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हर युग में राम की जय…

-अमल कुमार श्रीवास्तव

सत्य की हर युग में जीत होती है 30 सितम्बर 2010 को इलहाबाद हाइकोर्ट द्वारा अयोध्या मामले पर आने वाले फैसले ने इस बात को सार्थक साबित कर दिया। पिछले 60 वर्षो से चल रहे इस मामले ने कई बार तुल पकडी जिसका खामियाजा कई लोगों को भुगतना पडा लेकिन अंतत: इस मामले पर हाईकोर्ट ने अपनी मुहर लगा ही दी। वास्तव में अगर इस मामले को देखा जाए तो इस पर फैसला बहुत पहले ही आ जाना चाहिए था। लेकिन यह मामला कुछ राजनितिक पार्टियों के लिए एक हथियार के रूप में था जिसका लाभ वह हर बार चुनाव में करते थे या यह भी कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश की लगभग पूरी राजनिति इस मामले पर ही टिकी हुई थी। इन सबके बावजूद जो भी फैसला इस बाबत आया वह एक तरह से देखा जाए जो संतोषप्रद था भी और नहीं भी। संतोषप्रद इसलिए था क्योकि वर्तमान में जो देश की आर्थिक स्थिति चल रही है उसे देखते हुए दंगा ,फसाद जैसी स्थिति का पैदा होना वर्तमान परिवेश में देश की आर्थिक स्थिति के लिए सही नही था। एक तरफ केन्द्र में होने वाली राष्ट्रमंडल खेलों की सुरक्षा तो दूसरी तरफ बाढ पीडीतों की सहायता व वहीं तीसरी तरफ होने वाले चुनाव। ऐसे में इस मामले पर अगर कोई समुदायिक तुल पकडता तो वास्तव में देश के लिए इससे जुझना अत्यंत कठिन हो जाता। दूसरी तरफ अगर देखा जाए तो कहीं न कहीं यह प्रतीत होता है कि न्यायधीशों द्वारा दिए गए फैसले में भी पूर्ण रूप से समानता दिखाई प्रतीत नहीं होती। अगर किसी पक्ष की अपील खारिज हो जाए तो उसे किसी प्रकार का कोई अधिकार उस सम्बन्धित मामले में नहीं होता बावजूद इसके न्यायाधीशों द्वारा वफफ् बोर्ड को एक भाग देना अत्यंत सोचनीय विषय है। हाल फिलहाल लोगों ने न्यायपालिका द्वारा दिए गए इस फैसले का सम्मान करते हुए इसे स्वीकार जरूर कर लिया है लेकिन अभी भी कुछ लोग है जो इस बाबत असन्तुष्ट है। वास्तव में अगर कहा जाए तो जब न्यायपालिका ने इस सन्दर्भ में यह स्पष्ट कर दिया है कि रामलला की मूर्ति जहां स्थापित है वहीं रहेगी तो उसे यह भी स्पष्ट रूप से यह निर्णय दे देना चाहिए कि उक्त स्थान पर एक मात्र मन्दिर का ही निर्माण हो क्योकि देखा जाए तो बात फिर वहीं जा कर टिक गयी अधिपत्य पुर्ण रूपेण किसका है?

हालाकि न्यायपालिका हमारे देश में सर्वोपरि है और हर व्यक्ति को उसका सम्मान करते हुए उसके द्वारा दिए गए फैसले को स्वीकार करना चाहिए। लेकिन अगर बात करे की किसी एक पक्ष को भी पूर्ण रूप से इस फैसले से आत्मिक संतुष्टि मिली हो तो वर्तमान में लोगों द्वारा आने वाले विचारों से यह कहीं से भी स्पष्ट नहीं होता। हालांकि अभी भी दोनों पक्षों को यह अधिकार प्राप्त है कि इस बाबत वो सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले के विरू़द्व याचिका दायर कर सकते है। लेकिन जो कुछ भी हो इतने बडे ऐतिहासिक व विवादास्पद मामले पर आने वाले फैसले के बावजूद देश व उत्तर प्रदेश की जनता ने अपनी गंगी-जमुनी तहजीब का परिचय देते हुए शांति व्यवस्था बनाए रखते हुए अपनी तहजीब का जो परिचय दिया है उससे सम्पूर्ण विश्व स्तब्ध है। अब देखना यह है कि इस सम्बन्ध में अगला कदम किस पक्ष द्वारा उठाया जाता है।

इनका दर्द भी समझें

-विजय कुमार

मेरे पड़ोस में मियां फुल्लन धोबी और मियां झुल्लन भड़भूजे वर्षों से रहते हैं। लोग उन्हें फूला और झूला मियां कहते हैं। 1947 में तो वे पाकिस्तान नहीं गये; पर मंदिर विवाद ने उनके मन में भी दरार डाल दी। अब वे मिलते तो हैं; पर पहले जैसी बात नहीं रही।

अब वे दोनों काफी बूढ़े हो गये हैं। फूला मियां की बेगम भी खुदा को प्यारी हो चुकी हैं। झूला मियां और उनकी बेगम में होड़ लगी है कि पहले कौन जाएगा ? खुदा खैर करे।

30 सितम्बर को सारे देश की तरह वे दोनों भी रेडियो से कान लगाये इस विवाद के निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे थे। निर्णय आते ही मुसलमानों के चेहरे पर मुर्दनी छा गयी, दूसरी ओर हिन्दू जय श्रीराम का उद्घोष करने लगे।

इस हलचल में रात बीत गयी। अगले दिन बाजार जाते समय वे दोनों मिल गये और इस निर्णय पर चर्चा करने लगे।

उन्हें सबसे अधिक कष्ट यह था कि न्यायाधीशों के अनुसार वह मस्जिद इस्लामी उसूलों के विरुद्ध बनी थी, अतः उसे मस्जिद नहीं कहा जा सकता। मियां फूला ने पूछा – क्यों भैया, तुम तो कई अखबार पढ़ते हो। ये बताओ कि जो इमारत मस्जिद थी ही नहीं, वहां पढ़ी गयी नमाज खुदा मानेगा या नहीं ?

– इस बारे में मैं क्या बताऊं चाचा; आपको किसी मौलाना से पूछना चाहिए।

– अरे खाक डालो उन मौलानाओं पर। उन्होंने तो हमारा जीना हराम कर दिया। वे सीना ठोक कर कहते थे कि बाबरी मस्जिद को दुनिया की कोई ताकत हिला नहीं सकती; पर वह तो कुछ घंटे में ही टूट गयी। फिर वे कहते थे कि हम पहले से बड़ी मस्जिद वहां बनाएंगे। इसके लिए हमने पेट काटकर चंदा भी दिया; पर अब तो न्यायालय ने उस मस्जिद को ही अवैध बता दिया।

– हां, यह ठीक है।

– कई साल पहले ईद पर न जाने कहां से कोई गीलानी-फीलानी आये थे। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि हमें अयोध्या-फैजाबाद में एक नया मक्का बनाना है। पूरी दुनिया के मुसलमान मक्का की तरफ मुंह करके नमाज पढ़ते हैं। यदि हम पांच में से एक वक्त की नमाज फैजाबाद की तरफ मुंह करके पढ़ें, तो हमारी इबादत जरूर कबूल होगी।

– अच्छा ?

– और क्या ? बीमारी के कारण अब मैं मस्जिद तो जाता नहीं; लेकिन घर पर ही रहते हुए मैंने पांचों नमाज फैजाबाद की तरफ मुंह करके पढ़ी, जिससे नया मक्का जल्दी बने; पर लाहौल विला कूवत…। सब नमाज बेकार हो गईं। या खुदा, अब मेरा क्या होगा ? कयामत वाले दिन मुझे तो जहन्नुम में भी जगह नहीं मिलेगी। इतना कह कर वे रोने लगे।

मैंने उनको शांत करने का प्रयास किया; पर उनका दर्द मुझसे भी सहा नहीं जा रहा था।

– मुझे वो मुकदमेबाज हाशिम पंसारी मिल जाए, तो..

– पंसारी नहीं, अंसारी। मैंने उनकी भूल सुधारी।

– अंसारी हो या पंसारी। अपने जूते से उसकी वह हजामत बनाऊंगा कि अगले जन्म में भी वह गंजा पैदा होगा। और उस गीलानी-फीलानी की तो दाढ़ी मैं जरूर नोचूंगा।

– चलो जो हुआ सो हुआ। अब बची जिंदगी में ठीक से नमाज पढ़ो, जिससे पुराने पाप कट जाएं।

मैं जल्दी में था, इसलिए चलने लगा; पर अब मियां झूला लिपट गये। उन्होंने अपना हिन्दी ज्ञान बघारते हुए कहा – भैया, एक लघु शंका मेरी भी है।

– उसे फिलहाल आप अपने मुंह में रखें; कहकर मैं चल दिया।

रास्ते भर मैं सोचता रहा कि इन मजहबी नेताओं ने मस्जिद का झूठा विवाद खड़ाकर अपनी जेब और पेट मोटे कर लिये। कइयों की झोपड़ियां महल बन गयीं। कई संसद और विधानसभा में पहुंच गये; पर झूला और फूला जैसे गरीबों ने उनका क्या बिगाड़ा था, जो उन्होंने बुढ़ापे में इनका दीन ईमान खराब करा दिया ?

फिर दाढ़ी में हाथ

-विजय कुमार

जम्मू-कश्मीर में गत 20 सितम्बर को सांसदों का जो सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल गया था, उसके कुछ सदस्यों ने उन्हीं भूलों को दोहराया है, जिससे यह फोड़ा नासूर बना है। इनसे मिलने अनेक दलों और वर्गों के प्रतिनिधि आये थे; पर देशद्रोही नेताओं ने वहां आना उचित नहीं समझा।

अच्छा तो यह होता कि इन्हें बिलकुल दुत्कार दिया जाता; पर कई सांसदों और उनके दलों के लिए देश से अधिक मुस्लिम वोटों का महत्व है। इसलिए माकपा नेता सीताराम येचुरी के नेतृत्व में कुछ सांसद अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी से मिलने उनके घर गये। भाकपा सांसद गुरुदास दासगुप्ता के साथ कुछ सांसद हुर्रियत नेता मीरवायज उमर फारुक से मिले और रामविलास पासवान जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता यासीन मलिक के घर गये। यह अच्छा ही हुआ कि भाजपा और कांग्रेस के सांसदों ने स्वयं को इस बेहूदी कवायद से दूर रखा।

इन तीनों देशद्रोही नेताओं ने मीडिया का पूरा लाभ उठाया। सांसदों का सम्मान करने वालों से तो वार्ता कमरे में हुई; पर उनका अपमान करने वालों से मीडिया के सामने। स्पष्ट है कि इस मामले में भारत सरकार उल्लू ही बनी है। यद्यपि 100 करोड़ रु0 की सहायता और आठ सूत्री कार्यक्रमों की घोषणा कर अब शासन अपनी पीठ थपथपा रहा है; पर यह कवायद अंततः विफल ही सिद्ध होगी।

हो सकता है कि बाजार और विद्यालयों के खुलने तथा कर्फ्यू के हटने से देशवासी समस्या को समाप्त मान लें; पर यह कुछ दिन की शांति है। पत्थरबाजों की रिहाई, सुरक्षाकर्मियों पर हमला करते हुए उनकी गोली से मरने वालों के परिजनों को पांच लाख रु0 की सहायता तथा पत्थर, डंडे और गाली खाकर भी चुप रहने वाले, इलाज करा रहे सुरक्षाकर्मियों को आठ-दस हजार रु0 का पुरस्कार यह बताता है कि सरकार मुस्लिम तुष्टीकरण की उसी नीति पर चल रही है, जिसने देश की सदा हानि की है।

स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास के अनुसार देश विभाजन का अपराधी मोहम्मद अली जिन्ना पहले देशभक्त ही था। उसने 1925 में सेंट्रल असेंबली में कहा था कि मैं भारतीय हूं, पहले भी, बाद में भी और अंत में भी। वह मुसलमानों का गोखले जैसा नरमपंथी नेता बनना चाहता था। उसने खिलाफत आंदोलन को गांधी का पाखंड कहा। उसने मुसलमानों के अलग मतदान और निर्वाचन क्षेत्रों का विरोध किया। उसने राजनीति में मजहबी मिलावट के गांधी, मोहम्मद अली और आगा खान के प्रयासों का विरोध किया। उसने तिलक के अपमान पर वायसराय विलिंगटन का मुंबई में रहना दूभर कर दिया।

उसने ‘रंगीला रसूल’ के प्रकाशक महाशय राजपाल के हत्यारे अब्दुल कयूम की फांसी का समर्थन किया तथा लाहौर के शहीदगंज गुरुद्वारे के विवाद में सिखों की भरपूर सहायता की। 1933 में उसने लंदन के रिट्ज होटल में पाकिस्तान शब्द के निर्माता चौधरी रहमत अली की हंसी उड़ाकर उसके भोज का बहिष्कार किया तथा कट्टरवादी मुल्लाओं को ‘कातिल ए आजम’ और ‘काफिर ए आजम’ कहा।

1934 में उसने मुंबई के चुनाव में साफ कहा था कि मैं भारतीय पहले हूं, मुसलमान बाद में। जलियांवाला बाग कांड के बाद वह असेम्बली में गांधी और नेहरू से अधिक प्रखरता से बोला था। रोलेट एक्ट के विरोध में उसकी भूमिका से प्रभावित होकर गांधी ने उसे कायदे आजम (महान नेता) कहा और मुंबई में जिन्ना हाल बनवाया, जिसमें मुंबई कांग्रेस का मुख्यालय है; पर यही जिन्ना देशद्रोही कैसे बना, इसकी कहानी भी बड़ी रोचक है।

इसके लिए भारत के मुसलमान, गांधी जी और कांग्रेस की मानसिकता पर विचार करना होगा।

मुसलमानों ने पांचों समय के नमाजी मौलाना आजाद के बदले अलगाव की भाषा बोलने वाले मौलाना मोहम्मद अली और शौकत अली को सदा अपना नेता माना। कांग्रेस के काकीनाड़ा अधिवेशन में उद्घाटन के समय हुए वन्दे मातरम् पर अध्यक्षता कर रहे मौहम्मद अली मंच से नीचे उतर गये थे। उनकी इस बदतमीजी को गांधी और कांग्रेस ने बर्दाश्त किया। इससे जिन्ना समझ गया कि यदि मुसलमानों का नेता बनना है, तो अलगाव की भाषा ही बोलनी होगी। उसने ऐसा किया और फिर वह मुसलमानों का एकछत्र नेता बन गया।

यह भी सत्य है कि अंग्रेजों ने षड्यन्त्रपूर्वक जिन्ना को इस मार्ग पर लगाया, चूंकि वे गांधी के विरुद्ध किसी को अपने पक्ष में खड़ा करना चाहते थे। नमाज न जानने वाला, गाय और सुअर का मांस खाने तथा दारू पीने वाला जिन्ना उनका सहज मित्र बन गया। अंग्रेजों ने उसकेे माध्यम से शासन और कांग्रेस के सामने मांगों का पुलिंदा रखवाना शुरू किया। शासन को उसकी मांग मानने में तो कोई आपत्ति नहीं थी, चूंकि पर्दे के पीछे वे ही तो यह करा रहे थे; पर आश्चर्य तो तब हुआ, जब गांधी जी भी उनके आगे झुकते चले गये।

1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की विफलता और मुसलमानों के उसमें असहयोग से अधिकांश कांग्रेसियों का मोह उससे भंग हो गया; पर गांधी जी उस सांप रूपी रस्सी को थामे रहे। मई 1944 में उन्होंने जेल से मुक्त होकर जिन्ना को एक पत्र लिखा, जिसमें उसे भाई कहकर उससे भेंट की अभिलाषा व्यक्त की।

इस भेंट के लिए मुस्लिम लीग की स्वीकृति लेकर जिन्ना ने शर्त रखी कि वार्ता के लिए गांधी को मेरे घर आना होगा। वहां 9 से 27 सितम्बर तक दोनों की असफल वार्ता हुई। जिन्ना इसके द्वारा गांधी, कांग्रेस और हिन्दुओं को अपमानित करना चाहता था, और वह इसमें पूरी तरह सफल रहा।

अब क्या था; मुसलमानों ने गांधी को अपमानित करने वाले को अपना निर्विवाद नेता मान लिया। अनेक देशभक्त नेताओं ने इस वार्ता का विरोध किया था; पर गांधी जी की आंखें नहीं खुलीं। देसाई-लियाकत समझौते और वैवल योजना के रूप में दो और असफल प्रयास हुए। पत्रकार दुर्गादास के प्रश्न के उत्तर में शातिर जिन्ना ने हंसते हुए कहा – क्या मैं मूर्ख हूं, जो इसे मान लूं। मुझे तो थाल में सजा कर पाकिस्तान दिया जा रहा है। स्पष्ट है कि जिन्ना की निगाह अपने अंतिम लक्ष्य पाकिस्तान पर थी।

इतिहास कितना भी कटु हो; पर उसे नकारा नहीं जा सकता। जो भूल गांधी जी ने की, क्या वही भूल उन सांसदों ने नहीं की, जो इन देशद्रोहियों के घर जा पहुंचे ?

