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मालदीव के साथ प्रगाढ़ होते भारत के संबंध

डॉ.बालमुकुंद पांडेय 

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने पड़ोसी देशों के साथ सौहार्दपूर्ण एवं मधुर संबंध को बनाए रखने की प्राथमिकता दे रहे हैं । मोदी जी विगत जुलाई महीने में 25 एवं 26 को मालदीव की यात्रा पर गए थे। सामरिक  एवं व्यापारिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण पड़ोसी, मालदीव अपने देश का 60वा स्वतंत्रता दिवस मना रहा था। इस महत्वपूर्ण एवं गरिमावान  दिवस के मुख्य अतिथि मोदी जी थे। मोदी सरकार के वैदेशिक  संबंधों में ‘ पड़ोसी प्रथम  ‘ की प्रासंगिकता एवं उपादेयता  की दृष्टि से यह यात्रा अति महत्वपूर्ण है। विगत कुछ वर्षों से मालदीव के राष्ट्रपति श्रीमान मुइज्जू भारत विरोध का राग अलाप रहे थे एवं भारत सरकार के ऊपर अनर्गल  आरोप लगा रहे थे लेकिन बदलते परिदृश्य में भारत की उपादेयता  एवं चीन के  ऋण के मकड़जाल से  मुक्त होने के लिए भारत की   महनीय आवश्यकता, महत्व एवं उपादेयता  मालदीव के लिए अत्यंत आवश्यक है। वर्तमान में मालदीव के चहुमुखी विकास के लिए भारत जैसे ‘ बड़े भाई ‘ की आवश्यकता है। मालदीव के विकास के लिए अनुदान की आवश्यकता है। बदहाली की अवस्था एवं आसन्न संकट के निवारण के लिए भारत सरकार का संकट मोचन की स्थिति में आना शुभ एवं श्रेयस्कर है। आर्थिक बदहाली से ग्रस्त मालदीव को संकट से  उबारने  वाला देश भारत है।

मालदीव के राष्ट्रपति मोदी जी के आगमन पर  माले  हवाई अड्डे पर स्वयं अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों के साथ स्वागत किया जो मालदीव के मोदी जी के प्रति संसदीय शिष्टाचार को प्रस्तुत कर रहा है। उनका यह शिष्टाचार भारत विरोध के प्रति नरम नीति(Soft policy) का संकेत है। वैदेशिक संबंधों में  कहा गया है कि राष्ट्रीय हितों के सापेक्ष वैदेशिक संबंध बदलते रहते हैं। मालदीव के राष्ट्रपति मुइज़्ज़ू  ने मोदी जी का हृदय तल से आभार जताया एवं यह भी कहा कि “भारत मालदीव का सबसे करीबी पड़ोसी एवं विश्वसनीय मित्र हैं जो प्राकृतिक आपदा एवं महामारी जैसे संकटों में हमेशा खड़ा रहा है।”

इस अवसर पर भारत के लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि” भारत को मालदीव का सर्वाधिक भरोसेमंद मित्र होने का गर्व है। हम मात्र पड़ोसी ही नहीं, बल्कि  सहयात्री भी हैं।” उपर्युक्त सभी  तथ्यों एवं कथनों का विश्लेषण करें तो स्पष्ट होता है कि भारत एवं मालदीव के बीच रिश्तों का बर्फ पिघल रहा है, एवं दोनों देश अपने आर्थिक, व्यापारिक, सामरिक एवं व्यवसायिक रिश्तो को मजबूत करना चाहते हैं।

भारत मालदीव के बदहाली के संकट के समाधान के लिए बेहद कम ब्याज दर पर 4850 करोड रुपए का आर्थिक सहयोग (लाइन आप क्रेडिट LOC )देने की घोषणा की है, इसके साथ ही वार्षिक कर्ज  अदायगी को 40%( 5.1 करोड़ डालर से 2.9 करोड़  डॉलर) घटा दिया है। इससे मालदीव के आर्थिक बदहाली में राहत  होगा । मालदीव एवं भारत के मध्य समुद्री क्षेत्र एवं सामरिक क्षेत्र में सहयोग के आसार बढ़े है।

मालदीव 1200 दीपों का समूह है। भौगोलिक रूप से मालदीव को संसार का सबसे बिखरा हुआ देश कहा जाता है। मालदीव की आबादी 5.21 लाख है। मालदीव ग्रेट ब्रिटेन (संयुक्त राज्य) से 1965 में स्वतंत्र हुआ था। 1968 में संवैधानिक रूप से इस्लामी गणतंत्र बना था। 2008 में इस्लाम मालदीव का राजकीय धर्म बना था। यह  संसार का सबसे छोटा इस्लामिक देश है। 26 जुलाई, 2025 को मालदीव अपना 60वा   स्वतंत्रता दिवस मना रहा था एवं भारत के प्रधानमंत्री श्रीमान नरेंद्र मोदी जी को मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया गया था।

 मोदी जी की यह तीसरा मालदीव यात्रा है । मालदीव की सरकार’ भारत प्रथम’ की नीति पर चल रही थी, लेकिन श्री मुइज्ज़ू ने इस नीति को समाप्त करने का वादा किया था। 7.5 अरब डॉलर की अर्थव्यवस्था वाले द्वीपीय देश मालदीव को भारत ने डिफॉल्ट होने से बचाया, तब श्री मुइज्ज़ू  ने  भारत के प्रति अपना रुख  बदला था। राष्ट्रपति बनने के पश्चात श्री  मुइज्ज़ू ने  तुर्किय,यूएई एवं चीन का दौरा किया था । इसके पश्चात भारत से कड़वाहट दूर करने का प्रयास किया था।

समसामयिक में सवाल है कि मालदीव को भारत एवं चीन इतना महत्व क्यों दे रहे हैं ?

मालदीव हिंद महासागर के बड़े समुद्री रास्ते पर अवस्थित है। हिंद महासागर में इन्हीं रास्ते से व्यापार होता है । खाड़ी के देशों खासकर तेल के देशों (Oil Countries) से भारत में ऊर्जा की  आपूर्ति इसी रास्ते से होती है। ऐसी स्थिति में भारत का मालदीव से मधुर संबंध बनाए रखना समय की मांग है! इस विषय पर राजनीतिक विश्लेषक वीना सीकरी कहती है कि मालदीव एक मुख्य मैरिटाइम रूट है एवं वैश्विक बाजार में इसकी महत्वपूर्ण उपादेयता है। इसके आगे वीना सीकरी कहती हैं कि,” भारत के आर्थिक एवं राजनीतिक हितों के लिए यह रास्ता अति महत्वपूर्ण है। खाड़ी  के देशों से भारत का ऊर्जा आयात हिंद महासागर से होता है। मालदीव से संबंध मधुर होना भारत की ऊर्जा सुरक्षा को सुनिश्चित करता है। भारत के मैरिटाइम सर्विलांस में भी मालदीव का सहयोग अति आवश्यक है। थिंक टैंक ORF के वरिष्ठ फेलो श्री मनोज जोशी का कहना है कि,” जहां मालदीव स्थित है, वहां महत्वपूर्ण समुद्री लेन हैं। यह लेन पर्शियन गल्फ से ईस्ट एशिया की ओर जाती है। भारत भी व्यापार में इस लेन का इस्तेमाल करता है।”

 मालदीव भारत के बिल्कुल समीप है। भारत के लक्षद्वीप से 700 किलोमीटर दूर है एवं भारत के मुख्य भाग से 1200 किलोमीटर है। इस पर श्री मनोज जोशी का कहना है कि ,”अगर चीन ने मालदीव में  नेवी बेस बना लिया तो यह भारत के लिए सुरक्षा चुनौती पैदा करेगा। मालदीव में चीन मजबूत होता है तो युद्ध जैसे हालात में उसके लिए भारत पहुंचना आसान हो जाएगा। चीन का मालदीव में कई आर्थिक प्रोजेक्ट है। चीन के बारे में कहा जाता है कि वह मालदीव में नेवी बेस बनाना चाहता है। ऐसे वातावरण में भारत का सतर्क, चौकन्ना एवं सक्रिय रहना लाजमी है।”

इस पर श्री मनोज जोशी आगे कहते हैं” मालदीव भारत के लिए वर्तमान में भी चुनौती है। मोदी जी को मालदीव आमंत्रित किया है लेकिन राष्ट्रपति मुइज्जू ने आर्थिक मजबूरी में ऐसा किया है। मालदीव का जनमत सामयिक परिदृश्य में भी भारत के विरोध में है एवं राष्ट्रपति मुइज्जू इसी का फायदा उठाकर जीते थे। राष्ट्रपति मुइज्जू  ने मजबूरी में भारत से संबंध सामान्य किए हैं ना कि वह ऐसा चाहते थे।” सामयिक परिदृश्य में मालदीव ने चीन के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट( FTA )किया है। वह चीन के महत्वकांक्षी  परियोजना सिल्क बेल्ट एवं रोड का भी प्रबल समर्थक है। मालदीव के आयात में भारत एवं चीन की हिस्सेदारी सन 2014 में क्रमशः 8.6 % एवं 5.3 % थी, वही 2023 में बढ़कर 15.6 % एवं 11.6 % हो चुकी है। मालदीव में चीन अपनी मौजूदगी मजबूत करता है तो भारत के लिए रणनीतिक नुकसान है। हिंद महासागर में चीन को प्रति संतुलित करने के लिए मालदीव से मधुर संबंध अति आवश्यक है । भारत ने  मालदीव के कई परियोजनाओं में निवेश किया हैं.

                                        चीन मालदीव में 20 करोड डॉलर का “चीन- मालदीव फ्रेंडशिप ब्रिज” बना रहा है। कई राजनीतिक विश्लेषकों  का मानना है कि मालदीव में चीन की बढ़ती भूमिका भारत के सुरक्षा के लिए चुनौती है। वर्ष 2024 में श्री मुइज्ज़ू ने चीन का दौरा किया था एवं दोनों देशों ने 20  समझौतों पर हस्ताक्षर किए थे । थिंक टैंक अनंत सेंटर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी इंद्राणी बागची कहती हैं कि,” मालदीव भारत के लिए अहम है क्योंकि वहां पर भारत विरोधी( एंटी इंडिया) भावना अब भी है।” इंद्राणी बागची कहती हैं कि,” मालदीव भारत से लगाव नहीं करेगा लेकिन सुरक्षा चुनौती न बने, इसे सुनिश्चित करना होगा।”

                                               भारत ने मालदीव की दयनीय दशा को बखूबी भांपते हुए अपने उदार व्यक्तित्व से सिद्ध किया है कि भारत की दक्षिण एशिया में भूमिका” बड़े भाई” की हैं जो ना केवल प्राकृतिक आपदा में काम आता है, अपितु राष्ट्रीय आपदा से भी निजात दिलाने की मंशा एवं धारिता रखता है। मोदी जी की मालदीव यात्रा के पश्चात पुनः मालदीव में पर्यटक भेजने वाला भारत अव्वल देश हो सकता है। पर्यटन के माध्यम से लोगों के बीच मेल  – मिलाप  एवं सांस्कृतिक संबंध प्रगाढ़ होने से कूटनीतिक नेतृत्व का उन्नयन होता है। भारत ने शांति, धैर्य, सहनशीलता एवं बड़े भाई की भूमिका से काम लिया है । इसी के कारण मालदीव में संबंध सामान्य हो रहे है।

भारत एवं मालदीव के मध्य संबंधों को सामान्य बनाने के लिए निम्न सुझाव है:- 

1).सरकार के साथ नागरिकों से भी संबंध बढ़ाना चाहिए ;2). इंफ्रास्ट्रक्चर, प्रोजेक्ट एवं आर्थिक सहयोग से द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करना होगा; 3). कूटनीतिक एवं राजनयिक पहल से संबंधों को मजबूत करना होगा ; 4).भारत  एवं मालदीव के साथ सहानुभूति पूर्वक सहयोग करें एवं ऐसे विकल्प प्रस्तुत करें जो चीन की तुलना में भरोसेमंद के साथ – साथ विश्वशनीय  हो; एवं 5). विकास एवं स्थिरता के लिए दोनों देश द्विपक्षीय निवेश करें।

डॉ.बालमुकुंद पांडेय 

बरेली में गिरे ‘झुमके’ की अनसुलझी कहानी का सच?

डॉ. रमेश ठाकुर


बरेली में गिरे ‘झुमके’ वाला विश्व प्रसिद्ध किस्सा काल्पनिक है या वास्तविक? दरअसल, ये ऐसी अनसुलझी कड़ी है जो दशकों बीतने के बाद भी नहीं सुलझ सकी। असल सच्चाई पर पर्दा आज भी पड़ा  हुआ है। बरेली में जन्में  ख्याति प्राप्त शायर वसीम बरेलवी साहब से लेकर तमाम बुजुर्ग-युवा इतिहासकार भी झुमके की पहेली को नहीं सुलझा पाए। हालांकि, झुमके का संबंध वैसे तथ्यात्मक रूप से दो किस्सों से ज्यादा जोड़ा जाता है जिसमें पाकिस्तान के लोग आज भी मानते हैं कि उनके यहां की एक लड़की जब लाहौर से बरेली पहुंची तो उनका झुमका बरेली के बाजार में गिर गया। वह लड़की कोई और नहीं बल्कि सदी के महानायक अभिनेता अमिताभ बच्चन की माता तेजी सूरी थीं। 

आजादी के कुछ साल पहले यानी 1941 के आखिरी दिन था महाकवि हरिवंश राय बच्चन अपने बरेली के दोस्त ज्योति प्रकाश जौहरी के घर मिलने पहुंचे तो वहां पहले से मौजूद तेजी सूरी से मुलाकात हुई जो लाहौर से पहुंची थी। यह तेजी और हरिवंश जी की पहली मुलाकात थी जो कुछ घंटों में प्यार में तब्दील हो गई जबकि तब तेजी की सगाई इंग्लैंड के किसी व्यापारी संग हो रखी थी। उस सगाई को उन्होंने तोड़ा और हरिवंश जी के साथ जीवन जीने का निर्णय लिया।

 
हरिवंश जी से मुलाकात के दूसरे दिन तेजी सूरी बरेली के बाजार में घूमने गईं जहां उनका लाहौर में बना डेढ़ तोले का सोने एक झुमका गिर गया। ये बात लौटकर तेजी ने सभी को बताई। मुलाकात के बाद तेजी लाहौर और हरिवंश इलाहाबाद चले गए । कुछ महीनों बाद लेखक राजा मेहदी साहब की मुलाकात तेजी सूरी से लाहौर में एक कार्यक्रम के दौरान हुई. तेजी सूरी थियेटर आर्टिस्ट थी, स्टेज शोज करती थीं। तब उन्होंने तेजी से मजाकिया लहजे में पूछ डाला कि आप दोनों शादी कब कर रहे हैं? इस बात का जवाब तेजी ने बड़े ही खूबसूरत और निराले अंदाज से दिया। बोली- ’मेरा झुमका तो बरेली के बाजार में ही गिर गया था, पहले वो तो मिल जाए? लेखक ने उनके शब्दों को गाने का रूप दे डाला। 

सन-1966 आई फिल्म ‘मेरा साया’ की अभिनेत्री साधना पर वह गाना फिल्माया गया। गाने बोल थे ”झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में” जो आज भी दुनिया भर के लोगों की जुबान पर है। उसके बाद झुमके का जिक्र अदा-कदा हिंदी फिल्मों में खूब हुआ और होता भी है। अभी हाल ही में रणवीर सिंह और आलिया भट्ट अभिनीत फिल्म ‘रॉकी और रानी की प्रेम कहानी में भी ‘झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में’ को रिमिक्स करके प्रस्तुत किया गया।

