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देश में नशे के सौदागरों का बढ़ता जाल

भारत में नशे का संकट अब व्यक्तिगत बुराई नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आपदा बन चुका है। ड्रग माफिया, तस्करी, राजनीतिक संरक्षण और सामाजिक चुप्पी—सब मिलकर युवाओं को अंधकार में ढकेल रहे हैं। स्कूलों से लेकर गांवों तक नशे की जड़ें फैल चुकी हैं। यह सिर्फ स्वास्थ्य नहीं, सोच और सभ्यता का संकट है। समाधान केवल कानून से नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना, संवाद, शिक्षा और सामाजिक नेतृत्व से आएगा। अगर आज हम नहीं जगे, तो कल हम एक खोई हुई पीढ़ी का मातम मनाएंगे।

 डॉ. सत्यवान सौरभ

भारत आज एक दोहरी लड़ाई लड़ रहा है—एक तरफ तकनीक और विकास की उड़ान है, और दूसरी ओर समाज के भीतर नशे का अंधकार फैलता जा रहा है। नशा अब सिर्फ एक व्यक्तिगत बुराई नहीं रह गया, बल्कि यह एक संगठित उद्योग, एक अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र और एक सामाजिक महामारी का रूप ले चुका है। देश के गाँव से लेकर शहर तक, स्कूलों से लेकर कॉलेजों तक, और अमीरों की पार्टियों से लेकर गरीबों की गलियों तक, नशे के सौदागर अपना जाल फैलाए बैठे हैं।

सबसे चिंताजनक बात यह है कि अब यह जाल केवल शराब या गांजे तक सीमित नहीं रहा। सिंथेटिक ड्रग्स, केमिकल नशे, हेरोइन, ब्राउन शुगर, कोकीन जैसे घातक पदार्थ अब भारत के युवाओं के जीवन को खोखला कर रहे हैं। पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली, मणिपुर, गोवा जैसे राज्यों में तो यह जहर सामाजिक ताने-बाने को चीर चुका है। एक ओर सरकार “युवाओं को स्किल्ड बनाने” की बात करती है, दूसरी ओर लाखों नौजवान नशे की गिरफ्त में अपनी ऊर्जा, जीवन और भविष्य गंवा रहे हैं।

नशे के पीछे एक पूरा तंत्र सक्रिय है—पैसे के लिए इंसानियत का सौदा करने वाले ड्रग माफिया, पुलिस और राजनीति में मिलीभगत, विदेशों से आने वाली तस्करी की खेप, और स्थानीय स्तर पर युवाओं को इस दलदल में धकेलने वाले एजेंट। ये सब मिलकर देश को अंदर से खोखला कर रहे हैं। यह कोई संयोग नहीं कि हर बड़ी ड्रग बरामदगी के पीछे किसी न किसी रसूखदार का नाम सामने आता है, लेकिन मामला वहीं दबा दिया जाता है।

एक वर्ग ऐसा भी है जो नशे को “लाइफस्टाइल” का हिस्सा मानने लगा है। ऊंचे दर्जे की पार्टियों में ड्रग्स फैशन बन चुकी है। वहां कोई इसे सामाजिक अपराध नहीं मानता, बल्कि ‘कूलनेस’ का प्रतीक बना दिया गया है। वहीं दूसरी तरफ गरीब युवा—जो बेरोजगारी, हताशा और टूटी हुई उम्मीदों के शिकार हैं—उन्हें नशा एक अस्थायी राहत की तरह दिखता है। दोनों ही हालात समाज को विनाश की ओर ले जा रहे हैं।

स्कूलों और कॉलेजों में नशा जिस तरह से प्रवेश कर चुका है, वह आने वाली पीढ़ियों के लिए एक गहरी चेतावनी है। कई रिपोर्टें बताती हैं कि स्कूल के बच्चे तक ड्रग्स की चपेट में हैं। छोटे-छोटे पाउच, चॉकलेट जैसे पैकेट्स, खुशबूदार पाउडर—इनके ज़रिए नशा परोसा जा रहा है। और जब बच्चे इसकी गिरफ्त में आते हैं, तो परिवार, शिक्षक और समाज—सभी असहाय हो जाते हैं।

भारत के संविधान ने हमें एक ‘स्वस्थ राष्ट्र’ का सपना दिया था, लेकिन जिस देश के युवा ही बीमार और नशे में हों, उस राष्ट्र की कल्पना कैसे साकार होगी? युवा ही देश की रीढ़ होते हैं—यदि वही झुक जाएं, टूट जाएं या खोखले हो जाएं, तो देश भी खड़ा नहीं रह सकता।

नशा केवल शरीर को नहीं, आत्मा को भी मारता है। यह निर्णय क्षमता को खत्म करता है, रिश्तों को तोड़ता है, अपराध को जन्म देता है और समाज में हिंसा और उदासी का माहौल फैलाता है। नशे की लत में पड़ा व्यक्ति अपने परिजनों के लिए बोझ बन जाता है। वह चोरी करता है, झूठ बोलता है, आत्महत्या तक कर लेता है।

यह एक मात्र स्वास्थ्य या क़ानून व्यवस्था की समस्या नहीं है—यह नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संकट है।

माफिया नेटवर्क में पुलिस और राजनीतिक संरक्षण की बात करना कोई षड्यंत्र नहीं है, बल्कि कई बार कोर्ट और जांच एजेंसियों के रिकॉर्ड में यह स्पष्ट रूप से सामने आ चुका है। NDPS एक्ट (Narcotic Drugs and Psychotropic Substances Act) जैसे कानून मौजूद हैं, लेकिन इनका क्रियान्वयन बेहद कमजोर और पक्षपाती है। कई मामलों में पकड़ में आए ड्रग तस्करों को तकनीकी खामियों के चलते छोड़ दिया जाता है। वहीं गरीब या छोटे उपयोगकर्ता जेल में सड़ते हैं।

सरकारें अक्सर ड्रग्स के खिलाफ “जागृति अभियान”, “स्लोगन प्रतियोगिता”, या “परेड” जैसे प्रतीकात्मक कार्यक्रम करती हैं, लेकिन सवाल है कि क्या इससे कुछ बदलता है? ज़रूरत है एक मजबूत नीति, ईमानदार क्रियान्वयन और सबसे बड़ी बात—राजनीतिक इच्छाशक्ति की।

नशे की तस्करी अक्सर सीमावर्ती इलाकों से होती है—पंजाब-पाकिस्तान सीमा, मणिपुर-म्यांमार सीमा, गुजरात समुद्री तट और मुंबई बंदरगाह जैसे स्थानों से। इन इलाकों में हाई अलर्ट की जरूरत है, लेकिन अक्सर सुरक्षा तंत्र या तो लापरवाह होता है या भ्रष्ट। पिछले कुछ वर्षों में टनों की मात्रा में ड्रग्स पकड़े जाने के बावजूद, ड्रग लॉर्ड्स पर कार्यवाही न के बराबर हुई है। इससे अपराधियों का मनोबल और बढ़ता है।

इसमें मीडिया की भूमिका भी कमज़ोर रही है। कुछ चुनिंदा मामलों में मीडिया टीआरपी के लिए “ड्रग्स ड्रामा” दिखाता है, लेकिन अधिकतर समय वह इस गंभीर मुद्दे को उपेक्षित छोड़ देता है। और जब बॉलीवुड जैसी चमकती दुनिया में ड्रग्स की चर्चा होती है, तो उसे भी ‘गॉसिप’ बना दिया जाता है, असल सामाजिक विमर्श नहीं।

इस पूरे संकट का सबसे दुखद पहलू यह है कि इससे जुड़ा व्यक्ति अकेला नहीं मरता—उसके साथ पूरा परिवार, और धीरे-धीरे एक पीढ़ी मुरझा जाती है। मां-बाप अपनी औलाद को नशे में खोते हैं, भाई-बहन रिश्तों की राख में बदल जाते हैं, और गांव-शहर अपने युवाओं को खोकर बस मौन शोक में डूब जाते हैं।

समाधान केवल दवाओं या जेलों में नहीं है। समाधान है—सशक्तिकरण में, संवाद में, शिक्षा में, और सामूहिक सामाजिक प्रयास में।

हर पंचायत, हर स्कूल, हर मोहल्ले में नशे के खिलाफ ईमानदार मुहिम चलानी होगी। युवा मंडलों, महिला समूहों और शिक्षकों को इस मुद्दे पर नेतृत्व देना होगा। समाज को यह समझना होगा कि नशा केवल “व्यक्ति की कमजोरी” नहीं है, बल्कि यह एक षड्यंत्र है—जिसका शिकार पूरा समाज बन सकता है।

हमें ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनानी होगी जो युवाओं को केवल परीक्षा पास करने के लिए नहीं, बल्कि जीवन जीने की समझ दे। जीवन के संघर्षों से लड़ने का हौसला दे, असफलता को स्वीकार करने की शक्ति दे और आत्म-नियंत्रण का संस्कार दे।

माता-पिता को भी बच्चों की मानसिक स्थिति, व्यवहार और संगति पर सतर्क रहना होगा। संवाद और विश्वास के बिना कोई समाधान संभव नहीं। डर या दंड से बच्चे छिपते हैं, लेकिन संवाद से खुलते हैं।

और अंततः, जब तक समाज नशे को “अपराध” की तरह नहीं, बल्कि एक “आपदा” की तरह देखेगा—जिसमें पीड़ित को मदद और माफिया को सज़ा मिलनी चाहिए—तब तक यह जहर फैलता रहेगा।

नशा एक धीमा ज़हर है—जो शरीर से पहले सोच को मारता है। आज ज़रूरत है उस सोच को जगाने की, जो कहे—नशा छोड़ो, जीवन चुनो।

सावन मनभावन: भीगते मौसम में साहित्य और संवेदना की हरियाली

सावन केवल एक ऋतु नहीं, बल्कि भारतीय जीवन, साहित्य और संस्कृति में एक गहरी आत्मिक अनुभूति है। यह मौसम न केवल धरती को हरा करता है, बल्कि मन को भी तर करता है। लोकगीतों, झूले, तीज और कविता के माध्यम से सावन स्त्रियों की अभिव्यक्ति, प्रेम की प्रतीक्षा और विरह की पीड़ा का स्वर बन जाता है।

साहित्यकारों ने इसे कभी श्रृंगार में, कभी विरह में, तो कभी प्रकृति के प्रतीक रूप में देखा है। लेकिन आज का आधुनिक मन सावन को केवल मौसम समझता है, महसूस नहीं करता। यह लेख सावन के सांस्कृतिक, साहित्यिक और भावनात्मक पक्षों को उजागर करते हुए हमें स्मरण कराता है कि भीगना केवल शरीर से नहीं, आत्मा से भी ज़रूरी है।

सावन हमें सिखाता है — प्रकृति से जुड़ो, भीतर झाँको, और संवेदना को जीयो।

 डॉ सत्यवान सौरभ

सावन आ गया है। वर्षा ऋतु की पहली दस्तक के साथ ही जब बादल घिरते हैं और बूँदें धरती को चूमती हैं, तो केवल पेड़-पौधे ही नहीं, मनुष्य का अंतर्मन भी हरा होने लगता है। यह महीना केवल वर्षा का नहीं, स्मृति, संवेदना और सृजन का है। सावन जब आता है, तो कविता झरने लगती है, लोकगीत गूंजने लगते हैं, पायलें छनकने लगती हैं और रूठा प्रेम भी नमी में घुलकर लौट आता है।

🌿 सावन – एक ऋतु नहीं, एक मनःस्थिति है

भारतीय मानस में ऋतुएँ केवल मौसम नहीं, जीवन के प्रतीक रही हैं। वसंत प्रेम का, ग्रीष्म तपस्या का और सावन प्रतीक्षा का महीना बनकर आता है। सावन में अक्सर प्रेयसी अकेली होती है, प्रियतम किसी दूर देश गया होता है, और प्रतीक्षा के बीच में विरह का काव्य जन्म लेता है। इसलिए साहित्य में सावन का आगमन केवल प्राकृतिक नहीं, आत्मिक घटना है।

