Home Blog Page 730

अंततः मेधा जीती,कोविड हारा

  • श्याम सुंदर भाटिया

अंततः देश की बड़ी अदालत ने यूजी और पीजी के अंतिम वर्ष की परीक्षाओं को लेकर अपना ‘सुप्रीमो’ फैसला सुना दिया है। फाइनल ईयर के हर स्टुडेंट्स को एग्जाम में बैठना होगा। हालांकि देश की करीब 800 यूनिवर्सिटीज में से 290 में फाइनल ईयर की परीक्षाएं कराई जा चुकी हैं। एग्जाम न कराने के लिए आधा दर्जन गैर भाजपा सरकारों- दिल्ली, पंजाब, महाराष्ट्र, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु आदि ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली थी। करीब डेढ़ माह की सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला यूजीसी के पक्ष में दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने यूजीसी के 06 जुलाई की गाइडलाइन्स को वाजिब ठहराया है।  इसमें कोई आतिश्योक्ति नहीं है, यह काबिलियत की डिग्री की जीत कही जाएगी। आख़िरकार कोरोना की डिग्री हार गई। सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षा मंत्रालय और यूजीसी की पवित्र भावनाओं को समझते हुए यह ऐतिहासिक फैसला दिया  है। इस जीत का सेहरा केंद्रीय शिक्षा मंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक और यूजीसी के चेयरमैन डॉ. डीपी सिंह के सिर पर बंधेगा। कोरोना को ढाल बनाकर परीक्षाओं को निरस्त कराने के पैरोकार- सियासीदां परास्त हो गए। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष श्री राहुल गांधी से लेकर महाराष्ट्र के पर्यावरण मंत्री श्री आदित्य ठाकरे, दिल्ली के सीएम श्री अरविन्द केजरीवाल, पंजाब के सीएम कैप्टन अमरिन्दर सिंह, ओडिशा के सीएम श्री नवीन पटनायक , पश्चिम बंगाल की सीएम सुश्री ममता बनर्जी और तमिलनाडु के सीएम श्री के पलानीस्वामी की ओर से केंद्र को लिखी चिट्ठी भी काम न आई।

देशभर की यूनिवर्सिटी और कॉलेजों की अंतिम वर्ष की परीक्षाएं कराई जाएंगी या नहीं? इस सवाल का जवाब लाखों स्टुडेंट्स और उनके अभिभावक महीनों से जानना चाहते थे। हर किसी को परीक्षाओं पर सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले का इंतजार था, लेकिन अब छात्रों और अभिभावकों का इंतजार खत्म हो गया है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अंतिम ईयर की परीक्षाओं को लेकर अपना अंतिम फैसला 28 अगस्त को सुना दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है, यूनिवर्सिटी और कॉलेजों के फाइनल ईयर के एग्जाम आयोजित कराए जाएंगे। कोई भी यूनिवर्सिटी कोविड के बहाने अंतिम वर्ष की परीक्षा टाल तो सकती है, लेकिन निरस्त नहीं कर सकती है। यूजीसी की यदि कोई यूनिवर्सिटी यूजी -पीजी की अंतिम वर्ष या अंतिम सेमेस्टर की परीक्षांए सितम्बर के बाद कराना चाहती हैं  तो इसके लिए भी उन्हें  यूजीसी की मंजूरी लेनी होगी। यह ऐतिहासिक फैसला जस्टिस अशोक भूषण की अध्यक्षता में जस्टिस आर सुभाष रेड्डी और जस्टिस एमआर शाह की तीन सदस्यीय बेंच ने सुनाया। 

सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा है, अगर किसी राज्य को लगता है कि उनके लिए परीक्षा आयोजित कराना मुमकिन नहीं है तो वह यूजीसी के पास जा सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक, राज्य अंतिम वर्ष की परीक्षाओं के बिना किसी भी छात्र को प्रमोट नहीं कर सकते हैं। अंतिम ईयर के छात्रों की परीक्षाएं 30 सितंबर को कराने के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने मुहर लगा दी है, यानी अब अंतिम ईयर की परीक्षाएं 30 सितंबर तक पूरी की जाएंगी। सुप्रीम कोर्ट में अंतिम वर्ष की परीक्षा टालने वाली याचिका पर पिछली सुनवाई 18 अगस्त को हुई थी। इस दौरान यूनिवर्सिटी और कॉलेजों की अंतिम वर्ष की परीक्षा पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रखा था। इसी के साथ अदालत ने सभी पक्षों से तीन दिन के भीतर लिखित जवाब दाखिल करने को कहा था। अदालत ने यह भी कहा था कि अब सुप्रीम कोर्ट तय करेगा कि डिग्री कोर्स के अंतिम वर्ष की परीक्षा रद्द होंगी या नहीं. इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अंततः परीक्षा को लेकर अंतिम फैसला सुनाया है । 

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान यूजीसी ने कहा था, बिना परीक्षा के मिली डिग्री को मान्यता नहीं दी जा सकती है।  यूजीसी ने 06 जुलाई को संशोधित दिशा निर्देश जारी किए थे। गाइडलाइन्स में सभी यूनिवर्सिटी और कॉलेजों को अंतिम वर्ष के स्टुडेंट्स के लिए सितंबर तक परीक्षाएं आयोजित कराने के बारे में कहा गया। यूजीसी गाइडलाइन्स के अनुसार, फाइनल ईयर के स्टुडेंट्स के एग्जाम ऑनलाइन, ऑफलाइन या दोनों तरीकों से आयोजित किए जा सकते हैं। यूजीसी की संशोधित गाइडलाइन्स में यह भी बताया गया है कि बैक-लॉग वाले छात्रों को परीक्षाएं अनिवार्य रूप से देनी होंगी। यूजीसी के मुताबिक, अन्य जो स्टुडेंट्स सितंबर की परीक्षाओं में शामिल नहीं हो पाएंगे तो यूनिवर्सिटी उन स्टुडेंट्स के लिए बाद में स्पेशल परीक्षाएं आयोजित करेगी। जब भी संभव हो, विश्वविद्यालय इन विशेष परीक्षाओं को करा सकते हैं, ताकि विद्यार्थी को किसी भी असुविधा / नुकसान का सामना न करना पड़े। बड़ी अदालत ने अपने आदेश में यह भी स्पष्ट किया है,ये प्रावधान केवल वर्तमान शैक्षणिक सत्र 2019-20 के लिए सिर्फ एक बार के उपाय के रुप में लागू होगा।

यूजीसी ने दिल्ली और महाराष्ट्र सरकार ने अपने-अपने राज्य की यूनिवर्सिटी में अंतिम वर्ष की परीक्षाएं रद्द करने के फ़ैसले पर विरोध जताया था। सुप्रीम कोर्ट में अलग-अलग याचिकाओं के जरिए राज्य सरकारों और चुनिंदा छात्रों ने इंसाफ के लिए दस्तक दी थी। प्रस्तावित एग्जाम की मुखालफत में नामचीन अधिवक्ता डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी और सीनियर वकील श्री श्याम दीवान ने सुप्रीम कोर्ट में जमकर दलीलें  पेश की थीं। डॉ. सिंघवी ने कहा था, यूजीसी का यह दिशा निर्देश संघवाद पर हमला है। राज्यों को स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर फैसला लेने की स्वायत्तता होनी चाहिए। कोई भी सामान्य समय में परीक्षा के खिलाफ नहीं है। हम महामारी के दौरान परीक्षा के खिलाफ हैं। यूजीसी के पूर्व चेयरमैन प्रो.सुखदेव थोराट 27 और शिक्षाविदों के साथ यूजीसी को पत्र लिखकर यह परीक्षाएं रद्द कराने की मांग कर चुके थे । इन शिक्षाविदों ने पत्र में पूछा है, जो लोग यह तर्क दे रहे हैं कि परीक्षा रद्द होने से डिग्रियों का मूल्य कम हो जाएगा, उन्हें यह भी बताना चाहिए कैसे एक वर्चुअल एग्जाम से डिग्री की वैल्यू बढ़ जाएगी।  

यूजीसी ने कहा था कि वे एक स्वतंत्र संस्था है, विश्वविद्यालयों में परीक्षाओं के आयोजन की जिम्मेदारी यूजीसी की है, किसी राज्य सरकार की नहीं है। यूजीसी ने दिल्ली और महाराष्ट्र में राज्य के विश्वविद्यालयों में फाइनल ईयर की परीक्षाएं रद्द करने के निर्णय पर सवाल उठाते हुए कहा था, ये नियमों के खिलाफ है। राज्यों को परीक्षाएं रद्द करने का कोई अधिकार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार से पूछा था कि क्या राज्य आपदा प्रबंधन कानून के तहत यूजीसी की अधिसूचना और दिशानिर्देश रद्द किये जा सकते हैं? सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने शीर्ष अदालत से कहा कि राज्य सरकारें आयोग के नियमों को नहीं बदल सकती हैं, क्योंकि यूजीसी ही डिग्री देने के नियम तय करने के लिए अधिकृत है। सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि यह छात्रों के हित में नहीं है कि वे परीक्षा आयोजित न करें। उन्होंने तर्क दिया कि यूजीसी एकमात्र निकाय है जो एक डिग्री प्रदान करने के लिए नियमों को बना सकता है और राज्य सरकारें नियमों को बदल नहीं सकती हैं। श्री मेहता ने न्यायालय को बताया कि करीब 800 विश्वविद्यालयों में से 290 विवि में परीक्षाएं हो चुकी हैं। इनमें तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी यूपी की दूसरी प्राइवेट विवि में अव्वल रही है।  मेडिकल और डेंटल कॉलेजों को छोड़कर न केवल तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी फाइनल ईयर के एग्जाम करा चुकी है बल्कि 31 जुलाई तक सभी रिजल्ट भी घोषित किए जा चुके है। श्री मेहता ने कहा था, 390 विवि परीक्षा कराने की प्रक्रिया में हैं। यूजीसी के अनुसार, स्टुडेंट्स के एकेडमिक सत्र को बचाने के लिए फाइनल ईयर एग्जाम कराए जाने जरुरी हैं और चूंकि डिग्री यूजीसी की ओर से दी जाएगी, ऐसे में परीक्षाएं कराने या न कराने का अधिकार भी उसी का होना चाहिए। बड़ी अदालत के इस ऐतिहासिक फैसले के सकारात्मक नतीजे सामने आने लगे हैंं। फाइनल ईयर के एग्जाम का विरोध करने वाले राज्य या कॉलेज अंततः परीक्षा की तैयारी में जुट गए हैं।  

सत्य सिद्धान्तों के प्रचार से ही देश व समाज का कल्याण होगा

मनमोहन कुमार आर्य

                संसार के सभी मनुष्य एक समान हैं। जन्म से सब एक समान व अज्ञानी उत्पन्न होते हैं। जीवन में ज्ञान की मात्रा व आचरण से ही उनके व्यक्तित्व व जीवन का निर्माण होता है। ज्ञान का आदि स्रोत चार वेद ही हैं। वेद न होते तो ज्ञान भी न होता। वेदों का ज्ञान ही हमारी स्कूली किताबों व मत-मतान्तरों में प्राप्त होता है। मत-मतानतरों में जो ज्ञान विरुद्ध अविद्या की बातें हैं वह सब उनकी अपनी है। यदि वह वेदों का अध्ययन कर सत्य व असत्य का निर्धारण कर अपने मतों की मान्यताओं का विचार कर उन्हें वेद के आलोक में शुद्ध करें तो यह कार्य जब चाहें तभी हो सकता है। इसके विपरीत सभी मनुष्य समुदाय व मत-पन्थ आदि अपनी मान्यताआंे की सत्यता की परीक्षा करने व उन्हें सत्य की कसौटी पर कसने को तैयार नहीं हैं। ऋषि दयानन्द ने अपने अध्ययन, तप और पुरुषार्थ से जाना था कि सत्य से ही मनुष्य जाति की उन्नति व सुखों में वृद्धि हो सकती है तथा सत्य को प्राप्त होकर व उसका आचरण किये बिना मनुष्य, देश व समाज उन्नति, सुख व कल्याण को प्राप्त नहीं हो सकते।

