Home Blog Page 2646

डा. डेविड फ्रॉले उर्फ वामदेव शास्त्री

-लालकृष्‍ण आडवाणी

गत् सप्ताह मुझे योग और आयुर्वेद के विशेषज्ञ एक महान वैदिक विद्वान जो वर्तमान में न्यू मैक्सिको के सांटा फे स्थित अमेरिकन इंस्टीटयूट ऑफ वैदिक स्टडीज के प्रमुख हैं, से मिलने का सुअवसर मिला। यह वेदाचार्य डेविड फ्रॉले के रुप में जन्मे परन्तु हिन्दू धर्म के प्रति उनके आकर्षण से वह वामदेव शास्त्री के रुप में पहचाने गए।

मुझे इन अमेरिकी विद्वान के साठवें जन्म दिवस यानी उनकी षष्ठिपूर्ति के कार्यक्रम में निमंत्रित किया गया था।

श्री वैंकया नायडू के नई दिल्ली स्थित आवास पर आयोजित इस कार्यक्रम में उनके चुनींदा प्रशंसक एकत्रित हुए थे। सांसद श्री चंदन मित्रा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह-सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय हॉसबोले सहित सभी वक्ताओं ने उनके इस अमूल्य काम की प्रशंसा की कि वे दुनिया के सामने हिन्दु धर्म द्वारा प्रतिपादित मूल्यों और धारणाओं को व्याख्यायित कर रहे हैं जोकि न केवल हिन्दू समाज अपितु समूचे ब्रह्माण्ड के लिए लागू होती हैं।

डा. फ्रॉले ने अनेक पुस्तकें लिखी हैं। उनकी नवीनतम पुस्तक है ”यूनिवर्सल हिन्दूज्म: टूवॉर्डस ए न्यू विजन ऑफ सनातन धर्म।” डा. फ्रॉले ने डा. दीपक चोपड़ा और डा. डेविड साइमन के साथ मिलकर काम किया है जो चोपड़ा वेल्नेस सेंटर के संकाय सदस्य हैं।

डा. फ्रॉले के साथ विगत् सप्ताह की मेरी बातचीत ने मेरे दिमाग में ऐसे अनेक पश्चिमी ख्यातिप्राप्त व्यक्तियों का नाम स्मरण करा दिया जो एक बार किसी हिन्दू विद्वान के सम्पर्क में आए और हिन्दूधर्म और भारत के रंग में ऐसे रंगे कि उन्होंने अपने जीवन की दिशा ही बदल दी।

ऐसा ही एक अंग्रेज-आयरिश सामाजिक कार्यकर्ता मारर्गेट एलिजाबेथ नोबल के साथ हुआ जो 1895 में स्वामी विवेकानन्द से लंदन में मिलीं और 1898 में उनके साथ भारत का दौरा किया। स्वामी विवेकानन्द ने उन्हें रामकृष्ण मिशन में शामिल किया और उन्हें निवेदिता (भगवान को समर्पित) नाम दिया।

तत्पश्चात् ऐसी ही घटना ब्रिटिश रियर एडमायरल सर एडमंड स्लेड की पुत्री मेडेलाइन स्लेड के साथ घटी। उन्होंने महात्मा गांधी के साथ रहने और काम करने के लिए इंग्लैंड में अपना घर बार छोड़ दिया।

वास्तव में वह बीथोवेन के संगीत के प्रति अगाध रुप से समर्पित थी। जब उन्होंने रोमेन रॉलेन्ड द्वारा लिखित इस महान संगीतज्ञ की जीवनी के बारे में सुना तो वे उनसे मिलने गईं। रोमेन रॉलेन्ड ने महसूस किया कि बोथोवेन के प्रति उनका स्नेह भाव आध्यात्मिक झुकाव वाला है, जिसके लिए महात्मा गांधी जैसे आध्यात्मिक नेता कहीं ज्यादा उपयुक्त होगें। गांधीजी ने उन्हें सलाह दी कि वे स्कूल शिक्षक के अपने बुनियादी प्रशिक्षण का उपयोग भारत में कन्याओं को शिक्षित करने में करें।

ब्रिटेन की ही एनी बुड, फ्रेंक बेसेंट से शादी के बाद एनी बेसेंट बनीं। एनी बेसेंट महिला अधिकार कार्यकर्ता और ब्रह्मविद्यावादी थीं। 1898 में उन्होंने भारत की यात्रा की और भारत की राजनीति तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गतिविधियों में सक्रिय हुईं। 1917 में वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गईं।

डा0 डेविड फ्रॉले के षष्ठिपूर्ति कार्यक्रम में मैंने इन उदाहरणों का स्मरण करते हुए कहा कि स्वयं एक पत्रकार के नाते मैं मार्क टुली (भारत में बी0बी0सी0 के संवाददाता रहे और सेवानिवृति के बाद जिन्होंने भारत को अपने घर के रुप में चुना) से काफी प्रभावित हुआ हूं जिनकी हिन्दूधर्म के बारे में समझ इतनी गहरी है कि जिसे उन्होंने अपनी पुस्तक ‘इण्डियाज़ अनएण्डिंग जर्नी’ के बारे में लिखा है:

”यह पुस्तक वर्णन करती है कि भारत की सहिष्णुता और बहुलवाद, इसकी तार्किक और तर्कमूलक परम्परा और इसकी निश्चितता की अनिश्चितता की स्वीकृति क्या है, का मेरे लिए क्या अर्थ है और मैं सोचता हूं कि भारत यह संदेश दुनिया को दे सकता है।”

मार्क टली की पुस्तक स्वयं कहती है: भारत में मेरे अनुभवों ने मुझे फिर से उस धर्म के बारे में सोचने पर बाध्य किया जो मुझे सिखाया गया था क्योंकि मैंने महसूस किया कि जो मेरी नजरों के सामने सही है उसे मैं उपेक्षित नहीं कर सकता: भगवान तक पहुंचने के अनेक मार्गों का अस्तित्व……जब मुझे यह समझ आया कि हजारों वर्षों से विभिन्न देशों और संस्कृतियों और माहौल में बदलती ऐतिहासिक परिस्थितियों में लोगों का यह अनुभव कि जो दिखता है वही समान सच्चाई है यद्यपि उस सच्चाई को भिन्नता से वर्णित किया गया है, मैंने देखा कि एक सर्वव्यापी भगवान कहीं अधिक तार्किक लगता है बजाय उस एक के जो भगवान अपनी गतिविधियां इसाइयों तक सीमित रखता है।”

हमारे जैसे अनेकों जिन्होंने कांग्रेसी शासन के आपातकाल के विरुध्द संघर्ष किया था, मार्क टली ने भी इसके विरोध में अपना साहसी प्रतिरोध किया था। यह अनेक हमारे पत्रकारों से अलग था जिनके बारे में मैंने कहा था कि जब सरकार ने आपको सिर्फ झुकने के लिए कहा था तो आप में से कुछ रेंगने को तैयार हो गए! निश्चित रुप से टली को अपने इस रुख के लिए नुक्सान सहना पड़ा। उन्हें भारत से निर्वासित कर दिया गया और वे तभी लौट सके जब सरकार बदल गई और आपातकाल समाप्त कर दिया गया।

अयोध्या और पाकिस्तान

-हामिद मीर, इस्लामाबाद से

बाबरी मस्ज़िद विवाद के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये फैसले पर किसी पाकिस्तानी मुसलमान के लिये निष्पक्ष टिप्पणी करना बेहद मुश्किल है। पाकिस्तान के अधिकांश मुसलमान मानते हैं कि यह ‘कानूनी’ नहीं ‘राजनीतिक’ फैसला है। फैसला आने के तुरंत बाद मैंने अपने टीवी शो ‘कैपिटल टॉक’ के फेसबुक पर आम पाकिस्तानी लोगों की राय जानने की कोशिश की।

बहुत से पाकिस्तानी इस फैसले से खुश नहीं थे लेकिन मैं एक टिप्पणी को लेकर चकित था, जिसमें कहा गया था कि “इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भारतीय मुसलमानों को बचा लिया।” कुछ पाकिस्तानियों ने मुझे लिखा कि “यह उचित फैसला है।”

इन ‘अल्पसंख्यक’ लेकिन महत्वपूर्ण टिप्पणियों ने मुझे एक भारतीय समाचार माध्यम के लिये लिखने को प्रेरित किया।

सबसे पहले तो मैं अपने भारतीय पाठकों को साफ करना चाहूंगा कि पाकिस्तानी मीडिया ने कभी भी इस फैसले को लेकर हिंदुओं के खिलाफ नफरत फैलाने की कोई कोशिश नहीं की। पाकिस्तान के सबसे बड़े निजी टेलीविजन चैनल जिओ टीवी पर इसका कवरेज बेहद संतुलित था। जिओ टीवी ने मुस्लिम जज जस्टिस एस.यू. खान के फैसले को प्रमुखता दी, जो हिंदू और मुस्लिम दोनों कौमों को अयोध्या की जमीन बराबरी से देने पर सहमत थे।

पाकिस्तानी मुसलमानों में अधिकांश सुन्नी विचारधारा के लोग हैं। सुन्नी बरेलवी मुसलमानों में सर्वाधिक सम्मानित विद्वान मुफ्ती मुन्नीबुर रहमान 30 सितंबर की रात 9 बजे के जीओ टीवी के न्यूज बुलेटिन में उपस्थित थे। उन्होंने फैसले पर अपनी राय देते हुये कहा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह फैसला राजनीतिक है लेकिन उन्होंने भारतीय मुसलमानों से अपील की कि “उन्हें अपनी भावनाओं पर काबू रखना चाहिये और इस्लाम के नाम पर किसी भी तरह की हिंसा से उन्हें दूर रहना चाहिये।”

मैं 1992 में बाबरी मस्ज़िद के गिराये जाने के बाद पाकिस्तान में हिंदू मंदिरों पर किये गये हमले को याद करता हूं। पाकिस्तान में चरमपंथी संगठनों ने उस त्रासदी का खूब फायदा उठाया। असल में चरमपंथी इस विवाद के सर्वाधिक लाभ उठाने वालों में थे, जो यह साबित करने की कोशिश में थे कि भारत के सभी हिंदू भारत के सभी मुसलमानों के दुश्मन हैं, जो सच नहीं था। 2001 तक बाबरी मस्ज़िद विवाद बहुत से लेखकों और पत्रकारों के लेखन का विषय था।

9/11 की घटना ने पूरी दुनिया को बदल दिया और पाकिस्तानी चरमपंथी गुटों की निगाहें भारत से मुड़कर अमरीका की ओर तन गईं। 2007 में पाकिस्तानी सेना द्वारा इस्लामाबाद के लाल मस्ज़िद पर किये गये हमले के बाद तो बाबरी मस्ज़िद विवाद का महत्व और भी कम हो गया। अधिकांश पाकिस्तानी मुसलमानों की सही या गलत राय थी कि अपदस्थ किये गये पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश के पक्ष में वकीलों के आंदोलन से ध्यान हटाने के लिये यह परवेज मुशर्रफ द्वारा खुद ही रचा गया ड्रामा था।

मुझे याद है कि 2007 में बहुत से मुस्लिम विद्वानों ने यह कहा था कि हम उन अतिवादी हिंदुओं की भर्त्सना करते हैं, जिन्होंने बाबरी मस्ज़िद पर हमला किया लेकिन अब पाकिस्तानी सेना द्वारा इस्लामाबाद में एक मस्ज़िद पर हमला किया गया है, तब हम क्या कहें?

लाल मस्ज़िद ऑपरेशन ने पाकिस्तान में ज्यादा अतिवादिता फैलाई और वह एक नये दौर की शुरुआत थी। चरमपंथियों ने सुरक्षाबलों पर आत्मघाती हमले शुरु कर दिया और कुछ समय बाद तो वे उन सभी मस्ज़िदों पर भी हमला बोलने लगे, जहां सुरक्षा बल के अधिकारी नमाज पढ़ते थे।

मैं यह स्वीकार करता हूं कि भारत में गैर मुसलमानों द्वारा जितने मस्ज़िद तोड़े गये होंगे, पाकिस्तान में उससे कहीं अधिक मस्ज़िदें तथाकथित मुसलमानों द्वारा तोड़ी गयीं।

मेरी राय में किसी भी पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ या मजहबी गुट को बाबरी मस्ज़िद विवाद का फायदा उठाने की कोशिश नहीं करनी चाहिये। इस विवाद को भारत के मुसलमानों और हिंदुओं को पर छोड़ देना चाहिये, जो अपने कानूनी प्रक्रिया से इसे सुलझायेंगे। सुन्नी वक्फ़ बोर्ड फैसले से खुश नहीं है लेकिन ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की पृष्ठभूमि में सुलह की उम्मीद देख रहा है। एक पाकिस्तानी के तौर पर हम क्या कर सकते हैं?

मैं सोचता हूं कि बतौर पाकिस्तानी हमें अपने मुल्क के अल्पसंख्यकों को और अधिक कानूनी, राजनीतिक और नैतिक संरक्षण दें; सत्ता और विपक्ष में शामिल अपने कई मित्रों को मैंने पहले भी सुझाव दिया है कि हम पाकिस्तानी हिंदुओं, सिक्खों और इसाइयों के हितों का और ख्याल रखें। वो जितने मंदिर या चर्च बनाना चाहें, हम इसकी अनुमति उन्हें दें। हमें पाकिस्तान के ऐसे भू-माफियाओं को हतोत्साहित करने की जरुरत है, जो सिंध और मध्य पंजाब के हिंदू मंदिरों और गिरजाघरों पर कब्जे की कोशिश करते रहते हैं। जब हम पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों को अधिक से अधिक संरक्षण देंगे तो भारतीय भी ऐसा ही करेंगे और वे अपने मुल्क के अल्पसंख्यकों की ज्यादा हिफाजत करेंगे।

पाकिस्तानियों को अपने मस्ज़िदों की हिफाजत करनी चाहिये। आज की तारीख में हमारे मस्ज़िद हिंदू अतिवादियों के नहीं, मुस्लिम अतिवादियों के निशाने पर हैं। अतिवाद एक सोच का तरीका है।। इनका कोई मजहब नहीं होता। लेकिन कभी ये इस्लाम के नाम पर, कभी हिंदू धर्म के नाम पर तो कभी इसाइयत के नाम पर हमारे सामने आते हैं। हमें इन सबकी भर्त्सना करनी चाहिये।

(लेखक पाकिस्तानी टीवी चैनल जिओ टीवी के संपादक हैं।)

