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संचार माध्यमों का संयम

अयोध्या मामले पर मीडिया की भूमिका को सलाम कीजिए

-संजय द्विवेदी

मीडिया, खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया की भूमिका पर उठते सवालों के बीच अयोध्या मामले पर उसकी प्रस्तुति और संदेश एक नया चित्र उपस्थित करते नजर आते हैं। अयोध्या के मामले पर फैसला आने से पहले ही मीडिया ने जो रूख और लाइन अख्तियार की, वह अपने आप में सराहनीय है। अयोध्या के फैसले को लेकर जिस तरह का वातावरण बनाया गया था, उससे एक दहशत और सिहरन का अहसास होता था। कई बार लगता कि कहीं फिर हम उन्हीं खूरेंजीं दिनों में न लौट जाएं, जिनकी यादें आज भी हिंदुस्तान को सिहरा देती हैं। हुंकारों और ललकारों के उस दौर से हालांकि हिंदुस्तान बहुत आगे निकल आया है और आज की पीढ़ी के मूल्य व उसकी जरूरतें बहुत जुदा हैं। मीडिया ने देश की इस भावना को पकड़कर अयोध्या पर अपनी लाइन ली और उसने जिस तरह अपने को प्रस्तुत किया, उससे मीडिया की एक राष्ट्रीय भूमिका समझ में आती है। मीडिया पर जिस तरह की गैरजिम्मेदार प्रस्तुति के आरोप पिछले दिनों लगे हैं, अयोध्या मामले पर उसकी गंभीरता ने उसे पापमुक्त कर दिया है।

अयोध्या का फैसला आने से पहले से ही आप देश के प्रिंट मीडिया पर नजर डालें देश के सभी प्रमुख अखबार किस भाषा में संवाद कर रहे थे? जबकि 90 के दशक में भारतीय प्रेस परिषद ने माहौल को बिगाड़ने में कई अखबारों को दोषी पाया था। किंतु इस बार अखबार बदली हुयी भूमिका में थे। वे राष्ट्रधर्म निभाने के लिए तत्पर दिख रहे थे। फैसले के पहले से ही अमन की कहानियों को प्रकाशित करने और फैसले के पक्ष में जनमानस का मन बनाने में दरअसल अखबार सफल हुए। ताकि सांप्रदायिकता को पोषित करने वाली ताकतें इस फैसले से उपजे किसी विवाद को जनता के बीच माहौल खराब करने का साधन न बना सकें। यह एक ऐसी भूमिका थी जिससे अखबारों एक वातावरण रचा। मीडिया की ताकत आपको इससे समझ में आती है। शायद यही कारण था कि राजनीति के चतुर सुजान भी संयम भरी प्रतिक्रिया देने के लिए मजबूर हुए। इसका कारण यह भी था कि इस बार मीडिया के पास भड़काने वाले तत्वों के लिए खास स्पेस नहीं था। उस हर आदमी से बचने की सचेतन कोशिशें हुयीं, जो माहौल में अपनी रोटियां सेंकने की कोशिशें कर सकता था। अदालत का दबाव, जनता का दबाव और मीडिया के संपादकों का खुद का आत्मसंयम इस पूरे मामले में नजर आया। टीवी मीडिया की भूमिका निश्चय ही फैसले के दिन बहुत प्रभावकारी थी। एक दिन पहले से ही उसने जो लाइन ली, उसने फैसले को धैर्य से सुनने और संयमित प्रतिक्रिया करने का वातावरण बनाया। यह एक ऐसी भूमिका थी जो मीडिया की परंपरागत भूमिका से सर्वथा विपरीत थी। टीवी सूचना माध्यमों को आमतौर पर बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता। टीआरपी की होड़ ने दरअसल उन्हें उनके लक्ष्य पथ से विचलित किया भी है। किंतु अयोध्या के मामले पर उसकी पूरी प्रस्तुति पर इलेक्ट्रानिक मीडिया का बड़े से बड़ा आलोचक सवाल खड़े नहीं कर सकता। इस पूरे वाकये पर इलेक्ट्रानिक मीडिया ने एक अभियान की तरह अमन के पैगाम को जनता तक पहुंचाया और राजनीतिक व धार्मिक नेताओं को भी इसकी गंभीरता का अहसास कराया। यह मानना होगा कि कोर्ट के फैसले को सुनने और उसके फैसले को स्वीकारने का साहस और सोच, सब वर्गों में दरअसल मीडिया ने ही पैदा किया। राममंदिर जैसे संवेदनशील सवाल पर साठ साल आए फैसले पर इसीलिए देश की राजनीति में फिसलन नहीं दिखी, क्योंकि इस बार एजेंडा राजनेता नहीं, मीडिया तय कर रहा था। यह साधारण नहीं था कि 1990 से 92 के खूंरेंजी दौर के नायक इस बार संचार माध्यमों में वह स्पेस नहीं पा सके जिसने उन्हें मंदिर या बाबरी समर्थकों के बीच महानायक बनाया था। मीडिया संवाद की एक नई भाषा रच रहा था जिसमें जनता के सवाल केंद्र में थे, एक तेजी से बढ़ते भारत का स्वप्न था, नए भारतीयों की आकांक्षाएं थीं, सबको साथ रहने की सलाहें थीं। यह एजेंडा दरअसल मीडिया का रचा हुआ एजेंडा था, अदालत के निर्देशों ने इसमें मदद की। उसने संयम रखने में एक वातावरण बनाया। देश में कानून का राज चलेगा, ऐसी स्थापनाएं तमाम टीवी विमर्शों से सामने आ रही थीं।

आप कल्पना करें कि मीडिया अगर अपनी इस भूमिका में न होता तो क्या होता। आज टीवी न्यूज मीडिया जितना पावरफुल है उसके हाथ में जितनी शक्ति है, वह पूरे हिंदुस्थान को बदहवाश कर सकता था। प्रायोजित ही सही, जैसी प्रस्तुतियां और जैसे दृश्य टीवी न्यूज मीडिया पर रचे गए, वे बिंब भारत की एकता की सही तस्वीर को स्थापित करने वाले थे। मीडिया, फैसले के इस पार और उस पार कहीं नहीं था, वह संवाद की स्थितियां बहाल करने वाला माध्यम बना। फैसले से पहले ही उसने अपनी रचनात्मक भूमिका से दोनों पक्षों और सभी राजनीतिक दलों को अमन के पक्ष में खड़ाकर एक रणनीतिक विजय भी प्राप्त कर ली थी, जिससे फैसले के दिन कोई पक्ष यू-टर्न लेने की स्थितियों में नहीं था। सही मायने में आज देश में कोई आंदोलन नहीं है, मीडिया ही जनभावनाओं और अभिव्यक्तियों के प्रगटीकरण का सबसे बड़ा माध्यम बन गया है। देश ने इस दौर में मीडिया की इस ताकत को महसूसा भी है। फिल्म, टेलीविजन दोनों ने देश के एक बड़े वर्ग को जिस तरह प्रभावित किया है और आत्मालोचन के अवसर रचे हैं, वे अद्भुत हैं। पीपली लाइव जैसी फिल्मों के माध्यम से देश का सबसे प्रभावी माध्यम(फिल्म) जहां किसानों की समस्या को रेखांकित करता है वही वह न्यूज चैनलों को मर्यादाएं और उनकी लक्ष्मणरेखा की याद भी दिलाता है। ऐसे ही शल्य और हस्तक्षेप किसी समाज को जीवंत बनाते हैं। अयोध्या मामले पर मीडिया और पत्रकारिता की जनधर्मी भूमिका बताती है कि अगर संचार माध्यम चाह लें तो किस तरह देश की राजनीति का एजेंडा बदल सकते हैं। माध्यमों को खुद पर भरोसा नहीं है किंतु अगर वे आत्मविश्वास से भरकर पहल करते हैं तो उन्हें निराश नहीं होना पड़ेगा। क्योंकि सही बात को तो बस कहने की जरूरत होती है, अच्छी तो वह लग ही जाती है। अयोध्या मामले के बहाने देश के मीडिया ने एक प्रयोग करके देखा है, देश के तमाम सवालों पर अभी उसकी ऐसी ही रचनात्मक भूमिका का इंतजार है।

अब बेनकाब हो ही जानी चाहिए 9/11 की साजिश

-तनवीर जाफ़री

अमेरिका पर 9/11 को हुए अब तक के सबसे बड़े आतंकी हमले के बाद जहां एक ओर पूरी दुनिया ने आतंकवाद का सबसे भयानक चेहरा देखा वहीं इसी दुनिया का एक बहुत बडा वर्ग जिसमें अमेरिका के तमाम लोग भी शामिल हैं, को इस हादसे के पीछे विश्व का अब तक का सबसे बड़ा एक सुनियोजित षड्यंत्र भी नार आया। गौरतलब है कि जार्ज बुश द्वितीय का कार्यकाल अमेरिका के लिए एक ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण कार्यकाल गिना जाएगा जिसमें न केवल ईसाईयत व इस्लाम के मध्य सभ्‍यता के संघर्ष की अवधारणा को विश्व स्तर पर बल मिला बल्कि उनके कार्यकाल में अमेरिका को सबसे अधिक बदनामी भी उठानी पड़ी। दुनिया जार्ज बुश की उस शर्मनाक बिदाई को कभी भूल नहीं पाएगी जबकि उन्हें इरांक में एक पत्रकार ने आक्रोश में आकर अपने जूते का निशाना बनाया। और बुश पर चले इस जूते की घटना की पुनरावृति इस घटना के तुरंत बाद व्हाईट हाउस केसमक्ष स्वंय अमेरिकी नागरिकों द्वारा एक प्रर्दशन कर की गई। दुनिया में तमाम लोग ऐसे हैं जो अभी तक यह मांग करते आ रहे हैं कि इराक़व अंफग़ानिस्तान पर अमेरिका द्वारा अकारण किए गए हमलों के लिए जार्ज बुश पर युद्ध अपराध का मुकदमा चलाना चाहिए।

9/11 को लेकर ताजातरीन विवाद एक बार फिर उस समय छिड़ा है जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ के न्यूयार्क में आयोजित हुए ताज़ातरीन वार्षिक अधिवेशन में ईरानी राष्ट्रपति महमूद अहमदी नेजाद द्वारा विश्व की सबसे बड़ी पंचायत के समक्ष यह आरोप लगाया गया कि 9/11 के हमले में स्वयं अमेरिका का ही हाथ था। नेजाद ने 9/11 के हमले को एक बड़ी अमेरिकी साजिश बताया तथा स्पष्ट रूप से यह कहा कि यह हमला अमेरिका ने ही कराया था। जिस समय ईरानी राष्ट्रपति ने संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असे बली में बड़े ही आत्मविश्वास के साथ ज़ोरदार ढंग से अपनी यह बात कही उस समय कनाडा, आस्ट्रेलिया ,न्यूजीलैंड तथा कोस्टरेका आदि देशों ने नेजाद के वक्तव्य के विरोध स्वरूप सदन से बहिष्कार कर दिया। उधर ईरानी राष्ट्रपति के इस आरोप के तुरंत बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने उनके आरोपों को निराधार, वैमनस्यपूर्ण तथा अक्षम्‍य बताकर अपना फर्ज निभाया। सवाल यह है कि ईरान का निर्वाचित राष्ट्रपति जैसा कोई जिम्‍मेदार व्यक्ति तथा लोकतांत्रिक देश का मुखिया अमेरिका में आतंकवाद का निशाना बने उसी शहर न्यूयार्क में जाकर बिना किसी वास्तविकता के इस प्रकार के अनर्गल व निराधार आरोप लगा सकता है? दूसरी बात यह भी है कि भले ही यह आरोप किसी राष्ट्र के मुखिया द्वारा दुनिया के सबसे बड़े मंच से पहली बार क्यों न लगाए गए हों परंतु वास्तव में अमेरिकी बुश प्रशासन पर यह आरोप कोई पहली बार नहीं लगाए जा रहे हैं।

