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भारतीय संविधान और राष्ट्रीय एकता

लेखक- लालकृष्ण आडवाणी

 भारत अगस्त 1947 में स्वतंत्र हुआ था। यह देश के इतिहास का महान क्षण था। दुर्भाग्य से स्वतंत्रता के साथ ही देश का विभाजन भी हुआ। इससे भी अधिक दुख की बात यह थी कि द्वि-राष्ट्र सिध्दांत के समर्थकों के कारण देश को विभाजन का मुंह देखना पड़ा।

भारत के नेतागण पाकिस्तान निर्माण के लिए सहमत हुए, परंतु भारत ने द्वि-राष्ट्र सिध्दांत को स्वीकार नहीं किया। स्वतंत्र भारत के संविधान का निर्माण करते समय संविधान सभा दृढ़ता से उसी सिध्दांत पर अटल रही, जिस पर संपूर्ण स्वतंत्रता आंदोलन चलता रहा था, अर्थात् अनन्त काल से भारत एक देश रहा है, और सभी भारतीय, चाहे वह किसी धर्म, जाति या भाषा के हों, एक जन हैं। हम मानते हैं कि हमारी एकता का आधार हमारी संस्कृति है।

लोकमान्य बाल गंगाधार तिलक का जन्म महाराष्ट्र में हुआ था; महर्षि अरविन्द घोष बंगाल से थे; महात्मा गांधी गुजरात के थे। परंतु स्वतंत्रता आंदोलन के इन महान नेताओं का संपूर्ण उद्यम, संपूर्ण तपस्या, भारत माता के लिए थी।

संघ ही क्यों-परिसंघ क्यों नहीं

इस प्रसंग में जब संविधान सभा में देश के नाम पर विचार किया जा रहा था तो वहां एक महत्वपूर्ण चर्चा हुई। क्या भारत को राज्यों का संघ कहा जाए या इसे राज्यों का परिसंघ कहें? संविधान के मूल प्रारूप में इसे राज्यों का परिसंघ कहा गया था। बाद में प्रारूप में इस शब्द को बदल कर ‘संघ’ शब्द का प्रयोग किया गया।

संविधान के प्रमुख निर्माता डा. अम्बेडकर ने प्रारूप में इस परिवर्तन के लिए मूलाधार प्रस्तुत करते हुए कहा था:
”कुछ आलोचकों ने संविधान के प्रारूप के अनुच्छेद 1 में भारत को राज्यों का संघ कहने पर आपत्ति की है। कहा गया है कि सही शब्दावली ‘राज्यों का परिसंघ’ होनी चाहिए। यह ठीक है कि दक्षिण अफ्रीका, जो एकात्मक राज्य है, को संघ कहा जाता है, परंतु कनाडा जो परिसंघ है, उसे भी एक ‘संघ’ कहा जाता है।

इस प्रकार भारत को एक ‘संघ’ कहने से इसके संविधान के परिसंघीय स्वरूप के बावजूद ‘संघ’ शब्द के प्रयोग से कोई उल्लंघन नहीं होता है। परंतु महत्वपूर्ण बात यह है कि संघ शब्द का प्रयोग जानबूझकर किया है। मैं नहीं जानता कि कनाडा के संविधान में ‘संघ’ शब्द का प्रयोग क्यों किया गया है, परंतु मैं आपको बता सकता हूं कि प्रारूप में इसका प्रयोग क्यों किया।

प्रारूप समिति यह स्पष्ट कर देना चाहती थी कि यद्यपि भारत परिसंघ होगा, परंतु परिसंघ राज्यों द्वारा परिसंघ में शामिल होने के किसी अनुबंधा का परिणाम नहीं है और क्योंकि परिसंघ किसी अनुबंधा का परिणाम नहीं है, इसलिए किसी राज्य को उससे अलग होने का अधिकार नहीं है। परिसंघ एक संघ है क्योंकि इसे समाप्त नहीं किया जा सकता। यद्यपि देश और लोगों को प्रशासन की सुविधा के लिए राज्यों में बांटा जा सकता है, परंतु देश संपूर्ण एक भाग होता है, इसके लोग एक जन होते हैं जो एक ही स्रोत से प्राप्त एक सत्ता के अधीन रहते हैं।

अमरीकियों को यह स्थापित करने के लिए सिविल युध्द छेड़ना पड़ा था कि राज्यों को अलग होने का अधिकार नहीं है और उनका परिसंघ अमिट है। प्रारूप समिति ने सोचा कि बेहतर यही है कि आरंभ से ही इसे स्पष्ट कर दिया जाये, इसकी बजाय कि बाद में किसी तरह के अनुमान या विवाद का स्थान बना रहे।’

अनेक परिसंघीय संविधानों में, उदाहरण के लिए अमरीका के संविधान में, दोहरी नागरिकता को स्वीकार किया गया है-एक परिसंघीय और दूसरी राज्यों की नागरिकता। अत: इस प्रकार की भिन्नता ऐसी स्थितियों में अस्वाभाविक नहीं है, जहां कोई परिसंघ उसमें शामिल होने वाले राज्यों के बीच एक अनुबंधा के आधार पर बना हो। भारत में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एकदम अलग है। प्राचीन काल में उस समय भी जब देश विभिन्न साम्राज्यों में विभाजित था, तब भी देश की समान संस्कृति ने एकता और एकत्व के भाव को बनाए रखा था।

विविधता पर बल देने के खिलाफ अम्बेडकर की चेतावनी

‘विविधाता में एकता’ को भारतीय राष्ट्रवाद का प्रमाण-चिन्ह माना गया है। मेरे विचार में यह उक्ति हमारे जैसे किसी भी विशाल देश पर लागू हो सकती है।

संविधान का प्रारूप प्रस्तुत करते हुए डा. अम्बेडकर ने सावधान किया था कि यदि दोहरी राज्यव्यवस्था में सत्ता के विभाजन से उदभूत विविधाता एक निश्चित सीमा को पार कर जाती है तो उससे अव्यवस्था फैल सकती है। उन्होंने आगे कहा था:
‘संविधान के प्रारूप में ऐसे उपाय और प्रणाली रखने का प्रयास किया है जिससे भारत एक परिसंघ होगा और साथ ही देश की एकता को बनाए रखने के लिए अनिवार्य सभी बुनियादी मामलों में एकरूपता रहेगी। संविधान के प्रारूप में इसके लिए तीन उपाय किए हैं:
1. एक ही न्यायपालिका;
2. नागरिक तथा दाण्डिक – सभी मूल विधियों में एकरूपता; और
3. महत्वपूर्ण पदों पर एक समान अखिल भारतीय सिविल सेवा की व्यवस्था।’

स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व हम सभी ने एकता पर जोर देने का सजग प्रयास किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विविधाता पर बल दिया जा रहा हैं। कभी-कभी यह बल खतरनाक स्थिति तक पहुंच जाता है।

‘पृथक स्व-राज्य’ सिध्दांत खतरनाक

कुछ वर्ष पूर्व सरकार ने केंद्र राज्यों के संबंधों पर रिपोर्ट देने तथा इन पर सिफारिश देने के लिए सरकारिया आयोग को एक ज्ञापन प्रस्तुत कर कहा था:
”……भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के बाद ऐतिहासिक रूप से अधिकांश समय से चली आ रही देश की सीमाओं के विभाजन का आधार मात्र प्रशासनिक नहीं रह गया है। अब ये विभिन्न भाषायी सांस्कृतिक समूहों के समझ-बूझ कर बनाए गए ‘स्व-राज्य’ हैं। वस्तुत: इन समूहों की अलग राष्ट्रीयताएं बनती जा रही हैं।”

मैं इस पृथक ‘स्व-राज्य’ के सिध्दांत को बहुत खतरनाक सिध्दांत मानता हूं। इस ‘द्वि-राष्ट्र सिध्दांत’ के कारण भारत का विभाजन हुआ, इस बहुराष्ट्रीय सिध्दांत के कारण देश छोटे छोटे टुकड़ों में बंट सकता है।

यह प्रशंसनीय है कि सरकारिया आयोग ने इस सिध्दांत को साफ-साफ अस्वीकार कर दिया है और पुष्टि की है कि ‘संपूर्ण भारत देश के प्रत्येक नागरिक का ‘स्व-राज्य’ है; किंतु यह उक्ति जम्मू कश्मीर प्रदेश के मामले में दुखद रूप से अपवाद प्रतीत होती है।

अस्थायी अनुच्छेद 370 को स्थायी बनाने का प्रयास

संविधान सभा में सरकार की ओर से बोलते हुए, स्वयं श्री गोपालस्वामी आयंगर ने खेद प्रगट किया था कि जब सभी राजा-महाराजाओं की रियासतों का देश के साथ पूरी तरह विलय हो गया है, जम्मू और कश्मीर को एक अपवाद बनाया जा रहा है। परंतु उन्होंने आगे इस बात पर बल दिया कि यह व्यवस्था अस्थायी है तथा जल्दी ही जम्मू और कश्मीर का भी अन्य प्रदेशों की तरह संघ के साथ पूरी तरह से विलय हो जाएगा। त्रासदी यह है कि संविधान सभा में जो विधिवत् आश्वासन दिया गया था उसे राजनीतिक इष्टसिध्दि के कारणों से आज तोड़ा जा रहा है तथा अस्थायी प्रावधान को स्थायी बनाने का प्रयास किया जा रहा है।

इस प्रसंग में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी) द्वारा सरकारिया आयोग को दिये ज्ञापन का संदर्भ देना चाहूंगा, जिसका चिंतन भारतीय राष्ट्रवाद के मुकाबले द्वि-राष्ट्र सिध्दांत या शेख अब्दुल्ला के त्रि-राष्ट्र सिध्दांत की सीमा भी पार कर जाता है। वादियों का सदैव यह दृष्टिकोण रहा है कि भारत एक बहुराष्ट्रीय राज्य है।

संविधान निर्माताओं की नेकनीयती पर संदेह

संविधान में जो ‘एकात्मवादी प्रवृत्ति’ दिखाई पड़ती है, उसकी आलोचना करते हुए मार्क्‍सवादियों के ज्ञापन में भारत के संविधान निर्माताओं की नेकनीयती पर ही संदेह किया है। वे लिखते हैं:
”स्वतंत्रता के बाद जो संविधान बनाया गया उसमें विकास के लिए पूंजीवादी मार्ग की आवश्यकताओं को ध्‍यान में रखा गया, जिसके लिए एकीकृत एकल, सजातीय बाजार की आवश्यकता होती है। इसमें जमींदारों के साथ सम्बध्द बड़े-बड़े पूंजीपतियों की आवश्यकताओं की झलक मिलती है…”

उपर्युक्त विश्लेषण में यह कथन कि संविधान की एकात्मवादी प्रवृत्ति का दरअसल कारण यह है कि इसके निर्माताओं ने बड़े जमींदारों और पूंजीपतियों के हितों को धयान में रखा, अनर्गल और दुराग्रहपूर्ण है। यह विकृत दृष्टिकोण का एक विशिष्ट उदाहरण है जिससे पता चलता है कि यदि वैचारिक मताग्रह के काले चश्मे से देखने का हठ रखा जाए तो निश्चय ही इतिहास की प्रमुख घटनाएं भी विकृत रूप में सामने आएंगी।

संविधान सभा में हुई चर्चा को देखने से सहज ही पता चलता है कि इस प्रतिष्ठित निकाय ने पूरी तरह माना है कि भारतीय समाज बहु-वर्णी है और इसका एक रंग नहीं है, परंतु साथ ही वह इस विविधता में निहित सांस्कृतिक एकता के प्रति सक्रिय रूप से सजग थी। उसने देश के लिए जो राजनीतिक दस्तावेज बनाया उसमें इस एकता को रेखांकित किया है तथा एक राष्ट्र पर बल दिया है।

विकेंद्रीकरण के लिए सुदृढ़ आधार

मुझे यह महसूस होता है कि संविधान बनाते समय संविधान निर्माताओं को स्पष्ट रूप से परिकल्पना नहीं थी कि आगे आने वाले समय में राज्यों को अपने विकास संबंधी दायित्वों का निर्वाह करने के लिए कितना बोझ सहना पड़ेगा।

अब राज्यों को दिए गए संसाधन अत्यंत कम हैं और उनमें लचीलापन भी नहीं है। केंद्र को आवंटित संसाधन अपार हैं। इसका परिणाम यह है कि राज्यों को अपनी सामाजिक तथा औद्योगिक आधारभूत संरचना जो कि तेजी से सामाजिक आर्थिक विकास के लिए पूर्वपेक्षित है, तैयार करने की प्रारंभिक जिम्मेदारी का निर्वाह करने के लिए केंद्र की आर्थिक सहायता पर लगातार निर्भर करना पड़ता है। मेरा विचार है कि यह मामला स्पष्ट है कि राज्यों को और अधिक वित्तीय सहायता दी जानी चाहिए।

प्रशासनिक तथा विधायी मामलों के बारे में भी सरकारिया आयोग ने ठीक ही कहा है कि बहुत समय से शक्तियों के केंद्रीयकरण की सामान्य प्रवृत्ति अधिकाधिक बढ़ती गई है।’ उसने आगे लिखा है: ‘इस बात में पर्याप्त सच्चाई है कि अनावश्यक केंद्रीयकरण से केंद्र का रक्तचाप बढ़ता है और उसकी परिधि में रक्त की कमी रहती है।’ इसका अनिवार्यत: परिणाम रूग्णता और अकुशलता में परिणत होता है।’ इससे भी खराब बात यह है कि हम महसूस करते हैं कि इस अतिकेंद्रीकरण ने राष्ट्रीय एकता को कमजोर बनाने में योगदान किया है। अत: राष्ट्रीय एकता के हित में हमारे लिए आवश्यक है कि राजनीतिक तथा आर्थिक दोनों शक्तियों का और अधिक विकेंद्रीकरण किया जाये।

कश्मीर मामले में समझौतावादी प्रवृत्ति से राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ेगी।

पश्चिमी पर्यवेक्षक हमें बिना बात कश्मीर के बारे में परामर्श देते रहते हैं और स्वायत्ताता देने की समस्या से निपटने से लेकर यह राज्य पाकिस्तान अथवा भारत के साथ मिले या स्वतंत्र बना रहे, इस बारे में मतसंग्रह कराने के सुझाव देते रहते हैं। वे सामान्य रूप से इसे केवल भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद की समस्या समझते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्र सरकार उनके पहले प्रस्ताव को स्वीकार करने की इच्छुक है और वह ‘आजादी से कम’ कुछ भी रियायत देने की बात कर रही है।

किंतु हमें समझ लेना चाहिए कि हम इस समस्या का समाधान किस ढंग से करते हैं, इसका प्रभाव देश की एकता पर पड़ेगा। जैसा मैंने पहले कहा है कि राज्यों को और अधिक शक्तियां देने के औचित्य का आधार सुदृढ़ है। परंतु इसे केवल जम्मू और कश्मीर के मामले में ही लागू करना और वह भी इन यंत्रणापूर्ण पांच वर्षों में वहां फैली हिंसा तथा तोड़-फोड़ की गतिविधियों के आगे झुक कर, इसका अर्थ यह होगा कि हम विद्रोही गतिविधियों को शह दे रहे हैं। कश्मीर में समझौतावादी प्रवृत्ति अपनाने से पूरे देश पर अप्रत्यक्ष रूप से बुरा प्रभाव पड़ेगा और विधवंसकारी ताकतों को हर तरह से बढ़ावा मिलेगा।

डा. राजेन्द्र प्रसाद का विवेकपूर्ण परामर्श

मैं मानता हूं कि एकता के परिप्रेक्ष्य में भारत के संविधान की पर्याप्त अच्छे ढंग से रचना हुई है। फिर भी यदि स्वतंत्रता के लगभग छह दशकों के बाद आज देश में पृथकतावाद और विद्रोही गतिविधियों, आतंकवाद और हिंसा से एकता को गंभीर खतरा है तो इसमें दोष संविधान का नहीं, अपितु प्रमुख रूप से दोष इस बात में है कि जो संविधान को कार्यान्वित करने के लिए जिम्मेदार हैं वे गलत ढंग से इसे अमल में ला रहे हैं।

जब 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा में औपचारिक रूप से संविधान स्वीकार किया गया था तो संविधान सभा के अधयक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद ने अपने समापन भाषण में कहा था:
”यदि निर्वाचित प्रतिनिधि योग्य होंगे तथा चरित्रवान और निष्ठावान होंगे तो वे दोषपूर्ण संविधान का भी सर्वश्रेष्ठ उपयोग कर सकेंगे। यदि उनमें अपनी ही कमी हुई तो संविधान किसी भी देश के लिए मददगार नहीं बन सकता। आखिरकार संविधान तो मशीन की तरह निर्जीव है, इसमें प्राण तो वह व्यक्ति डालता है जो यंत्र को नियंत्रित करता और चलाता है तथा आज भारत की सर्वाधिक आवश्यकता ईमानदार व्यक्तियों की है, जिनके सामने देश का हित सर्वोपरि हो।’

हम संविधान में ऐसे परिवर्तन और संशोधन करने के बार में सोच सकते हैं, जिनसे संविधान राष्ट्रीय एकता को और अधिक प्रभावकारी ढंग से कारगार बना सके, परंतु हमें सदैव डा. राजेन्द्र बाबू के अत्यंत बुध्दिमत्तापूर्ण परामर्श को धयान में रखना होगा।

(लेखक लोकसभा में विपक्ष के नेता हैं)

(यह लेख डॉ. मुकर्जी स्मृति न्यास द्वारा प्रकाशित संकल्प विशेषांक से साभार यहां प्रस्तुत है)

सरस्वती से लेकर रामसेतु तक टूटता पश्चिम का इतिहास तिलिस्म

लेखक: जयप्रकाश सिंह

 भारतीय गुलामी के हजार साल के कालखण्ड को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम कालखण्ड का सम्बंध इस्लाम से है जबकि द्वितीय कालखण्ड का सम्बंध इसाईयत से है। इस्लामिक गुलामी मूल रुप से राजनीतिक गुलामी थी। इस गुलामी का सामाजिक सांस्कृतिक स्तर पर रिसाव नहीं हुआ था। कुछ इतिहासकार हिंदुओं को जबरन इस्लाम में मतांतरित करने और सूफीवाद के उदय को सामाजिक सास्कृतिक परिदृश्य से जोड़कर देखते है। लेकिन मतांतरण के पीछे भी काम करने वाली शक्ति मूलरुप से राजनीतिक थी। इसके पीछे कोई वैचारिक आंदोलन काम नहीं कर रहा था।

सूफीवाद के उभार का राजनीतिक शक्ति से कुछ लेनादेना नहीं था। यह हिंदुत्व की सांस्कृतिक सबलता के कारण अस्तित्व में आया। सूफीवाद भारत की प्रबल सांस्कृतिक जठराग्नि की देन है। असीम बौद्विक और सांस्कृतिक पाचन क्षमता के कारण भारत सभी वाह्य प्रवृत्तियों को आत्मसात कर लेता है, और अपने पकृति के अनुरुप नई प्रवृत्तियां को जन्म देता है। यही सनातन भारत की महान आंतरिक और अमिट ताकत है।

इस बिंदु पर यह भी स्मरणीय है कि इस कालखण्ड में समाज की धारा ही मूल धारा थी। राजनीति की भूमिका एक सहायक की भूमिका तक सीमित थी। इसी कारण तत्कालीन राजनीतिक प्रक्रिया में बहुत कम लोगों की सहभागिता होती थी और बहुत कम ही लोग उससे प्रभावित भी होते थे।

