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भारत में कम्युनिस्टों को जनता क्यों प्यार करती है ?

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

इधर एक पाठक ने पूछा है कि पश्चिम बंगाल-केरल में कम्युनिस्ट सत्ता में कैसे आते हैं ? मैं खासकर पश्चिम बंगाल के संदर्भ में कम्युनिस्टों की भूमिका के बारे में कुछ रोशनी डालना चाहता हूँ। मैं आरंभ में कह दूँ कि पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों ,खासकर माकपा के अंदर सब कुछ ठीक दिशा में नहीं चल रहा। इसके बारे में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) भी जानती है। मैं दलीय विवादों से उठकर कम्युनिस्टों की बड़ी सामाजिक भूमिका की ओर ध्यान खींचना चाहूँगा।

हम सब जानते हैं कि सारे देश में पूंजी और पूंजीवादी विकास की आंधी चल रही है। उपभोक्तावाद का तूफान आया हुआ है। इसके दो परिणाम निकले हैं सारे देश में बेगानापन बढ़ा है। सामाजिक एकाकीपन बढ़ा है। साथ ही उपभोक्तावाद के उछाल ने गरीबों का जीना दूभर कर दिया है। इन दोनों प्रवृत्तियों का कम्युनिस्टों ने अपने तरीके से जबाब खोजा है और वे अभी तक उस पर चल रहे हैं और समाज में भी उनके इन प्रयासों की झलक दिख रही है।

मसलन पश्चिम बंगाल में आप राजनीति के बिना नहीं रह सकते। सामुदायिक भावना के बिना आपका कोई सहारा नहीं है। सामुदायिक भावना और सामूहिकता के यहां पर आधुनिक स्रोत हैं राजनीतक दल,क्लब ,यूनियन वगैरह। यहां लोगों को कोई भी परेशानी होती है दौड़कर घर के पास के क्लब वालों के पास जाते हैं ,और वे लोग आमतौर पर मदद भी करते हैं। आपको हर स्थिति में सामुदायिक मदद मिल सकती है। आप चाहें तृणमूल के पास जाएं या माकपा के पास जाएं। सभी ओर सामुदायिक गोलबंदियां मिलेंगी। इन सामुदायिक गोलबंदियों को तैयार करने में कम्युनिस्टों की बड़ी भूमिका है।

जो लोग सोचते हैं कि सामुदायिक गोलबंदी के बिना जी सकते हैं वे नहीं जानते कि अकेले रहने का क्या दुख है। पूंजीवाद ने मनुष्य को अकेला किया है और समाज से अलग-थलग डाला है। पश्चिम बंगाल में पूंजीवाद के इस बेगानेपन और एकाकीपन को कम्युनिस्टों ने तोड़ा है। इस चक्कर में कुछ इलाकों में निहित स्वार्थी लोगों ने कम्युनिस्ट पार्टी और अन्य दलों का दुरूपयोग किया है। लेकिन इसे मैं बड़ी समस्या नहीं मानता। समस्या तब आती है जब निजी निहित स्वार्थों के लिए सामुदायिक संगठनों का दुरूपयोग होने लगे और निजी जीवन में हस्तक्षेप होने लगे। विगत कई सालों से माकपा के सदस्यों की इस तरह की हरकतों ने कम्युनिस्टों से जनता को नाराज कर किया है।

कम्युनिस्टों का काम आम जनता ने निजी जीवन में हस्तक्षेप करना नहीं है। वे सामुदायिकता को बचाने की सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा हैं। उन्हें इस काम को बड़ी सावधानी से करना चाहिए।

कम्युनिस्टों ने दूसरा बड़ा काम यह किया है कि उनके शासन के 35 सालों में गरीब के जीने के लिए सामान्य वातावरण बना है। पूंजीवादी विकास ने भारत के महानगरों का हुलिया बदल दिया है। महानगरों में गरीब का जीना भयानक कष्टप्रद हो गया है। आप कोलकाता या पश्चिम बंगाल में कहीं पर भी जाइए आपके पास जितना पैसा है उतने में खाना मिल जाएगा। आप पांच रूपये से लेकर पांच हजार रूपये तक में अपना पेट आराम से भरकर सो सकते हैं। सस्ता खाना आम तौर पर फुटपाथ पर लगी दुकानों पर मिल जाएगा। मजेदार बात यह है कि यहां मंहगी दुकान के ठीक सामने सस्ती दुकान फुटपाथ पर प्रत्येक स्थान पर लगी मिलेगी। यहां तक कि अभिजन इलाकों में भी सस्ती फुटपाथी दुकानें मिल जाएंगी। साधारण आदमी के जीवन की जितनी गहरी चिंता यहां के जनजीवन में कम्युनिस्टों ने पैदा की है उसके ही कारण इतने लंबे समय से वाममोर्चा शासन में है।

वाममोर्चा का शासन दमन -उत्पीडन के आधार पर नहीं है बल्कि वे सालों साल आम जनता में काम करते हैं। पार्टियों के ऑफिस खुलते हैं, उनमें आम लोग अपनी शिकायतें लेकर जाते हैं और उन शिकायतों पर यथोचित कार्रवाई भी होती है। इस काम में राज्य सरकार और नौकरशाही से ज्यादा पार्टीतंत्र पर भरोसा करते हैं। यहां राज्य सरकार है लेकिन पार्टीतंत्र सर्वोच्च है । इस तरह की व्यवस्था के फायदे और नुकसान दोनों हैं। लेकिन दोनों ही तंत्र सक्रिय हैं,तुलनात्मक तौर पर पार्टी तंत्र ज्यादा सक्रिय है। इस पूरी प्रक्रिया में लोकतंत्र और पार्टीतंत्र के अंतर्विरोध भी सामने आए हैं।

कम्युनिस्टों की हाल के लोकसभा चुनावों में पराजय का प्रधान कारण है ,पार्टी में गैर कम्युनिस्ट रूझानों का बढ़ना। जनता को कम्युनिस्ट रूझानों से कोई शिकायत नहीं है बल्कि उसे गैर कम्युनिस्ट रूझानों से परेशानी हुई है। मसलन कम्युनिस्ट पार्टी में निहित स्वार्थी तत्वों-अपराधी तत्वों ने शरण लेकर कम्युनिस्टों को नुकसान पहुँचाया है।

पश्चिम बंगाल-केरल और त्रिपुरा ये तीन राज्य हैं जहां कम्युनिस्टों के नेतृत्व में शासन है। इन सरकारों के बारे में आज तक यह सत्य सभी मानते हैं कि वाम मंत्रियों के ऊपर विगत 60 सालों में कभी भ्रष्टाचार का दाग नहीं लगा और यदि कभी कोई बात पार्टी की नोटिस में लायी गयी है तो उसने सख्त कार्रवाई की है। केरल में माकपा सचिव का.विजयन के मामले को छोड़कर। पश्चिम बंगाल में 35 सालों तक शासन करने के बाबजूद किसी भी मंत्री या मुख्यमंत्री के खिलाफ कोई भी भ्रष्टाचार का मामला विपक्ष ने नहीं उठाया है। कम से कम कम्युनिस्टों ने ऐसी राजनीतिक मिसाल कायम की है जिसमें कोई घूसखोर मंत्री कम्युनिस्ट शासन में पैदा नहीं हुआ। मेरे ख्याल से किसी पूंजीवादी मुल्क या समाजवादी चीन में भी ऐसी मिसाल कम्युनिस्ट पार्टी कायम नहीं कर पायी है। यह सारी दुनिया में राजनीति की विरल मिसाल है।

दूसरी एक चीज और है जिसने कम्युनिस्टों को उनके द्वारा शासित राज्यों में जनप्रियता दिलाई है। वह है उनकी सादगीपूर्ण जीवनशैली। बड़े से लेकर छोटे कार्यकर्त्ता तक सादगी का तानाबाना आपको सहज ही दिखाई दे जाएगा।

तीसरी बड़ी चीज है मंत्री से लेकर एमपी -एमएलए तक,जिला स्तरीय नेताओं से लेकर पंचायत स्तरीय नेताओं तक सबका सामान्य जनता के साथ जीवंत और अनौपचारिक संबंध। आम तौर पर मंत्री बगैरह सामान्य नागरिक की तरह कोलकाता से लेकर पूरे राज्य में घूमते रहते हैं। उनके साथ किसी भी किस्म की सुरक्षा व्यवस्था नहीं होती। नेताओं का जितना सुरक्षित जीवन यहां पर है उतना कहीं नहीं है।

यह सच है कि पश्चिम बंगाल में अपराधी है। अपराध के बड़े केन्द्र भी हैं, लेकिन अपराधियों को कभी भी राजनीतिक टिकट वाममोर्चे ने नहीं दिया। साफ-सुथरी राजनीति का एक आदर्श मानक उन्होंने तैयार किया है। इसका यह अर्थ नहीं है माकपा के पास सब संत हैं। जी नहीं,माकपा या वाम के अंदर भी अपराधी चले आए हैं जिनसे वामपंथ जान छुड़ाने की कोशिश कर रहा है। लेकिन इसकी तुलना में विपक्षी दलों के पास बड़ी तादाद में अपराधी तत्व हैं और उनका वे राजनीतिक मोर्चे पर भी इस्तेमाल करते हैं। इसके बावजूद वाममोर्चे ने साफ-सुथरी राजनीति की संभावनाओं को साकार किया है। संभवतः भारत के एकमात्र मुख्यमंत्री हैं बुद्धदेव भट्टाचार्य जो जनबहुल बस्ती में सबसे छोटे घर में रहते हैं। मुख्यमंत्री जनता के बीचों-बीच रहे और सुरक्षित रहे यह सिर्फ पश्चिम बंगाल में संभव है।

पश्चिम बंगाल के सुरक्षा वातावरण के दो उदाहरण देना चाहूँगा। पहला उदाहरण है फारूख अब्दुल्ला साहब का। वे केन्द्रीय मंत्री हैं और कुछ महीना पहले किसी काम से उन्हें खडगपुर जाना था अचानक मौसम की गड़बड़ी के कारण उनको अपने विमान से कोलकाता में उतरना पड़ा। इस संदर्भ में उन्होंने स्थानीय पुलिस को व्यवस्था कर देने के लिए कह भी दिया। लेकिन ऐन मौके पर किसी वजह से पुलिस के लोग नहीं पहुँचे,वे जेड केटेगरी की सुरक्षा वाले केन्द्रीय मंत्री हैं, वे अपने विमान से बाहर आए तो बाहर आकर देखा कि राज्य सरकार का कोई भी अधिकारी उनकी स्वागत,निगरानी,सुरक्षा आदि के लिए एयरपोर्ट पर नहीं है,फारूख साहब सीधे बाहर आए और उन्होंने एक टैक्सी भाड़े पर ली और कहा मुझे सॉल्टलेक ले चलो। टैक्सी वाले से उन्होंने पूछा कितना भाड़ा लोगे,उसने कहां जितना इछ्छा हो देना,जिस समय यह वाकया घटा उस समय रात के 11 बज चुके थे और फारूख साहब आराम से सुरक्षित सॉल्टलेक वाले पते पर पहुँच गए। वे जब पहुँच गए तो पीछे-पीछे पुलिस अफसरान भागे-भागे पहुँचे। फाऱूख साहब ने मीडिया को सारा वाकया बताया और कहा कि मैं जब इसबार दिल्ली से चला था तो मेरी इच्छा थी कि मैं एक साधारण आदमी की तरह कोलकाता में जाऊँ,क्योंकि मुझे मालूम है कि कोलकाता सबसे सुरक्षित शहर है। वे खुश थे कि उन्हें अपनी इच्छा पूरी करने का मौका मिल गया। तकरीबन ऐसा ही वाकया केन्द्रीयमंत्री जयराम रमेश के साथ भी हुआ और उन्हें एयरपोर्ट पर कोई सरकारी अधिकारी लेने नहीं आया और वे ठाट से एयरपोर्ट से बाहर आकर टैक्सी लेकर सॉल्टलेक स्थित सरकारी निवास की ओर चल दिए और वे जब आधी दूरी तय कर चुके थे तो राज्य पुलिस के अधिकारी उनके पीछे भागे-भागे पहुँचे। लेकिन वे खुश थे और सुरक्षित थे। कहने का अर्थ है कोलकता का नागरिक जीवन पूर्णतः सुरक्षित है। इसमें कम्युनिस्टों की बड़ी भूमिका है। जो पुराने लोग हैं वे बताते हैं कि 1972-77 के बीच में कोलकाता सबसे असुरक्षित शहर था,उस समय शाम ढ़ले लोग घरों में बंद हो जाते थे। उस समय सिद्धार्थशंकर राय का शासन था और हिंसा और असुरक्षाका नंगा ताण्डव चल रहा था। आज किंतु ऐसा नहीं है। कम्युनिस्टों ने भयमुक्त वातावरण पैदा किया है।

दुर्गापूजा के बहाने स्त्री संस्कृति की खोज- हम व्रत क्यों करते हैं?

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

इन दिनों पश्चिम बंगाल देवी-पूजा में डूबा हुआ है। चारों कोलकाता शहर में देवीमंडप सजे हैं। जिनमें नवीनतम कला रूपों का कलाकारों-मूर्तिकारों ने प्रयोग किया है। चारों ओर तरह-तरह के सांस्कृतिक अनुष्ठानों का आयोजन हो रहा है और सारा राज्य उसमें डूबा हुआ है। इस पूजा के अवसर पर आम लोग आनंद से रहते हैं। इस मौके पर गरीब और अमीर का भेद नजर नहीं आता। तेरा-मेरा, अपना-पराया, तृणमूली और माकपा का भेद नजर नहीं आता। सभी लोगों में उत्सवधर्मी भाव है।

हिन्दीभाषी क्षेत्रों में नवरात्रि पर्व सिर्फ देवी मंदिरों तक सीमित रहता है। वहां लोग दर्शन करने जाते हैं,व्रत करते हैं। लेकिन सारा शहर बेखबर अपनी धुन में चलता रहता है। लेकिन पश्चिम बंगाल में ऐसा नहीं है। यहां दुर्गापूजा का अर्थ है जनोत्सव। यहां जगह-जगह अस्थायी दुर्गा के पंडाल लगाए जाते हैं। जिनमें षष्ठी से लेकर नवमी-दशमी तक अपार भीड़ रहती है। समूचा राज्य पूजा और व्रत की उन्मादना में डूबा रहता है। बंगाल में व्रत की परिकल्पना और हिन्दीभाषी राज्यों या बाकी देश में व्रत की परिकल्पना में अंतर है। यहां व्रत का अर्थ सिर्फ उपवास करना ही नहीं है बल्कि इसमें कविता,पद्य, पहेलियां, नृत्य यहां तक कि प्रतीकात्मक चित्र आदि भी शामिल हैं।