9/11 के हमलों के पीछे एक बड़ी साजिश का संदेह सर्वप्रथम अमेरिकी लोगों द्वारा ही व्यक्त किया गया था। फ़ारेनहाईट 9/11 नामक फिल्म के निर्माता माइकल मूर ने इस फिल्म में यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि किस प्रकार ओसामा बिन लाडेन व जार्ज बुश के मध्य गहरे पारिवारिक संबंध थे। और किस प्रकार उन्हीं संबंधों को आधार बनाकर 9/11 के हमलों की साजिश रची गई। अमेरिका व यूरोप में इसके अतिररिक्त भी कई ऐसी फिल्में बन चुकी हैं जिनमें 9/11 के हमले को पूर्णतया एक सुनियोजित षडयंत्र बताया गया है। अभी कुछ समय पूर्व क्यूबा के पूर्व राष्ट्रपति फैदल कास्त्रो ने अंतर्राष्ट्रीय साजिशों का भंडाफोड़ करने वाले एक लेखक से मुलांकात की। इस दौरान कास्त्रो ने कहा कि जार्ज बुश को जब अमेरिकी नागरिकों के समक्ष दहशत का हौवा खड़ा करना होता था उसी समय वह तुरंत ओसामा बिन लादेन का नाम लेने लग जाता था। और यह बताने लगता था कि लादेन अब क्या करने जा रहा है। परिणामस्वरूप दहशत की शिकार अमेरिकी जनता का ध्यान बंट जाता था। इस प्रकार लादेन की ओर से बुश की सहायता करने में कोई कमी नहीं की गई। अर्थात् लादेन ने बुश को हमेशा मदद पहुंचाई। कास्त्रो का तो यहां तक आरोप है कि लादेन बुश के अधीन काम करता था। उन्होंने अपने इन आरोपों के समर्थन में विक्कीलीक्स नामक उस वेबसाईट का भी हवाला दिया जिसमें पिछले दिनों अंफग़ान युद्ध संबंधी तमाम गुप्त दस्तावेज उजागर किए गए हैं। कास्त्रो का आरोप है कि उन दस्तावेजों से यह प्रमाणित होता है कि लादेन सी आई ए का एजेंट था तथा वह अमेरिका के लिए ही काम करता रहा है।

इन सब के अलावा अमेरिका में ही तमाम ऐसी किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें 9/11 की साजिश का भंडाफोड़ किया गया है तथा बुश प्रशासन की उस सरकारी घोषणा का विरोध किया गया है जिसके तहत 9/11 के बाद सरकारी तौर पर बुश प्रशासन द्वारा यह विज्ञप्ति जारी की गई थी कि-‘9/11 का हमला अरब के अलकायदा से संबद्ध मुसलमानों द्वारा रचा व अंजाम दिया गया था’। एक अमेरिकी संस्था ज़ोग्बी इंटरनेशनल पोल ने 2007 में एकसर्वेक्षण कराया था जिसके अनुसार दो तिहाई अमेरिकी यह चाहते थे कि 9/11 के हमले के लिए जार्ज बुश व तत्कालीन उपराष्ट्रपति डिकचैनी की जांच होनी चाहिए जबकि 30 प्रतिशत अमेरिकी इन्हें प्रतिनिधि सभा द्वारा तुरंत अपराधी घोषित करने के पक्षधर थे। उधर न्यूयार्क के ही लगभग 1250 आर्केटिक्ट एवं इंजीनियर्स के एक संगठन ने अमेरिका में 9/11 की गहन जांच कराए जाने की मुहिम छेड़ी हुई है। इन लोगों का मानना है कि जिस प्रकार वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के विशाल टॉवर से विमान टकराया तथा उसके बाद जिस प्रकार उस टॉवर के ध्वस्त होने का दृश्य देखा गया वह अपने आप में एक बहुत ही सुनियोजित एवं अति नियंत्रित षड्यंत्र प्रतीत होता है। तमाम संदेह कर्ताओं का आरोप है कि वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की पूरी बिल्डिंग में 9/11 से पूर्व ही बड़ी मात्रा में विस्फोटक व बारूद लाकर भर दिए गए थे। यह भी आरोप है कि उस टॉवर से केवल विमान ही नहीं टकराया बल्कि विमान से टॉवर पर एक मिसाईल हमला भी करीब से जाकर किया गया था। यहां एक और बात संदेहपूर्ण यह है कि मात्र विमान टकराने से ही पूरे टॉवर का मलवा बारीक राख के ढेर में कैसे तबदील हो गया? टॉवर पर हुए हमले के लगभग 7 घंटों के बाद वर्ल्ड ट्रेड सेंटर का टॉवर न07 जोकि 47 मंजिला भवन था तथा मुख्‍य टॉवर से कुछ दूरी पर था, बड़े ही हैरत अंगो ढंग से अचानक वह भी ध्वस्त हो गया तथा उसी प्रकार राख के ढेर में परिवर्तित हो गया। आंखिरकार इस घटना के पीछे का रहस्य क्या था?।

9/11 पर संदेह की उंगलियां उठने के एक दो नहीं बल्कि सैकड़ों अथवा हजारों ऐसे कारण हैं जिन्हें लेकर किसी का भी इस साजिश पर संदेह क्या बल्कि विश्वास करना भी स्वाभाविक है। इसी प्रकार का एक गंभीर आरोप बुश प्रशासन पर यह भी है कि वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के मलवे के कबाड़ को विशेषकर स्टील आदि को 9/11 की जांच पूरी होने से पहले ही मलवे की जांच कराए बिना अमेरिका से बाहर भेज दिया गया। आखिर क्यों? बुश प्रशासन पर एक और अहम आरोप यह भी है कि उसने अमेरिका के नेशनल ट्रांसपोर्ट सें टी बोर्ड(एनटीएसबी) से कथित रूप से अपहृत किए गए चारों विमानों के कथित अपहरण की जांच क्यों नहीं कराई। जबकि अमेरिकी कानून के अंतर्गत यह बहुत जरूरी था। आंखिर इस जांच के न कराए जाने के पीछे बुश प्रशासन का क्या गुप्त एजेंडा हो सकता है? इसी प्रकार पेंटागन पर 9/11 को हुए हमले को लेकर भी तरह-तरह के संदेह व्यक्त किए जा रहे हैं। कुछ अमेरिकी इसे मिज़ाईल हमला बता रहे हैं तो कुछ इसे फर्जी विमान दुर्घटना करार दे रहे हैं।

कहां तो 9/11 के बाद जार्ज बुश इसे दुनिया का सबसे बड़ा आतंकी हमला बताकर अलकायदा के विरुद्ध कमर कस कर अफगानिस्तान होते हुए इरांक में दांखिल होने की तैयारी पर निकल चुके थे, तो कहां इसी 9/11 के सिलसिले में अमेरिका में ही चल रही जांच को अति सीमित करने के लिए भी जार्ज बुश व डिक चेनी ने असाधारण कदम उठाए। आंखिर इसकी क्या वजह थी? 9/11 की जांच में लगी एंफबीआई की टीम के एक मुख्‍य निरीक्षक की एक गुप्त फाईल भी बड़े ही रहस्यमयी ढंग से गायब हो चुकी है। इस प्रकार की और भी तमाम बातें हैं जो 9/11 के हमले को लेकर संदेह उत्पन्न करती हैं। राष्ट्रपति नेजाद का यह कहना कि 9/11 के पीछे बुश प्रशासन का मंकसद अमेरिका की गिरती हुई अर्थव्यवस्था को संभालना तथा इजराईल को बचाने व उसकी सहायता करने की ग़रा से मध्य-पूर्व एशिया पर अपनी पकड़ और माबूत करना था। नेजाद का यह कहना कोई साधारण वक्तव्य नहीं समझा जा सकता। वैसे भी पूरी दुनिया 9/11 को लेकर इसलिए भी संशय में है कि जो अमेरिका पूरी दुनिया के चप्पे-चप्पे की खबर रखता हो उसे आखिर यह कैसे नहीं पता चला कि उसके दुश्मन आतंकी दुनिया का सबसे बड़ा हमला अमेरिका में ही अंजाम देने की साजिश रच रहे हैं? यहां संदेह इस बात को लेकर है कि यह वास्तव में आतंकी हमला था या यह कथित आतंकी हमला कराया गया था या इस हमले को अंजाम तक पहुंचने देने के लिए बुश प्रशासन ने जानबूझ कर अपनी आंखें मूंद लीं थीं? एक और संदेह यह भी है कि क्या तोराबोरा की गुफाओं में छुपा लादेन जैसा आतंकवादी इतने बड़े अत्याधुनिक हमले का संचालन इतने सुनियोजित तरींके से कर सकता है? और यदि लादेन वास्तव में अपने उन इरादों में सफल हुआ तो अमेरिका जैसे सर्वशक्तिमान देश की सी आई ए, सुरक्षा एजेंसियां तथा अन्य गुप्तचर एजेंसियों की विश्वसनियता को किस पैमाने पर तौला जाना चाहिए?

अत: यदि अमेरिका को अहमदी नेजाद अथवा दुनिया के अन्य नेताओं यहां तक कि अमेरिकी आलोचकों से 9/11 के संदेह को लेकर स्वयं को बचाना है तो निश्चित रूप से ओबामा प्रशासन को इस विषय पर अब भी एक उच्च स्तरीय जांच बिठा देनी चाहिए। जिससे दुनिया को यह पता चल सके कि 9/11 के पीछे वास्तविक साजिश किसने रची, क्यों रची तथा उसके बाद हज़ारों अमेरिकी व नॉटो सैनिकों की बेवजह मौत के साथ-साथ लाखों अफगानी व इराकी लोगों की मौत का जिम्‍मेदार कौन है। और क्यों न ऐसे गैर जिम्‍मेदार शासक को युद्ध अपराधी घोषित कर उस पर अंतर्राष्ट्रीय अदालत में युद्ध अपराध का मुकद्दमा चलाया जाए?

होनहार की कसौटी

-सतीश सिंह

विश्‍वविद्यालयों और उससे संबद्ध कॉलेजों में दाखिले की वर्तमान प्रक्रिया के ऊपर गाहे-बगाहे लोग ऊंगली उठाते रहे हैं। इसका मूल कारण सभी बच्चों में नामचीन कॉलेजों में दाखिला लेने की चाहत का होना है। कोई भी इस चूहा दौड़ में पीछे नहीं रहना चाहता है। इसमें बच्चों की भी गलती नहीं है। मूलत: हमारी शिक्षा व्यवस्था और रोजगार सृजित करने वाले संस्थानों की सोच इस कदर संकुचित है कि वे कुएँ से बाहर निकलकर सोच ही नहीं पाते हैं। उनका मानना है कि जो बच्चा लगातार हर परीक्षा में अव्वल आ रहा है उसी को सिर्फ होनहार माना जा सकता है। जो छात्र इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं वे बेवकूफ हैं।

इसमें दो मत नहीं है कि स्कूल-कॉलेजों में प्राप्त अच्छे अंक छात्र-छात्राओं की पढ़ाई के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को बताते हैं, किंतु इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि हम इसे मेधावी होने या न होने का प्रमाण मानें। किसी विषय में कम या ज्यादा अंक प्राप्त करने से किसी भी छात्र को मेघावी या कमअक्ल नहीं माना जा सकता है।

हर विषय में हर छात्र की रुचि का होना जरुरी नहीं है। महान वैज्ञानिक थॉमस अल्वा एडिसन की रुचि केवल भौतिक विज्ञान में थी। महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आंइन्स्टिन की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। समाज में ऐसे जीनियसों के सैकड़ों उदाहरण बिखरे पड़े हैं।

दूसरा पहलू यह है कि परीक्षा के समय में कोई छात्र बीमार हो सकता है या फिर उसकी रुचि पढ़ाई के प्रति गलत संगत के कारण शुरुआती दिनों में नहीं हो सकती है। अक्सर देखा जाता है कि ऐसे छात्र सही वक्त पर मेहनत करके हमेशा जागरुक रहने वाले छात्रों से हर परीक्षा में बाजी मार ले जाते हैं। यहाँ फंडा ‘जब जागा तभी सवेरा’ वाला काम करता है। जिस छात्र के अंदर जीवन में सफलता हासिल करने की जिजीविषा जागरित हो जाती है वह हर कक्षा में तृतीय श्रेणी से उर्तीण होने के बावजूद भी अच्छी नौकरी पाने में सफल हो जाता है। नौकरी को यदि सफलता का पैमाना नहीं भी मानें तो भी ऐसे कुछ करने के लिए कृत संकल्पित छात्र जीवन की नई ऊंचाईयों को छूने में सफल हो जाते हैं। मूलत: बिहार के छपरा जिले के रहने वाले जर्नादन प्रसाद, रमेष कुमार और योगेन्द्र प्रसाद ने ‘सारण रिन्यूबल प्राईवेट लिमिटेड’ के माघ्यम से जिस तरह से छोटे स्तर पर बिजली का उत्पादन करके उत्तरी बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश में अंधेरा भगाने का अलख जगाया है, वह निहायत ही काबिले तारीफ है। ‘सारण रिन्यूबल प्राईवेट लिमिटेड’ के इन तीनों प्रमोटरों का अकादमिक रिकार्ड बेहद ही साधारण रहा है।

