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क्या भारत अब ‘मोसाद’ की तरह आतंकियों का चुन-चुनकर खात्मा करेगा!

रामस्वरूप रावतसरे

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बृहस्पतिवार को बिहार में एक जनसभा में कहा-पहलगाम हमला सिर्फ निहत्थे पर्यटकों पर नहीं हुआ है. देश के दुश्मनों ने भारत की आस्था पर हमला करने का दुस्साहस किया है। मैं बहुत स्पष्ट शब्दों में कहना चाहता हूं कि जिन्होंने ये हमला किया है, उन आतंकियों को और इस हमले की साजिश रचने वालों को उनकी कल्पना से भी बड़ी सजा मिलेगी। अब आतंकियों की बची-खुची जमीन को भी मिट्टी में मिलाने का समय आ गया है। मोदी के कल्पना से परे सजा का मतलब क्या है? आखिर क्या कहना चाह रहे हैं पीएम, उनका इस मामले में इरादा क्या है?

    इस संबंध में डिफेंस एक्सपर्ट मेजर जनरल (रि.) पीके सहगल का कहना है कि पहलगाम हमले के बाद भारत सरकार, भारतीय सेना क्या करेंगी, इस बारे में ज्यादा खुलासा नही किया जा सकता है क्योंकि इससे पाकिस्तान सतर्क हो सकता है और पाकिस्तानी आतंकी कुछ और तरीका भी अपना सकते हैं। सहगल ने कहा कि संभव है कि इजरायल की खुफिया एजेंसी मोसाद की तर्ज पर भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ भी पाकिस्तानी आतंकियों को चुन-चुनकर मारे। डिफेंस एक्सपर्ट पीके सहगल के अनुसार मोसाद ने इजरायल के दुश्मनों को मारने के लिए करीब दो दशक तक ’’रैथ ऑफ गॉड’’ यानी ईश्वर का कहर नाम का खौफनाक ऑपरेशन चलाया जिसने म्यूनिख ओलंपिक में इजरायली खिलाड़ियों को मार डाला था।

 5 सितंबर, 1972 की बात है, जब जर्मनी में म्यूनिख ओलंपिक गेम्स चल रहे थे। इजरायल के एथलीट म्युनिख ओलंपिक गांव में अपने फ्लैट्स में सो रहे थे, जब पूरा अपार्टमेंट मशीनगनों की तड़तड़ाती गोलियों से गूंज उठा। ये हमला उस वक्त फिलिस्तीन के खूंखार आतंकी संगठन ’’ब्लैक सितंबर’’ के 8 लड़ाकों ने किया जो खिलाड़ियों की ड्रेस पहने अंधाधुंध फायरिंग कर रहे थे। इस हमले में 11 इजरायली खिलाड़ी और 1 जर्मन पुलिसकर्मी को जान गंवानी पड़ी। बदले में तब इजरायल ने दो दिन बाद ही सीरिया और लेबनान में फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन यानी पीएलओ के 10 ठिकानों पर बमबारी करके तबाह कर दिया।

     इस घटना के बाद इजरायल ने म्यूनिख में मारे गए अपने खिलाड़ियों की मौत का बदला लेने के लिए अपनी खूंखार सीक्रेट एजेंसी मोसाद को इस काम में लगाया जिसने उन्हें 20 साल में खोज-खोजकर मार डाला। बदले की पहली शुरुआत मोसाद ने 16 अक्टूबर, 1972 को तब कर दी जब इजरायली एजेंटों ने पीएलओ इटली के प्रतिनिधि अब्दल-वैल जावैतार को रोम में उसके घर में घुस कर गोलियां मारीं। 9 अप्रैल, 1973 को मोसाद ने बेरूत में एक संयुक्त अभियान शुरू किया जिसमें इजरायली कमांडो मिसाइल बोट और गश्ती नौकाओं से लेबनान के एक खाली समुद्री तट पर रात को पहुंचे। अगले दिन दोपहर तक ब्लैक सेप्टेम्बर चलाने वाली फतह के सीक्रेट चीफ मोहम्मद यूसुफ या अबू यूसुफ, कमल अदवान और पीएलओ प्रवक्ता कमल नासिर की उनके घरों में हत्या हो चुकी थी। इसके बाद मोसाद ने कई और दुश्मनों को खोजकर मारा।

मोसाद ने म्यूनिख के मास्टरमाइंड रेड प्रिंस के नाम से मशहूर अली हसन सलामे का पता मोसाद ने खोज ही निकाला। वह बेरूत में ही रह रहा था। एरिका मैरी चैम्बर्स नाम की मोसाद एजेंट ब्रिटिश पासपोर्ट पर लेबनान पहुंची। एरिका ने उसी गली में किराये पर कमरा लिया जिससे होकर सलामे आता-जाता था। कुछ वक्‍त में मोसाद के दो और एजेंट्स बेरूत पहुंच गए। गली में एक कार खड़ी कर दी गई। कार में विस्फोटक सामग्री भरी थी। कार को ऐसी जगह पर खड़ा किया गया था कि कमरे से दिख सके। 22 जनवरी, 1979 को जब सलामे और उसके बॉडीगार्ड्स कार में गली के भीतर दाखिल हुए तो विस्‍फोटकों वाली गाड़ी को मोसाद ने रेडियो डिवाइस से उड़ा दिया। आखि‍कार मोसाद ने म्‍यूनिख के मास्‍टरमाइंड को ठिकाने लगा ही दिया।

डिफेंस एक्सपर्ट मेजर जनरल (रि.) पीके सहगल के अनुसार सरकार आतंकियों के खिलाफ ऐसी कार्रवाई करेगी कि वो याद रखेंगे। वो दुनिया में कहीं भी छिप जाएं, उन्हें हमारी सरकार नहीं छोड़ेगी। आतंकियों और उनके आका हाफिज सईद या कोई और, वो जहां भी बैठे हैं, उनका पता लगाया जाएगा और उनका खात्मा किया जाएगा। यह ठीक उसी तर्ज पर होगा, जैसा म्यूनिख ओलंपिक में मारे गए अपने खिलाड़ियों का बदला इजरायल ने लिया था। प्रधानमंत्री का आतंकियों के खिलाफ संदेश तो यही है।

सहगल की माने तो भारत कतई सीधे युद्ध में नहीं जाएगा और न ही जाना चाहेगा। वह कई और विकल्पों पर विचार कर सकता है। जैसे वह अपने मित्र देशों की मदद ले सकता है। रॉ के ऑपरेशंस तो हैं ही। पीएम मोदी ने जो यह कहा कि आतंकियों को ऐसी सजा मिलेगी जो उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी। इसके मायने यही हैं कि अब आतंकियों को किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और उन्हें और उनके आकाओं को अंतिम अंजाम तक पहुंचाया जाएगा।

    डिफेंस एक्सपर्ट लेफ्टिनेंट कर्नल (रि.) जेएस सोढ़ी भी यही कहते है कि भारत के पास एयरस्ट्राइक का भी विकल्प है। वह पाक के कब्जे वाले कश्मीर यानी पीओके में आतंकियों के कैंपों को तबाह कर सकता है। साथ ही वह आतंकियों को शह देने वालों को भी निशाना बना सकता है। इस मामले में भारत ने कई विकल्प खोलकर रखे हुए हैं।

    जेएस सोढ़ी के अनुसार 10 जनवरी, 1966 को ताशकंद समझौता हुआ। इस समझौते का एक प्रावधान यह था कि भारत और पाकिस्तान की सेनाओं को 5 अगस्त, 1965 से पहले की स्थिति में लौटना होगा। इस यथास्थिति में बहादुरी से जीते गए हाजी पीर दर्रे को वापस करना भी शामिल था। उस वक्त भारत ने पाकिस्तानी क्षेत्र के 1,920 वर्ग किलोमीटर पर कब्जा कर लिया था जिसमें मुख्य रूप से सियालकोट, लाहौर और कश्मीर क्षेत्रों की उपजाऊ भूमि शामिल थी। इसी में रणनीतिक हाजी पीर दर्रा भी शामिल था लेकिन इस जीते हुए भू भाग को वापिस कर दिया गया। बाद में 2002 में एक इंटरव्यू में खुद ले. जनरल दयाल ने कहा था कि यह दर्रा भारत को एक रणनीतिक फायदा देता…इसे वापस सौंपना एक बहुत बड़ी गलती थी। सोढ़ी ने बताया कि भारत की यह गलती एक बड़ी रणनीतिक चूक थी। अब मौजूदा हालात में शिमला समझौता तोड़ने के बाद पाकिस्तान ताशकंद समझौता भी तोड़ सकता है।

प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो कुछ कहा है उसे पूरा करने के लिए निश्चित ही सभी विकल्पों पर मंथन किया होगा। देश भी यही चाहता है कि अब बहुत हुआ, अब आगे नहीं। इस छदम युद्ध का अंत होना ही चाहिए।

रामस्वरूप रावतसरे

‘धूम 4’ में नजर आएंगी कियारा आडवाणी ?

सुभाष शिरढोनकर

दीपिका पादुकोण और प्रियंका चोपड़ा के बाद सबसे ज्यादा फीस चार्ज करने वाली एक्ट्रेस कियारा आडवाणी बॉलीवुड की उन टैलेंटेड एक्ट्रेस की लिस्ट में शामिल हैं जिन्‍होंने कई हिट फिल्‍मों के साथ इस इंडस्ट्री में अपने लिए खास जगह बनाई है।

अपने फैशन सेंस और लुक से फैंस को इम्प्रेस करने वाली कियारा आडवाणी बॉलीवुड की मोस्ट पॉपुलर एक्ट्रेस हैं। फैंस उनकी अगली फिल्मों का बेसब्री से इंतजार करते हैं।

कियारा ऋतिक रोशन और जूनियर एनटीआर के साथ फिल्‍म ‘वॉर 2’ कर रही हैं। यशराज फ़िल्म्स व्‍दारा निर्मित यह फ़िल्म 14 अगस्त 2025 को दुनिया भर में रिलीज़ होगी।

कियारा आडवाणी यश स्टारर फिल्‍म ‘टॉक्सिक: ए फेयरी टेल फॉर ग्रोन-अप्स’ के साथ कन्नड़ में डेब्यू करने जा रही हैं। कन्नड़ के अलावा यह फिल्‍म इंग्लिश भाषा में भी बन रही है। रिपोर्ट्स के मुताबिक इस फिल्म के लिए उन्हें 15 करोड़ की तगड़ी फीस मिली है।

‘टॉक्सिक: ए फेयरी टेल फॉर ग्रोन-अप्स’ मोस्ट अवेटेड फिल्मों में से एक है जिसका फैंस भी बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। बीच में खबर आई थी कि फिल्‍म से नयनतारा ने कियारा आडवाणी को रिप्‍लेस कर दिया हैं लेकिन खुद यश ने इस तरह की खबरों को मनगढंत और बकवास बतलाया है।

इसी साल कियारा आडवाणी तेलुगु रिलीज ‘गेम चेंजर’ (2025) में रामचरण के अपोजिट नजर आई थी लेकिन भ्रष्ट राजनेताओं से मुकाबला करते हुए एक आईएएस अधिकारी की कहानी पर बेस्‍ड एस शंकर द्वारा निर्देशित यह फिल्‍म बुरी तरह फ्लॉप थी।  

इसके पहले कियारा की फिल्‍म ‘सत्यप्रेम की कथा’ (2023) ब-मुश्किल अपना बजट ही निकाल सकी थी। उसके पहले उनकी एक फिल्‍म ‘गोविंदा नाम मेरा’ (2022) को तो डिस्ट्रीब्यूटर तक नहीं मिले, तब मजबूरन उसे ओटीटी पर रिलीज करना पड़ा था।

इसलिए कियारा आडवाणी की आने वाली फिल्‍में उनके करियर के लिए खास महत्‍व रखती हैं। इन दिनों वह फिल्‍म टॉक्सिक: ए फेयरी टेल फॉर ग्रोन-अप्स और ‘वॉर 2’ की शूटिंग पूरी करने में जुटी हैं।   

कियारा आडवाणी और सिद्धार्थ मल्होत्रा ने कई बरसों तक सीक्रेट डेटिंग के बाद 7 फरवरी, 2023 को शादी की थी। इस जोड़ी को फिल्म ‘शेरशाह’ (2021) की शूटिंग के दौरान प्यार हो गया था और इन दिनों कियारा अपनी प्रेग्नेंसी को लेकर चर्चाओं में हैं।

फरहान अख़्तर व्‍दारा निर्देशित फिल्‍म ‘डॉन 3’ रणवीर सिंह के अपोजिट, कियारा आडवाणी लीड रोल करने वाली थी लेकिन अपनी प्रेग्नेंसी के कारण कियारा इस प्रोजेक्ट से हट चुकी हैं। कहा जा रहा है कि फिल्‍म के मेकर्स अब इस फिल्म के लिए नई एक्ट्रेस की तलाश में जुट गए है।

बता दें कि रणवीर सिंह ने इस फिल्‍म में शाहरुख खान को रिप्लेस किया है जबकि विक्रांत मेस्सी फिल्म में पहली बार नेगेटिव रोल निभाने वाले हैं।

रिपोर्ट की मानें तो कियारा आडवाणी की झोली में दिनेश विजन के निर्देशन में बनने वाली हॉरर कॉमेडी फिल्‍म ‘शक्ति शालिनी’ भी है। इस तरह की भी खबरें हैं कि यशराज फिल्‍म्‍स के मुखिया आदित्‍य चोपड़ा फ्रेंचाइजी फिल्‍म ‘धूम 4’ के लिए रनबीर कपूर के अपोजिट कियारा आडवाणी को कास्‍ट करना चाहते हैं।

यदि यह संभव हो पाता है, तो भी कियारा आडवाणी फिल्‍म ‘शक्ति शालिनी’ और  ‘धूम 4’ की शूटिंग  मैटरनिटी लीव से लौटने के बाद करेंगी।

