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लडकियों की मदद से लोगों को प्यार के जाल मे फंसाकर न्यूड वीडियो बनाकर करते है ब्लैकमेल

भगवत कौशिक – तकनीक के साथ तकनीकी फ्रॉड जिसे हम साइबर क्राइम के नाम से जानते है भी बढ़ गया है। साइबर अपराधी नए नए तरीकों से लोगो को लूटते है। कुछ समय पहले आपका एटीएम ब्लॉक करने की धमकी देने के नाम आप लोगो से ठगी होती थी। बाद में ऑनलाइन शॉपिंग के जरिए इस अपराध में बढ़ोतरी हुई। धीरे धीरे ठगी के नए तरीके बाजार में आने लगे ओएलएक्स जैसी साइट के जरिये भी बहुत बार लोगो को ठगी का शिकार बनाया गया।
इन सबमे एक कॉमन बात थी, ठगी करने वाले कहाँ से ऑपरेट करते है इस बारे में किसी को पता भी नही चलता था, मसलन पुलिस भी हाथ खड़े कर जाती थी। “जमतारा” वेब सीरीज ऐसे ही ठगों ओर आधारित है। 
पर ठगी का एक औऱ भयंकर तरीका भी निकला है, उसमे पहले आईएसआई जैसी पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसी शामिल थी। ये लोग आर्मी, एयर फोर्स या नेवी के अफसरों को टारगेट करते थे। खूबसूरत लड़कियां उन्हें अपने जाल में फंसाती और फिर उनसे जानकारियां मांगी जाती। इस पूरे मामले में डर के मारे ये लोग सारी जानकारी दे देते थे। इसे कहते है हनी ट्रैप और ये ठगी का बेहद कारगर तरीका है।
ऐसा तरीका अब बेहद आम हो चुका है, पहले बांग्लादेश से ये ऑपरेट होता था, आजकल भरतपुर के चुल्हेड़ा गांव  से भी ऐसा होने की खबरे न्यूज में है। ये लोग सोशल मीडिया पर हजारों की संख्या में फेक id बनाकर रखते है और लोगो को रिक्वेस्ट भेजते है। जैसे ही किसी की लिस्ट में ऐड होते है, तुरन्त उनके इनबॉक्स पहुंच जाते है।
कुछ ही देर में ये किसी भी व्यक्ति को मीठी बातों के जाल में फंसा कर उनसे आंतरिक बाते करना शुरू कर देते। लोग अक्सर इन्हें भांप नही पाते और चैट करते करते इनसे वीडियो कॉल कर लेते है। ऐसे मामलों में बात व्हाट्सअप नम्बर तक भी पहुंच जाती है।इसके बाद नग्न वीडियो की स्क्रीन रिकॉर्डिंग होती है जो आम इंसान की सोच में भी नही होती। ऐसे मामलों में एडिटिंग भी बहुत हाई लेवल की रहती है जो किसी को भी धोखा देने के लिए पर्याप्त होती है। ये लोग अपने टारगेट की स्‍क्रीन किसी और ऐप से रिकॉर्ड करते है। फिर अपने शिकार को धोखा देने के लिए वॉयस चेंजर्स का इस्‍तेमाल करते है। 
असली खेल इसके बाद शुरू होता है, यहां से कॉल करने वाला धमकी देता है कि पैसे दो नही तो हम वीडियो वायरल कर देंगे।  वो यूट्यूबर्स बनकर धमकी देते कि उनके पास अश्‍लील विडियो है जिसे वह वायरल कर देंगे, लोग डर जाते है और यही डर इस गंदे धंधे की नींव है। यहां से शुरू होता है धीरे धीरे ब्लैकमेल करके पैसे ऐंठने का दौर। बहुत से लोग तो लाखों रुपये ठगवाने के बाद पुलिस तक जाते है और सच पूछिए तो 90% मामलों में पुलिस भी पता नही लगा पाती क्योंकि ये सब एक जगह से ऑपरेट होता ही नही है।
अब ये लोग आपके रिश्तेदार, यार दोस्त, समाज के लोगो को वो न्यूड वीडियो भेजने लगते है और बहुत से लोग इस वजह से मरने की स्थिति में आ जाते है। परसों ही राजस्थान के एक लड़के ने इसी वजह से आत्म हत्या कर ली।ऐसे मामलों में लोग बेइज्जती के डर से रुपये दे देते है, या समाज से तिरस्कार झेलना पड़ता है।
सबसे पहले तो आप हमेशा यह ध्यान रखे कि आप किसे लिस्ट में ऐड कर रहे है। फेक आईडी आराम से पहचानी जा सकती है। ज्यादातर आई डी काफी नई होती है, उनकी लिस्ट में आपके परिचित नही होते। पोस्ट के नाम पर एक आध फर्जी फ़ोटो के अलावा कुछ भी नही होता।  यदि फिर भी कोई इस तरह के जाल में फंस जाता है तो उसे हमेशा याद रखना चाहिए कि जान से बड़ी कोई इज्जत नही है। 
इंसान गलतियों का पुतला है, यदि कोई इस प्रकार के स्कैम में फंसता है तो सबसे पहले उसे किसी तरह का रुपये का भुगतान नही करना चाहिए। जितना सम्भव हो पुलिस को इसकी सूचना देनी चाहिए। साथी, रिस्तेदारों व दोस्तों को भी इस तरह के वीडियो पर तुरन्त संज्ञान लेकर ऐसे फर्जी आईडी को रिपोर्ट करना चाहिए। किसी की भी न्यूड वीडियो को भी रिपोर्ट करना चाहिए।
ज्यादातर लोग इस बात को स्वीकार नही कर पाते जबकि भारत मे यह धंधा बहुत तेजी से फला फुला है। अगर आपके साथ या आपके परिचित के साथ ऐसा हुआ है तो बिल्कुल मत घबराइए, क्योंकि आपके एक मिनट की गलती का मूल्य आपका जीवन नही है। किसी भी स्थिति में डरिये मत क्योंकि जितना आप डरेंगे सामने वाला उतना ही आपके डर का फायदा उठाएगा।
साइबर क्राइम में यह धंधा फिलहाल सबसे तेज चल रहा है, पुलिस के ऑफ रिकॉर्ड की बात करे तो लाखों की संख्या में लोग ठगे जा चुके है। कृपया सतर्क रहें और ऐसे फर्जीवाड़े से बिल्कुल न घबराए। जो ऐसे जाल में फंस गया है वो याद रखे उसने किसी की जान नही ली है, न वो बलात्कारी है, बल्कि वो तो खुद विक्टिम है। 

स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के संघर्ष को याद करने का दिन है स्वतंत्रता दिवस

15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस पर हिन्दुस्तान में जगह -जगह हवा में लहराता झंडा हमें स्वतंत्र भारत का नागरिक होने का अहसास कराता है। इस साल 75वां स्वतंत्रता दिवस होने की वजह से इस दिन की महत्वता और बढ जाती है। आजादी से लेकर आज तक भारत देश ने कई उतार-चढाव देखे है और हर प्रकार की परिस्थिति में अपने गौरव को बढाया है व विश्व पटल पर अपनी अलग पहचान बनाई है। स्वतंत्रता दिवस हमारा राष्ट्रीय पर्व है, इसी दिन हमारा हिन्दुस्तान आज से 74 साल पहले 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों से स्वतंत्र हुआ था। इसी दिन हमारे वीर स्वतंत्रता संग्राम सेनानिओं ने हमें अंग्रेजों के अत्याचारों से मुक्ति दिलाई थी। हमें आजादी दिलाने के लिए न जाने कितने वीर वीरांगनाओं ने अंग्रेजों की अमानवीय यातनाओं व अत्याचारों का सामना किया और देश की आजादी के लिए अपनी आहुतियां दी। यह दिन ऐसे ही वीर-वीरांगनाओं को याद करने का दिन है। इस दिन का भारत के प्रत्येक नागरिक के लिए एक विशेष महत्व है, इस दिन हर भारतवासी अपने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को याद करता है, जिनके खून पसीने और संघर्ष से हमें आजादी नसीब हुई। स्वतंत्रता के मायने हर नागरिक के लिए अलग-अलग होते हैं, कोई व्यक्ति स्वतंत्रता को अपने लिए खुली छूट मानता है, जिसमे वो अपनी मर्जी का कुछ भी कर सके, चाहे वो गलत हो या सही हो। लेकिन स्वतंत्रता सिर्फ अच्छी चीजों के लिए होती है। बुरी चीजों के लिए स्वतंत्रता अभिशाप बन जाती है।  इसलिए स्वतंत्रता के मायने तभी हैं जब स्वतंत्रता में मर्यादा, चरित्र और समर्पण का भाव हो। अगर स्वतंत्रता में मर्यादा, चरित्र और समर्पण ही नहीं है तो यह आजादी नहीं बल्कि एक प्रकार का छुट्टापन होता है। जिसपर कोई भी लगाम नहीं होती। यही छुट्टापन देश और समाज में बलात्कार, छेड़खानी, हत्या और मॉब लिंचिंग जैसी घटनाओं के अंजाम के लिए जिम्मेदार होता है। स्वतंत्रता दिवस के दिन देश के युवा पतंगें उड़ा कर आजादी का जश्न मनाते हैं। हवा में लहराती पतंगें संदेश देती हैं कि हम आजाद देश के निवासी हैं। पर क्या तिरंगा फहराकर या पतंग उड़ाकर आजादी का अहसास हो जाता है? क्या भारत में हर किसी को आजादी से जीने का हक मिल पाया है? हमें आजादी मिली, उसका हमने क्या सदुपयोग किया। लोग पेड़ों को काट रहे हैं। बालिका भ्रूण की हत्या हो रही है। सड़कों पर महिलाओं पर अत्याचार होते हैं। अकेले रह रहे बुजुर्गों की हत्या कर दी जाती है। शराब पीकर लोग देश में सड़क हादसों को अंजाम देते हैं, और दूसरे बेगुनाह लोगों को मार देते हैं। ये कैसी आजादी है, जहां एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के अधिकारों का हनन कर रहा है।

बेशक भारत को स्वतंत्र हुए 74 साल हो गए हों, लेकिन आज भी हमारे आजाद भारत देश में बाल अधिकारों का हनन हो रहा है।  छोटे-छोटे बच्चे स्कूल जाने की उम्र में काम करते दिख जाते हैं। आज बाल मजदूरी समाज पर कलंक है। इसके खात्मे के लिए सरकारों और समाज को मिलकर काम करना होगा। साथ ही साथ बाल मजदूरी पर पूर्णतया रोक लगानी चाहिए। बच्चों के उत्थान और उनके अधिकारों के लिए अनेक योजनाओं का प्रारंभ किया जाना चाहिए। जिससे बच्चों के जीवन पर सकारात्मक प्रभाव दिखे और शिक्षा का अधिकार भी सभी बच्चों के लिए अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। गरीबी दूर करने वाले सभी व्यवहारिक उपाय उपयोग में लाए जाने चाहिए। बालश्रम की समस्या का समाधान तभी होगा जब हर बच्चे के पास उसका अधिकार पहुँच जाएगा। इसके लिए जो बच्चे अपने अधिकारों से वंचित हैं, उनके अधिकार उनको दिलाने के लिये समाज और देश को सामूहिक प्रयास करने होंगे। आज देश के प्रत्येक नागरिक को बाल मजदूरी का उन्मूलन करने की जरुरत है। देश  के किसी भी हिस्से में कोई भी बच्चा बाल श्रमिक दिखे, तो देश के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह बाल मजदूरी का विरोध करे और इस दिशा में उचित कार्यवाही करें साथ ही साथ उनके अधिकार दिलाने के लिये प्रयास करें। देश का हर बच्चा कन्हैया का स्वरुप है, इसलिए कन्हैया के प्रतिरूप से बालश्रम कराना पाप है। इस पाप का भगीदार न बनकर देश के हर नागरिक को देश के नन्हे-मुन्नों को शिक्षा का अधिकार दिलाना चाहिए जिससे कि हर बच्चा बड़ा होकर देश का नाम विश्व स्तर पर रोशन कर सके।  

भारत देश में कानून बनाने का अधिकार केवल भारतीय लोकतंत्र के मंदिर भारतीय संसद को दिया गया है। जब भी भारत में कोई नया कानून बनता है तो वो संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) से पास होकर राष्ट्रपति के पास जाता है। जब राष्ट्रपति उस कानून पर बिना आपत्ति किये हुए हस्ताक्षर करता है तो वो देश का कानून बन जाता है। लेकिन आज देश के लिए कानून बनाने वाली भारतीय लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था भारतीय संसद की हालत दयनीय है। जो लोग संसद के दोनों सदनों में प्रतिनिधि बनकर जाते हैं, वो लोग ही आज संसद को बंधक बनाये हुए हैं और उनमें से अधिकतर लोग लोकतन्त्र के मन्दिर भारतीय संसद की मर्यादा को तार-तार करते हैं व विश्व समुदाय के सामने देश के गौरव को कलंकित करने का काम करते है। जब भी संसद सत्र चालू होता है तो संसद सदस्यों द्वारा चर्चा करने की बजाय हंगामा किया जाता है और देश की जनता के पैसों पर हर तरह की सुविधा पाने वाले संसद सदस्य देश के भले के लिए काम करने की जगह संसद को कुश्ती का अखाडा बना देते हैं, जिसमें पहलवानी के दांवपेचों की जगह आरोप प्रत्यारोप और अभद्र भाषा के दांवपेंच खेले जाते हैं। जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है। आज जरुरत है कि देश के लिए कानून बनाने वाले संसद सदस्यों के लिए एक कठोर कानून बनना चाहिए।  जिसमें कड़े प्रावधान होने चाहिए, जिससे कि संसद सदस्य संसद में हंगामा खड़ा करने की जगह देश की भलाई के लिए अपना योगदान दें। आज हमारे जनप्रतिनिधि आम जनता के प्रतिनिधि न होकर सिर्फ और सिर्फ अपने और अपने लोगों के प्रतिनिधि बनकर खड़े होते हैं, यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। एक स्वतंत्र गणतांत्रिक देश में जनप्रतिनिधियों से देश का कोई भी नागरिक ऐसी अपेक्षा नहीं करता है। हर जनप्रतिनिधि का फर्ज है कि वह अपने और अपने लोगों का प्रतिनिधि बनने की बजाय अपने क्षेत्र की सम्पूर्ण जनता के प्रतिनिधि बने और देश के सभी जनप्रतिनिधियों को न्यायप्रिय शासन करना चाहिए, जिसमें समाज के हर तबके के लिए स्थान हो तभी हमारी स्वतंत्रता अक्षुण्ण रह पाएगी।           

