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    कांग्रेस की दिशाहीनता एवं बढ़ता पलायन

    – ललित गर्ग-
    लोकसभा के चुनाव उग्र से उग्रतर होते जा रहे हैं, लोकतंत्र के महायज्ञ की 7 मई को आधी से ज्यादा आहुति पूरी होने वाली है, पहले चरण में 102 और दूसरे चरण में 88 सीटों पर मतदान हो चुका है। तीसरे चरण में 94 सीटों पर मतदान होने वाला है। इसके बाद 543 में से आधे से अधिक यानी 284 सीटों पर मतदान पूर्ण हो जाएगा। जैसे-जैसे चुनाव आगे बढ़ रहे हैं, कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ती जा रही है। भाजपा की ओर रुख करते नेताओं ने कांग्रेस की नींद उड़ा कर रख दी है। यह सिलसिला आगे भी जारी रहने वाला है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर आक्रामक, तीक्ष्ण एवं तीखे आरोप लगाने वाली कांग्रेस पार्टी में लगातार हो रही टूट एवं पार्टी छोड़ने के कांग्रेसी नेताओं के सिलसिले को रोक नहीं पा रही है। इस बड़े संकट से बाहर निकलने का रास्ता कांग्रेस को नहीं सूझ रहा है। कांग्रेस के लिए लोकसभा चुनाव के दौरान सबसे बड़ा झटका इंदौर में लगा, जहां से पार्टी के उम्मीदवार अक्षय कांति बम ने नामांकन वापसी के अंतिम दिन मैदान ही छोड़ दिया और वो भाजपा में शामिल हो गए। इससे पहले विपक्षी दलों का गठबंधन ‘इंडिया’ को खजुराहो में झटका लगा था, जहां आपसी समझौते के चलते यह सीट समाजवादी पार्टी को दी गई थी। समाजवादी पार्टी की उम्मीदवार मीरा दीपक यादव का पर्चा निरस्त हो गया। इस तरह राज्य की 29 लोकसभा सीटों में से दो- खजुराहो और इंदौर ऐसी है जहां से कांग्रेस मुकाबले में ही नहीं है। कांग्रेस प्रवक्ता राधिका खेड़ा एवं दिल्ली के कांग्रेसी नेता अरविन्द सिंह लवली ने ‘नाइंसाफी’ के कारण पार्टी से इस्तीफा दिया है। लवली तो अपने अन्य साथियों के साथ भाजपा में शामिल हो गये हैं। पुरी से कांग्रेस प्रत्याशी सुचारिता महंती ने यह कहते हुए टिकट लौटा दिया कि पार्टी चुनाव लड़ने के लिए धन नहीं दे रही है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि उनके क्षेत्र में ओडिशा विधानसभा चुनावों के लिए कमजोर उम्मीदवार उतारे गए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में राजनीतिक अपरिपक्वता, दिशाहीनता एवं निर्णय-क्षमता का अभाव है। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कांग्रेस कई राज्यों में बेमन से चुनाव लड़ रही है।
    आज के परिदृश्यों में कांग्रेस अनेकों विरोधाभासों एवं विसंगतियों से भरी है। चुनाव प्रचार हो या उम्मीदवारों का चयन, राजनीतिक वायदें हो या चुनावी मुद्दें हर तरफ कांग्रेस कई विरोधाभासों से घिरी है। उसकी सारी नीतियों मंे, सारे निर्णयों में, व्यवहार में, कथन में विरोधाभास स्पष्ट परिलक्षित है। यही कारण है कि उसकी राजनीति में सत्य खोजने से भी नहीं मिलता। उसका व्यवहार दोगला हो गया है। दोहरे मापदण्ड अपनाने से उसकी हर नीति, हर निर्णय समाधानों से ज्यादा समस्याएं पैदा कर रही हैं। यही कारण है कि कांग्रेस नेताओं के पार्टी छोड़ने या फिर चुनाव लड़ने से इन्कार करने का सिलसिला खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। यह निर्णय क्षमता का अभाव ही है या हार का डर कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने क्रमशः अमेठी और रायबरेली से चुनाव लड़ने का निर्णय लेने में बड़ी कोताही बनती है। अब राहुल ने अमेठी में स्मृति ईरानी का सामना करने में स्वयं को अक्षम पाया तो रायबरेली से नामांकन पत्र दाखिल कर दिया और प्रियंका एक बार फिर चुनाव लड़ने से दूर ठिठक गईं। राहुल गांधी का अमेठी के बजाय रायबरेली से चुनाव लड़ना भी कांग्रेस की दिशाहीनता का सूचक है। यह हास्यास्पद है कि गांधी परिवार के करीबी एवं चाटुकार कांग्रेस नेता राहुल के अमेठी से चुनाव न लड़ने के फैसले को यह कहकर बड़ी राजनीति जीत बता रहे हैं कि पार्टी ने स्मृति इरानी का महत्व कम कर दिया। क्या सच यह नहीं कि कांग्रेस ने अमेठी से स्मृति इरानी की जीत सुनिश्चित करने का काम किया है?

    राहुल गांधी का दो-दो सीटों से का चुनाव लड़ना भी यह दर्शाता है कि दोनों में से एक सीट पर तो वे जीत हासिल कर ही लेंगे। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 का सेक्शन 33 प्रत्याशियों को अधिकतम दो सीटों से चुनाव लड़ने की अनुमति भी देता है। देश में लोकतंत्र की जड़ें लगातार मजबूत हो रही हैं। ऐसे में नेताओं के एक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने को लेकर विसंगतियां भी सामने आ रही हैं। विमर्श इस बात पर हो रहा है कि जब एक व्यक्ति को एक वोट का अधिकार है तो प्रत्याशी को दो सीटों पर चुनाव लड़ने की अनुमति क्यों होनी चाहिए? नेता अपने राजनीतिक हितों के लिए एक साथ दो सीटों पर चुनाव लड़ते हैं और दोनों सीटों पर चुनाव जीतने की स्थिति में अपनी सुविधानुसार एक सीट से इस्तीफा दे देते हैं। कानूनी रूप से उनके लिए ऐसा करना जरूरी भी है। फिर उस सीट पर उपचुनाव होता है। इसमें न सिर्फ करदाताओं का पैसा खर्च होता है बल्कि उस क्षेत्र के मतदाता भी ठगा हुआ महसूस करते हैं। इस बात की पड़ताल जरूरी है कि दो सीटों से चुनाव लड़कर राहुल गांधी भारतीय लोकतंत्र को मजबूत कर रहे हैं या इस व्यवस्था से सिर्फ अपने राजनीतिक हित साध रहे हैं?
    भले ही राहुल गांधी चुनाव प्रचार के दौरान बेहद आक्रामक दिख रहे हों, लेकिन वह अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं में जोश नहीं भर पा रहे हैं। इसका एक कारण गठबंधन के नाम पर अपने पुराने मजबूत गढ़ों में भी अपनी राजनीतिक जमीन छोड़ना है। यह कांग्रेस ही लगातार कमजोर होती राजनीति ही है कि वह जीत की संभावना वाली सीटों को भी महागठबंधन के अन्य दलों को दे रही है। ऐसे ही निर्णयों के चलते कांग्रेसजनों के लिए भी यह समझना कठिन है कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी से समझौता करने से पार्टी को क्या हासिल होने वाला है? इस बार गांधी परिवार दिल्ली में उस आम आदमी पार्टी के प्रत्याशियों को बोट देगा, जिसने उसे रसातल में पहुंचाया। इस तरह के मामले केवल यही नहीं बताते कि कांग्रेस उपयुक्त प्रत्याशियों का चयन करने में नाकाम है, बल्कि यह भी इंगित करते हैं कि उसके पास अपनी खोई हुई जमीन वापस पाने और अपने कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार करने की कोई ठोस रणनीति नहीं है।
    कांग्रेस की नीति एवं नियत भी संदेह के घेरों में हैं। क्या कारण है कि पड़ोसी देश पाकिस्तान के नेता अब दुआ कर रहे हैं कि कांग्रेस का ‘शहजादा’ भारत का प्रधानमंत्री बने। दुश्मन राष्ट्र के नेता अगर किसी व्यक्ति या नेता के प्रधानमंत्री बनने की कामना करते हैं तो निश्चित ही उस देश का हित जुड़ा होता है। पड़ोसी देश भले ही राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहता हो लेकिन भारत की जनता अपने हितों की रक्षा करते हुए विवेकपूर्ण मतदान के लिये तत्पर है। भारत मजबूत प्रधानमंत्री वाला मजबूत देश चाहता है। नए भारत के ‘सर्जिकल और एयर स्ट्राइक’ ने उस पाकिस्तान को हिलाकर रख दिया था जिसे कांग्रेस शासन के दौरान भारत पर आतंकी हमलों का समर्थन करने के लिए जाना जाता था। कांग्रेस ने बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं को नजरअंदाज करते हुए मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति की है, उसी का परिणाम है कि जिसने 500 वर्षों तक पीढ़ियों के संघर्ष के बाद बने प्रभु श्रीराम मंदिर के उद्घाटन समारोह एवं मन्दिर से कांग्रेस दूरी बनाये रखी है। जम्मू और कश्मीर से अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के निर्णय का भी विरोध किया है, जबकि अब वहां आतंकवाद खत्म होकर शांति, अमन एवं विकास की गंगा प्रवहमान है। जनता ही नहीं, कांग्रेस के नेता भी कांग्रेस के शीर्ष नेतृृत्व की इन विसंगतियों एवं विडम्बनाओं को समझ रहे हैं और पार्टी से पलायन कर रहे हैं। मुगलों व अंग्रेजों की भाषा बोल रहे व हिंदू जनमानस व हिंदू संस्कृति के विरुद्ध जहर उगल रहे राहुल गांधी को पिछले दो लोकसभा चुनाव की तरह आगामी लोकसभा चुनाव में जनता क्या जबाव देती, यह भविष्य के गर्भ में हैं।

    स्वरोजगार से बदल रही है महिलाओं की आर्थिक स्थिति

    मोनिका
    लूणकरणसर, राजस्थान

    पहले मुझे हर चीज के लिए पति के सामने हाथ फैलाने पड़ते थे. छोटी से छोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए उनसे पैसे मांगने पड़ते थे. इससे मेरे आत्मसम्मान को ठेस पहुंचती थी. लेकिन मेरे पास ऐसा कोई माध्यम नहीं था जिससे मैं अपने पैरों पर खड़ी हो सकती और खुद का रोजगार कर पैसे कमा सकती. लेकिन आज मैं स्वरोज़गार के माध्यम से प्रति वर्ष 40 से 50 हजार रुपए अर्जित कर लेती हूं. इसकी वजह से आज मैं न केवल आत्मनिर्भर बन चुकी हूं बल्कि मेरे अंदर आत्मविश्वास भी बढ़ गया है.” यह कहना है गडसीसर गांव की 30 वर्षीय महिला पूजा का. यह गांव राजस्थान के बीकानेर जिला स्थित लूणकरणसर ब्लॉक से करीब 65 किमी की दूरी पर बसा है. पंचायत में दर्ज आंकड़ों के अनुसार इस गांव की आबादी लगभग 3900 है. यहां पुरुषों की साक्षरता दर 62.73 प्रतिशत महिलाओं में मात्र 38.8 प्रतिशत है. यहां पर सभी जातियों के लोग रहते है, परंतु सबसे अधिक राजपूत जाति की संख्या है.

    पूजा बताती हैं कि “दो साल पहले गांव की एक सामाजिक कार्यकर्ता हीरा शर्मा ने मुझे स्थानीय गैर सरकारी संस्था ‘उरमूल’ द्वारा प्रदान किये जा रहे स्वरोजगार के बारे में बताया. जहां महिलाएं कुरुसिया के माध्यम से उत्पाद तैयार कर आमदनी प्राप्त करती थीं. पहले मैं इससे जुड़ने से झिझक रही थी क्योंकि मुझे यह काम नहीं आता था. लेकिन संस्था द्वारा पहले मुझे इसकी ट्रेनिंग दी गई. जहां मुझे कुरुसिया के माध्यम से टोपी, जैकेट, दस्ताना, जुराब और मफलर इत्यादि बनाना सिखाया गया. संस्था में मेरे साथ साथ गांव की 30 अन्य महिलाओं को भी कुरुसिया के माध्यम से उत्पाद तैयार करने की ट्रेनिंग दी गई. इसके बाद संस्था की ओर से ही हमें सामान बनाने के ऑर्डर मिलने लगे और तैयार करने के बाद भुगतान किया जाने लगा है. अब मुझे पैसों के लिए किसी पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है.” वह पूरे आत्मविश्वास के साथ कहती है कि अब तो जरूरत होने पर पति मुझ से पैसे मांगते हैं.  इससे जुड़ने के बाद मुझे अपने अंदर की प्रतिभा का एहसास हुआ है. अब मुझे लगता है कि हम महिलाएं भी बहुत कुछ कर सकती हैं. घर बैठे काम करके हम भी पैसा कमा सकती हैं. पूजा कहती हैं कि संस्था से जुड़कर मैंने जाना कि महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए सरकार की ओर से बहुत सारी योजनाएं चलाई जा रही हैं. लेकिन जागरूकता के अभाव में हम इसका लाभ उठाने से वंचित रह जाती हैं.
    दरअसल वर्तमान समय में रोजगार एक प्रमुख मुद्दा बन चुका है. खासकर उन ग्रामीण महिलाओं के लिए जिनके पास शिक्षा और जागरूकता का अभाव है. जिस कारण वे घर की चारदीवारी में बंद रहने को मजबूर हैं. महिलाओं की इस समस्या को दूर करने के लिए उरमूल संस्था द्वारा जिस प्रकार उन्हें ट्रेंनिंग दी जा रही है, वह महिला सशक्तिकरण का एक अच्छा उदाहरण है. कुरुसिया के माध्यम से जुराब बुन रही गांव की एक महिला विद्या कहती है कि “जब से हम उरमूल संस्था के माध्यम से स्वरोजगार से जुड़े हैं हमें अब अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए किसी पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं रह गई है. अब मैं पति के साथ मिलकर घर में बराबर के पैसे खर्च करती हूं. पहले हम सिर्फ घर का ही काम करती थी और पशुओं की देखरेख करती थी. हमारे घर वाले भी हमें घर से बाहर जाने नहीं दिया करते थे. महिलाओं के प्रति समाज की सोच भी संकुचित थी. लेकिन जब से हम इस संस्था से जुड़े हैं, तब से हमें कोई घर से बाहर जाने से भी नहीं रोकता है.
    विद्या के बगल में बैठी कुरुसिया पर मफ़लर बुन रही एक अन्य महिला सरस्वती देवी उनकी बातों को आगे बढ़ाते हुए कहती हैं कि “मैंने संस्था को कुरुसिया से सामान बनाकर 25 से 30 हजार रुपए तक का काम करके दिया है. इससे मुझे बहुत लाभ हुआ है. अब न केवल मैं अपने अंदर की प्रतिभा को पहचान गई हूं बल्कि इसकी वजह से अब मैं आर्थिक रूप से सशक्त भी हो चुकी हूं. मैं पूरा दिन इस काम में व्यस्त रहती हूं. अब मैं अपने बच्चों की पढ़ाई का खर्च भी अब खुद उठाने लगी हूं.” गांव की एक अन्य महिला लक्ष्मी का कहना है कि “क्रोशिया के काम से पैसा कमा कर मैंने एक सिलाई मशीन भी खरीदी है. अब मैं बुनने के साथ साथ कपड़े सिलने का काम भी करती हूं. जिससे मेरी आमदनी और बढ़ी है.”

    इस संबंध में उरमूल की सदस्या और सामाजिक कार्यकर्ता हीरा शर्मा का कहना है कि “जब हमने घर पर रहने वाली महिलाओं को देखा तो उन्हें रोजगार से जोड़ने की कोशिश की. जिसमें संस्था के माध्यम से उन्हें कुरुसिया से ऊनी कपड़े तैयार करने की ट्रेनिंग दी गई. इसके लिए गांव की 30 महिलाओं का एक ग्रुप बनाया गया. जिसमें से 15 महिलाओं ने बहुत अच्छे से काम को सीखा और फिर रोजगार की मांग की. उन महिलाओं के लिए हमने देसी ऊन खरीदी और उन्हें प्रोडक्ट बनाने के लिए दिया. जिससे उनका आत्मविश्वास और बढ़ा. यह रोजगार मिलने से महिलाओं के जीवन में सकारात्मक प्रभाव पड़ा. जिन महिलाओं को घर वाले घर से बाहर नहीं निकलने देते थे, वह आज सेंटर पर आकर काम करती हैं.” वह बताती हैं कि यहां पर कई ऐसी महिलाएं हैं जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि अच्छी नहीं है. उनके पति शराब पीकर उनके साथ शारीरिक हिंसा करते थे और घर में खर्च के लिए पैसा तक नहीं देते थे. आज वे महिलाएं अपना पैसा कमा रही है. अपने बच्चों को पाल रही हैं और उनकी स्कूल की फीस भी जमा कर रही हैं.

    संस्था और महिलाओं के बीच काम के बारे में हीरा बताती हैं कि “अधिकतर महिलाएं घर का काम पूरा कर सेंटर पहुंच जाती हैं, जहां सभी मिलकर समय पर ऑर्डर को पूरा करती हैं. जरूरत पड़ने पर कुछ महिलाएं ऑर्डर को घर ले जाकर भी पूरा करती हैं. ऑर्डर पूरा करने के लिए सामान खरीदने से लेकर उससे होने वाली आमदनी आदि की जानकारियां सभी महिलाओं के साथ समान रूप से साझा की जाती है. उत्पाद बेचने से होने वाली आमदनी के कुछ पैसों से जहां अगले प्रोडक्ट के लिए समान खरीदे जाते हैं वहीं बचे हुए पैसों को काम के अनुसार महिलाओं में बांट दिए जाते हैं. यह सब पूरी प्लानिंग के साथ किया जाता है. हीरा बताती हैं कि “महिलाओं द्वारा तैयार प्रोडक्ट को दिल्ली और गुजरात में आयोजित विभिन्न प्रदर्शनियों में बेचा जाता है. जहां लोग न केवल उनके काम को सराहते हैं बल्कि बढ़चढ़ कर खरीदते भी हैं. सबसे पहले दिल्ली स्थित त्रिवेणी कला संगम में उनकी प्रदर्शनी लगाई गई थी जहां उनके सामान को बेचकर 96 हजार का लाभ हुआ था.

