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भारत की गुलामी का कारण क्षत्रिय के सिवा सभी थे रणछोड़

—विनय कुमार विनायक
भारत में वर्ण व्यवस्था बंद घेरा,
बंद घेरे से निकल पाने में फेरा!
वर्ण और वर्ग में बहुत हीं अंतर,
वर्ग में वर्ग परिवर्तन के अवसर!

आज का गरीब कल होता अमीर
अमीरी गरीबी में बदलाव निरंतर!
प्रयत्न कर्म सश्रम के बलबूते पर,
वर्ग बदलना,नहीं भाग्य पे निर्भर!

वर्ण में कोई बदलाव चुनाव नहीं,
वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य, शूद्र जैसे चार बंद घेरे बने
एक घर से दूजे में जाना मनाही!

शूद्र को बताए गए तुम शूद्र हो
पिछले जन्म के पापकर्म से ही,
तुम ब्राह्मण में जन्म ले सकते
इस जन्म में पुण्य कर्म कर के!

भंगी का भाग्य भंग हो गया है,
शूद्र को शुद्ध कर दिया गया है,
भंगी भाग नहीं सकते भाग्य से
शूद्र मिल नहीं सकते द्विज से!

भारत में भाग्यवाद का चलन है,
भारत में जातिवाद का जलन है,
भंगी को भांग पिला दिया गया,
शूद्र के मन में जहर भरा गया!

तुम पूर्व जन्म के पाप कर्म से,
तुम पापयोनि में जन्म लिए हो
कर्म करो अच्छा, इस जन्म में
अगले जन्म में ब्राह्मण बनोगे!

भारत में ब्राह्मण बनने की होड़,
बांकी तीन वर्णो में नहीं गठजोड़,
भारत की गुलामी का कारण था,
क्षत्रिय के सिवा सभी थे रणछोड़!

ब्राह्मण विराट पुरुष के सिर थे
धड़ से अलग थलग दूर पड़े थे,
क्षत्रिय सीमा पर अकेले लड़े थे
पचहत्तर प्रतिशत बेदम खड़े थे!
—विनय कुमार विनायक

भारत बन रहा है दुनिया का फार्मेसी हब

पिछले 8 वर्षों के दौरान भारत के ड्रग्स एवं फार्मा उत्पाद के निर्यात में 103 प्रतिशत की आकर्षक वृद्धि दर अर्जित की गई है। ड्रग्स एवं फार्मा उत्पाद के निर्यात वर्ष 2013-14 में 90,414 करोड़ रुपए के रहे थे जो 2021-22 में बढ़कर 1.83 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गए हैं। भारत अब औषधियों के उत्पादन के क्षेत्र में विश्व में प्रमुख भूमिका निभा रहा है और इस क्षेत्र में विश्व का लीडर बनने की राह पर चल पड़ा है। आकार के मामले में भारतीय दवा उद्योग विश्व स्तर पर आज तीसरे स्थान पर है। भारत में वर्ष 2019-2020 में औषधियों का कुल वार्षिक कारोबार 289,998 करोड़ रुपये का रहा था। विश्व में उपयोग होने वाली जेनेरिक दवाईयों का 20 प्रतिशत भाग भारत निर्यात करता है। भारत में औषधि निर्माण के लिए 10,500 से अधिक औद्योगिक केंद्रों का मजबूत नेटवर्क है तथा 3,000 से अधिक फार्मा कम्पनियां भारत में औषधियों का निर्माण कर रही हैं। पूरे विश्व में सबसे बड़ा वैक्सीन उत्पादक देश भी भारत ही है। टीकों की कुल वैश्विक मांग के 62 प्रतिशत भाग की आपूर्ति भारत ही करता है। जेनेरिक दवाओं और कम लागत वाले टीकों के लिए आज भारत का नाम पूरे विश्व में बड़े विश्वास एवं आदर के साथ लिया जा रहा है। भारतीय औषधि उद्योग की आज पूरे विश्व में धमक दिखाई दे रही है एवं भारत दुनिया का फार्मेसी हब बनने की अपने कदम बढ़ा चुका है।

पिछले 9 वर्षों के दौरान भारतीय औषधीय क्षेत्र में 9.43 प्रतिशत की चक्रवृद्धि वृद्धि (सीएजीआर) दर हासिल की गई है। भारत आज पूरे विश्व में जेनेरिक दवाओं का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता देश बन गया है। भारत 60 चिकित्सीय श्रेणियों में लगभग 60,000 जेनेरिक दवाओं का निर्माण करता है। भारतीय औषधीय उद्योग ने कोविड महामारी का मुकाबला करने में भी वैश्विक स्तर पर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कोविड महामारी के काल में भारत ने 120 देशों को हाईड्रोक्सीक्लोरोक्वीन नामक दवाई उपलब्ध कराई थी तथा 20 से अधिक देशों को पैरासिटामोल भी पर्याप्त मात्रा में निर्यात की थी। 100 से अधिक देशों को भारतीय वेक्सीन के 6.50 करोड़ डोज भी उपलब्ध कराए गए हैं। फार्मास्यूटिकल के क्षेत्र में भारत आज विश्व का पावर हाउस बन गया है। हाल ही में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री श्री बोरिस जोनसन ने अपनी भारत यात्रा के दौरान बताया था कि कोरोना से बचाव के लिए उन्होंने जो टीका लगवाया था वह भारतीय टीका ही था। भारत के लिए यह गौरव करने वाली बात है कि अन्य विकसित देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी उनके अपने यहां उत्पादित टीकों के स्थान पर भारत में निर्मित टीकों पर अधिक विश्वास कर रहे हैं। इस प्रकार भारत में निर्मित हो रही औषधियों पर पूरे विश्व का विश्वास दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। एक अनुमान के अनुसार भारतीय फार्मा उद्योग का आकार वर्ष 2024 तक 6000 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो जाएगा। वर्ष 2014 से आज तक भारतीय फार्मा उद्योग में 1200 करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भी किया गया है।

भारत जेनेरिक दवाओं के उत्पादन के मामले में विश्व में काफी आगे है। दरअसल जेनेरिक दवाओं की ब्रांडेड संरचना ब्रांडेड दवाओं के अनुसार ही होती है। लेकिन वो रासायनिक नामों से ही बेची जाती है ताकि जनता को कोई उलझन न रहे। क्रोसिन और कालपोल, ब्रांडेड दवाओं के वर्ग में आती है जबकि जेनेरिक दवाओं में इनका नाम पैरासिटामाल है। जब कोई कम्पनी कई सालों की रिसर्च के बाद किसी दवा की खोज करती है तो उस कम्पनी को उस दवा के लिये पेटेंट मिलता है जिसकी अवधि 10 से 20 वर्ष की रहती है। पेटेंट अवधि के दौरान केवल वही कम्पनी इस दवा का निर्माण कर बेच सकती है, जिसने इस दवा की खोज की है। जब दवा के पेटेंट की अवधि समाप्त हो जाती है तब उस दवा को जेनेरिक दवा कहा जाता है। यानि, पेटेंट की अवधि समाप्त होने के बाद कई अन्य कम्पनियां उस दवा का निर्माण कर सकती हैं। परन्तु इस दवा का नाम और कीमत अलग-अलग रहता है। ऐसी स्थिति में दवा जेनेरिक दवा मानी जाती है। भारतीय बाजार में केवल 9 प्रतिशत दवाएं ही पेटेंटेड श्रेणी की है और 70 प्रतिशत से अधिक दवाएं जेनेरिक श्रेणी की है।

जेनेरिक दवाएं सबसे पहिले भारतीय कम्पनीयां ही बनाती हैं एवं अमेरिका एवं यूरोपीयन बाजार को भी सबसे सस्ती जेनेरिक दवाएं भारतीय कम्पनियां ही उपलब्ध कराती हैं। चीन के मुकाबले भारतीय जेनेरिक दवाएं ज्यादा गुणवत्ता वाली मानी जाती हैं और कीमत में भी सस्ती होती हैं। जेनेरिक दवाएं ब्रान्डेड दवाओं की तुलना में बहुत सस्ती होती हैं, इसीलिये केन्द्र सरकार ने जेनेरिक दवाओं को सस्ते मुल्यों पर उपलब्ध कराने हेतु भारत में जन औषधि केन्द्रों की स्थापना की है। इन केन्द्रों पर 600 से ज्यादा जेनेरिक दवाईयां सस्ते दामों पर मिलती हैं एवं 150 से ज्यादा सर्जीकल सामान भी सस्ती दरों पर उपलब्ध है।

दुनिया भर में भारतीय जेनेरिक दवाओं पर विश्वास बढा है और ये देश अब भारत से ज्यादा से ज्यादा आयात करने लगे हैं। अमेरिकी बाजार के जेनेरिक दवाओं में भारत की हिस्सेदारी सबसे अधिक है। यूएसएफडीए के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2017-18 में दुनिया भर के 323 दवाईयों की टेस्टिंग की गई थी। इस टेस्टिंग में भारत की सभी दवाएं पास हुई थीं। इसके साथ ही, भारत में उत्पादन इकाईयों के मानकों को सही ठहराते हुए अमेरिकी एफडीए ने भारत की ज्यादातर उत्पादक इकाईयों को अमेरिका मे निर्यात की अनुमति दे दी है। इससे जेनेरिक दवाइओं के बाजार में भारतीय कम्पनियों का दबदबा लगातार बढ रहा है।

इस प्रकार कुल मिलाकर औषधियों के निर्माण एवं निर्यात के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियां बहुत प्रशंसनीय एवं उत्साहवर्धक रही है। आगे आने वाले 10 वर्षों में दौरान लगभग 15 ऐसी बड़ी औषधियां हैं जो वैश्विक स्तर पर पैटेंट के दायरे से बाहर हो जाएंगी। इनके व्यापार की कुल मात्रा लगभग 7.50 लाख करोड़ रुपए के आसपास है अर्थात लगभग 10,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर। इन औषधियों के जेनेरिक श्रेणी में आने के बाद भारत वैश्विक स्तर पर इतनी बड़ी मात्रा में आने वाली मांग को किस प्रकार पूरा कर पाएगा, इस बात पर अभी से विचार किया जाना आवश्यक है। इसके लिए जो दो महत्वपूर्ण चुनौतियां आने वाली है उनमें एक इन दवाईयों का निर्माण करने हेतु कच्चे माल (एपीआई) की उपलब्धता सुनिश्चित करना। आज भारत 70 प्रतिशत से अधिक एपीआई का चीन से आयात करता है। हम एपीआई के आयात के लिए चीन पर बहुत अधिक निर्भर हैं। हमें भारत में ही एपीआई का उत्पादन बढ़ा कर चीन पर अपनी निर्भरता शीघ्रता से कम करनी चाहिए। दूसरे, औषधियों के आयात निर्यात के मामले में सप्लाई चैन पर आवश्यकता से अधिक निर्भरता भी कई बार भारी परेशानियों का कारण बन सकती है। कच्चे माल की उपलब्धता एवं सप्लाई चैन के क्षेत्र में आने वाली अड़चनों के चलते तो भारत में औषधियों का उत्पादन करने वाली इकाईयों को ही बंद करना पड़ सकता है। एक ऐपेरेन नामक औषधि है जिसके बिना सर्जरी सम्भव नहीं हो पाती है। इस औषधि का भी भारत में बड़ी मात्रा में आयात किया जाता है। अतः न केवल दवाईयों के निर्माण में काम आने वाले कच्चे माल एवं कुछ महत्वपूर्ण औषधियों के लिए आयात पर निर्भरता एवं सप्लाई चैन पर निर्भरता कम की जानी चाहिए। उक्त विषयों पर अब गम्भीरता से विचार करने का समय आ गया है अन्यथा हमारी औषधि निर्माण के क्षेत्र में जो प्रगति हो रही है उस पर कहीं आंच न आने लगे। तीसरे, भारत के फार्मा क्षेत्र में स्टार्ट-अप की भूमिका को बढ़ाने पर भी विचार किया जाना आवश्यक है क्योंकि इस क्षेत्र में स्टार्ट-अप का योगदान अभी उच्च स्तर पर नहीं आ पाया है। चौथे, भारत को अब नई नई दवाईयों के अनुसंधान एवं विकास पर भी अधिक ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। साथ ही नई दवाईयों के पैटेंट प्राप्त करने की ओर भी अपना ध्यान देना अब जरूरी हो गया है। क्योंकि भारत ने अभी तक औषधि निर्माण एवं निर्यात के क्षेत्र में जो भी उपलब्धियां हासिल की हैं वह अधिकतर जेनेरिक औषधियों के मामले में ही हासिल की हैं। हालांकि यह सही है कि उच्च गुणवत्ता वाली जेनेरिक औषधियों को तुलनात्मक रूप से बहुत सस्ती दरों पर पूरे विश्व को उपलब्ध कराने में भारत सफल भी रहा है। अमेरिका, जापान और सारे यूरोपीयन देशों में भारत में उत्पादित औषधियों की आज भारी मांग है। अमेरिका में तो आज 28 से 30 प्रतिशत भारत में निर्मित दवाईयां ही बिकती हैं। बिना उच्च गुणवत्ता केंद्रित दवाईयों को इन विकसित देशों में बेच पाना सम्भव ही नहीं हैं। आज भारत में निर्मित दवाईयों पर विकसित देशों का सबसे अधिक विश्वास स्थापित हो गया है।

