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इसराइल के प्रधानमंत्री के ओजस्वी भाषण के प्रेरक अंश

इसराइल अपनी जिजीविषा के लिए जाना जाता है। इसने अपनी जीवंतता का एक इतिहास बनाया है। 1948 से पहले यहूदियों का कोई देश नहीं था। ये दर-दर की ठोकरें खा रहे थे और अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे थे। जब इस्लाम और ईसाइयत संसार के एकमात्र यहूदी देश को मिटाने पर सदियों से संघर्ष करती रही हो, तब अपने लिए एक स्थान निश्चित करवा लेना और उसे अपना देश बनाकर संसार के शक्तिशाली देश में उसकी गिनती करवाना इसराइल के द्वारा ही संभव है। इसराइल को 1948 में संयुक्त राष्ट्र ने जो भूभाग रहने के लिए दिया था, उसका 65% भाग रेगिस्तान था। उसे अपने पुरुषार्थ और परिश्रम से इसराइलवासियों ने रेगिस्तान के बीच उसे हराभरा बनाने का कार्य करके दिखाया। मात्र 95 लाख की आबादी का यह देश संसार के लोगों को बता रहा है कि यदि जीने की इच्छा प्रबल है और संघर्ष करने की भावना आपके भीतर है तो आपके अस्तित्व को कोई मिटा नहीं सकता।
बेंजामिन नेतन्याहू इस देश के प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने अभी ईरान के साथ हुए इजरायल के संघर्ष में देश का बहुत ही साहस के साथ नेतृत्व किया है। इस समय बेंजामिन नेतन्याहू ने अपने देशवासियों को जिन ओजपूर्ण शब्दों में संबोधित किया है ,वह किसी भी देश के लोगों के लिए बहुत प्रेरक हो सकते हैं। उन्होंने देश के लोगों को जिस प्रकार वीरता के भावों से भरने का प्रयास किया वह उनके देश के प्रेरक इतिहास का एक प्रेरक उद्बोधन भी कहा जा सकता है। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि :-
” 75 साल पहले हमें मरने के लिए यहां लाया गया था। हमारे पास न कोई देश था, न कोई सेना थी। सात देशों ने हमारे विरुद्ध जंग छेड़ दी। हम सिर्फ 65000 थें। हमें बचाने के लिए कोई नहीं था। हम पर हमलें होते रहे, होते रहे। लेबनान, सीरिया, इराक़, जॉर्डन,मिश्र, लीबिया, सऊदी , अरब जैसे कई देशों ने हमारे उपर कोई दया नहीं दिखाई। सभी लोग हमें मारना चाहते थे, किंतु हम बच गए।”
इसराइल के प्रधानमंत्री ने अपने देश के लोगों को समझाया कि प्रत्येक पड़ोसी देश ने हमारे देश को समाप्त करने का हरसंभव प्रयास किया, परंतु हमने संघर्ष से मुंह नहीं फेरा और हम निरंतर अपने अस्तित्व के लिए लड़ते रहे। उन्होंने आगे कहा कि :-
” संयुक्त राष्ट्र संघ ने हमें धरती दी, वह धरती जो 65 प्रतिशत रेगिस्तान थी। हमने उसको भी अपने खून से सींचा। हमने उसे ही अपना देश माना , क्योंकि हमारे लिए वही सब कुछ था। हम कुछ नहीं भूलें। हम फिर उन से बच गए। हम स्पेन से बच गए। हम हिटलर से बच गए। हम अरब से बच गए। हम सद्दाम हुसैन से बच गए। हम गद्दाफी से बच गए। हम हमास से भी बचेंगे, हम हिज्बुल्लाह से भी बचेंगे और हम ईरान से भी बचेंगे।”
प्रधानमंत्री श्री बेंजामिन नेतन्याहू ने अपने देशवासियों को आशावादी दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने कहा कि जब पहले बड़े से बड़ा तूफान हमारे मनोबल को नहीं तोड़ सका तो इस बार का तूफान भी हमें मिटा नहीं पाएगा। हमें अपने इतिहास से शिक्षा लेनी चाहिए और अपने पूर्वजों को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए इस नए तूफान से भी जूझने की तैयारी करनी चाहिए। अपनी मातृभूमि और धर्मस्थल जेरूसलम के प्रति अपने देश के लोगों को उत्प्रेरित करते हुए इसराइल के प्रधानमंत्री ने कहा कि :-
” हमारे जेरुसलम पर अब तक 52 बार आक्रमण किया गया, 23 बार घेरा गया, 39 बार तोड़ा गया, तीन बार बर्बाद किया गया, 44 बार कब्जा किया गया लेकिन हम अपने जेरुसलम को कभी नहीं भूले वह हमारे हृदय में है,वह हमारे मस्तिष्क में हैं और जब तक हम रहेंगे जेरुसलम हमारी आत्मा में रहेगा। संसार यें याद रखें कि जिन्होंने हमें बर्बाद करना चाहा वह आज स्वयं नहीं है। मिश्र, लेबनान, वेवीलोन, यूनान, सिकंदर, रोमन सब खत्म हो गयें है। हम फिर भी बचे रहे।”
“हमें वे (इस्लाम) खत्म करना चाहते हैं। उन्होंने हमारे रस्म रिवाज को कब्जाया। उन्होंने हमारे उपदेशों को कब्जाया। उन्होंने हमारी परंपरा को कब्जाया। उन्होंने हमारे पैगंबर को कब्जाया। कुछ समय पश्चात अब्राहम इब्राहिम कर दिया गया, सोलोमन, सुलेमान हो गया, डेविड, दाऊद बना दिया गया। मोजेज मूसा कर दिया गया। फिर एक दिन उन्होंने कहा – तुम्हारा पैगंबर ( मुहम्मद) आ गया है। हमने इसे नहीं स्वीकार किया। करते भी कैसे ? उनके आने का समय नहीं आया था। उन्होंने कहा स्वीकार करो़, कबूल लो। हमने नहीं कबूला। फिर हमें मारा गया। हमारे शहर को कब्जाया गया। हमारे शहर यसरब को मदीना बना दिया गया। हम क़’त्ल हुए,भगा दिए गए।”
इतिहास की दीर्घकालीन परंपरा को इसराइल के प्रधानमंत्री ने अपने देशवासियों के समक्ष इस प्रकार से खोल कर रख दिया कि उनके भीतर क्रांति के भाव मचलने लगे । वास्तव में इसी प्रकार के संबोधन देशवासियों को आपत्ति काल में एक सक्षम नेतृत्व प्रदान करने में सफल होते हैं। बेंजामिन नेतन्याहू ने अपने आप को सिद्ध किया कि वह आपातकाल में देश का नेतृत्व करने में पूर्णतया सक्षम हैं।
” मक्का के काबा में हम दो लाख थे, मार दिए गए। हमें दुश्मन बता कर क़’त्ल किया गया। फिर सीरिया में, ओमान में यही हुआ। हम तीन लाख थे मा’र दिए गए इराक़ में हम दो लाख थे, तुर्की में चार लाख हमें मा’रा जाता रहा, मारा जाता रहा। वे हमें मार रहे हैं, मारते जा रहें हैं। हमारे शहर,धन, दौलत, घर,पशु,मान सम्मान सब कुछ कब्जाये़ जाते रहे, फिर भी हम बचे रहे। 1300 सालों में करोड़ों यहूदियों को मारा गया, फिर भी हम बचे रहे। 75 साल पहले वे हम पर थूकते थे, ज़लील करतें थे, मारते थे। हमारी नियति यही थी किंतु हम स्वयं पर, अपने नेतृत्व पर, अपने विश्वास पर टिके रहे हैं।”
इसराइल के प्रधानमंत्री ने यहां न केवल अपने देशवासियों के निरंतर होने वाले उत्पीड़न और उनकी हत्याओं के न रुकने वाले क्रम की ओर संकेत किया है बल्कि देश से बाहर भी संसार के अन्य देशों में जहां-जहां यहूदी रहते हैं, उन पर होने वाले अत्याचारों को भी स्पष्ट किया है । जब संसार की बड़ी आबादी यहूदियों की मुट्ठी भर आबादी को समाप्त करने पर तुली हो , तब मरने और मारने का ही एकमात्र रास्ता रह जाता है। इसी ओर इसराइल के प्रधानमंत्री अपने मजहबी भाइयों को प्रेरित कर रहे हैं।
“आज हमारे पास एक अपना देश है। एक स्वयं की सेना है, एक छोटी अर्थ व्यवस्था है। इंटेल, माइक्रोसॉफ्ट, आईबीएम, फेसबुक जैसी कई संस्थाएं हमने इस दौर में बनाई।आज हमारे चिकित्सक दवा बना रहे हैं, लेखक किताबें लिख रहें हैं। ये सबके लिए है,यह मानवता के कल्याण के लिए है।
हमने रेगिस्तान को हरियाली में बदला, हमारे फल, दवाएं, उपकरण, उपग्रह सभी के लिए है।हम किसी के दु’श्मन नहीं है, हमने किसी को खत्म करने की क़सम नहीं खाई है। हमें किसी को बर्बाद नहीं करना, हम साजिश भी नहीं करते, हम जीना चाहते हैं सिर्फ सम्मान से, अपने देश में, अपनी जमीन पर, अपने घर में।”
अपने उज्जवल भविष्य की ओर संकेत करते हुए उन्होंने अपने देशवासियों का आवाहन किया कि ” पिछले हजार सालों से हमें मिटाया गया, खदेड़ा गया, कब्जाया जाता रहा,हम मिटे नहीं,हारे नहीं और न आगे कभी हारेंगे। हम जीतेंगे, हम जीत कर रहेंगे। हम 3000 सालों से यरुसलम में ही थे। आज़ हम अपने पहले देश इजरायल में है। यह हमारा ही था, हमारा ही है और हमारा ही रहेगा। यरुसलम हमसे है और हम यरुसलम से है।”
पता नहीं हम हिंदुओं को अपने अस्तित्व को बचाए रखने की बुद्धि कब आएगी ?

डॉ राकेश कुमार आर्य

जब देवकांत बरूआ ने इन्दिरा से कहा था – आप मुझे प्रधानमंत्री बना दो..

