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श्री गुरुजी और पत्रकारिता

– डॉ. मनोज चतुर्वेदी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सर संघचालक श्री गुरुजी उपाख्य माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर समाजसेवी, संत, समाज सुधारक, वैज्ञानिक, शिक्षाविद होने के साथ ही उत्कृष्ट पत्रकार दृष्टि भी रखते थे। जिस तरह देवर्षि नारद के मन में राष्ट्र की आराधना के साथ ही जगत की सेवा का भाव निहित था, ठीक उसी तरह श्री गुरुजी अनथक, अविरल भाव से मन, वचन एवं कर्म द्वारा निरंतर राष्ट्र की दिशा-दशा कैसी हो तथा इसमें लेखनी का स्थान किस प्रकार हो, इन मुद्दों पर लगातार चिंतन-मनन करते रहते थे। उनके मन में मात्र एक ही भाव था कि भारत माता किस प्रकार परम वैभव के पद को प्राप्त करें तथा कोटि-कोटि स्वयंसेवकों में ‘स्व’ के स्थान पर ‘राष्ट्रभाव’ का विकास हो, इन्हीं विचारों को गांठ बांधकर वे सदा चला करते थे। पत्रकारिता तो सूचनाओं का जाल है जिसमें पत्रकार सूचनाओं को देने के साथ समान्य जनता को दिशा निर्देश देता है। उनका पथ-प्रदर्शन करता है। एक प्रकार से कहा जाए कि पत्रकारिता वह ज्ञानचक्षु है जिसके माध्यम से पत्रकार अपने विचारों को व्यक्त करता है। पत्रकार मातृभूमि के अराधना अपनी लेखनी से करता है। उसका एकमात्र लक्ष्य देशहित होता है। जिसके द्वारा वह देश के समक्ष उपस्थित चुनौतियों पर लेखनी तो चलाता है। उसके साथ-ही-साथ उन चुनौतियों का समाधान भी वह देने का प्रयास करता है। वह बताना चाहता है कि अन्य समस्त कार्य तो व्यवसाय है पर पत्रकारिता एक मिशन है। प्रसिद्धिपरांगमुखता या आत्मश्लाघा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रकृति में नही है। संघ भारतीय संस्कृति का वाहक है, तो भला उसमें यह भाव कैसे हो सकता है? आम जनता के अंदर आत्मप्रशंसा या आत्मश्लाघा की बड़ी ही विकट स्थिति है। मनुष्य कुछ करता नहीं, लेकिन वह अखबारों में चित्र एवं समाचारों में छा जाना चाहता है। अपने ‘मुंह मियां मिट्ठू’ बनने की यह प्रवृति देश-समाज के लिए घातक है। झुठी प्रशंसा या अखबारों के समाचारों से कुछ होता है क्या? यदि हमें देश के लिए कुछ करना है, तो हमें लोग अखबारों के माध्यम से नहीं बल्कि कर्म के माध्यम से जानें। बात 28 अगस्त, 1954 की है। श्रीगुरुजी ने ‘आर्गेनाइजर’ में छपे एक समाचार में कहा था कि यद्यपि आप सभी ने वहां तन, मन एवं धन से सेवा की परंतु वर्षा एवं बाढ़ में जो सेवा आप सभी ने किया है, वह आनंद देने वाला है। किंतु समाचार देते समय आत्मश्लाघा एवं अहंकार प्रदर्शित करना उचित नहीं है। समाचार देते समय ‘समाज में सभी लोग संघ की प्रशंसा कर रहे हैं’, ऐसा कहना आपके मूंह से शोभा नहीं देता। यही समाचार यदि वहां के किसी मान्य नागरिक के नाम से दिया गया तो बहुत ही अच्छा होता। आज पत्रकारिता के समक्ष सबसे बड़ी समस्या है। किसी भी घटना को बढ़ा-चढ़ाकर देना। क्या यह किसी भी समाचार या घटना के साथ खिलवाड़ नहीं है? क्योंकि इस प्रकार के समाचारों से समाज में गलता संदेश जाता है। यह ठीक है कि पत्रकारिता का आधार सत्य एवं किसी घटना के ‘एक्सक्लूसिव रिपोर्टिंग’ से है लेकिन सत्य घटनाओं को दबाकर तथा गलत घटनाओं को छापना भी समाज हित में नहींहै। पत्रकारिता मात्र विरोधियों का छिद्रांवेषण करना तथा अपने समर्थकों का यशोगान नही है। श्री गुरुजी ने कहा कि पत्रकारिता सत्य और ॠत बोलने का प्रण लेकर किया जाने वाला वह माध्यम है जिसमें समाज को एक लक्ष्य के तरफ उन्मुख होना पड़े। सत्य तो हम बोले लेकिन वह सत्य रूक्ष, अनृत तथा दूसरों को चुभने वाला भी न हो। उपरोक्त बातों से ऐसा प्रतीत होता है कि श्रीगुरुजी सत्य घटनाओं के संप्रेषण को सही तो मानते थे लेकिन जिस सत्य घटना से व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र में विघटन की स्थिति पैदा हो जाए, समाज में हिंसा, संघर्ष एवं सांप्रदायिक दंगों की स्थिति उपस्थित हो जाए, वह पत्रकारिता नहीं है। श्रीगुरुजी ने कहा है कि सत्य की साधना ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ ही होती है। पत्रकारिता सामाजिक क्षेत्र की साधना है, यह आध्यात्मिक क्षेत्र का तप नहीं है। सामाजिक क्षेत्र का सत्य वही है जिनसे जन का कल्याण होता है, देश का कल्याण होता है। श्री गुरुजी की प्रेरणा से हिन्दुस्थान समाचार की शुरूआत हुई क्योंकि श्री गुरुजी पत्रकारिता की नारद शैली को ही पत्रकारों के लिए आदर्श मानते थे। जिस प्रकार आदि पत्रकार नारद तीनों लोकों में घूम-घूमकर सत्याधारित समाचारों को पहुंचाया करते थे। ठीक उसी प्रकार श्रीगुरुजी का मानना था कि पत्रकार नारद के समाचारों को भड़काऊ तथा व्यक्तिगत रूप से अनिष्ट माना जाता था तथा उसे आग्रह्य भी समझने का प्रयास होता था। पत्रकारों को आपातकाल में तमाम संकटों का सामना करना पड़ा था। लेकिन उन्होंने लाठी-ठंडे तथा कारावास की सजा को खेल समझकर अपने पत्रकारीय जीवन का सरल, सहज ढंग से पालन किया। आज श्री गुरुजी के विचारों के अनुसार पत्रकारिता का उद्देश्य जनकल्याण के साथ ही राष्ट्र कल्याण होना चाहिए। आज हमें गुरुजी के विचारों को आत्मसात करके राष्ट्रवादी विचारधारा को सबल एवं सशक्त बनाना है। हमारे जीवन का लक्ष्य ‘राष्ट्र सर्वोपरि’ होना चाहिए। राष्ट्र यदि नहीं रहेगा, भारत नही रहेगा तो हम कहां रहेंगे। यह ठीक है कि आज पत्रकारिता के मूल में समाचार निहित है तथा समाचार तथ्यों पर आधारित होते हैं। हमें तथ्यों को निरपेक्ष रूप से देने की जरूरत है उसमें छेड़छाड़ पत्रकारिता के नारदीय शैली के विरूद्ध है, श्री गुरुजी का यही मानना था। सज्जन पत्रकारिता का अर्थ मात्र समाचार संकलन और समाचार संप्रेषण से लगाते है। लेकिन यह अपने आप में पूर्ण नहीं है। एक पत्रकार समाचार के तह में जाकर उसके तथ्यों का विश्लेषण तटस्थ और निरपेक्ष भाव से जब करता हैतो वह पत्रकारिता राष्ट्रवादी ही नहीं मानव समाज की पत्रकारिता कहलाती है। श्री गुरुजी का बराबर यह जोर रहता था कि हम पत्रकारिता राष्ट्रीय हितों को ध्यान रखकर करें इस दृष्टि से पत्रकारिता राष्ट्रहित के संवर्धन और सशक्तिकरण में चौथे स्तंभ के रूप में स्थापित हो जाती है। तभी तो किसी ने कहा था – ‘जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार क्या निकालो’। राष्ट्रीय आंदोलन के समय एक कवि ने लिखा – दो में से तुम्हें क्या चाहिए? कलम या तलवार। अर्थात् कहने का तात्पर्य यह है कि कलम से तलवार मजबूत है या तलवार से कलम मजबूत है? इस पर बहस हम कुछ भी करें। लेकिन पत्रकारिता एक दुधारी तलवार है। जिसके माध्यम से हम सामाजिक समस्याओं का समाधान देते हैं न कि उससे हिंसा इत्यादि करते है। इसमें कोई दो मत नहीं कि राष्ट्रीय समस्याओं के संदर्भ में हमारे बीच मतभेद हो सकते हैं, पर मनभेद नहीं होना चाहिए। मनभेद और मतभेद बहुत बड़ा अंतर है। यद्यपि भारत में पत्रकारिता के मुख्य मुद्रण-प्रकाशन पर जब हम दृष्टि डालते हैं तो उसमें 29 जनवरी, 1780 में जेम्स आगस्टस हिक्की द्वारा प्रकाशित ‘हिक्की गजट’ से लिया जाता है। लेकिन क्या इससे पूर्व भारत में पत्रकारिता नहीं था? यह कहना ठीक नहीं होगा। देवर्षि नारद तथा महाभारत काल में युद्धक्षेत्र में संजय द्वारा धृतराष्ट्र को एक-एक घटनाओं का चित्रण कराना पत्रकारिता नहीं तो और क्या था?

1813 के चार्टर के अनुसार जिस तरह बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भारतभूमि पर पदार्पण हुआ तथा उनका हित राष्ट्रीय हित न होकर विदेशियों एवं साम्राज्यवादियों का पृष्ठ पोषण करना ही था। उसी प्रकार भारतीय संस्कृति एवं भारतीय जीवन-मूल्यों पर कुठाराघात करना ही उनकी पत्रकारिता का लक्ष्य था। श्रीगुरुजी ने बहुत ही बारीकी से उपरोक्त संस्थाओं का अध्ययन किया था और उसके विकल्प के रूप में ‘पांचजन्य’, ‘राष्ट्रधर्म’, ‘दैनिक स्वदेश’ तथा एकमात्र संवाद समिति ‘हिन्दुस्थान समाचार’ की स्थापना में मार्गदर्शन किया।

* लेखक, पत्रकार, कॅरियर लेखक, फिल्म समीक्षक, समाजसेवी, नवोत्थान लेख सेवा, हिन्दुस्थान समाचार में कार्यकारी फीचर संपादक तथा ‘आधुनिक सभ्यता और महात्मा गांधी’ पर डी. लिट् कर रहे हैं।

इन्वेस्टर समिट-स्वर्णिम मध्यप्रदेश की ओर बढते कदम

-डॉ. मयंक चतुर्वेदी

मध्यप्रदेश में विकास का जो सिलसिला प्रारंभ हुआ है उसमें दिन-प्रतिदिन नये कीर्तिमान जुडने लगे हैं जो यह बताने और समझाने के लिए पर्याप्त हैं कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार मध्यप्रदेश के सर्वांगीण विकास को लेकर प्रतिबध्दा है। कांग्रेस के 10 वर्ष के शासन के बाद 8 दिसंबर 2003 में बनी भारतीय जनता पार्टी की सरकार से आम जनता को प्रदेश के विकास को लेकर बहुत उम्मीदें नहीं थीं, क्योंकि पिछले शासन के दौरान इतना कुछ चरमरा गया था कि सूबे की जनता सडक-बिजली और पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए भी तरस गई थी। सुश्री उमा भारती ने मुख्यमंत्री बनते ही ताबडतोड जन हितैषी योजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन पर जोर देना प्रारंभ किया। उन्होंने पंच ‘ज’ (जन, जल, जंगल, जमीन और जानवर) को अपने कार्य का आधार बनाया।

इसके बाद 13 अगस्त 2004 में बाबूलाल गौर ने मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। पूर्व से ही गौर की छवि नगरीय सौंदर्यीकरण विकास पुरूष के रूप में जनता के बीच थी ही इसका लाभ मुख्यमंत्री के पद के बाद उन्हें और मिला। उन्होंने शहर के साथ गांवों पर भी विशेष ध्यान दिया। उमा भारती के कार्यकाल में प्रारंभ हुईं पंडित दीनदयाल रोजगार योजना, गोकुल ग्राम प्रकल्प, अंत्योदय उपचार योजना, समृध्दा योजना तथा संस्थागत प्रसव जैसी योजनाओं को सार्थक गति मिली। वहीं अनेक जन हितैषी योजनाओं का प्रारंभ श्री गौर के कार्यकाल में हुआ। 29 नवंबर 2005 को शिवराज सिंह चौहान प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। मुख्यमंत्री बनते ही शिवराज सिंह ने प्रदेश के चहुँमुखी-स्वर्णिम विकास का मॉडल सभी के सामने रखा। उनके सामने अनेक चुनौतियाँ थीं। विशेषकर स्वास्थ्य, रोजगार, अधोसंरचना, जीडीपी ग्रोथ, शिक्षा,आर्थिक विकास जैसे अनेक विषय सामने थे, जिसको लेकर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता थी। मुख्यमंत्री के रूप में शिवराज सिंह चौहान ने सभी पर समान ध्यान केंद्रित किया। राज्य का सभी क्षेत्रों में विकास हो यही उद्देश्य ध्यान में रखकर उन्होंने अपनी कार्यप्रणाली के आधारभूत सूत्रों का निर्माण किया। इसी के परिणाम स्वरूप वह 12 दिसंबर 2008 को पुन: प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में चुने गए। शिवराज सिंह के कार्यकाल में शुरू हुईं ऐसी अनेक योजनाएँ हैं जो उन्हें एक सच्चे जननेता के रूप में प्रस्तुत करती हैं।

वस्तुत: रोजगार और समग्र विकास को लेकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के शासन में जो ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट हुईं हैं निश्चित ही उन्होंने अपना एक अलग इतिहास रचा है। इन्वेस्टर्स समिट की यह यात्रा जनवरी 2007 में वैश्विक धरोहर और पर्यटकों को आकर्षित करने वाले स्थल खजुराहो से शुरू हुई थी, जिसने आगे चलकर इंदौर, जबलपुर, सागर और ग्वालियर का पडाव पूरा करते हुए पुन: खजुराहो की ओर मुख किया है। 22-23 अक्टूबर दो दिन खजुराहो में चलने वाली इस समिट में भी देश-विदेश के ख्यातनाम व्यवसायी भाग लेंगे और प्रदेश के स्वर्णिम विकास में अपना योगदान देने के अध्याय को स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज कराएंगे।