                जब हम सत्य सिद्धान्तों की बात करते हैं तो हमें किसी एक विषय में वेद के विचारों व मान्यताओं की मत-मतान्तरों में तद्विषयक मान्यताओं को जानकर उनसे तुलना करनी होती है। ईश्वर का ही विषय लें तो वेदों से ईश्वर का जो सत्य स्वरूप मिलता है वह ऋषि दयानन्द के अनुसार सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता आदि गुण, कर्म व स्वभाव वाला प्राप्त होता है। ईश्वर वेद ज्ञान का देने वाला है। उसने अपनी सनातन प्रजा जीवों को उनके कर्मों का सुख व दुःख प्रदान करने के लिये इस सृष्टि को रचा है तथा वही इसको चला रहा वा पालन कर रहा है। संसार में जितने प्रमुख मत मतान्तर आदि हैं, उनमें ईश्वर के इस सत्य व तर्कसंगत स्वरूप को नहीं बताया व प्रचारित किया जाता। कुछ मतों में तो अजन्मा व सर्वव्यापक ईश्वर के कहानी व किससे भी सुने सुनाये जाते हैं। होना यह चाहिये कि वेद मत व अन्य मतों का अध्ययन व परीक्षा की जानी चाहिये और वेदों के सत्य को स्वीकार तथा अपनी अपनी असत्य मान्यताओं का परित्याग करना चाहिये। धार्मिक जगत में सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग का यही काम ऋषि दयानन्द ने किया था और वह ईश्वर सहित सभी विषयों में अपनी मान्यतायें व सिद्धान्त स्थिर कर पाये थे। अपनी सभी मान्यताओं व सिद्धान्तों को उन्होंने वेदों की तराजू पर तोला था और उन्हें वेदानुकूल, तर्कसंगत तथा सृष्टिक्रम के अनुकूल होने पर ही सत्य स्वीकार किया था।

                ऋषि दयानन्द ऐसे विद्वान ऋषि थे जिन्होंने अपनी किसी मान्यता के असत्य पाये जाने पर अपने अनुयायियों को उस पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार कर उसे वेदानुकूल बनाने की भी प्रेरणा की थी। विगत 137 वर्षों में उनका कोई सिद्धान्त अपूर्ण, वेदविरुद्ध तथा सृष्टिक्रम के विरुद्ध नहीं पाया गया है। अतः उनका प्रतिनिधि संगठन आर्यसमाज उनके सभी सिद्धान्तों का देश देशान्तर में प्रचार करता है और संसार के सभी मतों व मनुष्यों को अवसर देता है कि वह वैदिक मान्यताओं की परीक्षा कर उस पर शंका कर सकते हैं जिसका समाधान आर्यसमाज के विद्वान करने के लिये कटिबद्ध होते हैं। यदि सब मत इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लेते तो जो विद्वान व आचार्य किंवा मत-मतान्तर अपने अपने मत का प्रचार कर अपने अनुयायियों की संख्या के विस्तार के कार्य में लगे हुए हैं, इसकी उन्हें आवश्यकता न पड़ती। सब सत्य को जानने का प्रयत्न करते और उसे स्वीकार कर उस पर आचरण करते हुए ईश्वर को प्राप्त होकर जीवन के लक्ष्य सुख व शान्ति को प्राप्त होकर सन्तुष्ट जीवन व्यतीत करते। सब मनुष्य वेदानुसार यौगिक जीवन व्यतीत करते हुए ईश्वर का साक्षात्कार करने भी समर्थ होते हैं और शरीर व आत्मा को दुर्गुणों व दुव्र्यस्नों के कारण होने वाले दुःखों से भी मुक्त कर सकते थे।

                ईश्वर द्वारा वेदों में विश्व के सभी मनुष्यों के जीवन को सुखी व सफल करने का जो मार्गदर्शन किया गया है उसे क्रियान्वित करने करने के लिये ही ऋषि दयानन्द ने वैदिक मान्यताओं पर आधारित ‘‘सत्यार्थप्रकाश” ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ से मनुष्य जीवन की सभी भ्रान्तियां व अन्धविश्वास दूर होते हैं। इस ग्रन्थ से मार्गदर्शन प्राप्त कर जीवन को आनन्द प्राप्ति के लक्ष्य की ओर ले जाकर उसे प्राप्त किया जा सकता है। मत-मतान्तरों के अपने-अपने कारणों से इस सत्यार्थ का प्रकाश करने वाले ग्रन्थ को न अपनाने के कारण इसका उद्देश्य पूरा नहीं हो सका। अतः यह आन्दोलन तब तक जारी रहेगा जब तक कि सभी मनुष्य वेदों के सत्य अर्थों को जानकर उसका पालन करना स्वीकार न करें। इसी से मनुष्य जीवन सहित देश व समाज की सभी समस्याओं का हल सम्भव है। सृष्टि के आरम्भ से महाभारत युद्ध के 1.96 अरब वर्षों तक वेदों की मान्यताओं व सिद्धान्तों के अनुसार भारत भूमि सहित सभी देशों के शासन व जीवन चलते थे। आश्चर्य होता है कि वर्तमान समय में लोग वेदों के सत्य विचारों व मान्यताओं को भी स्वीकार नहीं करते हैं और न ही अध्ययन ही करते हैं।

                सत्य ज्ञान को प्राप्त होने का मार्ग यह है कि मनुष्य विद्या को प्राप्त करे जो सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग कराती है। विद्या प्राप्ति की प्राचीन पद्धति गुरुकुलीय पद्धति है जिसमें 5 से 12 वर्षों की आयु के बालक बालिकाओं को गुरुकुलों में रखकर वहां उन्हें अक्षरों सहित शब्दों, शब्दार्थ एवं व्याकरण का ज्ञान कराया जाता है। व्याकरण पढ़ने के बाद बालक व बालिकाओं को अनेक विषयों के ग्रन्थ पढ़ाये जाते हैं। बच्चे उपनषिद, दर्शन, मनुस्मृति, रामायण व महाभारत सहित वेदों का अध्ययन करते हैं। पूर्व काल में आयुर्वेद सहित धनुर्विद्या व खगोल ज्योतिष का अध्ययन भी हमारे गुरुकुलों में कराया जाता था व वर्तमान में भी कराया जाता है। कृषि विज्ञान तथा वाणिज्य से सम्बन्धित विषयों का ज्ञान भी शिष्य अपने आचार्यों से प्राप्त करते रहे हैं। गुरुकुल में किसी भी विषय व विद्या का अध्ययन करने का निषेध नहीं था न अब है। आज भी वहां बच्चों को सत्यार्थप्रकाश सहित उपनिषद, दर्शन तथा वेद आदि ग्रन्थों का अध्ययन कराया जाता है और इसके साथ वह आधुनिक ज्ञान विज्ञान व गणित आदि का अध्ययन कर उन सब विषयों का अभ्यास करते हैं। वैदिक साहित्य के अध्ययन से मनुष्य को अपना जीवन सत्य नियमों पर आधारित बनाने की प्रेरणा व शक्ति प्राप्त होती है। मनुष्य का जीवन सत्य एवं अहिंसा के सिद्धान्तों पर आधारित होने सहित शारीरिक, आत्मिक तथा सामाजिक उन्नति पर केन्द्रित होना चाहिये। यह लक्ष्य गुरुकुलीय शिक्षा में आधुनिक ज्ञान व विज्ञान से युक्त सभी विषयों के अध्ययन को समाविष्ट कर प्राप्त किया जा सकता है।

                आजकल की शिक्षा मनुष्य को ईश्वर का सत्यस्वरूप बताकर उसे ईश्वर उपासना में प्रवृत्त करने के स्थान पर इसे अध्ययन में सम्मिलित न कर बालक व युवाओं को ईश्वर से दूर करती है जिससे उनके जीवन में ईश्वर की उपासना से होने वाले लाभों यथा मन की एकाग्रता, दुर्गुणों का नाश तथा आत्मा की उन्नति आदि होने की स्थिति नहीं बन पाती। ईश्वर का सच्चा ज्ञान व उपासना मनुष्य को दुर्गुणों को दूर कर उसे आत्मिक बल प्रदान करने का साधन होता है। आत्मा व परमात्मा का सच्चा स्वरूप व इनके गुण, कर्म व स्वभाव को जानकर मनुष्य के सभी भ्रम व शंकायें दूर हो जाते हैं। इससे मनुष्य जीवन में पुरुषार्थ करते हुए धनोपार्जन व भौतिक साधन अर्जित करने सहित उपासना से अपनी आत्मा को भी ऊंचा उठाता जाता है। प्राचीन काल में आत्मा की उन्नति को महत्व दिया जाता था परन्तु अब इसकी उपेक्षा की जाती है। यदि हमें सचमुच सभी देशवासियों के जीवन की उन्नति करनी है तो हमें निश्चय ही धर्म व संस्कृति विषयक सत्य सिद्धान्तों का निर्धारण कर उससे अपनी बाल व युवा पीढ़ी को संस्कारित व दीक्षित करना होगा। इससे न केवल बच्चों के जीवन सत्य ज्ञान के प्रकाश से आलोकित हांेगे अपितु वह देश व समाज विरोधी सभी गतिविधियों व कार्यों से भी बचेंगे। ऐसा होने पर कोई शत्रु देश हमारे देशवासियों को लोभ व छल से प्रभावित कर देश विरोधी कार्य नहीं करा सकेगा। वर्तमान में बहुत से देश व संगठन मनुष्यों को लोभ देकर व उनकी बुद्धि विकृत कर उनसे समाज व देश विरोधी कार्य कराते हैं। सत्य धर्म व संस्कृति के पर्याय वेदों के अध्ययन से देश व समाज को सभी प्रकार के अनुचित कार्यों से बचाया जा सकता है।

                सत्य मान्यताओं पर आधारित देश व समाज को बनाना अत्यन्त कठिन कार्य है। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में इस कार्य की नींव डाली थी। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की रचना व आर्यसमाज की स्थापना इसी उद्देश्य से किये गये कार्य कहे जा सकते हैं। यदि देश वेद व सत्यार्थप्रकाश को अपना ले तो देश विश्व का गुरु भी बन सकता है और संसार में एक आदर्श राष्ट्र बनकर और प्रत्येक दृष्टि से सुदृण होकर अपने सभी आन्तरिक व बाह्य शत्रुओं पर विजय पा सकता है। अन्य समाधान समस्या को एक सीमा तक ही हल कर सकते हैं। देश को विश्व के सर्वोत्तम धर्म व संस्कृति से युक्त करने हेतु देश भर में सत्य का प्रचार व असत्य का खण्डन आवश्यक है। वैदिक धर्म में पूरी तरह से दीक्षित युवा ही विद्या का प्रचार कर ऋषि दयानन्द के स्वप्न को पूरा कर देश को वैदिक राष्ट्र बना सकते हैं जहां किसी के साथ किसी प्रकार अन्याय नहीं होगा। सबको अपनी सभी प्रकार की उन्नति करने के अवसर मिलेंगे। पात्रों को अधिकार मिलेंगे और पात्रहीनों की उपेक्षा होगी। वर्तमान में भी ऐसा ही होता है तथापि लोग क्षणिक लाभ के लिए असत्य में प्रवृत्त देखे जाते हैं। वेद प्रचार की न्यूनता के कारण ऐसा हो रहा है। यदि महाभारत युद्ध के बाद ऋषि दयानन्द जैसे ऋषि देश में होते और उनके अनुरूप वेद विद्याओं के प्रचार का कार्य होता तो आज देश में अविद्यायुक्त मतों का प्रचार न होता। सब एक मत, एक मन, एक सुख-दुःख व परस्पर सुहृद मित्र होकर देश में सुखों की वृद्धि करते। अतः देश में प्रचलित सभी विचारों, मान्यताओं, सिद्धान्तों व मत-पन्थों में सत्य की पूर्ण प्रतिष्ठा आवश्यक है। इसी से मानव जाति का भला हो सकता है। ओ३म् शम्। 

