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आदमी कितना नादान है


आदमी स्वयं ही बुरा है,
दूसरो को बुरा बताता है।
वह अपने स्वार्थ के लिए,
दूसरो को खूब सताता है।।

आदमी कितना नादान है,
मंदिर में शंख घंटा बजाता है।
सोया हुआ वह स्वयं है,
भगवान को जाकर जगाता है।।

आदमी स्वयं कितना भूखा है,
रोज भगवान से मांगने जाता है।
स्वयं को माया की भूख लगी है,
भगवान को भोग लगाने जाता है।

आदमी कितना मूर्ख है,
स्वयं को ज्ञानवान बताता है।
पर मंदिर में जाकर वही,
रोज दीपक जलाने जाता है।।

अगर आदमी सोच बदल दे,
वह नेक इंसान बन जायेगा।
झूठे आडंबरो से बचकर ही,
वह सच्चे पथ पर जायेगा।।

आर के रस्तोगी

राजद्रोह कानून को रद्द करें


डॉ. वेदप्रताप वैदिक

अंग्रेजों के बनाए हुए 152 साल पुराने राजद्रोह कानून की शामत आ चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय ने उसे पूरी तरह से अवैध घोषित नहीं किया है लेकिन वैसा करने के पहले उसने केंद्र सरकार को कहा है कि 10 जून तक वह यह बताए कि उसमें वह क्या-क्या सुधार करना चाहती है। दूसरे शब्दों में सरकार भी सहमत है कि राजद्रोह का यह कानून अनुचित और असामयिक है। यदि सरकार की यह मन्शा प्रकट नहीं होती तो अदालत इस कानून को रद्द ही घोषित कर देती। फिलहाल अदालत ने इस कानून को स्थगित करने का निर्देश जारी किया है। अंग्रेज ने यह कानून 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम के तीन साल बाद बना दिया था। यह कानून भारत की दंड सहिता की धारा 124ए में वर्णित है। इस कानून के तहत किसी भी व्यक्ति को यदि अंग्रेज सरकार के खिलाफ बोलते या लिखते हुए, आंदोलन या प्रदर्शन करते हुए, देश की शांति और व्यवस्था को भंग करते पाया गया तो उसे तत्काल गिरफ्तार किया जा सकता है, उसे जमानत पर छूटने का अधिकार भी नहीं होगा और उसे आजन्म कारावास भी मिल सकता है। इस कानून का दुरुपयोग अंग्रेज सरकार ने किस-किसके खिलाफ नहीं किया? यदि भगतसिंह के खिलाफ किया गया तो महात्मा गांधी, बालगंगाधर तिलक, सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरु ने भी इसी कानून के तहत जेल काटी। आजादी के बाद भी यह कानून जारी रहा। इंदिरा गांधी के राज में इसे और भी सख्त बना दिया गया। किसी भी नागरिक को अब राजद्रोह के अपराध में वारंट के बिना भी जेल में सड़ाया जा सकता है। ऐसे सैकड़ों लोगों को सभी सरकारों ने वक्त-बेवक्त गिरफ्तार किया है, जिन्हें वे अपना विरोधी समझती थीं। किसी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की  आलोचना या निंदा क्या राजद्रोह कहलाएगी? देश में चलनेवाले शांतिपूर्ण और अहिंसक आंदोलन के कई नेताओं को राजद्रोह का अपराधी घोषित करके जेल में डाला गया है। कई पत्रकार भी इस कानून के शिकार हुए जैसे विनोद दुआ, सिद्दीक़ कप्पन और अमन चोपड़ा। आगरा में तीन कश्मीरी छात्रों को इसलिए जेल भुगतनी पड़ी कि उन्होंने पाकिस्तानी क्रिकेट टीम को भारत के विरुद्ध उसकी जीत पर व्हाट्साप के जरिए बधाई दे दी थी। बेंगलुरु की दिशा रवि को पुलिस ने इसलिए पकड़ लिया था कि उसने किसान आंदोलन के समर्थन में एक ‘टूलकिट’ जारी कर दिया था। जितने लोगों को इस ‘राजद्रोह कानून’ के तहत गिरफ्तार किया गया, उनसे आप असहमत हो सकते हैं, वे गलत भी हो सकते हैं लेकिन उन्हें ‘राजद्रोही’ की संज्ञा दे देना तो अत्यंत आपत्तिजनक है। यह कानून इसलिए भी रद्द होने लायक है कि इसके तहत लगाए गए आरोप प्रायः सिद्ध ही नहीं होते। पिछले 12 साल में 13306 लोगों पर राजद्रोह के मुकदमे चले लेकिन सिर्फ 13 लोगों को सजा हुई याने मुश्किल से एक प्रतिशत आरोप सही निकले। नागरिक स्वतंत्रता की यह हत्या नहीं तो क्या है? इस दमघोंटू औपनिवेशिक कानून को आमूल-चूल रद्द किया जाना चाहिए। वास्तविक राजद्रोह और देशद्रोह को रोकने के लिए कई अन्य कानून पहले से बने हुए हैं। उन कानूनों का प्रयोग भी बहुत सावधानी के साथ किया जाना चाहिए।

मोची-बंधुओं के स्वागत में शिवराज सरकार

प्रमोद भार्गव
                मध्य-प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अनुसूचित जाति के मोचियों को बंधु बनाकर लुभाने का सिलसिला शुरू कर दिया है। शिवराज सरकार ने मुख्यमंत्री निवास में मोची-सम्मेलन व संत रविदास समारोह के बहाने यह सिलसिला शुरू किया है। इस मौके पर शिवराज ने कहा कि ‘गरीब के चेहरे पर मुस्कान, उसकी इज्जत और सम्मान सुनिश्चित करना राज्य सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है। जो सबसे पीछे है, जो गरीब है, उनकी भलाई सरकार के लिए सबसे पहले है। अंत्योदय का यही उत्थान दीनदयाल उपाध्याय का दर्शन है।‘ इस नाते सरकार मोची-बंधुओं के उत्पादों को श्रेष्ठ बनाने के लिए प्रशिक्षण देगी और उत्पाद बेचने के लिए नई नीति का निर्माण करेगी। प्रषिक्षण के साथ सरकार टूल किट भी देगी। ऐसा करने से उत्पादों का आधुनिकीकरण होगा, जाहिर है मांग बढ़ेगी और उत्पादकों को दाम भी अच्छे मिलेंगे। संत रविदास की जयंती धूमधाम से मनाई जाएगी और मोची-बंधुओं को रविदास की जन्मस्थली के दर्षन के लिए बनारस की मुफ्त यात्रा कराई जाएगी। मोची परिवारों को ईंधन के लिए गैस-चूल्हा, बीमारियों से उपचार के लिए आयुष्मान कार्ड और परिवार संबल योजना का लाभ पहले से ही दिया जा रहा है। मोचियों को प्रशिक्षण के लिए क्रिस्प एवं नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फुटवियर डिजाइनिंग, नई दिल्ली से प्रशिक्षण दिलाया जाएगा। ‘मुख्यमंत्री पादुका योजना‘ के अंतर्गत उक्त कवायाद की जाएगी। जाहिर है, ये सभी कोशिशें मायावती की कमजोर हो चुकी बहुजन समाज पार्टी के प्रतिबद्ध मतदाताओं को भाजपा से जोड़ने के लिए हैं। ऐसा होता है तो कांग्रेस चारों खाने चित्त दिखाई देगी।   
आजादी के 75 सालों में न शिल्पकारों के प्रति पहली बार किसी राज्य सरकार ने मानवीय संवेदनशीलता का परिचय दिया है। अन्यथा पूरे देश में मौजूद दलित की श्रेणी में आने वाले इस जातीय समूह का राजनीतिक दल वोट बैंक के रूप में ही इस्तेमाल करते रहे हैं। प्रदेश में जब इसी जाति से आने वाली मायावती बसपा के हाथी पर सवार होकर राज्य सिंहासन पर आरूढ़ हुई थीं,तब यह उम्मीद बंधी थी कि वे दलित कल्याण के कारगार उपाय करेंगी ? लेकिन सोशल इंजीनियरिंग के प्रपंच के बहाने उन्होंने सिर्फ बसपा के विस्तार और स्वयं प्रधानमंत्री बन जाने की महत्वाकांक्षा के चलते दलितों से कहीं ज्यादा सवर्णों की परवाह की। लिहाजा दलितों के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक असमानता जस की तस बनी रही। इन कोशिशों को विपक्ष भले ही राजनीतिक फायदे के लिए दलितों के लुभाने और बसपा के वोट बैंक में सेंध लगाने के उपाय माने, बावजूद इसे प्रगतिशील समाजवादी पहल ही मानी जाएगी।
                दरअसल बहुजन समाज पार्टी को वजूद में लाने से पहले कांशीराम ने लंबे समय तक दलितों के हितों की मुहिम डीएस-4 के माध्यम से चलाई थी। इसका सांगठनिक ढ़ांचा खड़ा करने के वक्त बसपा की बुनियाद पड़ी और पूरे हिंदी क्षेत्र में बसपा का संगठात्मक व रचनात्मक ढ़ांचा खड़ा करने की ईमानदार कोषिषें हुई। कांशीराम के वैचारिक दर्षन में डाॅ भीमराव अंबेडकर से आगे जाने की सोच तो थी ही दलित और वंचितों को करिष्माई अंदाज में लुभाने की प्रभावशाली नेतृत्व दक्षता भी थी। यही वजह रही कि बसपा दलित संगठन के रूप में अवतरित हो पाई। लेकिन मायावती की पद एवं धनलोलूप मंशाओं के चलते उन्होंने बसपा में ऐसे बेमेल प्रयोगों का तड़का लगाया कि उसके बुनियादी सिद्धांत चकनाचूर हो गए। नतीजतन दलित और सवर्ण का यह बेमेल समीकरण उत्तर-प्रदेश में तो ध्वस्त हुआ ही,नरेंद्र मोदी के देशव्यापी और योगी आदित्यनाथ के उत्तर-प्रदेश में उदय के साथ पूरे देश में ध्वस्त हो गया। संभव है, यही स्थिति 2023 के विधानसभा चुनाव के मध्य-प्रदेश में दिखाई दे।
                ऐसा इसलिए संभव हुआ,क्योंकि मायावती ने उन नीतियों में बदलाव की कोई पहल नहीं की,जिनके बदलने से सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक परिदृष्य बदलने की उम्मीद बढ़ती ? यहां तक की मायावती जातीयता के बूते सत्ता हंस्तारण की बात खूब करती रहीं,लेकिन जातियता के चलते अछूत बना दिए गए समुदायों के अछूतोद्धार के लिए उन्होंने आज तक कुछ नहीं किया ? जबकि शिवराज सिंह और अन्य भाजपा नेताओं ने मोचियों के साथ बैठकर भोजन किया। इसके उलट उन्होंने अपने शासनकाल में सवर्ण,पिछड़े व मुस्लिमों को लुभाए रखने के नजरिए से उन सब फौजदारी कानूनों को शिथिल कर दिया था,जिनके वजूद में रहते हुए ये लोग दलितों पर  अत्याचार करने से भय खाते थे ? अनुसूचित जाति,जनजाति अत्याचार निरोधक अधिनियम को माया-राज में ही शिथिल किया गया। इससे दलित उत्पीड़न के आरोपी को दण्ड झेलने से बच निकलने की सुविधा हासिल हो गई थी।
                मध्य-प्रदेश में ग्वालियर और उत्तर-प्रदेश में आगरा और कानपुर का पूरा जूता उद्योग मोची कहे जाने वाले शिल्पकारों के दम पर ही आबाद है। मध्य-प्रदेश में अनेक नगर और कस्बों में जूते-चप्पल मोची समुदाय बनाता है। परंपरागत ज्ञान के बूते यह इस कला में इतने कुशल हैं कि देश की नामी-गिरामी जूता बनाने वाली कंपनियां इन्हीं से मनचाहे जूते बनवाकर महज उस पर अपने नाम का ठप्पा लगाती हैं और आकर्षक पैकिंग करके देशभर में ऊंचे दामों पर बेचती हैं। जूते-चप्पलों की मौलिक डिजाइन भी यही लोग रचते हैं। कम पढ़े-लिखे होने और आत्मविश्वास के अभाव में ये लोग अपने उत्पाद की मर्केटिंग नहीं कर पाते। जाहिर है, बजार में उत्पाद को सीधे उतरना इनके बूते की बात नहीं है। इसलिए वाकई यदि सरकार इनका कल्याण चाहती है तो जूता उद्योग को लघु उद्योग का दर्जा दे और इसी समुदाय के लोगों के सहकारी व स्व सहायता समूह बनाकर इनके व्यापार को नई दिशा दे। इस समुदाय के जो युवा बातचीत में निपुण हों,उन्हें वाणिज्य के गुर सिखाने का काम भी प्रदेश सरकार को करना होगा।
                इस दिशा में शिवराज सरकार का मोची-बंधुओं को पारंपरिक रोजगार के लिए सुविधाएं व प्रशिक्षण देने का निर्णय भी व्यावहारिक व तार्किक है। क्योंकि इस समुदाय के ज्यादातर कामगारों के पास घरों में ही जूता बनाने की लाचारी है। जूते-चप्पलों की मरम्मत व पॉलिश करने का काम तो ये आज भी फुटपाथों के किनारे खुले में करते हैं। इनके पास अपने उत्पाद बेचने के लिए बाजार में दुकानें नहीं हैं। सम्मानपूर्वक धंधा करने के लिए बाजार में दुकान का होना जरूरी है। गोद लेने की प्रक्रिया के क्रम में इन्हें बैंक से कर्ज दिलाने के हलात से न जोड़ा जाए ? क्योंकि यह कार्रवाई पेचीदी तो है ही,रिष्वतखोरी से भी जुड़ गई है। लिहाजा कर्ज के जोखिम में डालकर इनका भला मूमकिन नहीं हैै ?
                बहुजन समाज में उन्हें सम्मानजनक दर्जा हासिल कराने की दृष्टि से उन्हें ‘शूद्र ‘ के कलंक से मुक्ति का  जागरूकता अभियान भी चलाने की जरूरत है। डाॅ आंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘हू वेअर शूद्राज‘ में लिखा है, ‘मुझे वर्तमान शूद्रों के वैदिक कालीन ‘शूद्र ‘ वर्ण से संबंधित होने की अवधारणा पर शंका है। वर्तमान शूद्र वर्ण से नहीं हैं,अपितु उनका संबंध राजपूतों और क्षत्रियों से है।‘ इस तथ्य की पुष्टि इस बात से होती है कि भारत की अधिकांश दलित जातियां,उपजातियां अपनी उत्पत्ति का स्रोत राजवंशीय क्षत्रिय राजपूतों के अलावा ब्राह्मणों में तलाशी हैं। वाल्मीकियों पर किए गए ताजा शोधों से पता चला है कि अब तक प्राप्त 624 उपजातियों को विभाजित करके जो 27 समूह बनाए गए हैं,इनमें दो समूह ब्राह्मणों के और शेश 25 क्षत्रियों के हैं। बहरहाल, मोचियों के कल्याण की प्रक्रिया में सामाजिक समरसता का निर्माण भी अहम मुद्दा होना चाहिए। इसके लिए अतीत को खंगालने की जरूरत है।