साठ वर्ष के भटकाव का अन्त

-देवेन्द्र स्वरूप

सितम्बर (बृहस्पति-वार) 2010 को भारत के इतिहास में एक युगान्तर कारी तिथि के रूप में स्मरण किया जाएगा। लगभग पांच सौ साल तक भारत की अनेक पीढ़ियां एक विदेशी आक्रमणकारी के आदेश पर अयोध्या में निर्मित जिस ढांचे को राष्ट्रीय अपमान के रूप में देखकर आहत थीं, उस ढांचे को न्यायालय ने रामजन्मस्थान के रूप में मान्यता प्रदान कर दी और वहां मर्यादा पुरुषोत्तम राम का भव्य मंदिर निर्माण का पथ प्रशस्त कर दिया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ की तीन सदस्यीय खंडपीठ के इस ऐतिहासिक निर्णय को किसी की जय पराजय के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। इसे स्वाधीन खंडित भारत के भटकाव से बाहर निकलने के स्वर्णावसर के नाते देखा जाना चाहिए। यहां अयोध्या आंदोलन के पूरे इतिहास को खंगालने की आवश्यकता नहीं है। यह आंदोलन अनेक ज्ञात और अज्ञात चरणों से गुजरता हुआ निरंतर आगे बढ़ता है। कल जो निर्णय आया है वह 22 दिसंबर 1949 की अर्धरात्रि में उस विवादास्पद ढांचे के भीतर रामलला की प्रतिमा के प्राकटय से प्रारंभ हुए चरण का समापन कहा जा सकता है।

भारत विभाजन की पृष्ठभूमि

इस घटना को 15 अगस्त, 1947 को भारत के विभाजन की पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए था। उस विभाजन का एकमात्र कारण पृथकतावादी मुस्लिम मानसिकता थी। 1945-46 के चुनाव परिणामों ने स्पष्ट कर दिया कि पूरा हिन्दू समाज कांग्रेस के अखंड भारत कार्यक्रम के साथ खड़ा हो, जबकि लगभग पूरा मुस्लिम समाज मुस्लिम लीग की विभाजन की मांग के पीछे खड़ा रहा। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के समर्थन के कारण भारत को विभाजन की दारुण भयंकर त्रासदी से गुजरना पड़ा। इस त्रासदी का सहज परिणाम विभाजित खंडों के बीच जनसंख्या परिवर्तन के रूप में हो सकता था। मुस्लिम लीग की ओर से यह मांग उठी भी थी किंतु भारतीय नेतृत्व के मन में यह धारणा गहरी बैठी हुई थी कि भारत में हिन्दू मुस्लिम विभाजन को ब्रिटिश कूटनीति ने पैदा किया है। इसलिए अंग्रेजों के चले जाने के बाद हम मुस्लिम समाज को राष्ट्रीय धारा का अभिन्न अंग बनाकर दिखाएंगे। विभाजनोत्तर खंडित भारत के मुस्लिम समाज ने उनकी इस उदार मानसिकता को पहचानकर खंडित भारत में ही बसे रहने का मन बनाया और भारत ने उसका स्वागत किया। नवनिर्मित संविधान में उनकी मजहबी अस्मिता की रक्षा के लिए विशेष व्यवस्थायें की गयीं।

सामान्य जनमानस ने खंडित भारत की स्वाधीनता को सातवीं शताब्दी से अफगानिस्तान के हिन्दू प्रदेश पर आरंभ हुए अरब आक्रमणों के हजार साल लम्बे इतिहास की परिणति के रूप में देखा। उसने विदेशी आक्रमणकारियों की हिन्दू धर्मस्थलों की विध्वंस-लीला के इतिहास से छुटकारे के रूप में विभाजन को देखा। सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का संकल्प और अयोध्या में रामजन्मस्थान का उध्दार उसी इतिहास दृष्टि और छटपटाहट के परिचायक थे। 22 दिसंबर को विवादित बाबरी ढांचे के भीतर रामलला के प्राकटय को भी इसी छटपटाहट और इतिहास बोध के प्रतीक रूप में देखा जाना चाहिए था। विभाजन के लिए मुस्लिम लीग का समर्थन करने वाले मुसलमानों ने खंडित भारत में बसे रहने का निर्णय करते समय इतिहास के इस संकेत को क्यों नहीं समझा, यह समझना कठिन है। वस्तुत: भारत में एकात्मक राष्ट्रीय समाज के निर्माण की दिशा में उन्हें पहल करनी चाहिए थी और सहस्रों हिन्दू मंदिरों व श्रध्दाकेन्द्रों की मध्ययुगीन विध्वंस लीला से अपना संबंध विच्छेद करने के संकल्प के प्रतीक स्वरूप अयोध्या, काशी और मथुरा के विध्वंसित स्थलों पर उपयुक्त भव्य राष्ट्रीय स्मारक निर्माण करने में अपना पूर्ण सहयोग देना चाहिए था। देश का दुर्भाग्य है कि वैसा नहीं हुआ और कल के न्यायालयी निर्णय को प्राप्त करने के लिए उसे साठ वर्ष लम्बा कानूनी युद्ध और जनांदोलन की पीड़ा से गुजरना पड़ा।

राष्ट्रीय आंदोलन

इस लेखक ने प्रारंभ से अयोध्या आंदोलन को केवल एक धार्मिक आंदोलन के रूप में न देखकर राष्ट्रीय आंदोलन माना है। 27 अक्तूबर 1991 को हिन्दी दैनिक ‘राष्ट्रीय सहारा’ में ‘हमारी राष्ट्रीयता का प्रतीक श्रीराम जन्मभूमि मंदिर’ शीर्षक लेख में हमने स्पष्ट शब्दों में लिखा कि यह सत्य है कि मुस्लिम भारतीयों की वर्तमान पीढ़ी को मध्यकालीन मुस्लिम आक्रमणकारियों एवं शासकों की मजहबी असहिष्णुता एवं विध्वंसलीला के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। किंतु यह भी उतना ही सत्य है कि इस मध्ययुगीन विचारधारा से संबंध विच्छेद किये बिना भारत में पंथनिरपेक्षता का पौधा लंबे समय तक जीवित नहीं रह सकता। पंथनिरपेक्षता एवं सहिष्णुता पर आधारित समाज जीवन खड़ा करने के लिए आवश्यक था कि देश विभाजन की विभीषिका के बाद भारतीय मुसलमानों में आत्मालोचन एवं सुधार का कोई जबरदस्त आंदोलन प्रारंभ होता, किंतु दुख के साथ कहना पड़ता है कि ऐसा नहीं हुआ, बल्कि तब से अब तक ‘मुस्लिम प्रश्न’ ही भारतीय राजनीति का केन्द्र बिन्दु बना रहा है।

उसी लेख में आगे है, ‘इसके लिए मुस्लिम नेतृत्व से अधिक दोषी है वह हिन्दू नेतृत्व जो थोक वोटों को पाने के लोभ में और पंथनिरपेक्षता की आड़ में मुस्लिम संप्रदायवाद को भड़काता है, मुसलमानों के मन में हिन्दू विद्वेष जगाता है। हमारी दृष्टि में अयोध्या आंदोलन ऐसी दो विचारधाराओं का टकराव है जिनमें से एक विचारधारा उपासना स्वातंत्र्य, सर्वपंथ समादर भाव एवं पंथनिरपेक्षता की मूल भित्ति पर टिकी हुई है, जबकि दूसरी विचारधारा का आधार मजहबी एकरूपता, केन्द्रीयकरण, विस्तारवाद और असहिष्णुता है।’

यह कितने गर्व और संतोष की बात है कि जिस संघ परिवार पर झूठे पंथ निरपेक्षतावादी सत्तालोलुपों ने मुस्लिम विरोधी छवि आरोपित कर दी है, उसी संघ परिवार के मुखिया अर्थात् राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने न्यायालयी निर्णय की घोषणा के तुरंत बाद सायं 5.00 बजे पत्रकार परिषद् बुलाकर इस निर्णय का स्वागत करते हुए चेतावनी दी कि इसे किसी भी पक्ष की विजय-पराजय के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। उन्होंने मुस्लिम समाज से अनुरोध किया कि वे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र का मंदिर बनाने में अपना पूर्ण सहयोग दें। उन्होंने स्पष्ट किया कि वे राम को देवी-देवता के बजाय राष्ट्रीय महापुरुष के रूप में स्वीकार करें। सरसंघचालक का यह कथन पिछले साठ साल के भटकाव से बाहर निकलकर एकात्म राष्ट्रीय समाज के निर्माण का रास्ता खोल देता है।

सत्तालोभी हतप्रभ

मुस्लिम समाज को केवल वोट बैंक के रूप में देखने वाला सत्तालोभी राजनेता वर्ग इस समय हतप्रभ सा है। वामपंथी इतिहासकार, जिन्होंने अपना पूरा बुध्दि चातुर्य बाबरी ढांचे के निर्माण के पूर्व एक हिन्दू मंदिर के अस्तित्व को नकारने में लगा दिया अनेकानेक साहित्यिक साक्षियों, ढांचे के भीतर व बाहर विद्यमान पुरातात्विक अवशेषों, यहां तक कि बारहवीं शताब्दी के शिलालेखों, लखनऊ पीठ के आदेश पर एक जापानी कंपनी द्वारा उस स्थल के भूगर्भीय राडार सर्वेक्षण और उस सर्वेक्षण के आधार पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संचालित उत्खनन की रपट को भी इन वामपंथी इतिहासकारों ने झुठलाने का दुस्साहस किया। वस्तुत: ‘बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी’ को हठधर्मी के रास्ते पर धकेलने का महापाप इन बौध्दिकों ने किया, जिसकी राष्ट्र को महंगी कीमत चुकानी पड़ी है।

यह संतोष की बात है कि कल के निर्णय में न्यायालय ने विवादित स्थल को राम जन्मस्थान के रूप में मान्यता दी है। न्यायालय ने पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की उत्खनन रपट के आधार पर स्वीकार किया है कि एक विशाल हिन्दू धर्मस्थल को ध्वंस करके इस मस्जिद का निर्माण किया गया जो इस्लामी मान्यताओं के अनुसार मस्जिद कहलाने की अधिकारी नहीं है। अपने इन निष्कर्षों के पक्ष में न्यायालय ने साहित्यिक एवं पुरातात्विक साक्षियों के प्रभूत भंडार का उपयोग किया है। उसकी पूरी जानकारी तो 8189 पृष्ठों के विशालकाय निर्णय का सूक्ष्म अध्ययन करने पर ही मिल सकती है। उपरोक्त दो निर्णयों पर पहुंच जाने के बाद भी यह समझना कठिन है कि दो माननीय न्यायमूर्तियों सिवगत उल्लाह खान एवं सुधीर अग्रवाल ने ‘विवादित भूमि’ का तीन भागों में विभाजन करके एक भाग मुस्लिम पक्ष को देने का निर्णय क्यों दिया? जबकि तीसरे न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा ने पूरा क्षेत्र हिन्दू पक्ष को ही सौंपने का निर्णय दिया। माननीय न्यायमूर्तियों ने अलग निष्कर्षों पर पहुंचने के लिए किन कानूनी और तथ्यात्मक तकर्ों का सहारा लिया है इसका पता तो पूर्ण निर्णय को पढ़कर ही लग सकेगा। किंतु दो के बहुमत का यह निर्णय मुस्लिम समाज पर भारी जिम्मेदारी डाल देता है। उसे सोचना होगा कि मुख्य विवादित स्थल के रामजन्मभूमि घोषित हो जाने के बाद एक तिहाई भूखंड का उसके लिए क्या प्रयोजन रह जाता है। यदि वकीलों और वोट लोलुप राजनेता वर्ग उसे वहां मस्जिद निर्माण के लिए उसकाता है तो क्या अनजाने में वह पांच सौ वर्ष पुरानी कटुता के अध्याय को जीवित रखने का दोषी नहीं ठहराया जाएगा। वस्तुत: न्यायालय के इस निर्णय का उपयोग वह स्वेच्छा से पहल करके उस अध्याय को सदा-सर्वथा के लिए बंद करने के लिए कर सकता है। कल टेलीविजन चैनलों पर विनोद मेहता (टाइम्स नाऊ) और बरखा दत्त (एनडीटीवी) को लगातार मुस्लिम समाज को भड़काने का प्रयास करते देखकर बहुत पीड़ा हुई। झूठे पंथनिरपेक्षतावादी पत्रकारों का एकसूत्री कार्यक्रम हिन्दू-द्वेष बन गया है। नरेन्द्र मोदी को फांसी चढ़ते देखना ही उनकी एकमात्र चाह है। अपनी इस विकृत मानसिकता को वे मुस्लिम समाज पर थोपने की जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं। यह प्रसन्नता की बात है कि कल से अधिकांश मुस्लिम नेताओं और उलेमाओं ने उदार मन से इस निर्णय का स्वागत किया है।

इस निर्णय को एक अल्पविराम के रूप में देखा जाना चाहिए। यदि ठीक ढंग से इसका उपयोग किया तो भारत के भविष्य को संवारने का माध्यम बन सकता है। इस निर्णय के बाद सर्वोच्च न्यायालय में जाने का रास्ता खुला है तो पारस्परिक सद्भाव के साथ संवाद की मेज पर बैठने का भी। वकीलों का एक वर्ग और राजनेता वर्ग चाहेगा कि सर्वोच्च न्यायालय में अपील का रास्ता अपना कर इस विवाद को और अनेक वर्षों तक लटकाये रखा जाय व अयोध्या में तनाव पूर्ण यथास्थिति बनी रहे। राष्ट्रहित की मांग है कि जल्दी से जल्दी इस विवाद का पटाक्षेप कर सौहार्द और एकता का अध्याय आरंभ हो। यदि भारत में यह अध्याय आरंभ हो सका तो पूरे विश्व को वर्तमान मजहबी ध्रुवीकरण से बाहर निकलने का रास्ता खुल जाएगा।

कितने औचक होते हैं युवराज के अचानक रात्रि विश्राम!

-लिमटी खरे

दलित आदिवासियों के बीच रात बिताकर मीडिया की सुर्खियां बटोरने वाले कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के अचानक दलित बस्तियों में जाने की बात कितनी औचक होती है, इस बात से आम आदमी अब तक अनजान ही है। राहुल बाबा का सुरक्षा घेरा स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप (एसपीजी) का होता है, जिसमें परिंदा भी पर नहीं मार सकता है, फिर अचानक किसी अनजान जगह पर कांग्रेस की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी का रात बिताना आसानी से गले नहीं उतरता है। वास्तविकता तो यह है कि राहुल गांधी के प्रस्तावित दौरों के स्थानों की खाक खुफिया एजेंसियों द्वारा लंबे समय पहले ही छान ली जाती है, जजमान को भी पता नहीं होता है कि उसके घर भगवान (युवराज) पधारने वाले हैं। मीडिया को भी अंतिम समय में ही ज्ञात होता है कि राहुल बाबा फलां के घर रात्रि विश्राम करने वाले हैं। कांग्रेस की राजमाता और राहुल गांधी की माता श्रीमती सोनिया गांधी को राहुल की सुरक्षा की चिंता सदा ही खाए जाती है, किन्तु एसपीजी के निदेशक की देखरेख में राहुल की सुरक्षा से वे खासी संतुष्ट नजर आती हैं। कहा जाता है कि राहुल को इस तरह के दौरों की अनुमति श्रीमति सोनिया गांधी द्वारा प्रदत्त है, ताकि कांग्रेस की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी की छवि आम आदमी से जुड़ने, उनकी समस्याओं से रूबरू होने और उसके निदान की योजनाएं बनाने की बन सके। सवाल अब भी यही खड़ा है कि राहुल गांधी की इन यात्राओं से देश का क्या भला हो रहा है? एक साधारण से संसद सदस्य और कांग्रेस के महासचिव के दौरों पर भारत और सूबों की सरकार सरकारी खजाने से पानी की तरह पैसा क्यों बहाती है?