इसी से मिलती-जुलती, पर इसका दूसरा पक्ष दिखाने वाली घटना भी भारत के इतिहास में उपलब्ध है।

1947 में देश स्वाधीन होने के बाद जो दो-चार रजवाड़े भारत में विलय पर मुंह तिरछा कर रहे थे, उनमें से एक हैदराबाद का निजाम भी था। वह पाकिस्तान में मिलना चाहता था, यद्यपि वहां की 88 प्रतिशत प्रजा हिन्दू थी। नेहरू जी उसे समझाने के लिए गये; पर बीमारी का बहाना बनाकर वह मिलने नहीं आया।

जब यह बात सरदार पटेल को पता लगी, तो वे बौखला उठे। उन्होंने कहा कि यह नेहरू का नहीं, देश का अपमान है। अब वे स्वयं हैदराबाद गये और निजाम को बुलाया। वहां से फिर वही उत्तर आया। इस पर पटेल ने कहा कि उसे बताओ कि भारत के उपप्रधानमंत्री आये हैं। यदि वह बहुत बीमार है, तो स्टेचर पर आए। इसका परिणाम यह हुआ कि थोड़ी ही देर में धूर्त निजाम भीगी बिल्ली बना, हाथ जोड़ता हुआ वहां आ गया। फिर सरदार पटेल ने उस रियासत को भारत में कैसे मिलाया, यह भी इतिहास के पृष्ठों पर लिखा है।

यह दो घटनाएं बताती हैं कि देशद्रोहियों से कैसा व्यवहार होना चाहिए ? आज हमें गांधी या नेहरू जैसे दाढ़ी सहलाने वाले नहीं, पटेल जैसे दाढ़ी नोचने वाले हाथ चाहिए। दुर्भाग्यवश वर्तमान शासन तंत्र इसमें बिल्कुल नाकारा सिद्ध हुआ है।

वर्तमान दौर में गांधी दर्शन की प्रासंगिकता

-तनवीर जाफ़री

वैश्विक स्तर पर व्याप्त हिंसा, मतभेद, बेरोजगारी, महंगाई तथा तनावपूर्ण वातावरण में आज बार-बार यह प्रश्न उठाया जा रहा है कि गांधी के सत्य व अहिंसा पर आधारित दर्शन और विचारों की आज कितनी प्रासंगिकता महसूस की जा रही है। यूं तो गांधीवाद का विरोध करने वालों ने जिनमें दुर्भाग्यवश और किसी देश के लोग नहीं बल्कि अधिकांशतया: केवल भारतवासी ही शामिल हैं, ने गांधी के विचारों की प्रासंगिकता को तब भी महसूस नहीं किया था जबकि वे जीवित थे। गांधी से असहमति के इसी उन्माद ने उनकी हत्या तो कर दी परन्तु आज गांधी के विचारों से मतभेद रखने वाली उन्हीं शक्तियों को भली-भांति यह महसूस होने लगा है कि गांधी अपने विरोधियों के लिए दरअसल जीते जी उतने हानिकारक नहीं थे जितना कि हत्या के बाद साबित हो रहे हैं। और इसकी वजह केवल यही है कि जैसे-जैसे विश्व हिंसा, आर्थिक मंदी, भूख, बेरोंजगारी और नफरत जैसे तमाम हालात में उलझता जा रहा है, वैसे-वैसे दुनिया को न केवल गांधी के दर्शन याद आ रहे हैं बल्कि गांधीदर्शन को आत्मसात करने की आवश्यकता भी बड़ी शिद्दत से महसूस की जाने लगी है। गांधी आज क्यों याद आ रहे हैं और गांधीवाद की प्रासंगिकता क्यों महसूस की जा रही है, इसके लिए हमें इतिहास की हाल की कुछ घटनाओं पर नंजर डालनी होगी।

अमेरिका पर 9/11 को हुए आतंकवादी हमले ने दुनिया की राजनीति का रुख ही बदलकर रख दिया। अमेरिका की उपसाम्राज्यवादी नीतियों से क्षुब्ध तथा स्वार्थपूर्ण अमेरिकी विदेश नीति से स्वयं को दु:खी बताने वाले आतंकवादियों ने अमेरिका की स्मृद्धि का प्रतीक समझे जाने वाले न्यूयॉर्क शहर की प्रमुख इमारत वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला बोलकर जिस प्रकार लगभग 5 हजार बेगुनाह लोगों को अपना निशाना बनाया, वह वास्तव में एक क्रूरतम एवं असहनीय अपराध था। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसे जघन्य अपराध करने वालों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए तथा ऐसा अपराध करने की प्रेरणा देने वाले संगठनों एवं इससे जुड़े नेटवर्क को निश्चित रूप से समाप्त किए जाने की आवश्यकता है। 911 के आतंकी आक्रमण के बाद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश द्वितीय ने कुछ ऐसा ही किया। अमेरिका पर हुए आतंकी हमले को अमेरिकी स्वाभिमान पर हमला मानते हुए राष्ट्रपति बुश ने आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर डाली। उनकी इस घोषणा के बाद तथा राष्ट्रपति बुश के आक्रामक तेवर को समझने के बाद दुनिया दो भागों में विभाजित हो गई। स्वयं जॉर्ज बुश ने भी उस समय यही कहा कि दुनिया के देशों के समक्ष इस समय केवल दो ही रास्ते हैं। या तो वे मेरे साथ हैं या उनके (आतंकवाद) साथ। तीसरा कोई रास्ता नहीं है। जाहिर है शांतिप्रिय संसार की मनोकामना करने वाले विश्व के अधिकांश देश अमेरिका पर आए संकट के अवसर की इस गंभीरता को समझते हुए राष्ट्रपति बुश के इस आह्वान पर अमेरिका के साथ हो लिए। परन्तु दुनिया के शांतिप्रिय देशों द्वारा अमेरिका का साथ दिए जाने का मकसद मात्र ‘आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध’ की राष्ट्रपति बुश की घोषणा का समर्थन करना था। आतंकवाद से पीड़ित एवं प्रभावित कई देश दरअसल यह चाहते थे कि केवल आतंकवाद के ही विरुद्ध अमेरिकी नेतृत्व में एक विश्वव्यापी निर्णायक जंग लड़ी जाए। कई दशकों से आतंकवाद का दंश झेल रहे देशों को आतंकी घटनाओं से छुटकारा मिले तथा दुनिया शांति व अमन चैन से रह सके और यह सब पूरी ईमानदारी व पारदर्शिता के साथ हो।

परन्तु दुनिया की उपरोक्त सभी कल्पनाएं तथा मनोकामनाएं धरी की धरी रह गईं। आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध की राष्ट्रपति बुश की घोषणा के बाद बुश के पूरे शासनकाल के दौरान दुनिया के किसी भी देश से आतंकवाद का संफाया नहीं हो सका। दुनिया का सबसे बड़े आतंकवादी समझे जाने वाला तथा अमेरिका का मोस्ट वांटेड अपराधी ओसामा बिन लादेन अब तक पकड़ा नहीं जा सका। उसके आतंकी संगठन अलंकायदा के नेटवर्क को भी आज तक समाप्त नहीं किया जा सका। 9/11 के बाद अमेरिका ने सर्वप्रथम अफगानिस्तान के जिन तालिबानी हुक्मरानों को अफगानिस्तान की सत्ता से बेदंखल किया तथा जिन तालिबानों पर अलंकायदा के साथ गठबंधन करने का आरोप लगाया था, वह तालिबान अमेरिका के नेतृत्व में अफगानिस्तान में मोर्चा संभालने वाली नाटो सेनाओं के आगे बेशक कुछ समय के लिए तो नहीं टिक सके। परन्तु मात्र 4 वर्षों के भीतर ही उन्हीं तालिबानों ने आज पुन: स्वयं को इतना संगठित व मजबूत कर लिया है कि अब एक बार फिर अमेरिकी रणनीतिकारों को अफगानिस्तान का वही क्षेत्र दुनिया का सबसे खतरनाक क्षेत्र महसूस होने लगा है। उधर उसी दौरान राष्ट्रपति बुश ने आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध की अपनी घोषणा की आड़ में एक और जबरदस्त गलती यह कर डाली थी कि उन्होंने एक बड़े और संफेद झूठे का सहारा लेकर इराक में अमेरिकी सेना भेज दी। अमेरिकी सेना ने इरांक में इस बहाने से प्रवेश किया कि सद्दाम हुसैन ने इराक में सामूहिक विनाश के हथियारों का बड़ा जखीरा इकट्ठा कर रखा है। इस बहाने इराक में जा घुसी अमेरिकी सेना ने न केवल इराक को मलवे के ढेर में बदल डाला बल्कि सद्दाम हुसैन को भी दुजैल नरसंहार के नाम से प्रसिद्ध एक स्थानीय मामले में इरांकी अदालत में ही मुकद्दमा चलवाकर उसे फांसी के फंदे तक पहुंचा दिया। सर्वशक्तिमान अमेरिका की इन चालबाजियों को पूरी दुनिया मात्र एक मूकदर्शक बनकर सहमी खड़ी देखती रही। उधर अमेरिकी शह पर इजराईल द्वारा भी अमेरिका का ही अनुसरण किया जाता रहा है। आतंकवाद के नाम पर इंजराईल जब चाहता है, फिलिस्तीनी क्षेत्रों पर बमबारी करने लग जाता है। अमेरिका की तरह इजराईल भी इन हमलों का कारण आतंकवाद का संफाया ही बताता है। अभी कुछ समय पूर्व इजराईल ने लेबनान में भी हिजबुल्लाह नामक संगठन को आतंकवादी संगठन बताकर उसके विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया था।

उपरोक्त सभी हिंसापूर्ण घटनाओं के बाद जो नतीजा सामने आया उसके अनुसार राष्ट्रपति बुश की आतंकवाद विरोधी युद्ध की नीति का परिणाम यही देखा जा रहा है कि न तो लादेन अब तक पकड़ा जा सका न ही मुल्ला मोह मद उमर तथा अैमन अल जवाहिरी जैसे मोस्ट वांटेड आतंकवादी अमेरिकी सेना की गिरं त में आ सके। बजाए इसके अलंकायदा के नेटवर्क से जुड़े संगठन पहले से अधिक मंजबूत हुए हैं। इन संगठनों में आतंकियों की भर्ती में इंजांफा हुआ है। कई नए आतंकी संगठनों ने अपने सिर उठा लिए हैं। यहां तक कि अमेरिकी सेना से अपनी हार मान लेने वाला तालिबानी संगठन भी अब एक बार फिर पहले से अधिक मजबूत स्थिति में पहुंचता दिखाई पड़ रहा है। अफगानिस्तान से सटे पाकिस्तान पर आतंकवादियों का शिकंजा इतना मंजबूत हो गया है कि स्वयं पाक राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी को यह स्वीकार करना पड़ा है कि पाकिस्तान में आतंकवादी हावी हैं तथा स्वयं पाकिस्तान आतंकियों से जूझते हुए अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। पिछले दिनों तो पाक-अफगान सीमावर्ती स्वात घाटी क्षेत्र में तालिबानों ने आतंकवाद का ऐसा खेल खेला कि पाकिस्तान व नाटो सेना ने भी उनकी तांकत के आगे घुटने टेक दिए। तालिबानों ने अपनी तांकत के बल पर पाकिस्तानी सरकार से अपनी बात मनवाते हुए इस पूरे कबायली क्षेत्र में शरिया कानून लागू करवा लिया। इस घटना को तालिबानों की बड़ी जीत तथा सैन्य शक्ति की हार के रूप में देखा जा रहा है।

आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध के भयावह परिणाम इसके नाम पर विभिन्न देशों में लाखों लोगों की होने वाली मौतें, आतकवाद के नाम पर होने वाले अरबों डॉलर के खर्च, लाखों बेगुनाहों साथ-साथ हजारों अमेरिकी व उसके सहयोगी देशों के सैनिकों की मौतों तथा इन सबके बीच विश्व में छाई भारी आर्थिक मंदी, बेरोंजगारी एवं मानवाधिकारों के हनन के परिणामस्वरूप उपजने वाले विश्वव्यापी असंतोष के बीच अमेरिका में राष्ट्रपति के चुनाव गत् वर्ष नव बर में सम्‍पन्न हुए। इन चुनावों में जहां एक ओर राष्ट्रपति बुश की नीतियों का अनुसरण करने वाले जॉन मैकेन चुनाव मैदान में आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध में अपनाई जाने वाली आक्रामक नीतियों का समर्थन कर रहे थे, वहीं एक अन्य अश्वेत प्रत्याशी बराक हुसैन ओबामा, महात्मा गांधी द्वारा बताए गए सत्य, शांति एवं अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए दुनिया में शांति स्थापित करने की बात कर रहे थे। आंखिरकार अमेरिका में नव बर 2008 में सम्‍पन्न हुए राष्ट्रपति चुनावों में बराक ओबामा भारी अन्तर से विजयी घोषित हुए तथा 20 जनवरी को सत्य, अहिंसा तथा शांति की बात करने वाले पहले अश्वेत अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में ओबामा ने राष्ट्रपति पद की शपथ ग्रहण की। अमेरिकी राजनीति में आए इस क्रांतिकारी परिवर्तन के पीछे आंखिर क्या रहस्य था। महाबली, सर्वशक्तिमान तथा ऐसी और न जाने कितनी उपाधियों से पुकारे जाने वाले अमेरिका की जनता आंखिर जॉर्ज बुश के तथाकथित ‘आतंकवाद विरोधी युद्ध’ से ऊब कर क्योंकर शांति कीबात करने वाले ओबामा के समर्थन में एकमत हो गई? इसी ऐतिहासिक परिवर्तन ने एक बार फिर यह प्रश् अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर खड़ा कर दिया है कि कहीं आज के हिंसापूर्ण वातावरण में महात्मा गांधी के आदर्शों की पुन: प्रासंगकिता तो महसूस नहीं की जा रही है? जहां तक ओबामा का प्रश्न है तो ओबामा का जीवन महात्मा गांधी के आदर्शों से प्रेरित रहा है। राष्ट्रपति चुनाव के समय ओबामा ने अपने सीनेट कार्यालय में महात्मा गांधी की वह तस्वीर लगा रखी थी जिसमें गांधी शांति का संदेश देते हुए नजर आ रहे हैं। ओबामा महात्मा गांधी के उस महान दर्शन के कायल हैं जिसके तहत गांधीजी ने विश्व समाज को किसी की दमनकारी नीतियों का विरोध शांतिपूर्ण तरींके से करने हेतु प्रेरित किया था। ओबामा यह स्वीकार करते हैं कि उन्होंने सदैव गांधीजी को अपने आदर्श एवं प्रेरणा के रूप में देखा व समझा है। अपने कार्यालय में गांधी के चित्र लगाने के विषय में ओबामा फरमाते हैं कि मेरे सीनेट दं तर में गांधीजी की तस्वीर इसलिए लगी हुई है ताकि मैं यह याद रख सकूंकि वास्तविक परिणाम सिर्फ वाशिंगटन से नहीं बल्कि जनता के बीच से आएंगे। ओबामा कहते हैं कि भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराने हेतु रणनीति तैयार करते वक्त गांधीजी को एक विकल्प का चुनाव करना था तथा गांधीजी ने इस विकल्प के रूप में भय के स्थान पर साहस का चुनाव किया। प्रश् यह है कि वैश्विक परिवर्तन की बात करने वाले तथा अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए बातचीत के माध्यम से समस्याओं का समाधान तलाशने वाले ओबामा तो हिंसा व आतंकवाद के इस विश्वव्यापी दौर में गांधीजी के आदर्शों पर चलते हुए आज के दौर में गांधी के आदर्शों को प्रासंगिक महसूस कर रहे हैं। ऐसे में यह सवाल भी जरूरी है कि आंखिर महात्मा गांधी ने स्वयं यह प्रेरणा कहां से हासिल की? निर्बल होने के बावजूद अन्याय के विरुद्ध साहस के साथ निर्भय होकर डटे रहना तथा असत्य के समक्ष नतमस्तक न होने जैसे बेशंकीमती गुण गांधीजी ने कहां से सीखे। उन्हें स्वयं यह प्रेरणा कहां से प्राप्त हुई।