 
साल 2019 में बरेली प्रशासन ने एक चौराहे पर विशाल ‘झुमका चौहराया’ स्थापित करवाया जो शहर में आने वाले पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। वहां लोग रखकर सेल्फी और फोटो लेते हैं। 2 क्विंटल वजन के झुमके की ऊंचाई 14 फीट है जिसके निर्माण में पीतल और तांबे का इस्तेमाल किया गया है। बरेली का पुराना नाम वैसे कैथेर हुआ करता था। वो नाम मुगल शासक द्वारा दिया गया था। बाद में, 1537 में, दो राजकुमारों बंसलदेव और बरलदेव ने जिनके नाम पर शहर का नाम “बांस-बरेली“ पड़ा, ने यहां एक दुर्ग का निर्माण भी करवाया था। झुमके के अलावा बरेली का सुरमा, बांस और लस्सी भी फेमस रही है। 16वीं शताब्दी में बरेली रोहिलों के नियंत्रण में थीं जो बाद में रोहिलखंड के नाम से जानी गई।


झुमके से जुड़ी दूसरी कहानी भी काफी दिलचस्प और मजेदार है। आजादी महोत्सव के 75वें साल के मौके पर बरेली में आयोजित एक रंगारंग कार्यक्रम में ‘लाइट एंड साउंड शो’ में झुमके का वाक्या गुलाम भारत के दौरान एक कड़क सिपाही से जोड़कर प्रस्तुत किया गया। प्रस्तुति के जरिए बताया गया कि अंग्रेजी हुकूमत में एक सिपाही जिसका नाम ‘झुमका सिंह’ था जो चलते-चलते बरेली के एक बाजार में गिर पड़ा था। उसके गिरने की रिपोर्ट उनके साथियों ने वरिष्ठ अधिकारियों से यह कहकर की थी कि ‘सर झुमका बरेली के बाजार में गिर गया हालांकि उसकी गिरने के कुछ घंटों बाद मौत भी हो गई थी। सिपाही की मौत को जेल में बंद क्रांतिकारियों ने जश्न के रूप में इसलिए मनाई क्योंकि वह जेलियों पर बहुत अत्याचार करता था, यातनाएं देता था।

 
सिपाही की कहानी पर इतिहासकार ज्यादा इत्तेफाक नहीं रखते पर, अमिताभ बच्चन की माता से जुड़े किस्से को थोड़ा बहुत विश्वास करते हैं। कुल मिलाकर झुमके की कहानी साहित्यकार हरिवंश राय बच्चन से निगाहें मिलाने के बाद अपने प्यार का ’झुमका’ गिरा बैठीं तेजी सूरी की कहानी ही दिखाई पड़ती है। ’झुमका गिरा रे’ तेजी सूरी की हरिवंश जी के प्रति प्यार जताने के तरीके से प्रेरित है। कम ही लोग जानते हैं कि हरिवंश राय बच्चन की शादी तेजी सूरी से पहले श्यामा बच्चन से हुई थी जिनका 1936 में अचानक निधन हो गया था। उसके बाद 1941 में हरिवंश राय बच्चन की मुलाकात तेजी सूरी से बरेली में हुई और अगले वर्ष दोनों की शादी हो गई।



डॉ. रमेश ठाकुर

समृद्धि की चिडिय़ा या शक्ति का शेर: देश की दिशा कौन तय करेगा?


अमरपाल सिंह वर्मा


क्या भारत को फिर से ‘सोने की चिडिय़ा’ बनाने की बात अब अप्रासंगिक हो गई है? आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कोच्चि में आयोजित राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन में अपने भाषण में स्पष्ट रूप से जो कुछ कहा है, उसी से यह प्रश्न उठा है। उन्होंने कहा है कि भारत को अब अतीत की ‘सोने की चिडिय़ा’ नहीं बल्कि ‘शेर’ बनना चाहिए क्योंकि दुनिया आदर्शों का नहीं, ताकत का सम्मान करती है।
संघ प्रमुख का यह वक्तव्य केवल संघ के कार्यकर्ताओं के लिए ही नहीं है बल्कि नीति-निर्माताओं, शिक्षाविदों और आम नागरिकों तक पहुंचाया गया एक वैचारिक सन्देश है। भागवत के बयान से कई प्रश्न उठते हैं। क्या अब देश को फिर से सोने की चिडिय़ा बनने की सोच अपर्याप्त हो गई है? और यदि भारत को ‘शेर’ बनना है तो इसके मायने क्या हैं? देश की दिशा किससे तय होगी- समृद्धि की चिडिय़ा से या शक्ति के शेर से?
भारत को सोने की चिडिय़ा कहा जाना उसके ऐतिहासिक आर्थिक और सांस्कृतिक वैभव का प्रतीक है। उस काल में हमारा देश व्यापार, शिल्प, शिक्षा और दर्शन में अग्रणी था लेकिन भारत का यह वैभव सामरिक दृष्टि से असुरक्षित था जिसका परिणाम  अनेक विदेशी आक्रमणों और अंग्रेजों की गुलामी के रूप में निकला। ऐसे में मौजूदा दौर में भागवत देश को सिर्फ ‘सोने की चिडिय़ा’ बनाने के पक्ष में नजर नहीं आते हैं। हमारे लिए ‘सोने की चिडिय़ा’ गौरवशाली अतीत की स्मृति तो हो सकती है पर यह अपने आप में पूर्ण भविष्य की दिशा नहीं हो सकती।


भागवत के इस कथन में केवल एक प्रतीकात्मक बदलाव की वकालत नहीं है बल्कि भारत की सामूहिक चेतना को नए युग के लिए तैयार करने का संदेश है। यह वक्तव्य प्रतीकात्मक भाषा में एक गहन वैचारिक परिवर्तन का आह्वान करता प्रतीत हो रहा है।
भागवत का यह कहना कि भारत अब शेर बने, न कि चिडिय़ा, इसमें एक शक्तिशाली राष्ट्र की परिकल्पना है। यहां ‘शेर’ से अभिप्राय सिर्फ एक वन्य जीव से नहीं है बल्कि यह एक ऐसी राष्ट्रीय मानसिकता का प्रतीक है जो शक्तिशाली हो, आत्मनिर्भर हो, निर्णायक हो और अपने क्षेत्र की रक्षा कर सकने में सक्षम हो। इस संदेश से साफ है कि संघ ऐसा देश चाहता है जो हर चुनौती का सामना करने को सदैव तैयार हो। यकीनन, यह महत्वाकांक्षा ऑपरेशन सिंदूर की सफलता से पैदा हुई है,  यानी जो देश में जो हौसला ऑपरेशन सिंदूर से उपजा है, वह  निरंतर बढऩा चाहिए।


भागवत ने इंडिया बनाम भारत की भी बात की है। उनका कहना है कि जब तक हम अपने नाम, भाषा और विचारों में आत्मगौरव नहीं लाएंगे, तब तक दुनिया से सम्मान पाने की उम्मीद अधूरी रहेगी।
संघ प्रमुख ने जो कुछ कहा है, उसमें अप्रत्यक्ष रूप से सरकार के लिए भी एक सन्देश है। हाल के सालों में भारत ने डिजिटल क्रांति, अंतरिक्ष विज्ञान, वैश्विक मंचों पर भागीदारी और रक्षा क्षेत्र में आत्म निर्भरता जैसे विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य किए हैं परंतु भागवत चाहते हैं कि भारत को और अधिक निर्णायक, स्पष्ट और तेज गति से आगे बढऩा चाहिए। भारत को केवल ‘विकासशील’ नहीं बल्कि ‘दिशा देने वाला’ देश बनना है।


शेर बनने का अर्थ केवल सैन्य शक्ति बढ़ाने तक सीमित नहीं है। यह एक समग्र दृष्टिकोण है जिसमें शिक्षा, प्रौद्योगिकी, सांस्कृतिक आत्म विश्वास और वैश्विक रणनीति सब कुछ शामिल हैं।  भागवत ने यह बातें शिक्षाविदों के सम्मेलन में कहीं हैं, इसलिए यह संदेश केवल सरकार या संघ कार्यकर्ताओं तक सीमित नहीं है। यह संदेश देश के हर नागरिक के लिए है और उनसे देश को सामथ्र्यवान बनाने में योगदान का आह्वान है।


 देश का पुराना आर्थिक वैभव लौटे, संघ के लिए यह आज भी महत्वपूर्ण है लेकिन अब वह इतने मात्र से संतुष्ट नहीं है। वह इसमें ‘शेर’ जैसी शक्ति, साहस और रणनीति का समावेश करना चाहता है।


भागवत का यह बयान न केवल महत्वपूर्ण है बल्कि संघ आगामी लक्ष्यों की ओर भी इशारा करता है। भागवत का बयान संघ के लिहाज से भारत की भावी यात्रा की दिशा तय करने वाला है जो न केवल समृद्ध हो बल्कि ताकतवर, निर्णायक और आत्म विश्वास से लबरेज भी हो। संदेश साफ है कि सोने की चिडिय़ा बनकर हम आकर्षक भले लगें लेकिन ‘शेर’ बनकर ही हम सुरक्षित और सम्मानित रह सकते हैं।


 भागवत का यह बयान दरअसल भारत की नई आकांक्षा का प्रतीक है। यह उस मानसिकता से बाहर आने की घोषणा है जो भारत को केवल वैभवशाली अतीत के रूप में देखती है। यह सही भी है। अब हमें अतीत को छोड़ भविष्य में जीने की तैयारी करनी ही चाहिए। यदि भारत एक शक्तिशाली, विवेकशील और आत्म निर्भर ‘शेर’ के रूप में खड़ा होगा तो सिर्फ उसकी समृद्धि और बढ़ेगी बल्कि उसके वैश्विक सम्मान और प्रभाव में भी उत्तरोत्तर बढ़ोतरी होगी। सिर्फ देश की समृद्धि ही नहीं, सुरक्षा भी जरूरी है। हम अतीत के स्वर्ण युग की छाया में वर्तमान की चुनौतियों को अनदेखा नहीं कर सकते।

अमरपाल सिंह वर्मा

मालेगांव विस्फोट एवं भगवा पर कलंक की साजिश

-ललित गर्ग-
29 सितंबर 2008 को मालेगांव में हुए बम विस्फोट की न्यायिक परिणति ने एक बार फिर यह सिद्ध किया है कि कैसे सत्ता, वोटबैंक और वैचारिक पूर्वाग्रहों ने भारतीय न्याय और निष्पक्षता की नींव को झकझोर दिया। मुंबई की एनआईए कोर्ट द्वारा सातों आरोपियों-प्रज्ञा सिंह ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित सहित को सबूतों के अभाव में बरी कर देना न केवल कानूनी दृष्टि से एक महत्वपूर्ण फैसला है, बल्कि यह उस “भगवा आतंकवाद” की मिथ्या कथा पर भी करारा प्रहार है जिसे वर्षों तक कांग्रेस ने राजनीतिक मंचों और मीडिया के जरिए प्रचारित किया गया। यह कांग्रेस की फर्जी कहानी का अंत एवं सत्य की जीत का एक अमूल्य आलेख है।
अदालत का यह वक्तव्य कि ‘आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, कोई भी धर्म हिंसा का समर्थन नहीं कर सकता’, भारतीय संस्कृति और न्यायशास्त्र की मूल आत्मा को पुनः जीवित करता है। यह वही भारत है जहां ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ और ‘अहिंसा परमो धर्मः’ की गूंज होती रही है, लेकिन दुर्भाग्यवश 2008 के बाद हिंदू धर्म, हिंदुत्व और भगवा पर ऐसा कलंक मढ़ा गया मानो वे आतंकवाद के स्रोत हों। मालेगांव विस्फोट मामले में एनआइए की विशेष अदालत उस नतीजे पर पहुंची, जिस पर बांबे हाई कोर्ट ट्रेन विस्फोट कांड की सुनवाई करते हुए पहुंचा था। ऐसा कई आतंकी घटनाओं के मामलों में हो चुका है। इससे यही पता चलता है कि कभी जांच एजेंसियां, कभी अदालतें और कभी दोनों अपना काम सही तरह और समय पर नहीं करतीं। जांच और फिर अदालती कार्यवाही में देरी तथा ढिलाई एक बड़ा रोग है। आतंक के मामलों की जांच में यह भी कोई दबी-छिपी बात नहीं कि संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ, मुस्लिम तुष्टिकरण एवं वोट बैंक बाधा बनते हैं। आतंकी घटनाओं को राजनीतिक रंग दिया जाता है। मालेगांव विस्फोट कांड में प्रज्ञा ठाकुर, सुधाकर द्विवेदी आदि की गिरफ्तारी के आधार पर हिंदू और भगवा आतंक का जुमला उछाला गया। इसका मकसद कथित भगवा आतंक को जिहादी आतंक जैसा बताना था। यह हिंदू ही नहीं, देश विरोधी साजिश थी। इसका लाभ पाकिस्तान को मिला, क्योंकि कांग्रेस के कई नेताओं ने समझौता एक्सप्रेस कांड पर भी एजेंसियों के सहारे भगवा आतंक की फर्जी कहानी गढ़ी।
भगवा आतंकवाद शब्द का पहली बार प्रयोग उस समय के कुछ कांग्रेसी नेताओं ने किया, जिनका उद्देश्य स्पष्ट था, वोटबैंक की तुष्टिकरण नीति, मुस्लिम समाज को डराकर एकतरफा धू्रवीकरण और हिंदू संगठन व सनातन मूल्यों को कलंकित करना। इसका परिणाम हुआ कि वर्षों तक निर्दाेष लोग जेल में सड़ते रहे। साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर को एक संन्यासी जीवन से घसीट कर हिरासत में लिया गया, प्रताड़ित किया गया और उनके आध्यात्मिक जीवन को ध्वस्त कर दिया गया। सवाल यह है कि जब सबूत नहीं थे, तब उन्हें जेल में रखने की ज़रूरत क्यों पड़ी? क्यों जांच एजेंसियों ने बेसिर-पैर की कहानियों को सच मान लिया? क्यों मीडिया ने बिना परीक्षण के ‘हिंदू आतंकवाद’ की ब्रेकिंग न्यूज़ चला दी? यह वही मानसिकता थी जो आतंकवाद को धर्म से जोड़कर एक खास समुदाय को डराने और एक संप्रदाय को बदनाम करने में लगी थी। यह कांग्रेस का एक षडयंत्र एवं साजिश थी जो अब पर्दापाश हो गयी है। कांग्रेस शासित प्रांत में सत्ता का जमकर दुरुपयोग किया गया।
मुंबई से लगभग 200 किलोमीटर दूर मालेगांव शहर में एक मस्जिद के पास एक मोटरसाइकिल पर बंधे विस्फोटक उपकरण में विस्फोट होने से छह लोगों की मौत हो गई थी। धमाके में 100 से अधिक घायल हुए थे। न्यायाधीश ने फैसला पढ़ते हुए कहा कि मामले को संदेह से परे साबित करने के लिए कोई विश्वसनीय और ठोस सबूत नहीं है। मामले में गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के प्रावधान लागू नहीं होते। कोर्ट ने यह भी कहा कि यह साबित नहीं हुआ है कि विस्फोट में इस्तेमाल की गई मोटरसाइकिल प्रज्ञा ठाकुर के नाम पर पंजीकृत थी, जैसा कि अभियोजन पक्ष ने दावा किया है। यह भी साबित नहीं हुआ है कि विस्फोट कथित तौर पर बाइक पर लगाए गए बम से हुआ था। कोर्ट ने कहा, श्रीकांत प्रसाद पुरोहित के आवास में विस्फोटकों के भंडारण या संयोजन का कोई सबूत नहीं मिला। अभियोजन पक्ष यह साबित नहीं कर सका कि विस्फोट से ठीक पहले वह साध्वी प्रज्ञा के पास थी।
इससे पहले सुबह सातों आरोपी दक्षिण मुंबई स्थित सत्र न्यायालय पहुंचे, जहां कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की गई थी। आरोपी जमानत पर बाहर थे। मामले के आरोपियों में प्रज्ञा ठाकुर, पुरोहित, मेजर (सेवानिवृत्त) रमेश उपाध्याय, अजय राहिरकर, सुधाकर द्विवेदी, सुधाकर चतुर्वेदी और समीर कुलकर्णी शामिल थे। उन सभी पर यूएपीए और भारतीय दंड संहिता तथा शस्त्र अधिनियम की संबंधित धाराओं के तहत आतंकवादी कृत्य करने का आरोप लगाया गया था। इस पूरे प्रकरण में न्यायपालिका की देरी और जांच एजेंसियों की लापरवाही स्वयं अदालत द्वारा उजागर की गई। अदालत ने कहा कि ना तो घटनास्थल का स्केच बनाया गया, ना फिंगरप्रिंट लिए गए, ना बम के सटीक स्रोत की पुष्टि हुई और ना ही आरोपियों के खिलाफ कोई प्रत्यक्ष प्रमाण था। अभियोजन पक्ष ने जिस मोटरसाइकिल को बम के लिए इस्तेमाल होने की बात कही थी, वह भी प्रज्ञा ठाकुर से जुड़ी नहीं पाई गई। यह सब कुछ बताता है कि पूरा केस पूर्वग्रहों, दुर्भावना और राजनीतिक साजिश से प्रेरित था। यदि न्याय के नाम पर निर्दाेष लोगों को प्रताड़ित किया जाए, तो वह केवल व्यक्ति नहीं, बल्कि समस्त समाज और संस्कृति को दंडित करने जैसा होता है। प्रश्न यह उठता है-तो क्या अब तक इन आरोपियों को गलत तरीके से आतंकवादी घोषित कर वर्षों तक सलाखों के पीछे रखा गया?
हिंदू धर्म और आतंकवाद-ये दो शब्द आपस में मेल नहीं खाते। सनातन संस्कृति का मूल आधार ही शांति, सहिष्णुता और करुणा है। विश्व में यदि कोई धर्म ऐसा है जिसने ‘युद्ध नहीं, यज्ञ’, ‘हिंसा नहीं, अहिंसा’ का मार्ग दिखाया है, तो वह हिंदू धर्म है। राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, विवेकानंद और गांधी-इन सभी की परंपरा में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं। ‘भगवा आतंकवाद’ एक गढ़ा गया मिथक था, जो ना केवल हिंदू समाज को कलंकित करता है, बल्कि भारत की आत्मा को भी चोट पहुंचाता है। भगवा वस्त्र तो त्याग, तपस्या और आत्मशुद्धि का प्रतीक है। उसे बम और खून से जोड़ना स्वयं भारतीयता के खिलाफ साजिश है।
इस फैसले ने जहां एक ओर निर्दाेषों को न्याय दिया, वहीं दूसरी ओर यह देश के जनमानस को आत्ममंथन का अवसर भी देता है, क्या हम इतनी आसानी से किसी को भी आतंकवादी घोषित कर देंगे? क्या हम किसी राजनीतिक विचारधारा के विरोध के कारण पूरे धर्म को कटघरे में खड़ा कर देंगे? क्या धर्म का दुरुपयोग कर वोटबैंक की राजनीति करते रहेंगे? साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की प्रतिक्रिया-“आज भगवा की जीत हुई है, हिंदुत्व की जीत हुई है” इस बयान में उनके दर्द एवं यथार्थ को समझने की आवश्यकता है। यह केवल एक साध्वी की व्यक्तिगत मुक्ति की खुशी नहीं, बल्कि उन करोड़ों लोगों की आवाज़ है जिनके लिए भगवा आस्था और अस्मिता का प्रतीक है।
वर्षों तक मीडिया ने इस मामले को सनसनीखेज बनाकर ‘हिंदू आतंकवाद’ को ग्लैमराइज किया। प्राइम टाइम पर भगवा को हिंसा से जोड़ना, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को ‘संदिग्ध आतंकी’ की तरह चित्रित करना और बिना न्यायिक पुष्टि के चरित्रहनन करना, पत्रकारिता के मूलभूत सिद्धांतों के खिलाफ था। वहीं, तथाकथित बुद्धिजीवियों एवं देश की सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी ने भी इस मामले में एकतरफा विचारधारा के चलते भगवा को ‘खतरा’ घोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसे लोगों से अब यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या आप सार्वजनिक रूप से माफी मांगेंगे?
मालेगांव विस्फोट मामले में आया फैसला केवल न्यायिक विजय नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक है। यह भारत की न्याय प्रणाली, समाज की सहिष्णुता और धर्म की शुद्धता का प्रमाण है। आज समय है, जब राष्ट्र को यह समझना चाहिए कि धर्म को आतंक से जोड़ना स्वयं एक मानसिक आतंक है। सत्य को स्वीकारने का साहस कीजिए, क्योंकि न्याय तभी पूर्ण होता है जब उसमें निष्पक्षता, संवेदना और सत्य का साथ हो। यह मामला दर्शाता है कि सत्य परे

