आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत श्री राम जी के विषय में अपने वक्तव्यों , भाषणों और कई पत्र पत्रिकाओं के साथ दिए गए साक्षात्कारों में यह स्पष्ट कर चुके हैं कि श्रीराम भारत के बहुसंख्यक समाज के लिए भगवान हैं। उनका चरित्र, उनका आचरण , उनका व्यवहार , उनका व्यक्तित्व और कृतित्व भारत के सर्व समाज को प्रभावित करता है। कोई उन्हें भगवान के रूप में मान्यता प्रदान करता है तो कोई उनके चित्र के अतिरिक्त चरित्र को अपनाने पर बल देकर उनके महान व्यक्तित्व को नमन करता है। इस दृष्टिकोण से श्री राम हिन्दुओं और अहिंदुओं सभी के लिए सम्मान के पात्र हैं। अपनी इसी चारित्रिक विशेषता के कारण श्री राम ने भारत के भूतकाल के साथ-साथ वर्तमान को भी प्रभावित किया है। जिसके चलते हम यह भी निश्चय से कह सकते हैं कि वह भविष्य को भी यथावत प्रभावित करते रहेंगे। अतः यह भी कहा जा सकता है कि राम थे, हैं, और रहेंगे। श्री राम की सनातन में गहरी निष्ठा थी और सनातन के वैदिक मूल्यों के लिए उन्होंने जीवन भर संघर्ष किया। जब तक सनातन है अर्थात सूरज ,चांद सितारे हैं ,तब तक श्री राम हमारा यथावत मार्गदर्शन करते रहेंगे। हमने उनके जीवन मूल्यों को सनातन रूप में स्वीकार किया है।
एक पत्रिका के साथ साक्षात्कार में मोहन भागवत कहते हैं कि हम आंदोलन आरंभ नहीं करते हैं। राम जन्मभूमि का आंदोलन भी हमने शुरू नहीं किया, वह समाज द्वारा बहुत पहले से चल रहा था। अशोक सिंहल जी के विश्व हिंदू परिषद में जाने से भी बहुत पहले से चल रहा था। बाद में यह विषय विश्व हिंदू परिषद के पास आया। हमने आंदोलन प्रारंभ नहीं किया, कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में हम इस आंदोलन से जुड़े। कोई आंदोलन शुरू करना यह हमारे एजेंडे में नहीं रहता है। हम तो शांतिपूर्वक संस्कार करते हुए प्रत्येक व्यक्ति का हृदय परिवर्तन करने वाले लोग हैं।’
‘प्रत्येक व्यक्ति का हृदय परिवर्तन करना’ क्या है ? यदि इस पर मोहन भागवत जी के उपरोक्त कथन की समीक्षा की जाए तो निश्चित रूप से इसका अभिप्राय यही होगा कि भारत, भारती और भारतीयता के प्रति लोग स्वाभाविक रूप से सम्मानजनक भाव रखते हुए जुड़ जाएं । वह अपनी – अपनी सांप्रदायिक प्रार्थनाओं, मान्यताओं, धारणाओं और विचारधाराओं को बनाए रखकर भी भारतीय राष्ट्र के प्रति एकताबद्ध होकर और समर्पण भाव दिखाकर आगे बढ़ें – यही उनका धर्म है और यही उनका राष्ट्र प्रेम है।
अतीत के विस्तृत कालखंड में हिंदुत्व को क्षत – विक्षत करने के जितने भर भी प्रयास किए गए, उन सब के घावों को कुरेद कर सामाजिक सद्भाव को बिगाड़ना मोहन भागवत जी और उनके संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उद्देश्यों में कहीं सम्मिलित नहीं है। यद्यपि वह इतना अवश्य चाहते हैं कि जो कुछ भी अतीत में हुआ है उन घावों को प्यार से भरने का काम किया जाए और पूर्व स्थिति स्थापित करते हुए सब राष्ट्र के प्रति समर्पित होकर काम करते रहें। अतीत में तोड़े गए मंदिरों के स्थान पर जब नए धर्मस्थल खड़े किए गए तो इससे हिंदू मानस आहत हुआ। तभी से हिंदू समाज की यह हार्दिक इच्छा रही कि तोड़े गए मंदिरों के स्थान पर खड़े किए गए धर्म स्थलों को हटाकर उन्हें