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‘तोता-रटंत’ राहुल के निरर्थक बोल

-पवन कुमार अरविंद

कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी ने देशभक्त संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना प्रतिबंधित और कुख्यात आतंकी संगठन सिमी से करके अपने नासमझी और अपरिपक्वता का ठोस परिचय दिया है। अभी तक उनकी नासमझी व अपरिपक्वता को लेकर देश की जनता में कुछ संदेह था, लेकिन श्री गांधी ने इस प्रकार का बयान देकर उस संदेह को भी दूर कर दिया है।

हालांकि, 40 वर्षीय श्री गांधी ऐसा बचकाना बयान देंगे, यह किसी ने भी नहीं सोचा था। इसलिए उनका बयान हैरत में डालने वाला है। वह देश के लिए एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। केवल सांसद हैं इसलिए नहीं, बल्कि इसलिए भी, क्योंकि वह ऐसे खानदान का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसने पंडित नेहरू सहित इस देश को तीन-तीन प्रधानमंत्री दिए हैं। इसलिए राहुल महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। संसदीय लोकतंत्र में ऐसे बयान को किसी भी सूरत में मर्यादापूर्ण नहीं कहा जा सकता है। यह हर स्थिति में लोकतंत्र की गरिमा को तार-तार करने वाला है।

अब प्रश्न यह उठता है कि जो व्यक्ति आतंकी संगठन और सामाजिक संगठन में अंतर न समझ पाता हो, उस व्यक्ति को भविष्य में यदि कभी देश का नेतृत्व करने का मौका मिले, तो वह देश की बागडोर ठीक से संभाल सकेगा, इस बारे में लोगों को सदैव संदेह बना रहेगा। ध्यातव्य है कि राहुल ने मध्य प्रदेश के त्रि-दिवसीय प्रवास के दौरान कहा था कि कांग्रेस के कार्यकर्ता सिमी और आरएसएस से दूर रहें, क्योंकि ये दोनों संगठन कट्टरवाद के समर्थक हैं और दोनों की विचारधार में कोई खास फर्क नहीं है।

राहुल ने टिप्पणी तो कर दी लेकिन उनको शायद ही आरएसएस का इतिहास पता हो। वह आरएसएस के संस्थापक का ही ठीक से पूरा नाम नहीं बता सकते। हालांकि, वह आरएसएस को कितना जानते हैं यह बताने के लिए उनका बयान ही काफी है। राहुल के इस प्रकार के ऊल-जुलूल बयान से यह स्पष्ट हो गया है कि उनको इस देश के इतिहास-भूगोल की भी कोई जानकारी नहीं है। राहुल की विशेषता अब केवल स्वर्गीय श्री राजीव गांधी का बेटा होना भर ही रह गया है।

राहुल को यह जानना चाहिए कि सिमी पर भाजपा नीत राजग सरकार ने प्रतिबंध लगाया था। उसके बाद उनकी कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ने उस प्रतिबंध को आगे बढ़ा दिया। क्योंकि वह खूंखार आतंकी संगठन है और देश में हुए कई आतंकी विस्फोटों में उसका हाथ है। सिमी पर अमेरिका ने भी प्रतिबंध लगा रखा है। राहुल की नजर में आरएसएस यदि सिमी जैसा संगठन है तो उनको अपनी कांग्रेस नीत यूपीए सरकार से उस पर प्रतिबंध लगाने के लिए कहना चाहिए। यदि आरएसएस सचमुच में सिमी के समान है, तो उनकी सरकार ने आरएसएस पर बिना प्रतिबंध लगाए क्यों छोड़ रखा है, यह सोचने वाली बात है ?

दरअसल, राहुल को स्वयं नहीं पता होता है कि वह क्या बोल रहे हैं। वह हमेशा लिखा हुआ भाषण पढ़ते हैं और भाषण में जो कुछ भी लिखा होता है, उसी को वह पढ़ डालते हैं।

हालांकि, राहुल गांधी के बयान से आरएसएस की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। हां, इतना अवश्य है कि राहुल ऐसा बोलकर स्वयं ‘हल्के’ पड़ गए हैं। क्योंकि इस देश की जनता किसी भी राजनेता या श्रेष्ठ व्यक्तित्व से सदैव मर्यादित व संयमित व्यवहार तथा भाषा की अपेक्षा करती है।

कहा जाता है कि आदमी का बड़प्पन जीवन के किसी भी स्थिति, परिस्थित और मनःस्थिति में धैर्य व धीरज बनाए रखते हुए मर्यादापूर्ण आचरण व व्यवहार करने में होता है। लेकिन सामान्य स्थितियों में ही धैर्य खोकर विक्षिप्तावस्था में आ जाना और ऊल-जुलूल बातें करना, यह मनुष्य के व्यक्तित्व के एक वास्तविक पहलू को ही दर्शाता है। ऐसे व्यक्ति से देश के लिए और देशहित में किसी बड़े काम की उम्मीद नहीं की जा सकती।

अधूरे है मिलेनियम डेवलपमेंट गोल हासिल करने के प्रयास

–पंकज चतुर्वेदी

संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य देशों ने एक लंबे आंकलन के बाद यह देखा की आज भी भू-भाग के कई हिस्से तरक्की के तमाम दावों के बाद भी विकास की दौड़ में बहुत पीछे है या ऐसा कहा जाये की विकास उन से कोसो दूर है तो असत्य नहीं होगा। अनेक देश गरीबी, कुपोषण, बिमारियों जैसी समस्याओं से जूझ रहें है। दुनिया के अनेक राष्ट्रों में आज भी भरपेट भोजन और स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है और कही लोग मिनरल वाटर ही पीते है। इन असमानताओं को दूर करने और पूरी पृथ्वी के जन जीवन को एक समान स्तर पर लाने हेतु मिलेनियम डेवलपमेंट गोल की अवधारण सामने आयी। ऐसा निश्चय लिया गया की हर एक दशक के बाद इनका आंकलन भी किया जाये, ताकि ये ज्ञात होता रहें की प्रगति संतोषजनक है या अभी और जोर लगाने की जरुरत है। । इस सम्बन्ध में संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी देशों के राजनेताओं ने मुख्यतः आठ उद्देश्य एवं इक्कीस लक्ष्यों का निर्धारण किया। अभी भी दुनिया संपन्नता और मूलभूत सुविधाओं के मामले में लगभग आधी बटी हुई है। और इसी विषमता के कारण दुनिया में शिक्षा, स्वस्थ, रोजगार और आर्थिक सुधारों का एक स्तर बनाना बड़ी चुनौती है

नौजवानों, महिलाओं और पुरुषों के लिये रोजगार, २०१५ तक सभी बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा, लैंगिक समानता एवं महिला स-शक्ति करण, शिशु मृत्यु-दर पर नियंत्रण, एड्स और मलेरिया जैसी बीमारियों की रोकथाम, पर्यावरण सुधर, झुग्गियों का विस्थापन और गरीबी उन्मूलन जैसी तमाम लोक-लुभावनी बाते इन लक्ष्यों और उद्देश्यों का सार एवं विस्तार है।

सही अर्थों में उक्त उल्लेखित सब बहुत ही महत्वपूर्ण कारक है जो किसी भी देश की आम नागरिक से लेकर पूरे देश के सामाजिक एवं आर्थिक ताने -बाने के सूत्रधार है। लेकिन पिछले दशक की अवधि में इन लक्ष्यों को प्राप्त और पूर्ण करने की स्तिथियों को देखा जाये तो दुनियाभर में असमानता बनी रही है। कुछ देशों ने इनमें से बहुत सारे लक्ष्य हासिल कर लिए है तो कुछ देश ऐसे भी है जो अभी तक इन मंजिलों पर पहुँचने के रास्ते ही तलाश रहें है। लक्ष्य प्राप्त करें वाले प्रमुख देशों में हमारा भारत और पडोसी चीन अग्रणी है। हम अनेक क्षेत्रो में आगे है, जिसकी वास्तविकता का आभास हमारे सामाजिक और आर्थिक परिवेश के स्तर में अब स्पष्ट झलकता है, तो वही चीन ने अपनी निर्धन आबादी को चार करोड़ बावन लाख से घटाकर दो करोड़ अठत्तर लाख करने के साथ और भी कई मापदंडों पर अपनी स्थितियों को सशक्त किया है।

इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, अफ्रीकन डेवलपमेंट बैंक जैसी विश्व की बड़ी आर्थिक संस्थाए भी दुनिया भर के देशों को निरंतर हर संभव मार्गदर्शन, सहायता और सहयोग प्रदान कर रही है।

गत माह की २० से २२ तारीख को संयुक्त राष्ट्र संघ के न्यूयार्क मुख्यालय में पूरे विश्व के प्रतिनिधियों ने इन पर विचार विमर्श कर अब तक की प्रगति का विश्लेषण किया और आगे के लिए क्या करना है इस की रुपरेखा तय करी। लेकिन ये सब उतना आसान नहीं है जितना कागजों पर या योजना बनते समय लगता है। संयुक्त राष्ट्र की सामाजिक और आर्थिक मामलों के विभाग की माने तो पचास से भी अधिक देश ऐसे है जो तुलनात्मक रूप से कम विकसित है, इन्हें विकसित देशों से निर्धारित एवं निश्चित मदद का मात्र एक तिहाई ही मिल सका है। इसमें भी विकसित देशों ने अपने पिछलग्गू या समर्थक गरीब देश को ही मदद करी है अन्यों को नहीं। इस मतलब की सहयोग एवं समर्थन में भेदभाव और पक्षपात हावी है साथ ही वायदा खिलाफी भी हो रही है। विकसित देशों को अपने सकल राष्ट्र उत्पादन का ०.७ प्रतिशत तक की राशि अन्य कमजोर देशों को प्रदान करने का वचन दिया था, वह भी अभी तक पूर्ण नहीं हो रहा हैं।

कमजोर देशों भी इन आर्थिक संसाधनों का उपयोग आधारभूत सुविधाओं को जुटाकर स्थाई मजबूती के बजाय सैन्य शक्ति बढ़ाने या प्राकृतकि आपदाओं से जूझने में ही किया है। इन स्तिथियों में सुधार के बिना तस्वीर और हालात बदलने की बात बेमानी है। इन सब में सुधार लाने के उद्देश्य से मिलेनियम प्रोमिस एलायंस नाम की संस्था के प्रयास जारी है। इस संस्था की स्थापना प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रोफेसर जेफरी सचान और मानववादी कार्यकर्त्ता रे चैम्बर ने की है। प्रोफ़ेसर जेफरी तो संयुक्त राष्ट्र संघ के महा सचिव को मिलेनियम डेवलपमेंट गोल के बारे में सलाह देने के लिए भी आधिकारिक रूप से नियुक्त रहें है। पर इस संस्था को भी अभी अपेक्षित सफलता की तलाश है। इस जैसी और भी संस्थाओं को अलग-अलग देशों में अपने स्तर पर गंभीर प्रयास करने होंगे तभी कुछ बेहतर संभव है।

अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने आव्हान किया है कि इन लक्ष्यों की पूर्ति के लिए सभी देशों के मध्य सामंजस्य और भागीदारी और मजबूत करने की जरुरत है और निसंदेह इसकी का अभाव है, नहीं तो आज दुनिया की तस्वीर बहुत चमकदार होती। बड़ा सवाल ये है कि विकास के बाद दंभ पाल लेने वाले विकसित देश चाहे वो अमेरिका ही क्यों ना हो, क्या सही मायनो में दुनिया के अन्य छोटे एवं गरीब देशों का विकास चाहते है या विनाश ? अभी भी बड़ी मछली छोटी को निगल ने को आतुर है ऐसी ही भावना और सोच के साथ दुनियादारी चल रही है।

जैसी भावनात्मक सोच और रुझान एक देश का अपने राज्यों के उत्थान के लिए होता है, वैसा रुझान और लगाव बड़े और शक्तिशाली देश अन्य छोटे देशों के लिए रखते है ऐसा मानना सच नहीं है। अन्य बाधाओं के साथ यही भी इन लक्ष्यों की प्राप्ति में एक बड़ा अवरोध है। वैसे भी अनेकों अहम मुद्दों के समय समृद्ध एवं सम्पन देशों संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी वैश्विक संस्था को अपने आगे बौना साबित किया है। जब तक बड़े राष्ट्रों की सोच और भावना नहीं परिवर्तित होगी तब तक विश्व कल्याण की कामना ही की जा सकती है, परिणाम मिलना थोडा मुश्किल सिद्ध होगा।

अब ‘गरीबी छुपाओ’

कलमाड़ी का कमाल …

-एल. आर. गाँधी

कलमाड़ी का कमाल; जी हाँ इसे हम कलमाड़ी जी का कमाल ही कहेंगे! जिस दक्ष प्रशन का उत्तर पिछले ४० साल से ‘राज परिवार’ नहीं ढूंढ पाया, कलमाड़ी ने पलक झपकते ही ‘प्राब्लम साल्व’ कर डाली!