इस प्रसंग में मुझे अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रसिद्ध निबंध ‘बांगलार व्रत ’ का ध्यान आ रहा है, इस प्रसिद्ध निबंध में उन्होंने लिखा है ‘‘व्रत मात्र एक इच्छा है। इसे हम चित्रों में देखतें हैं: यह गान और पद्य में प्रतिध्वनित होती है, नाटकों और नृत्यों में इसकी प्रतिक्रिया दिखाई देती है। संक्षेप में व्रत केवल वे इच्छाएं हैं जिन्हें हम गीतों और चित्रों में चलते-फिरते सजीव रूपों में देखते हैं।’’ जो लोग सोचते हैं कि व्रत-उपवास का संबंध धर्म से है, धार्मिक क्रिया से है,वे गलत सोचते हैं। अवनीन्द्रनाथ ने साफ लिखा है ‘‘व्रत न तो प्रार्थना है न ही देवताओं को प्रसन्न करने का प्रयत्न है।’’ दर्शनशास्त्री देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने लिखा है ‘‘व्रत में निहित उद्देश्य अनिवार्यतः क्रियात्मक उद्देश्य होता है। इसका उद्देश्य देवी देवताओं के समक्ष दंडवत करके किसी वर की याचना करना नहीं है। बल्कि इसके पीछे दृष्टिकोण यह है कि कुछ निश्चित कर्म करके अपनी इच्छा पूर्ण की जाए। वास्तव में परलोक या स्वर्ग का विचार व्रतों से कतई जुड़ा हुआ नहीं है। ’’

अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने साफ लिखा है व्रत-उपवास को धार्मिकता के आवरण में कुछ स्वार्थी तत्वों ने बाद में लपेटा था। अवनीन्द्रनाथ मानते हैं व्रत‘‘संगीत के साथ समस्वर है।’’ यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां पर पूरे पश्चिम बंगाल में दुर्गापूजा पर उत्सवधर्मी भाव रहता है।

व्रत की एक विशेषता यह है कि समान इच्छा को लेकर इसे अनेक लोगों को सामूहिक रूप में रखना होता है। यदि किसी व्यक्ति की कोई निजी इच्छा है और वह इसकी पूर्ति के लिए कोई कार्य करता तो इसे व्रत नहीं कहा जाएगा। यह केवल तभी व्रत बनता है जब एक ही परिणाम की प्राप्ति के लिए कई व्यक्ति मिलकर आपस में सहयोग करें।

अवनीन्द्रनाथ ने लिखा है ‘‘ किसी व्यक्ति के लिए नृत्य करना संभव हो सकता है किंतु अभिनय करना नहीं। इसी प्रकार किसी व्यक्ति के लिए प्रार्थना करना और देवताओं को संतुष्ट करना संभव हो सकता है, किंतु व्रत करना नहीं। प्रार्थना और व्रत दोनों का लक्ष्य इच्छाओं की पूर्ति है, प्रार्थना केवल एक व्यक्ति करता है और अंत में यही याचना करता है कि उसकी इच्छा पूरी हो। व्रत अनिवार्यतः सामूहिक अनुष्ठान होता है और इसके परिणामस्वरूप वास्तव में इच्छा पूर्ण होती है।’’

हम वैदिक जनों के पूर्वजों को देखें तो सहज ही समझ में आ जाएगा। वैदिकजनों के पूर्वज व्रत करते हुए गीत गाते थे। इनका लक्ष्य था इच्छाओं की पूर्ति करना। इन्हीं गीतों के सहारे वे जिंदा रहे। गीतों ने देवताओं को भूख और मृत्यु से बचाया और छंदों ने उन्हें आश्रय दिया।

अवनीन्द्र नाथ ठाकुर ने इस सवाल पर भी विचार किया है कि व्रत कितने पुराने हैं। लिखा है,ये व्रत पुराने हैं,वास्तव में बहुत पुराने ,निश्चित रूप से पुराणों से भी पहले के और हो सकता है कि वेदों से भी प्राचीन हों। एक और सवाल वह कि वेद और व्रत में अंतर है। अवनीन्द्ननाथ ठाकुर ने लिखा है वैदिक गीतों में जितनी भी इच्छाएं हैं वे विशेष रूप से पुरूषों की हैं जबकि व्रत पदों में व्यक्त इच्छाएं स्त्रियों की हैंः ‘‘ वैदिक रीतियां पुरूषों के लिए थीं और व्रत स्त्रियों के लिए थे और वेद तथा व्रत के बीच,पुरूषों और स्त्रियों की इच्छाओं का ही अंतर है।’’

सवाल उठता है कि स्त्री की क्या इच्छा थी और पुरूष की क्या इच्छा थी ? इस पर अवनीन्द्न नाथ ठाकुर ने ध्यान नहीं दिया है। वैदिक जनों की आजीविका का प्रमुख साधन पशुधन की अभिवृद्धि करना था। उनकी सबसे बडी इच्छा अधिक से अधिक पशु प्राप्त करने की थी। जबकि व्रत करने वाली स्त्रियों की इच्छा थी अच्छी फसल। औरतों के द्वारा किए गए अधिकांश व्रत कृषि की सफलता की कामना पर आधारित हैं।

वैदिकमंत्रों में कृषि की महत्ता और प्रधानता है। स्त्री-पुरूष दोनों का साझा लक्ष्य था सुरक्षा, स्वास्थ्य और समृद्धि। इन तीन चीजों का ही विभिन्न प्रार्थनाओं और मंत्रों में उल्लेख मिलता है।

फिर भी क्यों भूखा है भारत ?

अन्न प्रबंधन और कुपोषण की चुनौतियों से जूझने कारगर कदम उठाएं

– संजय द्विवेदी

अनाज गोदामों में भरा हो और भुखमरी देश के गांव, जंगलों और शहरों को डस रही हो तो ऐसे लोककल्याणकारी राज्य का हम क्या करें ? वैश्विक भुखमरी सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) पर भारत जैसे देश का 67 वें स्थान पर रहना हमें चिंता में डालता है। इतना ही नहीं इस सूची में पाकिस्तान 52 वें स्थान पर है, यानि हमसे काफी आगे। दुनिया के सबसे शक्तिशाली देशों में तीसरे नंबर पर गिने जा रहे देश भारत का एक चेहरा यह भी है जो खासा निराशाजनक है। यह बताता है कि हमारे आधुनिक तंत्र की चमकीली प्रगति के बावजूद एक भारत ऐसा भी है जिसे अभी रोटियों के भी लाले हैं। भुखमरी में लड़ने में हम चीन और पाकिस्तान से भी पीछे हैं। ऐसे में हमारी चकाचौंध के मायने क्या हैं? एक गणतंत्र में लोककल्याणकारी राज्य की संकल्पना पर ये चीजें एक कलंक की तरह ही हैं। हमें देखना होगा कि आखिर हम कैसा भारत बना रहे हैं, जहां लोंगों को दो वक्त की रोटी भी उपलब्ध नहीं है।

अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान ( आईएफपीआरआई) द्वारा जारी वैश्विक भुखमरी सूचकांक,2010 में 84 देशों की सूची में भारत का 67 वां स्थान चिंता में डालने वाला है। भारत को कुपोषण और भरण पोषण के मामले में महिलाओं की खराब स्थिति के कारण काफी नीचे स्थान मिला है। रिपोर्ट में कहा गया है कि विश्व में 42 प्रतिशत कमजोर पैदायशी भारत में हैं। इस मामले में पाकिस्तान हमसे पांच प्रतिशत की बेहतर स्थिति में है। जाहिर तौर पर ये चिंताएं समूची दुनिया को मथ रही हैं। शायद इसीलिए भुखमरी के खिलाफ पूरी दुनिया में एक चिंतन चल रहा है। भारत में भी भोजन का अधिकार दिलाने के लिए कई जनसंगठन काम कर रहे हैं और इसे कानूनी जामा पहनाने की बातें भी हो रही हैं। दुनिया के नेताओं ने संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दी सम्मेलन में तय विकास लक्ष्य के जरिए 1990 और 2015 के बीच भुखमरी की शिकार जनसंख्या का अनुपात आधा करने का लक्ष्य रखा था। हालांकि दुनिया भर में चल प्रयासों से भुखमरी में कमी आई है और लोगों को राहत मिली है। किंतु अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है क्योंकि समस्या वास्तव में गंभीर है। आम तौर पर यह माना जाता है कि जब किसी देश की अर्थव्यवस्था सुधरती है तो वहां भुखमरी के हालात कम होते हैं। किंतु भारत जैसी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के सामने ये आंकड़े मुंह चिढ़ाते नजर आते हैं। देश में तेजी से बढ़ी महंगाई और बढ़ती खाद्यान्न की कीमतें भी इसका कारण हो सकती हैं। खासतौर पर गांवों, वनवासी क्षेत्रों में रहने वाले लोग इन हालात से ज्यादा प्रभावित होते हैं क्योंकि सरकारी सुविधा देने का तंत्र कई बार नीचे तक नहीं पहुंच पाता। ग्लोबल हंगर इंडेक्स को सामने रखते हुए हमें अपनी नीतियों, कार्यक्रमों और जनवितरण प्रणाली को ज्यादा प्रभावी बनाने की जरूरत है। शायद सरकार की इन्हीं नीतियों से नाराज सुप्रीम कोर्ट ने 27 जुलाई,2010 को कहा था कि “जिस देश में हजारों लोग भूखे मर रहे हों वहां अन्न के एक दाने की बर्बादी भी अपराध है। यहां 6000 टन से ज्यादा अनाज सड़ चुका है। ” इसी तरह 12 अगस्त,2010 को सुप्रीम कोर्ट ने फिर कहा कि –“ अनाज सड़ने के बजाए केंद्र सरकार गरीब और भूखे लोगों तक इसकी आपूर्ति सुनिश्चित करे। इसके लिए केंद्र हर प्रदेश में एक बड़ा गोदाम बनाने की व्यवस्था करे।” जाहिर तौर पर देश की जमीनी स्थिति को अदालत समझ रही थी किंतु हमारी सरकार इस सवाल पर गंभीर नहीं दिख रही थी। यहां तक कि हमारे कृषि मंत्री अदालत के आदेश को सुझाव समझने की भूल कर बैठे जिसके चलते अदालत को फिर कहना पड़ा कि यह आदेश है, सलाह नहीं है। जबकि हमारी सरकार तब तक 6.86 करोड़ का अनाज सड़ा चुकी थी। आज कुपोषण के हालात हमारी आंखें खोलने के लिए काफी हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार देश में 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और तीन साल से कम के 47 प्रतिशत बच्चे कम वजन के हैं। अनाज के कुप्रबंधन में सरकार की विफलताएं सामने हैं और इसके चलते ही इस तरह के आंकड़े सामने आ रहे हैं। जिस देश में भारी मात्रा में अनाज सड़ रहा हो वहां लोग भुखमरी या कुपोषण के शिकार हों यह कतई अच्छी बात नहीं है। केंद्र और राज्य सरकारों को अपने-अपने स्तर पर इस समस्या के कारगर निदान के बारे में सोचना चाहिए, क्योंकि देश का नाम इस तरह की सूचनाओं से खराब होता है। हम कितनी भी प्रगति कर लें, हमारी अर्थव्यवस्था कितनी भी कुलांचे भर ले किंतु अगर हम अपने लोगों के लिए ईमानदार नहीं हैं,तो इसके मायने क्या हैं। हमारे लोग भूखे हैं तो इस जनतंत्र के भी मायने क्या हैं। जाहिर तौर पर हमें ईमानदार कोशिशें करनी होंगीं। वरना एक जनतंत्र के तौर पर हम दुनिया के सामने मानवीय और सामाजिक सवालों पर यूं ही लांछित होते रहेगें। गांधी के इस देश में आम आदमी अगर व्यवस्था के केंद्र में नहीं है तो विकल्प क्या हैं। जगह-जगह पैदा हो रहे असंतोष और लोकतंत्र के प्रति जनता में एक तरह का निराशाभाव इन्हीं कारणों से प्रबल हो रहा है। क्या हम अपने लोकतंत्र को वास्तविक जनतंत्र में बदलने के लिए आगे बढेंगें या इसी चौंधियाती हुयी चमकीली प्रगति में अपने मूल सवालों को गंवा बैठेगें? यह एक यक्ष प्रश्न है इसके ठोस और वाजिब हल तलाशने की अगर हमने कोशिश न की तो कल बहुत देर हो जाएगी।

कम्युनिस्टों को ताकत कहां से मिलती है ?

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

हमारे भारत में अनेक लोग हैं जो कम्युनिस्टों की बुराईयों को जानते हैं लेकिन अच्छाईयों को नहीं जानते। वे यह भी नहीं जानते कि कम्युनिस्टों की ताकत का स्रोत क्या है ? कम्युनिस्ट झूठ बोलकर जनता का विश्वास नहीं जीतते,कम्युनिस्ट सत्य से आंख नहीं चुराते। जो कम्युनिस्ट झूठ बोलता है जनता उस पर विश्वास करना बंद कर देती है। मार्क्सवाद और असत्य के बीच गहरा अन्तर्विरोध है।

कार्ल मार्क्स ने सारी दुनिया के लिए एक ही संदेश दिया था वह था शोषण से मुक्ति का। उसने व्यक्ति के द्वारा व्यक्ति के शोषण के खात्मे का आह्वान किया था। सारी दुनिया में कम्युनिस्ट इसी लक्ष्य के लिए समर्पित होकर काम करते हैं। वे किसी एक के नहीं होते। समूची मानवता के हितों की रक्षा के लिए काम करते हैं। उनके काम और विचार में कोई अंतर नहीं होता। इस अर्थ में हमें कम्युनिस्टों को समझने की कोशिश करनी चाहिए।

मेरे कहने का यह अर्थ नहीं है कि कम्युनिस्टों में कोई दोष नहीं है। जी नहीं, उनमें भी वे सब दोष हैं जो हम सबमें होते हैं। वे इसी समाज से आते हैं। लेकिन वे दोषों से मुक्त होने की कोशिश करते हैं। जो कम्युनिस्ट मानवीय दोषों को कम करते हैं और निरंतर समाज और स्वयं को बेहतर बनाने और लोगों का दिल जीतने,आम जनता की सेवा करने के बारे में प्रयास करते हैं उन्हें जनता भी दिल से प्यार करती है। ऐसे ही महान कम्युनिस्ट क्रांतिकारी हैं फिदेल कास्त्रो।

फिदेल कास्त्रो ने क्यूबा में जो कमाल किया है उसे इस देश में 60 साल के शासन में भी हम नहीं कर पाए हैं। जरा देखें कम्युनिस्टों के क्या है क्यूबा में और फिदेल कैसे काम करते हैं। फिदेल कास्त्रो का मानना है विचार हथियारों से ज्यादा शक्तिशाली होते हैं। इसी के साथ मैं यह कहता हूँ कि शिक्षा ही वह उपकरण है जिसके जरिए मानव कहे जाने वाले इन जीवों का विकास हुआ है, जो सहज बुध्दि या प्राकृतिक नियमों से नियंत्रित होते हैं। डार्विन ने यही दिखाया है और आज इससे कोई इनकार नहीं करता…मैं विकास के सिद्धांत की बात कर रहा हूं। मुझे वह क्षण याद है जब पोप जॉन पॉल द्वितीय ने कहा था कि विकास का सिद्धांत सृजन के सिद्धांत का विरोधी नहीं है। मैं इस तरह के कथनों की बहुत प्रशंसा करता हूं क्योंकि ये वैज्ञानिक सिद्धांत और धार्मिक विश्वास में परस्पर विरोध पर विराम लगाते हैं। इन मानवों को यदि जंगल में छोड़ दिया जाए तो वे जानवरों की तरह ही रहेंगे। वे बुद्धि संपन्न जीव हैं और हम जानते हैं कि मानव खोपड़ी में क्या है। हम यह भी जानते हैं कि केवल मानव ही ऐसे जीव हैं जिनका मस्तिष्क जन्म के ढाई वर्ष बाद तक विकसित होता रहता है। आप विश्वविद्यालय के छात्र हैं और आपने इस बारे में कहीं पढ़ा होगा। प्रतिभा के विकास में इसका बहुत प्रभाव पड़ता है।