बेशक हम अपना 75वां स्वतंत्रता दिवस मना रहे हों लेकिन आज भी देश महिलाओं को पूर्णतः स्वतंत्रता नहीं है, आज भी देश में महिलाओं को बाहर अपनी मर्जी से काम करने से रोका जाता है। महिलाओं पर तमाम तरह की बंदिशे परिवार और समाज द्वारा थोपी जाती हैं जो कि संविधान द्वारा प्रदत्त महिलाओं को उनके मौलिक अधिकारों का हनन करती है। आज भी देश में महिलाओं के मौलिक अधिकार चाहे समानता का अधिकार हो, चाहे स्वतंत्रता का अधिकार हो, चाहे धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार हो, चाहे शिक्षा और संस्कृति सम्बन्धी अधिकार हो; समाज द्वारा नारियों के हर अधिकार को छीना जाता है या उस पर बंदिशे लगायी जाती हैं, जो कि एक स्वतंत्र देश के नवनिर्माण के लिए शुभ संकेत नहीं है। कोई भी देश तब अच्छे से निर्मित होता है जब उसके नागरिक चाहे महिला हो या पुरुष हो उस देश के कानून और संविधान को पूर्ण रूप से सम्मान करे और उसका कड़ाई से पालन करे। आज बेशक भारत विश्व की उभरती हुई शक्ति है। लेकिन आज भी देश काफी पिछड़ा हुआ है। देश में आज भी कन्या जन्म को दुर्भाग्य माना जाता है, और आज भी भारत के रूढ़िवादी समाज में हजारों कन्याओं की भ्रूण में हत्या की जाती है। सड़कों पर महिलाओं पर अत्याचार होते हैं। सरेआम महिलाओं से छेड़छाड़ और बलात्कार के किस्से भारत देश में आम बात हैं। कई युवा (जिनमें भारी तादात में लड़कियां भी शामिल हैं) एक तरफ जहां हमारे देश का नाम ऊंचा कर रहे हैं। वहीं कई ऐसे युवा भी हैं जो देश को शर्मसार कर रहे हैं। दिनदहाड़े युवतियों का अपहरण, छेड़छाड़, यौन उत्पीड़न कर देश का सिर नीचा कर रहे हैं। हमें पैदा होते ही महिलाओं का सम्मान करना सिखाया जाता है पर आज भी विकृत मानसिकता के कई युवा घर से बाहर निकलते ही महिलाओं की इज्जत को तार-तार करने से नहीं चूकते। इस सबके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार शिक्षा का अभाव है। शिक्षा का अधिकार हमें भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों के रूप में अनुच्छेद 29-30 के अन्तर्गत दिया गया है। लेकिन आज भी देश के कई हिस्सों में नारी शिक्षा को सही नहीं माना जाता है। नारी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार के साथ भारतीय समाज को भी आगे आना होगा। तभी देश में अशिक्षा जैसे अँधेरे में शिक्षा रुपी दीपक को जलाकर उजाला किया जा सकता है। जब नारी को असल में शिक्षा का अधिकार मिलेगा तभी नारी इस देश में स्वतंत्र होगी। गीता में कहा गया है कि ‘‘सा विद्या या विमुक्तये।’’ अर्थात विद्या ही हमें समस्त बंधनों से मुक्ति दिलाती है, इसलिए राष्ट्र को आगे बढ़ाने के लिए बिना भेदभाव के सभी को शिक्षा का अधिकार दिया जाना चाहिए। आज लडकियां हर क्षेत्र में देश का नाम रोशन कर रही है, अगर लडकियों को उनकी प्रतिभा के अनुसार अवसर दियें जायें तो ये तादात और बढ सकती है। देश में जरुरत है लडकियों को अवसर देने की, जिससे कि वो अपने अवसर को सफलता में बदल सकें।

भारत देश बेशक एक स्वतंत्र गणराज्य सालों पहले बन गया हो। लेकिन इतने सालों बाद आज भी देश में धर्म, जाति और अमीरी गरीबी के आधार पर भेदभाव आम बात है। लोग आज भी जाति के आधार पर ऊंच-नीच की भावना रखते हैं। आज भी लोगों में सामंतवादी विचारधारा घर करी हुयी है और कुछ अमीर लोग आज भी समझते हैं कि अच्छे कपडे पहनना, अच्छे घर में रहना, अच्छी शिक्षा प्राप्त करना और आर्थिक विकास पर सिर्फ उनका ही जन्मसिध्द अधिकार है। इसके लिए जरूरत है कि देश में संविधान द्वारा प्रदत्त शिक्षा के अधिकार के जरिए लोगों में जागरूकता लायी जाये। जिससे कि देश में  धर्म, जाति, अमीरी-गरीबी और लिंग के आधार पर भेदभाव न हो सके।

इस वर्ष का स्वतंत्रता दिवस इस वजह से और अहम है कि इस साल टोक्यो ओलिंपिक-2020 में भारत ने अब तक के अपने ओलिंपिक इतिहास के सबसे ज्यादा पदक जीते है, जिसमें 1 स्वर्ण, 2 रजत और 4 कांस्य पदक जीते हैं।  इस ओलिंपिक गेम्स में एथलेटिक्स के इतिहास में पहला स्वर्ण पदक भाला फेंक प्रतियोगिता में देश के होनहार युवा 23 वर्षीय नीरज चोपड़ा ने जीता है और देश को विश्व पटल पर गौरवान्वित करने का काम किया है। इसके साथ ही कुश्ती में रवि कुमार दहिया ने रजत पदक जीतकर भारत का मान बढाया है। भारोत्तोलन प्रतियोगिता में देश की बेटी सेखोम मीराबाई चानू ने रजत पदक जीतकर देश का नाम रोशन किया है। पी०वी० सिंधु ने बैडमिंटन में कांस्य पदक जीता है, पी० वी० सिंधु दो ओलिंपिक गेम्स (रियो 2016, टोक्यो-2020) में पदक जीतने वाली पहली महिला खिलाडी हैं। भारत की बेटी लवलीन बोरगोहेन ने बाॅक्सिंग में कांस्य पदक जीतकर देश का गौरव बढाया है। पुरुष हॉकी टीम ने भी टोक्यो ओलिंपिक गेम्स में 41 साल बाद पदक जीता है, बेशक पदक कांस्य हो लेकिन पुरुष हॉकी टीम ने देश का गौरव बढ़ाने का काम किया है, इसके साथ ही देश की बेटियों ने ओलिंपिक गेम्स के सेमीफाइनल में पहुंचकर भविष्य के लिए अपने इरादे जता दिए हैं। टोक्यो ओलिंपिक गेम्स में भारत की दोनों हॉकी टीम्स (महिला और पुरुष) ने भारत का हॉकी में स्वर्णिम इतिहास लाने की भविष्य में आस बढ़ा दी है। कुश्ती में भी पहलवान बजरंग पूनिया ने कांस्य पदक जीतकर देश को गौरवान्वित करने का काम किया है। इसके साथ ही टोक्यो ओलिंपिक गेम्स में भारतीय दल के अन्य खिलाड़ियों ने भी गजब का खेल दिखाया है और उम्मीद जगाई है कि पेरिस ओलिंपिक गेम्स-2024 में पदकों की संख्या और बढ़ेगी। अगर देश के होनहार युवाओं को देश में ही सरकारों या स्वंयसेवी संस्थाओं द्वारा उपयुक्त प्रशिक्षण उपलब्ध कराया जाये तो देश में और प्रतिभायें निखर के आयेंगी और भारत देश का मान विश्व पटल पर होगा। 

स्वतंत्रता दिवस प्रसन्नता और गौरव का दिवस है इस दिन सभी भारतीय नागरिकों को मिलकर अपने लोकतंत्र की उपलब्धियों का उत्सव मनाना चाहिए और एक शांतिपूर्ण, सौहार्दपूर्ण एवं प्रगतिशील भारत के निर्माण में स्वयं को समर्पित करने का संकल्प लेना चाहिए। क्योंकि भारत देश सदियों से अपने त्याग, बलिदान, भक्ति, शिष्टता, शालीनता, उदारता, ईमानदारी, और श्रमशीलता के लिए जाना जाता है। तभी सारी दुनिया ये जानती और मानती है कि भारत भूमि जैसी और कोई भूमि नहीं, आज भारत एक विविध, बहुभाषी, और बहु-जातीय समाज है। जिसका विश्व में एक अहम स्थान है। आज का दिन अपने वीर जवानों को भी नमन करने का दिन है जो कि हर तरह के हालातों में सीमा पर रहकर सभी भारतीय नागरिकों को सुरक्षित और स्वतंत्र महसूस कराते हैं। साथ-साथ उन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को याद करने का भी दिन हैं, जिन्होंने हमारे देश को आजाद कराने में अहम भूमिका निभाई। आज 75वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर भारत के प्रत्येक नागरिक को भारतीय संविधान और गणतंत्र के प्रति अपनी वचनबद्धता दोहरानी चाहिए और देश के समक्ष आने वाली चुनौतियों का मिलकर सामूहिक रूप से सामना करने का प्रण लेना चाहिए। साथ-साथ देश में शिक्षा, समानता, सदभाव, पारदर्शिता को बढ़ावा देने का संकल्प लेना चाहिए। जिससे कि देश प्रगति के पथ पर और तेजी से आगे बढ़ सके।

आज़ादी की 75 वीं वर्षगाँठ के दौरान कहाँ खड़ी है देश की मातृ शक्ति…

इस बार 15 अगस्त को हम देश की आजादी की 75 वीं वर्षगांठ मनाने जा रहें हैं। बेशक यह हम सभी भारतीयों के लिए गर्व की बात है। इस आजाद भारत में महिलाएं भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती नजर आ रही है। हमारे देश की महिलाओं ने धरती से लेकर आसमान तक अपने नाम का लोहा मनवाया है। आज ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां महिलाओं ने अपनी कामयाबी के झंडे बुलंद ना किए हो लेकिन इन सबके बावजूद एक दर्दनाक पहलू यह भी है कि आज भी पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की अनदेखी की जा रही है। यह एक ऐसा अभिशाप है, जिसे महिलाओं के जन्म के साथ ही उनके मुकद्दर में लिख दिया जाता है। एक अध्ययन से इस बात की जानकारी मिलती है कि आने वाले 10 सालो में लिंग परीक्षण के कारण दुनिया में 50 लाख लड़कियों की कमी हो जाएगी तो वही इस सदी के अंत तक बेटों की चाहत में 2.2 करोड़ बेटियां कम पैदा होने का अनुमान लगाया जा रहा है। मेडिकल जनरल ग्लोबल हेल्थ (बीएमजे) के अध्ययन में यह दावा किया गया है कि लिंग चयन के दुष्परिणाम के कारण 10 वर्षों में 4.7 मिलियन लड़कियां कम पैदा होगी। अब सवाल यह उठता है कि 21 वीं सदी में भारत में जहां हम समता और समानता की बात करते है। फ़िर जन्म से पहले ही लड़का-लड़की का भेद क्यों? बता दें कि हमारे संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 के बीच कुछ ऐसे प्रावधान हैं कि वे महिलाओं को पुरुषों के समान समानता का अधिकार प्रदान करने की वकालत करते हैं। फ़िर इन सबके बावजूद महिलाओं की स्वतंत्रता महज कोरी कल्पना ही क्यों प्रतीत होकर रह जाती है। एक दुखद पहलू यह भी है कि आज भी महिलाओं के प्रति समाज की सोच नहीं बदल पा रही है। जिसका कारण भी कहीं न कहीं समाज पर पितृसत्तात्मक सोच का हावी होना है।
गौरतलब हो कि समाज के सृजन में महिला और पुरुषों का समान योगदान है फिर ऐसी क्या वजह है कि महिलाओं को पुरुषों से कमतर आंका जाता रहा है। जीवन के रंगमंच पर महिला और पुरुष एक ही धुरी के समान चलते हैं। किसी एक के बिना दूसरे के जीवन की कल्पना आधारहीन है। फिर क्यों महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार नहीं मिल पाता है? यह सवाल आज भी विचारणीय है। आज महिलाएं घर-गृहस्ती संभालने के साथ-साथ अंतरिक्ष तक अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुकी है। घर परिवार की जिम्मेदारी हो या फिर बात व्यापार क्षेत्र की ही क्यों न हो महिलाओं ने यह साबित कर दिया है कि वह हर क्षेत्र में परिपूर्ण है। लेकिन नारी सशक्तिकरण की वकालत करते हुए इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता है कि आज जिन क्षेत्रों में पुरुषों का वर्चस्व है उसकी महत्ता को चुनौती देने का कार्य कहीं न कहीं पूर्णरूप से आज़ादी न होने पर भी महिलाएं कर रही हैं। यही वजह है कि आज भी पुरुष प्रधान समाज महिलाओं को अधिकार देने के पक्ष में कमतर ही नजर आते हैं। महिलाओं के लिए बनाई जा रही तमाम योजनाएं इस बात की गवाह है कि उनके साथ कहीं ना कहीं समाज में दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है। बात चाहे घरेलू हिंसा की हो या फिर बाल विवाह या स्त्री शिक्षा की ही क्यों ना हो यह हमारे समाज की एक कड़वी हकीकत को बयान करने के लिए काफी है।

कोरोना काल के परिपेक्ष्य में ही बात करें तो बेशक दुनिया का हर वर्ग इससे प्रभावित हुआ हो पर महिलाओं के लिए यह एक अभिशाप बनकर सामने आया है। इस दौरान विश्व भर में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में अधिक रोजगार गंवाना पड़ा है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2012 से 2019 के बीच में महिला श्रमिक बल की भागीदारी बढ़ी है। लेकिन भारत एकमात्र अपवाद देश रहा है। जहां महिला श्रम शक्ति में गिरावट दर्ज की गई है। ऐसी क्या वजह रही जो भारत की महिलाओं के साथ इस तरह का दुर्व्यवहार किया गया? सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनामिक (सीएमआईई) की साल 2019 की रिपोर्ट भी इस बात की ओर इशारा कर रही है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं को 13.9 प्रतिशत नौकरी का नुकसान उठाना पड़ा। अचरज की बात तो यह है कि अधिकतर पुरुषों ने कोरोना काल में अपनी नौकरियां वापस प्राप्त कर ली तो वहीं महिलाओं की किस्मत इस मामले में भी ठीक नहीं रही। अधिकतर महिलाओं को कोरोना काल में अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा।
बता दें कि विश्व आर्थिक संघ ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2020 में भी कहा गया है कि पुरुषों और महिलाओं के वेतन संबंधी समानता में 257 वर्षों का समय लग सकता है। यह रिपोर्ट कहीं ना कहीं पुरुषवादी वर्चस्व की ओर इशारा करती है। हाल ही में विश्व बैंक ने भी महिला कारोबार और कानून 2021 को लेकर अपनी रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में यह साफ कहा गया है कि संपूर्ण दुनिया में केवल 10 देश ही ऐसे हैं। जहां महिलाओं को पूर्ण अधिकार देने की बात कही जा रही या वे देश इसमें सक्षम हैं। भारत इस रिपोर्ट में 190 देशों की सूची में 129 वें स्थान पर है। हमारे देश में आज भी महिलाओं को समान वेतन, मातृत्व, उधमिता और संपत्ति जैसे मामलों में लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। देश में एक तरफ तो महिला स्वतंत्रता और सम्मान की बात की जाती है तो दूसरी ओर महिलाओं पर हिंसा और रेप के ग्राफ में कहीं कोई कमी नजर नहीं आती है। जिस देश में महिलाओं को देवी के समान दर्जा दिया गया है वहां इस तरह का दुर्व्यवहार होना कई सवाल खड़े करता है। सवाल यह भी उठता है कि महिलाओं से घरेलू सामान खरीदने में तो राय ली जाती है लेकिन जब प्रॉपर्टी में निवेश की बात आती है तो उन्हें बोलने का अधिकार तक नहीं दिया जाता है। यह कैसी विडंबना है जहां परिवार की इज्जत महिलाओं के हाथ में होती है तो वही प्रॉपर्टी के कागजात पुरुषों को दिए जाते हैं?
 स्वामी विवेकानंद जी ने एक बात कही थी कि हमें संगठित होकर जागना होगा तभी महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा को रोका जा सकता है। महिलाएं आज खेल के मैदान से लेकर देश की राजनीति में अपना योगदान दे रही है। लेकिन यह कड़वा सच ही है कि आज भी महिलाओं को पुरुषों की तुलना में प्रतिनिधित्व करने का मौका कम ही मिल पाता है। देखा जाए तो हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। आधी आबादी पर भी यही बात लागू होती है। देश की नारियों ने भले ही है नित नए कीर्तिमान हासिल कर लिए हो लेकिन अब भी उनके लिए चुनौतियां कम नहीं है। मेरिट लिस्ट में भले ही हमारे देश की बेटियां नाम रोशन कर रही हैं। बेटों को पीछे छोड़ रहीं हैं, लेकिन जब महिला और पुरुषों के अनुपात की बात आती है तो फर्क साफ नजर आ जाता है। ऐसे में सवाल यही कि ऐसे ही अगर बच्चियों को पैदा होने ही नही दिया जाएगा, फ़िर कैसे यह समाज आगे बढ़ पाएगा? इस विषय पर मंथन इस बार जरूर होना चाहिए।