अंग्रेजों के समय की गुलामी राजनीतिक के साथ-साथ सांस्कृतिक और सामाजिक भी थी। अंग्रेजों ने भारत की राजनीतिक संरचना और संस्थानों के साथ ही समाज और संस्कृति की बनावट तथा बुनावट को भी प्रभावित किया। उन्होंने भारतीय जनमानस और उसके शक्तिकेंन्द्रों का बहुत बारीकी से अध्ययन किया। सामाजिक सांस्कृतिक समझ की इस कवायद से अग्रेंजों को भारत की नब्ज और तासीर को समझने में मदद मिली। उनके ध्यान में आया कि भारतीय जनमानस राज से नहीं बल्कि समाज से चलता है और भारतीय अपनी सांस्कृतिक विरासत के प्रति बहुत संवेदनशील हैं। भारतीयों में इस विरासत को लेकर एक गौरव भाव भी है। अंग्रेजों को यह बात भी समझ में आयी कि आत्मगौरव की भावना राजनीतिक गुलामी की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। और इस भाव के बने रहने पर भारतीयों पर अधिक समय तक शासन नहीं किया जा सकता।

भारत की नब्ज और तासीर को समझने के बाद अंग्रेजों ने भारतीयों में आत्महीनता भरने के प्रयास शुरु किए। उन्होंने कुछ ऐसी मान्यताएं और अवधारणाएं गढ़ी जो नितांत भ्रामक थीं। और जिसका उद्देश्य केवल और केवल भारतीयों के बीच आत्महीनता और आत्म दैन्यता का भाव भरना था। इन प्रवृत्तियों को पैदा करने का साधन इतिहास को बनाया गया। भारत का इतिहास अंगेजों द्वारा लिखा गया और यह शायद अब तक पूरी दुनिया में लिखा गया सबसे विकृत इतिहास है। भारत पर आर्यो का आक्रमण एक ऐसी ही झूठी कहानी है। जिसका आज तक भारतीय इतिहासकार रट्टा मारते आ रहे हैं।

सरस्वती नदी को कपोलकल्पना बताने को भी को भी इतिहास के रचा गया एक सामाजिक सांस्कृतिक षडयंत्र कहा जा सकता है। जिसका कभी अस्तित्व ही नहीं रहा है। लेकिन हाल में किए उत्खनन और उपग्रहों के जरिए लिए गए चित्रों ने यह बात साबित कर दी है कि सरस्वती नदी एक सच्चाई थी। इस नदी को फिर से एक सच्चाई बनाने का प्रयास भी शुरु कर दिए गए हैं।

सरस्वती नदी शोधयात्रा की एक लम्बी कहानी है। इस नदी के शोध में पहला कदम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक मारोपंत पिंगले और विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैनी के पुरातत्वविद् स्व. डा.विष्णु श्रीधर वाकणकर ने उठाया। इन दोनों महानुभावों ने अन्त:सलिला सरस्वती नदी के सम्भावित मार्ग का खाका तैयार किया और प्रवाह के मार्ग को खोजने के लिए लगभग तीन हजार किलोमीटर का प्रवास किया।

इन दोनों महानुभावों ने 1985 में सरस्वती नदी के मार्ग के सटीक निर्धारण के लिए सरस्वती शोधसंस्थान, जोधपुर की स्थापना की। उन्होंने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन से भी इस कार्य में सहयोग देने की अपील की और इसरो ने इस नदी के पुनर्खोज में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस नदी के मार्ग के शोध में महाभारत के शल्य पर्व से भी सहायता मिली। महाभारत के इस खण्ड में भगवान बलराम के यात्रा विवरण का प्रयोग सरस्वती के मार्ग की खोज में किया गया।

आज भी प्रयाग में गंगा और यमुना दो नदियों का संगम को त्रिवेणी कहा जाता है। भारतीय जनमानस में सरस्वती नदी से जुड़ी स्मृतियों के कारण ही प्रयाग को त्रिवेणी कहा जाता है। वैज्ञानिक अध्ययनों से साबित हो चुका है कि पोंटा साहब के समीप करीबन तीन हजार पांच सौ साल पूर्व हुए भूचाल के कारण शिवालिक पर्वत में खिसकाव आ गया और यहां यमुना नदी का प्रवाह पश्चिम दिशा के स्थान पर दक्षिण हो गया। प्रवाह में हुए इस परिवर्तन से यमुना नदी ने सरस्वती के पानी को भी अपने में समाहित कर लिया। प्रयाग में यमुना गंगा में समाहित हो जाती है। प्रयाग को इसी कारण त्रिवेणी भी कहा जाता है।

सरस्वती की पुनर्खोज का महत्व केवल आस्था और विश्वास के स्तर तक नहीं है। इसके ऐतिहासिक आयाम भी हैं। यह आयाम अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के उपर थोपी गई सांस्कृतिक गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के द्वितीय स्वतंत्रता संग्राम में हमारी मदद दे सकते है। यह लड़ाई अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण और अधिक जरुरी है।

अंग्रेजो ने अपने द्वारा गढ़ी गई मान्यताओं से यह स्थापित करने का बलपूर्वक प्रयास किया कि राम और कृष्ण ऐतिहासिक पुरुष नही है। रामायण और महाभारत कपोल कल्पनाएं हैं, ऐसी कहानियां है जो कभी भी इस धरती पर घटी नहीं। भारत के सम्पूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों और आदर्शों का निर्माण भगवान राम और भगवान कृष्ण के चरित्रों से पैदा होता है। और उन मूल्यों और आदर्शो का संचरण रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों के जरिए आज तक समाज में होता रहा है। अंग्रेजों ने इसको कपोल कल्पना बताकर भारतीयों को अपनी जड़ों से काटने का प्रयास किया। वेदों को गड़रियों का गीत बताए जाने को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

सरस्वती नदी की खोज ने अंग्रेजों द्वारा गढ़ी गयी अनेक विकृति और कुत्सित अवधारणाओं को एक ही झटके में खत्म कर दिया है। सरस्वती नदी शोध तथा द्वारिका, लोथल, धौलवीरा, कालीबंगा आदि स्थलों पर हुए उत्खनन से महाभारत की ऐतिहासिकता सिद्व हो गई है। साथ ही खम्बात की खाड़ी के उत्खनन से तो भारतीय इतिहास दस हजार वर्षो से भी अधिक पुराना होने के प्रमाण मिले हैं। प्रवासी भारतीय अमेरिका विद्वान डा. नरहर आचार्य ने तारामंडल साफ्टवेयर के आधार पर महाभारत युध्द की तिथि का अकाटय प्रमाण प्रस्तुत किया है।

सरस्वती नदी शोध के परिणामस्वरुप भारतीय इतिहास की अत्यंत प्राचीनता सिध्द होने से अंग्रेजो द्वारा गढ़ा गया ‘आर्य आक्रमण का सिध्दांत’ भी ध्वस्त हो चुका है। अंग्रेजों की मान्यता है कि आर्यो ने लगभग 1500 ईसापूर्व भारत पर आक्रमण किया। यदि ऐसा है तो महाभारत में सरस्वती नदी का उल्लेख कैसे सम्भव है और मंत्रद्रष्टा ऋषियों द्वारा वेदों की रचना की सरस्वती के तट पर कैसे सम्भव हुई।

आज जरुरत इस बात की है हम सरस्वती नदी शोधयात्रा के निष्कर्षों को लेकर समाज में जाएं। भारत में पढ़ाए जाए रहे विकृत इतिहास के तथ्यों को सरस्वती नदी के खोज के आलोक में फिर से कसने की जरुरत है। समाज को बताने की जरुरत है कि अग्रेजों द्वारा इतिहास से जरिए भारत का जो चित्र खींचा है, वह विकृत है। भारत दीन -हीन कभी नहीं रहा। भारत का अपना एक गौरवपूर्ण इतिहास और उज्जवल सांस्कृतिक परम्परा है।

सरस्वती नदी शोधयात्रा आस्था को ऐतिहासिक मान्यता प्रदान करने की एक आधारभूत कड़ी का काम किया है। इसलिए सरस्वती का खोज को भारतीय आस्था और इतिहास का संगम कहा जा सकता है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए की यह एक शुरुआत मात्र है।

इसी संदर्भ में सेतुसमुद्रम परियोजना से उपजे विवाद पर नजर डालने से यह सिध्द होता है कि रामसेतु से भी आस्था और इतिहास के मिलन की व्यापक संभावनाएं खुलती हैं। रामसेतु भगवान राम के काल की अभियांत्रिकी का अद्भुत उदाहरण है। सरस्वती नदी शोध की तरह यदि भारतीयता को समर्पित लोगों ने रामसेतु को लेकर भी काम शुरु किया तो पश्चिम के विज्ञान और इतिहास की सीमाएं अपने आप टूट जाएंगी। क्योंकि भारतीय कालगणना का विशाल सागर पश्चिम के संकीण खांचे में नहीं फिट हो सकता। इतिहास और विज्ञान की सीमाओं के टूटने के साथ ही हमारे उपर अंग्रेजो द्वारा गलत अवधारणा के जरिए थोपी गई सांस्कृतिक गुलामी की कडियां भी स्वत:टूट जाएगी। भारतीय मानसिकता पर जमी गाद अपने आप साफ हो जाएगी। भारत के नवोत्थान में इस क्षेत्र में काम किया जाना सबसे महत्वपूर्ण और दूरगामी होगा।

भारत को भारतीय आंखों से देखने और भारतीय नजरिए से समझने का समय अब आ गया है। सरस्वती नदी शोध ने इस काम की शुरुआत की है और रामसेतु में इसको नई उंचाईंया प्रदान करने की सम्भावनाएं और सामर्थ्य है। जरुरत है तो केवल दृ ढ़तापूर्वक आगे बढ़ने की। अगर हम आगे बढ़ते हैं तो प्राचीन के साथ साथ भावी इतिहास भी अपना ही होगा।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

समुद्री सतह पर नासा की नजर – रामनयन सिंह

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भयंकर तूफानों से बचाव के लिए नासा ने एक एनिमेशन सिस्टम विकसित किया है, जो समुद्री सतह के तापमान को विभिन्न रंगों में प्रदर्शित करेगा। नासा स्पेस फ्लाइट सेंटर द्वारा जारी एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार इस एनिमेशन डिस्प्ले से तूफान के बारे में सूचना देने वाली प्रणाली को काफी लाभ पहुंचेगा। रिपोर्ट के अनुसार 80 डिग्री फॉरेनहाइट या इससे ज्यादा तापमान वाली समुद्री सतह को येलो, ऑरेंज और रेड कलर से दर्शाया जाता है। उल्लेखनीय है कि तापमान के ये आंकडे एडवांस माइक्रोवेव स्कैनिंग रेडियो मीटर द्वारा लिए जाते हैं और इस एनिमेशन को प्रत्येक 24 घंटे में अपडेट किया जाता है। जैसा कि हम जानते हैं कि समुद्री सतह के गर्म होने से चक्रवात या तूफानी बवंडर पैदा होते हैं, जो समुद्री किनारों पर भयंकर तबाही मचाते हैं। नासा द्वारा प्राप्त आंकडों के अनुसार मैक्सिको की खाडी में समुद्री जल सतह का तापमान 80 डिग्री फॉरेनहाइट (जून के आखिरी दिनों में) से ज्यादा था और मौसम विज्ञानियों ने इन आंकडों का जमकर उपयोग किया। गौरतलब है कि समुद्री तल का 80 फॉरेनहाइट से ज्यादा तापमान होने पर समुद्री दबाव भयंकर तूफान में बदल सकता है।

क्या जीवन धूमकेतु से आया!
पृथ्वी पर जीवन का प्रारंभ कैसे हुआ? क्या पृथ्वी पर जीव अंतरिक्ष से आए या इसकी शुरुआत समुद्री किनारों पर स्माल मॉलिक्यूल के जरिए हुई। जो भी हो, लेकिन पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति के बारे में वैज्ञानिकों के बीच अभी भी मतभेद हैं। साइंस पोर्टल न्यू साइंटिस्ट में प्रकाशित एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत धूमकेतु के जरिए हुई। ब्रिटेन की कार्डिफ यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक चंद्र विक्रमसिंघे ने कहा कि धूमकेतु पर सूक्ष्म जीवों की मौजूदगी पहले से ही थी और धूमकेतु के जरिए ये जीव पृथ्वी पर आए। उन्होंने कहा कि यही वजह है कि पृथ्वी के निर्माण के लगभग 4.5 अरब वर्ष बाद पृथ्वी पर जीवन तेजी से पनपा। विक्रमसिंघे के अनुसार यह थ्योरी अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के डीप इंपैक्ट प्रोब से भी प्रमाणित होती है। उल्लेखनीय है कि डीप इंपैक्ट प्रोब के लिए धूमकेतु टेम्पेल 1 को जुलाई, 2005 में एक प्रोजेक्टाइल के जरिए ब्लास्ट किया गया था। विस्फोट के दौरान वैज्ञानिकों ने धूमकेतु के अंदर से गीली मिट्टी बाहर निकलते देखा था। विक्रमसिंघे ने कहा कि इससे प्रमाणित होता है कि धूमकेतु के भीतर कभी गर्म द्रव मौजूद थे और इसकी वजह रेडियो एक्टिव आइसोटोप थे, जो इन्हें हीट करते थे। रिपोर्ट के अनुसार गीली मिट्टी में वे आवश्यक परिस्थितियां मौजूद थीं, जो सिंपल ऑर्गेनिक मॉलिक्यूल को जटिल बॉयोपॉलिमर्स में बदलने में सहायक थीं। यही नहीं, विक्रमसिंघे व उनके सहयोगियों का तर्क है कि धूमकेतु में मौजूद गीली मिट्टी की काफी मात्रा भी इस थ्योरी को बल देती है कि पृथ्वी पर जीवन अंतरिक्ष से आया। उन्होंने कहा कि पृथ्वी के शुरुआती दिनों में जीव महज 10,000 घन किलोमीटर में ही पनपे, जबकि सिर्फ एक 10 किलोमीटर चौडे धूमकेतु में इस तरह की परिस्थितियां 1000 घन किलोमीटर मौजूद थीं। हालांकि, ऐसे धूमकेतु बाहरी सोलर सिस्टम में अनगिनत थे।

रामनयन सिंह

साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के बहाने भारत को घेरने की साजिश

लेखक : डा0 कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

चर्च और अमेरिका दोनों ही भारत को घेरने की साजिश में जुटे हुए हैं। चर्च का उद्देश्य बहुत स्पष्ट है। वेटिकन के राष्ट्र्पति पोप के अनुसार इस शताब्दी में उन्हें भारत का काम निपटाना है। क्योंकि पिछली दो सहस्राब्दियों में चर्च ने पूरे यूरोप और अफ्रीका के इतिहास, विरासत और संस्कृति को नष्ट करके वहाँ ईसाई मत को स्थापित कर दिया है। एशिया के अधिकांश हिस्से पर भी चर्च ने अपना मजहबी आधिपत्य जमा लिया है। शुरू में तो यूरोप ने ईसाइकरण का विरोघ किया लेकिन कालांतर में वही यूरोप अफी्रका और एशिया में मजहबी साम्राज्यवाद का हरावल दस्ता बना। जिन लोगों ने चर्च के इन अभियानों का विरोध किया उन्हें निर्दयता पूर्वक कुचल दिया गया। चर्च के दुर्भाग्य से भारत उसके इस विश्वव्यापी अभियान के रास्ते में रोड़ा बनकर खड़ा हो गया। अपनी इस सम्राज्यवादी लिप्सा में बींसवी शताब्दी में ही चर्च और अमेरिका एक जुट हो गये थे। इसलिए बचे-खुचे देशों में ईसाई मजहब को स्थापित करने में अमेरिका अग्रणी भूमिका में उपस्थित हो गया है। परन्तु अमेरिका को इस प्रकार के देशों में दखलअंदाजी के लिए कोई न कोई तार्किक बहाना चाहिए। कोई ऐसा बहाना जिस पर लोग सहज ही विश्वास कर लें। अमेरिका ने इसके लिए आतंकवाद को बहाना भी बनाया और हथियार भी। अमेरिका का ऐसा कहना है कि दुनिया इस्लामी आतंकवाद का प्रहार झेल रही है और अमेरिका क्योंकि नवविचार और नवचेतना का देश है इसलिए वह इस्लामी आतंकवाद को समाप्त करना अपना कर्तव्य समझता है। चाहे इसमें उसके अपने सैनिक भी मर रहे हैं परन्तु इसके बावजूद अमेरिका मानवता के हित में इस्लामी आतंकवाद से लड़ रहा है। केवल अमेरिका में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में। वैसे केवल रिकार्ड के लिए अमेरिका को विश्व का सबसे पहला आतंकवादी देश कहा जा सकता है। सी0आई0ए0 ने कितने लोगों की हत्या करवाई और कितने ही देशों की सरकारों को उल्टा पुल्टा किया इसका लेखा जोखा उसकी पुरानी फाईलों में से निकल आयेगा। आज जिस इस्लामी आतंकवाद को लेकर इतना हल्ला मचा हुआ है उसको जन्म भी अमेरिका ने, अफगानिस्तान में रूस को उत्तर देने के लिए, दिया था। बाद में इसी आतंकवाद के बहाने अमेरिका अपने आर्थिक हितों के लिए इराक में घुसा, फिर अफगानिस्तान में और अब उसकी सेनाएं आतंकवाद की खोज करते-करते अपनी इच्छा से पाकिस्तान में भी चली जाती हैं। लेकिन चर्च और अमेरिका का निशाना तो भारत है। पर इस्लामी आतंकवाद के बहाने अमेरिका भारत में नहीं घुस सकता क्योंकि भारत इस्लामी आतंकवाद से पीड़ित देश है।

भारत में घुसने के लिए अमेरिका को हिन्दू आतंकवाद की जरूरत ह,ै इस्लामी आतंकवाद की नहीं। जब तक भारत में कांग्रेस की निर्बाध सत्ता रही तब तक न ज्यादा अमेरिका को चिंता थी न ही चर्च को क्योंकि भारत को मतांतरित करने की चर्च की योजनाओं में कांग्रेस सरकार सहायक रही, बाधक नहीं। परन्तु पिछले तीन दशकों से भारत का राजनैतिक घटना क्रम तेजी से परिवर्तित हुआ है। कांग्रेस केन्द्रीय सत्ता से पदच्युत हो गई है। यदि नहीं भी हुई है तो उसकी सत्ता में बने रहने की निरंतरता पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। इसी अर्से में राष्ट्रवादी शक्तियाँ भारतीय राजनीति के केन्द्र में पहुँच गई हैं। अमेरिका और चर्च दोनों को लगता है यदि देर-सवेर राष्ट्रवादी ताकतें भारत की सत्ता के केन्द्र में स्थापित हो गई तो भारत के ईसाईकरण में निश्चय ही बाधा उपस्थित हो जायेगी। इसका सामना करने के लिए विदेशी मूल की सोनिया गाँधी को कांग्रेस के केन्द्र में स्थापित करने की रणनीति बुनी गई। यह ताकतें अपनी इस रणनीति में तो कामयाब हो गई लेकिन इनके दुर्भाग्य से कांग्रेस स्वयं ही सत्ता के केन्द्र से च्युत होने की स्थति में पहँच रही है। यदि कल चर्च और अमेरिका के आगे ऐसा संकट उपस्थित हो जाता है तो उनके आगे भारत में दखलंदाजी का कौन सा रास्ता बचता है ? यह रास्ता भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवादी घोषित करने का ही है। भविष्य में यदि राष्ट्रवादी शक्तियाँ भारत का शासन सूत्र संभाल लेती हैं तो अमेरिका को यह कहने का अवसर मिल जायेगा कि भारत में आतंकवादी शक्तियों ने कब्जा कर लिया है। यह अमेरिका ने स्वयं ही घोषित किया हुआ है कि दुनिया में जहां भी आतंकवादी शक्तियाँ होंगी अमेरिका उनका पीछा करते हुए वहां तक जायेगा। और वैसे भी सोनियॉ गांधी और चर्च को अमेरिका के आगे यह गुहार लगाते हुऐ कितनी देर लगेगी कि अमेरिका आगे बढ़ कर भारत को आतंकवादी शक्तियों के चगुंल से मुक्त करे।

