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केंद्रीय कर्मचारियों में महिलाओं का प्रतिशत 10 से भी कम – ब्यूरो

tkaकेंद्रीय कर्मचारियों की कुल संख्या में महिलाओं का अनुपात 10 प्रतिशत से भी कम है। प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव टी. के. ए. नायर ने एक पत्रिका के अंतर्राष्ट्रीय विशेषांक के विमोचन समारोह में कहा कि केंद्रीय कर्मचारियों में महिलाएं केवल 7.52 प्रतिशत हैं।

नायर ने कहा समारोह के दौरान कहा कि प्रशासनिक सेवा में महिलाओं का प्रतिशत 24, भारतीय पुलिस सेवा में 18.5 प्रतिशत तथा भारतीय विदेश सेवा में 18 प्रतिशत है। वे राजधानी में ब्यूरोक्रेसी टुडे नाम की पत्रिका के अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेषांक अंक के विमोचन समारोह में बोल रहे थे।

उन्होंने कहा कि हम एक कार्यकारी लोकतंत्र हैं और नौकरशाही की भूमिका बदलने जा रही है। ऐसे में सार्वजनिक प्रशासन में महिलाओं का परिदृश्य हर हाल में बदलना चाहिए। फिलहाल नौकरशाही में महिलाओं की भूमिका पूरी कहानी का एक बहुत ही छोटा-सा हिस्सा है।

नीतीश कुमार का रिक्शा मंत्र

nitish-kumarपंद्रहवीं लोकसभा चुनाव का रंग अब धीरे-धीरे गाढ़ा होता जा रहा है। इसी का परिणाम मालूम पढ़ता3 है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ऑस्कर पुरस्कार बटोरने वाली फिल्म स्लमडौग मिलियनेयर देखने रिक्शा से पटना के अशोक सिनेमा हॉल पहुंचे। साथ ही उनके सुरक्षाकर्मी रिक्शा के साथ दौड़ लगाते सिनेमा हौल पहुंचे।

खबर आई कि मुख्यमंत्री आवास से अशोक सिनेमा हॉल तक के लिए उन्होंने रिक्शा चलाने वाले को तीन सौ रुपये दिए। यानी करीब पांच किलोमिटर की दूरी का रिक्शा भाड़ उन्होंने 300 रुपया तय किया है। खैर, यह उनकी अदा है। हालांकि ऐसे कामों का कौपी राइट लालू जी के पास है। लेकिन, उन्हें मात देना है तो कुछ करना ही पड़ेगा।

बहरहाल, इस मौके पर उन्होंने पत्रकारों से कहा कि रिक्शा आम आदमी की सवारी है। मैंने इच्छा इस चर्चित फिल्म को देखने की हुई, इसलिए मैंने सोचा कि क्यों न पुरानी यादें ताजा कर ली जाएं। इस कारण मैंने रिक्शा से ही सिनेमा हॉल जानने का फैसला किया।
नीतीश जी ने तो बहुत अच्छा किया। अब सुरक्षाकर्मी को दौड़ें तो अपनी बला से, उन्हें क्या ? हालांकि सिनेमा हॉल में पहले से ही सुरक्षा के कड़े प्रबंध किए गए थे। मुख्यमंत्री के साथ जनता दल-यूनाइटेड के प्रदेश अध्यक्ष ललन सिंह भी थे।

राजधानी में सड़क छाप फिल्म फेस्टिवल

राजधानी के लुटियंस इलाके व उसके आसपास मनाया जाने वाला फिल्मोत्सव अब पुरानी परंपराओं को दरकिनार करते हुए शहर की झुग्गी बस्तियों में पहुंच गया। स्पृहा (गैर सरकारी संस्था) ने बच्चों की कोमल कल्पनाओं में और पंख लगाने के इरादे से दिल्ली के नई सीमापुरी इलाके में सड़क छाप फिल्म उत्सव का आयोजन किया।

 

slumउत्सव का उद्देश्य बच्चों में संवेदनशीलता कायम रखने व गरीब बच्चों से छिन रहे बचपन को लौटाने का है। हालांकि, यह एक चुनौती है, जिसे स्पृहा ने अनूठे अंदाज में पूरा करने की जिम्मेदारी ली है।

 

यहां उत्सव के दौरान बच्चों को चिरायु‘, ‘छू लेंगे आकाश‘, ‘जवाब आएगाऔर उड़न छू नाम की चार बाल फ़िल्में दिखलाई गईं। स्पृहा के संचालक पंकज दुबे ने बताया कि मल्टीप्लेक्स की संस्कृति में ये बच्चे मनोरंजक फिल्में देखने से महरूम रह जाते हैं। हमारी कोशिश बस इतनी है कि इन बच्चों को भी बेहतर फिल्म दिखाने को मिले।
 

उत्सव का आयोजन चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी आफ इंडिया(सीएफएसआई) के सहयोग से किया गया था। यकीनन पंकज इस प्रयास के लिए बधाई के पात्र हैं। लेकिन, यदि ये प्रयास हिंदुस्तान के बज्र देहाद में भी पहुंचे तो क्या कहने हैं !

