कविता सुदर्शनचक्रधारी श्री कृष्ण की आवश्यकता अनुभव करता देश

सुदर्शनचक्रधारी श्री कृष्ण की आवश्यकता अनुभव करता देश

जन्माष्टमी पर्व की आप सभी के लिए बहुत-बहुत शुभकामनाएं। श्री कृष्ण जी भारतीय सनातन के पुरोधा योद्धा महापुरुष रहे हैं। जिन लोगों ने उन्हें केवल…

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लेख शहर, कुत्ते और हमारी ज़िम्मेदारी

शहर, कुत्ते और हमारी ज़िम्मेदारी

“पॉटी उठाना शर्म नहीं, संस्कार है, शहर की सड़कों पर पॉटी नहीं, जिम्मेदारी चाहिए” भारत में पालतू कुत्तों की संख्या 2023 में लगभग 3.2 करोड़…

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कविता भारत की माटी का सौ सौ बार हम करते अभिनंदन

भारत की माटी का सौ सौ बार हम करते अभिनंदन

—विनय कुमार विनायकवतन से प्यार करनेवाले शब्दकार को नमन!वतन से प्यार करनेवाले भारतीय संस्कार को नमन!वतन पर न्योछावर अमर दिलवर दिलदार को नमन!हम रहें ना…

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कला-संस्कृति श्रीकृष्ण हैं शाश्वत एवं प्रभावी सृष्टि संचालक

श्रीकृष्ण हैं शाश्वत एवं प्रभावी सृष्टि संचालक

श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव-जन्माष्टमी- 16 अगस्त 2025 पर विशेष-ललित गर्ग – भगवान श्रीकृष्ण भारतीय संस्कृति के ऐसे अद्वितीय महापुरुष हैं, जिनके व्यक्तित्व में आध्यात्मिक ऊँचाई, लोकनायकत्व,…

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राजनीति मतों की हेराफेरी के जनक और उनके परनाती की सनक

मतों की हेराफेरी के जनक और उनके परनाती की सनक

                              मनोज ज्वाला       कांग्रेस के नेतागण जब चुनाव हार जाते हैं, या हारने की सम्भावनादेख लेते हैं, तब वे ईवीएम में गडबडी का राग अलापने लगते हैं ।…

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लेख परम्परागत संस्कृत अध्ययन की अनिवार्यता ही लौटाएगी देववाणी का पुरातन गौरव