दरअसल सर्वधर्म समभाव की जीती जागती तस्वीर समझे जाने वाले इस महान आदर्शवादी व्यक्ति ने अनेक धर्मों व स प्रदायों के इतिहास तथा धर्मग्रन्थों का अध्ययन किया था। इनमें जहां गीता का अध्ययन कर गांधीजी ने कर्म आधारित धर्म के सिद्धान्त पर चलने की जबरदस्त प्रेरणा हासिल की, वहीं इस्लामी इतिहास के करबला हादसे ने भी महात्मा गांधी के जीवन को बहुत प्रभावित किया। यह थी इरांक के करबला शहर में फुरात नदी के किनारे पर घटित 680 ई0 की वह घटना जिसमें तत्कालीन सीरियाई शासक यजीद ने अपनी विशाल सेना के द्वारा हजरत मोहम्‍मद के नाती हजरत इमाम हुसैन व उनके परिवार के 72 सदस्यों को बेरहमी से कत्ल कर दिया था। दरअसल यदि हुसैन मदीना छोड़कर करबला न आते तो दुस्साहसी यंजीद मदीने में जाकर हंजरत हुसैन व उनके परिजनों व साथियों का कत्ल कर सकता था। परन्तु मदीने की पवित्रता को बचाए रखने के लिए हुसैन ने स्वयं मदीना छोड़ दिया तथा यह जानते हुए भी कि अब हुसैन अपने सभी साथियों के साथ यंजीद की सेना के हाथों कत्ल कर दिए जाएंगे फिर भी उन्होंने करबला की ओर रुंख किया। क्रूर, शक्तिशाली, दुष्‍कर्मी, अहंकारी, भ्रष्ट तथा चरित्रहीन शासक यजीद के आगे घुटने टेकने, समझौता करने अथवा उसकी कोई भी बात मानने के बजाए हंजरत हुसैन ने अपने परिजनों के साथ सुर्खुरु होकर शहादत हासिल की। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस्लाम में आज जो कुछ भी सकारात्मक पहलू नंजर आते हैं उसका विस्तार विश्वव्यापी दिखाई देता है, उसमें सबसे बड़ा किरदार करबला में दी गई हुसैन की शहादत का ही है। जिस प्रकार हुसैन इस्लाम की रक्ष हेतु 72 व्यक्तियों का काफिला लेकर मदीने से करबला के लिए रवाना हुए थे, उसी घटना से प्रेरणा लेते हुए अपने पहले नमक सत्याग्रह में गांधीजी ने भी अपने साथ विभिन्न वर्ग व समाज के 72 लोगों को ही चुना। गांधीजी का मानना था कि विश्व में इस्लाम के विस्तार का कारण मुस्लिम शासकों की तलवारें नहीं बल्कि हुसैन जैसे महान संतों की कुर्बानी है। गांधीजी हजरत हुसैन की कुर्बानी से इस हद तक प्रेरित थे कि उनका मानना था कि यदि उनके पास भी हंजरत इमाम हुसैन जैसे मात्र 72 सिपाहियों की सेना होती तो वे भी भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई मात्र 24 घंटों में जीत सकते थे। उनका यहां तक कहना था कि यदि भारत एक सफल राष्ट्र बनना चाहता है तो इस देश को इमाम हुसैन के पद्चिन्हों पर चलना चाहिए।

गांधीजी अहिंसा के पुजारी होने के नाते भली-भांति समझ चुके थे कि हिंसा की बात चाहे किसी भी स्तर पर क्यों न की जाए, परन्तु वास्तविकता यही है कि हिंसा किसी भी समस्या का स पूर्ण एवं स्थायी समाधान कतई नहीं है। जिस प्रकार आज के दौर में आतंकवाद व हिंसा विश्व स्तर पर अपने चरम पर दिखाई दे रही है तथा चारों ओर गांधी के आदर्शों की प्रासंगिकता की चर्चा छिड़ी हुई है, ठीक उसी प्रकार गांधीजीभी अहिंसा की बात उस समय करते थे जबकि हिंसा अपने चरम पर होती थी। उदाहरण के तौर पर 1914 से लेकर 1918 तक प्रथम विश्व युद्ध के दौरान गांधीजी ने अहिंसा की आवांज बुलंद की। इसी प्रकार 1939 से 1944 तक चलने वाले द्वितीय विश्व युद्ध की भीषण हिंसा के समय भी गांधीजी अहिंसा परमो: धर्म: जैसे शांति सूत्र का प्रचार व प्रसार करते दिखाई दिए। गांधीजी हथियारों के विरुद्ध हथियार प्रयोग करने के बजाए हथियारों के विरुद्ध विचारों का प्रयोग करने की बात कहते थे। उन्होंने अन्याय व असमानता के विरुद्ध युद्ध करने का एक ऐसा इन्सानी तरींका समाज को दिया था जिसमें किसी को अपना दुश्मन बनाने की जरूरत नहीं पड़ती थी और न ही हथियार उठाने की आवश्यकता थी। वे समाज को अपने विचारों से सहमत करने तथा उसका हृदय परिवर्तन करने में विश्वास रखते थे। द्वितिय विश्व युद्ध में हुई भयंकर जान व माल की तबाही के बाद भी जब युद्ध से कोई नतीजा हासिल नहीं हुआ तब आंखिरकार संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1945 में गांधीजी के ही सिद्धान्तों के अनुरूप यह घोषणा की कि युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं है। अत: बातचीत के माध्यम से ही सभी मामले सुलझाए जाने चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ के इसी शांति प्रस्ताव पर संघ के सभी सदस्य देशों ने हस्ताक्षर किए थे।

अमेरिका सहित लगभग सारी दुनिया इस समय आर्थिक मंदी की भारी चपेट में है। ऐसे विषयों को लेकर भी गांधीजी पूरी तरह सचेत व बाखबर रहा करते थे। बड़े उद्योगों के प्रबल विरोधी गांधीजी बढ़ते हुए उद्योगवाद से बहुत चिंतित थे। उद्योगवाद की इस व्यवस्था को वे शैतानी व्यवस्था का नाम देते थे। गांधीजी का मानना था उद्योगवाद की व्यवस्था मनुष्य द्वारा मनुष्य का ही शोषण किए जाने पर आधारित व्यवस्था का नाम है। उद्योगवाद की व्यवस्था में विषमता तो बढ़ेगी परन्तु इस व्यवस्था में न्याय नहीं हो सकेगा। आज भारत जैसे देश में बढ़ती हुई बेरोंजगारी तथा बड़े एवं आधुनिक उद्योगों की भरमार ने यहां भी गांधीजी के विचारों की प्रासंगिकता की याद दिला दी है। देश में जहां कहीं भी लघु उद्योग, हस्त शिल्प, करघा उद्योग तथा कामगारों से जुड़े ऐसे अन्य तमाम उद्योग बंद पड़े हैं, वहां इससे जुड़े लोग बुरी तरह प्रभावित हैं तथा जहां कहीं भी ऐसे लघु उद्योग फल फूल रहे हैं, वहां का गरीब मजदूर, आम आदमी तथा कामगार वर्ग अपनी दो वक्त क़ी रोटी का प्रबंध कर पाने में सक्षम है।

दरअसल लघु उद्योग के पक्ष में गांधीजी की सोच के पीछे मु य कारण यही था कि गांधीजी हमेशा गरीबों के हितों की बात ही सोचा करते थे। वे यह भली भांति जानते थे कि समाज में परिवर्तन, विकास या प्रगति के लिए यहां तक कि सामाजिक क्रांति लाने तक के लिए गरीबों को रोटी, कपड़ा और मकान का मिलना बहुत जरूरी है। वे यह भली भांति समझते थे कि एक नंगा, भूखा तथा बिना झोपड़ी का व्यक्ति देश की स्वतंत्रता अथवा स्वतंत्रता संग्राम के विषय में कुछ सोच ही नहीं सकता। अत: देश की स्वतंत्रता की पूरी लड़ाई के केंद्र में गांधीजी हमेशा गरीबों के हितों के विषय में ही सोचा करते थे। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि गरीबों के हितों को लेकर क यूनिस्टों के विचार कांफी हद तक गांधीजी के विचारों से भी मेल खाते थे। यहां तक कि स्वतंत्रता संग्राम में अपना र्स्वस्व झोंक चुके क्रांतिकारी लोग भी ंगरीबों के हितों की रक्षा की ही बातें करते थे। यही वजह थी कि स्वतंत्रता की लड़ाई के समय सबसे प्रमुख नारा यही बुलंद हुआ कि धन और धरती का बंटवारा होकर रहेगा। गरीबों के उत्थान के विषय को गांधीजी ने अपने दिल से किस हद तक लगा लिया था, यह बात उनके त्याग से आंकी जा सकती है। गांधीजी ने बैरिस्टर की पढ़ाई पास करने के बाद जब दक्षिण अफ्रीका जाकर वकालत शुरु की, उस समय कुछ ही समय में उनकी गिनती दक्षिण अफ्रीका के प्रसिद्ध वकीलों में होने लगी। कहा जा सकता है कि यह शोहरत भारत के उस युवा प्रतिभाशाली, ईमानदार एवं कर्मठ व्यक्ति को मिल रही थी जोकि कुछ ही वर्षों के बाद भारत का भाग्यविधाता होने वाला था। गांधीजी 1905 के आसपास के दौर में अफ्रीकी अदालत में अपने अदालती जौहर दिखाकर लगभग 5 हंजार पाऊंड वार्षिक की आमदनी कर लिया करते थे। निश्चित रूप से यह आज के समय के हिसाब से बहुत बड़ी रंकम कही जा सकती है। क्योंकि उस समय मात्र एक पाऊंड में सात तोला सोना खरीदा जा सकता था। कहा जा सकता है कि आमदनी के लिहांज से गांधीजी न केवल एक सफल बल्कि एक स पन्न वकील भी थे। जाहिर है उस समय उनके पास ठाठ-बाट, ऐशो-आराम, किसी चींज की कोई कमी नहीं थी। परन्तु हकीकत तो यह थी कि सब कुछ होने के बावजूद इस महान आत्मा के भीतर अन्याय के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने की एक ज्वाला धधक रही थी। और यह ज्वाला असमानता व अन्याय के विरुद्ध आवांज उठाने की थी। अफ्रीका में उस समयव्याप्त रंगभेद को समाप्त करने की तथा भारत की गुलामी की जजीरों से मुक्त कराने की ज्वाला थी। गांधीजी की इसी सोच ने उन्हें अपने कोट पैंट, टाई सूट त्यागने तथा गरीबों के बीच रहकर गरीब लोगों की तरह तन पर एक धोती लपेटने की प्रेरणा दी। और तभी गांधीजी ने कहा था कि जब तक देश के ंगरीबों को सब कुछ नहीं मिल जाता, तब तक मैं कुछ भी नहीं ग्रहण करूंगा।

गांधीजी भली भांति यह जानते थे कि भारत की वास्तविक आत्मा देश के गांवों में बसती है। अत: जब तक गांव विकसित नहीं हो जाते, तब तक देश के वास्तविक विकास की कल्पना करना बेमानी है। स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद गांधीजी ने पंडित नेहरु से यह कहा भी था कि अब देश के गांवों की ओर देखिए। देश के आर्थिक आधार के लिए गांवों को ही तैयार करना चाहिए। गांधीजी का विचार था कि भारी कारखाने स्थापित करने के साथ-साथ दूसरा स्तर भी बचाए रखना जरूरी है और यह दूसरा स्तर है ग्रामीण अर्थव्यवस्था का। स्वतंत्रता के पश्चात तत्कालीन सत्ताधीशों ने गांधीजी की इस बात को कितना महत्व दिया और कितना नहीं, यह एक अलग विषय है। परन्तु मनमोहन सिंह के रूप में भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री कहीं न कहीं गांधीजी की भाषा बोलते जरूर दिखाई दे रहे हैं। मनमोहन सिंह कई बार यह दोहरा चुके हैं तथा राष्ट्रीय स्तर की ऐसी कई योजनाएं भी घोषित कर चुके हैं जिनका संबंध गांव की ओर ध्यान दिए जाने से है। भारत सरकार द्वारा ऐसी नीतियों के कार्यान्वन से यह पता चलता है कि यहां भी एक बार फिर गांधीजी के विचारों की प्रासंगिकता ही सिर चढ़कर बोलती हुई दिखाई दे रही है।

गांधीजी देश के छोटे बच्चों को भी आत्म निर्भर बनाने की शिक्षा देना चाहते थे। इसीलिए वे श्रमदान करने व कराने के पक्षधर थे। मुझे याद है जब मैं छठी व सातवीं कक्षा में पढ़ा करता था, उस समय बांगबानी का एक विशेष ‘पीरियड’ हुआ करता था। इस दौरान कक्षा के सभी बच्चे स्कूल के बंगीचे में जाते तथा गांव के किसानों की ही तरह बंगीचे में खेती का पूरा काम करते। यहां तक कि रहट चलाने जैसा मेहनत करने वाला काम भी बच्चों को सामूहिक रूप से करना पड़ता था। यह शिक्षा प्रत्येक स्कूलों मेंमहात्मा गांधी द्वारा दी गई सीख तथा उनस प्राप्त प्रेरणा के अनुरूप ही दी जाती थी। इसका मकसद यह था कि बच्चे आत्म निर्भर रहें, श्रमदान सीखें और मेहनत करने से घबराएं या हिचकिचाएं नहीं तथा आवश्यकता पड़ने पर स्वयं खेती कर सकें, पुलों, बांधों, तालाबों, सड़कों व गलियों आदि का श्रमदान के द्वारा निर्माण कर सकें। परन्तु दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि अब श्रमदान की परिकल्पना ही लगभग समाप्त हो चुकी है। बांगबानी की जगह कंप्‍यूटर शिक्षा ने ले ली है। आधुनिक शिक्षा के नाम पर मनुष्य भले ही विकास की वर्तमान राह पर अग्रसर क्यों न हो परन्तु शारीरिक रूप से आज का छात्र निश्चित रूप से आलसी होता जा रहा है। क पयूटर शिक्षा एवं वर्तमान आधुनिक विज्ञान प्रौद्योगिकी ने भले ही एक ‘माऊस’ के माध्यम से पूरी दुनिया को उसकी मुट्ठी में ही क्यों न कर दिया हो परन्तु दुनिया को मुट्ठी में करने की बातें करने वाला यही बच्चा निश्चित रूप से अपने आस-पास की बुनियादी जरूरतों से अनजान तथा बेपरवाह प्रतीत होता है। अर्थात् श्रमदान करने की मानसिकता का अभाव आज के दौर में समाज को पूरी तरह से सरकारी व्यवस्थाओं पर आधारित बनाता जा रहा है। और यहां यह कहने की जरूरत ही नहीं कि सरकारी मशीनरी का अपना क्या हाल है।

