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श्रीलंका से सबक लें

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

श्रीलंका के प्रधानमंत्री महिंद्र राजपक्ष को मजबूरन इस्तीफा देना पड़ गया। उनके छोटे भाई गोटबाया राजपक्ष अभी भी श्रीलंका के राष्ट्रपति पद पर डटे हुए हैं। श्रीलंका में आम-जनता के बीच इतना भयंकर असंतोष फैल गया है कि इस राजपक्ष सरकार को कई बार कर्फ्यू लगाना पड़ गया है। इस राजपक्ष सरकार के मंत्रिमंडल में राजपक्ष-परिवार के लगभग आधा दर्जन सदस्य कुर्सी पर जमे हुए थे। जब आम जनता का गुस्सा बेकाबू हो गया तो मंत्रिमंडल को भंग कर दिया गया। लोगों के दिलों में यह प्रभाव जमाया गया कि राजपक्ष परिवार को कोई पद-लिप्सा नहीं है। राष्ट्रपति गोटबाया ने सारे विपक्षी दलों से निवेदन किया कि वे आएं और मिलकर नई संयुक्त सरकार बनाएं लेकिन विपक्ष के नेता सजित प्रेमदास ने इस प्रस्ताव को रद्द कर दिया। अब भी राष्ट्रपति का कहना है कि विपक्ष अपना प्रधानमंत्री खुद चुन ले और श्रीलंका को इस भयंकर संकट से बचाने के लिए मिली-जुली सरकार बनाए लेकिन विपक्ष के नेता इस प्रस्ताव पर अमल के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं। वे सारे श्रीलंकाइयों से एक ही नारा लगवा रहे हैं- ‘गोटा गो’ याने राष्ट्रपति भी इस्तीफा दें। श्रीलंका के विपक्षी नेताओं की यह मांग ऊपरी तौर पर स्वाभाविक लगती है लेकिन समझ नहीं आता कि नए राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की नियुक्ति क्या चुटकी बजाते ही हो जाएगी? उनका चुनाव होते-होते श्रीलंका की हालत और भी बदतर हो जाएगी। नये राष्ट्रपति और नई सरकार खाली हुए राजकोश को तुरंत कैसे भर सकेगी? श्रीलंका का विपक्ष भी एकजुट नहीं है। स्पष्ट बहुमत के अभाव में वह सरकार कैसे बनाएगा? वह सर्वशक्ति संपन्न राष्ट्रपति को कैसे बर्दाश्त करेगा? यदि श्रीलंका का विपक्ष देशभक्त है तो उसका पहला लक्ष्य यह होना चाहिए कि वह मंहगाई, बेरोजगारी और अराजकता पर काबू करे। गोटबाया सरकार जैसी भी है, फिलहाल उसके साथ सहयोग करके देश को चौपट होने से बचाए। भारत, चीन और अमेरिका जैसे देशों से प्रचुर सहायता का अनुरोध करे और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा-कोष से भी आपात् राशि की मांग करे। अभी तो लोग दंगों और हमलों से मर रहे हैं लेकिन जब वे भुखमरी और बेरोजगारी से मरेंगे तो वे किसी भी नेता को नहीं बख्शेंगे, वह चाहे पक्ष का हो या विपक्ष का! श्रीलंका की वर्तमान दुर्दशा से पड़ौसी देशों को महत्वपूर्ण सबक भी मिल रहा है। तमिल आतंकवाद को खत्म करनेवाले महानायक महिंद गोटबाया की प्रतिष्ठा अचानक यदि पैंदे में बैठ सकती है तो पड़ौसी देशों के जो नेता आज लोकप्रियता की लहर पर सवार हैं, उनकी हालत तो और भी बुरी हो सकती है। गोटबाया बंधुओं ने श्रीलंका सरकार को अपनी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बना लिया था। उसमें भाई-भतीजे मिलकर मनचाहे फैसले कर लेते थे। श्रीलंका के ज्यादातर पड़ौसी देशों का भी यही हाल है।

अतीत बनते तालाब व बावड़ी बचाने के लिए बड़ी पहल

-सत्यवान ‘सौरभ’

गर्मियों में पूरे भारत में बड़े पैमाने पर जल संकट पैदा हो जाता है; इस समस्या को देखते हुए आजादी के अमृत महोत्सव के तहत हरियाणा सरकार ने अपने गांवों में अस्तित्व खोते जा रहे तालाब एवं जोहड़ों को बचाने के लिए राज्य के जोहड़ तालाबों को अमृत सरोवर के रूप में विकसित करने पर जोर शोर से काम शुरू किया है। यह अमृत सरोवर जल संरक्षण के साथ-साथ किसानों के लिए भी एक वरदान साबित होंगे। इन अमृत सरोवर के पानी से सिंचाई करने का भी प्रावधान रखा जाएगा। इस योजना के तहत हरियाणा प्रदेश के 1650 तालाबों का अमृत सरोवर के रूप में 15 अगस्त 2023 तक विकसित किया जाएगा। इस कार्यक्रम के शुरूआती चरण में मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने आनलाइन प्रणाली के माध्यम से प्रदेश के 111 अमृत सरोवरों की योजना का शुभारंभ किया।

पूर्वजों की देन व पानी संरक्षण के लिए तालाब व बावड़ी के रूप में किया गया उनका बेहतर प्रयास आज अतीत की यादों में समां गए हैं। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण सरकार की उदासीनता ही रही है। जिससे इन सूखे तालाबों व बावड़ियों का प्रयोग लोग पानी के लिए नहीं होता। बल्कि इनके किनारे लगे छायादार पेड़ों के नीचे बैठकर ताश खेलने के रूप में कर रहे हैं। दशकों से वीरान पड़े तालाबों के प्रति ग्रामीणों के दिल में भी बेरूखी घर कर गई है। बरसात के घटते दिन भी तालाब व बावड़ियों के लिए अभिशप्त साबित हुए है। यही वजह है कि आज देश भर के गांवों में तालाब और जोहड़ पानी के अभाव में सूखे पड़े है। जिससे इन जोहड़ व तालाबों तक न तो पशुओं की पदचाप सुनाई देती है और न मनुष्य इनकी राह पकड़ता दिखाई देता है।

इन सबको देखते हुए केंद्र सरकार ने पंचायती राज दिवस पर 24 अप्रैल 2022 को अमृत योजना का शुभारंभ किया। इस योजना को 15 अगस्त 2023 तक चलाया जाएगा। इस योजना के तहत प्रदेश में 1650 तालाबों को अमृत सरोवर के रूप में विकसित किया जाएगा और प्रत्येक जिले में 75-75 तालाबों को अमृत सरोवर बनाया जाएगा। इस योजना से गांवों का सौन्द्रर्यकरण होगा और पानी को संरक्षित करने में मदद मिलेगी। आज गांव के तालाबों की स्थिति काफी दयानीय है और तालाबों का पानी ओवरफ्लो होकर सड़कों पर बह रहा है तथा बरसाती पानी का भी तालाब संरक्षण नहीं कर पाते। इन तमाम पहलुओं को जहन में रखते हुए ही अमृत सरोवर योजना को शुरू किया गया है। इस योजना से सिंचाई का कार्य भी किया जाएगा और बरसाती पानी को संरक्षित भी किया जाएगा।

भारत में पानी की कमी अपर्याप्त आपूर्ति से नहीं बल्कि हमारे पास मौजूद पानी के प्रबंधन के तरीके से आई है। कृषि भारत के 78 प्रतिशत पानी का उपयोग करती है, और इसका बहुत ही अक्षमता से उपयोग करती है। सिंचाई के लिए उपयोग किया जाने वाला लगभग दो-तिहाई पानी भूजल से आता है। भूजल पंप करने के लिए किसानों के लिए भारी बिजली सब्सिडी और तथ्य यह है कि भूजल बड़े पैमाने पर अनियमित है, पिछले कई दशकों में सिंचाई के लिए ट्यूबवेल के माध्यम से भूजल के उपयोग में लगातार विस्फोट हुआ है। मांग की कमी को पूरा करने के लिए बोरवेल की व्यापक खुदाई करके भूजल के बढ़ते लेकिन बेहिसाब उपयोग की ओर जाता है।

पानी के उपयोग में शहरी भारत की अक्षमता अपर्याप्त, पुराने और जीर्ण वितरण नेटवर्क, अक्षम संचालन, अपर्याप्त मीटरिंग, अपूर्ण बिलिंग और संग्रह, और खराब शासन की सामान्य स्थिति से उत्पन्न होती है। अक्षमता का एक अन्य स्रोत अपशिष्ट जल का उपचार न करने और बागवानी जैसे विशेष उपयोगों के लिए पुनर्नवीनीकरण पानी का उपयोग करने और शौचालयों को फ्लश करने के लिए भी आता है। शहरी जल का कम मूल्य निर्धारण भी व्यर्थ उपयोग में योगदान देता है। यदि किसी चीज की कीमत कम है, तो उपयोगकर्ता उसका अधिक उपयोग करेंगे।

भारत के पानी को बचाने की चुनौतियों का संयुक्त रूप से समाधान करने के लिए केंद्र और राज्यों के बीच एक राजनीतिक समझौते की आवश्यकता है। किसानों को धान, गन्ना और केला जैसी जल-गहन फसलों को उगाने से रोकने के लिए भी कई प्रयास नहीं किए गए हैं, जब यह व्यापक रूप से ज्ञात है कि कृषि में 80% मीठे पानी की खपत होती है। राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों में पानी का महत्व भगवान के समान है। यहां के ग्रामीण इस अनमोल संसाधन की एक-एक बूंद को बचाने के लिए हर संभव कोशिश करते हैं।

राजस्थान के नागौर जिले के ग्रामीण इलाकों में पानी को संरक्षित करने का सबसे आसान माध्यम तालाब हैं। इन तालाबों के बारे में उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इनमें से कई तालाब सदियों पुराने हैं और ग्रामीणों के प्रयास से ही अभी तक संरक्षित किए गए हैं। नागौर जिले से कोई नदी नहीं बहती है और भूजल भी पीने योग्य नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में ग्रामीणों ने बारिश के पानी के संरक्षण और उपयोग के प्रभावी तरीके खोज निकाले हैं। बारिश के पानी को बचाने के लिए घरों में व्यक्तिगत उपयोग के लिए टैंक और सामुदायिक उपयोग के लिए तालाब बनाए गए हैं। आज भी ये तालाब नागौर के ग्रामीणों के लिए पानी का प्राथमिक स्रोत हैं।

तालाबों के संबंध में हर निर्णय ग्रामीणों द्वारा सामूहिक रूप से लिया जाता है। तालाबों के संरक्षण के लिए हर गांव ने कुछ नियमों को लागू किया है। तालाब में गंदगी फैलाने वालों को बर्दाश्त नहीं किया जाता है, जलग्रहण क्षेत्र को अतिक्रमण मुक्त रखने पर जोर दिया जाता है। तालाब में जूते पहनकर प्रवेश करना सख्त मना है। इसके अलावा तालाब में नहाना, कपड़े धोना, मवेशियों को नहलाना भी मना है। घर के लिए तालाब से पानी ले जाने पर कोई रोक नहीं है, लेकिन तालाब से पानी बिक्री के लिए नहीं लिया जा सकता है।

देश भर के कुछ गांव को छोड़कर ज्यादातर ऐसे हैं जहां तालाबों का रख-रखाव ठीक से नहीं किया जाता है और वे जल्दी सूख जाते हैं, जिससे वहां के निवासियों को अन्य स्रोतों की तलाश करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। अब हरियाणा सरकार की अमृत सरोवर योजना ने वर्षों से खाली पड़े और सूखते तालाबों को संरक्षित करने में पूरे देश में एक नयी आस जगाई है और हरियाँ के ग्रामीणों को इस पर गर्व है। अपने जल स्रोतों की सुरक्षा में उनकी सक्रिय भागीदारी पानी की कमी वाले अन्य क्षेत्रों के लिए एक बेहतरीन उदाहरण है।