नई दवाईयों की रिसर्च के बाद इनके निर्माण में भारत की भागीदारी बहुत कम है। नई रिसर्च के साथ नई दवाई को बाजार तक लाने के लिए 3 से 4 करोड़ अमेरिकी डॉलर तक की राशि खर्च करनी होती हैं फिर भी जरूरी नहीं कि उक्त नई दवाई बाजार में सफल हो ही जाए। अतः भारत में कम्पनियां इतनी बड़ी राशि का नई रिसर्च पर निवेश करने के लिए तैयार ही नहीं होती है। परंतु फिर भी इस ओर सरकार अपना पूरा ध्यान केंद्रित करने का प्रयास कर रही है। हाल ही में भारत सरकार ने उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना को भी लागू किया है, इस योजना में फार्मा उद्योग को भी शामिल किया गया है। इस योजना का लाभ उठाने की दृष्टि से भी कई बड़ी कम्पनियां नई औषधियों का भारत में उत्पादन करने हेतु नई औद्योगिक इकाईयों की स्थापना के लिए प्रेरित होंगी।

प्रहलाद सबनानी

प्रवासी भारतीय क्रांतिकारियों का स्वतन्त्रता संग्राम में योगदान

   " जो भरा नहीं है भावों से , बहती जिसमें रसधार नहीं ।
     वो हृदय नहीं है पत्थर है , जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं ।।"
                      विदेश में रहते हुए भी देशभक्ति की अन्त:सलिला जिन के हृदयों में निरन्तर प्रवाहित होती रही , पराधीनता का भाव जिनके मन को प्रतिक्षण कचोटता रहा , जो स्वदेश को स्वतंत्र कराने की समस्या से सतत जूझते रहे , जिन्होंने अन्तत: अपने जीवन को देश के लिये बलिदान कर  दिया - उन्हीं प्रवासी भारतीय सेनानियों  को हम आज स्मरण कर रहे हैं । मातृभूमि  आज भी उनके प्रति श्रद्धापूर्वक अपनी कृतज्ञता प्रगट करती है ।
सैन फ़्रांसिस्को ( अमेरिका ) में ग़दर मेमोरियल हॉल -
 ग़दर पार्टी और  ग़दर मैमोरियल हॉल ने भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम में एक यादगार भूमिका निभाई है । ग़दर मैमोरियल भवन का लम्बा इतिहास है । २३ अप्रैल , १९१३ ई. को एस्टोरिया ओरेगॉन  में - कैलिफ़ोर्निया , कनाडा और ओरेगॉन के कुछभारतीय प्रतिनिधियों ने  " हिन्दी एसोसिएशन ऑफ़ द पैसिफ़िक कोस्ट ऑफ़ अमेरिका " की नींव डालने पर विचार किया । इसका मुख्य कार्यालय सैन फ़्रांसिस्को को चुना । सर्वप्रथम " युगान्तर आश्रम " के नाम से ४३६ हिल स्ट्रीट , सैन फ़्रांसिस्को में भवन बना -जिसकी प्रेरणा कलकत्ता से निकलने वाली क्रांतिकारी पत्रिका " युगान्तर " से मिली थी । यहीं से प्रवासी भारतीयों ने क्रांति की मशाल  जलाई थी और  " ग़दर " नाम से एक साप्ताहिक पत्रिका को आंदोलन के प्रचार एवं प्रसार का माध्यम बनाया गया । कुछ वर्षों बाद ही यहाँ ५ वुड स्ट्रीट  में स्थायी भवन का निर्माण कराया गया ।
          लाला हरदयाल  , जो सन् १९१२ में  स्टैनफ़र्ड  यूनिवर्सिटी में दर्शन शास्त्र के प्रोफ़ेसर थे, उन्होंने बर्कले यूनिवर्सिटी के छात्रों को संबोधित किया । वहाँ उन्होंने भारतीय छात्रों को - ब्रिटिश साम्राज्य से अपने देश को मुक्त कराने के लिये क्रांति का आह्वान किया।  स्वतन्त्रता-सेनानी  बनने को ललकारा । उनके साथ जुड़कर कतिपय भारतीय छात्रों ने  " नालंदा-छात्रावास " की स्थापना की  थी । इनमें एक  थे - करतार सिंह सराभा , जो सन् १९१२ में  उच्चशिक्षा हेतु  कैलिफ़ोर्निया  आए थे । लाला हरदयाल को,उनके क्रांतिकारी विचारों  के लिये , २५ मार्च १९१४ को हिरासत में ले लिया गया। ज़मानत पर छूटने  पर वे स्विट्ज़रलैंड चले गए और वहीं से क्रांति की मशाल जलाते रहे । प्रथम महायुद्ध के समय  - करतार सिंह सराभा , बाबा सोहन सिंह , लाला हरदयाल और रामचन्द्र  आदि ने  एक दीन , एक धर्म होकर, " वन्दे मातरम् " का नारा उठाया था । उन्होंने देशभक्ति के गीतों से जन जन में जोश भर दिया । इसकी एक झलक देखिये  -
               " मुसल्माँ हैं कि हिन्दू , सिक्ख हैं या किरानी हैं ।
                 देश के जितने निवासी हैं , सब हिन्दुस्तानी हैं।।
                                  इधर हमको शिकायत है,भरपेट रोटी न मिलने की ।
                                                    उधर इंग्लैंड वाले ऐश जादवानी हैं ।।
                कोई नामो निशाँ पूछे, तो। ग़दरी उनसे कह देना ।
                वतन हिन्दोस्ताँ अपना , कि हम हिन्दोस्तानी हैं ।।"
                                                     - करतार सिंह सराभा 
साहसी स्वतंत्रता-सेनानी करतार सिंह सराभा केवल १५ वर्ष की अल्पायु में ही देश के लिये  समर्पित हो गए थे । उन्होंने     क्रांतिकारियों से मिलकर   पंजाब के युवकों को  क्रांति हेतु उकसाया था । करतार सिंह  सराभा १९ वर्षीय आयु में १६ नवंबर, १९१६ को फाँसी पर चढ़कर शहीद हो गए थे । शहीदे आज़म भगतसिंह  ने  भी उनसे प्रेरणा पाकर , उनके अधूरे काम को पूरा करने का संकल्प लिया था ।  कैलिफ़ोर्निया प्रांत के  स्टॉक्टन नगर में स्थित  गुरुद्वारे में भी अनेक स्वतन्त्रता सेनानियों के बृहदाकार  चित्र लगे हैं , जिन्होंने  आज़ादी  के इस यज्ञ में अपने जीवन की आहुति  दे दी थी ।
          अब  " ग़दर हॉल " के संग्रहालय , पुस्तकालय , स्वतन्त्रता-सेनानियों के चित्र , ग़दर-पार्टी के काग़ज़ात , फ़ाइलें  और ग़दर के गीतों की गूँजें हैं । भारत सरकार  एवं स्थानीय भारतीयों ने मिलकर इस स्मारकों बनाया है ।  इस नये भवन के शिलान्यास के लिये  सन् १९७४ में  भारत सरकार के विदेश मंत्री सरदार स्वर्ण सिंह यहाँ आए थे । इसके उपरान्त सन् १९७५ में भारतीय राजदूत श्री टी.एन.कॉल ने इसका उद्घाटन किया था ।  आजकल भारतीय कॉन्सुलेट , सैन फ़्रांसिस्को की ओर से होने वाले सभी उत्सव भी इसी भवन में मनाए जाते हैं । स्वतन्त्रता-दिवस , गणतन्त्र-दिवस और हिन्दी-दिवस आदि  समारोह यहीं पर धूमधाम से मनाए जाते हैं।
           विदेशों में अन्यत्र भी प्रवासी भारतीयों ने आगे बढ़कर बड़े उत्साह एवं साहस से क्रांतिकारी क़दम उठाए थे । लंदन  से  क्रांति का बिगुल बजाया था - श्री श्याम जी कृष्ण वर्मा ने । श्री रासबिहारी बोस ने जापान में , नेताजी सुभाष बोस ने  सिंगापुर  में , जर्मनी में मैडम भीकाजी कामा ने  इस मशाल को जलाए रक्खा । इंग्लैंड में साम्राज्यवाद  के प्रतीक सर कर्ज़न वायली को सरेआम गोली मार कर वीर मदनलाल ढींगरा ने इस आज़ादी के आन्दोलन का विश्व भर में सिर ऊँचा कर दिया था ।  दंडस्वरूप  उनको  वहाँ १८ अगस्त सन् १९०९ को फाँसी दे दी गई थी । बर्लिन में राजा महेन्द्रप्रताप सिंह सक्रिय रहे थे । 

बर्लिन-समिति ” के माध्यम से वे क्रांतिकारियों की सहायता करते रहे । मैक्सिको में श्री मानवेन्द्रनाथ राय प्रयत्नशील रहे । श्री रिषिकेश लट्टा भी लाला हरदयाल के सहयोगी रहे थे , जो ” ग़दर-पार्टी ” के संस्थापक सदस्य थे । उनके भारत आने पर रोक लगी हुई थी । सन् १९३० में ईरान में उनका स्वर्गवास हो गया ।
इस प्रकार विदेशों में रहते हुए भी अनेकों भारतीयों ने भारत को ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति दिलाने के संघर्ष में अनेकों यातनाएँ सहते हुए स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर अपने प्राण निछावर कर दिये थे । इस स्वातन्त्र्य – पर्व पर उन सभी वीर क्रांतिकारियों को हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि समर्पित है , जो नींव के पत्थर बने , जिनके बलिदानों ने हमें स्वतन्त्र-भारत में साँस लेने का अवसर दिया । महाकवि श्री गुलाब खण्डेलवाल जी के शब्द मुझे उनके लिये उपयुक्त लगते हैं –
” गन्ध बनकर हवा में बिखर जाएँ हम ,
ओस बनकर पँखुरियों से झर जाएँ हम ,
तू न देखे हमें बाग़ में भी तो क्या ,
तेरा आँगन तो ख़ुशबू से भर जाएँ हम ।।
-०-०-०-०-०-
– प्रो. शकुन्तला बहादुर

सूचना प्रसारण मंत्रालय ने दी खबरिया चेनल्स को चेतावनी, यू ट्यूब चेनल्स के लिए भी बनाए जाएं कायदे