भारत की नियति है ‘अखंड भारत’ होना

– डॉ. पवन सिंह 

‘मैं रहूं या न रहूं, यह देश रहना चाहिए’ यह पंक्ति प्रत्येक राष्ट्रभक्त भारतवासी का मनोभाव है। इस भाव को चरितार्थ करने के लिए न जाने कितनी ही पीढ़ियों ने अपने आपको इस मातृभूमि पर न्यौछावर कर दिया। अखंड भारत हमारे लिए केवल शब्द नहीं है । यह हमारी श्रद्धा, भाव, देशभक्ति व संकल्पों का अनवरत प्रयास है जिसे प्रत्येक देशभक्त जीवंत महसूस करता है । हम इस भूमि को माँ मानते है और पुत्रवत इस भूमि की सेवा के लिए सदैव तत्पर रहते है । हम कहते भी है माताभूमि: पुत्रोहंपृथिव्या:। इसलिए माँ का प्रत्येक कष्ट हमारा अपना कष्ट है और एक माँ खंडित रहे कष्ट में रहे, यह उसके पुत्र कैसे स्वीकार कर सकते है । समय -समय पर भारत खंडित कैसे हुआ, कौन सी गलतियां हम से हुई । वो कौन से कारण रहे जिन्होंने इसकी पृष्ठ्भूमि लिखी इन सबका चिंतन, विभाजन की पीड़ा व पुनः अखंड होने का विश्वास व संकल्प ही इसका एक मात्र हल है । जब भारत की लाखों आँखों में पलने वाला यह अखंड भारत का सपना करोड़ों- करोड़ों  हृदयों की धड़कन बन कर धड़कने लगेगा, तभी यह  संभव होगा ।     

असंभव में छिपा है संभव शब्द:  अखंड भारत का स्वप्न कुछ लोगों को असंभव लगता हो। लेकिन यदि हम इतिहास का अवलोकन करेंगे, तो ध्यान आएगा कभी जो बातें असंभव लगा करती थी, कुछ समय के पश्चात वो संभव भी हुआ है । मनुष्य की उम्र कुछ वर्ष हुआ करती है पर देशों की उम्र हजारों -हजारों वर्ष होती है ।  विश्व के ऐतिहासिक अनुभव हैं कि किसी भी देश का विभाजन स्थाई अथवा अटल नहीं होता । 1905 का बंग भंग, पुनः 1911 में एक हो गया । 2000 वर्ष पूर्व नष्ट इजराइल,मई 1948 में फिर से स्वतंत्र राष्ट्र बना । ‘होली रोमन एम्पायर’ शीघ्र नष्ट हो गया । न पवित्र रहा, न रोमन और न एम्पायर। विशाल ब्रिटिश साम्राज्य भी स्थाई न रहा । जर्मनी का विभाजन 1945 में, परन्तु 1989 में पूर्वी जर्मनी व पश्चिम जर्मनी को विभाजित करने वाली बर्लिन की दीवार गिरा दी गई, जर्मनी पुनः एक हो गया । दोनों वियतनाम एक हो गये । सोवियत संघ से 15 मध्य एशियाई देश अलग होकर पुनः स्वतंत्र राष्ट्र बन गये।  

संस्कृति ही हमारा मूल:  1947 में ही भारत का पहला व आखिरी विभाजन नहीं हुआ। वरिष्ठ पत्रकार देवेंद्र स्वरूप ने बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा है कि भारत की सीमाओं का संकुचन 1947 से काफी पहले शुरू हो चुका था। सातवीं से नवीं शताब्दी तक लगभग ढाई सौ साल तक अकेले संघर्ष करके हिन्दू अफगानिस्तान इस्लाम के पेट में समा गया। हिमालय की गोद में बसे नेपाल, भूटान आदि जनपद अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण मुस्लिम विजय से बच गए। अपनी सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा के लिए उन्होंने राजनीतिक स्वतंत्रता का मार्ग अपनाया पर अब वह राजनीतिक स्वतंत्रता संस्कृति पर हावी हो गयी है। श्रीलंका पर पहले पुर्तगाल, फिर हॉलैंड और अंत में अंग्रेजों ने राज्य किया और उसे भारत से पूरी तरह अलग कर दिया। यद्यपि श्रीलंका की पूरी संस्कृति भारत से गए सिंहली और तमिल समाजों पर आधारित है। दक्षिण पूर्वी एशिया के हिन्दू राज्य क्रमश: इस्लाम की गोद में चले गए किन्तु यह आश्चर्य ही है कि भारत से कोई सहारा न मिलने पर भी उन्होंने इस्लामी संस्कृति के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया। इस्लामी उपासना पद्धति को अपनाने के बाद भी उन्होंने अपनी संस्कृति को जीवित रखा है और पूरे विश्व के सामने इस्लाम के साथ सह अस्तित्व का एक नमूना पेश किया। किन्तु मुख्य प्रश्न तो भारत के सामने है। तेरह सौ वर्ष से भारत की धरती पर जो वैचारिक संघर्ष चल रहा था उसी की परिणति 1947 के विभाजन में हुई। पाकिस्तानी टेलीविजन पर किसी ने ठीक ही कहा था कि जिस दिन आठवीं शताब्दी में पहले हिन्दू ने इस्लाम को कबूल किया उसी दिन भारत विभाजन के बीज पड़ गए थे। इसे तो स्वीकार करना ही होगा कि भारत का विभाजन हिन्दू-मुस्लिम आधार पर हुआ। पाकिस्तान ने अपने को इस्लामी देश घोषित किया। वहां से सभी हिन्दू-सिखों को बाहर खदेड़ दिया । अब वहां हिन्दू-सिख जनसंख्या लगभग शून्य है।

भारत बोध का अभाव:  विभाजन के कारणों की समीक्षा करने पर ध्यान आता है कि तात्कालिक नेतृत्व के मनों में भारत बोध का अभाव व राष्ट्र और भारतीय संस्कृति के बारे में भ्रामक धारणा थी । अंग्रेज अपनी चाल में सफल हुए और उनके द्वारा स्थापित बात की भारत कभी एक राष्ट्र नहीं रहा और न है बल्कि यह तो अनेक राज्यों का मिश्रण है।  उस समय देश के अधिकतर नेता भी इन्हीं बातों में आकर उन्हीं की भाषा बोलने लगे । श्री सुरेंद्र नाथ बनर्जी द्वारा लिखी पुस्तक ‘A Nation in Making’ का शीर्षक भी इसी बात की और इशारा करता है।  अग्रेजों ने उस समय एक और नैरेटिव स्थापित करने का प्रयास किया और उसमें भी उन्हें सफ़लता मिली की जैसे मुसलमान व वे बाहर से आये हैं वैसे ही आर्य भी  बाहर से आये हैं और वही अब हिंदू के नाम से जाने जाते है।  समय -समय पर देश हित को पीछे छोड़ मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति ने भी विभाजन की बात को ओर हवा देने का काम किया। तुष्टीकरण के नाम पर भारत के मान बिंदुओं से समझौता किया गया।  फिर चाहे वो करोड़ों देशवासियों में देशभक्ति के भाव को बढ़ाने वाला गीत ‘वंदे मातरम’ के विरोध की बात हो, राष्ट्रीय ध्वज के रुप में भगवा रंग व चरखे को न मानने की बात हो, राष्ट्रीय जनसम्पर्क की भाषा के रुप में हिंदी को न स्वीकार करने की बात हो, गोहत्या बंदी की मांग का विरोध हो  या फिर  अनेक महापुरुषों का महत्व कम किये जाने की बात हो । इन मानबिन्दुओं पर होते आघात के कारण हिन्दुओं की आस्था के केंद्र बिंदु कम होते चले गए व मुस्लिम समाज में भी अलगाव बढ़ता गया । विदेशी आक्रांताओं ने समय – समय पर भारत पर हमले कर हमें पराधीन करने का प्रयास किया । हम पराधीन भी हुए, लेकिन कभी भी हमने पराधीनता स्वीकार नहीं की।  हम उसके खिलाफ़ संघर्ष करते रहे।  परंतु 1947 में हमारे अपने ही राजनैतिक नेतृत्व ने विभाजन को स्वीकार कर लिया ।  यह देशवासियों के लिए सबसे दुखद था ।  अंग्रेज जो स्वतंत्रता हमें जून 1948 तक देने वाले थे।  वह 15 अगस्त 1947 को दी जाएगी, ऐसी घोषणा उनके द्वारा 3 जून 1947 को ही कर दी गयी ।  ताकि कांग्रेस व मुस्लिम लीग को पुन: सोचने का मौका न मिल सके और देश में इसके प्रतिरोध में भी वातावरण न बन सके। 

भारत का विभाजन स्थायी नहीं: आज हम सबके सामने प्रश्न यह है कि हम केवल पुरानी बातों का रोना न रोते हुए, आज हम अखंड भारत के लिए क्या कर सकते है यह सोचना होगा।  यह हमारा व आने वाली पीढ़ियों का दायित्व है कि हम इस अखंड भारत के स्वप्न को पूरा करेंगे।  यही दृढ संकल्प हमारे आगे के रास्ते को प्रशस्त करेगा । यह कार्य हम ही प्रारंभ करेंगे ऐसा नहीं है , हमारे पूर्वजों ने भी इस कार्य को जारी रखा । इसी कारण आज हम इस अखंड भारत के विषय में अपनी भूमिका के बारे में  सोच पा आ रहे है । प्रसिद्ध विद्वानों के निष्कर्षों तथा कथनों से भी ध्यान में आता है कि भारत का विभाजन स्थायी नहीं है । जनरल करियप्पा ने कहा है कि भारत फिर से संगठित (एक) होगा । महर्षि अरविन्द के शब्दों में हम स्थाई विभाजन के निर्णय को स्वीकार नहीं करते । महात्मा गांधी के अनुसार दोनों की सांस्कृतिक एकता तथा दोनों में लचीलापन ही दोनों को एक बनाने का प्रयत्न करेगा । प्रसिद्ध लेखक-वान वाल्बोनवर्ग ने भी कहा था कि  भौगोलिक दृष्टि से भारत और पाकिस्तान का विभाजन इतना तर्कहीन है कि आश्चर्य होता है कि यह कितने समय तक चल सकेगा?

भारत की अखंडता का आधार भूगोल से ज्यादा सांस्कृतिक है । अखंड भारत कब होगा यह कहना कठिन है। लेकिन भारत फिर से अखंड होगा ही यह तय है , क्योंकि यही भारत की नियति भी है। और हम सब तो सौभाग्यशाली हैं क्योंकि हमने अपनी आँखों से पिछले कुछ समय में बहुत सी असंभव लगने वाली बातों को संभव होते हुए देखा है। फिर चाहे वो श्रीराम मंदिर निर्माण का विषय हो, धारा 370 की समाप्ति या फिर तीन तलाक का मामला । हम ‘याचि देही, याचि डोला’ (यानी इन्हीं आँखों से व इसी शरीर से) को मानने वाले लोग है । अखंड भारत की आकांक्षा के साथ साथ हमें अपने लिए कुछ करने वाली बातें भी तय करनी होगी । हमें समाज की कमियों को पहचान कर उसको दूर करने के लिए तत्पर रहना होगा। अपने आप को संगठित रखना होगा। अपने सिद्दांतों को व्यवहार में उतारना व जीवन में उसका प्रकटीकरण दिखे इस और प्रयासरत रहना होगा। देशहित के बारे में सोचने वाले बंधुओं को व समाज की सज्जन शक्ति को साथ लेकर चलना होगा । इन सब करणीय बातों का ध्यान रखते हुए नित्यप्रति अखंड  भारत का स्वप्न अपनी आँखों में रखना । मैं अपने इसी जीवन में अखंड भारत को साकार होते हुए देखूंगा, यही प्रबल इच्छाशक्ति हमारे आगे के मार्ग को भी तय करेगी और हम अखंड भारत को साकार होते हुए देखेंगे। ऐसे में जब पूरा देश आज़ादी के 75 वर्ष पूर्ण होने पर ‘आज़ादी अमृत महोत्सव’ मना रहा है। तो हमारी भूमिका व कर्त्तव्य और अधिक बढ़ जाता है कि हम आज़ादी के इस भाव को अक्षुण्ण रखते हुए, अखंड भारत के स्वप्न को साकार करने के लिए अपनी जिम्मेदारीयों को भी तय करें। 

आरक्षणः एक तीर, कई निशाने

 संदर्भः संविधान में आरक्षण को लेकर 127वां संशोधन

प्रमोद भार्गव

आजादी के 74 साल के इतिहास में आरक्षण से ज्यादा किसी अन्य मुद्दे ने देश की राजनीति को प्रभावित नहीं किया। आरक्षण का सबसे अधिक लाभ उठाने वाला पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) सभी राजनीतिक दलों की आंखों का तारा रहा है। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद अनेक क्षेत्रीय दल इसी के बूते उभरे और प्रदेश की राजनीति में छा गए। अबतक इसका सबसे ज्यादा लाभ यादव, कुर्मी, धाकड़, कुशवाह और जाट जाति के समुदायों ने उठाया है। लेकिन अब संविधान में 127वां संशोधन होने के बाद इसमें सेंध लगने जा रही है। संसद में चल रहे हंगामे के बीच केंद्र सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 342-ए, 338-बी और 366 में संशोधन विधेयक पेश कर लोकसभा से पारित करा लिया। मजे की बात यह रही कि पेगासस जासूसी और किसान आंदोलन जैसे मुद्दों पर नरेंद्र मोदी सरकार को नाकों चने चबाने की कोशिश में लगा संपूर्ण विपक्ष इस संशोधन के पक्ष में रहा।