मित्रताः रिश्तों की आत्मा और संवेदना की जीवंत सरिता

अन्तर्राष्ट्रीय मित्रता दिवस – 3 अगस्त 2025
– ललित गर्ग –

मित्रता वह रिश्ता है, जो न रक्त से बंधा होता है, न किसी सामाजिक अनुबंध से, फिर भी यह जीवन का सबसे आत्मीय और मजबूत संबंध होता है। दोस्ती वह भूमि है जहां प्रेम, विश्वास, अपनत्व, समर्पण और संवेदना एक साथ अंकुरित होते हैं। इसी दुर्लभ और विशुद्ध भाव को सम्मान देने के लिए हर वर्ष अगस्त माह के प्रथम रविवार को ‘अंतरराष्ट्रीय मित्रता दिवस’ मनाया जाता है। मित्रता दिवस का यह दिन केवल औपचारिकता नहीं है, बल्कि वह अवसर है जो रिश्तों की आत्मा को पुनः जागृत करने, टूटते संबंधों को जोड़ने और नफरत की दीवारों के बीच मैत्री के पुल बनाने का निमित्त बनता है। यह दिन एक सार्थक प्रयास है, अपने जीवन की भागदौड़ में उस रिश्ते को याद करने का, जिसने हर मोड़ पर हमें संबल दिया, हौसला दिया और मुस्कुराने की वजह दी।
दुनिया के अधिकांश रिश्ते सामाजिक, पारिवारिक या व्यावसायिक जरूरतों से बने होते हैं, लेकिन मित्रता केवल मानवीयता, करुणा और स्नेह की भावना से जन्म लेती है। इसमें न कोई स्वार्थ होता है, न औपचारिकता, न ही प्रदर्शन। यही कारण है कि श्रीकृष्ण-सुदामा, श्रीराम-विभीषण, गांधी-नेहरू जैसे रिश्ते युगों तक मिसाल बनते हैं। जोसेफ फोर्ट न्यूटन ने कहा है-“लोग इसलिए अकेले होते हैं क्योंकि वे मित्रता के पुल बनाने की बजाय दुश्मनी की दीवारें खड़ी कर लेते हैं।” आज यही सबसे बड़ा संकट है-मनुष्यता की गिरती दीवारें, रिश्तों की सूखती ज़मीन, और आत्मीयता की मरती हुई पुकार। एक बड़ा सवाल है कि क्यों सूख रही है रिश्तों की मिट्टी? आज हम तकनीकी रूप से जितने जुड़ चुके हैं, भावनात्मक रूप से उतने ही दूर हो गए हैं। मोबाइल, सोशल मीडिया, आभासी दुनिया ने संवाद को बढ़ाया है पर संपर्क को नहीं, क्योंकि आत्मा से जुड़ाव संवाद से नहीं, संवेदना से होता है।
नयी सभ्यता और उपभोक्तावाद के इस दौर में हर रिश्ता लाभ और हानि की तुला पर तौला जाता है। यही कारण है कि वैचारिक मतभेदों से मनभेद, प्रतिस्पर्धा से विरक्ति, और स्वार्थ से संवेदनहीनता जन्म ले रही है। ऐसे समय में दोस्ती ही एकमात्र ऐसा रिश्ता है जो इन सभी दीवारों को गिरा सकता है। यह केवल ‘रिश्ता’ नहीं बल्कि एक मनःस्थिति, एक दृष्टिकोण, एक आध्यात्मिक अनुभव है। जहां यह पर्व दक्षिण अमेरिकी देशों में 20 और 30 जुलाई को मनाया जाता है, वहीं भारत, मलेशिया, बांग्लादेश जैसे देशों में यह अगस्त के पहले रविवार को धूमधाम से मनाया जाता है। युवाओं के लिए यह केवल गिफ्ट, सेल्फी और चॉकलेट तक सीमित रह गया है, जबकि इसकी मूल आत्मा है, एक-दूसरे की भावनाओं को समझना, स्वीकार करना और निभाना।
विश्व मित्रता दिवस मनाते हुए एक प्रश्न उभरता है कि दोस्ती एवं मित्रता की इतनी आदर्श स्थिति एवं महत्ता होते हुए भी आज मनुष्य-मनुष्य के बीच मैत्री भाव का इतना अभाव क्यों है? क्यों है इतना पारस्परिक दुराव? क्यों है वैचारिक वैमनस्य? क्यों मतभेद के साथ जनमता मनभेद? ज्ञानी, विवेकी, समझदार होने के बाद भी आए दिन मनुष्य क्यों लड़ता झगड़ता है। विवादों के बीच उलझा हुआ तनावग्रस्त क्यों खड़ा रहता है। न वह विवेक की आंख से देखता है, न तटस्थता और संतुलन के साथ सुनता है, न सापेक्षता से सोचता और निर्णय लेता है। यही वजह है कि वैयक्तिक रचनात्मकता समाप्त हो रही है। पारिवारिक सहयोगिता और सहभागिता की भावनाएं टूट रही हैं। सामाजिक बिखराव सामने आ रहा है। धार्मिक आस्थाएं कमजोर पड़ने लगी हैं। आदमी स्वकृत धारणाओं को पकड़े हुए शब्दों की कैद में स्वार्थों की जंजीरों की कड़ियां गिनता रह गया है। ऐसे समय में दोस्ती का बंधन रिश्तों में नयी ऊर्जा का संचार करता है।
दुनिया बदल गई, तौर-तरीके बदल गए, पर दोस्ती की आत्मा आज भी वैसी ही है, शुद्ध, निस्वार्थ और जीवनदायिनी। श्रीकृष्ण और सुदामा की पवित्र मित्रता आज भी यह सिखाती है कि सच्चे दोस्त का मूल्य धन से नहीं, हृदय की आत्मीयता से आंका जाता है। श्रीराम और विभीषण की दोस्ती यह प्रमाण है कि विचारों की भिन्नता के बावजूद दिलों का मेल मित्रता को अमर बना देता है। आज जब रिश्ते स्वार्थों की चौखट पर सिर झुका रहे हैं, तब भी दोस्ती वह रिश्ता है जो बिना किसी अपेक्षा के जीवन को अर्थ देता है। आज की क्षणिक, स्वार्थ पर टिकी दोस्तियां जब टूटती हैं तो व्यक्ति भीतर से बिखर जाता है। तभी किसी विचारक ने कहा था-पहले प्रार्थना करते थे- हे प्रभु! दुश्मनों से बचाना, अब कहना पड़ता है, हे ईश्वर! दोस्तों से बचाना।’ क्योंकि अब दोस्ती भी छल-कपट का आवरण ओढ़ चुकी है। जबकि आधुनिक समय में सच्चे मित्र सचमुच जीवन की बांसुरी में बसी आत्माओं के समान अनमोल है। मित्र वही जो जीवन के हर रंग में साथ दे, अंधेरे में दीपक की तरह और उजाले में छांव की तरह। ऐसे मित्र दुर्लभ होते हैं, लेकिन यदि जीवन में एक भी सच्चा मित्र हो तो वह संपत्ति, शक्ति और सुखों से बढ़कर होता है।
आचार्य तुलसी ने मित्रता के लिए जो सात सूत्र दिए, वे आज पहले से अधिक प्रासंगिक हैं-विश्वास, स्वार्थ-त्याग, अनासक्ति, सहिष्णुता, क्षमा, अभय और समन्वय। ये सात सूत्र दोस्ती को सतही नहीं बल्कि आध्यात्मिक ऊंचाई प्रदान करते हैं। ये न केवल मित्रता को टिकाऊ बनाते हैं, बल्कि जीवन को भी सकारात्मक दिशा में मोड़ते हैं। दोस्ती के पांच मूलमंत्र हैं-एक-दूसरे की कमियों और अच्छाइयों को बिना शर्त स्वीकार करें। भावनाओं का सम्मान करें और समय दें। रिश्ता हल्का, सहज और मुस्कराहटों से भरपूर हो। पारदर्शिता, ईमानदारी और भरोसे को केंद्र में रखें। दोस्ती को निभाना सीखें, सिर्फ जताना नहीं। इन सूत्रों को अपनाकर हम मित्रता को सिर्फ एक दिवस की औपचारिकता नहीं, बल्कि जीवन की जीवन्तता बना सकते हैं। इसीलिये यदि आज भी कोई रिश्ता है जो समय, दूरी और मतभेद की सीमाएं लांघ सकता है, तो वह सिर्फ दोस्ती है-नवीन युग की पुरातन धरोहर।
विचार-भेद तो स्वस्थ समाज की निशानी हैं, लेकिन मन-भेद समाज को भीतर से खोखला कर देते हैं। क्रांति विचार-भेद से आती है, जबकि विद्रोह मन-भेद से। इसलिए मित्रता केवल भावनाओं की साझा ज़मीन नहीं, सामाजिक क्रांति की प्रयोगशाला भी बन सकती है। इसीलिये चलो एक बार फिर दोस्त बनें अभियान का सूत्रपात करते हुए जीवन को मुस्कान से भरे। इसके लिये मित्रता दिवस केवल एक संदेश नहीं देता, बल्कि एक पुकार है, जीवन को फिर से रंगीन, मधुर और अर्थपूर्ण बनाने की। दोस्ती का यह दिवस आमंत्रित कर रहा है अपनी ओर, बांहें फैलाये हुए, हमें बिना कुछ सोचे, ठिठके बगैर, भागकर दोस्ती की पगडंडी को पकड़ लेने के लिये। जीवन रंग-बिरंगा है, यह श्वेत है और श्याम भी। दोस्ती की यही सरगम कभी कानों में जीवनराग बनकर घुलती है तो कहीं उठता है संशय का शोर। दोस्ती को मजबूत बनाता है हमारा संकल्प, हमारी जिजीविषा, हमारी संवेदना लेकिन उसके लिये चाहिए समर्पण एवं अपनत्व की गर्माहट। यह जीना सिखाता है, जीवन को रंग-बिरंगी शक्ल देता है। प्रेरणा देता है कि ऐसे जिओ कि खुद के पार चले जाओ। ऐसा कर सके तो हर अहसास, हर कदम और हर लम्हा खूबसूरत होगा और साथ-साथ सुन्दर हो जायेगी जिन्दगी। हेलेन केलर ने ठीक ही कहा था-“मैं उजाले में अकेले चलने के बजाय अंधेरे में एक सच्चे दोस्त के साथ चलना पसंद करूंगी।” इसलिए आइए, इस दिन एक संकल्प लें-कि हम दोस्ती को केवल सोशल मीडिया की पोस्ट नहीं, बल्कि दिल की सच्ची अनुभूति बनाएंगे। हम मित्रता को उपहारों से नहीं, समर्पण, सहयोग और संवेदना से सजायेंगे। क्योंकि दोस्ती ही वह जादुई संवेदना है जो जीवन को भीतर से रोशन करती है, और हमारे अस्तित्व को एक नई परिभाषा देती है। पुरातन काल में जहाँ मित्र धर्म निभाना जीवन-मूल्य था, आज वह धर्म हमारी संवेदनाओं की अंतिम आशा बन गया है। मित्रता अब एक दिन का उत्सव नहीं, जीवन की जरूरत है, जहाँ न कोई दायित्व होता है, न कोई बंधन, सिर्फ अपनापन होता है। चाहे युग बदले या तकनीक, दिलों की दूरी को मिटा सकने की शक्ति केवल सच्ची दोस्ती ही रखती है।

विश्व का सबसे महंगा और अत्याधुनिक उपग्रह ‘निसार’-‘अंतरिक्ष के क्षेत्र में नासा-इसरो की बड़ी छलांग!