    पिछले वर्ष संसद में आर्थिक सर्वेक्षण प्रस्तुत करते समय यह बताया गया कि 2017-18 की तुलना में 2020-21 में स्वरोजगार करने वालों ही हिस्सेदारी बढ़ी है. विशेषकर ग्रामीण इलाकों में महिलाओं के लिए रोजगार में इजाफा हो रहा है. 2018-19 में यह दर 19.7 प्रतिशत थी, जो 2020-21 में बढ़कर 27.7 प्रतिशत हो गई है. 1.2 करोड़ स्वयं सहायता समूहों में 88 प्रतिशत महिलाएं शामिल हैं, जिनकी पहुंच 14.2 करोड़ परिवारों तक है. यह एक सकारात्मक संकेत है. स्वरोजगार से जुड़कर महिलाएं न केवल आत्मनिर्भर बनेंगी बल्कि उनका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा. जो विकसित भारत के ख्वाब को पूरा करने के लिए एक जरूरी आयाम है.

    आर्थिक क्षेत्र में नित नए विश्व रिकार्ड बनाता भारत

    दिनांक 1 मई 2024 को अप्रेल 2024 माह में वस्तु एवं सेवा कर के संग्रहण से सम्बंधित जानकारी जारी की गई है। हम सभी के लिए यह हर्ष का विषय है कि माह अप्रेल 2024 के दौरान वस्तु एवं सेवा कर का संग्रहण पिछले सारे रिकार्ड तोड़ते हुए 2.10 लाख करोड़ रुपए के रिकार्ड स्तर पर पहुंच गया है, जो निश्चित ही, भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती को दर्शा रहा है। वित्तीय वर्ष 2022 में वस्तु एवं सेवा कर का औसत कुल मासिक संग्रहण 1.20 लाख करोड़ रुपए रहा था, जो वित्तीय वर्ष 2023 में बढ़कर 1.50 लाख करोड़ रुपए हो गया एवं वित्तीय वर्ष 2024 में 1.70 लाख करोड़ रुपए के स्तर को पार कर गया। अब तो अप्रेल 2024 में 2.10 लाख करोड़ रुपए के स्तर से भी आगे निकल गया है। इससे यह आभास हो रहा है कि देश के नागरिकों में आर्थिक नियमों के अनुपालन के प्रति रुचि बढ़ी है, देश में अर्थव्यवस्था का तेजी से औपचारीकरण हो रहा है एवं भारत में आर्थिक विकास की दर तेज गति से आगे बढ़ रही है। कुल मिलाकर अब यह कहा जा सकता है कि भारत आगे आने वाले 2/3 वर्षों में 5 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की ओर मजबूती से आगे बढ़ रहा है। भारत में वर्ष 2014 के पूर्व एक ऐसा समय था जब केंद्रीय नेतृत्व में नीतिगत फैसले लेने में भारी हिचकिचाहट रहती थी और भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की हिचकोले खाने वाली 5 अर्थव्यवस्थाओं में शामिल थी। परंतु, केवल 10 वर्ष पश्चात केंद्र में मजबूत नेतृत्व एवं मजबूत लोकतंत्र के चलते आज वर्ष 2024 में भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई है और विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर तेजी से आगे बढ़ रही है।

    आज भारत आर्थिक क्षेत्र में वैश्विक मंच पर नित नए रिकार्ड बना रहा है। वैश्विक स्तर पर विदेशी प्रेषण के मामले में आज भारत प्रेषण प्राप्तकर्ता के रूप में प्रथम स्थान पर पहुंच गया है। भारत में आज सबसे बड़ा सिंक्रोनाईजड बिजली ग्रिड है। बैकिंग क्षेत्र में वास्तविक समय लेनदेन की सबसे बड़ी संख्या आज भारत में ही सम्पन्न हो रही है। भारत आज विश्व में दूसरा सबसे बड़ा स्टील उत्पादक देश है एवं भारत आज पूरे विश्व में मोबाइल फोन का निर्माण करने वाला दूसरा सबसे बड़ा निर्माता बन गया है। भारत में आज विश्व का दूसरा सबसे बड़ा सड़क नेट्वर्क है। मात्रा की दृष्टि से भारत में आज विश्व का तीसरा सबसे बड़ा फार्मासीयूटिकल उद्योग है। भारत में आज पूरे विश्व में तीसरा सबसे बड़ा मेट्रो नेट्वर्क है। भारत ने स्टार्टअप को विकसित करने के उद्देश्य से विश्व का तीसरा सबसे बड़ा पारिस्थितिकी तंत्र खड़ा कर लिया है। भारत का स्टॉक बाजार, पूंजीकरण के मामले में, विश्व में चौथे स्थान पर आ गया है। भारत में आज विश्व का चौथा सबसे बड़ा रेल नेट्वर्क है। विश्व में पैटेंट हेतु आवेदन किए जाने वाले देशों में भारत आज छठे स्थान पर आ गया है। आर्थिक क्षेत्र में भारत को यह सभी उपलब्धियां पिछले 10 वर्षों के दौरान प्राप्त हुई हैं। 

    पिछले केवल 10 वर्षों के दौरान शेयर बाजार में निवेशकों को अपार सफलता हासिल हुई है और सेन्सेक्स ने 200 प्रतिशत की रिकार्ड वृद्धि दर्ज की है, इसी प्रकार निफ्टी भी इसी अवधि में 206 प्रतिशत की रिकार्ड वृद्धि दर्ज करने में सफल रहा है। यह स्थानीय एवं विदेशी निवेशकों का भारतीय अर्थव्यवस्था पर अपना विश्वास जता रहा है। भारत में शेयर बाजार में व्यवहार करने के उद्देश्य से खोले जाने वाले डीमेट खातों की संख्या वर्ष 2014 में 2.2 करोड़ थी जो वर्ष 2024 में बढ़कर 15.13 करोड़ हो गई है अर्थात इन 10 वर्षों में 7 गुणा से अधिक की वृद्धि दर अर्जित की गई है। देश का प्रत्येक उद्यमी/उपक्रमी/व्यवसायी बहुत उत्साह में है कि देश में व्यापार करने हेतु वातावरण में बहुत सुधार हुआ है एवं ईज आफ डूइंग बिजनेस में काफी सुधार हुआ है। आज भारत ही नहीं बल्कि भारतीय कम्पनियों द्वारा विदेश में भी पूंजी उगाहना बहुत आसान हो गया है। अतः एक प्रकार से उद्यमियों के लिए पूंजी की समस्या तो नहीं के बराबर रह गई है। 

    भारतीय नागरिकों में आज स्व का भाव जगाने में भी कामयाबी मिली है, जिसके चलते स्वदेश में निर्मित वस्तुओं का उपयोग बढ़ रहा है एवं अन्य देशों से विभिन्न उत्पादों के आयात कम हो रहे हैं। इसके चलते भारत के विदेशी व्यापार घाटे में सुधार दृष्टिगोचर है। आज भारत से विभिन्न उत्पादों के निर्यात में मामूली वृद्धि दर्ज हो रही है तो कई उत्पादों के आयात में कमी दिखाई देने लगी है। इसे भारतीय नागरिकों के आत्म निर्भर भारत की ओर बढ़ते कदम के रूप में देखा जा सकता है। फरवरी 2024 माह में भारत का व्यापारिक निर्यात 11.9 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करते हुए 4140 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया, जो पिछले 20 महीनों में उच्चतम स्तर पर है। इसके अतिरिक्त, सेवा निर्यात 3210 करोड़ अमेरिकी डॉलर के रिकार्ड उच्च स्तर पर पहुंच गया है। फरवरी 2024 माह में माल एवं सेवाओं को मिलाकर कुल निर्यात 7355 करोड़ अमेरिकी डॉलर का रहा है, जो फरवर 2023 की तुलना में 14.2 प्रतिशत अधिक है। इसी कारण से, भारत का विदेशी मुद्रा भंडार भी आज 64,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर को पार कर गया है।   

    आज भारतीय नागरिकों ने सनातन संस्कृति का अनुपालन करते हुए भारत को विकसित एवं मजबूत बनाने के लिए अपने कदम आगे बढ़ा लिए हैं। आज भारत में प्रत्येक नागरिक का औसत जीवन वर्ष 2022 के 62.7 वर्ष से बढ़कर 67.7 वर्ष हो गया है। यह भारत में लगातार हो रही स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के चलते ही सम्भव हो सका है। संयुक्त राष्ट्र के एक प्रतिवेदन के अनुसार भारत में प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय में पिछले 12 महीनों के दौरान 6.3 प्रतिशत की वृद्ध दर्ज हुई है। इसी प्रकार, एक सर्वे के अनुसार, आज भारत में 36 प्रतिशत कम्पनियां आगामी 3 माह में नई भर्तियां करने पर गम्भीरता से विचार कर रही हैं, इससे भारत में रोजगार के लाखों नए अवसर निर्मित होते दिखाई दे रहे हैं। 

    गरीब वर्ग को भी केंद्र सरकार की विभिन्न योजनाओं का लाभ पहुंचाये जाने के भरसक प्रयास किए जा रहे हैं। जल जीवन मिशन ने पूरे भारत में 75 प्रतिशत से अधिक घरों में नल के पानी का कनेक्शन प्रदान करके एक बढ़ा मील का पत्थर हासिल कर लिया है। लगभग 4 वर्षों के भीतर मिशन ने 2019 में ग्रामीण नल कनेक्शन कवरेज को 3.23 करोड़ घरों से बढ़ाकर 14.50 करोड़ से अधिक घरों तक पहुंचा दिया गया है। इसी प्रकार, पीएम आवास योजना के अंतर्गत, ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में 4 करोड़ से अधिक पक्के मकान बनाए गए हैं एवं सौभाग्य योजना के अंतर्गत देश भर में 2.8 करोड़ घरों का विद्युतीकरण कर लिया गया है। विश्व भर के सबसे बड़े सरकारी वित्तपोषित स्वास्थ्य सेवा कार्यक्रम – प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना – के अंतर्गत 55 करोड़ लाभार्थियों को माध्यमिक एवं तृतीयक देखभाल एवं अस्पताल में भर्ती के लिए प्रति परिवार 5 लाख रुपए का बीमा कवर प्रदान किया जा रहा है। साथ ही, पीएम गरीब कल्याण योजना के माध्यम से मुफ्त अनाज के मासिक वितरण से 80 करोड़ से अधिक परिवारों को लाभ प्राप्त हो रहा है। पीएम उज्जवल योजना के अंतर्गत 10 करोड़ से अधिक महिलाओं को मुफ्त गैस कनेक्शन प्रदान किये गए हैं। इन महिलाओं के जीवन में इससे क्रांतिकारी परिवर्तन आया है क्योंकि ये महिलाएं इसके पूर्व लकड़ी जलाकर अपने घरों में भोजन सामग्री का निर्माण कर पाती थीं और अपनी आंखों को खराब होते हुए देखती थीं। स्वच्छ भारत मिशन के अंतर्गत भी 12 करोड़ से अधिक शौचालयों का निर्माण कर महिलाओं की सुरक्षा एवं गरिमा को कायम रखा जा सका है। जन धन खाता योजना के अंतर्गत 52 करोड़ से अधिक खाते खोलकर नागरिकों को औपचारिक बैंकिंग प्रणाली में लाया गया है। इससे गरीब वर्ग के नागरिकों के लिए वित्तीय समावेशन को बढ़ावा मिला है। पूरे भारत में 11,000 से अधिक जनऔषधि केंद्र स्थापित किए गए हैं, जो 50-90 प्रतिशत रियायती दरों पर आवश्यक दवाएं प्रदान कर रहे हैं।      

    अंत में यह कहा जा सकता है कि भारत आर्थिक क्षेत्र में आज पूरे विश्व में एक चमकते सितारे के रूप में दिखाई दे रहा है एवं अपनी विकास दर को 10 प्रतिशत के ऊपर ले जाने के भरसक प्रयास कर रहा है। इससे निश्चित ही भारत शीघ्र ही पहिले विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा एवं इसके बाद वर्ष 2027 तक भारत एक विकसित राष्ट्र भी बन जाएगा। 

    प्रहलाद सबनानी 

    हिंदू राष्ट्रनीति व हिंदवी स्वराज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज

    शिवाजी का चरित्र

    शिवाजी के भीतर भारतीय संस्कृति के महान संस्कार कूट-कूट कर भरे थे । वह सदैव अपने माता – पिता और गुरु के प्रति श्रद्धालु और सेवाभावी बने रहे । उन्होंने कभी भी अपनी माता की किसी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया और पिता के विरुद्ध पर्याप्त विपरीत परिस्थितियों के होने के उपरांत भी कभी विद्रोही स्वभाव का परिचय नहीं दिया । वह उनके प्रति सदैव एक कृतज्ञ पुत्र की भांति ही उपस्थित हुए । शिवाजी महाराज को अपने पिता से स्वराज की शिक्षा मिली। जब बीजापुर के सुल्तान ने शाहजी राजे को बन्दी बना लिया तो एक आदर्श पुत्र की भांति उन्होंने बीजापुर के शाह से सन्धि कर शाहजी राजे को मुक्त करा लिया। इससे उनके चरित्र की उदारता का बोध हमें होता है और हमें पता चलता है कि वह हृदय से कृतज्ञ रहने वाले महान शासक थे। उस समय की राजनीति में पिता की हत्या कराकर स्वयं को शासक घोषित करना एक साधारण सी बात थी । यदि शिवाजी चारित्रिक रूप से महान नहीं होते तो वह अपने पिता की हत्या तक भी करा सकते थे , परंतु उन्होंने ऐसा कोई विकल्प नहीं चुना । शाहजी राजे के निधन के उपरांत ही उन्होंने अपना राज्याभिषेक करवाया । यद्यपि वह उस समय तक अपने पिता से स्वतंत्र होकर एक बड़े साम्राज्य के अधिपति हो गये थे। कहने का अभिप्राय है कि उनकी अधिपति होने की यह स्थिति उनके भीतर अहंकार का भाव उत्पन्न कर सकती थी , परंतु शिवाजी सत्ता को पाकर भी मद में चूर नहीं हुए । उनके नेतृत्व को उस समय सब लोग स्वीकार करते थे । यही कारण है कि उनके शासनकाल में कोई आन्तरिक विद्रोह जैसी प्रमुख घटना नहीं हुई थी। यह भी एक विचारणीय तथ्य है कि जिस समय शिवाजी शासन कर रहे थे , उस समय इस प्रकार की स्वाभाविक स्वामीभक्ति सचमुच हर किसी शासक को उपलब्ध नहीं थी ।
    शिवाजी शत्रु के प्रति दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करने की नीति में विश्वास रखते थे ,अर्थात जैसे के साथ तैसा करना वह उचित समझते थे । यही उस समय की राजनीति का तकाजा भी था। तुर्की ब तुर्की प्रत्युत्तर देना राजनीति का धर्म होता है । हमने ‘सद्गुण विकृति ‘ के कारण कई बार अपनी उदारता का परिचय देते हुए शत्रु पर अधिक विश्वास किया और अंत में उससे हानि ही उठाई । परंतु शिवाजी ऐसा करने को कभी भी तत्पर नहीं होते थे । शिवाजी शत्रु को परास्त करने की नीति में विश्वास रखते थे ।
    शिवाजी महाराज ने अपने राज्याभिषेक (6 जून 1674) के अवसर पर हिंदू पद पातशाही की घोषणा की थी। वह देश में हिंदू राजनीति को स्थापित कर देश से विदेशियों को खदेड़ देना चाहते थे। उनकी राजनीति का मूल आधार नीति, बुद्घि तथा मर्यादा-ये तीन बिंदु थे। रामायण, महाभारत, तथा शुक्रनीतिसार का उन्होंने अच्छा अध्ययन किया था। इसलिए अपने राज्य को उन्होंने इन्हीं तीनों महान ग्रंथों में उल्लेखित राजधर्म के आधार पर स्थापित करने का पुरूषार्थ किया। वह राष्ट्रनीति में मानवतावाद को ही राष्ट्रधर्म स्वीकार करते थे। शुक्र नीति में तथा रामायण व महाभारत में राजा के लिए 8 मंत्रियों की मंत्रिपरिषद का उल्लेख आता है। इसलिए शिवाजी महाराज ने भी अपने राज्य में 8 मंत्रियों का मंत्रिमंडल गठित किया था। शेजवलकर का मानना है कि ये अष्टप्रधान की कल्पना शिवाजी ने ‘शुक्रनीतिसार’ से ही ली थी ।

    इतिहासकारों की मक्कारी

    अंग्रेज व मुस्लिम इतिहासकारों ने शिवाजी को औरंगजेब की नजरों से देखते हुए ‘पहाड़ी चूहा’ या एक लुटेरा सिद्घ करने का प्रयास किया है। अत्यंत दु:ख की बात ये रही है कि इन्हीं इतिहासकारों की नकल करते हुए कम्युनिस्ट और कांग्रेसी इतिहासकारों ने भी शिवाजी के साथ न्याय नही किया। छल, छदम के द्वारा कलम व ईमान बेच देने वाले इतिहासकारों ने शिवाजी के द्वारा हिंदू राष्ट्रनीति के पुनरूत्थान के लिए जो कुछ महान कार्य किया गया उसे मराठा शक्ति का पुनरूत्थान कहा ना कि हिंदू शक्ति का पुनरूत्थान।
    लाला लाजपत राय अपनी पुस्तक “छत्रपति शिवाजी” के पृष्ठ संख्या 117 पर लिखते हैं “शिवाजी अपने राज्य प्रबंध में लगे हुए थे कि मार्च सन 1680 ई को अंतिम दिनों में उनके घुटनों में सूजन पैदा हो गई। यहां तक कि ज्वर भी आना आरंभ हो गया। जिसके कारण 7 दिन में शिवाजी की आत्मा अपना नश्वर कलेवर छोड़ परम पद को प्राप्त हो गई। 15 अप्रैल सन 1680 को शिवाजी का देहावसान हो गया।” ( संदर्भ : “छत्रपति शिवाजी” लेखक लाला लाजपतराय, प्रकाशक: सुकीर्ति पब्लिकेशंस, 41 मेधा अपार्टमेंट्स, मयूर विहार 01, नई दिल्ली 110091)

