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    नरेंद्र मोदी का जीरो टालरेंस का फार्मूला और टाटा का नैनो प्रोजेक्ट

    लेखक- बिनोद पांडेय

    कामरेड ज्योति बसु की शासन परंपरा को संभालनेवाले बुध्ददेव भट्टाचार्य के लिए यह चौंकानेवाली खबर थी। नींद उडानेवाली घटना थी।

    टाटा का नैनो प्रोजेक्ट पश्चिम बंगाल से हटकर गुजरात चला गया, सचमुच यह वेदना सिर्फ पश्चिम बंगाल तक ही सीमित नहीं रही। राष्ट्रीय स्तर पर भी कम्युनिष्ट पार्टी के लोगों ने अफसोस जताया और सारा का सारा दोष ममता बनर्जी पर मढकर अपने आप को पाक साफ बताने की कोशिश की गयी। लेकिन भारत के इतिहास में यह एक अविस्‍मरणीय घटना के सदृष है।

    टाटा का नैनो प्रोजेक्ट पश्चिम बंगाल से हटकर गुजरात चला गया, सचमुच यह वेदना सिर्फ पश्चिम बंगाल तक ही सीमित नहीं रही। राष्ट्रीय स्तर पर भी कम्युनिष्ट पार्टी के लोगों ने अफसोस जताया और सारा का सारा दोष ममता बनर्जी पर मढकर अपने आप को पाक साफ बताने की कोशिश की गयी। लेकिन भारत के इतिहास में यह एक अविस्‍मरणीय घटना के सदृष है।

    सिंगुर के आंदोलन और पश्चिम बंगाल सरकार की अदूरदर्शिता की वजह से जनता और टाटा दोनों की ही उर्जा और धन-जन की हानि का सामना करना पडा। इतना धन और जन खोने के बाद भी पश्चिम बंगाल की जनता टाटा को अपने राज्य से दूर जाने पर कैसा महसूस कर रही होगी? निश्चित रूप से यह पश्चिम बंगाल सरकार की विफलता साबित करती है।

    आखिर क्या बात हुई कि टाटा को अपना प्रोजेक्ट भारत के एक राज्य से स्थानांतरित कर अन्य राज्य में ले जाना पडा। यहां सवाल सिर्फ एक राज्य से स्थानांतरण का नहीं है। सवाल नरेंद्र मोदी से जुडा है। वही नरेंद्र मोदी जिन्होंने अभी इसी साल 26 जुलाई को आतंकवाद का भीषण कहर झेला। राज्य के 55 नागरिक मौत के ग्रास बन गये। देश भर में इस आतंकी घटना के लिए निंदा की गयी। लेकिन इस आपदा के समय में भी कांग्रेस के लोग राजनीति करने से बाज नहीं आये। लोगों ने इसके लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को ही कसूरवार बताया। और खूब आरोप-प्रत्यारोप किये गये। देश की जनता आतंकवाद के इस घाव से कहीं अधिक नेताओं के बयानबाजी से आहत हुई। कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाया कि उन्होंने आतंकियों को ललकारा, इसके परिणामस्वरूप गुजरात में बम विस्फोट किये गये। लेकिन मोदी का कहना था, उनका आतंकवाद के प्रति जीरो टालरेंस की नीति है और वे आतंकवाद को किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करेंगे। अपने जीरो टालरेंस की नीति को अमल में लाने के लिए उन्होंने गुजकोक जैसे कानून राज्य विधानसभा में पारित कर केंद्र के पास मंजूरी के लिए भेज रखा है। लेकिन केंद्र सरकार उसे मंजूरी नहीं दे रही है। कांग्रेस का कहना है कि आतंकवाद से निबटने के लिए देश में आइपीसी की धारा ही पर्याप्त है। लेकिन आतंकियों के हमले के नये-नये आइडियाज और तकनीक से निबटने के लिए क्या देश को कडे कानून की आवश्यकता नहीं है?