स्वरोजगारियों का गांव नगला धाकड़

gems-cutting-04भरतपुर जिले की वैर तहसील की इटामड़ा ग्राम पंचायत के गांव नगला-धाकड़ में रहने वाले धाकड़ जाति के लोगों की आजीविका का मुख्य आधार खेती और पशुपालन रहा है। लेकिन छोटी जोतें और उस पर अनुपजाऊ भूमि स्थानीय ग्रामीणों के जीवन की एक फांस बन चुकी थी और हालात भरण-पोषण के संकट तक पहुंच चुके थे। ऐसे में जीवन-यापन के साधन जुटाने के लिए स्थानीय लोगों में पलायन की प्रवृत्ति बढ़ रही थी। पलायन करने वालों में नगला के तीन ऐसे परिवार भी थे, जिन्हें जयपुर में नगीनों की पॉलिश का काम मिल गया। सुरेश चंद्र धाकड़ एवं उनके दो अन्य साथी इसमें शामिल थे। कुछ लोगों को आगरा एवं आसपास के अन्य इलाकों में भी काम मिल गया, लेकिन कमाई का अधिकांश हिस्सा वहां पर आवास, भोजन और आवागमन पर खर्च हो जाने से बचत नहीं हो पाती थी। स्थानीय स्तर पर संसाधनों की अनुपलब्धता के कारण तो आजीविका दूभर थी ही, लेकिन घर-बार छोड़कर जाने के बाद भी अपेक्षित लाभ नहीं हो रहा था। पलायन कर चुके हर व्यक्ति की तरह परदेस में रहते हुए नगला के लोगों के मन में भी ख्याल आते थे कि ‘यदि गांव में रहकर ही कोई काम मिल जाये तो परेशानियां हल हो जायेंगी, क्योंकि थोड़ी बहुत खेती-बाड़ी भी ऐसे में हो जाएगी।गत दीपावली के दौरान सुरेश धाकड़ ने गांव में ही नगीना घिसाई मशीन व शेड बनाने का विचार गांव वालों के सम्मुख रखा। चर्चा हुई और ग्रामीणों की सहमति भी इस काम को लेकर बन गई। लेकिन इसके लिए संसाधन कैसे जुटाया जाये, यह गरीब ग्रामीणों के लिए इतना आसान नहीं था। नगीना घिसाई की मशीन व शेड बनाने हेतु लगभग 40-50 हजार रूपये की आवश्यकता थी। इस समस्या को कैसे हल किया जाये, इस बात को लेकर ग्रामीणों ने लुपिन ह्युमन वेलफेयर फांउडेशन के प्रतिनिधि से चर्चा की तो उसने लघु उद्योगों की स्थापना के लिए बैंकों से मिलने वाले ऋण के बारे में लोगों को जानकारी दी। यही नहीं लुपिन के प्रतिनिधियों ने ऋण के लिए आवेदन कराने से लेकर उद्यमों की स्थापना तक पूरा सहयोग नगला के नव-स्वरोजगारियों को दिया। इस तरह सुरेश को सिडबी की ओर से ऋण मिल गया और उसने अपनी छोटी से यूनिट नगला में ही आरंभ कर दी। जयपुर में काम करने वाले अन्य लोगों को जब नगला में हुए इस नए प्रयोग के बारे में पता चला तो उन्होंने भी लुपिन के प्रतिनिधियों से सहयोग की अपील की। इस तरह अन्य लोगों को भी स्थानीय लोगों को ऋण दिला दिया गया। देखादेखी नगीना पॉलिश करने वाली स्वरोजगार इकाइयों की संख्या दिनो-दिन बढ़ने लगी।

अपने गांव में इस बदलाव से प्रभावित होकर आगरा में काम करने वाले लोग भी वापस अपने ही गांव में आ गये और संस्था के सहयोग से गांव में घुंघरू तथा पट्टा चैन की यूनिटें लगाई। इन लोगों को गांव में संचालित 6 महिला स्वयं तथा अन्य लोंगों को प्रशिक्षण केन्द्र के माध्यम से घुंघंरू व पट्टा चैन बनाने का प्रशिक्षण दिया गया। जिससे ये महिलाऐं उनके काम को सफलतापूर्वक निभाने लगी तथा उनके घर के पुरूष इनकी मार्किटिंग हेतु आगरा तथा आसपास के शहरों में जाने लगे। नगीना घिसाई के व्यवसाय के लिए गांव के अन्दर ही प्रशिक्षण केन्द्र प्रारम्भ किया गया, जिसमें गांव तथा आसपास के युवाओं को 3 महीने का गहन प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके उपरान्त यहां से प्रशिक्षित लोग गांव में लगी हुई यूनिटों में तथा कुछ प्रशिक्षणार्थी अपनी इन स्वयं की यूनिटें लगाकर काम करने लगे।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने की दिशा में एक और कदम बढ़ाते हुए संस्था ने ‘लुपिन ग्राम विकास पंचायत’ का गठन किया गया है। गांव के लोग प्रतिनिधि चुनकर इस कमेटी का गठन करते हैं, जो ग्रामीणों के ऋण प्रस्तावों पर विचार-विमर्श कर अनुमोदन के बाद स्वीकृत कर लुपिन, राष्ट्रीय महिला कोष तथा स्थानीय बैंकों से धन दिलाने में मदद करती है। इस तरह गांव में ही स्वरोजगार के साधन ग्रामीणों को उपलब्ध हो जाते हैं और वे इससे होने वाली आय से ऋण समय पर चुका देते हैं। गांव के सहायता समूह की महिलाएं आपस में स्वरोजगार की छोटी-मोटी आवश्यकताएं अपने समूह से ही ऋण लेकर पूरी कर लेती है। गांव के 26 अनुभवी तथा प्रशिक्षित लोगों को वहां के स्थानीय बैंक द्वारा उद्यमी कार्ड भी दिलवाया हुआ है। इसके तहत सदस्य 25000 तक का लेन-देन कभी कर सकते है। यह कार्ड सदस्यों की समय-समय पर आने वाली आवश्यकता जैसे मजदूरी भुगतान, कचचे माल का क्रय, डीजल क्रय आदि हेतु काफी काम आता है। वर्तमान में नगला धाकड़ गांव में नगीना पॉलिश की 42, घुंघरू की 14 तथा पट्टे चैन की 28 यूनिटें कार्य कर रही हैं, जिससे लगभग 1000 लोगों को सीधे तौर पर रोजगार मिल रहा है। यहां पुरूष नगीना पॉलिश तथा महिलाऐं घुंघरू के व्यवसाय में लगी हुई है। समय-समय पर संस्था का गांव के लोगों को स्वरोजगार के प्रति प्रोत्साहन महत्वपूर्ण रहा है। स्थानीय लोगों को प्रशिक्षित कर उनकी कला निखरने में संस्था की भूमिका एक उत्प्रेरक की रही है। आसपास के लोगो को आदर्श गांवों का भ्रमण कराकर उन्हें इसी प्रकार के कार्य की पुनरावृत्ति करने की प्रेरणा दे रही है।