बेतुके बयानों से बचें एवं राजनीतिक सहमति कायम रखें

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– ललित गर्ग-

पहलगाम की बर्बर आतंकी घटना ने भारत की आत्मा पर सीधा हमला किया है, इसमें पाकिस्तान की स्पष्ट भूमिका को देखते हुए देश की एक सौ चालीस करोड जनता चाहती है कि अब पाकिस्तान को सबक सीखाना जरूरी हो गया है, नरेन्द्र मोदी सरकार ने भी इसे गंभीरता से लिया और पाकिस्तान के खिलाफ कठोर एक्शन लेते हुए सिंधु जल को रोकने जैसे पांच कदम उठाये। दोनों ही देशों के बीच युद्ध की स्थिति बनी है, यह पहली बार देखने को मिला है कि इस घटना को लेकर कश्मीर सहित समूचा देश एक दिखाई दे रहा है। ऐसे क्रूर, आतंकी एवं अमानवीय हमले के वक्त में पूरा देश दुख और गुस्से की मनःस्थिति से गुजर रहा है, जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने शांति और सांप्रदायिक सद्भाव का एक सशक्त संदेश दिया है। सभी राजनीतिक दल, जाति, वर्ग, धर्म के लोग पाकिस्तान को करारा जबाव देने के लिये मोदी सरकार के हर निर्णय में सहयोगी होने का संकल्प व्यक्त किया है, बावजूद इसके कुछ नेताओं के ओछे, बेतुके एवं अराष्ट्रीय बयान भी सामने आए हैं, जिनको सुनकर इन नेताओं के मानसिक दिवालियेपन, औछेपन एवं विध्वंसक राजनीतिक सोच पर क्रोध भी आता है एवं तरस भी आता है। निश्चित ही ये बयान जहां अंधविरोध की घोर नकारात्मक एवं संकीर्ण राजनीति को दर्शाते है, वहीं कुछ वोट बैंक की सस्ती राजनीति को उजागर करते हैं। भाजपा नेताओं को भी यह ध्यान रखना होगा कि उनकी ओर से ऐसा कुछ न कहा-किया जाए, जिससे यह लगे कि वे पहलगाम की घटना का राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश कर रहे हैं। जब राष्ट्र संकट एवं जटिल दौर में हो, किसी का राजनीतिक हित देशहित से बड़ा नहीं हो सकता।
अनर्गल, बेतुके एवं राष्ट्र-विरोधी बयानों ने एक बार फिर कुछ नेताओं एवं दलों की घटिया सोच को बेनकाब किया है। जबकि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने पहलगाम की बर्बर आतंकी घटना पर अपने नेताओं के बेतुके बयानों का संज्ञान लिया और यह निर्देश दिया कि वे इस हमले पर पार्टी लाइन के हिसाब से ही बोलें। ऐसे निर्देश देना इसलिए आवश्यक हो गया था, क्योंकि उसके कई बड़े नेता और यहां तक कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री भी बेलगाम होकर यह कह गए कि हम युद्ध के पक्ष में नहीं। वहीं के एक मंत्री एवं नेता ने तो कहा कि आतंकियों के पास इतना समय कहां होता है कि वह किसी को मारने से पहले उसका धर्म पूछें। इसी तरह का बयान महाराष्ट्र के कांग्रेस विधायक ने भी दिया। हद तो यह हो गई कि जब यह भी बोला गया कि जो महिला कह रही है कि उसके पति को मारने से पहले उनसे उनका धर्म पूछा गया, उसने अपना होशोहवास खो दिया होगा। एक अन्य कांग्रेस नेता ने यह बेतुकी बात कही कि पाकिस्तान भाजपा और आरएसएस का दुश्मन होगा, कांग्रेस का नहीं? ऐसे बयान केवल संवेदनहीन और पहलगाम हमले से क्षुब्ध देशवासियों का खून खौलाने वाले ही नहीं, आतंक को खाद-पानी देने वालों के मन की मुराद पूरी करने वाले भी हैं।
भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत ने अपने विवादित बयान में कहा कि इस घटना से किसे फायदा हो रहा है और कौन हिंदू-मुस्लिम कर रहा है इसका जवाब हमला करने वाले के पास ही है। टिकैत ने जोर देकर कहा कि असली चोर पाकिस्तान में नहीं बल्कि भारत में ही  मौजूद है। टिकैत अपने औछे, घटिया एवं उच्छृंखल बयान के साथ यह उदाहरण भी दिया कि जब गांव में किसी की हत्या होती है, तो पुलिस सबसे पहले उसे पकड़ती है, जिसे जमीन मिलने जैसा फायदा होता है। पाकिस्तान के लिये पानी रोकने के निर्णय पर उनका यह कहना कि पानी पर सभी जीव-जंतुओं का अधिकार है, यह सबको मिलना चाहिए। ऐसा कहकर उन्होंने भारत-विरोधी विचार ही दिया है। बिजनसमैन एवं गांधी परिवार के जवाई रॉबर्ट वाड्रा के पहलगाम हमले पर विचार भले ही चौतरफा आलोचना के बाद बदल गए हैं। लेकिन उन्होंने भी इस आतंकवादी हमले के लिए मोदी सरकार और हिंदुत्व को जिम्मेदार ठहराया था।
राष्ट्रीय हितों पर चोट करने और देश की एकजुटता को प्रभावित करने वाले ये बयान यही नहीं बताते कि राजनीतिक कटुता के चलते नेतागण संवेदनशील मामलों में भी बोलते समय अपने विवेक का परित्याग कर देते हैं, बल्कि यह भी इंगित करते हैं कि उन्हें राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर भी पार्टी लाइन की कोई परवाह नहीं रहती। उनके लिये पार्टी देश से ज्यादा महत्वपूर्ण है। इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है, जिन भी दलों के नेता पहलगाम की घटना पर अनर्गल बयान दे रहे हैं और जिसके चलते सर्वदलीय बैठक में बनी सहमति आहत हो रही है, उन पर लगाम लगे। पहलगाम आतंकी हमला पहला मौका है, जब विपक्ष ‘किसी भी जवाबी कार्रवाई’ के लिए मोदी सरकार के साथ खड़ा दिख रहा है। उड़ी हमले के बाद सर्जिकल स्ट्राइक और पुलवामा हमले के बाद एयर स्ट्राइक के सुबूत मांगने वाले विपक्ष के रुख में यह बड़ा बदलाव है। सबसे बड़े लोकतंत्र की राजनीति के लिए यह निश्चय ही सकारात्मक संकेत भी है।
संसदीय लोकतंत्र में सरकार बहुमत से बनती है, लेकिन सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों की भूमिकाएं महत्वपूर्ण रहती हैं। बेशक पहलगाम में सुरक्षा चूक पर जवाब मांगने का राजनीतिक अधिकार विपक्ष को है, क्योंकि चूक तो हुई ही है, लेकिन सहमति के लिए संवाद और समन्वय की प्रक्रिया जारी रहनी जरूरी है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि राजनीति देश के लिए होनी चाहिए, देश की कीमत पर नहीं। अलग-अलग दलों से होने तथा कई मुद्दों पर नीतिगत मतभेदों के बावजूद प्रधानमंत्री नरसिंह राव, पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और नेता प्रतिपक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने परस्पर सम्मान भाव वाले रिश्तों से संवाद, सौहार्द, समझ तथा समन्वय की जो मिसाल पेश की, वह दलगत राजनीति में वर्तमान सन्दर्भों मंे मार्गदर्शक बन सकती है। एक-दूसरे को देशविरोधी मानने की मानसिकता से मुक्त होना होगा और परस्पर कटुता के बजाय सम्मान का भाव जगाना होगा। अपेक्षा की जाती है कि अपनी-अपनी राजनीतिक विचारधारा पर अडिग रहते हुए भी वे राष्ट्रहित के मुद्दों पर सहमति के साथ आगे बढ़ें, कायम रहे राजनीतिक सहमति ताकि देश चुनौतियों एवं संकटों का सामना प्रभावी एवं सफलतापूर्वक कर सके।
विडम्बना तो यह है कि भारत तथा अंतर्राष्ट्रीय दबाव के आगे लाचार हुए पाकिस्तान के सत्ताधीशों ने स्वीकार किया कि वे पिछले तीस साल से आतंक की फसल सींच रहे थे। भारत ने पूरी दुनिया को मुंबई के भीषण हमले, संसद पर हुए हमले तथा पुलवामा से लेकर उड़ी तक की आतंकवादी घटनाओं में पाक की संलिप्तता के मजबूत सबूत बार-बार दिए, अब दुनिया भी स्वीकारने लगी है कि पाकिस्तान आतंक की प्रयोगशाला है। उसकी इस नर्सरी एवं आतंक की खेती का उद्देश्य भारत की तबाही ही है। भारत को कभी तो जबाव देना ही था, अब भारत ने कमर कसी है तो पाकिस्तान परमाणु बम से हमले की धमकी, सिंधु नदी को रक्त से भरने तथा कश्मीर मुद्दे के अंतर्राष्ट्रीयकरण जैसी गिदड धमकियों पर उतर आया है। अब तो भारत के राजनीतिक दलों, नेताओं एवं संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों को पाकिस्तान के प्रति अपनी सोच को बदलना चाहिए। अब पाकिस्तान के लिये स्थिर पड़ोसी का विचार छोड़कर रणनीतिक विखंडन के जरिये क्षेत्रीय परिदृश्य को नया आकार देना समय की जरूरत है। आज सरकार, विपक्ष और नागरिकों के सामने एक बड़ी चुनौती है कि वे ऐसा कुछ न करें, जिससे सांप्रदायिक संघर्ष फैले। सीमाओं पर लड़ने की ताकत देश के भीतर के इन संकीर्ण एवं स्वार्थी राजनीतिक एजेंडे में खप जायेगी तो हम केवल उस एजेंडे को ही आगे बढ़ा रहे होंगे, जो आतंकवादियों एवं पाकिस्तान का मकसद है- भारत को विभाजित करना। कश्मीर एवं देश में मुस्लिम समाज ने पहलगाम की घटना का जिस तरह विरोध किया, काली पट्टी बांधकर नमाज पढ़ी और कहा कि इस घटना ने इस्लाम को बदनाम किया है, वह स्वागतयोग्य है। देश में आगे भी सद्भाव बना रहे, यह देखना सभी समुदायों की जिम्मेदारी है। लेकिन इससे बड़ी जिम्मेदारी राजनीतिक दलों एवं नेताओं की है कि वे बेतुके बयानों से स्वार्थ की राजनीति का त्याग करें।

अक्षय तृतीया 🌼

वैशाख की उजली बेला आई,
धूप सुनहरी देहरी पर छाई।
अक्षय तृतीया का मधुर निमंत्रण,
पुण्य-सुधा में डूबा आचमन।

न मिटने वाला पुण्य का सूरज,
हर मन में भर दे स्वर्णिम किरण।
सच की थाली, धर्म का दीपक,
दान की बूंदें, जीवन समर्पण।

परशुराम की वीरगाथा बोले,
गंगा की लहरें चरणों में डोले।
युधिष्ठिर को अक्षय पात्र मिला,
सत्य का दीप फिर से खिला।

मां लक्ष्मी के पग जब आँगन आएं,
निर्धन के भी भाग्य मुस्काए।
जो दे अन्न, जल और वस्त्र,
उसके पुण्य हों कभी न क्षीण शस्त्र।

सोने से ज्यादा सोचा जाए,
करुणा का सौदा किया जाए।
पंछियों को जल, वृक्षों को जीवन,
अक्षय हो फिर मानव का चिंतन।

ना हो केवल सोने की पूजा,
धूल में भी खोजें आत्मारूप सूझा।
बिन मुहूर्त जो शुभ हो जाए,
ऐसा हर दिन क्यों न हो पाए?

खरीदें नहीं केवल आभूषण,
उतारें मन के भी आडंबर।
आस्था के संग हो सेवा,
तभी फले पुण्य का अमर अंत:करण।

ओ धन के व्यापारी, सुन ले बात,
अक्षय वह जो दे इंसानियत का साथ।
सोना-चांदी फिर भी छूटेंगे,
पर प्रेम, परोपकार कभी न टूटेंगे।

इस तिथि पर कर लो संकल्प,
हर कर्म हो सच्चा और सरल।
अक्षय बने हर दिन की चेतना,
पुण्य हो जीवन की प्रेरणा।

-डॉ सत्यवान सौरभ

अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस लाखों मजदूरों के परिश्रम, दृढ़ निश्चय और निष्ठा का दिवस है 

international labours day
international labours day

(अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस, 01 मई 2025 पर विशेष आलेख)

हर वर्ष अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मई महीने की पहली तारीख को मनाया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस को मई दिवस भी कहकर बुलाया जाता है। अमेरिका में 1886 में जब मजदूर संगठनों द्वारा एक शिफ्ट में काम करने की अधिकतम सीमा 8 घंटे करने के लिए हड़ताल की जा रही थी। इस हड़ताल के दौरान एक अज्ञात शख्स ने शिकागो की हेय मार्केट में बम फोड़ दिया, इसी दौरान पुलिस ने मजदूरों पर गोलियां चला दीं, जिसमें 7 मजदूरों की मौत हो गयी। इस घटना के कुछ समय बाद ही अमेरिका ने मजदूरों के एक शिफ्ट में काम करने की अधिकतम सीमा 8 घंटे निश्चित कर दी थी। तभी से अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस 1 मई को मनाया जाता है। इसे मनाने की शुरुआत शिकागो में ही 1886 से की गयी थी। मौजूदा समय में भारत सहित विश्व के अधिकतर देशों में मजदूरों के 8 घंटे काम करने का संबंधित कानून बना हुआ है। अगर भारत की बात की जाए तो भारत में मजदूर दिवस के मनाने की शुरुआत चेन्नई में 1 मई 1923 से हुई।

अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस लाखों मजदूरों के परिश्रम, दृढ़ निश्चय और निष्ठा का दिवस है। एक मजदूर देश के निर्माण में बहुमूल्य भूमिका निभाता है और उसका देश के विकास में अहम योगदान होता है। किसी भी समाज, देश, संस्था और उद्योग में काम करने वाले श्रमिकों की अहम भूमिका होती है। मजदूरों के बिना किसी भी औद्योगिक ढांचे के खड़े होने की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए श्रमिकों का समाज में अपना ही एक स्थान है। लेकिन आज भी देश में मजदूरों के साथ अन्याय और उनका शोषण होता है। आज भारत देश में बेशक मजदूरों के 8 घंटे काम करने का संबंधित कानून लागू हो लेकिन इसका पालन सिर्फ सरकारी कार्यालय ही करते हैं, बल्कि देश में अधिकतर प्राइवेट कंपनियां या फैक्ट्रियां अब भी अपने यहां काम करने वालों से 12 घंटे तक काम कराते हैं। जो कि एक प्रकार से मजदूरों का शोषण हैं। आज जरूरत है कि सरकार को इस दिशा में एक प्रभावी कानून बनाना चाहिए और उसका सख्ती से पालन कराना चाहिए।

