संदर्भः-आपातकाल में दर्ज किए संविधान की प्रस्तावना में संतों को हटाने की जरूरत
प्रमोद भार्गव
आपातकाल में जब भारतीय लोकतंत्र कारागारों में बंधक था तब 1976 में संविधान की प्रस्तावना में 42वें संविधान संषोधन अधिनियम के तहत बदला गया, जिसमें ‘समाजवादी‘, ‘धर्मनिरपेक्ष‘ और ‘अखंडता‘ शब्द जोड़ दिए गए थे। अब इन शब्दों को विलोपित करने की मांग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उठा दी है। केंद्र सरकार से इन शब्दों की समीक्षा करने का आवाहन संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने किया है। इस मांग के समर्थन में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुर मिलाते हुए कहा कि ‘संविधान की प्रस्तावना परिवर्तनशील नहीं है, लेकिन भारत में आपातकाल के दौरान इसे बदल दिया गया, जो संविधान निर्माताओं की बुद्धिमता के साथ विश्वासघात का संकेत है, जो शब्द जोड़े गए, वे नासूर थे और उथल-पुथल पैदा कर सकते हैं। यह बदलाव हजारों वर्शों से इस देश की सभ्यतागत संपदा और ज्ञान को कमतर आंकने के साथ सनातन की भावना का अपमान भी है। प्रस्तावना संविधान का बीज होती है। इसी के आधार पर संविधान की मूल भावना विकसित होती है। भारत के अलावा किसी दूसरे देश में संविधान की प्रस्तावना में बदलाव नहीं किया गया। अतएव यह बदलाव न्याय का उपहास है।
भारतीय समाज के बहुलतावादी धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्वरूप को ध्यान में रखते हुए संवैधानिक गणराज्य की नींव रखी थी। इसीलिए मूल संविधान में भारतीय परंपरा, संस्कृति, आध्यात्म जैसे ऊर्जावान तत्वों का समावेश संभव हुआ। तब संविधान निर्माताओं ने सोचा था कि भारत की संस्कृति, संस्कार और सभ्यतामूलक इतिहास के प्रवाह को भी विभिन्न छवियों के द्वारा स्थान मिलना चाहिए। तब उस समय के प्रसिद्ध चित्रकार नंदलाल बोस से आग्रह कर हजारों वर्शों की सांस्कृतिक सभ्यता के चित्रों की संविधान में जीवंत प्रस्तुति संभव हुई। इस क्रम में मोहनजोदड़ों के चित्रों से लेकर वैदिक युग के गुरुकुल हैं। मौलिक अधिकार के अध्याय में प्रभु राम, सीता और लक्ष्मण का चित्र है। चूंकि राम मौलिक अधिकारों की रक्षा के साथ रामराज्य के प्रतीक हैं। इसलिए उनका चित्र तार्किक है। राज्य के नीति-निदेशक तत्व अध्याय में भगवान कृष्ण द्वारा गीता का उपदेश दिए जाने का चित्र है। यह चित्र एक हताश योद्धा को अपने कर्तव्य पालन के प्रति इंगित करता है। भगवान बुद्ध, महावीर, सम्राट विक्रमादित्य और नालंदा विश्वविद्यालय की चर्चा है। शिव के नटराज नृत्य की छवि प्रदर्शित है। मुगल काल में अकबर और मुगलकालीन स्थापत्य के चित्र हैं। लेकिन बाबर औरंगजेब की चर्चा नहीं है। क्योंकि ये क्रूर और मंदिरों के विध्वंसक रहे हैं। इसी क्रम में वीर शिवाजी, गुरू गोविंद सिंह, महारानी लक्ष्मीबाई, महात्मा गांधी और नेताजी सुभाश चंद्र बोस के योगदान से जुड़े चित्र हैं। इन चित्रों को छापना इसलिए संभव हुआ, क्योंकि संविधान निर्माताओं ने लोकतांत्रिक गणतंत्र के साथ भारतीय सनातन संस्कृति और सभ्यता को जानने पर जोर दिया था। क्या आज के परिप्रेक्ष्य में इन चित्रों का संविधान में प्रदर्शन संभव था ?
दरअसल स्वतंत्रता के कुछ वर्ष बाद से केवल हिंदू और हिंदुओं से जुड़े प्रतिरोध को धर्मनिरपेक्षता मान लेने की परंपरा सी चल निकली थी। जबकि वास्तविकता तो यह है कि मूल संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवाद‘ शब्द थे ही नहीं। ये शब्द तो आपातकाल के दौरान 42वां संविधान संशोधन लाकर ‘समाजवादी धर्मनिरपेक्ष संविधान अधिनियम 1976’ के माध्यम से जोड़े गए थे। आपातकाल के बाद जब जनता दल की केंद्र में सरकार बनी तो यह सरकार 43वां संशोधन विधेयक लाकर सेक्युलरिज्म मसलन धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या स्पष्ट करना चाहती थी, प्रस्तावित प्रारूप में इसे स्पष्ट करते हुए वाक्य जोड़ा गया था, ‘गणतंत्र शब्द जिसका विशेषण ‘धर्मनिरपेक्ष’ है का अर्थ है, ऐसा गणतंत्र जिसमें सब धर्मो के लिए समान आदर हो,‘ लेकिन लोकसभा से इस प्रस्ताव के पारित हो जाने के बावजूद कांग्रेस ने इसे राज्यसभा में गिरा दिया था। अब यह स्पष्ट उस समय के कांग्रेसी ही कर सकते हैं कि धर्मों का समान रूप से आदर करना धर्मनिरपेक्षता क्यों नहीं है ? गोया, इसके लाक्षणिक महत्व को दरकिनार कर दिया गया।
शायद ऐसा इसलिए किया गया जिससे देश में सांप्रदायिक सद्भाव स्थिर न होने पाए और सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता को अनंतकाल तक वोट की राजनीति के चलते तुष्टिकरण के उपायों के जरिए भुनाया जाता रहे। साथ ही इसका मनमाने ढंग से उपयोग व दुरुपयोग करने की छूट सत्ता-तंत्र को मिली रहे। जहां तक गणतंत्र शब्द का प्रश्न है तो विक्टर ह्यूगो ने इसे यूं परिभाषित किया है, ‘जिस तरह व्यक्ति का अस्तित्व उसके जीने की इच्छा की लगातार पुष्टि है, उसी तरह देश का अस्तित्व उसमें रहने वालों का परस्पर तालमेल नित्य होने वाला जनमत संग्रह है।’ दुर्भाग्य से हमारे यहां नरेंद्र मोदी सरकार के पहले तक परस्पर तालमेल खंडित होता रहा है। अलगाव और आतंकवाद की अवधारणाएं निरंतर देश की संप्रभुता व अखण्डता के समक्ष खतरा बनकर उभरती रही हैं। राष्ट्रवाद और भारत माता की जय को भी संकीर्ण और अल्प-धार्मिक दृष्टि से देखा जाता रहा है। जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय में वामपंथी मानसिकता के चलते जिस तरह से देश के हजार टुकड़े करने के नारे लगते रहे और उन्हें अभीव्यक्ति की आजादी के परिप्रेक्ष्य में संवैधानिक ठहराने की कोशिशें हुईं, उस संदर्भ में लगता है कि धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की आजादी के मायने राश्ट्रद्रोह को उकसाने और उन्हें संरक्षित करने के उपाय ही साबित हुए हैं। अतएव इस तरह की विकृतियों को आधार देने वाले संविधान के अनुच्छेदों में बदलाव जरूरी है।
भारतीय संविधान जिस नागरिकता को मान्यता देता है, वह एक भ्रम है। सच्चाई यह है कि हमारी नागरिकता भी खासतौर से अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक समुदायों में बंटी हुई है। लिहाजा इसका चरित्र उत्तरोत्तर सांप्रदायिक होता रहा है। हिंदु, मुसलमान और ईसाई भारतीय नागरिक होने का दंभ बढ़ता है। जबकि नागरिकता केवल देशीय मसलन भारतीय होनी चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी है,क्योंकि भारत में 4635 समुदाय हैं। जिनमें से 78 प्रतिशत समुदायों की न सिर्फ भाषाई एवं सांस्कृतिक बल्कि सामाजिक श्रेणियां भी हैं। इन समुदायों में 19.4 प्रतिशत धार्मिक अल्पसंख्यक हैं। गोया, धर्मनिरपेक्षता शब्द को विलोपित किया जाना जरूरी है। हालांकि आजादी के ठीक बाद प्रगतिशील बौद्धिकों ने भारतीय नागरिकता को मूल अर्थ में स्थापित करने का प्रयास किया था, लेकिन धर्मनिरपेक्षता के फेर में मूल अर्थ सांप्रदायिक खानों में विभाजित होता चला जा रहा है, जिसका संकट अब कुछ ज्यादा ही गहरा गया है।
वर्तमान में हमारे यहां धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के शब्द ‘सेक्युलर’ के अर्थ में हो रहा है। अंग्रेजी के ऑक्सफोर्ड शब्दकोश में इसका अर्थ ‘ईश्वर’ विरोधी दिया है। भारत और इस्लामिक देश ईश्वर विरोधी कतई नहीं हैं। ज्यादातर क्रिश्चियन देश भी ईसाई धर्मावलंबी हैं। हां, बौद्ध धर्मावलंबी चीन और जापान जरूर ऐसे देश हैं, जो धार्मिक आस्था से पहले राष्ट्रप्रेम को प्रमुखता देते हैं। हमारे संविधान की मुश्किल यह भी है कि उसमें धर्म की भी व्याख्या नहीं हुई है। इस बाबत न्यायमूर्ति राजगोपाल आयंगर ने जरूर इतना कहा है, ‘मैं यह जोड़ना चाहता हूं कि अनुच्छेद 25 और 26 में धार्मिक सहिष्णुता का वह सिद्धांत शामिल है, जो इतिहास के प्रारंभ से ही भारतीय सभ्यता की विशेषता रहा है।’ इसी क्रम में यह भी कहा, ‘धर्म शब्द की व्याख्या लोकतंत्र में नहीं हुई है और यह ऐसा शब्द है, जिसकी निश्चित व्याख्या संभव नहीं है।’ संभवतः इसीलिए न्यायालय को कहना पड़ा था कि ‘गणतंत्र का धर्मनिरपेक्ष स्वभाव राष्ट्रनिर्माताओं की इच्छा के अनुरूप होना चाहिए और इसे ही संविधान का आधार माना जाना चाहिए।’ अब यहां संकट यह भी है कि भारत राष्ट्र का निर्माता कोई एक नायक नहीं रहा। गरम, नरम और नेताजी सुभाष के सैन्य दलों के विद्रोह से विभाजित स्वतंत्रता संभव हुई। नतीजतन धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या को किसी एक इबारत में बांधना असंभव है। इसीलिए श्रीमद्भागवत गीता में जब यक्ष धर्म को जानने की दृष्टि से प्रश्न करते हैं तो धर्मराज युधिष्ठिर का उत्तर होता है, ‘तर्क कहीं स्थिर नहीं हैं, श्रुतियां भी भिन्न-भिन्न हैं। एक ही ऋषि नहीं है, जिसका प्रमाण माना जाए। धर्म का तत्व गुफा में निहित है। अतः जहां से महापुरुष जाएं, वही सही धर्म या मार्ग है।’
इसी संदर्भ में केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि ‘सत्य एक है। विद्वान उसे अलग-अलग तरीके से कहते हैं। भारतीय दर्शन इसे ‘मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना‘ कहता है। अर्थात सर्वधर्म सद्भाव भारतीय-संस्कृति का मूल है, धर्मनिरपेक्ष हमारी संस्कृति का मूल नहीं है। इसलिए इसे हटाने पर विचार होना चाहिए।‘ वैसे भी भारतीय परंपरा में धर्म कर्तव्य के अर्थ में प्रचलित है। यानी मां का धर्म, पिता का धर्म, पुत्र का धर्म, स्वामी का धर्म और सेवक का धर्म, इस संदर्भ में कर्तव्य से निरपेक्ष कैसे रहा जा सकता है ? सेक्युलर के लिए शब्दकोश में पंथनिरपेक्ष शब्द भी दिया गया है, पर इसे प्रचलन में नहीं लिया गया। अतएव यह आवश्यक हो गया है कि संविधान में जो भी ठूंसे गए विकार और विसंगतियां हैं, उन्हें जम्मू-कश्मीर को अलग करने वाली धारा 370 की तरह विलोपित कर देना चाहिए। प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई ने ठीक ही कहा है कि ‘डॉ आंबेडकर ने देश को एकजुट रखने के लिए एक संविधान की कल्पना की थी। उन्होंने कभी भी किसी राज्य के लिए अलग संविधान के विचार का समर्थन नहीं किया। इसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद-370 को निरस्त करने के केंद्र के फैसले को बरकरार रखते हुए एक संविधान के तहत एकजुट भारत से संबंधित डॉ आंबेडकर के दृश्टिकोण से प्रेरणा ली है।‘ गवई पांच न्यायाधीषों की उस संविधान पीठ के सदस्य थे, जिसकी अध्यक्षता तब के प्रधान न्यायाधीष डीवाई चंद्रचूड़ ने की थी। इस पीठ ने सर्वसम्मति से अनुच्छेद-370 को निरस्त करने के केंद्र सरकार के फैसले का समर्थन किया था। अतएव धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी जैसे शब्दों को संविधान की प्रस्तावना से विलोपित करके उसे मूल स्वरूप में लाने की जरूरत है।
प्रमोद भार्गव
‘भगवान शिव’ के किरदार में मोहित रैना
सुभाष शिरढोनकर
फिल्म मेकर नितेश तिवारी की अपकमिंग फिल्म ‘रामायण’ का हर किसी को बेसब्री से इंतजार है। फिल्म दो पार्ट में आने वाली है जिसमें से पहला पार्ट दिवाली 2026 को सिनेमाघरों में आएगा और दूसरा पार्ट साल 2027 की दिवाली पर रिलीज होगा।
फिल्म में रनबीर कपूर भगवान श्रीराम और साउथ एक्ट्रेस साई पल्लवी सीता का किरदार निभा रही हैं। रावण की भूमिका में यश और हनुमान की भूमिका में सनी देओल नजर आने वाले हैं।
