भी उनका मानना है कि जिन इलाकों में संगठन ज्यादा मजबूत है उन इलाकों से ही सर्वोच्च नेतृत्व में लोग रखे जाएंगे। इस आधार पर तो कभी भी पिछड़े इलाकों से प्रतिभावान मार्क्सवादी ऊपर नहीं आ पाएंगे।
संगठन में क्षेत्रवाद असंतुलन पैदा करता है। संगठन निर्माण में समानता के सिद्धांत का पालना किया जाना चाहिए। कोई भी तरीका निकालकर हिन्दीभाषी क्षेत्र के अनुभवी और मेधावी कॉमरेडों को पोलिट ब्यूरो में अन्य मजबूत इलाके के संगठकों के बराबर स्थान मिलना चाहिए। इससे हिन्दी भाषी राज्यों को तरक्की की मौका मिलेगा।
हिन्दी के उत्थान और उसे जनप्रिय बनाने के लिए हिन्दी के मार्क्सवाद से प्रभावित लेखकों ने जितना काम किया है उतना काम किसी अन्य ने नहीं किया है। हिन्दी के श्रेष्ठ समीक्षक, पत्रकार, लेखक, आलोचक, कवि, कहानीकार, उपन्यालकार, शोधकर्ता आदि मार्क्सवादियों के यहां ही पैदा हुए हैं। आधुनिककाल का हिन्दी साहित्य का विमर्श हो या इतिहास लेखन हो इस मामले में हिन्दीभाषी समाज का योगदान अतुलनीय है। राहुल सांकृत्यायन, रामविलास शर्मा, यशपाल, मुक्तिबोध आदि की परंपरा में सैंकड़ों लेखक हिन्दी में हैं जिन पर मार्क्सवाद का असर है और वे उसके प्रति आस्था भी रखते हैं। यह एक ऐसे समाज में पैदा हुए लेखक हैं जहां कम्युनिस्ट आंदोलन बेहद कमजोर है। कमजोर आंदोलन और शानदार साहित्य परंपरा का असंतुलित विकास हिन्दी में ही संभव है। यह विरल फिनोमिना है।
हिन्दीभाषी क्षेत्र में कम्युनिस्ट पार्टी की कोई दीर्घकालिक सांगठनिक नीति नहीं रही है इसके कारण भी समय-समय पर इस क्षेत्र में पैदा हुए कम्युनिस्ट उभार की रक्षा केन्द्रीय नेतृत्व नहीं कर पाया है। विभिन्न किस्म की गुटबाजियों और इरेशनल बातों को आधार बनाकर प्रतिभावान कम्युनिस्टों को हाशिए पर डालना,उनकी उपेक्षा करना,पार्टी से निकालना, निंदा करना आदि सामंती हथकंड़ों का व्यक्तिगत पंगे और स्कोर हासिल करने के लिए इस्तेमाल होता रहा है, इसके कारण बिहार, पंजाब, राजस्थान, उत्तरप्रदेश आदि राज्यों में जमे-जमाए आंदोलन को सुचिंतित ढ़ंग से नष्ट किया गया। इसका ही यह परिणाम है कि आज इन राज्यों कम्युनिस्ट ढ़ूढ़ने से भी नहीं मिलते।
याद रखें एक कम्युनिस्ट को तैयार करने में बड़ा समय लगता है और हमारे बड़े कम्युनिस्ट नेता महज किसी सामान्य बात को असामान्य बनाकर उस व्यक्ति को निकाल देते हैं जिसने खून पसीना एक करके संगठन बनाया होता है। वे भूल जाते हैं कि संगठन बनाने वाले को निकालने का अर्थ है संगठन की आत्मा को निकाल देना। संगठनकर्ता की आत्मा के बिना संगठन बेजान होता है.कागजी होता है। बिहार, उत्तरप्रदेश, पंजाब, राजस्थान आदि में कुछ-कुछ ऐसा ही घटा है। इसका असर हिन्दीभाषी समाज पर भी पड़ा है। आज हिन्दीभाषी समाज में युवाओं, बुद्धिजीवियों, स्त्रियों, किसानों आदि में प्रभाव पैदा करने वाले कम्युनिस्टों का अकाल है। जबकि एक जमाने में हिन्दीभाषी क्षेत्र में ऐसा नहीं था।
कम्युनिस्ट पार्टियों के केन्द्रीय नेतृत्व की मानसिकता यह है कि हिन्दीभाषी क्षेत्र पिछड़ा है,यहां प्रतिभाशाली कम्युनिस्ट नहीं हैं। हिन्दी वाले सांस्कृतिक -राजनीतिक तौर पर पिछड़े हैं अतः उन्हें उपेक्षित रखो। इस बीमारी ने एक खास किस्म का गैर हिन्दीभाषी विवेक कम्युनिस्ट पार्टियों के नेताओं में पैदा किया है। इसके कारण कम्युनिस्ट पार्टियां आज भी हिन्दीभाषी क्षेत्र में पनप नहीं पायी हैं। इस मामले में कम्युनिस्टों को अपने शत्रुओं से सीखना चाहिए। खासकर आरएसएस से सीखना चाहिए।
कम्युनिस्ट पार्टियों की मुश्किल यह है कि केन्द्रीय नेतृत्व अंग्रेजी प्रेम में डूबा हुआ है। जहां संगठन मजबूत है मसलन केरल,पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में वहां स्थानीय भाषा के आग्रहों में डूबे हुए हैं। जाहिर है अंग्रेजी, मलयालम, बांग्ला, त्रिपुरी से आप भारत की जनता के पास नहीं पहुँच सकते। मेरे लिए यह आश्चर्य और बेहद तकलीफ की बात है कि ईएमएस जैसा महापंडित कई दशक तक दिल्ली में रहने के बाबजूद हिन्दी में बोलना नहीं सीख पाया। पश्चिम बंगाल का मुख्यमंत्री एक भी बार हिन्दी में बोलने की केशिश नहीं करता। मैं अभी तक यह समझने में असमर्थ हूँ कि जिस भाषा को भारत की संपर्कभाषा माना जाता है उसके प्रति कम्युनिस्ट नेताओं का रूख मित्रतापूर्ण नहीं है।
आज भी कम्युनिस्ट पार्टी के हिन्दी अखबार बेहद खराब अवस्था में हैं। हिन्दी अखबार प्रकाशन के नाम पर अंग्रेजी अखबार का अनुवाद छापकर कम्युनिस्ट पार्टियां अपने कर्म की इतिश्री मान लेती हैं। वे यह महसूस ही नहीं करते कि हिन्दी अनुवाद की भाषा नहीं है। जाहिर है जब वे हिन्दी के बारे में महसूस ही नहीं करते तो देश की जनता के बड़े हिस्से तक उनकी पहुँच नहीं हो पाएगी।
कम्युनिस्ट पार्टियां जब तक हिन्दीभाषी क्षेत्र को प्राथमिकता नहीं देतीं। हिन्दी के प्रति समानता और सम्मान का व्यवहार नहीं करतीं। अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं के मोहजाल से बाहर नहीं आतीं तब तक हिन्दीभाषी राज्यों में कम्युनिस्ट पार्टियों के विकास की संभावनाएं कम हैं। केन्द्रीय नेतृत्व के गैर-कम्युनिस्ट व्यवहार के कारण बिहार, यू.पी. और राजस्थान में संगठन तबाह हो चुके हैं। भविष्य में इसके कारण हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और मध्यप्रदेश के संगठन भी नष्ट हो सकते हैं।
एक पाठक ने लिखा है ‘‘कामरेड चतुर्वेदी जी, यह तो अति हो गई!!!! भई दो राज्यों में सत्ता है समस्त भारत पर प्यार का आरोप थोप दिया ।’’ एक अन्य पाठक ने फेसबुक पर लिखा है ‘‘ kisne kaha bharat maen janta kamuniston ko pyar kartee hae ?bhaarat kee janta apnee jadon se pyar kartee hae .’’ ये दोनों मेरे बड़े ही मूल्यवान पाठक है और नेट दोस्त भी हैं। मैं निजी तौर पर इनकी टिप्पणियों का सम्मान करता हूँ। लेकिन जो बात इन दोनों ने कही है उस पर कुछ रोशनी डालना चाहूँगा।
मैं आज भी मानता हूँ कि कम्युनिस्टों से भारत की जनता प्यार करती है। क्योंकि वे ही ईमानदारी से जनता के हकों की रक्षा के लिए सबसे भरोसेमंद और ईमानदार दोस्त साबित हुए हैं। सवाल यह नहीं है कि वे कितने राज्यों और देशों में शासन कर रहे हैं। आज भी दुनिया के अधिकांश देशों में पूंजीपतिवर्ग के दलों का शासन है। स्वयं कार्ल मार्क्स जब हुए थे तब सारी दुनिया में पूंजीपतिवर्ग का डंका बज रहा था लेकिन मार्क्स-एंगेल्स को मजदूरों और वंचितों का बेइन्तहा प्यार मिला था। आज भी बाइबिल के बाद सबसे ज्यादा बिकने वाली किताब मार्क्स की ‘पूंजी’ है।
भारत में एक जमाने में गिनती के कम्युनिस्ट हुआ करते थे लेकिन उनका राजनीति पर व्यापक असर था। खासकर लेखकों-बुद्धिजीवियों से लेकर कलाकारों तक सभी पर साम्यवाद और मार्क्सवाद का व्यापक प्रभाव था। स्वाधीनता संग्राम के दौरान 1940-47 के बीच जितने भी संग्राम हुए उनकी अग्रणी कतारों में कम्युनिस्ट थे। भगतसिंह और उनके साथियों पर कम्युनिस्टों का व्यापक असर था।
हिन्दी के बड़े लेखक थे प्रेमचंद उन्होंने यहां तक लिखा कि मैं बोल्शेविक उसूलों का कायल हूँ। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि आप एक साधारण सी बात पर गौर नहीं करना चाहते कि भारत के मजदूर आंदोलन की अग्रणी कतारों में कम्युनिस्ट हैं और उनके मजदूर संघों की सदस्यता लाखों में है। आजाद भारत के किसानों के सबसे बड़े संघर्षों का नेतृत्व कम्युनिस्टों ने किया है।
भारत के सिनेमा जगत के बेहतरीन संगीतकार,गीतकार,कलाकारों की एक विशाल पीढ़ी कम्युनिस्टों द्वारा निर्मित ‘इप्टा’ नामक संगठन की देन है। आंध्र के तेलंगाना आंदोलन के जनकवि मख़दूम से लेकर शंकर शैलेन्द्र तक, साहिर लुधियानवी से लेकर कैफी आजमी तक की पीढ़ी मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट आंदोलन का हिस्सा रही है। इन लोगों की रचनाएं आज भी लाखों-करोड़ो लोगों में सुनी जाती हैं और आनंद देती हैं।
यह सच है कि कम्युनिस्टों की स्थिति आज तीन राज्यों तक सीमित है लेकिन ये राज्य भारत का ही हिस्सा हैं और इन राज्यों में प्रगति के गगनचुम्बी मानदण्ड किसने बनाए? क्या कांग्रेस या भाजपा ने बनाए? क्या हम भूल सकते हैं कि केरल में भूमि सुधार सबसे पहले पूरे हुए। सारा राज्य साक्षर बना। ये सारे काम संचार क्रांति के आने पहले ही पूरे कर लिए गए।
कम्युनिस्ट कैसे शासन करते हैं और कांग्रेस के नेता किस तरह शासन करते हैं। इसका एक ही उदाहरण काफी है। सन् 1957 मे केरल में जब पहलीबार कम्युनिस्टों के नेतृत्व में सरकार बनी तो कोई नहीं जानता था कि कम्युनिस्ट कैसे काम करेंगे? क्योंकि पूंजीवादी लोकतंत्र में सारी दुनिया में कम्युनिस्टों के हाथ में पहलीबार सत्ता आयी थी। कम्युनिस्टों ने चुनाव में जीतकर विजय हासिल की थी और यह ऐसा करिश्मा था जिसकी कभी कम्युनिस्टों ने कल्पना तक नहीं की थी। उस समय मुख्यमंत्री थे ईएमएस नम्बूदिरीपाद। वे मुख्यमंत्री होकर भी निजी भाड़े के मकान में रहते थे, उनके मोर्चे के विधायक भाड़े के मकानों या निजी मकानों में रहते थे, ईएमएस स्वयं साईकिल चलाकर मुख्यमंत्री दफ्तर जाते थे और उनका टाइपराइटर साईकिल के पीछे बंधा रहता था। इतनी सादगी से उस जमाने में न तो राष्ट्रपति रहते थे और न प्रधानमंत्री रहते थे।
ईएमएस का जन्म वंश परंपरा के अनुसार आदि शंकराचार्य के कुल में हुआ था वे सादगी में आदर्शपुरूष थे। उन्होंने अपनी सारी संपत्ति पार्टी को दान में दे दी। वे जब मरे तो उनके पास कोई संपत्ति नहीं थी। यही हाल अन्य पोलिट ब्यूरो नेताओं का है। ईएमएस को आधुनिक केरल का निर्माता कहा जाता है।यह गौरव जनता के प्यार के बिना संभव नहीं है। वे सारी जिंदगी निष्कलंक राजनेता बने रहे। असाधारण विद्वान थे। उनकी रचनाएं 100 से ज्यादा खंडों में मलयालम में हैं। तकरीबन य़ही हाल पश्चिम बंगाल के प्रतीक पुरूष ज्योति बसु का है।
केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में सरकारें जनता के प्यार से ही चल रही हैं और इन सरकारों ने सीमा में रहकर अनेक काम किए हैं। इनकी आबादी कम नहीं है। वामदलों के विभिन्न संगठनों के 100 करोड़ के देश में एक करोड़ से ज्यादा सदस्य हैं। मुश्किल यह है कि कम्युनिस्टों का हमारे देश में असमान विकास हुआ है। सन् 1977 के पहले तक भारत की संसद में प्रमुख विपक्षी दल कम्युनिस्ट पार्टी थी। सन् 1952-1977 के बीच में कांग्रेस के बाद वामदलों का ही सबसे बड़ा संसदीय ग्रुप था। क्या कोई इतने लंबे समय तक जनता के प्यार के बिना प्रमुख विपक्ष में रह सकता है?