उनके धर्म स्थल वापस दिए जाएं । वास्तव में यह कोई सांप्रदायिक सोच नहीं थी। इसके विपरीत यह राष्ट्र की आत्मा द्वारा मांगा जाने वाला न्याय था। जिसे आजादी से पूर्व की सरकारें तो उपेक्षित कर ही रही थीं उसके बाद बनने वाली सरकारों ने भी उपेक्षित किया। आज जब यह मंदिर खड़े हो रहे हैं तो मोहन भागवत कहते हैं कि इन मंदिरों को प्रतीक के रूप में खड़ा करने से काम नहीं चलेगा । जिन मूल्यों और आचरण के प्रतीक ये मंदिर अतीत में रहे हैं वैसा ही हमें स्वयं बनना पड़ेगा। अपना समाज भी वैसा ही बनाना पड़ेगा । स्पष्ट है कि मंदिर संस्कृति सांप्रदायिक सद्भाव, राष्ट्र निर्माण और मानवता के कल्याण की प्रतीक है। ऐसे में मोहन भागवत जी की मान्यता है कि इन मंदिरों को प्रतीकात्मक दृष्टिकोण से दूर ले जाकर इसी वास्तविकता से जोड़ना होगा। इससे हम राष्ट्र निर्माण करते हुए विश्व निर्माण करने में भी सफल होंगे। 5 अगस्त 2020 को जब श्री राम मंदिर का शिलान्यास हुआ तो उस समय मोहन भागवत जी ने कहा था कि “परमवैभव संपन्न विश्वगुरु भारत” बनाने के लिए भारत के प्रत्येक व्यक्ति को वैसा भारत निर्माण करने के योग्य बनना पड़ेगा। उनकी मान्यता है कि जिस प्रकार हमारे ऋषियों ने अवधपुरी का निर्माण कर उसे विश्व की पहली राजधानी बनाया, उसी प्रकार हम अपने हृदय को भी अवधपुरी बना डालें। इसका तात्पर्य हुआ कि हम अपने हृदय मंदिर में हिंसा के भावों को, वैर विरोध और घृणा की सोच को दूर हटाने का कार्य प्रतिदिन नियम से करते रहें। यदि राम मंदिर बनने के साथ-साथ प्रत्येक भारतवासी के मन की अयोध्या भी निर्मित हो गई तो निश्चित रूप से हम रामराज्य स्थापित कर भारतीय समाज के साथ-साथ वैश्विक समाज को भी नई दिशा देने में सफल होंगे।
जब श्री मोहन भागवत जनमानस को रामचरित से जोड़ने की बात कहते हैं तो उसमें किसी प्रकार का पाखंड या सांप्रदायिक दृष्टिकोण देखना अज्ञानता होती है। इसका अभिप्राय होता है कि लोग सांसारिक विषय वासनाओं और भोगों की मनोवृत्ति को त्याग कर भारत के वैदिक मूल्यों के प्रति निष्ठा दिखाते हुए राम के अनुकरणीय भव्य चरित्र का पालन करें। अनुकरण करें। उनकी छवि को अपने हृदय मंदिर में स्थापित कर उसका पूजन करें। उसका गुणगान करें। गुण संकीर्तन करें । उसे स्थाई रूप से अपने मन मंदिर में स्थापित कर बाहरी मंदिर अर्थात वैश्विक परिवेश में भी उसे रचा बसा देखें । जब सर्वत्र उस छवि का दर्शन होगा तो मन करेगा कि हम भी वैसा ही आचरण व्यवहार निष्पादित करें जैसा श्री राम करते रहे थे । इससे प्रत्येक क्षेत्र में प्रत्येक पल मर्यादाओं का पालन होगा । मर्यादाओं के बंधन में बंधा वैश्विक समाज देवताओं का समाज होगा। उसमें किसी भी प्रकार की राक्षस वृत्ति को स्थान नहीं होगा। अन्याय और अत्याचार के लिए स्थान नहीं होगा। सब सबके लिए काम कर रहे होंगे । इससे वर्तमान की उस सोच से पार पाने में सफलता प्राप्त होगी जिसके चलते हर व्यक्ति अपने-अपने लिए काम कर रहा है। हृदय में राम समाहित हों। केवल राम से संवाद हो। केवल राम के प्रति श्रद्धा हो। तब राम जैसा बनना सहज संभव है। उस संवाद से जो विमर्श हृदय मंदिर में बनेगा , वह राष्ट्र का विमर्श बनने में देर नहीं लेगा और जब किसी राष्ट्र का