भारत देश में मजदूरों की मजदूरी के बारे में बात की जाए तो यह भी एक बहुत बड़ी समस्या है, आज भी देश में कम मजदूरी पर मजदूरों से काम कराया जाता है। यह भी मजदूरों का एक प्रकार से शोषण है। आज भी मजदूरों से फैक्ट्रियों या प्राइवेट कंपनियों द्वारा पूरा काम लिया जाता है लेकिन उन्हें मजदूरी के नाम पर बहुत कम मजदूरी पकड़ा दी जाती है। जिससे मजदूरों को अपने परिवार का खर्चा चलाना मुश्किल हो जाता है। पैसों के अभाव से मजदूर के बच्चों को शिक्षा से वंचित रहना पड़ता है। भारत में अशिक्षा का एक कारण मजदूरों को कम मजदूरी दिया जाना भी है। आज भी देश में ऐसे मजदूर है जो 1500-2000 मासिक मजदूरी पर काम कर रहे हैं। यह एक प्रकार से मानवता का उपहास है। बेशक इसको लेकर देश में विभिन्न राज्य सरकारों ने न्यूनतम मजदूरी के नियम लागू किये हैं, लेकिन इन नियमों का खुलेआम उल्लंघन होता है और इस दिशा में सरकारों द्वारा भी कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता और न ही कोई कार्यवाही की जाती है। आज जरुरत है कि इस महंगाई के समय में सरकारों को प्राइवेट कंपनियों, फैक्ट्रियों और अन्य रोजगार देने वाले माध्यमों के लिए एक कानून बनाना चाहिए जिसमे मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी तय की जानी चाहिए। मजदूरी इतनी होनी चाहिए कि जिससे मजदूर के परिवार को भूंखा न रहना पड़े और न ही मजदूरों के बच्चों को शिक्षा से वंचित रहना पड़े।

आज भी हमारे भारत देश में लाखों लोगों से बंधुआ मजदूरी कराई जाती है। जब किसी व्यक्ति को बिना मजदूरी या नाममात्र पारिश्रमिक के मजदूरी करने के लिए बाध्य किया जाता है या ऐसी मजदूरी कराई जाती है तो वह बंधुआ मजदूरी कहलाती है। अगर देश में कहीं भी बंधुआ मजदूरी कराई जाती है तो वह सीधे-सीधे बंधुआ मजदूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम 1976 का उल्लंघन  होगा। यह कानून भारत के कमजोर वर्गों के आर्थिक और वास्तविक शोषण को रोकने के लिए बनाया गया था लेकिन आज भी जनसंख्या के कमजोर वर्गों के आर्थिक और वास्तविक शोषण को नहीं रोका जा सका है। आज भी देश में कमजोर वर्गों का बंधुआ मजदूरी के जरिए शोषण किया जाता है जो कि संविधान के अनुच्छेद 23 का पूर्णतः उल्लंघन है। संविधान की इस धारा के तहत भारत के प्रत्येक नागरिक को शोषण और अन्याय के खिलाफ अधिकार दिया गया है। लेकिन आज भी देश में कुछ पैसों या नाम मात्र के गेहूं, चावल या अन्य खाने के सामान के लिए बंधुआ मजदूरी कराई जाती है। जो कि अमानवीय है। आज जरूरत है समाज और सरकार को मिलकर बंधुआ मजदूरी जैसी अमानवीयता को रोकने का सामूहिक प्रयास करना चाहिए।

आज भी देश में मजदूरी में लैंगिक भेदभाव आम बात है। फैक्ट्रियों में आज भी महिलाओं को पुरुषों के बराबर वेतन नहीं दिया जाता है। बेशक महिला या पुरुष फैक्ट्रियों में समान काम कर रहे हों लेकिन बहुत सी जगह आज भी महिलाओं को समान कार्य हेतु समान वेतन नहीं दिया जाता है। फैक्ट्रियों में महिलाओं से उनकी क्षमता से अधिक कार्य कराया जाता है। आज भी देश की बहुत सारी फैक्ट्रियों में महिलाओं के लिए पृथक शौचालय की व्यवस्था नहीं है। महिलाओं से भी 10-12 घंटे तक काम कराया जाता है। आज जरुरत है सभी उद्योगों को लैंगिक भेदभाव से बचना चाहिए और महिला श्रमिक से सम्बंधित कानूनों का कड़ाई से पालन करना चाहिए। इसके साथ ही सभी राज्य सरकारों को महिला श्रमिक से सम्बंधित कानूनों को कड़ाई से लागू करने के लिए सभी उद्योगों को निर्देशित करना चाहिए। अगर कोई इन कानूनों का उल्लंघन करे तो उसके खिलाफ कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए।  

आज भारत देश में छोटे-छोटे गरीब बच्चे स्कूल छोड़कर बाल-श्रम हेतु मजबूर हैं। बाल मजदूरी बच्चों के मानसिक, शारीरिक, आत्मिक, बौद्धिक एवं सामाजिक हितों को प्रभावित करती है। जो बच्चे बाल मजदूरी करते हैं, वो मानसिक रूप से अस्वस्थ्य रहते हैं और बाल मजदूरी उनके शारीरिक और बौद्धिक विकास में बाधक होती है। बालश्रम की समस्या बच्चों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित करती है। जो कि सविधान के विरुध्द है और मानवाधिकार का सबसे बड़ा उल्लंघन है। बाल-श्रम की समस्या भारत में ही नहीं दुनिया कई देशों में एक विकट समस्या के रूप में विराजमान है। जिसका समाधान खोजना जरूरी है। भारत में 1986 में बाल श्रम निषेध और नियमन अधिनियम पारित हुआ। इस अधिनियम के अनुसार बाल श्रम तकनीकी सलाहकार समिति नियुक्त की गई। इस समिति की सिफारिश के अनुसार, खतरनाक उद्योगों में बच्चों की नियुक्ति निषिद्ध है। भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों में शोषण और अन्याय के विरुद्ध अनुच्छेद 23 और 24 को रखा गया है। अनुच्छेद 23 के अनुसार खतरनाक उद्योगों में बच्चों के रोजगार पर प्रतिबंध लगाता है। संविधान के अनुच्छेद 24 के अनुसार 14 साल के कम उम्र का कोई भी बच्चा किसी फैक्ट्री या खदान में काम करने के लिए नियुक्त नहीं किया जायेगा और न ही किसी अन्य खतरनाक नियोजन में नियुक्त किया जायेगा। फैक्टरी कानून 1948 के तहत 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के नियोजन को निषिद्ध करता है। 15 से 18 वर्ष तक के किशोर किसी फैक्टरी में तभी नियुक्त किये जा सकते हैं, जब उनके पास किसी अधिकृत चिकित्सक का फिटनेस प्रमाण पत्र हो। इस कानून में 14 से 18 वर्ष तक के बच्चों के लिए हर दिन साढ़े चार घंटे की कार्यावधि तय की गयी है और रात में उनके काम करने पर प्रतिबंध लगाया गया है। फिर भी इतने कड़े कानून होने के बाद भी बच्चों से होटलों, कारखानों, दुकानों इत्यादि में दिन-रात कार्य कराया जाता हैं। और विभिन्न कानूनों का उल्लंघन किया जाता है। जिससे मासूम बच्चों का बचपन पूर्ण रूप से प्रभावित होता है। बालश्रम की समस्या का समाधान तभी होगा जब हर बच्चे के पास उसका अधिकार पहुँच जाएगा। इसके लिए जो बच्चे अपने अधिकारों से वंचित हैं, उनके अधिकार उनको दिलाने के लिये समाज और देश को सामूहिक प्रयास करने होंगे। आज देश के प्रत्येक नागरिक को बाल मजदूरी का उन्मूलन करने की जरुरत है। और देश के किसी भी हिस्से में कोई भी बच्चा बाल श्रमिक दिखे, तो देश के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह बाल मजदूरी का विरोध करे। इसके साथ ही बड़ी उम्र के मजदूरों को कोई भी बाल मजदूर दिखे तो उन्हें खुद बाल मजदूरी रोकने ले लिए आगे आना चाहिए और बाल मजदूरी का विरोध करना चाहिए। अगर देश से बाल मजदूरी रुकेगी तो मजदूर दिवस मनाना भी तभी सार्थक होगा। 

मजदूर दिवस के अवसर पर सम्पूर्ण राष्ट्र और समाज को राष्ट्र और समाज की प्रगति, समृद्धि तथा खुशहाली में दिये श्रमिकों के योगदान को नमन करना चाहिए। देश के उत्पादन में वृद्धि और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो उच्च मानक हांसिल किये हैं वह हमारे श्रमिकों के अथक प्रयासों का ही नतीजा है। इसलिए राष्ट्र की प्रगति में अपने श्रमिकों की महत्वपूर्ण भूमिका को पहचानकर सभी देशवासियों को उसकी सराहना करनी चाहिए। इसके साथ ही मजदूर दिवस के अवसर पर देश के विकास और निर्माण में बहुमूल्य भूमिका निभाने वाले लाखों मजदूरों के कठिन परिश्रम,दृढ़ निश्चय और निष्ठा का सम्मान करना चाहिए और मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए सम्पूर्ण राष्ट्र और समाज को सदैव तत्पर रहना चाहिए। 

– ब्रह्मानंद राजपूत

अक्षय तृतीया: समृद्धि, पुण्य और शुभारंभ का पर्व

अक्षय तृतीया, जिसे ‘आखा तीज’ भी कहा जाता है, हिंदू पंचांग के अनुसार वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाने वाला एक अत्यंत पावन पर्व है। ‘अक्षय’ का अर्थ होता है—जो कभी क्षय (नाश) न हो। यही कारण है कि यह दिन शुभ कार्यों, दान-पुण्य, निवेश और नए आरंभ के लिए अत्यंत फलदायी माना जाता है। यह दिन विशेष रूप से मां लक्ष्मी और भगवान विष्णु की आराधना के लिए समर्पित होता है। मान्यता है कि इस दिन सच्चे हृदय से पूजा-पाठ, व्रत और दान करने से न केवल वर्तमान जीवन में सुख-समृद्धि प्राप्त होती है, बल्कि अगले जन्मों तक अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।
पुराणों के अनुसार, इसी दिन सतयुग और त्रेतायुग का प्रारंभ हुआ था। भगवान परशुराम का जन्म भी इसी तिथि को हुआ था। महाभारत में वर्णित है कि इसी दिन युधिष्ठिर को अक्षय पात्र की प्राप्ति हुई थी, जिससे कभी अन्न की कमी नहीं होती थी। अक्षय तृतीया को विवाह, गृह प्रवेश, व्यापार आरंभ, संपत्ति खरीदने, सोना-चांदी या भूमि निवेश जैसे कार्यों के लिए बेहद शुभ माना जाता है। इस दिन बिना किसी मुहूर्त के भी कार्य आरंभ किए जा सकते हैं।

-प्रियंका सौरभ

अक्षय तृतीया, जिसे ‘आखा तीज’ भी कहा जाता है, हिंदू पंचांग के अनुसार वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाने वाला एक अत्यंत पावन पर्व है। ‘अक्षय’ का अर्थ होता है—जो कभी क्षय (नाश) न हो। यही कारण है कि यह दिन शुभ कार्यों, दान-पुण्य, निवेश और नए आरंभ के लिए अत्यंत फलदायी माना जाता है। यह दिन विशेष रूप से मां लक्ष्मी और भगवान विष्णु की आराधना के लिए समर्पित होता है। मान्यता है कि इस दिन सच्चे हृदय से पूजा-पाठ, व्रत और दान करने से न केवल वर्तमान जीवन में सुख-समृद्धि प्राप्त होती है, बल्कि अगले जन्मों तक अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।

पुराणों के अनुसार, इसी दिन सतयुग और त्रेतायुग का प्रारंभ हुआ था। भगवान परशुराम का जन्म भी इसी तिथि को हुआ था। महाभारत में वर्णित है कि इसी दिन युधिष्ठिर को अक्षय पात्र की प्राप्ति हुई थी, जिससे कभी अन्न की कमी नहीं होती थी। अक्षय तृतीया को विवाह, गृह प्रवेश, व्यापार आरंभ, संपत्ति खरीदने, सोना-चांदी या भूमि निवेश जैसे कार्यों के लिए बेहद शुभ माना जाता है। इस दिन बिना किसी मुहूर्त के भी कार्य आरंभ किए जा सकते हैं।

भारत त्योहारों की भूमि है, जहां हर पर्व किसी गहरी सांस्कृतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक भावना से जुड़ा होता है। इन्हीं पर्वों में से एक है अक्षय तृतीया, जिसे ‘अखा तीज’ के नाम से भी जाना जाता है। यह पर्व न केवल धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी विशेष भूमिका निभाता है। इस दिन किए गए पुण्य कर्म, दान, जप-तप, उपवास और सेवा कार्य ‘अक्षय’ यानी अविनाशी फल देने वाले माने जाते हैं। यह दिन सूर्य और चंद्रमा दोनों के उच्च राशि में होने के कारण विशेष रूप से अबूझ मुहूर्त (सर्वश्रेष्ठ शुभ समय) माना जाता है, इसलिए इस दिन कोई भी शुभ कार्य बिना ज्योतिषीय परामर्श के भी किया जा सकता है।

अक्षय तृतीया से जुड़ी अनेक पौराणिक घटनाएं हैं, जो इस दिन को अत्यधिक पवित्र बनाती हैं। भगवान परशुराम का जन्म इसी दिन हुआ था, इसलिए इसे परशुराम जयंती के रूप में भी मनाया जाता है। इसी दिन युधिष्ठिर को भगवान सूर्य से ‘अक्षय पात्र’ प्राप्त हुआ था, जो कभी खाली नहीं होता था। व्यास जी और गणेश जी ने महाभारत की रचना इसी दिन आरंभ की थी। कुबेर ने इसी दिन मां लक्ष्मी की पूजा कर अपार धन प्राप्त किया था। भगवान विष्णु ने नर-नारायण, हयग्रीव और परशुराम के रूप में इसी दिन अवतार लिया।

इस दिन श्रद्धालु गंगा स्नान, दान, व्रत और पूजन करते हैं। मां लक्ष्मी-नारायण की विशेष पूजा की जाती है। सोना खरीदना इस दिन की खास परंपरा मानी जाती है, क्योंकि यह ‘अक्षय संपत्ति’ का प्रतीक होता है। पूजा में तांबे के कलश में जल भरकर भगवान विष्णु को अर्पित किया जाता है। खीर, फल, पंचामृत का भोग लगाया जाता है। गरीबों और ब्राह्मणों को अन्न, वस्त्र, जल और धन का दान दिया जाता है। कन्याओं को भोजन कराना अत्यंत पुण्यकारी माना जाता है।

