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अक्सर पिता पति पुत्र समझते नहीं नारी की भाषा

—विनय कुमार विनायक
माता व पिता में बहुत अधिक जैविक अंतर होता,
‘एक्स’ मातृगुणसूत्र औ ‘वाई’ पितृगुणसूत्र कहलाता
पिता पुरुष का सृजन दो विजातीय गुणधर्म युक्त
पिता ‘एक्स’ ‘वाई’ गुण सूत्रों के युग्मनज से होता!

मां नारी का जन्म दो सजातीय एक्स गुणसूत्रों से
माता का संतुलित होना जैविक गुण स्वभाव होता,
पिता दो विपरीत गुणधर्म से अभिव्यक्ति को पाता,
पिता विजातीय पौरुष गुणसूत्र से असंतुलित रहता!

मां-बहन-बेटी सम गुणसूत्रों के कारण संतुलित होती,
पुरुषों की भाषा अभिव्यक्ति में एकरूपता नहीं होती,
पुरुष पिता-पुत्र-पति होते अधीर अस्थिर स्वभाव का,
नारी मां-बहन-बेटी भाव विचार से सुलझी हुई होती!

कोई पिता जितनी आसानी से पुत्र को समझ लेता,
उतनी आसानी से अपनी पुत्री को नही समझ पाता,
पिता पुत्र को अपना पैतृक गुणसूत्र विरासत में देता,
जबकि माता व पिता पुत्री में अपना मातृगुण बोता!

वैज्ञानिक तथ्य है कि नर में पितृगुण वाई विकसित
अहंभाव से पुष्ट निष्करुण हिंसक अकाशोन्मुख होते
मातृगुण अत्यंत ड्वार्फ यानि बौना होकर छिपे रहते
मोह ममता दया करुणा भाव मातृ गुणसूत्र में आते!

हर पुरुष में मातृगुणसूत्र अल्प विकसित सुप्त होता,
जो मातृभाव पुत्री में जाकर पूर्ण विकसित हो जाता,
एक पुत्री माता-पिता से दादी नानी जैसी बातें करती,
अक्सर पिता पुत्री को आसानी से समझ नही पाता!

हर नर के अंदर एक नारी होती ये वैज्ञानिक सत्य,
ईश्वर अर्धनारीश्वर होता यही है आध्यात्मिक तथ्य,
पुरुषों में पाशविकता आती पौरुष में वृद्धि होने से,
नर में देवत्व आता मातृगुण विकासित हो पाने से!

बुद्ध जिन ने मार को भगा पशुता पर विजय पाई,
बुद्ध जिन ने करुणा, अहिंसा मातृ भावना अपनाई,
नर स्वभाव से हिटलर मुसोलिनी ओसामा बन जाते,
नर अभ्यास से बुद्ध महावीर ईसा मसीह बन पाते!

पुत्र का स्वर पिता को निजी विरासती स्वर लगता,
बेटी की भाषा को समझने में भूल कर जाता पिता,
बेटी को समझना है तो अपनी मां को समझ पहले,
बहन को समझना हो तो नानी दादी को समझ लो!

अक्सर पिता अपनी पुत्री की बातों से क्रोधित होता,
पुत्री की बातें अक्सर दूर से आती हुई प्रतीत होती,
पुत्री की भाषा एक दो पीढ़ी ऊपर से चलकर आती,
अक्सर पिता-पति-पुत्र समझते नही नारी की भाषा!
—विनय कुमार विनायक

एनीमिया से ग्रसित झारखंड का ग्रामीण क्षेत्र

अमरेन्द्र सुमन

दुमका, झारखण्ड

एनीमिया रक्त से संबंधित एक ऐसी बीमारी है जो शरीर में आयरन की कमी से होता है. मानव शरीर में जब हीमोग्लोबिन का बनना कम हो जाता है तब शरीर की स्फूर्ति भी धीरे धीरे घटती चली जाती है, परिणामस्वरूप इंसान सुस्त व कमजोर होता चला जाता है. शरीर की क्रियाशीलता घटने से मनुष्य के जीवन की पूरी व्यवस्था ही कमोबेश प्रभावित हो जाती है और वह जीवन और मौत के बीच युद्धरत देखा जाता है. गर्भवती महिलाओं, छोटे-छोटे बच्चों व लम्बे दिनों से बीमार चल रहे इंसानों में अक्सर यह बीमारी देखने को मिलती है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, गर्भवती महिलाओं में एनीमिया होने का अत्यधिक खतरा रहता है. दुनिया भर में 40 फीसदी गर्भवती महिलाएं एनीमिया से ग्रसित हैं. वैसे तो गर्भवती महिलाओं में 20 से 30 फीसदी अधिक ब्लड सप्लाई होता है ताकि गर्भ में पल रहे बच्चे को ज्यादा मात्रा में ऑक्सीजन मिल सके किन्तु ऐसा हमेशा संभव नहीं है.

चिकित्सकों के मुताबिक एनीमिया तीन तरह का होता है – माइल्ड, मॉडरेट व सीवियर. अगर बॉडी में हीमोग्लोबिन 10 से 11 जी / डीएल के आसपास हो तो इसे माइल्ड एनीमिया कहते हैं. यदि हीमोग्लोबिन 8 से 9 जी / डीएल हो तो यह मॉडरेट एनीमिया कहा जाता है, और यदि हीमोग्लोबिन 8 जी / डीएल से कम हो तो इसे सीवियर एनीमिया कहते हैं. सीवियर एनीमिया एक गंभीर स्थिति है, जिसमें मरीज की हालत इतनी बुरी हो जाती है कि उसे खून चढ़ाने की नौबत आ जाती है. उपरोक्त तीनों में से सबसे आम आयरन की कमी से होने वाला एनीमिया है. आंकड़ों के मुताबिक करीब 90 फीसदी लोगों में यही एनीमिया होता है. आयरन की कमी वाला एनीमिया एक ऐसी स्थिति है जिसमें रक्त में पर्याप्त स्वस्थ लाल रक्त कोशिकाओं की कमी होती है. यह लाल रक्त कोशिकाएं शरीर के ऊतकों में ऑक्सीजन ले जाती हैं. जब आदमी का शरीर पर्याप्त नई रक्त कोशिकाओं का उत्पादन करना बंद कर देता है तो उसकी अवस्था उसे थका हुआ संक्रमण और अनियंत्रित रक्तस्राव के लिए प्रवण छोड़ जाता है. हीमोग्लोबिन लाल रक्त कोशिकाओं को ऑक्सीजन ले जाने में सक्षम बनाता है.

वैसे झारखंड में एनीमिया की स्थिति ज्यादातर वैसे क्षेत्रों में देखने को मिलती है जहां गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास, महिलाओं के प्रति दोहरी मानसिकता, अनावश्यक प्रजनन, आहार की समस्या और उचित संसाधनों का अभाव पाया जाता है. दलित, आदिवासी, अनपढ़ और आर्थिक स्तर पर पिछड़े इलाकों में एनीमिया जैसी बीमारी से प्रतिवर्ष सैकड़ों महिलाएँ, पुरुष व बच्चे असमय ही काल के गाल में समा जाते हैं. आदिवासी बहुल इलाकों में जहां एक ओर खेती और वनोपज पर अधिकांश आबादी की निर्भरता होती है, वहीं दूसरी ओर पौष्टिक भोजन की अपेक्षा दारू, हड़िया जैसे नशीले पेय पदार्थों का सेवन, घर से लेकर बाजार तक की तमाम व्यवस्था में औरतों का अत्यधिक शारीरक श्रम व शिक्षा तथा आय उर्पाजन के लिए पुरुषों की तुलना में महिलाओं पर परिवार की निर्भरता भी औरतों और किशोरियों में इस बीमारी के फैलने का एक बड़ा कारण है.

इस संबंध में पटमदा, पूर्वी सिंहभूम में पदस्थापित डॉ. क्रिस्टोफर बेसरा के अनुसार एनीमिया कई वजहों से हो सकता है. जिसमें लगातार खून बहने की वजह से, शरीर में खून की कमी, फोलिक एसिड, आयरन, प्रोटीन, विटामिन सी और बी 12 की कमी प्रमुख है. डॉ. बेसरा के अनुसार यदि किसी के पारिवारिक इतिहास में ल्यूकेमिया या थैलीसीमिया की बीमारी रही हो तो फिर उस स्थिति में एनीमिया होने के चांस 50 फीसदी तक बढ़ जाते हैं. किसी दुर्घटना में अत्यधिक रक्तस्राव, अल्सर, मासिक धर्म या कैंसर एनीमिया के प्रमुख लक्षण हैं. आसान थकान और ऊर्जा की हानि, असामान्य रूप से तेजी से दिल की धड़कन, व्यायाम के समय सांस की तकलीफ व सिरदर्द, सर चकराना, पीली त्वचा, पैर की मरोड़, अनिद्रा, सरदर्द इसके अन्य प्रमुख लक्षण हैं.

एनीमिया की रोकथाम के संबंध में डॉ. क्रिस्टोफर बेसरा का कहना है कि उचित आहार का पालन करके आयरन की कमी, विटामिन बी 12 की कमी और विटामिन बी 9 की कमी से होने वाले एनीमिया को रोका जा सकता है. इस बीमारी में पर्याप्त खाद्य पदार्थों के साथ एक संतुलित पौष्टिक आहार शामिल है. पौष्टिक और संतुलित भोजन के साथ-साथ यह भी सुनिश्चित करना होता है कि शुद्ध और पर्याप्त पानी का सेवन किया गया है या नहीं? ये सभी हीमोग्लोबिन के स्तर को काफी हद तक बनाए रखने में मदद करते हैं. डॉ. बेसरा का मानना है कि रक्त परीक्षण न केवल एनीमिया के निदान की पुष्टि करता है, बल्कि अंतर्निहित स्थिति को इंगित करने में भी मदद करता है. पूर्ण रक्त गणना (सीबीसी), लाल रक्त कोशिकाओं की संख्या, आकार, मात्रा और हीमोग्लोबिन सामग्री को निर्धारित करती है. रक्त लोहे का स्तर और सीरम फेरिटिन स्तर, शरीर के कुल लोहे के भंडार का सबसे अच्छा संकेत माना जाता है.

झारखण्ड के कई जिलो मे महिलाओं में एनीमिया की समस्या काफी बढ़ गई है. आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट- 2021-22 में एनएफएचएस-4 तथा एनएफएचएस-5 के आंकड़ों की तुलना करते हुए बताया गया है कि राज्य के 24 जिलों में से 10 जिलों में सभी आयु की महिलाओं (15-49 वर्ष) में एनीमिया में वृद्धि हुई है. 14 जिलों में युवा महिलाओं (15-19 वर्ष) में एनीमिया में वृद्धि हुई है. हालांकि रिपोर्ट के अनुसार राज्य में संस्थागत प्रसव में काफी सुधार हुआ है. रिपोर्ट के अनुसार पश्चिमी सिंहभूम में वर्ष 2015-16 में संस्थागत प्रसव सबसे कम 37 प्रतिशत थी जो वर्ष 2019-21 में बढ़कर लगभग दोगुनी 68 प्रतिशत हो गई है. झारखंड में केवल 1998-99 की अवधि के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में टोटल फर्टिलिटी रेट (टीएफआर) थोड़ा अधिक था. इसके बाद वर्तमान दौर 2019-21 तक ग्रामीण क्षेत्रों में टीएफआर अधिक है. मेडिकल स्टाफ की झारखंड में कमी आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट में स्वास्थ्य में चिकित्सकों, स्टाफ नर्स तथा एएनएम की कमी का भी उल्लेख किया गया है. राज्य में विशेषज्ञ चिकित्सकों के कुल 1,023 तथा चिकित्सा पदाधिकारियों के 803 पद रिक्त हैं. राज्य में एएनएम के कुल 2,578 तथा स्टाफ नर्स के 515 पद रिक्त हैं. जो यहां के ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य व्यवस्था की कमी का प्रमुख कारण है.