सिलसिला शुरू हुआ तो कारवां बनता चला गया और इसका प्रभाव कुछ ही समय में नगला-धाकड़ में नज़र आने लगा। सिडबी के सहयोग से ग्रामीण उद्यमिता विकास कार्यक्रम के तहत 450 लोगों को प्रायोगिक व सैध्दान्तिक प्रशिक्षण मिल जाने से लोगों में उद्यमीय कौशल में भी वृध्दि हुई है। आज नगला में विभिन्न व्यवसाय की 84 इकाइयां कार्यरत हैं, जिसमें लगभग एक हजार परिवारों के आर्थिक तथा सामाजिक विकास को प्रोत्साहन मिला है। चूल्हे चौके तक सिमट कर रहने वाली महिलाएं भी स्वरोजगार से जुड़कर गांव के विकास की मुख्यधारा में शामिल होने लगी हैं। यही नहीं आसपास के क्षेत्रों में सैकड़ों लोगों ने इस तरह के प्रयास के प्रारम्भ कर दिये हैं, जो एक सुखद बात कही जा सकती है। जीवन यापन की समस्या हल हो जाने के बाद स्थानीय ग्रामीणों का रूझान शिक्षा की तरफ अब बढ़ने लगा है। आधारभूत सुविधाओं के विकास के चलते गांव की छात्राएं अब उच्च शिक्षा हेतु जाने लगी हैं।

हालांकि अब नगला धाकड़ आर्थिक समृध्दि की ओर अग्रसर है, परन्तु आज भी गांव के लोग व्यथित है कि यहां मात्र 6 से 8 घन्टे बिजली रहती है। जिससे प्रत्येक परिवार का लगभग 30 हजार रूपये का डीजल बिजली की वैकल्पिक व्यवस्था करने में खर्च हो जाता है। फिलहाल गांव के सभी लोग लुपिन के सहयोग से जिला प्रशासन से गांव को कस्बे के समान अधिक बिजली दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। गांव वालों की मानें तो बिजली की समस्या हल हो जाने से उनकी सारी मुश्किलें हल हो जाएंगी और नगला-धाकड़ एक संपूर्ण आत्मनिर्भर गांव बनकर एक मिसाल कर पाने में समर्थ हो जाएगा।

-उमाशंकर मिश्र

(लेखक मासिक पत्रिका सोपानस्‍टेप से जुडे हैं एवं इसके साथ ही विकास एवं कृषि विषयों पर कई पत्र-पत्रिकाओं में स्‍वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं)

सफर का सफरी सूटकेस – ब्रजेश झा

india-untouced-25हाल ही में सफर (गैरसरकारी संस्था) ने राजधानी के दो-तीन जगहों पर इंडिया अनट्च्ड (लघु फिल्म) का पुनः प्रदर्शन किया। इसकी जानकारी मेरे पास थी। हालांकि स्टालिन की करीब दो घंटे की इस फिल्म को मैं कई बार देख चुका हूं। यह देश में व्याप्त छुआछूत और जाति प्रथा पर बनी है। इसे स्टालिन अपनी नजर से देखते हैं। 

हालांकि, बार-बार देखने के बावजूद यकीन नहीं होता कि अब भी यही पूरा सच है। इसे लेकर एक झीन सा परदा अब भी मेरे मन में है। खैर, यह अलग मसला है। सफर बहस-मुबाहिसों को आगे बढ़ाने के लिए जो काम कर रहा है, वह मेरे निजी ख्याल से ज्यादा अहमियत रखता है। 

जामिया मिलिया में फिल्म की स्क्रीनिंग के दौरान कई छात्र मौजूद थे। इससे पहले यह दिल्ली विश्वविद्यालय के एक छात्रावास में भी दिखाई गई थी। फिल्म पर छात्रों ने जमकर बातचीत की। यहां सफर ने विचार पैदा करने व बहस करने की संभ्रांतों की जागीर अब छात्रों व बज्र देहात में जीवन काट रहे लोगों में फैलाने का सिलसिला शुरू किया है, वह काबिलेगौर है। 

इससे पहले भी सफर रविन्द्र भवन में होने वाली घिसीपिटी साहित्यिक गोष्ठियों से अलग एक नई तान दे चुका है। इसका एक मंजर तब दिखा जब, वजीराबाद गांव के सफर के दफ्तर में राजेंद्र यादव अपनी लघु कहानी का पाठ कर रहे थे। इसी तरह की हलचल पैदा करने वाली कुछ-एक बातें सफर के नाम नत्थी हैं।

