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    मोदी का मिशन सीमांचल

    कुमार कृष्णन

    विधानसभा चुनाव के मद्देनजर बिहार का सियासी माहौल गरमाया हुआ है। राजनीतिक पार्टियां मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए हर संभव कोशिश में जुटी हुई हैं। जहां एक ओर एनडीए फिर से सत्ता पर काबिज होने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए है, वहीं दूसरी ओर महागठबंधन चुनावी अखाड़े में जमकर पसीना बहा रहा है। सभी सियासी दलों का सबसे ज्यादा ध्यान सूबे के सीमांचल इलाके पर दिखाई दे रहा है। चुनावी साल में प्रधानमंत्री ने बिहार में 36 हजार करोड़ की परियोजनाओं का शिलान्‍यास और उद्घाटन किया।

    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आयोजित रैली में कहा कि 11 साल में हमारी सरकार ने 4 करोड़ नए घर बनाकर लोगों को दिए हैं। हम 3 करोड़ नए घर बनाने का काम कर रहे हैं। जब तक हर गरीब को पक्‍का घर नहीं मिल जाता है, मोदी रुकने और थमने वाला नहीं है। साथ ही पीएम मोदी ने कहा कि बिहार के विकास के लिए पूर्णिया और सीमांचल का विकास जरूरी है। राजद और कांग्रेस सरकारों के कुशासन का बहुत बड़ा नुकसान इसी क्षेत्र को उठाना पड़ा है लेकिन अब एनडीए सरकार स्थिति बदल रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि सीमांचल और पूर्वी भारत में घुसपैठियों के कारण डेमोग्राफी के कारण कितना बड़ा संकट खड़ा हो चुका है. बिहार, बंगाल असम कई राज्‍यों के लोग अपनी बहनों बेटियों की सुरक्षा को लेकर चिंतित है। इसलिए भी मैंने डेमोग्रामी मिशन की घोषणा की है लेकिन वोट बैंक का स्‍वार्थ देखिए, कांग्रेस, आरजेडी और उसके ईको सिस्‍टम के लोग घुसपैठियों की वकालत करने में जुटे हैं उन्‍हें बचाने में लगे हैं।

    हमारी सरकार ने मखाना सेक्टर के विकास के लिए हमारी सरकार ने 475 करोड रुपए की योजनाओं को मंजूर किया है। बिहार के राजगीर में हॉकी का एशिया कप जैसा बड़ा आयोजन हुआ। मेड इन बिहार रेल इंजन अफ्रीका तक एक्सपोर्ट होकर जा रहा है. साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने विपक्षी दलों पर हमला करते हुए कहा कि राजद की सहयोगी पार्टी कांग्रेस अब बिहार की तुलना बीड़ी से कर रही है। इन्होंने बिहार की साख को बहुत नुकसान पहुंचाया है। इन्होंने बिहार को बदनाम करने की ठान ली है। कांग्रेस और राजद पिछले दो दशकों से बिहार की सत्ता से बाहर हैं और निस्संदेह इसमें सबसे बड़ी भूमिका बिहार की मेरी माताओं और बहनों की है। मैं बिहार की माताओं और बहनों को विशेष नमन करता हूं। राजद काल में हत्या, बलात्कार और फिरौती जैसे अपराधों की सबसे बड़ी शिकार बिहार की मेरी माताएं और बहनें ही रही हैं। डबल इंजन सरकार में वही महिलाएं लखपति दीदी और ड्रोन दीदी बन रही हैं।

    सीमांचल और पूर्वी भारत में घुसपैठियों के कारण डेमोग्राफी के कारण कितना बड़ा संकट खड़ा हो चुका है, बिहार, बंगाल, असम कई राज्‍यों के लोग अपनी बहनों बेटियों की सुरक्षा को लेकर चिंतित है। इसलिए भी मैंने डेमोग्रामी मिशन की घोषणा की है, लेकिन वोट बैंक का स्‍वार्थ देखिए कांग्रेस, आरजेडी और उसके ईको सिस्‍टम के लोग घुसपैठियों की वकालत करने में जुटे हैं, उन्‍हें बचाने में लगे हैं और बेशर्मी के साथ विदेश से आए घुसपैठियों के लिए यह नारे लगा रहे हैं। यात्राएं निकाल रहे हैं। यह बिहार और देश के संसाधन और सुरक्षा दोनों को दांव पर लगाना चाहते हैं लेकिन आज पूर्णिया की धरती से मैं इन लोगों को एक बात अच्‍छी तरह से समझाना चाहता हूं कि यह आरजेडी और कांग्रेस की जमात कान खोलकर मेरी बात सुन ले कि जो भी घुसपैठिया है, उसे बाहर जाना ही होगा।घुसपैठ पर ताला लगाना एनडीए की पक्‍की जिम्‍मेदारी है।

    वहीं प्रधानमंत्री की जनसभा में मंच पर पहुंचे पूर्णिया सांसद पप्पू यादव ने चार मांग की है। उन्होंने पूर्णिया में हाईकोर्ट बेंच, एम्स, पूर्णिया को उप राजधानी का दर्जा, मखाना में जीएसटी कम करने की मांग की। वहीं केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान ने कहा कि एक दौड़ हमने देखा जब जंगल राज में माताओं बहनों का निकलना मुश्किल था। आज ये दौड़ है जहां विकास की सरकार केंद्र और बिहार दोनों हमारी सरकार। चिराग ने पीएम मोदी और मुख्य मंत्री नीतीश कुमार का गुणगान किया।

    बिहार के सीमांचल में चार जिले कटिहार, पूर्णिया, अररिया और किशनगंज आता है। माना जाता है कि इन जिलों की कुल 24 विधानसभा सीटें हर चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाती हैं। सीमांचल में भाजपा की राह कभी आसान नहीं रहती है, फिर चाहे लोकसभा का चुनाव हो या विधानसभा का। सीमांचल में भाजपा अपनी उम्मीदों के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर पाती है।

    2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन ने यहां शानदार प्रदर्शन किया था, जिसमें राजद को 9, जेडीयू को 5 और कांग्रेस को भी 5 सीटें मिली थीं। भाजपा सीमांचल मे केवल 5 सीटों तक ही सिमट गई थी।

    2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने पिछली बार से तीन सीटें ज्यादा जीती थीं। भाजपा ने कुल 8 सीटें जीती थीं। इसकी एक वजह नीतीश कुमार का भाजपा का साथ होना बताया गया जबकि कांग्रेस को 5, जेडीयू को 4, और आरजेडी को 1 सीट मिली थी। एआईएमआईएम ने 5 सीटें जीतकर सबको चौंका दिया हालांकि बाद में उसके चार विधायक राजद में शामिल हो गए।

    एक साल पहले 2024 के लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को सीमांचल की 4 लोकसभा सीटों में से सिर्फ अररिया सीट पर ही जीत मिली थी। किशनगंज और कटिहार कांग्रेस के खाते में गईं, जबकि पूर्णिया की सीट निर्दलीय प्रत्याशी पप्पू यादव ने जीती थी।

    सीमांचल क्षेत्र में मुस्लिम वोटों की दिशा ही चुनाव का रुख तय करती है। किशनगंज में 68 फीसदी, अररिया में 43 फीसदी, कटिहार में 45 फीसदी और पूर्णिया मे 39 प्रतिशत मुस्लिम है। इस क्षेत्र में लंबे समय से कांग्रेस और राजद की मजबूत पकड़ रही है। लेकिन, 2020 के चुनाव में एआईएमआईएम की एंट्री ने समीकरण बदल दिए। ओवैसी की पार्टी ने मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण किया, जिसका अप्रत्यक्ष लाभ भाजपा को मिला।

    इस बार भी एआईएमआईएम ने अकेले लड़ने का संकेत दिया है, जिससे मुस्लिम वोटों का संभावित बंटवारा हो सकता है। यह स्थिति भाजपा और एनडीए के लिए फायदेमंद हो सकती है। वहीं, प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी भी इस क्षेत्र में अपनी पकड़ बनाने की कोशिश कर रही है, जो महागठबंधन के लिए एक नई चुनौती बन सकती है।

    भाजपा जानती है कि मुस्लिम वोट बैंक उसके पक्ष में नहीं आएगा, इसलिए वह दलितों, अति पिछड़े वर्गों और प्रवासी मजदूरों पर ध्यान केंद्रित कर रही है। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष दिलीप जायसवाल का गृह जिला किशनगंज है, जिससे पार्टी इस क्षेत्र में विशेष मेहनत कर रही है। जेडीयू भी इस रणनीति का हिस्सा है और एनडीए मिलकर सीमांचल में अपनी स्थिति मजबूत करने का प्रयास कर रहा है।

    कुमार कृष्णन

    वक्फ के सुप्रीम फैसले पर पक्ष-विपक्ष दोनों खुश

    राजेश कुमार पासी

    वक्फ संपत्तियों का प्रबंधन करने वाले वक्फ बोर्ड कानून में संशोधन कानून केन्द्र सरकार ने बनाया था । लोकसभा और राज्यसभा से पास होने के पश्चात 5 अप्रैल 2025 को राष्ट्रपति के हस्ताक्षरों के बाद यह कानून देश में लागू हो गया था । 5 अप्रैल को ही आम आदमी पार्टी के नेता अमानतुल्लाह खान व अन्य ने इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी थी । असदुद्दीन ओवैसी,मोहम्मद जावेद, एआईएमपीएलबी और अन्य भी इस मामले में सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए । 17 अप्रैल को केन्द्र सरकार  ने सुप्रीम कोर्ट को आश्वासन दिया कि मामले की सुनवाई तक ‘वक्फ वाई यूजर’ या ‘वक्फ वाई डीड’ सम्पत्तियों को गैर-अधिसूचित नहीं किया जाएगा ।  22 मई को सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाओं की सुनवाई पूरी कर ली और फैसला सुरक्षित कर लिया था । 15 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर अपना अंतरिम फैसला दे दिया है । वक्फ कानून के खिलाफ अदालत गए याचिकाकर्ताओं की मुख्य मांग को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया है । याचिकाकर्ता  चाहते थे कि सुप्रीम कोर्ट पूरे कानून पर रोक लगा दे लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी कानून पर अंतरिम रोक  लगाने को लेकर सावधानी बरतनी चाहिए और दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों में ही पूरे कानून पर रोक लगानी चाहिए ।

    इस फैसले से सरकार और कानून के पक्षधर बहुत खुश हैं लेकिन कानून के खिलाफ गए याचिकाकर्ता भी खुश हैं क्योंकि अदालत ने इस कानून के कुछ प्रावधानों पर रोक लगा दी है । देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले से दोनों पक्षों को कुछ खुशी दी है और कुछ गम भी दिए हैं । याचिकार्ताओं का कहना था कि वक्फ संपत्ति देने के लिए 5 साल इस्लाम पालन की शर्त लगाई गई है जो कि भेदभावपूर्ण प्रावधान है । सरकार का कहना था कि जमीनों का अतिक्रमण किया जा रहा है, इसलिए यह प्रावधान किया गया है । अदालत ने फैसला सुनाया है कि जब तक राज्य सरकारें  यह तय करने के लिए नियम नहीं बनाती कि कोई व्यक्ति मुस्लिम है या नहीं, तब तक तत्काल प्रभाव से इस प्रावधान पर रोक रहेगी । इससे याचिकाकर्ता खुश हैं लेकिन सरकार को भी परेशानी नहीं है क्योंकि यह अस्थायी रोक है । राज्य सरकारें कानून बनाकर इसे लागू कर सकती हैं । कानून में प्रावधान था कि कलेक्टर वक्फ संपत्ति का फैसला कर सकता है लेकिन याचिकाकर्ताओं का कहना था कि इससे वक्फ संपत्ति की जमीन सरकारी दर्ज हो जाएगी । सरकार का कहना था कि कलेक्टर केवल प्रारंभिक जांच करता है, अंतिम फैसला ट्रिब्यूनल या कोर्ट का होगा । अदालत ने इस प्रावधान पर रोक लगा दी है और कहा है कि कलेक्टर को नागरिकों के संपत्ति अधिकारों पर फैसला लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती । जब तक ट्रिब्यूनल या अदालत फैसला नहीं दे देते, तब तक वक्फ की संपत्ति का स्वरूप नहीं बदलेगा । 

                        याचिकाकर्ताओं की मुख्य मांग यह थी कि जिन वक्फ संपत्तियों का लंबे समय से धार्मिक कार्यों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, उन्हें वक्फ संपत्ति घोषित करने का प्रावधान बना रहे बेशक उस संपत्ति के दस्तावेज न हों । इस कानून को ‘वक्फ वाई यूजर’ कहा जाता है । सरकार ने संशोधित कानून में यह प्रावधान खत्म कर दिया है । अदालत ने भी सरकार की बात मान ली है और ‘वक्फ वाई यूजर’ लागू करने से मना कर दिया है । इस मामले में अदालत ने याचिकाकर्ताओं को राहत देते हुए आदेश दिया है कि बिना दस्तावेज वाली ऐसी संपत्तियों  को, जहां लंबे समय से धार्मिक कार्य चल रहे हैं और उन्हें वक्फों द्वारा काबिज कर लिया गया है, उन संपत्तियों को ट्रिब्यूनल या अदालत द्वारा अंतिम फैसला आने तक न तो वक्फों को संपत्ति से बेदखल किया जाएगा और न ही राजस्व रिकॉर्ड में एंट्री प्रभावित होगी । सरकार के लिए परेशानी यह है कि बिना दस्तावेज वाली जिन संपत्तियों को पहले ही ‘वक्फ वाई यूजर’ घोषित करके वक्फों द्वारा कब्जा कर लिया गया है, उन्हें कैसे वापिस लिया जाएगा । सरकार को इस मामले में अदालत से दोबारा विचार करने के लिए कहना होगा । यह ठीक है कि ‘वक्फ वाई यूजर’ बोलकर अब किसी की संपत्ति पर वक्फ बोर्ड नाजायज कब्जा  नहीं कर सकता लेकिन जिन संपत्तियों पर कब्जा कर लिया गया है, उनके बारे में भी विचार करने की जरूरत है । हमें याद रखना होगा कि वक्फों द्वारा लाखों एकड़ सरकारी और गैर-सरकारी भूमि इस तरीके से कब्जा कर ली गई हैं ।