हाल ही में बुधवार 30 जुलाई 2025 को नासा(अमेरिका)और भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो(भारत) के संयुक्त तत्वावधान में  विश्व का सबसे महंगा और अत्याधुनिक उपग्रह ‘निसार’, जो कि एक ‘लो अर्थ ऑर्बिट (एलईओ) सैटेलाइट’ है, को श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से शाम 5:40 बजे प्रक्षेपित करके, जो कि 2,392-2800 किलो वज़नी(एसयूवी के आकार का) है, को नासा-इसरो द्वारा सफलतापूर्वक अंतरिक्ष में स्थापित किया गया है। वास्तव में, यह अंतरिक्ष के क्षेत्र में भारत और अमेरिका की एक बड़ी और संयुक्त सफलता मानी जा रही है। पाठकों को बताता चलूं कि नासा-इसरो सिंथेटिक एपर्चर राडार या ‘निसार मिशन’ दोहरी आवृत्ति(डबल फ्रीक्वेंसी) वाले सिंथेटिक एपर्चर रडार उपग्रह को विकसित करने और लॉन्च करने के लिए नासा और इसरो के बीच एक संयुक्त परियोजना(ज्वाइंट प्रोजेक्ट) है। ‘निसार’ का पूरा नाम-‘नासा-इसरो सिंथेटिक अपर्चर रडार’ है।13,000 करोड़ रुपये (1.5 बिलियन डॉलर) की लागत वाले इस मिशन में इसरो का योगदान 788 करोड़ रुपये है। ग़ौरतलब है कि ‘निसार मिशन’ एक्सिअम-4 मिशन के तुरंत बाद लॉन्च किया गया है, जिसमें पहली बार कोई भारतीय अंतरिक्ष यात्री अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन गया था। इसे जीएसएलवी-एस16 रॉकेट के ज़रिए लॉन्च किया गया है। इस मिशन की अवधि की यदि हम यहां बात करें तो इसकी अवधि 3 साल है, लेकिन ईंधन और स्थिरता के आधार पर यह 5 साल तक भी चल सकता है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार यदि हम यहां ‘निसार’ की डेटा मात्रा की बात करें तो, हर दिन 80 टेराबाइट डेटा, यानी 150 हार्ड ड्राइव (512 जीबी) जितनी इसकी डेटा क्षमता है। इसमें जो एंटीना लगा है वह 12 मीटर का तारों का मेश एंटीना है, जिसे ‘नासा’ के जेट प्रोपल्शन लेबोरेटरी (जेपीएल) ने बनाया है। उल्लेखनीय है कि यह ‘नासा’ द्वारा किसी उपग्रह के लिए बनाया गया, अब तक का सबसे बड़ा/विशालकाय एंटीना है। जानकारी के अनुसार यह लॉन्च के बाद खुलता है और रडार सिग्नल भेजने-प्राप्त करने में मदद करता है।और यदि हम इसकी(निसार) पावर की बात करें तो इसमें पावर 6,500 वाट बिजली है, जो कि इसे बड़े सोलर पैनल से मिलेगी। ‘निसार’ उपग्रह में इस्तेमाल होने वाली स्वीप-एसएआर तकनीक, इसे एक साथ बड़े क्षेत्र को हाई-रिजॉल्यूशन में स्कैन करने की ताकत देती है।यह रडार सिग्नल भेजता है और उनके वापस आने पर तस्वीरें बनाता है।उपलब्ध जानकारी के अनुसार ‘निसार’ उपग्रह नीले ग्रह धरती की हर हलचल पर बाज जैसी तीक्ष्ण और पैनी नज़र रखेगा और इसका फायदा समस्त मानवजाति को मिलेगा। गौरतलब है कि ‘निसार मिशन’ पृथ्वी का ‘एमआरआई स्कैनर’ है, जो भूकंप, सुनामी, भूस्खलन और बाढ़ जैसी विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं की पहले से ही चेतावनी दे देगा। यह सैटेलाइट(उपग्रह ) दोहरे रडार सिस्टम, हर मौसम में काम करने की क्षमता, और सेंटीमीटर स्तर की सटीकता के साथ पृथ्वी की सतह को स्कैन करेगा। यह धरती की सतह की इतनी बारीक तस्वीरें ले सकता है कि सेंटीमीटर तक के छोटे से छोटे बदलाव भी आसानी के साथ पकड़ लेता है। दूसरे शब्दों में कहें तो ‘निसार’ एक सेंटीमीटर के दायरे की सटीक फोटो खींचने और उसे धरती पर भेजने में सक्षम है। वास्तव में, यह पृथ्वी पर भूमि और बर्फ का 3डी व्यू मुहैया कराएगा। उपलब्ध जानकारी के अनुसार यह दुनिया का पहला ऐसा सैटेलाइट है जो दोहरी रडार फ्रीक्वेंसी (नासा का एल-बैंड और इसरो का एस-बैंड) का इस्तेमाल करके पृथ्वी की सतह(धरातल) को स्कैन करेगा।नासा का एल-बैंड (24 सेमी तरंगदैर्ध्य) घने जंगल, बर्फ और मिट्टी के नीचे की गतिविधियों जैसे भूकंप और ज्वालामुखी का आसानी से पता लगा सकता है। वहीं दूसरी ओर, इसरो का एस-बैंड सतह की छोटी-छोटी चीजों, जैसे फसलों की संरचना, बर्फ की परतें और मिट्टी की नमी आदि को मापने में माहिर है। वास्तव में, ये दोनों रडार(एल और एस बैंड) मिलकर 5-10 मीटर की सटीकता के साथ तस्वीरें लेते हैं और 242 किमी चौड़े क्षेत्र को कवर करते हैं। पाठकों को बताता चलूं कि जहां पर एक आम सैटेलाइट ऑप्टिकल कैमरों से लैस होता है, तथा वह घने बादलों और रात के समय में तस्वीरें लेने या यूं कहें कि काम करने में सक्षम नहीं होता है, वहीं ‘निसार’ के रडार किसी भी मौसम में, प्रतिकूल परिस्थितियों में भी बादलों, धुएं और जंगलों आदि को भेदकर दिन-रात कभी भी काम कर सकने की अभूतपूर्व क्षमताएं रखतें हैं। जानकारी के अनुसार ‘निसार’ सैटेलाइट हर 12 दिन में पृथ्वी और बर्फीली सतह को स्कैन करेगा, और औसतन हर 6 दिन में डेटा उपलब्ध कराएगा। यह सूर्य-समकालिक कक्षा (747 किमी ऊंचाई, 98.4° झुकाव) में रहेगा, जिससे इसे लगातार रोशनी मिलेगी और यह ठीक से काम करता रहेगा। दूसरे शब्दों में कहें तो, इस ‘लो अर्थ ऑर्बिट सैटेलाइट'(निसार) को पृथ्वी से 747 किलोमीटर की ऊंचाई पर स्थापित किया जाएगा। यह सैटेलाइट ‘सन-सिंक्रोनस पोलर ऑर्बिट’ में भेजा गया है, यानी यह पृथ्वी के एक ही हिस्से से नियमित अंतराल पर गुज़रेगा, जिससे वह सतह पर होने वाले बदलावों को देख सकेगा और उसकी मैपिंग कर सकेगा। यहां यह कहना ग़लत नहीं होगा कि इसके(निसार सैटेलाइट) दोहरे रडार, इसके हर मौसम में काम करने की क्षमता और मुफ्त डेटा नीति इसे अनोखा बनाती है।सच तो यह है कि भारत के लिए यह आपदा प्रबंधन, कृषि और जल प्रबंधन में गेम-चेंजर साबित होगा। दरअसल,यह सैटेलाइट(निसार) सटीकता से धरती की सतह पर जमी बर्फ़ से लेकर उसके ज़मीनी हिस्से, ईकोसिस्टम में बदलाव, समंदर के जलस्तर में बदलाव और ग्राउंड वाटर लेवल से जुड़े आंकड़े जमा करेगा। यह बाढ़ नदियों के जलस्तर को मापकर बाढ़ का समय पर अलर्ट देगा और धरती पर आने वाले तूफानों की भी मानिटरिंग करेगा। इतना ही नहीं,यह जलवायु परिवर्तन, कृषि और जंगल के साथ ही साथ तटीय निगरानी, और बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे कि बांधों, पुलों, और अन्य ढांचों पर भी अपनी पैनी नज़र रखेगा और जानकारी उपलब्ध कराएगा। पाठक जानते होंगे कि हाल ही में 30 जुलाई 2025 को ही रूस के कामचटका प्रायद्वीप के पास ओखोट्स्क सागर में 8.8 तीव्रता का भूकंप आया था, जिसने 12 देशों—रूस, जापान, हवाई, कैलिफोर्निया, अलास्का, सोलोमन द्वीप, चिली, इक्वाडोर, पेरू, फिलीपींस, गुआम और न्यूजीलैंड में सुनामी का खतरा पैदा किया। इस भूकंप की ताकत हिरोशिमा जैसे 9,000-14,000 परमाणु बमों के बराबर थी। कुरील द्वीपों में 5 मीटर ऊंची लहरें आईं। फुकुशिमा, जापान में लोग 2011 की सुनामी की याद से आज भी खौफ खाते हैं। वास्तव में, मनुष्य को ऐसी आपदाओं की पहले से खबर मिलना बहुत जरूरी है, ताकि आपदाओं का पहले से ही प्रबंधन किया जा सके और जान-माल की सुरक्षा की जा सके। यही काम अब अमेरिका और भारत का ‘निसार’ सैटेलाइट करेगा। प्राकृतिक भूकंप और सुनामी जैसी आपदाओं की संभावना के पूर्व अनुमान से आपदा प्रबंधन को तेज और सटीक बनाया जा सकता है, जिससे जान-माल का नुकसान कम हो सकेगा। दूसरे शब्दों में कहें तो, इसरो और नासा के संयुक्त मिशन से मिले आंकड़े न सिर्फ़ इन दोनों देशों बल्कि पूरी दुनिया को आपदाओं से निपटने और तैयारी करने में मदद करेंगे। हाल फिलहाल, यही कहूंगा कि उपग्रह ‘निसार’ (नासा इसरो सिंथेटिक अपर्चर राडार) के सफल प्रक्षेपण के साथ ही दुनिया की दो अंतरिक्ष महाशक्तियों इसरो और नासा के बीच संयुक्त अंतरिक्ष अन्वेषण के एक नए युग का आरंभ हुआ है। कहना चाहूंगा कि ‘निसार’ के प्रक्षेपण के साथ ही इसरो और नासा ने अंतरिक्ष क्षेत्र में परस्पर सहयोग की एक मजबूत नींव रखी है। वास्तव में, अंतरिक्ष अन्वेषण में अंतरराष्ट्रीय सहयोग कई मायनों में लाभदायक है। पाठकों को बताता चलूं कि इसरो-नासा संबंधों की शुरुआत चंद्रयान-1 मिशन से हुई थी। चंद्रयान-1 मिशन में हम नासा के दो पेलोड ले गए थे, जिसके परिणाम बेहद सफल रहे थे। एक प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक में छपी एक खबर के अनुसार, ‘नासा के पास जेपीएल जैसी कई प्रयोगशालाएं हैं। ये प्रयोगशालाएं स्वतंत्र रूप से काम करती है। इन्हें खुद ही परियोजनाओं का प्रस्ताव रखने और जरूरत पड़ने पर अंतरराष्ट्रीय साझेदार चुनने की आजादी है।’ यहां पाठकों को बताता चलूं कि जेपीएल का मतलब जेट प्रोपल्शन लेबोरेटरी है, जो कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (कैल्टेक) द्वारा संचालित एक अमेरिकी संघीय अनुसंधान और विकास केंद्र है। यह नासा के लिए एक प्रमुख केंद्र है, जो रोबोटिक अंतरिक्ष अन्वेषण, ग्रहों की खोज, और पृथ्वी विज्ञान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारत, भविष्य में अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित करने की योजना बना रहा है। ऐसे समय में नासा के साथ सहयोग भारत के अंतरिक्ष स्टेशन में साझेदारी का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।

सुनील कुमार महला

स्क्रीन का शिकंजा: ऑस्ट्रेलिया से सबक लेता भारत?”

ऑस्ट्रेलिया ने 16 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए यूट्यूब समेत सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर प्रतिबंध लगाने का साहसिक फैसला लिया है। यह कदम बच्चों को ऑनलाइन दुनिया के नकारात्मक प्रभावों से बचाने के लिए उठाया गया है। भारत जैसे देशों में, जहां डिजिटल लत तेजी से फैल रही है, वहां इस तरह की नीति बेहद जरूरी हो गई है। यह समय है कि भारत भी बच्चों के डिजिटल अधिकारों की रक्षा के लिए स्पष्ट कानून बनाए, अभिभावकों को जागरूक करे और बच्चों को स्क्रीन की लत से मुक्त करके संतुलित विकास की दिशा में कदम बढ़ाए।ऑस्ट्रेलिया के फैसले से दुनिया के देशों को सबक लेना चाहिए कि बच्चों को सोशल मीडिया से दूर रखने का समय अब आ गया है।

– डॉ. प्रियंका सौरभ

“बचपन अब किताबों से नहीं, स्क्रीन की चमक से आकार ले रहा है।” यह वाक्य अब सिर्फ साहित्यिक प्रतीक नहीं रहा, बल्कि हमारे समाज की वास्तविकता बन चुका है। मोबाइल, टैबलेट और इंटरनेट की पहुँच बच्चों तक इतनी सहज हो चुकी है कि चार साल का बच्चा भी यूट्यूब पर कार्टून देख सकता है और दस साल का बच्चा इंस्टाग्राम पर रील्स बनाना जानता है। ऐसी स्थिति में ऑस्ट्रेलिया सरकार द्वारा लिया गया फैसला न सिर्फ साहसिक है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को सुरक्षित रखने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम भी है। ऑस्ट्रेलिया ने यह तय कर दिया है कि 16 वर्ष से कम आयु के बच्चे यूट्यूब जैसे प्लेटफार्म का भी उपयोग नहीं कर सकेंगे। यह नीति 10 दिसंबर से लागू हो रही है, और इसका उल्लंघन करने पर संबंधित प्लेटफार्मों पर भारी जुर्माना लगाया जाएगा।

ऑस्ट्रेलिया की संसद पहले ही फेसबुक, इंस्टाग्राम, स्नैपचैट, टिकटॉक और एक्स जैसे प्लेटफार्मों को 16 साल से कम आयु के बच्चों के लिए प्रतिबंधित कर चुकी है। अब यूट्यूब को भी इसी दायरे में शामिल किया गया है। यह दुनिया का पहला कानून है जो बच्चों की डिजिटल सुरक्षा को लेकर इतनी स्पष्टता और कठोरता के साथ लागू किया जा रहा है। नियमों के मुताबिक अगर कोई प्लेटफार्म 16 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को सेवाएं देना जारी रखता है, तो उस पर 5 करोड़ ऑस्ट्रेलियाई डॉलर तक का जुर्माना लगाया जाएगा। यह कोई सामान्य चेतावनी नहीं है, बल्कि टेक कंपनियों को जवाबदेह बनाने की एक गंभीर कोशिश है।