इस फिल्म में लारा दत्ता कैकेयी और रवि दुबे लक्ष्मण के किरदारों में नजर आएंगे। रामानंद सागर के दूरदर्शन धारावाहिक ‘रामायण’ में भगवान श्रीराम का अमर किरदार निभा चुके एक्टर अरुण गोविल फिल्म में राजा दशरथ का किरदार निभा रहे हैं।
नए अपडेट के अनुसार फिल्म में टीवी के पॉपुलर स्टार मोहित रैना की भी एंट्री हो चुकी है। वे इस फिल्म में भगवान शिव की भूमिका में नजर आएंगे। दरअसल इससे पहले भी वे कई टीवी शोज में भगवान शिव का किरदार निभा चुके हैं।
मोहित रैना को भगवान शिव के किरदार में काफी पसंद किया जाता रहा है। वे इस किरदार के लिए एकदम फिट नजर आते हैं। मोहित रैना ने शिव का रोल प्ले करके पहचान बनाई। इस रोल ने उन्हें रातों-रात इतना अधिक फेमस कर दिया था कि सभी उन्हें भगवान की तरह पूजने लगे थे।
फिल्म ‘रामायण’ के लिए मोहित रैना के नाम का एलान होते ही उनके फैंस खुशी से झूमते नजर आ रहे हैं।
14 अगस्त 1982 को जम्मू के एक कश्मीरी पंडित परिवार में जन्मे मोहित ने अपनी पढ़ाई-लिखाई जम्मू के केंद्रीय विद्यालय से की। उसके बाद वहीं, यूनिवर्सिटी ऑफ जम्मू से ग्रेजुएशन किया।
मोहित रैना ने साल 2005 में ‘ग्रासिम मिस्टर इंडिया मॉडलिंग कॉन्टेस्ट’ में हिस्सा लिया और टॉप 5 कंटेस्टेंट में जगह बनाई। एक्टिंग में आने से पहले मोहित रैना हुंडई मोटर्स के शोरूम में काम करते थे। उस दौरान उन्होंने कुछ प्रॉडक्ट्स के लिए मॉडलिंग भी की।
मोहित ने एक्टिंग करियर की शुरुआत टीवी सीरियल ‘अंतरिक्ष’ से की। इसके बाद वे ‘मेहर’ ‘भाभी’ ‘चेहरा’, ‘बंदिनी’, ‘गंगा की धीज’ ’21 सरफरोश-सारागढ़ी 1897′, ‘महाभारत’, और ‘चक्रवर्ती अशोक सम्राट’ जैसे अनेक सीरियल में अपनी दमदार उपस्थिति दिखलाते नजर आए।
साल 2011 में उन्हें टीवी शो ‘देवों के देव- महादेव’ में काम करने का अवसर मिला। इस शो में भगवान शिव का निभाया गया किरदार मोहित के करियर के लिए बहुत अहम साबित हुआ। इस रोल ने उन्हें रातों-रात ऊंचाईयों पर पहुंचा दिया।
इस शो में पार्वती का किरदार छोटे पर्दे की नागिन के रूप में मशहूर मौनी रॉय ने निभाया था। रिपोर्ट्स की माने तो उस वक्त मोहित और मौनी एक-दूसरे के काफी करीब आ गए थे।
2018 के बाद से मोहित ने टीवी शो से दूरी बनाते हुए फिल्मों और ओटीटी के लिए अपनी किस्मत आजमाना शुरू किया। फिल्म ‘डॉन मुथु स्वामी’ से मोहित ने बॉलीवुड में कदम रखा। साल 2019 में वह आदित्य धर की फिल्म उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक में नजर आए। इसके बाद वे ‘मिसेज सीरियल किलर’, ‘शिद्दत’ और ‘इश्क-ए नादान’ जैसी फिल्मों में काम कर चुके हैं।
मोहित ने ओटीटी के लिए ‘काफिर’, ‘भौकाल’, ‘ए वायरल वेडिंग’, ‘मुंबई डायरीज 26/11’ और ‘फ्रीलांसर’ जैसे शोज किए और खूब पॉपुलरिटी हासिल की।
मोहित रैना के लुक्स और अदाकारी ने हर किसी को अपना दीवाना बनाया है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से ‘रामायण’ में उनकी एंट्री को लेकर जबर्दस्त बज बना हुआ है।
सुभाष शिरढोनकर
हिन्दी को संघर्ष का नहीं, सेतु का माध्यम बनायें
ललित गर्ग
दक्षिण भारत के विभिन्न राज्यों में हिन्दी विरोध की राजनीति अब महाराष्ट्र में भी उग्र से उग्रत्तर हो गयी, इसी के कारण त्रिभाषा नीति को महाराष्ट्र में लगा झटका दुखद और अफसोसजनक है। आखिरकार राजनीतिक दबाव, लंबी रस्साकशी और कशमकश के बाद महाराष्ट्र की देवेंद्र फडणवीस सरकार ने स्कूलों में हिंदी की पढ़ाई से जुड़े मुद्दे पर यू-टर्न लेते हुए अपने कदम पीछे खींच लिए। विदित हो कि केंद्र सरकार की नीति के तहत महाराष्ट्र के स्कूलों में पहली कक्षा से हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाया जाना था। राजनीतिक आग्रहों एवं दुराग्रहों के चलते अब ऐसा नहीं हो पाएगा। मतलब, महाराष्ट्र को तीसरी भाषा के रूप में भी हिंदी मंजूर नहीं है। महाराष्ट्र में हिंदी का संकट वास्तव में एक गहरे सामाजिक-राजनीतिक विमर्श का हिस्सा है। यह केवल भाषाई नहीं, बल्कि अस्मिता, पहचान और सह-अस्तित्व से जुड़ा हुआ है। जबकि भाषा को संघर्ष का नहीं, सेतु का माध्यम बनाना चाहिए। क्योंकि जब मराठी और हिंदी एक-दूसरे की सहयोगी बनेंगी, तभी महाराष्ट्र और भारत दोनों का भविष्य उज्ज्वल होगा और तभी महाराष्ट्र राष्ट्रीयता से जुड़ते हुए समग्र विकास की ओर अग्रसर हो सकेगा।
हिन्दी को हथियार बनाकर उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे ने मराठी समर्थक राजनीति को इस तरह से गरमा दिया था कि सरकारी प्रयासों के हाथ-पांव फूलने लगे और अपने फैसलों पर पुनर्विचार करना पड़ा। ठाकरे बंधुओं का हिन्दी विरोधी आंदोलन दिनोंदिन उग्र होता जा रहा था। यह सच है, हर राज्य के लिए भाषा की राजनीति मायने रखती है और कोई भी पार्टी स्थानीय स्तर पर अपनी क्षेत्रीय भाषा से मुंह नहीं मोड़ सकती। यह सर्वविदित है कि महाराष्ट्र में पूर्व में एक समिति ने जब हिंदी पढ़ाने की सिफारिश की थी, तब उद्धव ठाकरे ही राज्य के मुख्यमंत्री थे। तब हिंदी का मामला बड़ा नहीं था, पर आज जब ठाकरे विपक्ष में हैं, तब यही मुद्दा सबसे अहम हो गया है। शायद यह शर्म की बात है कि जिस राज्य की राजधानी में पूरा हिंदी फिल्म उद्योग बसता है, समूचे देश की आर्थिक राजधानी होने का गौरव जिसे मिला हुआ है, जहां समूचे देश के लोगों बसे है, जिसे सांझा-संस्कृति का गौरव प्राप्त है, उस राज्य की राजनीति अब हिंदी से परहेज करती दिख रही है। आज उद्धव ठाकरे बोल रहे हैं कि देवेंद्र फडणवीस सरकार मराठी मानुष की शक्ति से हार गई, पर वे इस बात को छिपा रहे हैं कि हारी सरकार नहीं, बल्कि राष्ट्र-भाषा हिंदी हारी है, जिसने मुंबई को सपनों का शहर बनाए रखा है।
भारत विविधताओं का देश है, यहां भाषाएं न केवल संवाद का माध्यम हैं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक भी हैं। परंतु जब भाषाएं टकराव का विषय बन जाएं, तो वह केवल भाषाई संकट नहीं रह जाता, बल्कि एक सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मुद्दा बन जाता है। ऐसा ही कुछ महाराष्ट्र में देखने को मिल रहा है, जहां हिंदी भाषा को लेकर एक अनकहा-अनचाहा-सा संघर्ष चल रहा है। महाराष्ट्र में मराठी भाषा केवल एक भाषा नहीं, बल्कि मराठी अस्मिता का प्रतीक है। कई मराठी संगठनों और राजनीतिक दलों का यह मानना है कि हिंदी भाषा का बढ़ता वर्चस्व मराठी संस्कृति के लिए खतरा बन सकता है।
फडणवीस सरकार की ताजा घोषणा यह दर्शा रही है कि हिंदी का मुद्दा राज्य में विपक्षी दलों के हाथों का एक ताकतवर राजनीतिक हथियार बनता जा रहा था। न केवल विपक्ष के सभी दल इस मसले पर एकजुट और विधानसभा के मॉनसून सत्र को हंगामेदार बनाने पर आमादा थे, बल्कि ठाकरे बंधुओं को भी हिंदी विरोध की राजनीति की अपनी जानी-पहचानी जमीन वापस मिलती दिख रही थी। क्योंकि शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे के शुरुआती दौर में पार्टी खास तौर पर हिंदीभाषियों के विरोध के लिए जानी जाती थी। मुंबई और महाराष्ट्र में हिंदीभाषियों की निरंतर बढ़ती आबादी को शिवसेना मराठी अस्मिता के लिए खतरे के रूप में देखती थी। हालांकि बाद के दौर में, खासकर नब्बे के दशक से भाजपा के गठबंधन में शिवसेना की राजनीति भी हिंदी से हिंदू की ओर मुड़ती गई। ऐसे में निश्चित ही मराठा राजनीति से हिन्दी विरोध की उम्मीद नहीं थी। अब तक तमिलनाडु को ही हिंदी विरोध के लिए जाना जाता था, पर इधर तीखे हिंदी विरोध में कर्नाटक के साथ ही, महाराष्ट्र भी शामिल हो गया है। दुनिया की सर्वाधिक तीसरी बोली जाने वाली हिन्दी भाषा अपने ही देश में उपेक्षा एवं राजनीति की शिकार है। अब केन्द्र सरकार के साथ-साथ हिंदी समाज को ज्यादा सजग होना पड़ेगा। हिन्दी भाषी प्रांतों को अपनी राजनीतिक व आर्थिक शक्ति को इतना बल देना पड़ेगा कि कम से कम तीसरी भाषा के रूप में हिंदी को अहिंदीभाषी राज्यों में स्वीकार किया जाए। क्या हिंदी प्रदेश के नेता इससे सबक लेंगे? हालांकि, जिस तरह की त्रासद भाषा-राजनीति महाराष्ट्र में हो रही है, उससे यही लगता है कि इसके लिये बनी समितियों में बैठने वाले विशेषज्ञों की राय को किनारे कर दिया जाएग और राष्ट्रीयता पर क्षेत्रीयता की जीत हासिल हो जाएगी।
महाराष्ट्र में बढ़ते हिन्दीभाषियों के अनुपात को देखते हुए देर-सबेर हिन्दी को अपनाना ही लोकतांत्रिक दृष्टिकोण है। चाहे मुंबई हो या महाराष्ट्र, कुल आबादी में हिंदीभाषियों का बढ़ता अनुपात हिन्दी के पक्ष में है। 2001 की जनगणना के मुताबिक हिंदीभाषियों की संख्या मुंबई में 25.9 प्रतिशत और मराठीभाषियों की 42.9 प्रतिशत थी जो 2011 में क्रमशः 30.2 प्रतिशत और 41 प्रतिशत हो गई। महाराष्ट्र में इसी अवधि में जहां मराठीभाषी आबादी 76 प्रतिशत से 73.4 प्रतिशत पर आ गई, वहीं हिंदीभाषियों का अनुपात 7.3 प्रतिशत से बढ़कर 9.5 प्रतिशत हो गया। इसीलिये हिंदी लादने के इस फैसले ने न केवल उद्धव और राज ठाकरे को आक्रामक रूप में सामने ले आई बल्कि 20 साल बाद उद्धव और राज ठाकरे के एक मंच पर आने की खबर ने महाराष्ट्र की सियासत में हलचल मचा दी। 5 जुलाई को होने वाली हिन्दी विजय रैली पर महाराष्ट्र के लोगों की निगाहें लगी हुई हैं, क्योंकि मराठी भाषा और संस्कृति के मुद्दे पर सुर में सुर मिलाने वाले उद्धव और राज ठाकरे को सियासी हौसला मिल गया है। जिसे महाराष्ट्र की सियासत में एक नया मोड़ माना जा रहा, लेकिन साथ ही सवाल है कि उद्धव और राज ठाकरे की सियासी केमिस्ट्री कब तक बरकरार रहेगी।
हिंदी बनाम मराठी विवाद को कई बार राजनीतिक रंग भी दिया गया है। कुछ स्थानीय दलों ने हिंदी भाषी प्रवासियों, विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार से आए लोगों को निशाने पर लेकर हिंदी भाषा पर परोक्ष रूप से प्रहार किया है। इससे न केवल भाषा के नाम पर लोगों में दूरी बढ़ी है, बल्कि महाराष्ट्र की समावेशी छवि को भी आघात पहुंचा है। महाराष्ट्र के कई क्षेत्रों, विशेषकर मुंबई, ठाणे, पुणे, और नासिक में बड़ी संख्या में हिंदीभाषी समुदाय निवास करता है। ये लोग महाराष्ट्र की अर्थव्यवस्था, व्यापार, निर्माण और सेवा क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। परंतु जब इनकी भाषा को दोयम दर्जे का माना जाता है, या उनके साथ भेदभाव किया जाता है, तो यह संविधान की आत्मा ‘एकता में अनेकता’ के विपरीत है। भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में हिंदी और मराठी दोनों को मान्यता प्राप्त है। हिंदी भारत की राजभाषा है और मराठी महाराष्ट्र की राजभाषा। किसी भी राज्य में भाषा का सम्मान होना चाहिए, लेकिन इसके नाम पर दूसरी भाषाओं को अपमानित करना न तो संवैधानिक है और न ही नैतिक। भाषायी सह-अस्तित्व के लिये महाराष्ट्र में मराठी को सर्वाेच्च स्थान मिले, लेकिन हिंदी भाषा को भी सम्मान मिले, यह संतुलन ही स्वस्थ लोकतंत्र का आधार है। स्कूलों में मराठी, हिंदी और अंग्रेजी- तीनों भाषाओं को समुचित महत्व देकर बच्चों में बहुभाषिक दृष्टिकोण विकसित किया जा सकता है। विभिन्न राजनीतिक दल भाजपा एवं केन्द्र सरकार को घेरने के लिये जिस तरह भाषा, धर्म एवं जातियता को लेकर आक्रामक रवैया अपनाते हुए देश में अशांति, अराजकता एवं नफरत को फैला रहे रहे हैं, यह चिन्ताजनक है। महाराष्ट्र में हिन्दी का विरोध आश्चर्यकारी है। आजादी के अमृतकाल तक पहुंचने के बावजूद हिन्दी को उसका उचित स्थान न मिलना विडम्बना एवं दुर्भाग्यपूर्ण है।
क्या पीएमएमएल ट्रस्ट सोनिया गाँधी पर चोरी का मुकदमा दर्ज करायेगा?