भारत के कई हिस्सों में यह दिन कृषि चक्र से भी जुड़ा है। किसान इसे बीज बोने और नई फसल के लिए कामना करने का दिन मानते हैं। राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में कन्यादान और विवाह की परंपरा इस दिन विशेष रूप से प्रचलित है।

इस दिन सोना खरीदना शुभ माना जाता है। आभूषण कंपनियां, बैंक और निवेश कंपनियां इस दिन को अवसर के रूप में देखती हैं। लोग नया व्यापार शुरू करते हैं, मकान, ज़मीन या वाहन खरीदते हैं और सोना, चांदी, स्टॉक या म्यूचुअल फंड में निवेश करते हैं। यह न केवल धार्मिक आस्था का परिचायक है, बल्कि लोगों की आर्थिक समझ और परंपरा के समन्वय का प्रतीक भी है।

पारंपरिक रूप से अक्षय तृतीया प्रकृति के साथ संतुलन और सामंजस्य का पर्व रहा है। यह गर्मी के मौसम की शुरुआत में आता है, जब जल संरक्षण, वृक्षारोपण, और पक्षियों के लिए पानी रखने जैसे कार्यों को बढ़ावा दिया जाता है। कई सामाजिक संगठनों द्वारा इस दिन जल से सेवा (वॉटर बैंकिंग) और हरित अभियान चलाए जाते हैं। शहरी जीवन की भागदौड़ में यह एक ऐसा विराम है, जो हमें प्रकृति के साथ एक बार फिर से जुड़ने का अवसर देता है।

आज के समय में जब लोग तेजी से उपभोक्तावाद और भागमभाग की ओर बढ़ रहे हैं, अक्षय तृतीया हमें आध्यात्मिक संतुलन, दया और सद्कर्मों की निरंतरता की याद दिलाता है। यह पर्व सिखाता है कि केवल बाहरी संपत्ति नहीं, बल्कि अक्षय मूल्य—सच्चाई, करुणा, दानशीलता और धर्म ही जीवन को समृद्ध बनाते हैं।

अक्षय तृतीया केवल एक पर्व नहीं, बल्कि संवेदनशीलता, पुण्य और सकारात्मक आरंभ का उत्सव है। यह दिन हमें यह याद दिलाता है कि जीवन में जो भी शुभ कार्य करें, वह केवल भौतिक नहीं बल्कि आध्यात्मिक और नैतिक उन्नति की ओर भी अग्रसर हो। आज जब हम अक्षय तृतीया मनाएं, तो एक वचन खुद से करें—कि हम न केवल अपने लिए, बल्कि समाज और पर्यावरण के लिए भी कुछ ‘अक्षय’ छोड़कर जाएं।

“जो करे सेवा जल की, वृक्ष लगाए प्यार,
उसके जीवन में रहे अक्षय सुख-संसार।”

शोकाकुल अर्जुन को गीता वाणी से मिली मुक्ति

            आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार

युद्ध क्षेत्र कुरुक्षेत्र में एकत्रित सेना के मध्य सभी सगे सम्बंधियो को महाभारत युद्ध में शामिल देख अर्जुन शोक से ग्रसित हो गया तब श्रीभगवान श्रीकृष्ण उन्हें गीता के ज्ञान द्वारा युद्ध के लिए प्रेरित करते है किन्तु अर्जुन को भगवान्‌ की वाणी सुनायी नहीं पड़ती;  किन्तु कृष्ण ने देखा की जिस तत्त्व का साक्षात्कार वे अर्जुन को कराने की इच्छा रखकर बोलते हैं उसे अर्जुन समझ नही पता है तब वे उसे धर्मानुष्ठान रूप से उसके कर्तव्य का पालन कराने हेतु उसके चित्त की वासना से उसे मुक्त कराना शुरू करते है ताकि उनकी वाणी को अर्जुन सुन समझ सके। भगवन श्रीकृष्ण अर्जुन के चित्त को वासनारहित अर्थात उसके अन्तःकरण की शुद्धि कर , जब उसका हृदय वासना के उपराग से रहित कर, अपने ज्ञान-चन्द्र पर राग का उपराग का ज्ञान कराते तब श्रीकृष्ण की वाणी को ग्रहण करने में अर्जुन सक्षम हो पाता है. ध्यान देने वाली बात है कि जब प्रथम बार अर्जुन, जो श्रीकृष्ण के परम मित्र और चचेरे भाई भी थे, भगवान श्रीकृष्ण को अपना गुरु बनने की प्रार्थना करते हैं तब अर्जुन श्रीकृष्ण के सम्मुख यह स्वीकार करते हैं कि उन पर ‘कार्पण्यदोष’ हावी हो गया है अर्थात उनका आचरण कायरों जैसा हो गया है इसलिए वह श्रीकृष्ण को अपना गुरु बनने और उन्हें धर्म के पथ पर चलने का उपदेश देने के लिए निवेदन करते हैं।

अर्जुन जैसे शिष्य का दोष गुरु श्रीकृष्ण के समक्ष आ जाता है जिसमे अर्जुन न तो सफाई देते है न कोई प्रतिवाद करते है कि ‘मुझे मोह नहीं है।’  अर्जुन का यह स्वीकारना गीता के अध्याय 2 श्लोक 7 में देखा जा सकता है- कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः। यच्छ्रेयः स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥  अर्थात अर्जुन स्वीकार करता है कि मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया हूँ और गहन चिन्ता में डूब कर कायरता दिखा रहा हूँ। मैं आपका शिष्य हूँ और आपके शरणागत हूँ। कृपया मुझे निश्चय ही यह उपदेश दें कि मेरा हित किसमें है। अर्जुन श्रीकृष्ण की शरण में जाता तो है किन्तु शरणागत नही होता जबकि “सत्य को जानने के लिए उसे श्रीकृष्ण गुरु की शरण पाकर श्रद्धापूर्वक उनसे तत्त्व ज्ञान प्राप्त करना था जो वह अपने को प्याज के छिलकों की तरह अनावृत कर रहा था और गीता का अमृतपान कर रहा था। गीता का परमज्ञान प्रकाशस्वरूप, आनन्दरूप चन्द्र है जिसपर राग-वासनासक्ति से ग्रहण लग जाता है। हमारे भीतर ज्ञानरूप से स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण विराजमान हैं- बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् | बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ||7-10|| गीता में वे स्पष्ट करते है की वे ही समस्त जीवों का आदि बीज है और बुद्धिमानों की बुद्धि तथा समस्त तेजस्वी पुरुषों का तेज हूँ ।’ हमारे हृदय में बुद्धि बनकर भगवान् बैठे हैं; किन्तु उनकी बात हम सुनते कहाँ है?  यह पुत्र हैं,  यह धन है, यह परिवार है, यह व्यापार है आदि में आसक्ति करके हम भगवान्‌ श्रीकृष्ण की वाणी कहाँ सुन पाते है जो अनित्य हैं।

भगवान्‌ श्रीकृष्ण की वाणी जब कहती है धन, पुत्र, परिवार, शरीर में आसक्त होना उचित नहीं है, तब हम कहाँ उसे सुनते है? जब तक अन्तःकरण में राग है,  श्रीकृष्ण की वाणी सुनायी नहीं पड़ती। सुनायी पड़ने पर भी जैसे प्रारम्भ में अर्जुन को समझ में नहीं आती, तब हमारी अर्जुन से क्या तुलना? अगर हमारी समझ में आ भी जाए तो हम उसे मानने को राजी नही होते है, इसलिए हम नित्य प्रार्थना करते हैं, कितुं इसके बाबजूद भी हमारी प्रार्थना में कभी मन की स्थिरता न होने से दृष्टि की शुद्धता का अभाव होता है। हम किसी का पाप; किसीकी बुराई लिए होते है इसलिए हमारी दृष्टि शुद्धता में दोष आ जाता है और हृदय में मित्रभाव तिरोहित रहता है। श्रीकृष्ण की वाणी सुनने के लिए हृदय को रागद्वेष रहित करना होता है अन्तः करणकी शुद्धिके लिये स्थूल शरीर की-इन्द्रियों की प्रवृत्ति शुद्ध हो, यह प्रार्थना की जाती है। राग-द्वेष की निवृत्ति से अन्तःकरण की शुद्धि होती है। वासनानुसार व्यवहार से अन्तःकरण की शुद्धि नहीं होती और काम, क्रोध, लोभ, मोह से आबद्ध हम मनुष्य श्रीकृष्ण की वाणी को सुन-समझ  नहीं पाते है। गीता की यह वाणी जीव की वाणी नहीं है। जो पापी-पुण्यात्मा है, जो काम-क्रोध, लोभ-मोह से ग्रस्त है, जो परिच्छिन्न है उसकी नहीं, यह श्रीकृष्ण भगवान्‌ की वाणी है। यह अपौरुषेय वेदवाणी है, ब्रह्म से तादात्म्या पत्र की वाणी है। यह उसकी वाणी है, जिसकी दृष्टि में अविद्या कभी थी ही नहीं। यह भगवान्‌की वाणी कैसी है?- सारं सुष्ठ मितं मधु. वाणी में इन चार गुण की प्रधानता होने चाहिये।

      सारं अर्थात सार-सार कहना, यानी जो कहना उसमें सभी बातें आ जाए सुष्ठ अर्थात् वाणी दोषरहित हो निर्दोष हो, तीसरा मितं अर्थात जो कहना हो उसे कम शब्दों में कोह अनावश्यक बातें न हो और चौथा मधु अर्थात मधुर बोलो, प्रिय लगने वाले शब्दों में कहो . जो दूसरों के हृदय को चोट पहुँचाए, वह वाणी नहीं, वाण है। परमात्मा निर्वाण है। उसमें वाण का-दुःख का लेश भी नहीं है। वह किसीको दुःख नहीं दे सकता;  क्योंकि दुःख उसके पास है ही नहीं। यह वाणी वाण की घरवाली है। इसे सावधानी से सम्हालकर रखो और याद रखों वाणी किसी को पीड़ा देने-वेधने के लिये नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण की वाणी-सारं सुष्ठ मितं मधु’ है, उनका प्रत्येक शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ही नहीं अपितु उपनिषद भाष्य से कम नहीं है। उनके प्रत्येक शब्द पर पूरा पूरा ध्यान रखा जाकर कई विद्वान् उनके वाणीभाष्य श्रीमद गीता के अथाह सागर में डुबकी लगाने उतरे तो उतनी ही गीताभाष्य हमारे सामने है और आज महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक की गीताभाष्य उसके प्रमाण है, जो सबके अपने अपने ज्ञान बुद्धि की घोषणा करते है।

श्रीकृष्ण अर्जुन को इस प्रकार के ज्ञान का भ्रम न पालने के उद्देश्य को सिरे से खारिज कर गीता उपदेश में अध्याय-4 श्लोक 37 में कहते है कि -ज्ञान सम्पूर्ण कर्मों को भस्म कर देनेवाली अग्नि है- यथैधांसिसमिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन। ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥4.37॥  अर्थात जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि लकड़ी को स्वाहा कर देती है उसी प्रकार से हे अर्जुन! ज्ञान रूपी अग्नि भौतिक कर्मों से प्राप्त होने वाले समस्त फलों को भस्म कर देती है। श्रीकृष्ण अर्जुन को आश्वस्त करते हैं कि ज्ञान में वह शक्ति होती है कि वह इस जन्म में ही हमारे संचित कर्मों की गठरी को भस्म कर सकता है क्योंकि आत्मा का ज्ञान और भगवान के साथ इसका संबंध हमें भगवान की शरणागति की ओर ले जाता है। जब हम भगवान की शरणागति प्राप्त करते हैं तब वे हमारे अनंतकाल के संचित कर्मों को भस्म कर देते हैं और हमें लौकिक बंधनों से मुक्त कर देते हैं। यहाँ  ‘कुरुतः’  शब्द आया है जिसपर बहुत कुछ लिखा गया है की यह शब्द कहाँ से आया !जब श्रीकृष्ण कह रहे है और अर्जुन जिज्ञासु है तब अर्जुन के आक्षेप और जुगुप्सा के लिए यह शब्द आया है जहाँ श्रीकृष्ण जिज्ञासु अर्थात प्रश्नकर्ता नहीं है और न ही अर्जुन से जिज्ञासा करते है.बल्कि श्रीकृष्ण आक्षेप कर रहे हैं कि हे अर्जुन यह तुम्हारे भीतर आने योग्य बात नहीं थी।

 कठोपनिषद् में भी कहा है कि -उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरात्रिबोधत । क्षुरस्यधारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत् कवयो वदन्ति॥1.3.16 अर्थात -उठो ! जागो ! महापुरुषोंके समीप जाकर जानो; क्योंकि आत्मदर्शी पुरुष आत्मज्ञान के मार्ग को छुरे की धार के समान तीक्ष्ण एवं दुर्गम बतलाते हैं। ‘त्वां’- अर्जुन ! और यह मोह तुम्हें हुआ (यह अधिकारीपर आक्षेप है) तुम इन्द्र देवता-कर्म के अधिष्ठातृ देवता के पुत्र हो और तुम धनुष फेंककर निष्क्रिय होना चाहते हो, यह कैसे योग्य है? अर्जुनका एक अर्थ होता है सीधा। शाल वृक्ष को अर्जुन और धवल कहते हैं। वह एकदम सीधा ऊपर जाता है। बिना मुड़े सीधे उन्नति करनेवाला अर्जुन। अर्जुन’ अर्जनात् अर्जुनः’  अर्जुन जो उपार्जन करनेवाले हो। अर्जन करने  से अर्जुनका नाम धनञ्जय पड़ा है। कीर्ति का उपार्जन भी अर्जुन ने सबसे अधिक किया और यहाँ युद्धारम्भ में भी अर्जुन उपार्जन ही कर रहा है। यहाँ जिस ज्ञानका उपार्जन अर्जुन ने किया, वह महावीर कर्ण, आचार्य द्रोण, परम भागवत भीष्म तथा धर्मराज युधिष्ठिर भी नहीं कर सके। इस प्रकार जो सरल है, उज्वल है और अर्जनशील है, उसमें कश्मल मोह क्यों आना चाहिये ? फिर अर्जुन तो श्रीकृष्ण के परम सखा है।

