Home Blog Page 3

संविधान की प्रस्तावना में शामिल ‘समाजवादी’ व ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द पर जारी सियासत के मायने

कमलेश पांडेय

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने संविधान की प्रस्तावना में बाद में शामिल किए गए दो शब्दों ‘संविधान की प्रस्तावना में शामिल ‘समाजवादी’ व ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द पर जारी सियासत के मायने’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ को ‘संविधान हत्या दिवस’ के दिन ही हटवाने की जो वकालत की है, उसके राष्ट्रीय, सामाजिक और धार्मिक मायने तो स्पष्ट हैं, लेकिन उनकी इस साफगोई ने एक बार से इन दोनों विवादास्पद शब्दों से जुड़े सियासी अंतर्विरोधों को उजागर कर दिया है। 

ऐसा इसलिए कि उनके दिए गए बयान को लेकर जहां कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के नेताओं के अलावा एनडीए की सहयोगी लोजपा ने भी होसबोले की टिप्पणी की आलोचना की, वहीं भाजपा ने होसबोले का बचाव किया है। एक सवाल कि, क्या आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में शामिल किए गए ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द वहां बने रहने चाहिए, का जवाब देते हुए केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान और डॉ. जितेंद्र सिंह ने दोनों शब्दों को हटवाए जाने के विचार का समर्थन किया है।

वहीं, होसबोले की टिप्पणी का उल्लेख करते हुए विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने कहा कि “आरएसएस का मुखौटा” “फिर से उतर गया है” और संविधान उन्हें परेशान करता है “क्योंकि यह समानता, धर्मनिरपेक्षता और न्याय की बात करता है।” गांधी ने कहा कि, “आरएसएस-बीजेपी” गठबंधन “मनुस्मृति चाहता है” और हाशिए पर पड़े लोगों और गरीबों को उनके अधिकारों से वंचित करना चाहता है। उन्होंने कहा, “उनका असली एजेंडा संविधान जैसे शक्तिशाली हथियार को उनसे छीनना है।”

वहीं, कांग्रेस के राज्यसभा सांसद जयराम रमेश ने कहा है कि 1949 से ही आरएसएस ने संविधान पर हमला किया है, संविधान का विरोध किया है। उन्होंने कहा कि संघ के लोगों ने पंडित नेहरू और आंबेडकर के पुतले जलाए थे।

वहीं, केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने कहा कि, “इन सिद्धांतों को बदनाम करने के लिए आपातकाल लागू करना एक धोखेबाज़ी भरा कदम है, खासकर तब जब आरएसएस ने अपने अस्तित्व के लिए उस समय इंदिरा गांधी सरकार के साथ मिलीभगत की थी… अब उस अवधि का उपयोग संविधान को कमजोर करने के लिए करना सरासर पाखंड और राजनीतिक अवसरवाद को दर्शाता है।”

इस प्रकार जहां कांग्रेस ने कहा कि, “ये बाबा साहेब के संविधान को ख़त्म करने की वो साजिश है, जो आरएसएस-बीजेपी हमेशा से रचती आई है। लोकसभा चुनाव में तो बीजेपी के नेता खुलकर कह रहे थे कि हमें संविधान बदलने के लिए संसद में 400 से ज्यादा सीटें चाहिए। अब एक बार फिर वे अपनी साजिशों में लग गए हैं लेकिन कांग्रेस किसी कीमत पर इनके मंसूबों को कामयाब नहीं होने देगी।” उसने साफ कहा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी की सोच ही संविधान विरोधी है। 

वहीं, सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन में शामिल लोजपा, राजग की एकमात्र सहयोगी पार्टी है जिसने होसबोले की टिप्पणी पर गठबंधन विचार के विपरीत प्रतिक्रिया दी है। लोजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एके बाजपेयी ने कहा है कि, “अगर यह मुद्दा गठबंधन के सामने लाया जाता है तो हम इसका विरोध करेंगे। हम समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के रक्षक हैं।”

इसके ठीक उलट भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने पिछले सात दशकों में संविधान और उसकी भावना से छेड़छाड़ करने के हर कृत्य के पीछे कांग्रेस का हाथ होने का आरोप लगाया और कहा कि उसे आपातकाल के लिए माफी मांगनी चाहिए। उन्होंने आगे कहा कि, “भाजपा आपातकाल के दौरान कांग्रेस सरकार द्वारा लोगों के मौलिक अधिकारों के घोर उल्लंघन और अत्याचारों का मुद्दा उठाती रही है और कांग्रेस से माफ़ी की मांग करती रही है लेकिन पार्टी माफ़ी मांगने को तैयार नहीं है और इसके बजाय मुद्दे को भटका रही है।” 

वहीं, केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने स्पष्ट कहा है कि, “सर्व धर्म समभाव भारतीय संस्कृति का मूल है। धर्म निरपेक्षता हमारी संस्कृति का मूल नहीं है। इसलिए इस पर जरूर विचार होना चाहिए कि आपातकाल में जिस धर्म निरपेक्षता शब्द को जोड़ा गया, उसको हटा दिया जाए।” वहीं, समाजवाद पर चौहान ने कहा कि सभी को अपने जैसा मानना भारतीय मूल विचार है। उन्होंने कहा कि यह विश्व एक परिवार है (वसुधैव कुटुम्बकम), यही भारत का मूल विचार है। उन्होंने कहा कि, “यहां समाजवाद की कोई जरूरत नहीं है। हम लंबे समय से कहते आ रहे हैं कि सभी के साथ एक जैसा व्यवहार होना चाहिए। इसलिए, समाजवाद शब्द की भी जरूरत नहीं है और देश को निश्चित रूप से इस बारे में सोचना चाहिए।”

वहीं, केंद्रीय राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा कि उन्हें नहीं लगता कि होसबोले की टिप्पणी पर “कोई दूसरा विचार” किया गया है। उन्होंने कहा, “होसबोले जी ने कहा है कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द 42वें संशोधन के बाद हमारी प्रस्तावना में जोड़े गए क्योंकि ये बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा नहीं दिए गए थे।” जबकि डॉ. बीआर अंबेडकर द्वारा दुनिया के सर्वश्रेष्ठ संविधानों में से एक का निर्माण किए जाने की ओर इशारा करते हुए सिंह ने कहा, “यदि यह उनकी सोच नहीं थी तो फिर किसी ने किस सोच के साथ इन शब्दों को जोड़ा।”

यह पूछे जाने पर कि क्या भाजपा ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को हटाने की मांग का समर्थन करती है, सिंह ने कहा, “कौन नहीं करना चाहता? हर सही सोच वाला नागरिक इसका समर्थन करेगा क्योंकि हर कोई जानता है कि वे मूल संविधान दस्तावेज़ का हिस्सा नहीं हैं, जिसे डॉ अंबेडकर और समिति के बाकी सदस्यों ने लिखा था।”

उन्होंने कहा, ‘‘यह भाजपा बनाम गैर-भाजपा का सवाल नहीं है, यह लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक मूल्यों के संरक्षण का सवाल है।’’

उन्होंने आगे कहा कि आपातकाल कोई अचानक किया गया परिवर्तन नहीं था बल्कि यह कांग्रेस की वैचारिक बुनियाद का परिणाम था। उन्होंने कांग्रेस पर भाई-भतीजावाद, अधिनायकवाद और अवसरवाद में डूबे रहने तथा हमेशा अपने हितों को देश के हितों से ऊपर रखने का आरोप लगाया। वहीं, प्रख्यात लेखिका तवलीन सिंह लिखती हैं कि, “भारतीय संस्कृति का मूल सर्वधर्म समभाव है, न कि धर्म निरपेक्षता। इसलिए आपातकाल के दौरान जोड़े गए धर्म निरपेक्ष शब्द को हटाने पर चर्चा होनी चाहिए।”

बता दें कि दत्तात्रेय होसबाले ने गत संविधान हत्या दिवस के दिन गुरुवार को कहा था कि ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया था। उन्होंने कहा, “आपातकाल के दौरान ही संविधान की प्रस्तावना में दो शब्द जोड़े गए। ये दो शब्द ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ हैं। ये प्रस्तावना में पहले नहीं थे।”

दत्तात्रेय होसबाले ने आगे कहा कि, “बाबा साहेब ने जो संविधान बनाया, उसकी प्रस्तावना में ये शब्द कभी नहीं थे। आपातकाल के दौरान जब मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए, संसद काम नहीं कर रही थी, न्यायपालिका पंगु हो गई थी, विपक्ष जेल यातना सह रहा था, तब ये शब्द जोड़े गए।” यही वजह है कि होसबाले ने दो टूक शब्दों में कहा, “इन्हें प्रस्तावना में रहना चाहिए या नहीं, इस पर विचार किया जाना चाहिए।” स्पष्ट है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने संविधान की प्रस्तावना से सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द हटाने की वकालत की है।

सवाल है कि आखिर संघ इन दो शब्दों को क्यों हटवाना चाहता है और इन्हें लेकर डॉक्टर आंबेडकर का क्या रुख था? तो जवाब होता कि इमरजेंसी के 50 साल पूरे होने के मौके पर नई दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में दत्तात्रेय होसबाले ने संविधान की प्रस्तावना से ‘सोशलिस्ट’ और ‘सेक्यूलर’, ये दो शब्द हटाने की मांग की और कांग्रेस से इंदिरा गांधी की सरकार के इमरजेंसी लगाने के फैसले को लेकर माफी मांगने की भी मांग की। उन्होंने कांग्रेस पर तंज करते हुए कहा कि उस समय जो लोग यह सब कर रहे थे, वह आज संविधान की कॉपी लेकर घूम रहे हैं।

इस प्रकार देखा जाए तो संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट और सेक्यूलर, इन दोनों शब्दों को लेकर एक नई बहस भी छिड़ गई है, जबकि सुप्रीम कोर्ट की भी इस पर राय आ चुकी है कि संविधान की प्रस्तावना में छेड़छाड़ नहीं किया जा सकता है। इसलिए पूरक सवाल अब यह उठाया जा रहा है कि तब आपातकाल के दौरान संविधान के प्रस्तावना में हुए छेड़छाड़ को विलोपित किया जाए। प्रथमदृष्टया यह मांग गलत भी नहीं प्रतीत होता है।


संघ नेता होसबोले ने कहा कि इस पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या कांग्रेस सरकार की ओर से इमरजेंसी के समय संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द बरकरार रखे जाने चाहिए या नहीं? उन्होंने इन दोनों शब्दों को हटाने की वकालत की। क्योंकि 1976 में 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में ‘सॉवरेन सोशलिस्ट सेक्यूलर डेमोक्रेटिक रिपब्लिक’ शब्द जोड़ा गया था। तब देश में इमरजेंसी लागू थी।


दरअसल, संविधान की प्रस्तावना से ये शब्द हटाने की मांग के पीछे यह तर्क दिया जाता है कि इन्हें तब जोड़ा गया था, जब तानाशाही थी और सरकार की बातें ही कानून थीं। इन शब्दों को संसद में चर्चा कर जोड़े जाने की जगह थोपा गया था। दावे यह भी किए जाते हैं कि सोशलिस्ट देश के रूप में पहचान से पॉलिसी चॉइस सीमित हो जाती है। मसलन, संघ की अगुवाई वाले दक्षिणपंथी सेक्यूलर को भारत की हिंदुत्व की विरासत को नकारने जैसा मानते हैं।

वहीं, देश का एक तबका संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए इन शब्दों का समर्थन भी करता है, जो यह तर्क देते हैं कि इससे भारत की समन्वयकारी संस्कृति स्पष्ट होती और ये शब्द समाज के प्रति सरकार की जिम्मेदारी, आस्था से जुड़े विषयों पर सरकार के न्यूट्रल स्टैंड को भी दर्शाते हैं।

बता दें कि संविधान सभा में सोशलिस्ट और सेक्यूलर पर चर्चा हुई थी? बावजूद इसके सोशलिस्ट और सेक्यूलर संविधान के मूल ड्राफ्ट का अंग नहीं थे। इन शब्दों पर संविधान सभा में भी चर्चा हुई थी, क्योंकि संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द जोड़ने का प्रस्ताव रखा था। ऐसा करने वाले सदस्यों का मत था कि सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द देश की विचारधारा को प्रदर्शित करेंगे।

उल्लेखनीय है कि संविधान सभा के सदस्य रहे प्रोफेसर के टी शाह ने ये शब्द संविधान में शामिल कराने के लिए कई प्रयास किए क्योंकि उनका तर्क था कि सेक्यूलर शब्द से धर्म को लेकर न्यूट्रल रहने की प्रतिबद्धता जाहिर होगी और सोशलिस्ट शब्द आर्थिक असमानता दूर करने का उद्देश्य दर्शाएगा। इसकी प्रकार एचवी कामथ और हसरत मोहानी ने भी प्रोफेसर केटी शाह के तर्क का समर्थन किया था।

हालांकि, संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने संविधान में इन शब्दों को शामिल किए जाने का विरोध किया था क्योंकि वह सोशलिस्ट को एक अस्थायी नीति के रूप में देखते थे, संवैधानिक आदेश के रूप में नहीं। डॉक्टर आंबेडकर का यह स्पष्ट मत था कि ऐसी नीतियों को भविष्य की सरकारों पर छोड़ देना चाहिए। तब उन्होंने कहा था कि संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट का स्थायी सिद्धांत के रूप में वर्णन लोकतंत्र के लचीलेपन को कमजोर करेगा।

याद दिला दें कि तब डॉक्टर आंबेडकर ने कहा था, “राज्य की नीति क्या होनी चाहिए…यह ऐसा मामला, जिसे समय और परिस्थितियों के मुताबिक लोगों को खुद तय करना चाहिए। इसे संविधान में नहीं रखा जा सकता। ऐसा करना लोकतंत्र को नष्ट कर देगा।” तब उन्होंने यह तर्क भी दिया था कि सोशलिस्ट शब्द संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में पहले से ही शामिल है। इसलिए भी यह संविधान की प्रस्तावना में गैरजरूरी हो जाता है। 

उन्होंने प्रोफेसर केटी शाह के जवाब में दो टूक शब्दों में कहा था कि अगर नीति निर्देशक तत्व अपने डायरेक्शन और कंटेंट में समाजवादी नहीं हैं तो यह समझने में विफल हूं कि इससे अधिक सोशलिज्म क्या हो सकता है। उन्होंने कहा था कि ये सोशलिस्ट सिद्धांत पहले से ही हमारे संविधान में शामिल हैं और यह संशोधन स्वीकार करना गैर जरूरी है।


वहीं, बौद्ध धर्म मानने वाले डॉक्टर आंबेडकर का भारत के बहुसांस्कृतिकवाद में भरोसा था और सेक्यूलर को लेकर उनका मत था कि यह शब्द गैर जरूरी है। उनका तर्क था कि संविधान में मौलिक अधिकारों के माध्यम से पहले ही इसकी गारंटी दी जा चुकी है। यह प्रस्तावना के मसौदे में भी पहले से ही निहित है। डॉक्टर आंबेडकर ने सेक्यूलरिज्म की अवधारणा का नहीं, इसके उल्लेख का विरोध किया। उनका मत था कि संविधान की संरचना इस सिद्धांत को बरकरार रखती है और राज्य सभी धर्मों के समान व्यवहार सुनिश्चित करेगा। यह सुनिश्चित किया जाएगा कि बिना किसी लेबल के किसी के भी साथ भेदभाव न हो।


वहीं, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की इमेज एक कट्टर समाजवादी और सेक्यूलरिज्म के समर्थक नेता की है। उन्होंने सभी के लिए धार्मिक स्वतंत्रता की वकालत करते हुए कहा था कि इसमें उन लोगों की स्वतंत्रता भी शामिल है, जिनका कोई धर्म नहीं है। नेहरू ने भी सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द को प्रस्तावना में शामिल किए जाने की पैरवी नहीं की क्योंकि नेहरू का यह मानना था कि संविधान की संरचना हर धर्म के लिए सम्मान के साथ ही कल्याणकारी राज्य सुनिश्चित करती है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि संविधान निर्माता आंबेडकर और आधुनिक भारत के निर्माता व प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू, दोनों के ही मत इस विषय पर एक समान थे। उन दोनों का ही यह स्पष्ट मत था कि संविधान को रूपरेखा तय करनी चाहिए, निश्चित नीति नहीं। यही वजह है कि जब 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द के बिना प्रस्तावना को अंगीकार किया तो फिर सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द प्रस्तावना में क्यों जोड़े गए? 