नेहरू गांधी परिवार में मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, श्रीमति इंदिरा गांधी, राजीव गांधी के उपरांत आगे बढ़ी पीढ़ी में तीन ही सितारे आकाश में खिले नजर आते हैं। इनमें से राजीव और सोनिया की पुत्री प्रियंका अब गांधी से वढ़ेरा हो चुकी हैं, तथा देश की सियासत से प्रत्यक्ष तौर पर एक दूरी बना चुकी हैं। इसके अलावा स्व.श्रीमति इंदिरा गांधी की आखों के तारे रहे राहुल और वरूण गांधी ने अपने अपने रास्ते अलग अलग चुन रखे हैं। एक ही परिवार के दो वारिसों को अलग अलग सुरक्षा श्रेणियां सिर्फ और सिर्फ हिन्दुस्तान में ही संभव है। लोग प्रियंका में उनकी नानी स्व.श्रीमति इंदिरा गांधी तो राहुल में ‘‘दुश्मनों को नानी याद दिलाने वाले‘‘ स्व.राजीव गांधी की छवि देखते हैं। भारत का पूर्वाग्रही मीडिया भी अजीब है, किसी को उसी खानदान के संजय मेनका के पुत्र वरूण गांधी में किसी की छवि नहीं दिखाई देती है। स्व.संजय गांधी के बाल सखा और उनके अभिन्न मित्रों जिन्होंने राजनीतिक पायदान भी संजय गांधी के सहारे से ही चढ़ी हैं, भी वरूण गांधी से इस तरह का बरताव करते हैं जैसा कि अठ्ठारहवीं शताब्दी में सवर्णों द्वारा अछूतों से किया जाता था।

देश के ‘कांग्रेस और लक्ष्मीभक्त‘ दोनों ही तरह के मीडिया ने नेहरू गांधी परिवार की एक शाख जिसमें श्रीमति सोनिया और राहुल बंधे हैं, को अर्श पर इतना ऊपर चढ़ा दिया है कि कांग्रेस के लोग उन्हें भगवान से कम नहीं मानते हैं। राहुल गांधी जब भी जहां भी जाते हैं वहां भीड़ जुट जाती है, कांग्रेस का जनाधार बढ़ता है, युवाओं के मानस पटल पर कांग्रेस की अमिट छाप लग जाती है, कांग्रेस की गिरती साख को बचाया जा सकता है। सारी बातें मंजूर हैं, पर यह सब किस कीमत पर हो रहा है? क्या राहुल की एक यात्रा का भोगमान कांग्रेस ने भोगा है? क्या गांधी के नाम का गर्व के साथ उपयोग करने वाले राहुल ने अपनी यात्राएं महात्मा गांधी की सादगी से की हैं? जाहिर है नहीं। बापू रेल गाडी के साधारण डिब्बे में यात्रा करते थे, उन्होंने अपना पूरा जीवन सादगी के साथ बिता दिया, आधी लंगोटी में ही बापू ने अपना जीवन काटकर उन ब्रितानियों को जिनके बारे में कहा जाता था कि उनका सूरज कभी डूबता नहीं है, को डेढ़ सौ बरस के राज पाट को छोड़कर जाने पर मजबूर कर दिया। राहुल गांधी एक यात्रा में उपयोग में आने वाले विमान और हेलीकाप्टर का किराया ही अगर जोड़ लिया जाए तो एक शहर के गरीबों को एक महीना भोजन कराया जा सकता है। इसके अलावा राहुल की सुरक्षा में लगी एजेंसियों, प्रदेश सरकार का सुरक्षा बल आदि का खर्च जोड़ लिया जाए तो मंहगाई के बोझ से दबे आम आदमी की मानो चीख ही निकल जाएगी। इस कीमत पर आम आदमी के गाढ़े पसीने की कमाई से कांग्रेस द्वारा अपने आप को मजबूत करने के लिए झोंका जा रहा है राहुल गांधी को। कांग्रेस को चाहिए कि वह अपने व्ही.व्ही.आई.पी. पर होने वाले व्यय को आना पाई से केद्र और राज्य सरकार को चुकाए, क्योंकि सोनिया या राहुल की यात्राओं से देश का नहीं कांग्रेस का भला हो रहा है।

आज कांग्रेस की नजरों में गरीबों के मसीहा राहुल गांधी के सिर्फ जूतों पर ही गौर फरमाया जाए तो उनकी कीमत पांच अंको में होगी। राहुल गांधी की संपत्ति के बारे में देश के लोग कम ही जानते हैं। सैकड़ों करोड़ रूपयों की संपत्ति के मालिक हैं राहुल गांधी जिनकी संपत्ति में हर साल दस बीस फीसदी नहीं डेढ़ से दो सौ फीसदी का इजाफा होता है। आखिर एक संसद सदस्य के पास कौन सी एसी मशीन है कि वह अपनी संपत्ति में इस तरह हर साल बेतहाशा बढ़ोत्तरी करते जा रहे हैं। अगर उनके पास आकूत दौलत है तो उन्हें बतौर सांसद मिलने वाली तनख्वाह और वेतन को अस्वीकार कर एक नजीर पेश करना चाहिए।

बहरहाल कांग्रेस की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी की अचानक ही दलित बस्तियों की यात्राएं, दलित आदिवासियों के घरों पर रात बिताना उनके साथ भोजन करना, जैसी खबरों से देश के आम लोग, प्रशासन और मीडिया चकित ही रह जाता है। लोग दांतों तले उंगली दबा लेते हैं कि राहुल गांधी जैसा ‘‘सुकुमार युवराज‘‘ आम आदमी के घर कैसे? आम आदमी यह सौच कर हैरान होता है कि कांग्रेस आखिर राहुल गांधी इस तरह की यात्राओं के माध्यम से भला क्या संदेश देना चाहती है।

राहुल गांधी की औचक यात्राओं से सबसे ज्यादा खौफजदा अगर कोई है तो वह हैं यूपी की निजाम मायावती। मायावती को लगने लगा है कि राहुल की इस तरह की यात्राएं उनके दलित आदिवासी वोट बैंक में सेंध लगाने का काम कर रही है। उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी के मनमाने दौरों से आजिज आकर यूपी के चीफ सेक्रेटरी ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को पत्र लिखकर अपनी अपत्ति दर्ज कराई है। यूपी सरकार का कहना है कि राहुल गांधी द्वारा यूपी प्रशासन और स्थानीय प्रशासन को सूचना दिए बिना की जाने वाली यात्राएं राहुल गांधी को प्रदत्त सुरक्षा के साथ खिलवाड़ है। केंद्रीय गृह मंत्री पलनिअप्पम चिदम्बरम राज्य की आपत्ति को सिरे से खारिज करते हैं। चिदम्बरम का कहना है कि राहुल द्वारा अपनी यात्राओं में सुरक्षा व्यवस्था के साथ कोई खिलवाड़ नहीं किया जा रहा है। राहुल की यात्राओं में सुरक्षा मनदण्डों का पूरा पूरा पालन किया जा रहा है। चिदम्बरम ने साफ किया है कि राहुल की यात्राओं के पहले एसपीजी द्वारा सुरक्षा के पर्याप्त इंतजामात कर दिए जाते हैं।

राहुल गांधी की इन औचक यात्राओं के बारे में हकीकत कुछ और बयां करती है। दरअसल, राहुल गांधी के इस तरह के औचक कार्यक्रम स्थानीय लोगों, प्रशासन, कांग्रेस पार्टी और मीडिया के लिए कोतुहल एवं आश्चर्य का विषय होते हैं, लेकिन सुरक्षा एजेंसियां इससे कतई अनजान नहीं होती हैं। सुरक्षा एजेंसियों के सूत्रों का कहना है कि इस तरह के औचक कार्यक्रमों में सुरक्षा एजेंसियों की लंबी कवायद के बाद ही इन्हें हरी झंडी दी जाती है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी जब भी जहां भी जाते हैं वहां जाने की योजना महीनों पहले ही बना दी जाती है।

राहुल गांधी के करीबी सूत्रों का कहना है कि राहुल गांधी के इस तरह के दौरों की तैयारी एक से दो माह पहले ही आरंभ हो जाती है। सर्वप्रथम राहुल गांधी की कोर टीम यह तय करती है कि राहुल गांधी कहां जाएंगे। उस क्षेत्र की भौगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक स्थिति के बारे में विस्तार से जानकारी जुटाई जाती है। इसके बाद राहुल गांधी के बतौर सांसद सरकारी आवास 12, तुगलक लेन में उनकी निजी टीम इसे अंतिम तौर पर अंजाम देने का काम करती है। यहां बैठे राहुल के सहयोगी कनिष्क सिंह, पंकज शंकर, सचिन राव आदि इन सारी जानकारियों को एक सूत्र में पिरोकर एसपीजी के अधिकारियों से इस बारे में विचार विमर्श करते हैं। इन सारी तैयारियों और सूचनाओं को केंद्रीय जांच एजेंसी ‘इंटेलीजेंस ब्योरो‘ द्वारा खुद अपने स्तर पर अपने सूत्रों के माध्यम से जांचा जाता है। आई बी की हरी झंडी के उपरांत ही राहुल गांधी के दौरे की तारीख तय की जाती है। राहुल गांधी के कार्यालय, एसपीजी और आईबी के अधिकारियों के बीच की कवायद को इतना गुप्त रखा जाता है कि मीडिया तक उसे पता नही कर पाती।

इस तरह गोपनीय तौर पर कांग्रेस की नजर में देश के भावी प्रधानमंत्री का दौरा कार्यक्रम तय होता है और राहुल गांधी अचानक ही किसी दलित आदिवासी के घर पर जाकर रात बिताकर सभी को हतप्रभ कर देते है। देखा जाए तो राहुल गांधी जिस भी गांव में रात बिताने का उपक्रम करते हैं, उस गांव में एसपीजी और आईबी के कर्मचारी सादे कपड़ों में हर गतिविधि पर नजर रखते हैं। इस सारे घटनाक्रम की भनक स्थानीय प्रशासन तक को नहीं हो पाती है। राहुल के रात बिताने वाले क्षेत्र में व्हीव्हीआईपी सुरक्षा के लिए अत्यावश्यक एएसएल (एडवांस सिक्यूरिटी लेयर) अर्थात अग्रिम सुरक्षा कवच को पूरी तरह चाक चौबंद कर लिया जाता है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि जिस भी गांव में देश के युवराज रात बिताते हैं उस गांव में उस दिन आरजी (राहुल गांधी) की पसंद की सब्जी भी बिकती है, ताकि वे रात के खाने में उसका स्वाद ले सकें।

यक्ष प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही है कि राहुल गांधी की इस तरह की यात्राओं से देश का क्या भला हो रहा है? क्या राहुल गांधी के नेतृत्व में आज तक कोई बड़ा आंदोलन अंजाम ले सका है जिसने देश की दिशा और दशा को बदला हो? राहुल की यात्राओं से सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस का ही भला हो रहा है। यही सच्चाई है, और इसके लिए राहुल गांधी की सुरक्षा में लगी एसपीजी, आईबी, प्रदेश सरकार का सुरक्षा अमला और सुरक्षा एजेंसियों पर होने वाले खर्च को कांग्रेस से ही वसूला जाना चाहिए, क्योंकि कांग्रेस ही वह है जो राहुल गांधी के दौरों से अपना जनाधार बढ़ाकर राहुल गांधी को महिमा मण्डित कर रहे हैं। सबसे अधिक आश्चर्य तो तब होता है जब विपक्ष में बैठी भाजपा और राहुल फेक्टर से सबसे अधिक घबराने वाली उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती तक इस मामले में मौन धारण कर लेती हैं।

ये है दिल्ली मेरी जान

-लिमटी खरे

क्या गांधी परिवार में पिघल सकेगी नफरत की बर्फ!

नेहरू गांधी परिवार में मोती लाल, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी के बाद वाली पीढ़ी में जब तक स्व.संजय गांधी जिन्दा थे, तब तक एका दिखाई पड़ती रही, उसके उपरांत नेहरू गांघी परिवार की एकता को मानो किसी की नजर लग गई। इंदिरा गांधी के बर्ताव से नाराज मेनका गांधी को परिवार से प्रथक कर दिया गया था। इसके बाद वाली पीढ़ी अर्थात प्रियंका वढ़ेरा, राहुल गांधी और इनके चचेरे भाई वरूण गांधी के बीच भी रिश्ते सामान्य नहीं रहे। उत्सव के मौके पर भी देवरानी मेनका और जेठानी सोनिया के बीच दूरी साफ दिखाई दी। प्रियंका के विवाह के अवसर पर भी मेनका परिदृश्य से गायब ही रहीं। अब जब स्व.संजय गांधी के सुपुत्र वरूण गांधी विवाह के बंधन में बंधने जा रहे हैं तो मेनका को उम्मीद है कि उनकी जेठानी और कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया दलगत राजनैतिक प्रतिद्वंदिता को तजकर शामिल होंगी। विश्लेषकों की नजरें इस पर टिक गई हैं कि संजय मेनका के इकलौते पुत्र वरूण की शादी में ताई बाराती बनकर जाती हैं या नहीं!