राज्य गठन के 21 वर्ष बाद भी झारखंड कुपोषण से पीड़ित है. 15 नवम्बर 2000 को अविभाजित बिहार से अलग होने के बाद इस राज्य के आंतरिक संसाधनों सहित शैक्षणिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से उन्नत बनाए रखने की बातें तो लगातार की जाती रही, किंतु धरातल पर यह प्रदेश किसी और स्थिति से गुजर रहा है. ताजा राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण के अनुसार, झारखंड के 42.9 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं. यह संख्या देश में सर्वाधिक है. एनीमिया से झारखंड के 69 प्रतिशत बच्चे और 65 प्रतिशत महिलाएं प्रभावित हैं. एनीमिया जैसी समस्या के समाधान की दिशा में किये जा रहे कार्य माताओं, बच्चों व किशोरियों के स्वास्थ्य में सुधार कर कुपोषण और एनीमिया के खिलाफ सूबे की सरकार ने तीन वर्षीय महाअभियान चला रखी है. अभियान के लिए बनाई गई टीम के माध्यम से घर-घर जाकर पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में कुपोषण से सम्बंधित जानकारी के साथ-साथ एनीमिया से पीड़ित 15 से 35 वर्ष आयु वर्ग की किशोरियों, महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं के स्वास्थ्य की जानकारी हासिल करने की व्यवस्था की गई है.

एनीमिया और कुपोषण के लक्षण दिखने पर नजदीकी आंगनवाड़ी केंद्र में रोगी की सघन जांच और उसके आधार पर आगे की कार्रवाई सुनिश्चित करने की व्यवस्था बनाई गई है. गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों को आवश्यक उपचार के लिए निकटतम स्वास्थ्य केंद्र भेजना सरकार की प्राथमिकता सूची में सबसे आगे है. राज्य सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयास सराहनीय है, लेकिन यह अभी भी लक्ष्य से काफी दूर है. ऐसे में एक ऐसी योजना पर अमल करने की आवश्यकता है जिससे राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों को एनीमिया मुक्त बनाया जा सके, ताकि आने वाली पीढ़ी स्वस्थ्य हो सके.

1817 का पाइक विद्रोह भी कहलाता है प्रथम स्वतंत्रता संग्राम

प्रमोद भार्गव
                आदिवासी असंतोष के प्रतीक रहे ओडिशा के ‘पाइक विद्रोह‘ को भी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का दर्जा प्राप्त हैं। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की शोषणकारी नीतियों के विरुद्ध ओडिसा में पाइक जनजाति के लोगों ने जबरदस्त सषस्त्र एवं व्यापक विद्रोह किया था। इस संग्राम के परिणामस्वरूप कुछ समय के लिए ही सही पूर्वी भारत में फिरंगी सत्ता की चूलें हिल गईं थीं औा उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा था। पाइक ओडिशा की एक पारंपरिक भूमिगत रक्षा सेना के रूप में सेवारत रहती थी। 1857 के सैनिक विद्रोह से ठीक 40 साल पहले 1817 में अंग्रेजों के विरुद्ध इन भारतीय नागरिकों ने जबरदस्त सशस्त्र विद्रोह किया था। इसके नायक बख्शी जगबंधु थे। इस संघर्ष को भी कई इतिहासकार आजादी की पहली लड़ाई मानते हैं।
इस स्वतंत्रता संघर्ष को ऐतिहासिक स्वीकार्यता देने के लिए ओडिअसंतोष के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने 2017 में केंद्र सरकार को पत्र लिखकर मांग की थी कि वास्तविक इतिहास लिखने के क्रम में 2018 के नए सत्र से एनसीआरटी की इतिहास संबंधी पाठ्य पुस्तक में ‘पाइक विद्रोह‘ का पाठ जोड़ा जाए। तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बयान देकर स्पष्ट किया था कि ‘1817 का पाइक विद्रोह ही प्रथम स्वतंत्रता संग्राम है।‘ उन्होंने यह भी कहा था कि ‘1857 का सिपाही विद्रोह किताबों में यथावत रहेगा। लेकिन देश के लोगों को आजादी का असली इतिहास भी बताना जरूरी है।‘ वैसे भी यदि घटनाएं और तथ्य प्रामाणिक हैं तो ऐसे पृष्ठों को इतिहास का हिस्सा बनाना चाहिए, जो बेहद अहम् होते हुए भी हाशिये पर हैं। पाइक विद्रोह के 2017 में दो सौ साल पूरे होने पर  इसका द्विशताब्दी समारोह मनाने के लिए केंद्र ने ओडिअसंतोष सरकार को दो सौ करोड़ रुपए दिए थे।
                आदिवासियों की जब भी चर्चा होती है तो अकसर हम ऐसे कल्पना लोक में पहुंच जाते हैं, जो हमारे लिए अपरिचित व विस्मयकारी होता है। इस संयोग के चलते ही उनके प्रति यह धारणा बना ली गई है कि वे एक तो केवल प्रकृति प्रेमी हैं, दूसरे वे आधुनिक सभ्यता और संस्कृति से अछूते हैं। इसी वजह से उनके उस पक्ष को तो ज्यादा उभारा गया, जो ‘घोटुल‘ और ‘रोरुंग‘ जैसे उन्मुक्त रीति-रिवाजों और दैहिक खुलेपन से जुड़े थे, लेकिन उन पक्षों को कमोबेष नजरअंदाज ही किया, जो अपनी अस्मिता के लिए आजादी के विकट संघर्ष से जुड़े थे ? भारतीय समाजषस्त्रियों और अंग्रेज साम्राज्यवादियों की लगभग यही दोहरी दृष्टि रही है। देश के इतिहासकारों ने भी उनकी स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी लड़ाई को गंभीरता से नहीं लिया। नतीजतन उनके जीवन, संस्कृति और सामाजिक संसार को षेश समाज से जुदा रखने के उपाय अंग्रेजों ने किए और उन्हें मानवशस्त्रियों के अध्ययन की वस्तु बना दिया। दूसरी तरफ अंग्रेजों ने सुनियोजित ढंग से आदिवासी क्षेत्रों में मिशनरियों को न केवल उनमें जागरूकता लाने का अवसर दिया, बल्कि इसी बहाने उनके पारंपरिक धर्म में हस्तक्षेप करने की छूट भी दी। एक तरह से आदिवासी इलाकों को ‘वर्जित क्षेत्र‘ बना देने की भूमिका रच दी गई। इस हेतु बहाना यह बनाया गया कि ऐसा करने से उनकी लोक-संस्कृति और परंपराएं सुरक्षित रहेंगी। जबकि इस हकीकत के मूल में आदिवासियों की बड़ी आबादी का ईसाईकरण करना था। इस कुटिल उद्देश्य में अंग्रेज सफल भी रहें।
                ये उपाय तब किए गए, जब अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती देने के लिए पहला आंदोलन 1817 में ओडिशा के कंध आदिवासियों ने किया। दरअसल 1803 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने मराठाओं को पराजित कर ओडिअसंतोष को अपने आधिपत्य में ले लिया था। सत्ता हथियाने के बाद अंग्रेजों ने खुर्दा के तत्कालीन राजा मुकुंद देव द्वितीय से पुरी के विश्व विख्यात जगन्नाथ मंदिर की प्रबंधन व्यवस्था छीन ली। मुकुंद देव इस समय अवस्यक थे, इसलिए राज्य संचालन की बागडोर उनके प्रमुख सलाहकार व मंत्री जयी राजगुरू संभाल रहे थे। राजगुरू जहां एकाएक सत्ता हथियाने को लेकर विचलित थे, वहीं मंदिर का प्रबंधन छीन लेने से उनकी धार्मिक भावना भी आहत हुई थी। नतीजतन उन्होंने आत्मनिर्णय लेते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध जंग छेड़ दी। किंतु कंपनी की कुटिल फौज ने राजगुरु को हिरासत में ले लिया और अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह के आरोप में बीच चैराहे पर फांसी पर चढ़ा दिया। इस निर्लज्ज प्रदर्शन को अंग्रेज यह मानकर चल रहे थे कि जिस बेरहमी से राजगुरु को फांसी के फंदे पर लटकाया गया है, उससे भयभीत होकर ओडिअसंतोष की जनता घरों में दुबक जाएगी और भविश्य में बगावत नहीं करेगी। लेकिन हुआ इसके उलट। निर्दोष राजभक्त राजगुरु की फांसी के बाद जनता का लहू उबल पड़ा। घुमसुर के 400 पाइक आदिवासी प्रतिशोध की उग्र भावना से आक्रोषित हो उठे। परिणामस्वरूप इन विद्रोहियों ने खुर्दा में प्रवेश करके जगह-जगह अंग्रेजों पर हमले शुरू कर दिए। ब्रिटिश राज्य के प्रतीकों पर आक्रमण करते हुए पुलिस थाने, प्रशासकीय कार्यालय और राज-कोअसंतोषलय आग के हवाले कर दिए। घुमसुर वर्तमान में गंजम और कंधमाल जिले का हिस्सा है। 
                पाइक मूल रूप से खुर्दा के राजा के ऐसे खेतिहर सैनिक थे, जो युद्ध के समय शत्रुओं से लड़ते थे और शांति के समय राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखने का काम करते थे। इस कार्य के बदले में उन्हें निशुल्क जागीरें मिली हुई थीं। इन जागीरों से राज्य कर वसूली नहीं करता था। शक्ति-बल से सत्ता हथियाने के बाद अंग्रेजों ने इन जागीरों को समाप्त कर दिया। यही नहीं कंपनी ने किसानों पर लगान कई गुना बढ़ा दी। जो लगान पहले फसल उत्पादन के अनुपात में एक हिस्से के रूप में ली जाती थी, उसे भूमि के रक्बे के हिसाब से वसूला जाने लगा। जिस कौड़ी का मुद्रा के रूप में प्रचलन था, उसकी जगह ‘रौप्य‘ सिक्कों को प्रचलन में ला दिया। जो लोग खेती से इतर नमक बनाने का काम करते थे, उसके निर्माण पर रोक लगा दी। इतनी बेरहमी बरतने के बावजूद भी न तो अंग्रेजों की दुष्टताथमी और न ही पाइकों का विद्रोह थमा। लिहाजा 1814 में अंग्रेजों ने पाइकों के सरदार बख्शी जगबंधु विद्याधर महापात्र, जो मुकुंद देव द्वितीय के सेनापति थे, उनकी जागीर छीन ली और उन्हें पाई-पाई के लिए मोहताज कर दिया।
                अंग्रेजों के ये ऐसे जुर्म थे, जिनके विरुद्ध जनता का गुस्सा भड़कना स्वाभाविक था। फलस्वरूप बख्षी जगबंधु के नेतृत्व में पाइकों ने युद्ध का षंखनाद कर दिया। देखते-देखते इस संग्राम में खुर्दा के आलावा पुरी, बाणपुर, पीपली, कटक, कनिका, कुजंग और केउझर के विद्रोही असंतोष मिल हो गए। यह संग्राम कालांतर में और व्यापक हो गया। 1817 में अंग्रेजों के निरंतर अत्याचारों के चलते घुमसुर, गंजम, कंधमाल, पीपली, कटक, नयागढ़, कनिका और बाणपुर के कंध संप्रदाय के राजा और आदिवासी समूह बख्षी जगबंधु द्वारा छेड़े गए संग्राम का हिस्सा बन गए। इन समूहों ने संयुक्त रणनीति बनाकर एकाएक अंग्रेजों पर आक्रामण कर दिया। तीर-कमानों, तलवारों और लाठी-भालों से किया यह हमला इतना तेज और व्यापक था कि करीब एक सौ अंग्रेज मारे गए। जो शेष बचे वे शिविरों से दुम दबाकर भग निकले। एक तरह से समूचा खुर्दा कंपनी के सैनिकों से खाली हो गया। जनता ने अंग्रेजी खजाने को लूट लिया। खुर्दा स्थित कंपनी के प्रअसंतोषसनिक कार्यालय पर कब्जा कर लिया। इसके बाद इन स्वतंत्रता सेनानियों को जहां-जहां भी अंग्रेजों के छिपे होने की मुखाबिरों से सूचना मिलीं, इन्होंने वहां-वहां पहुंचकर अंग्रेजों को पकड़ा और मौत के घाट उतार दिया।
                किंतु अंग्रेज आसानी से हार मानने वाले नहीं थे। उन्होंने अंग्रेज सैनिकों के नेतृत्व में देषी सामंतों की सेना को एकत्रित किया और पाइक स्वतंत्रता सेनानियों पर तोप व बंदूकों से हमला बोल दिया। इस तरह के घातक हथियार पाइकों के पास नहीं थे। गोया, दूर से विरोधियों को हताहत करने का जो तरीका अंग्रेजों ने अपनाया, उसके सामने विद्रोहियों के पराजित होने का सिलसिला शुरू हो गया। अंग्रेजों ने जिस सेनानी को भी जीवित पकड़ा उसे या तो फांसी दे दी अथवा तोप के मुहाने पर बांधकर उड़ा दिया। अंततः इस संग्राम के नायक बख्षी जगबंधु को 1825 में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें कटक के बरावटी किले में बंदी बनाकर रखा गया। जहां 1829 में उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। तत्पश्चात भी 1817 में शुरू हुआ यह स्वतंत्रता संग्राम 1827 तक रुक-रुक कर छापामार हमलों के रूप में सामने आता रहा। निसंदेह पूर्वी भारत में उपजा यह विद्रोह अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ा गया बड़ा संग्राम था। यह 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के ठीक 40 साल पहले हुआ था। इस लिहाज से इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की श्रेणी में रखना इस आंदोलन के सेनानियों का सम्मान है। लेकिन यह स्थिति तब और बेहतर होगी, जब 1857 के पहले अन्य स्वतंत्रता आंदोलनों को भी इसमें असंतोषमिल कर लिया जाए।
                पाइक विद्रोह के समतुल्य ही अंग्रेजों से 1817 में भील आदिवासियों का संघर्ष छिड़ा था। फिरंगी हुकूमत के अस्तित्व में आने से पहले ही भीलों का राजपूत असंतोषसकों से झगड़ा बना रहता था। ज्यादातर भील पहाड़ी और मैदानी क्षेत्रों के रहवासी थे। खेती-किसानी करके अपनी आजीविका चलाते थे। राजपूतों की राज्य व भूमि विस्तार की लिप्सा ने इन्हें उपजाऊ कृशि भू-खंडों से खदेड़ना शुरू कर दिया। भीलों को पहाड़ों और बियावान जंगलों में विस्थापित होना पड़ा। हालांकि वे चरित्र से स्वाभिमानी और लड़ाके थे, इसलिए राजपूतों पर रह-रहकर हमला बोल कर अपने असंतोषके ताप को ठंडा करते रहे।
भारत में जब अंग्रेज आए तो ज्यादातर सामंत उनके आगे नतमस्तक हो गए। नतीजतन अंग्रेज राजपूत सामंतों के सरंक्षक हो गए। गोया, भीलों ने जब संगठित रूप में खानदेश के सामंतों पर आक्रमण किया तो अंग्रेजों ने राजपूतों की सेना के साथ भीलों से युद्ध कर उन्हें खदेड़ दिया। बाद में यही संघर्ष ‘भील बनाम अंग्रेज‘ संघर्ष में बदल गया। इसलिए इसे ‘खानदेश विद्रोह‘ का नाम दिया गया। इस विद्रोह से प्रेरित होकर भीलों का विद्रोह व्यापक होता चला गया। 1825 में इसने सतारा की सीमाएं लांघ लीं और 1831 तक मध्यप्रदेश के वनांचल झाबुआ क्षेत्र में फैलता हुआ मालवा तक आ गया। अंततः 1846 में अंगेज इस भील आंदोलन को नियंत्रित करने में सफल हुए, तत्पषचात 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हुआ। लिहाजा 1817 में पाइक विद्रोह के समानांतर जितने भी 1857 के पहले तक अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष हुए हैं, यदि उन्हें जोड़कर 1857 पहले के स्वतंत्रता संग्राम की मान्यता दी जाती है, तो यह इन संग्रामों में षहीद हुए देशभक्तों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। वैसे भी आजादी की लड़ाई के जो भी अनछुए पहलू हैं, उन्हें समग्रता से प्रस्तुत करने की जरूरत है। इतिहास की ये प्रस्तुतियां इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि यह संघर्ष भारतीय जन-जातियों की अस्मिता से जुड़े राष्ट्रीय प्रसंग हैं। 