उल्लेखनीय है कि इंदिरा गांधी की अगुवाई वाली सरकार ने 1976 में संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द जोड़े। उनके इस फैसले के पीछे कल्याणकारी राज्य के प्रति राज्य की प्रतिबद्धता को उद्देश्य बताया गया। साथ ही यह तर्क भी दिए गए कि गरीबी हटाओ के लिए सरकार की प्रतिबद्धता को यह दर्शाता है। तब सरकार की ओर से यह भी कहा गया था कि संविधान के मूल उद्देश्य को दर्शाने, धर्म को लेकर तटस्थ रुख मजबूत करने के लिए सेक्यूलर शब्द जोड़ा गया। 

हालांकि, यह संशोधन रेट्रोएक्टिव तरीके से 26 नवंबर 1949 की तारीख से लागू किया गया जिसे बाद में आलोचकों ने चुनौती भी दी। इमरजेंसी के बाद 1977 में चुनाव हुए और जनता पार्टी की सरकार बनी। तब भी परवर्ती सरकार ने 42वें संविधान संशोधन के कुछ भाग हटा दिए लेकिन सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द बरकरार रखे गए।


कुछ यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने डॉक्टर बलराम सिंह बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस में पिछले ही साल (2024 में) ही सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द संविधान की प्रस्तावना में शामिल किए जाने को दी गई चुनौती खारिज कर दी थी। तब सर्वोच्च न्यायलय ने अपने फैसले में कहा कि संविधान एक जीवंत दस्तावेज है और इसमें संसद संशोधन कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि समय के साथ भारत ने सेक्यूलरिज्म की अपनी व्याख्या का विकास किया है। इसमें राज्य न तो किसी धर्म का समर्थन करता है और ना ही किसी धर्म को दंडित करता है। यह सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 में निहित हैं। 

बता दें कि इससे पहले 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि प्रस्तावना, संविधान का अभिन्न अंग है और अनुच्छेद 368 के तहत इसमें भी संशोधन किए जा सकते हैं, बशर्ते मूल ढांचे का उल्लंघन न हो। यही वजह है कि केंद्र की सियासत में हिंदूवादी मानी जाने वाली पार्टी बीजेपी के मजबूत उभार के बाद सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द को लेकर बहस और तेज हो गई है, जिसकी राजनीति भी समाजवाद के सिद्धांतों पर ही आधारित है। 

साल 2015 में नरेंद्र मोदी सरकार सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द के बिना संविधान के प्रस्तावना की एक तस्वीर का इस्तेमाल किया था। तब केंद्रीय मंत्रियों ने इस फैसले का बचाव करते हुए कहा था कि इन शब्दों पर बहस होनी चाहिए। कुछ दक्षिणपंथी विचारक यह तर्क देते हैं कि सेक्यूलर शब्द छद्म धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देता है।
बीजेपी इसे तुष्टिकरण बताती है जबकि कांग्रेस का तर्क है कि यह शब्द समानता और एकता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को व्यक्त करता है। यह शब्द संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप हैं। 

कांग्रेस के नेता यह भी कहते हैं कि संघ और इसके समर्थक सेक्यूलरिज्म को भारत पर हिंदुत्व थोपने के अपने एजेंडे का जवाब मानते हैं। सवाल है कि यदि ऐसा है भी तो उसमें गलत क्या है? 

देखा जाए तो ‘भारतीय संसद’ एक ‘सजीव’ संस्था है जबकि ‘भारत का संविधान’ एक ‘निर्जीव’ पुस्तक मात्र ! जैसे वैदिक भारत के नियम कानून संहिता ‘मनुस्मृति’ को भारत का समकालीन एक वर्ग अप्रसांगिक करार दे चुका है, वैसे ही प्रबुद्ध भारत का एक तबका ‘भारत के संविधान’ को देशी-विदेशी षड्यंत्रों का स्रोत/वाहक समझता है। निर्विवाद रूप से इसमें कुछ सच्चाई भी है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट का यह तर्क कि ‘भारत का संविधान’ की मूल आत्मा/प्रस्तावना को बदला नहीं जा सकता है, पूर्वाग्रह प्रेरित दृष्टिकोण है!

चूंकि भारतीय संसद (विधायिका), सुप्रीम कोर्ट (न्यायपालिका), केंद्रीय सचिवालय (कार्यपालिका) और आकाशवाणी/दूरदर्शन (खबरपालिका) की कार्यप्रणाली पर यदि गौर किया जाए तो प्रथम तीन की आंतरिक रस्साकशी और निज श्रेष्ठता बोध ने भारतीय लोकतंत्र का बंटाधार कर दिया है! ये संस्थाएं समग्र लोकहित/राष्ट्रहित को साधने की बजाय वर्ग हित/निज संस्थान समूह हित को साधने का पर्याय बनकर रह गई हैं। भारतीय संविधान और लोकतंत्र की आड़ में इन सबने ऐसे ऐसे ऊलजलूल तर्क गढ़े हैं कि नियम-कानून भी अघोषित पक्षपात को समझकर शरमा रहे होंगे लेकिन इन सबका बाल हठ बदस्तूर जारी है जबकि देश की आजादी वृद्धावस्था में प्रविष्ट हो चुकी है।

एक पत्रकार और बुद्धिजीवी के रूप में जब मैं इनकी सभी गतिविधियों का अवलोकन करता हूँ तो यह स्पष्ट आभास होता है कि ये लोग आम भारतीयों से अलग और अभिजात्य वर्ग बन चुके हैं ! नियम कानून की गलत व्याख्या करके इनलोगों ने अपनी पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित कर लिया है लेकिन आम आदमी की जिंदगी को इन लोगों ने लगातार असुरक्षित बनाया है। बानगी स्वरूप सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगा कि जाति आधारित आरक्षण की सोच, धर्म आधारित अल्पसंख्यकवाद की समझ, भाषा आधारित क्षेत्रीयता की भावना को इनलोगों ने जिस तरह से बढ़ावा दिया है, उससे भारत और भारतीयता दोनों निरंतर कमजोर हो रही है। 

लेकिन कहा जाता है कि ज्यों ज्यों दवा की, मर्ज बढ़ता ही गया। लगभग 8 दशकों के भारत के संविधान में हुए 105 से अधिक संशोधन इस बात की चीख-चीख कर गवाही देते हैं। वहीं भारतीय संविधान व नियम कानून से जुड़े ज्वलंत पहलुओं पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय के जो दिशा निर्देश आए हैं, वह भी वैचारिक कसौटी पर शतप्रतिशत खरे नहीं उतरते। 

सबसे पहले भारत की संसद को यह समझना होगा कि संविधान की नौंवी अनुसूची उनकी सियासी अधिनायकता के अलावा कुछ नहीं है। वहीं सुप्रीम कोर्ट को यह मानना पड़ेगा कि कोई भी नियम कानून शाश्वत सत्य नहीं होगा, जबतक कि वह व्यवहार में ईमानदारी पूर्वक अमल में नहीं लाया जाएगा। इस नजरिए से कार्यपालिका की अधिकांश कड़ियां अविश्वसनीयता के कठघरे में खड़ी हैं। रही बात स्वतंत्र खबरपालिका की, तो देश-काल-पात्र की कसौटी पर सम्पादकीय विवेक का मर जाना आधुनिक युग की सबसे बड़ी त्रासदी है। 

यही वजह है कि विधायी विवेक, न्यायिक विवेक और प्रशासनिक विवेक का समुचित पोस्टमार्टम नहीं हुआ और न ही जनमत कायम हो पाया जिसके लिए किसी भी लोकतंत्र में मीडिया को स्वतंत्र बताया जाता है। यक्ष प्रश्न है कि यदि लाखों/करोड़ों की संपत्ति रखने वाले और ऊंचे सरकारी/निजी ओहदे पर बैठे हुए लोग भी यदि दलित, ओबीसी, गरीब सवर्ण हैं और आरक्षण का वंशानुगत लाभ उठा रहे हैं तो फिर तर्क के लिहाज से कहने को कुछ शेष नहीं बच जाता। 

इसी प्रकार करोड़ों की आबादी वाले लोग यदि धार्मिक अल्पसंख्यक हैं, धर्मनिरपेक्ष देश में धार्मिक अनुदान मुंह देख देख कर देना यदि वैधानिक है तो फिर संविधान की ऐसी मनमानी व्याख्या करने-करवाने के लिए हमारी संसद व सर्वोच्च न्यायपालिका दोनों समान रूप से दोषी हैं और इनको खुली छूट देने का मतलब भारत और भारतीयता का गला घोंटने जैसा होगा। उसी प्रकार यदि भाषा आधारित क्षेत्रीयता के पैरोकार खुद को राष्ट्र्वादी कहें तो ऐसे ही लोगों और उनके हिमायती दलों ने ही तो भारत की ऐसी दुर्गति करवाई है और आगे अभी बहुत कुछ अशुभ घटित होने की 

संभावना प्रबल है।

कमलेश पांडेय

युद्ध के बाद जश्न और मातम के निहितार्थ

डॉ घनश्याम बादल

हालांकि भारत और पाकिस्तान तथा इसराइल और ईरान के बीच युद्ध की विभीषिका शांत हो गई है और इन दो बड़े युद्धों से दुनिया कम से कम अभी तो बच गई है  मगर कोई निश्चित तौर पर यह नहीं कह सकता कि इन देशों के बीच या कहीं भी कब किस मुद्दे पर फिर से युद्ध शुरू हो जाए।

     आज हालत यह है कि दुनिया के 193 देशों में से 92  देश इस समय युद्ध की काली छाया में जी रहे हैं । किसी पर युद्ध थोप दिए गए हैं, कोई खुद युद्ध में उलझ रहा है. किसी का युद्ध अपनी सीमा से सटे हुए देश के साथ चल रहा है तो किसी का युद्ध आंतरिक व्यवस्थाओं के चलते ज़ारी है । कोई आतंकवादी संगठनों के ख़िलाफ़ लड़ रहा है तो कोई सत्ताधारी दल या सरकार को उखाड़ फेंकने में लगे विपक्षियों से लड़ रहा है । कुल मिलाकर इस समय युद्ध की काली छाया में जी रहा है विश्व।

आश्चर्य की बात यह है कि दुनिया का हर छोटा – बड़ा देश और नेता शांति की बात करता है और जानता है कि हर समस्या का हल केवल शांतिपूर्वक बातचीत की टेबल पर बैठकर ही मिलता है लेकिन फिर भी युद्ध चल रहे हैं ।

   जब युद्ध रूस एवं यूक्रेन जैसे देशों के बीच होता है तो मीडिया के माध्यम से दुनिया को पता चल जाता है फिर मीडिया पर विश्लेषण शुरू हो जाता है कोई इस पक्ष में तो कोई उस पक्ष में झुका हुआ दिखाई देता है । कोई एक पक्ष को विजयी बताने लगता है तो कोई दूसरे पक्ष की जिजीविषा एवं दम-खम के गुणगान करने लगता है लेकिन यह कहने वाले लोग बहुत कम हैं कि यह युद्ध निरर्थक मुद्दों पर बिना किसी खास कर्म के होते आए हैं और होते रहेंगे।

    ख़ैर युद्ध और मानव सभ्यता का एक दूसरे से चोली दामन का साथ रहा है जैसे-जैसे मानव ने प्रगति की उसकी इच्छाएं बढ़ती गई और इन इच्छाओं व द्वेष भाव के चलते संघर्ष शुरू हुए । यें संघर्ष छोटे-छोटे व्यक्तिगत संघर्षों से कब वर्ग, संप्रदाय, क्षेत्रों से होते हुए देशों के बीच होने लगे, यह पता ही नहीं चल पाया और देखते ही देखते दुनिया के हर कोने को युद्ध ने अपने पंजों में जकड़ लिया।

    यदि पूरी दुनिया पर नजर डाली जाए तो इस समय अधिकांश युद्ध दहशतगर्द संगठनों के कंधों पर बंदूक रखकर लड़े जा रहे हैं। ‌पाकिस्तान, सीरिया, ईरान और लेबनान जैसे देश अनेक दहशतगर्द संगठनों की फंडिंग करते हैं, उन्हें हथियार और समर्थन तथा लड़ाके उपलब्ध कराते हैं और अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु उनका चालाकी भरा उपयोग करके अपने प्रतिद्वंदी देश को तबाह करने का सपना देखते हैं । किसी हद तक ऐसे देश अपने इस कृत्य में सफल भी रहते हैं क्योंकि यदि किसी देश के साथ प्रत्यक्ष युद्ध किया जाता है तो उसमें भारी मात्रा में संसाधन एवं हथियार तो लगते ही हैं, साथ ही साथ हारने का भय और दुनिया से अलग थलग हो जाने का डर भी रहता है जबकि ऐसे संगठन जिनमें युवा एवं किशोरों को उनका ब्रेनवाश करके कभी धर्म, तो कभी क्षेत्र तथा कभी जाति अथवा मज़हब के नाम पर आसानी से ‘यूज़’ कर लिया जाता है ।

और यदि यें पकड़े या मारे जाते हैं तो उनसे किसी भी संबंध से इन्कार करने में इन देशों की सरकारों को कोई हिचक नहीं होती।  यदि भारत पाकिस्तान के संबंध में ही देखें तो सारी दुनिया को पता है कि अजमल कसाब पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के द्वारा भेजा गया  दहशतगर्द था जिसने मुंबई हत्याकांड को अंजाम दिया लेकिन उसके गिरफ़्तार हो जाने पर पाकिस्तान ने तुरंत पल्ला झाड़ लिया ।  कुछ ऐसा ही ईरान एवं लेबनान तथा सीरिया भी कर रहे हैं।  हिज्बुल्लाह, हमास या हूती जैसे संगठन आज इन देशों के लिए काम करते नज़र आ रहे हैं जिनके चलते अमेरिका के समर्थन के साथ इजरायल मध्य पूर्व के इस्लामी देशों से लगातार लड़ रहा है. अब यह लड़ाई कब तक और कहां तक चलेगी, नहीं कहा जा सकता। ‌

  दुनिया के एक कोने से युद्ध या संघर्ष ख़त्म होता है तो दूसरे कोने में शुरू हो जाता है । कहीं शासको की ज़िद एवं हठधर्मिता है तो कहीं उन्हें उखाड़ फेंकने , प्रतिशोध लेने एवं द्वेष की भावना दो देशों को भी लड़वाती है ।

ख़ैर युद्धों से दुनिया को एकदम बचा लेना आज बड़ा मुश्किल  है मगर पिछले कुछ वर्षों में युद्धों ने कुछ बड़ी विचित्र सी स्थितियां भी पैदा की हैं।

    यदि हाल के भारत-पाकिस्तान एवं ईरान इजरायल संघर्ष पर निगाह डाली जाए तो दोनों ही युद्धों के दोनों पक्ष अपने आप को विजयी बताकर जश्न मना रहे हैं । पहलगाम के दहशतगर्द हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान पर एयर स्ट्राइक की और पाकिस्तान ने भी पलट कर वार किया । जहां भारत ने केवल तीन दिन के संघर्ष में पाकिस्तान के अधिकांश एयरबेस तबाह कर दिए, उसके फाइटर जेट गिराए, वहीं पाकिस्तान ने भी भारत के छह युद्धक विमान मार डालने का दावा किया और फिर तथाकथित रूप से अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के हस्तक्षेप से अचानक युद्ध विराम के बाद पाकिस्तान ने तो विजय की खुशी में अपने सेनाध्यक्ष आसिम मुनीर को फील्ड मार्शल बना दिया.  भारत ने भी अपने लक्ष्य प्राप्त करने का ऐलान करते हुए ऑपरेशन सिंदूर को अब तक का सबसे सफल मिशन बताया है। 

इसी तरह 12 दिन के युद्ध के बाद इजरायल एवं ईरान दोनों ही पक्षों का भारी नुकसान हुआ । इज़रायल ने आक्रामक अंदाज में ईरान के वायुक्षेत्र पर कब्जे का दावा किया और वहां भारी मात्रा में बमबारी करके बहुत नुकसान पहुंचाया तो पलट कर ईरान ने भी अपनी अल्ट्रासोनिक मिसाइलों से इजराइल में तबाही मचाई. जब बात हाथ से जाती दिखी तो अमेरिका ने खुद युद्ध में कूदते हुए ईरान के परमाणु ठिकानों पर बी 2, विमान से हमला करके उसके परमाणु संस्थानों को नष्ट करने का दावा किया।  अंततः युद्ध विराम हो गया. अब इसराइल अपनी विजय का जश्न मना रहा है, ईरान अपनी जीत की खुशी में मग्न है और अमेरिका का कहना है कि उसने ईरान को परमाणु हथियार बनाने के संसाधनों से वंचित करके विजय प्राप्त की है यानी इस युद्ध के तीनों पक्ष जश्न में डूबे हैं।