परमात्मा सब जीवात्माओं के जन्मदाता व माता-पिता होने से उपासनीय हैं

मनमोहन कुमार आर्य

                परमात्मा और आत्मा का सम्बन्ध व्याप्य-व्यापक, उपास्य-उपासक, स्वामी-सेवक, मित्र बन्धु व सखा आदि का है। परमात्मा और आत्मा दोनों इस जगत की अनादि चेतन सत्तायें हैं। ईश्वर के अनेक कार्यों में जीवों के पाप-पुण्यों का साक्षी होना तथा उन्हें उनके कर्मानुसार सुख व दुःख रूपी भोग प्रदान करना है। हमारा जो जन्म व मृत्यु होती है वह हमें परमात्मा से ही ईश्वरीय कर्म-फल विधान एवं और हमारे शरीर का जन्म व मृत्यु धर्मा होने के कारण से ही होती है। हम अपने किये हुए कर्मों को भूल जाते हैं परन्तु वह सभी कर्म ईश्वर के ज्ञान व स्मृति तब तक बने रहते हैं कि जब तक हम उनका फल न भोग लें। कर्म का फल भोग लेने के बाद ही उसका फल क्षय को प्राप्त व नष्ट होता है। यह भी जानने योग्य तथ्य है कि हमारे सभी शुभ व पुण्य कर्मों का फल सुख तथा अशुभ वा पाप कर्मों का फल दुःख होता है। कोई भी आत्मा वा मनुष्य दुःख को प्राप्त होना नहीं चाहता। इनसे बचने का उसके पास एक ही उपाय है कि वह अशुभ व पापकर्मों को करना छोड़ दे। अशुभ कर्म असत्य के मार्ग पर चलना होता है। असत्य बोलना अधर्म व पाप कहलाता है। असत्य का व्यवहार करने से मनुष्य का जीवन नीरस व सुखों से रहित हो जाता है। इसके विपरीत सत्य को जानकर सत्य का व्यवहार करने से मनुष्य का जीवन व उसकी आत्मा उन्नति को प्राप्त होकर उसे जीवन में सभी अभिलषित सुखों व उद्देश्यों की प्राप्ति होती है। इसी कारण से हमारे प्राचीन ऋषियों ने आदि काल में ही लोगों को शुभ व सत्य कर्मों का आचरण करने की प्रेरणा की थी।

                सभी मनुष्य सुखी हों और स्वस्थ रहते हुए पूर्ण आयु को भोगें, इसके लिये हमारे ऋषियों ने वेद के आधार पर अनेक नियम बनाये हैं जिनमें एक नियम गृहस्थी मनुष्यों का प्रतिदिन पंचमहायज्ञों को करने का विधान है। इन पंचमहायज्ञों को जानकर इनको करने से मनुष्य की आत्मा की उन्नति होने सहित उसके इष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति होती है। अतः सभी मनुष्यों को पंचमहायज्ञों को जानकर उनका सेवन करना चाहिये। इनकी महत्ता के कारण ही महाराज मनु ने आदि काल में ही घोषणा की थी सभी मनुष्य पंचमहायज्ञों को करें और जो न करें उन्हें सभी द्विजों के कार्यों से पृथक कर देना चाहिये। पंचमहायज्ञों को करने से मनुष्य ईश्वर को प्राप्त होकर अपनी अविद्या व दुःखों को दूर करने में सफल होता है। देवयज्ञ अग्निहोत्र करने से वायु व जल आदि की शुद्धि होने सहित ईश्वर की उपासना भी होती है। इसे करने से मनुष्य को स्वास्थ्य लाभ सहित अनेक आध्यात्मिक लाभ तथा उसकी कामनाओं की सिद्धि होती है। माता-पिता की सेवा करने से उसे उनका आशीर्वाद मिलता है तथा उनके पुत्र व पुत्री भी वृद्धावस्था में उनकी सेवा कर उनको प्रसन्न व सन्तुष्ट रखेंगे। विद्वान अतिथियों की सेवा करने से मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि व उनकी सभी शंकाओं का समाधान होता है। ऐसा करने से मनुष्य अन्धविश्वासों, पाखण्डों तथा कुरीतियों में नहीं फंसते। इस अतिथिसेवा-यज्ञ को करने से मनुष्य को विद्वान अतिथियों का आशीर्वाद भी मिलता है हो इष्ट कामनाओं की पूर्ति करता है। पांचवा दैनिक यज्ञ बलिवैश्वदेव-यज्ञ होता है। इसके अन्तर्गत पशु-पक्षियों को कुछ अन्न देने से हमें पुण्य प्राप्त होता है। यह पुण्य कार्य मनुष्य के जीवन में सभी क्षेत्रों में सुखदायक होता है। अतः पंचमहायज्ञों को हम सभी को करना चाहिये और इनसे मिलने वाले लाभों को प्राप्त करना चाहिये।

                हम अपनी आंखों से जिस संसार को देखते हैं इसमें जड़ और चेतन दो प्रकार के पदार्थ हैं। संसार में कुल तीन ही पदार्थ हैं जो ईश्वर, जीव व प्रकृति कहलाते हैं। ईश्वर सब जगत के ऐश्वर्य का स्वामी होने से ईश्वर कहलाता है। ईश्वर ने ही त्रिगुणात्मक कारण प्रकृति को कार्य सृष्टि में परिणत कर सभी जीवों को जन्म-मरण देकर सुख व मोक्ष प्राप्ति के अवसर दिये हैं। दूसरा चेतन पदार्थ है जीव है जो अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर, अल्प परिणाम, अल्पज्ञ, एकदेशी, समीम, जन्म-मरण धर्मा, शुभाशुभ कर्मों को करने वाला तथा ईश्वर की व्यवस्था से उनके सुख व दुःखरूपी फलों को भोगने वाला है। मनुष्य योनि में जीवात्मा का कर्तव्य है कि वह ईश्वरीय ज्ञान वेदों का अध्ययन करे और वेदविहित कर्तव्य कर्मों को करते हुए ईश्वर के ज्ञान को प्राप्त होकर उसके साक्षात्कार सहित सुख व मोक्ष आदि को प्राप्त करने में प्रयत्नशील रहे। मनुष्य वेद विहित कर्मों को करता है तो उसे पाप-पुण्य बराबर होने व पुण्य अधिक होने पर मनुष्य का जन्म मिलता है। मनुष्य जितने अधिक पुण्य कर्मों को करेगा उतना ही उसे श्रेष्ठ परिवेश में मनुष्य का जन्म मिलेगा और उसके पुण्यों के अनुरूप ही उसे परजन्म में सुखों की प्राप्ति होती है। दर्शन ग्रन्थों में इसका तर्क एवं युक्तियों सहित विवेचन किया गया है। हमें दर्शनों व उपनिषदों के ज्ञान का लाभ प्राप्त करने के लिये इन ग्रन्थों का भी अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करने से जीवात्मा के स्वरूप तथा जन्म मरण विषयक हमारी सभी शंकाओं का समाधान हो सकेगा।

                ईश्वर का सत्यस्वरूप भी वेद व वैदिक साहित्य से ही जाना जाता है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ वैदिक साहित्य का ही प्रमुख ग्रन्थ है। इसके अध्ययन से जीवात्मा, परमात्मा तथा प्रकृति के सत्यस्वरूप का ज्ञान होता है। ईश्वर को एक दो वाक्य में जानना व बताना हो तो आर्यसमाज के दूसरे नियम का उपयोग कर उसे प्रस्तुत किया जा सकता है। नियम में ईश्वर क्या व कैसा है प्रश्न का उत्तर दिया गया है। नियम है ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी (चाहिये) योग्य है। हमें ईश्वर के स्वाध्याय, चिन्तन, मनन, ध्यान, सन्ध्या व उपासना के द्वारा ईश्वर के इसी सत्यस्वरूप को प्राप्त होना है। इसे प्राप्त कर लेने पर ही मनुष्य जीवन सफल होता है और मनुष्य जन्म व मरण के बन्धनों से छूट कर दीर्घ काल तक मोक्ष अवस्था को प्राप्त होतो है व हो सकता है। मोक्ष का वर्णन सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के नवम् समुल्लास में हुआ है। इसका सभी को अध्ययन करना चाहिये। मोक्ष आनन्द की अवस्था है जिसमें जीवात्मा 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों के लिये जन्म व मरण के दुःखों से छूट जाता है। यही हम सब जीवात्माओं का लक्ष्य है। हमें मोक्ष प्राप्ति के पथ पर ही अपने जीवनों को चलाने का प्रयत्न करना चाहिये। जिस प्रकार से ईश्वर, जीवात्मा, कारण व कार्य जगत सृष्टि, वेद आदि सत्य हैं उसी प्रकार वेद और ऋषियों के ग्रन्थों में वर्णित मोक्ष व मोक्ष में प्राप्त होने वाले सुखों की प्राप्ति का होना भी सत्य है। मोक्ष की अवस्था अनेक जन्म में पुण्य कर्मों का संचय तथा अपने सभी पाप कर्मों का भोग कर लेने पर प्राप्त होती है। सत्याचरण ही धर्म है और यही मोक्ष का मार्ग भी है। इस का सभी मनुष्यों को चिन्तन करना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ चिन्तन-मनन में सहायक है और जीवन की सभी शंकाओं व जानने योग्य विषयों पर निर्णायक ज्ञान देता है।

                परमात्मा हमारा माता, पिता व आचार्य आदि है। उसने अपनी प्रजा जीवों के लिये ही इस संसार की रचना की और इसका पालन कर रहा है। इस कारण से वह हमारी माता व पिता दोनों है। वेद ज्ञान देने सहित ऋषियों व परम्परा से हमें वेदज्ञान उपलब्ध कराने तथा आत्मा में उपस्थित रहकर हमें कर्तव्यों की प्रेरणा करने से वह हमारा आचार्य व गुरु भी है। हमें ईश्वर के साथ अपने इन सम्बन्धों को जानकर उन्हें निभाना चाहिये और ईश्वर के समान ही उसके जैसा उसका योग्य पुत्र व शिष्य बनने का प्रयत्न करना चाहिये। हमें जन्म व मृत्यु को देखकर न तो अत्यधिक प्रसन्न होना है और न ही अपनी व अपने प्रियजनों की मृत्यु को देखकर निराश व दुःखी होना है। ईश्वर की व्यवस्था को जानकर हमें उसमें विश्वास कर अज्ञानवतावश होने वाले दुःखों को समझना व उनसे उपर ऊठना है। गीता में कहा है ‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु ध्रुवं जन्म मृतस्य च’ अर्थात् जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु का होना निश्चित है और जिसकी मृत्यु होती है उसका जन्म होना भी धु्रव, अटल व निश्चित है।

                जन्म व मरण का यह नियम हम सभी जीवों पर लागू होता है और सबके जीवन में जन्म व मृत्यु का समय अवश्य ही आना है। जब हमें पता है कि हमारी व हमारे सभी सगे सम्बन्धियों की मृत्यु होनी है तो हमें मृत्यु आने व होने पर क्लेश व दुःखी नहीं होना चाहिये। हमें जानना चाहिये कि मृत्यु के समय जीवात्मा शरीर से निकल कर ईश्वर की प्रेरणा से आकाश व वायुमण्डल में रहता है। ईश्वर उस मृतक जीवात्मा का उसके कर्मानुसार माता-पिता का चयन कर उनके द्वारा पुनर्जन्म प्रदान करता है। यह अटल सत्य व सिद्धान्त है। वस्तुतः सभी के साथ ऐसा ही होना है। मृत्यु होने पर मृतक आत्मा के अपने परिवारजनों से सभी सम्बन्ध टूट जाते हैं। मृतक आत्मा को मृत्यु हो जाने पर अपने पूर्व सम्बन्धों व परिजनों का किंचित ज्ञान नहीं रहता। मृत्यु के बाद लगभग एक वर्ष व कुछ समय मनुष्य जन्म होने में लगता है। मृत्यु होने पर नया शरीर मिलता है। पुराने शरीर के मस्तिष्क, मन व बुद्धि आदि अंग होते हैं वह शरीर सहित सभी नष्ट हो जाते हैं। पुराना शरीर छूट जाने पर नया शरीर मिलता है जो 12 वर्ष तक बाल व किशोर अवस्था में होता है। अतः पुनर्जन्म में पूर्वजन्म की स्मृतियां विस्मृत हो जाती हैं। ऐसा होना मनुष्य के लाभकारी ही होता है। योगियों को इनका साक्षात्कार होना सम्भव होता है। अतः जिन परिवारों में कभी वियोग की कोई घटना हो तो ईश्वर के इस जन्म-मरण-पुनर्जन्म की व्यवस्था को विचार कर विषाद रहित रहना चाहिये। ईश्वर की उपासना व भक्ति में संलग्न रहना चाहिये। स्वाध्याय करने में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये। दुःख कितना ही बड़ा क्यों न हो व वह कैसा भी हो, समय के साथ उसमें न्यूनता आती जाती है। कुछ समय बाद तो आहत मनुष्य उस दुःख को भूल ही जाता है। अतः जब कभी कोई वियोग आदि का दुःख आये तो मनुष्य को उससे विचलित नहीं होना चाहिये और वेद व वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय सहित ईश्वर के ‘ओ३म्’ नाम के जप सहित गायत्री मन्त्र आदि के जप से अपने मन व आत्मा को शुद्ध कर उन्हें ईश्वर में लगाना चाहिये। इससे मनुष्य व परिवारजन अपने किसी प्रिय के वियोग के दुःख को कम व नष्ट कर सकते हैं।                 हम सब को जीवन में परमात्मा और आत्मा आदि का सत्य ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। परमात्मा हमारे माता-पिता, आचार्य, मित्र, सखा, बन्धु, हितैषी, सुखदाता तथा प्रेरणाओं के स्रोत है। उनकी शरण में जाकर सबको उनकी स्तुति, प्रार्थना, उपासना व भक्ति करनी चाहिये। इसी से हमारा कल्याण होगा। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

