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    नेपाल-बांग्लादेश जैसी अराजकता की दुआ क्यों 

    राजेश कुमार पासी

    पहले श्रीलंका, फिर बांग्लादेश और अब नेपाल में छात्रों ने आंदोलन करके एक ही दिन में सत्ता पलट दी। इससे हमारे देश के कुछ नेताओं और उनके समर्थकों के मन में लड्डू फूटने लगे कि ऐसे ही भारत में आंदोलन करके सत्ता पलट देंगे । ये लोग सोशल मीडिया पर चिल्ला रहे हैं कि जैसे नेपाल में जेन जी ने एक दिन में सत्ता पलट दी, वैसा ही भारत के युवा क्यों नहीं कर रहे हैं। जिन्हें न तो भारत की समझ है और न ही भारतीय राजनीति की समझ है, वो लोग ही दुआ कर रहे हैं कि भारत में भी पड़ोसी देशों जैसी क्रांति हो जाये और उन्हें जनता सत्ता में बिठा दे। ऐसे लोग अपने अंध विरोध में यह भी नहीं देख पा रहे हैं कि नेपाल के जेन जी ने केवल सत्ता पक्ष के नेताओं के साथ ही मारपीट नहीं की है बल्कि विरोधी दल के नेताओं पर भी हमले किए हैं । वास्तव में आज भी हमारे देश में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है, जो सोचते हैं कि सत्ता बंदूक की गोली से निकलती है। उन्हें भारतीय सैन्य बलों की ताकत का अहसास नहीं है जिनकी गोली ऐसे लोगों को बहुत जल्दी औकात में ला सकती है। ये पाकिस्तान नहीं है जहां सेना लोकतंत्र को अपने पैरों से कुचल देती है. ये भारत है, जिसकी सेना और पुलिस लोकतंत्र की रक्षा के लिए अपनी जान की बाजी लगा देती है ।

    लोकतंत्र के दुश्मन नक्सलियों और आतंकियो से सेना कई दशकों से लड़ रही है । आतंकवाद को कश्मीर तक सीमित कर दिया गया है और नक्सलवाद कुछ जिलों तक सिमट गया है।  भारत की सेना ने कभी भी तख्तापलट की कोशिश नहीं की बल्कि सदैव लोकतंत्र की रक्षा के लिए डटी रही । यही हालत नेपाल की भी है, जहां अराजकता के बावजूद सेना ने सत्ता पर कब्जे की कोशिश नहीं की । इसके विपरीत नेपाली सेना ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्थापित करने में मदद की है । नेपाल में एक आंदोलन सत्ता पलटने में इसलिए कामयाब हो गया क्योंकि नेपाल एक छोटा देश है जबकि भारत विभिन्नताओं से भरा हुआ 140 करोड़ की जनसंख्या वाला विशाल देश है । कुछ लाख लोग सड़क पर निकल पर सत्ता पलट दें, ऐसा होने की संभावना भारत में नाममात्र की भी नहीं है । 

                    ऐसा नहीं है कि भारत में आंदोलनों ने सत्ता नहीं बदली है लेकिन उसका तरीका अलग था । सबसे पहले 1975 में कांग्रेस सरकार द्वारा लगाए गए आपातकाल में सरकार द्वारा की गई तानाशाही और जनता के उत्पीड़न के खिलाफ जेपी आंदोलन चलाया गया था । इस आंदोलन के कारण ही 1977 में जनता ने सरकार को बदल दिया । जिन नेताओं ने इस आंदोलन में हिस्सा लिया था, उन्हीं नेताओं में से निकलकर कुछ लोगों ने सत्ता संभाली । दूसरी बार यूपीए सरकार के दौरान हुए भ्रष्टाचार और परिवारवाद के खिलाफ चले अन्ना आंदोलन ने केंद्र की सत्ता पलट दी । विपक्ष को देखना चाहिए कि जिन  दो आंदोलनों ने भारत की सत्ता बदली, वो सड़क पर हुए आंदोलन से नहीं बदली थी । सड़क पर आंदोलन चलाकर सरकार विरोधी लोगों ने जनता को अपने साथ जोड़ा और जनता ने चुनाव में अपने वोट से सत्ता पलट दी । नेपाल में सड़क पर हुए आंदोलन से जो सत्ता बदली गई है, वो सत्ता भी एक हिंसक आंदोलन से आई थी । वामपंथी संगठनों ने वर्षों तक हिंसक आंदोलन चलाकर नेपाल से राजतंत्र को खत्म किया था । वामपंथी विचारधारा कहती है कि सत्ता बंदूक की गोली से निकलती है और नेपाल में वामपंथियों ने बंदूक से ही सत्ता हासिल की थी ।  अब बंदूक से ही उनसे सत्ता छीन ली गई है । ये वामपंथी गुरिल्ला लड़ाके थे और बंदूक के जरिये सत्ता में आ गए । इन्हें जनता की भावनाओं और उसके कल्याण से कोई मतलब नहीं था । ये लोग अनैतिक गठबंधनों और दलबदल से कुर्सी बदल-बदल कर सत्ता का आनंद ले रहे थे । जब इन्होंने राजतंत्र के खिलाफ आंदोलन चलाया तो जनता इन्हें अपना हीरो मानने लगी थी । जब सत्ता में आने के बाद इन्होंने जनता की अवहेलना शुरू कर दी तो इसकी असलियत जनता के सामने आ गई । जब उनकी हरकतों के कारण जनता में उनके प्रति नाराजगी बढ़ रही थी तो उन्होंने उसकी परवाह नहीं की । अगर जनता उनसे नाराज थी तो उन्हें जनता की शिकायतों पर ध्यान देना चाहिए था लेकिन बंदूक के बल पर सत्ता पाने वाले जनता की भावनाओं को कैसे समझ सकते थे । जब जनता अपनी नाराजगी  जाहिर करने लगी तो इन्होंने उसकी आवाज दबाने के लिए अभिव्यक्ति के माध्यम सोशल मीडिया पर ही प्रतिबंध लगा दिया । इसके कारण जनता का गुस्सा फूट पड़ा और वो सड़को पर निकल आई । जनता की भावनाओं को समझना चाहिए था और उसके साथ संवाद स्थापित करके मामले को हल करना चाहिए था । जिन वामपंथियों ने बंदूक से सत्ता हासिल की थी, उन्हें यह पता ही नहीं है कि जनता से कैसे संवाद किया जाता है । 

                      जब छात्र अपना विरोध जताने के लिए सड़को पर उतरे तो सरकार ने उन पर गोलियां बरसाना शुरू कर दिया और  18 छात्रों को एक ही दिन में मार दिया । इससे छात्रों का गुस्सा बढ़ गया और एक शांतिपूर्ण आंदोलन हिंसक आंदोलन में बदल गया । जब छात्र हिंसक हुए तो इन्हें बचाने के लिए सेना को आना पड़ा क्योंकि कोई और लोकतांत्रिक संस्था नहीं थी जो इन्हें जनता के गुस्से से बचाती । जहां तक भारत की बात है तो 2020 में मोदी सरकार के खिलाफ एक बड़ा किसान आंदोलन शुरू हुआ था जिसे बाद में विपक्षी दलों का समर्थन हासिल हो गया था । इसके अलावा मोदी विरोधी पूरा इको सिस्टम इस आंदोलन से जुड़ गया था । 13 महीने चले आंदोलन में सरकार ने आंदोलनकारियों पर एक भी गोली नहीं चलाई और न ही किसी किस्म की ताकत का इस्तेमाल किया । इसके विपरीत 26 जनवरी 2021 को आंदोलनकारियों ने हिंसक प्रदर्शन किया लेकिन पुलिस ने तब भी इन पर गोली नहीं चलाई । सरकार ने इस आंदोलन से इतने सुलझे हुए तरीके से निपटा कि जनता आंदोलन से दूर हो गई ।

    इसके अलावा मोदी सरकार के खिलाफ सीएए, पहलवान और राफेल को लेकर भी आंदोलन किया गया है । कई मुद्दों पर सरकार को बदनाम करने की कोशिश की गई है लेकिन सरकार लोकतांत्रिक तरीके से सबसे निपटती आ रही है । मोदी समर्थक अक्सर सरकार पर कमजोर होने का आरोप लगाते हैं और चाहते हैं कि सरकार अपने विरोधियों से सख्ती से निपटे लेकिन सरकार हमेशा उदारवादी बनी रहती है । ऐसा नहीं है कि सरकार कमजोर है. आतंकवादियों, नक्सलियों और पाकिस्तान के खिलाफ सरकार ने बेहद सख्त रुख अपनाया है । मोदी सरकार के खिलाफ विपक्षी दलों को जनता का साथ नहीं मिल रहा है क्योंकि वो अपने आपको जनता से जोड़ नहीं पा रहे हैं । इसके विपरीत प्रधानमंत्री मोदी लगातार जनता से जुड़ने की कोशिश में लगे रहते हैं ।

      जो लोग भारत में नेपाल जैसी क्रांति चाहते हैं, उन्हें पहले यह भी देखना चाहिए कि जेन जी  डिमांड क्या कर रहे हैं। नेपाल का युवा भारत और चीन का विकास देखकर परेशान है. वो अपने देश का भी वैसा ही विकास चाहता है। नेपाल के लोग भारत के बदलाव को बहुत ध्यान से देख रहे हैं और अपने देश में भी ऐसे ही बदलाव चाहते हैं। वहां युवा भ्रष्टाचार, परिवारवाद और नेपोकिड से परेशान है। विपक्षी यह नहीं देख पा रहे हैं कि भारत की जनता ने यूपीए के भ्रष्टाचार और परिवारवाद से परेशान होकर ही मोदी को प्रधानमंत्री बनाया है। नेपोकिड भाजपा से ज्यादा विपक्ष की बड़ी समस्या है। भाजपा के परिवारवाद और विपक्ष के परिवारवाद में बड़ा अंतर यह है कि भाजपा में नेताओं के बच्चों को अपनी काबलियत साबित करनी पड़ती है जबकि विपक्षी दलों में शीर्ष नेता का बेटा सीधे पार्टी की कमान थाम लेता है। 

                  विपक्ष के समर्थक सोशल मीडिया में लिख रहे हैं कि भारत को नेपाल से सीखना चाहिए। ये लोग इतने ज्यादा हताश और निराश हो चुके हैं कि इनका हीनभाव सिर पर चढ़कर बोल रहा है। हज़ारों साल पुरानी संस्कृति वाले देश को नेपाल से सीखने की सलाह दे रहे हैं। नेपाल में वित्तमंत्री को सड़कों पर दौड़ा – दौड़ा कर मारा गया तो कहा जा रहा है कि हमारी वाली साड़ी में कैसे भागेगी। सवाल यह है कि क्या भारत में किसी महिला नेता के साथ ऐसा पहले कभी किया गया है। इंदिरा जी ने आपातकाल लगाकर जनता का उत्पीड़न किया. इसके बावजूद उन्हें सम्मानपूर्वक वोट के जरिये सत्ता से बाहर कर दिया गया। जब जनता पार्टी की सरकार ने उन्हें जेल भेजा तो उनके कई अपराधों के बावजूद जनता को पसंद नहीं आया। भारत की जनता अपने शीर्ष नेताओं का ऐसा अपमान करने की कल्पना भी नहीं कर सकती जैसा नेपाल में किया गया है।

    बाबा साहब ने जब संविधान देश को समर्पित किया था तो कहा था कि ये देश अब संविधान से चलेगा और अब जनता को आंदोलन करने की जरूरत नहीं होगी. जनता इसके माध्यम से ही अपनी इच्छा जाहिर कर सकेगी। जो लोग संविधान को सिर पर रखकर घूम रहे हैं और रोज संविधान खतरे में है,  का शोर मचाते हैं, वही लोग सड़क पर दंगा करके सत्ता बदलने का ख्वाब देख रहे हैं। संविधान तो सत्ता बदलने का एकमात्र रास्ता वोट को बताता है. सड़क पर दंगा करके सत्ता बदलने का उसमें कोई प्रावधान नहीं किया गया है।  अंत में इतना कहना चाहता हूं कि हमारा देश नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका के रास्ते पर जाने वाला नहीं है । 

    राजेश कुमार पासी

    जाह्नवी कपूर की काबिलियत में कोई कमी नहीं

    सुभाष शिरढोनकर

    एक्‍ट्रेस जाह्नवी कपूर बॉलीवुड की पॉपुलर स्टार में से एक हैं। वह ना सिर्फ अपनी एक्टिंग बल्कि लुक्स से भी हमेशा फैंस को दीवाना बनाए रखती हैं। उनका स्टाइलिंग सेंस लोगों को कायल कर देता है।  वेस्टर्न हो या इंडियन, हर लुक में वह बेहद कमाल लगती हैं।

    मराठी में बनी सुपरहिट फिल्म ‘सैराट’ की हिंदी रीमेक ‘धड़क’ (2018) से बॉलीवुड में डेब्‍यू करने के बाद जाह्नवी कपूर अपने 7 साल के करियर में 14 फिल्में, कर चुकी हैं जिनमें एक तेलुगु और बॉलीवुड की दो स्‍पेशल अपीयरेंस वाली फिल्‍में शामिल हैं।  

    जाह्नवी ने जितनी भी फिल्‍में की, उनमें से किसी को भी बॉक्स ऑफिस के लिहाज से हिट नहीं कहा जा सकता। उनकी डेब्‍यू फिल्म ‘धड़क’ (2018) ने 74.19 करोड़ की कमाई की थी जो कि सेमी-हिट थी।

    उसके बाद उन्‍होंने फिल्म ‘गुजन सक्‍सेना द कारगिल गर्ल’ (2020) ‘रूही’ (2021), ‘गुडलक जैरी’ (2022) ‘मिली’ (2022), ‘बवाल’ (2023),  ‘मिस्ट एंड मिसेज माही’ (2024) और ‘उलझ’ (2024) जैसी अलग अलग तरह की फिल्‍मों में काम किया लेकिन ये सभी बॉक्‍स ऑफिस पर फ्लॉप रहीं।

    लेकिन सबसे अच्‍छी बात यह रही कि जाह्नवी की फ्लॉप फिल्‍मों में भी उनके काम की सराहना होती रही। इसी सराहना से मोटीवेट होकर जाह्नवी लगातार रोमांस ड्रामा से लेकर बायोपिक्स, सर्वाइवल ड्रामा जैसी फिल्मों में अपनी दमदार एक्टिंग का लोहा मनवाती रही हैं।

    जाहृनवी की एक और सबसे बड़ी खूबी यह है कि, वह मेहनत से जी नहीं चुराती। अपने उतार-चढ़ाव से भरे करियर में जिस तरह वह साल दर साल ऑनस्क्रीन अपनी काबिलियत साबित करते हुए ग्रो कर रही हैं, वह साफ तौर पर नजर आ रहा है।   

    लेकिन इसके बावजूद जाहृनवी को अब तक अपनी पहली हिट का इंतजार है। सिद्धार्थ मल्होत्रा के अपोजिट वाली उनकी रोमांटिक कॉमेडी फिल्म ‘परम सुंदरी’ 28 अगस्त को सिनेमाघरों में रिलीज हो चुकी है। 

    हमेशा की तरह इस फिल्‍म में भी जाह्नवी कपूर ने सबसे ज्यादा इंप्रेस किया। यदि कहें कि वह अपने काम से सिद्धार्थ मल्‍होत्रा पर भारी पड़ी तो गलत नहीं होगा।