दरअसल सर्वोच्च न्यायालय ने इसी साल पांच मई को मराठा आरक्षण संबंधी फैसले को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि आरक्षण के दायरे में जातियों को जोड़ने-घटाने का अधिकार केंद्र के पास है। चूंकि महाराष्ट्र में मराठा आराक्षण का मुद्दा लंबे समय से चला आ रहा है और केंद्र में सत्ताधारी दल भाजपा महाराष्ट्र की सत्ता से बाहर है, इसलिए उसे महाराष्ट्र में अपनी जड़े फिर से मजबूती के लिए मराठों को खुश करना जरूरी था। लिहाजा केंद्र सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर असहमति जताई थी। बावजूद भाजपा को विपक्षी दलों की अलोचना झेलनी पड़ी थी कि ‘केंद्र ने संघवाद का गला घोंटकर आरक्षण पर फैसले लेने का अधिकार राज्यों से छीन लिया है।’ दरअसल केंद्र सरकार ने ओबीसी की विभिन्न वंचित जातियों मेंं पैठ बनाने की दृष्टि से केंद्रीय कैबिनेट के जरिए ओबीसी की केंद्रीय सूची के वर्गीकरण के लिए आयोग बनाने के फैसले को मंजूरी दे दी थी। यानी इस वर्ग में भी पिछड़ेपन की सीमा को देखते हुए उन्हें आरक्षण को हक दिया जाएगा। एक तरह से यह कोटे के अंदर नया कोटा प्रबंध कर देने का प्रावधान था। महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पाटीदार, राजस्थान में गुर्जर, हरियाणा में जाट, कर्नाटक में लिंगायत, आंध्र-प्रदेश में कापू के साथ-साथ उत्तर-प्रदेश और बिहार में भी कई जातियां खुद को आर्थिक और श्ौक्षिक आधार पर कमजोर मानते हुए पिछड़ा वर्ग की सूची में शामिल करने और आरक्षण का लाभ देने की मांग कर रही हैं। गोया, इस पचड़े में पड़ने की बजाय केंद्र ने पिछड़े वर्ग की नई जातियों की पहचान कर सूची में शामिल करने का राज्यों का अधिकार संशोधन विधेयक लाकर बहाल कर दिया। केंद्र को यह फैसला इसलिए भी लेना पड़ा, क्योंकि उत्तर-प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए जातीय गोलबंदी शुरू हो चुकी है। इसी बीच बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार और विपक्षी दल राष्ट्रीय जनता दल ने जातीय जनगणना की मांग तेज कर दी। इन सब मांगों के मद्देनजर केंद्र ने इस संशोधन के मार्फत गेंद राज्यों के पाले में डालकर क्षेत्रीय दलों को जातियों के मकड़जाल में उलझाने का काम किया है। 

ओबीसी के अंदर केंद्रीय सूची में शामिल जातियों को क्या उनकी संख्या के अनुरूप सही अनुपात में राज्य आरक्षण का कितना लाभ  दे पाएंगे यह अब उन्हें ही तय करना है। ध्यान रहे कि पिछड़ा वर्ग आयोग ने तीन वर्गो में वर्गीकरण का सुझाव दिया था। एक वर्ग जो पिछड़ा है। दूसरा वर्ग जो ज्यादा पिछड़ा है और तीसरा जो अति पिछड़ा है। यह फैसला भले ही सामाजिक समानता के मुद्दे से जुड़ा है, लेकिन इसका राजनीतिक फलक काफी बड़ा है। बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में जो प्रभावी ओबीसी वर्ग है, वह आरक्षण के 27 फीसद कोटे के अधिकांश हिस्से पर काबिज हैं। ओबीसी में जातियों की उप-वर्ग के लिए आयोग बनाने की सिफारिश राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग ने साल 2011 में पहली बार की थी। आयोग की सिफारिश थी कि ओबीसी को तीन उप-वर्ग में बांटा जाएं। इससे पहले 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस संबंध में व्यवस्था दी थी। साल 2012, 2013 व 2014 में संसदीय समितियों ने भी इसकी सिफारिश की थी। उप-वर्ग बनाने का मकसद ओबीसी में सभी वर्गों को बराबर लाभ का मौका देना है। अक्सर आरोप लगते हैं कि पिछड़ी जातियों में से आर्थिक तौर पर मजबूत कुछ वर्ग ही फायदा उठा रहे हैं। उनके अलावा ज्यादातर पिछड़ी जातियों को फायदा नहीं मिल रहा है। उप-वर्ग बनने पर विशेष जातियों के लिए आरक्षण का बंटवारा हो जाएगा। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी एवं अन्य बनाम भारत सरकार मामले में 16 नवंबर 1992 को अपने आदेश में व्यवस्था दी थी कि पिछड़े वर्गों को पिछड़ा या अतिपिछड़ा के रूप में श्रेणीबद्ध करने में कोई संवैधानिक या कानूनी बाधा नहीं है। लिहाजा कोई राज्य सरकार ऐसा करना चाहती है तो वह कर सकती है। इस परिप्रेक्ष्य में ओबीसी आयोग की सिफारिश पर 11 राज्य पहले ही अपनी ओबीसी सूची में उप-वर्ग बना चुके हैं। इन राज्यों में आंध्र प्रदेश, तेलगांना, पुड्डुचेरी, कर्नाटक, हरियाणा, झारखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडू और जम्मू-कश्मीर शामिल है। इसे नए संशोधन का महत्वपूर्ण पहलू है कि अब पिछड़ा वर्ग सूची में किसी नई जाति को जोड़ने या हटाने का अधिकार राज्य सरकारों के पास रहेगा।

संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक और श्ौक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने को कहा गया है। इसमें शर्त है कि यह साबित किया जाए कि दूसरों के मुकाबले इन दोनों पैमानों पर पिछड़े हैं, क्योंकि बीते वक्त में उनके साथ अन्याय हुआ है, यह मानते हुए उसकी भरपाई के तौर पर आरक्षण दिया जा सकता है। राज्य का पिछड़ा वर्ग आयोग राज्य में रहने वाले अलग-अलग वर्गो की सामाजिक स्थिति का ब्योरा रखता है। वह इसी आधार पर अपनी सिफारिशें देता है। अगर मामला पूरे देश का है तो राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग अपनी सिफारिशें देता है। देश में कुछ जातियों को किसी राज्य में आरक्षण मिला है तो किसी दूसरे राज्य में नही मिला है। मंडल आयोग मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी साफ कर दिया था कि अलग-अलग राज्यों में हालात अलग-अलग हो सकते हैं।

        वैसे तो आरक्षण की मांग जिन प्रांतों में भी उठी है, उन राज्यों की सरकारों ने खूब सियासी खेल खेला है, लेकिन हरियाणा मे यह खेल कुछ ज्यादा ही खेला गया है। जाट आरक्षण के लिए मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर सरकार ने बीसी (पिछड़ा वर्गद्ध सी नाम से एक नई श्रेणी बनाई थी, ताकि पहले से अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल आरक्षण का लाभ प्राप्त कर रहीं जातियां अपने अवसर कम होने की आशंका से खफा न हों। साथ ही बीसी-ए और बीसीबी-श्रेणी में आरक्षण का प्रतिशत भी बढ़ा दिया था। जाटों के साथ जट सिख, बिशनोई, त्यागी, रोड, मुस्लिम जाट व मुल्ला जाट बीसी-सी श्रेणी में मिलने वाले 10 प्रतिशत आरक्षण से लाभान्वित हो गए थे। इस विधेयक में यह दृष्टि साफ झलक रही थी, कि जाट आंदोलन से झुलसी सरकार ने यह हर संभव कोशिश की है कि राज्य में सामाजिक समीकरण सधे रहें। लेकिन उच्च न्यायालय ने इन प्रावधानों को खारिज कर दिया था।

     आरक्षण के इस सियासी खेल में अगली कड़ी के रूप में महाराष्ट्र आगे आया। यहां मराठों को 16 फीसदी और मुस्लिमों को 5 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान विधानसभा चुनाव के ठीक पहले कर दिया गया था। यहां इस समय कांग्रेस और राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी की सरकार थी। सरकार ने सरकारी नौकरियों,शिक्षा और अद्र्ध सरकारी नौकरियों में आरक्षण सुनिश्चित किया था। महाराष्ट्र में इस कानून के लागू होने के बाद आरक्षण का प्रतिशत 52 से बढ़कर 73 हो गया था। यह व्यवस्था संविधान की उस बुनियादी अवधारणा के विरुद्ध थी,जिसके मुताबिक आरक्षण की सुविधा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। बाद में मुंबई उच्च न्यायलय ने इस आदेश पर स्थगन दिया और फिर 5 मई 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया। इस फैसले के बाद ही केंद्र सरकार ने राज्यों को ओबीसी की सूची में नई जातियां शामिल करने का अधिकार दिया है।

     इस कड़ी में राजस्थान सरकार ने सभी संवैधानिक प्रावधानों एवं सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों को दरकिनार करते हुए सरकारी नौकरियों में गुर्जर,बंजारा,गाड़िया लुहार,रेबारियों को 5 प्रतिशत और सवर्णों में आर्थिक रूप से पिछड़ों को 14 प्रतिशत आरक्षण देने का विधेयक 2015 में पारित किया था। इस प्रावधान पर राजस्थान उच्च न्यायालय ने स्थगन दे दिया था। यदि आरक्षण के इस प्रावधान को लागू कर दिया जाता तो राजस्थान में आरक्षण का आंकड़ा बढ़कर 68 फीसदी हो जाता, जो न्यायालय द्वारा निर्धारित की गई 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लघंन है। साफ है, राजस्थान उच्च न्यायालय इसी तरह के 2009 और 2013 में वर्तमान कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार द्वारा किए गए ऐसे ही कानूनी प्रावधानों को असंवैधानिक ठहरा चुकी है। लेकिन अब पिछड़ा वर्ग में उप-वर्ग बनाए जाने का मार्ग राज्य ही खोल सकते हैं।

     उत्तर-प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने 127वें संविधान संशोधन के तत्काल बाद राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के बैठक की और जिन 79 जातियों को पिछड़ा वर्ग में जोड़ने की प्रक्रिया चल रही थी, उस सूची में 39 जातियां और जोड़ दीं। उत्तर-प्रदेश में ओबीसी के 27 फीसदी आरक्षण को तीन हिस्सों में विभाजित किया जाएगा। इसके तहत यादव, अहीर, जाट, कुर्मी, सोनार और चैरसिया को पिछड़ा वर्ग में रखा जाएगा। अति पिछड़ा वर्ग में गिरी, गुर्जर, गोसाईं, लोद, कुशवाहा, कुम्हार, माली और लुहार समेत कुछ अन्य जातियों को 11 प्रतिशत आरक्षण का लाभ मिलेगा। अत्यंत पिछड़ा वर्ग में गड़रिया, मल्लाह, केवट, निषाद, राई, गद्दी, घोषी राजभर जातियों को शामिल कर 9 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा। इस तरकीब से भाजपा का वोट-बैक मजबूत होगा और समाजवादी पार्टी सिर्फ यादवों में सिमटकर रह जाएगी, यानी बड़े स्तर पर वोट की दृष्टि से राजनीतिक लाभ से वंचित हो जाएगी। उत्तर-प्रदेश की कुल आबादी में ओबीसी की जनसंख्या 54 प्रतिशत मानी जाति है। 

                                                          प्रमोद भार्गव

बढ़ती गर्मी से हो रहा है जलवायु परिवर्तन

संदर्भः 60 देशों के 200 वैज्ञानिकों द्वारातैयार की गई रिपोर्ट-

प्रमोद भार्गव

     दुनिया के कई देश पिछले कुछ महीनों से भीषण गर्मी, सूखा, आग, तूफान, बर्फबारी, बाढ़ और बादल फटने व बिजली गिरने की घटनाओं से दो-चार हो रहे हैं। हजारों लोगों की मौतें हो चुकी हैं और करोड़ों की संपत्ति का नाश हुआ है। इसके लिए धरती के बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन को संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट ने जिम्मेबार ठहराया है। 60 देशों के 200 वैज्ञानिकों ने यह रिपोर्ट तैयार की है। इस रिपोर्ट में दावा किया है कि अगले 20 साल में धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। वैज्ञानिकों ने पहले अंदाज लगाया था कि यह तापमान 2050 तक बढ़ेगा लेकिन अब यह दस साल पहले मसलन 2040 तक ही बढ़ जाएगा। तेज गर्म हवाओं के चलते 50 साल में बढ़ने वाला तापमान अब हर दस साल में बढ़ रहा हैं। संयुक्त राष्ट्र के अंतर सरकारी जलवायु परिवर्तन पैनल की इस रिपोर्ट को दुनिया की अब तक की सबसे बड़ी रिपोर्ट कहा जा रहा है।

     भीषण बारिश के बावजूद भारत के कई इलाकों में इस समय भीषण गर्मी हैं। उत्तराखंड के किन्नौर में भू-स्खलन से एक बस व दो कारें मलबे में दब गई हैं। ग्रीस पिछले 30 साल में सबसे भीषण आग का सामना कर रहा है। यहां आग से हजारों एकड़ जंगल खाक हो चुके हैं। यही हाल तुर्की का है। कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया और अमेरिका के वाशिंगटन व ओरेगन में तेज गर्मी के चलते सैकड़ों लोग मर चुके हैं। कोलंबिया में 49 डिग्री से ऊपर पहुंचे पारे ने 486 लोगों को निगल लिया। यहां के जंगल अचानक जल उठे नतीजतन 1000 से ज्यादा लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया है। गर्मी से राहत देने के लिए सड़कों पर फव्वारे चलाए जा रहे हैं। इस ऐतिहासिक गर्मी ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए है। ऐसा माना जा रहा है कि 10 हजार साल में एक बार चलने वाली गर्म हवाओं के कारण यह स्थिति यूरोपीय देशों में बनी है। इसके उलट न्यूजीलैंड में सर्दी ने 55 साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया है, जो बर्फबारी अक्टूबर में होती है, वह मध्य और दक्षिणी न्यूजीलैंड में आजकल हो रही है। यहां बर्फीला तूफान आया हुआ है। इस कारण बर्फ से सड़के और हवाई अड्डे पट गए हैं। इस समय न्यूजीलैंड का तापमान 11 से 15 डिग्री रहता है, जो घटकर एक से चार डिग्री नीचे चला गया है। आर्कटिक की ओर से आ रहीं बर्फीली हवाओं ने समुद्र की लहरों में 12 मीटर की ऊंचाई तक ज्वार ला दिया है। ओलावृष्टि के साथ भयंकर बारिश भी हो रही है। वैज्ञानिक यह मानकर चल रहे हैं कि अंटाकर्टिका महासागर में जो विशाल हिमखंड टूटा है, वह भी यहां के तापमान में परिवर्तन का कारण हो सकता है, क्योंकि यहां के उत्तरी धु्रव पर हमेशा माइनस 80 डिग्री तापमान रहता है। ज्यादातर समय ठंडे रहने वाले साइबेरिया के कई इलाकों में लू चल रही है, इन बदलावों को जलवायु परिवर्तन की वजह भी माना जा रहा है। अमेरिका में चल रही गर्म हवाओं की मुख्य वजह प्रशांत महासागर क्षेत्र के पूर्व और पश्चिम के बीच तापमान में आया बड़ा अंतर माना जा रहा है। इस तरह की ढलान (गे्रडिएंट) बनाने वाले पानी की गति ग्लोबल वार्मिंग के कारण बदल जाती है। अमेरिका के नेशनल ओशिनक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन ने यह दावा किया है कि यदि किसी क्षेत्र में तीन दिन तक तापमान ऐतिहासिक औसत से ज्यादा हो जाता है तो लू के संकेत हैं।

