Home Blog Page 437

महात्मा दयानन्द वानप्रस्थ के व्यक्तित्व विषयक कुछ संस्मरण

-मनमोहन कुमार आर्य
महात्मा दयानन्द वानप्रस्थ (जन्म 18-1-1912 मृत्यु 20-1-1989) वैदिक धर्म, ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के निष्ठावान अनुयायी एवं वेद, यज्ञ एवं साधना के प्रचारक थे। उनका जीवन धर्म, संस्कृति के प्रचार एवं यज्ञ-योग-साधना को समर्पित था। उन्होंने वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून के द्वारा देश के विभिन्न भागों में जाकर यज्ञ एवं योग आदि का प्रचार किया था। उनके जन्म चरित्र से आज हम स्वामी सर्वानन्द सरस्वती जी द्वारा प्रस्तुत विचारों वा श्रद्धांजलि को प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे उनके जीवन, गुणों एवं कार्यों पर प्रकाश पर पड़ता है। स्वामी सर्वानन्द सरस्वती जी की श्रद्धांजलि प्रस्तुत है।

कई वर्ष पहले (सन् 1990 से पूर्व) की बात है कि महात्मा दयानन्द जी महाराज जम्मू से लौटते हुए दयानन्द मठ, दीनानगर में पधारे। उनके साथ जो सज्जन थे उनका नाम स्मरण नहीं रहा, जो उनके विशेष भक्त थे। महात्मा जी से मेरा यह पहला परिचय था। उनकी भव्य, सौम्य आकृति का मुझ पर एक विशेष प्रभाव पड़ा। उनकी बातों में, उनके विचारों में, उनकी आकृति में एक विशेष माधुर्य देखा। उस दिन के प्श्चात् हम दोनों का सम्बन्ध घनिष्ठ ही होता गया। मेरे हृदय में उनके लिए एक विशेष स्थान बन गया। वैदिक यति-मण्डल की सदस्यता महात्मा जी ने सहर्ष स्वीकार की और वैदिक यति-मण्डल के कार्यकर्ता प्रधान अन्त तक रहे। महात्मा जी ने वैदिक-यति-मण्डल की एक बैठक वैदिक साधना आश्रम, देहरादून में बुलाई। उस समय आश्रम में यज्ञ तथा उत्सव चल रहा था। महर्षि निर्वाण शताब्दी (अक्टूबर सन् 1883) अजमेर में मनाई जाए, वैदिक यति-मण्डल की यह इच्छा थी। सार्वदेशिक सभा के अधिकारियों का विचार देहली में करने का था। उस समय वहां वैदिक यति-मण्डल ने निश्चय किया कि महर्षि ने अपना पंचभौतिक शरीर अजमेर में ही छोड़ा था, इसलिये निर्वाण शताब्दी वहीं मनाई जाए। यह बहुत बड़ा कार्य था। इसके लिए महात्मा जी ने सबको बहुत प्रोत्साहन दिया। 

श्री स्वामी ओमानन्द जी सरस्वती ने महर्षि निर्वाण शताब्दी के लिए कई लाख रुपया एकत्रित करने का निश्चय किया। श्री स्वामी सत्यप्रकाश जी सरस्वती महाराज ने भोजन सामग्री एकत्रित करने का कार्य लिया। श्री महात्मा दयानन्द जी महाराज से प्रार्थना की गई कि आप यज्ञ कार्य सम्भालने की कृपा करें। महात्मा जी ने इसे सहर्ष स्वीकार किया। कई लोगों ने यज्ञ के लिए अन्य बड़े विद्वानों के नाम प्रस्तुत किये और बहुत बल दिया कि यज्ञ कराने वाले बड़े विद्वान आर्यसमाज में विद्यमान हैं और यज्ञ विधियों के विशेषज्ञ भी हैं। यह बहुत बड़ा यज्ञ है जो उन्हीं विद्वानों के द्वारा किया जाना चाहिए। किन्तु वैदिक यति-मण्डल के सदस्यों, विशेषकर श्री स्वामी ओमानन्द जी महाराज ने कहा कि महात्मा दयानन्द जी की वेद में जो निष्ठा और श्रद्धा है वह अन्यों में दिखाई नहीं देती और महात्मा जी के द्वारा यज्ञों का बहुत प्रचार होता आ रहा है। इसलिये यह निर्वाण शताब्दी (अक्टूबर, 1883) का बृहद् यज्ञ महात्मा जी ही करेंगे। महात्मा जी ने यज्ञ सम्बन्धी सब भार अपने ऊपर लेने का निश्चय किया। अपने अनेक श्रद्धालु भक्तों को यज्ञ के लिए प्रेरित करते हुए महात्मा जी अजमेर में होने वाले इस यज्ञ के लिए अनेक स्थानों में भ्रमण करते हुए अजमेर पहुंच गये और निर्वाण शताब्दी से एक मास पूर्व आपने चारों वेदों का यज्ञ आरम्भ कर दिया। 

इस यज्ञ में कई मन घी और बहुतसी सामग्री लगी, जो महात्मा जी ने अपने प्रभाव से वहां एकत्रित होती रही। महात्मा जी ने यज्ञ के साथ ऋषि लंगर भी आरम्भ कर दिया था, जिसमें सैकड़ों आदमी प्रतिदिन भोजन करते थे। शताब्दी के आरम्भिक कुछ दिनों में हजारों लोग शताब्दी के लिए पहुंच गये जो सभी महात्मा जी के ऋषि लंगर में भोजन करते रहे क्योंकि अभी शताब्दी के प्रबन्धकों ने ऋषि लंगर प्रारम्भ नहीं किया था। यह यज्ञ और लंगर बहुत ही प्रभावशाली ढंग से हुआ। यह सब महात्मा जी के व्यक्तित्व का प्रभाव था। दयानन्द आश्रम केसरगंज अजमेर में भव्य यज्ञशाला के निर्माण में भी इन्हीं का विशेष हाथ था। अजमेर में बहुत से लोग पुष्कर देखने गये। वहां महर्षि दयनन्द जी ने मन्दिर में एक छोटीसी कोठरी में कुछ समय निवास किया था। उसे भी भव्य बनाने के लिए महात्मा जी ने धन की अपील की और पर्याप्त धन एकत्रित हो गया जिससे उस कुटिया को नया सुन्दर रूप दिया गया। निर्वाण शताब्दी के अन्त में बहुत सी भोजन सामग्री जो बच गई थी, अजमेर की कई संस्थाओं को दान दी गई और 18000/- रुपया नकद परोपकारिणी सभा को दिया। निर्वाण शताब्दी की सफलता में उनका बहुत बड़ा योगदान था। श्री महात्मा जी ने हजारों नास्तिकों को आस्तिक तथा यज्ञ के श्रद्धालु बनाया। बहुत दीर्घकाल तक सहस्रों लोगों के हृदय में उनकी स्मृति बनी ही रहेगी तथा वे लोग महात्माजी के स्मरण मात्र से अनेक दोषों से बचे रहेंगे। ऐसे महापुरुष जीवन में मनुष्य समाज में सच्ची सेवा कर जाते हैं और अपने जीवन का साफल्य भी। 

स्वामी सर्वानन्द सरस्वती जी वैदिक यति मण्डल के अध्यक्ष रहे। उनके द्वारा महात्मा दयानन्द वानप्रस्थ जी पर प्रस्तुत उपर्युक्त विचार पढ़कर हमारी महात्मा दयानन्द जी के प्रति श्रद्धा में विस्तार हुआ। हम देहरादून के तपोवन के वर्ष में दो बार होने वाले वृहदयज्ञों, ग्रीष्म एवं शरदुत्सव, में सम्मिलित होते थे। महात्मा दयानन्द द्वारा ही आश्रम के सभी वेदपारायण यज्ञ कराये जाते थे। यज्ञ के मध्य में वह यज्ञ के महत्व सहित मन्त्रों के अर्थों पर भी प्रकाश डालते थे। महात्मा जी बहुत भावुक हृदय के थे। बोलते बोलते अनेक बार उनकी आंखें भर आती थी। श्रद्धालु श्रोता भी उनकी इस स्थिति से प्रभावित होकर स्वयं भी भावविभोर हो जाते थे। हमारा सौभाग्य है कि हमें महात्मा जी द्वारा कराये गये अनेक यज्ञों में सम्मिलित होने सहित उनसे वार्तालाप करने और उनके उपदेशों का श्रवण करने का अवसर मिला। कुछ दिनों से हम महात्मा दयानन्द वानप्रस्थ जी की जीवनगाथा को देख रहे थे। आज हमें स्वामी सर्वानन्द महाराज जी की इन पंक्तियों को प्रस्तुत करने इच्छा हुई। इससे पाठकों को महात्मा दयानन्द जी के व्यक्तित्व की एक झलकी दिखेगी। महात्मा दयानन्द वानप्रस्थ जी की सुपुत्री माता सुरेन्द्र अरोड़ा वर्तमान में देहरादून में रहती हैं। वह वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून सहित स्थानीय आर्यसमाज की संस्थाओं की यज्ञ एवं उत्सव आदि गतिविधियों में भी उपस्थित होती हैं। वैदिक साधन आश्रम तपोवन में आयोजित सभी उत्सवों में महिला सम्मेलन आयोजित किया जाता है, जिनकी संयोजिका माता सुरेन्द्र अरोड़ा जी ही होती हैं। माता सुरेन्द्र अरोड़ा जी अत्यन्त स्वाध्यायशील एवं विदुषी महिला हैं। उन्होंने कुछ समय पाणिनी कन्या विद्यालय, वाराणसी में भी संस्कृत व्याकरण का अध्ययन किया। महात्मा प्रभु आश्रित जी की प्रेरणा से एक याज्ञिक परिवार में उनका विवाह हुआ था। वह व उनके पति यज्ञ के अनन्य प्रेमी रहे। यह दम्पति अपने निवास पर विद्वान आचार्यों से वृहद यज्ञों का अनुष्ठान कराते रहे और स्वयं भी दैनिक यज्ञ आदि कृत्यों को करते रहें व अब भी माता जी करती हैं। वृहद यज्ञों में आर्थिक सहयोग भी करती हैं। हमें वर्तमान में भी आर्यसमाजिक संस्थाओं में माता सुरेन्द्र अरोड़ा जी के दर्शन करने का सौभाग्य मिलता रहता है। महात्मा जी के जीवन के कुछ पक्षों से परिचित कराने के लिए हमने यह पंक्तियां प्रस्तुत की हैं। 

यह भी बता दें की महात्मा दयानन्द वानप्रस्थ जी की जीवन गाथा फरवरी 1990 ईसवी में वैदिक भक्ति साधन आश्रम रोहतक से प्रकाशित हुई थी। इसकी 1100 प्रतियां प्रकाशित की गईं थी। इस पुस्तक के लेखक थे श्री हरकृष्ण लाल ओबराय जी।  पुस्तक के लेखक ने इस पुस्तक को उन सहस्रों परिवारों को समर्पित किया है जिन्होंने महात्मा जी से प्रेरणा पाकर अपने जीवन को यज्ञमय बनाया। पुस्तक में महात्मा प्रभु भिक्षु जी द्वारा लिखित प्रकाशकीय भी है। पूर्वपीठिका नाम से पुस्तक लेखक ने कई पृष्ठों में इस पुस्तक लेखन की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डाला है। पुस्तक की भूमिका श्री फतहसिंह एम.ए. डी.लिट्, शोध निदेशक, वेद-संस्थन, सी-22 राजौरी गार्डन, नई दिल्ली ने लिखी है। जिन बन्धुओं को महापुरुषों व महात्माओं की जीवन पढ़ना प्रिय हो, वह इस पुस्तक को पढ़कर लाभान्वित हो सकते हैं। हमने महात्मा दयानन्द वानप्रस्थी जी को साक्षात् देखा है। वह वस्तुतः उच्च कोटि के साधक, भक्तहृदय, सन्त एवं यज्ञों में अटूट श्रद्धा व निष्ठा रखने वाले महात्मा थे। उनके कार्यों से वैदिक धर्म एवं संस्कृति के प्रचार में बहुत सहायता मिली। उनके प्रेरणादायक जीवन की विस्तृत जानकारी पुस्तक को पढ़कर ही प्राप्त की जा सकती है।

अपनी मेहनत व लगन पर विश्वास रखते हैं ये, किसी के सामने हाथ फैलाना पसंद नहीं  

मजदूर दिवस (1 मई स्पेशल)

                                                         मुरली मनोहर श्रीवास्तव

मेहनत उसकी लाठी हैं,

मजबूती उसकी काठी हैं।

बुलंदी नहीं पर नीव हैं,

यही मजदूरी जीव हैं।

मजदूर का मतलब हमेशा गरीब से नहीं होता हैं, मजदूर वह ईकाई हैं, जो हर सफलता का अभिन्न अंग हैं, फिर चाहे वो ईंट-गारे में सना इन्सान हो या ऑफिस की फाइल्स के बोझ तले दबा एक कर्मचारी। हर वो इन्सान जो किसी संस्था के लिए काम करता हैं और बदले में पैसे लेता हैं, वो मजदूर हैं। मजदूर तुच्छ नहीं है, मजदूर समाज की एक महत्वपूर्ण इकाई है। 

मजदूर वर्ग समाज का एक अभिन्न अंग है। मगर हमारे समाज में मजदूर को हमेशा गरीब ही समझा जाता है। समाज को मजबूत व परिपक्व बनाता है, समाज को सफलता की ओर ले जाता है। मजदूर वर्ग में वे सभी लोग आते है, जो किसी संस्था या निजी तौर पर किसी के लिए काम करते है और बदले में मेहनतामा लेते है। ईट सीमेंट से सना इन्सान हो या दफ्तर में फाइल के बोझ तले बैठा कोई कर्मचारी। इन्ही सब मजदूर, श्रमिक को सम्मान देने के लिए मजदूर दिवस मनाया जाता है।

