राजनीति भारतीय चुनावी लोकतंत्र की रीढ़ है-अनुच्छेद 326

भारतीय चुनावी लोकतंत्र की रीढ़ है-अनुच्छेद 326

हाल ही में बिहार वोटर लिस्‍ट रिवीजन में एक बड़ा खुलासा हुआ है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक वोटर लिस्‍ट में नेपाल, बांग्लादेश और म्यांमार के…

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खान-पान स्वास्थ्य बनाम स्वादः समोसा और जलेबी से सावधान!

स्वास्थ्य बनाम स्वादः समोसा और जलेबी से सावधान!

-ललित गर्ग- भारत जैसे विविधताओं वाले देश में जहां हर नुक्कड़ पर समोसे की महक और जलेबी की मिठास लोगों को आकर्षित करती है, वहीं…

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लेख चिंताजनक है नदियों का मौन

चिंताजनक है नदियों का मौन

डा.वेदप्रकाश      नदियां बोलती हैं। उनका कल कल- छल छल स्वर और निरंतर प्रवाह उनकी जीवंतता का प्रमाण है। भारतीय ज्ञान परंपरा के आदि ग्रंथ ऋग्वेद के 33वें सूक्त में ऋषि विश्वामित्र और नदी का संवाद है। जहां नदियों को गायों और घोड़े के सदृश शब्द करती व दौड़ती वर्णित किया गया है। वहां कहा गया है कि नदियां सबका उपकार करने वाली होती हैं और कभी जल से हीन नहीं होती। वहां ऋषि द्वारा नदी पार करने हेतु प्रार्थना भी है। इसी प्रकार 75वें सूक्त में- इमं मे गंड्गे यमुने सरस्वति…के माध्यम से विभिन्न नदियों का महत्व और शोभा वर्णित है। आदिकाव्य रामायण और रामचरितमानस में भी विभिन्न प्रसंगों में नदियों से संवाद एवं स्तुति मिलती है। सुंदरकांड में प्रभु श्रीराम समुद्र से प्रार्थना, पूजन व संवाद करते हैं।       नदियों का सतत प्रवाह अथवा गतिशीलता मानव चेतना को साहस प्रदान करता रहा है। हरिद्वार, ऋषिकेश, मथुरा, काशी,प्रयागराज और गंगासागर आदि अनेक तीर्थ नदियों से ही बने हैं। नदियों के  किनारे ही सभ्यता एवं संस्कृति विकसित हुई हैं। ध्यान रहे नदियां हैं तो प्रकृति है, संस्कृति है, संतति है, वर्तमान है और भविष्य भी इन्हीं से होगा। कहीं बीहड़ जंगलों से तो कहीं कठोर पर्वत श्रेणियों से निकलती नदियां उनकी संघर्ष यात्रा के प्रमाण हैं। गंगा,यमुना, सरस्वती, गोदावरी, ब्रह्मपुत्र, गोमती, घाघरा, गंडक, कोसी, चंबल, बागमती, सिंधु , झेलम, चेनाब,रावी, व्यास, सतलुज, नर्मदा, ताप्ती, वैतरणी, कृष्णा,कावेरी, लूनी, माच्छू , बनास, साबरमती, काली, पेरियार आदि देश की छोटी बड़ी सैकड़ों नदियां बड़े भू भाग को सींचने के साथ-साथ जीवन की रेखाएं भी हैं। अनेक नदियां पर्वत, मैदान, हिम क्षेत्र और मरुस्थल में भी जीवनदायिनी बनकर बहती हैं। विभिन्न नदियों पर बने बड़े बांध जहां विद्युत उत्पादन के बड़े स्रोत हैं तो वहीं कृषि आवश्यकताओं हेतु नहरों से जल का फैलाव भी करते हैं। आज दर्जनों नदियां मर चुकी हैं, दर्जनों भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रदूषण के कारण बदहाली का शिकार हैं और जो बची हैं उनमें भी पानी का स्तर लगातार कम हो रहा है। कुल मिलाकर नदियां मौन होती जा रही हैं, क्या नदियों का यह मौन मनुष्य सहित समूची जीव सृष्टि के लिए चिंताजनक नहीं है?     भारत विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश बन चुका है। ऐसे में औद्योगिक, कृषि, पेयजल एवं खाद्यान्न हेतु जल की कमी और नदियों पर मंडराता संकट बड़ी चुनौती के रूप में सामने खड़ा है। गंगा और यमुना जैसी देश की बड़ी नदियों के किनारे अनेक औद्योगिक इकाइयां हैं। साथ ही मछली पालन के रूप में भी आजीविका के बड़े अवसर हैं लेकिन यदि नदियां मौन होती जाएगी तो इससे इन पर निर्भर लोगों को आर्थिक संकट के साथ-साथ विस्थापन भी झेलना पड़ेगा। यमुना नदी के संबंध में दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति की एक रिपोर्ट बताती है कि नदी के न्यूनतम बहाव के लिए जितना पानी होना चाहिए उसका आधा भी फिलहाल नहीं है। दिल्ली सहित देश के विभिन्न राज्यों एवं महानगरों में घरेलू कचरा, सीवेज और औद्योगिक दूषित जल सीधे नदियों में गिर रहा है। राजधानी दिल्ली में 28 औपचारिक औद्योगिक क्षेत्र हैं जिनमें से केवल 17 कॉमन एफ्लूएंट ट्रीटमेंट प्लांट यानी सीईटी से जुड़े हैं। 