लिमटी खरे

कहा जाता है कि किसी भी परंपरा में बदलाव अवश्ंभावी हैं, पर उसके मूल सिद्धांतों, मान्य परंपराओं को कभी भी तजना नहीं चाहिए। आज हम बात कर रहे हैं खबरिया चेनल्स की। खबरिया चेनल्स में जिस तरह चीख चीख कर अपनी बात कहने और लगभग दांत पीसते हुए किसी की बात काटने आदि के मामले हम लगातार ही देखते आए हैं। खबरों को मसालेदार, चटपटा और सनसनीखेज बनाने के चक्कर में एंकर्स के द्वारा जिस तरह की भाव भंगिमाएं अपनाई जाती हैं, वह पत्रकारिता की मान्य परंपराओं और सिद्धांतों के हिसाब से पूरी तरह गलत ही माना जा सकता है।

इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में खबरिया चेनल्स का बोलबाला रहा है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। शुरूआती दौर में खबरिया चेनल्स अपनी मर्यादाओं को पहचानते थे। झूठी खबरों से बचा करते थे। रसूखदारों और सियासतदारों के सामने घुटने नहीं टेका करते थे, पर इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के आगाज के साथ ही सब कुछ बदलता सा दिखने लगा। संपादक इस तरह नजर आने लगे मानो वे किसी कार्पोरेट सेक्टर की कंपनी के सीईओ हों और पत्रकार या एंकर्स उनके एक्जीक्यूटिव की भूमिका में नजर आने लगे। यहीं से पत्रकारिता का क्षरण आरंभ हुआ माना जा सकता है।

देश में घर बैठे प्रसारण देखने की शुरूआत सरकारी कंपनी दूरदर्शन के जरिए हुई जिसका पहला प्रसारण 15 सितंबर 1959 में प्रयोग के तौर पर आधे घंटे के शैक्षणिक और विकास आधारित कार्यक्रमों के जरिए हुआ था। तब सप्ताह में महज तीन दिन ही आधे आधे घंटे के लिए दूरदर्शन पर प्रसारण हुआ करता था। इसे टेलिविजन इंडिया नाम दिया गया था। यह दिल्ली भर में देखा जा सकता था। बाद में 1965 में संपूर्ण दिल्ली में इसका प्रसारण हुआ और कार्यक्रम रोज प्रसारित होने लगे। 1972 में मुंबई एवं 1975 में कोलकता एवं चेन्नई में इसके प्रसारण की शुरूआत की गई। बाद में 1975 में इसका नाम बदलकर दूरदर्शन कर दिया गया।

देश में पहली बार 1965 में ही पांच मिनिट के समाचार बुलेटिन के साथ खबरों का भी इसमें नियमित शुमार किया गया था। 1982 में श्वेत श्याम के बाद रंगीन प्रसारण आरंभ हुआ। 1990 तक दूरदर्शन का एकाधिकार देश में हुआ करता था। उस दौर में कुछ कार्यक्रम इतने झिलाऊ और बोर करने वाले होते थे कि इसे बुद्धू बक्से के नाम से भी पुकारा जाने लगा था। 03 नवंबर 2003 को दूरदर्शन के द्वारा 24 घंटे चलने वाला पहला समाचार चेनल आरंभ किया था। इसके पहले दिसंबर 1999 में आज तक ने खबरिया दुनिया में कदम रखा और आज तक का जादू लोगों के सर चढ़कर बोलने लगा। 16 दिसंबर 2004 को डायरेक्ट टू होम अर्थात डीटीएच की सेवा आरंभ हुई और उसके बाद टीवी की आभासी दुनिया का अलग स्वरूप सामने आने लगा।

बहरहाल, यह तो था खबरिया चेनल के पदार्पण का ब्यौरा, अब हम बात करें खबरिया चेनल्स के आज के हालातों की तो हालात बहुत अच्छे नहीं कहे जा सकते हैं। खबरों को बहुत ज्यादा सनसनीखेज बनाने, टीआरपी बढ़ाने के लिए खबरिया चेनल्स के द्वारा पत्रकारिता के मान्य सिद्धांतों को भी दरकिनार कर दिया गया है। संपादक, एंकर्स, रिपोर्टर्स भी अब झूठी खबरें वह भी सीना ठोंककर परोसने से बाज नहीं आ रहे हैं। कुछ सालों में तो यह रिवाज सा बन गया है कि हमें जो भी दिखाना होगा हम दिखाएंगे, हमें किसी की परवाह नहीं! समाचार चेनल्स में डिबेट अगर आप देख लें तो शोर शराबे से ज्यादा इसमें कुछ नहीं दिखाई देता।

सियासी नफा नुकसान के लिए इस तरह की खबरें दिखाना उचित तो कतई नहीं माना जा सकता है किन्तु जब इस तरह की खबरों से सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़ता नजर आता है तो इस पर विचार करना जरूरी होता है। देखा जाए तो यह जवाबदेही पत्रकार संघों की है कि वे इस बारे में समय समय पर समाचार चेनल्स आदि को चेतावनी देते रहें। जब समाचार चेनल्स के प्रबंधन, पत्रकार संघों ने इस बारे में मौन साधा तो मजबूरन केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को आगे आकर टीवी चेनल्स को हदें पार करने पर चेतावनी देने पर मजबूर होना पड़ा। आईएण्डबी मिनिस्ट्री ने समाचार चेनल्स को कानूनी प्रावधानों में जिस कार्यक्रम संहिता का उल्लेख किया गया है उसका पालन करने के लिए निर्देशित भी किया है। और तो और मंत्रालय के द्वारा इस तरह के अनेक उदहारण भी प्रस्तुत किए गए हैं, जिनमें एंकर्स के सुरों में उन्माद और उत्तेजना नजर आती है, इनके शीर्षक सनसनी फैलाने के लिए पर्याप्त माने जा सकते हैं, इससे लोगों के मन में किसी के प्रति वितृष्णा के भाव भी आ सकते हैं।

अगर आप इसके संबंध में बनाए गए कानूनों का अध्ययन करते हैं तो उसमें स्पष्ट तौर पर इस बात का उल्लेख किया गया है कि कोई भी कार्यक्रम इस तरह के नहीं बनाए जाने चाहिए जो बेहतर अभिरूचि और भद्रता के खिलाफ हों। इन कार्यक्रमों में अश्लील, अपमानजनक, भड़काने वाली, झूठी, मिथ्या, गलत बातों का उल्लेख नहीं करने के निर्देश दिए गए हैं। यहां देखा जाए तो सवाल सिर्फ कानून के पालन का नहीं है। पत्रकारिता एक ऐसा पेशा है जो जवाबदेही, कर्तव्यपरायणता, नागरिकों को सही तथ्यों से आवगत कराना आदि मुख्य कार्य हैं। यह प्रजातंत्र का अघोषित चौथा स्तंभ भी माना जाता है।

हमारी नितांत निजि राय में एक पत्रकार को स्वयं खबर लिखते, पढ़ते या दिखाते समय इस बात का इल्म होना चाहिए कि वह खबर समाज पर क्या प्रभाव डाल सकती है। जिस तरह दो तीन दशक पहले तक फिल्मों को सउद्देश्य बनाया जाता था ताकि समाज में फिल्म देखने के बाद बेहतर संदेश जाए पर नब्बे के दशक के बाद इस तरह की फिल्में बनना बंद हो गईं, उसी तरह इक्कीसवीं सदी में पत्रकारिता भी अपने मूल उद्देश्यों से भटक चुकी है। आपकी खबर से सामाजिक सद्भाव न बिगड़ पाए, किसी से संबंध खराब न हों, राष्ट्रीय स्तर पर छवि का नुकसान न हो इन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए।

सूचना प्रसारण मंत्रालय ने दो टूक शब्दों में यह स्पष्ट किया है कि मामला चाहे युद्ध का हो या तनाव का, चेनल्स के द्वज्ञरा अगर अपुष्ट खबरें दिखाई जाती हैं तो यही माना जा सकता है कि उनके द्वारा दर्शकों को उकसाने या उन्माद फैलाने की गरज से जानबूझकर इस तरह का कृत्य किया है।

हमें यह लगने लगा है कि टीआरपी की भूख ने टीवी पत्रकारिता को रसातल की ओर अग्रसर कर दिया है। इस गिरावट को सिर्फ सरकारी नोटिस, भर्तसना, आलोचना आदि के जरिए शायद ही रोका जा सके। इसके लिए दर्शकों को गैर जिम्मेदाराना रवैया अख्तियार करने वाले चेनल्स से बाकायदा सवाल करना चाहिए। सूचना प्रसारण मंत्रालय को चाहिए कि इसके लिए ठीक उसी तरह समय निर्धारित किया जाना चाहिए जिस तरह अखबारों में पत्र संपादक के नाम कॉलम होता है। अगर चेनल्स इसे दिखाने से परहेज करते हैं तो सरकारी समाचार तंत्र को इन पत्रों को बाकायदा सार्वजनिक किया जाना चाहिए। इसके अलावा समाचार चेनल्स के आपत्तिजनक प्रसारण और आचरण पर सोशल मीडिया के विभिन्न मंच सहित परंपरागत मीडिया में इसकी चर्चा होना जरूरी है, जिससे पत्रकारिता का स्वर्ण युग वापस लौटने के मार्ग प्रशस्त हो सकें।

मजहबी शिक्षा पर कबूतर की तरह आँख मूँद लेना विनाशकारी है

– दिव्य अग्रवाल

मदरसों की भूमिका पर सदैव प्रश्न उठते रहे हैं। देश के अंदर व सीमा पर शिक्षा के नाम पर असंख्य मदरसे खुल चुके है। जिसमे अरबी व उर्दू भाषा का उपयोग होता है । सीमा पार से आने जाने में भी इन मदरसों का समुचित उपयोग होता है ।अरबी भाषा की शिक्षा होने पर जांच एजेंसियां भी समझ नहीं पाती की इन मदरसों में क्या वार्तालाप हो रही है । इसी कारण गैर इस्लामिक धर्मों के प्रति कितनी कट्टरता व विषपूर्ण शिक्षा इन मदरसों में दी जाती है । यह भी साधारण समाज समझ नहीं पाता है । मदरसों में विदेशी अरबी भाषा का प्रचलन क्यों है यह भी बड़ा प्रश्न है वर्ष २०१६ में कभी शिवसेना ने अपने मुख पत्र सामना के माध्यम से ब्रिटेन के नियमो व् अपने नागरिको की सुरक्षा हेतु लिए गए निर्णय का संज्ञान लेते हुए भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी से कहा था की जिस तरह ब्रिटेन यह मानता है, इस्लामिक चरमपंथी , अनपढ़ महिलाओ व् बच्चो को मजहबी भाषा की शिक्षा देकर इस्लामिक आतंकवाद को बढ़ावा दे सकते है । उसी प्रकार भारत को भी इस सम्बन्ध में कठोर निर्णय लेने होंगे पर आज यह भी आस्चर्यजनक है की हिन्दू राष्ट्र की राजनीति करने वाली शिव सेना के महराष्ट्र में पुलिस अधिकारी ईद मानते हुए मोमिनो को अपने हाथो से भोजन फल आदि परोसकर रोजा इफ्तयारी करवा रहे हैं । दूसरी तरफ मुस्लिम नेता ओवैसी साहब भी मुसलमानो के समक्ष भावनात्मक होकर कह रहे है ।खरगोन में मुसलमानो के घर बुलडोजर चला दिया गया । अल्लाह इसके लिए माफ़ नहीं करेगा ।ओवैसी यहाँ ही नहीं रुके अपितु इस्लामिक पुस्तक की एक आयत का हवाला देते हुए उन्होंने कहा की अल्लाह का कहर एक दिन जरूर बरपेगा । अतः सामाजिक दृष्टि से यह कहा भी जाता है की यदि कुछ गलत होता है तो कुदरत अवश्य दंडित करती है । पर यहाँ यह प्रश्न भी उठता है की जिस पुस्तक की आयत का जिक्र ओवैसी जी ने कहा है । क्या उसमे दूसरे धर्म के लोगों पर पत्थर फेकना , पेट्रोल बम फेंकना , गोली चलाना यह सब जायज है । वो कौन सी आयत है, हदीसे है, जिनमे गैरइस्लामिक औरतो के साथ बर्बरता , काफिरो या गैरइस्लामिक लोगों की हत्या , माल ए गनीमत में दुसरो का सब कुछ हथिया लेना जैसे आदेश दिए गए है । यह कैसा दोहरा मापदंड है जिसमे उस हिंदुत्व को आक्रामक घोषित करने का षड्यंत्र रचा जा रहा है । जिस हिंदुत्व में जल , वायु, वृक्ष, भूमि, अग्नि , आकाश , मानव , पशु सबमे ईश्वर का रूप मानकर सबको पूजा जाता है । जबकि उस कट्टरपंथी विचारधारा को शांतिप्रिय बताया जा रहा है, जिसमें दिन के पांच समय यह सिखाया जाता है की एक अल्लाह के अतिरिक्त कुछ भी पूजनीय नहीं है । जो अल्लाह को मानने वाले है वो अपना है बाकी सब दुश्मन है । इन दोनों विचारधारा में समाज को स्वयं निर्णय लेना होगा की क्या सत्य है , क्या असत्य है , क्या मानवीयता है , क्या अमानवीयता है , क्या धर्म है , क्या अधर्म है विशुद्ध रूप से मानवता को समर्पित होने के पश्चात भी , जब कुछ मजहबी , कट्टरपंथी लोग धर्म के नाम पर सभ्य समाज को समाप्त करने पर आतुर होंगे । तब निश्चित ही सभ्य समाज को आत्म रक्षार्थ हेतु महान धर्मयोद्धा योगिराज महाराज भगवान् श्रीकृष्ण जी द्वारा रचित श्रीमद्भागवत गीता जी का अनुसरण करके ही सम्पूर्ण मानवता की रक्षा करनी होगी ।