बात उस समय की है जब देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के विरुद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा अपना निर्णय सुना दिया गया था। यह निर्णय 1971 में श्रीमती गांधी द्वारा रायबरेली से लड़े गए लोकसभा के चुनाव के दौरान उनके द्वारा बरती गई अनियमितताओं को लेकर सुनाया गया था। श्रीमती गांधी के विरुद्ध लोकसभा के उस समय के चुनाव में राजनारायण एक मजबूत प्रत्याशी के रूप में खड़े हुए थे। जिन्होंने अपनी चुनावी याचिका में आरोप लगाया था कि श्रीमती गांधी ने अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए एक व्यक्ति को चुनाव लड़ाया और उसे ₹50000 की रिश्वत भी दी। श्रीमती गांधी ने ऐसा इसलिए किया था कि वह व्यक्ति जीतते हुए उम्मीदवार के वोट काट सकता था। राजनारायण का दूसरा आरोप था कि श्रीमती गांधी ने सेना के विमान का दुरुपयोग किया है और लोगों को गलत ढंग से अपने पक्ष में मोड़ने का प्रयास किया है।
श्रीमती गांधी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के संबंधित जज श्री जगमोहन सिन्हा पर अनुचित प्रभाव डालने का प्रयास किया । कांग्रेस के एक सांसद की इस बात के लिए विशेष रूप से ड्यूटी लगा दी गई कि वह उपरोक्त जज महोदय के घर जाकर प्रतिदिन उनसे इस बात का दबाव बनाता था कि वह श्रीमती गांधी के पक्ष में ही फैसला सुनाएं। परंतु जज महोदय किसी भी स्थिति में अपने निर्णय को बदलना नहीं चाहते थे। एक दिन तो ऐसी भी स्थिति आई थी कि जज महोदय ने जब देखा कि वह सांसद आज भी उनके घर के बाहर आकर बैठ गए हैं तो उन्होंने भीतर से यह कहलवा दिया था कि आज वे यहां नहीं हैं और वह अपने भाई से मिलने के लिए गए हैं।
इंदिरा गांधी ने उपरोक्त न्यायाधीश पर यह संदेश भी भिजवाया था कि उन्हें प्रोन्नत करते हुए सुप्रीम कोर्ट का जज बना दिया जाएगा। 12 जून 1975 को दिए गए अपने आदेश में सिन्हा महोदय ने यह स्पष्ट कर दिया कि श्रीमती गांधी का चुनाव अवैधानिक था और उन्होंने अनुचित साधनों का प्रयोग करते हुए जीत प्राप्त की थी। उपरोक्त निर्णय के आने के उपरांत देश का तत्कालीन विपक्ष जयप्रकाश नारायण जैसे नेता के नेतृत्व में एकजुट हो गया। उनके नेतृत्व से इंदिरा गांधी भयभीत हो गई थीं। जयप्रकाश नारायण की वक्तृत्व शैली चमत्कारिक थी। उन्होंने जोशीले अंदाज में कहा कि सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। जिस प्रकार जनमत तेजी से जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एकत्र हो रहा था, उसके दृष्टिगत इंदिरा गांधी के पैर उखड़ गए थे।
12जून के दिन इंदिरा गांधी के आवास पर एक विशेष बैठक का आयोजन किया गया था । जिसमें कांग्रेस के सभी बड़े नेता उपस्थित हुए थे। संगठन के भी बड़े नेता वहां पर उपस्थित थे। कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष देवकांत बरूआ विशेष रूप से सक्रिय दिखाई दे रहे थे। पश्चिम बंगाल के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे और हरियाणा के मुख्यमंत्री बंसीलाल भी वहां पर उपस्थित थे । सभी नेता इंदिरा गांधी को ध्यान से सुन रहे थे। इंदिरा गांधी ने अपने पद से त्यागपत्र देने का मन बना लिया था।
सिद्धार्थ शंकर रे इंदिरा गांधी को 6 महीने पहले से यह कहते आ रहे थे कि आपको देश में आपातकाल लगा देना चाहिए और देश के सभी विपक्षी नेताओं को उठाकर जेल में डाल देना चाहिए। जिससे उनकी बुद्धि में सुधार किया जा सके और आपको देश पर शासन करने का अच्छा अवसर प्राप्त हो सके । इंदिरा गांधी के चमचा उस समय उन्हें देश में राष्ट्रपति शासन प्रणाली लागू करने की सलाह दे रहे थे। एक अधिकारी पी एन हक्सर इंदिरा जी को अक्सर समझाते थे कि आपको इस समय देश में प्रशासनिक अधिकारियों के माध्यम से शासन चलाना चाहिए। देश में जनप्रतिनिधियों का चुनाव कराया जाना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है। इंदिरा गांधी को इस प्रकार की चमचागिरी अच्छी लगती थी।
देवकांत बरुआ ने 12 जून की बैठक में इंदिरा गांधी के समक्ष प्रस्ताव रखा कि उन्हें अपने पद से त्यागपत्र देकर कुछ देर के लिए मुझे देश का प्रधानमंत्री बना देना चाहिए । जिस समय देवकांत बरुआ इंदिरा जी से इस प्रकार का विचार विमर्श कर रहे थे , तभी वहां पर अपने मारुति उद्योग में व्यस्त रहने वाले इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी का प्रवेश होता है। वह नेताओं के चेहरों की उदासी को देखकर यह अनुमान लगा गए थे कि निश्चय ही निर्णय इंदिरा जी के विरुद्ध आया है । देवकांत बरुआ की बात को सुनकर उन्होंने इंदिरा गांधी को संकेत से अलग कमरे में बुलाया और वहां ले जाकर उन्होंने इंदिरा गांधी को डपटते हुए कहा कि किसी भी स्थिति में आपको त्यागपत्र देने की आवश्यकता नहीं है । यह सारे चमचों की जमात आपके पास बैठी है। देवकांत बरुआ के कथन पर विश्वास करने की आवश्यकता नहीं है। यदि यह एक बार प्रधानमंत्री बन गया तो फिर तुम्हें कभी सत्ता में लौटने नहीं देगा।
इंदिरा गांधी बात को समझ चुकी थीं। उधर देवकांत बरुआ भी समझ गए कि संजय गांधी ने इंदिरा जी से क्या कहा होगा ? तब उस व्यक्ति ने अपनी चमचागिरी का और भी पुख्ता प्रमाण देने का प्रयास करते हुए अपने भाषण में “इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा” का नारा दिया। जिसे उस समय के सभी कांग्रेसी नेताओं ने पकड़ लिया। बाद में इसी देवकांत बरुआ को अटल बिहारी वाजपेई ने अपनी एक कविता में “चमचों का सरताज” कहा था। समय आने पर यह नेता इंदिरा का साथ छोड़कर देवराज अर्स के साथ कांग्रेस ( अर्स ) में चला गया था।
सिद्धार्थ शंकर रे पहले से ही इंदिरा गांधी को देश में आपातकाल लगाने की प्रेरणा देते आ रहे थे। समय की नजाकत को पहचानते हुए बंसीलाल ने भी लंगर लंगोट खींचा और मैदान में उतरकर कड़कते हुए इन्दिरा जी से बोले कि आपको देश में आपातकाल लगाना चाहिए और सारे नेताओं को हरियाणा की जेलों में भेज देना चाहिए । मैं सब की अकल सुधार दूंगा। बाद में इंदिरा गांधी ने यही किया। जितने भर भी नेता उस समय हरियाणा की जेलों में डाले गए थे, उनके साथ अत्यंत क्रूरता का अपमानजनक व्यवहार बंसीलाल ने किया था। लगभग 1 लाख विपक्षी नेताओं, पत्रकारों, लेखकों आदि को उठाकर जेलों में डाल दिया गया था। उनके साथ जेल में जो कुछ हुआ था वह रोंगटे खड़े कर देने वाला था। ऐसी भी घटनाएं हुई थीं कि जब किसी नेता ने पानी मांगा तो उसे पेशाब दे दिया गया था।

डॉ राकेश कुमार आर्य

मन को तृप्त करने वाली पुस्तक; भारतीय संत परम्परा : धर्मदीप से राष्ट्रदीप

समीक्षक – सचित्र मिश्रा

विगत दिनों डॉ. सौरभ मालवीय जी की पुस्तक ‘भारतीय संत परम्परा : धर्मदीप से राष्ट्रदीप’ पढ़ने का सुअवसर मिला। इस पुस्तक को दिल्ली के शिल्पायन पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने प्रकाशित किया है।

पुस्तक पढ़कर मन तृप्त हो गया। भागदौड़ के समय में संतों के विषय में पढ़कर चित्त को शांति प्राप्त हुई। इस पुस्तक ने विचारने पर विवश कर दिया कि हमारे पास संतों की शिक्षाओं एवं उनके उपदेशों के रूप में ज्ञान का अपार भंडार है, किन्तु हम भौतिक वस्तुओं एवं सुख-साधन एकत्रित करने में अपने संपूर्ण जीवन को समाप्त कर रहे हैं। दीन-दुखियों की सेवा के लिए हम क्या कार्य कर रहे हैं? क्या हम ईश्वर के मार्ग पर चल रहे हैं? क्या हम जो कार्य कर रहे हैं, उससे किसी का अहित तो नहीं हो रहा है? क्या हम केवल अपने निजी स्वार्थ के लिए असत्य के साथ खड़े हैं? क्या यही जीवन का उद्देश्य है? प्रश्न अनेक हैं, परन्तु इनका उत्तर हमें स्वयं खोजना होगा।

मालवीय जी का यह कथन अक्षरशः सत्य है कि “भारत में अनेक संत हुए हैं, जिन्होंने विश्व को मानवता का संदेश दिया। संतों की शिक्षाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी उस समय थीं जब उन्होंने उपदेश दिए थे। आज जब लोग पश्चिमी सभ्यता के पीछे भाग रहे हैं तथा जीवन मूल्यों को भूल रहे हैं, ऐसी परिस्थिति में संतों की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार अत्यंत आवश्यक हो जाता है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए मैंने यह पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में 15 संतों के जीवन एवं उनके उपदेशों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है, जिनमें रामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास, महान कृष्ण भक्त सूरदास, महान भक्त कवि रसखान, कबीर, रैदास, मीराबाई, नामदेव, गोरखनाथ, तुकाराम, मलूकदास, धनी धरमदास, धरनीदास, दूलनदास, भीखा साहब एवं चरणदास सम्मिलित हैं। इन सभी संतों ने देश में भक्ति की गंगा प्रवाहित की। इनकी रचनाओं ने लोगों में भक्ति का संचार किया। इसमें ऐसे भी संत हैं, जिन्होंने गृहस्थ जीवन में रहकर ईश्वर की भक्ति की। उन्होंने अपने परिवार एवं परिवारजनों के प्रति अपने सभी दायित्वों का निर्वाह किया। इनमें ऐसे भी संत हैं, जिन्होंने सांसारिक संबंधों से नाता तोड़कर अपना संपूर्ण जीवन प्रभु की भक्ति में व्यतीत कर दिया।“ संतों ने कभी किसी को अपने पारिवारिक कर्तव्यों से विमुख होने के लिए नहीं कहा, अपितु अपने संपूर्ण कर्तव्यों का पालन करते हुए ईश्वर की साधना करने का संदेश दिया।

मालवीयजी ने अपनी पुस्तक में संतों के विषय में अत्यंत महत्वपूर्ण जानकारी संकलित की है। वह लिखते हैं कि प्रश्न यह है कि संत कौन है? जो सहज भाव से विचार करे तथा सहज आचरण करे, वही संत कहलाने के योग्य है। संत वह होता है, जो मान मिलने पर अभिमान नहीं करता। वह अहंकार नहीं करता। वह अहंकार से दूर रहता है। यदि कोई उसका अपमान करे, तो वह क्रोधित नहीं होता। उसके बुरे की कामना नहीं करता। उसे अपशब्द नहीं कहता। संतों की वाणी मधुर होती है। वह सबका कल्याण चाहते हैं। उनका व्यवहार संयमशील होता है। वे धैर्यवान होते हैं। उनका चरित्र इतना प्रभावशाली होता है कि जो भी उनके समीप आता है, उनसे प्रभावित हो जाता है। संतों की वाणी ईश्वर की वाणी है। उनकी वाणी में ईश्वर का संदेश होता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने संतों की चर्चा करते हुए कहा है-

समदुःख सुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।

तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्य निन्दात्म संस्तुतिः।।

अर्थात जो सुख एवं दुख दोनों को ही समान मानता है, जिसे अपने मान अथवा अपमान, अपनी स्तुति एवं निन्दा की चिंता नहीं होती, जो धैर्यवान होता है, वही संत है।

महात्मा कबीर ने संत की परिभाषा इस प्रकार व्यक्त की है-

निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह।

विषया सून्यारा रहै, संतन के अंग एह।।
अर्थात जिसका कोई शत्रु नहीं है, जो निष्काम है, जो ईश्वर से प्रेम करता है तथा विषयों से दूर रहता है, वही संत है।

प्रेम से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। मीराबाई का उदाहरण कालजयी है। विक्रमादित्य ने मीराबाई को विष देकर मारने का प्रयास किया। मीराबाई के लिए कांटों की सेज बिछाई गई। पूजा के पुष्पों की डलिया में पुष्पों में छिपाकर सर्प भेजा गया, ताकि वह मीराबाई के प्राण हर ले। उन्हें विष का प्याला दिया गया, परन्तु मीराबाई को कोई हानि नहीं पहुंची। मान्यता है कि विक्रमादित्य द्वारा भेजा गया विष अमृत तथा सर्प पुष्पों की माला बन गया। कांटों की सेज पुष्पों की सेज बन गई। गिरधर गोपाल के भक्तों का मानना था कि यह सब गिरधर गोपाल की भक्ति का ही फल था कि कोई भी मीराबाई का बाल बांका तक न कर सका। मीराबाई कहती हैं-

मीरा मगन भई, हरि के गुण गाय।
सांप पेटारा राणा भेज्या, मीरा हाथ दीयों जाय।
न्हाय धोय देखण लागीं, सालिगराम गई पाय।
जहर का प्याला राणा भेज्या, अमरित दीन्ह बनाय।
न्हाय धोय जब पीवण लागी, हो गई अमर अंचाय।
सूल सेज राणा ने भेजी, दीज्यो मीरा सुवाय।
सांझ भई मीरा सोवण लागी, मानो फूल बिछाय।
मीरा के प्रभु सदा सहाई, राखे बिघन हटाय।
भजन भाव में मस्त डोलती, गिरधर पै बलिजाय।
वास्तव में इन संतों ने समाज में व्याप्त बुराइयों पर प्रहार किया तथा लोगों को आपस में प्रेमभाव से रहने का संदेश दिया। अन्य संतों की भांति संत तुकाराम ने भी समाज में व्याप्त कुरीतियों आदि का विरोध किया। वह जाति-पांत तथा ऊंच-नीच का भेद नहीं मानते थे वह कहते थे कि सभी मनुष्य परमपिता ईश्वर की संतान हैं, इसलिए सभी मनुष्य समान हैं। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन ईश्वर की भक्ति एवं भक्ति-प्रचार के लिए समर्पित कर दिया था। उन्होंने गृहस्थ में रहकर ईश्वर की भक्ति का संदेश दिया। वह कहते थे कि मनुष्य के अपने परिवारजनों के प्रति सभी कर्त्तव्यों का पालन करते हुए ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए। वह कहते थे की संसार का सुख तो क्षणिक है, वास्तविक सुख तो ईश्वर की भक्ति में है।

उनका कहना था कि लोग अपने वस्त्र तो धोकर स्वच्छ कर लेते हैं, परंतु मन में विकारों की जो गंदगी भरी पड़ी है, उसे साफ नहीं करते। वह कहते हैं-
तुका बस्तर बिचारा क्या करे रे,
अन्तर भगवान होय।
भीतर मैला केंव मिटे रे,
मरे उपर धोय।।

अर्थात बेचारे वस्त्र को बार-बार धोने से क्या होगा? भगवान बाहरी वस्त्र में नहीं, अपितु हृदय में निवास करते हैं। आन्तरिक मैल को कब मिटाओगे? केवल बाहरी स्वच्छता से तो हम मर जाएंगे।
आज के समय में संतों की इन शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार की नितांत आवश्यकता है। पुस्तक की भाषा सरल एवं प्रभावशाली है। नि:संदेह यह पुस्तक समाज को एक नई दिशा देने का कार्य करेगी। आशा है कि मालवीयजी अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त करेंगे। यह पुस्तक उपयोगी एवं संग्रहणीय है।
पुस्तक का नाम : भारतीय संत परम्परा : धर्मदीप से राष्ट्रदीप