80 देशों में 1 मई को राष्ट्रीय छूट्टी घोषित हैः

1 मई को अंतराष्ट्रीय मजदूर दिवस के रुप में पूरी दूनिया में मनाया जाता है, ताकि मजदूर एसोसिएशन को बढ़ावा व प्रोत्साहन मिल सके। यूरोप में तो इसे पारंपरिक तौर पर बसंत की छुट्टी घोषित किया गया है। दूनिया के लगभग 80 देशों में इस दिन को राष्ट्रीय छूट्टी घोषित की गई है। अमेरिका व कनाडा में मजदूर दिवस सितम्बर महीने के प्रथम सोमवार को मनाया जाता है। भारत में हम इसे श्रमिक दिवस भी कहते है। मजदूर को मजबूर समझना हमारी सबसे बड़ी गलती है, वह अपने खून पसीने की खाता है। ये ऐसे स्वाभिमानी लोग होते है, जो थोड़े में भी खुश रहते है एवं अपनी मेहनत व लगन पर विश्वास रखते है इन्हें किसी के सामने हाथ फैलाना पसंद नहीं होता है।

मजदूर दिवस की शुरुआत लेबर किसान पार्टी ऑफ़ हिंदूस्तान ने की

भारत में श्रमिक दिवस को कामकाजी आदमी व महिलाओं के सम्मान में मनाया जाता है। पहली बार भारत में चेन्नई में 1 मई 1923 को मजदूर दिवस मनाया गया था, इसकी शुरुआत लेबर किसान पार्टी ऑफ़ हिंदूस्तान ने की थी। इस मौके पर पहली बार भारत में आजादी के पहले लाल झंडा का उपयोग किया गया था. इस पार्टी के लीडर सिंगारावेलु चेत्तिअर ने इस दिन को मनाने के लिए 2 जगह कार्यक्रम आयोजित किये थे।

विश्व में विरोध के रुप में मनाया जाता है

1 मई 1986 को अमेरिका के सभी मजदूर संगठनों ने मिलकर निश्चय किया था कि वे 8 घंटो से ज्यादा काम नहीं करेंगे। जबकि पहले श्रमिक वर्ग से 10-16 घंटे काम करवाया जाता था, साथ ही उनकी सुरक्षा का भी ध्यान नहीं रखा जाता था। श्रमिक दिवस को ना सिर्फ भारत में बल्कि पूरे विश्व में एक विरोध के रूप में मनाया जाता है। कामकाजी पुरुष व महिला अपने अधिकारों व हित की रक्षा के लिए सड़क पर उतरकर जुलूस निकालते हैं। ऐसा करने से श्रमिक दिवस के प्रति लोगों की सामाजिक जागरूकता भी बढ़ती है।

अधिकारो के लिए प्रदर्शन पर चली थी गोलियां

अपने अधिकारों को लेकर अनेक संगठनों के मजदूरों ने 4 मई को शिकागो के हेमार्केट में अचानक किसी आदमी के द्वारा बम ब्लास्ट कर दिया गया। वहां मौजूद पुलिस ने अंधाधुंध गोली बरसायीं, जिससे बहुत से मजदूर व आम आदमी की मौत हो गई। इस विरोध का अमेरिका में तुरंत परिणाम नहीं मिला, लेकिन कर्मचारियों व् समाजसेवियों की मदद के फलस्वरूप कुछ समय बाद भारत व अन्य देशों में 8 घंटे वाली काम की पद्धति को अपनाया जाने लगा।

महाराष्ट्रगुजरात दिवस

1960 में बम्बई को भाषा के आधार पर 2 हिस्सों में विभाजित कर दिया गया था, जिससे गुजरात व महाराष्ट्र को 01 मई स्वतंत्र राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ था। इसलिए मई दिवस के दिन महाराष्ट्र दिवस व गुजरात दिवस के रूप में मनाया जाता है।

मजदूर दिवस

मना रहे है हर वर्ष मजदूर दिवस,
फिर भी मजदूर आज भी विवश।
बदल नही पाए उसकी विवशता,
चाहे मना लो तुम कितने दिवस।।

जो बनाता है मकान दुसरो के लिए,
नही बना सका मकान खुद के लिए।
वह मर रहा है आज भी देश के लिए,
बताओ कौन मर रहा है उसके लिए।।

कितने ही दशक आज बीत चुके है,
उसका जीवन न हम बदल चुके है।
रहा मजबूर मजदूर वैसा जैसा ही,
बताओ कितने प्रयत्न कर चुके है।।

आर के रस्तोगी

1971 (फ़िल्म समीक्षा)

पहले ने पूछा –
“एक बात बताओ, ये पाकिस्तान में अपने पंजाबी भाई रहते हैं ।
“हां रहते हैं “ दूसरे ने कहा ।
“और सिंधी भी रहते हैं पाकिस्तान में “ पहले ने फिर पूछा ?
“हां सिंधी भी रहते हैं पाकिस्तान में “ दूसरे ने फिर उत्तर दिया।
“और अपने मुसलमान बिरादर तो पाकिस्तान में रहते ही हैं ना “
पहले ने फिर पूछा ।
“हां ,मुसलमान बिरादर भी पाकिस्तान में रहते हैं क्यों“
दूसरे ने झल्लाते हुए फिर जवाब दिया।
“अरे सब तो हिंदुस्तान में भी रहते हैं ,फिर पाकिस्तान बनाने की जरूरत ही क्या थी”
पहले ने ठंडी सांस लेते हुए फिर सवाल किया।
“गलती हो गयी ,अब नहीं बनाएंगे दुबारा पाकिस्तान “
दूसरे ने फिर झल्लाते हुए उत्तर दिया।
लेकिन ये गलती भारत की बॉर्डर की पोस्ट पर तैनात सेना की एक यूनिट का अफसर भी करता है जो लाइन ऑफ कन्ट्रोल पर पहुंचे मेजर सूरज सिंह के बारे में पाकिस्तान के फौजी अफसर की बात को मान लेता है ।

लेकिन बेहोश हिंदुस्तानी प्रिजनर ऑफ वार (मेजर सूरज सिंह ) के बदन पर पाकिस्तान की सेना की वर्दी और फौजी अफसर का परिचय पत्र भी होता है ,जिस पाकिस्तानी वर्दी और सेना के परिचय पत्र के बदौलत मेजर सूरज सिंह पाकिस्तानी फौज के कहर से पाकिस्तान में बचने में कामयाब हो जाते हैं लाइन ऑफ कन्ट्रोल पर वही चीज उनके खिलाफ हो जाती है ।
किसी ने सत्य ही कहा कि आंखों देखा सच भी कभी -कभी सच नहीं होता है।
“अश्वत्थामा हतो ,नरो या कुंजरो “ वाली बात इस फ़िल्म में लाइन ऑफ कन्ट्रोल पर चरितार्थ होती है।
पिछले बहुत वर्षों से युद्दबन्दियों पर बनी फिल्मों में ये फ़िल्म अनूठी है । फ़िल्म का समय 1977 का दिखाया गया है यानी कि जब भारत का भी राजनैतिक परिवेश अस्थिर था। क्योंकि हाल के वर्षों में अभिनन्दन को पाकिस्तान में पकड़ा गया लेकिन राजनीति,कूटनीति की बदौलत उनको सकुशल छुड़वा लिया गया।
लेकिन 1977 का भारत न तो राजनैतिक रूप से इतना स्थिर था और ना ही इतना मजबूत । वरना 1977 के इन पांच पांडवों (5 प्रिजनर्स ऑफ वार “ को समूची कौरव सेना (पाकिस्तानी सेना) से कुरुक्षेत्र में महाभारत ना करनी पड़ती।
फ़िल्म मोतीलाल सागर की लिखी एक वास्तविक कहानी पर आधारित है जैसा कि बताया जा रहा है। फ़िल्म की कहानी शुरु होती है जिसमें आर्मी और एयरफोर्स के कुछ प्रिजनर्स ऑफ वार पाकिस्तान ने पकड़ रखे हैं जिनकी संख्या पचास से ज्यादा है जो पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में बंद हैं। ये 1965 और 1971 की जंग के प्रिजनर्स आफ वार हैं।
बांग्लादेश की जंग एक सच्चाई है और उस हार से पाकिस्तान अभी तक उबर नहीं पाया है । और 1977 में तो पाकिस्तान के घाव और भी ताजा थे इसलिये हमने जंग के बाद उनके 93000 हजार सैनिक छोड़ दिये थे और वो पचास भी नहीं छोड़ सके।
“जंग रहमत है लानत
ये सवाल अब ना उठा
जंग सब सर पे आ ही गयी
तो रहमत होगी
दूर से देख ना भड़के हुए
शोलों का जलाल
इसी दोजख के किसी
कोने में जन्नत होगी”
दोजख जैसी ज़िंदगी जी रहे बैरक नम्बर छह के छह कैदी इसी जन्नत यानी हिंदुस्तान की तरफ जाने की कोशिश करते हैं जिसमें से एक फौजी बेस कैंप पर ही शहीद हो जाता है और बाकी पांच समर के लिये निकल पड़ते हैं।
उन सभी कैदियों को जिनेवा कन्वेंशन के तहत प्रिजनर्स ऑफ वार माना जाता है और प्रिजनर्स ऑफ वार को कुछ मूलभूत अधिकार प्राप्त हैं जिनमें से एक है उनकी सकुशल घर वापसी। लेकिन पाकिस्तान उन कैदियों को छोड़ना नहीं चाहता और भविष्य में की जा सकने वाली अपनी किसी सम्भावित ब्लैकमेलिंग के लिये इनको बचाकर रखना चाहता है। इसलिये पाकिस्तान ऑफिशयली इस बात से इंकार करता है कि उसके पास कोई हिंदुस्तानी प्रिजनर्स ऑफ वार हैं। बकौल पाक उस समयकाल में पाकिस्तान के पास कोई प्रिजनर्स ऑफ वार नहीं थे जबकि ये थे और पचास से ज्यादा थे 1977 में।
भारत में किसी तरह वहां के युद्दबन्दी खत भेज देते हैं और उसी खत को आधार मानते हुए रेडक्रॉस की मदद से युद्दबन्दियों के परिवार उनकी तलाश में पाकिस्तान जाते हैं।
पाकिस्तान को दुनिया की नजर में गुड ब्याव भी बने रहना है ,जिनेवा कनवेंशन की इज्जत रखने का दिखावा भी करना है और भारतीय युद्दबन्दियों को लौटाना भी नहीं है।
इसलिये पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में बंद भारतीय कैदी रेडक्रॉस और पाकिस्तान ह्यूमन राइट्स कमीशन की नजरों से बचाने के लिये चकलाला नामक जगह पर एक इकट्ठे किये जाते हैं ताकि रेडक्रॉस और पाकिस्तान ह्यूमन राइट्स कमीशन की जेलों में जांच पूरी होने के बाद उन्हें फिर से वापस पाकिस्तान की विभन्न जेलों में वापस भेजा जा सके भविष्य में हिंदुस्तान से होने वाली किसी ब्लैकमेलिंग में उनका इस्तेमाल किया जा सके।
लेकिन पहले ही भागने की नाकाम कोशिश कर चुके भारतीय सिपाही फिर भागने की फिराक में जुट जाते हैं। फ़िल्म का शुरुआती दृश्य ही मेजर सूरज सिंह राजपूताना रेजीमेंट के भागने के निष्फल प्रयास से टार्चर किये जाने की कहानी कहती है ।
14 अगस्त को पाकिस्तान की आजादी के दिन पांच युद्दबन्दी पाकिस्तान कश्मीर के मुजफ्फराबाद से सौ किलोमीटर की दूरी पर बनायी गए आर्मी के बेस कैम्प से पाकिस्तनी सिपाहियों की वर्दी पहनकर उन्हीं की गाड़ी लेकर भागते हैं हिंदुस्तान के लिये। और उसके बाद समूचे पाकिस्तान की सेना और उन पांच युद्दबन्दियों के पीछे पड़ जाती है ताकि ना तो वो पाकिस्तान ह्यूमन राइट कमीशन की नजरों में आ सकें और ना ही रेडक्रॉस के और हिंदुस्तान बॉर्डर तक तो हर्गिज ही ना पहुंच सकें।
पाकिस्तानियों के बेस कैंप पर बम विस्फोट करके भारत के बॉर्डर की तरफ भागे पांच युध्द बंदी ना सिर्फ उनका वाहन लेकर फरार होते हैं लेकिन हथियार भी साथ ले जाते हैं और यहीं से शुरू होता है सशस्त्र विद्रोह । पांच पांडव की तरह ये पांच युद्दबन्दी हिंदुस्तान के बॉर्डर की तरफ भागते हुए पाक सेना से तो लड़ते ही हैं बल्कि मौसम और दुरूह रास्तों से भी जूझते हैं। आम कैदी और फौज के युद्दबन्दियों के भागने के मकसद और तौर -तरीकों को भी फ़िल्म में दिखाया गया है।
फ़िल्म को दो राष्ट्रीय पुरस्कार मिले हैं । अभिनय लगभगसभी का बढ़िया है । मनोज वाजपेयी का अभिनय बेहद उम्दा है , कुमुद मिश्रा, रवि किशन ने भी अच्छा अभिनय किया है , दीपक डोबरियाल अपनी पहली फ़िल्म में ही बेजोड़ रहे हैं और मानव कौल के साथ उनकी केमेस्ट्री अच्छी जमी है।पीयूष मिश्रा अपनी छोटी सी भूमिका में छाप छोड़ने में सफल रहे हैं।
फ़िल्म में गीत -संगीत ना के बराबर है और उसकी गुंजाइश भी कम ही थी ,सिनेमेटोग्राफी अच्छी है ,पहाड़ों और बर्फ के सीन अच्छे बन पड़े हैं। कहानी थोड़ा और बेहतर हो सकती थी क्योंकि उम्मीदों और संघर्षो से जूझती हुई कहानियों के अंत ऐसे प्रत्याशित नहीं होते जैसा इस फ़िल्म में है।
फ़िल्म में पाकिस्तान के लोगों का हिंदी बोलना काफी अखरता है और पंजाबी मिश्रित उर्दू की कमी भी खटकती है जो कि पाकिस्तान की प्रमुख भाषा है। युद्दबन्दियों के भयानक टॉर्चर का ज़िक्र पूरी फिल्म में है लेकिन उसको दिखाया कहीं नहीं गया है। पाकिस्तान में ह्यूमन राइट्स कमीशन के लोगों को बेहद पावरफुल दिखया गया है जो सेना के टॉप कमांडरों से उलझते दिखती हैं जबकि फ़िल्म में पाकिस्तान उस समय मिलट्री शासन था। मिलिट्री शासन में ह्यूमन राइट्स कमीशन वालों का पाक फौज के अफसरों को हड़काना काफी हास्यास्पद लगता है। लेखकद्वय अमृत सागर और पीयूष मिश्रा ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि दक्षिण एशिया में ह्यूमन राइट्स की संस्थाएं बिना नाखून की शेर हैं।
सागर पिक्चर्स के बैनर तले बनी इस फ़िल्म की कहानी मोतीलाल सागर ने लिखी थी जिस पर उनके सुपुत्र अमृत सागर ने फ़िल्म बनायी । इसके पहले भी इस विषय पर कई फिल्में बन चुकी हैं लेकिन ये शायद सबसे ज्यादा प्रेक्टिकल फ़िल्म है इंडो -पाक के प्रिजनर्स ऑफ वार पर।
फ़िल्म 2007 में रिलीज हुई थी लेकिन ढंग से रिलीज भी नहीं हो पायी थी ,फ़िल्म को पर्याप्त थियटर नहीं मिले थे और कुछ ही हफ्तों में ना सिर्फ सिनेमाघरों से उतर गई बल्कि भुला भी दी गयी। मनोज वाजपेई के इसरार पर अमृत सागर ने फ़िल्म को राष्ट्रीय पुरस्कारों के लिए भेज दिया। चमत्कार ये हुआ कि फ़िल्म को 2009 में दो नेशनल अवार्ड मिल गए। जिसमें से एक अवार्ड उस वर्ष की सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय फ़िल्म का था और दूसरा सर्वश्रेष्ठ आडियोग्राफी का।
अवार्ड पाने के बाद भी फ़िल्म गुमनाम ही रही । लाकडाउन के दौरान किसी ने मनोज वाजपेयी से 1971 फ़िल्म को देखने की इच्छा जाहिर की ,उन्होंने अमृत सागर को टैग कर दिया और अमृत सागर ने इस फ़िल्म को यूट्यूब पर डाल दिया । पांच पांडवों के वनवास की तरह इस फ़िल्म ने अपना बारह वर्षों का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास काटते हुए यूट्यूब पर आते ही इतिहास रच दिया और अब तक करीब पौने पांच करोड़ लोग इस फ़िल्म को देख चुके हैं।
इसे फ़िल्म को मनोज वाजपेयी के जीवन का सर्वश्रेष्ठ काम माना जा रहा है । फ़िल्म आप भी देखें और इस बात पर अपना सिर धुनें कि सागर पिक्चर्स जैसे बड़े बैनर के तले बनी ऐसी बेहतरीन फिल्मों को अगर रिलीज होने के लिये पर्याप्त थियेटर नहीं मिलते तो हिंदी फिल्म इंडस्ट्री यानी बॉलीवुड कितने गहरे दलदल में है और समय आ गया कि हिंदी सिनेमा के कुत्सित चक्रव्यूह से ऐसी फिल्में निकलें और आम दर्शकों को तभी देखने को मिल सकें जब ये बनी हों।
लेकिन फिर भी आप ये फ़िल्म देखें क्योंकि अच्छा सिनेमा और साहित्य कभी बासी नहीं होता है।
दिलीप कुमार