प्रणव दा: भारतीय राजनीति के अजातशत्रु


-ः ललित गर्ग:-

‘भारत रत्न’, भारतीय राजनीति के शिखरपुरुष एवं पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जिन्दगी और मौत के बीच संघर्ष करते हुए आखिर हमें छोड़कर चले गए। उनका राजनीतिक जीवन पांच दशक से भी लंबा रहा। उनके विरल व्यक्तित्व के इतने रूप हैं, इतने कौण हंै, इतने आयाम हैं कि उन्हें एक छवि में बांधना संभव है। जिस पर भी कौतूहल यह है कि जो सबसे बड़े आयाम हैं, वे तो इन सब परिभाषाओं के बाहर ही छूट गये। और वे हंै भारतीय लोकचेतना का लाड़ला नायक! राष्ट्रीयता का पोषक!! विविधता में एकता का प्रेरक !!! विरोधी विचारों में समन्वय-सेतु!!!! उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन के इतने लंबे दौर में लगभग हर महत्त्वपूर्ण मंत्रालय की जिम्मेदारी को अनूठे ढंग से संभालीं। न केवल भारत में बल्कि दुनिया में अपने राजनीतिक कौशल एवं विलक्षण प्रबन्धन क्षमता से अपनी स्वतंत्र पहचान कायम की, विशेषतः विश्वस्तर पर उन्हें सबसे ज्यादा पहचान भारत के वित्तमंत्री के रूप में मिली। खासतौर पर 2008 की भयावह मंदी से बाहर निकालने में जिस तरह मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्रीय हुनर को याद किया जाता है उसी तरह मंदी से उबारने के काम के क्रियान्वयन के लिए प्रणब मुखर्जी का नाम लिया जाता है। न्यूयॉर्क से प्रकाशित पत्रिका, यूरोमनी के एक सर्वेक्षण के अनुसार, वर्ष 1984 में दुनिया के पाँच सर्वोत्तम वित्त मन्त्रियों में से एक प्रणव मुखर्जी भी थे। प्रणव दा एक अत्यंत शिष्ट, परिपक्व, संयत और मुखर राजनेता रहे हैं। वे भारतीय राजनीति में ‘अजातशत्रु’ के रूप में रहे। फिर भी एक बड़ा सत्य तो यही है कि प्रणव दा जैसे राजनेता युगों में एक होते हैं।
राष्ट्रपति के रूप में प्रणब मुखर्जी को विद्वता और शालीन व्यक्तित्व के लिए याद किया जाता है। उन्होंने अपने कार्यकाल में लीक से हटकर अनूठे एवं अविस्मरणीय फैसले लिए। राष्ट्रपति पद के साथ औपचारिक तौर पर लगाए जाने वाले ‘महामहिम’ के उद्बोधन को उन्होंने खत्म करने का निर्णय लिया। रायसीना की पहाड़ी पर बने राष्ट्रपति भवन में अब तक कई राष्ट्रपतियों ने अपनी छाप छोड़ी है। उनमें राष्ट्रपति के रूप में प्रणब दा का कार्यकाल ऐतिहासिक, यादगार, गैरविवादास्पद और सरकार से बिना किसी टकराव का रहा। आमतौर पर राष्ट्रपति को भेजी गईं दया याचिकाएं लंबे समय तक लंबित रहती हैं लेकिन प्रणब मुखर्जी कई आतंकवादियों की फांसी की सजा पर तुरंत फैसले लेने के लिए याद किए जाएंगे। मुंबई हमले के दोषी अजमल कसाब और संसद हमले के दोषी अफजल गुरु की फांसी की सजा पर मुहर लगाने में प्रणब मुखर्जी ने बिलकुल भी देर नहीं लगाई। राष्ट्रपति के तौर पर 5 साल के अपने कार्यकाल के दौरान प्रणब मुखर्जी ने राजनीतिक जुड़ाव से दूर रहकर काम किया। प्रणव दा जब केंद्र सरकार में थे तो उन्हें सरकार के संकटमोचक के तौर पर देखा जाता था, जब वे बातचीत के जरिए विभिन्न समस्याओं का समाधान निकालने वाले में माहिर माने जाते थे। पांच दशक के राजनीतिक जीवन में, जिसमे उन्होंने असंख्य शब्द कहे, एक भी अभद्र टिप्पणी उनकी आप याद नहीं कर सकते।
प्रणव दा के राजनीतिक जीवन की अनेक विशेषताएं एवं विलक्षणताएं रही हैं। कानून, सरकारी कामकाज की प्रक्रियाओं और संविधान की बारीकियों की बेहतरीन समझ रखने वाले प्रणब दा 2014 के बाद नई भाजपा सरकार से अच्छे संबंध बनाने में सफल रहे। देश की राजनीतिक परिस्थितियों, देश की घटनाओं से वे अपने आपको अवगत रखते थे। प्रधानमंत्री की विशेष पहल पर उन्होंने शिक्षक दिवस पर राष्ट्रपति भवन परिसर में बने स्कूल में छात्रों को पढ़ाया भी। इन्होंने राष्ट्रपति भवन में एक संग्रहालय का भी निर्माण करवाया, जहां आम लोग अपनी इस विरासत को देख सकते हैं।
प्रणब मुखर्जी का जन्म 11 दिसंबर 1935 में पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में हुआ था। कामदा किंकर मुखर्जी और राजलक्ष्मी मुखर्जी के घर जन्मे प्रणव का विवाह बाइस वर्ष की आयु में 13 जुलाई 1957 को शुभ्रा मुखर्जी के साथ हुआ था। उनके दो बेटे और एक बेटी – कुल तीन बच्चे हैं। पढ़ना, बागवानी करना और संगीत सुनना- उनके व्यक्तिगत शौक भी हैं। उन्होंने शुरुआती पढ़ाई बीरभूम में की और बाद में राजनीति शास्त्र और इतिहास विषय में एमए किया। उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से एलएलबी की डिग्री भी हासिल की। वे 1969 से 5 बार राज्यसभा के लिए चुने गए। बाद में उन्होंने चुनावी राजनीति में भी कदम रखा और 2004 से लगातार 2 बार लोकसभा के लिए चुने गए। उनके राजनीतिक सफर की शुरुआत साल 1969 में हुई, जब भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मदद से उन्होंने सन् 1969 में राजनीति में प्रवेश किया, जब वे कांग्रेस टिकट पर राज्यसभा के लिए चुने गए। सन् 1973 में वे केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर लिए गए और उन्हें औद्योगिक विकास विभाग में उपमंत्री की जिम्मेदारी दी गई। प्रणव दा ने अपनी आत्मकथा लिखा है कि वे इंदिरा गांधी के बेहद करीब थे और जब आपातकाल के बाद कांग्रेस की हार हुई, तब वे इंदिरा गांधी के साथ उनके सबसे विश्वस्त सहयोगी बनकर उभरे। दक्षिण भारत में जो कांग्रेस का जनाधार बनकर उभरा वह भी इनकी मेहनत एवं राजनीतिक कौशल का परिणाम था। सन् 1980 में वे राज्यसभा में कांग्रेस पार्टी के नेता बनाए गए। इस दौरान मुखर्जी को सबसे शक्तिशाली कैबिनेट मंत्री माना जाने लगा और प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति में वे ही कैबिनेट की बैठकों की अध्यक्षता करते थे। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रणब मुखर्जी को प्रधानमंत्री पद का सबसे प्रबल दावेदार माना जा रहा था, पर तब कांग्रेस पार्टी ने राजीव गांधी को प्रधानमंत्री चुन लिया। 1984 में राजीव गांधी सरकार में उन्हें भारत का वित्तमंत्री बनाया गया। बाद में कुछ मतभेदों के कारण प्रणब मुखर्जी को वित्तमंत्री का पद छोड़ना पड़ा। वे कांग्रेस से दूर हो गए और एक समय ऐसा आया, जब प्रणब मुखर्जी ने एक नई राजनीतिक पार्टी बनाई। उन्होंने राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस का गठन किया। दरअसल, वे अपने मत में स्पष्ट थे और अपना विरोध दर्ज करवाना जानते थे इसलिए उन्होंने राजीव गांधी से दूरी बनाई। वीपी सिंह के कांग्रेस छोड़ने के बाद पार्टी की स्थिति डांवाडोल हो गई। बाद में कांग्रेस ने प्रणब मुखर्जी पर फिर भरोसा जताया और उन्हें मनाकर फिर पार्टी में लाया गया और उनकी पार्टी का कांग्रेस में विलय हो गया।
प्रणब मुखर्जी को पीवी नरसिंहराव सरकार ने योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया। बाद में उन्हें विदेश मंत्री की जिम्मेदारी भी दी गई। 1997 में उन्हें संसद का उत्कृष्ट सांसद चुना गया। ये वो दौर था, जब कांग्रेस का जनाधार सिकुड़ने लगा था। केंद्र में मिली-जुली सरकारों का दौर चल रहा था और राष्ट्रीय राजनीति बदलाव के दौर से गुजर रही थी। लोकसभा चुनाव जीतने के बाद उन्हें लोकसभा में सदन का नेता बनाया गया, क्योंकि तब प्रधानमंत्री राज्यसभा के सदस्य थे। वरिष्ठ सदस्य होने के नाते गठबंधन सरकार में अलग-अलग विचारधारा वाली पार्टियों को साथ लेकर चलने में प्रणब मुखर्जी की अहम भूमिका रहती थी। प्रणब मुखर्जी 23 वर्षों तक कांग्रेस पार्टी की कार्यसमिति के सदस्य भी रहे। कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता होने के कारण अनेक अवसर ऐसे आये, जब लोग उन्हें भावी प्रधानमंत्री के तौर पर देख रहे थे, मगर नियति को शायद कुछ और मंजूर था। वे 2009 से 2012 तक मनमोहन सरकार में फिर से वे भारत के वित्तमंत्री रहे। जब कांग्रेस ने उन्हें अपना राष्ट्रपति उम्मीदवार चुना, तब उन्होंने इस पद से इस्तीफा दे दिया। देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होने वाले वे पश्चिम बंगाल के पहले व्यक्ति बने। वे भारतीय अर्थव्यवस्था और राष्ट्र निर्माण पर कई पुस्तकें लिख चुके हैं। उन्हें पद्मविभूषण और ‘उत्कृष्ट सांसद’ जैसे पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। उनके कार्यकाल को एक प्रखर राजनेता के राजनय के उदाहरण के रूप में याद किया जाएगा।
हाल ही में एक किताब के विमोचन के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पुस्तक ‘प्रेसीडेंट प्रणब मुखर्जी ए स्टेट्समैन एट द राष्ट्रपति भवन’ को जारी किया। इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्रणब मुखर्जी के साथ अपने भावनात्मक जुड़ाव का उल्लेख किया और कहा कि प्रणब दा ने उनका ऐसा ख्याल रखा, जैसा कोई पिता अपने बेटे का रखता हो। प्रणव दा ने भी इस बात को स्वीकारा कि दोनों के बीच कभी मतभेद की नौबत नहीं आई, हालांकि दोनों की विचारधाराएं अलग-अलग हैं। वे लोकतांत्रिक मूल्यों की जीवंतता के लिये प्रयासरत रहे। संसद के काम में रुकावट पर उन्होंने चिंता जताई और कहा कि विपक्षी दलों को सदन को काम करने देना चाहिए।
मुखर्जी को पार्टी के भीतर तो सम्मान मिला ही, सामाजिक नीतियों के क्षेत्र में भी काफी सम्मान मिला है। अन्य प्रचार माध्यमों में उन्हें बेजोड़ स्मरणशक्ति वाला, आंकड़ाप्रेमी और अपना अस्तित्व बरकरार रखने की अचूक इच्छाशक्ति रखने वाले एक राजनेता के रूप में वर्णित किया जाता है। प्रणव मुखर्जी को 26 जनवरी 2019 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

रात के व्यापारी रात नै ए जा लिए….