पिछले वर्षों में सरकार ने अधोसंरचना विकास पर सबसे ज्यादा ध्यान केंद्रित किया है। इस दौरान उच्च श्रेणी की 64 हजार 400 किलोमीटर लंबी सडकों का निर्माण और उन्नयन का कार्य किया गया, जिसके कारण राज्य में नये उद्योगों की स्थापना के साथ पर्यटकों की संख्या में बढोतरी और व्यापार को बढावा मिला। बिजली के मामले में निरंतर मध्यप्रदेश आत्मनिर्भर बनने की ओर अग्रसर है। पिछले वर्षों में राज्य की स्थिति अन्य प्रदेशों से बेहतर हुई है। सरकार ने वर्ष 2013 तक पांच हजार 186 मेगावॉट विद्युत वृध्दिा का लक्ष्य रखा है। विद्युत बैंकिंग व्यवस्था के कारण 697 मिलियन बिजली प्राप्त हुई वहीं प्रदेश में पिछले 4 वर्षों से उद्योगों को निरंतर 24 घंटे बिजली प्रदान की जा रही है। सरकार ने उद्योगपतियों और निवेशकों के साथ मित्रों जैसा रिश्ता बनाने के लिए इन्वेस्टमेंट फेसिलिटेशन बिल पारित कराया, साथ ही इंदौर एसईजेड अधिनियम 2003 में आवश्यक संशोधन कर इसे पूरे प्रदेश में लागू किया गया। राज्य सरकार द्वारा अभी तक जो इन्वेस्टर्स समिट आयोजित हुईं हैं उनमें इंदौर और ग्वालियर ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट सबसे अधिक सफल मानी जा सकती हैं, क्योंकि जहां खजुराहो में सिर्फ 18 एमओयू पर हस्ताक्षर किये गए, जबलपुर में 61 एमओयू, सागर में 36 एमओयू हस्ताक्षरित हुए वहीं इंदौर में 102 एमओयू तथा ग्वालियर में 62 एमओयू साइन किए गये थे।

इंदौर में 26-27 अक्टूबर 2007 दो दिन चली इन्वेस्टर्स समिट में एक लाख बीस हजार करोड रुपए के अनुबंध हुए तथा भारत से 425 और विदेशों के 125 निवेशकों ने इसमें भाग लिया था। इस समिट की सबसे बडी सफलता यह मानी जा सकती है कि वैश्विक स्तर पर मध्यप्रदेश की ब्रांडिग हुई। गुजरात, महाराष्टन्, पंजाब, हरियाणा और कर्नाटक जैसी इंडस्टन्ी फे्रंडली इमेज मध्यप्रदेश की जो ग्वोबल लेवल पर नहीं बनी थी वह इंदौर इन्वेस्टर्स समिट ने उभरकर सामने आई। अलग-अलग देशों से आए उद्योगपतियों ने इस बात को सहजता से स्वीकार किया।

अभी तक इन्वेस्टर्स समिटों में मुख्यमंत्री का वन टू वन मीटिंग का फार्मूला उद्योगपतियों की समस्याओं के समाधान के लिए कारगर साबित हुआ है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान निवेशकर्ताओं की जिज्ञासाओं का समाधान अलग-अलग समूहों में करते आ रहे हैं। पिछले 3 वर्षो में 4 लाख 60 हजार करोड रूपए के कुल 321 एमओयू पर हस्ताक्षर हुए, जिनमें से 12 उद्योगों ने तो अपना उत्पादन शुरू कर दिया है। 20 अभी निर्माणाधीन हैं, 70 उद्योगों के लिए जमीन की पहचान चल रही है, 170 पर अभी सर्वे जारी है अन्य भी सरकार से विभिन्न स्तरों पर बातचीत के दौरान प्रदेश की जमीन पर शीघ्र उद्योग लगाने के प्रयास में हैं। सरकार को उम्मीद है कि खजुराहों में 22 से 23 अक्टूबर को होने वाली छठी इन्वेस्टर्स समिट में 55 हजार करोड के एमओयू साईन होंगे। फिलहाल 291 कंपनियों ने इसमें भाग लेने की अपनी स्वीकृति भेजी है। विदेशी कंपनियों से 54 प्रमुख अधिकारी शामिल होने जा रहे हैं। विशेष रूचि उत्तरी अमेरिका और मध्यपूर्व के देशों ने दिखाई है। इस बार की खजुराहों इन्वेस्टर्स समिट की सफलता के बाद निश्चित ही विकास का एक और अध्याय मध्यप्रदेश की डायरी में जुड जाएगा।

उद्योगों के द्वारा रोजगार का निर्माण और आमजन की समृद्धि यही मध्यप्रदेश भाजपा सरकार में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का स्वप्न है जो अब शनै-शनै सफल प्रयोगों और कार्यों से साकार होता जा रहा है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने अथक प्रयत्नों और जन हितेषी योजनाओं के निरंतर क्रियान्वयन से स्वर्णिम मध्यप्रदेश के लिए आवश्यक समृद्धि और विकास का नया अध्याय खोल दिया है।

भारतीय सभ्यता का परमानंद है दुर्गापूजा

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

आज दुर्गा अष्टमी है और पश्चिम बंगाल का माहौल एकदम भिन्न है। समूचा प्रांत दुर्गा में डूबा है। जगह-जगह मंडपों में लाखों लोगों की भीड़ लगी है। लोगों की उत्सवधर्मिता का आलम यह है कि कल शाम को अचानक तेज बारिश हो गयी तो कुछ देर के लिए लगा कि अब लोग नहीं निकलेंगे। लेकिन बारिश थमते ही लोगों की भीड़ का रेला सारे पंडालों में उमड़ पड़ा।

दुर्गा के नाम पर जनोन्माद और जनोत्सव विलक्षण चीज है। दुर्गापूजा की इस जनधर्मिता पर लोग तरह-तरह से आनंद मना रहे हैं। पूजामंडपों को शानदार तरीकों से सजाया गया है। मंडपों के आसपास बाजार-दुकानें-स्टॉल आदि भी हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण हैं राजनीतिक दलों के साहित्य की दुकानें इनसे लोग किताबें बगैरह भी खरीद रहे हैं। तकरीबन प्रत्येक मंडप के आसपास मार्क्सवादी साहित्य की

बिक्री की दुकानें लगी हैं। विभिन्न दलों के स्टॉल भी हैं जिनमें इन दलों के नेता स्थानीय जनता के साथ संपर्क-संबंध बनाने का काम कर रहे हैं। इस आयोजन में कम्युनिस्टों से लेकर कांग्रेसियों की शिरकत सहज देखी जा सकती है। जो लोग कहते हैं कि कम्युनिस्ट धर्म नहीं मानते उनकी धारणा को बंगाल के कम्युनिस्टों की इस महापर्व में सक्रिय हिस्सेदारी खंडित करती है।

दुर्गापूजा की सांस्कृतिक विविधता,तरह-तरह के रंगारंग कार्यक्रम और देर रात तक चलने वाली सांस्कृतिक प्रतियोगिताएं बेहद रोचक और जनशिरकत पर आधारित होती हैं और वे मुझे बेहद आकर्षित करती हैं। इस तरह की प्रतियोगिताएं प्रत्येक मंडप के पास हो रही हैं। इनमें घरेलू स्त्रियों से लेकर युवा और बूढ़ों तक की भागीदारी आनंद में कई गुना वृद्धि करती है।

एक तरह से देखें तो दुर्गापूजा जनोत्सव है। इसमें राज्य का प्रत्येक परिवार आर्थिक चंदा देता है। कोई भी ऐसा परिवार नहीं है जो पूजामंडप सजाने के लिए चंदा न देता हो। कईबार चंदा देने न देने पर पंगा भी हो जाता है। लेकिन कमोबेश सभी चंदा देते हैं। भारत में कहीं पर भी दुर्गापूजा या अन्य किसी देवता की पूजा के लिए समूचे राज्य की जनता से चंदा एकत्रित नहीं किया जाता। घर-घर जाकर चंदा एकत्रित नहीं किया जाता।

दुर्गापूजा का चंदा महज चंदा नहीं होता बल्कि यह प्रतीकात्मक तौर पर जनशिरकत है। हिस्सेदारी है, पूजा की सामाजिक-आर्थिक जिम्मेदारी में हाथ बटाना है। दुर्गापूजा जितनी धर्म और संस्कृति के लिए महत्वपूर्ण है वैसे ही बाजार के लिए भी महत्वपूर्ण और निर्णायक है। दुर्गापूजा के मौके पर की गयी खरीददारी पर पश्चिम बंगाल का समूचा बाजार टिका है। अरबों-खरबों रूपयों की आम जनता खरीददारी करती है। किसी भी दुकान में कुछ भी नहीं बचता। सभी दुकानों का अधिकांश सामान बिक जाता है। गरीब से लेकर अमीर तक पूजा के मौके पर बाजार में खरीददारी के लिए जरूर जाते हैं। इस अर्थ में दुर्गापूजा संस्कृति,सभ्यता और बाजार का परमानंद है।

दुर्गापूजा में आम लोगों में जिस तरह का उत्सवधर्मीभाव रहता है वह हमारे लिए महत्वपूर्ण है। इस मौके पर अधिकांश लोग कुछ दिन के लिए सारे दुख भूलकर आनंद मनाते हैं और यही इस उत्सव की सबसे विलक्षण चीज है। पूजा के चार-पांच दिन यहां पूजा,आनंद और प्रेम के अलावा और किसी विषय पर बात नहीं कर सकते। सबकी पूजा और सिर्फ पूजा में दिलचल्पी होती है।

विभिन्न बांग्ला चैनलों में इस अवसर पर सारे दिन चलने वाले कार्यक्रमों से लेकर पंड़ालों से लाइव प्रसारण तक की व्यवस्था की गई है। अखबारों के द्वारा परिशिष्ट निकाले जाते हैं और विज्ञापन उद्योग को इस मौके पर सबसे मोटा फायदा होता है। आम लोगों को आनंद और उद्योग जगत के लिए मोटा मुनाफा मिलता है।

यह ऐसा अवसर है जिस पर आपको लगेगा कि पश्चिम बंगाल एक राजनीतिक चेतना सम्पन्न राज्य नहीं है बल्कि संस्कृति सम्पन्न राज्य है। संस्कृति का जितना बड़ा उल्लास इस मौके पर दिखाई देता है वैसा और किसी मौके पर और भारत में कहीं पर भी दिखाई नहीं देता। मसलन आज अधिकतर लोग नए कपड़े पहनेंगे। पूजामंडप में जाएंगे। सुंदर-सुंदर खाना खाएंगे। घरों में इस मौके पर खास किस्म के खान-पान की व्यवस्था रहती है। आम लोगों के पास खाना,सुंदर सजना,पूजा की रोशनी देखना और आनंद की चर्चा करने के अलावा और कोई काम नहीं होता।

मुझे लगता है दुर्गापूजा का एक और बड़ा महत्व यह है कि इसने मानवीय जीवन में आनंद और प्रेम की प्रतिष्ठा की है। खासकर युवाओं के लिए तो यह मिलनोत्सव है। जाति, धर्म, गोत्र आदि की सभी किस्म की दीवारों को दुर्गापूजा एक ही झटके में गिरा देती है।

इस मौके पर साम्प्रदायिक सौहार्द देखने लायक होता है। एक जगह दुर्गापूजा के मौके पर एक मुसलमान को दुर्गापूजा की जिम्मेदारी सौंप दी गयी है। इस मुस्लिम दुर्गापूजक का नाम है शाहिद अली। कोलकाता के मुस्लिम बहुल इलाके खिदिरपुर में मुंशीगंज नामक मुहल्ले में ये जनाब रहते हैं और इनको दुर्गापूजा के अर्चक का दायित्व दिया गया है और इन्होंने इसे खुशी-खुशी स्वीकार भी किया है।

शाहिदभाई विगत सात सालों से दुर्गापूजा के अर्चक की दिम्मेदारी निभा रहे हैं। वे जिस क्लब के मंडप में अर्चक की भूमिका निभा रहे हैं वह है ‘स्टार क्लब’। यह 71 साल पुरानी दुर्गापूजा है जिसे मुसलमान आयोजित करते हैं। मजेदार बात यह है शाहिद भाई षष्ठी से नवमी तक चारों दिन दुर्गापूजा के मौके पर व्रत रखते हैं। साथ ही हिन्दू मंत्रों और हिन्दूशास्त्र के आधार पर पूजा करते-कराते हैं। ऐसा नहीं है शाहिद भाई ने धर्म परिवर्तन कर लिया है। वे मुसलमान हैं और 30 दिन नियमित रोजे भी रखते हैं।

भारतीय के पासपोर्ट खोने की सज़ा मौत?

-अजय कुमार

बीता सोमवार का दिन एक तरफ जहां भारत के लिए खुशियों से भरा दिन रहा,- राष्ट्रमंडल खेलों के सफ़ल आयोजनों का सातवाँ दिन। पदक तालिका में दूसरा स्थान, सुशील को 28वाँ स्वर्ण, हॉकी में पाक को पटखनी। वगैरह-वगैरह। मगर इस खुशी के माहौल में एक महत्वपूर्ण ख़बर खो गई। वह ख़बर थी एक भारतीय महिला की मस्कट ओमान हवाई अड्डे पर पाँच दिन फँसे रहने के बाद गुमनाम मृत्यु। उसका एकमात्र कसूर था कि उस भारतीय महिला ने अपना पासपोर्ट खो दिया था, यात्रा के दौरान। ये कहां का कानून है कि पासपोर्ट खोने की इतनी बड़ी सज़ा? – पर ये तो होना ही था। क्योंकि वो महिला भारतीय थी और खाड़ी देशों में भारतीयों के साथ ऐसा व्यवहार आम बात है। उनके लिए भारतीय निकृष्ट प्राणी हैं और वहाँ काम कर रहे लाखों भारतीयों का न कोई सम्मान है ओर न ही कोई अधिाकार। ये अलग बात है कि अपने तमाम प्रयासों के बाद आज भी खाड़ी देश अपने अपने मुल्क को चलाने के लिए पूरी तरह से भारतीयों पर ही निर्भर हैं। हमने उनकी आर्थिक प्रगति एवं समृध्दि में अभूतपूर्व योगदान दिया है। पर उनकी नज़र में हमारी कोई इज्ज़त नहीं है। ये वही खाड़ी देश हैं जो ब्रिटेन, अमेरिका एवं कनाडा जैसे शक्तिशाली देशों के नागरिकों के आगे डरकर कांपते हैं पर जैसे ही भारतीयों की बात आती है उनका सुर और रुख पूरा अमानवीय और निकृष्ट हो जाता है।

