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जीत तो आस्था की ही हुई है

– आशुतोष

साठ साल से भी ज्यादा समय से पहले जिला और फिर उच्च न्यायालय में रामजन्मभूमि और बाबरी ढ़ांचे का विवाद चला। मुकदमा लड़ने वालों की पीढ़ियां बीत गयीं पर मुकदमे में गवाही तक पूरी न हो सकी। त्वरित सुनवाई के लिए गठित विशेष पीठ ने भी फैसले तक पहुंचने में १७ वर्ष लगाये।

7 जनवरी 1993 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ शंकरदयाल शर्मा ने उच्चतम न्यायालय से संविधान की धारा 143 के अंतर्गत विवादित स्थल की ऐतिहासिकता के विषय में परामर्श मांगा कि क्या वहां कोई मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनायी गयी थी ? सर्वोच्च न्यायालय ने यह पता लगाने की जिम्मेदारी इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ को सौंप दी। तीन न्यायाधीशों की एक विशेष पीठ के समक्ष मामले की सुनवाई शुरू हुई। पीठ से न्यायाधीश सेवानिवृत्त अथवा स्थानान्तरित होते रहे और पीठ की संरचना बदलती रही। मुकदमे के दौरान 12 बार पीठ का पुनर्गठन हुआ। हर बार गठन में एक मुस्लिम न्यायाधीश को अवश्य जोड़ा गया।

डॉ शंकर दयाल शर्मा जिस संवैधानिक पद पर थे वहां उनसे इस विवादित मुद्दे पर निरपेक्ष फैसला लेने की आशा देश कर रहा था। यह स्वाभाविक भी था। राष्ट्रपति महोदय ने अपने पद की गरिमा बनाये रखते हुए किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से पूर्व तथ्यों की न्यायसंगत जांच का निश्चय करते हुए इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की सहायता चाही थी। लेकिन आज जब इस मामले पर पीठ का फैसला आया है तो डॉ शंकर दयाल शर्मा को इस दुनियां से गये हुए ग्यारह वर्ष हो चुके हैं !

फैसला आने से घड़ी भर पहले तक सभी वुद्धिजीवी, राजनैतिक दल तथा स्वयंभू मनीषी पत्रकार न्यायालय का फैसला मानने की बात कर रहे थे। जैसे ही फैसले में विवादित स्थल को हिन्दुओं को सौंपे जाने की जानकारी मिली, सबकी भाषा बदल गयी। अब वे आरोप लगा रहे हैं कि यह न्याय नहीं है बल्कि आस्था के आधार पर फैसला किया गया है। प्रश्न खड़ा किया जा रहा है कि ‘देश न्याय के आधार पर चलेगा या आस्था के आधार पर’। अगर आस्था को आधार बना कर फैसले होने लगे तो लोकतंत्र बचाना मुश्किल हो जायेगा।

‘न्याय बनाम आस्था’ के प्रश्न उठाने वाले इन बुद्धिजीवियों को उन प्रश्नों के उत्तर भी खोज रखने चाहिये जो उनके इस स्टैंड के चलते जन्म लेने वाले हैं। साथ ही सवाल यह भी है कि यदि यह केवल न्याय का मामला है और आस्था से इसका कोई लेना-देना नहीं है तो वे इतने विचलित क्यों है। अगर यह वाद केवल एक बूढ़ी इमारत का है जो इतनी जर्जर हो चुकी थी कि अगर कारसेवक उसे नहीं गिराते तो वह अपने ही बोझ से ढ़ह जाती, तो इन सेकुलरों की इसमें इतनी दिलचस्पी क्यों है।

जिस जर्जर अवस्था में वह विवादित ढ़ांचा पहुंच चुका था उसमें उचित तो यही था कि जनता के जान-माल की रक्षा के लिये किसी दुर्घटना से पहले नगर पालिका का दस्ता उसे गिरा कर वहां समतल मैदान बना देता। रामलला उस जीर्ण-शीर्ण मंदिर में विराजमान थे इसलिये उसके पुनर्निर्माण का भी विकल्प मौजूद था । भारत ही नहीं बल्कि पूरे संसार में, यहां तक कि मुस्लिम देशों में भी सार्वजनिक निर्माण के लिये मस्जिदों को हटाया जाता रहा है इसलिये उसे विस्थापित करने में कोई खास कानूनी बाध्यता भी नहीं आने वाली थी। फिर भी उसको बचाये रखने के लिये सारे प्रयत्न किये गये तो इसका कारण केवल मुस्लिम समुदाय द्वारा प्रदर्शित ‘आस्था’ ही था।

न्यायालय में प्रस्तुत किये गये प्रमाणों के आधार पर उक्त भूमि पर मस्जिद के निर्माण से पूर्व मंदिर के मौजूद होने के तथ्यों को स्वीकार करते हुए मस्जिद का दावा पूरी तरह खारिज कर दिया गया है। दावा खारिज होने के बावजूद उन्हें एक-तिहाई भूमि देने का एकमात्र कारण न्यायालय द्वारा उनकी ‘आस्था’ का आदर करने के अतिरिक्त क्या हो सकता है ? यह तो कोई अनपढ़ भी बता सकता है कि जिसका दावा खारिज किया गया हो वह भूमि का हकदार नहीं हो सकता।

आज जो लोग ‘यह देश न्याय से चलेगा अथवा आस्था से’ का नारा बुलंद कर रहे हैं उन्हें यह याद रखना चाहिये कि अयोध्या का यह विवाद ही नहीं बल्कि ऐसे अनेकों अवसर भारत के इतिहास में दर्ज हैं जब केवल उनकी ‘आस्था’ का आदर किया गया है और देश ने उसकी कीमत चुकाई है। बहुत लंबे इतिहास में न भी जायें तो भारत की आजादी के ठीक पहले उत्पन्न ‘हिन्दुस्थान में दो राष्ट्र रहते हैं’ और ‘मुस्लिम अलग राष्ट्र हैं जिन्हें अलग होमलैंड चाहिये’, यह ‘न्याय’ पर आधारित था या ‘आस्था’ पर ?

भारत का राष्ट्रगीत ‘वन्देमातरम’ न गाना, इसके पीछे न्याय का कौन सा तर्क है ? शाहबानो का मसला अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट कर ‘न्याय’ की रक्षा की गयी थी या ‘आस्था’ की ? उस समय क्यों किसी ने नहीं पूछा कि ‘देश कानून से चलेगा या आस्था से’ ? कश्मीर में लगने वाला नारा – ‘आजादी का मतलब क्या – या लिल्लाहे, लिल्लिल्लाह’ ‘आस्था’ है या ‘न्याय’। दुनियां के किस संविधान में ‘आजादी’ का यह मतलब है।

बनारस के कब्रिस्तान में खामोश लेटे कयामत का इन्तजार कर रहे दो मरहूमों की कब्रें वहां से हटाने की मांग का संबंध ‘आस्था’ से है या ‘न्याय’ से ? शिया और सुन्नी तथा देवबंदी औऱ बरेलवी के बीच होने वाले फसाद कानून की वजह से होते हैं या आस्था की वजह से ? बामियान में बुद्ध की प्रतिमाएं जब तोप से उड़ायी गयी तो सवाल आस्था का था या नहीं ? और जब डेनमार्क के किसी अखबार में मुहम्मद साहब का कार्टून छपता है या तस्लीमा नसरीन कोई टिप्पणी करती है तो यहां के लोग क्यों आगबबूला हो जाते हैं ? वे कोई गैरकानूनी काम तो नहीं कर रहे थे। अपने देश के कानून के हिसाब से यह उनका संविधान प्रदत्त अधिकार था। ऐसे समय में वे आस्था की दुहाई क्यों देने लगते हैं ? आस्था के प्रति उनका यह प्रेम तब कहां खो जाता है जब मकबूल फिदा हुसैन हिन्दू देवी-देवताओं के नग्न चित्र बनाते हैं ? तब वे क्यों अभिव्यक्ति की आजादी की बात करने लगते हैं ?

सैकड़ों ऐसे सवाल खड़े किये जा सकते हैं, उदाहरण दिये जा सकते हैं जब देश में मुस्लिम समुदाय की आस्थाओं की रक्षा के लिये देश ने कीमत चुकायी है और बहुसंख्यक समुदाय ने उदारतापूर्व इसे स्वीकार किया है। लेकिन वही बहुसंख्यक समुदाय जब अपनी आस्थाओं की बात करता है तो सब कानून की दुहाई देने लगते हैं। आचरण का यह दोहरापन नागरिक जवाबदेही को नकारता है।

रामजन्मभूमि प्रकरण पर उच्च न्यायालय का यह फैसला निस्संदेह कानून की परिधि से बाहर जाकर दिया गया है लेकिन यह इसलिये हुआ है ताकि सीमा पार जाकर भी मुस्लिम समुदाय की ‘आस्था’ की रक्षा की जा सके। मुस्लिम समुदाय को यह समझना चाहिये कि बुद्धिजीवियों की जो जमात उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में जाने के लिये उकसा रही है वे ही आयातित विचारधारा और इस या उस दल के राजनैतिक हितों के लिये दोनों समुदायों के बीच समरसता और विश्वास उत्पन्न नहीं होने देने के अपराधी भी हैं।

उच्च न्यायालय के निर्णय में दोनों ही पक्षों की आस्था की रक्षा का प्रयत्न दिखाई देता है। अतः जीत तो आस्था की ही हुई है। विवादित स्थान पर पूरी तरह पक्ष में निर्णय होने के बाद भी बहुसंख्यक समाज ने एक-तिहाई भूमि मुस्लिम समाज को सौंपे जाने के फैसले का जिस तरह स्वागत किया है वह सौहार्द के लिये एक ठोस धरातल उपलब्ध कराता है। संयोग से हासिल हुआ राष्ट्रीय एकता का यह अवसर यूं ही गंवा दिया गया तो आने वाला इतिहास माफ नहीं करेगा।

अयोध्या की समस्‍या के मूल में संवादहीनता

– प्रो. बृज किशोर कुठियाला

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ ने राम जन्मभूमि का जो निर्णय दिया उससे पूरे देश की जनता ने राहत की सांस ली है। फैसले से पूर्व का तनाव सभी के चेहरों और व्यवहार में था। परन्तु इस राहत के बाधित होने की संभावनाएं बनती नज़र आ रही हैं। 60 वर्ष से अधिक की नासमझी और विवेकहीनता के कारण एक छोटा सा विवाद पहाड़ जैसी समस्या बन गया है। उसी तरह की विवेकहीनता यदि आज भी रही तो सुलझी हुई समस्या फिर से उलझ जाएगी। कारण अनेक हो सकते हैं, परन्तु एक मुख्य कारण हमारे राष्ट्रजीवन में बढ़ती हुई संवादहीनता है। उच्च न्यायालय के निर्णय से तीन मुख्य पक्ष उभर कर आये हैं। एक पक्ष ने उच्चतम न्यायालय जाने की घोषणा की है। देश से अनेक प्रतिक्रियाएं आई हैं। परन्तु एक भी प्रतिक्रिया में यह सुझाव नहीं है तीनों पक्ष आपस में वार्ता करे। प्रधानमंत्री, केन्द्रीय गृहमंत्री और प्रदेश के मुख्यमंत्री तीनों की मुख्य जिम्मेदारी बनती है, उनमें से किसी ने भी न तो संवाद बनाने का प्रयास किया न ही संवाद का सुझाव दिया।

प्रबंधन शास्त्र का एक मूलभूत सिद्धान्त है कि समुचित संवाद से संस्थाओं और समूहों का स्वास्थ्य सुन्दर बना रहता है। छोटी-बड़ी संस्थाओं के लिए न केवल मिशन और उद्देश्यों के निर्धारण में वार्ता के महत्व को बताया गया है परन्तु तत्कालीन उद्देश्य भी यदि चर्चाओं के कारण आम सहमति से बने तो संस्थाएं विकासोन्मुख होती है। राष्ट्र जैसी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक व्यवस्था में भी संवाद की अनिवार्यता सर्वमान्य है। परन्तु दुर्भाग्य यह है कि हमारे देश में औपचारिक य अनौपचारिक संवाद शून्य से थोड़ा ही अधिक है। यही कारण है कि छोटी-छोटी समस्याएं विकराल रूप ले लेती हैं। उदाहरण के लिए कश्मीर घाटी के मुसलमानों और उसी घाटी से विस्थापित कश्मीरी पंडितों के बीच पूर्ण संवादहीनता है। माओवादियों और सरकार के बीच वार्ता के छूट-मुट प्रयासों में कोई गंभीरता नज़र नहीं आती। यहा तक की देश को चलाने वाली मुख्य राजनीतिक पार्टियों में अधिकतर संवाद संसद और विधानसभाओं में ही बनता है जहां कोशिश एक दूसरे के दोष ढूंढने की होती है, न की वार्ता के द्वारा समस्याओं का हल ढूंढने की।