श्रीकृष्ण को अर्जुन ने अपना सारथी बनाया है। प्रश्न पैदा होता है की श्रीकृष्ण जिसके जीवन रथ के सारथी हों, उसमें मोह कैसे आ सकता है? भगवान्‌के भक्त में भी मोह नहीं आता और अर्जुन के लिये वह स्वयं कहते हैं-‘ भक्तोऽसि मे सखा चेति।’ जो दैवी सम्पत्ति में उत्पन्न हुआ है, उसमें भी मोह नहीं आना चाहिये। अर्जुन के लिये श्रीकृष्ण ने सम्पूर्ण गीता को प्रकट कर दिया तथा गीता के अध्याय-16 श्लोक-5 में अर्जुन को केंद्र में रखकर कहा कि- दैवी संपद्धिमोक्षाय निवन्धायासुरी मता। मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव॥ अर्थात- दैवीय गुण मुक्ति की ओर ले जाते हैं जबकि आसुरी गुण निरन्तर बंधन की नियति का कारण होते हैं। श्रीकृष्ण कहते है हे अर्जुन! शोक मत करो क्योंकि तुम दैवीय गुणों के साथ जन्मे हो। अतः किसी भी प्रकार अर्जुन में मोह का आना उचित नहीं है। विशेषकर तब जब अर्जुन कर्म के अधिष्ठातृ देवता इन्द्र के पुत्र हो तब उन जैसे विशिष्ट दैवीय गुणों के अधिकारी को गांडीव धनुष बाण का परित्याग कर देना, मोह के दलदल में डूब जाना सर्वथा अशोभनीय है।’ यह अलग बात है की जब साधारण लोगोंको रोना आता है तो वे एकान्तमें रो लेते हैं जिससे उनका दिल हलका हो जाता है। कुछ लोग क्रोध आने पर सिर पीट लेते हैं, अपनी वस्तुएँ तोड़-फोड़ देते हैं।

यह क्या  मोह है? या कहिये कि जीवन्मुक्तकी भाँति मोह आ ही गया है तो उसे दूर करनेका प्रयत्न क्यों न करें ? और यही श्रीकृष्ण करते हुए अर्जुन से कहते है -प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव। न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि कांक्षति ॥ अध्याय 14 श्लोक 22 अर्थात परम पुरुषोत्तम भगवान ने कहा-हे अर्जुन! तीनों गुणों से गुणातीत मनुष्य न तो प्रकाश, (सत्वगुण से उदय) न ही कर्म, (रजोगुण से उत्पन्न) और न ही मोह (तमोगुण से उत्पन्न) की बहुतायत उपलब्धता होने पर इनसे घृणा करते हैं और न ही इनके अभाव में इनकी लालसा करते हैं। अर्जुन को यह समझाना कि –प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह में से कोई आये तो उससे द्वेष नहीं, कोई जाय तो उसे रखने की इच्छा नहीं, यह जीवन्मुक्त का स्वभाव है। अतः यदि मोह आया ही है तो उसे क्यों हटाया जाय?  इसका उत्तर भगवान् देते हैं कि- जब हथियार चलने ही वाले हैं। ‘माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ‘ (1.14) युद्धमें विजयदायी मंगल सूचक शंखनाद हो चुका। अपने बड़े भाई धर्मराज युधिष्ठिर को युद्धभूमि में तुम ला चुके। तुम्हारे ही भरोसे वे युद्धोद्यत हुए, भीष्म पितामह तथा दूसरे प्रतिपक्षियोंको शंख बजाकर युद्धकी चुनौती दे चुके और ऐसे कुअवसर में यह मोह आया !

क्षुब्द अर्जुन युद्ध की चुनौती को अस्वीकार कर शस्त्र डाल दे और शारीरिक चेतना के कारण मन क्षुब्ध करने वाले विचार प्रस्तुत करता हो और नकारात्मक दृष्टिकोण अपनाये तो यह हल नही हुआ बल्कि विषाक्त विचारों से स्वयं को क्षति पहुँचाने की अनुमति देना हुआ लोकातीत अवस्था को प्राप्त मनुष्य गुणों के प्रभाव से मन में उठने वाले सभी नकारात्मक विचारों से दूरी बनाए रखने की कला में पारंगत होता है और यही अर्जुन ने किया उसका पहला विचार अनागत था अर्थात् आपत्ति आने से पहले ही उससे बचने का उपाय सोच लिया, दुसरे लोग होते है वे विपत्ति आ जाने पर बचने का मार्ग निकाल लेते है और तीसरे वे लोग जो दीर्घसूत्री अर्थात समय पर कुछ सोच नहीं पाने वाले, जो सोचने में ही रह जाते हैं और अवसर हाथ से निकल जाता है। ‘अकीर्तिकरं’ कहो कि परलोक में भले हितकारी न हो, इस लोक में सुख देता होगा; सो भी नहीं है। इस लोक में भी यह अपयश ही देनेवाला है। यदि यह सोचो कि युद्ध न करेंगे तो सब स्वजन जीवित रहेंगे, ऐसी बात नहीं है। सब कभी जीवित नहीं रहते। सबको छोड़ना ही पड़ता है। अतः पहलें से छोड़ने की तैयारी रहनी चाहिये।श्रीमद्भागवतमें कहा गया है-‘प्रपायामिव संगमः,’ जैसे दूसरे चलकर आये और प्याऊपर बैठ गये, इधर-उधरसे आये दूसरे यात्रियोंसे भेंट हुई, बातें हुई और फिर सबको अपने- अपने रास्ते जाना है, वैसे ही संसारमें ये स्वजन-सम्बन्धी मिल गये हैं। सबको अपने कर्मानुसार जाना है। यहाँ मोह कर लेने से दुःख ही होगा।गीता अध्याय 2 श्लोक-52-  यदा ते मोहकलिलं बुद्धिव्र्व्यतितरिष्यति । तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥ जब तुम्हारी बुद्धि मोह के दलदल को पार करेगी तब तुम सुने हुए और आगे सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक के भोगों के प्रति उदासीन हो जाओगे।

श्रीकृष्ण यह व्यक्त करते हैं कि प्रबुद्ध व्यक्ति स्वयं को गुणों की क्रियाशीलता से परे मानते हैं। जब प्रकृति के गुण अपनी प्रवृत्ति के अनुसार संसार में कार्यों को सम्पन्न करते हैं तब वे न तो दुखी और न ही हर्षित होते है। वास्तव में जब वे इन गुणों को अपने मन में भी देखते हैं तब भी वे विचलित नहीं होते। मन प्राकृत शक्ति से निर्मित है और माया के तीनों गुण उसमें निहित होते हैं। इसलिए स्वाभाविक रूप से मन को इन गुणों और इनके समरूप विचारों के प्रभुत्व में रहना पड़ता है।  समस्या यह है कि शारीरिक चेतना के कारण हम मन को अपने से अलग नहीं समझते और इसलिए जब मन क्षुब्ध करने वाले विचार प्रस्तुत करता है तब हम अनुभव नकारात्मक दृष्टिकोण से सोचते है।” हम विषाक्त विचारों से जुड़ते है और उन्हें अपने भीतर प्रश्रय देने की और स्वयं को क्षति पहुँचाने की अनुमति देते हैं। इसकी अति ऐसी होती है कि जब हमारा मन भगवान और गुरु के विरुद्ध विचार प्रस्तुत करता है तब हम उन्हें अपने विचार मान लेते हैं। उस समय हमें मन को अपने से अलग इकाई के रूप में देखना चाहिए, तभी हम नकारात्मक विचारों से स्वयं को आबद्ध करने के योग्य हो सकेंगे। तब फिर हम मन के ऐसे विचारों को इस प्रकार से अस्वीकार करेंगे। स्वर्गसे लेकर ब्रह्मलोकतक जितने लोक हैं, उनमें से भी कश्मल किसी की प्राप्तिका साधन नहीं है। स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्ति धर्माचरण और उपासना से होती है। नरक की प्राप्तिके लिये साधन नहीं किया जाता। वैसे तो आत्मा को भी शास्त्रोंमें कहीं-कहीं लोक कहा है; किन्तु यहाँ स्वर्गसे तात्पर्य अपने-आपसे भिन्न देश, कालमें स्थितिको कहा है। ऐसे किसी लोकका साधन यह मोह नहीं है।श्रीकृष्ण की वाणी अर्जुन के समस्त मोह को स्वाहा कर उसके शोक का नाश करती है जिससे वे अपने कर्मादि का पालन कर शोक से मुक्ति पाते है.

आत्माराम यादव पीव

अक्षय तृतीया: जीवन को समृद्ध और सार्थक बनाने का पर्व

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संदीप सृजन

वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि जिसे अक्षय तृतीया या आखा तीज कहा जाता है, भारतीय संस्कृति और हिन्दू धर्म में एक अत्यंत महत्वपूर्ण और पवित्र पर्व है। यह अक्षय तृतीया का नाम ‘अक्षय’ शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ है ‘जो कभी नष्ट न हो’ या ‘शाश्वत’। इस दिन किए गए शुभ कार्य, दान, पूजा-पाठ और अन्य धार्मिक कृत्यों को अक्षय फलदायी माना जाता है। यह पर्व न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक परम्पराओं में भी इसका विशेष स्थान है। भारत की विभिन्न धार्मिक और सामाजिक परम्पराओं में अक्षय तृतीया का बहुत महत्व है।

हिंदू धर्म में अक्षय तृतीया

हिन्दू धर्म में अक्षय तृतीया का दिन कई पौराणिक और धार्मिक घटनाओं से जुड़ा हुआ है। इस दिन को सतयुग और त्रेतायुग के प्रारंभ का दिन भी माना जाता है। इसके अतिरिक्त, इस तिथि से जुड़े कई कथानक और मान्यताएँ इसे और भी पवित्र बनाती हैं। अक्षय तृतीया को भगवान विष्णु के छठे अवतार, परशुराम जी के जन्मदिवस के रूप में भी मनाया जाता है। परशुराम, जो अपने पराक्रम और धर्म की रक्षा के लिए जाने जाते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान विष्णु के नर-नारायण अवतार की तपस्या भी अक्षय तृतीया के दिन से जुड़ी है। इस दिन बद्रीनाथ मंदिर के कपाट खुलते हैं, जो हिन्दुओं के चार धामों में से एक है। यह घटना इस पर्व को और भी महत्वपूर्ण बनाती है।

ऐसा माना जाता है कि महर्षि वेदव्यास ने महाभारत की रचना अक्षय तृतीया के दिन से शुरू की थी। इसके साथ ही, इस दिन गंगा नदी का पृथ्वी पर अवतरण भी हुआ था। इसलिए, इस दिन गंगा स्नान और दान का विशेष महत्व है। एक अन्य कथा के अनुसार, इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अपने मित्र सुदामा का आतिथ्य स्वीकार किया था। सुदामा ने श्रीकृष्ण को साधारण चावल (अक्षत) भेंट किए, जिसे भगवान ने बड़े प्रेम से ग्रहण किया और सुदामा को अपार धन-समृद्धि प्रदान की। इस कथा के कारण, अक्षय तृतीया को दान और आतिथ्य का विशेष महत्व दिया जाता है।

जैन धर्म में अक्षय तृतीया

जैन धर्म में अक्षय तृतीया का दिन प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से जुड़ा हुआ है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान ऋषभदेव ने एक वर्ष तक कठोर तपस्या की और इस दिन हस्तिनापुर में राजा श्रेयांस ने उन्हें इक्षु रस (गन्ने का रस) पिलाकर उनका पारणा (उपवास खोलना) कराया। यह घटना जैन समुदाय में ‘वर्षी तप’ के रूप में जानी जाती है। इस दिन जैन तीर्थ पालिताणा (गुजरात) और हस्तिनापुर (मेरठ) में विशेष आयोजन होते है। जैन धर्म के अनुयायी उपवास, दान, और पूजा करते हैं। कई जैन मंदिरों में विशेष आयोजन किए जाते हैं, और भक्त इक्षु रस का दान करते हैं।

सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व

अक्षय तृतीया का  दिन शुभ कार्यों के लिए अत्यंत मंगलकारी माना जाता है। इस दिन बिना किसी मुहूर्त के विवाह, सगाई, गृह प्रवेश, नए व्यवसाय की शुरुआत, और अन्य महत्वपूर्ण कार्य किए जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि इस दिन शुरू किए गए कार्यों का फल स्थायी और शुभ होता है। भारत के कई हिस्सों में, विशेषकर राजस्थान, गुजरात, और उत्तर प्रदेश में, अक्षय तृतीया को विवाह के लिए सबसे शुभ दिन माना जाता है। इस दिन हजारों जोड़े विवाह बंधन में बंधते हैं। सामाजिक स्तर पर, यह दिन परिवारों और समुदायों को एकजुट करने का अवसर प्रदान करता है।

व्यापारी वर्ग के लिए अक्षय तृतीया का विशेष महत्व है। इस दिन नए व्यवसाय की शुरुआत, दुकान का उद्घाटन, और निवेश जैसे कार्य किए जाते हैं। सोने और चाँदी की खरीदारी भी इस दिन बहुत लोकप्रिय है, क्योंकि यह धन-समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। अक्षय तृतीया को दान-पुण्य का विशेष महत्व है। इस दिन जल, अन्न, वस्त्र, और धन का दान करने की परम्परा है। सामाजिक दृष्टिकोण से, यह दिन समाज में समानता और सहायता की भावना को बढ़ावा देता है। गरीबों और जरूरतमंदों को भोजन और अन्य आवश्यक वस्तुएँ दान की जाती हैं।

कृषि और ग्रामीण परम्पराएँ

भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में, अक्षय तृतीया का संबंध कृषि और प्रकृति से है। इस दिन किसान अपने खेतों में पूजा करते हैं और अच्छी फसल के लिए प्रार्थना करते हैं। उत्तर भारत में, विशेषकर राजस्थान और मध्य प्रदेश में, इस दिन ‘आखा तीज’ के रूप में खेतों में सामूहिक उत्सव मनाए जाते हैं। किसान अपने बैलों और कृषि उपकरणों की पूजा करते हैं, और सामुदायिक भोज का आयोजन करते हैं। अक्षय तृतीया सामाजिक एकता और उत्सव का प्रतीक भी है। इस दिन लोग अपने परिवार और मित्रों के साथ मिलकर उत्सव मनाते हैं। विभिन्न क्षेत्रों में मेले और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। उदाहरण के लिए, राजस्थान के कुछ हिस्सों में लोक नृत्य और गीतों के साथ उत्सव मनाया जाता है। भारत की विविध सांस्कृतिक और धार्मिक परम्पराओं के कारण, अक्षय तृतीया को अलग-अलग क्षेत्रों में विभिन्न रूपों में मनाया जाता है।