“नइहर से भैया बुलावा भेजवा दे”, “कजरारे नयनवा काहे भर आईल”, जैसे कजरी गीत सिर्फ आवाज नहीं, पीड़ा का पानी बनकर झरते हैं।

🌦️ लोक संस्कृति में सावन का रंग

सावन का महीना भारतीय लोक परंपरा का सबसे रंगीन अध्याय है। कहीं तीज मनाई जा रही होती है, कहीं झूले पड़ रहे होते हैं, कहीं मेंहदी लग रही होती है तो कहीं बहनों के लिए राखी के गीत तैयार हो रहे होते हैं। यह महीना नारी मन की सृजनात्मक उड़ान का समय होता है। दादी-नानी की कहानियाँ, माँ के गीत, और बेटियों की प्रतीक्षा – सब कुछ सावन की हवा में घुल जाता है।

हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और राजस्थान जैसे राज्यों में कजरी, झूला गीत, सावनी और हरियाली तीज लोककाव्य का रूप ले लेती हैं। ये गीत सिर्फ मनोरंजन नहीं, महिला सशक्तिकरण के सांस्कृतिक दस्तावेज हैं — जहाँ स्त्रियाँ अपनी भावनाएँ, शिकायतें, प्रेम और विद्रोह तक गा डालती हैं।

☁️ साहित्य में सावन: बरसते बिम्ब और प्रतीक

साहित्यकारों ने सावन को केवल प्रकृति-चित्रण के लिए ही नहीं, बल्कि मानवीय भावनाओं के प्रतिनिधि के रूप में देखा है।

महादेवी वर्मा के शब्दों में सावन अकेलेपन की पीड़ा है:

“नीर भरी दुख की बदली”।

मैथिलीशरण गुप्त ने सावन को श्रृंगार रस में देखा –

“चपला की चंचल किरणों से, छिटकी वर्षा की बूँदें”

गुलज़ार की कविता हो या नागार्जुन की भाषा, सावन हर किसी के लिए कुछ कहता है। किसी के लिए वो टूटे रिश्तों की याद है, किसी के लिए माँ की गोद में बिताया बचपन, और किसी के लिए प्रेम की भीगी पहली रात।

🌧️ भीतर की बारिश को समझना जरूरी है

आज जब हम एसी कमरों में बैठे, मोबाइल पर मौसम का अपडेट पढ़ते हैं, तब सावन की असली ख़ुशबू कहीं खो जाती है। हमने बारिश को केवल ट्रैफिक की समस्या बना दिया है। सावन अब इंस्टाग्राम स्टोरी बनकर रह गया है।

पर क्या हमने कभी भीतर की बारिश को महसूस किया है?

वह बारिश जो हमें धो देती है — अहंकार से, शुष्कता से, थकान से। सावन हमें फिर से नम करता है — हमें इंसान बनाता है। प्रकृति की गोद में लौटने का आमंत्रण है ये मौसम।

🪶 आज के कवियों के लिए सावन क्या है?

आज के कवियों को सावन का सिर्फ चित्रण नहीं करना चाहिए, बल्कि उसके भीतर छिपी विसंगतियों को भी पकड़ना चाहिए। जब ग्रामीण भारत के खेतों में पानी नहीं और शहरों में जलभराव है, तब यह असमानता भी साहित्य का विषय बननी चाहिए।

कविता को झूले और कजरी के अलावा किसानों के अधूरे सपनों, बर्बाद फसलों, और जलवायु परिवर्तन के संकट को भी शब्द देना होगा।

🎭 सावन और रंगमंच: नाट्य का मौसम

सावन केवल काव्य का विषय नहीं, रंगमंच और लोकनाट्यों का भी प्रिय समय है। उत्तर भारत के कई हिस्सों में इस मौसम में झूला महोत्सव, सावनी गीत प्रतियोगिताएँ, लोकनाट्य और कविता गोष्ठियाँ आयोजित होती हैं।

यह मौसम कलाकारों के पुनर्जन्म जैसा होता है। उनके रंग, उनके स्वर और उनके मंच, सभी में नमी आ जाती है — जो सीधे दर्शक के हृदय तक पहुँचती है।

🧠 आधुनिक मन और सावन की चुनौती

आज का मानव सावन को देख तो रहा है, पर महसूस नहीं कर रहा। उसका मन इतनी सूचनाओं, मशीनों और तथ्यों में उलझ गया है कि वह बारिश को केवल मौसम विभाग के पूर्वानुमान के रूप में लेता है।

पर सावन को समझना है तो, खिड़की खोलनी होगी – मन की भी और कमरे की भी।

बूँदों को केवल त्वचा पर नहीं, आत्मा पर भी गिरने देना होगा।

🌱 प्रकृति का मौसमी संदेश

सावन हमें याद दिलाता है कि विकास और विनाश के बीच संतुलन जरूरी है।

बारिश से पहले आई भीषण गर्मी, जल संकट, जंगलों में आग — यह सब बताता है कि हमने प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ा है।

सावन की बारिश इस बिगाड़ को थोड़ी राहत देती है, पर चेतावनी भी देती है कि अगर हमने अब भी नहीं सुधारा, तो सावन केवल स्मृति बनकर रह जाएगा।

📜 समाप्ति की ओर एक सादगी भरा संदेश

सावन को आने दो।

उसे भीतर आने दो।

जब वह बूँद बनकर गिरे, तो केवल छतों पर नहीं, तुम्हारी कविता में भी गिरे।

जब वह झूला बनकर डोले, तो केवल पेड़ों पर नहीं, तुम्हारी कल्पना में भी डोले।

यह मौसम मन का है, बस उसे पहचानने की ज़रूरत है।

बचपन के वे झूले, माँ के लगाए मेंहदी के रंग, छत पर रखे बर्तन, और खेत में दौड़ता नंगाधड़ंग बच्चा — सब अब भी हमारे भीतर कहीं जिंदा हैं। उन्हें ज़रा सावन में बाहर आने दो।

🟠 निवेदन:

जब भी बादल घिरें, मोबाइल मत उठाना, खिड़की खोल लेना।

और मन करे तो एक पुराना गीत गा लेना –

“कभी तो मिलने आओ सावन के गीत गाने…”

– डॉo सत्यवान सौरभ

ब्रिक्स में भारत का बढ़ता वर्चस्व संतुलित दुनिया का आधार

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-ललित गर्ग –
ब्राजील के रियो डी जनेरियो में रविवार को हुए 17वें ब्रिक्स सम्मेलन में सदस्य देशों ने 31 पेज और 126 पॉइंट वाला एक जॉइंट घोषणा पत्र जारी किया। इसमें पहलगाम आतंकी हमले और ईरान पर इजराइली हमले की निंदा की गई। इससे पहले 1 जुलाई को भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की मेंबरशिप वाले क्वाड ग्रुप के विदेश मंत्रियों की बैठक में भी पहलगाम हमले की निंदा की गई थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस समिट में पहलगाम की आतंकी घटना पर कठोर शब्दों में कहा कि पहलगाम आतंकी हमला सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि पूरी इंसानियत पर चोट है। आतंकवाद की निंदा हमारा सिद्धांत होना चाहिए, सुविधा नहीं। मोदी ने शांति एवं सुरक्षा सत्र में कहा कि पहलगाम में हुआ ‘कायरतापूर्ण’ आतंकवादी हमला भारत की ‘आत्मा, पहचान और गरिमा’ पर सीधा हमला है। इसके साथ ही उन्होंने एक नई विश्व व्यवस्था की मांग उठाई। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस समिट में महत्वपूर्ण मुद्रा में दिखाई दिये। उन्होंने एक बार फिर इसके विस्तार की बात की और सदस्य देशों से भी आग्रहपूर्ण ढंग से दबाव बनाया कि कि ब्रिक्स को विस्तार होना चाहिए। ब्रिक्स यानी बी से ब्राजील, आर से रूस, आई से इंडिया (भारत), सी से चीन और एस से दक्षिण अफ्रीका- ये दुनिया की पांच सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों का एक समूह है। ब्रिक्स एक ऐसा बहुपक्षीय मंच है, जो उभरती अर्थव्यवस्थाओं के बीच सहयोग, वैश्विक विकास और सामूहिक सुरक्षा की भावना को बल देता है।  ब्रिक्स समिट काफी सफल एवं निर्णायक रहा है।
ब्रिक्स सम्मेलन में आतंकवाद, विशेषकर कश्मीर में फैले इस्लामी आतंकवाद को लेकर चर्चा ने इस मंच को वैश्विक राजनीति की दिशा तय करने वाले संगठनों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर दिया है। इसमें भारत की भूमिका, विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की निर्णायक भूमिका रही है। इन शक्तिसम्पन्न पांचों देशों का वैश्विक मामलों पर महत्वपूर्ण प्रभाव है और दुनिया की लगभग 40 फीसदी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। चीन इसे अपने हित के लिए इस्तेमाल करना चाहता है, जबकि भारत इसे सही मायनों में लोकतांत्रिक संगठन बनाना चाहता है। भारत चाहता है कि ब्रिक्स समूह मिलकर दुनिया में शांति, सह-जीवन, अहिंसा, लोकतांत्रिक मूल्य, समानता एवं सह-अस्तित्व पर बल देते हुए दुनिया को युद्ध, आतंक एवं हिंसामुक्त बनाया जाये।  ब्रिक्स देशों के इस सम्मेलन में एक विशेष बिंदु जो उभरकर सामने आया वह था-अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का बदलता स्वरूप और इसके कश्मीर जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में प्रभाव। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्पष्ट रूप से यह रेखांकित किया कि आतंकवाद अब किसी एक राष्ट्र की समस्या नहीं रह गई है, बल्कि यह एक वैश्विक संकट बन चुका है। उन्होंने कश्मीर में हो रहे आतंकवादी हमलों, पाकिस्तान समर्थित गतिविधियों और भारत की सीमाओं पर हो रही हिंसक घटनाओं को उदाहरण के रूप में सामने रखा। मोदी ने ब्रिक्स मंच से यह भी स्पष्ट किया कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, लेकिन जब आतंक का राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल होता है, तो वह मानवता के लिए सबसे बड़ा खतरा बन जाता है।
भारत ने लंबे समय से कॉम्प्रेहेंसिव कॉन्वेंशन ऑन इन्टरनेशनल टेरिजम्स (सीसीआईटी) की पैरवी की है। इस बार ब्रिक्स मंच पर मोदी ने इस प्रस्ताव को फिर से प्रमुखता से उठाया और एक साझा परिभाषा व वैश्विक नीति की मांग की ताकि आतंकवादियों को सुरक्षा और राजनीतिक सहारा न मिल सके। प्रधानमंत्री मोदी ने यह भी सुझाव दिया कि ब्रिक्स को एक साझा आतंकवाद निरोधी तंत्र बनाना चाहिए, जो सूचनाओं का आदान-प्रदान, निगरानी तंत्र और आतंक के वित्तपोषण को रोकने में सहयोग करे। भारत ने इस बार पाकिस्तान का नाम लिए बिना यह सिद्ध किया कि कश्मीर में आतंकवाद एक स्थानीय असंतोष नहीं, बल्कि बाहरी प्रायोजित आतंक है। ब्रिक्स देशों, विशेषकर रूस और ब्राज़ील ने इस बात को स्वीकारा कि कश्मीर में फैले आतंकवाद पर चिंता जायज़ है और उन्होंने भारत के दृष्टिकोण का समर्थन किया। यह कूटनीतिक जीत प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व कौशल को रेखांकित करती है। उन्होंने न केवल भारत के राष्ट्रीय हितों की रक्षा की, बल्कि वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध एक नैतिक और व्यावहारिक आधार भी प्रस्तुत किया।
भारत 2026 में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन की अध्यक्षता करने जा रहा है। यह भारत के लिए भविष्य को गढ़ने का एक सुनहरा अवसर है। भारत अब न केवल आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देगा, बल्कि यह भी सुनिश्चित करेगा कि ब्रिक्स एक न्यायसंगत, सुरक्षित और आतंकवादमुक्त विश्व के निर्माण की दिशा में कार्य करे। ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में भारत की भूमिका न केवल आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक स्वरूप में दिखाई दी, बल्कि यह भी स्पष्ट हुआ कि भारत अब एक वैश्विक नेतृत्वकर्ता राष्ट्र के रूप में उभर चुका है। नरेंद्र मोदी ने जिस सूझबूझ, तर्कशक्ति और साहस के साथ कश्मीर मुद्दे को वैश्विक मंच पर प्रस्तुत किया, वह भारत की कूटनीति के नए युग की शुरुआत है। आगामी वर्ष में जब भारत ब्रिक्स की अध्यक्षता करेगा, तब यह विश्वास किया जा सकता है कि न केवल भारत, बल्कि समूचा विश्व भारत की नीति, नैतिक दृष्टि और नेतृत्व क्षमता का सम्मान करेगा। इस मंच से भारत केवल आर्थिक विकास नहीं, बल्कि मानवता, शांति और न्याय की नई इबारत लिखेगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक नई विश्व व्यवस्था की मांग उठाई उन्होंने कहा कि आज दुनिया को एक बहुध्रुवीय और समावेशी व्यवस्था की जरूरत है। इसकी शुरुआत वैश्विक संस्थाओं में बदलाव से करनी होगी। मोदी ने कहा, ‘बीसवीं सदी में बनाई गई वैश्विक संस्थाएं इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों से निपटने में नाकाम हैं। एआई यानी कृत्रिम बुद्धिमता के दौर में तकनीक हर हफ्ते अपडेट होती है, लेकिन एक वैश्विक संस्थान 80 सालों में एक बार भी अपडेट नहीं होती। बीसवीं सदी के टाइपराइटर इक्कीसवीं सदी के सॉफ्टवेयर को नहीं चला सकते। प्रधानमंत्री ने कहा, ग्लोबल साउथ के देश अक्सर डबल स्टैंडर्ड का शिकार रहे हैं। चाहे विकास हो, संसाधनों की बात हो, या सुरक्षा से जुड़े मुद्दों की, ग्लोबल साउथ को कभी प्राथमिकता नहीं दी गई है। इनके बिना, वैश्विक संस्थाएं ऐसे मोबाइल की तरह हैं, जिसमें सिम कार्ड तो है लेकिन नेटवर्क नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, वैश्विक अर्थव्यवस्था में जिन देशों का योगदान ज्यादा है, उन्हें फैसले लेने का हक नहीं है। यह सिर्फ प्रतिनिधित्व का नहीं, बल्कि विश्वसनीयता और प्रभावशीलता का भी सवाल है।
भारत का मानना था कि समान सोच वाले देशों को साथ लेकर चला जा सकता है। आनेवाले समय में ब्रिक्स दुनिया की आधी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने लगेगा। निश्चित ही ब्रिक्स की ताकत से एक वैश्विक संतुलन स्थापित हो रहा है और अमेरिका एवं पश्चिमी देशों के अहंकार एवं दुनिया पर शासन करने की मंशा पर पानी फिरा है। हमारा भविष्य सितारों पर नहीं, जमीन पर निर्भर है, वह हमारा दिलों में छिपा हुआ है, दूसरे शब्दों में कहें तो हमारा कल्याण अन्तरिक्ष की उड़ानों, युद्ध, आतंक एवं शस्त्रों में नहीं, पृथ्वी पर आपसी सहयोग, शांति, सह-जीवन एवं सद्भावना में निहित है। ’वसुधैव कुटुम्बकम का मंत्र इसलिये सारी दुनिया को भा रहा है। इसलिये बदलती हुई दुनिया में, बदलते हुए राजनैतिक हालात में सारे देश एक साथ जुड़ना चाहते हैं। ब्रिक्स का संगठन ऐसा सपना है जिसे भारत रत्न स्व. प्रणव मुखर्जी ने भारत के विदेश मन्त्री के तौर पर 2006 में देखा था। प्रणव दा बदलते विश्व शक्ति क्रम में उदीयमान आर्थिक शक्तियों की समुचित व जायज सहभागिता के प्रबल समर्थक थे और पुराने पड़ते राष्ट्रसंघ के आधारभूत ढांचे में रचनात्मक बदलाव भी चाहते थे। इसके साथ ही वह बहुधु्रवीय विश्व के भी जबर्दस्त पक्षधर थे जिससे विश्व का सकल विकास न्यायसंगत एवं लोकतांत्रिक तरीके से हो सके। अब नरेन्द्र मोदी ने इसमें सराहनीय भूमिका निभाई है। उनके दूरगामी एवं सूझबूझ भरे सुझावों का ब्रिक्स देशों ने लोहा माना है। ब्रिक्स संगठन में भारत का वर्चस्व चीन की तुलना में बढ़ा है जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की दूरदर्शिता एवं कूटनीति का परिणाम है।