दक्ष प्रश्‍न था – कामनवेल्थ खेलों में विदेशी महमानों से ‘दिल्ली की बदनसीबी-झुग्गी झोपड़ बस्तियों’ को कैसे छुपाया जाए? सोनिया जी से ले कर शीला जी तक सभी हैरान परेशान थे! शीला जी ने पहले तो अपनी खाकी वर्दी का खौफ अजमाया और खेल मार्ग पर रहने वाले ‘गरीब-गुरबों’ को पुलसिया अंदाज़ में समझाया कि भई दिल्ली कि इज़त का सवाल है, कम से कम ३ से १४ अक्तूबर तक कहीं चले जाओ और अपनी यह मनहूस शक्ल किसी विदेश मेहमान को मत दिखाना. बहुत से बेचारे अपनी सारी जमा पूँजी समेट कर ‘ममता की रेल का टिकट कटा भाग खड़े हुए! मगर जितने भागे थे उससे भी कई गुना ज्यादा ‘यमुना की मार’ से तरबतर और आ गए. शीला जी हैरान परेशान -सभी हथकंडे आजमाए ‘मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की’. अब आधी दिल्ली तो झोपड़ पट्टिओं में पसरी है … इतने जन सैलाब को कोई कैसे भगाए?

थक हार कर शीला जी ‘अनुभवी और समझदार’ कलमाड़ी जी की शरण में पहुंची. दक्ष प्रश्न का हल पूछा! कलमाड़ी जी ने अपनी अनुभवी दाढ़ी के काले-सफ़ेद बालों में हाथ कंघी की और मुस्करा कर बोले. यह भी कोई समस्या है? हमने इतने बड़े खेल में किसी को कुछ पता नहीं चलने दिया. सात सौ करोड़ का खेल सत्तर हज़ार तक पहुंचा दिया और किसी को भनक तक नहीं लगी. कलमाड़ी जी ने अपना बीजिंग अनुभव सुनाया! हवाई अड्डे से हम ओलम्पिक गाँव जा रहे थे तो रास्ते में सड़क के दोनों ओर ‘होर्डिंग्ज़ ही होर्डिंग्ज़’ देख हमारा माथा ठनका! हमने अपनी गाडी रुकवाई तो ‘मेज़बान मैडम’ ने पूछा क्या हुआ कलमाड़ी जी. हमने गाडी से उतरते उतरते बाएँ हाथ की तर्जनी उठाई और बोले ”सु-सु” और पलक झपकते ही पहुँच गए होर्डिंग की ओट में. चमचमाते होर्डिंग्स के पीछे देखा तो ‘बीजिंग की बदनसीब झोपड़ पट्टी’ अन्धकार में डूबी थी. कलमाड़ी जी का अनुभव इस आड़े वक्त में काम आया.

बस फिर क्या था ‘बाई ऐअर’ मिजोरम से बांबू’ मंगवाए गए और कारीगिर भी. और दिल्ली की मनहूसियत को ‘बाम्बू होर्डिंग्स’ के पीछे छुपा दिया गया. शीला जी भी कलमाड़ी जी का लोहा मान गईं. अरे भई हम पिछले ४० साल से गरीबी मिटाने के ‘भागीरथ’ कार्य में लगे हैं. पहले इंदिरा जी ने गरीबी हटाने का अहद किया . गरीबी तो नहीं हटी मगर महंगाई डायन न मालूम कहाँ से आ टपकी. फिर राजीव जी ने सोचा हटाने से तो यह फिर फिर आ जाती है. इस लिए गरीबी मिटाने की कसम खाई. इस बार गरीबी के साथ उसका सौतेला भाई ‘भ्रष्टाचार’ आ खड़ा हुआ. फिर अब राज परिवार की बहु रानी ने मनमोहन जी के साथ सीरियस डिस्कशन के बाद डिसाईड किया कि ‘गरीबी को भगा’ दिया जाए! गरीबी तो नहीं भगा पाए-पर अपनी गरीबी दूर कर ‘चाचा कत्रोची’ को जरूर भगा दिया. चलो आधी अधूरी ही सही ‘गरीबी भगाने ‘ की मुहीम में सफलता तो हाथ लगी. अब परिवार के राज कुमार जब यू पी. के दलितों की झोंपड़ियों में जा कर इक्कीसवीं सदी का ‘गाँधी’ बनने के जुगाड़ में लगे हैं – गरीबी छुपाने और देश को विश्व की दूसरी सबसे बड़ी शक्ति दिखाने के ‘पारिवारिक आन्दोलन’ में कलमाड़ी जी के योगदान को स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा. अंग्रेजी में कहावत भी है ‘आउट आफ साईट इस आउट आफ माईंड’.

अयोध्या मामला-इतिहास रचने और बदलने का अवसर

-धीरेन्द्र प्रताप सिंह

कई सौ वर्षो से देश में अमानत में खयानत बने अयोध्या विवाद पर 30 सितंबर को आए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के लखनउ बेंच के फैसले ने देश की प्रगति और समाज में एकता की पैरोकारी करने वालों लोगों को इतिहास रचने और बदलने का अवसर दिया है। शायद यही कारण है कि इस मामले के एक पक्षकार रहे हासिम अंसारी ने आपसी विचार विमर्श और समझौते से हल करने की पहल की है। हालांकि वे इसमें कितने सफल होंगे ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा लेकिन अपनी जवानी के स्वर्णिम दिनों को इस विवाद की आग में झोंकने वाले हासिम अंसारी की पहल को पूरा देश सराहनीय नजर से देख रहा है। आजमगढ़ के एक जमींदार परिवार से ताल्लुक रखने वाले हासिम अंसारी कभी भी कट्टर मुसलमान नहीं रहे शायद यहीं कारण है कि 90 वर्ष की अवस्था में भी उन्हें अयोध्या का दर्द समझ में आ रहा है कि इस समस्या की जड़ कुछ तथाकथित मुसलमान नेताओं द्वारा रामजन्म भूमि पर मस्जिद को मान्यता दिलाने में छुपी हुई है।

इतिहास रचना के जितने भी तंत्र होते है जैसे पुरातात्विक, साहित्यिक, मौखिक सभी ने शुरू से ही अयोध्या के विवादित स्थल पर रामजन्म भूमि होने की बात को सही साबित किया। लेकिन वोट बैंक की घटिया राजनीति ने देश के सबसे बडे लोकतंत्र होने की आड़ में एक समुदाय विशेष का तुष्टिकरण कर उनके वोट को सत्ता की सीढ़ी बना मौज मारने की साजिश करते रहे और एक ऐसा मुद्दा जो आपसी सुलह समझौंते से बिना किसी खून खराबे के निपटाया जा सकता था को देश की सबसे खूनी जंग बना दिया।

इस जंग में जहां सत्ता लोलुपों को सत्ता की मलाई चाटने का अवसर मिला तो वहीं देश के कई हजार बेगुनाह नागरिक दो वर्गो की नफरत की ज्वाला में स्वाहा हो गए। लेकिन विवाद जस का तस बना रहा। हालांकि अगर केन्द्र की सत्ता संभालने वाले इसको हल कराने की ईमानदार कोशिश करते तो खून खराबों से बचा जा सकता था। क्यों कि जब तैमूर लंग द्वारा तोड़ा गया सोमनाथ मंदिर फिर से बनवाया जा सकता था तो विदेशी आक्रांता बाबर द्वारा रामजन्म भूमि के अपमान का प्रतीक बन चुका अयोध्या मंदिर क्यों नहीं।

इसी तरह जब केन्द्र सरकार मुसलमानों को संतुष्ट करने के लिए शाहबानों जैसी बूढ़ी महिला के साथ अन्याय करने की धृष्टता कर सकती है तो करोड़ों हिन्दुओं की आस्था के प्रतीक और प्राण भगवान श्रीराम के जन्म स्थान पर मंदिर क्यों नहीं बना सकती। खैर सत्ता लोभियों की अच्छाई और बुराई गिनाने की बजाय मैं सिर्फ विधाता द्वारा दोनों समुदायों में प्रेम और सौहार्द की नींव रखने और उसे दृढ करने के 30 सितंबर के मामले से मिले अवसर पर ही बातचीत करना चाहूंगा।

30 सितंबर को न्यायालय ने जो फैसला दिया उसे कुछ राजनीतिक दल अपने हितों के लिहाज से व्याख्यायित कर रहे है। लेकिन पूरे देश की जनता इस फैसले में इस विवाद का अंत देख रही है और शायद यही कारण है कि अब दोनों पक्षों में इस मामले को आपसी सुलह समझौते के आधार पर निपटाए जाने की कोशिशों शुरू हो गई है। क्यों कि मुसलमान भाईयों को भी इस बात का इल्म हो गया है कि उस स्थान पर उनका दावा कम से कम कानूनन तो बहुत ही कमजोर है।

सुप्रीमकोर्ट भी कोई फैसला देगा तो वह इन्हीं सुबुतों और गवाहों की बिना पर ही देगा। इसलिए सुप्रीमकोर्ट में अपनी भद्द पिटवाने की अपेक्षा सुलह समझौते से ही मामला निपटा लिये जाने में दोनों पक्षों की भलाई है। मुहम्मद हासिम अंसारी इसी बात को समझते हुए इस मामले में पहल भी कर चुके है। 90 वर्ष के हासिम अंसारी ने 60 सालों के संघर्ष के बाद यह अच्छी तरह समझ लिया है कि मुस्लिम समुदाय के नेता होने का दावा करने वाले लोग निहायत ही मतलबपरस्त और स्वार्थी है। वे इस मुद्दे का उपयोग सिर्फ मुस्लिम समुदाय की भावनाओं को उत्तेजित कर उसका चुनावी लाभ लेने के लिए कर रहे है। ये मौका परस्त लोग इस मामले को कभी भी सुलझाने नहीं देना चाहते।

उनकों इस बात की चिंता है कि इस विवाद को शुरू करके उन्होंने जो गुनाह मुस्लिम समुदाय के साथ किया है उसका शायद यहीं प्रायश्चित है कि वे अपने जीते जी ही इस मामले का पटाक्षेप करवा दे। हासिम अंसारी इसलिए भी समझौते के लिए ज्यादा संक्रिय है कि उन्हें मालूम है कि 16 अक्टूबर को लखनउ में आयोजित ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की बैठक में शायद ये मौका परस्त मासूम मुस्लिम नेतृत्व को गुमराह कर इस बात को मनवाने में सफल हो जाएं कि मामले को सुप्रीम कोर्ट तक ले जाया जाए। उनका मानना है कि यदि ऐसा हुआ तो शायद एक बार फिर ये मामला लटक जाए।

दूसरी तरफ इस मामले का दुरूपयोग करने वाले लोग इसे किसी भी तरह से उलझाने के लिए तिकड़म लगा रहे है।

दूसरी तरफ इस मामले से गहरे जुड़ी भाजपा और आरएसएस इसे सुलझाने के लिए पूरा जोर लगा रहे हैं। देश का अमन चैन बना रहे इसके लिए दोनों संगठनों ने 30 सितंबर से अब तक बिना किसी बयानबाजी के मंदिर निर्माण के लिए कोशिश कर रहे है। जैसे कि कहा जाता है कि जीत में संयत और हार में आक्रामक होना चाहिए तो दोनों संगठन इस बात को अपने पल्लू में बांध कर बहुत फूंक फूंक कर कदम रख रहे हैं। इसी का परिणाम है कि भाजपा के राष्‍ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने भावी समस्याओं और विवाद को देखते हुए बयान दिया है कि अयोध्या में ही राम मंदिर और मुसलमानों के लिए मंस्जिद बने लेकिन मस्जिद पंचकोशी क्षेत्र से बाहर बने।