परम्परागत संस्कृत अध्ययन की अनिवार्यता ही लौटाएगी देववाणी का पुरातन गौरव

 परम्परागत अध्ययन से ही संस्कृत का लौटेगा गौरव सुशील कुमार ‘नवीन’ चाणक्य नीति का एक प्रसिद्ध श्लोक है जो आज के समय में देववाणी संस्कृत पर सटीक बैठता है।  कार्यार्थी भजते लोकं यावत्कार्य न सिद्धति  उत्तीर्णे च परे पारे नौकायां किं प्रयोजनम्। लोग तब तक दूसरों की प्रशंसा करते हैं जब तक उनका काम नहीं निकल जाता। एक बार जब उनका काम हो जाता है, तो वे उन लोगों को भूल जाते हैं, जिन्होंने उनकी मदद की थी। यह एक सामान्य स्वभाव है, नदी पार के बाद नौका की कोई पूछ नहीं होती है। संस्कृत के साथ भी कुछ ऐसा ही है। कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमें संस्कृत से कुछ न लिया गया हो। संस्कृत को दिया किसी ने भी नहीं।     संस्कृत देव भाषा है। संस्कृति का आधार है। वेदों, उपनिषदों, और पुराणों जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों की जननी है। भारतीय संस्कृति, दर्शन और साहित्य का भंडार है। आदि वाक्यों से पिछले एक सप्ताह संस्कृत का खूब गुणगान किया गया। विभिन्न मंत्रियों, क्रिकेटरों ,बॉलीवुड यहां तक प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति आदि तक ने संस्कृत की महत्ता को वर्तमान समय के लिए आवश्यक बताते हुए इसे आत्मसात करने का आह्वान किया। पर वास्तव में क्या आज संस्कृत का हमारे जीवन में वह स्थान है जिसकी वो बाकायदा अधिकार है। सवाल है कि कहने भर से क्या संस्कृत अपने आपको गौरवान्वित महसूस कर लेगी। जवाब होगा, नहीं। जिस भाषा का गौरवमयी स्वर्णिम अतीत रहा हो, आज वह जिस गति से धरातल की ओर बढ़ रही है। वह भाषा विशेषज्ञों के साथ-साथ आमजन के लिए भी कम चिंता का विषय नहीं है। संस्कृत की वर्तमान स्थिति का जिम्मेदार कौन है, इस पर चिंतन समय की जरूरत है।     भारत में प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा के पावन अवसर को संस्कृत दिवस के रूप में मनाया जाता है। इससे पहले के तीन दिन और बाद के तीन दिनों को मिलाकर संस्कृत सप्ताह का नाम दिया गया है। इस बार यह आयोजन 6 अगस्त से 12 अगस्त तक रहा। 9 अगस्त को विश्व संस्कृत दिवस भी मनाया गया। यह दिन संस्कृत भाषा के महत्व को बढ़ावा देने के लिए समर्पित है, जिसे भारत की सबसे पुरानी भाषाओं में से एक माना जाता है।      श्रावणी पूर्णिमा अर्थात् रक्षाबन्धन ऋषियों के स्मरण तथा पूजा और समर्पण का पर्व माना गया है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि ऋषि ही संस्कृत साहित्य के आदि स्रोत हैं इसलिए श्रावणी पूर्णिमा को ऋषि पर्व और संस्कृत दिवस के रूप में मनाया जाना सार्थक भी है। इस अवसर पर हर वर्ष की तरह राज्य तथा जिला स्तरों पर संस्कृत दिवस आयोजित गए। संस्कृत कवि सम्मेलन, लेखक गोष्ठी, भाषण तथा श्लोकोच्चारण प्रतियोगिताओं आदि का भी व्यापक स्तर पर आयोजन हुआ।    ध्यान देने योग्य बात यह है कि क्या संस्कृत सप्ताह मात्र संस्कृत संस्थानों और संगठनों का सामान्य कार्यक्रम होकर ही होकर रहना चाहिए? क्या संस्कृत के प्रति हमारी जिम्मेदारी नहीं है ? आज जब बात संस्कार की हो, संस्कृति की हो तो क्या संस्कृत को नजर अंदाज कर सकते हैं। संस्कृत सभी की है और सभी को संस्कृत सीखना या संस्कृत के लिये कार्य करना आवश्यक है। संस्कृत की जो वर्तमान में स्थिति है उसके जिम्मेदार राजनेताओं के साथ-साथ हम सब संस्कृत की रोटी खाने वाले भी हैं। हमने सिर्फ अपने समय के बारे में सोचा है। जैसा है, जो है बस उसी को सिरोधार्य कर संस्कृत सेवा की इतिश्री कर ली। जो संस्कृत विद्वान है उन्हें अपनी विद्वता पर इतराने से फुर्सत नहीं। जो सामान्य है उन्हें इससे आगे बढ़ना नहीं। यही वजह है कि संस्कृत समय के साथ अपने आपको बरकरार नहीं रख पा रही।    एक समय था जब संस्कृत की रोजगार प्रतिशतता सौ फीसदी थी। गुरुकुल, संस्कृत महाविद्यालयों में दाखिलों के लिए होड़ बनी रहती थी। आज हालत यह है कि दाखिलों के अभाव में गुरुकुल बंद होते जा रहे हैं। जो शेष है या तो उन्होंने समय के साथ आधुनिकता का समावेश कर लिया है या फिर कर्मकांड ज्योतिष प्रशिक्षण तक अपने आपको सीमित कर लिया है। जब सामान्य संस्कृत की पढ़ाई से ही शिक्षक, व्याख्याता आदि की नौकरी प्राप्त होने की योग्यता प्राप्त हो रही है तो क्यों फिर तपस्वियों जैसे रहकर विशारद, शास्त्री, आचार्य, विद्यावारिधि, विद्यावाचास्पति की उपाधियां प्राप्त कर जीवन के कीमती 10 वर्ष खराब करें। सामान्य व्याकरण से काम चलता हो तो क्यों अष्टाध्यायी, महाभाष्य, कौमुदी त्रय लघु सिद्धांत,मध्य सिद्धांत, वैयाकरण सिद्धांत पढ़कर सोशल मीडिया पर व्यतीत होने वाला समय क्यों गंवाएं। महाकाव्य रामायण,  महाभारत, भगवतगीता, मेघदूत, कुमारसंभव, कादंबरी, काव्य शास्त्र, अलंकार शास्त्र, चरक संहिता सरीखे बहुमूल्य ग्रन्थ के हिंदी सार से काम चलता हो तो क्यों संस्कृत के गूढ़ अर्थों के लिए अमरकोश, निरुक्त, अभिधानचिंतामणि, शब्दकल्पद्रुम् ,वाचस्पत्यम्, जैसे ग्रंथों से माथापच्ची की जाए।   ऐसी स्थिति में संस्कृत को फिर से गौरवान्वित करना है तो इसके पठन-पाठन, अध्ययन-अध्यापन में परंपरागत शिक्षण, पाठ्यक्रम को फिर से अपनाना होगा। सामान्य पाठ्यक्रम की अपेक्षा रोजगारों के अवसरों में परम्परागत संस्कृत पढ़ने की अनिवार्यता को लागू करना होगा। अन्यथा शास्त्री, आचार्य, विद्यावारिधि, विद्यावाचास्पति जैसी उपाधियां, स्नातक, परास्नातक, पीएचडी, डी.लिट में हो गुम होकर रह जाएंगी। संस्कृत के प्रति रोजगारों में परम्परागत संस्कृत पठन की अनिवार्यता बढ़ेगी तो प्राचीन गुरुकुलीय पद्धति को भी संबल मिलेगा। गुरुकुल लौटेंगे तो प्राचीन संस्कृति, संस्कार बचे रहेंगे, जो आज के समय के लिए बहुत ही आवश्यक है। प्राचीन ग्रन्थ हितोपदेश की यह सूक्ति इस बात को और दृढ़ करेगी यही उम्मीद है – अंगीकृतं सुकृतिनः परिपालयन्ति अर्थ है कि सज्जन व्यक्ति जिस बात को स्वीकार कर लेते हैं, उसका पालन करते हैं, या पुण्यात्मा जिस बात को स्वीकार करते हैं, उसे निभाते हैं।