गांधीजी के बताए हुए श्रमदान पर जब बात चली है तो एक बात यह बतानी भी जरूरी है कि भारत में गैर सरकारी तौर पर कई ऐसे संगठन काम कर रहे हैं जिन्हें श्रमदान के द्वारा पुल, सड़कें तथा बांध आदि बनाने में महारत हासिल है। लेकिन भारत जैसे देश की विशालता के लिहांज से देश के आम लोगों को श्रमदान के प्रति जितना आकर्षित होना चाहिए था, उतना नहीं है। मंजे की बात तो यह है कि देश की सरकारी मशीनरी भी गांधीजी के इस फार्मूले की पूर्णतय: अवहेलना नहीं कर पाती। यही वजह है कि अक्सर मीडिया के माध्यम से श्रमदान में भाग लेते हुए विशिष्ट लोगों के चित्र कभी कभार प्रकाशित व प्रसारित होते दिखाई देते हैं, जिसमें कोई विशिष्ट नेता या अधिकारी प्रतीकात्मक रूप से श्रमदान कर अपनी फोटो खिंचवाता दिखाई देता है। पिछले दिनों मध्य प्रदेश की एक गैर कांग्रेसी सरकार ने गांधीजी के श्रमदान के सिद्धान्तों का अनुसरण करते हुए एक बहुत बड़ी राज्यव्यापी योजना की शुरुआत की है। राज्य में बढ़ते जा रहे जल संकट के परिणामस्वरूप राज्य सरकार ने महात्मा गांधी के श्रमदान सिद्धान्त पर अमल करते हुए भोपाल की एक प्रसिद्ध झील की खुदाई शुरु की। बड़े पैमाने पर चले इस श्रमदान कार्यक्रम में राज्य के मुख्‍यमंत्री सहित वरिष्ठ अधिकारी, कलाकार, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, अनेकों सामाजिक संगठन तथा सभी धर्मों व स प्रदायोंके आम लोग शामिल हुए। राज्य सरकार ने इस योजना के अन्तर्गत प्रदेश की कई ऐसी झीलों व तालाबों को चिन्हित किया है जिन्हें श्रमदान के द्वारा पुन: उपयोग में लाने योग्य बनाया जाना है। बेशक इस योजना में सरकारी मशीनरी भी पूरा साथ दे रही है। परन्तु श्रमदान किए जाने की धारणा ही इस बात की स्वयं साक्षी है कि हो न हो गांधीजी की याद न सिंर्फ हमारे देश के लोगों को बल्कि आवश्यकता पड़ने पर सारी दुनिया को सदैव आती रहेगी तथा गांधीजी के विचारों की प्रासंगिकता हमेशा ही हम सभी को महसूस होती रहेगी।

अहिंसा से हिंसा को पराजित करने की सारी दुनिया को सीख देने वाले गांधीजी स्वयं गीता से प्रेरणा लेते थे। हालांकि वे गीता को एक अध्यात्मिक ग्रन्थ स्वीकार करते थे। परन्तु श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए संदेश में कर्म के सिद्धान्त का जो उल्लेख किया गया है, उससे वे अत्यधिक प्रभावित थे। गांधीजी जिस ढंग से गीता के इस अति प्रचलित वाक्य—‘कर्म किए जा, फल की चिंता मत कर’ की व्या या करते थे, वास्तव में आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसी व्या या की प्रासंगिकता महसूस की जा रही है। गीता से अत्यधिक प्रभावित गांधीजी ने निश्चित रूप से गीता से ज्ञान व भक्ति की प्रेरणा हासिल की होगी। परन्तु इस ग्रन्थ के माध्यम से उन्हें निष्काम कर्म की महिमा का जो ज्ञान प्राप्त हुआ, वह सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। गीता के ‘कर्म करो और परिणाम की चिंता मत करो’ की सीख देकर गांधीजी दुनिया को यह समझाना चाहते थे कि वास्तव में किसी भी मनुष्य को यह ज्ञान अवश्य होना चाहिए कि कर्म करने वाला व्यक्ति किस लक्ष्य को प्राप्त करने के उद्देश्य से अपना कर्म कर रहा है। परन्तु मात्र लक्ष्य को ही केंद्र बिंदु मानकर यदि कर्म किया जाए तो कर्ता की स्थिति विषयान्ध जैसी हो जाती है। ऐसी स्थिति में वही कर्ता, कर्म करने की क्रिया को नजर अंदाज कर केवल और केवल लक्ष्य को साधने अथवा फल की प्राप्ति मात्र की ही दिशा में अंधा होकर चल पड़ता है। इसके लिए कोई भी रास्ता अपनान से नहीं हिचकिचाता इस सोच का परिणाम क्या होता है, यह आज दुनिया के किसी भी क्षेत्र में विशेषकर राजसत्ता से जुड़े क्षेत्रों में देखा जा सकता है।

आज राजनीति में सक्रिय लोग अधिकांशत: सत्ता को हासिल करने के लक्ष्य को केंद्र में रखकर अपनी राजनैतिक बिसात बिछाते हैं। बजाए इसके कि यही तथाकथित राजनेता समाज सेवा के माध्यम से विकास एवं प्रगति के नाम पर जनकल्याण से जुड़े मुद्दों के आधार पर अशिक्षा व बेरोंजगारी दूर करने के नाम पर, स्वास्थ सेवाएं मुहैया कराने, सड़क बिजली व पानी जैसी मनुष्य की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के नाम पर मतदाताओं के बीच जाकर उनसे समर्थन की दरकार करें तथा अपने किए गए कार्यों के नाम पर जनसमर्थन जुटाने की कोशिशें करें। ठीक इसके विपरीत अब बिना कर्म किए ही फल प्राप्त करने अर्थात् राजसत्ता को दबोचने का प्रयास किया जाने लगा है। इस ‘शार्टकट’ अपनाने का दुष्परिणाम यही है कि आज पूरे भारत में सा प्रदायिकता फल फूल रही है। दुनिया के अन्य कई देश भी इस समय सा प्रदायिकता तथा जातिवाद की पीड़ा से प्रभावित हैं। सत्ता जैसे फल को यथाशीघ्र एवं अवश्य भावी रूप से हासिल करने के लिए कहीं सा प्रदायिक दंगे करवा दिए जाते हैं तो कहीं भाषा, जाति, वर्ग भेद की लकीरें खींच दी जाती हैं। अब तो भारत के एक राज्य विशेष के कुछ संकीर्ण मानसिकता के लोग पूरे उत्तर भारतीयों के विरुद्ध नफरत के बीज बो रहे हैं। दरअसल यह इनके द्वारा किया जाने वाला कर्म नहीं है। बल्कि राज सत्ता रूपी फल फल को प्राप्त करने हेतु इनकी स्थिति एक विषयान्ध जैसी हो चुकी है। और एक विषयान्ध व्यक्ति नीतियों, सिद्धान्तों यहां तक कि मानवता को ही त्याग देता है तथा केवल लक्ष्य कोअर्जित करने के लिए निम् से निम्न स्तर तक के फैसले लेने में नहीं हिचकिचाता।

बड़े दु:ख के साथ यह भी कहना पड़ता है कि गांधीजी के सिद्धांतों, उनके दर्शन तथा उनके मानवतापूर्ण विचारों की सबसे अधिक धज्जियां स्‍वयं उनके गृह राज्‍य गुजरात में भारत में सक्रिय गांधीदर्शन की विरोधी विचारधारा रखनेवाली साम्‍प्रदायिक ताक़तों द्वारा उड़ाई जा रही है। चिराग़ तले अंधेरा की कहावत दरअसल गुजरात में ही चरितार्थ होती दिखाई दे रही है। स्‍वतंत्र भारत में सबसे पहले व सबसे महत्‍वपूर्ण राजनैतिक व्‍यक्ति की हत्‍या भी सर्वप्रथम गांधीजी के ही रूप में हुई थी। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि सभी समुदायों के लोगों को समान नज़रों से देखनेवाले गांधीजी दरअसल सत्ता अथवा बहुमत को केन्‍द्र में रखकर कोई निर्णय क़तई नहीं लेते थे। शांति, प्रेम, सद्भाव, सत्‍य एवं अहिंसा मानव प्रेम एवं सर्वधर्म समभाव उनके दर्शन एवं विचारों की बहुमूल्‍य पूंजी थी। परन्‍तु साम्‍प्रदायिकता की राजनीति करने वाले तत्‍वों को शायद गांधी के सर्वधर्म समभाव की नीति अच्‍छी नहीं लगी। आखिरकार साम्‍प्रदायिक के जह़र में डूबे एक धर्मान्‍ध व्‍यक्ति ने जोकि स्‍वयं हिंदू समुदाय से ही था तथा स्‍वयं को हिंदू समुदाय का शुभचिंतक समझता था, ने उस महान आत्‍मा के गोली मारकर शहीद कर दिया। परन्‍तु अपनी शहादत के बाद गांधी के विचार दरअसल और भी सिर चढ़कर बोलने लगे। भले ही उस महान आत्‍मा के आलोचक आज दुर्भाग्‍यवश भारतवर्ष में ही सबसे अधिक क्‍यों न हो परन्‍तु दुनिया के किसी भी देश से भारत की यात्रा पर आनेवाला कोइ भी राष्‍ट्र प्रमुख अथवा राष्‍ट्राध्‍यक्ष ऐसा नहीं है जो महात्‍मा गांधी जैसे महान व्‍यक्ति के समक्ष नतमस्‍तक होने, उनकी दिल्‍ली स्थित समाधि राजघाट पर न जाता हो। आज दुनिया के किसी भी देश में शांति मार्च का निकलना हो अथवा अत्‍याचार व हिंसा का विरोध किया जाना हो, या हिंसा का जवाब अहिंसा से दिया जाना हो, ऐसे सभी अवसरों पर पूरी दुनिया को गांधीजी की याद आज भी आती है और हमेशा आती रहेगी। अत: यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि गांधीजी, उनके विचार, उनके दर्शन तथा उनके सिद्धांत कल भी प्रासंगिक थे, आज भी हैं तथा रहती दुनिया तक सदैव प्रासंगिक रहेंगे।

महात्‍मा गांधी-शांति के नायक

-नरेन्‍द्र देव

2 अक्‍टूबर का दिन कृतज्ञ राष्‍ट्र के लिए राष्‍ट्रपिता की शिक्षाओं को स्‍मरण करने का एक और अवसर उपलब्‍ध कराता है। भारतीय राजनीतिक परिदृश्‍य में मोहन दास कर्मचंद गांधी का आगमन खुशी प्रकट करने के साथ-साथ हजारों भारतीयों को आकर्षित करने का पर्याप्‍त कारण उपलब्‍ध कराता है तथा इसके साथ उनके जीवन-दर्शन के बारे में भी खुशी प्रकट करने का प्रमुख कारण है, जो बाद में गांधी दर्शन के नाम से पुकारा गया। यह और भी आश्‍चर्यजनक बात है कि गांधी जी के व्‍यक्तित्‍व ने उनके लाखों देशवासियों के दिल में जगह बनाई और बाद के दौर में दुनियाभर में असंख्‍य लोग उनकी विचारधारा की तरफ आकर्षित हुए।

इस बात का विशेष श्रेय गांधी जी को ही दिया जाता है कि हिंसा और मानव निर्मित घृणा से ग्रस्‍त दुनिया में महात्‍मा गांधी आज भी सार्वभौमिक सदभावना और शांति के नायक के रूप में अडिग खड़े हैं और भी दिलचस्‍प बात यह है कि गांधी जी अपने जीवनकाल के दौरान शांति के अगुवा बनकर उभरे तथा आज भी विवादों को हल करने के लिए अपनी अहिंसा की विचार-धारा से वे मानवता को आश्‍चर्य में डालते हैं। बहुत हद तक यह महज एक अनोखी घटना ही नहीं है कि राष्‍ट्र ब्रिटिश आधिपत्‍य के दौर में कंपनी शासन के विरूद्ध अहिंसात्‍मक प्रतिरोध के पथ पर आगे बढ़ा और उसके साथ ही गांधी जी जैसे नेता के नेतृत्‍व में अहिंसा को एक सैद्धांतिक हथियार के रूप में अपनाया। यह बहुत आश्‍चर्यजनक है कि उनकी विचारधारा की सफलता का जादू आज भी जारी है।

क्‍या कोई इस तथ्‍य से इंकार कर सकता है कि अहिंसा और शांति का संदेश अब भी अंतर्राष्‍ट्रीय या द्विपक्षीय विवादों को हल करने के लिए विश्‍व नेताओं के बीच बेहद परिचित और आकर्षक शब्‍द है ? यह कहने की जरूरत नहीं कि इस बात का मूल्‍यांकन करना कभी संभव नहीं हुआ कि भारत और दुनिया किस हद तक शांति के मसीहा महात्‍मा गांधी के प्रति आकर्षित है।

हालांकि यह शांति अलग तरह की शांति है। खुद शांति के नायक के शब्‍दों में- मैं शांति पुरूष हूं, लेकिन मैं किसी चीज की कीमत पर शांति नहीं चाहता। मैं ऐसी शांति चाहता हूं, जो आपको कब्र में नहीं तलाशनी पड़े। यह विशुद्ध रूप से एक ऐसा तत्‍व है, जो गांधी को शांति पुरुष के रूप में उपयुक्‍त दर्जा देता है। यह उल्‍लेखनीय है कि शांति का अग्रदूत होने के बावजूद महात्‍मा गांधी न सिर्फ किसी ऐसे व्‍यक्ति से अलग-थलग रहे, जो शांति के नाम पर कहीं भी या कुछ भी गलत मंजूर करेगा।

गांधी जी की शां‍ति की परिभाषा संघर्ष के बगैर नहीं थी। दरअसल उन्‍होंने दक्षिण अफ्रीका में गोरों के शासन के विरूद्ध संघर्ष में बुद्धिमानी से उनका नेतृत्‍व किया था। इसके बाद 1915 में भारत वापस आने पर गांधी जी ने समाज सुधारक के साथ, अस्‍पृश्‍यता और अन्‍य सामाजिक बुराइयों के विरूद्ध दीर्घदर्शक के रूप में अहिंसा का इस्‍तेमाल किया। बाद में उन्‍होंने राजनीतिक परिदृश्‍य तक इसका विस्‍तार किया और दीर्घकाल में अपने प्रेम, शांति और आपसी समायोजन के संदेश को हिंदू मुस्लिम भाई-चारे के लिए इस्‍तेमाल किया।