हालांकि कुछ लोग इनके बयान में राजनीति तलाश रहे है लेकिन समझदार जनता का मत है कि भविष्य में किसी प्रकार के विवाद से बचने के लिए गडकरी की सलाह बिल्कुल उपयुक्त और तर्कपूर्ण है। गडकरी के बयान को सकारात्मक इसलिए भी माना जा रहा है कि जहां एक तरफ समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने इस फैसले को सुबुत और कानून नहीं बल्कि आस्था के आधार पर दिया गया बयान बताकर माहौल को खराब करने की कोशिश की है तो वहीं उनका यह कथन इस विवादित मामले को एक बार फिर से विवाद को अदालत और समझौते की पंचायत से बाहर राजनीति के अखाड़े में खींच लाता है। हालांकि मुलायम के इस बयान को प्रबुध्द मुस्लिम समुदाय ने कोई तवज्जों नहीं दी है जिससे सपा को अपनी खिसकती जमीन का बखूबी अंदाजा हो गया है।

इन सब बातों को दरकिनार कर देखा जाए तो अयोध्या मामला पूरी तरह से वोट बैंक और क्षुद्र राजनीति का मामला बन कर रह गया है। इसे जहां छद्म सेक्युलरवादियों कट्टरपंथियों ने अपनी राजनीतिक प्रयोगशाला के तौर पर प्रयोग किया है वहीं इसमें अमन पंसद जनता भी दोशी साबित होती है। क्योंकि वो चुपचाप इनके तमाशे को देखती है। ऐसे में मोहम्मद हासिम अंसारी जैसे लोगों की पहल एक उम्मीद जगाती है कि शायद देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा बन चुके इस मुद्दे के आखिरी अध्याय लिखने का समय आ गया है। अगर हासिम अंसारी अपने प्रयास में सफल होते है तो भारतीय इतिहास के स्वर्णिम अध्याय में उनका नाम अमर हो जाएगा। क्यों कि एक बात सदैव याद रखनी चाहिए कि इस देश में अगर अकबर सफल हो सका तो इसका सिर्फ एकमात्र कारण उसने भारतीयता को अपने आप में समाहित कर लिया और हिन्दू बहुल इस देश की नब्ज को पकड़ते हुए सफलता की सफल कहानी लिखी।

अयोध्या मामलाः इतिहास रचने और बदलने का अवसर

कई सौं बर्षो से देश में अमानत में खयानत बने अयोध्या विवाद पर 30 सितंबर को आए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के लखनउ बेंच के फैसले ने देश की प्रगति और समाज में एकता की पैरोकारी करने वालों लोगों को इतिहास रचने और बदलने का अवसर दिया है। शायद यही कारण है िक इस मामले के एक पक्षकार रहे हासिम अंसारी ने आपसी विचार विमर्श और समझौते से हल करने की पहल की है। हालांकि वे इसमें कितने सफल होंगे ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा लेकिन अपनी जवानी के स्वर्णिम दिनों को इस विवाद की आग में झोंकने वाले हासिम अंसारी की पहल को पूरा देश सराहनीय नजर से देख रहा है। आजमगढ़ के एक जमींदार परिवार से ताल्लुक रखने वाले हासिम अंसारी कभी भी कट्टर मुसलमान नहीं रहे शायद यहीं कारण है कि 90 वर्ष की अवस्था में भी उन्हें अयोध्या का दर्द समझ में आ रहा है कि इस समस्या की जड़ कुछ तथाकथित मुसलमान नेताओं द्वारा रामजन्म भूमि पर मस्जिद को मान्यता दिलाने में छुपी हुई है।

इतिहास रचना के जितने भी तंत्र होते है जैसे पुरातात्विक,साहित्यिक,मौखिक सभी ने शुरू से ही अयोध्या के विवादित स्थल पर रामजन्म भूमि होने की बात को सही साबित किया। लेकिन वोट बैंक की घटिया राजनीति ने देश के सबसे बडे़ लोकतंत्र होने की आड़ में एक समुदाय विशेष का तुश्टिकरण कर उनके वोट को सत्ता की सीढ़ी बना मौज मारने की साजिश करते रहे और एक ऐसा मुद्दा जो आपसी सुलह समझौंते से बिना किसी खून खराबे के निपटाया जा सकता था को देश की सबसे खूनी जंग बना दिया।

इस जंग में जहां सत्ता लोलुपों को सत्ता की मलाई चाटने का अवसर मिला तो वहीं देश के कई हजार बेगुनाह नागरिक दो वर्गो की नफरत की ज्वाला में स्वाहा हो गए। लेकिन विवाद जस का तस बना रहा। हालांकि अगर केन्द्र की सत्ता संभालने वाले इसको हल कराने की ईमानदार कोशिश करते तो खून खराबों से बचा जा सकता था। क्यों कि जब तैमूर लंग द्वारा तोड़ा गया सोमनाथ मंदिर फिर से बनवाया जा सकता था तो विदेशी आक्रांता बाबर द्वारा रामजन्म भूमि के अपमान का प्रतीक बन चुका अयोध्या मंदिर क्यों नहीं।

इसी तरह जब केन्द्र सरकार मुसलमानों को संतुष्ट करने के लिए शाहबानों जैसी बूढ़ी महिला के साथ अन्याय करने की धृष्टता कर सकती है तो करोड़ों हिन्दुओं की आस्था के प्रतीक और प्राण भगवान श्रीराम के जन्म स्थान पर मंदिर क्यों नहीं बना सकती। खैर सत्ता लोभियों की अच्छाई और बुराई गिनाने की बजाय मैं सिर्फ विधाता द्वारा दोनों समुदायों में प्रेम और सौहार्द की नींव रखने और उसे दृढ करने के 30 सितंबर के मामले से मिले अवसर पर ही बातचीत करना चाहूंगा।

30 सितंबर को न्यायालय ने जो फैसला दिया उसे कुछ राजनीतिक दल अपने हितों के लिहाज से व्याख्यायित कर रहे है। लेकिन पूरे देश की जनता इस फैसले में इस विवाद का अंत देख रही है और शायद यही कारण है कि अब दोनों पक्षों में इस मामले को आपसी सुलह समझौते के आधार पर निपटाए जाने की कोशिशें शुरू हो गई है। क्यों कि मुसलमान भाईयों को भी इस बात का इल्म हो गया है कि उस स्थान पर उनका दावा कम से कम कानूनन तो बहुत ही कमजोर है।

सुप्रीमकोर्ट भी कोई फैसला देगा तो वह इन्हीं सुबुतों और गवाहों की बिना पर ही देगा। इसलिए सुप्रीमकोर्ट में अपनी भद्द पिटवाने की अपेक्षा सुलह समझौते से ही मामला निपटा लिये जाने में दोनों पक्षों की भलाई है। मुहम्मद हासिम अंसारी इसी बात को समझते हुए इस मामले में पहल भी कर चुके है। 90 वर्ष के हासिम अंसारी ने 60 सालों के संघर्ष के बाद यह अच्छी तरह समझ लिया है कि मुस्लिम समुदाय के नेता होने का दावा करने वाले लोग निहायत ही मतलबपरस्त और स्वार्थी है। वे इस मुद्दे का उपयोग सिर्फ मुस्लिम समुदाय की भावनाओं को उत्तेजित कर उसका चुनावी लाभ लेने के लिए कर रहे है। ये मौका परस्त लोग इस मामले को कभी भी सुलझाने नहीं देना चाहते।

उनकों इस बात की चिंता है िकइस विवाद को शुरू करके उन्होंने जो गुनाह मुस्लिम समुदाय के साथ किया है उसका शायद यहीं प्रायश्चित है िक वे अपने जीते जी ही इस मामले का पटाक्षेप करवा दे। हासिम अंसारी इसलिए भी समझौते के लिए ज्यादा संक्रिय है कि उन्हें मालुम है कि 16 अक्टूबर को लखनउ में आयोजित ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की बैठक में शायद ये मौका परस्त मासूम मुस्लिम नेतृत्व को गुमराह कर इस बात को मनवाने में सफल हो जाएं कि मामले को सुप्रीम कोर्ट तक ले जाया जाए। उनका मानना है कि यदि ऐसा हुआ तो शायद एक बार फिर ये मामला लटक जाए।
दूसरी तरफ इस मामले का दुरूपयोग करने वाले लोग इसे किसी भी तरह से उलझाने के लिए तिकड़म लगा रहे है।
दूसरी तरफ इस मामले से गहरे जुड़ी भाजपा और आरएसएस इसे सुलझाने के लिए पूरा जोर लगा रहे हैं। देश का अमन चैन बना रहे इसके लिए दोनों संगठनों ने 30 सितंबर स ेअब तक बिना किसी बयानबाजी के मंदिर निर्माण के लिए कोशिश कर रहे है। जैसे कि कहा जाता है कि जीत में संयत और हार में आक्रामक होना चाहिए तो दोनों संगठन इस बात को अपने पल्लू में बांध कर बहुत फूंक फूंक कर कदम रख रहे हैं। इसी का परिणाम है कि भाजपा के राश्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने भावी समस्याओें और विवाद को देखते हुए बयान दिया है कि अयोध्या में ही राम मंदिर और मुसलमानों के लिए मंस्जिद बने लेकिन मस्जिद पंचक्रोशी क्षेत्र से बाहर बने।

हालांकि कुछ लोग इनके बयान में राजनीति तलाश रहे है लेकिन समझदार जनता का मत है कि भविष्य में किसी प्रकार के विवाद से बचने के लिए गडकरी की सलाह बिल्कुल उपयुक्त और तर्कपूर्ण है। गडकरी के बयान को सकारात्मक इसलिए भी माना जा रहा है कि जहां एक तरफ समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने इस फैसले को सुबुत और कानून नहीं बल्कि आस्था के आधार पर दिया गया बयान बताकर माहौल को खराब करने की कोशिश की है तो वहीं उनका यह कथन इस विवादित मामले को एक बार फिर से विवाद को अदालत और समझौते की पंचायत से बाहर राजनीति के अखाड़े में खींच लाता है। हालांकि मुलायम के इस बयान को प्रबुद्ध मुस्लिम समुदाय ने कोई तवज्जों नहीं दी है जिससे सपा को अपनी खिसकती जमीन का बखूबी अंदाजा हो गया है।

इन सब बातों को दरकिनार कर देखा जाए तो अयोध्या मामला पूरी तरह से वोट बैंक और क्षुद्र राजनीति का मामला बन कर रह गया है। इसे जहां छद्म सेक्युलरवादियों कट्टरपंथियों ने अपनी राजनीतिक प्रयोगशाला के तौर पर प्रयोग किया है वहीं इसमें अमन पंसद जनता भी दोषी साबित होती है। क्योंकि वो चुपचाप इनके तमाशे को देखती है। ऐसे में मोहम्मद हासिम अंसारी जैसे लोगों की पहल एक उम्मीद जगाती है कि शायद देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा बन चुके इस मुद्दे के आखिरी अध्याय लिखने का समय आ गया है। अगर हासिम अंसारी अपने प्रयास में सफल होते है तो भारतीय इतिहास के स्वर्णिम अध्याय में उनका नाम अमर हो जाएगा। क्यों कि एक बात सदैव याद रखनी चाहिए िकइस देश में अगर अकबर सफल हो सका तो इसका सिर्फ एकमात्र कारण उसने भारतीयता को अपने आप में समाहित कर लिया और हिन्दू बहुल इस देश की नब्ज को पकड़ते हुए सफलता की सफल कहानी लिखी।

व्यंग्य / सत मत छोडों शूरमा, सत छौडया पत जाय

 -रामस्वरूप रावतसरे

तनसुख ने घर की बिगड रही हालत को सुधारने के लिये कहां कहां की खाक नहीं छानमारी। किस किस की चौखट पर नाक नहीं रगडी, लेकिन दरिद्र नारायण उसके यहां पर इस प्रकार बिराजे है कि बाहर जाने का नाम ही नहीं ले रहे है। हां, वह इस दरिद्रनारायण से पीछा छुडाने के लिये कई बार मरने की कोशिश कर चुका है, लेकिन हर बार कुछ ना कुछ ऐसा हो जाता है कि उसे फिर से घर की उन दिवारों के मध्य में आकर बैठना पडता है, जो शायद यह भी भूल गई होंगी कि आदम जात का स्पर्श किस प्रकार का होता है। दिवारों की लिपाई पुताई हुए बरसों बरस बीत गये है। सीलन और बडे रसूकदारों के यहां से उद्दार मनों से प्रेशित आस पास बिखरी गन्दगी के कारण अब उनकी हालत उस बदहवास औरत की तरह हो गई है जो आदमी की रूह से ही कम्प कंपाने लगती है।