ऑस्ट्रेलिया की सरकार का मानना है कि ऑनलाइन प्लेटफॉर्म का बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य, सामाजिक विकास और व्यवहार पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीज ने यह स्पष्ट कहा है कि माता-पिता को यह जानने का हक है कि उनके बच्चे क्या देख रहे हैं और किसके प्रभाव में हैं। यूट्यूब जैसे प्लेटफार्म पर जो सामग्री बच्चों के सामने आती है, वह कई बार हिंसा, लैंगिक पूर्वाग्रह, अपशब्दों और अमर्यादित व्यवहार से भरी होती है। इतना ही नहीं, बच्चों को लगातार विज्ञापन, ब्रांडेड कंटेंट और चकाचौंध वाली ज़िंदगी दिखाकर उनकी असल दुनिया से दूरी बढ़ाई जा रही है।

यूट्यूब का कहना है कि वह केवल एक वीडियो होस्टिंग प्लेटफार्म है और उसे सोशल मीडिया की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए। यूट्यूब के प्रवक्ता का तर्क है कि 13 से 15 साल के लगभग तीन-चौथाई ऑस्ट्रेलियाई किशोर इसका उपयोग करते हैं और इसे शैक्षणिक, रचनात्मक व मनोरंजक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। पर सवाल उठता है कि क्या यूट्यूब या अन्य सोशल मीडिया प्लेटफार्म बच्चों के लिए वाकई सुरक्षित हैं? क्या वे सुनिश्चित करते हैं कि बच्चों को केवल उपयुक्त और सकारात्मक सामग्री ही दिखाई जाए? वास्तविकता यह है कि अधिकतर टेक कंपनियाँ केवल व्यूज, क्लिक और विज्ञापन राजस्व के लिए काम करती हैं, न कि बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए।

भारत जैसे देशों में यह मुद्दा और अधिक गंभीर हो जाता है। यहां इंटरनेट यूज़र्स की संख्या करोड़ों में है, जिनमें बड़ी संख्या किशोरों और स्कूली बच्चों की है। एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 13 से 17 वर्ष के बच्चे हर दिन औसतन तीन घंटे से अधिक समय सोशल मीडिया पर बिताते हैं। इतनी कम उम्र में जब बच्चों को किताबों, खेल और सामाजिक मेल-जोल में समय बिताना चाहिए, वे अपने कमरे में अकेले बैठकर स्क्रीन से चिपके रहते हैं। इससे न सिर्फ उनकी आँखों और शारीरिक स्वास्थ्य पर असर पड़ता है, बल्कि भावनात्मक और सामाजिक विकास भी बाधित होता है।

स्कूलों में शिक्षकों को अब इस बात की चिंता होती है कि विद्यार्थी पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं, क्योंकि रात भर मोबाइल पर लगे रहते हैं। माता-पिता इस कशमकश में रहते हैं कि बच्चों को मोबाइल दें या न दें, क्योंकि अगर वे न दें तो बच्चा पिछड़ने का डर जताता है, और दें तो स्क्रीन की लत लग जाती है। डिजिटल लत अब नशे की तरह फैल चुकी है। बच्चों में चिड़चिड़ापन, नींद की कमी, एकाग्रता में गिरावट और रिश्तों से दूरी जैसी समस्याएँ अब आम हो चुकी हैं। कुछ बच्चे तो सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग और साइबर बुलिंग का शिकार हो रहे हैं, जिससे उनका आत्मविश्वास और मानसिक संतुलन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।

भारत में अभी तक इस मुद्दे पर कोई ठोस नीति नहीं बन पाई है। सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर 13 साल की आयु सीमा तो तय है, लेकिन उसका पालन कोई नहीं करता। बच्चे गलत उम्र डालकर खाते बना लेते हैं और बिना किसी निगरानी के उनका इस्तेमाल करते हैं। माता-पिता की भूमिका भी संदिग्ध है – कुछ अभिभावक खुद ही बच्चों को स्क्रीन थमाकर व्यस्त कर लेते हैं, जबकि उन्हें मार्गदर्शक बनना चाहिए। इसके अलावा, भारत में स्कूल स्तर पर भी डिजिटल नैतिकता की शिक्षा का अभाव है। बच्चों को यह नहीं सिखाया जाता कि तकनीक का विवेकपूर्ण उपयोग कैसे करें, फर्जी समाचारों से कैसे बचें, या साइबर खतरों से कैसे सतर्क रहें।

समस्या सिर्फ टेक्नोलॉजी की नहीं है, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक जागरूकता की भी है। जब तक माता-पिता, शिक्षक और सरकारें मिलकर यह तय नहीं करेंगी कि बच्चों को किस तरह की डिजिटल दुनिया में प्रवेश करना है, तब तक कोई भी तकनीकी समाधान प्रभावी नहीं हो सकता। डिजिटल अनुशासन केवल कानून से नहीं, संस्कार और समझ से आता है।

ऑस्ट्रेलिया का यह कदम इस मायने में प्रेरक है कि उसने बच्चों की डिजिटल सुरक्षा को प्राथमिकता दी और टेक कंपनियों को चुनौती दी। भारत को भी अब इंतज़ार नहीं करना चाहिए। यह समय है जब सरकार एक स्पष्ट और सख्त नीति बनाए कि 16 वर्ष से कम आयु के बच्चों को सोशल मीडिया और मनोरंजक प्लेटफार्म से दूर रखा जाएगा। साथ ही, कंटेंट फिल्टरिंग, स्क्रीन टाइम लिमिट, और आयु सत्यापन जैसी तकनीकों को अनिवार्य किया जाए।

इसके साथ ही अभिभावकों के लिए जागरूकता अभियान चलाए जाएँ, ताकि वे यह समझ सकें कि बच्चों के जीवन में स्क्रीन की भूमिका क्या होनी चाहिए। स्कूलों में डिजिटल नागरिकता की शिक्षा को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए। मीडिया और फिल्म जगत को भी यह जिम्मेदारी लेनी होगी कि वे बच्चों के लिए सकारात्मक, मूल्य-आधारित और प्रेरक सामग्री का निर्माण करें।

याद रखना चाहिए कि आज के बच्चे कल का समाज तय करेंगे। अगर वे अभी से वर्चुअल दुनिया के भ्रम में खो जाएँगे, तो उन्हें वास्तविक दुनिया की चुनौतियों का सामना करने की ताकत नहीं मिल पाएगी। एक ऐसा समाज तैयार होगा जो स्क्रीन पर जीता होगा, लेकिन जीवन की सच्चाईयों से दूर होगा।

बचपन केवल उम्र का एक पड़ाव नहीं होता, वह मानव जीवन की नींव होता है। अगर उस नींव में सोशल मीडिया की दरारें भर जाएँगी, तो ऊपर खड़ी होने वाली इमारत कभी मजबूत नहीं बन सकेगी। ऑस्ट्रेलिया ने यह संदेश दुनिया को दिया है कि बच्चों को संरक्षित करना केवल पारिवारिक जिम्मेदारी नहीं, राष्ट्र की नीति होनी चाहिए।

भारत को चाहिए कि वह इस चेतावनी को गंभीरता से ले और भविष्य की पीढ़ियों को सिर्फ डिजिटल दक्ष नहीं, बल्कि संतुलित, संवेदनशील और सुरक्षित नागरिक बनाए। अब समय आ गया है कि हम अपने बच्चों को स्क्रीन से थोड़ी दूरी देकर, उनके जीवन में फिर से किताबों, खेलों और संबंधों को जगह दें। वरना, वह दिन दूर नहीं जब बच्चे हमारे साथ नहीं, बल्कि सिर्फ स्क्रीन के साथ बड़े होंगे।

> “अगर बचपन स्क्रीन में खो गया,

तो समाज खुद अपने भविष्य से रूठ जाएगा।”

शिक्षण संस्थानों में छात्र-छात्राओं के सुसाइड पर सुप्रीम कोर्ट सख्त !

देश में छात्रों की खुदकुशी (सुसाइड) बहुत ही चिंताजनक है।इस संदर्भ में हाल ही में हमारे देश के माननीय सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लिया है। दरअसल, माननीय सुप्रीम कोर्ट ने ग्रेटर नोएडा की शारदा यूनिवर्सिटी और आईआईटी खड़गपुर में छात्रों की आत्महत्या के मामले में गंभीर सवाल उठाए हैं।पाठकों को बताता चलूं कि सुप्रीम कोर्ट ने आईआईटी, खड़गपुर से पूछा कि छात्र आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? और संस्थान क्या कर रहा है? सुप्रीम कोर्ट ने शारदा यूनिवर्सिटी के मैनेजमेंट को कोर्ट के दिशा-निर्देशों का पालन न करने के लिए फटकार भी लगाई है। सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल दोनों राज्यों की पुलिस को चार हफ़्तों में स्टेटस रिपोर्ट देने का निर्देश दिया।सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाया कि- कॉलेज के छात्रों ने पिता को बताया कि उनकी बेटी ने आत्महत्या कर ली है? मैनेजमेंट ने क्यों नहीं बताया? मैनेजमेंट ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन क्यों नहीं किया? क्या पुलिस और अभिभावकों को सूचित करना मैनेजमेंट का कर्तव्य नहीं है? बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि माननीय सुप्रीम कोर्ट का छात्रों की आत्महत्या पर सख्त होना सही ही है, क्यों कि प्रबंधन, प्रशासन लापरवाही का परिचय दे रहे हैं और छात्रों के मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य, उनकी समस्याओं, सुरक्षा की ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहे हैं। वास्तव में, छात्रों की सुरक्षा, खासकर उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, संस्थानों की पहली नैतिक जिम्मेदारी और कर्तव्य होना चाहिए। यहां यह उल्लेखनीय है कि जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की बेंच ने छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए 15 अहम दिशा-निर्देश जारी किए हैं। बेंच ने कहा कि ये दिशा-निर्देश तब तक लागू और बाध्यकारी रहेंगे, जब तक इस विषय में कोई कानून या नियम नहीं बन जाता। वास्तव में होना तो यह चाहिए कि सभी शैक्षणिक संस्थान छात्र-छात्राओं के मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक समान नीति को अपनाएं और इसे लागू करें। वास्तव में, यह गंभीर चिंता का एवं संवेदनशील विषय है कि आज देशभर में अनेक संस्थान छात्र-छात्राओं के मानसिक स्वास्थ्य के लिए न तो कोई नीतियां ही बनातें हैं और न ही इन्हें ठीक प्रकार से लागू ही करते हैं। शैक्षणिक संस्थानों यह चाहिए कि वे छात्र-छात्राओं के मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक समान नीति बनाएं,उस नीति की समय-समय पर समीक्षा करें,उसे अद्यतन करें, इसे  संस्थान की वेबसाइट और नोटिस बोर्ड पर सार्वजनिक एवं अनिवार्य रूप से उपलब्ध कराएं। छात्र-छात्राओं की अधिक संख्या वाले संस्थानों को यह चाहिए कि वे अपने यहां प्रशिक्षित काउंसलर(ट्रेंड काउंसलर) , मनोवैज्ञानिक या सोशल वर्कर की नियुक्ति अनिवार्य करें ताकि बच्चों की समय-समय पर काउंसलिंग की जा सके और उनकी समस्याओं का समय रहते समाधान किया जा सके। छात्र-छात्राओं की कम संख्या वाले संस्थानों में रिलायबल(भरोसेमंद) तथा ट्रेंड आउटर मेंटल हेल्थ स्पेशलिस्ट(प्रशिक्षित बाहरी मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ) से औपचारिक रूप से सहयोग लिया जा सकता है और छात्र-छात्राओं को मार्गदर्शन और सहायता प्रदान की जा सकती है।सुप्रीम कोर्ट ने कोचिंग संस्थानों समेत सभी शैक्षणिक संस्थानों से कहा है कि वे छात्रों को पढ़ाई के प्रदर्शन(मेरिट के आधार पर) के आधार पर बैच में न बांटने की बात कही है, क्यों कि ऐसा करने से छात्रों में शर्मिंदगी और मानसिक दबाव (मेंटल स्ट्रेस) पैदा होता है। संस्थानों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके यहां कार्यरत सभी स्टाफ (जैसे कि शिक्षण, गैर-शिक्षण और प्रशासनिक स्टाफ) सदस्यों को वंचित और हाशिये पर खड़े छात्रों के साथ संवेदनशील, समावेशी और भेदभाव रहित व्यवहार करने के लिए प्रशिक्षित हों।सभी शिक्षण संस्थानों में यौन शोषण, उत्पीड़न, रैगिंग और जाति, वर्ग, लिंग, यौन रुझान, दिव्यांगता, धर्म या जातीयता के आधार पर होने वाली बदसलूकी की शिकायतों के लिए एक मजबूत, गोपनीय और सुलभ शिकायत व निवारण तंत्र बनाया जाना आवश्यक है। शिकायतों पर त्वरित कार्रवाई के लिए एक आंतरिक समिति(इंटरनल कमेटी) भी संस्थानों में होनी चाहिए। इतना ही नहीं, कमजोर और वंचित पृष्ठभूमि के छात्रों के साथ संवेदनशीलता से व्यवहार किया जाना चाहिए। दिशा-निर्देशों में यह भी साफ कहा गया है कि छात्रों की सुरक्षा, खासकर उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, संस्थानों की पहली जिम्मेदारी होनी चाहिए। अगर किसी मामले में समय पर या पर्याप्त कार्रवाई नहीं की गई और इससे छात्र आत्महानि या आत्महत्या जैसा कदम उठाता है, तो यह संस्थान की लापरवाही मानी जाएगी और प्रशासन पर कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। बहरहाल, कहना चाहूंगा कि आज हमारे देश में कोटा, जयपुर, सीकर, चेन्नई, हैदराबाद, दिल्ली, मुंबई जैसी सीरीज में अनेक कोचिंग संस्थान मौजूद हैं, जहां हर वर्ष हजारों लाखों की संख्या में छात्र-छात्राएं नीट, बैंकिंग, आइआइटी जेईई मेन्स और एडवांस के साथ ही साथ अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए आते हैं।इन कोचिंग संस्थानों में छात्र-छात्राओं की मेंटल हेल्थ की सुरक्षा बहुत ही आवश्यक और जरूरी है, क्यों कि कोचिंग संस्थानों में तैयारी करते समय घर से दूर रहने की स्थिति में इन छात्र-छात्राओं को अनेक प्रकार की समस्याओं से गुजरना पड़ता है। पढ़ाई का अच्छा खासा दबाव छात्र-छात्राओं पर रहता है। ऐसे में जरुरत इस बात की है कि इन कोचिंग संस्थानों में छात्र-छात्राओं की मानसिक स्वास्थ्य सुरक्षा और रोकथाम के विशेष उपाय लागू किए जाएं। प्रायः यह देखा गया है कि इन सीटीज में छात्रों की आत्महत्या के मामले ज्यादा देखने को मिले हैं, इसलिए इन्हें खास ध्यान देने की जरूरत है। कहना ग़लत नहीं होगा कि कोटा में तो सुसाइड के आंकड़े बहुत ही डरावने हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक मार्च 2025 तक ही 10 कोचिंग छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। पाठकों को बताता चलूं कि साल 2024 में कोटा से 17 छात्र आत्महत्या के मामले सामने आए थे। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि कुछ समय पहले ही कोटा में आत्महत्याओं के मामलों को लेकर देश की सर्वोच्च अदालत ने राजस्थान सरकार को फटकार लगाई थी और सवाल करते हुए यह पूछा था कि सिर्फ कोटा में ही आत्महत्या के मामले क्यों हो रहे हैं? राजस्थान के कोटा ही नहीं सीकर से भी सुसाइड के मामले सामने आए हैं। जानकारी के अनुसार जुलाई 2025 में ही नीट के एक स्टूडेंट ने कमरे में फंदा लगाकर सुसाइड कर लिया था। उसने 9 जुलाई 2025 को ही सीकर की एक कोचिंग में दाखिला लिया था और मात्र एक दिन ही कोचिंग गया था। अन्य सीटीज में भी हालात किसी से छिपे नहीं हैं। बहरहाल , हाल ही में माननीय सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए जो 15 अहम दिशा-निर्देश जारी किए हैं, ये दिशा-निर्देश देश के सभी शिक्षण संस्थानों पर लागू होंगे, चाहे वे सरकारी हों या निजी, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, ट्रेनिंग सेंटर, कोचिंग संस्थान, रेजिडेंशियल एकेडमी या छात्रावास उनकी मान्यता या संबद्धता चाहे जो भी हो। पाठकों को बताता चलूं कि किसी भी कारण से तनावग्रस्त छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य सुरक्षा उपायों, अनिवार्य काउंसलिंग , शिकायत निवारण तंत्र और नियामक ढांचों को अनिवार्य बनाने हेतु ये दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं। अच्छी बात यह है कि कोर्ट ने इस संदर्भ में सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को दो महीने के भीतर नियम बनाने का आदेश दिया है। इन नियमों के तहत सभी निजी कोचिंग संस्थानों का पंजीकरण, छात्रों की सुरक्षा से जुड़े मानदंड और शिकायत निवारण प्रणाली अनिवार्य किए जाने की बातें कहीं गईं हैं,यह काबिले-तारीफ है। इन संस्थानों को छात्र-छात्राओं के मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी सुरक्षा व्यवस्था का पालन भी सुनिश्चित करना होगा।इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को भी 90 दिनों के भीतर एक हलफनामा दाखिल करने का आदेश दिया है। इसमें सरकार को यह बताना होगा कि दिशा-निर्देशों को लागू करने के लिए अब तक क्या कदम उठाए गए हैं, राज्य सरकारों के साथ किस तरह समन्वय किया गया है, कोचिंग संस्थानों से जुड़े नियम बनाने की क्या स्थिति है और निगरानी की क्या व्यवस्था की गई है। इतना ही नहीं, हलफनामे में सरकार को यह भी स्पष्ट करना होगा कि छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर काम कर रही नेशनल टास्क फोर्स की रिपोर्ट और सिफारिशें कब तक पूरी होंगी ? कहना ग़लत नहीं होगा कि माननीय सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश छात्रों की मेंटल हेल्थ को लेकर भारत के शैक्षणिक ढांचे में एक बड़े बदलाव की शुरुआत है, लेकिन अब देखना यह है कि केंद्र सरकार, विभिन्न राज्यों और विभिन्न संस्थानों द्वारा इसे कितनी गंभीरता से और कब लागू किया जाता है। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि आज हमारे देश में  छात्रों द्वारा की जा रही आत्महत्याएं चिंताजनक स्थिति पर पहुंच चुकी हैं।एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर साल करीब 13,044 छात्र आत्महत्या करते हैं।रिपोर्ट के मुताबिक 2022 में देश भर में कुल 1 लाख 70 हजार 924 लोगों ने आत्महत्या की। साल 2022 में 70,924 में से 13,044 तो छात्र ही थे, जबकि बीस साल पहले 2001 में स्टूडेंट्स की मौत के आंकड़े 5,425 थे। मतलब यह है इक्कीस साल में यह आंकड़ा काफी बढ़ गया। क्या यह चिंताजनक बात नहीं है कि देश में आत्महत्या करने वाले कुल लोगों में छात्रों की संख्या 7.6 फीसदी है ? इसके बाद के वर्षों के आधिकारिक आंकड़े अभी तक जारी नहीं किए गए हैं, लेकिन आशंका है कि यह संख्या बढ़ी हुई हो। कहना ग़लत नहीं होगा कि छात्रों की आत्महत्याओं के पीछे मुख्य कारण शैक्षणिक और सामाजिक-पारिवारिक तनाव व दवाब के साथ-साथ कॉलेजों या संस्थाओं से मदद ना मिलना और जागरूकता का अभाव है। बच्चों के बीच पढ़ाई में लगातार बढ़ती प्रतिस्पर्धा, अंकों की होड़ और बच्चों से माता-पिता/अभिभावकों की बहुत सी अपेक्षाएं भी सुसाइड का प्रमुख कारण बन रहीं हैं।यह विडंबना ही है कि छात्रों की मेंटल हेल्थ को लेकर न तो परिवार(माता-पिता , अभिभावक)  ही गंभीर होते हैं, न ही शिक्षण संस्थान। कहना ग़लत नहीं होगा कि हताश, तनावग्रस्त व अवसाद वालों को मनोवैज्ञानिक मदद के सहारे काफी हद तक उबारा जा सकता है। हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी मन की बात कार्यक्रम के अंतर्गत ‘परीक्षा पे चर्चा’ (पीपीसी) करते आए हैं। पाठकों को बताता चलूं कि हर साल शिक्षा मंत्रालय के स्कूल शिक्षा और साक्षरता विभाग की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी छात्रों के सवालों के जवाब देते हैं। इसके अलावा बोर्ड परीक्षा की तैयारी, स्ट्रेस मैनेजमेंट, करियर और दूसरे विषयों पर भी बात की जाती है, लेकिन बावजूद इसके भी धरातल स्तर पर कोचिंग संस्थान कुछ करने को तैयार नहीं हैं, तो यह विडंबना ही कही जा सकती है। सारा काम सरकार नहीं कर सकती है। जिम्मेदारी सरकार के साथ ही साथ हमारी स्वयं की, अधिकारियों की, प्रशासन की तथा संस्थानों की भी है। छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य, काउंसलिंग, शिकायत निवारण और संस्थागत जवाबदेही पर हम सभी को सामूहिकता के साथ काम करना होगा। देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा इस मुद्दे पर स्वतः संज्ञान लिया जाना अदालत की सर्वोच्च संवेदनशीलता का द्योतक है।