— सत्यवान ‘सौरभ’,

भारत अब भी युद्ध-विराम की कोशिश करें

-ललित गर्ग-

रूस-यूक्रेन युद्ध रुकने का नाम नहीं ले रहा है, जैसे-जैसे समय बीत रहा है, अधिक विनाश एवं विध्वंस की संभावनाएं बढ़ती जा रही है। विश्व युद्ध का संकट भी मंडराने लगा है। रूस-यूक्रेन के युद्ध विराम के मामले में भारत ने प्रयास किये, उसे व्यापक प्रयास करते हुए युद्ध विराम का श्रेय हासिल करना चाहिए था, ऐसा करने की सामर्थ्य एवं शक्ति भारत एवं उसके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पास है, यूक्रेन-विवाद शांत करने के लिए भारत की पहल सबसे ज्यादा सार्थक हो सकती है लेकिन जो पहल हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की, उसे आगे बढ़ाना चाहिए था, लेकिन वह कोशिश अब संयुक्तराष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुतरेस ने कर दी और वे काफी हद तक सफल भी हो गए। गुतरेस खुद जाकर पूतिन और झेलेंस्की से मिले। उन्होंने दोनों राष्ट्रों के सर्वोच्च नेतृत्व को समझाने-बुझाने की कोशिश की। दुनिया को विश्वयुद्ध से बचाने के लिये इस तरह की युद्ध-विराम की कोशिश बहुत जरूरी है और ऐसी कोशिशों में तीव्र गति लायी जानी चाहिए। क्योंकि युद्ध भले ही यूक्रेन और रूस की धरती पर हो रहा हो, लेकिन उसका असर सम्पूर्ण विश्व को झेलना पड़ रहा है।
यूक्रेन और रूस में शांति का उजाला करने, अभय का वातावरण, शुभ की कामना और मंगल का फैलाव करने के लिये भारत को एक बार फिर शांति प्रयासों को तीव्र गति देनी चाहिए। मनुष्य के भयभीत मन को युद्ध की विभीषिका से मुक्ति देने के लिये यह जरूरी है। इन दोनों देशों को युद्ध विराम से अभय बनकर विश्व को निर्भय बनाना चाहिए। निश्चय ही यह किसी एक देश या दूसरे देश की जीत नहीं बल्कि समूची मानव-जाति की जीत होगी। यह समय की नजाकत को देखते हुए जरूरी है और इस जरूरत को महसूस करते हुए दोनों देशांे को अपनी-अपनी सेनाएं हटाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। यह रूस का अहंकार एवं अंधापन ही है कि वह पहले दिन से ही ऐसे व्यवहार कर रहा है जैसे यूक्रेन उसके समक्ष कुछ भी नहीं, सचाई भी यही है कि यूक्रेन रूस के सामने नगण्य है। यथार्थ यह है कि अंधकार प्रकाश की ओर चलता है, पर अंधापन मृत्यु-विनाश की ओर। लेकिन रूस ने अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य का अहसास एक गलत समय पर गलत उद्देश्य के लिये कराया है।
भारत की नीति यह थी कि रूस का विरोध या समर्थन करने की बजाय हमें अपनी ताकत युद्ध को बंद करवाने में लगानी चाहिए। अभी युद्ध तो बंद नहीं हुआ है लेकिन गुतेरस के प्रयत्नों से एक कमाल का काम यह हुआ है कि सुरक्षा परिषद में सर्वसम्मति से यूक्रेन पर एक प्रस्ताव पारित कर दिया है। उसके समर्थन में नाटो देशों और भारत जैसे सदस्यों ने तो हाथ ऊँचा किया ही है। सुरक्षा परिषद का एक भी स्थायी सदस्य किसी प्रस्ताव का विरोध करे तो वह पारित नहीं हो सकता। रूस ने वीटो नहीं किया। क्योंकि इस प्रस्ताव में रूसी हमले के लिए ‘युद्ध’, ‘आक्रमण’ या ‘अतिक्रमण’ जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाकर उसे सिर्फ ‘विवाद’ कहा गया है। इस ‘विवाद’ को बातचीत से हल करने की पेशकश की गई है। यही बात भारत हमेशा कहता रहा है। इस प्रस्ताव को नार्वे और मेक्सिको ने पेश किया था। यह प्रस्ताव तब पास हुआ है, जब सुरक्षा परिषद का आजकल अमेरिका अध्यक्ष है। वास्तव में इसे हम भारत के दृष्टिकोण को मिली विश्व-स्वीकृति भी कह सकते हैं। इस प्रस्ताव के बावजूद यूक्रेन-युद्ध अभी बंद नहीं हुआ है। भारत के लिए अभी भी मौका है अपने शांति प्रयास एवं युद्ध विराम की कोशिशें तीव्र करें। रूस और नाटो राष्ट्र, दोनों ही भारत से घनिष्टता बढ़ाना चाहते हैं और दोनों ही भारत का सम्मान करते हैं। यदि प्रधानमंत्री मोदी अब भी पहल करें तो यूक्रेन-युद्ध तुरंत बंद हो सकता है। ऐसा संभव होता है तो यह भारत की बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जायेगी। भले ही भारत के रिश्ते रूस के साथ दोस्ताना के रहे हैं, लेकिन इसकी अनदेखी भी नहीं की जा सकती कि यूक्रेन पर रूस के भीषण हमलों में वहां लोगों की जान जा रही है-न केवल निर्दोष-निहत्थे यूक्रेनियों की, बल्कि अन्य देशों के नागरिकों की भी।
यूक्रेन के साथ कोई अनहोनी होती है तो इसके लिए केवल रूस ही जिम्मेदार होगा। रूस एवं यूक्रेन के बीच इस तरह युद्धरत बने रहना खुद में एक असाधारण और अति-संवेदनशील मामला है, जो समूची दुनिया को विनाश एवं विध्वंस की ओर धकेलने जैसा है। ऐसे युद्ध का होना विजेता एवं विजित दोनों ही राष्ट्रों को सदियों तक पीछे धकेल देगा, इससे भौतिक हानि के अतिरिक्त मानवता के अपाहिज और विकलांग होने का भी बड़ा कारण बनेगा। विश्व के एक बड़े हिस्से में रूस पहले ही एक खलनायक जैसा उभर आया है। उसे विश्वशांति एवं मानवता की रक्षा का ध्यान रखते हुए युद्ध विराम के लिये अग्रसर होना चाहिए।
यह सही है कि अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने रूस के सुरक्षा हितों की उपेक्षा करते हुए यूक्रेन को सैन्य संगठन नाटो का हिस्सा बनाने की अनावश्यक पहल की, यही वह वजह है जिसके कारण युद्ध उग्रत्तर होता गया लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि रूसी राष्ट्रपति यूक्रेन के आम लोगों के साथ वहां रह रहे विदेशी नागरिकों की जान की परवाह न करें। फिलहाल वह ऐसा ही करते दिख रहे हैं और इसीलिए पश्चिम के साथ-साथ दुनिया के अन्य हिस्सों में भी निंदा का पात्र बने हुए हैं। खुद भारत ने सुरक्षा परिषद में यह साफ किया है कि यूक्रेन में हमला करके रूस ने उसकी संप्रभुता का उल्लंघन करने के साथ जिस तरह अंतरराष्ट्रीय नियमों की अवहेलना की, उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता। यूक्रेन और रूस के बीच जारी युद्ध में भारतीय पक्ष का रुख न केवल संवेदनशील, बल्कि संतुलित भी है। भारत ने हमले की निंदा खुले शब्दों में भले न की हो, लेकिन उसने रूसी हमले का पक्ष भी नहीं लिया है और यूक्रेन की स्वतंत्रता और संप्रभुता के पक्ष में डटा हुआ है। कुल मिलाकर, भारत शांति का पक्षधर है और रूस एवं यूक्रेन युद्ध के सन्दर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि एक साहसी लेकिन अहिंसक नेता के रूप में उभरी है।
युद्ध जब शुरू हुआ था, तब भारत पर विशेष दबाव था कि वह युद्ध रोकने की पहल करे और भारत ने अपने दायरे में रहते हुए पुरजोर कोशिश की भी है। यहां तक कि भारत के रुख से अमेरिका को भी कोई शिकायत नहीं है। रूस भारत का आजमाया हुआ मित्र देश है, इस हिसाब से भी भारत का संतुलित रुख वास्तव में युद्ध का विरोध ही है। भारत में पदस्थ रूसी राजदूत ने भी संयुक्त राष्ट्र में भारत द्वारा अपनाए गए निष्पक्ष और संतुलित रुख के लिए आभार जताया है। भारत ने न केवल संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने का आह्वान किया है, बल्कि हिंसा और शत्रुता को तत्काल समाप्त करने की भी मांग की है। भारत इस समस्या का समाधान कूटनीति के रास्ते से देखना चाहता है। वह युद्ध का अंधेरा नहीं, शांति का उजाला चाहता है। पिछले दिनों कुछ व्यग्रता का परिचय देते हुए पोलैंड जैसे देश भारत या भारतीयों के खिलाफ दिखने लगे थे, लेकिन उन्हें भी भारत की कोशिशों का महत्व समझ में आ गया है। भारत की कोशिशें उन देशों से कहीं बेहतर हैं, जो यूक्रेन को हथियार देकर आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। लेकिन उन्हें यह सोच लेना चाहिए, जब रूस में तबाही शुरू होगी, तब इस युद्ध का क्या रुख होगा? यह तबाही रूस नहीं, बल्कि समूची दुनिया की तबाही होगी, क्योंकि रूस परमाणु विस्फोट करने को विवश होगा, जो दुनिया की बड़ी चिन्ता का सबब है।
बड़े शक्तिसम्पन्न राष्ट्रों को इस युद्ध को विराम देने के प्रयास करने चाहिए। जबकि वे हिंसक एवं घातक मारक अस़्त्र-शस़्त्र देकर युद्ध को और तीव्र कर रहे हैं, जबकि युद्ध क्षेत्र में आम लोगों तक हर जरूरी मानवीय मदद पहुंचाने की जरूरत है, भारत ने मानवीय आधार पर इसी तरह की राहत सामग्री यूक्रेन भेजी है। भारत ने उचित ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को यह भी बता दिया है कि वह सभी संबंधित पक्षों के संपर्क में है और उनसे बातचीत की मेज पर लौटने का आग्रह कर रहा है। निस्संदेह, भारत को मानवता के पक्ष के साथ-साथ अपना हित देखते हुए शांति और राहत के प्रयासों में जुटे रहना चाहिए और अपने युद्ध-विराम प्रयासों को तीव्र गति देनी चाहिए।