लुप्त होता समाज भारतीय समाज

शिवानन्द मिश्रा

सावधान हो जाइए ! भारत सहित पश्चिमी देशों में कुछ ही दशक बाद फैमिली सिस्टम का अंत निकट है। परिवार लगातार टूट रहे हैं , बिखर रहे हैं , समाप्त हो रहे हैं। इस समय फैमिली सिस्टम को बचाना पश्चिमी जगत का सबसे बड़ा मुद्दा है। भारत के सनातनी समाज में भी फैमिली सिस्टम बड़ी तेजी से सिमट रहा है । फैमिली सिस्टम यूँ ही बिखरता रहा तो भविष्य खराब है । आज पश्चिमी समाज को तबाही का दृश्य दिखाई पड़ने लगा है । कल भारत भी इसी दौर से गुजरनेवाला है। 

मशहूर पश्चिमी लेखक डेविड सेलबोर्न की किताब ” loosing battle with islam ” में आँखें खोलने वाले खुलासे किए गए हैं । बताया गया है कि ईसाई जगत के समान सनातनी जगत के सामने भी ऐसा ही खतरा है। यहूदियों ने इस खतरे पर पार पा लिया है। डेविड के अनुसार इस्लाम के सशक्त फेमिली सिस्टम से पश्चिमी दुनिया हार रही है। पश्चिम में लोग शादी करना पसंद नहीं करते। समलैंगिकता , अवैध सम्बन्ध , लिव इन रिलेशनशिप आदि से फैमिली सिस्टम टूट गया है ।

पश्चिम में ऐसे बच्चों की तादाद बढ़ती जा रही है , जिन्हें अपने पिता का पता नहीं । मां बाप के साथ रहने का चलन पश्चिम पूरी तरह भूल चुका है । लोगों का बुढ़ापा ओल्ड एज होम्स में गुजर रहा है । नतीजा यह कि पश्चिमी बच्चे दादा दादी , नाना नानी , चाचा ताऊ जैसे रिश्तों के नाम भी भूल चुके हैं ।अब तो नो चाइल्ड लाइफ स्टाइल बहुत शीघ्र पश्चिम को बर्बाद कर देगा । आबादी घटने से उत्पन्न अकेलेपन के सबसे बड़े शिकार जापान और दक्षिण कोरिया हैं । कारण , खाओ पियो ऐश करो , नो चाइल्ड ऑनली प्लेजर, ऑनली मस्ती। 

गौर से देखने पर पता चल जाता है कि भारत का हिन्दू समाज भी उधर बढ़ चुका है जहां से पश्चिमी जगत के सामने अंधेरा ही अंधेरा नजर आ रहा है । सॉलिड फेमिली सिस्टम के कारण अमेरिका , ब्रिटेन , जर्मनी और फ्रांस में इस्लाम  की संख्या बढ़ती जा रही है। इस्लाम धर्म में परिवार वास्तव में मजबूत इकाई है । परिवार को जोड़े रखने की कला यहूदियों ने इस्लाम से सीखी है और अपनी आबादी बढ़ाई है। पश्चिम में अकेला होता जा रहा आदमी भयावह ऊब और घुटन का शिकार है। भारत के शहरों में ही नहीं , कस्बाई जीवन में भी अकेलापन प्रवेश कर चुका है ।

भारत में भी पाएंगे कि समाज में भी चाचा , भतीजा , बुआ , ताऊ , मामा , मौसी और यहां तक कि सगे भाई सगी बहन के रिश्ते भी धीरे धीरे समाज में खत्म हो रहे है । यह घोर चिन्ता का विषय है , दुर्भाग्य से इस पर चिंतन अभी शुरू भी नहीं हुआ है । इसका एक प्रमुख कारण विवाहित बेटियों का अपने मैके में दखल देना तथा बेटियों के मां को उनके ससुराल में दखलंदाजी है। विवाहित बहन भी अपनी उल्लू सीधा कर भाइयों को आपस में खूब लड़वाते हैं। याद कीजिए चीन ने वन चाइल्ड पॉलिसी लागू कर अपनी आबादी घटाई जो अब भारत से कम हो गई । वहां भी चीनी जनता ने जब वन चाइल्ड के बजाय नो चाइल्ड अपनाना शुरू किया तब चीन ने दो बच्चों की इजाजत दी । 

 आज दुनिया के अनेक देशों में आबादी बढ़ाने के अभियान चल पड़े हैं । भारत में भी कुछ धार्मिक गुरु ज्यादा बच्चे पैदा करने को कह रहे हैं । बहरहाल एक समस्या तो है जिसका समाधान खोजना पूरी दुनिया के लिए जरूरी है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है । समाज तभी बनता है जब परिवार हो। समाज की सबसे बड़ी ताकत संयुक्त परिवार थी जो अब लगभग मर चुका है । मैं , मेरी बीबी और मेरे बच्चे सिद्धांत ने परिवारों के बीच दीवारें खड़ी कर दी है। नारी को इस बाबत सबसे ज्यादा विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि वो जननी है उसको अपना स्वहित त्याग समाज हित को देखना होगा । अपना फिगर अपना कैरियर अपनी फ्री लाइफ अपने आनन्द से ऊपर उठ परिवार समाज व सनातन धर्म के लिये संकल्प लेना होगा। आप देखिए , पश्चिम में फैले अवसाद , अकेलापन और डिप्रेशन भारत में भी बहुत गहरे प्रवेश कर चुके है।  इन्हें अब रोकना होगा रोकना होगा और यह कार्य भारतीय नारी ही कर सकती है। 

शिवानन्द मिश्रा

भीगे मौसम का कड़वा सच : सावधानी नहीं तो संक्रमण तय

जब पहली बारिश की बूंदें ज़मीन से टकराती हैं, तो मिट्टी की सौंधी खुशबू के साथ एक उम्मीद जन्म लेती है। लगता है जैसे तपती गर्मी के बाद प्रकृति ने हमें अपने आँचल में ले लिया हो।

पर क्या आपने कभी गौर किया है? इसी आँचल में छिपा है बीमारियों का एक अदृश्य जाल, जो हर साल हजारों जिंदगियों को बीमारी, पीड़ा और कभी-कभी मौत की ओर धकेल देता है।

बरसात का मौसम केवल प्राकृतिक बदलाव नहीं है। यह हमारी जीवनशैली, स्वास्थ्य व्यवस्था और व्यक्तिगत सतर्कता की कड़ी परीक्षा है।

जब बारिश रूमानी नहीं, रोगकारी हो जाती है 

बारिश कभी कवियों की प्रेरणा होती थी। आज यह डॉक्टरों की चिंता बन गई है।

कारण साफ है, जलभराव, गंदगी, नमी और वायरस का खुला तांडव।

हर गली, हर मोहल्ला एक संभावित संक्रमण-स्थल बन चुका है।

कुछ बेहद आम पर घातक बीमारियाँ जो इस मौसम में फैलती हैं :-

डेंगू, मलेरिया और चिकनगुनिया : मच्छर जनित रोग जो जानलेवा हो सकते हैं।

वायरल फीवर और फ्लू : हवा में नमी वायरस को लंबे समय तक जीवित रखती है।

टाइफाइड, हैजा और दस्त : दूषित पानी और भोजन से तेजी से फैलते हैं।

फंगल इंफेक्शन और स्किन डिज़ीज़ : लगातार गीले कपड़े और पसीने से त्वचा कमजोर हो जाती है।

लक्षणों को पहचानिए, नज़रअंदाज़ मत कीजिए

बरसात में शरीर के छोटे से बदलाव को भी हल्के में लेना भारी पड़ सकता है।

लक्षण जो आपके भीतर खतरे की घंटी बजा रहे हों :-

• बार-बार बुखार आना या ठंड लगना

• शरीर में टूटन और थकान

•पेट में मरोड़, उल्टी या डायरिया

•आँखों में जलन, त्वचा पर लाल चकत्ते

•जोड़ों में तेज दर्द और कमजोरी

ये सभी लक्षण सामान्य नहीं होते। ये आपके शरीर की SOS कॉल हैं “अब इलाज जरूरी है!”