     नए कानून में प्रावधान किया गया था कि केन्द्रीय वक्फ बोर्ड परिषद और राज्य वक्फ बोर्डो में गैर-मुस्लिम भी सदस्य बन सकते हैं । याचिकाकर्ताओं का कहना था कि गैर-मुस्लिम बहुमत बनाकर हमारे धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप कर सकते हैं । केन्द्र सरकार का कहना था कि ऐसा नहीं होगा क्योंकि गैर-मुस्लिम सदस्यों की संख्या 2-4 तक ही होगी । अदालत  ने भी यह बात मान ली है और कहा है कि केन्द्रीय वक्फ परिषद में 22 में से अधिकतम 4 और राज्य वक्फ बोर्डो में 11 में से अधिकतम 3 सदस्य गैर-मुस्लिम हो सकते हैं । नए कानून में वक्फ बोर्ड के सीईओ का मुस्लिम होना अनिवार्य नहीं है। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि सीईओ का मुस्लिम होना अनिवार्य होना चाहिए । अदालत ने याचिकाकर्ताओं की मांग को ठुकरा दिया है लेकिन कहा है कि जहां तक संभव हो सीईओ मुस्लिम ही होना चाहिए।  

                       नए कानून में प्रावधान किया गया है कि वक्फ संपत्ति की लिखित रजिस्ट्री व पंजीकरण होना चाहिए जबकि पहले मौखिक रूप से भी किसी संपत्ति को वक्फ घोषित किया जा सकता था । याचिकाकर्ता चाहते थे कि पुराना प्रावधान लागू होना चाहिए और मौखिक वक्फ भी मान्य होना चाहिए । केन्द्र सरकार का कहना था कि इस प्रावधान से वक्फ संपत्तियों में पारदर्शिता और जवाबदेही बनेगी और फर्जी वक्फ के मामले रुक जाएंगे । अदालत ने इस मामले में सरकार की बात मान ली है और इस प्रावधान पर रोक लगाने से इंकार कर दिया है । अदालत का कहना है कि  यह प्रावधान 1995 और 2013 के कानून में था और सरकार  ने इसे दोबारा लागू किया है । विपक्षी दलों के कुछ नेता अदालत के फैसले से खुश हैं ।  कांग्रेस नेता पवन खेड़ा का कहना है कि सरकार ने यह कानून जल्दबाजी में बनाया था, इस पर बहस होती तो यह कानून नहीं बनता । अजीब बात यह है कि इस कानून को संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया था, जिसके सामने सबको अपनी बात रखने का मौका दिया गया था। देखा जाए तो इस कानून पर लंबी बहस हुई थी। पवन खेड़ा और कितनी बहस चाहते हैं।

    वक्फ बोर्ड  बहुत से मुस्लिम देशों में हैं लेकिन ऐसा कानून किसी भी देश में नहीं है । वास्तव में वक्फ बोर्ड सिर्फ वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन का काम करता है, उसका यह काम नहीं है कि वो लोगों की जमीनों पर कब्जा करे । मुस्लिम देशों में वक्फ के पास जमीन दान देने से आती है जबकि भारत में वक्फ बोर्ड के पास जमीन कब्जे से आ रही है । 1995 में कांग्रेस सरकार ने वक्फ कानून में संशोधन करके वक्फ बोर्डों को लैंड माफिया में बदल दिया था । वक्फ बोर्ड सरकारी और गैर-सरकारी जमीनों पर कब्जा करने लगे थे क्योंकि उन्हें वक्फ वाई यूजर का हथियार मिल गया था । उन्हें किसी की जमीन पर कब्जा करने के लिए किसी कागज की जरूरत नहीं थी । उनका यह मानना ही काफी था कि वो जमीन वक्फ की है । अदालत में भी इस कब्जे को चुनौती नहीं दी जा सकती थी । बेशक नए कानून से ये नाजायज कब्जे बंद हो जाएंगे लेकिन सवाल यह है कि लाखों एकड़ जमीनों पर किए गए कब्जों का क्या होगा । 

                     ऐसा लग रहा है कि यह कानून अभी भी अधूरा है क्योंकि वक्फ बोर्ड का काम केवल प्रबंधन का है, जो कि मुस्लिम देशों में भी होता है लेकिन हमारे देश के वक्फ बोर्डों के पास कब्जा की गई जमीनें हैं । यह कानून तभी पूरा माना जाएगा, जब कब्जा की गई जमीनें वापिस मिल जाएँगी । कितनी अजीब बात है कि एक आदमी पूरे जीवन मेहनत करके कमाई गई पूंजी से जमीन खरीदे और अचानक वक्फ बोर्ड आए और उसकी जमीन वक्फ बताकर छीन ले । वो बेचारा रोता रहे और उसकी सुनवाई कहीं न हो । कमाल की बात है कि संविधान होते हुए भी ऐसे पीड़ितों के लिए अदालत का दरवाजा भी बंद कर दिया गया था ।  मोदी सरकार ने कानून बनाकर यह अन्याय बंद कर दिया है लेकिन जो अन्याय हो चुका है, उसका भी हिसाब होना चाहिए । दूसरी बात यह है कि वक्फ की जमीन का इस्तेमाल कब्रिस्तान, मस्जिद, शैक्षणिक संस्थान और गरीबों के फायदे के लिए किया जा सकता है लेकिन वक्फ बोर्ड के पास लाखों एकड़ भूमि होने के बावजूद गरीब मुस्लिम जमीन के लिए सरकार के सामने खड़े रहते हैं । इसका कारण यह है कि वक्फ की संपत्तियों का गलत इस्तेमाल हो रहा है । अदालत को इस कानून पर फिर विचार करने की जरूरत है । यह देखना जरूरी है कि भविष्य में इस कानून का गलत इस्तेमाल न हो लेकिन यह भी सुनिश्चित करना जरूरी है कि जो गलत इस्तेमाल हो चुका है, उसे भी ठीक किया जाए । 

    राजेश कुमार पासी

    माहवारी का दर्द: जब सुविधाएं पहुंच से बाहर हों

    सरिता
    लूणकरणसर, राजस्थान

    गाँव की गलियों में खेलती हुईं किशोरियाँ जब किशोरावस्था की ओर कदम रखती हैं, तो उनके जीवन में कई नई चुनौतियाँ आती हैं। इनमें सबसे बड़ी चुनौती है माहवारी। हालांकि यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, मगर ग्रामीण इलाकों में रहने वाली कई लड़कियों के लिए यह दर्द और परेशानी से भरा अनुभव बन जाता है। इसका कारण है स्वच्छता की अभाव, सेनेटरी पैड्स की अनुपलब्धता, उसका महंगा होना, और इस विषय पर खुले संवाद का कमी। अक्सर जब कोई लड़की माहवारी से गुजर रही होती है और उसके पास पैड उपलब्ध नहीं होते, तो उसे स्कूल छोड़ना पड़ता है, घर में छिपकर रहना पड़ता है और कई बार तकलीफें सहते हुए खेतों या घरेलू कामों में हाथ बंटाना पड़ता है।

    राष्ट्रीय स्तर पर आँकड़े बताते हैं कि ग्रामीण भारत में अब भी बड़ी संख्या में महिलाएँ और किशोरियाँ माहवारी के दौरान कपड़े या अस्वच्छ विकल्पों का प्रयोग करती हैं। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं और किशोरियों द्वारा पैड्स उपयोग करने का आंकड़ा लगभग 11 से 12 प्रतिशत से बढ़कर 45 प्रतिशत तक पहुँचा है। इसका मतलब है कि अब भी आधी से ज्यादा ग्रामीण महिलाएँ और किशोरियों तक पैड की पहुंच नहीं है और वह अब भी संक्रमण, दर्द तथा सामाजिक पाबंदियों से जूझ रही हैं।

    राजस्थान में भी यही स्थिति है। राज्य सरकार ने भले ही 200 करोड़ रुपये के बजट से “उड़ान योजना” और अन्य कार्यक्रमों के तहत आंगनवाड़ी केंद्रों और सरकारी स्कूलों के माध्यम से 1.15 करोड़ महिलाओं और किशोरियों को मुफ्त सेनेटरी पैड उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा है, और इस लक्ष्य को पूरा करने का प्रयास भी कर रही है, मगर जमीनी हकीकत अलग है। कई गाँवों में पैड्स की सप्लाई रुक-रुक कर होती है और कई बार परिवारों को यह जानकारी ही नहीं होती कि उन्हें कहाँ से और कैसे पैड मिल सकते हैं।

    आज भी यहां के कई गांवों की लड़कियाँ माहवारी के दौरान अक्सर पुराने और गंदे कपड़ों का सहारा लेती हैं। गीला कपड़ा, साफ करने और सुखाने की जगह न होना और कपड़े को छिपाकर रखने की मजबूरी उन्हें और भी असुरक्षित तथा संक्रमित बना देती है। बरसात के दिनों में यह कपड़ा अक्सर पूरी तरह सूख नहीं पाता और बदबू तथा संक्रमण की समस्या पैदा करता है। नतीजा यह होता है कि माहवारी लड़कियों के लिए केवल शारीरिक कष्ट ही नहीं बल्कि मानसिक तनाव भी बन जाती है। वे शर्म और डर की वजह से इस विषय पर बात करने से कतराती हैं। कई लड़कियाँ स्कूल जाना छोड़ देती हैं क्योंकि वहाँ शौचालय की व्यवस्था नहीं होती या उन्हें डर रहता है कि कहीं दाग दिख न जाए।

    बीकानेर के लूनकरणसर तहसील के कई गाँवों में स्कूल दूर होने के कारण वहां तक पहुँचने के लिए लड़कियों को पैदल चलना पड़ता है। जब माहवारी के दौरान उनके पास पैड नहीं होते, तो यह यात्रा और भी कठिन हो जाती है। दर्द और असुविधा से गुजरते हुए स्कूल पहुँचना आसान नहीं होता। कई बार यही मुश्किलें उन्हें शिक्षा से दूर कर देती हैं। अक्सर रिपोर्टों में भी सामने आया है कि राजस्थान और झारखंड जैसे राज्यों के ग्रामीण इलाकों में किशोरियों को पर्याप्त पैड और सुविधाएँ नहीं मिलने के कारण उनकी पढ़ाई और स्वास्थ्य दोनों प्रभावित होते हैं।

    इस समस्या का आर्थिक पहलू भी गंभीर है। पैड महँगे हैं और ग्रामीण परिवारों की आय इतनी नहीं होती कि वे हर महीने घर की महिलाओं और किशोरियों के लिए पैड खरीद सकें। जहाँ योजनाओं के तहत मुफ्त या सस्ते पैड उपलब्ध कराए जाने का प्रावधान है, वहाँ भी वितरण की अनियमितता और गुणवत्ता की कमी लड़कियों की परेशानियाँ बढ़ा देती हैं। परिणामस्वरूप वे पुराने कपड़े और अन्य अस्वच्छ साधनों पर निर्भर हो जाती हैं। इससे संक्रमण और बीमारियों का खतरा और बढ़ जाता है। माहवारी को लेकर समाज में मौजूद चुप्पी और शर्मिंदगी लड़कियों को और अकेला कर देती है। वे इस विषय पर माँ से या सहेलियों से भी बात करने में संकोच करती हैं। आज भी हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में माहवारी को छिपाने की चीज माना जाता है, जिससे लड़कियों के भीतर अपराधबोध और डर बैठ जाता है। यही कारण है कि वे न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक स्तर पर भी दबाव महसूस करती हैं।

    समस्या का समाधान केवल पैड उपलब्ध कराने तक सीमित नहीं है। जरूरी है कि गाँवों में महिलाओं और किशोरियों के बीच जागरूकता अभियान चलाए जाएँ, ताकि किशोरियाँ और उनके परिवार समझ सकें कि माहवारी स्वाभाविक है और इसकी स्वच्छता पर ध्यान देना स्वास्थ्य के लिए प्राथमिकता है। स्कूलों में माहवारी शिक्षा का हिस्सा बने और शौचालय व पानी की सुविधाएँ बढ़ाई जाएँ। आंगनवाड़ी केंद्रों पर नियमित पैड उपलब्ध हों और उनकी गुणवत्ता की निगरानी की जाए। इसके लिए स्थानीय महिलाओं और स्वयं सहायता समूहों को इस काम में शामिल किया जा सकता है ताकि समुदाय स्तर पर बदलाव आ सके।

    माहवारी से जुड़ी चुनौतियाँ केवल व्यक्तिगत समस्या नहीं हैं बल्कि यह सीधे शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक समानता से जुड़ा मुद्दा है। जब लड़कियाँ पैड की कमी के कारण पढ़ाई छोड़ने पर मजबूर होती हैं, तो यह केवल उनका नुकसान नहीं बल्कि पूरे समाज का नुकसान है। सरकार और समाज यदि मिलकर सुनिश्चित करें कि हर गाँव में पैड और स्वच्छता सुविधाएँ समय पर उपलब्ध हों, तो लाखों लड़कियों का जीवन आसान हो सकता है। यह केवल माहवारी के दौरान उनका साथ देने की बात नहीं है बल्कि उन्हें शिक्षा और आत्मसम्मान के साथ आगे बढ़ने का अवसर देने की बात भी है। अब समय आ गया है कि इस सुविधा (पैड्स) को हर किशोरी और महिला तक पहुंचाया जाए।