      युद्ध के बाद जश्न कोई नई बात नहीं है लेकिन मातम बहुत दिनों तक चलता है. यह मातम शासको में नहीं बल्कि होता है वहां के आम नागरिकों में जिनके घर, काम धंधा एवं परिवार के सदस्य इस युद्ध की भेंट चढ़ जाते हैं , जिनकी हरी-भरी ज़िंदगी अचानक गुरबत एवं मुसीबत से भर जाती है। सरकार थोड़ा बहुत मुआवजा देकर  क्षति पूर्ति करती है मगर असली मातम तो आम नागरिकों को ही झेलना पड़ता है। ‌

   निश्चित ही युद्ध का कारण कभी एक तरफा नहीं होता. कोई कम तो कोई ज़्यादा ग़लत होता है। उदाहरण स्वरुप यदि यूक्रेन नाटो देशों से जुड़ता है तो रूस उसे सबक सिखाने के लिए युद्ध छोड़ देता है और रूस के भय से यूक्रेन पश्चिमी देशों की शरण में जाता है । भारत और पाकिस्तान अपने जन्म के साथ ही आपस में उलझना शुरू हो गए थे. पाकिस्तान यदि दहशतगर्दो के माध्यम से भारत को लगातार परेशान करता है तो भारत के ऊपर भी बलूचिस्तान एवं पख्तून स्थान में निरंतर उकसावे का आरोप लगता है । इस्राइल तो अपने जन्म से ही इस्लामी देशों से अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है । उधर इस्लामिक देशों का मानना है कि अमेरिका की शह पर इजरायल उन्हें लगातार परेशान करता है ।

अस्तु, युद्ध की ज्वाला को ईंधन हर तरफ से मिलता है। बेशक आज का युग युद्ध का युग नहीं है और आज के युद्ध प्रत्यक्ष परंपरागत हथियारों से नहीं लड़े जाते बल्कि इनमें बहुत ही विनाशकारी अस्त्रों शस्त्रों का प्रयोग किया जाता है. रासायनिक युद्ध, पानी रोक देने जैसे युद्ध और किसी देश की संस्कृति को नष्ट कर देने की युद्ध भी अब आम हो गए हैं ।

  देखें आदमी कब इन युद्धों की विभीषिका से छुटकारा पाता है और पाता भी है या फिर खुद उसमें जलकर राख हो जाता है।

डॉ घनश्याम बादल

कथावाचक, समाज और जातिवाद की राजनीति

राजेश कुमार पासी

हमारे देश में जाति-धर्म का मुद्दा राजनीति करने के लिए नेताओं को खूब लुभाता है । जैसे ही उनको ऐसा अवसर मिलता है वो उसे तुरंत लपक लेते हैं क्योंकि इस मुद्दे पर कुछ नहीं करना होता, सिर्फ लोगों को भड़काना होता है । ऐसा ही एक मुद्दा उत्तर प्रदेश की राजनीति का केंद्रीय मुद्दा बना हुआ है । इसकी वजह शायद यह है कि यूपी में पंचायतों के चुनाव होने वाले हैं । इस मुद्दे को राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव ने भी लपक लिया है क्योंकि बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं । एक यादव कथावाचक को अपनी जाति छुपाने के कारण अपमानित किया गया है और दूसरे पक्ष का आरोप है कि कथावाचक ने घर की महिला से छेड़छाड़ की थी । कौन सही है और कौन गलत है, ये तो पुलिस की जांच के बाद पता चलेगा लेकिन इस पर जबरदस्त तरीके से राजनीति शुरू हो गई है । इसका कारण यह है कि कथावाचक यादव समाज से आता है और जिस परिवार ने उसको प्रताड़ित  किया है, वो ब्राह्मण समाज से आता है । एक तरह से दो पक्षों की आपसी लड़ाई को यादव बनाम ब्राह्मण बनाया जा रहा है ।

ऐन पंचायत चुनावों के वक्त अखिलेश यादव को जातीय राजनीति करने के लिए सुनहरा अवसर मिल गया है तो वो उसे कैसे छोड़ सकते हैं । दूसरा कोई राजनीतिक दल होता तो वो भी इस मौके को भुनाने की कोशिश करता । अखिलेश यादव तो कोशिश करेंगे कि इस मुद्दे को 2027 में होने वाले विधानसभा चुनाव तक जिंदा रखा जाए, वो उसमें कितने कामयाब होते हैं, ये देखने वाली बात होगी । तेजस्वी यादव भी इस आग में तेल डाल रहे हैं ताकि विधानसभा चुनावों तक इस मुद्दे को जिंदा रखा जाए । भाजपा के लिए ये मुद्दा मुश्किल  खड़ी कर रहा है क्योंकि इसे यादवों तक सीमित न रखकर पिछड़ो और दलितों तक ले जाने की कोशिश की जा रही है क्योंकि पीड़ितों में एक दलित भी शामिल हैं। भाजपा यूपी में यादवों को भी लुभाने की कोशिश कर रही थी. अब लगता है कि भाजपा की यह कोशिश बेकार जाने वाली है। समस्या समाजवादी पार्टी की भी है क्योंकि वो ब्राह्मणों को भाजपा के खिलाफ भड़का रही थी लेकिन अब वो ब्राह्मणों के खिलाफ उतर आई है ।

                 कथा करवाने वाले परिवार का आरोप है कि कथावाचक ने अपनी जाति छुपाई थी और उनके घर की महिलाओं के साथ अभद्रता की थी । सवाल यह है कि अगर कथावाचक ने जाति छुपाई और महिलाओं के साथ छेड़खानी की तो उसे पुलिस के हवाले क्यों नहीं किया गया । कहा जा रहा है कि कथावाचक के पास से दो आधार कार्ड मिले हैं. इसका मामले से क्या मतलब है बाद में पता चलेगा । सवाल यह है कि उसकी शिखा काटने और बाल मूंडने की क्या जरूरत थी । दूसरी बात यह है कि क्या सिर्फ यादव होने के कारण उसके साथ यह व्यवहार किया गया है ।  अगर वो ब्राह्मण समाज से होता तो क्या परिवार उसके साथ ऐसा ही व्यवहार करता।  देखा जाए तो ब्राह्मण परिवार यह बर्दाश्त नहीं कर पाया कि उनके घर एक यादव कथा करने आया था । इसके पीछे यह जातिवादी  सोच नजर आती है कि भागवत कथा करना केवल ब्राह्मणों का अधिकार है । देखा जाये तो दूसरी जातियों के लोग भी यह काम कर रहे हैं और कोई एतराज नहीं करता । साध्वी ऋतम्भरा, साध्वी उमाभारती और बाबा रामदेव भी पिछड़ी जातियों से आते हैं लेकिन पूरा हिन्दू समुदाय उनका सम्मान करता रहा है।  उक्त कथावाचक वर्षों से कथा कर रहा है और लोग करवा रहे हैं.

 यहां यह भी सवाल है कि उसकी जाति का लोगों को कैसे पता नहीं चला । जाति छुपाना गलत है लेकिन हो सकता है कि कथावाचक अपने धंधे में नुकसान के भय से ऐसा कर रहा हो क्योंकि ज्यादातर लोग ब्राह्मणों से ही कथा करवाना पसंद करते हैं । उसके द्वारा जाति छुपाना यजमान परिवार के लिए धार्मिक भावनाएं आहत करने वाला हो सकता है लेकिन इतना नहीं कि कानून हाथ में ले लिया जाए । वास्तव में हिन्दू समाज की जातिवादी सोच खत्म होने का नाम नहीं ले रही है । जातिवाद के कारण भारत हजार साल गुलाम रहा लेकिन फिर भी हिन्दू समाज सुधरने का नाम नहीं ले रहा है । इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता कि जाति के आधार पर ऊंचा होने की सनक ने कुछ लोगों को इतना नीचे गिरा दिया है कि उन्हें इसका अहसास तक नहीं है । आरक्षण को कोसने वाला समाज कभी यह नहीं समझ पाता कि आरक्षण जातिवाद के कारण आया है लेकिन आरक्षण से परेशानी है और जातिवाद से आज भी प्रेम है । हिन्दू समाज को सोचना होगा कि जातिवाद के कारण ही हिंदुओं का धर्म परिवर्तन होता आ रहा है। जब लोगों को अपने ही धर्म में सम्मान नहीं मिलेगा तो वो दूसरे धर्मों की तरफ क्यों नहीं देखेंगे। इस पर हिन्दू समाज को गंभीरता से विचार करना चाहिए कि कहीं इसी जातिवाद के कारण वो एक दिन अपने ही देश में अल्पसंख्यक न बन जाये।

              भाजपा के लिए यह मुद्दा तब तक परेशानी नहीं पैदा कर  सकता जब तक यह यादव बनाम ब्राह्मण बना रहता है लेकिन समाजवादी पार्टी इसे आगे लेकर जाना चाहती है । वो इसमें दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों को जोड़ना चाहती है । सवाल यह है कि क्या अखिलेश यादव इसमें कामयाब हो सकते हैं । यादव जाति को पीड़ित बताना किसी के गले उतरने वाला नहीं है । यादव जाति यूपी की सबसे दबंग जाति है और आर्थिक रूप से किसी से कमजोर नहीं है । उत्तर प्रदेश में अगर किसी का जातीय आधार पर उत्पीड़न होता है तो वो हैं दलित और अति पिछड़ी जातियां जिनके उत्पीड़न में सवर्ण जातियों के साथ-साथ यादव और मुस्लिम भी शामिल हैं । इसलिए लगता है कि यह मुद्दा अखिलेश यादव को उल्टा भी पड़ सकता है क्योंकि यादव तो उनके पक्ष में पहले ही से एकजुट हैं लेकिन इस मुद्दे के कारण ब्राह्मण समाज उनके खिलाफ एकजुट हो सकता है । समाजवादी अभी तक प्रदेश की भाजपा सरकार को ब्राह्मणों के खिलाफ भड़का रही थी, अब वो खुद ही उनके खिलाफ मोर्चा खोलकर खड़ी हो गई है । यही कारण है कि पक्ष-विपक्ष दोनों ही इस मुद्दे पर संभल कर राजनीति कर रहे हैं ।

भाजपा की परेशानी यह है कि पिछले लोकसभा चुनावों में दलित वोट बैंक उससे छिटक गया था. अगर 2027 के विधानसभा चुनावों में दलित साथ नहीं आते हैं तो भाजपा मुश्किल में फंस सकती है । जैसे मुस्लिम और यादव समाजवादी पार्टी के पक्ष में एकजुट हैं वैसे भाजपा  के पक्ष में दलित और अन्य पिछड़ी जातियां नहीं हैं । इसकी वजह यह है कि समाजवादी पार्टी के शासन में यादवों के हाथ में सत्ता होती है और इसका बड़ा हिस्सा मुस्लिम समाज को भी मिलता है । कुछ दूसरी जातियों के वोट से मामला इधर से उधर हो जाता है । भाजपा का सबका साथ, सबका विकास उसको कोई फायदा नहीं दे रहा है क्योंकि इसमें किसी जाति या धर्म को लक्ष्य करके योजनाओं को लागू नहीं किया जा रहा है । जो सबसे ज्यादा फायदा लेने वाला मुस्लिम समाज भाजपा को वोट देने की जरूरत नहीं समझता तो इस रास्ते पर दलित समाज भी जा सकता है । 

              भाजपा की कमजोरी जातिवादी राजनीति है क्योंकि वो धर्म की राजनीति करती है । इस मुद्दे ने जातियों में नफरत पैदा करने का रास्ता खोल दिया है । भाजपा ने बंटोगे तो कटोगे का नारा लगाया था. अगर यह मुद्दा जोर पकड़ता है तो भाजपा का यह मुद्दा बेअसर साबित हो सकता है । भाजपा ने इस मुद्दे को संभालने में गलती की है क्योंकि शुरू में ही अगर कह दिया जाता कि कथावाचक के साथ गलत किया गया है. सरकार दोषियों को कानूनी रूप से सजा दिलाएगी तो मामला संभल सकता था । सवाल यह भी है कि क्या समाजवादी पार्टी तब इस मुद्दे को छोड़ देती, शायद नहीं । इस मुद्दे ने भाजपा की कमजोरी को एक बार फिर उजागर कर दिया है । पिछले 11 साल से लगातार सत्ता में बैठी पार्टी जमीनी स्तर पर जनता से कटती जा रही है । कांग्रेस वाली  बीमारी  धीरे-धीरे भाजपा  को भी घेर रही है । भाजपा का संगठन बड़ा हो रहा है लेकिन जनता में पकड़ खोता जा रहा है । 

 इस मुद्दे को भाजपा के संगठन ने वैसे नहीं संभाला है जैसे संभालना चाहिए था । उसे पता होना चाहिए कि लगातार दो चुनाव हार चुकी समाजवादी पार्टी उसे सत्ता से हटाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है । समाजवादी पार्टी जानती है कि अगर ये चुनाव भी वो हार गई तो उसके अस्तित्व का सवाल खड़ा हो जायेगा । लोकसभा चुनावों में मिली सफलता से समाजवादी पार्टी को एक नई ऊर्जा मिल गई है और वो भाजपा के खिलाफ पूरा जोर लगाने वाली है । भाजपा की समस्या यह है कि सब कुछ सरकार के भरोसे दिखाई दे रहा है, संगठन काम करता नजर नहीं आ रहा है । भाजपा के लिए संभलने का समय आ गया है ।  