सिनेमाई गीत- संचार का बेजोड़ माध्यम -ब्रजेश झा

filmi-geetयह बात सहजता से कबूल है कि गाने संचार में महति भूमिका अदा करते है। उसपर से सिनेमाई गाने हों तो उसके क्या कहनें! खैर, जब कभी हिन्दी सिनेमाई गीतों पर बात छिड़ती नहीं कि तबीयत रूमानी हो जाती है।
ऐसा हो भी क्यों नहीं, आखिर यह इजहारे-तहरीर का बेजोड़ माध्यम जो है। यहां चुनिन्दा लोगों के जो भी खयालात हों, आम राय यही है कि सिनेमाई गाने श्रमहारक का काम करती है। साथ ही यह अभिव्यक्ति का बड़ा माध्यम है। अत: इसमें ठहराव मुमकिन नहीं है। शायद मुनासिब भी नहीं ।
ऐसे में पिछले कुछेक सालों से कमरतोड़ गाने आ रहे हैं। मुलाहिजा फरमाइये—
कजरारे कजरारे तेरे कारे कारे नैना ( बंटी और बबली), बीड़ी जलाईले जिगर से पीया (ओंकारा) । ताज्जुब की बात यह है कि जितना शोर-शराबा गीतों में है, गीतकार उतना ही संजीदा है।
वैसे तो गीतकार भेजे में शोर होने की बात पहले ही कह चुका है। लेकिन, ऐसे रफ्तारमय गीत लिखना उनके स्वभाव का हिस्सा नहीं है। यकीनन, यह मांग आधारित है। आगे इन्हीं गीतों में इस्तेमाल हुए लफ्जों के बदलाव पर बातचीत हो तो फिर बात बने।
इन गीतों के आने तक हिन्दी सिनेमाई गाने लम्बा सफर पूरा कर चुका है।
इस दरमियान वक्त तेज रफ्तार से बदलता रहा और उसके तेवर भी। ऐसे में सिनेमाई गीत अपनी भाषा व मुहावरों को गढ़ने-बदलने का आदी और अभ्यस्त होता गया। ढेरों प्रयोग हुए। समय, परिवेश व नाजुक रिश्ते की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति के। शब्दों को गढ़ने और सुनने के । और हां- ये सफल भी रहे। “कजरारे कजरारे” गायकी के कई अंदाजों के साथ भाषा के स्तर पर पंचमेल खिचड़ी का रूप लिए सामने आई और दमभर चली। यानी प्रयोग का एक मुकम्मल रूप हमारे -आपके नजीर आया।

 

बात कुछ ऐसी है कि हिन्दुस्तानी सिनेमा में गीत को जितना तवज्जह मिला, उतना संसार के किसी भी अन्य फिल्मीद्योग में नहीं मिल पाया। फिल्में आती हैं , चली जाती हैं। सितारे भी पीछे रह जाते हैं। रह जाते हैं तो बस कुछ अच्छे भले गीत, जो ‘ दुनिया ये तुफान मेल’ व ‘ अफसाना लिख रही हूं तेरे इंतजार का’ की तरह युगों तक बजते रहेंगे।
और साथ- साथ संचार का एक रूमानी माध्यम बने रहेंगे।

बुंदेलखंड: अकाल को निमंत्रण

bundelkhandपिछले पांच वर्षों से वर्षा में अत्यधिक कमी के कारण समूचा बुंदेलखंड अकाल की चपेट में है। नदी, तालाब, नलकूप सभी सूख चुके हैं। भुखमरी से मौतें हो रही हैं। लोग खेत-खलिहान, पशु-पक्षी छोड़कर रोजी-रोटी की तलाश में महानगरों की ओर पलायन कर रहे हैं। बुंदेलखंड में पहले भी स्थितियां जीवन के अनुकूल नहीं थी लेकिन स्थानीय लोग इन विपरीत परिस्थितियों को अपने जज्बे के बल पर अनुकूल बना लेते थे, और घर-द्वार, खेत-खलिहान छोड़कर जाने की नौबत नहीं आती थी।दरअसल सूखा, विदर्भ में हो या बुंदेलखंड में, बिना बुलाए मेहमान की भांति नहीं आता। धरातल के चट्टानी स्वरूप का होने के कारण बुंदेलखंड की धरती पानी को सोख नहीं पाती है। इसीलिए प्राचीनकाल से कुंए, तालाब यहां की पारंपरिक संस्कृति के अभिन्न अंग रहे हैं। लोग अपनी श्रमनि¬ठा से वर्षा की बूंदों को सहेजकर अपना जीवन चलाते थे। इन बूंदों से ही तालाब भरते थे, ”सिमट-सिमट जल भरहिं तलाबा।” ये तालाब सबकी मदद से बनते थे और सबके काम आते थे। लेकिन आधुनिक विकास का रथ जैसे-जैसे आगे बढा वैसे-वैसे पारंपरिक लोक संस्कृति छिन्न-भिन्न हो गई।

आजादी के समय बुंदेलखंड का एक-तिहाई भाग वनाच्छादित था लेकिन कृषि, उद्योग, परिवहन, व्यापार, नगरीकरण जैसी गतिविधियों के कारण जंगल कटते गए और पहाड़ियां-पठार नंगे होते गए। इससे अपरदन की प्रक्रिया को बढावा मिला और तालाबों में गाद जमा होनी शुरू हुई व उनकी जलग्रहण क्षमता प्रभावित हुई। आधुनिक भारत के नए तीर्थ (बांध) बनाने की प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर पेड़ काटे गए। बांध बनने के बाद नहरों की खुदाई की गई और नलकूप-हैंडपंप संस्कृति को बढावा मिला। इससे जलापूर्ति के बारहमासी साधनों (तालाब, कुएं) को अनुपयोगी मान लिया गया। शुरू में तो मशीनी साधनों ने मनु¬य और खेती की प्यास बुझाई लेकिन शीघ्र ही वे थक गए। दूसरी ओर परंपरागत संस्कृति के छिन्न-भिन्न होने से पानी की खपत में तेजी आई। इससे अकाल को निमंत्रण मिला।
हरित क्रांति से पहले बुंदेलखंड की प्रमुख फसलें बाजरा, कोदों, चना, मकई थीं। ये फसले कम पानी पीती थीं और वहां की भौगोलिक दशाओं के अनुकूल भी थीं। इसके साथ पशुपालन, मुर्गी-बकरी-भेड़ पालन आदि गतिविधियां भी चलती रहती थी। हरित क्रांति के दौर में बुंदेलखंड में भी आधुनिक खेती का पदार्पण हुआ। परंपरागत फसलों की जगह नयी फसलों को बढावा मिला। इन बाहरी फसलों को उगाने के लिए सिंचाई, रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग बढा। इस प्रकार बुंदेलखंड की परंपरागत खेती व्यवसाय का रूप लेने लगी। इससे जल, जंगल और जमीन पर दबाव बढा। रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों के असंतुलित और अनियंत्रित प्रयोग से पानी की मांग बढी। ज़ैसे-जैसे पानी की मांग बढी वैसे-वैसे भूमिगत जल का शो¬षण भी बढा। इससे बचा खुचा भूमिगत जल भी समाप्त हो गया।