    रिलीज के पहले फिल्‍म ‘परम सुंदरी’ को लेकर उम्‍मीद की जा रही थी कि यह जाह्नवी के हिट फिल्‍म के इंतजार को खत्‍म करते हुए उनकी पहली बॉक्‍स ऑफिस हिट बन सकती है।

    इसकी एक वजह यह भी थी कि यह एक सोलो रिलीज थी यानी इस फिल्‍म के अपोजिट कोई बड़ी फिल्‍म रिलीज नहीं हुई थी लेकिन इसके बावजूद भी फिल्‍म ‘परम सुंदरी’ बॉक्स ऑफिस पर कमाल कर पाने से चूक गई।

    ‘परम सुंदरी’ के बाद  जाह्नवी की रोमांटिक कॉमेडी, पारिवारिक ड्रामा फिल्‍म ‘सनी संस्कारी की तुलसी कुमारी’ पहले 18 अप्रैल को रिलीज होने वाली थी लेकिन अब यह 2 अक्‍टूबर को रिलीज हो रही है। फैंस की उम्‍मीदें अब जाह्नवी की इस फिल्‍म पर टिक चुकी हैं।

    शशांक खेतान व्‍दारा निर्देशित इस फिल्‍म में जाह्नवी के अपोजिट वरुण धवन, सान्या मल्होत्रा, रोहित सराफ़, मनीष पॉल हैं। फिल्‍म ‘बवाल’ (2023) के बाद यह इस कपल की दूसरी फिल्‍म है।

    इसके अलावा जाह्नवी एक्शन, ड्रामा फिल्‍म ‘पेड्डी’ कर रही हैं। इसे साउथ डायरेक्‍टर बुची बाबू डायरेक्‍ट कर रहे हैं। इस फिल्‍म में जाह्नवी कपूर रामचरण के अपोजिट नजर आएंगी। ‘देवरा:पार्ट 1’ (2024) के बाद यह जाह्नवी की दूसरी तेलुगु फिल्म है।

    हालांकि इसकी रिलीज की डेट सामने नहीं आई है लेकिन अगले साल की शुरूआत में रिलीज किया जा सकता है।

    यदि सूत्रों की माने तो  जाह्नवी के पास उनकी मम्‍मी श्रीदेवी की सुपर हिट फिल्‍म ‘चालबाज’ के रीमेक का ऑफर आया है। यह ऑफर उनके लिए एक फिल्‍म नहीं बल्कि इमोशन है। इसे लेकर जाह्नवी काफी एक्‍साइटेड हैं।

    लेकिन इस रीमेक के लिए हां कहने के पहले जाह्नवी बेहद सावधानी पूर्वक जांच परख लेना चाहती हैं कि इसके साथ वह न्‍याय कर सकेंगी या नहीं ? उम्‍मीद की जा रही है कि सितंबर के आखिर तक वह फिल्‍म को करने या न करने के बारे में फैसला ले लेंगी।   

    सुभाष शिरढोनकर

    दिव्यांगजन की आवाज़: मुख्यधारा से जुड़ने की पुकार

    (सहानुभूति से परे, कानून, शिक्षा, रोज़गार, मीडिया और तकनीक के माध्यम से बराबरी व सम्मान की ओर)

    भारत में करोड़ों दिव्यांगजन आज भी शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य और सार्वजनिक जीवन में हाशिए पर हैं। संवैधानिक अधिकारों और 2016 के दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम के बावजूद सामाजिक पूर्वाग्रह, ढांचागत बाधाएँ और मीडिया में विकृत छवि उनकी गरिमा को चोट पहुँचाती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है कि उनकी समानता और सम्मान से समझौता नहीं हो सकता। अब समय आ गया है कि समाज सहानुभूति से आगे बढ़कर दिव्यांगजन को अधिकार और अवसर दे। तकनीक, जागरूकता, कानून का सख्त क्रियान्वयन और सक्रिय भागीदारी ही समावेशी भारत की कुंजी हैं।

    – डॉ. प्रियंका सौरभ

    भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी शक्ति उसकी विविधता और समावेशिता मानी जाती है। संविधान ने हर नागरिक को समान अधिकार, गरिमा और अवसर की गारंटी दी है। परन्तु जब हम समाज के उस वर्ग की ओर देखते हैं, जिन्हें दिव्यांगजन कहा जाता है, तो यह गारंटी अक्सर खोखली दिखाई देती है। देश की जनगणना और हालिया सर्वेक्षण इस बात की पुष्टि करते हैं कि करोड़ों दिव्यांगजन आज भी शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, यातायात, मीडिया और सार्वजनिक जीवन में हाशिए पर हैं। संवैधानिक प्रावधान और कानून मौजूद हैं, परन्तु जमीनी स्तर पर उनकी स्थिति इस सच्चाई को बयान करती है कि वे अब भी अदृश्य नागरिकों की तरह जीवन जीने को विवश हैं।

    समस्या केवल भौतिक अवरोधों की नहीं है, बल्कि मानसिकता और दृष्टिकोण की भी है। समाज का बड़ा हिस्सा अब भी दिव्यांगता को दया, बोझ या त्रासदी की दृष्टि से देखता है। यह सोच दिव्यांगजन की क्षमताओं और संभावनाओं को नकार देती है। उन्हें बराबरी का अवसर देने के बजाय या तो दया का पात्र बना दिया जाता है या हंसी का विषय। भारतीय सिनेमा और टेलीविज़न ने भी लंबे समय तक इन्हीं रूढ़ियों को दोहराया है। हालांकि अब धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है, परन्तु यह बदलाव बहुत धीमा और सीमित है।

    भारतीय न्यायपालिका ने कई बार दिव्यांगजन की गरिमा और अधिकारों की रक्षा करते हुए महत्वपूर्ण निर्णय दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या हास्य के नाम पर किसी भी समुदाय की गरिमा से समझौता नहीं किया जा सकता। हाल ही में दिए गए फ़ैसलों में मीडिया और मनोरंजन उद्योग को चेताया गया कि वे दिव्यांगजन को मजाक या दया का पात्र न बनाएं, बल्कि उनके संवैधानिक अधिकारों का सम्मान करें। इसके बावजूद समाज में गहरे जमे पूर्वाग्रह अब भी मौजूद हैं।

    वास्तविक चुनौती केवल कानूनी संरक्षण से पूरी नहीं होती। समस्या यह है कि कानून और नीतियाँ लागू करने वाली संस्थाओं में पर्याप्त संवेदनशीलता और दृढ़ता का अभाव है। उदाहरण के लिए, दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016 ने शिक्षा, रोज़गार और सार्वजनिक जीवन में उनके लिए आरक्षण और सुविधाओं की गारंटी दी। परन्तु स्कूलों और कॉलेजों की इमारतें अब भी सीढ़ियों से भरी हैं, सरकारी दफ्तरों में व्हीलचेयर के लिए जगह नहीं है, और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर अब भी दृष्टिबाधित या श्रवणबाधित लोगों के लिए आवश्यक विकल्प उपलब्ध नहीं कराए जाते।

    दिव्यांगजन की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उन्हें ‘सक्षम नागरिक’ के बजाय ‘निर्भर नागरिक’ मान लिया गया है। यह सोच उन्हें समाज की मुख्यधारा से दूर कर देती है। जबकि सच्चाई यह है कि अवसर और सुविधा मिलने पर दिव्यांगजन किसी भी क्षेत्र में उत्कृष्टता साबित कर सकते हैं। खेल जगत में पैरा ओलंपिक खिलाड़ियों की उपलब्धियाँ इसका प्रमाण हैं। शिक्षा और साहित्य से लेकर प्रशासन और विज्ञान तक दिव्यांगजन ने अपनी क्षमता का लोहा मनवाया है। समस्या क्षमता की नहीं, बल्कि अवसर और दृष्टिकोण की है।

    यदि समाज सचमुच समावेशी बनना चाहता है, तो सबसे पहले उसकी सोच बदलनी होगी। दिव्यांगजन को दया या सहानुभूति की आवश्यकता नहीं है, उन्हें बराबरी के अधिकार और अवसर चाहिए। स्कूलों में बचपन से ही बच्चों को यह सिखाना होगा कि विविधता ही समाज की ताकत है। मीडिया और सिनेमा को जिम्मेदारी लेनी होगी कि वे दिव्यांगता को केवल दुर्बलता के रूप में न दिखाएं, बल्कि उसे साहस, आत्मविश्वास और मानवीय गरिमा से जोड़कर पेश करें।

    सार्वजनिक ढांचे को दिव्यांगजन की आवश्यकताओं के अनुरूप बनाना सबसे महत्वपूर्ण कदम है। मेट्रो स्टेशन, रेलवे प्लेटफार्म, बस अड्डे, अस्पताल, सरकारी कार्यालय, पार्क और शैक्षणिक संस्थान तब तक समावेशी नहीं कहे जा सकते, जब तक वे हर व्यक्ति के लिए सुलभ न हों। तकनीकी प्रगति इस दिशा में बहुत मददगार हो सकती है। डिज़िटल ऐप्स में वॉइस असिस्टेंट, स्क्रीन रीडर और सांकेतिक भाषा की सुविधाएँ जोड़कर हम लाखों दिव्यांगजन को ऑनलाइन शिक्षा और रोजगार से जोड़ सकते हैं।

    समानता की इस लड़ाई में सरकार और समाज दोनों की साझी भूमिका है। सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि दिव्यांगजन के लिए बनाए गए कानून केवल कागज़ी दस्तावेज़ बनकर न रह जाएँ। उनके प्रभावी क्रियान्वयन के लिए स्वतंत्र निगरानी तंत्र बने। स्थानीय निकायों से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक निर्णय प्रक्रिया में दिव्यांगजन की भागीदारी हो। उनकी ज़रूरतों और सुझावों को सुने बिना कोई नीति या योजना पूरी नहीं हो सकती।

    वहीं समाज की भूमिका और भी बड़ी है। हर व्यक्ति को अपने घर, मोहल्ले और कार्यस्थल पर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि दिव्यांगजन सम्मान और बराबरी के साथ जी सकें। सार्वजनिक कार्यक्रमों, चुनावी रैलियों और सांस्कृतिक आयोजनों में उनकी भागीदारी बढ़े। यह तभी संभव है जब हम उन्हें दया नहीं, अधिकार का दर्जा देंगे।

    भारत का संविधान हमें बराबरी, गरिमा और स्वतंत्रता की गारंटी देता है। यदि समाज का एक बड़ा हिस्सा इन अधिकारों से वंचित रहता है, तो लोकतंत्र अधूरा रह जाता है। दिव्यांगजन को हाशिए से मुख्यधारा में लाना केवल मानवता का कर्तव्य नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र की बुनियादी शर्त भी है। जब तक दिव्यांगजन की आवाज़ नीतियों और समाज दोनों में बराबर न सुनी जाएगी, तब तक समावेशी भारत का सपना अधूरा रहेगा।

    इसलिए आज समय की सबसे बड़ी पुकार यही है कि दिव्यांगजन को अदृश्य नागरिक नहीं, बल्कि परिवर्तन और प्रगति के सक्रिय साझीदार माना जाए। उनकी क्षमताओं और सपनों को पहचान कर ही हम उस समाज का निर्माण कर सकते हैं, जहाँ कोई पीछे न छूटे।