अयोध्या का मसला भी संवादहीनता का ही परिणाम है। मुगलों के कार्यकाल में ढांचा बनाते समय स्थानीय लोगों से वार्ता नहीं की। अयोध्या के मुस्लिमों और हिन्दुओं में इस विषय पर वार्ता का कोई दृष्टान्त नहीं है। अग्रेंजों ने जो वार्ताएं की वे समस्या को सुलझाने की नहीं थी बल्कि एक पक्ष के मन में दूसरे के प्रति बैर-भाव को बढ़ाने की थी। 1949 में मूर्तियां रखने में कोई वार्ता नहीं हुई। ताला लगाने और ताला खोलने के समय संबंधित पक्षों से परामर्श नहीं हुआ। एक समय ऐसा भी आया जब सारा देश अयोध्या की बात कर रहा था परन्तु सभी अपना-अपना बिगुल बजा रहे थे। सरकारी तौर पर कुछ वार्ताओं के नाटक तो हुए परन्तु कुल मिलाकर ऐसा परामर्श जिससे उलझन को मिटाना ही है, कभी नहीं हुआ। ढांचा गिरने के बाद भी विषय संबंधित शोर बहुत हुआ परन्तु संवाद शून्य रहा।

अन्य समस्याओं की तरह अयोध्या विषयक समाचार, विश्लेषण, टिप्पणियां और चर्चाएं मीडिया में अनेक आईं परन्तु उनके कारण से समाज में कोई संवाद बना हो ऐसा नहीं हुआ। टेलीविजन पर हुई चर्चाएं एक ओर तो पक्षधर होती है दूसरी ओर वार्ताओं में मतप्रकटीकरण और विवाद बहुत होता है परन्तु ऐसी कोई चर्चा नहीं होती जिसके अन्त में सभी एक मत होकर समस्या के हल की ओर चलते हों। ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता है जब टेलीविजन की वार्ता में किसी ने माना हो कि वह गलत था और उस चर्चा के परिणामस्वरूप अपना मत परिवर्तन करेगा। प्रबंधन शास्त्र में दिये गये चर्चा के द्वारा आम सहमति बनाने के संभी सिद्धान्तों की मीडिया में अवेहलना होती है। शंकराचार्य के वर्गीकरण के अनुसार टेलीविजन की चर्चाएं न तो संवाद हैं, न ही वाद-विवाद वे तो वितण्डावाद का साक्षात उदाहरण हैं।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अत्यन्त विवेकपूर्ण व व्यावहारिक फैसला देकर यह सिद्ध किया है कि देश की न्यायापालिका कम से कम समस्याओं का समाधान सुझाने में तो सक्षम है। परन्तु दिए गए सुझावों का क्रियान्वयन तो मुख्यतः केन्द्र सरकार को और कुछ हद तक राज्य सरकार को और देखा जाए तो सभी राजनीतिक दलों को करना है। निर्णय के बाद की प्रतिक्रियाओं से स्पष्ट होता है कि ऐसा प्रयास होने वाला नहीं है। जैसे कबूतर बिल्ली को देखकर आंख मूंद लेता है मानों बिल्ली है ही नहीं वैसे ही केन्द्र सरकार ने यह मन बना लिया है कि उच्चतम न्यायालय की शरण में ही किसी न किसी पक्ष को जाना है और कोई भी कार्यवाही करने के लिए तुरन्त कुछ करना नहीं है। क्या राष्ट्र की चिति इतनी कमजोर है कि तीनों पक्षों को बिठाकर आम सहमति न बन सके। संवाद शास्त्र का भी सिद्धान्त है कि संवादहीनता अफवाहों व गलतफहमियों को जन्म देती है जिससे संबंध खराब होते हैं और परिणामस्वरूप नई समस्याएं जन्म लेती है और पुरानी और उलझती है। इसी सिद्धान्त का दूसरा पहलू यह भी है ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसे संवाद से सुलझाया न जा सके। इसलिए न केवल संवाद होना चाहिये परन्तु संवाद में ईमानदारी और समाजहित भी निहित होना चाहिए।

आज देश में ऐसी अनेक प्रयास होने चाहिए जो विभिन्न वर्गों, पक्षों और समुदायों में लगातार संवाद बनाए रखें। संवादशील समाज में समस्याओं की कमी तो होगी परन्तु यदि समस्याएं बनती भी है तो गंभीर और ईमानदार संवाद से उनको अधिक उलझने से बचाया जा सकता है। व्यक्तिगत जीवन में हम संवाद की सहायता से जीवन को आगे बढ़ाते हैं तो राष्ट्रजीवन में भी ऐसा क्यों न करे, क्योंकि सुसंवादित समाज ही सुसंगठित समाज की रचना कर सकता है। देखना यह है कि रामलला, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड को एक मंच पर लाने की पहल कौन करता है।

कवि चतुष्टयी जन्मशती पर- विभूतिनारायण राय का साम्राज्यवादी आख्यान

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

बाबा नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल, अज्ञेय और शमशेर का यह जन्मशती वर्ष है। यह समारोह ऐसे समय में आरंभ हुआ है जब देश भयानक मंदी की मार और नव्य-उदार आर्थिक नीतियों की मार से गुजर रहा है। सवाल उठता है क्या इसे तिलांजलि देकर कवि चतुष्टयी की जन्मशती मनायी जा सकती है? लेकिन हिन्दी के कई प्रतिष्ठित लेखकों आलोचकों और संस्थानों ने साम्राज्यवाद और सत्ता के प्रति आलोचनात्मक रूख को तिलांजलि देकर इस आयोजन का आरंभ कर दिया है।

बाबा नागार्जुन को मंदी और नव्य-उदारीकरण के संदर्भ में पढ़ना निश्चित रूप से बड़ी उपलब्धि है। मैंने करीब एक दशक से बाबा को नहीं पढ़ा था,कभी पढ़ा भी तो चलताऊ ढ़ंग से पढ़ा और रख दिया, लेकिन इस बीच में उनकी जो भी किताबें बाजार में दिखीं खरीदता चला गया और इस सप्ताह उन्हें मन लगाकर पढ़ गया।

बाबा नागार्जुन से मुझे कईबार व्यक्तिगत तौर पर जेएनयू में पढ़ते समय मिलने और बातें करने का मौका मिला था। उनसे मेरी पहली मुलाकात 1981 में हुई जब मैंने उनकी आपात्कालीन कविताओं पर एम.फिल् करने का फैसला किया था। केदारनाथ सिंह गाइड थे। उसके बाद तो कईबार मिला और उनके साथ लंबी बैठकें भी कीं।

बाबा नागार्जुन सहज, सरल, पारदर्शी और धुनी व्यक्तित्व के धनी थे। प्रतिवादी लोकतंत्र उनके स्वभाव में रचा-बसा था। उनकी कविता लोकतंत्र की तरह पारदर्शी और आवरणहीन है। उन्हें प्रतिवादी लोकतंत्र का बिंदास लेखक भी कह सकते हैं। प्रतिवादी लोकतंत्र की प्राणवायु में जीने वाला ऐसा दूसरा लेखक हिन्दी में नहीं हुआ। नामवर सिंह को नागार्जुन का व्यंग्य खास लगता है मुझे उनका प्रतिवादी लोकतंत्र के प्रति लगाव खास लगता है।

नागार्जुन के व्यक्तित्व और कविता की यह खूबी थी कि वे जैसा सोचते थे वैसा ही जीते भी थे। आज हिन्दी के अधिकांश लब्ध प्रतिष्ठित लेखक इससे एकदम उलट हैं। सोचते कुछ हैं जीते कुछ हैं। आज के हिन्दी लेखकों के कर्म और विचार में जो महा-अंतराल आया है वह हमारे लिए चिन्ता की बात है। कवि चतुष्टयी की जन्मशती पर कम से कम हिन्दी के स्वनामधन्य बड़े लेखक इस सवाल पर सोचें कि उनके कर्म और विचार में महा-अंतराल क्यों आया है? उनके हाथ से सामयिक यथार्थ क्यों छूट गया है?

कवि चतुष्टयी जन्मशती पर बड़े-बड़े प्रतिष्ठानी जलसों की खबरें आ रही हैं। इन जलसों के बहाने सत्य को असत्य में तब्दील करने की कोशिशें आरंभ हो गयी हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह काम प्रगतिशील आंदोलन के पुरोधाओं की आंखों के समाने हो रहा है वे असत्य का जयगान सुन रहे हैं। यह हिन्दी के प्रतिवादी कवियों का अपमान है। मैं यहां सिर्फ एक झलकी दिखाना चाहता हूँ।

हाल ही में वर्धा स्थित महात्मा गांधी विश्वविद्यालय ने एक बड़ा ही भव्य कार्यक्रम शमशेर, अज्ञेय, केदार और नागार्जुन के जन्मशती पर आयोजित किया था। इसमें जो विचार वक्ताओं ने रखे हैं ,उन पर विस्तार से चर्चा करने की जरूरत है। हमारे प्रगतिशील लेखक किस संसार की छवि बना रहे हैं और सत्ताभक्त साहित्य प्रशासक विभूतिभूषण राय किस नजरिए से संसार की छवि बना रहे हैं, इसे देखना बड़ा ही दिलचस्प होगा।

मैंने कभी राय साहब को देखा नहीं है। मिलने का भी सौभाग्य नहीं मिला। लेकिन जो रिपोर्ट इस सेमीनार की सामने है उस पर कहे बिना नहीं रह सकता। एक वाक्य में कहूं तो विभूतिनारायण राय ने बाबा नागार्जुन और अन्य प्रतिवादी कवियों की आत्मा को अपने बयान से कष्ट पहुंचाया है। राय साहब ने कहा है –

“बीसवीं शताब्दी को यदि एक वाक्य में परिभाषित करना हो तो मैं उसे हाशिए की शताब्दी कहना चाहूंगा। इस सदी में उपनिवेशवाद का अंत हुआ, लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ स्थापित हुईं और सदियों से समाज के हाशिए पर रहने वाले लोग- जैसे दलित, आदिवासी और स्त्रियाँ- पहली बार मनुष्य का जीवन जीने का अवसर पा सके। इससे पहले हाशिए पर अटके लोगों के मानवाधिकार समाज के प्रभु वर्ग द्वारा अपहृत कर लिए गये थे। दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना हुई और विश्व मानवाधिकारों के चार्टर की घोषणा हुई तो मानव सभ्यता को जो उपहार मिला वह किसी भी धार्मिक पुस्तक से नहीं मिल पाया था।”( https://hindustaniacademy.blogspot.com)

इस साधुभाषा का हिन्दी के प्रतिवादी कवियों के सोच से क्या संबंध है? राय साहब इतने भोले कैसे हैं कि उन्हें समाजवादी व्यवस्था का उदय और पराभव नजर नहीं आया, उन्हें दो-दो विश्वयुद्ध नजर नहीं आए और उन्हें अमेरिकी साम्राज्यवाद का आतंकी नव्य उदार चेहरा नजर नहीं आया, आखिरकार विभूति बाबू किसकी चारण वंदना कर रहे हैं? उन्होंने जैसा भाषण दिया है वैसा भाषण अमेरिका के ह्वाइट हाउस के कर्मचारी रोज देते हैं। हिन्दी के प्रगतिशील लेखक यह कैसे भूल सकते हैं कि अमेरिकी साम्राज्यवाद नाम का पूरा विचारधारात्मक तंत्र है जिसके जबड़े में हम सब फंसे हैं। राय साहब के साहबी बयान से तय हो चुका है कि अब ज्ञान-गंगा किधर बहेगी।

हम सोचें कि क्या किसी लेखक को अमेरिकी साम्राज्यवाद के गुनाहों पर इस साधुभाषा के बहाने पर्दा डालने की अनुमति दी जा सकती है? क्या नागार्जुन, केदार और शमशेर की साम्राज्यवाद विरोधी चेतना और अज्ञेय की अमेरिकी साम्राज्यपरस्त समझ में पटरी बिठायी जा सकती है? जी हां, यह काम इस साधुभाषा के बहाने किया जा रहा है।

मजेदार बात यह है कि नागार्जुन, केदार और शमशेर और अज्ञेय को आप एक साथ कैसे रख सकते हैं? कभी उनका नजरिया नहीं मिला तो अब उनकी एक साथ जन्मशती कैसे मना सकते हैं? जब इस तरह का घल्लूघारा होगा तो समाजवाद और साम्राज्यवाद का क्या करोगे? काग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम के साथ अज्ञेय के रिश्ते का क्या करोगो? जन्मशती के नाम पर इस तरह की विचारधाराहीनता सिर्फ अब हिन्दी के सत्ताभक्तों के यहां ही संभव है यही वजह है कि विभूति बाबू ह्वाइट हाउस के कर्मचारी की भाषा बोल रहे हैं।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि हिन्दी के मंच,गोष्ठी या सेमीनार अमेरिकी साम्राज्यवाद की भाषा के मंच नहीं रहे हैं। विभूति बाबू ने इस बयान के साथ ही सत्ता के गलियारों में अपनी पकड़ और भी पुख्ता कर ली है। इस मौके पर मुझे नागार्जुन की एक कविता याद आ रही है,उसका शीर्षक है “इतना ही काफी है”। नागार्जुन ने लिखा है –

“बोल थे नेह -पगे बोल, यह भी बहुत है! इतना ही काफी है!”