उनका मशहूर भक्ति गीत रामधुन-ईश्‍वर अल्‍लाह तेरे नाम अब भी हिंदू-मुस्लिम शांति के लिए राष्‍ट्र का श्रेष्‍ठ गीत है। यह हमें इस बहस में ले जाता है कि गांधी जी के लिए शांति का क्‍या मतलब था। जी हां, कोई कह सकता है कि व्‍यापक तौर पर शांति उनके लिए अपने आप में कोई अंत नहीं था। इसके बजाय यह सिर्फ मानवता का बेहतर कल्‍याण सुनिश्चित करने के लिए एक माध्‍यम थी।

वस्‍तुत: महात्‍मा गांधी सत्‍य के अग्रदूत थे। दरअसल उन्‍होंने खुद भी कहा था कि सच्‍चाई शांति की तुलना में ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है। इस संदर्भ में यंग इंडिया अखबार में महात्‍मा गांधी के निम्‍नलिखित शब्‍द उदाहरण के लिए प्रस्‍तुत किये जाते हैं, जो बिल्‍कुल प्रासंगिक हैं। महात्‍मा गांधी ने लिखा – हालांकि हम भगवान की शान में जोर-जोर से गाते हैं और पृथ्‍वी पर शांत रहने के लिए कहते हैं, लेकिन आज न तो भगवान के प्रति वह शान और न ही धरती पर शांति दिखाई देती है। महात्‍मा गांधी ने यह शब्‍द दिसंबर 1931 में लिखे थे। 17 वर्ष बाद जनवरी 1948 में एक क्रूर हथियारे की गोली से उनका स्‍वर्गवास हो गया। यह बहुत दर्दनाक था कि सार्वभौमिक शांति और अंहिसा का संत हिंसा और घृणा का शिकार बना। लेकिन 2010 के आज के दौर में भी महात्‍मा गांधी के 1931 के शब्‍द सत्‍य हैं।

आज दुनिया बहुत से और हर प्रकार के विवादों का सामना कर रही है, इसलिए हम देखते हैं कि सार्वभौमिक भाईचारे और शांति और सहअस्तित्‍व के बारे में गांधी जी का बल आज भी पूरी तरह प्रासंगिक है। इसलिए उनकी शिक्षाएं आज भी देशभक्ति के सिद्धांत के साथ-साथ विभिन्‍न वैश्विक विवादों को हल करने या समाप्‍त करने के मार्ग और माध्‍यम सुझाती हैं। दरअसल गांधी जी की शिक्षाओं का सच्‍चा प्रमाण इस तथ्‍य में निहित है कि सिर्फ अच्‍छाई समाप्‍त होती है, वह बुरे माध्‍यमों को तर्क संगत नहीं ठहराती है। इसलिए आज दुनियाभर में मानव प्रतिष्‍ठा और प्राकृतिक न्‍याय के मूल्‍य को बनाए रखने पर बल दिया जाता है। यह स्‍पष्‍ट है कि आज की दुनिया में शां‍ति के संकट के सिवाए कुछ भी स्‍थाई नजर नहीं आता है तथा शांति के इस मसीहा को इससे बेहतर श्रद्धांजली और कुछ नहीं होगी कि शांति और आपसी सहनशीलता के हित में काम किया जाए। यही गांधीवाद की प्रासंगिकता है। (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

महात्मा गांधी की दृष्टि में धर्मांतरण

-समन्वय नंद

धर्मांतरण का क्या अर्थ है। क्या यह केवल किसी व्यक्ति उपासना पद्धति बदलने को धर्मांतरण कहते हैं। क्या केवल यह इतना तक सीमित है। अगर ऐसा हो तो इस पर आपत्ति क्यों जताई जाती है। वास्तव में धर्मांतरण का अर्थ उपासना पद्धति बदलने तक सीमित नहीं है। धर्मांतरण से आस्थाएं बदल जाती है, पूर्वजों के प्रति भाव बदल जाता है। जो पूर्वज पहले पूज्य होते थे, धर्मांतरण के बाद वही घृणा के पात्र बन जाते हैं। खान पान बदल जाता है, पहनावा बदल जाता है। नाम बदल जाते हैं, विदेशी नाम, जिसका अर्थ स्वयं उन्हें ही मालूम नहीं हो ऐसे नाम धर्मांतरण के बाद रखे जाते हैं। इसलिए धर्मांतरण का वास्तविक अर्थ राष्टांतरण है। शायद इसी लिए पूरे विश्व में भारत की ध्वजा को फहराने वाले संन्यासी स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि अगर कोई धर्मांतरित होता है तो एक हिन्दू घट गया ऐसा नहीं है, बल्कि देश में एक शत्रु बढ जाता है।

पर इस मामले में महात्मा गांधी क्या सोचते थे। महात्मा गांधी धर्मांतरण का तीव्र विरोध करते थे। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि उनके इस पक्ष को लोगों के सम्मुख नहीं लाया गया अथवा इसके लिए ठीक से प्रयास नहीं किये गये। महात्मा गांधी भारत की आत्मा को पहचानते थे। उन्होंने ईसाइय़ों के साथ सर्वाधिक संवाद स्थापित किया था। उनके जीवन में ऐसे कई अवसर आये जब ॉर मिशनरियों ने उन्हें धर्मांतरित करने का प्रयास किया। गांधी जी इससे विचलित नहीं हुए बल्कि तर्कों के आधार पर उन्हें उत्तर दिया।

धर्मांतरण के प्रति उनका भाव क्या था उन्होंने अपनी आत्मकथा में उल्लेख किया है। यह तब की बात है जब वह विद्यालय में पढते थे। उन्होंने लिखा कि “ उन्हीं दिनों मैने सुना कि एक मशहूर हिन्दू सज्जन अपना धर्म बदल कर ईसाई बन गये हैं। शहर में चर्चा थी कि बपतिस्मा लेते समय उन्हें गोमांस खाना पडा और शराब पीनी पडी। अपनी वेशभूषा भी बदलनी पडी तथा तब से हैट लगाने और यूरोपीय वेशभूषा धारण करने लगे। मैने सोचा जो धर्म किसी को गोमांस खाने शराब पीने और पहनावा बदलने के लिए विवश करे वह तो धर्म कहे जाने योग्य नहीं है। मैने यह भी सुना नया कनवर्ट अपने पूर्वजों के धर्म को उनके रहन सहन को तथा उनके देश को गालियां देने लगा है। इस सबसे मुझसे ईसाइयत के प्रति नापसंदगी पैदा हो गई। ” ( एन आटोवाय़ोग्राफी आर द स्टोरी आफ माइं एक्सपेरिमेण्ट विद ट्रूथ, पृष्ठ -3-4 नवजीवन, अहमदाबाद)

गांधी जी का स्पष्ट मानना था कि ईसाई मिशनरियों का मूल लक्ष्य उद्देश्य भारत की संस्कृति को समाप्त कर भारत का यूरोपीयकरण करना है। उनका कहना था कि भारत में आम तौर पर ईसाइयत का अर्थ है भारतीयों को राष्टीयता से रहित बनाना और उसका यूरोपीयकरण करना।

गांधीजी ने धर्मांतरण के लिए मिशनरी प्रयासों के सिद्धांतों का ही विरोध किया। गांधी जी मिशनरियों आध्यात्मिक शक्तिसंपन्न व्यक्ति नहीं मानते थे बल्कि उन्हें प्रोपगेण्डिस्ट मानते थे। गांधी जी ने एक जगह लिखा कि “ दूसरों के हृदय को केवल आध्यात्मिक शक्तिसंपन्न व्यक्ति ही प्रभावित कर सकता है। जबकि अधिकांश मिशनरी बाकपटु होते हैं, आध्यात्मिक शक्ति संपन्न व्यक्ति नहीं। “ ( संपूर्ण गांधी बाङ्मय, खंड-36, पृष्ठ -147)

आम तौर पर देखा जाता है ईसाई पादरी व मिशनरी देवी देवताओं को, परंपराओं को गाली देते रहते हैं। ईसाई पादरी व मिशनरी भारत व भारतीय संस्कृति के निंदक होते हैं। वैसे कहा जाए तो उनके धर्म प्रचार का आधार ही यही होता है। उनके मुंह से इस देश के लोगों के प्रति उनके आस्थाओं को प्रति घृणा भाव भरा रहता है और प्रचार के समय वे इसे जाहिर भी करते रहते हैं। गांधीजी पादरियों के भारत निंदक रुख का तीव्र विरोध करते थे।एक बार कलकत्ता में यंग वूमेन क्रिश्चियन एसोसिएशन के सभागार में मिशनरियों की एक सभा हो रही थी। उस सभा का संबोधित करते हुए गांधी जी ने कहा “ ईसाई पादरिययों में जो श्रेष्ठतम लोग हैं, उनमें से एक बिशप हेबर थे। हेबर ने लिखा था कि – भारत वह देश है जहां का सबकुछ सुहवना है, जहां के लोग नीच और निकम्मे हैं। – य़ह पंक्तियां मुझे हमेशा डंक डंक मारती रही है।“ गांधी जी बिशप हर्बर को श्रेष्ठ मानते थे। लेकिन वह भी भारत की निंदा करते थे।

ईसाई मिशनरियों के मन में रहता है कि भारत के लोगों को कुछ नहीं पता होता। हमें भारतीयों को सीखाना है। गांधी जी पादरियों के इस मनोविज्ञान से असहमत थे। गांधी जी ने ईसाई मिशनरियों से कहा कि आपने मन में सोच लिया है कि यहां के लोगों को सीखाना है। लेकिन आप यहां से कुछ सीखें। गांधी जी ने मिशनरियों से कहा – आशा है, आप यहां से कुछ सीखेंगे भी, ग्रहण भी करेंगे। आशा है आप अपनी आंख, कान, हृदय बंद नहीं रखेंगे बल्कि खुले रखेंगे। – परंतु गांधी जी ने देखा कि मिशनरियों के आंख, कान और हृदय बंद ही हैं। वे भारत निंदा का ही अपना स्वभाव बनाये हुए हैं।

इसलिए गांधी जी ने क्रिश्चियन मिशन पुस्तक में कहा है कि “भारत में ईसाइयत अराष्ट्रीयता एवं यूरोपीयकरण का पर्याय बन चुकी है।“ (क्रिश्चियम मिशन्स, देयर प्लेस इंडिया, नवजीवन, पृष्ठ-32)। उन्होंने यह भी कहा कि ईसाई पादरी अभी जिस तरह से काम कर रहे हैं उस तरह से तो उनके लिए स्वतंत्र भारत में कोई भी स्थान नहीं होगा। वे तो अपना भी नुकसान कर रहे हैं। वे जिनके बीच काम करते हैं उन्हें हानि पहुंचाते हैं और जिनके बीच काम नहीं करते उन्हें भी हानि पहुंचाते हैं। सेरा देश को वे नुकसान पहुंचाते हैं। गाधीजी धर्मांतरण (कनवर्जन) को मानवता के लिए भयंकर विष मानते थे। गांधी जी ने बार -बार कहा कि धर्मांतरण महापाप है और यह बंद होना चाहिए।“

गांधीजी ने मिशनरिय़ों द्वारा लालच देकर धर्मातंरण किये जाने के तीखा विरोध किया। उन्होंने कहा कि “मिशनरियों द्वारा बांटा जा रहा पैसा तो धन पिशाच का फैलाव है।“ उन्होंने कहा कि “ आप साफ साफ सुन लें मेरा यह निश्चित मत है, जो कि अनुभवों पर आधारित हैं, कि आध्यात्मिक विषयों पर धन का तनिक भी महत्व नहीं है। अतः आध्य़ात्मिक चेतना के प्रचार के नाम पर आप पैसे बांटना और सुविधाएं बांटना बंद करें।“

धर्मांतरण और ईसाइ पादरियों की मिशनरी गतिविधियों पर कडे रुख के कारण १९३५ में एक मिशनरी नर्स ने गांधी जी से पूछा “क्या आप कनवर्जन (धर्मांतरण) के लिए मिशनरियों के भारत आगमन पर रोक लगा देना चाहते हैं।

इस पर गांधी जी ने जो उत्तर दिय उसी से धर्मांतरण व ईसाई मिशनरियों के बारे में वह क्या सोचते थे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है। गांधी जी ने उत्तर दिया “मैं रोक लगाने वाला कौन होता हूँ, अगर सत्ता मेरे हाथ में हो और मैं कानून बना सकूं, तो मैं धर्मांतरण का यह सारा धंधा ही बंद करा दूँ। मिशनरियों के प्रवेश से उन हिन्दू परिवारों में, जहाँ मिशनरी पैठे हैं, वेशभूषा, रीति-रिवाज और खान-पान तक में परिवर्तन हो गया है। आज भी हिन्दू धर्म की निंदा जारी हैं ईसाई मिशनों की दुकानों में मरडोक की पुस्तकें बिकती हैं। इन पुस्तकों में सिवाय हिन्दू धर्म की निंदा के और कुछ है ही नहीं। अभी कुछ ही दिन हुए, एक ईसाई मिशनरी एक दुर्भिक्ष-पीडित अंचल में खूब धन लेकर पहुँचा वहाँ अकाल-पीडितों को पैसा बाँटा व उन्हें ईसाई बनाया फिर उनका मंदिर हथिया लिया और उसे तुडवा डाला। यह अत्याचार नहीं तो क्या है, जब उन लोगों ने ईसाई धर्म अपनाया तो तभी उनका मंदिर पर अधिकार समाप्त। वह हक उनका बचा ही नहीं। ईसाई मिशनरी का भी मंदिर पर कोई हक नहीं। पर वह मिशनरी का भी मंदिर पर कोई हक नहीं। पर वह मिशनरी वहाँ पहुँचकर उन्हीं लोगों से वह मंदिर तुडवाला है, जहाँ कुछ समय पहले तक वे ही लोग मानते थे कि वहाँ ईश्वर वास है। ‘‘ ( संपूर्ण गांधी बांङ्मय खंड-61 पृष्ठ-48-49)

उन्होंने आगे कहा- ‘‘लोगों का अच्छा जीवन बिताने का आप लोग न्योता देते हैं। उसका यह अर्थ नहीं कि आप उन्हें ईसाई धर्म में दीक्षित कर लें। अपने बाइबिल के धर्म-वचनों का ऐसा अर्थ अगर आप करते रहे तो इसका मतलब यह है कि आप लोग मानव समाज के उस विशाल अंश को पतित मानते हैं, जो आपकी तरह की ईसाइयत में विश्वास नहीं रखते। यदि ईसा मसीह आज पृथ्वी पर फिर से आज जाएंगे तो वे उन बहुत सी बातों को निषिद्ध् ठहराकर रोक देंगे, जो आ लोग आज ईसाइयत के नाम पर कर रहे हैं। ’लॉर्ड-लॉर्ड‘ चिल्लाने से कोई ईसाई नहीं हो जाएगा। सच्चा ईसाई वह है जो भगवान की इच्छा के अनुसार आचरण करे। जिस व्यक्ति ने कभी भी ईसा मसीह का नाम नहीं सुना वह भी भगवान् की इच्छा के अनुरूप आचरण कर सकता है।‘‘ ( संपूर्ण गांधी बांङ्मय खंड-61 पृष्ठ-49)

गांधीजी का सर्वधर्म समभाव के प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने धर्मांतरण का जो विरोध किया वह तार्किक था। देश के प्रधानमंत्री से लेकर आम जन तक सभी लोग आज भी गांधी जी की नीतियों को प्रासंगिक बताते हैं। लेकिन उनके विचारों पर न तो लोग अमल करते हैं और न ही सरकारें उनकी विचारों को लेकर नीतियों बनाती है। गांधीवाद मनोरंजन के लिए नहीं है। गांधी केवल उनकी बातों को प्रासंगिक बताने से काम नहीं चलेगा। गांधी जी द्वारा बताये गये धर्मांतरण पर पूर्ण प्रतिबंध का कानून लाकर इस अराष्ट्रीय गतिविधि पर रोक लगाया जाना आज के समय की सबसे बडी आवश्यकता है।