यदि बच्चों को ढाई साल की उम्र तक सभी पोषक तत्व नहीं दिए गए तो वे जब छह वर्ष की आयु में स्कूल जाएंगे तो वे पर्याप्त पोषक तत्व पाने वाले बच्चों की तुलना में कम बुद्धि के साथ स्कूल जाएंगे । मैं यह कहना चाहता हूं कि यदि हम बराबरी के अधिकार की पैरवी करना चाहते हैं तो हम छह वर्ष की आयु में बच्चे को जन्मजात मानसिक क्षमता के साथ स्कूल भेजने के अधिकार की बात करें। हम जानते हैं कि जिन बच्चों को इस प्रारंभिक उम्र में पोषक तत्व नहीं मिलते और दुनिया में इस तरह के करोड़ों बच्चे हैं जब वे स्कूल जाते हैं, बशर्ते कि स्कूल हों और उन्हें पढ़ाने के लिए सक्षम अध्यापक हों, तो उनके पढ़ने की बहुत कम संभावनाएं होती हैं। हालांकि ऐसे भी मामले हैं जहां इस अवस्था में पर्याप्त पोषक तत्व तो मिलते हैं लेकिन बाद में उनके लिए कोई स्कूल या अध्यापक नहीं होते ।

लेकिन मूल रूप से तीसरी दुनिया के देशों में बसे दुनिया के अस्सी प्रतिशत मानवों का क्या हश्र होता है। इन्हीं क्षेत्रों में गरीब लोग बसे हैं जो विकसित क्षमता तो दूर जन्मजात क्षमता को भी बचा कर नहीं रख सकते। यहां पर स्कूल भी नहीं है।

दुनिया में 86 करोड़ बालिग निरक्षर हैं। बालिगों की बात करने के साथ-साथ वे यह भी बताते हैं कि इन 86 करोड़ निरक्षर बालिगों में से 90 प्रतिशत तीसरी दुनिया में रहते हैं। लेकिन अत्यधिक विकसित देशों में भी निरक्षरता है। उत्तर में हमारे महान पड़ोसी देश में लाखों निरक्षर हैं (सीटियां और कोलाहल), पूरी तरह से निरक्षर। साथ ही लाखों व्यावहारिक निरक्षर भी हैं और इसे कोई… (डॉक्टर डॉक्टर की आवाजें) वह क्या है, डॉक्टर, डॉक्टर के बारे में क्या बात है? (उन्हें कुछ बताया जाता है)।

मैंने लाखों की बात की, लेकिन वास्तव में इनकी संख्या करोड़ों में है, विकसित देशों में नहीं, तीसरी दुनिया के देशों में।

उन्हें बताया जाता है कि वे श्रोताओं में से किसी के लिए डॉक्टर लाने के वास्ते कह रहे हैं।) यहां डॉक्टर है। किसको चाहिए? उसे जल्दी से बाहर ले जाओ। डॉक्टर उसे अभी देख लेगा।

मेरी बात आशा से लंबी हो रही है। तो मैं आपसे आपस में जुड़े दो महत्वपूर्ण मुद्दों की बात कर रहा था। ये हैं शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा। हम एक अर्जेंटीनियाई डॉक्टर के विषय में बात कर रहे हैं जो डॉक्टर बने रहने के साथ-साथ एक सिपाही भी बन गया। उन्हीं से प्रेरित होकर हमने इस ओर ध्यान देना शुरू किया। मैं कह रहा था कि शिक्षा ही छोटे से पशु को मानव बनाती है। यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए। शिक्षा से ही नैसर्गिक वृत्तियों पर काबू पाया जाता है।

इसके अलावा शिक्षा के द्वारा ही जेलों को खाली किया जा सकता है। इनमें ऐसे ही लोग हैं जिन्हें शिक्षा नहीं मिली और जिनका ठीक से पोषण नहीं हुआ। हमारे अपने देश में हमें काफी समय बाद यह बात समझ में आई कि चाहे कितने भी कानून बना दिए जाएं, कितने ही स्कूल खोल दिए जाएं, कितने ही अध्यापक प्रशिक्षित कर दिए जाएं, मानवों की शिक्षा के मामले में फिर भी बहुत कुछ करना शेष रह जाएगा। हमारे समाज में लाखों विश्वविद्यालय प्रशिक्षित पेशेवर और बुद्धिजीवी हैं।

परिवार नामक इकाई का प्रभाव निर्णायक होता है।यदि आप जेलों में जाएं और बंदी बनाए गए 20 से 30 वर्ष की आयु के युवाओं से बात करें तो आपको पता चलेगा कि वे आबादी के बहुत गरीब तबके से हैं । वे उन तबकों से होते हैं जिन्हें हम सीमांत तबके कहते हैं। इसके विपरीत यदि आप अत्यधिक प्रतिस्पर्धी स्कूलों, जिनमें कार्य-निष्पादन और ग्रेडों के आधार पर दाखिले होते हैं, के सामाजिक ताने-बाने को देखें तो आपको पता चलेगा कि वहां अधिकांश बच्चे बुद्धिजीवियों या कलाकर्मियों के हैं।

इस बात पर ध्यान दिया जाए कि मैं आर्थिक दृष्टि से वर्ग विभेद की बात नहीं कर रहा हूं। नए समाज का निर्माण जितना हम सोचते हैं उससे कहीं अधिक मुश्किल होता है क्योंकि इस दिशा में काम करते हुए आपको बहुत सी नई बातें मालूम होती है। यदि आप 30 प्रतिशत निरक्षरता या पूर्ण तथा व्यावहारिक निरक्षरता दोनों को मिलाकर 90 प्रतिशत निरक्षरता दर के खिलाफ संघर्ष शुरू करें तो आपका ध्यान इसी पर रहता है। इसके बाद कुछ वर्ष बीत जाने के बाद जब आप समाज का गहराई से अध्ययन शुरू करते हैं तब आपको शिक्षा के प्रभाव का पता चलता है।

मैं आपको बताना चाहता हूं कि निर्धन और सीमांत तबकों में परिवार की इकाई जल्दी टूटती है। इसका शिक्षा पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। आप देख सकते हैं कि इनमें से 70 प्रतिशत टूटे हुए परिवारों से हैं और 19 प्रतिशत न तो मां और न पिता, बल्कि उन्हें पालने के लिए जिम्मेदार किसी रिश्तेदार के पास रहते हैं। लेकिन जब बुद्धिजीवियों के परिवार में ऐसा होता है तो परिवार के टूटने का बच्चों पर उतना प्रभाव नहीं पड़ता है। सामान्यत: वे पिता या मां के पास रहते हैं। परंपरा से वे मां के साथ रहते हैं और क्यूबा के कुल प्रशिक्षित कार्मिक बल में 65 प्रतिशत स्त्रियां हैं। वे 65 प्रतिशत से कुछ ज्यादा ही हैं। यह सब शिक्षा का असर नहीं तो और क्या है? दूसरे शब्दों में क्रांति के बाद भी मां और पिता का शैक्षिक स्तर बच्चों के भविष्य को बहुत प्रभावित करता है।

कुछ परिस्थितियों, जिनमें साधारण तबकों के बच्चे न्यूनतम ज्ञान के साथ रहते हैं, मैं यहां घर की आर्थिक स्थिति की नहीं बल्कि शैक्षिक स्थिति की बात कर रहा हूं जो पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसी ही बनी रहती है, ऐसी परिस्थितियों में वही कहा जा सकता है जो कि हम कभी-कभी कहते हैं : ‘अमुक काम करने वाले या अमुक सेवाएं देने वालों के बच्चे किसी कंपनी के प्रेसीडेंट, या प्रबंधक नहीं बनेंगे या वरिष्ठ स्थानों पर नहीं जाएंगे, वे ज्यादातर कैदखानों में ही जाएंगे।’

हमने इसका तथा कुछ अन्य बातों का अध्ययन किया है लेकिन उस सब में जाने का यह समय नहीं है। मैं यह सब बताने के लिए कह रहा हूं कि शैक्षिक क्रांति, वास्तव में ही गंभीर शैक्षिक क्रांति के बगैर अन्याय और असमानता बनी रहेगी भले ही देश के सभी नागरिकों की भौतिक जरूरतें पूरी हो जाएं।

हमने अपने देश में सात साल की उम्र तक प्रत्येक बच्चे के लिए प्रतिदिन एक लीटर दूध की गारंटी दी हुई है। इससे बड़े बच्चों को, सीमित संसाधनों के कारण, हम अन्य डेयरी उत्पादों की सप्लाई की गारंटी देते हैं। सौभाग्य से हम ऐसा कर पाते हैं।

प्रत्येक बच्चे को इतना दूध अमरीकी डॉलर के एक सेंट की कीमत पर दिया जाता है । उत्तर में बैठा कोई व्यक्ति क्यूबा में अपने किसी मित्र को एक डालर भेजकर 104 दिन के लिए दूध मंगा सकता है ।

हमारे देश की नाकाबंदी ने हमें राशन प्रणाली अपनाने के लिए मजबूर कर दिया है। इस नाकाबंदी को चलते हुए 44 साल हो गए हैं । लेकिन हमारे देश में एक भी बच्चा बगैर स्कूल के नहीं मिलेगा, एक भी बच्चा ।

हमारे देश में किसी प्रकार की मानसिक अपंगता के साथ जो बच्चे पैदा होते हैं उनके बारे में हम गहराई से अध्ययन कर रहे हैं। मामूली, कम, ज्यादा या गंभीर रूप से मंदबुद्धि होने, जिनकी अपनी-अपनी विशेषताएं हैं, के कारणों का हम पता लगा रहे हैं। सौभाग्य से मामूली या कम मंदबुद्धि होने के मामले ही अधिक हैं। हर मामले को दर्ज किया जाता है। केवल बच्चे ही नहीं बल्कि 140,000 से थोड़े अधिक मंद बुद्धि लोग हैं। ऐसे सभी बच्चों का पंजीकरण किया जाता है जो किसी भी रूप में भौतिक या मानसिक रूप से अपंग हैं या नेत्रहीन या गूंगे और बहरे हैं या एक साथ नेत्रहीन, गूंगे और बहरे हैं।

और भी कई तरह की मानव त्रासदियां हैं जिनका अध्ययन और जिन पर अनुसंधान किया जाना चाहिए। शुरू में हमें इनके बारे में कुछ भी ज्ञान नहीं था। वर्षों तक शिक्षा के लिए संघर्ष और व्यवहार के बाद हमें धीरे-धीरे उनके बारे में पता चला।

इनके लिए विशेष स्कूल हैं। इन विशेष शिक्षा स्कूलों में 55000 बच्चे दाखिल हैं।

हमने बता दिया है कि इन विशेष स्कूलों में बच्चे का छठी से नौवीं कक्षा तक दाखिला रहना ही काफी नहीं है। जो बच्चे सीनियर हाई स्कूल में 12 कक्षा तक या व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए तकनीकी स्कूलों में नहीं जा सकते उन्हें नौवीं कक्षा पूरी कराई जानी चाहिए भले ही उनको एक या दो साल अधिक लग जाएं। वे जो काम कर सकते हैं उसके लिए उन्हें तैयार किया जाना चाहिए तथा उन्हें कोई काम दिया जाना चाहिए ।

हमें इस तरह की समस्याओं से ग्रस्त बच्चों को कम करके नहीं आंकना चाहिए। उनमें बहुत से काम करने की योग्यता होती है। हम हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठ सकते। इस तरह की अपंगता वाले बच्चों को जो पढ़ाया जाना चाहिए। लेकिन केवल पढ़ाकर हम अपना काम खत्म नहीं समझ सकते।

चाहे जैसी अपंगता हो, उनका ध्यान रखा जाता है। हमें इस बात पर संतोष है कि 44 सालों की नाकाबंदी के बावजूद क्यूबा में एक भी बच्चा ऐसा नहीं है जिसे विशेष स्कूल की जरूरत हो और जिसे इस तरह का स्कूल उपलब्ध नहीं हो ।

मैं एक बात कहना चाहता हूं कि इसे हमारा घमंड नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि जब भी मैं शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा की बात करता हूं तो मुझे नई संभावनाओं के विषय में जानकर शर्म आती है कि हमें इनके बारे में पहले पता क्यों नहीं चला। किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि क्यूबा अपनी सफलताओं की डींग मारता है। कुछ ऐसी बातें हैं जिनकी हमें भी जानकारी नहीं थी।

बिहार हाशिए पर क्‍यों?