राजेश कुमार पासी

जगन्नाथ रथयात्रा हादसा प्रबंधन की भूल का परिणाम

संदर्भ- जगन्नाथ पुरी की रथयात्रा में हुआ हादसा
प्रमोद भार्गव

धार्मिक उत्सवों में दुर्घटनाओं का सिलसिला खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। प्रयागराज कुंभ मेले में और इसी साल जून माह में बैंगलुरु में आईपीएल मैच में मची भगदड़ की स्मृतियां विलोपित भी नहीं हो पाईं थीं कि पुरी में चल रहे भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा में भगदड़ मचने से तीन श्रद्धालुओं की मौत हो गई और 50 से ज्यादा घायल हो गए। गुंडिचा मंदिर के पास घटी यह घटना पूरी तरह प्रशासनिक लापरवाही का नतीजा है। मंदिर में प्रवेश का रास्ता केवल एक था, बाहर जाने का मार्ग बंद कर दिया था, क्योंकि वहां से वीआईपी लोग दर्शन के लिए जा रहे थे। आम भक्तों के लिए बाहर आने का दूसरा कोई मार्ग नहीं था। इसी समय मंदिर में दो ट्रक लकड़ी और अनुश्ठान सामग्री से भरे इसी संकीर्ण मार्ग से भीतर भेज दिए गए। ट्रकों के कारण भीड़ में अफरा-तफरी मच गई और हादसा घट गया। साफ है, प्रशासनिक प्रबंधन की घोर लापरवाही के चलते श्रद्धालु हादसे के शिकार हो गए। मुख्यमंत्री मोहन मांझी ने सुरक्षा की चूक के लिए क्षमा मांगते हुए पुरी के कलेक्टर सिद्धार्थ शंकर  और एसपी विनीत अग्रवाल का अविलंब स्थानांतरण कर दिया। स्थानांतरण कोई सजा नहीं होती। वास्तव में कुंभ मेले में और आईपीएल क्रिकेट मैच में हुए हादसों से प्रशासन को सबक लेने की जरूरत थी, जिससे रथयात्रा में भगदड़ से बचा जाए।    
भारत में पिछले डेढ़ दशक के दौरान मंदिरों और अन्य धार्मिक आयोजनों में उम्मीद से कई गुना ज्यादा भीड़ उमड़ रही ह्रै। जिसके चलते दर्शन-लाभ की जल्दबाजी व कुप्रबंधन से उपजने वाली भगदड़ व आगजनी का सिलसिला हर साल इस तरह के धार्मिक मेलों में देखने में आ रहा है। साफ है, प्रत्येक कुंभ में जानलेवा घटनाएं घटती रहने के बावजूद शासन-प्रशासन ने कोई सबक नहीं लिए। धर्म स्थल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम कम से कम शालीनता और आत्मानुशासन का परिचय दें। किंतु इस बात की परवाह आयोजकों और प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं होती, अतएव उनकी जो सजगता घटना के पूर्व सामने आनी चाहिए, वह अक्सर देखने में नहीं आती ? लिहाजा आजादी के बाद से ही राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र उस अनियंत्रित स्थिति को काबू करने की कोशिश में लगा रहता है, जिसे वह समय पर नियंत्रित करने की कोशिश करता तो हालात कमोबेश बेकाबू ही नहीं हुए होते ? अतएव देखने में आता है कि आयोजन को सफल बनाने में जुटे अधिकारी भीड़ के मनोविज्ञान का आकलन करने में चूकते दिखाई देते हैं।
रथयात्रा की तैयारियों के लिए कई हजार करोड़ की धनराशि खर्च की जाती है। जरूरत से ज्यादा प्रचार करके लोगों को यात्रा के लिए प्रेरित किया जाता है। फलतः जनसैलाब इतनी बड़ी संख्या में उमड़ गया कि सारे रास्ते पैदल भीड़ से जाम हो गए। इसी बीच लापरवाही यह रही कि बाहर जाने के रास्ते को नेता और नौकरशाहों के लिए आरक्षित कर दिया गया और दो ट्रक आम रास्ते से मंदिर की ओर भेज दिए। इस चूक ने घटना को अंजाम दे दिया। जो भी प्रबंधन के लिए आधुनिक तकनीकि उपाय किए गए थे, वे सब व्यर्थ साबित हुए। क्योंकि उन पर जो घटना के भयावह दृश्य दिखाई देने लगे थे, उनसे निपटने का तात्कालिक कोई उपाय ही संभव नहीं रह गया था। ऐसी लापरवाही और बदइंतजामी सामने आना चकित करती है। दरअसल रथयात्रा में जो भीड़ उमड़ी थी, उसके अवागमन के प्रबंधन के लिए जिस प्रबंध कौशल की जरुरत थी, उसके प्रति घटना से पूर्व सर्तकता बरतने की जरूरत थी ? इसके प्रति प्रबंधन अदूरदर्शी रहा। मेलों के प्रबंधन की सीख हम विदेशी साहित्य और प्रशिक्षण से लेते हैं। जो भारतीय मेलों के परिप्रेक्ष्य में कतई प्रासंगिक नहीं है। क्योंकि दुनिया के किसी अन्य देश में किसी एक दिन और विशेश मुहूर्त्त के समय लाखों-करोडों़ की भीड़ जुटने की उम्मीद ही नहीं की जाती ? बावजूद हमारे नौकरशाह भीड़ प्रबंधन का प्रशिक्षण, लेने खासतौर से योरुपीय देशों में जाते हैं। प्रबंधन के ऐसे प्रशिक्षण विदेशी सैर-सपाटे के बहाने हैं, इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता। ऐसे प्रबंधनों के पाठ हमें खुद अपने देशज ज्ञान और अनुभव से लिखने होंगे।
प्रशासन के साथ हमारे राजनेता, उद्योगपति, फिल्मी सितारे और आला अधिकारी भी धार्मिक लाभ लेने की होड़ में व्यवस्था को भंग करने का काम करते हैं। इनकी वीआईपी व्यवस्था और यज्ञ कुण्ड अथवा मंदिरों में मूर्तिस्थल तक ही हर हाल में पहुंचने की रूढ़ मनोदशा, मौजूदा प्रबंधन को लाचार बनाने का काम करती है। जो इस रथयात्रा में देखने में आई है। आम श्रद्धालुओं के बाहर जाने का रास्ता इन्हीं लोगों के लिए सुरक्षित कर दिया गया था। नतीजतन भीड़ ठसाठस के हालात में आ गई और दुर्घटना घट गई। दरअसल दर्शन-लाभ और पूजापाठ जैसे अनुश्ठान अशक्त और अपंग मनुश्य की वैशाखी हैं। जब इंसान सत्य और ईश्वर की खोज करते-करते थक जाता है और किसी परिणाम पर भी नहीं पहुंचता है तो वह पूजापाठों के प्रतीक गढ़कर उसी को सत्य या ईश्वर मानने लगता है। यह मनुश्य की स्वाभाविक कमजोरी है। यथार्थवाद से पलायन अंधविश्वास की जड़ता उत्पन्न करता है। भारतीय समाज में यह कमजोरी बहुत व्यापक और दीर्घकालीक रही है। जब चिंतन मनन की धारा सूख जाती है तो सत्य की खोज मूर्ति पूजा और मुहूर्त्त की षुभ घड़ियों में सिमट जाती है। जब अध्ययन के बाद मौलिक चिंतन का मन-मस्तिश्क में हृस हो जाता है तो मानव समुदाय भजन-र्कीतन में लग जाता है। यही हश्र हमारे पथ-प्रदर्शकों का हो गया है। नतीजतन पिछले कुछ समय से सबसे ज्यादा मौतें भगदड़ की घटनाओं और सड़क दुर्घटनाओं में उन श्रद्धालुओं की हो रही हैं, जो ईश्वर से खुशहाल जीवन की प्रार्थना करने धार्मिक यात्राओं पर जाते हैं।

मीडिया इसी पूजा-पाठ का नाट्य रूपांतरण करके दिखाता है, यह अलौकिक कलावाद, धार्मिक आस्था के बहाने व्यक्ति को निश्क्रिय व अंधविश्वासी बनाता है। यही भावना मानवीय मसलों को यथास्थिति में बनाए रखने का काम करती है और हम ईश्वरीय अथवा भाग्य आधारित अवधारणा को भाग्य और प्रतिफल व नियति का कारक मानने लग जाते हैं। दरअसल मीडिया, राजनेता और बुद्धिजीवियों का काम लोगों को जागरूक बनाने का है, लेकिन निजी लाभ का लालची मीडिया, लोगों को धर्मभीरू बना रहा है। राजनेता और धर्म की आंतरिक आध्यात्मिकता से अज्ञान बुद्धिजीवी भी धर्म के छद्म का शिकार होते दिखाई देते हैं। यही वजह है कि पिछले दो दशक के भीतर मंदिर हादसों में लगभग 5000 से भी ज्यादा भक्त मारे जा चुके हैं। बावजूद श्रद्धालु हैं कि दर्शन, आस्था, पूजा और भक्ति से यह अर्थ निकालने में लगे हैं कि इनको संपन्न करने से इस जन्म में किए पाप धुल जाएंगे, मोक्ष मिल जाएगा और परलोक भी सुधर जाएगा। गोया, पुनर्जन्म हुआ भी तो श्रेष्ठ वर्ण में होने के साथ आर्थिक रूप से समृद्ध व वैभवशाली होगा। परंतु इस तरह के खोखले दावों का दांव हर मेले में ताश के पत्तों की तरह बिखरता दिखाई दे रहा है। जाहिर है, धार्मिक दुर्घटनाओं से छुटकारा पाने की कोई उम्मीद निकट भविष्य में दिखाई नहीं दे रही है ?

प्रमोद भार्गव

जल की बूंद-बूंद पर संकट: नीतियों के बावजूद क्यों प्यासी है भारत की धरती?  

  भारत दुनिया की 18% आबादी और मात्र 4% ताजे जल संसाधनों के साथ गंभीर जल संकट का सामना कर रहा है। भूजल का अत्यधिक दोहन, प्रदूषण, असंतुलित खेती, और जलवायु परिवर्तन इसके प्रमुख कारण हैं। सरकारी योजनाओं और नीतियों के बावजूद कार्यान्वयन और जनभागीदारी की कमी से हालात बिगड़ते जा रहे हैं। जल संरक्षण को जन आंदोलन बनाना, सूक्ष्म सिंचाई को बढ़ावा देना, जल की कीमत तय करना, और पुनर्चक्रण को अनिवार्य बनाना समय की मांग है। जब तक नीति, व्यवहार और चेतना एकसाथ नहीं बदलते, तब तक जल संकट भारत के भविष्य को चुनौती देता रहेगा।  

-डॉ. सत्यवान सौरभ

भारत की धरती पर जल का संकट एक ऐसी विडंबना बन चुका है, जिसे देखकर हैरानी होती है कि इतनी योजनाओं, घोषणाओं और नीतियों के बावजूद यह देश बूंद-बूंद के लिए क्यों तरस रहा है। जब कोई देश दुनिया की 18% जनसंख्या को समेटे हुए हो और उसके पास केवल 4% ताजे जल संसाधन हों, तो संकट की आशंका तो बनती है, पर यदि यही देश दशकों से जल संरक्षण और जल प्रबंधन की योजनाओं का ढोल पीटता हो और फिर भी सूखा, प्यास, और जलजनित बीमारियाँ उसके हिस्से में आएं — तो यह केवल प्राकृतिक संकट नहीं, यह नीति, प्रशासन और नागरिक चेतना की सामूहिक असफलता है।

भारत में पानी की स्थिति को अगर आंकड़ों की भाषा में समझें, तो भयावहता साफ़ दिखाई देती है। नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है कि भारत विश्व का सबसे बड़ा भूजल उपभोक्ता है — लगभग 25% भूजल अकेले भारत निकालता है। 11% से अधिक भूजल खंड ‘अत्यधिक दोहित’ यानी over-exploited की स्थिति में हैं। दिल्ली, बेंगलुरु, हैदराबाद जैसे 21 प्रमुख शहरों के 2030 तक भूजल समाप्त होने की चेतावनी दी जा चुकी है। वहीं दूसरी ओर, 70% जल स्रोत प्रदूषित हैं। फ्लोराइड, आर्सेनिक, नाइट्रेट और भारी धातुओं से दूषित यह जल 23 करोड़ से अधिक लोगों को प्रभावित कर रहा है। हर साल लगभग 2 लाख मौतें सिर्फ जलजनित बीमारियों से होती हैं — यह सिर्फ आंकड़ा नहीं, यह हमारी संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है।

पानी का यह संकट केवल ग्रामीण इलाकों या गरीबों तक सीमित नहीं है। 2019 में जब चेन्नई जैसे आधुनिक शहर को “Day Zero” का सामना करना पड़ा और जल ट्रेनें चलानी पड़ीं, तब यह साफ हो गया कि यह समस्या अब दरवाज़े पर नहीं, घर के भीतर आ चुकी है। और फिर भी हम इसे मौसमी समस्या मानकर हर बार भूल जाते हैं।

सवाल यह है कि नीतियाँ तो बनीं — राष्ट्रीय जल नीति (2012), जल जीवन मिशन, अटल भूजल योजना, नमामि गंगे, जल शक्ति अभियान — पर फिर भी पानी का स्तर क्यों गिरता जा रहा है? जवाब सरल है — हमारी नीतियाँ ज़मीन पर नहीं उतरतीं, और हमारे व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आता।

आज भी देश के अधिकांश किसान पानी की फिजूलखर्ची करने वाली फसलों की खेती करते हैं। पंजाब और हरियाणा जैसे जल-संकटग्रस्त राज्य में धान और गन्ने की खेती केवल इसलिए होती है क्योंकि सरकार MSP और मुफ्त बिजली देती है। नतीजा — भूजल का तेज़ी से दोहन, खेतों का क्षरण, और जल स्रोतों का खत्म हो जाना। दूसरी ओर, ड्रिप सिंचाई या स्प्रिंकलर जैसे आधुनिक जल संरक्षण उपायों की पहुंच केवल 9% खेतों तक ही सीमित है। किसान जानते हैं, पर अपनाते नहीं — क्योंकि नीति और व्यवहार में दूरी है।

शहरों की बात करें तो पाइपलाइन से लेकर टंकी तक, हर जगह लीकेज और बर्बादी का आलम है। स्मार्ट मीटरिंग अभी भी अधिकांश नगरपालिकाओं के लिए नया शब्द है। पुनः उपयोग (recycling) और वर्षा जल संचयन (rainwater harvesting) जैसे उपाय कहीं-कहीं दिखते हैं, लेकिन सामूहिक रूप से अपनाए नहीं जाते।

सबसे चिंताजनक बात यह है कि जल संकट को अब भी केवल ‘प्राकृतिक समस्या’ समझा जाता है। जबकि यह एक स्पष्ट रूप से ‘नीतिगत और नैतिक’ संकट है। जब तक यह दृष्टिकोण नहीं बदलेगा, तब तक कोई भी योजना सफल नहीं होगी।

अब समय आ गया है कि भारत पानी को “मुफ्त संसाधन” मानना बंद करे और उसे “जीवन मूल्य” की तरह देखे। इसके लिए कुछ गहन और ठोस सुधारों की आवश्यकता है। सबसे पहले, पानी की कीमत तय होनी चाहिए — चाहे वह पीने का हो, या सिंचाई का। मुफ्त पानी की संस्कृति ने उपभोग को बर्बादी में बदल दिया है। जल का मूल्य निर्धारण सामाजिक न्याय और पर्यावरणीय विवेक के बीच संतुलन साध सकता है।

दूसरा, सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों को केवल योजना पत्रों से निकालकर ज़मीनी हकीकत बनाना होगा। इसके लिए तकनीकी प्रशिक्षण, सस्ती उपलब्धता, और स्थानीय स्तर पर सहायता तंत्र बनाना होगा। तीसरा, भूजल का प्रबंधन केवल सरकार का नहीं, ग्राम पंचायतों और स्थानीय समुदायों का भी कर्तव्य होना चाहिए। अटल भूजल योजना को इस दिशा में सफल मॉडल के रूप में बढ़ाया जा सकता है।

चौथा, किसानों को केवल फसल बीमा या सब्सिडी नहीं, जल आधारित फसल मार्गदर्शन की ज़रूरत है। यह तभी होगा जब MSP का ढांचा जल संरक्षण के अनुकूल फसलों को बढ़ावा देगा। देश को ऐसे नीतिगत हस्तक्षेपों की ज़रूरत है जो किसान की आय भी बढ़ाएं और पानी की बचत भी करें।

पाँचवां, शहरों में जल पुनर्चक्रण अनिवार्य किया जाए। जो नगर पालिकाएं wastewater को recycle नहीं करतीं, उन्हें दंड और प्रोत्साहन दोनों के माध्यम से बदला जाए। बड़े भवनों में वर्षा जल संचयन अनिवार्य हो, और इसके अनुपालन की निगरानी की जाए।

छठा, बच्चों के स्कूली पाठ्यक्रम में जल संरक्षण को केवल पर्यावरण अध्याय के रूप में न पढ़ाया जाए, बल्कि व्यवहार परिवर्तन के रूप में सिखाया जाए। यदि अगली पीढ़ी जल को ‘कीमती’ माने, तो आज की प्यास भविष्य की सूखी धरती को बचा सकती है।

सातवां, जल संरक्षण को ‘जन आंदोलन’ बनाना होगा — जैसा प्रधानमंत्री ने आह्वान किया था। लेकिन यह आह्वान केवल भाषणों में नहीं, बजट और प्रशासनिक प्रतिबद्धता में दिखना चाहिए। जल शक्ति मंत्रालय को केवल नल जोड़ने वाला मंत्रालय नहीं, जल नीति, जल शिक्षा और जल चेतना का नेतृत्व करना होगा।

साथ ही, निजी क्षेत्र की भूमिका को भी समझना और बढ़ाना होगा। जल एटीएम, पाइपलाइन प्रबंधन, स्मार्ट मीटरिंग, और जल पुनर्चक्रण जैसी सेवाओं में PPP मॉडल को बढ़ावा देकर न केवल निवेश लाया जा सकता है, बल्कि तकनीकी नवाचार भी हो सकते हैं।

और सबसे महत्वपूर्ण — हमें यह समझना होगा कि जल संकट केवल वैज्ञानिकों और नौकरशाहों का विषय नहीं है। यह आम नागरिक का संकट है। हर घर, हर हाथ को यह जिम्मेदारी लेनी होगी कि पानी को बर्बाद नहीं किया जाएगा, और हर बूंद का सम्मान होगा।

जलवायु परिवर्तन के इस युग में, जब बारिश की मात्रा अनिश्चित हो गई है, और हिमालयी ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं — हमें जल को ‘अनंत’ नहीं, बल्कि ‘सीमित और नाजुक’ संसाधन मानना होगा। भारत की सांस्कृतिक परंपरा में जल को देवता का दर्जा मिला है — लेकिन विडंबना यह है कि आज वही जल नदियों में मल-मूत्र के रूप में बह रहा है, या गंदे नालों से होकर भूजल में जहर घोल रहा है।

इसलिए आज का भारत केवल ‘जल संकट’ नहीं झेल रहा, बल्कि वह अपने भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहा है। जल संकट में डूबा भारत, विकास के हर मोर्चे पर कमजोर पड़ता जाएगा — चाहे वह स्वास्थ्य हो, कृषि, उद्योग या सामाजिक समरसता।