पोट्सडैम जलवायु प्रभाव शोध संस्थान के वैज्ञानिक-प्राध्यापक एंडर्स लीवरमैन ने धरती के बढ़ते तापमान की वजह से भारत में बारिश पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन किया है। एंडर्स के मुताबिक जितनी बार धरती का पारा वैश्विक तापमान के चलते एक डिग्री सेल्सियस ऊपर चढ़ेगा, उतनी ही बार भारत में मानसूनी बारिश 5 प्रतिशत अधिक होगी। मानसूनी बारिश का वास्तविक अंदाजा लगाना भी कठिन हो जाएगा। यह अध्ययन ‘अर्थ सिस्टम डायनेमिक्स’ जर्नल में छपा है। भारत में आमतौर पर बारिश का सीजन जून के महीने से शुरू होता है और सितंबर के अंत तक चलता है। एंडर्स का कहना है कि इस सदी के अंत तक साल दर साल वैश्विक तापमान की वजह से तापमान बढ़ेगा। नतीजतन भारत में मानसूनी बारिश तबाही मचाएगी। इससे ज्यादा बाढ़ आएगी, जिससे लाखों एकड़ में फैली फसलें खराब होंगी। अगस्त के पहले सप्ताह में हम देख चुके हैं कि मध्य-प्रदेश का ग्वालिया चंबन अंचल जबरदस्त बाढ़ की चपेट में रहा। यह इस पीढ़ी का जलवायु परिवर्तन का नमूना है, जो भारत की मानसूनी बारिश के अगले चार सालों का अनुमान लगाता है। यह अनुमान वैश्विक तापमान के बढ़ते क्रम के आधार पर लगाया जाता है। पेरिस जलवायु समझौते के अनुबंध के तहत अधिकतम तापमान दो डिग्री सेल्सियस को तय मानक माना जाता है। इसी नमूने से दुनिया के अलग-अलग देशों में मानसूनी या तूफानी बारिश की गणना की जाती है। इस अध्ययन के अनुसार पिछले जलवायु नमूना की तुलना इस मॉडल से करें तो भारत में मौसमी बारिश ज्यादा शक्तिशाली व अनियमित होने जा रही है।

     इस अध्ययन के अलावा संयुक्त राष्ट्र द्वारा 2020 में किए गए एक अध्ययन से भी स्पष्ट हुआ था कि जलवायु परिवर्तन और पानी का अटूट संबंध है। इस रिपोर्ट के मुताबिक दक्षिण एशिया को 2030 तक बाढ़ों की कीमत प्रत्येक वर्ष चुकानी पड़ेगी। इनसे करीब सालाना 15.6 लाख करोड़ की हानि उठानी पड़ सकती है। साफ है, वैश्विक तापमान के बढ़ते खतरे ने आम आदमी के दरवाजे पर दस्तक दे दी है। दुनिया में कहीं भी एकाएक बारिश, बाढ़, बर्फबारी, फिर सूखे का कहर यही संकेत दे रहे हैं। आंधी, तूफान और फिर यकायक ज्वालामुखियों के फटने की हैरतअंगेज घटनाएं भी यही संकेत दे रही हैं कि अदृश्य खतरे इर्दगिर्द ही कहीं मंडरा रहे हैं। समुद्र और अंटाकर्टिका जैसे बर्फीले क्षेत्र भी इस बदलाव के संकट से दो-चार हो रहे हैं। दरअसल वायुमंडल में अतिरिक्त कार्बन डाइआॅक्साइड महासागरों में भी अवशोषित होकर गहरे समुद्र में बैठ जाती है। यह वर्षों तक जमा रहती है। पिछली दो शताब्दियों में 525 अरब टन कचरा महासागरों में विलय हुआ है। इसके इतर मानवजन्य गतिविधियों से उत्सर्जित कार्बनडाइआॅक्साइड का 50 फीसदी भाग भी समुद्र की गहराइयों में समा गया है। इस अतिरिक्त कार्बनडाइआॅक्साइड के जमा होने के कारण अंटार्कटिका के चारों ओर फैले दक्षिण महासागर में इस कॉर्बन डाइआॅक्साइड को सोखने की क्षमता निरंतर कम हो रही है। इस स्थिति का निर्माण खतरनाक है। ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वेक्षण के मुताबिक वैज्ञानिकों का कहना है कि दक्षिण महासागर में कार्बन डाइआॅक्साइड से लबालब हो गया है। नतीजतन अब यह समुद्र इसे अवशोषित करने की बजाय वायुमंडल में ही उगलने लग गया है। अगर इसे जल्दी नियंत्रित नहीं किया गया तो वायुमंडल का तापमान तेजी से बढेगा, जो न केवल मानव प्रजाति, बल्कि सभी प्रकार के जीव-जंतुओं के अस्तित्व के लिए खतरनाक होगा।

     हिमालय पर कई वर्षों से अध्ययन कर रहे ‘वाडिया भू-विज्ञान संस्थान’ की रिर्पोट के अनुसार हिमालय के हिमखंडों में काले कार्बन की मात्रा लगातार बढ़ रही है। यह मात्रा सामान्य से ढाई गुना बढ़कर 1899 नैनोग्राम हो गई है। दरअसल काले कार्बन से तापमान में वृद्धि होती है। यह सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करने में अत्यंत प्रभावी है। इससे हिमालय और आर्कटिक जैसे हिमखंडों में बर्फ पिघलने लगती है। बीती बरसात में औसत से कम बारिश होने के कारण बर्फ पिघलने की मात्रा और अधिक बढ़ गई है। वायु प्रदूषण से भी हिमखंड दूषित कार्बन की चपेट में आए हैं। उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र ने निष्कर्ष निकाला है कि पिछले 37 सालों में हिमाच्छादित क्षेत्रफल में 26 वर्ग किलोमीटर की कमी आई है। इस क्षेत्र में पहले स्थाई स्नोलाईन 5700 मीटर थी, जो अब 5200 मीटर के बीच घट-बढ़ रही है। यही बजय है कि नंदादेवी जैव-मंडल (बायोस्फियर) आरक्षित ऋषि गंगा के दायरे का कुल 243 वर्ग किमी क्षेत्र बर्फ से ढका था, लेकिन यह 2020 में 217 वर्ग किमी ही रह गया है। साफ है, तापमान बढ़ने का सिलसिला बना रहा और यदि बर्फ इसी तरह पिघलती रही तो जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के संकट में आने का सिलसिला भी बना रहेगा।

     ‘बढ़ते तापमान को लेकर एक नई आशंका यह भी जताई जा रही है कि इससे दुनिया में कीड़े-मकोड़े और जीवाणु-विषाणु की संख्या अत्याधिक मात्रा में बढ़ेगी। कीड़ों के जीवन-चक्र पर बहुत ज्यादा वैज्ञानिक शोध नहीं हुए हैं। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि 10 मिलीग्राम से कम वजन के कीड़े वैज्ञानिकों की रडार प्रणाली में नहीं आते हैं। इस सच्चाई को जानने के लिए दक्षिण इंग्लैंड में एक रडार लगाया गया था। दरअसल वैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि इसी स्थल से यूरोप और अफ्रीका के लिए 35 अरब कीड़े प्रवास यात्रा पर निकलते हैं। इस रडार से 70,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में कीड़ों के स्थान परिवर्तन का पता चला है। कीटों पर हालांकि अभी तक व्यापक स्तर पर शोध नहीं हुए हैं। परंतु जितने भी हुए हैं, उस आधार पर सबसे अधिक आबादी धरती पर कीड़ों की ही है। जिस तेजी से ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है, उसमें निश्चित रूप से कीड़ों की संख्या और तेजी से बढ़ेगी, क्योंकि गर्म वातावरण में कीड़े तेजी से बढ़ते हैं। कीड़ों के प्रवास के लिए प्राकृतिक चयन के सिद्धांत को जिम्मेवार माना जा रहा है। लुंड विश्व-विद्यालय की सुसैन एकीसन के अनुसार, प्रवास के पीछे मुख्य रूप से अनुवांशिक और आहार प्रणाली जिम्मेवार होते हैं। चीन से निकला कोरोना विषाणु कोविड-19 भी दूषित आहार प्रणाली का कारक माना जा रहा है। चमगादड़ या पेंगोलिन को चीनियों द्वारा आहार बनाए जाने के कारण यह पहले चीनियों और फिर हवाई व जहाजी यात्राओं के जरिए दुनिया में फैल गया। वैज्ञानिकों का दावा है कि यदि वैश्विक तापमान बढ़ता है तो उसी अनुपात में इनकी संख्या में बढ़ोतरी होना तय है। क्योंकि गर्भ वातावरण इनके पनपने में अनुकूल रहता है। इसलिए यदि तापमान बढ़ने का सिलसिला निरंतर बना रहता है तो यह दुनियाभर के परिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर मानव समुदायों के लिए अत्यंत हानिकारक साबित होगा। साफ है, धरती, पानी और हवा का जिस तरह से हम क्रूरता के साथ दोहन कर रहे हैं, उसके चलते प्रकृति गुस्से में है। यह कोई एक दिन में नहीं हुआ बल्कि बीते पचास सालों में हुआ है। इसका साक्ष्य यह है कि दुनिया के सभी विकसित और विकासशील देश जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंतित तो है, लेकिन समझौते की शर्तों को पालन करने के लिए तैयार नहीं हैं। इसीलिए प्राकृतिक आपदाओं की आवृति बढ़ने के साथ भयावह हो रही है।

आज़ादी का जश्न मनाएं ।।

आज़ादी का जश्न मनायें, आओ झूमे गाएं ।
दी है जान वतन पर जिसने, उनको नहीं भुलाएं।।

वीरों ने जो सपने देखें, पूरा कर दिखलाया
और विदेशी गोरों को भारत से मार भगाया
याद उन्हें कर अपना तिरंगा, नभ में हम फहराएं
आज़ादी का जश्न मनायें, आओ झूमे गाएं ।।

जूझे थे जो भूख, विवशता, और जूझे कंगाली से
गोरों से तो जूझते रहते बेकारी बेहाली से
सोच सोच कर उनके समय को, आंखें नम हो जाएं
आज़ादी का जश्न मनायें, आओ झूमे गाएं ।।

कमर कसी आज़ादी लेंगे, या फिर सिर कटवायेंगे
वीरों ने खायी थी कसम , गोरों को मार भगायेंगे
अपनी हक़ की खातिर लड़ना वीर हमें सिखलाएं
आज़ादी का जश्न मनायें, आओ झूमे गाएं ।।

तब तो ना था जातिवाद ना धर्मवाद का झमेला
चाह रहे सब दास मुक्त हो आज़ादी का मेला
अखण्डता का ज्ञान दिया और सबको एक बनाएं
आज़ादी का जश्न मनायें, आओ झूमे गाएं ।।

देख तिरंगा लहराता हमें नाज़ देश पर होता है
सोचो आज़ादी पाने को एक वीर क्या खोता है
हमको जीवित रखने को खुद अपने प्राण गंवाए
आज़ादी का जश्न मनायें, आओ झूमे गाएं ।।

धरती ये अशफाक की है, विश्मिल सुभाष भी बेटे हैं
हो शहीद आज़ाद, भगत, मां के आंचल में लेटे हैं
कुर्बानी का सबक हमारे पूर्वजों ने सिखलाएं
आज़ादी का जश्न मनायें, आओ झूमे गाएं ।।

अंग्रेजों से बदतर लोग हैं, जिन्होनें हमको बांटा है
जातिवाद और धर्मवाद की तलवारों से काटा है
बनकर नेक एक बनकर अपनी पहचान बनाएं
आज़ादी का जश्न मनायें, आओ झूमे गाएं ।।

बुद्धि हमारी भरमायी और आपस में लड़वाया है
अपने आपसी द्वन्द्व, द्वेष का लाभ उन्होंने पाया है
द्वन्द्व द्वेष को त्याग एकता मार्ग को हम अपनाएं
आज़ादी का जश्न मनायें, आओ झूमे गाएं ।।

जातपात और ऊंच नीच के भाव को हमें मिटाना है
हर भारतवासी को अखण्डता का पाठ सिखाना है
वीर शहीदों की कुर्बानी हम न व्यर्थ गंवाएं
आज़ादी का जश्न मनायें, आओ झूमे गाएं ।।

खुद साधन सम्पन्न हों हम ना बने किसी पर भार
अपनी शक्ति का लोहा माने, ये पूरा संसार
भारत विश्वगुरू है अब फिर से ‘एहसास’ कराएं
आज़ादी का जश्न मनायें, आओ झूमे गाएं ।
दी है जान वतन पर जिसने उनको नहीं भुलाएं।।

              - अजय एहसास

भारत विभाजन की त्रासदी अनछुए पहलू

14  अगस्त विशेष*
(डॉ राघवेंद्र शर्मा)