सुशील कुमार ‘नवीन’

अफसर तो भई अफसर ही होते हैं। उनके मुख से निकला हर वर्ण पत्थर की लकीर की तरह होता है। अब ये उन पर निर्भर है कि वो अपने मातहतों से चाहे मूसे(चूहे) पकड़वाए या उन पर लार टपकाने वाली बिल्ली। कुत्तों की प्रजातियों की गणना करवाये या गधे-घोड़ों की। सांडों की पहचान करवाएं या उन्हें पकड़ गौशालाओं में भिजवाएं। उनको कोई रोक थोड़े ही सकता है। 

एक किस्सा मुझे याद आ रहा है। एक बार मनमौजी अफसर जिले में आ गया। हर काम हंसते-हंसाते करने की उनकी फितरत थी। मातहत समझ ही नहीं पाते कि वो जो आदेश दे रहे हैं वो वास्तविक है या मजाक। एक बार रात को घूमने निकल गए। साधारण भेष में थे सो कोई पहचान भी नहीं सकता था। 

शहर के मुख्य चौराहे पर चार सुराप्रेमी  मिलबैठ सुख-दुख साझा कर रहे थे।एक बोला- यार जिंदगी नीरस हो गयी है। सब मतलबी है। अपना कोई ध्यान नहीं रखने वाला। दूसरे ने हामी भरी और कहा- बात सौ आने की है। घर जाते हैं। घर वाले छूत के रोगी की तरह एक कोने में पटक देते हैं । थाली में रोटी लाकर आगे ऐसे रख जाते हैं जैसे हम कुत्ते हों। तीसरा बोला-यहां तक तो ठीक है। हम सही मूड में हो तब भी यही कहते हैं- तुम तो चुप ही रहो। नशा अभी उतरा नहीं है क्या। चौथा थोड़ा ज्यादा समझदार था। बोला- यार,अपनी बिरादरी को जागरूकता के लिए एकजुट करते हैं। किसी के साथ कुछ गड़बड़ हो तो सब वहीं पहुंच अगले पर ऐसा धावा बोले कि वो दोबारा हमारी प्रतिष्ठा के खिलाफ कुछ न कर पाए। सबकी इस पर सहमति बन गई। 

चारों महानुभावों की बात सुन अफसर महोदय का ह्रदय भी द्रवित हो गया। नशे में भी एकजुटता की बात उनको मन ही मन सम्मानित करने का निर्णय कर गयी। अगले दिन सुबह अपने मातहतों को बुलाकर उन चारों को ढूंढकर लाने के निर्देश जारी कर दिए। मातहत साहब के स्वभाव से परिचित थे। सोचा कि इसमें भी वे कुछ हास्य ढूंढ रहे होंगे। चौराहे पर साहब की नजरों में आने वाले वो कौन से सुराप्रेमी थे, इसका कुछ भी पता नहीं लग पाया। पर आदेश तो आदेश था। खोजबीन में चार और मिल गए। उन्हें साहब के दरबार में लाया गया। साहब ने उनसे रात की बात के बारे में पूछा। चारों के पास इसका कोई जवाब नहीं था। 

उनमें से  एक सीधे-सपाट शब्दों में बोला- जी आपको एक कहानी सुनाऊं। साहब की स्वीकृति पर उसने कहानी सुनानी शुरू कर दी। बोला- जी, रात को राजा की सवारी जा रही थी। उसके सामने हमारे भाईचारे का एक व्यक्ति आ गया और बोला-अरे, ओ राजा, ये हाथी कितने में बेचेगा, जिस पर तूं बैठा है। मुझे यह खरीदना है। मोल बता, मोल। राजा के सामने इस तरह की हिमाकत करने पर सैनिकों ने उसे पकड़ लिया। राजा ने कहा- इससे सुबह बात करेंगे। अभी यह नहीं बोल रहा। इसका नशा बोल रहा है। राजा के कहने पर उसे छोड़ दिया गया। 

सुबह राजा के सैनिक उसके घर पहुंचे और उसे दरबार ले आये। रात का नशा अब उतर चुका था। उसे कुछ याद नहीं था। राजा ने पूछा- हां, अब बता। मेरा हाथी ख़रीदेगा। बोल कितनी स्वर्णमुद्रा दे सकता है। राजा का हाथी खरीदने की तो वह सुराप्रेमी सोच भी नहीं सकता था। राजा ने उसे रात की घटना से अवगत कराया। मामले की गम्भीरता पर उसने राजा के सामने हाथ जोड़ लिए। बोला-महाराज, माफ करो। रात के व्यापारी तो रात को ही जा लिए। दिन में खरीदारी करना उनके बस की बात नहीं। उसकी बात सुनकर राजा को भी हंसी आ गई और उसे चेतावनी देकर छोड़ दिया।

कहानी सुन अपने अफसर महोदय को भी चेत आ गया। वे तो उनके सम्मान आयोजन के लिए आदेश तैयार कराए बैठे थे। उन्होंने अपने विशेष मातहत को बुला फौरन उस आदेश को वापस लेने के निर्देश जारी किए। मातहत ने कहा- जनाब, क्या बात हुई। जो इतनी जल्दी आदेश वापस कर दिया। साहब ने उसे पास बुलाया और कहा-मुझे पता नहीं था कि ये रात के व्यापारी है। अब मुझे दिव्य ज्ञान हो गया है। अपना सम्मान इनके व्यापार के आगे तुच्छ है। इनकी रात की सौदगिरी का कोई मोल नहीं है। एक राजा ही इनसे सौदागिरी नहीं कर पाया तो मैं तो एक अदना सा अफसर हूं। इसलिए समय को जान और उस पर्चे को फाड़कर फैंक दे। आगे से मैं इन सौदागरों का विशेष ध्यान रखूंगा। मातहत,  जी जनाब कहकर लौट गया। 

( नोट: कहानी मात्र मनोरंजन के लिए है। इसका मास्टरों को सुराप्रेमियों को गिनने सम्बन्धी पत्र को अफसरान द्वारा वापस लेने से कोई सम्बन्ध नहीं है।)

समावेशी राजनीति के प्रतीक थे प्रणव दा

दलगत भावनाओं से ऊपर उठकर जीने वाले, भारत रत्न,पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी भौतिक जगत को छोड़कर परमधाम के लिए गमन कर गए | देश ने एक ऐसा विद्वान राजनेता और मार्गदर्शक खो दिया जिस के  चाहने वाले सभी राजनीतिक दलों में उपस्थित हैं | कांग्रेस पार्टी के संकट मोचक के रूप में दशकों तक उन्होंने अपने दल की सरकार और पार्टी  को अनेक झंझावातों से बचाया | प्रधानमंत्री पद का  प्रवल दावेदार होते हुए भी पार्टी के आदेश पर  उन्होंने अपने कनिष्ठ सहयोगी  मनमोहन सिंह जी के अधीन कार्य करना भी स्वीकार किया, केवल स्वीकार ही नहीं किया अपितु अपनी सरकार के पक्ष में सर्वविधि समर्थन भी जुटाए रखा | लगभग 50  वर्ष के सुदीर्घ राजनीतिक जीवन में कई उतार चढ़ाव देखने वाले मुखर्जी वित्तमंत्री, रक्षामंत्री, विदेशमंत्री आदि मत्वपूर्ण पदों को सुशोभित करते हुई अंत में देश के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति पद के लिए चुने गए | इस पद पर रहते हुए 1993 मुंबई बम धमाके का अपराधी याकूब मेनन,  मुंबई के 26/11 हमले के अपराधी अजमल  कसाब और संसद  पर हमले का षड्यंत्रकरने वाले अफजल गुरू जैसे आतंकवादियों की फाँसी की सजा पर उन्होंने तुरन्त हस्ताक्षर कर दिए | मुखर्जी साहब की पुस्तक ‘द कोलिशन इयर्स’ भी बहुत चर्चा में रही इसमें उन्होंने अनेक राजनीतिक रहस्यों का उदघाटन किया है | इस पुस्तक में उनके द्वारा की गई भूलों का पूर्ण सत्यनिष्ठा के साथ उद्घाटित किया है | इतना ही नहीं इस पुस्तक में अन्य राजनेताओं के महत्व पूर्ण निर्णयों को भी रेखांकित किया गया है | कुशाग्र बुद्धि के धनी प्राण दा के बारे में कहा जाता है कि जब श्रीमती इंदिरा गाँधी से उनका परिचय हुआ तो वे युवा मुखर्जी से अत्यंत प्रभावित हुईं और उन्हें राज्य सभा से सांसद मनोनीत कर दिया गया | इसके बाद वे इंदिरा जी के विश्वस्त लोगों की सूची में गिने जाने लगे |  राष्ट्रपति पद के बाद वे सर्वाधिक चर्चा में तब आये जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संघ शिक्षा वर्ग में उन्होंने मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रण स्वीकार किया | संघ के कार्यक्रम में उपस्थित होने वाले बड़े नेताओं में महात्मा गाँधी जी के बाद प्रणव दा कांग्रेस के प्रमुख व्यक्ति के रूप में गिने जा सकते हैं | संघ शिक्षा वर्ग में दिया गया उनका उद्बोधन राष्ट्र, राष्ट्रभक्ति और भारतीयता पर केन्द्रित रहा | इस आयोजन में सहभागिता कर उन्होंने देश के सबसे बड़े सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन के साथ संवाद बनाये रखने का सन्देश दिया | भारतीय संस्कृति पर गर्व करने वाले और सभी देश वासियों  को भारतीय होने पर गर्व करने का आह्वान करने वाले प्रणव दा के चले जाने से जो रिक्तता आई है उसे भर पाना कठिन है | ऐसे विरले व्यक्ति राजनीति में कम ही होते हैं | अपने व्यक्तित्व,कृतित्व और ज्ञान से उन्होंने देश की जो सेवा की है देश उसे सदैव स्मरण रखेगा | घोर अभावों में पलकर,पांच किलोमीटर नंगे पाँव विद्यालय जाने वाले साधारण व्यक्ति की असाधारण उपलब्धियां सदैव स्मरण की जाती रहेंगी | आज पूरा देश उन्हें अश्रुपूरित श्रद्धांजिल अर्पित कर रहा है |