यह जरूरी नहीं कि सरकारी विकास योजनाएं हमेशा लोगों के लिए फायदेमंद ही हो। बल्कि कई बार ये उन्हीं लोगों को संकट में डाल देती है, जिनके हित में बनाई गई है। राजस्थान और मध्यप्रदेश में इस तरह की कुछ घटनाएं सामने आई है, जो सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन के तरीकों और नीतियों के बारे में सोचने को विवश करती है। राजस्थान के बीकानेर जिले में किसान क्रेंडिट कार्ड योजना और मध्यप्रदेश के देवास जिले के आदिवासी क्षेत्रों में दूध उत्पादन योजना के जरिये लोगों ने खुशहाली के सपने देखे थे। किन्तु हकीकत में ये योजनाएं ही उनकी बदहाली का कारण बन गई।
किसान क्रेडिट कार्ड योजना 1998-1999 में लागू की गई थी, जो देष के कई राज्यों में चल रही है। इसका उद्देश्य किसानों को सूदखोरों से बचाना और समय पर ऋण उपलब्ध करवाना है। ताकि किसान अपनी खेती को ज्यादा उन्नत और फायदेमंद बना सके। लेकिन राजस्थान में इसका जो असर देखने को मिल रहा है, वह इसके उद्देश्यों से ही विपरीत है। इसका एक खास कारण किसानों की व्यावहारिक जरूरतों के बजाय टे्रेक्टर जैसी बड़ी चीजों के लिए भारी कर्ज दिया जाना है। बीकानेर जिले में कुछ गांव तो ऐसे हैं जहां पिछले छह महिनों में पांच-छह नये ट्रेक्टर आ चुके हैं। इन ट्रैक्टरों के मालिक बहुत ही गरीब किसान है, जिन्होंने कभी यह सोचा भी नहीं था कि उनके दरवाजे पर साढ़े तीन लाख रूपयों का नया टैक्टर खड़ा होगा। इनकी आर्थिक दषा पहले से कमजोर है और कहा जाता है ट्रेक्टर खरीदने की इनकी पहले से कोई योजना नहीं थी। बैंक अधिकारियों, सरकारी कर्मचारियों और टे्रेक्टर कंपनी के एजेन्टों ने किसानों को इसके लिए प्रेरित किया। नतीजतन मात्र बीस एकड़ जमीन वाले किसान टे्रक्टर के मालिक तो बन गए, किन्तु इसका ब्याज तक चुकाने की स्थिति में नहीं है। कई किसानों ने तो ट्रैक्टर खरीदने के बाद अब तक उससे एक रूपया भी नहीं कमाया। पिछले कुछ सालों से लगातार पड़ रहे अकाल के कारण उनकी माली हालत पहले से ही दयनीय बनी हुई है। अब कर्ज न चुकाने के कारण उनकी जमीन की कुर्की का भी खतरा मंडरा रहा है।
राजस्थान में अब तक करीब 15 लाख किसानों को क्रेडिट कार्ड जारी किए गए हैं। इस तरह इस योजना को लागू करने में आंध्रप्रदेष और महाराष्ट्र के बाद राजस्थान तीसरे नंबर पर है। किन्तु क्रेडिट कार्ड के जरिए खाद, बीज जैसी जरूरतों के बजाय टे्रेक्टर जैसी चीजों के लिए ऋण ज्यादा आसानी से दिया गया। जबकि 20-25 एकड़ तक के किसानों की हैसियत नहीं है कि वे ब्याज सहित कर्ज चुका सके। खेती की आय से टे्रेक्टर की किश्त चुकाने के कारण कई किसानों की आर्थिक दषा बहुत कमजोर हो गई है। एक आकलन के अनुसार यदि किसान टे्रेक्टर बेचकर कर्ज चुकाना चाहे तो उन्हें 30 हजार रूपए का घाटा होगा।
मध्यप्रदेष के देवास जिले के आदिवासियों को दी गई जर्सी नस्ल की गायों के कारण भी इसी तरह की स्थिति उत्पन्न हो गई है। जिले का उदयनगर आदिवासी क्षेत्र लम्बे समय से विकास से वंचित रहा है। जिसके फलस्वरूप यहां आदिवासी आंदोलन सामने आएं। पिछले साल यहां हुई ”मेंहदीखेड़ा गोलीकांड” की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद प्रशासन ने यहां विकास के लिए कुछ कदम उठाए। आदिवासियों को मुख्यधारा से जोड़ने और उन्हें आर्थिक तरक्की के अवसर देने के लिए स्वर्ण जयंति स्वरोजगार योजना के तहत 30 हजार रूपए मूल्य की दो-दो गायें इन्हें दी गई। ये गायें जर्सी नस्ल की या क्रासब्रिडिंग है। इनके बारे में यह कहा गया कि ये खूब दूध देगी। किन्तु ये गायें इस क्षेत्र के अनुकूल नहीं पाई गई। एक तो यहां की गर्म जलवायु इनकी सेहत के लिए हानिकारक है और दूसरा इन्हें अनाज खिलाना पड़ता है। चूंकि इन गरीब आदिवासियों को खुद के लिए अनाज मुश्किल से मिल पाता है, तो गायों के लिए अनाज कहा से लायेंगे। इस दषा में ये गायें बहुत ही कमजोर हो चुकी है और बहुत कम दूध दे पा रही है। इसके अलावा जो भी थोड़ा-बहुत दूध होता है, उसे बेचने के लिए भी यहां बाजार उपलब्ध नहीं है। नतीजतन कुछ लोगों को तो 4 रूपये प्रति लीटर के भाव दूध बेचना पड़ा। अब बैंक का कर्ज चुकाने का दबाव भी इन पर पड़ रहा है।
ट्रैक्टर और गायों के इन उदाहरणों से विकास के बारे में बहुत कुछ सीखा और समझा जा सकता है। यह सच है कि आजादी के बाद सरकार द्वारा लोगों के कल्याण के लिए कई योजनाएं शुरू की गई। अब तक देष में छह पंचवर्षीय योजनाएं क्रियान्वित की जा चुकी है और सातवीं पंचवर्षीय योजना 2002 से जारी है जो सन् 2007 तक चलेगी। किन्तु ये योजनाएं अपेक्षित असर नहीं दिखा पाई। इसका एक खास कारण इन योजनाओं को धरातल पर सही तरीके से क्रियान्वित नहीं किया जाना है। राजस्थान के ट्रेक्टर और मध्यप्रदेष की गायें इसका ठोस सबूत है।
विकास योजनाओं का एक नुकसानदायक पहलू उनमें होने वाला भ्रष्टाचार भी है। इस बारे में सरकारी तंत्र से लेकर राजनेताओं तक सभी पर उंगली उठा चुकी है। यही कारण है कि कतिपय लोगों ने अनुचित तरीके से लाभ पाने के लिए राजस्थान में किसानों को टे्रक्टर खरीदने के लिए प्रेरित किया। सरकारी रिकॉर्ड में तो टे्रेक्टर आवंटन की बात विकास में रूप में दर्ज की गई, किन्तु हकीकत तो कुछ और ही है। जबकि दूसरी ओर खाद, बीज एवं खेती की अन्य जरूरतों के छोटे कर्ज के लिए किसानों को भटकना पड़ता है। यानी जितना ज्यादा कर्ज, उतना ज्यादा कमीशन। इसी रवैये का सबसे ज्यादा नुकसान हितग्राहियों को उठाना पड़ता है।
इन दिनों आर्थिक विकास और स्वरोजगार को बढ़ावा देने की लिए कई योजनाएं चलाई जा रही है। स्वयं सहायता समूह जैसे अभियानों के जरिये महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण और आत्मनिर्भरता की बात कही जा रही है। किन्तु इन्हें वास्तव में लोक हितकारी बनाने के लिए योजनाओं के निर्माण में लोगों की भागीदारी के बारे में सोचना होगा। हमारे यहां ऐसा कोई तरीका नहीं है कि योजना बनाते समय समाज में कमजोर तबकों की राय ली जाए। इस दशा में कई बार लोगों की जरूरतों और योजनाओं के लक्ष्य में फर्क दिखाई देता है। अत: जब तक योजनाओं के निर्माण से लेकर क्रियान्वयन तक सभी स्तरों पर लोगो की भागीदारी नहीं होगी, तब तक योजनाएं अपना सही असर नहीं दिखा पाएगी।
भोपाल। युवा पत्रकार-लेखक सौरभ मालवीय तथा वरिष्ठ पत्रकार राघवेन्द्र सिंह माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के क्रमश: प्रकाशन अधिकारी व प्रकाशन प्रभारी नियुक्त किए गए हैं।
विदित हो कि माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय से प्रसारण पत्रकारिता में स्नातकोत्तर उपाधि हासिल करने वाले व वर्तमान में ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ विषय पर शोध कर रहे श्री मालवीय हाल ही में उपकुलपति श्री बी.के. कुठियाला से सम्बद्ध हुए थे।
भारतीय जनता पार्टी के केन्द्रीय मीडिया प्रकोष्ठ से वर्षों जुड़े रहे सौरभ मालवीय मीडिया-प्रबंधन में अपनी उल्लेखनीय भूमिका के लिए मशहूर रहे हैं। विभिन्न समाचार-पत्रों व अंतरजाल पर समसामयिक विषयों पर कलम चलाने वाले श्री मालवीय एक चर्चित ब्लॉगर भी हैं और उनका ब्लॉग सुमनसौरभ बड़े ही चाव के साथ पढ़ा जाता हैं।
वहीं वरिष्ठ पत्रकार राघवेन्द्र सिंह को विश्वविद्यालय का प्रकाशन प्रभारी बनाया गया है। इससे पहले राघवेन्द्र सिंह पीपल्स समाचार, भोपाल के स्थानीय संपादक रहे हैं तथा नई दुनिया और दैनिक जागरण जैसे संस्थानों के लिए काम कर चुके हैं। भोपाल में एक अच्छे राजनीतिक संवाददाता के रूप में उनकी खास पहचान है।
अक्टूबर का महीना भारत के लिए राजनीतिक शुचिता माह के रूप में मनाया जा सकता है। इस महीने में तीन ऐसे राजनीतिक नेताओं का जन्म हुआ, जिन्होंने न केवल देश की राजनीति को नई दिशा दी, बल्कि नए आदर्श व मानदंड भी स्थापित किए। इनमें से दो यानी मोहनदास करमचंद गांधी और लाल बहादुर शास्त्री का जन्म दो अक्टूबर को हुआ था और ग्यारह अक्टूबर को नानाजी देशमुख का। मोहनदास करमचंद गांधी यानी महात्मा गांधी को राजनीतिक नेता कहना थोड़ा अटपटा-सा प्रतीत होता है। वे इन सभी सीमाओं से ऊपर उठ चुके थे, परन्तु 1931 में कांग्रेस की सदस्यता और उसके रूप में सक्रिय राजनीति को छोड़ने के बाद भी वे राजनीतिक रूप से अत्यंत प्रभावशाली बने रहे। इतना ही नहीं, उनका राजनीतिक हस्तक्षेप भी उसी रूप में बना रहा। वास्तव में, महात्मा गांधी सामाजिक कार्यों का भी अपना राजनीतिक महत्व था। इसलिए प्रत्यक्ष चुनावी राजनीति में न रहते हुए भी महात्मा गांधी ने देश को न केवल एक राजनीतिक नेतृत्व दिया, बल्कि उसमें आदर्श व मापदंड भी स्थापित किए।
पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का नाम तो जगविदित है। जय जवान, जय किसान के उनके नारे ने उनकी मजबूत राजनीतिक क्षमता का अहसास कराया था और रेलमंत्री रहते हुए, एक साधरण-सी दुर्घटना पर दिए गए उनके तस्तीफे से उनकी मजबूत राजनीतिक नैतिकता व शुचिता का परिचय मिलता था। राजनीति में रहते हुए भी उन्होंने न तो कभी धन कमाने का प्रयास किया और न ही नाम। वे सभी लौकिक एषणाओं से मुक्त रहकर निरपेक्ष भाव से देशसेवा में लगे रहे। राजनीतिक क्षेत्र में रहते हुए भी सादगी और सरलता की वे एक मिसाल थे। महात्मा गांधी की तरह उन्होंने राजनीतिक क्षेत्र का परित्याग तो नहीं किया परंतु प्रत्यक्ष राजनीति में रहते हुए आर्थिक शुचिता का समाज में एक आदर्श स्थापित किया। असमय उनकी मृत्यु (जिस पर उनकी हत्या होने का भी संदेह है) नहीं हुई होती, तो शायद देश की राजनीति की दिशा ही आज कुछ और होती।
इसी कड़ी में जो तीसरा नाम है, वह है नानाजी देशमुख का। नानाजी देशमुख एक सच्चे अर्थों में समाजसेवी राजनेता थे। महात्मा गांधी की ही तरह उनका व्यक्तित्व भी बहुआयामी और प्रतिभा बहुमुखी थी और महात्मा गांधी की ही तरह उन्होंने राजनीतिक रूप से अत्यंत प्रभावशाली रहने के बावजूद सक्रिय चुनावी राजनीति का परित्याग कर दिया था। राजनीति में रहते हुए भी उन्होंने अनेक राजनीतिक आदर्श और प्रतिमान स्थापित किए। भारतीय जनसंघ की स्थापना में सहयोग करने के बाद अपने संगठन से कौशल से न केवल जनसंघ को मजबूत किया, बल्कि उसके प्रति अन्य राजनीतिक दलों का भेदभावपूर्ण व्यवहार को भी समाप्त करने में सफल रहे। नानाजी ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण के ‘संपूर्ण क्रांति’ आन्दोलन का सफल संचालन किया और 1977 में देश की पहली गैरकांग्रेस सरकार बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मोरारजी देसाई सरकार के निर्माण का महत्वपूर्ण घटक होने के बावजूद वे मंत्री पद के लोभ में नहीं फंसे और उद्योग मंत्री रूपी प्रभावशाली मंत्री पद त्याग दिया। राजनीतिक आदर्श स्थापित करने के लिए उनका अगला कदम था राजनीति से सेवानिवृत्ति। उनका यह स्पष्ट मानना था कि जिस प्रकार व्यक्ति 60 वर्ष की आयु में नौकरी से निवृत्त हो जाता है, उसी प्रकार उसे राजनीति से भी निवृत्त होकर समाजसेवा में लगना चाहिए। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने वर्ष 1987 में सक्रिय राजनीति छोड़ दी और चित्रकूट जाकर ग्राम विकास के काम में पूरी तरह जुट गए। चित्रकूट में उन्होंने जो कार्य खड़ा किया, वह इतना परिणामकारक और प्रभावोत्पादक है कि तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम तक ने उसकी प्रशंसा की और देश के विकास के लिए उसे एक आदर्श प्रारूप घोषित किया।
भारतीय राजनीति के वर्तमान गिरावट के दौर में जब सर्वत्र स्वार्थ और धनबल व बाहुबल का जोर हो, ये तीनों एक अलग सितारे के रूप में चमकते नजर आते हैं। दु:ख का विषय यह है कि इनके अपने राजनीतिक साथियों व अनुयायियों तक ने इनके बनाए राजनीतिक आदर्शों व प्रतिमानों की स्पष्ट व घोर उपेक्षा की। महात्मा गांधी जिन्हें अपना उत्ताराधीकारी और वारिस मानते थे। उन पंडित नेहरू ने 1947 में ही साफ-साफ कह दिया था कि वे गांधीजी की ग्राम स्वराज की अवधारणा से बिल्कुल भी सहमत नहीं हैं। महात्मा गांधी के राजनीति छोड़कर समाजसेवा में लगने के आदर्श को किसी कांग्रेसी नेता ने अपनाने की कोशिश नहीं की, इसके उलटे वे सत्ता की राजनीति में इतना डूबे, इतना डूबे कि राजनीतिक भ्रष्टाचार का आज वे पर्याय वन गए हैं। लाल बहादुर शास्त्री की राजनीतिक निरपेक्षता और निस्वार्स्थता का दूसरा उदाहरण भी उन्हें भ्रष्ट होने से नहीं बचा सका। लाल बहादुर शास्त्री का सादगीपूर्ण जीवन और सरलता उदाहरण ही वन कर रह गई। किसी भी कांग्रेसी नेता ने उनको अपने जीवन में उतारने की कोशिश नहीं की। दूसरी ओर, राजनीति में एक अलग चाल, चेहरा और चरित्र प्रस्तुत करने का दावा करने वाला भारतीय जनसंघ भी इस राजनीतिक गिरावट से नहीं बच सका। नानाजी देशमुख के निकटतम राजनीतिक सहयोगी रहे अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी में से किसी ने उनके आदर्शों पर चलने की आवश्यकता नहीं समझी। अटल बिहारी वाजपेयी शरीर से पूरी तरह लाचार होने तक शीर्ष पर बने रहे और 89 वर्ष की आयु में भी आडवाणी पीएम इन वेटिंग की दूसरी पारी खेलने के लिए तैयार बैठे हैं। इसका ही परिणाम है कि भारतीय जनसंघ के नए अवतार भारतीय जनता पार्टी में कोई दूसरी पीढ़ी तैयार नहीं हो पाई। इसी कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत को कहना पड़ा कि युवा नेतृत्व को पार्टी में आगे लाना चाहिए।