तनसुख दीवारों के हाथ तो क्या नजदीक भी नहीं जाता है। पता नहीं कब वह दण्डवत की स्थिति में आ जाय। इस दरिद्रता के चलते चुहे, चिडियाओं की तरह वह कुत्ता जो कभी हमेशा उसकी चरपाई के नीचे ही बैठा रहता था। अब सामने वाले के मकान के आगे रहता है ओर आते जाते उस पर घुर्राता भी है।

तनसुख के भाई बन्द उच्चे महलों में रहते, दिन में चार बार खाते है। उनके यहां अनाज एवं खाने पीने की स्थिति इस प्रकार की है कि वह बाहर ही पडा रहता है। अन्दर रखने की जगह नहीं है। हर साल मनों अनाज सड जाता है। जिसे जानवर तक नहीं खाते, उसे बाहर फेकना पडता है। उन्हें तनसुख की दरिद्रता का मालूम है। उन्हें इस बात का भी मालूम है कि उनके यहां पर गेहूं एवं अन्य खाद्य सामान बरसों से सडता आ रहा है। लेकिन वे इसे मुफत में तनसुख जैसों को बांट कर, उनके स्वाभिमान को गिराना नहीं चाहते है। उनकी समाज एवं राष्ट्र से जुडी हुई श्रेष्ठ सोच है कि किसी भी वस्तु को मुफत में बाटनां मनुष्य के स्वाभिमान को गिराना है। जब मनुष्य का स्वाभिमान गिर जायेगा तो समाज व देश की स्थिति भिखमंगों की जायेगी। बात भी सत्य है।

किसी जमाने में जब सत्य रसूकदारों की चौखट पर खडा पहरेदारी किया करता था, उस समय किसी सज्जन ने दूसरे सज्जन से स्वाभिमान को लेकर कहा था कि”सत मत छोडों शूरमा, सत छोडयां पत जाय। सत की बांधी लछमी फेर मिलेगी आय”A आज कहां है सत्य और स्वाभिमान? देश व समाज के स्वाभिमान की बात करने वालों ने किस सत्य को अपना कर सौहरत हासिल की है।

आज यह जुमला रह रसूकदार की जुबान पर रहता है कि”जिसने की शरम उसके फुटे करम”। वे जब कुछ करते है तो उसमें ना ही तो किसी प्रकार स्वाभिमान आडे आता है और ना ही समाज या देश। उनके सामने होता है एक ही लक्ष्य स्वयं का स्वार्थ भरा अभिमान, कि जैसे भी मिले, उसे प्राप्त कर लों, बस। एक बार प्राप्त हो जाय और वे उस हाईवे पर आ जावें जो शिखर की और जाता है। उसके बाद सारी मर्यादाऐं, स्वाभिमान की बाते पीछे छुटने वालों के लिये रह जावेगी। ऐसे लोग किस स्वाभिमान की बात कर रहे है। ऐसा वह व्यक्ति ही सोच सकता है जिस की संवेदनाऐ मर चुकी हो।

फिर भूख के आगे स्वाभिमान किस कीमत पर बेचा और खरीदा जाता है, किसी से छुपा हुआ नहीं है। हम भूख से मर रहे लोगों को मुफत में अनाज नहीं दे सकते पर आधुनिकता के दरवाजे पर लगाई गई लाईन में भूखे नंगों को खडा कर मुफत में मोबाईल दे रहे है। गैस कनेक्षन दे रहे है। लेकिन अनाज नहीं। यह सब देने से उस भूखे का स्वाभिमान नहीं गिरेगा बल्कि देश का व समाज का स्वाभिमान बढेगा।

शायद जो भूखा मर रहा है वह इस समाज व देश का नागरिक नहीं हो सकता, क्योंकि यदि वह नागरिक होता तो, जब सरकार गरीब लोगों को मोबाईल व गैस कनेक्षन मुफत में दे सकती है तो उसकी भूख पर भी विचार करती।

सामाजिक संदर्भो एवं देश के संविधान के तहत पहले देश है उसके बाद व्यक्ति लेकिन क्या प्रत्येक व्यक्ति जो इस समाज व देश का नागरिक है, उसे आत्मसम्मान के साथ जीने का अधिकार नहीं है? क्या सरकार का दायित्व नहीं बनता कि वह उसकी मूलभूत आवष्यकताओं का ध्यान रखे? लेकिन आजादी के बाद अब तक का जो हमारा ज्ञान रहा है वह मात्र लेने का ही रहा है, देने का नहीं। हमारी संवेदनायें बाहृय मुखी नहीं होकर अन्तरमुखी हो गई है। इसलिये हमें हर समय अपना ही सुख दुख नजर आता है। दूसरों का नहीं।

व्यंग्य/ इक्कीसवीं सदी के लेटेस्ट प्रेम

-डॉ. अशोक गौतम

वे सज धज कर यों निकले थे कि मानो किसी फैशन शो में भाग लेने जा रहे हों या फिर ससुराल। बूढ़े घोड़े को यों सजे धजे देखा तो कलेजा मुंह को आ गया। बेचारों के कंधे कोट का भार उठाने में पूरी तरह असफल थे इसीलिए वे खुद को ही कोट पर लटकाए चले जा रहे थे। पोपले मुंह पर चिपके होंठों पर अपनी घरवाली चमेली की विवाह के वक्त की लिपस्टिक पोते। रहा न गया तो टाइम पास करने को पूछ लिया, ‘भैया जी! इस कातिलाना अदा में कहां जा रहे हो? क्या मेनका को घायल करने का इरादा है?’मेरे मुंह से मेनका का नाम सुना तो घिसी पिटी उनकी नसों में एक बार फिर सनसनाहट सी हुई।

कुछ कहने के लिए वे कुछ देर तक खांसी को रोकते रहे। जब उनसे खांसी वैसे ही नहीं रूकी जैसे सरकार से महंगाई नहीं रूक रही तो चुटकी भर कफ को कुछ देर तक रूमाल में बंद करने के बाद बोले, ‘समाज कल्याण करने जा रहा हूं।’

‘तो अब तक क्या किया??’

‘समाज को खाता रहा।’एक बात बताइए साहब! ऐसा हमारे समाज में क्यों होता है कि बंदा नौकरी में रहते हुए तो समाज को नोच नोच कर खाता है और रिटायर होने के तुरंत बाद उसके मन में समाज के प्रति कल्याण की भावना कुकरमुत्ते की तरह पनपने लगती है? उसका मन समाज सेवा के लिए तड़पने लगता है। ……पर फिर भी मन को बड़ी राहत महसूस हुई कि चलो जिंदगी में कुछ आज तक मिला हो या न पर एक बंदा तो ऐसा मिला जो सच बोलने की हिम्मत कर पाया। वर्ना यहां तो लोग चिता पर लेटे लेटे भी झूठ बोलना नहीं छोड़ते।

‘तो समाज कल्याण के अंतर्गत क्या करने जा रहे हो? दूसरों की पत्नियों से प्रेम या फिर अपनी बेटी की उम्र की किसी गरीब की बेटी से विवाह।’समाज सेवकों के एजेंडे में बहुधा मैंने दो ही चीजें अधिकतर देखीं।

‘कुछ गोद लेने जा रहा हूं।’कहते हुए बंदे के चेहरे पर कतई भी परेशानी नहीं। उल्टे मैं परेशान हो गया। यार हद हो गई! रिटायरमेंट से पहले तो बंदा रोज पूरे मुहल्ले को परेशान करके रखता ही था पर ये बंदा तो रिटायरमेंट के बाद भी कतई ढीला न पड़ा।

‘इस उम्र में आपके पास गोद नाम की चीज अभी भी बची है??? गोद में मंहगाई को हगाते मूचाते क्या अभी भी मन नहीं भरा?’बंदे की हिम्मत की आप भी दाद दीजिए।

‘तो अनाथ आश्रम जा रहे होंगे?’

‘नहीं!!’कह वे छाती चौड़ा कर मेरे सामने खड़े हो मुसकराते रहे। हालांकि उनके पास छाती नाम की चीज कहीं भी कतई भी नजर न आ रही थी।

‘तो किसी रिश्ते दार का बच्चा गोद लेने जा रहे होंगे?’

‘नहीं। चिड़ियाघर जा रहा हूं।’

‘चिड़ियाघर में आदमी के बच्चे कब से गोद लेने के लिए मिलने लगे?’

‘जबसे अनाथ आश्रमों के बच्चों को अनाथ आश्रम के संरक्षक खा गए। उल्लू गोद लेने जा रहा हूं। सोच रहा हूं जो नौकरी में रहते न कर सका वो अब तो कर ही लूं। नौकरी भर तो औरों की गोद में बैठा रहा।’

‘आदमियों ने बच्चे क्या हमारे देश में पैदा करने बंद कर दिये जो तुम…..’

‘भगवान हमारे देश को बच्चे देना बंद भी कर दे तो भी हम बच्चे पैदा करने न छोड़ें। बच्चे गोद लेना तो पुरानी बात हो गई मियां! अब तो विलायती कुत्ते, उल्लू, गीदड़, मगरमच्छ, गोद लेने का युग है। अपने को रोटी मिले या न मिले, पर विलायती कुत्तों को आयातित बिस्कुट खिलाने में जो परमसुख की प्राप्ति होती है, मुहल्ले में जो रौब दाब बनता है उससे सात पुश्तोंह के चरित्र सुधर जाते हैं। मुहल्ले में दस में से पांच ने कुत्ते गोद ले रखे हैं। मैंने सोचा, जरा लीक से हट कर काम हो तो मरते हुए समाज में नाम हो सो उल्लू गोद लेने की ठान ली।’कह वे मंद मंद कुबड़ाते मुसकराते हुए आगे हो लिए गोया बीस की उम्र में कमेटी के पार्क में प्रेमिका से मिलने जा रहे हों।

‘मियां हो सके तो इंसानियत को गोद लो। हो सके तो प्रेम के असली रूप को गोद लो तो यह छिछोरापन कर परलोक सुधारने का दंभ न करना पड़े।’पर वहां था ही कौन जो मेरी आवाज पर ध्यान देता।

व्यंग्य/ चल वसंत घर आपणे…!!!

-डॉ. अशोक गौतम

वसंत पेड़ों की फुनगियों, पौधों की टहनियों पर से उतरा और लोगों के बीच आ धमका। सोचा, चलो लोगों से थोड़ी गप शप हो जाए।

वे चार छोकरे मुहल्ले के मुहाने पर बैठे हुए थे। वसंत के आने पर भी उदास से। वे चारों डिग्री धारक थे। दो इंजीनियरिंग में तो दो ने एमबीए की हुई थी, फारेन से। चारों ही प्राईवेट कंपनियों में लगे हुए थे, तगड़े पैकेज पर। पर आजकल उन्हें आर्थिक मंदी ने मारा हुआ था। कंपनी कभी भी उन्हें नौकरी से हटा सकती थी। उनके चेहरे ऐसे पिचके हुए थे कि ऐसे तो बेरोजगारों के भी नहीं पिचके होते। वसंत चुपचाप उनके पीछे खड़ा हो गया, मुस्कुराता हुआ।

‘यार! समझ नहीं आ रहा अब क्या किया जाए?’पहले ने दूसरे की जेब में सिगरेट के लिए हाथ ड़ाला पर जिस जेब में हमेशा सिगरेट का पैकेट रहता था उसमें से उस वक्त सिगरेट का टोटा निकला। उसने चुपचाप वह सिगरेट का टोटा ही तीसरे की जेब से माचिस निकाल जलाया और सोच में पड़ गया।

‘हमारी मैनेजमेंट ने तो कभी भी छोड़ने के आदेश जारी कर दिए हैं।’तीसरे ने लंबी सांस ली और पहले के हाथ से सिगरेट का बुझने के कगार पर पहुंचा सिगरेट का टोटा ले कश लगाया।

‘अपना तो चक्कर पड़ गया।’दूसरे ने कहा।

‘कैसा!!’

‘उस गाड़ी के लिए जो लोन ले रखा था अब उसकी कि”त कहां से निकलेगी?’