रामस्वरूप रावतसरे
कॉन्ग्रेस नेता सोनिया गाँधी पर जल्द ही चोरी का मुकदमा दर्ज हो सकता है। प्रधानमंत्री संग्रहालय एवं पुस्तकालय (पीएमएमएल) सोसाइटी देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से जुड़े कुछ निजी दस्तावेजों को वापस पाने के लिए इस एक्शन पर विचार कर रही है। ये दस्तावेज वर्ष 2008 में यूपीए सरकार के दौरान हटाए गए थे। इस मामले में 23 जून, 2025 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अध्यक्षता में एक बैठक हुई थी। यह बैठक पीएमएमएल सोसाइटी वार्षिक बैठक थी। इस बैठक में इस मुद्दे पर भी गंभीर चर्चा की गई। रिपोर्ट्स के मुताबिक, बैठक में शामिल सदस्यों के बीच सहमति बनी कि अब इस मामले को कानूनी रास्ते से सुलझाया जाना चाहिए।
पीएमएमएल ट्रस्ट के सूत्रों ने बताया कि वे इन दस्तावेजों की कथित ‘चोरी’ को लेकर कानूनी जाँच पर विचार कर रहे हैं। पीएमएमएल के लोगों का कहना है कि ये दस्तावेज पहले दान किए गए थे और इसलिए ये अब कानूनी रूप से संस्थान की संपत्ति हैं। अगर यह साबित होता है कि इन दस्तावेजों को गैरकानूनी तरीके से संस्थान के कब्जे से हटाया गया था तो सोनिया गाँधी को इस मामले में कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ सकता है। मामले में गंभीर जाँच होने की संभावना है जो सोनिया गाँधी पर शिकंजा बढ़ाएगी।
इस पूरे विवाद की जड़ पंडित जवाहरलाल नेहरू के निजी संग्रह से जुड़े उन ऐतिहासिक दस्तावेजों में है जिनमें कई मशहूर हस्तियों के साथ उनकी पत्रों से बातचीत शामिल है। इनमें एडविना माउंटबेटन, अल्बर्ट आइंस्टीन, जयप्रकाश नारायण, विजया लक्ष्मी पंडित, बाबू जगजीवन राम और अरुणा आसफ अली जैसे बड़े नाम शामिल हैं। ये दस्तावेज 1971 से लेकर 2008 तक नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी (एनएमएमएल) में रखे गए थे। एनएमएमएल का नाम बदल कर अब प्रधानमंत्री संग्रहालय एवं पुस्तकालय ( पीएमएमएल ) हो गया है। यह पूरा विवाद वर्ष 2008 में चालू हुआ था। तब यह कागज कथित तौर पर 51 बक्सों में पैक कर सोनिया गाँधी द्वारा संग्रहालय से निकाल लिए गए बताए जा रहे है। यह भी बताया जा रहा है कि इनमें वे दस्तावेज भी शामिल थे जिन्हें पहले इंदिरा गाँधी और बाद में सोनिया गाँधी ने एनएमएमएल को दान किया था क्योंकि गाँधी परिवार उत्तराधिकारी के रूप में काम कर रहा था। पीएमएमएल इससे पहले कई बार सोनिया गाँधी के कार्यालय को कई बार पत्र भेजकर उन दस्तावेजों को लौटाने की अपील कर चुका है।
जानकारी के अनुसार गुजरात के इतिहासकार और पीएमएमएल सोसाइटी के सदस्य प्रोफेसर रिजवान कादरी ने भी सितंबर 2024 में सोनिया गाँधी और फिर दिसंबर, 2024 में राहुल गाँधी को पत्र लिखे थे। उन्होंने निवेदन किया कि अगर दस्तावेज वापस नहीं दिए जा सकते तो कम से कम उनकी फोटोकॉपी या डिजिटल स्कैन ही भेज दिए जाएँ। जानकारी के अनुसार लगातार कहने के बावजूद सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी ने कोई जवाब नहीं दिया है। इसके चलते यह मामला काफी गंभीर हो गया है। अब पीएमएमएल इस मामले में कानूनी रास्ते तलाश रहा है और जल्द एक्शन ले सकता है।
प्रधानमंत्री संग्रहालय एवं पुस्तकालय (पीएमएमएल) सोसाइटी की 47वीं वार्षिक आम बैठक हाल ही में तीन मूर्ति भवन में आयोजित की गई। इस बैठक की अध्यक्षता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने की। इसमें सोसाइटी के उपाध्यक्ष और केन्द्रीय मंत्री राजनाथ सिंह, निर्मला सीतारमण, धर्मेंद्र प्रधान और अश्विनी वैष्णव सहित कई प्रमुख नेता शामिल हुए। अन्य प्रमुख सदस्यों में भाजपा नेता स्मृति ईरानी, गीतकार प्रसून जोशी और रेलवे बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष अश्विनी लोहानी भी मौजूद थे। लोहानी अब पीएमएमएल के निदेशक के रूप में कार्य कर रहे हैं। बैठक में इस मुद्दे पर दोबारा चर्चा की गई। यह इससे पहल फरवरी 2024 की एजीएम में उठाया गया था।
पीएमएमएल के सदस्यों का मानना है कि ये दस्तावेज सिर्फ परिवार की निजी संपत्ति नहीं हैं बल्कि राष्ट्रीय धरोहर हैं और इन्हें संस्थान के पास सुरक्षित रहना चाहिए। इस पर सभी सदस्यों की आम सहमति बनी। फरवरी की बैठक के बाद इस मामले में कानूनी सलाह ली गई और इसी के आधार पर सोनिया गाँधी के कार्यालय को एक औपचारिक पत्र भेजा गया। इसमें पहली बार आधिकारिक तौर पर यह रिकॉर्ड में रखा गया कि दस्तावेज वापस ले लिए गए हैं और उन्हें लौटाने का अनुरोध किया गया है। हालाँकि, गाँधी परिवार की ओर से अभी तक कोई जवाब नहीं आया। अब पीएमएमएल सोसाइटी के सदस्य 2014 से पहले की प्रशासनिक चूक को सुधारने की दिशा में कदम उठा रहे हैं, ताकि नेहरू से जुड़े ये ऐतिहासिक दस्तावेज दोबारा सार्वजनिक संग्रह में आ सकें।
जानकारी के अनुसार प्रधानमंत्री संग्रहालय एवं पुस्तकालय (पीएमएमएल) ट्रस्ट अब कानूनी सलाह पर विचार कर रहा है। इसके अनुसार, एक बार जो दस्तावेज दान कर दिए जाते हैं, उनको वापस नहीं लिया जा सकता। इसलिए ट्रस्ट का मानना है कि नेहरू गाँधी परिवार द्वारा दान किए गए दस्तावेज अब भी संग्रहालय की वैध संपत्ति हैं। बैठक में इन कागजों के मालिकाना हक़, इनके संरक्षण, कॉपीराइट और इन ऐतिहासिक दस्तावेजों को शोधकर्ताओं द्वारा इस्तेमाल किए जाने से जुड़ी चिंताओं पर भी चर्चा हुई। खासतौर पर नेहरू और एडविना माउंटबेटन के बीच हुए पत्राचार की पूरी जानकारी रखने पर जोर दिया गया। सदस्यों ने यह भी माँग की कि जो दस्तावेज संग्रहालय से लिए गए थे, उनका फोरेंसिक ऑडिट कराया जाए ताकि यह साफ हो सके कि कहीं कोई अहम कागज गुम तो नहीं हो गया।
जनवरी 2025 में पीएमएमएल की कार्यकारी परिषद का पुनर्गठन हुआ था। इसमें कई नए और प्रमुख लोगों को शामिल किया गया था। स्मृति ईरानी, नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष राजीव कुमार, रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन, फिल्म निर्देशक शेखर कपूर और कलाकार वासुदेव कामथ को इसमें सदस्य बनाया गया था। नृपेंद्र मिश्रा को परिषद का अध्यक्ष बनाए रखा गया और उन्हें 5 साल का नया कार्यकाल दिया गया। इस बैठक में सिर्फ नेहरू पेपर्स का मामला ही नहीं उठा बल्कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देशभर के संग्रहालयों की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए दो नए सुझाव भी दिए। उन्होंने पूरे देश में ‘म्यूजियम मैप’ बनाने और सभी संग्रहालयों का एक राष्ट्रीय डेटाबेस तैयार करने का प्रस्ताव रखा। इसके साथ ही उन्होंने आपातकाल की 50वीं वर्षगाँठ के मौके पर उससे जुड़े सभी कानूनी दस्तावेजों और घटनाओं को इकट्ठा करने की योजना भी पेश की।
दिसंबर 2024 में भाजपा सांसद संबित पात्रा ने नेहरू से जुड़े दस्तावेजों के मामले पर प्रतिक्रिया दी थी। उन्होंने साफ कहा कि ये सिर्फ पारिवारिक पत्र नहीं हैं, बल्कि राष्ट्रीय महत्व के दस्तावेज हैं। पात्रा ने यह भी कहा था कि जनता को यह जानने का पूरा हक है कि उन कागजों में क्या लिखा है। यह मुद्दा पहले भी संसद में उठ चुका है, जिससे साफ होता है कि अगर दस्तावेज नहीं लौटाए जाने की स्थिति में सोनिया गाँधी के खिलाफ पीएमएमएल द्वारा कानूनी कार्रवाई शुरू की जाती है, तो मामला और तूल पकड़ सकता है। लेकिन जैसे संकेत मिल रहे है उसके अनुसार पीएमएमएल दस्तावेजों के लिए हर वह कदम उठायेगी जो भी आवश्यक होगा।
रामस्वरूप रावतसरे
वन महोत्सव, वृक्षारोपण का ढोंग और कटते पेड़
डा. विनोद बब्बर
प्रथम जुलाई को पूरी दुनिया के साथ भारत भी वन महोत्सव मनाया जाता है। लगभग सभी विभागों, संस्थानों और स्वयंसेवी संगठनों की ओर से वृक्षारोपण की धूम दिखाई देती है। हर वर्ष वन महोत्सव के अवसर पर एक ही दिन में करोड़ पौधे लगाए जाने के समाचार होते हैं लेकिन उसके बावजूद पर्यावरण लगातार बिगड़ना संदेह उत्पन्न करता है कि जमीन से ज्यादा वृक्षारोपण समाचार पत्रों से सोशल मीडिया के चित्रों में ही दिखाई देता हैं।
तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकताओं के कारण पर्यावरण पर भी दबाव बढ़ रहा है।पिछले दिनों भारत के प्रदेश तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद की उस शर्मनाक और आत्मघाती कृत्य की सोशल मीडिया पर बहुत चर्चा रही जिसमें हैदराबाद के फेफड़े कहे जाने वाली कांचागाची बोवली गांव से सटी वन भूमि पर उन 40, 000 से अधिक वृक्षों को काट दिया गया जो न केवल पूरे क्षेत्र को प्राणवायु दे रहे थे बल्कि लाखों जीव जंतुओं का आश्रय स्थल भी थे। राष्ट्रीय पक्षी मोर सहित हजारों पशु-पक्षियों का काल बनी इस घटना की व्यापक निंदा आलोचना हुई। अनेक ऐसे वीडियो भी सामने आए जिसमें मासूम खरगोश हिरण आंसू बहा रहे थे। द्रवित कर देने वाले इन दृश्यों का वहां की सरकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि उसे वह जमीन बेचकर बहुत बड़ी धनराशि प्राप्त होने वाली थी। उसने उच्चतम न्यायालय में बेरोजगारी का तर्क प्रस्तुत करते हुए उस भूमि पर उद्योग तथा व्यापारिक केंद्र स्थापित करने की दुहाई दी।
यह संतोष की बात है कि माननीय उच्चतम न्यायालय ने उस कुतर्क को अस्वीकार करते हुए कहा कि संपूर्ण देश रोजगार और विकास चाहता है लेकिन पर्यावरण की कीमत पर ऐसे अपराध की अनुमति नहीं दी जा सकती। वास्तव में तेलंगाना सरकार और उसके अधिकारियों की असंवेदनहीनता इस बात का प्रमाण है कि हम अपनी संस्कृति और उसमें समाहित जीवन मूल्यों से कट रहे हैं। इसलिए यह आज की परम आवश्यकता है भारतीय संस्कृति में जिस पर्यावरण चेतना को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है उसे स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल कर देश के हर बच्चे के हृदय में स्थापित किया जाए।
केवल भारत ही नहीं, सभी विकासशील देशों में विकास के नाम पर पर्यावरण की बलि सामान्य बात है। यदि कोई पर्यावरण संरक्षण पर बल देता है तो उसे विकास विरोधी घोषित किया जाता है। जब भी कहीं भी वृक्ष काटे जाते हैं तो एक के बदले दस वर्ष लगाने के दाने किये जाते है। पर पेड़ लगाने और पेड़ बचाने के बीच की गहरी खाई को पाटने के लिए फाइलों में चाहे कुछ भी होता हो लेकिन धरातल पर बहुत कम होता है । इस सवाल का जवाब अवश्य होना चाहिए कि पिछले दस वर्षों में कितने पेड़ कटे और कितने लगाये गये? ‘अब तक कितने लगाये गये और कितने लगे हैं’ के सांख्यिक समीकरण को आने देखा नहीं किया जा सकता।
विकास का अर्थ ‘स्वस्थ परिस्थितियों में यातायात और संचार की आधुनिक सुविधाओं संग लोगों के जीवन स्तर में सुधार नहीं हो सकता।’ विकास के साथ धुआं, जहरीले गैसों को अनिवार्य रूप से विकास के उपउत्पाद के रूप में क्यों स्वीकार करने की बाध्यता होनी चाहिए?