ऐसा कौन सा कानून है, जिसमें कहा गया हो कि पासपोर्ट खो जाने की सज़ा मौत है? आखिर यह सवाल हर भारतीय को करना चाहिए कि वह कौन सा कुसूर था जिसके चलते एक भारतीय महिला को हवाई अड्डे पर कैद कर तड़पा तड़पा कर मार डाला गया? क्या इतना अमानवीय हो गया है ओमान का कानून या महज इसलिए कि मृतका एक भारतीय थी और ओमान की यह धारणा बन चुकी है कि उसकी ऐसी बेजा हरकतों पर उसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। वर्षों से वहाँ ऐसा सिलसिला चलता आ रहा है और हर रोज़ इससे भी ज्यादा क्रूर कृत्य होते रहते हैं लेकिन हम खामोश रहते हैं। रोज़ी रोटी की तलाश में वहाँ गया हुआ भारतीय नागरिक रोज़ शर्मसार होता है और भारत का स्वाभिमान और अस्मिता हर रोज़ चूर चूर होती है। पर यह देखने की फुर्सत किसे है क्योंकि वहां तो मीडिया पर पूर्णत: पाबंदी है। पुलिस में अपराध दर्ज होते नहीं और हमारे दूतावास के अधिकारी अपनी सैरगाहों में मस्त रहते हैं। यह अधिकारी हमारे द्वारा अदा किए गए टैक्स से ही मोटी- मोटी तनख्वाहें लेते हैं और मुसीबत में फँसा आम भारतीय जब इनसे मदद माँगता है तो अव्वल तो यह मिलते ही नहीं हैं और मिल भी जाएं तो उनका व्यवहार भी खाड़ी देशों के मुकाबले कम अमानवीय नहीं होता है। यह अधिकारी साफ घुड़की देते हैं कि चुपचाप भारत भाग जाओ।

यह जानकर आश्चर्य होगा कि बलात्कार की शिकार भारतीय महिला और उसके परिजनों से यह अधिकारी खुल्लमखुला कहते हैं कि इस लफड़े में मत पड़ो, हम एयर इंडिया के मैनेजर से कहकर आपकी मुफ्त यात्रा की तुरंत व्यवस्था करवाते हैं।

अमीना जैसी भारतीय महिलाएं, जो एक तरफ तो शादी के बहाने 80 वर्ष के बुजुर्ग के साथ भेज दी जाती हैं या फिर नौकरानी की शक्ल में निर्यात की जाती हैं, जो हर रात बलात्कार का शिकार होती हैं और अपनी जान बचाने के लिए उनके सामने चुप रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। जाहिर सी बात है कि इन बलात्कारों के दोषी हमारे यह अफसरान भी हैं जो सारे गुनाह के मूक दर्शक बने रहते हैं।

अगर आप वहां से निकलकर भागना भी चाहें तो वहाँ के नौकरशाहों की इजाजत के बिना यह भी संभव नहीं है क्योंकि हवाई अड्डे पर उतरते ही आपका पासपोर्ट जब्त कर लिया जाता है, जिसकी इजाजत कोई भी अंतर्राष्ट्रीय कानून नहीं देता है। पासपोर्ट भारत के राष्ट्रपति की संपत्ति है। लेकिन बेचारा भारत का राष्ट्रपति वहाँ के हर लॉकर में कैद मिलेगा और भारत का नागरिक चंद पैसे कमाने की खातिर लगातार अपमानित होता रहता है और अत्याचार सहता रहता है क्योंकि उसके पास घर वापस लौटने का विकल्प भी नहीं होता क्योंकि वह जाता ही अपना घरबार बेचकर है। ऐसे में उसके सामने दोनों तरफ मौत ही मौत है।

भारतीयों पर इन खाड़ी देशों में हो रहे जुल्मों को सारे लोग जानते हैं लेकिन सब खामोश रहते हैं क्यों? क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि इन मुल्कों में जिल्लत झेलने वाले ऑस्ट्रेलिया में शिक्षा प्राप्त करने जाने वाले बड़े घरों से ताल्लुक नहीं रखते, यह अधिकाँश खरादिए होते हैं, कारपेन्टर होते हैं या फिर नर्स और घरेलू नौकरानी। भारतीय नौकरानियों के साथ हो रहे इन बलात्कारों की जानकारी क्या हमारे नौकरशाहों को नहीं है? लेकिन उनके मुँह क्यों नहीं खुलते? बाँग्लादेश जैसा छोटा सा गरीब मुल्क भी अपनी अस्मिता और अपने देश की नारियों की सम्मान की खातिर इन खाड़ी देशों पर पूरी तरह रोक लगा रहा है लेकिन एक हम हैं न हमारी इज्जत है और न अस्मिता। खाड़ी देशों का रवैया हमारे प्रति जो भी हो लेकिन सवाल तो हमारे राजनयिकों, विदेश विभाग के अधिकारियों और राजनेताओं से है, वह चुप क्यों हैं इन अमानवीय कृत्यों पर? आखिर क्या वजह है कि एक मामूली सा टीवी एंकर भी शीला दीक्षित पर टिप्पणी कर देता है तो कभी फेनेल हमारी आबादी का मज़ाक उड़ाता है और कभी ऑस्ट्रेलिया का एक मामूली सा पुलिस अफसर हमारी खिल्ली उड़ाता है? आखिर कब तक भारतीयों के इस अपमान का सिलसिला चलता रहेगा? जब तक हमारा राजनयिक वर्ग और हमारे राजनेताओं मे भारतीयता नहीं आएगी तब तक हम दुनिया में ऐसे अत्याचारों को सहते के लिए अभिशप्त रहेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और खाड़ी देशों में लम्बे समय तक पत्रकारिता कर चुके हैं। श्री कुमार अरब के कई मशहूर समाचार पत्रों में संपादक रह चुके हैं)

संयासवाद नहीं है साम्यवाद

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

भारत में एक तबका है जिसका मानना है कि कम्युनिस्टों को दुनिया की किसी चीज की जरूरत नहीं है। उन्हें फटे कपड़े पहनने चाहिए। सादा चप्पल पहननी चाहिए। रिक्शा-साइकिल से चलना चाहिए।कार,हवाई जहाज का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। मोटा खाना और मोटा पहनना चाहिए। इस वेशभूषा में थोड़ी तरक्की हुई तो पाया कि नक्सलों ने जींस का फटा और गंदा पैंट और खद्दर का कुर्त्ता पहन लिया। इस तरह के पहनावे और विचारों का मार्क्सवाद से कोई लेना देना नहीं है।

साम्यवाद या मार्क्सवाद को मानने वाले संत नहीं होते। मार्क्सवाद का मतलब संयासवाद नहीं है। वे भौतिक मनुष्य हैं और दुनिया की समस्त भौतिक वस्तुओं को प्यार करते हैं और उसका पाना भी चाहते हैं। उनका इस पृथ्वी पर जन्म मानव निर्मित प्रत्येक वस्तु को भोगने और उत्पन्न करने के लिए हुआ है।

मार्क्सवादी परजीवी नहीं होते बल्कि उत्पादक होते हैं। यही वजह है कि मजदूरो-किसानों का बड़ी संख्या में उनकी ओर झुकाव रहता है। वे हमेशा उत्पादक शक्तियों के साथ होते हैं और परजीवियों का विरोध करते हैं। जो लोग कम्युनिस्टों का विरोध करते हैं वे जाने-अनजाने परजीवियों की हिमायत करते हैं।

मार्क्सवादी का मतलब दाढ़ी वाला व्यक्ति नहीं है,ऐसा भी व्यक्ति मार्क्सवादी हो सकता है जो प्रतिदिन शेविंग करता हो। कम्युनिस्ट गंदे,मैले फटे कपड़े नहीं पहनते। बल्कि सुंदर,साफ-सुथरे कपड़े पहनते हैं। कम्युनिस्ट सुंदर कोट-पैंट भी पहनते हैं। शूट भी पहनते हैं। ऐसे भी कम्युनिस्ट हैं जो सादा कपड़े पहनते हैं। कहने का अर्थ यह है कि मार्क्सवाद कोई ड्रेस नहीं है। मार्क्सवाद कोई दाढ़ी नहीं है। मार्क्सवाद एक विश्व दृष्टिकोण है दुनिया को बदलने का नजरिया है। आप दुनिया कैसे बदलते हैं और किस तरह बदलते हैं,यह व्यक्ति स्वयं तय करे। इसके लिए कोई सार्वभौम फार्मूला नहीं है।

मार्क्सवाद कोई किताबी ज्ञान नहीं है। दर्शन नहीं है। बदमाशी नहीं है,गुंडई नहीं है, कत्लेआम का मंजर नहीं है। मार्क्सवाद राष्ट्र नहीं है,राष्ट्रवाद नहीं है,राष्ट्रीयता नहीं है, धर्म नहीं है, यह तो दुनिया को बदलने का विश्वदृष्टिकोण है। मार्क्सवादी सारी मानवता का होता है और सारी मानवता उसकी होती है। वह किसी एक देश का भक्त नहीं होता। वह किसी भी रंगत के राष्ट्रवाद का भक्त नहीं होता। वह देश,राष्ट्रवाद,राष्ट्रीयता आदि से परे समूची विश्व मानवता का होता है यही वजह है कि वह विश्वदृष्टिकोण के आधार पर सोचता है।

मार्क्सवादी की बुनियादी मान्यता है कि यह संसार शाश्वत नहीं है। यह संसार परिवर्तनीय है। इस संसार में कोई भी चीज शाश्वत नहीं है यदि कोई चीज शाश्वत है तो वह है परिवर्तन का नियम।

कम्युनिस्टों की एक चीज में दिलचस्पी है कि यह दुनिया कैसे बदली जाए। जो लोग कहते हैं कि यह दुनिया अपरिवर्तनीय है,वे इतिहास में बार-बार गलत साबित हुए है। जो यह सोचते हैं कि मार्क्सवाद के बिना शोषण से मुक्त हो सकते हैं ,वे भी गलत साबित हुए हैं। शोषण से मुक्ति के मामले में अभी तक कोई भी गैर मार्क्सवादी विकल्प कारगर साबित नहीं हुआ है। वास्तव अर्थों में सामाजिक तरक्की, समानता और भाईचारे का कोई भी गैर-मार्क्सवादी रास्ता सफल नहीं रहा है।

इस प्रसंग में हमें समाजवादी क्यूबा के सामाजिक परिवर्तनों से बहुत कुछ सीखने को मिल सकता है। फिदेल कास्त्रो ने लिखा है- ‘‘हम शिक्षा के बारे में यूनेस्को के अध्ययन से संबंधित आंकड़ों को देख रहे थे। हमने पाया कि हमारे देश में ग्रामर स्कूलों की चौथी और पांचवीं कक्षा के छात्रों का भाषा और गणित ज्ञान लैटिन अमरीका के शेष देशों के इस उम्र के बच्चों के ज्ञान से दुगुना है। लैटिन अमरीका ही नहीं बल्कि अमरीका से भी अधिक है।’’

‘‘लेकिन हमें इस बात से बहुत खुशी हुई कि भाषा और गणित पर हमारे ग्रामर स्कूलों के छात्रों का अधिकार दुनिया के सर्वाधिक विकसित देशों के मुकाबले कहीं अधिक अच्छा है।’’

फिदेल कास्त्रो ने लिखा है हमारे देश में जीवन के पहले वर्ष शिशु मृत्यु दर प्रति हजार प्रसव 7 से कम है। पिछले साल यह 6.5 थी और उससे पहले साल 6.2 थी। हम इसे और नीचे लाने की कोशिश कर रहे हैं। हम यह भी नहीं जानते कि उष्णकटिबंधी देश में इसे कम किया जा सकता है क्योंकि कई तत्व काम करते हैं। जलवायु का प्रभाव होता है। आनुवंशिक तत्व होते हैं। और भी कई तत्व हैं जैसे कि स्वास्थ्य सुविधा, पोषण आदि। हमें इसे 10 से कम लाने की उम्मीद नहीं थी। इसके इतने नीचे आने से हम बहुत प्रोत्साहित हुए हैं।सबसे अच्छी दरें केवल राजधानी में नहीं है। पूरे प्रांतों में शिशु मृत्यु दरें पांच से कम है। पूरे देश में न्यूनाधिक ये ही दरें हैं। यहां हमारे उत्तरी पड़ोसी जैसी स्थिति नहीं है। वहां तो जिन इलाकों में लोगों के पास अधिक संसाधन, बेहतर स्वास्थ्य सुविधा और बेहतर पोषक तत्व आदि हैं वहां यह दर चार या पांच है, लेकिन अमरीका की राजधानी सहित जिन इलाकों में बहुत गरीब लोग और अमरीकी अफ्रीकी जैसे प्रजाति समूह रहते हैं, जिन्हें पर्याप्त चिकित्सा सुविधा उपलब्ध नहीं है, वहां यह दर आवश्यक सेवाओं से संपन्न इलाकों के मुकाबले तीन गुना, चार गुना, यहां तक कि पांच गुना अधिक है।

हम हिस्पानिक अमरीकियों, अफ्रीकी अमरीकियों तथा यहां आए दुनिया के दूसरे हिस्सों के लोगों की स्थिति से वाकिफ हैं, उनकी शिशु मृत्यु दरें, उनकी जीवन प्रत्याशा दरें, उनके स्वास्थ्य संकेतक। हम यह भी जानते हैं कि अमरीका में चार करोड़ लोगों का चिकित्सा बीमा नहीं है।

अमरीकी अवाम के प्रति मेरे मन में कोई घृणा नहीं है क्योंकि हमारी क्रांति ने हमें घृणा नहीं सिखाई है। हमारी क्रांति विचारों पर आधारित है कट्टरपन या उग्र राष्ट्रीयता पर नहीं। हमें यह शिक्षा मिली है कि हम सब भाई बहन हैं। हमारे लोगों को दोस्ती और भाईचारे की भावनाओं की शिक्षा मिली है। हमारे विचार से यही अंतर्राष्ट्रीय भावनाएं होनी चाहिए

हमारे लाखों क्यूबाई साथी इसी विचारधारा से गुजरे हैं। इसीलिए मैं कहता हूं कि क्रांति को समाप्त करना इतना आसान नहीं है। हमारे लोगों की इच्छाशक्ति को कुचलना इतना आसान नहीं है क्योंकि उसके पीछे विचारों, अवधारणाओं और भावनाओं की ताकत है। विचारों और भावनाओं को आगे बढ़ाया जाना चाहिए। हमारे हर कर्म के पीछे यही सच्चाई होती है। जिस अवाम ने ज्ञान के कुछ निश्चित स्तर प्राप्त कर लिए हैं, मुद्दों को समझने की एक निश्चित क्षमता अर्जित कर ली है और जिसमें एकता और अनुशासन की क्षमता है उसे धरती से मिटाना इतना आसान नहीं है।’’

फिदेल ने कहा कि ‘‘मैं अपने देश के बारे में कुछ और छोटी-छोटी बातें मैं आपको बताना चाहता हूं। पिछले तीन सालों में विश्वविद्यालयों की संख्या काफी बढ़ी है।…पहले केवल एक मेडिकल स्कूल हुआ करता था अब 22 मेडिकल स्कूल हैं। इनमें से एक का नाम लैटिन अमरीकन मेडिकल स्कूल है जिसमें लैटिन अमरीका के सब देशों से लगभग 7000 छात्र हैं। बाद में इनकी संख्या बढ़ाकर 10000 कर दी जाएगी। हम जानते हैं कि