    बहरहाल, यहां बात टाटा की नैनो प्रोजेक्ट की है। अंतराष्ट्रीय स्तर के इस कार के निर्माण के लिए देश के राज्य ही नहीं विदेशों से भी रतन टाटा को ऑफर मिले थे। सिंगुर के आंदोलन और पश्चिम बंगाल सरकार की अदूरदर्शिता की वजह से जनता और टाटा दोनों की ही उर्जा और धन-जन की हानि का सामना करना पडा। इतना धन और जन खोने के बाद भी पश्चिम बंगाल की जनता टाटा को अपने राज्य से दूर जाने पर कैसा महसूस कर रही होगी? निश्चित रूप से यह पश्चिम बंगाल सरकार की विफलता साबित करती है।

    लेकिन देश का एक दूसरा राज्य जो कि पश्चिम बंगाल से तकरीबन ढाई हजार किलोमीटर से अधिक दूरी पर स्थित है, आखिर रतन टाटा को ऐसा क्या लगा कि उन्होंने झारखंड, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, कर्नाटक, महाराष्ट्र और कई अन्य राज्यों को छोड गुजरात में अपना प्रोजेक्ट लगाना अधिक सेफ समझा। जबकि इसके लिए रतन टाटा को तकरीबन 3 सौ करोड का नुकसान उठाना पडेगा। यह सवाल महत्व का है। क्योंकि इसे सिर्फ एक दिन की घटना या प्रयास का असर नहीं माना जा सकता है। टाटा जैसे अंतर्राष्ट्रीय व्यवसायी को अपने राज्य में अंतराष्ट्रीय स्तर का प्रोजेक्ट लाने के लिए प्रेरित करना सचमूच बडी घटना है।

    मोदी ने सत्ता संभालने के पहले दिन से ही अपनी स्पष्ट नीति घोषित कर दी थी, कि मीडिया में जो चल रहा है, उससे उन्हें कुछ भी लेना-देना नहीं है। उनका मकसद साढे पांच करोड गुजरातियों के लिए सेवा और उनकी बेहतरी के लिए काम करना है। इसके लिए उन्होंने तमाम तरह के दुष्प्रचार से खुद को किनारा कर अपने काम से काम मतलब रखा। मीडिया के दुष्प्रचार को उन्होंने अपने कामों से जवाब दिया। जो मीडिया मोदी को खलनायक बनाने में लगा था, वहीं लोग 7 अक्तूबर को मोदी की यशगाथा गा रहे थे। मोदी के करिश्मे से लोग दांतों तले अंगुली दबाने को विवश हुए थे। लेकिन मीडिया के लोग यह भली-भांति समझ रहे थे कि यह मोदी का करिश्मा एक दिन के प्रयास का नतीजा नहीं हैं। जिसे लोग धन की बर्बादी और मोदी का तमाशा कह रहे थे, वह वाइब्रेंट गुजरात महोत्सव में टाटा को गुजरात लाने में अपनी भूमिका अदा कर गया।

    वर्ष 2007 के वाइब्रेंट महोत्सव के समय ही रतन टाटा ने मोदी के कामों की सराहना करते हुए कहा था कि जो लोग मोदी के इस समारोह में शरीक नहीं हुए वे मूर्ख हैं। देश का ख्याति प्राप्त यह उद्योगपति यदि इस तरह का बयान देता है तो इसके मायने मोदी के कामों में साफ-साफ महसूस किये जा सकते हैं। बहरहाल टाटा को जमीन देने से लेकर जो-जो सरकारी औपचारिकताएं पूरी करनी थी, मोदी सरकार के अधिकारियों ने त्वरित गति प्रदान कर उन्हें सब सुविधा मुहैया कराया। लेकिन यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि यह सिर्फ टाटा जैसे उद्योगपति को खुश करने तक सीमित नहीं था। यह राज्य की साढे पांच करोड जनता को स्वर्णिम तोहफा देने की पहल थी। टाटा के गुजरात आने से राजकोट के मोटरपार्टस के व्यापारी खुश हैं। साणंद के किसान खुश है। साणंद के पास की जनता खुश है। अहमदाबाद सहित राज्य के युवा खुश है। सभी को राज्य में इस बडे प्रोजेक्ट आने से प्रसन्नता हुई है।