न्यायालयों में राजस्व मामलों का बोझ

संदर्भ- प्रधान न्यायाधीष एनवी रमणा का बयान-
प्रमोद भार्गव
                ऐसा पहली बार देखने में आया है कि सर्वोव्व न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमणा ने न्यायालयों में बढ़ते मामलों के मूल कारण में जजों की कमी के साथ राजस्व न्यायालयों को भी दोषी ठहराया है। रमणा ने न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका की शक्तियों और क्षेत्राधिकार के विभाजन की संवैधानिक व्यवस्था का हवाला देते हुए कहा कि कर्तव्यों का पालन करते समय हम सभी को लक्ष्मण रेखा की मर्यादा ध्यान में रखनी चाहिए। यदि ऐसा होता है तो न्यायपालिका कभी भी शासन के रास्ते में आड़े नहीं आएगी। आज जो न्यायपालिका में मुकदमों का ढेर लगा है, उसके लिए जिम्मेदार प्रमुख प्राधिकरणों द्वारा अपना काम ठीक से नहीं करना है। इसलिए सबसे बड़ी मुकादमेबाज सरकार हैं। न्यायालयों में 66 प्रतिशत मामले राजस्व विभाग से संबंधित हैं। राजस्व न्यायालय एक तो भूमि संबंधी प्रकारणों का निराकरण नहीं करती हैं, दूसरे न्यायालय निराकरण कर भी देती है तो उस पर वर्षों अमल नहीं होता है। नतीजतन अवमानना के मुकादमे बढ़ने की भी एक नई श्रेणी तैयार हो रही है। अदालत का आदेश होने के बावजूद उसका क्रियान्वयन नहीं करना लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। रमणा ने मामलों का बोझ बढ़ने का कारण गिनाते हुए का कि तहसीलदार यदि भूमि के नामांतरण और बंटवारे समय पर कर दें तो किसान अदालत क्यों जाएगा ? यदि नगर निगम, नगरपालिकाएं और ग्राम पंचायत ठीक से अपना काम करें तो नागरिक न्यायालय का रुख क्यों करेगा ? यदि राजस्व विभाग परियोजनाओं के लिए जमीन का अधिग्रहण विधि सम्मत करे तो लोग अदालत के दरवाजे पर दस्तक क्यों देंगे ? ऐसे मामलों की संख्या 66 प्रतिशत है। उन्होंने कहा कि जब हम सब संवैधानिक पदाधिकारी हैं और इस व्यवस्था का पालन करने के लिए जिम्मेदार है और हमारे क्षेत्राधिकार भी स्पष्ट हैं, तब समन्वय के साथ दायित्व पालन करते हुए राष्ट्र की लोकतांत्रिक नींव मजबूत करने की जरूरत है। रमणा ने यह बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा आहूत मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में कही है। 
 अदालतों में मुकादमों की संख्या बढ़ाने में राज्य सरकारें निश्चित रूप से जिम्मेवार हैं। वेतन विंसगतियों को लेकर एक ही प्रकृति के कई मामले ऊपर की अदालतों में विचाराधीन हैं। इनमें से अनेक तो ऐसे प्रकरण हैं, जिनमें सरकारें आदर्श व पारदर्षी नियोक्ता की शर्तें पूरी नहीं करतीं हैं। नतीजतन जो वास्तविक हकदार हैं, उन्हें अदालत की शरण में जाना पड़ता है। कई कर्मचारी सेवानिवृति के बाद भी बकाए के भुगतान के लिए अदालतों में जाते हैं। जबकि इन मामलों को कार्यपालिका अपने स्तर पर निपटा सकती है। हालांकि कर्मचारियों से जुड़े मामलों का सीधा संबंध विचाराधीन कैदियों की तदाद बढ़ाने से नहीं है,लेकिन अदालतों में प्रकरणों की संख्या और काम का बोझ बढ़ाने का काम तो ये मामले करते ही हैं। इसी तरह पंचायत पदाधिकारियों और राजस्व मामलों का निराकरण राजस्व न्यायालयों में न होने के कारण न्यायालयों में प्रकरणों की संख्या बढ़ रही है। जीवन बीमा, दुर्घटना बीमा और बिजली बिलों का विभाग स्तर पर नहीं निपटना भी अदालतों पर बोझ बढ़ा रहे हैं। कई प्रांतों के भू-राजस्व कानून विसंगतिपूर्ण हैं। इनमें नाजायज कब्जे को वैध ठहराने के उपाय हैं। जबकि जिस व्यक्ति के पास दस्तावेजी साक्ष्य हैं, वह भटकता रहता है। इन विसंगतिपूर्ण धाराओं का विलोपीकरण करके अवैध कब्जों से संबंधित मामलों से निजात पाई जा सकती है। लेकिन नौकरशाही ऐसे कानूनों का वजूद बने रहना चाहती है, क्योंकि इनके बने रहने पर ही इनके रौब-रुतबा और पौ-बारह सुनिश्चित हैं।
 