    युद्ध-आतंक के दौर में शांति के लिये भारत की पुकार

    अन्तर्राष्ट्रीय शांति दिवस- 21 सितम्बर, 2025

    • ललित गर्ग –
      अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस, जिसे प्रतिवर्ष 21 सितंबर को मनाया जाता है, आज के समय की सबसे बड़ी मानवीय आवश्यकता की याद दिलाता है। जब पूरी दुनिया युद्ध, हिंसा, आतंकवाद, जलवायु संकट और असमानताओं के दौर से गुजर रही हो, तब शांति का महत्व केवल एक आदर्श नहीं, बल्कि अस्तित्व का आधार बन जाता है। इतिहास गवाह है कि युद्धों ने मानव सभ्यता को केवल विनाश ही दिया है। दो विश्वयुद्धों में करोड़ों लोगों की जान गई, असंख्य परिवार उजड़ गए और सभ्यता के सपनों पर गहरी चोट लगी। आज भी यूक्रेन से लेकर सीरिया, अफगानिस्तान और अफ्रीका तक की धरती पर संघर्ष और आतंकवाद की आग धधक रही है। निर्दाेष नागरिक, महिलाएं और बच्चे सबसे अधिक पीड़ा झेल रहे हैं। शरणार्थियों की भीड़, विस्थापितों के आँसू और टूटे हुए घर-परिवार इस बात का सबूत हैं कि युद्ध और आतंकवाद किसी भी समस्या का समाधान नहीं, बल्कि और बड़ी समस्या पैदा करते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना ही इसी उद्देश्य से हुई थी कि विश्व में शांति और सहयोग कायम हो। इसी क्रम में 1981 में महासभा ने 21 सितंबर को अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस घोषित किया, ताकि पूरी दुनिया को यह याद दिलाया जा सके कि युद्धविराम, संवाद और अहिंसा ही मानव सभ्यता की रक्षा कर सकते हैं। इस दिन संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में शांति की घंटी बजाई जाती है, जो यह प्रतीक है कि जब तक धरती पर शांति नहीं होगी, तब तक जीवन सुरक्षित नहीं हो सकता।
      आज विज्ञान और तकनीक ने मानव को अभूतपूर्व शक्ति और संसाधन दिए हैं, लेकिन इसके साथ ही भय, हिंसा, तनाव और असुरक्षा भी बढ़ी है। परमाणु हथियारों की दौड़ ने धरती को विनाश के कगार पर ला खड़ा किया है। आर्थिक असमानताएँ और संसाधनों की होड़ युद्धों और संघर्षों को जन्म दे रही हैं। जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय संकट नए विवादों एवं संकटों को जन्म दे रहे हैं। इस पृष्ठभूमि में अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस केवल एक औपचारिक अवसर नहीं, बल्कि एक चेतावनी और आह्वान है। यह हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम हिंसा और युद्ध की संस्कृति से ऊपर उठकर शांति, संवाद और सहयोग की संस्कृति को स्थापित कर सकते हैं, क्या हम धर्म, जाति और राजनीति की संकीर्णताओं से निकलकर एक वैश्विक परिवार के रूप में जी सकते हैं, क्या हम शिक्षा, करुणा और अहिंसा को अपने जीवन और समाज का आधार बना सकते हैं।
      विश्व शांति की दिशा में भारत का योगदान हमेशा से उल्लेखनीय रहा है और वर्तमान समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे नई दिशा और ऊर्जा प्रदान की है। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बार-बार “वसुधैव कुटुंबकम्” और “एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य” का संदेश देकर मानवता को एक साझा परिवार के रूप में देखने की दृष्टि दी है। संयुक्त राष्ट्र और जी-20 जैसे वैश्विक मंचों पर मोदी ने संवाद, कूटनीति, अहिंसा और सहअस्तित्व को संघर्ष और युद्ध से बेहतर विकल्प बताया है। भारत के नेतृत्व में जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान शांति और सतत विकास के एजेंडे को प्राथमिकता दी गई। आतंकवाद के विरुद्ध वैश्विक सहयोग, योग को विश्व स्तर पर शांति और मानसिक संतुलन का साधन बनाना, जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संरक्षण के लिए “अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन” दुनियाभर विश्व अहिंसा दिवस मनाने जैसे प्रयास भी विश्व शांति को दीर्घकालिक आधार प्रदान करते हैं। प्रधानमंत्री मोदी का यह मानना है कि “शांति केवल संघर्षों की अनुपस्थिति नहीं, बल्कि न्याय, समानता और सहयोग की उपस्थिति है।” उनके नेतृत्व में भारत विश्व को न केवल आर्थिक और राजनीतिक सहयोग दे रहा है, बल्कि नैतिकता, अहिंसा, योग और सांस्कृतिक रूप से भी शांति की राह दिखा रहा है।
      महात्मा गांधी ने कहा था-“शांति का कोई रास्ता नहीं, शांति ही रास्ता है।” गांधी का यह विचार आज और भी प्रासंगिक प्रतीत होता है। नेल्सन मंडेला ने भी कहा था-“शांति का निर्माण हथियारों से नहीं, बल्कि आपसी विश्वास और मेल-जोल से होता है।” संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस बार-बार यह चेतावनी देते रहे हैं कि “दुनिया को हथियारों की नहीं, बल्कि कूटनीति और संवाद की आवश्यकता है। शांति केवल एक आदर्श नहीं, यह सभी के जीवन और विकास का अधिकार है।” महात्मा गांधी ने जिस अहिंसा और सत्याग्रह का मार्ग दिखाया, वह आज भी वैश्विक शांति की सबसे बड़ी आशा है। स्वामी विवेकानंद ने भी विश्व धर्म महासभा में यह संदेश दिया था कि समस्त धर्म मानवता को जोड़ने के लिए हैं, बाँटने के लिए नहीं। आज संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों में भारत की भूमिका सबसे बड़ी एवं महत्वपूर्ण है, भारतीय सैनिक और अधिकारी अनेक देशों में जाकर शांति स्थापना के मिशनों में सक्रिय योगदान दे रहे हैं। भारत ने न केवल सिद्धांतों से बल्कि व्यवहार में भी यह दिखाया है कि शांति उसका मूल आदर्श है। इन विचारों और योगदानों की गूंज आज के समय में हमें सचेत करती है। अगर मानवता को बचाना है तो युद्ध, आतंकवाद और हिंसा को छोड़कर केवल शांति को अपनाना होगा। जब व्यक्ति, समाज और राष्ट्र स्तर पर शांति की चेतना जागेगी तभी सभ्यता का भविष्य सुरक्षित हो सकेगा। अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस हमें यही प्रेरणा देता है कि हम सहअस्तित्व, करुणा और संवाद की राह पर चलें और पूरी दुनिया को भय और हिंसा से मुक्त करके एक शांति और समरसता से भरा वैश्विक परिवार बनाएं।
      संघर्ष की अग्रिम पंक्तियों पर तैनात शांति सैनिकों से लेकर समुदाय के सदस्यों और दुनिया भर के कक्षाओं में पढ़ने वाले छात्रों तक, हर किसी की शांतिपूर्ण विश्व संरचना में महत्वपूर्ण भूमिका है। हमें हिंसा, नफ़रत, भेदभाव और असमानता के खिलाफ़ आवाज़ उठानी होगी; सह-अस्तित्व का अभ्यास करना होगा; और अपनी दुनिया की विविधता को अपनाना होगा। शांति-स्थापना की कार्रवाई करने के कई तरीके हैं। समझदारी, अहिंसा और निरस्त्रीकरण की तत्काल आवश्यकता के बारे में बातचीत शुरू करें। अपने समुदाय में स्वयंसेवा करें, अपनी आवाज़ से अलग आवाज़ों को सुनें, अपने कार्यस्थल पर भेदभावपूर्ण भाषा एवं व्यवहार को चुनौती दें, ऑनलाइन और ऑफलाइन, दोनों तरह से अशांति फैलाने वालों की रिपोर्ट करें, और सोशल मीडिया पर पोस्ट करने से पहले तथ्यों की पुष्टि ज़रूर करें। आप अपनी पसंद के बारे में भी बता सकते हैं, सामाजिक रूप से जागरूक ब्रांडों से सामान खरीदने का विकल्प चुन सकते हैं, या स्थिरता और मानव अधिकारों को बढ़ावा देने वाले संगठनों को दान दे सकते हैं।
      संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकारों को आगे बढ़ाने, जलवायु परिवर्तन से लड़ने, तथा संघर्ष को रोकने और उसका जवाब देने के लिए वैश्विक प्रयासों का नेतृत्व करता है। वह शांति निर्माण आयोग के माध्यम से, जो 2025 में अपनी बीसवीं वर्षगांठ मना रहा है, गरीबी, असमानता, भेदभाव और अन्याय- हिंसा के सभी संभावित कारणों को दूर करने के लिए कार्य करता है। अपने 17 सतत विकास लक्ष्यों के माध्यम से , संयुक्त राष्ट्र समृद्धि बढ़ाने, स्वास्थ्य और जीवन स्तर को बेहतर बनाने, और सभी प्रकार के भेदभाव और अन्याय को समाप्त करने के देशों के प्रयासों का समर्थन करता है। संयुक्त राष्ट्र के शांति सैनिक दुनिया भर में कठिन और खतरनाक परिस्थितियों में काम करते हैं और सभी को कार्रवाई करने के लिए प्रेरित करते हैं। तथा हाल ही में अपनाए गए भविष्य के लिए समझौते में, संयुक्त राष्ट्र ने उभरती चुनौतियों और अवसरों – जैसे कि विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार का समाधान करने तथा भावी पीढ़ियों की सक्रिय भागीदारी का समर्थन करने का वादा किया है। संयुक्त राष्ट्र के एक्टनाउ अभियान ने दुनिया भर के लाखों लोगों को उन मुद्दों को चुनने, उन पर कार्रवाई करने और उनके प्रभाव को ट्रैक करने में मदद की है जो उनके लिए महत्वपूर्ण हैं। शांति स्थापना के कार्य शब्दों से अधिक जन-जीवन में जोर से गूंजें।

    मोदी-ट्रंप के सार्थक संवाद से क्या राह बदलेगी?

    ललित गर्ग
    नई दिल्ली में भारत-अमेरिकी व्यापार वार्ता की बाधाओं को दूर करने पर दोनों पक्षों के बीच सकारात्मक बातचीत के दौरान करीब तीन महीने बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को फोन करके जन्मदिन की बधाई देते हुए रूस-यूक्रेन युद्धविराम का समर्थन करने के लिए आभार जताना, दोनों देशों के बीच रिश्तों में आई तल्खी को कम करने की कोशिश मानी जानी चाहिए। मोदी और ट्रंप के बीच हुई इस बातचीत ने दोनों देशों के रिश्तों में नई आशा और सकारात्मकता का संचार किया है। क्योंकि अमेरिका के एकतरफा टैरिफ और कुछ तीखे बयानों के बावजूद भारत ने संयम बरता एवं तीखी प्रतिक्रिया की बजाय मसले के सुलझने का इंतजार करते हुए विवेक एवं समझदारी का परिचय दिया। भारत पर थोपे गए ट्रंप के 50 प्रतिशत टैरिफ को लेकर अमेरिका में साफ तौर पर दो विरोधी स्वर सुनाई पड़ रहे हैं। ऐसे माहौल में जरूरी हो गया है कि दोनों देशों के बीच शीर्ष स्तर पर संवाद जारी रहे। इसी बात को अमेरिकी वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट ने स्वीकार करते हुए यह उम्मीद जताई थी कि आखिरकार अमेरिका और भारत साथ आएंगे, यही मौजूदा वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है। मोदी एवं ट्रंप का ताजा संवाद इसी की निष्पत्ति बना है। यह संवाद मोदी के 75वें जन्मदिवस के अवसर पर हुआ और इसमें अतीत की कई कड़वाहटों को पीछे छोड़कर भविष्य की संभावनाओं पर ध्यान केंद्रित किया गया। दरअसल, दोनों नेताओं की बातचीत का बड़ा कारण शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में रूस, चीन और भारत के शीर्ष नेताओं की गर्मजोशी भी बना, उससे ट्रंप की चिंताएं बढ़ी थी, इस बैठक के बाद ही पहली बार ट्रंप के रुख में नरमी के संकेत मिले थे। उसके बाद दस सितंबर को फिर ट्रंप ने कहा कि भारत-अमेरिका व्यापार वार्ताओं की बाधाओं को दूर करने पर बातचीत जारी है। ताजा वार्ता ने यह संदेश दिया कि भारत और अमेरिका के रिश्ते किसी एक घटना या परिस्थिति पर निर्भर नहीं, बल्कि दीर्घकालीन रणनीति और साझा हितों की नींव पर खड़े हैं।
    आज की दुनिया में भारत और अमेरिका का रिश्ता केवल द्विपक्षीय ही नहीं, बल्कि वैश्विक परिदृश्य को भी प्रभावित करता है। अमेरिका जहां विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सैन्य शक्ति है, वहीं भारत उभरती हुई आर्थिक ताकत और सबसे बड़ा लोकतंत्र है। दोनों की साझेदारी लोकतांत्रिक मूल्यों, पारदर्शिता और वैश्विक शांति की आकांक्षाओं पर आधारित है। हाल के वर्षों में कभी-कभी मतभेद जरूर सामने आए-जैसे व्यापार शुल्क, वीजा नीतियां, भारत-पाक सीजफायर और रक्षा समझौते इन मतभेदों के बावजूद रणनीतिक साझेदारी मजबूत होती रही है। भारत और अमेरिका के बीच व्यापारिक संबंध लंबे समय से चर्चा का विषय रहे हैं। कभी शुल्क वृद्धि को लेकर तनाव हुआ, तो कभी आयात-निर्यात की नीतियों को लेकर असहमति। किंतु ट्रंप-मोदी वार्ता के बाद एक बार फिर नए समझौते और अवसर सामने आ सकते हैं। अमेरिका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है और आईटी, सेवा क्षेत्र, ऊर्जा और तकनीकी निवेश में दोनों के बीच गहरा सहयोग है। प्रधानमंत्री मोदी ने व्यापारिक अड़चनों को दूर करने पर जोर दिया है और ट्रंप ने भी व्यापार घाटे को कम करने के लिए सहयोग का संकेत दिया। यह संकेत आने वाले समय में द्विपक्षीय व्यापार को नई ऊंचाइयों पर ले जा सकते हैं।
    भारत और अमेरिका का रक्षा सहयोग पिछले एक दशक में तेजी से बढ़ा है। अमेरिका ने भारत को महत्वपूर्ण रक्षा तकनीक उपलब्ध कराई है और संयुक्त सैन्य अभ्यासों से सुरक्षा साझेदारी मजबूत हुई है। एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए भारत-अमेरिका का रक्षा सहयोग न केवल द्विपक्षीय है, बल्कि पूरे क्षेत्रीय संतुलन के लिए अहम है। चीनी मनमानी पर नियंत्रण के लिए अमेरिका को खासतौर पर भारतीय सहयोग की जरूरत है। इसी मकसद से क्वॉड का गठन किया गया, जिसे अमेरिकी सरकार ने तवज्जो भी दी। लेकिन, ट्रंप की टैरिफ पॉलिसी की वजह से क्वॉड के भविष्य पर सवाल उठने लगे हैं। वहीं, वॉशिंगटन में यह भी चिंता बनी कि पिछले दो दशकों में भारत-अमेरिका रिश्तों में जो प्रगति हुई थी, वह ट्रंप की महत्वाकांक्षाओं एवं अतिश्योक्तिपूर्ण हरकतों से पिछले कुछ दिनों में बेकार होती हुई दिख रही थी। लेकिन देर आये दुरस्त आये की कहावत के अनुसार दोनों शीर्ष नेताओं की बातचीत से अब अंधेरे छंटते हुए दिख रहे हैं। अमेरिका चाहता है कि भारत हिंद-प्रशांत क्षेत्र में संतुलन कायम रखने में और बड़ी भूमिका निभाए, वहीं भारत अपनी सामरिक स्वतंत्रता बनाए रखते हुए सहयोग को और गहरा करना चाहता है।
    भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने में अमेरिका एक अहम सहयोगी बन सकता है। अमेरिका से तरलीकृत प्राकृतिक गैस और कच्चे तेल का आयात बढ़ रहा है। यह न केवल ऊर्जा सुरक्षा को मजबूत करेगा, बल्कि भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था को भी नई गति देगा। तकनीकी क्षेत्र में भी दोनों देशों के बीच साझेदारी मजबूत है। सूचना प्रौद्योगिकी, साइबर सुरक्षा, अंतरिक्ष अनुसंधान और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे क्षेत्रों में सहयोग आने वाले दशकों के लिए गेम-चेंजर साबित हो सकता है। अमेरिका में बसे भारतीय मूल के लोग दोनों देशों के बीच सेतु का कार्य कर रहे हैं। चाहे राजनीति हो, शिक्षा, स्वास्थ्य या तकनीक-भारतीय-अमेरिकी समुदाय का योगदान उल्लेखनीय है। यह समुदाय भारत और अमेरिका के बीच रिश्तों को भावनात्मक और सांस्कृतिक आधार देता है। ट्रंप और मोदी की बातचीत में भारतीय प्रवासी समुदाय की प्रशंसा भी हुई, जिसने दोनों देशों के बीच विश्वास और निकटता को और बढ़ाया।
    भारत और अमेरिका दोनों आतंकवाद से प्रभावित रहे हैं। 9/11 की घटना ने अमेरिका को और 26/11 ने भारत को गहरे जख्म दिए। यही कारण है कि आतंकवाद के खिलाफ दोनों का दृष्टिकोण काफी हद तक समान है। हाल की बातचीत में आतंकवाद को समाप्त करने और सुरक्षा सहयोग को बढ़ाने पर भी जोर दिया गया। अफगानिस्तान और मध्य-एशिया की परिस्थितियों को देखते हुए भारत और अमेरिका का सहयोग वैश्विक शांति और स्थिरता के लिए निर्णायक हो सकता है। ट्रंप और मोदी की बातचीत ने यह साबित किया है कि अतीत के मतभेद रिश्तों का अंत नहीं, बल्कि नए संवाद का अवसर बन सकते हैं। व्यापार, रक्षा, ऊर्जा, तकनीक और आतंकवाद जैसे क्षेत्रों में सहयोग दोनों देशों के लिए लाभकारी है। आज जब दुनिया वैश्विक महामारी, आर्थिक संकट, युद्ध की विभीषिका और भू-राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रही है, भारत और अमेरिका की साझेदारी नई दिशा और स्थिरता का संकेत देती है।
    भारत और अमेरिका के बीच व्यापार-वार्ता में बेशक व्यवधान आए हों, पर भारत और यूरोपीय संघ के बीच जिस गति से वार्ता हो रही है, उससे वर्ष के अंत तक दोनों में व्यापार समझौता होने की पूरी उम्मीद है। असल में दोनों देशों के बीच पांच दौर की व्यापार वार्ता हो चुकी है, लेकिन 50 फीसदी टैरिफ लगाए जाने के बाद छठे दौर की प्रस्तावित वार्ता रुक गई थी, जो बीते मंगलवार से फिर पटरी पर लौट आई है। दरअसल, ट्रंप प्रशासन चाहता है कि भारत अपने कृषि एवं डेयरी क्षेत्र को अमेरिकी कंपनियों के लिए पूरी तरह से खोले, लेकिन भारत के लिए यह संभव नहीं है, क्योंकि यह उसके किसानों व मछुआरों के हितों के खिलाफ है। भारत पहले ही कह चुका है कि वह किसानों, डेयरी उत्पादकों एवं एमएसएमई के हितों से कोई समझौता नहीं करेगा।
    दोनों देशों के बीच पिछले एक दशक में द्विपक्षीय व्यापार लगभग दोगुना हो गया है और इसे 2030 तक 500 बिलियन डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन यह तभी संभव था, जब मौजूदा गतिरोध खत्म हो और इसके लिए बातचीत ही रास्ता है। वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला का महत्वपूर्ण हिस्सा बने रहने के लिए भारत दूसरे देशों के साथ भी मुक्त व्यापार समझौते कर रहा है। भले ही डोनाल्ड ट्रंप पर अधिक भरोसा नहीं कर सकते, लेकिन सवाल यह है कि अब उनकी तरफ से दिखाई जा रही नरमी को क्या एक संकेत माना जाए कि इससे कोई नई राह निकलेगी। अड़ियल रुख अपनाने के बजाय अमेरिका को भारतीय नजरिया समझने की जरूरत थी, अब अमेरिका भारत का नजरिया समझने को तत्पर हुआ है तो निश्चित ही इसके दूरगामी परिणाम आयेंगे।