वैदिक धर्म की दृष्टि में सभी प्राणी समान हैं

-मनमोहन कुमार आर्य
आर्यसमाज की शिरोमणि सभा सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली के लगभग चार दशक पूर्व मंत्री रहे श्री ओम्प्रकाश पुरुषार्थी जी ने एक लघु पुस्तक ‘आर्यसमाज और अस्पर्शयता निवारण’ (कार्य प्रणाली और सफलतायें) लिखी है। इस पुस्तक के द्वितीय संस्करण का प्रकाशन सन् 1987 में हुआ था। पुस्तक की भूमिका सभा के तत्कालीन प्रधान श्री रामगोपाल शालवाले जी ने लिखी है। पुस्तक अपने नाम के अनुरूप है जिसमें महत्वपूर्ण सामग्री का संकलन किया गया है। इस पुस्तक का एक अध्याय है ‘वैदिक धर्म की दृष्टि में सभी प्राणी समान हैं’। इसी अध्याय से कुछ सामग्री हम इस लेख में प्रस्तुत कर रहे हैं। इस पुस्तक का अधिक से अधिक प्रचार होना चाहिये जिससे वर्तमान एवं भावी पीढ़ी के लोगों को आर्यसमाज द्वारा अस्पर्शयता निवारण के लिये किए गए कार्यों का परिचय मिल सके। विद्वान लेखक स्व. श्री ओम्प्रकाश पुरुषार्थी जी पुस्तक में लिखते हैं:-

वैदिक धर्म वेदों पर आश्रित है जो मनुष्य मात्र के लिए है, न कि किसी खास जाति या देश के मनुष्यों के लिए, क्योंकि परमात्मा समान रूप से सब प्राणियों का पिता है इस बात को यजुर्वेद के 26.2 में इस प्रकार बताया गया हैः

‘यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च।।‘

इस मंत्र में भगवान् ने उपदेश दिया है कि जिस प्रकार मैंने ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अति शूद्र आदि सब मनुष्यों के लिए इस कल्याणकारिणी वेदवाणी का उपदेश किया है इसी प्रकार सभी किया करो। 

इसी वेदमंत्र के भाव को लेकर महर्षि वेद व्यास ने महाभारत में अपने शिष्यों को उपदेश किया था कि--

‘‘श्रावयेच्चतुरो वर्णान्, कृत्वाः ब्राह्णमग्रतः।
वेदस्याध्ययन हीदं, तच्च पुण्यं महत्स्मृतम्
सर्वस्तरतु दुर्गाणि, सर्वो भद्राणि पश्यतु।”
            शान्ति पर्व अध्याय 327, 48-49

अर्थात् सब मनुष्यों की भलाई के विचार को मन में रखते हुए विद्वानों को चाहिए कि वे सब लोगों के वर्णों को वेद का उपदेश करें क्योंकि वेदों का पढ़ना बड़े पुण्य का कार्य है। 

सभी प्राणी परमात्मा के पुत्र हैं और इसलिए भाई हैं

वेदों की सबसे बड़ी शिक्षा यही है कि सब मनुष्य एक ही परमात्मा के पुत्र हैं और इसलिए भाई हैं। 

सबको भाई और मित्र समझकर प्रेमपूर्वक वर्ताव करना चाहिए। जन्म से कोई छोटा और बड़ा नहीं है। इस बात का उपदेश वेदों में सैकड़ों स्थानों पर दिया गया है। उदाहरणार्थ ऋग्वेद 5.60.5 में कहा हैः-

‘अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभगाय।
युवा पिता स्वपा रुद्र एषां सुदुघा पृश्निः सुदिना मरुद्भ्यः।’ 

इस मन्त्र का स्पष्ट अर्थ यह है कि सब मनुष्य (भ्रातरः) भाई हैं। इनमें जन्म से कोई ऊंचा या नीचा नहीं है। इस भाव को ही धारण करने से मनुष्य समाज की सच्ची उन्नति हो सकती है। न्यायकारी परमात्मा सब का पिता है और पृथ्वी सबकी माता है। इससे उत्तम समानता वा Equality और सार्वजनिक भ्रातृत्व या Universal Brotherhood of Man का क्या उपदेश हो सकता है। श्रृण्वस्नतु विश्वे अमृतस्य पुत्रः (यजुर्वेद 11) आदि मंत्रों में भी सब मनुष्यों को एक ही अविनाशी परमात्मा का पुत्र बताते हुए वेद के उपदेश को सुनने की आज्ञा दी गई है। यजुर्वेद अध्याय 36.18 में कहा है। 

‘‘दृते दृंह मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।।”

इस मन्त्र में केवल मनुष्यों को ही नहीं वरन् सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखने का उपदेश दिया गया है। 

यह उपदेश कितना महत्वपूर्ण है यह बताने की आवश्यकता नहीं। यह समानता और मित्र दृष्टि ही वेद की सारी शिक्षाओं का निचोड़ है। इस बात को ऋग्वेद के अन्तिम सूक्त 190 में बड़े ही स्पष्ट शब्दों में बताया गया है। 

सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।।

समानोः मंत्रः समितिः समानीः समानं मनः सह चित्तमेषाम्।
समानं मंत्रभभिमन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि।।

समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।।

इन मन्त्रों का भावार्थ यह है कि हे मनुष्यो! तुम सब मिलकर प्रेम से धर्म पर चलो, मिलकर प्रेम से भाषण करो और अपने मन्त्रों को ज्ञान युक्त बनाओ। तुम्हारे लिए ये वेद मन्त्र समान रूप से दिए गए हैं। तुम्हारा मन और चित्त समानता या बराबर(Equality) के इन भावों से सदा भरा रहे। तुम्हारी सभाओं में प्रवेश का सब को समान अधिकार रहे। तुम्हारे मन के संकल्प भी एक जैसे पवित्र हों। मन और हृदय समान हों जिससे तुम मिलकर सब अच्छे कर्मों को कर सको। 

कोई भी वेदों का निष्पक्ष विचारक इन मन्त्रों को पढ़ते हुए यह माने बिना नहीं रह सकता कि समानता की शिक्षा वेदों में कूटकूट कर भरी हुई है। 

अथर्ववेद के 3.30 मन्त्र में भी इसी प्रकार के अत्यन्त उत्तम उपदेश हैं जिनमें से विस्तार के भय से प्रथम मन्त्र का उल्लेख ही काफी है, जिस में परमात्मा का मनुष्यों को उपदेश है। 

सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः।
अन्यो अन्यमभि हर्यत, वत्सं तमिवाघ्न्या।। 

अर्थात् हे मनुष्यो! मैं तुम्हारे अन्दर सहृदयता (Concord) और प्रेम (Harmony)  को स्थापित करता और तुम्हारे द्वेष के भाव को दूर भगाता हूं। तुम आपस में ऐसे प्रेम करो जैसे गौ नवजात बछड़े के साथ करती है। इससे बढ़कर सच्चे प्रेम और समानता का उपदेश और क्या हो सकता है? 

हम आशा करते हैं कि इस लेख से पाठकों के ज्ञान में वृद्धि होगी। हम समझते हैं कि समाज में यदि वेद व वैदिक विचारों का प्रचार हो और लोग इन विचारों को अपनायें तो इससे समाज से असमानता,  भेदभाव, अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड एवं जन्मना जातिवाद आदि समाप्त हो सकते हैं। ऐसा होने पर देश व विश्व का समाज श्रेष्ठ समाज बनेगा। ओ३म् शम्। 