हमारे यहां संख्या के आदर्श अनुपात में कर्मचारियों की कमी का रोना अक्सर रोया जाता है। ऐसा केवल अदालत में हो, ऐसा नहीं है। पुलिस, शिक्षा और स्वास्थ्य विभागों में भी गुणवत्तापूर्ण सेवाएं उपलब्ध न कराने का यही बहाना है। कोरोना काल में स्वास्थ्य विभाग चिकित्सकों एवं उनके सहायक कर्मचारियों की कमी बड़ी संख्या में देखने में आई थी। इसकी पूर्ति आउट सोर्स के माध्यम से चिकित्सक एवं कर्मचारी तैनात करके तत्काल तो कर ली गई थी, किंतु कोरोना संकट के खत्म होते ही उन्हें हटा दिया गया। नतीजतन कमी यथावत है। जजों की कमी कोई भी नई बात नहीं है, 1987 में विधि आयोग ने हर 10 लाख की आबादी पर जजों की संख्या 10 से बढ़ाकर 50 करने की सिफारिश की थी। फिलहाल यह संख्या 17 कर दी गई है। जबकि विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक यह आंकड़ा आस्ट्रेलिया में 58, कनाडा में 75,फ्रांस में 80 और ब्रिटेन में 100 है। हमारे यहां जिला एवं सत्र न्यायालय में 21 हजार की तुलना में 40 हजार न्यायाधीशों की जरूरत है। मार्च 2016 तक देश के 24 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के कुल 1056 पद स्वीकृत हैं,जिनमें से 434 पद खाली हैं। हालांकि हमारे यहां अभी भी 14,000 अदालतों में 17,945 न्यायाधीष काम कर रहे हैं। अदालतों का संस्थागत ढांचा भी बढ़ाया गया है। उपभोक्ता, परिवार और किषोर न्यायालय अलग से अस्तित्व में आ गए हैं। फिर भी काम संतोषजनक नहीं हैं। उपभोक्ता अदालतें अपनी कार्य संस्कृति के चलते अब बोझ साबित होने लगी हैं। बावजूद औद्योगिक घरानों के वादियों के लिए पृथक से वाणिज्य न्यायालय बनाने की पैरवी की जा रही है।
अलबत्ता आज भी ब्रिटिश परंपरा के अनुसार अनेक न्यायाधीष ग्रीष्म ऋतु में छुट्टियों पर चले जाते हैं। सरकारी नौकरियों में जब से महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान हुआ है, तब से हरेक विभाग में महिलाकर्मियों की संख्या बढ़ी है। इन महिलाओं को 26 माह के प्रसूति अवकाश के साथ दो बच्चों की 18 साल की उम्र तक के लिए दो वर्ष का ‘बाल सुरक्षा अवकाश‘ भी दिया जाता है। अदालत से लेकर अन्य सरकारी विभागों में मामलों के लंबित होने में ये अवकाश एक बड़ा कारण बन रहे हैं। इधर कुछ समय से लोगों के मन में यह भ्रम भी पैठ कर गया है कि न्यायपालिका से डंडा चलवाकर विधायिका और कार्यपालिका से छोटे से छोटा काम भी कराया जा सकता है। इस कारण न्यायलयों में जनहित याचिकाएं बढ़ रही हैं, जो न्यायालय के बुनियादी कामों को प्रभावित कर रही हैं।जबकिप्रदूष ण,यातायात,पर्यावरण और पानी जैसे मुद्दों पर अदालतों के दखल के बावजूद इन क्षेत्रों में बेहतर स्थिति नहीं बनी है। सरकारी नौकरी में आर्थिक सुरक्षा और प्रतिष्ठा निर्मित हो जाने से बौद्धिक योग्यता और पद प्रतिष्ठा की एक नई संस्कृति पनपी है। यदि कोई युवक या युवती सिविल जज बन जाता है, तो वे सिविज जज से ही शादी करने लग गए हैं। शादी के बाद दपंत्ति की अलग-अलग जगह पद्स्थापना इन्हें मिलने में रोड़ा बनती है, अतएव ये लोग किसी न किसी बहाने छुट्टी लेकर एक-दूसरे से मिलने चले जाते हैं। ये नई संस्कृति अदालतों में काम का बोझ बढ़ाने का नया कारण बन गई है।       
न्यायिक सिद्धांत का तकाजा तो यही है कि एक तो सजा मिलने से पहले किसी को अपराधी न माना जाए, दूसरे आरोप का सामना कर रहे व्यक्ति का फैसला एक तय समय-सीमा में हो जाए। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहां ऐसा संभव नहीं हो पाता। इसकी एक वजह न्यायालय और न्यायाधीषों की कमी जरूर है, लेकिन यह आंशिक सत्य है, पूर्ण सत्य नहीं है। मुकदमों को लंबा खिंचने की एक वजह अदालतों की कार्य-संस्कृति भी है। सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायमूर्ति राजेंद्रमल लोढ़ा ने कहा भी था ‘न्यायाधीष भले ही निर्धारित दिन ही काम करें, लेकिन यदि वे कभी छुट्टी पर जाएं तो पूर्व सूचना अवश्य दें। ताकि उनकी जगह वैकल्पिक व्यवस्था की जा सके।‘ इस तथ्य से यह बात सिद्ध होती है कि सभी अदालतों के न्यायाधीष बिना किसी पूर्व सूचना के आकस्मिक अवकाश पर चले जाते हैं। गोया, मामले की तारीख आगे बढ़ानी पड़ती है। इन्हीं न्यायमूर्ति ने कहा था कि ‘जब अस्पताल 365 दिन चल सकते हैं तो अदालतें क्यों नहीं ?‘ यह बेहद सटीक सवाल था। हमारे यहां अस्पताल ही नहीं,राजस्व और पुलिस विभाग के लोग भी लगभग 365 दिन ही काम करते हैं। किसी आपदा के समय इनका काम और बढ़ जाता है। इनके कामों में विधायिका और खबरपालिका के साथ समाज का दबाव भी रहता है। बावजूद ये लोग दिन-रात कानून के पालन के प्रति सजग रहते हैं। जबकि अदालतों पर कोई अप्रत्यक्ष दबाव नहीं होता है।  
                यही प्रकृति वकीलों में भी देखने में आती है। हालांकि वकील अपने कनिष्ठ वकील से अकसर इस कमी की वैकल्पिक पूर्ति कर लेते हैं। लेकिन वकील जब प्रकरण का ठीक से अध्ययन नहीं कर पाते अथवा मामले को मजबूती देने के लिए किसी दस्तावेजी साक्ष्य को तलाश रहे होते हैं तो वे बिना किसी ठोस कारण के तारीख आगे खिसकाने की अर्जी लगा देते हैं। विडंबना है कि बिना कोई ठोस पड़ताल किए न्यायाधीष इसे स्वीकार भी कर लेते हैं। तारीख बढ़ने का आधार बेवजह की हड़तालें और न्यायाधीषों व अधिवक्ताओं के परिजनों की मौंते भी हैं। ऐसे में श्रद्धांजली सभा कर अदालतें कामकाज को स्थगित कर देती हैं। न्यायमूर्ति लोढ़ा ने इस तरह के स्थगन और हड़तालों से बचने की सलाह दी थी। लेकिन जिनका स्वार्थ मुकदमों को लंबा चलाने में अंतर्निहित है, वहां ऐसी नसीहतें व्यार्थ हैं ? लिहाजा कड़ाई बरतते हुए कठोर नियम बनाने की जरूरत है। अगली तारीख का अधिकतम अंतराल 15 दिन से ज्यादा का न हो, दूसरे अगर किसी मामले का निराकरण समय-सीमा में नहीं हो पा रहा है तो ऐसे मामलों को विशेष प्रकरण की श्रेणी में लाकर उसका निराकरण त्वरित और लगातार सुनवाई की प्रक्रिया के अंतर्गत हो। ऐसा होता है, तो मामलों को निपटाने में तेजी आ सकती है। बहरहाल प्रधान न्यायाधीष ने जो खरी-खरी बातें कहीं हैं, उन पर राजस्व अदालतों को अमल करने की जरूरत है।    

चिंतन शिविर या चिंता-शिविर?

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

उदयपुर में कांग्रेस का चिंतन-शिविर आयोजित किया जा रहा है। सबसे आश्चर्य तो मुझे यह जानकर हुआ कि इस जमावड़े का नाम चिंतन-शिविर रखा गया है। हमारे नेता और चिंतन! इन दो शब्दों की यह जोड़ी तो बिल्कुल बेमेल है। भला, नेताओं का चिंतन से क्या लेना-देना? छोटी-मोटी प्रांतीय पार्टियों की बात जाने दें, देश की अखिल भारतीय पार्टियों के नेताओं में चिंतनशील नेता कितने है? क्या उन्होंने गांधी, नेहरु, जयप्रकाश, लोहिया, नरेंद्रदेव की तरह कभी कोई ग्रंथ लिखा है? अरे लिखना तो दूर, वे बताएंगे कि ऐसे चिंतनशील ग्रंथों को उन्होंने पढ़ा तक नहीं है। अरे भाई, वे इन किताबों में माथा फोड़ें या अपनी राजनीति करें? उन्हें नोट और वोट उधेड़ने से फुरसत मिले तो वे चिंतन करें। वे चिंतन शिविर नहीं, चिंता-शिविर आयोजित कर रहे हैं। उन्हें चिंता है कि उनके नोट और वोट खिसकते जा रहे हैं। इस चिंता को खत्म करना ही इस शिविर का लक्ष्य है। ऐसा नहीं है कि यह चिंतन-शिविर पहली बार हो रहा है। इसके पहले भी चिंतन-शिविर हो चुके हैं। उनकी चिंता भी यही रही कि नोट और वोट का झांझ कैसे बजता रहे? किसी भी राजनीतिक दल की ताकत बनती है, दो तत्वों से! उसके पास नीति और नेतृत्व होना चाहिए। कांग्रेस के पास इन दोनों का अभाव है। नेतृत्व का महत्व हर देश की राजनीति में बहुत ज्यादा होता है। भारत-जैसे देश में तो इसका महत्व सबसे ज्यादा है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा मूर्तिपूजक देश है। मूर्ति चाहे बेजान पत्थर की ही हो लेकिन भक्तों को सम्मोहित करने के लिए वह काफी होती है। आज कांग्रेस में ऐसी कोई मूर्ति नहीं है। अशोक गहलोत, भूपेश बघेल और कमलनाथ ने अपने-अपने प्रांत में अच्छा काम कर दिखाया है लेकिन क्या कांग्रेसी इनमें से किसी को भी अपना अध्यक्ष बना सकते हैं ? कांग्रेस की देखादेखी हमारी सभी पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बन गई हैं। उक्त सुयोग्य नेताओं की हैसियत भी सिर्फ मेनेजरों से ज्यादा नहीं है। यदि कांग्रेस पार्टी में राष्ट्रीय और प्रांतीय अध्यक्षों और पदाधिकारियों का चुनाव गुप्त मतदान से हो तो इस महान पार्टी को खत्म होने से बचाया जा सकता है। लेकिन सिर्फ कोई नया नेता क्या क्या कर लेगा? जब तक उसके पास कोई नई वैकल्पिक नीति, कोई सामायिक विचारधारा और कोई प्रभावी रणनीति नहीं होगी तो वह भी मरे सांप को ही पीटता रहेगा। वह सिर्फ सरकार पर छींटाकशी करता रहेगा, जिस पर कोई ध्यान नहीं देगा। आजकल कांग्रेस, जो मां-बेटा पार्टी बनी हुई है, वह यही कर रही है। कांग्रेस के नेता अगर चिंतनशील होते तो देश में शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार को लेकर कोई क्रांतिकारी योजना पेश करते और करोड़ों लोगों को अपने साथ जोड़ लेते लेकिन हमारी सभी पार्टियां चिंतनहीन हो चुकी है। चुनाव जीतने के लिए वे भाड़े के रणनीतिकारों की शरण में चली जाती हैं। सत्तारूढ़ होने पर उनके नेता अपने नौकरशाहों की नौकरी करते रहते हैं। उनके इशारों पर नाचते हैं और सत्तामुक्त होने पर उन्हें बस एक ही चिंता सताती रहती है कि उन्हें येन, केन, प्रकारेण कैसे भी फिर से सत्ता मिल जाए।