पर्यावरण की रक्षा हम सभी का के जीवन की रक्षा की तरह अनिवार्य है लेकिन इधर सोशल मीडिया पर फोटो चेपने के प्रचलन मैं इस पवित्र कार्य को भी ढोंग बना दिया है। इसीलिए सेलिब्रिटी और महत्वपूर्ण लोगों का दायित्व अखबारों में छपवाने तक सिमट कर रह गया है। ‘पेड़ लगाओ, फोटो खिंचवाओ और भूल जाओ’ अर्थात ‘हमारा अधिकार केवल कर्म पर है, फल पर नहीं।’ जैसे नकारात्मक व्यवहार से पर्यावरण में कोई सकारात्मक बदलाव होने वाला नहीं है।
लेकिन लगता है नये दौर मे हमारे समाज की सोच बन गई है कि स्मार्ट सिटी बनानी है तो वृक्ष लगाने की बजाय चित्र दिखाने वाला स्मार्ट बनना युग की मांग है।
प्रशासन और सरकार को ‘अचानक हजारों पेड़ काटने की जरूरत क्यों आन पड़ी? क्या योजनाएक सतत कार्य नहीं है? पूर्वानुमान क्यों नहीं लगाया गया? काटने से पहले ही एक के बदले दस पेड़ क्यों नहीं लगाये गये?’ जैसे प्रश्नों पर विचलित होने की बजाय गंभीरता से उनके उत्तर तलाशने चाहिए। जब यह सभी को मालूम है कि पेड़ों के कटने से आक्सीजन की कमी होगी तो क्या इसलिए वृक्ष काटे जाते हैं कि इससे रोजगार के नये अवसर खुलेगे अर्थात दम घुटेगा तो पानी की बोतलों की तरह आक्सीजन की बोतले बिकेगी। यह सत्य है कि सांस के रोगियों की संख्या बढ़ेगी तो डाक्टर, दवा, जांच-केन्द्रो की मांग भी बढेंगी। लेकिन हमें ऐसी रोजगार वृद्धि नहीं चाहिए जो देश के सामान्य जन लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करे।
आश्चर्य है कि जिस देश में पर्यावरण को बचाने के लिए लोगों ने अपनी जान तक की बाजी लगा दी। चिपको आंदोलन हुए। वहां वन महोत्सव जन आंदोलन नहीं बन पा रहा है। यदि वृक्ष लगाने की रस्म अदाएं की भी होती हैतो एक सप्ताह में ही उनमें से अधिकांश पौधे ढूंढने पर भी नहीं मिलते। पर्यावरण संरक्षण को जन आंदोलन बनाने के लिए एक और स्कूली छात्रों में आरंभ से ही इसके प्रति जागरूकता उत्पन्न करनी होगी तो दूसरी ओर हमारे सभी धर्माचार्य को भी पहल करनी होगी। उन्हें जन-जन को समझना होगा कि अपने हर शुभ अवसर पर न केवल वृक्ष लगाए जाएं बल्कि उन्हें संरक्षित भी किया जाए। यह प्रसन्नता की बात है कि इन दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में उनके दल की ओर से ‘एक वृक्ष मां की याद में’ अभियान चलाया जा रहा है जिसके अंतर्गत बूथ अर्थात मौहल्ला स्तर पर वृक्षारोपण किया जा रहा है। सरकार को हर क्षेत्र में कुछ मैदान सुरक्षित करने चाहिए जिनका उपयोग केवल वृक्ष और केवल वृक्ष लगाने के लिए किया जाए। नीम जामुन पीपल पाकड़ बरगद जैसे अधिक से अधिक वृक्ष लगाए जाएं और साथ ही साथ इनके पौधों को नुकसान पहुंचाने को दंडनीय अपराध घोषित कर दिया जाए। दोषियों को दंडित करने के लिए तत्काल कार्यवाही से ही बदलाव की आशा की जा सकती है अन्यथा इस बार भी प्रथम जुलाई का वन महोत्सव इस धरती को हरा भरा बनाने के अपने लक्ष्य से भटक सकता है ।
डा. विनोद बब्बर
संविधान की प्रस्तावना में शामिल ‘समाजवादी’ व ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द पर जारी सियासत के मायने
कमलेश पांडेय
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने संविधान की प्रस्तावना में बाद में शामिल किए गए दो शब्दों ‘संविधान की प्रस्तावना में शामिल ‘समाजवादी’ व ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द पर जारी सियासत के मायने’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ को ‘संविधान हत्या दिवस’ के दिन ही हटवाने की जो वकालत की है, उसके राष्ट्रीय, सामाजिक और धार्मिक मायने तो स्पष्ट हैं, लेकिन उनकी इस साफगोई ने एक बार से इन दोनों विवादास्पद शब्दों से जुड़े सियासी अंतर्विरोधों को उजागर कर दिया है।
ऐसा इसलिए कि उनके दिए गए बयान को लेकर जहां कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के नेताओं के अलावा एनडीए की सहयोगी लोजपा ने भी होसबोले की टिप्पणी की आलोचना की, वहीं भाजपा ने होसबोले का बचाव किया है। एक सवाल कि, क्या आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में शामिल किए गए ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द वहां बने रहने चाहिए, का जवाब देते हुए केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान और डॉ. जितेंद्र सिंह ने दोनों शब्दों को हटवाए जाने के विचार का समर्थन किया है।
वहीं, होसबोले की टिप्पणी का उल्लेख करते हुए विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने कहा कि “आरएसएस का मुखौटा” “फिर से उतर गया है” और संविधान उन्हें परेशान करता है “क्योंकि यह समानता, धर्मनिरपेक्षता और न्याय की बात करता है।” गांधी ने कहा कि, “आरएसएस-बीजेपी” गठबंधन “मनुस्मृति चाहता है” और हाशिए पर पड़े लोगों और गरीबों को उनके अधिकारों से वंचित करना चाहता है। उन्होंने कहा, “उनका असली एजेंडा संविधान जैसे शक्तिशाली हथियार को उनसे छीनना है।”
वहीं, कांग्रेस के राज्यसभा सांसद जयराम रमेश ने कहा है कि 1949 से ही आरएसएस ने संविधान पर हमला किया है, संविधान का विरोध किया है। उन्होंने कहा कि संघ के लोगों ने पंडित नेहरू और आंबेडकर के पुतले जलाए थे।
वहीं, केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने कहा कि, “इन सिद्धांतों को बदनाम करने के लिए आपातकाल लागू करना एक धोखेबाज़ी भरा कदम है, खासकर तब जब आरएसएस ने अपने अस्तित्व के लिए उस समय इंदिरा गांधी सरकार के साथ मिलीभगत की थी… अब उस अवधि का उपयोग संविधान को कमजोर करने के लिए करना सरासर पाखंड और राजनीतिक अवसरवाद को दर्शाता है।”
इस प्रकार जहां कांग्रेस ने कहा कि, “ये बाबा साहेब के संविधान को ख़त्म करने की वो साजिश है, जो आरएसएस-बीजेपी हमेशा से रचती आई है। लोकसभा चुनाव में तो बीजेपी के नेता खुलकर कह रहे थे कि हमें संविधान बदलने के लिए संसद में 400 से ज्यादा सीटें चाहिए। अब एक बार फिर वे अपनी साजिशों में लग गए हैं लेकिन कांग्रेस किसी कीमत पर इनके मंसूबों को कामयाब नहीं होने देगी।” उसने साफ कहा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी की सोच ही संविधान विरोधी है।
वहीं, सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन में शामिल लोजपा, राजग की एकमात्र सहयोगी पार्टी है जिसने होसबोले की टिप्पणी पर गठबंधन विचार के विपरीत प्रतिक्रिया दी है। लोजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एके बाजपेयी ने कहा है कि, “अगर यह मुद्दा गठबंधन के सामने लाया जाता है तो हम इसका विरोध करेंगे। हम समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के रक्षक हैं।”
इसके ठीक उलट भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने पिछले सात दशकों में संविधान और उसकी भावना से छेड़छाड़ करने के हर कृत्य के पीछे कांग्रेस का हाथ होने का आरोप लगाया और कहा कि उसे आपातकाल के लिए माफी मांगनी चाहिए। उन्होंने आगे कहा कि, “भाजपा आपातकाल के दौरान कांग्रेस सरकार द्वारा लोगों के मौलिक अधिकारों के घोर उल्लंघन और अत्याचारों का मुद्दा उठाती रही है और कांग्रेस से माफ़ी की मांग करती रही है लेकिन पार्टी माफ़ी मांगने को तैयार नहीं है और इसके बजाय मुद्दे को भटका रही है।”
वहीं, केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने स्पष्ट कहा है कि, “सर्व धर्म समभाव भारतीय संस्कृति का मूल है। धर्म निरपेक्षता हमारी संस्कृति का मूल नहीं है। इसलिए इस पर जरूर विचार होना चाहिए कि आपातकाल में जिस धर्म निरपेक्षता शब्द को जोड़ा गया, उसको हटा दिया जाए।” वहीं, समाजवाद पर चौहान ने कहा कि सभी को अपने जैसा मानना भारतीय मूल विचार है। उन्होंने कहा कि यह विश्व एक परिवार है (वसुधैव कुटुम्बकम), यही भारत का मूल विचार है। उन्होंने कहा कि, “यहां समाजवाद की कोई जरूरत नहीं है। हम लंबे समय से कहते आ रहे हैं कि सभी के साथ एक जैसा व्यवहार होना चाहिए। इसलिए, समाजवाद शब्द की भी जरूरत नहीं है और देश को निश्चित रूप से इस बारे में सोचना चाहिए।”
वहीं, केंद्रीय राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा कि उन्हें नहीं लगता कि होसबोले की टिप्पणी पर “कोई दूसरा विचार” किया गया है। उन्होंने कहा, “होसबोले जी ने कहा है कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द 42वें संशोधन के बाद हमारी प्रस्तावना में जोड़े गए क्योंकि ये बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा नहीं दिए गए थे।” जबकि डॉ. बीआर अंबेडकर द्वारा दुनिया के सर्वश्रेष्ठ संविधानों में से एक का निर्माण किए जाने की ओर इशारा करते हुए सिंह ने कहा, “यदि यह उनकी सोच नहीं थी तो फिर किसी ने किस सोच के साथ इन शब्दों को जोड़ा।”
यह पूछे जाने पर कि क्या भाजपा ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को हटाने की मांग का समर्थन करती है, सिंह ने कहा, “कौन नहीं करना चाहता? हर सही सोच वाला नागरिक इसका समर्थन करेगा क्योंकि हर कोई जानता है कि वे मूल संविधान दस्तावेज़ का हिस्सा नहीं हैं, जिसे डॉ अंबेडकर और समिति के बाकी सदस्यों ने लिखा था।”
उन्होंने कहा, ‘‘यह भाजपा बनाम गैर-भाजपा का सवाल नहीं है, यह लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक मूल्यों के संरक्षण का सवाल है।’’
उन्होंने आगे कहा कि आपातकाल कोई अचानक किया गया परिवर्तन नहीं था बल्कि यह कांग्रेस की वैचारिक बुनियाद का परिणाम था। उन्होंने कांग्रेस पर भाई-भतीजावाद, अधिनायकवाद और अवसरवाद में डूबे रहने तथा हमेशा अपने हितों को देश के हितों से ऊपर रखने का आरोप लगाया। वहीं, प्रख्यात लेखिका तवलीन सिंह लिखती हैं कि, “भारतीय संस्कृति का मूल सर्वधर्म समभाव है, न कि धर्म निरपेक्षता। इसलिए आपातकाल के दौरान जोड़े गए धर्म निरपेक्ष शब्द को हटाने पर चर्चा होनी चाहिए।”
बता दें कि दत्तात्रेय होसबाले ने गत संविधान हत्या दिवस के दिन गुरुवार को कहा था कि ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया था। उन्होंने कहा, “आपातकाल के दौरान ही संविधान की प्रस्तावना में दो शब्द जोड़े गए। ये दो शब्द ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ हैं। ये प्रस्तावना में पहले नहीं थे।”
दत्तात्रेय होसबाले ने आगे कहा कि, “बाबा साहेब ने जो संविधान बनाया, उसकी प्रस्तावना में ये शब्द कभी नहीं थे। आपातकाल के दौरान जब मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए, संसद काम नहीं कर रही थी, न्यायपालिका पंगु हो गई थी, विपक्ष जेल यातना सह रहा था, तब ये शब्द जोड़े गए।” यही वजह है कि होसबाले ने दो टूक शब्दों में कहा, “इन्हें प्रस्तावना में रहना चाहिए या नहीं, इस पर विचार किया जाना चाहिए।” स्पष्ट है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने संविधान की प्रस्तावना से सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द हटाने की वकालत की है।
सवाल है कि आखिर संघ इन दो शब्दों को क्यों हटवाना चाहता है और इन्हें लेकर डॉक्टर आंबेडकर का क्या रुख था? तो जवाब होता कि इमरजेंसी के 50 साल पूरे होने के मौके पर नई दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में दत्तात्रेय होसबाले ने संविधान की प्रस्तावना से ‘सोशलिस्ट’ और ‘सेक्यूलर’, ये दो शब्द हटाने की मांग की और कांग्रेस से इंदिरा गांधी की सरकार के इमरजेंसी लगाने के फैसले को लेकर माफी मांगने की भी मांग की। उन्होंने कांग्रेस पर तंज करते हुए कहा कि उस समय जो लोग यह सब कर रहे थे, वह आज संविधान की कॉपी लेकर घूम रहे हैं।
इस प्रकार देखा जाए तो संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट और सेक्यूलर, इन दोनों शब्दों को लेकर एक नई बहस भी छिड़ गई है, जबकि सुप्रीम कोर्ट की भी इस पर राय आ चुकी है कि संविधान की प्रस्तावना में छेड़छाड़ नहीं किया जा सकता है। इसलिए पूरक सवाल अब यह उठाया जा रहा है कि तब आपातकाल के दौरान संविधान के प्रस्तावना में हुए छेड़छाड़ को विलोपित किया जाए। प्रथमदृष्टया यह मांग गलत भी नहीं प्रतीत होता है।
संघ नेता होसबोले ने कहा कि इस पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या कांग्रेस सरकार की ओर से इमरजेंसी के समय संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द बरकरार रखे जाने चाहिए या नहीं? उन्होंने इन दोनों शब्दों को हटाने की वकालत की। क्योंकि 1976 में 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में ‘सॉवरेन सोशलिस्ट सेक्यूलर डेमोक्रेटिक रिपब्लिक’ शब्द जोड़ा गया था। तब देश में इमरजेंसी लागू थी।
दरअसल, संविधान की प्रस्तावना से ये शब्द हटाने की मांग के पीछे यह तर्क दिया जाता है कि इन्हें तब जोड़ा गया था, जब तानाशाही थी और सरकार की बातें ही कानून थीं। इन शब्दों को संसद में चर्चा कर जोड़े जाने की जगह थोपा गया था। दावे यह भी किए जाते हैं कि सोशलिस्ट देश के रूप में पहचान से पॉलिसी चॉइस सीमित हो जाती है। मसलन, संघ की अगुवाई वाले दक्षिणपंथी सेक्यूलर को भारत की हिंदुत्व की विरासत को नकारने जैसा मानते हैं।
वहीं, देश का एक तबका संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए इन शब्दों का समर्थन भी करता है, जो यह तर्क देते हैं कि इससे भारत की समन्वयकारी संस्कृति स्पष्ट होती और ये शब्द समाज के प्रति सरकार की जिम्मेदारी, आस्था से जुड़े विषयों पर सरकार के न्यूट्रल स्टैंड को भी दर्शाते हैं।
बता दें कि संविधान सभा में सोशलिस्ट और सेक्यूलर पर चर्चा हुई थी? बावजूद इसके सोशलिस्ट और सेक्यूलर संविधान के मूल ड्राफ्ट का अंग नहीं थे। इन शब्दों पर संविधान सभा में भी चर्चा हुई थी, क्योंकि संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द जोड़ने का प्रस्ताव रखा था। ऐसा करने वाले सदस्यों का मत था कि सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द देश की विचारधारा को प्रदर्शित करेंगे।
उल्लेखनीय है कि संविधान सभा के सदस्य रहे प्रोफेसर के टी शाह ने ये शब्द संविधान में शामिल कराने के लिए कई प्रयास किए क्योंकि उनका तर्क था कि सेक्यूलर शब्द से धर्म को लेकर न्यूट्रल रहने की प्रतिबद्धता जाहिर होगी और सोशलिस्ट शब्द आर्थिक असमानता दूर करने का उद्देश्य दर्शाएगा। इसकी प्रकार एचवी कामथ और हसरत मोहानी ने भी प्रोफेसर केटी शाह के तर्क का समर्थन किया था।
हालांकि, संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने संविधान में इन शब्दों को शामिल किए जाने का विरोध किया था क्योंकि वह सोशलिस्ट को एक अस्थायी नीति के रूप में देखते थे, संवैधानिक आदेश के रूप में नहीं। डॉक्टर आंबेडकर का यह स्पष्ट मत था कि ऐसी नीतियों को भविष्य की सरकारों पर छोड़ देना चाहिए। तब उन्होंने कहा था कि संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट का स्थायी सिद्धांत के रूप में वर्णन लोकतंत्र के लचीलेपन को कमजोर करेगा।
याद दिला दें कि तब डॉक्टर आंबेडकर ने कहा था, “राज्य की नीति क्या होनी चाहिए…यह ऐसा मामला, जिसे समय और परिस्थितियों के मुताबिक लोगों को खुद तय करना चाहिए। इसे संविधान में नहीं रखा जा सकता। ऐसा करना लोकतंत्र को नष्ट कर देगा।” तब उन्होंने यह तर्क भी दिया था कि सोशलिस्ट शब्द संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में पहले से ही शामिल है। इसलिए भी यह संविधान की प्रस्तावना में गैरजरूरी हो जाता है।
उन्होंने प्रोफेसर केटी शाह के जवाब में दो टूक शब्दों में कहा था कि अगर नीति निर्देशक तत्व अपने डायरेक्शन और कंटेंट में समाजवादी नहीं हैं तो यह समझने में विफल हूं कि इससे अधिक सोशलिज्म क्या हो सकता है। उन्होंने कहा था कि ये सोशलिस्ट सिद्धांत पहले से ही हमारे संविधान में शामिल हैं और यह संशोधन स्वीकार करना गैर जरूरी है।
वहीं, बौद्ध धर्म मानने वाले डॉक्टर आंबेडकर का भारत के बहुसांस्कृतिकवाद में भरोसा था और सेक्यूलर को लेकर उनका मत था कि यह शब्द गैर जरूरी है। उनका तर्क था कि संविधान में मौलिक अधिकारों के माध्यम से पहले ही इसकी गारंटी दी जा चुकी है। यह प्रस्तावना के मसौदे में भी पहले से ही निहित है। डॉक्टर आंबेडकर ने सेक्यूलरिज्म की अवधारणा का नहीं, इसके उल्लेख का विरोध किया। उनका मत था कि संविधान की संरचना इस सिद्धांत को बरकरार रखती है और राज्य सभी धर्मों के समान व्यवहार सुनिश्चित करेगा। यह सुनिश्चित किया जाएगा कि बिना किसी लेबल के किसी के भी साथ भेदभाव न हो।
वहीं, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की इमेज एक कट्टर समाजवादी और सेक्यूलरिज्म के समर्थक नेता की है। उन्होंने सभी के लिए धार्मिक स्वतंत्रता की वकालत करते हुए कहा था कि इसमें उन लोगों की स्वतंत्रता भी शामिल है, जिनका कोई धर्म नहीं है। नेहरू ने भी सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द को प्रस्तावना में शामिल किए जाने की पैरवी नहीं की क्योंकि नेहरू का यह मानना था कि संविधान की संरचना हर धर्म के लिए सम्मान के साथ ही कल्याणकारी राज्य सुनिश्चित करती है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि संविधान निर्माता आंबेडकर और आधुनिक भारत के निर्माता व प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू, दोनों के ही मत इस विषय पर एक समान थे। उन दोनों का ही यह स्पष्ट मत था कि संविधान को रूपरेखा तय करनी चाहिए, निश्चित नीति नहीं। यही वजह है कि जब 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द के बिना प्रस्तावना को अंगीकार किया तो फिर सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द प्रस्तावना में क्यों जोड़े गए?