इफ़्तार पार्टी में ‘टोपी बाज़ी’ का क्या औचित्य ?

तनवीर जाफ़री

                                          इस्लाम धर्म में रमज़ान के महीने को ख़ास इबादत और तपस्या के महीने के रूप में देखा जाता है। रमज़ान में ब्रह्म मुहूर्त काल से लेकर सूर्यास्त के समय तक केवल भूखे प्यासे रहकर कठिन ''उपवास' ही नहीं रखा जाता बल्कि नियमित रूप से नमाज़ें भी अदा की जाती और क़ुरान शरीफ़ की तिलावत भी की जाती है। माह-ए-रमज़ान में कई विशेष तिथियां भी ऐसी हैं जिनमें रोज़दार सारी सारी रात ख़ुदा की इबादत करते हैं,क़ुरान शरीफ़ व नमाज़ें पढ़ते व आमाल आदि करते हैं। इसी माह के अंत में रमज़ान में ज़कात और फ़ितरा (दान ) आदि भी निकाला जाता है। और इन सबसे बड़ी बात यह कि इतने कठिन उपवास के साथ साथ एक सच्चा रोज़दार स्वयं को दुनिया की हर प्रकार की बुराइयों से स्वयं को दूर रखने की कोशिश करता है। यहाँ तक कि दिमाग़ में किसी प्रकार के बुरे विचार आने से भी रोज़ा 'अपूर्ण ' माना जाता है। अल्लाह व ईश्वर की इस तपस्या पूर्ण आराधना के एक माह सफलता पूर्वक गुज़र जाने के बाद ही ईद का त्यौहार मनाया जाता है।
                                         इस्लाम के अनुयायियों की 30 दिन तक रोज़ा रखने की इस तपस्या से अन्य धर्मों के लोग भी बहुत प्रभावित होते हैं। हमारे देश में ऐसी सैकड़ों मिसालें मौजूद हैं कि ग़ैर मुस्लिमों विशेषकर अनेक हिन्दू भाइयों द्वारा भी रमज़ान में रोज़े रखे जाते हैं। भारतवर्ष में अनेक शिक्षित व अधिकारी स्तर के हिन्दू पुरुष व महिला रोज़ा रखते दिखाई दिये हैं । पूरे देश में ऐसे तो लाखों उदाहरण हैं जबकि ग़ैर मुस्लिम भाइयों द्वारा अथवा राजनैतिक व सामाजिक संगठनों द्वारा रमज़ान के दिनों में रोज़दारों को रोज़ा खोलने अर्थात 'इफ़्तार ' करने की दावत दी जाती है।राष्ट्रपति भवन,प्रधानमंत्री निवास से लेकर अनेक मुख्यमंत्री,राजयपाल,मंत्री,सांसद विधायक तथा विभिन्न राजनैतिक दलों के मुख्यालयों पर भी रोज़ा इफ़्तार के कार्यक्रम आयोजित होते रहे हैं। वर्तमान दौर में देश के साम्प्रदायिक विद्वेषपूर्ण वातावरण के बीच पिछले दिनों कश्मीर के कई वीडीओ व फ़ोटो वायरल हुये जिनमें भारतीय सेना द्वारा न केवल लोगों को इफ़्तार की दावत दी गयी बल्कि अनेक हिन्दू व सिख उच्च सैन्य अधिकारी मुसलमानों के साथ बाक़ायदा नमाज़ अदा करते भी देखे गये। इस चित्र ने देश और दुनिया को यह संदेश दिया कि राजनैतिक दल अपनी सत्ता के लिये समाज को चाहे जितना विभाजित करें,जितना चाहे सांप्रदायिक दुर्भावना व विद्वेष फैलायें परन्तु इन तमाम कोशिशों के बावजूद भारतीय सेना हमेशा की तरह धर्मनिरपेक्ष थी,है और रहेगी।
                                 परन्तु इसी 'इफ़्तार पार्टी ' का एक दूसरा पहलू भी है। जहाँ यही इफ़्तार पार्टियां धार्मिक सद्भाव,सांप्रदायिक एकता व रोज़दारों की तपस्या व गहन श्रद्धा को सम्मान दिये जाने का एक सशक्त माध्यम हुआ करती थीं वहीं इन इफ़्तार पार्टियों पर अब पूरी तरह सियासी रंग चढ़ चुका है। अब जहाँ देश में वाम व मध्य विचार धारा के लोग इफ़्तार पार्टियों का आयोजन इसलिये करते हैं ताकि वे मुसलमानों को अपनी ओर आकर्षित कर सकें वहीँ दक्षिण पंथी स्वयं को इस तरह के आयोजन से दूर रखने की कोशिश करते हैं ताकि वे स्वयं को कथित 'तुष्टीकरण ' जैसे आरोपों से दूर रख सकें साथ ही अपनी इसी कट्टरवादिता का सुबूत देकर बहुसंख्य समाज को ख़ुश रखने की कोशिश भी कर सकें। परन्तु यही दक्षिणपंथी बिहार व तेलंगाना जैसे कई स्थानों पर इफ़्तार पार्टियों का आयोजन करते व इसमें शरीक होते भी दिखाई दे जाते हैं। यानी जैसा देश वैसा वेश। कुछ उसी तरह जैसे गऊ संरक्षण क़ानून उत्तर प्रदेश हरियाणा मध्य प्रदेश आदि राज्यों के लिये तो कुछ और तो केरल,गोवा,तथा पूर्वोत्तर के अनेक राज्यों के लिये कुछ और।
                                 बहरहाल, इस तरह के 'राजनैतिक इफ़्तार आयोजन ' में जहां तरह तरह के पकवान परोसे जाते हैं और अनेक वी वी आई पी व माननीय शिरकत करते हैं। इनमें टी वी कैमरों की ज़बरदस्त चकाचौंध दिखाई देती है वहीं ऐसी इफ़्तार पार्टियों में अतिथियों विशेषकर ग़ैर मुस्लिम अतिथियों के सिर पर टोपी रखने व उनके गले में अरबी शैली का विशेष रुमाला अथवा स्कार्फ़ डालने का चलन भी देखा गया है। बेशक यह 'टोपी बाज़ी ' साम्प्रदायिक सद्भाव की पहचान क्यों न हो परन्तु यह वही टोपी भी है जिसे 2011 में नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए मेंहदी हसन नामक एक मुस्लिम इमाम के हाथों अपने सिर पर रखने से इनकार कर दिया था। ग़ौरतलब है कि 2002 के राज्य व्यापी गुजरात दंगों के बाद राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद मोदी ने 2011 में पूरे राज्य में सामाजिक सद्भावना कार्यक्रम शुरू किया था। इस कार्यक्रम में अहमदाबाद ज़िले के पीराणा गांव में इमाम मेंहदी हसन ने जब एक सार्वजनिक सभा में अपनी जेब से एक टोपी निकाल कर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को पहनाने की कोशिश की तो उन्होंने वह टोपी पहनने से साफ़ मना कर दिया। जबकि मोदी दूसरे धर्मों के प्रतीक चिन्हों को चाहे सिख समुदाय की पगड़ी या रुमाला हो या फिर इज़राइल में यहुदी समुदाय की परंपरागत टोपी वे इन सभी को सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ जब मगहर स्थित संत कबीर की मज़ार पर पहुंचे तो वहां मौजूद ख़ादिम ने योगी को भी 'टोपी पहनाने' की कोशिश की परन्तु उन्होंने भी टोपी पहनने से इनकार कर दिया।  
                                  इन घटनाओं के बाद कम से कम उन मुसलमानों को तो ज़रूर अपनी आँखें खोलनी चाहिये जो 'टोपीबाज़ी' और रुमाला या स्कार्फ़ आदि को भी इफ़्तार पार्टी का एक हिस्सा समझते हैं ? इसी से जुड़ा एक दूसरा महत्वपूर्ण सवाल यह भी कि जिस तरह 'राजनैतिक इफ़्तार पार्टियों' के आयोजन में टोपी-स्कार्फ़ का प्रदर्शन व इन्हें धारण करते हुये फ़ोटो सेशन होते हैं क्या ठीक उसी तरह हिन्दू त्योहारों में भी 'यही इफ़्तारी मुसलमान ' अपने माथे पर तिलक लगाना व गले में रामनामा डालना पसंद करेंगे ? देश में धार्मिक सद्भाव व सांप्रदायिक एकता का तो यही तक़ाज़ा है कि यदि आप दूसरे  धर्म के लोगों को इस्लामी निशानी के रूप में 'टोपी ' व स्कार्फ़ पहनाकर संतुष्ट होते हैं और इसे सहर्ष धारण व स्वीकार करने वाले ग़ैर मुस्लिम भाइयों को उदारवादी व धर्मनिरपेक्ष मानते हैं तो मुसलमानों को भी तो अपनी उदारता व धर्मनिरपेक्षता का सुबूत देना चाहिये ? और यदि ऐसी राजनैतिक इफ़्तार पार्टी का आयोजन करने व इसमें शिरकत करने वाले मुसलमान तिलक लगाने व राम नामा गले में डालने से परहेज़ करते हैं तो उन्हें भी किसी ग़ैर मुस्लिम को न तो टोपी पहनानी चाहिये न ही अरबी रुमाला या स्कार्फ़ गले में डालना चाहिये। अधिक से अधिक इफ़्तार पार्टी आयोजन स्थल के प्रवेश द्वार पर सिर ढकने की ग़रज़ से टोपी अथवा रुमाल रख देना चाहिये ताकि स्वेच्छा से यदि कोई इनका इस्तेमाल करना चाहे तो कर सके। वैसे भी इन प्रतीकों का इस्लाम धर्म से कोई लेना देना नहीं है। बजाये इसके देश में साम्प्रदायिक सद्भाव के इच्छुक मुसलमानों को किसी राजनैतिक दल अथवा नेता की इफ़्तार पार्टी के आयोजन की प्रतीक्षा करने अथवा किसने इफ़्तार पार्टी दी और किसने नहीं दी,इन पचड़ों में पड़ने के बजाये भारतीय सैन्य अधिकारियों से सबक़ लेते हुये स्वयं पूरे देश में दीपावली व होली मिलन जैसे कार्यक्रम बढ़चढ़कर आयोजित करने चाहिये। दशहरा दुर्गा पूजा जैसे आयोजनों में बढ़चढ़कर हिस्सा लेना चाहिये। सिर्फ़ इफ़्तार व टोपीबाज़ी में सद्भावना की तलाश करना ग़ैर मुनासिब है।