ग्रामीण और छोटे बिजली उपभोक्ताओं को गुणवत्तापूर्ण आपूर्ति क्यों नहीं हैं।

प्रियंका ‘सौरभ’

केंद्रीय विद्युत मंत्रालय देश में बिजली उपभोक्ताओं के अधिकारों को निर्धारित करने वाले नियम जारी करता हैं। इन नियमों में उपभोक्ताओं को विश्वसनीय सेवाएं और गुणवत्तापूर्ण बिजली सुनिश्चित करने के लिए प्रावधान है। बिजली एक समवर्ती सूची (सातवीं अनुसूची) का विषय है और केंद्र सरकार के पास इस पर कानून बनाने का अधिकार और शक्ति है। ये नियम उपभोक्ताओं को उन अधिकारों के साथ “सशक्त” बनाने का काम करते हैं जो उन्हें गुणवत्ता, विश्वसनीय बिजली की निरंतर आपूर्ति तक पहुंचने की अनुमति देते हैं।

सशक्त उपभोक्ता के लिए चुनौती और मुद्दे देखे तो कई राज्य विशेष रूप से ग्रामीण और छोटे बिजली उपभोक्ताओं को गुणवत्तापूर्ण आपूर्ति प्रदान करने में सक्षम नहीं हैं। चौबीसों घंटे आपूर्ति की गारंटी और प्रावधान केवल दांवों में है। सरकारी रिपोर्टों के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों को लगभग 20 घंटे और शहरी क्षेत्र में 24 घंटे ग्रामीण और शहरी आपूर्ति के बीच भेदभाव है। बिजली मीटर से संबंधित नियम कहते हैं कि अलग-अलग राज्यों में शिकायत मिलने के 30 दिनों के भीतर खराब मीटरों की जांच की जानी चाहिए। उपभोक्ता शिकायत निवारण फोरम नियम कहते हैं कि मौजूदा कानूनों और विनियमों के अनुसार बिजली कंपनियों के खिलाफ शिकायतों के समाधान के लिए गठित फोरम का नेतृत्व कंपनी के एक वरिष्ठ अधिकारी द्वारा किया जाना चाहिए। लेकिन यह अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग होता है।

भारत में बड़ी जनसंख्या वृद्धि और आर्थिक विकास के कारण, यह देश को 2040 में कुल वैश्विक ऊर्जा खपत के लगभग 11% होगा। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, आज देश में लगभग 35 गीगावाट स्थापित सौर उत्पादन क्षमता और 38 गीगावाट पवन ऊर्जा है। भारत ने मार्च 2022 तक सौर परियोजनाओं से 100 गीगावाट और पवन ऊर्जा से 60 गीगावाट बिजली का लक्ष्य रखा है। भारत की आवासीय बिजली की खपत 2030 तक कम से कम दोगुनी होने की उम्मीद है। चूंकि घर अपनी घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिक बिजली के उपकरण खरीदते हैं। थर्मल पावर मुख्य आधार बनी हुई है; भारत का ऊर्जा-मिश्रण आरई (नवीकरणीय ऊर्जा) के पक्ष में झुक रहा है, जिसकी कुल बिजली उत्पादन में हिस्सेदारी 2008-09 में 3.7 प्रतिशत से बढ़कर 2018-19 में 9.2 प्रतिशत हो गई है।

हमें ऊर्जा दक्ष उपकरणों की उपलब्धता और सामर्थ्य में सुधार करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, 2009 से स्वैच्छिक लेबलिंग योजना के बावजूद, भारत में उत्पादित 5% से भी कम सीलिंग पंखे स्टार-रेटेड हैं। जबकि ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बीईई) 2022 से सीलिंग फैन को अनिवार्य लेबलिंग के तहत लाने की योजना बना रहा है। अधिकांश राज्य कानून के साथ गुणवत्तापूर्ण आपूर्ति प्रदान करने में सक्षम रहे हैं, खासकर ग्रामीण और छोटे बिजली उपभोक्ताओं को। भारतीय केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण को डिस्कॉम से आपूर्ति गुणवत्ता डेटा एकत्र करने, उन्हें ऑनलाइन पोर्टल पर सार्वजनिक रूप से होस्ट करने और विश्लेषण रिपोर्ट तैयार करने के लिए निर्देशित किया जा सकता है। केंद्र सरकार ऑडिटेड एसओपी रिपोर्ट के आधार पर वित्तीय सहायता प्रोग्रामर्स के लिए फंड का वितरण कर सकती है।

केंद्र राज्य सबसे केंद्रित एकमुश्त प्रयास, विद्युतीकरण अभियान पूरे देश में कनेक्शन प्रदान कर सकता है। लेकिन चौबीसों घंटे आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए निरंतर प्रयासों की आवश्यकता होगी। उपभोक्ताओं को अच्छी सेवा देने के लिए अपनी वेबसाइट, वेब पोर्टल, मोबाइल ऐप और इसके विभिन्न नामित कार्यालयों के माध्यम से क्षेत्रवार विभिन्न सेवाओं जैसे आवेदन जमा करने, आवेदन की निगरानी स्थिति, बिलों का भुगतान, शिकायतों की स्थिति आदि का ऑनलाइन उपयोग करना होगा। वितरण लाइसेंसधारी वरिष्ठ नागरिकों को उनके दरवाजे पर सभी सेवाएं जैसे आवेदन जमा करना, बिलों का भुगतान आदि प्रदान करे तो कुछ हद तक सफलता मिल सकती है।

डिस्कॉम उपभोक्ता अधिकारों, मुआवजा तंत्र, शिकायत निवारण, ऊर्जा दक्षता के उपायों और डिस्कॉम की अन्य योजनाओं के बारे में जागरूकता लाने के लिए मीडिया, टीवी, समाचार पत्र, वेबसाइट और डिस्प्ले के माध्यम से उचित प्रचार की व्यवस्था करे। लागत प्रभावी सौर पैनल, भंडारण प्रौद्योगिकियां, और 2022 तक 227 गीगावॉट के आरई क्षमता लक्ष्य की प्राप्ति संभावित रूप से बिजली की कीमत को और कम कर सकती है। ये नियम पूरे देश में कारोबार करने में आसानी को आगे बढ़ाने की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम हैं।

बिजली कटौती का विवरण उपभोक्ताओं को सूचित किया जाए। अनियोजित आउटेज या गलती के मामले में, उपभोक्ताओं को तत्काल सूचना एसएमएस या किसी अन्य इलेक्ट्रॉनिक मोड के माध्यम से बहाली के लिए अनुमानित समय के साथ दी जाए। देश भर में वितरण कंपनियां एकाधिकार रखती हैं – चाहे सरकारी हो या निजी – और उपभोक्ता के पास कोई विकल्प नहीं है – इसलिए यह आवश्यक है कि उपभोक्ताओं के अधिकारों को नियमों में निर्धारित किया जाए और इन अधिकारों को लागू करने के लिए एक प्रणाली बनाई जाए। ये नियम बिजली के उपभोक्ताओं को सशक्त बनाएंगे और उपभोक्ताओं को विश्वसनीय सेवाएं और गुणवत्ता वाली बिजली प्राप्त करने का अधिकार देंगे। मंत्रालय द्वारा बनाये गए कुछ नियम पूरे देश में कारोबार करने में आसानी को आगे बढ़ाने की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम हैं।

इन नियमों के कार्यान्वयन से यह सुनिश्चित होगा कि नए बिजली कनेक्शन, रिफंड और अन्य सेवाएं समयबद्ध तरीके से दी जाती हैं। उपभोक्ता अधिकारों की जानबूझकर अवहेलना के परिणामस्वरूप सेवा प्रदाताओं पर दंड लगाया जाएगा। राज्यों को इन नियमों को लागू करना होगा और बिजली के कनेक्शन प्रदान करने और नवीनीकरण में देरी जैसे मुद्दों के लिए डिस्कॉम्स को अधिक जवाबदेह ठहराया जाएगा। वे बिजली मंत्रालय के अनुसार उपभोक्ताओं को चौबीसों घंटे बिजली उपलब्ध कराने के लिए भी बाध्य हैं। अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए, सरकार दंड लागू करेगी जो उपभोक्ता के खाते में जमा की जाएगी। इन नियमों के कुछ अपवाद हैं, विशेषकर जहां कृषि प्रयोजनों के लिए उपयोग का संबंध है।

सीबीएसई पाठ्यक्रम में बदलाव के निहितार्थ

-सत्यवान ‘सौरभ’

केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने 12वीं कक्षा के इतिहास के पाठ्यक्रम से ‘द मुगल कोर्ट: रिकंस्ट्रक्टिंग हिस्ट्रीज थ्रू क्रॉनिकल्स’ नामक एक अध्याय और शीत युद्ध के दौर और गुटनिरपेक्ष आंदोलन, सामाजिक और नए सामाजिक आंदोलनों पर अध्याय कक्षा 12 राजनीति विज्ञान पाठ्यक्रम से हटा दिए हैं। अन्य अध्याय जैसे अफ्रीकी-एशियाई क्षेत्रों में इस्लामी साम्राज्यों का उदय और औद्योगिक क्रांति को भी कक्षा 11, 12 सीबीएसई पाठ्यक्रम 2022-23 से हटा दिया गया है।

फैज़ अहमद फ़ैज़ द्वारा उर्दू भाषा में “धर्म, सांप्रदायिकता और राजनीति – सांप्रदायिकता, धर्मनिरपेक्ष राज्य” खंड के तहत दो कविताओं के अनुवादित अंश को सीबीएसई 10 वीं पाठ्यक्रम 2022-23 से हटा दिया गया है। कविताओं को एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तक “डेमोक्रेटिक पॉलिटिक्स II” से हटा दिया गया है। 21 अप्रैल को जारी सीबीएसई पाठ्यक्रम 2022-23 में बदलाव किए गए हैं। बोर्ड द्वारा ‘खाद्य सुरक्षा’ पर एक अध्याय से “कृषि पर वैश्वीकरण के प्रभाव” के विषयों को भी हटा दिया गया है। एनसीईआरटी पाठ्यपुस्तक में दो पोस्टर और एक राजनीतिक कार्टून भी हटा दिए गए।