आजादी के बाद जो विकास रणनीति अपनाई गई उसमें सामुदायिक जीवन की घोर उपेक्षा हुई। पुल बनाना हो या सड़क, नहर की खुदाई हो या तालाब की सफाई सभी कार्य सरकार पर छोड़ दिया गया। इससे समाज पंगु बन गया। बुंदेलखंड की सदियों पुरानी जल प्रबंधन प्रणाली भुला कर दी गई। पहले तालाब सबकी मदद से बनते थे और सबके काम आते थे लेकिन अब पानी देना सरकार का काम हो गया। अब पानी न मिलने पर लोग अपनी व समाज की जिम्मेदारी को भूलकर सड़क जाम करने, जिला मुख्यालयों, राज्य की राजधानी में प्रदर्शन करने और सांसदों-विधायकों का घेराव करने लगे। यहां तक कि पानी के लिए हिंसक झड़पे भी होने लगी।

वनोन्मूलन, खेती की आधुनिक पद्धति, विकास की संकीर्ण धारा के साथ-साथ नगरीकरण, बढती जनसंख्या, भोगवादी जीवन पद्धति, बदलता मौसम चक्र ने भी बुंदेलखंड में अकाल की तीव्रता को बढाया। इसका समाधान पलायन, विरोध प्रदर्शन, अरबों-खरबों के निवेश आदि न होकर जल संरक्षण में निहित है। भारत में वर्षा से प्रतिवर्ष 4000 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी गिरता है जिसमें से हम औसतन 600 बीसीएम पानी का ही इस्तेमाल कर पाते हैं, शे¬ष पानी बरबाद हो जाता है। इससे स्प¬ष्‍ट है कि देश में पानी की कमी नहीं अपितु अधिकता है। पानी की अधिकता के बाद भी कभी विदर्भ तो कभी बुंदेलखंड में अकाल की पदचाप सुनाई देती रहती है। इसका कारण है कि देश में जल के उपयोग की प्रभावी नीति नहीं बन पाई है। जल की विविधता की उपेक्षा करके उसके साथ समान व्यवहार किया जाने लगा। जल के मिट्टी व फसलों के साथ जो परंपरागत संबंध था उसकी अनदेखी की गई और रेगिस्तान में भी गेहूं उगाया जाने लगा।

वस्तुत: बुंदेलखंड में जल संकट हरे-भरे जंगलों, पहाड़ों और नदियों वाले इस क्षेत्र में हरियाली के विनाश तथा भूमिगत जल के बेलगाम दोहन से उत्पन्न हुआ है। अत: इसका समाधान जल प्रबंधन से ही होगा। हमें समाज को जगाकर परंपरागत संसाधनों (कुआं, तालाब और छोटे-छोटे बांधों) की ओर लौटना होगा। उन फसलों का विकल्प ढूंढना होगा जो अधिक पानी पीती हैं। बरसाती नदियों व नालों की गहराई बढे तथा 2-5 किमी की दूरी पर छोटे-छोटे बांध बनाकर पानी रोकने के उपाय किए जाएं। तरूण भारत संघ ने राजस्थान के अलवर क्षेत्र में सामुदायिक प्रयासों से जल संभरण का कार्य सफलतापूर्वक किया जा रहा है। हमें इससे सीख लेनी होगी।

लेखक- रमेश कुमार दुबे
(लेखक पर्यावरण एवं कृषि विषयों पर कई पत्र-पत्रिकाओं में स्‍वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं)

गांधी की वस्तु की नीलामी पर न्यायालय ने लगाई रोक

mahatma-gandhi1राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से जुड़ी वस्तुओं की अमेरिका में होने वाली नीलामी पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने मंगलवार को अंतरिम रोक लगा दी है।

नवजीवन ट्रस्ट की ओर से अतिरिक्त महान्यायाधिवक्ता मोहन पाराशरण द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायाधीश अनिल कुमार ने स्थगन आदेश जारी किया। अमेरिका के एंटिकोरम आक्सनीयर्स की ओर से गुरुवार को गांधीजी की वस्तुओं की नीलामी की जानी है।

पाराशरण ने कहा कि वे सभी वस्तुएं भारत की हैं और उन्हें अनधिकृत तरीके से वहां ले जाया गया है। साथ ही उन्होंने कहा कि वर्ष 1996 में मद्रास उच्च न्यायालय ने एक ब्रिटिश संस्थान के खिलाफ ठीक इसी तरह का स्थगन आदेश गांधीजी की हस्तलिखित सामग्रियों की नीलामी रोकने के लिए दिया था।

सरकार ने ट्रस्ट की ओर से इस मामले में अदालत में पेश होने के लिए पाराशरण को विशेष अनुमति दी है।