समाज में भेद पैदा करने वालों से सतर्क रहे समाज

धर्मनिरपेक्षता के मायने समझे समाज
सुरेश हिंदुस्थानी
किसी भी देश के शक्तिशाली होने के निहितार्थ होते हैं। इन निहितार्थों का मन, वाणी और कर्म से अध्ययन किया जाए तो जो प्राकट्य होता है, वह यही प्रदर्शित करता है कि सबके भाव राष्ट्रीय हों, सबके अंदर एक दूसरे के प्रति सामंजस्य भाव की प्रधानता हो, लेकिन वर्तमान में समाज के बीच सामंजस्य के प्रयास कम और समाज के बीच भेद बनाने के प्रयास ज्यादा हो रहे हैं। जिसके चलते हमारी राष्ट्रीय अवधारणाएं तार-तार होती जा रही हैं। कौन नहीं जानता कि भारतीय समाज की इसी फूट के कारण भारत ने गुलामी के दंश को भोगा था। अंग्रेजों की नीति का अनुसरण करने वाले राजनीतिक दल निश्चित ही भारत के समाज में एकात्म भाव को स्थापित करने प्रयासों को रोकने का उपक्रम ही कर रहे हैं। जो संभवतः भारत की बढ़ती शक्ति से परेशान हैं। समाज को ऐसे षड्यंत्रों को समझने का प्रयास करना चाहिए।
लम्बे समय से भारत में इस धारणा को समाज में संप्रेषित करने का योजनाबद्ध प्रयास किया गया कि मुस्लिम तुष्टिकरण ही धर्मनिरपेक्षता है। इसी के कारण गंगा जमुना तहजीब की अपेक्षा केवल हिन्दू समाज से ही की जाती रही है। भारत का हिन्दू समाज पुरातन समय से इस संस्कृति को आत्मसात किए हुए है। तभी तो इस देश में सभी संप्रदाय के व्यक्तियों को पर्याप्त सम्मान दिया गया। यह सभी जानते हैं कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी अपने आपको धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल मानती है और इन्हीं दलों ने मुस्लिम वर्ग का तुष्टिकरण करने की राजनीति की। इसके कारण देश में जिस प्रकार से वर्ग भेद खाई पैदा हुई, उससे आज का वातावरण पूरी तरह से प्रदूषित हो रहा है। अभी हाल ही में जिस प्रकार से रामनवमी और हनुमान जन्मोत्सव की शोभायात्राओं पर पत्थबाजी की गई, वह देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप की परिभाषा के दायरे में बिलकुल भी नहीं आता। धर्मनिरपेक्षता की सही परिभाषा यही है कि देश में धर्मों को समान दृष्टि से देखा जाए, लेकिन क्या देश में समाज के द्वारा सभी धर्मों को समान रूप से देखने की मानसिकता विकसित हुई है। अगर नहीं तो फिर धर्मनिरपेक्षता का कोई मतलब ही नहीं है। वस्तुत: धर्मनिरपेक्षता शब्द समाज में समन्वय स्थापित करने में नाकाम साबित हो रहा है, इसके बजाय वर्ग भेद बढ़ाने में ही बहुत ज्यादा सहायक हो रहा है। हालांकि यह शब्द भारत के मूल संविधान का हिस्सा नहीं था। इसे इंदिरा गांधी के शासन काल में आपातकाल के दौरान जोड़ा गया था। इस शब्द के आने के बाद ही देश में तुष्टिकरण की राजनीतिक भावना ज्यादा जोर मारने लगी।
यहां हम हिन्दू और मुस्लिम वर्ग को अलग-अलग देखने को प्रमुखता नहीं दे रहे हैं। और न ही ऐसा दृश्य दिखाने का प्रयास ही करना चाहिए। बात देश के समाज की है, जिसमें हिन्दू भी आता है और मुस्लिम भी। जब हम समाज के तौर पर चिंतन करेंगे तो स्वाभाविक रूप से हमें वह सब दिखाई देगा, जो एक निरपेक्ष व्यक्ति से कल्पना की जा सकती है। लेकिन इसके बजाय हम पूर्वाग्रह रखते हुए किसी बात का चिंतन करेंगे तो हम असली बातों से बहुत दूर हो जाएंगे। आज देश में यही हो रहा है। आज का मीडिया अखलाक और तबरेज की घटना को भगवा आतंक के रूप में दिखाने का साहस करता दिखता है, लेकिन इन घटनाओं के पीछे का सच जानने का प्रयास नहीं किया जाता। संक्षिप्त रूप में कहा जाए तो इन दोनों की अनुचित क्रिया की ही समाज ने प्रतिक्रिया की थी, जो समाज की जाग्रत अवस्था कही जा सकती है, लेकिन यही मीडिया उस समय अपनी आंखों पर पट्टी बांध लेता है, जब किसी गांव से हिन्दुओं के पलायन की खबरें आती हैं। जब महाराष्ट्र के पालघर में दो संतों की पीट पीट कर हत्या कर दी जाती है। इसी प्रकार महाराष्ट्र में हनुमान चालीसा पढ़ने की कवायद पर सांसद नवनीत राणा और उनके पति रवि राणा पर राष्ट्रद्रोह का प्रकरण दर्ज हुआ है। हो सकता है कि राणा दंपत्ति का तरीका गलत हो, लेकिन कम से कम भारत में हनुमान चालीसा पढ़ने को गलत तो नहीं ठहराया जा सकता। जब हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैं तो हिन्दू समाज के व्यक्तियों की ओर से की गई जायज कार्यवाही को इस दायरे से बाहर क्यों रखा जाता है। क्या भारत में केवल उन्हीं स्वरों को अभिव्यक्ति की आजादी के दायरे में लाया जाना चाहिए, जो देश तोड़ने की बात करते हैं। विसंगति तो यह है कि ऐसे स्वरों को राजनीतिक समर्थन भी मिल जाता है। महाराष्ट्र की घटना राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में इसलिए भी नहीं आ सकती, क्योंकि उनकी घोषणा सरकार के मुख्यालय पर हनुमान चालीसा पढ़ने की नहीं थी, वह तो एक समय हिन्दुत्व के केन्द्र रहे मातोश्री के बाहर ऐसा करने का प्रयास कर रहे थे। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि क्या वास्तव में शिवसेना अपने मूल उद्देश्य से भटक रही है, क्या उसे हिन्दुत्व नापसंद आने लगा है? वे बाबरी ढांचे को गिराने के बारे में सीना ठोककर यह दावा करते हैं कि यह हमने किया। लेकिन राम भक्त हनुमान की प्रशंसा में की जाने वाली कार्यवाही पर विराम लगाने का कार्य करते हैं।
अब फिर से हम अपने मूल विषय पर आते हैं। आज कई लोग और राजनेता यह सवाल उठाते हैं कि हिन्दू उनके क्षेत्र से यात्रा क्यों निकालता है? यह सवाल इसलिए भी जायज नहीं कहा जा सकता है कि जब देश में सभी धर्मों के धार्मिक चल समारोह बिना किसी रोक टोक के किसी भी स्थान से निकाले जा सकते हैं, तब हिन्दू समाज की धर्म यात्राएं क्यों नहीं निकाली जा सकती। आज अगर वे अपने मोहल्ले से रोक रहे हैं, तब कल यह भी हो सकता है कि पूरे नगर में पत्थरबाजी करके रोकने का प्रयास करें। हो सकता है कि यह घटनाएं अभी छोटे रूप में प्रयोग के तौर पर हो रही हों, लेकिन कल के दिन जब इस प्रकार की घटनाएं बड़ा रूप लेंगी, तब स्थिति हाथ से निकल जाएगी और फिर एक नए पाकिस्तान का भी जन्म हो सकता है। इसलिए समाज के बीच लकीर खींचने वाले ऐसे किसी भी प्रयास का किसी भी वर्ग को समर्थन नहीं करना चाहिए। आज ऐसे प्रयासों की आवश्यकता है, जिससे समाज के बीच सामंजस्य स्थापित हो सके। इसके लिए सारे समाज को अपनी ओर से प्रयास करने चाहिए।

आज हमें धर्मनिरपेक्षता के असली मायनों को समझने की आवश्यकता है। भारतीय समाज के सभी नागरिकों को एक दूसरे की खुशी में शामिल होकर ऐसा भाव प्रदर्शित करना चाहिए, जो एकता की भावना को पुष्ट कर सके। इसके लिए सबसे पहले हमारे राजनीतिक दलों के नेताओं की ओर से प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। हालांकि आज जिस प्रकार से राजनीति की जा रही है, उसको देखते हुए यह उम्मीद बहुत कम है। इसलिए यह प्रयास मुस्लिम और हिन्दू समाज की ओर से ही प्रारंभ किए जाएं, यह समय की मांग हैं। अन्यथा राजनीतिक दल समाज को बांटकर केवल अपना ही भला करते रहेंगे और समाज हमेशा की तरह हाथ मलते ही रह जाएगा।

सुरेश हिन्दुस्थानी

भारत में श्रम के साथ उद्यमिता का भाव जगाना भी जरूरी

श्रम दिवस पर विशेष

किसी भी आर्थिक गतिविधि में सामान्यतः पांच घटक कार्य करते हैं – भूमि, पूंजी, श्रम, संगठन एवं साहस। हां, आजकल छठे घटक के रूप में आधुनिक तकनीकि का भी अधिक इस्तेमाल होने लगा है। परंतु पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में चूंकि केवल पूंजी पर ही विशेष ध्यान दिया जाता है अतः सबसे अधिक परेशानी, श्रमिकों के शोषण, बढ़ती बेरोजगारी, समाज में लगातार बढ़ रही आर्थिक असमानता और मूल्य वृद्धि को लेकर होती है। पूंजीवाद के मॉडल में उपभोक्तावाद एवं पूंजी की महत्ता इस कदर हावी रहते हैं कि उत्पादक लगातार यह प्रयास करता है कि उसका उत्पाद भारी तादाद में बिके ताकि वह उत्पाद की अधिक से अधिक बिक्री कर लाभ का अर्जन कर सके। पूंजीवाद में उत्पादक के लिए चूंकि उत्पाद की अधिकतम बिक्री एवं अधिकतम लाभ अर्जन ही मुख्य उद्देश्य है अतः श्रमिकों का शोषण इस व्यवस्था में आम बात है। आज तक भी उत्पादन के उक्त पांच/छह घटकों में सामंजस्य स्थापित नहीं किया जा सका है। विशेष रूप से पूंजीपतियों एवं श्रमिकों के बीच टकराव बना हुआ है। पूंजीपति, श्रमिकों को उत्पादन प्रक्रिया का केवल एक घटक मानते हुए उनके साथ कई बार अमानवीय व्यवहार करते पाए जाते हैं। जबकि, श्रमिकों को भी पूंजी का ही एक रूप मानते हुए, उनके साथ मानवीय व्यवहार होना चाहिए। क्योंकि, किसी भी संस्थान की सफलता में श्रमिकों का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान रहता है। बिना श्रमिकों के सहयोग के कोई भी संस्थान सफलता पूर्वक आगे नहीं बढ़ सकता। इसीलिए संस्थानों में कार्य कर रहे श्रमिकों को “श्रम शक्ति” की संज्ञा दी गई है।  हमारे देश में भी दुर्भाग्य से श्रमिकों के शोषण की कई घटनाएं सामने आती रही हैं। यथा, श्रमिकों को निर्धारित मजदूरी का भुगतान नहीं करना एवं उनसे निर्धारित समय सीमा से अधिक कार्य लेना आदि, प्रमुख रूप से शामिल हैं।

भारत में श्रमिकों की विभिन्न समस्याओं के निदान करने एवं उन्हें और अधिक सुविधाएं उपलब्ध कराए जाने के उद्देश्य श्रम कानून से जुड़े तीन अहम विधेयक केंद्र सरकार ने संसद में पास कराए हैं। जिनमें सामाजिक सुरक्षा बिल 2020, आजीविका सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्यदशा संहिता बिल 2020 और औद्योगिक संबंध संहिता बिल 2020 शामिल हैं। इससे पहले तक देश में 44 श्रम कानून थे जो कि अब चार लेबर कोड में शामिल किए जा चुके हैं। श्रम कानूनों को लेबर कोड में शामिल करने का काम वर्ष 2014 में शुरू हो गया था। ऐसा कहा जा रहा है कि उक्त ऐतिहासिक श्रम कानून, कामगारों के साथ साथ कारोबारियों के लिए भी मददगार साबित होगें।

केंद्र सरकार एवं विभिन्न राज्य सरकारें तो अपने स्तर पर श्रमिकों के हितार्थ विभिन्न कानून बनाने का कार्य करती रही हैं और आगे भी करती रहेंगी परंतु आज जब भारत विश्व का सबसे युवा राष्ट्र कहा जा रहा है क्योंकि देश की दो तिहाई जनसंख्या की उम्र 35 वर्ष से कम है (देश की 36 प्रतिशत जनसंख्या की आयु 15 से 35 वर्ष के बीच है और देश में 37 करोड़ युवाओं की आयु 15 से 29 वर्ष के बीच है) तो इतने बड़े वर्ग को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने हेतु इन्हें केवल श्रमिक न बनाकर इनमें उद्यमिता का विकास कर इन्हें स्वावलंबी बनाए जाने की आज महती आवश्यकता है। हालांकि सरकारें  विभिन्न स्तरों पर इस दिशा में अपना कार्य बखूबी कर रही हैं परंतु देश के प्रत्येक नागरिक को यदि स्वावलंबी बनाना है तो अन्य  स्वयंसेवी, धार्मिक, सामाजिक, औद्योगिक एवं व्यापारिक संगठनों को आपस में मिलकर इस नेक कार्य को आगे बढ़ाने के लिए प्रयास करने चाहिए। इसी क्रम में, भारत में बेरोजगारी की समस्या को हल करने के मुख्य उद्देश्य से  अभी हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अन्य कई संगठनों को अपने साथ लेकर एक स्वावलंबी भारत अभियान की शुरुआत की है। संघ द्वारा सहकार भारती, लघु उद्योग भारती, ग्राहक पंचायत, भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भाजपा एवं स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठनों एवं कई अन्य सामाजिक, आर्थिक एवं स्वयंसेवी संगठनों को भी इस अभियान के साथ जोड़ा जा रहा है।