‘थ्री इडियट’ में दिखाये गए फंडे को भी हम नकार नहीं सकते हैं। जरुरी नहीं कि हर बच्चा इंजीनियर या डॉक्टर बने। आज दुनिया में करने के लिए इतने सारे काम हैं कि आप किसी को मूर्ख मान ही नहीं सकते हैं। यह आपके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि आप किसको होनहार मानते हैं। अगर भारतीयों के चश्‍मे से देखा जाए तो वाइल्ड लाइफ पर अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिक निहायत दर्जे के बेवकूफ हैं। जबकि हकीकत में वे बेहद ही जहीन और समाज को कुछ देने के लिए प्रतिबद्ध लोग हैं जो हर समय पूरी शिद्दत के साथ अपने कार्य को पूरा करने के लिए दिन-रात घर-परिवार को छोड़कर लगे रहते हैं।

अभी हाल ही में उत्तरप्रदेश के बाढ़ग्रस्त इलाके में एक कारीगर ने 15 हजार रुपये खर्च करके ज्यादा माईलेज देने वाले कठौती के स्टीमर का निर्माण किया था। स्टीमर बनाने से पहले तक यह कारीगर लोगों की नजरों में कमअक्ल और समाज के हाशिए पर रहने वाले तबके का सदस्य माना जाता था। एनडीटीवी पर खबर बनने और सभी अखबारों की लीड स्टोरी बनने के बाद आज हर कोई उसकी शान में कसीदे पढ़ रहा है।

दरअसल होनहार कौन है इसे तय करने के मानकों के बारे में हमारे देश में अक्सर बदलाव आता रहता है। हाल ही के दिनों में शिक्षा संस्थानों, रोजगार के अवसर पैदा करने वाले संस्थानों और आम लोगों की राय में फिर से आमूल-चूल परिवर्तन आया है।

बदले परिवेश में स्कूल-कॉलेजों में प्राप्त कर रहे अच्छे अंक वाले बच्चे ही मेघावी माने जा रहे हैं। जो बच्चे बारहवीं तक लगातार अच्छे अंक लाकर नामचीन कॉलेज में दाखिला लेने में सफल रहते हैं और पुनश्‍च: कॉलेज में अंकों की बाजीगरी में बाजी मारते हुए नौकरी के लिए आवेदन करने लायक अर्हता अंक प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं तो उन्हें जहीन बच्चा माना जाता है।

सबसे ज्यादा रोजगार सृजित करने में हमेषा से आगे रहने वाले बैंकिंग क्षेत्र में भी आजकल बैंक की नौकरी के लिए उन्हीं अभ्‍यर्थियों को योग्य माना जा रहा है जिन्होंने स्कूल से लेकर कॉलेज तक के सफर में हमेशा प्रथम श्रेणी अच्छे अंकों के साथ प्राप्त किया है। जबकि बैंक के कार्य-कलाप को अमलीजामा पहनाने के लिए प्रथम श्रेणी उम्मीदवार की जरुरत कदापि नहीं है। अगर थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाए कि बैंक के कर्मचारियों का अकादमिक ट्रेक रिकार्ड अच्छा होना चाहिए, तब भी हाल में बैंक में भर्ती किये गए अच्छे अकादमिक ट्रेक रिकार्ड वाले कर्मचारियों व अधिकारियों का बैंकिंग काम-काज एवं सामान्य ज्ञान संदेहास्पद रहा है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पहले खराब अकादमिक ट्रेक रिकार्ड वाले कर्मचारियों व अधिकारियों के बलबूते भी बैंकों में सुचारु रुप से कार्य हो रहा था। लिहाजा इस मामले में सिर्फ अंग्रेजी और निजी बैंकों की नकल करना कहीं से भी समीचीन नहीं है। कंठलंगोट पहनने और अंग्रेजी बोलने से कोई जहीन नहीं हो जाता।

वैसे ऐसे लकीर के फकीर वाले माहौल में भी जवाहर लाल नेहरु विश्‍वविद्यालय सहित कुछ अन्य विश्‍वविद्यालय बारहवीं या कॉलेज में प्राप्त अंकों को ज्यादा तहजीह नहीं देते हैं। ये विश्‍वविद्यालय अपने यहाँ विभिन्न संकायों में दाखिले के लिए प्रवेश परीक्षा का आयोजन करते हैं। इनका मानना है कि इन संकायों में प्रवेश परीक्षा में शामिल होने के लिए सिर्फ न्यूनतम अर्हता अंक का होना ही जरुरी है।

देर आयद दुरुस्त आयद वाली कहावत को यदि सही मानें तो पूरे देश में विविध विश्‍वविद्यालयों और उनके संबद्ध महाविद्यालयों में प्रवेश के लिए प्रवेश परीक्षा आयोजित करने की मानव संसाधन मंत्रालय की ताजा पहल का स्वागत किया जाना चाहिए।

आगामी सत्र से देश के 40 केन्द्रीय विश्‍वविद्यालयों और उससे संबद्ध महाविधालयों में संयुक्त प्रवेश परीक्षा का आयोजन किया जाएगा। गौरतलब है कि इस मामले में विभिन्न विश्‍वविद्यालय और उससे संबद्ध महाविधालय विभिन्न संकायों में प्रवेश के लिए बारहवीं की परीक्षा में प्राप्त अंक या प्रवेश परीक्षा में प्राप्त अंक में से किसी एक को वरीयता देने के लिए स्वतंत्र होंगे। बावजूद इसके प्रवेश परीक्षा में उर्तीण बच्चों को आरक्षण देने का आधार क्या होगा? यह मुद्दा अभी तक अनसुलझा है। वैसे विश्‍वविद्यालयों के उपकुलपतियों के बीच आम सहमति बन चुकी है। फिर भी शिक्षाविदों, अभिभावकों व पूरे देश में इस पहलू पर आम सहमति का बनना अभी भी शेष है।

पड़ताल से स्पष्ट है कि भारत की शिक्षा प्रणाली की वर्तमान व्यवस्था में अनेकानेक खोट हैं। चाहे बच्चों को बारहवीं के आधार पर कॉलेजों में दाखिला देने का मामला हो या तथाकथित अच्छे अकादमिक रिकार्ड वाले बच्चों को नौकरी के लिए आयोजित प्रवेश परीक्षा में शामिल होने देने का मामला हो, हर बार इन मुद्दों पर अनगिनत बच्चों के साथ अन्याय किया जा रहा है।

सरकार, शिक्षाविद, रोजगार सृजित करने वाले संस्थान और अभिभावकगण सभी फिलवक्त तथाकथित मेधावी बच्चों की फौज का उत्पादन करने में लगे हैं। इस पूरी प्रक्रिया में कोई भी मेघावी की परिभाषा समझने के लिए जहमत उठाना नहीं चाहता। सभी पुरानी पगडंडी पर चलना चाहते हैं। कोई नये रास्ते पर नहीं चलना चाहता।

अमेरिका की कृपा मंहगी पड़ेगी

अफगानिस्तान- इराक की राह पर पाकिस्तान

-पंकज साव

संयुक्त राज्य अमेरिका के एक शीर्ष सैन्य अधिकारी के अनुसार, अगर पाकिस्तान ने आतंकी ठिकाने नष्ट नहीं किए तो अमेरिकी सेना पाकिस्तान की ही सेना की मदद लेकर उन ठिकानों पर हमला कर देगी। अब तक तो सिर्फ हवाई हमले हो रहे हैं, जमीनी लड़ाई भी शुरू की जा सकती है। किसी एशियाई देश को इतनी धमकी दे देना अमेरिका के लिए कोई नई बात नहीं है, लेकिन इसे हल्के में लेना पाक की भूल होगी। इसके खिलाफ कोई तर्क देने से पहले हमें ईराक और अफगानिस्तान की मौजूदा हालत की ओर एक बार देख लेना चाहिए।

इस मामले में पाक विदेश मंत्री रहमान मलिक का पिछले दिनों दिया गया बयान उल्लेखनीय है। रहमान ने कहा था- “नाटो बलों की हमारे भूभाग में हवाई हमले जैसी कार्रवाई संयुक्त राष्ट्र की उन दिशानिर्देशों का स्पष्ट उलंघन है जिनके तहत अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा सहायता बल काम करता है।” पूरी दुनिया जानती है कि अमेरिका अंतरराष्ट्रीय नियमों को कितना मानता है। ये अलग बात है कि उसने प्रोटोकॉल को मानने का वादा भी कर दिया है अमेरिका ने, इस शर्त के साथ कि सेना को आत्मरक्षा का अधिकार है।

दोनों तरफ की बयानबाजी को देखकर एक बात साफ हो जाती है कि ईराक और अफगानिस्तान के बाद अब अमेरिका की हिटलिस्ट में पाकिस्तान का नंबर है। तेल के पीछे पागल अमेरिका ने सद्दाम हुसैन के बहाने ईराक पर हमले किए। उसी तरह 9/11 के हमलों नें उसे अफगानिस्तान पर हमले के लिए तर्क तैयार किए और अब आर्थिक मदद दे देकर पाक को इतना कमजोर और परनिर्भर बना दिया है कि आज वह कोई फैसला खुद से लेने के काबिल नहीं रहा। जहाँ तक बात आतंकवाद के खात्मे की है तो यूएस ने ही लादेन और सद्दाम को पाला था जो आस्तीन के साँप की तरह उसी पर झपटे थे। इसके बाद पाकिस्तान में पल रहे आतंकियों को भी अप्रत्यक्ष रूप से उसने सह ही दी। शायद, इसके पीछे उसकी मंशा भारत और पाक के बीच शक्ति-संतुलन की थी ताकि अपना उल्लू सीधा किया जा सके। समय- समय पर उसने खुले हथियार भी मुहैया कराए। अमेरिकी जैसे धुर्त देश से भोलेपन की आशा की करना बेवकूफी है। उससे प्राप्त हो रही हर प्रकार की सहायता का मनमाना दुरुपयोग पाकिस्तान भारत के खिलाफ करता रहा और आतंकिवादियों की नर्सरी की अपनी भूमिका पर कायम रहा। यह उसकी दूरदर्शिता की कमी उसे इस मोड़ पर ले आई है कि उसके पड़ोसी देश भी उसके साथ नहीं हैं और अमेरिका की धमकियों के आगे उसे नतमस्तक होना पड़ रहा। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी जब अमेरिका सच में वहाँ जमीनी लड़ाई पर उतर आएगा और वहाँ की आम जनता भी पाक सरकार के साथ खड़ी नहीं होगी। अपने निर्माण के समय से ही वहाँ की जनता अराजकता झेलती आ रही है। कुल मिलाकर एक और इस्लामिक देश एक खतरे में फँसता जा रहा है जहाँ न वो विरोध कर सकेगा और न ही अंतरराष्ट्रीय समुदाय की सहानुभूति ही हासिल कर पाएगा। विश्व में इसकी छवि एक आतंकी देश के रूप में बहुत पहले ही बन चुकी है।

वरिष्‍ठ नागरिकों की देखरेख

-विद्या भूषण अरोड़ा

हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जहां वृद्ध लोगों की संख्‍या बढ़ती जा रही है। पिछले कुछ वर्षों से दुनिया की आबादी में बहुत बड़ा बदलाव देखा जा रहा है। दुनिया में उच्‍च जन्‍म दर एवं उच्‍च मृत्‍यु दर के स्‍थान पर अब निम्‍न जन्‍म दर एवं निम्‍न मृत्‍यु दर की प्रवृत्‍ति देखी जा रही है जिसका परिणाम वृद्धजनों की संख्‍या और अनुपात में बहुत वृद्धि के रूप में सामने आया है। संयुक्‍त राष्‍ट्र की रिपोर्ट के अनुसार सभ्‍यता के इतिहास में ऐसी तीव्र, विशाल और सर्वव्‍यापी वृद्धि पहले कभी नहीं देखी गई। विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन ने अनुमान व्‍यक्‍त किया है कि दुनिया भर में 60 वर्ष की उम्र के करीब 60 करोड़ व्‍यक्‍ति हैं तथा 2015 तक यह संख्‍या दुगुनी हो जाएगी और 2050 तक 60 वर्ष के व्‍यक्‍तियों की संख्‍या वस्‍तुत: दो अरब हो जाएगी। इनमें से ज्‍यादातर लोग विकासशील जगत के होंगे।