कहते हैं आगे बढ़ने के प्रयासों के दौरान पड़ने वाले आराम दायक पड़ावों को मंजिल मान लिया जाए, तो फिर प्रगति के रास्ते अवरुद्ध हो जाते हैं। यही बात भारत की खंड खंड आजादी को संपूर्ण आजादी मान लिए जाने पर लागू होती है। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि हम मानसिक रूप से वर्तमान भारत को ही अखंड भारत समझने की भूल करने लगे हैं। जबकि यह सच नहीं है। अखंड भारत का विहंगम स्वरूप इतना व्यापक था, कि उस का नक्शा एक बार देख भर लेने से शत्रुओं के दिल दहल जाया करते थे। पहले राजे रजवाड़ों की फूट, फिर मुगलों के अत्याचार और अंत में अंग्रेजों के शासन तथा कांग्रेस की अक्षम्य भूलों ने भारतीय समाज को इस अवस्था में पहुंचा दिया कि वह वर्तमान भारत को ही अखंड भारत मानने हेतु विवश है। बेशक यह जानकार अधिकांश लोगों को आश्चर्य होगा कि मैंने अखंड से खंड खंड हुए भारत के विषय मैं कांग्रेस का नाम क्यों लिया। तो इसका जवाब केवल इतना सा है कि वर्ष 1947 आते-आते कांग्रेस और उसके वयोवृद्ध होते जा रहे नेताओं में वह दमखम शेष रह ही नहीं गया था कि वह अंग्रेज़ों से भारत की अखंड आजादी के लिए और अधिक संघर्ष कर पाते। यही वजह रही कि उसके नेताओं ने शारीरिक और मानसिक थकावट का शिकार होकर जैसे मिले, जिस हाल में मिले, बस मिल जाए, इस विचार के साथ विखंडित आजादी को सहज भाव से स्वीकार कर लिया। इस बेचारगी के पीछे दूसरा कारण यह पाया जाता है कि तब जितने भी वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता शेष बचे  थे, उनमें से अधिकांश तो स्वतंत्रता संग्राम के एवज में अब केवल सत्ता का ऐश्वर्य वैभव पाना चाह रहे थे। जबकि 1947 के आते-आते हालात इतने कठिन नहीं थे कि हमें अंग्रेजों के सामने आजादी के लिए गिड़गिड़ाना आवश्यक था। वर्ष 1944 तक नेताजी सुभाष चंद्र बोस ब्रिटिश शासन की चूलें हिला चुके थे। उन्होंने भारतीय आजाद सरकार की स्थापना कर कम से कम 9 देशों से स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत के पक्ष में मान्यता भी प्राप्त कर ली थी। यही नहीं, उन्होंने अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए अनेक देशों को आजाद हिंद सेना के साथ खड़ा कर लिया था। इसी के साथ नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज ने खूनी संघर्ष के माध्यम से अनेक प्रांत ब्रिटिश सरकार से छीन लिए थे। इस बीच जब नेताजी की मृत्यु का समाचार फैला, तो अंग्रेजों को अनुमान था कि उनके सैनिक और खून के बदले खून की तर्ज पर लोहा ले रहे क्रांतिकारी हताश होकर घर बैठ जाएंगे। लेकिन नेताजी की मौत ने युवाओं को इतना विचलित किया कि भारतीय सैनिकों ने फिरंगी शासकों के खिलाफ विद्रोह शुरू कर दिया। वर्ष 1946 के आते-आते यह विद्रोह इतना बढ़ा कि मुंबई के समुद्री तट पर स्थापित नौसेना ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ हथियार उठा लिए। लगभग 2.5 मिलियन वे भारतीय सैनिक भी खिलाफत पर उतारू हो गए, जो विश्व युद्ध के दौरान अपनी बहादुरी का परिचय अंग्रेजों को पहले ही दे चुके थे। स्वयं ब्रिटिश अधिकारी स्वीकार कर चुके हैं कि नेताजी की मृत्यु के बाद ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जो माहौल बना वह भयावह था। सूचनाएं मिल रही थीं की विद्रोह के बाद व्यापक पैमाने पर खूनी संघर्ष तय था। यह भी पता चल चुका था कि यदि मिल रहीं सूचनाएं सच साबित हुईं तो एक भी अंग्रेज भारत से जिंदा नहीं लौटने वाला था। लेकिन पराजित होकर लंदन लौटना ब्रिटिश शासकों के लिए भारी बेइज्जती का मामला था। अतः वे  विजेता के रूप में ही यहां से सही सलामत लौटने का रास्ता तलाशने लगे। ऐसे में कांग्रेस उनके लिए सहाय साबित हुई। उल्लेखनीय है कि 1946 के बाद कांग्रेस ने अंग्रेजो के खिलाफ किसी भी प्रकार का व्यापक अथवा आक्रामक आंदोलन नहीं छेड़ा था। फिर भी अंग्रेजों ने सुनियोजित रणनीति के तहत कांग्रेस के अहिंसक कहे जाने वाले आंदोलन को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित करना शुरू किया। उधर ब्रिटेन में बैठे शासक वैश्विक राष्ट्र प्रमुखों और तत्कालीन मीडिया को यह समझाने में सफल रहे कि हम भारत पर रहम खाते हुए उन्हें आजादी प्रदान कर रहे हैं। कुल मिलाकर उन्होंने स्वयं को कांग्रेस के अहिंसक आंदोलन से द्रवित होना प्रतिपादित किया और खुद को दया की मूर्ति स्थापित करने में सफल साबित हुए। यहां सवाल उठता है कि जब अंग्रेजों को भारत आजाद करना ही था तो फिर उसे खंडित करने की क्या आवश्यकता थी। वे जिन्हें नेता मानते थे, उन महात्मा गांधी को देश की बागडोर सौंप कर ब्रिटेन लौट सकते थे। यही बात कांग्रेस पर भी लागू होती है। वह जानती थी कि अंग्रेज अपने हृदय विदारक अंत की आशंका से भयाक्रांत हैं और उन्हें जल्द से जल्द सही सलामत अपने वतन लौटने की चिंता थी। ऐसे में उसे आजादी अंग्रेजों की शर्तों पर स्वीकार करने की आवश्यकता ही क्या थी? उसने क्यों व्यक्ति विशेष को प्रधानमंत्री बनाने की जिद अपनाकर वह सब कर दिया जो षड्यंत्र कारी अंग्रेजी शासक चाहते थे। हद तो तब हुई जब महात्मा गांधी ने भी स्पष्ट कर दिया था कि भारत के टुकड़े मेरी लाश पर होंगे। लेकिन तब भी बात तत्कालीन कांग्रेस प्रमुखों की समझ में नहीं आई। सरदार बल्लभ भाई पटेल की लोकतांत्रिक जीत के बाद भी कोई पूरे भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित करने की कवायद में जुट गया, तो किसी ने आजादी की लड़ाई का मेहनताना पाकिस्तान के रूप में मांग लिया। कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं की यह छीछालेदर जब अंग्रेज शासकों ने देखी तो उन्हें मानो मुंह मांगी मुराद मिल गई। इनकी आपसी फूट का फायदा उठाकर ब्रिटिश शासकों ने भारत-पाक बंटवारे के बीज बो दिए। इतिहासकारों को आश्चर्य उस वक्त हुआ जब महात्मा गांधी यह कहते ही रह गए कि भारत-पाक बंटवारा मेरी लाश पर होगा‌। वहीं नेहरू खंडित भारत का प्रधानमंत्री पद पाकर प्रसन्न हो गए। उधर मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान के कायदे आजम का पद पाकर सकून हासिल कर लिया।नतीजा यह हुआ कि भारत-पाक बंटवारे के नाम पर भारी खून खराबा हुआ और अखंड भारत के बीच हमेशा हमेशा के लिए वैमनस्यता की एक स्थाई लकीर स्थापित हो गई। इस लकीर ने अखंड भारत के एक हिस्से को भारत तो दूसरे को पाकिस्तान के रूप में बांट दिया। इसी पाकिस्तान से पूर्वी बंगाल टूटा तो एक और देश बांग्लादेश की उत्पत्ति हो गई। इस खंड खंड आजादी के बाद आजादी का श्रेय लेने वाले और देश पर सर्वाधिक समय तक शासन करने वाले कांग्रेस जनों ने फिर कभी यह जिक्र भूलकर भी नहीं छेड़ा कि हम कभी अखंड भारत भी हुआ करते थे। हमारी सीमाएं उत्तर में केवल कश्मीर और पूर्व में सिर्फ पश्चिम बंगाल तक ही सीमित नहीं हुआ करती थीं। लेकिन एक जागरूक नागरिक होने के नाते हमें यह जानने की आवश्यकता है कि अखंड भारत की अखंड आजादी के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, शहीद भगत सिंह जैसे हजारों क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया था। हमें यह बेश कीमती खंडित आजादी भी बिना “खड्ग बिना ढाल”बैठे-बिठाए नहीं मिल गई थी। उसके लिए हमारे वीर सपूतों ने पूरे 100 सालों तक अंग्रेजों से लोहा लिया था और हंसते-हंसते अपने प्राण देश पर न्योछावर कर दिए थे। हमें उन लाखों क्रांतिकारियों की शहादत को भुलाना नहीं चाहिए। एक स्वर्णिम भविष्य की प्रत्याशा में यह स्मरण रखना चाहिए कि हम अखंड भारत के नागरिक हैं और इस देश को एक बार फिर अखंड रूप से स्थापित करने का सपना अभी हमने देखना नहीं छोड़ा है।

आजादी का अमृत महोत्सव है अनूठा आलेख

स्वतंत्रता दिवस-15 अगस्त, 2021 पर विशेष
-ललित गर्ग –
इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस की 75वीं वर्षगांठ को भारत सरकार ’आजादी का अमृत महोत्सव’ के तौर पर मना रही है। 15 अगस्त 1947 को भारत, ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र हुआ था। आजादी के 75 साल का ये जश्न 12 मार्च 2021 से शुरू हो चुका है जो 75 सप्ताह तक चलेगा। 15 अगस्त 2023, 78वें स्वतंत्रता दिवस पर अमृत महोत्सव का समापन होगा। इस दौरान भारत सरकार व राज्य सरकारों द्वारा देशवासियों की जनभागिदारी से अलग-अलग आयोजन किये जाएंगे। हजारों-हजारों सूर्यों से अधिक तेजस्वी भारत की स्वतंत्रता को लोक-जीवन में स्थापित किये जाने की आवश्यकता को महसूस करते हुए एक ओर आजादी के जश्न मनाये जायेंगे, जिसमें कुछ कर गुजरने की तमन्ना होगी तो अब तक कुछ न कर पाने की बेचैनी भी दिखाई देगी।


आजादी का अमृत महोत्सव भारत की विरल उपलब्धि है, हमारी जागती आंखों से देखे गये स्वप्नों को आकार देने का विश्वास है तो जीवन मूल्यों को सुरक्षित करने एवं नया भारत निर्मित करने की तीव्र तैयारी है। अब होने लगा है हमारी स्वतंत्र चेतना का अहसास। जिसमें आकार लेते वैयक्तिक, सामुदायिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एवं वैश्विक अर्थ की सुनहरी छटाएं हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बहुत कुछ बदला मगर चेहरा बदलकर भी दिल नहीं बदला। विदेशी सत्ता की बेड़िया टूटी पर बन्दीपन के संस्कार नहीं मिट पाये और राष्ट्रीयता प्रश्नचिन्ह बनकर आदर्शों की दीवारों पर टंग गयी थी, उसे अब आकार लेते हुए देखा जा रहा है। जिस संकीर्णता, स्वार्थ, राजनीतिक विसंगतियों, आर्थिक अपराधों, शोषण, भ्रष्टाचार एवं जटिल सरकारी प्रक्रियाओं ने अनंत संभावनाओं एवं आजादी के वास्तविक अर्थों को धुंधला दिया था, अब उन सब अवरोधक स्थितियों से बाहर निकलते हुए हम अपना रास्ता स्वयं खोजते हुए न केवल नये रास्तों बल्कि आत्मनिर्भर भारत, नये भारत एवं सशक्त भारत के रास्तों पर अग्रसर है। अब आया है उपलब्धिभरा वर्तमान हमारी पकड़ में। अब लिखी जा रही है कि भारत की जमीन पर आजादी की वास्तविक इबारत।
  एक संकल्प लाखों संकल्पों का उजाला बांट सकता है यदि दृढ़-संकल्प लेने का साहसिक प्रयत्न कोई शुरु करे। अंधेरों, अवरोधों एवं अक्षमताओं से संघर्ष करने की एक सार्थक मुहिम हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में आजादी के अमृत महोत्सव के रूप में 12 मार्च 2021 को शुरू हुई थी। उनके दूसरे प्रधानमंत्री के कार्यकाल की सुखद एवं उपलब्धिभरी प्रतिध्वनियां सुनाई दे रही है। हमने मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम के मन्दिर के शिलान्यास का दृश्य देखा। मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल में जता दिया है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति वाली सरकार अपने फैसलों से कैसे देश की दशा-दिशा बदल सकती है, कैसे कोरोना जैसी महाव्याधि को परास्त करते हुए जनजीवन को सुरक्षित एवं स्वस्थ रख सकती है, कैसे महासंकट में भी अर्थव्यवस्था को ध्वस्त होने से बचा सकती है, कैसे राष्ट्र की सीमाओं को सुरक्षित रखते हुए पडौसी देशों को चेता सकती है।
संघर्षों से जूझने की क्षमता भारत को अपने स्वतंत्रता के उदयकाल से ही प्राप्त है। इसके सामने आज तक जैसी परिस्थितियां उत्पन्न हुई है, अवरोध उपस्थित करने वाली शक्तियां उसके सामने टिकने का साहस नहीं कर पाई। जिसको जन्मघूटी के साथ ही राष्ट्रीयता के संस्कार मिल जाये, वह कभी हार नहीं सकता, अपनी आजादी पर आने वाले हर खतरों एवं हमलों को परास्त करने की उसमें क्षमताएं है। आजाद भारत के निर्माताओं ने जिस सूझबूझ, कर्मठता, साहस के साथ परिस्थितियों से लोहा लिया, वह इतिहास का एक क्रांतिकारी पृष्ठ है। मोदी उसी पृष्ठ के एक चमकते राष्ट्रनायक हैं। स्वतंत्रता एवं सहअस्तित्व वाली मोदी की विदेश नीति इतनी स्पष्ट है कि आज दुनिया में भारत का परचम फहरा रही है। उनकी दृष्टि में कोरे हिन्दू की बात नहीं होती, ईसाई, मुसलमान, सिख की बात भी नहीं होती है, उनकी नजर में मुल्क की एकता सर्वाेपरि है। उनके निर्णय उनके इतिहास, भूगोल, संस्कृति की पूर्ण जानकारी के आधार पर होते हंै।
हम महसूस कर रहे हैं कि निराशाओं के बीच आशाओं के दीप जलने लगे हैं, यह शुभ संकेत हैं। एक नई सभ्यता और एक नई संस्कृति करवट ले रही है। नये राजनीतिक मूल्यों, नये विचारों, नये इंसानी रिश्तों, नये सामाजिक संगठनों, नये रीति-रिवाजों और नयी जिंदगी की हवायें लिए हुए आजाद मुल्क की एक ऐसी गाथा लिखी जा रही है, जिसमें राष्ट्रीय चरित्र बनने लगा है, राष्ट्र सशक्त होने लगा है, न केवल भीतरी परिवेश में बल्कि दुनिया की नजरों में भारत अपनी एक स्वतंत्र हस्ती और पहचान लेकर उपस्थित है। चीन की दादागिरी और पाकिस्तान की दकियानूसी हरकतों को मुंहतोड़ जबाव पहली बार मिला है। किसी भी राष्ट्र की ऊंचाई वहां की इमारतों की ऊंचाई से नहीं मापी जाती बल्कि वहां के राष्ट्रनायक के चरित्र से मापी जाती है। उनके काम करने के तरीके से मापी जाती है।
आजादी के 75वें वर्ष में पहुंचते हुए हम अब वास्तविक आजादी का स्वाद चखने लगे हैं, आतंकवाद, जातिवाद, क्षेत्रीयवाद, अलगाववाद की कालिमा धूल गयी है, धर्म, भाषा, वर्ग, वर्ण और दलीय स्वार्थो के राजनीतिक विवादों पर भी नियंत्रण हो रहा है। इन नवनिर्माण के पदचिन्हों को स्थापित करते हुए कभी हम प्रधानमंत्री के मुख से कोरोना महामारी जैसे संकटों को मात देने की बात सुनते है तो कभी गांधी जयन्ती के अवसर पर स्वयं झाडू लेकर स्वच्छता अभियान का शुभारंभ करते हुए मोदी को देखते हैं। मोदी कभी विदेश की धरती पर हिन्दी में भाषण देकर राष्ट्रभाषा को गौरवान्वित करते हैं तो कभी “मेक इन इंडिया” का शंखनाद कर देश को न केवल शक्तिशाली बल्कि आत्म-निर्भर बनाने की ओर अग्रसर करते हैं। नई खोजों, दक्षता, कौशल विकास, बौद्धिक संपदा की रक्षा, रक्षा क्षेत्र में स्वदेशी उत्पादन, श्रेष्ठ का निर्माण-ये और ऐसे अनेकों सपनों को आकार देकर सचमुच मोदीजी हमारी स्वतंत्रता को सुदीर्घ काल के बाद सार्थक अर्थ दे रहे हैं।
आजादी का यह उत्सव उन लोगों के लिए एक आह्वान है जो अकर्मण्य, आलसी, निठल्ले, हताश, सत्वहीन बनकर सिर्फ सफलता की ऊंचाइयों के सपने देखते हैं पर अपनी दुर्बलताओं को मिटाकर नयी जीवनशैली की शुरुआत का संकल्प नहीं स्वीकारते। इसीलिए आजादी के अमृत महोत्सव का यह जश्न एक संदेश है कि-हम जीवन से कभी पलायन न करें, जीवन को परिवर्तन दें, क्योंकि पलायन में मनुष्य के दामन पर बुज़्ादिली का धब्बा लगता है जबकि परिवर्तन में विकास की संभावनाएं सही दिशा और दर्शन खोज लेती है। आजादी का दर्शन कहता है-जो आदमी आत्मविश्वास एवं अभय से जुड़ता है वह अकेले ही अनूठे कीर्तिमान स्थापित करने का साहस करता है। समय से पहले समय के साथ जीने की तैयारी का दूसरा नाम है स्वतंत्रता का बोध। दुनिया का कोई सिकंदर नहीं होता, वक्त सिकंदर होता है इसलिए जरूरी है कि हम वक्त के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना सीखें।
हमें राष्ट्रीय जीवन में नैतिकता एवं आत्मनिर्भरता को स्थापित करने के लिए समस्या के मूल को पकड़ना होगा। हम पत्तों और फूलों के सींचन पर ज्यादा विश्वास करते हैं, जड़ के अभिसिंचन की ओर कम ध्यान देते हैं इसलिए पत्र और पुष्प मुरझा जाते हैं। इसलिये हम आत्मनिर्भर नहीं हो पाएं। नरेन्द्र मोदी समस्याओं के मूल को पकड़ने के लिये जद्दोजहद कर रहे है। वे पत्तों और फूलों को सींचने की बजाय जड़ को सींच रहे हैं ताकि आने वाली पीढ़ियां समस्यामुक्त जीवन जी सके। आजादी के अमृृत महोत्सव का उत्सव मनाते हुए यही कामना है कि पुरुषार्थ के हाथों भाग्य बदलने का गहरा आत्मविश्वास सुरक्षा पाये। एक के लिए सब, सबके लिए एक की विकास गंगा प्रवहमान हो। आजादी का सही अर्थ है स्वयं की पहचान, सुप्त शक्तियों का जागरण, आत्मनिर्भरता एवं वर्तमान क्षण में पुरुषार्थी जीवन जीने का अभ्यास।

मनु स्मृति और वर्ण व्यवस्था

-विनायक कुमार विनायक
जी हां!मनु स्मृति को पढ़ते हुए ऐसा लगता
कि तुम पिछड़े और कमजोर लघुमानवों के
भविष्य को अबभी मुट्ठी में बंद किए हुए
सत्तर वर्ष पूर्व राजेन्द्र-अम्बेडकर ने
भृगु-वशिष्ठ के उस संविधान को बदला
जो मानव पिता मनु नहीं,
बाबाभृगुकी कृति मनुस्मृति थी!