उल्लेखनीय है कि इंदिरा गांधी की अगुवाई वाली सरकार ने 1976 में संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द जोड़े। उनके इस फैसले के पीछे कल्याणकारी राज्य के प्रति राज्य की प्रतिबद्धता को उद्देश्य बताया गया। साथ ही यह तर्क भी दिए गए कि गरीबी हटाओ के लिए सरकार की प्रतिबद्धता को यह दर्शाता है। तब सरकार की ओर से यह भी कहा गया था कि संविधान के मूल उद्देश्य को दर्शाने, धर्म को लेकर तटस्थ रुख मजबूत करने के लिए सेक्यूलर शब्द जोड़ा गया।
हालांकि, यह संशोधन रेट्रोएक्टिव तरीके से 26 नवंबर 1949 की तारीख से लागू किया गया जिसे बाद में आलोचकों ने चुनौती भी दी। इमरजेंसी के बाद 1977 में चुनाव हुए और जनता पार्टी की सरकार बनी। तब भी परवर्ती सरकार ने 42वें संविधान संशोधन के कुछ भाग हटा दिए लेकिन सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द बरकरार रखे गए।
कुछ यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने डॉक्टर बलराम सिंह बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस में पिछले ही साल (2024 में) ही सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द संविधान की प्रस्तावना में शामिल किए जाने को दी गई चुनौती खारिज कर दी थी। तब सर्वोच्च न्यायलय ने अपने फैसले में कहा कि संविधान एक जीवंत दस्तावेज है और इसमें संसद संशोधन कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि समय के साथ भारत ने सेक्यूलरिज्म की अपनी व्याख्या का विकास किया है। इसमें राज्य न तो किसी धर्म का समर्थन करता है और ना ही किसी धर्म को दंडित करता है। यह सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 में निहित हैं।
बता दें कि इससे पहले 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि प्रस्तावना, संविधान का अभिन्न अंग है और अनुच्छेद 368 के तहत इसमें भी संशोधन किए जा सकते हैं, बशर्ते मूल ढांचे का उल्लंघन न हो। यही वजह है कि केंद्र की सियासत में हिंदूवादी मानी जाने वाली पार्टी बीजेपी के मजबूत उभार के बाद सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द को लेकर बहस और तेज हो गई है, जिसकी राजनीति भी समाजवाद के सिद्धांतों पर ही आधारित है।
साल 2015 में नरेंद्र मोदी सरकार सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द के बिना संविधान के प्रस्तावना की एक तस्वीर का इस्तेमाल किया था। तब केंद्रीय मंत्रियों ने इस फैसले का बचाव करते हुए कहा था कि इन शब्दों पर बहस होनी चाहिए। कुछ दक्षिणपंथी विचारक यह तर्क देते हैं कि सेक्यूलर शब्द छद्म धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देता है।
बीजेपी इसे तुष्टिकरण बताती है जबकि कांग्रेस का तर्क है कि यह शब्द समानता और एकता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को व्यक्त करता है। यह शब्द संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप हैं।
कांग्रेस के नेता यह भी कहते हैं कि संघ और इसके समर्थक सेक्यूलरिज्म को भारत पर हिंदुत्व थोपने के अपने एजेंडे का जवाब मानते हैं। सवाल है कि यदि ऐसा है भी तो उसमें गलत क्या है?
देखा जाए तो ‘भारतीय संसद’ एक ‘सजीव’ संस्था है जबकि ‘भारत का संविधान’ एक ‘निर्जीव’ पुस्तक मात्र ! जैसे वैदिक भारत के नियम कानून संहिता ‘मनुस्मृति’ को भारत का समकालीन एक वर्ग अप्रसांगिक करार दे चुका है, वैसे ही प्रबुद्ध भारत का एक तबका ‘भारत के संविधान’ को देशी-विदेशी षड्यंत्रों का स्रोत/वाहक समझता है। निर्विवाद रूप से इसमें कुछ सच्चाई भी है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट का यह तर्क कि ‘भारत का संविधान’ की मूल आत्मा/प्रस्तावना को बदला नहीं जा सकता है, पूर्वाग्रह प्रेरित दृष्टिकोण है!
चूंकि भारतीय संसद (विधायिका), सुप्रीम कोर्ट (न्यायपालिका), केंद्रीय सचिवालय (कार्यपालिका) और आकाशवाणी/दूरदर्शन (खबरपालिका) की कार्यप्रणाली पर यदि गौर किया जाए तो प्रथम तीन की आंतरिक रस्साकशी और निज श्रेष्ठता बोध ने भारतीय लोकतंत्र का बंटाधार कर दिया है! ये संस्थाएं समग्र लोकहित/राष्ट्रहित को साधने की बजाय वर्ग हित/निज संस्थान समूह हित को साधने का पर्याय बनकर रह गई हैं। भारतीय संविधान और लोकतंत्र की आड़ में इन सबने ऐसे ऐसे ऊलजलूल तर्क गढ़े हैं कि नियम-कानून भी अघोषित पक्षपात को समझकर शरमा रहे होंगे लेकिन इन सबका बाल हठ बदस्तूर जारी है जबकि देश की आजादी वृद्धावस्था में प्रविष्ट हो चुकी है।
एक पत्रकार और बुद्धिजीवी के रूप में जब मैं इनकी सभी गतिविधियों का अवलोकन करता हूँ तो यह स्पष्ट आभास होता है कि ये लोग आम भारतीयों से अलग और अभिजात्य वर्ग बन चुके हैं ! नियम कानून की गलत व्याख्या करके इनलोगों ने अपनी पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित कर लिया है लेकिन आम आदमी की जिंदगी को इन लोगों ने लगातार असुरक्षित बनाया है। बानगी स्वरूप सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगा कि जाति आधारित आरक्षण की सोच, धर्म आधारित अल्पसंख्यकवाद की समझ, भाषा आधारित क्षेत्रीयता की भावना को इनलोगों ने जिस तरह से बढ़ावा दिया है, उससे भारत और भारतीयता दोनों निरंतर कमजोर हो रही है।
लेकिन कहा जाता है कि ज्यों ज्यों दवा की, मर्ज बढ़ता ही गया। लगभग 8 दशकों के भारत के संविधान में हुए 105 से अधिक संशोधन इस बात की चीख-चीख कर गवाही देते हैं। वहीं भारतीय संविधान व नियम कानून से जुड़े ज्वलंत पहलुओं पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय के जो दिशा निर्देश आए हैं, वह भी वैचारिक कसौटी पर शतप्रतिशत खरे नहीं उतरते।
सबसे पहले भारत की संसद को यह समझना होगा कि संविधान की नौंवी अनुसूची उनकी सियासी अधिनायकता के अलावा कुछ नहीं है। वहीं सुप्रीम कोर्ट को यह मानना पड़ेगा कि कोई भी नियम कानून शाश्वत सत्य नहीं होगा, जबतक कि वह व्यवहार में ईमानदारी पूर्वक अमल में नहीं लाया जाएगा। इस नजरिए से कार्यपालिका की अधिकांश कड़ियां अविश्वसनीयता के कठघरे में खड़ी हैं। रही बात स्वतंत्र खबरपालिका की, तो देश-काल-पात्र की कसौटी पर सम्पादकीय विवेक का मर जाना आधुनिक युग की सबसे बड़ी त्रासदी है।
यही वजह है कि विधायी विवेक, न्यायिक विवेक और प्रशासनिक विवेक का समुचित पोस्टमार्टम नहीं हुआ और न ही जनमत कायम हो पाया जिसके लिए किसी भी लोकतंत्र में मीडिया को स्वतंत्र बताया जाता है। यक्ष प्रश्न है कि यदि लाखों/करोड़ों की संपत्ति रखने वाले और ऊंचे सरकारी/निजी ओहदे पर बैठे हुए लोग भी यदि दलित, ओबीसी, गरीब सवर्ण हैं और आरक्षण का वंशानुगत लाभ उठा रहे हैं तो फिर तर्क के लिहाज से कहने को कुछ शेष नहीं बच जाता।
इसी प्रकार करोड़ों की आबादी वाले लोग यदि धार्मिक अल्पसंख्यक हैं, धर्मनिरपेक्ष देश में धार्मिक अनुदान मुंह देख देख कर देना यदि वैधानिक है तो फिर संविधान की ऐसी मनमानी व्याख्या करने-करवाने के लिए हमारी संसद व सर्वोच्च न्यायपालिका दोनों समान रूप से दोषी हैं और इनको खुली छूट देने का मतलब भारत और भारतीयता का गला घोंटने जैसा होगा। उसी प्रकार यदि भाषा आधारित क्षेत्रीयता के पैरोकार खुद को राष्ट्र्वादी कहें तो ऐसे ही लोगों और उनके हिमायती दलों ने ही तो भारत की ऐसी दुर्गति करवाई है और आगे अभी बहुत कुछ अशुभ घटित होने की
संभावना प्रबल है।
कमलेश पांडेय
युद्ध के बाद जश्न और मातम के निहितार्थ
डॉ घनश्याम बादल
हालांकि भारत और पाकिस्तान तथा इसराइल और ईरान के बीच युद्ध की विभीषिका शांत हो गई है और इन दो बड़े युद्धों से दुनिया कम से कम अभी तो बच गई है मगर कोई निश्चित तौर पर यह नहीं कह सकता कि इन देशों के बीच या कहीं भी कब किस मुद्दे पर फिर से युद्ध शुरू हो जाए।
आज हालत यह है कि दुनिया के 193 देशों में से 92 देश इस समय युद्ध की काली छाया में जी रहे हैं । किसी पर युद्ध थोप दिए गए हैं, कोई खुद युद्ध में उलझ रहा है. किसी का युद्ध अपनी सीमा से सटे हुए देश के साथ चल रहा है तो किसी का युद्ध आंतरिक व्यवस्थाओं के चलते ज़ारी है । कोई आतंकवादी संगठनों के ख़िलाफ़ लड़ रहा है तो कोई सत्ताधारी दल या सरकार को उखाड़ फेंकने में लगे विपक्षियों से लड़ रहा है । कुल मिलाकर इस समय युद्ध की काली छाया में जी रहा है विश्व।
आश्चर्य की बात यह है कि दुनिया का हर छोटा – बड़ा देश और नेता शांति की बात करता है और जानता है कि हर समस्या का हल केवल शांतिपूर्वक बातचीत की टेबल पर बैठकर ही मिलता है लेकिन फिर भी युद्ध चल रहे हैं ।
जब युद्ध रूस एवं यूक्रेन जैसे देशों के बीच होता है तो मीडिया के माध्यम से दुनिया को पता चल जाता है फिर मीडिया पर विश्लेषण शुरू हो जाता है कोई इस पक्ष में तो कोई उस पक्ष में झुका हुआ दिखाई देता है । कोई एक पक्ष को विजयी बताने लगता है तो कोई दूसरे पक्ष की जिजीविषा एवं दम-खम के गुणगान करने लगता है लेकिन यह कहने वाले लोग बहुत कम हैं कि यह युद्ध निरर्थक मुद्दों पर बिना किसी खास कर्म के होते आए हैं और होते रहेंगे।
ख़ैर युद्ध और मानव सभ्यता का एक दूसरे से चोली दामन का साथ रहा है जैसे-जैसे मानव ने प्रगति की उसकी इच्छाएं बढ़ती गई और इन इच्छाओं व द्वेष भाव के चलते संघर्ष शुरू हुए । यें संघर्ष छोटे-छोटे व्यक्तिगत संघर्षों से कब वर्ग, संप्रदाय, क्षेत्रों से होते हुए देशों के बीच होने लगे, यह पता ही नहीं चल पाया और देखते ही देखते दुनिया के हर कोने को युद्ध ने अपने पंजों में जकड़ लिया।
यदि पूरी दुनिया पर नजर डाली जाए तो इस समय अधिकांश युद्ध दहशतगर्द संगठनों के कंधों पर बंदूक रखकर लड़े जा रहे हैं। पाकिस्तान, सीरिया, ईरान और लेबनान जैसे देश अनेक दहशतगर्द संगठनों की फंडिंग करते हैं, उन्हें हथियार और समर्थन तथा लड़ाके उपलब्ध कराते हैं और अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु उनका चालाकी भरा उपयोग करके अपने प्रतिद्वंदी देश को तबाह करने का सपना देखते हैं । किसी हद तक ऐसे देश अपने इस कृत्य में सफल भी रहते हैं क्योंकि यदि किसी देश के साथ प्रत्यक्ष युद्ध किया जाता है तो उसमें भारी मात्रा में संसाधन एवं हथियार तो लगते ही हैं, साथ ही साथ हारने का भय और दुनिया से अलग थलग हो जाने का डर भी रहता है जबकि ऐसे संगठन जिनमें युवा एवं किशोरों को उनका ब्रेनवाश करके कभी धर्म, तो कभी क्षेत्र तथा कभी जाति अथवा मज़हब के नाम पर आसानी से ‘यूज़’ कर लिया जाता है ।