राष्ट्रवादी शक्तियों को और प्रकारान्तर से हिन्दु संगठनों को आतंकवादी के रूप में चित्रित करने की कड़ी में ही कांची कामकोटी मठ के शंकराचार्य को दीपावली की रात्रि को गिरफ्तार कर लिया गया था। दुनिया भर के मीडिया ने अमेरिका और इंग्लैंड की न्यूज एजेंसियों के माध्यम से हल्ला मचाया कि हिन्दु साधु संत और राष्ट्रवादी शक्तियाँ हत्यारे और गुंडे हैं। उसके बाद चर्च ने राष्ट्ीय संत वेदान्त केसरी स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की जन्माष्टमी के दिन पूर्व घोषणा करके हत्या कर दी। लक्ष्मणानन्द सरस्वती चर्च के मतांतरण आंदोंलन में बाधा थे। यह एक प्रकार से राष्ट्र्वादी शक्तियों को चर्च की चेतावनी थी कि जो उसके रास्ते में आयेगा उसका यही हश्र होगा। हत्या से पूर्व चर्च की रणनीति और योजना इतनी छिद्र रहित थी कि हत्या के बाद भी मीडिया मैनेजमेंट के माध्यम से दुनिया भर में यह प्रचारित किया गया कि संघ परिवार मतांतरित इसाईयों को आतंकित कर रहा है। मोमबत्ती ब्रिगेड के एक नख दंत हीन सदस्य कुलदीप नैयर ने तो लक्ष्मणानन्द सरस्वती को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करने का घटिया प्रयास किया। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की गिरफ्तारी इसी पूरे घटनाक्रम की एक कड़ी के रूप में देखी जानी चाहिए। साध्वी के खिलाफ सरकार के पास अभी तक कोई सबूत नहीं है। इसलिए उनका बार बार नारको टैस्ट और दुसरे टेस्ट करवाये जा रहे हैं। लेकिन सरकार को न सबूतों से कुछ लेना देना है और न ही सत्यता से। उसे किसी एक साधु को पकड़ कर उस पर राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवादी ठहराने का पूरा तानाबाना बुनना है। साध्वी भूमिगत नहीं है। वह अफजल गुरू भी नहीं है। वह कश्मीर के उन मुस्लिम आतंकवादियों में से भी नहीं है जो छिप कर नहीं बल्कि खुलकर आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देते हैं। वह जाकिर हुसेन कालेज की प्रो0 गिलानी भी नहीं है जो मोमबत्ती ब्रिगेड के कंधों पर बैठकर भारत को बांटने की वकालत करते हैं। उनके हाथ में पाकिस्तान का झंडा भी नहीं है जिसे असम में फहराते हुए देखकर भी तरूण गोगोई ईद का झंडा बताते हैं।

साध्वी प्रज्ञा ठाकुर ने देशहित के लिए अपने सामान्य सुख को त्यागा ह,ै लेकिन महाराष्ट्र् की कांग्रेसी सरकार की ए0टी0एस0 साध्वी के मोबाईल फोन के नम्बरों को लेकर इस प्रकार चिल्ला रही है जैसे उसे आतंकवादियों की पूरी-पूरी सूची ही मिल गई हो। साध्वी ने जिसे भी फोन किया है महाराष्ट् सरकार की दृष्टि में वही आतंकवादी हो गया है। ताज्जुब है कि सरकार योगी आदित्य नाथ और यहाँ तक की स्वामी असीमानन्द को भी आतंकवादियों की सूची में रख रही है। स्वामी असीमानन्द के पीछे पड़ना तो सोनिया गांधी के चेलों के लिए और भी जरूरी था क्योंकि जिस प्रकार स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती उड़ीसा में चर्च के मतांतरण आंदोंलन में बाधा बने हुए थे। स्वामी असीमानन्द उसी प्रकार गुजरात में चर्च के मतांतरण आंदोलन का विरोध कर रहे थे। न जाने क्यूं अभी तक चर्च ने उन्हें भी स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की तरह गोली नहीं मारी। पर चर्च ने शायद इसकी जरूरत नहीं समझी हागी। क्योंकि उसे पता था कि सरकार जल्दी ही असीमानन्द को आतंकवादी घोषित करके उनके पीछे पड़ जायेगी। आश्चर्य न होगा यदि कल ए0टी0एस0 के लोग स्वामी असीमानन्द को गोली मार कर कह दें कि वे मुठभेड़ में मारे गये और मोमबत्ती ब्रिगेड के लोग इंडिया गेट पर भंगड़ा डालना शुरू कर दें।

यदि कल राष्ट्रवादी शक्तियों की सरकार बनती है तो सोनियॉ गांधी, कांग्रेस और चर्च तीनों को कहते देर नहीं लगेगी कि आतंकवादी शक्तियाँ सत्ता पर काबिज हो गयी हैं। महाराष्ट् की कांग्रेसी सरकार इसी लिए अभी से अशोक सिंहल से लेकर भाजपा नेताओं को आतंकवादी प्रचारित करने के काम में लग गई है। सोनियाँ गांधी ने अमेरिका के साथ परमाणु समझौता करके उसकी भारत में दखलअंदाजी का रास्ता पहले ही खोल दिया है। राष्ट्र्वादी शक्तियों के सत्ता में आ जाने से अमेरिका यह भी कह सकता है कि गैर जिम्मेदार लोगों के हाथ में भारत के परमाणु अस्त्र आ गये हैं।ये लोग गैर जिम्मेदार हैं इसकी एक रिर्हसल अमेरिका नरेन्द्र मोदी को वीजा न देकर कर ही चुका है। जो आरोप अमेरिका ने मोदी पर लगाये थे वे कमोबेश राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवाद के आस पास ठहराने जैसे ही थे। अब साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को घेरे में लेकर कुछ शक्तियाँ हिन्दु आतंकवाद का काल्पनिक राक्षस खड़ा करना चाहती हैं ताकि उस राक्षस को मारने के लिए अमेरिका या खुद चला आये या फिर उसे बुलाया जा सके। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के किस्से को देखते हुए जरूरी हो गया है कि सोनिया गांधी और वेटिकन के रिश्तों की गहराई से जांच की जाये ताकि उन ताकतों का पर्दा फाश हो सके जो राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवादी घोषित करके अपने स्वार्थों की पूर्ति में लगी हुई है। (नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

मध्य प्रदेश में भी एक बंगरप्पा?

लेखक- अम्बा चरण वशिष्ठ

सशक्त भारतीय जनतंत्र की एक कमजोरी देश में बढ़ रही राजनीतिक दलों की संख्या पर नियंत्रण कर पाने में विफलता है। जिस प्रकार हमारी प्रतिदिन बढ़ती जनसंख्या का कारण अनियंत्रित यौन संबंध है उसी प्रकार लगभग प्रतिदिन पैदा होने वाले नये राजनीतिक दलों का कारण हमारे नेताओं के मन में पनपता अनियंत्रित अहम और महत्वाकांक्षा है। एक कारण यह भी है कि पिछले 61 वर्षों में भारत में ऐसा कोई भी दल नहीं हुआ जो डाले गये मतों का 50 प्रतिशत से अधिक प्राप्त कर सत्ता में आया हो। भारत में अब तक चुनाव में कभी भी 70 प्रतिशत से अधिक मत नहीं पड़े। इसका यही अर्थ निकलता है कि भारत पर जिस भी राजनीतिक दल/गठबंधन ने शासन किया उसे मत संख्या का एक-तिहाई से अधिक कभी भी वोट नहीं मिला।

हमारे नेता जन्म तो किसी दल विशेष में लेते हैं और उसी में पालन-पोषण के बाद बड़े होते हैं। पर ज्यों ही वह पार्टी उनकी सनक के अनुसार काम नहीं कर पाती तो उनके दम्भ और अहंकार की आग भड़क उठती है जिसे उनके चमचे हवा देते हैं और इस अहम् और महत्वाकांक्षा के सम्भोग से जन्म लेता है एक नया राजनीतिक दल। सच तो यह भी है कि हमारे राजनीतिक दलों में व्यक्तियों से सदैव न्याय नहीं होता और न ही योग्यता को सम्मान ही मिलता है। पर यह भी तो सच है कि यदि हम पार्टी के अंदरूनी गणतंत्र में विश्वास रखते हैं तो हमें अपने गिले-शिकवे पार्टी के अंदर रह कर ही दूर करने चाहिए और भीतर से ही न्याय की लड़ाई लड़नी चाहिए। पर ऐसा नहीं होता। अहम् में आगबबूला हमारे नेता पार्टी और इसके नेतृत्व को अपने साथ हुयें अन्याय के लिए सबक सिखाने का प्रण ले बैठते हैं। कई तो यहां तक समझ बैठते हैं कि यदि वह है तो पार्टी है और यदि वह नहीं तो कुछ भी नहीं।

तुलना प्रिय तो नहीं होती पर इससे बचना भी मुश्किल है। कर्नाटक के श्री एस. बंगरप्पा और मध्यप्रदेश की सुश्री उमा भारती के उदाहरण काफी कुछ एक समान हैं। दोनों ही अपने-अपने प्रदेशों के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। दोनों ही, ठीक या गलत, अपने-अपने पार्टी के नेतृत्व से संतप्त हैं और वे समझते हैं कि पार्टी ने उनके साथ न्याय नहीं किया।

जब श्री बंगरप्पा कर्नाटक में कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे तो हाईकमान ने उन्हें त्यागपत्र के लिए बाध्य किया। 1989 के चुनाव के समय उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी, अलग कर्नाटक कांग्रेस पार्टी का गठन किया और 224 में से 218 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए। तब सत्ताासीनं कांग्रेस सरकार सत्ता विरोधी लहर और बंगरप्पा के विरोध के नीचे ढह गयी और वह 178 विधायकों के स्थान पर केवल 34 सीट ही जीत सकी और मत प्रतिशत 43.76 से गिर कर 26.95 रह गया। जहां कांग्रेस का मत प्रतिशत 16.81 घटा, वहीं भाजपा ने अपना मत प्रतिशत 4.14 से बढ़ाकर 16.99 प्रतिशत कर लिया और उसके विधायकों की संख्या 4 से बढ़कर 40 हो गयी। जनता दल का मत प्रतिशत 27.08 (24 विधायक) से बढ़कर 33.54 (115 विधायक) हो गया और वह सत्ताा में आ गयी। बंगरप्पा की कर्नाटक कांग्रेस ने सत्तााधारी कांग्रेस के 7.31 प्रतिशत (विधायक केवल 10) वोट काटे पर उसे सत्तााविहीन होना पड़ा।

राजनेता अपनी एक टांग कटवाने के लिए सदा तत्पर रहते हैं यदि इससे उनके विरोधी की दोनोें टांगें कट जाएं। यही हुआ कर्नाटक में। बंगरप्पा तो पहले ही सत्ता खो बैठे थे और इसके आगे उनके पास खोने के लिए कुछ था नहीं। इसलिए उनका तो बड़ा सूक्ष्म संकीर्ण लक्ष्य था: ”अगर वह नहीं, तो कांग्रेस भी नहीं।” जब कांग्रेस के हाथ से सत्तााछिन गयी तो बंगरप्पा के हाथ तो सत्ता नहीं आयी पर वह इस बात से ही खुश थे कि उन्होंने कांग्रेस को सत्ता में आने नहीं दिया।

राजनीति में या तो व्यक्ति को स्वयं जीत जाना चाहिए या फिर उसकी पार्टी जीत जानी चाहिए। उसके कारण यदि किसी तीसरे व्यक्ति या पक्ष को लाभ हो जाये, यह तो दिलेरी और बहादुरी की बात नहीं हुई। यदि ऐसा होता है तो यह तो बंदरबांट का ही उदाहरण बन जाता है जिसमें दो व्यक्तियों की लड़ाई में तीसरा लाभ उठा जाता है।

अंतत: हुआ क्या? राजनीति के अकेले राही श्री बंगरप्पा विभिन्न पार्टियों में मेढक की कूद लगा चुके थे । अंतत: उन्हें मिली स्वयं और अपने पुत्रों के लिए कर्नाटक विधानसभा में एक अशोभनीय हार। 2008 के कर्नाटक चुनाव तक श्री बंगरप्पा एक अविजित नायक थे जिसने कभी कोई चुनाव नहीं हारा था। पर महत्वाकांक्षा की भूख और बदले की भावना ने उन्हें कहीं का न छोड़ा। न सत्ता मिली और न ही सम्मान।

वर्तमान स्थिति में ऐसा लगता है कि मध्यप्रदेश में भी बंगरप्पा का इतिहास दोहराया जा सकता है। सुश्री उमा भारती की भारतीय जनशक्ति पार्टी प्रदेश की सभी 230 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही है। अपने स्वार्थी उद्देश्य और मंन्सूबों की पूर्ति के लिए सुश्री भारती के अहम् और दम्भ को हवा देने वालों की कमी नहीं है। विधानसभा चुनाव में उनकी उपस्थिति से किसी को लाभ होने वाला है तो किसी को हानि। पर वह तो अपनी पुरानी पार्टी को सबक सिखाने के लिए आतुर हैं: ”अगर मैं नहीं, तो वह भी नहीं”।

सुश्री भारती के अपने भाई उनका साथ छोड़ गए हैं। उनके अपने ही दल में काफी उठाहपोह है। ऐसी स्थिति में उन जैसा व्यक्तित्व सत्ता में आने का दिवास्वप्न देखता है तो यह समझ के बाहर की बात है। वह भाजपा को अवश्य सजा देना चाहती हैं। पर यह भी सच है कि सदा सभी की सब मुरादें पूरी नहीं होती। अभी यह भविष्यवाणी कर देना एक टेढ़ी खीर लगती है कि भाजपा अवश्य सत्ता में आ जाएगी या कांग्रेस जीत जाएगी। चुनाव विश्लेषण को एक विज्ञान तो अवश्य माना जा रहा है पर इसकी विश्वसनीयता पर अभी तक प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है। और चुनाव विशेषज्ञ भी अभी यह यह भविष्यवाणी करने की जोखिम नहीं उठा पा रहे कि सुश्री भारती भाजपा को हराकर सत्ताा के गलियारे पर काबिज हो जाएंगी या कांग्रेस सत्ता में आ जाएगी।

चुनाव परिणाम कुछ भी निकलें, पर आज इतना तो आसानी से कहा ही जा सकता है कि कर्नाटक में श्री एस. बंगरप्पा की तरह मध्यप्रदेश में उमा भरती भी अंतत: घाटे में ही रहेंगी। यदि भाजपा अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने में कामयाब हो जाती है तो राज्य के राजनीतिक परिदृश्य से उनका अस्त हो जाएगा। यदि कांग्रेस सत्ताा में आ जाती है तो भी आगे सुश्री भारती का कोई रोल नहीं बचेगा क्योंकि जिस सुश्री भारती के कंधों की शक्ति पर कांग्रेस सत्ता में आएगी वह उनके कंधों की मालिश कर सशक्त नहीं बनाना चाहेगी। जब जनता दल कर्नाटक में श्री बंगरप्पा और कांग्रेस के वोट काटने के कारण सत्ताा में आया था तो जनता दल श्री बंगरप्पा के प्रति कभी कृतज्ञ नहीं रहा।

आज श्री बंगरप्पा कहां हैं? वह राजनीतिक परिदृश्य से ओझल हैं। आज राजनीति में उनकी कोई गिनती नहीं है। तो क्या 8 दिसंबर को चुनाव परिणाम निकलने पर मध्यप्रदेश में भी एक और एस. बंगरप्पा उभरेगा?