मनु नेपहले अध्याय में ही कहा है
ये भृगु इस संपूर्ण शास्त्र को तुम्हें सुनाएंगे
‘एतद्वोऽयं भृगुः शास्त्रं श्रावयिष्यत्यशेषतः।(मनु.1/59)
और बाबा भृगुने मनु के बहाने
अपने मन की बातें सुनाई!

‘उस महा तेजस्वीपरमात्मा ने
इस सृष्टि की रक्षा के लिए
मुख,बाहु,जंघा और चरणों से उत्पन्न वर्णोंके लिए
अलग-अलग कर्म बनाए’(मनु.1/87)

‘ब्राह्मण जन्म लेते ही पृथ्वी के
समस्त जीवों में श्रेष्ठ हो जाते
और इस जगत की समस्त सम्पत्ति
ब्राह्मणों की हो जाती’
‘ब्राह्मणो जाएमानोहिपृथिव्यामधि जायते।(मनु.1/99)
सर्वस्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किंचित जगती गतम।‘(मनु.1/100)!

भृगु बाबा केशब्द शासन से
तुम महामानव/अतिमानव बने
हजारों वर्षों तक आरक्षित थे
भोजन, वस्त्र, आवास और सहवास की
मुफ्तखोर व्यवस्था थी!

लेकिन ये प्रजाजन विश;वैश्य और शूद्र
‘यो वैश्यः स्याद् बहुपशुर्हिनक्रतु रसोमपः/
कुटुम्बात्तस्य तद्र्जव्यमाहरेद्यज्ञसिद्धये’।(11/12मनु.)
आहरेत्रीणि वा द्वे वा कामं शूद्रस्य वेश्मनः।
न हि शूद्रस्य यज्ञेषु कश्चिदस्ति परिग्रहः।(मनु.11/13)

मनुस्मृति के शब्द विधान से
वैश्यजन केपशुधन को
तुम तबतक लुटते रहे जबतक
वे वैश्यत्व की सीमा रेखा को पारकर
शूद्रत्व को नहीं प्राप्तकर लेते थे!

धनहीन वैश्य शूद्र नहीं तो क्या?
यदि शूद्र होकर धनवानरहे
तो ब्राह्मण यज्ञ पूर्णाहुति के लिए
राजा को धार्मिक कहकर शूद्र के धन को
बलपूर्वकक्षत्रिय से हरण कराते थे!

जो क्षत्रिय राजा ऐसा नहीं करते
उन्हें तुम सहस्त्रार्जुनवंशी कहकर
इक्कीस बारसंहारते रहे थे
अपने पौत्र भार्गव परशुराम के हाथों!

वाह!लूट का विधान बनाने वालेभृगु
और उसे कार्यान्वित करने वाले
उनके पौत्रभार्गव परशुराम कीब्राह्मणी सेना
परशुराम ने ब्राह्मण वर्ण को एक जाति
और तीन वर्णों को एक वर्ण संकर
जातिसमूहशूद्र बना डाला!

क्यों न पूछ लें व्यास देव से
‘वर्धकी नापिता गोपः आशापः कुम्भकारकः
वणिक्किरात कायस्थ मालाकार कुटुम्बिन।
वेरटो मेद चांडाल दासश्वपच कोलकाः
एते अन्त्यजाःसमाख्यायाता ये चान्ये च गवाशनाः।
एषां संभाषणात्त्स्नानं दर्शनादर्क वीक्षणम्।‘
वाह!बनिए चले थे ब्राह्मण बनने,बन गए अन्त्यज!

क्या समझा बाबा भृगु का जमाना
जब चांदी चमकाते और द्विज कहलाते थे
‘ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः।
चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्रो नास्ति तु पंचमः।(मनु.10/4)
‘ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य ये तीनों वर्ण द्विज जाति हैं
चतुर्थ शूद्र एक जाति है,इसके सिवा पांचवां कुछ नहीं है!

भृगु बाबा के वर्षों बाद व्यास देव के युग में
द्विजत्व अधिकार की पुनरावृत्ति चाहते हो?
क्या ब्रह्मा जी समस्त कारु के
खजाने की जागीरतुम्हें लिख गए थे?
जो तुम इतने सारे वर्ष तक धन लुटा-लुटा के
द्विजत्व बचाने की बात सोच लेते?

बेवश बनिए!संविधान के ठेकेदारों ने
तुम्हें तब तक लूटा जब तक
तुमने शिखा बांधना नहीं छोड़ा!
जनेऊ बंधननहीं तोड़ा!
दासता की चादर नहीं ओढ़ी!

सुनो धनोष्मित बनिए!
बंदरबांट और लूटपाट के युग में
अर्थाधिकार और धनार्जन क्या संभव था?
जब धन ही नहीं फिर वैश्य का अस्तित्व कहां?

इतिहास के पन्नों में वैश्य की खाल ओढ़े
क्या शूद्र ही शूद्र यहां नहींथे!
जी हां ब्राह्मण और सत्ता के नीचे शासित
भारत जनसभी शूद्र थे!

वैश्य नहीं शूद्दर!
क्षत्रिय नहीं खत्री,सोढ़ी,कलचुरी,कलाल, कलवार!
भुइयां-खेतौरी-घटवारशुद्र नहीं तो क्या?
आज भी मिलतानहींइनको समर्थजन का आदर!

‘सुपच,किरात,कोल,कलवारा/वर्णाधम तेली,कुम्हारा’
यह तुलसी ने मानस मेंतब लिखा
जब भामाशाह ने वीर महाराणा प्रताप को
सर्वस्व न्योछावर किया था!

हाँवही शूद्र! जिनका तन-मन-धन
कुछ नहीं अपना था
जिनका मनुजत्वमात्र एक सपना था
जिनकी माता-भार्या-अनुजा-तनुजा
सर्वथा हरण योग्यस्वामी की थी भोग्या
उनकी आम गलती की खास सजा
मृत्युदंड-सूली का, फांसी का!

वह मुमुक्षु था, वह मुर्मुक्षु था
किंतु मरता, नहीं जीता था
जूठन खाकर!स्वत्व लुटाकर!
पशुता पाकर!पशुवत्!

द्विज और दासों में
एक नहीं, सौ-सौ विभेद था
शस्त्र ग्रहण और शास्त्र अध्ययन,
श्रवण-मनन और ज्ञानार्जन से वंचित
इन्हें खुद ही खुद पर खेद था!

पृथिवी सहित समस्त सृष्टि को परमात्मा ने जीवात्माओं के लिये बनाया है

मनमोहन कुमार आर्य

                हमारा यह संसार अर्थात् हमारी पृथिवी, सूर्य, चन्द्र आदि सब ग्रहउपग्रह प्रकृति नामक अनादि सत्ता से बने हैं। प्रकृति की संसार में चेतन ईश्वर जीवात्मा से भिन्न स्वतन्त्र जड़ सत्ता है। इस अनादि प्रकृति को परमात्मा अन्य किसी सत्ता ने नहीं बनाया है। इस प्रकृति का अस्तित्व स्वयंभू और अपने आप है। प्रकृति की ही तरह संसार में ईश्वर जीव भी दो इतर सत्य एवं चेतन पदार्थ है। ईश्वर सत्य, चित्त आनन्दस्वरूप है। यह तीनों पदार्थ अनादि, नित्य, अजर, अमर, अविनाशी हैं। ईश्वर सर्वातिसूक्ष्म सत्ता है। जीवात्मायें तथा प्रकृति भी सूक्ष्म सत्तायें हैं परन्तु प्रकृति से सूक्ष्म जीव तथा जीव से भी सूक्ष्मतर परमेश्वर है। परमात्मा सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी सत्ता है। जीवात्मा का स्वरूप सत्य, चित्त, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, जन्म-मरण धर्मा, कर्म करने में स्वतन्त्र तथा फल भोगने में ईश्वर के आधीन व परतन्त्र है। ईश्वर संख्या में एक है तथा जीवात्मायें संख्या में अनन्त हैं। मनुष्य जीवों की संख्या को नहीं जान सकता इसलिय जीवों की संख्या को अनन्त कहा जाता है। ईश्वर जानता है कि जीवों की संख्या कितनी है और वह सब जीवों को उनके कर्मों के अनुसार जन्म व मरण तथा सुख व दुःख आदि प्रदान करता है। सुख व दुःख प्रदान करने में परमात्मा एक सच्चे न्यायाधीश का कार्य करता है। वह किसी जीव से पक्षपात नहीं करता। किसी भी जीव के पाप कर्मों को क्षमा नहीं करता। प्रत्येक जीव को अपने अपने कर्मानुसार जन्म लेना पड़ता है तथा अपने कर्मो का फल भोगना पड़ता है। यदि ईश्वर न होता और वह सृष्टि की उत्पत्ति व इसके पालन सहित जीवों को उनके कर्मानुसार फल प्रदान करते हुए जन्म व मरण की व्यवस्था न करता तो जीवों को शुभ करने का अवसर और उससे मिलने वाले सुख व आनन्द की प्राप्ति कदापि न होती। इस महान कार्य के लिये सभी जीव ईश्वर के प्रति एक विधाता, पिता व आचार्य के समान कृतज्ञ होते हैं और उसका नित्य प्रति ध्यान करना, उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना उनका कर्तव्य होता है।

                हम अपनी आंखों से जिस संसार इसमें सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, ग्रह उपग्रहों सहित तारों आदि को देखते हैं, पृथिवी पर अग्नि, वायु, जल, आकाश तथा समुद्र, नदी, झरने, पर्वत, रेगिस्तान, मनुष्य, पशु पक्षी आदि प्राणियों, वृक्षों, वनस्पतियों आदि को देखते हैं, इन सबको भी परमात्मा ने ही बनाया है। यह पदार्थ अपौरुषेय कहलाते हैं अर्थात् इनकी रचना उत्पत्ति मनुष्यों के द्वारा नहीं हो सकती। इनकी रचना उत्पत्ति सब मनुष्यों से महान सत्ता परमात्मा द्वारा होती है। जो कार्य मनुष्य नहीं कर सकता परन्तु सृष्टि में वह हमें दृष्टिगोचर होता है, वह अपौरुषेय रचनायें कहलाती हैं जिनकी रचना व पालन परमात्मा के द्वारा किया जाता है। हमारी इस सृष्टि को बने हुए 1 अरब 96 करोड़ वर्ष हो चुके हैं। अभी 2 अरब 36 करोड़ वर्षों का समय इस सृष्टि का भोग व इसका अस्तित्व बना रहने का काल है। इसके बाद इसकी प्रलय होगी। सृष्टि की प्रलय भी परमात्मा के द्वारा होती है। सृष्टि का काल दिन के समान तथा प्रलय का काल रात्रि के समान होता है। इसे ईश्वर का एक दिन भी कहा जाता है। सृष्टि रचना व सृष्टि संवत् विषयक गणनायें वैदिक साहित्य में उपलब्ध होती हैं जो हमारे प्राचीन ऋषियों महर्षियों के अनुसधानों का परिणाम है। उनके सभी सिद्धान्त भी सृष्टि में ठीक-ठीक घट रहे हैं। सभी ऋषि सृष्टि रचना आदि कार्यों के द्रष्टा व इसे यथार्थ रूप में जानने वाले होते थे। यह ज्ञान उन्हें वेदों के स्वाध्याय तथा योग, ध्यान व समाधि आदि को सिद्ध करने पर प्राप्त होता था। अतः किसी भी व्यक्ति को वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थों में शंका नहीं करनी चाहिये। वेद परमात्मा से उत्पन्न व परमात्मा प्रदत्त ज्ञान हैं जिसे परमात्मा ने सृष्टि की आदि में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को उनमें सर्वान्तर्यामी स्वरूप से उपस्थित होने से उनकी आत्माओं में प्रेरणा करके प्रदान किया था। सृष्टि के आरम्भ से ही वेद मानवजाति को उपलब्ध रहे हैं। वेदों का अध्ययन व स्वाध्याय करना तथा उसकी शिक्षाओं के अनुसार आचरण करना सभी मनुष्यों का कर्तव्य व परमधर्म होता है। जो इस शिक्षा का पालन करते हैं वह जीवन में उन्नति करते हुए सुखों को प्राप्त करते हैं तथा परजन्म में भी उन्हें ईश्वर की व्यवस्था से सुख प्राप्त होते हैं। अतः सबको वेदों की शरण लेकर सत्य ज्ञान को प्राप्त होकर व अपने अपने कर्तव्यों वा धर्म का पालन करते हुए अपने जीवन की उन्नति व सुखों की प्राप्ति करनी चाहिये।

                परमात्मा ने पृथिवी आदि सृष्टि क्यों बनाई? इसके अनेक कारण हैं। इसका एक कारण तो परमात्मा का सच्चिदानन्दस्वरूप, अनादि, नित्य, निराकार, सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी तथा सृष्टिकर्ता होना है। परमात्मा सृष्टि बना सकता है, बनाना जानता है, इस सृष्टि से पूर्व अनन्त बार ऐसी ही सृष्टि को बनाया है, जीवों को मनुष्य इतर यानियों में जन्म मरण धारण करने के लिये इस सृष्टि की आवश्यकता भी है, तो परमात्मा सृष्टि को क्यों बनाता? इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता। मनुष्य इस विषय में तरह तरह की शंकायें कर सकता है जिसका उत्तर ऋषि दयानन्द ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में दिया है।  सृष्टि रचना पर प्रकाश डालते हुए ऋषि दयानन्द ने सांख्य दर्शन के सूत्रों को उद्धृत कर उनके अर्थों पर प्रकाश डाला है। वह सत्यार्थप्रकाश के अष्टम समुल्लास में लिखते हैं कि (सत्व) शुद्ध (रजः) मध्य (तमः) जाड्य अर्थात् जड़ता इन तीन वस्तुओं से मिलकर जो एक संघात है उस का नाम प्रकृति है। उस से महतत्व बुद्धि, उससे अहंकार, उससे पांच तनमात्रा सूक्ष्म भूत और दश इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन, पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि पांच भूत ये चैबीस और पच्चीसवां पुरुष अर्थात् जीव तथा (छब्बीसवां) परमेश्वर है। इन सब विकारों में प्रकृति अविकारिणी है और महत्तत्व अहंकार तथा पांच सूक्ष्म भूत प्रकृति के विकार हैं। प्रकृति इस कार्य जगत का उपादान कारण है। यह मूल अनादि तत्व प्रकृति किसी अन्य पदार्थ का कार्य नहीं हैं। जीव व ईश्वर भी किसी मूल पदार्थ का विकार न होकर स्वयंभू सत्तायें जिनका अस्तित्व अनादि काल से स्वतः वा स्वमेव है।