    लेकिन कांग्रेस के लोग यहां भी राजनीति करने से बाज नहीं आये। उनके नेता और केंद्रीय कपडा मंत्री शंकर सिंह वाघेला ने अपने बयान में कहा कि यह नरेंद्र मोदी की उपलब्धि नहीं वरन रतन टाटा की मजबूरी थी, कि टाटा को गुजरात आना पडा। वाघेला ने यहां तक कहा कि अन्य राज्यों से रतन टाटा को अपेक्षित सहयोग नहीं मिल रहा था। यह कहकर उन्होंने अपने ही शासित कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों को कटघरे में खडा कर दिया। साथ ही गुजरात सरकार की प्रशंसा ही प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कर दी। श्री वाघेला के कहने का अर्थ यह हुआ कि गुजरात सरकार ने देश के अन्य कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों जिसमें कांग्रेस के भी मुख्यमंत्री शामिल है, कही अधिक तत्परता और रतन टाटा के 2 हजार करोड के प्रोजेक्ट के प्रति दिलचस्पी दिखाई। वहीं कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सिध्दार्थ पटेल नरेंद्र मोदी के इस लखटकिया प्रयास पर ही सवाल खडे करने की कोशिश की। उन्होंने विवाद शुरू करने की कोशिश करते हुए कहा कि मोदी ने टाटा को जो जमीन दी है वह जानवरों के चारे उपजाने के लिए उपयोग में आते रहे हैं। ऐसा कहकर आखिर वे राज्य की जनता के साथ किस रूप में खडे हैं, यह चिंतन-मनन उन्हीं को करना चाहिए।

    (लेखक हिंदुस्‍थान समाचार एजेंसी से जुडे हैं)

    चित्रकार हुसैन का सच

    लेखक- अम्बा चरण वशिष्ठ

    विश्वविख्यात चित्रकार मुहम्मद फिदा हुसैन के बारे में कई प्रकार की भ्रांतियां मीडिया में फैल रही है या फैलाई जा रही हैं। कुछ उन्हें अपने नंगे चित्रों के कारण भारतीयों की भावनाओं को ठेस पहुचाने का दोषी बता रहे हैं तो कुछ ऐसा माहौल प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं मानो श्री हुसैन ने तो कुछ गलत किया ही नहीं और भारत के पावलो पिकासो को कुछ कट्टरपन्थी हिंदुओं ने भारत छोड़कर विदेश में रहने पर मजबूर कर दिया है। वस्तुत: स्थिति यह नहीं है। यह तो सिर्फ एक पक्ष है, एक आंख से देखने का प्रयास जिससे दूसरा पक्ष ओझल रहता है।

    प्रश्न तो यह उठता है कि यदि श्री हुसैन ने कुछ गलत नहीं किया और किसी कानून का उल्लंघन किया ही नहीं तो वह फिर विदेश में क्यों बैठे हैं? वह तो अपने देश से बहुत प्रेम करते हैं। दूसरी ओर न तो वर्तमान सरकार ने और न किसी पिछली सरकार ने कभी कहा कि वह उन्हें समुचित सुरक्षा प्रदान नहीं करेंगे। तो फिर वह क्यों नहीं आते?

    जो लोग उनकी तुलना विश्वविख्यात चित्रकार पाबलो पिकासो से करते हैं वह भूल जाते हैं कि पिकासो ने तो तत्कालीन प्रशासन से बगावत करने का लोहा लिया था और वह जीवन के अन्तिम पल तक अपने विचारों पर अडिग रहे। उसके लिये उन्होंने अपने प्राण तक न्यौछावर कर दिये। पर श्री हुसैन के साथ तो ऐसा कुछ नहीं है। वह तो कई तरह की बातें करते फिरते हैं। मुआफी भी मांगी है। फिर उनका पिकासो से क्या मेल?

    उनकी अपनी बातों और उनके समर्थक उदारवादियों का खण्डन तो उन्होंने स्वयं ही बीबीसी पर अपने एक हाल ही के साक्षात्‍कार में कर दिया। वह तो मानते ही नहीं कि वह किसी के कारण निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे हैं। श्री हुसैन ने उच्चतम न्यायालय द्वारा भारत माता का नग्न चित्र बनाने के मामले पर कार्यवाही नहीं करने के आदेश पर संतोष व्यक्त करते हुये कहा कि ”सुप्रीम कोर्ट ने जबाव दे दिया है”।