अमरीका में विश्वविद्यालय शिक्षा विशेषकर मेडिकल स्कूल में शिक्षा के लिए एक व्यक्ति को 2 लाख डालर अदा करने पड़ते हैं। कई साल पहले बने इस स्कूल से जब 10000 छात्र अपनी शिक्षा पूरी कर लेंगे तो केवल इसी क्षेत्र में तीसरी दुनिया के देशों को हमारा योगदान दो अरब डालर के बराबर हो जाएगा। यह इस बात का प्रमाण है कि यदि कोई देश अच्छे विचारों के मार्ग पर चलता है तो भले ही वह गरीब हो, बहुत चीजों को कर सकता है।

इस देश की 44 साल से नाकाबंदी चल रही है। समाजवादी खेमा, जो खरीद और वाणिज्य के जरिए हमारा प्राथमिक व्यापार साझीदार और आपूर्तिकर्ता था, के पतन हो जाने के बाद साम्राज्यवाद ने अपने आर्थिक उपाय शुरू कर दिए जिन्हें टोरिसेली और हेम्सबर्टन एक्टों द्वारा और कड़ा कर दिया गया।

इसके अलावा एक और आपराधिक कानून है जिसे हम कातिल क्यूबन एडजस्टमेंट एक्ट कहते हैं। यह दुनिया के केवल एक देश पर लागू होता है और वह है क्यूबा। यदि कोई अपने आपराधिक रिकार्ड या अन्य किसी कारण से वीजा पाने का हकदार नहीं है तो वह यदि किसी नाव को चुराकर या जहाज का अपहरण करके या अन्य किसी माध्यम से अमरीका पहुंच जाता है तो उसे स्वत: ही अमरीका में निवास मिल जाता है और उसे अगले दिन से ही काम करने का प्राधिकार मिल जाता है।यह बात ध्यान से सुनें। मैक्सिको और अमरीका की सीमा पर हर साल 500 आदमी मरते हैं और उनकी मौत बड़ी भयानक होती है। मैक्सिको के साथ एक संधि की गई है या उस पर लादी गई जिसका नाम है नार्थ अमरीकन फ्री ट्रेड एग्रीमेंट या नाफ्टा। इस करार में पूंजी और वस्तुओं की मुक्त आवाजाही की तो अनुमति है लेकिन मानवों की नहीं। इस बीच उन्होंने हमारे देश पर यह एडजस्टमेंट एक्ट लागू कर दिया है। यह कातिल कानून है और हम नहीं चाहते कि यह दूसरों पर लागू हो। लेकिन हम इस बात पर कायम हैं कि जो हरेक किसी पर मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगाते हैं और क्यूबा पर तो यह आरोप घृणित बदनामी और शर्मनाक तथा हास्यास्पद झूठों के जरिए लगाया जाता है, वे सभी मानवों को यह अधिकार दें। इस सीमा पर सैकड़ों मैक्सिकोवासी और लैटिन अमरीकी मारे जाते हैं। यहां हर साल इतने व्यक्ति मरते हैं जितने बर्लिन की दीवार के 29 साल के अस्तित्व में भी नहीं मरे। उन्होंने लाखों बार बर्लिन की दीवार की बात की है लेकिन इस सीमा को पार करने की चेष्टा करने वाले मैक्सिकोवासियों की मौत के बारे में कोई भी समाचार नहीं दिया जाता और दिया भी जाता है तो छिटपुट। यदि आप लैटिन अमरीकी हैं या एशियन हैं या किसी और देश से हैं और आप गैरकानूनी तरीके से अमरीका पहुंच जाते हैं और आपको वहां ठहरने दिया जाता है तो आपको शरणार्थी या आप्रवासी कहा जाएगा और यदि आप क्यूबाई हैं तो आपको निर्वासित पुकारा जाएगा।’’

वोटरों को भी सुरक्षा और बीमा कवर दीजिए

-हरेराम मिश्र

बिहार में इन दिनों चुनावी सरगर्मियां बड़ी तेज हो गयी हैं। इस राज्य में इन दिनों विधान सभा के आम चुनाव हो रहे हैं। और इस चुनाव को निष्पक्षतापूर्वक निपटाने के लिए निर्वाचन आयोग ने भले ही कमर कस ली हो, लेकिन बिहार में आज भी यह दावे से कोई नहीं कह सकता कि चुनाव के दौरान या उसके ठीक बाद में किसी तरह की कोई चुनावी हिंसा नहीं होगी। और इसी असमंजस का एक परिणाम यह निकला कि निर्वाचन आयोग ने चुनाव डयूटी गये सभी सरकारी कर्मचारियों का एक बीमा करा दिया है ।इस बीमें के तहत अगर किसी भी किस्म की चुनावी हिंसा मे पोलिंग डयुटी में लगे कर्मचारी की मौत होती है तो उसके आश्रितों को दस लाख रुपये का मुआवजा दिया जाएगा।

गौरतलब है कि यह राज्य सामंती और नक्सली हिंसा की चपेट में पिछले कई वर्षों से रहा है। और पिछले कई चुनाव इस बात के गवाह रहे हैं कि आम चुनावों मे बूथों पर या इस चुनाव के दौरान हुई हिंसा में केवल सरकारी कर्मचारी ही नहीं लाइन मे लगा आम वोटर भी मारा गया है । और इस हिंसा के शिकार हुए सरकारी पोलिंग कर्मचारियों को सरकार द्वारा भारी भरकम मुआवजा और सरकारी सेवा के सारे लाभ मिलते हैं, वही वोटर के लिए आज भी हमारे चुनाव आयोग के पास कोई ठोस योजना नहीं है। और वह आज भी सरकार द्वारा घोषित अनुग्रह राशि ही पा पाता है और वह भी शायद एक या दो लाख। आज भी हमारी सरकार के पास वोटर को देने के लिए कुछ नहीं है। उसे किसी किस्म का कोई बीमा कवर नहीं मिलता है। आखिर देश के इस मतदाता के साथ ऐसा क्यों? उसे चुनाव ड्यूटी में लगे सरकारी कर्मचारी जैसा बीमा कवर सरकार क्यो नहीं देती? निर्वाचन आयोग को यह सुनिश्चित करना ही चाहिए कि हर मतदाता को चुनावी और बूथ पर हुई किसी किस्म की हिंसा से पूर्णत: सुरक्षा दी जाएगी। और अगर बूथ पर या चुनाव हिंसा के कारण किसी भी वोटर की जान जाती है तो उसके आश्रितों को एक पर्याप्त आर्थिक सुरक्षा हित लाभ दिया जाएगा। अगर इस तरह का कोई कदम सरकार नहीं उठा सकती तो एक आम मतदाता जो राजनैतिक माफियागर्दी और सामंती गुडागर्दी का शिकार है वह भला बूथ पर क्यों जाएगा। और अगर चला भी गया तो वह निष्पक्ष वोट कैसे कर पाएगा। जो लोकतंत्र की सबसे आधारभूत सीढी होती है।

बात सिर्फ बिहार की ही नहीं है उत्तर प्रदेश में भी इन दिनों त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव हो रहे हैं और जैसा कि पहले और दूसरे चरण में हई चुनावी हिंसा में आम वोटरों को अपनी जान से हाथ धोना पडा,और जिन वोटरों की भी मौत इस चुनाव में हुई है, उनके बीवी और बच्चे आगे अनाथ होकर भुखमरी और मुफलिसी में ही जिएंगे। कुल मिलाकर आम वोटर के लिए यह चुनाव उनके और उनके बच्चों के लिए एक अभिशाप से ज्यादा कुछ नहीं बना। और सरकार ने आज तक एक पैसे की मदद पीडित परिवारों के लिए नहीं दी। कहने ज्यादा जरूरत नहीं है और मैं भी उत्तर प्रदेश से ही हूं और और इस पंचायत चुनाव में पोलिंग बूथ तक जाने की मेरी हिम्मत नहीं पड़ रही है। क्योकि मैं जानता हँ कि अगर बूथ पर मेरे लाइन मे लगने के दौरान बूथ पर गोली चली और किसी भी ओर की गोली से मै मारा गया मेरे बच्चे भूखों मर जाएंगे और सरकार सिर्फ लोकतंत्र का तमाशा करेगी। और एक पैसा मुवाबजा नहीं मिल सकेगा। और जब कोई सुरक्षा नहीं तो हम वोट देने क्यों जाएं? हां यह अलबत्ता होगा कि मेरा नाम भी बूथ लुटेरों में शामिल कर लिया जाएगा।

दरअसल आज भी हमारे नौकरशाह और राजनैतिक दल देश के आम आदमी को केवल अपने राजनैतिक हित साधने के औजार के बतौर प्रयोग करते चले आ रहे हैं और जिस तरह से राजनीतिक दलो के बीच आम बहस के मुद्दे गायब हुए, जनता ने भी चुनाव से किनारा कसना शुरू कर दिया है। घटते वोटिंग प्रतिशत का यह एक बडा कारण है।और नौकरशाही केवल अपना ही लाभ देखती है वह अपने लिए सुविधाओं के दरवाजे खुद खोल लेती है, लेकिन आम वोटर की कोई परवाह नहीं करती। आज जरूरत इस बात की आ गयी है कि आम वोटर को भी सरकारी कर्मचारियों की तरह फुल बीमा कवर दिया जाय ताकि आम वोटर भविष्य की चिंता छोड कर स्वस्थ दिलो दिमाग से पोलिंग बूथ पर अपना वोट कर सके। क्या सरकार इसके लिए तैयार हो रही है?

वैदिक सिंधु – सरस्‍वती सभ्‍यता

– कृष्‍णनारायण पांडेय

सिंधु, सरस्वती, गंगा तथा नर्मदा नदियों के क्षेत्र में हड़प्पा, मोहेनजोदड़ो में प्राप्त पुरातात्विक सामग्री के विस्तार से इस क्षेत्र में वैदिक प्रकृति पूजा की संस्कृति दृश्यमान है। 84 लाख योनियों के जीवों से अलग मनुष्य की जाति एक ही होती है अतः विश्व की सभी सभ्यताएं आर्य-अनार्य न होकर ‘मानव संस्कृति’ की पर्याय हैं। पूर्वाग्रह मुक्त शोध से 3500-1700 ई. पू. के समय की सिंधु घाटी सभ्यता के अभिलेखों में प्राप्त 419 संकेताक्षरों में ब्राह्मी लिपि के सभी अक्षर समाहित हैं अतः इस लिपि को वेदकालीन ब्राह्मी या वैदिकी भी कहा जा सकता है। इस क्षेत्र में किए गए सभी शोध कार्यों के समन्वय एवं वेद, मानव धर्मशास्त्र, रामायण, महाभारत व पुराणों के तथ्यों के विवेचन से डॉ. करूणाशंकर शुक्ल राजराजेश्वरी मंदिर बांगर मऊ, उन्नाव ने केंद्र सरकार से अनुदान प्राप्त कर सिंधु मुद्राओं के अभिलेखों को पढ़ने का दावा किया है। सिंधु-सरस्वती सभ्यता के अभिलेखों में 419 चिन्हों में पौराणिक अवतार, देव सहित मनुष्य-22, मच्छली -20 , राशि-12, ग्रह – 09, शुभवस्तु – 32, पशु-पक्षी-30 तथा 19 अन्य वस्तुओं के चित्राक्षर भी संकेताक्षरों के साथ प्राप्त होते हैं। चित्राक्षरों-संकेताक्षरों के अलावा गिनतियों के साथ भी अक्षरों का प्रयोग प्राप्त होता है। चित्राक्षरों का ही विकसित रूप चाणक्य कालीन ब्राह्मी है। मुद्राओं की उपलब्धि विशेष रूप से पंजाब में हड़प्पा और सिंधु में मोहेनजोदड़ों से प्राप्त हुई है। अतः इन्हें सिंधु-मुद्राएं तथा उन पर अंकित लिपि को ”सिंधु-लिपि” कहा जाता है। करूणाशंकर शुक्ल बांगरमऊ उन्नाव के शोधकार्य के अनुसार वास्तव में एल. पी. टेसीटरी ने 5 अप्रैल से 10 अप्रैल, 1917 में राजस्थान में सरस्वती नदी की शुष्क घाटी में स्थित कालीबंगन के टीलों पर कैंप करके अनेक पुरावशेषों को खोजा था और उनके प्रागैतिहासिक महत्व को भी आंका था, किंतु उसने अत्यंत खेद के साथ एफ. डब्लू. थॉमस और जार्ज ग्रियर्सन को पत्र लिखकर सूचित किया कि जॉन मार्शल ने उस अपने लेख को प्रकाशित करने की अनुमति नहीं दी थी। यदि उसे ऐसा करे की अनुमति प्रदान की गई होती तो संसार में ‘सरस्वती-संस्कृति’ उजागर होती और अंग्रेजों को भारतीय संस्कृति पर पश्चिम एशिया के प्रभाव को सिंधु-कांठे से भारत में प्रवेश करने तथा बाद में आर्यों के द्वारा वहां आकर के उसे नष्ट करने का भ्रामक प्रचार करने की सुनियोजित योजना को भाषाई आधार पर चरितार्थ करने का सुअवसर नहीं मिलता। अब तक भारत में लगभग 862 प्राक्-हड़प्पा कालीन और उत्तर-हड़प्पा कालीन स्थलों की खोज की जा चुकी है जो कि पूर्व में कौशांबी-कानपुर से लेकर पश्चिम में सुतकजेंडोर (मकरान) तथा उत्तर में माडा (जम्मू और कश्मीर) से लेकर दक्षिण में दाइमाबाद (महाराष्ट्र) तक फैले थे। यदि पाकिस्तान को शामिल कर लिया जाए तो श्री जगपति जोशी के अनुसार ये सभी स्थल लगभग 25 लाख वर्ग कि. मी. के क्षेत्र में फैले थे। पेपीरस पर जैसे मिश्र देशवासी लिखते थे वैसे ही भारत में भोजपत्र पर या किसी मृत्तिका पट्ट पर क्षुरभ्र (रोजर) द्वारा लिखने की प्रथा थी। शुक्ल यजुर्वेद (15,4) में लिखा है –

”अक्षरः पंक्तिश्छन्दः, पदपंक्तिश्छन्दः। विस्टार पंक्तिश्छंदः, क्षुरोभ्रश्छन्दः॥” अर्थात् किसी-किसी मुद्रा में केवल एक ही अक्षर रूप पद है किसी में पूरा पद है, किसी में थोड़ा विस्तृत रूप उन पदों का है जो क्षुर के द्वारा उत्कीर्ण किए गए हैं। एक ॠग्वैदिक मंत्र में यहां तक स्पष्ट किया गया है कि प्रणियों के पत्थर दिल पर ‘किकिर’ (छूरी) के माध्यम से दया व प्रेम की भाषा अंकित कराइए। (ॠग्वेद 10.71.1)