गांधी क्यों लौट-लौट आते हैं? – रविकान्त

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mahatma-gandhiआशिस नंदी ने अपने एक मशहूर लेख में बताया था कि गांधी को मारनेवाला सिर्फ़ वही नहीँ था जिसकी पिस्तौल से गोली चली थी, बल्कि इस साज़िश को हिन्दुस्तानियोँ के एक बड़े तबक़े का मौन-मुखर समर्थन हासिल था। सत्ता की राजनैतिक मुख्यधारा के लिए वे काँटा बन चुके थे, और चालीस के दशक में उनके अपने चेलोँ ने ही उन्हें हाशिए पर सरका दिया था, क्योंकि बक़ौल पार्थ चटर्जी, राष्ट्र अपनी मंज़िल के क़रीब आ चुका था। पर हम सुमित सरकार के हवाले से यह भी जानते हैँ कि गांधी की जीवन-ज्योति बुझने से ठीक पहले अपनी दिव्य प्रदीप्ति भी छोड़ जाती है, जब बटवारे के दुर्दांत दृष्टांत में कोई और हिकमत काम नहीं आती तो गांधी का खटवास-पटवास ही काम आता है। कहा जा सकता है कि अपने ही लोगों के ख़िलाफ़ हुई अपनी आख़िरी जंग में हिन्दुस्तानी रिवायतों की रचनात्मक पुनर्परिभाषा करनेवाले गांधी के अपने सांस्कृतिक स्रोत सूखते नज़र आते हैं – ख़ासकर तब जब हम उन्हें महिलाओं को बेइज़्ज़ती की आशंका पर प्राणोत्सर्ग की हिमायत करते देखते हैं। बहरहाल दिलचस्प है कि उनके अपने प्रणोत्सर्ग ने असंभव को संभव कर दिखाया और इस तरह गांधी ने बटवारे के समय मरकर एक ज़ोरदार कमबैक दिया, और यह सिलसिला थमा नहीं है।

तो गांधी हमारे कमबैक किंग सिर्फ़ इसलिए नहीं हैं कि उनके आचार-विचार और आदर्श-व्यवहार अपने रूपकार्थ में आज भी हमें रोशनी और हौसला देते हैं, बल्कि इसलिए भी हम उनके सुझाए विकल्पोँ से बेहतर विकल्प अपने लिए नहीं ढूँढ पाए हैं। मसलन जब पश्चिम की अपनी हिंसक मुठभेड़ के संदर्भ में जब देरिदा मिल-जुलकर जीने की कला और सहिष्णुता का पाठ पढ़ाते हैं तो हमारे लिए गांधी का याद आना स्वाभाविक है, क्योंकि वे भी कुछ वैसा ही कह रहे थे। और हम इसमें न तो अकेले हैँ, न ही पहले। गांधी की वैश्विक पहुँच और स्वीकृति थी और रहेगी: गांधी-स्मृति जा‌इए, जनसत्ता में सुधीर चंद्र के कॉलम पढ़िए, या थोड़ा इंटरनेट पर घूमिए तो पाएँगे कि लोग आज उन्हें पर्यावरण से लेकर प्रौद्योगिकी तक के इलाक़ों में
पुनर्मिश्रित और पुनर्व्याख्यायित कर रहे हैं, उनके जीवन-प्रसंगोँ की नई तर्जुमानी हो रही है, और उन औज़ारों के ज़रिए उनका पुनराविष्कार हो रहा है, जिनसे शायद उनको ख़ुद बहुत लगाव नहीं था। आप शायद कहें कि गांधीगिरी, गांधीवाद नहीं है। बेशक, पर शाहिद अमीन के चौरी-चौरा के किसानों से पूछिए कि क्या उन्होंने गांधी को उल्टा नहीं घिसा था? हम सबके अपने-अपने गांधी इसलिए हैं कि हमें उनसे जूझना ही पड़ता है, ऐसी उनकी अनुपस्थित उपस्थिति है, ऐसा महात्म्य है
उनका।

— रविकान्त

सराय /सीएसडीएस से जुड़े

भाजपा व अजित सिंह के बीच चुनावी गठबंधन

ajit-singhदेश में होने वाले 15वीं लोकसभा चुनाव के बाबत भारतीय जनता पार्टी और अजित सिंह की राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) के बीच चुनावी गठबंधन हो गया है। अब दोनों पार्टियां मिलकर चुनाव मैदान में उतरेंगी।

राजधानी दिल्ली में सोमवार को एक संवाददाता सम्मेलन में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वरिष्ठ नेता व प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी और आरएलडी के अध्यक्ष अजित सिंह ने इस समझौते की घोषणा की।

संवाददाता सम्मेलन में अजित सिंह ने कहा कि इस गठबंधन से वे उत्तर प्रदेश के लोगों के सामने समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के विकल्प के तौर पर स्वयं को प्रस्तुत करेंगे। सिंह का कहना था कि देश में परिवर्तन की ज़रुरत है और इसी को ध्यान में रखकर यह समझौता किया गया है।
दूसरी तरफ़ लालकृष्ण आडवाणी ने भी आरएलडी के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल होने का स्वागत किया है। उन्होंने कहा कि एनडीए में आरएलडी के आने से उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के कुशासन से भी आम लोगों को छुटकारा मिलेगा।

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र के किसानों के बीच आरएलडी का गहरा प्रभाव माना जाता है।

गांधी जी के सामानों की नीलामी रोकने के प्रयास तेज

gandhi_ji2भारत सरकार फिलहाल इस प्रयास में जुटी है जिससे महात्मा गांधी की  निजी वस्तुओं की अमेरिका में होने वाली नीलामी को रोका जा सके।

खबर के मुताबिक संस्कृति मंत्री का कहना है कि इन वस्तुओं की न्यूयॉर्क शहर नीलामी करने वालों से  आग्रह किया गया है कि वे इन वस्तुओं की नीलामी से पहले इसे ख़रीदने का मौक़ा सरकार को दें। ये वस्तुएँ जिनके पास हैं उनमें से एक महात्मा गांधी की भतीजी की बेटी भी हैं।

 