पहले अहलूवालिया को बदलो फिर बदलेगा मंत्रीपद

योजना आयोग के उपाध्यक्ष सरदार मोटेंक सिंह अहलूवालिया की सख्ती से भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ, रेल मंत्री ममता बनर्जी, वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश, कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायस्वाल सहित अनेक राजनेताओं की कुर्सी पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। इन नेताओं ने आपसी मतभेद भुलाकर अब अहलूवालिया के खिलाफ लामबंद होना आरंभ कर दिया है। प्रधानमंत्री कार्यालय के सूत्रों का कहना है कि जिन मंत्रियों के विभाग बदलने की सुगबुगाहट चल रही है उन्होंने प्रधानमंत्री और कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी को दो टूक शब्दों में कह दिया है कि उनका विभाग इसी शर्त पर बदला जाए जब योजना आयोग से अहलूवालिया की रवानगी डाली जाए। खबर है कि मंत्रियों को प्रसन्न करने मांटेक सिंह अहलूवालिया को अमेरिका में भारत के राजदूत मीरा शंकर के स्थान पर पदस्थ किया जा सकता है।

कलमाड़ी की राह नहीं है आसान

आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे राष्ट्रमण्डल खेलों की आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी की राह अब आसान नहीं दिख रही है। कलमाड़ी मण्डली के भ्रष्टाचार के किस्से अब आम होने से लोगों के मन में कलमाड़ी के प्रति अनादर का भाव आने लगा है। इसकी एक बानगी पिछले दिनों देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में देखने को मिली। हुआ यूं कि कलमाड़ी अपने कुछ मित्रों के साथ मौज मस्ती के इरादे से दिल्ली के एक माल में जा धमके। कलमाड़ी जैसे ही अपने निजी सुरक्षा अधिकारी को माल के बाहर छोड़कर अंदर प्रविष्ठ हुए, वैसे ही वहां लोगो ने कलमाड़ी को बिजूका (खेतों में खड़ा पुतला) की तरह आश्चर्य से देखना आरंभ कर दिया। कलमाड़ी मनमसोसकर माल के अंदर एक रेस्टोरेंट में पहुंचे, उन्होंने खाने का आर्डर दिया। जब तक खाना आता तब तक तो आसपास बैठे लोगों ने कलमाड़ी को इतना भला बुरा कहा कि कलमाड़ी और उनके दोस्तों का खाना खराब हुए बिना नहीं रह पाया।

संघ ने ओढ़ी गिरगिट की खाल: हैरान है कांग्रेस

अयोध्या मामले में लखनउ उच्च न्यायालय के फैसले के आने के बाद जिस तरह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सुर बदले हैं, उससे कांग्रेस बुरी तरह हैरान दिखाई पड़ रही है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद संतोष जताया है। गौरतलब है कि संघ के अनुवांशिक घड़े विहिप द्वारा सदा से ही यह राग अलापा जाता रहा है कि पंचकोषीय यात्रा के अंदर कोई मस्जिद को स्वीकार नहीं किया जाएगा। अब संघ के नए आलाप से कांग्रेस खौफजदा है, कांग्रेस को लगने लगा है कि यह मामला कहीं उसके हाथों से फिसलकर भाजपा की झोली में न चला जाए। कल तक अपनी बातों पर अडिग संघ की इस नई लचीली सम्भाव की नीति ने कांग्रेस की नींद ही उड़ा दी है। माना जा रहा है कि अल्पसंख्यकांे को लुभाने, अपने पास बुलवाने और उदारवादी मुसलमानों के मन में भाजपा के प्रति विश्वास पैदा कराने की रणनीति का हिस्सा है संघ का यह पैंतरा।

रेत की तरह खिसल रहा है भाजपा का जनाधार

भाजपा के आला नेताओं की नींद इस बात से उड़ी हुई है कि दो सीटों से लेकर देश पर शासन करने वाली भारतीय जनता पार्टी का जनाधार बहुत ही तेजी से खिसकता जा रहा है। पार्टी प्रमुख नितिन गड़करी के करीबी सूत्रों का दावा है कि पार्टी द्वारा कराए गए अंदरूनी एवं गुप्त सर्वे में यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि भाजपा का अगड़ा वोट बैंक बुरी तरह ध्वस्त हो चुका है। भाजपा द्वारा पांच चरणों में कराए गए सर्वे में साफ कहा गया है कि मतदाताओं में राहुल फेक्टर जबर्दस्त तरीके से हावी हो चुका है। साथ ही साथ राजग के पीएम इन वेटिंग के नेता प्रतिपक्ष पद से हटते ही उनकी सक्रियता में आई कमी भी इसका एक प्रमुख कारण है। वैसे भी भाजपा का चेहरा रहे अटल बिहारी बाजपेयी अब सक्रिय राजनीति को अलविदा कह चुके हैं। भाजपा के कद्दावर नेताओं को भी भाजपा के ही कुछ शातिर नेताओं ने बाहर का रास्ता दिखाकर पार्टी की जड़ों में मट्ठा डाला गया है। आक्रमक हिन्दुत्व के हिमायतियों के आईकान बन चुके नरेंद्र मोदी के पर भी काट देने से भाजपा को खासा नुकसान उठाना पड़ रहा है।

दूसरी पीढ़ी को विरासत सौंपने की तैयारी में नेता

भारत गणराज्य में अब तक राजनैतिक विरासत को एक के बाद एक पीढ़ी को हस्तांतरित करने का उदहारण सिर्फ अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में ही देखने को मिला है, जहां नेहरू गांधी परिवार को ही कांग्रेस की ताकतवर की पोस्ट सौंपी गई है। जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, संजय गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी इस बात के साक्षात उदहारण हैं कि राजनीति में विरासत का हस्तांतरण और अनुकम्पा नियुक्ति कितनी जल्दी मिलती है, और उसका सफल संचालन कैसे किया जा सकता है। नेहरू गांधी परिवार की तर्ज पर अब अनेक राजनेताओं ने इसको अंगीकार करना आरंभ कर दिया है। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने अपने पुत्र जयवर्धन, कमल नाथ ने नकुल नाथ, स्व.माधव राव सिंधिया के उपरांत ज्योतिरादित्य सिंधिया, कुंवर अर्जुन सिंह के पुत्र अजय सिंह, राम विलास पासवान के पुत्र चिराग, लालू प्रसाद यादव के पुत्र तेजस्वी, शरद पवार की पुत्री सुप्रिया सुले, मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश आदि ने राजनीति में अपने पिताओं की वसीयत को संभालना आरंभ कर दिया है।

काडर घराने की नई पेशकश

सरकारी कर्मचारियों में काडर का बहुत ही महत्व होता है। कोई अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा से है तो कोई पुलिस, विदेश, सूचना, वन आदि की सेवाओं से। केंद्र सरकार ने सिविल सर्विसिस की तर्ज पर अब पंचायत सर्विसेस नाम से नया काडर तैयार करने की कार्ययोजना पर काम किया जा रहा है। केंद्र सरकार ने पंचायत काडर के मामले में गाईड लाईन तय कर दी गई हैं। वैसे तो देश के हृदय प्रदेश की सरकार को इस मामले में सैद्धांतिक एककतेन होना पड़ा है पर मध्य प्रदेश को इस गाईड लाईन में कुछ आपत्तियां नजर आ रही हैं। केंद्र सरकार अपनी महात्वाकांक्षी महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना, सर्वशिक्षा अभियान, स्वर्ण जयंती रोजगार योजना आदि के सफल क्रियान्वयन के लिए कर्मचारियों की पर्याप्त फौज की कमी के कारण बेहद चिंतित है, यही कारण है कि केंद्र का पंचायत सर्विसेज नाम का नया काडर बनाने की सूझी है। इस नए काडर के लिए केंद्र सरकार का अंशदान अस्सी फीसदी होगा, जो हर साल दस प्रतिशत की दर से घटेगा, अर्थात आठ सालों बाद इन कर्मचारियों के वेतन भत्तों आदि की व्यवस्था राज्यों के जिम्मे होगी। राज्यों की सरकारों को भय सता रहा है कि आने वाले समय में वे इन कर्मचारियों के वेतन भत्तों की व्यवस्था कहां से कर पाएंगे?

लो आ गया आधार!

भारत गणराज्य में यूनिक आईडेंटिफिकेशन नंबर (यूआईडी) देने का सिलसिला आरंभ हो गया है। केंद्र सरकार की इस महात्वाकांक्षी परियोजना का पहला आधार कार्ड कांग्रेसनीत महाराष्ट्र के नंदुरबार जिले मे टेंभली में आयोजित एक कार्यक्रम में वजीरेआजम डॉ. मनमोहन सिंह और यूपीए चेयरपर्सन श्रीमति सोनिया गांधी ने आदिवासी महिला रंजना सोनवने को सौंपा। 12 अंकों वाले इस आधार कार्ड की अनेक विशेषताएं हैं। इससे प्रमुख तौर पर फर्जी राशन कार्ड पर लगाम लग सकेगी। वैसे उम्मीद की जा रही थी कि इस महात्वपूर्ण योजना का आगाज कांग्रेस नीत कंेद्र सरकार द्वारा महात्मा गांधी की जन्मस्थली पोरबंदर, अथवा गुजरात के साबरमती या फिर भारत को आजाद कराने वाले रणबांकुरों की जन्म या कर्मस्थली से करना चाहिए था। विडम्बना है कि गुजरात में भाजपा की नरेंद्र मोदी की सरकार सत्तारूढ है, और नरेंद्र मोदी तथा कांग्रेस के बीच छत्तीस का आंकड़ा जगजाहिर है, विवाद भाजपा कांग्रेस का और भोगमान भोगे राष्ट्रपिता के प्रदेश की जनता।

भाजपा में वापसी को बैचेन हैं साध्वी

एक समय में भारतीय जनता पार्टी की फायर ब्रांड नेत्री रहीं उमा भारती द्वारा गठित भारतीय जनशक्ति पार्टी का अस्तित्व लगभग समाप्त ही होने के बाद अब उमा भारती खुद भी भाजपा में वापसी को बेचैन दिखाई पड रही हैं। पिछले दो सालों से उमा भारती के कदम ताल से साफ जाहिर हो रहा है कि उमा भारती भाजपा के समंुदर से बाहर रहकर स्वांस लेने में असहज ही महसूस कर रही हैं। वैसे भी उमा भारती को शरीर तो उनके हनुमान रहे प्रहलाद सिंह पटेल को उस शरीर का दिमाग माना जाता था। अब जबकि दिमाग और शरीर दोनों ही अलग अलग हो गए हैं तब उमा भारती काफी हद तक कमजोर ही प्रतीत हो रही हैं। 25 सितम्बर 1990 को राजग के पीएम इन वेटिंग एल.के.आड़वाणी की सोमनाथ से अयोध्या यात्रा के 20 बरस पूरे होने पर उमा भारती को लोगों ने जब आड़वाणी के साथ देखा तो बहुत ही आश्चर्यचकित रह गए। तब से अनुमान लगाया जाने लगा है कि उमा भारती आने वाले नवरात्र में भाजपा में आमद दे सकती हैं। भोपाल में उमाश्री के बीमार पड़ने पर उनके पुस्ताहाल जानने सूबे के निजाम शिवराज सिंह चौहान का जाना भी कम आश्चर्यजनक नहीं माना जा रहा है।

कांग्रेस का बसपा को झटका

दो महारानियों के बीच छिड़ी रार के चलते केंद्र और उत्तर प्रदेश की सियासत गर्माने लगी है। कांग्रेस का कहना है कि राज्यों में कानून व्यवस्था और अमन चैन की कायमी का जिम्मा सूबे की सरकार का होता है। केंद्र सरकार तो महज राज्यों के अनुरोध पर पीछे से अपना हाथ रखती है। राम मंदिर और बाबरी मस्जिद विवाद में उत्तर प्रदेश में कानून और व्यवस्था की स्थिति के मद्देनजर मायावती की बयानबाजी के उपरांत एआईसीसी के सचिव और यूपी के इंचार्ज परवेश हाशमी ने कहा कि अगर यूपी की निजाम मायावती उत्तर प्रदेश में अमन चैन कायम नहीं रख सकतीं हैं तो उन्हंे अपने पद से त्यागपत्र दे देना चाहिए, फिर केंद्र सरकार द्वारा सूबे में अमन चैन कायम करने का प्रयास किया जाएगा। वैसे हाशमी का कहना सच है कि राज्य में अमन चैन की जवाबदारी उस राज्य की सरकार के कांधों पर ही होती है। कांग्रेस के सचिव इस बात को भी रेखांकित कर देते तो बेहतर होता कि इस तरह की सियासत में ईंधन कौन डालता आया है?

नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली चली . . .

आज से आरंभ होने वाले राष्ट्रमण्डल खेलों में भ्रष्टाचार के सारे रिकार्ड ध्वस्त हो चुके हैं। पैसों को पानी की तरह बहाने का शानदार प्रदर्शन किया गया है। वस्तुतः पैसे आयोजन समिति, उनके उपकृत लोगों की जेबों की शान बन गए हैं। अब गफलतों को ढाकने की कवायद जोर शोर से की जा रही है। खबर है कि खेलों मंे खिलाड़ियों को आने जाने के लिए हेलीकाप्टर का प्रयोग किया जाएगा। अरबों रूपए व्यय कर बनाए गए विशेष मार्ग, एक्सप्रेस वे, अलग लेन का अब क्या होगा? क्या भ्रष्टाचार के शिरोमणी की अघोषित उपाधि पाने वाले आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी का बचाव करने वाली कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी इस बारे में दो शब्द कह पाएंगी? क्या इस तरह का भ्रष्टाचार उनके पीहर ‘‘इटली‘‘ में होता तो वे इसी तरह मूकदर्शक बनी बैठी रहतीं? और तो और अब सोनिया गांधी की शह पर कलमाड़ी यह कहने में भी गुरेज नहीं कर रहे हैं कि भारत ऑलंपिक की मेजबानी को भी तैयार है। लगता है अभी कलमाड़ी सहित कांग्रेस के आला नेताओं का पेट हजारों करोड़ रूपए गपाने के बाद भी भरा नहीं है।

राहुल भैया आएंगे, नई रोशनी लाएंगे

कांग्रेस के युवराज और उसकी ही नजरों में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी 04 अक्टूबर को सिवनी आ रहे हैं। वे आदिवासी बाहुल्य लखनादौन में कार्यक्रम में भाग लेंगे। इसके पहले उनके पिता स्व.राजीव गांधी भी एक मर्तबा सिवनी आ चुके हैं। राहुल गांधी लखनादौन आएंगे तो सिवनी के युवाओं में बहुत जोश दिखाई पड़ रहा है। बच्चा बच्चा कह रहा है कि राहुल भईया आएंगे, नई रोशनी लाएंगे। जिले के कांग्रेसी बहुत खुश हैं कि राहुल गांधी के आने पर युवा झूम रहा है, किन्तु कांग्रेसियों का मुगालता तब टूटेगा जब उन्हे पता चलेगा कि युवा यह सोच सोचकर खुश हो रहा है कि राहुल गांधी द्वारा सिवनी के फोरलेन के लिए भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ को कुछ नसीहत या संदेश दिया जाएगा। अगर राहुल गांधी ने इस मामले में खामोशी अख्तियार की तो फिर उनका सिवनी आना या न आना एक बराबर ही होगा। वैसे इस दिन लखनादौन के पूर्व नगर पंचायत अध्यक्ष दिनेश राय के लिए कांग्रेस के दरवाजे भी खुल सकते हैं।

पुच्छल तारा

छः दशकों के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि विवाद के बारे में अपना फैसला सुनाया है। केंद्र, राज्य सरकार और जिलों के प्रशासन को भय था कि कहीं इस फैसले की रोशनी में उन्माद न फैल जाए और कानून तथा व्यवस्था की स्थिति नियंत्रित करना मुश्किल हो जाए। देश के हर धर्म, महजब, संप्रदाय, पंथ के लोगों ने गजब की सहनशीलता, धैर्य और संयम का परिचय दिया है। भटिंडा से पेंट व्यवसाई रजत गुप्ता ने एक शानदार जानदार ईमेल भेजा है। रजत गुप्ता लिखते हैं –

‘‘चर्चे नहीं इसान पढ़े जाते हैं!,

मजहब नही ईमान पढ़े जाते हैं!!,

भारत ही एसा देश है जहां!!!,

एक साथ ‘गीता‘ और ‘कुरान‘ पढ़े जाते हैं!!!!।

कबीर की आंखें और आलोचना की रपटन

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

कबीर पर पुरूषोत्तम अग्रवाल की किताब ‘अकथ कहानी प्रेम कीः कबीर की कविता और उनका समय’ (2009)निस्संदेह सुंदर किताब है। इस किताब में कबीर की कविता की तरह ही आधुनिक विषयों का रहस्यात्मक वर्णन है।