संयुक्‍त राष्‍ट्र सचिवालय, आर्थिक एवं सामाजिक मामले विभाग के आबादी प्रभाग के अनुसार वर्तमान जनसांख्यिकीय क्रांति आने वाली सदियों तक जारी रहने की संभावना है। इसकी प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं- हर दस व्‍यक्तियों में से एक व्‍यक्ति अब 60 वर्ष या उससे अधिक उम्र का है, वर्ष 2050 तक हर पांच में से एक व्‍यक्ति 60 वर्ष या उससे अधिक उम्र का हो जाएगा और 2150 तक हर तीन व्‍यक्तियों में से एक 60 वर्ष या उससे अधिक उम्र का होगा। इसी प्रकार वृद्ध आबादी और भी बूढ़ी होती जा रही है। वृद्धों की आबादी में सबसे बूढ़े (80 वर्ष या उससे अधिक) व्‍यक्तियों का वर्ग बड़ी तेजी से बढ़ता जा रहा है। फिलहाल इनकी संख्‍या 60 से अधिक आयु वर्ग का 13 प्रतिशत है तथा 2050 तक यह बढ़कर 20 प्रतिशत हो जाएगी। शतायु व्‍यक्तियों( 100 वर्ष या उससे अधिक उम्र के व्‍यक्ति) की संख्‍या 2005 में 265,000 से बढ़कर 2050 तक 37 लाख होने अर्थात इनकी आबादी में लगभग 14 गुणा वृद्धि होने की संभावना है।

इस तरह की जनसांख्यिकीय हालत नीतिगत स्‍तर पर नए सिरे से विचार की आवश्‍यकता पर बल देती है ताकि वैज्ञानिकों को इस बदलते परिदृश्‍य के लिए सुसज्जित किया जा सके जहां न सिर्फ वृद्धजनों की देखरेख महत्‍वपूर्ण होगी बल्कि वरिष्‍ठ नागरिकों की क्षमताओं का पूरी तरह इस्‍तेमाल करने के तरीके तलाशने पर भी बराबर बल दिया जाना चाहिए। शायद वह समय आ गया है जब हमें वृद्ध नागरिकों के बारे में अपने दृष्टिकोण और नज़रिए में बदलाव करना बहुत आवश्‍यक हो गया है। इसके अतिरिक्‍त उनकी प्रत्‍यक्ष सीमाओं के बार में अपनी धारणाओं में भी बदलाव करने का समय आ गया है। वैज्ञानिकों को वृद्धजनों के अनुभव और निष्क्रिय क्षमताओं का लाभ उठाना सीखना चाहिए तथा इस नई चुनौती का सामना करने के लिए ज़रूरी ढांचागत और अन्‍य आवश्‍यक बदलाव भी करने चाहिए।

जैसा कि संयुक्‍त राष्‍ट्र के दस्‍तावेज़ वृद्ध समाज के निहितार्थ के खंड नीतिगत विमर्श में टिप्‍पणी की गई है – “विशिष्‍टता का सम्‍मान वृद्ध नागरिकों के योगदान को समाज द्वारा आत्‍मसात करने के महत्‍व को प्रकट करता है। ज्ञान, बुद्धि और अकसर आयु बढ़ने के साथ-साथ बढ़ता है। वह आंतरिक जागरूकता का हिस्‍सा है जिसका व्‍यापार नहीं किया जा सकता, जिसे बेचा नहीं जा सकता या चुराया नहीं जा सकता। लेकिन समाज के हर क्षेत्र में हमारी सृजनात्‍मक क्षमता बढ़ाने के लिए इसका सक्रिय और विस्‍तृत इस्‍तेमाल किया जाना चाहिए।”

हर साल पहली अक्‍तूबर का दिन दुनिया भर में अंतर्राष्‍ट्रीय वृद्धजन दिवस के रूप में मनाया जाता है। संयुक्‍त राष्‍ट्र ने वृद्ध व्‍यक्‍तियों के लिए संयुक्‍त राष्‍ट्र अंतर्राष्‍ट्रीय दिवस के लिए कुछ उद्देश्‍य निर्धारित किए हैं जिनमें संयुक्‍त राष्‍ट्र में वैश्‍विक वृद्ध कार्यक्रम और कार्यनीतियों की वर्तमान अवस्‍था से निपटना, वृद्धावस्‍था के संदर्भ में सहस्राब्‍दी विकास लक्ष्‍यों की समीक्षा करना तथा नूतन पहल की पहचान करना शामिल है जो वृद्धावस्‍था के बारे में वैश्‍विक एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं। यह संयुक्‍त राष्‍ट्र की गतिविधियों में वृद्धावस्‍था को और व्‍यापक रूप में शामिल करने की आवश्‍यकता पर बल देता है।

भारत में वृद्धजनों की आबादी

हमारे देश में वृद्ध लोगों की आबादी स्‍थायी रूप से बढ़ती जा रही है तथा सामान्‍य आबादी की तुलना में इसका ज्‍यादा तेजी से बढ़ने का अनुमान है। वरिष्‍ठ नागरिकों की आबादी बढ़कर 2011 तक करीब 10 करोड़, 2016 तक 12 करोड़ और 2026 तक 17 करोड़ से अधिक होने का अनुमान है।

2001 की जनगणना के अनुसार वरिष्‍ठ नागरिकों ¼60 +½ की कुल आबादी 7 करोड़ 70 लाख थी जिसमें से पुरुषों की आबादी 3 करोड़ 80 लाख और महिलाओं की आबादी 3 करोड़ 90 लाख थी। कुल आबादी में वरिष्‍ठ नागरिकों की औसत संख्‍या 7.5 प्रतिशत है। हिमाचल प्रदेश, पंजाब, उत्‍तराखंड, हरियाणा, ओड़ीशा, महाराष्‍ट्र, आन्‍ध्र प्रदेश, कर्नाटक, गोवा, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी में वरिष्‍ठ नागरिकों की संख्‍या राष्‍ट्रीय औसत (7.5 प्रतिशत) से अधिक है।

वर्ष 1991 में कुल आबादी के 6.8 प्रतिशत लोगों की आयु 60 वर्ष या उससे अधिक थी। यह संख्‍या 2026 में 12.4 प्रतिशत होने का अनुमान है। पिछले कुछ वर्षों से स्‍वास्‍थ्‍य देखरेख सुविधाओं में सुधार भारत में वरिष्‍ठ नागरिकों की आबादी का अनुपात निरंतर बढ़ने का मुख्‍य कारण है। वे न सिर्फ लम्‍बा जीवन जिएं बल्कि सुरक्षित, प्रतिष्ठित और उत्‍पादक जीवन जिएं यह सुनिश्चित करना एक प्रमुख चुनौती है। वरिष्‍ठ नागरिकों की कुछ मुख्‍य समस्‍याओं में सुरक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य देखरेख एवं रखरखाव की ज़रूरत शामिल हैं जिन पर स्‍थायी रूप से ध्‍यान देने की ज़रूरत है।

राष्‍ट्रीय वृद्धजन नीति 1999 संशोधनाधीन

भारत सरकार ने वृद्धजनों का कल्‍याण सुनि‍श्चित करने की प्रतिबद्धता को और पुष्‍ट करने के लिए जनवरी, 1999 में पहली राष्‍ट्रीय वृद्धजन नीति की घोषणा की थी। इस नीति में वृद्धजनों की वित्‍तीय एवं खाद्य सुरक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य देखरेख, आवास तथा अन्‍य ज़रूरतें, विकास में बराबर की हिस्‍सेदारी, दुर्व्‍यवहार एवं शोषण से सुरक्षा तथा उनके जीवन स्‍तर में सुधार लाने के लिए सेवाओं की उपलब्‍धता सुनिश्चित करने के लिए राज्‍य की सहायता पर बल दिया गया है।

इस नीति की घोषणा को दस वर्ष हो चुके हैं। देश में वरिष्‍ठ नागरिकों की बदलती जनांकिकी के मद्देनज़र सामाजिक न्‍याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने जनवरी 2010 में समिति गठित की। सामान्‍य तौर पर वरिष्‍ठ नागरिकों संबंधी विविध मसलों की वर्तमान स्थिति तथा विशेष रूप से राष्‍ट्रीय वृद्धजन नीति, 1999 के कार्यान्‍वयन का आकलन करने के लिए यह समिति गठित की गई है। समिति नई राष्‍ट्रीय वृद्धजन नीति के लिए मसौदे पर कार्य कर रही है। समीक्षा समि‍ति की अब तक चंडीगढ़, चेन्‍नई, मुम्‍बई, गुवाहाटी और भुबनेश्‍वर में पांच बैठक तथा पांच क्षेत्रीय बैठक हो चुकी हैं। आशा है कि समीक्षा समिति दिसम्‍बर के आखिर तक अपनी सिफारिशें सौंप देगी।

माता-पिता एवं वरिष्‍ठ नागरिकों का अनुरक्षण एवं कल्‍याण अधिनियम, 2007

माता-पिता एवं वरिष्‍ठ नागरिकों के लिए ज़रूरत आधारित अनुरक्षण तथा उनका कल्‍याण सुनिश्चित करने के लिए दिसम्‍बर 2007 में माता-पिता एवं वरिष्‍ठ नागरिकों का अनुरक्षण एवं कल्‍याण अधिनियम, 2007 बनाया गया। यह अधिनियम अन्‍य बातों के साथ, न्‍यायाधिकरणों के जरिए बाध्‍यकारी एवं न्‍यायोचित बनाकर बच्‍चों/रिश्‍तेदारों द्वारा माता-पिता/वरिष्‍ठ नागरिकों का अनुरक्षण, रिश्‍तेदारों द्वारा अनदेखी के मामले में वरिष्‍ठ नागरिकों द्वारा संपत्ति के अंतरण के निरसन, वरिष्‍ठ नागरिकों के परित्‍याग के लिए जुर्माने के प्रावधान तथा वरिष्‍ठ नागरिकों के जीवन एवं संपत्ति की सुरक्षा जैसा संरक्षण उपलब्‍ध कराता है।

यह अधिनियम अलग-अलग राज्‍य/केन्‍द्र शासित प्रदेश सरकार द्वारा अधिसूचना के जरिए राज्‍य में प्रभावी होता है। फिलहाल यह अधिनियम 22 राज्‍यों और सभी केन्‍द्र शासित प्रदेशों में अधिसूचित हो गया है। इस अधिनियम को अधिसूचित करने वाले राज्‍यों को अधिनियम के विविध प्रावधानों के प्रभावी कार्यान्‍वयन के लिए और उपाय करने की भी ज़रूरत है। इन उपायों में नियम बनाना, अनुरक्षण अधिकारी नियुक्‍त करना और अनुरक्षण एवं अपील न्‍यायाधिकरण इत्‍यादि गठित करना शामिल है।

अब तक, नौ राज्‍यों छत्‍तीसगढ़, गुजरात, केरल, मध्‍य प्रदेश, ओड़ीशा, तमिलनाडु, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल ने उल्‍लेखित सभी आवश्‍यक कदम उठाए हैं। केन्‍द्र सरकार इस संबंध में जल्‍दी से जल्‍दी आवश्‍यक कार्रवाई करने के लिए शेष राज्‍यों/केन्‍द्र शासित प्रदेशों को निरंतर स्‍मरण करा रही है।

एकीकृत वृद्धजन कार्यक्रम

मंत्रालय 1992 से एकीकृत वृद्धजन कार्यक्रम नामक केन्‍द्रीय क्षेत्र की योजना कार्यान्वित कर रहा है। इस योजना का उद्देश्‍य वरिष्‍ठ नागरिकों की बुनियादी ज़रूरतें, विशेष रूप से आवास, भोजन एवं अभावग्रस्‍त वृद्धजनों की स्‍वास्‍थ्‍य देखरेख जैसी आवश्‍यकता पूरी करके उनके जीवन स्‍तर में सुधार करना है। इस योजना के तहत, वृद्धाश्रम, डे केयर केन्‍द्र और सचल चिकित्‍सा इकाई चलाने एवं उनके अनुरक्षण के लिए स्‍वयं सेवी संगठनों को परियोजना लागत की 90 प्रतिशत तक सहायता उपलब्‍ध कराई जाती है। वर्ष 2009-10 के दौरान, 345 वृद्धाश्रम, 184 डे केयर केन्‍द्र और 27 सचल चिकित्‍सा इकाई चलाने के लिए इस योजना के तहत 360 स्‍वयं सेवी संगठनों की सहायता की गई। औसतन करीब 35,000 लाभार्थी हर साल इस योजना के दायरे में लाए जार रहे हैं। (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