स्वावलंबी भारत अभियान को चलाने हेतु एक कार्यक्रम की घोषणा भी की गई है। जिसके अंतर्गत  उद्यमिता, रोजगार व अर्थ सृजन को एक जन आंदोलन बनाते हुए युवाओं को श्रम का महत्व समझाया जाएगा एवं उन्हें जॉब सीकर के बजाय जॉब प्रवाइडर बनाने के प्रयास वृहद स्तर पर किए जाएंगे। साथ ही, जॉब सीकर एवं जॉब प्रवाइडर के बीच समन्वय स्थापित करने के प्रयास भी किए जाएंगे। प्रत्येक जिले में  वहां के प्रमुख विश्वविद्यालय अथवा महाविद्यालय के सहयोग से एक रोजगार सृजन केंद्र की स्थापना की जाएगी जहां केंद्र एवं राज्य सरकारों की रोजगार सृजन सम्बंधी विभिन्न योजनाओं की जानकारी, उद्यमिता प्रशिक्षण एवं युवाओं में कौशल विकास करने के प्रयास किए जाएंगे। साथ ही उस केंद्र पर बैंक ऋण प्राप्त करने संबंधी मार्गदर्शन, स्वरोजगार के क्षेत्र में आने वाली सम्भावित कठिनाईयों का समाधान एवं सफल स्वरोजगारियों तथा उद्यमियों से संवाद आदि की व्यवस्था भी की जाएगी। युवाओं में कौशल विकसित करने हेतु सबंधित कम्पनियों को आगे आना चाहिए एवं इस सम्बंध में केवल सरकारी योजनाओं पर निर्भर रहने से यह कार्य सम्भव नहीं होगा। इन केंद्रों पर स्थानीय एवं स्वदेशी उत्पादों को बढ़ावा देने के सम्बंध में नागरिकों में जागरूकता उत्पन्न करने सम्बंधी प्रयास भी किए जाएंगे। साथ ही, ग्रामीण स्तर पर ग्रामोद्योग व ग्रामशिल्प को बढ़ावा देने संबंधी प्रयास किए जाएंगे।

भारत को पूरे विश्व के आर्थिक क्षेत्र में यदि अपना दबदबा कायम करना है तो देश की मानव पूंजी पर अपना पूरा ध्यान केंद्रित करना होगा एवं बेरोजगार युवाओं को रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराना ही होगें ताकि देश में उपलब्ध मानव पूंजी का देश हित में उचित उपयोग किया जा सके। जब तक भारत पूर्ण रोजगार युक्त नहीं होता, तब तक वह पूर्ण स्वावलम्बन व वैश्विक मार्गदर्शक के रूप में अपने आप को स्थापित करने सम्बंधी लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकता। देश की समस्त जनसंख्या के लिए रोजगार के अवसर निर्मित कर आर्थिक विकास की गति को तेज किया जा सकता है और सही अर्थों में भारत के लिए जनसांख्यिकी का लाभांश तो तभी उपलब्ध होगा।

आज यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाय तो भारत में प्राकृतिक संसाधनों (कच्चे माल) के साथ साथ मानव शक्ति (श्रम) भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है परंतु उसके पास रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध नहीं हैं। किसी भी कुटीर अथवा लघु उद्योग को स्थापित करने के लिए मुख्य रूप से कच्चे माल एवं श्रम की आवश्यकता ही रहती है और ये दोनों ही तत्व भारत में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं केवल आवश्यकता है इन दोनों तत्वों को आपस में जोड़ने के लिए एक ऐसा माहौल बनाने की जिसके अंतर्गत भारतीय आगे बढ़कर ग्रामीण इलाकों में कुटीर उद्योगों की स्थापना करें एवं इन्हीं इलाकों में रोजगार के अवसर भी निर्मित करें एवं इन इलाकों के निवासियों का शहरों की ओर पलायन रोकें। इस संदर्भ में संघ का स्पष्ट मत है कि मानव केंद्रित, पर्यावरण के अनुकूल, श्रम प्रधान तथा विकेंद्रीकरण एवं लाभांश का न्यायसंगत वितरण करने वाले भारतीय आर्थिक प्रतिमान (मॉडल) को महत्त्व दिया जाना चाहिए, जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था, सूक्ष्म उद्योग, लघु उद्योग और कृषि आधारित उद्योगों को संवर्धित करता है। ग्रामीण रोजगार, असंगठित क्षेत्र एवं महिलाओं के रोजगार और अर्थव्यवस्था में उनकी समग्र भागीदारी जैसे क्षेत्रों को बढ़ावा देना चाहिए। देश की सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप नई तकनीकी तथा सॉफ्ट स्किल्स को अंगीकार करने के गम्भीर प्रयास भी किए जाने चाहिए।

प्रहलाद सबनानी

भारत में आय में हो रही वृद्धि के चलते महंगाई का तुलनात्मक रूप से कम होता असर

महंगाई (मुद्रा स्फीति) का तेजी से बढ़ना, समाज के प्रत्येक वर्ग, विशेष रूप से समाज के गरीब एवं निचले तबके तथा मध्यम वर्ग के लोगों को आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक विपरीत रूप में प्रभावित करता है। क्योंकि, इस वर्ग की आय, जो कि एक निश्चित सीमा में ही रहती है, का एक बहुत बड़ा भाग उनके खान-पान पर ही खर्च हो जाता है और यदि महंगाई (मुद्रा स्फीति) की बढ़ती दर तेज बनी रहे तो इस वर्ग के खान-पान पर भी विपरीत प्रभाव पड़ने लगता है। अतः, मुद्रा स्फीति की दर को काबू में रखना देश की सरकार का प्रमुख कर्तव्य है। इसीलिए भारत में केंद्र सरकार एवं भारतीय रिजर्व बैंक, मौद्रिक नीति के माध्यम से, इस संदर्भ में समय समय पर कई उपायों की घोषणा करते रहते हैं।

वर्ष 2014 में केंद्र में माननीय श्री नरेन्द्र मोदी जी की सरकार के आने के बाद, देश की जनता को उच्च मुद्रा स्फीति की दर से निजात दिलाने के उद्देश्य से, केंद्र सरकार एवं भारतीय रिजर्व बैंक ने दिनांक 20 फरवरी 2015 को एक मौद्रिक नीति ढांचा करार पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के अंतर्गत यह तय किया गया था कि देश में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति की दर को जनवरी 2016 तक 6 प्रतिशत के नीचे तथा इसके बाद 4 प्रतिशत के नीचे (+/- 2 प्रतिशत के उतार चड़ाव के साथ) रखा जाएगा। उक्त समझौते के पूर्व, देश में मुद्रा स्फीति की वार्षिक औसत दर लगभग 10 प्रतिशत बनी हुई थी। उक्त समझौते के लागू होने के बाद से देश में, मुद्रा स्फीति की वार्षिक औसत दर लगभग 5/6 प्रतिशत के आसपास आ गई है। जिसके लिए केंद्र सरकार एवं भारतीय रिजर्व बैंक की प्रशंसा की जानी चाहिए। अब तो मुद्रा स्फीति लक्ष्य की नीति को विश्व के 30 से अधिक देश लागू कर चुके है।

हाल ही के समय में, विशेष रूप से कोरोना महामारी के बाद भारत सहित पूरे विश्व में मुद्रा स्फीति में भारी वृद्धि होती दिखाई दे रही है। अमेरिका एवं अन्य यूरोपीयन देशों में तो मुद्रा स्फीति की दर 8.5 प्रतिशत के आस पास तक पहुंच गई हैं जो इन देशों में पिछले 40 वर्षों के दौरान सबसे अधिक महंगाई की दर है। अमेरिका में तो पिछले लगातार एक वर्ष से अधिक समय से मुद्रा स्फीति की दर सह्यता स्तर अर्थात 2 प्रतिशत से अधिक बनी हुई है। लगभग यही स्थिति यूरोप के अन्य देशों की भी है। अमेरिका की PEW नामक अनुसंधान केंद्र ने विश्व के 46 देशों में मुद्रा स्फीति की दर पर एक सर्वेक्षण किया है एवं इसमें पाया है कि 39 देशों में वर्ष 2021 की तीसरी तिमाही में मुद्रा स्फीति की दर, कोरोना महामारी के पूर्व, वर्ष 2019 की तीसरी तिमाही में मुद्रा स्फीति की दर की तुलना में बहुत अधिक है।

भारत में भी हाल ही के समय में महंगाई की दर में उच्छाल देखने में आया है और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई की दर 6 प्रतिशत के आसपास पहुंच गई है तो थोक मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई की दर 13 प्रतिशत के आसपास पहुंच गई है।

वैश्विक स्तर पर मुद्रा स्फीति की दर के अचानक इतनी तेजी से बढ़ने के कारणों में कुछ विशेष कारण उत्तरदायी पाए गए हैं। मुद्रा स्फीति की दर में यह अचानक आई तेजी किसी सामान्य आर्थिक चक्र के बीच नहीं पाई गई है बल्कि यह असामान्य परिस्थितियों के बीच पाई गई है। अर्थात, कोरोना महामारी के बाद वैश्विक स्तर पर एक तो सप्लाई चैन में विभिन्न प्रकार के विघ्न पैदा हो गए हैं। दूसरे, कोरोना महामारी के चलते श्रमिकों की उपलब्धि में कमी हुई है। अमेरिका आदि देशों में तो श्रमिक उपलब्ध ही नहीं हो पा रहे हैं, इससे विनिर्माण के क्षेत्र की इकाईयों को पूरी क्षमता के साथ चलाने में समस्याएं आ रही हैं। तीसरे, विभिन्न देशों के बीच उत्पादों के आयात निर्यात में बहुत समस्याएं आ रहीं हैं। पानी के रास्ते जहाजों के माध्यम से भेजी जा रही वस्तुओं को एक देश से दूसरे देश में पहुंचने में (एक बंदरगाह से उत्पादों के पानी के जहाजों पर चढ़ाने से लेकर दूसरे बंदरगाह पर पाने के जहाजों से सामान उतारने के समय को शामिल करते हुए) पहिले जहां केवल 10/12 दिन लगते थे अब इसके लिए 20/25 दिन तक का समय लगने लगा है। कई बार तो पानी का जहाज बंदरगाह के बाहर 7 से 10 दिनों तक खड़ा रहता है क्योंकि श्रमिकों की अनुपलब्धता के कारण सामान उतारने की दृष्टि से उस जहाज का नम्बर ही नहीं आता। चौथे, कोरोना महामारी का प्रभाव कम होते ही विभिन्न उत्पादों की मांग अचानक तेजी से बढ़ी है जबकि इन उत्पादों को एक देश से दूसरे देश में पहुंचाने में ज्यादा समय लगने लगा है। अतः मांग एवं आपूर्ति में उत्पन्न हुई इस असमानता के कारण भी महंगाई की दर में वृद्धि हुई है। इन सभी कारणों के ऊपर, वैश्विक स्तर पर पेट्रोल (ईंधन) की कीमतें आसमान छूने लगी हैं जो 120 डॉलर प्रति बेरल के आसपास पहुंच गई हैं।

अमेरिका में तो केलेंडर वर्ष 2022 के प्रथम तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 1.4 प्रतिशत की कमी आई है क्योंकि वहां के नागरिकों की आसमान छूती महंगाई के चलते क्रय शक्ति ही कम हो गई है। इसलिए कई उत्पादों की मांग ही कम हो गई है। परंतु भारत में केंद्र सरकार द्वारा समय समय पर लिए गए कई आर्थिक निर्णयों (जिनकी कि आज विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, अमेरिका एवं यूरोपीयन देश तारीफ कर रहे हैं) के चलते यहां के नागरिकों पर बढ़ रही महंगाई का असर कम दिखाई दे रहा है। दरअसल कोरोना महामारी के काल में भारत ने 80 करोड़ लोगों को प्रति व्यक्ति प्रति माह पांच किलो मुफ्त अनाज प्रधान मंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के अंतर्गत उपलब्ध कराया है, इस योजना को सितम्बर 2022 तक बढ़ा दिया गया है। इसी प्रकार की अन्य योजनाओं के अंतर्गत केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा दालें, मसाले एवं अन्य खाद्य सामग्री भी उपलब्ध कराई जाती रही है। उक्त योजना के अतिरिक्त राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (एनएफएसए) के अंतर्गत भी प्रति माह काफी सस्ती दरों पर (दो/तीन रुपए प्रति किलो) अनाज गरीब वर्ग को उपलब्ध कराया जाता है। चूंकि उक्त योजनाओं के अंतर्गत गरीब वर्ग को सीधे ही खाद्य सामग्री उपलब्ध कराई जा रही है ऐसे में महंगाई के बढ़ने का असर इस वर्ग के नागरिकों पर नहीं दिखाई नहीं दे रहा है। इसके विपरीत अमेरिका ने अपने नागरिकों के खातों में सहायता की एक निश्चित राशि जमा की थी। मान लीजिए यदि किसी नागरिक के खाते में 2000 अमेरिकी डॉलर जमा किए गए थे तो महंगाई की दर के 8.5 प्रतिशत पर आने से उसकी क्रय शक्ति तो केवल 1983 अमेरिकी डॉलर की हो गई जबकि भारत में गेहूं, चावल, दालें, मसाले आदि खाद्य सामग्री उपलब्ध कराई गई तो यहां के नागरिकों को महंगाई दर के 6 प्रतिशत तक अधिक लाभ मिला क्योंकि इन पदार्थों पर महंगाई को केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों ने वहन किया अर्थात महंगाई की दर तक का अधिक लाभ भारत के नागरिकों को मिला।

दूसरे, भारत में वित्तीय वर्ष 2021-22 में सकल घरेलू उत्पाद का मूल्य 232.15 लाख करोड़ रुपए (अनुमानित) रहा है जो कि वित्तीय वर्ष 2020-21 में 197.46 लाख करोड़ रुपए (अनुमानित) का रहा था। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय नागरिकों की आय में 17.6 प्रतिशत की अनुमानित वृद्धि वित्तीय वर्ष 2021-22 के दौरान रही है, जबकि खुदरा महंगाई की दर तो 6 प्रतिशत के आसपास ही रही है। विश्व बैंक के एक शोध पत्र में भी यह बताया गया है कि भारत में बहुत छोटी जोत वाले किसानों की वास्तविक आय में 2013 और 2019 के बीच वार्षिक 10 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है।