और यदि यें पकड़े या मारे जाते हैं तो उनसे किसी भी संबंध से इन्कार करने में इन देशों की सरकारों को कोई हिचक नहीं होती। यदि भारत पाकिस्तान के संबंध में ही देखें तो सारी दुनिया को पता है कि अजमल कसाब पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के द्वारा भेजा गया दहशतगर्द था जिसने मुंबई हत्याकांड को अंजाम दिया लेकिन उसके गिरफ़्तार हो जाने पर पाकिस्तान ने तुरंत पल्ला झाड़ लिया । कुछ ऐसा ही ईरान एवं लेबनान तथा सीरिया भी कर रहे हैं। हिज्बुल्लाह, हमास या हूती जैसे संगठन आज इन देशों के लिए काम करते नज़र आ रहे हैं जिनके चलते अमेरिका के समर्थन के साथ इजरायल मध्य पूर्व के इस्लामी देशों से लगातार लड़ रहा है. अब यह लड़ाई कब तक और कहां तक चलेगी, नहीं कहा जा सकता।
दुनिया के एक कोने से युद्ध या संघर्ष ख़त्म होता है तो दूसरे कोने में शुरू हो जाता है । कहीं शासको की ज़िद एवं हठधर्मिता है तो कहीं उन्हें उखाड़ फेंकने , प्रतिशोध लेने एवं द्वेष की भावना दो देशों को भी लड़वाती है ।
ख़ैर युद्धों से दुनिया को एकदम बचा लेना आज बड़ा मुश्किल है मगर पिछले कुछ वर्षों में युद्धों ने कुछ बड़ी विचित्र सी स्थितियां भी पैदा की हैं।
यदि हाल के भारत-पाकिस्तान एवं ईरान इजरायल संघर्ष पर निगाह डाली जाए तो दोनों ही युद्धों के दोनों पक्ष अपने आप को विजयी बताकर जश्न मना रहे हैं । पहलगाम के दहशतगर्द हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान पर एयर स्ट्राइक की और पाकिस्तान ने भी पलट कर वार किया । जहां भारत ने केवल तीन दिन के संघर्ष में पाकिस्तान के अधिकांश एयरबेस तबाह कर दिए, उसके फाइटर जेट गिराए, वहीं पाकिस्तान ने भी भारत के छह युद्धक विमान मार डालने का दावा किया और फिर तथाकथित रूप से अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के हस्तक्षेप से अचानक युद्ध विराम के बाद पाकिस्तान ने तो विजय की खुशी में अपने सेनाध्यक्ष आसिम मुनीर को फील्ड मार्शल बना दिया. भारत ने भी अपने लक्ष्य प्राप्त करने का ऐलान करते हुए ऑपरेशन सिंदूर को अब तक का सबसे सफल मिशन बताया है।
इसी तरह 12 दिन के युद्ध के बाद इजरायल एवं ईरान दोनों ही पक्षों का भारी नुकसान हुआ । इज़रायल ने आक्रामक अंदाज में ईरान के वायुक्षेत्र पर कब्जे का दावा किया और वहां भारी मात्रा में बमबारी करके बहुत नुकसान पहुंचाया तो पलट कर ईरान ने भी अपनी अल्ट्रासोनिक मिसाइलों से इजराइल में तबाही मचाई. जब बात हाथ से जाती दिखी तो अमेरिका ने खुद युद्ध में कूदते हुए ईरान के परमाणु ठिकानों पर बी 2, विमान से हमला करके उसके परमाणु संस्थानों को नष्ट करने का दावा किया। अंततः युद्ध विराम हो गया. अब इसराइल अपनी विजय का जश्न मना रहा है, ईरान अपनी जीत की खुशी में मग्न है और अमेरिका का कहना है कि उसने ईरान को परमाणु हथियार बनाने के संसाधनों से वंचित करके विजय प्राप्त की है यानी इस युद्ध के तीनों पक्ष जश्न में डूबे हैं।
युद्ध के बाद जश्न कोई नई बात नहीं है लेकिन मातम बहुत दिनों तक चलता है. यह मातम शासको में नहीं बल्कि होता है वहां के आम नागरिकों में जिनके घर, काम धंधा एवं परिवार के सदस्य इस युद्ध की भेंट चढ़ जाते हैं , जिनकी हरी-भरी ज़िंदगी अचानक गुरबत एवं मुसीबत से भर जाती है। सरकार थोड़ा बहुत मुआवजा देकर क्षति पूर्ति करती है मगर असली मातम तो आम नागरिकों को ही झेलना पड़ता है।
निश्चित ही युद्ध का कारण कभी एक तरफा नहीं होता. कोई कम तो कोई ज़्यादा ग़लत होता है। उदाहरण स्वरुप यदि यूक्रेन नाटो देशों से जुड़ता है तो रूस उसे सबक सिखाने के लिए युद्ध छोड़ देता है और रूस के भय से यूक्रेन पश्चिमी देशों की शरण में जाता है । भारत और पाकिस्तान अपने जन्म के साथ ही आपस में उलझना शुरू हो गए थे. पाकिस्तान यदि दहशतगर्दो के माध्यम से भारत को लगातार परेशान करता है तो भारत के ऊपर भी बलूचिस्तान एवं पख्तून स्थान में निरंतर उकसावे का आरोप लगता है । इस्राइल तो अपने जन्म से ही इस्लामी देशों से अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है । उधर इस्लामिक देशों का मानना है कि अमेरिका की शह पर इजरायल उन्हें लगातार परेशान करता है ।
अस्तु, युद्ध की ज्वाला को ईंधन हर तरफ से मिलता है। बेशक आज का युग युद्ध का युग नहीं है और आज के युद्ध प्रत्यक्ष परंपरागत हथियारों से नहीं लड़े जाते बल्कि इनमें बहुत ही विनाशकारी अस्त्रों शस्त्रों का प्रयोग किया जाता है. रासायनिक युद्ध, पानी रोक देने जैसे युद्ध और किसी देश की संस्कृति को नष्ट कर देने की युद्ध भी अब आम हो गए हैं ।
देखें आदमी कब इन युद्धों की विभीषिका से छुटकारा पाता है और पाता भी है या फिर खुद उसमें जलकर राख हो जाता है।
डॉ घनश्याम बादल
कथावाचक, समाज और जातिवाद की राजनीति
राजेश कुमार पासी
हमारे देश में जाति-धर्म का मुद्दा राजनीति करने के लिए नेताओं को खूब लुभाता है । जैसे ही उनको ऐसा अवसर मिलता है वो उसे तुरंत लपक लेते हैं क्योंकि इस मुद्दे पर कुछ नहीं करना होता, सिर्फ लोगों को भड़काना होता है । ऐसा ही एक मुद्दा उत्तर प्रदेश की राजनीति का केंद्रीय मुद्दा बना हुआ है । इसकी वजह शायद यह है कि यूपी में पंचायतों के चुनाव होने वाले हैं । इस मुद्दे को राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव ने भी लपक लिया है क्योंकि बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं । एक यादव कथावाचक को अपनी जाति छुपाने के कारण अपमानित किया गया है और दूसरे पक्ष का आरोप है कि कथावाचक ने घर की महिला से छेड़छाड़ की थी । कौन सही है और कौन गलत है, ये तो पुलिस की जांच के बाद पता चलेगा लेकिन इस पर जबरदस्त तरीके से राजनीति शुरू हो गई है । इसका कारण यह है कि कथावाचक यादव समाज से आता है और जिस परिवार ने उसको प्रताड़ित किया है, वो ब्राह्मण समाज से आता है । एक तरह से दो पक्षों की आपसी लड़ाई को यादव बनाम ब्राह्मण बनाया जा रहा है ।
ऐन पंचायत चुनावों के वक्त अखिलेश यादव को जातीय राजनीति करने के लिए सुनहरा अवसर मिल गया है तो वो उसे कैसे छोड़ सकते हैं । दूसरा कोई राजनीतिक दल होता तो वो भी इस मौके को भुनाने की कोशिश करता । अखिलेश यादव तो कोशिश करेंगे कि इस मुद्दे को 2027 में होने वाले विधानसभा चुनाव तक जिंदा रखा जाए, वो उसमें कितने कामयाब होते हैं, ये देखने वाली बात होगी । तेजस्वी यादव भी इस आग में तेल डाल रहे हैं ताकि विधानसभा चुनावों तक इस मुद्दे को जिंदा रखा जाए । भाजपा के लिए ये मुद्दा मुश्किल खड़ी कर रहा है क्योंकि इसे यादवों तक सीमित न रखकर पिछड़ो और दलितों तक ले जाने की कोशिश की जा रही है क्योंकि पीड़ितों में एक दलित भी शामिल हैं। भाजपा यूपी में यादवों को भी लुभाने की कोशिश कर रही थी. अब लगता है कि भाजपा की यह कोशिश बेकार जाने वाली है। समस्या समाजवादी पार्टी की भी है क्योंकि वो ब्राह्मणों को भाजपा के खिलाफ भड़का रही थी लेकिन अब वो ब्राह्मणों के खिलाफ उतर आई है ।
कथा करवाने वाले परिवार का आरोप है कि कथावाचक ने अपनी जाति छुपाई थी और उनके घर की महिलाओं के साथ अभद्रता की थी । सवाल यह है कि अगर कथावाचक ने जाति छुपाई और महिलाओं के साथ छेड़खानी की तो उसे पुलिस के हवाले क्यों नहीं किया गया । कहा जा रहा है कि कथावाचक के पास से दो आधार कार्ड मिले हैं. इसका मामले से क्या मतलब है बाद में पता चलेगा । सवाल यह है कि उसकी शिखा काटने और बाल मूंडने की क्या जरूरत थी । दूसरी बात यह है कि क्या सिर्फ यादव होने के कारण उसके साथ यह व्यवहार किया गया है । अगर वो ब्राह्मण समाज से होता तो क्या परिवार उसके साथ ऐसा ही व्यवहार करता। देखा जाए तो ब्राह्मण परिवार यह बर्दाश्त नहीं कर पाया कि उनके घर एक यादव कथा करने आया था । इसके पीछे यह जातिवादी सोच नजर आती है कि भागवत कथा करना केवल ब्राह्मणों का अधिकार है । देखा जाये तो दूसरी जातियों के लोग भी यह काम कर रहे हैं और कोई एतराज नहीं करता । साध्वी ऋतम्भरा, साध्वी उमाभारती और बाबा रामदेव भी पिछड़ी जातियों से आते हैं लेकिन पूरा हिन्दू समुदाय उनका सम्मान करता रहा है। उक्त कथावाचक वर्षों से कथा कर रहा है और लोग करवा रहे हैं.
यहां यह भी सवाल है कि उसकी जाति का लोगों को कैसे पता नहीं चला । जाति छुपाना गलत है लेकिन हो सकता है कि कथावाचक अपने धंधे में नुकसान के भय से ऐसा कर रहा हो क्योंकि ज्यादातर लोग ब्राह्मणों से ही कथा करवाना पसंद करते हैं । उसके द्वारा जाति छुपाना यजमान परिवार के लिए धार्मिक भावनाएं आहत करने वाला हो सकता है लेकिन इतना नहीं कि कानून हाथ में ले लिया जाए । वास्तव में हिन्दू समाज की जातिवादी सोच खत्म होने का नाम नहीं ले रही है । जातिवाद के कारण भारत हजार साल गुलाम रहा लेकिन फिर भी हिन्दू समाज सुधरने का नाम नहीं ले रहा है । इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता कि जाति के आधार पर ऊंचा होने की सनक ने कुछ लोगों को इतना नीचे गिरा दिया है कि उन्हें इसका अहसास तक नहीं है । आरक्षण को कोसने वाला समाज कभी यह नहीं समझ पाता कि आरक्षण जातिवाद के कारण आया है लेकिन आरक्षण से परेशानी है और जातिवाद से आज भी प्रेम है । हिन्दू समाज को सोचना होगा कि जातिवाद के कारण ही हिंदुओं का धर्म परिवर्तन होता आ रहा है। जब लोगों को अपने ही धर्म में सम्मान नहीं मिलेगा तो वो दूसरे धर्मों की तरफ क्यों नहीं देखेंगे। इस पर हिन्दू समाज को गंभीरता से विचार करना चाहिए कि कहीं इसी जातिवाद के कारण वो एक दिन अपने ही देश में अल्पसंख्यक न बन जाये।
भाजपा के लिए यह मुद्दा तब तक परेशानी नहीं पैदा कर सकता जब तक यह यादव बनाम ब्राह्मण बना रहता है लेकिन समाजवादी पार्टी इसे आगे लेकर जाना चाहती है । वो इसमें दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों को जोड़ना चाहती है । सवाल यह है कि क्या अखिलेश यादव इसमें कामयाब हो सकते हैं । यादव जाति को पीड़ित बताना किसी के गले उतरने वाला नहीं है । यादव जाति यूपी की सबसे दबंग जाति है और आर्थिक रूप से किसी से कमजोर नहीं है । उत्तर प्रदेश में अगर किसी का जातीय आधार पर उत्पीड़न होता है तो वो हैं दलित और अति पिछड़ी जातियां जिनके उत्पीड़न में सवर्ण जातियों के साथ-साथ यादव और मुस्लिम भी शामिल हैं । इसलिए लगता है कि यह मुद्दा अखिलेश यादव को उल्टा भी पड़ सकता है क्योंकि यादव तो उनके पक्ष में पहले ही से एकजुट हैं लेकिन इस मुद्दे के कारण ब्राह्मण समाज उनके खिलाफ एकजुट हो सकता है । समाजवादी अभी तक प्रदेश की भाजपा सरकार को ब्राह्मणों के खिलाफ भड़का रही थी, अब वो खुद ही उनके खिलाफ मोर्चा खोलकर खड़ी हो गई है । यही कारण है कि पक्ष-विपक्ष दोनों ही इस मुद्दे पर संभल कर राजनीति कर रहे हैं ।