बहरहाल, कांग्रेस हो या भाजपा, किसी ने भी अपने इन नेताओं के आदर्शों को आगे बढ़ाने की कोई भी कोशिश नहीं की। दूर से प्रणाम ले लिया, श्रद्धा सुमन भी चढ़ाए, परन्तु उनके दिखाए गए रास्ते पर चलने की हिम्मत नहीं दिखा पाए। जब उनके दल के नेताओं ने ही इनकी उपेक्षा की तो अन्य दलों के नेताओं से तो कोई अपेक्षा करना ही व्यर्थ है। परन्तु भारतीय राजनीति में आज जो गिरावट आ रही है, उसका एकमात्र समाधान इनके दिखाए गए रास्ते में ही दिखता है। इसलिए आज जरूरत है कि हम इस महीने राजनीतिक शुचिता माह मनाकर इन्हें याद करें और इनके दिखाए रास्ते पर चलने का संकल्प करें। यदि पूरा महीना मनाना हमारे राजनीतिक नेताओं को कठिन प्रतीत होता हो तो राजनीतिक शुचिता सप्ताह भी मनाया जा सकता है। इसराजनीतिक शुचिता माह या सप्ताह में आदर्श राजनीतिक जीवन पर केवल कार्यशालाओं, संगोष्ठियां और सेमिनारों का ही आयोजन न किया जाए, बल्कि प्रत्यक्ष अनुभव लेने के भी कुछ कार्यक्रम बनाए जाएं। जैसे, चित्रकूट या वर्धा जाकर वहां चल रहे सेवा कार्यों में प्रत्यक्ष भाग लेना। एक पूरा सप्ताह या फिर कम से कम दो दिन किसी दलित बस्ती या फिर किसी सुदूर गांव में वहां के लोगों के बीच रहना। इस प्रकार के और भी राजनीतिक प्रशिक्षण के कार्यक्रमों की योजना बनाई जा सकती है। इस प्रकार के कार्यक्रमों का आयोजन यदि किया जाए तो यही इन महापुरूषों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
पंजाब की राजनीति पर अपना वर्चस्व कायम रखने को लेकर अकाली दल पहले भी कई बार कई धड़ों में विभाजित हो चुका है। वर्तमान में सबसे माबूत धड़े के रूप में शिरोमणि अकाली दल (बादल) ही पंजाब की राजनीति में अपने आपको सबसे मज़बूती से संगठित किए हुए है। इसके मुखिया पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने पंजाब की राजनीति के कभी दिग्गज समझे जाने वाले गुरू चरण सिंह तोहड़ा समेत कई बड़े नेताओं को राजनैतिक पटखनी देकर अपने वर्चस्व को क़ायम रखने में सफलता हासिल की है। इस राजनैतिक शतरंजी बिसात में उन्होंने भी देश के अन्य तमाम राज्यों के अनेक प्रमुख नेताओं की तरह अपनी भी बिसात बिछाई। जिसमें उन्होंने अपने तमाम वंफादार तथा समर्पित साथियों पर विश्वास करने के साथ साथ अपने सगे संबंधियों को भी अपनी राजनैतिक शतरंज का मोहरा बनाया। इनमें जहां उनके पुत्र सुखबीर सिंह बादल तथा उनकी बहु हरसिमरत कौर, सुखबीर के साले विधायक मजीठिया शामिल हैं वहीं बादल के भतीजे मनप्रीत सिंह बादल भी प्रकाश सिंह बादल के खास सिपहसालारों में एक गिने जाने लगे।
विदेश में शिक्षा प्राप्त मनप्रीत सिंह बादल अपनी क़ाबिलियत के साथ साथ बादल के परिवार के सदस्य होने के नाते बादल सरकार में वित्त मंत्री बनाए गए। राय का वित्त मंत्री बनते ही उन्होंने अपनी व्यक्तिगत सोच व काबिलियत का परिचय देते हुए तमाम राज्य संबंधी वित्तीय मामलों में कुछ ऐसे क़दम उठाने शुरू किए जो राज्य की प्रगति व विकास के पक्ष में थे। वे एक वित्त मंत्री के नाते पंजाब के खजानों को खाली होते देखना नहीं चाहते थे। इसके बजाए उनकी यह इच्छा थी कि राजकीय कोष भरा रहे तथा इसका प्रयोग राज्य के विकास एवं उत्थान में ही किया जाए। खासतौर पर वे किसानों के बिजली व पानी के बिलों केर्क़ा मांफी के विरोधी थे। इसके अतिरिक्तमंत्री रहते हुए उनका व्यक्तिगत रहन सहन, आचार विचार स्वभाव तथा जनता के मध्य उनके द्वारा संवाद स्थापित करने का जो तरीक़ा था वह भी ऐसा था कि उनके छोटे से राजनैतिक संफर में ही उनकी लोकप्रियता आसमान छूने लगी थी। वे प्राय: मंत्री होते हुए भी मंत्री नजर नहीं आते थे और न ही आना चाहते थे। अपनी व्यक्तिगत कार पर चलना, उसपर लाल बत्ती न लगाना, अपनी गाड़ी प्राय: स्वयं अकेले चलाना,साथ में गार्ड या पुलिस एस्कॉर्ट जैसे दिखावा पूर्ण तामझाम से परहो करना,किसी भी कार्यक्रम में निर्धारित समय पर पहुंचना किसी भी जरूरतमंद व्यक्ति से प्रेम व सद्भाव के साथ मिलना व गंभीरता से उसकी बात को सुनना व उसका समाधान करना आदि ऐसी विशेषताएं थी जिनकी वजह से वे थोड़ेही समय में पूरे पंजाब में अति लोकप्रिय होने लगे थे।
णाहिर है मनप्रीत बादल की राज्य में बढ़ती लोकप्रियता आज नहीं तो कल बादल पुत्र सुखबीर सिंह बादल के लिए एक बड़ी चुनौती साबित हो सकती थी। कहा जा सकता है कि बादल के परिवार में भी एक और ‘राज ठाकरे’ पैदा हो सकता था। संभवत: उस स्थिति तक पहुंचने से पहले ही मनप्रीत सिंह बादल के ‘पर कतरने’ की तैयारी पूरी कर ली गई। और आखिरकार पंजाब में किसानों की कर्ज़ माफी के मुद्दे पर केंद्र सरकार के पक्ष में दिए गए बयान को लेकर मनप्रीत सिंह बादल को शिरोमिणी अकाली दल से निलंबित कर ही दिया गया। इसके साथ साथ उन्हें कारण बताओ नोटिस भी जारी किया गया है। उन पर आरोप है कि वे पार्टी विरोधी गतिविधियों में सम्मिलित पाए गए हैं तथा 20 अक्तूबर तक उन्हें अनुशासन समिति के सामने आकर उत्तर भी देना होगा। शिरोमिणि अकाली दल की अनुशासन समिति ने इस निलंबन प्रकरण को लेकर मनप्रीत सिंह बादल के मुंह पर ताला लगाने का भी प्रयास करते हुए उन्हें यह निर्देश भी दिया है कि वे मीडिया अथवा किसी भी मंच पर इस विषय पर कोई वक्तव्य नहीं देंगे। यदि उन्होंने ऐसा किया तो यह भी अनुशासन भंग करने तथा पार्टी विरोधी गतिविधि के रूप में ही दे ाा जाएगा।
अब जरा इस अनुशासन समिति के बारे में भी जान लीजिए। जिस अनुशासन समिति ने मनप्रीत को संगठन से निलंबित किया है वह समिति गत सप्ताह ही उपमुख्यमंत्री तथा शिरोमिणी अकाली दल अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने गठित की थी। सुखबीर बादल ने अपने अत्यंत ख़ास 5 सहयोगियों को इस अनुशासन समिति में सदस्य बनाया था। उनमें सुखदेव सिंह ढींढसा, गुरदेव सिंह, रणजीत सिंह ब्रह्मपुरा, बलदेव सिंह भुंदड़ तथा तोता सिंह शामिल थे। इनमें रणजीत सिंह को अनुशासन समिति का अध्यक्ष बनाया गया था। इस समिति ने अपनी पूरी चुस्ती का प्रदर्शन करते हुए अपने गठन के एक सप्ताह के अंदर ही सुखबीर सिंह बादल को वित्तमंत्री मनप्रीत सिंह बादल के निलंबन की सिफारिश भेज डाली। इस पूरे राजनैतिक घटनाक्रम से यह साफ जाहिर होता है कि मनप्रीत सिंह बादल की राज्य की राजनीति में बढ़ती हुई लोकप्रियता सुखबीर सिंह बादल के राजनैतिक भविष्य के लिए चुनौती खडा करने जा रही थी। और इससेपहले कि यह फुंसी नासूर का रूप लेती सुखबीर सिंह बादल के वफादारों ने इसके पूर्व ही मनप्रीत बादल पर शिकंजा कसने की तैयारी कर डाली। इस घटनाक्रम से एक बार फिर यह स्पष्ट हो गया कि राजनीति में काबिलियत या व्यक्तिगत विचारों की कोई गुंजाईश नहीं है। राजनीति इस पहलू पर नार रखने का भी नाम नहीं कि राजकीय कोष को बचाया जाए, उसका संरक्षण किया जाए या इसे बढाने का प्रयास किया जाए। बल्कि ठीक इसके विपरीत राजनीति नाम है लोकलुभावन व लच्छेदार बातें करने का, झूठी लोकप्रियता अर्जित करने का, सरकारी खजाने को जनता के बीच निरर्थक रूप से लुटाकर सत्ता पर कब्जा जमाने के लिए राह हमवार करने का तथा अपने रास्ते में आने वाली किसी भी चुनौती या प्रतिस्पर्धा को दरकिनार करते हुए खुद सत्ता की राह में आगे बढ़ने का।
किसानों की क़र्ज माफी की घोषणा करना,बिजली के बिलों को मांफ करने का प्रलोभन देना, सब्सिडी देना, एक या दो रुपये किलो चावल वितरित करना जैसी तमाम घोषणाएं दशकों से विभिन्न रायों के व कभी-कभी संसदीय चुनावों के दौरान भी इस प्रकार की बातें व चुनावी वादे सुनने को मिलते रहते हैं। परंतु इस प्रकार के लोक लुभावन वादों का असर वादों पर अमल करने का प्रभाव देश की अथवा किसी राज्य की अर्थव्यवस्था पर क्या पड़ सकता है कोई भी राजनैतिक दल इस ओर गंभीरता से नहीं सोचना चाहता। अपने चुनाव घोषणा पत्र तैयार करते समय लगभग सभी राजनैतिक दलों में इस बात को लेकर प्रतिस्पर्धा सी बनी रहती है देखें कौन सा दल आम लोगों को कितना अधिक प्रलोभन दे सकता है। और इसी के बल पर मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित कर सकता है। परंतु हमारे देश में जहां राजकीय कोष को लुटाकर स्वयं सत्ता पर काबिज होने की आकांक्षा रखने वाले नेताओं की बहुतायत है वहीं मनप्रीत सिंह बादल जैसे कुछ तथा बहुत ही कम बुद्धिजीवी नेता ऐसे भी हैं जो राजनीति को देश की अथवा राज्य की सच्ची सेवा का माध्यम महसूस करते हैं।
मनप्रीत सिंह का मंत्री होते हुए भी आम लोगों की तरह कहीं आना जाना भी इसी बात का सूचक था। वे भली भांति जानते हैं कि मंत्री के साथ चलने वाले तामझाम पर भी आंखिरकार सरकारी पैसी ही खर्च होता है। और वे चूंकि वित्तमंत्री होते हुए सरकारी खजाने पर बोझा नहीं बनना चाहते थे इसीलिए वे जहां जाते अकेले जाते, बिना लालबत्ती की गाड़ी के जाते और अपने आंफिस में भी अपनी व्यक्तिगत् कार व पैट्रोल के खर्च से ही आते जाते। वर्तमान दौर की दिखावापूर्ण राजनीति में मनप्रीत बादल को तो आज के युग का लाल बहादुर शास्त्री भी कहा जा सकता है। और नि:संदेह मनप्रीत सिंह बादल को अपने इसी राजनैतिक आचरण का भुगतान करना पड़ा है। मनप्रीत बादल का राजनैतिक आचरण व रहन-सहन उन नेताओं को तो कतई नहीं भा सकता जो इसे भोग-विलास, समाज में दहशत फैलाने तथा धन संपत्ति अर्जित करने का माध्यम समझते हैं। जहां तक किसानों की र्का माफी को लेकर उनके द्वारा दिए गए बयान का प्रश् है तो इसे तो महा एक बहाना बनाया गया है।
मनप्रीत बादल जबसे वर्तमान बादल सरकार में वित्तमंत्री बनाए गए हैं तभी से वे सभी नेताओं व मंत्रियों में सबसे अलग नज़र आने लगे थे। उनके सोच-विचार व आचरण से शुरु से ही उनकी लोकप्रियता का ग्राफ़ प्रकाश सिंह बादल व सुखबीर सिंह बादल की तुलना में कहीं अधिक बढ़ने लगा था। उनकी लोकप्रियता व राजनैतिक शैली के चर्चे केवल पंजाब में ही नहीं बल्कि देश-विदेश के मीडिया में भी होने लगे थे। राजनीति पर गहरी नज़र रखने वालों ने शुरु से ही मनप्रीत बादल की राजनैतिक उड़ान को भांपकर आज की वर्तमान राजनैतिक परिस्थिति का बख़ूबी अंदाज़ा लगा लिया था। राजनैतिक विश्लेषकों को यह भलीभांति मालूम था कि चाहे मनप्रीत बादल कितने भी होनहार, योग्य, क़ाबिल व सक्षम क्यों न हों तथा अपनी कार्यशैली से शिरोमणि अकाली दल बादल के राजनैतिक ग्राफ़ को कितना ही ऊपर क्यों न उठा दें परंतु वे सब कुछ करने के बावजूद आखि़रदार प्रकाश सिंह बादल के पुत्र तो नहीं हो सकते। और मनप्रीत की इस बढ़ती हुई लोकप्रियता का ग्राफ़ आज नहीं तो कल सुखबीर सिंह बादल के राजनैतिक भविष्य के लिए चुनौती साबिल हो सकता था। ठीक राज ठाकरे व उद्धव ठाकरे प्रकरण की तरह। लिहाज़ा उस नौबत तक पहुंचने से पहले ही मनप्रीत बादल पर अनुशासन के नाम पर शिकंजा कसने की कोशिश की गई है। अब देखना यह है कि सुखबीर सिंह बादल की इस अनुशासनात्मक कार्रवाई का जवाब मनप्रीत बादल राजनैतिक शैली में देते हैं या रक्षात्मक रूप से इसे स्वीकार करते हैं। जो भी हो, पंजाब की अकाली दल राजनीति में आने वाले दिन बड़े ही रोचक होने वाले हैं और हम घटनाक्रम पर पंजाब के लोगों से अधिक कांग्रेस पार्टी की निगाहें टिकी हुई हैं।
बहुत सारे व्यवसायियों, उद्यमियों के दफ्तरों में या निजी बैठकखानों में एक पोस्टर लगा दिख जाता है, जिसमें शेर के चित्र के नीचे अंग्रेजी में लिखा होता है- No Politics Please! बहुत बार मुद्दों के बारे में बात करते हुए लोग कहते हैं कि इसमें राजनीति हो रही है या अमुक मुद्दे का राजनीतिकरण किया जा रहा है। इन दोनों संदर्भों में राजनीति की नकारात्मक छवि का ही बोध होता है। एक अंग्रेजी वाक्य इसे इस तरह स्पष्ट करता है Politics is a dirty game which gentlemen should not play.
प्रसिद्ध लेखक चिंतक मन्मथनाथ गुप्त भारत की राजनीति के संदर्भ में कहा करते थे, ‘आजादी के पहले राजनीति शहादत की थी, बाद में शराफत की और अब शोहदों की हो गई है। एक साधारण धारणा यह बन रही है कि कॉलेज मे पढ़ने वाले मेधावी, प्रतिभाशाली छात्र, नौजवान राजनीति से दूर रहकर अपना भविष्य सुरक्षित करने के अभिलाषी (कैरियरिस्ट) होते हैं और जो झगड़े, झंझट, तोड़-फोड़ इत्यादि में रूचि रखते हैं, चुनाव इत्यादि लड़कर राजनीतिक कार्यकर्ता बनना पसंद करते हैं।
जो लोग राजनीति में हैं वे चालों, कुचालों में अपनी भूमिका को तर्कसंगत सिद्ध करते हुए अक्सर अनौपचारिक तौर पर कहा करते हैं, ‘मैं राजनेता हूं, कोई साधु महात्मा नहीं हूं।’
तो क्या यह मान लिया जाए कि राजनीति सज्जनों का काम नहीं है या फिर पढ़े-लिखे या समझदार लोगों को राजनीति से दूर रहकर राजनीति की आलोचना करने का ही महती कार्य करते रहना चाहिए?