अक्षय तृतीया भारतीय संस्कृति का एक ऐसा पर्व है, जो धार्मिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह दिन न केवल भक्ति और पूजा का अवसर प्रदान करता है, बल्कि सामाजिक एकता, परोपकार, और शुभ कार्यों की शुरुआत का प्रतीक भी है। हिन्दू, जैन, और अन्य समुदायों में इस पर्व का अलग-अलग रूपों में उत्सव मनाया जाता है, जो भारत की सांस्कृतिक विविधता को दर्शाता है। चाहे वह भगवान परशुराम की पूजा हो, सुदामा-कृष्ण की मित्रता का स्मरण हो, या जैन धर्म में वर्षी तप का आयोजन, अक्षय तृतीया हर रूप में अक्षय फलदायी है। यह पर्व हमें यह सिखाता है कि सच्चे मन से किए गए कार्य और दान कभी नष्ट नहीं होते बल्कि वे हमारे जीवन को समृद्ध और सार्थक बनाते हैं।

संदीप सृजन

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के “पंच परिवर्तन” के निहितार्थ

डॉ.बालमुकुंद पांडेय 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ( आरएसएस ) की यह पहल ,संघ के चतुर्दिक्  दृष्टिकोण, व्यक्ति निर्माण,सांगठनिक उद्देश्य ,समाज निर्माण और राष्ट्र- राज्य निर्माण के प्रति अटूट विश्वास , श्रद्धा एवं अटूट प्रतिबद्धता का प्रतिफल एवं समाज में इसकी सकारात्मक उपादेयता  का प्रतीक है । संघ इस वर्ष ,2025 में ‘ शताब्दी वर्ष ‘ मनाने जा रहा हैं। इस महत्वपूर्ण एवं प्रासंगिक पड़ाव के पहले, संघ ने व्यक्ति, समाज एवं संगठन में व्यापक परिवर्तन लाने के उद्देश्य से “पंच परिवर्तन ” की महत्वपूर्ण योजना प्रस्तुत की है। इन पंच प्रत्ययों का उद्देश्य संघ के आंतरिक सांगठनिक चरित्र और कार्यशैली को   मजबूत करना है, साथ ही भारतीय ज्ञान परंपरा ,सनातन धर्म और राष्ट्रीय सुरक्षा को अधिक  मजबूत बनाना हैं। इसका उद्देश्य समाज में सामाजिक समरसता और अधिक सहभागितापूर्ण  और राष्ट्र केंद्रित वातावरण बनाना है । यह पहल  समसामयिक परिप्रेक्ष्य  में अत्यधिक उपयोगी ,प्रासंगिक एवं महत्वपूर्ण  हैं। वर्तमान में भारत विभिन्न सामाजिक ,आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक चुनौतियों का सामना कर रहा हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मानना हैं कि  उपर्युक्त “पंच परिवर्तन “इन चुनौतियों का प्रभावी ढंग से मुकाबला करने में केंद्रीय भूमिका निभा सकता है। इन प्रत्ययों के सहयोग से राष्ट्र की एकता एवं अखंडता का उन्नयन किया जा सकता है । इनके  सहयोग से नागरिक समाज में नागरिक चारित्रिक सौहार्द्र एवं नागरिक समरसता को विकसित किया जा सकता है।

                                                            राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(संघ) का मानना है कि एक सशक्त , सुसंकृत, और प्रत्येक क्षेत्र में प्रगतिशील राष्ट्र के लिए “सामाजिक समरसता” अनिवार्य प्रत्यय हैं । जाति, धर्म, वंश और लिंग के आधार पर विभेदित कोई भी राष्ट्र राष्ट्रीय एकता, अक्षुण्णता , और आंतरिक सुरक्षा के स्तर पर विकास के  मापांक को प्राप्त नहीं सकता है। राष्ट्र का विकास “सामाजिक समरसता” पर निर्भर करता हैं। “सामाजिक समरसता” से संघ का उद्देश्य सभी वर्गों में सामाजिक सदभाव ,स्नेह और सहयोग की भावना का उन्नयन करना है। इन प्रत्ययों की उपलब्धि के लिए विभिन्न समुदायों के मध्य संवाद और संपर्क को प्रोत्साहित करना होगा, संयुक्त कार्यक्रम आयोजित करना होगा और सामाजिक भेदभाव के उन्मूलन के लिए जागरूकता अभियान चलाना होगा ।

स्वयंसेवकों  को समाज के सभी वर्गों के साथ समान व्यवहार करने और उन वर्गों के कल्याण के लिए कार्य करने पर केंद्रित किया जाएगा। इस प्रयोजन का मौलिक उद्देश्य एक ऐसे  समाज का निर्माण करना है जहां प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर मिले और कोई भी व्यक्ति भेदभाव का शिकार न  हों। “सामाजिक समरसता” भारतीय संस्कृति का मूल तत्व हैं और इसको पुनर्स्थापित करके भारत को वैश्विक गुरु की श्रेणी में स्थापित किया जा सकता हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामजी के द्वारा केवट को गले लगाना सामाजिक समरसता का सर्वोच्च उदाहरण हैं । सामाजिक समरसता के लिए आवश्यक है कि आचरण और व्यवहार में जीवन के आध्यात्मिक मूल्य प्रकट हो, जब समानता का भाव स्थापित होगा तभी समानता का  भावना स्थापित होगा । समाज एक गत्यात्मक संस्था हैं ,जो शाश्वत प्रगति एवं बंधुत्व के पथ पर अग्रसर होकर अपने समस्त घटकों की खुशहाली  सुनिश्चित करती हैं । समतापरक सुसंकृत समाज का निर्माण ,संचालन एवं अस्तित्व किसी व्यक्ति ,जाति,  वर्ण या  समुदाय विशेष के योगदान से नहीं होता है ।समाज की संपूर्णता एवं सजीवता के निमित्त प्रत्येक व्यक्ति की खुशहाली ,सहभागिता, एवं समर्पण  अतिआवश्यक है चाहे वह किसी भी वर्ण, जाति एवं समुदाय का हो। समाज  में समरसता के बिना बंधुत्व, सौहार्द्र ,और  राष्ट्रीय एकता की कल्पना असंभव  है।

                                                           राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  ‘परिवार’ को भारतीय संस्कृति, मूल्यों, आदर्शों ,और संस्कारों की आधारशिला मानता है । पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव और आधुनिक जीवनशैली  के दबाव के कारण पारंपरिक पारिवारिक मूल्यों का क्षरण हो रहा है ।”कुटुंब प्रबोधन” के अंतर्गत संघ का उद्देश्य परिवारों को भारतीय संस्कृति, परंपराओं और मूल्यों के प्रति सजग करना है। इसके लिए पारिवारिक मिलन समारोह, सांस्कृतिक कार्यक्रम, बौद्धिक वर्गों का आयोजन और नैतिक शिक्षा वर्गों का आयोजन किया जाएगा। अभिभावकों को अपने बच्चों में भारतीय मूल्य जैसे कि बड़ों का सम्मान, कर्तव्यनिष्ठ आदत,चरित्र, सहयोग,स्नेहपूर्ण वातावरण  और त्याग की भावना को विकसित करने के लिए प्रशिक्षित एवं प्रोत्साहित करना है । संघ के चिंतकों और विचारकों का मानना है कि एक मजबूत और संस्कारित परिवार ही एक स्वस्थ, राष्ट्रीय भावना और स्वस्थसमाज और राष्ट्र – राज्य का निर्माण कर सकता है । कुटुंब प्रबोधन का लक्ष्य भारतीय परिवारों को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ना हैं और उनको एक ऐसी जीवनशैली  अपनाने के लिए प्रेरित करना हैं जो भारतीय जीवन मूल्यों एवं आदर्शों पर आधारित हो। भारतीय जीवनशैली  परंपरागत मूल्यों, सामाजिक समरसता, परस्पर स्नेह एवं आत्मीयता पर आधारित है ।मानवीय मूल्यों के विकास एवं आदर्श के उन्नयन में भारतीय जीवन शैली की महत्वपूर्ण उपादेयता है।

“पर्यावरण संरक्षण” समकालीन परिदृश्य में एक बड़ी वैश्विक चुनौती है और भारत को भी पर्यावरणीय समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है । प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन और प्रदूषणों ने पर्यावरण को बहुत अधिक मात्रा में नुकसान पहुंचाया है जिसका मानव जीवन  और भविष्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है ।”पर्यावरण” बहुत ही वृहद शब्द है जिसका विवेचन अति आवश्यक हैं। संघ  का उद्देश्य अपने स्वयंसेवकों  और संगठित समाज को पर्यावरण के प्रति सचेत करना है ।संचेतना के स्तर पर वृक्षारोपण अभियान, जल संरक्षण परियोजनाएं, प्लास्टिक के उपयोग को सीमित करने का प्रयास और पर्यावरण अनुकूल जीवनशैली को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना एवं पर्यावरण हितैषी कार्यक्रमों का आयोजन परमावश्यक है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मानना है कि शारीरिक और मानसिक विकास के लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता अति आवश्यक है । पाश्चात्य उपभोक्तावादी संस्कृति और आयात पर अत्यधिक निर्भरता भारतीय अर्थव्यवस्था एवं भारतीय संस्कृति के लिए अति हानिकारक है ।भारतीय उत्पादों को अपने स्थानीय व्यवसायों को अपनाने एवं उनका उन्नयन करने और भारतीयों को आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित करना “स्वाधारित  जीवनशैली”का अभिन्न भाग है। स्वदेशी उत्पादों के उपयोग को बढ़ावा देने वाले अभियानों को प्रेरित करना, पारंपरिक कौशल और उद्योगों को पुनर्जीवित करने का प्रयत्न करना आवश्यक है। एक मजबूत, स्वावलंबी एवं आत्मनिर्भर भारत ही वैश्विक स्तर पर मजबूत नेतृत्व प्रदान कर सकता है। इस परिवर्तन का मौलिक उद्देश्य लोगों को अपनी जड़ों से जुड़े रहने और स्वस्थ जीवनशैली अपनाने के लिए प्रेरित करना है जो स्थानीय संसाधनों और परंपरागत ज्ञान पर आधारित हो।

ज्ञानवान एवं उन्नतशील लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए उसके नागरिकों को अपने मौलिक कर्तव्यों के प्रति जागरूक एवं जिम्मेदार होना  अतिआवश्यक है । कर्तव्यों के पालन से ही एक स्वस्थ एवं नागरिक समाज का निर्माण हो सकता है । नागरिक कर्तव्य के प्रति दायित्ववादिता से स्पष्ट है कि नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक हों एवं ईमानदारी से उनका पालन करें ।नागरिक कर्तव्यों के अंतर्गत मतदान करना , करों का भुगतान करना, सार्वजनिक संपत्ति की संरक्षा करना, कानून का पालन करना और सामाजिक कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेना सम्मिलित है । एक जिम्मेदार,कर्तव्यनिष्ठ एवं उत्तरदायी नागरिक ही प्रगतिशील राष्ट्र का निर्माण कर सकता है।

संघ के शताब्दी वर्ष में ” पंच परिवर्तन” की महान उपादेयता हैं । यह संघ के भविष्य की कार्य योजना का महत्वपूर्ण एवं मूल्यवान कार्यक्रम है । इसका उद्देश्य संगठन को मजबूती प्रदान करना एवं समाज को एक नवीन दिशा प्रदान करना है ।संघ के शताब्दी वर्ष में” पंच परिवर्तन “का उद्देश्य समाज को  समरस, सुसंकृत, प्रगतिशील, पर्यावरण के प्रति अनुकूल, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और नागरिक कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान बनाना है। इन पांचों क्षेत्र में परिवर्तन लाकर ही एक मजबूत, समृद्ध , गुरुतायुक्त और वैश्विक नेतृत्व के लिए सक्षम भारत का निर्माण किया जा सकता है। यह सकारात्मक पहल संघ के दीर्घकालिक दृष्टिकोण एवं राष्ट्र निर्माण के प्रति उसकी अटूट प्रतिबद्धता का प्रतीक है।

डॉ.बालमुकुंद पांडेय 

राष्ट्रीय संगठन सचिव, अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना, दिल्ली झंडेवालान।

आतंकियों के ‘मजहब’ पर वामपंथियों की मुहर

राकेश सैन

हर आतंकी हमले के बाद रटा रटाया झूठ परोसा जाता रहा है कि ‘आतंकियों का कोई धर्म नहीं होता।’ झूठ की इस विषैली खिचड़ी के रसोईये हैं देश के सेक्युलरवादी, जो बड़ी चतुराई से अपने वोट बैंक को बचाने का प्रयास करते हैं परन्तु पहलगांव में हिन्दू धर्म पूछ, पेंट उतरवा खतना चेक करके व कलमा पढ़वा कर हुई आतंकियों की आदमखोर हरकत ने आतंक का भी धर्म होता है, की सच्चाई को दिन के उजाले की तरह इतना साफ कर दिया है कि अब इनके वकील सेक्युलरवादी भी अप्रत्यक्ष रूप से बता रहे हैं कि ‘आतंक का धर्म’ होता है। सेक्युलरों विशेषकर वामपंथियों से जिस तरीके से इस हमले के पीछे देश में अल्पसंख्यकों के खिलाफ पनपे काल्पनिक   वैमनस्य का कारण बताना शुरु किया है ,उससे कुछ और हो न हो परन्तु इन

मार्क्सपुत्रों की वैचारिक हार दुनिया के सामने आ गई है।

चाहे दिखावे के लिए ही सही, वामपंथी पहलगांव में जिहादी हमले की निन्दा तो कर रहे हैं परन्तु इसके पीछे देश में अल्पसंख्यकों के खिलाफ फैली काल्पनिक वैर की भावना को कारण बताने की कोशिश कर रहे हैं। केवल इतना ही नहीं बल्कि पुलवामा व छत्तीसिंहपुरा में हुए आतंकी हमलों के पीछे सरकार को ही कटघरे में रख पहलगांव के ताजा हमले के पीछे सरकार को ही जिम्मेवार ठहराने की कुचेष्टा कर रहे हैं। वैसे यह कोई पहला अवसर नहीं जब सेक्युलरवादियों विशेषकर वामपंथियों ने हिन्दू समाज का काल्पनिक भय दिखा कर आतंकी हमलों को न्यायोचित ठहराने का प्रयास किया हो। इन्हीं लोगों ने 1993 में हुए मुम्बई बम धमाकों के पीछे बाबरी मस्जिद के विध्वंस, गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस जलाए जाने को दुर्घटना, मुम्बई में हुए आतंकी हमले के पीछे आरएसएस का हाथ होना बताया था परन्तु  सभी जानते हैं कि समय बीतने के बाद विदेशी विचारधारा से लैस इन वामपंथियों के नैरेटिव झूठे पाए गए।