11 के लिए कोई ट्रीटमेंट प्लांट है ही नहीं। जब राष्ट्रीय राजधानी की यह दशा है तो देश के अन्य औद्योगिक महानगरों की स्थिति सहज ही समझी जा सकती है। नदियों के स्वतंत्र प्रवाह में अतिक्रमण और अवैध खनन भी एक बड़ी चुनौती बन चुका है। अप्रैल 2025 में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने देहरादून की विभिन्न नदियों, नालों और खालों से अतिक्रमण हटाने का आदेश दिया है। समाचारों के अनुसार देहरादून में 100 एकड़, विकासनगर में 140 एकड़, ऋषिकेश में 15 एकड़ और डोईवाला में 15 एकड़ नदियों की भूमि पर अतिक्रमण है। विगत में सुप्रीम कोर्ट भी दिल्ली में यमुना नदी को अतिक्रमण मुक्त करने का आदेश दे चुका है। देश के अन्य प्रदेशों में नदी क्षेत्र के अतिक्रमण की स्थिति कमोबेश ऐसी ही है। समाचार यह भी बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया की 87 प्रतिशत नदियां गर्म हो रही हैं और 70 प्रतिशत नदियों में आक्सीजन की कमी हो रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। मौसम का चक्र बदल रहा है। दुनियाभर में नदियों का आकार भी सिकुड़ रहा है। ध्यान रहे नदियों की बदहाली और उनका मौन होना नदी के अंदर और आसपास की पारिस्थितिकी को भी गहरे प्रभावित करता है। घातक रसायनों एवं प्रदूषण के कारण नदी जीवन के लिए आवश्यक मछली, कछुए और अन्य जीवों की संख्या भी लगातार घट रही है और नदी क्षेत्र के प्रकृति-पर्यावरण में भी बदलाव देखे जा सकते हैं। मार्च 2025 के वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के एक अध्ययन से यह सामने आया है कि नदियां कार्बन डाइआक्साइड को अवशोषित करने के साथ ही उसे वातावरण में वापस छोड़ने का काम भी कर रही है… नदियों के पानी में ठहराव और प्रदूषण के कारण यदि उसका तापमान बढ़ता है तो उसमें गैसों का उत्सर्जन और तेज होगा। प्रदूषण वाले भाग पर कचरे से मिथेन गैस भी निकलती है जो कार्बन डाइआक्साइड से 21 गुना अधिक खतरनाक है।     मानसून के मौसम में नदियों में जल की अधिकता होती है। यह जल नदियों को नवजीवन प्रदान करने के साथ-साथ समूचे नदी क्षेत्र को जल से भरता है। जिससे वहां भिन्न-भिन्न प्रकार की वनस्पतियां पोषित होती हैं और आसपास के क्षेत्र में भूजल का स्तर भी संतुलित रहता है। यह नदियों का रौद्र रूप नहीं है अपितु नदी क्षेत्र में मनुष्य का अनुचित हस्तक्षेप हो रहा है इसलिए दुर्घटनाएं भी बढ़ रही हैं। क्या यह हस्तक्षेप अनुचित नहीं है?      ध्यान रहे नदियां अपने उद्गम से फिर किसी संगम अथवा सागर तक की यात्रा में समूची जीव सृष्टि के लिए जल एवं खाद्यान्न पैदा करती हैं। समूचा जलचक्र नदियों एवं सागर के द्वारा ही पूरा होता है। क्या नदियों का मौन होना समूचे जलचक्र को प्रभावित नहीं करेगा? नदियों के पुनर्जीवन एवं संरक्षण-संवर्धन हेतु आज यह आवश्यक है कि समुचित रणनीति बनाते हुए नदियों की प्रकृति को समझकर प्रबंधन किया जाए। नदियों की स्थिति को गंभीर एवं प्रमुखता की श्रेणी में रखते हुए उससे संबंधित नौकरशाही की जिम्मेदारी तय की जाए। यह सत्य है कि पर्याप्त सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट और औद्योगिक क्षेत्र में समुचित व्यवस्था न होने के जिम्मेदार नौकरशाह हैं। बिना सरकारी और नौकरशाही सहयोग के नदी और जल स्रोतों पर अतिक्रमण और खनन संभव नहीं है। संविधान में वर्णित मौलिक कर्तव्य हमें नदी, झीलों एवं जल स्रोतों के संरक्षण-संवर्धन हेतु दायित्व देते हैं। क्या हम संविधान की भावना के अनुरूप काम कर रहे हैं? मार्च 2017 में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने गंगा और यमुना नदियों के विषय में अपना फैसला देते हुए कहा- गंगा और यमुना नदियां अपना अस्तित्व खोने के खतरे में हैं और इसलिए उन्हें अधिकारों के साथ कानूनी इकाई घोषित किया गया है। लेकिन यह विडंबना ही है कि कुछ समय बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर रोक लगा दी। आज हमें यह समझना होगा कि गंगा और यमुना जैसी बड़ी नदियां भारत की बड़ी आबादी के अस्तित्व, उनके स्वास्थ्य और जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं। अनादि काल से ये नदियां मनुष्य को शारीरिक, आध्यात्मिक और भिन्न-भिन्न प्रकार का पोषण प्रदान करती रही हैं। आज जब ये जीवनदायिनी नदियां अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं, भयंकर प्रदूषण की चपेट में हैं तब यह आवश्यक है कि इन्हें कानूनी इकाई घोषित किया जाए। सरकारों के साथ-साथ समाज भी इनके संरक्षण-संवर्धन हेतु अपना दायित्व समझे,जिससे इन्हें मौन होने से बचाया जा सके क्योंकि नदियों का मौन होना समूची जीव सृष्टि के अंत की ओर बढ़ना है। डा.वेदप्रकाश