शायद दुनिया भर में और विशेषत: भारत में इस मत के व्यावहारिक अनुयायी काफी है। एक बौद्धिक चर्चा के कार्यक्रम में काफी राजनीति और राजनेताओं को जमकर कोसा जा रहा था, कार्यक्रम के आयोजक राजनीतिशास्त्र के अध्येता और लेखक, विचारक, संपादक थे। कार्यक्रम समाप्ति के बाद एक वरिष्ठ पत्रकार ने आयोजक महोदय से कहा, ‘आपकी उपस्थिति में यहां राजनीति की निंदा की गई, आप जानते हैं कि राजनीति की निंदा करने का परोक्ष अर्थ है तानाशाही का समर्थन करना।’ कार्यक्रम के आयोजक ने सिध्दांतत: इस तर्क को स्वीकार किया।
मूलत: यह माना जाता है कि राजनीति लोकतंत्र की धुरी है। वह व्यापक सामाजिक प्रक्रिया का अनिवार्य हिस्सा है। यूनानी दार्शनिक प्लेटो और अरस्तू संपूर्ण समाज को प्रभावित करने वाले सामान्य मुद्दों के प्रति सरोकार को राजनीति मानते थे। अरस्तू ने तो मनुष्य को राजनीतिक प्राणी की संज्ञा दी थी। साधारणतया प्राचीन ग्रीक राज्य में नागरिकों के सभी व्यवहार एक अर्थ में राजनैतिक ही माने जाते थे। राजनीति का उद्देश्य समाज में मनुष्य को सहजीवन के योग्य बनाना और उसे एक उच्चतर तल पर गुणात्मक और नैतिक जीवन जीने में सहायता करना ही समझा गया है। आत्मानुभव से उपजे नैतिक लक्ष्य की प्राप्ति ही राजनैतिक जीवन की अभीप्सा है। राजनीति एक नैसर्गिक, अनिवार्य और नैतिक संस्थान की भूमिका में अधिष्ठित है। यूनानी धारणा को ठीक से समझा जाये तो राजनीति सारत: ‘’मनुष्य, समाज, राज्य और नीतिशास्त्र का साझा अध्ययन है। इसमें राजसत्ता के लिए दिशादर्शन, नागरिक प्रशिक्षण के लिए पाठयक्रम, एक नैतिक दर्शन, ऐतिहासिक पराभौतिकी और समाजशास्त्र की सम्मिलित उपस्थिति है।‘’
भारतीय दर्शन ने भी राजनीति से परहेज का पाठ कभी नहीं पढ़ाया, यहां के अधिकतर ऋषि राजसत्ता के संचालन में सक्रिय भूमिका निबाहते थे और ऐतिहासिक, धार्मिक अवतार, ईश्वर रूप आदर्श प्रजावत्सल राजा के रूप में ही अपना कर्तव्य करते रहे हैं। आदर्श राज्य, नैतिक राज्य को रामराज्य कहा गया। Least governance is good governance की पश्चिमी अवधारणा के पहले भारत में, ”न राजा न च राज्यासीत न च दण्डो न दाण्डिक:, सर्वे प्रजा: धर्मेणैव रक्षन्ति सह परस्परम्” कहकर प्रजा की नागरिक भूमिका का आह्वान हुआ।
मगर सचाई का दूसरा पहलू भी है। यूनान में नगर-राज्यों के पतन और बड़े बहुराष्ट्रीय साम्राज्यों के उदय के साथ राजनीति का अर्थ, महत्त्व और भूमिका संकुचित होते चले गए। नागरिकों के प्रति निष्ठा की दीप ज्योति पर एकाधिकार और वर्चस्व की इच्छा का अंधकार हावी हो गया, इसी तरह भारत मे निरंकुश, अत्याचारी, भोगी और शोषक राजाओं ने जनता को लगभग गुलामों की तरह जीने के लिए मजबूर कर दिया। सारी दुनिया पर साम्राज्यवाद का गहन अंधकार बरसों तक इस तरह छाया रहा कि पिछले पांच हजार वर्षों का मनुष्यता का इतिहास रक्तरंजित दिखाई पड़ता है। इसी इतिहास में मनुष्यता ने विश्व युध्दों की विभीषिका को विष की तरह पिया है। सत्ता संघर्ष ही राजनीति का एकमात्र अर्थ हो गया। सत्ता प्राप्ति ही राजनीति का एकमेव लक्ष्य हो गया। तुलना, प्रतिस्पर्धा, प्रतिशोध और दंभ के पायदानों से गुजरती हुई राजनीति की दिशा अन्याय और अनर्थ की ओर बढ़ गई है।
लगभग समूचे विश्व में राजनीति दिशाहीन है और अपने ही अभिप्राय से जुदा है। इस अनर्थकारी राजनीति को इस लंबे और गहरे भटकाव के बाद वापस खुद के ही भीतर अपने अर्थ को तलाशना है। राजनीति से उत्पन्न समस्याओं का समाधान गैर राजनीतिकरण में से ढूंढ़ना सचमुच लोकशाही के रूप में मनुष्यता को मिले अवसरों के खजाने को खो देने जैसी नादानी है। चाहे वे यूनान के नगर राज्य हों या वैदिक काल की सभा समितियां, बौद्ध धर्म से प्रेरित गणराज्य हों या ग्राम स्वराज्य की गांधी की अवधारणा- ये सब लोकशाही के आइने में राजनीति का असली चेहरा पहचाने जाने की प्रक्रिया के यादगार पड़ाव हैं। इन पड़ावों की याद्दाश्त के बहाने भेड़ों के झुंड में आत्मविस्मृत सिंहशावक को झिंझोड़ने जैसे प्रयत्नों की आवश्यकता है। राजनीति को अपने अधिष्ठान की ओर लौटना होगा। राजनीति व्यक्ति या समूहों की लालसा, लोभ, स्वार्थपरता, वर्चस्वकामिता और मनमानियों का पर्याय बनकर बंधक है। यह परिस्थिति दुर्घटना या दुर्भाग्य ही नहीं बल्कि समूची मनुष्यता की करारी हार है। इन जकड़नों से मुक्ति और अपने अधिष्ठान में राजनीति की वापसी में मनुष्यता का सौभाग्य, विजय निहित है। राजनीति के अधिष्ठान की वापसी का सबसे प्रामाणिक, सशक्त, जीवंत, व्यावहारिक और प्रेरक उदाहरण गांधीजी का जीवन है। उन्होंने अपनी आत्मकथा में राजनीति के अधिष्ठान को अपने संदर्भ से इस तरह अभिव्यक्त किया है-
”व्यापक सत्य-नारायण के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए जीव मात्र के प्रति आत्मवत् प्रेम की परम आवश्यकता है और जो मनुष्य ऐसा करना चाहता है, वह जीवन के किसी भी क्षेत्र से बाहर नहीं रह सकता। यही कारण है कि सत्य की मेरी पूजा मुझे राजनीति में खींच लाई है। जो मनुष्य यह कहता है कि धर्म का राजनीति से कोई संबंध नहीं है वह धर्म को नहीं जानता, ऐसा कहने में मुझे संकोच नहीं होता और न ऐसा कहने में मैं अविनय करता हूं।”
षडयंत्र, पाखंड, द्वेष, दुर्भावना, भ्रष्टाचार, पदलिप्सा और हिंसा राजनीति के पतन की वीभत्स वास्तविकताएं हैं। पतन के सारे रास्ते मानों आधुनिक राजनीति ने देख लिए हैं। और इसलिए जाने-अनजाने नागरिको को कभी-कभार तानाशाही में व्यवस्था के दुरूस्त हो जाने की उम्मीद नजर आती है। यह निराशा, कुंठा और अवसाद में उठने वाला अस्वस्थ विचार है। लगभग इन पंक्तियों की तरह-
जिंदगी कैद है रेखाओं में सीता की तरह
राम क्यों नहीं आते ?
काश कोई रावण ही आ जाता।
असल में तानाशाही की कटु स्मृतियां इतिहास के पन्नों पर इस तरह दर्ज है कि उसको स्वीकारने की कोई गुंजाइश शेष नहीं है। लोकशाही इस युग का सच है। इसलिए राजनीति मनुष्यता की जरूरत है। राजनीति, जो सत्ता प्राप्ति की घुड़-दौड़ नहीं बल्कि व्यक्ति-व्यक्ति के साथ मिलकर सामूहिक जीवन, सहजीवन, सहकार और परस्पर स्वीकार की अभिनव प्रयोगशीलता है, जो व्यक्तिगत अहं और स्वार्थ की घुटन भरी कोठरी से बाहर खुले आकाश का न्यौता है। जो ‘पराएपन’ के झूठ से इनकार और ‘अपनेपन’ के सच का आलिंगन है। जो विरोधियों को परास्त करने की रणनीति नहीं, यशलिप्सा की युक्ति नहीं, भौतिक सुविधाओं के लिए की जानेवाली लालच भरी कवायद नहीं, बल्कि बूंद के सागर में समाने जैसी मुक्ति है, इसमें अलौकिक आनंद भी है और परम समृध्दि का अहसास भी है।
वह जो छूटा है, पिछड़ा है वह साथ आए, जो साथ है उसके कदमों के साथ ताल मिले और जो आगे चल रहे हैं, उनके पंथान्वेषण के प्रति अनुग्रह उमगता रहे- यह शक्ति राजनीति में सहज उपलब्ध होती है। स्वयं को योग्य, समर्थ, सजग, सशक्त, धैर्यवान, संयमी और विनयी होने के लिए राजनीति एक खुली प्रशिक्षणशाला है। यह मनुष्यता के उत्थान की चुनौती भरी राह है। सहज ही इस राह में बाधाएं भी है, पर बाधाएं तो मंजिल के महत्त्व की सूचना देती है।
आधुनिक काल तक राजनीति मनुष्य के प्रति सरोकार का स्वप्न देखती थी। मगर उत्तर आधुनिक राजनीति की दृष्टि महत्तर है। अब निसर्ग के कण-कण के प्रति सरोकार आवश्यक है। यह पर्यावरणीय मैत्री (Eco-friendship) का युग है। पहाड़, पत्थर, बादल, आकाश, पानी, मिट्टी और वनस्पति के साथ सब जीव जंतुओं के सरोकार से युगीन राजनीति का उदय आज की आवश्यकता है। राजतंत्रात्मक और उपनिवेशवादी राजनीति एकांतिकता की, एकलवाद की थी, लोकशाही की राजनीति धन बल, बुध्दि और कौशल की मांग करती रही है और वह भी थोड़े बड़े समूह या दलवाद के दायरे में डोलती, सिमटती रही है। नए दौर की राजनीति की अभीप्सा बहुलता की है, सर्वसमावेशिकता की है। किसी को छोड़ने की नहीं बल्कि सबको जोड़ने की है। अस्तित्व के सभी अंशों की इयत्ता के एक साथ स्वीकार की है। कहना होगा कि बाधाओं के बावजूद राजनीति की यह परम अभीप्सा ही इसका सार्वत्रिक ध्येय है। मनुष्य (प्रवृत्ति) हो या प्रकृति दोनों ही, प्रकटीकरण, पल्लवन, उन्नयन, विलयन के रास्ते उसे एकात्मता की ओर बढ़ते हैं। एकात्मता अस्तित्व मात्र की मंजिल है। शायद राजनीति की राह भी मनुष्य को समाज, सृष्टि और प्रकृति के साथ एकात्म होने के आनंद की ओर ले जाने को तत्पर है। राजनीति के संकुचित, संकीर्ण अर्थ से प्रतिकर्षित होकर परहेज रखने के बजाय नए दौर की राजनीति के व्यापक, सार्वत्रिक, सर्वसमावेशी, सहज और एकात्मतालक्षी स्वरूप की साधना का यह उपयुक्त समय है। राजनीतिक सहभाग ही इस साधना की सरलतम विधि है। बशर्ते कि पांवों की फिसलन और थकन को जीता जाए। आखिर साधना है तो साधक का जीवन जीने की आवश्यकता तो होगी ही………।
बराक ओबामा के पिछले कुछ निर्णयों और बयानों को देखने के बाद एक आम राजनीतिक विश्लेषक के मन में एक ही सवाल उभर रहा है। क्या बराक ओबामा का भारतीयकरण हो गया है? एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि जैसे पंडित नेहरू के उदय के बाद भारतीय राजनीति के बुरे दौर की शुरूआत हुई थी, क्या उसी तरह ओबामा के उदय के बाद अमेरीकन राजनीति के भी बुरे दौर की शुरूआत हो चुकी है? उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी के नाम पर राजनीति करने वाले पंडित नेहरू ने ही भारतीय राजनीति में सेकुलरवाद के नाम पर तुष्टिकरण और समाजवाद के नाम पर जातिवादी राजनीति के बीज डाले थे। उसके बाद से लगातार ही भारतीय राजनीति का स्तर गिरता गया है और वह इतना नीचे गिर गया है कि देश के लिए घातक निर्णय भी बड़ी ही सरलता से ले लिए जाते हैं और उस पर शर्म आना तो दूर, किसी को भी उस पर चिंता नहीं होती। चाहे वह मुस्लिम अल्पसंख्यकों के उत्थान के नाम पर देश में विभाजनकारी आर्थिक योजनाएं हों या फिर कश्मीर और आतंकवाद पर दोहरी नीति हो, भारतीय राजनीति में आई इस गिरावट का ही परिणाम है कि किसी भी प्रदेश में आज शांति नहीं है। कुछ यही स्थिति ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद से अमेरीका की होने लगी है। हालांकि अमेरीका के नागरिक भारतीय नागरिकों की तुलना में कहीं अधिक जागरूक और लोकतांत्रिक रूप से अधिक शक्तिसंपन्न हैं, इसलिए वहां इस पतन का परिणाम आने में समय लग सकता है।
ओबामा की नीतियां और बयान हमें भारतीय नेताओं की नीतियों और बयानों की याद दिलाते हैं। पिछले दिनों जब 9/11 के घटनास्थल पर एक स्मारक भवन बनाने की योजना बनी तो ओबामा ने उसके ग्राउंड जीरो यानी कि भूतल पर इस्लामिक कल्चरल सेंटर बनाने का प्रस्ताव रख दिया। खबर तो शुरूआत में यह आई कि ओबामा वहां एक मस्जिद का निर्माण चाहते हैं, परंतु बाद में जब उनके इस प्रस्ताव का विरोध शुरू हो गया तो इस्लामिक कल्चरल सेंटर का प्रस्ताव रख दिया गया। यह एक न समझ में आने वाला प्रस्ताव था और स्वाभाविक ही था कि इसका तीव्र विरोध वहां शुरू हो गया। विरोध इतना तीव्र था कि वहां ओबामा को मुसलमान तक करार दिया जाने लगा। पियु रिसर्च सेंटर द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 19 प्रतिशत अमेरीकन मानते हैं कि बराक ओबामा मुसलमान हैं। यह संख्या मार्च 2009 की तुलना में पूरे 18 प्रतिशत अधिक है। वहीं ओबामा के संप्रदाय के बारे में अनभिज्ञता जाहिर करने वालों की संख्या 43 प्रतिशत थी। सवाल यह है कि ओबामा ने ऐसा प्रस्ताव आखिर दिया ही क्यों? क्या ओबामा को 9/11 के बाद मुलसमानों के प्रति अमेरीका के व्यवहार पर पछतावा प्रकट करना था? क्या उन्हें यह लगता था कि इराक में सेना भेजकर अमेरीका ने जो गलती की है, वह इससे सुधर जाएगी? या फिर उन्हें भी भारतीय नेताओं की तरह अमेरीका में बढ़ रहे मुस्लिम मतों को लुभाने की चिंता थी? कारण चाहे जो भी हो, यह प्रस्ताव ओबामा की राजनीतिक अदूरदर्शिता को ही प्रकट करता है। ओबामा की इस राजनीतिक अपरिपक्वता पर पक्की मुहर उनके पिछले दिनों दिए गए एक बयान ने लगा दी।
पिछले दिनों एक गुमनाम से पादरी ने 9/11 की बरसी पर कुरान की प्रतियों को जलाने की घोषणा की। बस फिर क्या था, तुरंत उसका विरोध प्रारंभ हो गया। विरोध के स्वर अंतरराष्ट्रीय थे। विरोध होना भी चाहिए था। 9/11 की घटना और कुरान की प्रतियों को जलाना, दोनों एक ही प्रकार की मानसिकता के परिचायक हैं। परंतु ओबामा ने इस पर जो प्रतिक्रिया व्यक्त की वह केवल अमेरिकियों ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व को हैरान कर देने वाली थी। ओबामा ने कहा कि वे उस पादरी से निवेदन करने हैं, कि वह ऐसा न करें, क्योंकि उसके ऐसा करने से इराक और अफगानिस्तान जैसे मुस्लिम देशों में रह रहे अमेरीकी सैनिकों व नागरिकों को जान का खतरा पैदा हो जाएगा। यह भाषा भारत के नेताओं के मुख से सुनने के हम आदि हो चुके हैं, परंतु विश्व के सर्वाधिक शक्तिसंपन्न देश के प्रमुख के मुख से ऐसा बयान निश्चित ही हैरान कर देने वाला था। यदि ओबामा नैतिक और वैचारिक आधार पर कुरान की प्रतियों को जलाने से रोकने की अपील करते तो बात समझ में आती, परंतु यह तो भय की भाषा थी। क्या ओबामा ने इस्लामी कट्टरपंथ के आतंकवाद से हार मान ली है? क्या यह मान लिया जाए कि आतंकवाद के खिलाफ अमेरीका ने जिस युध्द की घोषणा की थी, ओबामा ने उसमें अपनी हार स्वीकार कर ली है? क्या ओबामा ने यह स्वीकार कर लिया है कि इस्लामी कट्टरपंथियों को हिंसा फैलाने से रोकना या फिर उसका विरोध करना अब संभव नहीं है?
यह ठीक है कि हिंसा का जवाब हमेशा हिंसा से नहीं दिया जा सकता। यह भी सही है कि यदि हमें किसी पुस्तक पर किसी प्रकार की कोई आपत्ति है तो उसे जलाना कोई समाधान नहीं है। परंतु यह कदापि सही नहीं हो सकता कि किसी के कट्टरपंथी कार्रवाई का जवाब कट्टरपंथ से ही दिया जाए। यदि कुरान की प्रतियों को जलाना गलत कार्य है तो उसके विरोध में लोगों की हत्याएं करना तो उससे भी अधिक गलत है। फिर उसका भय दिखाना क्या एक परिपक्व और समझदार राजनेता का परिचायक हो सकता है? देखा जाए तो अमेरीका से हम किसी भी प्रकार की राजनीतिक परिपक्वता की आशा नहीं कर सकते। बुश(बड़े) से लेकर ओबामा तक उसके अभी तक के पिछले व्यवहारों ने उसके राजनीतिक मंतव्यों पर तो प्रश्चिह्न लगाया ही है, साथ ही उसकी राजनीतिक अदूरदर्शिता पर भी पक्की मुहर लगाई है। चाहे मामला इराक का हो या कश्मीर का, 9/11 की घटना हो या फिर तालिबान का मामला, अमेरीका ने सदैव स्वार्थपरक और अदूरदर्शी राजनीति का ही परिचय दिया है। परंतु ओबामा से पूर्व के राजनीतिक निर्णयों और बयानों में फिर भी एक प्रकार की राजनीतिक दृढता दिखती थी। ओबामा में उस दृढता का अभाव दिखता है। उनकी राजनीति स्वार्थपरक, अदूरदर्शी होने के साथ-साथ कमजोर भी है। क्या इसे हम अमेरीका के विश्व पर राजनीतिक प्रभुत्व के अंत का प्रारंभ के रूप में देख सकते हैं?