-अनिल दत्त मिश्र

बिहार का अतीत गौरवशाली रहा है। मौर्य साम्राज्य, कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’, नालंदा विश्वविद्यालय, विक्रमशिला विश्वविद्यालय, जैन-बौध्द धर्म का उदय, स्वतंत्रता संग्राम में राजेन्द्र प्रसाद, सच्चिदानंद सिन्हा, मौलाना मजरूल हक आदि अग्रणी नेता इसी प्रांत से आते हैं। महात्मा गांधी ने चंपारण आंदोलन बिहार से शुरू करके स्वतंत्रता का सुत्रपात किया। जयप्रकाश नारायण, आजादी के बाद भारत के प्रशासनिक दृष्टिकोण से 1962 तक बिहार सर्वोत्तम राज्य रहा है जिसकी पुष्टि पॉल एबल्वी के रिपोर्ट में लिखित है। ऐसा राज्य धीरे-धीरे हासिए पर क्यों चला गया? इसके लिए जिम्मेदार कौन है? उन्नति के सूत्रधार हैं परंतु आज भी बिहार के गांव बेहाल हैं। ये सवाल हमें सोचने के लिए मजबूर कर देते हैं। समय-समय पर चिंतक-लेखक एवं पत्रकार बिहार की दशा को बदलने के लिए अपने-अपने विचार एवं व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास करते रहते हैं। बिहार हासिए पर है इसके लिए नेता पूर्णरूपेण जिम्मेदार है। कहा गया है ‘जैसा राजा वैसी प्रजा’, नेताओं ने अपनी व्यक्तिगत आकांक्षाओं को प्राप्त करने के लिए साम, दाम, दंड और भेद की नीतियां अपनायी। स्वच्छ समाज को खंडित कर दिया। शैक्षणिक परिसरों में अभिक्षितों की भरमार तथा शासन-प्रशासन राजनीतिक दलों के एजेंट बन गए। जनता का राजनेताओं से विश्वास हट गया। और जनता भी जात-पात एवं कुशासन की भागीदारी बन गयी। राजनेता जनता को कोसती तथा जनता राजनेता को कोसती। मसलन कुशासन फैलने में जनता और जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि दोनों समान रूप से जिम्मेदार हैं। बिहार में रेलमार्ग का बहुत विकास हुआ। परंतु जलमार्ग एवं सड़कमार्ग का विकास जिस प्रकार होना चाहिए उस प्रकार नहीं हुआ। नहरों का विकास बहुत ही कम हुआ। अतिरिक्त पानी का सदुपयोग नहीं हुआ। बिहार मुख्यतः कृषि पर आधारित प्रांत है ज्यादातर लोगों का जीवन खेती पर निर्भर है। खेती कर विकास न होने के कारण खेती हानि का सौदा समुचित बन गया, मजदूरों का पलायन शुरू हो गया तथा हालत बद से बदतर होती चली गई। पटना विश्वविद्यालय के सभी कॉलेजों का एक राष्ट्रीय महत्व था। खासकर साइंस कॉलेज, पी. एम. सी. एच. लंगट सिंह कॉलेज आदि दिल्ली के सर्वश्रेष्ठ कॉलेजों में से एक थे। परंतु शैक्षणिक कैलेंडर न लागू होने के कारण ये कॉलेज हासिए पर चले गए, पिछले 60 सालों में नेतरहाट विद्यालय जैसा दूसरा कोई विद्यालय सरकार नहीं बना पायी। नतीजा यह हुआ कि बिहार से विद्यार्थियों का निर्यात हुआ। दिल्ली विश्वविद्यालय, जे एन यू के अधिकांश विद्यार्थी बिहार से आते हैं। दूसरे शब्दों में बिहार से प्रतिमाह करोड़ों रुपये शिक्षा पर बाहर जाते हैं। बिहार को ठीक करने के लिए प्राथमिक एवं उच्च शिक्षा पर ध्यान देना होगा। यहां में उद्योग-धंधों का आजादी के बाद से ही बाहुल्य रहा है। कुटीर उद्योग नहीं के बराबर हैं। वहां के मजदूर काम के अभाव में पंजाब, असम, दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई, अहमदाबाद, आदि स्थानों पर जाते हैं। जहां उन्हें तिरस्कृत बिहारी के नाम से जाना जाता है। बिगत पांच वर्षों में केंद्र सरकार को राज्य सरकार के प्रयास से आशा की किरण जगी है। जे. डी. यू. तथा भाजपा गठबंधन ने बिहारी की बदतर स्थिति को तथा सुशासन के प्रयास किए गए हैं। जिसका परिणाम यह है कि सड़कों मे गड्ढे कम नजर आते हैं। बच्चे स्कूल जा रहे हैं। पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित हुयी है तथा विकास की बयार बहती नजर आ रही है। इसके लिए केंद्र सरकार व राज्य सरकार की भूमिका अहम रही है लेकिन चुनावी राजनीति नेताओं की मंशा पर प्रश्न चिह्र खड़ा करती है। बिहार में गठबंधन सरकार है फिर चुनाव प्रचार में कौन जाए तथा कौन न जाए का मुद्दा भारतीय लोकतंत्र में सिध्दांत विहीन राजनीति को दर्शाती है। बिहार के प्रत्येक राजनीतिक दलों में सिध्दांत विहीनता का अभाव है। राजद के शीर्षस्थ नेता कांग्रेस में आ गए। जिनमें ये वो लोग हैं जिन्होंने आर. जे. डी. को हासिए पर लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। राहुल गांधी के बिहार दौरे के बाद कांग्रेस में एक उम्मीद की लहर जागी थी। वो उम्मीद उम्मीद ही रह गयी। लोक जनशक्ति पार्टी को एवं राजद को लोगों ने उनकी औकात दिखायी। अब दोनों एक हो गए हैं। सिध्दांत विहीनता की राजनीति ने जितना बिहार को कबाड़ा करने में भूमिका अदा की, उतना किसी ने नहीं की। बिहार का कल्याण राष्ट्रीय दलों द्वारा ही संभव है चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों का एक ही इतिहास है। आज बिहार को जरूरत है कि लोगों सबकुछ भूलाकर एक ही मुद्दा हो कि बिहार का विकास कौन करेगा वह कौन-सी पार्टी कर रही है। बिहार के लोग मेहनती हैं। वहां के विद्यार्थी विषम परिस्थितियाें में किसी से भी कम नहीं हैं। बिहार के लोग समरस्ता में विश्वास रखते हैं, आधुनिकता की चकाचौंध आज भी बिहार में नहीं पहुंची है ऐसे बिहार को आगे लाने के लिए बुनियादी चिजों पर ध्यान पड़ेगा। ये बुनियादी चिजें हैं शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली तथा कुटीर उद्योग इनका समुचित विकास करना होगा। ब्यूरोक्रेसी को नैतिक, कर्तव्यनिष्ठ जवाबदेह होना पड़ेगा। नौकरशाह जनसेवक है जनभक्षक नहीं। ईमानदार नौकरशाहों को आगे बढ़ाना होगा। पटना की सड़क महाराष्ट्र और राजस्थान के जिलों की सड़कों की तुलना में ठीक नहीं हैं। इन्हें ठीक करना होगा। प्राथमिक एवं उच्च शिक्षा को दलगत राजनीति से अलग रखना होगा। अंत में बिहार में जो एक परिवर्तन दिख रहा है। उसे और अच्छा बनाने के लिए सुशासन को मुद्दा बनाना चाहिए सभी राजनीतिक दलों को स्वच्छ चरित्र वाले व्यक्तियों को ही टिकट देनी चाहिए। यह इसलिए कि वे बिहार के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकें। जिनके लोग अनुयायी या समर्थक बन सके तथा लोग गर्व से कहें कि नेता हो तो ऐसा हो। जैसे कभी पूरे उत्तर भारत में लोग डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया तथा कर्पूरी ठाकुर के नाम पर गर्व महसुस करते थे। पुनः बिहार की गौरवशाली परंपरा व इतिहास की स्थापना के लिए बिहार की जनता को युवा नेतृत्व की तलाश करनी चाहिए जो बेदाग हो।

* लेखक राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय के पूर्व उप-निदेशक तथा प्रख्यात चिंतक है।

सलवा-जुडूम की खामोश बिदाई

-पंकज चतुर्वेदी

नक्सल समस्या से जूझने के लिए तैयार की गयी सलवा–जुडूम नाम की सामाजिक दीवार का इस तरह धीरे धीरे धसक जाना बहुत ही निराशाजनक है ।यदपि यह भी सत्य है की, इसकी बुनियाद बहुत ही कमजोर थी। अधिकृत रूप से सन२००५ में सरकार द्वारा शुरू किये जाने के बाद से ही ये विवादास्पद रही है और ये विवाद ही इसको सतत रूप से कमजोर करते रहें। जबकि ये प्रयास निसंदेह अच्छा था। नक्सल प्रभावित राज्यों उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल और झारखण्ड में अब यह बिलकुल स्पष्ट हो गया है कि नक्सल समस्या सिर्फ कानून व्यवस्था के विरुद्ध जन आक्रोश नहीं है, अपितु ये एक ऐसा गंभीर रोग है जो सामाजिक–आर्थिक विषमताओं से उत्पन हुआ है और जिसकी अनदेखी और इलाज में लापरवाही से आज ये इतना घातक हो गया है की इसने देश में अन्य समस्यों और संकटों को पीछे छोड़ दिया है। इसकी गिरफ्त में इन उल्लेखित राज्यों की एक बड़ी आबादी आ चुकी है।

छत्तीसगढ़ नें इस समस्या से जूझने और निपटने की पहल करते हुए सन १९९१ में “जन-जागरण अभियान ‘जैसे आंदोलन की शुरुआत की प्रारंभिक तौर पर इस मुहिम से कांग्रेस के नेता और कांग्रेस की विचारधारा को मानने वाले लोग जुड़े, जिन्होंने अपने सामने महात्मा गाँधी के सिद्धांतों और सोच को रखा और इस सामाजिक अभियान को गति देने का प्रयास किया। इस अभियान में स्थानीय व्यापारियों एवं उद्योगपतियों ने भी भाग लिया। बीजापुर, दंतेवाडा, कटरैली जैसे नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में इसे खासी लोकप्रियता भी मिली, किन्तु धीरे धीरे नक्सल आतंक से घबराकर लोगों ने इससे किनारा कर लिया ।

इस विफलता की बाद सन२००५ में छत्तीसगढ़ की भा.जा.पा.सरकार ने इसी अवधारण पर नक्सलवाद के विरुद्ध जन-प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में सलवा–जुडूम जिसका अर्थ गोंड आदिवासी भाषा में शान्ति –मार्च होता है, को आगे बढ़ाया। इस अभियान को कांग्रेस ने भी पूर्ण सहयोग दिया। राज्य सरकार ने सलवा जुडूम की दम पर ये प्रयास किया कि इन क्षेत्रों में बलपूर्वक स्थापित नक्सलियों को हटाया जाये और कभी कभी उन्हें इस उद्देश्य में आंशिक सफलता भी मिली। इसके लिए स्थानीय आदिवासी समुदाय से लोग चुनकर उन्हें शस्त्र प्रशिक्षण के बाद विशेष पुलिस अधिकारी का ओहदा और उत्तरदायित्व दिया गया। सलवा जुडूम में शामिल इन युवाओं को प्रतिमाह पन्द्रह सौ रुपये का मानदेय प्राप्त होता था। किन्तु धीरे-धीरे यह विशेष अधिकार प्राप्त लोग ही, अपने समुदाय का शोषण करने लगे। नक्सलवाद से दुखी और परेशान आम आदिवासी , जो इनसे अपनी सुरक्षा की आस लगाए था, बहुत ही निराश और हताश हो गया।

सलवा जुडूम और नक्सल वादियों के झगड़े में बस्तर संभाग के छह सौ से ज्यादा आदिवासी गांव खाली हो गए और लगभग साठ से सत्तर हजार आदिवासी पलायन कर सरकारी कैम्पों में रहने को मजबूर हो गए। इस सारी क्रिया एवं प्रतिक्रिया में दोनों पक्षों से बहुत खून भी बहा, नक्सल वादियों को तो खून खराबे से फर्क नहीं पड़ा, पर आम आदिवासी समुदाय के लोग इस सब से अंदर से टूट गए और इस तरह से सलवा-जुडूम अपने अंत की ओर अग्रसर हुआ।

इस अभियान के प्रारंभ में तो सरकार को ऐसा लगा कि उसके हाथ में नक्सल समस्या का अचूक इलाज लग गया है। प्रारंभिक स्थितियों से ऐसी आस बंधी थी कि अब इस अभियान को जन अभियान सा दर्जा मिल जायेगा। दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका, कुछ ऐसे भी हालात बने की सलवा जुडूम से जुड़े कार्यकर्ताओं ने अपना ठिकाना और आस्था बदल कर सरकारी हथियारों सहित नक्सल वादियों का हाथ थाम लिया। जब एक लंबे समय के बाद भी अपेक्षित परिणाम नहीं मिलें तो इन परिणामों के अभाव में राज्य सरकार को अंततः इस अभियान को अधिकृत रूप से बंद करने की घोषणा करनी पड़ी। राजनेताओं के बयानों पर बड़े –बड़े संवाद और विवाद करने वाला इलेक्ट्रानिक मीडिया और इन्ही बयानों पर सम्पादकीय लिखने वाला प्रिंट मीडिया दोनों ही ने सलवा जुडूम के गुजर जाने की महत्वपूर्ण घटना को उतनी तवज्जों नहीं दी। शायद देश के आम आदिवासी की जिंदगी और मौत से जुडी ये नक्सल समस्या राजनेताओं के बयानों से बहुत छोटी और कम महत्व की है।

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग और देश के सुप्रीम कोर्ट जैसी शीर्ष संस्थाओं ने भी सलवा जुडूम के विशेष पुलिस पुलिस अधिकारियों के व्यव्हार एवं कार्यशैली पर कई सवाल खड़े किये थे। यह भी सत्य है कि शोषण और दुर्व्यवहार के इन आरोपों को राज्य सरकार ने नकारा था और तथ्यों एवं सबूतों से भी ये सिद्ध नहीं हो सका की सलवा जुडूम के कार्यकर्ता बलात्कार और आदिवासी हत्‍याओं में लिप्त है। थोड़ी बहुत शिकायतें सही पाई गयी जिनमें साधारण मारपीट और कही कहीं झोपड़े जला देने की घटनाये थी। सुप्रीम कोर्ट नें इस तरह आम नागरिकों को हथियार बद्ध कर नक्सल वादियों के सामने करने की पद्धति की निंदा करते हुए इसे गैरकानूनी भी ठहराया था। कुछ लोगों ने ये भी आरोप लगाये की सलवा जुडूम में नाबालिग आदिवासी बच्चों को हथियार देकर विशेष पुलिस अधिकारी बनाया गया है।

सलवा जुडूम या इसके पूर्ववर्ती जन आंदोलनों की विफलता से ये महत्वपूर्ण प्रशन अब फिर सामने है, कि पूरी ताकत से जोर लगा रहें इस नक्सल वाद के इस विकराल दानव से अब कैसे निपटा जाये? अब तक भारत की पुलिस और अर्धसैनिक बलों की रण-नीतियां और कुर्बानियाँ इस लाल आतंक के सामने कमजोर पड़ कर मानसिक रूप से लगभग परास्त सी हो चुकी है। छत्तीसगढ़ के कुछ लोगो ने एक बार फिर एक नया गांधीवादी जन आंदोलन का फिर श्री गणेश किया है। लेकिन क्या अब हम इस नक्सल वाद की आंधी को गाँधी के सिद्धांतों से रोक पाएंगे? या फिर कुछ और राह चुननी होगी? परन्तु इस यक्ष प्रशन का उत्तर अभी किसी के पास भी नहीं है ना केंद्र सरकार और नहीं इस लाल आतंक से जूझती इन राज्यों की आम जनता और वहाँ की सरकार।

दिल्ली के तिलस्म को ललकारता भयावह सच

-बंशीधर मिश्र

एक तरफ वैभव का विराट सम्मेलन हो, उसमें गोते लगाते तमाम देशी-विदेशी मेहमान हों और दूसरी तरफ, भूख से बिलबिलाते बच्चे हों, बाढ़ में सब कुछ गंवा चुके यतीम यायावर हों, तो आप किसके साथ खड़े होंगे? यदि एक तरफ अरबों के खर्च पर बने ‘खेलों के गांव’ हों और दूसरी तरफ उजड़ गए गांवों के मलबे में सड़ी लाशों को नोंचते कौवे और गिद्ध हों तो आप किसे सच और किसे तिलस्म कहेंगे? यदि यह सब एक ही राष्ट्र-राज्य के भू-क्षेत्र में एक ही सरकार के शासन काल में घटने वाले नंगे सच हों, तो इसके लिए आप किसे जिम्मेदार ठहराएंगे?