सोता हूँ माँ चैन से, जब होती हो पास !!


मां शब्द का विश्लेषण शायद कोई कभी नहीं कर पाऐगा, यह दो शब्द इतना विशालता अपने अंदर समेटे हुए है जिसका व्याख्या करना संभव नहीं है। बच्चा पैदा लेने के बाद सबसे पहले जो शब्द बोलता है वह है माँ। माँ वो है जो हमें जीना सिखाती है, दुनिया में वो पहला इन्सान जिसे हम मात्र स्पर्श से जान जाते है वो होती है माँ’। 9 महीने तक अपने पेट में रखने के बाद, इतनी परेशानियों के बाद वो हमें जन्म देती है। वो होती है ‘माँ’ छोटे हो या बड़े माँ को हर वक्त अपने बच्चे की चिंता होती है।
माँ का प्यार अँधा होता है जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है। भारत की संस्कृति में माता को पूजनीय माना जाता है। मां को खुशिया और मान सम्मान देने के लिए पूरी जिंदगी भी कम होती है। फिर भी विश्व में मां के सम्मान में मातृ दिवस मनाया जाता है। स्नेह, त्याग, उदारता और सहनशीलता के कितने प्रतिमान गढ़ती है माँ, इसे कौन देखता है। उसका वात्सल्य अपने बच्चों के लिए कितनी बार आंसू बहता है। यह वह दिन है जब हम अपनी मां के आभारी होते है जिसने हमें इतना कुछ दिया है और अभी भी हमारे लिये बहुत कुछ कर रही है।
माँ को परिभाषित करने के लिए शब्द कम पड़ जायेंगें लेकिन उसे हम कुछ शब्दों में परिभाषित नहीं कर पायेंगें।
माँ ममता की खान है, धरती पर भगवान !
माँ की महिमा मानिए, सबसे श्रेष्ठ-महान !!
माँ कविता के बोल-सी,कहानी की जुबान !
दोहो के रस में घुली, लगे छंद की जान !!
माँ वीणा की तार है, माँ है फूल बहार !
माँ ही लय, माँ ताल है,जीवन की झंकार !!
माँ ही गीता, वेद है, माँ ही सच्ची प्रीत !
बिन माँ के झूठी लगे, जग की सारी रीत !!
माँ हरियाली दूब है, शीतल गंग अनूप !
मुझमे तुझमे बस रहा, माँ का ही तो रूप !!
कोई भी चोटपहले माँ को लगती है फिर बच्चे को। मां के प्यार का कर्ज चुकाया नहीं जा सकता। बच्चा चाहें कितना भी बड़ा हो जाऐ माँ का आँचल उसे सबसे सुरक्षित महसूस होता है। तो उस ‘माँ’ के लिए भी एक दिन उसका अपना होना आवश्यक हो जाता है। इसे लोकप्रिय बनाई अमेरिका की ऐना ने।
जी हां,लाखों लोग इस दिन को ‘मर्दस डे’ एक सुअवसर के रूप में मनाते है और अपनी माँ को उनकेबलिदान, समर्थन, प्रयास के लिए दिल से धन्यवाद करते है। यही वजह है कि हर साल मई के दूसरे रविवार को दुनिया भर में मदर्स डे मनाया जाता है। साल का एक दिन सिर्फ मां के नाम होता है, जिसे मदर्स डे के नाम से हम जानते है। मां को सम्मान देने वाले इस दिन को कई देशों में अलग-अलग तारीख पर सेलिब्रेट किया जाता है। लेकिन भारत समेत ज्यादातर देशों में मई के दूसरे रविवार को ही मदर्स डे के रूप में मनाया जाता है।
अगर आप अपनी माँ के साथ रहते है तो उन्हें गले लगा कर विश करें, आप अपनी माँ के साथ साथ दुनिया की हर माँ का सम्मान करें, आदर करें, तो इससे बड़ा तोहफा दुनिया में कुछ और हो हीनहीं सकता और माँ का आर्शिवाद सदा कवच बनकर आपको हर कष्ट से मुक्ति दिलाती है।
हम मदर्स डे की औपचारिकता अवश्य निभाते है मगर वास्तविकता इससे बहुत दूर है। जब तक माँ के हाथ पैरों में जान है और गांठ में पैसे है हम माँ को प्यार करते है मगर जैसे ही ये दोनों चीजे माँ से दूर चली जाती है हमारे प्यार का पैमाना भी बदल जाता है विशेषकर माँ के वृद्धावस्था के दिनों में। उस समय हम अपने बीबी बच्चों में घुलमिल जाते है और माँ को बेसहारा छोड़ देते है।
बुढ़ापा बहुत बुरा होता है। यह वही समय है जब माँ को सबसे ज्यादा प्यार की जरुरत होती है और हम माँ को दुत्कार देतेहै। यह समय किसी भी माँ के लिए बहुत दुखभरा है। वह अपने बच्चों को अपना सब कुछ लुटा कर बड़ा करती है और यही बच्चा बड़ा होकर सबसे पहले अपनी माँ को ही अलग थलग कर देता है। भारत के अधिकांश घरों की यही कहानी है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। आश्चर्य की बात है की आज की पढ़ी लिखी युवा पीढ़ी अपने वृद्ध मातापिता का सम्मान नही करती है। वृद्ध हो जाने पर संताने अपनी संतानों को तो बहुत प्यार दुलार करती है, पर वृद्ध माता-पिता अपेक्षित महसूस
करते है।
’’ ‘मां’ को देवी सम्मान दिलाना वर्तमान युग की सबसे बड़ी आवश्यकता में से एक है। मां प्राण है, मां शक्ति है, मां ऊर्जा है, मां प्रेम, करुणा और ममता का पर्याय है। मां केवल जन्मदात्री ही नहीं जीवन निर्मात्री भी है। मां धरती पर जीवन के विकास का आधार है। मां ने ही अपने हाथों से इस दुनिया का ताना-बाना बुना है। सभ्यता के विकास क्रम में आदिमकाल से लेकर आधुनिककाल तक इंसानों के आकार-प्रकार में, रहन-सहन में, सोच-विचार, मस्तिष्क में लगातार बदलाव हुए। लेकिन मातृत्व के भाव में बदलाव नहीं आया।
उस आदिमयुग में भी मां, मां ही थी। तब भी वह अपने बच्चों को जन्म देकर उनका पालन-पोषण करती थीं। उन्हें अपने अस्तित्व की रक्षा करना सिखाती थी। आज के इस आधुनिक युग में भी मां वैसी ही है। मां नहीं बदली। विक्टर ह्यूगो ने मां की महिमा इन शब्दों में व्यक्त की है कि एक मां की गोद कोमलता से बनी रहती है और बच्चे उसमें आराम से सोते हैं।
तेरे आँचल में छुपा, कैसा ये अहसास !
सोता हूँ माँ चैन से, जब होती हो पास !!
माँ तेरे इस प्यार को, दूँ क्या कैसा नाम !
पाये तेरी गोद में, मैंने चारों धाम !!
मां को धरती पर विधाता की प्रतिनिधि कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। सच तो यह है कि मां विधाता से कहीं कम नहीं है। क्योंकि मां ने ही इस दुनिया को सिरजा और पाला-पोशा है। कण-कण में व्याप्त परमात्मा किसी को नजर आये न आए मां हर किसी को हर जगह नजर आती है। कहीं अण्डे सेती, तो कहीं अपने शावक को, छोने को, बछड़े को, बच्चे को दुलारती हुई नजर आती है। मां एक भाव है मातृत्व का, प्रेम और वात्सल्य का, त्याग का और यही भाव उसे विधाता बनाता है।
मां विधाता की रची इस दुनिया को फिर से, अपने ढंग से रचने वाली विधाता है। मां सपने बुनती है और यह दुनिया उसी के सपनों को जीती है और भोगती है। मां जीना सिखाती है। पहली किलकारी से लेकर आखिरी सांस तक मां अपनी संतान का साथ नहीं छोड़ती। मां पास रहे या न रहे मां का प्यार दुलार, मां के दिये संस्कार जीवन भर साथ रहते हैं। मां ही अपनी संतानों के भविष्य का निर्माण करती हैं। इसीलिए मां को प्रथम गुरु कहा गया है।
स्टीव वंडर ने सही कहा है कि मेरी माँ मेरी सबसे बड़ी अध्यापक थी, करुणा, प्रेम, निर्भयता की एक शिक्षक। अगर प्यार एक फूल के जितना मीठा है, तो मेरी माँ प्यार का मीठा फूल है।
अब हमारी बारी है की हम अपनी माँ को सम्मान दे और प्यार दे जिससे वह अपनी बची जिंदगी हंसी खुशी से व्यतीत कर सके।