भाजपा की परेशानी यह है कि पिछले लोकसभा चुनावों में दलित वोट बैंक उससे छिटक गया था. अगर 2027 के विधानसभा चुनावों में दलित साथ नहीं आते हैं तो भाजपा मुश्किल में फंस सकती है । जैसे मुस्लिम और यादव समाजवादी पार्टी के पक्ष में एकजुट हैं वैसे भाजपा के पक्ष में दलित और अन्य पिछड़ी जातियां नहीं हैं । इसकी वजह यह है कि समाजवादी पार्टी के शासन में यादवों के हाथ में सत्ता होती है और इसका बड़ा हिस्सा मुस्लिम समाज को भी मिलता है । कुछ दूसरी जातियों के वोट से मामला इधर से उधर हो जाता है । भाजपा का सबका साथ, सबका विकास उसको कोई फायदा नहीं दे रहा है क्योंकि इसमें किसी जाति या धर्म को लक्ष्य करके योजनाओं को लागू नहीं किया जा रहा है । जो सबसे ज्यादा फायदा लेने वाला मुस्लिम समाज भाजपा को वोट देने की जरूरत नहीं समझता तो इस रास्ते पर दलित समाज भी जा सकता है ।
भाजपा की कमजोरी जातिवादी राजनीति है क्योंकि वो धर्म की राजनीति करती है । इस मुद्दे ने जातियों में नफरत पैदा करने का रास्ता खोल दिया है । भाजपा ने बंटोगे तो कटोगे का नारा लगाया था. अगर यह मुद्दा जोर पकड़ता है तो भाजपा का यह मुद्दा बेअसर साबित हो सकता है । भाजपा ने इस मुद्दे को संभालने में गलती की है क्योंकि शुरू में ही अगर कह दिया जाता कि कथावाचक के साथ गलत किया गया है. सरकार दोषियों को कानूनी रूप से सजा दिलाएगी तो मामला संभल सकता था । सवाल यह भी है कि क्या समाजवादी पार्टी तब इस मुद्दे को छोड़ देती, शायद नहीं । इस मुद्दे ने भाजपा की कमजोरी को एक बार फिर उजागर कर दिया है । पिछले 11 साल से लगातार सत्ता में बैठी पार्टी जमीनी स्तर पर जनता से कटती जा रही है । कांग्रेस वाली बीमारी धीरे-धीरे भाजपा को भी घेर रही है । भाजपा का संगठन बड़ा हो रहा है लेकिन जनता में पकड़ खोता जा रहा है ।
इस मुद्दे को भाजपा के संगठन ने वैसे नहीं संभाला है जैसे संभालना चाहिए था । उसे पता होना चाहिए कि लगातार दो चुनाव हार चुकी समाजवादी पार्टी उसे सत्ता से हटाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है । समाजवादी पार्टी जानती है कि अगर ये चुनाव भी वो हार गई तो उसके अस्तित्व का सवाल खड़ा हो जायेगा । लोकसभा चुनावों में मिली सफलता से समाजवादी पार्टी को एक नई ऊर्जा मिल गई है और वो भाजपा के खिलाफ पूरा जोर लगाने वाली है । भाजपा की समस्या यह है कि सब कुछ सरकार के भरोसे दिखाई दे रहा है, संगठन काम करता नजर नहीं आ रहा है । भाजपा के लिए संभलने का समय आ गया है ।
राजेश कुमार पासी
जगन्नाथ रथयात्रा हादसा प्रबंधन की भूल का परिणाम
संदर्भ- जगन्नाथ पुरी की रथयात्रा में हुआ हादसा
प्रमोद भार्गव
धार्मिक उत्सवों में दुर्घटनाओं का सिलसिला खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। प्रयागराज कुंभ मेले में और इसी साल जून माह में बैंगलुरु में आईपीएल मैच में मची भगदड़ की स्मृतियां विलोपित भी नहीं हो पाईं थीं कि पुरी में चल रहे भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा में भगदड़ मचने से तीन श्रद्धालुओं की मौत हो गई और 50 से ज्यादा घायल हो गए। गुंडिचा मंदिर के पास घटी यह घटना पूरी तरह प्रशासनिक लापरवाही का नतीजा है। मंदिर में प्रवेश का रास्ता केवल एक था, बाहर जाने का मार्ग बंद कर दिया था, क्योंकि वहां से वीआईपी लोग दर्शन के लिए जा रहे थे। आम भक्तों के लिए बाहर आने का दूसरा कोई मार्ग नहीं था। इसी समय मंदिर में दो ट्रक लकड़ी और अनुश्ठान सामग्री से भरे इसी संकीर्ण मार्ग से भीतर भेज दिए गए। ट्रकों के कारण भीड़ में अफरा-तफरी मच गई और हादसा घट गया। साफ है, प्रशासनिक प्रबंधन की घोर लापरवाही के चलते श्रद्धालु हादसे के शिकार हो गए। मुख्यमंत्री मोहन मांझी ने सुरक्षा की चूक के लिए क्षमा मांगते हुए पुरी के कलेक्टर सिद्धार्थ शंकर और एसपी विनीत अग्रवाल का अविलंब स्थानांतरण कर दिया। स्थानांतरण कोई सजा नहीं होती। वास्तव में कुंभ मेले में और आईपीएल क्रिकेट मैच में हुए हादसों से प्रशासन को सबक लेने की जरूरत थी, जिससे रथयात्रा में भगदड़ से बचा जाए।
भारत में पिछले डेढ़ दशक के दौरान मंदिरों और अन्य धार्मिक आयोजनों में उम्मीद से कई गुना ज्यादा भीड़ उमड़ रही ह्रै। जिसके चलते दर्शन-लाभ की जल्दबाजी व कुप्रबंधन से उपजने वाली भगदड़ व आगजनी का सिलसिला हर साल इस तरह के धार्मिक मेलों में देखने में आ रहा है। साफ है, प्रत्येक कुंभ में जानलेवा घटनाएं घटती रहने के बावजूद शासन-प्रशासन ने कोई सबक नहीं लिए। धर्म स्थल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम कम से कम शालीनता और आत्मानुशासन का परिचय दें। किंतु इस बात की परवाह आयोजकों और प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं होती, अतएव उनकी जो सजगता घटना के पूर्व सामने आनी चाहिए, वह अक्सर देखने में नहीं आती ? लिहाजा आजादी के बाद से ही राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र उस अनियंत्रित स्थिति को काबू करने की कोशिश में लगा रहता है, जिसे वह समय पर नियंत्रित करने की कोशिश करता तो हालात कमोबेश बेकाबू ही नहीं हुए होते ? अतएव देखने में आता है कि आयोजन को सफल बनाने में जुटे अधिकारी भीड़ के मनोविज्ञान का आकलन करने में चूकते दिखाई देते हैं।
रथयात्रा की तैयारियों के लिए कई हजार करोड़ की धनराशि खर्च की जाती है। जरूरत से ज्यादा प्रचार करके लोगों को यात्रा के लिए प्रेरित किया जाता है। फलतः जनसैलाब इतनी बड़ी संख्या में उमड़ गया कि सारे रास्ते पैदल भीड़ से जाम हो गए। इसी बीच लापरवाही यह रही कि बाहर जाने के रास्ते को नेता और नौकरशाहों के लिए आरक्षित कर दिया गया और दो ट्रक आम रास्ते से मंदिर की ओर भेज दिए। इस चूक ने घटना को अंजाम दे दिया। जो भी प्रबंधन के लिए आधुनिक तकनीकि उपाय किए गए थे, वे सब व्यर्थ साबित हुए। क्योंकि उन पर जो घटना के भयावह दृश्य दिखाई देने लगे थे, उनसे निपटने का तात्कालिक कोई उपाय ही संभव नहीं रह गया था। ऐसी लापरवाही और बदइंतजामी सामने आना चकित करती है। दरअसल रथयात्रा में जो भीड़ उमड़ी थी, उसके अवागमन के प्रबंधन के लिए जिस प्रबंध कौशल की जरुरत थी, उसके प्रति घटना से पूर्व सर्तकता बरतने की जरूरत थी ? इसके प्रति प्रबंधन अदूरदर्शी रहा। मेलों के प्रबंधन की सीख हम विदेशी साहित्य और प्रशिक्षण से लेते हैं। जो भारतीय मेलों के परिप्रेक्ष्य में कतई प्रासंगिक नहीं है। क्योंकि दुनिया के किसी अन्य देश में किसी एक दिन और विशेश मुहूर्त्त के समय लाखों-करोडों़ की भीड़ जुटने की उम्मीद ही नहीं की जाती ? बावजूद हमारे नौकरशाह भीड़ प्रबंधन का प्रशिक्षण, लेने खासतौर से योरुपीय देशों में जाते हैं। प्रबंधन के ऐसे प्रशिक्षण विदेशी सैर-सपाटे के बहाने हैं, इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता। ऐसे प्रबंधनों के पाठ हमें खुद अपने देशज ज्ञान और अनुभव से लिखने होंगे।
प्रशासन के साथ हमारे राजनेता, उद्योगपति, फिल्मी सितारे और आला अधिकारी भी धार्मिक लाभ लेने की होड़ में व्यवस्था को भंग करने का काम करते हैं। इनकी वीआईपी व्यवस्था और यज्ञ कुण्ड अथवा मंदिरों में मूर्तिस्थल तक ही हर हाल में पहुंचने की रूढ़ मनोदशा, मौजूदा प्रबंधन को लाचार बनाने का काम करती है। जो इस रथयात्रा में देखने में आई है। आम श्रद्धालुओं के बाहर जाने का रास्ता इन्हीं लोगों के लिए सुरक्षित कर दिया गया था। नतीजतन भीड़ ठसाठस के हालात में आ गई और दुर्घटना घट गई। दरअसल दर्शन-लाभ और पूजापाठ जैसे अनुश्ठान अशक्त और अपंग मनुश्य की वैशाखी हैं। जब इंसान सत्य और ईश्वर की खोज करते-करते थक जाता है और किसी परिणाम पर भी नहीं पहुंचता है तो वह पूजापाठों के प्रतीक गढ़कर उसी को सत्य या ईश्वर मानने लगता है। यह मनुश्य की स्वाभाविक कमजोरी है। यथार्थवाद से पलायन अंधविश्वास की जड़ता उत्पन्न करता है। भारतीय समाज में यह कमजोरी बहुत व्यापक और दीर्घकालीक रही है। जब चिंतन मनन की धारा सूख जाती है तो सत्य की खोज मूर्ति पूजा और मुहूर्त्त की षुभ घड़ियों में सिमट जाती है। जब अध्ययन के बाद मौलिक चिंतन का मन-मस्तिश्क में हृस हो जाता है तो मानव समुदाय भजन-र्कीतन में लग जाता है। यही हश्र हमारे पथ-प्रदर्शकों का हो गया है। नतीजतन पिछले कुछ समय से सबसे ज्यादा मौतें भगदड़ की घटनाओं और सड़क दुर्घटनाओं में उन श्रद्धालुओं की हो रही हैं, जो ईश्वर से खुशहाल जीवन की प्रार्थना करने धार्मिक यात्राओं पर जाते हैं।
मीडिया इसी पूजा-पाठ का नाट्य रूपांतरण करके दिखाता है, यह अलौकिक कलावाद, धार्मिक आस्था के बहाने व्यक्ति को निश्क्रिय व अंधविश्वासी बनाता है। यही भावना मानवीय मसलों को यथास्थिति में बनाए रखने का काम करती है और हम ईश्वरीय अथवा भाग्य आधारित अवधारणा को भाग्य और प्रतिफल व नियति का कारक मानने लग जाते हैं। दरअसल मीडिया, राजनेता और बुद्धिजीवियों का काम लोगों को जागरूक बनाने का है, लेकिन निजी लाभ का लालची मीडिया, लोगों को धर्मभीरू बना रहा है। राजनेता और धर्म की आंतरिक आध्यात्मिकता से अज्ञान बुद्धिजीवी भी धर्म के छद्म का शिकार होते दिखाई देते हैं। यही वजह है कि पिछले दो दशक के भीतर मंदिर हादसों में लगभग 5000 से भी ज्यादा भक्त मारे जा चुके हैं। बावजूद श्रद्धालु हैं कि दर्शन, आस्था, पूजा और भक्ति से यह अर्थ निकालने में लगे हैं कि इनको संपन्न करने से इस जन्म में किए पाप धुल जाएंगे, मोक्ष मिल जाएगा और परलोक भी सुधर जाएगा। गोया, पुनर्जन्म हुआ भी तो श्रेष्ठ वर्ण में होने के साथ आर्थिक रूप से समृद्ध व वैभवशाली होगा। परंतु इस तरह के खोखले दावों का दांव हर मेले में ताश के पत्तों की तरह बिखरता दिखाई दे रहा है। जाहिर है, धार्मिक दुर्घटनाओं से छुटकारा पाने की कोई उम्मीद निकट भविष्य में दिखाई नहीं दे रही है ?
प्रमोद भार्गव
जल की बूंद-बूंद पर संकट: नीतियों के बावजूद क्यों प्यासी है भारत की धरती?