    आतिशबाजी रहित उत्सवों की परम्परा का सूत्रपात हो

    – ललित गर्ग –
    पर्यावरण संकट हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौती बन चुका है। बढ़ता प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधनों की लगातार हो रही क्षति ने जीवन को असहज और असुरक्षित बना दिया है। यह संकट किसी दूर के भविष्य की चिंता नहीं है, बल्कि हमारे रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित कर रहा है। राजधानी दिल्ली इसका सबसे जीवंत उदाहरण है, जहाँ दीपावली और अन्य त्योहारों के बाद वायु गुणवत्ता इतनी खराब हो जाती है कि सांस लेना तक मुश्किल हो जाता है। इसका एक प्रमुख कारण पटाखों का प्रयोग है। पटाखे और आतिशबाज़ी कुछ क्षणों के लिए उत्सव का शोर और रोशनी जरूर बिखेरते हैं, लेकिन उनके पीछे छूट जाता है जहरीला धुआं, असहनीय शोर, सांस लेने में तकलीफ और एक असंतुलित वातावरण। इस स्थिति में दिल्ली व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पटाखों पर अंकुश लगाने के संदर्भ में देश की शीर्ष अदालत की टिप्पणी संवेदनशील और मार्गदर्शक होने के साथ-साथ जनजागरूकता बढ़ाने वाली है। कोर्ट ने सख्त लहजे में कहा कि यदि साफ वायु राष्ट्रीय राजधानी के विशिष्ट लोगों का हक है तो यह हक शेष देश के हर व्यक्ति को भी मिलना चाहिए। दिल्ली ही नहीं, सम्पूर्ण देश में वायु प्रदूषण को नियंत्रण करना जरूरी है।
    दुनिया भर के प्रदूषित देशों में भारत पांचवें नंबर पर है, दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर भी हमारे ही देश में हैं, ऐसे तेरह शहर दुनिया के शीर्ष बीस प्रदूषित शहरों में शुमार हैं, इन चिन्ताजनक हालातों में हवा को जहरीला बनाने वाले पटाखे निरंकुश रूप से जलाना एक आत्मघाती कदम ही है। पटाखों के दुष्प्रभाव स्पष्ट और प्रमाणित हैं। वे वातावरण में जहरीली गैसों का उत्सर्जन करते हैं, जिससे हवा की गुणवत्ता अचानक बेहद खराब हो जाती है। दीपावली की रात पटाखों से निकलने वाला धुआं कई दिनों तक हवा में बना रहता है और सांस की तकलीफ, आंखों में जलन, हृदय रोग और दमा जैसी बीमारियों को और गंभीर कर देता है। पटाखों से होने वाला ध्वनि प्रदूषण बच्चों, बुजुर्गों और बीमार लोगों के लिए भय और असहनीय पीड़ा का कारण बनता है। पशु-पक्षियों की स्थिति भी दयनीय हो जाती है, उनके जीवन में असुरक्षा और बेचैनी घुल जाती है। यह सब जानते हुए भी आतिशबाज़ी को लेकर समाज में अब भी ढिलाई और परंपरा के नाम पर अनदेखी जारी रहना दुर्भाग्यपूर्ण एवं विडम्बनापूर्ण है।
    दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में दीपावली के बाद की स्थिति किसी आपदा से कम नहीं होती। पिछले वर्ष दीपावली के दौरान दिल्ली के कई इलाकों में वायु गुणवत्ता सूचकांक यानी एक्यूआई 300 से ऊपर चला गया और “बहुत खराब” से “गंभीर” श्रेणी में दर्ज हुआ। यह हर साल का दोहराया जाने वाला दृश्य है और हर साल सरकार, समाज और न्यायपालिका को इसे लेकर चिंतित होना पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस विकट स्थिति को गंभीरता से लिया है और हाल के वर्षों में बार-बार स्पष्ट किया है कि केवल दिल्ली ही नहीं, बल्कि पूरे देश में पटाखों पर रोक लगनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के आलोक में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अब चाहे दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर बर्नीहाट हो या पंजाब व राजस्थान के सबसे अधिक प्रदूषित शहर हों, उन्हें भी पटाखों के नियमन का लाभ मिलना चाहिए। हाल ही में अदालत ने सरकारों को यह सुनिश्चित करने के निर्देश दिए कि पटाखों के उत्पादन, बिक्री और भंडारण पर पूर्ण रोक हो, और जो भी इन नियमों का उल्लंघन करे उसके खिलाफ कठोर कार्रवाई की जाए। अदालत का यह रुख केवल कानूनी आदेश नहीं है, बल्कि समाज को चेताने वाला संदेश भी है कि अब हमें अपने उत्सवों की परिभाषा बदलनी होगी।
    दिल्ली सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के अनुरूप पर्यावरण संरक्षण अधिनियम की धारा 5 के तहत पटाखों पर पूर्ण और स्थायी प्रतिबंध लागू किया है। इस प्रतिबंध के अनुसार न तो पटाखों का उत्पादन हो सकता है, न बिक्री और न ही भंडारण या उपयोग। यह कदम पर्यावरण और नागरिकों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए जरूरी था। लेकिन केवल सरकारी आदेश और अदालत के निर्देश काफी नहीं होंगे, जब तक समाज स्वयं अपनी सोच और व्यवहार में बदलाव नहीं लाता। परंपराओं को बदलने में समय लगता है, लेकिन जैसे लोग धीरे-धीरे प्लास्टिक के खिलाफ खड़े हुए और विकल्प तलाशने लगे, वैसे ही आतिशबाज़ी से मुक्त त्योहारों को भी अपनाया जा सकता है। सवाल यह है कि हम लोग क्यों नहीं सोचते कि हमारे पटाखे जलाने से श्वास रोगों से जूझते तमाम लोगों का जीना दुश्वार हो जाता है। यह एक हकीकत है कि देश के तमाम शहरों में हवा ही नहीं, पानी व मिट्टी तक में जहरीले तत्वों का समावेश हो चुका है। जो न केवल हमारी आबोहवा के लिये बल्कि हमारे शरीर के लिये भी घातक साबित हो रहा है। यही वजह है कि हाल के वर्षों में देश में श्वसन तंत्र से जुड़े रोगों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। साथ ही प्रदूषित हवा के प्रभाव में सांस संबंधी रोगों से लोगों के मरने का आंकड़ा भी बढ़ा है।
    कहीं न कहीं हमारे वातावरण में बढ़ता प्रदूषण ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने वाले कारकों में वृद्धि भी कर रहा है। लेकिन पटाखों से होने वाला प्रदूषण ऐसा है जो हमारे संयम के जरिये रोका जा सकता है। चिंता की बात यह है कि पटाखों के जलने से निकलने वाले कण हमारे श्वसनतंत्र को नुकसान पहुंचाने के साथ ही हमारे खून में घुल रहे हैं। जिसमें पीएम 2.5 और पीएम 10 जैसे महीन कण फेफड़ों में प्रवेश करके गंभीर रोगों को जन्म दे रहे हैं। इतना ही नहीं पटाखे जलाने के कारण जहरीली रासायानिक गैसों के रिसाव से हमारे पारिस्थितिकीय तंत्र को गंभीर क्षति पहुंच रही है। इससे ओजोन परत भी क्षतिग्रस्त हो रही है। साथ ही ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी हमारे वायुमंडल में जलवायु परिवर्तन के संकटों को बढ़ाने में भूमिका निभा रहा है।
    त्योहार और उत्सव हमारे जीवन का हिस्सा हैं। वे सामाजिक जुड़ाव, सांस्कृतिक गौरव और सामूहिक खुशी का प्रतीक हैं। लेकिन जब खुशी मनाने का तरीका ही हमारे स्वास्थ्य और जीवन के लिए संकट बन जाए, तब उस पर गंभीर पुनर्विचार आवश्यक हो जाता है। दीपावली पर पटाखों की परंपरा समाज में गहराई तक पैठ चुकी है। लोग इसे परंपरा, रौनक और आनंद का प्रतीक मानते हैं। अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि “बिना पटाखों के त्योहार अधूरा लगता है।” लेकिन यह सोच आज के समय में बेहद खतरनाक साबित हो रही है। त्योहार की असली रौनक दीपों की जगमगाहट, परिवार की एकजुटता, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और सामूहिक उत्सवों में है। संगीत, नाटक, कला और पारंपरिक दीपक किसी भी पटाखे से कहीं अधिक स्थायी आनंद दे सकते हैं।
    समय आ गया है कि हम यह स्वीकार करें कि आतिशबाज़ी अब हमारी खुशियों का हिस्सा नहीं रह सकती। खुशियों का असली मतलब है एक-दूसरे के साथ का आनंद, स्वच्छ वातावरण में खुलकर सांस लेना और समाज में शांति और प्रेम का संचार करना। अगर हम चाहते हैं कि हमारी अगली पीढ़ी सुरक्षित और स्वस्थ जीवन जी सके, तो आतिशबाज़ी को त्यागना ही होगा। सरकारें अपनी नीतियों से इस दिशा में पहल कर चुकी हैं, अदालत ने भी कठोर आदेश दिए हैं, अब बारी समाज की है कि वह अपनी सोच बदले और अपने त्योहारों को पटाखों के बिना भी और अधिक रोशन और सार्थक बनाए। एक नागरिक के तौर पर हमारी जिम्मेदारी व संवेदनशीलता ही हमें इस संकट से उबार सकता है। विगत में सख्त कानून लागू करने के बावजूद नागरिकों के गैर-जिम्मेदार व्यवहार से प्रदूषण का संकट बढ़ा ही है। जब हम प्रकृति को नुकसान पहुंचाए बिना त्योहार मनाएंगे, तभी सच्चे अर्थों में हमारे उत्सव जीवनदायी और सार्थक बनेंगे। यही समय है कि हम सामूहिक रूप से एक नई परंपरा गढ़ें, आतिशबाज़ी रहित त्योहारों की परंपरा, ताकि आने वाली पीढ़ियां हमें दोष न दें कि हमने उनके हिस्से की स्वच्छ हवा और सुरक्षित पर्यावरण छीन लिया।

    प्रसवोत्तर देखभाल: माँ का साथ सास से ज्यादा कारगर

    प्रसवोत्तर देखभाल:

    माँ की गोद में मिलती सुरक्षा, सास की भूमिका पर उठे सवाल

    अध्ययन बताते हैं कि प्रसव के बाद महिलाओं की देखभाल करने में सास की तुलना में उनकी अपनी माँ कहीं अधिक सक्रिय और संवेदनशील रहती हैं। लगभग 70 प्रतिशत प्रसूताओं को नानी से बेहतर सहयोग मिला, जबकि मात्र 16 प्रतिशत को सास से सहायता मिली। यह बदलाव संयुक्त परिवारों के टूटने और आधुनिक सोच का परिणाम है। नानी का भावनात्मक जुड़ाव और मातृत्व का अनुभव बेटी के लिए सहारा बनता है। हालांकि सास की भूमिका कमजोर पड़ना पारिवारिक संतुलन के लिए चुनौती है। ज़रूरी है कि माँ और सास दोनों मिलकर जिम्मेदारी निभाएँ।

    – डॉ. प्रियंका सौरभ

    भारतीय समाज में परिवार की भूमिका जीवन के हर पड़ाव पर महत्वपूर्ण होती है। जब घर में नया जीवन जन्म लेता है, तब यह जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है।  प्रसव एक ऐसा समय है जब महिला शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से बेहद कमजोर होती है। उसे सिर्फ चिकित्सकीय सहायता ही नहीं, बल्कि गहरे स्तर पर देखभाल, सहारा और संवेदनशीलता की ज़रूरत होती है। परंपरागत रूप से यह जिम्मेदारी संयुक्त परिवारों में सास की मानी जाती थी, लेकिन बदलते दौर और सामाजिक संरचना के कारण यह भूमिका अब धीरे-धीरे माँ यानी नानी की ओर स्थानांतरित हो रही है। हाल ही में किए गए एक अध्ययन में यह स्पष्ट हुआ है कि प्रसव के बाद महिलाओं को अपनी सास की तुलना में अपनी माँ से कहीं अधिक देखभाल और सहयोग मिलता है।

    यह तथ्य कई स्तरों पर सोचने को मजबूर करता है। एक ओर यह माँ और बेटी के रिश्ते की गहराई और भावनात्मक मजबूती को दर्शाता है, वहीं दूसरी ओर यह सवाल भी उठाता है कि सास जैसी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली महिला इस प्रक्रिया में पीछे क्यों रह गई है। अध्ययन में पाया गया कि प्रसवोत्तर देखभाल में लगभग 70 प्रतिशत महिलाओं को उनकी अपनी माँ से सहयोग मिला, जबकि मात्र 16 प्रतिशत महिलाओं की देखभाल उनकी सास ने की। यह आँकड़ा अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है।

    बेटी और माँ का रिश्ता हमेशा से भरोसे और आत्मीयता पर आधारित रहा है। प्रसव के बाद महिला अपने जीवन के सबसे नाजुक दौर से गुजरती है। उसका शरीर थका हुआ और कमजोर होता है, मानसिक रूप से वह असुरक्षा और चिंता का सामना करती है। ऐसे समय में वह सबसे पहले अपनी माँ के पास सहजता से जाती है। माँ न केवल उसकी तकलीफ को तुरंत समझती है बल्कि धैर्य और प्यार से उसका मनोबल भी बढ़ाती है। हर माँ ने मातृत्व का अनुभव किया होता है, इसलिए उसे पता होता है कि उसकी बेटी किन शारीरिक और मानसिक अवस्थाओं से गुजर रही है। यही वजह है कि बेटी अपनी असली माँ की देखभाल को सबसे भरोसेमंद मानती है।

    इसके विपरीत सास-बहू का रिश्ता भारतीय समाज में अक्सर औपचारिकताओं और अपेक्षाओं से घिरा होता है। बहू अपनी सास के सामने उतनी सहजता महसूस नहीं कर पाती। कई बार पीढ़ियों का अंतर भी इस दूरी को और बढ़ा देता है। सास का सोचने का तरीका पुराने अनुभवों पर आधारित होता है, जबकि आज की पीढ़ी की महिलाएँ आधुनिक चिकित्सा और नई जानकारी पर अधिक भरोसा करती हैं। जब बहू को लगे कि उसकी ज़रूरतों को पूरी तरह समझा नहीं जा रहा है, तो वह अपनी माँ की ओर झुक जाती है। यही वजह है कि प्रसव के समय सास की तुलना में नानी की भूमिका अधिक अहम दिखाई देती है।

    इस बदलाव के पीछे एक और बड़ा कारण है संयुक्त परिवारों का टूटना और एकल परिवारों का बढ़ना। पहले प्रसव के समय बहू अपने ससुराल में ही रहती थी और पूरे परिवार की महिलाएँ उसकी देखभाल करती थीं। सास इस देखभाल की मुख्य जिम्मेदार मानी जाती थी। लेकिन अब परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं। अधिकतर बेटियाँ प्रसव के समय मायके चली जाती हैं। वहाँ नानी स्वाभाविक रूप से जिम्मेदारी संभाल लेती है। यह प्रथा समाज में इतनी गहराई से जड़ पकड़ चुकी है कि अब यह लगभग सामान्य मान ली जाती है।

    यह बदलाव कई दृष्टियों से सकारात्मक भी है। प्रसव के बाद महिला को भावनात्मक सुरक्षा मिलना बहुत ज़रूरी है। जब उसके पास उसकी अपनी माँ होती है, तो उसे मानसिक सुकून मिलता है। कई शोध बताते हैं कि प्रसवोत्तर अवसाद का खतरा उन महिलाओं में कम होता है जिन्हें अपनी माँ से पर्याप्त सहयोग मिलता है। नानी के अनुभव का लाभ शिशु को भी मिलता है। शिशु को समय पर स्तनपान कराना, उसकी सफाई और टीकाकरण जैसे छोटे-छोटे लेकिन महत्वपूर्ण कामों में नानी की भूमिका बहुत कारगर साबित होती है। इस दृष्टि से देखा जाए तो यह प्रवृत्ति माँ और शिशु दोनों के स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है।