बच्‍चों को ट्रैफिकिंग से बचाएंगे बीबीए और आरपीएफ दोनों के बीच एमओयू पर हस्ताक्षर

नई दिल्ली। रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स (आरपीएफ) और ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के बीच शुक्रवार को एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर हुए। यह करार एक ट्रैफिकिंग मुक्त देश के लिए छापामारी और बचाव सहायता, क्षमता निर्माण एवं जागरूकता लाने के लिए किया गया है।

बचपन बचाओ आंदोलन(बीबीए) की स्थापना नोबेल शांति पुरस्‍कार से सम्‍मानित कैलाश सत्‍यार्थी द्वारा साल 1980 में की गई थी। इसका मकसद बच्चों के खिलाफ होने वाली किसी भी किस्म की हिंसा का खात्मा और एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण करना है, जहां सभी बच्चे मुक्त, स्वस्थ व सुरक्षित हों और उन्हें अच्छी शिक्षा मिले।

समझौता ज्ञापन के तहत ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ उचित संचार सामग्री साझा करके, वॉयस मैसेजेस एवं वीडियो क्लिप आदि के जरिए जागरूकता पैदा कर आरपीएफ को सहयोग करेगा। इन मैसेजेस एवं वीडियो क्लिप को नियमित रूप से ट्रेनों में एवं स्टेशनों पर चलाया जाएगा। इससे अपराधियों के बीच डर पैदा करने में मदद मिलेगी।

बीबीए और आरपीएफ के साझा बयान में कहा गया है कि ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ आरपीएफ के लोगों के लिए तकनीकी सहयोग, प्रशिक्षण और जागरूकता कार्यशाला का आयोजन करेगा। इस मौके पर ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की सीईओ रजनी सेखरी सिबल ने इस समझौते पर खुशी जाहिर करते हुए कहा, ‘देश में बच्‍चों की ट्रैफिकिंग रोकने के लिए रेलवे सुरक्षा बल के साथ जुड़कर काम करने में हमें गर्व महसूस हो रहा है। कोरोनाकाल के दौरान ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ ने दस हजार से ज्‍यादा बच्‍चों को ट्रैफिकिंग से बचाया था। इनमें से ज्‍यादातर रेलवे स्‍टेशनों से बचाए गए थे। हम भविष्‍य में भी रेलवे सुरक्षा बल के साथ काम करने को लेकर प्रतिबद्ध हैं।’

वहीं, आरपीएफ के डायरेक्‍टर जनरल संजय चंदर ने चाइल्‍ड ट्रैफिकिंग के खिलाफ लड़ाई में बीबीए की भूमिका की सराहना करते हुए कहा कि इस समझौते से इस लड़ाई को और मजबूती मिलेगी।

आखिर क्यों गहरा रहा है देश में बिजली का संकट?

  • योगेश कुमार गोयल
    भीषण गर्मी के बीच बिजली की तेजी से बढ़ती मांग के कारण देश के कई राज्यों में बिजली की कमी का संकट गहरा रहा है। बिजली की मांग बढ़ने के साथ ही थर्मल पावर प्लांटों में कोयले की खपत तेजी से बढ़ी है और इसी कारण कुछ राज्यों के बिजली संयंत्रों में कोयले का स्टॉक घट रहा है। दरअसल गर्मी के कारण कई बिजली कम्पनियों में बिजली की मांग में वृद्धि हुई है और जैसे-जैसे गर्मी बढ़ रही है, बिजली की मांग में भी उसी तेजी से वृद्धि हो रही है। कोरोना लॉकडाउन के बाद बड़ी मुश्किल से पटरी पर लौट रही औद्योगिक गतिविधियों के कारण उद्योगों में भी बिजली की खपत बढ़ी है, इससे भी बिजली की मांग बढ़ रही है लेकिन मांग के अनुरूप पावर प्लांटों में कोयले का स्टॉक नहीं है। कोयले की कमी के संकट को लेकर कोल इंडिया स्वीकार चुकी है कि गर्मी शुरू होने के साथ ही देश के बिजली संयंत्रों में कोयला भंडार नौ साल के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया था। हालांकि संघीय दिशा-निर्देशों के अनुसार बिजली संयंत्रों में कम से कम 24 दिनों का कोयला स्टॉक होना चाहिए।
    आंकड़े देखें तो महाराष्ट्र में करीब 28 हजार मेगावाट बिजली की मांग है, जो गत वर्ष के मुकाबले 4 हजार मेगावाट ज्यादा है। उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, बिहार, मध्य प्रदेश, झारखंड, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, तमिलनाडु, तेलंगाना इत्यादि राज्य भी इस समय कोयले की किल्लत से जूझ रहे हैं, जिस कारण कुछ राज्यों में कुछ पावर प्लांटों में तो बिजली उत्पादन ठप्प हो गया है तोे कुछ प्लांटों में बिजली उत्पादन अपेक्षाकृत कम हो पा रहा है। केन्द्रीय बिजली प्राधिकरण (सीईए) के मुताबिक देश में 173 बिजली संयंत्रों में से 155 गैर-पिथेड बिजली संयंत्र हैं, जहां पास में कोई कोयला खदान नहीं है और इनमें औसतन कोयले का करीब 28 फीसदी स्टॉक है जबकि कोयला खदानों के पास स्थित 18 पिथेड संयंत्रों का औसत स्टॉक सामान्य मांग का 81 फीसदी है। पिछले साल अक्तूबर माह में भी बिजली की मांग करीब एक फीसदी बढ़ जाने के कारण कोयला संकट के चलते बिजली संकट गहराया था और तब यह भी स्पष्ट हुआ था कि बिजली संयंत्रों को कोयले की वांछित आपूर्ति नही होने के अलावा कई नीतिगत खामियां भी बिजली संकट का प्रमुख कारण हैं।
    कोरोना काल से पहले अगस्त 2019 में देश में बिजली की खपत 106 बिलियन यूनिट थी, जो करीब 18 फीसदी बढ़ोतरी के साथ अगस्त 2021 में 124 बिलियन यूनिट दर्ज की गई। विशेषज्ञों का मानना है कि मार्च 2023 तक देश में बिजली की मांग में 15.2 फीसदी तक की बढ़ोतरी हो सकती है, जिसे पूरा करने के लिए कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को उत्पादन में 17.6 फीसदी वृद्धि करनी होगी। देशभर में कुल बिजली उत्पादन का 70-75 फीसदी कोयला आधारित संयंत्रों से ही होता है और कोल इंडिया द्वारा रिकॉर्ड कोयला उत्पादन भी किया जा रहा है लेकिन फिर भी मांग और आपूर्ति का अंतर कम नहीं हो पा रहा है। देश में करीब 80 फीसदी कोयले का उत्पादन कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल) द्वारा किया जाता है और उसने इस वित्त वर्ष में कोयला आपूर्ति को 4.6 फीसदी बढ़ाकर 565 मिलियन टन करने का लक्ष्य रखा है। कोल इंडिया का कहना है कि वैश्विक कोयले की कीमतों और माल ढुलाई लागत में वृद्धि से आयात होने वाले कोयले से बनने वाली बिजली में कमी आई है।
    केन्द्रीय कोयला मंत्री प्रहलाद जोशी के मुताबिक 2012-22 में देश में कुल कोयला उत्पादन 8.5 फीसदी बढ़कर 77.72 करोड़ टन के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि यदि वाकई कोयले का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ है तो फिर बिजली संयंत्र कोयले की भारी कमी से क्यों जूझ रहे हैं और यदि कोयले की कमी नहीं है तो बिजली उत्पादन में गिरावट क्यों आ रही है? बिजली संयंत्रों तक कोयला पहुंचाने के लिए रेलगाडि़यों की कमी भी बिजली संकट गहराने का कारण बनी रही है। कोयला खदानों से पावर प्लांटों तक कोयला पहुंचाने के लिए रेलवे में रैक (डिब्बों) की कमी एक अहम कारण रहा है। एक बड़ी समस्या यह भी है कि कोरोना महामारी के कारण कई राज्यों की वित्तीय स्थिति खस्ता हुई है, जिससे उनके स्वामित्व वाली बिजली वितरण कम्पनियां (डिस्कॉम) बिजली उत्पादन कम्पनियों को बकाया चुकाने की स्थिति में नहीं हैं। माना जा रहा है कि केन्द्र तथा कोयला बहुल गैर-भाजपा शासित सरकारों के बीच भुगतान को लेकर तनातनी और बिजली उत्पादन कम्पनियों द्वारा सीआईएल को अदायगी में देरी कोयला खनन में ठहराव आने का एक प्रमुख कारण है।
    विदेशों से कोयले का आयात बंद करने से भी समस्या गहराई है। दरअसल अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कोयले की कीमतें काफी बढ़ी हैं और बिजली संयंत्रों द्वारा कोयले का आयात इसीलिए बंद या बहुत कम किया जा रहा है क्योंकि इससे उनकी उत्पादन लागत में काफी वृद्धि हो रही है। कोयले की बढ़ती मांग के कारण बिजली मंत्रालय द्वारा कोयले का आयात बढ़ाकर 36 मिलियन टन करने को कहा गया है। बहरहाल, कोयले की कमी से बार-बार उपजते बिजली संकट से निजात पाने के लिए बिजली कम्पनियों को भी कड़े कदम उठाने की दरकार है। दरअसल बिजली वितरण में तकनीकी गड़बडि़यों के कारण कुछ बिजली नष्ट हो जाती है। वितरण प्रणाली को दुरूस्त करके बेवजह नष्ट होने वाली इस बिजली को बचाया जा सकता है। इसके अलावा लोगों द्वारा बड़े पैमाने पर चोरी की जाने वाली बिजली के मामले में भी सख्ती बरतते हुए निगरानी तंत्र विकसित करते हुए बिजली की चोरी पर अंकुश लगाना होगा। बिजली संकट से स्थायी राहत के लिए अब आवश्यकता इस बात की भी महसूस होने लगी है कि देश में कोयला आधारित बिजली संयंत्रों के बजाय प्रदूषण रहित सौर ऊर्जा परियोजनाओं, पनबिजली परियोजनाओं तथा परमाणु बिजली परियोजनाओं को बढ़ावा दिया जाए।
    इस वर्ष तक सौर ऊर्जा के जरिये 100 गीगावाट बिजली पैदा करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था लेकिन इस लक्ष्य को हासिल नहीं किए जा सकने के कारण भी बिजली की कमी का संकट बना है। सौर ऊर्जा क्षमता के मामले में भारत फिलहाल चीन, अमेरिका, जापान तथा जर्मनी के बाद दुनियाभर में पांचवें स्थान पर है और बिजली के समय-समय पर गहराते संकट से देश को निजात तभी मिलेगी, जब सौर ऊर्जा परियोजनाओं के जरिये लक्ष्यों को समय से हासिल किया जाए। घरों पर सौर ऊर्जा पैनल लगाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करने हेतु आसान शर्तों पर ऋण तथा सब्सिडी देने की योजना के जरिये भी बिजली की मांग कुछ हद तक कम करने में मदद मिल सकती है। ऊर्जा की कमी को विश्व बैंक द्वारा किए गए एक अध्ययन में आर्थिक विकास में बाधक बताया जा चुका है। दरअसल बिजली के समय-समय पर गहराते संकट के कारण विभिन्न राज्यों में आम नागरिकों की ही परेशानियां नहीं बढ़ती बल्कि बिजली की कमी से देश की अर्थव्यवस्था पर भी काफी बुरा असर पड़ता है।

पीओजेके पीड़ितों को मिलेगा न्याय !