नर्सिंग मानव समाज को देखभाल और स्नेह के बंधन से बांधती है।

अंतर्राष्ट्रीय नर्स दिवस- 12 मई

-प्रियंका ‘सौरभ’

अंतर्राष्ट्रीय नर्स दिवस प्रतिवर्ष 12 मई को मनाया जाता है। 12 मई को इस दिन को मनाने के लिए चुना गया था क्योंकि यह आधुनिक नर्सिंग के संस्थापक दार्शनिक फ्लोरेंस नाइटिंगेल की जयंती है। नर्सिंग मानव समाज को देखभाल और स्नेह के बंधन से बांधती है। नर्सिंग देखभाल का आह्वान है, जो मार्मिक कहानियों और चुनौतियों का एक पूल प्रदान करता है। नर्सिंग का दायरा केवल अस्पताल के अलावा अब हर जगह विस्तारित हुआ है। नर्सें इस व्यापक दुनिया में सबसे कीमती चीज- ‘मानव जीवन’ से निपटती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने 2022 लीड टू लीड – नर्सिंग में निवेश करें और वैश्विक स्वास्थ्य को सुरक्षित करने के अधिकारों का सम्मान करने के वर्ष के रूप में नामित किया है।

दुनिया के सभी स्वास्थ्य कर्मियों में आधे से अधिक नर्सें हैं। यह पूरे नर्स समुदाय और जनता को इस दिन को मनाने के लिए प्रोत्साहित करेगा और साथ ही नर्सिंग पेशे के प्रोफाइल को बढ़ाने के लिए आवश्यक जानकारी और संसाधन प्रदान करेगा। उच्च गुणवत्ता और सम्मानजनक उपचार और देखभाल प्रदान करने वाली महामारियों और महामारियों से लड़ने में नर्स सबसे आगे हैं। कोविड -19 महामारी नर्सों की महत्वपूर्ण भूमिका की याद दिलाती है। नर्सों और अन्य स्वास्थ्य कर्मियों के बिना, प्रकोपों के खिलाफ लड़ाई जीतना और सतत विकास लक्ष्यों या सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (यूएचसी) को प्राप्त करना संभव नहीं है।

विश्व स्तर पर, प्रति 10,000 लोगों पर लगभग 36.9 नर्सें हैं, जिनमें विभिन्न क्षेत्रों के भीतर और विभिन्नताएं हैं। अफ्रीकी क्षेत्र की तुलना में अमेरिका में लगभग 10 गुना अधिक नर्सें हैं। जबकि पूर्व में प्रति 10,000 जनसंख्या पर 83.4 नर्स हैं, बाद में प्रति 10,000 जनसंख्या पर 8.7 नर्स हैं। 2030 तक, दुनिया भर में 5.7 मिलियन से अधिक नर्सों की कमी होगी। निरपेक्ष संख्या में सबसे बड़ी कमी दक्षिण-पूर्व एशियाई क्षेत्र में है, जबकि अमेरिका और यूरोप में, समस्या अलग है क्योंकि वे वृद्धावस्था में नर्सिंग कार्यबल का सामना कर रहे हैं। इसके अलावा, यूरोप, पूर्वी भूमध्यसागरीय और अमेरिकी क्षेत्रों में कई उच्च आय वाले देश प्रवासी नर्सों पर “विशेष रूप से” निर्भर हैं।

उनके कार्यों की मान्यता की आवश्यकता है; रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि नर्सों का काम सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल, मानसिक स्वास्थ्य, गैर-संचारी रोगों, आपातकालीन तैयारी और प्रतिक्रिया से संबंधित राष्ट्रीय और वैश्विक लक्ष्यों को पूरा करने में महत्वपूर्ण है। स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में नर्सों की अहम भूमिका होती है। उनकी भूमिका, विशेष रूप से वर्तमान स्वास्थ्य संकट के दौरान, सर्वोपरि है। कुल मिलाकर, एक मरीज को दी जाने वाली देखभाल की गुणवत्ता सुनिश्चित करने, संक्रमण को रोकने और नियंत्रित करने और रोगाणुरोधी प्रतिरोध का मुकाबला करने में नर्स महत्वपूर्ण हैं।

2018 तक, भारत में 1.56 मिलियन से अधिक नर्स और 772,575 नर्सिंग सहयोगी थे। इसमें से पेशेवर नर्सों की हिस्सेदारी 67 फीसदी है, जिसमें हर साल 322,827 स्नातक और चार साल की न्यूनतम प्रशिक्षण अवधि होती है। स्वास्थ्य कार्यबल के भीतर, नर्सों में 47 प्रतिशत चिकित्सा कर्मचारी शामिल हैं, इसके बाद डॉक्टर (23.3 प्रतिशत), दंत चिकित्सक (5.5 प्रतिशत) और फार्मासिस्ट (24.1 प्रतिशत) हैं। इसके अलावा, भारत में 88 प्रतिशत नर्सों में भारी संख्या में महिलाएं हैं। यह विश्व स्तर पर देखी जाने वाली नर्सिंग की संरचना के अनुरूप है, जहां 90 प्रतिशत महिलाएं हैं।

व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों तक पहुंच सहित नर्सों और सभी स्वास्थ्य कर्मचारियों की व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य प्रदान करना ताकि वे सुरक्षित रूप से देखभाल प्रदान कर सकें और स्वास्थ्य देखभाल सेटिंग्स में संक्रमण को कम कर सकें। नर्सों और सभी स्वास्थ्य देखभाल कर्मचारियों के पास मानसिक स्वास्थ्य सहायता, समय पर वेतन, बीमारी की छुट्टी और बीमा तक पहुंच होनी चाहिए। उन्हें प्रकोप सहित सभी स्वास्थ्य जरूरतों का जवाब देने के लिए आवश्यक ज्ञान और मार्गदर्शन तक पहुंच प्रदान की जानी चाहिए। भविष्य के प्रकोपों का जवाब देने के लिए नर्सों को वित्तीय सहायता और अन्य संसाधन दिए जाने चाहिए।

लगभग सभी स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं में, नर्सें ऐसी भूमिकाएँ निभाती हैं जो उनकी विशेषता नहीं होती हैं, इसलिए उनके पास अपनी वास्तविक भूमिकाओं और जिम्मेदारियों को निभाने के लिए कम से कम समय बचा होता है। वे गैर-नर्सिंग-संबंधित कार्य करने में आवश्यकता से अधिक समय व्यतीत कर रहे हैं, उदाहरण के लिए, बिलिंग, रिकॉर्ड कीपिंग, इन्वेंट्री, लॉन्ड्री, डाइट, फिजियोथेरेपी, रोगी का फरार होना, आदि, जिससे रोगी की देखभाल के लिए समय कम हो रहा है। यदि किसी भी स्थिति में, इन भूमिकाओं में कोई दोष है, तो नर्सों को अवकाश रद्द करने, वेतन कटौती आदि के रूप में इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है, इसे डोर करने के स्वास्थ्य क्षेत्र में बहुत कम प्रयास किए गए हैं।

सरकारों को नर्सिंग शिक्षा, नौकरियों और नेतृत्व में निवेश करना चाहिए। इनमें से कुछ उपायों में प्रचलित स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय श्रम बाजार स्थितियों के अनुसार नर्सों को पारिश्रमिक देना शामिल है। रोगी और जनता को स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों से उच्चतम प्रदर्शन का अधिकार है और यह केवल एक कार्यस्थल में प्राप्त किया जा सकता है जो एक प्रेरित और अच्छी तरह से तैयार कार्यबल को सक्षम और बनाए रखता है। नर्सों की जरूरतों को पूरा करने और उनकी चुनौतियों का मुकाबला करने से नर्सों को सशक्त, प्रोत्साहित किया जा सकता है।


प्रियंका सौरभ

इनके बुलंद हौसले के सामने शारीरिक अक्षमता ने घुटने टेके

जूही स्मिता 
पटना, बिहार

दिव्यांग होना कोई अभिशाप नहीं है लेकिन अगर कोई व्यक्ति इससे ग्रसित होता है, तो समाज और लोगों की मानसिकता उन्हें लेकर बिल्कुल अलग हो जाती है. वे उन्हें बोझ या दया की नजर से देखते हैं जबकि वे भी एक सामान्य परिवार में जन्म लेते हैं. लेकिन उनकी दिव्यांगता उन्हें आम लोगों की कैटेगरी से निकाल कर हैंडीकैप की श्रेणी में डाल देती है. इसके बावजूद कई ऐसे दिव्यांग पुरुष और महिलाएं हैं, जिन्होंने ना सिर्फ खुद के लिए एक मुकाम हासिल किया बल्कि समाज के लिए एक संदेश दिया. देश के अन्य राज्यों की तरह बिहार में भी ऐसी ढ़ेरों मिसालें मौजूद हैं.

मधुबनी के रहने वाले पैरा स्वीमर मो शम्स आलम ने अब तक कई सारे रिकॉर्ड स्थापित किए हैं. इन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय चैंपियनशिप में गोल्ड, सिल्वर और कांस्य पदक मिल चुका है. आठ दिसंबर को बिहार स्विमिंग एसोसिएशन की ओर से आयोजित मिश्रीलाल मेमोरियल विंटर स्विमिंग कंपटीशन 2019 में फास्टेस्ट पैराप्लेजिक स्वीमर का रिकॉर्ड बनाया था. उन्होंने गंगा नदी में सबसे तेज दो किलोमीटर की तैराकी 12:23:04 मिनट में पूरा कर लिया था, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है. इसी रिकॉर्ड के लिए उनका नाम इंडिया बुक्स ऑफ रिकॉर्ड में शामिल किया जा चुका है. शम्स बताते हैं कि वे बिल्कुल आम लोगों की तरह थे लेकिन साल 2010 में उन्हें स्पाइनल ट्यूमर हो गया था. उस समय ऑपरेशन सक्सेसफुल नहीं हो पाने के कारण उनके सीने के नीचे का हिस्सा पैरालाइज हो गया. अचानक आए इस बदलाव के लिए वे बिल्कुल तैयार नहीं थे.