विमर्श ‘सब सबके लिए काम करें’ का बन जाता है तो वह राष्ट्र संपूर्ण वसुधा का सिरमौर बन जाता है। नेता बन जाता है । विश्व गुरु बन जाता है। इसी उच्च आसन पर स्थापित हुआ भारत विश्व गुरु भारत होगा। इस प्रकार राम का नेतृत्व और राष्ट्र का नेतृत्व दोनों मिलकर विश्व का मार्गदर्शन करने में सहायक होंगे। इस स्थिति में आप राम और राष्ट्र को एक रूप में देखेंगे। यही श्री मोहन भागवत जी का राम के प्रति चिंतन है। उनकी मान्यता है कि देश में इस के प्रति जागरण होना चाहिए। इस भावना को सम्मान मिलना चाहिए । इसमें किसी भी प्रकार की सांप्रदायिकता को देखने की घटिया सोच से लोगों को बाहर निकलना चाहिए।
हमारे आदर्श श्री राम के मंदिर को तोड़कर, हमें अपमानित करके हमारे जीवन को भ्रष्ट किया गया। जब यह काम किया गया तो उस समय उसके पीछे यही सोच थी कि हिंदू हीनता के भावों से भर जाए और वह कभी एक राष्ट्र के रूप में खड़ा नहीं होने पाए। मोहन भागवत कहते हैं कि ‘हमें उसे फिर से खड़ा करना है, बड़ा करना है, इसलिए भव्य-दिव्य रूप से राम मंदिर बन रहा है। पूजा पाठ के लिए मंदिर बहुत हैं।’
सनातन कभी पुराना नहीं होता। इसके उपरांत भी यदि उसमें नित्य प्रति साफ सफाई का ध्यान न रखा जाए तो उस पर धूल अवश्य जम जाती है। इस धूल की सफाई के लिए बड़े और व्यापक स्तर पर जनहित में कार्य होते रहना चाहिए। इसके लिए समाज का एक पूरा वर्ग जिम्मेदारी निभाने के लिए सामने आना चाहिए। श्री राम हमारे आदर्श हैं, इसके उपरांत भी रामचंद्र जी की परंपरा में नैरंतर्य बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि ऋषियों और रामचंद्र जी की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए यह वर्ग स्वेच्छा से काम करता रहे। हमारे ऋषियों ने इस कार्य की जिम्मेदारी ब्राह्मण वर्ग को दी थी। आज भी समाजसेवी और राष्ट्र प्रेमी लोग स्वेच्छा से अपनी सेवाएं देने के लिए आगे आने चाहिए। यद्यपि इन लोगों का भी प्रशिक्षण आवश्यक है । बिना योग्यता के बड़े काम करने का नाटक किया सकता है, यह आवश्यक नहीं है कि उनके द्वारा किया जा रहा जन सेवा का कार्य समाज को सही दिशा देगा। अपने सांस्कृतिक मूल्यों को समझ कर, अंगीकार करके या रामचंद्र जी की भांति उन्हें आचरण में उतारकर जो लोग समाज सेवा और राष्ट्र सेवा के लिए आगे आएंगे, ठोस काम उनके द्वारा ही किया जा सकता है।
मोहन भागवत जी का मानना है कि इसके लिए हमारे शास्त्रों में ऋषियों के द्वारा जो व्यवस्था दी गई है उस व्यवस्था के अनुसार कार्य होना चाहिए। उस व्यवस्था का पालन प्रत्येक व्यक्ति स्वाभाविक रूप से करने वाला होना चाहिए। उसमें चाहे कोई आचार्य है, चाहे धर्माचार्य है या समाज के किसी भी बड़े से बड़े पद पर बैठा हुआ व्यक्ति है, सर्वप्रथम वह समाज की एक इकाई है, मशीन का एक पुर्जा है। इसके लिए उसे सोचना और समझना चाहिए कि वह जहां पर है, वहीं पर अपने कार्य का धर्म के अनुसार पालन करे। समाज का आचरण यदि शुद्ध हो जाएगा तो राष्ट्र और विश्व अपने आप सुव्यवस्थित हो जाएंगे। यम नियम का पालन व्यक्ति किसी दबाव में ना करे बल्कि वह स्वाभाविक रूप से उन्हें अपने जीवन का एक अंग स्वीकार कर ले। अपनी जीवन-चर्या में ढाल ले। सत्य, अहिंसा, अस्तेय ,ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, स्वाध्याय, संतोष, तप आदि को मोहन भागवत जी शाश्वत धर्म के अंग के रूप में स्वीकार करते हैं। यह सार्वभौम और सर्वकालिक हैं। जिन्हें प्रत्येक स्थिति में, प्रत्येक परिस्थिति में और प्रत्येक देश में पालन करने से व्यवस्था को सुंदरतम बनाया जा सकता है।