लेखक : डॉ. सौरभ मालवीय
प्रकाशक : शिल्पायन पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली

पृष्ठ : 239
मूल्य : 400

एससीओ में रक्षामंत्री का चीन-पाक को कड़ा संदेश

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– ललित गर्ग  –

भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने चीन के पोर्टे सिटी किंगदाओ में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान को बेनकाब करते हुए संयुक्त घोषणापत्र में हस्ताक्षर करने से मना कर न केवल पाकिस्तान और चीन को नये भारत का कड़ा संदेश दिया, बल्कि दुनिया को भी जता दिया कि भारत आतंकवाद को पोषित एवं पल्लवित करने वाले देशों के खिलाफ अपनी लड़ाई निरन्तर जारी रखेगा। घोषणापत्र में बलोचिस्तान की चर्चा की गई थी किन्तु पहलगाम के क्रूर आतंकवादी हमले जिनमें धर्म पूछकर 26 लोगों को मारे जाने का कोई विवरण नहीं था। भारत की आतंकवाद को लेकर दोहरे मापदंड के विरुद्ध इस दृढ़ता एवं साहसिकता की चर्चा विश्वव्यापी हो रही है। भारत ने विश्व को आगाह कर दिया है कि अब आतंकवाद के मुद्दे पर दोहरे मापदंड नहीं चलेंगे। राजनाथ सिंह के अडिगता एवं असहमति के इस कदम से एससीओ के रक्षामंत्रियों का सम्मेलन बिना संयुक्त वक्तव्य जारी किये ही समाप्त हो गया, जो पाकिस्तान एवं चीन के मुंह पर करारा तमाचा है। ऐसा होना भारत की ही जीत है और चीन-पाकिस्तान के लिये शर्मसार होने की घटना है। विशेषतः इस घटनाक्रम से चीन की बदनीयत एक बार फिर से उजागर हो गई है।
  भारत विश्व स्तर पर इस कोशिश में लगा रहता है कि आतंकवाद का दबाव कम हो, दुनिया आतंकमुक्त बने, निर्दोष लोगों की क्रूर आतंकी हत्याओं पर विराम लगे, पर दुर्भाग्य से दुनिया में अनेक देश अपना राजनीतिक नफा-नुकसान देखकर ही इस पर अपना रुख तय करते हैं। वास्तव में एससीओ की बैठक में भी यही हुआ है। त्रासद विडंबना है कि एससीओ में शामिल देशों ने भारत में पडोसी देश पाक की आतंक घटनाओं पर विसंगतिपूर्ण एवं दुर्भाग्यपूर्ण रवैया अपनाया। वास्तव में, यह एक और प्रमाण है कि पाक पोषित आतंकवाद संबंधी भारतीय शिकायत को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। इस बीच, अमरनाथ यात्रा से ठीक एक सप्ताह पहले गुरुवार को उधमपुर जिले में सुरक्षा बलों और आतंकियों के बीच मुठभेड़ सोचने पर मजबूर करती है। पाक की आतंकी हरकतें रूक नहीं रही है, अमरनाथ यात्रा पहले ही आतंकियों के निशाने पर रही है और इस बार भी आतंकियों के निशाने पर है, विगत तीन दशक से तनाव की स्थिति में ही अमरनाथ यात्रा हो रही है। सुरक्षा बल शांतिपूर्ण यात्रा के लिए प्रयासरत हैं लेकिन एससीओ जैसे संगठनों को पाक को सख्त हिदायत देते हुए यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भारत में पाक समर्थित आतंकवाद रूकना चाहिए।
निश्चित ही एससीओ सम्मेलन में भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह एक निडर एवं साहसिक नेता के रूप में उभरे। उन्होंने आतंकवाद की जड़ों पर प्रहार करने की भारत की नई नीति की रूपरेखा सम्मेलन में रखी। उनका कहना था कि संगठन के सदस्य देशों को आतंकवाद जैसी सामूहिक सुरक्षा से उत्पन्न चुनौती के मुकाबले के लिये एकजुट होना चाहिए। उनका मानना था कि कट्टरता, उग्रवाद और आतंकवाद दुनिया में शांति, सुरक्षा और विश्वास को कम कर रहे हैं। यह भी कि आतंकवाद पर तार्किक प्रहार किए बिना सदस्य देशों में शांति व समृद्धि संभव नहीं है। उन्होंने उन तत्वों को बेनकाब करने का प्रयास किया जो आतंकवाद को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के लिये उसे प्रश्रय देते हैं। उनका मानना था कि एससीओ आतंकवाद पर दोहरे मापदंड अपनाने के बजाय इसको प्रश्रय देने वाले देशों की आलोचना करे, आतंकवाद को समाप्त करने की मुहिम में निष्पक्ष बने। यह भी अच्छा हुआ कि रक्षामंत्री इस पर भी अड़े रहे कि एससीओ में आतंक का समर्थन करने वाले देशों की निंदा एवं भर्त्सना होनी चाहिए। इसका अर्थ था कि पाकिस्तान को बख्शा न जाए, लेकिन चीन ने आशंका के अनुरूप ढिठाई एवं बदनियत ही दिखाई।
चीन लगातार पाक के आतंकवाद पर सहयोगी दृष्टिकोण अपनाये हुए है। उसे आतंकवाद के खिलाफ सख्त होना चाहिए लेकिन वह पहले भी आतंकवाद के प्रति नरमी दिखा चुका है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में वह पाक के आतंकी सरगनाओं का बचाव कर चुका है। इससे उसकी बदनामी भी हुई थी, लेकिन उस पर कोई असर नहीं पड़ा। चीन आतंक को लेकर जितना संवेदनशील होना चाहिए, पाक के कारण वह उतना नहीं हो पा रहा है। इससे उनकी अन्तर्राष्ट्रीय छवि आहत हो रही है, लेकिन वह सुधरने को तैयार नहीं है। यह स्पष्ट है कि एससीओ में चीन-पाक के बीच बढ़ते शरारत भरे तालमेल पर भारत को इस संगठन में अपनी भूमिका को लेकर सतर्क एवं सावधान होना होगा। भारत को यह भी देखना होगा कि विस्तार ले रहे इस संगठन में अपनी महत्ता कैसे स्थापित करे। यह ठीक है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के मनमाने रवैये के कारण चीन भारत से संबध सुधारना चाहता है और कुछ मामलों में अपना रुख बदलने के लिए विवश भी हुआ है, पर इसका यह मतलब नहीं कि वह भारत के हितों की अनदेखी करे या फिर अमेरिका एवं पश्चिम के अन्य देशों की तरह आतंकवाद पर दोहरा रवैया अपनाए और आतंक के समर्थक पाक का सहयोग एवं समर्थन जारी रखे। भारतीय नजरिये से देखें, तो अमेरिका और चीन, दोनों ही भारत में आतंकवाद के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। भूलना नहीं चाहिए, पिछले दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति ने पाक सैन्य जनरल का अपने भवन में भोज के साथ स्वागत किया है। ऐसे घटनाक्रमों से भारत के लिए संदेश साफ है कि वह आंतरिक स्तर पर आतंकियों के लिये अपने संघर्ष को तीखी धार दे। भारत को अपनी आर्थिक एवं सैन्य ताकत बढ़ानी होगी, तभी आतंकवाद को कुचला जा सकता है। आतंकवाद के खिलाफ उसे अकेले की संघर्षरत रहना होगा।
दरअसल, एससीओ सम्मेलन में भारत चाहता था कि अंतिम दस्तावेज में आतंकवाद को लेकर भारतीय चिंताओं को जगह दी जाए। इसीलिये सम्मेलन में रक्षामंत्री ने ऑपेरशन सिंदूर की तार्किकता को बताया और पहलगाम आतंकी हमले का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि पहलगाम की घटना दुनिया के सामने स्पष्ट थी और दुनिया के तमाम देशों ने इसकी निंदा भी की। इसी से दो देशों के बीच युद्ध की नौबत आ गई, एससीओ सम्मेलन में उस हमले को तवज्जो न देने की रणनीति दरअसल हकीकत के साथ मखौल एवं दौगलापन है। लेकिन सम्मेलन में रक्षामंत्री ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जी-7 शिखर सम्मेलन में कही उन बातों को ही विस्तार दिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि आतंकवाद का समर्थन करने वाले देशों को कभी पुरस्कृत नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने यह आश्चर्य जताया था कि आतंक के अपराधियों और इसके पीड़ितों को एक तराजू में कैसे तोला जा सकता है? यह कड़ा संदेश प्रधानमंत्री ने अमेरिका को दिया था।
  पाक और उसके करीबी सहयोगियों के नापाक इरादों को दुनिया को बताने तथा भारत की बात हर देश तक पहुंचाने के लिए भारत ने बहु-पक्षीय प्रतिनिधिमंडल दुनिया भर में भेजे। लेकिन पाक के सदाबहार दोस्त चीन के दबदबे वाले एससीओ सम्मेलन में पाक के आतंकी मनसूंबों को लेकर स्पष्ट नजरिया बनना जरूरी है। एससीओ की घोषणा में अगर यह आरोप लगाया गया है कि बलूचिस्तान की गड़बड़ी में भारत शामिल है, तो फिर भारत को ज्यादा कड़ा रुख अख्तियार करने की जरूरत है। ऐसे झूठे एवं भ्रामक तथ्यों का प्रतिकार जरूरी है। ऐसे झूठ को फैलाकर ही पाक दुनिया से सहानुभूमि जुटाता रहा है। इसलिये किसी भी ऐसे विश्व स्तरीय सम्मेलन में अपनी बात भी पुरजोर ढंग से तथ्यपरक तरीके से रखनी चाहिए। वहां पारित होने वाले प्रस्तावों के प्रति रक्षामंत्री की भांति ज्यादा संवेदनशील एवं सख्त होने की जरूरत है। भारत अपनी इसी नीति को दोहरा कर शत्रु मानसिकता वाले देशों को सबक दे सकेगा। पाक के प्रति भारत की सख्ती हर मोर्चें पर दिखाई दे। भले ही पाक हकीकत न देखने की गलती दोहराता रहे। अपने संकीर्ण एवं स्वार्थी उद्देश्यों के लिए आतंकवाद को प्रायोजित, पोषित तथा प्रयोग करने वालों को इसके परिणाम भुगतने ही होंगे। ऐसा करते हुए वह कंगाल होने की कगार पर पहुंच चुका है, वह लगातार गरीबी और कमजोरी का शिकार हो रहा है। आतंकवाद को पोषित करते हुए यह देश अन्य देशों की दया पर आश्रित होता जा रहा है। लेकिन भीख में मिली दया या अनुदान से कब तक खुद को कायम रख पायेगा?