(लेखक स्‍वतंत्र टिप्‍पणीकार हैं)

सब ‘सभ्य’ – हम, हमारा समाज और मीडिया

लेखक- अम्बा चरण वशिष्ठ
ठीक ही तो कहते हैं कि किसी सभ्य समाज में फांसी की सज़ा उस समाज के नाम पर एक कलंक है। पर साथ ही यह कोई नहीं कहता कि यदि वह समाज सभ्य है तो उस में हत्या केलिये भी कोई स्थान नहीं है। जब हत्या नहीं होगी तो फांसी की सज़ा का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।

प्रत्येक हत्या के पीछे होता है एक उत्प्रेरक कारण जिसके निराकरण का प्रावधान सभ्य समाज की न्याय व्यवस्था में उपलब्ध होता है। फिर भी इस ‘सभ्य’ समाज के व्यक्ति न्याय व्यवस्था का सहारा न लेकर कानून अपने हाथ में ले लेते हैं और जिस व्यक्ति से उन्हें मतभेद, द्वेष या गुस्सा होता है उसे वह न्याय व्यवस्था के अधीन दण्ड दिलाने की बजाय न्याय का डण्डा स्वयं अपने हाथ में उठा कर उसे अपने हाथों से दण्डित करते हैं। यह दण्ड मारपीट, हाथ-पांव तोड़ने तक ही सीमित नहीं रहता। कई बार तो यह हत्या तक का अमानुषिक दण्ड बन कर रह जाता है हालांकि उसका अपराध इतना घोर नहीं होता कि उसे न्याय व्यवस्था के अधीन उसके अपराध केलिये उसे फांसी ही मिलती। अपराधी इसे ‘आदर्श’ न्याय और सज़ा की संज्ञा दे देते हैं।

इसी प्रकार किसी सभ्य समाज में न आतंकवाद केलिये कोई स्थान होना चाहिये और न आतंकवादी हिंसा का व हत्याओं के लिये। आतंकवादी एक दम्भी व्यक्ति होता है जो स्वयं को सही और बाकी सब को गलत मानता है जो उससे सहमत नहीं होते। उसका सामाजिक व न्याय व्यवस्था में कोई विश्वास नहीं होता। जनतन्त्र व बहुमत में उसकी आस्था नहीं होती। वह बात मानता है तो बस अपनी। कानून मानता है तो अपना। न्याय मानता है तो उसे जिसे वह दूसरों को देता है। तर्क के आधार पर नहीं, वह अपनी बात आतंक के बल पर सैकड़ों-हज़ारों से मनवाना चाहता है। जो उससे सहमत नहीं वह सब उसे मूर्ख, समाज व देश के दुश्मन और उसके अपने शत्रु दिखते हैं। चुनाव व्यवस्था में उसका विश्वास नहीं होता क्योंकि वह इतना अवश्य जानता है कि बहुमत उसके साथ नहीं है।

आतंकवादी अपने आतंक द्वारा दूसरों के मानवाधिकारों को बड़ी बेरहमी से कुचलता है। आग-फूंक करना और निर्दोष जनता और कानून की रक्षा कर रहे रक्षाकर्मियों की हत्या कर देना वह अपना अधिकार और इसे अपनी न्याय व्यवस्था का अभिन्न अंग समझता है। पिछले 17 वर्षों में लगभग एक लाख निर्दोष आतंकवाद की बलि चढ़ चुके हैं जिस में से लगभग 75,000 अकेले जम्मू-कश्मीर से हैं। यह संख्या पाकिस्तान से कारगिल समेत चार युध्दों और चीन के साथ 1962 के युध्द में शहीद हुये लोगों से चार गुणा से अधिक हैं। देश द्वारा इतनी कुर्बानी दे देने के बाद भी आतंकवाद के दानव की हिंसा की पिपासा बढ़ती ही जा रही है।

उधर जब दस-पचास निर्दोष आतंकी हिंसा का शिकार हो जाते हैं तो दो दिन तो मीडिया अवश्य समाचार देता है पर बाद में इस समाचार को आया-गया बना दिया जाता है। कोई नहीं पूछता कि जो बच्चे अनाथ हो गये, जो महिलायें विधवा हो गईं, जिन बूढ़ों की इस उम्र में सहारे की लाठी छीन ली गई, उनका क्या बना। आतंकी हिंसा तो आज इतनी साधारण बात हो गई है कि कई बार तो समाचारपत्र इस खबर को विशेष महत्व ही नहीं देते और कहीं कोने में छोटी से खबर लगा देते हैं । इलैक्ट्रानिक मीडिया की भी यही हालत है । घटना के बाद बेचारे निरीह सन्तप्त परिवार की कोई सुध नहीं लेता।

वास्तविकता तो यह है कि अव्वल तो कोई आतंकबादी पकड़ा ही नहीं जाता। यदि पकड़ा भी जाये तो उसे सज़ा नहीं होती क्योंकि कोई गवाही देने आगे नहीं आता क्योंकि सब को अपनी और अपने परिवार के जीवन से प्यार है। गल्ती से अगर कभी-कभार कोई आतंकवादी पकड़ा जाये तो उसके अपराध से पहले उसकी रक्षा का कवच बन जाते हैं उसके मानवाधिकार। वह व्यक्ति मानवाधिकारों का सुपात्र बन जाता है जिसने अनगिनत हत्यायें की हैं और सैंकडों के मानवाधिकारों को अपने पांव तले रोंदा है। हमारी मानवाधिकार संस्थाओं केलिये उन व्यक्तियों के मानवाधिकार बहुत पावन हैं जो दूसरों के मानवाधिकारों की हत्या करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानों इन संस्थाओं के दृष्टि में मानवाधिकर केवल अपराधियों और आतंकवादियों के ही होते हैं जिनकी रक्षा करना उनका धर्म है। बेचारे निर्दोष व्यक्तियों के तो कोई मानवाधिकार होते ही नहीं और न ही उनकी रक्षा करना मानवाधिकारों की रक्षा में लगी लोग व संस्थायें अपना कर्तव्य व धर्म ही मानते है। ऐसा लगता है कि मानवाधिकार संस्थाओं की दृष्टि में वह तो मानव नहीं गली के कीड़े-मकोड़े हैं जो तो बस मरने केलिये ही पैदा हुये हैं और आतंकवादी तो उनका नरसंहार कर उन्हें इस नरकीय जीवन से मुक्ति दिला कर पुण्य ही कमाते हैं। यदि ऐसा न होता तो मानवाधिकार संस्थायें आम जनता के मानवाधिकारों के प्रति भी उतनी ही चिन्तित नज़र आतीं जितनी कि वह अपराधियों और आतंकवादियों के प्रति दिखती हैं। यही बात बहुत हद तक हमारे मीडिया के बारे भी सच है। कई बार तो ऐसा लगता है कि पावन मानवाधिकार अर्जित करने केलिये तो व्यक्ति विशेष केलिये अपराध करने और आतंकवादी बनने की तपस्या करना अनिवार्य योग्यता है।

हमारे मीडिया की पैनी नज़र व कलम इस खोज खबर के पीछे कभी नहीं दौड़ती कि हमारे आतंकवादियों को शरण प्रदान करने वाले कौन हैं, उन्हें आर्थिक सहायता कौन प्रदान करते हैं, उनके छुपने के ठिकाने कहां हैं, किस प्रकार आतंकवाद से निपटा जा सकता है और अपराधियों को पकड़ा जा सकता है ताकि निर्दोष हत्यायें न हों। अपने राष्ट्रीय कर्तव्यपालन में डटे किसी सुरक्षाकर्मी की यदि कोई आतंकवादी निमर्म हत्या कर देता है तो हमारी मानवाधिकार संस्थाओं के कान पर जूं नहीं रेंगती। पर यदि मुठभेड़ में कोई आतंकवादी अपनी जान गंवा बैठता है तो इनके कान खड़े हो जाते हैं और इसमें फर्जी मुठभेड़ की बू आने लगती है। तब वह इस मुठभेड़ को फर्जी साबित करने केलिये दिन-रात लगा देते हैं। ऐसा आभास मिलता है कि उनकी दृष्टि में आतंकवादी द्वारा किसी सुरक्षाकर्मी की हत्या उसका एक पावन अधिकार है और जवाब में अपनी सुरक्षा करते-करते सुरक्षाकर्मी के हाथों किसी आतंकवादी का मारा जाना घोर दण्डनीय अपराध। तब सारे मीडिया और मानवाधिकार संस्थाओं में कोहराम मच जाता है।

ज्यों ही किसी आतंकवादी के पुलिस हिरासत में प्रताड़ना या मौत की सूंघ उन तक पहुंचती है तो मीडिया विद्युत गति से हरकत में आ जाता है और अपनी खोज-खबर की दक्षता के प्रमाण देने में एक दूसरे के साथ होड़ में आ जाता है। मोटी-मोटी सुर्खियां लगती हैं, ब्रेकिंग न्यूज़ बनती है। सारा-सारा दिन समाचार चलते रहते हैं। दुर्दान्त अपराधियों और आतंकवादियों के पिछले सारे काले कारनामें धुल जाते हैं और वह जनता के सामने उभर आते हैं सच्ची-सुच्ची पीड़ित-प्रताड़ित आत्मायें जिनके साथ इस ‘सभ्य’ समाज में बड़ा अन्याय हुआ है। वह महान बन जाते हैं, शूरवीर शहीद।

इसमें कोई दो राय नहीं कि सभ्य समाज में किसी भी दोषी को बिना मुकद्दमा चलाये सज़ा नही दी जा सकती। पर क्या आतंकवादियों को निर्दोष महिलाओं, वच्चों और बूढ़ों को – और कई बार धर्म के आधार पर – मौत के घाट उतार देने का मानवीय अधिकार है? यदि नहीं, तो हमारी मानवाधिकार संस्थाओं ने इसे रोकने और अपराधियों को दण्ड दिलाने में क्या योगदान दिया है? इनका पावन कर्तव्य क्या केवल असमाजिक व आपराधिक तत्वों के मानवाधिकारों की ही रक्षा करना है और उन्हें अपने पापों की सज़ा दिलाना नहीं?

आजकल तो हमारा समाज इतना ‘सभ्य’ बन चुका है कि हमारी पुस्तकों में सुभाष चन्द्र बोस, सरदार भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरू सरीखे महान् स्वतन्त्रता सेनानी व शहीद तो आतंकवादी बन चुके हैं और अफज़ल गुरू सरीखे आतंकवादी जिसने संसद पर हमला बोला उसे निर्दोष और शहीद बनाने की क्वायद की जा रही है। देश के प्रति अपना कर्तव्य निभा रहे आठ सुरक्षाकर्मी जिन्होंने अपना जीवन बलिदान कर दिया वह मानो गाजर-मूलीं थे और यह आतंकवादी उनसे महान् हो गया। उच्चतम् न्यायालय ने जिसे अपने कुकर्म केलिये मृत्युदण्ड दिया उसे जीवनदान देने के प्रयास हो रहे हैं। न्यायालय के निर्णय पर प्रश्न उठाये जा रहे हैं। यदि उसे भारत की न्याय व्यवस्था में न्याय नहीं मिला तो किसी अन्य देश में मिलेगा?

यह है भारत के ‘सभ्य’ समाज का यथार्थ!

(लेखक स्‍वतंत्र टिप्‍पणीकार हैं)

सरस्वती को धरती पर लाने की कवायद

लेखिका- फ़िरदौस ख़ान

हरियाणा में आदि अदृश्य नदी सरस्वती को फिर से धरती पर लाने की कवायद शुरू कर दी गई है। इसके लिए राज्य के सिंचाई विभाग ने सरस्वती की धारा को दादूपुर नलवी नहर का पानी छोड़ने की योजना बनाई है। देश के अन्य राज्य में भी इस पर काम चल रहा है। अगर यह महती योजना सिरे चढ़ जाती है तो इससे हरियाणा, राजस्थान और गुजरात के तकरीबन 20 करोड़ लोगों की काया पलट जाएगी। इस नदी से जहां राज्यों के लोगों को पीने का पानी उपलब्ध हो सकेगा, वहीं सिंचाई जल को तरस रहे खेत भी लहलहा उठेंगे।काबिले-गौर है कि सरस्वती नदी पर चल रहे शोध में सैटेलाइट से मिले चित्रों से पता चला है कि अब भी सरस्वती नदी सुरंग के रूप में मौजूद है। बताया जाता है कि हिमाचल श्रृंगों से बहने वाली यह नदी करीब 1600 किलोमीटर हरी-की दून से होती हुई जगाधरी, कालिबंगा और लोथल मार्ग से सोमनाथ के समीप समुद्र में मिलती है। सरस्वती शोध संस्थान के अध्यक्ष दर्शनलाल जैन के मुताबिक सैटेलाइट चित्रों से प्राचीन सरस्वती नदी के जलप्रवाह की जानकारी मिलती है। साथ ही यह भी पता चलता है कि यह सिंधु नदी से भी ज्यादा बड़ी और तीव्रगामी थी। नदी का प्रवाह शिवालिक पर्वतमालाओं से जगाधरी के समीप आदिबद्री से शुरू होता है, जिसका मूल स्त्रोत हिमालय में है। नदी तटों के साथ इसकी ईसा पूर्व 3300 से लेकर ईसा पूर्व 1500 तक 1200 से भी ज्यादा पुरातात्विक प्रमाण मिले हैं।

गौरतलब है कि हरियाणा के सिंचाई विभाग ने मुर्तजापुर के पास सरस्वती नदी की बुर्जी आरडी 36284 से 94000 तक पक्का करके इसमें दादूपुर नलवी नहर का पानी प्रवाहित करने की योजना बनाई है। राज्य के सिंचाई मंत्री कैप्टन अजय यादव का कहना है कि सरस्वती नदी में नहर का पानी आ जाने के बाद इससे रजबाहे निकाले जाएंगे, ताकि लोगों को पानी मिल सके। सैटेलाइट से मिले सरस्वती के चित्र के आधार पर काम शुरू किया जाएगा।

काबिले-गौर है कि सरस्वती नदी पर चल रहे शोध में सैटेलाइट से मिले चित्रों से पता चला है कि अब भी सरस्वती नदी सुरंग के रूप में मौजूद है। बताया जाता है कि हिमाचल श्रृंगों से बहने वाली यह नदी करीब 1600 किलोमीटर हरी-की दून से होती हुई जगाधरी, कालिबंगा और लोथल मार्ग से सोमनाथ के समीप समुद्र में मिलती है। सरस्वती शोध संस्थान के अध्यक्ष दर्शनलाल जैन के मुताबिक सैटेलाइट चित्रों से प्राचीन सरस्वती नदी के जलप्रवाह की जानकारी मिलती है। साथ ही यह भी पता चलता है कि यह सिंधु नदी से भी ज्यादा बड़ी और तीव्रगामी थी। नदी का प्रवाह शिवालिक पर्वतमालाओं से जगाधरी के समीप आदिबद्री से शुरू होता है, जिसका मूल स्त्रोत हिमालय में है। नदी तटों के साथ इसकी ईसा पूर्व 3300 से लेकर ईसा पूर्व 1500 तक 1200 से भी ज्यादा पुरातात्विक प्रमाण मिले हैं।

योजना की कामयाबी के लिए कुछ विदेशी भू-विज्ञानी और नासा भी योगदान दे रहे हैं। इस अनुसंधान में सरस्वती शोध संस्थान, रिमोट सैंसिंग एजेंसी, भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर, सेंट्रल वाटर कमीशन, स्टेट वाटर रिसोर्सेज, सेंट्रल एरिड जोन रिसर्च इंस्टीटयूट, हरियाणा सिंचाई विभाग, अखिल भारतीय इतिहास संगठन योजना और इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (अहमदाबाद ) आदि काम कर रहे हैं।

केंद्र सरकार ने 2000 में सरस्वती नदी को प्रवाहित करने के लिए तीन परियोजनाओं को चालू करने का काम अपने हाथ में लिया था, जो राज्य सरकारों की मदद से पूरा किया जाना है। चेन्नई स्थित सरस्वती सिंधु शोध संस्थान के अधिकारियों के मुताबिक इस दिशा में पहली परियोजना हरियाणा के यमुनानगर जिले में सरस्वती के उद्गम माने जाने वाले आदिबद्री से पिहोवा तक उस प्राचीन धारा के मार्ग की खोज है। दूसरी परियोजना का संबंध भाखड़ा की मुख्य नहर के जल को पिहोवा तक पहुंचाना है। इसके लिए कैलाश शिखर पर स्थित मान सरोवर से आने वाली सतलुज जलधारा का इस्तेमाल किया जाएगा। सर्वे ऑफ इंडिया के मानचित्रों में आदिबद्री से पिहोवा तक के नदी मार्ग को सरस्वती मार्ग दर्शाया गया है। तीसरी परियोजना सरस्वती नदी के प्राचीन जलमार्ग को खोलने और भू-जल स्त्रोतों का पता लगाना है। इसके लिए मुंबई के भाभा परमाणु अनुसंधान संस्थान और राजस्थान के जोधपुर के रिमोट सैंसिंग एप्लीकेशन केंद्र के विज्ञानी काम में जुटे हैं। इसके अलावा सरस्वती घाटी में पश्चिम गढ़वाल में स्थित हर-की दून ग्लेशियर से सोमनाथ तक प्रवाहित होने वाली प्राचीन जलधारा मार्ग की खोज पर भी जोर दिया जा रहा है।

तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी ) राजस्थान के थार रेगिस्तान में सरस्वती नदी की खोज का काम कर रहा है। निगम के अधिकारियों का कहना है कि सरस्वती की खोज के लिए पहले भी कई संस्थाओं ने काम किया है और कई स्थानों पर खुदाई भी की गई है, लेकिन 250 मीटर से ज्यादा गहरी खुदाई नहीं की गई थी। निगम जलमार्ग की खोज के लिए कम से कम एक हजार मीटर तक खुदाई करने पर जोर दे रहा है। दुनिया के अन्य हिस्सों में रेगिस्तान में एक हजार मीटर से भी ज्यादा नीचे स्वच्छ जल के स्त्रोत मिले हैं।

सरस्वती नदी को फिर से प्रवाहित किए जाने की तमाम कोशिशों के बावजूद इसके शोध में जुटी संस्थाएं सरकार से काफी खफा हैं। सरस्वती शोध संस्थान के अध्यक्ष दर्शनलाल जैन का कहना है कि आदिबद्री और कलायत में सरस्वती नदी का पानी मौजूद होने के बावजूद इसमें नहर का पानी प्रवाहित करना दुख की बात है। सरकार को चाहिए सरस्वतीकि कलायत में फूट रही सरस्वती की धाराओं को जमीन के ऊपर लाया जाए। महज नदी के एक हिस्से को पक्का करने की बजाय आदिबद्री से लेकर सिरसा तक नदी को पक्का कर पानी प्रवाहित किया जाए। साथ ही कुरुक्षेत्र विकास बोर्ड की तर्ज पर सरस्वती विकास प्राधिकरण का गठन किया जाए। उनका यह भी कहना है कि अगर सरकार चाहे तो तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम अपने खर्च पर हरियाणा में सरस्वती नदी खुदाई करने को तैयार है।

(लेखिका स्‍वतंत्र टिप्‍पणीकार हैं)

आरक्षण का सामाजिक जीवन में महत्व

रमेश पतंगे

समता के विषय में इसाप की एक सुंदर कथा है। एक बार जंगल में शेर, सियार, भेड़िया और जंगली गधा इन चारों ने मिलकर सामूहिक शिकार करने का निर्णय लिया। शिकार के लिए वो चले गए। चारों ने मिलकर एक जंगली भैंसे की शिकार की। शिकार करने के बाद भक्ष्य को चार समान हिस्सों में बांटा जाएगा ऐसा पहले से ही तय था। शेर ने गधे को कहा, “इस शिकार को हम चारों में बांट दो।” गधे ने शिकार को चार समान हिस्सों में बांट दिया। शेर के सामने शेर का हिस्सा रखा गया। इतना छोटा सा हिस्सा देखकर शेर को क्रोध आया और वह बोला, “अबे गधे, तू तो गधे का गधा ठहरा। समानता इस प्रकार की होती है क्या?” ऐसा कहकर उसने गधे के गर्दन पर जोर से तमाचा मारा। शेर के तीक्ष्ण नाखून गधे के गले में घुसने के कारण वो मर गया। फिर शेर ने सियार को कहा, “अब तू इस शिकार का समान बंटवारा कर।” सियार ने चारों हिस्सों को इकट्ठा किया। उसमें से आधे से अधिक शेर को दिया और जो बचा था उसका भी आधे से अधिक हिस्सा भेड़िये को दिया और छोटा सा हिस्सा अपने पास रखा। बंटवारे का यह तरीका देखकर शेर प्रसन्न हुआ। उसने सियार से पूछा, “समता तत्व की इतनी अच्छी सूझ-बूझ तूने कहां से सीखी?” उत्तर में सियार कहता है, “मरे हुए गधे ने समता का सही अर्थ मुझे सिखलाया है।”

इसाप ने जब यह कहानी लिखी होगी तब शायद समता तत्व की चर्चा आज जिस प्रकार चलती है उस प्रकार नहीं चलती होगी। लेकिन इसाप की महानता इसमें है कि उसने समाज जीवन के एक शाश्वत सच्चाई को बहुत सुन्दर ढंग से अधोरेखित किया है। समाज में जो बलवान होता है उसकी समता की परिभाषा शेर जैसी रहती है। सोवियत रशिया में आर्थिक समता का एक प्रयोग किया गया। उसकी परिणति अंत में आर्थिक विषमता में हुई। इस संदर्भ में अंग्रेजी का एक वाक्य बहुत प्रसिध्द है। “All men are equal, but some are more equal” राजर्षि शाहूमहाराज आरक्षण नीति के पुरोधा माने जाते हैं। अपने छोटे से संस्थान में उन्होंने शासकीय सेवा में 50 प्रतिशत आरक्षण का घोषणापत्र प्रकाशित किया। उसकी तिथि थी 26 जुलाई 1902। इसे अब 105 बरस पूर्ण हो चुके हैं। उनके जीवन का एक प्रसंग है। किसी एक समय अभ्यंकर नाम के एक सज्जन महाराजा शाहूजी के साथ विवाद कर रहे थे कि आरक्षण के कारण गुणवत्ता (Merit) को खतरा पहुंचता है। आरक्षण के कारण क्षमतावान व्यक्ति, गुणवान व्यक्ति पीछे रह जाएगा। उसका अवसर (opporiturity) छीन लिया जायेगा। महाराज सब सुनते रहे। उस समय वे कुछ नहीं बोले। श्री अभ्यंकर को अपने साथ लेकर वे अश्वशाला में आए। उन्होंने अश्वशाला के प्रमुख को कहा, “सब घोड़ों के लिए खुराक (चंदी) रखी जाए और सब घोड़ों को छोड़ दो।” खुराक खाने के लिए सभी घोड़े दौड़ पड़े। जो तगड़े घोड़े थे उन्होंने दुर्बलों को खुराक के नजदीक आने नहीं दिया। दुर्बल घोड़े भूखे रह गये। अभ्यंकर की ओर मुड़कर महाराज ने कहा, “समाज में भी ऐसा ही होता है। जो सशक्त है वह कमजोरों को आगे आने नहीं देता। वह सब चीजों पर स्वामित्व निर्माण करने की चेष्टा करता है। इसी कारण दुर्बलों का भी संरक्षण हो, उन्हें भी अवसर मिले ऐसी Positive action करनी पड़ती है।”