डॉ.रामकिशोर उपाध्याय

सुबह से शाम तक

सुबह से शाम तक
सूर्य की रक्ताभ किरणें
फैली -पसरी रही धरा पर
जीवन का सुख- दुख
हर क्षण हम आत्मसात करते रहे
केवल नहीं मिली हमें प्रेम कलिकाएं…
वह प्रेम
जिसको पाने के लिए भ्रमर दिन भर गुंजार करता है
चातक देखता रहता है चंद्रमा के आने की राह…
वह प्रेम, जो नश्वर है सचमुच
जो बिंथा है /बिंधा है स्वार्थ के सांसारिक डोर से ;
जिसका टूटना- बिखरना सुनिश्चित है…
और जिस को पाने के लिए हम
न जाने कितनी लक्ष्मण रेखाएं पार करते जाते हैं
स्वार्थ और परमार्थ, सत्य और असत्य,
रामत्व और रावणत्व -को अपने में झेलते- जीते हुए… अंततोगत्वा जीतता कौन है?
कौन बता सकेगा ?
जीवन जो नश्वर है और जो क्षणभंगुर भी है;
जिसके निर्मित लोक-परलोक, पाप- पुण्य,स्वर्ग- नरक, आस्तिक- नास्तिक, साक्षरता- निरक्षरता, यश-अपयश, हानि -लाभ, जय- पराजय, आशा- निराशा– सब- कुछ व्यर्थ है ।
वह प्रेम, जिसे पा लेने की हमारे भीतर भी स्वार्थलिप्सा- हमें कितनी आशातीत सफलता की स्वप्निल रेखाएं–
दिखलाया करता है।
हम भूल जाते हैं बार-बार अपना गंतव्य–
जिस हेतु इस धरा पर लाए गए हैं
हमारा इतिहास और भूगोल,
समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र,
साहित्य और संस्कृत,
धर्म और अध्यात्म, चिंतन और आस्वाद —
सब भूत के क्रोड़ में दिवंगत हो गए हैं ।
काल की अमित रेखाएं
चक्रवातीय तूफान के साथ
हमारे अंतःकरण को
बार-बार सचेत किया है।
हम जीवन की सावधानी भरी उलझन में
जीवन के सत्य को अंततः स्वीकार करते हैं।
मेरा यह आत्म स्वीकार– आत्म- पराजय नहीं है।
मेरा यह स्वीकार —
जीवन के सत्य से साक्षात्कार है ।
जीवन के बोझिल तत्व से
एकमेव होना
जीवन के सत्य से
समन्वय स्थापित कर लेना– अवांतर नहीं है।
मेरे जीवन का सूनापन —
जीवन के सत्य के काफी करीब है।
जीवन में, जहां प्रेम है ,वहीं घृणा है ,
जहां आशा है ,वही निराशा है, जहां विश्वास है,
वहीं विश्वासघात है
लेकिन यही सच है !
सुबह से शाम तक– जीवन का यही सत्य है;
जिसे हर कोई अपने कंधे पर उठाए ढो रहा है
हम गलत नहीं सोचें
तो यही हमारी
मुकम्मल चिंतन की लंबी फेहरिस्त है ।

पंडित विनय कुमार

आमिर खान : शत्रु देश में शूटिंग से विवाद

आमिर खान तुर्की में गये तो फ़िल्म की शूटिंग के लिए हैं किन्तु वे वहाँ राजनीतिक व्यक्तियों से मेल जोल बढ़ाते हुए दीख रहे हैं | इन भेंट-वार्ताओं ने उनकी यात्रा को विवादों में ला दिया है | इस समय चीन और पाकिस्तान दोनों भारत के शत्रु देश हैं | इन देशों के प्रति सहानुभूति रखने वाले अथवा सहायता करने वाले व्यक्ति, संस्था एवं राष्ट्र को भारत का शत्रु ही माना जाएगा | भारतीय जनमानस की भावनाएँ इस बात से आहत हैं कि हमारे देश का अभिनेता शत्रु समर्थक, भारत विरोधी  देश में फ़िल्म की शूटिंग के बहाने वहाँ के राष्ट्रपति रेसेप तैय्यप एर्दोआन  की पत्नी  एमिन एरदुगान के घर अतिथि बन कर आहार-विहार एवं मंत्रणा करता हुआ दीख रहा है  | इस मंत्रणा पर संदेह होना इसीलिये स्वाभाविक है क्योंकि आमिर खान देश विरोधी वयानों के लिए पहले भी विवादित हो चुके हैं | जब तथाकथित बुद्धिजीवियों एवं कट्टर पंथियों ने भारत की छवि धूमिल करने के उद्देश्य से असहिष्णुता कार्ड खेलकर आवार्ड वापिसी का प्रहसन किया था, तब उस अभियान का समर्थन करते हुए आमिर खान ने एक समारोह में विवादित साक्षात्कार दिया | इसमें उन्होंने भारत को न रहने लायक देश सिद्ध करते हुए यहाँ तक कह दिया, कि उनकी पत्नी अपने बच्चों की सुरक्षा को लेकर इतना डरी हुई है कि देश छोड़ने की कह रही है | देश की छवि बिगाड़ने  के लिए उन्होंने जो शब्द चयन किया था वह भी आपत्ति जनक था उन्होंने ने कहा था यहाँ “भारत में असहनशीलता,असुरक्षा और निराशा का वातावरण है |”

फिल्म की शूटिंग के लिए तुर्की की जगह संसार के किसी भी अन्य देश का चयन किया जा सकता था | क्योंकि इस समय  तुर्की एक मात्र ऐसा मुस्लिम देश है जो खुलकर पाकिस्तान के साथ खड़ा है | भारत ने जब पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद को बंद कराने के लिए फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) से पाकिस्तान को ब्लैक लिस्टेड करने का दबाव बनाया तो तुर्की ने अपनी पहुँच का प्रयोग कर उसे बचा लिया | पिछले कुछ वर्षों से तुर्की भारत के विरुद्ध विष-वमन करते हुए उसके आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का प्रयत्न कर रहा है ? कश्मीर से धारा 370 हटाने के बाद पाकिस्तान, इस्लामिक देशों से बार-बार यह विनती करता रहा कि कश्मीर विषय पर वह उसका समर्थन करें, किंतु मलेशिया एवं तुर्की के अतिरिक्त किसी भी अन्य इस्लामिक देश ने पाकिस्तान का समर्थन नहीं किया । आश्चर्य की बात तो यह भी  है जहाँ  दुनिया के सभी देश ( इस्लामिक देश भी ) पाकिस्तानी नागरिकों को अपने यहाँ से भगा रहे हैं (पाकिस्तान गृहमंत्रालय के अनुसार 2014 के बाद 5 लाख 19 हजार नागरिक निर्वासित किये गए) तब तुर्की पाकिस्तानी नागरिकों को दोहरी नागरिकता देने पर विचार कर रहा है | इससे यह संदेह भी जताया जा रहा है कि क्या आमिर खान भी दोहरी नागरिकता लेने की सोच रहे हैं ? क्योंकि उनकी पत्नी पहले भी देश छोड़ने की इच्छा व्यक्त कर चुकी हैं |

 पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद के पोषण एवं निर्यात की नीति का पूरी दुनिया विरोध कर रही है किन्तु तुर्की एकमेव देश है जो पाकिस्तान का साथ दे रहा है | तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैय्यप एर्दोआन ने पाकिस्तान की संसद में कश्मीरी जनता से पाकिस्तान और अपना रिश्ता होने की बात कह कर स्वयं को पाकिस्तान के भारत विरोधी अभियान में शामिल कर चुके हैं | 24 सितंबर 2019 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में  तुर्की कश्मीर राग अलाप कर भारत का अपमान कर चुका है | यही नहीं तुर्की विदेश मंत्रालय द्वारा कश्मीर से 370 हटाने  की आलोचना करना भी भारत के प्रति उसके बैर-भाव को स्पष्ट रूप से इंगित करता है | अब इन्हीं राष्ट्रपति महोदय के घर आमिर खान को देख कर आमजन का आहत होना स्वाभाविक ही है |

इस समय पूरी दुनिया कोरोना महामारी की चपेट में है | व्यापार धंधे चौपट हो रहे हैं इस स्थिति में यदि भारत के अभिनेता भारत में हीं फिल्मों की शूटिंग करें तो इसका लाभ देश के लोगों को ही मिलेगा | उचित होता यदि आमिर अपनी फिल्म की शूटिंग कश्मीर और लद्दाक में करते | इस से वहाँ के लोगों को आर्थिक लाभ के साथ साथ मानसिक सुख भी मिलता और भारत के शत्रु देश चीन पाकिस्तान दोनों को ही कड़ा सन्देश जाता | किन्तु इसके उलट आमिर खान तो अभी भी चीनी सोशल साईट सिना वीबो पर अपने चीनी दोस्तों का मन बहला रहे हैं | भारत के प्रधान मंत्री तक ने  सिना वीबो से अपना अकाउंट बंद कर दिया किन्तु आमिर ने ऐसा नहीं किया | ये सही है कि आमिर खान की कुछ फिल्में चीन में बहुत लोकप्रिय रही हैं किन्तु उन्हें इस ऊँचाई पर चीन ने नहीं भारतीय दर्शकों ने पहुँचाया है | क्या अपनी फ़िल्म को चीन में चलाने के लिए देश के करोड़ों चाहने वालों की भावनाओं से खिलवाड़ करना उचित है | आमिर अभिनेता होने से पहले इस देश के नागरिक हैं और एक नागरिक के रूप में उनका कर्तव्य है कि वे  मित्रदेश और शत्रुदेश का भेद समझें और ऐसा कोई कार्य न करें जिस से देश की छवि धूमिल हो | अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ शत्रु देशों को लाभ पहुँचाना नहीं है | हो सकता है तुर्की उनके एन्जियो को कुछ धन दे दे या वहाँ उनकी फ़िल्म थोड़ा अधिक लाभ कमा ले अथवा उन्हें कोई सम्मान या दोहरी नागरिकता मिल जाए किन्तु उनकी इस यात्रा से देश को जो क्षति होने वाली है उसकी कल्पना अभी उन्होंने ने नहीं की होगी | आज का तुर्की कट्टर इस्लामिक देश बनने की राह पर है इसीलिये उसे भारत में भी अपने लोग तैयार करने हैं | वह भारत के मुसलमानों को कश्मीर के मुद्दे पर (धारा 370 हटने पर)  भड़काना चाहता है | उसे भारत में ऐसे मुस्लिम सेलिब्रिटी की आवश्यकता है जो यहाँ  तुर्की समर्थकों की संख्या बढ़ा कर उसके मंतव्य को फलीभूत कर सके | भारतीय मुसलमानों को यह भी स्मरण रखना होगा कि जिन लोगों ने खिलाफ़त आन्दोलन के पक्ष में  भारत में अभियान चलाया था तुर्की के कमाल पाशा ने उसी  खिलाफ़त का अंत कर भारत एक मुसलामानों को अपमानित किया था | तुर्की अपने हितों के लिए भारतीय मुसलमानों का उपयोग (यूज) करना चाहता है | अपना काम निकल जाने पर वह पुनः मुँह मोड़ लेगा |

डॉ.रामकिशोर उपाध्याय

कोरोना काल में बढ़ेगा कुपोषण का प्रभाव?