कवि चतुष्टयी जन्मशती पर विशेष – कौन पा रहा है, कौन खो रहा है?

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

वर्धा में महात्मा गांधी विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित कवि चतुष्टयी जन्मशती पर आलोचक नामवर सिंह ने जो कहा वह कमाल की बात है। अब हमारे गुरूवर बिना परिप्रेक्ष्य के सिर्फ विवरण की भाषा बोलने लगे हैं। परिप्रेक्ष्यरहित आख्यान और रिपोर्टिंग का नमूना देखें- “इस कार्यक्रम के उद्घाटन भाषण में नामवर जी ने बीसवी सदी को सर्वाधिक क्रांतिकारी घटनाओं की शताब्दी बताया। ऐसी शताब्दी जिसमें दो-दो विश्वयुद्ध हुए, विश्व की शक्तियों के दो ध्रुव बने, फिर तीसरी दुनिया अस्तित्व में आयी। समाजवाद का जन्म हुआ। सदी का अंत आते-आते इन ध्रुवों के बीच की दूरी मिटती गयी। तीसरी दुनिया भी बाकी दुनिया में मिलती गयी और समाजवाद प्रायः समाप्त हो गया। नामवर जी ने नागार्जुन की प्रशंसा करते हुए कहा कि बाबा ने काव्य के भीतर बहुत से साहसिक विषयों का समावेश कर दिया जो इसके पहले कविता के संभ्रांत समाज में वर्जित सा था।”

नामवर सिंह जानते हैं कि परिप्रेक्ष्यरहित विवरण बड़े खतरनाक होते हैं। उनका कोई भी इस्तेमाल कर सकता है ,इनके पैर नहीं होते। नामवर सिंह का बीसवीं शताब्दी का वर्णन जलेबी मार्का व्याख्यान कला का आदर्श नमूना है। आपको इसमें बीसवीं सदी का ओर-छोर हाथ नहीं लगेगा। कौन खिलाड़ी था और कौन पिट रहा था,यह पता नहीं चलेगा। इस तरह के व्याख्यान की मुश्किल यह है कि इसमें भारत गायब है। भारत का यथार्थ गायब है। प्रतिवादी लोकतंत्र की चुनौतियां गायब हैं। सवाल उठता है नामवर सिंह ने ऐसा क्यों किया ?

नामवर सिंह ने यह भी नहीं बताया कि मनमोहन सिंह के नव्य उदार अर्थशास्त्र और तदजनित संस्कृति का क्या करें? लोकतांत्रिक प्रतिवादों का जो दमन हो रहा है उसका क्या करें? हो सकता है, उन्होंने इस पर बोला हो,पर वेब रिपोर्ट में यह गायब है।

लेकिन इस समूची उधेड़बुन में हमें यह सवाल तो नामवर सिंह से पूछना है कि वे अज्ञेय के अमेरिकापरस्त रूझान और बाकी कवियों के अमेरिकी साम्राज्यविरोधी नजरिए में कैसे सामंजस्य बिठा रहे हैं? क्या अज्ञेय पर अलग से कार्यक्रम नहीं किया जा सकता था? जो कवि (अज्ञेय) लोकतांत्रिक संघर्षों से भागता हो उसका उन कवियों के साथ कैसे मूल्यांकन कर सकते हैं जो प्रतिवादी लोकतंत्र को पाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे। कुर्बानी देने वाले लेखक और कुर्बानीरहित लेखक के बीच में कैसे पटरी बिठायी जा सकती है?

अज्ञेय और अन्य कवियों में अंतर यह है कि अज्ञेय को बुर्जुआ लोकतंत्र पसंद था, लेकिन नागार्जुन, केदार और शमशेर को बुर्जुआ लोकतंत्र नापसंद था। वे अपने लिए, अपने समाज के लिए,पीड़ित जनता के लिए प्रतिवादी लोकतंत्र की तलाश कर रहे थे, प्रतिवादी लोकतंत्र का वातावरण बना रहे थे। उसके लिए विभिन्न रूपों में इन कवियों ने अनेक कुर्बानियां दीं। इसके विपरीत अज्ञेय ने लोकतंत्र के लिए कौन सी कुर्बानी दी? सवाल उठता हिन्दी के स्वनाधन्य बड़े आलोचक अनालोचनात्मक ढ़ंग से क्यों सोचने लगे हैं? साहित्य,साहित्यकार और साहित्य के सामाजिक सरोकारों के प्रति वे अनालोचनात्मक क्यों होते जा रहे हैं? वे साहित्य में सच की खोज से क्यों भाग रहे हैं? साहित्य में सच की खोज से भागने का प्रधान कारण है लेखक का सामयिक यथार्थ से अलगाव और दिशाहीन नजरिया। नामवर सिंह और उनके समानधर्माओं के लिए नागार्जुन की एक कविता को उद्धृत करने का मन कर रहा है। बाबा ने लिखा था-

“यह क्या हो रहा है जी?

आप मुँह नहीं खोलिएगा!

कुच्छो नहीं बोलिएगा!

कैसे रहा जाएगा आपसे?

आप तो डरे नहीं कभी अपने बाप से

तो बतलाइए, यह क्या हो रहा है?

कौन पा रहा है, कौन खो रहा है?

प्लीज बताएँ तो सही…

अपनी तो बे-कली बढ़ती जा रही

यह क्या हो रहा है जी

प्लीज बताएं तो सही….”

अयोध्या कांड और न्याय का सौंदर्य शास्त्र

-पंकज झा

मुग़ल बादशाह के ज़माने की एक कहानी का थोडा संशोधन के साथ भावानुवाद. चार व्यक्ति चोरी के आरोप में धरे गए. उन सभी को न्यायाधीश ने एक ही अपराध के लिए अलग-अलग दंड दिया. पहला अपराधी एक पेशेवर चोर था और चौथा एक विद्वान का बेटा. पहले को मुंह काला कर, गधे पर बैठा घुमाने का दंड मिला. चौथे को भरी सभा में ज़लील कर यह कहते हुए छोड़ दिया गया कि उसे शर्म आनी चाहिए, उसने अपने पुरखों का नाम मिट्टी में मिला दिया. फ़िर हुआ यूं कि विद्वान के बेटे ने तो ग्लानि से आत्महत्या कर ली, लेकिन आदतन अपराधी को जब मोहल्ला-मोहल्ला घुमाते हुए अपनी गली में ले जाया गया तो चिल्लाकर उसने अपनी बीवी से कहा कि नाश्ता तैयार रखना बस अब एक ही गली घूमना शेष रह गया है. 
इसी तर्ज़ पर हाल का एक उदाहरण देखें. आपने हाल के कई ऐसे आतंकियों की खबर पढ़ी होगी जो मौत की सज़ा पाने के बाद भी आराम से भारतीय जेल में मज़े से बिरयानी तोड़ रहे हैं, लेकिन मंगलवार को बिहार के शेखपूरा नरसंहार मामले में दोषी साबित होते ही पूर्व मंत्री संजय सिंह को दिल का दौरा पड़ा और कोर्ट में ही उसकी मौत हो गयी. तो ये फर्क है एक पेशेवर अपराधी और किसी कारणवश बन गए अपराधियों में. तो निश्चय ही नैसर्गिक न्याय का यह भी तकाजा होना चाहिए कि वह फैसले लेते समय न केवल कोरे तर्क अपितु हर संभावित पहलुओं पर गौर करे.  आशय यह कि ‘न्याय’ कोई कंप्यूटर के विश्लेषण की तरह सीधी और सपाट प्राप्त करने वाली अवधारणा नहीं होती. अगर ऐसा होता तो दशकों तक फैसले के लिए चक्कर काटने की ज़रूरत नहीं होती और न ही न्यायालयों पर करोड़ों मुकदमों का बोझ होता. बस सारे उपलब्ध तथ्य सिस्टम में डाले, डिजिटल हस्ताक्षर किया, प्रिंट आउट निकाला और सभी पक्षों को कापी मेल कर दिया, लेकिन क्या ऐसा होना संभव है?
अयोध्या मामले पर कुछ विघ्नसंतोषियों द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायायल के फैसले की की जा रही आलोचना को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखने की ज़रूरत है. इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि न्यायालय को उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर ही फैसला देना होता है. उसे हर तरह के राग-द्वेष से खुद को ऊपर रख कर फैसला देने की अपेक्षा की जाती है, लेकिन वह फैसला देते समय वर्तमान हालात या फैसले के दूरगामी प्रभाव से बिल्कुल ही आंख मूंद ले, ऐसा नहीं हो सकता. न्याय की यह पश्चिमी प्रणाली ही दुर्भाग्य से हमें अपनाना पड़ा है जिसमें न्याय की देवी की आंख पर गांधारी की तरह पट्टी बांध दिया गया है. लेकिन ज़रूरत कई बार आंख खोल देने वाले फैसले की भी होती है जैसा अयोध्या मामले में किया गया है. 
हो सकता है कानूनी पेचीदगियों के हिसाब से अयोध्या का फैसला ‘पंचायत’ जैसा लगे. इस तरह का पंचायती फैसले बाहर ही हो जाय, इसके लिए कई समूह अरसे से प्रयासरत भी थे. अगर फैसला न्यायालय से बाहर हो जाता तो वास्तव में अभी से वह ज्यादा स्वागतेय होता. लेकिन अगर किसी मामले में लोकतंत्र का कोई एक स्तंभ नकारा साबित हो जाय तो दूसरे को प्रयास करने में कोई हर्ज भी नहीं है. ऐसा ही नजीर आप अनाज मामले पर कोर्ट द्वारा सरकार को दी गयी घुरकी में देख सकते हैं. लेकिन सोच कर आश्चर्य तो होगा ही कि प्रधानमंत्री के अलावा किसी को भी अनाज बाँटने का आदेश देने वाले उस फैसले पर कोई ऐतराज़ नहीं हुआ. यह घोषित तथ्य है कि नीतिगत निर्णय लेना सरकार का काम है, न्यायालय से कभी इस मामले में हस्तक्षेप करने की अपेक्षा नहीं की जाती है. लेकिन जन सरोकारों से सीधे जुड़ा होने के कारण सबने उस फैसले का भी स्वागत ही किया.
तो असली सवाल नीयत का है. साथ ही ‘पालिका’ चाहे कोई हो अंतिम लक्ष्य सबका यही होता है कि देश और समाज में शांति और सद्भाव कायम रखने का प्रयास किया जाय. फैसले पर काफी बात की जा चुकी है. तो उसका जिक्र ज्यादा नहीं करते हुए बस आलोचकों से यही पूछना चाहूंगा कि आखिर अयोध्या मामले पर दिए गए फैसले से उलट वो कैसे फैसले की उम्मीद कर रहे थे? क्या इसके अलावा कोई और फैसला हो सकता था जिनमें इस हद तक स्वीकार्य होने का सामर्थ्य होता. 
और आप ये देखिये कि विरोध कौन लोग कर रहे हैं और इस मामले से उनका क्या सरोकार है? सीधा सा सवाल यह है कि केवल वामपंथ के कुछ लोग इसका विरोध कर अपना असली चेहरा जनता के सामने दिखा रहे हैं. अन्यथा मुक़दमे से जुड़े किसी भी पक्ष का कोई भी असंतुलित बयान अभी तक नहीं आया है. सद्भाव का तो यह आलम है कि एक मुस्लिम समूह ने जहां मंदिर के लिए पन्द्रह लाख रुपये देने की घोषणा की है तो मुक़दमे से जुड़े एक मुस्लिम पक्ष ने अपने वकील को ही यह ताकीद कर दिया कि वे उनकी तरफ से न बोले. ऐसे में ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ वाले वामपंथियों को जिनके लिए धर्म अफीम की तरह है इस धार्मिक मामले टांग अड़ाने की इजाज़त क्यूंकर दिया जाए? 
इस फैसले से जो एक अच्छी बात और हुई है वो यह कि देश के दुश्मनों की पहचान आसान हो गई. लोग कम से कम अब यह ज़रूर समझ गए होंगे कि आखिर वह कौन से तत्व हैं जिनके लिए साम्प्रदायिक सद्भाव उनके भूखे मरने का सबब है. अभी तक ज़ाहिर तौर पर हिंदू और मुस्लिम पक्ष एक दुसरे को इस मामले में दोषी ठहरा रहे थे वहां अब यह तय हो गया कि कोई तीसरा ही दोषी है जो अपना हित इस देश की धरती से कही बाहर तलाशते हैं. “तुमने दिल की बात कह दी आज ये अच्छा हुआ, हम तुझे अपना समझते थे बड़ा धोखा हुआ.”
जान बूझकर फैसले के किसी भी अंश को उद्धृत न करते हुए बस यही निवेदन करना चाहूंगा कि देश ने पिछले तिरेसठ सालों में पहली बार इस तरह के सद्भाव का स्वाद चखा है. निश्चित ही किसी भी पक्ष के लिए ऊपरी अदालत में जाने का रास्ता खुला है. अगर कोई अपील ना करे और बातचीत से मामला सुलझ जाय इससे बेहतर तो कुछ हो ही नहीं सकता. कुछ अच्छे लोग और समूह इस मामले में प्रयासरत भी हैं. लेकिन अगर सर्वोच्च न्यायालय जाना ही पड़े फिर भी इस परिपक्वता का दामन  नहीं छोड़ा जाय यह ज्यादे ज़रूरी है. इसके लिए करना यह होगा कि हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मनिष्ठ समूह को अपनी ठेकेदारी करने के लिए कमान, किसी अधर्मी और नास्तिक के हाथ, किसी विदेशी विचारों के कठपुतली के हाथ नहीं सौपना चाहिए. ऐसे समूहों की जितनी उपेक्षा कर सकते हैं करें. 
पुनः न्यायालय के कथित पंचायती फैसले पर इतना ही कहना समीचीन होगा कि न्याय व्यवस्था की आंख पर पट्टी बंधी होने के बावजूद वह गांधारी की तरह अपना कार्य बदस्तूर संपादित कर रही है. लेकिन इतिहास में कभी ऐसे मौके भी आते हैं जब गांधारी को भी अपने आंख की पट्टी खोल लेनी होती है. निश्चित ही ‘पट्टी’ इस बार और बड़े सरोकारों के लिए खोली गई है. हां हमें पहले के ज़माने के उलट अभी के समाज के ‘कृष्ण पक्ष’ से सावधान होगा जो यही चाहते हैं कि समाज के सद्भाव में कोई ना कोई ऐसी चीज़ को, दुर्योधन की तरह किसी कड़ी को खुला छोड़ दें जिससे समाज का कोई न कोई अंग कमज़ोर रह जाय और इनका काम चलता रहे. जहां कृष्ण के सरोकार व्यापक थे वहां ये लोग अपने ब्रेड-बटर को ही पुख्ता करने के फिराक में देश से खिलवाड करना जारी रखे हुए हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि देश की नयी युवा पीढ़ी ज़रूर इनके झांसे में नहीं आएगी. वास्तव में देश की न्याय व्यवस्था ने न केवल लोकतंत्र अपितु समग्र मानवता के हित में एक अनूठा और अभिनंदनीय फैसला दिया है.