विदेशी शासनकाल में हमारे धर्म शास्त्रों के यथार्थ स्वरूप, उनकी मान्यताओं और उनकी विचारधारा को विकृत करने का भरसक प्रयास किया गया। लोगों को शिक्षा से वंचित होना पड़ा। संस्कारों से वंचित होना पड़ा। जिससे समाज बिना ड्राइवर की गाड़ी बनाकर दिशाविहीन सा होकर चलता रहा। इसके उपरांत भी आश्चर्य की बात है कि लोग इधर-उधर टूटी-फूटी मान्यताओं और घिसीपिटी बातों को लेकर आगे बढ़ते रहे। आज उन्हें सही स्वरूप में सही धर्म और वैज्ञानिक वैदिक मान्यताओं को बताकर सही रास्ता दिखाने की आवश्यकता है। आजादी के बाद इस दिशा में ठोस कार्य होना चाहिए था। मोहन भागवत जी की मान्यता है कि वेदों में कोई मिलावट नहीं है। उनका यह भी कहना है कि गीता में भी कोई मिलावट नहीं है , उनके सिद्धांतों के अनुसार समाज और राष्ट्र निर्माण का कार्य होना चाहिए।
यह माना जा सकता है कि रामचंद्र जी के समय में गीता नहीं थी। पर उनके समय में वेद अवश्य थे। इससे स्पष्ट होता है कि रामचंद्र जी का जीवन पूर्णतया वैदिक आर्य जीवन था। हमारा मानना है कि आज के परिवेश में समाज और राष्ट्र निर्माण के लिए रामचंद्र जी के वैदिक आदर्श आर्य जीवन को ही राष्ट्र के नागरिकों के लिए आदर्श आचार संहिता के के रूप में स्थापित करना चाहिए।
भागवत जी का यह भी मानना है कि चाहे वाल्मीकि कृत रामायण हो या तुलसीकृत रामचरितमानस हो इन दोनों ग्रंथों में ही किसकी पूजा की जाए , कहीं पर भी इस पर प्रकाश नहीं डाला गया है। केवल इतना ही बताया गया है कि सत्य पर चलो, अन्याय अत्याचार मत करो, अहंकार मत करो। इसका अर्थ है कि जीवन में पवित्रता लाने के लिए इन महान ग्रंथों में से हमें अच्छी-अच्छी चीजों को ले लेना चाहिए। यही आज का सामाजिक और मानवीय धर्म हो सकता है। दूसरों की पूजा पद्धतियों पर हम अनावश्यक छींटाकशी ना करें। हमारे संविधान की भी धारणा यही है। धर्म हमें एकात्मता के सूत्र में बांधता है। एकात्मता मानवीय संवेदनाओं के फूलों को एक सूत्र में बांधने का काम करती है। एकात्मकता की यह पवित्र भावना हमें अपने राष्ट्रीय संकल्पों, उद्देश्यों और लक्ष्यों के प्रति समर्पित होने के लिए प्रेरित करती है। इसी से राष्ट्रीय परंपराओं का विनिर्माण होता है। इसी से राष्ट्रीय सामाजिक समस्याओं का समाधान होता है। रामायण हमारी लोक परंपराओं को, जीवन शैली को और हमारी राष्ट्रीय परंपराओं को एक सर्वग्राही स्वरूप प्रदान करती है। यह स्वरूप सार्वकालिक और सार्वभौमिक स्वरूप है। जिसे कोई सांप्रदायिक पूर्वाग्रह के चलते ना मानना चाहे तो दूसरी बात है अन्यथा इसे सर्वस्वीकृति मिलना पूरे मानव समाज के लिए अत्यंत अनिवार्य है। इसी से बनेगा – परमवैभव संपन्न विश्वगुरु भारत।