साल 2011 में वह मुंबई स्थित पैराप्लेजिक फाउंडेशन रिहैबिलिटेशन सेंटर गए. वहां उनकी मुलाकात दिव्यांग राजाराम घाग से हुई जिन्होंने 1988 में इंग्लिश चैनल को पार कर रिकॉर्ड बनाया था. उनके मोटिवेट करने पर उन्होंने स्विमिंग की ओर अपना कदम बढ़ाया. वह दिन और आज का दिन है. शम्स अपनी शारीरिक कमियों को दरकिनार कर लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए पूरी लगन और मेहनत के साथ विभिन्न कंपटीशन में भाग ले रहे हैं. हाल ही में 24-27 मार्च तक उदयपुर में आयोजित 21वां नेशनल पैरा स्विमिंग चैंपियनशिप 2021-22 में उन्हें 2 गोल्ड और 1 सिल्वर पदक मिला है. वह आगे बताते हैं कि इससे पहले उनका नाम दो बार लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड में आ चुका है. साल 2014 में उन्होंने एक घंटा 40 मिनट में 6 किलोमीटर की स्विमिंग मुंबई में आयोजित कंपटीशन में किया था जबकि साल 2017 में उन्होंने गोवा में आयोजित स्विमिंग कंपटीशन में आठ किलोमीटर की तैराकी की थी. इन दोनों जगह में इनके द्वारा बनाए गए पैराप्लेजिक स्वीमर रिकॉर्ड अब तक किसी ने नहीं बनाया है. साल 2019 में उन्हें बिहार खेल रत्न सम्मान और बिहार सरकार की ओर से अंतरराष्ट्रीय खेल सम्मान से नवाजा जा चुका है. शम्स इलेक्शन कमिशन ऑफ इंडिया के ऑफिशियल आइकोन भी रह चुके हैं.

पटना की रहने वाली विकलांग अधिकार मंच बिहार की अध्यक्ष कुमारी वैष्णवी के पिता फौजी थे. पांचवीं कक्षा तक सब कुछ ठीक था लेकिन साल 1996 में 11 साल की उम्र में वैष्णवी को फीवर आया और पैर कड़ा हो गया. शुरुआत में दानापुर स्थित आर्मी हॉस्पिटल में इलाज हुआ लेकिन कोई असर नहीं हुआ तो पीएमसीएच भेजा गया. यहां उनका ऑपरेशन हुआ जिसमें ट्यूमर निकाला गया लेकिन पैर की सूजन बढ़ने लगी. इससे एक दूसरा ट्यूमर बन गया, जिसके लिए पहले आइजीआइएमएस और फिर दिल्ली भेजा गया. यहीं पर साल 1998-1999 में उन्हें पता चला कि ट्यूमर का चौथा स्टेज है जो नस से जकड़ कर पेट पर आ गया था. मुंबई पीएमएस में डेढ़ साल तक रिसर्च और इलाज किया गया लेकिन बाद में उन्होंने भी जवाब दे दिया. साल 2007 में पिता ने उन्हें बैसाखी लाकर दी.

वैष्णवी कहती हैं कि उसी वक्त मैंने तय किया कि मुझे अपनी एक अलग पहचान बनानी है. इसके बाद उन्होंने पटना के अनीसाबाद स्थित वीआरसी सेंटर में एक साल की ट्रेनिंग भी ली. उस वक्त उन्होंने हैंड स्टिचिंग प्रतियोगिता में भाग लिया और जिला स्तर पर ब्रॉन्ज जीता. इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ा और नेशनल लेवल पर साल 2010 में आयोजित प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल जीता, फिर वह राष्ट्रीय विकलांग मंच से जुड़ गईं. उन्होंने एक्शन एंड एसोसिएशन के सहयोग से विकलांग अधिकार मंच की स्थापना की, जिसका मकसद दिव्यांग महिलाओं को सशक्त करने के साथ-साथ सरकारी योजनाओं और स्कीम संबंधित जानकारियां देना है. इसके इतर अनोखा विवाह के तहत वह अब तक 33 दिव्यांग जोड़ों की शादी करवा चुकी हैं.

भागलपुर स्थित रंगरा गांव की रहने वाली ममता भारती ने मिथिला पेंटिंग के जरिये अपनी एक अलग पहचान बनाई है. वह चार साल की उम्र तक आम बच्चों की तरह ही थी. साल 1982 के समय पोलियो की बीमारी हर जगह फैली हुई थी, जिससे वह भी ग्रसित हो गई और उनके शरीर को लकवा मार गया. कई जगहों पर इलाज करवाया गया लेकिन कहीं कुछ फायदा नहीं हुआ. फिर उनके पिता उन्हें पटना में लेकर आए जहां उनका इलाज मुखोपाध्याय डॉक्टर ने किया. इलाज के बाद कमर के ऊपर का हिस्सा तो काम करने लगा लेकिन इसके नीचे के हिस्से ने काम करना बंद कर दिया. उन्होंने परिवार के सहयोग पर घर से ही मैट्रिक और इंटर किया. आर्ट के प्रति लगाव होने की वजह से साल 2007 में उपेंद्र महारथी शिल्प संस्थान से मिथिला पेंटिंग सीखा. वहां 6 महीने सीखने के बाद उन्हें आर्ट एंड क्राफ्ट कॉलेज के बारे में पता चला और वहां के प्रोफेसर की मदद से पढ़ाई पूरी की. कॉलेज के दौरान ही उन्हें काम करने का भी ऑफर मिलने लगा.

ममता बताती हैं कि लोग कहते थे “हैंडीकैप है, क्या ही कर पाएगी”? लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी. इसके बाद उन्होंने अपने पेंटिंग के पैशन को प्रोफेशन में तब्दील कर दिया. साल 2014 में उन्हें राज्य स्तर पर सम्मानित किया गया. वह बताती हैं कि साल 2017 में बिहार स्टार्टअप योजना के तहत उनका चयन किया गया था, जिसका नाम हस्त संस्कृति प्राइवेट लिमिटेड है. इसका मकसद महिलाओं खासकर दिव्यांग महिलाओं को स्वावलंबी बनाकर रोजगार से जोड़ना है. अभी उससे 15-20 लोग जुड़कर रोजगार कमा रहे हैं और अब तक हजार से ज्यादा लोग ट्रेनिंग ले चुके हैं.

करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान, रसरी आवत जात से सिल पर परत निशान, कौन कहता है कि आसमां में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो जैसे कई अनगिनत कहावतें हैं, लेकिन अगर शारीरिक रूप से अक्षम कोई इंसान इन कहावतों को अपनी मेहनत से सच बना दे तो आश्चर्य होना लाज़मी है. शम्स, कुमारी वैष्णवी और ममता भारती जैसे लोग हमारे समाज के लिए एक मिसाल हैं. यह उनके लिए भी मिसाल हैं जो शारीरिक रूप से सक्षम होने के बावजूद हार मान कर बैठ जाते हैं. जिन्हें यह लगता है कि “हमसे यह नहीं हो पायेगा” उन्हें एक बार इनकी तरफ मुड़कर देख लेना चाहिए.

बांहि जिनां दी पकड़िए, सिर दीजै बांहि न छोड़िए :  श्री गुरू तेग बहादुर के प्रकाशपर्व पर

डॉं. चरनजीत कौर

शहीद फारसी का शब्द है। किसी ऊॅंचे सच्चे उद्देश्य, आदर्श, अधिकार, सत्य परायणता, धर्म या धर्म युद्ध आदि के लिए अपना जीवन कुर्बान कर देने वाले को शहीद कहते है। इतिहास गवाह है कि आध्यात्मिक सत्य की स्थापना के लिए ईसा ने बलिदान दिया। सामाजिक संतोष के लिए पैरिस कमियों ने जीवन की बली दे दी एवं बौद्धिक ज्ञान के लिये सुकरात ने विष का प्याला सहर्ष ग्रहण किया, लेकिन श्री गुरूनानक परम्परा के नौवें वारिस श्री गुरू तेग बहादुर जी ने आध्यात्मिक सत्य, सामाजिक, संतोष एवं बौद्धिक ज्ञान तीनों से ऊपर उठकर एक ऐसे आदर्श के लिए बलिदान दिया जो शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक सम्पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करने के लिये था।

यह आत्म सम्मान, आत्म विश्वास एवं आत्मबल को अर्जित करने के लिये था यह किसी एक कौम, धर्म, वर्ग के लिये नहीं वरन् सम्पूर्ण मानवता के लिये था। आपके जीवन की प्रसिद्ध घटना शहादत है तथा संसार के कल्याण हित दिये गये उपदेशों में महत्वपूर्ण है।
भय काहू को देत नेह, ना भय मानत आन।
दोनो से निर्भयता का संकल्प स्पष्ट है।।
शहीद व्यक्ति निर्भय होता है उसके लिये आदर्श शरीर से अधिक महत्वपूर्ण होता है। शरीर मानव जीवन का महत्वपूर्ण अंग होता है। इसे नकारा नहीं जा सकता है, शरीर के माध्यम से ही भौतिक संसार से संबंध स्थापित होता है। उस परमपिता परमेश्वर से जुड़ाव भी शरीर के द्वारा स्थापित होता है। एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य से सामाजिक जुड़ाव के लिये भी शरीर आवश्यक हैं। बिना शारीरिक ज्ञान के शायद हम प्रकृति के प्रति भी चैतन्य नहीं हो सकते हैं। यह स्वीकारते हुये भी यह नहीं कहा जा सकता है कि शरीर ही जीवन है। मन, बुद्धि भी आवश्यक है,। शरीर सांसारिक सुखों की मांग करता है। मन, बद्धि, ज्ञान, स्वतंत्रता चाहता है। सामाजिक उन्नति के लिये शारीरिक सुख समृद्धि से अधिक महत्वपूर्ण स्वतंत्रता है जो जीवन को उच्चतम कीमत प्रदान करती है लेकिन इसे जीवन का केन्द्र बिन्दु नहीं मानते हैं। गुरूजी शरीर की उपयोगिता को स्वीकारते हुये कहते है।

सांसारिक इच्छाओं से उपर उठकर सत्य को खोजें एवं परम् आनन्द की प्राप्ति के लिये प्रेरित करते हुये गुरूजी फरमाते है।
आसा मनसा सगल त्यागे, जग ते रहे निरासा।
मानव यौनि अनमोल है, इसको व्यर्थ में गवाना नहीं है।।