सुनील कुमार महला,

रूस में जापान जैसी सुनामी का कहर

प्रमोद भार्गव
तीन साल से भी अधिक समय से यूक्रेन से युद्ध लड़ रहे रूस में 8.8 तीव्रता के भीशण भूकंप ने नई त्रासदी खड़ी कर दी है। रूस के पूरब में स्थित कामचटका प्रायद्वीप में 30 जुलाई 2025 को आए भूकंप के झटकों से कामचटका और उसके आसपास कुरील द्वीप समूह के भूखंड हिल गए। इसे विश्व में आए सबसे तीव्र भूकंपो में दर्ज किया गया है। इस प्राकृतिक आपदा से भारी नुकसान और अनेक लोगों के घायल होने की सूचनाएं हैं, इसके असर से प्रायद्वीप के समुद्र तटों से 16 फीट ऊंची सुनामी जैसी लहरें टकराईं, जिससे तटीय इलाकों में भारी नुकसान हुआ है। इसकी तुलना मार्च 2011 में जापान में आए 9.0 तीव्रता के भूकंप से की जा रही है। इसे समुद्री सुनामी कहा गया था। इस सुनामी से जापान के फुकुशिमा, दाइची परमाणु ऊर्जा संयंत्र का कूलिंग सिस्टम निश्क्रिय करना पड़ा था। कामचटका में चार नवंबर 1992 को आए 9.0 तीव्रता के भूकंप के कारण भारी क्षति हुई थी। इस भूकंप से जनहानि इसलिए नहीं होने पाई, क्योंकि भूकंप क्षेत्र से रूस का बड़ा शहर पेत्रोपावलोव्स्क-कामचत्सकी लगभग 119 किमी की दूरी पर है। यहां की आबादी 18 लाख हैं।
भूकंप के बाद आने वाली सुनामी के खतरे से जापान, चीन, फिलीपींस, इंडोनेशिया, अमेरिका और प्रशांत महासागर के तटवर्ती देशों को सतर्क रहने के लिए कहा गया है। जापानी और अमेरिकी भूकंप वैज्ञानिकों ने बताया कि इस भूकंप की आरंभिक तीव्रता 8.0 थी, किंतु अमेरिकी भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण ने इस तीव्रता का आकलन 8.8 किया और इसे 20.7 किमी भू-गर्भ से आना बताया है। अलास्का स्थित राष्ट्रीय सुनामी चेतावनी केन्द्र के समन्वयक डेव स्नाइडर का कहना है कि सुनामी जैसी लहरों का प्रभाव कई घंटों या एक दिन से भी अधिक समय तक रह सकता है। सुनामी केवल एक लहर नहीं होती, बल्कि यह लंबे समय तक चलने वाली शक्तिशाली लहरों की एक श्रृंखला होती है। सुनामी एक विमान की गति से सैंकडो मील प्रति घंटे की रफ्तार से समुद्र पार करती है। किंतु जब लहरें किनारे के निकट पहुंचती है, तब उनकी गति धीमी पड़ जाती है। किंतु किनारे पर इनके एकत्रीकरण से जल प्रलावन की आशंका बढ़ जाती है। इस कारण पानी की ये लहरें धरती पर पहुंचती हैं और आगे- पीछे होती रहती हैं। दुनिया में अब तक 8.6 तीव्रता से लेकर 9.5 तीव्रता के भूकंप चिली, अलास्का, सुमत्रा, तोहोकू, कामचटका (1952), चिली (2010), इक्वाडोर, अलास्का (1965), अरुणाचल प्रदेश भारत और सुमात्रा (2012) आए हैं। इन भूकंपो में जान और माल का भारी नुकसान हुआ है।    

दरअसल दुनिया के नामचीन विशेषज्ञों व पर्यावरणविदों की मानें तो सभी भूकंप प्राकृतिक नहीं होते, बल्कि उन्हें विकराल बनाने में हमारा भी हाथ होता है। प्राकृतिक संसाधनों के अकूत दोहन से छोटे स्तर के भूकंपों की पृश्ठभूमि तैयार हो रही है। भविश्य में इन्हीं भूकंपों की व्यापकता और विकरालता बढ़ जाती है। यही कारण है कि भूकंपों की आवृत्ति बढ़ रही है। पहले 13 सालों में एक बार भूकंप आने की आशंका बनी रहती थी,लेकिन अब यह घटकर 4 साल हो गई है। अमेरिका में 1973 से 2008 के बीच प्रति वर्श औसतन 21 भूकंप आए,वहीं 2009 से 2013 के बीच यह संख्या बढ़कर 99 प्रति वर्ष हो गई। यही नहीं, आए भूकंपों का वैज्ञानिक आकलन करने से यह भी पता चला है कि भूकंपीय विस्फोट में जो ऊर्जा निकलती है उसकी मात्रा भी पहले की तुलना में ज्यादा षक्तिशाली हुई है। 25 अप्रैल 2015 को नेपाल में जो भूकंप आया था, उनसे 20 थर्मान्यूक्लियर हाइड्रोजन बमों के बराबर ऊर्जा निकली थी। यहां हुआ प्रत्येक विस्फोट हिरोशिमा-नागाशाकी में गिराए गए परमाणु बमों से भी कई गुना ज्यादा ताकतवर था। 2011 में जापान और फिर क्वोटो में आए सिलसिलेवार भूकंपों से पता चलता है कि धरती के गर्भ में अंगड़ाई ले रही भूकंपीय हलचलें महानगरीय आधुनिक विकास और आबादी के लिए अधिक खतरनाक साबित हो रही हैं। ये हलचलें भारत, पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश की धरती के नीचे भी अंगड़ाई ले रही हैं। इसलिए इन देशों के महानगर भी भूकंप के मुहाने पर हैं।
भूकंप आना कोई नई बात नहीं है। जापान, इक्वाडोर और नेपाल समेत पूरी दुनिया इस अभिशाप को झेलने के लिए जब-तब विवश होती रही है। बावजूद हैरानी इस बात पर है कि विज्ञान की आश्चर्यजनक तरक्की के बाद भी वैज्ञानिक आज तक ऐसी तकनीक ईजाद करने में असफल रहे हैं, जिससे भूकंप की जानकारी आने से पहले मिल जाए। भूकंप के लिए जरूरी ऊर्जा के एकत्रित होने की प्रक्रिया को धरती की विभिन्न परतों के आपस में टकराने के सिद्धांत से आसानी से समझा जा सकता है। ऐसी वैज्ञानिक मान्यता है कि करीब साढ़े पांच करोड़ साल पहले भारत और आस्ट्रेलिया को जोड़े रखने वाली भूगर्भीय परतें एक-दूसरे से अलग हो गईं और वे यूरेशिया परत से जा टकराईं। इस टक्कर के फलस्वरूप हिमालय पर्वतमाला अस्तित्व में आई और धरती की विभिन्न परतों के बीच वर्तमान में मौजूद दरारें बनीं। हिमालय पर्वत उस स्थल पर अब तक अटल खड़ा है,जहां पृथ्वी की दो अलग-अलग परतें परस्पर टकराकर एक-दूसरे के भीतर घुस गई थीं। परतों के टकराव की इस प्रक्रिया की वजह से हिमालय और उसके प्रायद्वीपीय क्षेत्र में भूकंप आते रहते हैं। इसी प्रायद्वीप में ज्यादातर एशियाई देश बसे हुए हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि रासायनिक क्रियाओं के कारण भी भूकंप आते हैं। भूकंपों की उत्पत्ति धरती की सतह से 30 से 100 किमी भीतर होती है। जापान के कुमामोतो में आया भूकंप जमीन से 20 किमी और क्वोटो का 10 किमी नीचे था। जबकि नेपाल में जो भूकंप आया था, वह जमीन से महज 15 किमी नीचे था। इससे यह वैज्ञानिक धारणा भी बदल रही है कि भूकंप की विनाशकारी तरंगें जमीन से कम से कम 30 किमी नीचे से चलती हैं। ये तरंगे जितनी कम गहराई से उठेगी, उतनी तबाही भी ज्यादा होगी और भूकंप का प्रभाव भी कहीं अधिक बड़े क्षेत्र में दिखाई देगा। लगता है अब कम गहराई के भूकंपों का दौर चल पड़ा है।
दरअसल सतह के नीचे धरती की परत ठंडी होने व कम दबाव के कारण कमजोर पड़ जाती है। ऐसी स्थिति में जब चट्टानें दरकती हैं तो भूकंप आता है। कुछ भूकंप धरती की सतह से 100 से 650 किमी के नीचे भी आते हैं,लेकिन तीव्रता धरती की सतह पर आते-आते कम हो जाती है,इसलिए बड़े रूप में त्रासदी नहीं झेलनी पड़ती है। दरअसल इतनी गहराई में धरती इतनी गर्म होती है कि एक तरह से वह द्रव रूप में बदल जाती है। इसलिए इसके झटकों का असर धरती पर कम ही दिखाई देता है। बावजूद इन भूकंपों से ऊर्जा बड़ी मात्रा में निकलती है। धरती की इतनी गहरी से प्रगट हुआ सबसे बड़ा भूकंप 1994 में बोलिविया में रिकॉर्ड किया गया है। पृथ्वी की सतह से 600 किमी भीतर दर्ज इस भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 8.3 मापी गई थी। इसीलिए यह मान्यता बनी है कि इतनी गहराई से चले भूकंप धरती पर तबाही मचाने में कामयाब नहीं हो सकते हैं, क्योंकि चट्टानें तरल द्रव्य के रूप में बदल जाती हैं।
प्राकृतिक आपदाएं अब व्यापक व विनाशकारी साबित हो रही हैं, क्योंकि धरती के बढ़ते तापमान के कारण वायुमंडल भी परिवर्तित हो रहा है। अमेरिका व ब्रिटेन समेत यूरोपीय देशों में दो षताब्दियों के भीतर बेतहाशा अमीरी बढ़ी है। औद्योगिकीकरण और शहरीकरण इसी अमीरी की उपज है। यह कथित विकासवादी अवधारणा कुछ और नहीं, प्राकृतिक संपदा का अंधाधुंध दोहन कर,पृथ्वी को खोखला करने के ऐसे उपाय हैं, जो ब्रह्मांण्ड में फैले अवयवों में असंतुलन बढ़ा रहे हैं। इस विकास के लिए पानी, गैस, खनिज, इस्पात, ईंधन और लकड़ी जरूरी हैं। नतीजतन जो कॉर्बन गैसें बेहद न्यूनतम मात्रा में बनती थीं, वे अब अधिकतम मात्रा में बनने लगी हैं। न्यूनतम मात्रा में बनी गैसों का शोषण और समायोजन भी प्राकृतिक रूप से हो जाता था, किंतु अब वनों का विनाश कर दिए जाने के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है,जिसकी वजह से वायुमंडल में इकतराफा दबाव बढ़ रहा है। इस कारण धरती पर पड़ने वाली सूरज की गर्मी प्रत्यावर्तित होने की बजाय, धरती में ही समाने लगी है। गोया, धरती का तापमान बढ़ने लगा, जो जलवायु परिवर्तन का कारण तो बना ही, प्राकृतिक आपदाओं का कारण भी बन रहा है।

एशिया कप : भारत-पाक के बीच “बैट” और “बुलेट” साथ नहीं

प्रदीप कुमार वर्मा

यह सही है कि क्रिकेट भगवान नहीं है लेकिन यह भी सही है कि क्रिकेट खेलप्रेमियों के लिए भगवान से कम भी नहीं है। भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट को लेकर दीवानगी और जीने मरने की कसम किसी से छुपी नहीं है लेकिन इस बार क्रिकेट को लेकर भारत में दीवानगी की वजाय “रोष” अधिक है। वजह है जम्मू-कश्मीर की बैसारन घाटी में हुए आतंकी हमले के बाद पाक के विरुद्ध भारत की सभी मोर्चों पर  निर्णायक करवाई और यही वजह है कि एशिया कप क्रिकेट में एक बार फिर से भारत- पाक के मैच के शेड्यूल को लेकर अब विरोध के स्वर उभर रहे हैं। इन स्वरों में देश के क्रिकेट प्रेमियों से लेकर नेता, अभिनेता तथा आम नागरिक तक शामिल है। कुल मिलाकर देश की सरकार और बीसीसीआई से मांग इस बात की है कि पहलगाम आतंकी हमले के बाद जब पाकिस्तान के साथ सभी तरह के संबंध खत्म है तो फिर क्रिकेट का संबंध क्यों जारी रहे?

           पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलने को लेकर हालिया विवाद सितंबर महीने में होने वाले एशिया क्रिकेट कप को लेकर है। एशियन क्रिकेट काउंसिल ने शनिवार को ढाका में हुई बैठक के बाद एशिया कप 2025 की तारीखों का ऐलान किया है। शेड्यूल के अनुसार भारत-पाकिस्तान मुकाबला 14 सितंबर को संयुक्त अरब अमीरात में होने वाला है। संभावना इस बात की अधिक है कि दोनों चिर-प्रतिद्वंद्वी टीमें टूर्नामेंट में फाइनल तक तीन बार एक-दूसरे से भिड़ सकती हैं। एशिया क्रिकेट कप में कुल मिलाकर एशिया की नौ देशों की टीम में भाग ले रही है। एशिया क्रिकेट कप के ग्रुप में ग्रुप-ए में भारत, पाकिस्तान, यूएई और ओमान तथा  ग्रुप-बी में श्रीलंका, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, हॉन्गकॉन्ग एवं चीन शामिल हैं।उधर,गली मोहल्ला से लेकर संसद तक एशिया कप 2025 में भारत और पाकिस्तान के बीच होने वाला मुकाबला दो महीने पहले से ही चर्चा का विषय बना हुआ है। 

            पाकिस्तान के साथ क्रिकेट मैच को लेकर विरोध का आलम यह है कि संसद तक में यह मुद्दा गूंजा और अधिकांश विपक्षी नेताओं ने भी पाकिस्तान के साथ क्रिकेट मैच को लेकर सवाल खड़े किए हैं। संसद में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के राष्ट्रीय अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने कड़े शब्दों में विरोध जताया है और उन्होंने कहा कि जिसकी अंतरात्मा जिंदा है, वह पाकिस्तान के साथ क्रिकेट मैच नहीं देख सकते। विपक्ष के कई अन्य सांसदों ने भी भारत- पाक के बीच क्रिकेट मैच पर सवाल उठाए हैं। एशिया कप में पाकिस्तान के साथ क्रिकेट  मैच को लेकर उठे विरोध तथा बवाल को पहलगाम आतंकी हमले के साथ जोड़कर देखा जा रहा है। जम्मू- कश्मीर की वैसारन घाटी में इसी साल 22 अप्रैल को पाकिस्तान के तीन आतंकवादियों ने 26 पर्यटकों की गोली मारकर नृशंस हत्या कर दी। इस आतंकी कार्रवाई में आतंकवादियों ने गोली मारने से पहले पर्यटकों का न केवल धर्म पूछा बल्कि उनकी हिन्दू के रूप में पहचान सुनिश्चित करने के लिए उन्हें कलमा पढ़ने को भी कहा।

         पाकिस्तान द्वारा प्रेषित और पोषित आतंकियों की इस कायराना हरकत के बाद भारत में पाकिस्तान के विरुद्ध कई निर्णायक कार्रवाई की। पहलगाम के आतंकी हमले का बदला लेने के लिए भारत में शुरुआत सिंधु जल समझौते के निरस्त करने से की। इसके बाद भारत ने चिनाब का पानी भी रोक दिया। यही नहीं, भारत ने अटारी बॉर्डर को बंद करके पाकिस्तान के साथ सभी प्रकार के आयात और निर्यात पर भी पूरी तरह से रोक लगा दी है। भारत ने एक कूटनीतिक कदम उठाते हुए पाकिस्तान के दूतावास में अधिकारियों की संख्या में कटौती कर दी। इसके साथ ही भारत में पाकिस्तान के जहाजों की आवाजाही पर पूर्ण पाबंदी के साथ-साथ पाकिस्तान के पोतों के लिए भारत के बंदरगाहों को पूरी तरह से बंद कर दिया है। इस आर्थिक मोर्चाबंदी के बाद पहले से ही गरीबों की मार झेल रहे पाकिस्तान में अब कंगाली के हालात है तथा पाकिस्तान के लोग वहां की सेवा और सरकार को कोस रहे हैं।

       पहलगाम में हुए आतंकी हमले का बदला लेते हुए भारत में पाकिस्तान के फिल्मी कलाकारों की एंट्री भारत में बैन करने के साथ ही पाकिस्तान के कई चैनलों और यूटयुबरों को भी भारत में प्रतिबंधित कर दिया गया है। पाकिस्तान के जहाज के लिए भारत ने अपना और स्पेस बंद कर रखा है। हालात ऐसे हैं कि भारत में पाकिस्तान के आतंकवाद परस्त रवैया की जानकारी देने के लिए अपने सांसदों को विभिन्न देशों में भेजा और पहलगाम आतंकी हमले की सच्चाई उन देशों की सरकारों के सामने बयां की। इन सब उपाय के अमलीजामा पहनाने के बाद अब इस बात को लेकर चर्चा जोरों पर है कि जब भारत ने पाकिस्तान के साथ अपने सभी प्रकार के संबंध खत्म कर लिए हैं तो फिर पाकिस्तान के साथ क्रिकेट मैच क्यों? देश के हर आम और खास नागरिक के जुबान पर अब एक ही बात है कि जब आतंकवाद और बातचीत, आतंकवाद और व्यापार, आतंकवाद और सिंधु जल तथा आतंकवाद और मनोरंजन साथ नहीं चल सकते तो फिर बैट और बुलेट एक साथ क्यों चलें?

             पहलगाम में आतंकी हमले का बदला लेने के लिए भारतीय सेना ने सधी हुई रणनीति अपनाते हुए “ऑपरेशन सिंदूर” शुरू किया। इस विशेष ऑपरेशन में भारत की सेना ने पीओके तथा पाकिस्तान के अन्य इलाकों में आतंकवादियों के नों ठिकानों तथा पाकिस्तान सेना के 11 ठिकानों तथा एयरबेस को मिसाइल और ड्रोन हमले में तबाह कर दिया। यही नहीं, भारत की ओर से यह भी ऐलान किया गया है कि “ऑपरेशन सिंदूर” अभी बंद नहीं हुआ है, केवल रोका गया है। भविष्य में भारत के विरुद्ध कोई भी आतंकी कार्रवाई को अब “एक्ट आफ वार” माना जाएगा तथा भारत अपने हितों की रक्षा करने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र होगा। फिलहाल देश के आम नागरिक से लेकर पहलगाम आतंकी हमले में पीड़ित परिवार भी सरकार से यही सवाल पूछ रहे हैं कि क्या उनके परिजनों की “शहादत” की कीमत पर भारत और पाकिस्तान के बीच एशिया कप में क्रिकेट मैच “जरूरी” है? 

प्रदीप कुमार वर्मा

‘शोनार बांग्ला’ कैसे बन रहा उद्योग-धंधों का कब्रिस्तान

रामस्वरूप रावतसरे

पश्चिम बंगाल से बीते डेढ़ दशक में 6 हजार से अधिक कंपनियों ने अपना बोरिया बिस्तर बांधा है। इनमें से 2 हजार से अधिक कंपनियाँ बीते 5 वर्षों में राज्य छोड़ कर गई हैं। यह भी सामने आया है कि इस दौरान यह कंपनियाँ दिल्ली, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों को गई हैं। पश्चिम बंगाल से उद्योग धंधों का यह पलायन तृणमूल कॉन्ग्रेस (टीएमसी) के राज में हुआ है। पश्चिम बंगाल में जहाँ एक ओर कंपनियाँ राज्य छोड़ कर जा रही हैं, वहीं नए निवेश भी नाममात्र को हो रहे हैं। देश के चौथे सबसे अधिक जनसंख्या वाले प्रदेश के लिए यह स्थिति गंभीर और चिंताजनक है।

यह आँकड़े भले ही चौंकाने वाले हों, लेकिन उद्योग-धंधों का पलायन और पश्चिम बंगाल का पुराना रिश्ता है। देश के बड़े कारोबारी घरानों के अपना मुख्यालय शिफ्ट करने से बड़े ब्रांड्स के फैक्ट्री बंद करने तक यही हाल बीते कई सालों से है। इसमें एक कारण ममता बनर्जी सरकार का उद्योग विरोधी रुख और राज्य की खस्ताहाल कानून-व्यवस्था बताया जा रहा है। कभी एशिया की बड़ी औद्योगिक ताकतों में से एक गिने जाने वाले कोलकाता के अवसान की यह पटकथा ममता बनर्जी के राज से पहले वामपंथियों ने लिख दी थी लेकिन ममता बनर्जी ने इस पटकथा को अंतिम रूप दिया है और उद्योग-धंधों में इजाफा करने के बजाय उनके ताबूत में आखिरी कील ठोंकने की कसर पूरी कर दी है।

राज्यसभा में मानसून सत्र के दौरान भाजपा के पश्चिम बंगाल अध्यक्ष सामिक भट्टाचार्य ने पश्चिम बंगाल पर एक प्रश्न पूछा। उनके उत्तर में केन्द्र सरकार के कॉर्पारेट मामलों के मंत्रालय ने बताया है कि वर्ष 2011-12 से वर्ष 2024-25 के बीच पश्चिम बंगाल से 6688 कंपनियाँ राज्य छोड़ कर गई हैं। मंत्रलाय के उत्तर के अनुसार इनमें से एक तिहाई यानी 2200 से अधिक कंपनियाँ वर्ष 2019 के बाद से राज्य छोड़ कर गई हैं। यह ट्रेंड 2011 में टीएमसी के सत्ता में आने के बाद से लगातार जारी है। मंत्रालय के अनुसार, पश्चिम बंगाल छोड़ने वाली 6688 कंपनियों में से 110 कंपनियाँ ऐसी थीं जो शेयर बाजार में भी सूचीबद्ध थीं। मंत्रालय का डाटा बताता है कि 2017-18 के दौरान सबसे अधिक 1027 कंपनियों ने पश्चिम बंगाल छोड़ा है। 2015-16 और और 2016-17 के दौरान क्रमशः 869 और 918 कंपनियों ने पश्चिम बंगाल से कारोबार समेटा है।

कॉर्पारेट मंत्रालय के उत्तर के अनुसार पश्चिम बंगाल छोड़ने वाली कंपनियाँ दूसरे राज्यों में जा रही हैं। इनका पलायन ऐसे राज्यों में हो रहा है, जहाँ उद्योग को लेकर नीतियाँ सरल हैं और उन्हें प्रोत्साहित किया जा रहा है। 2011-25 के बीच पश्चिम बंगाल छोड़ कर सर्वाधिक कंपनियाँ महाराष्ट्र गईं हैं। इसके अलावा दिल्ली और उत्तर प्रदेश उनकी पसंदीदा लोकेशन में शामिल हुए हैं। कॉर्पारेट मंत्रालय का उत्तर बताता है कि पश्चिम बंगाल छोड़ने वाली 1300 से अधिक कंपनियाँ 2011-25 के बीच महाराष्ट्र गईं हैं। वहीं 1297 ने दिल्ली को चुना है। इसके अलावा 879 कंपनियाँ पश्चिम बंगाल छोड़ कर उत्तर प्रदेश में गई हैं।

छत्तीसगढ़, गुजरात और राजस्थान भी 1000 से अधिक कंपनियाँ पश्चिम बंगाल से छीनने में सफल रहे हैं हालाँकि, इस सबका तृणमूल सरकार पर कोई असर नहीं दिखाई पड़ता है। वह उद्योग धंधों को राज्य में लाने के बजाय उन्हें और राज्य निकाला देने पर तुली दिखाई पड़ती है।

जानकारों की माने तो पश्चिम बंगाल में दशकों से व्यापार करने वाली कंपनियाँ एक ओर राज्य छोड़ रही हैं तो वहीं हाल ही में बनर्जी की सरकार ने कुछ ऐसा किया है जिससे यह पलायन और तेज हो सकता है। अप्रैल, 2025 में राज्य की ममता सरकार ने उद्योगों को लाभ पहुँचाने वाली सभी सरकारी योजनाओं को बंद कर दिया था। उद्योग-धंधों को लुभाने के लिए 1993 से लेकर 2021 तक बनाई गई सभी नीतियाँ एक झटके में राज्य सरकार ने खत्म कर दी थीं। इसका असर यह होगा कि राज्य में कोई भी उद्योग स्थापित करने पर किसी कारोबारी को कोई लाभ नहीं मिलेगा चाहे वह जमीन से जुड़ा हो, बिजली से जुड़ा हो या फिर अन्य किसी एंगल से।

एक रिपोर्ट बताती है कि ममता सरकार ने उद्योग धंधों को यह फायदे देने इसलिए बंद किए थे ताकि वह ‘सामाजिक कार्यों’ के लिए और पैसा सरकारी खजाने से मुक्त कर सके। इसका अर्थ है कि ममता सरकार उद्योग धंधों को बंद करके लोगों को और खुद पर निर्भर करना चाहती है। रिपोर्ट के अनुसार, पश्चिम बंगाल के इस कदम से कई सीमेंट कंपनियाँ बड़ा झटका झेलेंगी। इनमें डालमिया जैसे देश के पुराने और विशाल कारोबारी घराने भी शामिल हैं। यह नुकसान 500 करोड़ तक का बताया गया था। उद्योग धंधों को कोई भी लाभ ना देने का यह कदम पश्चिम बंगाल सरकार ने ऐसे समय में उठाया है जब बाकी राज्य उनके लिए बाँहें खोल कर खड़े हैं। कहीं 1 रूपये में जमीन दी जा रही है तो कहीं पूरे-पूरे नए शहर बनाए जा रहे हैं ताकि उद्योग-धंधे उनके यहाँ आ सकें।