भारतीय गणराज्‍य की दुर्दशा

भारतीयों की पुण्‍यभूमि कश्‍मीर

-फ्रांसिस गोतियर

यदि कोई हिन्‍दू आज अपने इतिहास के सबसे प्राचीन तीर्थ स्‍थलों में से एक पवित्र तीर्थस्‍थल अमरनाथ की यात्रा करना चाहता है तो उसे यह यात्रा जबर्दस्‍त पुलिस बंदोबस्‍त और सेना के संरक्षण में करनी पड़ती है और ऊपर से जान जाने का खतरा हमेशा बना रहता है। जब वह इस यात्रा पर जाता है तो लगता है कि वह किसी विदेशी राष्‍ट्र में ही नहीं बल्कि एक दुश्‍मन देश की यात्रा पर जा रहा है।

आज कश्‍मीर घाटी में एक सुनियोजित साजिश के तहत पुलिस और बीएसएफ के जवानों पर पत्‍थरों से हमले कराकर उन्‍हें कार्रवाई करने के लिए उत्तेजित करने की कार्रवाई हो रही है। पिछले कुछ महीनों के दौरान हुई इस पत्‍थरबाजी में बीएसएफ के सैकड़ों सैनिक बुरी तरह घायल हो चुके हैं। जब भीड़ नियंत्रण से बाहर हो जाती है, तो उन्‍हें थोड़ी-बहुत गोलीबारी भी करनी पड़ती है। परिणामस्‍वरूप कुछ लोग घायल हो जाते हैं। ऐसा होते ही पूरी घाटी में फिल्‍मी स्‍टाइल में हड़ताल और बंद आयोजित होने शुरू हो जाते हैं और मीडिया तथा ‘मानवाधिकारवादी’ भी चिल्‍लाने लगते हैं।

सबसे अधिक चिंताजनक बात यह है कि इस समय कश्‍मीर में भारत सरकार का कोई आदेश चलता दिखायी नहीं देता। टीवी पर दिखाये जाने वाले हर चित्र में दिखाया जाता है कि भीड़ खुलेआम पाकिस्‍तानी झंडे लहरा रही है और कहीं इसका कोई विरोध नहीं होता। बालीवुड में भी खुलेआम ओसामा बिन लादेन का गुणगान होता है लेकिन उसका भी कोई विरोध नहीं करता।

अधिकतर लोगों को पता ही नहीं है कि कश्‍मीर भारत का ऐसा हिस्‍सा है जिसे सबसे अधिक अनुदान मिलता है। जब भी प्रधानमंत्री वहां जाते हैं, कुछ अनुदान की घोषणा कर ही आते है। सन् 1989 से लेकर आज तक सरकारी कर्मचारी पड़ताल आदि के कारण पूरे साल काम करें या न करें, लेकिन उनका पूरा वेतन उन्‍हें समय पर मिल जाता है। सचाई यह है कि आज अमरीका की मध्‍यस्‍थता से एक बहुत खतरनाक समझौता किया जा रहा है, जिसके तहत कश्‍मीर को वास्‍तविक आजादी प्रदान की जानेवाली है। कांग्रेस में बहुत अच्‍छे और समझदार लोग हैं, उनमें से कुछ तो जरूर मेरी इस बात से सहमत होंगे कि यह भारत के साथ बहुत बड़ी त्रासदी है। दुर्भाग्‍य से दिल्‍ली के पत्रकार जगत में ‘आऊटलुक’ के संपादक विनोद मेहता जैसे लोगों की संख्‍या बढ़ गयी है जो खुलेआम कहते फिरते हैं कि ‘’भारत बहुत बड़ा देश है, क्‍या फर्क पड़ता है कि कश्‍मीर उसके साथ रहता है या नहीं।‘’ ऐसे में सवाल उठता है कि फिर भारत के लिए कश्‍मीर जरूरी है क्‍या।

इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि कश्‍मीर भारत के लिए रणनीतिक दृष्टि से बहुत महत्‍वपूर्ण है। यदि कश्‍मीर भारत के हाथ से निकल जाता है तो भारत के उत्तर में तीन दुश्‍मन खड़े हो जाएंगे जो रणनीतिक दृष्टि से कभी भी समस्‍या खड़ी कर सकते हैं। यानी तिब्‍बत जो कभी भारत और चीन के बीच एक पीस बफर के रूप में होता था, नेपाल जो आजकल खुलेआम दुश्‍मनों के हाथों का खिलौना बना हुआ है और तीसरा कश्‍मीर जो मध्‍य एशिया और एशिया के दरवाजे के रूप में जाना जाता है, तीनों मिलकर भारत के लिए संकट खड़ा करेंगे।

दूसरा महत्‍वपूर्ण सवाल यह है कि यदि भारत कश्‍मीर को छोड़ देता है तो फिर मणिपुर, पंजाब और तमिलनाडु को अलग होने का हक क्‍यों नहीं होगा। दुनिया के अनेक देश अलगाववाद की समस्‍या से जूझ रहे हैं, वह चाहे फ्रांस में कोरसिया हो, स्‍पेन में बसक्‍यूज या फिर ब्रिटेन में फाकलैंड हो। फिर भारत ऐसे ही कश्‍मीर को क्‍यों जाने दे, जो पिछले पांच हजार से अधिक सालों से उसका सांस्‍कृतिक और शारीरिक अंग रहा है।

कश्‍मीर हजारों वर्षों से शैव मत का उद्गम स्‍थल रहा है और उस पुण्‍यभू‍मि पर हजारों योगियों, गुरूओं, संन्‍यासियों ने लम्‍बे समय तक तपस्‍या की। सिर्फ इसीलिए वह भारत के लिए एक पवित्र स्‍थल है। इस समय कश्‍मीर में जो हालात है, उनके लिए सबसे अधिक मीडिया दोषी है और वह भी खासतौर से पश्चिमी देशों का मीडिया, जिसने कश्‍मीर को हमेशा एक विवादित क्षेत्र के रूप में ही प्रस्‍तुत किया। हम सभी पत्रकार जानते हैं कि 1980 के दशक से लेकर पाकिस्‍तान हमेशा कश्‍मीरी अलगाववादियों को सभी तरह का प्रशिक्षण, प्रोत्‍साहन और धन उपलब्‍ध कराता रहा है।

लेकिन तटस्‍थ रिपोर्टिंग के लिए जाने जाने वाले मार्क टुली भी कहने से नहीं चूकते, ‘’भारत के कब्‍जे वाले कश्‍मीर में चुनाव हो रहे हैं, या फिर कश्‍मीरी अलगाववादियों (न कि आतंकवादियों) ने हिन्‍दुओं को मार दिया।‘’ विदेशों के पुराने और नये सभी पत्रकारों ने बीबीसी की इसी लाइन को पकड़कर कश्‍मीर पर अपने समाचार लिखे। यही नहीं, अमरीकी राष्‍ट्रपति बराक ओबामा की नीतियां भी मीडिया से ही प्रभावित होती है। बात ये नहीं है कि घाटी में कुछ सौ हिन्‍दुओं (1980 में पांच लाख थे) की जान को खतरा है या फिर अमरनाथ यात्री अपने ही देश में तीर्थयात्रा पर जा रहे हैं, चिंताजनक बात ये है कि हिंदुओं के धार्मिक गुरूओं पर भी निशाना दागा जा रहा है। उन्‍हें बदनाम किया जाता है या फिर उनका मजाक उड़ाया जाता है। हाल ही में मीडिया ने श्री श्री रविशंकर पर निशाना दागा।