सिर्फ दवा नहीं, बचाव है असली इलाज

बरसात में बीमारियों से लड़ने के लिए सबसे बड़ा हथियार है – सावधानी और जागरूकता।

इन छोटे मगर असरदार उपायों से आप और आपका परिवार सुरक्षित रह सकते हैं:

1. पानी की पवित्रता ही जीवन है

पानी हमेशा उबालकर या फिल्टर किया हुआ ही पिएं। बारिश में पानी के ज़रिए संक्रमण सबसे तेज़ी से फैलता है।

2. मच्छरों को घर से बाहर रखिए

फुल बाजू कपड़े पहनें, मच्छरदानी का उपयोग करें, और आसपास कहीं पानी जमा न होने दें।

3. संयमित भोजन ही अमृत है

बाहर के चाट-पकौड़े का मोह न करें। ताजा, गर्म और घर का बना खाना ही खाएं। विटामिन-C से भरपूर फल (नींबू, आंवला, कीवी) रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं।

4. नमी से नजदीकी, बीमारी से दोस्ती

भीगने के बाद गीले कपड़े तुरंत बदलें। गीले मोज़े, जूते या तौलिए संक्रमण के स्रोत बन सकते हैं।

5. योग और धूप: शरीर की ढाल

हर दिन 20 मिनट धूप लें और हल्का व्यायाम करें। यह शरीर को भीतर से मज़बूत करता है।

बुज़ुर्गों और बच्चों पर विशेष ध्यान दें

इस मौसम में सबसे ज्यादा खतरा उन्हीं को होता है जिनकी इम्यूनिटी कमजोर होती है। बच्चों को बारिश के पानी में खेलने से रोकें, और बुज़ुर्गों को भीगने या ठंडी हवा से बचाएं।

अब सवाल यह नहीं कि बारिश होगी या नहीं?

सवाल यह है कि आप तैयार हैं या नहीं? 

बूँदें रोकना हमारे हाथ में नहीं। लेकिन हर बूंद से निकलती बीमारी की चुपचाप दस्तक को अनसुना करना हमारी लापरवाही है।

हर साल के आंकड़े गवाही देते हैं, डेंगू और मलेरिया से हज़ारों मौतें होती हैं, जिनमें से ज्यादातर रोकी जा सकती थीं, यदि थोड़ी सी सतर्कता बरती जाती।

अंत में एक विनम्र अपील, एक ज़िम्मेदारी

इस बार जब बारिश की पहली बूँद आपके चेहरे को छूए, तो ज़रा रुकिए…उसके पीछे छिपी संभावित बीमारी को याद कीजिए।

सिर्फ अपने लिए नहीं, अपने बच्चों, माता-पिता और समाज के लिए सतर्क बनिए।

क्योंकि बरसात आएगी और जाएगी, पर सावधानी रही तो ज़िंदगी मुस्कुराएगी।

उमेश कुमार साहू

क्या भारत ग्लोबल साउथ में अपनी खोई विरासत फिर हासिल कर पाएगा?

मोदी का घाना दौरा -: कूटनीति का वही ढोल या साख लौटाने की ठोस कवायद?

ओंकारेश्वर पांडेय

‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद तमाम सवालों से घिरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब घाना की धरती पर उतरे, तो उनके कदमों में 75 साल की उम्र की थकान और हार न मानने की जिद एकसाथ झलक रही थी। अक्रा के हवाई अड्डे पर, हल्के नीले नेहरू जैकेट में सजे मोदी का चेहरा तनाव और सुकून के मिश्रित भाव लिए था। शायद यह नेहरू जैकेट सिर्फ एक परिधान नहीं, बल्कि उस नेहरू की याद का प्रतीक था, जिन्होंने कभी घाना की जनता को आजादी और ग्लोबल साउथ की एकजुटता का सपना दिखाया था। घाना के राष्ट्रपति जॉन ड्रामानी महामाहा ने उनका स्वागत किया, लेकिन हवा में सवाल गूँज रहे थे। ऑपरेशन सिंदूर की आधी-अधूरी कहानी, अमेरिका की मध्यस्थता की खबरों ने भारत की स्वायत्तता को कटघरे में खड़ा किया है, और हालिया भारत-पाक तनाव में चीन की सैन्य मदद ने ग्लोबल साउथ में भारत की साख को दांव पर ला दिया है। 

क्या यह घाना, जो कभी गांधी और नेहरू की अहिंसा व साझेदारी से प्रेरित था, मोदी के नेतृत्व में भारत के ग्लोबल साउथ के सपने को नया जीवन दे पाएगा? क्या यह यात्रा, गंभीर सवालों से जूझ रही विदेश नीति को पुनर्परिभाषित करने की बजाय, एक और कूटनीतिक शो बनकर रह जाएगी?

ऑपरेशन सिंदूर और कूटनीतिक भंवर

पिछले महीने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के तहत भारत ने सीमित सैन्य कार्रवाई की। सेना निर्णायक कदम के लिए तैयार थी, मगर आखिरी पल में राजनीतिक नेतृत्व ने कदम पीछे खींच लिए। इंडोनेशिया में तैनात नौसेना अधिकारी कैप्टन शिव कुमार ने खुलासा किया, “हम तैयार थे, लेकिन रणनीति में स्पष्टता की कमी ने हमें रोका।” इस खुलासे ने देश में हलचल मचा दी। अमेरिका की मध्यस्थता की खबरों ने भारत की स्वायत्त कूटनीति पर सवाल उठाए। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने तंज कसा, “मोदी सरकार की विदेश नीति अब फोटो सेशन और खोखली घोषणाओं तक सिमट गई है। नीतिगत दृढ़ता गायब है।” 

पर्दे के पीछे, चीन की भूमिका ने आग में घी डाला। हालिया भारत-पाक तनाव में चीन ने पाकिस्तान को फाइटर जेट, मिसाइल, और सैटेलाइट डेटा देकर समर्थन दिया, जिसे विशेषज्ञ भारत के खिलाफ रणनीतिक चाल मानते हैं।

घाना यात्रा: अवसर या मजबूरी?

इस तूफानी माहौल में मोदी अक्रा पहुंचे। घाना की संसद में उनका स्वागत पारंपरिक ढोल की थाप और स्थानीय गीतों ने किया। मोदी ने ट्वीट किया, “अक्रा पहुंचना सम्मान की बात है। राष्ट्रपति महामाहा का स्वागत हमारे पुराने, भरोसेमंद रिश्तों का प्रतीक है। हम भारत-घाना संबंधों को नई ऊँचाइयों पर ले जाएंगे।” 

लेकिन सवाल वही है—क्या यह यात्रा ऑपरेशन सिंदूर की चूक, अमेरिका पर निर्भरता, और चीन की बढ़ती चुनौती को पार कर भारत की साख सुधारेगी? या यह सिर्फ एक और कूटनीतिक चमक-दमक बनकर रह जाएगी?

भारत-घाना: ऐतिहासिक बंधन और रोचक किस्से

अक्रा के बाजारों में भारतीय मसालों की खुशबू और बॉलीवुड गानों की गूँज घाना को भारत से जोड़े रखती है। यह रिश्ता कागजी कूटनीति से कहीं गहरा है—यह साझा संघर्ष और सपनों की कहानी है। 1950 के दशक में घाना के पहले राष्ट्रपति क्वामे एनक्रूमा भारत आए। गांधी की अहिंसा और नेहरू की ‘ग्लोबल साउथ’ की सोच ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि उन्होंने घाना की आजादी की लड़ाई को नई दिशा दी। 1957 में घाना के आजाद होने पर भारत ने वहाँ अपना पहला दूतावास खोला।

एक पुराना किस्सा है—1960 में नेहरू की घाना यात्रा के दौरान एनक्रूमा ने उन्हें एक शानदार ‘केन्टे’ कपड़ा भेंट किया, जो आज अक्रा के नेशनल म्यूजियम में प्रदर्शित है। उस स्वागत में स्थानीय जनजातियों ने ढोल-नगाड़ों के साथ नृत्य किया, और नेहरू की सादगी ने सबका दिल जीत लिया।

2011 में मनमोहन सिंह की यात्रा भी कम यादगार नहीं थी। नीली पगड़ी और सादे सूट में वह घाना की संसद में बोले, “भारत अफ्रीका का प्राकृतिक सहयोगी है। हमारा रिश्ता संसाधनों या निवेश तक सीमित नहीं, बल्कि साझा विकास और मानवीय सहयोग पर आधारित है।” उनकी बातों में गहराई थी, और स्वागत में घानाई गायकों ने पारंपरिक गीत गाए।

आर्थिक समीकरण: प्रगति और चुनौतियाँ

भारत-घाना व्यापार नेहरू काल से लंबा सफर तय किया है। 2004 में यह महज 213 मिलियन डॉलर था, जो मनमोहन सिंह के कार्यकाल में 2013-14 तक 1.2 अरब डॉलर पहुंचा। मोदी सरकार में यह 2017-18 में 3.34 अरब और 2018-19 में 4.48 अरब डॉलर तक गया, लेकिन 2023-24 में 2.51 अरब तक सिमट गया। 2024-25 (अप्रैल-अक्टूबर) में शुरुआती व्यापार 3.13 अरब डॉलर रहा। भारत का व्यापार घाटा बढ़ा है, क्योंकि घाना से सोना और तेल (घाना के निर्यात का 70%) तेजी से आयात हो रहा है।

भारत ने घाना को 450 मिलियन डॉलर की लाइन ऑफ क्रेडिट (LoC) दी, जिससे गांवों में बिजली, आईटी पार्क, और स्वास्थ्य सुविधाएँ बनीं। लेकिन चुनौती सामने खड़ी है—चीन। घाना इन्वेस्टमेंट प्रमोशन सेंटर (GIPC) के मुताबिक, भारत प्रोजेक्ट संख्या में दूसरे स्थान पर है, लेकिन निवेश राशि में चीन, स्पेन, और मिस्र से पीछे है। 1994-2024 में भारत का निवेश 1.92 अरब डॉलर रहा, जबकि चीन का इससे कहीं अधिक। 2023 में भारत का निवेश 77.93 मिलियन डॉलर था, लेकिन चीन की आर्थिक पकड़ मजबूत है।

ग्लोबल साउथ में चीन को चुनौती?