कबीर बड़े लेखक हैं और कबीर पर लिखना मुश्किल काम है। पुरूषोत्तम अग्रवाल ने यह काम बहुत ही सुंदर ढ़ंग से किया है। लेकिन इस किताब को कबीर का रपटनभरा उत्तर आधुनिक पाठ कहें तो ज्यादा अच्छा होगा। लेखक की मुश्किल यह है कि वह बताना चाहता है कबीर के बारे में लेकिन चला कहीं और जाता है। विषय विशेष पर स्थिर होकर फोकस करने में यह किताब असफल रही है। कहने को कबीर के कवि की खोज करना और उसे प्रतिष्ठित करना लक्ष्य था लेकिन वह काम बहुत कम जगह पाता है। पहले पुरूषोत्तम अग्रवाल की पद्धति को ही देखें।

कबीर को एक परिप्रेक्ष्य में समग्रता में देखने की बजाय विभिन्न परिप्रेक्ष्यों में एक ही साथ देखने की कोशिश की गयी है। ज्यादा से ज्यादा विषयों पर फोकस करने के चक्कर में समूची किताब उप-पाठों का पिटारा बनकर रह गयी है। और उप-पाठ भी विखंडित हैं। अधूरे हैं । और चलताऊ भाव से लिखे गए हैं। इस किताब में विलक्षण पद्धति का इस्तेमाल किया है। पाठक को यह समझने में कठिनाई आ सकती है कि लेखक आखिर किस नजरिए से देखना चाहता है ? लेखक का आलोचना की रपटन पर सरपट दौड़ने का प्रयास करना और फिर रपटकर गिरना खटकता है। मूलतः इस किताब में कबीर संबंधी विभिन्न विषयों पर लिखे लेख हैं इनमें कबीर का युग कम आधुनिक युग ज्यादा व्यक्त हुआ है। कबीर के विद्वानों की बजाय आधुनिकशास्त्रों के विद्वानों और आधुनिक विषयों पर शब्द खर्च ज्यादा किए गए हैं। प्रत्येक अध्याय के आरंभ में उन उप पाठों की सूची दे दी गयी है जो अध्याय में समायोजित हैं। यह किताब संचार के तत्कालीन संदर्भ को एकदम स्पर्श नहीं करती।

पुरूषोत्तम अग्रवाल की पद्धति है कि वे पहले समस्या बनाते हैं। फिर उसे रहस्य के आवरण से बाहर करते हैं,स्वाभाविक बनाते हैं, हठात उन्हें ख्याल आता है और विधा की ओर चले जाते हैं, उन्हें कबीर की कविता की याद आ जाती है, साथ ही मूल्यविशेष को उठाते हैं, उसे समस्या बनाते हैं, फिर इतिहास में चले जाते हैं। इतिहास के द्वंद्व और बिडम्बनाओं में रपटते रहते हैं। उनके तरह-तरह के उदाहरण देते हैं। उनके लेखन में रपटन ज्यादा है स्थिर होकर सोचने का भाव कम है। इस समूची प्रक्रिया में लेखक ने सामाजिक समस्याओं की जटिलता की ओर ध्यान खींचा है साथ ही कविता,विचारधारा और कबीर के वि-रहस्यीकरण का काम किया है। वे कबीर के समाज की समस्याओं के बहाने आज के समाज की समस्याओं पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित करते हैं।

पुरूषोतम अग्रवाल ने कबीर के आलोचकों को निशाने पर रखा है, उनकी आलोचना की है लेकिन अंत में उसी आलोचना दृष्टि को घुमा-फिराकर वैधता प्रदान की है। कबीर को पढ़ने का पुरूषोत्तम अग्रवाल का तरीका उत्तर आधुनिक है। वह उत्तर आधुनिकों की तरह उन बिंदुओं पर जाते हैं जहां पहले वाले आलोचक गए थे। वे बार-बार बताते हैं कि कबीर के फलां आलोचक या मध्यकाल के फलां आलोचत ने ऐसा लिखा है। फलां ने कबीर के जमाने पर ऐसा लिखा। इस क्रम में कबीर के भक्त समीक्षकों की समीक्षा सुंदर ढ़ंग से करते हैं। इस क्रम में वे कबीर को भगवान और अध्यात्म के चंगुल से छुड़ाने का प्रयास करते हैं। वे कबीर के पाठ को भक्ति का पाठ नहीं मानते, भगवान का पाठ नहीं मानते। वे कबीर का विश्लेषण करते हैं। उसे यथाशक्ति वस्तुगत बनाने की कोशिश करते हैं।

कबीर की कविता महज कविता नहीं है। वह शब्दों का खेलमात्र नहीं है। बल्कि शब्दों में सास्कृतिक पावरगेम चल रहा है। कबीर ने काव्यरचना महत स्वतःस्फूर्त्त भाव से नहीं की बल्कि उनकी कविता तत्कालीन पावरगेम का हिस्सा है। इस अर्थ में उसे महज शब्दार्थ वाली पद्धति से समझने में दिक्कत आती है। यही स्थिति अन्य भक्त कवियों की है। पुरूषोत्तम अग्रवाल की दिक्कतें यहीं पर हैं। कबीर और उनके समकालीनों के यहां आत्मगत भावों की अभिव्यक्ति के साथ-साथ पावरगेम का तानाबाना भी है। समस्या यह है कि क्या सामयिक पावरगेम से निकालकर किसी भी भक्त कवि को पढ़ा जा सकता है, किसी भी मध्यकालीन या प्राचीनयुगीन पाठ को पढ़ा जा सकता है?

एक अन्य समस्या है कबीर में व्यक्तिगत और आधुनिकभावबोध को खोजने की। इस मामले में कम्युनिकेशन के विकास की प्रक्रिया का सही ज्ञान ही हमें मदद कर सकता है। शब्दों के लिखने की कला के विकसित हो जाने के बाद लिखित शब्द व्यक्तिगत की अभिव्यक्ति करना बंद कर देते हैं। लेखक जब अपने युग के साथ मुठभेड़ करता है,संवाद करता है और शब्दों में लिखता है तो उसके निजी की अभिव्यक्ति नहीं होती,वह सामाजिक की अभिव्यक्ति करता है। वह अपने निजी को सामाजिक में स्थानान्तरित कर देता है। हमारे हिन्दी के अधिकांश आलोचक यह मानते हैं कि भक्ति आंदोलन के कवियों के यहां व्यक्तिगत बड़ी मात्रा में है। वे लेखन के युग के आने के साथ ही शब्द में से निज के सामाजिक हो जाने की प्रक्रिया की अनदेखी करते हैं और यह कमजोरी पुरूषोत्तम अग्रवाल की किताब में भी है।

वाचिक युग में शब्द अपनी मनमानी क्रीड़ा करते हैं लेकिन लेखन के युग में वे ऐसा नहीं कर पाते। कबीर का युग लेखन का युग है वाचन का युग नहीं है। इस दौर में कवि लिखता था। लिपिबद्ध करने की कला का विकास हो चुका था। अतः इस दौर की कविता में व्यक्त भावों को निजता के दायरे में नहीं रख सकते। वाचन के युग में शब्दों का अनियंत्रित खेल था, मनमानापन था। लेकिन लेखन के युग के आने के साथ यह मनमानापन खत्म हो जाता है। पहले विषय के अभिव्यक्त करने के लिए शब्दों की जरूरत होती थी लेकिन लेखन के युग में आने के बाद शब्द ही विषय बन गए। यही वजह है कबीर और अन्य कवियों के भाषिक प्रयोगों और उनकी व्याख्याओं पर बेशुमार ऊर्जा खर्च की गई है। वाचिक शब्द हमेशा जनता और यथार्थ से जुड़े रहते हैं। लेकिन लिखित शब्द के साथ ऐसा नहीं होता वहां अमूर्त्तन की स्थिति होती है। कबीर के यहां जिन्हें हम रहस्यपरक भाषिक प्रयोग मानते हैं उनका बुनियादी कारण है इस युग के कवियों का वाचन से लेखन के युग में पदार्पण। लिखित भाव में आते ही शब्दों के तर्कशास्त्र ,सिद्धांत और विश्लेषण का सिलसिला चल पड़ता है।

कबीर की कविता की खूबी है कि वे शब्दों को सुनते नहीं हैं बल्कि देखते हैं। संस्कृति को सुनते नहीं हैं देखते हैं। इसके कारण ही वे कविता में मात्र भावों की अभिव्यक्ति नहीं करते बल्कि संस्कृति का विश्लेषण करते हैं । क्योंकि वे संस्कृति को सुनते नहीं हैं ,देखते हैं। इस क्रम में वे भाषा की त्रुटियों या भदेसभाषा में भी सहज रूप में चले जाते हैं कबीर के लिए संस्कृति की भाषा शिष्टभाषा नहीं है बल्कि वे जिस भाषा को देख रहे हैं वही है।

कबीर की कविता की भाषा में विषय और व्यक्ति, शब्द, अर्थ और सामाजिक भूमिका और इससे भी ऊपर सामयिक जिंदगी की धुन का छंद हावी है। भक्ति आंदोलन के अधिकतर कवियों को भक्त कवि कहा जाता है वे कवि हैं, भक्तकवि नहीं हैं। भक्त का संसार अलग है,कवि का संसार अलग है। ये दार्शनिक नहीं हैं, कवि हैं। भक्त भगवान की सुनता है कवि भगवान की नहीं सुनता। उपदेशक भगवान की सुनता है कवि नहीं सुनता। भक्ति आंदोलन के कवियों ने कानों से संस्कृति को नहीं सुना था आंखों से देखा था।

संस्कृति को सुनना और देखना इन दोनों में बुनियादी अंतर होता है। संस्कृति को कानों से सुनने का अर्थ अनुकरण करना और संस्कृति को आंखों से देखने का अर्थ है अपने को अलग करना,पृथक करना। भक्ति आंदोलन के कवियों के द्वारा संस्कृति,जातिप्रथा,भेदभाव आदि बातों की जो काव्यालोचना मिलती है उसका कारण यह नहीं है उनके पास आधुनिकभावबोध था,बल्कि उसका प्रधान कारण है इन कवियों का संस्कृति को देखना। वे संस्कृति को आंखों से देख रहे थे। आंखों से देखने के कारण ही वे अपनी कविता में तमाम किस्म की सांस्कृतिक रूढ़ियों को आलोचनात्मक नजरिए से देखने में सफल रहते हैं। पुरूषोत्तम अग्रवाल के नजरिए की यही बुनियादी कमजोरी है कि वह लेखन के युग में शब्द और संस्कृति की प्रक्रिया में आए बुनियादी बदलावों को पकड़ने में असमर्थ रहे हैं।

भक्ति आंदोलन के कवि सुनते नहीं हैं आंखों से देखते हैं। वे वाचिकयुग में नहीं हैं बल्कि लेखन के युग में आ गए हैं। यह प्रक्रिया आधुनिककाल और भक्तिकाल के बहुत पहले से भारत मे आरंभ हो गयी थी। भक्ति आंदोलन के कवि उस परंपरा का हिस्सा है। वे संस्कृति को आंखों से देखते हैं। हम भी संस्कृति को आंखों से देखें।

कविता:उस शहर का मौसम कैसे सुहाना लगे

उस शहर का मौसम कैसे सुहाना लगे,

बारिश समय पर न हो,

उगती फसल बर्बाद होने लगे,

बढ रहे कंकरीट के जंगल वहां,

फिर मौसम क्यों न गर्माने लगे।

बदले जब मौसम तकदीर का,

आंधी आए व आए तूफान,

दीबार तब किस्मत की ढहने लगे।

उस शहर का मौसम कैसे सुहाना लगे।

औरों की तो बात क्या?

अपने भी बेगाने लगे।

जीते हैं लोग पैसे के लिए जहां,

मरने वालों के भले प्राण जाने लगे।

उस शहर का मौसम कैसे सुहाना लगे।

-पन्नालाल शर्मा

मुलायम से सवाल…क्या मुसलमान महज़ ‘वोट बैंक’ हैं…?-फ़िरदौस ख़ान

बाबरी मस्जिद मामले में समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के बयान ने सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आख़िर मुसलमानों को महज़ ‘वोट बैंक’ ही क्यों समझा जाता है? मुसलमान भी इस मुल्क के बाशिंदे हैं… अगर मुलायम सिंह मुसलमानों के इतने बड़े ‘हितैषी’ हैं तो यह बताएं कि…उनके शासनकाल में उत्तर प्रदेश में कितने फ़ीसदी मुसलमानों को सरकारी नौकरियां दी गईं…? मुलायम सिंह आज मुसलमानों के लिए मगरमच्छी आंसू बहा रहे हैं…मुलायम सिंह को उस वक़्त मुसलमानों का ख़्याल क्यों नहीं आया, जब वो बाबरी मस्जिद की शहादत के लिए ज़िम्मेदार रहे कल्याण सिंह से हाथ मिला रहे थे…?

गौरतलब है कि मुलायम सिंह ने बाबरी मस्जिद मामले में अयोध्या मामले पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि अयोध्या विवाद पर आए इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले से मुस्लिम ठगा सा महसूस कर रहे हैं…हालांकि कई मुस्लिम नेताओं ने मुलायम सिंह यादव के इस बयान की कड़ी निंदा करते हुए कहा है कि इस वक़्त इस तरह के सियासी बयान देकर माहौल को बिगाड़ने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए…

कभी मुलायम सिंह के बेहद क़रीबी रहे अमर सिंह ने मुलायम सिंह पर टिप्पणी करते हुए अपने ब्लॉग पर लिखा है कि…अचरज तो तब होता है, जब अयोध्या में तोड़फोड़ मचाने वाले सरगना साक्षी महाराज को राज्यसभा में, विहिप के विष्णु हरि डालमिया के फरज़न्द संजय डालमिया को राज्यसभा में, कल्याण सिंह के साहबज़ादे राजवीर सिंह को अपने मंत्रिमंडल में और स्वयं कल्याण सिंह को सपा अधिवेशन में शिरकत कराने वाले ‘मौलाना मुलायम’ मुस्लिम वोटों के लिए तौहीने-अदालत करते नज़र आते हैं. अमर सिंह का भी कहना है कि अयोध्या फ़ैसले के बाद दूरदर्शन देखते हुए एक बात अच्छी देखी. लालकृष्ण आडवाणी, मोहन भागवत, नरेंद्र मोदी, जफरयाब जिलानीजी और सुन्नी वक्फ बोर्ड के हाशिम अंसारी के बयान में चैन, अमन और शांति का माहौल बनाए रखने की बात दिखी. अमर सिंह ने कहा कि पहली बार बाबरी के मसले पर मुकदमा लड़ने वाले दोनों पक्षों ने कोई भड़काऊ बयान न देकर सियासतदाओं की उम्मीदों पर पानी फेर दिया.