हमारे देश में प्राथमिक शाला वह जगह है जिसकी कोई प्राथमिकता आज तक ठीक से तय नहीं हुई। सब तरह के अभावों में जीती, हर बार उपेक्षाओं में जीती और हर बार चिंता का विषय बन कर भी दिन पर दिन बिगड़ती शिक्षा की यह प्राथमिक भूमि अपने ही बंजरीकरण से ग्रस्त है। मुनष्य का सबसे मासूम चेहरा शिक्षा में यहां से प्रविष्ठ होता है जो महाविद्यालयों तक जाते जाते इतना उपद्रवग्रस्त हो जाता है कि अंतत: शिक्षा से उपलब्ध स्तर का अर्थ ही कुछ का कुछ हो जाता है।
भाषा शिक्षण का औपचारिक प्रारंभ भी यहां से होता है। घर, परिवार और परिवेश से लाई हुई भाषा को भूलने और भुलाने की जगह है प्राथमिक शाला, मगर एक विडंबना यह है कि यहां जो कुछ भी होता है उससे यह लगता ही नहीं कि हम बालक को जो कुछ भूलना सिखाना चाहते थे न तो वह बालक भूल पाता है और जो कुछ नया याद कराना चाहते थे वह बालक याद कर पाया है। इसलिए यह भी माना जा सकता है कि हमारी प्राथमिक शालाएं बालक के भ्रम और भय की शालाएं हैं।
फे्रंक स्मिथ ने बालक के भाषा सीखने की जो पूरी प्रक्रिया दी है और जिस तरह से हमारे पुराने सारे विश्वासों को हिलाने की कोशिश की है, संभव है कि वह हमारे बहुत से शिक्षकों को गले नहीं उतरे। फ्रेंक स्मिथ ने भाषा शिक्षण और बालक को लेकर हर प्रकार की नयी पुरानी खोज और सिध्दांतीकरण मान्यता को तोड़ फेंका है। बच्चे के सीखने के लिए सूत्र की तरह रचे गये मंत्र वाक्यों को भी स्मिथ ने निरस्त कर दिया है। पढ़ना और सीखना वास्तव में क्या है, क्यों है और कैसे संभव है इस बात को स्मिथ ने एक साढ़े तीन साल के बालक पर अपना प्रयोग केन्द्रित करके यह साबित किया है कि बालक के भाषा सीखने के तरीके को लेकर शिक्षक और शिक्षाविद् और यहां तक कि माता पिता तक कितने भयानक भ्रमों के शिकार रहे हैं। फ्रेंक स्मिथ के साक्षरता निबंध नामक इस पुस्तक से बालक के भाषा शिक्षण या स्वयं सीखने के एक ऐसे संसार का आविष्कार हुआ है जिसमें शिक्षक और शिक्षण विधियों के सारे सिध्दांत और तथाकथित प्रयोग झूठे पड़ गये हैं।
बच्चे की भाषा सीखने की मूल प्रवृत्ति को लकर हमारा सारा चिंतन वैसे तो पश्चिम की अवधारणाओं का पोषण करता रहा है मगर गांधीजी और गिजुभाई ने जिस तरह हमारी इस समस्या को सोचा वह भी महत्वपूर्ण है। गांधीजी ने कहा था ” शिक्षा की मेरी योजना में हाथ अक्षरों की आकृति खींचने या अक्षर लिखने के पहले औजार चलायेगा। बालक की आंखें जैसे जीवन में दूसरी चीजें देखेंगीं, उसी तरह वे अक्षरों और शब्दों के चित्र देखेंगीं और पढ़ेंगी, कान वस्तुओं के नाम और वाक्यों के अर्थ सुनेंगे और उन्हें पकड़ेंगे, हमारी तालीम स्वाभिवक और रसप्रद होगी आर इसलिए दुनिया में सबसे सस्ती और अधिक से अधिक तेज गति वाली होगी। ”
हमारी प्राथमिक शालाएं आज तक गांधीजी की कल्पना की वह सस्ती शिक्षा नहीं रच पाईं, वह गति नहीं रच पाईं और इन दोनों से निर्मित वह बालक नहीं रच पाई जिसे हम एक भाषावान, सहज और आनंदमय बालक कह सके। शिक्षा का सबसे त्रासद पहलू यह ळै कि शिक्षा जैसे जैसे आगे बढ़ती है, वह निरंतर रसहीन होती जाती है और यही कारण है कि शिक्षा से एक सर्वाधिक पढ़ा लिखा व्यक्ति भी जो संस्कार जाहिर करता है वह है थोथा अहं, अशिष्टता, कठोरता और संकीर्णता। भारतीय शिक्षा का प्राथमिक से लेकर महाविद्यालय तक का स्तर हो या प्रशिक्षण संस्थाओं और तथाकथित उच्च शिक्षा केन्द्रों का स्तर – सब जगह एक प्रकार को रूखापन, पाखंड, पक्षपात, और ईष्यालू या झगड़ालू वातावरण है। हमारे थोथे बड़प्पन का मोह हमें एक बालक में मूल्यों का कोमल पौधा रोपने की बात करता है, जबकि हमारे स्वयं के अंदर मूल्यहीनताओं की कटीली झाड़ियां फेली हुई हैं। शायद हमारी ही शिक्षा में इस प्रकार को दोतरफा चरित्र है, जिसमें कहा कुछ जाता है और किया कुछ जाता है। हमने अपनी समूची आचरण और कर्म प्रणाली ही ओछे मानदंड़ों पर तैयार की है और उनके जरिये हम चाहते हैं कि बालक में एक विराट चरित्र की रचना करना। सच पूछा जाए तो बालक हमारे आगे पहले पहल एक वमान-विराट का ही रूप लेकर उपस्थित होता है जिसे हमारी प्राथमिक शिक्षा, उनके लिए रचा गया शिक्षाशास्त्र, शिक्षा प्रशिक्षण और शिक्षा नीतियां सब मिलकर बौना करती रहती हैं और अंतत: शिक्षा से उपजने वाले आदमी का वामनीकरण्ा या बौनाईकरण हो जाता है। हमने अपनी शिक्षा में विराटता के हर संस्कार को कुचल डाला है और यह वजह है कि हमारी शिक्षा अच्छा मनुष्य नहीं रच पा रही है, अच्छा नागरिक नहीं रच पा रही है और तो और एक अच्छे बालक को भी अच्छा रहने नहीं दे पा रही है।
गिजुभाई ने बालक में बालदेव के दर्शन किये थे और बालक की मुक्ति की उनमें एक ईमानदार छटपटाहट थी। उन्होंने बालक की शिक्षा को लेकर कोई शिक्षाशास्त्री प्रवचन नहीं दिया बल्कि वे बालक के लिए जुटे और मिटे। उन्हें प्राथमिक शाला जहां बालक सचमुच बालक होता है, शिक्षा के नाम पर दुर्भाग्य की तरह लगीं। आज से सौ साल पहले भी उन्होंने वही परिदृश्य देखा था जो आज भी है और जो व्यक्ति अपने आप से कटा हो, अपनी जीविका के सर्वश्रेष्ठ साधन के प्रति आस्थाहीन हो, अपने आप से कटा हो, अपने समाज से कटा हो, अपनी जीविका के सर्वश्रेष्ठ साधन के प्रति आस्थाहीन हो, अपने बालक से कटा हो, अपने समाज से कटा हो उसके हाथ में जब प्राथमिक शिक्षा का सबसे कोमल तत्व सौंपा जाता है तो वह कैसे उसे कोमल रहने देगा ? उसकी अपनी रसहीनता, क्रूरता, कठोरता, औछाई, अशिष्टता आदि ऐसी बातें हैं जिनमें एक बालक सतत जीता है। जिस प्राथमिक शिक्षा के वातावरण का हर अक्षर विकृत हो वहां से बालक रसमय और आनंदमय वाक्य-ध्वनियों लकर कैसे आगे बढ़ सकेगा ?
गिजुभाई ने ”प्राथमिक शाला में भाषा शिक्षा ” नामक पुस्तक में एक शिक्षक व बालक के बीच की उस प्रक्रिया को टटोला है जिससे बालक के भाषा शिक्षा की बुनियाद तैयार होती है। इस पुस्तक के चार खण्ड़ों में भाषा विभिन्न पहलुओं को तार्किक और प्रायोकिग ढंग से रखने की कोशिश गिजुभाई ने की है। उन्होंने कोई भाषा वैज्ञानिक सिध्दांत नहीं रचा, बल्कि भाषा सीखने की उन मूल गतिविधियों और गतियों को पहचाना ळै जो हमारी प्राथमिक शालाओं को नयी राह दिखा सकती है।
गिजुभाई ने प्रथम खण्ड वाचन शिक्षण से प्रारंभ किया है। सन् 1920 में माइकल वेस्ट ने भी अपने न्यू मेथड़ के अतंर्गत भाषा सीखने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व वाचन या पढ़ना ही माना था जो आज फ्रेंक स्मिथ भी वही मानता है। पहले पहल मूलाक्षरों के सिखाने को लेकर गिजुभाई ने बालक के हाथ में स्लेट बत्ती देने के बजाय एक क्रिया प्रधान शैली की बात कही है। रेत के अक्षरों की सहायता से सिखाना वे प्राथमिक शाला में एक पहली आनंदप्रद क्रिया मानते हैं। अकेली आंखों की सहायता से अक्षर सिखाने की क्रिया बच्चों की नज़र बचपन में ही कमजोर कर देती है। आंखों की स्मृति से अक्षर ज्ञान देने से हाथ की स्वाभाविक क्रियाऐं वंचित रह जाती हैं। समानाकारी अक्षर, रेत पर अक्षर, लकड़ी की पटटी पर कील से अक्षर, अक्षरों पर बारी बारी से तर्जनी और बीच की उंगली घुमाने की क्रिया और खेल खेल में अक्षर आकृतियों की रचना को गिजुभाई ने उस स्थिति में ठीक माना है जब शिक्षक परंपरा में रह कर भी यह काम करना चाहता है।
चल-मूलाक्षर और गिजुभाई :
गिजुभाई का मानना है कि आरंभ से ही समझकर पढ़ना सिखाने के लिए और लेखन की अप्रत्यक्ष तैयारी कराने के लिये चल-मूलाक्षरों का साधन व्यवहार में लाने योग्य हैं। वे कार्ड बोर्ड पर मूलाक्षर काट कर रखने, रेजमाल या रेती के काग़ज़ पर काले अक्षर जिनका आकार दो दो इंच का हो, बनाकर दो समूहों में रखने की बात करते हैं। स्वर और व्यजंन के अलग अलग चल अक्षर हो सकते हैं, उनकी मात्राओं का अलग रंग हो सकता है और एक खानेदार पेटी बनाकर इन अक्षरों और मात्राओं को उन पर घुमाकर अक्षर सिखाने की बात करते हैं। शुरू में यह जटिल हो सकता है मगर एक बार खेल की तरह यह काम करने पर चल अक्षरों और मात्राओं के साथ खेलकर बालक लेखन की तरफ तेजी से बढ़ सकता है।
बारहखड़ी का शिक्षण :
बारहखड़ी शिक्षण के लिए गिजुभाई का मत है कि काना, ह्नस्व-इ, दीर्घ ई, छोटा उ, बड़ा ऊ ये कई कठिन बातें हैं। इनमें से काना से आरंभ करना, दीर्घ ई, दीर्घ ऊ एक मात्री काना से प्रारंभ करना वे उचित मानते हैं। दीर्घ ह्नस्व का भेद बालक बहुत जल्दी सीख लेते हैं जिसके लिए वे विशेष शिक्षण आवश्यक नहीं मानते हैं। यहां भी वे चल मूलाक्षर का प्रयोग आवश्यक मानते हैं। म-गत्ते पर दिखाकर मात्रा लगाकर ”मा” बनाना आदि। लिखने में एक बहुत ही गलत आदत यह होती है कि बालक जब लिखना बोलकर करता है तो लिखता ”क” मगर बोलता ”का” है। इससे आगे चलकर उसमें मात्रा भ्रम पैदा होता है। इस पर शुरू से ध्यान देना आवश्यक है।
वाचन और गिजुभाई :
वाचन को गिजुभाई ने भाषा सीखने का सबसे अच्छा पहलू माना है व वाचन का सीधा रिश्ता जीवन संदर्भ से ढूंढते हैं और इसलिए सबसे पहले चिट्ठी वाचन को एक महत्वपूर्ण क्रिया मानते हैं। वर्णमाला सीखने के बाद वाचन को उस मुकाम से प्रारंभ करना जो जीवन के सबसे निकट हो, जिसमें जिज्ञासा और उत्कंठा हो और जिसके संदेश को पढ़कर बच्चा समझने के लिए लालायित हो। इसलिए चिट्ठी को गिजुभाई सर्वाधिक प्राथमिक काम मानते हैं। चिट्ठियों के माध्यम से अनेक परिवेशीय विषय, पारिवारिक विषय और सूचना विषय एक साथ बच्चों को दिये जा सकते हैं। शब्द पोथी के वाचन में वे बालक के परिवेश और अनुभवों का एक शब्द संसार चाहते हैं। संयुक्ताक्षरों के बिना बच्चों को कहानी के संसार में नहीं ले जाया सकता। इसलिए बारहखड़ी के बाद यह क्रिया आवश्यक हैं, यहां भी जुड़वा अक्षरों की सेट प्रणाली को गिजुभाई उपयुक्त मानते हैं जो खेल की तरह हो सकती है। आदर्श वाचन यद्यपि बहुत अधिक उपयुक्त तो नहीं माना जाता मगर गिजुभाई वाचन को भी एक कला की तरह मानते हैं जो सहपाठी या शिक्षक मिलकर कर सकते हैं। वाचन का चुनाव वे पढ़ने के पहले आवश्यक मानते हैं। सार्थक, मनोरंजन और विचार के लिए वाचन चयन, वाचन की अनुकूलता, वाचन की योग्यता का विकास, वाचन के विवेक का इस्तेमाल तो वे अत्यंत आवश्यक मानते ही हैं साथ ही शाला के वाचन कर्म को भी पाठयपुस्तकीय जडता से मुक्त करने के लिए स्तर वाचन को आवश्यक ठहराते हैं। मूक वाचन को समझने और गृहणशीलता के आधार पर अपनाना भी बहुत जरूरी है और प्रथम भाषा में मौखिक वाचन इसलिए भी उपयुक्त है कि कई चीजें हमें पढ़कर सुनानी होती हैं। अत: उच्चारण के साथ वाचन भी एक क्रिया की तरह की जाना आवश्यक है। शाला और शाला के बाहर वाचन को आज तक कभी एक गंभीर भाषा शिक्षण प्रणाली की तरह लिया ही नहीं गया। आज तो हालत यह तक है कि हमारा शिक्षक स्वयं वाचन के अनेक दोषों से ग्रस्त है। वाचन की गति और समझ का वह कोई रिश्ता ही नहीं जानता। वाचन का तर्क, वाचन की समझ, वाचन से उपजने वाले सवाल ये सब हमारे शिक्षाशास्त्रियों ने अपने सिध्दांतों की पेटी में बंद कर रखे हैं और इसलिये हमारे पास जो शिक्षा सरंचना है उसका तथाकथित शिक्षाविद या शिक्षक – प्रशिक्षक पढ़ने से नफरत करता आदमी है, जो पढ़ने से नफरत करने वाला शिक्षक रचता है और वही शिक्षक शालाओं में जाकर ऐसा विद्यार्थी पैदा करता है, जो पढ़ने की स्कूली नफरत का जिंदा उदाहरण है।
लेखन शिक्षण और गिजुभाई
गिजुभाई लेखन शिक्षण को रेखा चित्रण से प्रारंभ करते हैं। रेखाएं खींचने का उददेश्य हाथ से अक्षर और चित्र के लिए स्थिर और उन्मुक्त बनाना है। यहां बच्चों के उस मनोविज्ञान पर ध्यान देना आवश्यक है जो अक्सर पेंसिल घिसकर बच्चे बड़ों की नकल करके करना चाहते हैं। उंगलियों को कलम पकड़ने का तरीका, पेंसिंल पर काबू, इच्छानुसार मोड़न और आकृतियों से अक्षर आकृति तक जाने के खेल बच्चों को खिलाना, लेखन की पहली जरूरत है।
श्रुत लेखन से लेखन में गति और सुन कर सही लिखने की आदत, लेखन अभ्यास से हिज्जों या वर्तनी का सही लेखन, शुध्द अशुध्द की पहचान, शब्दों का पृथककरण जिसे गिजुभाई वाणी का शब्द संगीत कहते हैं अर्थात शब्दों को अर्थ और संदर्भ के अनुसार इस तरह अलग अलग करना कि वे बोले जाने पर मधुर और कोमल लगें, लययुक्त लगें, वाक्य लय, सुंदर-लेखन, जैसी क्रियाओं को यांत्रिक खेलकर्म की तरह मानते हैं। इन्हें यदि मनोरंजन यांत्रिक क्रिया मान भी लिया जाये तो इनसे आसान होगा और आगे चलकर पत्र लेखन जैसी व्यावहारिक क्रिया को अधिक समझ के सज्ञथ बालक कर सकेगा। पत्र अपनी बात को कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक संदेश के साथ कहने की विधा है। निबंध लेखन एक समूचा सर्जनात्मक कर्म है जो लेखन की सर्वोच्च कुशलता के साथ कल्पनाशीलता और सृजनात्मकता का उत्कृष्ट उदाहरण है। वह कला भी है और कर्म भी। आज जो निबंध लेखन छोटी से बड़ी कक्षा तक प्रचलित है वह पूरे भाषा ज्ञान और व्यवहार का मजाक उडाता है। भाषा शिक्षण के सर्वश्रेष्ठ पहलू की निर्मम हत्या अध्यापक और छात्र मिलकर प्रतिदिन करते हैं। यदि भाषा के इस व्यवहार की रक्षा नहीं की गई तो जिस भाषा विहीन पीढ़ी को आज हम कोस रहे हैं वहएक रसहीन, कल्पनाहीन, क्रूर और हिंसक पीढ़ी ही बनेगी।
कविता शिक्षण और गिजुभाई
कविता का गिजुभाई भाषा का सर्वाधिक आनंदमय पक्ष मानते हैं। लोकगीत और लोक संगीत में निहित कविता का उपयोग जब स्कूल और पाठयपुस्तकें नहीं करतीं तो उन्हें लगता है कि प्राथमिक शाला में सबसे पहले बालक को उसके स्वाभाविक गीत से उनके अपने संगीत से वंचित किया जाता है। कविता बालक की कल्पना, लय और आनंद का विस्तार है। शालाओं में प्रचलित प्रार्थनाओं और शिक्षाप्रद कविताएं बालक के लिए उब का दंड हैं। बालोचित कविताऐं, जिनसे बालक अपने आप खेल सकें, जिन्हें अपने आप बोल सकें, गा सकें, उसके अंदर का संगीत पहचान कर उसके स्वर छेड़ सकें, बालक की पहली जरूरत है, जहां से हम ले चलकर उसे भाववाचक कविताओं और उनकी अपनी समझ तक ले जा सकते हैं। कविता पहले पहल आनंद हो, फिर रस हो, फिर भाव हो, फिर अर्थ हो तो वह कविता है, वरना अर्थ की निकम्मी आदतों से कविता का वरिचय कराना शिक्षा व भाषा शिक्षण दोनों कं प्रति अपराध ही कहा जाएगा।
व्याकरण और गिजुभाई
व्याकरण शिक्षण अकेले में या पृथक से किया जाने वाला कर्म नहीं है जो आम तौर से शिक्षक कक्षाओं में करते हैं। कितनी अजीब बात है कि कई स्कूलों में तो व्याकरण का घंटा ही अलग से रखा जाता है मानो व्याकरण्ा भाषा का हिस्सा न होकर करेई गणित का विषय हो। भाषा में उसकी रचना और उसका व्याकरण अपने आप बुना होता है। उस बुनावट की पहचान और पहचान कर इस्तेमाल की समझ ही तो आवश्यक है। अनुच्छेदों , परिच्छेदों, वाक्यों, वाक्य समूहों में से खेल खेल कर संज्ञाप्रद, क्रियापद, सर्वनाम पद, विशेषण पद खोजे जा सकते हैं। एक वचन, बहुवचन, स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, क्रिया पद संज्ञापद पहचान ये सब ऐसे खेल हैं जिन्हें गिजुभाई ने अपने दिवास्वप्न में अध्यापक लक्ष्मीशंकर के माध्यम से सफलता के साथ बिताये हैं। मगर आज भी परिभाषाऐं रचने वाले और परिभाषाओं की परीक्षा लेने वाले शिक्षक मौजूद हैं। व्याकरण भाषा शिक्षण का सर्वश्रेष्ठ खेल है जिसे हम सबसे कठोर और कठिन विषय की तरह जब पढ़ाते हैं तो यह लगता है कि बालक घर से तो भाषा सीख कर चला था मगर स्कूल में पहुंचकर उसे भूलने लगा।
फे्रंक स्मिथ की किताब एक ओर हमारी स्ािापित मान्यताओं को हिलाती है, तो दूसरी ओर ऐशवर्थ हमें भाषा के क्रिया प्रधान और कल्पना-प्रधान संसार की सैर कराता है। ऐसे गिजुभाई कहते हैं कि भाषा बालक का प्रथम संस्कार है। भाषा ही वाणी है और आगे चलकर हमारा समूचा शिक्षि कर्म भाषा में ही होता है। भाषा हर प्रकार के ज्ञान और आनंद का माध्यम है। वह एक गतिशील प्रणाली है जिसे हमने स्कूली व्यवस्था और शिक्षकीय बुध्दि से ता जड़ कर ही रखा है और इस जड़ता को बढ़ाते हैं हमारे प्रशिक्षण स्थल, जहां भाषा का अधिक इस्तेमाल अनुशासन के विरूध्द है, जहां बोलना मना है, प्रश्न करना मना है, तर्क करना मना है। भाषा संवादजीवी है, संप्रेषणजीवी है, उसे हमारे विद्यालय और प्रशिक्षालय मिलकर मौनजीवी बना रहे हैं। भाषा विहीनबालक नहीं हो रहा है बल्कि हम, हमारी शिक्षा और शिक्षक मिलकर उसे भाषा विहीन करने और बने रहने देने का एक षडयंत्र कर रहे हैं। जिस लोकतंत्र का बचपन भाषाविहीन रखकर स्कूल शिक्षाकर्म कर रहे हैं यदि वहां का लोकतंत्र गूंगे और अन्यायग्रस्त नागरिकों का लोकतंत्र बन कर रह जाए तो इसमें आश्चर्य ही क्या ?