कोरोना महामारी के दौरान भारत में प्रथम सोपान के अंतर्गत गरीब वर्ग को खाद्य सामग्री उपलब्ध करायी गई थी। दूसरे सोपान के अंतर्गत मुफ़्त वैक्सीन दिया जा रहा है जिससे गरीब वर्ग को बीमारियों से बचाए रखा जा सके। अब जब देश में अर्थव्यवस्था पूर्ण रूप से खुल चुकी है तो अब गरीब वर्ग के लिए रोजगार के अवसर भी उपलब्ध कराए जा रहे हैं। मनरेगा योजना भी ग्रामीण इलाकों में वृहद स्तर पर चलायी जा रही है एवं इससे भी ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ाए जा रहे हैं। निर्माण एवं पर्यटन क्षेत्र भी अब खोल दिए गए हैं जिससे इन क्षेत्रों में भी रोजगार के अवसर वापिस निर्मित होने लगे हैं। भारत में तो धार्मिक पर्यटन भी बहुत बढ़े स्तर पर होता है एवं धार्मिक स्थलों को खोलने से भी रोजगार के अवसर बढ़ रहे हैं।। इस प्रकार कुल मिलाकर गरीब वर्ग को कमाई के पर्याप्त साधन उपलब्ध होने लगे हैं जिससे भारत में गरीब वर्ग पर महंगाई का कम असर होता दिखाई दे रहा है।

प्रहलाद सबनानी

योग-क्रांति है गुड गवर्नेस का मॉडल

  • ललित गर्ग –
    मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल देश एवं दुनिया में मुफ्त की सुविधाओं के लिये जाने जाते हैं। अब उन्होंने दिल्ली में रहने वाले लोगों के लिए निशुल्क योग कराने का निर्णय लिया है, क्योकि दिल्ली के आम-आदमी का भागदौड़ की प्रदूषणभरी जिंदगी में शरीर, मन और आत्मा स्वस्थ्य नहीं है, ऐसे में योग उनकी बड़ी मदद कर सकेगा, ऐसा विश्वास है। निश्चित ही यह एक स्वागतयोग्य कदम है। राजनीति का मकसद सिर्फ सत्ता हासिल करना नहीं, बल्कि उन्नत एवं स्वस्थ जीवनशैली प्रदत्त करना भी है, इस दृष्टि से दिल्ली सरकार ने योग और मेडिटेशन को जन आंदोलन बनाकर दिल्ली के घर-घर तक पहुंचाने का निर्णय लेकर सूझबूझ एवं आदर्श शासन-व्यवस्था का संकेत दिया है।
    इनदिनों दिल्ली योग के पोस्टरों से पटी है। जनवरी से दिल्ली में जगह-जगह योग की क्लासेज भी शुरू हो जायेगी। यह पूरे देश में अपने किस्म का पहला विलक्षण कार्यक्रम है, जिसके तहत दिल्ली सरकार लोगों को फ्री में योग कराएगी। इसके लिए 400 शिक्षकों को प्रशिक्षित किया गया है। दिल्ली में निशुल्क सुविधाओं की आंधी का अनुकरण देश के अन्य प्रांतों की सरकारें भी करने लगी है, ठीक इसी तरह यदि दिल्ली सरकार की योग मुहिम को देखकर पूरे देश के अंदर भी योग शालाएं शुरु होती है तो घर-घर तक योग पहुंचेगा, लोगों का जीवन स्वस्थ, संतुलित एवं शांतिमय होगा। भारतभूमि अनादिकाल से योग भूमि के रूप में विख्यात रही है। यहां का कण-कण, अणु-अणु न जाने कितने योगियों की योग-साधना से आप्लावित हुआ है। तपस्वियों की गहन तपस्या के परमाणुओं से अभिषिक्त यह माटी धन्य है और धन्य है यहां की हवाएं, जो साधना के शिखर पुरुषों की साक्षी हैं। इसी भूमि पर कभी वैदिक ऋषियों एवं महर्षियों की तपस्या साकार हुई थी तो कभी भगवान महावीर, बुद्ध एवं आद्य शंकराचार्य की साधना ने इस माटी को कृतकृत्य किया था।
    साक्षी है यही धरा रामकृष्ण परमहंस की परमहंसी साधना की, साक्षी है यहां का कण-कण विवेकानंद की विवेक-साधना का, साक्षी है क्रांत योगी से बने अध्यात्म योगी श्री अरविन्द की ज्ञान साधना का और साक्षी है महात्मा गांधी की कर्मयोग-साधना का। योग साधना की यह मंदाकिनी न कभी यहां अवरुद्ध हुई है और न ही कभी अवरुद्ध होगी, क्योंकि पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अब केजरीवाल जैसे शासक इसे जन-जन की जीवनशैली बनाने को तत्पर हुए हैं। इसी योग मंदाकिनी से अब दिल्ली आप्लावित होगा, निश्चित ही यह एक शुभ संकेत है सम्पूर्ण दिल्लीवासियों के लिये। दिल्ली में योग आन्दोलन की सार्थकता इसी बात में है कि सुधरे व्यक्ति, समाज व्यक्ति से, विश्व मानवता का कल्याण हो। सचमुच योग वर्तमान की सबसे बड़ी जरूरत है। लोगों का जीवन योगमय हो, इसी से युग की धारा को बदला जा सकता है। मेेरी दृष्टि में योग मानवता की न्यूनतम जीवनशैली होनी चाहिए। आदमी को आदमी बनाने का यही एक सशक्त माध्यम है। एक-एक व्यक्ति को इससे परिचित- अवगत कराने और हर इंसान को अपने अन्दर झांकने के लिये प्रेरित करने हेतु दिल्ली में योग आन्दोलन को व्यवस्थित ढंग से आयोजित करने के उपक्रम होने चाहिए। इसी से संतुलित इंसान बनने और अच्छा बनने की ललक पैदा होगी। योग मनुष्य ही नहीं बल्कि राजनीतिक जीवन की विसंगतियों पर नियंत्रण का माध्यम है। दिल्ली का जीवन जीने लायक बन सकेगा।
    आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए दिल्ली की महत्वपूर्ण उपलब्धि और असफलता को दो बिन्दुओं में बताना हो तो दिल्ली की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी योग-क्रांति और असफलता होगी बढ़ता प्रदूषण। जहां तक व्यवस्था का प्रश्न है, यह दोनों ही बातें सही हैं। योग की ही भांति हमें प्रदूषण को ”शून्य दर“ पर ले जाना होगा जिसके बिना सभी क्षेत्रों में हमारी तरक्की बेमानी मानी जायेगी। कोई भी राष्ट्र केवल व्यवस्था से ही नहीं जी सकता। उसका सिद्धांत पक्ष भी सशक्त होना चाहिए। किसी भी राष्ट्र की ऊंचाई वहां की इमारतों की ऊंचाई से नहीं मापी जाती बल्कि वहां के नागरिकों के चरित्र से मापी जाती है। उनके काम करने के तरीके से मापी जाती है। हमारी सबसे बड़ी असफलता है कि आजादी के 75 वर्षों के बाद भी राष्ट्रीय चरित्र, स्वस्थ जीवनशैली नहीं दे पाये। राष्ट्रीय चरित्र का दिन-प्रतिदिन नैतिक हृास हो रहा है। हर गलत-सही तरीके से हम सब कुछ पा लेना चाहते हैं। अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कर्त्तव्य को गौण कर दिया है। इस तरह से जन्मे हर स्तर पर भ्रष्टाचार ने राष्ट्रीय जीवन में एक विकृति पैदा कर दी है। लेकिन केजरीवाल की इस दृष्टि से बरती जा रही सख्ती एवं दिल्ली को उन्नत एवं स्वस्थ जीवनशैली देने का संकल्प एक प्रेरणा है, एक उजाला है।
    मुख्यमंत्री केजरीवाल ने हैपीनेस क्लासेज, एंटरप्रिन्योर क्लासेज, देशभक्ति क्लासेज के प्रयोग किए और स्कूल पहले से बेहतर कर दिए हैं। लोगों को यकीन नहीं होता है कि दिल्ली में मुफ्त बिजली-पानी मिलता है। पहली बार ऐसा हो रहा है कि अब लोग मुफ्त में तीर्थ यात्रा पर जा रहे हैं। दिल्ली के मोहल्ला क्लीनिक का प्रयोग भी सफल एवं स्वास्थ्य-क्रांति का प्रेरक बना, जिसकी हर जगह चर्चा है। किसी भी बीमारी के ईलाज के लिए पैसे की बगैर चिंता किए मुफ्त दवाई मिल रही है। छोटी सी खांसी से लेकर बड़ी सर्जरी अगर 70-80 लाख रुपए की भी होगी, तो दिल्ली सरकार इलाज का सारा खर्च उठा रही है। मुख्यमंत्री के ये दावे कुछ अनूठा करने के संकल्प, सुशासन की द्योतक है। भले ही केजरीवाल का मुफ्त सुविधाएं देने का गवर्नेस मॉडल बहस के केन्द्र में है। दिल्ली में केजरीवाल सरकार को लेकर जिस तरह का मानस तैयार किया गया है, उसमें किसी भी विषय पर सम्यक विमर्श की गुंजायश का लगातार घटते जाना विडम्बनापूर्ण है। निश्चित तौर पर चर्चा के इस आदर्श मॉडल को बढ़ावा देने में केजरीवाल की राजनीति, सूझबूझ एवं कौशल का बड़ा योगदान है।
    कुछ दिन पहले एक कॉल आया। चंडीगढ़ नंबर से अरविंद केजरीवाल की तरफ से, जो पहले से ही रिकॉर्ड किया गया था। उन्होंने कहा कि अगर आप में से 25 लोग योग करना चाहते हैं तो उनकी सरकार हर दिन एक योग प्रशिक्षक भेजेगी।’ क्या कोई सरकार इस तरह के प्रयोग कर सकती है? आज योगिक विज्ञान जितना महत्वपूर्ण हो उठा है, इससे पहले यह कभी इतना महत्वपूर्ण नहीं रहा। आज हमारे पास विज्ञान और तकनीक के तमाम साधन मौजूद हैं, जो दुनिया के विध्वंस का कारण भी बन सकते हैं। ऐसे में यह बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है कि हमारे भीतर जीवन के प्रति जागरूकता और ऐसा भाव बना रहे कि हम हर दूसरे प्राणी को अपना ही अंश महसूस कर सकें, वरना अपने सुख और भलाई के पीछे की हमारी दौड़ सब कुछ बर्बाद कर सकती है।
    आत्म विकास हेतु योग एक प्रमुख साधना है। पातंजलि योगशास्त्र में योग का अर्थ चित्तवृत्ति-निरोध किया है। चित्त की वृत्तियों को रोककर एकाग्रता अथवा स्थिरता लाने को योग कहा है। वास्तव में इनका अर्थ मन, वचन, काया का निरोध कर एकाग्रता लाना व उनका आत्म-विकास के मार्ग में प्रवृत्ति करना है। अगर लोगों ने अपने जीवन का, जीवन में योग का महत्व समझ लिया और उसे महसूस कर लिया तो दिल्ली में खासा बदलाव आ जाएगा। जीवन के प्रति अपने नजरिये में विस्तार लाने, व्यापकता लाने में ही मानव-जाति की सभी समस्याओं का समाधान है। उसे निजता से सार्वभौमिकता या समग्रता की ओर चलना होगा। दिल्ली सरकार की पहल एक महत्वपूर्ण कदम है, जो इस पूरी दिल्ली में मानव कल्याण और आत्मिक विकास की लहर पैदा कर सकता है।
    योग में गहरी दिलचस्पी लेने वाले केजरीवाल ने एक महान संकल्प लेकर उसे कार्यान्वित करने की ठानी है। निश्चित ही उनकी योग-क्रांति दिल्ली के जीवन में विकास, सुख और शांति का माध्यम बनेगी। योग केवल सुंदर एवं व्यवस्थित रूप से जीवन-यापन करना ही नहीं सिखाता अपितु व्यक्तित्व को निखारने, साम्प्रदायिक सौहार्द एवं संतुलित जीवन की कला को भी सिखाता है। योग के नाम पर राजनीति करने वाले मानवता का भारी नुकसान कर रहे है। क्योंकि योग किसी भी धर्म, सम्प्रदाय, जाति या भाषा से नहीं जुड़ा है। योग का अर्थ है जोड़ना, इसलिए यह प्रेम, अहिंसा, करुणा और सबको साथ लेकर चलने की बात करता है। योग, जीवन की प्रक्रिया की छानबीन है। यह सभी धर्मों से पहले अस्तित्व में आया और इसने मानव के सामने अनंत संभावनाओं को खोलने का काम किया। आंतरिक व आत्मिक विकास, मानव कल्याण से जुड़ा यह विज्ञान सम्पूर्ण दुनिया के लिए एक महान तोहफा है तो दिल्लीवासियों के लिये निश्चित रूप से वरदान साबित होगा।