कोरोना वायरस दिन दूनी रात चौगुनी के साथ विस्तार ले रहा है। इस वायरस के बढ़ते आंकड़ो ने न केवल हमारी ज़िंदगी की रफ़्तार पर ब्रेक लगाया है बल्कि हमारी दिनचर्या को भी काफी हद तक प्रभावित किया है। आज हर व्यक्ति पोष्टिक आहार और अपने स्वास्थ्य के प्रति चिंतित नजर आ रहा है। एक कहावत है- यथा अन्नम तथा मन्नम… जैसा अन्न हम खाते है, वैसा ही हमारा मानसिक और भौतिक विकास भी होता है। वर्तमान समय में न ही पोष्टिक अन्न मिल रहा है और न ही मानसिक सुकून मिल रहा है। आज खाने की वस्तुओं में पोषक तत्वों से कही अधिक जहर की मात्रा पाई जा रही है। मिलावट के जहर ने स्वास्थ्य को बुरी तरह प्रभावित कर दिया है। जिसके कारण कई गंभीर रोगों का खतरा बढ़ रहा है। जिनमें कुपोषण सबसे गंभीर समस्या बन हुआ है।
       पोषण शिक्षा और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता लाने के लिए 1982 में केंद्र सरकार ने पहली बार राष्ट्रीय पोषण सप्ताह की शुरुआत की थी। राष्ट्रीय विकास में सबसे बड़ी बाधा कुपोषण ही है। इसके प्रति जागरूकता फैलाने तथा देश को कुपोषण से मुक्ति दिलाने के लिए ही प्रति वर्ष “पोषण सप्ताह” मनाया जाता है। इस वर्ष राष्ट्रीय पोषण सप्ताह 1 सितंबर से 7 सितंबर तक मनाया जा रहा है। कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण ने आज हर व्यक्ति को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रुप से प्रभावित किया है। आज संकट की घड़ी में यह आवश्यक हो गया है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहे, लेकिन देश की उस अधिसंख्य जनसंख्या का क्या? जिसे रहनुमाई व्यवस्था कोरोना काल में सिर्फ़ पांच किलो चावल और एक किलो चना देकर स्वस्थ देखने का वितंडा कर रही है!
            प्रधानमंत्री मोदी ने 2022 तक भारत को कुपोषण से मुक्ति दिलाने के लिए पोषण अभियान शुरू किया है। इस अभियान में केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को शामिल किया है। इस पोषण अभियान की टैगलाइन- “सही पोषण-देश रोशन” रखी गयी है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य बच्चों, गर्भवती महिलाओं ओर स्तनपान करने वाली महिलाओं को पोषण प्रदान करना है। देखा जाए तो हमारे देश मे कुपोषण से मुक्ति के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही है, लेकिन अब भी हम कुपोषण में शीर्ष पर बने हुए है। इसकी सबसे बड़ी वजह जागरूकता की कमी और सरकारी योजनाओं में आपसी तालमेल न होना है। जिसकी वजह से आज भी जरूरतमंदों को इन सरकारी योजनाओं का लाभ नही मिल पाता है। हाल ही में जारी ग्लोबल न्यूट्रिशन की रिपोर्ट में भी यह अंदेशा जताया गया है कि भारत 2025 तक अपने न्यूट्रिशन लक्ष्य को पूरा नही कर पायेगा। कोरोना वायरस के दौर में आज हर व्यक्ति को भरपूर मात्रा में न्यूट्रिशन और पोषण की जरूरत है जिससे इम्यून सिस्टम बेहतर रहे। रिपोर्ट में कहा गया है कि पोषण में असमानता के कारण 2012 में जो लक्ष्य निर्धारित किए गए थे वह 2025 तक पूरे होते नही दिख रहे है। हमारे देश मे कुपोषण बहुत ही विकट समस्या बनती जा रही है। वैश्विक परिदृश्य पर देखे तो नाइजीरिया और इंडोनेशिया जैसे देश ही हमसे खराब स्थिति में है। ग्लोबल न्यूट्रिशन रिपोर्ट 2020 में कहा गया है, कि कुपोषण का सबसे बड़ा कारण लिंगभेद, भौगोलिक परिस्थिति, उम्र और जाति आधारित असमानता है।
         यूनिसेफ ने भी हाल में कोविड-19 महामारी के सम्बंध में अपनी चिंता व्यक्त की है। यूनिसेफ का कहना है कि कोरोना काल मे लगभग 67 लाख बच्चे कुपोषण का शिकार हो सकते है। भारत मे 5 साल से कम आयु के 2 करोड़ बच्चे कुपोषण जैसी गम्भीर समस्या से ग्रस्त है। वैश्विक भूख सूचकांक- 2019 के अनुसार भारत में बच्चों में कुपोषण की समस्या जहां 2008-2012 के बीच 16.5 फीसदी थी वही 2014-2018 में बढ़कर 20.8 फीसदी हो गई। साल 2019 की ही बात करे तो करीब 4 करोड़ सत्तर लाख बच्चे कुपोषण का दंश झेल रहे है। जाहिर सी बात है कि कोरोना काल मे यह आंकड़ा कई गुना बढ़ोतरी कर सकता है।

      कोरोना वायरस के बढ़ते प्रकोप का दुष्परिणाम है, कि दिहाड़ी मजदूरी करने वाला बहुत बड़ा तबका बेरोजगार हो गया है। यही बेरोजगारी भुखमरी और कुपोषण को कई गुना बढ़ा रही है। आज आधी आबादी दो जून की रोटी को तरस रहा है ऐसे समय मे कैसे उम्मीद करें कि मानव को सही पोषण आहार मिल सकेगा? वही कोरोना काल मे स्कूल बंद होने की वजह से बच्चों को मिड डे मील योजना का लाभ भी नही मिला पा रहा है। यह तो जग जाहिर है कि कुपोषण का सबसे अधिक असर नवजात शिशु और महिलाओं पर ही होता है और इस कुचक्र की शुरुआत बचपन से ही शुरू हो जाती है। कम उम्र में लड़कियों की शादी का देना जिससे उचित शारिरिक विकास संभव नही हो पाता है। कम उम्र में महिलाएं बच्चों को जन्म दे देती है। जिससे महिलाएं और बच्चे दोनो ही कुपोषण और एनीमिया जैसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त हो जाते है। कुपोषण आज के समय मे सबसे गम्भीर समस्या बन गयी है। कुपोषण का शिकार होने से बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास नही हो पाता है। कुपोषण को कम करना है तो महिलाओं को कुपोषण के प्रति जागरूक करने की आवश्यकता है। जिन लोगों को भोजन नही मिल रहा है, उनके लिए ऐसी योजनाएं बनाई जाए जिससे पेट भर भोजन ही नही बल्कि न्यूट्रिशन युक्त भोजन मिल सके। हमारे देश मे लगभग 40 प्रतिशत अन्न बिना उपयोग के बर्बाद हो जाता है। उस अन्न को किसी न किसी रूप में गरीबो तक पहुँचाने की उचित व्यवस्था की जाना चाहिए। इससे भी कुछ हद तक कुपोषण का कलंक दूर किया जा सकता है।
सोनम लववंशी

सत्य सिद्धान्तों के प्रचार से ही देश व समाज का कल्याण होगा

-मनमोहन कुमार आर्य

                संसार के सभी मनुष्य एक समान हैं। जन्म से सब एक समान व अज्ञानी उत्पन्न होते हैं। जीवन में ज्ञान की मात्रा व आचरण से ही उनके व्यक्तित्व व जीवन का निर्माण होता है। ज्ञान का आदि स्रोत चार वेद ही हैं। वेद न होते तो ज्ञान भी न होता। वेदों का ज्ञान ही हमारी स्कूली किताबों व मत-मतान्तरों में प्राप्त होता है। मत-मतानतरों में जो ज्ञान विरुद्ध अविद्या की बातें हैं वह सब उनकी अपनी है। यदि वह वेदों का अध्ययन कर सत्य व असत्य का निर्धारण कर अपने मतों की मान्यताओं का विचार कर उन्हें वेद के आलोक में शुद्ध करें तो यह कार्य जब चाहें तभी हो सकता है। इसके विपरीत सभी मनुष्य समुदाय व मत-पन्थ आदि अपनी मान्यताआंे की सत्यता की परीक्षा करने व उन्हें सत्य की कसौटी पर कसने को तैयार नहीं हैं। ऋषि दयानन्द ने अपने अध्ययन, तप और पुरुषार्थ से जाना था कि सत्य से ही मनुष्य जाति की उन्नति व सुखों में वृद्धि हो सकती है तथा सत्य को प्राप्त होकर व उसका आचरण किये बिना मनुष्य, देश व समाज उन्नति, सुख व कल्याण को प्राप्त नहीं हो सकते।

                जब हम सत्य सिद्धान्तों की बात करते हैं तो हमें किसी एक विषय में वेद के विचारों व मान्यताओं की मत-मतान्तरों में तद्विषयक मान्यताओं को जानकर उनसे तुलना करनी होती है। ईश्वर का ही विषय लें तो वेदों से ईश्वर का जो सत्य स्वरूप मिलता है वह ऋषि दयानन्द के अनुसार सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता आदि गुण, कर्म व स्वभाव वाला प्राप्त होता है। ईश्वर वेद ज्ञान का देने वाला है। उसने अपनी सनातन प्रजा जीवों को उनके कर्मों का सुख व दुःख प्रदान करने के लिये इस सृष्टि को रचा है तथा वही इसको चला रहा वा पालन कर रहा है। संसार में जितने प्रमुख मत मतान्तर आदि हैं, उनमें ईश्वर के इस सत्य व तर्कसंगत स्वरूप को नहीं बताया व प्रचारित किया जाता। कुछ मतों में तो अजन्मा व सर्वव्यापक ईश्वर के कहानी व किससे भी सुने सुनाये जाते हैं। होना यह चाहिये कि वेद मत व अन्य मतों का अध्ययन व परीक्षा की जानी चाहिये और वेदों के सत्य को स्वीकार तथा अपनी अपनी असत्य मान्यताओं का परित्याग करना चाहिये। धार्मिक जगत में सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग का यही काम ऋषि दयानन्द ने किया था और वह ईश्वर सहित सभी विषयों में अपनी मान्यतायें व सिद्धान्त स्थिर कर पाये थे। अपनी सभी मान्यताओं व सिद्धान्तों को उन्होंने वेदों की तराजू पर तोला था और उन्हें वेदानुकूल, तर्कसंगत तथा सृष्टिक्रम के अनुकूल होने पर ही सत्य स्वीकार किया था।

                ऋषि दयानन्द ऐसे विद्वान ऋषि थे जिन्होंने अपनी किसी मान्यता के असत्य पाये जाने पर अपने अनुयायियों को उस पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार कर उसे वेदानुकूल बनाने की भी प्रेरणा की थी। विगत 137 वर्षों में उनका कोई सिद्धान्त अपूर्ण, वेदविरुद्ध तथा सृष्टिक्रम के विरुद्ध नहीं पाया गया है। अतः उनका प्रतिनिधि संगठन आर्यसमाज उनके सभी सिद्धान्तों का देश देशान्तर में प्रचार करता है और संसार के सभी मतों व मनुष्यों को अवसर देता है कि वह वैदिक मान्यताओं की परीक्षा कर उस पर शंका कर सकते हैं जिसका समाधान आर्यसमाज के विद्वान करने के लिये कटिबद्ध होते हैं। यदि सब मत इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लेते तो जो विद्वान व आचार्य किंवा मत-मतान्तर अपने अपने मत का प्रचार कर अपने अनुयायियों की संख्या के विस्तार के कार्य में लगे हुए हैं, इसकी उन्हें आवश्यकता न पड़ती। सब सत्य को जानने का प्रयत्न करते और उसे स्वीकार कर उस पर आचरण करते हुए ईश्वर को प्राप्त होकर जीवन के लक्ष्य सुख व शान्ति को प्राप्त होकर सन्तुष्ट जीवन व्यतीत करते। सब मनुष्य वेदानुसार यौगिक जीवन व्यतीत करते हुए ईश्वर का साक्षात्कार करने भी समर्थ होते हैं और शरीर व आत्मा को दुर्गुणों व दुव्र्यस्नों के कारण होने वाले दुःखों से भी मुक्त कर सकते थे।

                ईश्वर द्वारा वेदों में विश्व के सभी मनुष्यों के जीवन को सुखी व सफल करने का जो मार्गदर्शन किया गया है उसे क्रियान्वित करने करने के लिये ही ऋषि दयानन्द ने वैदिक मान्यताओं पर आधारित ‘‘सत्यार्थप्रकाश” ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ से मनुष्य जीवन की सभी भ्रान्तियां व अन्धविश्वास दूर होते हैं। इस ग्रन्थ से मार्गदर्शन प्राप्त कर जीवन को आनन्द प्राप्ति के लक्ष्य की ओर ले जाकर उसे प्राप्त किया जा सकता है। मत-मतान्तरों के अपने-अपने कारणों से इस सत्यार्थ का प्रकाश करने वाले ग्रन्थ को न अपनाने के कारण इसका उद्देश्य पूरा नहीं हो सका। अतः यह आन्दोलन तब तक जारी रहेगा जब तक कि सभी मनुष्य वेदों के सत्य अर्थों को जानकर उसका पालन करना स्वीकार न करें। इसी से मनुष्य जीवन सहित देश व समाज की सभी समस्याओं का हल सम्भव है। सृष्टि के आरम्भ से महाभारत युद्ध के 1.96 अरब वर्षों तक वेदों की मान्यताओं व सिद्धान्तों के अनुसार भारत भूमि सहित सभी देशों के शासन व जीवन चलते थे। आश्चर्य होता है कि वर्तमान समय में लोग वेदों के सत्य विचारों व मान्यताओं को भी स्वीकार नहीं करते हैं और न ही अध्ययन ही करते हैं।