    जब बीबीसी पत्रकार ने आगे पूछा कि वह वतन कब लौटने की सोच रहे हैं उनका उत्तर था ”मैं वतन से दूर गया ही नहीं, मैं तो घूमता-फिरता रहता हूं।” यदि बात यह है तो उन्होंने तो हमारे बहुत से बुध्दिजीवी और उदारवादी चिंतकों के इस आरोप को ही गलत साबित कर दिया कि श्री हुसैन हिन्दू कट्टरपन्थियों के कारण ही वतन से दूर रह रहे हैं और एक निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

    जब उनसे भारत माता के विवादास्पद चित्रों के बारे में पूछा कि आपने उसमें क्या दिखाने की कोशिश की है तो वह इसका सीधा उत्तर देने से टाल गए और अपने उत्तर को मरोड़ते हुये बोले ”भारत एक ऐसा देश है जहां हर तरह की ताकतें आईं, बीसियों देशों से निकाल दिया गया उन्हें। बुध्द धर्म आया, ईसाइयत आई, इस्लाम आया, सब एक-दूसरे से जुड़ गए और एक व्यापक संस्कृति बनी। यह यूनिक है, दुनिया में कोई देश भारत जैसा नहीं है”। वह तो इतिहासकार भी बन बैठे जिन्होंने बुध्द धर्म को भी इसलाम की तरह बाहर से आया बता दिया।

    जब उनसे पूछा गया कि ”सबसे विवादास्पद पेंटिंग : मदर इंडिया” के बारे में आप क्या कहेंगे और उसमें आपने क्या दिखाने की कोशिश की है, तो उनका उत्तर था: ”मैं बचपन से ही देखता था भारत के नक्शे में गुजरात का हिस्सा मुझे औरत के स्तन जैसा दिखता है, इसलिए मैंने स्तन बनाया, फिर उसके पैर बनाए, उसके बाल बिखरे हैं वह हिमालय बन गया है। ये बनाया है मैंने। और ये जो ‘भारत माता’ नाम है ये मैंने नहीं दिया है, यह मेरा दिया हुआ नाम नहीं है”। वह भारतीय होने के बावजूद भारत की धरती को भारत माता मानने को तैयार नहीं हैं। वह कहते हैं कि ”भारत माता तो एक मुहावरा है, एक भावना है कि हमारा मुल्क है, वह हमारी माता जैसी है। लेकिन उसमें कोई देवी कहीं नहीं है।”

    जब श्री हुसैन मानते हैं कि ”भारत माता एक मुहावरा है, एक भावना है”, तो क्या एक भारतीय होने के नाते भारतीयों की ”भावना” को दुख पहुंचाना उनका कर्तव्य व धर्म है?

    उनका कथन मान भी लिया जाये कि भारत माता कोई देवी नहीं है तो क्या मां सरस्वती, मां दुर्गा और भारत की अन्य देवियां भी ”कोई देवी कहीं नहीं है”? क्या यह कहकर वह भारत के करोड़ों नागरिकों की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचा रहे हैं?

    यदि यही शब्द कोई भारतीय किसी गैर हिंदू धर्म के बारे में कहते तो क्या यह उस धर्म के अनुयायियों की भावनाओं को चोट नहीं पहुंचाता? उनके इन शब्दों के बावजूद हमारे उदारवादी और सेक्युलरवादी मानते हैं कि श्री हुसैन सेकुलर है और सब धर्मों का सम्मान करते हैं। वह कहते हैं कि हुसैन साहब ने तो कोई जुर्म किया ही नहीं। फिर यह विरोधाभासी पाखण्ड नहीं है उनका?

    इतना तो सब मानते है कि कोई भी व्यक्ति कोई काम करने से पहले शुरूआत अपने घर से ही करता है। कोई व्यक्ति नया कैमरा खरीदकर लाता है तो सबसे पहले वह चित्र अपने परिवार – माता, पिता, भाई, बहन, पति, पत्नी और पुत्र, पुत्री का ही खींचता है। इसी आधार पर स्वाभाविक तो यह होना चाहिए था कि श्री हुसैन भी उसी परम्परा को निभाते और दूसरों के धर्म के बार चित्र बनाने से पहले वह यह महान पवित्र काम अपने घर और अपने धर्म से ही शुरू करते। ऐसा उन्होंने क्यों नहीं किया? इसका उत्तर तो श्री हुसैन तथा उनके उदारवादी सेकुलर पैरोकारों को ही देना होगा।