अंततः यही कहा जा सकता है कि जल संकट केवल पानी की समस्या नहीं है — यह व्यवस्था, संस्कृति, शिक्षा और नीयत की भी परीक्षा है। यदि हमने अब भी नहीं संभला, तो इतिहास गवाह रहेगा कि हमने एक ऐसे संसाधन को खो दिया, जो जीवन का मूल था, और जिसकी एक-एक बूंद सोने से भी महंगी थी।

अब वक्त आ गया है — नीतियों की बौछार से बाहर निकलकर बूंद-बूंद बचाने के व्यवहारिक आंदोलन को अपनाने का। क्योंकि आने वाले वर्षों में ‘जल’ ही ‘राजनीति’, ‘आर्थिक ताकत’ और ‘सामाजिक न्याय’ का सबसे बड़ा मुद्दा बनने वाला है।

भारत की आर्थिक प्रगति में अब तो ईश्वर भी सहयोग कर रहा है

कुछ दिनों पूर्व भारत में दो विशेष घटनाएं हुईं, परंतु देश के मीडिया में उनका पर्याप्त वर्णन होता हुआ दिखाई नहीं दिया है। प्रथम, भारत के अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह के क्षेत्र में कच्चे तेल के अपार भंडार होने का पता लगा है, कहा जा रहा है कि कच्चे तेल का यह भंडार इतनी भारी मात्रा में है कि भारत, कच्चे तेल सम्बंधी, न केवल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाएगा बल्कि कच्चे तेल का निर्यात करने की स्थिति में भी आ जाएगा। यदि भारत को कच्चे तेल की उपलब्धि पर्याप्त मात्रा में हो जाती है तो इसका प्रसंस्करण कर, डीजल एवं पेट्रोल के रूप में, पूरी दुनिया की खपत को पूरा करने की क्षमता को भी भारत विकसित कर सकता है। भारत में विश्व की सबसे बड़ी रिफाइनरी गुजरात के जामनगर में पूर्व में ही स्थापित है। अतः कच्चे तेल के साथ साथ डीजल एवं पेट्रोल का भी भारत सबसे बड़ा निर्यातक देश बन सकता है। जैसा कि दावा किया जा रहा है, यदि यह दावा सच्चाई के धरातल पर खरा उतरता है तो आगे आने वाले समय में भारत का विश्व में पुनः “सोने की चिड़िया” बनना लगभग तय है। भारत आज पूरे विश्व में कच्चे तेल का चीन एवं अमेरिका के बाद सबसे बड़ा आयातक देश है और विदेशी व्यापार के अंतर्गत भी कच्चे तेल के आयात पर ही सबसे अधिक विदेशी मुद्रा खर्च हो रही है। कच्चे तेल का उत्पादन यदि भारत में ही होने लगता है तो न केवल इसके आयात पर होने वाले भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा के खर्च को बचाया जा सकेगा बल्कि पेट्रोल एवं डीजल के निर्यात से विदेशी मुद्रा का भारी मात्रा में अर्जन भी किया जा सकेगा। जिसके कारण, भारत में विदेशी मुद्रा के भंडार में अतुलनीय बचत एवं संचय होता हुआ दिखाई देगा और इस प्रकार भारत विश्व में विदेशी मुद्रा का सबसे बड़ा संचयक देश बन सकता है। 

वर्तमान में भारत कच्चे तेल की अपनी कुल आवश्यकता का 85 प्रतिशत से अधिक हिस्सा लगभग 42 देशों से प्रतिवर्ष आयात करता है। भारत कच्चे तेल की अपनी कुल खरीद का 46 प्रतिशत हिस्सा पश्चिम एशिया के देशों से आयात करता है। वर्तमान में भारत द्वारा कच्चे तेल एवं गैस के आयात पर 10,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक की राशि खर्च प्रतिवर्ष किया जा रहा है।

भारत सरकार के पेट्रोलीयम मंत्री श्री हरदीपसिंह जी पुरी ने जानकारी प्रदान की है कि अंडमान एवं निकोबार के समुद्री क्षेत्र में कच्चे तेल एवं गैस का बहुत बड़ा भंडार मिला है। एक अनुमान के अनुसार यह भंडार 12 अरब बैरल (2 लाख करोड़ लीटर) का हो सकता है जो हाल ही में गुयाना में मिले कच्चे तेल के भंडार जितना ही बड़ा है। गुयाना में 11.6 अरब बैरल कच्चे तेल एवं गैस के भंडार पाए गए है। इस भंडार के बाद गुयाना कच्चे तेल के उत्पादन के मामले में विश्व में शीर्ष स्थान पर पहुंच सकता है जबकि अभी ग़ुयाना का विश्व में 17वां स्थान है।  

वर्ष 1947 में प्राप्त हुई राजनैतिक स्वतंत्रता के बाद के लगभग 70 वर्षों तक भारत की समुद्री सीमा की  क्षमता का उपयोग करने का गम्भीर प्रयास किया ही नहीं गया था। हाल ही में भारत सरकार द्वारा इस संदर्भ में किए गए प्रयास सफल होते हुए दिखाई दे रहे हैं। अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह के समुद्री क्षेत्र में कच्चे तेल एवं गैस के भारी मात्रा में जो भंडार मिले हैं उनका अन्वेषण का कार्य समाप्त हो चुका है एवं अब ड्रिलिंग का कार्य प्रारम्भ किया जा रहा है। ड्रिलिंग का कार्य समाप्त होने के बाद कच्चे तेल एवं गैस के भंडारण का सही आंकलन पूर्ण कर लिया जाएगा। अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में आधारभूत संरचना का विकास भी बहुत तेज गति से किया जा रहा है। इंडोनेशिया के सुमात्रा क्षेत्र के समुद्रीय इलाकों से भी भारी मात्रा में कच्चा तेल निकाला जा रहा है तथा भारत का अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह भी इंडोनेशिया से कुछ ही दूरी पर स्थित है। इसके कारण यह आंकलन किया जा रहा है कि अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह के समुद्रीय क्षेत्र में भी कच्चे तेल एवं गैस के अपार भंडार मौजूद हो सकते है। हर्ष का विषय यह भी है कि इस क्षेत्र में कच्चे तेल एवं गैस के साथ साथ अन्य दुर्लभ भौतिक खनिज पदार्थों (रेयर अर्थ मिनरल/मेटल) के भारी मात्रा में मिलने की सम्भावना भी व्यक्त की जा रही है। भारी मात्रा में मिलने जा रहे कच्चे तेल के चलते भारत अपनी परिष्करण क्षमता को बढ़ाने पर विचार कर रहा है। चूंकि चीन ने कुछ दुर्लभ भौतिक खनिज पदार्थों का भारत को निर्यात करना बंद कर दिया है अतः भारत के अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में इन पदार्थों का मिलना भारत के लिए बहुत बड़ी खुशखबर है। पूर्व में भी भारत में कच्चे तेल एवं गैस के भंडार का पता चला था, जैसे बॉम्बे हाई, काकीनाड़ा, बलिया एवं समस्तिपुर, आदि। इन समस्त स्थानों पर कच्चे तेल को निकालने के संबंच में आवश्यक कार्य प्रारम्भ हो चुका है। दरअसल, इस कार्य में पूंजीगत खर्च बहुत अधिक मात्रा में होता है। जापान, रूस एवं अमेरिका से तकनीकी सहायता प्राप्त करने के लिए इन देशों की बड़ी कम्पनियों के साथ करार करने के प्रयास भी भारत सरकार द्वारा किए जा रहे हैं। भारत का समुद्रीय क्षेत्र 5 लाख किलोमीटर का है। इसी प्रकार, पश्चिम बंगाल के समुद्रीय इलाके में भी खोज जारी है एवं इस क्षेत्र में भी कच्चे तेल एवं गैस के भंडार मिलने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। अंडमान एवं निकोबार क्षेत्र में कच्चे तेल का उत्पादन प्रारम्भ होने के पश्चात आगामी लगभग 70 वर्षों तक भारत को कच्चे तेल के आयात की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। 

द्वितीय शुभ समाचार यह प्राप्त हुआ है कि भारत के कर्नाटक राज्य में कोलार क्षेत्र में स्थित अपनी सोने की खदानों में भारत एक बार पुनः खनन की प्रक्रिया को प्रारम्भ करने के सम्बंध में विचार कर रहा है। कोलार गोल्ड फील्ड (KGF) को वर्ष 2001 में खनन की दृष्टि से बंद कर दिया गया था। परंतु, अब 25 वर्ष पश्चात स्वर्ण की इन खदानों में खनन की प्रक्रिया को पुनः प्रारम्भ किए जाने के प्रयास किए जा रहे है। इस संदर्भ में कर्नाटक सरकार ने भी अपनी मंजूरी प्रदान कर दी है। आज पूरे विश्व में सोने की कीमतें आसमान छूते हुए दिखाई दे रही है और विभिन्न देशों के केंद्रीय बैंक अपने सोने के भंडार में वृद्धि करते हुए दिखाई दे रहे हैं क्योंकि अमेरिकी डॉलर पर इन देशों का विश्वास कुछ कम होता जा रहा है। बहुत सम्भव है कि आगे आने वाले समय में अमेरिकी डॉलर के बाद एक बार पुनः स्वर्ण मुद्राएं ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाले व्यापार के भुगतान का माध्यम बनें। ऐसे समय में भारत के कोलार क्षेत्र में स्थित स्वर्ण की खदानों में एक बार पुनः खनन की प्रक्रिया को प्रारम्भ करना एक अति महत्वपूर्ण निर्णय कहा जा सकता है। कोलार स्थित स्वर्ण की इन खदानों में 750 किलोग्राम स्वर्ण की प्राप्ति की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। प्राचीन काल में कोलार गोल्ड फील्ड को गोल्डन सिटी आफ इंडिया कहा जाता था। 

प्राचीन काल में में भारत को “सोने की चिड़िया” कहा जाता था। एक अनुमान के अनुसार, भारतीय महिलाओं के पास 25,000 से 26,000 टन स्वर्ण का भंडार है। यह भी कहा जा रहा है कि भारत की महिलाओं के पास स्वर्ण का जितना भंडार है लगभग उतना ही भंडार पूरे विश्व में अन्य देशों के पास है। अर्थात, पूरे विश्व में उपलब्ध स्वर्ण का आधा भाग भारतीय महिलाओं के पास आज भी उपलब्ध है। ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में स्थापित अपनी सत्ता के खंडकाल के दौरान लगभग 900 टन स्वर्ण, कोलार की खदानों से निकालकर, ब्रिटेन लेकर जाया गया था। भारत की केंद्रीय बैंक, भारतीय रिजर्व बैंक, के पास आज 880 टन स्वर्ण के भंडार हैं, जो कि भारत के 69,700 करोड़ अमेरिकी डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार का 12 प्रतिशत हिस्सा है। हाल ही के समय में विदेशी निवेशकों का भारत पर विश्वास बढ़ा है अतः भारत का स्वर्णिम काल पुनः प्रारम्भ हो रहा है। विश्व के विभिन्न देशों के केंद्रीय बैंकों के पास आज 36,000 टन स्वर्ण का भंडार हैं, जबकि इनमे से कई देशों के केंद्रीय बैंक अभी भी स्वर्ण की खरीदी करते जा रहे हैं। स्वर्ण भंडार की दृष्टि से भारत का आज विश्व में 8वां स्थान है। चीन एवं रूस स्वर्ण के सबसे बड़े उत्पादक देश हैं फिर भी ये दोनों देश स्वर्ण का आयात भी जारी रखे हुए हैं। लगातार, पिछले 3 वर्षों से विभिन्न देशों के केंद्रीय बैंक लगभग 1,000 टन स्वर्ण की खरीद प्रतिवर्ष कर रहे हैं। स्वर्ण की खरीदी का यह कार्य रुकने वाला नहीं है आगे भी ऐसे ही चलता रहेगा। अतः भारत सरकार द्वारा भी कोलार गोल्ड फील्ड में स्वर्ण के खनन का कार्य प्रारम्भ किया जा रहा है। स्वर्ण के भंडार बढ़ने के साथ भारत, रुपए का अंतरराष्ट्रीयकरण कर सकता है। साथ ही, स्वर्ण के भंडार बढ़ने के साथ ही अंतरराष्ट्रीय बाजार में रुपए की कीमत भी बढ़ती जाएगी। 

कुल मिलाकर, अब यह कहा जा सकता है कि ईश्वरीय कृपा से एवं उक्त कारणों के चलते भारत को विश्व में एक बार पुनः “सोने की चिड़िया” बनाया जा सकता है।

प्रहलाद सबनानी 

आतंकवाद पर चीन और पाकिस्तान के दोहरे पैमाने

प्रमोद भार्गव

     आतंकवाद के मसले पर चीन के किंगदाओ नगर में हुई शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में एक बार फिर चोर-चोर मौसेरे भाई चीन और पाकिस्तान ने भारतीय हितों के परिप्रेक्ष्य में दोगलापन दिखाया है। इस बैठक में सदस्य देशों के रक्षा मंत्री उपस्थित थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा आतंकवाद के खात्मे के लिए किए जा रहे आवाहन ने वैश्विक स्तर पर ऐसा माहौल बनाने का काम किया है कि इस समस्या को जड़ से उखाड़ दिया जाए। लेकिन एससीओ की बैठक में जिस दस्तावेज को साझा हस्ताक्षर के लिए सामने लाया गया तब उसमें पहलगाम में हुए आतंकी हमले को शामिल नहीं किया गया। जबकि इस हमले में 26 भारतीय नागरिक आतंकवादियों ने मार दिए थे। इस दस्तावेज में बलूचिस्तान का नाम हैं। जबकि बलूचिस्तान के नागरिक पाकिस्तान के विरुद्ध स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे हैं। अर्थात इस दस्तावेज को पढ़ने के बाद भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कड़ा रुख अपनाते हुए इस पर दस्तखत करने से साफ इंकार कर दिया। इस संगठन पर चीन का प्रभाव है और चीन ही इस बार संगठन का अध्यक्ष देश है। भारत ने पहलगाम में हुए आतंकी हमले को न केवल पक्षपातपूर्ण माना, बल्कि इसे पाकिस्तान और उसके हितचिंतक चीन की हरकत माना। अतएव राजनाथ सिंह ने दस्तखत नहीं किए। इस संगठन के दस्तावेज की उपयोगता तभी है, जब बैठक में उपस्थित सभी सदस्य देश मुद्दों पर सहमत होकर हस्ताक्षर करने के साथ साझा बयान भी जारी करें। तब कहीं इस दस्तावेज पर सहमति बन पाती है।

        इस संगठन में 10 देश परस्पर जुड़े हितों को मजबूत करने के लिए षामिल हैं। इन देशों में भा र त, चीन, पाकिस्तान, रूस, ईरान, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, उज्बेकिस्तान, बेलारूस और तजाकिस्तान शामिल हैं। 2001 में इस संगठन का गठन हुआ था। आरंभ में चीन और रूस समेत पांच देश इसमें शामिल थे। 2001 में उज्बेस्तिन, 2017 में भारत और पाकिसतान, 2022 में ईरान एवं 2024 में बेलारुस इस संगठन में भागीदार हुए। इन देशों की कुल जीडीपी में 30 फीसदी और दुनिया की आबादी में 40 प्रतिशत हिस्सेदारी है। यानी इस संगठन की इन देशों की अर्थव्यवस्था के लिए परस्पर भागीदारी जरूरी है। लेकिन जब राजनाथ सिंह ने दस्तावेज की इबारत को पक्षपात पूर्ण पाया तो उन्होंने खुले शब्दों में कहा, ‘भारत आतंकवाद पर दोहरे मापदंड मंजूर नहीं करेगा। आतंक को बढ़ावा देने वाले देशों की खुली निंदा होनी चाहिए। कुछ देशों ने सीमा पार आतंकवाद को न केवल अपनी नीति ही मान लिया है, बल्कि अपने देश में उन्हें संरक्षण भी देते हैं। बावजूद इस हकीकत को नकारते हैं। ऐसे दोहरे मापदंडों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। उन्हें अब समझना होगा कि आतंकवाद के अधिकेंद्र (एपीसेंटर) अब सुरक्षित नहीं रह गए हैं।‘ नए भारत के इस कड़े संदेश ने उपस्थित रक्षा मंत्रियों को हैरानी में डाल दिया। अतएव न तो कोई सहमति बन पाई और न ही संयुक्त बयान जारी हो पाया। इस परिणाम ने समूची दुनिया को संदेश दे दिया है कि अब भारत अपने हितों से समझौता करने के लिए कतई तैयार नहीं है।