ब्राह्मी लिपि को सिंधु लिपी का ‘रिसोटा’ अभिलेख माना जा सकता है। यह रचनात्मक मार्ग है। सिंधु तथा ब्राह्मी लिपियों को द्विभाषी अभिलेख भी प्राप्त हुआ है। इसे गजकवि – गणेश पढ़ा गया है। मोहेनजोदंड़ों से प्राप्त एक मुद्रा में पद्म शब्द तीन बार भिन्न-भिन्न चिन्हों पर अंकित किया गया है।

बौद्ध ग्रंथ ललित-विस्तार में 64 प्रकार की लिपियों का उल्लेख है। प्राचीन जैन ग्रंथ ”समवायसूत्र” में ”ब्राह्मी” सहित 18 प्रकार की लिपियां वर्णित हैं। यहां यह बताना अनुचित न होगा कि ब्रह्म का एक अर्थ वेद भी है और ”ब्राह्मी” लिपि का अर्थ ”वैदिकी” हैं। चूंकि भारत की प्राचीनतम् संस्कृति वैदिक संस्कृत है और उसके प्राचीनतम् ग्रंथ ”वेद” हैं। अतः भारत के प्राचीनतम् लिपि को ”ब्राह्मी” लिपि की संज्ञा दी जाए तो सिंधु-लिपि को एक सार्थक नाम दिया जा सकता है। इस लिपि का सर्वप्रथम आविष्कार ॠषभदेव ने किया था। अशोक लिपि के जाने के समय तक सिंधु लिपि की खोज नहीं हो पाई थी, अतः प्राचीन वैदिक साहित्य के आधार पर जेम्स प्रिंसेप प्रभृति, पाश्चात्य विद्वानों ने अशोक लिपि को ब्राह्मी लिपि की संज्ञा दे दी। यह सिंधु-लिपि है और अशोक लिपि उसका विकसित एवं परिष्कृत रूप है। दो पक्षियों से युक्त मुद्रा को वैदिक मंत्र की व्याख्या के रूप में 1949 ई. में प्रकाशित कल्याण के हिंदू-संस्कृति अंक में प्रकाशित भी किया गया था। इस मुद्रा पर अंकित वैदिक मंत्र संपूर्णतः डॉ. शुक्ल जी ने पढ़ा है – द्वा सुपर्णों सयुज सखायो समान वृक्ष परिषस्व जाते। तथोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वतनश्न्नन्यो अभिचाकशीति (ॠग्वेद 1.164.20) इसके अलावा कई वेदमंत्र यथा गायत्री भी प्रकारांतर से अभिलेखित हैं। मोहनजोदड़ो से प्राप्त पशुपति मुद्रा में भगवान शिव को योगी के रूप में दिखाया गया है। वे पदमासन में हैं। दोनों ओर गैंडा, भैंसा, हाथी, तथा शेर हैं। इनमें गैंडा और शेर वन्य पशु हैंऔर भैसा, हाथी पालूत, ग्राम्य पशु है। मुद्रा के उपरी भाग में छः अक्षरों को डॉ. शुक्ल ने पसु पार्श्व मनन पढ़ने का उपक्रम किया है। इससे प्रथम तीन अक्षर प शु प तथा पांचवा अक्षर में स्पष्ट है। चौथा संयुक्त अक्षर अस्पष्ट है। इसे पशुपति कुलम पढ़ा है। इंदिरा नगर, कानपुर से प्राप्त मिट्टी की मुद्रा को त्रित्सु पढ़ा जा सकता है। त्रित्सु भरतवंशी आर्य कहलाते थे। कन्नौज के राजा और महर्षि विश्वमित्र भी इसी वंश के थे। वैदिक युग के पश्चात् रामायण तथा महाभारत युग के संदर्भ सिंधु सभ्यता में मिले हैं। वस्तुतः सिंधु सभ्यता सरस्वती गंगा तथा नर्मदा तक विस्तृत प्रकृति पूजा की वैदिक संस्कृति ही है। स्वयं मार्शल ने भी 17 चिन्हाें को ब्राह्मी समझा था। मानव भाषा संस्कृत के मूल स्वर अ, इ, उ, के साथ शिव, बह्मा, बिष्णु, परशुराम, श्रीराम, वासुदेव, राधा, वसुंधरा, नाग, पद्मा, परशुराम, इत्यादि मुद्रालेखों में विद्यमान हैं। मुद्रा चित्रों व फलकों में संस्कृत साहित्य के अन्य संदर्भ भी हैं। दो सिंहों के मध्य खड़े बालक को शकुंतला पुत्र भरत माना जा सकता है। ऐसे विवेचनों से सत्य के समीप पहुंच सकते हैं। मृत सिंह को तीन पंडितों की अमर विद्या से जिलाने तथा चौथे विद्वान पंडित के वृक्ष पर चढ़ कर जान बचाने की कथा तीन चित्र फलकों में प्रह्लाद की प्राण रक्षा, पंचतंत्र की कौवा हिरन मित्रता, कौवा-लोमड़ी कथा भी विद्यमान है। एक मुद्रा पर सात मनुष्यों का अंकन सप्तर्षि की स्मृति है। मेरे शोध कार्य के अनुसार सिंधु-सरस्वती सभ्यता महाभारत कालीन नागों की नगर सभ्यता है धर्म वैदिक तथा भाषा संस्कृत है। नाग कन्या उल्पी का विवाह पांडव अर्जुन से हुआ था। हस्तिनापुर के सम्राट जनमेजय ने नाग यज्ञ का आयोजन भी किया था। इसमें पुराण प्रवचन भी हुआ था। नगर ध्वंश का यह कारण भी संभव है। 1750 ई. में गंगा की बाढ़ में हस्तिनापुर के नष्ट हो जाने के कारण कौशांबी नई राजधानी बनाई गई थी। यह संभव है। एक अभिलेख में नागश्री(बक्सर गुजरात) है। ‘नागर’ लोग आज भी गुजरात में रहते हैं। नागर लोगों की विकसित ब्राह्मी का ही नाम देवनागरी लिपि है। अष्टादश पुराणों का संपादन द्वापर युग( 3102 ई. से पहले) में महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने किया था। सिंधु मुद्राओं में ‘अग्नि पुराण’, ‘विष्णु पुराण’, ‘पद्म पुराण’, ‘वायु पुराण’ तथा ‘दश सप्त पुराण’ के उल्लेख है। ‘मत्स्य पुराण’ अंकित करने के लिए एक ‘मत्स्य चिह्र’ को चार बिंदुओं से घेर दिया गया है। सिंधु मुद्राओं पर संख्याओं को खड़ी रेखाओं के माध्यम से दर्शाया गया है। हड़प्पा से प्राप्त एक अभिलेख में पांच खड़ी रेखाओं के साथ गमले के आकार के चिन्ह को दिखाया गया है। इसे पंचपात्र पढ़ा जा सकता है। पुरातत्व विभाग तमिलनाडु के तत्वावधान में कृतमाला (वेगई) समुद्र संगम अलगन कुलम् अटंकराई, रामनाथपुरम्, तमिलनाडु में कराये गए उत्खनन में भूरे, लाल तथा उभरी चमत्कार काले पात्रों के साथ प्राप्त अभिलेख एवं फलकों में सिंधु घाटी सभ्यता से साम्य है। अयोध्या, हस्तिनापुर, मथुरा अहिछात्रा, अतिरंजीतखेड़ा तथा सचान कोट उन्नाव से प्राप्त पुरावशेष अटंकराई से मिलते-जुलते हैं। इस आधार पर वैदिक सप्त सैंधव (पाकिस्तान) कश्मीर से लेकर रामेश्वरम् (तमिलनाडु) तक संपूर्ण भारत में एक ही वैदिक सिंधु-सरस्वती संस्कृत के दर्शन होते हैं। नवीनतम् शोधों के अनुसार आर्य-द्रविण के भेदभाव तथा आर्यों के जन्मस्थान के काल्पनिक विवाद झुठे प्रमाणित हो चुके हैं। आश्चर्य है कि ये सुप्रमाणित तथ्य इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में समिल्लित नहीं किए गए हैं। सिंधु सभ्यता नदी घाटी के लोग सिंधी (सारस्वत) एवं विश्व की प्रथम हिंदी हिंदू वैदिक आर्य संस्कृति के प्रसारक के रूप में संपूर्ण विश्व में विस्तारित हैं। इस प्राचीन ब्राह्मी लिपि के रहस्य उद्धाटन हेतु किए गए अभी तक के सभी शोध कार्यों को समन्वित करके सफलता प्राप्त की जा सकती है। एतदर्थ सर्व श्री डॉ. फतेह सिंह, डॉ. एस.आर.राव, प्रो. एल. एस. वाकणकर, डॉ. पी.डी. शर्मा, निदेश्क, भारत कला भवन, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी, डॉ. वत्स तथा डॉ. करूणाशंकर शुक्ल से प्रत्यक्ष मार्ग दर्शन प्राप्त करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है। पशुपति मुद्रा के पशुपति कुलम् भगवान शिव पंचायतन परिवार का विकसित रूप कीट द्वीप की नागधारी योगी तथा भारत में प्रचलित प्राकृतिक शिव परिवार पूजा में दर्शनीय है। सभी शोधकर्ताओं के सम्मेलन/ शास्त्रार्थ विवेचन से ही सभी मुद्राभिलेखों को शुद्ध रूप में पढ़ा जा सकता है ऐसी मेरी धारणा बनी है।

* लेखक प्रख्यात साहित्यकार तथा आकाशवाणी निदेशालय, नयी दिल्ली से अवकाश प्राप्त हैं।

भारत का योग दर्शन

– बजरंगलाल अत्रि

दर्शनशास्त्र में योगदर्शन का विशेष महत्व है। इसीलिए भारतीय या वैदेशिक अथवा आस्तिक या नास्तिक समस्त दार्शनिक संप्रदाय किसी न किसी रूप में योग साधना करते हैं। इसका कारण है कि योगसाधना समस्त दर्शनों और विशेषकर सांख्यदर्शन का व्यवहारिक पक्ष है। योग दर्शन और साधना उतनी ही पुरानी है जितनी पुरानी मानव सृष्टि। भारतीय कालगणना के अनुसार वर्तमान मानव सृष्टि का आरंभ एक अरब, सतानवे करोड़, उन्तीस लाख, सैतालीस हजार एक सौ एक ईसा पूर्व हुआ। आधुनिक भौतिकी, खगोल, भूगोल, नृवैज्ञानिक भी मानते हैं कि पृथ्वी पर जीव की उत्पत्ति दो से तीन अरब वर्ष पूर्व हुई। भारतीय वांङमय के अनुसार सृष्टि के आरंभ में सर्वप्रथम योगसिद्ध ॠषियों को गहन ध्यानावस्था में वैदिक ॠचाओं के दर्शन हुए। अतः योग का इतिहास सृष्टि के आरंभकाल से वैदिक ॠषियों से प्रारंभ होता है। वेद और वेदांग साहित्य में योग के अनेकों संदर्भ मिलते हैं। वेदांत अर्थात् वेदों के अंतिम भाग ब्राह्मण, उपनिषद, आरण्यक तो साधना को लक्ष्य क रके ही लिखे गए ग्रंथ हैं। कठोपनिषद, श्वेताश्वर और मैत्रायणी उपनिषदों तथा छह वैदिक शास्त्रों में योग और साधना से संबंधित संदर्भ प्रचुर मात्रा में मिलते हैं।

हिरण्यगर्भ भगवान ब्रह्मा को योगशास्त्र का आदि प्रवक्ता कहा गया है। योगशास्त्र को प्राचीनकाल में ‘हैरण्यगर्भशास्त्र’ कहा जाता था। प्राचीन भारतीय इतिहास की आधारशिला पुराणों के अनुसार सृष्टि के आदि में सनकादि ॠषियों, मरीच्यादि प्रजापतियों ने योगसिध्दि प्राप्त की। स्वयंभू मंवंतर में महर्षि कपिल महायोगी थे। उन्होंने अपनी माता देवहूति को ज्ञानप्राप्ति के लिए भक्तियोग तथा अपने शिष्य आसुरि को सांख्यदर्शन का उपदेश दिया। इसी काल में स्वयंभू मनु की पांचवी पीढ़ी में भगवान शिव महायोगी हैं और वे ही तंत्रशास्त्र के प्रथम आचार्य माने जाते हैं। उनकी पत्नि दक्षपुत्री सती एवं उमा (पावर्ती) भी योगविद्या निष्णात थीं। इस प्रकार सृष्टि के आदिकाल में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, शिव, ॠषभदेव, सनत्कुमार, नारद, कर्दम, कपिल तथा वेद ॠचाओं के दृष्टा अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप आदि अनेकों योगसिद्ध साधकों आदि महर्षियों के योगशास्त्र का विस्तार किया।

वैवस्वत मन्वंतर में योगदर्शन के आदि प्रवक्ता भगवान विवस्वान् अर्थात् सूर्य कश्यप थे। उन्होंने अपने पुत्र वैवस्वत मनु को, मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को योगशास्त्र का उपदेश दिया। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं-

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययं, विवस्वान्मनवे प्राह, मनुरिक्ष्वाकवे ब्रवीत्। एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः, स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप॥

अर्थात् हे अर्जुन! आदि में इस योग को विस्वान् सूर्य से कहा, सूर्य ने इसे मनु को कहा, मनु ने इक्ष्वाकु को कहा और इस प्रकार परंपरा से प्राप्त योग को राजर्षि ने जाना जो कि बहुत काल तक नष्ट हो गया था उसे मैं तुझे कह रहा हूं।

इस प्रकार योगशास्त्र के अध्ययन एवं प्रयोग शिष्य परंपरा के द्वारा सूर्यवंश में हजारों वर्षों तक चला। वैवस्वत मन्वतंर के 24 वें त्रेतायुगांत में महर्षि बाल्मिकी ने भगवान् राम को योगशास्त्र की शिक्षा दी। उस काल में विश्व के आदिकाल महर्षि बाल्मिकी ने भी योगसाधना के ग्रंथ योग-वशिष्ठ और इतिहास ग्रंथ रामायण की रचना की। इसी प्रकार सहस्रबाहू के गुरु भगवान दत्तात्रेय भी योगसिद्ध महात्मा थे जो कि आज भी समस्त वानप्रस्थ-संयासी समुदाय के गुरु माने जाते हैं। छठे अवतार भगवान परशुराम ने योग साधना कर अनेकों सिध्दियां प्राप्त की थी जिनमें मन की गति से यात्रा करना भी शामिल है। इस काल में शेषावतार महर्षि पतंजलि ने हिरण्यगर्भशास्त्र को क्रमबद्ध कर योगसूत्र की रचना की जो कि योगदर्शन के इतिहास में युगांतकारी उपलब्धि थी।