दो अक्टूबर को जब देश में अहिंसा, सत्य और सादगी के देवदूत महात्मा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री की जयंती मनाई जा रही थी, तो दिल्ली में वैभव के विराट प्रदर्शन की तैयारियों को अंतिम रूप दिया जा रहा था। उसी समय करीब सौ किलोमीटर दूर गढ़मुक्तेश्वर के पास एक महिला ने जंगल में जहर खाकर जान दे दी थी। वैसे जान देना इस व्यवस्था में बहुत सामान्य घटना हो गई है। इसलिए कुछ अपनों को छोड़कर अब इस पर लोगों का ध्यान भी नहीं जाता। इस घटना के साथ भी ऐसा ही हुआ। पर दरअसल, यह मौत मामूली नहीं। इस मायने में कि इसके पीछे भूख, प्राकृतिक आपदा से उजड़ने वाले शरणार्थियों के प्रति शासन-प्रशासन की भूमिका, समाज और मीडिया का नजरिया पता चलता है। गंगानगर की रहने वाली इस महिला का घर-संसार बाढ़ ने लील लिया था। वह बच्चों व पति के साथ भोगल की धर्मशाला में शरणार्थी के रूप में दिन काट रही थी। एक रात अधिकारियों ने उन्हें धर्मशाला से भगा दिया। वह भूख से बिलबिलाते बच्चों की पीड़ा नहीं देख सकी और उसने जहर खाकर जान दे दी। जिस वक्त यह सब हो रहा था उसी समय दिल्ली के गेम्स विलेज में ऐतिहासिक जश्न के प्रदर्शन का रिहर्सल किया जा रहा था। करीब 70 हजार करोड़ रुपये खर्च कर कामनवेल्थ गेम्स का आयोजन किया गया है। तीन अक्टूबर के उद्घाटन शो ने भारत के वैभव की शान पूरी दुनिया में स्थापित कर दी है। अच्छा है। यह देश के लिए गौरव और सम्मान की बात है। हम बहुत उदार हैं। इस सात सौ अरब के खर्च में कितने अफसर, मंत्री, इंजीनियर, ठेकेदार मालामाल हो गए, शायद ही कोई इस पर शोध करने की जहमत उठाए। हम इसी में संतुष्ट हो लेते हैं कि अंत भला सो सब भला। मीडिया भी अब शायद ही किसी गहरी पड़ताल में जाए। पर इस बीच देश के तमाम हिस्सों में आई बाढ़, उससे उजड़े हजारों घरों के लाखों लोगों के आंसू पोंछने, उन्हें फिर से बसाने और उनके चेहरों पर खुशियों के दो पल लौटाने की चिंता क्या सरकार और उसके विशाल प्रशासनिक संजाल को है? नहीं। क्यों? यदि होती, तो भूखे बच्चों की पीड़ा और सब कुछ नष्ट हो जाने के दर्द झेलती महिला को मदद सांत्वना के दो बोल की जगह धर्मशाला से खदेड़ा न जाता। भूख से बिलखते विदर्भ, बुंदेलखंड, कालाहांडी के हजारों-लाखों परिवारों की अंतहीन पीड़ाएं किसी भी सरकार के लिए चिंता का विषय नहीं रह गई हैं। करोड़ों-अरबों की संपत्ति के मालिक अफसरों, मंत्रियों को सौ रुपये किलो की दाल महंगी नहीं लगती।

यह सवाल मामूली नहीं है कि जिस देश के गोदामों में लाखों टन अनाज बिना रखरखाव के सड़ जाए और वहीं लोग भूख से तड़पकर जान दे दें, तो इसकी जिम्मेदारी किसकी होगी? कहीं सूखा, तो कहीं बाढ़ ने हजारों गांवों को उजाड़ दिया है। गांव के गांव खाली हो गए हैं। लाचार वृद्ध, बच्चे और अशक्त महिलाएं ही गांवों में बची हैं। काम की तलाश में लाखों-करोड़ों की आबादी दर-ब-दर हो गई है। पिछले एक दशक में देश में डेढ़ लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली। यह सरकारी आंकड़ा है, जो पूरे सच का एक छोटा सा टुकड़ा है। देश के कई हिस्सों का सामाजिक भूगोल बदल गया है। सामाजिक ताने-बाने का ऐसा विखंडन बंगाल के अकाल के समय देखने को मिलता है। पर यह सब कुछेक मौकों पर बहस-मुबाहिसे को छोड़कर कभी निर्णायक मुद्दा नहीं बन पाया। ऐसा क्यों होता है, चुनाव के समय भी देश की जनता अपने भाग्यविधाताओं से सवाल नहीं करती या कर पाने की हिम्मत नहीं रखती। कभी-कभार मीडिया में हल्ला मचा, तो सदनों में विरोधी पक्ष के प्रतिनिधि सवाल उठा देते हैं। संबंधित विभाग के मंत्रियों की तरफ से सरकारी जवाब तैयार करके पटल पर पेश कर दिया जाता है। अंदर ही अंदर पुलिस प्रशासन को इशारा कर दिया जाता है कि भूख से मौतों का जिक्र जीडी में दर्ज न किया जाए। कम से कम उत्तर प्रदेश में तो पिछले 12 सालों से यही हो रहा है। मीडिया के पास सिवाय सरकारी आंकड़ों पर भरोसा करने के कोई रास्ता नहीं बचता कि वह सच तक पहुंच सके। गढ़ मुक्तेश्वर की घटना को भी पुलिस अफसर यही साबित करने में लगे हैं कि वह भूख और यंत्रणा से नहीं मरी, उसे सांप ने काट लिया था। ऐसा इसलिए कि सरकार के माथे पर बाढ़ पीड़ित के दुखद अंत का कलंक न लग सके।

राष्ट्रीय स्वाभिमान की विश्व में स्थापना हो, यह ठीक बात है। इसमें किसी भी राष्ट्रप्रेमी नागरिक को भला आपत्ति क्यों होगी? पर जब देश के कई कोनों में भूख और लाचारी से मौतों का करुण क्रंदन हो रहा हो, तब राजधानी में सात सौ अरब खर्च कर जश्न मनाना क्या किसी भयंकर अपराध से कम नहीं? अपने देश के लाखों भूखे बच्चों के आंसू पोंछने के बजाय 70 करोड़ के गुब्बारे को आसमान में लटकाकर विदेशी मेहमानों का मनोरंजन करना क्या मनुष्यता का मजाक उड़ाना नहीं है? भूख का उपोत्पाद है अपराध। यह सिद्धांत पूरा नहीं, तो आंशिक सच जरूर है। इसी सच का नतीजा है देश के कई राज्यों में पनप रहा नक्सलवाद। जिस देश के करोड़ों वासी रात-दिन भूख से उबरने का उपक्रम कर रहे हों, वह देश दुनिया के सभ्य समाज में अपना सिर ऊंचा नहीं कर सकता। थोथा वैभव देश को असली ताकत नहीं देगा। उसे पहले भूख के अभिशाप से मुक्त होना होगा।

(बंशीधर जी वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं, उनसे फोन नम्बर 09455763424 पर सम्पर्क किया जा सकता है)

भारत की यह मजबूरी है, भ्रष्टाचार जरूरी है

-लिमटी खरे

एक समय में सामाजिक बुराई समझे जाने वाले भ्रष्टाचार ने आजाद हिन्दुस्तान में अब शिष्टाचार का रूप धारण कर लिया है। बिना रिश्वत दिए लिए कोई भी काम संभव नहीं है, यह हमारा नहीं देश की सबसे बड़ी अदालत का मानना है। अस्सी के दशक के मध्य तक भ्रष्टाचार को सामाजिक बुराई समझा जाता था, उस समय भ्रष्टाचार करने वालांे को समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था। कालान्तर में भ्रष्टाचार की जड़े इस कदर गहरी होती गईं कि हर सरकारी कार्यालय में भ्रष्टाचार अब रग रग में बस चुका है। सरकारी कार्यालयों के बाबू, अफसर और चपरासी बेशर्म होकर ‘कुछ चढ़ावा तो चढ़ाओ‘, ‘बिना वजन के फाईल उड़ जाएगी‘, ‘बिना पहिए के फाईल कैसे चलेगी‘, ‘अरे सुविधा शुल्क तो दे दो‘ आदि जुमले पूरी ईमानदारी के साथ बोलते नजर आते हैं। याद नहीं पड़ता कि पूर्व प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी के उपरांत किसी जनसेवक ने भ्रष्टाचार के बारे में अपनी चिंता जाहिर की हो। आज कम ही जनसेवक एसे बचे हैं, जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप न हों। यह अलहदा बात है कि भ्रष्टाचार के आरोप सिद्ध होने में बरसों बरस लग जाते हैं, तब तक मूल मामला लोगों की स्मृति से विस्मृत ही हो जाता है। लालू प्रसाद यादव और सुरेश कलमाड़ी इस बात के जीते जागते उदहारण कहे जा सकते हैं जिन पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोपों के बावजूद भी कांग्रेसनीत कंेद्र सरकार ने उन्हंे गले लगाकर ही रखा है। विडम्बना यह है कि जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग अक्सर ही खुद को सत्यवादी हरिशचंद के वंशज बताकर भ्रष्टाचार पर लंबे चौंड़े भाषण पेलते रहते हैं, पर जब उसे अमली जामा पहनाने की बारी आती है तब भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार बनकर उभर जाता है।

भारत गणराज्य की आने वाली पीढ़ी नब्बे के दशक और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक को किसी रूप में जाने या न जाने किन्तु भ्रष्टाचार के गर्त में भारत को ढकेलने के लिए अवश्य ही याद करेगी। नई दिल्ली के एक समाचार पत्र समूह द्वारा इसी साल अगस्त माह के पहले पखवाड़े में कराए गए सर्वे में यह तथ्य उभरकर आया है कि उमर दराज हो चुके दिल्ली के 65 फीसदी लोगों का मानना है कि आजाद भारत में भ्रष्टाचारियों को अधिक ‘आजादी‘ नसीब हुई है। रिश्वत खोरों के लिए सजा का प्रावधान नगण्य ही है। बिना रिश्वत की पायदान चढ़े देश में कोई भी काम परवान नहीं चढ सकता है। लोगों का मानना था कि इस मामले का सबसे दुखद पहलू यह है कि भ्रष्टाचार की जांच करने वाले लोग खुद भी भ्रष्टाचार की जद में हैं। देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली के पेंशनर्स का मानना हृदय विदारक माना जा सकता है कि उन्होंने अपने जीवन में सरकारी सेवा के दौरान जनता की सेवा पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ की किन्तु अब उन्हंे भी रिश्वत की सीढ़ी पर चढ़ने पर मजबूर होना पड़ता है। यह है गांधी नेहरू के देखे गए आजाद भारत की इक्कीसवीं सदी की भयावह तस्वीर।

अस्सी के दशक के मध्य तक कमोबेश हर कार्यालय की दीवार पर ‘‘घूस (रिश्वत) लेना और देना अपराध है, दोनों ही पाप के भागी हैं‘‘ भावार्थ के जुमले लिखे होते थे। उसके पहले तक रिश्वत लेने वाले को समाज में बेहद बुरी नजर से देखा जाता था। आज चालीस की उमर को पार करने वाले प्रौढ़ भी इस बात को लेकर चिंतित हैं कि भ्रष्टाचार का तांडव अगर इसी तरह जारी रहा तो आने वाले भारत की तस्वीर कितनी बदरंग और बदसूरत हो जाएगी।

जनसेवक, सरकार, न्यायालय हर जगह भ्रष्टाचार को लेकर तरह तरह की बहस होती है। बावजूद इसके जब भी जमीनी हकीकत को देखा जाता है तो भ्रष्टाचार का बट वृक्ष और विशालकाय होकर उभरता दिखाई पड़ता है। इसकी परछाईं इतनी डरावनी होती है कि आम आदमी ईमानदारी से जीने की कल्पना कर ही सिहर जाता है। आज ईमानदार सरकारी कर्मचारी फील्ड पोस्टिंग के बिना मन मसोसकर रह जाते हैं। अनेक विभागों में न जाने एसे कितने कर्मचारी अधिकारी होंगे जो भ्रष्ट व्यवस्था से समझौता न कर पाने के चलते जिस पद पर भर्ती हुए उसी से सेवानिवृत होने पर मजबूर होंगे।

हद तो तब हो गई जब देश की सबसे बड़ी अदालत की एक पीठ ने भ्रष्टाचार पर अपनी तल्ख टिप्पणी कर डाली। सुप्रीम कोर्ट की पीठ का कहना था कि अगर सरकार भ्रष्टाचार को रोक नहीं सकती तो उसे कानूनन वैध क्यों नहीं बना देती है। सुप्रीम कोर्ट ने सही कहा है कि यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में भ्रष्टाचार पर कोई लगाम नही लग रही है। अगर यही सही है तो सरकार भ्रष्टाचार को कानूनी स्वरूप दे दे।

सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी अपने आप में अत्यंत महात्वपूर्ण और आत्मावलोकन करने के लिए पर्याप्त मानी जा सकती है, किन्तु धरातल की हकीकत को अगर देखा जाए तो यह टिप्पणी आम आदमी की लाचारी को ज्यादा परिलक्षित करती है। सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार पर कोर्ट की टिप्पणी भले ही आबकारी, आयकर और बिक्रकर विभाग के बारे में हो पर यह सच है कि संपूर्ण सरकारी तंत्र को भ्रष्टाचार का लकवा मार चुका है। भ्रष्ट सरकारी तंत्र पूरी तरह पंगु हो चुका है। हमें यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि सरकार चलाने वाले जनसेवक नपुंसक हो चुके हैं, उनकी मोटी चमड़ी पर नैतिकता के पाठ की सीख का कोई असर नहीं होने वाला है।

देश में भ्रष्टाचार का आलम यह है कि ‘‘सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का‘‘ की तर्ज पर जब भ्रष्टाचार पर अकोड़ा और अंकुश कसने वाले ही भ्रष्टाचार के समुंदर में डुबकी लगा रहे हों, तब आम आदमी की बुरी गत होना स्वाभाविक ही है। विजलेंस विभाग आकंठ भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है, पर सरकार में बैठे शीर्ष अधिकारी अपने निहित स्वार्थों के लिए अपने खुद के लिए बस धृतराष्ट की भूमिका को ही उपयुक्त मान रहे हैं।

भारत गणराज्य की स्थापना के साथ ही यहां का प्रजातंत्र तीन स्तंभों पर टिका बताया गया था। न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका। इसके अलावा इन तीनों पर नजर रखने के लिए ‘‘मीडिया‘‘ को प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ के तौर पर अघोषित मान्यता दी गई थी। विडम्बना यह है कि मीडिया भी इन्हीं भ्रष्टाचारियों की थाप पर मुजरा करते आ रहा है। अपने निहित स्वार्थों के लिए मीडिया ने भी अपनी विश्वसनीयता को खो दिया है। देश भर में हर जगह नेता विशेष के चंद टुकड़ों के आगे मीडिया ने अपनी पहचान मिटा दी है। नेताओं द्वारा मीडिया को अपनी इस सांठगांठ में मिलाने के लिए उन्हें राजनैतिक दलों का सदस्य बना लिया जाता है फिर वह मेनेज्ड मीडिया सरकार की वह उजली छवि पेश करता है कि लोगों को लगने लगता है कि फलां नेता भ्रष्टाचारी हो ही नहीं सकता यह उसके खिलाफ विरोधियों का षड्यंत्र ही है।

इस समय सरकार में शामिल न होकर भी सरकार का रिमोट कंट्रोल अपने हाथ में रखने वाली कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी के पति मरहूम राजीव गांधी ने बतौर प्रधानमंत्री कहा था कि केंद्र सरकार से भेजा जाने वाले एक रूपए में से पंद्रह पैसे ही जनता तक पहुंचते हैं। यह बात उन्होंने अस्सी के दशक के पूर्वाध में कही थी। अगर उस वक्त यह आलम था तो आज तो सारी योजनाएं ही कागजों पर सिमटकर रह जाती हैं।

विचित्र किन्तु सत्य की बात भी सरकारें ही चरितार्थ करती हैं। राज्य या केद्र सरकार ही योजनाएं बनाती है, उन योजनाओं के लिए धन जुटाकर आवंटित करती हैं, योजनाओं को अमली जामा भी सरकारों द्वारा पहनाया जाता है। योजनाएं पूरी होने पर उनकी समीक्षा भी सरकारों द्वारा ही की जाती है। इस समीक्षा में अंत में निश्कर्ष यही आता है कि उस योजना में वह खामी थी या फिर उस योजना का पूरा लाभ जनता को नहीं मिल पाया। यक्ष प्रश्न तो यह है कि योजना किसने बनाई और किसने क्रियान्वित की? जाहिर है सरकारी सिस्टम ने, तब इसके लिए जवाबदेही तय होना चाहिए या नहीं और अगर पूरा लाभ नहीं मिल पाया तो इस तरह पानी मंे बहाई गई राशि को सरकारी तन्खवाह पाने वालों के वेतन से उसे वसूल क्यों नहीं किया जाना चाहिए?