    नेपाल-क्रांति, पहली महिला पीएम के समक्ष बड़ी चुनौतियाँ

    विजय सहगल  

    नेपाल की ओली सरकार द्वारा अपने देश में सोशल मीडिया पर लगाए प्रतिबंध के फलस्वरूप, 8 सितंबर 2025 को नेपाल के युवाओं मे उपजी क्रोधाग्नि से  नेपाल की संसद, सुप्रीम कोर्ट और अन्य अनेक सरकारी कार्यालयों और सरकार के प्रधान मंत्री सहित अन्य मंत्रियों के निजी निवास, व्यापारिक प्रतिष्ठान और अन्य अनेक संस्थान जल उठे। उनकी राह में आने वाली हर वो चीज आग की लपटों मे घिर गयी, फिर वो चाहें संसद मे रक्खे पेपर, दस्तावेज़ हों या फिर  फर्नीचर, वाहन या दिखावटी सामान। आंदोलनकारी संसद से टेबल और कुर्सी तक लूट कर ले गये। आंदोलित युवाओं ने इसे जेन-ज़ी (ऐसी नेतृत्वकारी जेनरेशन, जिसका जन्म 1995 और 2010 के बीच हुआ हो) की क्रांति बतलाया। नेपाल की राजधानी काठमांडू सहित नेपाल के अनेक शहरों जैसे पोखरा, विराटनगर, धरान, दमक  के आक्रोशित  नौजवानों के  इस  स्वस्फूर्त आंदोलन ने पूरे नेपाल मे अराजकता, अव्यवस्था और अस्तव्यतस्ता की स्थिति उत्पन्न कर दी।

     ये ऐसे आंदोलनकारी युवा थे जो  इंटरनेट के युग मे पले बढ़े थे और जिन्होने सोशल मीडिया से ही अपनी शिक्षा, पहचान, कारोबार और सामाजिक रिश्ते बनाये। आंदोलन के दौरान, हिंसा और आगजनी के शुरुआती दौर मे पुलिस बलों के लाठी और अश्रु गैस के बलप्रयोग से आंदोलन विस्तृत और  व्यापक हो उठा। सेना की तैनाती के साथ कर्फ़्यू लगाना पड़ा। प्रदर्शनकारियों के  हिंसक विरोध और अनियंत्रित भीड़ के चलते, देखते ही देखते गोली मारने के आदेश दिये गये। इस अप्रिय स्थिति मे 19 लोगों की मौत और तीन सौ से ज्यादा लोगों के घायल होने  ने, आग मे घी का काम किया। 

    सूचना मंत्रालय में पंजीकरण न करवाने की बजह से 3 सितम्बर को नेपाल सरकार द्वारा  सोशल मीडिया के मंच फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम, युट्यूब, एक्स, और व्हाट्सप्प जैसे 26 सोशल मीडिया ऐप्प्स पर प्रतिबंध के चलते युवाओं की पढ़ाई-लिखाई और अन्य सूचना संचार के अभाव मे संवाद हीनता की स्थिति पैदा हो गयी, जिसने  युवाओं को  क्रोध, रोष और गुस्से से भर दिया। हॉस्पिटल मे पहुंचे हताहतों को देखकर डॉक्टर्स और अन्य नर्सिंग स्टाफ भी सकते मे आ गये जब उन्होने देखा कि मृत आंदोलनकारी युवाओं के सीने और सिर मे गोलियां लगी हैं। प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली की हठधर्मिता ने, नेपाल के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और अन्य गणमान्य, प्रभावशाली लोगों का सरकार को  संयम बरतने के आग्रह को  भी अनसुना कर दिया गया। सरकार और नौकरशाही मे व्याप्त भ्रष्टाचार का आलम ये था कि सरकार के मंत्रियों और उनके  परिवार जनों तथा रिशतेदारों  द्वारा विलासता पूर्ण जीवन शैली की घटनाओं ने, बेरोजगारी, मेहंगाई और कदम कदम पर भ्रष्टाचार से जूझ रहे नेपाल के युवाओं और आम नागरिकों को उद्वेलित और उत्तेजित कर दिया।

    नेपाल लंबे वक्त से राजनैतिक अस्थिरता, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, भाई-भतीजा वाद जैसे नाजुक हालातों से गुजर रहा है। दुर्भाग्य देखिये कि 2008 मे इन्ही मुद्दों पर नेपाल की राजशाही को हटा कर लोकतान्त्रिक व्यवस्था को स्थापित किया था लेकिन सत्रह साल के लंबे काल खंड के बावजूद स्थितियाँ और परिस्थितियाँ जस के तस रहीं। नेपाल के भोले भाले  लोगों की विडंबना पर दृष्टिपात करें तो   उनकी  आकांक्षा और अभिलाषाए आज भी मृग मरीचिका के समान उन से कोसों दूर प्रतीत होती हैं।  वे आज तक राजशाही और लोकशाही के भ्रष्टाचार रूपी  दो  पाटों के बीच पिस  रहे हैं अन्यथा क्या कारण थे कि 17 वर्षों  के लोकतान्त्रिक व्यवस्था मे  14 सरकारें नेपाल की जन भावनाओं पर खरी नहीं उतरी।      

    आंदोलन कारी युवाओं की मांग है कि नेपाल सरकार द्वारा सभी प्रतिबंधित सोशल मीडिया मंचों से प्रतिबंध हटाये। भ्रष्टाचार के विरुद्ध समुचित कार्यवाही हो। युवाओं की आवाज सुनी जाएँ। लोकतन्त्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी बहाल हो। युवाओं की मांग है कि बेहतर शिक्षा, रोजगार और सरकार मे पारदर्शिता हो जबकि सरकार का कहना था कि ये सोशल मीडिया बिना अनुमति चल रहे हैं, फर्जी खातों के कारण अपराध बढ़ने और कानून व्यवस्था की स्थिति उत्पन्न और राष्ट्रीय सम्मान, सुरक्षा और समाज मे शांति, सौहार्द खतरे मे है।  नेपाल के गृह मंत्री ने तो 8 सितम्बर को ही इस्तीफा दे दिया था। 9 सितम्बर को भी जारी रहे हिंसक प्रदर्शन के बीच मे आंदोलनकारी युवाओं की सोशल मीडिया से प्रतिबंध हटाने की मांग को मानने के बावजूद  प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली सरकार के स्तीफ़े की मांग पर प्रदर्शनकारी डटे रहे। नेपाल के राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल, प्रधानमंत्री ओली  और सेना की शांति और संयम बरतने की अपील का भी आंदोलनकारियों पर कोई असर नहीं हुआ। जब अनियंत्रित भीड़ प्रधानमंत्री के स्तीफ़े की मांग को लेकर उनके कार्यालय मे घुसी, तो हारकर प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। प्रधानमंत्री ओली,  सौभाग्यशाली रहे कि सेना उन्हे बमुश्किल बचा कर हेलीकाप्टर से सुरक्षित स्थान पर ले गयी लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री, शेर बहादुर देऊबा को लहूलुहान कर मारपीट की तस्वीरे विचलित करने वाली थी। उन्मत्त भीड़ द्वारा वित्तमंत्री विष्णु पौडेल  को सड़क पर दौड़ा दौड़ा कर पीटने के दृश्य खीझ पैदा कर रहे थे लेकिन एक अन्य पूर्व प्रधानमंत्री खाला नाथ खनल की पत्नी श्रीमती राज्यलक्ष्मी चित्रकार की  उनके घर मे आगजनी से हुई मृत्यु दिल दहलाने वाली थी। सुरक्षा की दृष्टि को देखते हुए, हिंसक आंदोलन के दौरान नेपाल की राजधानी काठमांडू से आने व जाने वाली सभी  हवाई उड़ाने रद्द कर दी गयी। मंगलवार को ही आंदोलनकारियों ने नेपाल कॉंग्रेस के दफ्तर और अन्य वामपंथी दलों के कार्यालयों मे भी आग लगा दी। कोटेश्वर मे तीन पुलिस अधिकारियों की बड़ी बेरहमी से हत्या कर दी गयी।

    जेन-ज़ी आंदोलन की पृष्ठभूमि शांतिपूर्ण प्रदर्शन की थी. यही कारण था कि पहले दिन सारे आंदोलनकारी अपनी स्कूल ड्रेस मे थे एवं अपने स्कूल बैग और किताबों के साथ आये थे।  आंदोलन शांतिपूर्ण था पर अचानक हिंसक बारदातें शुरू हुई और पुलिस के हथियारों की लूट, जेल से खूंखार कैदियों का भागना, व्यापारिक संस्थानों मे लूटपाट और विश्वप्रसिद्ध पशुपति नाथ मंदिर मे तोड़ फोड़ के प्रयास इस बात की ओर इशारा करते हैं कि आंदोलन मे कुछ विध्वंसकारी और असामाजिक तत्वों की घुसपैठ से इंकार नहीं किया जा सकता।        

    नेपाल मे हुई हिंसक क्रांति और सत्ता परिवर्तन पर, यहाँ भारत मे, इंडि गठबंधन के कुछ नेता यहाँ  भी इसी तरह के आंदोलन से मोदी सरकार को सत्ताच्युत कर सत्ता पाने के हसीन सपने देखने लगे जिसमे कॉंग्रेस के छुटभैये नेताओं और  शिवसेना उद्धव गुट के संजय राऊत सबसे आगे थे। इन नेताओं ने पिछले दिनों,  श्रीलंका, बांग्लादेश मे हुए सत्ता परिवर्तन के समय भी ऐसे ही उद्गार व्यक्त किए थे. शायद उनको इस भारतीय लोकोक्ति की जानकारी नही रही, कि “कौआ के कोसे ढ़ोर नहीं मरते”!! नेपाल मे भड़की हिंसा और अशांति के बीच भारत लगातार नेपाल के घटनाक्रम पर अपनी पैनी निगाह बनाए हुए है। भारत सरकार ने भी नेपाल के लोगों से शांति और सद्भाव से समाधान निकालने की अपील की है। इसी बीच भारत-नेपाल सीमा पर अलर्ट जारी किया है और सीमा सुरक्षा बलों द्वारा  लगातार चौकसी बरती जा रही है।   

    नेपाल के युवाओं के दो दिन के आंदोलन से ही, प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली के इस्तीफे से हुए  रिक्त स्थान की भरपाई हेतु सेना प्रमुख की अगुआई मे चली चर्चा मे जेन-ज़ी के नेतृत्व मे ही आपस मे फूट पड़ गयी और वे परस्पर ही लड़ाई झगड़े करने लगे। रैपर से काठमांडू के मेयर बने बालेन्द्र शाह, नेपाल सुप्रीम कोर्ट की पूर्व प्रधान  न्यायाधीश सुशीला कार्की और लाइट मेन के नाम से मशहूर कुलमान घीसिंग के बीच प्रधानमंत्री पद के लिए कड़ा मुक़ाबला हुआ और अंततः लंबी जद्दो-जेहद और विचार विमर्श के बाद, सर्वसम्मति से सुशीला कार्की  के नाम पर आम  सहमति बनी। 12 सितम्बर को शपथ ग्रहण के पश्चात उन्होने नेपाल मे छह माह के अंदर नई सरकार के लिये चुनाव करवाने की घोषणा की। दो दिन मे पूरे देश मे संसद, सुप्रीम कोर्ट सहित अन्य सरकारी कार्यालयों मे हुई आगजनी और लूटपाट के बाद पूरे नेपाल मे युवाओं और नौजवानों की आकांक्षाओं और अभिलाषाओं को पूरा करते हुए नेपाल मे  शांति कायम कर देश की कानून व्यवस्था को  सामान्य बनाना, नई प्रधानमंत्री सुशीला कार्की के लिए एक बड़ी चुनौती होगी। समय की कसौटी पर वे कितनी कामयाब होंगी, ये आने वाला समय ही बताएगा। 

    विजय सहगल  

    मोदी शासनकाल में नारी सशक्तिकरण का नव अध्याय

     डॉ शिवानी कटारा

    भारत की आधी आबादी, जिसे लंबे समय तक घर की चौखट और सामाजिक परंपराओं में सीमित माना जाता था, आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नए आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ रही है। बीते दशक में तस्वीर पूरी तरह बदली है—ऐसे कानून बने जिन्होंने महिलाओं को बराबरी और गरिमा का अधिकार दिया, और ऐसी योजनाएँ आईं जिन्होंने मातृत्व को सुरक्षित कर बेटियों के सपनों को पंख दिए। यही वजह है कि आज नारी शक्ति केवल वोट नहीं, अब राष्ट्र की आवाज़ है । इसी यात्रा में 2023 का ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ स्त्री प्रतिनिधित्व को नई ऊँचाई देने वाली ऐतिहासिक उपलब्धि के रूप में अंकित हो गया है। इसके तहत लोकसभा और विधानसभाओं की एक-तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गईं। यह बदलाव केवल आंकड़ों का नहीं बल्कि भारतीय लोकतंत्र की आत्मा में स्त्री शक्ति को प्रतिष्ठित करने का है।

    मोदी सरकार ने महिलाओं की सुरक्षा और गरिमा सुनिश्चित करने के लिए ‘मिशन शक्ति’ की शुरुआत की। इसके अंतर्गत वन स्टॉप सेंटर, 24×7 महिला हेल्पलाइन और डिजिटल शिकायत पोर्टल जैसी सुविधाएँ उपलब्ध कराई गईं। हिंसा झेलने वाली महिलाएँ अब कानूनी, चिकित्सीय और मानसिक सहयोग एक ही स्थान पर पा रही हैं, और यह भरोसा जगा है कि उनकी आवाज़ अब अनसुनी नहीं होगी। मुस्लिम महिलाओं को अन्यायपूर्ण परंपरा से मुक्त करने वाला ‘तीन तलाक’ विरोधी कानून इसी दिशा में एक बड़ा परिवर्तन साबित हुआ। वहीं कामकाजी महिलाओं के लिए ‘मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनियम, 2017’ के अंतर्गत अवकाश 12 से बढ़ाकर 26 सप्ताह किया गया तथा बड़े संस्थानों में शिशु गृह (क्रेच) की सुविधा अनिवार्य की गई। इन पहलों ने महिलाओं को सुरक्षा और गरिमा के साथ कार्यक्षेत्र में सक्रिय योगदान का अवसर प्रदान किया।