कोयले की किल्‍लत नहीं, खराब प्रबन्‍धन से पैदा हुआ बिजली संकट: विशेषज्ञ

भारत इस वक्‍त ग्‍लोबल वार्मिंग की जबर्दस्‍त मार सहने को मजबूर है। भीषण गर्मी के कारण तापमान बढ़ने से बिजली की खपत में वृद्धि के फलस्‍वरूप देश के विभिन्‍न राज्‍यों में बिजली संकट भी उत्‍पन्‍न हो गया है। इसे कोयले की कमी से जोड़कर देखा जा रहा है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि बिजली का संकट कोयले की कमी से नहीं बल्कि खराब प्रबधंन के कारण उत्‍पन्‍न हुआ है।
बढ़ते जलवायु प्रेरित जोखिमों के बीच कोयले की पहेली को समझने के लिये मंगलवार को एक वेबिनार का आयोजन किया। इसमें विशेषज्ञों ने कोरोना महामारी के झटके के बाद भीषण गर्मी में उत्‍पन्‍न बिजली संकट के लिये पर्याप्‍त योजना की कमी को जिम्‍मेदार ठहराया और कहा कि ऐसे में अक्षय ऊर्जा को अंतिम और वास्तविक समाधान मानकर उसमें और ज्यादा निवेश करने का इससे बेहतर वक्त और कोई नहीं हो सकता। भारत के ऊर्जा मिश्रण को अत्यधिक विविधतापूर्ण बनाने की जरूरत है। उन्‍होंने यह भी कहा कि भारत में इस वक्त पर्याप्त ऊर्जा उत्पादन क्षमता मौजूद है और अब किसी नए कोयला बिजली घर की कोई जरूरत नहीं है।
सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (सीआरईए) में विश्लेषक श्री सुनील दहिया ने कहा, “मौजूदा बिजली संकट से निपटने में अभी कुछ समय लगेगा। भारत में यह कोई नई स्थिति नहीं है। पिछले पांच वर्षों के दौरान ऐसे हालात बार-बार पैदा होते रहे हैं। पानी की कमी बिजली के संकट का एक बहुत प्रमुख कारण है। इस वक्‍त हम यह भी देख रहे हैं कि कोयले को बिजलीघरों तक पहुंचाने की पर्याप्‍त व्‍यवस्‍था नहीं हो पा रही है। इसकी वजह से भी बिजली संकट बहुत बढ़ गया है। जब तक हम इसे सुव्यवस्थित तरीके से एड्रेस नहीं करेंगे तब तक हालात नहीं बदलेंगे।’’
उन्‍होंने कहा ‘‘भारत में कोयले का वर्तमान संकट योजना, स्टॉक प्रबंधन और अन्‍य पक्षों की सम्‍बन्धित नाकामी का नतीजा है। हो सकता है कि बिजली संकट को कोयला क्षेत्र में और अधिक निवेश के तर्क के तौर पर इस्तेमाल किया जाए। मगर इससे आगे चलकर हालात और भी खराब हो जाएंगे। कोयला संकट पूरी तरह से लापरवाही का नतीजा है। सच्‍चाई यह है कि कोयले की कोई किल्लत नहीं है, बस उसे बिजलीघरों तक ले जाने की व्‍यवस्‍था ही नाकाफी है। अब अतिरिक्त कोयला उत्पादन की कोई आवश्यकता नहीं है। भारत में इस वक्त पर्याप्त ऊर्जा उत्पादन क्षमता मौजूद है और अब किसी नए कोयला बिजली घर की कोई जरूरत नहीं है। वास्‍तविक ऊर्जा सुरक्षा हासिल करने के लिए अक्षय ऊर्जा रूपांतरण में तेजी लाने का यही सही समय है।”
लीड इंडिया इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस में एनर्जी इकोनॉमिक्स विभूति गर्ग ने कहा “देश में बिजली संकट को देखते हुए सरकार फौरी कदमों के तहत कोयला उत्पादन बढ़ाएगी और कोयले का आयात इत्यादि करेगी। मगर हकीकत यह है कि यह स्थिति कोयले की किल्लत से नहीं बल्कि योजना में कमी की वजह से उत्‍पन्‍न हुई है। पिछली 29 अप्रैल को देश में बिजली की शीर्ष मांग अब तक के सर्वाधिक 207 गीगावॉट तक पहुंच गई। हमें इसे ज्यादा से ज्यादा कोयला खदान बढ़ाने के अवसर के तौर पर नहीं देखना चाहिए। भारत में बिजली की मांग साल दर साल बढ़ेगी ही। ऐसे में सरकार को अक्षय ऊर्जा पर ज्यादा से ज्यादा निवेश करना चाहिए। सरकार को इलेक्ट्रोलाइजर और बैटरी के उत्पादन पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान देना चाहिए। आगामी तीन साल के लिए इंतजाम करने से बेहतर है कि हम ऊर्जा रूपांतरण पर ज्यादा ध्यान दें।’’
क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला- “वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चलता है कि धरती की ऊपरी सतह का तापमान औद्योगिक युग से पूर्व के स्तरों के सापेक्ष 1.1 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। ज्यादा गर्मी पड़ने और उसकी वजह से बिजली की मांग बढ़ने के कारण ऊर्जा संकट उत्पन्न हुआ है। कोयला संकट, दरअसल कोयले के परिवहन और ऊर्जा के ट्रांसमिशन से संबंधित खराब योजना के कारण हुआ है। यहां ना तो कोयले की किल्लत है और ना ही ऊर्जा क्षमता की कमी। वैसे तो इस मौके को कोयला आधारित बिजली से छुटकारा पाने का अवसर बनाया जाना चाहिए लेकिन दुर्भाग्य से हमारे पास बिजली की फौरी जरूरत को पूरा करने के लिए कोयले के इस्तेमाल के सिवा और कोई चारा नहीं है। सौर और वायु बिजली के उत्पादन को और बढ़ाने का यही सही समय है ताकि हम धरती के तेजी से गर्म होने की स्थिति से निपटने के लिए तैयार हो सकें।”
उन्‍होंने कहा ‘‘कोयला आयात को लेकर संबंधित पक्षों की प्रतिक्रिया कोयला खदानों की नीलामी, पुरानी खदानों को दोबारा खोले जाने और पुराने थर्मल पावर प्लांट्स को फिर से संचालित करने साथ ही 650 से अधिक पैसेंजर ट्रेनों को करीब 1 महीने तक के लिए रोके जाने से पता चलता है कि संकट कितना गहरा और चिंताजनक है। जलवायु परिवर्तन के लिहाज से सबसे ज्यादा जोखिम वाला और विकास संबंधी प्राथमिकताओं वाला क्षेत्र होने के नाते भारत इस वक्त चिंताजनक हालात से गुजर रहा है। हालांकि उसने अक्षय ऊर्जा से संबंधित महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किए हैं।’’
आई फॉरेस्‍ट के जस्‍ट ट्रांजिशन विभाग की निदेशक श्रेष्ठा बनर्जी ने एनेर्जी ट्रांज़िशन से जुड़े एक अलग पहलू का जिक्र करते हुए कहा ‘‘हमारे पास वर्ष 2030 तक की जरूरत पूरी करने के लिए कोयला उत्पादन की पर्याप्त स्‍वीकृतियां मौजूद है। सवाल यह है कि हम ऊर्जा की आपूर्ति के संकट से कैसे निपटें। अगले 10 वर्षों के दौरान कोयले की मांग चरम पर पहुंच जाने में कोई संदेह नहीं है। कोयला रूपांतरण एक बिल्कुल अलग चीज है। अगर हमें 2070 तक नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करना है तो हमें कोयले की खपत को 2040 तक कम से कम 50% तक कम करना होगा। जहां तक ऊर्जा रूपांतरण का सवाल है तो हमें कोयला क्षेत्र में काम कर रहे बड़ी संख्या में लोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए ही कदम आगे बढ़ाने चाहिए। मैं नहीं मानती कि अक्षय ऊर्जा कोयला आधारित बिजली का पूरी तरह से स्थान ले सकती है।’’
उन्‍होंने कहा ‘‘अगर आपको रूपांतरण करना है तो आपको निरंतर निवेश लाना होगा। छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखंड जैसे राज्य में कोयले का उत्पादन होता है और वहां अक्षय ऊर्जा पर निवेश नहीं हो रहा है क्योंकि उन्हें अपने कामगारों को उस हिसाब से प्रशिक्षित करना होगा। अगर आपने आज ऊर्जा रूपांतरण की योजना नहीं बनाई तो आप भविष्य में ज्यादा बड़ी आफत में पड़ जाएंगे। अगर हम जलवायु संकट और नेट जीरो के लक्ष्य के प्रति वाकई गंभीर हैं और अचानक विभिन्न कारणों से कोयला खदानों को बंद करना शुरू कर देंगे तो उस विशाल श्रम शक्ति का क्या होगा जिसकी रोजीरोटी इन खदानों पर टिकी है।’’
काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवॉयरमेंट एण्‍ड वॉटर (सीईईडब्‍ल्‍यू) में फेलो वैभव चतुर्वेदी ने देश में कोयले से सम्‍बन्धित संकट के पूर्वानुमान की कोई सटीक व्‍यवस्‍था नहीं होने का जिक्र करते हुए कहा ‘‘सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस नई तरह की अनिश्चितताओं के लिए हमारी योजना की प्रक्रिया क्या है। फिलहाल मैं देश में ऐसा कोई मॉडल नहीं देख पा रहा हूं। सरकार ऐसी कोई विश्‍लेषणात्‍मक इकाई तैयार करेगी, इसकी उम्‍मीद नहीं की जानी चाहिये। हम ऊर्जा रूपांतरण को किस तरह से करेंगे, इसके लिए कोई ठोस अनुमान या योजना का अभाव नजर आता है। हमारे पास कोई संचालनात्मक योजना नहीं है।’’

महाराणा प्रताप सिंह जी की जयंती के अवसर कुछ विशेष जानकारियां

नाम – कुँवर प्रताप जी (श्री महाराणा प्रताप सिंह जी)
जन्म – 9 मई, 1540 ई.
जन्म भूमि – कुम्भलगढ़, राजस्थान
पुण्य तिथि – 29 जनवरी, 1597 ई.
पिता – श्री महाराणा उदयसिंह जी
माता – राणी जयवन्ता कँवर जी
राज्य – मेवाड़
शासन काल – 1568–1597ई.
शासन अवधि – 29 वर्ष
वंश – सूर्यवंश
राजवंश – सिसोदिया
राजघराना – राजपूताना
धार्मिक मान्यता – हिंदू धर्म
युद्ध – हल्दीघाटी का युद्ध
राजधानी – उदयपुर
पूर्वाधिकारी – महाराणा उदयसिंह
उत्तराधिकारी – राणा अमर सिंह

अन्य जानकारी –
महाराणा प्रताप सिंह जी के पास एक सबसे प्रिय घोड़ा था,
जिसका नाम ‘चेतक’ था।

राजपूत शिरोमणि महाराणा प्रतापसिंह उदयपुर,
मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश के राजा थे।

वह तिथि धन्य है, जब मेवाड़ की शौर्य-भूमि पर मेवाड़-मुकुटमणि
राणा प्रताप का जन्म हुआ।

महाराणा का नाम
इतिहास में वीरता और दृढ़ प्रण के लिये अमर है।

महाराणा प्रताप की जयंती विक्रमी सम्वत् कॅलण्डर के अनुसार प्रतिवर्ष ज्येष्ठ, शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाई जाती है।

महाराणा प्रताप के बारे में कुछ रोचक जानकारी:-

1… महाराणा प्रताप एक ही झटके में घोड़े समेत दुश्मन सैनिक को काट डालते थे।

2…. जब इब्राहिम लिंकन भारत दौरे पर आ रहे थे तब उन्होने अपनी माँ से पूछा कि हिंदुस्तान से आपके लिए क्या लेकर आए| तब माँ का जवाब मिला- ”उस महान देश की वीर भूमि हल्दी घाटी से एक मुट्ठी धूल लेकर आना जहाँ का राजा अपनी प्रजा के प्रति इतना वफ़ादार था कि उसने आधे हिंदुस्तान के बदले अपनी मातृभूमि को चुना ” लेकिन बदकिस्मती से उनका वो दौरा रद्द हो गया था | “बुक ऑफ़ प्रेसिडेंट यु एस ए” किताब में आप यह बात पढ़ सकते हैं |

3…. महाराणा प्रताप के भाले का वजन 80 किलोग्राम था और कवच का वजन भी 80 किलोग्राम ही था|

कवच, भाला, ढाल,और हाथ में तलवार का वजन मिलाएं तो कुल वजन 207 किलो था।

4…. आज भी महाराणा प्रताप की तलवार कवच आदि सामान
उदयपुर राज घराने के संग्रहालय में सुरक्षित हैं |

5…. अकबर ने कहा था कि अगर राणा प्रताप मेरे सामने झुकते है तो आधा हिंदुस्तान के वारिस वो होंगे पर बादशाहत अकबर की ही रहेगी|
लेकिन महाराणा प्रताप ने किसी की भी अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया |

6…. हल्दी घाटी की लड़ाई में मेवाड़ से 20000 सैनिक थे और अकबर की ओर से 85,000 सैनिक युद्ध में सम्मिलित हुए |

7…. महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक का मंदिर भी बना हुआ है जो आज भी हल्दी घाटी में सुरक्षित है |

8…. महाराणा प्रताप ने जब महलों का त्याग किया तब उनके साथ लुहार जाति के हजारो लोगों ने भी घर छोड़ा और दिन रात राणा कि फौज के लिए तलवारें बनाईं| इसी समाज को आज गुजरात मध्यप्रदेश और राजस्थान में गाड़ियां लोहार कहा जाता है|
मैं नमन करता हूँ ऐसे लोगो को |

9…. हल्दी घाटी के युद्ध के 300 साल बाद भी वहाँ जमीनों में तलवारें पाई गई।
आखिरी बार तलवारों का जखीरा 1985 में हल्दी घाटी में मिला था |

10….. महाराणा प्रताप को शस्त्रास्त्र की शिक्षा “श्री जैमल मेड़तिया जी” ने दी थी जो 8000 राजपूत वीरों को लेकर 60,000 मुगलो से लड़े थे। उस युद्ध में 48000 मारे गए थे
जिनमे 8000 राजपूत और 40000 मुग़ल थे |

11…. महाराणा के देहांत पर अकबर भी रो पड़ा था |

12…. मेवाड़ के आदिवासी भील समाज ने हल्दी घाटी में
अकबर की फौज को अपने तीरो से रौंद डाला था वो महाराणा प्रताप को अपना बेटा मानते थे और राणा बिना भेदभाव के उन के साथ रहते थे|
आज भी मेवाड़ के राजचिन्ह पर एक तरफ राजपूत हैं तो दूसरी तरफ भील |

13….. महाराणा प्रताप का घोड़ा चेतक महाराणा को 26 फीट का दरिया पार करने के बाद वीर गति को प्राप्त हुआ | उसकी एक टांग टूटने के बाद भी वह दरिया पार कर गया। जहाँ वो घायल हुआ वहां आज खोड़ी इमली नाम का पेड़ है जहाँ पर चेतक की मृत्यु हुई वहाँ चेतक मंदिर है |

14….. राणा का घोड़ा चेतक भी बहुत ताकतवर था उसके मुँह के आगे दुश्मन के हाथियों को भ्रमित करने के लिए हाथी की सूंड लगाई जाती थी । यह हेतक और चेतक नाम के दो घोड़े थे|

15….. मरने से पहले महाराणा प्रताप ने अपना खोया हुआ 85 % मेवाड फिर से जीत लिया था । सोने चांदी और महलों को छोड़कर वो 20 साल मेवाड़ के जंगलो में घूमे |

16…. महाराणा प्रताप का वजन 110 किलो और लम्बाई 7’5” थी, दो म्यान वाली तलवार और 80 किलो का भाला रखते थे हाथ में।

महाराणा प्रताप के हाथी ? की कहानी:-

मित्रों आप सब ने महाराणा
प्रताप के घोड़े चेतक के बारे
में तो सुना ही होगा,
लेकिन उनका एक हाथी
भी था। जिसका नाम था रामप्रसाद। उसके बारे में आपको कुछ बातें बताता हूं।