हिन्दी का किसी क्षेत्रीय भाषा से कोई संघर्ष नहीं है

भारत विश्व का एक ऐसा देश है, जहां भाषाओं की विविधता पाई जाती है। यहां अलग-अलग समूहों द्वारा अनेक भाषाएं बोली,पढ़ी,लिखी व समझी जाती हैं, लेकिन भारत के संविधान में हिंदी को भारत की राजभाषा ( यानी कि आफिशियल लैंग्वेज) का दर्जा प्राप्त है। गौरतलब है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के अनुसार, देवनागरी लिपि में लिखी गई हिंदी को संघ की आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त है। यह(हिंदी)भारत की मातृभाषा भी है तो भारत की प्रथम राजभाषा भी। गौरतलब है कि भारत की द्वितीय राजभाषा अंग्रेजी है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि वर्ष 2011 की भाषायी जनगणना के अनुसार: भारत में 121 मातृभाषाएँ हैं। एक उपलब्ध जानकारी के अनुसार 55% आबादी हिंदी को या तो मातृभाषा के रूप में या अपनी दूसरी भाषा के रूप में जानती है तथा आज दुनिया में लगभग  60-65 करोड़  लोग हिंदी बोलते हैं, जिससे यह विश्व में तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा बन चुकी है।सच तो यह है कि अंग्रेजी और मंदारिन(मंडारिन) चीनी के बाद हिंदी का स्थान प्रमुख है। हिंदी न केवल भारत में, बल्कि आज विश्व के कई अन्य देशों जैसे कि नेपाल, मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, और पाकिस्तान में भी बोली, पढ़ी, लिखी और समझी जाती है और विश्व के बहुत से देशों ने आज हिंदी के महत्व,इसकी वैज्ञानिकता,इसकी दमदार शब्दावली को सहज ही स्वीकार किया है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1971 से वर्ष 2011 के बीच हिंदी बोलने वालों की संख्या 2.6 गुना बढ़कर 20.2 करोड़ से 52.8 करोड़ हो गई। वर्ष 2011 के बाद से अब तक इस संख्या में बहुत अधिक इजाफा हुआ है और यह हम सभी को गौरवान्वित महसूस कराता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज हिंदी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना प्रभाव छोड़ रही है और निरंतर आगे बढ़ रही है। हाल ही में यानी कि 26 जून 2025 को नई दिल्ली स्थित भारत मंडपम में हमारे देश के केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने केंद्र सरकार के राजभाषा विभाग की स्वर्ण जयंती समारोह में भाग लिया। इस दौरान उन्होंने यह बात कही कि ‘हिंदी किसी भी भारतीय भाषा की विरोधी नहीं है, बल्कि सभी भारतीय भाषाओं की मित्र है।’ बहरहाल, कहना चाहूंगा कि आज हमारे देश में भाषा को लेकर तरह-तरह की राजनीति की जाती है, इसे कदापि ठीक व जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है। इससे बड़ी विडंबना की व दु:खद बात भला और क्या हो सकती है कि आज भाषाओं को लेकर कहीं भी कोई न कोई जुबानी जंग छिड़ जाती है। हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि लोगों को आपस में जोड़ने का एक महत्वपूर्ण माध्यम भाषा को ही माना जाता है और हिंदी हमारे देश की वह भाषा है, जो सदियों सदियों से हमारे देश भारत को एकता व अखंडता के सूत्र में पिरोए हुए हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि हिंदी किसी भी भाषा की विरोधी कतई नहीं है। हिंदी वह भाषा है, जिसमें हमारे देश की सनातन संस्कृति की झलक मिलती है, तथा यह हमारे सामाजिक ताने-बाने को मजबूत व सुदृढ़ रखे हुए है, स्वतंत्रता के पूर्व से लेकर, हमारे देश की स्वतंत्रता प्राप्ति और इसके बाद भी निरंतर अब तक हिंदी अपनी संस्कृतनिष्ठता,व्यवस्थितता और अपने लचीलेपन से इसका प्रयोग ज्ञान-विज्ञान से लेकर साहित्य, और संचार के विभिन्न माध्यमों में लगातार बढ़ता ही चला जा रहा है, जो हमें गौरवान्वित करती है। हमें अपनी मां बोली हिंदी पर या यूं कहें कि अपनी मातृभाषा पर गर्व करना चाहिए। हम अंग्रेजी का विरोध नहीं करें, क्यों कि कोई भी भाषा कभी भी अच्छी बुरी नहीं हो सकती है‌। सभी भाषाओं का अपना-अपना महत्व है। इसलिए हमें यह चाहिए कि हम सभी भाषाओं या ज्यादा से ज्यादा भाषाओं को सीखने का प्रयास करें, यह हमारे ज्ञान में बढ़ोत्तरी करेगा वहीं व्यवहार में भी ये भाषाएं हमारे कहीं न कहीं अवश्य काम में आयेंगी, लेकिन हमें यह चाहिए कि भारत के निवासी होते हुए हम सबसे ज्यादा तवज्जो अपनी मातृभाषा हिंदी को दें। अपनी मातृभाषा को छोड़कर,उसे तिलांजलि देकर, दूसरी भाषाओं को अपनाकर , या उन्हें सीखकर हम कभी भी आगे नहीं बढ़ सकते, क्यों कि जो बात हम अपनी मातृभाषा में सहजता और सरलता से कह सकते हैं, अभिव्यक्ति दे सकते हैं,वह शायद विश्व की किसी अन्य भाषा में नहीं। हिंदी भाषा भारत की विविध संस्कृतियों को एकजुट करने और सामाजिक एकीकरण की भावना पैदा करने में एक सेतु का काम करती है। महात्मा गांधी जी ने राष्ट्रभाषा के बारे में यह बात कही है कि ‘राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।’ हिंदी हमारे देश और भाषा की प्रभावशाली विरासत है।आर्यों की सबसे प्राचीन भाषा हिन्दी ही है और इसमें तद्भव शब्द सभी भाषाओं से अधिक है। आज भाषा के नाम पर राजनीति होती है, यह बहुत ही ग़लत है। जापानियों ने जिस ढंग से विदेशी भाषाएँ सीखकर अपनी मातृभाषा को उन्नति के शिखर पर पहुँचाया है उसी प्रकार हमें भी मातृभाषा (हिंदी) का भक्त होना चाहिए। हाल फिलहाल, पाठकों को बताता चलूं कि 

राजभाषा विभाग के स्वर्ण जयंती समारोह के दौरान हमारे गृहमंत्री जी ने भी यह बात कही है कि ‘किसी भी विदेशी भाषा का विरोध नहीं होना चाहिए, लेकिन हमें अपनी मातृभाषा पर गर्व भी करना चाहिए।’ वास्तव में हमें यह चाहिए कि हम  मातृभाषा में सोचने, बोलने के साथ-साथ उसे अभिव्यक्त करने की भावना को भी प्रोत्साहित करें।

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हाल ही में यह कहा है कि ‘…पिछले कुछ दशकों में भाषा का इस्तेमाल भारत को बांटने के साधन के रूप में किया गया। वे इसे तोड़ नहीं पाए, लेकिन प्रयास किए गए। हम सुनिश्चित करेंगे कि हमारी भाषाएं भारत को एकजुट करने का सशक्त माध्यम बनें।’ महाराष्ट्र और कर्नाटक समेत कई राज्यों में राजभाषा को लेकर सवाल उठाए गए, तमिलनाडु ने तो जैसे हिंदी विरोध में राजनीतिक मोर्चा खोल रखा है। वास्तव में यह बहुत दुखद है, ऐसा नहीं होना चाहिए। आज भारत दुनिया का एक मात्र ऐसा देश है, जहां राजभाषा के लिए एक अलग विभाग है तथा इसके कार्यान्वयन के लिए अधिकारी व हिंदी अनुवादक मौजूद हैं। दुनिया में ऐसा उदाहरण कहीं अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। हम हमारे ही देश में भाषा की लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि आज संचार की भाषा हिन्दी है, बाजार और सिनेमा से लेकर आज कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है, जहां हिंदी का प्रयोग नहीं किया जा रहा है। हमें यह चाहिए कि हम किसी विदेशी भाषा का विरोध कतई नहीं करें। भारत के वासी होते हुए हमारा यह परम कर्तव्य बनता है कि हम आग्रह  अपनी भाषा(हिंदी) के गौरव का करें। जैसा कि केंद्रीय गृह मंत्री जी ने कहा है कि ‘आग्रह अपनी भाषा में सोचने का होना चाहिए। हमें गुलामी की मानसिकता से मुक्त होना चाहिए।’ सच तो यह है कि जब तक हम अपनी भाषा पर गर्व नहीं करेंगे, अपनी भाषा में अपनी बात नहीं कहेंगे, तब तक हम गुलामी की मानसिकता से मुक्त नहीं हो सकते हैं। दिल्ली में राजभाषा स्वर्ण जयंती समारोह के दौरान हाल ही में गृहमंत्री जी ने सभी राज्य सरकारों से आग्रह किया है कि वे स्थानीय भाषाओं में चिकित्सा और इंजीनियरिंग जैसी उच्च शिक्षा प्रदान करने की पहल करें। उन्होंने आश्वासन दिया है कि केंद्र सरकार इस दिशा में राज्यों को हरसंभव सहयोग देगी।’ पाठकों को बताता चलूं कि गृह मंत्री जी ने इस बात पर भी जोर दिया कि प्रशासनिक कार्यों में भारतीय भाषाओं का अधिक से अधिक उपयोग किया जाए। आज यह देखने को मिलता है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच प्रतिस्पर्धा है। प्रतिस्पर्धा अपने स्थान पर है, लेकिन हमें हिंदी के योगदान को हमेशा अपने जेहन में रखना चाहिए। हिंदी किसी भी भाषा की विरोधी नहीं है अपितु यह सहयोगी है। हिंदी सबको साथ लेकर चलती है। वास्तव में भाषाएं मिलकर देश के सांस्कृतिक आत्मगौरव को ऊंचाई तक ले जा सकती हैं। आज जरूरत इस बात की है कि हम मानसिक  गुलामी की भावना से मुक्ति पाने पर जोर दें। हमें यह याद रखना चाहिए कि जब तक कोई व्यक्ति अपनी भाषा पर गर्व महसूस नहीं करता और खुद को उसी भाषा में अभिव्यक्त नहीं करता, तब तक वह पूरी तरह आजाद नहीं हो सकता। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 351 हिंदी भाषा के विकास और प्रसार के लिए केंद्र सरकार को निर्देश देता है। इसका उद्देश्य हिंदी को भारत की ‘सामासिक संस्कृति’ के तत्वों को व्यक्त करने का एक माध्यम बनाना है। गौरतलब है कि अनुच्छेद 351 में, केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया है कि हिंदी भाषा का विकास इस तरह से हो कि वह भारत की समग्र संस्कृति को व्यक्त करने का एक माध्यम बन सके। इसके लिए, हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं और संस्कृत से शब्द भंडार और अभिव्यक्तियों को ग्रहण करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, ताकि यह अधिक समृद्ध और व्यापक बन सके। संक्षेप में कहें तो अनुच्छेद 351 हिंदी भाषा के विकास और प्रसार के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में कार्य करता है। वास्तव में, यह सुनिश्चित करता है कि यह भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को प्रतिबिंबित करे और सभी भारतीयों के लिए एक सामान्य भाषा बन सके। अंत में यही कहूंगा कि हिन्दी संस्कृत की बेटियों में सबसे अच्छी और शिरोमणि है। महात्मा गांधी ने यह बात कही थी कि ‘हिंदुस्तान के लिए देवनागरी लिपि का ही व्यवहार होना चाहिए, रोमन लिपि का व्यवहार यहाँ हो ही नहीं सकता।’ वास्तव में राष्ट्रीय व्यवहार में हिन्दी को काम में लाना देश की शीघ्र उन्नति के लिए आवश्यक है।अनंत गोपाल शेवड़े ने कहा है कि ‘राष्ट्रभाषा हिन्दी का किसी क्षेत्रीय भाषा से कोई संघर्ष नहीं है।’ और यह बात हम सबको अपने जेहन में रखनी चाहिए।के.सी. सारंगमठ कहते हैं कि ‘दक्षिण की हिन्दी विरोधी नीति वास्तव में दक्षिण की नहीं, बल्कि कुछ अंग्रेजी भक्तों की नीति है।’सरलता, बोधगम्यता और शैली की दृष्टि से विश्व की भाषाओं में हिन्दी महानतम स्थान रखती है।

सुनील कुमार महला

दुश्मन की नींद उड़ाने वाला स्वदेशी चमत्कार- भारत का ‘आकाशतीर’ ड्रोन

शिवानन्द मिश्रा

“आकाशतीर” नाम का यह स्वदेशी ड्रोन हाल ही में भारत-पाक संघर्ष के दौरान इस्तेमाल हुआ और इसकी ताकत देखकर पाकिस्तान ही नहीं, चीन और अमेरिका तक हैरान रह गए।

ये ड्रोन पाकिस्तान की सीमा में बिना किसी शोर और रडार सिग्नल के गया, अपना टारगेट पूरा किया और सही-सलामत लौट भी आया।

किसी को भनक तक नहीं लगी। भारत के इस “निर्जीव जाबांज-योद्धा” को अमेरिकी एक्सपर्ट्स ने भी मान लिया कि भारत की ये तकनीक स्टील्थ टेक्नोलॉजी में अब दुनिया के सबसे आगे वाले देशों की बराबरी कर रही है।

“आकाशतीर” की सबसे बड़ी खासियत ये है कि इसे चलाने के लिए इंसान की सीधी जरूरत नहीं पड़ती। ये खुद फैसला करता है – कहां जाना है, किसे निशाना बनाना है, और कैसे निकलना है। केवल एक बार फीड कर दिया, निश्चिंत जबकि दुनिया के बाकी देश अभी भी इंसानी कंट्रोल पर निर्भर हैं. भारत ने ऐसा सिस्टम तैयार कर लिया है जो बिना देरी के खुद ही निर्णय ले सकता है।

यही वजह रही कि पाकिस्तान की एयर डिफेंस पूरी तरह फेल हो गई। न रडार में आया, न अमेरिका से मिले AWACS सिस्टम ने कोई अलर्ट दिया। इस ड्रोन को DRDO, BEL और ISRO ने मिलकर बनाया है। इसे सिर्फ ड्रोन कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि यह एक पूरा सिस्टम है – ‘सिस्टम ऑफ सिस्टम्स’।

इसमें ग्राउंड रडार, मोबाइल कंट्रोल सेंटर, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और सैटेलाइट सब जुड़े हुए हैं।

ISRO के Cartosat और RISAT जैसे उपग्रह इसे रियलटाइम तस्वीरें और डेटा भेजते हैं। इसके साथ ही भारत का अपना NAVIC GPS सिस्टम इसे ज़बरदस्त सटीकता देता है जो पहाड़ी और दूर-दराज इलाकों में अमेरिका या चीन के GPS सिस्टम से भी बेहतर साबित हुआ है। आकाशतीर की काम करने की रफ्तार भी लाजवाब है। सेकंडों में ये नया रूट बना लेता है, अपने मिशन को एडजस्ट कर लेता है और टारगेट की पहचान बदल भी सकता है।

यह सब बिना किसी इंसानी आदेश के होता है। इसकी वजह से पाकिस्तान को पता ही नहीं चला कि कब हमला हुआ और कब मिशन खत्म हो गया।

ये रणनीतिक चुप्पी अब चीन के सैन्य गलियारों में भी चिंता का कारण बन गई है, क्योंकि उन्हें लगने लगा है कि भारत अब सिर्फ रक्षात्मक नहीं, आक्रामक टेक्नोलॉजी में भी आगे बढ़ रहा है। तुर्की ने भी माना है कि भारत का ये ड्रोन अब एक नया बेंचमार्क बन गया है। तुर्की के बायरकटर ड्रोन, जिन पर वो गर्व करता था, अब पीछे छूटते दिख रहे हैं।

आकाशतीर का एआई-संचालित ड्रोन झुंड (swarm) एक साथ कई टारगेट पर अटैक कर सकता है और खुद तय कर सकता है कि कौन सा टारगेट पहले खत्म करना है।

इसे चलाना भी इतना आसान है कि एक जवान जीप में बैठकर लैपटॉप से भी इसे ऑपरेट कर सकता है।

आखिर में बात साफ है –

भारत अब सिर्फ रक्षा उपकरण खरीदने वाला देश नहीं है। अब हम खुद बना रहे हैं, और वो भी ऐसी टेक्नोलॉजी जो दुनिया को चौंका रही है। आकाशतीर सिर्फ एक ड्रोन नहीं है, ये भारत की आत्मनिर्भरता, तकनीकी ताकत और नए सामरिक युग की शुरुआत है।

अब भारत मैदान में है – तकनीक के साथ, आत्मबल के साथ और विजन के साथ।

सीजफायर हुआ। मजा नहीं आया। 

पर युद्ध क्या मजा देता है? नहीं… भारत मजे के लिए युद्ध नहीं करता। तो हम निराश क्यों हुए? केवल इसलिए कि 

1. पीओके हमारे साथ नहीं मिलाया गया।

2. बलूचिस्तान अलग देश नहीं बना।

3. KP के रूप में नया देश सामने नहीं आया।

पर हमें लाभ क्या हुए?