    शिवाजी की नीति

    शिवाजी की नीति धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करने की थी। खानखां जैसे इतिहास कार ने भी उनके लिए ये कहा है कि शिवाजी के राज्य में किसी अहिंदू महिला के साथ कभी कोई अभद्रता नही की गयी। उन्होंने एक बार कुरान की एक प्रति कहीं गिरी देखी तो अपने एक मुस्लिम सिपाही को बड़े प्यार से दे दी। याकूत नाम के एक पीर ने उन्हें अपनी दाढ़ी का बाल प्रेमवश दे दिया तो उसे उन्होंने ताबीज के रूप में बांह पर बांध लिया। साथ ही बदले में उस मुस्लिम फकीर को एक जमीन का टुकड़ा दे दिया। ऐसी ही स्थिति उनकी हिंदुओं के मंदिरों के प्रति थी। यही था वास्तविक धर्मनिरपेक्ष राज्य।

    शुद्घि पर बल दिया

    शिवाजी का मुस्लिम प्रेम अपनी प्रजा के प्रति एक राजा द्वारा जैसा होना चाहिए, उस सीमा तक राष्ट्र धर्म के अनुरूप था। इसका अभिप्राय कोई तुष्टिकरण नही था। शिवाजी इसके उपरांत भी हिंदू संगठन पर विशेष बल देते थे। इसलिए उन्होंने निम्बालकर जैसे प्रतिष्ठित हिंदू को मुसलमान बनने पर पुन: हिंदू बनाकर शुद्घ किया। साथ ही निम्बालकर के लड़के को अपनी लड़की ब्याह दी। नेताजी पालेकर को 8 वर्ष मुस्लिम बने हो गये थे-शिवाजी ने उन्हें भी शुद्घ कराया और पुन: हिंदू धर्म में लाए।

    शिवाजी की मर्यादा

    किसी भी मस्जिद को किसी सैनिक अभियान में शिवाजी ने नष्ट नही किया। इस बात को मुस्लिम इतिहासकारों ने भी खुले मन से सराहा है। गोलकुण्डा के अभियान के समय शिवाजी को यह सूचना मिल गयी थी कि वहां का बादशाह शिवाजी के साथ संधि चाहता है, इसलिए उस राज्य में जाते ही शिवाजी ने अपनी सेना को आदेश दिया कि यहां लूटपाट न की जाए अपितु सारा सामान पैसे देकर ही खरीदा जाए। बादशाह को यह बात प्रभावित कर गयी। जब दोनों (राजा और बादशाह) मिले तो शिवाजी ने बड़े प्यार से बादशाह को गले लगा लिया। शिवाजी ने गौहरबानो नाम की मुस्लिम महिला को उसके परिवार में ससम्मान पहुंचाया। उनके मर्यादित और संयमित आचरण के ऐसे अनेकों उदाहरण हैं अपने बेटे सम्भाजी को भी एक लड़की से छींटाकशी करने के आरोप में सार्वजनिक रूप से दण्डित किया था।
    शिवाजी हिंदू पद पातशाही के माध्यम से देश में ‘हिंदू राज्य’ स्थापित करना चाहते थे इसलिए उन्होंने हिंदू राष्ट्रनीति के उपरोक्त तीनों आधार स्तंभों (नीति, बुद्घि और मर्यादा) पर अपने जीवन को और अपने राज्य को खड़ा करने का प्रयास किया।

    विशाल हिंदू राज्य के निर्माता

    शिवाजी महाराज ने अपने जीवन काल में ही विशाल साम्राज्य की स्थापना कर दी थी। जिसे उनके उत्तराधिकारियों ने और भी अधिक विस्तृत करने में सफलता प्राप्त की। 1707 ईस्वी में मुगल बादशाह औरंगजेब मरा तो उसके सही 30 वर्ष पश्चात अर्थात 1737 ईस्वी में भारत पूर्णतया हिंदू राष्ट्र बना दिया गया। 28 मार्च 1737को मराठों ने तत्कालीन मुगल बादशाह को वेतन भोगी सम्राट बनाकर दिल्ली के लाल किले तक सीमित कर दिया था। इस प्रकार 28 मार्च 1737 भारत के हिंदू राष्ट्र घोषित होने का ऐतिहासिक दिन है। जिसे शिवाजी महाराज की प्रेरणा के कारण ही हम प्राप्त कर सके थे। इतिहास के ऐसे महानायक को शत-शत नमन।

    डॉ राकेश कुमार आर्य

    नेहरू जी और मोदी जी में है मौलिक अंतर

    जब जब कांग्रेस के नेताओं पर भाजपा के नेताओं और विशेष रूप से प्रधानमंत्री मोदी की ओर से हमला बोला जाता है और किसी बात को लेकर कहा जाता है कि अमुक गलती नेहरू के जमा जमाने में हुई थी, तब तब कांग्रेस को बड़ी मिर्ची लगती है । कांग्रेस को आज भी यह लगता है कि नेहरू जी एक देवदूत थे और उन्होंने जो कुछ सोचा था – वह सही था, जो कुछ किया- वह भी सही था। जिस समय देश आजाद हुआ उस समय देश में अशिक्षा बहुत अधिक थी। बहुत लोग थे जो अशिक्षित होने के कारण यह मानते थे कि नेहरू के बिना देश नहीं चलेगा। जबकि सच यह है कि सनातन राष्ट्र भारत की यदि किसी कारण से कभी गोद खाली भी हो जाए तो कोख कभी खाली नहीं होती। कांग्रेस के लोगों ने नेहरू जी को ‘बेताज का बादशाह’ कहना आरंभ किया था, जो कि कांग्रेस के लोगों की सामंती सोच को झलकाता था। नेहरू के जमाने में यह माना जाता था कि यदि वह किसी खंबे को भी चुनाव में खड़ा कर देंगे तो वह भी चुनाव जीत जाएगा। नेहरू के प्रशंसकों ने उन्हें देश में लोकतंत्र की जड़ों को गहरा करने का श्रेय दिया। यह बताने का प्रयास किया कि उनसे बड़ा कोई लोकतांत्रिक नेता उस समय नहीं था। जबकि सच यह है कि नेहरू जी के रहते हुए कई चुनावी धांधलियां होती रही थीं। पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के अबुल कलाम आजाद रामपुर से चुनाव लड़ रहे थे, जबकि हिंदू महासभा से विशन चंद्र सेठ चुनाव मैदान में थे।
    नेहरू जी ने अपने मित्र अब्दुल कलाम आजाद को संसद में लाने के लिए जीते हुए विशन चंद्र सेठ को जिलाधिकारी पर दबाव बनवाकर जबरदस्ती हरा दिया था। नेहरू जी भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विरोधी थे। उन्होंने संविधान में पहला संशोधन करके अपने विरुद्ध हो रही आलोचनाओं पर रोक लगाने का काम किया था। जबकि मोदी जी को ऐसा कुछ करने की आवश्यकता अनुभव नहीं हुई है। उनके विरोधी उन पर कितना कीचड उछालते हैं, इसके उपरांत भी वह कीचड़ में कमल की भांति खिले रहते हैं।
    नेहरू जी अपने आपको एक विश्व नेता दिखाने के लिए अधिक चिंतित रहते थे। उन्होंने अपने आप को अंतरराष्ट्रीय नेता दिखाने के लिए ही कश्मीर का भी अंतरराष्ट्रीयकरण कर दिया था। उन्होंने गुटनिरपेक्ष आंदोलन में रुचि दिखाई तो केवल अपने आप को बड़ा नेता दिखाने के लिए। इसके उपरांत भी वह रूस और अमेरिका के बीच चल रहे शीत युद्ध को समाप्त नहीं कर पाए थे। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के हितों की रक्षा करने में भी वह असफल रहे। उन्होंने कश्मीर की समस्या का समाधान संविधान में धारा 370 को स्थापित करके ही मान लिया था। देश को और अपने मंत्रिमंडल को बिना विश्वास में लिए धारा 35 ए को चोरी से संविधान में स्थापित कराया। इधर मोदी जी हैं जिन्हें अंतरराष्ट्रीय नेता बनने की चिंता नहीं है। इसके उपरांत भी वह विश्व नेता के रूप में अपने आप स्थापित हो गए हैं । वह काम करने में विश्वास रखते हैं । उन्हें देश के हितों को गिरवी रखकर किसी अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार को लेने की आवश्यकता नहीं है।उनके लिए देश के हित सबसे पहले हैं। इसलिए उन्होंने धारा 370 को समाप्त किया और संयुक्त राष्ट्र में भी भारत के हितों की रक्षा के लिए नई नीति रणनीति बनाकर सारे विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया। नेहरू के भीतर बड़े बाप का बेटा होने का घमंड था। इसलिए वह लोगों के साथ जुड़ते नहीं थे। उनकी बात को सुनते भी नहीं थे। जबकि मोदी जी लोगों के साथ घुल मिल जाते हैं और उनकी बातों को बड़े गौर से सुनते हैं। इतना ही नहीं देश को आगे बढ़ाने के लिए लोगों के पास जितने भी विचार होते हैं उन्हें भी वह सुनना चाहते हैं।
    मोदी देश विरोधियों के साथ किसी भी प्रकार के तुष्टीकरण के विरोधी हैं। वह देश विरोधियों से और देश के शत्रुओं से उन्हीं की भाषा में जवाब देने में विश्वास रखते हैं। जबकि नेहरू जी एक काल्पनिक गांधीवाद की छाया से घिरे रहे और देश विरोधी शक्तियों का भी वह तुष्टीकरण करते रहे। जिस प्रकार गांधी जी के ऊपर एक काल्पनिक और वाहियात आदर्शवाद का साया मंडराता रहता था, जिसके भंवर जाल से कभी वह निकल नहीं पाते थे उसी प्रकार उनके शिष्य नेहरू पर भी एक काल्पनिक आदर्शवाद का साया बना रहा और वह उसी के भंवरजाल में फंसे रहे। नेहरू जी आदर्शवादी बनते बनते संयुक्त राष्ट्र संघ में सुरक्षा परिषद में भारत को मिलने वाली स्थाई सीट को दुनिया के सबसे बड़े राक्षस देश चीन को परोस देते हैं । वह अपने पड़ोसी देश तिब्बत की परवाह नहीं करते और उसे चीन को हड़प लेने देते हैं। वह नेपाल ,तिब्बत, भूटान के उस प्रस्ताव को भी अस्वीकार कर देते हैं जो इन देशों ने आजादी की बेला में भारत के साथ मिलने के लिए दिया था।
    जबकि मोदी दूसरी सोच के नेता हैं। वह भारत को मित्रविहीन बनाए रखकर या गुटनिरपेक्षता के नाम पर अलग थलग करने की सोच के खिलाफ हैं । जब सारी दुनिया ईसाई और मुस्लिम देशों में बंटी हो तब वैश्विक मंचों पर मित्र ढूंढना बड़ा मुश्किल होता है। नेहरू जी जहां अपने समय में भारत को धर्मनिरपेक्षता के नाम पर ईसाई और मुस्लिम समाज का शिकार होने देने के समर्थक थे वहीं मोदी जी सावधानी के साथ देश के बहुसंख्यक समाज की सुरक्षा के लिए खड़े दिखाई देते हैं। नेहरू जी जहां प्रधानमंत्री के पद को अपने आने वाले वंशजों के लिए सुरक्षित कर देना चाहते थे वहीं मोदी जी इस प्रकार की सोच के विरोधी हैं। नेहरू जी स्वयं को ‘एक्सीडेंटल हिंदू’ कहा करते थे। जबकि मोदी जी अपने आप को हिंदू कहने में गर्व की अनुभूति होती है।
    नेहरू जी दिखाने के लिए लोकतांत्रिक थे परंतु उन्होंने देश में पूंजीवादी लोकतंत्र को बढ़ावा दिया। जिससे देश की पूंजी का 70% हिस्सा मुट्ठी भर लोगों के हाथों में आ गया। मोदी जी इस प्रकार की विचारधारा के भी विरोधी हैं।
    नेहरू जी के समर्थक उन्हें मोदी जी की अपेक्षा अधिक लोकतांत्रिक दिखाने के लिए और साथ ही मुसलमानों की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए (राम मंदिर निर्माण को दृष्टिगत रखते हुए )आज भी यह कहते हैं कि उन्होंने मंदिर मस्जिद के निर्माण पर ध्यान नहीं दिया। इसके विपरीत उन्होंने औद्योगिक संस्थानों, स्कूलों, कॉलेजों और बांध आदि को बनाने पर ध्यान दिया । उनके लिए कहा जाता है कि वह औद्योगिक संस्थानों को ही आधुनिक भारत के मंदिर कहा करते थे। इसके विपरीत मोदी जी भारत की आत्मा के साथ सहकार स्थापित कर उसकी आध्यात्मिक चेतना को उकेरने का काम भी उतनी ही शिद्दत से करते हैं जितनी शिद्दत से वह औद्योगिक संस्थानों या कॉलेज आदि के निर्माण और स्थापना की ओर ध्यान देते हुए करते हैं।
    वास्तव में, नेहरू जी ने जिन मंदिरों का निर्माण किया वह हृदयहीन मंदिर थे। नेहरू जी ने व्यक्ति को लेकर यह मान लिया कि उसे किसी प्रकार की आध्यात्मिक शांति प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है। निरा भौतिकवाद नेहरू जी पर हावी था। इसलिए वह मनुष्य को हृदयहीन मशीनों कल कारखानों में लगाए रखने में विश्वास करते रहे। एक प्रकार से नास्तिक बने नेहरू जी ने मनुष्य की आध्यात्मिक भूख को मिटाने का काम किया। जिससे सारा समाज अस्त व्यस्त हो गया। इसके विपरीत मोदी जी व्यक्ति को किसी आध्यात्मिक शक्ति के साथ जोड़कर चलने में विश्वास रखते हैं। जिससे वह नैतिकता को अपनाकर समाज व राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों पर ध्यान देने वाला बने। वास्तविक सामाजिक समरसता इसी प्रकार के दृष्टिकोण से पैदा होगी। इससे स्पष्ट है कि मोदी जी कहीं व्यावहारिक दृष्टिकोण को अपनाने वाले नेता हैं, जबकि नेहरू जी इस क्षेत्र में भी कल्पना लोक में काम करने वाले नेता ही साबित हुए।
    नेहरू भारतीयता के विरोधी हैं। उन्होंने भारतीय इतिहास का विकृतिकरण करने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी। अपने आप को अधिक विद्वान दिखाने के चक्कर में उन्होंने भारतीय इतिहास के तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर इतिहास का ही गुड़ गोबर कर दिया। ‘हिंदुस्तान की खोज’ नामक पुस्तक को कांग्रेस आज भी देश के युवाओं के लिए गीता के रूप में प्रचारित करती है पर वास्तव में वह भारतीय इतिहास का कूड़ा ही है। इसके विपरीत मोदी जी भारतीय इतिहास के गौरवपूर्ण पक्ष को दोबारा लिखने के समर्थक हैं। वह भारतीयता के साथ जुड़े रहने में गर्व और गौरव की अनुभूति करते हैं। वह अपने देश के महान पुरुषों के त्याग, तपस्या, साधना ,पुरुषार्थ को समय-समय पर सराहते हैं। जबकि नेहरू जी बाहरी लोगों को अपने लिए प्रेरणा का स्रोत मानते थे। वह हिंदू इतिहास को भुला देना चाहते थे और मुगल इतिहास को ही इस देश की सबसे बड़ी विरासत मानने में विश्वास रखते थे। नेहरू जी भारतीय भाषा, भूषा , खान-पान रहन-सहन सबको भूल कर अंग्रेजी और इस्लामी संस्कृति को हम पर लाद देना चाहते थे, जबकि मोदी जी इन सभी क्षेत्रों में भारतीयता के समर्थक हैं।