-प्रो. रसाल सिंह

आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए जम्मू-कश्मीर के अपने उन भाइयों और बहिनों को याद करना आवश्यक है जोकि पाकिस्तान के जुल्मोसितम के शिकार हुएI उनके वंशज आजतक भी शोषण-उत्पीड़न सहने और दर-दर की ठोकरें खाने को अभिशप्त हैंI पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के विस्थापितों और वहाँ के वासियों के साथ न्याय सुनिश्चित करना राष्ट्रीय कर्तव्य हैI दरअसल, पीओजेके स्वातंत्र्योत्तर भारत की बलिदान भूमि हैI जम्मू में 8 मई, 2022 को जम्मू-कश्मीर पीपुल्स फोरम द्वारा आयोजित ‘श्रद्धांजलि व पुण्यभूमि स्मरण सभा’ ऐसी ही एक कोशिश हैI इस सभा में शामिल होकर पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के हजारों विस्थापित अपने पूर्वजों के त्याग और बलिदान का स्मरण करेंगेI यह अपने जीवन-मूल्यों, धर्म-संस्कृति और राष्ट्रभाव का परित्याग न करने वाले भारत माँ के उन असंख्य सपूतों के प्रति श्रद्धांजलि और उनके वंशजों के साथ खड़े होने का अवसर हैI साथ ही, अपनी ‘घर वापसी’ और अपने अधिकारों की आवाज़ भी मुखर करेंगेI इस सभा का उद्देश्य पाकिस्तान, चीन और दुनिया को यह सन्देश देना है कि प्रत्येक भारतीय अपने पीओजेके के उत्पीड़ित और विस्थापित भाइयों-बहिनों के बलिदान और दुःख-दर्द से अनजान नहीं हैI उनके कष्ट निवारण और राष्ट्रीय एकता-अखंडता की रक्षा के लिए सम्पूर्ण राष्ट्र एकजुट और संकल्पबद्ध हैI

पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के प्रमुख क्षेत्र नीलम, हटियन बाला, मीरपुर, देवा बटाला, भिम्बर, कोटली, बाग़ पुलंदरी, सदनोती,रावलकोट, मुजफ्फराबाद, पुंछ, गिलगित और बाल्टिस्तान आदि हैंI बाद की दो लड़ाइयों (1965 और 1971) में पाकिस्तान ने कूटनीतिक चालाकी से छम्ब सेक्टर को भी हथिया लियाI माँ शारदा पीठ, माँ मंगला देवी मंदिर, और गुरू हरगोविंद सिंह गुरुद्वारा जैसे अनेक पवित्र स्थल पाकिस्तान के अवैध कब्जे में हैंI पीओजेके वासियों की भाषा, खान-पान, वेशभूषा और संस्कृति-प्रकृति पाकिस्तानी से अधिक भारतीय हैI यहाँ कश्मीरी, गोजरी, पहाड़ी, हिंदको आदि भाषाएं बोली जाती हैंI यह क्षेत्र न सिर्फ भू-रणनीतिक दृष्टि से, बल्कि अपने प्राकृतिक संसाधनों और सांस्कृतिक समृद्धि के कारण भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैI आज यहाँ शिया मुसलमान बसते हैंI आज़ादी के समय हिन्दू और सिख भी काफी संख्या में रहते थेI जितने जुल्मोसितम गैर-मुस्लिमों अर्थात् हिन्दू और सिखों पर हुए लगभग उतने ही जुल्मोसितम आज शिया मुसलामानों पर हो रहे हैंI उन्हें आजतक भी दोयम दर्जे का मुसलमान और दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता हैI अमजद अयूब और डॉ. शब्बीर चौधरी (लन्दन), जमील मकसूद ( ब्रुसेल्स), मंसूर अहमद पश्तीन (वजीरिस्तान), आरिफ आजक़िया, हाजी सैय्यद सलमान चिश्ती, जफ़र चौधरी और जावेद राही जैसे हिम्मतवर लोग अलग-अलग मंचों से लगातार पीओजेके के पीड़ितों की आवाज़ मुखर कर रहे हैंI

जम्मू-कश्मीर पीपुल्स फोरम द्वारा आयोजित जनसभा का प्रतीकात्मक ही नहीं, बल्कि रणनीतिक महत्व भी हैI इस सभा में अपनी भूमि को वापस पाने और घर वापसी के संकल्प को फलीभूत करने के ठोस उपायों पर चर्चा होनी चाहिएI इन विस्थापितों की कुर्बानियों और कष्टों की ओर अंतरराष्ट्रीय समाज का ध्यान भी आकृष्ट करना चाहिएI मानवाधिकारों का उल्लंघन, लोकतन्त्र का पददलन, माँ-बहिनों का शील-हरण, पाकिस्तानी सेना की पिट्ठू सरकार और शासन-तंत्र द्वारा दमन, पाकिस्तानी सेना की देखरेख में फल-फूल रहे आतंकी संगठन और नशीले पदार्थों की खेती और तस्करी, पाकिस्तान के सिन्धी-पंजाबी मुस्लिम समुदाय को बसाकर किये जा रहे जनसांख्यिकीय परिवर्तन, मंदिरों और गुरुद्वारों को ढहाने, मूर्तियों को क्षतिग्रस्त करने आदि के किस्से पाक अधिक्रांत कश्मीर का रोजनामचा हैI यह सब सह रहे लोगों का अपराध यह है कि वे महाराजा हरिसिंह द्वारा हस्ताक्षरित 26 अक्टूबर, 1947 के अधिमिलन-पत्र के अनुसार भारतीय गणराज्य का हिस्सा होना चाहते हैंI भारत की प्रगति और खुशहाली में शामिल होना चाहते हैंI अमन-चैन और सुख-शांति चाहते हैं, जो ‘एक असफल राष्ट्र’ बन चुके पाकिस्तान में कभी मयस्सर नहीं होगीI

यह ऐतिहासिक अवसर है कि हम भूल-सुधार करते हुए अपने देश के भूले-बिसरे हिस्सों और देशवासियों का ध्यान करेंI उनके मान-सम्मान और अधिकारों के लिए कुछ ठोस योजनायें बनायेंI वर्तमान केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर समस्या के समाधान की दिशा में दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय दिया हैI उसने पीओजेके विस्थापितों के प्रति पूरी संवेदनशीलता, सहानुभूति और सदाशयता दिखाते हुए 2000 करोड़ रुपये के राहत पैकेज, अन्यान्य सुविधाओं और योजनाओं की शुरुआत की हैI लेकिन इस राहत पैकेज में जम्मू-कश्मीर के बाहर बसे विस्थापितों को शामिल न करना अनुचित हैI तत्कालीन जम्मू-कश्मीर सरकार की सांप्रदायिक नीति और उपेक्षापूर्ण रवैये के कारण बहुत से विस्थापितों को अलग-अलग राज्यों में शरण लेनी पड़ीI पीओजेके विस्थापित समिति ने गृहमंत्री अमित शाह को एक ज्ञापन देकर अलग-अलग जगहों पर बसे सभी शरणार्थियों को इन राहत योजनाओं का लाभ देने की माँग भारत सरकार से की हैI कश्मीर घाटी के विस्थापितों के लिए भी ऐसे पैकेज और परियोजनाओं लागू की जा रही हैंI लेकिन इन राहत योजनाओं का दायरा और स्तर बढ़ाये जाने की आवश्यकता हैI नागरिकता (संशोधन) अधिनियम-2019 ऐसी ही एक उल्लेखनीय राहत योजना हैI कश्मीर घाटी के विस्थापितों के लिए देश के शिक्षण संस्थानों और सरकारी सेवाओं में प्रवेश हेतु विशेष प्रावधान किये गए हैंI इसके दायरे में पीओजेके विस्थापितों को भी शामिल करने की आवश्यकता हैI जिस भारत का नागरिक होने की वजह से उनके पूर्वजों को असहनीय क्रूरता और प्रताड़ना सहनी पड़ी और वे स्वयं आजतक भी मुश्किल हालात में जीने को मजबूर हैं; उस भारत की सरकार और नागरिक समाज को एकजुट होकर उनके साथ खड़े होने और उनके आँसू पोंछने और आश्वस्त करने की जरूरत हैI

जिस प्रकार चीन लद्दाख क्षेत्र में भारतीय सीमा पर गाँव बसाने की साजिशें रच रहा है, उसीप्रकार भारत को भी कश्मीर घाटी में और पीओजेके के सीमान्त क्षेत्रों में सेना और अर्धसैनिकों बलों की कॉलोनियां बसाने की पहल करनी चाहिएI यहाँ बसने और काम-धंधा शुरू करने वाले देशवासियों को बसाने के लिए भूमि अधिगृहीत और विकसित की जानी चाहिएI प्रवासी श्रमिकों और उद्यमियों के लिए सस्ते दाम पर आवासीय और व्यावसायिक भूखंड, आसान ऋण, ब्याज दर में सब्सिडी, शस्त्र लाइसेंस और शस्त्र आदि की उपलब्धता सुनिश्चित करनी चाहिएI ये लोग आतंकवाद से निपटने और खोई हुई भूमि को पाने में सेना और स्थानीय समाज के साथ प्रभावी भूमिका निभा सकेंगेI दहशतगर्दों के वर्चस्व को समाप्त करने की दिशा में ये उपाय प्रभावी साबित होंगेI आतंकवाद के शिकार निर्दोष नागरिकों को शहीद का दर्जा और उनके परिजनों को आर्थिक, सामाजिक और शारीरिक सुरक्षा देकर आतंकवाद से निडरतापूर्वक लड़ने वाला नागरिक समाज तैयार किया जा सकता हैI सामाजिक संकल्प और संगठन के सामने मुट्ठीभर भाड़े के आतंकी भला कब तक ठहर पायेंगे!

जस्टिस रंजना देसाई की अध्यक्षता वाले परिसीमन आयोग ने अपनी अंतिम रिपोर्ट दे दी हैI इसमें अनुसूचित जनजातियों के लिए 9 सीटें आरक्षित की गयी हैंI आयोग ने एक महिला सहित कश्मीर घाटी के दो विस्थापितों के मनोनयन की सिफारिश की हैI इसीप्रकार पाक-अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के विस्थापितों के मनोनयन (संख्या स्पष्ट नहीं है) की सिफारिश भी की गयी हैI यह पहली बार किया गया हैI इसलिए सराहनीय और स्वागतयोग्य हैI हालाँकि, मनोनयन की जगह चुनाव द्वारा और अधिक संख्या में प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए थाI इन समुदायों और भारत के राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों की ओर से इस आशय की माँग की जा रही थीI उल्लेखनीय है कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा में पाक अधिक्रांत क्षेत्र के लिए 24 सीटों को खाली छोड़ा जाता रहा हैI यह उचित अवसर था कि उस क्षेत्र से खदेड़े गए भारतवासियों और उनके वंशजों के लिए 24 में से कम-से-कम 4 सीटें आवंटित कर दी जातींI गुलाम कश्मीर और कश्मीर घाटी के विस्थापितों के लिए सीटें आरक्षित करना इसलिए जरूरी था, ताकि उनके उनका दुःख-दर्द, समस्याओं और मुद्दों की ओर देश-दुनिया का ध्यान आकर्षित होI वर्तमान केंद्र सरकार ने 22 फरवरी, 1994 के भारतीय संसद के संकल्प की पृष्ठभूमि में अनुच्छेद 370 और 35 ए को निष्प्रभावी करते हुए जम्मू-कश्मीर के पूर्ण विलय की दिशा में बड़ी पहल की थीI अब उस संकल्प की सिद्धि की दिशा में सक्रिय होने का अवसर हैI

सियासी सूझबूझ और शुचिता कूट कूट कर भरी दिख रही वरूण गांधी में . . .