अयोध्या मामले पर योगीराज श्री देवराहाबाबा की भविष्यवाणी अक्षरश: सत्य

अयोध्या मामले में ब्रह्मलीन योगीराज श्रीदेवराहाबाबा की भविष्यवाणी अक्षरश: सत्य हुई। विदित हो कि श्रीदेवराहा बाबा ने अपने भक्तों की जिज्ञासा का समाधान करते हुए यह भविष्यवाणी की थी कि विवादित स्थल पर रामलला विराजमान होंगे और वहां राममंदिर निश्चित बनेगा।

अयोध्या मामले पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ का निर्णय आते ही ब्रह्मलीन योगीराज श्री देवराहाबाबाजी महाराज के परमशिष्य त्रिकालदर्शी परमसिध्द व अध्यात्म गुरू श्री देवराहा शिवनाथदासजी महाराज के पास भक्तों व मीडियाकर्मियों की भीड़ जुट गयी। मीडियाकर्मियों व भक्तों को संबोधित करते हुए त्रिकालदर्शी व अध्यात्मदर्शी श्री देवराहा शिवनाथदासजी महाराज ने कहा कि अयोध्या मामले पर उच्च न्यायालय का निर्णय करोड़ों रामभक्तों की आस्था के साथ-साथ ब्रह्मलीन योगीराज श्री देवराहा बाबाजी महाराज की भविष्यवाणी की विजय है। चूंकि श्री देवराहाबाबा हमेशा ब्रह्मलीन अवस्था में रहते थे, श्री देवराहाबाबा के पास हिन्दू-मुस्लिम का भेदभाव नहीं था फिर भी कुंभ के अवसर पर जब सभी संप्रदाय के धर्मगुरूओं ने एकजुट होकर श्री देवराहा बाबाजी से अयोध्या मामले पर सवाल करते हुये कहा कि बाबा, मंदिर-मस्जिद का समाधान कब होगा? इस पर श्री देवरावा बाबा ने कहा कि वह मस्जिद नही वरन् मंदिर है। जब बाबर सन 1526 ई. में भारत आया उसके बाद 1528 ई. के अप्रैल माह में रामनवमी के पावन अवसर पर जब बाबर अपने सेनापति मीरबांकी के साथ अयोध्या में पहुंचा और वहां पर जीर्ण-शीर्ण मंदिर में लगे भक्तों के जमावड़ों को देखकर अपने सेनापति मीरबांकी को आज्ञा दी कि इसे तोड़कर नया बना देना। वह केवल आठ दिनों में ही मंदिर का मरम्मत कराकर उसे मस्जिद बना दिया। फिर भी हिन्दू समाज उसे मंदिर समझकर वहां पूजा अर्चना करता रहा। वहां कभी नमाज अदा नही किया गया। आगे श्री देवरहवा शिवनाथदासजी ने कहा कि लगभग 450 वर्षों तक हिन्दू-मुस्लिम में प्रेम बना रहा। परंतु जब हिन्दुओं के द्वारा अपने मंदिर एवं आस्था श्रद्धा के प्रतीक स्वरूप रामलला के मंदिर को अदालत द्वारा मांगा गया तो कुछ राजनीतिज्ञों ने विवाद खड़ा कर आपसी भाईचारों के बीच कटुता का बीज बो दिया।

आगे श्री शिवनाथदासजी ने कहा कि हमारे गुरूदेव बोले- बच्चा वहां मंदिर है, सो वहां मंदिर ही बनेगा। उसमें रामलला ही रहेंगे और आगे चलकर हिन्दू-मुस्लिम में पहले की तरह प्रेम बना रहेगा। आगे श्री देवराहा शिवनाथदास जी ने कहा कि जब बाबा के द्वारा की गई भविष्यवाणी में देर होने लगी तो उन पर से भक्तों का विश्वास धीरे-धीरे उठने लगा कि और लोग कहने लगे कि बाबा की भविष्यवाणी व्यर्थ हो गई। लेकिन आज न्यायालय का फैसला आते ही अब अविश्वास विश्वास में बदल गया। इसी कारण तो भक्तगण तो मेरे पास आये हैं। आगे देवराहाशिवनाथजी ने कहा कि इस कृपा के तले मैं अपने गुरूदेव श्री देवराहा बाबा के साथ-साथ उच्च न्यायालय के माननीय न्यायधीशों के प्रति आभार व्यक्त करते हूं।

संवाद का नया सोपान

– आशुतोष

श्रीरामजन्मभूमि के मुकदमे का बहुप्रतीक्षित फैसला गत 30 सितम्बर को सुनाया गया। निर्णय के अनुसार जिस स्थान पर आज श्रीरामलला विराजमान हैं वही श्रीराम का जन्मस्थान है। इसके लिये विद्वान न्यायाधीशों ने आस्था को आधार बनाया है। एक दृष्टि से यह देश के बहुसंख्यक समाज की आस्था की जीत है।

फैसले की न्यायिक समीक्षा संबंधित पक्ष और न्यायवेत्ता करेंगे, यदि कोई भी पक्ष इस फैसले से असंतुष्ट होकर सर्वोच्च न्यायालय में गया तो वहां भी इसकी संवैधानिक समीक्षा होगी। किन्तु चार दशक से अधिक तक जिला न्यायालय और उसके बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ में चले इस विवाद के समाधान का आधार जनश्रुति और लोक आस्था ही बनी, यह निर्विवाद है।

दो दशक पहले जब रामजन्मभूमि का आन्दोलन जब चरम पर था, तब भी इसे आस्था का प्रश्न मानते हुए हल करने की मांग अनेक बुद्धिजीवियों ने की थी । उन्होंने मुस्लिम समाज से भी अनुरोध किया था कि वह इस मुद्दे पर बहुसंख्यक समाज की भावनाओं का आदर करे तथा स्वेच्छा से वह स्थान हिन्दुओं को सौंप दे तो देश में राष्ट्रीय एकता को पुष्ट किया जा सकेगा।

दुर्भाग्य से छद्मधर्मनिरपेक्ष नेताओं ने इस मुद्दे पर अपनी राजनैतिक रोटियां सेकीं और इस मुद्दे पर दोनों समुदायों के बीच आम सहमति बनने में विध्न-बाधाएं उपस्थित करते रहे। तीन पूर्व प्रधानमंत्रियों क्रमशः स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह, चन्द्रशेखर तथा नरसिम्हाराव के कार्यकाल में वार्ता की पहल की गयी किन्तु क्षुद्र राजनीति के चलते वार्ता सिरे चढ़ने से पहले ही प्रयास दम तोड़ गये।

आस्था के प्रश्न सदभाव से ही हल हो सकते हैं। चुनौती भरे स्वर और धमकी भरे नारे इनका हल नहीं सुझाते बल्कि वातावरण में विष घोलते हैं। 1989-90 में तत्कालीन सत्ता द्वारा अयोध्या में परिंदे को पर भी न मारने देने की चुनौती और शांतिपूर्ण ढ़ंग से कारसेवा के लिए तत्पर रामभक्तों पर गोली चला कर वातावरण को इतना विषाक्त बना दिया कि दोनों समुदायों के बीच विश्वास बहाली के प्रयास फलीभूत न हो सके। परिणामस्वरूप सौमनस्य का जो वातावरण आज बनता दिख रहा है वह तब से दो दशक दूर हो गया।

इन दो दशकों में सभी राजनैतिक दल सत्ता में रह चुके हैं और समाज ने उन सभी की परख कर ली है। मुस्लिम समुदाय के बीच से आज जो मस्जिद से अपना दावा छोड़ने, यहां तक कि श्रीराममंदिर के निर्माण के लिये सहयोग करने तथा विवाद को यहीं विराम देने की जो पहल सामने आयी है वह जहां एक ओर 6 दिसम्बर 1992 के प्रेत को हमेशा के लिये दफना देने की कोशिश है वहीं क्षुद्र स्वार्थ वाली अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की राजनीति पर कठोर टिप्पणी है।

आज बात की जा रही है कि इन दो दशकों में सरयू में बहुत पानी बह गया है। किन्तु बहते पानी के साथ समय बहता है, आस्था नहीं। आस्था की जड़ें संस्कृति की भूमि में गहरे तक पैठती हैं । भारत जैसे देश में बसने वाले लोगों की आस्था उनकी पांथिक दूरियों से बंटती नहीं। साझा पूर्वजों की राख से जुड़ कर उनकी आस्था की जड़ें धरातल के नीचे कहां जा कर एकमेक हो जाती हैं, यह वही समझ सकता है जो देश की संस्कृति को अपने अंदर जीता है।

दो दशक बाद एक बार पुनः यह अवसर आया है कि व्यापक राष्ट्रीय हित में सभी पक्ष एक साथ मिल बैठ कर सर्वसम्मति से श्रीरामजन्मभूमि पर भव्य राम मंदिर बनाने का निर्णय करें। भ्रम अथवा विवाद का बिन्दु वह गर्भगृह था जिसके संदर्भ में उच्च न्यायालय अपना फैसला पहले ही सुना चुका है। उपासना स्थल के रूप में स्थानीय नागरिकों को यदि मस्जिद की आवश्यकता अनुभव होती है तो कुछ दूर हट कर उसका निर्माण किया जा सकता है। किन्तु इसमें यह समझदारी दिखानी आवश्यक है कि दोनों उपासनास्थलों के बीच इतनी दूरी अवश्य रहे ताकि दोनों समदायों के मध्य आज उत्पन्न सौहार्द भविष्य में भी किसी की ओछी राजनीति अथवा कट्टरता का शिकार न बन सके।

श्रीरामजन्मभूमि पर बनने वाला मंदिर न केवल राष्टीय एकता को पुष्ट करेगा अपितु तुष्टीकरण के नाम पर क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थों को पूरा करने के कुत्सित खेल पर भी विराम लग सकेगा। राष्टीय समाज के रूप में भारत के सभी नागरिकों को समान रूप से आगे बढ़ने के अवसर सुलभ हों तथा परस्पर सहयोग के आधार पर भारत विश्वशक्ति बने, इसके लिये सामाजिक सौहार्द पहली शर्त है। उच्च न्यायालय के निर्णय ने यह स्वर्णिम अवसर उपलब्ध कराया है। अपने सभी मतभेद भुलाकर यदि सभी समुदाय साथ आते हैं तो यह राम मंदिर के साथ ही राष्ट्रमंदिर की स्थापना का पर्व बनेगा। संवाद का यह सोपान समृद्धि के शिखर की आधारशिला बनेगा यह विश्वास है।

कविता : रामजन्‍मभूमि

थे राम अयोध्‍या के राजा ये सारा विश्‍व जानता है।

पर आज उन्‍हें अपने ही घर तम्‍बू में रहना पड़ता है।।

अल्‍लामा इकबाल ने उनको पैगम्‍बर बतलाया है।

उनसा मर्यादा पुरुषोत्तम न पृथ्‍वी पर फिर आया है।।

फिर भी इस सेकुलर भारत में राम नाम अभिशाप हुआ।

मंदिर बनवाना बहुत दूर पूजा करना भी पाप हुआ।।

90 करोड़ हिंदू समाज इससे कुंठित रहते हैं।

उनकी पीड़ा को समझे जो उसे राष्‍ट्रविरोधी कहते हैं।।

हिंदू उदारता का मतलब कमजोरी समझी जाती है।

हिंद में ही हिंदू दुर्गति पर भारत माता रोती है।।

हे लोकतंत्र के हत्‍यारों सेकुलर का मतलब पहचानो।

मंदिर कहना यदि बुरी बात तो राम का घर ही बनने दो।

गृह निर्माण योजना तो सरकार ने ही चलवाई है।

तो राम का घर बनवाने में आखिर कैसी कठिनाई है।।

हे हिंदुस्‍तान के मुसलमान बाबर तुगलक को बिसरावो।

यदि इस मिट्टी में जन्‍म लिया तो सदा इसी के गुण गावो।।

भाई-भाई में प्‍यार बढ़े ये पहल तुम्‍हें करनी होगी।

वरना ये रक्‍पात यूं ही सदियों तक चलता जायेगा।

आपस की मारा काटी में बस मजा पड़ोसी पायेगा।।

-मुकेश चन्‍द्र मिश्र

साम्प्रदायिकता का उत्तर आधुनिक तर्कशास्त्र और मार्क्सवाद

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

उत्तर आधुनिकतावाद के बारे में जबलपुर के निशांत और उनके कुछ युवा दोस्तों ने अपनी जिज्ञासाएं रखी हैं। वे चाहते हैं उनके साथ सार्वजनिक संवाद किया जाए। प्रस्थान बिंदु के रूप में अभी जो समस्या चल रही है। उसके संदर्भ में उत्तर आधुनिक विचारक ल्योतार के विचारों की रोशनी में कुछ कहना चाहूँगा।