    डॉ राकेश कुमार आर्य

    प्रधानमंत्री मोदी के लिए मॉरीशस की महत्ता

    प्रधानमंत्री मोदी की विदेश नीति में उन देशों को प्राथमिकता दी गई है जो भारतीय धर्म, संस्कृति और इतिहास की परंपराओं को अक्षुण्ण बनाए रखने के प्रति संकल्पित हैं । भारतीय मूल के प्रवासियों की संतानों के रूप में मॉरीशस की अधिसंख्य हिंदू जनसंख्या ने भारत के प्रति अपने समर्पण को प्रकट करने में कभी किसी प्रकार का संकोच नहीं किया है। आज भी वह जिस प्रकार भारतीय धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए कार्य कर रहा है वह सब प्रधानमंत्री मोदी की दृष्टि में है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी विदेश नीति में हिंद महासागर में बसे इस देश को विशेष महत्व देना आरंभ किया। इसमें दो मत नहीं हैं कि कांग्रेस की सरकारों के समय में भी मॉरीशस को भारत ने सम्मान देने में कमी नहीं छोड़ी, पर इस समय हमारी विदेश नीति इस देश को लेकर कुछ महत्वपूर्ण और ठोस कार्य करना चाहती है। अपनी मॉरीशस संबंधी नीति का प्रधानमंत्री श्री मोदी ने वर्ष 2015 में अपनी मॉरीशस यात्रा के समय स्पष्ट संकेत कर दिया था। प्रधानमंत्री ने उस समय महत्वाकांक्षी नीति सागर का शुभारंभ किया था।
    जब सारा संसार सांप्रदायिक खेमेबंदी में बंटा हो और इस्लाम व ईसाइयत में बंटे देश अपनी – अपनी संख्या बढ़ाने का अथक प्रयास कर रहे हों, तब विचारधारा के संकट का सामना करना भारत के लिए स्वाभाविक है। विचारधारा के इसी संकट से पार पाने और हिंदू अस्तित्व की रक्षा के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने अपने उन सभी मित्रों को साथ लेकर वैश्विक राजनीति की दिशा को बदलने का प्रयास करना आरंभ किया है जो किसी भी क्षेत्र में किसी भी समय हमारा सहयोग कर सकते हैं या जो हमारी हिंदुत्व की विचारधारा में थोड़ा सा भी विश्वास रखते हैं।
    मॉरीशस ने भी भारत के सदाशय को समझ कर सामरिक दृष्टिकोण से अपने महत्व को अपने बड़े भाई भारत के लिए हृदय की गहराइयों से समर्पित कर दिया है। दोनों देशों की सांझेदारी गन्ने के बागान, वित्तीय सेवाएँ तथा तकनीकी नवाचारों को खोजते – खोजते बहुत दूर निकल जाना चाहती है।
    मॉरीशस के बारे में हम सभी जानते हैं कि यह देश हिंद महासागर आयोग का सदस्य है । जिसके चलते इसकी भूमिका भारत के लिए सामरिक दृष्टिकोण से ही महत्वपूर्ण नहीं है अपितु भौगोलिक आर्थिक दृष्टिकोण से भी महत्त्वपूर्ण है।
    जब यूरोप से कुछ लोग व्यापारी के रूप में संसार के विभिन्न क्षेत्रों, देशोंं, द्वीपों को लूटने के दृष्टिकोण से प्रेरित होकर निकले तो उस समय उनका अनेक नए स्थानों से परिचय हुआ। ये लोग उस समय भारत को व्यापार के माध्यम से लूटने के लिए नए रास्ते खोज रहे थे। उनके इसी खोजी अभियान में उनका परिचय एक नए द्विपीय क्षेत्र से हुआ, जिसका नाम उन्होंने मॉरीशस रखा। इस देश को उन्होंने हिंद महासागर का तारा और चाबी का कर पुकारा। यहां पहुंचने वाले विदेशी लोगों में पुर्तगाली और डच लोगों ने पहले बाजी मारी। पर बाद में 18वीं शताब्दी में फ्रांसीसियों ने इस देश पर स्थाई अधिकार प्राप्त कर यहां पर अपना शासन स्थापित किया। जिन्होंने यहां पर गन्ने के बागान विकसित करने आरंभ किये। जहाजों का निर्माण कर मॉरीशस का संपर्क विश्व के अन्य भूभाग से जोड़ने का काम करना आरंभ किया। पर स्थानीय लोगों का शोषण भी उनके शासनकाल में अपने चरम पर पहुंच गया। बाद में नेपोलियन के शासनकाल में यहां पर अंग्रेजों ने अपना अधिकार स्थापित किया।
    वर्तमान वैश्विक परिस्थितियों में भारत संसार के सभी देशों के लिए बहुत बड़ा बाजार बन चुका है। इसलिए भारत से आर्थिक और व्यापारिक संबंध स्थापित करना प्रत्येक देश अपने लिए आवश्यक समझ रहा है । इस सबके उपरान्त भी भारत को अपने व्यापारिक मित्रों की तलाश है। अफ्रीकन देशों में अपना बाजार विकसित करने के लिए भारत के लिए मॉरीशस एक अच्छा मित्र सिद्ध हो सकता है। प्रधानमंत्री श्री मोदी ने हिंद महासागर के वनिला द्वीपों कोमोरोस, मेडागास्कर मॉरिशस, सेशेल्स, रीयूनियन द्वीप के साथ द्विपक्षीय आधार पर बातचीत करते हुए अपनी विदेश नीति को नई धार देने का प्रयास किया है। यदि भारत की वर्तमान विदेश नीति अपनी वर्तमान मॉरीशस संबंधी नीति को जारी रखते हुए नए आयामों को छूकर इतिहास लिखने में सफल हुई तो यह कहा जा सकता है कि मॉरिशस दक्षिण-पश्चिम हिंद महासागर में भारत के लिए बैंकिंग, हवाई यातायात तथा पर्यटन आदि को प्रोत्साहित करने के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण सहयोगी सिद्ध हो सकता है। भारत भी अपने इस सांस्कृतिक और आत्मिक मित्र के लिए प्रत्येक क्षेत्र में महत्वपूर्ण सहयोगी और बड़ा भाई सिद्ध हो सकता है। इस बात को चाहे मॉरीशस के लोग अनुभव ना कर रहे हों कि विचारधारा का संकट वहां पर भी है, पर वैश्विक राजनीति की वर्तमान दुर्गंध से भरी परिस्थितियों के चलते देर सवेर मॉरीशस भी विचारधारा का शिकार हो सकता है । उस क्षेत्र में वैदिक साहित्य और मूल्यों को परोसते हुए भारत मॉरीशस के लोगों के लिए अच्छे मित्र का कार्य कर सकता है। इसके अतिरिक्त भी मॉरीशस को भारत की आवश्यकता है। जिसके चलते उसे वैश्विक मंचों पर चली जाने वाली षडयंत्रात्मक चालों के शिकंजे से बचाने में भारत अपना सहयोग दे सकता है। यदि प्रधानमंत्री मोदी की वर्तमान मॉरीशस संबंधी नीति की समीक्षा की जाए तो भारत अपने इस मित्र के लिए प्रत्येक क्षेत्र में एक सहयोगी देश के साथ-साथ एक मित्र देश और बड़े भाई के रूप में खड़ा हुआ दिखाई दे रहा है। यहां तक कि भारत मॉरीशस की शिक्षा, सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी आवश्यकताओं के लिए भी अपने आपको प्रस्तुत करने में अब किसी प्रकार की हिचक नहीं दिखा रहा है। विशेषज्ञों की मान्यता है कि जलवायु परिवर्तन, सतत् विकास लक्ष्यों की प्राप्ति, ब्लू इकॉनमी तथा सामुद्रिक शोध को बढ़ावा देने के लिये मॉरिशस, भारत का एक अहम साझेदार हो सकता है। इसके अतिरिक्त दक्षिण-पश्चिमी हिंद महासागर में सुरक्षा सहयोग के दृष्टिकोण से मॉरिशस की भूमिका केंद्र में होगी ।जिससे दोनों देश अन्य सभी द्वीपीय देशों के हितों की रक्षा करने में सहायक होंगे।
    कुल मिलाकर भारत की वर्तमान विदेश नीति में मॉरीशस का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। यदि दोनों देश स्वस्थ सोच और स्वच्छ परिवेश में काम करते हुए आगे बढ़े तो निश्चय ही अपने नीतिगत मंतव्य को प्राप्त करने में सफल होकर नये-नये कीर्तिमान स्थापित कर सकेंगे।

    डॉ राकेश कुमार आर्य

    मोहन भागवत जी का ‘परमवैभव संपन्न विश्वगुरु भारत’