    लेकिन इस तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। जब सास की भूमिका कमजोर पड़ती है तो परिवारिक संतुलन प्रभावित होता है। बहू और सास के रिश्ते में दूरी और बढ़ सकती है। यह दूरी सिर्फ देखभाल तक सीमित नहीं रहती बल्कि परिवार की सामंजस्यपूर्ण संस्कृति पर भी असर डाल सकती है। आखिरकार सास भी खुद कभी इस प्रक्रिया से गुज़री होती है और उसके अनुभव की अहमियत को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। अगर उसका अनुभव और स्नेह इस प्रक्रिया में शामिल न हो, तो यह न केवल उसके लिए निराशाजनक होता है बल्कि बहू और शिशु दोनों उस सहयोग से वंचित रह जाते हैं जो उन्हें अतिरिक्त सुरक्षा दे सकता है।

    यहाँ यह समझना ज़रूरी है कि प्रसवोत्तर देखभाल किसी एक व्यक्ति की जिम्मेदारी नहीं है। यह पूरे परिवार की सामूहिक जिम्मेदारी है। अगर माँ और सास दोनों मिलकर इस दायित्व को निभाएँ, तो महिला को दोगुना सहयोग मिलेगा। यह स्थिति न केवल प्रसूता महिला के लिए बेहतर होगी बल्कि शिशु के लिए भी अधिक लाभकारी होगी। इसके अलावा, परिवार के भीतर रिश्तों की मिठास और विश्वास भी बढ़ेगा।

    समाज को भी यह समझना होगा कि प्रसव जैसे समय में महिला को सिर्फ शारीरिक मदद ही नहीं बल्कि मानसिक सहारा और भावनात्मक सहयोग भी चाहिए। अगर महिला को लगे कि उसकी सास भी उसके दर्द और ज़रूरतों को समझती है, तो उसका आत्मविश्वास और बढ़ेगा। इसी तरह, अगर सास-बहू के बीच संवाद और विश्वास का रिश्ता मजबूत हो, तो देखभाल का संतुलन अपने आप स्थापित हो जाएगा।

    आज जब स्वास्थ्य सेवाओं और सरकारी योजनाओं की पहुँच बढ़ रही है, तब परिवार की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। अस्पताल और डॉक्टर अपना काम कर सकते हैं, लेकिन प्रसवोत्तर देखभाल का असली दायित्व घर और परिवार पर ही रहता है। परिवार के भीतर यह जिम्मेदारी अगर संतुलित ढंग से बाँटी जाए तो इसका लाभ सीधा माँ और शिशु दोनों को मिलेगा।

    इसलिए यह आवश्यक है कि इस विषय पर जागरूकता बढ़ाई जाए। परिवारों को समझाया जाए कि प्रसवोत्तर देखभाल किसी प्रतिस्पर्धा का विषय नहीं है—यह माँ बनाम सास की लड़ाई नहीं है। बल्कि यह माँ और सास दोनों का संयुक्त दायित्व है। दोनों का अनुभव और स्नेह मिलकर प्रसूता महिला को वह सुरक्षा प्रदान कर सकता है, जिसकी उसे सबसे अधिक आवश्यकता होती है।

    “सास से ज्यादा माँ की देखभाल बेहतर” यह शीर्षक समाज में एक बदलते रुझान का दर्पण है। यह रुझान बताता है कि प्रसव जैसे संवेदनशील समय में महिला अपनी असली माँ को ज़्यादा भरोसेमंद और सहयोगी मानती है। लेकिन आदर्श स्थिति वही होगी जब सास और माँ दोनों मिलकर यह जिम्मेदारी निभाएँ। यह न केवल प्रसूता महिला के स्वास्थ्य और मानसिक शांति के लिए अच्छा होगा, बल्कि शिशु की परवरिश और परिवारिक रिश्तों के सामंजस्य के लिए भी लाभकारी सिद्ध होगा। आखिरकार, स्वस्थ माँ और स्वस्थ शिशु ही स्वस्थ समाज की नींव रखते हैं।

    दाह-क्रिया एवं श्राद्ध कर्म का विज्ञान

    प्रमोद भार्गव

         जीवन का अंतिम संस्कार अन्त्येष्टि संस्कार है। इसी के साथ जीवन का समापन हो जाता है। तत्पश्चात भी अपने वंश के सदस्य की स्मृति और पूर्वजन्म की सनातन हिंदू धर्म से जुड़ी मान्यताओं के चलते मृत्यु के बाद भी कुछ परंपराओं के निर्वहन की निरंतरता बनी रहती है। इसमें श्राद्ध क्रिया की निरंतरता प्रतिवर्ष रहती है। इस क्रिया को हम अपने दिवंगतों के प्रति आदर का भाव प्रकट करने का माध्यम भी कह सकते हैं। वैसे मृत्यु से लेकर श्राद्ध कर्म तक जो भी क्रियाएं अस्तित्व में हैं, उनके पीछे शरीर और प्रकृति का विज्ञान जुड़ा है, जिसे नकारा नहीं जा सकता है। श्राद्ध की मान्यता आत्मा के गमन से जुड़ी है। चूड़ामण्युनिशद् में कहा है कि ब्रह्म अर्थात ब्रह्मांड के अंश से ही प्रकाशमयी आत्मा की उत्पत्ति हुई है। इस आत्मा से आकाश , आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। इन्हीं पांच तत्वों के समन्वित रूप से मनुष्य व समस्त प्राणी जगत और ब्रह्मांड के सभी आयाम अस्तित्व में हैं। अतएव हिंदुओं के अन्त्येष्टि संस्कार में मृत शरीर को अग्नि में समर्पित करके पांचों तत्वों में विलीन करने की परंपरा है।

         आत्मा या शरीर के अंशों के इस विलय को संस्कृत में ‘प्रैती‘ कहा है। इसे ही बोलचाल की भाषा में ‘प्रेत‘ कहा जाने लगा। इसे ही धन के लालचियों ने भूत-प्रेत या अतीन्द्रीय शक्तियों की हानि पहुंचाने वाली मानसिक व्याधियों से जोड़ दिया। जबकि शरीर में आत्मा के साथ-साथ मन व प्राण भी होते हैं। आत्मा के अजर-अमर रहने वाले अस्तित्व को अब विज्ञान ने भी स्वीकार लिया है। मन और प्राण जब शरीर से मुक्त होते हैं, तब भी शरीर में इनका असर बना रहता है। इस कारण ये शरीर के चहूंओर भ्रमण करते रहते हैं। मन चंद्रमा का प्रतीक माना है। भारतीय दर्शन में इसीलिए स्थूल व सूक्ष्म शरीर की कल्पना कर विवेचना की गई है। पितृपक्ष की अवधि में ऐसी धारणा है कि मृतकों के सूक्ष्म अंश श्राद्ध की अवधि में परिजनों के इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं और श्राद्ध क्रिया से संतुष्ट होकर लौट जाते हैं। हालांकि संपूर्ण शरीर सत्रह सूक्ष्म इंद्रियों का आवास होता है। इनमें पांच कर्मेन्द्रियां, पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच प्राणेद्रियां, एक मन और एक बुद्धि हैं। यही इंद्रियां छह धातुओं त्वचा, रक्त, मांस, मेदा, मज्जा और अस्थि निर्मित स्थूल शरीर में प्रवेश कर उसे संपूर्ण बनाती हैं। अतएव स्थूल शरीर से जब ये सूक्ष्म इंद्रियां निकलती हैं, तब सूक्ष्म शरीर की रक्षा के लिए वायवीय अर्थात वायुचालित या काल्पनिक शरीर धारण कर लेती हैं। इसे ही प्रेत-संज्ञा दी गई है। यह वायु तत्व से प्रधान षरीर माया-मोह से मुक्त नहीं होने के कारण परिजनों के निकट भटकता रहता है। इसी प्रेतत्व से छुटकारे का उपाय दशगात्र एवं श्राद्ध आदि क्रियाएं हैं।

    हिंदुओं में दाहक्रिया के समय कपाल क्रिया प्रचलन में है। गरुड़़ पुराण के अनुसार शवदाह के समय मृतक की खोपड़ी को घी की आहुति देकर डंडे से प्रहार करके फोड़ा जाता है। चूंकि खोपड़ी का अस्थिरूपी कवच इतना मजबूत होता है कि सामान्य आग में वह आसानी से भस्मीभूत नहीं हो पाता है। इसलिए उसे घी डालकर टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाता है, जिससे यह भाग पूर्णरूप से पंचतत्वों में विलय हो जाए। इस क्रिया के प्रचलन से मान्यता जुड़ी है कि कपाल का भेदन हो जाने से प्राण तत्व पूरी तरह मुक्त हो जाते हैं और पुनर्जन्म की प्रक्रिया का हिस्सा बन जाते हैं। इस विशयक एक मान्यता यह भी है कि यदि मस्तिष्क का भाग अधजला रहेगा तो अगले जन्म में शरीर पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पाएगा। मस्तिष्क में ब्रह्मा का निवास माना गया है, जो ब्रह्मरंध्र में प्राण के रूप में स्थिर रहता है। ऐसा माना जाता है कि शिशु जब गर्भ में जीवन ग्रहण करता है तो वह इसी रंध्र से होकर भ्रूण के शरीर में प्रवेश पाता है। यह बिंदु सिर के सबसे ऊपरी भाग में होता है। इसी भाग पर चोटी रखने का विधान है। यह भाग अत्यंत मुलायम होता है। चूंकि जीवन इस छिद्र से होकर शरीर में प्रवेश करता है, इसलिए कपाल क्रिया के माध्यम से इसे संपूर्ण रूप से बाहर निकालने का विधान किया जाता है, जिससे शरीर में पूर्व की कोई स्मृति शेष न रह जाए। इसे भौतिक शरीर का एंटीना भी कह सकते हैं।

         इस ब्रह्मरंध्र का सबसे प्राचीन विज्ञान-सम्मत उल्लेख महाभारत में मिलता है। अश्वत्थामा जब पाण्डवों के वंशनास के लिए अभिमन्यु की गर्भवती पत्नी उत्तरा के गर्भ पर ब्रह्मास्त्र छोड़ देते हैं, तब उत्तरा की कोख से मृत शिशु जन्मता है। परंतु कृष्ण जब उस शिशु को हथेलियों में लेते हैं, तो उन्हें उसमें जीवन का अनुभव होता है। वे तुरंत शिशु के मुख में अपने मुख से वायु प्रवाहित करते हैं। इससे श्वास नली में स्थित काकुली में ब्रह्मरंध्र अवरुद्ध हो गया था, वह खुल गया और शिशु के प्राणों में चेतना लौट आई। ब्रह्मरंध्र तीव्र ध्वनि तरंगों के आवेग और क्रोध से अवरुद्ध हो जाता है।

    गंगा में अस्थियों के विसर्जन के पीछे भी विज्ञान सम्मत धारणा है। चूंकि अस्थियों में बड़ी मात्रा में फास्फोरस होता है, जो भूमि को उर्वरा बनाने का काम करता है। गंगा का प्रवाह आदिकाल से भूमि को उपजाऊ बनाए रखने के लिए उपयोगी रहा है। अतएव हड्डियों का गंगा में विसर्जन खाद का काम करता है। इससे तय होता है कि ऋषि -मुनियों ने अस्थियों में फास्फोरस उपलब्ध होने और उससे उपज अच्छी होने के महत्व को जान लिया था।  

         हिंदू धर्म में अंतिम संस्कार पुत्र से ही कराने की मान्यता है। दरअसल पुत्र चूंकि पिता के वीर्यांश से उत्पन्न है, अतएव वह पिता का प्रतिनिधित्व करने का वाहक भी है। ब्रह्मा ने बालक को पुत्र कहा है। मनुस्मृति में ‘पुं‘ नामक नरक से ‘त्र‘ त्राण दिलाने वाले प्राणी को ‘पुत्र‘ कहा है। इसी नाते यह पिंडदान एवं श्राद्धादि कर्म का दायित्व पुत्र पर है। हालांकि पुत्र नहीं होने पर पुत्री से भी ये संस्कार कराए जा सकते हैं। चूंकि हिंदु दर्शन मानता है कि मृत्यु के साथ मनुष्य का पूर्णतः अंत नहीं होता है। मृत्यु द्वारा आत्मा शरीर से पृथक हो जाती है और वायुमंडल में विचरण करती है। हालांकि यही आत्मा मनुष्य के जीवित रहते हुए भी स्वप्न-अवस्था में शरीर से अलग होकर भ्रमण करती है, लेकिन शरीर से उसका अंतर्सबंध बना रहता है। रुग्णावस्था में भी आत्मा और शरीर का अलगाव बना रहता है। लेकिन मृत्यु के बाद आत्मा पूर्णतः पृथक हो जाती है। ऋग्वेद में कहा भी गया है कि ‘जीवात्मा अमर है और प्रत्यक्षतः नाशवान है। इसे ही और विस्तार से श्रीमद्भगवद्गीता में उल्लेखित करते हुए कहा है, आत्मा किसी भी काल में न तो जन्मती है और न ही मरती है। जिस तरह से मनुश्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण कर लेता है, उसी अनुरूप जीवात्मा मृत शरीर त्याग कर नए शरीर में प्रवेश कर जाती है।

         आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म की धारणा को अब वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध कर दिया है। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के गणित व भौतिकी के प्राध्यापक सर रोगर पेनरोज और एरीजोन विवि के भौतिक विज्ञानी डाॅ स्टूअर्ट हामराॅफ ने दो दशक अध्यरत रहने के बाद स्वीकारा है कि ‘मानव-मस्तिष्क एक जैविक कंप्युटर की भांति है। इस जैविक संगणक की पृष्ठभूमि में अभिकलन (प्रोग्रामिंग) आत्मा या चेतना है, जो दिमाग के भीतर उपलब्ध एक कणीय (क्वांटम) कंप्युटर के माध्यम में संचालित होती है। इससे तात्पर्य मस्तिश्क कोषिकाओं में स्थित उन सूक्ष्म नलिकाओं से है, जो प्रोटीन आधारित अणुओं से निर्मित हैं। बड़ी संख्या में ऊर्जा के सूक्ष्म सा्रेत अणु मिलकर एक क्वांटम क्षेत्र तैयार करते हैं, जिसका वास्तविक रूप चेतना या आत्मा है। जब व्यक्ति दिमागी रूप से मृत्यु को प्राप्त होने लगता है, तब ये सूक्ष्म नलिकाएं क्वांटम क्षेत्र खोने लगती हैं। परिणामतः सूक्ष्म ऊर्जा कण मस्तिष्क की नलिकाओं से निकलकर ब्रह्मांड में चले जाते हैं। यानी आत्मा या चेतना की अमरता बनी रहती है।