अगर सपा जैसे तथाकथित सेकुलर सियासी दल मुसलमानों के इतने बड़े ‘हितैषी’ हैं तो आज़ादी के क़रीब छह दशक बाद मुसलमानों की हालत इतनी बदतर क्यों हो गई कि उनकी स्थिति का पता लगाने के लिए सरकार को सच्चर जैसी समितियों का गठन करना पड़ा…? क़ाबिले-गौर है कि भारत में मुसलमानों की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए नियुक्त की गई सच्चर समिति ने 17 नवंबर 2007 को जारी अपनी रिपोर्ट में कहा कि देश में मुसलमानों की आर्थिक, सामाजिक और शिक्षा की स्थिति अन्य समुदायों की तुलना में काफ़ी ख़राब है…समिति ने मुसलमानों ही स्थिति में सुधार के लिए शिक्षा और आर्थिक क्षेत्रों में विशेष कार्यक्रम चलाए जाने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया था. प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अक्टूबर 2005 में न्यायधीश राजिंदर सच्चर के नेतृत्व में यह समिति बनाई थी.

सात सदस्यीय सच्चर समिति ने देश के कई राज्यों में सरकारी और ग़ैर सरकारी संस्थानों से मिली जानकारी के आधार पर बनाई अपनी रिपोर्ट में देश में मुसलमानों की काफ़ी चिंताजनक तस्वीर पेश की थी… रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि देश में मुस्लिम समुदाय आर्थिक, सामाजिक और शिक्षा के क्षेत्र में अन्य समुदायों के मुक़ाबले बेहद पिछड़ा हुआ है. इस समुदाय के पास शिक्षा के अवसरों की कमी है, सरकारी और निजी उद्दोगों में भी उसकी आबादी के मुक़ाबले उसका प्रतिनिधित्व काफ़ी कम है.

अब सवाल यह है कि मुसलमानों की इस हालत के लिए कौन ज़िम्मेदार है…? क्योंकि आज़ादी के बाद से अब तक अमूमन देश की सत्ता तथाकथित सेकुलर दलों के हाथों में ही रही है…

सेकुलर-वामपंथी बुद्धिजीवी बहुत दुखी हैं अयोध्या निर्णय से…

अयोध्या पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का बहुप्रतीक्षित निर्णय आखिरकार मीडिया की भारी-भरकम काँव-काँव के बाद आ ही गया। अभी निर्णय की स्याही सूखी भी नहीं थी कि सदभावना-भाईचारा-अदालती सम्मान के जो नारे सेकुलर गैंग द्वारा लगाये जा रहे थे, 12 घण्टों के भीतर ही पलटी खा गये। CNN-IBN जैसे सुपर-बिकाऊ चैनल ने अदालत का नतीजा आने के कुछ घंटों के भीतर ही फ़्लैश चमकाना शुरु कर दिया था कि “मन्दिर तोड़कर नहीं बनाई थी मस्जिद…” मानो तीनो जजों से भी अधिक बुद्धिमान हो ये चैनल। हालांकि कांग्रेस द्वारा सभी चैनलों और अखबारों को बाकायदा शरीफ़ाना शब्दों में “धमकाया” गया था कि फ़ैसला चाहे जो भी आये, उसे ऐसे पेश करना है कि मुसलमानों को दुख न पहुँचे, जितना हो सके कोर्ट के निर्णय को “हल्का-पतला” करके दिखाना है, ताकि सदभावना बनी रहे और उनकी दुकानदारी भी चलती रहे।

परन्तु क्या चैनल, क्या अखबार, क्या सेकुलर बुद्धिजीवी और क्या वामपंथी लेखक… किसी का पेट-दर्द 8-10 घण्टे भी छिपाये न छिप सका और धड़ाधड़ बयान, लेख और टिप्पणियाँ आने लगीं कि आखिर अदालत ने यह फ़ैसला दिया तो दिया कैसे? सबूतों और गवाहों के आधार पर जजों ने उस स्थान को राम जन्मभूमि मान लिया, जजों ने यह भी मान लिया कि मस्जिद के स्थान पर कोई विशाल हिन्दू धार्मिक ढाँचा था (भले ही मन्दिर न हो), जजों ने यह भी फ़ैसला दिया कि वह मस्जिद गैर-इस्लामिक थी…और उस समूचे भूभाग के तीन हिस्से कर दिये, जिसमें से दो हिस्से हिन्दुओं को और एक हिस्सा मुसलमानों को दिया गया। (पूरा फ़ैसला यहाँ क्लिक करके पढ़ें… https://rjbm.nic.in/)

हिन्दू-विरोध की रोटी खाने वालों के लिये तो यह आग में घी के समान था, जो बात हिन्दू और हिन्दू संगठन बरसों से कहते आ रहे थे उस पर कोर्ट ने मुहर लगा दी तो वे बिलबिला उठे। मुलायम सिंह जैसे नेता उत्तरप्रदेश में सत्ता में वापसी की आस लगाये वापस अपने पुराने “मौलाना मुलायम” के स्वरूप में हाजिर हो गये, वहीं लालू और कांग्रेस की निराशा-हताशा भी दबाये नहीं दब रही। फ़ैसले के बाद सबसे अधिक कुण्ठाग्रस्त हुए वामपंथी और सेकुलर लेखक।

रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों के कान के नीचे अदालत ने जो आवाज़ निकाली है उसकी गूंज काफ़ी दिनों तक सुनाई देती रहेगी। अब उनके लगुए-भगुए इस निर्णय की धज्जियाँ अपने-अपने तरीके से उड़ाने में लगे हैं, असल में उनका सबसे बड़ा दुःख यही है कि अदालत ने हिन्दुओं के पक्ष में फ़ैसला क्यों दिया? जबकि यही लोग काफ़ी पहले से न्यायालय का सम्मान, अदालत की गरिमा, लोकतन्त्र आदि की दुहाई दे रहे थे (हालांकि इनमें से एक ने भी अफ़ज़ल की फ़ाँसी में हो रही देरी पर कभी मुँह नहीं खोला है), और अब जबकि साबित हो गया कि वह जगह राम जन्मभूमि ही है तो अचानक इन्हें इतिहास-भूगोल-अर्थशास्त्र सब याद आने लगा है। जब भाजपा कहती थी कि “आस्था का मामला न्यायालय तय नहीं कर सकती” तो ये लोग जमकर कुकड़ूं-कूं किया करते थे, अब पलटी मारकर खुद ही कह रहे हैं कि “आस्था का मामला हाईकोर्ट ने कैसे तय किया? यही राम जन्मभूमि है, अदालत ने कैसे माना?”…

अब उन्हें कौन समझाये कि हिन्दुओं ने तो कभी नहीं पूछा कि यरुशलम में ईसा का जन्म हुआ था या नहीं? ईसाईयों ने कहा, हमने मान लिया… हिन्दुओं ने तो कभी नहीं पूछा कि कश्मीर की हजरत बल दरगाह में रखा हुआ “बाल का टुकड़ा” क्या सचमुच किसी पैगम्बर का है… मुस्लिमों ने कहा तो हमने मान लिया। अब जब करोड़ों हिन्दू मानते हैं कि यही राम जन्मभूमि है तो बाकी लोग क्यों नहीं मानते? इसलिये नहीं मानते, क्योंकि हिन्दुओं के बीच सेकुलर जयचन्दों और विभीषणों की भरमार है… इनमें से कोई वोट-बैंक के लिये, कोई खाड़ी से आने वाले पैसों के लिये तो कोई लाल रंग के विदेशियों की पुस्तकों से “प्रभावित”(?) होकर अपना काम करते हैं, इन लोगों को भारतीय संस्कृति, भारतीय आध्यात्मिक चरित्रों और परम्परागत मान्यताओं से न कोई लगाव है और न कोई लेना-देना।

अब आते हैं इस फ़ैसले पर – जो व्यक्ति कानून का जानकार नहीं है, वह भी कह रहा है कि “बड़ा अजीब फ़ैसला है”, एक आम आदमी भी समझ रहा है कि यह फ़ैसला नहीं है बल्कि बन्दरबाँट टाइप का समझौता है, क्योंकि जब यह मान लिया गया है कि वह स्थान राम जन्मभूमि है तो फ़िर ज़मीन का एक-तिहाई टुकड़ा मस्जिद बनाने के लिये देने की कोई तुक ही नहीं है। तर्क दिया जा रहा है कि वहाँ 300 साल तक मस्जिद थी और नमाज़ पढ़ी जा रही थी… इसलिये उस स्थान पर मुस्लिमों का हक है। यह तर्क इसलिये बोदा और नाकारा है क्योंकि वह मस्जिद ही अपने-आप में अवैध थी… अब वामपंथी बुद्धिजीवी पूछेंगे कि मस्जिद अवैध कैसे? इसका जवाब यह है कि बाबर तो अफ़गानिस्तान से आया हुआ एक लुटेरा था, उसने अपनी सेना के बल पर अयोध्या में जबरन कब्जा किया और वहाँ जो कुछ भी मन्दिरनुमा ढाँचा था, उसे तोड़कर मस्जिद बना ली… ऐसे में एक लुटेरे द्वारा जबरन कब्जा करके बनाई गई मस्जिद वैध कैसे हो सकती है? उसे वहाँ मस्जिद बनाने की अनुमति किसने दी?

कुछ तर्कशास्त्री कहते हैं कि वहाँ कोई मन्दिर नहीं था, चलो थोड़ी देर को मान लेते हैं कि मन्दिर नहीं था… लेकिन कुछ तो था… और कुछ नहीं तो खाली मैदान तो होगा ही… तब बाहर से आये हुए एक आक्रांता द्वारा अतिक्रमण करके स्थानीय राजा को जबरन मारपीटकर बनाई गई मस्जिद वैध कैसे हो गई? यानी जब शुरुआत ही गलत है तो वहाँ नमाज़ पढ़ने वाले किस आधार पर 300 साल नमाज पढ़ते रहे? अफ़गानिस्तान के गुंडों की फ़ौज द्वारा डकैती डाली हुई “खाली ज़मीन” (मान लो कि मन्दिर नहीं था) पर बनी मस्जिद में नमाज़ कैसे पढ़ी जा सकती है?

इसे दूसरे तरीके से एक काल्पनिक उदाहरण द्वारा समझते हैं – यदि अजमल कसाब ताज होटल पर हमला करता और किसी कारणवश या कमजोरीवश भारत के लोग अजमल कसाब को ताज होटल से हटा नहीं पाते, कसाब ताज होटल की छत पर चादर बिछाकर नमाज़ पढ़ने लगता, उसके दो-चार साथी भी वहाँ लगातार नमाज़ पढ़ते जाते… इस बीच 300 साल गुज़र जाते… तो क्या हमें ताज होटल का एक तिहाई हिस्सा मस्जिद बनाने के लिये दे देना चाहिये? सिर्फ़ इसलिये कि उस जगह पर कसाब और उसके वंशजों ने नमाज़ पढ़ी थी? मैं समझने को उत्सुक हूं कि आखिर बाबर और कसाब में क्या अन्तर है?

मूल सवाल यही है कि आखिर सन 1528 से पहले अयोध्या में उस जगह पर क्या था? क्या बाबर को अयोध्या के स्थानीय निवासियों ने आमंत्रण दिया था कि “आओ, हमें मारो-पीटो, एक मस्जिद बनाओ और हमें उपकृत करो…”? बाबर ने जो किया जबरन किया, किसी तत्कालीन राजा ने उसे मस्जिद बनाने के लिये ज़मीन आबंटित नहीं की थी, बाबर ने जो किया अवैध किया तो मस्जिद वैध कैसे मानी जाये? एक आक्रान्ता की निशानी को भारत के देशभक्त मुसलमान क्यों अपने सीने से चिपकाये घूम रहे हैं? हाईकोर्ट का निर्णय आने के बाद सबसे अधिक सदभावनापूर्ण बात तो यह होगी कि भारत के मुस्लिम खुद आगे आकर कहें कि हमें इस तथाकथित मस्जिद से कोई लगाव नहीं है और न ही हम ऐसी बलात कब्जाई हुई जगह पर नमाज़ पढ़ना चाहते हैं, अतः हिन्दुओं की भावनाओं की खातिर जो एक तिहाई हिस्सा कोर्ट ने दिया है हम उसका भी त्याग करते हैं और हिन्दू इस जगह पर भव्य राम मन्दिर का निर्माण करें, सभी मुस्लिम भाई इसमें सहयोग करेंगे… यह सबसे बेहतरीन हल है इस समस्या का, बशर्ते मुसलमानों को, सेकुलर और वामपंथी बुद्धिजीवी ऐसी कोई पहल करने दें और कोई ज़हर ना घोलें। ऐसी पहल शिया नेता कल्बे जव्वाद की शिया यूथ विंग “हुसैनी टाइगर” द्वारा की जा चुकी है, ज़ाहिर है कि कल्बे जव्वाद, “सेकुलर बुद्धिजीवियों” और “वामपंथी इतिहासकारों” के मुकाबले अधिक समझदार हैं…

परन्तु ऐसा होगा नहीं, मुलायम-लालू-चिदम्बरम सहित बुरका दत्त, प्रणव रॉय, टाइम्स समूह जैसे तमाम सेकुलरिज़्म के पैरोकार अब मुसलमानों की भावनाओं को कभी सीधे, तो कभी अप्रत्यक्ष तौर पर भड़कायेंगे, इसकी शुरुआत भी फ़ैसले के अगले दिन से ही शुरु हो चुकी है। उधर पाकिस्तान में भी “मुस्लिम ब्रदरहुड” नामक अवधारणा(?) हिलोरें मारने लगी है (यहाँ देखें…) और उन्हें हमेशा की तरह इस निर्णय में भी “इस्लाम पर खतरा” नज़र आने लगा है, मतलब उधर से भी इस ठण्डी पड़ती आग में घी अवश्य डाला जायेगा… और डालें भी क्यों नहीं, जब इधर के मुसलमान भी “कश्मीर में मारे जा रहे मुसलमानों और उन पर हो रहे अत्याचारों”(?) के समर्थन में एक बैठक करने जा रहे हैं (यहाँ देखिये…)। क्या यह सिर्फ़ एक संयोग है कि भारत से अलग होने की माँग करने वाले अब्दुल गनी लोन ने भी उसी सुर में सुर मिलाते हुए कहा है कि “अयोघ्या का फ़ैसला मुसलमानों के साथ धोखा है…” (ठीक यही सुर मुलायम सिंह का भी है)… क्या इसका मतलब अलग से समझाना पड़ेगा?

अब चिदम्बरम जी कह रहे हैं कि बाबरी ढाँचा तोड़ना असंवैधानिक था और उसके दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा…। क्या हो गया है चिदम्बरम जी आपको? यदि कोई गुण्डा मेरे घर में घुस कर बरामदे में अपना पूजास्थल बना लेता है तो उसे तोड़ने का मुझे कोई हक नहीं है? चिदम्बरम जी के “कांग्रेसी तर्क” को अपना लिया जाये, तो क्यों न शक्ति स्थल के पास ही मुशर्रफ़ मस्जिद, याह्या खां मस्जिद बनाई जाये, या फ़िर नेहरु के शांतिवन के पास चाऊ-एन-लाई मेमोरियल बनाया जाये, ये लोग भी तो भारत पर चढ़ दौड़े थे, आक्रांता थे…

अब फ़ैसला तो वामपंथी और सेकुलरों को करना है कि वे किसके साथ हैं? भारत की संस्कृति के साथ या बाहर से आये हुए एक आक्रान्ता की “तथाकथित मस्जिद” के साथ?