1. शिमला समझौते से मुक्ति मिली।

2. सिंधु जल समझौते से मुक्ति मिली।

3. भारत की सैन्य श्रेष्ठता स्थापित हुई।

4. तुर्की और अज़रबैजान जैसे देशों की दोस्ती साफ हुई, इन का उम्मत के लिए प्रेम शायद योजनाकार स्पष्ट रूप से समझें, हमारे देशवासी अगर समझेंगे तो इन देशों के पर्यटन को झटका लगेगा।

5. पाकिस्तान के परमाणु शक्ति संपन्न होने के ढ़ोल की पोल खुल गई। काठ की हांडी अब अगली बार नहीं चढ़ेगी।

6.भारत को ब्रह्मोस मिसाइल के कई देशों से हजारों करोड़ के ऑर्डर मिले। और भी फायदे हुए होंगे जो वक्त के साथ सामने आएंगे। 

भारत का क्षमाशील होना कमजोर की क्षमा नहीं, वीर की क्षमा है। संसार अब इस बात को समझ चुका होगा।

 दो पार्टियां ऐसी हैं जिनके समर्थक सबसे बड़े जाहिल हैं ,एक तो समाजवादी पार्टी और एक राष्ट्रीय जनता दल। उनको कुछ नहीं पता होता कि सरकार कैसे चलती है, कैसे नीतियां बनती है, कैसे क़ानून बनते हैं । वे बस जाति आधारित नेता के चेहरे पे वोट दे देते हैं। उनके हर वक्तव्य में जाहिलियत झलकती है। उन्हें लगता है कि POK छोले भटूरे की प्लेट है जो ऑर्डर किया और आ गया। ऐसे कदम उठाने से पहले पूरे विश्व को साथ लाना पड़ता है जिसमें कूटनीति काम आती है जो नरेंद्र मोदी जी कर रहे है। इनके इंडी अलायन्स के पार्टनर की जब सरकार थी, तब ये जम्मू कश्मीर की बात करते थे। आज बीजेपी की सरकार है तो POK पर बात होती है। इनको ये अंतर नहीं समझ में आता। इनके नेताओ ने इनका जीवन स्तर ऊंचा उठाने के लिए कुछ किया ही नहीं क्योकि उनको पता है कि ये पढ़ लिख गए तो हमें वोट ही नहीं देंगे।

शिवानन्द मिश्रा

क्या अमेरिका-इजरायल खामेनेई को सत्ता से हटाने में सफल हो पाएंगे !

रामस्वरूप रावतसरे

अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमले के बाद ‘मेक ईरान ग्रेट अगेन’ ये बयान दिया था। दरअसल अमेरिका ऐसा कह कर ईरान में सत्ता परिवर्तन की संभावना तलाश रहा है। अमेरिका राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने सोशल मीडिया पोस्ट पर लिखा, “सत्ता परिवर्तन शब्द का उपयोग करना राजनीतिक रूप से सही नहीं है लेकिन अगर वर्तमान शासन ईरान को फिर से महान बनाने में समर्थ नहीं है तो सत्ता परिवर्तन क्यों नहीं होगा??

अमेरिका ने ईरान में सुप्रीम लीडर खामेनेई को सत्ता से हटाने की कई बार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोशिश की है लेकिन मुस्लिम शिया धर्म के सुप्रीम लीडर खामेनेई को हटाना संभव नहीं हो सका। इस वक्त भी ईरान में सत्ता परिवर्तन की माँग उठ रही है। खुद खामेनेई के परिवार से इसकी माँग उठने लगी है।

महमूद मोरादखानी ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्ला अली खामेनेई के भतीजे हैं। वह 1986 में ईरान छोड़कर फ्रांस चले गए थे और निर्वासन की जिंदगी जी रहे हैं। महमूद मोरदखानी ने कहा है कि वह युद्ध के पक्ष में नहीं हैं लेकिन ईरानी सरकार का खात्मा ही यहाँ स्थायी शांति के लिए जरूरी है। महमूद मोरादखानी के अनुसार ‘जो भी इस शासन को मिटा सके, वह जरूरी है।‘ उनका मानना है कि कई ईरानी लोग खामेनेई के कमजोर होने से ईरान में खुश हैं।

ईरान के पूर्व शहजादे रजा पहलवी ने भी शासन में बदलाव पर जोर दिया है। उनका कहना है कि तेहरान में सत्ता पतन जरूरी है। रजा पहलवी ईरान के अंतिम पहलवी शासक मोहम्मद शाह पहलवी के बड़े बेटे हैं। उनका परिवार अमेरिका में निर्वासन की जिंदगी गुजार रहा है। 1979 में देश छोड़कर भागे पूर्व शाह के बेटे रजा पहलवी इस वक्त काफी सक्रिय हैं।

   रजा अमेरिका में रहते हैं और खुद को ईरान के शासक के रूप में देखना चाहते हैं। 2016 में पहली बार जब अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बने थे तो शाह ने ईरान में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने और लोकतंत्र की बहाली की वकालत की थी।

     इसके बाद फिर जब ट्रंप दूसरी बार राष्ट्रपति बने तो पहलवी ने ईरान में लोकतंत्र की वकालत करते हुए पश्चिमी राष्ट्रों से उसके संबंध सुधारने पर जोर दिया था। अब जब इजरायल ने ईरान पर हमला किया तो वह इजरायल का पक्ष लेते हुए नजर आए। उन्होंने कहा कि ईरान में अभी कई ऐसे लोग हैं जो इजरायल की इस कार्रवाई का समर्थन कर रहे हैं और खामनेई को सत्ताच्युत करना चाहते हैं। माना जा रहा है कि अब राष्ट्रपति ट्रंप ईरान में सत्ता परिवर्तन में रजा पहलवी को समर्थन दे सकते हैं और ईरान में लोकतंत्र की स्थापना की पहल कर सकते हैं। हालाँकि खामनेई ने अपने विकल्प के तौर पर तीन उत्तराधिकारियों को चुन लिया बताया जा रहा है। ये तीनों ही मौलवी हैं यानी ईरान को इस्लामिक राष्ट्र बनाए रखने की व्यवस्था खामेनेई ने कर दी है।

    ईरान में अभी कई संगठन एक्टिव हैं जो चाहते हैं कि सत्ता परिवर्तन हो। इनमें पीपुल्स मुजाहिदीन या मोजाहिदीन ए खल्क यानी एमईके, ग्रीन मूवमेंट प्रमुख हैं। एमईके ऐसा संगठन है जिसे गोरिल्ला युद्ध लड़ने में महारत हासिल है लेकिन अमेरिका इसे नहीं पसंद करता क्योंकि ये संगठन रूस के नजदीक रहा है। अमेरिका विरोध के बावजूद खामेनेई को उखाड़ फेंकने की कोशिश में ये संगठन लगा हुआ है। जानकारी के अनुसार खामेनेई ने ही इस संगठन को कुचला था। धीरे-धीरे खुद को खड़ा करने के दौरान संगठन अमेरिका के संपर्क में भी आ गया। इस दल के नेता को अल्बानिया में स्थापित करने में अमेरिका ने अहम भूमिका निभाई हालाँकि आज की तारीख में ये कहना काफी मुश्किल है कि संगठन ईरान की इस्लामिक सत्ता को उखाड़ फेंकने में सक्षम है।

    ग्रीन मूवमेंट ईरान में 2009 में सुर्खियों में आया। राष्ट्रपति चुनाव में धोखाधड़ी का आरोप लगाते हुए संगठन ने आंदोलन चलाया। देश में लोकतांत्रिक सुधारों की बात करने वाला ये संगठन खामेनेई को सत्ता से हटाना चाहता है और अक्सर विरोध प्रदर्शन करता रहता है। इस संगठन ने 2010 में बड़ा आंदोलन खड़ा किया था। इस्लामिक राष्ट्र का विरोध करने के कारण इसके आंदोलन को दबा दिया गया और इसके नेताओं को गिरफ्तार किया गया। आज की परिस्थिति में ये उम्मीद करना मुश्किल है कि ये संगठन ईरान में इस्लामिक सत्ता को हटा सकता है।

ईरान में इस्लामिक शासन के दौरान वर्षों से महिलाओं का दमन किया जाता रहा है। हिजाब के खिलाफ महिलाएँ सड़कों पर उतरती रही हैं और सरेआम इसे उतार कर फेंकती रही हैं। विरोध प्रदर्शन में हिजाब जलाना, खामेनेई की तस्वीर जलाकर ‘मुल्ला भाग जाओ’ का नारा बुलंद करना आम रहा है। अब इन महिलाओं को खामेनेई को सत्ता से हटाने का विकल्प सामने दिखने लगा है। इधर अमेरिका के उपराष्ट्रपति जेडी वेंस ने ईरान में सत्ता परिवर्तन पर बड़ा बयान दिया। उनका कहना है कि वो ईरान के परमाणु कार्यक्रम को खत्म करना चाहते हैं। वे सत्ता परिवर्तन नहीं चाहते।

अमेरिका और इजरायल के अलावा भी कई देश हैं जो खामेनेई को सत्ता से बेदखल होते हुए देखना चाहते हैं। इनमें इराक, सऊदी अरब, लेबनान, मिस्र जैसे पड़ोसी इस्लामिक देश भी शामिल हैं। दरअसल इन राष्ट्रों का झगड़ा शिया-सुन्नी को लेकर है। ईरान एकमात्र शिया इस्लामिक देश है जबकि बाकी देश सुन्नी इस्लामिक राष्ट्र हैं।

रामस्वरूप रावतसरे

रूस-चीन असंभव काम करने की कोशिश कर रहे हैं

राजेश कुमार पासी

वैश्विक राजनीति आज ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहां कोई भी देश दूसरे देश पर विश्वास करने को तैयार नहीं है और दूसरी तरफ दुनिया एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था से निकलकर बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की ओर चल पड़ी है । अब भी अमेरिका अकेली महाशक्ति है लेकिन रूस, चीन और भारत उसे चुनौती दे रहे हैं । अमेरिका को यह बर्दाश्त नहीं है इसलिए वो रूस और चीन के रास्ते में रोड़े अटका रहा है । अमेरिका पहले भारत को साथ लेकर चीन को आगे बढ़ने से रोकना चाहता था लेकिन अब उसे भारत से भी डर लगने लगा है। अमेरिका सोचता है कि अगर भारत को नहीं रोका गया तो वो दूसरा चीन बन सकता है। अमेरिका ने रूस को यूक्रेन के साथ युद्ध में उलझाया हुआ है लेकिन वो रूस को आगे बढ़ने से रोक नहीं पा रहा है। भारत और चीन की मदद से रूस न केवल अपनी अर्थव्यवस्था को बचाने में कामयाब रहा है बल्कि युद्ध भी जारी रखे हुए है ।

 अमेरिका चीन को तो रूस की मदद करने से नहीं रोक सकता लेकिन भारत को रोकने की पूरी कोशिश कर रहा है। रूस को यह बात समझ आ गई है कि अगर अमेरिका का मुकाबला करना है तो उसे चीन और भारत को साथ लाना पड़ेगा. तभी अमेरिका का मुकाबला किया जा सकता है । रूस की सोच अपनी जगह सही हो सकती है लेकिन वर्तमान हालातों में यह काम असंभव लगता है कि चीन और भारत को साथ लाया जा सके । कुछ मुद्दों पर भारत चीन के साथ मिलकर काम कर सकता है लेकिन उसके साथ भारत के हितों का इतना टकराव है कि एक सीमा से आगे भारत नहीं बढ़ सकता । वास्तव में भारत के लिए चीन से ज्यादा अमेरिका के साथ मिलकर चलना ज्यादा आसान है । इसके अलावा भारत के अमेरिका के सहयोगी देशों के साथ भी अच्छे सम्बन्ध हैं । 