         इसी क्रम में प्रसिद्ध परामनोवैज्ञानिक डाॅ रैना रूथ ने पदार्थगत रूपांतरण को ही पुनर्जन्म माना है। उनका कहना है कि पदार्थ और ऊर्जा दोनों ही परस्पर परिवर्तनशील हैं। ऊर्जा नष्ट नहीं होती, परंतु रूपांतरति व अदृश्य हो जाती है। इसीलिए डीएनए यानी महारसायन मृत्यु के बाद भी संस्कारों के रूप में अदृष्य अवस्था में उपस्थित रहता है और नए जन्म के रूप में पुनः अस्तित्व में आ जाता है। हमें जो विलक्षण प्रतिभाएं देखने में आती हैं, वे पूर्वजन्म के संचित ज्ञान का ही प्रतिफल होती हैं। अतएव कहा जा सकता है कि जीवात्मा वर्तमान जन्म के संचित संस्कारों को साथ लेकर ही अगला जन्म लेती है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जींस (डीएनए) में पूर्वजन्म या पैतृक संस्कार मौजूद रहते हैं, इसी शेष से निर्मित नूतन सरंचना के चैतन्य अर्थात प्रकाशकीय भाग को प्राण कहते हैं। आधुनिक विज्ञान तो जीवन-मृत्यु के रहस्य को आज समझ पाया है, किंतु हमारे ऋषि -मुनियों ने हजारों साल पहले ही श रीर और आत्मा के इस विज्ञान को समझकर विभिन्न संस्कारों से जोड़ दिया था, जिससे रक्त संबंधों की अक्षुण्ण्ता जन्म-जन्मांतर स्मृति पटल पर अंकित रहे।

    श्राद्ध पक्ष में कौओं का भोजन

         बरगद और पीपल के वृक्षों को देववृक्ष माना जाता है। क्योंकि वे हमें प्राणवायु अर्थात आॅक्सीजन और रोगमुक्त शरीर के लिए औषधियां देते हैं। इन सब के लिए इन पेड़ों का अस्तित्व बनाए रखना है तो कौओं को श्राद्ध पक्ष में खीर-पुड़ी खिलाने होंगे। श्राद्ध पक्ष में पंचबति अर्थात पांच जीवों को आहार कराने की परंपरा है। इनमें एक काल बलि यानी कौवों को भोजन कराने की परंपरा है। इन दोनों वृक्षों के फल कौवे खाते हैं। इनके उदर में ही इन फलों के बीज अंकुरित होने की स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं। कौवे जहां-जहां बीट करते हैं, वहां-वहां पीपल और बरगद उग आते हैं। इसीलिए ये वृक्ष पुराने मकानों की दीवारों पर भी उगते देखने में आ जाते हैं। मादा कौवा सावन-भादों यानी अगस्त-सितंबर में अंडे देती है। इन्हीं माहों में श्राद्ध पक्ष पड़ता है। इसीलिए ऋषि -मुनियों ने कौवों को पौष्टिक आहार खिलाने की परंपरा श्राद्ध पक्ष से जोड़ दी, जो आज भी प्रचलन में है। दरअसल इस मान्यता की पृष्ठ भूमि में बरगद और पीपल वृक्षों की सुरक्षा जुड़ी है, जिससे मनुष्य को 24 घंटे आॅक्सीजन मिलती रहे।

    कहकशां नहीं, कहर है बारिश का: प्रकृति का उग्र चेहरा

    मानव की इच्छाओं का कोई अंत नहीं है और आज मानव अपनी इच्छाओं, लालच और सुविधाओं की अंधी दौड़ में प्रकृति के संतुलन को लगातार बिगाड़ता चला जा रहा है और इसका परिणाम मानव को किसी न किसी रूप में भुगतना पड़ रहा है। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई, अनियंत्रित विकास कार्य, खनिजों व जल का अंधाधुंध दोहन,अधिक ऊर्जा का उपयोग, जीवाश्म ईंधनों का दहन, वन्यजीवों का विनाश, अनियंत्रित मानवीय गतिविधियां आदि कुछ कारण हैं,जो प्रकृति का विनाश कर रहे हैं।प्रकृति से खिलवाड़ के दुष्परिणाम यह हो रहें हैं इससे धरती पर विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि, स्वास्थ्य समस्याएँ जैसे अस्थमा, एलर्जी, कैंसर आदि, जल संकट और खाद्य संकट, मानसिक तनाव और जीवन की गुणवत्ता में गिरावट के साथ ही साथ जैव विविधता का नुकसान हो रहा है। यदि यूं ही सब चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं, जब मानव कहीं का नहीं रहेगा।इस साल 5 अगस्त 2025 को उत्तरकाशी के धराली और सुक्खी टॉप में बादल फटने की घटना हुई।बादल फटने के कारण यहां मूसलधार बारिश हुई, जिससे भारी बाढ़ आई और इस त्रासदी में कम से कम 5 लोगों की मृत्यु, 50 से अधिक लोग लापता, 40-50 घर और 50 होटल बह गए।इसी प्रकार से थराली, चमोली में भी 23 अगस्त 2025 को रात के समय बादल फटने से मूसलधार बारिश हुई, जिससे मलबे के साथ बाढ़ आई, जिसमें एक व्यक्ति की मृत्यु, एक व्यक्ति लापता तथा कई घर, दुकानें और सड़कें मलबे से प्रभावित हुईं। इसके बाद देहरादून के सहस्त्रधारा और मालदेवता में 16 सितंबर 2025 को बादल फटा। जानकारी के अनुसार वहां रातभर की मूसलधार बारिश के कारण बादल फटा, जिससे बाढ़ आई और इससे कम से कम 4 लोगों की मृत्यु, 16 लोग लापता, कई दुकानें और वाहन बह गए।यह भी खबरें आईं हैं कि टोंस नदी में बहने से 15 मजदूरों की मौत हो गई।इसी दिन हरिद्वार, टिहरी और नैनीताल में भी मूसलधार बारिश के कारण नदियाँ उफान पर आ गईं, और कई स्थानों पर भूस्खलन और जलभराव हुआ, जिससे कई सड़कें अवरुद्ध हो गई, फसलों और घरों को नुकसान पहुंचा, तथा कई लोग फंस गए। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि हिमालयी क्षेत्र में बार-बार बादल फटने की घटनाएं हो रहीं हैं।यह दर्शाता है कि आज मानसून की प्रकृति में पहले की तुलना में काफी बदलाव आ चुके हैं और यह कहीं न कहीं जलवायु परिवर्तन का प्रभाव है।इस साल हिमाचल, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर, पंजाब समेत देश के विभिन्न राज्यों में प्रकृति का प्रकोप देखने को मिला और यह अचानक से हुई घटनाएं नहीं हैं, अपितु कहीं न कहीं मानव को प्रकृति का एक संकेत है कि यदि हम अभी भी नहीं संभले तो आने वाले समय में हमें प्रकृति के और भी रौद्र रूप का सामना करना पड़ेगा। दरअसल, पहाड़ी क्षेत्रों में पहाड़ों से टकराकर हवा ऊपर उठती है। इससे नमी तेजी से संघनित होती है और छोटे क्षेत्र में अधिक पानी जमा हो जाता है। यही बादल फटने का बड़ा कारण है। अत्यधिक नमी और गर्म हवा का मिलना, हवा का संतुलन बिगड़ना, जलवायु परिवर्तन तथा वनों की कटाई और निर्माण बादल फटने के अन्य कारण हैं। हाल ही में देहरादून में अतिवृष्टि से तमसा, कारलीगाड़, टोंस व सहस्रधारा में जलस्तर बढ़ने से आसपास के घरों और दुकानों इत्यादि में एकाएक पानी तर गया। मीडिया में उपलब्ध जानकारी के अनुसार ऋषिकेश की चंद्रभागा नदी भी उफान पर है। यहां यह उल्लेखनीय है कि इस साल देहरादून में सितंबर में हुई बारिश ने बीते कई दशकों का रिकॉर्ड तोड़ दिया है, और इस बार पूरे उत्तराखंड में आसमान से आफत बरसाने में मानसून ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। पाठकों को बताता चलूं कि इस साल यानी कि 2025 में भारत में मानसून सीजन (जून से सितंबर) में सामान्य से अधिक बारिश हुई है, जो दीर्घकालिक औसत का लगभग 105% रही है। हालांकि,बारिश की मात्रा राज्य दर राज्य भिन्न रही है, लेकिन पहाड़ी राज्यों में भारी बारिश ने कहर बरपाया है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्री-मॉनसून अवधि (1 मार्च से 31 मई) में 185.8 मिमी वर्षा दर्ज की गई, जो सामान्य से 42% अधिक थी। जानकारी के अनुसार जून 2025 महीने में 180 मिमी वर्षा हुई, जो सामान्य 165.3 मिमी से 8.89% अधिक थी।इसी प्रकार से अगस्त 2025 के दौरान दिल्ली में 400.1 मिमी वर्षा दर्ज की गई, जो सामान्य 233.1 मिमी से 72% अधिक थी। पंजाब और हरियाणा का हाल किसी से छिपा नहीं हुआ है कि वहां पर किस कदर बारिश ने कहर बरपाया है। राजस्थान भी भारी बारिश का शिकार बना। आंकड़े बताते हैं कि 1 जून – 14 सितंबर 2025 तक पंजाब में 617.1 मिमी वर्षा दर्ज की गई, जो सामान्य 409.7 मिमी से 51% अधिक है। इसी अवधि में हरियाणा में 145% अधिक वर्षा हुई, जो सामान्य 409.7 मिमी से अधिक है।राजस्थान में इस अवधि में 436.7 मिमी वर्षा दर्ज की गई, जो सामान्य 435.6 मिमी से अधिक है। सच तो यह है कि 2025 में भारत में बारिश की अत्यधिक घटनाएँ मुख्य रूप से जलवायु परिवर्तन, मानसून की अनियमितता, और अन्य मौसमीय कारकों के संयोजन के कारण हुईं। विशेषकर पंजाब, हरियाणा, और राजस्थान में यह स्थिति अधिक गंभीर रही, जिससे व्यापक बाढ़, फसल क्षति, और जनजीवन प्रभावित हुआ। मैदानी क्षेत्र तो मैदानी क्षेत्र, पहाड़ों को बारिश ने बुरी तरह से प्रभावित किया। दरअसल, हिमालयी क्षेत्र की भौगोलिक बनावट और नाजुक पारिस्थितिकीय तंत्र इस क्षेत्र को प्राकृतिक आपदाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील बनाते हैं। मौसम विभाग ने हाल फिलहाल उत्तराखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, पूर्वोत्तर राज्यों, कर्नाटक से लेकर तमिलनाडु तक भारी बारिश के दौर के जारी रहने की संभावनाएं जताई हैं। बहरहाल, यहां यह कहना ग़लत नहीं होगा कि बादल फटने की घटनाएं भू-स्खलन और बाढ़ का कारण बनती हैं और साथ ही, स्थानीय समुदायों, बुनियादी ढांचे और आजीविका को भी भारी नुकसान पहुंचाती हैं। आज प्रकृति में निरंतर बदलाव आ रहें हैं और इसके लिए कहीं न कहीं मनुष्य और उसकी गतिविधियां जिम्मेदार हैं। अतः जरूरत इस बात की है कि हम प्रकृति का सम्मान करें,उसकी रक्षा व संरक्षण करें। इसके लिए हमें अधिक से अधिक पेड़ लगाने होंगे और जंगलों की रक्षा करनी होगी।पानी और ऊर्जा का सावधानी से उपयोग करना होगा। प्रदूषण कम करने के लिए पर्यावरण अनुकूल जीवनशैली को अपनाना होगा। प्लास्टिक का कम से कम उपयोग करना होगा और प्लास्टिक के विकल्प तलाशने होंगे।जैव विविधता की रक्षा में सहयोग करना होगा। इतना ही नहीं, सबसे बड़ी बात यह है कि हमें जलवायु परिवर्तन पर जागरूकता फैलानी होगी। वास्तव में  उत्तराखंड, हिमाचल इत्यादि राज्यों में जो दृश्य हाल के दिनों में दिख रहे हैं, वे एक चेतावनी हैं कि हमारी नीतियां और तैयारियां, दोनों ही इस खतरे के सामने अपर्याप्त हैं। इस वर्ष समय से पहले आए मानसून ने हिमालय से सटे राज्यों के अलावा पंजाब जैसे मैदानी क्षेत्रों और देश की राजधानी समेत आसपास के क्षेत्रों को भी नहीं बख्शा। लिहाजा इन आपदाओं से निपटने के लिए तात्कालिक और दीर्घकालिक उपायों की आवश्यकता है। इतना ही नहीं, हमें मौसम पूर्वानुमान और प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों को भी अधिक मजबूत बनाने की दिशा में काम करने की आवश्यकता है। आपदा प्रबंधन और प्रभावित व्यक्तियों के पुनर्वास पर भी हमें ध्यान देना होगा।इतना ही नहीं, स्थानीय जनता को मौसम विभाग की भविष्यवाणी और सूचनाओं के प्रति जागरूक बनाने के लिए बहुस्तरीय प्रयास किए जा सकते हैं। मौसम विभाग से प्राप्त जानकारी को सरल भाषा में समझाकर साझा किया जाए, ताकि आमजन सतर्क हो सके। साथ ही साथ गलत सूचनाओं को तुरंत खंडित करने के लिए प्रशासन और मीडिया के बीच समन्वय स्थापित होना चाहिए। पंचायत, नगर निगम, स्वयंसेवी संगठन, धार्मिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों को जागरूकता अभियान में शामिल किया जाना चाहिए। हिमालयी क्षेत्र में निर्माण गतिविधियों पर भी स्थानीय प्रशासन और लोगों को अपनी नज़र रखनी होगी, क्यों कि अवैध निर्माण के कारण अनेक प्रकार की दिक्कतों और परेशानियों का सामना स्थानीय जनता को करना पड़ता है।ताजा आपदा हमें यह याद दिलाती है कि प्रकृति के साथ खिलवाड़ की कीमत बहुत भारी हो सकती है। हमें यह चाहिए कि हम प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करें और प्रकृति के नियमों का सम्मान करें। हमें यह चाहिए कि हम विभिन्न प्राकृतिक संसाधनों काआवश्यकता अनुसार उपयोग करें, न कि असीमित दोहन।वन, जल, मिट्टी, हवा, पशु-पक्षी सबकी रक्षा करना हमारा नैतिक कर्तव्य और जिम्मेदारी है।विकास करते समय हम पर्यावरणीय संतुलन का ध्यान रखें और अपनी जीवनशैली को प्रकृति अनुकूल बनाना सीखें, तभी वास्तव में हम प्रकृति के रौद्र रूप से बच सकते हैं।