“लोकतंत्र और विविधता”, कक्षा 10 एनसीईआरटी पुस्तक का एक अध्याय, जो भारत और दुनिया भर में जाति और जाति के आधार पर सामाजिक विभाजन और असमानताओं से संबंधित है, को भी सीबीएसई के नए पाठ्यक्रम से हटा दिया गया था। “लोकप्रिय संघर्ष और आंदोलन” और “लोकतंत्र की चुनौतियां” जैसे अध्याय भी हटा दिए गए थे। सीबीएसई कक्षा 11 के इतिहास पाठ्यक्रम से हटा दिया गया “सेंट्रल इस्लामिक लैंड्स” शीर्षक वाला अध्याय अफ्रीकी-एशियाई क्षेत्रों में इस्लामी साम्राज्यों के उदय और अर्थव्यवस्था और समाज के लिए इसके प्रभाव से संबंधित है।

अध्याय इस्लाम के क्षेत्र, इसके उद्भव, खिलाफत के उदय और साम्राज्य निर्माण के बारे में बात करता है। सीबीएसई कक्षा 12 के इतिहास के पाठ्यक्रम का अध्याय ‘द मुगल कोर्ट: रीकंस्ट्रक्टिंग हिस्ट्रीज थ्रू क्रॉनिकल्स’ शीर्षक से मुगल दरबारों के इतिहास से संबंधित है। अध्याय मुगलों के सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक इतिहास में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। सीबीएसई के अनुसार, नए सीबीएसई पाठ्यक्रम में संशोधन राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की सिफारिशों के अनुसार किया गया है। लेकिन कई शिक्षकों ने सीबीएसई पाठ्यक्रम 2022-23 से इन अध्यायों को हटाने पर सवाल उठाया है।

इस्लामिक इतिहास और लोकतांत्रिक प्रक्रिया से संबंधित प्रमुख विषयों को कम करने के आरोपों का जवाब देते हुए, सीबीएसई बोर्ड ने कहा है कि पाठ्यक्रम का युक्तिकरण एनसीईआरटी की सिफारिशों के अनुरूप किया गया था। मीडिया रिपोर्ट में इस पर सीबीएसई के एक अधिकारी के हवाले से कहा गया है, ‘विशेषज्ञों की टीमों ने इस पर काम किया है। हम जल्द ही एक विस्तृत बयान जारी करेंगे कि बोर्ड ने पाठ्यक्रम को कैसे युक्तिसंगत बनाया है। ””सीबीएसई सालाना कक्षा 9 से 12 के लिए पाठ्यक्रम प्रदान करता है जिसमें शैक्षणिक सामग्री, सीखने के परिणामों के साथ परीक्षाओं के लिए पाठ्यक्रम, शैक्षणिक अभ्यास और मूल्यांकन दिशानिर्देश शामिल हैं।

हितधारकों और अन्य मौजूदा स्थितियों की प्रतिक्रिया को ध्यान में रखते हुए, बोर्ड मूल्यांकन की वार्षिक योजना आयोजित करने के पक्ष में है। बोर्ड के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कथित तौर पर कहा, शैक्षणिक सत्र 2022-23 के अंत और पाठ्यक्रम को उसी के अनुसार डिजाइन किया गया है। सीबीएसई पहले भी चैप्टर हटा चुका है। वर्ष 2020 में बोर्ड ने कहा था कि वह छात्रों के मूल्यांकन के लिए कक्षा 11 के राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तक में संघवाद, नागरिकता, राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता के अध्यायों पर विचार नहीं करेगा। लेकिन बाद में एक विवाद के बाद इन विषयों को बहाल कर दिया गया।

राजनीति विज्ञान या नागरिक शास्त्र से संबंधित विषयों में, सीबीएसई बोर्ड की पाठ्यक्रम के युक्तिकरण नीति की भी आलोचना की गई है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, कई विशेषज्ञों और शिक्षकों ने बताया है कि लोकतंत्र और विविधता, लोकप्रिय संघर्ष और आंदोलन और लोकतंत्र की चुनौतियों से संबंधित प्रमुख अध्यायों को पाठ्यक्रम से बाहर रखा गया है। लोकतंत्र और विविधता से संबंधित अध्याय नस्ल, वर्ग और जाति के आधार पर सामाजिक असमानताओं से संबंधित है, जबकि अन्य दो अध्याय लोकप्रिय विरोधों और आंदोलनों पर प्रकाश डालते हैं जो लोकतांत्रिक इतिहास का हिस्सा रहे हैं।

यह संभावना है कि सीबीएसई 2022-23 से एकल बोर्ड परीक्षा प्रारूप में वापस आ जाएगा क्योंकि सीबीएसई स्कूलों के साथ साझा किया गया पाठ्यक्रम उसी पर संकेत देता है। बोर्ड के अधिकारियों ने पिछले हफ्ते कहा था कि दो बोर्ड परीक्षा आयोजित करने का निर्णय कोविड -19 महामारी के कारण लिया गया था और एक अंतिम कॉल ओ बोर्ड परीक्षा को और आगे ले जाया जाएगा। सीबीएसई सालाना कक्षा 9 से 12 के लिए शैक्षणिक सामग्री, सीखने के परिणामों के साथ परीक्षाओं के लिए पाठ्यक्रम, शैक्षणिक अभ्यास और मूल्यांकन दिशानिर्देश प्रदान करता है।
सत्यवान ‘सौरभ’,