                सत्य ज्ञान को प्राप्त होने का मार्ग यह है कि मनुष्य विद्या को प्राप्त करे जो सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग कराती है। विद्या प्राप्ति की प्राचीन पद्धति गुरुकुलीय पद्धति है जिसमें 5 से 12 वर्षों की आयु के बालक बालिकाओं को गुरुकुलों में रखकर वहां उन्हें अक्षरों सहित शब्दों, शब्दार्थ एवं व्याकरण का ज्ञान कराया जाता है। व्याकरण पढ़ने के बाद बालक व बालिकाओं को अनेक विषयों के ग्रन्थ पढ़ाये जाते हैं। बच्चे उपनषिद, दर्शन, मनुस्मृति, रामायण व महाभारत सहित वेदों का अध्ययन करते हैं। पूर्व काल में आयुर्वेद सहित धनुर्विद्या व खगोल ज्योतिष का अध्ययन भी हमारे गुरुकुलों में कराया जाता था व वर्तमान में भी कराया जाता है। कृषि विज्ञान तथा वाणिज्य से सम्बन्धित विषयों का ज्ञान भी शिष्य अपने आचार्यों से प्राप्त करते रहे हैं। गुरुकुल में किसी भी विषय व विद्या का अध्ययन करने का निषेध नहीं था न अब है। आज भी वहां बच्चों को सत्यार्थप्रकाश सहित उपनिषद, दर्शन तथा वेद आदि ग्रन्थों का अध्ययन कराया जाता है और इसके साथ वह आधुनिक ज्ञान विज्ञान व गणित आदि का अध्ययन कर उन सब विषयों का अभ्यास करते हैं। वैदिक साहित्य के अध्ययन से मनुष्य को अपना जीवन सत्य नियमों पर आधारित बनाने की प्रेरणा व शक्ति प्राप्त होती है। मनुष्य का जीवन सत्य एवं अहिंसा के सिद्धान्तों पर आधारित होने सहित शारीरिक, आत्मिक तथा सामाजिक उन्नति पर केन्द्रित होना चाहिये। यह लक्ष्य गुरुकुलीय शिक्षा में आधुनिक ज्ञान व विज्ञान से युक्त सभी विषयों के अध्ययन को समाविष्ट कर प्राप्त किया जा सकता है।

                आजकल की शिक्षा मनुष्य को ईश्वर का सत्यस्वरूप बताकर उसे ईश्वर उपासना में प्रवृत्त करने के स्थान पर इसे अध्ययन में सम्मिलित न कर बालक व युवाओं को ईश्वर से दूर करती है जिससे उनके जीवन में ईश्वर की उपासना से होने वाले लाभों यथा मन की एकाग्रता, दुर्गुणों का नाश तथा आत्मा की उन्नति आदि होने की स्थिति नहीं बन पाती। ईश्वर का सच्चा ज्ञान व उपासना मनुष्य को दुर्गुणों को दूर कर उसे आत्मिक बल प्रदान करने का साधन होता है। आत्मा व परमात्मा का सच्चा स्वरूप व इनके गुण, कर्म व स्वभाव को जानकर मनुष्य के सभी भ्रम व शंकायें दूर हो जाते हैं। इससे मनुष्य जीवन में पुरुषार्थ करते हुए धनोपार्जन व भौतिक साधन अर्जित करने सहित उपासना से अपनी आत्मा को भी ऊंचा उठाता जाता है। प्राचीन काल में आत्मा की उन्नति को महत्व दिया जाता था परन्तु अब इसकी उपेक्षा की जाती है। यदि हमें सचमुच सभी देशवासियों के जीवन की उन्नति करनी है तो हमें निश्चय ही धर्म व संस्कृति विषयक सत्य सिद्धान्तों का निर्धारण कर उससे अपनी बाल व युवा पीढ़ी को संस्कारित व दीक्षित करना होगा। इससे न केवल बच्चों के जीवन सत्य ज्ञान के प्रकाश से आलोकित हांेगे अपितु वह देश व समाज विरोधी सभी गतिविधियों व कार्यों से भी बचेंगे। ऐसा होने पर कोई शत्रु देश हमारे देशवासियों को लोभ व छल से प्रभावित कर देश विरोधी कार्य नहीं करा सकेगा। वर्तमान में बहुत से देश व संगठन मनुष्यों को लोभ देकर व उनकी बुद्धि विकृत कर उनसे समाज व देश विरोधी कार्य कराते हैं। सत्य धर्म व संस्कृति के पर्याय वेदों के अध्ययन से देश व समाज को सभी प्रकार के अनुचित कार्यों से बचाया जा सकता है।

                सत्य मान्यताओं पर आधारित देश व समाज को बनाना अत्यन्त कठिन कार्य है। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में इस कार्य की नींव डाली थी। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की रचना व आर्यसमाज की स्थापना इसी उद्देश्य से किये गये कार्य कहे जा सकते हैं। यदि देश वेद व सत्यार्थप्रकाश को अपना ले तो देश विश्व का गुरु भी बन सकता है और संसार में एक आदर्श राष्ट्र बनकर और प्रत्येक दृष्टि से सुदृण होकर अपने सभी आन्तरिक व बाह्य शत्रुओं पर विजय पा सकता है। अन्य समाधान समस्या को एक सीमा तक ही हल कर सकते हैं। देश को विश्व के सर्वोत्तम धर्म व संस्कृति से युक्त करने हेतु देश भर में सत्य का प्रचार व असत्य का खण्डन आवश्यक है। वैदिक धर्म में पूरी तरह से दीक्षित युवा ही विद्या का प्रचार कर ऋषि दयानन्द के स्वप्न को पूरा कर देश को वैदिक राष्ट्र बना सकते हैं जहां किसी के साथ किसी प्रकार अन्याय नहीं होगा। सबको अपनी सभी प्रकार की उन्नति करने के अवसर मिलेंगे। पात्रों को अधिकार मिलेंगे और पात्रहीनों की उपेक्षा होगी। वर्तमान में भी ऐसा ही होता है तथापि लोग क्षणिक लाभ के लिए असत्य में प्रवृत्त देखे जाते हैं। वेद प्रचार की न्यूनता के कारण ऐसा हो रहा है। यदि महाभारत युद्ध के बाद ऋषि दयानन्द जैसे ऋषि देश में होते और उनके अनुरूप वेद विद्याओं के प्रचार का कार्य होता तो आज देश में अविद्यायुक्त मतों का प्रचार न होता। सब एक मत, एक मन, एक सुख-दुःख व परस्पर सुहृद मित्र होकर देश में सुखों की वृद्धि करते। अतः देश में प्रचलित सभी विचारों, मान्यताओं, सिद्धान्तों व मत-पन्थों में सत्य की पूर्ण प्रतिष्ठा आवश्यक है। इसी से मानव जाति का भला हो सकता है। ओ३म् शम्। 

जातीय नहीं, शैक्षणिक आरक्षण दें


डॉ. वेदप्रताप वैदिक

सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर जातीय आरक्षण के औचित्य पर प्रश्न-चिन्ह लगा दिया है। पांच जजों की इस पीठ ने अपनी ही अदालत द्वारा 2004 में दिए गए उस फैसले पर पुनर्विचार की मांग की है, जिसमें कहा गया था कि आरक्षण के अंदर (किसी खास समूह को) आरक्षण देना अनुचित है याने आरक्षण सबको एकसार दिया जाए। उसमें किसी भी जाति को कम या किसी को ज्यादा न दिया जाए। सभी आरक्षित समान हैं, यह सिद्धांत अभी तक चला आ रहा है। ताजा फैसले में भी वह अभी तक रद्द नहीं हुआ है, क्योंकि उसका समर्थन पांच जजों की बेंच ने किया था। अब यदि सात जजों की बेंच उसे रद्द करेगी तो ही आरक्षण की नई व्यवस्था को सरकार लागू करेगी। यदि यह व्यवस्था लागू हो गई तो पिछड़ों और अनुसूचितों में जो जातियां अधिक वंचित, अधिक उपेक्षित, अधिक गरीब हैं, उन्हें आरक्षण में प्राथमिकता मिलेगी। लेकिन मेरा मानना है कि सरकारी नौकरियों में से जातीय आरक्षण पूरी तरह से खत्म किया जाना चाहिए। अब से 60-65 साल पहले और विश्वनाथप्रताप सिंह के जमाने तक मेरे-जैसे लोग आरक्षण के कट्टर समर्थक थे। डाॅ. लोहिया के साथ मिलकर हम अपने छात्र-जीवन में नारे लगाते थे कि ‘पिछड़े पाएं सौ में साठ’ लेकिन जातीय आरक्षण के फलस्वरुप मुट्टीभर लोगों ने सरकारी ओहदों पर कब्जा कर लिया। उन्होंने अपनी नई जाति खड़ी कर ली। उसे अदालत ने ‘क्रीमी लेयर’ जरुर कहा लेकिन उस पर रोक नहीं लगाई। ये आरक्षण जन्म के आधार पर दिए जा रहे हैं, जरुरत के आधार पर नहीं। इसकी वजह से सरकार में अयोग्यता और पक्षपात को प्रश्रय मिलता है और करोड़ों वंचित लोग अपने नारकीय जीवन से उबर नहीं पाते हैं। यदि हम देश के 60-70 करोड़ लोगों को समाज में बराबरी के मौके और दर्जे देना चाहते हों तो हमें शिक्षा में 60-70 प्रतिशत आरक्षण बिना जातीय भेदभाव के कर देना चाहिए। जो भी गरीब, वंचित, उपेक्षित परिवारों के बच्चे हों, उन्हें मुफ्त शिक्षा, मुफ्त भोजन, मुफ्त वस्त्र और मुफ्त निवास की सुविधाएं दी जानी चाहिए। देखिए, ये बच्चे हमारी तथाकथित ऊंची जातियों के बच्चों से भी आगे निकलते हैं या नहीं ? 

तानाशाही और सोनिया गांधी

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अब फिर देश को बासी कढ़ी परोस दी। मां ने बेटे को भी मात कर दिया। छत्तीसगढ़ विधानसभा के नए भवन के भूमिपूजन समारोह में बोलते हुए वे कह गईं कि देश में ‘गरीब-विरोधी’ और ‘देश-विरोधी’ शक्तियों का बोलबाला बढ़ गया है। ये शक्तियां देश में तानाशाही और नफरत फैला रही हैं। देश में अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में है। ये सब बातें वे और उनका सुपुत्र कई बार दोहरा चुके हैं लेकिन इन पर कोई भी ध्यान नहीं देता। यहां तक कि कांग्रेसी लोग भी इनकी मज़ाक उड़ाते हैं। वे छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के उत्तम कामों तक अपना भाषण सीमित रखतीं तो बेहतर होता। जहां तक तानाशाही की बात है, वह तो आपात्काल के दौरान इंदिरा गांधी भी स्थापित नहीं कर पाई थीं। उन्हें और उनके बेटे संजय गांधी को भारतीय जनता ने 1977 के चुनाव में फूंक मारकर सूखे पत्ते की तरह उड़ा दिया था। उन्हें आज नाम लेने में डर लगता है लेकिन वह कहना यह चाहती हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तानाशाह है और भाजपा अब भारतीय तानाशाही पार्टी (भातपा) बन गई है। उनका यह आशय क्या तथ्यात्मक है ? इस पर हम जरा विचार करें। आज भी देश में अखबार और टीवी चैनल पूरी तरह से स्वतंत्र हैं। जो जान-बूझकर खुशामद और चापलूसी करना चाहें, सरकार उनका स्वागत जरुर करेगी (सभी सरकारें करती हैं) लेकिन देश में मेरे-जैसे दर्जनों बुद्धिजीवी और पत्रकार हैं, जो जरुरत होने पर मोदी और सरकार की दो-टूक आलोचना करने से नहीं चूकते लेकिन किसी की हिम्मत नहीं है कि उन्हें कोई जरा टोक भी सके। जहां तक तानाशाही का सवाल है, वह देश में नहीं है, पार्टियों में है। एकाध पार्टी को छोड़कर सभी पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र का अंत हो चुका है लेकिन सोनियाजी ज़रा पीछे मुड़कर देखें तो उन्हें पता चलेगा कि उसकी शुरुआत उनकी सासू मां इंदिराजी ही ने की थी। कांग्रेस का यह ‘वाइरस’ भारत की सभी पार्टियों को निगल चुका है। कांग्रेस की देखादेखी हर प्रांत में पार्टियों के नाम पर कई ‘प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां’ खड़ी हो गई हैं। यदि सोनिया गांधी कुछ हिम्मत करें और कांग्रेस-पार्टी में लोकतंत्र ले आएं तो भारत के लोकतंत्र के हाथ बहुत मजबूत हो जाएंगे और उनका नाम भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। सोनियाजी की हिंदी मुझे खुश करती है। यह अच्छा हुआ कि उनके भाषण-लेखक ने सरकार के लिए ‘गरीबद्रोही’ और ‘देशद्रोही’ शब्द का प्रयोग नहीं किया।