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राजनीति बिहार चुनाव : मतदाता सूची पर सवाल,राजनीतिक दलों का बवाल

बिहार चुनाव : मतदाता सूची पर सवाल,राजनीतिक दलों का बवाल

प्रदीप कुमार वर्मा बिहार विधानसभा चुनाव 2025 से पहले “स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन” को लेकर मचे बवाल पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाने से इनकार कर दिया है। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए अपनी टिप्पणी में कहा कि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है और सुप्रीम कोर्ट भी एक संवैधानिक संस्था होने के नाते दूसरी संवैधानिक संस्था के कामकाज पर दखल नहीं देना चाहती। सुप्रीम कोर्ट के इस इनकार के बाद विपक्ष को इंटर्नशिप रिवीजन पर रोक लगाने की कवायद धक्का लगा है। वहीं, बिहार की सत्ता पर काबिज एनडीए गठबंधन के दलों ने सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का स्वागत करते हुए शुद्ध एवं अपडेट मतदाता सूची बनाने के लिए इसे एक सराहनीय कदम करार दिया है।         स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए किसी भी चुनाव से पहले मतदाता सूची को अपडेट किया जाता है, जो एक सामान्य प्रक्रिया है। लेकिन चुनाव आयोग ने इस बार एक जुलाई से मतदाता सूची की विशेष गहन समीक्षा शुरू कर दी है। इसे लेकर विपक्ष सवाल उठा रहा है। चुनाव आयोग की दलील है कि बिहार में मतदाता सूची की गंभीर समीक्षा की ऐसी आख़िरी प्रक्रिया 2003 में हुई थी और उसके बाद से नहीं हुई है। इसलिए ये मुहिम ज़रूरी है। मतदाता सूची की गहन समीक्षा के लिए चुनाव आयोग ने मतदाताओं के लिए एक फॉर्म तैयार किया है, जो मतदाता 1 जनवरी, 2003 की मतदाता सूची में शामिल थे, उन्हें सिर्फ़ यह गणना पत्र भरकर जमा करना है। उन्हें कोई सबूत नहीं देना होगा।         बिहार में ऐसे करीब 4.96 करोड़ मतदाता हैं। चुनाव आयोग ने 2003 की ये वोटर लिस्ट अपनी वेबसाइट पर डाल दी है। बिहार चुनाव से पूर्व मतदाता सूची की गहन समीक्षा की कवायद में यह सारा हंगामा 2003 के बाद मतदाता बने लोगों से सबूत मांगने को लेकर है। चुनाव आयोग के मुताबिक 1 जुलाई 1987 से पहले पैदा हुए नागरिकों जो 2003 की मतदाता सूची में नहीं थे, उन्हें अपनी जन्मतिथि और जन्मस्थान का सबूत देना होगा। ऐसे सभी मतदाता आज की तारीख़ में 38 साल या उससे बड़े होंगे। जो लोग 1 जुलाई 1987 से लेकर 2 दिसंबर 2004 के बीच पैदा हुए हैं, उन्हें अपनी जन्मतिथि और जन्मस्थान और अपने माता-पिता में से किसी एक की जन्मतिथि और जन्मस्थान का सबूत देना होगा।            ये सभी लोग क़रीब आज 21 से 38 साल के बीच के होंगे। इसके अलावा 2 दिसंबर 2004 के बाद पैदा हुए नागरिकों को अपनी जन्मतिथि और जन्मस्थान और अपने माता-पिता दोनों की ही जन्मतिथि और जन्मस्थान का भी सबूत देना होगा। बस इन ही सबूतों की मांग को लेकर सारा विवाद खड़ा हो गया है कि इतनी जल्दी ये सबूत कहां से लेकर आएं? चुनाव आयोग के मुताबिक 2003 के बाद बीते 22 साल में तेज़ी से शहरीकरण हुआ है यानी गांवों से लोग शहरों में गए हैं। जैसे लोगों का पलायन एवं प्रवास काफ़ी तेज़ हुआ है। इस पूरी कवायद में बिहार के लोग दूसरे राज्यों गए हैं, दूसरे राज्यों के लोग बिहार आए हैं। इसके साथ ही कई नागरिक 18 साल पूरा करने के बाद नए मतदाता बने हैं।         वहीं,कई मतदाताओं की मृत्यु की जानकारी अपडेट नहीं हुई है। सबसे अहम मतदाता सूची में दूसरे देशों से आए अवैध अप्रवासियों को भी अलग किया जाना ज़रूरी है। यही वजह है कि चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूचियां का गहन रिवीजन का काम किया जा रहा है। मतदाता सूचियां के गहन रिवीजन के इतिहास पर गौर करें,तो इससे पूर्व तत्कालीन मुख्यमंत्री राबडी देवी के शासनकाल में भी मतदाता सूचियां का गहन रिवीजन किया गया था और तब यह काम मैच 31 दिन में पूरा किया गया था। उसे दौरान चुनाव आयोग ने मात्र तीन दस्तावेजों की बाध्यता की थी बदले हुए प्रवेश में चुनाव आयोग द्वारा किए जा रहे मतदाता सूचियां के गहन रिवीजन के काम में चुनाव आयोग ने इस डरे को बढ़ाते हुए 11 दस्तावेज मांगे हैं।      चुनाव आयोग द्वारा मांगे जा रहे दस्तावेजों में जन्म प्रमाण पत्र,पासपोर्ट,हाईस्कूल सर्टिफिकेट,स्थायी निवास प्रमाण पत्र,वन अधिकार प्रमाण पत्र,जाति प्रमाण पत्र,एनआरसी में नाम,परिवार रजिस्टर,ज़मीन या आवास आवंटन पत्र,केंद्र या राज्य सरकार के कर्मचारी या पेंशनर का कोई आई कार्ड,सरकार या बैंक या पोस्ट ऑफ़िस या एलआईसी या सरकारी कंपनी का आई कार्ड या सर्टिफिकेट शामिल है। चुनाव आयोग के मुताबिक ये लिस्ट अंतिम नहीं है। यानी कुछ और दस्तावेज़ों को भी मान्यता दी जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट में गुरुवार को इस मामले में सुनवाई होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी चुनाव आयोग को आधार कार्ड,मनरेगा कार्ड एवं राशन कार्ड को इस सूची में शामिल करने का आग्रह किया है।    …

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राजनीति हिन्दू परिवारों के धर्म परिवर्तन कराने के ठेकेदार जमालुद्दीन उर्फ छांगुर को पहचानने में आखिर 8 वर्षों तक कैसे चुकी यूपी सरकार?

हिन्दू परिवारों के धर्म परिवर्तन कराने के ठेकेदार जमालुद्दीन उर्फ छांगुर को पहचानने में आखिर 8 वर्षों तक कैसे चुकी यूपी सरकार?