अक्सर ऐसा होता है कि मीडिया जिस मुद्दे को लेकर भचर-भचर करता है उसमें हिन्दुत्व और हिन्दुओं का नुकसान ही होता है, क्योंकि उनकी मंशा ही ऐसी होती है… परन्तु इस बार इस मामले का सकारात्मक पक्ष यह रहा कि मीडिया द्वारा फ़ैलाये गये रायते, जबरन पैदा किये गये डर और मूर्खतापूर्ण हाइप की वजह से 1992 के बाद पैदा हुई नई पीढ़ी को इस मामले की पूरी जानकारी हो गई… हमें भी अपने नौनिहालों और टी-एजर्स को यह बताने में आसानी हुई कि बाबर कौन था? कहाँ से आया था? उसने क्या किया था? इतने साल से हिन्दू एक मन्दिर के लिये क्यों लड़ रहे हैं, जबकि कश्मीर में सैकड़ों मन्दिर इस दौरान तोड़े जा चुके हैं… आदि-आदि। ऐसे कई राजनैतिक-धार्मिक सवाल और कई मुद्दे जो हम अपने बच्चों को ठीक से समझा नहीं सकते थे, मीडिया और उसकी “कथित निष्पक्ष रिपोर्टिंग”(?) ने उन 17-18 साल के बच्चों को “समझा” दिये हैं। कश्मीरी पण्डितों की दुर्गति जानने के बाद, अब उन्हें अच्छी तरह से यह भी “समझ” में आ गया है कि भारत के मीडिया को कांग्रेस और मुस्लिमों का “दलाल” क्यों कहा जाता है। जैसे-जैसे आज की पीढ़ी इंटरनेट पर समय बिताएगी, ऑरकुट-फ़ेसबुक-मेल पर बतियाएगी और पढ़ेगी… खुद ही इन लोगों से सवाल करेगी कि आखिर इतने साल तक इस मुद्दे को किसने लटकाया? वे कौन से गिरे हुए बुद्धिजीवी हैं और किस प्रकार के घटिया इतिहासकार हैं, जो बाबर (या मीर बाकी) की बनाई हुई मस्जिद को “पवित्र” मानते रहे हैं…। नई पीढ़ी ये भी सवाल करेगी कि आखिर वे किस प्रकार के “धर्मनिरपेक्ष” अफ़सर और लेखक थे जिन्होंने राम और रामसेतु को काल्पनिक, तथा रामायण को एक नॉवेल बताया था…ये सभी लोग बामियान (अफ़गानिस्तान) में सादर आमंत्रित हैं…

अब देखना है कि भारत के मुसलमान इस अवैध मस्जिद को कब तक सीने से चिपकाये रखते हैं? पाकिस्तान, देवबन्द और उलेमा बोर्ड के भड़काने से कितने भड़कते हैं? अपने आपको सेकुलर कहने वाले मुलायम और वामपंथी लोगों के बहकावे में आते हैं या नहीं? दोहरी चालें चलने वाली कांग्रेस मामले को और लम्बा घसीटने के लिये कितने षडयन्त्र करती है? जो एक तिहाई हिस्सा उन्हें खामख्वाह मिल गया है क्या उसे सदभावना के तहत हिन्दुओं को सौंपते हैं? सब कुछ भविष्य के गर्भ में है… फ़िलहाल तो हिन्दू इस फ़ैसले से अंशतः नाखुश होते हुए भी इसे मानने को तैयार है… (भाजपा ने भी कहा कि विवादित परिसर से दूर एक विशाल मस्जिद बनाने में वह सहयोग कर सकती है), लेकिन कुछ “बुद्धिजीवी”(?) मुस्लिमों को भड़काने के अपने नापाक इरादों में लगे हुए हैं… अयोध्या फ़ैसले के बाद ये बुद्धिजीवी सदमे और सन्निपात की हालत में हैं और बड़बड़ा रहे हैं…। कहा नहीं जा सकता कि आगे क्या होगा, लेकिन अब गेंद मुसलमानों के पाले में है…। अभी समय है कि वे जमीन के उस एक-तिहाई हिस्से को हिन्दुओं को सौंप दें, ताकि मन्दिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो सके…। कहीं ऐसा न हो कि सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के बाद वह एक तिहाई हिस्सा भी उनके हाथ से निकल जाये…

‘हम राम मंदिर बनाने के बहाने फंडामेंटलिज्म के मार्ग पर चल पड़े हैं’

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बैंच का जब से फैसला आया है। रामभक्त अब लखनऊ बैंच के भक्त हो गए हैं। मैं उन्हें लखनऊभक्त के रूप में ही चिह्नित करूँगा। वे लखनऊ बैंच के जजमेंट को यूनीवर्सल बनाने में लगे हैं। आस्था के सिद्धांत को कानून का सिद्धांत बनाना चाहते हैं। यह लखनवी न्याय है। इसके लिए वे किसी भी हद तक जाने की सोच रहे हैं। वे लखनऊ बैंच के जजमेंट को न्याय का आदर्श आधार बता रहे हैं।

लखनवी न्याय में अनेक संभावित खतरे छिपे हैं। पहला खतरा तो यही है कि इसमें न्याय बुद्धि से काम नहीं लिया गया। यह भारत के अब तक के न्याय पैमाने को अमान्य करके लिखा गया फैसला है। दूसरी बात यह है कि इस फैसले को अंतिम फैसला नहीं मान सकते। तीसरी बात यह कि इसमें विविधता के सिद्धांत की उपेक्षा हुई है। चौथी बात यह है कि इस फैसले का आधार रामकथा और उससे जुड़ी मान्यताएं हैं।

उपरोक्त चारों बातों की रोशनी में लखनऊ बैंच का जजमेंट न्याय नहीं है, राय है। उस पर पक्ष-विपक्ष में जो कुछ बोला जा रहा है वह भी न्याय नहीं है राय है। यह अतीत को आधार बनाकर, धार्मिक मान्यताओं को आधार बनाकर दी गई राय है। इसने न्याय की बहस को कानून के बाहर कर दिया है।

अब लोग न्याय पर नहीं राय पर बातें कर रहे हैं। राय के आधार पर मंदिर-मसजिद का तर्क रचा जा रहा है। बाबरी मसजिद के गिराए जाने के बाद से न्याय की बातें नहीं हो रही हैं आस्था की बातें हो रही हैं। बाबरी मसजिद के अस्तित्व के बारे में रथयात्रा के पहले न्याय और विविधता पर केन्द्रित होकर ज्यादा बातें होती थीं लेकिन बाबरी मसजिद विध्वंस के बाद विविधता और न्याय की बजाय आस्था और राय पर बातें होने लगीं। लखनऊ बैंच के जजों का फैसला इसी अर्थ में न्याय नहीं राय है।

लखनवी राय को राम के जन्म के साथ कम राम के राज्य या एंपायर के साथ जोड़कर देखा जा रहा है। जिन जजों ने रामजन्मस्थान के रूप में बाबरी मसजिद की विवादित जमीन को रामजन्म स्थान चिह्नित किया है। उन्होंने राजा दशरथ, उनके पुत्र राम, अयोध्या राजधानी और राम के शासन को ध्यान में रखकर फैसला लिखा है। न्याय बुद्धि में राम के एंपायर का आना स्वयं में ही समस्यामूलक है। न्यायबुद्धि किसी राजा के देश के आधार पर जब फैसलादेने लगे तो कम से कम उसे न्याय नहीं कहते राय कहते हैं।

राम के एंपायर को आधार बनाते समय न्यायाधीशों ने अपने लिए धार्मिक मुक्ति का मार्ग चुन लिया। वे अपना फैसला राम के एंपायर को, उनके भक्त समुदाय को सुनाकर चले गए। वे इस बात को भूल गए कि न्याय को एंपायर का आधार नहीं बनाया जा सकता। रामभक्त जब बाबर के युग की बातें करते हैं राममंदिर के पक्ष में तर्क गढ़ते हैं तो वे भूल ही जाते हैं कि बाबर के बहाने न्याय को नहीं एंपायर को आधार बना रहे हैं। एंपायर के आधार पर न्याय नहीं किया जा सकता। फैसले का आधार तो न्याय और विविधता ही हो सकती है।

जज यह जानते थे कि बाबरी मसजिद का फैसला एक राजनीतिक फैसला है और राजनीतिक फैसले एंपायर के आधार पर नहीं न्याय और विविधता के आधार पर ही किए जाने चाहिए। एंपायर के आधार पर फैसला करने के कारण ही लखनवी न्याय में आधुनिककाल, आधुनिकबोध, भारत का संविधान और न्याय सब एकसिरे से गायब है। इस फैसले में राय की एकता और भाषा की एकता भी है। इस अर्थ में जजों ने भाषिक वैविध्य को भी अस्वीकार किया है।

इस जजमेंट के बाद जिस तरह की राय राजनीतिक सर्किल से आई है उसे राजनीतिक राय ही कह सकते हैं न्यायकेन्द्रित राय नहीं कह सकते। यहां तरह-तरह की राजनीतिक राय व्यक्त की गई है। कांग्रेस से लेकर कम्युनिस्टों तक, आरएसएस से लेकर मुलायम सिंह तक सबने राजनीतिक राय व्यक्त की है। न्याय को आधार बनाकर राय नहीं दी है। इसमें राजनीतिक विचारों की चर्चा खूब हो रही है।

लखनवी राय के पक्ष-विपक्ष में जो कुछ भी बोला जा रहा है वह राजनीतिक विचारों की अभिव्यक्ति है। लखनऊ बैंच का फैसला जजमेंट नहीं राजनीतिक राय है। न्याय में कनवर्जेंस नहीं होता। विविधता होती है। लखनऊ बैंच ने डायवर्जेंस को अस्वीकार किया है। वहां तीन जजों की राय में कनवर्जंस हुआ है।

जो लोग अल्पसंख्यकों की बात कर रहे हैं। मुसलमानों की बात कर रहे हैं वे भी मुसलमानों को सामाजिक इकाई के रूप में नहीं देख रहे हैं बल्कि भाषिक इकाई के रूप में देख रहे हैं। अल्पसंख्यक या मुसलमान को सामाजिक इकाई मानने की बजाय भाषिक इकाई मानना स्वयं में इस समुदाय का अवमूल्यन है। भारत की सामाजिक विविधता को अस्वीकार करना है।

सब जानते हैं भारत में एक नहीं अनेक अल्पसंख्यक समुदाय हैं लेकिन वे सिर्फ अब हमारे भाषिकगेम का हिस्सा मात्र हैं। हिन्दू संगठनों के द्वारा रथयात्रा के साथ अल्पसंख्यकों को भाषिकगेम में तब्दील करने की जो प्रक्रिया आरंभ हुई थी उसने अल्पसंख्यकों की सामाजिक इकाई के रूप में पहचान ही खत्म कर दी,लखनवी न्याय उस प्रक्रिया की चरम अभिव्यक्ति है। इस फैसले ने अल्पसंख्यकों पर हिन्दुओं के प्रभुत्व की मुहर लगा दी है।

हमारे देश की समग्र राजनीति ने अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का वर्गीकरण कुछ इस तरह किया है कि उससे कोई भी अल्पसंख्यक समूह कभी भी बहुसंख्यक नहीं बन सकता है। अब अल्पसंख्यकों के पक्ष में खड़े होने के लिए जिस दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत है उसका राजनीतिक दलों से लेकर न्यायाधीशों तक में जबर्दस्त अभाव दिखाई देता है। अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के आधार पर वर्गीकृत राजनीति ने न्याय की नजर से अल्पसंख्यकों को देखने का नजरिया ही छीन लिया है। हमें साठ साल के बाद सच्चर कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद पता चला कि मुसलमानों को 60 सालों में हमारी राजनीतिक व्यवस्था ने किस रौरव नरक में ठेल दिया है। लखनऊ बैंच का फैसला उसी बृहत्तर प्रक्रिया हिस्सा मात्र है। अब हमारे देश में अल्पसंख्यक हैं लेकिन वे भाषिकगेम में हैं, सामाजिक समूह के रूप में उन्हें विमर्श और न्यायपूर्ण जीवन से बेदखल कर दिया गया है।

अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक केटेगरी में बांटकर देखने के कारण ही धीरे-धीरे अल्पसंख्यक हाशिए पर गए हैं और आज स्थिति इतनी बदतर है कि अल्पसंख्यकों के पक्ष में खुलकर बोलने वाले को बेहद जोखिम उठाना पड़ता है। खासकर जब न्याय देने का सवाल आता है तो अल्पसंख्यकों को भारत में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। अल्पसंख्यकों को अपने समुदाय के अंदर और बाहर दोनों तरफ से खतरा है। मजेदार बात यह है कि लखनऊ बैंच में तीन जज थे, दो की एक राय और एक जज की अलग राय थी लेकिन तीनों की भाषा एक ही है। भाषिकगेम में उनकी अंतर्वस्तु में कोई बुनियादी अंतर नहीं है। तीनों जज बाबरी मसजिद के बारे में राम कथा की विवरणात्मक -कथात्मक भाषा का इस्तेमाल करते हैं। न्याय में इस तरह के भाषिकखेल के अपने अलग नियम हैं। उत्तर आधुनिक विचारक जे.एफ.ल्योतार के अनुसार इस तरह के भाषाखेल और कथानक के बारे में न्याय के आधार पर विचार नहीं किया जा सकता।

राम हमारे कथानक का हिस्सा हैं, कथानक में राम इतने ताकतवर हैं कि उनकी सत्ता को अस्वीकार करना मुश्किल है। लखनऊ बैंच के जजों ने रामकथानक को जजमेंट का आधार बनाकर न्याय की ही विदाई कर दी। कथानक के आधार पर न्याय नहीं हो सकता। कथानक भाषिक खेल का हिस्सा होता है न्याय का नहीं। जब आप कथानक के खेल में फंसे हैं तो उसे तोड़ नहीं सकते। न्याय पाने के लिए कथानक के खेल के बाहर आना जरूरी है लेकिन तीनों जज और उनके लिए जुटे वकीलों का समूचा झुंड रामकथानक को त्यागकर बाबरी मसजिद की बातें नहीं कर रहा है।

संघ परिवार की सबसे बड़ी सफलता यह है कि उसने बाबरी मसजिद विवाद को न्याय के पैराडाइम के बाहर कथानक के पैराडाइम में ठेल दिया है। अब राम कथानक के पैराडाइम में घुसकर आप संघ परिवार को पछाड़ नहीं सकते। राम कथानक के पैराडाइम के कारण ही बाबरी मसजिद का विवाद भाषिकगेम में फंस गया। कोई भी दल रामकथा को अस्वीकार नहीं कर सकता। रामकथा का भाषिकगेम सभी रंगत की राजनीति को हजम करता रहा है। यह टिपिकल पोस्ट मॉडर्न भाषिकगेम है। इस भाषिकगेम के बाहर निकलकर ही न्याय की तलाश की जा सकती है। लेकिन यदि रामकथानक के आधार पर बातें होंगी तो भाषिकगेम में फसेंगे और ऐसी अवस्था में जज कोई भी हो जीत अंततः संघ परिवार की होगी।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि भाषिकगेम हमेशा मिलावटी होता है। उसमें शुद्धता नहीं होती। रामजन्म के भाषिकखेल में भी मिलावट है। यह बहुस्तरीय मिलावट है। इस गेम में तैयार राम कहानी में न्याय के लिए भी सुझाव हैं और वे ही सुझाव लखनऊ बैंच ने माने हैं। राम कहानी का भाषिकगेम जिन्होंने तैयार किया उन्होंने अपने विरोधियों को भी अपनी बातें मानने के लिए मजबूर किया ।