आप फरमाते है
मानस जन्म अमोलक पायो, बिरथा काहे गवायो।

‘‘संसार में जीवन की जिम्मेदारियों को निभातें हुये उस परम्सत्ता में मन जोड़ना है,
जग रचना सब झूठ है, जान लेयो रे मीत
कोह नानक थिर न रहे जो बालू की भीत।

बाहर भटकना है अंदर ठहराव है सांसारिक प्राप्तियों में बाह्य संघर्ष हैं जो कभी खत्म होने वाली नहीं आन्तरिक यात्रा जैसे उत्तरोत्तर आगे बढ़ेगी आनन्द की अनुभूति होती जायेगी। प्रसन्नता से उपर आनन्द और अंत में परमानन्द है जो सचखण्ड में पहुॅंचा देगी। गुरूजी फरमाते है वह परम्पिता परमेश्वर हमारे अंदर है, बाहर ढूंढना व्यर्थ है।

काहे रे बन खोजन जाई, सर्व निवासी सदा अलेपा तोही संग समाई।
पुहप मध्य जियो बास बसत है, मुकर माहि जैसे छाई,
तैसे ही ही हरी वसे निरन्तर धट ही खोजो भाई।।

जतन बहुत सुख के लिये, दुःख को किया न कोए।
कोह नानक सुन रे मना, हर भावे सो होए।।

जब ऐसा महसूस हो कि मैं बलहीन हो गया हूॅं तब भी परमेश्वर हमारी रक्षा करते हैं जैसे तेंदेए से हाथी की रक्षा की थी।
बल छुटकियों बंधन परे, कछु न होत उपाए।
कोह नानक अब ओट हर, गज जियो हो सहाए।।
आवश्यकता है सम्पूर्ण समर्पण की अटूट विश्वास की आस्था की।
तब हृदय पुकार उठता है-
बल होआ बंधन छुटे, सब किछ होत उपाय।
नानक सब किछ तुमरे हाथ में तुम्ही होत सहाय।।
भारत में मुक्ति से मायने हैं मानवीय आत्मा को शरीर से पृथक हो जाना है। परन्तु गुरू जी के अनुसार मुक्ति अर्थात् सांसारिक दुःखो से निजात पाना है। मानवीय देह दुर्लभ है लेकिन यह दुःखों से घिरी रहती हैं। दुःख मूल का कारण आत्मा एवं शरीर का संयोग है। सम्पूर्ण सुख का साधन वह है जो संयोग को प्राप्त कर ले। इस उपलब्धि का नाम मुक्ति है। यह तभी संभव है जब हम अहंकार आदि दुर्गणों को त्यागकर इस परम्पिता परमेश्वर के नाम का स्मरण कर उसे सही मायने में पहचान लेते है।

जेह प्राणी हौमे तजी करता राम पछान
कोह नानक वो मुकत नर एह मन साची मान।
गुरूजी फरमाते है परम् सुख की प्राप्ति के लिये
परमेश्वर की शरण में जाना अति आवश्यक है।
समय बीतता जा रहा है आज और अभी से नाम स्मरण प्रारम्भ कर लें।
अजहूँ समझ कछु बिगरियो नाहिन, भज ले नाम मुरार।
बीत जैं हैं, बीत जैं हैं, जनम अकाज रे।
जो सुख को चाहे सदा सरन राम की लेह।
कोह नानक सुन रे मना दुर्लभ मानुख देह।

दिल्ली के तख्त पर विराजमान औरंगजेब एक पत्थर दिल सुन्नी मुसलमान शासक था वह अपने आप को खुदापरस्त होने का दावा करता था, लेकिन खलकत उसके जुल्म का शिकार हो रही थी। उसके मन में इस्लाम की खिदमत का जज्बा, जुनुन की हद तक पहुँच गया था। उसने अपने सगे भाईयों का कत्ल करके पिता को कारावास में बंद कर भूखे प्यासे मरने पर मजबूर कर दिया था, वह ललित कलाओं का भी दुश्मन था उसने संगीतकारों का सम्मान तो क्या कहना था वरन् उन पर हर तरह की पाबंदियों लगा रखी थी कोई रियाज नहीं कर सकता था, साजो की मीठी धुन उसे विचलित कर देती थी। उसने अपने राज्य में विशेष अधिकारी नियुक्त किये थे कि जहॉं भी कोई वाद्ययंत्र धुन छेड़ रहे हो उन्हे जला दिया जाये इस तरह यंत्रों के ढेर लगाकर अग्नि के सुपुर्द कर तबाह कर दिया गया। संगीतकार उसके राज्य में भुखमरी के शिकार हो गये। एक कथा काफी प्रचलित है कि औरंगजेब की संगीत के प्रति दुश्मनी से तंग आकर संगीतकारों ने अपने वाद्ययंत्रों को जनाजा तक निकाल दिया था ताकि उसे अपनी भूल का एहसास हो सकें। परन्तु औरंगजेब ने इसके प्रतिकूल यह कहा कि इस संगीत को इतना गहरा दफन करना है कि यह कभी बाहर न आ सकें।

औरंगजेब का केवल एक ही उद्देश्य था कि उसके राज्य में केवल एक ही धर्म का पालन होना चाहिये- वह था इस्लाम। इसकी पूर्ति के लिये वह जायज नजायज का अंतर भूल चुका था उसने हिन्दुओं के मंदिर उनकी पाठशालाओं को बंद कर देने तथा उनके स्थान पर मस्जिदें बना देने का फरमान जारी कर दिये। मंदिर की मूर्तियों से मस्जिदों के पायदान बना दिये गये जितनी भी बेईज्जती की जा सकती थी वह की तदोपरांत हिन्दुओं के तिलक व जनेऊ उतारने शुरू कर दिये गये।

धर्म परिवर्तन का यह कार्य काश्मीर की खुबसूरत प्राकृतिक वादियों से प्रारम्भ किया गया। गैर मुसलमानों की आत्मा दुःख से सिहर उठी। पण्डित कृपाराम की अगवाही में पण्डितों का एक दल सिखों के नौंवे गुरू गुरू तेग बहादुर जी के पास अपने धर्म रक्षा की फरियाद लेकर 25 मई 1675 को आया । गुरूजी ने कहा औरंगजेब को यह संदेश भेज दीजिए कि यदि गुरू नानक परम्परा के नौवें वारिस दीन कुबूल कर लेंगे तो सारे हिन्दु धर्म परिवर्तन हेतु तैयार हो जायेंगे क्योंकि गुरूजी का मिशन था-

जो सरन आवे, तिस कण्ठ लावै।
मजलूम की बॉंह पकड़नी है आपजी फरमाते हैं-
बांहि जिनां दी पकड़िए, सिर दीजै बांहि न छोड़िए।

औरंगजेब ने सोचा यह कार्य तो बहुत ही सरल हो गया एक व्यक्ति का धर्म परिवर्तन कहॉं कठिन है ? जोर, जबरदस्ती, लालच बहुत से तरीके हैं जो अपनाए जा सकते हैं। उसने सोचा मेरा सपना साकार होने का समय आ गया है। परन्तु गुरूजी की आत्मिक शक्ति उनके शान्तमयी व्यक्तित्व के प्रति वह अभिनज्ञ था। गुरूजी से कहा गया या तो दीन कबूल कर लो या चमत्कार दिखाओं या फिर मौत के लिए तैयार रहो।

गुरूजी ने मौत को चुना पहली शर्त तो मानी ही नहीं जा सकती थीं क्योंकि धर्म प्रत्येक व्यक्ति का निजी विश्वास अकीदा होता हैं। यह धर्मिक स्वतंत्रता का विषय है यह स्वअधिकार है इसमें कोई टीका टिप्पणी का प्रश्न ही नहीं उठता है। दूसरी शर्त चमत्कार करामात सिख धर्म के उसूलो के विरूद्ध है कहा गया है
करामात कहिर का नाम चमत्कार दिखाना निम्न स्तर की शोहरत से संबंधित है-
ध्रिग सिखी ध्रिग करामात-
गुरूजी यह जानते थे कि औरंगजेब की असहनीय नीतियों को केवल शहादत द्वारा ही रोका जा सकता है। उनकी आंखों के समक्ष उनके सिखों को शहीद कर दिया गया है- दिल्ली के चॉंदनी चौक पर 11 नवम्बर 1675 ई. को गुरूजी के पावन शीश को धड़ से अलग कर दिया गया। शहीद स्थल पर निर्मित सीसगंज साहिब गुरूद्वारा आपकी अद्वितीय शहादत को स्मृति चिन्ह जिस पर लाखें श्रद्धालु आज भी सिर झुकाते हैं और श्रद्धा सुमन अर्पित करते है।

मुगल सलतनत सड़क किनारे गिरे एक सुखे पत्तेे की भॅांति कहॉं उड़ गई कोई नहीं जानता हैं। शीश धड़ से अलग हो गया लेकिन झुकाया न जा सका-गुरू गोविन्द सिंह जी बचित नाटक में वर्णन करते है-
ठीकर फोर दिलीस सिर, प्रभु पुर किया प्यान।
तेग बहादुर सी क्रिया, करी न किन्हू आन
तेग बहादुर के चलत, भयो जगत में सोक
है-है-है सब जग कहो, जै-जै-जै सुर लोक।।

भारत में मुक्ति से मायने हैं मानवीय आत्मा को शरीर से पृथक हो जाना है। परन्तु गुरू जी के अनुसार मुक्ति अर्थात् सांसारिक दुःखें से निजात पाना है। मानवीय देह दुर्लभ है लेकिन यह दुःखों से घिरी रहती हैं। दुःख मूल का कारण आत्मा एवं शरीर का संयोग है। सम्पूर्ण सुख का साधन वह है जो संयोग को प्राप्त कर ले। इस उपलब्धि का नाम मुक्ति है। यह तभी संभव है जब हम अहंकार आदि दुर्गणों को त्यागकर इस परम्पिता परमेष्वर के नाम का स्मरण कर उसे सही मायने में पहचान लेते है।

जेह प्राणी हौमे तजी करता राम पछान
कोह नानक वो मुकत नर एह मन साची मान।
गुरूजी फरमाते है परम् सुख की प्राप्ति के लिये
परमेश्वर की शरण में जाना अति आवश्यक है।
समय बीतता जा रहा है आज और अभी से नाम स्मरण प्रारम्भ कर लें।
अजहूँ समझ कछु बिगरियो नाहिन, भज ले नाम मुरार।
बीत जैं हैं, बीत जैं हैं, जनम अकाज रे।
जो सुख को चाहे सदा सरन राम की लेह।
केह नानक सुन रे मना दुर्लभ मानुख देह।