जहां तक पहलगांव हमले की बात करें तो, 22 अप्रैल 2025 की तारीख पहलगाम की घाटी में गूंजती चीखों और बारूद की गंध के साथ दर्ज हुई। पहलगाम का बैसरन, जहां कई परिवार अपने बच्चों संग छुट्टियां मना रहे थे, कुछ ही पलों में लाशों का मैदान बन गया। हिन्दू हो या नहीं, यह पूछकर हत्याएं की गईं। एक मासूम अपने पिता की लाश से चिपका रोता रहा, एक नवविवाहिता पति को बचाने की गुहार लगाती रही, आतंकियों ने कहा, जाओ, मोदी को बताना। यह हमला एक बार फिर हमारी आंखें खोलने के लिए पर्याप्त है। आतंकियों ने पर्यटकों से उनका धर्म पूछकर, खतना की पहचान कर निर्दोष हिंदुओं की निर्मम हत्या की। यह दृश्य किसी औरंगजेबकालीन दमन का नहीं, बल्कि 2025 के भारत का है। यह हमला घृणित मजहबी मानसिकता के चलते किया गया। वह मानसिकता जो काफिरों को जीने लायक नहीं समझती। पहलगाम का सत्य यह है कि यह आतंकी हमला होने पर भी एक वैचारिक युद्ध का चेहरा ही है। ऐसे दुस्साहसपूर्ण हमले यह स्पष्ट करते हैं कि आतंकी केवल बंदूक से नहीं लड़ रहे, वे विचारधारा के अस्त्र से एक संगठित वैश्विक संघर्ष चला रहे हैं जिसे हम केवल सीमित घटना समझने की भूल कर रहे हैं। आज हमारे पास यह न मानने का कोई कारण नहीं कि जिहाद केवल आतंक नहीं, बल्कि पूरी मानवता के विरुद्ध एक सभ्यतागत संघर्ष है।

पहलगाम का हमला न तो आकस्मिक है, न ही अलग-थलग। यह इस्लामी जिहाद के उस सुनियोजित एजेंडे का हिस्सा है जो हिंदुत्व और भारत की सांस्कृतिक आत्मा को मिटाने के उद्देश्य से वैश्विक समर्थन और स्थानीय सहानुभूति के सहारे कार्य कर रहा है। इस्लाम के कुछ मध्ययुगीन ग्रंथों और व्याख्याओं में ‘काफिर’ के प्रति जो दृष्टिकोण मिलता है, वह मित्रता नहीं, घृणा, बहिष्कार और अंतत: हत्या तक की स्वीकृति प्रदान करता है। यह केवल मजहबी आग्रह नहीं, राजनीतिक इस्लाम का वह संस्करण है जिसने मजहब को एक सैन्य अभियान में बदल दिया है।

ऐसे अभियानों का समय बेहद सोच समझकर चुना जाता है। फिर उसके अनुसार ही उन्हें क्रियान्वित किया जाता है। फिर गढ़ा जाता है अलगाववाद का, मुसलमानों पर अत्याचार किए जाने का झूठा विमर्श। अलग-अलग समय पर, अलग-अलग तरीके से इन अभियानों को चलाया जाता है। इसके बाद देश और विदेश में इन कट्टरपंथियों का हमदर्द बनकर बैठी वामपंथी बिग्रेड सक्रिय हो जाती है। वह अपनी पूरी ताकत झोंक देती है एक झूठा विमर्श खड़ा करने में। 

भारत के लिए असली चुनौती बंदूकधारी आतंकियों से नहीं, बल्कि कलमधारी हमदर्दों से है, जो हर आतंकी कृत्य को घटना का जामा पहनाते हैं, कट्टरपंथ के खिलाफ कार्रवाई को फासीवाद बताते हैं और न्यायपालिका के मंच से आतंक के खिलाफ कार्रवाई को उलझाते हैं। यह गठजोड़ केवल सरकार से नहीं, बल्कि भारत की सभ्यतागत सोच से युद्ध में लिप्त है। अब फिर से बात करते हैं सेक्युलरवादियों की जो पहलगांव हमले की ऊपरी मन से निंदा करते हुए इसके पीछे हिन्दू समाज, भारत सरकार को कटघरे में खड़े करना चाहती है। उनका यही प्रयास बताता है कि वे मान चुके हैं कि आतंकवाद का धर्म ही नहीं होता बल्कि एक खास मजहब के चलते ही देश-दुनिया में आतंकवाद फैला हुआ है। ऐसा नहीं कि वामपंथी इस सच्चाई को जानते नहीं. वे जानते तो हैं परन्तु सबके सामने मानते नहीं थे परन्तु अब उनकी हरकतें बता रही है कि वे अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, सच्चाई को मानते जा रहे हैं।

समरसतावादी समाज के निर्माता थे भगवान परशुराम

भगवान परशुराम जयंती  अक्षय तृतीया ३० अप्रैल के  अवसर पर:-

प्रमोद भार्गव

                              समरसतावादी  समाज निर्माण का दायित्व उन लोगों के हाथ होता है, जिनकी मुट्ठी में सत्ता के तंत्र होते हैं। अतएव जब परषुराम के हाथ सत्ता के सूत्र आए तो उन्होंने समाजिक उत्पीड़न झेल रहे षूद्र, वंचित और विधवा महिलाओं को मुख्यधारा में लाकर उल्लेखनीय काम किए। केरल-कोंकण की भूमि पर षूद्र और वनवासियों के यज्ञोपवीत संस्कार कराकर उन्हें ब्राह्मण होने के दायित्व से जोड़ने और फिर सामूहिक रूप से अक्षय तृतीया के दिन  विवाह कराए। ये विवाह उन विधवा महिलाओं से भी कराए गए, जो परशुराम और सहस्त्रबाहू अर्जुन के बीच हुए युद्ध में विधवा हो गईं थीं। वे परषुराम ही थे, जिन्होंने वनवासी श्रृंगी ऋषि से दशरथ की पुत्री और भगवान श्री राम की बहन शांता से विवाह कराया। राम भी शूद्र माने जाने वाले वनवासी वानरों को मुख्यधारा में लाए। उन्होंने सभी वर्जनाओं को तोड़ते हुए षूद्र महिला षबरी के जूठे बेर खाने में कोई संकोच नहीं किया। देष की वर्गीय व जातीय विभाजन को दूर करने के ये ऐसे उपाय थे, जिनसे प्रेरणा लेकर हमें हमारे दलित भारतीयों को जातीयता से ऊपर उठकर अपनाने की जरूरत है। किंतु इसे देष का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आज जातीय समूह और नेता तात्कालिक स्वार्थ के लिए जातिगत भेदभाव बढ़ाने का काम कर रहे हैं। यह द्वेष समाज को खंड-खंड करने का काम कर रहा है।

हमारे धर्म ग्रंथ और कथावाचक ब्राह्मण भारत के प्राचीन पराक्रमी नायकों की संहार से परिपूर्ण हिंसक घटनाओं के आख्यान तो खूब सुनाते हैं, लेकिन उनके समाज सुधार से जुड़े जो क्रांतिकारी सरोकार थे, उन्हें लगभग नजरअंदाज कर जाते हैं। विष्णु के छठे दशावतारों में से एक भगवान परशुराम के साथ भी कमोबेश यही हुआ। उनके आक्रोश और पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियविहीन करने की घटनाओं को खूब प्रचारित करके वैमन्स्यता फैलाई जाती है। पिता की आज्ञा पर मां रेणुका का सिर धड़ से अलग करने की घटना को भी एक आज्ञाकारी पुत्र के रूप में प्रेरक आख्यान बनाकर सुनाया जाता है। यहां यह सवाल खड़ा होता है कि क्या व्यक्ति केवल चरम हिंसा के बूते जन-नायक के रूप में स्थापित होकर लोकप्रिय हो सकता हैं ? क्या हैहय वंश के प्रतापी महिष्मति कार्तवीर्य अर्जुन के वंश का समूल नाश करने के बावजूद पृथ्वी क्षत्रियों से विहीन हो पाई ? रामायण और महाभारत काल में संपूर्ण पृथ्वी पर क्षत्रिय राजाओं के राज्य हैं। वे ही उनके अधिपति हैं। इक्ष्वाकु वंश के मर्यादा पुरुषोत्तम राम को आशीर्वाद देने वाले, कौरव नरेश धृतराष्ट्र को पांडवों से संधि करने की सलाह देने वाले और सूत-पुत्र कर्ण को ब्रह्मास्त्र की दीक्षा देने वाले परशुराम ही थे। ये सब क्षत्रिय थे। कृश्ण-बलराम जब मथुरा छोड़कर द्वारका जा रहे थे, तब महेंद्र पर्वत पर परषुराम से आषीर्वाद लेकर आगे बढ़े थे। अर्थात परशुराम क्षत्रियों के शत्रु नहीं शुभचिंतक थे। परशुराम केवल आततायी क्षत्रियों के प्रबल विरोधी थे। राम को वैश्णवी धनुष परशुराम ने ही भेंट किया था। परशुराम ने क्षत्रियों का नहीं बल्कि 21 क्षत्रिय राजाओं को क्षत्रविहीन किया था। अर्थात उन्हें सत्ता से बेदखल किया था।

                                समाज सुधार और जनता को रोजगार से जोड़ने में भी परशुराम की अंहम् भूमिका है। केरल, कच्छ और कांेकण क्षेत्रों में जहां परशुराम ने समुद्र में डूबी खेती योग्य भूमि निकालने की तकनीक सुझाई, वहीं परशु का उपयोग जंगलों का सफाया कर भूमि को कृषि योग्य बनाने में भी किया। यहीं परशुराम ने शूद्र माने जाने वाले दरिद्र नारायणों को शिक्षित व दीक्षित कर उन्हें ब्राह्मण बनाया। यज्ञोपवीत संस्कार से जोड़ा और उस समय जो दुराचारी व आचरणहीन ब्राह्मण थे, उन्हें शूद्र घोषित कर उनका सामाजिक बहिष्कार किया। परशुराम के अंत्योदय के प्रकल्प अनूठे व अनुकरणीय हैं। जिन्हें रेखांकित किए जाने की आवष्यकता है।

                                वैसे तो परशुराम का समय इतना प्राचीन है कि उस समय का एकाएक आकलन करना कठिन है। जमदग्नि परशुराम का जन्म हरिशचन्द्रकालीन विश्वामित्र से एक-दो पीढ़ी बाद का माना जाता है। यह समय प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में ‘अष्टादश परिवर्तन युग’ के नाम से जाना गया है। अर्थात यह 7500 ईसा पूर्व का समय ऐसे संक्रमण काल के रूप में दर्ज है, जिसे बदलाव का युग माना गया। इसी समय क्षत्रियों की शाखाएं दो कुलों में विभाजित हुईं। एक सूर्यवंश और दूसरा चंद्रवंश। चंद्रवंशी पूरे भारतवर्ष में छाए हुए थे और उनके प्रताप की तूती बोलती थी। हैह्य अर्जुन का वंश चंद्रवंशी था। इन्हें यादवों के नाम से भी जाना गया। भृगु ऋषि इस चंद्रवंश के राजगुरु थे। जमदग्नि राजगुरु परंपरा का निर्वाह कार्तवीर्य अर्जुन के दरबार में कर रहे थे। किंतु अनीतियों का विरोध करने के कारण कार्तवीर्य अर्जुन और जमदग्नि में मतभेद उत्पन्न हो गए। परिणामस्वरुप जमदग्नि महिष्मति राज्य छोड़ कर चले गए। इस गतिविधि से रुष्ट होकर सहस्त्रबाहू कार्तवीर्य अर्जुन ने आखेट का बहाना करके अनायास जमदग्नि के आश्रम सेना सहित पहुंच गए। ऋषि जमदग्नि और उनकी पत्नी रेणुका ने अतिथि सत्कार किया। लेकिन स्वेच्छाचारी अर्जुन युद्ध के उन्माद में था। इसलिए उसने प्रतिहिंसा स्वरुप जमदग्नि की हत्या कर दी। आश्रम उजाड़ा और ऋषि की प्रिय कामधेनु गाय को बछड़े सहित छीनकर ले गया।

अनेक ब्राह्मणों ने कान्यकुब्ज के राजा गाधि राज्य में शरण ली। परशुराम जब यात्रा से लौटे तो रेणुका ने आपबीती सुनाई। इस घटना से कुपित होकर परशुराम ने हैहय वंश के विनाश का संकल्प लिया। इस हेतु एक पूरी सामरिक रणनीति को अंजाम दिया। दो वर्ष तक लगातार परशुराम ने ऐसे सूर्यवंशी और यादववंशी राज्यों की यात्राएं कीं, जो हैह्य वंद्रवंषियों के विरोधी थे। वाकचातुर्य और नेतृत्व दक्षता के बूते परशुराम को ज्यादातर चंद्रवंशियों ने समर्थन दिया। रघुवंशी राजा दशरथ और राजा जनक ने भी परशुराम को अपनी सेनाएं दीं। परशुराम किसी सत्ता के अधिपति नहीं थे, इसलिए सेनाएं और अस्त्र-शस्त्र उनके पास नहीं थे। इन्हीं राजाओं ने सेनाएं और हथियार परशुराम को दिए। तब कहीं जाकर महायुद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हुई।

                                इसमें परशुराम को अवन्तिका के यादव, विदर्भ के शर्यात यादव, पंचनद के द्रुह यादव, कान्यकुब्ज ;कन्नौज के गाधि चंद्रवंशी, आर्यवर्त सम्राट सुदास सूर्यवंशी, गांगेय प्रदेश के काशीराज, गांधार नरेश मान्धता, अविस्थान (अफगानिस्तान)  मुंजावत ; हिन्दुकुश, मेरु (पामिर) ;सीरिया (परशुपुर) पारस, वर्तमान फारस, सुसर्तु ;पंजक्षीर उत्तर कुरु, आर्याण ; (ईरान) देवलोक सप्तसिंधु और अंग-बंग ;बिहार के संथाल परगना से बंगाल तथा असम तक के राजाओं ने परशुराम का नेतृत्व स्वीकारते हुए इस महायुद्ध में भागीदारी की। जबकि शेष रह गईं क्षत्रिय जातियां चेदि; चंदेरी नरेश, कौशिक यादव, रेवत तुर्वसु, अनूप, रोचमान कार्तवीर्य अर्जुन की ओर से लड़ीं। इस भीषण युद्ध में अंततः कार्तवीर्य अर्जुन और उसके कुल के लोग तो मारे ही गए, युद्ध में सहस्त्रबाहू अर्जुन का साथ देने वाली जातियों के वंशजों का भी लगभग समूल नाश हुआ। परषुराम ने किसी भी राज्य को क्षत्रियविहीन न करते हुए, क्षत्र-विहीन किया था। भरतखण्ड में यह इतना बड़ा महायुद्ध था कि परशुराम ने अंहकारी व उन्मत्त क्षत्रिय राजाओं को, युद्ध में मार गिराते हुए अंत में लोहित क्षेत्र, अरुणाचल में पहुंचकर ब्रह्मपुत्र नदी में अपना फरसा धोया था। बाद में यहां पांच कुण्ड बनवाए गए, जिन्हें समंतपंचका रुधिर कुण्ड कहा गया है। ये कुण्ड आज भी अस्तित्व में हैं। इन्हीं कुण्डों में भृगृ कुलभूषण परशुराम ने युद्ध में हताहत हुए भृगु व सूर्यवंशियों का तर्पण किया। इस विश्व युद्ध का समय 7200 विक्रम संवत पूर्व माना जाता है। जिसे उन्नीसवां युग कहा गया है।