अयोध्या में भारत जीत गया

-डॉ0 कुलदीप चंद अग्निहोत्री

30 सितम्बर 2010 को अयोध्या में राम जन्म स्थान को लेकर हुए विवाद का अतं हो गया। इलाहबाद उच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक निर्णय में कहा कि जिस स्थान पर इस समय श्रीराम विराजमान है वही उनका जन्म स्थान है। न्यायालय के अनुसार आम लोगों में इसी स्थल को जन्म भूमि स्वीकार करने की मान्यता है और न्यायालय ने इस मान्यता पर मोहर लगा दी है। श्री राम जन्म भूमि को लेकर यह लडाई 1528 को प्रारम्भ हुई थी। जब विदेशी अक्रातांओं ने राम जन्म भूमि पर मंदिरों को गिरा कर वहां एक विवादस्पद ढ़ांचा खडा कर दिया जिसे कालांतर में बाबरी मस्जिद के नाम से जाना गया। विदेशी आक्रांताओं के इस आक्रमण में भारत पराजित हो गया और राम मदिर की रक्षा नही कर पाया। लेकिन भारतीयो के लिए राम जन्म भूमि को मुक्त करवाने की यह लडाई उसी समय शुरू को गई थी। विभिन्न काल खण्डों में इसके स्वरूप बदलते गये परन्तु भारतीयों ने पराजय को कभी मन से स्वीकार नही किया और संघर्ष जारी रखा। 60 साल पहले यह संघर्ष न्यायालय में पंहुच गया। सारे भारत की निगाहें न्ययालय के निणर्य पर टिकी हुई थी। यह कुछ उसी प्रकार का मंजर था जैसा 1528 में रहा होगा। बाबर की सेनाएं अयोघ्या में आगे बढ रही होगी लांग उनको रोकने के लिए लड़ भी रहे होगें और यह सोच भी रहे होगें कि मंदिर बचेगा या नही बचेगा। भारत जीतेगा या बाबर जीतेगा। उस वक्त भारत हार गया बाबर जीत गया और मंदिर ढह गया।

आज पूरे 492वे साल बाद सारे भारत की निगाहें इलाहाबाद उच्च न्ययालय के लखनऊ बैंच की और लगी हुई थी। प्रश्न वही पुराना था 1528 वाला। राम मंदिर बचेगा या नही बचेगा। लेकिन इस बार भारत जीत गया और इलाहबाद उच्च न्ययालय ने निर्णय दिया कि रामलला वहीं विराजमान रहेगें और वही उनका जन्म स्थान है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने सही कहा है कि इस निर्णय में न किसी हार है न किसी की जीत है। दरसल राम मंदिर का मसला हिन्दू या मुसलमान के बीच विवाद का मसला है भी नही इस लिए किसी एक की जीत या दूसरे की हार का प्रश्न ही कहां पैदा होता है। यह वास्तव में भारत की जीत है। और विदेशी आक्रातांओं की विरासत की हार है। तीनों जजों ने अपने निणर्य में कहीं न कहीं कहा की बाबरी ढांचा हिन्दू मंदिर के भग्नावशेषों पर खडा किया गया था। इतना ही नहीं बावरी ढांचा बनाने के लिए हिन्दू मंदिरों के मलवे का प्रयोग भी किया गया। न्यायालय के एक न्ययाधीश ने तो यह तक कहा कि मंदिर को गिरा कर उसके स्थान पर बनाया गया ढांचा इसलामी कानून के अनुसार ही मस्जिद नही हो सकता। दुर्भाग्य से सुन्नी वक्फ बोर्ड मंदिरों को गिरा कर विदेशी आक्राताओं द्वारा खडे किये गये ढांचे की विरासत के लिए न्यायालय में लड़ रहा था। न्यायालय ने बोर्ड के इस दावे को खारिज कर दिया। इसलिए यह निर्णय न हिन्दू के पक्ष में है न मुसलमान के पक्ष में है यह भारत के पक्ष में है। 2010 में भारत जीत गया है और बाबर हार गया है। 1528 में बाबर जीत गया था और भारत हार गया था।

न्यायालय के इस निर्णय का भारत के लोगों ने एक स्वर में जिस प्रकार स्वागत किया है। उससे सिद्ध होता है कि मंदिर को लेकर लोगों में न तनाव है और न विवाद है। अलबता वोट बैंक की राजनीति करने वाले कुछ लोग तनाव पैदा करने का प्रयास अवश्य़ करते रहते है लेकिन इस बार उन्हें भी सफलता नही मिली। देश के आम मुसलमान ने जिस प्रकार इस फैसले का स्वागत किया है। उससे संकेत मिलते है कि यह निणर्य राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को मजबूत करने वाला सिद्ध हुआ है। वास्तव में जो लोग राम को भगवान नही स्वीकार करते वह भी इतना तो मानते ही है कि राम हमारे पुरखों मे शामिल हैं। हमारा मजहव कोई भी हो, चाहे वैषणव पंथी, चाहे शैव पंथी, चाहे महोम्मदपंथी, चाहे कबीर पंथी या फिर नानक पंथी, राम के अस्तिव से कोई इंनकार नही करता। बाबर इस देश में किसी का पुरखा नही है, चाहे वह हिन्दु हो चाहे मुसलमान। ऐसी स्थिति में भारत राम की विरासत की रक्षा करेगा न की बाबर की विरासत की। न्यायालय ने भी राम की विरासत के पक्ष में ही निर्णय दिया है। इस निर्णय को आधार मानकर सभी मजहबों के लोगों के बीच जो सदभावना पैदा हुई है उसे आगे बढाने की जरूरत है। अब जब न्यायालय ने स्वीकार कर लिया है कि यही स्थान राम जन्मभूमि है और रामलला अपने उचित स्थान पर विराजमान है तो उस स्थान को और सुन्दर बनाने एवं भव्य रचना का निर्माण करने से कैसे मना किया जा सकता है। इस मुकदमें में तो रामलला स्वयं वादी थे और न्यायालय ने उनके पक्ष में निर्णय दिया है। अब जब राम न्यायालय में जीत चुके हैं। तो क्या समस्त भारतीयों का, चाहे वे हिन्दु हों या मुसलमान ,कर्तब्य वनता है कि राम के लिए भव्य मंदिर का निर्माण करें।

न्यायालय ने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया है। और उसने विवादित स्थान को राम की जन्म भूमि करार दिया है। अब भारत सरकार की बारी है। भारतीय संसद अप्रत्यक्ष रूप से सभी भारतीय की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती है। इसलिए भारत सरकार को चाहिए की वह संसद में सर्वसम्मति से राम जन्म भूमि पर भव्य राम मंदिर निर्माण के लिए विधेयक बनाकर मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करे। भारत की संसद ने मैहमूद गजनबी द्वारा धवस्त किए गये सोमनाथ मंदिर के पुननिर्माण के लिए ऐसा ही प्रस्ताव संसद ने पारित किया था। जो काम गजनबी ने सोमनाथ में किया था वही काम कालान्तर में बाबर ने अयोघ्या में किया। जिस रास्ते से सोमनाथ मंदिर का पुननिर्माण हुआ था उसी रास्ते से अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण होना चाहिए। इसके रास्ते में जो रूकावटे थी उन्हें इलाहबाद उच्च न्यायालय ने अपने 30 सितम्बर के निर्णय से दूर कर दिया है। यदि अब भी भारत सरकार इस मामले पर हक्लाने लगेगी तो इसका अर्थ होगा कि भारत न्यायालय में तो जीत गया है लेकिन भारत सरकार के हाथों ही हार रहा है। आशा है कि भारत सरकार कम से कम भारत को हराने का काम तो नही करेगी। यदि ऐसा होता है तो इससे स्वतः सिद्ध हो जाएगा कि भारत सरकार के भीतर अभी भी ऐसा गिरोह है जिसकी रूचि राम की विरासत में नही वल्कि विदेशी आक्रांतां बाबर की विरासत मे ज्यादा है। मघ्य प्रदेश की पूर्व मुख्य मंत्री उमा भारती ने ठीक ही कहा है कि पितृ पक्ष में न्यायालय ने भारत के एक पुरखे के पक्ष मे निर्णय दिया है। देखना है भारत सरकार इस पितृ पक्ष में किसके साथ है – राम के या बाबर के।

लखनऊ बैंच का फैसला और संघ परिवार का पैराडाइम शिफ्ट

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच ने जब फैसला सुनाया तो उसके पहले उसने सभी पक्षों के वकीलों को यह आदेश दिया था कि वे मीडिया के सामने तब तक कुछ न बोलें जब तक अदालत के द्वारा फैसले की कॉपी मीडिया वालों को वितरित न हो जाए। लेकिन अदालत के प्रति सामान्य सम्मान तक बनाए रखने में हिन्दू संगठनों के वकील असफल रहे।

अदालत के बाहर एक मीडिया मंच बना दिया गया था जहां से वकीलों को सम्बोधित करना था, तय यह हुआ था कि पहले मीडिया को फैसले की कॉपी अदालत देगा और उसके बाद वकील लोग अपनी राय बताएंगे। इस सामान्य से फैसले का हिन्दू संगठनों के वकील सम्मान नहीं कर पाए और उन्होंने फैसला आते ही दौड़कर मीडिया को सम्बोधित करना आरंभ कर दिया।

फैसला सुनाए जाने के बाद सबसे पहले भाजपा के नेता और सुप्रीम कोर्ट में वकील रविशंकर प्रसाद ने इस नियम को भंग किया उसके बाद हिन्दूमहासभा और बाद में शंकराचार्य के वकील ने भी नियमभंग में सक्रिय भूमिका अदा की। रामलला के वकील और भाजपा के वकील साहब तो फैसला बताते हुए इतने उन्मत्त हो गए कि उन्होंने वकील और संघ के स्वयंसेवक की पहचान में से वकील की पहचान को त्याग दिया और संघ के प्रवक्ता की तरह मुसलमानों के नाम अपील जारी कर दी। कहने के लिए यह सामान्य नियमभंग की घटना है लेकिन हिन्दुत्ववादियों में राम मंदिर को लेकर किस तरह की बेचैनी है यह उसका नमूना मात्र है।

वकील का स्वयंसेवक बन जाना वैसे ही है जैसे रथयात्रा के समय कुछ पत्रकार संवाददाता का काम छोड़कर रामसेवक बन गए थे। इसबार हिन्दुओं के वकील इस फैसले पर हिन्दुत्व की जीत के उन्माद में भरे थे। उनका मीडिया को इस तरह सम्बोधित करना अदालत के आदेश का उल्लंघन था। इसके विपरीत मुस्लिम संगठनों के वकीलों ने संयम से काम लिया और मीडिया को तब ही अपनी राय दी जब अदालत की कॉपी मीडिया को मिल गयी।

लखनऊ बैंच के फैसले पर भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी और आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने एक-दूसरे के पूरक बयान दिए हैं। इन दोनों बयानों में क्या कहा गया है इसे बाद में विश्लेषित करेंगे, पहले यह देखें कि लखनऊ बैंच के फैसले से संघ परिवार के रवैय्ये में मूलतः क्या बदलाव आया है।

एक बड़ा बदलाव आया है संघ परिवार ने अदालत के फैसले का स्वागत किया है। राम मंदिर आंदोलन के दौरान संघ परिवार का स्टैंण्ड था कि हम अदालत का फैसला नहीं मानेंगे, राम हमारे लिए आस्था की चीज है। विगत 20 सालों से उत्तर प्रदेश में राम मंदिर का फैसला आने के पहले संघ परिवार ने जनता और मीडिया में जिस तरह का राजनीतिक अलगाव झेला है उसने संघ परिवार को मजबूर किया है कि वह अदालत का फैसला माने। यह मीडिया और जनता के दबाब की जीत है। हम उम्मीद करते हैं संघ परिवार के संगठन और उसके नेतागण सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी ऐसे ही स्वागत करेंगे चाहे फैसला उनके खिलाफ आए।

उल्लेखनीय है सिद्धांततः अदालत का फैसला मानने में संघ परिवार को पांच दशक से ज्यादा का समय लगा है और अभी वे एक गलतफहमी के शिकार हैं कि विवादित जमीन पर राममंदिर बनाकर रहेंगे।

बाबरी मसजिद विध्वंस की आपराधिक गतिविधि के लिए संघ परिवार के कई दर्जन नेताओं पर अभी मुकदमा चल रहा है और उस अपराध से बचना इनके लिए संभव नहीं है। श्रीकृष्ण कमीशन में बाबरी मसजिद विध्वंस के लिए संघ परिवार के अनेक नेताओं को कमीशन ने दोषी पाया है और बाबरी मसजिद विध्वंस का मामला जब तक चल रहा है विवादित जमीन पर कोई भी निर्माण कार्य नहीं हो सकता। वैसे भी यदि सुप्रीम कोर्ट के द्वारा हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी जाती है तो मामला लंबा चलेगा और वैसी स्थिति में संघ का भविष्य में क्या स्टैंण्ड होगा इसका कोई अनुमान नहीं लगा सकता।

लखनऊ बैंच का फैसला आते ही संघ परिवार के नेताओं ने तत्काल ही अदालत की राय के बाहर जाकर मुसलमानों को मिलने वाली एक-तिहाई जमीन को राममंदिर के लिए छोड़ देने की तत्काल मांग ही कर ड़ाली और आडवाणी जी ने रामजी के भव्यमंदिर के निर्माण के साथ नए किस्म के सामाजिक एकीकरण की संभावना को व्यक्त किया है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अपील की है कि अतीत को भूल जाएं। हम मांग करते हैं कि बाबरी मसजिद विध्वंस को लेकर संघ परिवार सारे देश से माफी मांगे। बाबरी मसजिद गिराने का महाअपराध करने के बाबजूद अतीत को कैसे भूला जा सकता है।

लखनऊ फैसले का तीसरा महत्वपूर्ण पहलू है बाबरी मसजिद-राम मंदिर विवाद के राजनीतिक समाधान की असफलता। अदालत ने जनवरी-सितम्बर 2010 के बीच में सुनवाई करके जिस रिकॉर्ड समय में फैसला किया है वह इस बात का संकेत है कि अदालतें आज भी संसद से ज्यादा विश्वसनीय हैं।

निश्चित रूप से केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की धर्मनिरपेक्ष दृढ़ता और प्रशासनिक मशीनरी की कुशलता ही है जिसने इस फैसले को एक सामान्य फैसले में बदल दिया। अदालतों में संपत्ति के प्रतिदिन फैसले होते रहते हैं और यह एक रूटिन कार्य-व्यापार है। यह संदेश देने में अदालत और केन्द्र सरकार सफल रही है।

दूसरी ओर संघ परिवार के लिए यह फैसला गले की हड्डी है। इस फैसले ने राममंदिर के विवादित क्षेत्र को तीन हिस्सों में बांटकर और उसमें मुसलमानों का एक-तिहाई पर स्वामित्व मानकर मुसलमानों को अयोध्या से बहिष्कृत कर देने की संभावनाओं को खत्म कर दिया है। आगे अदालत का कोई भी फैसला आए उसमें हिन्दू-मुसलमानों की विवादित जमीन पर साझेदारी रहेगी।

इस संदर्भ में ही लालकृष्ण आडवाणी के बयान में कहा गया है कि इस फैसले से ‘न्यू इंटर कम्युनिटी एरा’ की शुरूआत हुई है। यह बयान और अदालत का फैसला अनेक खामियों के बाबजूद जिस बड़ी चीज पर ध्यान खींचता है वह है ‘न्यू इंटर कम्युनिटी एरा’, यह संघ परिवार की समूची विचारधारा के ताबूत में कील ठोंकने वाली चीज है। नया अंतर-सामुदायिक युग, ‘अन्यों’ को खासकर मुसलमानों को बराबर मानता है।