               भारत और चीन की दोस्ती कितनी मुश्किल है, ये बात चीन में चल रही एससीओ संगठन के विदेश मंत्रियों की बैठक से पता चल जाती है । इस संगठन के सदस्य देशों की संख्या दस है और इसमें पाकिस्तान और ईरान भी शामिल हैं । चीन आजकल पाकिस्तान को अपने प्राक्सी के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है. अब ये अलग बात है कि अमेरिका की भी यही कोशिश है । पाकिस्तान का भी अजीब है . वो कभी चीन की गोदी में बैठ जाता है तो कभी अमेरिका की गोदी में चला जाता है । वास्तव में दोनों ही देश पाकिस्तान को भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर रहे हैं । भारत  का दबाव था कि एससीओ के साझा घोषणापत्र में आतंकवाद का मुद्दा शामिल किया जाए क्योंकि ये बैठक ही क्षेत्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर हो रही थी । चीन ने साझा घोषणा पत्र में बलूचिस्तान का जिक्र करके भारत को घेरने की कोशिश की लेकिन पहलगाम का जिक्र तक नहीं किया ।

भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह इस बैठक में शामिल होने के लिए चीन गए हुए हैं, उन्होंने सबके सामने पाकिस्तान को इस वैश्विक मंच पर बेनकाब करने का काम किया । उन्होंने पाकिस्तान का नाम लिए बिना कहा  कि आतंकवाद के अपराधियों और प्रायोजकों को जवाबदेह ठहराना ही होगा और इससे निपटने में दोहरे मापदंड नहीं होने चाहिए । उन्होंने कहा कि कुछ देश आतंकवादियों को पनाह देने के साथ आतंकवाद को नीतिगत हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं । उन्होंने कहा कि हमारे क्षेत्र में सबसे बड़ी चुनौती शांति, सुरक्षा और विश्वास की कमी से संबंधित है । उनका कहना है कि आतंकवाद को पालना और गलत हाथों में परमाणु हथियार होना दोनों गलत हैं और हमें अपनी सामूहिक सुरक्षा के लिए इन बुराइयों के खिलाफ एकजुट होना चाहिए ।

 इसके अलावा उन्होंने कहा कि जो लोग अपने संकीर्ण और स्वार्थी उद्देश्यों के लिए आतंकवाद को प्रायोजित, पोषित और उपयोग करते हैं, उन्हें इसके परिणाम भुगतने होंगे । उन्होंने ऑपरेशन सिंदूर का जिक्र करते हुए कहा कि हमने आतंकवाद का समुचित जवाब दिया है और भविष्य में भी देंगे । उन्होंने चीन पर निशाना लगाते हुए कहा कि आतंकवाद से निपटने में दोहरे मापदंडों के लिए कोई जगह नहीं है । उन्होंने मंच से दोहराया कि भारत आतंकवाद के प्रति जीरो टॉलरेंस की नीति पर चल रहा है । चीन और पाकिस्तान ने आतंकवाद के मुद्दे से दुनिया का ध्यान हटाना चाहा लेकिन राजनाथ सिंह ने साझा घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया जिसके कारण एससीओ का संयुक्त बयान जारी नहीं हो सका । 

                इससे पहले चीन गए हुए एनएसए अजित डोभाल ने भी चीन को उनके देश में ही सुना दिया कि आतंकवाद के प्रति उसका दोहरा रवैया भारत बर्दाश्त नहीं करेगा । वास्तव में भारत पाकिस्तान के आतंकवादियों के खिलाफ जब भी संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव लाया है, उसे चीन ने वीटो कर दिया है ।चीन के हथियारों से ही पाकिस्तान भारत से लड़ रहा था और इसके अलावा भी चीन ने ऑपरेशन सिंदूर के दौरान उसकी मदद की थी । चीन अन्य मुद्दों पर भारत के साथ मिलकर चल रहा है लेकिन उसके भारत के साथ मतभेद कम नहीं हैं । रूस आरआइसी बनाना चाहता है जिसमें रूस, चीन और भारत शामिल होंगे लेकिन यह रूस की कोई नई सोच नहीं है । पिछले बीस सालों से रूस इसकी कोशिश कर  रहा है लेकिन उसे कामयाबी नहीं मिली है । रूस चाहता है कि भारत और चीन इस तरह से मिल जाएं जैसे अमेरिका और यूरोप मिलकर चलते हैं लेकिन यह असंभव लगता है । वैसे देखा जाए तो रूस की कोशिश से भारत और चीन के बीच विवादों में कमी आती जा रही है । यही कारण है कि चीन ने पिछले वर्ष एक कार्टून बनाया था जिसमें हाथी और ड्रैगन मिलकर नाचते हुए दिखाए गए थे । ड्रैगन चीन का और हाथी भारत का प्रतीक मानते हुए यह दर्शाने की कोशिश की गई थी कि दोनों देश मिलकर चल सकते हैं । 

               चीन के साथ समस्या तब शुरू हो जाती है जब आतंकवाद पर उसके दोहरे रवैये की  बात आती है । वो आज भी हमारे अक्साई चीन पर कब्जा करके बैठा हुआ है । इसके अलावा भी चीन भारत के कई इलाकों पर अपना दावा पेश करता रहता है । अरुणाचल प्रदेश का तो उसने नाम भी बदला हुआ है । इसके अलावा भारत का चीन के साथ व्यापारिक संतुलन भी समस्या है क्योंकि ये बहुत ज्यादा चीन की तरफ झुका हुआ है । भारत चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहा है क्योंकि चीन पर भारत की निर्भरता बहुत ज्यादा है  लेकिन एक बात तो सच है कि अमेरिका अब दुनिया पर कुछ ज्यादा ही दादागिरी चला रहा है. भारत और चीन की ये साझी समस्या है । पाकिस्तान सिर्फ चीन की तरफ से समस्या नहीं है बल्कि अमेरिका की तरफ से भी है लेकिन भारत ने सिंधु जल समझौते के जरिये पाकिस्तान से निपटने का रास्ता निकाल लिया है । आतंकवाद के प्रति भारत ने बेहद सख्त रवैया अपना लिया है, चीन ज्यादा देर तक पाकिस्तान की मदद नहीं कर सकता ।

भारत, चीन और रूस के मिलकर चलने को दुनिया के कई देश उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं क्योंकि अमेरिकी दादागिरी से सारी दुनिया  परेशान है । बेशक चीन के साथ भारत का आना असंभव लगता है लेकिन साझे हितों के लिए ये संभव हो सकता है । भारत और चीन दोनों ही जानते है कि अगर वो मिल जाए तो उनकी बहुत सी समस्याएं खत्म हो सकती है । हो सकता है कि दोनों देश दूसरे मुद्दों को को किनारे रखकर आगे बढ़ें । भविष्य में वो हो सकता है जो अभी असंभव लग रहा है और डोनाल्ड ट्रंप के कारण भी ये संभव हो सकता है क्योंकि वो अमेरिका को महान बनाने के चक्कर में दूसरे देशों के हितों की अनदेखी कर रहे हैं । 

राजेश कुमार पासी

75 साल: राजनीतिक रूप से आज़ाद लेकिन क्या आर्थिक रूप से अब भी पराधीन!

पंकज जायसवाल 

हम भले ही अपने आपको सुपर पावर बोलें लेकिन सच्चाई है कि अभी भी हमारे बाजार में विदेशी कंपनियां ही राज कर रहीं हैं. हर चीज हर संस्थाओं और बिजनेस पर उनका एकाधिकार सा हो गया है. पश्चिम कई मॉडल से दुनिया के बाजार को नियंत्रित करते हैं. वह एसोसिएशन और फोरम बनाते हैं और उसके मार्फ़त दुनिया के बिजनेस को नियंत्रित करते हैं. आज फ़ूड मार्किट देख लीजिये. चाहे वह भारत या अन्य देश हों, वहां आपको मक्डोनाल्ड, केएफसी, सबवे, बर्गर किंग, पिज़्ज़ा हट, डोमिनो, पापा जॉन, बर्गर किंग, डंकिन डोनट्स, हार्ड रॉक कैफ़े, कैफ़े अमेज़न, वेंडिज, टैको बेल, चिलीज़, नंदोस कोस्टा कॉफी या स्टार बक्स हों,  यही छाये हुए मिलेंगे. ये सब विदेशी ब्रांड हैं. आप भारतीय शहरों के किसी भी मॉल या मार्किट में जाइये. भारतीय फर्मों को इनसे छूटा हुआ बाजार ही मिलता है और तकनीक के बल पर इनका ही एकाधिकार है . स्टार बक्स के आने के बाद भारत के शहरों में कॉफ़ी के होम ग्रोन ब्रांड या चाय के कट्टे पर भीड़ कम होती गई.

भारतीय बाजार में फ़ूड आइटम को देख लीजिये, क्या हम कोल्ड ड्रिंक में पेप्सी, कोक रेड बुल के इतर किसी ब्रांड को देख पाते हैं ?  फ़ूड एवं FMCG में  देख लीजिये, नेस्ले, हिंदुस्तान लीवर लिमिटेड, प्रॉक्टर एंड गैम्बल एवं कोलगेट का   कब्ज़ा है. इनके प्रोडक्ट लाइफबॉय, लक्स , मैग्गी, ले चिप्स, नेस्कैफे, सनसिल्क, नोर सूप ये सब इनके ही ब्रांड हैं. इनके  आगे इंडियन ब्रांड को उड़ान भरने में बहुत ही मशक्कत करनी पड़ती है. इनके   पूंजी और तकनीक के एकाधिकार के कारण भारतीय कंपनियों को लेवल प्लेइंग फील्ड मिल नहीं पाता है.

एडवाइजरी एवं ऑडिट के क्षेत्र में एर्न्स्ट एवं यंग, केपीएमजी, प्राइस वाटरहाउस,  डेलॉइट, बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप, मेकेंजी, बेन एंड कंपनी, ए टी कर्णी, ग्रांट थॉर्टन, बीडीओ, प्रोटीवीटी, जेपी मॉर्गन, मॉर्गन स्टैनले, आर्थर एंडर्सन, एक्सेंचर का लगभग कब्ज़ा है. इन कंसल्टिंग फर्मों में से तो कई सरकारों के कामकाज में अंदर तक घुसी हुईं हैं.

कंप्यूटर की दुनिया ले लीजिये. क्या आप आईटी मार्किट में IBM, माइक्रोसॉफ्ट,  एप्पल, इंटेल, डेल, एचपी, सिस्को, लेनोवो के बिना कंप्यूटर की कल्पना कर सकते हैं? आईटी क्षेत्र को लीजिये क्या Adobe Systems, SAP और Oracle को ERP को क्या भारतीय कंपनियां आसानी से बीट कर पा रहीं हैं ? आईटी में IBM, कैपजेमिनी, एक्सेंचर, डेलॉइट का ही दखल प्रभावी है. AI देखिये चैटजीपीटी की ही लीड है.

इंटरनेट देख लीजिये किसका एकाधिकार है ? सोशल मीडिया देख लीजिये हम अपने जीवन का सर्वाधिक समय व्हाट्सअप, फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर देते हैं और सर्वाधिक चलने वाले जिस जीमेल अकाउंट, गूगल, अमेज़न या एज्युर  क्लाउड का उपयोग करते हैं, सब विदेशी हैं.  

इंजीनियरिंग या इलेक्ट्रॉनिक में देख लीजिये सीमेंस, GE, फिलिप्स, LG, ABB,  सैमसंग, सोनी, फॉक्सवागन, हौंडा, ह्यूंदै, किआ, सुजुकी, टोयोटा, निसान, BMW, मर्सिडीज़, पॉर्श, रीनॉल्ट,  Sony, Honda, Suzuki, Panasonic, Hitachi, Mitsubishi, Toshiba, ओप्पो, वीवो, वोडाफोन, and Canon, ये सब बाहरी हैं.         

भारत में एयरपोर्ट को ही देख लीजिये. जिसके पास एयरपोर्ट का पूरा का पूरा ब्लू प्रिंट होता है. वह कौन है, सेलेबी टर्की की कंपनी, सेट्स सिंगापुर की कंपनी, इंडो थाई में थाई एयरपोर्ट ग्राउंड सर्विसेज पार्टनर, WFS भी विदेशी कंपनी है, NAS एयरपोर्ट केन्या की कंपनी है. जहाज जिनके  हम चलाते हैं वह एयर बस या बोइंग या बॉम्बार्डियर सब विदेशी कम्पनी ही है. 

इनके कल पुर्जे बनाने वाली कंपनी  भी ज्यादातर विदेशी हैं. पूरे दुनिया के एविएशन को जो रेगुलेट करते हैं वह कौन है IATA, ICAO वह कहां की है उसकी स्थापना कहां हुई थी. क्या इनके एफ्लीएशन के  बिना कोई एविएशन बिजनेस में घुस सकता है ?

 गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, आईबीएम, माइक्रोन, एडोब, यूट्यूब, हनीवेल, नोवार्टिस, स्टारबक्स और पेप्सिको जैसी कई वैश्विक कंपनियों में भारतीय मूल के लोग सीईओ हैं लेकिन ये सभी अब भारतीय नागरिक नहीं बल्कि अब ये उन देशों के नागरिक हैं जहाँ वे काम करते हैं और रहते हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि किसी द्विपक्षीय युद्ध की स्थिति में, एक नागरिक के रूप में उनकी निष्ठा किसके प्रति होगी ,उस देश के प्रति, जिसकी नागरिकता उन्होंने ली है, या भारत के प्रति, जहाँ उनकी जड़ें हैं? यह एक यक्ष प्रश्न है।

 भारत के मामले में स्थिति उलटी है। यहां कई कंपनियां हैं जो राष्ट्रीय सुरक्षा या युद्धकालीन परिस्थितियों में भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं लेकिन उनके सीईओ न तो भारतीय मूल के हैं और न ही भारतीय नागरिक। ऐसे में वही सवाल खड़ा होता है द्विपक्षीय युद्ध की स्थिति में उनकी निष्ठा किसके प्रति होगी? उस देश के प्रति, जिसके वो आज भी नागरिक हैं, या भारत के प्रति, जहाँ वे कार्यरत हैं?

हैवी मशीनरी में यूरोप का अधिकार है. जो हैवी मशीनरी इंडिया में कुछ लाख या कुछ करोड़ में बन सकती है, विशेषता के हिसाब से उसी मशीनरी को ग्लोबल   कार्टेल, एसोसिएशन जैसे मंचो का इस्तेमाल कर और ग्लोबल पेटेंट लेकर वह हमें कई गुना मूल्यों पर बेच रहे हैं. जिन हैवी मशीनों को भारतीय कंपनियां 1 से 2 करोड़ में बना सकती हैं उसे यूरोप की कंपनियां कई करोड़ में भारतीय कंपनियों को बेच रही हैं. इनके जर्मनी या फ्रांस में होने वाले कांफ्रेंस में चले जाइये. आपको इनके एकाधिकार का पता चल जायेगा.

बैंकिंग और रेटिंग कंपनी में क्रिसिल, सिबिल, सिटी बैंक, HSBC बैंक, डोएचे बैंक सब विदेशी हैं. भारत में किसको लोन मिलना चाहिए, किसको नहीं मिलना चाहिए, इतने बड़े प्रश्न का क्रेडिट रेटिंग के रूप में निर्धारण करने वाली कम्पनी जो हर आम ख़ास भारतीयों  के लोन का निर्धारण करती है Transunion CIBIL में अमेरिकन कंपनी Transunion की मॉरिशस रुट के द्वारा बहुमत हिस्सेदारी है मतलब एक अमेरिकी कंपनी निर्धारण कर रही है कि भारत में किसको लोन मिलना चाहिए. ऐसा इकोसिस्टम बनाया है कि भारत की लगभग सभी वित्तीय संस्थान, बैंक या NBFC बिना सिबिल स्कोर के लोन ही नहीं दे सकते. एक तरह से भारत के करोड़ों भारतीयों के क्रेडिट रिपोर्ट के डेटा का प्रभावी रूप से मालिक आज एक अमेरिकी कंपनी है. विदेशी कंपनी सिबिल का इतने माइक्रो लेवल पर कब्ज़ा है कि मजदूर से लेकर मध्य वर्ग को लोन मिलेगा कि नहीं, यह उसके रिपोर्ट पर निर्भर करता है.

भारत को अभी इस क्षेत्र में मीलों सफर तय करना है जब देश के बाहर विदेशों में भी भारतीय ब्रांड छायें रहें, जैसे अभी विदेशी ब्रांड भारत और दुनिया के देशों में कब्ज़ा जमाये हैं. अभी ऐसे बहुत से लिस्ट हैं. यहां तो उसी का उल्लेख किया गया है जो पॉपुलर हैं. यह ध्यानाकर्षण इसलिए कि सरकार को और नियामकों को इस विषय पर चिंतन करना चाहिए और भारत फर्स्ट को ध्यान में रखते हुए ऐसे   बजट को ऐसे बनाना चाहिए कि वह भारतीय कंपनियों को पॉपुलर ग्लोबल ब्रांड बनने का मार्ग प्रशस्त करे.

 एक राष्ट्र के रूप में हमें यह मानसिकता अपनानी चाहिए कि हम अपने देशी ब्रांडों की सराहना करें और उनका समर्थन करें, चाहे वह जियो, रिलायंस, अदानी , टाटा , बिड़ला , पतंजलि , सीसीडी , सहारा या किंगफिशर हो। इन उद्यमों ने संस्थाएं खड़ी की हैं, बड़े पैमाने पर रोजगार सृजित किया है और हमारी अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जब सरकार, बैंक या कोई नियामक संस्था कोई कार्रवाई करें तो उन्हें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसे संगठनों का अस्तित्व और निंरतरता सुरक्षित रहे। आखिरकार, ये व्यवसाय केवल उनके प्रवर्तकों का नहीं हैं बल्कि उन लाखों कर्मचारियों, उनके परिवारों के भविष्य और उन बच्चों की शिक्षा के बारे में भी हैं जो इनसे जुड़ें हैं और पोषित हैं। ये कंपनियां करों का भुगतान कर राष्ट्र को ईंधन भी देती हैं जिससे जनकल्याण और विकास संभव होता है।

इसलिए हमें अपने स्वदेशी ब्रांडों को कमजोर या नष्ट होने देने की बजाय ऐसा पारिस्थितिकी तंत्र बनाना चाहिए जिसमें वे फलें-फूलें, योगदान दें और भारत के भविष्य का निर्माण करते रहें।

पंकज जायसवाल 

वह काला आपातकाल : बाद में पछताई थी इंदिरा गांधी

बाद में पछताई थी इंदिरा गांधी

डॉ घनश्याम बादल

25 जून 1975 की रात के 12:02 बजे, आकाशवाणी से एक संदेश प्रसारित हुआ  “राष्ट्रपति ने देश में आपात स्थिति लागू कर दी है”  और इसके साथ ही देश भर से विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी का लंबा दौर शुरू हो गया। सारा देश हस्तप्रभ था लेकिन किसी की हिम्मत नहीं कि विरोध करें और जिसने विरोध किया वह  जेल मे गया जहां उसे थर्ड डिग्री की यातनाएं  दी गईं। यह था देश में अंतरिक्ष सुरक्षा के नाम पर पहली बार लागू की गई इमरजेंसी का प्रभाव।

  आपातकाल लागू करने के लिए संवैधानिक औपचारिकताओं का भी पालन नहीं किया गया था संविधान के अनुसार देश में आपातकालीन स्थिति लागू करने के लिए मंत्रिमंडल की लिखित संस्तुति जरूरी होती है लेकिन न तो मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई गई थी और न ही स्पष्ट रूप से यह बताया गया था कि आखिर देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरा क्या था । इससे भी बढ़कर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने केवल प्रधानमंत्री की सिफारिश के आधार पर देश में आपातकालीन स्थिति के पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए थे ।  हालांकि इस पर भी विवाद होते रहे हैं और कहा तो यहां तक गया कि आपातकालीन स्थिति की घोषणा पहले की गई एवं राष्ट्रपति से इस पर हस्ताक्षर बाद में कराए गए एक तरह से उन्हें बाध्य करके । ख़ैर इसमें कितना सच है यह कभी पता नहीं चला और न ही इसके चलने की कोई संभावना है।

यदि आपातकालीन स्थिति की पृष्ठभूमि पर एक नज़र डालें तो पता चलता है कि  तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अनुसार देश में उस समय भारी अव्यवस्था, दंगे, धरने, प्रदर्शन और कानून तथा व्यवस्था की स्थिति इतनी खराब हो गई थी कि उसे नियंत्रण में करने के लिए आपातकालीन स्थिति लागू करना आवश्यक हो गया लेकिन विपक्ष के अनुसार यह इंदिरा गांधी ने केवल अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए लगाई थी और उनका एकमात्र लक्ष्य अपनी अधिनायकवादी सत्ता को बनाए रखना था।

  जब इतिहास को खंगालते हैं तो जो बातें उभर कर सामने आती हैं उनमें सबसे प्रमुख था इलाहाबाद हाईकोर्ट का वह निर्णय जिसमें तत्कालीन न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने रायबरेली से इंदिरा गांधी के लोकसभा चुनाव में प्रतिद्वंद्वी राजनारायण की याचिका पर हुई सुनवाई के बाद अपने निर्णय में इंदिरा गांधी के 1971 के लोकसभा चुनाव में हुई विजय को अवैधानिक करार दे दिया था।‌  न्यायालय के अनुसार इंदिरा गांधी पर लगाए गए आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के आरोप सिद्ध हो गए थे और उन्हें परोक्ष रूप से सरकारी संसाधनों व केंद्र सरकार के अधिकारियों खास तौर पर प्रधानमंत्री के निजी सचिव यशपाल कपूर, तथा श्रीमती गांधी के संसदीय क्षेत्र के डी एम एवं पुलिसअधीक्षक द्वारा अपने अधिकारों का बेजां एवं पक्षपात पूर्ण इस्तेमाल करने का दोषी पाया गया था। इस निर्णय का सीधा सा मतलब था कि इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री का पद छोड़ना पड़ता जो वे किसी कीमत पर नहीं चाहती थी । ऐसी स्थिति में उन्होंने सभी नागरिक अधिकारों को निलंबित कर न्यायपालिका को पंगु बनाते हुए प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, राष्ट्रपति एवं संसद की कार्रवाई को न्यायपालिका के विचार क्षेत्र से बाहर कर दिया था । एक तरह से यह भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की मूल भावना का गला घोंटने जैसा था ।‌

  यदि   उस काले अध्याय पर निगाह डालें तो पता चलता है कि इंदिरा गांधी ने 1971 में पाक की विजय को अपने राजनीतिक लाभ के लिए जमकर इस्तेमाल किया और भारी बहुमत के साथ सत्ता में वापस लौटी थी। मगर इस बार वापसी के साथ उनका व्यवहार पूरी तरह बदला हुआ था तथा वह अपने बेटे संजय गांधी के साथ खुद को सभी नियम कायदों से ऊपर मानने लगी थीं । उनके चारों ओर एक ‘काकस’ इकट्ठा हो गया था और देश भर में ‘इंदिरा इज़ इंडिया और इंडिया इज़ इंदिरा’  का नारा गूंजने लगा था  लेकिन उच्च न्यायालय के इस निर्णय ने इंदिरा गांधी के सपनों को धराशाई कर दिया था और इस बात का पूरा अंदेशा  था कि न केवल उन्हें संसद की सदस्यता छोड़नी  पड़ती अपित जेल भी जाना पड़ता।

दूसरी और विपक्ष उच्च न्यायालय के इस निर्णय से अत्यधिक उत्साहित होकर सड़कों पर उतर आया और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार से छात्र आंदोलन राजनीति को नई दिशा देने लगा था।  24 जून 1975 को राजनीति के इतिहास में संभवतः पहली बार एक ऐसी विशाल सभा हुई थी जिसमें तत्कालीन विपक्ष की सभी पार्टियों के नेता मंच पर थे और सब ने एकमत से इंदिरा गांधी के खिलाफ आंदोलन की घोषणा कर दी थी।  तब उन्होंने नारा दिया था ‘इंदिरा हटाओ, देश बचाओ’

 ऐसे हालात में देश में महंगाई एवं भ्रष्टाचार के साथ-साथ कानून एवं व्यवस्था भी हाथ से निकलती जा रही थी। मगर इसका नैरेटिव सत्ता पक्ष एवं विपक्ष अलग-अलग तरीके से तैयार कर रहा था।

 आपातकालीन स्थिति में लोकतांत्रिक मूल्यों को ताक पर रखते हुए तत्कालीन विपक्ष के ही नहीं अपितु कांग्रेस के भी इंदिरा विरोधी नेताओं को जेल में ठूंस दिया गया ।  लाखों की संख्या में छात्र नेता, सामाजिक कार्यकर्ता, व समाज सुधारक भी गिरफ्तार किए गए ।  न केवल जयप्रकाश नारायण अपितु मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अशोक मेहता, चंद्रशेखर, भैरोंसिंह शेखावत जैसे प्रभावशाली नेताओं को गिरफ्तार करके 21 महीने तक जेल में रखा गया । बाद में जॉर्ज फर्नांडिस ने तो यहां तक कहा कि जेल में उन्हें थर्ड डिग्री से भी आगे की यातनाएं दी गईं ।  जयप्रकाश नारायण को इतना प्रताड़ित किया गया कि उसके बाद वे डायलिसिस पर ही रहे सच कहा जाए तो डायलिसिस पर केवल जयप्रकाश नारायण नहीं अपितु  देश का लोकतंत्र चला गया था।

  इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र को ‘अनुशासन पर्व’ कहा । उन्होंने अपने 20 सूत्री कार्यक्रम के अलावा संजय गांधी के पांच सूत्री त कार्यक्रम तथा कई आकर्षक नारों वाले पोस्टर जगह-जगह लगवाए।  कड़ी मेहनत, दूर -दृष्टि, पक्का इरादा, लग्न और अनुशासन जैसे लुभावने शब्दों का इस्तेमाल किया गया और आपातकाल के दिनों को ‘सबसे अच्छे दिन’ का नाम दिया गया आज जो नारा देश नरेंद्र मोदी के मुंह से सुन रहा है वह नारा तब इंदिरा गांधी ने ही दिया था । ऐसा ही एक दूसरा नारा था ‘सबका साथ सबका विकास’  लेकिन सच तो यह है कि इस काले युग में न विकास हुआ और न सबका साथ लिया गया ।  अपितु इंदिरा गांधी व उनके परिवार तथा समर्थकों का स्वर्णकाल रहा इस दौर में।