समाज में व्यक्ति किस कारण सशक्त बनता है? व्यक्ति को सशक्त करने वाले कारण इस प्रकार हैं-

व्यक्ति की जन्मजाति: व्यक्ति का जन्म अगर उच्च जाति में होता है तो जन्म के कारण ही वह सशक्त बनता है। समाज में उसे मान सम्मान प्राप्त होता है।

धनशक्ति: धनवान व्यक्ति के बारे में एक सुभाषितकार लिखता है, “जिसके पास विपुल धन है वह विद्यावान, कुलवान माना जाता है।” धनशक्ति के कारण सभी चीजें उसे आसानी से प्राप्त होती हैं।

राजशक्ति: व्यक्ति का जन्म किसी राजपरिवार में होता है तो राजसत्ता का बल उसे जन्मना प्राप्त हो जाता है। सत्ता स्थान पर पहुंचने के लिए उसे विशेष प्रयास या संघर्ष करने नहीं पड़ते हैं। इंदिराजी का पुत्र होने के कारण राजीव गांधी आसानी से प्रधानमंत्री बन गए। उनके पुत्र राहुल गांधी बिना प्रयास कांग्रेस के नेता बन गए।

धर्मसत्ता: धर्मसत्ता समाज में बहुत शक्तिशाली होती है। पुरोहित वर्ग धर्मसत्ता का अंग है। उसे मान-सम्मान, धन आदि प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है। मठाधिपति, साधु-संत, प्रवचनकार जनता के आदर और स्नेह के पात्र होते हैं।

ज्ञानशक्ति: व्यक्ति को प्रतिष्ठा देने में ज्ञानशक्ति का योगदान बहुत बड़ा है। सामान्य जीवन में पढ़ा लिखा आदमी आदर का पात्र होता है। अनपढ़ों में एकाध पढ़ा हुआ व्यक्ति बहुत विद्वान समझा जाता है। जिसके पास विज्ञान का, अर्थशास्त्र का, समाजशास्त्र का, Managment शास्त्र का, सूचना तथा प्रौद्योगिकी का, आधुनिक तंत्रज्ञान का, व्यापार का ज्ञान होता है वह आज के जमाने में बहुत शक्तिशाली व्यक्ति समझा जाता है।

Media शक्ति: आधुनिक काल में Print Media तथा Electronic Media शक्तिशाली माना जाता है। उसकी शक्ति से राजनेता से लेकर धर्मनेता तक सभी डरते हैं। इस शक्ति के कारण राजसत्ता भी पलट जाती है। बोफोर्स कांड इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। पिछले साल कुछ विधायकों को घुसखोरी कांड में फंसाया गया। Media जिस के हाथ में है उसकी समाज पर सत्ता होती है। ‘Media rules the world‘ यह आज का मंत्र है।

संघटनशक्ति: अपना समाज जाति तथा पंथों में बंटा है। जिस जाति या पंथ के पास संघटन शक्ति होती है वह जाति या पंथ राजसत्ता को भी झुका देते हैं। ऐसे जाति या पंथ का अंग होने के कारण व्यक्ति के खिलाफ उंगली उठाना आसान बात नहीं होती।

यह सात कारण व्यक्ति को सशक्त बनाते हैं। इन सात शक्तिकेन्द्रों का बंटवारा समाज में समता के तत्तव के अनुसार कभी नहीं होता। जिसके पास शक्ति है वह उस शक्ति को कभी छोड़ना नहीं चाहता। शक्ति का एक समान गुणधर्म है Concentration करने का। राजपरिवार हमेशा यही चाहेगा कि सत्ता उसके परिवार के बाहर कभी न जाए। धनवान व्यक्ति भी यही चाहेगा कि धन उसके परिवार में ही सीमित रहे। डॉक्टर चाहेगा कि अपना बेटा या बेटी ही डाक्टर बने। इंजीनियर भी यही चाहेगा। धर्मसत्ता भी इसके लिए अपवाद नहीं है। जो गृहस्थी धर्माचार्य है वे अपनी बेटी या बेटे को ही उत्ताराधिकारी बनाते हैं। पूज्य पांडुरंग शास्त्रीजी की विरासत उनके बेटी के पास गई। यह स्वभाविक मनुष्य प्रवृत्ति है। इसे दुनिया की कोई भी ताकत या तत्तवज्ञान बदल नहीं सकता।

जिसके पास अल्पमात्रा में भी शक्ति या ज्ञान होता है वह उसे किसी के साथ बांटना नहीं चाहता। इसका एक रोचक उदाहरण मैं देना चाहूंगा। कुछ साल पहले लोनावाला में (पूना के पास) हम बैठक के लिए गए थे। बैठक समाप्त होने के पश्चात् घूमने के लिए एक सुमो चाहिए थी। एक सज्जन ने बताया, फलाने गली में सुमो का अड्डा है, वहां सुमो मिलेगी। उस जगह का पता पूछने के लिए आठ-दस दुकानवालों को हमने पूछा। उनका जवाब था, “हम आपको सुमो देते हैं। सुमो का अड्डा कहां हैं, पता नहीं।” दुकानकार ऐसा इसलिए कह रहे थे कि सुमो पर उसे कमीशन मिलने वाला था। उसे वह गंवाना नहीं चाहता था। यह प्रवृत्ति सभी क्षेत्र में रहती है। मैंने अगर ज्ञान दिया या information दी तो मेरा घाटा होगा। मेरे लिए Competitor खड़ा होगा यह भय रहता है।

व्यक्ति को सशक्त करने वाले केन्द्र तक पहुंचना समाज के दुर्बल और पिछड़े वर्ग के लिए महा कठिन काम है। जन्म के कारण जो विषमता पैदा होती है उसे दूर करना और भी कठिन कार्य है। समाज का कोई भी सशक्त वर्ग समता का तत्वज्ञान पढ़कर उसकी आवश्यकता महसूस कर समतायुक्त व्यवहार नहीं करेगा। समतायुक्त व्यवहार का अर्थ होता है Sharing of power, sharing of benifits of power. वह दयाभाव से दान देगा। पुण्य प्राप्ति के लिए या प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए सेवा कार्य में हाथ बढ़ाएगा लेकिन अपने मर्म की बात वह किसी के साथ Share नहीं करेगा।

शक्ति का दूसरा गुणधर्म है शोषण का और यह गुणधर्म जागतिक (Universal) है। जिसके पास शक्ति है वह जाने या अनजाने में भी शोषण करते रहता है। शोषण विषमता की जननी है। विषमता के 5 प्रकार हैं। (1) सामाजिक विषमता, (2) आर्थिक विषमता, (3) राजनैतिक विषमता, (4) धार्मिक विषमता, (5) सांस्कृतिक विषमता। जातिभेद सामाजिक विषमता को जन्म देता है। जातिभेद के कारण Graded inequality की उपज है। जो जिस जाति में जन्मा है वह अंत तक वही रहता है। डॉ. बाबासाहब जी के शब्दों में कहना हो तो, “हिन्दू समाज अनेक मंजिलों की इमारत है और उसकी कोई सीढ़ी नहीं। आर्थिक विषमता धन के विषम बंटवारे के कारण होती है। मार्क्‍स का Surplus value का सिध्दांत यहां पर काम करता है। श्रमिक का धन श्रम होता है। लेकिन उसका मूल्य धनवान व्यक्ति तय करता है। इसी प्रकार का विश्लेषण अन्य कारणों का भी किया जा सकता है। परन्तु विस्तार भय के कारण हम इन विषयों को यहीं छोड़ देते हैं।

सब प्रकार की विषमता के कारण समाज पुरूष को Cancer जैसी भयंकर बीमारी लग जाती है। Cancer ग्रस्त व्यक्ति का एक ही भवितव्य सुनिश्चित है- मृत्यु! जिस समाज पुरूष के शरीर में सब प्रकार की विषमता का Cancer घुसा है उसकी मृत्यु को कोई टाल नहीं सकता। भारत सहित दुनिया के समाज के इतिहास का अगर हम अवलोकन करे तो इस सत्य को समझने में कठिनाई नहीं होगी। बंगाल के संदर्भ में स्वामी विवेकानन्दजी ने लिखा है कि आप धनिक और उच्चवर्गीय लोग सोने की थाली में खाना खा रहे थे। गरीब, दीनदुखी, भूखे, कंगाल अपने ही बांधवों की ओर ध्‍यान देने के लिए आपके पास समय नहीं था। अन्न के कारण लोग भूखे मर रहे हैं। इस पीड़ा को भगवान को सहा नहीं गया। ईश्वर न्याय किया और आपको सबक सिखाने के लिए मुस्लिम आक्रामकों को भेज दिया। विवेकानंदवाणी ऐसे समय बहुत कड़वी होती है।

पांच प्रकार की विषमता व्यक्ति को दस प्रकार से दुर्बल बनाती है। (1) सब प्रकार के ज्ञान से उसे वंचित रखती है।, (2) उसे निर्धन बनाती है।, (3) उसे अंधविश्वासी बना देती है।, (4) उसका सांस्कृतिक अध:पतन करती है।, (5) निर्धन और गरीब होने के कारण उसका जीवन पशुतुल्य बन जाता है।, (6) सब प्रकार की पराधीनता का वो शिकार बन जाता है।, (7) आत्मविश्वास, आत्मतेज खो बैठता है।, (8) समाज की सभी प्रकार की व्यवस्था में वह उदासीन बन जाता है।, (9) जब परकीय आक्रमण होता है तब उसके खिलाफ लड़ने की उसकी मानसिकता नहीं रहती।, (10) परधर्मियों का वह आसानी से शिकार बन जाता है।

समाज की उदासीनता के संदर्भ में इसाप की कहानी याद आती है। एक धोबी था। उसका एक गधा था। एक दिन उस गांव में परचक्र आया। लोग भागने लगे। धोबी गधे को कहता है, “अरे तू भी भाग जा। आक्रमणकारी तुझे पकड़ ले जाएंगे।” तब गधा कहता है, इसे मुझमें क्या फरक पड़ने वाला है? मालिक बदल जाएगा; बोझा तो वही ढोना है। बोझ ही ढोना है तो मेरे लिए मालिक कौन है, इसका कोई मतलब नहीं रहता। इसाप फिर से विदारक सत्य की बात करता है। पूने के पास कोरे गांव में अंग्रेजों की पेशवा के साथ 1918 में अंतिम लड़ाई हुई। जिसमें पेशवा हार गए। मराठी राज्य की इतिश्री हो गई। अंग्रेजों की फौज यहां के ही अस्पृश्यवर्ग के महार जाति की थी। उत्तर पेशवाई में अस्पृश्य वर्ग पर जो अनन्वित अत्याचार किये गए इसके कारण महारों को यह राज्य अपना राज्य है ऐसा नहीं लगा।

व्यक्ति को दुर्बल बनाने वाले दस कारणों का निराकरण करने की सबसे बड़ी शक्ति राज्य यंत्रणा में (State power) होती है। राज्य का यह काम है कि वह समाज के दुर्बल वर्ग को सबल बनाए। आरक्षण इसका एक तरीका है। आरक्षण के कारण दुर्बल वर्गों को अवसर उपलब्ध होता है। आरक्षण के बिना अवसर उपलब्ध होना असंभव है। आरक्षण के कारण Participatory role बढ़ता है। सहभागिता के बिना समरसता असंभव है। सहभागिता के कारण जो कार्य चलता है उसके विषय में आत्मभाव निर्माण होता है। संस्था जीवन में सहभागिता है तो वह संस्था अपनी लगेगी। गांव के ग्रंथालय से लेकर संसद तक समाज के सभी वर्गों की सहभागिता रहेगी तब इन सभी संस्थाओं के संदर्भ में आत्मीय भाव जगेगा। संस्था व्यक्तियों के कारण बनती है। एरवाद विचार जीवनमूल्य और ध्‍येय संस्था की आधारशिला होती है। आत्मीयता का मतलब होता है व्यक्तियों के प्रति आत्मीय भाव, मूल्यों के प्रति आत्मीयभाव, ध्‍येय के प्रति आत्मीयभाव विशेष अवसर देकर और हर स्थान पर आरक्षण की व्यवस्था कर सहभागिता की भावना को बढ़ावा देना चाहिए।

राजसत्ता को यह काम कैसे करना चाहिए इस विषय में एक पुरानी कहानी है। वह कहानी करूणा सागर भगवान गौतम बुध्द ने बताई है। वाराणसी का एक राजा था। उसके पास थोड़ा धन जमा हो गया। वह यज्ञ करना चाहता था। राजपुरोहित को उसने यज्ञ के बारे में पूछा। राजपुरोहित ने उसे कहा, “महाराज यज्ञ करने के लिए यह समय अनुकूल नहीं है। अपने राज्य में युवक बेकार हैं। खेती की उपज बहुत कम है। राज्य का व्यापार घटता जा रहा है। मेरी सलाह है कि जो धन राजकोष में जमा हुआ है उसका सदुपयोग करना चाहिए। कास्तकारों को उत्तम बीज, खाद तथा खेती के अवसर देने चाहिए। इसके कारण खेती की उपज बढ़ेगी और राजस्व भी बढेग़ा। जो युवा अपना निजी व्यवसाय करना चाहते हैं उन्हे पूंजी देनी चाहिए। सरकारी कामों को बढ़ाकर बेरोजगारों को काम देना चाहिए। उसके कारण भी राजस्व बढ़ेगा। व्यापार के लिए व्यापारियों को धन देना चाहिए। अच्छी सड़कें बनानी चाहिए। सुरक्षा के पुख्ता प्रबंध करने चाहिए। इससे भी राजस्व बढ़ेगा।” राजा ने वैसे ही किया। संपत्ति निर्माण के कारण धन बढ़ गया। लोग खुशहाल हो गए। राज्य का विकास हो गया।

आज के राज्य शासन को इस कथा से सबक सीखना चाहिए। धनपति के लिए सेज निर्माण करने से विषमता बढ़ेगी। दुर्बल वर्गों को प्रशिक्षित कर उनको पूंजीपति बनाने की योजना बनानी चाहिए। शिक्षा के निजीकरण के कारण दुर्बल वर्ग आधुनिक शिक्षा से वंचित रहेगा। आवश्यकता है शिक्षा के वंचितीकरण करने की। वंचित वर्ग के लिए केवल विद्यमान शिक्षा प्रणाली में आरक्षण पर्याप्त नहीं। उनके सक्षमीकरण के लिए विशेष शिक्षण संस्था University बनाने की आवश्यकता है। Banking क्षेत्र, आई.टी. Biotechnology, Hoteling, पर्यटन, Marketing इत्यादि आधुनिक क्षेत्र में प्रशिक्षित कर हमारे पिछडे बंधुओं को प्रगति का विशेष अवसर देना चाहिए। किसी एक जमाने में समाजवादी समाजरचना यह अपना नारा था। उसके कुछ अच्छे-बुरे दोनों पहलू हैं। अब हमारा नारा होना चाहिए समरसतावादी समाजरचना। समाज के सभी शक्ति केन्द्रों में समाज के दुर्बल पिछड़े वंचित वर्गों का सहभाग बढ़ाने की नीति अपनानी पड़ेगी। ऐसी नीति का एक vision document तैयार करना चाहिए और उसे कठोरता से क्रियान्वित करना चाहिए।

जैसा कि हम पहले ऊपर लिख चुके हैं Sharing of power vkSj sharing of benefits of power इसके लिए व्यक्ति तथा व्यक्ति समूह कभी तैयार नहीं होता। जो व्यवस्था बनी रहती है उसमें एक जबरदस्त vested interest lobby तैयार हो जाती है। समाज का उच्चवर्णीय हमेशा आरक्षण का विरोध ही करेगा। समाज का पूंजीपति वर्ग आर्थिक समता को कभी स्वीकार नहीं करेगा। समाज का राजनीतिक वर्ग power sharing के लिए तैयार नहीं होगा। (महिला आरक्षण विधेयक इसका ज्वलंत उदाहण है।) आरक्षण का जिनको लाभ हो रहा है ऐसा वर्ग भी क्रीमी लेअर की संकल्पना को स्वीकार नहीं करता। उसका भी vested interest group बन गया है। सभी के विरोध को पैरों तले दबा कर जिस प्रकार राजर्षि शाहू महाराज ने समाज के वंचितों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया उसी नीति का कड़ाई से पालन करना चाहिए। आरक्षण का प्रश्न केवल मात्र शिक्षा, रोजगार, सक्षमीकरण तक ही सीमित नहीं, आज यह विषय अपने अस्तित्व के साथ जुड़ा है। जब तक हमारे समाज के अंतिम पंक्ति का अंतिम व्यक्ति सबल नहीं बनता तब तक हम किसी भी प्रकार के आतंकवाद से लड़ नहीं सकते। अन्तरराष्ट्रीय Eco-terrorism से नहीं लड़ सकते, अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक आक्रमण से नहीं लड़ सकते; इस तथ्य पर शांत चित्त से हमें विचार करना चाहिए।

(लेखक सुप्रसिध्द चिंतक व ‘विवेक’ मराठी साप्ताहिक पत्रिका के संपादक हैं)

राष्ट्रवाद बनाम महा-राष्ट्रद्रोह

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लेखक- जयराम दास

देश के छ: राज्‍यों में चुनावी रणभेरी बज चुकी है। चुंकि मुख्यधारा के चार राज्‍यों में मोटे तौर पर भाजपा बनाम कांग्रेस का ही विकल्प है, तो यह सवाल मौजूद है कि आखिर मतदाता किसका समर्थन करें, इस लेखक के नजर में चुनाव के तीन मुख्य मुद्दे इस बार चर्चा में रहना चाहिए वो है राष्ट्रवाद, राष्ट्रवाद और राष्ट्रवाद। हालांकि इसके अलावा भी ढेर सारी भौतिक उपलब्धियां और योजनायें ऐसी है जो जनमत के लिहाज से महत्‍वपूर्ण है लेकिन राष्ट्रवाद तो एक ऐसा मुद्दा है जो जन अस्तित्‍व से जुड़ा हुआ है। और निश्चय ही इसके आगे सारे मुद्दे गौण… नीरज के शब्‍दों में कहूं तो…. जब ना ये बस्ती रहेगी तू कहाँ रह पायेगा।

राष्ट्र नाम के भावनात्‍मकता पर आधारित इस पौराणिक इकाई-जिसे हम भारत के नाम से जानते हैं- को चुनौती है नक्‍सलवाद से, क्षेत्रवाद, जातिवाद, अलगाववाद, आतंकवाद, सम्प्रदायवाद, छद्म-पंथनिरपेक्षता, अल्पसंख्यकवाद आदि विभिन्‍न अवसरवादों से…. कुछ झलकियाँ देखें, नक्‍सलवाद की बात करें।

राष्ट्र नाम के भावनात्‍मकता पर आधारित इस पौराणिक इकाई-जिसे हम भारत के नाम से जानते हैं- को चुनौती है नक्‍सलवाद से, क्षेत्रवाद, जातिवाद, अलगाववाद, आतंकवाद, सम्प्रदायवाद, छद्म-पंथनिरपेक्षता, अल्पसंख्यकवाद आदि विभिन्‍न अवसरवादों से….