भ्रष्टाचार की अनुगूंज के मध्य भ्रष्टाचार रोकने के लिए तैनात लोकायुक्त ने भी एक सुर से संवैधानिक अधिकारों की मांग आरंभ कर दी है। लोकायुक्त चाहते हैं कि केंद्र सरकार संसद में एक विधेयक लाकर लोकायुक्त संगठन को समेचे देश में एकरूपता प्रदान करे। अब तक अमूमन लोकायुक्त के पद पर किसी बड़ी अदालत के ही सेवानिवृत न्यायधीश को लोकायुक्त बनाया गया है। पिछले चार दशकों का इतिहास इस बात का गवाह माना जा सकता है कि लोकायुक्त द्वारा अब तक छोटे मोटे शिकार के अलावा कौन सी बड़ी मछली को पकड़कर सजा दिलाई हो।

महज रस्म अदायगी के लिए तृतीय या चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी पर प्रकरण बनाकर लोकायुक्त संगठन द्वारा भी रस्म अदायगी ही की जाती रही है। भारत गणराज्य के हर सूबे में लोकायुक्त संगठन ने मंत्री, बड़े अधिकारियों नौकरशाहों या दिग्गजों को दागी करार दिया है, बावजूद इसके किसी के खिलाफ भी कार्यवाही न किया जाना भारत के ‘‘सिस्टम की गुणवत्ता‘‘ की ओर इशारा करने के लिए पर्याप्त माना जा सकता है।

भारत सरकार के कानून मंत्री भले ही भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए वचनबद्ध होने का स्वांग रच रहे हों, लोकायुक्त संगठनों को अधिक ताकतवर बनाने का प्रयास करने का दिखावा कर रहे हों, पर क्या उनमें इतना माद्दा है कि वे स्वयं इस बात की ताकीद लोकायुक्त संगठनों से करें कि उनके पास कितने प्रकरण लंबित हैं, और कितनी शिकायतों पर लोकायुक्त संगठनों ने क्या कार्यवाही की, किन प्रकरणांे को किस आधार पर नस्तीबद्ध किया गया। दरअसल लोकायुक्त के पास जाने का साहस आम आदमी जुटा नहीं पाता है, इसलिए कम ही लोगों को इस बात की जानकारी हो पाती है कि किसके खिलाफ शिकायत हुई और क्या कार्यवाही हुई।

रही बात देश के चौथे स्तंभ मीडिया की तो मीडिया के पास जब लोकायुक्त में दर्ज प्रकरणों की जानकारी आती है, तो मीडिया भी उसका इस्तेमाल ‘‘अंधा बांटे रेवड़ी चीन्ह चीन्ह कर देय‘‘ की तर्ज पर ही करता है। हर सूबे में भ्रष्टाचार के आरोपी मंत्री, नौकरशाहों, दिग्गजों की लंबी फेहरिस्त होगी पर कार्यवाही अंजाम तक किसी भी मामले में नहीं पहुंच पाना निश्चित तौर पर मंशा में कमी को ही परिलक्षित करता है।

जो पकड़ा गया वो चोर, बाकी सब साहूकार का सिस्टम आज सरकारी तंत्र में पसरा है। जो भी रिश्वत लेते पकड़ा जाए उसे ही चोर माना जाता है बाकी सारे तंत्र में भ्रष्टाचार को शिष्टाचार की तरह अंगीकार कर लिया गया है। इस मामले में एक वाक्ये का जिकर लाजिमी होगा। मध्य प्रदेश में पंचायती राज की स्थापना के उपरांत प्रदेश मंत्रालय के एक उपसचिव स्तर के अधिकारी स्व.आर.के.तिवारी द्वारा पूूर्व प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी से भेंट के दौरान त्रिस्तरीय पंचायती राज की व्यख्या की गई थी। उन्होंने स्व. राजीव गांधी से कहा था कि मध्य प्रदेश में तीन स्तर पर पंचायती (भ्रष्टाचार) राज कायम है।

पहला है सचिवालय जहां नीति निर्धारक बैठते हैं इसे अंग्रेजी में ‘‘सेकरेटरिएट‘‘ कहते हैं इसका नाम बदलकर ‘सीक्रेट रेट‘ कर देना चाहिए, क्योंकि यहां हर काम का रेट सीक्रेट है। हो सकता है आपका काम एक दारू की बॉटल में हो जाए न काहो कि दस लाख में हो। यहां हर काम का रेट सीक्रेट यानी गुप्त ही है।

दूसरा है संचालनालय जिसे आंग्ल भाषा में ‘‘डायरेक्ट रेट‘‘ कहते हैं। संचालनालय में सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए हर विभाग के आला अधिकारी की तैनाती होती है। अपने आंग्ल नाम को मूर्त रूप देता है यह सरकारी कार्यालय। अर्थात यहां हर बात का डारेक्ट यानी सीधा रेट है। फलां काम में डेढ़ परसेंट लगेगा, फलां काम में आवंटन के लिए तीन परसेंट देना होगा वरना आप अपनी व्यवस्था देख लीजिए।

अब दो स्तर के बाद तीसरा स्तर आता है जिलों का। हर जिले में इन सरकारी योजनाओं को मैदानी अफसरान द्वारा अमली जामा पहनाया जाता है। हर जिले में जिलाध्यक्ष का कार्यालय होता है। जिलाध्यक्ष का नियंत्रण समूचे जिले पर होता है। जिलाध्यक्ष का काम ही हर बात पर नजर रखना होता है। अंग्रेजी में जिलाध्यक्ष के कार्यालय को ‘‘कलेक्ट रेट‘‘ कहा जाता है। अर्थात जिलांे में प्रदेश या केंद्र सरकार से आने वाली राशि को कलेक्ट किया जाता है, इधर रेट का सवाल ही पैदा नहीं होता है, यहां तो बस कलेक्ट करने का काम ही होता है।

हर सूबे में राज्य आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो अर्थात ईओडब्लू अपनी अपनी तर्ज और नाम से काम कर रहे हैं। यह पुलिस का ही एक विंग है, जिसका काम आर्थिक तौर पर हो रहे अपराधों पर नजर रखने का है। सरकारी सिस्टम में आर्थिक तौर पर होने वाले अपराधों की जानकारी ईओडब्लू को देने पर उनका फर्ज तत्काल कार्यवाही करने का है। अमूमन देखा गया है कि ईओडब्लू के मातहत सूचना मिलने पर आरोपी से ही भावताव करने जुट जाते हैं। शायद ही कोई सूबा एसा बचा हो जिसमें आर्थिक अपराध रोकने वाली शाखा में दागी अफसर कर्मचारियों की तैनाती न हो। इन परिस्थितियों मंे अगर इन्हें और अधिक साधन संपन्न बना दिया गया तो निश्चित तौर पर भ्रष्टाचार का ग्राफ और अधिक बढ़ जाएगा, क्योंकि भ्रष्टाचारी को बचने के लिए इन संगठनों को अधिक राशि रिजर्व स्टाक में रखना पड़ेगा जो उसे अलग से कमानी होगी।

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह और रसायन मंत्री राम विलास पासवान के बीच भ्रष्टाचार को लेकर हुए कथित संवाद को सियासी गलियारों में चटखारे लेकर सुनाया जाता था। यह वार्तालाप उनके बीच हुआ अथवा नहीं यह तो वे दोनों ही जाने पर चटखारे लेकर किस्से अवश्य सुनाए जाते रहे। कहा जाता है कि जब राम विलास पासवान के मंत्रालय में भ्रष्टाचार चरम पर पहुंचा तो डॉ. मनमोहन सिंह ने उन्हें बुला भेजा, और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की बात कही। इस पर पासवान भड़क गए और बोले आप हमें मंत्री मण्डल से बाहर कर दें तो बेहतर होगा, हम इसे रोक नहीं सकते, क्योंकि हमें पार्टी चलाना है। पार्टी का खर्च हम आखिर कहां से निकालेंगे?

अस्सी के दशक तक शैक्षणिक संस्थानों में नैतिकता का पाठ सबसे पहले पढ़ाया जाता था। अस्सी के दशक के उपरांत जब से शिक्षा का व्यवसाईकरण हुआ है, तब से आने वाली पौध को नैतिकता का पाठ ही नहीं पढ़ाया जा रहा है। इस बात का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब सरकारी स्कूलों का शैक्षणिक स्तर घटिया हो, देश का भविष्य तैयार करवाने वाले शिक्षक शालाओं के बजाए निजी तौर पर ट्यूशन पर जोर दे रहे हों, निजी स्कूलों ने शिक्षा को व्यवसाय बना लिया हो, तब बच्चों को आदर्श और नेतिकता कौन सिखाएगा।

वैसे भ्रष्ट नेताओं, भ्रष्ट नौकरशाहों और मीडिया के भ्रष्ट लोगों के गठजोड़ ने देश को भ्रष्टाचार की अंधी सुरंग में ढकेल दिया है। नैतिकता की दुहाई देकर उसे अपने से कोसों दूर रखने वाले लोगांे ने भारत को अंधेरे में बहुत दूर ले जाया गया है। आज आप किसी भी सरकारी दफ्तर में चले जाएं बिना रिश्वत के आपका कोई काम नहीं हो सकता है। और तो और अब तो मंत्रीपद पाने के लिए भी रिश्वत का सहारा लिया जाने लगा है। देश के अनेक जिलों के कलेक्टर्स के पद भी बिकने लगे हैं। देश में परिवहन, आयकर, विक्रयकर, वाणिज्य आदि जैसे मलाईदार विभागों में तो बिना रिश्वत के एक भी तैनाती नहीं हो सकती है।

बहरहाल माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भ्रष्टाचार के बारे में अपनी चिंता जताकर सरकार को जगाने का प्रयास किया है। न्यायालय का कहना सही है अगर भ्रष्टाचार का खत्मा नहीं किया जा सकता है तो कम से कम इसे कानूनी जामा पहना दिया जाए, ताकि काम कराने वाले को किसी भी काम के लिए सरकार द्वारा निर्धारित शुल्क की तर्ज पर यह बात तो पता हो कि किस काम के लिए कितनी राशि बतौर ‘चढ़ावा‘, ‘सुविधा शुल्क‘, ‘चढोत्री‘, ‘वजन‘ अथवा ‘शिष्टाचार‘ आदि के लिए अदा करनी है।

जरूरत इस बात की है कि सरकार एक नई व्यवस्था को बनाए, जिसमें हर एक व्यक्तिक की जवाबदेही तय हो, जो इस व्यवस्था का पालन ईमानदारी से न करे, उससे राशि वसूली जाए और उसे आर्थिक और सामाजिक तौर पर दण्डित भी किया जाए। इसके लिए महती जरूरत सरकारी तंत्र में शीर्ष में बैठे लोगों को ईमानदार होने की है। अगर वे ईमानदारी से प्रयास करेंगे तो देश को भ्रष्टाचार के केंसर की लाईलाज बीमारी से मुक्त कराने में समय नहीं लगने वाला, किन्तु पुरानी कहावत है कि ‘‘जगाया उसे जाता है, जो सो राहा हो, किन्तु जो सोने का स्वांग रचे उसे आप चाहकर भी नहीं जगा सकते हैं।‘‘

भारतीय पुरातत्व एवं तोजो इंटरनेशनल की विश्वसनीयता

-विजय कुमार

अयोध्या प्रकरण पर प्रयाग उच्च न्यायालय की विशेष पीठ द्वारा 30 सितम्बर को दिये गये निर्णय पर अपने-अपने चश्मे के अनुसार विभिन्न दल, समाचार पत्र, पत्रिकाएं तथा दूरदर्शन वाहिनियां बोल व लिख रही हैं। इस निर्णय में मुख्य भूमिका भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग और उसकी उत्खनन इकाई ने निभाई है।

1992 में बाबरी ढांचे के विध्वंस के बाद 1993 में तत्कालीन राष्ट्रपति डा. शंकरदयाल शर्मा ने सर्वोच्च न्यायालय से यह पूछा था कि क्या तथाकथित बाबरी मस्जिद किसी खाली जगह पर बनायी गयी थी या उससे पूर्व वहां पर कोई अन्य भवन था ? इस प्रश्न पर ही यह सारा मुकदमा केन्द्रित था।

सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रश्न से बचते हुए अपनी बला प्रयाग उच्च न्यायालय के सिर डाल दी। उच्च न्यायालय ने इसके लिए तीन न्यायाधीशों की विशेष पीठ बनाकर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का सहयोग मांगा। पुरातत्व विभाग ने कनाडा के विशेषज्ञों के नेतृत्व में तोजो इंटरनेशनल कंपनी की सहायता ली। उसने राडार सर्वे से भूमि के सौ मीटर नीचे तक के चित्र खींचे। इनसे स्पष्ट हो गया कि वहां पर अनेक फर्श, खम्भे तथा मूर्तियां आदि विद्यमान हैं।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इसके बाद वहां कुछ स्थानों पर खुदाई करायी। इससे भी वहां कई परतों में स्थित मंदिर के अवशेषों की पुष्टि हो गयी। इस रिपोर्ट के आधार पर तीनों माननीय न्यायाधीशों ने एकमत से यह कहा कि वहां पहले से कोई हिन्दू भवन अवश्य था। अर्थात राष्ट्रपति जी के प्रश्न का स्पष्ट और निर्विवाद उत्तर प्राप्त हो गया।

इसके साथ मुकदमे में जो सौ से अधिक प्रश्न और उभरे, अधिकांश विद्वानों का मानना है कि उन पर तीनों न्यायाधीशों ने अपनी वैचारिक, राजनीतिक तथा मजहबी पृष्ठभूमि के आधार पर निर्णय दिया है।

इसके बाद भी रूस, चीन तथा अरब देशों के हाथों बिके हुए विचारशून्य वामपंथी लेखक फिर उन्हीं गड़े मुर्दों को उखाड़ रहे हैं कि वहां पशुओं की हड्डियां मिली हैं और चूना-सुर्खी का प्रयोग हुआ है, जो इस्लामी काल के निर्माण को दर्शाता है; पर वे उन मूर्तियों तथा शिलालेखों को प्रमाण नहीं मानते, जो छह दिसम्बर, 92 की कारसेवा में प्राप्त हुए थे। उनका कहना है कि उन्हें कारसेवकों ने कहीं बाहर से लाकर वहां रखा है।

इन अक्ल के दुश्मनों से कोई पूछे कि बाबरी ढांचा इस्लामी नहीं तो क्या हिन्दू निर्माण था ? सभी विद्वान, इतिहास तथा पुरातत्व की रिपोर्ट पहले से ही इसे कह रहे थे और अब तो तीनों न्यायाधीशों ने भी इसे मान लिया है; पर जो बुद्धिमानों की बात मान ले, वह वामपंथी कैसा? चूना-सुर्खी का प्रयोग भारत के लाखों भवनों में हुआ है। सीमेंट तथा सरिये से पहले निर्माण में चूना-सुर्खी का व्यापक प्रयोग होता था। इस आधार पर तो पांच-सात सौ वर्ष पुराने हर भवन को इस्लामी भवन मान लिया जाए?