                                इस युद्ध के बाद परशुराम ने समाज सुधार व कृषि के प्रकल्प हाथ में लिए। केरल, कोंकण, मालाबार और कच्छ क्षेत्र में समुद्र में डूबी ऐसी भूमि को बाहर निकाला जो खेती योग्य थी। इस समय कश्यप ऋषि, वरुण और इन्द्र समुद्री पानी को बाहर निकालने की तकनीक में निपुण थे। अगस्त्य को समुद्र का पानी पी जाने वाले ऋषि और वरुण व इन्द्र को जल-देवता इसीलिए माना जाता है। परशुराम ने इसी क्षेत्र में परशु का उपयोग रचनात्मक काम के लिए किया। शूद्र माने जाने वाले लोगों को उन्होंने वन काटने में लगाया और उपजाऊ भूमि तैयार करके धान की पैदावार शुरु कराईं। परशुराम द्वारा अक्षय तृतीया के दिन सामूहिक विवाह किए जाने के कारण ही इस दिन को परिणय बंधन का बिना किसी मुहूत्र्त के शुभ दिन माना जाता है। दक्षिण का यही वह क्षेत्र है, जहां परशुराम के सबसे ज्यादा मंदिर मिलते हैं और उनके अनुयायी उन्हें भगवान के रूप में पूजते हैं।

 प्रमोद भार्गव

भारतीय नौसेना ने दिया परिचालन क्षमता का परिचय !

जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए भीषण आतंकी हमले(22 अप्रैल 2025) के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव अपने चरम पर पहुंच गया है। गौरतलब है कि इस हमले में 26 निर्दोष नागरिकों की जान चली गई थी।इस हमले(पहलगाम हमले) के बाद भारत ने सिंधु जल समझौता समेत पाकिस्तान के साथ सभी अहम समझौतों को निलंबित कर दिया और पाकिस्तानी नागरिकों को देश छोड़ने का आदेश दिया। इस बीच पाकिस्तान ने भी भारत के साथ सभी द्विपक्षीय समझौतों को निलंबित कर दिया है। सच तो यह है कि हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ अनेक सख्त कदम उठाए हैं।इसी बीच भारतीय नौसेना ने अपनी सैन्य ताकत का भी प्रदर्शन किया है। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि भारतीय नौसेना ने आइएनएस सूरत से मध्यम दूरी की सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल का सफल परीक्षण किया, जो उसकी उच्च परिचालन तत्परता को दर्शाता है। गौरतलब है कि प्रोजेक्ट 15बी गाइडेड मिसाइल डिस्ट्रॉयर कार्यक्रम का हिस्सा आइएनएस सूरत, दुनियाभर में सबसे एडवांस्ड युद्धपोतों में से एक है, जिसमें 75 प्रतिशत स्वदेशी सामग्री है और यह अत्याधुनिक हथियार और सेंसर सिस्टम से लैस है। दरअसल, भारतीय नौसेना के इस अभ्यास का उद्देश्य समुद्र में सटीक आक्रामक हमलों के लिए प्लेटफार्मों, प्रणालियों और क्रू को फिर से तैयार करना था। उल्लेखनीय है कि भारतीय नौसेना ने कोलकाता क्लास के विध्वंसक और नीलगिरि और क्रिवाक क्लास के फ्रिगेट सहित युद्धपोतों के बेड़े से ब्रह्मोस एंटी-शिप और एंटी-सरफेस क्रूज मिसाइलों को लॉन्च किए जाने के दृश्य शेयर किए। यहां यह गौरतलब है कि नौसेना ने अपनी एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर एक  पोस्ट में यह बात कही है कि , ‘भारतीय नौसेना के जहाजों ने लंबी दूरी के सटीक आक्रामक हमले के लिए प्लेटफार्मों, प्रणालियों और क्रू की तत्परता को फिर से चेक करने और प्रदर्शित करने के लिए कई एंटी-शिप फायरिंग को सफलतापूर्वक अंजाम दिया। भारतीय नौसेना किसी भी समय, कहीं भी, किसी भी तरह से राष्ट्र के समुद्री हितों की रक्षा करने के लिए युद्ध के लिए तैयार, विश्वसनीय और भविष्य के लिए तैयार है।’ पाठकों को बताता चलूं कि भारतीय नौसेना का यह सफल अभ्यास पाकिस्तान द्वारा अरब सागर क्षेत्र में आगामी मिसाइल फायरिंग के बारे में अधिसूचना जारी करने के तुरंत बाद हुआ है। कहना ग़लत नहीं होगा कि रविवार, 27 अप्रैल 2025 को भारतीय नौसेना द्वारा अरब सागर में ब्रह्मोस लॉन्ग रेंज एंटी-शिप मिसाइल का सफल परीक्षण करने के बाद पाकिस्तान में हड़कंप मच गया। दरअसल, भारतीय नौसेना का यह परीक्षण भारत और भारतीय नौसेना के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है, जो उसकी परिचालन तैयारियों को दर्शाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह परीक्षण नौसेना के हथियारों, युद्धपोतों और कर्मियों की लंबी दूरी तक सटीक हमले की क्षमता को फिर से प्रमाणित करता है। इस परीक्षण में ब्रह्मोस मिसाइल ने अपनी अचूकता और विनाशकारी शक्ति का प्रदर्शन किया, जो भारत और रूस के संयुक्त उद्यम का परिणाम है। यह मिसाइल 2.8 से 3.0 मैक की गति से उड़ान भरती है और 800 से 900 किलोमीटर की दूरी तक दुश्मन के जहाजों या ठिकानों को तबाह करने में सक्षम है। इसकी मारक क्षमता इतनी है कि यह पाकिस्तान के आर्थिक केंद्र कराची सहित कई महत्वपूर्ण शहरों को निशाना बना सकती है।यह मिसाइल न केवल समुद्री लक्ष्यों, बल्कि जमीनी ठिकानों को भी नष्ट करने में सक्षम है। इसकी सुपरसोनिक गति और कम ऊंचाई पर उड़ान भरने की क्षमता इसे रडार और मिसाइल रक्षा प्रणालियों से बचाने में मदद करती है। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि भारतीय नौसेना का यह परीक्षण आत्मनिर्भर भारत की दिशा में एक महत्वपूर्ण व बड़ा कदम है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार ब्रह्मोस मिसाइल का स्वदेशी सीकर और बूस्टर, जो कि डीआरडीओ द्वारा विकसित किए गए हैं, इसकी तकनीकी श्रेष्ठता को और बढ़ाते हैं। नौसेना ने इस परीक्षण को ‘आत्मनिर्भर भारत’ अभियान का हिस्सा बताते हुए कहा कि यह स्वदेशी रक्षा प्रौद्योगिकी में भारत की प्रगति को दर्शाता है। ब्रह्मोस मिसाइल की सैल्वो फायरिंग क्षमता, जिसमें 2-2.5 सेकंड के अंतराल में कई मिसाइलें दागी जा सकती हैं, इसे और भी घातक बनाती है। यह एक साथ कई लक्ष्यों को नष्ट करने में सक्षम है, जिससे दुश्मन की रक्षा प्रणालियां बेअसर हो जाती हैं। सच तो यह है कि ब्रह्मोस मिसाइल की यह ताकत भारत को समुद्री युद्ध में एक तगड़ी व निर्णायक बढ़त देती है। गौरतलब है कि भारतीय नौसेना के युद्धपोत, जैसे आईएनएस राजपूत और आईएनएस चेन्नई, पहले ही इस मिसाइल से लैस हैं।यह भी उल्लेखनीय है कि नौसेना की नई पीढ़ी के युद्धपोतों और पनडुब्बियों में भी इसे शामिल किया जा रहा है। यह मिसाइल न केवल पाकिस्तान, बल्कि हिंद महासागर क्षेत्र में किसी भी संभावित खतरे का मुकाबला करने में भारत की स्थिति को मजबूत करती है। यदि हम यहां पर भारतीय नौसेना और पाकिस्तानी नौसेना की आपस में तुलना करें तो भारतीय नौसेना पाकिस्तान से हर मामले में(तकनीक और आर्थिक रूप से) बहुत ही आगे है। आंकड़े बताते हैं कि भारतीय नौसेना के पास 293 पोत हैं, जिनमें दो विमानवाहक पोत आइएनएस विक्रमादित्य और स्वदेशी निर्मित आइएनएस विक्रांत शामिल हैं। वहीं पर भारत के पास 16 पारंपरिक पनडुब्बियां और दो परमाणु-संचालित पनडुब्बियां आइएनएस अरिहंत और आइएनएस अरिघाट हैं। इसके मुकाबले पाकिस्तान के पास सिर्फ 121 पोत हैं और उसके पास कोई विमानवाहक पोत नहीं है। पाकिस्तान के पास आठ पनडुब्बियां हैं, जिनमें से अधिकतर पुरानी अगोस्ता क्लास की हैं और कुछ नई हेंगशेंग क्लास की पनडुब्बियां चीन से मंगाई गई हैं, जो अभी पूरी तरह से परिचालन में भी नहीं आई हैं‌।भारत के पास ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल, बराक-8 सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल और स्वदेशी रूप से विकसित कई आधुनिक हथियार प्रणालियाँ हैं। वहीं पाकिस्तान मुख्य रूप से चीन से प्राप्त हथियारों पर निर्भर है जिनमें सी-802 मिसाइलें और हाल ही में प्राप्त वाईजे-12 सुपरसोनिक मिसाइलें शामिल हैं।इसके अलावा भारत के पास समुद्र-आधारित परमाणु प्रतिरोधक क्षमता भी है, जो पाकिस्तान के पास नहीं है। इतना ही नहीं,भारत के पास मजबूत रसद आधार भी है, जिसमें 56 प्रमुख बंदरगाह और व्यापारिक टर्मिनल शामिल हैं, जो समुद्री आपूर्ति श्रृंखला को मजबूत करते हैं‌। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि भारत की तटरेखा लगभग 7000 किलोमीटर लंबी है, और उसके पास अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में एक महत्वपूर्ण सामरिक स्थिति है, जिससे मलक्का स्ट्रेट पर नजर रखी जा सकती है। वहीं पड़ौसी पाकिस्तान के पास केवल तीन बड़े बंदरगाह हैं – कराची, ग्वादर और पोर्ट कासिम, जो उसकी समुद्री क्षमता को सीमित करते हैं और इस तरह रसद और रणनीतिक स्थिति में भी भारत का स्पष्ट दबदबा है। बहरहाल कहना ग़लत नहीं होगा कि पाकिस्तान किसी भी मोर्चे पर भारत के समक्ष कहीं पर भी नहीं ठहरता है लेकिन वह आतंकवाद और आतंकियों के ज़रिए समय-समय पर भारत में अशांति फैलाता रहता है। आर्थिक रूप से कमजोर पाकिस्तान बात-बात पर भारत को गीदड़ भभकियां देता रहता है और उसकी यह सोच बन चुकी है कि वह जेहाद और आतंक के नाम पर भारत में सौहार्द और सद्भावना को तहस-नहस कर देगा, लेकिन उबका यह सपना/मंसूबा कभी भी पूरा नहीं होने वाला है। पाकिस्तान को यह बात याद रखनी चाहिए कि वह भारत से अनेक बार मुंह की का चुका है और यदि हम यहां पर इतिहास की बात करें तो भारत ने 1971 के युद्ध में भी कराची बंदरगाह को नष्ट करके अपनी नौसेना की क्षमता का प्रदर्शन किया था और आज भी भारतीय नौसेना संयुक्त राष्ट्र के तहत समुद्री डकैती-रोधी अभियानों में सक्रिय भूमिका निभा रही है। कहना ग़लत नहीं होगा कि पाकिस्तान को एक ओर जहां भारत के अंदरूनी मामलों पर टीका-टिप्पणी करने की बेमानी आदत रही है, वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान की पोल अब दुनिया के सामने खुल चुकी है कि वह आतंकवाद और आतंकियों का गढ़ है और इनको लगातार पोषित करता आ रहा है। बहरहाल , पाठकों को बताता चलूं कि हाल ही में ‘मन की बात’ रेडियो प्रसारण में  हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहलगाम हमले की निंदा करते हुए यह बात कही है कि, ‘आतंकवादी हमले(पहलगाम हमले)के बाद हर भारतीय का खून खौल रहा है। उनमें से हर कोई उन लोगों का दर्द महसूस कर रहा है जिन्होंने अपने लोगों को खो दिया है। कश्मीर में शांति लौट रही थी, लेकिन देश के दुश्मनों को यह पसंद नहीं आया।’ आज पहलगाम आतंकी हमले को लेकर पूरे विश्व में प्रदर्शन(टोरंटो, फ्रैंकफर्ट, ह्यूस्टन) हो रहे हैं और पाकिस्तान को दुनिया का बड़ा आतंकी देश घोषित करने की लगातार मांगें उठ रही हैं। सच तो यह है कि पाकिस्तान को ‘आतंकियों का स्वर्ग’ और ‘विश्व का सर्वाधिक खतरनाक देश’ कहा जाता रहा है। पाठक जानते हैं कि प्रमुख इस्लामी आतंकी संस्थाएँ जैसे लश्कर-ए-तैयबा, लश्कर-ए-ओमर, जैश-ए-मोहम्मद, हरकतुल मुजाहिद्दीन, सिपाह-ए-सहाबा, हिज़्बुल मुजाहिदीन आदि सब के सब पाकिस्तान में रहकर अपनी आतंकी गतिविधियाँ चलाते हैं। अब समय आ गया है कि पाकिस्तान को कड़ा से कड़ा संदेश दिया जाए।

सुनील कुमार महला