‘यार, तुझे गाड़ी की कि”त की पड़ी है इधर लगता है अपनी शादी ही खटाई में न पड़ जाए।’कह वह पेड़ की फुनगियों को ताकने लगा। वसंत ने चारों के सामने सिगरेट का पैकेट रख कहा, ‘हाय! मैं वसंत।’

‘ओ थैंक्स फार दिस पैकेट आफ सिगरेट।’चारों ने एक साथ कहा। फिर दूसरे ने पूछा, ‘पहले कभी तुम्हें देखा नहीं। मुहल्ले में नए आए हो क्या?’

‘नहीं, हर साल इन्हीं दिनों आता हूं।’

‘ओके… ओके. फिर मिलना…’चारों ने एक साथ कहा और अपने अपने रोने में शामिल हो गए।

हद है यार नौजवानों को उसके आने की खुशी नहीं होगी तो किसको होगी? मेरे देश के नौजवानों को ये क्या हो गया भगवान!

वसंत ने कुछ सोचा और सरकारी दफ्तर की ओर चला। दफ्तर की सीढ़ियां चढ़ते ही सामने स्टूल पर अलसाया हुआ खुमारी में बैठा पीउन। वसंत ने सोचा कि इसे मेरे आने का पता चल गया है तभी तो डयूटी टाइम में इस तरह टांगें कहीं तो बाजू कहीं फरकाए बैठा है। टोपी से लेकर जूतों तक मदहोशी ही मदहोशी।

वसंत उसे बाइपास कर भीतर साहब के पास जा पहुंचा। साहब व्यस्त।

‘राम! राम! साहब।’

कागजों में उलझे साहब ने सिर उठाया, ‘कौन?’

‘साहब, मैं वसंत! कई दिन हो गए थे आए हुए। आज सोचा आपसे मिल लूं।’

‘क्या काम है?’

‘कुछ नहीं। मैं तो बस यों ही चला आया था।’

‘हद है यार तुम्हारी भी। लोग यहां काम होने के बाद भी आने के लिए आने से पहले बीस बार सोचते हैं और तुम हो कि… बड़े अजीब शख्स हो..’कह वे फिर कागजों में खो गए। काफी देर तक जब वसंत वहां चुपचाप खड़ा रहा तो साहब ने कुढ़ते हुए कहा’देखो यार! 31 मार्च सिर पर है। साल भर का पेंडिंग काम पड़ा है। लाखों का बजट लैप्स हो जाएगा। ऊपर से इनकम टैक्स, इनकम का पता नहीं, अब टैक्स ही टैक्स बचा है। मुझे काम करने दो प्लीज। आजकल तो मरने का टाइम तक नहीं। 31 मार्च तक तो हमने बीवी से मिलना भी बंद कर रखा है। उसके बाद जब चाहे चले आना। जितनी देर चाहोगे तुम्हारे साथ गप्पें मारुंगा। प्रॉमिज, ओके।’

दोपहर का एक बज रहा था। भीतर जोर जोर का टीवी लगा हुआ था। वसंत को लगा की इस घर में कोई है ही नहीं, जरूर कोई है। उसने दरवाजे पर दस्तक दी। एक बार ..कोई नहीं आया। दो बार… कोई नहीं आया। जब तीसरी बार कुछ जोर से दस्तक दी तो एक अधेड़ा ने गुस्से में दरवाजा खोलने से पहले पूछा, ‘क्या है??’

‘नमस्ते जी।’वसंत ने दोनों हाथ जोड़े।

‘हां कहो, क्या बात है?’

‘जी में वसंत आया था आपसे…’

‘कौन वसंत? कमेटी से आए हो? पड़ोसियों के आठ दिन से पानी नहीं आया है। अति कर दी है मुओ ने। रोज सुबह खाली बाल्टियां लेकर उठने से पहले दरवाजे पर खड़े रहते हैं। हां भैया! ठीक से ठीक कर जाना नल उनका।’कह वह दरवाजा बंद करने को हुई तो वसंत ने फिर सानुनय कहा, ‘जी मैं कमेटी से नहीं…. मैं तो..’

‘जहां जाना है आगे जाकर पूछ लो। भले चंगे सीरियल का मजा ले रही थी। सारा गुड़गोबर कर दिया।’कह उसने इतनी जोर से दरवाजा बंद किया कि वसंत को तो लगा कि दरवाजा पक्का टूट गया। हाय रे दरवाजे!

वसंत थका हारा साथ लगते किसान के पास जा पहुंचा। किसान उस वक्त चिंता में बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था।

‘और मामू, क्या हाल हैं पांय लागूं?’

‘जीते रहो। क्या हाल होंगे भैया! रो रहे हैं अपनी किस्मत को।’कह किसान ने हुक्के की लंबी गुड़गुड़ाहट की।

‘पहचाना नहीं क्या?’वसंत ने हंसते हुए पूछा।

‘हम औरों को क्या पहचाने भैया, हम तो खुद को पचानना ही भूल गए हैं।’

‘तो हम वसंत हैं।’

‘कौन वसंत? वो मंझली बहू के बुआ के लड़के? और कहो कैसे हैं सब वहां? सब ठीक तो हैं?’

‘अरे मामू, वो वाला वसंत नहीं। जो इन दिनों हर साल आता है वो वाला।’

‘अरे भैया, इन दिनों तो हजारों आते हैं अब किस किसको याद रखें।’कह किसान सोचते सोचते पता नहीं कहां खो गया। वसंत ने वहां से उठने में ही अपनी भलाई समझी।

वसंत ने घड़ी देखी। अभी सांझ ढलने में देर थी सो वह एक नामचीन राइटर के घर जा पहुंचा। राइटर उस वक्त वसंत पर कविता लिखने में मस्त था। सामने पुराने कवियों की आठ दस वसंत पर लिखी कविताएं खोली हुईं। महाशय कभी इस कविता से पंक्ति उठाते तो कभी उस कविता से। पर पक्तियां थीं कि एक दूसरे के साथ रहने में संकोच कर रही थीं। वसंत ने न चाहते हुए भी उनका ध्यान भंग कर ही दिया। राइटर ने सामने किसीको खड़े देखा तो पहले तो अपना ग्लास सामने से हटाया।

‘लेना पड़ता है जब कविता भीतर से न निकले तो। आपकी तारीफ!’

‘जी मैं वसंत। यहां से गुजर रहा था तो सोचा आपसे मिलता चलूं।’

‘कहां के रहने वाले हो?’कह उन्होंने पुराने कवियों की वासंती कविताएं परे फेंकने का नाटक करते कहा, ‘कितनी हलकी कविताएं लिखते हैं ये लोग। कविता के नाम पर कलंक। मेरी कविताएं तो पढ़ी ही होंगी। कब आए?’

‘सर्दियों के बाद हर साल चला आता हूं।’

‘अच्छा करते हो। सर्दियों में वैसे भी बैठै-बैठे हड्डियां जुड़ जाती हैं। आदमी को थोड़ा घर से बाहर भी निकलना चाहिए।’

‘जी!’

‘……पर अभी माफ कीजिए। कल आना। अभी मुझे एक पत्रिका के वसंत वि”ोषांक को वसंत पर कविता लिखकर भेजनी है। बहुत तनाव में हूं। दस दिन हो गए उनको फोन करते हुए। हां, मेरी ये ताजी कविता ले जाओ। जरूर पढ़ना। बताना, कैसी लगी।’उनसे अनमने कविता की प्रति ले वसंत वहां से उठा तो वे कुछ नार्मल हुए। बाहर आकर बड़ी देर तक वसंत कविता को देखता रहा तो कविता वसंत को।

शहर में रोशनियां जगमगा उठी थीं। वसंत भी वापस जा रहा था कि सामने से उसे एक गाड़ी में लड़खड़ाते हुए इसके कामदेव और उसकी रति आते दिखाई दिए। वसंत का चेहरा ये देख बाग बाग हो उठा। और उसने गाड़ी को हाथ दिया तो गाड़ी चीं करती हुइ बीस मीटर आगे जाकर रूकी।

‘क्या है? पुलिस वाले हो?’गाड़ी का शीशा खोलकर उसने अपना पर्स ढूंढते पूछा।

‘नहीं, वसंत हूं!’मुस्कुराते हुए वसंत ने कहा।

‘ओ यार! डरा ही दिया था तुमने तो। कहां जाना है?’

‘बस यों ही हाथ दे दिया था। आप दोनों को इस हाल में देख कर बहुत खुशी हुई सो…’

‘अच्छा अभी जल्दी में हूं। इसे इसके घर छोड़ना है। पहले ही काफी देर हो गई है।’कह उसने सौ का नोट वसंत के हाथ धरा और ओ गया कि ओ गया। वसंत बड़ी देर तक वहीं खड़ा कभी सौ के नोट को देखता रहा तो कभी अपने को देखता रहा।

जैविक का व्यापार-एन.जी.ओ. और सरकार

-योगेश दीवान

कितना आष्चर्यजनक है कि अचानक मध्यप्रदेश के कृषि मंत्री पानी बाबा की तर्ज पर ”जैविक बाबा” हो जाते हैं और मुख्यमंत्री जैविक प्रदेश घोषित करने के लिये धन्यवाद के पात्र। ये वहीं मुख्मंत्री और कृषि मंत्री हैं जो कुछ दिन पहले तक और अभी भी प्रदेश की खेतिहर जमीन को बड़ी ही सामंती उदारता से बड़ी-बड़ी कंपनियों को बांटते हुए फोटो खिंचा रहे थे। इसे परंपरागत जैविक के एकदम खिलाफ ”एग्रो बिजनिस मीट” कहा गया। भोपाल, इंदौर, जबलपुर और खजुराहो में ऐसे ही एग्रो बिजनिस के बड़े-बड़े दरबार लगाये गये। अब इसमें कितने एम.ओ.यू. पर काम बढ़ा और कितने को लाल फीते ने रोका ये समय ही बतायेगा। पर मुख्यमंत्री उस समय अचानक ही एग्रो बिजनिस के कारण कार्पोरेट घरानों के चहेते बन बैठे थे। आने वाले महीने में फिर से प्रदेश की जमीनों की नीलामी का ऐसा उत्सव एग्रो बिजनिस मीट होने वाला है। जिसमें बड़ी-बड़ी देषी-विदेषी कंपनियों को न्यौता गया है। इतना ही नहीं, खेती को विकास का मॉडल बनाने के लिये म.प्र. विधानसभा का विशेष सत्र भी बुलाया गया है। जिसमें कंपनीकरण में बाधक नियम-कानून बदले जा सकें। थोड़ा और पीछे जाये तो ए.ई.जेड. (एग्रीकल्चरल इकॉनामिक जोन) जो निर्यात योग्य खेती के लिये बनाये गये थे या एस.ई.जेड (स्पेशल इकॉनामिक जोन) भी बड़ी चर्चा में थे। जिसमें सीलिंग जैसे सभी कायदे-कानूनों को एक तरफ रखकर डंडे के बल पर किसानों (सीमांत और छोटे) की जमीन पर कब्जा किया गया। जैविक ईधन एक और हल्ला था जिसमें प्रदेश की सैकड़ों एकड़ उपजाऊ जमीन को औने-पौने दामों और छोटे-छोटे अनुदान के लालच में किसानों से छीना गया। प्रदेश के कृषि विष्वविधालयों की जीनयांत्रिक (जी. एम.) प्रयोगों के लिये भरपूर अनुदानों के साथ मोंन्सैन्टो जैसी बड़ी-बड़ी कंपनियों के लिये खोला गया। अगर भाजपा की सत्ता के शुरूआती दौर में जायें तो 2003-04 का समय सोया चौपाल, मंडी कानूनों में परिवर्तन, ठेका खेती को बढ़ावा, पष्चिमी मध्यप्रदेश में बी.टी. कॉटन की शुरूआत, देशी-विदेशी बड़ी कंपनियों को अनाज खरीदी में संरक्षण, इंडियन टोबेको कंपनी (आई.टी.सी.) ऑस्टे्रलियन बीट बोर्ड (ए.डब्ल्यू.बी.) रिलांयस, कारगिल, यू.नी.लीवर, महिन्द्रा, धानूका, महिको, मोंन्सैन्टो जैसी भारी-भरकम और खतरनाक कंपनियों को पलक-पांवड़े बिछाकर गांव-गांव में पहुंचा दिया गया। सोया चौपाल, किसानी बाजार, रिलायंस फ्रेश, महिन्द्रा शुभ-लाभ, हरित बाजार जैसे लुभावने नारे दुकानों, सुपर मार्केट और चमाचम विज्ञापन लोगों को लुभाने और लूटने लगे। इसके साथ ही तथाकथित् विकास के नाम पर कई सारे पॉवर हाऊस (थर्मल-हाईडल) परमाणु बिजलीघर, कारखाने (स्वंय मुख्यमंत्री के क्षेत्र में) सड़क, नेशनल पार्क, बांध, सेंचुरी आदि तो काफी तेज रफ्तार में बन ही रहे है, जिसमें न सिर्फ लोग उजड़ रहे हैं बल्कि उपजाऊ जमीन भी खत्म हो रही है। पर्यावरण और प्रदेश की जीवन रेखा नर्मदा भी निपट रही है।