जहां तक छह दिसम्बर की बात है, तो उस दिन दुनिया भर का मीडिया वहां उपस्थित था। क्या किसी चित्रकार के पास ऐसा कोई चित्र है, जिसमें कारसेवक बाहर से लाकर मूर्तियां या शिलालेख वहां रखते दिखाई दे रहे हों ? इसके विपरीत प्रायः हर चित्रकार के पास ऐसे चलचित्र (वीडियो) हैं, जिसमें वे शिलालेख और मूर्तियां ढांचे से प्राप्त होते तथा कारसेवक उन्हें एक स्थान पर रखते दिखाई दे रहे हैं। हजारों चित्रकारों के कैमरों में उपलब्ध चित्रों से बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है?

न्यायालय के मोर्चे पर पिटने के बाद अब वामपंथी इस बात को सिर उठाये घूम रहे हैं कि प्रमाणों के ऊपर आस्था को महत्व दिया गया है, जो ठीक नहीं है और इससे भविष्य में कई समस्याएं खड़ी हो जाएंगी, जबकि सत्य तो यह है कि न्यायालय ने पुरातत्व के प्रमाणों को ही अपने निर्णय का मुख्य आधार बनाया है।

इस निर्णय से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग और तोजो इंटरनेशनल के प्रति दुनिया भर में विश्वास जगा है। भारत में हजारों ऐसी मस्जिद, मजार और दरगाह हैं, जो पहले हिन्दू मंदिर या भवन थे। भारतीय इतिहास ग्रन्थों में इनका स्पष्ट उल्लेख है। लोकगीतों में भी ये प्रसंग तथा इनकी रक्षा के लिए बलिदान हुए हिन्दू वीरों की कथाएं जीवित हैं। यद्यपि अपने स्वभाव के अनुसार वामपंथी इसे नहीं मानते।

क्या ही अच्छा हो यदि ऐसे कुछ भवनों की जांच इन दोनों संस्थाओं से करा ली जाए। काशी विश्वनाथ और श्रीकृष्ण जन्मभूमि, मथुरा की मस्जिदें तो अंधों को भी दिखाई देती हैं। फिर भी उनके नीचे के चित्र लिये जा सकते हैं। दिल्ली की कुतुब मीनार, आगरा का ताजमहल, फतेहपुर सीकरी, भोजशाला (धार, म0प्र0), नुंद ऋषि की समाधि (चरारे शरीफ, कश्मीर), टीले वाली मस्जिद, (लक्ष्मण टीला, लखनऊ), ढाई दिन का झोपड़ा (जयपुर) आदि की जांच से सत्य एक बार फिर सामने आ जाएगा।

मुसलमानों के सर्वोच्च तीर्थ मक्का के बारे में कहते हैं कि वह मक्केश्वर महादेव का मंदिर था। वहां काले पत्थर का विशाल शिवलिंग था, जो खंडित अवस्था में अब भी वहां है। हज के समय संगे अस्वद (संग अर्थात पत्थर, अस्वद अर्थात अश्वेत अर्थात काला) कहकर मुसलमान उसे ही पूजते और चूमते हैं। इसके बारे में प्रसिद्ध इतिहासकार स्व0 पी.एन.ओक ने अपनी पुस्तक ‘वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास’ में बहुत विस्तार से लिखा है।

अरब देशों में इस्लाम से पहले शैव मत ही प्रचलित था। इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उम्र बिन हश्शाम द्वारा रचित शिव स्तुतियां श्री लक्ष्मीनारायण (बिड़ला) मंदिर, दिल्ली की ‘गीता वाटिका’ में दीवारों पर उत्कीर्ण हैं।

क्या ही अच्छा हो कि मक्का के वर्तमान भवन के चित्र भी तोजो इंटरनेशनल द्वारा खिंचवा लिये जाएं। राडार एवं उपग्रह सर्वेक्षण से सत्य प्रकट हो जाएगा। क्या स्वयं को दुनिया का सबसे बड़ा बुद्धिवादी मानने वाले वामपंथी तथा प्रयाग उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद छाती पीट रहे मजहबी नेता इस बात का समर्थन करेंगे ?

प्रवक्ता डॉट कॉम के दो साल पूरे होने पर ऑनलाइन लेख प्रतियोगिता

‘प्रवक्ता डॉट कॉम’ वेब पत्रकारिता का चर्चित मंच व वैकल्पिक मीडिया का प्रखर प्रतिनिधि है। इसकी शुरूआत 16 अक्टूबर, 2008 को हुई थी। ‘प्रवक्‍ता’ का उद्देश्‍य है जनसरोकारों से जुड़ी खबरों को लोगों तक पहुंचाना एवं विचारशील बहस को आगे बढ़ाना।

विचार पोर्टल प्रवक्‍ता डॉट कॉम के दो साल पूरे होने पर एक ऑनलॉइन लेख प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है।

प्रतियोगिता में भाग हेतु निम्‍नलिखित नियमों से सहमत होना अनिवार्य है-

प्रतियोगिता का विषय : वेब पत्रकारिता : चुनौतियाँ व सम्भावनाएँ

पुरस्‍कार

प्रथम पुरस्‍कार: रु. 1500/-

द्वितीय पुरस्‍कार: रु. 1100/-

योग्‍यता : इस प्रतियोगिता में कोई भी व्‍यक्ति देश या विदेश से भाग ले सकता हैं।

अवधि : 15 नवम्बर, 2010 तक लेख भेज सकते हैं।

शब्‍द सीमा : लेख 2000 से 3000 शब्दों के बीच का होना चाहिए।

भाषा : लेख केवल हिन्दी भाषा में होना चाहिए।

विजेता की घोषणा :

16, नवम्बर 2010 को प्रवक्‍ता डॉट कॉम पर विजेता के बारे में घोषणा की जाएगी।

अन्‍य नियम

आपका लेख अप्रकाशित एवं मौलिक होना चाहिए।

लेख प्रवक्‍ता डॉट कॉम पर प्रकाशित किए जायेगा एवं बाद में इसे पुस्‍तक का स्वरूप भी रूप दिया जा सकता है।

लेख के साथ अपना किसी सरकारी संस्थान द्वारा जारी परिचय पत्र की छाया-प्रति, जीवन परिचय एवं फोटोग्राफ भी भेजें।

पुरस्कार की राशि डाक द्वारा भेजी जाएगी।

पुरस्‍कार के संबंध में जजों का निर्णय ही सर्वोपरि होगा।

अपना लेख ईमेल या फिर डाक (सामग्री- फ्लॉपी या सीडी में केवल) के जरिये हमें निम्न पते पर भेजें-

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कम्युनिस्ट जनता के दोस्त हैं

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो आए दिन पानी पी-पीकर कम्युनिस्टों और मार्क्सवाद को गरियाते रहते हैं। कम्युनिस्ट विरोधी अंध प्रचार करते हैं। कम्युनिस्ट सिद्धांतों को जानने और मानने वालों ने सारी दुनिया को प्रभावित किया है। उन्होंने समाज को बदला है। लेकिन ध्यान रहे यदि कम्युनिस्ट गलती करता है तो बड़ा नुकसान करता है। एक कम्युनिस्ट की आस्था, व्यवहार और नजरिया दूरगामी असर छोड़ता है। वह विचारों की जंग में सामाजिक परिवर्तन की जंग में समूचे समाज का ढ़ांचा बदलता है।

हमारे देश में कम्युनिस्ट बहुत कम संख्या में हैं और तीन राज्यों में ही उनकी सरकारें हैं। लेकिन उनकी देश को प्रभावित करने की क्षमता बहुत ज्यादा है। कम्युनिस्ट पार्टी हो या अन्य गैरपार्टी मार्क्सवादी हों.वे जहां भी रहते हैं।दृढ़ता के साथ जनता के हितों और जनता की एकता के पक्ष में खड़े रहते हैं।

जिस तरह बुर्जुआ और सामंती ताकतों के पास नायक हैं और विचारधारा है। वैसे ही कम्युनिस्टों के पास भी नायक हैं, विचारधारा है। कम्युनिस्टों की क्रांतिकारी विचारधारा हमेशा ग्बोबल प्रभाव पैदा करती है। जबकि बुर्जुआजी के नायकों का लोकल असर ज्यादा होता है। कम्युनिस्टों के क्रांतिकारी नायक मरकर भी लोगों के दिलों पर शासन करते हैं, आम लोग उनके विचारों से प्रेरणा लेते हैं। इसके विपरीत बुर्जुआ नेता जीते जी बासी हो जाते हैं,अप्रासंगिक हो जाते हैं।

कम्युनिस्टों की परंपरा में एक नायक हैं चेग्वारा। इनसे सारी दुनिया प्रभावित हुई है और खासकर लैटिन अमेरिका में तो उन्हें क्रांतिकारी जननायक का दर्जा हासिल है। चेग्वारा ने अपने कर्म, विचार और इंसानियत से सारी दुनिया के युवाओं को प्रभावित किया है। पिछले दिनों 9 अक्टूबर को उनका प्रयाण दिवस था। उनके बारे में फिदेल कास्त्रो ने बड़े मार्के की कुछ बातें कही हैं जिन्हें आपके सामने रखने का मन हो रहा है।

उल्लेखनीय है फिदेल कास्त्रो ने चेग्वारा के साथ क्यूबा में क्रांति का नेतृत्व किया था। स्वयं फिदेल कास्त्रो अभी जिंदा हैं और उन्होंने अमेरिकी साम्राज्यवाद की धौंस-दपट, आर्थिक नाकेबंदी आदि के बावजूद समर्पण नहीं किया और संप्रभु राष्ट्र के रूप में क्यूबा को तैयार किया है। कास्त्रो ने चेग्वारा के बारे में लिखा है-चे सैनिक के रूप में हमारी सेना में भर्ती नहीं हुए थे। वह डॉक्टर थे। वह संयोग से मैक्सिको गए। वह गुआटेमाला तथा लैटिन अमरीका में कई स्थानों पर गए। वह खदान क्षेत्र में थे जहां काम करना बहुत मुश्किल है। उन्होंने अमेजन में कुष्ठरोगियों के अस्पताल में काम किया। लेकिने मैं चे की केवल एक विशेषता के बारे में बात करूंगा जिसका मैं बहुत कायल हूं। हर सप्ताहांत चे मैक्सिको शहर के बाहर एक ज्वालामुखी पोपोकेटेपेटी के शिखर पर चढ़ने की कोशिश करते थे। यह बहुत ऊंचा पर्वत शिखर है जो पूरे वर्ष बर्फ से ढका रहता है। वह अपनी पूरी ताकत लगाकर चढ़ना शुरू करते, जबर्दस्त कोशिश करते लेकिन चोटी पर कभी नहीं पहुंच पाते। उनकी दमे की बीमारी हर बार उनके आड़े आ जाती थी। अगले सप्ताह, वह बकौल उनके, इस ‘पोपो’ शिखर पर चढ़ने की फिर नाकाम कोशिश करते। वह बार-बार कोशिश करते। हालांकि वह चोटी पर नहीं पहुंच पाए लेकिन जीवन भर इस पोपोकेटेपेटी शिखर पर चढ़ने की कोशिश करते रहे । इससे उनके दृढ़ निश्चय, उनके आत्मिक बल, उनके अध्यवसाय का पता चलता है जिसकी मैं बहुत प्रशंसा करता हूं।

उनकी दूसरी विशेषता यह थी कि जब किसी काम के लिए हमारे छोटे से समूह को किसी वालंटियर की जरूरत होती थी तो वह ही सबसे पहले खुद को पेश करते थे।

डॉक्टर के रूप में रोगियों तथा घायलों को देखने के लिए वह हमेशा ही पीछे रुक जाते थे। कुछ खास परिस्थितियों में जब हम वनों से घिरे पहाड़ी इलाकों में होते थे तथा चारों ओर से हमारा पीछा हो रहा था तो मुख्य दल को चलते रहना होता था। कुछ हल्के निशान छोड़ दिए जाते थे जिससे कि डॉक्टर आसपास कुछ दूर मरीजों और बीमारों की देखभाल कर सके। यह सब तब तक चलता रहा जब तक वह समूह में एकमात्र डॉक्टर थे। बाद में और डॉक्टर आ गए।

आपने कुछ घटनाओं का जिक्र करने के लिए कहा है। मैं एक बहुत मुश्किल कार्रवाई के विषय में बताऊंगा। जब हम प्रांत के उत्तरी तट पर उतराई के एक पहाड़ पर थे तो पता चला कि कुछ और लोग उतर कर वहां आ रहे हैं। इस उतराई पर पहुंचने के बाद पहले कुछ दिन हमें बहुत मुसीबतें झेलनी पड़ी थीं। जो लोग अब उतरे थे उनका साथ देने के लिए हमने बहुत साहसिकता का काम किया। तट पर अच्छी तरह से जमकर बैठी यूनिट पर हमला करना सैनिक दृष्टि से बुद्धिमत्ता का काम नहीं था।

मैं इसका पूरा विवरण नहीं दूंगा। तीन घंटे तक चली इस लड़ाई के बाद हमने सौभाग्य से सभी तरह का संचार काट दिया। इस लड़ाई में भी उन्होंने मिसाल योग्य काम किया। इस लड़ाई में शामिल एक तिहाई लोग या तो मर गए या घायल हो गए। एक डॉक्टर के रूप में उन्होंने घायल शत्रुओं की भी देखभाल की। यह बड़ी असामान्य सी बात थी। शत्रु पक्ष के कुछ सैनिक घायल नहीं हुए थे लेकिन उन्होंने अपने कामरेडों के साथ-साथ भारी संख्या में घायल शत्रु सैनिकों की भी देखभाल की। आप इस व्यक्ति की संवेदनशीलता के बारे में कल्पना नहीं कर सकते। मुझे एक वाकया याद है। हमारा एक घायल कामरेड बचने की हालत में नहीं था। हमें उस इलाके से फौरन बाहर निकलना था क्योंकि पता नहीं कब विमान आ जाए। लेकिन सौभागय से लड़ाई के दौरान एक भी जहाज नहीं आया। सामान्यत: इस तरह की लड़ाई के दौरान बीस मिनट के भीतर पहले विमान

आ जाते हैं। लेकिन इस बार हमने अचूक गोलियों से उनकी संचार व्यवस्था ठप्प कर दी थी। हमें कुछ अतिरिक्त समय मिल गया था लेकिन हमें घायलों को देखना था और वहां से तुरंत निकल जाना था। उन्होंने निश्चित मौत से जूझ रहे हमारे एक कामरेड के बारे में बताया उसे मैं कभी नहीं भूल सकता। कामरेड को वहां से हिलाया नहीं जा सकता था। कभी-कभी गंभीर रूप से घायल लोगों को उठाना मुश्किल हो जाता है।