कमलेश पांडेय हिंदू परिवारों का धर्म परिवर्तन, लव जिहाद और देश विरोधी गतिविधियों के आरोप में एटीएस के शिकंजे में आए जमालुद्दीन उर्फ छांगुर के मंसूबे कहीं ज्यादा घातक थे, ऐसा उसकी अलग-अलग गतिविधियों से पता चलता है। इसलिए सवाल है कि उत्तरप्रदेश में पिछले 8 सालों से योगी सरकार होने के बावजूद जिस तरह से हिंदू परिवारों का धर्म परिवर्तन कराया गया, यह प्रशासन और खुफिया इकाई के मुंह पर किसी तमाचे से कम नहीं है। सच कहूं तो यह उनकी विफलता का द्योतक है। इसलिए आशंका तो यह है कि इस पूरे खेल में योगी सरकार के ही कुछ मंत्री और उनके भरोसेमंद अधिकारी भी शामिल रहे होंगे, अन्यथा इस बात के खुलासे में इतना विलंब नहीं होता।  दबी जुबान में लोगों के इशारे हैं कि यदि केंद्रीय गृह मंत्रालय इस एंगल से भी जांच करवाए तो योगी प्रशासन के दूरगामी हित के लिए बेहतर रहेगा। यहां के सियासी हल्के में जो लोग बार-बार मुख्यमंत्री बदलने की मांग कर रहे थे, संभव है कि उनके तार भी ऐसे गिरोह से जुड़े हों। ऐसा इसलिए कि अमेरिका-चीन के इशारे पर और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के सहयोग से भारत के इस्लामीकरण की जो देशव्यापी साजिश कुछ भारतीय राजनीति दलों के परोक्ष समर्थन से जारी है, उसका बहुत छोटा सा इलाकाई प्यादा जमालुद्दीन उर्फ छांगुर बाबा है जो कि धर्मांतरण के आरोप में गिरफ्तार हुआ है।  इसलिए अब आवश्यकता इस बात की है कि पूरे देश में इस प्रकरण की गम्भीर जांच हो और कुछ बड़ी मछलियों के साथ साथ उन छोटी मछलियों को भी पकड़ा जाए, जो हिंदुओं के धर्मांतरण के खेल में शामिल हैं। यही नहीं, वहां के राज्य प्रशासन के कुछ अधिकारियों की चुप्पी को भी टटोला जाए ताकि बड़े-बड़े खुलासे हो सकें। खासकर महानगरों व बड़े नगरों पर भी इसी दृष्टि से नजर दौड़ाई जाए। विशेष तौर पर एक धर्मांतरण जांच प्रकोष्ठ बने, जो सतत निगाह रखे। ऐसा इसलिए कि जमालुद्दीन उर्फ छांगुर को लेकर जो नए नए खुलासे हो रहे हैं, उसमें गम्भीर खुलासा यह हुआ है कि छांगुर ने जमीनों में भी खूब पैसा लगाया था। तभी तो हर खरीद व बिक्री पर मुनाफे की रकम छांगुर तक पहुंचती थी जो धर्म परिवर्तन कराने में खर्च होता था। स्पष्ट है कि उत्तरप्रदेश के बलरामपुर जनपद में अवैध धर्मांतरण को आगे बढ़ाने के लिए छांगुर ने कई दांव-प्रतिदाँव चले थे। वह इतना शातिर है कि लोकल अधिकारियों को मैनेज करके व लोगों को अनुचित लाभ देकर खुद की टीम से जोड़ने के लिए प्रॉपर्टी का कार्य भी करा रहा था।  बताया गया है कि उसके इस काम को महबूब और नवीन रोहरा देखते थे जिससे अच्छी आमदनी होती थी और पूरा का पूरा मुनाफा धर्म परिवर्तन कराने में खर्च होता था। वहीं यह भी पता चला है कि पहले लोगों को प्रभावित करने के लिए छांगुर उन्हें रुपये बांटता था और फिर इस्लाम धर्म कबूल करने का दबाव बनाता-बनवाता था। उदाहरणतया, उत्तरौला में ही छांगुर ने छह स्थानों पर बेशकीमती जमीन खरीदी है। इसके अलावा, शहर में दो कॉम्प्लेक्स भी बनवाए हैं। इसके साथ ही साथ प्लॉटिंग भी कर रहा था।  इस बारे में छांगुर के राजदार रहे एक व्यक्ति ने एक मीडिया से बातचीत करते हुए बताया है कि छांगुर धर्म परिवर्तन कराने के लिए कई तरह से रुपये बांटता था। वह सुनियोजित योजना के तहत हिंदू श्रमिकों और गरीब परिवारों को पहले नियमित खर्च के लिए रुपये देता था। ततपश्चात वह ऐसे लोगों को अपने घर में साफ-सफाई या जानवरों की देखरेख का काम सौंपता था। फिर छांगुर उन्हें वेतन के साथ ही 100-200 रुपये रोज देता था। इसके बाद प्रभाव में लेकर उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए कहता और बेहतर जिंदगी का ख्वाब दिखाता था।  वहीं, छांगुर के यहां सफाई करने वाले संचित ने एटीएस को बताया है कि उसे छांगुर ने धर्म परिवर्तन करने पर पांच लाख रुपये देने का लालच दिया था और इनकार करने पर दुष्कर्म के मामले में फंसा दिया। खबर है कि एटीएस ने भी संचित के बयान का जिक्र अपनी जांच में किया है। इन बातों से साफ है कि हिंदू परिवारों का धर्म परिवर्तन, लव जिहाद और देश विरोधी गतिविधियों के आरोप में एटीएस के शिकंजे में आए जमालुद्दीन उर्फ छांगुर के मंसूबे कहीं ज्यादा घातक थे।  खबर है कि अवैध धर्मांतरण के लिए उसने नेपाल से सटे संवेदनशील सात जिलों में सक्रिय कुछ ईसाई मिशनरियों से भी उसने सांठगांठ कर ली थी। वह उनके पास्टर और पादरी को पैसे देकर कमजोर वर्गों का ब्योरा लेता था और फिर चिह्नित परिवारों को आर्थिक रूप से मदद देकर उन्हें अपने प्रभाव में लेकर धर्म परिवर्तन कराता था। खबर है कि धर्मांतरण में होने वाले खर्च का पूरा हिसाब नसरीन रखती थी जबकि नवीन से जलालुद्दीन बना नीतू का पति पुलिस और स्थानीय प्रशासन को मैनेज करता था। वहीं, सुरक्षा एजेंसियों के अनुसार, नेपाल से सटे देवीपाटन मंडल में मिशनरियों ने हर वर्ग के अनुसार प्रचारक नियुक्त किया है जिससे परिवारों को समझाने और धर्मातरण के लिए राजी करने में आसानी होती है। इसकी एक पूरी चेन है, जिसमें प्रचार, पास्टर और पादरी अहम कड़ियां हैं। इनके पास चुनिंदा क्षेत्रों के दलित, वंचित, गंभीर रूप से बीमार व आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों का पूरा ब्योरा होता है, जिसे छांगुर समय-समय पर पैसे और प्रभाव का उपयोग कर धर्मांतरण के लिए हासिल करता था। खबर है कि हिन्दू परिवारों को प्रभावित करने के लिए छांगुर नीतू उर्फ नसरीन और नवीन उर्फ जलालुद्दीन का उदाहरण देता था। वह बताता था कि दोनों पहले सिंधी थे लेकिन इस्लाम स्वीकार करने के बाद उनकी जिंदगी बदल गई। आज इनके पास पैसे हैं, आलीशान कोठी है, महंगी गाड़ी है। लिहाजा इस्लाम स्वीकारते ही तुम्हारी भी जिंदगी बदल जाएगी। वहीं, भारत-नेपाल बॉर्डर पर काम कर चुके पूर्व आईबी अधिकारी संतोष सिंह बताते हैं कि छांगुर पीर मिशन आबाद की एक कड़ी है जिसके तहत हिंदू परिवारों के धर्म परिवर्तन के बदले उसे विदेश से फंडिंग भी होती थी। इसकी रिपोर्ट भी बनी और गृह मंत्रालय को भेजी भी गई। यह बात अलग है कि देर से ही सही लेकिन अब कार्रवाई पुख्ता हो रही है। बताते चलें कि मिशन आबाद भारत-नेपाल के बीच तराई व मधेश क्षेत्र में समुदाय विशेष की आबादी बढ़ाने की कोशिश है। इसके तहत शिक्षण संस्थानों की आड़ में असम व पश्चिम बंगाल तक के लोगों को बसाने का प्रयास भी इसी का हिस्सा है। यही वजह है कि हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में इस तरह की गतिविधियों की व्यापक जांच राष्ट्रहित में हो और यदि कोई राजनीतिक हस्तक्षेप करता है तो उसके खिलाफ भी कड़ी कार्रवाई की जाए अन्यथा भारत का इस्लामीकरण कोई मुश्किल कार्य नहीं है जैसा कि अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र चल रहा है। इसी तरह से ईसाई मिशनरियों व बौद्ध संगठनों की भी जांच हो जो विदेशियों के इशारे पर भारतीय राजनीति को प्रभावित करने के उद्यम करते हैं। कमलेश पांडेय