भागवत जी की मान्यता है कि यदि मुसलमान समाज को कृष्ण भक्त रसखान और विट्ठल भक्त शेख मोहम्मद जैसे कवियों और दारा शिकोह जैसे मानवतावादी मुसलमानों के विचारों को बताया समझाया जाए तो हम भारतीय समाज को कई प्रकार की विघटनकारी शक्तियों के चंगुल से बचा सकते हैं। उनका मानना है कि यदि शिवाजी महाराज जी की सेना में मुस्लिम रहकर देश के लिए लड़ सकते हैं तो फिर किसी पर भी अविश्वास का प्रश्न ही नहीं है। यह बात इसलिए और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है कि शिवाजी अपने जीवन काल में हिंदवी स्वराज्य के माध्यम से सीधे हिंदू राष्ट्र निर्माण का संकल्प लेकर आगे बढ़ रहे थे। धर्म को हमें वास्तविक अर्थो में समझने की आवश्यकता है। जिस दिन धर्म का जोड़ने का वास्तविक स्वरूप लोगों की समझ में आ जाएगा उस दिन देश में सांप्रदायिक समस्या स्वयं समाप्त हो जाएगी। हमें पूजा पद्धतियों को लेकर लड़ने झगड़ने की आवश्यकता नहीं है। कट्टरता का जमकर विरोध करना चाहिए। क्योंकि कट्टरता के विस्तार लेने से राष्ट्रीय समस्याएं अपने भयावह स्वरूप में प्रकट होती हैं। जिससे मानव समाज को कष्ट झेलने पड़ते हैं। हम अपने मौलिक स्वरूप में हिंदू राष्ट्र हैं। इसके लिए हमें चीजों को व्यापक स्तर पर बदलने की आवश्यकता नहीं है। कुछ संकीर्णताओं को छोड़ने की आवश्यकता है । जैसे ही संकुचित दृष्टिकोण को छोड़ा जाएगा चीजें अपने आप ठीक होने लगेंगी। इस प्रकार के संकुचित दृष्टिकोण को छोड़ने के लिए किसी को लाठी से सीधा नहीं किया जा सकता। इसके लिए सही रास्ता है हृदय परिवर्तन करना। लोगों के भीतर केवल एक भाव होना चाहिए कि हम हिंदू हैं। हमारी पूजा पद्धति अलग हो सकती है परंतु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि हमारा हिंदू स्वरूप समाप्त हो गया। हिंदू होने का अभिप्राय भारतीय होने से है । इसे अपनी राष्ट्रीय पहचान के रूप में स्वीकृति देने की आवश्यकता है।
भारत ने इस्लाम को मानने वाले लोगों को अपनी मजहबी रवायतों को पालन करने की पूरी छूट दी है। कई ऐसी चीजें हैं जो भारत के बाहर इस्लामिक कंट्रीज में भी अपनाई जानी संभव नहीं हैं। पर वह भारत में होती देखी जाती हैं। यही भारत की खूबसूरती है। यही भारत के लोकतंत्र की महानता है और यही हमारे भारतीय संस्कारों की पवित्रम विरासत है। मोहन भागवत जी का कहना है कि ‘मुसलमान होने के बाद भी हमारे पास कव्वाली क्यों है जो अन्य इस्लामिक देशों में नहीं चलती? अखंड भारत की सीमा के बाहर क़व्वाली आज भी नहीं चलती है। कब्र- मजारों की पूजा अन्य जगह नहीं चलती है। पैगंबर साहब का जन्मदिन ईद-ए-मिलाद-उन-नबी वह सेलिब्रेशन के रूप मेंअखंड भारत की सीमा में ही चलता है।’
इस प्रकार की लोकतांत्रिक परंपराओं का पालन करना ही श्री राम की विरासत है । यदि आज हम श्री राम जन्मभूमि पर मंदिर बनाने में सफल हुए हैं तो इस मंदिर से हम राष्ट्र निर्माण के लिए इसी प्रकार का संदेश देना चाहते हैं। धर्म की पवित्रता को सर्वत्र मान्यता मिलनी चाहिए । अधर्म कहीं पर भी नहीं होना चाहिए।