इस काल में मैत्रावारूणि वशिष्ठ कराल जनक, असुरि शिष्य पंचशिख, उनके शिष्य धर्मध्वज जनक, याज्ञवलक्य, उनके शिष्य दैवराजि जनक, विभिन्न ऐक्ष्वाकु जैन तीर्थंकर, कॉम्पिल्यनरेश ब्रह्मदत्त, पतंजलि आदि अनेकों ज्ञात-अज्ञात ॠषियों ने योगदर्शन का विकास किया।

महाभारत काल में गृहस्थ आश्रम के पश्चात् वानप्रस्थ में योगसाधना करके संन्यास आश्रम में प्रवेश करना सामान्य नियम था। महर्षि वेदव्यास प्रणीत श्रीमद्भगवदगीता में ज्ञानयोग, कर्मयोग, जपयोग आदि का विस्तार से वर्णन है। पातंजलि योगसूत्र पर उनका ‘व्यासभाष्य’ योगशास्त्र के इतिहास की सार्वकालिक रचना है, जिस पर आगामी पांच हजार वर्षों तक अनेकानेक योगियों, विद्वानों ने टीका, वृत्ति, विवरण आदि अनेकों ग्रंथों की रचना की जिनके माध्यम से आज तक हमें योगशास्त्र का क्रमबद्ध ज्ञान प्राप्त होता है।

अष्टम् अवतार भगवान कृष्ण को योगिराज कहा जाता है जो कि प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों विषयों के जगद्गुरू माने जाते हैं। इस काल में महाभारत युद्ध के समय उपदिष्ट उनकी भगवदगीता योग ही नहीं बल्कि मानवता के इतिहास में अद्वितीय उपदेश है जिसका संकलन कर वेदव्यास भी अमर हो गए। श्रीमदभगवदगीता के ज्ञानयोग, भक्तियोग, निष्काम कर्मयोग आदि विभिन्न योगसाधनाएं पांच हजार वर्षों से ज्ञानियों, गृहस्थों, संयासियों, साधकों के लिए मार्गदर्शन हेतु दीपस्तंभ के रूप में स्थापित है। श्री कृष्ण के ही कुलबंध 22वें जैन तीर्थंकर अरिष्टनेमी या नेमिनाथ ने इसी काल में सौराष्ट्र स्थित गिरनार पर्वत पर योग साधना कर मोक्ष प्राप्त किया। 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ इस काल में विख्यात योगी हुए। वेदव्यास से लेकर महात्मा बुद्ध के 1500 वर्षों के अंतराल में योगशास्त्र पर अनेकों प्रयोग, शोध हुए तथा अनेकानेक प्रकार की योगपद्धतियों का विकास किया गया। ‘ब्रह्मपुराण’, ‘शिवपुराण’, ‘अग्निपुराण’, ‘विष्णुपुराण’ आदि पुराण एवं ‘पंचरात्र’ आदि तांत्रिक ग्रंथ तथा इनके अनुशांगिक साहित्य में योगसाधना की अनेकों पद्धतियों का वर्णन प्राप्त होता है।

1922 ईस्वी में अविभाजित भारत में मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा की खुदाई की गई जिसमें सिंधुघाटी की अति-प्राचीन सभ्यता का उद्धाटन हुआ। बाद में भारतीय पुरातत्वशास्त्रियों ने उत्तर प्रदेश के आलमगीरपुर, पंजाब के रोपड़, हरियाणा के कुणाल, बनावाली, शीशवाल, राखी गढ़ी, राजस्थान के कालीबंगन, गुजरात के धौलावीर, सुरकोटड़ा, लोथल, भेट, द्वारका, रंगपुर, राजड़ी आदि स्थानों पर उत्खनन कर सिंधु घाटी की समकालीन सभ्यता का अन्वेषण किया। 1985 ई. में भारतीय भूगर्भ-वैज्ञानिकों, पुरातत्वविदों ने नासा के एक उपग्रह से प्राप्त भूगर्भीय मानचित्र के आधार पर आदि बद्री, हिमाचल प्रदेश से लेकर कच्छ के रण तक 4500 किमी क्षेत्र का सर्वेक्षण कर विलुप्त सरस्वती नदी का उद्धाटन किया। इस सिंधु-सरस्वती सभ्यता के उत्खनन में विलुप्त पुरातात्विक सामग्री प्राप्त हुई जिसमें पशुपति शिव, कार्योत्सर्ग मुद्रा में खड़े साधक आदि अनेकों योगमुद्राओं में साधकों की प्रतिमाएं प्राप्त हुई। यह सिंधु-सरस्वती सभ्यता भी योगशास्त्र को लगभग 3000 ईसापूर्व प्राचीन सिद्ध करती है। अतः महाभारतकालीन साहित्यिक स्रोत एवं सिंधु-सरस्वती सभ्यता के पुरातात्विक प्रमाण योगशास्त्र की प्राचीनता को समान रूप से प्रमाणित करते हैं।

भारतीय ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार भगवान बुद्ध एवं स्वामी महावीर का काल लगभग कलि संवत् 1500 अर्थात् 1600 ईसा पूर्व है। बौद्ध और जैन दर्शन संयास और मोक्षोपाय के दर्शन हैं। अतः इस काल में चार आश्रमों की जीवनशैली के स्थान पर संन्यास और मोक्ष का महत्व बढ़ गया और इस काल में मंत्रयोग, यंत्रयोग की योगसाधना का बहुत विकास हुआ। इस क ाल में शाक्तमुनि सिध्दार्थ, मेघंकल, शरणंकर, दीपंकर, कौडिन्य, मंगल, सुमन, रैवत, शोभित, अनामदर्शी, पद्म, नारद, सुमेध, सुजात, प्रियदर्शी, अर्थदर्शी, पुष्य, विपश्यिन, विश्वभू, कुसंधि, कनकमुनि, काश्यप और गौतम चौबीस बुध्दों ने योग साधनाओं के द्वारा निर्वाण प्राप्त किया। हीनयानी बौद्ध ध्यानमार्ग और महायानी बौद्ध अष्टांग योग की साधना करते थे। बोधिसत्व मैत्रेय का ‘सूत्रालंकार’, असंग का ‘योगाचार भूमिशास्त्र’, और वसुबंधु का ‘विज्ञप्तिमात्रतासिध्दि’ आदि इस काल में उल्लेखनीय साधना ग्रंथ है। इन्होंने एक अलग बौद्ध संप्रदाय योगाचार की स्थापना की।

24 वें जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी उनके शिष्य आर्य सुधर्मा, स्थविर संभूति विजय, भद्रबाहू आदि जैन मुनि योगसाधक इसी काल में हुए। गणधर गौतम इंद्रभूति ने जैनसाधना के बारह अंगों और 14 पूर्वों को उपनिबद्ध किया। इस काल में श्वेतांबर और दिगंबर जैन साधकों ने योग विद्या में अनेकों प्रयोग किए और तांत्रिक और शुद्ध यौगिक साधनाओं का विकास किया। बौद्धसंघ की विपश्यना और जैनसंघ की प्रेक्षाध्यान पद्धति का प्रादुर्भाव इसी काल में हुआ। योग-तंत्र मार्ग के अनेकों बौद्ध, जैन साधु इस काल में हुए।

आस्तिक दर्शन के ईश्वर कृष्ण, उद्योतकर आदि सांख्य एवं योग के आचार्य इसी काल की विभूतियां थे। इसी काल में महर्षि गौड़पाद, भाष्यकार पतंजलि एवं गोविंद भागवतपाद ने साधना मार्ग की अनेकों सिध्दियां प्राप्त कीं। ‘जाबालोपनिषद’, ‘योगशिखोपनिषद’, ‘अद्वयतारकोउपनिषद’, ‘तेजबिन्दु उपनिषद’, ‘योगतत्वोपनिषद’, ‘अमृतबिन्दोपनिषद’ आदि योगशास्त्र के ग्रंथों का प्रणयन इस काल में किया गया।

आद्य शंकराचार्य भगवत्पाद का प्रादुर्भाव कलिसंवत् 2593, युधिष्ठिर संवत् 2629 अर्थात् 374 विक्रमपूर्व तदनुसार 509 ईसापूर्व में हुआ। उन्होंने न केवल तत्कालीन भारत में प्रचलित अनेकों दर्शनिक मतों, संप्रदायों, पाखंडों को शास्त्रार्थ से पराजित किया तथा भारत में प्रचलित अनेकों प्रकार की साधना पद्धतियों का समन्वय कर आधुनिक सर्वपंथ-समभाव की आधारशिला रखी। आदिशंकर ने आस्तिक और नास्तिक दर्शनों में प्रचलित, निराकार एवं साकार साधना, ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, बुद्धयोग, जैनयोग आदि को समन्वित कर भविष्य के भारतीय दार्शनिक चिंतन, समन्वित कर्मकांड, मोक्ष साधना, संन्यास की मार्गदर्शिका का निर्माण कर मानवता अभियान का सूत्रपात किया। उन्होंने वेदांत, सांख्य तंत्रशास्त्र, स्त्रोत तथा अनेकों साधना ग्रंथों के साथ-साथ योगसूत्र के वेदव्यास पर लिखकर योगशास्त्र की महत्ता को प्रमाणित किया। उन्होंने दशनामी संप्रदाय तथा चार शंकरमठों की स्थापना कर योग साधना परंपरा को स्थायी कर दिया जो कि पूज्य शंकराचार्यों द्वारा आज तक प्रचलित है।

इसी काल में आगे चलकर गुरू मत्स्येन्द्रनाथ आदि तांत्रिक, गुरू गोरखनाथ आदि योगी, भर्तृहरि आदि नाथपंथी, बौद्ध योगी, व्रजयानी तांत्रिक, सिद्ध सरहपाद आदि नवनाथ-चौरासी सिध्दों की परंपरा, जैनमुनि कुंदकुंदाचार्य, उमास्वाति, हरिभद्रसूरि में अनेकों योगियों ने योगशास्त्र का विस्तार किया। सातवीं शताब्दी ईस्वी में दक्षिण भारत के वैष्णव आळवार एवं शैव नयन्नार संतो ने भक्तियोग की स्थापना की। इसी काल में वाचस्पति मिश्र ने योगशास्त्र के व्यासभाष्य पर ‘तत्ववैशारदी टीका’ लिखकर विद्वत् समाज में योगदर्शन को प्रतिष्ठापित किया। इस कालखंड की सबसे बड़ी विशेषता हठयोग का प्रचलन थी। ‘शिवसंहिता’, ‘घेरंडसंहिता’, ‘सिद्ध-सिध्दांत-पद्धति’, ‘योगसिध्दांत पद्धति’, ‘अवधूतगीता’, ‘हठसंहिता’, ‘हठदीपिका’, ‘कौलज्ञान निर्णय’, ‘कुलार्णव-तंत्र’, ‘विद्यार्णव-तंत्र’ आदि योग-तंत्र के अनेकों ग्रंथ इस काल में रचे गए।

आदि शंकराचार्य के समन्वित दर्शन की आधारशिला पर ही मध्यकालीन निर्गुण और सगुण भक्ति आंदोलन रूपी मानवता से प्रेम की विश्व की अद्वितीय अट्टालिका निर्मित की जा सकी। सातवीं शताब्दी ईस्वी में 12 वैष्णव अलवार संत और 63 शैव नयनार संत भक्तियोग के प्रवर्तक थे। इसी परंपरा में कलियुग की पंचम सहस्राब्दि के आरंभ में रामानुज के सभी जातियों के लिए भक्तियोग की दीक्षा के द्वार खोल दिए। उत्तर भारत में उनके शिष्य स्वामी रामानंद ने भक्ति मार्ग का प्रचार किया। रामानंद के दो शिष्य ज्ञानयोगी संत कबीर और भक्ति मार्गी संत तुलसीदास विश्व प्रसिद्ध संत हुए। इसके साथ ही यमुनाचार्य, मध्वाचार्य, विष्णुस्वामी, निंबार्काचार्य, बल्लभाचार्य, चैतन्य महाप्रभु, गरू नानकदेव, गुरू रामदास, समर्थ श्री रामदास, गुरू अर्जुनदेव, दशमेश गरू गोविन्द सिंह, संत रविदास, गरीबदास, दादु दयाल, नरसी मेहता, संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम, संत नामदेव, संत सुरदास, मीराबाई, रहीम आदि अनेक भक्तों ने भक्तियोग का प्रचार किया। यहां तक कि भारतीय भक्तियोग ने इस्लाम को भी आकर्षित किया और सूफीमत का प्रादुर्भाव हुआ जो कि विपरित मतों के समन्वय का प्रतीक बन गया। शेख मोइनुद्दीन चिश्ती, शेख निजामुदीन औलिया आदि सूफी संत इसकी काल में हुए। मलिक मुहम्मद जायसी की ‘पद्मावत’ अर्थात् रानी पद्मावती तथा ‘कान्हावत्’ अर्थात् भगवान कृष्ण का चरित्र इस काल की उच्चतम योग-दार्शनिक रचनाएं हैं।

इस कालखंड में योगसाधना में ज्ञानयोग और भक्तियोग अपने चरमोत्कर्ष पर था। एेंद्रीय शक्ति को सिद्धकर भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए गुप्त साधनाएं और घोर तपस्याओं को छोड़कर भारतीय समाज शुद्ध आचरण और प्रेम साधना की ओर अग्रसर हुआ। इसके साथ ही योगसाधना केवल संयासियों तक सीमित न रहकर समाज में गृहस्थ जीवन में ही निष्काम भाव से मोक्ष की प्राप्ति के लिए सहज साधना का काल आरंभ हुआ। इस काल की सबसे बड़ी विशेषता मानव-मानव में समानता का उद्धोष था।

भक्तियोग के अतिरिक्त हिरण्यगर्भ की पातंजल योग परंपरा में भी इसी काल में योगशास्त्र का विस्तार होता रहा। योगसूत्र पर राजा भोज प्रणीत ‘राजमार्तण्ड’, हेमचंद्राचार्य के ‘योगशास्त्र’, विज्ञानभिक्षु प्रणीत ‘योगभाष्य’ और ‘योगस्तर संग्रह’, श्रीनिवास भट्ट की ‘हठसंकेत चंद्रिका’, सुंदरदेव की ‘हठतत्वकौमुदी’, हर्षकीर्ति की ‘हठयोग प्रणाली’, आत्माराम की ‘हठयोग प्रदीपिका’, भोगेश्वरमुनि की ‘योगरत्न’ प्रदीपिका आदि योग साहित्य इसी काल के ग्रंथरत्न हैं।

पुनर्जागरण काल में अनेकों युगपुरूषों ने जन्म लिया। स्वामी दयानंद जैसे उद्भट वैदिक विद्वान, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि अरविंद, महर्षि रमण, स्वामी विशुध्दानंद, तैलंग स्वामी, योगीराज श्यामाचरण लाहिड़ी, गोपीनाथ कविराज, आदि अनेकों योगसाधक इस काल में हुए। ईसा की 20वीं सदी के द्वितीय विभूति महात्मा गांधी ने तो निष्काम कर्मयोग और अहिंसा का प्रयोग न केवल सक्रिय राजनीति में किया बल्कि उनके सत्याग्रह ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में विशेष योगदान दिया। ईसा की 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में श्रीपद प्रभुपाद, आचार्य रजनीश, महर्षि महेश योगी, श्री सांई बाबा, जैन आचार्य श्री महाप्रज्ञ, बाबा रामदेव आदि महान विभूतियों ने भारतीय योगसाधना और दर्शन का जोर-शोर से प्रचार किया है। परिणामस्वरूप योगदर्शन और साधना ने भारत से बाहर निकलकर विश्वव्यापी साधना का रूप ले लिया। आज विश्व के सभी मतों, संप्रदायों, पूजा पद्धतियों के मानने वालों आस्तिकों, नास्तिकों ने योगसाधना की ओर आकर्षित होकर मोक्ष प्राप्ति या शारीरिक-मानसिक शांति-संतोष की प्राप्ति के लिए प्रयासरत हैं। इस प्रकार सृष्टि के आरंभ से उदय हुए योग-साधना रूपी दीपक अब सभी मतों के समन्वय रूपी सूर्य बनकर अपनी आभा से विश्व को आलोकित कर रहा है।

* लेखक आकाशवाणी महानिदेशालय में कार्यरत हैं।

गुलामी का कलंकित रूपः हम क्या करें ?