गांधी की भतीजी ने एक जर्मन संग्रहकर्ता को अधिकृत किया है कि वह इस वस्तु को अमरीकी नीलामी घर के ज़रिए बेच दे। यहां नीलाम की जाने वाली वस्तुओं में महात्मा गांधी का चश्मा, चप्पलों की एक जोड़ी और एक जेब घड़ी शामिल है। इन वस्तुओं की क़ीमत 20 से 30 हज़ार डॉलर के बीच आंकी गई है। न्यूयॉर्क के एंटीक़ोरम ऑक्शनीयर्स में चार-पाँच मार्च को इन वस्तुओं की नीलामी होनी है।

 

संस्कृति मंत्री अंबिका सोनी ने कहा है कि इन वस्तुओं की नीलामी रोकने के लिए जो कुछ भी किया जाना है। वह किया जा रहा है।

सरकार इस विकल्प पर भी विचार कर रही है कि यदि ये वस्तुएँ नीलामी से नहीं हटाई जाती हैं तो किसी भारतीय से कहा जाए कि वह इसे ख़रीद ले और बाद में सरकार को दान में दे दे, जिससे कि इसे राष्ट्रीय संग्रहालय में रखा जा सके। सरकार की एक समिति इस तरह के सभी उपायों पर विचार कर रही है।

 

लगभग सभी दलों के सांसदों ने कहा है कि इन वस्तुओं को हासिल करने की हर संभव कोशिश की जानी चाहिए।

गांधी जी के पड़पोते तुषार गांधी ने इन वस्तुओं की नीलामी रोकने या उन्हें ख़रीदकर भारत में लाए जाने के लिए एक अपील जारी की थी। उन्होंने एक समाचार एजेंसी से बातचीत में ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए कहा है कि वे बहुत ख़ुश हैं। सरकार आख़िरकार अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के लिए सामने आई है।

 

दूसरी ओर नीलाम करने वालों का कहना है कि गांधी की निजी वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए दुनिया भर के लोगों ने ख़ासी दिलचस्पी दिखाई है।

लुप्त होता हुनर – ब्रजेश झा

handloom-2भागलपुर शहर का एक खास इलाका है। नाम है चंपानगर। यहां कभी चंपानदी हुआ करती थी। और इसके पास बसे लोग बुनकर थे। मालूम नहीं कब यह नदी नाले का रूप पा गई। और ताज्जुब है, कहलाने भी लगी। दूसरी तरफ इसके आस-पास बसे लोग जो कभी बुनकर थे अब मजदूर हो गए हैं। यह बदलाव है जो साफ नजर आता है। हाल में भागलपुर का यही इलाका अखबारों-टीवी चैनलों पर छाया हुआ था। वजह इक चोर को रक्षस की तरह पीटना था। खैर, इस पर बात अलग से।


अरसा नहीं गुजरा जब भागलपुरी रेशम अपने समृद्धि के दौर में था। पारंपरिक ढंग से रेशमी वस्त्रा तैयार करने की वजह से इसकी अलग पहचान थी। लोग यहां के बुनकरों और रंगरेजों के हुनर की दाद दिया करते थे। तब सामाजिक-आर्थिक संरचनाएं भी ऐसी थीं कि कई बड़े-मझोले बुनकरों के बीच छोटे-मोटे बुनकरों का भी वजूद कायम था। पर, आज इलाके की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में घूमते वक्त बहुत कुछ सपनों सा मालूम पड़ता है। भूमंडलीकरण के दबाव और सरकारी उपेक्षा की वजह से भागलपुरी रेशम उद्योग की वर्तमान हालत बिल्कुल खस्ता है। बुजुर्ग बतलाते हैं, ‘यह मुमकिन नहीं लगता कि अब यहां की पुरानी रौनकें लौट आएं


यहां के हजारों बुनकर परिवार वर्षों से तसरऔर लिलनजैसे धागों से रेशमी कपड़ों की बुनाई करते आ रहे हैं। पहले तो इसकी ख्याति विदेशों तक थी। ढेरों कपड़ा यहां से निर्यात किया जाता था। पर, अब वह बात नहीं रही। रेशमी कपड़ा अब भी तैयार किया जाता है। लेकिन, कुछ असामयिक घटनाओं ने अनिश्चितताओं के ऐसे माहौल को जन्म दिया कि हजारों बुनकरों को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए पलायन करना पड़ा। फिलहाल इस उद्योग से कुछ लोग ही जुड़े रह गए हैं, जो अपने पुश्तैनी व्यवसाय को बचाने की कोशिश में लगे हैं। अंसारी साहब कहते हैं, ‘यहां रेशमी कारोबार से जुड़ी थोड़ी चीजें ही बाकी रह गई हैं। अब तो इस विरासती कारोबार की हिफाजत अपने बच्चों के लिए भी कर पाना मुश्किल हो गया है।

 

आजकल यहां आजाद भारत के बुनकरों की चौथी पीढ़ी अपनी शरुआती पढ़ाई को छोड़ इस काम में लग चुकी है। यह बाल मजदूरी की एक अलग दास्तान है। बाकी जो उम्रदराज लोग हैं, उनके मन में 1986 और 1989 में लगातार घटित दो विषाक्त घटनाओं की गहरी यादें जमी हुई हैं। जिसने रेशम उद्योग को जड़ तक हिला दिया है। अंसारी साहब मायूस होकर कहते हैं, ‘ये दो वाकयात ऐसे हुए जिसने शहर से लेकर देहात तक फैले बुनकरों-रंगरेजों को तबाह कर डाला। वरना, यह कारोबार थोड़ा आगा-पीछा के बावजूद कायदे से चल रहा होता।

 