रामप्रसाद हाथी का उल्लेख
अल- बदायुनी, जो मुगलों
की ओर से हल्दीघाटी के
युद्ध में लड़ा था ने अपने एक ग्रन्थ में किया है।

वो लिखता है कि जब महाराणा
प्रताप पर अकबर ने चढाई की
थी तब उसने दो चीजों को
ही बंदी बनाने की मांग की
थी एक तो खुद महाराणा
और दूसरा उनका हाथी
रामप्रसाद।

आगे अल बदायुनी लिखता है
कि वो हाथी इतना समझदार
व ताकतवर था कि उसने
हल्दीघाटी के युद्ध में अकेले ही
अकबर के 13 हाथियों को मार
गिराया था।

वो आगे लिखता है कि
उस हाथी को पकड़ने के लिए
हमने 7 बड़े हाथियों का एक
चक्रव्यूह बनाया और उन पर
14 महावतों को बिठाया तब
कहीं जाकर उसे बंदी बना पाये।

अब सुनिए एक भारतीय जानवर की स्वामी भक्ति।

उस हाथी को अकबर के समक्ष
पेश किया गया जहां अकबर ने
उसका नाम पीर प्रसाद रखा।
रामप्रसाद को मुगलों ने गन्ने
और पानी दिया। पर उस स्वामिभक्त हाथी ने 18 दिन तक मुगलों का न
तो दाना खाया और न ही पानी पिया और वो शहीद हो गया।

तब अकबर ने कहा था कि
जिसके हाथी को मैं अपने सामने
नहीं झुका पाया उस महाराणा
प्रताप को क्या झुका पाउँगा।
ऐसे ऐसे देशभक्त चेतक घोड़ा व रामप्रसाद जैसे हाथी शूरमा यहाँ थे।

संग्रह कर्ता
राम कृष्ण रस्तोगी

सत्य के अन्वेषण से ज्ञानवापी को घबराहट क्यों!!

  • विनोद बंसल

काशी में मां श्रंगार गौरी के दर्शन पूजन के अधिकारों को पुन: प्राप्त करने के लिए हिंदू समाज दशकों से प्रतीक्षा कर रहा है। इस संबंध में काशी के न्यायालय में वाद पर माननीय न्यायाधीश ने उस परिसर की वीडियोग्राफी और सर्वे का आदेश दिया। एडवोकेट कमिश्नर के माध्यम से यह कार्य होना है। किंतु, न्यायालय द्वारा नियुक्त अधिकारी को तथाकथित मस्जिद परिसर में जाने से रोक दिया गया।

उसके पीछे उस ज्ञानवापी इंतजामियां कमेटी के सचिव ने जो चार तर्क दिए वे बेहद गंभीर हैं। उन्होंने कहा कि;

  1. हम किसी गैर मुस्लिम को मस्जिद के अंदर नहीं घुसने देंगे।
  2. क्योंकि कोर्ट ने हमारी बात नहीं सुनी इसलिए, हम कोर्ट की बात नहीं सुनेंगे।
  3. मस्जिद के अंदर की वीडियोग्राफी या फोटो खींचने से हमारी सुरक्षा को खतरा है। वह वीडियोग्राफी मार्केट में आ जाएगी।
  4. चौथी और बेहद आपत्तिजनक तर्क था कि ऐसे तो यदि कोर्ट कहे कि मेरी गर्दन काट के ले आओ तो क्या कोर्ट द्वारा नियुक्त अधिकारी को मैं अपनी गर्दन काटकर दे दूंगा!

इस तरह की बातों को कोई भी सभ्य समाज का व्यक्ति, जो कानून में विश्वास रखता है, कुतर्क या न्याय की राह में रोड़ा ही बताएगा। एक मस्जिद की इंतजामियां कमेटी के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य न्यायालय के लिए तो कोई महत्त्व नहीं रखता किंतु, विदेशी आक्रांताओं के समर्थकों की चाल, चरित्र व चेहरे को अवश्य उजागर करता है।

प्रश्न उठता है कि

क्या भारत में मस्जिदों के अंदर न्यायालय या देश के कानून का पालन करने वाली संस्थाओं को भी जाने की अनुमति नहीं है?

क्या अब न्यायालय का भी रिलीजन देखा जाएगा?

क्या न्यायालय को सरेआम यह धमकी दिया जाना कि आपने हमारी बात नहीं सुनी इसलिए हम आपकी बात नहीं सुनेंगे, उचित है? और;

न्यायालय के अधिकारी को गला काटने वाले से तुलना करना क्या इस्लामिक कट्टरपंथियों, मुस्लिम युवाओं और देश विरोधियों को उकसाया जाना न्यायोचित है?

प्रश्न एक और भी है कि मस्जिद के अंदर और बाहर जमातीयों की भीड़ जमाकर न्यायालय की कार्यवाही में बाधा डालने का पुरजोर प्रयास क्या न्याय की अवहेलना या अवमानना नहीं?

मामला सिर्फ इतना ही नहीं है। देश की राजनीति में कुछ लोग जो मुस्लिम युवाओं को उकसाने का ही काम सतत करते हैं, जो सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों के बारे में सोचते हैं।जिहादियों को ही प्रोत्साहन देते हैं लेकिन बात संविधान कानून और न्याय व्यवस्था की करते हैं। ऐसे लोग भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए और बहती गंगा में हाथ धोने के लिए कूद पड़े। हैदराबाद के वकील कहते हैं कि 1991 के कानून को सरकार मान नहीं रही। प्लेसेज आफ वरशिप एक्ट 1991 के बारे में न्यायालय ने विचार किया और इस संबंध में इलाहाबाद उच्च न्यायालय तक में सुनवाई हो चुकी है। लेकिन इसके बावजूद भी उसे ढाल बनाकर ढोल पीटाना क्या शोभा देता है। सत्य के अन्वेषण पर प्रहार किया जा रहा है। बार-बार माननीय न्यायालय द्वारा नियुक्त कोर्ट कमिश्नर को, जिसको सिर्फ सर्वे और वीडियोग्राफी कर गोपनीय रिपोर्ट देने के लिए कहा गया है, को ना सिर्फ रोका जा रहा है बल्कि उसके ऊपर पक्षपाती होने के झूठे आरोप भी मढ़े जा रहे हैं।

परिसर के सर्वे से बचने के पीछे दो ही तर्क हो सकते हैं। एक तो उस कथित मस्जिद के अंदर कुछ ऐसा अनिष्ट कारक या गैरकानूनी जमावड़ा है, जैसा कि भारत की अनेक मस्जिद, मदरसों और मुस्लिम बहुल बस्तियों में अनेक बार देखने को आया है। यथा गोला-बारूद हथियार बम आतंकी इत्यादि, जिनको छुपाया जाना उनके लिए बहुत जरूरी है। अन्यथा दूसरा कारण यह हो सकता है कि इनको विश्वास है कि यदि सर्वे हुआ तुम्हारी सारी पोल पट्टी खुल जाएगी कि इस परिसर का मस्जिद से कोई लेना देना नहीं है। देश समझ रहा है कि ये लोग सत्य पर पर्दा डाल असत्य की ढाल ओड़कर देश में सांप्रदायिक उन्माद पैदा करने का एक कुत्सित प्रयास कर रहे हैं। जनता यह जानना चाहती है कि आखिरकार मस्जिद में ऐसा क्या सीक्रेट होता है जिसको छुपाया जा रहा है और क्या किसी मस्जिद में आज तक कोई गैर मुस्लिम घुसा ही नहीं? क्या भारत की न्याय व्यवस्था पर आपको कोई विश्वास नहीं? क्या न्यायाधीश आपका गला काटने के लिए भेज रहे हैं?

देखिए माता श्रंगार गौरी के मंदिर में पूजा अर्चना और दर्शन के लिए एक दशक पहले तक सब कुछ सामान्य था। भक्त दर्शन-पूजन के लिए जाते ही थे। वह मंदिर मस्जिद के दीवाल के बाहरी हिस्से में बना हुआ है तो भी हिंदुओं को पूजा अर्चना से वंचित क्यों किया जा रहा है? क्या देश के इस बहुसंख्यक समाज को अपने आराध्य देव की पूजा का भी अधिकार यह तथाकथित अल्पसंख्यक समुदाय नहीं देगा? क्या दुनिया को नहीं पता कि मुस्लिम आक्रांताओं ने बड़े पैमाने पर हिंदू धर्म स्थलों को ध्वस्त कर उसके मलबे से अनेक प्रकार के इस्लामिक ढांचे तैयार किए जो कि वास्तव में इस्लाम की मान्यताओं के अनुसार भी नहीं थे? इस कथित मस्जिद के नाम से ही संपूर्ण विश्व को इस बात का ज्ञान हो जाता है कि आखिर इसका नाम ज्ञानवापी क्यों है? इसके विचित्र रूप और आसपास बनी मूर्तियों से स्वत: सिद्ध हो रहा है कि वहां पर हिंदू आस्था के केंद्रों को तोड़ कर के ही वह ढांचा बनाया गया था? जो लोग शांति और भाईचारे की बात करते हैं, गंगा जमुना संस्कृति की बात करते हैं, मिल बैठकर बात करने की बात करते हैं वो उन्हें क्यों नहीं समझाते कि आखिरकार हिंदू मान्यताओं के विश्व प्रसिद्ध आराध्य देव भगवान शंकर की इस पवित्र स्थली को, इस्लामिक आक्रांताओं द्वारा तोड़े जाने के पाप का परिमार्जन कर, हिंदू समाज को क्यों ना दे दिया जाए? यदि न्यायालय का ही रास्ता अपनाना है तो न्याय के मार्ग में कम से कम रोड़ा ना बनें। जिस सत्य की खोज के लिए न्यायालय ने एक पहेली सीढ़ी चढ़ी है, उस सीडी को ही काटने का दुष्प्रयास ना करें। देश अब जाग रहा है। इसको अब और भ्रमित नहीं किया जा सकता। इसलिए सभी भारतीय सच्चाई के साथ सहृदयता पूर्वक सौहार्द के साथ तभी रह पाएंगे जब हम एक दूसरे की मान्यताओं परंपराओं और विश्वास की बहाली करें। विदेशी आक्रांताओं के साथ स्वयं को या अपने परिजनों व समाज को जोड़ने के पाप से दूर रहें।