पाकिस्तान जैसे मजहबी देशों में अमन चैन हेतु स्वधर्म वापसी ही एकमात्र विकल्प है

—विनय कुमार विनायक
अगर बृहदतर भारत का इतिहास देखा जाए तो आरंभ से ही सत्ताधारियों एवं उनकी प्रजा ने अपने जीवन काल में कईबार अपने धर्म को बदला है। जब-जब राजसत्ता अत्यधिक क्रूर अताताई और अत्याचारी हुआ है तब-तब संबद्ध शासकों ने आत्म मूल्यांकन करके तत्कालीन सहिष्णु और अहिंसक धर्म को अपनाया है। प्राचीन भारत का प्रामाणिक इतिहास महाभारत कालीन बृहद्रथ पुत्र जरासंध के वंशजों को सत्ता से बेदखल करने के पश्चात एक क्षत्रिय सैनिक भट्टी द्वारा स्थापित हर्यक साम्राज्य से आरंभ होता है। जिसे पितृहंता साम्राज्य कहा गया है। इस वंश के पहले प्रतापी शासक भट्टी पुत्र बिम्बिसार को उनके पुत्र अजातशत्रु ने हत्या करके मगध की सत्ता हासिल की थी। जिसके बाद उन्होंने पश्चाताप करके अपने पिता के अहिंसक बौद्ध धर्म को अपना लिया था और अपने पिता की धार्मिक
सहिष्णुता और विरोधियों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित कर अपना राज्य विस्तार किया था। भारत में देशज धर्म की कभी
कमी नहीं रही है। हर काल में राजा एवं प्रजा को एक साथ कई स्वदेशी धर्मों को चुनने का विकल्प रहा है। हर्यक शासकों के काल में भी सनातन धर्म की कम से कम तीन शाखाएं एकसाथ प्रचलित थी। एक वैदिक कर्मकांडी पशुबलि समर्थक ब्राह्मण धर्म, दूसरा प्रथम मनु स्वायंभुव काल से चल रहे मनुर्भरतवंशी चौबीस क्षत्रिय तीर्थंकरों के अहिंसक नागवंशी क्षत्रिय राजकुमार पार्श्वनाथ व आर्य व्रात्य क्षत्रिय राजकुमार महावीर जिन का जैन धर्म और तीसरा आर्य व्रात्य क्षत्रिय राजकुमार गौतम बुद्ध का वर्ण-जाति विहीन समता और अहिंसावादी बौद्ध धर्म। हर्यकों के पश्चात शिशुनागवंश और नंदवंशी वृषल क्षत्रिय बौद्ध शासकों के बाद ब्राह्मण चाणक्य समर्थित मौर्य कृषक राजवंश ने ब्राह्मण धर्मी चाणक्य नीति और ब्राह्मण धर्म को अपनाया। धर्मसहिष्णु उदार चंद्रगुप्त मौर्य व उनके महान पुत्र बिंदुसार से उनके पुत्र सम्राट अशोक तक आते आते ब्राह्मण राजधर्म काफी क्रूर और हिंसक हो गया। खुद ब्राह्मण धर्मी अशोक ने निन्यानबे भाई की हत्या करके मगध की सत्ता हथियाई थी।उनका खूनी दौर का अंत कलिंग विजय के दौरान राजकुमारी पद्मावती से सामना होने पर हृदय परिवर्तन तथा अहिंसावादी बौद्ध धर्म स्वीकारने से हुआ। अशोक विश्व के चहेते महान सम्राट तभी बन पाए जब उन्होंने हिंसावादी
ब्राह्मण धर्म का परित्याग किया। अशोक कालीन भारत का बौद्ध राजधर्म मौर्य राजवंश के अंतिम सम्राट बृहद्रथ मौर्य तक चला।
जिसे उनके अनार्य ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने हत्या करके पुनः यज्ञ बलिप्रथा कर्मकांडी ब्राह्मण धर्म को चलाया। वस्तुत: पुष्यमित्र शुंग ईरानी आक्रांता अहुर माजदा पुत्र भृगु के प्रपौत्र मातृहंता क्षत्रिय कुलघाती भार्गव ब्राह्मण परशुराम परंपरा के भृगु रचित मनुस्मृतिवादी घोर क्रूरकर्मा ब्राह्मण थे। जिन्होंने असंख्य अहिंसक बौद्ध भिक्षुओं की हत्या करके हिंसावादी ब्राह्मण धर्म का पुनः प्रचार किया। उन्होंने महाभारत काल के बाद बुद्ध अशोक काल तक बंद अश्वमेध यज्ञ को आरंभ किया। जिसमें यज्ञ पशु घोड़े की बलि दी जाती थी। यह धर्म परवर्ती ब्राह्मण कण्व आंध्र सातवाहन तक जारी रहा। यह भारतीय इतिहास का अंधकार युग था। इस अंधकार युग की समाप्ति वैष्णव धर्मावलंबी श्रीगुप्तवंशी चंद्रगुप्त के स्वर्णयुग से हुआ। गुप्त शासकों का वैष्णव धर्म हिंसावादी ब्राह्मण धर्म से हटकर अहिंसक बौद्ध धर्म के निकट था। गुप्त शासक कुमारगुप्त ने ही तक्षशिला के पश्चात विश्व के सबसे बड़े बौद्ध विद्यामहाविहार नालंदा
विश्वविद्यालय की स्थापना की। जो अहिंसावादी बौद्ध वैष्णव शासक हर्षवर्धन के राज्याश्रय में काफी फली फूली। गुप्त एवं हर्षवर्धन के पश्चात बौद्ध धर्मावलंबी पाल शासन काल में भारत में शांति काल रहा। गोपाल एवं उनके पुत्र धर्मपाल से उदंतपुरी एवं विक्रमशिला जैसे दो बड़े विश्वविद्यालय एवं शिक्षा केन्द्रों का उदय एवं विस्तार हुआ।जिसका अंत ग्यारह सौ बेरानबे में महान वैष्णव हिन्दू शासक पृथ्वीराज चौहान का विदेशी आक्रमणकारी मुहम्मद गोरी के हाथों पराजय से हुआ था। गोरी के गुलाम बख्तियार खिलजी के द्वारा तीनों
विश्वविद्यालयों के दहन के बाद भारत में दिल्ली सल्तनत से विदेशी धर्म इस्लाम के अनुयायियों क्रमशः गुलाम खिलजी
तुगलक सैयद लोदी एवं आगरा से मुगल शासकों का निरंकुश अत्याचारी शासन का अंतहीन सिलसिला चला जो अंग्रेजों के आने तक जारी रहा। इस दरम्यान हिन्दुओं का व्यापक कत्लेआम और धर्मांतरण किया जाता रहा। जहांगीर ने गुरु अर्जुन देव को इस्लाम नहीं स्वीकारने पर गर्म तवे में तपाकर हत्या की जो जहांगीर मातृ पक्ष से हिन्दू राजकुमारी जोधाबाई का पुत्र था। गुरु अर्जुन देव के सोढ़ी क्षत्रिय वंश में जन्मे गुरु तेगबहादुर से उनके पुत्र गुरु गोविंद सिंह और उनके चारों पुत्रों में से दो नाबालिग पुत्रों को दीवार में चुनवा
कर एवं दो पुत्रों को धोखे से औरंगजेब ने इस्लाम नहीं कबूलने के कारण मौत का घात उतार दिया। मुगलों के वक्त कश्मीर से मगध बिहार बंगाल उड़ीसा में बहुत अधिक धर्मांतरण हुआ। आज के भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश अफगानिस्तान के सबके सब मुस्लिम धर्मावलंबी मध्यकालीन भारत के धर्मांतरित हिन्दू ही हैं। जो अज्ञानता और भ्रम के कारण खुद को अरबी तुर्की मूल के इस्लामी
आक्रांताओं के वंशज समझने लगे हैं। इन देशों के सारे मुस्लिम धर्मावलंबियों का रक्त वंश और डी एन ए वर्तमान भारतीय हिन्दुओं का ही है। ये कद काठी, हाव भाव स्वभाव एवं नस्ल से पूर्णतः हिन्दू ही लगते हैं। ये हिन्दू मूल के मुस्लिम कहीं से भी अरबी क़बीलाई नस्ल के नहीं हैं तथा इस्लाम की जन्म भूमि अरब के इस्लामी समाज द्वारा इन्हें हिकारत की नजर से देखा जाता है।इन देशों की बदहाली इनके विदेशी मजहब को अपनाने की वजह से ही है। इन देशों की अपनी पितृभूमि भारत से दुश्मनी इसी विदेशी मजहब व गलतफहमी की वजह से है। आए दिन बृहदतर भारतीय देशों के धर्मांतरित मुस्लिमों की अरब देश के शहरों व मक्का-मदीना में भेदभाव और बेइज्जती होते रहती है।
इन देशों के मुस्लिमों की अरब देशों में मान न मान मैं तेरा मेहमान की स्थिति है।इन देशों के हुक्मरानों और प्रजा को अपनी तरक्की के लिए जितना जल्दी हो सके अपने मूल धर्म सनातन हिन्दू बौद्ध जैन सिख आर्य समाज में वापसी कर लेना चाहिए तथा अपने आर्थिक सामाजिक बौद्धिक अध्यात्मिक दशा में लगातार सुधार करना चाहिए। सच तो यह भी है कि इन पड़ोसी देशों के सच्चे हितैषी और शुभचिंतक भारत के अलावा कोई और देश कभी नहीं हो सकता। हाल के दिनों में अपने पूर्वजों के बामियानी बौद्ध मूर्ति को मोर्टार से ढाहने वाले तालिबानी शासकों और इस्लामी प्रजा को मानवीय आधार पर खाद्य पदार्थ गेहूँ दवा आदि पहुंचाने वाली तथाकथित कट्टर हिन्दूवादी मोदी सरकार ही है। आज की तालिबानी अफगान सरकार अपने हममजहबी पाकिस्तान से अधिक भारत को ही अपना हमदर्द समझती है। इतिहास गवाह है कि धर्म मजहब मानव जाति की बेहतरी के लिए स्थान विशेष के स्थानीय महामानवों द्वारा ईजाद किया गया है। जो स्थानीय भौगोलिक बसोवास रहन सहन संस्कृति पर आधारित होता है। सदा से विश्व भर में अपनी बेहतरी के लिए लगातार लोग अपना मत मजहब धर्म बदलते रहते हैं। सच कहा जाए तो हम जाने अनजाने प्रत्येक दिन अपना मत मजहब विचार धर्म संस्कार बदलते रहते हैं। आज कोई नहीं कह सकता कि वर्तमान हिन्दू धर्म अतीत का वर्णवादी और जातिवादी कट्टर ब्राह्मण धर्म है। आज ब्राह्मणों का सोच बदल गया है। हिन्दू धर्म में पंडा पुरोहितों का महत्व घट गया है। आज ब्राह्मण जाति की अधिकांश आबादी मंदिरों की पुरोहिताई को छोड़कर अन्य सेवा कर्म में लग गए। ईसाई व इस्लाम धर्म के पोप पादरी और मुल्ला मौलवियों
की तरह हिन्दू पंडित पुरोहित किसी तरह का आदेश फतवा जारी नहीं कर सकते हैं। हिन्दू धर्म पंडा पुरोहित वैदिक
कर्मकाण्ड बलिप्रथा से लगभग आजाद हो चुका है। यहां तक कि हिन्दू अपने मठ मंदिर गुरुद्वारे में बिना ब्राह्मण
पुरोहित के ही पूजा पाठ करने लगे हैं। हिन्दू धर्म में ब्राह्मण पुरोहितों का थोड़ा सा वर्चस्व बचा है। वो मनमानी दक्षिणा का हठ भी नहीं कर सकते है। हिन्दू मंदिरों में पूजा स्वत: बिना ब्राह्मण पुरोहित का होने लगा है। सच बात तो यह है कि आज का ब्राह्मण वेद पुराण का
अध्ययन भी नहीं करते। वे सिर्फ नाम के द्विवेदी त्रिवेदी चतुर्वेदी त्रिपाठी उपाध्याय झा मिश्र तिवारी बने हुए हैं। भारत में जाति का वर्चस्व और जातिवाद का पोषण लगभग समाप्त हो गया। जो भी ऐसा करते वे खुद उपेक्षित होने लगे हैं। आज हिन्दुओं में अंतरजातीय विवाह
भी परस्पर समझौता से होने लगा है। ऐसे विवाह में शंकराचार्य भी हस्तक्षेप नहीं कर सकते। वर्तमान हिन्दू धर्म में भेदभाव छुआछूत तेजी से घटता जा रहा है। रहन सहन वस्त्र आभूषण पहनावे में किसी तरह का प्रतिबंध या ड्रेस कोड जोर जबरदस्ती नहीं है। आप पगड़ी धोती साड़ी पहने या नहीं पहने कोई मायने नहीं रखता। विवाह तक में धोती नहीं पहनने की छूट हो गई है। हिन्दू नारियों को
समानता का वास्तविक अधिकार प्राप्त है। बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ हिन्दुओं का लक्ष्य हो गया है। नजदीकी रिश्तेरों में वैवाहिक संबंध वर्जित और धार्मिक वैज्ञानिक कारण से दोषपूर्ण घृणित करार दिए जाने के कारण हिन्दू धर्म में
स्त्री जाति की यौन सुचिता और पवित्रता बनी रहती है। साथ ही हिन्दू धर्म में एकल विवाह नियम का पूर्णतः पालन
होने से दाम्पत्य संबंध में विश्वसनीयता बढ़ी है तथा जनसंख्या वृद्धि पर स्वत: रोक लग गई है। इस तरह
वर्तमान हिन्दू धर्म भेदभाव की शून्यता की ओर अग्रसर है। साथ ही हिन्दू तेजी से अंधविश्वास रहित कुप्रथा को
त्याग कर पूर्णतः उदार सहिष्णु बनता जा रहा है। हिन्दुओं में मांस भक्षण की प्रवृत्ति बहुत तेजी से घट रही है। राजस्थान गुजरात जैसे राज्यों के हिन्दू आरंभ से ही पूर्णतया शाकाहारी एवं पशुबलि विरोधी हैं। हिन्दू धर्म को ऐसे वर्तमान प्रगतिशील सुधारवादी स्थिति प्रदान करने के लिए भगवान राम का मर्यादावादी व्यक्तित्व, कृष्ण का उपनिषदीय गीता ज्ञान,बुद्ध महावीर का अहिंसा दर्शन
एवं दस सिख सद्गुरुओं सहित दशमेश पिता गुरु गोविंद सिंह का समतावाद तथा दयानंद, विवेकानंद, रामानंद,
प्रच्छन्न बौद्ध शंकराचार्य, ज्योति बा फूले, कबीर, रहीम, रसखान रैदास अंबेडकर आदि तथा आलवार लिंगायत संत भक्त महापुरुषों के मानवतावादी विचारों का सर्वाधिक योगदान है। धार्मिक स्वतंत्रता के मामले में भी हिन्दू धर्म सबसे श्रेष्ठ धर्म है। जहां ईसाई और इस्लाम धर्म में तर्क को ईश निंदा की कोटि में माना गया है। जबकि हिन्दू धर्म तार्किक जिज्ञासु और ज्ञान पिपासुओं का धर्म है।बालक नचिकेता अपने पिता की खोखली दानशीलता पर तर्क कर सकता है। गर्भस्थ शिशु अष्टावक्र अपने पिता के अशुद्ध वेद मंत्र उच्चारण के लिए गर्भ से ही टोका टोकी कर सकता है और तो और हिन्दू अपने भगवान के अच्छे बुरे कर्म की आलोचना समालोचना करते हैं। हिन्दू धर्म में सबसे अच्छी बात यह है कि प्राचीन ऋषियों मुनियों ने अपने नीच कुल अधम जाति में जन्म वृतांत को पूरी ईमानदारी से शास्त्रों में लेखबद्ध कर दिया है। चाहे ब्रह्मऋषि वाल्मीकि वशिष्ठ शक्ति पराशर व्यास अगस्त श्रृंगी द्रोणाचार्य कृपाचार्य आदि क्यों ना हो सबके वैध अवैध जन्म वृतांत को शास्त्रों में स्पष्ट रुप से ज्ञानी ब्राह्मणों द्वारा ही लिपिबद्ध किया गया है।अस्तु हिन्दू धर्म के जैसा उदारमना और कोई दूसरा धर्म नहीं है। ब्राह्मणों ने अगर समय काल स्थिति के अनुसार तमाम जातियों को शूद्र वर्णसंकर व्रात्य वृषल कहा है तो खुद की उत्पत्ति के बारे में कुछ भी नहीं छिपाया है। हिन्दू धर्मग्रंथों और शास्त्रों में ज्ञान भरा पड़ा है। जिसका अवगाहन सिर्फ
हिन्दू बनकर ही किया जा सकता है।
—विनय कुमार विनायक