ज्ञानव्यापी में कठमुल्लाओ का भीड़तंत्र ,लोकतंत्र पर भारी

– दिव्य अग्रवाल

भीड़ तंत्र की अराजकता से सभ्य समाज को समझना चाहिए ज्ञानव्यापी स्थल पर तथाकथित मस्जिद की वीडियोग्राफी को उस भीड़ तंत्र के माध्यम से प्रतिबंधित किया गया। जिसका नेतृत्व उन कठमुल्लाओ द्वारा हो रहा है जो आक्रामक,अराजक, हिंसात्मक होने के पश्चात भी पीड़ित व्यक्ति का कार्ड खेलकर,संविधान व् न्यायालय का सहारा लेकर सदैव कटटरवादी मानसिकता को पोषित करते आए हैं । यह उन्ही कठमुल्लाओ की फौज है जो मुस्लिम आक्रांता मोहम्मद बिन कासिम , तैमूर , टीपू सुलतान , औरंगजेब आदि मुस्लिम साशनकाल की बर्बरता को यह कहकर नकार देते हैं की वो सब तो विदेशी थे। उनसे हमारा क्या सम्बन्ध परन्तु जब उन विदेशी मुस्लिमों के कुकृत्यों को ठीक करने की बात आती है। तब हिन्दुस्तानी मुसलमान धर्म के नाम पर संगठित होकर उन विदेशी मुस्लिमो के कृत्यों को  इस्लाम से जोड़कर उनके समर्थन में भीड़ तंत्र के रूप में आकर लोकतंत्र व् भारतीय संविधान की अवहेलना करने से भी गुरेज नहीं करते। इस विषय की कल्पना भर करना मुश्किल है की आज संविधान है , कानून है , पर हिन्दू समाज अपने धार्मिक स्थलों के मान सम्मान को बचाने में सक्षम नहीं है तो उन 1200 वर्ष का इस्लामिक शासनकाल कैसा रहा होगा जिसमे हिन्दू पूजा स्थलों को खंडित किया गया था । यह आजाद भारत का दुर्भाग्य है की ब्रिटिश साशन काल में भी हिन्दू समाज की उदारता, भावनाओ एवं ज्ञानव्यापी स्थल की सत्यता को जानते हुए ब्रिटिश सरकार ने भी ज्ञानव्यापी स्थल पर गौरीश्रृंगार की पूजा करने हेतु माह में एकबार हिन्दुओ को जाने की अनुमति प्रदान की हुई थी। आजाद भारत में मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति के कारण भारतीय सरकारों द्वारा यह अनुमति भी बंद कर दी गयी ओर अब माह में एक बार पूजा अर्चना तो दूर वहां आना जाना भी हिन्दुओ के लिए पूर्ण रूप से प्रतिबंधित है।अतः इस भीड़ तंत्र से कब तक भयभीत होते रहेंगे , कब तक यह भीड़ तंत्र अपनी अराजकता के दम पर शासन व् प्रसाशन को संवैधानिक कार्य नहीं करने देंगे । यदि इस भीड़तंत्र की अराजकता व् असंवैधानिक कार्यशैली को अविलम्ब प्रतिबंधित नहीं किया गया तो क्या भविष्य में उन सब चीजों की पुर्नावृति होने की संभावना नहीं है। जिसके चलते भारत की संस्कृति को समाप्त करने हेतु असंख्य कार्य कटटरवादियो द्वारा पूर्व में ही किए जा चुके हैं ,  ये सब अति विचारणीय विषय है । प्रत्येक विषय पर सड़को पर आ जाना , आंदोलनों के नाम पर आगजनी करना , उपद्रव करना कटटरवादियो का यह प्रचलन बन चूका है। जिसके कारण सभ्यसमाज के जीने का अधिकार भी समापन की ओर अग्रसारित है। कटटरवादी , मजहबी भीड़तंत्र की अराजकता व् असंवैधानिक आचरण को देखकर भी यदि यह भारतीय सभ्य समाज मात्र मोदी जी , योगी जी महाराज  व् अन्य किसी राष्ट्रवादी नेता का ही सारा दायित्व समझकर स्वम अचेतन होकर जीवन व्यापन करता रहेगा तो निश्चित ही यह मानवता के लिए शुभ संकेत नहीं है । इससे बड़ा हास्यास्पद विषय ओर क्या हो सकता है की पुरे विश्व में मात्र भारत एक ऐसा देश बचा है जिसमे हिन्दू समाज अभी बहुसंख्यक स्थिति में होते हुए भी अपनी संस्कृति , सभ्यता , धार्मिक मान्यताओं , धार्मिक स्थलों को संरक्षित व् सुरक्षित रखने में समर्थ व् सक्षम नहीं है। अतः जिस तरह जनसख्या संतुलन बिगड़ रहा है हिन्दू समाज की जनसंख्या प्रतिदिन कम हो रही है भविष्य में क्या  कोई लोकतंत्र , संविधान या कानून बच पायेगा यह भी चिंताजनक विषय है। 

अज़ीब हूनर हमने इस पैसे में देखा।

अज़ीब हूनर हमने इस पैसे में देखा।
अपनो को अपनो से अलग होता देखा।।

अज़ीब हूनर हमने इस माया में देखा।
आज इसके पास कल दूसरे के पास देखा।।

अज़ीब हूनर हमने इस वक्त में देखा।
जवानी देकर बचपन को लुटते देखा।।

हूनर दिखाने वाले को सड़को पर देखा।
बे हूनर वालो को राज महलों में देखा।।

जिस औलाद को उंगलियां पकड़ते देखा।
उसी औलाद को उंगलियां दिखाते देखा।।

कभी नाव को हमने पानी में चलते देखा।
उसी पानी को हमने नाव में भरते देखा।।

इस वक्त में कुछ तो हुनर है मेरे दोस्तो।
जो कल देख चुके उसे आज नही देखा।।

रस्तोगी की अर्ज है,वक्त की कद्र करो दोस्तो।
जो वक्त बीत गया,उसे लौटते कभी न देखा।।

आर के रस्तोगी

2024 के आम चुनावों का तय होने लगा एजेंडा!

लिमटी खरे

लगभग आठ सालों से देश पर राज करने वाली भारतीय जनता पार्टी अब 2024 के आम चुनावों के लिए तैयारी करती दिखाई देने लगी है। भाजपा के द्वारा आम चुनाव किन मुद्दों पर लड़ा जाएगा, यह एजेंडा अब तय होता दिख रहा है। उधर, विपक्ष में बैठी कांग्रेस अभी भी आम चुनावों में किस मुद्दे को लेकर जनता के बीच जाएगी, यह बात साफ नहीं हो पाई है। दरअसल, सियासी पार्टियों के चुनावों के लिए जो भी एजेंडे होते हैं, उन पर पार्टियों के द्वारा चुनावों के लगभग दो साल पहले से ही कवायद आरंभ कर दी जाती है। कांग्रेस अभी भी भ्रष्टाचार और मंहगाई के मुद्दे पर ही अटकी दिख रही है। कांग्रेस के द्वारा दोनों ही मामले जोर शोर से नहीं उठाए जा रहे हैं, यहां तक कि कांग्रेस की जिला इकाईयों के द्वारा भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी आदि के मामलों में अपने अपने स्थानीय भाजपा प्रतिनिधियों को घेरने की कवायद आरंभ नहीं की गई है।

देश में शासन करने वाली भाजपा में दो ही नेता सर्वशक्तिमान प्रतीत होते हैं। पहले हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दूसरे गृहमंत्री अमित शाह। दोनों ही अपने बयानों के जरिए भाजपा की आगामी रणनीति के संकेत भी देते आए हैं। हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के द्वारा साफ तौर पर कहा गया था कि राम मंदिर मामला हो या अनुच्छेद 370 अथवा जम्मू काश्मीर में शांति की स्थापना हो या फिर सीएए या फिर तीन तलाक, हर मामले में फैसले लिए जा चुके हैं। अब बारी समान नागरिक संहित अर्थात सिविल कोड की है। उत्तर प्रदेश और उत्ताखण्ड में इस तरह के बयानों की पुष्टि वहां की सरकारों के कदमताल से मिलती है। अब लगने लगा है कि अगला चुनाव कामन सिविल कोड पर ही लड़ा जा सकता है।

कामन सिविल कोड पर देश की शीर्ष अदालत में भी याचिकाएं लंबित हैं। इसके पहले राम मंदिर मामला हो या तीन तलाक, इस तरह के मामलों में केंद्र सरकार पक्षकार के बतौर नहीं थी, किन्तु समान नागरिक संहित के मामले में सरकार पक्षकार है, इसलिए इस मामले को दो सालों में अंजाम तक पहुंचाने में सरकार को बहुत ज्यादा परेशानी शायद ही महसूस हो। दरअसल, वर्तमान में सभी धर्मों के लिए अलग अलग पर्सनल ला हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ में चार शादियों को मंजूरी है तो दीगर पर्सनल लॉ में महज एक शादी ही जायज मानी गई है। मुस्लिम युवतियों में व्यस्कता की आयु का स्पष्ट निर्धारण नहीं है तो अन्य पर्सनल लॉ में युवतियों की विवाह की न्यूनतम आयु 18 वर्ष निर्धारित की गई है।

साल दर साल अदालतों के द्वारा तो समान नागरिक संहिता के लिए सरकारों को दिशा निर्देश दिए जाते रहे हैं किन्तु इस पर संजीदगी से अमल नहीं किया गया। लगभग 37 साल पहले 1985 में शीर्ष अदालत के द्वारा शाहबानो प्रकरण में यह तक कह दिया था कि देश के संविधान का अनुच्छेद 44 मृत अक्षर बनकर रह गया है। इसके दस साल बाद सरला मुदगल प्रकरण में शीर्ष अदालत के द्वारा एक बार फिर कहा गया कि संविधान के अनुच्छेद 44 में संविधान निर्माताओं की मंशाओं को पूरा करने में कितना वक्त और लिया जाएगा सरकारों के द्वारा!

इसके बाद सन 2017 में तीन तलाक से संबंधित मामले में शीर्ष अदालत ने सरकार को निर्देशित किया था कि वह इस संबंध में उचित कानून बनाने के मार्ग प्रशस्त करे। शीर्ष अदालत के द्वारा ही 2019 में जोंस पाऊलो प्रकरण के दौरान टिप्पणी की थी कि क्या कारण है कि देश में समान नागरिक आचार संहिता बनाने की दिशा में प्रयास नहीं किए गए!