भारत दुनिया की 18% आबादी और मात्र 4% ताजे जल संसाधनों के साथ गंभीर जल संकट का सामना कर रहा है। भूजल का अत्यधिक दोहन, प्रदूषण, असंतुलित खेती, और जलवायु परिवर्तन इसके प्रमुख कारण हैं। सरकारी योजनाओं और नीतियों के बावजूद कार्यान्वयन और जनभागीदारी की कमी से हालात बिगड़ते जा रहे हैं। जल संरक्षण को जन आंदोलन बनाना, सूक्ष्म सिंचाई को बढ़ावा देना, जल की कीमत तय करना, और पुनर्चक्रण को अनिवार्य बनाना समय की मांग है। जब तक नीति, व्यवहार और चेतना एकसाथ नहीं बदलते, तब तक जल संकट भारत के भविष्य को चुनौती देता रहेगा।
-डॉ. सत्यवान सौरभ
भारत की धरती पर जल का संकट एक ऐसी विडंबना बन चुका है, जिसे देखकर हैरानी होती है कि इतनी योजनाओं, घोषणाओं और नीतियों के बावजूद यह देश बूंद-बूंद के लिए क्यों तरस रहा है। जब कोई देश दुनिया की 18% जनसंख्या को समेटे हुए हो और उसके पास केवल 4% ताजे जल संसाधन हों, तो संकट की आशंका तो बनती है, पर यदि यही देश दशकों से जल संरक्षण और जल प्रबंधन की योजनाओं का ढोल पीटता हो और फिर भी सूखा, प्यास, और जलजनित बीमारियाँ उसके हिस्से में आएं — तो यह केवल प्राकृतिक संकट नहीं, यह नीति, प्रशासन और नागरिक चेतना की सामूहिक असफलता है।
भारत में पानी की स्थिति को अगर आंकड़ों की भाषा में समझें, तो भयावहता साफ़ दिखाई देती है। नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है कि भारत विश्व का सबसे बड़ा भूजल उपभोक्ता है — लगभग 25% भूजल अकेले भारत निकालता है। 11% से अधिक भूजल खंड ‘अत्यधिक दोहित’ यानी over-exploited की स्थिति में हैं। दिल्ली, बेंगलुरु, हैदराबाद जैसे 21 प्रमुख शहरों के 2030 तक भूजल समाप्त होने की चेतावनी दी जा चुकी है। वहीं दूसरी ओर, 70% जल स्रोत प्रदूषित हैं। फ्लोराइड, आर्सेनिक, नाइट्रेट और भारी धातुओं से दूषित यह जल 23 करोड़ से अधिक लोगों को प्रभावित कर रहा है। हर साल लगभग 2 लाख मौतें सिर्फ जलजनित बीमारियों से होती हैं — यह सिर्फ आंकड़ा नहीं, यह हमारी संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है।
पानी का यह संकट केवल ग्रामीण इलाकों या गरीबों तक सीमित नहीं है। 2019 में जब चेन्नई जैसे आधुनिक शहर को “Day Zero” का सामना करना पड़ा और जल ट्रेनें चलानी पड़ीं, तब यह साफ हो गया कि यह समस्या अब दरवाज़े पर नहीं, घर के भीतर आ चुकी है। और फिर भी हम इसे मौसमी समस्या मानकर हर बार भूल जाते हैं।
सवाल यह है कि नीतियाँ तो बनीं — राष्ट्रीय जल नीति (2012), जल जीवन मिशन, अटल भूजल योजना, नमामि गंगे, जल शक्ति अभियान — पर फिर भी पानी का स्तर क्यों गिरता जा रहा है? जवाब सरल है — हमारी नीतियाँ ज़मीन पर नहीं उतरतीं, और हमारे व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आता।
आज भी देश के अधिकांश किसान पानी की फिजूलखर्ची करने वाली फसलों की खेती करते हैं। पंजाब और हरियाणा जैसे जल-संकटग्रस्त राज्य में धान और गन्ने की खेती केवल इसलिए होती है क्योंकि सरकार MSP और मुफ्त बिजली देती है। नतीजा — भूजल का तेज़ी से दोहन, खेतों का क्षरण, और जल स्रोतों का खत्म हो जाना। दूसरी ओर, ड्रिप सिंचाई या स्प्रिंकलर जैसे आधुनिक जल संरक्षण उपायों की पहुंच केवल 9% खेतों तक ही सीमित है। किसान जानते हैं, पर अपनाते नहीं — क्योंकि नीति और व्यवहार में दूरी है।
शहरों की बात करें तो पाइपलाइन से लेकर टंकी तक, हर जगह लीकेज और बर्बादी का आलम है। स्मार्ट मीटरिंग अभी भी अधिकांश नगरपालिकाओं के लिए नया शब्द है। पुनः उपयोग (recycling) और वर्षा जल संचयन (rainwater harvesting) जैसे उपाय कहीं-कहीं दिखते हैं, लेकिन सामूहिक रूप से अपनाए नहीं जाते।
सबसे चिंताजनक बात यह है कि जल संकट को अब भी केवल ‘प्राकृतिक समस्या’ समझा जाता है। जबकि यह एक स्पष्ट रूप से ‘नीतिगत और नैतिक’ संकट है। जब तक यह दृष्टिकोण नहीं बदलेगा, तब तक कोई भी योजना सफल नहीं होगी।
अब समय आ गया है कि भारत पानी को “मुफ्त संसाधन” मानना बंद करे और उसे “जीवन मूल्य” की तरह देखे। इसके लिए कुछ गहन और ठोस सुधारों की आवश्यकता है। सबसे पहले, पानी की कीमत तय होनी चाहिए — चाहे वह पीने का हो, या सिंचाई का। मुफ्त पानी की संस्कृति ने उपभोग को बर्बादी में बदल दिया है। जल का मूल्य निर्धारण सामाजिक न्याय और पर्यावरणीय विवेक के बीच संतुलन साध सकता है।
दूसरा, सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों को केवल योजना पत्रों से निकालकर ज़मीनी हकीकत बनाना होगा। इसके लिए तकनीकी प्रशिक्षण, सस्ती उपलब्धता, और स्थानीय स्तर पर सहायता तंत्र बनाना होगा। तीसरा, भूजल का प्रबंधन केवल सरकार का नहीं, ग्राम पंचायतों और स्थानीय समुदायों का भी कर्तव्य होना चाहिए। अटल भूजल योजना को इस दिशा में सफल मॉडल के रूप में बढ़ाया जा सकता है।
चौथा, किसानों को केवल फसल बीमा या सब्सिडी नहीं, जल आधारित फसल मार्गदर्शन की ज़रूरत है। यह तभी होगा जब MSP का ढांचा जल संरक्षण के अनुकूल फसलों को बढ़ावा देगा। देश को ऐसे नीतिगत हस्तक्षेपों की ज़रूरत है जो किसान की आय भी बढ़ाएं और पानी की बचत भी करें।
पाँचवां, शहरों में जल पुनर्चक्रण अनिवार्य किया जाए। जो नगर पालिकाएं wastewater को recycle नहीं करतीं, उन्हें दंड और प्रोत्साहन दोनों के माध्यम से बदला जाए। बड़े भवनों में वर्षा जल संचयन अनिवार्य हो, और इसके अनुपालन की निगरानी की जाए।
छठा, बच्चों के स्कूली पाठ्यक्रम में जल संरक्षण को केवल पर्यावरण अध्याय के रूप में न पढ़ाया जाए, बल्कि व्यवहार परिवर्तन के रूप में सिखाया जाए। यदि अगली पीढ़ी जल को ‘कीमती’ माने, तो आज की प्यास भविष्य की सूखी धरती को बचा सकती है।
सातवां, जल संरक्षण को ‘जन आंदोलन’ बनाना होगा — जैसा प्रधानमंत्री ने आह्वान किया था। लेकिन यह आह्वान केवल भाषणों में नहीं, बजट और प्रशासनिक प्रतिबद्धता में दिखना चाहिए। जल शक्ति मंत्रालय को केवल नल जोड़ने वाला मंत्रालय नहीं, जल नीति, जल शिक्षा और जल चेतना का नेतृत्व करना होगा।
साथ ही, निजी क्षेत्र की भूमिका को भी समझना और बढ़ाना होगा। जल एटीएम, पाइपलाइन प्रबंधन, स्मार्ट मीटरिंग, और जल पुनर्चक्रण जैसी सेवाओं में PPP मॉडल को बढ़ावा देकर न केवल निवेश लाया जा सकता है, बल्कि तकनीकी नवाचार भी हो सकते हैं।
और सबसे महत्वपूर्ण — हमें यह समझना होगा कि जल संकट केवल वैज्ञानिकों और नौकरशाहों का विषय नहीं है। यह आम नागरिक का संकट है। हर घर, हर हाथ को यह जिम्मेदारी लेनी होगी कि पानी को बर्बाद नहीं किया जाएगा, और हर बूंद का सम्मान होगा।
जलवायु परिवर्तन के इस युग में, जब बारिश की मात्रा अनिश्चित हो गई है, और हिमालयी ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं — हमें जल को ‘अनंत’ नहीं, बल्कि ‘सीमित और नाजुक’ संसाधन मानना होगा। भारत की सांस्कृतिक परंपरा में जल को देवता का दर्जा मिला है — लेकिन विडंबना यह है कि आज वही जल नदियों में मल-मूत्र के रूप में बह रहा है, या गंदे नालों से होकर भूजल में जहर घोल रहा है।
इसलिए आज का भारत केवल ‘जल संकट’ नहीं झेल रहा, बल्कि वह अपने भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहा है। जल संकट में डूबा भारत, विकास के हर मोर्चे पर कमजोर पड़ता जाएगा — चाहे वह स्वास्थ्य हो, कृषि, उद्योग या सामाजिक समरसता।
अंततः यही कहा जा सकता है कि जल संकट केवल पानी की समस्या नहीं है — यह व्यवस्था, संस्कृति, शिक्षा और नीयत की भी परीक्षा है। यदि हमने अब भी नहीं संभला, तो इतिहास गवाह रहेगा कि हमने एक ऐसे संसाधन को खो दिया, जो जीवन का मूल था, और जिसकी एक-एक बूंद सोने से भी महंगी थी।
अब वक्त आ गया है — नीतियों की बौछार से बाहर निकलकर बूंद-बूंद बचाने के व्यवहारिक आंदोलन को अपनाने का। क्योंकि आने वाले वर्षों में ‘जल’ ही ‘राजनीति’, ‘आर्थिक ताकत’ और ‘सामाजिक न्याय’ का सबसे बड़ा मुद्दा बनने वाला है।
आतंकवाद पर चीन और पाकिस्तान के दोहरे पैमाने
प्रमोद भार्गव
आतंकवाद के मसले पर चीन के किंगदाओ नगर में हुई शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में एक बार फिर चोर-चोर मौसेरे भाई चीन और पाकिस्तान ने भारतीय हितों के परिप्रेक्ष्य में दोगलापन दिखाया है। इस बैठक में सदस्य देशों के रक्षा मंत्री उपस्थित थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा आतंकवाद के खात्मे के लिए किए जा रहे आवाहन ने वैश्विक स्तर पर ऐसा माहौल बनाने का काम किया है कि इस समस्या को जड़ से उखाड़ दिया जाए। लेकिन एससीओ की बैठक में जिस दस्तावेज को साझा हस्ताक्षर के लिए सामने लाया गया तब उसमें पहलगाम में हुए आतंकी हमले को शामिल नहीं किया गया। जबकि इस हमले में 26 भारतीय नागरिक आतंकवादियों ने मार दिए थे। इस दस्तावेज में बलूचिस्तान का नाम हैं। जबकि बलूचिस्तान के नागरिक पाकिस्तान के विरुद्ध स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे हैं। अर्थात इस दस्तावेज को पढ़ने के बाद भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कड़ा रुख अपनाते हुए इस पर दस्तखत करने से साफ इंकार कर दिया। इस संगठन पर चीन का प्रभाव है और चीन ही इस बार संगठन का अध्यक्ष देश है। भारत ने पहलगाम में हुए आतंकी हमले को न केवल पक्षपातपूर्ण माना, बल्कि इसे पाकिस्तान और उसके हितचिंतक चीन की हरकत माना। अतएव राजनाथ सिंह ने दस्तखत नहीं किए। इस संगठन के दस्तावेज की उपयोगता तभी है, जब बैठक में उपस्थित सभी सदस्य देश मुद्दों पर सहमत होकर हस्ताक्षर करने के साथ साझा बयान भी जारी करें। तब कहीं इस दस्तावेज पर सहमति बन पाती है।
इस संगठन में 10 देश परस्पर जुड़े हितों को मजबूत करने के लिए षामिल हैं। इन देशों में भा र त, चीन, पाकिस्तान, रूस, ईरान, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, उज्बेकिस्तान, बेलारूस और तजाकिस्तान शामिल हैं। 2001 में इस संगठन का गठन हुआ था। आरंभ में चीन और रूस समेत पांच देश इसमें शामिल थे। 2001 में उज्बेस्तिन, 2017 में भारत और पाकिसतान, 2022 में ईरान एवं 2024 में बेलारुस इस संगठन में भागीदार हुए। इन देशों की कुल जीडीपी में 30 फीसदी और दुनिया की आबादी में 40 प्रतिशत हिस्सेदारी है। यानी इस संगठन की इन देशों की अर्थव्यवस्था के लिए परस्पर भागीदारी जरूरी है। लेकिन जब राजनाथ सिंह ने दस्तावेज की इबारत को पक्षपात पूर्ण पाया तो उन्होंने खुले शब्दों में कहा, ‘भारत आतंकवाद पर दोहरे मापदंड मंजूर नहीं करेगा। आतंक को बढ़ावा देने वाले देशों की खुली निंदा होनी चाहिए। कुछ देशों ने सीमा पार आतंकवाद को न केवल अपनी नीति ही मान लिया है, बल्कि अपने देश में उन्हें संरक्षण भी देते हैं। बावजूद इस हकीकत को नकारते हैं। ऐसे दोहरे मापदंडों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। उन्हें अब समझना होगा कि आतंकवाद के अधिकेंद्र (एपीसेंटर) अब सुरक्षित नहीं रह गए हैं।‘ नए भारत के इस कड़े संदेश ने उपस्थित रक्षा मंत्रियों को हैरानी में डाल दिया। अतएव न तो कोई सहमति बन पाई और न ही संयुक्त बयान जारी हो पाया। इस परिणाम ने समूची दुनिया को संदेश दे दिया है कि अब भारत अपने हितों से समझौता करने के लिए कतई तैयार नहीं है।
दरअसल भारत चाहता था कि एससीओ पहलगाम हमले की निदां करे और पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद पर स्पश्ट रुख अपनाए। लेकिन चीन की एक बार फिर दगा की दोगली नीति सामने आ गई। एक सदस्य देश ने इस पहलगाम मुद्दे को दस्तावेज में शामिल करने से असहमति जता दी। वस्तुतः राजनाथ सिंह ने कड़ा रुख अपना लिया और दस्तखत नहीं किए। इस साझा बयान पर हस्ताक्षर नहीं करने का बड़ा कारण दस्तावेज न तो निष्पक्ष था और न ही इसमें कोई पारदर्शिता थी। यह भी साफ नहीं किया कि आखिर इस अभिलेख को किन देशों ने तैयार किया है। यह दस्तावेज आतंकवाद से जुड़े तथ्यों के विपरीत था। भारत के जम्मू-कश्मीर प्रांत में 22 अप्रैल को पहलगाम में सैलानियों पर बड़ा हमला हुआ था। इसमें 26 निर्दोश लोग मारे गए थे। आतंकियों द्वारा किया यह हमला मानवता के लिए क्रूरता का चरम था। इसलिए भारत ने इस आतंकी हमले को दस्तावेज में षामिल करने की मांग भी की थी। परंतु इस मांग को नमंजुर कर दिया गया। अध्यक्षता कर रहे चीन का यह रुख पाकिस्तान के प्रति उदारता जताता है, जो सर्वथा पक्षपातपूर्ण है। जबकि बलूचिस्तान की आतंकी गतिविधियों से जुड़ी जफर एक्सप्रेस की घटना इसमें दर्ज थी। इस संगठन का लक्ष्य षामिल देशों की सुरक्षा, आर्थिक और राजनीतिक सहयोग को बढ़ाने के साथ आतंकवाद, नशीले पदार्थों की तस्करी और साइबर आपराध जैसे मसलों पर सटीक रणनीति बनाकर उस पर संयुक्त पहल करना भी है। लेकिन जिस तरह से पहलगाम हमले को नजरअंदाज किया गया उससे साफ है कि अध्यक्ष देश की नियत साफ नहीं है।
इस तरह का दोहरा चरित्र इसलिए खतरनाक है कि इसने क्षेत्रीय सहयोग से जुड़े मुद्दों पर पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया। जिसके चलते आतंकवाद की समस्या से निपटना जटिल होगा। क्योंकि पाकिस्तान भारत के विरुद्ध लगातार आतंकी खेल, खेलता हुआ खून की इबारतें लिख रहा है। इस सच्चाई को समूची दुनिया भलीभांति जानती है। क्योंकि भारत आतंक से पिछले ढाई दशक से निरंतर लड़ाई लड़ रहा है। स्वयं चीन ने बीजिंग में कुछ वर्श पहले हुए ब्रिक्स देशों के सम्मेलन के घोशणा पत्र में इस तथ्य को षामिल किया था कि कई बड़े आतंकवादी संगठन पाकिस्तान के सुरक्षित ठिकानों से अपनी गतिविधियां चलाते हैं। पहलगाम में किए निरंकुश हमले में भी पाकिस्तान से आए आतंकियों का हाथ था। बावजूद एससीओ की बैठक के संयुक्त बयान में पहलगाम को नजरअंज करना दोगलापन नहीं तो और क्या है ? एससीओ में आतंकवाद पर शिकंजा नहीं कसना इसलिए और चिंताजनक है, क्योंकि पाकिस्तान परमाणु षक्ति संपन्न देश है और वहां अनेक आतंकी संगठन सक्रिय हैं। इन संगठनों में लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिद्दीन और जैश-ए-मोहम्मद प्रमुख हैं। अमेरिका पर आतंकी हमला करने वाले ओसामा बिन लादेन को ही पाकिस्तान ने षरण दी थी। उसका अंत अमेरिकी वायुसेना ने पाकिस्तान में घुसकर किया था। संयुक्त राश्ट्र द्वारा जारी सूची में बताया है कि पाक में 136 आतंकवादियों के ठिकाने हैं और यहां 22 आतंकवादी हथियारबंद संगठनों को पाक सेना संरक्षण दे रही है। वाइदवे इन आतंकियों के हाथ परमाणु हथियार लग जाते हैं तो ये मानवता के विरुद्ध कैसी तबाही मचाएंगे, यह कहना अनुमान से परे है। अतएव राजनाथ सिंह ने अभिलेख पर दस्तखत न करके दुनिया को यह संदश दे दिया है कि भारत आतंक के विरुद्ध लड़ाई लड़ता रहेगा।
प्रमोद भार्गव