पश्चिम बंगाल में पुरानी कंपनियाँ तो बाहर जा रही हैं, नया निवेश भी सिर्फ घोषणाओं और कागजों में ही आ रहा है। राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने दावा किया था कि जनवरी-नवम्बर 2024 में पश्चिम बंगाल में 39 हजार करोड़ से अधिक के निवेश प्रस्ताव आए थे। उन्होंने दावा किया था कि यह देश में तीसरा सर्वाधिक है। केंद्र सरकार के एक और विभाग की एक रिपोर्ट इस दावे की सच्चाई खोलती है। भले ही राज्य में बड़े-बड़े निवेश के वादे किए गए हो लेकिन असल में यह वादों के मुकाबले कहीं नहीं ठहरता। डीपीआईआईटी की आईईएम रिपोर्ट के अनुसार पश्चिम बंगाल में 2024 में नवम्बर माह तक 3735 करोड़ के निवेश ही हुए थे जबकि वादा कहीं अधिक था। पश्चिम बंगाल औद्योगिक निवेश के मामले में भी बाक़ी राज्यों के सामने कहीं नहीं ठहरता। यही रिपोर्ट बताती है कि 2020-24 के बीच जहाँ उत्तर प्रदेश में 71 हजार करोड़ से अधिक का निवेश हुआ है तो वहीं इस दौरान पश्चिम बंगाल मात्र 15 हजार करोड़ का ही निवेश आकर्षित करने में सक्षम रहा। निवेश आकर्षित करने के मामले में वह झारखंड तक से पीछे बताया जा रहा है।

पश्चिम बंगाल छोड़ने का सिलसिला लगातार जारी ही रहा है। 2024 में राज्य में ब्रिटानिया ने अपनी दशकों पुरानी बिस्किट फैक्ट्री को ताला लगा दिया था। यह फैक्ट्री कोलकाता के पास स्थापित थी। इसी तरह कई जूट मिलें भी राज्य में बंद हो चुकी हैं, या फिर अंतिम साँसे गिन रही हैं। ब्रांड्स के बंगाल छोड़ने का सिलसिला कोई नया नहीं है। असल में ममता बनर्जी के राजनैतिक करियर का सबसे बड़ा मोड़ यही एक कारण रहा है। 2008 में राज्य को टाटा मोटर्स ने छोड़ा था, वह सिंगूर में नैनो की फैक्ट्री लगा रहा था लेकिन ममता बनर्जी के लगातार विरोध के चलते उसे बनी-बनाई फैक्ट्री उखाड़नी पड़ी और गुजरात भागना पड़ा। ममता बनर्जी इसी सिंगूर के आंदोलन के बाद ही राज्य में बड़ी जीत हासिल कर पाईं और सत्ता में तीन दशक से अधिक से जमे बैठे कम्युनिस्टों की जगह ली। हालाँकि, जिस नेता के सत्ता में आने का कारण ही किसी उद्योग का विरोध रहा हो, उससे उद्योग समर्थक नीति की उम्मीद कैसे की जा सकती है।

जानकारों की माने तो इसी बंगाल में कभी आदित्य बिरला को उनकी गाड़ी से खींच कर सड़क पर पीटा गया था और नंगा कर बेईज्जत किया गया था। इसके बाद उन्होंने अपना कारोबार समेट लिया। यही हाल और भी उद्योग घरानों का हुआ बताया जा रहा है।

पश्चिम बंगाल से उद्योग धंधों का पलायन राज्य ही नहीं बल्कि पूरे देश के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। पश्चिम बंगाल देश में चौथा सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है लेकिन इसका देश के औद्योगिक आउटपुट में मात्र 3.5 प्रतिशत हिस्सा है। इसमें पीछे होने के चलते राज्य में भारी बेरोजगारी की समस्या है। अवैध घुसपैठियों का पश्चिम बंगाल में आना इस समस्या को और भीषण बनाता है। राज्य में आए दिन होते दंगे और बहुसंख्यक आबादी पर हमले भी घटते विश्वास का कारण बने हैं। राज्य में कानून-व्यवस्था की दयनीय स्थिति के चलते कोई बड़ी कम्पनी निवेश नहीं करना चाहती।

जानकारों के अनुसार यही कारण है कि 1960 के दशक में जिस पश्चिम बंगाल का देश की जीडीपी में 10 प्रतिशत से अधिक योगदान था, वह अब मात्र 5 प्रतिशत तक आकर टिक गया है। उससे छोटे राज्य उससे आगे निकलने वाले हैं। यदि पश्चिम बंगाल की ममता सरकार का यही रवैया रहा तो इससे बाकी देश भी प्रभावित होगा और उसकी धीमी आर्थिक विकास की गति देश को पीछे खींचेगी।

रामस्वरूप रावतसरे

मोदी में दम नहीं लेकिन विपक्ष बेदम क्यों

राजेश कुमार पासी

इस लेख का शीर्षक एक सवाल है और यह सवाल इसलिए पूछना पड़ रहा है क्योंकि कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने अपनी पार्टी के एक बड़े समारोह में बोलते हुए कहा है कि मैं मोदी  जी से कई बार मिला हूं, उनमें कोई दम नहीं है । उनकी बात को न काटते हुए यह सवाल तो बनता है कि अगर मोदी जी में दम नहीं है तो पूरा विपक्ष बेदम क्यों दिखाई दे रहा है । राहुल कहते हैं कि मोदी कोई समस्या नहीं है. मीडिया वालों ने उनका गुब्बारा बनाया हुआ है. ये कोई समस्या नहीं है । वो अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि आप लोग उनसे मिले नहीं हैं, मैं मिला हूं इसलिए बता रहा हूं उनमें दम नहीं है । उन्होंने एक और बात कही कि आप मेरी बहन से पूछो, मोदी में दम नहीं है ।

राहुल गांधी कहते हैं कि मुझे 21 साल हो गए हैं राजनीति करते हुए लेकिन वो यह नहीं बता पा रहे हैं कि गांधी परिवार के होने के बावजूद उन्होंने इन 21 सालों में कांग्रेस को क्या दिया है । उन्होंने इस सभा में एक और बयान दिया कि उनकी एक गलती रही कि वो 21 साल में ओबीसी समाज को समझ नहीं पाए लेकिन अब वो अपनी गलती सुधारेंगे । सवाल यह पैदा होता है कि एक तरफ वो कहते हैं कि ओबीसी समाज  का देश में पचास प्रतिशत हिस्सा है लेकिन वो फिर खुद कहते हैं कि वो इस समाज को समझ नहीं पाए तो उन्हें जवाब देना चाहिए कि वो 21 साल तक राजनीति में क्या कर रहे थे । देश की आधी आबादी के बारे में जानते ही नहीं है तो वो कांग्रेस को कैसे चला रहे थे ।  राहुल गांधी ऐसे परिवार में पैदा हुए हैं जिसमें  तीन व्यक्ति भारत के प्रधानमंत्री रह चुके हैं और उनके पिता प्रधानमंत्री थे तो क्या किसी ने भी उन्हें भारतीय राजनीति के बारे में नहीं बताया । जो व्यक्ति राजनीति के बीच पैदा हुआ हो, वो कैसे ओबीसी को समझ नहीं पाया, ये जवाब तो राहुल गांधी को देना चाहिए. माफी मांगने से काम चलने वाला नहीं है ।

                 सबसे बड़ा मुद्दा फिर वही है कि राहुल गांधी क्यों मानते हैं कि मोदी में दम नहीं है । जो व्यक्ति 13 साल तक लगातार गुजरात का मुख्यमंत्री रहा और वहां से चलकर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गया, उसमें दम नहीं है । जो व्यक्ति लगातार 11 साल से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर है और अभी चार साल तक बना रहने वाला है, उसमें दम नहीं है । सवाल तो राहुल गांधी को अपने आप से पूछना चाहिए कि भारत जैसे देश को क्या बिना दम वाला व्यक्ति चला सकता है । जबसे राहुल गांधी ने यह बयान दिया है, उनके समर्थक भी यह कह रहे हैं कि मोदी जी में दम नहीं है. मीडिया ने उनका गुब्बारा फुलाया हुआ है । सवाल यह है कि जो व्यक्ति 11 साल से लगातार प्रधानमंत्री है, उसके गुब्बारे में कांग्रेसी एक छोटी सी पिन तक चुभा नहीं पाए. अगर वो ऐसा करते तो गुब्बारे की सारी हवा एक मिनट में फुर्र हो जाती । क्या कांग्रेस 11 साल से एक गुब्बारे से लड़कर पस्त है । सवाल तो फिर कांग्रेस पर ही उठ सकता है कि वो कितनी कमजोर पार्टी है, जो एक गुब्बारे से भी नहीं लड़ पा  रही है ।

 अगर कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता राहुल की बात को सच मानते हैं तो उन्हें परेशानी क्या है, मोदी जी की हवा तो कभी भी निकल सकती है । अगर राहुल  की बात को कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता सच मान लेते हैं तो कांग्रेस के लिए बड़ी परेशानी खड़ी हो सकती है क्योंकि मोदी जी में दम नहीं है. उनसे लड़ने की क्या जरूरत है । यही कारण है कि विपक्ष के नेता शोर मचा रहे हैं कि मोदी जी ने ट्रंप के कहने पर सीजफायर कर दिया है जबकि मोदी सरकार कई तरीकों से कह चुकी है कि सीजफायर में ट्रंप की कोई भूमिका नहीं है । संसद में ऑपरेशन सिंदूर पर हुई बहस में मोदी जी ने फिर कहा है कि सीजफायर किसी के भी कहने से नहीं किया गया है । इसके जवाब में राहुल गांधी कह रहे हैं कि मोदी जी ने ट्रंप का नाम नहीं लिया । सवाल यह है कि जब किसी की कोई भूमिका नहीं है तो ट्रंप की भूमिका भी नहीं है । इसका साफ मतलब है कि राहुल गांधी जो बोल रहे हैं उसे वो मानते भी है कि मोदी जी में दम नहीं है. वो ट्रंप के आगे झुक गए और सीजफायर कर दिया । 

               एक तरफ विपक्ष कहता है कि मोदी जी में दम नहीं है, दूसरी तरफ फिलिस्तीनी राष्ट्रपति मोदी जी को पत्र लिखकर गुहार लगा रहे हैं कि वो इजराइल को समझाएं कि गाजा में बच्चे भूखे मर रहे हैं । उनसे इजराइल पर दबाव बनाने को कहा जा रहा है कि वो उसे युद्ध रोकने को कहे । मोदी जी में दम नहीं है, क्या यह बात फिलिस्तीनी राष्ट्रपति को पता नहीं है । मोदी जी की हथियारों के मदद के कारण आर्मेनिया के दुश्मन तुर्की और अजरबैजान परेशान हैं  । मोदी जी में दम नहीं है लेकिन वो अमेरिका और यूरोप की धमकियों से बेपरवाह होकर रूस की लगातार मदद कर रहे हैं । राहुल को जवाब देना चाहिए कि क्या कारण है कि मोदी सरकार के आने के बाद पाकिस्तान को पीओके की फ्रिक सताने लगी है । मोदी जी के आने से पहले तो हम कश्मीर  की  चिंता में लगे रहते थे लेकिन अब पाकिस्तान को अपने कब्जे वाले कश्मीर की चिंता सता रही है । मोदी सरकार के आने से पहले कश्मीर मुद्दे पर मुस्लिम देशों का जैसा समर्थन पाकिस्तान को मिलता था, अब क्यों नहीं मिल रहा है ।

मोदी जी में दम नहीं है तो विपक्ष क्यों कह रहा है कि भारत सरकार को सीजफायर नहीं करना चाहिए था । विपक्ष के नेता क्यों कह रहे हैं कि युद्ध जारी रहता तो हम पीओके ले सकते थे. सवाल यह है कि जो काम कोई दूसरा प्रधानमंत्री नहीं कर पाया, उस काम की अपेक्षा विपक्ष को बिना दम वाले मोदी जी से क्यों है । क्या विपक्ष चाहता है कि एक बिना दम के प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भारत पाकिस्तान के साथ पूर्ण युद्ध में कूद जाता । पहलगाम हमले के बाद विपक्ष क्यों मांग कर रहा था कि इसका पाकिस्तान को जवाब दिया जाये । जब कांग्रेस के शासन में बड़े-बड़े आतंकवादी हमलों का जवाब नहीं दिया गया था तो बिना दम वाले प्रधानमंत्री से पाकिस्तान को जवाब देने के लिए क्यों कहा जा रहा था । मोदी जी के शासन में ही भारतीय सेना चार साल तक चीन की सेना के सामने खड़ी रही और आखिरकार चीन की सेना को पीछे हटना पड़ा । 

                अब भारतीय राजनीति की बात करें तो मोदी जी के राष्ट्रीय राजनीति में आने से पहले भाजपा ने कभी पूर्ण बहुमत की सरकार नहीं बनाई थी । भाजपा के नेता भी जानते थे कि भाजपा कभी भी 200 सीटों से आगे नहीं बढ़ सकती । जब भाजपा ने मोदी जी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया तो उन्होंने 272 सीट जीतने का लक्ष्य रखा जिसका खुद भाजपा के नेता मजाक बनाते थे । देश में किसी को भी यह यकीन नहीं था कि भाजपा 272 सीटें जीतकर सरकार बना सकती है लेकिन मोदी जी ने यह असंभव सा लगने वाला काम करके दिखा दिया । 2014 में ऐसा लगा कि मोदी जी का तुक्का लग गया है, अब 2019 में भाजपा 200 सीट भी जीत नहीं पाएगी लेकिन तब मोदी जी के नेतृत्व में भाजपा ने 300 का भी आंकड़ा पार कर लिया । तीसरी बार 240 सीटें जीतने को मोदी जी की हार बताया जा रहा है लेकिन कोई समझने को तैयार नहीं है कि तीसरी बार 240 सीटें जीतना भी बड़ी बात है । 240 सीटों के बावजूद मोदी जी सरकार बनाने में कामयाब रहे और सफलतापूर्वक सरकार चला रहे हैं लेकिन राहुल कहते हैं कि उनमें दम नहीं है ।

मोदी जी के नेतृत्व में भाजपा ने पहली बार हरियाणा, त्रिपुरा, ओडिशा, असम और पूर्वोत्तर के कई राज्यों में सरकार बनाई है । इसके अलावा उनके नेतृत्व में ही उत्तर प्रदेश में भाजपा दो बार पूर्ण बहुमत की सरकार बना चुकी है । मोदी जी के मुख्यमंत्री बनने के बाद आज तक कांग्रेस गुजरात में जीत नहीं पाई है । इसके अलावा मोदी जी के नेतृत्व में भाजपा बंगाल और तेलंगाना  में दूसरे नम्बर की पार्टी बन चुकी है । उनके नेतृत्व में ही भाजपा धीरे-धीरे तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश में पैर  जमा रही है । अगर राहुल गांधी यह मानते रहे कि मोदी जी में दम नहीं है और यह बात अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों  को भी समझाते रहे तो कांग्रेस की वास्तविक हालत का उन्हें अहसास कैसे होगा ।

राजनीति में हमें अपनी शक्ति का अहसास होना चाहिए लेकिन विरोधी की ताकत का भी पता होना चाहिए । ऑपरेशन सिंदूर को लेकर संसद की बहस में मोदी जी के भाषण से लगता है कि वो कांग्रेस की तरफ से लापरवाह हो चुके हैं और भविष्य की योजनाएं बना रहे हैं । वो अपनी राजनीति के तहत राहुल गांधी को ही विपक्ष का नेता देखना चाहते हैं क्योंकि राहुल की राजनीति मोदी जी को रास आ रही है । राहुल गांधी को मोदी जी का दम देखना है तो अपनी पार्टी की हालत देख लें । उन्हें विचार करना होगा कि कांग्रेस की ऐसी हालत के लिए कौन जिम्मेदार है । अगर वो गंभीरता से इस पर विचार करेंगे तो इससे कांग्रेस का ही भला होगा । 

राजेश कुमार पासी