इस समय गैर राजनीतिक, निष्‍पक्ष और मानवाधिकारवादी संगठन फाउंडेशन ‘अगेंस्‍ट कंटिन्‍यूयिंग टेरेरिज्‍म’ एक ऐसा मंच बन सकता है जिसके अंग बनकर देश के करीब एक दर्जन धर्मगुरू, जिनके देशभर में करोड़ो शिष्‍य हैं, वे अपने शिष्‍यों को एक आदेश जारी करें जो देश के सभी 800 मिलियन हिन्‍दुओं और विदेशों में रह रहे सभी हिन्‍दुओं के लिए बाध्‍यकारी हो। इन धर्मगुरूओं में सत्‍य साई बाबा, श्रीश्री रविशंकर गुरूजी, माता अमृतानंदमयी, कांची शंकराचार्य, ज्ञानेश्‍वरी गुरूमां, बाबा रामदेव, सदगुरू जग्‍गी वसुदेव आदि हो सकते हैं। कश्‍मीर की सुरक्षा और अमरनाथ तीर्थयात्रा इस कार्यसूची का सबसे पहला विषय हो सकता है।

(लेखक सुप्रसिद्ध पत्रकार हैं)

पत्रकार संजय द्विवेदी को वाड्.मय पुरस्कार

भोपाल,5 अक्टूबर। युवा पत्रकार एवं लेखक संजय द्विवेदी को उनकी नई किताब ‘मीडिया नया दौर नई चुनौतियां ’ के लिए इस वर्ष का वाड्.मय पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की गयी है। स्व. हजारीलाल जैन की स्मृति में प्रतिवर्ष किसी गैर साहित्यिक विधा पर लिखी गयी किताब पर यह सम्मान दिया जाता है। मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा संचालित इस सम्मान समारोह का आयोजन आगामी 10 अक्टूबर,2010 में 11 बजे भोपाल स्थित हिंदी भवन में किया गया है। समारोह के मुख्यअतिथि मप्र के राज्यपाल श्री रामेश्वर ठाकुर होंगे तथा कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रदेश के नगरीय विकास मंत्री श्री बाबूलाल गौर करेंगें। विशिष्ट अतिथि के रूप में सांसद श्री रधुनंदन शर्मा मौजूद होंगें। श्री द्विवेदी अनेक प्रमुख समाचार पत्रों में महत्वपूर्ण पदों पर काम कर चुके हैं और संप्रति वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं। संजय की यह किताब यश पब्लिकेशन, दिल्ली ने छापी है और इसमें मीडिया के विविध संदर्भों पर लिखे उनके लेख संकलित हैं।

हाशिम फिर निकले लिए ‘लुकाठा’ हाथ

-वीरेन्द्र सेंगर

हाशिम अंसारी ९० वसंत देख चुके हैं| साठ साल तक अनवरत मुकदमा लड़ते-लड़ते वे कभी नहीं थके। उन्होंने वह मंजर भी देखा है, जब पूरी अयोध्या में धर्म के नाम पर रक्त पिपासुओं की टोलियां हुंकार भरती नजर आती थीं। वह दौर भी देखा है, जब पूरा शहर दहशत के चलते दुबक जाता था। रायफलधारी पुलिस वाले ही चप्पे-चप्पे पर पदचाप करते नजर आते थे। तब भी वे नहीं सहमे। उनकी आंखों से आंसू नहीं बहे। पूरे धार्मिक विश्वास से वे इबादत की तरह मुकदमा लड़ते रहे। मुकदमे से निपटारा हो गया है। चाहते हैं कि अब टंटा खत्म हो जाय। मिल-बैठकर फैसला हो जाय। लेकिन तमाम अपने ही उनकी टांगें खींचने में लगे हैं। इससे उनका धीरज टूट गया। वे जार-जार रोए। परायों पर नहीं, अपनों पर, जो नहीं चाहते कि इतनी जल्दी अयोध्या में अमन की इबारत लिख दी जाए।

इन्हीं साजिशों के खिलाफ हाशिम अंसारी खड़े हो गये हैं। उन्हें बहुत रंज है। उन्होंने अपने दिल की बात छुपायी नहीं। मीडिया के सामने अपनी पीड़ा का इजहार कर डाला। कह दिया कि सुन्नी वक्फ बोर्ड सहित कई कौमी अलंबरदारों को पसंद नहीं है कि वे समझौते की बात करें। सो, वे चुप बैठेंगे। मंदिर-मस्जिद की सियासत जाए भाड़ में। अब अल्लाह ही अमन के दुश्मनों को नसीहत दे। इन्हें समझाना उनके बस की बात नहीं रही। इतना कहकर वह अपने शुभचिंतकों के बीच फफक पड़े थे।

ये वही हाशिम मियां हैं, जो तीस साल की उम्र से बाबरी मस्जिद के हक की लड़ाई लड़ते आये हैं। 60 साल पहले फैजाबाद की अदालत में पहला मुकदमा ठोका गया था। 22-23 दिसंबर 1949 की रातों रात कुछ लोगों ने मस्जिद में मूर्तियां रख दी थीं। कहा गया था कि रामलला ‘प्रकट’ हो गये हैं। यहीं से शुरू हुआ था ऐतिहासिक टंटा, जो 1988 के आते-आते सांप्रदायिक नासूर बनने लगा। 1989 में भाजपा के शीर्ष नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ-अयोध्या की चर्चित ‘रथयात्रा’ शुरू की थी। इस यात्रा ने राम जन्मभूमि आंदोलन को प्रचंड अवतार में बदल डाला। 6 दिसंबर 1992 को तो ‘कारसेवकों’ ने देखते ही देखते बाबरी ढांचे को मिट्टी में बदल डाला था। इस घटना के बाद देश के कई शहर सांप्रदायिक आग में जल उठे थे। दंगों में 2000 से अधिक लोग मरे थे। तीन हजार करोड़ रुपये की संपत्ति स्वाहा कर दी गयी थी। इस प्रकरण ने हिंदू-मुसलमानों के बीच के आपसी विश्वास को इतना तोड़ा कि अब तक दरारों की भरपाई नहीं हो पाई। यह अलग बात है कि इसका सबसे ज्यादा सियासी फायदा भाजपा ने उठाया है। वह लाल किले की सत्ता तक जा पहुंची। सपा जैसे दलों ने सेकुलर राजनीति का अतिरेक करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस सियासी होड़ में बुनियादी मुद्दे हाशिए पर जाते रहे।

छह दशक बाद 30 सितंबर को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच का फैसला आ गया है। विवादित भूमि का एक तिहाई हिस्सा वक्फ बोर्ड को दिया गया है। पेच यहीं है। हिंदू संगठनों का जोर है कि मुस्लिम सदाशयता दिखाकर पूरी जमीन राम मंदिर के लिए छोड़ दें। जबकि सुन्न्नी वक्फ बोर्ड इस मामले में 16 अक्टूबर को लखनऊ में निर्णायक विमर्श करने जा रहा है। वक्फ बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी का दावा है कि वे लोग एक महीने के अंदर हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे देंगे। बोर्ड की बैठक में इसका औपचारिक फैसला हो जाएगा।

जिलानी को इस बात की खास कोफ्त है कि हाशिम अंसारी समझौते के लिए जरूरत से ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हैं। जबकि पूरी कौम को लखनऊ बेंच के फैसले से नाखुशी है क्योंकि कोर्ट ने हिंदुओं की आस्था को ज्यादा तरजीह दी है। जबकि अदालत को फैसला प्रमाणों के आधार पर करना होता है। वे सवाल करते हैं कि करोड़ों हिंदुओं की आस्था का ख्याल रखा जाए, तो करोड़ों मुसलमानों की आस्था की भी अनदेखी नहीं होनी चाहिए। यह मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में उठाया जाएगा।

हाशिम अंसारी राम जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद मामले में एक प्रमुख पक्षकार रहे हैं। 90 वर्षीय हाशिम कह रहे हैं कि मुकदमा लड़ने के बावजूद उनके निजी भाईचारे के रिश्ते संतों से बने रहे हैं। यहां तक कि मुकदमों की तारीखों में वे एक वाहन से साथ-साथ फैजाबाद जाते थे। निजी सुख-दुख में सभी साथ-साथ खड़े होते थे। लेकिन 1984 के बाद इस मामले में अयोध्या के बाहर के लोगों का दखल बढ़ा। इसमें दोनों समुदायों के बीच कटुता बढ़ती गई। अयोध्या के लोग इस टंटे से ऊब चुके हैं। कोर्ट के फैसले के बाद आपसी समझौते की बात बढ़ी है। वे भी चाहते हैं कि उनके जीते जी फिर अयोध्या में अमन की अजान हो, बरकत की रामधुन बजे। लेकिन कुछ तत्व चाहते हैं कि ऐसा न हो।

हाशिम पिछले कई दिनों से समझौते की जमीन तैयार करने के लिए जुटे थे। वे अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत ज्ञानदास से कई मुलाकातें कर चुके हैं। बात सही दिशा में बढ़ी तो कई और अखाड़े एवं मलंग साधु कूद आए। उन्होंने महंत ज्ञानदास की हैसियत पर सवाल उठाए। विहिप के चर्चित नेता ने कह दिया है कि समझौते की बात केवल शिया नेताओं से हो क्योंकि 1949 में मूर्ति रखने के पहले मस्जिद की देख-रेख शिया समुदाय के लोग ही करते थे। निर्मोही अखाड़े के कई संतों ने हाशिम से बातचीत पर नाराजगी जाहिर की है। एक स्वनामधन्य संघ परिवारी संत ने कह दिया है कि रामलला क्या कोई सड़कछाप भगवान हैं जो छोटे से मंदिर में गुजर बसर कर लें। ऐसे में भला वहां मस्जिद और अजान की गुंजाइश कैसे हो सकती है।

अभी बातचीत सही दिशा में शुरू भर हुई थी, इसके पहले ही आग का ‘लुकाठा’ लिए कई चेहरे कूद आए हैं ताकि एक बार फिर अशांति और दहशत की गवाह बने अयोध्या। एक दौर में मुलायम सिंह के खास सखा रहे अमर सिंह के तो ज्ञान चक्षु खुल गए हैं। सो उनकी नई तान है कि मुलायम सिंह अपने बयानों से कोर्ट की तौहीन कर रहे हैं। सीपीएम के चर्चित कामरेड सीताराम येचुरी ने कहा कि आस्था के आधार पर हाईकोर्ट ने फैसला देकर ठीक नहीं किया। इससे सुप्रीम कोर्ट के 1995 के निर्देश की अनदेखी हुई है। सियासी जमातों ने अपने-अपने तरीकों से समझौते के रास्ते रोकने की कवायद तेज कर दी है। भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कह दिया है कि अयोध्या में मस्जिद तो बने लेकिन ‘पंचकोसी’ परिक्रमा क्षेत्र के बाहर यानी 6-8 किमी दूर। दूसरे शब्दों में कहें, तो उन्हें अयोध्या में मस्जिद स्वीकार नहीं। सभी जानते हैं कि अयोध्या बहुत बड़े भूभाग का शहर नहीं है। शर्त ऐसी लगा दी कि निपटारे की गुंजाइश ही सिमट जाए। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में भी मंगलवार को विमर्श हुआ है। सूत्रों का कहना है कि पार्टी इसमें ‘वेट एंड वाच’ की रणनीति पर ही आगे बढ़ना चाहती है। क्योंकि पिछले वर्षों में इस टंटे की वह बहुत सियासी कीमत दे चुकी है। ऐसे में फूंक-फूंक कर चलना ही बेहतर समझती है। भले ही टंटा दशकों तक लंबित बना रहे। ये सब उस हाशिम का धीरज तोड़ने के लिए काफी है, जिसका धीरज ६० साल तक नहीं टूटा|

(वीरेन्द्र सेंगर दिल्ली के जाने-माने पत्रकार हैं| उनसे फोन नंबर ०९८१०१३२४२७ पर संपर्क किया जा सकता है)