     
    आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत श्री राम जी के विषय में अपने वक्तव्यों , भाषणों और कई पत्र पत्रिकाओं के साथ दिए गए साक्षात्कारों में यह स्पष्ट कर चुके हैं कि श्रीराम भारत के बहुसंख्यक समाज के लिए भगवान हैं। उनका चरित्र, उनका आचरण , उनका व्यवहार , उनका व्यक्तित्व और कृतित्व भारत के सर्व समाज को प्रभावित करता है। कोई उन्हें भगवान के रूप में मान्यता प्रदान करता है तो कोई उनके चित्र के अतिरिक्त चरित्र को अपनाने पर बल देकर उनके महान व्यक्तित्व को नमन करता है। इस दृष्टिकोण से श्री राम हिन्दुओं और अहिंदुओं सभी के लिए सम्मान के पात्र हैं। अपनी इसी चारित्रिक विशेषता के कारण श्री राम ने भारत के भूतकाल के साथ-साथ वर्तमान को भी प्रभावित किया है। जिसके चलते हम यह भी निश्चय से कह सकते हैं कि वह भविष्य को भी यथावत प्रभावित करते रहेंगे। अतः यह भी कहा जा सकता है कि राम थे, हैं, और रहेंगे। श्री राम की सनातन में गहरी निष्ठा थी और सनातन के वैदिक मूल्यों के लिए उन्होंने जीवन भर संघर्ष किया। जब तक सनातन है अर्थात सूरज ,चांद सितारे हैं ,तब तक श्री राम हमारा यथावत मार्गदर्शन करते रहेंगे। हमने उनके जीवन मूल्यों को सनातन रूप में स्वीकार किया है।
    एक पत्रिका के साथ साक्षात्कार में मोहन भागवत कहते हैं कि हम आंदोलन आरंभ नहीं करते हैं। राम जन्मभूमि का आंदोलन भी हमने शुरू नहीं किया, वह समाज द्वारा बहुत पहले से चल रहा था। अशोक सिंहल जी के विश्व हिंदू परिषद में जाने से भी बहुत पहले से चल रहा था। बाद में यह विषय विश्व हिंदू परिषद के पास आया। हमने आंदोलन प्रारंभ नहीं किया, कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में हम इस आंदोलन से जुड़े। कोई आंदोलन शुरू करना यह हमारे एजेंडे में नहीं रहता है। हम तो शांतिपूर्वक संस्कार करते हुए प्रत्येक व्यक्ति का हृदय परिवर्तन करने वाले लोग हैं।’
    ‘प्रत्येक व्यक्ति का हृदय परिवर्तन करना’ क्या है ? यदि इस पर मोहन भागवत जी के उपरोक्त कथन की समीक्षा की जाए तो निश्चित रूप से इसका अभिप्राय यही होगा कि भारत, भारती और भारतीयता के प्रति लोग स्वाभाविक रूप से सम्मानजनक भाव रखते हुए जुड़ जाएं । वह अपनी – अपनी सांप्रदायिक प्रार्थनाओं, मान्यताओं, धारणाओं और विचारधाराओं को बनाए रखकर भी भारतीय राष्ट्र के प्रति एकताबद्ध होकर और समर्पण भाव दिखाकर आगे बढ़ें – यही उनका धर्म है और यही उनका राष्ट्र प्रेम है।
    अतीत के विस्तृत कालखंड में हिंदुत्व को क्षत – विक्षत करने के जितने भर भी प्रयास किए गए, उन सब के घावों को कुरेद कर सामाजिक सद्भाव को बिगाड़ना मोहन भागवत जी और उनके संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उद्देश्यों में कहीं सम्मिलित नहीं है। यद्यपि वह इतना अवश्य चाहते हैं कि जो कुछ भी अतीत में हुआ है उन घावों को प्यार से भरने का काम किया जाए और पूर्व स्थिति स्थापित करते हुए सब राष्ट्र के प्रति समर्पित होकर काम करते रहें। अतीत में तोड़े गए मंदिरों के स्थान पर जब नए धर्मस्थल खड़े किए गए तो इससे हिंदू मानस आहत हुआ। तभी से हिंदू समाज की यह हार्दिक इच्छा रही कि तोड़े गए मंदिरों के स्थान पर खड़े किए गए धर्म स्थलों को हटाकर उन्हें उनके धर्म स्थल वापस दिए जाएं । वास्तव में यह कोई सांप्रदायिक सोच नहीं थी। इसके विपरीत यह राष्ट्र की आत्मा द्वारा मांगा जाने वाला न्याय था। जिसे आजादी से पूर्व की सरकारें तो उपेक्षित कर ही रही थीं उसके बाद बनने वाली सरकारों ने भी उपेक्षित किया। आज जब यह मंदिर खड़े हो रहे हैं तो मोहन भागवत कहते हैं कि इन मंदिरों को प्रतीक के रूप में खड़ा करने से काम नहीं चलेगा । जिन मूल्यों और आचरण के प्रतीक ये मंदिर अतीत में रहे हैं वैसा ही हमें स्वयं बनना पड़ेगा। अपना समाज भी वैसा ही बनाना पड़ेगा । स्पष्ट है कि मंदिर संस्कृति सांप्रदायिक सद्भाव, राष्ट्र निर्माण और मानवता के कल्याण की प्रतीक है। ऐसे में मोहन भागवत जी की मान्यता है कि इन मंदिरों को प्रतीकात्मक दृष्टिकोण से दूर ले जाकर इसी वास्तविकता से जोड़ना होगा। इससे हम राष्ट्र निर्माण करते हुए विश्व निर्माण करने में भी सफल होंगे। 5 अगस्त 2020 को जब श्री राम मंदिर का शिलान्यास हुआ तो उस समय मोहन भागवत जी ने कहा था कि “परमवैभव संपन्न विश्वगुरु भारत” बनाने के लिए भारत के प्रत्येक व्यक्ति को वैसा भारत निर्माण करने के योग्य बनना पड़ेगा। उनकी मान्यता है कि जिस प्रकार हमारे ऋषियों ने अवधपुरी का निर्माण कर उसे विश्व की पहली राजधानी बनाया, उसी प्रकार हम अपने हृदय को भी अवधपुरी बना डालें। इसका तात्पर्य हुआ कि हम अपने हृदय मंदिर में हिंसा के भावों को, वैर विरोध और घृणा की सोच को दूर हटाने का कार्य प्रतिदिन नियम से करते रहें। यदि राम मंदिर बनने के साथ-साथ प्रत्येक भारतवासी के मन की अयोध्या भी निर्मित हो गई तो निश्चित रूप से हम रामराज्य स्थापित कर भारतीय समाज के साथ-साथ वैश्विक समाज को भी नई दिशा देने में सफल होंगे।
    जब श्री मोहन भागवत जनमानस को रामचरित से जोड़ने की बात कहते हैं तो उसमें किसी प्रकार का पाखंड या सांप्रदायिक दृष्टिकोण देखना अज्ञानता होती है। इसका अभिप्राय होता है कि लोग सांसारिक विषय वासनाओं और भोगों की मनोवृत्ति को त्याग कर भारत के वैदिक मूल्यों के प्रति निष्ठा दिखाते हुए राम के अनुकरणीय भव्य चरित्र का पालन करें। अनुकरण करें। उनकी छवि को अपने हृदय मंदिर में स्थापित कर उसका पूजन करें। उसका गुणगान करें। गुण संकीर्तन करें । उसे स्थाई रूप से अपने मन मंदिर में स्थापित कर बाहरी मंदिर अर्थात वैश्विक परिवेश में भी उसे रचा बसा देखें । जब सर्वत्र उस छवि का दर्शन होगा तो मन करेगा कि हम भी वैसा ही आचरण व्यवहार निष्पादित करें जैसा श्री राम करते रहे थे । इससे प्रत्येक क्षेत्र में प्रत्येक पल मर्यादाओं का पालन होगा । मर्यादाओं के बंधन में बंधा वैश्विक समाज देवताओं का समाज होगा। उसमें किसी भी प्रकार की राक्षस वृत्ति को स्थान नहीं होगा। अन्याय और अत्याचार के लिए स्थान नहीं होगा। सब सबके लिए काम कर रहे होंगे । इससे वर्तमान की उस सोच से पार पाने में सफलता प्राप्त होगी जिसके चलते हर व्यक्ति अपने-अपने लिए काम कर रहा है। हृदय में राम समाहित हों। केवल राम से संवाद हो। केवल राम के प्रति श्रद्धा हो। तब राम जैसा बनना सहज संभव है। उस संवाद से जो विमर्श हृदय मंदिर में बनेगा , वह राष्ट्र का विमर्श बनने में देर नहीं लेगा और जब किसी राष्ट्र का विमर्श ‘सब सबके लिए काम करें’ का बन जाता है तो वह राष्ट्र संपूर्ण वसुधा का सिरमौर बन जाता है। नेता बन जाता है । विश्व गुरु बन जाता है। इसी उच्च आसन पर स्थापित हुआ भारत विश्व गुरु भारत होगा। इस प्रकार राम का नेतृत्व और राष्ट्र का नेतृत्व दोनों मिलकर विश्व का मार्गदर्शन करने में सहायक होंगे। इस स्थिति में आप राम और राष्ट्र को एक रूप में देखेंगे। यही श्री मोहन भागवत जी का राम के प्रति चिंतन है। उनकी मान्यता है कि देश में इस के प्रति जागरण होना चाहिए। इस भावना को सम्मान मिलना चाहिए । इसमें किसी भी प्रकार की सांप्रदायिकता को देखने की घटिया सोच से लोगों को बाहर निकलना चाहिए।
    हमारे आदर्श श्री राम के मंदिर को तोड़कर, हमें अपमानित करके हमारे जीवन को भ्रष्ट किया गया। जब यह काम किया गया तो उस समय उसके पीछे यही सोच थी कि हिंदू हीनता के भावों से भर जाए और वह कभी एक राष्ट्र के रूप में खड़ा नहीं होने पाए। मोहन भागवत कहते हैं कि ‘हमें उसे फिर से खड़ा करना है, बड़ा करना है, इसलिए भव्य-दिव्य रूप से राम मंदिर बन रहा है। पूजा पाठ के लिए मंदिर बहुत हैं।’
    सनातन कभी पुराना नहीं होता। इसके उपरांत भी यदि उसमें नित्य प्रति साफ सफाई का ध्यान न रखा जाए तो उस पर धूल अवश्य जम जाती है। इस धूल की सफाई के लिए बड़े और व्यापक स्तर पर जनहित में कार्य होते रहना चाहिए। इसके लिए समाज का एक पूरा वर्ग जिम्मेदारी निभाने के लिए सामने आना चाहिए। श्री राम हमारे आदर्श हैं, इसके उपरांत भी रामचंद्र जी की परंपरा में नैरंतर्य बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि ऋषियों और रामचंद्र जी की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए यह वर्ग स्वेच्छा से काम करता रहे। हमारे ऋषियों ने इस कार्य की जिम्मेदारी ब्राह्मण वर्ग को दी थी। आज भी समाजसेवी और राष्ट्र प्रेमी लोग स्वेच्छा से अपनी सेवाएं देने के लिए आगे आने चाहिए। यद्यपि इन लोगों का भी प्रशिक्षण आवश्यक है । बिना योग्यता के बड़े काम करने का नाटक किया सकता है, यह आवश्यक नहीं है कि उनके द्वारा किया जा रहा जन सेवा का कार्य समाज को सही दिशा देगा। अपने सांस्कृतिक मूल्यों को समझ कर, अंगीकार करके या रामचंद्र जी की भांति उन्हें आचरण में उतारकर जो लोग समाज सेवा और राष्ट्र सेवा के लिए आगे आएंगे, ठोस काम उनके द्वारा ही किया जा सकता है।
    मोहन भागवत जी का मानना है कि इसके लिए हमारे शास्त्रों में ऋषियों के द्वारा जो व्यवस्था दी गई है उस व्यवस्था के अनुसार कार्य होना चाहिए। उस व्यवस्था का पालन प्रत्येक व्यक्ति स्वाभाविक रूप से करने वाला होना चाहिए। उसमें चाहे कोई आचार्य है, चाहे धर्माचार्य है या समाज के किसी भी बड़े से बड़े पद पर बैठा हुआ व्यक्ति है, सर्वप्रथम वह समाज की एक इकाई है, मशीन का एक पुर्जा है। इसके लिए उसे सोचना और समझना चाहिए कि वह जहां पर है, वहीं पर अपने कार्य का धर्म के अनुसार पालन करे। समाज का आचरण यदि शुद्ध हो जाएगा तो राष्ट्र और विश्व अपने आप सुव्यवस्थित हो जाएंगे। यम नियम का पालन व्यक्ति किसी दबाव में ना करे बल्कि वह स्वाभाविक रूप से उन्हें अपने जीवन का एक अंग स्वीकार कर ले। अपनी जीवन-चर्या में ढाल ले। सत्य, अहिंसा, अस्तेय ,ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, स्वाध्याय, संतोष, तप आदि को मोहन भागवत जी शाश्वत धर्म के अंग के रूप में स्वीकार करते हैं। यह सार्वभौम और सर्वकालिक हैं। जिन्हें प्रत्येक स्थिति में, प्रत्येक परिस्थिति में और प्रत्येक देश में पालन करने से व्यवस्था को सुंदरतम बनाया जा सकता है।
    विदेशी शासनकाल में हमारे धर्म शास्त्रों के यथार्थ स्वरूप, उनकी मान्यताओं और उनकी विचारधारा को विकृत करने का भरसक प्रयास किया गया। लोगों को शिक्षा से वंचित होना पड़ा। संस्कारों से वंचित होना पड़ा। जिससे समाज बिना ड्राइवर की गाड़ी बनाकर दिशाविहीन सा होकर चलता रहा। इसके उपरांत भी आश्चर्य की बात है कि लोग इधर-उधर टूटी-फूटी मान्यताओं और घिसीपिटी बातों को लेकर आगे बढ़ते रहे। आज उन्हें सही स्वरूप में सही धर्म और वैज्ञानिक वैदिक मान्यताओं को बताकर सही रास्ता दिखाने की आवश्यकता है। आजादी के बाद इस दिशा में ठोस कार्य होना चाहिए था। मोहन भागवत जी की मान्यता है कि वेदों में कोई मिलावट नहीं है। उनका यह भी कहना है कि गीता में भी कोई मिलावट नहीं है , उनके सिद्धांतों के अनुसार समाज और राष्ट्र निर्माण का कार्य होना चाहिए।
    यह माना जा सकता है कि रामचंद्र जी के समय में गीता नहीं थी। पर उनके समय में वेद अवश्य थे। इससे स्पष्ट होता है कि रामचंद्र जी का जीवन पूर्णतया वैदिक आर्य जीवन था। हमारा मानना है कि आज के परिवेश में समाज और राष्ट्र निर्माण के लिए रामचंद्र जी के वैदिक आदर्श आर्य जीवन को ही राष्ट्र के नागरिकों के लिए आदर्श आचार संहिता के के रूप में स्थापित करना चाहिए।
    भागवत जी का यह भी मानना है कि चाहे वाल्मीकि कृत रामायण हो या तुलसीकृत रामचरितमानस हो इन दोनों ग्रंथों में ही किसकी पूजा की जाए , कहीं पर भी इस पर प्रकाश नहीं डाला गया है। केवल इतना ही बताया गया है कि सत्य पर चलो, अन्याय अत्याचार मत करो, अहंकार मत करो। इसका अर्थ है कि जीवन में पवित्रता लाने के लिए इन महान ग्रंथों में से हमें अच्छी-अच्छी चीजों को ले लेना चाहिए। यही आज का सामाजिक और मानवीय धर्म हो सकता है। दूसरों की पूजा पद्धतियों पर हम अनावश्यक छींटाकशी ना करें। हमारे संविधान की भी धारणा यही है। धर्म हमें एकात्मता के सूत्र में बांधता है। एकात्मता मानवीय संवेदनाओं के फूलों को एक सूत्र में बांधने का काम करती है। एकात्मकता की यह पवित्र भावना हमें अपने राष्ट्रीय संकल्पों, उद्देश्यों और लक्ष्यों के प्रति समर्पित होने के लिए प्रेरित करती है। इसी से राष्ट्रीय परंपराओं का विनिर्माण होता है। इसी से राष्ट्रीय सामाजिक समस्याओं का समाधान होता है। रामायण हमारी लोक परंपराओं को, जीवन शैली को और हमारी राष्ट्रीय परंपराओं को एक सर्वग्राही स्वरूप प्रदान करती है। यह स्वरूप सार्वकालिक और सार्वभौमिक स्वरूप है। जिसे कोई सांप्रदायिक पूर्वाग्रह के चलते ना मानना चाहे तो दूसरी बात है अन्यथा इसे सर्वस्वीकृति मिलना पूरे मानव समाज के लिए अत्यंत अनिवार्य है। इसी से बनेगा – परमवैभव संपन्न विश्वगुरु भारत।
    भागवत जी की मान्यता है कि यदि मुसलमान समाज को कृष्ण भक्त रसखान और विट्ठल भक्त शेख मोहम्मद जैसे कवियों और दारा शिकोह जैसे मानवतावादी मुसलमानों के विचारों को बताया समझाया जाए तो हम भारतीय समाज को कई प्रकार की विघटनकारी शक्तियों के चंगुल से बचा सकते हैं। उनका मानना है कि यदि शिवाजी महाराज जी की सेना में मुस्लिम रहकर देश के लिए लड़ सकते हैं तो फिर किसी पर भी अविश्वास का प्रश्न ही नहीं है। यह बात इसलिए और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है कि शिवाजी अपने जीवन काल में हिंदवी स्वराज्य के माध्यम से सीधे हिंदू राष्ट्र निर्माण का संकल्प लेकर आगे बढ़ रहे थे। धर्म को हमें वास्तविक अर्थो में समझने की आवश्यकता है। जिस दिन धर्म का जोड़ने का वास्तविक स्वरूप लोगों की समझ में आ जाएगा उस दिन देश में सांप्रदायिक समस्या स्वयं समाप्त हो जाएगी। हमें पूजा पद्धतियों को लेकर लड़ने झगड़ने की आवश्यकता नहीं है। कट्टरता का जमकर विरोध करना चाहिए। क्योंकि कट्टरता के विस्तार लेने से राष्ट्रीय समस्याएं अपने भयावह स्वरूप में प्रकट होती हैं। जिससे मानव समाज को कष्ट झेलने पड़ते हैं। हम अपने मौलिक स्वरूप में हिंदू राष्ट्र हैं। इसके लिए हमें चीजों को व्यापक स्तर पर बदलने की आवश्यकता नहीं है। कुछ संकीर्णताओं को छोड़ने की आवश्यकता है । जैसे ही संकुचित दृष्टिकोण को छोड़ा जाएगा चीजें अपने आप ठीक होने लगेंगी। इस प्रकार के संकुचित दृष्टिकोण को छोड़ने के लिए किसी को लाठी से सीधा नहीं किया जा सकता। इसके लिए सही रास्ता है हृदय परिवर्तन करना। लोगों के भीतर केवल एक भाव होना चाहिए कि हम हिंदू हैं। हमारी पूजा पद्धति अलग हो सकती है परंतु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि हमारा हिंदू स्वरूप समाप्त हो गया। हिंदू होने का अभिप्राय भारतीय होने से है । इसे अपनी राष्ट्रीय पहचान के रूप में स्वीकृति देने की आवश्यकता है।
    भारत ने इस्लाम को मानने वाले लोगों को अपनी मजहबी रवायतों को पालन करने की पूरी छूट दी है। कई ऐसी चीजें हैं जो भारत के बाहर इस्लामिक कंट्रीज में भी अपनाई जानी संभव नहीं हैं। पर वह भारत में होती देखी जाती हैं। यही भारत की खूबसूरती है। यही भारत के लोकतंत्र की महानता है और यही हमारे भारतीय संस्कारों की पवित्रम विरासत है। मोहन भागवत जी का कहना है कि ‘मुसलमान होने के बाद भी हमारे पास कव्वाली क्यों है जो अन्य इस्लामिक देशों में नहीं चलती? अखंड भारत की सीमा के बाहर क़व्वाली आज भी नहीं चलती है। कब्र- मजारों की पूजा अन्य जगह नहीं चलती है। पैगंबर साहब का जन्मदिन ईद-ए-मिलाद-उन-नबी वह सेलिब्रेशन के रूप मेंअखंड भारत की सीमा में ही चलता है।’
    इस प्रकार की लोकतांत्रिक परंपराओं का पालन करना ही श्री राम की विरासत है । यदि आज हम श्री राम जन्मभूमि पर मंदिर बनाने में सफल हुए हैं तो इस मंदिर से हम राष्ट्र निर्माण के लिए इसी प्रकार का संदेश देना चाहते हैं। धर्म की पवित्रता को सर्वत्र मान्यता मिलनी चाहिए । अधर्म कहीं पर भी नहीं होना चाहिए।
    अधर्म , अनैतिकता और अपवित्रता के विरुद्ध ही श्री राम ने संघर्ष किया था । उनका वह शाश्वत संघर्ष आज भी दानवीय शक्तियों के विरुद्ध जारी है। देवता और दैत्यों का संघर्ष भारत की प्राचीन संस्कृति का एक अविभाज्य अंग है । यह सनातन में शाश्वत चलता रहता है। सनातन इस प्रकार के संघर्ष में देवताओं के साथ खड़ा दिखाई देता है और सत्यमेव जयते की बात कह कर अंत में देवताओं की ही विजय होगी – ऐसा मानकर चलता है। आज के भारत के युवा वर्ग को इसी दिशा में कार्य करना चाहिए। सत्यमेव जयते कहना भारत की ऋषि परंपरा का पालन करना है। रामचंद्र जी के आदर्श जीवन को अंगीकार करना है। वेदों की आदर्श व्यवस्था को लागू करना है। इस उद्घोष से भारत विश्व को भी यह संदेश देने की क्षमता रखता है कि संसार की आसुरी शक्तियां देवताओं के साथ चल रहे संघर्ष में कभी भी सफल नहीं हो सकतीं। आज के युवा वर्ग को भारत को समझने के लिए विशेष परिश्रम और अध्ययन करने की आवश्यकता है। वह जितना ही अधिक भारत को समझेगा ,उतना ही वह भारत के लिए उपयोगी सिद्ध होता जाएगा।
    रामराज्य की संकल्पना और और उसे वर्तमान में किस प्रकार लागू किया जा सकता है ? इस पर अपने विचार व्यक्त करते हुए मोहन भागवत जी का कहना है कि जनता नीतिमान और राजा शक्तिमान और नीतिमान इस प्रकार की वो व्यवस्था थी। जनता के सामने राजा नम्र था और राजा की आज्ञा में जनता थी,यानी लोगों की चलेगी या राज्य की चलेगी ऐसा सवाल नहीं था। राजा कहता था जैसा लोग कहेंगे वैसा होगा और समाज कहता था कि राजा को सब पता है वह जो कहेगा वैसा होगा। मुख्यत: चोरी-चपाटी की बातें नहीं थी। नीतिमानता थी, उद्योग-परिश्रम की कीमत थी। श्रम को आदर और सम्मान दिया जाता था और अपने परिश्रम से जीने की युक्ति थी। अत: समृद्धि थी। भरपूर लक्ष्मी थी और धन का व्यय धर्म के लिए होता था, भोग के लिए नहीं। जितने भोग आवश्यक थे वह सब दिए जाते थे। जहां-जहां आवश्यकता है वहां थोड़ा बहुत जीवन रंगबिरंगा हो इसलिए साज-सज्जा भी रहती थी। …..इस प्रकार का जनजीवन अपने को समझने वाला, अनुशासित, संयमित,जागरूक, संगठित और राजा धर्म की रक्षा करने वाला और स्वयं धर्म से चलने वाला, नियमों का पूर्ण पालन करने वाला, सत्ता को प्रतिष्ठा मानकर उसका उपयोग जनहित के लिए करने वाला था। यानी राजा बोल रहा था कि राज्य आपका है आप करो। पिताजी के मन में भी यही था पर माताजी के कारण राम को जंगल में भेज दिया। वे चले भी गए। भरत ने कहा मुझे राज्य मिला। माताजी का भी आग्रह छूट गया। अब मैं आपको कह रहा हूं वापस चलो। पर राम जी कहते हैं नहीं, मैंने वचन दिया है। यह दोनों सत्ताधारी हैं लेकिन राज्य का लालच किसी को भी नहीं है। आखिर भरत को वापस जाना पड़ा तो राम की पादुका को सिंहासन पर बिठाया, तो राजा ऐसे और प्रजा ऐसी – यह रामराज्य था।

    व्यवस्थाएं आज बदल गई हैं। लेकिन लोगों की नियत-नीति, भौतिक अवस्था, राजा की नियत-नीति और भौतिक अवस्था यानि राज्य शासन में जितने भी लोग हैं और इस बीच जो प्रशासन है यह तीनों की जो गुणवत्ता (क्वालिटी) है। वह गुणवत्ता हमको फिर से लानी पड़ेगी। उस क्वालिटी को रामराज्य कहते हैं।
    उसके परिणाम यह है कि रोग नहीं रहते, असमय मृत्यु नहीं होती, कोई भूखा नहीं, कोई प्यासा नहीं, कोई भिखारी नहीं, कोई चोर नहीं, कोई दंड देने के लिए नहीं तो फिर दंड क्या करें। यह सारी बातें परिणाम स्वरूप है क्योंकि उसके मूल में राज्य व्यवस्था-प्रशासन व्यवस्था और सामाजिक संगठन इन तीनों की एक वृत्ति है।’
    (“विवेक” हिन्दी मासिक पत्रिका के साथ भागवत जी के साक्षात्कार से उद्धृत)