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सिनेमा सलमान के साथ फिर नजर आएंगी रश्मिका मंदाना ?

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सुभाष शिरढोनकर रश्मिका मंदाना ने साल 2016 में कन्नड़ फिल्म ‘किरिक पार्टी’ से एक्टिंग में डेब्यू किया था। 4 करोड़ के बजट वाली इस फिल्‍म…

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राजनीति छांगुर बाबा के साम्राज्य का अंत लेकिन कितने बाकी

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राजेश कुमार पासी अकसर हिन्दू संगठन लव जिहाद का मुद्दा उठाते रहते हैं लेकिन सभी उनका मजाक उड़ाते हैं कि ये उनकी साम्प्रदायिक सोच है, ऐसा कुछ नहीं है ।  विडम्बना यह है कि बार-बार लव जिहाद के मामले सामने आते रहते हैं लेकिन उनकी अनदेखी कर दी जाती है । लव जैहाद कुछ और नहीं है बल्कि हिन्दू लड़कियों का धर्म परिवर्तन करवाने का एक तरीका है । यह भी बार-बार सुनने में आता है कि लव जैहाद के लिए मुस्लिम लड़को को पैसा दिया जाता है ताकि वो हिन्दू लड़कियों को अपने प्यार के जाल में फंसाकर उनसे शादी करें और इसके बाद उन्हें इस्लाम कबूल करवायें । यूपी के बलरामपुर के उतरौला के छांगुर बाबा के मामले ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि इस देश में सुनियोजित तरीके से धर्म परिवर्तन का धंधा चल रहा है । मुस्लिम देशों से इसके लिए बेइंतहा पैसा आ रहा है इसलिए इस धंधे के लिए पैसे की कोई कमी नहीं है । मुस्लिम लड़कों के लिए ये दोगुने फायदे का काम है । एक तो उन्हें इस काम के लिए मोटी रकम मिलती है तो दूसरी तरफ उन्हें इस काम से धर्म की सेवा का मौका भी मिलता है । मौलाना उन्हें इस काम के बदले जन्नत का लालच देते हैं । उतरौला में पैदा होने वाला छांगुर बाबा कभी भीख मांग कर गुजारा करता था और इसके बाद उसने नकली अंगूठी बेचने का धंधा शुरू किया लेकिन जब उसने धर्म परिवर्तन का धंधा शुरू किया तो वो सैकड़ों करोड़ का स्वामी बन गया । आसपास के इलाकों में उसका इतना दबदबा हो गया कि उसके खिलाफ मुंह खोलना किसी के लिए संभव नहीं था । वास्तव में उसने अपने इलाके में पुलिस-प्रशासन और अदालत में इतनी पकड़ बना रखी थी कि उसके खिलाफ आवाज उठाने वाले के ऊपर फर्जी मुकदमें ठोक दिये जाते थे । हैरानी की बात है कि कई एकड़ की सरकारी भूमि पर उसने कब्जा करके बड़ी इमारत बनाकर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था लेकिन वहां का प्रशासन आँखे बंद करके बैठा रहा ।                   सवाल यह है कि पिछले 15-16 सालों से बलरामपुर में गैरकानूनी धंधे कर रहे छांगुर बाबा पर पुलिस और प्रशासन इतने मेहरबान क्यों थे । मैं सरकारी सेवा में 27 साल रहा हूं, अच्छी तरह जानता हूं कि अफसर सब कुछ देखकर अनदेखा क्यों करते हैं । इस सच को भी जानता हूं कि इस अनदेखी के लिए पैसा ऊपर से नीचे तक जाता है । मतलब साफ है कि स्थानीय प्रशासन में बैठे लोगों को सब कुछ पता था लेकिन उन्हें अनजान बने रहने के लिए छांगुर बाबा नियमित रूप से मोटा पैसा दे रहा होगा । मुख्यमंत्री योगी कितने भी सख्त प्रशासक हों लेकिन अभी भी पुराना इको सिस्टम काम कर रहा है । सच यह भी है कि अगर योगी मुख्यमंत्री नहीं होते तो यह बाबा कभी पकड़ में नहीं आता । ये योगी ही हैं जिनके कारण प्रशासन उसके खिलाफ कार्यवाही करने को मजबूर हुआ अन्यथा ये मामला दबा दिया जाता । आज ईडी भी उसके खिलाफ जांच कर रही है लेकिन सवाल यह है कि लगभग 300 करोड़ की फंडिंग जुटा लेने वाले बाबा पर किसी की नजर पहले क्यों नहीं पड़ी । मुझे ऐसा लगता है कि छांगुर पर कार्यवाही के साथ-साथ उन अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ भी कार्यवाही की जानी चाहिए जो उसकी मदद कर रहे थे । मेरा तो मानना है कि बाबा के खिलाफ कार्यवाही से पहले इनके खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए क्योंकि उनके लालच ने ही ऐसा बाबा पैदा किया था । सरकार से वेतन लेने वाले ये लोग देश के खिलाफ जाकर बाबा का काम कर रहे थे । घर का एक छज्जा इन्हें दिखाई दे जाता है लेकिन 70 कमरों वाला महल इन्हें दिखाई नहीं दिया । बैंक खातों में इतने बड़े लेनदेन के बावजूद आरबीआई को इसकी सूचना क्यों नहीं दी गई । उसने अपनी इमारत की दीवार बहुत ऊंची बनाई हुई थी और उन पर बिजली वाली कंटीली तारें लगाई हुई थी । किसी ने यह नहीं सोचा कि इतनी सुरक्षा क्यों की जा रही है और क्या छिपाया जा रहा है । पुलिस को कभी इस इमारत में आने-जाने वालों पर कोई शक नहीं हुआ और उसे किसी खबरी ने कभी नहीं बताया कि वहां क्या चल रहा है । लोकल पुलिस से उसके कारनामे कैसे छुपे रह गए ।                  