                ऋषि दयानन्द ने जगत की उत्पत्ति में सहयोगी तीन प्रमुख कारणों का उल्लेख कर उनकी व्याख्या की है। वह कहते हैं एक निमित्त कारण, दूसरा उपादान कारण तथा तीसरा साधारण कारण होता है। निमित्त कारण उस को कहते हैं कि जिसके बनाने से कुछ बने, बनाने से बने, आप स्वयं बने नहीं, दूसरे को प्रकारान्तर कर बना देवे। दूसरा उपादान कारण उस को कहते हैं जिस के बिना कुछ बने। वही अवस्थान्तर रूप होके बने बिगड़े भी। तीसरा साधारण कारण उस को कहते हैं कि जो बनाने में साधन और साधारण निमित्त हो। ऋषि दयानन्द जी बताते हैं कि निमित्त कारण दो प्रकार के होते हैं। एक- सब सृष्टि को मूल कारण प्रकृति से बनाने, धारने और प्रलय करने तथा सब की व्यवस्था रखने वाला मुख्य निमित्त कारण परमात्मा। दूसरा-परमेश्वर की सृष्टि में से पदार्थों को लेकर अनेक विधि कार्यान्तर बनाने वाला साधारण कारण जीव अर्थात् मनुष्य।

                उपादान कारण पर प्रकाश डालते हुए ऋषि दयानन्द बताते हैं कि प्रकृति, परमाणु जिसको सब संसार के बनाने की सामग्री कहते हैं, वह जड़ होने से आप से आप बन और बिगड़ सकती है किन्तु दूसरे के बनाने से बनती और बिगाड़ने से बिगड़ती है। कहींकहीं जड़ के निमित्त से जड़ भी बन और बिगड़ भी जाता है। जैसे परमेश्वर के रचित बीज पृथिवी में गिरने और जल पाने से वृक्षाकार हो जाते हैं और अग्नि आदि जड़ के संयोग से बिगड़ भी जाते हैं परन्तु इनका नियमपूर्वक बनना और वा बिगड़ना परमेश्वर और जीव के आधीन है। जब कोई वस्तु बनाई जाती है तब जिनजिन साधनों से अर्थात् ज्ञान, दर्शन, बल, हाथ और नाना प्रकार के साधन और दिशा, काल और आकाश आदि को साधारण कारण कहते हैं। जैसे घड़े को बनाने वाला कुम्हार निमित्त, मिट्टी उपादान और दण्ड चक्र आदि सामान्य निमित्त, दिशा, काल, आकाश, प्रकाश, आंख, हाथ, ज्ञान, क्रिया आदि निमित्त साधारण और निमित्त कारण भी होते हैं। इन तीन कारणों के विना कोई भी वस्तु नहीं बन सकती और न बिगड़ सकती है। इसी प्रकार से परमात्मा इस सृष्टि की रचना करते हैं। परमात्मा सृष्टि रचना वा उत्पत्ति का मुख्य निमित्त कारण है और प्रकृति उपादान कारण है। जीव इस कार्य प्रकृति वा सृष्टि के भोक्ता हैं जिनके लिये इस सृष्टि को बनाया गया है। सृष्टि रचना का यही वर्णन सत्य विज्ञान से युक्त हैं। हम आशा करते हैं कि यदि वैज्ञानिक वेदों को पढ़ेंगे, समझेंगे व जानेंगे तो उन्हें ईश्वर के द्वारा सृष्टि वा पृथिवी आदि की रचना में किसी प्रकार की भ्रान्ति दृष्टिगोचर नहीं होगी।

                ऋग्वेद में वर्णन है कि यह सब जगत् सृष्टि के पहले प्रलय में अन्धकार से आवृत आच्छादित था। प्रलयारम्भ के पश्चात् भी वैसा ही होता है। उस समय यह जगत न किसी के जानने, न तर्क में लाने और न प्रसिद्ध चिन्हों से युक्त इन्द्रियों से जानने योग्य था किन्तु वर्तमान में जाना जाता है और प्रसिद्ध चिन्हों से युक्त जानने योग्य होता और यथावत् उपलब्ध है। वेदों में सृष्टि विषयक यह वर्णन युक्ति, तर्क एवं विज्ञान के अनुरूप है।

                ईश्वर ने पृथिवी लोकलोकान्तरों से युक्त सृष्टि को बनाया है। उसका सृष्टि को बनाने का प्रयोजन है। इस पर लेख के आरम्भ में सृष्टि के प्रयोजन पर विचार प्रस्तुत किये हैं। कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर यदि सृष्टि को बनाता तो आनन्द में रहता और जीवों को भी सुख, दुःख प्राप्त होता। इसका उत्तर देते हुए ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि यह आलसी और दरिद्र लोगों की बातें हैं। पुरुषार्थी लोगों की नहीं और जीवों को प्रलय में क्या सुख वा दुःख है? सृष्टि के सुख दुःख की तुलना की जाय तो सुख कई गुना अधिक होता और बहुत से पवित्रात्मा जीव मुक्ति के साधन कर मोक्ष के आनन्द को भी प्राप्त होते हैं। प्रलय में निकम्मे जैसे सुषुप्ति में जीव पड़े रहते हैं वैसे रहते हैं और प्रलय के पूर्व सृष्टि में जीवों के किये पाप पुण्य कर्मों का फल ईश्वर कैसे दे सकता और जीव क्यों-कर भोग सकते? ऋषि इसके उत्तर में कहते हैं कि यदि तुम से कोई पूछे कि आंख के होने में क्या प्रयोजन है? तुम यही कहोगे देखना, तो जो ईश्वर में जगत् की रचना करने का विज्ञान, बल और क्रिया है उस का क्या प्रयोजन, बिना जगत की उत्पत्ति करने के? दूसरा कुछ भी न कह सकोगे। और परमात्मा के न्याय, धारण, दया आदि गुण भी तभी सार्थक हो सकते हैं जब वह जगत् को बनाये। उस का अनन्त सामथ्र्य जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय और व्यवस्था करने ही से सफल होता है। जैसे नेत्र का स्वाभाविक गुण देखना है वैसे परमेश्वर का स्वाभाविक गुण जगत् की उत्पत्ति करके सब जीवों को असंख्य पदार्थ देकर परोपकार करना है। ऋषि के यह उद्गार सृष्टि की रचना का सत्य चित्र प्रस्तुत करते हैं जिसे पढ़कर जिज्ञासु की आत्मा सन्तुष्ट व प्रसन्न होती है। हमने पृथिवी सहित सभी लोक-लोकान्तरों से युक्त सृष्टि रचना का वैदिक सिद्धान्त प्रस्तुत किया है। यही सृष्टि की उत्पत्ति का सत्य सिद्धान्त हैं। पाठक इसे पढ़े और इससे लाभ उठाये। इसे मानने से हमारा जीवन उन्नति को प्राप्त होकर हमारे परजन्म में भी उन्नति होना निश्चित है।

राजनीति में दाग अच्छे हैं

                      प्रभुनाथ शुक्ल

राजनीति में सुचिता का सवाल सबसे अहम मसला है। बेदाग छबि के राजनेता और चरित्र की राजनीति वर्तमान दौर में हासिए पर है। टीवी का वह विज्ञापन भारतीय राजनीति पर सटीक बैठता है कि ‘दाग अच्छे हैं’। देश में यह मुद्दा चर्चा का विषय रहा है कि राजनीति का अपराधीकरण क्यों हो रहा है। दागदार और आपराधिक वृत्ति के व्यक्तियों को राजनीतिक दल प्रश्रय क्यों दे रहे हैं।वर्तमान परिदृश्य में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि राजनीति का अपराधी करण हुआ है या फिर राजनीति ही अपराधियों, बाहुबलियों कि हो चली है। जहाँ अब बेदाग चेहरों का कोई मतलब नहीं रहा। क्योंकि एक चरित्रवान व्यक्ति राजनीति की बदबू से खुद को अलग रखना चाहता है।

राजनीति में अब जनसेवा की आड़ में जेब सेवा हो रही है। पहले जैसी साफ-सुथरी राजनीति की उम्मीद करना बेइमानी है। कल जिन अपराधियों का सहारा लेकर लोग राजनेता बनते थे आज वहीं अपराधी खुद को सुरक्षित रखने के लिए राजनेता बन गया है। यह बदलती भारतीय राजनीति का नया चेहरा है। लेकिन उम्मीद बाकि है। सुप्रीमकोर्ट ने पूर्व में दिए गए अपने फैसले के अवमाना मामले में हाल में एक अहम फैसला सुनाया है। जिससे यह उम्मीद जगी है कि राजनीति में थोड़ी सुचिता आ सकती है, लेकिन अभी अदालत को इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर बहुत कुछ करना है। लोगों कि रही-सही उम्मीद बस अदालत पर है। सुप्रीमकोर्ट के फैसले के बाद राजनीति कितनी पवित्र होगी यह तो वक़्त बताएगा, लेकिन देश और समाज के साथ प्रबुद्ध वर्ग में एक संदेश गया है। 

सुप्रीमकोर्ट की तरफ से बिहार चुनाव से पूर्व एक फैसला आया था जिसमें कहा गया था कि आपराधिक छबि के उम्मीदवारों का ब्यौरा सार्वजनिक होना चाहिए। इसकी सूचना अखबारों आनी चाहिए। जनता को भी यह मालूम होना चाहिए कि जिस व्यक्ति को वह चुनने जा रहे हैं उसकी पृष्ठभूमि क्या है। उसकी सामाजिक छबि क्या रही है। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। उन्हीं याचिकाओं कि अवमानना की सुनवाई करते हुए अदालत सख्तरुख अपनाया है। इस गुनाह के लिए भाजपा, कांग्रेस, माकपा, राकांपा समेत आठ दलों पर पांच से एक लाख का जुर्माना लगाया है। इसके अलावा बिहार विधानसभा में चुनकर गए आपराधिक नेताओं की सूची सार्वजनिक करने के साथ राजनीतिक दलों को यह भी बताने को कहा है कि आखिर ऐसी क्या मज़बूरी थी जिसकी वजह से उन्होंने आपराधिक छबि वालों को पार्टी से उम्मीदवार बनाया। क्या पूरे बिहार में चरित्रवान यानी बेदाग छबि का उम्मीदवार मिला ही नहीं? निश्चित रुप से सर्वोच्च अदालत का फैसला स्वागत योग्य है।

सर्वोच्च अदालत के फैसले पर अगर चुनाव आयोग पूरी पारदर्शिता और निष्पक्षता से काम करता है तो देश में एक नई तरह की राजनीति की शुरुआत होगी। अदालत ने अपराधियों के बारे में खूब प्रचार-प्रसार कर जनता को जागरूक करने को कहा है। इसके लिए मिडिया और अन्य संदेश माध्यमों का भी सहारा लेने की बात कही है। अदालत ने राजनीति के अपराधी करण पर गहरी चिंता भी जाताई है। चिंता जताना लाजमी भी है क्योंकि राजनीति में अब एक आदमी चाहकर भी प्रवेश नहीं कर सकता है। क्योंकि उसके पास न बाहुबल है और न धनबल। अब सत्ता और सरकारों को लोकतंत्र की पवित्रा और सूचिता से कोई सरोकार नहीं है। सत्ता और सियासत का अब सिर्फ एक ही मकशद रह गया है कि चुनावों में साम, दाम, दंड, भय और भेद के जरिए अधिक सीट निकाल कर सत्ता हासिल कि जाय। जिसकी वजह से राजनीति में अपराधियों का प्रवेश हो रहा है। क्योंकि एक बेदाग छबि का व्यक्ति यह सब नहीं कर सकता है। तभी तो राजनीति को ‘दाग अच्छे हैं’ वाले व्यक्ति पसंद हैं।

भारतीय संसद कि शोभा बढ़ाने वाले चालू सत्र में यानी 2019 में चुनकर आए 43 फीसदी माननीय दागी छबि के हैं। जबकि 2004 में यह 24 फीसदी था। लगातार आपराधिक पृष्ठभूमि से लोग संसद पहुंच रहे हैं। 2009 में यह 30 फीसद हो गया जबकि 2014 में यह संख्या 34 फीसदी तक पहुंच गईं। फिर सोचिए संसद का हाल क्या होगा। इस हालात में हंगामा रहित सत्र कि कल्पना कैसे की जा सकती है। बेल में बिल नहीं फाड़े जांएगे, माइक नहीं तोड़ी जाएगी, नारेबाजी नहीं होगी, सभापति पर कागज के गोले नहीं डाले जांएगे तो और क्या होगा। सदनों के सम्बोधन में लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला और उपसभापति नायडू ने सदस्यों के व्यवहार पर आहत दिखे। नायडू ने कहा मुझे आंसू आ गए जबकि बिड़ला ने कहा महत्वपूर्ण सत्र हंगामें की भेंट चढ़ गया। करोड़ों रुपए शोर ने निगल लिया। फिर हम कैसी संसद का निर्माण करना चाहते हैं।

सुप्रीकोर्ट ने अहम फैसले में कुछ खास बातें कहीं हैं जिसका भारतीय राजनीति पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। अदालत ने कहा है उम्मीदवारों के चयन के 48 घंटे पूर्व राजनीतिक दलों को अपराधिक ब्यौरा प्रकाशित करना होगा। यह ब्यौरा बेवसाइट पर भी प्रकाशित होगा। आयोग एक मोबाइल ऐप बनाएगा जिसमें सम्बंधित दल टिकट पाने वाली आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवार का सारा ब्यौरा उसमें रहेगा। इसके अलावा एक और ख़ास फैसले में कहा है कि अब सरकारे माननीयों पर लदे आपराधिक मुकदमों को बगैर उच्चन्यालय के आदेश के बिना नहीं हटा सकती। इसकी सूचना उच्चन्यालय को सर्वोच्च अदालत को भी देनी होगी। इसके साथ ही सांसद, विधायकों के मुकदमों को देख रही विशेष अदालतें के न्यायाधीश भी जो सम्बंधित मुकदमों की सुनवाई कर रहे हैं वे अगले आदेश तक बदले नहीं जाएंगे। अदालत की तरफ से आए सभी फैसले राजनीति की सुचिता बनाए रखने में ‘मील का पत्थर’ साबित हो सकते हैं, लेकिन जनता को भी अपने मतों का प्रयोग सोच समझ कर करना होगा। हांलाकि अभी बहुत परिवर्तन की उम्मीद नहीं कि जा सकती है, लेकिन एक उम्मीद तो बध कर आयी है कि आने वाले दिनों में सबकुछ अच्छा होगा।