स्त्री संस्कृति का जादुई संसार

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

हजारों सालों बाद आज भी औरत एक पहेली बनी हुई है। उसका शरीर, आचार, विचार, संभोग, जादू-टोना, प्रेम आदि सभी के बारे में पंडितों में भयानक भ्रम बना हुआ है। हमारे भक्ति आंदोलन के विचारकों में एक हैं पुरूषोत्तम अग्रवाल। उन्होंने अपनी किताब में कबीर के साहित्य में ‘शाश्वत स्त्रीत्व’ की खोज की है। सच यह है शाश्वत स्त्रीत्व जैसी कोई चीज नहीं होती। वे शाश्वत स्त्री की धारणा के आधार पर पुंसवादी तर्कों का पहाड़ खड़ा कर रहे हैं। इसी तरह हमारे और भी अनेक विद्वान दोस्त हैं जो आए दिन औरतों के धार्मिक व्रत, उपवास, पूजा-उपासना आदि को लेकर फब्तियां कसते रहते हैं कि औरतें तो स्वभावतः धार्मिक होती हैं,पिछड़ी होती हैं।

ऐतिहासिक तौर पर देखे तो स्त्री उत्पादक शक्ति है। वह कृषि की जनक है। मानव सभ्यता के इतिहास में उसे कृषि उत्पादक के रूप में जाना जाता है। पुरानी मान्यता है कृषि कार्यों की पुरूष के पौरूष पर निर्भरता कम है ईश्वर पर निर्भरता ज्यादा है। कृषि के लिए वेदों में जितने मंत्र हैं उतने किसी अन्य कार्य के लिए नहीं हैं। भारत में जनजातियों के अनेक तीज-त्यौहारों का कृषि जीवन से गहरा संबंध है।

यह एक ऐतिहासिक वास्तविकता है कि कृषि की धुरी औरत है और कृषि की निर्भरता मंत्र-तंत्र और पूजा पर है, जिसके कारण औरतों में जादुई संस्कार सहज ही चले आए हैं। जो लोग कहते हैं जादू-टोने का आधार अज्ञान है उन्हें देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय का कथन याद रखना चाहिए। उन्होने लिखा है ‘‘इसे केवल अज्ञान मानना भी गलत होगा, क्योंकि यह कर्म को निर्देशित करता है यद्यपि यह मनोवैज्ञानिक दिशानिर्देश होता है। कृषि के प्रारंभिक चरण में जब इस मनोवैज्ञानिक निर्देशक की सबसे अधिक आवश्यकता होती है,हम सहज ही देखते हैं कि जादू-टोने में विश्वास और इससे संबद्ध क्रियाओं में विचित्र तीव्रता आ जाती है।’’

उन्होंने यह भी लिखा है कि ‘‘कृषि की खोज स्त्रियों ने की थी तो यह तर्कसंगत ही है कि अपने मूलरूप में जादू-टोना स्त्रियों के कार्य-क्षेत्र में आना चाहिए।’’यही वजह है कि समस्त धार्मिक उत्सव पूरी तरह स्त्रियों पर निर्भर हैं।

औरतों का कृषि पर ही प्रभाव नहीं पड़ा बल्कि उन्होंने चिन्तन के विभिन्न क्षेत्रों को भी प्रभावित किया। इनमें तंत्र प्रमुख है। भारत में स्त्रियों से प्रभावित वामाचार का पूरा सम्प्रदाय रहा है जिसने समूचे जीवन पर गहरा असर डाला है। वामाचार का आम तौर पर संस्कृत के विद्वानों ने गलत अर्थ लगाया है। शब्द है वामा और आचार। आचार का अर्थ है क्रिया या धार्मिक क्रिया। वामा का अर्थ है स्त्री या काम। इस प्रकार वामाचार का अर्थ है स्त्री और काम के अनुष्ठान।

भारत में जो लोग स्त्री की स्वायत्त पहचान बनाना चाहते हैं। स्त्री की परंपरा और स्त्री संस्कृति का अध्ययन करना चाहते हैं उन्हें तंत्र और वामाचार का गंभीरता से अध्ययन करना चाहिए। तंत्र में स्त्री को काफी महत्व दिया गया है। वामाचारी स्त्री को प्रसन्न रखने की कोशिश करते थे और इसके लिए स्त्री का रूप भी धारण करते थे। तंत्र में ऐसे अनेक अनुष्ठान हैं जिनका सीधे संबंध स्त्री से है।

कबीर के अंदर पुरूषोत्तम अग्रवाल ने नारी के भाव को खोजा है। उन्होंने लिखा है ‘‘कबीर की महत्ता इस बात में है कि वे कम से कम कविता के क्षणों में तो शाश्वत स्त्रीत्व को अपने आपमें व्यापने देते हैं।’’ इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि कबीर पर योगियों-नाथों-सिद्धों और तांत्रिकों का गहरा असर था। उन्होंने बड़ी मात्रा में तंत्र की धारणाओं का अपनी कविता में इस्तेमाल भी किया है।

तंत्र की योगसाधना मूलतःमनोदैहिक क्रियाएं हैं। देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने इस पहलू की ओर ध्यान खींचा है। उन्होंने लिखा है कि योग क्रियाएं ‘‘ अपने अंदर नारीत्व का बोध कराने के उग्र प्रयत्न के अतिरिक्त और कुछ नहीं। अन्य शब्दों में यह मूल व्यक्तित्व और चेतना को एक स्त्री के व्यक्तित्व और चेतना में परिवर्तित करने के लिए एक तरह का प्रशिक्षण है। हमारे विद्वान इस बात को अभी तक नहीं पकड़ पाए हैं।’’

बौद्धों से लेकर संस्कृत विद्वानों तक और देशज भाषाओं के रक्षक हिन्दी के पण्डितों तक योग में वर्णित नाडियों को लेकर जबर्दस्त भ्रम बना हुआ है। बाबा रामदेव जैसे लोग इसे स्नायुजाल बनाकर कसरत की दुकानदारी चला रहे हैं। सिर्फ एक ही उदाहरण काफी है। बौद्धों का एक मंत्र है ‘‘ओम मणि पद्मे हुम’’ अर्थात ओम वह मणि जो पद्म में विराजमान है। इस मंत्र का बौद्ध प्रतिदिन जप करते हैं।

लेकिन इसका असली अर्थ नहीं जानते। पद्म या कमल को तंत्रवाद में भग या योनि के अर्थ में लिया जाता है। पद्म इसका साहित्यिक नाम है। इसी तरह मणि का अर्थ बौद्धों में नाम है वज्र, लेकिन तंत्र में कहते हैं पुरूष का लिंग। मणि इसका साहित्यिक नाम है। इसी तरह सुषुम्ना नाडी पर सात कमल नारीत्व के सात स्थान हैं।

इसी तरह तंत्रवाद में त्रिकोण भग या योनि का प्रतीक है। इसके अलावा तंत्रों में सात शक्तियों जैसे कुलकुंडलिनी, वाणिनी, लाकिनी इत्यादि का उल्लेख किया है। प्रत्येक शक्ति एक-एक पद्म पर विराजमान है। मजेदार बात यह है कि वैष्णवों के सहजिया सम्प्रदाय में कुल कुंडलिनी शक्ति को राधा माना गया है यानी वह वैष्णवों का स्त्री सिद्धांत है। किंतु तंत्रवाद के निश्चित संदर्भ में ये सब अर्थ स्वीकार्य नहीं हैं। कायदे से सुषुम्ना आदि नाडियां स्त्री शक्ति और स्त्री संस्कृति की प्रतीक है। इसके अलावा वे किसी और रूप में स्वीकार्य नहीं हैं। यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से स्त्री संस्कृति आरंभ होती है।

हमारा यहां पर लक्ष्य योग के मंत्रों का विवेचन करना नहीं है। बल्कि उस बात की ओर ध्यान दिलाना है जिससे ये सारी चीजें परिचालित हैं। पुराना मंत्र है ,‘‘वामा भूत्वा यजेत् परम’’ अर्थात् स्वयं स्त्री बनकर प्रसन्न करो। यही वह आदि स्त्री सिद्धांत है जिससे कबीर प्रभावित हैं। इस प्रसंग में भंडारकर का मानना है कि ‘‘तंत्रवाद के प्रत्येक निष्ठावान अनुयायी की महत्वाकांक्षा है कि वह त्रिपुरसुंदरी (तंत्रवाद में स्त्री सिद्धांत का एक ना) बन जाए । उसकी धार्मिक साधनाओं में से एक यह है कि वह स्वयं को एक स्त्री के रूप में समझने लगे। इस प्रकार शक्तिमत के अनुयायी अपने नाम को इस विश्वास के साथ उचित बताते हैं कि भगवान एक स्त्री रूप है और सभी का लक्ष्य एक स्त्री बनना होना चाहिए।’’

कबीर के शाश्वत स्त्रीत्व बोध का एक और आयांम है जिसे मनोवैज्ञानिक आयाम कह सकते हैं। तंत्रवाद में योगसाधना का लक्ष्य कामोन्माद समाप्त करना नहीं है। यह कोई नपुंसकता की अवस्था भी नहीं है। बल्कि सच यह है कि योगसाधना के जरिए आंतरिक उन्माद,स्त्री उन्माद पैदा करना इसका लक्ष्य रहा है। वे पुरूषों में स्त्रीत्व जाग्रत करना चाहते थे। जो प्रत्येक पुरूष में होता है। नारीत्व को जाग्रत करके वे अपने अंदर के पुरूष को समाप्त कर देना चाहते थे। कामोन्माद को समाप्त करना उनका ध्येय नहीं था।बल्कि आनंद उठाना लक्ष्य था।

देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय ने लिखा है ‘‘स्वयं को स्त्री रूप में परिवर्तित करने का सतत प्रयत्न या अपने अंदर सुप्त नारीत्व को जाग्रत करने का युक्तिसंगत उद्देश्य (चाहे वह कितना ही विचित्र हो) यह था कि प्रकृति की उत्पादन संबंधी गतिविधि को क्रियाशील बनाने के लिए सर्वोच्च महत्व के इन कामों को पूरा किया जाए।’’

जब मुस्लिम वालिद को मिली थी हिन्दू बेटी

-फ़िरदौस ख़ान

मज़हब के नाम पर जहां लोग एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे रहते हैं, वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सिर्फ़ इंसानियत को ही तरजीह देते हैं। ऐसे लोग ही समाज का आदर्श होते हैं। ऐसा ही एक वाक़िया है, जो किसी फ़िल्मी कहानी जैसा लगता है, मगर है बिल्कुल हक़ीक़त। इसमें एक ग़रीब मुस्लिम व्यक्ति को रास्ते में एक अनाथ हिन्दू बच्ची मिलती है और वह उसे अपनी बेटी की तरह पालता है, उसके युवा होने पर पुलिस को इसकी ख़बर लग जाती है और वे लड़की को ले जाती है। फिर बूढ़ा मुस्लिम पिता अपनी हिन्दू बेटी को पाने के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाता है। सबसे अहम बात यह है कि उसे अदालत से अपनी बेटी मिल जाती है और फिर दोनों ख़ुशी-ख़ुशी साथ रहने लगते हैं।

ग़ौरतलब है कि गुजरात के भड़ूच के समीपवर्ती गांव तनकरिया में रहने वाले क़रीब 60 वर्षीय जादूगर सरफ़राज़ क़ादरी वर्ष 1995 में मध्यप्रदेश के इटारसी शहर में जादू का खेल दिखाने गए थे। वहां से लौटते वक्त उन्हें रेलवे स्टेशन पर रोती हुई एक बच्ची मिली। जब उन्होंने बच्ची से उसका नाम और पता पूछा तो वह कुछ भी बताने में असमर्थ रही। उन्हें उस बच्ची पर तरह आ गया और वे उसे अपने साथ घर ले आए। बच्ची के मिलने से कुछ साल पहले ही उनकी पत्नी, बच्चों एक बेटी और एक बेटे की मौत हो चुकी थी। उन्हें इस बच्ची में के रूप में अपनी ही बेटी नज़र आई। चुनांचे उन्होंने इस बच्ची को पालने का फ़ैसला ले लिया। बच्ची से मिलने के कुछ साल बाद ही उनके पास जादू का खेल सीखने के लिए एक लड़का और उसकी बहन आए। वे उनके ही घर रहने लगे। मगर दोनों ने अपने परिवार वालों को इसकी जानकारी नहीं दी। बच्चों के पिता ने पुलिस में शिकायत दर्ज करवा दी। इस पर पुलिस क़ादरी के घर पहुंच गई। जांच के दौरान पुलिस को मुन्नी पर भी शक हुआ। पूछताछ में मामला सामने आने के बाद पुलिस मुन्नी को अपने साथ ले गई। इसके बाद क़ादरी ने 25 अगस्त 2008 को अदालत में एक याचिका दायर कर वर्षा पटेल उर्फ़ मुन्नी को वापस दिलाने की मांग की, लेकिन अदालत द्वारा क़ादरी का आवेदन ठुकराए जाने के बाद मुन्नी को महिला संरक्षण गृह में रखा गया।