अधर्म , अनैतिकता और अपवित्रता के विरुद्ध ही श्री राम ने संघर्ष किया था । उनका वह शाश्वत संघर्ष आज भी दानवीय शक्तियों के विरुद्ध जारी है। देवता और दैत्यों का संघर्ष भारत की प्राचीन संस्कृति का एक अविभाज्य अंग है । यह सनातन में शाश्वत चलता रहता है। सनातन इस प्रकार के संघर्ष में देवताओं के साथ खड़ा दिखाई देता है और सत्यमेव जयते की बात कह कर अंत में देवताओं की ही विजय होगी – ऐसा मानकर चलता है। आज के भारत के युवा वर्ग को इसी दिशा में कार्य करना चाहिए। सत्यमेव जयते कहना भारत की ऋषि परंपरा का पालन करना है। रामचंद्र जी के आदर्श जीवन को अंगीकार करना है। वेदों की आदर्श व्यवस्था को लागू करना है। इस उद्घोष से भारत विश्व को भी यह संदेश देने की क्षमता रखता है कि संसार की आसुरी शक्तियां देवताओं के साथ चल रहे संघर्ष में कभी भी सफल नहीं हो सकतीं। आज के युवा वर्ग को भारत को समझने के लिए विशेष परिश्रम और अध्ययन करने की आवश्यकता है। वह जितना ही अधिक भारत को समझेगा ,उतना ही वह भारत के लिए उपयोगी सिद्ध होता जाएगा।
रामराज्य की संकल्पना और और उसे वर्तमान में किस प्रकार लागू किया जा सकता है ? इस पर अपने विचार व्यक्त करते हुए मोहन भागवत जी का कहना है कि जनता नीतिमान और राजा शक्तिमान और नीतिमान इस प्रकार की वो व्यवस्था थी। जनता के सामने राजा नम्र था और राजा की आज्ञा में जनता थी,यानी लोगों की चलेगी या राज्य की चलेगी ऐसा सवाल नहीं था। राजा कहता था जैसा लोग कहेंगे वैसा होगा और समाज कहता था कि राजा को सब पता है वह जो कहेगा वैसा होगा। मुख्यत: चोरी-चपाटी की बातें नहीं थी। नीतिमानता थी, उद्योग-परिश्रम की कीमत थी। श्रम को आदर और सम्मान दिया जाता था और अपने परिश्रम से जीने की युक्ति थी। अत: समृद्धि थी। भरपूर लक्ष्मी थी और धन का व्यय धर्म के लिए होता था, भोग के लिए नहीं। जितने भोग आवश्यक थे वह सब दिए जाते थे। जहां-जहां आवश्यकता है वहां थोड़ा बहुत जीवन रंगबिरंगा हो इसलिए साज-सज्जा भी रहती थी। …..इस प्रकार का जनजीवन अपने को समझने वाला, अनुशासित, संयमित,जागरूक, संगठित और राजा धर्म की रक्षा करने वाला और स्वयं धर्म से चलने वाला, नियमों का पूर्ण पालन करने वाला, सत्ता को प्रतिष्ठा मानकर उसका उपयोग जनहित के लिए करने वाला था। यानी राजा बोल रहा था कि राज्य आपका है आप करो। पिताजी के मन में भी यही था पर माताजी के कारण राम को जंगल में भेज दिया। वे चले भी गए। भरत ने कहा मुझे राज्य मिला। माताजी का भी आग्रह छूट गया। अब मैं आपको कह रहा हूं वापस चलो। पर राम जी कहते हैं नहीं, मैंने वचन दिया है। यह दोनों सत्ताधारी हैं लेकिन राज्य का लालच किसी को भी नहीं है। आखिर भरत को वापस जाना पड़ा तो राम की पादुका को सिंहासन पर बिठाया, तो राजा ऐसे और प्रजा ऐसी – यह रामराज्य था।
व्यवस्थाएं आज बदल गई हैं। लेकिन लोगों की नियत-नीति, भौतिक अवस्था, राजा की नियत-नीति और भौतिक अवस्था यानि राज्य शासन में जितने भी लोग हैं और इस बीच जो प्रशासन है यह तीनों की जो गुणवत्ता (क्वालिटी) है। वह गुणवत्ता हमको फिर से लानी पड़ेगी। उस क्वालिटी को रामराज्य कहते हैं।
उसके परिणाम यह है कि रोग नहीं रहते, असमय मृत्यु नहीं होती, कोई भूखा नहीं, कोई प्यासा नहीं, कोई भिखारी नहीं, कोई चोर नहीं, कोई दंड देने के लिए नहीं तो फिर दंड क्या करें। यह सारी बातें परिणाम स्वरूप है क्योंकि उसके मूल में राज्य व्यवस्था-प्रशासन व्यवस्था और सामाजिक संगठन इन तीनों की एक वृत्ति है।’
(“विवेक” हिन्दी मासिक पत्रिका के साथ भागवत जी के साक्षात्कार से उद्धृत)
डॉ राकेश कुमार आर्य