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लेख हवा-पानी की आज़ादी के बिना आज़ादी अधूरी

हवा-पानी की आज़ादी के बिना आज़ादी अधूरी

– ललित गर्ग – देश एवं दुनिया के सामने स्वच्छ जल एवं बढ़ते प्रदूषण की समस्या गंभीर से गंभीरतर होती जा रही है। शुद्ध हवा…

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बच्चों का पन्ना इस मोबाइल ने चौबीस घंटे का समय भी कम कर दिया आदमी का

इस मोबाइल ने चौबीस घंटे का समय भी कम कर दिया आदमी का

—विनय कुमार विनायकइस मोबाइल ने चौबीस घंटे का समय भीकम कर दिया आदमी काइस मोबाइल ने भाई बहन के रिश्ते को भीबेदम कर दिया आदमी…

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लेख सड़क के कुत्तों को डॉग शेल्टर होम में रखने के सुप्रीम आदेश के व्यवहारिक मायने दिलचस्प

सड़क के कुत्तों को डॉग शेल्टर होम में रखने के सुप्रीम आदेश के व्यवहारिक मायने दिलचस्प

कमलेश पांडेय माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने गत सोमवार को दिल्ली-एनसीआर के इलाकों से सड़क के कुत्तों को पकड़ने और उन्हें डॉग शेल्टर में रखने का…

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कला-संस्कृति उडुपी का श्री कृष्ण मंदिर : जहाँ फर्श पर भक्त ग्रहण करते हैं प्रसाद 

उडुपी का श्री कृष्ण मंदिर : जहाँ फर्श पर भक्त ग्रहण करते हैं प्रसाद 

कुमार कृष्णन  उडुपी को दक्षिण भारत का मथुरा कहा जाता है। यहां का कृष्ण मंदिर दक्षिण भारत के सबसे प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों में से एक…

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राजनीति राजनीतिक स्वाधीनता के बाद अब- लड़नी होगी आर्थिक आजादी की जंग! 

राजनीतिक स्वाधीनता के बाद अब- लड़नी होगी आर्थिक आजादी की जंग! 

स्वाधीनता दिवस विशेष : डॉ घनश्याम बादल 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ भारत आज 2025 में आजादी के 78 साल बाद एक दूसरी आजादी…

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राजनीति आज़ादी के “जश्न” के साथ मिली विभाजन की “त्रासदी”

आज़ादी के “जश्न” के साथ मिली विभाजन की “त्रासदी”

विभाजन विभीषिका का दिवस 14 अगस्त पर विशेष… प्रदीप कुमार वर्मा भारत माता के कई वीर सपूतों की कुर्बानी के बाद 15 अगस्त सन 1947…

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