आचार्य महाश्रमण: महान् आध्यात्मिक कर्मयोद्धा

 युगप्रधान अलंकरण समारोह-10 मई, 2022
-ललित गर्ग-

आचार्य महाश्रमण भारत की संत परम्परा के महान् जैनाचार्य है, जिस परंपरा को महावीर, बुद्ध, गांधी, आचार्य भिक्षु, आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ ने अतीत में आलोकित किया है। अतीत की यह आलोकधर्मी परंपरा धुंधली होने लगी, इस धुंधली होती परंपरा को आचार्य महाश्रमण एक नई दृष्टि प्रदान कर रहे हैं। यह नई दृष्टि एक नए मनुष्य का, एक नए जगत का, एक नए युग का सूत्रपात कही जा सकती है। वे आध्यात्मिक इन्द्रधनुष की एक अनूठी एवं सतरंगी तस्वीर हैं। उन्हें हम ऐसे बरगद के रूप में देखते हैं जो सम्पूर्ण मानवता को शीतलता एवं मानवीयता का अहसास कराता है। इस तरह अपनी छवि के सूत्रपात का आधार आचार्य महाश्रमण ने जहाँ अतीत की यादों को बनाया, वहीं उनका वर्तमान का पुरुषार्थ और भविष्य के सपने भी इसमें योगभूत बन रहे हैं। विशेषतः उनकी विनम्रता और समर्पणभाव उनकी आध्यात्मिकता को ऊंचाई प्रदत्त रह रहे हैं। भगवान राम के प्रति हनुमान की जैसी भक्ति और समर्पण रहा है, वैसा ही समर्पण आचार्य महाश्रमण का अपने गुरु आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ के प्रति रहा है। 10 मई 2022 को राजस्थान के सरदारशहर में आचार्य श्री महाश्रमण को ‘युगप्रधान’ अलंकरण प्रदत्त किया जा रहा है, यह उनकी जन्म भूमि भी है, जहां 13 मई 2022 को वे अपना षष्ठीपूर्ति जन्मोत्सव भी मनायेेंगे।  
आचार्य महाश्रमण जन्म से महाश्रमणता लेकर नहीं आए थे, महाश्रमण कोई नाम नहीं है, यह विशेषण है, उपाधि और अलंकरण है। गुरुदेव तुलसी ने इसे नामकरण बना दिया और आचार्य महाप्रज्ञ ने इसे महिमामंडित कर दिया, क्योंकि उपाधियाँ भी ऐसे ही महान् पुरुषों को ढूँढ़ती हैं जिनसे जुड़कर वे स्वयं सार्थक बनती हैं। ‘युगप्रधान’ की भी ऐसा ही अलंकरण है। उनके वैशिष्ट्य का राज है उनका प्रबल पुरुषार्थ, उनका समर्पण, अटल संकल्प, अखंड विश्वास और ध्येय निष्ठा। एमर्सन ने सटीक कहा है कि जब प्रकृति को कोई महान कार्य सम्पन्न कराना होता है तो वह उसको करने के लिये एक प्रतिभा का निर्माण करती है।’ निश्चित ही आचार्य महाश्रमण भी किसी महान् कार्य की निष्पत्ति के लिये ही बने हैं। ऐसे ही अनेकानेक महान् कार्यों उनके जीवन से जुड़े हैं, उनमें एक विशिष्ट उपक्रम है अहिंसा यात्रा। आचार्य श्री महाश्रमण ने दिनांक 9 मार्च 2014 को राजधानी दिल्ली के लाल किला प्राचीर से अहिंसा यात्रा का शुभारंभ किया था और इसी दिल्ली में 27 मार्च 2022 को आठ वर्षीय इस ऐतिहासिक, अविस्मरणीय एवं विलक्षण यात्रा का समापन तालकटोरा स्टेडियम में होना एक सुखद संयोग है। जिसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का आनलाइन उद्बोधन हुआ तो रक्षामंत्री श्री राजनाथ सिंह एवं लोकसभा अध्यक्ष श्री ओम बिडला ने इस अवसर पर साक्षात् सम्बोधित किया।
आचार्य महाश्रमण ने उन्नीस राज्यों एवं भारत सहित तीन पड़ोसी देशों की करीब सत्तर हजार किलोमीटर की पदयात्रा करते हुए अहिंसा और शांति का पैगाम फैलाया। करीब एक करोड़ लोगों को नशामुक्ति का संकल्प दिलाया। नेपाल में भूकम्प, कोरोना की विषम परिस्थितियों में इस यात्रा का नक्सलवादी एवं माओवादी क्षेत्रों में पहुंचना आचार्य महाश्रमण के दृढ़ संकल्प, मजबूत मनोबल एवं आत्मबल का परिचायक है। आचार्य महाश्रमण का देश के सुदूर क्षेत्रों-नेपाल एवं भूटान जैसे पडौसी राष्ट्रों सहित आसाम, बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, कर्नाटक, तमिलनाडू, महाराष्ट्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़ आदि में अहिंसा यात्रा करना और उसमें अहिंसा पर विशेष जोर दिया जाना अहिंसा की स्थापना के लिये सार्थक सिद्ध हुआ है। क्योंकि आज देश एवं दुनिया हिंसा एवं युद्ध के महाप्रलय से भयभीत और आतंकित है। जातीय उन्माद, सांप्रदायिक विद्वेष और जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं का अभाव- ऐसे कारण हैं जो हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं और इन्हीं कारणों को नियंत्रित करने के लिए आचार्य महाश्रमण अहिंसा यात्रा के विशिष्ट अभियान के माध्यम से प्रयत्नशील बने थे।
भारत की माटी में पदयात्राओं का अनूठा इतिहास रहा है। असत्य पर सत्य की विजय हेतु मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा की हुई लंका की ऐतिहासिक यात्रा हो अथवा एक मुट्ठी भर नमक से पूरा ब्रिटिश साम्राज्य हिला देने वाला 1930 का डाण्डी कूच, बाबा आमटे की भारत जोड़ो यात्रा हो अथवा राष्ट्रीय अखण्डता, साम्प्रदायिक सद्भाव और अन्तर्राष्ट्रीय भ्रातृत्व भाव से समर्पित एकता यात्रा, यात्रा के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। भारतीय जीवन में पैदल यात्रा को जन-सम्पर्क का सशक्त माध्यम स्वीकारा गया है। ये पैदल यात्राएं सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक यथार्थ से सीधा साक्षात्कार करती हैं। लोक चेतना को उद्बुद्ध कर उसे युगानुकूल मोड़ देती हैं। भगवान् महावीर ने अपने जीवनकाल में अनेक प्रदेशों में विहार कर वहां के जनमानस में अध्यात्म के बीज बोये थे। जैन मुनियों की पदयात्राओं का लम्बा इतिहास है। वर्ष में प्रायः आठ महीने वे पदयात्रा करते हैं। लेकिन इन यात्राओं की श्रृंखला में आचार्य श्री महाश्रमण ने नये स्तस्तिक उकेरे हैं।
अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य महाश्रमण तो इस युग के महान् यायावर हैं। वे नंगे पांव पदयात्रा करते हैं। शहरों, देहातों, खेड़ों और ग्रामीण अंचलों में जाकर सामूहिक एवं व्यक्तिगत जनसम्पर्क करते हैं। समाज के नैतिक और आध्यात्मिक स्तर को उन्नत बनाने तथा चरित्र और अहिंसा का प्रशिक्षण देने हेतु धर्म, दर्शन, इतिहास, अणुव्रत और सामयिक समस्याओं पर चर्चा करते हैं। लोगों को व्यसनों से मुक्त कर उनकी चेतना में नैतिक उत्क्रांति के बीज वपन करते हैं, समस्त पूर्वाचार्यों से एक विशेष कालखंड में सर्वाधिक लम्बी पदयात्रा करने के फलस्वरूप आचार्य श्री महाश्रमण को ”पांव-पांव चलने वाला सूरज“ संज्ञा से अभिहित किया जाने लगा है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने तो यहां तक कहा है कि ”आचार्य श्री महाश्रमण अहिंसा की साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं, आपकी अहिंसा यात्रा नैतिक क्रांति की मशाल बनकर मानव-मानव को अध्यात्म के प्रशस्त पथ पर सतत अग्रसर होने की प्रेरणा दे रही है।“
निश्चित ही आचार्य महाश्रमणजी आत्मरंजन या लोकरंजन जैसी धुंधली जीवन दृष्टि से प्रेरित होकर परिव्रज्या नहीं करते। उनके सामने उद्देश्य है-समाज के मूल्य मानकों में परिवर्तन कर उसे ऊँचे जीवन मूल्यों के अनुरूप ढालना। मानव जीवन के अंधेरे गलियारों में चरित्र का उजाला फैलाना। यात्रा जल की हो या मनुष्य की, उसकी अर्थवत्ता का आधार सदैव समष्टि का हित ही होता है। जल का प्रवाह धरती के कण-कण को हरियाता है, तो रस धार बन जाता है और यायावर समाज का निर्माण और उत्थान करता हुआ निरन्तर आगे बढ़ता है, तो कहलाता है युग पुरुष, युग निर्माता, युगप्रधान।
स्वल्प आचार्य शासना में आचार्य महाश्रमण ने मानव चेतना के विकास के हर पहलू को उजागर किया। कृष्ण, महावीर, बुद्ध, जीसस के साथ ही साथ भारतीय अध्यात्म आकाश के अनेक संतों-आदि शंकराचार्य, कबीर, नानक, रैदास, मीरा आदि की परंपरा से ऐसे जीवन मूल्यों को चुन-चुनकर युग की त्रासदी एवं उसकी चुनौतियों को समाहित करने का अनूठा कार्य उन्होंने किया। जीवन का ऐसा कोई भी आयाम नहीं है जो उनके प्रवचनों-विचारों से अस्पर्शित रहा हो। योग, तंत्र, मंत्र, यंत्र, साधना, ध्यान आदि के गूढ़ रहस्यों पर उन्होंने सविस्तार प्रकाश डाला है। साथ ही राजनीति, कला, विज्ञान, मनोविज्ञान, दर्शन, शिक्षा, परिवार, समाज, गरीबी, जनसंख्या विस्फोट, पर्यावरण, हिंसा, जातीयता, भ्रष्टाचार, राजनीतिक अपराधीकरण, भ्रूणहत्या और महंगाई के विश्व संकट जैसे अनेक विषयों पर भी अपनी क्रांतिकारी जीवन-दृष्टि प्रदत्त की है। जब उनकी उत्तराध्ययन और श्रीमद् भगवद गीता पर आधारित प्रवचन शृंखला सामने आई, उसने आध्यात्मिक जगत में एक अभिनव क्रांति का सूत्रपात किया है। आचार्य महाश्रमण के निर्माण की बुनियाद भाग्य भरोसे नहीं, बल्कि आत्मविश्वास, पुरुषार्थी प्रयत्न, समर्पण और तेजस्वी संकल्प से बनी है। हम समाज एवं राष्ट्र के सपनों को सच बनाने में सचेतन बनें, यही आचार्य महाश्रमण की प्रेरणा है और इसी प्रेरणा को जीवन-ध्येय बनाना हमारे लिए शुभ एवं श्रेयस्कर है।

मातृ दिवस पर मां को समर्पित कुछ पंक्तियां

जब जब इस धरा पर मैं आऊं,
मां तेरी गोदी का स्पर्श मै पाऊं।
चुका न सकता मां के ऋण को,
चाहे सौ सौ जन्म लेकर मैं आऊं।

मां के चरणों में मै सदा शीश झुकाऊं,
कभी भी उससे मै अलग न हो पाऊं।
कटे शीश अगर कभी भी मेरा,
उसे अपनी भारत मां को मै चढ़ाऊं।।

मातृ दिवस मै रोज रोज मनाऊं,
जब कभी रूठे जाए उसे मनाऊं।
एक दिन मनाने से होता है क्या ,
साल के 365 दिन उसे मै मनाऊं।।

मां के सीने से जब चिपट कर सोता,
अपने आप को सुंदर सपनो में खोता।
जब जब तेरे हाथो का स्पर्श मुझे होय,
सारे दुःख दर्द भूलने का आभास होता।।

मेरा नसीब लिखने का हक मां का होता,
तो आज मेरे नसीब में कोई गम ना होता।
मां तेरे दूध का हक,मुझसे अदा ना होगा,
तू है नाराज तो खुश मुझसे कौन होता।।