     दरअसल भारत चाहता था कि एससीओ पहलगाम हमले की निदां करे और पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद पर स्पश्ट रुख अपनाए। लेकिन चीन की एक बार फिर दगा की दोगली नीति सामने आ गई। एक सदस्य देश ने इस पहलगाम मुद्दे को दस्तावेज में शामिल करने से असहमति जता दी। वस्तुतः राजनाथ सिंह ने कड़ा रुख अपना लिया और दस्तखत नहीं किए। इस साझा बयान पर हस्ताक्षर नहीं करने का बड़ा कारण दस्तावेज न तो निष्पक्ष था और न ही इसमें कोई पारदर्शिता थी। यह भी साफ नहीं किया कि आखिर इस अभिलेख को किन देशों ने तैयार किया है। यह दस्तावेज आतंकवाद से जुड़े तथ्यों के विपरीत था। भारत के जम्मू-कश्मीर प्रांत में 22 अप्रैल को पहलगाम में सैलानियों पर बड़ा हमला हुआ था। इसमें 26 निर्दोश लोग मारे गए थे। आतंकियों द्वारा किया यह हमला मानवता के लिए क्रूरता का चरम था। इसलिए भारत ने इस आतंकी हमले को दस्तावेज में षामिल करने की मांग भी की थी। परंतु इस मांग को नमंजुर कर दिया गया। अध्यक्षता कर रहे चीन का यह रुख पाकिस्तान के प्रति उदारता जताता है, जो सर्वथा पक्षपातपूर्ण है। जबकि बलूचिस्तान की आतंकी गतिविधियों से जुड़ी जफर एक्सप्रेस की घटना इसमें दर्ज थी। इस संगठन का लक्ष्य षामिल देशों की सुरक्षा, आर्थिक और राजनीतिक सहयोग को बढ़ाने के साथ आतंकवाद, नशीले पदार्थों की तस्करी और साइबर आपराध जैसे मसलों पर सटीक रणनीति बनाकर उस पर संयुक्त पहल करना भी है। लेकिन जिस तरह से पहलगाम हमले को नजरअंदाज किया गया उससे साफ है कि अध्यक्ष देश की नियत साफ नहीं है।

     इस तरह का दोहरा चरित्र इसलिए खतरनाक है कि इसने क्षेत्रीय सहयोग से जुड़े मुद्दों पर पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया। जिसके चलते आतंकवाद की समस्या से निपटना जटिल होगा। क्योंकि पाकिस्तान भारत के विरुद्ध लगातार आतंकी खेल, खेलता हुआ खून की इबारतें लिख रहा है। इस सच्चाई को समूची दुनिया भलीभांति जानती है। क्योंकि भारत आतंक से पिछले ढाई दशक से निरंतर लड़ाई लड़ रहा है। स्वयं चीन ने बीजिंग में कुछ वर्श पहले हुए ब्रिक्स देशों के सम्मेलन के घोशणा पत्र में इस तथ्य को षामिल किया था कि कई बड़े आतंकवादी संगठन पाकिस्तान के सुरक्षित ठिकानों से अपनी गतिविधियां चलाते हैं। पहलगाम में किए निरंकुश हमले में भी पाकिस्तान से आए आतंकियों का हाथ था। बावजूद एससीओ की बैठक के संयुक्त बयान में पहलगाम को नजरअंज करना दोगलापन नहीं तो और क्या है ? एससीओ में आतंकवाद पर शिकंजा नहीं कसना इसलिए और चिंताजनक है, क्योंकि पाकिस्तान परमाणु षक्ति संपन्न देश है और वहां अनेक आतंकी संगठन सक्रिय हैं। इन संगठनों में लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिद्दीन और जैश-ए-मोहम्मद प्रमुख हैं। अमेरिका पर आतंकी हमला करने वाले ओसामा बिन लादेन को ही पाकिस्तान ने षरण दी थी। उसका अंत अमेरिकी वायुसेना ने पाकिस्तान में घुसकर किया था। संयुक्त राश्ट्र द्वारा जारी सूची में बताया है कि पाक में 136 आतंकवादियों के ठिकाने हैं और यहां 22 आतंकवादी हथियारबंद संगठनों को पाक सेना संरक्षण दे रही है। वाइदवे इन आतंकियों के हाथ परमाणु हथियार लग जाते हैं तो ये मानवता के विरुद्ध कैसी तबाही मचाएंगे, यह कहना अनुमान से परे है। अतएव राजनाथ सिंह ने अभिलेख पर दस्तखत न करके दुनिया को यह संदश दे दिया है कि भारत आतंक के विरुद्ध लड़ाई लड़ता रहेगा।

प्रमोद भार्गव

अंतरिक्ष की नई उड़ान: एक्सिओम-4 और भारत की वैश्विक पहचान

एक्सिओम-4 मिशन भारत के अंतरिक्ष इतिहास में एक ऐतिहासिक क्षण है। वायुसेना के ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ल की सहभागिता से यह मिशन सिर्फ तकनीकी उपलब्धि नहीं बल्कि वैश्विक मंच पर भारत की उपस्थिति का प्रतीक बन गया है। अमेरिका की एक्सिओम-4 स्पेस और नासा के सहयोग से हुआ यह अभियान भारत को मानव अंतरिक्ष यात्रा के क्षेत्र में नई ऊंचाईयों पर ले गया है। वैज्ञानिक प्रयोगों, अंतरराष्ट्रीय सहयोग और रणनीतिक साझेदारी के स्तर पर यह मिशन आने वाले गगनयान और भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन की नींव मजबूत करता है।

-प्रियंका सौरभ

41 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद जब भारत का कोई प्रतिनिधि अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) की ओर रवाना हुआ, तो यह महज़ एक मिशन नहीं था, बल्कि भारत के अंतरिक्ष विज्ञान, वैश्विक कूटनीति और वैज्ञानिक प्रतिष्ठा का पुनर्जन्म था।एक्सिओम-4 मिशन में भारतीय वायुसेना के ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ल की भागीदारी ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत अब अंतरिक्ष की दौड़ में सिर्फ एक सहभागी नहीं, बल्कि एक संभावित नेतृत्वकर्ता के रूप में देखा जा रहा है।

इस मिशन के माध्यम से भारत ने एक साथ कई स्तरों पर उपलब्धियाँ प्राप्त कीं। सबसे पहले, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बात करें तो भारत ने इस मिशन के तहत सात प्रमुख वैज्ञानिक प्रयोग अंतरिक्ष में भेजे। ये सभी प्रयोग सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण पर आधारित थे और इनका उद्देश्य जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझना था। मेथी और मूंग जैसे बीजों पर किया गया अध्ययन भारतीय कृषि तकनीकों की विशिष्टता को अंतरिक्ष तक ले गया। इससे यह प्रमाणित होता है कि भारत की पारंपरिक खेती भी वैज्ञानिक शोध के लिए प्रासंगिक और आधुनिक है।

इसके अतिरिक्त, सूक्ष्मजीवों, माइक्रोएल्गी और मांसपेशियों के पुनरुत्पादन पर आधारित प्रयोगों ने दीर्घकालिक अंतरिक्ष यात्रा में जीवन समर्थन प्रणालियों के विकास में भारत की उपयोगिता को सिद्ध किया। इससे स्पष्ट है कि भारत केवल अंतरिक्ष में मौजूदगी दर्ज कराने नहीं बल्कि उसमें नवाचार और अनुसंधान के स्तर पर योगदान देने आया है।

शुभांशु शुक्ल का स्पेसएक्स के क्रू ड्रैगन यान को सफलतापूर्वक डॉक करना और अंतरिक्ष में आपातकालीन स्थितियों का प्रशिक्षण प्राप्त करना, आने वाले गगनयान मिशन के लिए अमूल्य अनुभव है। यह भारत के पहले मानव अंतरिक्ष मिशन के लिए एक मजबूत बुनियाद का कार्य करेगा।

एक्सिओम-4 ने यह भी दिखा दिया कि भारत अब व्यावसायिक अंतरिक्ष उड़ानों में भी प्रवेश कर चुका है। एक्सिओम-4 स्पेस और भारतीय स्टार्टअप स्काईरूट एयरोस्पेस के बीच हुआ समझौता दर्शाता है कि भारत अब केवल सरकारी संसाधनों पर निर्भर नहीं रहना चाहता, बल्कि निजी क्षेत्र के सहयोग से सस्ते और नवीन समाधान विकसित करने की दिशा में अग्रसर है। यह भारतीय अंतरिक्ष नीति की आत्मनिर्भरता और स्टार्टअप संस्कृति की सफलता की कहानी है।

रणनीतिक दृष्टि से देखें तो एक्सिओम-4 भारत और अमेरिका के बीच बढ़ते सहयोग का प्रतीक है, विशेषकर आईसीईटी और आर्टेमिस समझौते जैसी व्यवस्थाओं के अंतर्गत। भारत ने इस मिशन के ज़रिए न केवल अमेरिका बल्कि वैश्विक दक्षिण-उत्तर सहयोग की भावना को भी मज़बूती दी। इस मिशन में भारत के साथ पोलैंड और हंगरी जैसे देशों के अंतरिक्ष यात्री भी शामिल थे। यह वैश्विक समावेशिता और साझेदारी का प्रतीक था।

यह मिशन भारत की “सॉफ्ट पावर” को भी बढ़ावा देता है। जब दुनिया के समाचार चैनलों पर भारत का नाम मानव अंतरिक्ष यात्रा के साथ जोड़ा गया, तो यह सिर्फ तकनीकी नहीं, कूटनीतिक जीत भी थी। भारत ने यह दिखा दिया कि वह केवल उपग्रह भेजने वाला देश नहीं, बल्कि अंतरिक्ष में मानव भेजने और सहयोग करने वाला देश बन चुका है।

एक्सिओम-4 मिशन से भारत के निजी अंतरिक्ष स्टार्टअप्स को भी नया आत्मविश्वास मिला है। स्काईरूट और अग्निकुल कॉसमॉस जैसी कंपनियाँ अब वैश्विक सहयोग की दिशा में अपने कदम बढ़ा रही हैं। यह भारत के लिए निवेश, तकनीकी सहयोग और वैज्ञानिक नवाचार के नए द्वार खोलने वाला साबित हो सकता है।

इसके अतिरिक्त, इस मिशन ने भारत को गगनयान के लिए आवश्यक अनुभव प्रदान किया है। एक्सिओम-४ को विशेषज्ञों ने “बीमा नीति” की संज्ञा दी है, जिसका तात्पर्य है कि इस मिशन से भारत को उन जोखिमों को समझने और नियंत्रित करने का अवसर मिला जो गगनयान जैसे जटिल मिशनों में सामने आ सकते हैं। साथ ही, यह अनुभव भारत के भविष्य के अंतरिक्ष स्टेशन “भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन” के निर्माण की दिशा में भी सहायक होगा।

यह भी महत्वपूर्ण है कि शुभांशु शुक्ल को नासा में आठ महीने का कठोर प्रशिक्षण मिला, जिससे भारत को अब अंतरिक्ष यात्रियों की प्रशिक्षण क्षमता को लेकर एक नया मानक मिल गया है। भविष्य में भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों को इसी स्तर पर प्रशिक्षित किया जा सकता है।

एक्सिओम-4 मिशन ने भारत को संयुक्त राष्ट्र के “संयुक्त राष्ट्र बाह्य अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण उपयोग पर समिति” जैसे वैश्विक मंचों पर अधिक प्रभावी आवाज़ प्रदान की है। जब कोई देश मानव अंतरिक्ष उड़ान करता है, तो वह न केवल विज्ञान में बल्कि वैश्विक नीति निर्माण में भी एक नई भूमिका निभाने लगता है।

इस पूरे अभियान ने यह सिद्ध कर दिया है कि भारत अब केवल प्रेक्षक नहीं, बल्कि भागीदार है। यह मिशन भारत के लिए एक ‘लिफ्ट-ऑफ मोमेंट’ साबित हुआ है — एक ऐसा क्षण जब एक राष्ट्र केवल तकनीकी क्षेत्र में नहीं, बल्कि आत्मविश्वास, रणनीति और वैश्विक नेतृत्व की दिशा में भी उड़ान भरता है।

अब यह आवश्यक है कि भारत इस उपलब्धि को गगनयान जैसे आगामी मिशनों और अंतरिक्ष क्षेत्र में दीर्घकालिक रणनीतियों के साथ जोड़कर आगे बढ़े। नीति निर्माण से लेकर बजट आवंटन तक और अंतरिक्ष शिक्षा से लेकर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग तक —एक्सिओम-4 जैसे मिशनों को भारत की दीर्घकालिक अंतरिक्ष रणनीति का हिस्सा बनाना होगा।

अंततः एक्सिओम-४ केवल एक उड़ान नहीं थी, यह भारत की वैज्ञानिक प्रतिष्ठा, वैश्विक सहभागिता और भविष्य की अंतरिक्ष महाशक्ति बनने की संभावनाओं की घोषणा थी। भारत अब अंतरिक्ष की दौड़ में पीछे नहीं, बल्कि अगली पंक्ति में खड़ा है।