लिमटी खरे

नेहरू गांधी परिवार में जवाहर लाल नेहरू के बाद की चौथी पीढ़ी में राहुल गांधी, प्रियंका वढ़ेरा और वरूण गांधी तीन सदस्य हैं। इनमें राहुल व प्रियंका कांग्रेस में तो वरूण भाजपा का अंग हैं। वरूण गांधी अभी 42 साल के हैं, पर राजनैतिक कौशल और सूझबूझ के मामले में वरूण गांधी का शायद ही कोई सानी हो। भाजपा में उन्हें ज्यादा वजनदारी वाले पद नहीं मिले हैं, फिर भी उनके द्वारा जिस तरह की बातें कहीं जाती हैं, उन्हें देखकर लगता है कि वरूण गांधी को अगर मौका मिलेगा तो वे अपने आप को बेहतर तरीके से साबित भी कर सकते हैं।
हाल ही में वरूण गांधी के द्वारा लिखा गया एक लेख कुछ अखबारों की सुर्खियां बना हुआ है। वरूण गांधी वैसे तो लाईम लाईट से दूर रहने के आदि दिखते हैं, पर उनके द्वारा समय समय पर जिस तरह के विचार प्रकट किए जाते हैं, वे उनकी राजनैतिक सूझबूझ और शुचिता को दर्शाने के लिए पर्याप्त माने जा सकते हैं। वरूण गांधी में राजनैतिक सूझबूझ मानो कूट कूट कर भरी हुई है, जरूरत है तो जिम्मेदारी देकर उसे निखारने की।
वरूण गांधी लिखते हैं कि संसद में लगभग 15 लाख लोगों का जनादेश पाकर एक सांसद जब संसद पहुंचता है तो उस पर जिम्मेदारियों का बोझ होता है। उन्होने कहा कि लंबे समय से देखा जा रहा है कि लोकसभा से लेकर हर सूबे के विधानसभा परिसर सत्ताधारी पार्टी के मुख्यालय में बदल जाते हैं। वे लिखते हैं कि संवैधानिक मूल्यों की रक्षा का वचन लेकर कुर्सी ग्रहण करने के बाद सांसद और विधायक व्हिप-वचन को निभाने के लिए ऐसे मजबूर होते हैं कि पार्टी के थोपे विचार को बदलने से डरते हैं। व्हिप के विरोध में पार्टी छोड़ कर किसी दूसरी जगह जाएंगे तो दल-बदल कानून का डर सामने आता है।
वरूण गांधी ने बहुत साफगोई के साथ लिखा है कि सदन में बहस के बजाए कमोबेश गणेश परिक्रमा को ही तवज्जो दी जाती है। पार्टी व्हिप के खिलाफ जाने पर पर जनप्रतिनिधि अपनी सीट खो भी सकता है। सांसदों के द्वारा केवल व्हिप द्वारा रेखांकित किए गए बटन को दबाया जाता है, वे कहते हैं कि पार्टी प्रणाली एक सांसद के रूप में उनके रूख को तय करने का काम करती है। सांसद वरूण गांधी ने यहां तक कहा कि देश में 543 सांसदों में से 250 से ज्यादा सांसद ऐसे हैं जो किसान होने का दावा करते तो हैं पर कृषि कानून के पेश होने के दौरान वे मौन रहे, क्यों!
वरूण गांधी के द्वारा अंग्रेजी के एक अखबार में लेख लिखा है जो मास यानी आम जनता तक भले ही न पहुंच पा रहा हो पर इसकी पहुंच उस आम जनता को दिशा देने वाले क्लास अर्थात विशिष्ट जनों की पहुंच तक तो आसानी से जा चुका है। भाजपा के नेता वरूण गांधी इसके पहले भी समय समय पर देश की व्यवस्थाओं पर सटीक टीका टिप्पणी की है। यह अलहदा बात है कि कांग्रेस के शासनकाल में उनकी आवाज को मीडिया ने बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी, और अब चूंकि वे धारा के विपरीत तैरने का प्रयास कर रहे हैं, इसलिए भी उनकी आवाज को बहुत ज्यादा गुंजायमान शायद नहीं किया जा रहा है।
देखा जाए तो वरूण गांधी ने व्हिप के बारे में जो कहा वह सही माना जा सकता है। होना यह चाहिए कि किसी मामले में कानून बनाए जाने पर उसे सदन में पेश किए जाने के पहले उसे पार्टी के सांसदों या विधायकों के समक्ष रखा जाना चाहिए। फिर चुने हुए प्रतिनिधियों की उस मामले में सकारात्मक व नकारात्मक राय के हिसाब से उसमें संशोधन कर उसका मसौदा बनाया जाना चाहिए। इस तरह अगर अफसरों के द्वारा तैयार किए गए मसौदे पर चुने हुए प्रतिनिधियों को व्हिप से बांधकर जबरन उसे पारित कराए जाने की कवायद की जाती है तो यह उचित नहीं माना जा सकता है।
वरूण गांधी के लेख को अगर आप बारीकी से पढ़ें तो पता चलता है कि उनके द्वारा दल बदल विरोधी कानून को किस तरह से हथियार बनाया जा रहा है, को रेखांकित करने का प्रयास किया है। चुने हुए जन प्रतिनिधि को यह डर लगातार ही सताता रहता है कि अगर वह पार्टी व्हिप के खिलाफ जाता है तो उसकी सदस्यता पर भी खतरा मण्डरा सकता है। इसलिए मन मारकर वह पार्टी लाईन पर चलने को तैयार हो जाता है।
हम सालों से एक बात कहते आ रहे हैं कि कोर्ठ भी सियासी पार्टी का कार्यकर्ता जब पैदा होता है तो वह भारत का नागरिक होता है, इस लिहाज से उसकी पहली निष्ठा राष्ट्र के पति होना चाहिए। उसके बाद जिस प्रदेश में, जिस जिले में वह जन्म लेता है या कर्मभूमि बनाता है उस जिले के प्रति उसकी निष्ठा होना चाहिए। अमूमन जिला स्तर पर भी यही देखा जाता है कि गलत कामों या नीतियों का विरोध आम कार्यकर्ता यह कहकर नहीं कर पाता है वह पार्टी लाईन से बंधा है। वह भूल जाता है कि उसके द्वारा किसी भी सियासी दल की सदस्यता लगभग 18 साल की आयु पूरी करने के बाद ही ली होगी, पर जिस जिले का निवासी है उस जिले के प्रति उसकी प्रतिबद्धताएं पहले हैं।सही है कि चुनावों में किए गए वायदों के कागज किसी भी छोटे से कस्बे की धूल के गुबार वाली सड़क से सदन तक पहुंचने वाली चमचमाती सड़क पर इस तरह उड़ते नजर आते हैं मानो किसी परचून की दुकान से खरीदी गई सामग्री में लिपटा कागज हो। हर बार जनता से लुभावने वायदे, फिर उन वायदों को भूल जाना . . ., कभी विपक्ष में रहने की दुहाई देना तो कभी पक्ष में रहने के बाद अपनी दीगर मजबूरियां गिनाना . . ., हमारा कहना तो यह है कि अगर इतनी ही मजबूरी है कि आप अपने क्षेत्र का विकास करने में अपने आप को सक्षम नहीं पा रहे हैं तो वरूण गांधी की तरह साफगोई से अपनी बात कहने का साहस तो करें, बताएं अपने मतदाताओं को कि उनके क्षेत्र के विकास में बाधक कौन बन रहा है!

माँ ही पहली शिक्षिका, पहला स्कूल

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि पांच साल से कम उम्र के बच्चे के लिए ये सबसे अच्छी उम्र होती है, क्योंकि वह इस उम्र में सबसे ज़्यादा सीखता है। एक बच्चा पांच साल से कम उम्र के घर पर ज़्यादातर समय बिताता है और इसलिए वह घर पर जो देखता है, उससे बहुत कुछ सीखता है। छत्रपति शिवाजी को उनकी माँ ने बचपन में नायकों की कई कहानियां सुनाईं और वो बड़े होकर कई लोगों के लिए नायक बने।

बच्चों का पहला स्कूल घर

घर पर ही एक बच्चा सबसे पहले समाजीकरण सीखता है। एक बच्चा पहले घर पर बहुत कुछ सीखता है। लेकिन आज, चूंकि अधिकांश माता-पिता कमाने वाले हैं, इसलिए वे अपने बच्चों के साथ गुणवत्तापूर्ण समय नहीं बिता पाते हैं। बच्चों को प्ले स्कूलों में भेजा जाता है और अक्सर उनके दादा-दादी द्वारा उनका पालन-पोषण किया जाता है। ये बच्चे उन लोगों की तुलना में नुकसान में हैं जो अपने माता-पिता के साथ क्वालिटी टाइम बिता सकते हैं।

ऐसा इसलिए है, क्योंकि एक बच्चा सीखता है कि क्या स्वीकार किया जाता है और क्या स्वीकार नहीं किया जाता है, क्या सही है और क्या नहीं? वो अपने परिवार के साथ पर्याप्त समय बिता सकते है, जिससे उनकी बॉन्डिंग मज़बूत होती है और वो बड़ा होकर एक आत्मविश्वासी व्यक्ति बनता है।

ऐसी कई कहानियां

हमारे रिश्तेदार के एक बच्चे को उसके दादा-दादी ने पाला है, क्योंकि उसके माता-पिता अमेरिका में अपनी नौकरी में व्यस्त हैं। वह बड़ा होकर एक जिद्दी, हीन भावना वाला बच्चा बन गया। आज भी घर प्रथम पाठशाला है और माँ प्रथम शिक्षिका। यहां तक कि एक बच्चे को अपने परिवार और विशेष रूप से माँ के साथ बिताने के लिए थोड़ा सा समय भी उसके प्रभावशाली दिमाग पर बहुत प्रभाव डालता है।

किसी ने ठीक ही कहा है कि “भगवान हर जगह नहीं हो सकते इसलिए उन्होंने माँ बनाई” तो जो व्यक्ति बच्चे को सबसे ज़्यादा प्यार करता है, वो हमेशा एक माँ होती है। बच्चे के लिए माँ का सबसे ज़्यादा स्नेह होता है। वो केवल माँ ही नहीं बल्कि बच्चे की पहली शिक्षिका भी होती है। वो बच्चे को जन्म से ही पढ़ाकर स्थायी प्रभाव डालती है। माँ की शिक्षा ईश्वरीय शिक्षा है।

ऐसी कई माताएं हैं, जिन्होंने अपने बच्चों के प्रति अपने निराले प्यार से अपने बच्चों को हीरो बना दिया है। हाल ही में खबर आई थी कि एक माँ ने अपनी बेटी को घर पर पढ़ाया और वह कभी स्कूल नहीं गई और अब उसे आईआईटी में एडमिशन के लिए बुलाया है।

माँ: फिर समाज में इतने मुद्दे क्यों?