आर के रस्तोगी

इस्लामोफोबिया के प्रपंच से शरीयत की ओर बढ़ता समाज

ईशनिंदा के नाम पर मानवता व् लोगो की निर्मम हत्या करने वाली कटटरपंथी विचारधारा अब कानूनी तरीके से शरीयत की ओर बढ़ रही है । किसी भी गैरइस्लामिक देश में शरीयत कानून को क्रियान्वित करना इस्लाम का मुख्य लक्ष्य होता है । इसी लक्ष्य के निहित यूरोपीय देशो में इस्लामोफोबिया के विरुद्ध कानून की मांग की जा रही है । इस्लामिक बुद्धिजीवी व् वामपंथी पुरे विश्व में एक सन्देश को प्रसारित करने में लगे हुए है की लोगो को इस्लाम से डराया जा रहा है , जिसे  इस्लामिक बुद्धिजीवियों ने इस्लामोफोबिया का नाम दिया है । इस्लामिक बुद्धिजीवी व् वामपंथी चाहते है की जो भी व्यक्ति इस्लामिक विचारधारा के विरुद्ध बोलेगा तो इस्लामोफोबिया कानून के अंतर्गत यह मन जाएगा कि वह व्यक्ति ईशनिंदा कर रहा है एवं उसके विरुद्ध  विशेष कानून के अंतर्गत दंडात्मक कार्यवाही होनी चाहिए । यदि आंकलन किया जाए तो अभी भी असंवैधानिक रूप से कट्टरवादी विचारों के अंतर्गत यह सब हो रहा है । जो भी व्यक्ति कटटरपंथी विचारधारा की सत्यता को उजागर करता है । उस पर ईशनिंदा का आरोप लगाकर कटटरपंथियो की भीड़ हमला करके उस व्यक्ति को जलाकर या गला रेतकर हत्या कर देती है एवं जहाँ भीड़ इकट्ठा करना संभव नहीं होता ,वहां टारगेट किलिंग कर दी जाती है । परन्तु विडंबना देखिये की अब इस्लामोफोबिया के नाम का प्रपंच रचकर स्वम को मजलूम , मजबूर बताकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यही मजलूम लोग एक ऐसे कानून की  मांग कर रहे हैं। जिसके चलते कोई भी व्यक्ति इस्लाम के विरुद्ध तर्कसंगत विचार भी न रख सके। इस्लाम के जानकारों से पूछना चाहिए की जिस लोकतंत्र व अभिव्यक्ति की आजादी की बात वो करते हैं क्या यह अधिकार गैरइस्लामिक लोगों को नहीं है । इस्लामिक बुद्धिजीवी व वामपंथी जिस कानून व संविधान की  बात करके अन्य समाज की संवेदना बटोरना चाहते है । वह इस्लामिक बुद्धिजीवी उस संविधान व् लोकतंत्र का पालन तब क्यों नहीं करते जब  हिन्दुस्तान में उसी कानून के अंतर्गत ज्ञानवापी मस्जिद की वीडियोग्राफी का आदेश दिया जाता है । वैश्विक स्तर पर बुद्धिजीवी समाज व् राजनेताओ की यह विफलता ही तो है की इन नेताओ में शरीयत के अलोकतांत्रिक व् इस्लामिक कटटरवादिता विचारो का ज्ञान ही नहीं है । जिसके कारण इस्लामिक वामपंथी गठजोड़ पुरे विश्व में शरीयत के अंतर्गत होने वाली अमानवीय गठनाओं को इस्लामोफोबिया के नाम का कवच पहनाकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संरक्षित करने का कार्य कर रहा है । जब शरीयत के नाम पर मंदिरों को तोडा जा सकता है , देव मूर्तियों को खंडित किया जा सकता है , गैरइस्लामिक व्यक्तियों के साथ आक्रामकता , हिन्सात्मक व् बर्बरतापूर्ण व्यवहार किया जा सकता है तो यह कैसे सम्भव है की सभ्य समाज को इन सबके विरुद्ध तथ्यात्मक विचार रखने का भी अधिकार न दिया जाए । आज इस कानून की मांग यूरोप में हो रही है परन्तु इस प्रपंच को रोकने हेतु सम्पूर्ण विश्व के मानवतावादियों को सजग व सतर्क रहना चाहिए ।

1857 की क्रांति : एक सुनियोजित स्वातन्त्र्य संग्राम

अमृत महोत्सव
-रवि कुमार
भारत की स्वतंत्रता की चर्चा जब होती है तो ध्यान आता है उन क्रान्तिकारियों का, जिन्होंने स्वतंत्रता की बलि वेदी पर अपने प्राणों को न्योछावर कर दिया। किसी भी समूह से, चाहे विद्यार्थी हो या आचार्य, अभिभावक हो या सामान्य व्यक्ति, जब ये कहा जाता है कि कौन-कौन क्रांतिकारियों हुए, उनके नाम बताओ। सामने वाला समूह अधिकतम 15-20 नाम बहुत प्रयास कर बता पाता है। पांच खण्डों में एक क्रांतिकारी कोश प्रकाशित हुआ है जिसका शीर्षक है – ‘1800 क्रांतिकारियों के जीवन परिचय’, लेखक- श्रीकृष्ण सदन। हम सब ये भी नहीं जानते होंगे कि भारत की स्वतंत्रता के लिए एक 7 वर्ष की आयु के रघुनाथ पांडुरंग (1946, महाराष्ट्र) नामक बालक ने, 13 वर्ष की आयु में मैना (1857, ग्वालियर) नामक बालिका ने, 12 वर्ष की आयु में बिशन सिंह कूका (1872, मलेरकोटला-पंजाब) नामक बालक ने भी अपना बलिदान दिया था। इन क्रांतिकारियों के बलिदान की एक गाथा है 1857 की, जिसे स्वतंत्रता संग्राम का पहला बड़ा देशव्यापी प्रयास कहा जाता है।
1857 की क्रांति के विषय में पाठ्यपुस्तकों में कितना पढ़ाया जाता है? आठवीं कक्षा की सामाजिक विज्ञान की पुस्तक में एक पाठ आता था। 1857 की क्रांति क्यों हुई, उसकी प्रमुख घटनाएं, उसमें किस-किस ने भाग लिया और उसकी विफलता के कारण। इतनी बड़ी क्रांति और बस चार बातें! इतिहास में तो यह कहकर इस विषय को छुपाया गया कि यह एक सैनिक विद्रोह मात्र था। आइए जानते हैं कि 1857 क्रांति क्या थी?
1857 की क्रांति का बीजारोपण 1854 में होता है। रंगों बापूजी गुप्ते महाराष्ट्र में सतारा के राजा प्रताप सिंह के कार्य से और अजीमुल्ला खां नाना साहब पेशवा के वकील उनके राज्य के कार्य से लंदन गए हुए थे। वहां पर रंगों बापूजी गुप्ते और अजीमुल्ला खां इन दोनों की भेंट होती है और इस क्रांति का बीजारोपण दोनों की वार्ता में होता है। वापिस भारत आकर दोनों अपने राजाओं से चर्चा करते हैं और यह चर्चा उस समय के उन अनेक राजाओं के साथ भी होती है जो चाहते थे कि भारत स्वतंत्र होना चाहिए। कानपुर के निकट गंगा नदी के किनारे बिठूर के राजमहल (ब्रह्मावर्त घाट) में नाना साहब पेशवा, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मी बाई, रंगोंजी बापू, अजीमुल्ला खां आदि अनेक क्रांतिकारी एक मास तक बैठकर क्रांति की योजना बनाते हैं। 1856 के प्रारम्भ में एक गुप्त रूप से युद्ध संगठन की योजना रचना होती है और देशभर में इस गुप्त संगठन की अनेक शाखाएं खोली जाती हैं। नाना साहब पेशवा के बिठूर (ब्रह्मावर्त) का राजमहल और बहादुरशाह जफर के दिल्ली का दीवाने-ए-आम में क्रांति युद्ध की चर्चाएं अग्नि की ज्वालाओं की तरह धधकने लगती हैं।
एक साथ पूरे देश में क्रांति का दिवस 31 मई 1857 निश्चित हुआ। यही दिन क्यों चयन हुआ? मई मास में ग्रीष्म ऋतु रहती है। अधिकांश अंग्रेज अधिकारी उस समय पर्वतीय क्षेत्र में चले जाते हैं। इस समय युद्ध होगा तो अंग्रेज अधिकारी युद्ध में लम्बे समय तक टिक नहीं पाएँगे। 31 मई 1857 को रविवार था। रविवार को सैनिक छावनियों में अवकाश रहता है। रविवार के दिन एक साथ क्रांति होगी तो सेना को सम्भलने में समय लगेगा। हमें ज्ञात है कि मार्च 1857 बैरकपुर छावनी (बंगाल) में दो अंग्रेज अधिकारियों को गोली मारकर मृत्युदंड देने के कारण मंगल पाण्डेय को अप्रैल 1857 में फांसी दी गई थी और 10 मई 1857 को मेरठ छावनी के भारतीय सैनिकों ने क्रांति प्रारम्भ कर दी थी। परन्तु पूर्व निश्चित दिवस 31 मई 1857 ही था।
पूरे देश में एक साथ क्रांति होनी है तो सब स्थानों पर सूचना कैसे होगी? इसके लिए चार माध्यमों का विचार किया गया। पहला रक्त कमल। रक्त कमल प्रत्येक छावनी में गुप्त रूप से जाता था और वहां के भारतीय सैनिक जो क्रांति में भाग लेना चाहते थे, उस रक्त कमल को छू लेते थे और क्रांति में भाग लेने का संकल्प लेते थे। दूसरा माध्यम था रोटी – पूरे गांव के सामने गांव का मुखिया एक रोटी जो दूसरे गांव से बन कर आई हुई होती थी, खा लेता था और पूरा गांव संकल्प लेता था कि क्रांति में हमने भाग लेना है। फिर उस गांव के प्रत्येक घर से आटा लेकर एक रोटी बनती थी, वह रोटी अगले गांव तक जाती थी। यह इस बात का संकेत होता था कि पिछले गांव ने भी क्रांति में भाग लेने का संकल्प लिया है। तीसरा माध्यम, 1854-57 के मध्य जितने भी कुम्भ-अर्धकुंभ-मेले आदि भरे गए, नाना साहब पेशवा के नेतृत्व व मार्गदर्शन में वहां आए हुए लोगों से संकल्प दिलाया जाता था कि 31 मई 1857 को देश की स्वतंत्रता के लिए क्रांति में भाग लेना है। और चौथा, देशभर के विभिन्न राजाओं से मंत्रणा कर उन्हें क्रांति में भाग लेने की सहमति का कार्य भी नानासाहब पेशवा के द्वारा होता था।
उस समय कोई तार व्यवस्था नहीं थी, कोई टेलीफोन नहीं था, कोई रेडियो स्टेशन नहीं था, कोई देश व्यापी समाचार पत्र-पत्रिका नहीं थी, कोई इंटरनेट/सोशल मीडिया नहीं था। उपर्युक्त चार माध्यमों से ही पूरे देश भर में सूचना हुई और सूचना तंत्र इतना सशक्त और गोपनीय था कि अंग्रेजों को इसकी भनक तक नहीं लगी।
1857 की क्रांति के प्रमुख केंद्र – मेरठ, दिल्ली, कानपूर, लखनऊ, झाँसी, सतारा, अम्बाला, वर्तमान हरियाणा(पंजाब), बिठुर, बैरकपुर, अलीगढ, नसीराबाद, बरेली, बनारस, इलाहाबाद, ग्वालियर, इंदौर, कलकत्ता, गया, पटना, जगदीशपुर, कालपी, कोल्हापुर, नागपुर, जबलपुर, हैदराबाद, जोहरापुर, कोमलदुर्ग, सावंतवाडी, शंकरपुर, रायबरेली, फ़ैजाबाद, फरुखाबाद, संभलपुर, मथुरा, गढ़मंडला, रायपुर, मंदसौर, सागर, मालाबार आदि। ये कुछ प्रमुख स्थान है। इन्हें देखकर यह स्पष्ट होता है कि 1857 की क्रांति देशव्यापी थी और सुनियोजित थी।
दिल्ली का सम्राट बहादुरशाह जफर एक महान कवि भी था। उनकी लिखी काव्य पंक्तियों में क्रांति की बातें स्पष्ट झलकती हैं। उन्होंने एक गजल की रचना की थी जिसमें स्वतः यह प्रश्न किया था –
“दमदमे में दम नहीं अब ख़ैर मांगो जान की।
ऐ ज़फर! ठंडी हुई शमशीर हिंदुस्तान की।”
उन्होंने इस प्रश्न का उत्तर भी इन शब्दों में दिया –
“ग़ज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की।
तख़्त ऐ लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की।”
लंदन में 10 मई 1908 को 1857 की क्रांति की वर्षगांठ का आयोजन किया गया। इस अवसर के लिए सावरकर ने ‘O Martyrs’ (ऐ शहीदों) शीर्षक से अंग्रेजी में चार पृष्ठ लम्बे पैम्पलेट की रचना की, जिसका इंडिया हॉउस कार्यक्रम में तथा यूरोप व भारत में बड़े पैमाने पर वितरण किया गया। इस पैम्पलेट की काव्यमयी ओजमयी भाषा 1857 के शहीदों के माध्यम से भावी क्रांति का आह्वान थी।
सावरकर ने लिखा – “10 मई 1857 को शुरू हुआ युद्ध 10 मई 1908 को समाप्त नहीं हुआ है, वह तब तक नहीं रुकेगा जब तक उस लक्ष्य को पूरा करने वाली कोई अगली 10 मई आएगी। ओ महान शहीदों! अपने पुत्रों के इस पवित्र संघर्ष में अपनी प्रेरणादायी उपस्थिति से हमारी मदद करो। हमारे प्राणों में भी जादू का वह मन्त्र फूंक दो जिसने तुमको एकता के सूत्र में गूँथ दिया था।” इस पैम्पलेट के द्वारा सावरकर ने 1857 की क्रांति को एक मामूली सिपाही विद्रोह से बाहर निकालकर एक सुनियोजित स्वातंत्र्य संग्राम के आसन पर प्रतिष्ठित कर दिया।
वास्तव में 1857 की क्रांति न कोई सामान्य सिपाही विद्रोह था, न ही कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया स्वरूप घटनाक्रम। भारत माता को स्वतंत्र करवाने के लिए हमारे पूर्वजों द्वारा एक सुनियोजित स्वातन्त्र्य संग्राम जिसके प्रतिसाद स्वरूप 90 वर्ष बाद 1947 में हम स्वतंत्र हुए। बाद के 90 वर्षों में वीर सावरकर, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सुभाष चन्द्र बोस सरीखे अनेकानेक भारतीय क्रांतिकारियों व स्वतंत्रता सेनानियों का प्रेरणा स्त्रोत बना 1857 का स्वातंत्र्य समर। नमन है 1857 के स्वातन्त्र्य समर के योजनाकारों और बलिदानियों को!
सन्दर्भ –
1857 का स्वातंत्र्य समर – विनायक दामोदर सावरकर
स्वतंत्रता संग्राम के बाल बलिदानी – गोपाल महेश्वरी