अभी हमारे देश में साम्प्रदायिक शक्तियां आक्रमक मुद्रा में हैं। वे बहुसंख्यक का नारा देकर समूचे समाज को अपहृत करने में लगी हैं। ल्योतार से एक बार पूछा गयाथा कि बहुसंख्यक का क्या अर्थ है? इस पर उसने कहा कि बहुसंख्यक का अर्थ ज्यादा संख्या नहीं ज्यादा भय है। उनके ही शब्दों में ‘मैजोरिटी डज नॉट मीन ग्रेट नम्बर बट ग्रेट फियर’।

न्याय के संदर्भ में यदि कोई फैसला बहुसंख्यक समाज की धार्मिक भावनाओं को केन्द्र में रखकर होता है तो इससे न्याय घायल होता है। इससे मानवीय एकता टूटती है। बहुसंख्यक की भावनाओं के आधार पर किया गया न्याय ऊपर से समग्र लग सकता है लेकिन यथार्थतः इससे मानवता की एकता टूटती है।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि सामाजिक और मानवीय एकता किसी एक तरह के बयानों से निर्मित नहीं होती। आप भारत में हिन्दुत्ववादी तर्कशास्त्र या संघ परिवार या मुस्लिम तर्कशास्त्र के आधार पर सभी समुदायों के बीच एकता बनाए नहीं रख सकते। इस अर्थ में ही बहुसंख्यक के नाम पर खडा किया जा रहा साम्प्रदायिक तानाबाना अधूरा है और यह सबको समेटने में असमर्थ है।

हिन्दुत्ववादी यह देखने में असमर्थ रहे हैं कि भारत जैसे वैविध्यपूर्ण समाज को किसी एक बयान या एक विचारधारा में नहीं बांध सकता। यह समाज किसी एक विचारधारा में बंधा नहीं है। बल्कि भारत को अनेक विचारधाराएं एकीकृत भाव से बांधे हुए हैं।

सामाजिक बंधनों के तानेबाने को किसी एक भाषा ने भी बांधा हुआ नहीं है। बल्कि विभिन्न भाषाओं के खेल में यह तानाबाना बंधा है। तमाम किस्म के सामाजिक बंधनों को बांधने वाली चीज के रूप में यदि सिर्फ हिन्दू और उसकी हिन्दुत्ववादी विचारधारा को रखेंगे तो इस समाज को तमाम सदइच्छाओं के बावजूद एकसूत्र में बांध नहीं सकते। सामाजिक एकीकरण अनेक किस्म की व्यवहारिक और प्रयोजनमूलक चीजों पर टिका है।

सामाजिक बंधन और राष्ट्रीय एकता का आधार कोई एक थ्योरी या विचारधारा नहीं हो सकती है बल्कि सामान्य लोगों के प्रयोजनमूलक अनुभव ही हैं जो उन्हें सामाजिक बंधनों में बांधते हैं। थ्योरी या विचारधारा आम लोग नहीं जानते।

हिन्दुत्ववादी अपने उन्माद में यह भूल गए हैं कि सामाजिक बंधनों को न्याय या राजनीति या संगठनक्षमता के आधार पर नियमित नहीं किया जा सकता। सामाजिक बंधनों का तानाबाना इनके बाहर ऑपरेट करता है। सामाजिक बंधनों में हम सबकी भूमिकाएं तय हैं और जिनकी अभी तक तय नहीं हो पायी हैं उनकी सामाजिक प्रक्रिया में भूमिकाएं तय हो जाएंगी। लेकिन इसका फैसला लोग अपने प्रयोजनमूलक अनुभवों के आधार पर करेंगे।

एक जमाने में मार्क्सवादियों ने समग्रता की धारणा पर बहुत जोर दिया था। लेकिन अनुभव से पता चला कि समग्रता में सोचने से नुकसान होता है। ल्योतार के शब्दों में हमें राजनीतिक निर्णय समग्रता या एकता के आधार पर नहीं लेने चाहिए बल्कि विविधता और बहुस्तरीयता के आधार पर लेने चाहिए। निर्णय की बहुस्तरीयता को राजनीतिक संरचना में कैसे लागू करें यह प्रश्न इसके बाद आता है। न्याय के आधार पर न्यायपूर्ण ढ़ंग से ही राजनीतिक निर्णय की बहुस्तरीयता और विविधता की रक्षा की जा सकती है।

न्याय और विविधता के बीच में सुसंगत संबंध बनाकर ही सामान्य जीवन में,किसी संगठन में,देश में कनवर्जंस हो सकता है। एकीकरण हो सकता है। हमें सार्वभौमत्व से बचना होगा। सार्वभौमत्व की धारणा के गर्भ से ही समग्रता की धारणा निकली है और हमें इससे बचना चाहिए। विविधता को न्याय और व्यवहार के आधार पर परिभाषित करें, न कि बहुसंख्यकवाद या समग्रता या विचारधारा के आधार पर।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने बाबरी मसजिद विवाद पर जो फैसला सुनाया है वह विविधता विरोधी है। क्योंकि उसमें जजों ने विविधता को न्यायबुद्धि के आधार देखने की कोशिश ही नहीं की बल्कि बहुसंख्यकवाद और आस्था को आधार बनाया है।

‘आजतक’ टीवी चैनल को दिए (1 अक्टूबर 2010) एक साक्षात्कार में सुप्रीम कोर्ट के भू.पू. प्रधानन्यायाधीश जस्टिस अहमदी ने कहा बाबरी मसजिद प्रकरण में लखनऊ बैंच का फैसला न्याय नहीं है। मुकदमा था विवादित जमीन के मालिक के संदर्भ में लेकिन जजमेंट में मालिक की खोज करने में अदालत असफल रही है। जस्टिस अहमदी ने कहा है कि इस फैसले के आधार पर जब डिग्री होगी तो मुसलमानों की एक-तिहाई जमीन किसे दी जाएगी ? क्योंकि सुन्नी वक्फ बोर्ड की पिटीशन को अदालत खारिज कर चुकी है। ऐसी स्थिति में फैसला लागू नहीं हो पाएगा। मालिक का फैसला किए वगैर तीन पक्षों में विवादित जमीन को बांटना फैसला नहीं है। बहुसंख्यकवाद के आधार पर सोचने से किस तरह असफलता हाथ लगती है इसका आदर्श उदाहरण है लखनऊ बैंच का ताजा फैसला।

अयोध्या मामला-ठंडे माहौल को गरमाने की सियासत शुरू

-धीरेन्द्र प्रताप सिंह

अयोध्या मामले में आए फैसले के बाद देश में पसरी शांति और सौहार्द के माहौल ने धर्म के तवे पर राजनीति की रोटी सेंकने वालों के होश उडा दिए है। मामले के बाद देश में होने वाली अराजकता और उसमें गिरने वाली लाशों पर राजनीति करने की योजना बनाए कुछ राजनीतिक दलों को अपनी जमीन खिसकती महसूस होने लगी है। दो दिन तक माहौल बिगड़ने का इंतजार करने के बाद अब ऐसे राजनीतिक और उन्मादी दल अपनी जहरीली जुबान से देश की अमन और शांति को बिगाड़ने की योजनाओं को अंजाम देने में लग गए हैं।

हालांकि राजनीति के बारे में पहले से ही कहा जाता है कि-

राजमहलों तक नहीं जाती है चित्कारे।

पत्थरों के पास अभ्यंतर नहीं होता॥

ये सियासत की तवायफ का दुपट्टा है।

ये किसी के आसुंओं से तर नहीं होता॥

इसी बात को साबित करते हुए कुछ तथाकथित राजनीतिक और धार्मिक संगठन अपनी राजनीतिक रोंटी सेंकने के लिए विध्वसंक बयानों को प्रसारित करने में लग गए है। हालांकि ऐसे संगठनों में कुछ खुद को हिन्दू समाज का पैरोकार बताते है तो कुछ खुद को इस्लाम का सबसे बड़ा हितैषी साबित करने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है। लेकिन इनकी वास्तविकता दोनों समाज के प्रबुध्द लोगों को पता है। पर आज भी भारत का एक बडा तबका अशिक्षित और गरीब है जो इनके बहकावे आ इनकों ही अपना सबसे बड़ा रहनुमा मान लेता है। खैर बात हो रही है अयोध्या मामले को लेकर राजनीतिक दलों की लाभ लेने की योजना पर पानी फिरने की और उनके द्वारा ऐसी कोशिशों की जो हिन्दू मुसलमान नहीं बल्कि आधुनिक भारत की नींव को हिलाने का माद्दा रखते है।

ऐसे दलों में जहां अभी तक समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह का नाम शुमार हो गया है तो वहीं दूसरी तरफ दारूल उलूम देवबंद के नायब मोहतमिम मौलाना खालिक मद्रासी भी सपा की समाज तोड़क बयान का समर्थन कर रहे है। भारत के एक नागरिक होने के नाते मैं दोनों नेताओं से कहना चाहूंगा कि लखनउ बेंच का फैसला अगर किसी को मान्य नहीं लगता है तो उसके लिए वह उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है लेकिन फैसले को एक वर्ग विशेष के साथ अन्याय कह कर समाज को दंगों की राह पर ढकेलने का अधिकार किसी को नहीं है। यदि वे वाकई मुस्लिम समाज के शुभचिंतक है तो उन्हें इस मामले में कानून का सहारा लेना चाहिए। लेकिन इन नेताओं का कभी भी जनता जनार्दन के सुख दुख से नाता नहीं होता। ये तो बस उनके वोट बैंक के सहारे अपनी राजनीति चमकाना चाहते है और उसके बाद होने वाले सांप्रदायिक धु्रवीकरण के बल पर खुद की कई पीढ़ियों के लिए धन बटोर कर चलते बनने की योजना पर काम करते रहे है। क्या ये वहीं मुलायम सिंह नहीं जिन्होंने अपनी पार्टी के कई संस्थापक मुसलमानों को बाहर का रास्ता दिखा चुके है। इन्ही की तरह एक इनके शिष्य है अमर सिंह जो अपने आपकों को क्षत्रिय हितों का सबसे बड़ा प्रवक्ता समझते है लेकिन मुसलमानों के वोट बैंक की ताकत के बल पर अपनी ताकत बढ़ाने के लिए मौलाना अमर सिंह बनने का नाटक करने से भी नहीं चूंकते। हालांकि इनके अपने ही गृह जनपद आजमगढ़ में इनकी कोई औकात नहीं है। इनके भाई अरविंद सिंह ने इनकी करतूतों की वजह से इनके खिलाफ कई सालों से मोर्चा खोला हुआ है। ये वहीं अमर सिंह है जो बाटला हाउस मुठभेड़ पर सवाल उठाते है और बाद में शहीद इंस्पेक्टर मोहन शर्मा की पत्नी को आर्थिक मदद भी उपलब्ध करवाते है लेकिन गैरतमंद मोहन चंद शर्मा की पत्नी इस बेगैरत इंसान की कोई भी मदद लेने से इंकार कर देती है।

अभी तक जो सूचनाएं मिल रही है उसके अनुसार उत्तर प्रदेश में अपना जनाधार खो चुकी मुलायम सिंह प्राइवेट लिमिटेड पार्टी यानी सपा ने अन्दर खाने मुस्लिम समुदाय को भड़का कर समाज में जहर घोलने का पूरा प्लान बनाया है। जबकि बिहार चुनावों को देखते हुए भाजपा और कांग्रेस इस मामले में कोई भी भूमिका निभाने से परहेज करने के लिए विवश है।