यह अदालत के जरिए संघ परिवार की हिन्दुत्ववादी विचारधारा की विदाई का संकेत भी है। अब वे चाहें तो मंदिर ले सकते हैं लेकिन मुसलमानों के साथ मिलकर बाबरी मसजिद की विवादित जमीन पर मसजिद के साथ बराबरी के आधार पर रहना होगा। इससे अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के भेद को दीर्घकालिक प्रक्रिया में समाप्त करने में मदद मिलेगी।

आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत का यह कहना कि हमें अतीत को भूलकर आगे देखना चाहिए। इस बयान में भी संघ परिवार के संभावित परिवर्तनों की ध्वनियां छिपी हुई हैं। संभवतः संघ परिवार अपने हिन्दुत्ववादी एजेण्डे की बजाय अब विकास की बातें करे जिससे वह युवाओं का दिल जीत सके। क्योंकि राममंदिर आंदोलन ने भारत के युवाओं को संघ परिवार और राममंदिर आंदोलन से एकदम दूर कर दिया है। यही वजह है राम मंदिर आंदोलन के अतीत को मोहन भागवत भूल जाने की अपील कर रहे हैं। वे जानते हैं राम मंदिर का मसला संघ परिवार को मिट्टी में मिला सकता है यही वजह है कि विगत 10 सालों से किसी लोकसभा या विधानसभा चुनाव में रामंदिर चुनाव का मसला नहीं उठाया गया।

संघ परिवार धीरे-धीरे मंदिर विवाद से लखनऊ बैंच के फैसले का स्वागत करते हुए अपने को अलग कर रहा है। देखना है संघ परिवार किस दिशा में जाता है। क्योंकि बाबरी मसजिद विवाद का असली सच तो सुप्रीम कोर्ट ही बताएगा।

बदनाम होने के बाद भी नाचते ये दबंग मुन्ने

-पंकज झा

क्या आपने वालीवुड की दबंग दुनिया से बाहर कभी ‘बदनाम’ होने के बाद भी नाचते किसी मुन्नी को देखा है? अगर नहीं तो नेट पर हिन्दी साइटों को खंगालना शुरू कर दीजिए. आपको पता चल जाएगा कि केवल मलाइका अरोड़ा ही किसी डार्लिंग के लिए बदनाम होने पर नहीं नाचती है. अपने यहां, बदनाम होकर नाचने वाले लौंडों की ज़मात भी काफी है. आपको मालूम होगा कि हिन्दी पट्टी में वर्षों से मशहूर ‘लौंडा बदनाम हुआ नसीबन तेरे लिए’ गाने को उड़ाकर ही ‘डार्लिंग’ के लिए बदनाम होती मुन्नी का जन्म हुआ है.

तो अयोध्या मामले पर फैसला आ जाने के बाद जहां पूरे देश में शांति और सौमनस्यता का माहौल है वहां कुछ बदनाम हुए लौंडों को आप आग लगाने के फिराक में नाचते देख सकते हैं. चुकी ये लौंडे किसी ‘नसीबन’ के लिए बदनाम नहीं हुए हैं. यह बदनाम हुए हैं हिटलर के देश के अपने डार्लिंग मार्क्स और थ्येन-आनमन चौराहे पर भटकते माओ के लिए. तो गुस्सा के बदले आनंद उठाने का आग्रह, क्योंकि अब यह तय हो गया है कि ये तत्व इस देश का कुछ बिगाड़ सकने की हालत में नहीं हैं. इन वृहन्न्लाओं को आप मनोरंजन शुल्क के रूप में चंद टुकड़े तो थम्हा सकते हैं लेकिन यह आपको डरा दें इनमें अब ऐसी पुरुषार्थ नहीं.

इन नमूनों के कुछ के नमूने देखिये. एक ‘शेष’ नाग हैं. इन्होने एक साईट पर लिखा कि ऐसे फैसले उनके गांव में नहीं हुआ करते हैं. तो पता नहीं दुनिया से अलग कौन सा गांव इन्होंने बसा रखा है, जहां केवल दुर्भावनापूर्ण फैसले ही लिए जाते हैं. हो सकता है उनके गांव में कोई ‘खाप’ जैसी पंचायत हो जो इनके अनुकूल ही फैसले सुनाती हो सदा. अन्यथा सद्भावना कायम रखने के इस फैसले से उनको दर्द क्यों हो रहा है. वैसे इसका बाजिव कारण पता लगाना इतना मुश्किल भी नहीं है. ऐसे ही एक और विघ्नसंतोषी का कहना था कि पहले वहां मस्जिद का निर्माण हो जाने देना था फिर अगर कोर्ट को लगता कि वहां हिंदू पक्ष मज़बूत है तो किसी अन्य फैसले के बारे में बाद में सोचा जाता. अब इसका क्या जबाब दें यह पाठक पर ही छोडना उचित होगा. लेकिन अपने इस बात को साबित करने में इन्होंने तमाम न्यायिक मर्यादाओं को ताक पर रख बेचारे न्यायालय की अवमानना तक पहुच गए. ऐसे ही एक मित्र हैं बेचारे चौपाये जिनका उपनाम जिस भारतीय संस्कृति में वर्णित चरों वेदों का प्रतिनिधित्व करता है वही अपने ही पुरुखों को मिली मान्यता पर कुठाराघात करने पन्ने पे पन्ने रंगे जा रहे हैं.

अब इनपर और इन जैसे तमाम भड़ास पर शब्दशः प्रतिक्रया देना या तत्वतः जबाब देना तो एक आलेख में संभव नहीं है फिर भी एक मौलिक सवाल यह उठता है कि आखिर इस फैसले से इन सभी के पेट में दर्द क्यू है? जी बिल्कुल सही. पेट में दर्द इसलिए क्योंकि लात इनके पेट पर ही पड़ी है. अभी तक देश को बदनाम कर करके, अपने ही बाप पुरुखों की संस्कृति को गरिया करके, देश का सम्मान और स्वाभिमान बेच कर तो पेट भरते रहे हैं ये अभागे. कहावत है कि “किसी को अगर किसी बात का घमंड हो जाय तो ‘ज्ञान’ उस घमंड को दूर कर देता है. लेकिन उसका क्या करें जब किसी को ज्ञान का ही घमंड हो ?’’ तो अपने ज्ञान के मद में चूर इन रावणों की नज़र में लोकतांत्रिक प्रणाली गलत. देश का प्रेस और मीडिया गरियाने लायक. मानवाधिकार समेत सभी तरह के आयोग तभी तक सही जब तक इनकी बात मानें और अब न्यायपालिका भी काम का नहीं. गोया दुनिया भर के सभी सरोकारों का ठेका इन्ही के पास है. हर वो चीज गलत जो इनके मुताबिक़ ना हो. आखिर ये होते कौन हैं और इनकी हैसीयत क्या है कि चुने हुए व्यवस्था से लेकर छन कर आये न्यायिक फैसले तक सब पर सवाल खड़ा करें?

खैर..इस फैसले के बाद फिजा में घुला नव निर्माण का संकल्प ज़रूर इनकी रोजी-रोटी पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा है लेकिन केवल इनका पेट पालने के लिए हम देश की एकता को दाव पर लगा दें? असली बात यह है कि न्यायालय ने अपने फैसले में ना केवल भगवान राम के अस्तित्व को स्वीकार किया बल्कि संबंधित जगह पर ही उनका जन्म होना यह भी निश्चित कर दिया. सामान्य तौर पर भले ही यह कोई बड़ी बात ना लगे, जन-जन के ह्रदय में बसे राम मुहताज भी नहीं किसी फैसले के. लेकिन आस्था पर लगी ‘तर्क’ के इस सबसे बड़े मुहर से तो इनके झूठ का साम्राज्य ही बिखरता नज़र आ रहा है. यानी राम अगर सच, तो सारी हिंदू मान्यताएं सच. अंग्रेजों के तलवे चाटने के लिए गढी गयी कहानी कि आर्य बाहर से आये थे वह झूठ. राम सेतु से लेकर सारी हिंदू मान्यताएं सच. फिर तो अगर सब कुछ सच तो कालिख ही पुत गयी ना इन किराए के गुंडों के चेहरे पर? दूकान ही बंद हो गयी न इन रुदालियों की? अगर बड़ी संख्या में लोग मरे ही नहीं तो फिर इन चील कौवों-का पेट कैसे भरे? तो असली चोट यहां इनके उस मर्म पर पहुची है. लेकिन यह चोट ऐसे तत्वों को सबक भी देता है कि मार्क्स सम्प्रदाय की अपनी साम्प्रदायिक राजनीति छोड़ सीधे सच्चे तौर पर अपनी विद्वता – अगर है तो – का देश हित में इस्तेमाल करें, अन्यथा आसुओं के इन सौदागरों को अपनी समाप्ति पर दो बूंद आसू भी नहीं नसीब होंगे.

इस फैसले के बाद देश और मुख्यधारा के सभी माध्यमों में जिस तरह सद्भाव-सौमनस्यता की बयार बह रही है. जिस तरह देश के करोड़ों मुस्लिम बंधु भी राहत की सांस ले रहे हैं. हिंदू घरों में भी जिस तरह से आगत दीवाली की तैयारी हो रही है, वह भारतीय तहजीब का सुन्दर स्वरुप प्रस्तुत कर रहा है. लेकिन सवाल तो यह है कि देश के दर्द की तिजारत करने वाले इन ‘झंडू बामों’ की तो दुकान ही बंद हो जायेगी इस तरह. इन्हें चाहिए कि अपनी कोई अलग अच्छी दूकान खोल लें. पूर्णतः स्वस्थ हुआ यह देश ऐसी ताकतों, ऐसे बदतमीज़ और बदजुबान तत्वों को आख़िरी चेतावनी देता प्रतीत हो रहा है कि अब भी चेत जाओ अन्यथा धोबी के कुत्ते की तरह ना घर के रहोगे ना घाट के. नसीबन के लिए बदनाम कोई लौंडा मोहल्ले के मंच पर ही शोभा देता है या बदनाम होने के बाद भी ठुमकती, अदा दिखाती मुन्नियां फिल्मों में ही अच्छी दिखती है. जन सरोकारों के किसी राष्ट्रीय मंच पर नहीं.

अदालत का फैसला और मेढकों की टर्र-टर्र

-आवेश तिवारी

बारिश हुई और जैसी उम्मीद थी मेढक निकले और टर्र-टर्र करने लगे, अगर इन मेढकों कि मानें तो अदालती फैसला भी समय और परिस्थितियों को देखकर किया गया है। पाकिस्तान से लेकर हिंदुस्तान तक, हर जगह मौजूद इन मेढकों की निगाह में ये देश हिंदुस्तान, और इस देश की सारी व्यवस्थाएं पूरी तरह से भष्ट हैं और सिर्फ ये बचे हैं जो दीपक लेकर उजाले की तलाश में निकल पड़े हैं। पाकिस्तान में ये हिंदुस्तान के झंडे जलाते हुए नजर आयेंगे तो हिंदुस्तान में अखबारी कालमों और इंटरनेट ने इन्हें कहीं भी निपटने की आजादी दे दी है। ये लोग जानबूझ कर ऐसा वातावरण पैदा कर रहे हैं जिसमे ये डर लग रहा है कि अगर कोई भी ये बोलेगा कि अदालत का फैसला सही है तो वो मुस्लिम विरोधी घोषित कर दिया जायेगा। इन्हें शर्म नहीं आती कि अब तक इस मामले पर ९० साल की उम्र में भी ताल ठोककर खड़े रहे चचा हाशिम फैसले से बेहद खुश हैं और बोल भी दिए हम आगे नहीं लड़ने जा रहे, लड़ना हो तो वफ्फ़ बोर्ड लड़े।

चलिए, डरते हुए मान लेते हैं कि अदालत का फैसला पूरी तरह से गलत, निराधार और हिन्दुओं के तुष्टिकरण के लिए है .अब आप ही बताएं ईमानदार फैसला कौन देगा? आप? इस देश के वामपंथी? या आसमान से कोइ निर्णय टपकेगा और हिन्दू मुस्लिम एक दूसरे की गलबहियां डालने घूमने लगेंगे। अगर देश है तो न्याय व्यस्था का होना भी लाजमी है और न्याय हमेशा सबको संतुष्ट करे ये भी संभव नहीं है, एक अपराधी भी फांसी की सजा कबूल नहीं करना चाहता। न्याय बीजगणित के समीकरणों की तरह भी नहीं होता कि जिसमे अ+ब = ब+अ ही होता हो। अगर सही मायनों में इस निर्णय का विरोध करना चाहते हैं तो देश की न्याय व्यवस्था से असहमति के बावजूद सभी विरोधियों को जिनमे ज्यादातर हिन्दू पत्रकार और साहित्यकार हैं (ब्राम्हण और दलित पत्रकारों पर चर्चाओं के इस दौर में ये चर्चा बेईमानी नहीं) फैसले के विरोध में क्यूँकर सुप्रीम कोर्ट नहीं जाना चाहिए?. बाबरी मस्जिद के विध्वंस पर अब तक बुद्धिजीवियों की जमात से जितनी भी आवाजें उठी है ,सारी की सारी नेपथ्य से थी, उनका कम से कम मेरी नजर में कोई महत्त्व नहीं है।

ये हमारे समय का संकट है, हमारा रचा हुआ संकट कि इस देश में हिन्दू शक्ति और मुस्लिम समुदाय निरीहता का प्रतीक बन गया है जो हिन्दुओं के जुल्मो-सितम पर आह भी नहीं कर सकता और तो और राज्य भी उनके शोषण और उत्पीडन का औजार बन गया है, ऐसा होता रहा है ये सच है। लेकिन ये भी उतना ही सच है कि आजादी के पहले से और आजादी के बाद चाहे अंग्रेज रहे हों या फिर लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी गयी सरकारें, सभी ने मुसलामानों के शोषण और उत्पीडन के साथ साथ उनका अतिरिक्त पोषण भी किया है, ये बाद की बात है इस ठगी में देश के मुसलमान ने अंतत सिर्फ और सिर्फ खोया है। साथ में ये भी एक बहुत बड़ा सच है कि इस हिंसा-प्रतिहिंसा में आम आदमी कभी शामिल नहीं रहा, विभाजन के समय या फिर बाबरी मस्जिद के विध्वंस के समय हिन्दू और मुस्लिम नेता जिसे चाहे जैसे चाहे इस्तेमाल कर ले गए। अब यही काम देश के बुद्धिजीवी कर रहे हैं।

अयोध्या मामले पर अदालत के फैसले के २४ घंटे बाद मैंने देश दुनिया के लगभग सभी हिस्सों के अखबारों की वेबसाईट को पढ़ा, अजीब बात ये रही कि मेरी खुद के उम्मीद के बिलकुल उलट न सिर्फ अरब देशों में छपने वाले अखबारों ने बल्कि पाकिस्तानी मीडिया ने भी इस फैसले की तारीफ़ की, अपवाद हर जगह होते हैं। हमारे यहां मेरे अपने देश में अभिव्यक्ति का संकट इतना गहरा है कि मैंने इस विषय पर किसी से चर्चा तक नहीं की, मेरे लिए ये मुश्किल बहुत बड़ी है हाथों में लाठी लेकर बुद्धिजीवियों की जमात सामने खड़ी है कि कुछ बोलूं और वो मेरा सर फोड़ देंगे। जिस दर्द और जिस दहशत को लेकर देश का मुसलमान जिया करता थाये सब लिखते वक़्त हम उस दर्द को महसूस कर रहे हैं, समय बदल गया है अब डरने की हमारी बारी है। उनका डर व्यवस्था से था हमारा बुद्धिजीवियों से है, अब अजान और मंदिर के घंटों के समवेत स्वरों की बात करने वाले नजर नहीं आते, घंटों का विरोध फेशन बन गया है और खुद को सेकुलर और मानवतावादी साबित करने की पहली शर्त।