थाने इज्जत लूटते, देख रही सरकार। रामराज की बात तब, लगती है बेकार।।

-सत्यवान ‘सौरभ’

भारत में एक पुलिस अधिकारी द्वारा कथित तौर पर चार पुरुषों द्वारा कथित रूप से बलात्कार की गई एक 13 वर्षीय लड़की को फिर से यौन उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा क्योंकि वह सामूहिक बलात्कार और अपहरण की शिकायत दर्ज कराने के लिए अधिकारियों के पास गई थी। यह घटना उत्तर प्रदेश की आबादी वाले राज्य में हुई जहां ललितपुर के एक पुलिस स्टेशन में स्टेशन हाउस ऑफिसर (एसएचओ) ने पीड़िता के साथ कथित तौर पर बलात्कार किया।

 नाबालिग बच्चियों के यौन शोषण की घटनाओं के सिलसिले ने बच्चों की सुरक्षा पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर एक नजर डालने पर खुलासा होता है। पांच साल के भीतर नाबालिग बच्चियों के साथ रेप की घटनाओं में भारी इजाफा हुआ है. 2012 में 17 साल और उससे कम उम्र की लड़कियों से छेड़छाड़ और रेप के मामलों की संख्या 8,541 थी। 2016 में यह संख्या बढ़कर 19765 हो गई। 2018 में, 12 साल से कम उम्र के बच्चों के साथ बलात्कार के लिए मौत की सजा का प्रावधान करने के लिए एक अध्यादेश पारित किया गया था, हालांकि इसने अपराधियों को नहीं रोका और न ही घटनाओं को कम किया।

बलात्कार की उच्च दर की बात करें तो भारत अकेला नहीं है। लेकिन कई लोगों का मानना है कि पितृसत्ता और विषम लिंगानुपात मामले को बदतर बना सकता है।महिलाओं के अधिकार और सुरक्षा कभी भी चुनावी मुद्दे नहीं बनते। भारत में, 2016 में, महिलाओं के खिलाफ 3.38 लाख अपराध के मामलों में, बलात्कार के मामलों में से 11.5% थे। लेकिन बलात्कार के 4 में से केवल 1 मामले में दोष सिद्ध होने के साथ, यह देश में बलात्कार पीड़ितों के लिए न्याय की एक गन्दी तस्वीर है। भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली के रोजमर्रा के कामकाज पर आश्चर्य होता है।

हालांकि पुलिस और न्यायिक सुधारों के कई दौरों ने इसके कामकाज में सुधार करने और इसके दृष्टिकोण को मानवीय बनाने की मांग की है, लेकिन तथ्य यह है कि पुलिस थाने के स्तर पर ऐसे कुकर्म हो तो क्या करें? समस्या अभी भी रूट स्तर पर मौजूद है; न केवल पुलिस प्रतिक्रिया बल्कि नागरिक सरकार के साथ-साथ डॉक्टरों, राजस्व अधिकारियों और स्थानीय कलेक्ट्रेट में भी शामिल है।

 यदि कोई महिला यौन उत्पीड़न की शिकार हुई है, यदि उसका परिवार उसका समर्थन करता है, तो कुछ राहत और देखभाल हो सकती है, लेकिन अगर वे नहीं करते हैं या नहीं कर सकते हैं क्योंकि वे खुद चुप रहने के दबाव में हैं, तो वह परित्यक्त और मित्रहीन और बदतर, दागी महसूस कर रही है। कई बार, एक विरोध या अभियान, या महिला समूहों, दलित समूहों की निरंतर उपस्थिति और प्रगतिशील राजनीतिक और नागरिक अधिकारों के हस्तक्षेप ने अकेले प्राथमिकी दर्ज करना भर संभव बना दिया है। आगे कुछ नहीं होता?

 शायद सबसे बड़ा मुद्दा भारतीय समाज में महिलाओं की समग्र निम्न स्थिति है। गरीब परिवारों के लिए शादी में दहेज देने की जरूरत बेटियों को बोझ बना सकती है। लिंग-चयनात्मक गर्भपात और कन्या भ्रूण हत्या के कारण भारत दुनिया में सबसे कम महिला-पुरुष जनसंख्या अनुपात में से एक है। अपने पूरे जीवन में, बेटों को उनकी बहनों की तुलना में बेहतर खिलाया जाता है, उनके स्कूल भेजे जाने की संभावना अधिक होती है और उनके करियर की बेहतर संभावनाएं होती हैं।

जन्म आधारित श्रेष्ठता, जो कि नाजायज है, कायम नहीं रह सकती, जब तक कि इसे पेटेंट झूठ और पाशविक बल के संयोजन के माध्यम से दिन-प्रतिदिन नवीनीकरण नहीं किया जाता है। बलात्कार पीड़ितों को अक्सर गांव के बुजुर्गों और कबीले परिषदों द्वारा आरोपी के परिवार के साथ “समझौता” करने और आरोप छोड़ने या यहां तक कि हमलावर से शादी करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

इसके अलावा, एक बलात्कारी को न्याय के कटघरे में लाने की तुलना में एक लड़की की शादी की संभावित संभावनाएं अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। न्यायाधीशों की कमी के कारण, भारत की अदालत प्रणाली कुछ हद तक धीमी है। देश में प्रति दस लाख लोगों पर लगभग 15 न्यायाधीश हैं, जबकि चीन में 159 हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने एक बार अनुमान लगाया था कि अकेले राजधानी में बैकलॉग से निपटने में 466 साल लगेंगे।

 भारतीय राजनेताओं ने भारत की यौन हिंसा की समस्या के लिए कई संभावित उपायों को सामने रखा है। लेकिन यह ध्यान देने योग्य है कि  पुलिस थानों में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को समाप्त करना मुश्किल होगा। हमारे घरों, आस-पड़ोस, स्कूलों, धार्मिक स्थलों, कार्यस्थलों और अन्य व्यवस्थाओं में समाज के विभिन्न स्तरों पर समुदाय के सदस्यों के सहयोग से यौन हिंसा को रोका जा सकता है। हम सभी यौन हिंसा को रोकने और सम्मान, सुरक्षा, समानता के मानदंड स्थापित करने और दूसरों की मदद करने में भूमिका निभाते हैं।

भारत की बढ़ती बलात्कार संस्कृति को पुलिस और न्यायिक प्रणालियों में सुधारों के माध्यम से दोषसिद्धि दर में वृद्धि करके और बलात्कार पीड़ितों के पुनर्वास और उन्हें सशक्त बनाने के उपायों को बढ़ाकर सबसे अच्छा उलट दिया जा सकता है। आपराधिक न्याय प्रणाली राजनीतिक दबावों के प्रति संवेदनशील बनी हुई है और कई अभियुक्तों को मुक्त होने की अनुमति देती है। यौन अपराधों की  जांच में बाधा डालने या ऐसे मामलों के अपराधियों के साथ मिलीभगत करने के दोषी पाए जाने वाले पुलिस अधिकारी के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए।

इसे सही दिशा देने की जिम्मेदारी समाज को ही लेनी होगी। इसके बिना हम वह सभी वादे पूरे नहीं कर सकते जो हमने आजादी के समय एक राष्ट्र के रूप में किए थे। हमें सामूहिक रूप से इस अवसर पर उठना चाहिए और अपने बच्चों के लिए एक सुरक्षित भारत बनाना चाहिए।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के हिसाब से बलात्कार के कुल दर्ज मामलों में, प्रत्येक पांच मामलें में से सिर्फ एक में ही बलात्कारी को सजा मिल पाती है। बाकी के सारे बलात्कारी ‘बाइज्जत बरी‘ हो जाते हैं।   और ऐसे में पीड़ित स्त्री को तीहरी सजा मिलती है।  पहली सजा तो यह कि एक स्त्री सिर्फ अपनी मादा होने के कारण ही बलात्कार पाने के योग्य हो जाती है।  दूसरी सजा उसे तब मिलती है जब कानून के लंबे हाथों के बावजूद, अपराधी पीड़िता की आखों के आगे खुले घूमते फिरते हैं।
 तीसरी सजा उसे तब मिलती है जब दोषी पकड़े जाने पर भी ‘बाइज्जत बरी‘ हो जाते हैं और पीड़िता को ‘बेइज्जत‘ और ‘इज्जत लुटा हुआ‘ घोषित कर दिया जाता है। और इस पूरे प्रकरण के दौरान और बाद में पीड़िता का जो मानसिक बलात्कार होता है उसका हिसाब तो चित्रगुप्त भी नहीं लिख सकता. शरीर व कोमल भावनाओं के साथ हुई हिंसा का भला हमारी इज्जत से क्या व कैसा संबंध है?

सत्यवान ‘सौरभ’