ये समय वाकई बहुत ही चुनौतीपूर्ण है क्योंकि एक तरफ अमन के दुश्मन है तो दूसरी तरफ विश्व का सबसे बड़ा और सशक्त लोकतंत्र भारत। निश्चित ही इस लड़ाई में भारत ही जीतने वाला है लेकिन इसके लिए समाज के प्रबुध्द तबके का जागना जरूरी है।

कलकत्ता का गांधी भवन जहां गांधी ने कहा था- मैंने ऐसी खंडित आजादी नहीं चाही थी

-राजेश त्रिपाठी

देश जब आजादी से सिर्फ तीन कदम दूर था, पश्चिम बंगाल का कलकत्ता महानगर मानवता से कोसों दूर जा चुका था। हिंदू-मुसलिम दंगों का दावानल नगर के कोने-कोने को भस्म कर रहा था और हर तरफ हो रहा था मानवता का हनन। यह 1947 के अगस्त महीने की बात है। देश के इस पूर्वी भाग को अंधी हिंसा ने अपनी गिरफ्त में ले लिया था। मानवता को इस कदर वहशी होते देख अंतर तक विचलित हो गये थे शांति के हिमायती, अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी। वे अपने सारे कार्यक्रम छोड़ कलकत्ता दौड़े आये ताकि दंगों की आग को ठंडा किया जा सके। हिंसा में बौराये लोगों को अपने ही भाई-बहनों की जान लेने से रोका जा सके। 1947 के अगस्त में पूर्वी कलकत्ता के बेलियाघाटा अंचल के जिस भवन में गांधी जी ठहरे थे, उसका नाम तब ‘हैदरी मैन्सन’ था। 1985 में राज्य सरकार द्वारा इसका अधिग्रहण किये जाने के बाद यह ‘गांधी भवन’ हो गया। आलोछाया सिनेमा के पास बेलियाघाटा मेन रोड पर पंजाब नेशनल बैंक की बेलियाघाटा शाखा के सामने से निकली है डाक्टर सुरेशचंद्र बनर्जी रोड। इस रोड पर 20-25 कदम चलते ही 150/ बी सुरेशचंद्र बनर्जी रोड पर बाई ओर शांत खड़ा है श्वेत ‘गांधी गांधी भवन’। उस वक्त की हिंसा के दौर व उसे रोकने के लिए बापू के सद्प्रयासों का मूक साक्षी।

गांधी भवन की बाहरी दीवार पर बायीं ओर लगे भित्ति प्रस्तर पर बंगला में इस बात का उल्लेख है कि 12 अगस्त 1947 को बापू यहां आये और ठहरे थे। 1997 में इस पावन भवन को देखने का अवसर मुझे मिला था। उस दिन गांधी भवन में प्रवेश करने पर दायीं तरफ के पहले कमरे में बुजुर्ग स्वतंत्रता सेनानी जुगलचंद्र घोष से मुलाकात हुई। उस वक्त वे 86 साल की उम्र पार कर चुके थे। पता नहीं अब हों या न हों। वे उन दिनों कलिकाता गांधी स्मारक समिति के महासचिव थे। उन्होंने न सिर्फ 1947 में गांधी जी को इस भवन में देखा था बल्कि वे उस वक्त की दर्दनाक घटनाओं के साक्षी भी थे। उन्होंने गांधी के अनशन को देखा, दंगों को रोकने के उनके सद्प्रयासों के भी वे साक्षी रहे थे। घोष बाबू दिल के मरीज थे और जब मैं उनसे गांधी भवन में मिला था उसके कुछ दिन पूर्व ही उनको पेसमेकर लगाया गया था। उनके संकेतों को वहां मौजूद निखिल बंद्योपाध्याय ने शब्द दिये और वही हमारे बीच वार्ता में मददगार बने। जब गांधी जी ने पश्चिम बंगाल में दंगों के दावानल को शांत करने के लिए गांधीभवन में अनशन किया था, उस वक्त निखिल दा नारकेलडांगा हाईस्कूल में 9 वीं कक्षा में पढ़ते थे। उन्होंने गांधी जी को कई बार यहां कार से आते-जाते देखा था। इसके बाद निखिल दा ने कहा-‘अब जो कुछ भी मैं बताना शुरू कर रहा हूं वह बोल तो मेरे हैं लेकिन विचार पूरी तरह से जुगलचंद्र घोष दा के हैं। वे अस्वस्थ होने के नाते ज्यादा बोल नहीं सकते इसलिए उनकी बात मेरी जुबानी सुनिए। जो कहा जा रहा है उसकी बीच-बीच में वे हामी भरते रहेंगे कि वह ठीक है।’इसके बाद की कहानी इस तरह है-‘गांधी जी 1947 की 12 अगस्त को इस भवन में आये। तब इस क्षेत्र की 75 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की थी। यहां उनका बहुमत था। इस भवन का उस वक्त नाम था-हैदरी मैन्सन। यह ढाका के नवाब हबीबुल्ला बहार की बहार की संपत्ति थी। भवन खाली पड़ा था, कोई रहता नहीं था। बाद में यह भवन नवाब ने सूरत के एक कपड़ा व्यवसायी गनी मियां को बेच दिया। गनी मियां व्यवसाय के सिलसिले में आता तो लालबाजार के पास 36 नंबर छातावाली गली में रहते थे। उन्होंने इस भवन को अपनी बेटी हुसेनीबाई को दान दे दिया था। गांधी जी यहां आये और यहां रह कर कलकत्ता में दंगा रोकने के लिए शांति यात्राएं शुरू कीं। गांधी के साथ उन दिनों उनके सचिव निर्मल बसु भी थे। इसके अलावा थीं गांधी जी के अपने परिवार की आभा गांधी व मनु गांधी।

उस वक्त पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे डाक्टर प्रफुल्लचंद्र घोष। पार्लियामेंटरी पार्टी में पश्चिम बंगाल मुसलिम लीग के नेता थे एचएस सोहरावर्दी। मुख्यमंत्री श्री घोष व सोहरावर्दी ने कलकत्ता की जनता से दंगा बंद करने की अपील की लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ। दंगे चलते ही रहे।गांधी जी उस वक्त नगर के दंगाग्रस्त इलाकों बेलगछिया, मानिकतल्ला, राजाबाजार, टेंगरा,इंटाली वगैरह में चारों ओर दौरा कर रहे थे। सबसे उन्होंने दंगा रोकने की अपील की। इससे दंगों का ज्वार थोड़ा थमा जरूर लेकिन रूका नहीं। जब वे कलकत्ता आये थे, स्वाधीनता हमसे तीन दिन दूर थी। तीन दिन बाद देश स्वाधीन हुआ। स्वाधीनता के आनंद में लोग फूले नहीं समा रहे थे चारों ओर खुशियां मनायी जा रही थीं लेकिन गांधी जी का मन अशांत था। वे बेहद बेचैन थे। उन्होंने 15 अगस्त को मौनव्रत औप उपवास रखा। उनका कहना था-‘मैंने ऐसी खंडित आजादी तो नहीं चाही थी, जिसमें देश के ही दो टुकड़े हो जायें। ’ इसके बाद वे हैदरी मैन्सन में ही रहे। दूसरे दिन उन्होंने बेलियाघाटा के रासबागान में एक प्रार्थना सभा का आयोजन किया। अब तक दंगे कुछ कम जरूर हुए थे लेकिन उन पर पूरी तरह से अंकुश नहीं लग पाया था। छिटपुट दंगे हो ही रहे थे।‘

इतना कह निखिल दा जुगल बाबू की ओर देख आश्वस्त हो जाना चाहते थे कि वे जो कह रहे हैं, वह ठीक है कि नहीं। उनकी स्वीकृति पा उन्होंने फिर बताना शुरू किया-‘1 सितंबर 1947 को हैदरी मैन्सन से कुछ दूर आलोछाया सिनेमा के नजदीक राजेंद्रलाल मित्र रोड के पास दो हत्याएं हो गयीं। गांधी जी को जब इसकी खबर मिली तो वे खुद मृतकों को देखने गये। वहां से लौट कर आये तो बेहद मर्माहत थे। उन्होंने वहां मौजूद लोगों को बुला कर कहा-‘तुम लोग ये दंगे बंद करो वरना मैं आमरण अनशन करूंगा। ’ यह कह कर उन्होंने 1 सितंबर 1947 से आमरण अनशन शुरू कर दिया। उनकी उम्र काफी थी, उस उम्र में आमरण अनशन। नेता चिंतित हो गये। किसी तरह से उनको आमरण अनशन त्यागने के लिए राजी करने की कोशिश शुरू हो गयी। इस कोशिश में देश के बड़े नेता तो थे ही राज्य के कई प्रमुख नेताओं-डाक्टर प्रफुल्लचंद्र घोष, जनाब एचएस सोहरावर्दी, निर्मलचंद्र चटर्जी, शरतचंद्र बसु, दुर्गापद घोष, हेमचंद्र नस्कर, जुगलचंद्र घोष व डाक्टर सुरेशचंद्र बनर्जी ने भी गांधी जी को लिखित आश्वासन दिया कि दंगे बंद होंगे। इसके बाद आभा गांधी व मनु गांधी ने 4 सितंबर को बापू को नींबू का रस दिया और इस तरह से उनका आमरण अनशन टूटा । यह 73 घंटे का अनशन था। इसके बाद दंगे भी करीब-करीब रुक गये। 7 सितंबर 1947 को गांधी जी पंजाब यात्रा के लिए दिल्ली रवाना हो गये। ’

उन दिनों गांधी जी जब दंगाग्रस्त नगर में शांति जुलूस निकालते थे उस वक्त उनके साथ होते थे तत्कालीन पुलिस कमिश्नर रायबहादुर एस, एन, चटर्जी। उस वक्त दंगों की बढ़ती आग को देख गांधी जी ने कहा था-‘खून का बदला खून नहीं हो सकता।’ ये बात जुगलचंद्र घोष को दिल की गहराइयों तक छू गयी और वे गांधी जी के सच्चे समर्थक और अनुयायी बन गये थे। कलकत्ता को दंगों से मुक्ति मिल गयी और लोग उस महात्मा गांधी को भूल गये जिसने हैदरी मैन्सन में रह कर इस आग को बुझाने में शीतल जल का काम किया। वह इमारत जर्जर अवस्था में पड़ी रही। कोई उसकी देखरेख नहीं करता था। लेकिन जुगल बाबू नहीं भूले।वे राज्य और केंद्र के नेताओं से लगातार यह अपील करते रहे कि हैदरी मैन्सन जहां गांधी ने बौराई हिंसा को शांत करने का महान व्रत लिया और पूरा किया, उसे राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर उसका अधिग्रहण किया जाये। 38 साल तक वे एकाकी अनथक प्रयास करते रहे। कामयाबी मिली 1985 में , जब राज्य सरकार ने इसका अधिग्रहण कर पुनर्नवीकरण किया। यह राज्य के सूचना व संस्कृति विभाग के जिम्मे आयी और वही इसकी देखभाल कर रहा है। 2 अक्तूबर 1985 को राज्य के तत्कालीन लोकनिर्माण व आवास मंत्री यतीन चक्रवर्ती की अध्यक्षता में आयोजित समारोह में राज्य के तत्कालीन राज्यपाल उमाशंकर दीक्षित ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया।

उस दिन मैंने निखल दा से पूछा था कि क्या इस भवन में गांधी जी की यादों से जुड़ी कुछ चीजें आज भी हैं? उन्होंने बताया कि वह कमरा जहां गांधी जी 1947 में ठहरे थे आज भी उनकी कई चीजें सहेजे हुए है और उसमें बसी हैं उस महान आत्मा की यादें। यह कमरा भवन के दायीं तरफ का आखिरी कमरा है। अंदर जाते ही बायीं ओर शोकेस में नजर आते हैं गांधी जी के संदेश-‘बुरा मत कहो, बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो।’ को मूक ढंग से प्रचारित करते तीन बंदर। पास ही हैं चरखे व भीतर अंबर चरखा। चरखों के पास गांधी जी की काती खादी के सूत की तीन लच्छियां आज भी मौजूद हैं। वहां काले पत्थर की थाली, पत्थर की कटोरियां, एक लालटेन, गांधी जी की चप्पलें व खड़ाऊं, लस्सी बनाने की छोटी हांडी और मथानी, बाग सींचने का झज्जर, उनका बिस्तर जिस पर दरी बिछी है व उस वक्त उनके द्वारा इस्तेमाल किये गये दूसरे सामान मौजूद हैं। यह सब देख सुखद रोमांच-सा हो जाता है। लगता है इन सारी वस्तुओं को गांधी जी ने छुआ है, इस्तेमाल किया है, इनमें बसी है उनके स्पर्श की सुगंध। आज की पीढ़ी को उस महामानव के कहीं बहुत करीब ले जाती हैं ये चीजें। यह स्थूल, निर्जीव सही लेकिन शायद इनमें भी यह व्यक्त कर पाने की क्षमता है कि हम गवाह हैं एक ऐसे इतिहास की जो विश्व में अनोखा है। हमने देखा है एक ऐसे व्यक्तित्व को जिसके सामने आज के कई तथाकथित महान लोग बौने साबित होते हैं।