पहले दिन से शुरू हुई माँ की शिक्षा और जीवन में माँ का आशीर्वाद होने तक चलते रहें, इसकी ज़रूरत नहीं है। माँ को शिक्षा प्रदान करने के लिए उच्च शिक्षित होना चाहिए। माताओं द्वारा प्रदान की जाने वाली मूल्य शिक्षा की कहीं भी बराबरी नहीं की जा सकती। अब सवाल यह उठता है कि अगर हर माँ अपने बच्चों को मूल्य आधारित शिक्षा प्रदान कर रही है तो समाज में इतने मुद्दे क्यों हैं? इसका उत्तर यह है कि और भी कई कारक हैं, जो किसी व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करते हैं और माँ की शिक्षा कभी भी बच्चे को गलत रास्ते पर नहीं लाती।

मैं यहां, यह कहना चाहूंगी कि एक माँ अपने बच्चे के चेहरे पर पहली मुस्कान देखती है और अपनी शिक्षा और आशीर्वाद से उसे स्थायी बना देती है। मातृत्व की कला बच्चों को जीने की कला सिखाना है। घर बच्चे के समग्र विकास के लिए पहला बिल्डिंग ब्लॉक है और माँ वास्तव में सबसे अद्भुत शिक्षक है।

आज बच्चों में दृष्टिकोण का अभाव

घर पर, शिक्षाविदों के अलावा, बच्चा अपनी माँ से प्यार, देखभाल, करुणा, सहानुभूति आदि जैसे नैतिक मूल्यों को सीखता है, जो स्वयं निस्वार्थ प्रेम और बलिदान की अवतार है। अपने माता-पिता के साथ बातचीत करके बच्चे के दैनिक अवलोकन के माध्यम से, वह एक दृष्टिकोण / व्यवहार विकसित करता है, जो जीवन के महत्वपूर्ण चरणों में उसकी सोच, जीने का तरीका, समझ और निर्णय लेने में मदद करता है।

आज फास्ट लाइफ के साथ तालमेल बिठाने के लिए माँ-बाप दोनों घर से बाहर काम करने में लगे हुए हैं। माताएं अपने बच्चों को सही समय नहीं दे पाती हैं। पहले तो यह बच्चों की रुचि की उपेक्षा करता हुआ प्रतीत होता है, लेकिन साथ ही यह अनुशासन सिखाता है, आत्म-प्रेरणा उत्पन्न करता है। बच्चों में लंबे समय तक उनके चरित्र निर्माण में मदद करता है। बच्चा पहले के चरण से बदलते परिवेश में समायोजन करना सीखता है। इससे बच्चे भी घर पर अकेले रहते हुए नवोन्मेषी गतिविधियों में शामिल हो रहे हैं।

बच्चा माँ की शिक्षा को महत्व देता है, अपने चरित्र निर्माण, सम्मान, प्यार और देखभाल को घर पर आकार देता है। माँ दुख में बच्चे की सांत्वना, दुख में आशा और कमज़ोरी में ताकत और उसके जीवन को आकार देने में सबसे अच्छी शिक्षक है इसलिए आज भी, यह सच है कि घर पर माँ पहले स्थान पर है और बच्चे के पालन-पोषण में पहली शिक्षक भी।

-प्रियंका सौरभ

मुद्रा स्फीति नामक राक्षस पर अंकुश लगाने हेतु भारतीय रिजर्व बैंक ने रेपो दर बढ़ाई

अभी हाल ही में दिनांक 04 मई 2022 को भारतीय रिजर्व बैंक ने रेपो दर में 40 अंकों की वृद्धि कर इसे 4 प्रतिशत से बढ़ा कर 4.40 प्रतिशत कर दिया है। रेपो दर में उक्त वृद्धि 45 महीनों पश्चात अर्थात अगस्त 2018 के बाद की गई है। इसके तुरंत अगले दिन अर्थात 5 मई 2022 को अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने भी ब्याज दर में 50 अंकों की वृद्धि (22 वर्षों में सबसे बड़ी वृद्धि) की घोषणा करते हुए इसे 1 प्रतिशत तक पहुंचा दिया। अमेरिका में पिछले दो माह के दौरान यह दूसरी बार ब्याज दर में वृद्धि की घोषणा की गई है। जबकि कई यूरोपीयन एवं अन्य विकसित एवं विकासशील देश पहिले ही ब्याज दरों में वृद्धि कर चुके हैं। आखिर क्यों पूरे विश्व में ब्याज दरें लगातार बढ़ाई जा रही हैं, इसे समझने का प्रयास करते हैं।

कोरोना महामारी के बाद से पूरे विश्व में मुद्रा स्फीति (महंगाई) बहुत तेजी से बढ़ने लगी है। अमेरिका एवं कई विकसित देशों में तो उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति 8.50 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है जो कि पिछले 40 वर्षों की अवधि में सबसे अधिक महंगाई की दर है। भारत में भी उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति 7 प्रतिशत के आस पास पहुंच  गई है एवं थोक मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति की दर 13 प्रतिशत के ऊपर निकल गई है। अमेरिका की PEW नामक अनुसंधान केंद्र ने विश्व के 46 देशों में मुद्रा स्फीति की दर पर एक सर्वेक्षण किया है एवं इसमें पाया है कि 39 देशों में वर्ष 2021 की तीसरी तिमाही में मुद्रा स्फीति की दर, कोरोना महामारी के पूर्व, वर्ष 2019 की तीसरी तिमाही में मुद्रा स्फीति की दर की तुलना में बहुत अधिक है।

सामान्य बोलचाल की भाषा में, मुद्रा स्फीति से आश्य वस्तुओं की कीमतों में हो रही वृद्धि से है। इसे कई तरह से आंका जाता है जैसे – थोक मूल्य सूचकांक आधारित; उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित; खाद्य पदार्थ आधारित; ग्रामीण श्रमिक की मजदूरी आधारित; इंधन की कीमत आधारित; आदि। मुद्रा स्फीति का आश्य मुद्रा की क्रय शक्ति में कमी होने से भी है, जिससे वस्तुओं के दामों में वृद्धि महसूस की जाती है।

मुद्रा स्फीति (महंगाई) एक ऐसा “राक्षस” है जो विशेष रूप से समाज के गरीब एवं निचले तबके तथा मध्यम वर्ग के लोगों को बहुत अधिक प्रभावित करता है। क्योंकि, इस वर्ग की आय, जो कि एक निश्चित सीमा में ही रहती है, का एक बहुत बड़ा भाग उनके खान-पान पर ही खर्च हो जाता है और यदि मुद्रा स्फीति की बढ़ती दर तेज बनी रहे तो इस वर्ग के खान-पान पर भी विपरीत प्रभाव पड़ने लगता है। अतः, मुद्रा स्फीति की दर को काबू में रखना देश की सरकार का प्रमुख कर्तव्य है। मुद्रा स्फीति की तेज बढ़ती दर, दीर्घकाल में देश के आर्थिक विकास की दर को भी धीमा कर देती है। इसी कारण से कई देशों में मौद्रिक नीति का मुख्य ध्येय ही मुद्रा स्फीति लक्ष्य पर आधारित कर दिया गया है।

वर्ष 2014 में केंद्र में माननीय श्री नरेन्द्र मोदी जी की सरकार के आने के बाद, देश की जनता को उच्च मुद्रा स्फीति की दर से निजात दिलाने के उद्देश्य से, केंद्र सरकार एवं भारतीय रिजर्व बैंक ने दिनांक 20 फरवरी 2015 को एक मौद्रिक नीति ढांचा करार पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के अंतर्गत यह तय किया गया था कि देश में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति की दर को जनवरी 2016 तक 6 प्रतिशत के नीचे तथा इसके बाद 4 प्रतिशत के नीचे (+/- 2 प्रतिशत के उतार चड़ाव के साथ) रखा जाएगा। उक्त समझौते के पूर्व, देश में मुद्रा स्फीति की वार्षिक औसत दर लगभग 10 प्रतिशत बनी हुई थी। उक्त समझौते के लागू होने के बाद से देश में, मुद्रा स्फीति की वार्षिक औसत दर लगभग 4/5 प्रतिशत के आसपास आ गई थी। अब तो मुद्रा स्फीति लक्ष्य की नीति को विश्व के 30 से अधिक देश लागू कर चुके है।

उक्त करार पर हस्ताक्षर करने के बाद से भारतीय रिजर्व बैंक सामान्यतः उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई दर के 6 प्रतिशत (टॉलरन्स रेट) के पास आते ही रेपो रेट (ब्याज दर) में वृद्धि के बारे में सोचना शुरू कर देता हैं क्योंकि इससे आम नागरिकों के हाथों में मुद्रा कम होने लगती है एवं उत्पादों की मांग कम होने से महंगाई पर अंकुश लगने लगता है। इसके ठीक विपरीत यदि देश में महंगाई दर नियंत्रण में बनी रहती है तो भारतीय रिजर्व बैंक ब्याज दरों में कमी करने लगता है ताकि आम नागरिकों के हाथों में मुद्रा की उपलब्धता बढ़े एवं देश के आर्थिक विकास को बल मिल सके। इस प्रकार देश में मुद्रा स्फीति की दर को भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में बदलाव कर नियंत्रित करने का प्रयास किया जाता है।

हाल ही के समय में वैश्विक स्तर पर मुद्रा स्फीति की दर के अचानक इतनी तेजी से बढ़ने के कारणों में कुछ विशेष कारण उत्तरदायी पाए गए हैं। मुद्रा स्फीति की दर में यह अचानक आई तेजी किसी सामान्य आर्थिक चक्र के बीच नहीं पाई गई है बल्कि यह असामान्य परिस्थितियों के बीच पाई गई है। अर्थात, कोरोना महामारी के बाद वैश्विक स्तर पर एक तो सप्लाई चैन में विभिन्न प्रकार के विघ्न पैदा हो गए हैं। दूसरे, कोरोना महामारी के चलते श्रमिकों की उपलब्धता में कमी हुई है। अमेरिका आदि देशों में तो श्रमिक उपलब्ध ही नहीं हो पा रहे हैं, इससे विनिर्माण के क्षेत्र की इकाईयों को पूरी क्षमता के साथ चलाने में समस्याएं आ रही हैं। तीसरे, विभिन्न देशों के बीच उत्पादों के आयात निर्यात में बहुत समस्याएं आ रहीं हैं। पानी के रास्ते जहाजों के माध्यम से भेजी जा रही वस्तुओं को एक देश से दूसरे देश में पहुंचने में (एक बंदरगाह से उत्पादों के पानी के जहाजों पर चढ़ाने से लेकर दूसरे बंदरगाह पर पाने के जहाजों से सामान उतारने के समय को शामिल करते हुए) पहिले जहां केवल 10/12 दिन लगते थे अब इसके लिए 20/25 दिन तक का समय लगने लगा है। कई बार तो पानी का जहाज बंदरगाह के बाहर 7 से 10 दिनों तक खड़ा रहता है क्योंकि श्रमिकों की अनुपलब्धता के कारण सामान उतारने की दृष्टि से उस जहाज का नम्बर ही नहीं आता। चौथे, कोरोना महामारी का प्रभाव कम होते ही विभिन्न उत्पादों की मांग अचानक तेजी से बढ़ी है जबकि इन उत्पादों को एक देश से दूसरे देश में पहुंचाने में ज्यादा समय लगने लगा है। अतः मांग एवं आपूर्ति में उत्पन्न हुई इस असमानता के कारण भी महंगाई की दर में वृद्धि हुई है।   

उक्त कारणों के साथ ही, चूंकि कोरोना महामारी के दौर में कई देशों ने आर्थिक चक्र को चलायमान बनाए रखने एवं गरीब एवं मध्यम वर्ग की आर्थिक मदद करने के उद्देश्य से बहुत अधिक मुद्रा सिस्टम में डाली थी जिससे सिस्टम में तरलता बढ़ी एवं वस्तुओं की मांग में तो वृद्धि हुई परंतु वस्तुओं की आपूर्ति समय पर नहीं हो सकी, इससे भी मुद्रा स्फीति की समस्या विकराल रूप धारण कर गई है। इसलिए अब वैश्विक स्तर पर विभिन्न केंद्रीय बैंक ब्याज दरों को बढ़ाकर आर्थिक चक्र में तरलता कम करते हुए वस्तुओं की मांग में कमी करने का प्रयास कर रहे हैं। भारतीय बैंकिंग सिस्टम में दिनांक 2 मई 2022 को 7.2 लाख करोड़ रुपए से अधिक की तरलता बनी हुई थी। इसलिए भारतीय रिजर्व बैंक ने आरक्षित नगदी निधि अनुपात में भी 50 अंको की वृद्धि करते हुए इसे 4.50 प्रतिशत कर दिया है। इस वृद्धि से भारतीय बैंकिंग सिस्टम में 87,000 करोड़ रुपए की तरलता कम हो जाएगी।