फिर जैविक खेती के लिये भी तो कंपनियों के गले मे ही गलबैंया डाली जा रही हैं। पिछली एग्रो मीट में आयी कई कंपनियां जैविक खेती का प्रस्ताव लेकर घूम रही ही थीं। कई कंपनियां पिछली कांग्रेस सरकार के दौर से ही प्रदेश में जैविक खेती का धंधा कर रही हैं। असल मे आज प्रदेश में ही नहीं देश और दुनिया में भी जैविक खेती अथवा उससे पैदा हुआ खाद्य पदार्थ मुनाफे का धंधा है। इसलिये चाहे कंपनी हो, व्यापारी हो बड़ा किसान हो, सिविल सोसाईटी ग्रुप हो या सरकारें सभी जैविक की नारेबाजी में लगी हैं। हांलाकि अभी भी जैनेटिक या आधुनिक खेती के मुकाबले जैविक का धंधा कमजोर ही है। पर यूरोप-अमरीका में बढ़ती जैविक खाद्य पदार्थों की मांग और जैनेटिक के खिलाफ खड़े आंदोलन जैविक खेती की संभावना को बढ़ाते ही हैं। इसलिये सिविल सोसाईटी, एन.जी.ओ. अथवा सामाजिक धार्मिक संगठन भी इस समय बढ़-चढ़कर जैविक के प्रचार-प्रसार में लगे हैं। उनकी दाता संस्थाओं की तिजोरी जैविक की टोटकेबाजी के लिये खुली हुई हैं। उनको परहेज नहीं है किसी तरह के विचार, सोच और समझ से। उनको अपने मुद्दे पर किसी भी सत्ता या संगठन की दलाली करने से जरा भी संकोच नहीं है। वे किसी भी कट्टरवादी, फासिस्ट, साधु-संत और संघ के गले में हाथ डालकर घूम सकते हैं। तभी तो बाबा रामदेव जैसों की जैविक के लिये अपील उन्हें ”मास अपील” लगती है। महेश भट्ट (जैविक पर”पायजन आन द प्लेटर” नामक फिल्म बनाकर) की बंबईया फिल्मी चकाचौंध उन्हें अपने मुद्दे के हक में खड़ी दिखती है। पष्चिम से घूम फिर कर आई देशी बीज बचाने और परंपरागत खेती की समझ की माला जपने से अघाते नहीं हैं। असल में ऐसे तथाकथित् सिविल सोसाईटी या एन.जी.ओ. की प्राथमिकता फंड होती है। वो किस मुद्दे, क्षेत्र और काम के लिये है उनके लिये ये ज्यादा महत्वपूर्ण है। तभी तो हरित क्रांति के दौर में फंडिंग के माध्यम से ऐसे एन.जी.ओ. (उस समय के सामाजिक-स्वंयसेवी संगठन) हाई ब्रिड बीज और केमिकल बंटवाकर आधुनिक खेती के हित और पक्ष में खड़े थे। बाद के दौर में जापान के कृषि वैज्ञानिक”मासानेव फुकुओका”की”वन स्टार रेव्यूलेशन”(एक तिनके की क्रांति) को गीता/बाईबिल मानकर ढेर सारे एन.जी.ओ. ऋषि खेती करने लगे थे। जिसके लिये बहुत सारा फंड आने लगा था। स्वतंत्रता के एकदम बाद नारू रोग को बहाना बनाकर कुंए, बाबड़ी, पोखर और तालाब को निपटाने का काम भी कभी फंडिंग के चक्र में फंसी एन.जी.ओ. रूपी बिरादरी ने किया था। आज परंपरागत स्रोतों को बचाने की नारेबाजी और हायतौबा भी यही कर रहा है। पी.पी.पी. यानी पब्लिक-प्राईवेट-पार्टनरशिप यानी सार्वजनिक निजी-भागीदारी के तहत् जल-जंगल-जमीन, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को निजीकरण की ओर ढकेलने का काम भी यही चतुर-चालाक हमारे एन.जी.ओ. भाई ही कर रहे हैं। अब जैविक खेती के लिये भी ऐसी ही भागीदारी की बात की जा रही है। सवाल उठता है जैविक के लाभ-लागत और उत्पादन का जिसका कोई आंकड़ा तथ्य-तर्क किसी के पास नहीं है। आज के दोर मे अगर हम एक या दो ढाई एकड के किसान को जैविक करने लिये प्रेरित करते हैं तो क्या वह अपना और अपने परिवार का जीवन इस पध्दति से चला सकता है। और बडे मझले किसानों के लिये जैविक या देशी खेती या तो शगल है या मुनाफे का धंधा। 20 रूपये रोज भी न कमा सकती हो उससे जैविक की बात करना या उससे जैविक उत्पाद खाने की बात कहना बेमानी ही है।

एक वैष्विक जानकारी के अनुसार सन् 2000 में जैविक उत्पादों का सलाना विष्व बाजार 18 अरब डालर का था जो एक साल पहले सन् 2009 में 486 अरब डालर का हो गया। यूरोप, अमेरिका और जापान मे इसका व्यापार बढ रहा है। असल मे साजिश वही है जो अभी तक होती आई है। यानि मांग सात समुन्दर पार होगी और उत्पादक भारत जैसे देश या तीसरी दुनिया के छोटे और गरीब किसान क्योंकि यहां की भौतिक और प्राकृतिक परिस्थितियां की इस तरह खेती के अनुकूल है। जैविक खेती की मार्केटिंग करने वाले संगठन”इंटरनेशनल कार्पोरेट सेंटर फार आर्गेनिक एग्रीकल्चर के अनंसार 2007- 2008 में इस खेती का रकबा 15 लाख हैक्टेयर तक पहुच गया है और जैविक उत्पादों का निर्यात भी इस दौरान चार गुना हो गया है। वहीं हमारे देश मे महज पांच साल मे ही इसका रकबा सात गुना से भी ज्यादा हो गया है। ऐसा माना जाता रहा है कि भविष्य मे जैविक उत्पादों के मामले मे भारत, चीन, ब्राजील जैसे देश सबसे आगे होगें पर उपभोग के मामले मे कोई ओर होगा।

सिर झुका कर, हाथ जोडे सत्ता की तारीफ में नारे लगाते, मुख्यमंत्री के दरबार में पहुंची एक बड़ी संख्या इसी एन.जी.ओ. रूपी दलाल की थी, बाकी संघ के सिपाही थे। क्योंकि मुख्य आयोजन आर.एस.एस. के संगठनों का ही था। बैनर, पोस्टर प्रेस कटिंग, मिनिट्स, रिपोर्ट आदि से दाता संस्था को साधनेवाले एन.जी.ओ. के लिये शायद ये एडवोकेसी या जन-अदालत का एक तरीका था। कभी-कभी 25-50 लोगों के साथ सड़क पर आने को”राईट बेस”लड़ाई (अधिकार आधारित) भी कहा जाता है। इनसे थोड़ा कड़वा या कर्कश सवाल पूछने का मन भी होता है कि यदि खुदा न खास्ता (भगवान न करे यदि है! तो) कल मध्यप्रदेश में भी कुछ साल पहले का मोदी का गुजरात दोहराया जाता है तो ये चतुर-चालाक चहेते (संघी विचार के) एन.जी.ओ. कहां खड़े होंगे? गुजरात का अनुभव तो काफी डरावना और कंपकपी पैदा करनेवाला है। जहां गांधीयन संस्थाओं तक के दरवाजे सांप्रदायिक सद्भाव की आवाज उठाने गई मेधा पाटेकर के लिये बंद हो जाते हैं और उसे पिटने के लिये अकेला छोड़ दिया जाता है। जहां आठवले का पानी बचाने और जैविक खेती करनेवाला स्वाध्याय संगठन या सेल्फ-हैल्प ग्रुप बनानेवाली इला भट्ट की”सेवा”या कई सारे छोटे-बड़े गांधीयन एन.जी.ओ. संस्थाएं सद्भाव की नहीं किसी और (शायद मोदी की) दिशा में खड़े दिखाई दिये थे। पूछने का मन होता है कि आखिर इनकी जैविक खेती, वाटर षेड, स्वंय सहायता समूह या”तथाकथित”विकास आधारित काम किसके लिये है? क्या उस हत्यारे समाज-विचार या सत्ता के लिये, अगर हां, तो मुझे कुछ नहीं कहना?

ये सही है कि अपने फंड के कारण एन.जी.ओ. तो हमेशा वर्तमान में जीते हैं, पर सरकार का तो इतिहास को जाने बिना काम नहीं चलता। अगर जैविक बाबा(कृषि मंत्री) या जैविक राज्य के लिये धन्यवाद बटोरने वाली शिवराज सरकार अपने पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के कागज-पत्तर पलटें तो जैविक का राज वहां छुपा हुआ मिलेगा। और फिर शिवराज की पदवी छिन भी सकती है। क्योंकि जैविक की जिस बादशाहत का दावा वे आज कर रहे हैं वो काम दिग्विजय सिंह ने कई साल पहले हर जिले में जैविक गांव बनाकर कर दिया था और ऐसे ही तात्कालिक वाह वाही लूटी थी। एन.जी.ओ. और कंपनियां उस समय भी उनके पीछे थीं। खंडवा जिले के छैगांव माखन ब्लाक का मलगांव ऐसा ही एक जैविक के लिये चर्चित गांव था। जहां नीदरलैंड की बहुराष्ट्र्र्रीय कंपनी स्काल इंटरनेशनल ने अपनी देशी कंपनी ”राज ईको फार्मस”के माध्यम से किसानों के साथ उत्पादन से खरीदी तक का समझौता किया था। कंपनी का पूरा मॉडल ढेर सारी शर्तों के साथ कॉर्पोरेट खेती या ठेका (कान्टे्र्र्रक्ट) खेती के आधार पर ही था। किसान इस जैविक खेती में एक तरह से बंधुआ बन चुका था। कीमत में या लाभ में किसान को बी.टी.कॉटन की अपेक्षा भले ही थोड़ा ज्यादा मूल्य मिले पर उसके जैविक कपास से बने टी-शर्ट की कीमत (विदेशी बाजार) 25 हजार रूपये होती थी, जो कंपनी के हिस्से का लाभ था। म.प्र. में ऐसे और भी कई उदाहरण हैं। अगर इन्हें जाने बिना हमारी सरकार, तथाकथित् एन.जी.ओ. और संघ गिरोह अपने देशी-स्वदेशी, स्थानीय या जैविक प्रेम को प्रदेश के भोले-भाले किसानों पे थोपतें है तो निष्चित ही प्रदेश की खेती के कंपनीकरण को कुपोषित बच्चों की मौतों को (जिसमे प्रदेश कई सालों से सबसे उपर है) और बढती हुई। किसानों की आत्महत्या (इसमे प्रदेश तीसरे पायदान पर है) को कोई नहीं रोक सकता। शायद आज बड़ी जरूरत है जैविक और जैनेटिक, देशी विदेशी या परंपरागत खेती के नारों विवादों को प्रोजेक्ट फंडिंग या धंधे के चश्मेश से बाहर निकल कर देखने की उसके तर्क तथ्य, आंकड़े और विज्ञान (लोगों की जमीन -झोपडी के हक मे) को जनता के हित में सोचने की। सिर्फ विदेश के लिये (निर्यात) विदेशी पैसे और कंपनी के कहने पर हमारे छोटे-सीमांत निरीह किसानों को हांकना निश्चित ही एक वडा सिन (बाईबल का वाक्य) या पाप है।

राष्ट्रमंडल पर टिकी हैं नजरें………

-अमल कुमार श्रीवास्तव

चारों ओर राष्ट्रमंडल खेलों का बोलबाला है जिसे देखों बस खेलों की ही बात कर रहा है।