दम तोड़ती बाल विवाह जैसी कुरीतियां

मनोज कुमार
बिटिया का आसमांं ऊंचा होता जा रहा है और बिटिया कह रही है कि आसमां थोड़ा और ऊंचा हो जाओ ताकि मैं तुम्हें छू सकूं. आज जब हम भारतीय सांस्कृतिक परम्परा के सबसे बड़े त्यौहार अक्षय तृतीया मना रहे हैं तब हमारे सामने दशकों से जड़ें जमायी हुई सामाजिक कुरीति के रूप में बाल विवाह दम तोड़ती नजर आ रही है. कोई एकाध माह पहले से सत्ता और शासन ने हर स्तर पर सुरक्षा कर लिया है. खबरें सुकून की आ रही है कि बिटिया स्वयं होकर ऐसी रीति-रिवाजों के खिलाफ खड़ी हो रही है. बदलाव की इस बयार में गर्म हवा के बजाय ठंडी हवा बहने लगी है. स्त्री जब स्वयं सशक्त हो जाए तो समाज स्वयं में परिवर्तन लाने के लिए मजबूर होता है और यह हम कम से कम अपने राज्य की सरहद में देख रहे हैं. ऐसा भी नहीं है कि सबकुछ बेहतर हो गया है लेकिन नासूर का इलाज मिल जाना भी एक सुखद संकेत है.
आधी दुनिया का जब हम उल्लेख करते हैं तो सहसा हमारे सामने स्त्री की दुनिया का मानचित्र उभर कर आता है लेकिन भारतीय समाज में जिस तरह की सामाजिक कुरीतियां आज के दौर में भी पैर पसारे हुए है, सारी बातें बेमानी लगती है. यह सच इतना तककलीफदेह है कि स्त्रियों के साथ होने वाले अपराधों का आंकड़ा तेजी से बढ़ रहा है तो उनके साथ इंसाफ की खबरों का ग्राफ आकार नहीं ले पा रहा है. घरेलू हिंसा की कुछ खबरें ही सामने आ पाती हैं क्योंकि जिम्मेदार स्त्री अपने बच्चों के भविष्य को देखकर पांव समेट लेती है.
इन भयावह स्थितियों और खबरों के बीच एक सुकून की खबर मध्यप्रदेश से मिलती है कि तकरीबन दस बरस पहले राज्य में लिंगानुपात की जो हालत थी, उसमें सुधार आने लगा है. एक दशक पहले एक हजार की तादात पर 932 का रेसियो था लेकिन गिरते गिरते स्थिति बिगड़ गई थी. हाल ही में जारी आंकड़े इस बात की आश्वस्ति देते हैं कि हालात सुधरे भले ना हो लेकिन सुधार के रास्ते पर है. आज की तारीख में 1000 पर 930 का आंकड़ा बताया गया है. एक तरह से झुलसा देने वाली स्थितियों में कतिपय पानी के ठंडे छींटे पड़ रहे हैं. लगातार प्रयासों का सुपरिणाम है कि उनकी बेटियां मुस्कराती रहें और कामयाबी के आसमां को छुये लेकिन इसके लिए जरूरी होता है समाज का साथ और जो स्थितियां बदल रही है, वह समाज का मन भी बदल रही है. मध्यप्रदेश में नये सिरे से बेटी बचाओ की हांक लगायी गई तो यह देश की आवाज बनी और बिटिया मुस्कराने लगी.
यह कहना फिजूल की बात होगी कि पूर्ववर्ती सराकरों ने बिटिया बचाने पर ध्यान नहीं दिया लेकिन यह कहना भी अनुचित होगा कि सारी कामयाब कोशिशें इसी दौर में हो रही है. इन दोनों के बीच फकत अंतर यह है कि पूर्ववर्ती सरकारों की योजनाओं की जमीन कहीं कच्ची रह गयी थी तो वर्तमान सरकार ने इसे ठोस बना दिया. जिनके लिए योजनायें गढ़ी गई, लाभ उन तक पहुंचता रहा और योजनाओंं का प्रतिफल दिखने लगा. महिला एवं बाल विकास विभाग का गठन बच्चों और महिलाओं के हक के लिए बनाया गया था. इस विभाग की जिम्मेदारी थी कि वह नयी योजनओं का निर्माण करें और महिलाओं को विसंगति से बचा कर उन्हें विकास के रास्ते पर सरपट दौड़ाये. योजनाएं बनी और बजट भी भारी-भरकम मिलता रहा लेकिन नीति और नियत साफ नहीं होने से कारगर परिणाम हासिल नहीं हो पाया. 2005 में मुख्यमंत्री के रूप में सत्ता की बागडोर सम्हालने के बाद शिवराजसिंह चौहान ने बेटियों की ना केवल चिंता की बल्कि समय-समय पर उनकी खोज-खबर लेते रहे. जब मुखिया सक्रिय और सजग हो जाए तो विभाग का चौंकन्ना होना लाजिमी था. मुख्यमंत्री की निगहबानी में परिणामदायी योजनाओं का निर्माण हुआ और परिणाम के रूप में दस वर्ष में गिरते लिंगानुपात को रोकने में मदद मिली. एक मानस पहले से तैयार था कि बिटिया बोझ होती है और कतिपय सामाजिक रूढिय़ों के चलते उनका बचपन में ब्याह कर दिया जाता था. लेकिन पीछे कुछ वर्षों के आंकड़ें इस बात के लिए आश्वस्त कराते हैं कि समाज का मन बदलने लगा है.
यह बेहद सुकून की खबर है कि अब मीडिया में बेटियों को जगह दी जाने लगी है. गेस्टराइटर से लेकर संपादक तक बेटियां बन बैठी हैं. विशेषांक बेटियों पर पब्लिश किया जा रहा है. राज्य, शहर और गांव से महिला प्रतिभाओं को सामने लाकर उनका परिचय कराया जा रहा है. उनकी कामयाबी उनके बाद की बच्चियों के लिए लालटेन का काम कर रही हैं. सिनेमा के पर्दे पर भी महिला हस्तक्षेप बढ़ा है. मेरी कॉम जैसी बॉयोपिक फिल्में खेल संगठनों की राजनीति का चीरफाड़ करती हैं तो दूसरी तरफ बताती है कि प्रतिभा किसी की मोहताज नहीं है. इन सबका अर्थ है कि महिला समाज की भूमिका अब आधी दुनिया से आगे निकल रही है. एक अच्छा संकेत है बदलते समाज का और समाज का मन बदल जाए तो बिना क्रांति किये बदलाव की हवा चल पड़ती है. सदियों से जिनके खिलाफ हम खड़े थे, अब उनके साथ चलने के लिए मन बदलने लगे हैं. यह बदलाव कल उनके सुनहरे भविष्य की गारंटी है.

महात्मा दयानन्द वानप्रस्थ के व्यक्तित्व विषयक कुछ संस्मरण

-मनमोहन कुमार आर्य
महात्मा दयानन्द वानप्रस्थ (जन्म 18-1-1912 मृत्यु 20-1-1989) वैदिक धर्म, ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के निष्ठावान अनुयायी एवं वेद, यज्ञ एवं साधना के प्रचारक थे। उनका जीवन धर्म, संस्कृति के प्रचार एवं यज्ञ-योग-साधना को समर्पित था। उन्होंने वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून के द्वारा देश के विभिन्न भागों में जाकर यज्ञ एवं योग आदि का प्रचार किया था। उनके जन्म चरित्र से आज हम स्वामी सर्वानन्द सरस्वती जी द्वारा प्रस्तुत विचारों वा श्रद्धांजलि को प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे उनके जीवन, गुणों एवं कार्यों पर प्रकाश पर पड़ता है। स्वामी सर्वानन्द सरस्वती जी की श्रद्धांजलि प्रस्तुत है।

कई वर्ष पहले (सन् 1990 से पूर्व) की बात है कि महात्मा दयानन्द जी महाराज जम्मू से लौटते हुए दयानन्द मठ, दीनानगर में पधारे। उनके साथ जो सज्जन थे उनका नाम स्मरण नहीं रहा, जो उनके विशेष भक्त थे। महात्मा जी से मेरा यह पहला परिचय था। उनकी भव्य, सौम्य आकृति का मुझ पर एक विशेष प्रभाव पड़ा। उनकी बातों में, उनके विचारों में, उनकी आकृति में एक विशेष माधुर्य देखा। उस दिन के प्श्चात् हम दोनों का सम्बन्ध घनिष्ठ ही होता गया। मेरे हृदय में उनके लिए एक विशेष स्थान बन गया। वैदिक यति-मण्डल की सदस्यता महात्मा जी ने सहर्ष स्वीकार की और वैदिक यति-मण्डल के कार्यकर्ता प्रधान अन्त तक रहे। महात्मा जी ने वैदिक-यति-मण्डल की एक बैठक वैदिक साधना आश्रम, देहरादून में बुलाई। उस समय आश्रम में यज्ञ तथा उत्सव चल रहा था। महर्षि निर्वाण शताब्दी (अक्टूबर सन् 1883) अजमेर में मनाई जाए, वैदिक यति-मण्डल की यह इच्छा थी। सार्वदेशिक सभा के अधिकारियों का विचार देहली में करने का था। उस समय वहां वैदिक यति-मण्डल ने निश्चय किया कि महर्षि ने अपना पंचभौतिक शरीर अजमेर में ही छोड़ा था, इसलिये निर्वाण शताब्दी वहीं मनाई जाए। यह बहुत बड़ा कार्य था। इसके लिए महात्मा जी ने सबको बहुत प्रोत्साहन दिया। 

श्री स्वामी ओमानन्द जी सरस्वती ने महर्षि निर्वाण शताब्दी के लिए कई लाख रुपया एकत्रित करने का निश्चय किया। श्री स्वामी सत्यप्रकाश जी सरस्वती महाराज ने भोजन सामग्री एकत्रित करने का कार्य लिया। श्री महात्मा दयानन्द जी महाराज से प्रार्थना की गई कि आप यज्ञ कार्य सम्भालने की कृपा करें। महात्मा जी ने इसे सहर्ष स्वीकार किया। कई लोगों ने यज्ञ के लिए अन्य बड़े विद्वानों के नाम प्रस्तुत किये और बहुत बल दिया कि यज्ञ कराने वाले बड़े विद्वान आर्यसमाज में विद्यमान हैं और यज्ञ विधियों के विशेषज्ञ भी हैं। यह बहुत बड़ा यज्ञ है जो उन्हीं विद्वानों के द्वारा किया जाना चाहिए। किन्तु वैदिक यति-मण्डल के सदस्यों, विशेषकर श्री स्वामी ओमानन्द जी महाराज ने कहा कि महात्मा दयानन्द जी की वेद में जो निष्ठा और श्रद्धा है वह अन्यों में दिखाई नहीं देती और महात्मा जी के द्वारा यज्ञों का बहुत प्रचार होता आ रहा है। इसलिये यह निर्वाण शताब्दी (अक्टूबर, 1883) का बृहद् यज्ञ महात्मा जी ही करेंगे। महात्मा जी ने यज्ञ सम्बन्धी सब भार अपने ऊपर लेने का निश्चय किया। अपने अनेक श्रद्धालु भक्तों को यज्ञ के लिए प्रेरित करते हुए महात्मा जी अजमेर में होने वाले इस यज्ञ के लिए अनेक स्थानों में भ्रमण करते हुए अजमेर पहुंच गये और निर्वाण शताब्दी से एक मास पूर्व आपने चारों वेदों का यज्ञ आरम्भ कर दिया। 

इस यज्ञ में कई मन घी और बहुतसी सामग्री लगी, जो महात्मा जी ने अपने प्रभाव से वहां एकत्रित होती रही। महात्मा जी ने यज्ञ के साथ ऋषि लंगर भी आरम्भ कर दिया था, जिसमें सैकड़ों आदमी प्रतिदिन भोजन करते थे। शताब्दी के आरम्भिक कुछ दिनों में हजारों लोग शताब्दी के लिए पहुंच गये जो सभी महात्मा जी के ऋषि लंगर में भोजन करते रहे क्योंकि अभी शताब्दी के प्रबन्धकों ने ऋषि लंगर प्रारम्भ नहीं किया था। यह यज्ञ और लंगर बहुत ही प्रभावशाली ढंग से हुआ। यह सब महात्मा जी के व्यक्तित्व का प्रभाव था। दयानन्द आश्रम केसरगंज अजमेर में भव्य यज्ञशाला के निर्माण में भी इन्हीं का विशेष हाथ था। अजमेर में बहुत से लोग पुष्कर देखने गये। वहां महर्षि दयनन्द जी ने मन्दिर में एक छोटीसी कोठरी में कुछ समय निवास किया था। उसे भी भव्य बनाने के लिए महात्मा जी ने धन की अपील की और पर्याप्त धन एकत्रित हो गया जिससे उस कुटिया को नया सुन्दर रूप दिया गया। निर्वाण शताब्दी के अन्त में बहुत सी भोजन सामग्री जो बच गई थी, अजमेर की कई संस्थाओं को दान दी गई और 18000/- रुपया नकद परोपकारिणी सभा को दिया। निर्वाण शताब्दी की सफलता में उनका बहुत बड़ा योगदान था। श्री महात्मा जी ने हजारों नास्तिकों को आस्तिक तथा यज्ञ के श्रद्धालु बनाया। बहुत दीर्घकाल तक सहस्रों लोगों के हृदय में उनकी स्मृति बनी ही रहेगी तथा वे लोग महात्माजी के स्मरण मात्र से अनेक दोषों से बचे रहेंगे। ऐसे महापुरुष जीवन में मनुष्य समाज में सच्ची सेवा कर जाते हैं और अपने जीवन का साफल्य भी। 