हालिया भारत-पाक तनाव में चीन ने पाकिस्तान को फाइटर जेट, मिसाइल, और सैटेलाइट डेटा देकर समर्थन दिया, जिसे विशेषज्ञ भारत के खिलाफ रणनीतिक चाल मानते हैं। घाना की सड़कों पर पारंपरिक नृत्यों की रौनक के बीच मोदी की यह यात्रा सिर्फ भारत-घाना दोस्ती की कहानी नहीं है। यह ग्लोबल साउथ में भारत की साख को पुनर्जनन करने और चीन की आक्रामकता को टक्कर देने की कोशिश है। चीन ने अफ्रीका में 200 बिलियन डॉलर से अधिक का निवेश किया है, जबकि भारत 80 बिलियन के आसपास है। घाना में चीन की पकड़ इंफ्रास्ट्रक्चर और खनन में मजबूत है। लेकिन भारत की ताकत उसकी सॉफ्ट पावर में है—ऐतिहासिक दोस्ती, सांस्कृतिक जुड़ाव, और लोकतांत्रिक मूल्य।

मोदी की यह यात्रा आर्थिक प्रतिद्वंद्विता का नया अध्याय भी शुरू कर सकती है। घाना के तेल-गैस भंडार, समुद्री मार्गों की सुरक्षा, और ग्लोबल साउथ में नेतृत्व के लिए भारत के पास मौका है। यह भारत के लिए न सिर्फ घाना, बल्कि पूरे अफ्रीका में अपनी स्थिति मजबूत करने का अवसर है, बशर्ते यह चीन की रणनीति को संतुलित करने के लिए स्पष्ट कदम उठाए।

सांस्कृतिक ताकत और जनमानस

अक्रा के बाजारों में भारतीय मसालों की खुशबू और अमिताभ बच्चन व शाहरुख खान की फिल्मों की गूँज घाना को भारत से जोड़े रखती है। 15,000 भारतीय समुदाय, योग, और क्रिकेट यहाँ भारत की सॉफ्ट पावर हैं। एक पुराना किस्सा है—1980 के दशक में ‘डिस्को डांसर’ ने घाना के सिनेमाघरों को फिर से जिंदा कर दिया। आज भी वहाँ के बुजुर्ग “आओ, ओम शांति ओम” गुनगुनाते हैं। लेकिन चीन और यूरोपीय देशों की आक्रामक मौजूदगी ने भारत के लिए मुकाबला कठिन कर दिया। घाना की सड़कों पर बच्चों के नृत्य और पारंपरिक गीत भारत-घाना की दोस्ती की गर्मी दिखाते हैं, मगर क्या यह नीतिगत ठोस कदमों में बदलेगा? 

मोदी का इम्तिहान

घाना की संसद से लेकर अक्रा की सड़कों तक, मोदी की यह यात्रा कोई साधारण कूटनीति नहीं। यह भारत की विदेश नीति की अग्निपरीक्षा है। भारत कई मोर्चों पर जूझ रहा है। ऑपरेशन सिंदूर का अधूरा नतीजा जनता के मन में सवाल छोड़ गया है। कैप्टन शिव कुमार जैसे सैन्य अधिकारियों ने सरकार की रणनीतिक अस्पष्टता पर उंगली उठाई है। अमेरिका की मध्यस्थता की खबरों ने भारत की स्वायत्तता को कटघरे में खड़ा किया। और अब, चीन की पाकिस्तान को सैन्य मदद ने भारत को ग्लोबल साउथ में अपनी साख बचाने की चुनौती दी है।

मोदी के सामने सवाल है—कि क्या वह इस यात्रा को भाषणों और ट्वीट्स से आगे ले जा पाएंगे? यह मौका है—नेहरू और एनक्रूमा की ऐतिहासिक दोस्ती को नया जीवन देने का, ग्लोबल साउथ में भारत की पुरानी साख को पुनर्जीवित करने का, और चीन की आक्रामकता का मुकाबला करने का। अगर यह यात्रा भाषणबाजी तक सिमट गई, तो विपक्ष का तंज—“विदेश नीति उड़ानों और उद्घाटनों तक सीमित है”—और गहरा हो जाएगा।

घाना क्यों ज़रूरी है?

घाना भारत के लिए एक रणनीतिक खजाना है। इसके बाजारों में कोको और सोने की चमक भारत की आर्थिक भूख को ललचाती है। यह देश तेल, बॉक्साइट, और कोको का पावरहाउस है। भारत ने यहाँ आईसीटी, हेल्थकेयर, कृषि, और इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश किया है। 450 मिलियन डॉलर की लाइन ऑफ क्रेडिट ने घाना के गाँवों में बिजली, आईटी पार्क, और अस्पताल बनाए हैं। घाना का तेल भारत की ऊर्जा जरूरतों को मिटा सकता है। अटलांटिक महासागर के समुद्री मार्ग भारत की सुरक्षा रणनीति का हिस्सा हैं। और सबसे बड़ी बात, घाना ग्लोबल साउथ में भारत के नेतृत्व को मजबूत करने का रास्ता खोल सकता है।

घाना की सामाजिक ताकत भी अनोखी है। यहाँ महिलाओं की आबादी पुरुषों से अधिक है, जो सामाजिक बदलाव की मिसाल है। भारत के लिए यह मौका है—साझा लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देने का, और अफ्रीका में अपनी सॉफ्ट पावर को चमकाने का। लेकिन चीन की गहरी आर्थिक पकड़ और यूरोपीय देशों की नई सक्रियता रास्ते में रोड़े हैं। घाना की सड़कों पर पारंपरिक नृत्यों की रौनक भारत-घाना की दोस्ती की गर्मी दिखाती है। मोदी की इस यात्रा से भारत और घाना नये बदलते वैश्विक दौर में रिश्तों की नयी परिभाषा लिखें, यह दोनों देशों की जनता चाहेगी। इसके लिए दोनों देशों को दिखावे से अलग जमीनी हकीकत और ज़रूरत के हिसाब से ठोस कदम उठाने होंगे। 

यह यात्रा तस्वीरों और ट्वीट्स की चमक से आगे बढ़नी चाहिए। यह भारत के लिए मौका है—ग्लोबल साउथ में नेतृत्व को नई परिभाषा देने का, ऐतिहासिक साझेदारी को ठोस नीतियों में बदलने का, और चीन से मुकाबले के लिए रणनीतिक स्पष्टता लाने का।

घाना का इतिहास हमें सिखाता है कि सच्ची दोस्ती परस्पर विश्वास और ठोस कदमों से बनती है। नेहरू और एनक्रूमा ने यह दिखाया था। क्या मोदी इस बार उस विरासत को नया जीवन दे पाएंगे, या यह यात्रा एक और कूटनीतिक सैर-सपाटा बनकर रह जाएगी? भारत को चाहिए रणनीतिक स्पष्टता, आर्थिक ताकत, और सांस्कृतिक जुड़ाव। अगर यह मौका चूक गया तो सुर्खियाँ भले बनें, मगर भारत का अफ्रीकी सपना अधूरा रह जाएगा।

ओंकारेश्वर पांडेय

क्यों न हम बूंदों की खेती करें …

सचिन त्रिपाठी 

क्यों न हम बूंदों की खेती करें? यह प्रश्न अब एक सुझाव नहीं बल्कि एक निर्णायक आग्रह है। भारत, जो अपनी पहचान एक कृषि प्रधान देश के रूप में करता है, आज उस बिंदु पर खड़ा है जहां उसके खेतों में पानी की कमी, अनियमित वर्षा और सूखते जल स्रोत एक चुपचाप आती हुई आपदा का संकेत दे रहे हैं। देश की 60 प्रतिशत से अधिक खेती अब भी वर्षा पर आधारित है और जब मानसून कभी समय से न आए या कम वर्षा हो जाए तो किसान की पूरी आजीविका डगमगा जाती है। ऐसे में ‘बूंदों की खेती’ यानी माइक्रो इरिगेशन,  विशेषतः ड्रिप और स्प्रिंकलर पद्धति केवल विकल्प नहीं बल्कि समय की सख्त मांग बन चुकी है।

बूंदों की खेती एक ऐसी तकनीक है जिसमें पानी को सीधे पौधों की जड़ों तक बहुत धीमी गति से पहुंचाया जाता है जिससे प्रत्येक बूंद का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित होता है। यह पारंपरिक नहर या बाढ़ सिंचाई की तुलना में कई गुना अधिक कुशल पद्धति है। यह तकनीक भारत जैसे जल-अभाव वाले देश के लिए वरदान साबित हो सकती है। औसतन भारत में 1170 मिमी वार्षिक वर्षा होती है लेकिन उसका 80 प्रतिशत हिस्सा मात्र तीन-चार महीनों में गिरता है। बाकी समय खेत सूखे रहते हैं और भूजल पर निर्भर रहते हैं, जो दिन-ब-दिन नीचे खिसक रहा है। नीति आयोग की रिपोर्ट 2023 बताती है कि 2030 तक देश की 40 प्रतिशत आबादी को पीने के पानी तक सीमित पहुंच रह जाएगी। ऐसे में कृषि को पानी का विवेकपूर्ण उपयोग सिखाना होगा।

माइक्रो इरिगेशन से पानी की 30 से 70 प्रतिशत तक बचत होती है। भारत सरकार के अनुसार यदि देश की 50 प्रतिशत खेती इस पद्धति को अपनाएं तो लगभग 65 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी की सालाना बचत संभव है। केवल जल ही नहीं, इससे उर्वरकों और बिजली की भी बचत होती है। जब पानी सीधा जड़ तक जाता है, तो खाद भी उसी माध्यम से जड़ों में मिलाई जा सकती है जिससे ‘फर्टीगेशन’ के माध्यम से 30 से 40 प्रतिशत तक उर्वरक की बचत होती है। बिजली की खपत भी घटती है क्योंकि पंपों को लंबे समय तक चलाने की आवश्यकता नहीं होती। इसके अतिरिक्त खरपतवार और फंगल रोगों की आशंका कम होती है क्योंकि खेत के सभी हिस्सों में नमी नहीं फैलती।

इस तकनीक का एक और महत्वपूर्ण पहलू है उत्पादन में बढ़ोतरी। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के शोध बताते हैं कि ड्रिप इरिगेशन से टमाटर, मिर्च, अंगूर, केला, कपास जैसी फसलों की उपज में 20 से 90 प्रतिशत तक की वृद्धि दर्ज की गई है। इसका सीधा लाभ किसान की आय पर पड़ता है, जो प्रधानमंत्री की आय दोगुनी करने की परिकल्पना के अनुरूप है। बावजूद इसके, भारत में केवल 12 प्रतिशत कृषि भूमि ही माइक्रो इरिगेशन के अंतर्गत आती है। यह आंकड़ा खुद ही स्थिति की गंभीरता को दर्शाता है।

बाधाएं भी अनेक हैं। सबसे बड़ी चुनौती है इसकी प्रारंभिक लागत। एक हेक्टेयर भूमि पर ड्रिप प्रणाली लगाने में 30,000 से 70,000 रूपए तक खर्च आता है जो सीमांत और लघु किसानों के लिए संभव नहीं। सरकार ‘प्रति बूंद अधिक फसल’ योजना के तहत अनुदान देती है, लेकिन यह प्रक्रिया जटिल, कागजी और भेदभावपूर्ण मानी जाती है। वहीं, बहुत से किसानों को इस तकनीक की सही जानकारी नहीं है। उन्हें न मरम्मत आती है, न फिल्टरिंग की समझ। स्थानीय स्तर पर तकनीकी सहयोग की भारी कमी है। इसके अलावा कई ऐसे क्षेत्र भी हैं जहां पानी का स्रोत ही नहीं है, वहां माइक्रो इरिगेशन की उपयोगिता सीमित रह जाती है। इसलिए यह आवश्यक है कि वर्षा जल संग्रहण, तालाब निर्माण, बंधा प्रणाली और चेक डैम जैसी संरचनाओं को गांवों में प्राथमिकता दी जाए ताकि माइक्रो इरिगेशन को स्थायी आधार मिल सके।