    मोदी सरकार की नीतियों में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ नारी सशक्तिकरण का मर्मस्थ स्रोत रहा है, और हाल के आँकड़े इसकी गवाही देते हैं। 2014-15 में जहाँ 1000 लड़कों पर 918 लड़कियाँ थीं, 2023-24 में यह अनुपात बढ़कर 930 हुआ और माध्यमिक शिक्षा में लड़कियों की नामांकन दर 75.51% से बढ़कर 78% पहुँची। मार्च 2022 में ‘कन्या शिक्षा प्रवेश उत्सव’ से 1,00,786 बच्चियाँ स्कूल लौटीं। 2014-16 में मातृ मृत्यु दर 130 से घटकर 2018-20 में 97 रह गई और संस्थागत प्रसव 87% से बढ़कर 94% से अधिक हुआ—यह दर्शाता है कि सुरक्षित मातृत्व ही विकसित भारत की सच्ची पहचान है। राज्यों के अनुभव इस प्रगति को और भी सजीव बना देते हैं। उत्तर प्रदेश में गर्भवती महिलाओं में एनीमिया की दर 51% से घटकर 45.9% रह गई और गंभीर एनीमिया 2.1% से घटकर 1.7% पर आ गया—यह आँकड़े मातृ स्वास्थ्य सुधार की गवाही देते हैं। इसी कड़ी में उज्ज्वला योजना के अंतर्गत 10.33 करोड़ गैस कनेक्शन दिए गए, जिनमें से 8.34 करोड़ परिवार सक्रिय उपयोगकर्ता हैं, जिससे माताओं और बच्चों को धुएँ से मुक्ति मिली। वहीं स्वच्छ भारत मिशन के तहत बने करोड़ों शौचालयों ने ग्रामीण महिलाओं को खुले में शौच की विवशता से उबारकर उनकी गरिमा और स्वास्थ्य दोनों को संबल दिया। यह सब मिलकर नारी जीवन में सुरक्षा, सम्मान और स्वाभिमान की नई कहानी लिख रहे हैं।

    आर्थिक स्वतंत्रता भी अब महिलाओं की शक्ति का दूसरा नाम बन चुकी है। मोदी सरकार के प्रयासों से ‘स्टैंड अप इंडिया’ और ‘मुद्रा योजना’ ने लाखों महिला उद्यमियों को कारोबार के लिए वित्तीय सहारा दिया, जबकि ‘लाखपति दीदी’ और ‘ड्रोन दीदी’ योजना ने ग्रामीण महिलाओं को तकनीक और स्वरोज़गार से जोड़कर उन्हें स्वावलंबी भारत की नई पहचान बना दिया है। मुद्रा योजना में महिलाओं की हिस्सेदारी 68% है और 2016 से 2025 के बीच प्रति महिला औसत ऋण ₹62,679 तक पहुँचा। स्टैंड-अप इंडिया में 80% से अधिक ऋण महिलाओं को मिले। उत्तर प्रदेश में मनरेगा में उनकी भागीदारी 35% से बढ़कर 45.05% और श्रम-बल में 14% से बढ़कर 36% हुई। वाराणसी की 1.38 लाख ग्रामीण महिलाएँ स्व-सहायता समूहों से आत्मनिर्भर बनीं, जिनमें कई ड्रोन पायलटिंग, कृषि और डेयरी जैसे क्षेत्रों में सक्रिय हैं। यह दर्शाता है कि महिलाएँ अब केवल योजनाओं की भागीदार नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था की सशक्त धुरी बन रही हैं।

    डिजिटल इंडिया ने महिलाओं के जीवन में ऐतिहासिक बदलाव लाया है। शहरी भारत की महिलाएँ स्मार्टफोन और इंटरनेट के सहारे बैंकिंग, ई-कॉमर्स और डिजिटल भुगतान को सहज बना रही हैं, तो ग्रामीण भारत की 76% महिलाएँ मोबाइल का उपयोग कर रही हैं और आधी से अधिक अपने निजी फोन की स्वामिनी बन चुकी हैं। यही तकनीकी पहुँच उन्हें डिजिटल विपणन, पैकेजिंग और ई-कॉमर्स से जोड़कर आत्मनिर्भरता की राह पर अग्रसर कर रही है। साथ ही, महिला हेल्पलाइन 181, एनसीडब्ल्यू 24×7 और पावर लाइन-1090 सुरक्षा और न्याय की त्वरित पहुँच देकर उनके आत्मविश्वास को और गहरा कर रही हैं। मोदी सरकार का यह डिजिटल सशक्तिकरण महिलाओं को समय और दूरी की सीमाओं से आज़ाद कर अवसरों की नई दुनिया थमा रहा है और उन्हें नवोन्मेषी बना रहा है।

    प्रधानमंत्री मोदी के शासनकाल में महिलाओं ने राष्ट्रीय सुरक्षा की अग्रिम पंक्ति में नया इतिहास रचा। अग्निपथ योजना के तहत 153 महिला अग्निवीरों ने बेलगावी से प्रशिक्षण पूरा किया और नौसेना ने लगभग 20% पद महिलाओं के लिए खोले। जम्मू-कश्मीर के अखनूर सेक्टर में सात महिला बीएसएफ कर्मियों ने 72 घंटे तक मोर्चा सँभालकर साहस का अद्वितीय उदाहरण पेश किया। प्रधानमंत्री ने इस अभियान को हर माँ और बहन को समर्पित किया। साथ ही सेना का ‘ऑपरेशन सिंदूर’ एक सांस्कृतिक प्रतीक बना—जहाँ राष्ट्र रक्षा के साथ महिलाओं के सम्मान और गरिमा की रक्षा का संदेश भी प्रतिध्वनित हुआ। सचमुच, अग्निवीर बेटियाँ अब सीमाओं पर देश की ढाल हैं और ‘सिंदूर’ वीरता का प्रतीक है।

    बेशक चुनौतियाँ अब भी हैं और सामाजिक पूर्वाग्रह भी कायम हैं, पर अब नींव इतनी मजबूत है कि बदलाव अटल है। मोदी युग में महिलाओं की आवाज़ अब निर्णय और दिशा गढ़ती है; नारी केवल लाभार्थी नहीं, परिवर्तन की शिल्पकार और राष्ट्र निर्माण की धुरी बन चुकी है। यदि यही रफ्तार कायम रही, तो 2047 का विकसित भारत सचमुच नारी-निर्मित भारत होगा—जहाँ हर क्षेत्र में स्त्री शक्ति समानता, समृद्धि और नई संभावनाओं की मिसाल बनेगी।

    डिजिटल इंडिया: मोदी संग बदलता भारत

    पवन‌ शुक्ला

    भारत का चेहरा बदल रहा है। जहाँ कभी नागरिकों के जीवन में सरकारी दफ्तरों की लंबी कतारें और जटिल प्रक्रियाएँ सबसे बड़ी बाधा थीं, आज वहीं मोबाइल ऐप, QR कोड, स्मार्ट सिटी की रफ़्तार और ऑनलाइन सेवाओं की सहज उपलब्धता आम बात हो गई है। यह परिवर्तन किसी संयोग का परिणाम नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दूरदृष्टि और “डिजिटल इंडिया” जैसे महत्त्वाकांक्षी अभियान की उपज है, जिसने शासन को नई परिभाषा दी है।

    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2015 में डिजिटल इंडिया की शुरुआत करते हुए स्पष्ट संदेश दिया था कि 21वीं सदी का भारत तकनीक की ताक़त से ही अपने सपनों को साकार करेगा। उन्होंने इसे केवल एक सरकारी कार्यक्रम नहीं, बल्कि नागरिकों को सशक्त बनाने का आंदोलन बताया। यही कारण है कि आज गाँव से लेकर महानगर तक हर वर्ग इस परिवर्तन की धड़कन महसूस कर रहा है।

    मोदी का लक्ष्य था “ई-गवर्नेंस से एम-गवर्नेंस” तक की यात्रा—यानी शासन अब फाइलों और दफ्तरों तक सीमित न रहकर सीधे नागरिकों की हथेली पर, उनके मोबाइल स्क्रीन पर पहुँचे। भारतनेट परियोजना इसी सोच की रीढ़ बनी। जनवरी 2025 तक 2.18 लाख ग्राम पंचायतें हाई-स्पीड ब्रॉडबैंड से जुड़ चुकी थीं और 6.92 लाख किलोमीटर ऑप्टिकल फाइबर बिछाया जा चुका था। परिणाम यह हुआ कि गाँव का युवा अब सिर्फ जानकारी पाने वाला नहीं, बल्कि तकनीक का सक्रिय भागीदार बन गया। आँकड़े बताते हैं कि 15–29 वर्ष आयु वर्ग के 90% से अधिक ग्रामीण युवा अब इंटरनेट का नियमित उपयोग कर रहे हैं—यह आँकड़ा केवल कनेक्टिविटी नहीं, बल्कि आत्मविश्वास का प्रतीक है।

    वित्तीय क्षेत्र में सबसे बड़ी क्रांति आई। अगस्त 2025 में UPI के ज़रिए 20 अरब से अधिक मासिक लेन-देने दर्ज हुए जिनकी कुल राशि ₹24.85 लाख करोड़ से अधिक रही। पहले जहाँ गाँवों में नक़द और बिचौलियों पर निर्भरता थी, अब छोटे दुकानदार, महिलाएँ और किसान भी QR कोड से लेन-देने करने लगे हैं। EY–CII रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण और अर्ध-शहरी इलाकों में 38% लोग UPI को सबसे पसंदीदा भुगतान तरीका मानते हैं और 73% MSMEs ने डिजिटल टूल्स से अपने कारोबार में बढ़ोतरी पाई है। शहरी भारत में भी यह बदलाव गहरा है, जहाँ लगभग 90% उपभोक्ता ऑनलाइन ख़रीदारी के लिए डिजिटल भुगतान को प्राथमिकता दे रहे हैं।

    भूमि और संपत्ति के अधिकारों में भी डिजिटलीकरण ने नया विश्वास जगाया। स्वामित्व योजना में ड्रोन और GIS तकनीक से गाँव की ज़मीन और मकानों की मैपिंग की जा रही है और अब तक 65 लाख से अधिक प्रॉपर्टी कार्ड वितरित हो चुके हैं। किसान इन कार्डों को गिरवी रखकर बैंक से आसानी से लोन ले पा रहे हैं।

    शिक्षा और स्वास्थ्य में डिजिटलीकरण ने ग्रामीण और शहरी जीवन दोनों की दिशा मोड़ दी है। “ज्ञान कोश”, DIKSHA और SWAYAM जैसे ई-लर्निंग प्लेटफ़ॉर्म ने छात्रों को घर बैठे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दी है। स्वास्थ्य क्षेत्र में टेली-हेल्थ और आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन ने लाखों लोगों को डिजिटल हेल्थ आईडी और ऑनलाइन परामर्श से जोड़ा। शहरी भारत में लगभग 70% स्वास्थ्य परामर्श अब टेलीमेडिसिन के माध्यम से हो रहे हैं, जिससे अस्पतालों की भीड़ घटी है और मरीजों को समय व लागत में बचत हुई है। POSHAN ट्रैकर ऐप ने आंगनबाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं को बच्चों और महिलाओं की पोषण स्थिति दर्ज करने में मदद दी है।

    सरकारी सेवाओं का डिजिटलीकरण भी नागरिक जीवन को आसान बना रहा है। ई-लॉकर ने प्रमाणपत्रों को डिजिटल रूप में सुरक्षित रखने की सुविधा दी है। अब नौकरी या छात्रवृत्ति के लिए बार-बार दस्तावेज़ जमा करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। आधार और DBT (डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर) ने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया है और करोड़ों लोगों को सीधे लाभ मिला है।

    रेलवे ने भी डिजिटलीकरण को अपनाया है। अब यात्रियों को लंबी कतारों में खड़े होने की ज़रूरत नहीं। UTS मोबाइल ऐप, QR आधारित टिकट और ट्रेन की लाइव ट्रैकिंग से यात्रा सुविधाजनक हो गई है। बैंकिंग और ई-कॉमर्स ने भी दिनचर्या बदल दी है। डिजिटल KYC और मोबाइल बैंकिंग से खाता खोलना और लेन-देन आसान हुआ है। छोटे व्यापारी अब अमेज़न, फ्लिपकार्ट और ONDC नेटवर्क जैसे प्लेटफ़ॉर्म पर सीधे अपना सामान बेच रहे हैं। गाँव से शहद और हस्तशिल्प तो शहरों से इलेक्ट्रॉनिक्स—सब डिजिटल मार्केटप्लेस पर उपलब्ध है।

    शहरी जीवन पर डिजिटलीकरण का असर और भी गहरा है। Smart Cities Mission के तहत देश के 100 शहर चुने गए, जिनमें से लगभग 94% प्रोजेक्ट पूरे हो चुके हैं। इन शहरों में स्मार्ट ट्रैफिक मैनेजमेंट, सीसीटीवी आधारित सुरक्षा, डिजिटल जल और बिजली आपूर्ति, अपशिष्ट प्रबंधन और स्मार्ट स्ट्रीट लाइटिंग ने जीवन को सुरक्षित और व्यवस्थित बनाया है। अब तक 8,067 प्रोजेक्ट्स में से 7,555 पूरे हो चुके हैं और ₹1.51 लाख करोड़ से अधिक का निवेश किया जा चुका है।

    5G नेटवर्क ने भी शहरी जीवन की गति बदल दी है। देश में अब 4.69 लाख 5G बेस ट्रांससीवर स्टेशन (BTSs) काम कर रहे हैं और 99.6% जिलों में कवरेज पहुँच चुका है। लगभग 25 करोड़ ग्राहक 5G सेवाएँ इस्तेमाल कर रहे हैं। स्मार्टफ़ोन बाज़ार में 87% नए फोन 5G समर्थित हैं। इससे तेज़ इंटरनेट ने ई-हेल्थ, ई-लर्निंग, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, क्लाउड-वर्किंग और ऑनलाइन मनोरंजन को नए आयाम दिए हैं। ऑफिस का काम अब घर से, कोर्ट की सुनवाई वर्चुअल मोड से और बैंकिंग मोबाइल से—ये सब शहरी जीवन का हिस्सा बन चुके हैं।

    ग्रामीण जीवन में भी बदलाव की प्रेरक कहानियाँ हैं। प्रयागराज जिले में मॉडल डिजिटल गाँवों का प्रयोग हो रहा है। गुजरात में एक सरपंच रिपिन गामित ने इंस्टाग्राम रील्स पर सरकारी योजनाओं की जानकारी देनी शुरू की और सैकड़ों परिवारों को योजनाओं का लाभ दिलाया। छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों में 400 नए BSNL टावर लगाए जा रहे हैं जिससे दूरस्थ क्षेत्रों में भी इंटरनेट उपलब्ध हो रहा है।