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

तमिलनाडु राज्य के किशनगिरी से करीब 15 किलोमीटर दूर इत्तीग्राम में एक हरिजन बस्ती है। इस बस्ती में रहने वाले दलितों को मुख्यमार्ग से काटकर कांटे के तारों से इलाके को हिन्दुओं ने घेर दिया है। यह माना जा रहा है इस कांटे की बाढ़ को गांव प्रधान के इशारों पर कुछ स्थानीय दलित विरोधी लोगों ने लगाया है। यह खबर दैनिक अखबार ‘हिन्दू’ (15 अक्टूबर 2010) में छपी है। यह दलितों के स्वाभिमान, स्वतंत्रता और अस्मिता पर सीधा हमला है। इस घटना की सूचना मिलते ही भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के विधायक एस.के.महेन्द्नन ने मौके पर जाकर का मुआयना किया और स्थानीय प्रशासन से कहा है कि एक सप्ताह के अंदर दलित बस्ती के चारों ओर लगाई गई कांटों की बाढ़ को यदि नहीं हटाया गया तो माकपा के कैडर सीधे कार्रवाई करने के लिए बाध्य होंगे।

हम इस इलाके के दलितों से यही कहना चाहते हैं कि वे स्वयं प्रतिवाद करें,बाहर आएं और कांटेदार बाढ़ को उखाड़ फेकें। यह कांटे की बाढ़ नहीं है बल्कि दलित गुलामी के अवशेष का प्रतीक है। हमें यदि सुंदर और आधुनिक भारत बनाना है तो हमें सभी किस्म के सांस्कृतिक गुलामी के रूपों को नष्ट करना होगा। आधुनिक भारत के निर्माण में जाति गुलामी आज भी सबसे बड़ी बाधा है। जाति गुलामी के कारण हम किसी किस्म की आजादी, आधुनिकता और नागरिक स्वतंत्रताओं का इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। जाति गुलामी भारत का सबसे बड़ा कलंक है। इससे भारत को जितनी जल्दी मुक्ति मिले उतना ही जल्दी भारत का उपकार होगा।

इस प्रसंग में यह सवाल उठता है कि आखिरकार आजादी के 60 साल बाद भी हमारे देश में शूद्रों के साथ दुर्व्यवहार क्यों किया जाता है? क्या वजह है कि कहीं पर भी हरिजनों को जाति उत्पीड़न का सबसे ज्यादा सामना करना पड़ता है ? कहने के लिए कांग्रेस यह दावा करती है कि वह दलितों की चैम्पियन है,मायावती भी चैम्पियन हैं और भी दल चैम्पियन होने का दावा करते हैं, इसके बावजूद हरिजनों की उपेक्षा का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा।

इस प्रसंग में मैं आम्बेडकर के एक सुझाव को संशोधन के साथ पेश करना चाहता हूँ। प्रत्येक राजनीतिक दल अपने सदस्य को एक दलित बच्चे को पढ़ाने का दायित्व सौंपे। कम से कम सप्ताह में एकबार वह अपने यहां एक दलित को चाय-पानी पर बुलाए,दलित के बच्चे को विद्यार्थी की तरह पढ़ाए। किसी अस्पृश्य को अपने यहां काम पर रख लें और उससे मानवीय व्यवहार करें। जो व्यक्ति ऐसा करे उसे ही कांग्रेस, भाजपा, कम्युनिस्ट पार्टी, डीएमके, अन्नाडीएमके, टीएमसी, जदयू आदि दलों की सदस्यता दी जाएगी। राजनीतिक दल की सदस्यता को अछूतोद्धार के साथ जोड़ने से सामाजिक असंतुलन दूर करने में मदद मिलेगी।

बेहतर शासन के लिए जरूरी है सकारात्मक संचार : प्रो. कुठियाला

एमआईटी स्कूल आफ गर्वमेंट के छात्रों ने किया पत्रकारिता विश्वविद्यालय का भ्रमण

भोपाल 14 अक्टूबर। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला का कहना है कि समाज को अगर सकारात्मक दिशा देनी है तो जरुरी है कि शासन और संचार दोनों की प्रकृति भी सकारात्मक हो। मीडिया और शासन समाज के दिशावाहकों में से एक हैं। इसलिए इनको अपने व्यवहार और कार्यप्रणाली में सकारत्मकता रखना बेहद जरुरी है।

वे यहां विश्वविद्यालय परिसर में शैक्षणिक भ्रमण के अन्तर्गत भोपाल आए पुणे स्थित एमआईटी स्कूल ऑफ गर्वमेंट के विद्यार्थियों को सम्बोधित कर रहे थे। प्रो. कुठियाला ने छात्रों को मीडिया की मूलभूत जानकारी देते हुए कहा कि दोनों संस्थानों का मूल उद्देश्य समान है, जहाँ एमआईटी का उद्देश्य बेहतर शासन प्रणाली के लिए अच्छे राजनेता पैदा करना है, वहीं पत्रकारिता विश्वविद्यालय का उद्देश्य केवल पत्रकार बनाना नहीं बल्कि विद्यार्थियों को अच्छा संचारक बनाना भी है। ताकि वे समाज के मेलजोल और सदभाव के लिए काम करें। प्रो. कुठियाला ने विश्वविद्यालय की कार्यप्रणाली, उद्देश्य एवं लक्ष्यों के बारे में भी विद्यार्थियों को अवगत कराया। एक प्रश्न के जबाब में उन्होंने कहा व्यवसायीकरण और व्यापारीकरण में अन्तर पहचानना बेहद जरूरी है। किसी भी वस्तु या सेवा के व्यवसायीकरण में बुराई नहीं है, समस्या तब शुरू होती है जब उसका व्यापारीकरण होने लगता है। वर्तमान मीडिया, इसी स्थिति का शिकार है। संवाद पर आधारित इस क्षेत्र का इतना व्यापारीकरण कर दिया गया है कि सूचना अब भ्रमित करने लगी है, उकसाने लगी है। उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में मीडिया की जिम्मेदारी केवल मीडिया के लोगों पर छोड़ना ज्यादती होगी, इसलिए जरूरी है कि समाज के अन्य वर्ग भी मीडिया से जुड़ी अपनी जिम्मेदारी समझे एवं निभाएं। कार्यक्रम के प्रारंभ में एमआईटी, पुणे के छात्रों ने अंगवस्त्रम और प्रतीक चिन्ह देकर प्रो. कुठियाला का स्वागत किया। इस अवसर पर विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी , जनसंपर्क विभाग के अध्यक्ष डॉ. पवित्र श्रीवास्तव, डा. जया सुरजानी, गरिमा पटेल एवं कई शिक्षक उपस्थित रहे। संचालन एमआईटी संस्थान की शिक्षिका सीमा गुंजाल एवं आभार प्रदर्शन एमआईटी के ओएसडी संकल्प सिंघई ने व्यक्त किया। (डा. पवित्र श्रीवास्तव)

हृदय प्रदेश में शिव के राज में खुलते प्रगति के नए दरवाजे

-लिमटी खरे

अपने अंदर अकूत प्राकृतिक संपदा को समेटने वाले भारत गणराज्य के हृदय प्रदेश में प्रगति के दरवाजे खोलने में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। 22 और 23 अक्टूबर को चंदेलकालीन बेहतरीन नायाब कलाकारी के नमूनों को अपने दामन में समेटने वाले मध्य प्रदेश के खजुराहो में आयोजित होने वाले ग्लोबल इन्वेटर्स समिट टू से प्रदेश प्रगति के नए आयामों को छू सकेगा इस बात में संदेह नहीं किया जा सकता है। मध्य प्रदेश की आबादी तेजी से बढ़ती जा रही है। मध्य प्रदेश में अनेक हाथ रोजगार की तलाश में भटक रहे हैं। आदिवासी बाहुल्य मध्य प्रदेश में लोग पारंपरिक व्यवसाय से हटने लगे हैं, इन परिस्थितियों में औद्योगिक क्रांति का आगाज सूबे में खुशहाली की दस्तक दे सकता है, बशर्ते इसके निष्पादन, क्रियान्वयन में पूरी पूरी ईमानदारी बरती जाए। मध्य प्रदेश में औद्योगिक निवेश को आकर्षित करने के लिए चलाए गए विशेष अभियान के चलते प्रदेश में औद्योगिक परिदृश्य के बदलने की संभावनाओं से इकार नहीं किया जा सकता है। आज आवश्यक्ता इस बात की है कि सब तरह से परिपूर्ण मध्य प्रदेश में इंवेस्टर्स को सारे संसाधन मुहैया करवाए जाएं एवं इस बात का विशेष ध्यान रखा जाए कि उद्योगपतियो, औद्योगिक प्रतिष्ठानों और निवेशकों द्वारा प्रदेश का दोहन अवश्य किया जाए पर प्रदेश के लोगों को इसका वांछित लाभ अवश्य ही मिल सके। ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट टू की विशेषता यह उभरी है कि इसमें पहली बार केंद्रीय मंत्रियों की भागीदारी भी सुनिश्चित की जा रही है। शिवराज सरकार द्वारा दी जा रही छूट और अनुकूल वातावरण के चलते निवेशक मध्य प्रदेश की ओर आकर्षित हुए बिना नहीं हैं। राज्य में निवेश करवाने से राज्य की माली हालत दुरूस्त होने के साथ ही साथ लोगों को रोजगार के बेहतर अवसर मुहैया होंगे इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है, किन्तु शिवराज सिंह चौहान को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि राज्य में निवेश करने के पूर्व सुरक्षा इंतजामात को सुनिश्चित करना अत्यंत आवश्यक है।

समाज शास्त्र में औद्योगीकरण और नगरीकरण को एक दूसरे का पूरक ही माना जाता है। जहां उद्योग स्थापित होंगे वहां आबादी या बसाहट तेजी से होगी इस बात को माना और सिद्ध किया गया है। भारत गणराज्य की राजनैतिक राजधानी दिल्ली और आर्थिक राजधानी मुंबई में आबादी के तेजी से बढ़ने का कारण इन दोनों ही स्थानों के उपनगरीय क्षेत्रों में उद्योगी का तेजी से बढ़ना ही प्रमुख तौर पर माना जा सकता है। जहां उद्योग स्थापित होंगे वहां इनमें काम करने वाले कामगारो की बस्ती बन ही जाती है। देश का औद्योगिक विकास बेतरतीब होने के कारण हर महानगर में झोपड़ पट्टियां मखमल पर टाट का पेबंद ही नजर आती हैं। जिसका जहां मन आया वहां उद्योग स्थापित कर दिया, सरकारों द्वारा भी उपलब्ध प्राकृतिक एवं अन्य संसाधनों को तो औद्योगिक घरानों को मुहैया करवा दिया जाता है, किन्तु जब बसाहट की बात आती है तो इस मामले मंे सरकारें मौन ही साधे रखती हैं।

मध्य प्रदेश में निजी पूंजी निवेश के लिए शिवराज सरकार द्वारा की गई पहल निश्चित तौर पर तारीफे काबिल कही जा सकती है। निवेशकों, औद्योगिक घरानों और औद्योगिक प्रतिष्ठानों को मध्य प्रदेश में उद्योग लगाने के लिए उपजाऊ माहौल तैयार करना सूबे के शासक का प्रथम दायित्व होता है। शिवराज सिंह चौहान द्वारा पिछले सालों में इस असंभव काम को संभव कर दिखाया है। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्रित्व काल में संपन्न हुए इंवेस्टर्स समिट में अरबों खरबों रूपए के एमओयू हस्ताक्षरित किए गए हैं।

अब तक खजुराहो में 15 और 16 जनवरी 2007 को हुए इन्वेस्टर्स समिट मं 39 हजार करोड़ रूपए, मध्य प्रदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर में 26 और 27 अक्टूबर 2007 को संपन्न हुए ग्लोबल मीट मे 1 लाख 20 हजार पांच सौ इकतालीस करोड़ रूपए, 15 और 16 फरवरी 2008 को मध्य प्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर में संपन्न इन्वेस्टर्स मीट में 59 हजार 129 करोड़ रूपए, 11 अप्रेल 2008 को सागर की इंवेस्टर्स मीट में 30 हजार 698 करोड़ रूपए, ग्वालियर में 29 और 30 जुलाई 2008 को संपन्न मीट में 88 हजार 18 करोड़ रूपए, उर्जा के क्षेत्र में संपन्न एमओयू में एक लाख तीन हजार पांच सौ तिरानवे करोड़ रूपए के अलावा अन्य एमओयू को अगर मिलाया जाए तो अब तक मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार द्वारा चार करोड़ 71 हजार पांच सौ चौसठ करोड़ रूपयों का निवेश किया गया है।

विभागीय सूत्रों का कहना है कि इनमें से 1596 करोड़ रूपए की 13 परियोजनाओं में उत्पादन भी प्रारंभ कर दिया गया है, जो शिवराज सरकार की एक बहुत ही बड़ी उपलब्धि माना जा सकता है। इसके अलावा 54 हजार 717 करोड़ रूपयों की लागत वाली 23 महात्वाकांक्षी परियोजनाओं का निर्माण कार्य युद्ध स्तर पर जारी है।