    नेपाल जनविद्रोह: ये तो होना ही था

                                                                     निर्मल रानी

    बिहार में दरभंगा-जयनगर के रास्ते 5 वर्ष पूर्व नेपाल जाने का अवसर मिला था ।  भारत नेपाल के सीमावर्ती नेपाली शहर जनकपुर के बीचोबीच देवी सीता को समर्पित हिन्दू-राजपूत वास्तुकला का एक प्रसिद्ध हिन्दू मन्दिर एवं ऐतिहासिक स्थल है जिसे राम जानकी मंदिर के नाम से जाना जाता है। मेरे नेपाल प्रवास के उस दौर में जयनगर से लेकर जनकपुर तक की पूरी सड़क पर अधिकांश क्षेत्र में सिर्फ़ मिटटी पड़ी हुई थी। केवल कहीं कहीं बजरी पड़ी दिखाई देती थी। डामर रोलर और काली सड़कों का तो कहीं दूर तक नामो निशान ही नहीं था। रास्ते में कहीं बस का पहिया ज़मीन में धंसा दिखाई दे रहा था तो कहीं थ्री व्हीलर उल्टी पड़ी थी। बसों का तो आलम यह था कि टूटे शीशे व खिड़कियां, टूटी कष्टदायक सीटें,गोया कबाड़ख़ाने से लाकर बसें चलाई जा रही हों। जनकपुर जैसे प्रसिद्ध तीर्थस्थल व पर्यटन नगरी की शहर की सड़कों में गड्ढे,बदबूदार और रुकी हुई नालियां ,शहर में खाने पीने का उपयुक्त होटल नहीं। जिस होटल में ठहरना हुआ उस होटल के प्रबंधक ने दोपहर क़रीब 12 बजे होटल में पहुँचने पर पहले ही बता दिया कि लाइट नहीं आ रही है रात 8 बजे आयेगी,रूम बुक कराना हो तो कराइये वरना तशरीफ़ ले जाइये। जब होटल प्रबंधक से नेपाल की इस दुर्दशा के बारे में पूछा तो उसने एक ही बात कही। ‘भ्रष्टाचार तो भारत में भी है परन्तु वहां 50 प्रतिशत खाकर 50 प्रतिशत तो लगा ही देते होंगे। मगर हमारे नेपाल में तो 90 प्रतिशत खा जाते हैं केवल 10 प्रतिशत ही किसी योजना में लगाते हैं।’ उसी दिन यह एहसास हो गया था कि एक न एक दिन पानी सिर से ऊपर होगा और आज नहीं तो कल इसी नेपाल में भ्रष्टाचार के विरुद्ध विद्रोह ज़रूर पनपेगा। 

                      ख़ैर, नेपाल में लंबे समय से चली आ रही राजनीतिक अस्थिरता, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद,आर्थिक असमानता, युवा बेरोज़गारी के विरुद्ध आख़िरकार जनविद्रोह फूट ही पड़ा। सोशल मीडिया पर लगाये गये प्रतिबंध यानी युवाओं की सत्ता विरोधी आवाज़ को दबाने का सरकारी प्रयास इस हिंसक जनविद्रोह का बहाना बना। 8 सितंबर 2025 को शुरू हुये इस  जनविद्रोह में राजधानी काठमांडू सहित नेपाल के अन्य प्रमुख शहरों में हज़ारों युवा सड़कों पर उतर आए। आंदोलनकारियों ने सरकार की भ्रष्ट नीतियों के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी की, जो जल्दी ही हिंसक हो गई। प्रदर्शनकारियों ने राजधानी काठमांडू स्थित संसद भवन,सरकारी प्रशासनिक मुख्यालय,सिंह दरबार,प्रधानमंत्री कार्यालय, मंत्रालयों और संसदीय कार्यालयों के परिसर ,सुप्रीम कोर्ट भवन,राष्ट्रपति भवन,राष्ट्रपति राम चंद्र पौडेल के निवास,नेपाली कांग्रेस पार्टी मुख्यालय,कम्युनिस्ट पार्टी मुख्यालय, निवर्तमान प्रधानमंत्री ओली के पार्टी मुख्यालय,5 सितारा हिल्टन होटल,नेपाल के सबसे बड़े मीडिया समूह कांतिपुर मीडिया हाउस,स्वास्थ्य एवं जनसंख्या मंत्रालय भवन, तथा प्रांतीय विधानसभा भवन जैसी प्रमुख इमारतों को आग के हवाले कर दिया। काठमांडू की इन इमारतों के अलावा भी देशभर में अनेक सरकारी कार्यालयों, पुलिस स्टेशनों और नेताओं के घरों को निशाना बनाया गया। इस दौरान त्रिभुवन अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा अस्थायी रूप से बंद रहा, और गौतम बुद्ध अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा को भी क्षति पहुंची । इन्हीं हिंसक वारदातों में मृतकों की संख्या 51 पार कर गई। इनमें 21 प्रदर्शनकारी, नौ क़ैदी , तीन पुलिस अधिकारी और 18 अन्य शामिल हैं। प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली ने इस्तीफ़ा दे दिया। सेना को कर्फ़यु लगाकर सड़कों पर तैनात किया गया। कई मंत्रियों व उद्योगपतियों के घर कार्यालय व संस्थान आग के हवाले कर दिये गये। नेपाल में चले इन विरोध प्रदर्शनों के बाद आंदोलनकारियों की सहमति से सुशीला कार्की को नेपाल की पहली महिला प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया। 

                   इस आंदोलन की आग में भी शातिर राजनीतिज्ञ अपनी अपनी रोटियां सेकने की कोशिश करते दिखाई दिये। जहाँ तक राजनैतिक विश्लेषकों का सवाल है तो कोई इसे हिन्दू राष्ट्र का पक्षधर जन विद्रोह साबित करना चाह रहा है तो कोई इसे राजशाही की वापसी का संकेत बता रहा है। कोई इसमें अमेरिकी षड़यंत्र की गंध महसूस कर रहा है तो कोई इसे चीनी साज़िश महसूस कर रहा है। परन्तु हक़ीक़त यही है कि चाहे वह नेपाल में 240 वर्षों की पुरानी शाह वंश की राजशाही परंपरा रही हो या उसके बाद 28 मई, 2008 को स्थापित हुआ 17 वर्ष पुराना गणतंत्र। किसी भी दौर में नेपाल के समग्र विकास पर कोई भी काम नहीं हुआ। हद तो यह है कि सड़क बिजली पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं पर भी नेपाल किसी ज़माने में भारत पर ही पूरी तरह आश्रित रहा करता था। नेपाल का बेरोज़गार आज बड़ी संख्या में भारत में काम करता व काम की तलाश में आता दिखाई देता है। 

                सही पूछिए तो राजधानी काठमांडू के सिवा किसी प्रान्त शहर या ज़िले का नाम भी भारत या अन्य देशों के आम लोग नहीं जानते। आम लोगों को यह भी नहीं पता कि नेपाल 7 अलग अलग प्रांतों में बंटा हुआ कुल 77 ज़िलों का देश है। इस अनभिज्ञता  का कारण यही है कि राजशाही से लेकर गणतांत्रिक सरकारों तक ने केवल राजधानी काठमांडू के विकास व इसके सौंदर्यीकरण पर ही ज़ोर दिया। प्रायः सभी अंतर्राष्ट्रीय आयोजन काठमांडू में ही हुआ करते थे। वैसे भी काठमांडू की प्रसिद्धि का कारण राजधानी होने के अतिरिक्त वहां का विश्व प्रसिद्ध पशुपतिनाथ मंदिर भी है। इसलिये नेपाल का कोई अन्य ज़िला या शहर न तो विकसित हो पाया न ही प्रसिद्धि प्राप्त कर सका। इसे पूरे नेपाल के प्रति शाह घराने से लेकर गणतांत्रिक व्यवस्था संचालित करने वाले सभी राजनैतिक दलों के राजनेताओं तक की उदासीनता नहीं तो और क्या कहें ?

               श्री लंका व बांग्लादेश के बाद अब नेपाल में भड़का विद्रोह दुनिया के हर उन भ्रष्ट व बेलगाम सत्ताधीशों के लिये चेतावनी है जोकि जनता के मतों के बल पर उन्हें सुनहरे सपने दिखाकर सत्ता में तो आ जाते हैं परन्तु उसके बाद जनसरोकारों की बात करने के बजाये अपने सगे सम्बन्धियों को फ़ायदा पहुँचाने में जुट जाते हैं। जनता सब देखती व समझती है कि किस तरह सत्ता मिलते ही नंगे भूखे राजनेता करोड़पति व अरबपति बन जाते हैं। किस तरह उनका अहंकार चौथे आसमान पर पहुँच जाता है। जनता देखती है कि किसतरह जनसमस्याओं से ध्यान भटका कर व्यर्थ के भावनात्मक मुद्दे उछालकर उन्हें वरग़लाया जाता है। और जब इसी जनता के सिर के  ऊपर से पानी बहने लगता है फिर वही होता है जो नेपाल में हुआ। चूँकि नेपाल भी दशकों से भ्रष्टाचार,बेरोज़गारी व भाईभतीजावाद का शिकार था इसलिये नेपाल में एक न एक दिन जनविद्रोह तो होना ही था। 

    बार-बार दोहराई गई त्रासदी, बाढ़ प्रबंधन क्यों है अधूरा सपना?

    पानी से नहीं, नीतियों से हारी ज़िंदगी”

    हरियाणा और उत्तर भारत के कई राज्य बार-बार बाढ़ की विभीषिका झेलते हैं, लेकिन हर बार नुकसान झेलने के बावजूद स्थायी समाधान की दिशा में ठोस पहल नज़र नहीं आती। 2023 की बाढ़ के बाद भी करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद नदियों की सफाई, नालों की निकासी और जल प्रबंधन की योजनाएं अधूरी पड़ी रहीं। नतीजा यह कि 2025 में एक बार फिर लाखों किसान अपनी मेहनत की फसल डूबते देख मजबूर हुए। सवाल यह है कि जब बाढ़ का खतरा बार-बार दस्तक देता है तो हमारी नीतियां क्यों स्थायी हल नहीं तलाश पातीं?

    – डॉ सत्यवान सौरभ

    हरियाणा में 2025 की बाढ़ कोई अप्रत्याशित प्राकृतिक आपदा नहीं थी। यह वही त्रासदी है, जिसकी पुनरावृत्ति राज्य 1978, 1988, 1995, 2010 और हाल ही में 2023 में झेल चुका है। आंकड़े चौंकाने वाले हैं। केवल पिछले दो वर्षों में 657 करोड़ रुपये बाढ़ प्रबंधन पर खर्च किए गए, फिर भी इक्कीस जिलों के सैकड़ों गांव पानी में डूबे रहे, साढ़े चार लाख से अधिक किसानों की छब्बीस लाख एकड़ से ज्यादा फसल बर्बाद हो गई, हजारों परिवार बेघर हो गए और तेरह लोगों की जान चली गई। हर बार यह सवाल उठता है कि आखिर सरकारें और तंत्र क्यों एक ही गलती बार-बार दोहराते हैं और पिछले अनुभवों से सबक क्यों नहीं लेते।

    बाढ़ कोई अचानक आई विपत्ति नहीं है, बल्कि एक अनुमानित और बार-बार आने वाला खतरा है। नदियों का उफान, बरसाती नालों का रुख बदलना और निकासी व्यवस्था का ध्वस्त होना ऐसी समस्याएं हैं, जो पहले से ज्ञात हैं और जिनका समाधान वर्षों से टलता आ रहा है। 2023 की बाढ़ के बाद सरकार ने बड़े दावे किए थे कि स्थायी समाधान के लिए ड्रेनेज सुधार, तटबंध मजबूत करने और नालों की गहराई बढ़ाने का काम प्राथमिकता पर होगा। लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि अधिकांश योजनाएं अधूरी रहीं और जो शुरू हुईं वे भ्रष्टाचार या लापरवाही की भेंट चढ़ गईं।

    इस अव्यवस्था का सबसे गहरा असर किसानों पर पड़ा है। खरीफ सीजन की धान, बाजरा और गन्ने जैसी फसलें पूरी तरह चौपट हो गईं। औसतन एक किसान को प्रति एकड़ पंद्रह से बीस हजार रुपये का नुकसान हुआ। इसके साथ ही पशुधन की मौतें, घरों के ढहने और बुनियादी ढांचे के टूटने से हालात और बिगड़ गए। उद्योग जगत भी इससे अछूता नहीं रहा। अंबाला और यमुनानगर जैसे औद्योगिक क्षेत्रों में कारखानों और गोदामों में पानी भर गया, जिससे करोड़ों का नुकसान हुआ और हजारों मजदूर रोजगार से वंचित हो गए।

    इस स्थिति के पीछे प्रशासनिक लापरवाही सबसे बड़ा कारण है। हरियाणा सरकार के पास न तो गांव-स्तरीय निकासी योजना है और न ही कोई स्थायी रणनीति। मानसून से पहले नालों की सफाई करने की बजाय दिखावटी काम किए जाते हैं। कई जगह ड्रेनेज सिस्टम सालों से जाम पड़े हैं। करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद नदियों और नालों का प्रवाह जस का तस है। इसके अलावा सिंचाई विभाग, आपदा प्रबंधन विभाग और स्थानीय निकायों के बीच तालमेल का अभाव स्थिति को और गंभीर बना देता है। हर विभाग अपने-अपने दायरे में काम करता है, लेकिन समन्वय के अभाव में कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आता।