    इन पहलों का असर केवल आम नागरिक पर नहीं, नौकरशाही पर भी पड़ा है। मंत्रालयों और विभागों में फाइलें अब डिजिटल मोड में तेजी से निपट रही हैं। पीएम गति-शक्ति योजना ने मंत्रालयों के बीच समन्वय को डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर लाकर बड़े प्रोजेक्ट्स की निगरानी आसान की है। पहले जहाँ एक परियोजना में महीनों लग जाते थे, अब एकीकृत डैशबोर्ड से समय पर निर्णय और निगरानी संभव हो पाई है।

    चुनौतियाँ अब भी मौजूद हैं—डिजिटल साक्षरता की कमी, साइबर सुरक्षा खतरे और नेटवर्क की असमान पहुँच। लेकिन इन बाधाओं के बावजूद यह सच है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डिजिटल इंडिया पहल ने भारत के शासन और नागरिक जीवन को नया आयाम दिया है।

    न्यायिक ढांचे  में विस्तारक विकेन्द्रीयकरण जरूरी

    धीतेन्द्र कुमार शर्मा

    गुजरे 12 सितम्बर को राजस्थान की वकील बिरादरी में तूफानी हलचल थी। राजस्थान हाईकोर्ट की जोधपुर और जयपुर दोनों पीठ, राजधानी जयपुर, और कोचिंग कैपिटल कोटा, झीलों की नगरी उदयपुर के अलावा कई स्थानों पर बार एसोसिएशनों (अधिवक्ताओं के संगठन) ने तल्ख प्रदर्शनों के साथ हड़ताल (न्यायिक कार्य बहिष्कार) रखी। वजह बना केन्द्रीय कानून राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) अर्जुनराम मेघवाल का सोशल मीडिया पर प्रचारित एक बयान जिसमें वे भारत के मुख्य न्यायाधीश के आगामी दिनों में प्रस्तावित बीकानेर दौरे के दरम्यान बीकानेर में हाईकोर्ट वर्चुअल बैंच स्थापना को लेकर कुछ बड़ा होने के संकेत दे रहे हैं। वकील समुदाय इस मसले पर नाराज है और इसने उग्र आंदोलन की चेतावनी दी है।

    राजस्थान में हाईकोर्ट की नई बैंचों की स्थापना की मांग दशकों पुरानी है। कोटा, उदयपुर और बीकानेर में इस मसले पर महीनों तक लगातार न्यायिक कार्य बहिष्कार जैसे आंदोलन हो चुके। अब भी वकील समुदाय इस मांग को लगातार माह में एक निश्चित दिन न्यायिक कार्य बहिष्कार करके इस ज्योति पुंज को प्रज्वलित किए हुए हैं। तीनों शहरों में हो रहे उग्र आंदोलन को देखते हुए दो साल पहले अगस्त 2023 में केन्द्रीय मंत्री मेघवाल ने वर्चुअल बैंच की स्थापना की घोषणा की थी लेकिन अब सिर्फ बीकानेर को लेकर दिए बयान से भेदभाव की आशंका के मद्देनजर कोटा-उदयपुर के अधिवक्ता समुदाय में उबाल आ गया। जयपुर-जोधपुर हाईकोर्ट एसोसिएशन्स अपने वकीलों का व्यवसाय प्रभावित होने के चलते ऐसी बैंचों की स्थापना का विरोध कर रहे हैं। 

    आइये, इनसे इतर कुछ गंभीर तथ्यों पर भी नजर डालते हैं। देश में ज्यूडिशियल पैंडेंसी ज्वलंत मुद्दा है। सत्तारूढ़ शीर्ष नेतृत्व समेत तमाम पक्ष-विपक्षी दल इस पर चिंता जताते रहते हैं। नेशनल ज्यूडिशयल डाटा ग्रिड (एनजेडीजी) पर उपलब्ध अद्यतन आंकड़ों के मुताबिक सर्वोच्च न्यायलय में 88 हजार, उच्च न्यायालयों में 62 लाख और निचली अदालतों में 5 करोड़ से अधिक मामले लम्बित हैं। इनमें तकरीबन 50 लाख मामले 10 वर्ष से अधिक वाले हैं। यही नहीं, 31.22 लाख प्रकरण वरिष्ठ नागरिकों की ओर दायर हैं जो लम्बित हैं। सर्वोच्च अदालत में पिछले माह यानी अगस्त में 7 हजार 80 नए मामले आए वहीं 5 हजार 667 का निपटान हुआ। 

     राजस्थान में 24.64 लाख मुकदमें लम्बित हैं। इनमें से दोनों पीठों को मिलाकर हाईकोर्ट में 6.69 लाख मामले लम्बित हैं। पिछले माह यानी अगस्त में हाईकोर्ट में 19 हजार 456 नए मामले जुड़े और 12 हजार 665 मामले निर्णीत हुए, यानी, यहां भी नए मामले जुडऩे के मुकाबले न्याय निर्णयन दो तिहाई का ही हो पाया है। नए मामलों की तुलना में लगभग 65 प्रतिशत मामले ही औसतन प्रतिमाह निपट रहे हैं, यानी लम्बित न्यायिक प्रकरणों का बोझ प्रतिमाह बड़े प्रतिशत में और बढ़ रहा है। जाहिर तौर पर ये हालात बेहद चिंताजनक हैं और अदालतों एवं बैंचों की संख्या बढ़ाने के विकल्प की उपेक्षा करना न्यायिक ढांचे के प्रति गिरती आस्था की गति तीव्र ही करेगा।

    अब रही बात कोटा, उदयपुर और बीकानेर में हाईकोर्ट बैंच स्थापना की तो इन शहरों की मांग को खारिज करना बेईमानी और ऐतिहासिक तथ्यों को नजरअंदाज करना ही है। देश आजाद होने से पहले स्टेट काल में जयपुर, जोधपुर, कोटा, उदयपुर, बीकानेर में  उच्च न्यायालय थे जिन्हें राजस्थान उच्च न्यायालय अध्यादेश 1949 के जरिये समाप्त किया गया और 29 अगस्त 1949 को जोधपुर में उच्च न्यायालय की स्थापना की गई।  प्रारंभ में व्यवहारत: कोटा, उदयपुर, बीकानेर, जयपुर के उच्च न्यायालय कार्य करते रहे लेकिन संविधान लागू होने के बाद 22 मई 1950 को कोटा, बीकानेर और उदयपुर की पीठों को समाप्त कर दिया गया हालांकि जयपुर पीठ ने कार्य जारी रखा। फिर 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम की धारा 49 के अन्तर्गत जोधपुर में मुख्य पीठ के साथ राजस्थान उच्च न्यायालय के रूप में नया उच्च न्यायालय अस्तित्व में आया।  फिर सत्यनारायण राव, वी. विश्वनाथन और वीके गुप्ता समिति की रिपोर्ट पर 1958 में व्यवहारत: कार्यरत जयपुर पीठ को भी समाप्त कर दिया गया। कालान्तर में 1976 में जयपुर में पुन: वर्तमान पीठ की स्थापना हुई।

    इस तरह, कोटा, उदयपुर और बीकानेर स्टेट काल से उच्च न्यायालय वाले मुख्यालय थे। राजस्थान एकीकरण में तत्कालीन राजनीतिक चुनौती से निपटने में, जोधपुर जैसे बड़े राज्य की संतुष्टि के लिए इनका बलिदान लिया गया। ऐसा बलिदान तब राष्ट्र-राजनीति के लिए बेशक अपरिहार्य और वांछनीय रहा होगा लेकिन अब गंगा में काफी पानी बह चुका। हालात 360 डिग्री बदल चुके हैं।  कोटा का मजबूत राजनीतिक स्वर आज राष्ट्र की सर्वोच्च पंचायत की अध्यक्षता कर रहा है तो बीकानेर सांसद देश के कानून मंत्री है। उदयपुर का बड़ा राजनीतिक चेहरा राज्यपाल (पंजाब) जैसे संवैधानिक पद पर आसीन है।

    जहां तक न्यायिक ढांचे के पुनर्गठन या नए हाईकोर्ट अथवा बैंच स्थापना के कानूनी पहलुओं की बात है तो राज्य सरकार, राज्यपाल और मुख्य न्यायाधीश की सहमति से केन्द्र को प्रस्ताव भेजती है। केन्द्र सरकार के उस पर विचार करने और सकारात्मक निर्णय की दशा में राष्ट्रपति की अधिसूचना से ये अस्तित्व में आते हैं। पिछले ही माह देश के तीसरे बड़े राज्य महाराष्ट्र के कोल्हापुर में बाम्बे हाईकोर्ट की नई बैंच शुरू हुई जबकि वहां मुम्बई, पणजी, औरंगाबाद, और नागपुर में पहले से ही हाईकोर्ट की पीठें संचालित हैं। दूसरे बड़े राज्य मध्यप्रदेश में जबलपुर हाईकोर्ट की इंदौर और ग्वालियार में पीठें कार्यरत हैं। छठे बड़े राज्य कर्नाटक में बैंगलूर के अलावा धारवाड़ और गुलबर्ग में हाईकोर्ट बैंच चल रही हैं।

    जाहिर है, देश के सबसे बड़े राज्य राजस्थान में नई बैंचों की स्थापना में न संख्या की बाधा है और ना कानूनी प्रावधानों की और ना ही राजनीतिक हालात की। सबसे महत्वपूर्ण कारक भौगोलिक हालात और जनसांख्यिकीय दृष्टिकोण भी राजस्थान में इन नई बैंचों की स्थापना के लिए सुविधा का संतुलन पैदा करता है। कहना न होगा, कोटा, उदयपुर और बीकानेर तीनों स्थानों पर नई हाईकोर्ट बैंच (वचुअल नहीं भौतिक) की जल्द से जल्द स्थापना ही समय की मांग है। यह प्रदेश के न्यायिक ढांचे में बेहतर संतुलनकारी और आमजन के सर्वोच्च हित में है। सनद रहे, न्याय व्यवस्था में डिगती आस्था सुदृढ़ से सुदृढ़ राज्य के  लिए भी पतन की नींव रख देती है और, त्वरित न्याय ही असल लोककल्याण का प्रखर-प्रशस्त मार्ग है। उम्मीद की जानी चाहिए कि समान राजनीतिक दल वाली केन्द्र व राज्य की डबल इंजन सरकारें भी ऐसा ही सोच रही होंगी। 

    धीतेन्द्र कुमार शर्मा

    विभाजनकारी और अलगाववादी दिशा में….

    वीरेन्द्र सिंह परिहार

    शायद देश के बहुत लोगों को यूपीए सरकार का वह बिल अब भी याद में हो जब उसके द्वारा साम्प्रदायिक एवं लांछित हिंसा रोकथाम विधयेक 2011 बिल का ड्राफ्ट किया गया था। यह बताना भी उल्लेखनीय है कि यह बिल सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा तैयार किया गया था। इस ड्राफ्ट का लब्बोलुआब यह था कि हिन्दू आक्रामक हैं जबकि मुस्लिम, ईसाई और दूसरे अल्पसंख्यक पीड़ित है। यह बिल जब ड्राफ्ट हुआ, उसमें ऐसा कुछ मान लिया गया कि दंगा सिर्फ हिन्दू करते हैं, मुसलमान, ईसाई और दूसरे पंथ मात्र इसके शिकार होते हैं। इस प्रस्तावित विधेयक में मुस्लिम, ईसाई और सिखो के साथ अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को भी अल्पसंख्यकों के समूह में शामिल किया गया था। यह बात और है कि वर्ष 1989 से ही देश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम लागू है। कुल मिलाकर इस प्रस्तावित विधेयक के माध्यम से पूरी तरह से अलगाववाद को पुख्ता और मजबूत करने का प्रयास किया गया।

    यह विधेयक इतना विभेदकारी था कि हिन्दू केवल क्षतिपूर्ति के लिये दावा कर सकते थे। यदि यह विधेयक पास होकर कानून बन जाता तो न सिर्फ इससे साम्प्रदायिक हिंसा करने वालो को संरक्षण मिलता बल्कि इसके बहाने हिन्दू समाज, हिन्दू संगठन और हिन्दू नेताओं को कुचले जाने की भरपूर आशंका थी। विडम्बना यह कि यह प्रस्तावित बिल हर्ष मंदर, तीस्ता सीतलवाड़, सैयद शहाबुद्दीन और शबनम हाशमी जैसे घोर हिन्दू विरोधियों द्वारा ड्राफ्ट किया गया था। इस प्रस्तावित विधेयक में और बातें तो अपनी जगह पर थीं, पर इसमें अल्पसंख्यक वर्ग के किसी व्यक्ति के आपराधिक या राष्ट्र विरोधी कृत्यों का शाब्दिक विरोध भी अपराध माना जाता। इस तरह से बांग्लादेशी घुसपैठियों के निष्कासन की मांग करना, धर्मान्तरण पर रोक लगाने की मांग, कामन सिविल कोड लागू करने की मांग करना अपराधों की श्रेणी में आ जाता। भारतीय संविधान का मूल सिद्धान्त यह है कि किसी भी आरोपी को तब तक निर्दोष माना जायेगा, जब तक वह दोषी सिद्ध न हो जाये लेकिन इस प्रस्तावित विधेयक में आरोपी तब तक दोषी माना जाता, जब तक वह अपने आप को निर्दोष न सिद्ध कर दे। इसमें सिर्फ आरोप लगा देने पर से पुलिस अधिकारी वगैर किसी छानबीन के या जाँच-पड़ताल के हिन्दू को जेल भेज देता।

    वस्तुतः यह प्रस्तावित विधेयक उस सोच का विस्तार था जिसके तहत राहुल गांधी को लश्करे तोयबा और जेहादी आतंकवाद की तुलना में हिन्दू आतंकवाद ज्यादा खतरनाक दिखाई देता था। यह बात और है कि हिन्दुओं के व्यापक राष्ट्रव्यापी विरोध के चलते यह प्रस्तावित विधेयक पास नहीं हो सका वरना यदि यह विधेयक पास हो जाता तो हिन्दुओं का भारत में जीना ही दूभर हो जाता। अलगवावादी, जेहादी मानसिकता वाले और राष्ट्र विरोधी तत्व खुलकर हिन्दू समाज और देश के विरूद्ध खुला अभियान छेड़ देते। इस तरह से हिन्दू अपने ही देश में न सिर्फ द्वितीय श्रेणी के नागरिक हो जाते बल्कि उनके अस्तित्व पर भी खतरे की घंटी बज जाती लेकिन उस वक्त उक्त प्रस्तावित विधेयक को किसी कारणवश कांग्रेस पार्टी कानून का रूप न दे पाई हो, लेकिन उसकी सोच तो मूल रूप से वहीं अंग्रेजो वाली ही है कि ‘बांटो और राज करो।’

    उसी धारा को आगे बढ़ाते हुये कर्नाटक की कांग्रेस सरकार एक ऐसा कानून लाने जा रही है जिससे मुस्लिम तुष्टिकरण का लक्ष्य साधने के साथ हिन्दू समाज भी विभाजित हो सके। इस कानून का नाम ‘रोहित वेमूला एक्ट 2025’ रखा गया है। इसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ावर्ग और मुस्लिमों को शामिल किया गया है। साम्प्रदायिक एवं लांछित हिंसा रोकथाम विधेयक 2011 की तुलना में जहाँ उस प्रस्तावित विधेयक में अन्य पिछड़ा वर्ग नहीं था, वहीं कर्नाटक सरकार के ‘रोहित वेमूला एक्ट’ में तुष्टिकरण की नीति को विस्तार देते हुये अन्य पिछड़ा वर्ग को भी रखा गया है। यह कानून शिक्षण संस्थानों में लागू किया जायेगा।