विस्तृत और अच्छी जानकारी के लिए पढ़िये गिजुभाई की वे दस पुस्तकें जो उन्होंने भारतीय बालक, शिक्षा और शिक्षक को समर्पित की है। फिलहाल तो प्राथमिक शाला में शिक्षक और प्राथमिक शाला में भाषा शिक्षा भी हमारे शिक्षक के लिए पर्याप्त हैं।
पत्रकारिता विश्वविद्यालय में चित्रकार मनीष पुष्कले का व्याख्यान
भोपाल 13 अक्टूबर। रजा फेलोशिप से सम्मानित अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त चित्रकार मनीष पुष्कले का कहना है कि भारत में कला एवं सांस्कृतिक समीक्षा का स्तर दुनिया के तमाम देशों के मुकाबले काफी पिछड़ा हुआ है। भारत में आलोचना केवल रिपोर्ताज तक ही सीमित है, इस कारण भारत में अच्छे आलोचकों एवं समीक्षकों की कमी है। श्री पुष्कले बुधवार को माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंपर्क विभाग द्वारा ’व्यावसायिक संचार का सौंदर्यशास्त्र’ विषय पर एक सेमीनार को संबोधित कर रहे थे।
उन्होंने छात्रों से कहा कि वे कला आलोचना के प्रति अपनी समझ विकसित करें और इस क्षेत्र में आगे आएं, क्योंकि इस क्षेत्र में असीम सम्भावनाएं हैं। पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र रहे मनीष पिछले बीस सालों से कला के क्षेत्र में सक्रिय हैं अपने छात्र जीवन को याद करते हुए उन्होंने कहा कि पत्रकारिता विश्वविद्यालय के परिसर ने उन्हें बहुत कुछ सिखाया है। मनीष पुष्कले के चित्रों की 500 से ज्यादा प्रदर्शनियां लग चुकी हैं। भारत के अलावा 55 अन्य देशों में भी उनके चित्रों की प्रदर्शनी हो चुकी है। मनीष ने पढ़ाई के दौरान विश्वविद्यालय में बिताए गए समय के अनुभवों को छात्रों के साथ बांटा, उन्होंने कहा कि इसके चलते वह भाषा के प्रति अपनी एक नई नजर और बेहतर समझ विकसित कर पाए, जिससे उनकी भाषा को मजबूती मिली। उन्होंने कहा कि भाषा का चित्रों की अभिव्यक्ति में काफी अहम योगदान रहता है। उन्होंने छात्रों से कहा कि वह भाषा का सिर्फ एक योग्यता तक सीमित न रखें, बल्कि वह भाषा के प्रति श्रद्धा भी रखें। मनीष का कहना था कि हमारी देश में भाषा का इतिहास काफी गौरवशाली रहा है, हमारे देश ने चार धर्म दिए हैं, कई महाकाव्य दिए हैं। उन्होंने भाषा में नई सम्भावनाओं को तलाशने पर जोर दिया। साहित्य को उन्होंने वैचारिक शक्ति व भाषाई समझ विकसित करने वाला माध्यम बताया। छात्रों को प्रोत्साहित करते हुए उन्होंने कहा कि वे जीवन की आपाधापी में अपने सपनों को देखना बन्द न करें बल्कि उसको जीने की कोशिश करें। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए पत्रकारिता विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. कमल दीक्षित ने कहा कि अपने छात्रों को ऊंचाईयाँ छूते देख उन्हें काफी खुशी होती है। इस दौरान विश्वविद्यालय के शिक्षक व बडी संख्या में छात्र-छात्राएं मौजूद रहे। संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी एवं आभार जनसंपर्क विभाग के अध्यक्ष डॉ. पवित्र श्रीवास्तव ने व्यक्त किया।
जैसे पूरी पृथ्वी पर कोरियोलिस इफेक्ट एक समान है, और नदियों का बहाव इस तरह होता है कि सदैव दाहिना किनारा कटता और टूटता है, जबकि बाढ़ का पानी बाएं किनारे पर फैलता है, उसी तरह धारती पर लोकतांत्रिक उदारवाद के सभी रूप दक्षिणपंथ पर चोट करते हैं और वामपंथ को गले लगाते हैं। उनकी सहानुभूति सदैव वामपंथ के साथ रहती है, उन के पांव केवल बाईं दिशा में चलने को प्रस्तुत रहते हैं, उनके व्यस्त सिर सदैव वामपंथी तर्कों को सुनने के लिए हिलते हैं- किंतु यदि वे दक्षिणपंथ की ओर से एक बात सुनने के लिए कोई कदम उठाएं तो लज्जा अनुभव करते हैं।1
-अलेक्सांद्र सोल्झेनित्सिन, नवंबर 1916: लाल चक्र/द्वितीय गांठ
1.
आज धरती पर मार्क्सवादी-लेनिनवादी राजनीति अप्रासंगिक हो चुकी है। जहां इस की उत्पति हुई थी, उन यूरोपीय देशों में अब इसका नामलेवा भी कठिनाई से मिलता है। तब क्यों भारत में न केवल यह अब भी प्रभावी है वरन् इसकी शक्ति बढ़ी प्रतीत होती है? भारतीय नीति-निर्माण, विशेषकर शिक्षा, संस्कृति और अंतर्राष्ट्रीय संबंध में इसका दखल पहले से बढ़ा है। यही नहीं, महत्वपूर्ण नियुक्तियों में मार्क्सवादियों की पसंद-नापसंद की निर्णायक भूमिका देखी जा रही है। इस चिंताजनक स्थिति के कारण विविध हैं, जिनमें कुछ हमारा दुर्भाग्य भी है। सभी बिंदुओं को ठीक-ठीक समझे बिना इस व्याधि का उपचार होना कठिन है।
वामपंथ की अपील एक भूमंडलीय व्याधि है, यह तो स्पष्ट है। मार्क्सवादी राजनीति के सभी दावों की पोल खुल जोने के बाद भी आज भी, हर कहीं, जब-तब, किसी विषय पर, वामपंथी शब्दजाल, यहां तक कि उसकी घातक-से-घातक अनुशंसाओं को भी आदर से देखा जाता है। इसका मुख्य कारण यही है कि वह निर्धान, दुर्बल जनों की पक्षधारता के रूप में प्रस्तुत की जाती है। चाहे व्यावहारिक परिणाम में वह दुर्बलों की और दुर्गति करने वाली ही क्यों न हो, किंतु जब कोई विचार वामपंथी शब्दजाल में आता है, तो अच्छे-अच्छे समझदार सहानुभूति में सिर हिलाते हैं। इसी को भूगोल के ‘कोरियोलिस इफेक्ट’ के रूपक से सोल्झेनित्सिन ने सटीक व्याख्यायित किया है।
किंतु भारत में वामपंथी प्रभाव बनने, बढ़ने के स्थानीय कारण भी रहे। ब्रिटिश शासन रहने के कारण हमारे उच्च वर्ग की कई पीढ़ियां औपनिवेशिक शिक्षा से दीक्षित हुई। जिसने सचेत रूप से भारतीय दर्शन, चिंतन, परंपरा एवं संस्कृति को हीन तथा पश्चिमी चिंतन को श्रेष्ठ प्रचारित किया था। सत्ता, शक्ति व निरंतर प्रचार के दबाव में यह भी दिखाया गया मानो भारत की पराधीनता में उस श्रेष्ठता का भी हाथ था। चूंकि मार्क्सवादी, वामपंथी विचारधाराएं भी पश्चिमी उत्पति हैं, अत: उन्हें भी महत्व दिया गया। उन्नीसवी-बीसवीं शती में हमारे देश के अनेक भावी नेता और भावी विद्वान पढ़ने इंग्लैंड गए, और वहां के प्रचलित फैशन वामपंथ से प्रभावित हो लौटे।
यही नहीं, भारत के हिंदू चिंतन, स्वदेशी राजनीतिक कार्यक्रमों, मानदंडों को अपदस्थ करने के लिए हमारे क्रांतिकारियों को मार्क्सवाद की ओर झुकाने और इस प्रकार पथभ्रष्ट करने का कार्य स्वयं अंग्रेज शासकों ने भी किया। जेल में भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को मार्क्सवादी पुस्तक-पुस्तिकाएं पढ़ने के लिए देना इस उद्देश्य से था कि वे स्वेदशी आंदोलन (1905-1910) की विशुध्द भारतीय राष्ट्रवादी, क्रांतिकारी परंपरा से दूर हों। इस प्रकार बंकिमचंद्र, स्वामी दयानंद, लोकमान्य तिलक, स्वामी विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, श्री अरविंद प्रभृत मनीषियों, क्रांतिकारियों की सशक्त प्रेरणाओं से विमुख हों। अनुभव तथा दूरदृष्टि रखने वाले अंग्रेज जानते थे कि वह देसी प्रेरणाएं उनकी औपनिवेशिक सत्ता के लिए अधिक घातक है। इसलिए उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद को विभाजित और रोगग्रस्त करने के लिए मार्क्सवादी कीटाणुओं को फैलाने में स्वयं भी एक भूमिका निभाई थी। यह भी स्मरण रहे कि 1947 तक भारतीय कम्युनिस्टों का संचालन, निर्देशन प्राय: ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के माध्यम से होता रहा।
भारत को मजहबी आधार पर विभाजित करने तथा पाकिस्तान बनवाने में भारतीय कम्युनिस्टों की महत्वपूर्ण भूमिका को भी उसी पृष्ठभूमि में समझा जाना चाहिए। भारतीय राष्ट्रवाद को विखंडित करने में ब्रिटिश साम्राज्यवाद, इस्लामी साम्राज्यवाद तथा कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद, इन तीनों ने अलग-अलग और मिलकर भी काम किया था। इस महत्वपूर्ण तथ्य को स्वतंत्र भारत में छिपाया गया। इसी कारण हमारी युवा पीढ़ी आसन्न इतिहास की भी कई मोटी बातें भी नहीं जानती। यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि स्वतंत्र भारत के दुर्भाग्य से इसके पहले प्रधाानमंत्री ही पक्के कम्युनिस्ट समर्थक थे। महात्मा गांधाी ने अपने निजी प्रेम व मोह में जवाहरलाल नेहरू को अकारण, अनावश्यक रूप से अपना ‘उत्तराधिकारी’ घोषित कर, इस प्रकार अपनी प्रतिष्ठा का प्रयोग कर के उन्हें सत्ता दिला दी। जबकि नेहरू अपने विचारों, नीतियों, चरित्र आदि किसी बात में गांधी से मेल नहीं खाते थे। नेहरू विचारों में पक्के सोवियतपंथी थे, इसका प्रमाण उनका संपूर्ण लेखन-भाषण है।
नेहरूजी के नेतृत्व में बल-पूर्वक, सत्ता के दुरूपयोग, सेंशरशिप, प्रलोभन-प्रोत्साहन-हतोत्साहन तथा अलोकतांत्रिक तरीकों से यहां मार्क्सवाद- लेनिनवाद तथा सोवियत संघ व लाल चीन के प्रति आलोचनात्मक विमर्श को रोका गया। (देखें, सीताराम गोयल, जेनिसिस एंड ग्रोथ ऑफ नेहरूइज्म, खंड 1, 1993, पृ. अपप.गपपए 11.28)। भारत में जो ऐतिहासिक संघर्ष रामस्वरूप जी की पुस्तिका ‘लेट अस फाइट द कम्युनिस्ट मीनेस’ (1948) जैसे कई गंभीर प्रकाशन तथा ‘सोसाइटी फॉर डिफेंस ऑफ फ्रीडम इन एशिया’ (1952) की स्थापना के साथ आरंभ हुआ था, उसे यदि नेहरू ने अनैतिक तरीकों से शुरू में ही दबोच कर नष्ट न किया होता तो भारत में मार्क्सवादी दबदबा कायम नहीं हो सकता था। वह तरीके थे, उदाहरणार्थ: किसी पुस्तक प्रदर्शनी में स्वयं अधिकारियों द्वारा (पार्टी कार्यकर्ताओं या गुंडों द्वारा नहीं) इनके प्राची प्रकाशन का स्टॉल जबर्दस्ती बंद करवा कर (कलकत्ता, अप्रैल 1954); नौकरी से निकलवाकर; पोस्टल विभाग द्वारा नियमानुरूप प्राप्त की गई सुविधा को अवैध तरीके से छीनकर (1953); विदेश में कम्युनिज्म विरोधी सम्मेलनों में जाने से रोकने के लिए बिना कारण बताए पासपोर्ट न देकर (मई 1955); भारत में कम्युनिस्ट-विरोधी सम्मेलनों को विफल बनाने के लिए महत्वपूर्ण लोगों को कह-सुन कर उसमें जाने से रोक कर; प्रेस में वैसे कार्यक्रमों की चर्चा को गुम या कम करवा कर; आयोजकों-लेखकों को खुफिया पुलिस द्वारा परेशान करवा कर; अखबारों में महत्वपूर्ण पदों पर कम्युनिस्टों और उनसे सहानुभूति रखने वालों को नियुक्त करवा कर; उनके माधयम से प्रेस में कम्युनिस्ट विरोधी लेखकों, राष्ट्रवादी विद्वानों पर तरह-तरह के लांछन लगवाकर; आदि। ऐसे तरीकों से नेहरूजी के समय में इस वैचारिक आंदोलन को खड़े होने से पहले ही गिरा दिया गया था। लगभग उन्हीं जबरिया तरीकों से जैसे कम्युनिस्ट देशों में ‘क्रांतिविरोधी’ या ‘प्रतिक्रियावादी’ संगलनों, विचारों, संस्थाओं को धवस्त किया जाता रहा है। भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की सीमाओं के कारण इसमें जो मर्यादा रही हो, यह और बात है। नेहरूजी को बड़ा लेखक, बुध्दिजीवी माना जाता है। किंतु कम्युनिस्ट विचारों का प्रचार वह जोर-जबर्दस्ती के सहारे ही कर सके थे। वह तो माओत्से तुंग द्वार 1962 में लगाए गए तमाचे ने खेल खराब किया और कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद की वास्तविकता दिखा। भारतवासियों को एक गहरा झटका दिया अन्यथा नेहरूजी फिडेल कास्त्रो वाले रास्ते पर जा रहे थे।