अरब में ‘मुसलमान’ की जान की ‘क़ीमत’ ज़्यादा

-फ़िरदौस ख़ान

रोज़ी-रोटी की तलाश में खाड़ी देशों में जाने वाले कामगारों के साथ मज़हब के आधार पर भेदभाव किया जाता है, जो कि मानवाधिकार का खुला उल्लंघन है। सऊदी अरब में इंसानों की जान की क़ीमत मज़हब के आधार पर ही तय होती है। इस इस्लामी देश में मुसलमानों की जान की ‘क़ीमत’ ज़्यादा है, जबकि अन्य मज़हबों के लोगों की जान की ‘क़ीमत’ कम है। महिलाओं के मामले में तो हालत और भी बदतर है, क्योंकि महिला को एक पूरा इंसान होने का दर्जा तक हासिल नहीं है। शरीया (इस्लामी क़ानून) के मुताबिक़ महिला को मर्द से आधा माना जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो महिला की हालत जानवरों से भी बदतर है, क्योंकि पशु को भी पूरा गिना जाता है, आधा नहीं।

सऊदी अरब के शरीया क़ानून के मुताबिक़ यहां काम करने वाले कामगारों की किसी हादसे में मौत होने पर उनके परिजनों को उसके ‘मज़हब’ के हिसाब से ही मुआवज़ा दिया जाता है। मुसलमान के लिए मुआवज़ा एक लाख रियाल है, जबकि ईसाई या यहूदी के लिए 50 हज़ार रियाल दिए जाते हैं। सबसे कम मुआवज़ा हिन्दू, बौध्द और जैन आदि धर्म के लोगों के लिए 6666.66 रियाल है। महिला की मौत पर मुआवज़े की राशि उसके मज़हब के पुरुष के लिए स्वीकार्य रक़म से आधी होती है।

सऊदी अरब दुनिया का शायद इकलौता ऐसा देश है जहां मज़हब के नाम पर मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन किया जाता है। वह मामला चाहे किसी के सिर क़लम करने का हो या किसी बच्ची को 80 साल के बूढ़े शेख़ के साथ ब्याहने का मामला हो। अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल’ ने भी सऊदी अरब में मानवाधिकारों की अवहेलना पर चिंता ज़ाहिर की है।

भारत सहित अन्य एशियाई देशों से लाखों लोग काम करने के लिए खाड़ी देशों में जाते हैं। सऊदी अरब में ग़ैर मुल्कों से आने वाले कामगारों से साथ भी अच्छा बर्ताव नहीं किया जाता। राजस्थान के चुरू ज़िले के रतनगढ़ के निवासी यामीन बताते हैं कि कुछ साल पहले वे भी एजेंट के माध्यम से सऊदी अरब गए थे। एजेंट ने उन्हें बताया था कि सऊदी अरब में राज मिस्त्रियों की भारी मांग है और उन्हें मेहनताना भी यहां से अच्छा मिलेगा। सऊदी अरब में भेजने के लिए एजेंट ने उनसे 50 हज़ार रुपये की मांग की। एक बेटे और पांच बेटियों के पिता यामीन को एजेंट का प्रस्ताव अच्छा लगा और उन्होंने यहां-वहां से उधार करके एजेंट को पैसे दे दिए। एजेंट ने उन्हें सऊदी अरब भिजवा दिया। जेद्दा पहुंचने पर एजेंट के आदमी ने उनका पासपोर्ट ले लिया और उन्हें सब्ज़ी मंडी में काम पर लगा दिया। उनका काम सब्ज़ियां और फल की टोकरियां ऊपरी मंज़िलों पर पहुंचाना था। जब उन्होंने कहा कि वे कारीगर हैं और मिस्त्री के काम के लिए यहां आए हैं तो उनसे कहा गया कि अभी उनको यही काम करना होगा। वे कई माह तक सब्ज़ियां और फल ढोने का काम करते रहे। एक रोज़ पैर फिसलकर नीचे गिरने से उनकी दायीं टांग की हड्डी टूट गई। इस दौरान एजेंट के लोगों ने उनके साथ अच्छा बर्ताव नहीं किया। कई महीनों तक वे परेशानियों से जूझते रहे और एक-एक पैसे के लिए मोहताज हो गए। उन्होंने अपना पासपोर्ट वापस मांगा और स्वदेश लौटने की बात कही तो उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया। उनके ठीक होने पर उन्हें पत्थर तोड़ने का काम दिया गया। वे कहते हैं कि पत्थर तोड़ने से उनके हाथों में छाले पड़ गए, लेकिन एजेंट के आदमियों को उन पर तरस नहीं आया।

उन्होंने अच्छे ओहदे पर काम करने वाले हिन्दुस्तानी लोगों की मदद से अधिकारियों से संपर्क किया और उनकी मदद से उन्हें उनका पासपोर्ट वापस मिल पाया। हिन्दुस्तान वापस आकर उन्होंने फिर कभी भी रोज़गार के लिए खाड़ी देश न जाने का संकल्प लिया। जब उनके बेटे मुहम्मद ने सऊदी अरब जाने की बात कही तो उन्होंने यही कहा कि परदेस के हलवे से अपने देस का दलिया लाख बेहतर है। उन्होंने कहा कि वे नहीं चाहते कि उनका बेटा भी उनकी ही तरह तकलीफ़ें सहे। वे कहते हैं कि लोग एजेंटों की बातों में आकर खाड़ी देशों में चले तो जाते हैं, लेकिन वापस नहीं आ पाते। वे बताते हैं कि सऊदी अरब में ऐसे हज़ारों लोग हैं, जिनके साथ जानवरों से भी बुरा बर्ताव किया जाता है। पासपोर्ट पास न होने की वजह से वे लाचार और मजबूर हैं। ऐसे में उनकी हालत गुलामों से भी बदतर हो जाती है। उनके चेहरे पर अतीत के दुखों का साया साफ़ झलक रहा था।

इसी तरह उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद के रहने वाले हबीब हुसैन भी अपनी दो बीघा ज़मीन बेचकर एजेंट के ज़रिये सऊदी अरब गए थे। यहां पर दिनभर काम करने पर उन्हें 80 रुपये ही दिहाड़ी मिल पाती थी। एजेंट ने उनसे कहा कि सऊदी अरब में वे 20 हज़ार रुपये तक माहवार कमा सकते हैं। उन्हें वहां पर 14 से 18 घंटे तक काम करना पड़ता था, इसके बावजूद उन्हें मेहनताने के रूप में एक पैसा तक नहीं मिला। क़रीब छह माह तक वह हाजियों से मिलने वाले बख्शीश से गुज़ारा करते रहे। उन्होंने बहुत कोशिश की कि उन्हें उसका पासपोर्ट मिल जाए, लेकिन जब वे पासपोर्ट मांगते तो उनके साथ मार-पीट की जाती।

जब वे अत्याचार सहते-सहते तंग आ गए तो एक रोज़ उन्होंने किसी भी तरह स्वदेश आने का फ़ैसला किया और वे भारत आने वाली एयर इंडिया की फ्लाइट के टॉयलेट में छुप गए। ज़हाज उड़ने के क़रीब पौने घंटे बाद एयर होस्टेस ने उन्हें टॉयलेट में देखा और उनकी आपबीती सुनने के बाद सीट और खाना दिया।

एक अनुमान के मुताबिक़ वर्ष 2000 तक खाड़ी देश में 30 लाख भारतीय मज़दूर थे। वर्ष 2008 में 8.48 लाख कामगार खाड़ी देशों में गए थे, जिनमें से 41 फ़ीसदी संयुक्त अरब अमीरात और 27 फ़ीसदी अरब गए। वर्ष 2009 में सिर्फ़ एक लाख 71 हज़ार कामगार ही विदेश गए। वर्ष 2006 में बंग्लादेश के 3.82 लाख कामगार खाड़ी देशों में गए। वर्ष 2008 में यह तादाद बढ़कर 8.32 लाख हो गई। वर्ष 2007-08 में नेपाल के 2.17 लाख कामगार खाड़ी देशों में गए। वर्ष 2008-09 में यह तादाद बढ़कर 2.49 लाख कामगार खाड़ी देशों में गए।

खाड़ी देशों विशेषकर सऊदी अरब में महिला कामगारों के साथ भी दुर्व्यवहार की घटनाओं में काफ़ी इज़ाफ़ा हो रहा है। हालत यह है कि मिस्र ने तो ऐलान कर दिया है कि वह अपने मुल्क की महिलाओं को काम के लिए सऊदी अरब नहीं भेजेगा।

मानवाधिकार संगठन खाड़ी देशों में मानवाधिकारों के उल्लंघन के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करते रहे हैं। रोज़ी-रोटी की तलाश में खाड़ी देशों में जाने वाले कामगारों का शोषण आम बात है। कभी एजेंट धोखा देते हैं तो कभी उन्हें निर्धारित वेतन से कम मेहनताना दिया जाता है। क़ाबिले-ग़ौर है कि एजेंसियां कामगारों से यात्रा ख़र्च, सरकारी फ़ीस और रोज़गार दिलाने के एवज में मोटी रक़म ऐंठती हैं।

अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच ने अपनी एक रिपोर्ट-2006 में कहा था कि संयुक्त अरब अमीरात सरकार प्रवासी कामगारों का शोषण रोकने में नाकाम साबित हुई है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि प्रवासी कामगार अपनी नियोक्ता एजेंसियों और मालिकों के हाथों प्रताड़ित हो रहे हैं। निर्माण उद्योग में शामिल किसी भी मालिक का सरकारी रिकॉर्ड नहीं है, जिससे वे क़ानून की पकड़ से साफ़ बच निकलते हैं, क्योंकि श्रम क़ानूनों का उल्लंघन करने पर उन्हें सज़ा नहीं दी जा सकती। ह्यूमन राइट्स वॉच की मध्यपूर्व की निदेशक सारा लियाह व्हिटसन ने कामगारों की दुर्दशा पर चिंता ज़ाहिर करते हुए यहां तक कहा था कि जब तक सरकार क़ानून की अवहेलना करने वालों को सज़ा नहीं देती, तब तक संयुक्त अरब अमीरात की आसमान छूती इमारतें श्रमिकों के शोषण के लिए याद की जाएंगी। उनका कहना था कि सैकड़ों चमचमाती गगनचुंबी इमारतों का निर्माण दूसरे देशों से लाए गए कामगारों के अत्यंत शोषणकारी परिस्थितियों में काम करने से ही मुमकिन हो पाया है।

इतना ही नहीं सऊदी अरब में विदेशी कामगारों को मौत की सज़ा दिए जाने के मामले भी सामने आते रहते हैं। एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक़ सऊदी अरब में अमूमन हर महीने आठ से दस लोगों को मौत की सज़ा दी जाती है, जिनमें से आधे से ज्यादा विदेशी कामगार शामिल होते हैं। ग़ौरतलब है कि सऊदी अरब में हत्या, बलात्कार और मादक पदार्थों की तस्करी करने वालों को मौत की सज़ा दी जाती है। मौत की सज़ा का तरीक़ा सिर क़लम करना बेहद अमानवीय व क्रूर है। इसके अलावा कुरआन और मुहम्मद का अपमान करने वालों को भी मौत की ही सज़ा दी जाती है। ग़ौरतलब है कि गत 28 मार्च को शारजाह की एक शरीया अदालत ने एक पाकिस्तानी की हत्या करने व तीन अन्य लोगों को घायल करने के आरोप में 17 भारतीय लोगों को मौत की सज़ा सुनाई थी।

बहरहाल, यही कहा जा सकता है कि जंगली क़बीलों के अमीर मुल्क में आज भी मानवता सिसक रही है। ग़रीब और बेबस मज़दूरों की ख़ामोश चीख़ें गूंज रही हैं, काश सरकारें कुछ कर पातीं।

परिचर्चा : अयोध्‍या मामले पर इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय की लखनऊ पीठ का निर्णय

अयोध्‍या मामले में इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय की लखनऊ पीठ के निर्णय के अनुसार, अयोध्या में विवादास्पद स्थल भगवान राम का जन्म स्थान है। पीठ ने सुन्नी वक्फ बोर्ड का दावा लखनऊ बेंच ने 2:1 से खारिज कर दिया है। विवादित जमीन के 3 हिस्से किये गए हैं। जिसे तीनों पक्षकारों में अलग-अलग बांट दिया गया है। विवादित जमीन का केंद्रीय हिस्सा जहां मू्र्तियां रखीं थीं, उसे रामलला का जन्मस्थान मानते हुए पूजा के लिए दिया गया है।

इस निर्णय से पिछले 60 साल के विवाद के खत्म होने की उम्मीद लगाई जा रही है। फैसला इलाहाबाद उच्च न्यायालय की विशेष लखनऊ पीठ ने सुनाया है। न्यायिक पीठ के तीन अनुभवी न्यायाधीश, न्यायाधीश धर्मवीर शर्मा, न्यायाधीश सुधीर अग्रवाल और न्यायाधीश सिबघट उल्लाह खान हैं। इस मामले में विवादित भूमि के तीन दावेदार थे। सुन्नी वक्फ बोर्ड, हिंदू महासभा और निर्मोही अखाड़ा।

फैसले के प्रमुख अंश इस प्रकार हैं-

1. विवादित जमीन 3 हिस्सों में बांटी गयी।

2. सुन्नी वक्फ बोर्ड का दावा खारिज कर दिया गया है। वक्फ बोर्ड का दावा 2:1 से खरिज हुआ है।

3. तीनों जजों ने माना है कि विवादित स्थल भगवान राम की जन्मभूमि है।

4. विवादित जमीन के मुख्य केंद्रीय हिस्से को भगवान राम का जन्मस्थान मानते हुए रामलला की पूजा के लिए दिया गया है।

5.विवादास्पद इमारत बाबर द्वारा बनाई गई थी। इसके निर्माण का साल निश्चित नहीं है लेकिन इस्लाम के सिद्धांतों के खिलाफ इसे बनाया गया था। इसलिए इसका चरित्र मस्जिद का नहीं हो सकता है।

6. विवादास्पद ढांचे का निर्माण पुराने ढांचे के स्थान पर उसे ही तोड़कर किया गया था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) ने प्रमाणित किया है कि वहां एक विशाल हिन्दू धार्मिक ढांचा था।

7. विवादित जमीन का बाहरी हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिया गया है जबकि तीसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़े को दिया गया है।

8. न्यायिक फैसले पर अगले 3 महीनों के अंदर कार्यवाही पूरी की जाएगी।

अयोध्या विवाद पर हाई कोर्ट के फैसले पर सुन्नी वक्फ बोर्ड ने कहा है कि वह इस मामले को खत्म नहीं कर रहे हैं और अदालत के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएंगें. वक्फ बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी ने पत्रकारों को बताया कि विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटे जाने के फैसले के खिलाफ अपील की जाएगी क्योंकि यह फार्मूला वक्फ बोर्ड को मंजूर नहीं है. मुस्लिम नेता असादुद्दीन उवैशी का कहना है कि उन्हें इस बात का अफसोस है कि अदालत ने ठोस सबूतों को भी नहीं माना है. अखिल भारतीय हिंदू महासभा ने भी सुप्रीम कोर्ट जाने का निर्णय लिया है. उसका कहना है कि रामजन्मभूमि को तीन हिस्सों में बांटे जाने के फैसले को उन्होंने चुनौती देने का फैसला लिया है.