गांधी भवन प्रतीक है उस महात्मा के विचारों, उसके कर्मों का जिसने दासता की चक्की में पिसते भारत के भाग्य को दिया एक नया मोड़, आजादी की सुबह लेकिन वह रामराज्य एक सपना ही बन कर रह गया जिसकी कल्पना उन्होंने की थी। कल्पना ही नहीं जिस रामराज्य को उन्होंने अपने विचारों और कर्म में भी ढाल लिया था। परवर्ती नेता उनके आदर्शों को भूल स्वार्थ सिद्धि और स्वजन पोषण में लीन हो गये और उनके इस आचरण में गांधी के आदर्श और सिद्धांत न जाने कहां विलीन हो गये। अब तो बापू को सिर्फ पुण्यतिथि और जयंती में रस्मअदायगी के लिए याद कर लिया जाता है उनके सिद्धांत और विचार किताबों में कैद होकर रह गये हैं। जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं के कदमों की धमक, गांधी के तनाव, निराशा और क्षोभ भरे क्षणों का साक्षी यह गांधी भवन भी अगर अनुभूति रखता तो शायद देश की आज की बदहाली पर यह भी भीतर तक टूट चुका होता।

महात्मा गाँधी अभी जीवित हैं

-डॉ. सी.पी. राय

आज से ६२ वर्ष पूर्व महात्मा गाँधी की महज शारीरिक हत्या कर दी गयी, लेकिन बापू मरे नहीं। अपने विचारों और आदर्शों के साथ वो आज भी जिन्दा है। ६२ वर्ष बीत गए। इतनी लम्बी अवधि में एक पूरी पीढ़ी गुजर जाती है, राष्‍ट्र के जीवन में अनगिनत संघर्षों, संकल्पों और समीक्षाओं का दौर आता और जाता रहा। इतने उतार और चढाव के बावजूद अगर आज भी किसी का वजूद कायम है तों निश्चय ही उनमें कुछ तों चमत्कार होगा। बापू को इसी नजरिये से देखने की जरूरत है।

मुल्क को आजादी दिलाने के बाद भी वे संतुष्‍ट नहीं थे। सत्ता से अलग रहकर वह एक और कठिन कम में लगे थे। वे देश की आर्थिक, सामाजिक और नैतिक आजादी के लिए एक नए संघर्ष की उधेड़बुन में थे। रामधुन, चरखा, चिंतन तथा प्रवचन उनकी दिनचर्या थी। एक दिन पहले ही उनकी प्रार्थना सभा के पास धमाका हुआ था लेकिन दुनिया का महानतम सत्याग्रही विचलित नहीं हुआ। वह स्वावलंबी भारत का स्वप्न देखते थे। वह गाँवों को अधिकार संपन्न, जागरूक तथा अंतिम व्यक्ति को भी देश का मजबूत आधार बनाना चाहते थे। जब दिल्ली में उनके कारण आई सरकार स्वरुप ले रही थी, स्वतंत्रता का जश्न मन रहा था, तब बापू दूर बंगाल में खून खराबा रोकने के लिए आमरण कर रहे थे। बापू की दिनचर्या में परिवर्तन नहीं, विचारों में लेशमात्र भटकाव नहीं, लम्बी लड़ाई के बाद भी थकान नहीं और लक्ष्य के प्रति तनिक भी उदारता नहीं। अहिंसा को सबसे बड़ा हथियार मानने वाले बापू निर्विकार भाव से अपनी यात्रा पर चले जा रहे थे की तभी एक अनजान हाथ प्रकट हुआ जो आजादी की लड़ाई में कही नहीं दिखा था, ना बापू के साथ, ना सुभाष के साथ और ना भगत सिंह के साथ। उस हाथ में थी अंग्रेजों की बनाई पिस्तोल, उससे निकाली अंग्रेजों की बनाई गोली, वह भी अंग्रेजों के दम दबा कर भाग जाने के बाद, तथाकथित हिन्दोस्तानी हाथ से। वह महापुरुष जिसके कारण इतनी बड़ी साम्राज्यवादी ताकत का सब कुछ छीन रहा था, फिर भी उनके शरीर पर एक खरोंच लगाने की हिम्मत नहीं कर पाई, जिस अफ्रीका की रंगभेदी सरकार भी बल प्रयोग नहीं कर सकी थी, उनके सीने में अंग्रेजो की गोली उतार दी एक सिरफिरे कायर ने। वह महापुरुष चला गया हे राम कहता हुआ। गाँधी जी के राम सत्ता और राजनीति के लिए इस्तेमाल होने वाले राम नहीं थे बल्कि व्यक्तिगत जीवन में आस्था तथा आदर्श के प्रेरणाश्रोत थे।

तब आरएसएस पर उगली उठी थी, उसपर पाबन्दी भी लगी। सवाल उठा की बापू की हत्या क्यों की गयी। आज भी यह सवाल अनुत्तरित है। इस सवाल की प्रेतछाया से बचाने के लिए ही शायद भाजपा ने कुछ वर्षो पहले गांधीवाद शब्द का प्रयोग किया था, यह गिरगिट के रंग बदलने के समान ही था। गाँधी जी फासीवाद के रास्ते की बड़ी बाधा थे। गाँधी जी ‘ईश्वर- अल्ला तेरो नाम’ ‘तथा ‘वैष्णवजन तों तेने कहिये प्रीत पराई जाने रे’; की तरफ सबको ले जाना चाहते थे। बापू के आदर्श राम, बुद्ध, महावीर, विवेकानंद तथा अरविन्द थे। हिटलर तथा मुसोलिनी को आदर्श मानने वाले उन्हें कैसे स्वीकार करते? गाँधी सत्य को जीवन का आदर्श मानते थे, झूठ को सौ बार सौ जगह बोल कर सच बनाने वाले उन्हें कैसे स्वीकार करते? शायद इसीलिए महात्मा के शरीर को मार दिया गया।

क्या इससे गाँधी सचमुच ख़त्म हो गए? बापू यदि ख़त्म हो गए तों मार्टिन लूथर किंग को प्रेरणा किसने दी? नेल्सन मंडेला ने किस की रोशनी के सहारे सारा जीवन जेल में बिता दिया, परन्तु अहिंसक आन्दोलन चलते रहे और अंत में विजयी हुए? दलाई लामा किस विश्वास पर लड़ रहे है इतने सालो से? खान अब्दुल गफ्फार खान अंतिम समय तक सीमान्त गाँधी कहलाने में क्यों गर्व महसूस करते रहे? अमरीका के राष्ट्रपति आज भी किसको आदर्श मानते है और दुनिया में बाकी लोगो को भी मानने की शिक्षा देते रहते है?

संयुक्त रास्ट्र संघ के सभा कक्ष से लेकर १२२ देशों की राजधानियों ने महात्मा गाँधी को जिन्दा रखा है। कही उनके नाम पर सड़क बनी, तों कही शोध या शिक्षा संस्थान और कुछ नहीं तों प्रतिमा तों जरूर लगी है।जिसको भारत में मिटाने का प्रयास किया गया, वह पूरी दुनिया में जिन्दा है। महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने कहा कि आने वाली पीढियां शायद ही इस बात पर यकीन कर सकेंगी कि कभी पृथ्वी पर ऐसा हाड़ मांस का पुतला भी चला था। जिस नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को गाँधी के विरुद्ध बताया गया, उन्होंने जापान से महात्मा गाँधी को राष्‍ट्रपिता कह कर पुकारा तथा कहा कि यदि आजादी मिलती है तों वे चाहेंगे की देश की बागडोर रास्ट्रपिता सम्हालें, वह स्वयं एक सिपाही की भूमिका में ही रहना चाहेंगे। परन्तु बापू को सत्ता नहीं, जनता की चिंता थी, उसकी तकलीफों की चिंता थी।

उन्होंने कहा कि भूखे आदमी के सामने ईश्वर को रोटी के रूप में आना चाहिए। यह वाक्य मार्क्सवाद के आगे काa है। उन्होंने कहा की आदतन खड़ी पहने, जिससे देश स्वदेशी तथा स्वावलंबन की दिशा में चल सके, लोगों को रोजगार मिल सके। नई तालीम के आधार पर लोगों को मुफ्त शिक्षा दी जाये। लोगों को लोकतंत्र और मताधिकार का महत्व समझाया जाये और उसके लिए प्रेरित किया जाये। उन्होंने सत्ता के विकेन्द्रीकरण, धर्म, मानवता, समाज और राष्‍ट्र सहित उन तमाम मुद्दों की तरफ लोगों का ध्यान खींचा जो आज भी ज्वलंत प्रश्न है।

वे और उनके विचार आज भी जिन्दा है और प्रासंगिक है। तभी तों जब अमरीका में बच्चो द्वारा अपने सहपाठियों को उत्तेजना तथा मनोरंजनवश गोलियों से भून देने की घटनाएँ कुछ वर्ष पूर्व हुई थी तों वहा की चिंतित सरकार ने बच्चो को बुलेटप्रूफ जैकेट नहीं बांटे, स्कूल के दरवाजो पर मेटल डिटेक्टर नहीं लगाये, हथियारों पर पाबन्दी नहीं लगे, बल्कि बच्चो को गाँधी की जीवनी, शिक्षा तथा विचार और उनके कार्य बताने का फैसला किया। उसी अमरीका में कुछ वर्ष पूर्व जब हिलेरी क्लिंटन ने बापू पर कोई हलकी बात कर दिया तों अमरीका के लोगों ने ही इतना विरोध किया कि चार दिन के अन्दर ही हिलेरी को खेद व्यक्त करना पड़ा।

गुजरात की घटनाओं के समय जब हैदराबाद में दो समुदाय के हजारों लोग आमने-सामने आँखों में खून तथा दिल में नफरत लेकर एकत्र हो गए, तों वहा दोनों समुदाय की मुट्ठी भर औरतें मानव शृंखला बना कर दोनों के बीच खड़ी हो गयी। यह गाँधी का बताया रास्ता ही तों था, वहा विचार के रूप में गाँधी ही तों खड़े थे। गुजरात में पिछले दिनों में राम, रहीम और गाँधी तीनों को पराजित करने की चेष्टा हुई, लेकिन हत्यारे ना गांधी के हो सकते है, ना राम के ना रहीम के।

महत्मा गाँधी तों नहीं मरे, फिर हत्यारे ने मारा किसे था? ऐसे सिरफिरे लोग और उनके संगठन कितनी हत्याएं करेंगे? पिछले ६२ वर्षों में भी वे गाँधी को नहीं मार पाये है। वह कौन सा दिन होगा जब फासीवादी लोग गाँधी की पूर्ण करने में कामयाब हो पाएंगे? लेकिन जिम्मेदारी और जवाबदेही बापू को मानने वालो की भी है की सत्ता की ताकत से महात्मा गाँधी को बौना करने, उन्हें गाली देने और गोली मरने वालो से मानवता को बचाएं। रास्ता वही होगा जो गाँधी ने दिखाया था। बासठवा वर्ष जवाब चाहता है दोनों से की तुमने गाँधी को मारा क्यों था? उद्देश्य क्या था? तुम कहा तक पहुंचे? उनके मानने वालों से भी कि आर्थिक गैर बराबरी, सामाजिक गैर बराबरी के खिलाफ, नफ़रत और शोषण के खिलाफ बापू द्वारा छेड़ा गया युद्ध फैसलाकुन कब तक होगा? इन सवालों के साथ महात्मा गाँधी तथा उनके विचार आज भी जिन्दा है और कल भी हमारे बीच मौजूद रहेंगे।