छांगुर बाबा ने गरीब एवं विधवा हिन्दू लड़कियों और प्रेमजाल में फंसाकर लाई गई गैर-मुस्लिम लड़कियों के धर्मपरिवर्तन और यौन शोषण की पूरी व्यवस्था तैयार की हुई थी । इसके लिए उसने कोडवर्ड बनाए हुए थे, मतांतरण को मिट्टी पलटना कहा जाता था । लड़कियों को प्रोजेक्ट कहा जाता था और उन्हें मानसिक रूप से प्रभावित करने को काजल करना कहा जाता था, दर्शन करना मतलब बाबा से मिलवाना था । बाबा आर्थिक रूप से कमजोर, विधवा और गैर-इस्लामी लड़कियों को बहला-फुसलाकर कर मतांतरण के लिए इस्तेमाल करता था । उसने मतांतरण के लिए जाति-धर्म के अनुसार एक निश्चित रकम तय की हुई थी । इसका नेटवर्क सिर्फ बलरामपुर तक नहीं था बल्कि यूपी के कई इलाकों में फैला हुआ था । यूपी से बाहर भी उसने अपना धंधा फैलाया हुआ था । शिक्षा की आड़ में उसने विदेशी फंडिंग की मदद से बड़ी संख्या में मदरसों का निर्माण किया हुआ था । वो सस्ती और सरकारी जमीनों पर मदरसों को निर्माण करवाता था और फिर उसके नाम पर विदेशी फंडिंग हासिल करता था । कितनी अजीब बात है कि गाजा में मुस्लिम बच्चे भूखे मर रहे हैं लेकिन मुस्लिम देश उनकी मदद को आगे नहीं आ रहे हैं लेकिन धर्म परिवर्तन के लिए ये देश पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं । ये मुस्लिम देश गरीब मुस्लिमों की मदद करने की जगह गैर-मुस्लिमों को इस्लाम धर्म अपनाने के लिए खुले दिल से पैसा बांट रहे हैं । गरीब अफ्रीकी देशों में मुस्लिम समाज के लोग भूखे मर रहे हैं और उनकी मदद केवल यूरोपीय देशों द्वारा की जा रही है । अरबी मुस्लिम अपने सोने के महलों में अय्याशी कर रहे हैं लेकिन उनकी तरफ देखने को तैयार नहीं हैं । कितनी अजीब बात है कि जो पहले से मुस्लिम हैं, उनकी चिंता नहीं है लेकिन जो गैर-मुस्लिम हैं, उनको मुस्लिम बनाने के लिए ये लोग अरबों रुपये लुटाने के लिए तैयार हैं । ये सोचना गलत होगा कि इन लोगों के पास केवल एक छांगुर बाबा होगा बल्कि मेरा मानना है कि इन्होंने ऐसे बाबाओं की एक फौज तैयार कर रखी होगी ।                एक हिन्दू लड़की, जिसका मतांतरण के बाद आयत खान नाम रख दिया गया था, उसने बताया है कि ये लोग कहते थे कि 2047 में भारत को इस्लामिक मुल्क बना देंगे । उसे बताया गया कि तुम मुस्लिम बन गई हो, अब तुम्हें भी जन्नत मिल जाएगी । अभी इस मामले की बहुत पर्ते खुलनी है, लगता है कि ये मामला बहुत बड़ा है । छांगुर बाबा के कई माफिया गिरोह के साथ मिलीभगत सामने आ रही है । वैसे भी इतनी बड़ी मात्रा में सरकारी जमीनों पर कब्जा बिना माफिया की मदद के संभव नहीं लगता । हिन्दू समाज को इस मामले पर नजर रखनी होगी क्योंकि उसे धर्मनिरपेक्षता की भांग पिलाकर मूर्ख बनाया जा रहा है । कई मुस्लिम संगठन भारत को सुनियोजित तरीके से इस्लामिक देश बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं । छांगुर बाबा अकेला नहीं हो सकता और न जाने कितने छांगुर बाबा हमारे देश में छुप कर इस काम में लगे हुए होंगे । केन्द्र सरकार को विपक्ष शासित राज्यों पर विशेष नजर रखने की जरूरत है क्योंकि मुस्लिम तुष्टिकरण के कारण विपक्षी दलों की सरकारें ऐसे लोगों के खिलाफ कार्यवाही कभी नहीं करेंगी । हमें समझना होगा कि लव जिहाद हमारे देश की सच्चाई है, इसे अनदेखा करना घातक साबित होगा । सब कुछ सरकार नहीं कर सकती, एक समाज के तौर पर हमें भी सतर्क रहना होगा । हिन्दू संगठनों को भी उन महिलाओं पर नजर रखने की जरूरत है, जो किसी कारण बेसहारा या गरीब हैं क्योंकि छांगुर जैसे गिद्ध मौके की तलाश में घूम रहे हैं । एक सच यह भी सामने आया है कि धर्म परिवर्तन के काम में छांगुर बाबा की मदद वो मुस्लिम कर रहे थे, जिनका धर्म परिवर्तन करवाया गया था । सरकार को उन लोगों पर नजर रखने की जरूरत है जिन्होंने नया-नया धर्म परिवर्तन किया हो । देखा गया है कि धर्म परिवर्तन के काम में ये लोग बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं । यही लोग हैं जो अपना धर्म बदलने के बाद अन्य लोगों को धर्म बदलवाने की कोशिश ज्यादा करते हैं और कामयाब भी हो जाते हैं । वास्तव में उनकी हिन्दू समाज में रिश्तेदारी होती है तो ये दूसरों को आसानी से बहला लेते हैं । सवाल यह है कि यह तरीका सिर्फ मुस्लिम संगठनों द्वारा ही इस्तेमाल किया जा रहा है, जवाब नहीं है क्योंकि कुछ ऐसा तरीका ईसाई बनाने के लिए भी अपनाया जाता है। जब रेटलिस्ट बनाकर धर्मपरिवर्तन करवाया जा रहा हो तो बहुत सतर्क रहने की जरूरत है । हिन्दू समाज को खुद से सवाल करना होगा कि वो कब तक धर्मनिरपेक्षता के नशे में डूबा रहेगा । धर्मनिरपेक्षता का ये मतलब नहीं होता कि अपना धर्म बर्बाद होते चुपचाप देखते रहो । छांगुर बाबा मामले से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है । एक समाज के रूप में हमें अपनी जिम्मेदारी समझने की जरूरत है क्योंकि इस देश में पैसे के लिए बिकने वाले लोग शासन-प्रशासन में बैठे हुए हैं । अंत में एक भूतपूर्व कर्मचारी होने के नाते कहना चाहूंगा कि पूरी व्यवस्था भ्रष्टाचार में डूबी हुई है, उसके सहारे सब कुछ नहीं छोड़ा जा सकता ।  राजेश कुमार पासी

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राजनीति भारतीय बहुलवाद संस्कृति और दाऊदी बोहरा समुदाय, आधुनिकता और धार्मिकता का उदाहरण 

भारतीय बहुलवाद संस्कृति और दाऊदी बोहरा समुदाय, आधुनिकता और धार्मिकता का उदाहरण 

गौतम चौधरी  भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता की विशाल कैनवास में दाऊदी बोहरा समुदाय एक शांत लेकिन प्रभावशाली उदाहरण के रूप में खड़ा है। कर्तव्य, व्यापारिक उद्यमिता और अन्य धार्मिक समूहों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का उदाहरण खासकर अन्य मुस्लिम समाज में देखने को कम ही मिलता है। बोहरा, इस्माइली शिया मुस्लिमों का एक उप-संप्रदाय है जिनकी वैश्विक आबादी लगभग दस लाख है। हालांकि इस समुदाय में कुछ सुन्नी मुसलमान भी हैं लेकिन दोनों की प्रकृति लगभग एक जैसी ही होती है। भारत में ये गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में विशेष रूप से बसे हुए हैं। ये लोग अब भारतीय ही हैं लेकिन इनका दावा है कि इनके पूर्वज, इस्लाम के अंतिम नबी, हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बेटी फातिमा के परिवार से तालुकात रखते थे। इस समुदाय के लोगों का यह भी दावा है कि किसी समय अफ्रीका के उत्तरी भाग पर उनका शासन था और मिस्र के काहिरा में जो इस्लामिक विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी है वह उनके पूर्वजों के द्वारा ही की गयी। उत्तरी अफ्रीका में शासन के अंत के बाद इस समुदाय के लोग भारत के तटवर्ती क्षेत्र में आकर बसने लगे। यहां के हिन्दू राजाओं ने इनका संरक्षण और पोषण किया। इसके बाद इस समुदाय के लोग फिर भारत के ही होकर रह गए। बाद के दिनों में बोहरा समुदाय के लोग मध्य-पूर्व, ईरान, संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, कतर आदि देश में जाकर बसे हैं। कुछ बोहरा प्रवासी संयुक्त राज्य अमेरिका और पश्चिमी देशों में भी जाकर बसे हैं।  बोहरा समाज के पेशेवर और व्यापारी भारत की प्रगति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। यह समुदाय ऐसे विवादों से दूर रहते हैं जो भारत में नकारात्मक सुर्खियां बनते रहे हैं। इस समुदाय को भारत ही नहीं दुनिया में इसलिए जाना जाता है कि ये जहाँ कहीं भी निवास करते हैं, वहां की संस्कृति और राष्ट्र जीवन को ध्यान में रखकर अपना व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। बोहरा समुदाय मुसलमानों के लिए ही नहीं, अन्य धार्मिक समुदायों के लिए एक उदाहरण हैं. धार्मिकता के साथ आधुनिकता भी है, यानी इस समाज का लगभग प्रत्येक व्यक्ति धार्मिक के साथ आधुनिक भी है। भारत में इनकी आमद यह दर्शाती है कि कोई व्यक्ति धार्मिक भी हो सकता है और आधुनिक भी, पारंपरिक भी हो सकता है और प्रगतिशील भी और पूरी तरह से भारतीय होते हुए भी वैश्विक चिंतन से ओतप्रोत हो सकता है।  इनकी धार्मिक जड़ें फातिमी मिस्र से जुड़ी हैं और ये लोग 11वीं शताब्दी में भारत आए। इतने वर्षों में इन्होंने भारतीय समाज में न केवल खुद को समाहित किया बल्कि जिस क्षेत्रों में ये बसे, वहाँ के आर्थिक और नागरिक जीवन में भी सकारात्मक बदलाव लाने की पूरी कोशिश की। दाऊदी बोहरा समुदाय अपने मजबूत व्यापारिक नैतिक मूल्यों के लिए जाना जाता है और व्यापार, निर्माण व उद्यमिता में सफलता प्राप्त की। सूरत, उदयपुर और मुंबई जैसे शहरों में इनके व्यापारिक नेटवर्क खूब फले-फूले हैं। ये नेटवर्क ईमानदारी, पारदर्शिता और स्थिरता जैसे मूल्यों पर आधारित हैं जिससे इन्हें धार्मिक और भाषाई सीमाओं के पार जाकर सम्मान मिला है। आज जब धनार्जन को सामाजिक जिम्मेदारी से अलग समझा जाता है, तब बोहरा समुदाय यह साबित करता है कि सामुदायिक नैतिकता को अपनाकर भी समृद्ध हुआ जा सकता है। समुदाय की सामाजिक संस्थाएँ मुस्लिम दुनिया में सबसे प्रभावशाली मानी जाती हैं। मुंबई स्थित इनका केंद्रीय नेतृत्व प्रणाली, दाई अल-मुतलक के अधीन है। यह संसाधनों को संगठित करने, जनकल्याण योजनाओं को लागू करने और सामूहिक पहचान को मजबूत बनाने के लिए जाना जाता है। फैज़ अल-मवाइद अल-बुरहानिया नामक सामुदायिक रसोई योजना के तहत हर बोहरा परिवार को प्रतिदिन ताजा और पौष्टिक भोजन मिलता है। इससे खाद्य अपव्यय कम होता है, सामाजिक बंधन मजबूत होते हैं और परिवारों का दैनिक बोझ घटता है। समुदाय द्वारा संचालित स्कूल और कॉलेज लड़कों व लड़कियों दोनों को धार्मिक व आधुनिक शिक्षा देते हैं और शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है। विशेष रूप से बोहरा महिलाओं में साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है।  