क़ादरी ने अदालत में कहा था कि उन्होंने मुन्नी को बेटी की तरह पाला है, इसलिए उन्हें ही उसका संरक्षण मिलना चाहिए। अदालत का कहना था कि नाबालिग़ लड़की मिलने पर पुलिस को इसकी सूचना या उसके हवाले किया जाना चाहिए, जो क़ादिर ने नहीं किया। वह लड़की को भले ही अपनी बेटी मानता हो, लेकिन उसके पास इसका कोई सबूत नहीं है।

तमाम परेशानियों के बावजूद क़ादरी ने हार नहीं मानी और आख़िर उनकी मेहनत रंग लाई। 14 दिसंबर 2008 में भड़ूच की एक फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट के न्यायाधीश एचके घायल ने मुख्य न्यायायिक मजिस्ट्रेट के फ़ैसले को पलटते हुए क़ादरी को मुन्नी के पालन-पोषण का ज़िम्मा सौंपने का आदेश दिया। अदालत ने पाया कि क़ादरी का कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है और मुन्नी अपनी मर्ज़ी से ही क़ादरी के साथ ही रह रही है। अदालत में दिए बयान में मुन्नी ने कहा था कि वह अपने पिता क़ादरी के साथ ही रहना चाहती है। उसका यह भी कहना था कि उसके अपने पिता का नाम जगदीश भाई के रूप में याद है, लेकिन मां का नाम उसे याद नहीं है। उसने यह भी कहा कि वह 18 साल की हो चुकी है।

यह वाक़िया उन लोगों के लिए नज़ीर है, जो नफ़रत को बढ़ावा देते हैं। कभी मज़हब के नाम पर, कभी भाषा के नाम पर तो कभी प्रांत विशेष के नाम पर बेक़सूर लोगों का ख़ून बहाकर अपनी जय-जयकार कराते हैं। कुछ भी हो, आख़िर में जीत तो इंसानियत की ही होती है।

राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ और सिमी में कोई फर्क नहीं : राहुल गांधी

भोपाल। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने आज राष्ष्ट्रीय स्वसेवक संघ (आरएसएस) के खिलाफ खुला मोर्चा खोलते हुए कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और प्रतिबंधित संगठन स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया (सिमी) में कोई फर्क नहीं है। दोनों ही कट्टरपंथी विचारधारा मानने वाले हैं। इन संगठनों से जुडे लोगों के लिए भारतीय युवा कांग्रेस में कोई स्थान नहीं है।

उधर राहुल के इस बयान के बाद संघ ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि राहुल को प्रतिबंघित संगठन और राष्ट्रवादी संगठन में फर्क पता नहीं है। संघ प्रवक्ता राममाधव ने राहुल के बयान पर कहा कि राहुल को इटली और कोलम्बिया से पहले भारत को समझना चाहिए। संघ पर कट्टरपंथ के आरोप के जवाब में राम माधव ने कहा कि राहुल को शायद पता नहीं कि भारत में कट्टरपंथ को सबसे ज्यादा बढ़ावा देने वाला दल कांग्रेस ही है। राहुल इतिहास को पढ़ लें तो उन्हें पता चल जाएगा। बहरहाल, हम न तो राहुल और न ही उनके बयानों को महत्व देते हैं।

युवा कांग्रेस के चुनावों के मद्देनजर मध्यप्रदेश के तीन दिवसीय दौरे के अंतिम दिन यहां पत्रकारों से चर्चा में गांधी ने कहा कि कट्टरपंथी विचारधारा के कारण ही वह संघ और सिमी दोनों संगठनों को एक जैसा मानते हैं और इसलिए इस प्रकार की विचारधारा से जुडे लोगों के लिए कांग्रेस से जुडे संगठन में कोई जगह नहीं है। युवा नेता ने कहा कि और वह अपने इस बयान में किसी प्रकार का विवाद नहीं देखते हैं।

राजस्‍थान पत्रिका से साभार

यह आस्था बनाम कानून नहीं, यह कानून द्वारा आस्था का अनुमोदन है

-लालकृष्‍ण आडवाणी

मैंने अपने जीवन के शुरु के बीस वर्ष कराची में बिताए। इस दौरान मैं दो ही भाषाओं को जानता था एक मेरी मातृभाषा सिंधी और दूसरी अंग्रेजी, जिसमें मेरी पढ़ाई हुई।

फिल्मों के प्रति मेरे शौक के चलते मैं हिंदी कुछ-कुछ समझ लेता था और टूटी-फूटी बोल भी लेता था लेकिन मैं हिन्दी पढ़ और लिख नहीं सकता था।

विभाजन के एक माह पश्चात् सितम्बर, 1947 में, मैं देश के इस भाग में आया। आगामी अगले दशक 1947-1957 में मैं राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में (संघ) प्रचारक के रुप में सक्रिय रहा।

देवनागरी लिपि से पूर्णतया अनभिज्ञता मेरे मन पर बोझ था। देवनागरी सीखने के उद्देश्य से मैंने पहले उसकी वर्णमाला और तत्पश्चात् ज्यादा से ज्यादा हिन्दी पुस्तकें पढ़ीं।

इसी दौर में मैंने डा. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी द्वारा लिखित गुजरात से सम्बन्धित सभी ऐतिहासिक उपन्यास पढे। इससे काफी पूर्व मैं फ्रेंच लेखक अलक्जेंडर डुमास के उपन्यास थ्री मस्कटियर्स, दि काउण्ट ऑफ मोण्टे क्रिस्ट्स, ब्लैक टयुलिप इत्यादि पढ़ चुका था। मैंने डा. मुंशी की शैली पर डुमास का प्रभाव देखा। मेरे अध्ययन के दौरान ही डा. मुंशी लिखित पुस्तकों (मूलत: गुजराती में लिखित) में से जय सोमनाथ, पुस्तक को पढ़ने का अवसर मुझे मिला, जिसने बाद में भी मेरी राजनीति को प्रभावित किया।

हालांकि, जय सोमनाथ एक काल्पनिक कथा थी जो सोमनाथ मंदिर पर हुए आक्रमण और उसके तहस-नहस तथा लूटने की पृष्ठभूमि में लिखि गई थी। लेकिन उसे पढ़ते हुए सोमनाथ की कहानी में मुझे स्वतंत्र भारत के आधुनिक दिनों की छाप दिखी। स्वामी विवेकानन्द समग्र साहित्य में ‘भारत का भविष्य‘ शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित एक लेख में स्वामीजी लिखते हैं:

”विदेशी आक्रमणकारी एक के बाद एक मंदिर तोड़ता रहा; लेकिन जैसे ही वह वापस जाता, फिर से वहां उसी भव्य रुप में मंदिर खड़ा हो जाता। दक्षिण भारत के इन मंदिरों में से कुछ मंदिर और गुजरात के सोमनाथ जैसे अन्य मंदिर आपको भारतवर्ष के इतिहास के बारे में इतना कुछ बता सकते हैं, जो आपको पुस्तकों के भंडार से भी जानने को नहीं मिलेगा। सोचिए, इन मंदिरों पर विध्वंस औेर पुनर्निर्माण के सैकड़ों निशान मौजूद हैं-लगातार बार-बार टूटते रहे और ध्वंसाशेषों से ही फिर बार बार खड़े होते रहे, पहले से भी ज्यादा भव्यता के साथ! यही है राष्ट्रीय भावना, राष्ट्रीय जीवनधारा। इस धारा के साथ चलिए, यह आपको गौरव की ओर ले जाएगी।”

ऐसे में यह स्वभाविक ही है कि वर्ष 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ तो अनेक हिंदुओं को लगा कि यह न केवल अंग्रेजी राज्य से मुक्ति है, बल्कि पूर्व-ब्रिटिश भारतीय इतिहास के उन पहलुओं से भी मुक्ति है, जिन्हें मूर्ति-भंजन, हिन्दू मंदिरों के विध्वंस और वंशीय पराभव तथा श्रेष्ठ सांस्कृतिक परंपराओं के उल्लंघन जैसी दुष्प्रवृत्तियों के रुप में देखा जाता रहा है।

ऐसी ही स्थिति गुजरात में सौराष्ट्र के जूनागढ़ रियासत में उत्पन्न हुई थी, जहां सोमनाथ का मंदिर स्थित है। जूनागढ़ की 80 प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या हिंदू थी, लेकिन रियासत का नवाब मुसलमान था। स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर नवाब ने अपनी रियासत को पाकिस्तान में मिलाने की घोषणा कर दी। इससे रियासत के हिन्दू भड़क उठे और उन्होंने विद्रोह कर दिया। परिणामस्वरुप एक स्थानीय कांग्रेसी नेता सामलदास गांधी के नेतृत्व में एक समानांतर सरकार बनायी गई। नवाब तो स्वाभाव से ही विलासिताप्रिय और लापरवाह शासक था, रियासत की जनता उसे बिलकुल पसंद नहीं करती थी, ने पाकिस्तान से मदद मांगी। परन्तु उसकी कोई भी युक्ति सफल नहीं हुई और अंतत: एक रात वह चुपचाप पाकिस्तान भाग गया ।

सामलदास गांधी और रियासत के दिवान सर शाह नवाज भुट्टो- जो जुल्फिकार अली भुट्टो के पिता थे- ने भारत को संदेश भेजा कि जूनागढ़ रियासत भारत में विलय करने वाली है। अपनी पुस्तक ”पिलग्रिमेज टु फ्रीडम” में के0एम0 मुंशी ने उस समय को याद करते हुए लिखा है कि सरदार वल्लभभाई पटेल -जो उस समय भारत के गृहमंत्री थे और जिन्हें देशी रियासतों को भारतीय संघ में मिलाने का श्रेय जाता है-ने उन्हें (के0एम0 मुंशी) विलय की सूचना वाला तार सौंपते हुए बड़े स्वाभिमान के साथ उद्धोष किया: ‘जय सोमनाथ‘।

जूनागढ़ के भारत में विलय के बाद सरदार पटेल ने 9 नवम्बर, 1947 को सौराष्ट्र का दौरा किया। उनके साथ नेहरु मंत्रिमंडल में तत्कालीन लोकनिर्माण एवं शरणार्थियों के पुर्नवास मंत्री एन0वी0 गाडगिल भी थे। जूनागढ़ की जनता ने दोनों का गर्मजोशी से स्वागत किया। अपने सम्मान में आयोजित जनसभा में सरदार पटेल ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण घोषणा की: स्वतंत्र भारत की सरकार ऐतिहासिक सोमनाथ मंदिर का उसी स्थान पर पुनरुध्दार करेगी, जहां प्राचीन काल में वह स्थित रहा था और उसमें ज्योतिर्लिंगम पुन: स्थापित किया जाएगा।

जूनागढ़ से सरदार पटेल के लौटने के तुरंत पश्चात् प्रधानमंत्री नेहरु ने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाकर पटेल की घोषणा की औपचारिक पुष्टि की। उस शाम जब पटेल और मुंशी गांधीजी को मिले तो उन्होंने भी इस प्रयास को अपना आशीर्वाद दिया लेकिन साथ ही बताया कि निर्माण की लागत जनता उठाए न कि सरकार। इसलिए सोमनाथ ट्रस्ट गठित करने का निर्णय लिया गया।

भारत सरकार ने डा. के0 एम0 मुंशी को सोमनाथ मंदिर निर्माण सम्बंधी परामर्शदात्री समिति का चेयरमैन नियुक्त किया। डा. मुंशी ने तय किया कि सरदार पटेल से मंदिर का लोकार्पण करवाया जाएगा। परन्तु जब तक निर्माण कार्य पूरा हुआ, सरदार पटेल का निधन हो गया।