इस तरह छल, बल, प्रपंच, सत्ता के दुरूपयोग आदि सब प्रकार से इसकी पूरी व्यवस्था की गई कि अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन के कुकर्मों को भारतीय जनता न जान सके, बल्कि उसके प्रति सहानुभूतिशील हो। ध्यान रहे, सरदार पटेल के 1950 में आकस्मिक निधन के बाद नेहरू का हाथ रोकने वाला भी न रहा। अन्य राष्ट्रवादी या तो किनारे कर दिए गए या उन्होंने चुप्पी साधा ली। इस परिस्थिति में नेहरूजी ने केवल कम्युनिस्ट विचारधारा ही नहीं, बल्कि भारत-विभाजन कराने वाले कम्युनिस्टों को भी वैचारिक-राजनीतिक रूप से ऊंचा स्थान दिलाया। चूंकि वह काल स्वतंत्र भारत की नीतियों-परंपराओं की स्थापना का भी था, इसलिए वामपंथी मिथ्याचारों, भ्रमों, नारों आदि को आधिकारिक रूप से जो प्रथम स्वीकृति मिली, उसने कालांतर में स्थापित मूल्यों का स्थान पा लिया। उसका दबदबा आज भी चल रहा है।
इस दुर्भाग्यपूर्ण प्रक्रिया को इससे और सुविधाा हुई कि गैर-वामपंथी, राष्ट्रवादी विचारों वाले लोग, संगठन और संस्थाओं ने उसके घातक परिणामों को नहीं समझा। इसलिए कोई कड़ा, संगठित विरोधा नहीं किया। कुछ लोग तो उल्टे सोवियत, चीनी, कम्युनिस्ट प्रचारों की कई बातों को सत्य मान बैठे। इसलिए लेनिनवाद की साम्राज्यवादी विचारधारा, उसके घातक नारों, प्रस्थापनाओं, उसके निहितार्थों के प्रति जनता को शिक्षित करने के स्थान पर उसे भी एक विचार के रूप में आदर देने लग गए। बल्कि सामंजस्य बिठाने तक का प्रयास करने लगे। यह शतियों पुरानी हिंदू भूल का ही दुहराव था, जो बाहरी, साम्राज्यवादी विचारधाराओं का गंभीर अध्ययन करने के प्रति उदासीन रही और कुछ ऊपर झूठी-सच्ची बातों के आधार पर उसके बारे में कामचलाऊ राय बना कर अपने कर्तव्य का अंत समझती है। भारत-विरोधी, शत्रुतापूर्ण विचारों के प्रति यह आत्मघाती सहिष्णुता; स्थायी वैरभाव से भरी आक्रामक विचारधाराओं को बिना ठीक से जाने उनके प्रति भी ‘सम’ भाव दिखाना -हिंदुओं की इस पुरानी भूल का भी लाभ कम्युनिस्ट राजनीति को मिला।
इन्हीं संयुक्त दुर्भाग्यों का परिणाम था कि जब सभी विकसित, सभ्य देशों में समय के साथ कम्युनिज्म के सिध्दांत-व्यवाहर की पोल खुलने लगी, तब भी स्वतंत्र भारत में उसके प्रति शिक्षित लोगों में भ्रम बना रहा। इस बीच नेहरू से लेकर इंदिरा जी तक के दौर में कम्युनिस्टों ने शैक्षिक, वैचारिक, नीति-निर्माण संस्थानों में गहरी घुसपैठ बनाई। राष्ट्रवादी विचारों वाले नेताओं और विद्वानों ने इसका विशेष प्रतिरोधा नहीं किया। फल हुआ कि विद्वत-संस्थाओं, पाठय-पुस्तकों, समाचार-पत्रों आदि पर कम्युनिस्टों के पर्याप्त नियंत्रण के माधयम से देश की नई पीढ़ी को वैचारिक रूप से भ्रष्ट, अशक्त किया गया। आज प्रशासन, मीडिया, विद्वत-जगत आदि सभी क्षेत्रों में नेतृत्वकारी स्थानों पर ऐसे लोग भरे पड़े हैं जो सचेत या अचेत रूप से भारतीय सभ्यता-संस्कृति के विरूध्द हैं। वे हर उस चीज की वकालत करते हैं जिसके लिए कम्युनिस्ट, इस्लामी या मिशनरी संगठन प्रयत्नशील हैं। हिंदू समाज को निर्बल बनाने तथा तोड़ने एवं भारत को तरह-तरह से विखंडित करने के सभी बाहरी प्रयासों को हमारे प्रबुध्द, सत्तासीन वर्ग का मानो उदार समर्थन प्राप्त है। उन प्रयासों की हर आलोचना उन्हें ‘हिंदू सांप्रदायिकता’ लगती है। यह अनायास नहीं हुआ। इसके पीछे वह पृष्ठभूमि है जिसकी ऊपर संक्षिप्त चर्चा है।
दुर्भाग्यवश राष्ट्रवादी भारतीयों एवं हिंदू उच्च-वर्ग की कमियां आज भी यथावत् हैं। पिछले सौ वर्ष के कटु अनुभवों के बाद भी वे भीरूता और भ्रम के शिकार हैं। बल्कि यह भी उदासीनता का ही संकेत है कि एक उदार लोकतंत्र में रहते हुए भी उन्हें हाल के इतिहास और वर्तमान घटनाक्र्रमों की भी कई गंभीर बातों का कुछ पता नहीं रहता। 1947 में एक झटके में भारत का विभाजन इसीलिए संभव हुआ था-क्योंकि लाहौर, करांची, ढाका और बंबई, इलाहाबाद, मद्रास के भी प्रबुध्द, प्रभावी, धानी-मानी हिंदू ऐसी किसी चीज की कल्पना ही नहीं करते थे। वे भी, आज की तरह, ‘जनता तो एक है’ ‘सभी धार्म समान हैं’, ‘हमारी संस्कृति साझी है’, ‘हर विचारधारा में अच्छी बातें हैं’ तथा ‘केवल राजनीति वाले गड़बड़ी करते हैं’ जैसे बाजारू, झूठे जुमले दुहरा कर अपना बौध्दिक, राष्ट्रीय कर्तव्य समाप्त समझते थे और मजे से अपने-अपने उद्योग, व्यापार, साहित्य या कला की दुनिया में मगन थे। इसीलिए जब एकाएक साम्राज्यवादी विचारधााराओं का एक निर्णायक, समवेत प्रहार हुआ ते वे हतप्रभ् उसकी मार झेलने के सवा कुछ न कर सके। कृपया धयान दें: 1947 में भी संपूर्ण भारतीय जनसंख्या में प्रत्येक इस्लामी राजनीतिकर्मी, कम्युनिस्ट कार्यकर्ता, ईसाई-मिशनरी प्रचारक अथवा ब्रिटिश अधिकारी की तुलना में राष्ट्रवादी विचारों वाले दस-दस सुशिक्षित, संपन्न, स्वस्थ हिंदू मौजूद थे। एक के अनुपात में दस और समर्थ होकर भी वे कुछ क्यों न कर सके? क्योंकि वे वैसे आघात के लिए तैयार न थे।
इस प्रकार, भारतीय सभ्यता के प्रति स्थायी वैर-भाव से भरी शत्रु विचारधाराओं के प्रति भ्रम, उदासीनता और तैयारी न होने से ही भारत को को छल से तोड़ा गया था। किंतु आज भी वह विचारधाराएं यथावत् अपने प्रयास में जुटी हुई हैं। और आश्चर्य की बात है कि आज भी हमारा उच्च वर्ग उसी तरह अपनी अज्ञानी या स्वार्थी दुनिया में निश्चिंत बैठा है। वह सेंसेक्स, प्रति व्यक्ति आय, कथित विकास के आंकड़ों पर फूल कर, सड़कें, बिल्डिंगे बनवा कर, इंडिया शाइनिंग और सेक्यूलरिज्म की रट लगाकर एवं हर समुदाय के उत्कृष्ट प्रतिनिधियों की ओर निहार कर स्वयं को और देश को सुरक्षित समझता है। किंतु कश्मीर, असम, नागालैंड, मेघालय आदि की फिसलती हालत से आंख मिलाने से कतराता है – जहां मुट्ठीभर कटिबध्द इस्लामी, ईसाई-मिशनरी नेता और पश्चिमी-अरबी धान से चलने वाले संगठन भारत से इंच-इंच धारती छीन रहे हैं। इस ज्ञात संकट से आंख मिलाने के बदले भारत का हिंदू उच्च-वर्ग उन्हीं वैरी विचारधााराओं के ही थमाए गए झूठे नारे दुहरा कर प्रसन्न, शुतुरमर्ग की तरह आश्वस्त रहना अथवा अपनी लज्जास्पद स्थिति को छिपाना चाहता है। उन नारों पर संदेह उत्पन्न होने पर भी जांचने के बदले उस संदेह से ही अपने को दूर रखने का यत्न करता है। इस आत्मघाती प्रवृत्तिा को विदेशी तत्तव तथा मीडिया, विश्वविद्यालय आदि में जमे मूढ पर प्रगल्भ हिंदू प्रोत्साहन देते हैं कि वह असुविधाजनक सच्चाइयों का सामना करने के बदले उससे आंखें फेर ले। और फेरे ही रखे। भारत के उच्चवर्गीय हिंदुओं की इस लज्जास्पद प्रवृत्ति के कारण ही स्वतंत्र भारत में कश्मीर क्षेत्र में हिंदुओं का सामूहिक विनाश हुआ, असम में हो रहा है तथा केरल, पश्चिमी बंगाल, बिहार और उत्तार प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र उसी दिशा में डग बढ़ रहे हैं। और यह सब केवल एक पहलू है-हमें भौगोलिक रूप से विखंडित, संकुचित करने के प्रयास।
भारत को भावनात्मक, वैचारिक, सांस्कृतिक रूप से भी पहले नि:शस्त्र, फिर धवस्त करने के यत्न भी उतनी ही कटिबध्दता से हो रहे हैं। और उसके प्रति भी हमारे उच्च-वर्ग-नेताओं, बुध्दिजीवियों, प्रशासकों, उद्योगपतियों की उदासीनता वैसी ही लज्जास्पद है। यह उदासीनता केवल अज्ञानजन्य नहीं, यह इससे स्पष्ट है कि यदि कोई भारत के सभ्यतागत शत्रुओं के कुटिल प्रयासों के प्रति धयान आकृष्ट कराता है तो उल्टे उसे ही चुप कराने का चौतरफा उपाय किया जाता है। उसे लांछित, दंडित कर दूसरों को भी संदेश दिया जाता है कि सब चुप रहें। कहने की आवश्यकता नहीं कि स्थायी शत्रुताभाव से भरे देशी-विदेशी बैरी इससे और प्रोत्साहित होते हैं। मिशनरियों द्वारा देश के सुदूर, छिपे इलाकों में असहाय हिंदुओं का संगठित, आक्रामक रूप से धार्मांतरण कराना; उन्हीं मिशनरियों द्वारा मुखौटा बदल कर देश की राजधानी में ‘सेक्युलरिज्म’, ‘दलित मुक्ति’, ‘मानवाधिकार’ आदि की आक्रामक वैचारिक गतिविधिायों द्वारा शिक्षा, प्रशासन और न्यायतंत्र को विभिन्न हथकंडों से बरगलाकर अपने अनुकूल बनाना; इस्लामी तत्तवों द्वारा भारतीय राज्य-नीति व न्यायपालिका तक को अपने दबदबे में रखने का यत्न करना; तथा इने-गिने मार्क्सवादियों द्वारा देश के संवैधाानिक पदों पर नियुक्ति कर अपना वीटो चलाना तथा इन्हीं सब तत्तवों द्वारा भारत की राष्ट्रवादी चिंताओं और हिंदू धार्म-परंपरा को एक स्वर में दिन-रात निंदित करना आदि इसके कुछ प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
इस प्रकार भारत को वैचारिक, सांस्कृतिक रूप से मूढ, असहाय बनाकर पराभूत करने के गंभीर प्रयास हो रहे हैं। यह प्रयास निष्फल नहीं, यह इसी से स्पष्ट है कि जो सहज बातें कोई हिंदू विद्वान या नेता चार दशक पहले कह सकता था, आज नहीं कही जा सकती। उसे दंडित होना पड़ेगा। डॉ. कर्ण सिंह जैसे विख्यात विद्वान और राजनेता को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार यह कह कर नहीं बनाया गया कि उनमें हिंदूपन है जबकि उपराष्ट्रपति के लिए सभी उम्मीदवार इस आधार पर चुने गए कि वे मुस्लिम हैं। दोनों ही कार्य एक-दो कम्युनिस्टों ने सुनिश्चित किए। प्रत्येक दल के अनेक नेता यह अनाचार मौन देखते रहे, बल्कि इसमें योगदान किया। यह सांकेतिक घटनाएं हैं जिनसे सीख ली जानी चाहिए कि साम्राज्यवादी, आक्रामक विचारधाराओं, संगठनों के प्रति अनुचित सहिष्णुता दिखा कर जो ‘सहमति’ बनाई जाती है, वह स्थिति को यथावत नहीं रहने देती। वह आगे-आगे राष्ट्रवादियों से, हिंदुओं से और भी रणनीतिक-वैचारिक स्थान छीनेगी। अर्थात्, इससे शांति या सहयोग नहीं बनेगा, बल्कि विषम स्थिति और बिगड़ेगी। दूसरे शब्दों में, जिस चीज से हिंदू उच्च वर्ग बचना चाहता है, ठीक वही और भी भयावह, अशांत रूप में आएगी। 1947 में यही हुआ था। यदि आप आज शत्रु विचारों से वैचारिक लड़ाई से भी कन्नी काटते हैं तो कल आपको प्रत्यक्ष युध्द झेलना पड़ेगा। इस का उल्टा भी सत्य है: यदि आज आप वैचारिक प्रतिकार करते हैं तो कल युध्द की नौबत नहीं आएगी। वैचारिक संघर्ष से ही समाधान निकल आ सकता है-बशर्ते आपकी चौकसी ढीली न हो।
2.
सामाजिक विकास के लिए मधय मार्ग चुनने से अधिक कठिन कोई कार्य नहीं। बड़बोलापन, तना हुआ मुक्का, बम, जेल की सलाखें तब आपके किसी काम नहीं आएंगी, जैसे वह दोनों अतिवादी ध्रुवों वाले लोगों के काम आती हैं। मधय मार्ग पर चलना अत्यधिक आत्म-नियंत्रण, नितांत अडिग साहस, सबसे धौर्यपूर्ण आकलन और सर्वाधिक सटीक जानकारी की मांग करता है।2
-अलेक्सांद्र सोल्झेनित्सिन, नवंबर 1916रु लाल चक्र/द्वितीय गांठ
इस संकटपूर्ण स्थिति में भारत के चिर-शत्रुओं -मार्क्सवादियों तथा अन्य साम्राज्यवादी विचारधाराओं, संगठनों के विरूध्द किसी राष्ट्रवादी को कैसा संकल्प लेना चाहिए? भारतीय सभ्यता के स्थाई बैरियों के प्रतिकार के लिए भारतीय राष्ट्रवादी को क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए?