इनके द्वारा शहरों की स्वच्छता, सौंदर्यीकरण और पर्यावरण संरक्षण के प्रति भी गहरी प्रतिबद्धता दिखाई देती है। स्वच्छ भारत अभियान जैसी पहलों में भागीदारी और नियमित स्वच्छता अभियान इस बात का उदाहरण हैं कि धार्मिक पहचान और राष्ट्रीय हित कैसे एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं। मुंबई की हाल ही में पुनर्निर्मित सैफी मस्जिद केवल पूजा स्थल नहीं बल्कि वास्तुशिल्प धरोहर और सामुदायिक गर्व का प्रतीक है। इसके निर्माण में पारंपरिक और पर्यावरण अनुकूल विधियों का उपयोग किया गया जो अतीत के प्रति श्रद्धा और भविष्य की चिंता दोनों को दर्शाता है। सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि दाऊदी बोहरा समुदाय अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को बनाए रखते हुए भी संकीर्ण नहीं है। वे पारंपरिक पोशाक पहनते हैं, लिसान अल-दावत नामक मिश्रित भाषा बोलते हैं (जो गुजराती, अरबी और उर्दू का संयोजन है) और अपने विशिष्ट रीति-रिवाजों का पालन करते हैं। फिर भी वे देश के लोकतांत्रिक और सामाजिक जीवन में सक्रिय भागीदारी निभाते हैं। इन्हें शायद ही कभी सांप्रदायिक हिंसा या कट्टरता से जोड़ा गया। ये लोग शालीनता, संवाद की वरीयता और संघर्षों के समय शांतिपूर्ण कूटनीति के लिए जाने जाते हैं। इनके द्वारा कानून का पालन, अंतरधार्मिक सम्मान और सामाजिक सौहार्द पर बल दिया जाता है जो धार्मिक सह-अस्तित्व का एक उच्च आदर्श प्रस्तुत करता है। इस समुदाय की जीवन यात्रा में समुदाय के नेतृत्व की अहम भूमिका रही है। दिवंगत सैयदना मोहम्मद बुरहानुद्दीन और उनके उत्तराधिकारी सैयदना मुफद्दल सैफुद्दीन ने विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकारों से अच्छे संबंध बनाए रखे हैं। जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक, सभी भारतीय नेताओं ने बोहरा नेताओं के योगदान की सराहना की है और उनके एकता और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के संदेश से प्रेरणा ली है। ये रिश्ते इस बात को उजागर करते हैं कि जब कोई समुदाय राष्ट्र निर्माण में भागीदारी करता है, तो विशेषाधिकार की मांग किए बिना भी उसे विशिष्टता प्राप्त हो जाती है। वह स्थानीय लोगों का दिल जीत लेता है और कालांतर में अपने व्यवहार के बल पर आगे की पंक्ति में अपना स्थान सुरक्षित कर लेता है।  धार्मिक समुदायों की आलोचना में अक्सर आंतरिक पदानुक्रम और पुरोहितवादी सत्ता का उल्लेख होता है। ये चिंताएँ विचार और विमर्श की मांग करती हैं। फिर भी यह भी सच है कि बोहरा समुदाय ने बदलाव के लिए तत्परता दिखाई है। बोहरा महिलाएँ अब शिक्षा, व्यवसाय और संवाद में बढ़-चढ़कर भाग ले रही हैं, वह भी अपने सांस्कृतिक ढाँचे के भीतर रहकर। बाहरी दबाव में झुकने की बजाय, यह समुदाय भीतर से परिवर्तन की दिशा में शांतिपूर्ण प्रयास कर रहा है। यह मॉडल पहचान संकट और सांस्कृतिक ध्रुवीकरण के समय में एक रचनात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में जहाँ मुसलमानों को या तो पीड़ित या खतरे के रूप में देखा जाता है, बोहरा समुदाय इन रूढ़ छवि को चुनौती देता दिखता है। यह सिद्ध करता है कि आस्था प्रगति में बाधा नहीं है और धार्मिक निष्ठा संविधानिक मूल्यों के साथ सामंजस्य बैठा सकती है। उनका जीवन यह दर्शाता है कि बहुलवाद केवल संविधान में दिया गया वादा नहीं है, बल्कि यह एक दैनिक अभ्यास है, जो भव्य वक्तव्यों में नहीं, बल्कि नागरिक जिम्मेदारी, पारस्परिक सम्मान और नैतिक जीवन के सामान्य कार्यों में प्रकट होता है। ऐसे समय में जब भारत नागरिकता, धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक अधिकारों को लेकर जटिल बहसों से गुजर रहा है, बोहरा अनुभव बहुमूल्य अंतर्दृष्टि प्रदान करता है, एक कठोर मॉडल के रूप में नहीं, बल्कि यह स्मरण कराने के लिए कि सांस्कृतिक विविधता राष्ट्रीय एकता को कमजोर नहीं, बल्कि मजबूत कर सकती है। दाऊदी बोहरा कोई अपवाद नहीं हैं, वे इस बात का प्रमाण हैं कि वैकल्पिक सकारात्मकता संभव हैं जो विश्वास, परिश्रम और शांत जैसे गरिमामय और उच्च मूल्य वाले व्यवहार पर आधारित हों। गौतम चौधरी 

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