    डॉ राकेश कुमार आर्य

    राम मंदिर और संघ की राष्ट्रवादी चिंतनधारा

    17 मार्च 2024 को नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक संपन्न हुई। जिसमें एक प्रस्ताव राम मंदिर निर्माण के संदर्भ में पारित किया गया।इस प्रस्ताव में राम मंदिर निर्माण के बाद अयोध्या में संपन्न हुए प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम की सराहना करते हुए कहा गया कि श्री अयोध्या धाम में प्राण प्रतिष्ठा के दिन धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक जीवन के संपूर्ण क्षेत्र के शीर्ष नेतृत्व के साथ-साथ सभी धर्मों, संप्रदायों और परंपराओं के श्रद्धेय संतों की गरिमामय उपस्थिति देखी गई।
    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विरोधियों की दृष्टि में यह संगठन आज भी देश में सांप्रदायिकता की आग लगने वाला संगठन माना जाता है। पर याद रहे कि आरएसएस के विरोधी लोग देश में छद्म धर्मनिरपेक्षता और तुष्टीकरण के समर्थक लोग हैं। जिन्हें किसी भी गैर हिंदू संप्रदाय की सांप्रदायिकता में कोई हिंसा दिखाई नहीं देती । यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ किसी संप्रदाय की हिंसा संबंधी अवधारणा, सिद्धांतों, मान्यताओं ,विचारधारा और तत्संबंधी बनाई जा रही योजना को उजागर करता है तो उन आलोचक लोगों की दृष्टि में यह इस संगठन का एक बड़ा अपराध है । जबकि देश का राष्ट्रवादी समाज अब यह स्पष्ट रूप से मानने लगा है कि देश की संस्कृति को बचाए रखने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विशेष और महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने राम मंदिर निर्माण को राष्ट्र निर्माण के साथ जोड़कर देखा। जब इस मंदिर का निर्माण पूर्ण हुआ तो इस राष्ट्रवादी संगठन ने अपने उक्त प्रस्ताव में यह स्पष्ट किया कि “यह श्री राम के मूल्यों पर आधारित सामंजस्यपूर्ण और संगठित राष्ट्रीय जीवन के निर्माण के लिए माहौल बनाने की ओर इशारा करता है। यह भारत के राष्ट्रीय पुनरुत्थान के गौरवशाली युग की शुरुआत का भी संकेत है, ”
    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने श्री राम को भारतीय चेतना का प्रतीक पुरुष स्वीकार किया और इसी रूप में उन्हें स्थापित करने के लिए संघर्ष किया। वास्तव में किसी भी प्रगतिशील और चेतनशील समाज और राष्ट्र के पास कोई ना कोई ऐसा चेतन पुरुष राष्ट्र पुरुष के रूप में (शाश्वत और सनातन बने रहकर) होना चाहिए जो उसे युग युगांत तक नवचेतना से भरने की क्षमता रखता हो। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने श्री राम जी को इसी रूप में देखा। श्री राम नाम के घाट पर भारत का बहुत बड़ा वर्ग एक साथ आकर बैठ सकता है । एक साथ पानी पी सकता है। एक साथ भोजन कर सकता है । श्री राम के नाम में यह बहुत बड़ी ताकत है जो हमें राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने के संदर्भ में भुनानी चाहिए। इसी को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सक्रिय हुआ।
    श्री राम जी के भव्य और दिव्य व्यक्तित्व की ओर संकेत करते हुए संघ ने अपने उक्त प्रस्ताव में स्पष्ट किया कि “श्री राम जन्मभूमि पर रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के साथ, समाज विदेशी शासन और संघर्ष के काल में उत्पन्न आत्मविश्वास की कमी और आत्म-विस्मृति से बाहर आ रहा है। हिंदुत्व की भावना में डूबा पूरा समाज अपने ‘स्व’ को पहचानने की तैयारी कर रहा है और उसके अनुसार जीने के लिए तैयार हो रहा है।’
    वास्तव में किसी भी राष्ट्र को जब उसका स्वबोध हो जाता है तभी वह एक राष्ट्र के रूप में संगठित होकर आगे बढ़ता है। स्वबोध के बिना किसी भी राष्ट्र की राष्ट्र के रूप में प्रगति और उन्नति संभव नहीं है। पूर्ण समृद्धि प्राप्ति के लिए स्वबोध आत्मबोध की उस पराकाष्ठा तक ले जाता है जिसमें व्यक्ति पूर्ण स्वाधीनता का अनुभव करते हुए अपने आत्मा और परमात्मा के साथ तारतम्य स्थापित कर मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। हिंदुत्व मूल रूप में उस वैदिक आर्य विचारधारा का प्रतिनिधि शब्द है जिसमें व्यक्ति अपनी इसी उच्चता को प्राप्त करने के लिए जीवन को स्वतंत्रता पूर्वक भोगने के लिए पैदा होता है। यदि उस पर किसी भी प्रकार का अंकुश या प्रतिबंध किसी भी ओर से लगता है या अनुभव होता है तो समझिए कि उसकी स्वाधीनता खतरे में है। श्री राम का भव्य व्यक्तित्व हिंदुत्व का स्वबोध कराने की ही क्षमता नहीं रखता बल्कि इससे आगे बढ़कर मानव मात्र को भी स्वबोध कराने की क्षमता रखता है।
    आर्य वैदिक विचारधारा में राष्ट्र हमारी उस सामूहिक चेतना का नाम है जो हम सबको संरक्षित रखने की क्षमता रखती है। इसकी रक्षा के लिए बलिदानों की आवश्यकता होती है। इन बलिदानों को व्यक्ति और पूरा समाज सामूहिक रूप से देने के लिए भी उठ खड़ा होता है। जब इस प्रकार के बलिदानों की झड़ी लगती है तो राष्ट्र की फसल लहलहाती है, बचती है, सुरक्षित रहती है। भारत के इतिहास में बलिदानों की लंबी श्रृंखला का मिलना इसी बात का प्रमाण है कि भारत के लोगों में स्वबोध कूट-कूट कर भरा रहा। राम के शासन के आदर्श ने राम राज्य के रूप में विश्व इतिहास में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाने में सफलता प्राप्त की है। जिसके चलते यह स्पष्ट हो जाता है कि श्री राम के आदर्श सार्वभौमिक और शाश्वत हैं।
    जब विश्व में अनेक संप्रदायों ने जन्म लिया और उन्होंने संपूर्ण वैश्विक धरातल से वैदिक विचारधारा को नष्ट करने का संकल्प लेकर रक्तपात करना आरंभ किया तो इसका सबसे अधिक घातक प्रभाव वैदिक विचारधारा पर ही पड़ा। हिंदुत्व ने जमकर इस रक्तपात की विचारधारा का सामना किया बहुत भारी क्षति उठाने के उपरांत आज वैदिक विचारधारा की प्रतिनिधि हिंदुत्व की विचारधारा कुल मिलाकर सिमटकर केवल भारतवर्ष में ही रह गई है। इस विचारधारा को सुरक्षित रखने के लिए भारतवर्ष ही नहीं बल्कि मानवता की अंतरात्मा भी पुकार रही है। तभी तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने उपरोक्त प्रस्ताव में यह भी स्पष्ट किया कि, “जीवन मूल्यों में गिरावट, मानवीय संवेदना में गिरावट, बढ़ती विस्तारवादी हिंसा और क्रूरता आदि की चुनौतियों का सामना करने के लिए राम राज्य की यह अवधारणा पूरी दुनिया के लिए आज भी अनुकरणीय है।”
    प्रतिनिधि सभा ने प्रस्ताव के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मौलिक विचारधारा और चिंतन को भी स्पष्ट किया -‘पूरे समाज को भगवान राम के आदर्शों को अपने जीवन में उतारने का संकल्प लेना चाहिए ताकि राम मंदिर के पुनर्निर्माण का उद्देश्य सार्थक हो सके।’
    इस कथन से स्पष्ट होता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देश में आग लगाने या किसी संप्रदाय विशेष को अपने निशाने पर लेने के लिए राम मंदिर के लिए संघर्षरत नहीं रहा है , इसके विपरीत वह राम के आदर्शों को अपने जीवन में उतारने का संकल्प लेने के लिए देश के प्रत्येक नागरिक को प्रेरित करना अपनी जिम्मेदारी मानता है। इससे भारत में वास्तविक सामाजिक सद्भाव की पुनर्स्थापना करने में सहायता प्राप्त होगी। इसके साथ ही साथ विश्व मंचों पर भी भारत की बात को स्पष्टता के साथ कहा जा सकेगा। जिससे ‘विश्व एक परिवार’ की पवित्र भावना को स्थापित करते हुए भारत के ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के आदर्श को वैश्विक मान्यता दिलाने के लिए ठोस प्रयास किये जा सकेंगे।
    अपनी इस धारणा और चिंतन को स्पष्ट करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मान्यता रही है कि “श्री राम के जीवन में परिलक्षित त्याग, स्नेह, न्याय, वीरता, सद्भावना और निष्पक्षता आदि जैसे धर्म के शाश्वत मूल्यों को फिर से समाज में स्थापित करना आवश्यक है। सभी प्रकार के आपसी कलह और भेदभाव को मिटाकर सद्भाव पर आधारित पुरुषार्थी समाज का निर्माण ही श्री राम की सच्ची पूजा होगी।”
    इस सारे उद्धरण में ‘पुरुषार्थी समाज’ शब्द विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। वास्तव में भारत विश्व गुरु इसीलिए रहा कि इसने प्राचीन काल से ही आश्रम व्यवस्था के माध्यम से पुरुषार्थी समाज का निर्माण करने को प्राथमिकता दी थी। निकम्मा, आलसी, प्रमादी और दूसरों का हक मार कर खाने वाले भ्रष्टाचारी समाज की कल्पना तक भी हमारे ऋषियों ने नहीं की थी। आश्रम शब्द का अभिप्राय ही यह है कि इसमें श्रम ही श्रम है। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि आश्रम व्यवस्था पुरुषार्थी समाज की स्थापना का संकल्प है । इसे भारत की संस्कृति का एक मूलभूत सिद्धांत या मूल्य भी कहा जा सकता है। इसी को स्थापित करना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी प्राथमिक मानता है।
    प्रस्ताव के अंत में कहा गया है कि ‘अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा सभी नागरिकों से एक ऐसे “सक्षम भारत” के निर्माण का आह्वान करती है जो भाईचारा, कर्तव्य चेतना, मूल्य आधारित जीवन और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करता हो, जिसके आधार पर देश सार्वभौमिकता सुनिश्चित करने वाली वैश्विक व्यवस्था को बढ़ावा देने में प्रमुख भूमिका निभा सके।’
    इस संकल्पना प्रस्ताव में एक-एक शब्द का चयन बहुत सोच समझकर किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मौलिक विचारधारा पूर्णतया राष्ट्रपरक है। जिसके माध्यम से भारत को विश्व गुरु बनाने का रास्ता निकलता दिखाई देता है।

    डॉ राकेश कुमार आर्य

    हिन्दू विवाह पर सर्वोच्च अदालत का स्वागतयोग्य फैसला

    – ललित गर्ग –

    देश की सर्वोच्च अदालत ने हिन्दू विवाह को लेकर बड़ा फैसला देकर न केवल हिन्दू विवाह के संस्कारों एवं पारंपरिक रिवाजों को पुष्ट किया है बल्कि उन्हें कानूनी दृष्टि से आवश्यक स्वीकार किया है। आज जबकि हिन्दू विवाह की पवित्रता एवं परम्परा तथाकथित आधुनिक जीवन एवं प्रभाव के कारण धुंधली होती जा रही है, पाश्चात्य संस्कृति की आंधी में हिन्दू विवाह की पवित्रता समाज में समय के साथ घटी है और उसमें सुधार एवं सुदृढ़ता की जरूरत है। जो लोग विवाह को मात्र एक पंजीकरण मानते हैं, उन्हें चेत जाना चाहिए। उन्हें सात फेरों का अर्थ समझना होगा। बिना सात फेरों, हिन्दू रीति-रिवाजों एवं वैवाहिक आयोजनों के कोर्ट की दृष्टि में भी विवाह मान्य नहीं होगा। हिंदू विवाह पर कोर्ट का ताजा फैसला न केवल स्वागतयोग्य है बल्कि इसके दूरगामी परिणाम सुखद होंगे। इससे हिन्दू संस्कृति एवं संस्कारों को बल मिलेगा। पारिवारिक-संस्था को मजबूती मिलेगी।
    हिंदू विवाह से जुड़ा यह फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि शादी ‘गाने और डांस’, ‘शराब पीने और खाने’ का आयोजन या अनुचित दबाव डालकर दहेज और गिफ्ट्स की मांग करने का मौका नहीं है। विवाह कमर्शियल ट्रांजैक्शन नहीं है। यह एक गंभीर बुनियादी सांस्कृतिक एवं पारिवारिक आयोजन है, जिसे एक पुरुष और एक महिला के बीच संबंध बनाने के लिए मनाया जाता है, जो भविष्य में एक अच्छे परिवार के लिए पति और पत्नी का दर्जा प्राप्त करते हैं। यह भारतीय हिन्दू समाज-व्यवस्था की एक बुनियादी इकाई एवं मजबूत सांस्कृतिक एवं पारिवारिक आयाम है। दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि बिना सात फेरों के हिन्दू विवाह को मान्यता नहीं मिल सकती है अर्थात शादी के लिए हिन्दू विवाह अधिनियम में जो नियम और प्रावधान बनाए गए हैं उसका पालन करना होगा। इस तरह कोर्ट ने अपने फैसले में हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत हिंदू विवाह की कानूनी आवश्यकताओं और पवित्रता को स्पष्ट किया है। अधिनियम के अनुसार, एक हिंदू विवाह किसी भी पक्ष के पारंपरिक संस्कारों और समारोहों के अनुसार संपन्न किया जाएगा। समारोहों में सप्तपदी (दूल्हा और दुल्हन द्वारा पवित्र अग्नि के चारों ओर संयुक्त रूप से सात कदम उठाना) शामिल है, और जब वे सातवां चरण एक साथ लेते हैं तो विवाह पूर्ण और बाध्यकारी हो जाता है। कुल मिलाकर हिन्दू विवाह एक संस्था है, संस्कार है और विवाह कोई व्यावसायिक लेन-देन नहीं है।
    कोर्ट ने जोर दिया है कि हिंदू विवाह की वैधता के लिए सप्तपदी (पवित्र अग्नि के चारों ओर सात फेरे) जैसे उचित संस्कार और उससे जुड़े समारोह जरूरी है। विवाद की स्थिति में समारोह के प्रमाण पेश करना जरूरी है। कोर्ट की सात फेरों और उससे जुड़े समारोह का मूल्य समझाने की यह कोशिश हिन्दू विवाह को न केवल मजबूती प्रदान करेंगी बल्कि आधुनिकता की आंधी में धुंधलाते मूल्यों को नियंत्रित करने का काम करेगी। इसमें कोई शक नहीं कि विवाह संस्कार का मूल महत्व पहले की तुलना में कम हुआ है, अब विवाह बहुतों के लिए एक दिखावा, मजबूरी या समझौता भर रह गया है। न्यायमूर्ति बी नागरत्ना ने अपने प्रासंगिक एवं उपयोगी फैसले में बिल्कुल सही कहा है कि हिंदू विवाह एक संस्कार है, जिसे भारतीय समाज में एक महान मूल्य की संस्था के रूप में दर्जा दिया जाना चाहिए। पारंपरिक संस्कारों या सात फेरों जैसी रीतियों के बिना हुए विवाह को हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 7 के अनुसार हिंदू विवाह नहीं माना जाएगा। इस वजह से कोर्ट ने युवा पुरुषों और महिलाओं से आग्रह किया हैं कि वो विवाह की संस्था में प्रवेश करने से पहले इसके बारे में गहराई से सोचें और भारतीय समाज में उक्त संस्था कितनी पवित्र है, इस पर विचार करें।
    प्रश्न है कि हिन्दू विवाह को लेकर कोर्ट को जागरूक होने एवं हिन्दू संस्कारों को मजबूती देने की जरूरत क्यों पड़ी? हिन्दू विवाह से जुड़े संस्कारों एवं पारंपरिक रीति-रिवाजों को लेकर अनेक मामले कोर्ट की चौखट पर आते रहे हैं, हर बार कोर्ट सजगता, दूरदर्शिता एवं विवेक से विवाह-संस्था से जुड़े मामलों पर अपना नजरिया प्रस्तुत करती रही है। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने पिछले दिनों यह माना कि हिंदू विवाह अधिनियम के अनुसार, हिंदू विवाह को संपन्न करने के लिए कन्यादान का समारोह जरूरी नहीं है। उस फैसले में भी सप्तपदी के महत्व को दर्शाया गया था। मध्यप्रदेश की एक परिवार अदालत के फैसले में महिला पक्ष को यह समझाया गया था कि सिंदूर लगाना एक विवाहित हिंदू महिला का धार्मिक कर्तव्य होता है। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले में ऐसी ही समझाइश की कोशिश झलकती है। कुल मिलाकर, न्यायालय का संदेश यह है कि फिजूल के तमाशे-दिखावे से बचते हुए विवाह के मूल अर्थ को समझना चाहिए। हिंदू विवाह को लेकर अब ज्यादा स्पष्टता की जरूरत है और विशेषतः हिन्दू संस्कारों एवं संस्कृति को बल देने की भी। क्योंकि भारत में परिवार संस्था कायम है तो इसका कारण हिन्दू संस्कार एवं परम्पराएं ही हैं। इस तरह कोर्ट ने अपने फैसले में हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत हिंदू विवाह की कानूनी आवश्यकताओं और पवित्रता को स्पष्ट किया है।
    हिन्दू विवाह एक आदर्श परम्परा एवं संस्कार है। हिंदू धर्म में विवाह को सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना गया है। विवाह = वि $ वाह, अतः इसका शाब्दिक अर्थ है – विशेष रूप से उत्तरदायित्व का वहन करना। पाणिग्रहण संस्कार को सामान्य रूप से हिंदू विवाह के नाम से जाना जाता है। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है जिसे विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है परंतु हिंदू विवाह पति और पत्नी क बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध होता है जिसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रूव तारा को साक्षी मान कर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। यह दो परिवारों का भी मिलन है। हिंदू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक संम्बंध से अधिक आत्मिक संम्बंध होता है और इस सम्बंध को अत्यंत पवित्र माना गया है।
    हिन्दू विवाह का न केवल पारिवारिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक महत्व है, बल्कि उसका गहन आध्यात्मिक महत्व भी है। हिंदू धर्म ने चार पुरुषार्थ (जीवन की चार बुनियादी खोज), यानी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष निर्धारित किया है। विवाह संस्कार का उद्देश्य ‘काम’ के पुरुषार्थ को पूरा करना और फिर धीरे-धीरे ‘मोक्ष’ की ओर बढ़ना है। एक पुरुष और महिला के जीवन में कई महत्वपूर्ण चीजें शादी से जुड़ी होती हैं; उदाहरण के लिए, पुरुष और महिला के बीच प्यार, उनका रिश्ता, संतान, उनके माता-पिता, उनके जीवन में विभिन्न सुखद घटनाएं, सामाजिक स्थिति और समृद्धि। हिंदू समाज में एक विवाहित महिला को अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। उसके माथे पर कुमकुम-सिन्दूर के साथ एक महिला की दृष्टि, उसके गले में एक मंगलसूत्र पहने हुए, हरी चूड़ियाँ, पैर के अंगूठे के छल्ले और छह या नौ-यार्ड साड़ी स्वचालित रूप से एक पर्यवेक्षक के मन में उसके लिए सम्मान उत्पन्न करता है। हिंदू विवाह के सात वचनों में से, कम से कम तीन ऐसे हैं, जहां जोडे अपने बुजुर्गों की देखभाल करने का वादा करते हैं। पांचवां वचन अपनी संतान पैदा करने और उसकी देखभाल करने का है।
    हाल के वर्षों में, भारत में हिन्दू विवाह परम्परा एवं संस्कृति से अनेक विसंगतियां एवं विकृतियां जुड़ गयी है, डेटिंग संस्कृति की शुरुआत के साथ, लव-मेरिज का प्रचलन बढ़ा है। संभावित दूल्हा और दुल्हन अपने दम पर जीवनसाथी चुनना पसंद करते हैं। आज के रोमांटिक-रिश्ते वास्तव में विवाह नहीं हैं, बल्कि एक नई प्रथा है, जिसके विपरीत प्रभाव से परिवार-संस्था बिखरने लगी है। विवाह के साथ प्रीवेडिंग का प्रचलन भी अनेक विकृतियों का वाहक बना है, बड़े-बडे़ भव्य आयोजन एवं होटल संस्कृति ने भी विवाह की पवित्रता को धुंधलाया है। आयोजनों में शराब एवं अन्य नशों का बड़ा प्रचलन भी दुर्घटनाओं का कारण बना है। जिनके कारण विवाह होने से पहले ही उसमें दरारें पड़ते हुए देखी गयी है।