समाज की अकर्मण्यता व जिहादी चरण चुंबन मानवता हेतु विषकारी होगा

– दिव्य अग्रवाल

एक तरफ पूरा विश्व जिहादी कटटरपंथियो की अमानवीयता व् उपद्रवी सोच से पीड़ित है परन्तु भारत के सेक्युलर राजनेता इस उपद्रवी मजहबी सोच को रोकने , प्रतिबंधित या सुधारने के स्थान पर सत्ता की लोलुपता के कारण नित कुछ न कुछ प्रपंच कर वर्तमान में स्वम सुख भोग कर , भारत के सभ्य समाज को मजहबी जंगली भेडियो के समक्ष मरने हेतु छोड़ने पर आतुर हैं । इसी क्रम में सेक्युलर नेता दिग्विजय सिंह जिन्होंने कांग्रेस के शासन काल में हिन्दुओं को भगवा आतंकवादी घोषित करने में एवं जिहादी कटटरपंथियो के संरक्षण में कोई कमी नहीं छोड़ी थी । वो दिग्विजय सिंह कह रहे है की जहांगीरपुरी में पत्थर फेकने वालो को भाजपा ने पैसे दिए थे । अतः उनकी इस बात से यह तो स्पष्ट हो गया की दिग्विजय सिंह भी यह मानते है की जिहादी मानसिकता वाले लोगों को धन देकर कुछ भी करवाया जा सकता है । यह इस देश का दुर्भाग्य ही तो है की मजहबी कट्टरपंथियों को अपने उग्र मजहबी तकरीरों से प्रोत्साहित करने वाले असंख्य मौलानाओं की न तो इस देश में गिरफ्तारी होती है और माननीय सर्वोच्च न्यायालय भी इन कट्टरपंथियों के विरुद्ध स्वतः कोई संज्ञान भी नहीं लेता है । जबकि कटटरपंथी , हिंसात्मक व् अमानवीय विचारो की सत्यता को उजागर करने वाले जीतेन्द्र नारायण त्यागी उर्फ़ वसीम रिजवी जैसे लोगो के उध्बोधन का संज्ञान माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा त्वरित ले लिया जाता है । इसी क्रम में जहांगीरपुरी मामले में कुछ ही घंटो के अंदर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा त्वरित सुनवाई कर ध्वस्तीकरण की कार्यवाही को रोकने का आदेश पारित कर दिया जाता है । परन्तु लगभग तीन माह पश्चात भी जीतेन्द्र नारायण त्यागी को माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष सामान्य न्यायिक प्रक्रिया के अंतर्गत अपना पक्ष रखने हेतु सुनवाई करने तक की भी तारीख नहीं मिल पाती है । यदि बात राजस्थान के करौली दंगे की करे तो सज्जन व् सभ्य समाज की अकर्मण्यता , भय और कायरता ही तो है। जो इतना सब होने के पश्चात भी अजमेर के महाकाल मंदिर में रोजा इफ्तार की दावत का आयोजन सभ्य समाज द्वारा भाईचारे का सन्देश देने हेतु किया जाता है । प्रत्येक बार ऐसा ही तो होता है पहले सज्जन व् सभ्य समाज, मजहबी उपद्रवियों  द्वारा प्रताड़ित व् शोषित किया जाता है । तदोपरांत प्रताड़ित समाज ही अपने पूजा स्थलों , गृह स्थानों में दावतों का आयोजन कर सब कुछ सामान्य होने का नाटक कर जिहादी उपद्रवियो के समक्ष आत्मसमर्पण कर देता है। यह सत्य है की दुर्जन के समक्ष सज्जन द्वारा आपसी सद्भाव हेतु किया गया प्रत्येक प्रत्यत्न कायरता की निशानी होता है। इन्ही कारणों की वजह से आज प्रताड़ित होते हुए भी हिन्दू समाज की आवाज को अंतर्राष्ट्रीय व् राष्ट्रीय पटल पर कोई उठाने तक की हिम्मत नहीं कर पाता है एवं राजनेता सब कुछ जानते हुए भी जिहादी मानस्किता वाले लोगो का चरण चुंबन करने हेतु आतुर रहते हैं।  

इस साल 175GW के लक्ष्य को हासिल करने में राज्यों का सहयोग होगा निर्णायक

भारत के पास दिसंबर 2022 तक 175 GW क्षमता के स्वच्छ ऊर्जा संयंत्र स्थापित करने का लक्ष्य है। फिलहाल अप्रेल का महीना ख़त्म हो रहा है और मार्च 2022 तक कुल 110 GW रिन्युब्ल एनेर्जी क्षमता स्थापित हुई है, जो कि 175 GW लक्ष्य का 63% है।
ग्लोबल थिंक टैंक एम्बर की एक नई रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत के चार राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने तो अपने रिन्युब्ल एनेर्जी क्षमता के लक्ष्यों को पार कर लिया है, लेकिन 27 राज्य और केंद्र शासित प्रदेश अब भी लक्ष्य से दूर हैं। इससे साफ़ होता है कि साल के बचे हुए महीनों में बड़े स्तर पर प्रयास करने होंगे देश के लक्ष्य को हासिल करने के लिए।
“इंडियाज़ रेस टू 175 GW” नाम की इस रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत ने मार्च 2022 तक 110 GW अक्षय ऊर्जा क्षमता (बड़े हाइड्रो पावर प्लांट्स को छोड़कर) स्थापित किया, जो कि 175 GW लक्ष्य का 63% है। 54 GW सौर क्षमता और ग्रिड पर 40 GW पवन क्षमता के साथ, राष्ट्र अपने सौर ऊर्जा लक्ष्य के आधे और 2022 के लिए अपने पवन ऊर्जा लक्ष्य के दो-तिहाई पर है।
मार्च तक, तेलंगाना, राजस्थान, कर्नाटक और अंडमान और निकोबार के केंद्र क्षेत्र के राज्यों ने अपने सालाना लक्ष्यों को पार कर लिया था। गुजरात और तमिलनाडु भी अपने लक्ष्यों के करीब आ रहे हैं। अन्य राज्यों में सिर्फ उत्तराखंड और सिक्किम हैं जिन्होंने अपने लक्ष्यों का 50% से अधिक हासिल किया है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि सभी राज्यों को योगदान करने की आवश्यकता है, क्योंकि दिसंबर तक 175 GW के अक्षय ऊर्जा लक्ष्य को पूरा करने के लिए राष्ट्र को अगले नौ महीनों में 65 GW अधिक की आवश्यकता होगी।
इस 65 GW की कमी में पांच प्रमुख भारतीय राज्य दो-तिहाई के हिस्सेदार हैं: महाराष्ट्र (11 GW), उत्तर प्रदेश (10 GW), आंध्र प्रदेश (9 GW), मध्य प्रदेश (7 GW), और तमिलनाडु (5 GW)।
एम्बर के वरिष्ठ बिजली नीति विश्लेषक आदित्य लोला कहते हैं, “प्रमुख राज्यों में प्रगति की कमी भारत को इस दौड़ में जीतने में बाधक बन रही है। सभी राज्यों को इस दिशा में सहयोग करना होगा जिससे देशहित में यह लक्ष्य हासिल किए जा सकें।”
अगले नौ महीनों में सौर ऊर्जा क्षमता स्थापना के 100 GW के लक्ष्य को हासिल करने के लिए इस दिशा में 85% की विकास दर वृद्धि की आवश्यकता है। वहीं पवन ऊर्जा को 60 GW लक्ष्य तक पहुंचने के लिए अगले तीन तिमाहियों में लगभग 50% की वृद्धि की आवश्यकता है।
भारत 2030 तक 450 GW रिन्युब्ल एनेर्जी और 500 GW गैर-जीवाश्म क्षमता के लक्ष्य को देख रहा है। 110 GW पहले से ही स्थापित होने के साथ, राष्ट्र को 340 GW नई अक्षय ऊर्जा क्षमता या औसतन 42.5 GW प्रति वर्ष की दर से अगले आठ साल क्षमता स्थापित करनी होगी 2030 के लक्ष्य को पूरा करने के लिए।
इस दौरान देश की सौर क्षमता को 54 GW से पांच गुना बढ़कर 280 GW पहुँचना होगा और पवन ऊर्जा को बढ़कर 140 GW पहुँचना होगा।
रिपोर्ट में अंततः यह कहा गया है कि भारत के लिए यह बिलकुल संभव है कि वह 2030 तक अपने 450 GW के रिन्युब्ल एनेर्जी लक्ष्य को हासिल कर ले, बस ज़रूरत होगी राज्यों के सहयोग की।

 चंपारण सत्याग्रह: किसानों के शांतिपूर्ण विद्रोह का प्रतीक

इस अप्रैल मे चंपारण के किसान आंदोलन को 105 वर्ष पूर्ण हुए। खेती के कोर्पोरेटाइजेशन या कंपनीकरण और शोषण की संगठित लूट के खिलाफ चले आंदोलन की कई मांगों की जड़ें चंपारण तक पहुंची मिलेंगी। इसके पहले विद्रोह हुए थे परंतु इस तरह का संगठित नियोजनपुर्ण प्रयास नहीं हुआ था। ये एक सदी पहले किसानों का पहला संगठिक शांतिपूर्ण अहिंसात्मक आंदोलन था। गांधीजी 175 दिन बिहार के चंपारण मे रुक कर आंदोलन चलाते रहे। बदले मे चंपारण ने इसे गांधीजी का नेतृत्व को राष्ट्रिय पटल पर स्थापित करने वाला पहला आंदोलन बना दिया।

चम्पारण जिले में बड़े बड़े जमींदार हुआ करते थे. तीन चौथाई से अधिक जमीन केवल तीन बड़े मालिकों और जागीरदारों की थी. चंपारण मे इन जागीरदारों के नाम थे बेतिया जागीर (राज), रामनगर जागीर (राज) और मधुबन जागीर (राज). पहले रास्ता आदि नहीं था इसलिए अच्छी व्यवस्था बनाने के लिए ठेकेदारों को गाँव दिए गए. जिनका मूल काम मालगुजारी वसूल करके जागीरदारों को देना था. १७९३ के पहले कुछ ठेकेदार देसी हुआ करते थे, बाद में अंग्रेज भी इसमें आ गए. जिनका सम्बन्ध गन्ना और नील के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से था.  उन्होंने बेतिया राज की तरफ से ठेका लेना शुरू कर दिया. समय के साथ देशी ठेकेदारों की जगह ब्रिटिश ठेकदारों ने ले ली. उनका प्रभाव बढ़ता चला गया. १८७५ के बाद कुछ अंग्रेज जिल्ह्याच्या उत्तर पश्चिमी भाग में जाकर बस गए और इस तरह सम्पूर्ण चम्पारण में अंग्रेजों की कोठियां स्थापित हो गईं। गांधीजी जब चंपारण गए तब अंग्रेजों की 70 कोठियाँ स्थापित हो चुकी थीं।

तीनकठिया खेती अंग्रेज मालिकों द्वारा बिहार के चंपारण जिले के रैयतों (किसानों) पर नील की खेती के लिए जबरन लागू तीन तरीकों मे एक था। खेती का अन्य दो तरीका ‘कुरतौली’ और ‘कुश्की’ कहलाता था। तीनकठिया खेती में प्रति बीघा (20 कट्ठा) तीन कट्ठा जोत पर मतलब 3/20 भाग पर नील की खेती करना अनिवार्य बनाया गया था। 1860 के आसपास नीलहे फैक्ट्री मालिक द्वारा नील की खेती के लिए 5 कट्ठा खेत तय किया गया था जो 1867 तक तीन कट्ठा या तीनकठिया तरीके में बदल गया। इस प्रकार फसल के पूर्व में दिए गए रकम के बदले फैक्ट्री मालिक रैयतों के जमीन के अनुपात में खेती कराने को बाध्य करते थे। 1867 से चंपारण मे तीनकठिया तरीके से जमीन पर नील लगाने की जबर्दस्ती की प्रथा प्रचलित थी। नील लगाने का क़रारनामा बनता जिसे सट्टा कहा जाता। इस करार के अनुसार किसानो को उनकी जमीन के निश्चित हिस्से मे नील लगाना पड़ता था। वह जमीन कौनसी होगी ये नीलवाले जिनहे कोठीवाले भी कहा जाता था वो तय करते थे। किसानों को न चाहते हुए भी अच्छी उपजाऊ जमीन नील के लिए देनी पड़ती। बीज कोठीवाले देते और बुआई-जुताई किसानो को करनी पड़ती। फसल को कारखाने तक लाने तक का बैलगाड़ी का खर्च कोठीवाले करते थे, जो कारनामे मे तय पैसे मे काट लिया जाता। फसल अच्छी हुई तो दर्ज की गई रकम दी जाती थी और नहीं हुई तो उसका कारण जो भी हो उसकी कीमत ठीक नहीं मिलती थी। अगर किसानों ने करार को तोड़कर नील लगाया तो उनसे एक बड़ी रकम भरपाई के रूप मे वसूल की जाती। किसानों को दूसरे फायदेमंद खेती के बजाए नील की खेती ही करनी पड़ती थी और उसके लिए अपनी सबसे उपजाऊ जमीन देनी पड़ती थी। खेती अगर घाटे मे गई तो कोठीवालों की अग्रिम राशि वापस कर पाना किसानो के लिए कठिन हो जाता था। उनके ऊपर कर्ज का पहाड़ बढ़ जाता। उन्हे मारपीट और अत्याचार किए जाते। नील के अधीन क्षेत्र का विस्तार बढ़ता गया। क्षेत्रफल पर आधारित कीमत का बाजार के उतारचढ़ाव और वजन से कोई लेना देना नहीं था। ऐसे मामले की सुनवाई के लिए एक विशेष अदालत थी लेकिन इसमें ज्यादातर फैसला रैयतों के विरूद्ध हुआ करता था.