    ”जब बीबीसी के संवाददाता ने उनसे प्रश्न किया कि ”आपके आलोचक कहते हैं कि हुसैन साहब अपने धर्म की कोई तस्वीर क्यों नहीं बनाते, मक्का-मदीना क्यों नहीं बनाते?” तो उनका उत्तर था: ‘अरे भाई, कमाल करते हैं। हमारे यहां इमेजेज हैं ही नहीं तो कहां से बनाऊंगा। न खुदा का है न किसी और का। यहां लाखों करोड़ों इमेजेज हैं, मंदिर उनसे भरे पड़े हैं।”

    लगता है हुसैन साहब जनता को मूर्ख समझ रहे हैं। हमें यह समझा रहे हैं कि मक्का-मदीना की भी कोई फोटो या इमेज नहीं है? वह भूल रहे हैं कि हिंदू देवी-देवताओं या ईसाई धर्म की भी पवित्र आत्माओं या अन्य धर्मों के पैगंबरों की भी कोई फोटो उपलब्ध नहीं है। उनके जितने भी चित्र बनते हैं वह केवल उनके धार्मिक ग्रंथों में चर्चित उनके आकार-भाव के अनुसार ही बनाये जाते हैं। इसी आधार पर वह अपने धर्म के महानुभावों के भी चित्र बना सकते हैं। जब वह हिंदू धर्म से संबंधित देवी-देवताओं के प्रति अपनी कल्पना की उड़ान भर सकते हैं तो अपने धर्म के प्रति उनकी कल्पना की उड़ान ऊची क्यों नहीं जाती?

    विश्व में महानतम चित्रकार हुए हैं लेकिन शायद ही किसी चित्रकार ने अपनी माता की नग्न तस्वीर बनायी हो। शायद हुसैन साहब ने भी नहीं। क्यों नहीं, इसका उत्तर तो वह ही दे सकते हैं।

    भारतीय देवियां सरस्वती व दुर्गा लाखों-करोड़ों भारतीयों की माता ही नहीं, अपनी माता से भी ऊपर अधिक सम्माननीय हैं। अपनी अभिव्यक्ति का बहाना लेकर जब श्री हुसैन हिंदू देवियों के नग्न चित्र बनाकर उन्हें अमर बना रहे है तो उन्होंने अपने परिवार में से किसी का भी नग्न चित्र बनाकर उन्हें अमर क्यों नहीं किया? हिंदू देवियां पर ही वह इतने मेहरबान क्यों हैं? इसलिये कि वह स्वयं हिन्दू नहीं हैं? यदि ऐसा नहीं है तो वह बतायें कि सच क्या है? चलो कुछ पल के लिये उनके इस तर्क को ही मान लेते हैं कि कि ”हमारे यहां (मुस्लिम धर्म में) इमेजेज़ हैं ही नहीं ….न खुदा का है। न किसी और का ….” क्या किसी मुस्लिम महिला का भी कोई चित्र या इमेज नहीं है? तो फिर हुसैन साहिब बतायें कि वह केवल हिन्दू देवियों पर ही क्यों मेहरबान हुये और आज तक उन्हों ने किसी मुस्लिम महिला का नंगा चित्र बनाकर उसे अमर क्यों नहीं बनाया?

    यदि मोहम्मद फिदा हुसैन अपने आपको भारतीय मानते हैं तो उन्होंने जब मां दुर्गा और मां सरस्वती के नग्न चित्र बनाये तो उन्होंने उन चित्रों के शीर्षक के रूप में यह क्यों नहीं लिखा ”मेरी मां सरस्वती” और ” मेरी मां दुर्गा”। यदि वह ऐसा करते तो विरोधी उनके विरूध्द आज जो कुछ कह रहे हैं वह न कह पाते और उनके ओठ सिल जाते। पर शायद श्री हुसैन का सत्य तो कुछ और ही है – वह नहीं जो हमारे उदारवादी सैकुलर बुध्दिज़ीवी हमें समझाने का व्यर्थ प्रयास कर रहे हैं!

    (लेखक वरिष्‍ठ टिप्‍पणीकार हैं)