अगर भारत को जल संकट से उबारना है और कृषि को सतत बनाना है तो नीति, प्रोत्साहन और व्यवहार में एक ठोस परिवर्तन की आवश्यकता है। किसानों को सूचनाएं मोबाइल ऐप्स, रेडियो और पंचायतों के माध्यम से सरल भाषा में दी जानी चाहिए। कृषि विज्ञान केंद्रों को माइक्रो इरिगेशन पर मासिक प्रशिक्षण शिविर अनिवार्य रूप से चलाने चाहिए। इसके साथ ही फसलों के चयन में बदलाव आवश्यक है। अत्यधिक जल खपत करने वाली फसलें जैसे धान और गन्ना की जगह कम पानी में उगने वाली फसलें जैसे बाजरा, ज्वार, दालें और सब्जियों को प्रोत्साहित किया जाए। किसानों को फसल विविधीकरण की तरफ प्रेरित करना ही दीर्घकालिक समाधान है।

बूंदों की खेती कोई नवीन विचार नहीं है बल्कि एक परख चुकी तकनीक है जिसे इजराइल जैसे रेगिस्तानी देशों ने अपनाकर खेती को लाभकारी और जल-संरक्षण युक्त बना दिया है। भारत के लिए यह कोई विकल्प नहीं बल्कि आवश्यक विकल्प है। हमें हर खेत तक सिंचाई पहुँचाने के पुराने संकल्प को अब ‘हर बूंद से हर खेत तक’ की नई सोच में बदलना होगा। जब पानी की हर बूंद को बचाया जाएगा, तभी धरती की हर नस में हरियाली बहेगी। इसलिए अब समय आ गया है कि हम केवल नारे न दें, बल्कि ठोस निर्णय लें। क्यों न हम हर खेत में बूंदों से हरियाली बो दें, ताकि भविष्य की पीढ़ियों को पानी और अन्न दोनों की कमी न हो। यही कृषि की सतत यात्रा की शुरुआत होगी – एक बूंद से।

सचिन त्रिपाठी 

रिटायरमेंट के बारे में सोच रहे हैं आमिर खान ?

सुभाष शिरढोनकर

एक्‍टर आमिर खान की फिल्म ‘सितारे जमीन पर’ सिनेमाघरों में रिलीज हो चुकी है। इस फिल्म के जरिए आमिर खान ने लगभग तीन साल बाद सिल्‍वर स्‍क्रीन पर कमबैक किया हैं।

फिल्‍म ‘सितारे जमीन पर’ (2025), साल 2007 में आई फिल्‍म ‘तारे जमीन पर’ का सीक्वल है जिसे आमिर खान और किरण राव ने प्रोड्यूस किया है।

आमिर खान इसके पहले साल 2022 में रिलीज फिल्म ‘लाल सिंह चड्ढा’ में नजर आए थे। उनकी यह फिल्‍म हॉलीवुड क्लासिक ‘फॉरेस्ट गंप’ की रीमेक थी लेकिन फिल्म बॉक्स ऑफिस पर फेल हो गई। इस फिल्म के बाद आमिर खान ने एक्टिंग से ब्रेक ले लिया था।

आमिर खान ने ‘सितारे जमीन पर’ के प्रीमियर पर एलान किया कि इस फिल्‍म के बाद अब वे अपने ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ पर फोकस करेंगे। यदि खबरों की माने तो आमिर खान का ड्रीम प्रोजेक्ट ‘महाभारत’ हैं। वे अपने इस ड्रीम प्रोजेक्ट को बिग स्क्रीन पर लाना चाहते हैं।

आमिर ने बताया कि उनके करियर की आखिरी फिल्म उनका ड्रीम प्रोजेक्ट ही होगा जिसके बाद उनके पास करने के लिए कुछ नहीं बचेगा। इसलिए इसके बाद वे रिटायरमेंट के बारे में सोच रहे हैं।

हालांकि आमिर खान अपने इस ड्रीम प्रोजेक्‍ट वाली फिल्‍म के साथ फिल्ममेकर राजकुमार हिरानी के साथ इंडियन सिनेमा के जनक दादा साहेब फाल्के की बायोपिक भी करने जा रहे हैं। फिल्म की स्क्रिप्ट पर विगत चार साल से काम हो रहा था और अब जाकर आमिर के साथ इस फिल्म की अनाउंटमेंट हो चुकी है।

दादा साहेब फाल्के की बायोपिक’ भारत के स्वतंत्रता संग्राम के बैकड्रॉप पर बेस्ड होकर उस व्यक्ति की जर्नी को दर्शाएगी जिसने भारतीय सिनेमा की नींव रखी। फिल्‍म की शूटिंग अक्टूबर से शुरू होने वाली है।

राजकुमार हिरानी के साथ आमिर खान की बॉडिंग गजब की रही है। आमिर पहली बार 2009 में राजकुमार हिरानी व्‍दारा निर्देशित फिल्म ‘3 इडियट्स’ में दिखे थे।

’थ्री ईडियट्स’ (2009) ने कामयाबी का ऐसा इतिहास रचा कि उसने इंडस्ट्री का सारा गणित ही बदलकर रख दिया। उसे आज भी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लिए मील का पत्थर माना जाता है।

इसके बाद राजकुमार हिरानी और आमिर खान, साल 2014 में फिल्म ‘पीके लेकर आए। इस फिल्म ने एक बार फिर सारे रिकॉर्ड ब्रेक कर दिए। अब इसके सीक्‍वल पर भी काम चल रहा है। हो सकता है कि एक बार फिर इसमें आमिर खान नजर आएं।

आमिर खान के बैनर व्‍दारा बनाई गई फिल्‍में न केवल एंटरटेनर होती हैं, बल्कि कहीं न कही उनमें समाज के लिए कोई मैसेज भी रहता है लेकिन इसके बावजूद आमिर का मानना रहा है कि वह सिर्फ एक एंटरटेनर हैं, सोशल टीचर नहीं जो किसी को भी सोशलॉजी लेसन देने लग जाएं।

आमिर का कहना है कि जब लोग थिएटर में टिकट लेकर आते है तो वो सिर्फ एंटरटेनमेंट चाहते हैं। यदि उन्हें सोशलॉजी पढ़नी होगी तो वे कॉलेज जाएंगे। जब वह कॉलेज न जाकर थिएटर आये है, इसका मतलब उन्हें केवल मौज-मस्ती चाहिए।

आमिर आगे यह भी कहते हैं कि ‘लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि क्रिएटिव लोगों का सोसाइटी में कोई योगदान नहीं होना चाहिए। सोसायटी के लिए हर प्रोफेशन से जुडे व्‍यक्ति का कुछ न कुछ योगदान अवश्‍य होता है। डॉक्टर इलाज करते हैं, जज जस्टिस देता है, नेता समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए नियम बनाते हैं।

इसी तरह पेंटर, सिंगर और आर्टिस्ट जैसे जो क्रिएटिव लोग होते हैं, उनका काम भी अपने काम से लोगों का दिल बहलाने का होता हैं और मेरा जो काम है उसे मैं भी ठीक तरह से करने की कोशिश कर रहा हूं। लोगों का दिल बहलाना भी उतनी ही क्रिएटिव चीज है जितनी सोसायटी से जुड़ी दूसरी चीजें। इतनी बड़ी पॉपुलेशन का दिल बहलाना कोई आसान काम नहीं होता।’

स्वामी विवेकानंद: विचारों के युगदृष्टा, युवाओं के पथप्रदर्शक

स्वामी विवेकानंद पुण्यतिथि (4 जुलाई) पर विशेष
– योगेश कुमार गोयल

स्वामी विवेकानंद सदैव युवाओं के प्रेरणास्रोत और आदर्श व्यक्त्वि के धनी माने जाते रहे हैं, जिन्हें उनके ओजस्वी विचारों और आदर्शों के कारण ही जाना जाता है। वे आधुनिक मानव के आदर्श प्रतिनिधि थे और खासकर भारतीय युवाओं के लिए उनसे बढ़कर भारतीय नवजागरण का अग्रदूत अन्य कोई नेता नहीं हो सकता। 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में जन्मे स्वामी विवेकानंद अपने 39 वर्ष के छोटे से जीवनकाल में समूचे विश्व को अपने अलौकिक विचारों की ऐसी बेशकीमती पूंजी सौंप गए, जो आने वाली अनेक शताब्दियों तक समस्त मानव जाति का मार्गदर्शन करती रहेगी। विवेकानंद के बारे में कहा जाता है कि वे स्वयं भूखे रहकर अतिथियों को खाना खिलाते थे और बाहर ठंड में सो जाते थे। मानवता के वे कितने बड़े हितैषी थे, यह उनके इस वक्तव्य से समझा जा सकता है कि भारत के 33 करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी-देवताओं की भांति मंदिरों में स्थापित कर दिया जाए और मंदिरों से देवी-देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाए। विवेकानंद का व्यक्तित्व कितना विराट था, यह गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि अगर आप भारत को जानना चाहते हैं तो आप विवेकानंद को पढि़ए। विवेकानंद का कहना था कि मेरी भविष्य की आशाएं युवाओं के चरित्र, बुद्धिमत्ता, दूसरों की सेवा के लिए सभी का त्याग और आज्ञाकारिता, खुद को और बड़े पैमाने पर देश के लिए अच्छा करने वालों पर निर्भर है। युवा शक्ति का आव्हान करते हुए उन्होंने अनेक मूलमंत्र दिए।
वे एक ऐसे महान व्यक्तित्व थे, जिनकी ओजस्वी वाणी सदैव युवाओं के लिये प्रेरणास्रोत बनी रही। विवेकानंद ने देश को सुदृढ़ बनाने और विकास पथ पर अग्रसर करने के लिए हमेशा युवा शक्ति पर भरोसा किया। युवा वर्ग से उन्हें बहुत उम्मीदें थीं और युवाओं की अहम् भावना को खत्म करने के उद्देश्य से ही उन्होंने अपने एक भाषण में कहा भी था कि यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खड़े हो जाओगे तो तुम्हें सहायता देने के लिए कोई भी आगे नहीं बढ़ेगा। इसलिए यदि सफल होना चाहते हो तो सबसे पहले अपने अहम् का नाश कर डालो। उनका कहना था कि मेरी भविष्य की आशाएं युवाओं के चरित्र, बुद्धिमत्ता, दूसरों की सेवा के लिए सभी का त्याग और आज्ञाकारिता, खुद को और बड़े पैमाने पर देश के लिए अच्छा करने वालों पर निर्भर है। युवा शक्ति का आव्हान करते हुए उन्होंने एक मंत्र दिया था, ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’ अर्थात् ‘उठो, जागो और तब तक मत रूको, जब तक कि मंजिल प्राप्त न हो जाए।’ ऐसा अनमोल मूलमंत्र देने वाले स्वामी विवेकानंद ने सदैव अपने क्रांतिकारी और तेजस्वी विचारों से युवा पीढ़ी को ऊर्जावान बनाने, उसमें नई शक्ति एवं चेतना जागृत करने और सकारात्कमता का संचार करने का कार्य किया।
युवा शक्ति का आव्हान करते हुए स्वामी विवेकानंद ने अनेक मूलमंत्र दिए, जो देश के युवाओं के लिए सदैव प्रेरणास्रोत बने रहेंगे। उनका कहना था, ‘‘ब्रह्मांड की सारी शक्तियां पहले से ही हमारी हैं। वो हम ही हैं, जो अपनी आंखों पर हाथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि कितना अंधकार है। मेरा विश्वास युवा पीढ़ी में है, आधुनिक पीढ़ी से मेरे कार्यकर्ता आ जाएंगे। डर से भागो मत, डर का सामना करो। यह जीवन अल्पकालीन है, संसार की विलासिता क्षणिक है लेकिन जो दूसरों के लिए जीते हैं, वे वास्तव में जीते हैं। जो भी कार्य करो, वह पूरी मेहनत के साथ करो। दिन में एक बार खुद से बात अवश्य करो, नहीं तो आप संसार के सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति से मिलने से चूक जाओगे। उच्चतम आदर्श को चुनो और उस तक अपना जीवन जीयो। सागर की तरफ देखो, न कि लहरों की तरफ। महसूस करो कि तुम महान हो और तुम महान बन जाओगे। काम, काम, काम, बस यही आपके जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। धन पाने के लिए कड़ा संघर्ष करो पर उससे लगाव मत करो। जो गरीबों में, कमजोरों में और बीमारियों में शिव को देखता है, वो सच में शिव की पूजा करता है। पृथ्वी का आनंद नायकों द्वारा लिया जाता है, यह अमोघ सत्य है, अतः एक नायक बनो और सदैव कहो कि मुझे कोई डर नहीं है। मृत्यु तो निश्चित है, एक अच्छे काम के लिए मरना सबसे बेहतर है। कुछ सच्चे, ईमानदार और ऊर्जावान पुरुष और महिलाएं एक वर्ष में एक सदी की भीड़ से अधिक कार्य कर सकते हैं। विश्व एक व्यायामशाला है, जहां हम खुद को मजबूत बनाने के लिए आते हैं।’’
11 सितम्बर 1893 को शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में हिन्दू धर्म पर अपने प्रेरणात्मक भाषण की शुरूआत उन्होंने ‘मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों’ के साथ की तो बहुत देर तक तालियों की गड़गड़ाहट होती रही। अपने उस भाषण के जरिये उन्होंने दुनियाभर में भारतीय अध्यात्म का डंका बजाया। विदेशी मीडिया और वक्ताओं द्वारा भी स्वामीजी को धर्म संसद में सबसे महान व्यक्तित्व और ईश्वरीय शक्ति प्राप्त सबसे लोकप्रिय वक्ता बताया जाता रहा। यह स्वामी विवेकानंद का अद्भुत व्यक्तित्व ही था कि वे यदि मंच से गुजरते भी थे तो तालियों की गड़गड़ाहट होने लगती थी। उन्होंने 1 मई 1897 को कलकत्ता में रामकृष्ण मिशन तथा 9 दिसंबर 1898 को कलकत्ता के निकट गंगा नदी के किनारे बेलूर में रामकृष्ण मठ की स्थापना की थी। 4 जुलाई 1902 को इसी रामकृष्ण मठ में ध्यानमग्न अवस्था में महासमाधि धारण किए वे चिरनिद्रा में लीन हो गए लेकिन उनकी कीर्ति युगों-युगों तक जीवंत रहेगी।