स्वामी सर्वानन्द सरस्वती जी वैदिक यति मण्डल के अध्यक्ष रहे। उनके द्वारा महात्मा दयानन्द वानप्रस्थ जी पर प्रस्तुत उपर्युक्त विचार पढ़कर हमारी महात्मा दयानन्द जी के प्रति श्रद्धा में विस्तार हुआ। हम देहरादून के तपोवन के वर्ष में दो बार होने वाले वृहदयज्ञों, ग्रीष्म एवं शरदुत्सव, में सम्मिलित होते थे। महात्मा दयानन्द द्वारा ही आश्रम के सभी वेदपारायण यज्ञ कराये जाते थे। यज्ञ के मध्य में वह यज्ञ के महत्व सहित मन्त्रों के अर्थों पर भी प्रकाश डालते थे। महात्मा जी बहुत भावुक हृदय के थे। बोलते बोलते अनेक बार उनकी आंखें भर आती थी। श्रद्धालु श्रोता भी उनकी इस स्थिति से प्रभावित होकर स्वयं भी भावविभोर हो जाते थे। हमारा सौभाग्य है कि हमें महात्मा जी द्वारा कराये गये अनेक यज्ञों में सम्मिलित होने सहित उनसे वार्तालाप करने और उनके उपदेशों का श्रवण करने का अवसर मिला। कुछ दिनों से हम महात्मा दयानन्द वानप्रस्थ जी की जीवनगाथा को देख रहे थे। आज हमें स्वामी सर्वानन्द महाराज जी की इन पंक्तियों को प्रस्तुत करने इच्छा हुई। इससे पाठकों को महात्मा दयानन्द जी के व्यक्तित्व की एक झलकी दिखेगी। महात्मा दयानन्द वानप्रस्थ जी की सुपुत्री माता सुरेन्द्र अरोड़ा वर्तमान में देहरादून में रहती हैं। वह वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून सहित स्थानीय आर्यसमाज की संस्थाओं की यज्ञ एवं उत्सव आदि गतिविधियों में भी उपस्थित होती हैं। वैदिक साधन आश्रम तपोवन में आयोजित सभी उत्सवों में महिला सम्मेलन आयोजित किया जाता है, जिनकी संयोजिका माता सुरेन्द्र अरोड़ा जी ही होती हैं। माता सुरेन्द्र अरोड़ा जी अत्यन्त स्वाध्यायशील एवं विदुषी महिला हैं। उन्होंने कुछ समय पाणिनी कन्या विद्यालय, वाराणसी में भी संस्कृत व्याकरण का अध्ययन किया। महात्मा प्रभु आश्रित जी की प्रेरणा से एक याज्ञिक परिवार में उनका विवाह हुआ था। वह व उनके पति यज्ञ के अनन्य प्रेमी रहे। यह दम्पति अपने निवास पर विद्वान आचार्यों से वृहद यज्ञों का अनुष्ठान कराते रहे और स्वयं भी दैनिक यज्ञ आदि कृत्यों को करते रहें व अब भी माता जी करती हैं। वृहद यज्ञों में आर्थिक सहयोग भी करती हैं। हमें वर्तमान में भी आर्यसमाजिक संस्थाओं में माता सुरेन्द्र अरोड़ा जी के दर्शन करने का सौभाग्य मिलता रहता है। महात्मा जी के जीवन के कुछ पक्षों से परिचित कराने के लिए हमने यह पंक्तियां प्रस्तुत की हैं। 

यह भी बता दें की महात्मा दयानन्द वानप्रस्थ जी की जीवन गाथा फरवरी 1990 ईसवी में वैदिक भक्ति साधन आश्रम रोहतक से प्रकाशित हुई थी। इसकी 1100 प्रतियां प्रकाशित की गईं थी। इस पुस्तक के लेखक थे श्री हरकृष्ण लाल ओबराय जी।  पुस्तक के लेखक ने इस पुस्तक को उन सहस्रों परिवारों को समर्पित किया है जिन्होंने महात्मा जी से प्रेरणा पाकर अपने जीवन को यज्ञमय बनाया। पुस्तक में महात्मा प्रभु भिक्षु जी द्वारा लिखित प्रकाशकीय भी है। पूर्वपीठिका नाम से पुस्तक लेखक ने कई पृष्ठों में इस पुस्तक लेखन की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डाला है। पुस्तक की भूमिका श्री फतहसिंह एम.ए. डी.लिट्, शोध निदेशक, वेद-संस्थन, सी-22 राजौरी गार्डन, नई दिल्ली ने लिखी है। जिन बन्धुओं को महापुरुषों व महात्माओं की जीवन पढ़ना प्रिय हो, वह इस पुस्तक को पढ़कर लाभान्वित हो सकते हैं। हमने महात्मा दयानन्द वानप्रस्थी जी को साक्षात् देखा है। वह वस्तुतः उच्च कोटि के साधक, भक्तहृदय, सन्त एवं यज्ञों में अटूट श्रद्धा व निष्ठा रखने वाले महात्मा थे। उनके कार्यों से वैदिक धर्म एवं संस्कृति के प्रचार में बहुत सहायता मिली। उनके प्रेरणादायक जीवन की विस्तृत जानकारी पुस्तक को पढ़कर ही प्राप्त की जा सकती है।

अपनी मेहनत व लगन पर विश्वास रखते हैं ये, किसी के सामने हाथ फैलाना पसंद नहीं  

मजदूर दिवस (1 मई स्पेशल)

                                                         मुरली मनोहर श्रीवास्तव

मेहनत उसकी लाठी हैं,

मजबूती उसकी काठी हैं।

बुलंदी नहीं पर नीव हैं,

यही मजदूरी जीव हैं।

मजदूर का मतलब हमेशा गरीब से नहीं होता हैं, मजदूर वह ईकाई हैं, जो हर सफलता का अभिन्न अंग हैं, फिर चाहे वो ईंट-गारे में सना इन्सान हो या ऑफिस की फाइल्स के बोझ तले दबा एक कर्मचारी। हर वो इन्सान जो किसी संस्था के लिए काम करता हैं और बदले में पैसे लेता हैं, वो मजदूर हैं। मजदूर तुच्छ नहीं है, मजदूर समाज की एक महत्वपूर्ण इकाई है। 

मजदूर वर्ग समाज का एक अभिन्न अंग है। मगर हमारे समाज में मजदूर को हमेशा गरीब ही समझा जाता है। समाज को मजबूत व परिपक्व बनाता है, समाज को सफलता की ओर ले जाता है। मजदूर वर्ग में वे सभी लोग आते है, जो किसी संस्था या निजी तौर पर किसी के लिए काम करते है और बदले में मेहनतामा लेते है। ईट सीमेंट से सना इन्सान हो या दफ्तर में फाइल के बोझ तले बैठा कोई कर्मचारी। इन्ही सब मजदूर, श्रमिक को सम्मान देने के लिए मजदूर दिवस मनाया जाता है।

80 देशों में 1 मई को राष्ट्रीय छूट्टी घोषित हैः

1 मई को अंतराष्ट्रीय मजदूर दिवस के रुप में पूरी दूनिया में मनाया जाता है, ताकि मजदूर एसोसिएशन को बढ़ावा व प्रोत्साहन मिल सके। यूरोप में तो इसे पारंपरिक तौर पर बसंत की छुट्टी घोषित किया गया है। दूनिया के लगभग 80 देशों में इस दिन को राष्ट्रीय छूट्टी घोषित की गई है। अमेरिका व कनाडा में मजदूर दिवस सितम्बर महीने के प्रथम सोमवार को मनाया जाता है। भारत में हम इसे श्रमिक दिवस भी कहते है। मजदूर को मजबूर समझना हमारी सबसे बड़ी गलती है, वह अपने खून पसीने की खाता है। ये ऐसे स्वाभिमानी लोग होते है, जो थोड़े में भी खुश रहते है एवं अपनी मेहनत व लगन पर विश्वास रखते है इन्हें किसी के सामने हाथ फैलाना पसंद नहीं होता है।

मजदूर दिवस की शुरुआत लेबर किसान पार्टी ऑफ़ हिंदूस्तान ने की

भारत में श्रमिक दिवस को कामकाजी आदमी व महिलाओं के सम्मान में मनाया जाता है। पहली बार भारत में चेन्नई में 1 मई 1923 को मजदूर दिवस मनाया गया था, इसकी शुरुआत लेबर किसान पार्टी ऑफ़ हिंदूस्तान ने की थी। इस मौके पर पहली बार भारत में आजादी के पहले लाल झंडा का उपयोग किया गया था. इस पार्टी के लीडर सिंगारावेलु चेत्तिअर ने इस दिन को मनाने के लिए 2 जगह कार्यक्रम आयोजित किये थे।

विश्व में विरोध के रुप में मनाया जाता है

1 मई 1986 को अमेरिका के सभी मजदूर संगठनों ने मिलकर निश्चय किया था कि वे 8 घंटो से ज्यादा काम नहीं करेंगे। जबकि पहले श्रमिक वर्ग से 10-16 घंटे काम करवाया जाता था, साथ ही उनकी सुरक्षा का भी ध्यान नहीं रखा जाता था। श्रमिक दिवस को ना सिर्फ भारत में बल्कि पूरे विश्व में एक विरोध के रूप में मनाया जाता है। कामकाजी पुरुष व महिला अपने अधिकारों व हित की रक्षा के लिए सड़क पर उतरकर जुलूस निकालते हैं। ऐसा करने से श्रमिक दिवस के प्रति लोगों की सामाजिक जागरूकता भी बढ़ती है।

अधिकारो के लिए प्रदर्शन पर चली थी गोलियां

अपने अधिकारों को लेकर अनेक संगठनों के मजदूरों ने 4 मई को शिकागो के हेमार्केट में अचानक किसी आदमी के द्वारा बम ब्लास्ट कर दिया गया। वहां मौजूद पुलिस ने अंधाधुंध गोली बरसायीं, जिससे बहुत से मजदूर व आम आदमी की मौत हो गई। इस विरोध का अमेरिका में तुरंत परिणाम नहीं मिला, लेकिन कर्मचारियों व् समाजसेवियों की मदद के फलस्वरूप कुछ समय बाद भारत व अन्य देशों में 8 घंटे वाली काम की पद्धति को अपनाया जाने लगा।

महाराष्ट्रगुजरात दिवस

1960 में बम्बई को भाषा के आधार पर 2 हिस्सों में विभाजित कर दिया गया था, जिससे गुजरात व महाराष्ट्र को 01 मई स्वतंत्र राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ था। इसलिए मई दिवस के दिन महाराष्ट्र दिवस व गुजरात दिवस के रूप में मनाया जाता है।

मजदूर दिवस

मना रहे है हर वर्ष मजदूर दिवस,
फिर भी मजदूर आज भी विवश।
बदल नही पाए उसकी विवशता,
चाहे मना लो तुम कितने दिवस।।

जो बनाता है मकान दुसरो के लिए,
नही बना सका मकान खुद के लिए।
वह मर रहा है आज भी देश के लिए,
बताओ कौन मर रहा है उसके लिए।।

कितने ही दशक आज बीत चुके है,
उसका जीवन न हम बदल चुके है।
रहा मजबूर मजदूर वैसा जैसा ही,
बताओ कितने प्रयत्न कर चुके है।।

आर के रस्तोगी