बहरहाल, बात चल रही थी 2024 के आम चुनावों में मुद्दा यानी एजेंडा तय होने की। इस मामले में भाजपा के द्वारा अपना रास्ता लगभग तय कर लिया ही प्रतीत हो रहा है। भाजपा शासित केंद्र सरकार एवं भाजपा शासित सूबाई सरकारों के द्वारा समान नागरिक आचार संहिता की जिस तरह से वकालत की जा रही है उससे लगने लगा है कि राम मंदिर मामला, अनुच्छेद 370 अथवा जम्मू काश्मीर में शांति की स्थापना, सीएए या तीन तलाक इन सब मामालों को अंजाम तक पहुंचाने के बाद अब भाजपा कामन सिविल कोड पर बिसात बिछाकर शह और मात का खेल खेल सकती है।

कांग्रेस अभी भी 2024 का एजेंडा तय करने में दिख रही पीछे

कांग्रेस सहित अनेक विपक्षी पार्टियों के द्वारा हिन्दुत्व से इतर अपनी नीतियां रखने के आरोप भी लगते आए हैं, वहीं भाजपा के द्वारा जिस तरह की नीतियां अपनाई गई हैं, उसके चलते आज आम भारतीय के मन में कहीं न कहीं भाजपा के प्रति साफ्ट कार्नर दिखाई देता है। यही कारण है कि आज अड़ानी अंबानी का मामला हो या मंहगाई व भ्रष्टाचार पर विपक्ष का वार। इस तरह के कमोबेश हर मामले तूल पकड़ने के बजाए धड़ाम से गिरते नजर आते हैं। आज नरेंद्र मोदी की छवि उनके पहले के लगभग सभी प्रधानमंत्रियों के समकक्ष ही मानी जा सकती है। कांग्रेस को अगर 2024 में किला फतह करना है तो उसे सबसे पहले चुनाव का एजेंडा सेट कर उस पर अभी से काम करना आरंभ करना होगा साथ ही अपने नेताओं को जमीनी तौर पर सक्रिय करना होगा वरन शोभा की सुपारी बनी कांग्रेस की आईटी सेल में बदलाव करते हुए सोशल मीडिया पर स्थानीय मामलों को उकेरना जरूरी है, क्योंकि जिला स्तर के नेताओं के द्वारा जब प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री पर सीधे वार किए जाते हैं तो लोगों को लगता है कि स्थानीय सांसद या विधायक से विपक्ष सेट है और प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री जिन तक उनकी आवाज नहीं पहुंच सकती उनको गरियाकर स्थानीय स्तर के नेता सिर्फ खबरों में बने रहना चाहते हैं . . .

सियासी चाल बनाम बड़ा भूचाल।

यह पूरी तरह से सत्य है कि राजनीति का ऊँट सदैव अपना रूप बदलता रहता है। सियासत के समीकरण के अनुसार सियासी ऊँट कब कौन सा रूप धारण कर ले कोई नहीं जानता। क्योंकि सियासत का पूरा खेल समीकरण पर ही निर्भर होता है जिसका उद्देश्य सत्ता तक किसी प्रकार से अपनी पहुँच को बनाना होता है। इसी कारण सियासत के सभी मंझे हुए खिलाड़ी सदैव नया से नया प्रयोग करते रहते हैं। जिसके अपने अपने दूरगामी परिणाम होते हैं। बंगाल की धरती पर सियासत की जंग एक बार फिर से गर्म होने की दिशा में चल पड़ी है। क्योंकि सौरव गांगुली पर भाजपा पहले भी दाँव लगा रही थी लेकिन सौरव इसके लिए तैयार नहीं हुए जोकि पीछे हट गए। जिसके बाद बंगाल का विधानसभा चुनाव हुआ और भाजपा सत्ता की कुर्सी तक पहुँचने में सफल नहीं हो सकी जिसका परिणाम यह हुआ कि ममता पुनः सत्ता की कुर्सी पर विराजमान हो गईं। इसलिए सियासत के जानकारों का मानना है कि भाजपा को बंगाल में एक प्रमुख चेहरे की खोज है। जिसके आधार पर बंगाल की सियासत को साधा जा सके।
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के द्वारा सौरव गांगुली के घर रात्रिभोज करने के बाद फिर से दादा के राजनीति में आने की अटकलें शुरू हो गई हैं। इसे और बढ़ाते हुए उनकी पत्नी डोना गांगुली ने कहा कि सौरव अगर राजनीति में आएं तो अच्छा काम करेंगे। वह ऐसे भी अच्छा काम कर रहे हैं। अमित शाह रात्रिभोज करने सौरव के घर आए तो उनके साथ बंगाल विधानसभा में विपक्ष के नेता सुवेंदु अधिकारी भाजपा की बंगाल इकाई के अध्यक्ष सुकांत मजुमदार पार्टी के राज्यसभा सदस्य स्वपन दासगुप्ता और आइटी सेल के प्रमुख व बंगाल के सह प्रभारी अमित मालवीय भी पहुंचे थे। अमित शाह के साथ बंगाल भाजपा के शीर्ष नेताओं के सौरव के घर जाने के कारण राजनीतिक चर्चा का बाजार एक बार फिर से गर्म है। पिछले साल हुए बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले भी सौरव के राजनीति में आने के कयास लगे थे। हालांकि सौरव सधे हुए अंदाज में यही कहते आए हैं कि उनका राजनीति में आने का कोई इरादा नहीं है। तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के विधायक मनोरंजन ने सौरव गांगुली पर निशाना साधते हुए कहा सौरव ने एक चरम बंगाली बांग्ला भाषा साहित्य व संस्कृति विरोधी और बंगाल को बांटने की साजिश रचने वाले व्यक्ति को अपने घर में बुलाकर उसकी खातिरदारी की है यह देखकर मुझे सौरव पर नहीं बल्कि जो लोग सौरभ को बंगाल का आइकन समझने की भूल करते हैं हमें ऐसे लोगों पर दया आ रही है। उसके बाद टीएमसी के विधायक मनोरंजन ब्यापारी ने कहा सौरव को लेकर मेरे मन में कभी उन्माद नहीं रहा। वह बल्ले से गेंद को अच्छे से मारते थे लेकिन उसका मतलब यह नहीं कि उससे देश जाति व लोगों का कोई भला हुआ हो। उन्होंने उससे बस करोड़ों रुपये कमाए हैं। सौरव को दरअसल जरुरत से ज्यादा प्यार मिल गया है।
दरअसल अमितशाह का बंगाल भाजपा के शीर्ष नेताओं के साथ सौरव के घर आने के कारण कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। अमित शाह पश्चिम बंगाल के दो दिवसीय दौरे पर कोलकाता के काशीपुर में भारतीय जनता युवा मोर्चा (भाजयुमो) कार्यकर्ता अर्जुन चौरसिया की मौत की केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) से जांच कराने की मांग करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि बंगाल में हिंसा की संस्कृति और भय का माहौल है। भाजपा जघन्य अपराध के दोषी के लिए कानून की अदालतों से कठोर सजा की मांग करेगी गृह मंत्री ने कहा तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने अपने तीसरे कार्यकाल का एक वर्ष पूरा किया जिसमें अपराध ही अपराध है। अब चौरसिया की हत्या का मामला आया है केंद्रीय गृह मंत्रालय चौरसिया की मौत के ममाले को गंभीरता से ले रहा है और इस पर रिपोर्ट मांगी है गृह मंत्री ने कहा कि चौरसिया के परिवार ने शिकायत की थी कि उनका शव जबरन ले जाया गया। इस बीच टीएमसी ने दावा किया कि चौरसिया भाजपा से नहीं बल्कि तृणमूल से जुड़े थे शाह से पहले घटनास्थल का दौरा करने वाले टीएमसी के स्थानीय विधायक अतिन घोष ने दावा किया कि चौरसिया तृणमूल कांग्रेस से जुड़े थे और उन्होंने हाल में हुए कोलकाता नगर निगम चुनावों के दौरान इसके लिए प्रचार भी किया था जिससे उन्हें स्थानीय भाजपा के एक वर्ग की नाराजगी का सामना करना पड़ा।
एक बार फिर से बंगाल की राजनीति में उलट फेर होने का दृश्य दिखाई देने लगा है। क्योंकि बंगाल की राजनीति में दीदी बड़ी ही मजबूती के साथ लगातार टिकी हुई हैं। भाजपा के द्वारा तमाम तरह के राजनीतिक दाँव पेंच के बावजूद भी दीदी को बंगाल की सत्ता से हटा पाना भाजपा के लिए अब तक की दूर की कौड़ी रही है। क्योंकि, बंगाल की धरती पर भाजपा का कोई भी ऐसा नेता नहीं है जोकि मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में दीदी का मुकाबला कर सके शायद इसी की भरपाई करते हुए भाजपा फिर से अपने दाँव आजमाना चाह रही है। तृणमूल कांग्रेस यानी टीएमसी की प्रमुख तथा पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को चुनौती देने वाले के रूप में सम्भवतः सौरव को पेश किए जाने की जद्दोजेहद जारी है। जिसके लिए अमित शाह लगातार प्रयास भी कर रहे हैं। दरअसल पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव 2021 में भाजपा सत्ता तक पहुँच पाने में सफल नहीं हो पाई जिसके बाद फिर से एक बार सियासी समीकरणों के फिर से नए सिरे से बुनने का कार्य शुरू हो गया है।
बंगाल के सियासी समीकरण को देखें तो मुकुल रॉय जोकि वर्ष 2017 में ममता बनर्जी की ही पार्टी से टूटकर भाजपा में आए थे वह फिर से अपनी पुरानी पार्टी टीएमसी में वापस चले गए। भाजपा को बंगाल में एक मजबूत चेहरे की दरकार है जोकि प्रदेश में भाजपा का एक मजबूत चेहरा बनकर जनता के सामने अपनी छपि को प्रस्तुत कर सके। जिसके बल-बूते भाजपा ममता बनर्जी से टक्कर का मुकाबला कर सके। क्योंकि टीएमसी के कई नेता बंगाल भाजपा इकाई में शामिल हुए थे लेकिन बंगाल के चुनाव के बाद उनमें से अधिकतर नेता पुनः टीएमसी में वापस चले गए जिससे कि बंगाल भाजपा की इकाई को राजनीतिक रूप से नुकसान हुआ। इसलिए भाजपा यह चाहती है कि किसी प्रकार से बंगाल की सत्ता तक पहुँचने सफलता हासिल की जाए जिससे कि संगठन को बंगाल में और मजबूत किया जा सके।