1912 के आसपास जर्मनी का कृत्रिम रंग नील बाजार मे आने के कारण नील का भाव एकदम गिर गया और जबर्दस्त घाटा होने लगा। नील से होनेवाले नुकसान की भरपाई करने के लिए शरहबेशी, हरजा, हुंडा, तावान आदि नामों से नियम बना कर आदि अलग अलग नामों से जबर्दस्ती कर वसूली शुरू कर दी। 30,710 अनपढ़ निर्धन किसानों के करारनामों का पंजीकरण करके उनपर तब लागू 12.5 प्रतिशत की जगह 60 प्रतिशत कर वसूला जाने लगा इसे शरहबेशी कहा जाता था। किसानों को नील लगाने के बंधन से छुटकारा देने पर जो भारीभरकम कर वसूला जाता उसे  हरजा कहा जाता। नील की जगह दूसरी धान या अन्य फसल लेने पर वो नाममात्र कीमत पर कोठीवालों को ही अनिवार्य तौर पर बेचनी पड़ती। इसे हुंडा कहा जाता।  रैयतों को खेती मे काम करने पर मजदूरी जहां अन्य जगह 4-5 आना मिलती वहीं कोठियों की खेती पर 2-3 पैसा ही मिलती। नील बोने से मुक्ति के लिए नुकसान भरपाई के रूप मे  ‘तावान’ नाम से पैसे वसूलने का नियम बना। उस जमाने मे मोतीहारी कोठी ने 3,20,00, जल्हा कोठी ने 26,000, भेलवा कोठी ने 1,20,000 रुपये किसानों से वसूले। जो नहीं दे सके उनकी जमीने और घर जब्त कर लिए गए।कइयों को गाँव छोडकर भागना पड़ता। बहिष्कृत कर दिया जाता। कहीं कहीं किसानों को नंगा कर उनपर कीचड़ फेंका जाता, उन्हे सूर्य की तरफ देखते रहने की सजा दी जाती। महिलाओं को नंगा करके पेड़ से बांध दिया जाता था। कोठीवाले खुद को कलेक्टर से भी बड़ा समझते। गाँव के मृत जानवरों की खाल, खेतों मे के पेड़, सब पर कोठीवाले हक जमाकर कब्जे मे कर लेते। कोठीवालों ने चमड़े का ठेका लेने के कारण चर्मकार भी बेकार हो गए और किसान चर्मकार संबंध खत्म हो गए। घर मे दीवार बनाने, बकरी खरीदने, पशु बिक्री करने पर्व त्यौहारों सब मे कोठी तक हिस्सा पहुंचाना पड़ता।  

1857 के बंगाल प्रांत मे सरकार ने नीलवालों को सहायक दंडाधिकारी बना दिया गया। इससे किसानों मे असंतोष और शोषण और बढ़ गया। लोग मिलों नील की खेती छोडने के आवेदन लेकर खड़े रहते। कई जगह किसानो के साथ हिंसा हुई। इस विद्रोह के नेता हरिश्चंद्र मुखर्जी थे जिनके लगातार आंदोलनों से बंगाल मे इसपर रोक लग गई। लेकिन बिहार मे ये रोक लागू नहीं हुई। वहाँ धीरे- धीरे असंतोष ने विद्रोह का रूप धर लिया। 1908 मे शेख गुलाम और उनके सहयोगी शीतल राय ने बेतिया की यात्राओं मे सरकार के खिलाफ जोरदार प्रचार शुरू कर दिया और मलहिया, परसा, बैरिया, और कुडिया जैसे इलाकों मे विद्रोह फैल गया। कई विद्रोही किसानों को जेल और दूसरी तरह की सजाएँ और जुर्माने हुए।

पश्चिम चंपारण के सतवरिया निवासी पंडित राजकुमार शुक्ल अपनी जेब से पैसा खर्च कर थाना और कोर्ट में रैयतों की मदद किया करते थे.  मोतिहारी के वकील गोरख प्रसाद, धरणीधर प्रसाद, कचहरी का कातिब पीर मोहम्मद मुनिस, संत राउत, शीतल राय और शेख गुलाब जैसे लोग हमदर्द बन गए. वह कानपुर गए. और ‘प्रताप’ के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी को किसानों का दुखड़ा सुनाया. विद्यार्थीजी ने जनवरी 1915 को प्रताप में चंपारण में अंधेरा’ नाम से एक लेख प्रकाशित किया. विद्यार्थीजी ने शुक्लजी को गांधीजी से मिलने की सलाह दी. तब शुक्लजी साबरमती आश्रम गए लेकिन गांधीजी पुणे गए हुए थे. इसलिए उन दोनों की मुलाकात नहीं हो पाई. लखनऊ में 26 से 30 दिसंबर 1916 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 31वां वार्षिक अधिवेशन था. बिहार से बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए थे. उसमें भाग लेने के लिए चंपारण से ब्रजकिशोर, रामदयाल साह, गोरख बाबू, हरिवंश सहाय, पीर मोहम्मद मुनीश, संत रावत और राजकुमार शुक्ल भी गए। उनका मकसद चंपारण के किसानों पर होने वाले अत्याचारों की जानकारी काँग्रेस के नेताओं तक पहुंचाना था. वहां पहुंचते ही लोकमान्य तिलक से इस  विषय पर बात की, लेकिन लोकमान्य तिलक ने काँग्रेस का मुख्य उद्देश्य स्वराज होने के कारण इस पर ध्यान देनें में असमर्थता व्यक्त की. मदमोहन मालवीय जी से मिलने के बाद उन्होंने विश्वविद्यालय के काम मे व्यस्त होने के चलते गांधीजी के पास उन्हें भेज दिया. गांधीजी ने बड़े गौर से उनकी बातें सुनीं और आने का आश्वासन दिया। चम्पारण के किसानों के शोषण पर सम्मेलन में प्रस्ताव रखा गया जिसे पहली बार कॉंग्रेस मे जमा अभिजन मध्यमवर्गीय, उच्च शिक्षित लोग सुन रहे थे।

कुछ दिनों बाद वे चंपारण के निकले लेकिन पटना पहुंचते ही गांधीजी को जिले से बाहर जाने की सरकारी नोटिस थमा दी गयी. महात्मा गांधी ने वापस जाने से इंकार कर दिया तो उनपर सरकारी आदेश की नाफरमानी का मुकदमा चलाया गया. गांधीजी ने गिरफ्तार होने की सम्भवना देखते हुए अपने कई सहकारियों की आंदोलन जारी रखने के लिए बुला लिया था। उनको गिरफ्तार कर लिया गया. 18 अप्रैल 1917 की सुबह गांधीजी कोर्ट में दाखिल हुए. वहाँ उन्होंने उनके लिखित बयान में कहा कि उनका उद्देश्य इस मामले में सभी पक्षों से जानकारी लेना है और इससे कानून व्यवस्था के बिगड़ने का कोई सवाल नहीं उठता। उन्होंने खुद को कानून का पालन करने वाला बताया लेकिन किसानों के प्रश्नों पर काम करना कर्तव्य बताते हुए उन्होंने कानून की बजाए कर्तव्य पालन करने की बात की. अपराध मान्य करते हुए उन्होंने जमानत देने से मना कर दिया. 18 अप्रैल को मोतिहारी जिला अदालत में मजिस्ट्रेट जॉर्ज चंदर ने गांधीजी को 100 रुपये की सुरक्षा राशि का भुगतान करने का आदेश दिया जिसे उन्होने  विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया। जज और कोर्ट में उपस्थित लोग स्तब्ध थे और सजा का ऐलान कुछ दिनों के लिए टाल दिया गया। उनकी रिहाई की मांग को लेकर हजारों लोगों ने विरोध किया और अदालत के बाहर रैलियाँ निकली। बाद में ब्रिटिश सरकार ने इस मामले को वापस ले लिया। तीसरे दिन सरकार से सूचना मिली कि गांधीजी पर से धारा 144 हटा ली गई है. उच्चाधिकारियों को आदेश मिला कि वे उनकी पूरी सहायता करें. 

उसके बाद गांधीजी गाँवों का दौरा करने लगे। लोकरिया, सिंधाछपरा, मुरलीभरवा, बेलवा आदि गांवों में मीलों पैदल चलकर ग्रामीणों की व्यथा सुनी। कोठीवालों द्वारा नष्ट किये गए घरों और खेतों को देखा. गांधीजी को मिलने वाले समर्थन से कोठीवाले घबराने लगे थे. उन्होंने 20 से 25 हजार आवेदन अपने सहकारियों की मदद से दिनरात लिख कर तैयार किये। इन सहकारियों मे डॉ राजेंद्र प्रसाद भी थे। गांधीजी की हिंदी अच्छी न होने के कारण सारा कामकाज अंग्रेजी में ही हो रहा था.

चंपारण में पहुंचते ही वहाँ जातिवाद से उनका सामना हुआ. गांधीजी ने उस दौरान गांवो की निरक्षरता, अज्ञान, अस्वच्छता गरीबी दूर करने के लिए अपने सहकारियों को लेकर भितहरवा, बड़हरवा और मधुबन इन तीन गांवों में आश्रम की स्थापना की जहाँ पाठशाला भी थी। प्रौढ़ शिक्षा  कार्यक्रम और डॉक्टरों का बंदोबस्त किया। भारत सेवक समाज की तरफ से डॉ. देव 6 महीने चम्पारण रुके। लोग गंदगी हटाने को तैयार नहीं थे तो उन्होंने स्वयंसेवकों के साथ मिलकर गांव के रस्ते साफ किये, घरों से कूड़ा फेंका, कुंएं के आसपास के गड्ढे भरे। पर्दाप्रथा के कारण लड़कियों का स्कूल आना नही होता तो उनके लिए अलग स्कूल खोला गया जिसमें 7 से 25 साल की 40 लड़कियां -महिलाएँ पढनें आतीं। उन्हें पहली बार इतना स्वातंत्र्य मिला था। महिलाओं को बाल धोने, साफ कपड़े पहनने, घर स्वच्छ रखने की बात समझाई जाती। ये सब आसान नहीं था, उनको मजाक, तिरस्कार, बेपरवाई जैसी कई बातों का सामना करना पड़ा। स्वयंसेवकों ने खुद ही बिहारी भाषा सीखी।

गांधीजी ने प्रांतीय गवर्नर गेट और बिहार प्रान्त परिषद के सदस्यों से 3 दिनों तक भेंट की और किसानों के असंतोष की गंभीरता से अवगत कराया। गेट ने सरकारी अधिकारियों, कानूनविद, विधानपरिषद में बगवालों के प्रतिनिधि, किसानों के प्रतिनिधि और स्वयं गांधीजी को लेकर एक जांच समिति गठित की। उस समय के सरकार समर्थित पायोनियर, स्टेट्समैन, इंग्लिश मैन आदि समाचारपत्रों और यूरोपियन एसोसिएशन ने समिति में गांधीजी के सदस्य होने पर आपत्ति जताई।

समिति का काम बेतिया में शुरू हुआ। बड़े पैमाने पर भीड़ जमना शुरू हो गयी। समिति के पास 20 से 25 साल पहले घटी हुई ज्यादतियों के भी आवेदन आए। समिति ने कोठीवालों का भी आवेदन लिया। तीन-कठिया प्रथा, शरहबेशी और तावान के अन्याय को दूर करना मुख्य विषय थे। शरहबेशी से जुड़े मामलों में अगर मुकदमा करना पड़ता तो 50 हजार मुकदमे दायर करने पड़ते। इनमे अगर कोठीवाले हारते तो उच्च न्यायालय गए बिना नहीं रहते। इसलिए सामंजस्य से इसे सुलझाना जरूरी था। गांधीजी ने 40 प्रतिशत कटौती की मांग रखी और न मानने पर 55 प्रतिशत कटौती की  मांग करने की धमकी देकर दबाव बनाया और मोतिहारी और अपने व्यवहार कौशल्य से पिपरा कोठी के शरहबेशी में क्रमानुसार 26 और तुरकौलिया कोठी में 20 प्रतिशत की कटौती पर राजी कर लिया। गांधीजी के सामंजस्यपूर्ण कार्यपध्दति से समिति के अध्यक्ष स्लाइ प्रभावित हुए और उनके प्रशंसक बन गए। 3 अक्टूबर 1917 को समिति की रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिसमें तीन कठिया पद्धति दोषपूर्ण होने की बात मानते हुए उसे रद्द करने की और उसके लिए कानून बनाने की सिफारिश की गई थी। नील के लिए कौन सी जमीन देनी हैए तय करने का अधिकार किसान को और नील कीमत क्षेत्रफल के बजाए वजन के आधार पर देने की सिफारिश की गई। करार की अनिश्चित कालावधि को अल्पावधि की सीमा निर्धारित की गई और न्यूनतम कीमत का निर्धारण बागवालों का संघ कमिश्नर की अनुमति और सहमति से निर्धारित करने की बात लिखी गयी। तावान के अंतर्गत वसूल रकम का कुछ हिस्सा किसानों को वापस करने, बढ़ाने पर रोक और ज्यादा वसूली करने पर दंडित करने का प्रावधान बनाया गया। चमड़े की मिल्कियत और उपयोग का निर्णय मृत जानवर के मालिक को देना तय हुआ। न्यूनतम मजदूरी की दर बागवालों का  संघ निश्चित करे और वही दर मजदूरों को दी जाए। सरकार का आदेश किसानों को देशी भाषा मे देने की भी सिफारिश की गई।

तीन दिनों बाद ही विधानमंडल में इस रिपोर्ट पर चर्चा हुई और इसे सामान्यतः स्वीकार करके तत्काल कानून बनाने का निर्णय लिया गया। गांधीजी के कारण ग्रामीणों में जो निर्भयता आई थी उससे अब वो नीलवालों के विरुद्ध लड़ने को तैयार हो गए थे। चम्पारण खेती बिल प्रस्तुत हुआ और चम्पारण खेती कानून 4 मार्च 1918 को पारित किया गया। 18 कोठियों द्वारा वसूल किये गए तावान का 8,60,301 रुपया किसानों को वापस किया गया। करार की कालावधि अधिकतम 3 वर्ष निर्धारित हुई। कीमत नील के वजन पर निर्धारित की जाने लगी। नया कानून बनने से नीलवालों और कोठियों का रुबाब उतर गया। कई नीलवालों ने पहले महायुध्द के बाद बढ़ी महंगाई का लाभ उठाते हुए अपनी जमीन, कोठी और माल बेचकर लाभ कमाया और किसानों ने राहत की सांस ली।

तब गांधीजी 48 वर्ष के थे.  चंपारण-सत्याग्रह के पहले गांधी दक्षिण अफ्रीका में बीस वर्षों तक वहां की गोरी सरकार की रंगभेद-नीति के विरुद्ध अहिंसात्मक संघर्ष करके अपने सत्याग्रह-अस्त्र का सफल प्रयोग कर चुके थे। तब तक उनका विश्वास सरकार की न्यायबुद्धि पर था। गांधीजी के मध्यमवर्गीय सहकारी ग्रामीण निरक्षर और निम्न जाति के किसानों से जुड़े। यह सत्याग्रह देश के स्वतंत्रता संघर्ष के अहिंसात्मक स्वरूप की शुरुवात थी। यह किसान आंदोलन के इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है और कृषि के कंपनीकरण द्वारा किसानों के शोषण के स्वरूप, आंदोलन और आधे साल तक चले आंदोलन द्वारा मांगे मनवाने का प्रेरणा स्तम्भ भी है। केवल आर्थिक मांगों तक यह सीमित नहीं रखा गया। इस दौरान जातिवाद, ग्राम स्वच्छता, स्कूल, प्रौढ़ व स्त्री शिक्षा जैसे कई सामाजिक सुधार प्रयास भी हुए जिनसे लोग आंदोलन से जुड़े। यह आज भी राजनीतिक पार्टियों और उनके कार्यकर्ताओं के लिए राजनीतिक अभ्यास का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए।   

–    कल्पना पांडे