    जल प्रबंधन विशेषज्ञों का मानना है कि बाढ़ पर काबू पाने के लिए व्यापक और दीर्घकालिक रणनीति बनाना अनिवार्य है। डॉ. शिव सिंह राठ जैसे विशेषज्ञ स्पष्ट कहते हैं कि नदियों की नियमित ड्रेजिंग, बरसाती नालों का वैज्ञानिक पुनर्निर्माण और गांव स्तर तक जल निकासी प्रणाली का निर्माण ही स्थायी समाधान दे सकता है। पर्यावरणविदों का भी यही तर्क है कि नदियों के तटों पर अनियंत्रित अतिक्रमण और अवैध निर्माण बाढ़ की विभीषिका को और बढ़ा देते हैं। जब तक नदियों को उनका प्राकृतिक बहाव नहीं लौटाया जाएगा, तब तक यह त्रासदी बार-बार लौटकर आती रहेगी।

    किसानों और आम लोगों की पीड़ा आंकड़ों से कहीं ज्यादा गहरी है। हजारों परिवार महीनों तक राहत शिविरों में रहने को मजबूर हो जाते हैं। बच्चों की पढ़ाई बाधित होती है, महिलाओं और बुजुर्गों की सेहत बिगड़ती है और मजदूर वर्ग बेरोज़गारी का शिकार हो जाता है। इस बार भी छह हजार से ज्यादा गांव पानी में डूबे और करीब अट्ठाईस सौ लोग विस्थापित हुए। कल्पना कीजिए, जब इतनी बड़ी संख्या में लोग अपने घर-बार से उजड़ते हैं, तो उनकी मानसिक और सामाजिक स्थिति किस हद तक डगमगा जाती होगी।

    सबसे बड़ा सवाल यही है कि जब 2010 और 2023 जैसी बड़ी बाढ़ें आ चुकी थीं, तो 2025 में वही गलती दोहराने का औचित्य क्या था। असल कारण साफ हैं। राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ने इस मुद्दे को कभी चुनावी एजेंडा नहीं बनने दिया। सरकारों का दृष्टिकोण हमेशा अल्पकालिक रहा। हर साल राहत और पुनर्वास पर खर्च होता रहा, लेकिन स्थायी संरचनाओं पर निवेश नहीं हुआ। इसके साथ ही भ्रष्टाचार और संसाधनों की बर्बादी ने हालात और बदतर कर दिए।

    अगर सचमुच स्थायी समाधान चाहिए तो राज्य को ठोस कदम उठाने होंगे। एक स्वतंत्र नदी प्रबंधन आयोग का गठन करना होगा, जो नदियों और नालों की सफाई, तटबंध निर्माण और निगरानी जैसे काम नियमित रूप से करे। हर पंचायत स्तर पर ड्रेनेज योजना तैयार की जानी चाहिए और उसका कड़ाई से पालन सुनिश्चित होना चाहिए। तकनीक का इस्तेमाल करते हुए सैटेलाइट मैपिंग, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधारित पूर्वानुमान और रीयल-टाइम मॉनिटरिंग सिस्टम लागू करना होगा। स्थानीय लोगों की भागीदारी से नालों की सफाई और तटबंधों की देखरेख सुनिश्चित करनी होगी। और सबसे महत्वपूर्ण यह कि राहत पैकेज पर अरबों रुपये खर्च करने के बजाय स्थायी ढांचे और संरचनाओं पर निवेश किया जाना चाहिए।

    दरअसल बाढ़ केवल प्राकृतिक आपदा नहीं है, यह मानवीय लापरवाही और नीतिगत असफलता का परिणाम भी है। हरियाणा ने नौ बार बाढ़ झेली, लेकिन हर बार केवल आंकड़े गिनने और वादे करने तक ही बात सीमित रही। किसानों की पीड़ा, उद्योगों का नुकसान और विस्थापित परिवारों की त्रासदी हमें यह बताती है कि अब आधे-अधूरे उपायों से काम नहीं चलेगा। सरकार और समाज को मिलकर व्यापक, वैज्ञानिक और दीर्घकालिक बाढ़ प्रबंधन नीति अपनानी ही होगी, वरना 2027 या 2030 में फिर यही खबर पढ़नी पड़ेगी—“एक और बाढ़, एक और नुकसान और एक और अधूरा वादा।”

    जीवन की आधारशिला है ओजोन परत की उपस्थिति


    विश्व ओजोन दिवस (16 सितम्बर) पर विशेष
    ओजोन परत के बिना असंभव है पृथ्वी का अस्तित्व

    – योगेश कुमार गोयल
     16 सितम्बर 1987 को मॉन्ट्रियल में ओजोन परत के क्षय को रोकने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता हुआ था, जिसमें उन रसायनों के प्रयोग को रोकने से संबंधित एक बेहद महत्वपूर्ण समझौता किया गया था, जो ओजोन परत में छिद्र के लिए उत्तरदायी माने जाते हैं। ओजोन परत कैसे बनती है, यह कितनी तेजी से कम हो रही है और इस कमी को रोकने के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं, इसी संबंध में जागरूकता पैदा करने के लिए 1994 से प्रतिवर्ष ‘विश्व ओजोन दिवस’ मनाया जा रहा है किन्तु चिन्ता की बात यह है कि पिछले कई वर्षों से ओजोन दिवस मनाए जाते रहने के बावजूद ओजोन परत की मोटाई कम हो रही है। प्रतिवर्ष एक विशेष थीम के साथ यह महत्वपूर्ण दिवस मनाया जाता है। विश्व ओजोन दिवस 2025 की थीम “विज्ञान से वैश्विक कार्रवाई तक” है, जिसे संयुक्त राष्ट्र ने जारी किया है। यह थीम मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के 40 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में ओजोन परत के संरक्षण और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विज्ञान की भूमिका और आवश्यक वैश्विक सहयोग पर केंद्रित है। विश्व ओजोन दिवस हमें स्मरण कराता है कि पृथ्वी पर जीवन के लिए ओजोन परत आवश्यक है और यह विषय भविष्य की पीढ़ियों के लिए इसे बचाने हेतु निरंतर जलवायु कार्रवाई की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है।
    आईपीसीसी की एक रिपोर्ट में तापमान में डेढ़ तथा दो डिग्री वृद्धि की स्थितियों का आकलन किए जाने के बाद से इसे डेढ़ डिग्री तक सीमित रखने की आवश्यकता महसूस की जा रही है और इसके लिए दुनियाभर के देशों से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के नए लक्ष्य निर्धारित करने की अपेक्षा की जा रही है। जहां तक भारत की बात है तो भारत ने 2030 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की तीव्रता में 35 फीसदी तक कमी लाने का लक्ष्य रखा है किन्तु जी-20 देशों पर जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों की समीक्षा पर आधारित एक रिपोर्ट में कुछ समय पहले कहा गया था कि भारत सहित जी-20 देशों ने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के जो लक्ष्य निर्धारित किए हैं, वे तापमान वृद्धि को डेढ़ डिग्री तक सीमित करने के दृष्टिगत पर्याप्त नहीं हैं। रिपोर्ट के मुताबिक अपेक्षित परिणाम हासिल करने के लिए इन देशों को अपने उत्सर्जन को आधा करना होगा। रिपोर्ट में इस बात पर भी चिंता व्यक्त की गई थी कि जी-20 देशों की जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम नहीं हो रही है, जहां अभी भी करीब 82 फीसदी जीवाश्म ईंधन ही इस्तेमाल हो रहा है और चिंताजनक बात यह मानी गई थी कि कुछ देशों में जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी भी दी जा रही है। भारत ने हरित ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य 2027 तक 47 फीसदी रखा है और 2030 तक सौ फीसदी इलैक्ट्रिक वाहनों के उत्पादन का भी लक्ष्य है। हालांकि नवीन ऊर्जा के इन लक्ष्यों के लिए रिपोर्ट में भारत की सराहना भी की गई थी।
    विश्व के अधिकांश क्षेत्रों में आज जलवायु परिवर्तन के चलते विनाश का जो दौर देखा जा रहा है, उसके लिए काफी हद तक ओजोन परत की कमी मुख्य रूप से जिम्मेदार है और हमें अब यह भी भली-भांति समझ लेना चाहिए कि हमारी लापरवाही और पर्यावरण से बड़े पैमाने पर खिलवाड़ ही पर्यावरण विनाश की सबसे बड़ी जड़ है। कुछ समय पूर्व एक रिपोर्ट में कहा गया था कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों के चलते दुनियाभर में करीब 12 करोड़ लोग विस्थापित होंगे। ओजोन परत के सुरक्षित न होने से मनुष्यों, पशुओं और यहां तक की वनस्पतियों के जीवन पर भी बेहद प्रतिकूल प्रभाव पड़ना तय है। यही नहीं, अधिकांश वैज्ञानिकों का मानना है कि ओजोन परत के बिना पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा और पानी के नीचे का जीवन भी नहीं बचेगा। हिन्दी अकादमी दिल्ली के सौजन्य से पर्यावरण पर छपी चर्चित पुस्तक ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ के मुताबिक ओजोन परत की कमी से प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता है, सर्दियां अनियमित रूप से आती हैं, हिमखंड गलना शुरू हो जाते हैं और सर्दी की तुलना में गर्मी अधिक पड़ती है, पर्यावरण का यही हाल पिछले कुछ वर्षों से हम देख और भुगत भी रहे हैं। दरअसल ओजोन परत में कमी और मोटे होते जा रहे छिद्र के कारण पृथ्वी तक पहुंचने वाली पराबैंगनी किरणें हमारे स्वास्थ्य तथा पारिस्थितिकी तंत्र पर बहुत हानिकारक प्रभाव डालती हैं। ओजोन परत की कमी से हमारे स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरे उत्पन्न हो रहे हैं।
    ओजोन परत वातावरण में बनती है। जब सूर्य से पराबैंगनी किरणें ऑक्सीजन परमाणुओं को तोड़ती है और ये परमाणु ऑक्सीजन के साथ मिल जाते हैं तो ओजोन अणु बनते हैं। ओजोन परत पृथ्वी के धरातल से 20-30 किमी की ऊंचाई पर वायुमण्डल के समताप मंडल क्षेत्र में ओजोन गैस का एक झीना सा आवरण है। यह परत पर्यावरण की रक्षक मानी गई है क्योंकि यही वह परत है, जो पराबैंगनी किरणों को पृथ्वी पर आने से रोकती है। हमारे ऊपर के वातावरण में विभिन्न परतें शामिल हैं, जिनमें एक परत स्ट्रैटोस्फियर है, जिसे ओजोन परत भी कहा जाता है। ओजोन गैस प्राकृतिक रूप से बनती है। निचले वातावरण में पृथ्वी के निकट ओजोन की उपस्थिति प्रदूषण बढ़ाने वाली और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक लेकिन ऊपरी वायुमंडल में ओजोन परत की उपस्थिति पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व के लिए अत्यावश्यक है। जब सूर्य की किरणें वायुमंडल में ऊपरी सतह पर ऑक्सीजन से टकराती हैं तो उच्च ऊर्जा विकिरण के कारण इसका कुछ हिस्सा ओजोन में परिवर्तित हो जाता है। ओजोन परत सूर्य से निकलने वाली पराबैंगनी किरणों के लिए एक अच्छे फिल्टर के रूप में कार्य करती है। सूर्य विकिरण के साथ आने वाली पराबैगनी किरणों का लगभग 99 फीसदी भाग ओजोन मंडल द्वारा सोख लिया जाता है, जिससे पृथ्वी पर रहने वाले प्राणी एवं वनस्पति सूर्य के तेज ताप और विकिरण से सुरक्षित हैं और इसी कारण ओजोन परत को सुरक्षा कवच भी कहा जाता है। यही कारण है कि प्रायः कहा जाता है कि ओजोन परत के बिना पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।

    राष्ट्र नायक नरेंद्र मोदी

    डॉ.वेदप्रकाश

    राष्ट्र का कोई पिता नहीं होता। राष्ट्र के पुत्र व राष्ट्र के नायक होते हैं क्योंकि वैदिक चिंतन कहता है- माता भूमि: पुत्रोअहं पृथ्विव्या: अर्थात् यह भूमि मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूं।


          प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व-कृतित्व ने युवा भारत के मन मस्तिष्क से राष्ट्रपिता के प्रायोजित नॉरेटिव को भी समझने हेतु नई दिशा प्रदान की है। वे जिस रूप में मां भारती के सच्चे सिपाही अथवा पुत्र और सेवक बनकर जन-जन की सेवा में लगे हुए हैं, उससे उनका व्यक्तित्व राष्ट्र नायक के रूप में उभरा है। विभिन्न योजनाओं और कार्य प्रणाली में जब वे पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति की आशाओं-आकांक्षाओं की चिंता करते हैं तो उनकी अनुभूति की व्यापकता स्पष्ट देखी जा सकती है। साक्षी भाव नामक रचना में वे लिखते हैं-
    मुझे तो जगत को भावनाओं से जोड़ना है।
    मुझे तो सबकी वेदना की अनुभूति करनी है…।