यह बात भी सोलेझिनित्सिन के शब्दों से ही समझना आरंभ करें। जिसे उन्होंने मधय-मार्ग कहा है उसी को हम राष्ट्रवादी मार्ग मान कर चलें तो पहली बात तो यह कि भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए वह तरीके उपयुक्त नहीं हैं-जिनका सहारा मार्क्सवादी, मिशनरी या इस्लामी राजनीतिकर्मी लेते हैं। यदि हिंदू राजनीतिकर्मी या समाजसेवी केवल बड़ी-बड़ी बातों या छल-प्रपंच से काम चलाना चाहें तो उसकी दुर्गति होगी। उदाहरणार्थ, जो हिंदू नेता समझते थे कि वे भी केंद्र में सत्ताधारी बनकर उसी तरह शिक्षा-संस्थाओं का उपयोग या दुरुपयोग करेंगे, उन्हें संभवत: समझ आयी होगी कि उनके लिए वह मार्ग नहीं खुला है। हिंदू नेता जिस तरह तीन दशक तक उदासीन भाव से मार्क्सवादी-नेहरूपंथी प्रचारकों द्वारा शिक्षा की विकृति देखते रहे वैसे उनके शत्रु नहीं रहने वाले! वे तो अच्छे कार्यों पर पर भी आसमान सिर पर उठा लेंगे और आपका काम करना दूभर कर देंगे। वे सचेत रहे हैं और आप उदासीन – इस का अंतर तो समझें। अत: मात्र सत्ता के आसरे किसी विकृति को सुधारने का भी काम यदि हिंदू नेता करना चाहें तो उचित, संवैधाानिक कदम होने पर भी उसके विरूध्द अंतर्राष्ट्रीय रूप से संगठित हिंदू-विरोधी शक्तियां समवेत रूप से चीख-पुकार आरंभ कर देंगी। 1998-2004 के बीच यही हुआ।
दूसरी बात, माक्र्सवादियों इस्लामियों द्वारा की गई अनुचित जिदों, याचनाओं पर भी उदारता दिखाने और समर्थन दे देने के बदले में वे हिंदू नेताओं की उचित मांगों पर भी सहयोग देंगे, इसकी आशा करना भारी भूल है। हिंदू पहचान वाले नेतागण कभी न भूलें कि उनके लिए वे रास्ते नहीं खुले हैं जो अंतर्राष्ट्रीय रूप से कटिबध्द, संपन्न हिंदू-विरोधी संगठनों, नेताओं के लिए सुलभ हैं। वे यह भी समझें कि शतियों से पराधीनता में रहते हुए हिंदू समाज का अभी कोई स्वाभाविक, आत्मविश्वासपूर्ण बुध्दिजीवी या शासनकर्मी वर्ग तक नहीं बना है। और यह काम किसी जादू से या रातों-रात नहीं हो सकता। अत: केवल सत्ता प्राप्ति की जुगत में लगे रहना और उसी माधयम से कुछ करने की आशा करना (यद्यपि यह भी संदिग्ध है कि अनेक हिंदू नेता कोई वैसा राष्ट्र-हित या हिंदू हित का काम करना चाहते भी हैं) एकदम व्यर्थ है।
अत: राष्ट्रहित का कार्य नित्य का कार्य है जो प्रत्येक राष्ट्रविरोधी कदम के सुनिश्चित, प्रभावी विरोध की मांग करता है। चाहे वह प्रशासन में हो, शिक्षा-संस्कृति या अर्थ-व्यवस्था और विदेश नीति में। साथ ही, देश के लिए लोगों को जगाना, संगठित और तत्पर करना भी नित्य किए जाने का कार्य है। विशेषकर विचार, शिक्षा, संस्कृति, न्यायतंत्र के क्षेत्र में तो यह नित्य, इंच-इंच भूमि के लिए लड़ी जाने वाली अहर्निश लड़ाई है जिसमें प्रत्येक कोताही, उसी अनुपात में शत्रु को लाभ देने के समान है। चार दशक में भारत में आ गए जिस प्रतिकूल परिवर्तन का ऊपर उल्लेख है, वह इसी तरह शत्रु के विचारों के प्रति उदारता या उदासीनता दिखाने का भी फल है।
यह लड़ाई लड़ने के लिए शक्ति एकत्र करने के साथ-साथ अहर्निश जागरूकता आवश्यक है। यदि शत्रु ने रूप बदल लिया है तो आपको भी तदनुरूप बदलना होगा। उदाहरण के लिए सोवियत संघ और विश्व साम्यवादी तंत्र के पतन के बाद मार्क्सवादियों ने अपनी शब्दावली और वैचारिक लड़ाई के क्षेत्र बदले हैं। भारत ही नहीं, कई देशों में कम्युनिस्टों ने अब अपनी शक्ति इस्लाम को समर्पित कर दी है। यद्यपि पहले भी कम्युनिस्ट लोग इस्लाम के प्रति सदय थे, किंतु सोवियत विघटन के बाद यह बढ़ गया। जिन्हें इसके बारे में अधिाक जानने की इच्छा हो वह प्रसिध्द ‘फ्रंटपेज मैगजीन’ के मुख्य संपादक डेविड होरोवित्ज की नई पुस्तक ‘अनहोली एलायंस: रेडिकल इस्लाम एंड द अमेरिकन लेफ्ट’ से जायजा ले सकते हैं। वैसे होरोवित्ज ने अपने पचास वर्ष के अनुभव के आधार पर यह पुस्तक लिखी है। कम्युनिस्टों के पास अब किसी सामाजिक क्रांति का मोटा विचार भी शेष नहीं है। अंधा-अमेरिका विरोधा के नाम पर साम्यवादी लोग पहले भी अयातुल्ला खुमैनी जैसे तानाशाहों, अत्याचारियों का समर्थन करते रहते थे। अब वही उनका एकमात्र अवलंब है जिस कारण वे सिमी, जिलानी, तालिबान, सद्दाम, अहमदीनेजाद, जवाहिरी जैसे हर तरह के देसी-विदेशी इस्लामवादियों के साथ दिख रहे हैं।
अत: धयान रहे कि अब कम्युनिस्ट नेता मार्क्स या लेनिन की प्रस्थापनाएं नहीं दुहराते। उसके स्थान पर उन्होंने भारत के अन्य सभ्यतागत शत्रुओं के मुहावरे उठा लिए हैं। इसलिए अब वे सेक्यूलरिज्म, माइनॉरिटी राइट्स, मानव अधिकार, वीमेन राइट्स, दलित अधिकार आदि के नारे लगाते हैं। यह सभी नारे भारतीय सभ्यता को विखंडित करने के लिए ही प्रयोग किए जा रहे हैं। इसीलिए यहां इनका सबसे अधिक उपयोग ईसाई-मिशनरी, इस्लामी राजनीतिकर्मी और पश्चिमी सम्रााज्यवादी तंत्र करते रहे हैं। माक्र्सवादी अब उन्हीं के साथ जुड़े हुए हैं। ऐसी स्थिति में यदि आज कोई राष्ट्रवादी मार्क्स, लेनिन के ग्रंथ पलट कर उसकी आलोचना करके माक्सर्ववादियों से लड़ना चाहता है तो वह मूर्खता कर रहा है। उस का समय तीन दशक पहले था (जब उसे नहीं किया गया)। आज तो आपको सेक्यूलरिज्म, मानवाधिकार आदि की आड़ में देशद्रोहियों को सहयोग और इसके लिए संविधान, कानून का नित्य भीतरघात करने के संयुक्त वामपंथी-इस्लामी-मिशनरी प्रपंचों से लड़ना होगा। यहां माक्र्सवादी अब मुख्यत: भारतीय राष्ट्रवाद तथा हिंदू धार्म की लानत-मलानत करते हैं और भारत को कमजोर करने में लगी विदेशी शक्तियों अथवा संगठित धर्मांतरण कराने में लगी मिशनरी एजेंसियों के लिए ढाल बनकर खड़े होते हैं।
इस लड़ाई को रोज-रोज वैचारिक, शैक्षिक और कानूनी क्षेत्र में लड़ना होगा। मीडिया, प्रशासन और न्यायालय – इन तीन क्षेत्रों पर मार्क्सवादियों एवं सभी साम्राज्यवादी शत्रुओं ने स्वयं को केंद्रित किया है। जबकि दुर्भाग्यवश, राष्ट्रवादी शक्तियां केवल चुनावी लड़ाई और जोड़-तोड़ पर ही ध्यान दे रही हैं। मीडिया पर धयान देती भी हैं तो उसे ‘मैनेज’ करने का प्रयास होता है। किन्हीं पत्रकारों या मालिकों को खुश करके कुछ विशेष नेताओं या नीतियां का बचाव करने के लिए। किंतु राष्ट्र-हित के लिए लड़ाई का कोई भाव नहीं दिखता। जबकि आवश्यकता बिल्कुल सीधी लड़ाई की है। विदेशी धन, प्रायोजन और तरह-तरह के विदेशी पुरस्कारों, निमंत्रणों का ढेर लिए जो साम्राज्यवादी, हिंदू विरोधी शक्तियां हमारे देश के चुनिंदा बुध्दिजीवियों, पत्र-पत्रिकाओं, चैनलों आदि को खुले-छिपे नियंत्रित कर रही हैं-उसे राष्ट्रवादी उसी तरह ‘मैनेज’ नहीं कर सकते। उन्हें तो उसके विरूध्द खुली लड़ाई लड़नी होगी। जनता को उसके प्रति सचेत करने और उनका बहिष्कार करने के लिए प्रेरित करना होगा। यदि निष्ठा से लड़ी जाए तो इस लड़ाई में केवल जीत ही जीत है। ठोस तथ्यों, उदाहरणों के साथ खुली व परिश्रमपूर्ण लड़ाई पूरे देश को शिक्षित करेगी। शत्रुओं के कदम ठिठकेंगे। प्रशासन और न्यायपालिका के लोग भी तरह-तरह के मनुहार करने वाले सुंदर लोगों के प्रति तनिक सचेत होंगे। ऐसे लोग जो उन्हें कभी ‘मानव-अधिकार’ तो कभी ‘दलित’ तो कभी ‘वीमेन’ के नाम पर उन्हें विदेशी प्रपंचों का सहायक बनाने में कभी उद्धाटन कराने तो कभी व्याख्यान देने बुलाते हैं। और ये भोलेनाथ हिंदू, न्यायालयों के न्यायाधीशों से लेकर डी.आई.जी. या वाइस-चांसलर तक इसकी भी जांच नहीं करते कि जो संस्था उन्हें आदरपूर्वक ‘एजुकेशनल वर्कशॉप’ में बुला रही है, वह करती क्या क्या है, उनके नेतागण किन अन्य कार्यों में कटिबध्द हैं तथा इन सबके लिए उन्हें धान कौन और किसलिए देता है। यह पूरी प्रक्रिया हमारे उच्च वर्गीय लोगों को ‘थपकियां देकर सुलाने का विराट आयोजन’ (अज्ञेय) कर रही है। इन सबसे भारत के सभ्यतागत् शत्रुओं की जो पहुंच पकड़ बढ़ रही है – वह बिना सीधाी लड़ाई के नहीं रोकी जा सकती।
किंतु यह लड़ाई बड़ी बुध्दिमता, नियमितता और धौर्य से ही लड़ी जा सकती है। केवल क्षोभ या आक्रोश से उलझ पड़ना प्रतिकूल फल देगा। जैसा, हाल में कई घटनाओं ने दिखाया। ‘वालेन्टाइन डे’ के अवसर पर या पार्कों में युवक-युवतियों को बरजने का प्रयास, किसी समाचार-चैनल के दफ्तर पर मामूली तोड़-फोड़ या जहां-तहां त्रिशूल बांटना आदि कदमों के पीछे चिंता सही थी। किंतु परिणाम विपरीत हुए। हिंदू-विरोधाी शक्तियों ने इसका अपने पक्ष में सफलतापूर्वक उपयोग किया। उन कामों में क्या गलती रही? हिंदू-विरोधाी शक्तियों ने इसका अपने पक्ष में सफलतापूर्वक उपयोग किया। उन कामों में क्या गलती रही? पहली, कि जो रास्ते इस्लामी गिरोहों के लिए हर देश में खुले हैं, मान्य हैं-हिंसा और धमकी वह हिंदुओं के लिए स्वीकार्य नहीं होगी। क्यों और कैसे यह असमान स्थिति बनी हुई है, इस पर निर्भीक, गंभीर विचार किए बिना वैसे अविचारी तरीके अपनाना उल्टा परिणाम देगा ही। हर बात पर हिंसा उग्रवादी कट्टरपंथी विचारधााराओं के मार्ग हैं। राष्ट्रीय निर्माण, देश की भलाई, लोगों को वास्तव में समर्थ, सक्षम बनाने का लक्ष्य हो तो हिंसा या बम साधान हो भी नहीं सकता। दूसरे, वैसे विचारहीन आक्रोश से भरे कामों से शत्रु विचारों, संगठनों को तो कोई चोट नहीं पहुंचती उल्टे साधाारण व्यक्ति प्राय: कोई हिंदू या राष्ट्रवादी व्यक्ति ही कष्ट पाते हैं। तब वैसे काम करके हिंदूवादी या राष्ट्रवादी संगठन केवल उपहास पाते हैं।
इसीलिए वैसे कदम उठाने चाहिए जिससे हानि, एकदम छोटी-सी ही क्यों न हो, शत्रु विचारों, संगठनों को पहुंचे। उसके अवसर रोज आते हैं, किंतु उन्हें गंवा दिया जाता है। इसलिए कि उन साधारण लगने वाली बातों का महत्व समझा नहीं जाता। हिंदू उसकी उपेक्षा कर देते हैं और हिंदू-विरोधी उससे लाभ उठा लेते हैं। उदाहरण के लिए, यदि हमारे कोई न्यायाधीश या उच्च अधिकारी किसी मिशनरी संगठन द्वारा आयोजित ‘मानवाधिकार’ पर सेमिनार का उद्धाटन करने चला जाता है तो उनसे मिलकर प्रतिवाद व्यक्त करना।
संबंधित संगठन के बारे में प्रामाणिक जानकारी देते हुए उदघाटनकर्ता महोदय को सावधान करना कि वैसे संगठन अपने असली, संगठित धार्मांतरण कार्यों के लिए उनके नाम की प्रतिष्ठा से अपने संगठनों को प्रतिष्ठित बना रहे हैं। इसका वास्तविक प्रयोग एक ऐसे कार्य में होता है जो नैतिक, कानूनी दृष्टि से भी अवैध है। अथवा, यदि कोई बड़ा समाचार-पत्र किसी समाचार को तोड़-मरोड़ कर हिंदू विरोधी रूप में प्रस्तुत करता है अथवा किसी प्रसंग में राष्ट्रविरोधी शक्तियों का बचाव करता है-तो इसका ठोस उदाहरण लेकर उस पत्र के संचालकों का ध्यान नहीं आकृष्ट कराया जाता। दो-तीन बार ऐसा हो जाए तो पुन: ठोस उदाहरण मिलने पर जिसमें पत्र के संपादक कोई बचाव करने की स्थिति में न हों, लोगों से उस पत्र या चैनल का बहिष्कार करने के लिए कहा जा सकता है। इसी प्रकार, यदि किसी पाठय-पुस्तक में स्पष्टत: किसी राजनीतिक विचारधारा का प्रचार है, किसी विचार या समुदाय के प्रति अनुपातहीन आलोचना या पक्षपात है तो संबंधित शिक्षण-संस्थान एवं प्रकाशक के विरूध्द शांतिपूर्वक किंतु कटिबध्दता से उसे संशोधित करने का आंदोलन चलाया जाना चाहिए। ऐसे संघर्ष के लिए धौर्यपूर्वक अथक प्रयत्न किया जाए तो सफलता निश्चित है। छोटी सफलताएं ही बड़ी का मार्ग प्रशस्त करेगी।
नि:संदेह इस प्रकार के नीरस कार्य बड़े परिश्रम-साधय हैं। यह केवल साधान ही नहीं, धौर्य और सटीक जानकारी की मांग करते हैं। पर आज चिंताशील हिंदुओं, राष्ट्रवादियों को यही तो समझना चाहिए कि उनके लिए सीधा और आसान मार्ग नहीं है। वे मार्क्सवादियों की तरह लफ्फाजी करके या इस्लामवादियों की तरह धामकी देकर कुछ नहीं पा सकते। किसी ‘बड़े मुद्दे’ पर जनता को आवेश में लोकर, एकबारगी देशव्यपी समर्थन (वोट) जुटाने की आस में लगे रहना भी आलस्य और स्वार्थी प्रवृत्ति का ही परिचायक है। इसे कभी किसी नेता या गुट को लाभ हो जाए, उससे देश का भला नहीं होगा। सच्चे देशक्तों को शॉर्ट-कट की दुराशा त्याग देनी होगी। उन्हें शत्रुओं को छोटी-छोटी चोट देकर भी, अत्यंत साधारण दिखने वाली, किंतु अर्थपूर्ण जीत प्राप्त करके ही, राष्ट्रवादी जनता का आत्मविश्वास, साहस और रचनात्मकता बढ़ानी होगी।
कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसे संकल्प वे नहीं ले सकेंगे जो केवल बड़े नेताओं की चापलूसी करके या जोड़-तोड़ करके इस या उस पद पर जाने की ताक में लगे रहने को ही राजनीति समझते हैं। यह कथित राजनीति नेहरूपंथ या कम्युनिस्टपंथ में तो चल सकती है जिनके लिए साम्राज्यवादी विचारों, संगठनों के साथ ‘भाई-चारा’ रखना सहज कार्य है। किंतु भारत में देशभक्ति की राजनीति और वंदे मातरम् का संकल्प रखने वालों के लिए कोई सरल मार्ग नहीं है। कम से कम अभी नहीं है। इसे हृदयंगम करके ही कोई राष्ट्रवादी महात्वाकांक्षा रखनी चाहिए।
टिप्पणी:
1. मूल रूसी से आधिकारिक अंग्रेजी अनुवाद इस प्रकार है:
Just as the Coriolis effect is constant over the whole of this earth’s surface, and the flow of rivers is deflected in such a way that it is always the right bank that is eroded and crumbles, while the floodwater goes leftward, so do all the forms of democratic liberalism on earth strikes always to the right and caress the left. Their sympathies always with the left, their feet are capable of shuffling only leftward, their heads bob busily as they listen to leftist arguments – but they feel disgraced if they take a step to or listen to a word from the right. (Aleksandr Solzhenitsyn, Novermber 1916: The Red Wheel-Knot II)
2. मूल रूसी से आधिकारिक अंग्रेजी अनुवाद इस प्रकार है:
Nothing is more difficult than drawing a middle line for social development. The loud mouth, the big fist, the bomb, the prison bars are of no help to you, as they are to those at the two extremes. Following the middle line demands the utmost self-control, the most inflexible courage, the most patient calculation, the most precise knowledge. (Aleksandr Solzhenitsyn, Novermber 1916: The Red WheelèKnot II)