    विरासत टैक्स और कांग्रेस का चरित्र

    जिन्हें हम अधिकार कहते हैं मातृभूमि के संदर्भ में वही हमारे लिए कर्तव्य होते हैं। वर्तमान शिक्षा प्रणाली अधिकार और कर्तव्य के बीच उतनी सूक्ष्मता से अंतर नहीं कर पाई जितनी अपेक्षा थी। जब बात राष्ट्र की आए तो वहां पर कर्तव्य अर्थात करणीय कर्म ही हमारे लिए सबसे बड़ा धर्म बन जाता है। वहां अधिकार की दुहाई देना मूर्खता की पराकाष्ठा होती है। स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज जी ने सूरत के कांग्रेस अधिवेशन की घटनाओं को लेकर कांग्रेस की दोगली नीति, चाल, चरित्र और चेहरे को लताड़ते हुए ‘सद्धर्म-प्रचारक’ में लिखा था- “आज तुम्हारी ( कांग्रेस के महात्मा गांधी जैसे नेताओं की ) इन्द्रियां तुम्हारे वश में नहीं, जब अपने मन पर तुम्हारा कुछ अधिकार नहीं, तब तुम दूसरे से क्या अधिकार प्राप्त कर सकते हो ? अधिकार ! अधिकार !! अधिकार !!! हा ! तुमने किस गिरे हुए शिक्षणालय में शिक्षा प्राप्त की थी ? क्या तुमने कर्तव्य नहीं सुना ? ( राष्ट्र के संदर्भ में कर्तव्य निभाने होते हैं और बिना किसी पक्षपात के निभाने होते हैं। उनके निभाने में किसी प्रकार की चूक नहीं की जाती । किसी प्रकार का तुष्टिकरण नहीं किया जाता। जो राष्ट्र हित में उचित होता है, वही किया जाता है । उसी को कर्तव्य कहते हैं। उसी को धर्म कहते हैं।) क्या तुम धर्म शब्द से अनभिज्ञ हो ? (अर्थात अपने कर्तव्य – धर्म को जानकर अंग्रेजों के सामने भीख मत मांगो बल्कि मातृभूमि के लिए जो करना उचित है, उसे कर जाओ ) मातृभूमि में अधिकार का क्या काम ? यहां धर्म ही आश्रय दे सकता है। अधिकार शब्द से सकामता की गन्ध आती है। विषय-वासना का दृश्य दृष्टिगोचर होता है। इस अधिकार की वासना को अपने हृदय से नोंच कर फेंक दो। निष्काम भाव से धर्म का सेवन करो। माता पर जब चारों ओर से प्रहार हो रहे हों, जब उसके केश पकड़ कर दुष्ट दुःशासन उसको भूमि पर घसीट रहा हो, क्या वह समय अधिकार की पुकार मचाने का है?… शब्दों पर क्यों झगड़ते हो ? क्यों न स्वराज्य प्राप्ति के साधनों को सिद्ध करने में लगो ? स्वराज्य के प्रकार का झगड़ा आने वाली सन्तानों के लिए छोड़ो। उनकी स्वतन्त्रता पर इस समय इन झगड़ों से जंजीरें डालना अधर्म है। इस समय दोनों छल-कपट से कार्य ले रहे हैं। जिस कांग्रेस का आधार अधर्म पर है, उसका प्राप्त कराया हुआ स्वराज्य कभी भी फलदायक न होगा, कभी भी सुख तथा शान्ति का राज्य फैलाने वाला न होगा। एक ऐसे धार्मिक दल की आवश्यकता है जो विरोधी को धोखा देना भी वैसा ही पाप समझता हो, जैसे कि अपने भाई को, जो सरकारी अत्याचारों को प्रगट करते हुए अपने भाइयों की दुष्टता तथा उनके अत्याचारों को भी न छिपाने वाला हो, जो मौत के भय से भी न्याय के पथ को छोड़ने का विचार तक मन में न लाने वाला हो। पोलिटिकल जगत् में ऐसे ही अग्रणी की आवश्यकता है। क्या कोई महात्मा आगे आने का साहस करेगा और क्या उसके पीछे चलने वाले 5 पुरुष भी निकलेंगे? यदि इतना भी नहीं हो सकता तो स्वराज्य प्राप्ति के प्रोग्राम को पचास वर्षों के लिए तह करके रख दो।”
    इस लेख में स्वामी जी महाराज स्पष्ट कह रहे हैं कि जिस कांग्रेस का आधार अधर्म है, उसका प्राप्त कराया हुआ स्वराज्य कभी भी फलदायक न होगा। स्वामी जी कांग्रेस के तुष्टीकरण के खेल के परम विरोधी थे। सनातनधर्मियों की उपेक्षा कर कांग्रेस जिस प्रकार मुसलमानों का तुष्टिकरण करती जा रही थी, उसे लेकर स्वामी जी महाराज कांग्रेस पर इसी प्रकार के तीखे प्रहार करते रहे। आज उन घटनाओं को 100 वर्ष से अधिक का समय हो गया है जब स्वामी जी महाराज कांग्रेस के सनातन विरोधी चरित्र पर इस प्रकार की सख्त भाषा का प्रयोग कर रहे थे, पर कांग्रेस है कि उसने अपने चाल ,चरित्र पर चेहरे में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया। कांग्रेस से पूर्णतया बागी हो चुके स्वामी जी ने अन्यत्र अपने लेख में लिखा था- “यदि अग्नि और खड्ग की धार पर चलने वाले दस पागल आर्य भी निकल आवें तो राजा और प्रजा दोनों को होश में ला सकते हैं। भगवन् आर्यसमाजियों की आंखें जाने कब खुलेंगी?” ‘आर्य समाज का इतिहास’ नामक पुस्तक में स्वामी श्रद्धानंद जी के सुपुत्र इंद्र विद्यावाचस्पति जी लिखते हैं कि इसी दृष्टि से आप नरम दल वालों के लिए ‘भिक्षार्थी’ गरम दल वालों के लिए ‘सुखार्थी’ और सरकार के लिए ‘गोराशाही’ शब्दों का प्रयोग किया करते थे।
    आज की कांग्रेस अपने परंपरागत चाल, चरित्र और चेहरे के इतिहास पर अमल करते हुए विरासत टैक्स के माध्यम से देश के बहुसंख्यक समाज के आर्थिक संसाधनों और उसकी कमाई तक को मुसलमानों को देने की घोषणा कर रही है। देश के एक प्रांत से कांग्रेस मुसलमानों को धर्म के आधार पर आरक्षण दे भी चुकी है ,अन्यत्र ऐसा ही करने की तैयारी कर रही है। यद्यपि ऐसा किया जाना भारतीय संविधान की हत्या करने के समान होगा।
    क्योंकि हमारा संविधान संप्रदाय के आधार पर किसी भी प्रकार के आरक्षण का विरोधी है। यह अच्छा ही हुआ कि प्रधानमंत्री श्री मोदी ने अपने चुनावी भाषणों में कांग्रेस की पोल खोल दी है और उसका सच पूरे देश के लोगों के सामने लाकर रख दिया है। ऐसे में देश के सनातनधर्मियों की आंखें खुलनी चाहिए और उन्हें सोच समझकर यह निर्णय लेना चाहिए कि देश दोगली चाल, चरित्र और चेहरे वाले हाथों में सुरक्षित है या फिर देश के लिए समर्पित होकर काम करने वाले नेता के हाथों सुरक्षित है? कांग्रेस ने प्रधानमंत्री श्री मोदी के पोल खोल अभियान पर झूठी चिल्लाहट दिखाने का प्रयास किया है तो प्रधानमंत्री ने और भी स्पष्ट शब्दों में देश के लोगों को कांग्रेस का वास्तविक चरित्र बताने में किसी प्रकार का संकोच नहीं किया।
    प्रधानमंत्री ने कहा है कि कांग्रेस बहुसंख्यक सनातनधर्मियों की संपत्ति को लेकर अधिक संतान वाले वर्ग के लोगों में बांट देगी। इसके संबंध में सच्चाई यह है कि कांग्रेस के पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने मुसलमानों को धर्म के आधार पर आरक्षण देने का मन आजादी के एकदम बाद ही बना लिया था। प्रखर श्रीवास्तव X पर लिखते हैं पाकिस्तान के दबाव में नेहरु ने मुसलमानों को फुल फ्लैश आरक्षण देने का पूरा प्लान तैयार कर लिया था ! नेहरु मुसलमानों को नौकरियों के साथ-साथ चुनावों में भी आरक्षण देने का ब्लू प्रिंट तैयार कर चुके थे ! नेहरु का मुस्लिम चुनावी आरक्षण का प्लान ये था कि – इस देश में कई मुस्लिम सीट बनाईं जाएंगी, जिन पर सिर्फ मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा होगा और वोट डालने का अधिकार भी सिर्फ मुसलमान को होगा… यानी सिर्फ मुसलमानों द्वारा मुसलमान प्रतिनिधि चुना जाएगा… पंचायत से लेकर लोकसभा तक !
    बात 1949 की है… पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश में हिंदू विरोधी दंगे अपने पूरे उफान पर थे। करीब पांच लाख बंगाली हिंदुओं का नरसंहार कर दिया गया। वहीं करीब पचास लाख बंगाली हिंदू जान बचाकर हमेशा-हमेशा के लिए पश्चिम बंगाल आ गये। तब देश के लोगों की इच्छा थी कि पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध की तैयारी की जाए ।पर नेहरू जी ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली के साथ बातचीत करने का निर्णय लिया। बातचीत में लियाकत अली ने प्रधानमंत्री के सामने प्रस्ताव रखा कि वह भारत के मुसलमानों को आरक्षण देने की व्यवस्था करें। बातचीत में यह भी तय किया जाना था कि दोनों देश अपने-अपनेअल्पसंख्यकों को किस प्रकार सुरक्षा प्रदान करें ? पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने तो अपनी बात निसंकोच कह दी, पर भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान में रहने वाले हिंदू अल्पसंख्यकों की बात को उठाना तक उचित नहीं माना। भारत के प्रधानमंत्री ने मुसलमानों को नौकरी आदि में आरक्षण देने के साथ-साथ चुनाव में भी आरक्षण देने की बात को मानकर उसका एक ड्राफ्ट भी तैयार कर लिया।
    जब इस ड्राफ्ट को प्रधानमंत्री नेहरू ने कैबिनेट की मीटिंग के समक्ष रखा तो उस समय सार्वजनिक निर्माण विभाग के मंत्री व गाडगिल ने इसका विरोध किया उन्होंने ‘गवर्नमेंट फ्रॉम इनसाइड’ नामक अपनी किताब में लिखा है कि जब नेहरू ने कैबिनेट के सामने अपने उपरोक्त ड्राफ्ट को रखा तो मुझे इस बात का यकीन नहीं था कि इस ड्राफ्ट पर सरदार पटेल से सहमति ली गई थी या नहीं। समझौते के अंतिम दो पैराग्राफ में भारत के सभी राज्यों की नौकरियों और प्रतिनिधि निकायों (*सभी चुनावों में) में मुसलमानों को उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण देने का वादा किया गया था। केंद्र सरकार की नौकरियों के लिए भी यही प्रावधान रखे गये थे। हम सभी मंत्रियों को ड्रॉफ्ट की एक-एक कॉपी दे दी गई थी लेकिन किसी ने अपना मुंह नहीं खोला। तब मैंने कहा कि – ‘ये दो पैराग्राफ कांग्रेस की पूरी विचारधारा के खिलाफ हैं। मुसलमानों के लिये अलग से सीट स्वीकार करने की वजह से देश को विभाजन की कीमत चुकानी पड़ी। आप हमें फिर से वही ज़हर पीने को कह रहे हैं। ये एक विश्वासघात है, पिछले चालीस वर्षों के इतिहास को भुला दिया गया है।’”
    गाडगिल लिखते हैं कि “मेरे विरोध की वजह से नेहरू नाराज थे लेकिन बाकी मंत्री खुश थे। फिर भी उनमें से किसी ने भी मेरा समर्थन करने की हिम्मत नहीं की। आधे घंटे तक चली चर्चा के बाद मंत्री गोपालस्वामी अयंगर ने कहा कि – ‘गाडगिल की आपत्तियों में दम है’ और उन्होने समझौते के आखिरी दो पैराग्राफ फिर तैयार करने का काम अपने हाथ में ले लिया। इस पर नेहरू ने गुस्से में जवाब दिया कि – ‘मैंने लियाकत अली खान के साथ इस शर्त पर अपनी सहमति व्यक्त की है।‘ तब मैंने उन्हे जवाब दिया कि – ‘आपने उन्हें ये भी बताया होगा कि कैबिनेट की मंजूरी के बाद ही समझौते को अंतिम रूप दिया जाता है। मैं अन्य कैबिनेट सदस्यों के बारे में तो नहीं कह सकता लेकिन मैं इसका सौ फीसदी विरोध करता हूं।’ इस पर सरदार पटेल ने चुपचाप सुझाव दिया कि चर्चा अगले दिन के लिए स्थगित कर दी जाए और बैठक स्थगित कर दी गई।”
    गाडगिल अपनी किताब में आगे लिखते हैं कि उसी रात सरदार पटेल ने उन्हे ये जानकारी दी कि गोपालस्वामी आयंगर ने समझौते के ड्राफ्ट में बदलाव कर दिया है। लिहाज़ा जब अगले दिन मंत्रिमंडल की बैठक हुई तो अंतिम दो पैराग्राफों को हटा दिया गया था। इस तरह सरदार पटेल की समझदारी और एन.वी. गाडगिल की बगावत की वजह से मुसलमानों को आरक्षण देने का नेहरू का सपना चकनाचूर हो गया। समझे न… ये गेम बहुत पुराना है !!!”
    हमें इस समय देश के उन छुपे हुए शत्रुओं को पहचानने की आवश्यकता है जो हमारे बीच रहकर हमारी जड़ों को काट रहे हैं। हमें उन कालिदासों से भी बचने की आवश्यकता है जो जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काट रहे हैं। देश अब और अधिक ‘जयचंद’ झेलने की स्थिति में नहीं है। यदि अभी नहीं तो कभी नहीं के आधार पर निर्णय लेकर चुनाव में हमें हिस्सा लेना चाहिए।