     प्रस्तावित कानून के अनुसार यदि इन वर्गों का कोई विद्यार्थी किसी सामान्य वर्ग का विद्यार्थी, शिक्षक या संस्थान से जुड़े किसी भी व्यक्ति के विरूद्ध शिकायत करता है तो उस अपराध को संज्ञेय और गैर-जमानती माना जायेगा जिसमें अधिकतम तीन वर्ष की सजा का प्रावधान है। यदि कोई शैक्षणिक संस्था ऐसी शिकायतें प्राप्त होने पर कार्यवाही नहीं करती तो उन पर भी सख्त कार्यवाही करने का प्रावधान है और राज्य सरकार उसकी आर्थिक सहायता तक बंद कर देगी। किसी संस्थान के विरूद्ध उपरोक्त कानून के उल्लंघन के विरूद्ध बार-बार शिकायते मिलती हैं तो उसकी मान्यता भी रद्द की जा सकती है। इतना ही नहीं, संस्था प्रमुख को एक वर्ष के कारावास और दस हजार रूपये तक जुर्माना लगाने का भी प्रावधान है। खास बात यह कि यदि न्यायालय किसी आरोपी को दोषी ठहराता है तो राज्य सरकार शिकायतकर्ता को 1 लाख रूपये की आर्थिक सहायता भी देगी।

    अब यह बताने की जरूरत नहीं कि देश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति निवारण एक्ट बहुत पहले से लागू है लेकिन इस प्रस्तावित एक्ट में एस.सी.एस.टी. के साथ अन्य पिछड़ा वर्ग एवं मुस्लिम को भी शामिल किया गया है। इसका निहितार्थ यह कि यदि कोई मुस्लिम छात्र, सवर्ण जाति के छात्रों, शिक्षकों एवं संस्थानों से जुड़े व्यक्ति के विरूद्ध इस प्रस्तावित अधिनियम के तहत शिकायत करेगा तो भले ही वह जातीय भेद-भाव से जुड़ी न हो तो उस पर भी संज्ञेय और गैर जमानती धाराएं लगाई जा सकेंगी और शिकायतकर्ता को शासन की ओर से 1 लाख रूपये तक की आर्थिक सहायता भी प्राप्त होगी। अब यह कौन नही जानता कि भारत में जहाँ तक दंगों का इतिहास है, वहाँ अमूमन मुस्लिम ही आक्रमणकारी पाये जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों से तो वह हिन्दुओं के त्यौहारों और उनके जुलूसों जैसे रामनवमी, हनुमान जयंती, महाशिवरात्रि और बसंत पंचमी के जुलूसों पर पथराव, तलवारबाजी और कई तरह की हिंसा करते देखते मिल जाते हैं पर कर्नाटक के सरकार का रवैया वही है कि हिन्दू आक्रामक है और मुस्लिम पीड़ित। बड़ी सच्चाई यह भी कि तुष्टिकरण और वोट बैंक की राजनीति के तहत कांग्रेस पार्टी मुसलमानों को अन्य पिछड़े वर्ग में शामिल करने का अभियान लम्बे वक्त से चला रही है ताकि उन्हें संविधान की मंशा के विपरीत आरक्षण का लाभ मिल सके। ‘रोहित वेमूला ऐक्ट’ के पीछे भी यही प्रयास दिखाई देता है। गौर करने की बात यह भी है कि इस प्रस्तावित कानून का नाम एक ऐसे व्यक्ति के नाम पर रखा जा रहा है जो ओबीसी समुदाय का था लेकिन अपने को अनुसूचित जाति का बताकर फर्जी प्रमाण-पत्र के आधार पर छात्रवृत्ति प्राप्त की और तत्पश्चात कैम्पस में जातीय द्वेष फैलाने में अहम भूमिका निभाई। उसके भाषणों और वक्तव्यों में सामान्य वर्ग निशाने पर होता था। असलियत में जब उसकी जातीय पहचान सामने आने लगी, तब उसने आत्महत्या कर लिया। ऐसे व्यक्ति के नाम पर कोई कानून बनाना कतई उचित नहीं कहा जा सकता पर कांग्रेस पार्टी का लक्ष्य जब एकमात्र किसी भी कीमत पर राजनीतिक फायदा पाने की प्रवृत्ति हो तब उससे और अपेक्षा भी क्या की जा सकती है ?

    कहने को तो रोहित वेमूला आम्बेडकर स्टूडेंट यूनियन से जुड़ा था पर उसकी विचारधारा वामपंथी और इस्लामी विचारधारा से प्रेरित थी क्योंकि जहाँ तक डा अम्बेडकर का सवाल है, इस्लाम और मुसलमानों के प्रति उनका रवैया एकदम स्पष्ट था। सरदार पटेल के अलावा वह देश के ऐसे दूसरे राजनेता थे जो 1947 में देश के विभाजन को लेकर हिन्दू-मुस्लिम आबादी की अदला-बदली के पक्षधर थे क्योंकि उन्हें पता था कि पाकिस्तान में जो हिन्दू बचे हैं , आगे चलकर उनका जीवन नरक हो जायेगा तो भारत में बचे मुसलमान राष्ट्र की मुख्य धारा में कभी भी शामिल नहीं होंगे लेकिन इस्लामपरस्त और हिन्दू विरोधी मानसिकता के चलते रोहित वेमूला ने अगस्त 2015 में कुख्यात आतंकवादी याकूब मेनन को फाँसी दिये जाने के विरोध में हैदराबाद विश्वविद्यालय परिसर में एक सेमिनार आयोजित किया और उसके समर्थन में जुलूस निकाला। उल्लेखनीय है कि याकूब मेनन 1993 में मुम्बई में हुये सीरियल ब्लास्ट का एक प्रमुख सूत्रधार था जिसमें 257 लोग मारे गये थे और सैकड़ों घायल हुये थे। इस में मारे गये लोगों में अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग भी बड़ी संख्या में शामिल थे पर रोहित वेमूला जैसे लोग पीड़ितों के पक्ष में खड़े होने के बजाय आतंकवादियों के पक्ष में खड़े थे। तभी तो ऐसे लोग कांग्रेस पार्टी के लिये आदर्श बने हुये हैं। 

    कांग्रेस पार्टी का कहना है कि यह विधेयक उच्च शिक्षण संस्थानों में एस.सी., एस.टी. छात्रों के साथ भेदभाव को रोकने के लिये लाया जा रहा है पर असलियत में कांग्रेस पार्टी अपने खिसकते जनाधार को फिर से पाने के लिये प्यासी मछली की तरह छटपटा रही है। इसके लिये जाति और सम्प्रदाय आधारित राजनीति ही उसकी दृष्टि में येन केन प्रकारेण सत्ता पाने का एकमात्र उपक्रम रह गया है। वस्तुतः यह प्रस्तावित बिल शैक्षणिक संस्थानों में जातीय विद्वेष फैलाने और उसकी जड़े गहरी करने का काम करेगा। असलियत में यह प्रस्तावित बिल ‘लांक्षित एवं साम्प्रदायिक हिंसा रोकथाम’ की ही दिशा में अगला कदम कहा जा सकता है। गौर करने की बात यह कि हमारे संविधान निर्माता जाति और वर्ग विहीन समाज की कल्पना करते थे पर संविधान की दुहाई देने वाली कांग्रेस पार्टी बराबर संविधान की भावना के उलट काम कर रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि देश का प्रबुद्ध राष्ट्रीय समाज कांग्रेस पार्टी के ऐसे कृत्यों को लेकर उसे जरूर सबक सिखायेगा।

    वीरेन्द्र सिंह परिहार

    जनरेशन गैप और संवादहीनता के कारण टूटते परिवार

    राजेश कुमार पासी

    नानक दुखिया सब संसारा, वर्तमान हालातों पर ये बात पूरी तरह लागू होती है क्योंकि हर व्यक्ति अलग-अलग कारणों से परेशान है । आज का बड़ा सच है कि बुजुर्ग बच्चों से परेशान हैं और बच्चे बुजुर्गों से परेशान हैं । इसके लिए ज्यादातर लोग जनरेशन गैप को दोषी ठहराते हैं जबकि यह सच नहीं है । यह ठीक है कि आज की युवा पीढ़ी और पिछली पीढ़ी की सोच में बड़ा अंतर है लेकिन सोच का अंतर परेशानी का सबब इसलिए बनता है क्योंकि दोनों पीढ़ियों में संवादहीनता पैदा होती जा रही है । परिवारों का टूटना आज बड़ी समस्या बन गया है लेकिन इसके दूसरे पहलू भी हैं । हिन्दू समाज में परिवार खत्म हो रहे हैं जबकि मुस्लिम समाज इस मामले में बहुत बेहतर स्थिति में है । इस पर भी विचार करने की जरूरत है कि दोनों समुदायों में क्या अलग है जिसके कारण एक समुदाय परिवारों के विघटन से बचा हुआ है ।

    मेरा मानना है कि इसकी बड़ी वजह यह हो सकती है कि हिन्दू समाज में पैसे को इतना ज्यादा महत्व दिया जाता है कि परिवार कहीं पीछे छूट जाता है । मुस्लिम समाज की सोच में इतना बड़ा अंतर नहीं आया है जितना बड़ा अंतर हिन्दू समाज की सोच में आ गया है । इसकी  बड़ी वजह यह भी हो सकती है कि हिन्दू समाज के युवा नौकरी करना चाहते हैं फिर चाहे वो सरकारी हो या प्राइवेट लेकिन मुस्लिम समाज के युवा कुशलता प्राप्त करके अपना काम करने को प्राथमिकता देते हैं । जहां नौकरियों के कारण हिन्दू समाज के युवा बड़े शहरों की ओर जा रहे हैं तो मुस्लिम समाज के युवा अपने ही शहरों में काम कर रहे हैं ।

     इसके अलावा कई और वजह हैं जिनके कारण मुस्लिम समाज की पारिवारिक संस्था अभी भी मजबूत बनी हुई है लेकिन हिन्दू समाज की कमजोर पड़ गई है । परिवारों के टूटने के लिए ज्यादातर बच्चों को दोष दिया जाता है लेकिन यह सच नहीं है । परिवारों की टूटन के पीछे ज्यादातर माता-पिता ही जिम्मेदार हैं । इसके लिए बदलते जमाने को दोष दिया जाता है लेकिन जमाने के साथ न बदलने वाले क्या दोषी नहीं है ।  21वीं सदी की शुरूआत के बाद इतनी तेजी से सब कुछ बदला है कि उसके साथ तारतम्य बिठाना पिछली पीढ़ी के लिए मुश्किल हो गया है । सवाल यह है कि क्या सिर्फ युवा पीढ़ी में ही बदलाव आया है और पिछली पीढ़ी यथावत है । 

                     जीवन का बहुत बड़ा सच यह है कि हमारे अच्छे दिनों में ही बुरे दिनों की आहट छुपी रहती है लेकिन तब हम इतने मस्त होते हैं कि उस आहट को सुन नहीं पाते । जवानी में की गई गलतियों की सजा बुढ़ापे में भुगतनी पड़ती है । अगर बच्चे बुजुर्गों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते हैं तो इसके लिए काफी हद तक हम जिम्मेदार हैं क्योंकि बच्चों को संस्कार देना आज हमारी प्राथमिकता से निकल चुका है ।   पैसा कमाने और  घर चलाने में हम इस तरह से व्यस्त हो जाते हैं कि बच्चों की तरफ ध्यान देना ही बंद कर देते हैं । आज हमारे समाज के लिए जनरेशन गैप  बड़ी समस्या बन चुका है लेकिन इसकी वजह दो पीढ़ियों की सोच का अंतर नहीं बल्कि संवादहीनता है । हम इस कदर व्यस्त हो गए हैं कि बच्चों की भौतिक जरूरतों को पूरा  करके अपनी जिम्मेदारी से छुटकारा पा लेना चाहते हैं ।  ऐसे में अगर हमारे बच्चे हमें अपना एटीएम समझने लगे हैं तो हैरानी नहीं होनी चाहिए ।

    संवादहीनता के कारण हम बच्चों की सोच को समझ नहीं पाते हैं, जब उन्हें हमारी जरूरत होती है तो हम उनके साथ नहीं होते हैं ।  कई शहरों में बच्चियों के साथ संगठित यौन शोषण की ऐसी घटनाएं हुई हैं जिसमें पीड़िताओं की संख्या दर्जनों से सैकड़ों में थी । कितनी हैरानी की बात है कि बच्चियां घुट-घुटकर जीवन बिता रही थी लेकिन माँ-बाप को पता तक नहीं था । ऐसे ही पढ़ाई के बोझ  से कितने बच्चों ने आत्महत्या कर ली लेकिन माँ-बाप को अहसास तक नहीं हुआ । परिवारों के बीच संवादहीनता ही  वो वजह है जिसके कारण माता-पिता समय पर अपने बच्चों की तकलीफ को समझ नहीं पाते हैं ।   यह सब बताने का तात्पर्य यह है कि हम अपने बच्चों की तरफ ध्यान नहीं दे रहे हैं जिसके कारण परिवार टूट रहे हैं । अगर बच्चे शादी के बाद अलग घर बसा रहे हैं तो इसके लिए एक पक्ष जिम्मेदार नहीं है । एक ही  घर में कई चूल्हे जलने लगे हैं इसलिए कहा जा सकता है कि एक मकान में कई घर पैदा होने लगे हैं । 

                   बुजुर्गों की बड़ी समस्या यह है कि वो हमेशा इस कोशिश में रहते हैं कि जीवन कैसा होना चाहिए, इसलिए वो वर्तमान हालातों से समझौता नहीं कर पाते । सब कुछ मनमर्जी का करने के चक्कर में अपनी और अपने बच्चों की जिंदगी बर्बाद कर देते हैं। जहां बच्चे वर्तमान को अच्छी तरह समझतें हैं, वहीं बुजुर्गों ने जीवन के बड़े उतार-चढ़ाव देखे होते हैं इसलिए वो बच्चों को अपने तरीके चलाना चाहते हैं।  बड़ी मेहनत और पूरे जीवन की जमापूंजी लगाकर बनाये गए घर भी बुजुर्गों की बड़ी समस्या है । बुजुर्गों की कोशिश होती है कि उनके घर में उनके अनुसार ही सब कुछ होना चाहिए । माता-पिता की यह सोच बहुत खतरनाक है कि मेरा घर मेरे हिसाब से चलेगा । वो भूल जाते हैं कि बेशक उन्होंने घर बनाया है लेकिन इससे वो सबको नियंत्रित करने का अधिकार नहीं हासिल कर लेते ।  प्यार, ममता और मोह में बड़ा सूक्ष्म अंतर होता है इसलिए हमारी भावना क्या है, हम पहचान नहीं पाते ।  प्यार स्वतंत्र करता है जबकि मोह बांधता है । बाप के प्यार और मोह में तो फिर भी यह अंतर पहचाना जा सकता है लेकिन माँ की ममता और मोह में तो इतना बारीक अंतर है कि उसे पहचानना बहुत मुश्किल है । माता-पिता को लगता है कि वो अपने बच्चों के लिए सबसे बढ़िया सोचते हैं इसलिए वो बच्चों पर अपनी मर्जी थोपते हैं । विशेष तौर पर करियर और विवाह के मामले में माता-पिता बच्चों पर अपनी मर्जी चलाना चाहते हैं । बच्चों को उनकी मर्जी की शादी से रोकने के लिए उन्हें इमोशनल ब्लैकमेल किया जाता है। समाज में अपनी इज्ज़त का हवाला देकर जाति-धर्म के बंधनों से बाहर निकलने से रोका जाता है। विशेष रूप से माँ ऐसे मामलों में मरने की धमकी देकर बच्चों को मजबूर करती हैं। एक रिश्ते से जबरदस्ती निकाल कर दूसरे रिश्ते में जबरदस्ती बांधना कई बार परिवारों को बर्बाद कर देता है। 