देश में नशे के सौदागरों का बढ़ता जाल

भारत में नशे का संकट अब व्यक्तिगत बुराई नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आपदा बन चुका है। ड्रग माफिया, तस्करी, राजनीतिक संरक्षण और सामाजिक चुप्पी—सब मिलकर युवाओं को अंधकार में ढकेल रहे हैं। स्कूलों से लेकर गांवों तक नशे की जड़ें फैल चुकी हैं। यह सिर्फ स्वास्थ्य नहीं, सोच और सभ्यता का संकट है। समाधान केवल कानून से नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना, संवाद, शिक्षा और सामाजिक नेतृत्व से आएगा। अगर आज हम नहीं जगे, तो कल हम एक खोई हुई पीढ़ी का मातम मनाएंगे।

 डॉ. सत्यवान सौरभ

भारत आज एक दोहरी लड़ाई लड़ रहा है—एक तरफ तकनीक और विकास की उड़ान है, और दूसरी ओर समाज के भीतर नशे का अंधकार फैलता जा रहा है। नशा अब सिर्फ एक व्यक्तिगत बुराई नहीं रह गया, बल्कि यह एक संगठित उद्योग, एक अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र और एक सामाजिक महामारी का रूप ले चुका है। देश के गाँव से लेकर शहर तक, स्कूलों से लेकर कॉलेजों तक, और अमीरों की पार्टियों से लेकर गरीबों की गलियों तक, नशे के सौदागर अपना जाल फैलाए बैठे हैं।

सबसे चिंताजनक बात यह है कि अब यह जाल केवल शराब या गांजे तक सीमित नहीं रहा। सिंथेटिक ड्रग्स, केमिकल नशे, हेरोइन, ब्राउन शुगर, कोकीन जैसे घातक पदार्थ अब भारत के युवाओं के जीवन को खोखला कर रहे हैं। पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली, मणिपुर, गोवा जैसे राज्यों में तो यह जहर सामाजिक ताने-बाने को चीर चुका है। एक ओर सरकार “युवाओं को स्किल्ड बनाने” की बात करती है, दूसरी ओर लाखों नौजवान नशे की गिरफ्त में अपनी ऊर्जा, जीवन और भविष्य गंवा रहे हैं।

नशे के पीछे एक पूरा तंत्र सक्रिय है—पैसे के लिए इंसानियत का सौदा करने वाले ड्रग माफिया, पुलिस और राजनीति में मिलीभगत, विदेशों से आने वाली तस्करी की खेप, और स्थानीय स्तर पर युवाओं को इस दलदल में धकेलने वाले एजेंट। ये सब मिलकर देश को अंदर से खोखला कर रहे हैं। यह कोई संयोग नहीं कि हर बड़ी ड्रग बरामदगी के पीछे किसी न किसी रसूखदार का नाम सामने आता है, लेकिन मामला वहीं दबा दिया जाता है।

एक वर्ग ऐसा भी है जो नशे को “लाइफस्टाइल” का हिस्सा मानने लगा है। ऊंचे दर्जे की पार्टियों में ड्रग्स फैशन बन चुकी है। वहां कोई इसे सामाजिक अपराध नहीं मानता, बल्कि ‘कूलनेस’ का प्रतीक बना दिया गया है। वहीं दूसरी तरफ गरीब युवा—जो बेरोजगारी, हताशा और टूटी हुई उम्मीदों के शिकार हैं—उन्हें नशा एक अस्थायी राहत की तरह दिखता है। दोनों ही हालात समाज को विनाश की ओर ले जा रहे हैं।

स्कूलों और कॉलेजों में नशा जिस तरह से प्रवेश कर चुका है, वह आने वाली पीढ़ियों के लिए एक गहरी चेतावनी है। कई रिपोर्टें बताती हैं कि स्कूल के बच्चे तक ड्रग्स की चपेट में हैं। छोटे-छोटे पाउच, चॉकलेट जैसे पैकेट्स, खुशबूदार पाउडर—इनके ज़रिए नशा परोसा जा रहा है। और जब बच्चे इसकी गिरफ्त में आते हैं, तो परिवार, शिक्षक और समाज—सभी असहाय हो जाते हैं।

भारत के संविधान ने हमें एक ‘स्वस्थ राष्ट्र’ का सपना दिया था, लेकिन जिस देश के युवा ही बीमार और नशे में हों, उस राष्ट्र की कल्पना कैसे साकार होगी? युवा ही देश की रीढ़ होते हैं—यदि वही झुक जाएं, टूट जाएं या खोखले हो जाएं, तो देश भी खड़ा नहीं रह सकता।

नशा केवल शरीर को नहीं, आत्मा को भी मारता है। यह निर्णय क्षमता को खत्म करता है, रिश्तों को तोड़ता है, अपराध को जन्म देता है और समाज में हिंसा और उदासी का माहौल फैलाता है। नशे की लत में पड़ा व्यक्ति अपने परिजनों के लिए बोझ बन जाता है। वह चोरी करता है, झूठ बोलता है, आत्महत्या तक कर लेता है।

यह एक मात्र स्वास्थ्य या क़ानून व्यवस्था की समस्या नहीं है—यह नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संकट है।

माफिया नेटवर्क में पुलिस और राजनीतिक संरक्षण की बात करना कोई षड्यंत्र नहीं है, बल्कि कई बार कोर्ट और जांच एजेंसियों के रिकॉर्ड में यह स्पष्ट रूप से सामने आ चुका है। NDPS एक्ट (Narcotic Drugs and Psychotropic Substances Act) जैसे कानून मौजूद हैं, लेकिन इनका क्रियान्वयन बेहद कमजोर और पक्षपाती है। कई मामलों में पकड़ में आए ड्रग तस्करों को तकनीकी खामियों के चलते छोड़ दिया जाता है। वहीं गरीब या छोटे उपयोगकर्ता जेल में सड़ते हैं।

सरकारें अक्सर ड्रग्स के खिलाफ “जागृति अभियान”, “स्लोगन प्रतियोगिता”, या “परेड” जैसे प्रतीकात्मक कार्यक्रम करती हैं, लेकिन सवाल है कि क्या इससे कुछ बदलता है? ज़रूरत है एक मजबूत नीति, ईमानदार क्रियान्वयन और सबसे बड़ी बात—राजनीतिक इच्छाशक्ति की।

नशे की तस्करी अक्सर सीमावर्ती इलाकों से होती है—पंजाब-पाकिस्तान सीमा, मणिपुर-म्यांमार सीमा, गुजरात समुद्री तट और मुंबई बंदरगाह जैसे स्थानों से। इन इलाकों में हाई अलर्ट की जरूरत है, लेकिन अक्सर सुरक्षा तंत्र या तो लापरवाह होता है या भ्रष्ट। पिछले कुछ वर्षों में टनों की मात्रा में ड्रग्स पकड़े जाने के बावजूद, ड्रग लॉर्ड्स पर कार्यवाही न के बराबर हुई है। इससे अपराधियों का मनोबल और बढ़ता है।

इसमें मीडिया की भूमिका भी कमज़ोर रही है। कुछ चुनिंदा मामलों में मीडिया टीआरपी के लिए “ड्रग्स ड्रामा” दिखाता है, लेकिन अधिकतर समय वह इस गंभीर मुद्दे को उपेक्षित छोड़ देता है। और जब बॉलीवुड जैसी चमकती दुनिया में ड्रग्स की चर्चा होती है, तो उसे भी ‘गॉसिप’ बना दिया जाता है, असल सामाजिक विमर्श नहीं।

इस पूरे संकट का सबसे दुखद पहलू यह है कि इससे जुड़ा व्यक्ति अकेला नहीं मरता—उसके साथ पूरा परिवार, और धीरे-धीरे एक पीढ़ी मुरझा जाती है। मां-बाप अपनी औलाद को नशे में खोते हैं, भाई-बहन रिश्तों की राख में बदल जाते हैं, और गांव-शहर अपने युवाओं को खोकर बस मौन शोक में डूब जाते हैं।

समाधान केवल दवाओं या जेलों में नहीं है। समाधान है—सशक्तिकरण में, संवाद में, शिक्षा में, और सामूहिक सामाजिक प्रयास में।

हर पंचायत, हर स्कूल, हर मोहल्ले में नशे के खिलाफ ईमानदार मुहिम चलानी होगी। युवा मंडलों, महिला समूहों और शिक्षकों को इस मुद्दे पर नेतृत्व देना होगा। समाज को यह समझना होगा कि नशा केवल “व्यक्ति की कमजोरी” नहीं है, बल्कि यह एक षड्यंत्र है—जिसका शिकार पूरा समाज बन सकता है।

हमें ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनानी होगी जो युवाओं को केवल परीक्षा पास करने के लिए नहीं, बल्कि जीवन जीने की समझ दे। जीवन के संघर्षों से लड़ने का हौसला दे, असफलता को स्वीकार करने की शक्ति दे और आत्म-नियंत्रण का संस्कार दे।

माता-पिता को भी बच्चों की मानसिक स्थिति, व्यवहार और संगति पर सतर्क रहना होगा। संवाद और विश्वास के बिना कोई समाधान संभव नहीं। डर या दंड से बच्चे छिपते हैं, लेकिन संवाद से खुलते हैं।

और अंततः, जब तक समाज नशे को “अपराध” की तरह नहीं, बल्कि एक “आपदा” की तरह देखेगा—जिसमें पीड़ित को मदद और माफिया को सज़ा मिलनी चाहिए—तब तक यह जहर फैलता रहेगा।