भारत के बहुत पुराने समय के इतिहास में महंगाई नामक शब्द का वर्णन ही नहीं मिलता है। क्योंकि ग्रामीण इलाकों में कुटीर उद्योगों के माध्यम से वस्तुओं का उत्पादन प्रचुर मात्रा में किया जाता था एवं वस्तुओं की आपूर्ति सदैव ही सुनिश्चित रखी जाती थी अतः मांग एवं आपूर्ति में असंतुलन पैदा ही नहीं होने दिया जाता था। बल्कि, शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि चूंकि वस्तुओं की उपलब्धता प्रचुर मात्रा में रहती थी अतः वस्तुओं के दाम कम होते रहते थे।

ब्याज दरों को बढ़ाकर कुछ समय के लिए तो मांग में कमी की जा सकती है। साथ ही, जब बाजार पूर्णतः प्रतिस्पर्धी के रूप में कार्य कर रहा हो तभी मौद्रिक नीति के माध्यम ब्याज दरों में परिवर्तन कर वस्तुओं की मांग को कम अथवा अधिक किया जा सकता है। परंतु, लम्बे समय के लिए यदि मुद्रा स्फीति पर नियंत्रण रखना हो तो वस्तुओं की उपलब्धता पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। अतः वैश्विक स्तर पर भारत की पुरातन आर्थिक नीतियों के माध्यम से महंगाई पर सफलतापूर्वक अंकुश लगाया जा सकता है।    

उन्मादी आंधी में सद्भाव की चिन्ता कौन करेगा?

  • ललित गर्ग –
    धार्मिक व साम्प्रदायिक भावना को धार देकर देश में भय, अशांति एवं अराजकता पैदा कर, वर्ग विशेष की सहिष्णुता को युगों से दबे रहने ही संज्ञा देकर, एक को दूसरे सम्प्रदाय के आमने-सामने कर देने का कुचक्र एक बार फिर फन उठा रहा है। यह साम्प्रदायिकता के आधार पर बंटवारे का प्रयास है और मकसद, वही सत्ता प्राप्त करना या सत्ताधारियों को कमजोर करना है। एक उत्सवी माहौल को खौफ और तनाव की स्थिति में तब्दील कर देने की सीख तो कोई धर्म दे ही नहीं सकता, लेकिन साम्प्रदायिक उन्माद को बढ़ाने में राजनीतिक पोषित असामाजिक तत्वों का तो हाथ रहता ही है, जोधपुर में कुछ सिरफिरे लोगों की खुराफात ने अधिसंख्य को ईद, अक्षय तृतीया और परशुराम जयंती की खुशियों से वंचित कर दिया। यकीनन, इसमें प्रशासनिक लापरवाही की बड़ी भूमिका है और राजस्थान सरकार इस अपयश से बच नहीं सकती। साम्प्रदायिकता फैलाने वाले ये लोग कांच के महल में बैठकर कैसे सुरक्षित रह सकते हैं? खुद भी अशांत एवं असुरक्षित एवं दूसरों के जीवन में भी डर एवं भय का निर्माण करते हैं। कब तक देश इन हालातो से झुलसता रहेगा।
    देश के अन्य भागों और राजस्थान का ही करौली शहर एक माह पहले सांप्रदायिक दंगे की चपेट में था। फिर रामनवमी शोभायात्रा के दौरान कुछ जगहों से दो समुदायों की आपसी झड़प की खबरें आई थीं, और अब कल की जोधपुर की वारदात बताती है कि राज्य प्रशासन पर्याप्त चौकस नहीं था। वह भी तब, जब राज्य सरकार इस तथ्य से बखूबी वाकिफ है कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर धार्मिक धु्रवीकरण में ऐसी वारदातें खाद-पानी का काम करेंगी। क्या राजस्थान में सत्ताधारी पार्टी इस तरह के धार्मिक धु्रवीकरण और हिंसा-अशांति को सत्ता तक दुबारा पहुंच का माध्यम मानने की भूल तो नहीं कर रही है? क्या सरकार की नाकामी की वजह से ऐसी घटनाएं हो रही हैं?
    इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अगर प्रांत का सर्वोच्च शासक एवं कानून-व्यवस्था सख्त हो, तो किसी भी तरह का उपद्रव फैलाना आसान नहीं होता। मगर पिछले कुछ दिनों में हुई घटनाओं को देखते हुए यही लगता है कि कुछ उपद्रवी तत्त्व बाकायदा रणनीति बना कर ऐसी घटनाओं को अंजाम देते हैं। कुछ मामलों में उनकी पहचान भी हो चुकी है। सरकार की मंशा होती तो वह इन घटनाओं को रोक सकती थी। राजस्थान सरकार धार्मिक मामलों के प्रबंधन में उत्तर प्रदेश से सीख सकती है। पिछले कुछ महीनों में प्रशासनिक सख्ती और सामुदायिक सामंजस्य का जैसा उदाहरण इस प्रांत ने पेश किया है, वह अन्य राज्यों के लिए अनुकरणीय होना चाहिए। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रशासनिक अधिकारियों को सख्त आदेश दिया था कि ट्रैफिक रोककर कहीं कोई आयोजन न हो, और इसके लिए बाकायदा सभी धर्मों के धर्मगुरुओं से संपर्क करके व्यवस्था सुनिश्चित की जाए। यदि प्रशासन निष्पक्ष हो, पारदर्शी तो किसी समुदाय के पास शिकायत की गुंजाइश भी नहीं बचती। उत्तर प्रदेश सरकार ने लाउडस्पीकरों के इस्तेमाल को लेकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को जिस तरह से लागू कराया है, वह तो नजीर है। एक लाख से भी अधिक अनधिकृत लाउडस्पीकर व ध्वनि-विस्तारक यंत्र मंदिरों और मस्जिदों से इनके प्रबंधनों ने स्वतः एवं स्वैच्छा से उतारकर एक मिसाल पेश की है। यह शासक एवं प्रशासक की जागरूकता एवं प्रयासों से ही संभव हुआ है। मगर जिस तरह कुछ राज्य सरकारें और राजनीतिक शीर्ष नेतृत्व ऐसे उपद्रवी तत्त्वों को प्रोत्साहित करते या फिर उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने के बजाय चुप्पी साधे देखे गए, उससे ऐसे लोगों का मनोबल बढ़ता ही है और वहां साम्प्रदायिक द्वेष, नफरत एवं हिंसा का वातावरण उग्र होता ही है।
    भारतीय समाज विविधताओं से भरा है। यहां विभिन्न समुदाय अपनी आस्था और रुचि के अनुसार पूजा पद्धति, खानपान, पहनावा अपनाने को स्वतंत्र हैं। मगर इन दिनों इन्हीं को लेकर झगड़े अधिक देखे जा रहे हैं, कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि सत्ता से दूर होने या दूर रहने की बौखलाहट के कारण राजनेताओं ऐसे षड़यंत्र करते हैं। इस तरह सामाजिक समरसता भला कैसे सुरक्षित रहेगी? सरकारों का दायित्व है कि हर समुदाय की पहचान और उसके अधिकारों को सुरक्षित रखे। यह तभी हो सकता है, जब वे ऐसे उपद्रवी तत्त्वों को किसी भी तरह का ढुलमुल रवैया न अपनाएं, अपराधी तत्वों के खिलाफ सख्ती बरते। अगर इसी तरह समाज में उपद्रव, हिंसा और नफरत फैलाने वाली घटनाएं होती रहीं, तो यह किसी भी रूप में देश के लिए हितकर नहीं होगा।
    लोकतंत्र की कामयाबी भी इसी में है कि लोक राज करे, और तंत्र सिर्फ सहायक की भूमिका में हो। लेकिन यह आदर्श स्थिति तभी पैदा हो सकती है, जब सत्तारूढ़ नेतृत्वों को लेकर सभी समुदायों में यह भरोसा हो कि वे किसी भी गैर-कानूनी, असामाजिक गतिविधि को बर्दाश्त करने वाले नहीं हैं। यह विडम्बना ही है या राजनीतिक दुराग्रह कि पिछले कुछ दशकों में हमारे समूचे राजनीतिक वर्ग ने इस मामले में ज्यादातर निराश ही किया है। देश में सांप्रदायिक हिंसा की बढ़ी घटनाएं इसी तथ्य की साक्षी बन रही हैं। ऐसे में, उत्तर प्रदेश यदि सांप्रदायिक सौहार्द की नई इबारत लिख सका, तो यह उसकी आर्थिक-सामाजिक तरक्की के साथ-साथ देश के लिए भी काफी सुखद होगा। राजस्थान सरकार को इससे प्रेरणा लेते हुए प्रांत में साम्प्रदायिक सौहार्द का वातावरण बनाना चाहिए।
    मानव की विकास-यात्रा ही भौतिक विकास यात्रा हो सकती है। मानव की विकास यात्रा का अर्थ है दूसरे के दर्द में टीस पैदा होना एवं दूसरे के आनन्द में पुलक का जन्म होना। इसी से एक नया तत्व जुड़ जाता है संवेदनशीलता का। उसी से साम्प्रदायिक सौहार्द, वसुधैव कुटुम्बकम का भाव पनपता है। जिस वक्त देश के कुछ प्रांतों में सांप्रदायिक उन्माद पैदा करने की कोशिश की जा रही है, ठीक उसी दौर में धार्मिक भाईचारे की पुलक पैदा करने वाली खबरें भी सुर्खियां बन रही हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते होंगे, जब बिहार में एक मुस्लिम परिवार द्वारा राम मंदिर के लिए करोड़ों की जमीन दान करने के समाचार ने सबका ध्यान खींचा था, और अभी चंद रोज पहले उत्तराखंड के काशीपुर में दो हिंदू बहनों ने चार बीघा जमीन ईदगाह को दान कर दी है। इसी ताने-बाने को सहेजने की दरकार है। भारत की छवि को दुनिया भर में धूमिल करने वाली घटनाओं को लेकर सरकारों को ही नहीं, समाज निर्माताओं को भी सावधान रहना होगा। आज इंसान से इंसान से जोड़ने वाले तत्व कम है, तोड़ने वाले अधिक है। इसी से आदमी आदमी से दूर हट गया है। उन्हें जोड़ने के लिये प्रेम चाहिए, करुणा चाहिए, भाईचारा चाहिए, एक दूसरे को समझने की वृत्ति चाहिए। ये सब मानवीय गुण आज राजनीतिक स्वार्थों एवं साम्प्रदायिक आग्रहों के कारण तिरोहित हो गये हैं और इसी के कारण आदमी आदमी के बीच चौड़ी खाई पैदा हो गयी है। भारतीय संस्कृति ने सारी वसुधा को अपना कुटुम्ब माना है, उसके इस सोच को कुंद करने वाली दूषित राजनीति एवं साम्प्रदायिक शक्तियों को निस्तेज करना होगा, उसके लिये व्यापक प्रेम की वृत्ति एवं हृदय की विशालता आवश्यक है। अब कोई भी अकेला सुखी नहीं रह सकता, उसे भारत रूपी विभिन्न जाति, धर्म, भाषा, वर्ग के परिवार की कल्पना और रचना को सुदृढ़ता देनी ही होगी, तभी अशांति दूर होती, तभी साम्प्रदायिक हिंसा की काली रात के बाद उजली भोर होगी।