-प्रियंका सौरभ

वैश्विक स्पेस एक्सप्लोरेश में बड़ा कदम है-मिशन एक्सिओम-4 

अंतरिक्ष के क्षेत्र में भारत निरंतर अपने झंडे गाड़ रहा है। उल्लेखनीय है कि हाल ही में एक्सिओम स्पेस द्वारा संचालित वाणिज्यिक मिशन एक्सिओम-4 के जरिये भारतीय अंतरिक्ष यात्री शुभांशु शुक्ला का अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन (आईएसएस) पर पहुंचना भारत के ‘नागरिक अंतरिक्ष कार्यक्रम’ के लिए संभावनाओं का एक नया द्वार है। कितनी बड़ी बात है कि शुभांशु दुनिया के 634वें अंतरिक्ष यात्री बनें हैं।सच तो यह है कि शुभांशु शुक्ला की यह उपलब्धि भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए मील का पत्थर है। वास्तव में, यहां यह कहना ग़लत नहीं होगा कि भारत निरंतर अंतरिक्ष के क्षेत्र में अपनी तकनीकी प्रगति, मेहनत और लगन का प्रमाण पूरे विश्व को दे रहा है और भारत ने विश्व के समक्ष यह साबित कर दिया है कि भारत अंतरिक्ष के क्षेत्र में धीरे- धीरे सिरमौर बनने के कगार पर है। सच तो यह है कि आने वाले समय में भारत अंतरिक्ष के क्षेत्र में एक नई शक्ति बनकर उभरेगा जहां वह विश्व के अन्य देशों का नेतृत्व करता दिखेगा। पाठकों को बताता चलूं कि हाल ही में एक्सिओम-4 के जरिए भारत ने संपूर्ण विश्व को एक नया संदेश दिया है। गौरतलब है कि शुभांशु शुक्ला और चालक दल को लेकर एक्सिओम-4 मिशन 25 जून को कैनेडी स्पेस सेंटर से सफलतापूर्वक लॉन्च किया गया।  गौरतलब है कि इस मिशन में एक्सिओम स्पेस द्वारा संचालित स्पेसएक्स फाल्कन 9 रॉकेट का उपयोग किया गया है। इसरो, निजी क्षेत्र और वैश्विक सहयोग के समन्वय से भारत ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में अपनी वैज्ञानिक क्षमताओं को साबित करते हुए भारत को एक नई पहचान दिलाई है। गौरतलब है कि अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा और भारत के इसरो के बीच हुए समझौते के तहत भारतीय वायुसेना के ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ला को इस मिशन के लिए चुना गया, जो अंतरिक्ष में जाने वाले दूसरे भारतीय हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो शुभांशु आइएसएस की यात्रा करने वाले पहले भारतीय है। पाठक जानते होंगे कि 41 साल पहले वर्ष 1984 में राकेश शर्मा ने तत्कालीन सोवियत संघ के यान(सोयूज) से अंतरिक्ष की यात्रा की थी। ग्रुप कैप्टन शुभांशु ने अंतरिक्ष से नमस्कार किया और इस प्रकार से उन्होंने नया इतिहास रच दिया।शुभ्रांशु अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन में कदम रखने वाले पहले भारतीय हैं। उपलब्ध जानकारी के अनुसार अंतरिक्ष में 60 प्रयोग किए जाएंगे, जिनमें से 12 में कैप्टन शुभांशु शामिल होंगे, निश्चित ही यह भारत के लिए एक बड़ी उपलब्धि होगी। वैसे शुक्ला भारत द्वारा संचालित सात प्रयोग करेंगे, जिनमें बीज, शैवाल और सूक्ष्मगुरुत्व में मानव शरीरक्रिया विज्ञान पर कार्य शामिल है। गौरतलब है कि भारतीय अंतरिक्ष यात्री ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ला और तीन अन्य साथियों को लेकर रवाना हुआ अंतरिक्ष यान(एक्सिओम-4) 28 घंटे के सफर के बाद 4.02 बजे आइएसएस से जुड़ा। डॉकिंग की प्रक्रिया 4.16 बजे तक पूरी हुई। आइएसएस का हैच खोलने की प्रक्रिया में पौने 2 घंटे लगे और गुरूवार 26 जून 2025 को 6 बजे चारों अंतरिक्ष यात्री स्पेस स्टेशन में पहुंच गए। मीडिया रिपोर्ट्स बतातीं हैं कि कैप्टन शुक्ला के साथ मिशन कमांडर पेगी व्हिटसन (अमरीका), मिशन विशेषज्ञ तिबोर कापू (हंगरी) और पोलैंड के स्लावोज उज्नानस्की विज्मिव्सकी भी आइएसएस पहुंचे हैं। इन चारों एस्ट्रोनॉट के स्पेस स्टेशन पर पहुंचते ही वहां मौजूद अंतरिक्ष यात्रियों ने उनका गले लगाकर स्वागत किया और वेलकम ड्रिंक दिया। शुभांशु ने जब अंतरिक्ष से संदेश दिया कि-‘ बच्चे की तरह स्टेप लेना सीख रहा हूं…।’ उन्होंने अपने संदेश में कहा-‘ नमस्ते… फ्रॉम स्पेस ! मैं अपने साथी अंतरिक्ष यात्रियों के साथ यहां आकर बहुत उत्साहित हूं। सच कहूं तो, जब में कल लॉन्चपैड पर कैप्सूल में बैठा था। 30 दिन के क्वारंटाइन के बाद, मैं बस यही चाहता था कि अब चल पड़े। लेकिन जब यात्रा शुरू हुई, तो ऐसा लगा जैसे आपको सीट में पीछे धकेला जा रहा हो। यह एक अद्भुत राइड थी.. और फिर सब कुछ शांत हो गया। आपने बेल्ट खोली और आप वैक्यूम की शांति में तैर रहे थे।’ कहना ग़लत नहीं होगा कि उनका यह संदेश जानकर 140 करोड़ से अधिक देशवासियों की बांछें खिल उठी। उपलब्ध जानकारी के अनुसार वे 14 दिनों तक अंतरिक्ष में रहेंगे, जैसा कि उन्होंने यह बात कही है कि , ‘अगले 14 दिन विज्ञान और अनुसंधान को आगे बढ़ाने में अद्भुत होंगे।’ बहरहाल, पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि राकेश शर्मा के अलावा अभी तक भारतीय मूल के अंतरिक्ष यात्रियों की यदि हम बात करें तो इनमें कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स शामिल रहीं हैं। पाठकों को बताता चलूं कि कल्पना चावला अंतरिक्ष में जाने वाली प्रथम भारतीय अमरीकी महिला (वर्ष 1997 और वर्ष 2003 में की अंतरिक्ष यात्रा) तथा सुनीता विलियम्स आइएसएस अभियान में हिस्सा लेने वाली भारतीय मूल की यात्री (वर्ष 2006, 2012 और वर्ष 2024 में यात्रा) रहीं हैं। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि एक्सिओम स्पेस द्वारा संचालित इस चौथे मिशन में भारत की भागीदारी यह दर्शाती है कि भारत अब केवल लॉन्च वाहन या सैटेलाइट निर्माण तक सीमित नहीं रहा है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मानवयुक्त अंतरिक्ष अभियानों(इंटरनेशनल मेन्ड स्पेस मिशन्स) में सक्रिय भागीदार बनने की ओर भी बढ़ चुका है। पाठकों को बताता चलूं कि एक्सिओम-4 मिशन का प्राथमिक उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आइएसएस) पर वैज्ञानिक अनुसंधान और प्रौद्योगिकी का प्रदर्शन करना है। इसमें मानव स्वास्थ्य, माइक्रोग्रैविटी और जैविक प्रणालियों पर शोध, साथ ही जीवन के लिए जरूरी प्रणालियों का परीक्षण और मेडिकल स्टडी करना शामिल है। वास्तव में इस मिशन का उद्देश्य व्यवसाय और अनुसंधान के लिए प्लेटफॉर्म के रूप में कमर्शियल अंतरिक्ष स्टेशनों की व्यवहार्यता का प्रदर्शन करना भी है। इसके अलावा, एक्स-4 का उद्देश्य अंतरिक्ष अन्वेषण में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना है। जैसा कि ऊपर जानकारी दे चुका हूं कि इस मिशन में कई देशों के अंतरराष्ट्रीय क्रू मेंबर शामिल किया गया है। यह कमर्शियल और वैश्विक अंतरिक्ष(स्पेस) एक्सप्लोरेशन(अन्वेषण)में एक बड़ा कदम है। इससे कमर्शियल अंतरिक्ष मिशनों और साझेदारियों को बढ़ावा मिलेगा। वास्तव में, कैप्टन शुभांशु की यह अंतरिक्ष यात्रा भारत के गगनयान मिशन के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है, जो संभवतया: साल 2027 में भारत का पहला स्वदेशी मानव अंतरिक्ष मिशन( ह्यूमन स्पेस मिशन) होगा। निश्चित ही इस मिशन से देश के युवाओं और वैज्ञानिकों को नवीन प्रेरणा और प्रोत्साहन मिल सकेगा। कहना ग़लत नहीं होगा कि पृथ्वी की कक्षा में स्थित अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आइएसएस) में शुभांशु शुक्ला का अंतरिक्ष प्रवास ऐसी रिसर्च स्टडीज से जुड़ा है, जो पूरी मानवता के लिए उपयोगी होंगे। वास्तव में इस मिशन से अंतरिक्ष स्टार्टअप परिदृश्य को नई ऊर्जा मिल सकेगी। भारत अंतरिक्ष के क्षेत्र में निरंतर उत्तरोत्तर विकास और प्रगति के आयामों को छू रहा है और भारत का अपने पहले प्रयास में ही मंगल ग्रह पर पहुंचना, एक ही मिशन में सौ से ज्यादा उपग्रहों को लॉन्च करना, चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचने वाला पहला देश बनना, सूर्य के अध्ययन के लिए देश का पहला ऑब्जर्वेशन मिशन आदित्य एल-1में कामयाबी हासिल करना इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। यहां पाठकों को बताता चलूं कि पिछले दस सालों में करीब 400 उपग्रहों को लॉन्च करने के बाद भारत वर्ष 2035 तक अंतरिक्ष में अपने स्टेशन की स्थापना के साथ ही साथ वर्ष 2040 तक चंद्रमा पर अपना पहला अंतरिक्ष यात्री भेजने की योजना बना रहा है, यह भारत की अंतरिक्ष ऊंचाइयों को दिखाता है। इतना ही नहीं, इसरो के विभिन्न अंतरिक्ष कार्यक्रमों और अंतरिक्ष क्षेत्र में निवेश से समाज और देश को अभूतपूर्व लाभ हुए हैं।नोवास्पेस की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि वर्ष 2014 और 2024 के बीच भारतीय अंतरिक्ष क्षेत्र ने राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिये 60 बिलियन अमरीकी डॉलर उत्पन्न किये हैं, 4.7 मिलियन रोज़गार उत्पन्न किये और कर राजस्व में 24 बिलियन अमरीकी डॉलर का योगदान दिया है। पाठकों को बताता चलूं कि इसरो विश्व की छठी सबसे बड़ी अंतरिक्ष एजेंसी है और इसके लॉन्च मिशनों की सफलता दर बहुत अधिक रही है, यह हमारे वैज्ञानिकों की अथक मेहनत और प्रयासों का फल है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि वर्ष 2024 तक भारतीय अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था का मूल्य लगभग 6,700 करोड़ रुपए (8.4 बिलियन अमरीकी डॉलर) हो गया है, जो वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में 2%-3% का योगदान देता है, जिसके वर्ष 2025 तक 6% की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि (सीएजीआर) के साथ 13 बिलियन अमरीकी डॉलर तक पहुँचने की उम्मीद है। इतना ही नहीं, देश की अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था के अगले कुछ वर्षों में पांच गुना बढ़कर 44 अरब डॉलर तक पहुंचने के अनुमान हैं।अंत में यही कहूंगा कि वाणिज्यिक मिशन एक्सिओम-4 निश्चित ही भारत के अंतरिक्ष महाशक्ति बनने की दिशा में एक सशक्त, शानदार कदम है।

सुनील कुमार महला

टीएमसी नेताओं की निर्लज्ज टिप्पणियों से उठा विवाद

0

ललित गर्ग

कोलकत्ता में कानून की एक छात्रा से सामूहिक दुराचार-गैंगरेप का मुद्दा एक बार फिर पश्चिम बंगाल में जितना बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनने लगा है उतना ही बड़ा नारी उत्पीड़न का मुद्दा बनकर उभर रहा है। इस मामले में पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ पार्टी तृणमूल कांग्रेस के दो वरिष्ठ नेताओं की अनर्गल एवं निर्लज्ज टिप्पणी स्त्री की मर्यादा, सम्मान एवं अस्मिता के खिलाफ शर्मनाक, दुर्भाग्यपूर्ण व संवेदनहीन प्रतिक्रिया है। इन नेताओं ने गैंगरेप मामले पर विवादित बयान से राज्य एवं देश में भारी जनाक्रोश पैदा हो गया था। विशेषतः राजनेताओं के बयानों एवं सोच में एक बार फिर शर्मनाक ढंग से पीड़िता पर दोष मढ़ने की बेशर्म कोशिश की गई है। इस मामले में सत्तारूढ़ टीएमसी पार्टी अन्दर एवं बाहर दोनों मोर्चों पर घिरती हुई नजर आ रही है। जहां इस मामले में पार्टी के अन्दर गुटबाजी एक बार फिर सामने आयी है, वहीं भाजपा आक्रामक रूप से ममता सरकार को घेर रही है। टीएमसी की महिला नेत्री महुआ मोइत्रा टीएमसी नेताओं कल्याण बनर्जी और मदन मित्रा के उन बयानों पर निराशा व्यक्त करते हुए स्पष्ट किया है कि इन राजनेताओं के बयान में स्त्री-द्वेष पार्टी लाइन से परे है।
यह एक बदतर स्थिति है कि जिस पार्टी के नेताओं ने ये दुर्भाग्यपूर्ण बयान दिए हैं, उस पार्टी की सुप्रीमो एक महिला ही है। यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि ममता बनर्जी जैसी तेजतर्रार मुख्यमंत्री के शासन और नेतृत्व के वर्षों के दौरान टीएमसी के भीतर नारी सम्मान एवं अस्मिता को लेकर संवेदनशीलता लाने और मानसिकता में बदलाव लाने के प्रयास विफल होते नजर आ रहे हैं। अकसर महिलाएं और महिला राजनेता पुरुष नेताओं के हाथों अश्लील, अभद्र और तौहीन भरी टिप्पणओं की शिकार होती रही हैं। ऐसे बयानों के बावजूद अकसर ये राजनेता किसी कठोर कार्रवाई की बजाय हल्की फुल्की फ़टकार के बाद बच निकलते हैं। ये बयान कभी महिलाओं की बॉडी शेमिंग करते नज़र आते हैं तो कभी बलात्कार जैसे गंभीर अपराध को मामूली बताने की कोशिश करते हुए नजर आते हैं। इसके साथ ही ये चिन्ताजनक संदेश भी जाता है कि महिलाओं के बारे में हल्के और आपत्तिजनक बयान देना विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं के लिये सामान्य बात है।
जब किसी देश की बेटियां न्याय का अध्ययन कर रही हों और वहीं उनके साथ अन्याय की पराकाष्ठा हो  तो यह केवल एक आपराधिक घटना नहीं, बल्कि पूरे समाज, व्यवस्था और सोच के लिए एक जघन्य आइना बन जाती है। प्रतिष्ठित लॉ कॉलेज की छात्रा के साथ हुए सामूहिक बलात्कार की घटना ने न केवल राजनीतिक सोच एवं कानून के मंदिरों को शर्मसार किया है, बल्कि हर संवेदनशील मन को झकझोर दिया है। पीड़िता एक लॉ कॉलेज में अध्ययनरत छात्रा थी, जो अपने उज्ज्वल भविष्य के सपनों के साथ शिक्षा के पथ पर अग्रसर थी। घटना की रात वह अपने कुछ परिचितों के साथ बाहर थी, जिनमें से ही कुछ ने उसकी अस्मिता को रौंद डाला। उसे नशा दिया गया और फिर सुनसान स्थान पर ले जाकर कई लोगों ने उसके साथ बलात्कार किया। पुलिस ने तत्परता दिखाते हुए कुछ आरोपियों को हिरासत में लिया है, लेकिन सवाल यह है कि जब कानून पढ़ने वाली लड़की खुद असुरक्षित है, तो आम महिलाएं कैसे सुरक्षित होंगी? क्या यह कानून की शिक्षा देने वाली संस्थाओं एवं शासन करने वाली सत्ताओं के लिए आत्ममंथन का समय नहीं है? ऐसी घटनाओं पर निर्भया कांड के बाद बने कानूनों का सख्ती से पालन हो। रेप को सिर्फ एक ‘जुर्म’ नहीं, ‘राष्ट्रीय आपदा’ माना जाए, और उसकी रोकथाम के लिए शिक्षा, संस्कार और तकनीकी सुरक्षा साधनों को प्राथमिकता दी जाए। कोलकाता की लॉ छात्रा की यह दर्दनाक घटना हमें चेताती है कि केवल कानून बना लेना काफी नहीं, जब तक समाज की सोच नहीं बदलेगी, तब तक बेटियां असुरक्षित रहेंगी। यह केवल एक छात्रा की लड़ाई नहीं, बल्कि हर बेटी की सुरक्षा की लड़ाई है। न्याय तब होगा जब ऐसी घटनाएं रुकेंगी और उसके लिए हमें मिलकर लड़ना होगा।
सबसे दुखद पहलू यह है कि अनेक बार ऐसी घटनाओं में समाज चुप रहता है, पीड़िता को दोषी ठहराने की कोशिश की जाती है। सोशल मीडिया पर तंज, मीडिया ट्रायल और व्यक्तिगत चरित्रहनन जैसी बातें पीड़िता को न्याय से अधिक पीड़ा देती हैं। पीड़िता के लिये यह पीड़ा तब और बढ़ जाती है जब उनके जन-प्रतिनिधि निर्लज्ज बयानबाजी करते हैं। विडंबना यह है कि पीड़िता के प्रति निर्लज्ज बयानबाजी अकेले पश्चिम बंगाल का ही मामला नहीं है, देश के अन्य राज्यों में भी ऐसी संवेदनहीन टिप्पणियां सामने आती रही हैं। यदि इक्कीसवीं सदी के खुले समाज में हम महिलाओं के प्रति संकीर्णता की दृष्टि से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं, तो इसे विडंबना ही कहा जाएगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही कि ये वे लोग हैं जिन्हें जनता अपना नेता मानती है और लाखों लोग उन्हें चुनकर जनप्रतिनिधि संस्थाओं में कानून बनाने व व्यवस्था चलाने भेजते हैं। देश में बढ़ रही यौन-शोषण, रेप एवं नारी दुराचार की घटनाओं को देखते हुए जन-प्रतिनिधियों को ज्यादा संवेदनशील होने की अपेक्षा की जाती है। बड़ा प्रश्न है कि आखिर किसी राजनेता को हर महिला के साथ हुए दुर्व्यवहार और यौन शोषण को असंवेदनशील तरीके से देखने की छूट क्यों एवं कैसे मिल जाती है।
भारत ही ऐसा देश है, जहां महिलाओं की अस्मिता एवं अस्तित्व को तार-तार करने वाले नेताओं के निर्लज्ज बयानों के बावजूद उन पर कोई ठोस, सख्त एवं अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं होती। जबकि विश्व के अन्य देशों में ऐसा नहीं है। जैसे 2017 में ब्रिटेन के एक पार्षद के सामान्य से बयान पर अच्छा खासा बवाल मचा था। पार्षद ने सांसद का चुनाव लड़ रही एक गर्भवती महिला राजनेता के बारे में कह दिया था, ‘वो गर्भवती हैं और उनका समय तो नैपी बदलने में ही बीत जाएगा, वो आम लोगों की आवाज़ क्या उठाएंगी?’ इसके लिए पार्षद को माफ़ी मांगनी पड़ी। ब्रिटेन जैसे कई देशों में अकसर ऐसे बयानों पर कार्रवाई होती है। मिसाल के तौर पर 2017 में ही यूरोपियन संसद के एक सांसद ने बयान दिया था कि महिलाओं को कम पैसा मिलना चाहिए क्योंकि वो कमज़ोर, छोटी और कम बुद्धिमान होती हैं।’ इसके बाद उन्हें निलंबित कर दिया गया था और उन्हें मिलने वाला भत्ता भी बंद हो गया था।
कोलकाता की लॉ छात्रा मामले में टीएमसी नेताओं की टिप्पणियां निस्संदेह निंदनीय हैं, लेकिन पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं द्वारा भी कड़े शब्दों में इसकी निंदा की जानी चाहिए। ममता बनर्जी के सामने एक और चुनौती है। आरजी कर मेडिकल कॉलेज बलात्कार- हत्याकांड और उसके बाद देश भर में उपजा आक्रोश अभी भी यादों में ताजा है। निस्संदेह, केवल टिप्पणियों से पार्टी को अलग कर देना ही पर्याप्त नहीं है। सार्वजनिक जीवन में नारी सम्मान एवं जीवन-मूल्यों के खिलाफ जाने वाले लोगों के लिये परिणाम तय होने चाहिए। अन्यथा समाज में ये संदेश जाएगा कि ऐसे कुत्सित प्रयासों के खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं होती है। किसी अपराध की रोकथाम अच्छे शासन की अनिवार्य शर्त बनना चाहिए लेकिन जब कोई अपराध होता है तो प्रभावी प्रतिक्रिया भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। टीएमसी दोनों ही मामलों में विफल प्रतीत होती है। ऐसे मामलों में अत्याचार करने वालों की ही भांति अत्याचार का समर्थन करने वाले दोषी है। अत्याचारियों के लिये ही त्वरित न्याय और सख्त सजा जरूरी है लेकिन जन-प्रतिनिधि की निर्लज्ज बयानबाजी भी अपराध के दायरे में होनी चाहिए। आजीवन शोषण, दमन, अत्याचार, अवांछित बर्ताव और अपमान की शिकार रही भारतीय नारी को अब ऐसे और नये-नये तरीकों से कब तक जहर के घूंट पीने को विवश होना होगा। अत्यंत विवशता और निरीहता से देख रही है वह यह क्रूर अपमान, यह वीभत्स अनादर, यह दूषित व्यवहार एवं संकुचित न्याय। न्याय एवं राजनीति की चौखट पर भी उसके साथ दोयम दर्जा एवं दुराग्रहपूर्ण सोच बदलना सर्वोच्च प्राथमिकता हो। यदि हम सच में नारी के अस्तित्व एवं अस्मिता को सम्मान देना चाहते हैं तो ईमानदार स्वीकारोक्ति, पड़ताल एवं निष्पक्ष न्याय से ही यह संभव होगा।प्रेषकः