    डॉ राकेश कुमार आर्य

    भारत एवं कनाडा के रिश्ते खतरनाक मोड़ पर

    – ललित गर्ग –

    कनाडा में रविवार को वहां के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो की मौजूदगी में खालसा दिवस समारोह के दौरान खालिस्तान समर्थक नारे लगाए जाने के बाद भारत सरकार जो सख्ती दिखाई है, वह आवश्यक एवं समयोचित कदम है। इस घटना पर भारत का चिंतित होना एवं कनाडा को चेताया जाना स्वाभाविक है। विदेश मंत्रालय में कनाडा के उप-उच्चायुक्त को तलब कर इस मामले में गहरी आपत्ति जताई गई है। कनाडा सरकार ने अपने राजनीतिक हितों के लिये अनेक बार भारत विरोधी घटनाओं में संदेहास्पद एवं विवादास्पद भूमिका का निर्वाह करते हुए अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों की मर्यादाओं को धुंधलाया है। कनाडा की धरती से खालिस्तानी समर्थक अलगाववाद, कट्टरपंथ और हिंसा को बढ़ावा दिया जाता रहा है। इस तरह की घटनाओं से कनाडा में अपराध का माहौल बना हुआ है। इससे कनाडा के नागरिकों के लिए भी खतरा पैदा हो गया है। जिससे भारत में भी स्थितियां संकटपूर्ण बनी है। पिछले साल खुद ट्रूडो ने सार्वजनिक रूप से निज्जर हत्याकांड में भारत के शामिल होने का निराधार आरोप लगाया था। भारत के मांगने के बाद भी आज तक उनकी सरकार इस आरोप के पक्ष में कोई सबूत नहीं दे पाई है। जस्टिन ट्रूडो ने आरोप लगाकर दोनों देशों के बीच विवाद खड़ा कर दिया था। भारत ने आरोप को बेबुनियाद बताते हुए खारिज कर दिया था। इसके बाद से कनाडा और भारत के संबंधों में खटास आ गई और दोनों देशों के रिश्ते सुधरने की बजाय खतरनाक मोड़ पर पहुंच गये हैं।
    रविवार के खालसा दिवस समारोह में न केवल खालिस्तान समर्थक नारे लगाए गए बल्कि ऐसे बैनर प्रदर्शित किए गए, जिनमें भारत-विरोध के त्रासद एवं राष्ट्र-विरोध के भ्रामक, झूठे एवं बेबुनियाद  आरोप थे। अफसोस और चिंता की बात यह रही कि कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने तो इन सब भारत-विरोधी घटनाओं को रोकने की या इन्हें गलत बताने की कोई कोशिश की। इस पूरे मामले में ट्रूडो का व्यवहार आपत्तिजनक बना, दो देशों के बीच खटास घोलने वाला एवं राजनीतिक अपरिपक्वता का रहा। जिसे दोनों देशों के राजनयिक पैमाने पर उचित नहीं कहा जा सकता। इस तरह कनाडा अपने देश की राजनीतिक जरूरतों के चलते भारत के साथ अपने रिश्ते इस मोड़ पर ले आया हैं, जहां उनके बीच विश्वास, भरोसे, आपसी सहयोग और संवाद की कमी है, तो यह अकारण नहीं है।
    भले ही लगभग आठ लाख कनाडाई सिखों की वहां की राजनीति में सक्रिय भागीदार हैं। सिख समुदाय की जरूरतों एवं उनके शांतिपूर्ण जीवन के लिये कनाडा सरकार की प्रतिबद्धता में कोई आपत्ति नहीं हैं। सिख समुदाय के मौलिक अधिकारों व स्वतंत्रता की रक्षा करने के वायदे यदि वहां की सरकार करती है तो अच्छी बात है। भले ही कनाडा सरकार सिखों के सामुदायिक केंद्रों, गुरुद्वारा समेत पूजास्थलों की सुरक्षा को और मजबूत करने के साथ भारत एवं कनाडा के बीच उड़ानें और रूट बढ़ाने को लेकर भारत के साथ नए समझौते करें, लेकिन इन स्थितियों के बीच खालिस्तानी अलगाववाद को प्रोत्साहन देना भारत के लिये असहनीय है। भारत बार-बार इस बात को दोहरा रहा है कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर इस तरह अलगाववादी और अतिवादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देना न केवल दोनों देशों के रिश्तों के लिए बल्कि खुद कनाडा के लिए भी खतरनाक है। भारत जिस तरह से लम्बे समय तक खालिस्तानी आतंकवाद को झेला है, कनाडा में इन तत्वों को प्रोत्साहन देकर कनाडा आतंकवादी गतिविधियों का केन्द्र बन सकता है, जो उसके लिए नुकसानदेह ही साबित होने वाला है।
    निश्चित ही कनाडा में खालिस्तानी आतंकी फल-फूल रहे हैं। खालिस्तानी न केवल भारतीय राजनयिकों को धमका रहे हैं बल्कि हिंदू मंदिरों को भी निशाना बना रहे हैं। कनाडा की धरती पर हर किस्म के खालिस्तानी चरमपंथी ही नहीं पल रहे हैं बल्कि वहां भारत से भागे गैंगस्टर और नशे के तस्कर भी शरण पा रहे हैं। यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद में भारत ने कनाडा को जो खरी-खोटी सुनाई, वह इसलिए आवश्यक थी, क्योंकि वहां की ट्रूडो सरकार अपने भारत विरोधी रवैये से बाज नहीं आ रही है। वह जिस तरह खालिस्तानी अतिवादियों को संरक्षण दे रही है, उसकी मिसाल यदि कहीं और मिलती है तो वह पाकिस्तान में। कनाडा अपने भारत विरोधी रवैये के कारण पाकिस्तान सरीखा बनता जा रहा है। कनाडा अपने हितैषी एवं पडोसी देशों से दूरियां बना रहा है। खालिस्तान समर्थन एवं प्रोत्साहन के चलते कनाडा में फिलहाल कुछ भी ठीक नहीं चल रहा। अपने देश के साथ दुनियाभर में वह आलोचकों के निशाने पर हैं। कनाडा में खालिस्तान समर्थकों पर नियंत्रण रखने में कथित नाकामी के चलते ट्रुडो को अनेक अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर विरोध का सामना करना पड़ रहा है। इसी के चलते जी-20 बैठक में उन्हें भारत और सदस्य देशों का ‘ठंडा’ रिस्पांस मिला। भारत में खास अहमियत नहीं मिलने से खिसियाए ट्रुडो को कनाडा के मीडिया ने भी आड़े हाथ लिया है।
    ट्रुडो सरकार पर भारत के साथ रिश्तों को नुकसान पहुंचाने और व्यापार वार्ता के बारे में अंधेरे में रखने के आरोप भी लगे हैं। घरेलू राजनीतिक हितों के लिए ट्रुडो भारत के साथ लड़ाई मोल लेकर अपने देश का भारी आर्थिक नुकसान कर रहे हैं। यह सर्वविदित है कि भारत अब दुनिया की एक आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। कनाडाई में उत्पादित वस्तुओं के निर्यात और व्यापार में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका है और दोनों देशों के बीच बढ़ते तनाव का असर यहां की इकोनॉमी पर पड़ रहा है। भारत की नाराजगी बेवजह नहीं है, क्योंकि कनाडा भारत के विरोध में लगातार सक्रिय हैं, कनाडा ने ही किसानों के आंदोलन के समर्थन में अतिश्योक्तिपूर्ण सहयोग होने दिया। जबकि दोनों देशों के संबंधों में प्रगति के लिए एक-दूसरे के प्रति सम्मान का भाव और आपसी भरोसा रहना जरूरी है।
    खालिस्तान समर्थक गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या की साजिश को लेकर अमेरिका में भी सवाल उठे थे। लेकिन अमेरिका ने इस मसले पर सार्वजनिक बयानबाजी करने के बजाय भारत सरकार से सीधी बातचीत की। भारत ने भी अमेरिकी सरकार की ओर से मुहैया कराए गए सबूतों को गंभीरता से लिया। इस मामले में एक उच्चस्तरीय जांच शुरू हुई। अच्छी बात यह भी है कि इस मामले को दोनों देशों के संबंधों के खटास का माध्यम नहीं बनने दिया। जांच के निष्कर्षों को दोनों देशों ने स्वीकार किया एवं बेवजह का विवाद खड़ा नहीं होने दिया। कनाडा को भी अमेरिका से कुछ सीखना चाहिए एवं निज्जर हत्याकांड में भारत की अगर कोई भूमिका है तो उसके सबूत भारत सरकार को देने चाहिए। कोरे आरोप लगाकर आपसी संबंधों को बिगाड़ने से परहेज करना चाहिए। अपनी भूमि का उपयोग भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के लिए खतरा पैदा करती गतिविधियों के लिये कत्तई नहीं करने देना चाहिए।  बात कनाड़ा के साथ-साथ अन्य देशों पर भी लागू होती है जो अपने राजनीतिक हितों के लिये खालिस्तान समर्थक या अन्य भारत विरोधी आन्दोलनों को जगह देते हैं, लेकिन इन देशों ने भी समझा है और समझना ही होगा कि किसी देश के अन्दरूनी मामलों में दखलअंदाजी करना उनके लिये ही हानिकारक होने वाला है। भारत अब एक महाशक्ति है, कनाड़ा जैसे देशों की भारत-विरोधी गतिविधियों से भारत की सेहत पर कोई असर नहीं पडेगा। 

    रिन्यूबल एनेर्जी में ट्रांज़िशन को न्‍यायसंगत बनाना जरूरी: विशेषज्ञ


    पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी दुष्परिणामों के मद्देनजर भारत में रिन्यूबल एनेर्जी से जुड़े महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किये गये हैं। इसके तहत कार्बन एमिशन को खत्म करने के लिये कोयला खदानों को दीर्घकाल में बंद करना होगा। ऐसे में यह सवाल भी उठ रहे हैं कि इन खदानों में काम करने वाली बड़ी श्रम शक्ति के हितों के लिहाज से न्‍यायसंगत ट्रांज़िशन का स्‍वरूप कैसा होगा और बंद होने वाली खदानों को रिन्यूबल एनेर्जी में ट्रांज़िशन के लिये किस तरह बेहतर तरीके से इस्‍तेमाल किया जा सकता है।
    इस महत्‍वपूर्ण विषय से जुड़ी विभिन्‍न चुनौतियों और अवसरों पर चर्चा के लिये जलवायु थिंक टैंक ‘क्‍लाइमेट ट्रेंड्स’ और ‘स्‍वनीति’ ने एक वेबिनार आयोजित किया। इसमें ‘कोल इंडिया’ की सौर शाखा के अधिशासी निदेशक श्री सौमित्र सिंह और अमेरिकी प्रान्‍त वेस्‍ट वर्जीनिया में कोलफील्‍ड डेवलपमेंट कॉरपोरेशन में सीनियर डायरेक्‍टर (कंजर्वेशन) कैसिडी रिले ने इस पूरे मामले के विभिन्‍न पहलुओं पर अपने विचार रखे।
    विशेषज्ञों का मानना है कि रिन्यूबल एनेर्जी में ट्रांज़िशन को न्‍यायसंगत बनाना जरूरी है और भविष्‍य में खदानों के बंद होने से प्रभावित होने वाले समुदायों को रोजगार के वैकल्पिक स्रोत उपलब्‍ध कराने के लिये उन्‍हें प्रशिक्षित किया जाना चाहिये।
    सौमित्र सिंह ने न्यायसंगत ट्रांज़िशन और रिन्यूबल एनेर्जी के समेकित परिप्रेक्ष्‍य को समझने के लिये कोल इंडिया की तरफ से नीतिगत स्‍तर पर बदलाव की वकालत करते हुए कहा कि कोल इंडिया द्वारा की गई पहल और भविष्य में कोयला खदानों को न्यायसंगत ट्रांज़िशन के मकसद से इस्तेमाल करने के लिए सोच में आमूल-चूल बदलाव करने की जरूरत है। कोल इंडिया स्तर पर पॉलिसी लेवल इंटरवेंशन सबसे ज्यादा जरूरी है ताकि न्यायसंगत ट्रांज़िशन और रिन्यूबल एनेर्जी को समझा जा सके। दूसरा, सरकार की तरफ से नीतिगत स्तर पर बदलाव करने होंगे।
    इसके लिए हमें बहुपक्षीय एजेंसियों की मदद लेनी होगी। साथ ही साथ केंद्र सरकार की भी सहायता जरूरी होगी। यह नीति से जुड़े मूलभूत मसले हैं जिन्हें बदलने की जरूरत है।
    उन्‍होंने ऊर्जा संयंत्रों के लिये पर्यावरणीय मंजूरियों की प्रक्रिया में जन भागीदारी पर जोर देते हुए कहा, ‘‘वर्ष 1997 में विश्व बैंक के हस्तक्षेप से पर्यावरणीय मंजूरियों की प्रक्रिया में पब्लिक शेयरिंग प्रक्रिया शुरू की गई थी। अगर यह वर्ष 1997 में किया जा सकता था तो भारत सरकार जस्ट ट्रांजीशन को भी अपने पॉलिसी प्रोग्राम के हिस्से के तौर पर लागू कर सकती है। जहां तक कोल इंडिया का सवाल है तो और भी ज्यादा बड़ी नीतिगत पहल की जरूरत है।’’
    सिंह ने कोयला खदानों की रिन्यूबल एनेर्जी और अन्य क्षेत्रों में इस्तेमाल की परिकल्पना का जिक्र करते हुए कहा कि वर्ष 2009 में पहली बार ऐसा सोचा गया था। वर्ष 2009 में जब केंद्र सरकार इस परिकल्पना को लेकर आई थी तो उस वक्त यही सोचा गया था कि कोयला खदानों को बंद किए जाने के बाद उनका इस्तेमाल सिर्फ वनीकरण करने और कुछ हद तक उन्‍हें जल स्रोतों के रूप में किया जाएगा। साथ ही अचल संपत्ति के रूप में बनाई गई जायदाद जैसे कि इमारतें इत्‍यादि संबंधित समिति या स्थानीय शासन निकाय को कंपनी द्वारा वापस किया जाएगा। यह सिलसिला कमोबेश आज भी जारी है। हालांकि बाद में मौजूदा केंद्र सरकार के दूसरे कार्यकाल में खदान बंद करने की गतिविधि को रिन्यूबल एनेर्जी के लिये इस्तेमाल करने की सोच स्थापित हुई है।’’
    सिंह ने भारत के वर्ष 2047 तक विकसित राष्‍ट्र बनने के लक्ष्‍य के मद्देनजर सामने खड़ी चुनौतियों का जिक्र करते हुए कहा, ‘‘हम सभी जानते हैं कि भारत दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला देश है। भारत को वर्ष 2047 तक विकसित देश के रूप में स्थापित करने का लक्ष्य रखा गया है। इसका मतलब यह है कि प्रतिवर्ष सकल घरेलू उत्‍पाद (जीडीपी) 8.50 प्रतिशत की दर से बढ़नी चाहिए। वर्तमान में हमारी कुल ऊर्जा आवश्यकता की पूर्ति में कोयले का योगदान 48% है। अंदाजा लगाइए कि वर्ष 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए क्या करना होगा।’’
    उन्‍होंने कहा कि इस लिहाज से देखें तो केंद्र सरकार अनेक योजनाओं के साथ आगे आई है। इसमें संपत्तियों को रिन्यूबल एनेर्जी में स्थापित करने का मंसूबा भी शामिल है। हम न सिर्फ अपनी खदानों को कोयला उत्पादन के परिप्रेक्ष्‍य में देख रहे हैं बल्कि अब हम यह भी देख रहे हैं कि कैसे अपने सतत विकास लक्ष्‍यों और रिन्यूबल एनेर्जी कार्यक्रमों में खदानों का इस्तेमाल किया जाए ताकि सतत विकास लक्ष्‍यों को भी हासिल किया जा सके।
    सिंह ने खदानें बंद होने की स्थिति में उससे प्रभावित होने वाली आबादी को रोजगार के विकल्‍प उपलब्‍ध कराने की जरूरतों पर कहा, ‘‘एक यह भी सोच है कि स्थानीय समुदायों का समावेशी विकास किया जाए। भारत यह भी सोच रहा है बंद की गई खदानों की जमीन पर स्थानीय समुदायों को कार्यकुशल बनाने के लिये कार्यक्रम चलाये जाएं। उन्हें वैकल्पिक ऊर्जा के कारोबार में शामिल किया जाए ताकि जब कोयला खदान वर्ष 2030-2035 तक बंद हो जाएं तो वे स्थानीय लोग अपनी सतत आजीविका को इन कार्यक्रमों के माध्यम से हासिल करने के लायक बन सकें।’’
    उन्‍होंने कहा, ‘‘मेरा यह भी मानना है कि हमें न्यायसंगत ट्रांज़िशन को दो नजरियों से देखना चाहिए। पहला, एक ऐसा जेनेरिक प्रोग्राम बनाना चाहिए जो सभी परियोजनाओं के लिए समान हो। दूसरा, विभिन्न राज्यों की विविधताओं को देखते हुए एक ऐसा कार्यक्रम भी बनाया जाना चाहिए जो परियोजना विशेष के आधार पर लागू किया जा सके। इसके जरिए न्यायसंगत ट्रांज़िशन को अमली जामा पहनाया जा सकता है।’’
    सिंह ने इन महत्‍वाकांक्षी कार्यक्रमों के लिये वित्‍तपोषण का मुद्दा उठाते हुए कहा कि एक बड़ा सवाल यह है कि इन कार्यक्रमों के लिए वित्तपोषण कौन करेगा। इसके लिए हमें योजना बनानी होगी ताकि हम केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के साथ मिलकर वित्त पोषण का इंतजाम कर सकें।
    कोलफील्ड डेवलपमेंट कॉरपोरेशन में सीनियर डायरेक्टर ऑफ कन्वर्सेशन कैसिडी रीले ने रिन्यूबल एनेर्जी के लिये खदानें बंद करने से जुड़े विभिन्‍न पहलुओं पर रोशनी डालते हुए न्‍यायसंगत ट्रांज़िशन के लिये प्रभावित होने वाली आबादी को वैकल्पिक रोजगार से जुड़े प्रशिक्षण देने की जरूरत पर जोर दिया। उन्‍होंने वेस्ट वर्जीनिया में बंद हो चुकी कोयला खदानों वाले इलाकों मे श्रमिकों की तरक्की से संबंधित एक  प्रस्तुति दी।
    उन्होंने कहा कि जो वेस्ट वर्जिनिया पेयजल की गुणवत्ता और शिशु मृत्यु दर के मामले में पांच सबसे निचले राज्यों में शामिल था, वहां श्रम शक्ति के पुनरुद्धार को लेकर कोलफील्ड मॉडल के तहत किए गए कार्यों का व्यापक असर पड़ा है। इसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में रोजगार के 800 नए अवसर पैदा हुए हैं। साथ ही 160 मिलियन डॉलर से ज्यादा का नया निवेश प्राप्त हुआ है। इसके अलावा दो लाख 60 हजार वर्ग फुट बेकार पड़ी संपत्ति को पुनरविकसित किया गया है और तीन हजार से ज्यादा लोगों को नए और सतत क्षेत्र में प्रशिक्षित किया गया है। 12 विभिन्न समुदायों ने इस मॉडल को अपनाना शुरू भी कर दिया है।
    कैसिडी ने बताया कि उनकी संस्था का मिशन रोजगार हासिल करने के रास्‍ते की तमाम रूकावटों का सामना कर रहे लोगों को व्यक्तिगत पेशेवर और एकेडमिक रूप से विकसित करना, समुदाय आधारित रियल स्टेट डेवलपमेंट को आगे बढ़ाना और उभरते हुए सतत क्षेत्र के नए प्रोग्राम्स डिजाइन करना और उन्हें बड़े पैमाने पर लागू करना है।
    कैसिडी ने बताया कि कोलफील्ड मॉडल से श्रम शक्ति को कार्य कुशल बनने में इसलिए मदद मिली क्योंकि इसके लिए व्यक्तिगत स्तर पर एक ऐसी बारीक नीति अपनाई गई जो रोजगार हासिल करने में उत्पन्न रूकावटों से निपट सकती है। इसके अलावा गैर वित्तीय लाभकारी सामुदायिक क्षमता विकास के प्रयास इसलिए सफल हुए क्योंकि यह श्रम शक्ति के विकास के प्रैक्टिशनर्स को सक्षम बनाते हैं।
    भारत और अमेरिका के बीच संबंध पिछले दो दशकों में एक महत्वपूर्ण साझेदारी के रूप में उभरे हैं, जिसमें दोनों देश कई स्तरों पर सहयोग कर रहे हैं। उनमें से ऊर्जा और जलवायु परिवर्तन सहयोग सबसे महत्वपूर्ण है।
    जैसे-जैसे न्यायसंगत ऊर्जा परिवर्तन के बारे में चर्चाएँ रफ्तार पकड़ती हैं, यह दोनों रणनीतिक साझेदारों को सहयोग को मजबूत करने और एक-दूसरे से सीखने का अवसर देती हैं। अमेरिका जैसी विकसित अर्थव्यवस्था, जिसका ऊर्जा क्षेत्र मजबूत है के लिये स्वच्छ ऊर्जा रूपांतरण चर्चा का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र रहा है। इसी तरह जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के साथ-साथ ऊर्जा सुरक्षा हासिल करने की कोशिश कर रही भारत जैसी महत्वपूर्ण विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए रिन्यूबल एनेर्जी को तेजी से अपनाने सहित न्यायसंगत ऊर्जा रूपांतरण ने अपनी अहम जगह बना ली है। अमेरिका में कोयला खदानों/थर्मल संपत्तियों के पुनर्वास और रिन्यूबल एनेर्जी परियोजनाओं के लिए उनके उपयोग के बारे में चर्चाओं का सिलसिला लगातार बढ़ रहा है। लगभग 300 समाप्त/परित्यक्त/बंद कोयला खदानों के साथ भारत भी इसी राह पर है। ऐसी बंद संपत्तियों से निपटने के लिए एक संयुक्त व्यापार ढांचे का विकास महत्वपूर्ण हो गया है।