दूसरी ग्लोबल इंवेस्टर्स मीट में शिवराज सिंह चौहान सरकार द्वारा प्रदेश में औद्योगिक निवेश की दृष्टि से देश और विदेश के लगभग पांच सौ निवेशकों को न्योता भेजा है। 15 और 16 जनवरी 2007 के उपरांत खजुराहो में दूसरी बार इसका आयोजन किया जाना दर्शाता है कि पिछली मर्तबा यह सफल रहा है, तभी इसमें इतनी अधिक तादाद में निवेशकों ने अपनी दिलचस्पी दिखाई है। पिछली समस्त इंवेस्टर्स मीट और ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट की सफलता से यह साबित होने लगा है कि देश और विदेश के निवेशकों के लिए निवेश हेतु देश का हृदय प्रदेश पहली पसंद बनकर उभर रहा है।

सरकारी सूत्रों का दावा है कि खजुराहो में इस आयोजन में सूबे की सरकार द्वारा इसमें भाग लेने वाले निवेशकों को निवेश की स्थिति में राज्य सरकार की भागीदारी के बारे में विस्तार से बताया जाएगा। इस समिट में राज्य सरकार द्वारा निवेश पर सहूलियतें, करों में राहत, सुविधाएं, आवागमन के साधन, कच्चे माल की उपलब्धता आदि के साथ ही साथ विभिन्न महकमों की उद्योग नीतियों को बारीकी से समझाकर निवेशकों को रिझाने का प्रयास किया जाएगा।

इसके साथ ही साथ मध्य प्रदेश सरकार द्वारा प्रदेश सरकार की उद्योग नीति और प्रदेश में उद्योगों की स्थापना पर शासन स्तर पर दी जाने वाली छूट, सहूलियतों आदि के बारे में सविस्तार समझाया जाएगा। अमूमन कोई भी उद्योगपति कहीं भी उद्योग स्थापित करने मंे शासन स्तर पर बहुत ही अधिक कठिनाई का अनुभव करता है। यह कठिनाई उसके समक्ष इसलिए आती है, क्योंकि निवेशक को संबंधित राज्य की नीतियों के बारे में जानकारी विस्तार से नहीं मिल पाती है।

मध्य प्रदेश के विकास के लिए कृत संकल्पित मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मध्य प्रदेश की माली हालत सुधारने और राज्य में रोजगार के बेहतर अवसर मुहैया करवाने की गरज से औद्योगिक नीति को काफी हद तक लचीला बना दिया है। हलांकि मध्य प्रदेश की नई उद्योग नीति को अभी मंत्रीमण्डल की स्वीकृति मिलना बाकी है, फिर भी माना जा रहा है कि जनहितैषी इंडस्ट्री फ्रेंडली इस नई नीति को मंत्री परिषद की स्वीकृति बिना किसी रोक टोक के मिल जाएगी।

विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए प्रदेश सरकार का प्रतिनिधिमण्डल अनेक देशों की यात्रा पर भी गया। उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने पिछले साल तीन से ग्यारह नवंबर तक जापान, अस्टेªलिया और सिंगापुर की यात्रा कर निवेशकों को आकर्षित करने का प्रयास किया। इसके आलवा सूबे के निजाम शिवराज सिंह चौहान द्वारा 13 से 23 जून तक दस दिवसीय यात्रा पर टोकियो, ब्रिस्बेन, सिडनी और सिंगापुर की यात्रा कर औद्योगिक घरानों को मध्य प्रदेश में निवेश हेतु आमंत्रित किया। सूबे के प्रतिनिधिमण्डल ने यूरोपीय देशों पर अपना खासा ध्यान केंद्रित किया है।

कहा जा रहा है कि एमपी गर्वंमेंट की नीति के अनुसार इन देशों की यात्रा करने पर प्रतिनिधिमण्डल द्वारा तकनीकि सहयोग और व्यापारिक भागीदारी के मामले में मध्य प्रदेश सरकार का रूख स्पष्ट किया। इसके अलावा संरक्षित खेती, तकनीकि विज्ञान, इंजीनियरिंग, आज के युग की सबसे अधिक डिमांड वाली फैशन डिजाईनिंग, रिन्यूएबल एनर्जी, कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण, जैविक खेती, उर्जा, पावर प्लांट, टेक्सटाईल्स टूरिज्म, इंफरमेशन तकनालाजी, मिनरल्स, रियल इस्टेट, हाउसिंग, शिक्षा, हेल्थ केयान, आधारभूत अधोसंरचना, आदि के क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश की संभावनाओं के बारे में तैयार खांका प्रदर्शित किया है।

खजुराहो मंे आयोजित ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट सेकंड की सबसे बड़ी विशेषता है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने दलगत भावना से उपर उठकर मध्य प्रदेश के विकास के मार्ग प्रशस्त किए हैं। यह पहला मौका होगा जबकि किसी सूबे में आयोजित इस तरह के कार्यक्रम में किसी दूसरे दल की केंद्र सरकार के मंत्री शिरकत करेंगे इस समारोह में मध्य प्रदेश कोटे से केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ, सर्वजनिक उपक्रम और भारी उद्योग राज्य मंत्री अरूण यादव, के अलावा वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री आनन्द शर्मा और खाद्य एवं प्रसंस्करण मंत्री सुबोध कांत सहाय को आमंत्रित किया गया है, ताकि निवेशकों के समक्ष केंद्र और राज्य के बेहतर समन्यव के साथ ही साथ निवेशकों की अनेक जिज्ञासाओं को शांत किया जा सके।

बताते हैं कि खजुराहो में 22 और 23 अक्टूबर को आयोजित होने वाले इस विशाल आयोजन के लिए मलेशिया, नीदरलेण्ड, ताईवान, ग्रेट ब्रिटेन, जर्मनी, फिनलेण्ड, आस्ट्रिया सहित लगभग आधा सैकड़ा से अधिक देशों के निवेशकों के भाग लेने की सहमति राज्य सरकार को मिल चुकी है। इसके अलावा देश के बड़े, मझौले और छोटे औद्योगिक घरानों के दो दर्जन से भी ज्यादा प्रतिनिधियों ने भी अपनी सहमति इस आयोजन में उपस्थित होने प्रदान की जा चुकी है।

इस आयोजन में उद्योगपतियों, औद्योगिक घरानों के सदस्यों और निवेशकों को मध्य प्रदेश से भली भांति परिचित कराने वीडियो प्रजेंटेशन भी रखा गया है। वीडियो प्रेजेंटेशन के माध्यम से राज्य सरकार द्वारा मध्य प्रदेश की भौगोलिक, राजनैतिक और अन्य परिस्थितियों के साथ ही साथ सामरिक महत्व के स्थानों के बारे में भी सविस्तार बताया जाएगा। वीडियो प्रजेंटेशन के माध्यम से निवेशक खजुराहो में बैठे बैठे ही निवेश करने के लिए अनुकूल एवं उपयुक्त स्थान के बारे में सब कुछ जान सकेंगे।

सच्चे और साफ मन से किए जाने वाले इस आयोजन की सफलता पर कहीं से कहीं तक किसी भी प्रकार के प्रश्न चिन्ह की संभावना नहीं है, किन्तु शिवराज सरकार को निवेश के साथ ही साथ अनेकानेक सावधानियों को भी अपने जेहन में रखना बहुत ही आवश्यक है। सावधानिया बरतना इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि मध्य प्रदेश के भाल पर छब्बीस साल पूर्व भोपाल गैस कांड के रूप में विश्व की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी का बदनुमा दाग आज भी बरकारार है, जिसमें कुंवर अर्जुन सिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन राज्य सरकार आज तक कटघरे से बरी नही हो सकी है। राज्य की आर्थिक सेहत को चुस्त दुरूस्त और समृद्ध करना एवं अपनी रियाया को रोजगार मुहैया कराना निश्चित तौर पर राज्य के मुख्यमंत्री का पहला दायित्व है, किन्तु इस सबमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण पहलू सुरक्षा का है, सुरक्षा चाहे संयंत्र की हो या फिर राज्य की आंतरिक, हर पहलू पर शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली सरकार को विचार करना अत्यावश्यक ही है।

कम्युनिस्टों के ऐतिहासिक अपराधों की लम्बी दास्तां है-

-सौरभ मालवीय

• सोवियत संघ और चीन को अपना पितृभूमि और पुण्यभूमि मानने की मानसिकता उन्हें कभी भारत को अपना न बना सकी।

• कम्युनिस्टों ने 1942 के भारत-छोड़ो आंदोलन के समय अंग्रेजों का साथ देते हुए देशवासियों के साथ विश्वासघात किया।

• 1962 में चीन के भारत पर आक्रमण के समय चीन की तरफदारी की। वे शीघ्र ही चीनी कम्युनिस्टों के स्वागत के लिए कलकत्ता में लाल सलाम देने को आतुर हो गए। चीन को उन्होंने हमलावर घोषित न किया तथा इसे सीमा विवाद कहकर टालने का प्रयास किया। चीन का चेयरमैन-हमारा चेयरमैन का नारा लगाया।

• इतना ही नहीं, श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने शासन को बनाए रखने के लिए 25 जून, 1975 को देश में आपातकाल की घोषणा कर दी और अपने विरोधियों को कुचलने के पूरे प्रयास किए तथा झूठे आरोप लगातार अनेक राष्ट्रभक्तों को जेल में डाल दिया। उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी श्रीमती इंदिरा गांधी की पिछलग्गू बन गई। डांगे ने आपातकाल का समर्थन किया तथा सोवियत संघ ने आपातकाल को अवसर तथा समय अनुकूल बताया।

• भारत के विभाजन के लिए कम्युनिस्टों ने मुस्लिम लीग का समर्थन किया।

• कम्युनिस्टों ने सुभाषचन्द्र बोस को तोजो का कुत्ता, जवाहर लाल नेहरू को साम्राज्यवाद का दौड़ता कुत्ता तथा सरदार पटेल को फासिस्ट कहकर गालियां दी।

• कम्युनिस्टों से अपेक्षा की जाती है कि वे सर्वहारा के प्रति संवेदनशील होंगे। परन्तु यह संवेदनशीलता तो उनके बीच जीने और मरने में होती है। सीपीएम वाले बता दें कि अपनी स्थापना के बाद से देशभर में उन्होंने कितनी बार मजदूर-किसानों के संघर्ष का नेतृत्व किया है। इसके कितने कामरेड जेल गए हैं। सच तो यह है कि सीपीएम नेता सामूहिक रूप से एक ही बार जेल गए और वह भारत-चीन युध्द के समय चीन की तरफदारी करते हुए भारतीय राज्य के खिलाफ विद्रोह करने की तैयारी के आरोप में। आज सीपीएम नेतृत्व सर्वहारा को छोड़कर कारपोरेट व व्यावसायिक घरानों का सिपाही हो गया है। यह विडंबना नहीं, चरित्र है। सर्वहारा विरोधी चरित्र और स्टालिनवादी चाल, माओवादी धूर्तता के साथ सीपीएम अपने नए पूंजीवादी दोस्तों के साथ रंग की नहीं खून की होली खेलने में जनहित देख रही है।

• हाल ही में जारी किए गए राष्ट्रीय सांख्यिकी सर्वेक्षण का अध्ययन बताता है कि साल के कुछ महीनों में कई दिन भूखे सोने वाले परिवार पश्चिम बंगाल में सबसे ज्यादा (10.6 प्रतिशत) पाए गए।

• माकपा चाहे सत्ता में हो या न हो, यह सीधे या उल्टे तरीकों से पैसा इकट्ठा करती रहती है। केरल में माकपा ने, कहा जाता है कि 5 हजार करोड़ रुपए की सम्पदा इकट्ठी कर ली है। माकपा कट्टर साम्प्रदायिक मुस्लिम और ईसाई गुटों से अवसरवादी गठजोड़ करके पैसे की दृष्टि से सबसे अमीर पार्टी बन गई है। आज यह ऐसे कारपोरेट समूह की शक्ल में दिखती है जिसकी न जाने कितनी सम्पत्ति यहां-वहां बिखरी है।

• कामरेड खुद को भले ही सर्वहारा वर्ग की पार्टी बताते हों मगर पिछले 5 दशकों में पार्टी की केरल इकाई 5 हजार करोड़ रुपए की स्वामी बन गई है।

• 30 वर्ष से पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी राज में समस्‍याओं का अम्‍बार लगा हुआ है। कोलकाता की गलियों में घूमने के बाद साबित करने की जरूरत नहीं है कि मार्क्सवादी विचारधारा भारत की समस्याओं का हल नहीं है।

• महात्मा गांधी ने आजादी के पश्चात् अपनी मृत्यु से तीन मास पूर्व (25 अक्टूबर, 1947 को कहा-

कम्युनिस्ट समझते है कि उनका सबसे बड़ा कत्तव्य सबसे बड़ी सेवा- मनमुटाव पैदा करना, असंतोष को जन्म देना और हड़ताल कराना है। वे यह नहीं देखते कि यह असंतोष, ये हड़तालें अंत में किसे हानि पहुंचाएगी। अधूरा ज्ञान सबसे बड़ी बुराइयों में से एक है। कुछ ज्ञान और निर्देश रूस से प्राप्त करते है। हमारे कम्युनिस्ट इसी दयनीय हालत में जान पड़ते है। मैं इसे शर्मनाक न कहकर दयनीय कहता हूं, क्योंकि मैं अनुभव करता हूं कि उन्हें दोष देने की बजाय उन पर तरस खाने की आवश्यकता है। ये लोग एकता को खंडित करनेवाली उस आग को हवा दे रहे हैं, जिन्हें अंग्रेज लगा लगा गए थे।

भारतीय कम्युनिस्टों की बर्बरता- इंडिया टुडे

• 1979 – सुंदरबन द्वीप में पुलिस और माकपा कार्यकर्ताओं ने पूर्वी बंगाल के सैकड़ों शरणार्थियों को मौत के घाट उतार दिया।

• 1982 – माकपा कार्यकर्ताओं ने कोलकाता में इस अंदेशे में 17 आनंदमार्गियों को जलाकर मार डाला कि निर्वाचन क्षेत्र में वे अपना आधार खो बैठेंगे।

• 2000 – भूमि विवाद को लेकर बीरभूमि जिले में माकपा कार्यकर्ताओं ने कम से कम 11 भूमिहीन श्रमिकों की हत्या कर दी।

• 2001 – माकपा कार्यकर्ताओं ने तृणमूल कांग्रेस के प्रायोजित राज्यव्यापी बंद के दौरान मिदनापुर में 18 लोगों को मार डाला। (साभार- इंडिया टुडे, 28 नवंबर,2007

• 2007 – नंदीग्राम में अपना हक मांग रहे किसान, मजदूर और महिलाओं पर माकपा कार्यकर्ताओं ने जबरदस्त जुल्म ढ़ाए। महिलाओं के साथ बलात्कार किए। लाशों के ढेर लगा दिए। करीब 200 लोग मारे गए।