चूंकि आपने शत्रु के जख्मों का इलाज किया है तथा कइयों को बंदी बना कर उनके साथ सम्मान का सलूक किया है इसलिए आपको विश्वास का सहारा लेना पड़ता है। हमने कभी भी युद्धबंदी के साथ बुरा व्यवहार नहीं किया है और न ही कभी उन्हें मारा है । कभी-कभी हम दुर्लभ मात्रा में उपलब्ध अपनी दवाईयां भी उन्हें दे देते थे।

इस नीति के कारण हमें युद्ध में बहुत कामयाबी मिलती थी । किसी संघर्ष में सही ध्येय के लिए लड़ रहे लोगों को ऐसा आचरण करना चाहिए जिससे शत्रु भी उसका सम्मान करे।

उस घटना में हमें अपने बहुत से घायल कामरेडों को पीछे छोड़ना पड़ा। कुछ तो बहुत गंभीर रूप से घायल थे। बाद में उन्होंने बहुत तकलीफ के साथ जो बताया वह मेरे दिल को छू गया। हमारे एक कामरेड के बचने की कोई उम्मीद नहीं थी। उन्होंने चलने से पहले इस मरणासन्न कामरेड पर झुककर उसका माथा चूमा ।

चे एक असाधारण मनुष्य थे।वह असाधारण रूप से सुसंस्कृत और प्रतिभासंपन्न व्यक्ति थे। उनके अध्यवसाय और उनकी दृढ़ता के विषय में मैं आपको पहले ही बता चुका हूं। क्रांति की सफलता के बाद उन्हें जो भी कार्य दिया गया उन्होंने उसे तुरंत स्वीकार किया। वह नेशनल बैंक ऑफ क्यूबा के डायरेक्टर थे। उस समय वहां पर एक क्रांतिकारी की बहुत जरूरत थी। क्रांति की हाल ही में विजय हुई थी। देश की आरक्षित निधियों को चुरा लिया गया था। इसलिए संसाधन बहुत कम थे।

हमारे शत्रुओं ने इसका मजाक उड़ाया। वे हमेशा मजाक उड़ाते हैं, हम भी उड़ाते हैं। लेकिन इस मजाक का राजनीतिक मंतव्य था। इसके अनुसार मैंने एक दिन घोषणा की कि ‘हमें एक इकोनामिस्ट चाहिए।’ चे ने तुरंत हाथ खड़ा कर दिया। उन्हें गलती लगी थी। उन्होंने सोचा कि मैंने कहा था कि हमें एक कम्युनिस्ट चाहिए और इस तरह से उन्हें चुना गया। खैर चे क्रांतिकारी थे, कम्युनिस्ट थे और उत्कृष्ट अर्थशास्त्री थे क्योंकि उत्कृष्ट अर्थशास्त्री होना इस बात पर निर्भर करता है कि आपने देश की अर्थव्यवस्था के इस अंग अर्थात नेशनल बैंक ऑफ क्यूबा के प्रभारी के रूप में क्या कार्य करने का विचार बनाया है। उन्होंने एक कम्युनिस्ट और एक अर्थशास्त्री के रूप में यह दायित्व बखूबी संभाला। उनके पास कोई डिगरी नहीं थी लेकिन उन्होंने बहुत कुछ देखा और पढ़ा था।

चे ने ही हमारे देश में स्वैच्छिक कार्य के विचार को आगे बढ़ाया क्योंकि वह खुद हर रविवार को स्वैच्छिक कार्य करने के लिए जाते थे। किसी दिन वह खेती का कार्य करते तो किसी दिन नई मशीनरी की जांच करते तो किसी दिन निर्माण कार्य करते। उन्होंने इस प्रथा की विरासत हमारे लिए छोड़ी है। उनके पदचिह्नों पर चलते हुए आज लाखों क्यूबाइयों ने यह प्रथा अपनाई है।

वह हमारे लिए बहुत सारी यादें छोड़ गए हैं। इसलिए मैं कहता हूं कि वह मेरी जिंदगी में आए सबसे महान और असाधारण व्यक्ति हैं। मेरा विश्वास है कि अवाम में इस तरह के करोड़ों-करोड़ व्यक्ति मौजूद हैं।

कोई भी उत्कृष्ट व्यक्ति तब तक कुछ नहीं कर पाएगा जब तक कि उसके जैसी विशेषताएं विकसित करने में सक्षम लाखों लोग न हों। यही कारण है कि हमारी क्रांति ने निरक्षरता को दूर करने तथा शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए लगातार प्रयास किए हैं ।

ज्ञान प्राप्ति की पीड़ा का उल्लास

-हृदयनारायण दीक्षित

भारतीय दर्शन में ‘इच्छाशून्यता’ की महत्ता है। गीता दर्शन में आसक्तिरहित जीवन पर ही जोर है लेकिन जानने की इच्छा भारतीय दर्शन पररपरा का सम्मानीय शिखर है। इस इच्छा की अपनी खास पीड़ा, इस पीड़ा का भी अपना आनंद है। गीता भी ज्ञान प्राप्ति की इच्छा पर जोर देती है। श्री कृष्ण अर्जुन को ज्ञान प्राप्ति की तरकीब बताते हैं, ज्ञानियों को दडवत (प्रणाम) करें। सेवा करें प्रश्न पूछें। तत्वदर्शी तुझे ज्ञान देंगे। (गीता 4.34) बताते हैं सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला ज्ञान की नाव पर पाप समुद्र पार कर जाता है। (वही 36) फिर ज्ञान की महत्ता बताते हैं ‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमह विद्यते’-ज्ञान की तरह पवित्र करने वाला और कुछ नहीं है। (वही 38) ज्ञान परम शांति का अधिष्ठान है। भारत के सुदूर अतीत में ही ज्ञान प्राप्ति को श्रेष्ठ कर्तव्‍य जाना गया। आचार्य-शिष्य के अनूठे रिश्ते का विकास हुआ। आचार्य को देवता जाना गया। आचार्य ने शिष्य को पुत्र जाना। भारत की मेधा में गजब की जिज्ञासा थी। पश्चिम का वैज्ञानिक दृष्टिकोण अभी कल की बात है। आईंस्टीन ने इंद्रियों से प्राप्त अनुभव को प्रत्यक्ष बताया और कहा इसकी व्याख्या करने वाले सिध्दांत मनुष्य बनाते हैं। वह अनुकूलन की एक श्रम साध्य प्रक्रिया है – पूर्वानुमानित। पूरी तरह अंतिम नहीं। सदा प्रश्नों, प्रति प्रश्नों और संशय के घेरे में रहने वाली है। आईंस्टीन की प्रश्नों संशयों वाली श्रम साध्य प्रक्रिया भारत के ऋग्वैदिक काल में भी जारी है।

वैदिक पूर्वज उल्लासधर्मा हैं, आनंदमगन हैं लेकिन यहां सुखी और दुखी भी हैं। सबके अपने-अपने दुःख हैं और अपने-अपने सुख। सांसारिक वस्तुओं का अभाव अज्ञानी का दुख है, तत्वज्ञान की प्यास ज्ञानी की व्यथा है। वैदिक समाज सांसारिक समृध्दि में संतोषी है। लेकिन ज्ञान की व्यथा गहन है। वैदिक साहित्य में सृष्टि रहस्यों को जानने की गहन जिज्ञासा है। यहां ज्ञान प्राप्ति की व्यथा में भी उल्लास का आनंद है। आसपास की जानकारियां आसान हैं लेकिन स्वयं का ज्ञान विश्व दर्शन शास्त्र की भी मौलिक समस्या है। ऋग्वेद (1.164.37) के ऋषि की पीड़ा समझने लायक है मैं नहीं जानता कि मैं कैसा हूं, मैं मन से बंधा हुआ हूं, उसी के अनुसार चलता हूं। ऋषि स्वसाक्षात्कार चाहता है, सो पीड़ित है। पहले मंडल के 105वें सूक्त के एक छोड़ सभी मंत्रों के अंत में कहते हैं हे पृथ्वी-आकाश मेरी वेदना-पीड़ा जानो। ऋषि इंद्र की स्तुति करता है लेकिन अशांत है आपकी स्तुति करने वाले मुझ जैसे व्यक्ति को भी चिंता खा रही है। लेकिन ऋषि की पीड़ा असाधारण है। कहते हैं चंद्रमा अंतरिक्ष में चलता है, सूर्य अंतरिक्ष के यात्री हैं लेकिन आकाश की विद्युत भी आपका सही रूप नहीं जानती। यहां जिज्ञासा की पीड़ा है। इच्छाएं अनंत हैं लेकिन जानने की इच्छा ज्यादा व्यथित करती है। जानने की इच्छा से ही दर्शन और विज्ञान का विकास हुआ है।

सूर्य प्रत्यक्ष हैं। लेकिन सूर्य को पूरा जानने की इच्छा बहुत बड़ी चुनौती है। वे पृथ्वी से बहुत बड़ी दूरी पर है। ऋषि की जिज्ञासा है कि रात्रि के समय वे किस लोक में प्रकाश देते हैं। (1.35.7) पृथ्वी सूर्य के ताप पर निर्भर है। वैज्ञानिक मानते हैं कि सूर्य के पास ईंधन है। ऋषि जानना चाहता है कि वह अपनी किस ऊर्जा के दम पर गतिशील रहता है। वह नीचे पृथ्वी की तरफ झांकता है और ऊपर उत्तानः (ऊर्ध्व) की तरफ भी। वह कैसे टिका हुआ है? किसने देखा है? (4.13.5) यहां जानकारी का क्षेत्र बड़ा है। सूर्य के ऊपर और नीचे जाकर निकट से देखना असंभव है। सूर्य बिना किसी आधार के ही टिका हुआ है। ऋषि का संकेत है कि वह समृतः – ऋत नियम के कारण ही अपनी शक्ति – स्वधया गतिशील है। यहां ऋत प्रकृति का संविधान है। प्रकृति की सारी शक्तियां ऋत-बंधन में हैं। इंद्र, वरूण, अग्नि, सूर्य और सारे देवता ऋत – (संविधान) के कारण ही शक्तिशाली हैं।

प्रकृति सतत् विकासशील है। अंतरिक्ष और पृथ्वी एक साथ बने? या दोनों में कोई एक पहले बना? ऋषि इस प्रश्न को लेकर भी बेचैन हैं। जिज्ञासा है द्यावा पृथ्वी में कौन पहले हुआ? कौन बाद में आया? विद्वानों में इस बात को कौन जानता है। (1.85.1) संप्रति स्टीफेन हाकिंस जैसे विश्वविख्यात ब्रह्मांड विज्ञानी सृष्टि रहस्यों की खोज में संलग्न हैं। ऋग्वेद में सृष्टि रहस्यों की अजब-गजब जिज्ञासा है। ऋग्वेद की शानदार धारणा है कि देवता भी सृष्टि सृजन के बाद ही अस्तित्व में आए। यहां सृष्टि सृजन के अज्ञात सृष्टा पर संदेह है कि वह भी अपना आदि और अंत जानता है? कि नहीं जानता? कौन कह सकता है? अथर्ववेद के ऋषि कौरपथि का दिलचस्प प्रश्न है उस समय इंद्र, अग्नि, सोम, त्वष्टा और धाता किससे उत्पन्न हुए – कुतः इंद्रः कुतः सोम कुतो अग्निरजायत। (अथर्व0 11.10.8) ऋषियों के सामने भरी पूरी सृष्टि है। अनेक देवों की मान्यताएं है। वे वैज्ञानिक चिंतन से सराबोर हैं। देवतंत्र संबंधी मान्यताएं भी उन्हें जस की तस स्वीकार्य नहीं हैं। ज्ञान प्राप्ति की पीड़ा उन्हें आनंद देती है। मनुष्य शरीर की रचना भी उन्हें आकर्षित करती है। जिज्ञासा है कि सृष्टि रचनाकार ने बाल, अस्थि, नसो मांस और मज्जा, हाथ पैर आदि को किस ढंग से किस लोक में अनुकूल बनाया? (अथर्व0 11.10.11)

मनुष्य शरीर की संरचना अद्भुत है। ऋषि की जिज्ञासा दिलचस्प है सृष्टा ने किस पदार्थ से केश, स्ायु व अस्थियां बनाई? ऐसा ज्ञान किसे है? – को मांस कुत आभरत्। (वही, 12) मनुष्य पूरी योग्यता और युक्ति के साथ गढ़ा गया दिखाई पड़ता है। जिज्ञासु के लिए ऐसी संरचना की ज्ञान प्राप्ति का रोचक आकर्षण है। हम सब शरीर संरचना पर गौर नहीं करते। चिकित्सा विज्ञान द्वारा किए गए विवेचन को ही स्वीकार करते हैं। शारीरिक संरचना में असंख्य कोष हैं। इन कोषों का संचालन और समूची कार्यवाही आश्चर्यजनक है। अथर्ववेद के ऋषियों की जिज्ञासा आश्चर्य मिश्रित है किसने जंघाओं घुटनो पैरों, सिर हाथ मुख पीठ हंसली और पसलियों को आपस में मिलाया है? (वही, 14) प्रश्न महत्वपूर्ण है। युक्तिपूर्ण इस शरीर संरचना का कोई तोर् कत्ताधर्ता होना ही चाहिए। सबसे दिलचस्प जिज्ञासा मनुष्य के रंग के बारे में है। जानना चाहते हैं कि किस दिव्य शक्ति ने शरीर में रंग भरे – ‘येनेदमद्य रोचते को अस्मिन वर्णमाभारत्।’ (वही, 16) ज्ञान की अभीप्सा श्रेष्ठतम आकांक्षा है।

भारतभूमि ज्ञान अभीप्सु लोगों की पुण्यभूमि है। ज्ञान का क्षेत्र बड़ा है। जान लिया गया ‘ज्ञात’ कहलाता है, न जाना हुआ अज्ञात है। लेकिन अज्ञात की जानकारी भी ज्ञान से ही होती है। अज्ञात की जानकारी भी ज्ञान का हिस्सा है। अज्ञान का बोध भी बहुत बड़ा ज्ञान है। वैदिक साहित्य अज्ञान की घोषणाओं से भरा पूरा है। अज्ञान की स्वीकृतियों में ज्ञान की प्यास है। ज्ञान की इस अभीप्सा में अज्ञानी होने की पीड़ा है। स्वयं के अज्ञान का बोध होना परम सौभाग्य का लक्षण है। ज्ञानयात्रा का प्रस्थान अज्ञान के बोध से ही शुरू होता है। अज्ञान के बोध की पीड़ा ही ज्ञान प्राप्ति की बेचैनी बनती है और समग्र प्राण ऊर्जा, व्यक्तित्व का अणु-परमाणु ज्ञान प्यास की अकुलाहट से भर जाता है। ज्ञान यात्री की पीड़ा में सुख, स्वस्ति, आनंद और मस्ती के सुर छंद होते हैं। ज्ञान यात्रा के लिए उठाया गया पहला कदम भी व्यक्ति को ज्ञान दीप्ति से भर देता है। भगवत्ता की तरफ निष्ठापूर्वक देखने वाला भी फौरन भक्त हो जाता है। ज्ञान निष्ठा वाला साधारण विद्यार्थी भी आकाश नापने की महत्वाकांक्षा के कारण परमव्योम तक जाने की उड़ान भरता है। वैदिक ऋचाएं ऐसे सत्य अभीप्सु की कामना करती हैं, वे स्वयं अपने मंत्र रहस्य खोलती हैं और जीवन सत्य अनुभूति की दिव्य गंध से लहालोट हो जाता है।

* लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं।