बारूद की गंधे अभी फिज़ाओं में घूली हैं और भीड़ शोर में गुम है संवाद पर संगिनों का पहरा है विरान शहर की खंडहर इमारतें कुछ कहती हैं… दिवालों पर पड़े खून के धब्बे चिथड़ों में विखरी इंसानी लाशें बताती हैं कि यह तालिबान है ? खिलौनों की तरह कई टुकड़ों में फैले मासूमों के जिस्म माँ के सीने से लिपटा दुधमुंहा टूटे हुए खिलौने और बारूद में उड़े स्कूल बैग बेटी के पालने के पास बिलखती रबर की गुड़िया ऊँगली उठा कहती है यह तालिबान है ? सिर्फ युद्ध… युद्ध… युद्ध झंडे बदलने से ही क्या इतिहास बदल जाते हैं ? बुद्ध के देश में क्या युद्ध से शान्ति मिलती है ? रक्तपात से इतिहास नहीं बदलते बारूदों से हम झंडे जीत सकते हैं सरकारें और सत्ता जीत सकते हैं संस्थाएं जीत सकते हैं देश जीत सकते हैं लेकिन… इंसानित और दिल नहीं जीत सकते शायद ! यहीं तालिबान है ?
—विनय कुमार विनायक आज देश मेंएक बहन के नहीं होने पर, लाखों भाईयों की कलाई सूनी रह जाती आजगर्व नहींहमको अपनी परम्परा पर जिसमें बहन की बहुतहोतीरहीख्याति!
भगवानरामको एक बहन शांता थी आठ भाईयों के बाद भगवान कृष्ण की एक प्यारी छोटीबहन सुभद्रा आई थी द्रोपदी को भीकृष्णने बहन बनाई थी!
द्रोपदी ने कृष्ण की जख्मी कलाई में अपनीदुपट्टा चीर कर एक परम्परा रक्षाबंधन की फिर से याद दिलाईथी!
आज बहन के अस्तित्व पर शामत आई, हर मां बहन नारीपहलेबेटीबनकेआती, हरबेटी इसधरती पर खोजतीएक भाई, हर भाई को चाहिए एक बहन अवश्य ही!
भारत मेंये कैसी परम्परा आन पड़ी है कि आज एक पुत्र के आते ही सृष्टि पर पुत्री निषेधवभ्रूणहत्या की बुराई आती!
अबभारतमेंपुत्री के जन्म पर कंश सा पहरा है, अब एक पुत्र के बाद पुत्रीके नहींआने का कहर, अब एक भाई के बाद बहनके नही आनेका डर फैल चुका हैभारत के हर गांव-गांव व शहर-शहर, अब तुम पुत्र मोहग्रस्त धृतराष्ट्र से हो गए बदतर!
धृतराष्ट्र ने भी सौ पुत्रों को एक बहन दी थी, दुर्योधन दुशासन तक की नहीं कलाई सूनी थी!
पांच पांडवों ने रक्षासूत्र दुशल्ला से पहनी थी, दुश्मन की बहन के सुहाग कोवीरपांडवों ने जीवनदान दियाथा,उसी एकजीवन दान ने पाण्डवके वंश मूलअभिमन्यु की जानली!
चाहे जो भी होपरम्परा मिटती नही हमारी, हम परम्परा मेंजीनेवाले, हमें परम्परा प्यारी!
आज रक्षाबंधन पेप्रण लेते बिना बहन के, किसी भाई की कभीना सूनी होगीकलाई, बिना बहन बेटी की जगत की नहीं भलाई! —विनय कुमार विनायक
मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल में किगाली संशोधन हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (एचएफसी) की खपत और उत्पादन को धीरे-धीरे कम करने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय समझौता है।इस प्रोटोकॉल में अकेले सदी के अंत तक वातावरण के 0.5 डिग्री गर्म होने से बचने की क्षमता है।
डॉ सीमा जावेद
जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ वैश्विक जंग में एक बार फिर भारत ने नेतृत्व दिखाते हुए, मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल में किगाली संशोधन को मंज़ूरी दे दी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस संशोधन को मंज़ूरी दे दी है। इस
मंज़ूरी से दो मुख्य फ़ायदे हैं जो कि इस प्रकार हैं:
१. एचएफसी के उपयोग को चरणबद्ध तरीके से बंद करने से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन को रोकने में मदद मिलेगी और इससे लोगों को लाभ मिलने की उम्मीद है।
२. गैर-एचएफसी और कम ग्लोबल वार्मिंग संभावित प्रौद्योगिकियों के हस्तांतरण के अंतर्गत तय समय-सीमा के अनुसार हाइड्रोफ्लोरोकार्बन का उत्पादन और खपत करने वाले उद्योग हाइड्रोफ्लोरोकार्बन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करेंगे।
यहाँ ये याद रखना ज़रूरी है कि एचएफसी (हाइड्रो फ्लोरो कार्बन) नामक सुपर प्रदूषक गैसों पर केंद्रित, इस प्रोटोकॉल में अकेले सदी के अंत तक वातावरण के 0.5 डिग्री गर्म होने से बचने की क्षमता है।
यह संशोधन तब आया है जब हाल ही में आईपीसीसी ने कोड रेड वार्निंग जारी करते हुए वैश्विक स्तर पर तत्काल कारवाई की मांग की है।
इसके मद्देनज़र किगली संशोधन हर लिहाज़ से भारत सरकार की एक सकारात्मक पहल है। एचएफसी का उपयोग कूलिंग में काफ़ी होता है और भारत की इस विषय को लेकर संवेदनशीलता इसी से पता चलती है कि भारत 2019 में कूलिंग एक्शन प्लान लॉन्च करने वाले दुनिया के पहले देशों में से एक है। यह योजना आर्थिक विकास और अगले कुछ दशकों में कूलिंग और रेफ्रिजरेशन की आवश्यकता से जुड़ी है। इस व्यापक योजना का उद्देश्य 20 साल की समयावधि के साथ कूलिंग डिमांड को कम करना, रेफ्रिजरेंट ट्रांजिशन को सक्षम बनाना, एनर्जी एफिशिएंसी को बढ़ाना और बेहतर टेक्नोलॉजी विकल्प देना है। किगाली संशोधन पर हस्ताक्षर से एचएफसी गैसों से संक्रमण को तेजी से दूर करने के लिए बाजार को एक अच्छा संकेत मिलेगा।
इसके अलावा, भारत के लिए एचएफसी गैसों के चरणबद्ध तौर से खत्म होने की तारीख वर्ष 2028 में शुरू होती है, फिर भी, यह अनुसमर्थन एक संकेत है कि उद्योग स्पष्टता चाहता है और एयर कंडीशनिंग और रेफ्रिजेरेशन उद्योग को अधिक कुशल शीतलन प्रौद्योगिकियों को तेजी से विकसित करने के लिए प्रोत्साहित करेगा।
TERI और NDRC ने नीचे दी लिस्ट जारी की है जो बताती है किगाली संशोधन से भारत के लिए मुख्य लाभ क्या होंगे।
1. अनुसमर्थन का अर्थ यह होगा कि भारत कम ग्लोबल वार्मिंग क्षमता वाले जीडब्ल्यूपी रेफ्रिजरेंट के लिए बाजार में प्रतिस्पर्धा करने के लिए तैयार है, जो घरेलू नवाचार को बढ़ावा देगा और अंतरराष्ट्रीय निवेश को आकर्षित करेगा।
2. भारत उन कुछ देशों में से एक है जो पेरिस समझौते के तहत अपनी जलवायु प्रतिबद्धताओं को पूरा करने की राह पर है। किगाली की पुष्टि करने से इस प्रगति में और तेजी आएगी।
3. किगाली संशोधन को मंजूरी देने से दुनिया भर में भारत का प्रभाव और सद्भावना मजबूत होगी और एचएफसी को चरणबद्ध तरीके से बंद करते हुए ऊर्जा दक्षता सहित स्मार्ट नीतियों और उपनियमों को स्थापित करने के भारत के प्रयासों को मजबूत करने में मदद मिलेगी।
4. भारत इंडिया कूलिंग एक्शन प्लान को लागू करने के साथ आगे बढ़ रहा है, जो कूलिंग दक्षता और रेफ्रिजरेंट के लिए घरेलू लक्ष्य निर्धारित करता है, लेकिन भारत के लिए किगाली समयसीमा को पूरा करने के लिए अपने आप में पर्याप्त नहीं हो सकता है। अनुसमर्थन से R-134a, R410a और R-404a जैसे अत्यधिक शक्तिशाली (उच्च-GWP) HFC का उपयोग करने वाले आयातों को रोकने के लिए एक स्पष्ट नीतिगत ढांचा तैयार करने में मदद मिलेगी।
विकास पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए, प्राइमा मदान, लीड कंसल्टेंट, एनर्जी एफिशिएंसी एंड कूलिंग, नेचुरल रिसोर्स डिफेंस काउंसिल (NRDC) इंडिया प्रोग्राम, कहते हैं, “भारत ने किगाली संशोधन की पुष्टि करके अपने जलवायु नेतृत्व का उदाहरण दिया है। देश के लिए एक बड़ा अवसर है। घरेलू नवोन्मेष के माध्यम से एचएफसी के प्रारंभिक चरणबद्ध होने के लिए तैयार हो, जो भारतीय उद्योग को जलवायु के अनुकूल कूलिंग उत्पादों में विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी बना देगा। भारत का कदम हरित वसूली के लिए अपनी योजना के साथ अच्छी तरह से फिट बैठता है, क्योंकि हम बेहतर तरीके से निर्माण करते हैं। “
आगे, एलेक्स हिलब्रांड, एचएफसी एडवोकेट, जलवायु और स्वच्छ ऊर्जा और अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम, प्राकृतिक संसाधन रक्षा परिषद (एनआरडीसी), बताते हैं,
“मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल समुदाय ने लंबे समय से ओजोन और जलवायु संरक्षण पर अपने नेतृत्व के लिए भारत की ओर देखा है और आज उसने फिर से वही किया है जिसकी अपेक्षा की गई थी। भारत का किगाली संशोधन अनुसमर्थन हमें दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच सार्वभौमिक अनुसमर्थन के शिखर पर लाता है।”
इस पर अपने विचार देते हुए, प्रोफेसर एस एन त्रिपाठी, सिविल इंजीनियरिंग के प्रमुख, IIT कानपुर और संचालन समिति के सदस्य, राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम, MoEFCC
कहते हैं, “मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल ने हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (एचएफसी) को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की आवश्यकता को महसूस किया था जो ओजोन परत की कमी के लिए जिम्मेदार थे। किगाली संशोधन के अथक प्रयासों के परिणामस्वरूप एचएफसी को समयबद्ध तरीके से चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने का समझौता हुआ है। कई एचएफसी में बहुत अधिक ग्लोबल वार्मिंग क्षमता है। किगाली संशोधन का भारत का अनुसमर्थन एक स्वागत योग्य निर्णय है जो सामूहिक रूप से 0.5 डिग्री सेल्सियस से बचने में मदद करेगा जो एक महत्वपूर्ण जलवायु सह-लाभ है।”
अंत में, ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद (सीईईडब्ल्यू) की सीनियर प्रोग्राम लीड शिखा भसीन कहती हैं, “नेशनल कूलिंग एक्शन प्लान के साथ आने वाला पहला देश होने के बाद, भारत अब इस वैश्विक राजनीतिक अनुसमर्थन के साथ आया है। यह निश्चित रूप से सीओपी 26 से पहले एक उपलब्धि है। यह न केवल दुनिया के सबसे बड़े कूलिंग बाजारों में से एक में, बल्कि दुनिया भर के कई देशों के लिए भी इस महत्वपूर्ण वर्ष में जलवायु कार्यों पर विचार करने के लिए कम-जीडब्ल्यूपी और वैकल्पिक शीतलन प्रौद्योगिकियों की तैनाती सुनिश्चित करने का सही संकेत है।”
कभी वो दोस्त जैसी है, वो दादी मां भी बनती है बचाने की मुझे खातिर, वो डांटे मां की सुनती है अभी सर्दी नहीं आई, वो रखती ख्याल है मेरा वो मेरी बहना है मेरे लिए स्वेटर जो बुनती है।
कभी लड़ती झगड़ती प्यार भी करती वो कितनी है जो रखती हाथ सिर पे मां के आशीर्वाद जितनी है वो बचपन में जो खेला करते थे हम घर के आंगन में मेरी बहना जो हंसती मिलती मुझको खुशी उतनी है
कभी वो कान खींचें सारी बोले जेब से पैसे निकाले वो मुझे खुद में छिपाकर डांट से मां की बचा ले जो वो उसका चीखना चिल्लाना और मुझको चिढ़ाना भी मेरी बहना फुलाकर गाल पर थप्पड़ जो मारे वो।
चमकती तारों से ज्यादा वो रानी परियों की सी है चहकती रहती जुगनू सी बगिया की उड़ती तितली है बजे जब पांव में घुंघरू तो गाने लगता घर आंगन मेरी बहना के चलने से ये सुर घर में पली सी है।
छुपाकर अम्मा से देती मुझे खुद पास से पैसे नहीं दुनिया में कोई भी है मेरी बहन के जैसे कभी नादान बन जाती कभी अन्जान हो जाती मेरी बहना की गलती पे बचाता उसको मैं वैसे ।
थी सुख में खूब वो हंसती और दुख में आंसू पोंछे है दिये जो उसने थे पैसे मेरे पाकेट में खोजें है मेरे रब्बा रहम कुछ करने लायक तो बना दे अब मेरी बहना पे वारूं दौलतें दुनिया की सोचें हैं।
जो बाहर से कभी आऊं वो पानी ग्लास का लेकर लो भैया पी लो पानी कहती मीठा हाथ में देकर वो रखती ख्याल कितना रह ना पाऊंगा बिना उसके मेरी बहना गई ससुराल जो हमसे जुदा होकर।
हैं तेरा शुक्रिया पल पल नहीं भूलेंगे तुझको हम रहे तू दूर भी चाहें ये अपना प्यार ना हो कम हुआ ‘एहसास’ जाने से तेरे सब खो गया जैसे मेरी बहना न भूलेंगे तेरा अहसान जब तक दम।
रक्षा बंधन प्रेम का, हृदय का त्योहार ! ●●●●● इसमें बसती द्रौपदी, है कान्हा का प्यार !! ●●●●● कहती हमसे राखियाँ, तुच्छ है सभी स्वार्थ ! बहनों की शुभकामना, तुमको करे सिद्धार्थ !! ●●●●● भाई-बहना नेह के, रिश्तों के आधार ! इस धागे के सामने, हीरे हैं बेकार !! ●●●●● बहना मूरत प्यार की, मांगे ये वरदान ! भाई को यश-बल मिले, लोग करे गुणगान !! ●●●●● चिठ्ठी लाई गाँव से, जब राखी उपहार ! आँसूं छलके आँख से, देख बहन का प्यार !! ●●●●● सब बहनों पर हम करें, मन से सच्चा गर्व ! होता तब ही मानिये, रक्षा बंधन पर्व !! ●●●●● –डॉo सत्यवान सौरभ
दृश्य 1: सुरक्षित स्थान की तलाश में अपने ही देश से पलायन करने के लिए एयरपोर्ट के बाहर हज़ारों महिलाएं, बच्चे और बुजुर्गों की भीड़ लगी है। कई दिन और रात वो भूखे प्यासे वहीं डटें हैं इस उम्मीद में कि किसी विमान में सवार हो कर वो अपना और अपने परिवार का भविष्य सुरक्षित करने में कामयाब हो जाएंगे। बाहर तालिबान है, भीतर नाटो की फौजें। हर बीतती घड़ी के साथ उनकी उम्मीद की डोर टूटती जा रही है। ऐसे में महिलाऐं अपनी छोटे छोटे बच्चों की जिंदगी को सुरक्षित करने के लिए उन्हें नाटो फ़ौज के सैनिकों के पास फेंक रही हैं। इस दौरान कई बच्चे कँटीली तारों पर गिरकर घायल हो जाते हैं।
दृश्य 2: इस प्रकार की खबरें और वीडियो सामने आते हैं जिसमें अफगानिस्तान में छोटी छोटी बच्चियों को तालिबान घरों से उठाकर ले जा रहा है।
दृश्य 3: अमरीकी विमान टेक ऑफ के लिए आगे बढ़ रहा है और लोगों का हुजूम रनवे पर विमान के साथ साथ दौड़ रहा है। अपने देश को छोड़कर सुरक्षित स्थान पर जाने के लिए कुछ लोग विमान के टायरों के ऊपर बनी जगह पर सवार हो जाते हैं। विमान के ऊंचाई पर पहुंचते ही इनका संतुलन बिगड़ जाता है और आसमान से गिरकर इनकी मौत हो जाती है। इनके शव मकानों की छत पर मिलते हैं।
दृश्य4: एक जर्मन पत्रकार की खोज में तालिबान घर घर की तलाशी ले रहा है, जब वो पत्रकार नहीं मिलता तो उसके एक रिश्तेदार की हत्या कर देता है और दूसरे को घायल कर देता है।
ऐसे न जाने कितने हृदयविदारक दृश्य पिछले कुछ दिनों दुनिया के सामने आए। क्या एक ऐसा समाज जो स्वयं को विकसित और सभ्य कहता हो उसमें ऐसी तस्वीरें स्वीकार्य हैं? क्या ऐसी तस्वीरें महिला और बाल कल्याण से लेकर मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए बने तथाकथित अंतरराष्ट्रीय संगठनों के औचित्य पर प्रश्न नहीं लगातीं?
क्या ऐसी तस्वीरें अमरीका और यूके समेत 30 यूरोपीय देशों के नाटो जैसे तथाकथित वैश्विक सैन्य संगठन की शक्ति का मजाक नहीं उड़ातीं?
इसे क्या कहा जाए कि विश्व की महाशक्ति अमेरिका की सेनाएँ 20 साल तक अफगानिस्तान में रहती हैं, अफगान सिक्युरिटी फोर्सेज पर तकरीबन 83 बिलियन डॉलर खर्च करती है उन्हें ट्रेनिगं ही नहीं हथियार भी देती हैं और अंत में साढ़े तीन हज़ार सैनिकों वाली अफगान फौज 80 हज़ार तालिबान लड़ाकों के सामने बिना लड़े आत्मसमर्पण कर देती है। वहां के राष्ट्रपति एक दिन पहले तक अपने देश के नागरिकों को भरोसा दिलाते हैं कि वो देश तालिबान के कब्जे में नहीं जाने देंगे और रात को देश छोड़कर भाग जाते हैं।
तालिबान सिर्फ अफगानिस्तान की सत्ता पर ही काबिज़ नहीं होता बल्कि आधुनिक अमरीकी हथियार, गोला बारूद, हेलीकॉप्टर और लड़ाकू विमानों से लेकर दूसरे सैन्य उपकरण भी तालिबान के कब्जे में आ जाते हैं।
अमरीकी सेनाओं के पूर्ण रूप से अफगानिस्तान छोड़ने से पहले ही यह सब हो जाता है वो भी बिना किसी संघर्ष के। ऐसा नहीं है कि सत्ता संघर्ष की ऐसी घटना पहली बार हुई हो। विश्व का इतिहास सत्ता पलट की घटनाओं से भरा पड़ा है। लेकिन मानव सभ्यता के इतने विकास के बाद भी इस प्रकार की घटनाओं का होना एक बार फिर साबित करता है कि राजनीति कितनी निर्मम और क्रूर होती है।
अफगानिस्तान का भारत का पड़ोसी देश होने से भारत पर भी निश्चित ही इन घटनाओं का प्रभाव होगा। दरअसल भारत ने भी दोनों देशों के सम्बंध बेहतर करने के उद्देश्य से अफगानिस्तान में काफी निवेश किया है। अनेक प्रोजेक्ट भारत के सहयोग से अफगानिस्तान में चल रहे थे। सड़कों के निर्माण से लेकर डैम, स्कूल, लाइब्रेरी यहाँ तक कि वहाँ की संसद बनाने में भी भारत का योगदान है। 2015 में ही भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वहाँ के संसद भवन का उद्घाटन किया था जिसके निर्माण में अनुमानतः 90 मिलियन डॉलर का खर्च आया था।
लेकिन आज अफगानिस्तान की सत्ता पर तालिबान काबिज़ है जो एक ऐसा आतंकवादी संगठन है जिसे पाकिस्तान और चीन का समर्थन हासिल है।
भारत इस चुनौती से निपटने में सैन्य से लेकर कूटनीतिक तौर पर सक्षम है। पिछले कुछ वर्षों में वो अपनी सैन्य शक्ति और कूटनीति का प्रदर्शन सर्जिकल स्ट्राइक और आतंकवाद समेत धारा 370 हटाने जैसे अनेक अवसरों कर चुका है लेकिन असली चुनौती तो संयुक्त राष्ट्र संघ, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद, यूनिसेफ, जैसे वैश्विक संगठनों के सामने उत्पन्न हो गई है जो मानवता की रक्षा करने के नाम पर बनाई गई थीं।लेकिन अफगानिस्तान की घटनाओं ने इनके औचित्य पर ही प्रश्न खड़े कर दिए हैं।
दरअसल राजनीति अपनी जगह है और मानवता की रक्षा अपनी जगह। क्या यह इतना सरल है कि स्वयं को विश्व की महाशक्ति कहने वाले अमरीका की फौजों के रहते हुए वो पूरा देश ही उस आतंकवादी संगठन के कब्जे में चला जाता है जिस देश में वो उस आतंकवादी संगठन को खत्म करने के लिए 20 सालों से काम कर रहा हो? अगर हाँ, तो यह अमेरिका के लिए चेतावनी है और अगर नहीं तो यह राजनीति का सबसे कुत्सित रूप है। एक तरफ़ विश्व की महाशक्तियां इस समय अफगानिस्तान में अपने स्वार्थ की राजनीति और कूटनीति कर रही हैं तो दूसरी तरफ ये संगठन जो ऐसी विकट परिस्थितियों में मानवीय मूल्यों एवं संवेदनाओं की रक्षा करने के उद्देश्य से आस्तित्व में आईं थीं वो अफगानिस्तान के इन मौजूदा हालात में निर्थक प्रतीत हो रही हैं।
आज मुहर्रम है। आज मस्ज़िद पर, इमामबाड़ा और दरगाह पर लिखता हूं। ये सबकुछ मुस्लिम से नहीं बल्कि हिंदू समुदाय से जुड़े हुए हैं। पहले झारखण्ड के धनबाद जिले के कतरास शहर की बात करता हूं। मध्य प्रदेश के रीवा स्टेट के राजाओं की यहां हवेली है। राजपरिवार धनबाद के तीन हिस्से झरिया, कतरास और डुमरा (नावागढ़) में बसे हैं। सभी जगह एक-एक गढ़ हैं। फिलहाल मैं कतरास राजा के किले के पास ही हूं। कतरास के अंतिम राजा पूर्णेन्दु नारायण सिंह का निधन हो चुका है। उनके बड़े बेटे चन्द्रनाथ सिंह राजगद्दी संभाल रहे हैं। अब राजपाट नहीं रहा लेकिन व्यवसाय और सम्मान पूर्ववत ही हैं। चन्द्रनाथजी कहते हैं लोग इबादत गृहों में नमाज़ पढ़ते हैं। यह तो व्यायाम है। आसन होता है। एकसाथ ग्रुप में पढ़ते हैं तो मीट टुगेदर भी हो जाता है। मन की चंचलता दूर हो जाती है। तन-मन दोनों साफ हो जाते हैं। वज़ू करने का शायद इसीलिए विधान किया गया है। कतरास राजागढ़ के बाहर के इमामबाड़ा पर यहां चर्चा करना प्रासंगिक होगा। राजा तालाब के बगल में यह स्थित है। आज इस परिसर की स्थिति ठीक नहीं है लेकिन कभी यह परिसर गुलज़ार रहता था। कतरास राज परिवार आज भी इमामबाड़े की देखरेख करते हैं। मुहल्ले में अधिकांश हिन्दू हैं कुछ मुस्लिम परिवार रहते थे। पहले एक मुस्लिम परिवार रहता था। उसके मुखिया राजघराने में बत्तियां जलाने का काम करता था। बत्तियों में तेल डालकर तैयार करना पड़ता था।131 लाइट विभिन्न कोनों में जलाने का रिवाज था। फ़सफ़रास मतलब जलना होता है इसलिए बत्ती जलानेवाले मुस्लिम का नाम फरास बूढ़ा पड़ा था। मुहल्ले का नाम फरास कुल्ही। हालांकि वर्तमान में एक भी मुस्लिम परिवार यहां नहीं है लेकिन इमामबाड़ा है और मुहर्रम में यहां से तज़िया भी निकलता है। यह तज़िया पूरे शहर में जुलूस में सबसे आगे होता है। तजिए के जुलूस को किले की डेहरी तक ले जाने की परम्परा आज भी है। राजा के इस इमामबाड़े के कारण पहले यहां अपराध भी नहीं होते थर। भाईचारा तो था ही, अधिकांश विवाद कोर्ट नहीं जाते थे। इमामबाड़े के सामने खड़ा होकर सिर्फ इतना कहना कि तुम गलत कर रहे हो इमाम साहब इंसाफ करेंगे बोलना था कि दोषी गुनाह कबूल कर लेते थे। कतरास में ताजिया का जो जुलूस निकलता है उसमें सबसे पहले राजासाहब का यही तज़िया रहता है। रलतीफ,शमसुद्दीन, ज़ाकी… कई लोग मुहर्रम के समय इसका रंग रोगन कराने आते थे। आज भी राज परिवार के लोग इस परम्परा का निर्वाह करते हैं। इमामबाड़ा आज भी है। लोग इसे दरगाह स्थान भी कहते हैं। यही तज़िया सबसे आगे रहता है।
अब केरल की बात करता हूं। नारियल और समंदर का शहर। आज मस्ज़िदों में नमाज़ियों की भीड़ है लेकिन क्या आप जानते हैं कि हिंदुस्तान में पहली मस्ज़िद कहां पर स्थित है?यह कैसे बनी?कब बनी?
दरअसल केरल के त्रिशुर जिले के कोडुंगलूर में राजा पेरुमल जेरामन सातवीं सदी में वहां का शासक हुआ करते थे।एक रात वे सपना देखे कि चांद के दो टुकड़े हो गए हैं।उन्होंने अपने राज्य के विद्वानों को बुलाकर चांद टूटने के ख़्वाब का अर्थ बताने को कहें।इसी ख़्वाब से प्रेरित होकर वे खुद या उनके परिवार के राम वर्मा कुलशेखर जेद्दा और मदीना गए थे।उस समय अरब का केरल के साथ व्यवसायिक रिश्ता कायम हो गया था।वहां वे हज़रत मोहम्मद साहब या कहिये मुस्लिम धर्म प्रचारकों के संपर्क में आये तथा इस्लाम धर्म कबूल लिए।लौटने के क्रम में उन्होंने असहजता महसूस की।रास्ते में उन्होंने अपने बेटे के नाम एक पत्र लिखा।फिर उनकी मौत हो गई। अरब से साथ चल रहे दूत ने राजकुमार को पत्र थमाया और उनकी अंतिम इच्छा बताई।राजपुत्र ने ही केरल के त्रिशुर जिले के कोडुंगलूर में सन 629 के आसपास अपने पिता के नाम पर यह मस्ज़िद बनवाई ।इसी दौर में तमिलनाडु में भारत की दूसरी मस्ज़िद भी बनी। दो साल पहले मस्ज़िद कमिटी के डॉ मोहम्मद सईद से मुलाक़ात हुई थी। उन्होंने बातचीत में बताया कि यह मस्ज़िद हिंदुस्तान की धरोहर है।मस्ज़िद के भीतरी हिस्से का कार्य पंद्रहवीं सदी का है।पूर्व में यहां बौद्ध धर्म की आराधना होती थी।यहां की लाइब्रेरी में भारी संख्या में गैर मुस्लिम बच्चे भी पढ़ते हैं।इसी इलाके में बिना माइक के इशारों में नमाज़ अदा करने की अनोखी प्रक्रिया शुरू की गई है,जिसमें एलईडी स्क्रीन का सहारा लिया गया है।दिव्यांग बच्चों को यहां तालीम दी जा रही है।
व्यक्तिगत-स्वतंत्रता और सामाजिक-अनुशासन का नियंत्रण सतही स्तर पर दो परस्पर विरोधी विषय लगते हैं किंतु जीवन में इन दोनों का ही बराबर महत्व है और व्यक्ति तथा समाज की सुख-शांति के लिए दोनों में समन्वय की आवश्यकता सदा अनुभव की जाती रही है। समाज के लिए व्यक्ति का होना अनिवार्य है। व्यक्ति ही नहीं होगा तो समाज बनेगा कैसे ? और व्यक्ति के लिए समाज का अस्तित्व में रहना अपरिहार्य है क्योंकि व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास और उसकी निजी सुख-शांति समाज के मध्य ही संभव है। बिंदु के बिना सिंधु का होना और सिंधु के अभाव में बिंदु का अस्तित्व सुरक्षित रहना असंभव है। अफगानिस्तान में तालिबान सामाजिक अनुशासन के नाम पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अपहरण करता हुआ बिंदु और सिंधु में संघर्ष उत्पन्न कर वहाँ का जनजीवन अस्त-व्यस्त कर रहा है जिसका दुष्प्रभाव अन्य देशों पर भी पड़ना स्वाभाविक है। अतः तालिबानी शक्तियों के कृत्यों का औचित्य विचारणीय है।
लोकतांत्रिक शासन-प्रणाली व्यक्तिगत स्वतंत्रता को महत्व देती हुई सामाजिक ताना-बाना बुनती है जबकि किसी व्यक्ति अथवा समूह द्वारा शस्त्र-शक्ति के बल पर सत्ता पर अधिकार कर अपनी पूर्व निर्धारित मान्यताओं और रूढ़ियों के माध्यम से समाज पर नियंत्रण करना व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अपहरण करना है। व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करना चाहता है इसीलिए ऐसी अधिरोपित व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करता है। अफगानिस्तान में तालिबान और लोकतांत्रिक शक्तियों के बीच की टकराहट व्यक्ति और समाज जनतंत्र और तानाशाही के मध्य जारी ऐसा ही संघर्ष है। इस संघर्ष में इस समय कट्टरता, उन्माद और नकारात्मक सोच का बढ़त मिली है जो उदारता, सामूहिकता और सह अस्तित्व की पुष्टि के लिए शुभ नहीं कही जा सकती।
शासन की कोई भी प्रणाली कभी भी पूर्णतया निर्दोष नहीं होती। वह मनुष्य अथवा समान विचार वाले कुछ मनुष्यों द्वारा स्थापित की जाती है। मनुष्य पूर्ण होता नहीं इसलिए उसके द्वारा बनाई गई व्यवस्था में भी अपूर्णता रह जाती है। तथापि मनुष्य स्थापित व्यवस्था में परिवर्तन, परिवर्धन और संशोधन का प्रयत्न करता है। यह प्रयत्न प्रायः रचनात्मक और सकारात्मक सोच के साथ किए जाते हैं तो इनके परिणाम भी अधिकांशतः शुभ होते हैं किंतु जब इन परिवर्तनकारी प्रयत्नों की दिशा पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों, वैयक्तिक अथवा संकीर्ण सामूहिक स्वार्थों से प्रेरित होती है तब इनके परिणाम विनाशकारी होते हैं। दुर्भाग्य से अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा शस्त्रबल के सहारे लाया गया वर्तमान परिवर्तन भी ऐसा ही प्रयत्न है क्योंकि उसका लक्ष्य वर्तमान समाज पर मध्यकालीन जीवन को आरोपित करना और समस्त विश्व-समुदाय को उसकी बहुरंगी छवियों से दूर कर एक रंग में रंगना है, विश्व का इस्लामीकरण करना है।
नदी के प्रवाह की भाँति मनुष्य का जीवन भी गतिशील है, परिवर्तनशील है। समाज के पटल पर समय≤ पर प्रतिभाशाली विचारक जन्म लेते रहते हैं और अपने चिंतन से सामाजिक जीवन में देश-काल और परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन का शंखनाद करते हैं। यह सामाजिक जीवन के विकास की सहज प्रक्रिया है किंतु जब कोई समूह देश में वर्तमान युगजीवन की आवश्यकता और अपेक्षाओं की अनदेखी करके धर्म के नाम पर लगभग चैदह सौ वर्ष पुरानी मान्यताओं को समाज पर बलपूर्वक थोपने पर अड़ जाए और उस जैसी विचारधारा वाले अन्य देशों का समर्थन भी उसे मिलने लगे तो यह स्थिति न केवल उस देश के निवासियों के लिए अपितु अन्य देशों के लिए भी खतरनाक हो जाती है। जिहाद के नाम पर आतंक फैलाते हुए अन्य धर्मों के लोगों को इस्लाम के झंडे के नीचे लाने को व्याकुल इन समूहों की बढ़ती ताकत विश्वशांति के लिए बढ़ता हुआ खतरा है। अन्य देशों में भी ऐसे समूह सक्रिय हैं और अपनी ताकत बढ़ाते जा रहे हैं। भविष्य में अधिक शक्तिमान होने पर यह उनकी भी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को निगल जाएंगे। इसलिए समय रहते सावधान होना और ऐसी शक्तियों पर कठोर नियंत्रण किया जाना आवश्यक है।
तथाकथित धार्मिक समूहों, पंथों, संप्रदायों में बँटे सामाजिक समूहों में अनेक ऐसी कुरीतियां प्रचलित रही है जो समय के साथ आती रहीं और समाप्त होती गयीं। हिंदूसमाज में सतीप्रथा, देवदासी प्रथा, छुआछूत आदि कितनी ही अमानवीय बुराइयां रहीं। प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में इनकी स्वीकृति भी मिलती है किंतु आज इनका निर्वाह करने का कोई दुराग्रह कहीं दिखाई नहीं देता। समाज अपने पुराने केंचुल को त्याग कर समरसता की दिशा में अग्रसर है। आज यदि हिंदुओं में से कोई समूह कहे कि उसे हिंदू धर्म में सतीप्रथा, छुआछूत जैसी पुरानी रूढ़ियों को फिर से स्थापित करना है तो उसके इस दुराग्रह का कौन समर्थन करेगा ? जो बुराई जब थी तब थी । यह विचार का विषय नहीं इतिहास का दुखद स्वप्न है जिसे विस्मृत करने में ही समाज की भलाई है। आज क्या होना चाहिए यह विचारणीय है। इसी दृष्टि से भारत एवं अन्य देशों में नई-नई लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं मान्य हुई हैं किंतु आश्चर्य का विषय है कि कट्टर इस्लामिक विचारक आज भी अपने प्रभाव क्षेत्र में नई व्यवस्थाओं का स्वागत करने और जीर्ण-शीर्ण रूढ़ियों को तोड़ने के लिए प्रस्तुत नहीं हैं। सहअस्तित्व और बंधुत्व के उदार विचारों से समृद्ध इस्लामिक विचारकांे को समर्थन देकर कट्टरता और हिंसक उन्माद का पोषण करने वाली आतंकवाद की पैर पसारती मानसिकता को रोकना ही होगा अन्यथा तालिबानी ताकतें न केवल अफगानिस्तान में अपितु समस्त विश्व में यूं ही रक्तपात करती रहेंगी। विचारणीय यह भी है कि जब अन्य धर्मों के लोग अपनी रूढ़ियों और कुरीतियों को छोड़कर आगे बढ़ रहे हैं तो इस्लाम के कट्टरपंथी तथाकथित बुद्धिजीवी अपने समाज को रूढ़ि मुक्त वातावरण देने के विरुद्ध क्यों अड़े हैं और समाज उनका खुलकर विरोध क्यों नहीं करता ? वह उनका मौन समर्थन क्यों करता है ? जब तक मुस्लिम समाज के अंदर से रूढ़ि-विरोधी स्वर मुखर नहीं होंगे तब तक तालिबानी जिहादी मानसिकता का समाप्त होना कठिन है।
धर्म ईश्वरीय अस्तित्व की स्वीकृति है और मानवीय-मूल्यों की आधार भूमि है। विभिन्न धर्मो की पूजा-पद्धतियां भिन्न हैं, साधना-पथ भिन्न हैं किंतु लक्ष्य एक है– ईश्वर की कृपा प्राप्ति। हिंदूभक्त ईश्वर का अनुग्रह चाहता है, मुसलमान अल्लाह का करम पाने के लिए पांच बार नमाज अता करता है, ईसाई प्रेयर और सिख अरदास करता है। सब उस अदृश्य की कृपा पाने को प्रयत्नशील हैं फिर विरोध क्यों ? जब सारी सृष्टि उस एक शक्ति की ही रचना है फिर संघर्ष क्यों ? वस्तुतः संघर्ष धर्म का नहीं, सत्ता का है सुविधा का है। सत्ता और सुविधा के लिए समूह के विस्तार का है। इसीलिए अफगानिस्तान में तालिबानी मुसलमान दूसरे मुसलमान का खून बहा रहा है। अफगानिस्तान को अशांत कर रहा है और विश्व के अन्य देशों को अशांत करने के लिए आतुर है। इसीलिए विश्व समुदाय तालिबानियों की जीत पर चिंतित है। उदारता पर कट्टरता की जीत मनुष्य के लिए घातक है। पीड़ित अफगानियों के लिए विश्व की शक्ति का आगे आना अत्यंत आवश्यक है।
प्राचीन समय में भारत में प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार उपलब्ध था। विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में कृषि के साथ साथ हथकरघा उद्योग भी फल फूल रहा था। इसके कारण ग्रामीणों का गावों से शहरों की ओर पलायन नहीं के बराबर होता था। बल्कि, शहरों की तुलना में ग्राम ज्यादा खुशहाल थे। हथकरघा उद्योग के विकसित अवस्था में होने के कारण हथकरघा उद्योग द्वारा निर्मित वस्तुओं का निर्यात विदेशों में भी किया जाता था। उस समय पूरे विश्व में होने वाले निर्यात में भारत की 33 प्रतिशत से अधिक की हिस्सेदारी थी। परंतु, देश पर मुग्लों के आक्रमण एवं अंग्रेजों के शासन के बीच भारत का हथकरघा उद्योग भी विपरीत रूप से प्रभावित हुआ एवं कपड़ा उद्योग तो एक तरह से ब्रिटेन में स्थानांतरित कर दिया गया था। किंतु अब केंद्र सरकार ने भारतीय हथकरघा उद्योग के गौरवशाली दिन वापिस लाने के लिए प्रयास तेज कर दिए हैं और अभी हाल ही में, भारत में, 7 अगस्त 2021 को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मनाया गया। हथकरघा उद्योग को पुनर्जीवित करने और बुनकरों को काम प्रदान करने के उद्देश्य से केंद्र सरकार ने जुलाई 2015 में राष्ट्रीय हथकरघा दिवस की नींव रखी थी और प्रत्येक वर्ष 7 अगस्त को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया था। दरअसल 7 अगस्त 1905 को कोलकता में एक महा जनसभा में स्वदेशी आंदोलन की औपचारिक रूप से शुरुआत हुई थी। स्वदेशी आंदोलन की याद में ही वर्ष 2015 से प्रतिवर्ष 7 अगस्त को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस के रूप में मनाया जाता है। हथकरघा उद्योग भारत की सांस्कृतिक विरासत के जरूरी भाग में से एक है। हथकरघा उद्योग प्राचीनकाल से ही हाथ के कारीगरों को आजीविका प्रदान करता आया है। भारत में हथकरघा उद्योग, क्षेत्र एवं समय के साथ, सबसे महत्वपूर्ण कुटीर उद्योग के रूप में उभरा है। राष्ट्रीय हथकरघा दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य हथकरघा उद्योग का देश के सामाजिक एवं आर्थिक विकास में दिए जाने वाले महत्वपूर्ण योगदान के बारे में जागरूकता फैलाना तथा हथकरघा उद्योग को बढ़ावा देना व बुनकरों की आय में वृद्धि करना है। हथकरघा उद्योग द्वारा निर्मित वस्तुओं का विदेशों में भी खूब निर्यात किया जाता है और यह बड़ी संख्या में नागरिकों की आजीविका का साधन बना हुआ है।
देश में आज हथकरघा उद्योग में 35 लाख से ज्यादा परिवारों को रोजगार प्रदान किया जा रहा है। अतः हथकरघा उद्योग के आर्थिक महत्व को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार के कपड़ा मंत्रालय ने एक हथकरघा कमिश्नर का पद निर्मित किया है, जो विशेष रूप से हथकरघा उद्योग में आने वाली समस्याओं का पूरी शक्ति के साथ निदान करने का प्रयास करता है। इसके साथ ही पूरे देश में २८ केंद्रों पर बुनकर सेवा केंद्र भी काम कर रहे हैं। हमारे देश में बुनकरों के लिए मुख्य समस्या कच्चे माल अर्थात यार्न की उपलब्धता को लेकर है क्योंकि यार्न का उत्पादन किसी क्षेत्र में होता है और इसकी वीविंग (बुनना), प्रासेसिंग और गार्मेंटिंग किसी अन्य क्षेत्र में होती है। जैसे, आज सबसे अधिक बुनकर असम राज्य में हैं। देश के कुल ३५ लाख बुनकर परिवारों में से ८ लाख बुनकर परिवार उत्तर पूर्व (नोर्थ ईस्ट) राज्यों में हैं अतः इन राज्यों को कच्चा माल आसानी से उपलब्ध कराए जाने के उद्देश्य से भारत सरकार के कपड़ा मंत्रालय ने “यार्न सप्लाई योजना” बनाई है, जिसके अंतर्गत इन बुनकरों को अच्छी गुणवत्ता का यार्न उपलब्ध कराया जाता है। केंद्र सरकार द्वारा एक और योजना “हथकरघा विकास योजना” के अंतर्गत भी बहुत पुराने हथकरघों को नए हथकरघों से बदला जाता है ताकि इनकी उत्पादकता में वृद्धि हो सके। साथ ही, हथकरघों का उचित तरीके से संचालन करने के उद्देश्य से शेड आदि की व्यवस्था भी की जाती है और इनमें बिजली, पानी आदि अन्य सुविधाएं भी उपलब्ध करायी जाती है। तीसरे, बुनकरों को देश एवं विदेश में उत्पादों की मांग के अनुरूप उत्पाद विकसित करने के उद्देश्य से ब्लाक स्तर पर डिजाइनर भी उपलब्ध कराए जा रहे हैं। चौथे, हथकरघा उद्योग द्वारा निर्मित उत्पादों को ईकामर्स प्लेटफोर्म के साथ जोड़ा जा रहा है ताकि बुनकरों को इन उत्पादों की बाजार आधारित अच्छी कीमत मिल सके। अभी तक लगभग 150,000 बुनकरों को केंद्र सरकार के जेम्स पोर्टल से जोड़ दिया गया है। साथ ही अब हथकरघा उद्योग के लिए एक नया समर्पित पोर्टल भी विकसित किया जा रहा है, जो बुनकरों के लिए बहुत ही मददगार सिद्ध होगा।
हथकरघा उद्योग द्वारा निर्मित किए जा रहे उत्पादों को देश एवं विदेश में फैल रहे आजकल के फैशन के अनुसार भी ढालने के प्रयास किए जा रहे हैं। कई महाविद्यालयों में तो हथकरघा उद्योग में फैशन एवं डिजाइनिंग के पाठयक्रम पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। माननीय प्रधान मंत्री द्वारा दिए गए नारे “माई हैंडलूम माई प्राइड” का भी काफी प्रभाव युवा वर्ग पर पड़ा है। इन्हीं कारणों से आज के युवाओं की मानसिकता में भी बदलाव देखने में आ रहा है और वे अब हथकरघा उद्योग द्वारा निर्मित किए जा रहे उत्पादों की ओर आकर्षित होने लगे हैं। देश में आज के फैशन के अनुसार ही हथकरघा उद्योग में उत्पाद निर्मित किए जा रहे हैं।
हथकरघा उद्योग हमारे देश में बहुत पुराने समय से चला आ रहा है। इसके अंतर्गत केवल कपड़ा ही नहीं बल्कि कई अन्य तरह के उत्पाद भी निर्मित किए जाते हैं। देश के कई क्षेत्र तो विशेष उत्पाद के कारण ही प्रसिद्ध हो गए हैं जैसे कश्मीर की पश्मीना शाल, दक्षिण भारत की कांजीवरम साड़ी, मध्य प्रदेश की चन्देरी साड़ी, आदि। विशेष रूप से भारतीय गावों में महिलाओं द्वारा जो साड़ियां पहनी जाती हैं वे भी हथकरघा उद्योग द्वारा ही निर्मित होती हैं। देश में हथकरघा उद्योग द्वारा निर्मित वस्तुओं की मांग उत्पन्न करने के उद्देश्य से स्थानीय स्तर पर हाट, मार्केट एक्स्पो, प्रदर्शिनियों आदि का आयोजन भी समय समय पर किया जाता है। साथ ही अब तो वर्चूअल प्लेटफोर्म पर भी इन उत्पादों की बिक्री होने लगी है। इस प्लेटफोर्म के माध्यम से अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचा जा सकता है।
भारतीय बुनकरों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने के उद्देश्य से केंद्र सरकार द्वारा 125 से अधिक बुनकर सहकारी समितियों एवं बुनकर निर्माता कम्पनियों का गठन भी किया जा रहा है ताकि इस क्षेत्र की पहचान भारत की सीमाओं के बाहर भी हो सके। इस क्षेत्र में विक्रेता और क्रेता को मिलाया जा रहा है ताकि बुनकरों को सीधे भी पता चल सके कि बाजार में आज किस प्रकार के उत्पाद की मांग है और उसी प्रकार का उत्पाद बनाया जा सके। क्योंकि आज केवल भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में हथकरघा उद्योग द्वारा निर्मित उत्पादों की मांग बढ़ती जा रही है। आज भारत में लगभग 60,000 करोड़ रुपए का उत्पादन हथकरघा उद्योग के क्षेत्र में हो रहा है। परंतु, केंद्र सरकार इसे अगले 3 वर्षों के अंदर 125,000 करोड़ रुपए तक पहुंचाये जाने का प्रयास कर रही है। हथकरघा उद्योग से लगभग 2,500 करोड़ रुपए के उत्पादों का निर्यात भी हो रहा है। देश से निर्यात भी बढ़ाए जाने के प्रयास केंद्र सरकार द्वारा किए जा रहे हैं।
आत्म निर्भर भारत में भी हथकरघा उद्योग का योगदान बहुत अधिक रहने की सम्भावना है। इस उद्योग में 70 प्रतिशत महिलाओं को रोजगार मिल रहा है। इससे महिला सशक्तिकरण हो रहा है तथा इनका कौशल विकसित करने का कार्य भी किया जा रहा है। देश में अभी तक 11 ऐसे क्षेत्र चुने गए हैं जहां विदेशी पर्यटक अधिक संख्या में जाते हैं एवं इन स्थानों पर हथकरघा उद्योग की इकाईयां स्थापित की गईं हैं ताकि विदेशी पर्यटकों को इन इकाईयों में निर्मित होने वाले उत्पादों को दिखाया जा सके कि इन उत्पादों में कितनी बारीकी से काम होता है और कितना मेहनत लगता हैं ताकि इन उत्पादों के प्रति उनका रुझान भी बढ़ सके।
कोरोना महामारी का प्रभाव भारतीय हथकरघा उद्योग पर भी पड़ा है परंतु इस चुनौती को भी भारत के हथकरघा उद्योग ने एक तरह से अवसर में परिवर्तित कर दिया है। कोरोना महामारी के समय भारत में पीपीई किट्स एवं मास्क नहीं बनते थे परंतु देश में हथकरघा उद्योग में कुछ इस प्रकार से कार्य हुआ कि अब देश से पीपीई किट्स एवं मास्क का निर्यात किया जाने लगा है। केंद्र सरकार अब हथकरघा उद्योग को बढ़ावा देने का लगातार प्रयास कर रही है।
राजधानी काबुल पर कब्जे के बाद अफगानिस्तान क्रूर तालीबानी शासकों के हाथ आ गया है। इसके साथ ही इस देश में भारी तबाही, औरतों पर बंदिशें और मामूली अपराधियों को अंग-भंग कर देने का शासन शुरू हो गया। देश की जनता को तालिबान के रहमोकरम पर छोड़कर भागे राष्ट्रपति अशरफ गनी ने यह साबित कर दिया है कि उनकी रुचि केवल मलाई खाने में थी, इसीलिए वे अपनी सरकार और सेना में फैले उस भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में नाकाम रहे, जो देश की अर्थव्यवस्था को दीमक की तरह चाट रहा था। पिछले 20 साल के दौरान अमेरिका ने 6.25 लाख करोड़ और भारत ने 22 हजार करोड़ रुपए का निवेश अफगानिस्तान में किया था। अलबत्ता रूस से आई खबर को सही मानें तो गनी स्वयं भ्रष्टाचार में लिप्त थे, क्योंकि वे एक हेलिकॉप्टर और चार कारों में अकूत धन-संपदा लेकर ताजिकिस्तान की शरण में चले गए हैं। यहां हैरानी की बात है कि अमेरिकी सेना की मदद से जिन 3.5 लाख अफगानी सैनिकों को प्रशिक्षित किया गया था, उन्होंने 85 हजार तालीबानी लड़ाकों के सामने हथियार डाल दिए। इस समर्पण से ये आतंकी हथियार संपन्न हो गए हैं। इनके पास रूसी हथियार पहले से ही हैं। अब इनके पास अमेरिका द्वारा उपलब्ध कराए लड़ाकू विमान, टैंक, एके-47 राइफल्स, रॉकेट ग्रेनेड लांचर, मोर्टार और अन्य घातक हथियार भी आ गए हैं। क्योंकि अमेरिका द्वारा प्रशिक्षित ये सैनिक अब तालिबानी सरकार के लिए काम करेंगे। साफ है, ये हथियार भारत समेत अन्य पड़ोसी देशों के लिए संकट बनेंगे। सेना के समर्पण और राष्ट्रपति के भाग जाने से स्पष्ट है कि अंततः ये लोग अफगानिस्तान को इस्लामिक राष्ट्र बना देने के हिमायती थे, वरना कहीं न कहीं तो युद्ध के हालात दिखाई देते ?
वैसे तो पूरी दुनिया में धार्मिक, जातीय और नस्लीय कट्टरवाद की जड़ें मजबूत हो रही हैं, लेकिन इस्लामिक चरमपंथ की व्यूहरचना जिस नियोजित व सुदृढ़ ढंग से की जा रही है, वह भयावह है। उसमें दूसरे धर्म और संस्कृतियों को अपनाने की बात तो छोड़िए इस्लाम से ही जुड़े दूसरे समुदायों में वैमनस्य व सत्ता की होड़ इतनी बढ़ गई है कि वे आपस में ही लड़-मर रहे हैं। शिया, सुन्नी, अहमदिया, कुर्द, रोहिंग्यिा मुस्लिम इसी प्रकृति की लड़ाई के पर्याय बने हुए हैं। इस्लामिक ताकतों में कट्टरपंथ बढ़ने के कारण इस स्थिति का निर्माण हुआ कि चार करोड़ की आबादी वाला एक पूरा देश आतंकी राष्ट्र में तब्दील हो गया और उसे चीन, पाकिस्तान व ईरान ने समर्थन भी दे दिया। जो अमेरिका और रूस एक लंबे समय तक इन कट्टरपंथियों को गोला-बारुद उपलब्ध करा रहे थे, उन्हें आखिरकार पीठ दिखानी पड़ी है। अमेरिका के राष्ट्रपति बाईडेन द्वारा लिए सेना वापसी के निर्णय पर उन्हें शर्मसार होना पड़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार जैसी संस्थाएं इस परिप्रेक्ष्य में बौनी साबित हुई हैं। जाहिर है, इस स्तर की हस्तक्षेप की शक्तियां अप्रासंगिक हो जाएंगी तो इनका अस्तित्व में बने रहने का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा ?
एक समय इस्लामिक आंतकवाद को बढ़ावा देने का काम रूस, अमेरिका, पाकिस्तान और यूरोप के कुछ देशों ने किया था। दरअसल एक समय सोवियत संघ और बाद में अमेरिका इस देश पर अपना वजूद कायम कर एशिया में एक-दूसरे को कूटनीतिक मात देने की कोशिश में थे। इस नजरिए से 1980 के आस-पास सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर अपना वर्चस्व सेना के बूते जमाया। इसे नेस्तनाबूद करने के लिए अमेरिका ने तालिबानी जिहादियों को गोला-बारूद देकर रूसी सेना के खिलाफ खड़ा कर दिया। नतीजतन 1989 में रूसी सेना के अफगान की जमीन से पैर उखड़ने लगे और इस धरती पर तालिबानियों का कब्जा हो गया। इन तालिबानी लड़ाकों ने जब पाकिस्तान की शह पर अमेरिका को ही आंखें दिखाना शुरू कर दीं, तो अमेरिका की नींद टूटी और उसने मित्र देशों की मदद से तालिबान को सत्ता से बेदखल करके हामिद करजई को राष्ट्रपति बना दिया। इस कार्यवाही में अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी और पूर्व रक्षामंत्री अहमद शाह मसूद ने नॉदर्न एलायंस बनाकर अमेरिका की मदद की थी। इस मौके पर ईरान भी तालिबान के विरोध में खड़ा होकर अमेरिका के साथ आ गया था। दरअसल सत्ता में आते ही तालिबान ने ईरान को पानी देने वाले कजाकी बांध से पानी देना बंद कर दिया। इस कारण ईरान को हमाउं क्षेत्र में बड़ी हानि उठानी पड़ी थी। ईरान ने तालिबान को सबक सिखाने के लिए यह मदद की थी, किंतु 2002 में अमेरिका और ईरान की दोस्ती टूट गई। बावजूद ईरान आज भी तालिबान के पक्ष में नहीं है। ईरान की तरह तुर्की भी अफगानिस्तान में तालिबानी सत्ता के पक्ष में नहीं है।
दो दशक पहले भारत ने अहमद शाह के नेतृत्व वाले नॉदर्न एलायंस और फिर तालिबान विरोधी अफगान सरकार का साथ देते हुए 22 हजार करोड़ रुपए का पूंजी निवेश किया। अफगान की नई संसद और कई सड़कें व बांध भारत बना रहा है। भारत का अब यह निवेश बट्टे-खाते में जाता दिख रहा है। भारत की नई परिस्थितियों में अफगान नीति क्या होगी, यह तो अभी साफ नहीं है, लेकिन हाल ही में विदेश मंत्री एस जयशंकर की ईरान यात्रा अफगान रणनीति से जोड़कर देखी जा रही है। क्योंकि इस वार्ता में तालिबानी प्रतिनिधि भी मौजूद थे। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि भारत इस समय रूस और ईरान के साथ मिलकर अफगान रणनीति पर काम कर रहा है। तुर्की भी इस रणनीति में भारत के साथ आ सकता है।
एक समय चीन भी पाकिस्तान पराश्रित आतंकवाद को प्रश्रय दे रहा था, किंतु जब अक्टूबर 2011 में चीन के सीक्यांग प्रांत में एक के बाद एक हिंसक वारदातों को आतंकियों ने अंजाम तक पहुंचाया तो चीन के कान खड़े हो गए। लिहाजा उसने पाकिस्तान के कान मरोड़ते हुए चेतावनी दी थी कि चीन में उत्पात मचाने वाले उग्रवादी पाकिस्तान से प्रशिक्षित हैं। गोया वह इन पर फौरन लगाम लगाए, अन्यथा परिणाम भुगतने को तैयार रहे। ये हमले इस्लामिक मूवमेंट आॅफ ईस्टर्न तुर्किस्तान ने किए थे, जिस पर अलकायदा का बरद्हस्त था। अलकायदा के करीब 10 हजार लड़ाके तालिबान में शामिल हैं। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की ताजा रिपोर्ट ने अफगानिस्तान में तालिबानी लड़ाकों की संख्या 85 हजार बताई है। इनमें 6,500 पाकिस्तानी नागरिक हैं। जबकि अन्य मध्य-एशिया और चेचन्या के है। चीन के सीक्यांग राज्य में उईगुर मुस्लिमों की आबादी 37 प्रतिशत है, जो अपनी धार्मिक कट्टरता के चलते बहुसंख्यक हान समुदाय पर भारी पड़ती है। हान बौद्ध धर्मावलंबी होने के कारण कमोबेश शांतिप्रिय हैं। हालांकि चीन अमेरिका में घटी 9@11 की आतंकी घटना के बावजूद आतंक का पनाहगार बना रहा। उसने तालिबान को समर्थन देकर तय किया है कि वह तालिबान का इस्तेमाल भारत के विरुद्ध करना चाहता है। उसकी इस क्रूर मंशा में पाकिस्तान शामिल है। अमेरिकी सैनिकों की रवानगी के साथ ही चीन की दिलचस्पी अफगानिस्तान में बढ़ गई थी। उसके विदेश मंत्री वांग यी तालिबानियों का अफगानिस्तान पर कब्जा होने से पहले ही मुल्ला बरादर से बातचीत कर चुके हैं।
अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद तालिबान ने मुल्ला अब्दुल गनी बरादर को भावी राष्ट्रपति घोषित किया है। बरादर उन चार लोगों में से एक है, जिसने वर्ष 1994 में अफगानिस्तान में तालिबानी अंदोलन की शुरूआत की थी। इसके ओसामा बिन लादेन से लेकर हाफिज सईद तक से नजदीकी संबंध रहे हंै। बरादर पूरी तरह से पाकिस्तानी एजेंसियों के प्रभाव में है। 2001 में अमेरिकी नेतृत्व में जब तालिबानी आतंक ने घुटने टेक दिए, तब बरादर ने आतंकवाद की कमान सभांल ली थी। तभी से अफगानिस्तान में तालिबानियों ने महिलाओं पर अमानवीय अत्याचार व दुराचार किए, उनको घरों में बंद कर दिया और पढ़ने-लिखने व नौकरी करने पर पाबंदी लगा दी थी। देश के ज्यादातर नागरिक तालिबानी अमानवीयता के शिकार हुए हैं। इसीलिए अतीत के भयावह दौर की वापसी से आम अफगानी नागरिक भयग्रस्त है। नतीजतन काबुल व अन्य शहरों में भगदड़ मची हुई है। लोग देश छोड़ने के लिए इतने उतावले हैं कि पांच लोगों को हवाई-जहाज पर लटककर जाने से प्राण गांवाने पड़े हैं। चीन और पाकिस्तान को छोड़ दे ंतो सारी दुनिया और आम अफगानी नागरिक यह मानकर चल रहे है कि अब अफगानिस्तान में मध्ययुगीन बर्बरता कायम हो जाएगी, जिससे जल्द मुक्ति मिलना मुश्किल है।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कूटनीति जिस प्रकार से अपने पैर पसार रही है वह पूरी तरह से संकेत दे रही है कि इसके पीछे का मकसद क्या है। क्योंकि जिस प्रकार से शतरंज की गोट बिछाई जा रही है वह पूरी तरह से स्पष्ट संदेश दे रही है। क्योंकि विश्व की कूटनीति में शतरंज के घोड़े की ढ़ाई घर की चाल बिलकुल साफ संदेश देती हुई दिखाई दे रही है कि आने वाले समय में जब पत्ते खुलेंगे तो उन पत्तों की बिसात तथा रूप रेखा क्या होगी…? यह बिलकुल साफ दर्पण की भाँति दिखाई दे रहा है। क्योंकि जिस प्रकार से बाईडेन प्रशासन के द्वारा अफगानिस्तान से जाने का फैसला लिया गया और तुरंत बिना किसी रणनीति के अफगानिस्तान को फिर से उसी अतीत में झोंक दिया गया जहाँ वह पिछले दशकों में जीने के लिए मजबूर थे। अमेरिका के द्वारा बोरिया बिस्तर समेटते ही तालिबान पुनः अफगानिस्तान में घुस गया और हद तो यह हो गई कि राष्ट्रपति को स्वयं ही अपना देश छोड़कर भागना पड़ा। तो क्या यह मान लिया जाए कि यह सब तालिबान अपने बलबूते कर रहा है…? नहीं ऐसा कदापि नहीं है…। तालिबान के लड़ाके अपने बलबूते इस प्रकार से अफगान सेना पर हाबी हो सकने की स्थिति में नहीं हैं। यह कोई साधारण तर्क नहीं है इसके तथ्य हैं। तालिबानी लड़ाके अफगान सेना पर हाबी कदापि नहीं हो सकते थे इसका मुख्य कारण है अफगान सेना के पास हवाई ताकत होना। जोकि तालिबान लड़ाकों के पास नहीं है। अगर अफगान सेना अपनी हवाई क्षमता का प्रयोग करती तो तालिबानी लड़ाके कदापि सफल नहीं हो सकते थे। लेकिन ऐसा न करना भी बहुतेरे सवालों को जन्म देता है जिसमें सबसे बड़ा सवाल यह है कि अफगान सेना के अंदर भी तालिबानी परस्ती अपने पैर जमा चुकी थी। अफगान सेना स्वयं ही दो धड़ों में बंट चुकी थी। जोकि एक बहुत बड़ी साजिश को जन्म देते हुए दिखाई दे रहा है। इसके तार कहीं दूर से जुड़े हुए हैं। तो फिर सवाल उठता है कि आखिर इसके पीछे कौन है…?