                   अपनी औकात से ज्यादा उनकी शिक्षा पर खर्च करना, बाद में इसके लिए बच्चों को ताने देना आम बात है ।  सवाल यह है कि क्या बच्चे ने ऐसा करने के लिए कहा था। माँ-बाप का कहना होता है कि हमने अपने बच्चे के बेहतर भविष्य के लिए ऐसा किया था जबकि सच्चाई यह है कि समाज में अपनी गर्दन ऊंची रखने के चक्कर में ज्यादातर माँ-बाप ऐसा करते हैं । बच्चों को अपनी शर्तों पर जीने के लिए मजबूर करते हैं । उन्हें बार-बार अहसास दिलाते हैं कि हम तुम्हें पालपोस,पढ़ा-लिखा कर तुम पर अहसान कर रहे हैं जबकि सच यह है कि बच्चे पैदा करना और उन्हें पालना एक प्राकृतिक जिम्मेदारी है। इसमें माता-पिता का एक स्वार्थ भी छिपा होता है। अगर बच्चे बोझ होते तो बिना बच्चे वाले बहुत खुश होते, क्या कारण है कि जब तक बच्चे न हो, लोग परेशान रहते हैं । हम आज्ञाकारी बच्चे चाहते हैं जबकि सच यह है कि ऐसे बच्चे बहुत कम कामयाब होते हैं। जो अपने फैसले नहीं ले पाते, उनके लिए आगे बढ़ना मुश्किल होता है । 

     दूसरों से तुलना करना गलत है लेकिन किसी वजह से असफल और बेरोजगार बच्चों के साथ बार-बार ऐसा किया जाता है। बच्चों का सबके सामने अपमान करना और दूसरों से भी करवाना, उन्हें छोटा महसूस करवाना है । कई बार रंग, कद-काठी को लेकर भी उन्हें छोटा महसूस कराया जाता है, उस पर यह जताया जाता है  कि हम तुम्हारे भले के लिए ऐसा कर रहे हैं ।  हमें याद रखना चाहिए कि एक उम्र के बाद बच्चों को माँ-बाप की जरूरत नहीं होती है लेकिन माँ-बाप को बच्चों की जरूरत होती है। आजकल बुजुर्गों का अकेलापन बड़ी समस्या बनता जा रहा है लेकिन इसके लिए सिर्फ बच्चे जिम्मेदार नहीं हैं। नौकरी और रोजगार के लिए बच्चों को अपना शहर और देश छोड़ना पड़ रहा है लेकिन कई बार स्वतंत्र रूप से जीने के लिए भी बच्चे ऐसा कर रहे हैं। बुजुर्गों के अकेलेपन के लिए कोई भी जिम्मेदार हो लेकिन कीमत तो उन्हें ही चुकानी पड़ती है।

    अगर हम चाहते हैं कि परिवार टूटने से बचे और बुजुर्गों के अकेलेपन की समस्या पर काबू पाया जाए तो दो पीढ़ियों के बीच संवाद बढ़ाने के उपाय ढूंढने होंगे । यह दुनिया का बड़ा सच है कि बातचीत से रिश्ते बनते हैं ।  अगर हम अपने बच्चों से प्यार करते हैं तो वो भी हमें उतना ही प्यार करते हैं । सवाल यह है कि इसके बावजूद परिवार टूट रहे हैं । नई पीढ़ी को गैर-जिम्मेदार बताकर हम समस्या से दूर नहीं भाग सकते क्योंकि इससे समस्या खत्म होने वाली नहीं है । जब हम अपने बुजुर्गों से गलत व्यवहार कर रहे होते हैं तो भविष्य में अपने साथ ऐसा होने की जमीन तैयार कर रहे होते हैं क्योंकि बच्चे सुनकर नहीं देखकर समझते हैं । बचपन के दिए गए संस्कार जीवन भर चलते हैं। 

    राजेश कुमार पासी

    नेपाल में राजनीतिक भूचाल: वैश्विक शक्तियों की बढ़ी दिलचस्पी

    डॉ ब्रजेश कुमार मिश्र

    दक्षिण एशिया विगत दो दशकों से आग्नेय क्षेत्र बना हुआ है। यह भारतीय उपमहाद्वीप के लिए अत्यन्त घातक है। पहले पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश और अब नेपाल में जो स्थिति बनी है, वह इस खित्ते के लिए अत्यन्त घातक है। दबी जुबान से ही सही विपक्ष भारत में भी ऐसा ही होगा, भविष्यवाणी कर रहा है। बहरहाल भारत में ऐसा कुछ नही होने वाला, इसके पक्ष में सैकड़ो दलीले दी जा सकती हैं। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के गलियारों में विशेष रूप से दक्षिण एशिया की भू-राजनीति को प्रभावित करने वाली घटना जो नेपाल में हुई है, को लेकर जबरदस्त बहस शुरू हो गई है। नेपाल की स्थिति के लिए वस्तुतः जिम्मेदार कौन हैऔर ऐसी स्थिति मेंभारतीय रणनीति क्या होगी? ये यक्ष प्रश्न हैं और इनका निदान क्या हो सकता है, यह विश्लेषण का विषय है।

    25 अगस्त को नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से विदेशी सोशल मीडिया प्लेटफार्मों की जवाबदेही तय करने को कहा। इसके बाद 28 अगस्त को सरकार ने सभी प्लेटफार्मों को 3 सितम्बर तक पंजीकरण कराने का आदेश दिया। 28 में से केवल 2 ने इसका पालन किया जबकि 26 ने इनकार कर दिया। सरकार ने 4 सितम्बर को गैर-अनुपालन पर सोशल मीडिया सेवाएँ रोक दीं। यह कदम आम जनता के लिए डिजिटल अधिकार पर प्रहार जैसा साबित हुआ क्योंकि सोशल मीडिया अब दैनिक जीवन का हिस्सा बन चुका है। युवाओं, खासकर 14 से 28 वर्ष के “जेन ज़ी” वर्ग ने इस निर्णय के खिलाफ व्यापक आंदोलन छेड़ दिया। उन्होंने भ्रष्टाचार और प्रतिबंध दोनों के विरोध में नारों के साथ सड़कों पर उतरकर आवाज़ बुलंद की — “भ्रष्टाचार ख़त्म करो” और “सोशल मीडिया नहीं, भ्रष्टाचार पर प्रतिबंध लगाओ।”काठमांडू और अन्य शहरों में यह विरोध उग्र हो गया। प्रदर्शनकारियों ने कई ऐतिहासिक और आधुनिक इमारतों को आग लगा दी । स्थिति इतनी गंभीर हुई कि प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को इस्तीफा देना पड़ा। ग्लोबल डिजिटल इनसाइट्स की रिपोर्ट के अनुसार नेपाल की 55 प्रतिशत आबादी इंटरनेट का उपयोग करती है और इनमें से आधी सोशल मीडिया पर सक्रिय है। प्रतिबंध से लाखों उपयोगकर्ता प्रभावित हुए। 9 सितम्बर तक यह आंदोलन पूरे देश में फैल गया और पुलिस कार्रवाई में कम से कम 19 प्रदर्शनकारी मारे गए तथा दर्जनों घायल हो गए।

    नेपाल लंबे समय से भ्रष्टाचार और घोटालों से जूझ रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री माधव नेपाल पतंजलि योगपीठ भूमि अधिग्रहण विवाद में फंसे हैं जबकि केपी शर्मा ओली पर गिरिबंधु चाय बागान घोटाले के आरोप हैं। 2023 के फ़र्ज़ी भूटानी शरणार्थी प्रकरण ने स्थिति और बिगाड़ी, जिसमें दो पूर्व मंत्री और 12 वरिष्ठ नौकरशाह जेल भेजे गए। इसमें पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा की पत्नी आरज़ू राणा का नाम भी सामने आया। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के भ्रष्टाचार सूचकांक 2024 में नेपाल 180 देशों में 107वें स्थान पर रहा।कोविड-19 के बाद अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेत मिले थे और एशियाई विकास बैंक ने 2025 में 4% से अधिक वृद्धि का अनुमान जताया था परंतु राजनीतिक अस्थिरता और हिंसा ने विकास पर प्रश्नचिह्न लगा दिया।

     2021 की जनगणना के अनुसार 30 लाख नेपाली विदेशों में रहते हैं और हर वर्ष 2-3 लाख लोग रोज़गार हेतु पलायन करते हैं। मई-जून 2025 में प्रवासी नेपालियों ने 176 अरब नेपाली रुपये (लगभग 1.3 बिलियन डॉलर) भेजे, जो जीडीपी का 24% है। देश में उद्योग और निवेश की स्थिति कमजोर है। राजनीतिक हस्तक्षेप से शिक्षा प्रभावित है, जिससे छात्र विदेश पलायन कर रहे हैं। वहीं “नेपो किड्स” को ठेके और पद मिलने से जेन ज़ी वर्ग असंतुष्ट है। सरकार ने हिंसा को बाहरी हस्तक्षेप बताया, जबकि प्रदर्शनकारियों ने इसे जनाक्रोश का नतीजा कहा। काठमांडू के मेयर और राजशाही समर्थकों के जुड़ने से हालात और जटिल हो गए।

    नेपाल भू-राजनीति की दृष्टि से बेहद महत्त्वपूर्ण है। यह “जोन ऑफ स्ट्रैटेजिक कॉन्संट्रेशन” है अर्थात  एक ऐसा भौगोलिक क्षेत्र जहां दो या दो से अधिक शक्तिशाली देशों की रणनीतिक और भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा और हित केंद्रित होते हैं, जिसके कारण वे उस क्षेत्र पर अपना प्रभाव बढ़ाना चाहते हैं। नेपाल, जो चीन और भारत के बीच स्थित है, एक ऐसा ही क्षेत्र है, जिसे “बफर स्टेट ” के रूप में भी  देखा जाता है, और इन दोनों देशों के लिए बराबर रणनीतिक महत्त्व रखता है। भारत की दृष्टि से नेपाल को भारत के साथ होना चाहिए क्योंकि यदि वह तटस्थ रहता है तो वह भारत के हित से और भी खतरनाक है। कौटिल्य के मण्डल सिद्धांत के अनुसार मध्यम राज्य का झुकाव अपनी तरफ होना चाहिए।

    नेपाल की इसी भू-राजनीतिक स्थिति को दृष्टिगत रखते हुए वैश्विक शक्तियां भी वहाँ अपना हित तलाश करने की कोशिश कर रही हैं। अमेरिका इस कड़ी में सबसे पहले आता है क्योंकि आज ग्लोबल पॉलिटिक्स में अमेरिका को चीन काउंटर कर रहा है और  इस कारण नेपाल में अमेरिका की अभिरुचि बढ़ जाती है। हाल के वर्षों में नेपाल का झुकाव चीन की ओर बढ़ा है और भारत से दूरी बढ़ी है। अतः अमेरिका इंडोपेसिफिक स्ट्रेटजी में नेपाल को अपने साथ चाहता है। नेपाल एक साफ्ट स्टेट है। साफ्ट स्टेट वह राज्य होता है जो अपने कानून को ठीक से लागू करने की क्षमता न रखता हो, बुनियादी सुविधाओं के विकास को करने में अक्षम हो। अमेरिका नैशनल एंडोमेन्ट फॉर डेमोक्रेसी के जरिए नेपाल की सहायता करने का इच्छुक था। इसी क्रम में 2017 में उसने  मिलेनियम चैलेंज कार्पोरेशन के जरिए 500 मिलियन डॉलर ग्रांट देने का प्रस्ताव नेपाल के समक्ष रखा परन्तु तत्कालीन प्रधानमंत्री के पी ओली ने मना कर दिया। इसके पीछे कारण वस्तुतः मिलेनियम चैलेंज कार्पोरेशन का अनुच्छेद 7.1 था। इसके तहत इस ग्रांट को लेने के बाद यदि अमेरिका कोई प्रोजेक्ट वहाँ चलाता और यदि यह प्रोजेक्ट किसी भी स्तर पर नेपाल के घरेलू कानून के विरुद्ध होता तो यह समझौता नेपाली कानून से ऊपर होगा, साथ ही अमेरिकी अधिकारी नेपाली कानून के दायरे से बाहर होंगे। इस ग्रांट से नेपाल की तरक्की होगी और सॉफ्ट स्टेट का धब्बा भी हट जाएगा। के पी ओली के इस कदम से अमेरिका और नेपाल के बीच दरार बढ़ गयी।

    अन्ततः जुलाई 2021 में ओली सरकार के पतन के बाद देउबा सरकार ने इसको स्वीकार कर लिया। इसके बाद अमेरिका ने ग्रांट दे दी किन्तु समस्या खत्म नही हुई अमेरिका ने नेपाल को चीन के ‘बेल्ट एण्ड रोड इनीसीएटिव’ से नेपाल को अलग होने के लिए कहा लेकिन नेपाल तो अब तक पूरी तरह से चीनी चंगुल में फंस चुका है। अमेरिका अपने इंडोपेसिफिक स्ट्रेटजी को लेकर दृढ़ संकल्पित है और वह चाहता है कि चीन का वहाँ से प्रभाव कम हो। अतः इस बात की प्रबल संभावना है कि इसी के मद्देनज़र अमेरिका ने इस संघर्ष को हवा दी हो। चीन भी ऐसा कर सकता है क्योंकि ओली सरकार उसके लिए फायदे का सौदा थी। ऐसा लगता है कि पाकिस्तान का भी हाथ हो क्योंकि हाल के दिनों में पाकिस्तान का प्रभाव कम हुआ है । आई एस आई चाहती है कि नेपाल उसके लिए फिर से पनाहगाह बने।

    भारत का जहाँ तक प्रश्न है तो पड़ोस में जितनी समृद्धि होगी, उतना ही उसके हित में होगा। भारत नेपाल में स्थिर सरकार चाहता है। यह नेपाल और भारत दोनों के नजरिए से अत्यन्त जरूरी है। नेपाल यद्यपि एक लोकतान्त्रिक देश है किन्तु वहाँ अभी भी राजनीतिक संस्कृति विकसित नही हो सकी है। इसी कारण वहाँ लोकतंत्रीकरण की प्रवृत्ति विकसित नही हो सकी है। अब जब वहाँसुशीला कार्की के नेतृत्व में अंतरिम सरकार का गठन हो चुका है तो भारत चाहेगा कि यथा शीघ्र नेपाल में एक स्थिर सरकार बने जो भ्रष्टाचार , भाई भतीजावाद और विदेशी शक्तियों से पूरी तरह मुक्त हो। यह भारत , नेपाल के साथ ही दक्षिण एशिया के लिए अत्यन्त आवश्यक है।

    डॉ ब्रजेश कुमार मिश्र