(ललित गर्ग

रोगी के लिये स्वस्थ जीवन की मुस्कान देते हैं डॉक्टर्स 

0

राष्ट्रीय डॉक्टर्स दिवस- 1 जुलाई, 2025

 ललित गर्ग 

स्वस्थ जीवन हर किसी की सर्वोच्च जीवन प्राथमिकता होता है। कहा भी गया है कि, ‘सेहत सबसे बड़ी पूंजी’ है। स्वस्थ व्यक्ति ही जीवन को सही तरह से एन्जॉय करते हुए उसे सफल एवं सार्थक बना सकता है और इसमें डॉक्टर्स की भूमिका बहुत अहम होती है। छोटी-बड़ी हर तरह की बीमारियों को डॉक्टर्स की मदद से ठीक किया जा सकता है। शायद इसलिए ही इन्हें भगवान का दर्जा मिला हुआ है। राष्ट्रीय डॉक्टर्स दिवस प्रसिद्ध डॉक्टर और बंगाल के दूसरे मुख्यमंत्री डॉ. बिधानचंद्र राय के सम्मान में मनाया जाता है।  वैसे तो दुनियाभर के अलग-अलग देशों में डॉक्टर्स डे को अलग-अलग दिन मनाया जाता है, लेकिन भारत में इस दिन को 1 जुलाई को इसलिये मनाया जाता है  क्योंकि 1 जुलाई 1882 में भारत के प्रसिद्ध फिजीशियन डॉ. राय का जन्म हुआ था और उनका निधन भी 1 जुलाई को ही साल 1962 में हुआ था। चिकित्सा क्षेत्र में उनके योगदान को सम्मान देने के मकसद से डॉक्टर्स डे मनाने की शुरुआत की गई थी। यह दिन उन डॉक्टरों को समर्पित होता है जो हमारी सेहत का ध्यान रखते हुए हमें नया जीवनदान देते हैं। साथ ही हमें बीमारियों से बचाने में मदद करते हैं। हल्का सा भी हम अगर बीमार पड़ते हैं तो तुरंत ही डॉक्टर के पास भागते हैं।
2025 की थीम है ‘मास्क के पीछेः देखभाल करने वालों की देखभाल’ उन लोगों की देखभाल की आवश्यकता को उजागर करती है जो हमारी देखभाल करते हैं। यह थीम इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करती है कि दूसरों की सेवा करते समय, डॉक्टर अक्सर अपने मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की उपेक्षा करते हैं। इस थीम का उद्देश्य बेहतर कार्य परिस्थितियां, मानसिक स्वास्थ्य सहायता और समाज से उनके लिए उचित सम्मान सुनिश्चित करना है। बहुत से लोग इस दिन का उपयोग अपने देश में डॉक्टर्स द्वारा किए गए अद्भुत कार्यों का सम्मान करने के लिए करते हैं। एक डॉक्टर मरीज को स्वस्थ करते हुए आशा नहीं खोता-वह हर चुनौती का जोरदार मुस्कान के साथ सामना करता है, चाहे परेशानी एवं बीमारी कितनी भी गंभीर क्यों न हो।
वास्तव में डॉक्टर्स की निःस्वार्थता एवं सेवाभावना उन्हें रोगियों के लिए स्वर्गदूत बनाती है, एक फरिश्ते के रूप में वे जीवन का आश्वासन बनते हैं और उनका बलिदान-योगदान उन्हें मानवीय सेवा का योद्धा बनाता है। डॉक्टर्स डे डॉक्टरों द्वारा समुदायों के उपचार, सुरक्षा और समर्थन में अक्सर बड़ी व्यक्तिगत कीमत पर निभाई जाने वाली महत्वपूर्ण भूमिका का सम्मान करता है। डॉक्टर्स न केवल महामारी या संकट के दौरान बल्कि हर दिन, गांवों, कस्बों और शहरों में मेडिकल प्रोफेशनल्स द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका की सार्वजनिक स्वीकृति के रूप में कार्य करता है। सामान्य चिकित्सकों से लेकर विशेषज्ञों और सर्जनों तक, यह दिन उन सभी का सम्मान करता है जिन्होंने उपचार और सेवा करने की शपथ ली है। इस दिवस पर मरीज और समुदाय भी कृतज्ञता और आशा की कहानियां साझा करने के लिए सोशल मीडिया का सहारा ले रहे हैं। जैसाकि भारत नई सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौतियों का सामना कर रहा है, राष्ट्रीय डॉक्टर दिवस  एक उत्सव और एक ऐसी प्रणाली बनाने के लिए कार्रवाई का आह्वान है, जहां डॉक्टरों को न केवल देखभाल करने वाले के रूप में सम्मानित किया जाता है, बल्कि बदले में उनकी सुरक्षा, सम्मान और देखभाल भी की जाती है। डॉक्टर कई महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाते हैं जो सिर्फ बीमारी का निदान और उपचार करने से कहीं आगे तक फैली हुई हैं। उनके काम में चिकित्सा ज्ञान, चिकित्सा नवाचार, संचार और करुणा का संयोजन शामिल है ताकि रोगियों को पूरी तरह से सहायता मिल सके, नये भारत-सशक्त भारत के निर्माण में उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है।

डॉक्टरों की भूमिकाएं उनके काम करने के स्थान के आधार पर अलग-अलग होती हैं। अस्पतालों में, वे विशेष उपचार या आपातकालीन देखभाल पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। क्लीनिकों और ग्रामीण केंद्रों में, वे अक्सर सामान्य स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करते हैं, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि चिकित्सा सहायता दूरदराज के क्षेत्रों में लोगों तक पहुँचे। इन विविध जिम्मेदारियों के माध्यम से, डॉक्टर व्यक्तिगत और सार्वजनिक स्वास्थ्य में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं, तथा हर दिन सकारात्मक बदलाव लाते हैं। भारत चिकित्सा नवाचार और प्रौद्योगिकी में वैश्विक नेता है। भारत देश केवल एक विशाल आबादी वाला देश नहीं है, बल्कि इसने चिकित्सा-क्रांति को घटित करते हुए दुनिया में चिकित्सा-सेवा के नये दीप प्रज्ज्वलित किये हैं। डॉक्टर बनना आसान नहीं है, फिर भी आप इसे बड़ी सहजता से और हमेशा मुस्कुराते हुए करते हैं। हर कोई डॉक्टर नहीं बन सकता क्योंकि हर किसी के पास मरीजों को निस्वार्थ भाव से अपनी सेवाएं देने के लिए ज्ञान, कौशल और धैर्य नहीं होता।
हर बीमारी के लिये एक एक्सपर्ट होता है। अगर आपको सर्दी-जुकाम, खांसी, बुखार या फिर मौसमी बीमारी ने जकड़ लिया है तो आपको फिजिशिनय या जनरल फिजिशियन से मिलना चाहिए। वहीं आंख, कान, नाक, टॉन्सिल, सिर या गर्दन की समस्या के लिये ईएनटी स्पेशलिस्ट होते हैं। ये साइनस का भी इलाज करते हैं। अगर आपको दिल से जुड़ी कोई दिक्कत है तो कार्डियोलॉजिस्ट के पास जाना बेहतर होता है। कोलेस्ट्रॉल लेवल के बढ़ने पर आप इन डॉक्टर के पास जाएं। इसके अलावा अगर आप तनाव में रहते हैं तो साइकोलॉजिस्ट से मिलना होता है। कैंसर की बीमारी के लिये आपको ओन्कोनोजिस्ट के पास जाना चाहिए। अगर आपको आंखों में कोई समस्या है, जलन, खुजली, रेडनेस या इन्फेक्शन से जूझ रहे हैं तो इसके लिए नेत्र रोग विशेषज्ञ के पास जाएं। प्रेग्नेंसी से लेकर डिलीवरी, या फिर ब्रेस्ट, यूटीआई, पीरयड्स, की समस्या हो रही है तो गायनोकोलॉजिस्ट की मदद लें। दिमागी बीमारी के लिये न्यूरोलॉजिस्ट के पास जाने की सलाह दी जाती है। कई बार सही डॉक्टर से समय पर इलाज न मिलने की वजह से भी बीमारी और बढ़ जाती है। शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं मानवीयता जैसे सभी पहलुओं के माध्यम से रोगी की देखभाल करने एवं उनको स्वस्थ बनाने के लिए अनुभवी एवं विशेषज्ञ डाक्टरों की सेवाएं वरदान है। डॉक्टर्स भगवान का रूप होते है, वे ही इंसान के जन्म के पहले साक्षी बनते हैं और उनमें करुणा एवं स्वस्थता का बीज बोते है। एक रोगी को स्वस्थ करने में वे अपना सब कुछ हंसते हुए दे देते हैं, चाहे उनका अपना पारिवारिक सुख हो, करियर हो, जीवन की खुशियां हो या सपने हों, सबकुछ झांेक देते है।
डॉक्टर्स अपने सुख-दुख को त्याग कर मरीजों के लिए जीते हैं, समाज को रोगमुक्त रखने में अहम भूमिका निभाते हैं, कोविड संक्रमण के दौरान डॉक्टर्स ही थे, जो एक योद्धा की तरह हर मुश्किल घड़ी में अपनी जान की परवाह किये बिना मरीजों के साथ घंटों लगातार ड्यूटी कर रहे थे। कई डॉक्टर्स ने अपनी जान भी गंवा दी। इन डॉक्टर्स के बलिदान को भी आज के दिन याद किया जाता है। डॉक्टरों की सेवाएं बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे बीमारियों का निदान, उपचार और रोकथाम करते हैं, जिससे लोगों का स्वास्थ्य और कल्याण सुनिश्चित होता है। वे आपातकालीन स्थितियों में जीवन रक्षक सहायता प्रदान करते हैं और बीमारियों के बारे में जागरूकता फैलाते हैं। डॉक्टर लोगों को स्वस्थ जीवनशैली के बारे में शिक्षित करते हैं, जिससे वे अपनी बीमारियों को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं और उनका प्रबंधन कर सकते हैं। डॉक्टर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे लोगों को सहायता और उपचार प्रदान करते हैं। डॉक्टर स्वास्थ्य अभियानों और कार्यक्रमों में भाग लेकर समुदायों में स्वास्थ्य को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। डॉक्टर स्वास्थ्य सेवा प्रणाली का एक अभिन्न अंग हैं और समाज के समग्र कल्याण में योगदान करते हैं। आम दिन हो या महामारियांे के खिलाफ जंग, ये डॉक्टर्स बिना किसी डर के सहजता और उत्साह से अपने कर्तव्य का पालन करते हैं। इसलिए नहीं कि यह उनका काम है और उसके लिए उन्हें पैसे मिलते हैं। इसलिए कि वे सबसे पहले दूसरों के स्वस्थ होने और उनकी जान की फिक्र करते हैं, ऐसी मानवीय सेवाएं देने वाले इन डॉक्टर्स रूपी अद्भूत फरिश्तों के सम्मान, कल्याण एवं प्रोत्साहन का चिन्तन अपेक्षित है। उससे निश्चित ही डॉक्टर्स की सेवाएं अधिक सक्षम, प्रभावी एवं मानवीय होकर सामने आयेगी।

भजन: राम राज्य महिमा

ब्रज लोक गीत

मु: राजा राम की आई सरकार -२
अब घर घर आनंद छाय रहे -२
झूमे सब नर और नार,
सब प्राणी मंगल गाय रहे -२
राजा राम की आई सरकार__

अंत १: राजा राम जानकी हैं रानी,
आनंद कंद अवध रजधानी।
लक्ष्मण भारत शस्त्रुघन भैया,
चरणों में इनके अंजनी छैया।।
मि: ये ब्रम्ह का लगा दरबार,
हर्षित हैं अवध अपार।
सब प्राणी मंगल गाय रहे,
राजा राम की आई सरकार__

अंत २: राम राज्य बैठे हैं त्रिलोका,
हर्षित हैं सब, नहीं कही शोका।
गयी विषमता है, शमता आई ,
वैर भाव सब मिट गया भाई।।
मि: देवी देव करें मनोहार,
सब प्राणी मंगल गाय रहे,
राजा राम की आई सरकार__

अंत ३: अचरज हैं देखो, शेर और चीता,
भेड़ और बकरी संग पानी है पीता।।
कही नहीं धोखा धड़ी बेईमानी,
ईमानदार हो गए सब प्राणी।।
मि: करते हैं आपस में प्यार,
(नहीं रही है अब तकरार)
सब प्राणी मंगल गाय रहे,
राजा राम की आई सरकार__

अंत ४: न कोई शिकवा न है शिकायत ,
सभी पावैं मनवांछित राहत।
धर्म कर्म फल फूल रहा है
धरती अम्बर झूम रहा है।
मि: वैभव है अपरम्पार,
सब प्राणी मंगल गाय रहे,
राजा राम की आई सरकार__

अंत ५: नन्दो राकेश भी हर्षाय रहे,
राम राज्य की महिमा गाय रहे।
राम जी कृपा दृष्टि बरसाना,
हमको अपनी शरण लगाना।
मि: सब अवगुण देऊ विषार
सब प्राणी मंगल गाय रहे,
राजा राम की आई सरकार_ अब घर घर आनंद छाये रहे -२ झूमे सब नर और नारी, सब प्राणी मंगल गाय रहे -२ राजा राम की आई सरकार_