देखिये कितना अच्‍छा कर रहे हैं कांग्रेस के लोग? ‘चोर से कहो चोरी कर और साहूकार से कहो जागते रह’….छत्‍तीसगढ़ के आदिवासियों द्वारा शुरू किये अपने प्राण रक्षा के आंदोलन ‘सलवा जुडूम’ को विपक्ष के ही कांग्रेसी नेता द्वारा नेतृत्‍व और दूसरे गुट द्वारा विरोध। यानि चित हुआ नक्‍सलवाद तो सलवा जुडूम को नेतृत्‍व के लिए कांग्रेस का श्रेय, पट्ट हुए आदिवासी तो आप कहो कि हमने तो पहले ही विरोध किया था। और इससे भी मन नहीं भरा तो आंध्रा में जाकर पीडब्‍ल्यूजी से चुनावी समझौता। वाह, कितना प्‍यारा लगता है, मजलूमों-निर्दोषों के खून में सनी कुर्सिंया, करते रहो राजनीति भाई।

न केवल नक्‍सलवाद अपितु देश को तोड़ने वाले कुछ अन्‍य विचारों और घटनाओं का विश्‍लेषण करें। बिहार में आप टेबल पर बैठकर जातियों की सूची बना उसके प्रतिशतता एवं समीकरण के आधार पर चुनावी परिणाम की भविष्यवाणी कर सकते हैं। अभी एक ब्‍लॉग पर एक ‘विद्वान’ लेखक का आलेख पढ़ने को मिला जिसका आशय था कि बिहार में बाढ़ नीतिश कुमार की साजिश थी क्‍योंकि बाढ़ पीड़ित इलाका यादव बहुल है अत: नीतिश ने हिटलर की तरह पानी चेंबर (याद कीजिए गैस चेंबर) का इस्तेमाल कर गोप वंश का सफाया कर दिया। अब आप सोचे…….ऐसे बेहूदे तर्क रखने वाले की मानसिकता कितनी जहरीली होगी? वहाँ पर कांग्रेस की लाश पर पनपे उस लालूवादी भस्मासुर को आप क्‍या कहेंगे। इस तरह की सोच क्‍या किसी भी देशभक्त का हाड़ कंपा देने को काफी नहीं है? उत्‍तरप्रदेश की बात करें एक तरफ दौलत की बेटी मायावती हैं, कितने कसीदे पढ़ा जाय उनके शान में? फिर मुलायम हैं, उनके लिए सिमी से बढ़कर भारत भक्‍त संगठन और कोई नहीं। विस्फोट दर विस्फोट हर आतंकवादी हमले, हर पुलिसिया शहादत के बाद उस कुर्सीभक्‍त की सिमी पर आस्था और मजबूत होती जाती है। अमर रहे बेचारे अबू बशर, जिंदाबाद आजमगढ़। दिल्‍ली को देखें। महान अर्जुन अब जामिया से गिरफ्प्तार आरोपी की पैरवी करवायेंगे… मुशीरूल हसन अब विश्वविद्यालय की गांठ ढीली कर वकीलों की फीस भरेंगे। वाह… कितना प्‍यारा होगा हमारा वह देश…जहाँ किसी विश्वविद्यालय के विद्यार्थी पर लगे हत्‍या, किसी स्कूल के छात्रा पर बलात्‍कार, किसी आफिस क्‍लर्क पर लगे घुसखोरी, आदि सभी तरह के आरोपों का बोझ अब अपनी गाठें ढीली कर संस्थानें उठायेगी। वाह जन्नत बन जायेगा भारत जन्नत और रहने वाले नागरिक ‘स्वर्गवासी’ बन ऐश करेंगे।

अब तो आप किसी भी तरह के अपराध करने से पहले किसी वयस्क शिक्षा केंद्र में प्रवेश ले लें….वकीलों के फीस की झंझट से मुक्ति और बोनस में आपके लिए लाबिंग करने का काम आपके उस्तादों पर, मेरा भारत महान। अफजल को जिंदा रखना हमारा मजहब, उसे भारत रत्न की उपाधि दे दिया जाना उचित ताकि यह शस्‍य श्यामला धरती ‘हरी’ भरी रह सके। आखिर बाबर को अयोध्‍या में प्रतिष्ठित कर ही तो नाम कमाया था हमने सहिष्‍णुता, संवदेनशीलता सौमनस्यता का। अभी तो मात्र तीन टुकड़ा में बटा है देश, आजादी से अब तक। कुछ छोटी-छोटी इकाइयाँ और खड़ी हो जाए कश्मीर टाईप तो झंडा उँचा होता हमारा। उड़ीसा में देखें। बड़े आये थे स्वामी बनने हुह! भले ही पांच लाख लोग जुटे हो आपकी अंतिम यात्रा में, इसको आपकी लोकप्रियता का नमूना मान लिया जाए? तो क्‍या आप लाट साहब हो गये?

ईसाई राज की स्थापना के पुण्‍य कार्य में लगे गोरे भोले-भाले लोगों का विरोध करने का साहस किया आपने? 200 साल तक वे हमें सभ्य बनाने की जी तोड़ कोशिश की, फिर भी आपने भगा दिया था उन्‍हें देश से बाहर। इतनी मिहनत से अर्जित राज-पाट की समाप्ति के बाद भी, बेचारे लगे हुए हैं, मसीही राज की स्थापना में और आपकी इतनी हिमाकत, कि वहाँ हिंदू धर्म की बात करें? कौन बरदाश्त करेगा आपको? पश्चिम से ‘धर्म’ लेकर आने वाले आपको मारेंगे ही और धर्म को अफीम मानने वाले माओवादी उसकी जिम्मेदारी लेंगे, उसको बचायेंगे। चलिये अच्‍छा हुआ अब सीख मिली होगी आपके शिष्यों को। भारत में रहकर भारतीय विचार की बात, आदिवासी बंधुओं के बीच विकास के कार्य? आपकी इतनी हिम्मत?

महाराष्ट्र की बात करें। पिट गये बेचारे परीक्षार्थी फिर महाराष्ट्र में, अरे बेवकूफ तुमने मुबंई को भी भारत का ही अंग समझ लिया था? राज के डंडे से तुम्हारा कलम मुकाबला करता वहाँ पर? रेलवे की परीक्षा दोगे तुम? भुर्ता बना देंगे मार-मार के। अभी तक तुमने पढ़ा था, कि स्वस्थ प्रतिस्पर्धा ही सफलता का मूलमंत्र होता है, जिस दीये में जान होगी वो दिया जल जायगा को ही सच मान लिया था तुमने।

कुछ कुत्‍ते बिल्‍ली हैं और शेष बिल्‍ली टमाटर……… जैसे रिजनिंग के सवालों को तुम हल कर लोगे ढिबरी की रोशनी या लालटेन की विलासिता में। हलाल होने जाती मुर्गी के तरह ट्रेनों में जगह भी पा लोगे, लेकिन मुबंई में? क्‍या सोचते हो राज साहब छोड़ देंगे तुम्हें? और विलासराव जी छोड़ने देंगे तम्हें? कुछ कुत्‍ते बिल्‍ली पाल लो अगर जी गये वापस आकर तो, लेकिन मुगालते मत पालो।

खैर! उपरोक्त जैसी ढेर सारी बिडंबनाओं के लिए केवल कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीतियाँ ही जिम्मेदार है। बिजली, पानी, सड़क, अधोसंरचना, गांव, गरीब, किसान इन सबकी बातें अपनी जगह है। सरकारों ने ढेर सारे विकास कार्य किये भी हैं। इस चुनाव की एक मुख्य बात यह है कि मुख्यधारा के इन चार राज्‍यों में कमोवेश द्विदलीय व्यवस्था जैसी ही है। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि जहाँ भी भाजपा सत्‍ता में है या जहाँ उसका प्रभाव है वहाँ कोई क्षेत्रीय दुर्भावनायें सर नहीं उठा पायी है। केवल राष्ट्रीय दलों का उन-उन राज्‍यों में प्रभुत्‍व भाजपा की सफलता ही कही जाएगी। तो जब भी अब कहीं भी चुनाव हो केवल राष्ट्रवाद ही पब्‍लिक एजेंडा होनी चाहिए और मतदाताओं के चयन का मानदंड भी शायद यही बातें होंगी और इस मायने में भाजपा अपने प्रतिद्वंद्वी से मीलों आगे हैं।

(लेखक छत्‍तीसगढ़ भाजपा के कार्यसमिति के सदस्य एवं पार्टी के मुखपत्र दीपकमल के संपादक हैं)

विदेशी भाषा और भारतीय भाषाओं के मीडिया की प्राथमिकताएं

लेखक : डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

भारत में मीडिया की दो समांतर धाराएं प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं। एक धारा है विदेशी भाषा के मीडिया की और दूसरी धारा है भारतीय भाषाओं के मीडिया की। भारत में विदेशी भाषा का मीडिया मुख्य तौर पर अंग्रेजी भाषा तक ही सीमित है। पुदुच्चेरी और में फ्रांसीसी भाषा का भी थोड़ा बहुत मीडिया है और गोआ दमन दीव में पुर्तगाली भाषा की कुछ पत्र-पत्रिकाएं भी निकलती हैं। गोवा से प्रकाशित पुर्तगाली दैनिक ‘ओ हेराल्डो’ पिछले कुछ दिनों से अब अंग्रेजी में भी प्रकाशित होने लगा है। भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता में सभी भारतीय भाषाओं की शमूलियत है।

पिछले दिनों की तीन घटनाओं को आधार बनाकर विदेशी भाषा के मीडिया और भारतीय भाषा के मीडिया की प्राथमिकताओं का विश्लेषण किया जाना आवश्यक है। ये तीन घटनाएं हैं गुजरात के विधानसभा चुनाव, रामसेतु आंदोलन, विशेषकर 30 दिसंबर को दिल्ली में रामेश्वरम रामसेतु रक्षा मंच की ओर से की गई विशाल राष्ट्रीय महासभा और उड़ीसा के कंधमाल जिला में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती जी महाराज पर क्रिसमस के दिन ईसाई संगठनों द्वारा किया गया घातक आक्रमण। इन तीनों घटनाओं का मीडिया में विवरण जिस प्रकार छपा या छप रहा है वह अपने आप में विदेशी भाषा के मीडिया और भारतीय भाषा के मीडिया की प्राथमिकताओं को स्पष्ट करता है। गुजरात के विधानसभा के चुनावों की घटना और उड़ीसा में स्वामी जी पर आक्रमण की घटना का विश्लेषण दिल्ली से प्रकाशित अंग्रेजी एवं गुजरात/उड़ीसा से प्रकाशित गुजराती और उड़िया भाषा के समाचार पत्रों में प्रकाशित विवरण को आधार बनाया गया है। जबकि रामसेतु की विशाल राष्ट्रीय सभा के लिए दिल्ली से ही प्रकाशित अंग्रेजी और हिन्दी भाषा के समाचार पत्रों को आधार बनाया गया है। दिल्ली में तीन प्रमुख अंग्रेजी समाचार पत्रों टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स और इंडियन एक्सप्रेस के हिन्दी संस्करण भी नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान और जनसत्ता के नाम से निकलते हैं। ये समाचार पत्र ज्यादातर अंग्रेजी संस्करणों के अनुवाद पर ही आधारित है और अपने मूल अंग्रेजी अखबार की रसगंध को हिन्दी भाषा में परोसने को दोयम दर्जे का प्रयास है। इसलिए इन तीनों हिन्दी अखबारों का शुमार उनके अंग्रेजी संस्करणों में ही कर लिया है। अलग से उन्हें भारतीय भाषा के मीडिया में शामिल नहीं किया गया है।

सबसे पहले गुजरात के विधानसभा के चुनावों की घटना का विश्लेषण करें। उस काल के दो महीने के निम्न चार अंग्रेजी अखबारों, टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स, इंडियन एक्सप्रेस और दि हिन्दू को विश्लेषण के लिए प्रयुक्त किया जाएगा और इसी प्रकार गुजरात से प्रकाशित गुजराती भाषा के अखबारों-संदेश, गुजरात समाचार, दिव्य भास्कर, जय हिन्द और प्रभात को आधार बनाया गया है। उस विश्लेषण के आधार पर निम्न निष्कर्ष सहज ही स्पष्ट दिखाई देते हैं। इस विश्लेषण में अंग्रेजी और गुजराती के उपरोक्त समाचार पत्रों में प्रकाशित संपादक के नाम पत्रों को भी शामिल किया गया है।

निष्कर्ष :- अंग्रेजी भाषा के उपरोक्त समाचार पत्रों के आधार पर

1. नरेन्द्र मोदी घोर सांप्रदायिक व्यक्ति है।

2. वे गुजरात में मुसलमानों का विरोध करते हैं।

3. गुजरात में सरकार द्वारा मुसलमानों को प्रताड़ित किया जा रहा है और उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक माना जा रहा है।

4. सोहराबुद्दीन की पुलिस मुठभेड़ में मृत्यु राज्य सरकार द्वारा किया गया एक कत्ल ही है।

5. मोदी की दृष्टि में मुसलमान आतंकवादी है जबकि ऐसा नहीं है।

6. मोदी गुजरात को हिन्दू और मुस्लिम के आधार पर बांट रहे हैं।

7. मोदी हिन्दुत्व का एजेंडा लागू कर रहे हैं।

8. नरेन्द्र मोदी जनजातिय क्षेत्रों में चर्च और इस्लाम का कार्य दूभर कर रहे हैं।

9. नरेन्द्र मोदी तानाशाह है।

10. नरेन्द्र मोदी अफजल गुरु और सोहराबुद्दीन का प्रश्न उठाकर मुसलमानों को अन्यायपूर्ण ढंग से बदनाम कर रहे हैं।

इसके विपरीत गुजराती भाषा के मीडिया के आधार पर निम्न निष्कर्ष सहज ही निकलते हैं।

1. नरेन्द्र मोदी ने गुजरात से आतंकवाद को समाप्त किया है।

2. नरेन्द्र मोदी के सख्त प्रशासन के कारण ही आतंकवादी गुजरात में घुसने और कोई घटना करने से घबराते हैं।

3. सोहराबुद्दीन की घटना के बाद दूसरे आतंकवादी गुजरात में कोई वारदात करने से डरने लगे।

4. तथाकथित सेकुलर पार्टियां मुसलमानों और आतंकवादियों को शह भी देती हैं और वोट की खातिर उनका तुष्टिकरण भी करती है। लेकिन मोदी वोट की खातिर किसी का तुष्टिकरण नहीं करते।

5. आतंकवाद से मुकाबला सख्ती से किया जा सकता है तुष्टिकरण से नहीं। गुजरात इस विषय में राह दिखा रहा है।

6. अफजल गुरू को फांसी न देकर कांग्रेस और सीपीएम मुसलमानों को राष्ट्रीय हितों को दरकिनार करते हुए भी प्रसन्न करने की कोशिश कर रही है।

इन दोनों निष्कर्षों के अवलोकन से प्रश्न उठता है कि एक ही घटना पर विदेशी भाषा का मीडिया और भारतीय भाषाओं का मीडिया लगभग परस्पर विरोधी खेमे में ही खड़ा क्याें दिखाई देता है? ऐसा क्यों है कि सोहराबुद्दीन की मुठभेड़ की घटना को लेकर गुजराती भाषा के अखबार और अंग्रेजी भाषा के अखबार अलग प्रकार से करते हैंघ् इसका मुख्य कारण विभिन्न मुद्दों और विभिन्न स्थितियों को लेकर अंग्रेजी मीडिया की मानसिकता जिस धरातल पर अवस्थित है वह गुजराती भाषा के मीडिया से या फिर भारतीय भाषा के मीडिया से बिल्कुल अलग है। एक बात और भी ध्यान में रखनी चाहिए कि भारतीय भाषाओं के मीडिया और विदेशी भाषाओं के मीडिया के पाठक वर्ग भी लगभग अलग-अलग ही है। भारतीय भाषाओं के मीडिया का पाठक आम आदमी है जिसमें खबर की भूख दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। विदेशी भाषा के मीडिया का वर्ग खास आदमी है, उसकी संख्या सीमित है परंतु उसका प्रभाव ज्यादा है। विभिन्न मुद्दों से संबंधित अवधारणाओं के स्तर पर भी ये दोनों पाठक वर्ग काफी अलग-अलग है। उदाहरण के लिए सांप्रदायिकता को लेकर इन दोनों वर्गों की अवधारणा में जमीन आसमान का फर्क है। विदेशी भाषा के मीडिया का पाठक वर्ग ऐसी जगहों पर रहता है जहां आदमी-आदमी के बीच संपर्क भी कम है और संबंधों के स्तर पर एक और औपचारिकता बनी रहती है। इन स्थानों पर भीड़ कम है स्थान ज्यादा है। एक खुलापन भी है। आपसी संपर्क और संबंध न्यूनतम स्तर पर ही विद्यमान है। इसलिए इस वर्ग के लिए सांप्रदायिकता किताबों में पढ़ा हुआ शब्द है जिसको उसके समग्र रूप में देखपाना इनके लिए संभव ही नहीं है। यदि और ढंग से कहें तो कहा जा सकता है यह पाठक वृंद गांधीनगर का पाठक वृंद है। इसके विपरीत भारतीय भाषाओं के अथवा गुजराती भाषाओं के मीडिया का पाठक वृंद ठेठ अहमदाबाद में रहता है। उसके लिए सांप्रदायिकता महज कागज पर छपा हुआ शब्द नहीं है बल्कि नित्यप्रति के परस्पर व्यवहार और अनुभव के भीतर से उपजा और निर्मित एक यथार्थ है। उस यथार्थ में सोहराबुद्दीन नित्यप्रति मूर्त रूप में घूमता है। अफजल गुरू भी घूमता है। उनकी ऑंखें घूरती हैं और कर्म भय पैदा करते हैं। इस सांप्रदायिकता के बीच में से ही उसे नित्यप्रति गुजरना है। इसलिए उससे वह बच भी नहीं सकता। ये नित्यप्रति की संकरी गलियां हैं। जहां सांप्रदायिकता से नित्य-नित्य मुठभेड़ होती है। इन पाठकों का क्रोध इस बात से उपजता है। यह सांप्रदायिक चेहरा कभी हाजी मस्तान के रूप में प्रकट होता है, कभी दाऊद अब्राहिम के रूप में प्रकट होता है, कभी सोहराबुद्दीन के रूप में प्रकट होता है और कभी अफजल गुरू के रूप में प्रकट होता है। कभी यह तस्लीमुद्दीन बनकर आता है और कभी ईश्रतजहां बनकर रात्रि के अंधकार में निशाचरों की तरह घूमता है। राज्यसत्ता इन निशाचरों से वोट की खातिर हाथ मिला लेती है। आम आदमी का यह पाठक वर्ग इस मिलते हुए हाथ को देखता भी है और उससे सहमता भी है। आम आदमी का इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि सोहराबुद्दीन को किसने मारा और कैसे मारा? उसके मरने की खबर पर वह राहत महसूस करता है जैसे गली-मोहल्ले में घूमता हुआ कोई पागल कुत्ता मरता है तो लोग खुश होते हैं कि जीवन सुरक्षित हो गया है। लेकिन जब जीवजंतुओं के प्रति करूणा की वकालत करने वाला कोई संगठन पागल कुत्ते को मारने के खिलाफ अभियान चला दे तो स्वभाविक है यह पाठक वृंद अभियान चलाने वालों की ओर आश्चर्य भरी नजरों से ही देखेगा। विदेशी भाषा के मीडिया और भारतीय भाषाओं के मीडिया की प्राथमिकताओं और दृष्टिकोण के अलग होने का रहस्य भी यही है। दूर से बैठकर पागल कुत्ते के प्रति करूणा की मांग करना एक बात है और उस कुत्ते के साथ रहते हुए एक दिन उसे मरा हुआ देखकर भयमुक्त होने के एहसास से प्रसन्न होना दूसरी बात है। अंग्रेजी भाषा का मीडिया इस देश में घट रही घटनाओं को दूर बैठकर केवल द्रष्टा के रूप में देखता है और भारतीय भाषाओं का मीडिया उन स्थितियों को भोक्ता के रूप में देखता है। इसका कारण भी स्पष्ट है। पहले मीडिया का पाठक केवल द्रष्टा है और दूसरे मीडिया का पाठक स्वयं भोक्ता है।