माना जा रहा है कि राष्ट्रमंडल खेलों के बाद भारत विश्व में तीसरी सबसे बडी शक्ति के रूप में उभर कर सामने आयेगा। अभी कुछ दिन पूर्व तक ही यह कयास लगाए जा रहे थे कि क्या भारत इन खेलों का आयोजन कर पाने में सफल साबित होगा? लेकिन भारत ने अपनी आंतरिक शक्ति का लोहा मनवाते हुए पूरे विश्व को दिखा दिया कि हम हर परिस्थिति में खुद को सम्भाल सकते हैं। हमे किसी बाहरी शक्ति के सहायता की आवश्यक्ता नहीं है। राष्ट्रमंडल खेल पर देश का अरबों रूपए खर्च तो जरूर हुआ है लेकिन भारत ने विश्व के महाशक्तियों में तीसरा पायदान भी हासिल कर लिया है। इन खेलों का आयोजन भारत द्वारा कराया जाना देश के लिए एक गौरव की बात है। एशियाई देशों में भारत दूसरा ऐसा देश है जहां इसका आयोजन किया गया है,इसके पूर्व मलेशिया में राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन किया गया था। इस सम्बंध में एक और खुलासा हुआ है कि राष्ट्रमंडल खेलों के पश्चात् भारत में 25 लाख रोजगार के अवसर पैदा होंगे और भारत सीधा 9 फिसदी विकास की ओर अग्रसरित हो सकेगा। वर्तमान में जो स्थितियां भारत की थी उन सबको देखते हुए यह कह पाना कि देश इतना बडा आयोजन सफलतापूर्वक कर सकेगा,शायद किसी के लिए भी पचा सकने योग्य नहीं था लेकिन इन सब के बावजूद स्थितियों में इतने शीघ्र परिवर्तन वास्तव में कुशल नेतृत्व क्षमता का ही परिचय है। आखिर इस प्रकार के नेतृत्व क्षमता का परिचय सरकार पूर्व में ही क्यों नहीं देती है? क्या सरकार लोगों को यह दर्शाना चाहती है कि हम इतने संकट में होने के बावजूद आखिर सफल प्रदर्शन कर दिखाए? या फिर इसे भी आगामी चुनावों का मुद्दा बनाने का प्रयास किया जा रहा है? अभी कुछ दिन पूर्व ही दिल्ली की मुख्यमंत्री महोदया और कलमाडी जी का चेहरा देखने लायक था। यह जब भी मीडीया के सामने आते हमेशा चेहरे पर उदासी ही छायी रहती थी,मालूम होता कि कहीं मातम से आ रहे है। लेकिन एकाएक परिवर्तन हुए और सारी स्थितियां बदल गई। खेलों का शुभारम्भ ही बडे ही धूम धाम से शुरू हुआ। हालांकि इसे दिल्ली सरकार की एक बडी उपलब्धि माना जा सकता है। सोचने योग्य यह है कि वर्तमान परिवेश में हर आदमी जानता है कि कोर्इ्र भी बडा से बडा कार्य आप कर सकते है अगर आप आर्थिक रूप से मजबूत है तो फिर सरकार यह प्रोपगंडा क्यों बना रही है कि हम इतने बडे पैमाने पर खेलों का सफल आयोजन किस प्रकार समस्याओं को झेलते हुए और उनका सामना करते हुए कर रहे है। एक बात तो साफ तोर पर कहा जा सकता है कि भारत के राजनीतिज्ञों में एक खूबी तो बेशुमार है कि यहां कोई भी मुद्दा हो उसे राजनितिक रूप देने की कला राजनितिज्ञों के अन्दर कूट-कूट कर भरी पडी हुई है। अब कितने राजनीतिक इस प्रयास में भी बैठे होंगे कि राष्ट्रमंडल खेलों के अन्तरगत अगर कोई ऐसा मुद्दा मिल जाए कि जिसे आगामी चुनावों में उठाया जा सके। हाल फिलहाल राष्ट्रमंडल खेलों का अब तक का सफर तो बहुत ही अच्छा बीत रहा है और भारत 10 स्वर्ण कुल 22 पदक भी जीत चुका है लेकिन देखना यह है कि क्या यह यथास्थिति खेलों के समापन तक बरकरार रह सकेगी या फिर कोई चूक की राह देख रहे लोगों को उपलब्धि हासिल हो सकेगी।

निशंक पर निशाने का अजीब तरीका

– धीरेन्द्र प्रताप सिंह

पिछले कई दिनों से उत्तराखंड में मुख्यमंत्री के विरोधियों ने उनकों बदनाम करने का नया तरीका ढूंढ लिया है। उनके जनहित के कार्यो से बौखलाएं विपक्षियों ने अब मीडिया के कंधे पर बंदूक रख कर उन पर निषाना साधना षुरू कर दिया है। लेकिन मुख्यमंत्री ऐसे हमलों को दरकिनार कर अपने राज्य में आई प्राकृतिक आपदा से जूझते लोगों के आंसू पोछने में व्यस्त है। उनके इस संयम ने उनके विरोधियों की योजनाओं पर पानी फेर दिया है।

मुख्यमंत्री डा. रमेष पोखरियाल निषंक निष्चित ही देष के ऐसे एकमात्र मुख्यमंत्री है जिनके पास एक चतुर राजनेता होने के साथ ही मंझा हुआ पत्रकार और संवेदनषील साहित्यकार व भावुक कवि होने का अनुभव भी है और ष्षायद यही कारण है मात्र एक साल के अल्प कार्यकाल में उन्होंने जो लोकप्रियता और प्रसिद्धि अर्जित की है वह चमत्कार सी दिखलाई पड़ती है। मैं ये सारी बाते हवा में नहीं कह रहा हूं बल्कि इसके प्रत्यक्ष प्रमाण है।

आज पूरे भारत में उन्हें सबसे युवा,सर्वोत्तम मृदुभाषी और निरन्तर जनहित का चिन्तन करने वाला राजनेता माना जाता है। ऐसा सिर्फ उनकी पार्टी भाजपा नहंी बल्कि विपक्षी कांग्रेस भी मानती है। पूरा देष उनमें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की छवि देखता है। 27 जून 2009 को उत्तराखंड के पांचवें मुख्यमंत्री के तौर पर जब उन्होंने कार्यभार संभाला तो उनके सामने एक नहीं कई चुनौतियां थी।

एक तरफ जहां लोकसभा चुनाव में प्रदेष से पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया था वहीं विकास नगर का उपचुनाव उनके सामने मुंह बाएं खड़ा था। चूंकी लोकसभा में हार का ठीकरा बीसी खंडूरी के सिर फोड़ा गया था तो उनसे इस चुनाव में निष्पक्ष मदद की गुंजाइष कम थी। जबकि दूसरी तरफ खुद को मुख्यमंत्री बनने की आस लगाए भगत सिंह कोष्यारी भी रमेष के मुख्यमंत्री बनाए जाने को लेकर बहुत खुष नहीं थे। लेकिन निषंक ने अपने सद् व्यहार और राजनैतिक चातुर्य से न सिर्फ विकास नगर विधानसभा उप चुनाव को जीता बल्कि राज्य में कई लॉबियों में बंटी पूरी पार्टी को एकजुट करने में भी कामयाबी हासिल की।

इस सफलता के बाद ष्षुरू हुआ उनका सफर तेजी से आगे बढ़ा फिर उनके सामने आया सदी का सबसे बड़ा आयोजन कुंभ 2010। इसमें भी मुख्यमंत्री ने अपने राजनीतिक कौषल से जहां केन्द्र से अच्छी खासी मदद हासिल की वहीं उस पैसे का दुरूपयोग न हो सके इसका पूरा प्रबंध किया। फिर उनके इस कार्य ने ऐसा करिष्मा दिखाया कि महाकुंभ-2010 अब तक का सबसे अच्छा और सफल आयोजन साबित हुआ। इस कुंभ में जहां पहली बार हरिद्वार में सबसे ज्यादा पक्का काम हुआ वहीं छोटे से स्थान में करोड़ों लोगों के नहाने के प्रबंध और उनकी सुरक्षा की व्यवस्था ने उत्तराखंड को पूरी दुनिया में एक मॉडल स्टेट के रूप में प्रस्तुत किया। अमेरिका के एक प्रबंधन विषेषज्ञ ने इसे प्रबंधन का सबसे बेहतरीन उदाहरण बताते हुए अपने संस्थान के कोर्स में इसे ष्षामिल करने का आदेष दिया।

इस बीच मुख्यमंत्री अपने विपक्षियों की साजिषों से भी लगातार दो चार होते रहे। प्रदेष में लगने वाली जल विद्युत परियोजनाओं के आवंटन में जहां उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे वहीं पूरी मीडिया ने भी उनको कटघरे में खड़ा किया लेकिन वे इससे घबराने की बजाय अपने तर्को और तथ्यों के साथ अपनी बेगुनाही का सुबूत पेष किया। इतना ही नहीं इस मामले में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने जब उन्हें क्लीन चिट दे दी और बाद में इस मामले में उन्हें लगा कि कुछ गलत हो सकता है। उन्होंने तुरंत उन परियोजनाओं के आवंटन को रद्द कर दिया और उसके दोबारा और पारदर्षी आवंटन का आदेष जारी कर दिया। इस मामले में देखा जाए तो इससे पहले प्रदेष में उर्जा की कोई नीति ही नहीं बनी थी । उन्होंने तुरंत इसको गंभीरता से लिया और उत्तराखंड उर्जा नीति का निर्माण किया।

खैर ये तो उनके राजनैतिक कौषल की बात हो गई। प्रदेष के अनुभवी लोगों से इस बारे में बात करने पर लोग कहते है कि डा. निषंक एक अत्यन्त ही गरीब किसान परिवार से आते है और उन्होंने प्रदेष की समस्याओं को बहुत ही नजदीक से न सिर्फ देखा है बल्कि उसे झेला भी है। यही कारण है कि उन्होंने 1991 में कर्ण प्रयाग विधानसभा सीट से दिग्गज कांग्रेसी षिवानन्द नौटियाल को पछाड़ दिया था। क्यों कि इन्होंने पूरे चुनाव में व्यवहारिकता को महत्व देते हुए चुनाव प्रचार किया था।

इस लेख मैं उनका महिमा मंडन नहीं करना चाहता हूं लेकिन उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं से अवगत कराने के लिए इन सबका उल्लेख आवष्यक था इसलिए कर दिया।

अब आते है पत्रकारों के साथ उनके व्यवहार की बातों पर। उन्होंने अपना अखबार सीमान्तवार्ता तब ष्षुरू किया जब अखबार निकालना घाटे का सौदा माना जाता था। उनके पत्रकारीय अनुभव और मानवीय गुणों के चलते सीमान्तवार्ता अखबार देहरादून का लोकप्रिय अखबार बना। इस अखबार के प्रकाषन के दौरान ही उन्होंने पत्रकारिता का व्यहारिक प्रषिक्षण प्राप्त किया।
आज षायद वे देष के एक मात्र अकेले ऐसे मुख्यमंत्री है जो किसी भी प्रेसकांफ्र्र्रेेस में सभी पत्रकारों को उनके नाम से बुलाते है और न केवल उनका हालचाल लेते है बल्कि जितना संभव होता है सार्वजनिक और व्यक्तिगत दोनों स्तरों पर उनकी मदद भी करते है।

इस बात की पुष्टि देहरादून के किसी भी पत्रकार से की जा सकती है। हां चूकी ये प्रदेष बने अभी मात्र 10 साल ही हुए है और कई ऐसी परंपराएं है जिनमें अभी सुधार होना बाकी है तो कई गलत परंपराएं भी यहां विकसित हुई है। उन्ही गलत परंपराओं का विरोध करने पर अगर कोई पत्रकार मुख्यमंत्री को अपना दुष्मन मान ले और उन पर पत्रकारिता के दमन करने का आरोप लगाने लगे तो उसको किसी भी तरह रोका नहीं जा सकता। दूसरा इस प्रदेष में षासन के साथ ही प्रषासन नाम की चीज भी है।