कथा का भाषिकखेल छलियाखेल है। वे इसके जरिए कांग्रेस को छल चुके हैं,राजीव गांधी को छल चुके हैं। अब उसी भाषिकगेम ने जजों को भी छला है। रामकथा के भाषिकगेम को संघ परिवार और भारत के पूंजीपतिवर्ग ने वैधता प्रदान की है और संघ परिवार ने रामगेम में जो कहा उस पर अपनी सिद्धाततः सहमति दी है व्यवहार में निर्णय लिया है। रामकथानक के भाषिकखेल की यह विशिष्ट उपलब्धि है।

न्यायपालिका, राजनीतिक दलों और जनता से कहा जा रहा है कि राममंदिर अयोध्या में नहीं बनेगा तो क्या पाकिस्तान में बनेगा। न्यायपालिका की जिम्मेदारी बनती है कि वह रामकथा की पवित्रता की रक्षा करे। यही वह दबाब है जिसके गर्भ से लखनवी न्याय आया है।

लखनवी न्याय के आने के साथ ही रामकथा पर न्याय की भी मुहर लग गयी है। अब राम कथा भी कानूनी हो गयी है। अब राम जन्म को कानूनी मान्यता मिल गयी है। इस कानूनी मान्यता के बड़े दूरगामी परिणाम होंगे। यह न्याय की भाषा के बदलने की सूचना भी है।

रामकथानक की आंतरिक प्रकृति है ‘रिपीट मी’, संघ परिवार ने बड़े ही कौशल के साथ रामकथा को अपना विचारधारात्मक अस्त्र बनाया है और रामकथा को बार-बार दोहराने के लिए सबको मजबूर किया और उसका प्रभाव जजमेंट में भी पड़ा है अब भविष्य में अन्य जजों पर यह दबाब रहेगा कि ‘रिपीट मी’।

आप राम कहानी को पढ़ने जाते हैं तो उसे दोहराने को मजबूर होते हैं। अब रामकथा और आस्था के आधार पर न्याय आया है तो यह भी दोहराने की मांग करेगा और अब हम भविष्य में एक नए किस्म के न्याय से मुखातिब होंगे जिसका आधार रामकथा या ऐसी ही कोई पौराणिक या मिथकीय कथा होगी जिसके आधार पर न्याय का पाखंड रचा जाएगा। इस तरह की बेबकूफियां अनेक इस्लामिक देशों में होती रही हैं। धार्मिक कथानकों और मान्यताओं के आधार पर वहां पर न्याय होता रहा है और इससे न्याय घायल हुआ है। संभवतः हम राम मंदिर बनाने के बहाने फंडामेंटलिज्म के मार्ग पर चल पड़े हैं।

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

-फ़िरदौस ख़ान

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

हिंदी हैं हम वतन है, हिन्दोस्तां हमारा…

हिंसा किसी भी सभ्य समाज के लिए सबसे बड़ा कलंक हैं, और जब यह दंगों के रूप में सामने आती है तो इसका रूप और भी भयंकर हो जाता है। दंगे सिर्फ जान और माल का ही नुक़सान नहीं करते, बल्कि इससे लोगों की भावनाएं भी आहत होती हैं और उनके सपने बिखर जाते हैं। दंगे अपने पीछे दुख-दर्द, तकलीफें और कड़वाहटें छोड़ जाते हैं। लेकिन कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद इंसानियत की मिसाल पेश करते हैं।

ऐसी ही एक महिला हैं गुजरात के अहमदबाद की गुलशन बानो, जिन्होंने एक हिन्दू लड़के को गोद लिया है। करीब 47 साल की गुलशन बानो केलिको कारखाने के पास अपने बच्चों के साथ रहती हैं। वर्ष 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों में जब लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो रहे थे, उस समय उनके बेटे आसिफ ने एक हिन्दू लड़के रमन को आसरा दिया था। बेटे के इस काम ने गुलशन बानो का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया। रमन के आगे-पीछे कोई नहीं था। इसलिए उन्होंने उसे गोद लेने का फैसला कर लिया। इस वाकिये को करीब छह साल बीत चुके हैं। रमन गुलशन बानो के परिवार में एक सदस्य की तरह रहता है। उसका कहना है कि गुलशन बानो उसके लिए मां से भी बढ़कर हैं। उन्होंने कभी उसे मां की ममता की कमी महसूस नहीं होने दी। बारहवीं कक्षा तक पढ़ी गुलशन बानो कहती हैं कि उनका जीवन संघर्षों से भरा हुआ है। उन्होंने अपने आठ बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा किया है। जब उन्होंने बिन मां-बाप का बच्चा देखा तो उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने उसे अपना लिया। उनके घर ईद के साथ-साथ दिवाली भी धूमधाम से मनाई जाती है। अलग-अलग धर्मों से ताल्लुक रखने के बावजूद एक ही थाली में भोजन करने वाले मां-बेटे का प्यार इंसानियत का सबक सिखाता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2000 में 16 लाख लोग हिंसा के कारण मौत के मुंह में समा गए थे। इनमें से करीब तीन लाख लोग युध्द या सामूहिक हिंसा में मारे गए, पांच लाख की हत्या हुई और आठ लाख लोगों ने खुदकुशी की। युध्द, गृहयुध्द या दंगे-फसाद बहुत विनाशकारी होते हैं, लेकिन इससे भी कई गुना ज्यादा लोग हत्या या आत्महत्या की वजह से मारे जाते हैं। हिंसा में लोग अपंग भी होते हैं। इनकी तादाद मरने वाले लोगों से करीब 25 गुना ज्यादा होती है। हर साल करीब 40 करोड़ लोग हिंसा की चपेट में आते हैं और हिंसा के शिकार हर व्यक्ति के नजदीकी रिश्तेदारों में कम से कम 10 लोग इससे प्रभावित होते हैं।

इसके अलावा ऐसे भी छोटे-छोटे झगड़े होते हैं, जिनसें जान व माल का नुकसान तो नहीं होता, लेकिन उसकी वजह से तनाव की स्थिति जरूर पैदा हो जाती है। कई बार यह हालत देश और समाज की एकता, अखंडता और चैन व अमन के लिए भी खतरा बन जाती है। भारत भी हिंसा से अछूता नहीं है। आजादी के बाद से ही भारत के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक दंगे होते रहे हैं। इनमें 1961 में अलीगढ़, जबलपुर, दमोह और नरसिंहगढ़, 1967 में रांची, हटिया, सुचेतपुर-गोरखपुर, अहमदनगर, शोलापुर, मालेगांव, 1969 में अहमदाबाद, 1970 में भिवंडी, 1971 में तेलीचेरी (केरल), 1984 में सिख विरोधी दंगे, 1992-1993 में मुंबई में भड़के मुस्लिम विरोधी दंगे से लेकर 1999 में उड़ीसा में ग्राहम स्टेन्स की हत्या, 2001 में मालेगांव और 2002 में गुजरात में हुए मुस्लिम विरोधी दंगों सहित करीब 30 ऐसे नरसंहार शामिल हैं, जिनकी कल्पना मात्र से ही रूह कांप जाती है।

दंगों में कितने ही बच्चे अनाथ हो गए, सुहागिनों का सुहाग छिन गया, मांओं की गोदें सूनी हो गईं। बसे-बसाए खुशहाल घर उजड़ गए और लोग बेघर होकर खानाबदोश जिन्दगी जीने को मजबूर हो गए। हालांकि पीड़ितों को राहत देने के लिए सरकारों ने अनेक घोषणाएं कीं और जांच आयोग भी गठित किए, लेकिन नतीजा वही ‘वही ढाक के तीन पात’ रहा। आखिर दंगा पीड़ितों की आंखें इंसाफ की राह देखते-देखते पथरा गईं, लेकिन किसी ने उनकी सुध नहीं ली।

सांप्रदायिक दंगों के बाद इनकी पुनरावृत्ति रोकने और देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र और आपसी भाईचारे को बढ़ावा देने के मकसद से कई सामाजिक संगठन अस्तित्व में आ गए जो देश में सांप्रदायिक सद्भाव की अलख जगाने का काम कर रहे हैं।

गौरतलब है कि हिंसा के मुख्य कारणों में अन्याय, विषमता, स्वार्थ और आधिपत्य स्थापित करने की भावना शामिल है। हिंसा को रोकने के लिए इसके बुनियादी कारणों को दूर करना होगा। इसके लिए गंभीर रूप से प्रयास होने चाहिएं। इससे जहां रोजमर्रा के जीवन में हिंसा कम होगी, वही युध्द, गृहयुध्द और दंगे-फसाद जैसी सामूहिक हिंसा की आशंका भी कम हो जाएगी। अहिंसक जीवन जीने के लिए यह जरूरी है कि ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ की प्रवृत्ति को अपनाया जाए। अहिंसक समाज की बुनियाद बनाने में परिवार के अलावा, स्कूल और कॉलेज भी अहम भूमिका निभा सकते हैं। इसके साथ ही विभिन्न धर्मों के धर्म गुरु भी लोगों को धर्म की मूल भावना मानवता का संदेश देकर अहिंसक समाज के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।

आस्था की जय-जयकार में रेशनल की विदाई

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

हमारे अनेक ब्लॉग पाठक आस्था के आधार पर हाल ही में आए इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के फैसले पर मुग्ध हैं। हम उम्मीद कर रहे हैं कि वे राम-राम जपते-जपते इस भवसागर को आसानी से पार कर जाएंगे। आस्था को इन लोगों ने तर्क, विज्ञान, आधुनिक न्याय, संविधान आदि सबसे ऊपर स्थान दिया है।

संघ परिवार आस्था के आधार पर आम लोगों को बेबकूफ बनाने में लगा है, मेरे ब्लॉगर दोस्त आस्था के नशे में डूबे हैं उन्हें अब राम मंदिर दे ही दिया जाए और एक राम मंदिर नहीं सारे देश को राम मंदिर में तब्दील कर दिया जाए।

देश की सारी जनता से कहा जाए कि वह अपने घर, इमारत, स्कूल, कॉलेज-विश्वविद्यालय, न्यायालय, विज्ञान की प्रयोगशालाएं आदि सबको राम मंदिर में तब्दील कर दे। जनता सड़कों पर रहे, खुले आसमान के नीचे रहे। हम सबके घरों को भव्य राम मंदिरों में रूपान्तरित कर दिया जाए।

संघ परिवार और रामभक्तों को इस देश में प्रत्येक इमारत को भव्य राम मंदिर में रूपान्तरित करने का जिम्मा दे दिया जाए। सारा देश राम का है और रामभक्तों का है। राम और राम भक्तों को तो भारत में सिर्फ राममंदिर चाहिए चाहे उसके लिए कोई भी कीमत देनी पड़े। वे बच्चों की तरह राम लेंगे -राम लेंगे की रट लगाए हुए हैं। हम चाहते हैं कि इस प्रस्ताव पर सभी रामभक्त गंभीरता से सोचकर जबाब दें कि देश की सभी इमारतों को भव्य राम मंदिर में रूपान्तरित क्यों न कर दिया जाए।

हम अब न कुछ पैदा करेंगे, न ज्ञान की बातें करेंगे,न रेशनल बातें करेंगे,न विज्ञान की चर्चा करेंगे,हम न पढ़ेंगे ओर न लिखेंगे। इंटरनेट, टीवी, रेडियो आदि का धंधा भी बंद कर दिया जाए सिर्फ राम धुन होगी, राम की इमेज होगी। अधिक से अधिक सरसंघचालक के कुछ अमरवचन होंगे जिन्हें हम सुनेंगे और धन्य हो धन्य हो करेंगे।

आस्था में राम हैं। सारे वातावरण में राम हैं। यह देश राम का है और राम के अलावा इस देश में किसी भी देवी-देवता और मनुष्य की आस्था का कोई महत्व नहीं होगा। राम के प्रति आस्था के खिलाफ कोई अगर जुबान खोलेगा तो उसका वध होगा। राम हमारी राष्ट्रीय आस्था के प्रतीक हैं अब आगे से हम राम का ही उत्पादन और पुनरूत्पादन करेंगे।

राम घरों में रहेंगे मनुष्यों घरों के बाहर रहेगें। वैज्ञानिकों,इंजीनियरों,वकीलों, न्यायाधीशों, अध्यापकों,आस्तिकों-नास्तिकों,नागरिकों और सभी किस्म के पेशवर लोगों को उनके धंधे से हटा दिया जाएगा अब आगे से हम सिर्फ आस्था खाएंगे,आस्था पीएंगे आस्था में जीएंगे। अब इस देश में सिर्फ रामभक्त रहेंगे। जो रामभक्त नहीं हैं वे अपने लिए अन्य देश खोज लें और हमारे राम जो भारत के बाहर

अन्य देशों में चले गए हैं वहां से हम सभी राम मूर्तियों को ले आएंगे। राम को हम विदेशों में नहीं रहने देंगे। गुस्ताखी देखो की जब एकबार भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के महाज्ञानी पुरातत्व विशेषज्ञों ने बता दिया और उस पर लखनऊ न्यायालय के न्यायसंपन्न न्यायाधीशों ने मुहर लगा दी कि राम का जन्म कहां हुआ था तो इस बात को तो दुनिया की अब तक की सबसे महान खोज मान लिया जाना चाहिए और जो लोग नहीं मान रहे हैं उनकी व्यवस्था वैसे ही की जाए जैसी रामजी ने राक्षसों की कीथी।

हमें खुश होना चाहिए कि हमारा देश सिर्फ राम का है यहां राम और रामभक्तों के अलावा किसी की नहीं चलेगी। हमारे यहां संसद, अदालत, संविधान और उसमें प्रदत्त नागरिक अधिकारों का अब कोई महत्व नहीं रह गया है अब राम हमारे देश में जन्म ले चुके हैं और हमें उन सैंकड़ों-हजारों किताबों को आग के हवाले कर देना है जो राम के विभिन्न किस्म के रूपों की चर्चा करती हैं। उन विद्वानों को रामभक्तों की कैद में ड़ाल देना है जो राम को नहीं मानते, राम जन्म को नहीं मानते। अयोध्या को तो अब रामभक्त एकदम स्वर्ग बनाकर छोडेंगे और भारत को रामराज्य और स्वर्गलोक। हम चाहते हैं कि रामभक्त और संघ परिवार जल्दी से जल्दी मिशन राम मंदिर को सारे राष्ट्र में साकार करे। हो सके तो रातों-रात रामजी से मिलकर सभी इमारतों को राममंदिर में तब्दील करा दें। जब देश राम और देशवासी राम के तो किसी तर्क, विवेक, विज्ञान, न्याय आदि के आधार पर सोचना नहीं चाहिए। जय श्री राम।