रामसेतु बचाने के लिए दिल्ली में विशाल राष्ट्रीय महासभा-दूसरी घटना 30 दिसंबर 2007 को दिल्ली के स्वर्णजयंती पार्क में रामसेतु को बचाने के लिए की गई विशाल राष्ट्रीय महासभा है। इस सभा में देश के प्रत्येक हिस्से से लाखों लोगों ने शिरकत की। लद्दाख से लेकर अरूणाचल प्रदेश तक के लोग आए थे। केरल से लेकर पंजाब तक से लोग स्वयं अपना किराया खर्च कर इस राष्ट्रीय सभा में भागीदारी करने के लिए आए थे। हजारों दिल्लीवासी भक्तिभाव से इन रामभक्तों के लिए भोजन तैयार करने में लगे हुए थे। अनेक मोहल्लों में रामभक्तों को रोक-रोक कर लोग आग्रहपूर्वक फल खाने को दे रहे थे। इस पूरे घटनाक्रम की रपट विदेशी भाषा के मीडिया और भारतीय भाषा के मीडिया में बिल्कुल ही अलग-अलग प्रकार से हुई। टाइम्स ऑफ इंडिया की रपट इस प्रकार की थी कि लाखों लोगों के आ जाने से दिल्लीवासियों को बहुत कष्ट हुआ, सड़कों पर जाम लग गया और लोग रविवार का आनंद नहीं मना सके। दिल्ली शोर शराबे को माहौल में डूब गई। परिवहन व्यवस्था में अफरा-तफरी मच गई। टाइम्स ऑफ इंडिया ने एक करोड़ की आबादी वाले दिल्ली प्रदेश में से किसी एक महिला से इस राष्ट्रीय सभा के बारे में पूछा भी। उसने कहा कि मैं हर रविवार को मेट्रो से अपनी बहन को मिलने के लिए शाहदरा जाती हूँ लेकिन इस अव्यवस्था के कारण नहीं जा सकी। रपट का स्वर कुछ ऐसा था कि इस महिला के अपनी बहन से न मिल पाने के कारण इस राष्ट्रीय महा सभा ने बड़ा ही अहित किया है। एक अन्य अंग्रेजी अखबार ने मानो एक बहुत बड़ा रहस्योद्धाटन किया। एक सज्जन ट्रेन पकड़ने के लिए आए थे। टिकट लेना उनकी आदत में शुमार नहीं था। वे टीटी को कुछ पैसे देकर सुखपूर्वक यात्रा करूँगा यह सोच कर चले थे। लेकिन रामसेतु पर हो रही इस राष्ट्रीय सभा में भाग लेने वालों की भीड़ के कारण टीटी इन सज्जन की सहायता नहीं कर सके। अंग्रेजी अखबार के अनुसार इस राष्ट्रीय सभा के कारण जनता को हो रहे कष्ट की यह पराकाष्ठा है।

इसके विपरीत दिल्ली से प्रकाशित हिन्दी भाषा के समाचार पत्रों पंजाब केसरी और दैनिक जागरण की रपट का स्वर बिल्कुल भिन्न था। इनके अनुसार इस राष्ट्रीय सभा से सारी दिल्ली राममय हुई। रामभक्तों का स्वागत करने के लिए उमड़ पड़े हजारों दिल्लीवासी। दिल्ली में जगह-जगह उनका स्वागत हो रहा था और लोग उनके ठहरने और भोजन की व्यवस्था में संलग्न थे। दिल्ली की भारतीय भाषाओं के अखबारों ने तो कई दिन पहले से ही खबरें देनी शुरू कर दी थी कि इस राष्ट्रीय सभा में भाग लेने के लिए आ रहे रामभक्तों का स्वागत करने के लिए दिल्ली के लोग किस प्रकार की तैयारियाँ कर रहे हैं।

इन दोनों रपटों को पढ़ने के बाद प्रश्न पैदा होता है कि क्या कारण है एक ही घटना पर रपट देते हुए मीडिया का एक वर्ग कहता है कि इससे दिल्ली के लोग प्रसन्न हो रहे हैं और दूसरा वर्ग कहता है कि इससे दिल्ली के लोगों का कष्ट बढ़ रहा है। इसका कारण भी उसी मानसिकता में खोजना होगा जो विदेशी भाषा के मीडिया और भारतीय भाषा के मीडिया के पाठक वर्ग को अलग-अलग करती है। विदेशी भाषा के मीडिया का पाठक वर्ग नई कालोनियों में है। डिफे न्स कालोनी, डीएलएफ कालोनी में है, अंसल प्लाजा में है, टीडीआई में है और सरकारी बाबुओं में है। (बाबुओं से हमारा अभिप्राय प्रशासनिक सेवा अधिकारियों से है।) जैसा कि ऊपर हमने संकेत किया है कि दोनों वर्गों की अवधारणाओं में स्पष्ट ही अंतर है। एक वर्ग ऐसा है जो प्रात: काल ब्रह्ममुहर्त में समीप के मंदिर में हो रही आरती को सुनकर प्रसन्न होता है और दूसरा वर्ग ऐसा है जो उसी आरती को सुनकर नाक भौं सिकोड़ता है कि इससे सुबह की नींद में खलल पड़ता है। यह वही वर्ग है जो रामजन्मभूमि पर मंदिर बनाने को नकार कर वहां एकता के लिए पार्क बनाने का सुझाव देता है। लेकिन वह यह नहीं जानता कि पार्क से उपजी एकता एक ही खुरचन में खत्म हो जाती है। आरती से उपजी एकता लंबे अरसे तक चलती है। अंग्रेजी अखबारों और भारतीय भाषाओं के अखबारों द्वारा इस राष्ट्रीय महा सभा पर की गई रपट उनकी प्राथमिकता भी निश्चित करती है। अंग्रेजी मीडिया के लिए भारतीयता से जुड़ी चीजें और क्रियाकलाप अंग्रेजों द्वारा स्थापित सभ्यता और जीवन पध्दति में खलल पैदा करती है।

उड़ीसा के कंधमाल की घटना-उड़ीसा के कंधमाल में क्रिसमस की पूर्व संध्या पर स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती जी महाराज पर 24 दिसंबर को ईसाई संगठनों ने घातक आक्रमण कर दिया। स्वामी जी घायल हुए और उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। स्वभाविक ही उड़ीसा के लोगों में इस पर प्रतिक्रिया हुई। उन्होंने 4 घंटे का शांतिपूर्ण बंद रखा। गुस्से में आए कुछ लोगों ने चर्च की कुछ झोपड़ियां भी जला दीं। इन झोपड़ियों पर सलीव का निशान भी लगा हुआ था। इसलिए इनको चर्च का जलाना कहा गया। ब्राह्मणी गांव में ईसाइयों ने दो सौ लोगों के घर जला दिए। इस घटना की रपट अंग्रेजी मीडिया और उड़िया भाषा के मीडिया में बिल्कुल अलग-अलग प्रकार से आनी प्रारंभ हुई और अभी तक आ रही है। दिल्ली में स्थित लगभग विदेशी भाषा का समग्र मीडिया (एक आध अपवाद को छोड़कर) की रपट का मुख्य स्वर निम्न प्रकार से सारणीबध्द किया जा सकता है।

1. उड़ीसा में ईसाइयों पर अत्याचार हो रहे हैं। उनके घरों को जलाया जा रहा है और चर्च फूंके जा रहे हैं।

2. सरकार ईसाइयों की रक्षा करने में बुरी तरह असफल रही है।

इसके विपरीत उड़ीसा के उड़िया भाषी समाचार पत्रों यथा-संवाद, समाज, धरित्री, प्रजातंत्र, अमरी कथा, उड़ीसा भास्कर, पर्यवेक्षक इत्यादि में कंधमाल की घटना को लेकर जो रपटें छप रही है उनका मुख्य स्वर निम्न प्रकार से है।

1. ईसाई मिशनरियां व्यापक स्तर पर उड़ीसा के जनजातीय लोगों के घरों को जला रही है। लोगों को धमकाया जा रहा है।

2. मंदिरों में तोड़फोड़ की जा रही है।

3. सरकार उड़ीसा के लोगों की ईसाई मिशनरियों के आक्रमणों से रक्षा नहीं कर पा रही।

4. ईसाई मिशनरियों के इशारे पर एक सांसद इन आक्रमणों को भड़का रहा है।

5. माओवादी और चर्च उड़ीसा के लोगों पर आक्रमण करने में आपस में मिल गए हैं।

6. जनजाति के लोगों पर आधुनिक हथियारों से आक्रमण किये जा रहे हैं।

विदेशी भाषा के मीडिया की प्राथमिकताएं और भारतीय भाषाओं के मीडिया की प्राथमिकताएं अलग-अलग हैं। उदाहरण के लिए जब किसी मंदिर में लोग भजन कीर्तन के लिए एकत्रित होते हैं तो भारतीय भाषा के मीडिया के लिए यह भक्ति का ज्वार उमडना है लेकिन अंग्रेजी मीडिया के लिए यह शोर शराबा और सामान्य जीवन में होने वाला खलल है। उसका कारण शायद भारत में अंग्रेजों के शासन काल से ही खोजना होगा। अग्रेजों के लिए मंदिर के भीड खलल भी है और खतरा भी है। उसी मानसिकता को आज तक विदेशी भाषा अंग्रेजी का मीडिया ढो रहा है और इसी प्राथमिकता के आधार पर अंग्रेजी मीडिया किसी भी घटना की रपट करता है।

इस मानसिकता और प्राथमिकता का एक और कारण भी है। जिन दिनों अंग्रेज इस देश पर राज करते थे, वे यहां के भारतीय समाज को अपने लिए खतरा समझते थे और मुस्लिम समाज एवं ईसाई समाज को अपना पक्षधर मानते थे। इसलिए बहुसंख्यक भारतीय समाज का कोई भी कृत्य उनकी दृष्टि में निंदनीय और ईसाई व मुस्लिम समाज के लिए खतरनाक माना जाता था। अंग्रेजी मीडिया आज भी उसी मानसिकता को ढो रहा है। यही कारण है कि गुजरात का जननिर्णय,रामसेतु को लेकर हुई राष्ट्रीय महासभा और उडिया अस्मिता के लिए संघर्षरत ओडिया लोग अंग्रेजी मीडिया की दृष्टि में खतरनाक कृत्य हैं और मुस्लिम व ईसाई समाज के हितों के विपरीत हैं।

सारत: विदेशी भाषा के मीडिया की जडें ब्रिटिश शासनकाल की मानसिकता में गहरे धंसी हुई हैं। इसके विपरीत भारतीय भाषाओं के मीडिया की जडें उसी संघर्ष में से उपजी हैं जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ आम भारतीय ने किया था।

(लेखक हिंदुस्‍थान समाचार एजेंसी से जुडे हैं)

सूचना का अधिकार और पारंपरिक जनसमाज

लेखिका- डा. स्मिता मिश्र

लोकतांत्रिक व्यवस्था को समृद्ध और सुरक्षित बनाने के लिए नागरिकों के अधिकारों में एक और अधिकार जुड़ गया है; `सूचना पाने का अधिकार।´ इसका अर्थ है कि प्रत्येक नागरिक को अपने जीवन के लिये जरूरी सूचना प्राप्त करने का अधिकार है। ऐसा माना जा रहा है, इस अधिकार से जहां शासन की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता आने की संभावना है वहीं नागरिकों की लोकतांत्रिक सक्रियता बढ़ाने का सर्वाधिक कारगर उपाय भी सिद्ध होगा।

भारतीय पारंपरिक ग्रामीण जनसमाज जहां सूचना का अधिकार तो दूर की बात है `अधिकार´ शब्द की ही व्याप्ति नहीं है। और यदि है तो वह प्रभुता संपन्न लोगों तक ही सीमित है। तो यह सोचने की बात है कि `सूचना का अधिकार´ नामक कानून किस तरह उन लाखों-असंख्य लोगों तक पहुंचेगा और वे लोग किस प्रकार इससे लाभान्वित हो सकेंगे! लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि कस्बों और गांवों के लोग नगरों या महानगरों से जागरूक नहीं होते। कस्बों और गांवों से ही अनेक नेता निर्वाचित होकर शहरों में आते हैं, विचार मंथन में शिरकत करते हैं और उसका प्रभाव लेकर वापिस गांव या कस्बे लौटते रहते हैं तो उन्हें भी अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए वहां के लोगों में विचार-मंथन निष्कर्षों को संप्रेषित करते रहना पड़ता हैं। ग्रामीण शैक्षिक संस्थाओं के व्यक्ति पुस्तकों, समाचार-पत्रों, शहरी संपर्कों के द्वारा नयी चेतना से संपन्न होते रहते हैं। तीसरे पंचायतों में भी अब शिक्षित, विवेकवान लोग शामिल होते हैं। वे भी नये विचारों के संवाहक हो सकते हैं। इनके ही द्वारा जनता की पारंपरिक विचार जड़ता को तोड़ा जा सकता है। और विचार मंथन के क्षेत्र में जो कुछ नया हो रहा है उसकी सूचना से उसे जोड़ा जा सकता है।

अब विचारणीय है कि यह कार्य किस-किस स्वरूप में हो सकता है। ज़ाहिर है कि उपदेश या आदेश का प्रभाव स्थाई नहीं होता। जरूरत इस बात की है कि जनता को प्रीतिकर ढंग से नवचेतना की ओर उन्मुख करना है। और इस कार्य के लिये वे माध्‍यम अधिक कारगर होंगे जो जनता की पारंपरिकता से जुड़े हों। इनमें सर्वप्रथम मैं लोकगीतों की भूमिका को रूपायित करना चाहूंगी। लोकगीतों का लोकजीवन में अत्यंत व्यापक महत्व है। इनमें उनके सुख-दु:ख, अभाव-संघर्ष, समस्याएं, वर्गचेतना, वर्णचेतना, नर-नारी की अद्भुत प्रभावशाली व्याप्ति दिखाई पड़ती है। ये लोकगीत जीवन के सुख दु:ख, उल्लास-विषाद्, ऋतु मौसम, क्रिया-कलाप आदि अनेक संदर्भों से जुड़े होने के कारण संवेदना और रूप के वैविध्‍य से आभोक्ति होती है। ऐसे शक्तिशाली माध्‍यम का उपयोग नये कानून, नयी चेतना के विकास के लिये निश्चित रूप से किया जा सकता है। यहां सरकार और एनजीओ की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है कि वह लोगगायकों को फैलोशिप आदि देकर नयी चेतना के गाने बनाये और उनका प्रसार करे। जैसे एक लोकगीत में बांझ स्‍त्री अपने बांझपन के कारण घर-परिवार और समाज से प्रताडित होती है। और आत्महत्या करने के लिये नदी, बाघिन, आग आदि के पास जाती है और प्रार्थना करती है कि वे उसे मार दे किन्तु सभी यह कहकर मना कर देती हैं कि उसे मारने से वे भी बांझिन हो जाएंगी। अंत में धरती के पास जाती है। धरती तो मां है। वह उसे अपने में समा लेती है। अब यहां पर धरती के माध्‍यम से स्‍त्री की नयी ऊर्जा को जाग्रत करने का संदेश दिया जा सकता है कि धरती उस स्‍त्री को स्वाभिमान से जीने को प्रेरित करती है। बेटी ससुरा में रहिह तू चांद बनकर सबकि पुतरि के विचवा, पुरान बनकर भिनइ सबसे पहिले उठिह, ननद के मुंह से कबहु त लगिह ससुराजी के बाजे खरऊह, पानी लेके पहिले जइह। इस तरह के गीतों में जहां लड़की को ससुराल में मर्यादापालन सिखाया जा रहा है वहीं कर्तव्यबोध, आत्मसम्मान भी जाग्रत किया जा सकता है। इन गायकों के अनेक मंच हो सकते हैं। गांव-गांव में छोटे-छोटे कवि सम्मेलन, सरकार के अनुदाद से बाजार, हाट, मेला, उत्सव, स्कूल, पंचायत आदि में मजमा इकट्ठा कर अपनी बात कह सकते हैं। रेडियो, टीवी के माध्‍यम से इन गीतों को निरंतर प्रसारित किया जा सकता है। एक बहुत शक्तिशाली माध्‍यम है नुक्कड़ नाटक का। नाट्य मंडलियां जगह-जगह नुक्कड़-नाटक आयोजित कर नयी चेतना का प्रसार करती रहती है। ये मंडिलियां देहात जाकर नये अधिकार, नये कानून का प्रचार प्रसार करने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। इसी प्रकार कठपुतली या बंदरों का खेल तमाशा में लोककथा का प्रसार होता है। इस लोककथा के ढांचे भी पारंपरिक स्वर के स्थान पर नये स्वर को प्रमुखता दी जा सकती है। इसके लिये सरकारी तंत्र इन लोक कलाकारों को आर्थिक रूप से सहायता करके प्रचार माध्‍यम के रूप में प्रयोग कर सकती है। पंचायत का भी विभिन्न तरीकों से इस्तेमाल हो सकता है। पंचों को सरकार नयी सूचनाओं से अप-टु-डेट करे। उनके वर्कशॉप हों ताकि वही पंच गांव को नयी सूचनाओं से अप-टू-डेट कर सके। इस अवसर पर आगे-पीछे मनोरंजक माध्‍यमों का प्रयोग किया जा सकता है। यहां फिल्म भी दिखाई जा सकती है। फिल्म एक अत्यंत सशक्त माध्‍यम है। ऐसी फिल्में जहां ग्रामीणों ने, महिलाओं ने एकजुट होकर अपने हक की लड़ाई लड़ी हो चाहे वह मंथन हो, लगान हो या मिर्च मसाला।