प्रषासन जो भी काम करता है वह कानून की हद में करता है और अगर ऐसा नहीं करता है तो उसकी मुखालफत भी की जा सकती है जिसके लिए हर व्यक्ति स्वतंत्र है। तो प्रदेष का कोई अधिकारी वह चाहे पुलिस प्रषासन का हो या सूचना एवं लोक संपर्क विभाग का उसके किसी कार्य को मुख्यमंत्री द्वारा रचित साजिष घोषित करना बिल्कुल गलत है। जिसका पिछले दिनों खूब हल्ला किया गया और बेबुनियाद आरोप लगाए गए। जहां तक बात रही मुख्यमंत्री और पत्रकारों के बीच संबंधों की तो इसका प्रमुाण है प्रदेष के सम्मानित पत्रकार आलोक अवस्थी,षाक्त ध्यानी,मनमोहन षर्मा,उमेष जोषी आदि आदि। इन सभी लोगों के यहां बिगत दिनों किसी न किसी की मृत्यू हुई और मुख्यमंत्री किसी के घर जा कर तो किसी को फोन पर बात कर अपनी पूरी सहानुभूति जताई और सभी प्रकार की मदद करने का आष्वासन दिया।

इसके बाद भी जब एक पत्रकार संगठन ने सरकार पर आरोप लगाए तो उन्होंने तुंरत उसका संज्ञान लिया और उनकी षिकायतों का तत्काल निवारण किया।  दूसरा पत्रकारों के प्रति उनके मन में कितनी संवदेना है इसका एक और उदाहरण देहरादून के ख्यातिलब्ध पत्रकार संजय श्रीवास्तव जो उत्तर प्रदेष के जौनपुर जनपद के निवासी है लेकिन राज्य गठन से पहले से ही यहां की पत्रकारिता की एक पत्रकार के रूप में सेवा कर रहे है। उन्हें मुख्यमंत्री बिगत दिनों अपनी जौनपुर यात्रा के दौरान अपनी पहल पर अपने विषेष विमान में अपने साथ सिर्फ इसलिए लेकर गए जिससे उनके जनपद में संजय का सम्मान होने के साथ ही ये बात भी साबित हो सके  िकइस प्रदेष की सेवा करने वाले हर व्यक्ति के लिए मुख्यमंत्री के हृदय में कितना सम्मान है।

मैं यहां एक छोटा पत्रकार हूं मेरा यहां के ष्षासन प्रषासन से कुछ लेना देना नहीं लेकिन एक अच्छे व्यक्ति के चरित्र हनन को लेकर हो रहे कुत्सित प्रयासों को सहन न करने की स्थिति में ये विचार और उद्गार व्यक्त करने का विचार बना।

राष्ट्रवादी और राष्ट्रविरोधी एक से दिखे बाबा को

राहुल चले दिग्विजय के नक्शेकदम पर

कहा- संघ और सिमी एक जैसे

-लोकेन्‍द्र सिंह राजपूत

राहुल ‘बाबा’ ने बुधवार को मध्यप्रदेश के प्रवास पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और सिमी की तुलना करते हुए दोनों को एक समान ठहरा दिया। हर किसी को राहुल की बुद्धि पर तरस आ रहा है। जाहिर है मुझे भी आ रहा है। उनके बयान को सुनकर लगा वाकई बाबा विदेश से पढ़कर आए हैं, उन्होंने देश का इतिहास अभी ठीक से नहीं पढ़ा। उन्हें थोड़ा आराम करना चाहिए और ढंग से भारत के इतिहास का अध्ययन करना चाहिए। या फिर लगता है कि अपनी मां की तरह उनकी भी हिन्दी बहुत खराब है। राष्ट्रवादी और राष्ट्रविरोधी में अंतर नहीं समझ पाए होंगे। अक्टूबर एक से तीन तक मैं भोपाल प्रवास पर था। उसी दौरान भाजपा के एक कार्यकर्ता से राहुल को लेकर बातचीत हुई। मैंने उनसे कहा कि वे पश्चिम बंगाल गए थे, वहां उन्होंने वामपंथियों का झंड़ा उखाडऩे की बात कही। कहा कि वामपंथियों ने बंगाल की जनता को धोखे में रखा। लम्बे समय से उनका एकछत्र शासन बंगाल में है, लेकिन उन्होंने बंगाल में कलकत्ता के अलावा कहीं विकास नहीं किया। तब वामपंथियों ने बाबा को करारा जवाब दिया कि राहुल के खानदान ने तो भारत में वर्षों से शासन किया है। उनका खानदान भारत तो क्या एक दिल्ली को भी नहीं चमका पाए। इस पर राहुल दुम दबाए घिघयाने से दिखे, उनसे इसका जवाब देते न बना। अब राहुल मध्यप्रदेश में आ रहे हैं। तब उन भाजपा कार्यकर्ता ने कहा आपको क्या लगता है वह यहां कुछ उल्टा-पुल्टा बयान जारी करके नहीं जाएंगे। मैंने कहा बयान जारी करना ही तो राजनीति है, लेकिन मैंने राहुल से इस बयान की कल्पना भी नहीं की थी।

संघ मेरे अध्ययन का प्रिय विषय रहा है। आज तक मुझे संघ और सिमी में कोई समानता नहीं दिखी। इससे पूर्व एक पोस्ट में मैंने लिखा था कि ग्वालियर में संघ की शाखाओं में मुस्लिम युवा और बच्चे आते हैं। इसके अलावा संघ के पथ संचलन पर मुस्लिम बंधु फूल भी बरसाते हैं। इससे तात्पर्य है कि संघ कट्टरवादी या मुस्लिम विरोधी नहीं है। राहुल के बयान से तो यह भी लगता है कि उन्हें इस बात की भी जानकारी न होगी कि संघ के नेतृत्व में एक राष्ट्रवादी मुस्लिम मंच का गठन भी किया गया है। जिससे हजारों राष्ट्रवादी मुस्लिमों का जुड़ाव है। जबकि सिमी के साथ यह सब नहीं है। वह स्पष्टतौर पर इस्लामिक कट्टरपंथी संगठन है। जो इस्लामिक मत के प्रचार-प्रसार की आड़ में आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देता रहा है। ऐसे में वैचारिक स्तर पर भी कैसे संघ और सिमी राहुल को एक जैसे लगे यह समझ से परे है।

राहुल बाबा से पूर्व संघ पर निशाना साधने के लिए उन्होंने एक बंदे को तैनात किया हुआ है। संघ आतंकवादी संगठन है, उसके कार्यालयों में बम बनते हैं, पिस्टल और कट्टे बनते हैं। इस तरह के बयान देने के लिए कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह की नियुक्ति की हुई है। इसलिए संघ की इस तरह से व्याख्या अन्य कांग्रेसी कभी नहीं करते। बाबा ने यह कमाल कर दिखाया। बाबा ने यह बयान भोपाल में दिया। मुझे एक शंका है। कहीं दिग्विजय सिंह ने अपना भाषण उन्हें तो नहीं रटा दिया। क्योंकि जब राहुल के बयान की चौतरफा निंदा हुई तो उनके बचाव में सबसे पहले दिग्विजय ही कूदे। खैर जो भी हुआ हो। यह तो साफ हो गया कि राहुल की समझ और विचार शक्ति अभी कमजोर है। वे अक्सर भाषण देते समय अपने परिवार की गौरव गाथा सुनाते रहते हैं। मेरे पिता ने फलां काम कराया, फलां विचार दिया। इस बार उन्होंने यह नहीं कहा कि जिस संघ को वे सिमी जैसा बता रहे हैं। उनके ही खानदान के पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संघ को राष्ट्रवादी संगठन मानते हुए कई मौकों पर आमंत्रित किया। 1962 में चीनी आक्रमण में संघ ने सेना और सरकारी तंत्र की जिस तरह मदद की उससे प्रभावित होकर पंडित नेहरू ने 26 जनवरी 1963 के गणतंत्र दिवस समारोह में सम्मिलित होने के लिए संघ को आमंत्रित किया और उनके आमंत्रण पर संघ के 300 स्वयं सेवकों ने पूर्ण गणवेश में दिल्ली परेड में भाग लिया। कांग्रेस के कुछ नेताओं द्वारा विरोध होने पर नेहरू ने कहा था कि उन्होंने देशभक्त नागरिकों को परेड में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया था। अर्थात् नेहरू की नजरों में संघ देशभक्त है और राहुल की नजरों में आतंकवादी संगठन सिमी जैसा। इनके परिवार की भी बात छोड़ दें तो इस देश के महान नेताओं ने संघ के प्रति पूर्ण निष्ठा जताई है। उन नेताओं के आगे आज के ये नेता जो संघ के संबंध में अनर्गल बयान जारी करते हैं बिल्ली का गू भी नहीं है।

1965 में पाकिस्तान ने आक्रमण किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री व प्रात: पूज्य लाल बहादुर शास्त्री जी ने सर्वदलीय बैठक बुलाई। जिसमें संघ के सर संघचालक श्री गुरुजी को टेलीफोन कर आमंत्रित किया। पाकिस्तान के साथ 22 दिन युद्ध चला। इस दौरान दिल्ली में यातायात नियंत्रण का सारा काम राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को सौंपा गया। इतना ही नहीं जब भी आवश्यकता पड़ती दिल्ली सरकार तुरंत संघ कार्यालय फोन करती थी। युद्ध आरंभ होने के दिन से स्वयं सेवक प्रतिदिन दिल्ली अस्पताल जाते और घायल सैनिकों की सेवा करते व रक्तदान करते। यह संघ की देश भक्ति का उदाहरण है।

1934 में जब प्रात: स्मरणीय गांधी जी वर्धा में 1500 स्वयं सेवकों का शिविर देखने पहुंचे तो उन्हें यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि अश्पृश्यता का विचार रखना तो दूर वे एक-दूसरे की जाति तक नहीं जानते। इस घटना को उल्लेख गांधी जी जब-तब करते रहे। 1939 में डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर पूना में संघ शिक्षा वर्ग देखने पहुंचे। वहां उन्होंने डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार (संघ के स्थापक) से पूछा कि क्या शिविर में कोई अस्पृश्य भी है तो उत्तर मिला कि शिविर में न तो ‘स्पृश्य’ है और न ही ‘अस्पृश्य’। यह उदाहरण है सामाजिक समरसता के। जो संघ के प्रयासों से संभव हुआ।

वैसे सिमी की वकालात तो इटालियन मैम यानि राहुल बाबा की माताजी सोनिया गांधी भी कर चुकी हैं। मार्च 2002 और जून 2002 में संसद में भाषण देते हुए सोनिया गांधी ने सिमी पर प्रतिबंध लगाने के लिए एनडीए सरकार के कदम का जोरदार विरोध किया। सोनिया की वकालात के बाद कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने 2005 में प्रतिबंध की अवधि बीत जाने के बाद चुप्पी साध ली, लेकिन उसे फरवरी 2006 में फिर से प्रतिबंध लगाना पड़ा। इसी कांग्रेस की महाराष्ट्र सरकार ने 11 जुलाई 2006 को हुए मुंबई धमाकों में सिमी का हाथ माना और करीब 200 सिमी के आतंकियों को गिरफ्तार किया। सिमी के कार्यकर्ताओं को समय-समय पर राष्ट्रविरोधी हिंसक गतिविधियों में संलिप्त पाया गया है।

क्या है सिमी

स्टूडेन्ट्स इस्लामिक मूवमेन्ट ऑफ इण्डिया (सिमी) की स्थापना 1977 में अमरीका के एक विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त प्राध्यापक मोहम्मद अहमदुल्लाह सिद्दीकी ने की थी। वह अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता और जनसंचार में प्राध्यापक था। सिमी हिंसक घटनाओं तथा मुस्लिम युवाओं की जिंदगी बर्बाद करने वाला धार्मिक कटट्रता को पोषित करने वाला गिरोह है। संगठन की स्थापना का उद्देश्य इस्लाम का प्रचार-प्रसार करना बतलाया गया। लेकिन इसकी आड़ में आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम दिया गया।

दुनिया भर के आतंकी संगठनों से मिलती रही सिमी को मदद-

-वल्र्ड असेम्बल ऑफ मुस्लिम यूथ, रियाद

इंटरनेशनल इस्लामिक फेडरेशन ऑफ स्टूडेंट ऑर्गनाइजेशन, कुवैत

जमात-ए-इस्लाम, पाकिस्तान

इस्लामी छात्र शिविर, बांग्लादेश

हिज उल मुजाहिदीन

आईएसआई, पाकिस्तानी गुप्तचर संस्था

लश्कर-ए-तोएयबा

जैश-ए-मोहम्मद

हरकत उल जेहाद अल इस्लाम, बांग्लादेश