अपनी पुस्तक ‘पिलग्रिमेज टू फ्रीडम‘ में मुंशी लिखते हैं:

”जब मंदिर में मूर्ति प्रतिष्ठापना का समय आया तो मैंने डा. राजेन्द्र प्रसाद से सम्पर्क कर पूछा कि वे समारोह में आएं लेकिन साथ ही यह शर्त भी लगाई कि वे तभी निमंत्रण स्वीकारें जब वे किसी भी हालत में आने को तैयार हों।

”डा. राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि वे मूर्ति प्रतिष्ठापना के लिए आएंगे चाहे प्रधानमंत्री का रवैया कैसा भी हो और उन्होंने जोड़ा ‘मुझे अगर मस्जिद या गिरजाघर के लिए भी आमंत्रित किया जाता तो भी मैं उसे स्वीकार ही करता। यही भारतीय पंथनिरपेक्षवाद का मूल तत्व है। हमारा देश न अधार्मिक है और न ही धर्म-विरोधी।

”मेरा अंदेशा सही निकला। जब यह घोषणा हुई कि राजेन्द्र प्रसाद सोमनाथ मंदिर के उदघाटन करेंगे तो पंडित जवाहर लाल ने उनके वहां जाने का जोरदार विरोध किया। लेकिन राजेंद्र बाबू ने अपने वचन का पालन किया।”

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जून 1998 में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक पालमपुर (हिमाचल प्रदेश) में हुई और उसमें अयोध्या आंदोलन को समर्थन देने का औपचारिक प्रस्ताव पारित किया गया। प्रस्ताव में सरकार से आग्रह किया गया कि वह अयोध्या मंदिर मामले में वही दृष्टि अपनाए जो स्वतंत्र भारत की पहली सरकार ने सोमनाथ मंदिर के बारे में अपनाई थी।

25 सितम्बर, 1990 से सोमनाथ से अयोध्या की 10,000 किलोमीटर लम्बी रथयात्रा का मेरा निर्णय अयोध्या मंदिर के मुद्दे के लिए समर्थन जुटाना था। यात्रा ने देश में एक बहस को जन्म दिया: वास्तविक सेकुलरिज्म बनाम छद्म सेकुलरिज्म-ऐसी ही बहस चालीस वर्ष पूर्व जब पंडित नेहरु ने सोमनाथ संबधी ऐसे ही कार्य के लिए डा. मुंशी को फटकारा था, के समय पहली बार सामने आई थी।

डा. मुंशी ने भवन की पत्रिका के एक अंक में पिलग्रिमेज टु फ्रीड्म को पुन: उद्वृत करते हुए लिखा:

मंत्रिमंडल की बैठक समाप्ति के बाद जवाहरलाल ने मुझे बुलाया और कहा ”सोमनाथ को पुर्नस्थापित करने के आपके प्रयास मुझे पसंद नहीं हैं। यह हिन्दू नवजागरण है।”

डा. मुंशी ने तुरंत प्रतिक्रिया नहीं की। परन्तु उनकी सुविचारित प्रतिक्रिया प्रधानमंत्री को भेजे अनेक पृष्ठों के लम्बे पत्र के रुप में सामने आई जिसमें उन्होंने जोर दिया कि उनकी गतिविधियां कोई व्यक्तिगत उपक्रम न होकर सरकार के स्वयं के निर्णय की पालना हैं।

सोमनाथ के पुनरुध्दार से जुड़े सामाजिक सुधार के पहलू पर जोर देते हुए मुंशी ने आगे लिखा:

”मंदिर के द्वार हरिजनों के लिए खोलने के निर्णय की हिन्दू समुदाय के कट्टरपंथी वर्ग की ओर से कुछ आलोचना जरुर हो रही है, लेकिन ट्रस्ट के करारनामें में स्पष्ट कर दिया गया है कि मंदिर के द्वार न केवल हिंदू समुदाय के सभी वर्गों के लिए खुले हैं, बल्कि सोमनाथ मंदिर की प्राचीन परंपरा के अनुसार, वह गैर हिंदू यात्रियों के लिए भी खुले हैं। कई रीति-रिवाजों को मैं अपने व्यक्तिगत जीवन में बचपन से ही तोड़ता रहा हूं। हिंदूधर्म के कुछ पहलुओं को जोड़ने के लिए मैंने अपने साहित्यिक और सामाजिक कार्य के माध्यम से अपनी ओर से विनम्र प्रयास किया है -इस विश्वास के साथ कि ऐसा करके ही आधुनिक परिस्थितियों में भारत को एक उन्नत और शक्तिशाली राष्ट्र बनाया जा सकता है।”

पत्र की समाप्ति इन मार्मिक और चेतावनी भरे शब्दों के साथ हुई :

‘भविष्य को ध्यान में रखकर वर्तमान में कार्य करने की शक्ति मुझे अतीत के प्रति अपने विश्वास से ही मिली है। भारत की स्वतंत्रता अगर हमें भगवद्गीता से दूर करती है या हमारे करोड़ों लोगों के इस विश्वास या श्रध्दा को तोड़ती है, जो हमारे मंदिरों के प्रति उनके मन में है और हमारे समाज के ताने-बाने को तोड़ती है तो ऐसी स्वतंत्रता का मेरे लिए कोई मूल्य नहीं है। सोमनाथ मंदिर के पुनरुध्दार का जो सपना मैं हर रोज देखता हूं, उसे पूरा करने का मुझे गौरव प्राप्त हुआ है। इससे मेरे मन में यह अहसास और विश्वास उत्पन्न होता है कि इस पवित्र स्थल के पुनरूध्दार से हमारे देशवासियों की धार्मिक अवधारणा अपेक्षाकृत और शुध्द होगी तथा इससे अपनी शक्ति के प्रति उनकी सजगता और भी बढ़ेगी, जो स्वतंत्रता के इन कठिनाई भरे दिनों में बहुत आवश्यक है।”

यह पत्र पढ़कर जाने-माने प्रशासनिक अधिकारी, वी.पी. मेनन-जिन्होंने देशी रियासतों के एकीकरण में सरदार पटेल की भरपूर मदद की थी-ने मुंशी को एक पत्र लिखा-‘मैंने आपके इस अद्भुत पत्र को देखा है। जो बातें आपने पत्र में लिखी हैं, उनके लिए मैं तो जीने, और आवश्यकता पड़ने पर मरने के लिए भी तैयार हूं।‘

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सन् 2008 के शुरु में लिखी गई मेरी आत्मकथा में, मैंने वाजपेयी सरकार के दौरान अयोध्या विवाद के होने वाले समाधान के बारे में विस्तार से लिखा है। पृष्ठ 337-338 (हिन्दी) में मैंने लिखा:

”अयोध्या आंदोलन में प्रमुख भागीदार के रुप में राजग के छह वर्ष के शासन काल में मेरा प्रयास रहा कि यह विवाद शीघ्रतापूर्वक तथा शांति से कैसे सुलझाया जा सकता है।

”इस विवाद के समाधान के प्रमुख तीन विकल्प थे: (1) विधि द्वारा, (2) न्यायिक निर्णय द्वारा, तथा (3) हिंदू और मुस्लिम समुदायों के प्रतिनिधियों के बीच मैत्रीपूर्ण समझौते द्वारा।

”अयोध्या मुद्दे पर राजनीतिक और न्यायिक पहलुओं की भली प्रकार से समीक्षा के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि अंतिम विकल्प ही सर्वोत्तम मार्ग था-मैंने अनेक अवसरों पर संसद् के भीतर और बाहर, इस विकल्प की चर्चा भी की थी।

”संक्षेप में, मेरा यह विचार था, ‘विधायी समाधान का खंडन नहीं किया जा सकता, लेकिन इसकी संभावना क्षीण है। न्यायिक प्रक्रिया से निर्णय के दोनों में से किसी एक पक्ष को दु:ख और कष्ट होगा। तीसरे विकल्प की स्वीकार्यता और उसके स्थायित्व की संभावना अधिक है तथा निस्संदेह परस्पर स्वीकार्य समझौते को भी न्यायपालिका की संतुति लेनी आवश्यक होगी, जिससे सभी लंबित मामले खत्म हो जाएंगे।

इस अर्थ में अंतिम समाधान विकल्प 2 और 3 का मिश्रित रुप होगा।

”मुझे यह प्रसन्नता है कि अटलजी और मैं इस रचनात्मक दृष्टिकोण का समर्थन करने के लिए राजग के सहयोगी दलों को राजी करने में सफल रहे। तद्नुसार, 2004 के संसदीय चुनावों के लिए इस गठबंधन के चुनाव घोषणा -पत्र में कहा गया था-‘राजग का विश्वास है कि अयोध्या मुद्दे के शीघ्र और मैत्रीपूर्ण समाधान से राष्ट्रीय एकता सुदृढ़ होगी। हमारा सदैव यही मानना रहा है कि इस विषय में न्यायिक निर्णय को सभी लोगों को स्वीकार करना चाहिए। साथ ही, परस्पर संवाद तथा आपसी विश्वास और सद्भावपूर्ण वातावरण से हुए एक सौहार्दपूर्ण समझौते के लिए भी प्रयासों को गति देनी चाहिए।

”मैं गर्व के साथ कह सकता हूं कि अटल बिहारी वाजपेयी के छह वर्षों के शासनकाल में गृहमंत्री के पद पर रहते हुए मैंने दोनों पक्षों को न्यायिक बातचीत के साझा मंच पर लाने के लिए अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी। मेरे इस प्रयास में हिंदू और मुस्लिम दोनों ही पक्षों के निष्ठावान मध्यस्थों ने सहयोग दिया। बातचीत के कई दौर के बाद अंतत: आपसी सहमति पर आधारित हल स्पष्ट दिखाई देने लगा था-और इस प्रकार रामजन्मभूमि पर एक भव्य राम मंदिर के निर्माण का रास्ता भी तैयार होने वाला था।

”वर्ष 2004 के आरंभ में ही इस आपसी समझौते के सिध्दांत तय कर लिये गए थे और यह निर्णय लिया गया कि मई में होने जा रहे चौदहवीं लोकसभा के चुनावों के तुरंत बाद इसकी घोषणा की जाएगी। वस्तुत: यह निर्णय इस उम्मीद पर लिया गया था कि लोकसभा चुनावों में वाजपेयी सरकार को नया बहुमत मिलेगा और तब वह इस समझौते को लागू करने की जिम्मेदारी स्वयं लेगी। लेकिन दुरर्भाग्य से ऐसा नहीं होना था।

”किन्तु मैं तो नियति में अटूट विश्वास रखता हूं। मुझे विश्वास है कि अयोध्या में रामजन्मभूमि पर एक भव्य और विराट् मंदिर बनना अवश्यंभावी है। ऐसा कैसे और कब होगा, इसका महत्व कम है और यह आनेवाला समय और इतिहास ही बताएगा। लेकिन यह बात उतनी ही सत्य है जितना कि सोमनाथ मंदिर का आक्रमणकारियों द्वारा बार-बार तोड़ा जाना और बार-बार उसे बनाया जाना तथा स्वतंत्रता मिलते ही उसका स्थायी रुप से पुनरुध्दार किया जाना।

”मेरे लिए यह गर्व की बात है कि शताब्दियों पुराने हिंदू संकल्प को पूरा करने के इस सामूहिक राष्ट्रीय प्रयास में मुझे अपनी भूमिका निभाने का अवसर मिला। मेरा अपने मुस्लिम भाइयों से केवल इतना अनुरोध है कि वे हिंदुओं की तरह ही उदार और सद्भावपूर्ण पहल के साथ आगे आएं।”

आज मुझे यह कहते हुए अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है कि दो दिन पूर्व इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए महत्वपूर्ण निर्णय के बाद देश एक ऐसे संयोगजन्य मोड़ पर आ पहुंचा है जहां उपरोक्त लिखित विकल्प 2 और 3 के सम्मिश्रण के रुप में संभव हो सकता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी-दोनों ने ही जोर दिया है कि यह निर्णय देश में लाखों लोगों के इस विश्वास को मान्यता देता है कि जहां वर्तमान में रामलला विराजमान हैं-वही राम का जन्म स्थान है।

अब स्थिति आस्था बनाम कानून नहीं बल्कि कानून द्वारा आस्था की अनुमोदन करने वाली है।