इसी प्रकार समाचार पत्रों की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण है। जैसे कुछ वर्ष पहले मध्‍यप्रदेश के टीकमगढ़ जिले की पीपरा बिमारी ग्राम पंचायत की अनुसूचित जाति की सरपंच गुंदिया बाई को वहां के प्रभावशाली लोगों ने स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फहराने से रोकने पर वहां समाचार पत्रों ने इस घटना को भरपूर प्रचारित किया। परिणामस्वरूप आगामी स्वतंत्रता दिवस पर मुख्यमंत्री ने स्वयं गुंदिया बाई के हाथों टीकमगढ़ जिला मुख्यालय पर झंडा फहरवाया। इस दिशा में कथित राष्ट्रीय समाचार पत्रों की अपेक्षा छोटे पत्र-पत्रिकाएं बेहतर सिद्ध हो रहे हैं। यहां एनजीओ की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। कई एनजीओ के द्वारा छोटी-छोटी जगहों से बेहतर समाचार-पत्र-पत्रिका निकाल रहे हैं। जैसे मध्‍यप्रदेश में देवास जिले से एकलव्य संस्था – `पंचतंत्र´ पत्रिका, पीआईआई `ग्रासरूट´ निकालती है। `खबर लहरिया´ समाचार पत्रा को `चमेली देवी´ पुरस्कार मिला। तब इसकी संपादक मीरादेवी व संवाददाता दुर्गा मिथिलेश आज के पत्रकारों की तरह नहीं हैं, न इनके शरीर पर ग्लैमरस ड्रेस पोशक है न मेकअप। उप अपनी जमीन की भाषा में समाचार प्रस्तुत करने का जो अंदाज देवगांव वह बड़े-बड़े समाचारपत्रों में नहीं दिखाई पड़ती। आज हमारे अखबारी भाषा में जो तेवर गायब होते जा रहे हैं वे यहां पूरी ताकत के साथ मौजूद हैं। इनके विषयों में जहां विकासमूलक, स्थानीय मुद्दे हावी रहते हैं, वहीं राष्ट्रीय स्तर की हलचलों से भी ये नावाकिफ नहीं रहते। इसे वायन की सहायता से भी प्रस्तुत किया जा सकता है। एफएम पर इसे डाला जा सकता है। गांववालों की ही आवाज में गांव से जुड़े मुद्दों पर सूचना प्राप्त करने, उनपर विश्लेषण करने तथा राय बनाने में ये अखबार महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इसके अतिरिक्त धार्मिक सत्संग, अभियान जत्था, स्वयं सहायता ग्रुप आदि भी सूचना के अधिकार को ग्रामीणों तक पहुंचाने में अत्यंत सहायक सिद्ध होंगे। ये नारी संबंधी मुद्दे जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, अधिकार, स्वरोजगार आदि पर जागरूकता लाने के काफी कारगर सिद्ध होंगे।

आखिर में एक कविता से बात खत्म करूंगी। आकाश से बहती है एक नदी और ऊपर ही ऊपर पी लेता कोई उसे, धरती प्यासी की प्यासी रहती है और कहने को आकाश से नदी बहती है। यदि सूचना का अधिकार नामक कानून आकाश से उतरकर प्यासी धरती तक पहुंचेगा तभी लोकतंत्र की सही पहचान होगी अन्यथा कागजी कानूनों की सूची में एक कानून और जुड़कर रह जाएगी।

(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यलय मे लेक्चरर और मीडिया विश्लेषक हैं)

रंगभूमि का नायक

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लेखक- विकास कौशिक

मैं मुन्ना भाई नहीं हूं…मुझे मेरे सामने जीते जागते महात्मा गांधी नजर नहीं आते…लेकिन सच कहूं…सपने में मुंशी प्रेमचंद से मेरी मुलाकात होती है। और सुनिये ये मामला किसी कैमीकल लोचे का नहीं मामला सचमुच इस वक्त के सबसे बड़े लोचे का है। बहरहाल आपको बताउं मुंशी जी ने मुझसे क्या कहा…वो मुझे रंगभूमि में ले गए…अरे वही रंगभूमि जिसे आप हम सभी कभी ना कभी पढ़ चुके हैं..सब कुछ याद नहीं रख सकते इसीलिए भूल भी चुके हैं। वैसे मुंशी जी अपने साथ पिछले कुछ दिनों की अखबारी कतरने लिए घूम रहे थे..बोले- यार हालात अब भी नहीं बदले…रंगभूमि में भी यही हुआ था। गरीबों की बस्ती में कई एकड़ जमीन पर मालिकाना हक रखने वाला अंधा भिखारी सूरदास अमीर पूंजीपति और स्थानीय प्रशासकों की मिलीभगत से अपनी ज़मीन गंवा देता है..सूरदास की जमीन हड़पने में मदद करने वाले सूरदास के वही पड़ोसी होते हैं जिनके भले के लिए ही सूरदास किसी भी कीमत पर अपनी जमीन देने के लिए राजी नही होता। सूरदास और उसके साथियों में फूट पड जाती है और फिर होता वही है जो किसी भी समाज में सर्वजन के हित में नहीं होना चाहिए। यानि लालच…राजनीति…क्षुद्र भावनाओं की चपेट में आकर समाज टूटता है…झूठ की जय जयकार होती है और सच अपना मुहं छिपाकर रोता है।

इसके बाद प्रेमचंद बाबू रोआंसे कम और आक्रामक ज्ञानी ज्यादा हो गए…बोले …ये सिर्फ इसी कहानी का नहीं पूरी दुनिया में होने वाली ज्यादातर ज्यादतियों का लब्बो-लुबाव है। जब आपस में प्यार से जुड़ी हुई कड़िया खुलने लगती है…जब हम एक दूसरे को खलने लगते हैं…स्वार्थों के लिए आपस में जलने लगते हैं। तब हमारा इतिहास हमारी बर्बादी की गवाही देने की तैयारी करने लगता है। हजारों साल से हिंदुस्तान के इतिहास में भी यही तो होता आया है। पहले शासक आपस में लड़कर रियासतों में बंट गए। अंग्रेज आए तो उन्हें पहले से बंटे इन रजवाड़ों को उखाड़ने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी फिर भी उन्होंने जो कोशिशें की उसे उनकी क््क्ष्ज्क्ष्क््क ॠक्् ङछक घ्क्ष्क् के रुप में प्रसिध्दि मिली। 300 सालों तक उनके शासन का इतिहास देखकर तो यही लगता है कि दुनिया में शायद ही राज करने की ऐसी कोई दूसरी नीति रही होगी।

मैंनें भी प्रेमचंद जी की हां में हां मिलाई। वो और एक्साइटिड होकर बोले….

लेकिन विकास जी मैं तो ये मानता हूं कि 300 साल तक रहे इस जुल्मी ब्रितानी शासन का श्रेय अंग्रेजो की तोड़कर राज करने की नीति को नही बल्कि हमारी टूटते जाने…बिखरकर कमजोर होते जाने और आखिर में घुटने टेक देने की रीति को जाता है।

चुप होकर एक ठंडी आह भरकर कहा ….स्साला…जब दुनिया भर में राजनैतिक सामाजिक चेतना का विकास हो रहा था तक हमारे यहां देश को अंग्रेजों के हाथों बेचने की तैयारी हो रही थी। प्लासी की लड़ाई से लेकर जिन्ना की अलग मुल्क की मांग और उसके लिए मचे खून खराबे तक हमारे इतिहास में जयचंदों की कहीं कोई कमी नहीं रही। इतिहास गवाह है कि समाज को तोड़ने वालों को बार बार विजय इसलिए मिलती रही क्योंकि हम कमजोर नहीं अपितु विभाजित थे। इसलिए अपने ही देश में हम शासक नहीं बल्कि शासित बने रहे।

हूं………मेरे मुहं से आवाज निकली। और उन्होंनें लपक ली। बोलते गए….

हम विभाजित थे इसलिए हमे हराना आसान था सो हम हारते गए और शत्रु जीतते गए…यही रंगभूमि में हुआ और यही मुल्क में।

लेकिन सुनों बाबू सिर्फ यही तस्वीर नहीं है….इसका भी दूसरा पहलू है जब हमने अपनी ताकत को पहचाना और हमारी खुली और बिखरी हथेली एकजुट होकर बंद मुठ्ठी बन गई तब हमें देश की आजादी भी मिल गई। ये एकता का ही प्रभाव है कि आजादी की लड़ाई लड़ने और जीतने का श्रेय हमें धर्म जाति के नाम पर तोड़ने वाली किसी मुस्लिम लीग या हिंदू महासभा को नहीं बल्कि महात्मा गांधी की राष्ट्रीय एकता को बल देने वाली शक्ति को जाता है। एकता की सफलता का ये इतिहास सिर्फ हमारा नहीं वरन दुनिया भर में एक झंडे के तले इकठ्ठा होकर अपना हक मांगने के लिए लडी लड़ाइयों का गर्वीला अतीत है। चाहें फ्रांसीसी क्रांति हो या रुस की बाल्शेविक क्रांति या फिर रंगभेद के खिलाफ दुनियाभर में चले आंदोलन।

पुरानी बातें कहते कहते अचानक उनका हाथ झोले में कुछ पुरानी आखबारी कतरनों की तरफ चला गया मुझे दिखाते हुए बोले और ये देखो हालिया ही..हमारे पड़ोसी नेपाल में जनता का राजशाही के खिलाफ चला जन आंदोलन …और ये देखो पाकिस्तान में लोग कैसे मुर्शरफ के पुतले जलाकर जस्टिस चौधरी जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं…देखो इन्हें सिया सुन्नी के नाम पर बंट जाने वाले लोग कैसे जस्टिस चौधरी यानि लोकतंत्रवाद के लिए निरंकुश ताकत के सामने कैसे खड़े हो गए हैं।

जान लो बेटा…दुनिया भर में किसी भी जनआंदोलन को तभी सफलता मिली जब पूरा जनसमुदाय पूरे मन से उसका हिस्सा रहा। सियासतदानों ने चाहे जितना कुचलने की कोशिश की हो लेकिन एक एक से ग्यारह होने वालों के सामने उनकी बारुदी तोपे भी ज्यादा टिक नहीं सकी।…

अब तक मैं भी प्रेमचंद जी के साथ फ्रेंक हो चुका था…लगा अपना भी साहित्य ज्ञान बघार लूं..तो मैंने भी बचपन से सुनी कहानी ठोंकते हुए बोला…सर आप ठीक कह रहे हैं…लेकिन परेशानी ये है कि हम कुछ याद नहीं रखते अब देखिये ये कहानी कितनी फेमस थी जिसमें एक किसान अपने लड़ते झगड़ते रहने वाले लड़को को एकता का सबक सिखाने के लिए उन्हें पहले एक एक लकड़ी को तोड़ने को देता है और फिर लकडियों को एक गठ्ठर में मजबूती से बांधकर उन्हें ये बताता है कि जब आप एक साथ हो तो इन लकडियों की तरह कोई आपको भी नहीं तोड़ पायेगा।और तो और पचतंत्र में भी कहा गया है कि एकता से कार्य सिध्द होते हैं। लेकिन अफसोस हमारी पुरानी पीढ़ी ने अपने वक्त की इन कहानियों से कुछ नहीं सीखा….मैंने कहा।

अचानक प्रेमबाबू को ताव आ गया…तुनक कर बोले ..बस कर दी ना हताशों वाली बात…पुरानों को गरियाकर अपना पल्ला झाड़ लिया ना। मैं तुमसे पूछता हूं। तुम्हारी पीढ़ी ने क्या सीखा..लगान देखकर..बहुत सीटियां बजाई थी सिनेमा हॉल में बैठकर। वाह, क्या चमत्कारिक कहानी थी…सिर्फ एकीकरण की ताकत के आधार पर दबे कुचले किसानों ने अंग्रेजो को उन्हीं के खेल में हरा दिया था। बोलो हीरो… क्या ये एकता की ताकत का उदाहरण नहीं है जो किसी को भी मजबूती से किसी के भी सामने खड़ा सिखा दे।

कहकर वो थोड़े नर्म हो गए….बेटा…पीढ़ी नई हो या पुरानी वो ना कहानियों से सीखती है और ना ही गलतियों से। इसी का नतीजा है कि तीन सौ सालों तक गुलाम रहने के बावजूद कभी द्रविड़ राज्यों में भाषा के नाम पर ,कभी दूसरे राज्यों में धर्म.जाति के नाम पर आपस में लड़ते रहते हो। हाल ही में उत्तर भारत को हिला कर रखने वाले गुर्जर मीणा आरक्षण विवाद और डेरा सच्चा सौदा -अकाल तख्त विवाद जैसी घटनाएं क्यूं सामने आई…क्या तुम्हारी धार्मिक भावनाएं,तुम्हारे विश्वास आस्था इतनी कमजोर हैं कि कोई भी अपने ढ़ंग से कोई बात कहें तो तुम्हें अपने धर्म समाज पर आंच नजर आने लगती हैं तुम लड़ने मरने को तैयार हो जाते हो…क्यूं आरक्षण जैसी व्यवस्थाएं देश के एकीकरण से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है।

शायद इसलिए कि हमारे लिए तत्काल लाभ ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं…दूरगामी दृष्टि का पतन हो जाता है…मेरे मुंह से निकल गया।

ठीक कह रहे हो…इसी चक्कर में सब भूल जाते हैं, कि विकास, आधुनिकीकरण और आकांक्षाओं की अंधी उडान ने तुमसे तुम्हारे परिवार भी छीन लिए हैं। एकता की भावना हमारे समाज से ही नहीं हमारे परिवारों से भी लुप्त होती जा रही है…न्यूकिलीयर फैमिली…यही कहते हो ना तुम। हम दो हमारे दो…और मां-बाप को गोल कर दो। यही एजेंडा होता है ना तुम्हारा। अरे तम्हारी इसी सोच ने सब कुछ छीन लिया है तुमसे। बुर्जुगों का आशीर्वाद ,उनकी छाया,प्यार सब कुछ। और नतीजा सामाजिक पारिवारिक बिखराव के रुप में तुम्हें हर कहीं मिलेगा।क्या सचमुच ये विभाजन से जन्मा पतन नहीं है।क्या ये पतन हमें उन्ही पुरानी गलतियों की तरफ नहीं धकेल रहा जिनकी वजह से कभी हम गुलाम हुऐ थे…क्या समाज टूटने के कारण तब कुछ अलग थे …नहीं बिल्कुल नहीं सच बिल्कुल अलग है। दरअसल हम भूल गए थे कि जहां आपस में संघर्ष होने लगता है वहां समाज टिक नहीं पाता। इसलिए अपने विद्वान पूर्वजों ने भी भी चेतावनी दी है कि जिस प्रकार जंगल में हवा के प्रकोप से एक ही वृक्ष की शाखाएं आपस में रगड़ कर अग्नि पैदा करती है और उसमें वो वृक्ष ही नही वरन पूरा वन ही जलकर भस्म हो जाता है। उसी प्रकार समाज भी आपसी कलहाग्नि और द्वेषाग्नि से भस्म हो जाता है। जहां आपसी कलह है वहां शक्ति का क्षय अवश्यभामी है। क्या तुम अंदाजा भी लगा सकते हो आज तक देश में जितने दंगे और विवाद हुए हैं उनमें कितने रुपयों की हानि हुई होगी…उतने पैसे में जनकल्याण और तरक्की के कितने काम हो सकते थे…

ये सोचने से पहले ही मेरा दिमाग चकरा गया…

उन्होंनें फिर बोलना शुरु किया’——

इन्ही सब वजहों से देश पहले कमजोर हुआ था और कमजोरों को दबाने लूटने की इच्छा सभी को होती है। पहले भी कोई राज्य अपने पड़ोसी पर आक्रमण होने पर मदद के लिए ना दौड़ता था…और ना ही आज हम दौडते हैं। और तुम अपनी क्यों नही कहते…सड़क चलते किसी ऑटो शिव खेड़ा का कथन देखते हो….यदि आपके पडोसी पर अत्याचार हो रहा है और आपको नींद आ जाती है तो अगला नंबर आपका है —पढ़ते ही कितना सोचते हो…कितना जोश में आ जाते हो…और कुछ मिनटों बाद जब बस में कोई कंडक्टर किसी मामूली से बात पर किसी सहयात्री को बेइज्जत करता है, मारपीट करता है या उसे बस से उतारने पर आमादा हो जाता है तो तुम्हें क्या हो जाता है…क्यूं तुम उसका साथ नहीं देते।

क्या ये नपुंसकता…ये एकता का अभाव ये सामाजिक बिखराव,अपनी और पराई पीर के बीच का ये विभाजन हमारे पतन के लिए जिम्मेदार नहीं है। खैर छोड़….वैसे एक बात और बताता हूं…आजकल तुम्हारे यहां ये सोशल इंजीनियरिंग बहुत पॉपुलर हो रहा है….उन्होंनें फिर गहरी सांस ली और अपने आप से बुदबुदाते हुए बोले …ठाकुर का कुआं लिखते वक्त मैने कुछ गलत नहीं सोचा था वाकई सोशल इंजीनियरिंग कमाल की चीज है।

ठाकुर का कुंआ से सोशल इंजीनियरिंग का क्या ताल्लुक् है… मैने पूछा ।वो बोले मेरे लाल…ठाकुर के कुएं से दलितो और शाषितों ने स्वर्णो के साथ मिलकर पानी निकाला था…ठीक वैसे ही जैसे मायावती ने सरकार बना ली। जब उन्हें तिलक तराजू और तलवार को जूते मार कर कुछ नहीं मिला तो एकछत्र राज की खातिर सबको गले लगा लिया…सबको साथ लेकर चलने का फार्मूला अपना लिया।नतीजा सबके सामने है…आज वो अपनी पसंद का राष्ट्रपति बनाने की स्थिति में है…हो सकता है कल खुद प्रधानमंत्री बनने की हैसियत में हो।

मैंने सोचा सच है। वक्त बदला है ,समाज बदला है हम ना बदले तो मिट जायेंगे।

ठीक सोच रहे हो….. ऐं…..ये तो सोचते को भी पकड़ लेते हैं…

पर अब वो फिर बोलने के मूड़ में थे…बोले …बिन सहकार नहीं उध्दार,सब साथ नहीं चलेंगे तो भला कैसे होगा। तुलसीदास जी ने कहा था– गगन चढ़हि रज पवन प्रसंगा। यानि हवा का साथ पाकर घूल का कण भी आसमान छू लेता है। ना मालूम हम में से कौन कौन धूल का कण हो और कौन हवा का झोंका।अगर आसमान छूना है तो सबको एक दूसरे का साथ देकर आगे बढ़ना होगा।तभी सूरज उगेगा तभी उम्मीदों का सवेरा होगा।

सूरज के सातों रंग मिलते हैं एक साथ —तभी होता है प्रकाश।

इकाइयों से खिसककर दहाइयों, सैंकडो हजारों में ,जब होती है एकाकार, तभी तो होता है, राष्ट्रीय एकता का जीवंत प्रतिबिंब साकार।

ये कहते ही जोर की हवा चली और मुंशी जी साकार से निराकार हो गये…और रंगभूमि बुकशेल्फ से मेरे मुहं पर गिरकर मुझे जगा गया।

(लेखक एक इलेक्‍ट्रॉनिक न्‍यूज चैनल से जुडे है)