इसके लिए हमें उस अतीत की ओर झाँकना पड़ेगा जहाँ अफागानिस्तान को झोंक दिया गया था। जब तक हम अफगानिस्तान के अतीत की ओर झांककर नहीं देखेंगे तब तक साफ तस्वीर उभरकर सामने नहीं आएगी कि इसके पीछे का मकसद क्या है। साथ ही अफगानिस्तान से कुछ देशों को इतनी घृणा क्यों है। साथ ही अफगानिस्तान की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दोस्ती और दुश्मनी को भी गंभीरता पूर्वक समझना पड़ेगा। जब तक अफगानिस्तान के अतीत से लेकर वर्तमान तक के पन्नों को नहीं पलटा जाएगा तस्वीर साफ नहीं हो सकती। सबसे पहले हमें सोवियत संघ की ओर झाँककर देखना होगा। वह सन 1979 का दशक था। अफगानिस्तान में सोवियत सेना तथा मुज़ाहिदीन नामक लड़ाकों के द्वारा लड़ा गया अफ़ग़निस्तानी गृहयुद्ध था। रूस पहले भी अफ़ग़निस्तान की सरकार का तख्तापलट करना चाहता था। जिसमें रूस ने रणनीति बनाकर कार्य किया था। जिसमें घुसपैठियों को रूस के साथ पाक़िस्तान का भी समर्थन प्राप्त था। इस रणनीति में सोवितय सेना पूरी तरह से लगी हुई थी साथ में पिछलग्गू पाकिस्तान भी अपने हित साध रहा था। लेकिन अफगानिस्तानियों ने में सोवियत सैनिकों की हरा कर भागने पर मजबूर कर दिया। सोवियत सेना अफगानिस्तान से वापस आने पर विवश हो गयी। इसमें खास बात यह थी कि लड़ाको को पड़ोसी राष्ट्र पाकिस्तान और चीन में ही युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया था जिसके लिए सऊदीअरब भी जिम्मेदार था। एक दशक तक चले इस युद्ध ने लाखो अफगानियों को अपना राष्ट्र छोड़कर दूसरे देश में शरण लेने पर मजबूर होना पड़ा जबकि लाखों की संख्या में अफगानी गृह युद्ध में मारे गए थे। लेकिन अफगानियों ने रूस अथवा पाकिस्तान को अपनी धरती पर पनपने नहीं दिया। जिससे दुश्मनी की आग में धधकता हुआ रूस और पाकिस्तान सदैव ही अफगानिस्तान का विरोधी बना रहा। रूस की तस्वीर ताजा घटना क्रम से साफ और स्पष्ट हो जाती है। वह यह कि काबुल में रूस के राजदूत दिमित्री जिरनोव ने तालिबान की तारीफ करते हुए कहा कि तालिबानियों ने अफगानिस्तान को अशरफ गनी के शासनकाल की तुलना में ज्यादा सुरक्षित बना दिया है। उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में स्थिति शांत और पहले से ज्यादा अच्छी है। गनी के शासनकाल में विकास शून्य पर था और अव्यवस्था अपने चरम पर थी। उन्होंने कहा कि अशरफ गनी के शासन में लोगों ने उम्मीद खो दी थी लेकिन तालिबान शासन के आगे सब कुछ अच्छा होगा। किसी भी देश के राजदूत के द्वारा इस प्रकार का स्टेटमेंट देना अपने आपमें बहुत कुछ कह रहा है जिसे समझने की आवश्यकता है। इस प्रकार शब्दों से एक बात पूरी तरह से उभरकर आती है कि रूस की भूमिका क्या है। क्योंकि किसी भी देश का राजदूत ऐसे शब्दों का प्रयोग कदापि नहीं कर सकता और वह भी ऐसी स्थिति में जबकि खुले रूप में आतंक का तांड़व सामने हो। विश्लेषकों का कहना है कि रूस मध्य एशिया में अपने हितों को साधना चाहता है जिसमें वह कई दशकों से लगा हुआ है। रूसी विदेश मंत्रालय ने एक बयान में कहा कि काबुल में स्थिति स्थिर है और दावा किया तालिबान ने सार्वजनिक व्यवस्था बहाल करना शुरू कर दिया है।
ज्ञात हो कि रूस ने प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन होने के बावजूद मास्को में वार्ता के लिए कई बार तालिबान की मेजबानी करके समूह की अंतरराष्ट्रीय विश्वसनीयता को बढ़ाने का प्रयास किया। जुलाई में रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने तालिबान को एक बड़ी ताकत तक बताने का प्रयास किया था। सबसे बड़ी बात यह है कि रूस ने वार्ता में बाधा ड़ालने के लिए अफगान सरकार को ही दोषी ठहराया था। जिससे पूरी स्थिति साफ हो जाती है कि भविष्य में किस योजना के आधार पर कार्य हो रहा और इसका क्या रूप एवं रंग होगा। रूस खुले रूप से लगातार तालिबान का पक्ष ले रहा है। यह वही रूस है जो 80 के दशक में अफगानिस्तान पर कब्जा कर अफगानियों को कुचल रहा था। जिसमें रूस हार गया। रूस अपनी हार को नहीं पचा पाया रूस ने अफगानिस्तान के प्रति गहरी साजिश को गढ़ना शूरू कर दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि 1994 में तालिबान की स्थापना हुई और 1996 में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई की मदद से संगठन ने देश की सत्ता पर कब्जा कर लिया जिसे 2001 में अमेरिकी सेना ने कुछ ही महीनों के आक्रमण के बाद जड़ से उखाड़ दिया था। इसके बाद जो हुआ वह इतिहास है।
अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे से गदगद पाकिस्तान अब कट्टरपंथी विद्रोही गुट के शासन को मान्यता दिलाने के लिए परेशान है। तालिबान के सहारे आतंकवाद को बढ़ाने की योजना में जुटे पाकिस्तान ने क्रूर लड़ाकों को संत बताने की मुहिम शुरू कर दी है। इस नापाक गठजोड़ में ड्रैगन को भी शामिल कर चुके पाकिस्तान ने चीन को भरोसा दिया है कि वह तालिबान को मान्यता दिलाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहा है। विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने चीनी समकक्ष वांग यी से फोन पर बात की और कहा कि अफगानिस्तान पर क्षेत्रीय सहमति बनाने के लिए वह खुद दूसरे देशों में जाकर बात करेंगे। एक रिपोर्ट के मुताबिक विदेश मंत्रालय ने बयान जारी करके कहा है कि कुरैशी ने वांग यी को अपनी आगामी यात्राओं का ब्योरा भी दिया। यह भी कहा गया है कि दोनों विदेश मंत्रियों ने साझा हितों खासकर अफगानिस्तान को लेकर लगातार संपर्क में रहने पर सहमति जताई। दोनों विदेश मंत्रियों के बीच यह बातचीत ऐसे समय पर हुई है जब चीन ने कहा है कि वह तालिबान से दोस्ताना और सहयोगपूर्ण रिश्ता बनाने को तैयार है। चीन और पाकिस्तान ने ना सिर्फ तालिबान के शासन को मान्यता देने की बात कही है बल्कि दूसरे देशों को भी इसके लिए मनाने में जुटने की योजना की बात कही। जानकारों का मानना है कि चीन इसके लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर सकता है। कुरैशी ने हाल ही में प्रधानमंत्री इमरान खान की अध्यक्षता में हुई नेशनल सिक्यॉरिटी कमिटी की मीटिंग का भी ब्योरा दिया। इस बैठक में अफगानिस्तान को लेकर पाकिस्तान की रणनीति पर चर्चा हुई थी। इस बैठक में हुए फैसलो को लेकर कुरैशी ने अफगानिस्तान के राजनीतिक समाधान पर जोर दिया। कुरैशी ने कहा एक शांतिपूर्ण और स्थिर अफगानिस्तान सरकार पूरे क्षेत्र के लिए अहम है।
इन सभी घटनाक्रमों के देखने के बाद क्या यह तस्वीर साफ हो जाती है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत को घेरने की साजिश रची जा रही क्योंकि अफगानिस्तान की सरकार के भारत के संबंध बहुत ही मित्रता पूर्वक थे। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान और चीन के साथ न जाकर अफगानिस्तान ने भारत के साथ जाना उचित समझा और ऐसा किया भी। अफगान सरकार ने तमाम तरीके के सहयोग भारत से लेने में भलाई समझी न कि पाकिस्तान अथवा चीन से। जिससे अंतरर्राष्ट्रीय स्तर पर यह संदेश साफ एवं स्पष्ट था कि अफगानिस्तान चीन तथा पाकिस्तान की कूटनीति से पूरी तरह से बाहर है। भारत के साथ अफगानिस्तान का जुड़ाव जगजाहिर था जिसे नकारा नहीं जा सकता।
अतः यह संदेश पूरी तरह से साफ है कि अफगानिस्तान में तख्तापलटकर अपना मुखौटा बैठाने की साजिश में कई देश शामिल हैं जोकि अपना हित साधना चाहते हैं। जिसमें चीन पाकिस्तान तथा रूस मुख्य भूमिका में हैं। जिस पर भारत को अपनी नजर बारीकी के साथ जमाए रखने की जरूरत है। क्योंकि चीन और पाकिस्तान की रणनिति भारत के विरुद्ध किसी से भी छिपी हुई नहीं है। इसलिए इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि तालिबानी सरकार के द्वारा भारत के हित हेतु किसी भी प्रकार का सहयोग दिया जाएगा। यह पूरी तरह से गलत है। अपितु इसके ठीक उलट स्थिति की झलक दिखाई दे रही है। इसलिए भारत को अपने हित को ध्यान में रखते हुए जरूरी कदम उठाने की आवश्यकता है। यदि तालिबान ने अपनी जड़े मजबूत कर लीं और सत्ता पर काबिज हो गया तो भारत के भविष्य के लिए ठीक नहीं होगा।