    प्रस्तुत पंक्तियों से यह भी स्पष्ट है कि उनका विचार और संस्कार भारतीय ज्ञान परंपरा के आलोक में पोषित हुआ है। भारतवर्ष की संत परंपरा, महापुरुषों एवं  स्वर्गीय अटल जी जैसे विभिन्न व्यक्तित्वों के चिंतन का उन पर गहरा प्रभाव है। भारतीय ज्ञान परंपरा में सर्वे भवंतु सुखिनः का मंत्र और दृष्टि प्रधान है इसलिए वे सभी के सुख के लिए स्वयं को खपा रहे हैं। स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार वर्ष 2014 में लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी राष्ट्र के नाम अपने पहले ही संबोधन में संकल्प का भाव प्रस्तुत करते हैं। वे जन-जन को झकझोरते हैं और आवाह्न करते हैं। वे प्रधानमंत्री नहीं, प्रधानसेवक के रूप में प्रस्तुत होते हैं। उनके मन मस्तिष्क में नया भारत बनाने की भावना है। गरीब, मजदूर ,किसान, युवा शक्ति एवं नारी शक्ति सबको साथ लेकर वे सबके कल्याण और राष्ट्र निर्माण का संकल्प प्रस्तुत करते हैं। वर्ष 2025 में लालकिले की प्राचीर से उनके बारह  संबोधन पूर्ण हो चुके हैं। वे अपने प्रत्येक संबोधन में सबके साथ और सबके विकास का मंत्र लेकर प्रत्येक बार नई एवं जन कल्याणकारी योजनाएं लेकर आते हैं। अब भारत बदल रहा है। आज जन-जन नए भारत,आत्मनिर्भर भारत व समृद्ध भारत का भाव लेकर अपनी भागीदारी करते हुए विकसित भारत का संकल्प लेकर तेजी से आगे बढ़ रहा है।
         राष्ट्र नायक वही है जो राष्ट्र के जन-जन  के साथ जुड़कर और उन्हें अपने साथ जोड़कर शिखर की ओर बढ़ चले। विगत कुछ वर्षों में आर्थिक उन्नति के शिखर की ओर बढ़ते  हुए भारत आज विश्व की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। मेक इन इंडिया, मेड इन इंडिया का विचार अब व्यापक हो चुका है। खेती, किसानी, पशुपालन, मत्स्य पालन आदि के माध्यम से आत्मनिर्भरता जन-जन का संकल्प बनता जा रहा है। संतुलित विकास और नेक्स्ट जेनरेशन इंफ्रास्ट्रक्चर का तेजी से विकास हो रहा है। वैश्विक मंचों पर भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए नरेंद्र मोदी विभिन्न मुद्दों पर विश्व समुदाय का मार्गदर्शन कर रहे हैं। राष्ट्र की सीमाओं और स्वाभिमान की रक्षा के लिए वे दृढ़ संकल्पित हैं। आज विश्व भारतीय सेना के शौर्य और मोदी नेतृत्व की निर्णय क्षमता की सराहना कर रहा है।

     आज देश किसी की थौंपी हुई नीतियां मानने को मजबूर नहीं है अपितु स्वयं को आत्मनिर्भर और मजबूत बनाते हुए दूसरों के लिए प्रेरणा बन रहा है। विश्व के अनेक देशों के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सम्मानित किया जा चुका है। वे राष्ट्रीय और वैश्विक फलक पर जहां भी जाते हैं वहीं वसुधैव कुटुंबकम का उद्घोष करते हैं। वे सबको साथ लेकर मानवता के कल्याण के सूत्र देकर उन पर अमल का मार्ग बताते हैं। राष्ट्र नायक वही है जो विपरीत परिस्थितियों में भी आत्मविश्वास का भाव जगा दे। वैश्विक महामारी कोरोना में अनेक देशों की व्यवस्थाएं भिन्न-भिन्न रूपों में चरमरा गई लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने सूझबूझ से न केवल अपने देश को इस संकट से निकला अपितु अनेक देशों की सहायता और सेवा के लिए काम किया।
          25 मार्च 2018 के मन की बात में उन्होंने जन-जन में आत्मविश्वास भरते हुए कहा- आज पूरे विश्व में भारत की ओर देखने का नजरिया बदला है। आज जब भारत का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है तो इसके पीछे मां भारती के बेटे- बेटियों का पुरुषार्थ है। वे छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी उपलब्धि का श्रेय स्वयं नहीं लेते अपितु देश की जनता के संकल्प और पुरुषार्थ को समर्पित करते हैं। उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में कार्य प्रणाली को बदला है। उनका दृष्टिकोण बहुत स्पष्ट है-रिफॉर्म, परफॉर्म और ट्रांसफॉर्म। स्किल इंडिया, डिजिटल इंडिया, शौचालय युक्त भारत, गरीबी मुक्त भारत, गंदगी मुक्त भारत, प्रधानमंत्री आवास योजना, उज्ज्वला योजना, मिशन अंत्योदय, बेटी बचाओ- बेटी पढ़ाओ, मुद्रा योजना, फिट इंडिया, खेलता भारत-खिलता भारत, वोकल फाॅर लोकल, लखपति दीदी आदि अनेक ऐसी योजनाएं एवं अभियान हैं जिनके आवाह्न के बाद समूचा देश नरेंद्र मोदी के साथ चलता दिखाई दे रहा है। परमार्थ निकेतन के अध्यक्ष पूज्य स्वामी चिदानंद सरस्वती जी अपने उद्बोधनों में बार-बार कहते हैं- यह देश का सौभाग्य है कि देश को नरेंद्र मोदी जैसा योगी और तपस्वी प्रधानमंत्री मिला है जिनका जीवन मां भारती की सेवा में समर्पित है।
         राष्ट्र नायक वही है जो विकृति को संस्कृति में बदल दे। असंभव को संभव कर दिखाएं। नकारात्मकता को सकारात्मक बना दे। निराशा को आशा में बदल दे। सेवा की भावना और समर्पण का विचार ही जिसके जीवन का ध्येय है, राष्ट्र नायक वही तो है। 17 सितंबर 2025 को राष्ट्र नायक नरेंद्र मोदी के 75वें जन्मदिन के उपलक्ष में देशभर में जन कल्याण के कार्य हों। जन-जन उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से प्रेरणा लेकर नए विचार और नए संकल्पों के साथ आगे बढ़े। यही राष्ट्र नायक के जन्मोत्सव पर उन्हें महत्वपूर्ण उपहार होगा। मां भारती की सेवा में  समर्पित राष्ट्र नायक नरेंद्र मोदी का जीवन दर्शन बिल्कुल स्पष्ट है-
    मां… मुझे कुछ सिद्ध नहीं करना है।
    मुझे तो स्वयं की आहुति देनी है।
           आइए हम भी जाति, संप्रदाय एवं क्षेत्रीयता के भेदभाव को भूलकर स्वयं को सिद्ध करने के स्थान पर मां भारती के कल्याण हेतु एक छोटी सी आहुति अवश्य दें। राष्ट्र नायक के जन्मोत्सव पर उन्हें हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।


    डॉ.वेदप्रकाश

    नरेंद्र मोदी मतलब नैति नैति

    डॉ घनश्याम बादल

     नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गांधी के कार्यकाल को पीछे छोड़कर नेहरू के बाद सबसे ज्यादा समय तक लगातार प्रधानमंत्री पद रहने वाली उसे शख्सियत का नाम है जिसे उनके समर्थक भारत को विश्वगुरु बनाने एक विकसित देश बनाने और बनाना स्टेट से सॉलिड स्टेट तक ले जाने का श्रेय देते हैं.

        एक प्रधानमंत्री एवं सरकार के मुखिया के रूप में नरेंद्र मोदी अपने नारे ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ को सच बनाने के लिए दिन-रात जुटे रहने वाले ऐसे शख्स हैं जिनमें निर्णय लेने की अद्भुत क्षमता है । उन्होंने अपने कार्यकाल में अपने वादे के मुताबिक धारा 370 को हटा दिया, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण पूर्ण हुआ, तीन तलाक और सी ए ए के विवादों से पार पाते हुए वे आगे बढ़े ।  नोटबंदी के उनके निर्णय का जो कारण उन्होंने बताया, वह था अर्थव्यवस्था से काले धन की समाप्ति और आतंकवाद की कमर तोड़ना. इसी आधार पर उन्होंने ₹1000 का नोट बंद किया लेकिन 3 महीने बाद ही 2000 का नोट चलन में आ गया।       

         विपक्ष व आलोचकों की नज़र में नरेंद्र मोदी केवल ‘मन की बात’ ही नहीं सुनाते हैं अपितु करते भी केवल मन की ही हैं।  उनके आलोचकों का मानना है कि मोदी के अधिकांश निर्णय जल्दबाजी व हड़बड़ाहट में लिए हुए ऐसे निर्णय हैं जिन्हें लोकप्रियता पाने का एक शगल है । 

         नरेंद्र मोदी राजनीतिक लाभ लेने के लिए तर्क से लेकर भावनाओं तक किसी का भी इस्तेमाल करने में नहीं चूकते। राम मंदिर, तीन तलाक, धारा 370, ऑपरेशन सिंदूर और अब बिहार के चुनावों से ठीक पहले अपनी मां को दी गई गालियों तथा मणिपुर यात्रा इस तरह के उदाहरण हैं। जब गहराई में जाकर उनके व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हैं तो उनकी खूबियां और खामियां दोनों ही सामने आती हैं । 

     जब नरेंद्र मोदी पहले कार्यकाल में सफल हो रहे थे तब विपक्ष ने इसे उनके भाग्य की करामात बताई थी। सचमुच भाग्यशाली हैं नरेंद्र मोदी. तभी तो 26 मई 2014 को पहली बार सांसद चुने  के बाद ही  वें प्रधानमंत्री पद पर आसीन हो गए हैं वैसे ही जैसे पहली बार विधायक चुने जाने के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे । 

    एक धुरंधर राजनीतिज्ञ के अपने विशिष्ट अंदाज में उन्होंने संसद भवन की ड्योढ़ी पर माथा टेककर संसद में प्रवेश किया तो भावुक देश को बहुत आशाएं जगी थीं । अपने पहले ही भाषण में  नरेंद्र मोदी ने देश को चुनाव में ‘अच्छे दिनों’ के वादे को पूरा करने का विश्वास दिलाया । साथ ही साथ सबका साथ ‘सबका विकास’ का नारा देकर सारी राजनीतिक का कटुता भुलाकर देश के सर्वांगीण विकास की बात की और खुद को प्रधानमंत्री के बजाय ‘प्रधान सेवक’ की संज्ञा दी तथा कहा कि वह एक शासक नहीं बल्कि ‘चौकीदार’ के रूप में देश के हितों की रक्षा करेंगे लेकिन इसी शब्द को लेकर राहुल गांधी और कांग्रेस ने ‘चौकीदार चोर है’ जैसा नारा भी गढ़ा। 

       नरेंद्र मोदी ने एक से बढ़कर एक योजनाएं देश को दी जिनमें जनधन योजना,उज्ज्वला योजना, अटल पेंशन योजना,महिला कल्याण व  स्वच्छ भारत मिशन जैसी योजनाओं के माध्यम से उन्होंने आम आदमी का दिल जीत लिया। जहां विपक्ष ने उन्हें लफ्फाज की संज्ञा दी, वही उन्होंने अपने इस कार्यकाल में नोटबंदी तथा पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक करने जैसे कड़े निर्णय देकर दिखाया कि अपने संकल्प के पक्के हैं। 

        उनकी राजनीतिक चतुराई के आगे विपक्षी पूरे कार्यकाल में एक संभ्रम की स्थिति में रहे और राहुल गांधी को तो उन्होंने इस तरह निशाने पर रखा कि वे कभी भी खुद को उनका प्रतिद्वंदी साबित नहीं कर पाए। 

       ऐसा नहीं कि नरेंद्र मोदी का कार्यकाल एकदम सफल ही रहा हो. उसमें विपक्ष को आलोचना का भी पूरा मौका मिला एवं उन्हें असफलता का भी सामना करना पड़ा । उनके ‘अच्छे दिन’ और 15 लाख रुपए हर भारतीय के खाते में आने की खूब मज़ाक बनी  जिसे बाद में अमित शाह ने एक ‘चुनावी जुमला’करार देकर जान छुडाई । 

      इस दौरान बेरोजगारी की सर्वोच्च  दर 6.28 तक पहुंच गई जो पिछले 45 वर्षों में सबसे अधिक थी। हिंदुओं मुसलमानों के बीच बढ़ती खाई से मॉब लिंचिंग की घटनाएं बढ़ीं. इस कार्यकाल में उनके कई निर्णय जल्दबाजी में लिए गए साबित हुए ।‌

       2019 में लोकसभा चुनावों में राजनीतिक विश्लेषकों का अनुमान था कि ‘आएंगे तो मोदी ही’ पर उनकी चमक और धमक दोनों कम होगी लेकिन ‘मोदी है तो मुमकिन है’ और ‘इस बार 300 पार’ का नारा खूब चला और भारतीय जनता पार्टी को पहली बार अपने ही बलबूते पर बहुमत मिला ।  एनडीए की 353  सीटों उसका हिस्सा 303 पर पहुंच गया जो एक बड़ी उपलब्धि थी । 

       अपने दूसरे कार्यकाल में नरेंद्र मोदी का आत्मविश्वास आसमान छूता नज़र आया और उन्होंने कई ऐसे निर्णय लिए जिनकी कल्पना भी भारतीय राजनीति में मुश्किल थी । कृषि कानून पर उन्हें यू टर्न लेना पड़ा  बेरोजगारी व महंगाई बेकाबू हो गई. दूसरे कार्यकाल में सरकार ने सीबीआई, ई डी और इनकम टैक्स जैसी संस्थाओं का इस्तेमाल विपक्षियों को घेरने और कुचलने में किया। उन पर बडबोलेपन का आरोप तो ख़ैर अब तक लगता है । 

           2024 के चुनाव में नरेंद्र मोदी ‘वन मैन आर्मी’ की तरह लड़े और तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भाजपा को सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में वापस लाने में कामयाब रहे भले ही सीटों की संख्या 303 से गिरकर केवल 240 रह गई। जैसी कि आशंका थी कि इस बार के मोदी डरे डरे से मोदी होंगे वैसा नहीं दिखाई दिया और उन्होंने धड़ाधड़ फैसले  लेने वाली अपनी शैली को अब तक बरकरार रखा है। पहलगाम हमले के बाद जिस तरह का स्टैंड उन्होंने लिया उसकी उम्मीद पाकिस्तान को भी नहीं थी। 

        दृढ़ संकल्प के साथ उन्होंने पाकिस्तान को गहरी चोट और सबक दिए हैं. ऑपरेशन सिंदूर के माध्यम से आतंकवादी ठिकानों के साथ-साथ पाकिस्तान के अधिकांश एयर बेस भी नष्ट कर दिए गए हालांकि युद्ध विराम के बाद पाकिस्तान भी वैसा ही जश्न मनाता दिखा जैसा भारत अपनी जीत पर मना रहा है और  एकाएक किए गए युद्ध विराम ने मोदी को आज तक उलझा रखा है और इसी बात को लेकर भारत अमेरिका में एक तरीके से टैरिफवार भी चल रहा है। 

    अभी तो राजनीति बहुत सारी करवटें लेगी, बहुत सारे उतार चढ़ाव आएंगे, इस बात की संभावना कम ही है कि 75 साल के हो रहे मोदी संन्यास ले झोला उठाकर चल देंगे लेकिन यह भी तय है कि उनका इस बार का कार्यकाल विपक्ष आसानी से पूरा न हो, इसकी पूरी कोशिश करेगा। 

    डॉ घनश्याम बादल