   यद्यपि यह नहीं कहा जा सकता है कि आपातकाल में लिए गए सारे ही निर्णय ग़लत थे लेकिन जिस तरीके से उन्हें लागू किया गया वह निश्चित रूप से ग़लत था।  उदाहरण के लिए जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर जिस तरह जोर जबरदस्ती से नसबंदियां की गईं वह  घोर अमानवीय था सौंदर्यीकरण के नाम पर झुग्गी झोपड़ी हटाने की मुहिम ने लाखों लोगों को बेघर कर दिया गया, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं मौलिक नागरिक अधिकार छीन लिए गए ।

 21 महीने के कार्यकाल में कितने ही संवैधानिक संशोधन किए गए जिनमें 42 वें संविधान संशोधन विधेयक ने सारी शक्तियां प्रधानमंत्री को दे दी थीं और नागरिकों के अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्य  भी जोड़ दिए गए ।

 हालांकि इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण, प्रिवीपर्स का खात्मा, जमींदारी प्रथा का उन्मूलन जैसे क्रांतिकारी कदम भी उठाए ।

लेकिन  जोर जबरदस्ती का जनता पर भारी विपरीत प्रभाव पड़ा और इसका बदला जनता ने 1977 के चुनाव में कांग्रेस ही नहीं अपितु इंदिरा गांधी को भी हराकर लिया हालांकि विभिन्न दलों का गैर वैचारिक जनता पार्टी नाम का संगठन केवल ढाई वर्षो में ही बिखर गया और 1980 में इंदिरा गांधी एक बार फिर सत्ता में लौट आई।

    इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने का पश्चाताप भी रहा उन्होंने इसके लिए देश से माफी भी मांगी । एक अच्छा काम उन्होंने अपना इस्तीफा देने से पहले यह किया था कि उन्होंने आपातकालीन स्थिति को हटा दिया ।

रिक्त संपादकीय

डॉ. सत्यवान सौरभ

स्याही की धार थम गई,
शब्दों ने आत्महत्या कर ली,
अख़बार का कोना ख़ाली है,
जैसे लोकतंत्र ने मौन धर ली।

न सेंसर की मुहर लगी,
न टैंक चले, न हुक्मनामा,
फिर भी हर कलम काँप रही है —
शायद डर का रंग बदला है अबकी दफ़ा।

जो लिखता है, वो बिकता है,
जो चुप है, वही अब ज़िंदा है,
सच की छपाई महंगी है,
और झूठ पैकेज में फ्री मिलता है।

संपादकीय अब रिक्त क्यों है?
क्योंकि सवाल पूछना अपराध है,
और जवाब —
वो अब प्रेस रिलीज़ में आता है।

ये चुप्पी, बस चुप्पी नहीं,
ये समय का ऐतिहासिक दस्तावेज़ है,
जिस दिन बोलने की हिम्मत लौटेगी —
शब्द शायद माफ़ न करें।

बेटियों के लिये मोह बढ़ना संतुलित समाज का आधार

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– ललित गर्ग  –

दुनियाभर में माता-पिता आमतौर पर अब तक बेटियों की तुलना में बेटों को ज्यादा पसंद करते आ रहे हैं, लेकिन प्राथमिकताओं को लेकर वैश्विक दृष्टिकोण में एक सूक्ष्म, महत्वपूर्ण और बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है। इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि अब लड़के की तुलना में लड़कियों को अधिक पसंद किया जाने लगा है। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि लड़कियों के प्रति पूर्वाग्रह कम है और संभवतः लड़कों के प्रति पूर्वाग्रह ज्यादा है। नए साक्ष्य एवं अध्ययन इस बदलाव का संकेत देते हैं, जो संभवतः बढ़ते एकल परिवार परम्परा, तथाकथित आधुनिक-सुविधावादी जीवनशैली एवं कैरियर से जुड़ी प्राथमिकताओं के चलते लड़कों से जुड़े एक सूक्ष्म भय, उपेक्षा एवं उदासीनता को उजागर करते हैं। ‘द इकोनॉमिस्ट’ द्वारा ताजा प्रकाशित रिपोर्टों में, लिंग प्राथमिकताओं को लेकर वैश्विक दृष्टिकोण में कुछ ऐसे ही दिलचस्प रुझान सामने आए हैं, जिसमें लड़कों के प्रति सदियों पुराना झुकाव अब कम हो रहा है। रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में माता-पिता अब लड़कों की तुलना में लड़कियों को भविष्य की सुरक्षा को लेकर अधिक पसंद कर रहे हैं। विकासशील देशों में, लड़कों के प्रति पूर्वाग्रह कम हो रहा है, जबकि अमीर देशों में लड़कियों को प्राथमिकता दी जा रही है। इसके अतिरिक्त, युवा पुरुषों और महिलाओं के बीच लैंगिक भूमिकाओं को लेकर विचारों में अंतर बढ़ता जा रहा है।
ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2025 में, भारत 148 देशों में 131वें स्थान पर है, जो पिछले वर्ष की तुलना में दो स्थान नीचे है, और इसका लैंगिक समानता स्कोर 64.1 प्रतिशत है। वर्तमान प्रगति की दर से, पूर्ण लैंगिक समानता प्राप्त करने में 134 वर्ष लगेंगे, जो दर्शाता है कि प्रगति की समग्र दर धीमी है। इन रिपोर्टों से पता चलता है कि दुनिया भर में लैंगिक समानता की दिशा में प्रगति हो रही है, लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। भारत के लिये लैंगिक समानता की दिशा में दो पायदान की गिरावट का सबसे बड़ा कारण महिला समानता को लेकर चल रहे आन्दोलन है। भारत की बेटियां आज अंतरिक्ष से लेकर खेल के मैदान तक में बुलंदियां छू रही हैं। वे परिवार की जिम्मेदारियों को निभाने में उल्लेखनीय भूमिकाओं का निर्वाह कर रही है। सरकार द्वारा ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, ‘सुकन्या समृद्धि योजना’ जैसे सराहनीय पहल के जरिए बेटियों को आगे बढ़ने के अवसर मिल रहे हैं।
इक्कीसवीं सदी की चौखट पर खड़ी दुनिया में बड़े व्यापक बदलाव हो रहे हैं। इंसानी रिश्तों की अहमियत को लेकर भी नई सोच पनप रही है। अब अमेरिका, दक्षिण कोरिया, भारत और चीन में, लिंग अनुपात सामान्य या यहां तक कि बेटी की पसंद के संकेत दिखाने लगा है। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि इस बदलाव की असल वजह क्या है? दरअसल, माता-पिता में यह धारणा बलवती होती जा रही है कि बेटियां उनकी ढलती उम्र में धीरे-धीरे अधिक विश्वसनीय देखभाल करने वाली साबित हो सकती हैं। उन्हें परिवार से गहरे तक जुड़े रहने की अधिक संभावना के रूप में देखा जाने लगा है। आज बेटियों को बेटों के मुकाबले बेहतर शैक्षणिक प्रदर्शनकर्ता, परिवार सार-संभालकर्ता, माता-पिता के प्रति जिम्मेदारी निर्वाहकर्ता के रूप में देखा जाने लगा है। तेजी से कामकाजी दुनिया का हिस्सा बनने के कारण वे आर्थिक रूप से स्वावलंबी होने से अनेक पारिवारिक जिम्मेदारियों के लिये अधिक संवेदनशील है। ऐसा माना जाने लगा है कि बेटियां बेटों के मुकाबले में ज्यादा संवेदनशील होती हैं और जीवन के अंतिम पड़ाव में मां-बाप को सुरक्षा कवच प्रदान कर सकती हैं। जिसके चलते लोग बेटों के मुकाबले बेटियों को अपनी प्राथमिकता बनाने को तरजीह देने लगे हैं।
पश्चिमी देशों में गोद लेने और आईवीएफ के डेटा दिखाते हैं कि बेटियों को चुनने की दिशा में स्पष्ट झुकाव है। दरअसल, पश्चिमी देशों के एकल परिवारों में बेटे अपनी गृहस्थी बसाकर मां-बाप को उनके भाग्य पर छोड़ जाते हैं। भारत में भी यही स्थितियां देखने को मिल रही है। जबकि सदियों से भारत की समाज-व्यवस्था एवं परिवार-परम्परा पुत्र मोह की ग्रंथि से ग्रस्त रहा है। जिसके चलते शिशु लिंग अनुपात में असंतुलन बढ़ता गया है। देश में हुई 2016 की जनगणना में लड़कों की तुलना में लड़कियों की घटती संख्या के आंकडे़ चौंकाते ही नहीं बल्कि दुखी भी करते हैं। जिस तरह से लड़के-लड़कियों का अनुपात असंतुलित हो रहा है, उससे ऐसी चिन्ता भी जतायी जाने लगी है कि यही स्थिति बनी रही तो लड़कियां कहां से लाएंगे? हालत यह है कि आंध्र प्रदेश में 2016 में प्रति एक हजार लड़कों के मुकाबले महज आठ सौ छह लड़कियों का जन्म दर्ज किया गया। हालांकि, अब आधिकारिक आंकड़े बता रहे हैं कि देश में शिशु लिंग अनुपात दर में सुधार हुआ है।
जन्म से पहले ही पता चल जाए कि लड़की यानी बालिका पैदा होगी तो माता-पिता उसकी जान लेने से भी नहीं कतराते। कन्या भ्रूण हत्या की बढ़ती घटनाएं इसी सोच का परिणाम बनी। पिछली सदी में समाज के एक बड़े वर्ग में यह एक विभीषिका ही थी कि परिवार की धुरी होते हुए भी नारी को वह स्थान प्राप्त नहीं था जिसकी वह अधिकारिणी थी। उसका मुख्य कारण था सदियों से चली आ रही कुरीतियाँ, अंधविश्वास व बालिका शिक्षा के प्रति संकीर्णता। कितनी विडम्बना है कि देश में हम ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा बुलन्द करते हुए एक जोरदार मुहिम चला रहे हैं उस देश में लगातार बालिकाओं की संख्या घटने का दाग लगता रहा है। यह दाग ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के संकल्प पर भी लगा है और यह दाग हमारे द्वारा नारी को पूजने की परम्परा पर भी लगा है। लेकिन प्रश्न है कि हम कब बेदाग होंगे? लेकिन अब इस संकीर्ण सोच में बदलाव आना एक सुखद संकेत है।
अच्छे भविष्य के लिए हम बेटियों की पढ़ाई से ही सबसे ज्यादा उम्मीदें बांधते हैं। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे नारे हमारे संकल्प को बताते हैं, हमारी सदिच्छा को दिखाते हैं, भविष्य को लेकर हमारी सोच को जाहिर करते हैं, लेकिन वर्तमान की हकीकत इससे उलट है, इसे बदलने में अभी भी लम्बा सफर तय करना होगा। बालिकाएं पढ़ाई में अपने झंडे भले ही गाड़ दें, लेकिन उन्हें आगे बढ़ने से रोकने की क्रूरताएं कई तरह की हैं। शताब्दियों से हम साल में दो बार नवरात्र महोत्सव मनाते हुए कन्याओं को पूजते हैं। लेकिन विडम्बना देखिये कि सदियों की पूजा के बाद भी हमने कन्याओं को उनका उचित स्थान और सम्मान नहीं दे पाये हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 ( 2019-21) का सर्वे चिंता बढ़ाने वाला है। सर्वे के अनुसार, लगभग 15 फीसदी भारतीय माता-पिता अभी भी बेटियों की तुलना में बेटों की आकांक्षा रखते हैं। यही वजह है कि हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में विषम शिशु लिंगानुपात चिंता का विषय बना हुआ है।
लड़कियों को भावनात्मक लगाव या घरेलू स्थिरता के लिये तो महत्व दिया जा सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि पोषण, शिक्षा या विरासत तक उन्हें समान पहुंच दी जाए। भारतीय समाज में दहेज जैसी सांस्कृतिक प्रथाएं आज भी बेटी के माता-पिता की बड़ी चिंता बनी रहती हैं। परंपरावादी समाज में यह धारणा बलवती रही है कि बेटियां दूसरे परिवार की हैं। यही वजह है कि ग्रामीण और शहरी गरीब समुदायों में लड़कियां हाशिये पर रख जाती हैं। लेकिन इसके बावजूद भारत को लिंग समानता के वैश्विक आंदोलन की किसी भी तरह अनदेखी नहीं करनी चाहिए। ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2025 वैश्विक लैंगिक अंतर का आकलन और तुलना करने के लिए एक समझने योग्य ढांचा प्रदान करके और उन देशों को उजागर करके जो इन संसाधनों को महिलाओं और पुरुषों के बीच समान रूप से विभाजित करने में रोल मॉडल हैं, रिपोर्ट अधिक जागरूकता के साथ-साथ नीति निर्माताओं के बीच अधिक आदान-प्रदान के लिए उत्प्रेरक का काम करती है। भारत में समान संपत्ति अधिकार लागू करने, दहेज प्रथा की कुरीति को समाप्त करने की दिशा में सख्त कदम उठाने चाहिए। तभी भारतीय समाज में लिंगभेद की मानसिकता खत्म होगी और लैंगिक समानता की दिशा में मार्ग प्रशस्त होगा। साथ ही देश में तेजी से बढ़ती बुजुर्गों की आबादी के लिये बालिकाएं सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में आधार बन सकेगी।