यहां बिजली-बिल के करोड़ों रुपये बकाया राशि के भुगतान को लेकर सन् 1986 में काफी हंगामे हुए थे। प्रशासन द्वारा बुनकरों पर अप्रत्याशित ढंग से दबाव बनाए जाने से हालात बिगड़ गए। अंतत: क्रिया-प्रतिक्रया में दो बुनकर आशीष कुमार, जहांगीर अंसारी और भागलपुर के तत्कालीन डीएसपी मेहरा की हत्या हो गई। इसके बाद तो लगातार हंगामे होते रहे और रेशम उद्योग जलता रहा। इस घटना ने सलीका पंसद और मेहनती समझे जाने वाले बुनकरों की छवि को अचानक खराब कर दिया।
अत्यधिक ब्याज अदा करने को तैयार होने के बावजूद इन्हें सूद पर रुपये नहीं मिल पाते थे। दूसरी तरपफ डीएसपी मेहरा की हत्या से जुड़े मुकदमे में दर्जनों बुनकर केस लड़ते-लड़ते तबाह हो गए। आज उनमें देवदत्त वैद्य, एर्नामुल अंसारी जैसे कई बुनकर नेताओं की तो मृत्यु भी हो चुकी है। ठीक उसी वक्त इस उद्योग से जुड़कर बड़ों का हाथ बटा रही युवा पीढ़ी पर घटना का गहरा असर हुआ। वे लोग जीवन-यापन के लिए विकल्प तलाशने लगे। बिजली आपूर्ति और बकाया राशि को लेकर हंगामे तो खूब हुए, लेकिन स्थितियां अब तक ढाक के तीन पातवाली बनी हुई हैं। ऊपर से सरकारी सुविधाएं भी धीरे-धीरे बंद होती चली गईं। इन हालातों के बीच 1989 का जिले भर में फैला सांप्रदायिक दंगा-रेशम उद्योग को पूरी तरह उजाड़ गया। दूर-दराज वाले कई गांवों में तो यह उद्योग लुप्त ही हो गया।

 

यद्यपि यह राममंदिर आंदोलन से पूर्व बनते-बिगड़ते राजनैतिक और धार्मिक गठजोड़ का दुष्परिणाम था, जो धीरे-धीरे साफ होता गया। लेकिन, गाज भागलपुर रेशम उद्योग पर गिरी। तब रेशम उद्योग मात्रा 35-40 वर्ष पीछे लौट कर ही नहीं रह गया बल्कि, अपनी दिशा भी बदलने लगा। रेशम बाजार की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई। मोमीन बुनकर विकास संगठनसे जुड़े बुनकरों का कहना है कि दंगे के बाद बाहर से व्यापारियों का आना पूरी तरह बंद हो गया। जबकि ये लोग पहले हमारी देहरी तक आकर माल ले जाया करते थे। तब हमें बिचौलिए के झमेले में नहीं पड़ना होता था। पर अब हवा बदल गई है। यह सांप्रदायिक दंगा भागलपुर की स्मृति का ऐसा पक्ष है जो एक दु:स्वप्न की तरह बुनकरों का पीछा कर रहा है। कम अंतराल पर हुई इन दो घटनाओं से कई साधारण गरीब बुनकर घृणा, भय और आतंक का अनुभव करते हुए यहां से पलायन कर चुके हैं। आज वे लोग अपने व्यवसाय और जड़ों से उखड़कर देश के विभिन्न हिस्सों में अपनी अधूरी पहचान के साथ जी रहे हैं। जबकि, भागलपुरी रेशम उद्योग पूरी ढलान पर है।

 

मशीनीकरण का भी इस लघु उद्योग पर प्रतिकूल असर पड़ा है। पहले एक हैंडलूम के सहारे चार-पांच सदस्यों वाले परिवार का भरण-पोषण बड़ी सहजता से हो जाता था। रेशमी धागों के गट्ठरों की धुलाई, लेहरी, टानी, बुनाई, रंगाई और छपाई तक की प्रक्रिया से जुड़े कामों में जुलाहे से लेकर रंगरेज तक व्यस्त रहते थे। लेकिन, नई अर्थनीति और पावरलूम की अंधी दौड़ ने गरीब बुनकरों की स्थिति को दयनीय बना दिया है। वे लोग हैंडलूम के बूते पावर लूम का विकल्प तैयार नहीं कर सकते और न ही बाजार में टिक सकते हैं। इसलिए बड़े लूम हाउसों में मजदूरी करना इन बुनकरों की नियति बन गई है। ऐसे रेशम उद्योग के बेहतर भविष्य की कल्पना कोई कैसे कर सकता है, जहां का बुनकर समाज गरीब होता जा रहा है और व्यापारी दिनों दिन अमीर। बिजली आपूर्ति की वर्तमान स्थिति इस फासले को और चौड़ा करने में लगी है।


पिछले कुछ दशकों से इस रेशम उद्योग में असामाजिक तत्वों का हस्तक्षेप भी बढ़ा है। ये लोग गैरकानूनी ढंग से इस व्यवसाय में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। बेशक, हम पारंपारिक टसरऔर लिलनके व्यापार को बिखरता पाते हों किन्तु, इसकी आड़ में रेशम धागे की कालाबाजारी का अपना संपन्न संसार है। ये लोग अपने स्वार्थ के वास्ते हमेशा दिमागी हरकत करते रहते हैं। इससे उद्योग की साख को बड़ा धाक्का पहुंचा है। न जाने कितने बुनकरों-व्यापारियों ने रंगदारी के भयवश पुरखों द्वारा प्रदत्त रेशम उद्योग से खुद को अलग कर लिया है। यहां किसी भी सरकारी संरक्षण के अभाव में कई छोटी-बड़ी मिलें बंद हो चुकी हैं। सिल्क स्पंस मिल-बहादुरपुरइन्हीं में से एक है। विदेशी कंपनियां फैल रही हैं वहीं देशी उद्योग लुप्त हो रहा है। सोचता हूं कि ऐसे में भागलपुर सिल्क उद्योगको लेकर क्या राय बन सकती है।