नशा एक धीमा ज़हर है—जो शरीर से पहले सोच को मारता है। आज ज़रूरत है उस सोच को जगाने की, जो कहे—नशा छोड़ो, जीवन चुनो।

आदिवासी अधिकारों और शोषण के खिलाफ संघर्ष के लिए एक प्रेरणा है हूल विद्रोह

हूल विद्रोह  – 30 जून 1855

कुमार कृष्णन 

संथाल  विद्रोह या हूल विद्रोह  ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था के विरुद्ध प्रथम व्यापक सशस्त्र विद्रोह था जो ब्रिटिश शासन काल में जमींदारों तथा साहूकारों द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों के ख़िलाफ़ किया गया था। हूल विद्रोह एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है जिसने न केवल ब्रिटिश शासन के खिलाफ आदिवासी प्रतिरोध को उजागर किया बल्कि आदिवासी अधिकारों और शोषण के खिलाफ संघर्ष के लिए एक प्रेरणा भी प्रदान की। यह विद्रोह आज भी प्रासंगिक है क्योंकि आदिवासी समुदायों को आज भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और यह विद्रोह उनके अधिकारों के लिए लड़ने और न्याय प्राप्त करने के लिए एक प्रेरणा प्रदान करता है। यह ब्रिटिश शासन के खिलाफ पहला संगठित आदिवासी विद्रोह था। इसने आदिवासी समुदायों द्वारा सामना किए जा रहे शोषण को उजागर किया और भारत में बाद के आदिवासी आंदोलनों को प्रभावित किया।

हुल का अर्थ होता है विद्रोह या क्रांति। यह शब्द संथाल आदिवासी समुदाय द्वारा उनके अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश शासन के खिलाफ लडे गए संघर्ष को दर्शाता है। इतिहासकार वाल्टर हॉउजर ने अपनी पुस्तक ” आदिवासी एंड द राज: सोसियो एकोनोमिक ट्रांजिक्शन आफ द संथाल इन ईस्टर्न इंडिया ” में संथाल हूल विद्रोह या हुल विद्रोह को हक की लड़ाई और ब्रिटिश सरकार के नीतियों के खिलाफ संघर्ष के रूप में देखा। जब अंग्रेजी हुकूमत के आगमन के बाद जमींदारी प्रथा ने संथालों की ज़मीनों  पर कब्जा कर लिया। आदिवासी समुदाय को उनकी जमीनों से बेदखल कर दिया गया और अत्यधिक करों और उच्च ब्याज दरों पर ऋण लेने के लिए मजबूर किया गया। साथ ही कर को इतना अधिक बढा दिया गया कि कर चुकाना भी मुश्किल हो जाता था। ब्रिटिश भी इतने  थे कि शातिर थे कि अगर जो भी कर चुका नही पाता था तो उस पर मुकदमा चलाया जाता जिससे और अधिक प्रताड़ित किया जाता था।  ब्रिटिश अत्याचारों से संतालों की सामाजिक और सांस्कृतिक तानाबाना को प्रभावित हो रही थी।अंग्रेजों द्वारा नियोजित कर-संग्रह करने वाले महाजन जमींदार बिचौलियों के रूप में अर्थव्यवस्था पर हावी हो गए। कई संथाल भ्रष्ट धन उधार प्रथाओं के शिकार हो गए। उन्हें अत्यधिक दरों पर पैसा उधार दिया गया था। जब वे कर्ज चुकाने में असमर्थ थे, तो उनकी जमीनों को जबरन छीन लिया गया और उन्हें बंधुआ मजदूरी के लिए मजबूर कर दिया गया। 30 जून 1855 को, इनलोगों ने लगभग 60,000 संथालों को लामबंद किया और ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह की घोषणा की।

विद्रोह का नेतृत्व चार मूर्मू भाइयों – सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव तथा दो जुड़वां मूर्मू बहनें – फूलो और झानो ने किया। इनलोगों के नेतृत्व में 30 जून, 1855 ई.को वर्तमान साहेबगंज ज़िले के भगनाडीह गांव से प्रारंभ हुए इस विद्रोह के मौके पर सिद्धू ने घोषणा की थी- करो या मरो, अंग्रेज़ों हमारी माटी छोड़ो।इस आशय का प्रस्ताव भागलपुर के कमिश्नर को सौंपा था। यह घोषणा महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन से 57 साल पहले दिया गया था।

यह क्रांति झारखंड के वर्तमान साहेबगंज जिले के भोगनाडीह गांव से शुरू हुई और उत्तर-पश्चिम में भागलपुर और दक्षिण में कोलकाता के आसपास तक फैल गई। इसकी शुरुआत लगभग 10,000 युवाओं के उत्पात मचाने से हुई, लेकिन यह धीरे-धीरे बढ़ती गई और सात महीने की अवधि में इसमें लगभग 20 गुना लोग शामिल हो गए। निश्चित रूप से, इस क्रांति ने एक मिसाल कायम की और इस क्षेत्र में भविष्य के विद्रोहों पर इसका प्रभाव पड़ा,जिसमें 19वीं सदी के उत्तरार्ध में मुंडा विद्रोह भी शामिल है।

आदिवासी क्षेत्रों में, अंग्रेज अपनी शोषणकारी गतिविधियों को लगभग पूरी तरह से जमींदारों को सौंप देते थे, कभी-कभी गरीबों को होने वाले नुकसान की मात्रा का एहसास भी नहीं करते थे। आदिवासियों के लिए, तत्काल हमलावर ‘दिकू’ था – कोई भी बाहरी व्यक्ति जो उनके संसाधनों पर अतिक्रमण करता था। इसलिए, आदिवासियों का प्राथमिक संघर्ष हमेशा जमींदारों के खिलाफ होता था। लेकिन जैसे ही जमींदारों पर हमला होता, ब्रिटिश प्रशासन आदिवासियों पर कहीं अधिक अत्याचार करता, जिससे यह एक अंतहीन परीक्षा बन जाती। ऐसे मामलों में, आदिवासियों के पास अक्सर हिंसक प्रतिशोध के अलावा कोई विकल्प नहीं होता था.

30 जून 1855 को ‘हुल! हुल!’ के नारे के साथ कान्हू और सिद्धो ने 10,000 संथाल युवकों के एक समूह का नेतृत्व किया और भोगनाडीह के स्थानीय बाजार में व्यापारियों और महाजनों पर हमला किया। करीब एक दर्जन लोग मारे गए। एक हफ्ते बाद 7 जुलाई को सिद्धो ने दरोगा महेश लाल दत्ता की हत्या कर दी जिन्हें एक बार फिर उपद्रव को दबाने के लिए भेजा गया था। सिद्धो बीर सिंह की मौत का बदला ले रहा था; यह बदला अपने शुद्धतम रूप में था और उसने इसे छिपाने का कोई प्रयास नहीं किया। अगले दिन, मुर्मू भाइयों के नेतृत्व में संथाल पाकुड़ पहुंचे जो जमींदारों का गढ़ था। यहां, चारों भाई सबसे अमीर जमींदार गोड़े मदन मोहन के घर में घुस गए, चांद और भैरव के नेतृत्व में संथालों का एक समूह मुर्शिदाबाद की ओर बढ़ा जहाँ उन्होंने 14 जुलाई को नील कारखाने पर हमला किया हालाँकि, मजिस्ट्रेट के लगभग 200 गार्डों के दल ने उनका मुकाबला किया। नतीजतन, समूह ने रेलवे बंगलों को जलाना शुरू कर दिया और तब तक किए गए सभी निर्माण को नष्ट कर दिया। कई अंग्रेज़ और दो अंग्रेज़ महिलाएँ मारे गए। जब सिद्धो को इस बात का पता चला, तो उसने इस कृत्य की निंदा की और अपने छोटे भाइयों को फटकार लगाई, इस बात पर ज़ोर देते हुए कि उनकी लड़ाई में एक निश्चित आचार संहिता का पालन किया जाना चाहिए जो ईश्वर द्वारा निर्देशित थी। इसका मतलब उन लोगों की जान बख्शना था जिन्होंने संथालों का शोषण नहीं किया था।

अब तक हुल को किसी भी गंभीर प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा था। इसकी मुख्य वजह यह थी कि आस-पास के इलाके में कोई भी ब्रिटिश सैनिक मौजूद नहीं था जो उपद्रव के इलाके में जल्दी से पहुँचकर विद्रोह को दबा सके। दरअसल, सरकार को यह उम्मीद नहीं थी कि शांतिप्रिय संथाल इतने उग्र हो जाएँगे कि वे उन पर धनुष-बाण तान देंगे। इस अज्ञानता के कारण, अंग्रेजों को बहुत देर से एहसास हुआ और वे हैरान रह गए, क्योंकि लंबे समय तक चलने वाले विद्रोह के लिए मंच तैयार हो चुका था। इसके तहत, संथालों ने बुरहैत पर कब्ज़ा कर लिया था जो उनका मुख्यालय बन गया। मुर्मू भाइयों को पालकी में बिठाकर घुमाया गया मानो वे ज़मीन के नए मालिक बन गए हों।

इसके साथ ही भागलपुर के कमिश्नर डी.एफ. ब्राउन ने मेजर एफ.डब्लू. बरोज़ के नेतृत्व में हिल रेंजर्स की एक टुकड़ी को स्थिति से निपटने के लिए भेजा। पीरपैंती में चांद और भैरव के नेतृत्व में संथालों ने सैनिकों पर भीषण हमला किया और अंततः 16 जुलाई को उन्हें पराजित होना पड़ा। इससे बेहद शर्मिंदा और हैरान कमिश्नर ने दीनापुर में तैनात मेजर जनरल लॉयड से और अधिक सैनिकों की मांग की। करीब एक हफ्ते बाद 25 जुलाई को उन्होंने मार्शल लॉ लगाने की भी मांग की। पांच दिन बाद फोर्ट विलियम ने कमिश्नर के अनुरोध को अवैध करार देते हुए अपना आदेश वापस ले लिया। इस बीच हूल की आवाज बीरभूम और हजारीबाग तक पहुंच गई, जहां लड़ाकों ने जेल पर धावा बोल दिया और उसे आग के हवाले कर दिया।

अगस्त 1855 की शुरुआत में, नादिया के कमिश्नर ए.सी. बिडवेल को विद्रोह को दबाने के लिए एक विशेष कमिश्नर के रूप में नियुक्त किया गया था। उन्होंने संथालों से आत्मसमर्पण करने और नेताओं को छोड़कर सभी को माफ़ी देने का आश्वासन देते हुए एक घोषणा जारी की। सिद्धो कान्हू  द्वारा बुलाई गई एक बैठक में, इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया। इसके बाद, महिलाओं और बच्चों सहित लगभग 30,000 संथाल गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी को अपनी याचिका प्रस्तुत करने के लिए कलकत्ता की ओर कूच करने लगे। अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने अपनी नज़र में आने वाले हर महाजन का शिकार किया। पहले से ही, संथाल ग्रैंड ट्रंक रोड के साथ हर नदी पर तैनात सैनिकों के खिलाफ़ लड़ाई करके कलकत्ता के करीब पहुँच चुके थे। अन्य स्थानों पर, उन्होंने टेलीग्राफ, डाक और रेलवे संचालन को नष्ट कर दिया।

आदिवासियों द्वारा अंग्रेज़ों के विरुद्ध किये गए विद्रोह को ‘हूल क्रान्ति दिवस’ के रूप में जाना जाता है। अंग्रेज़ों से लड़ते हुए लगभग 20 हज़ार आदिवासियों ने अपनी जान दी।1856 ई. में बनाया गया मार्टिलो टावर आज भी संथाल विद्रोह की याद ताजा करता है। तत्कालीन अनुमंडल पदाधिकारी सर मार्टिन ने उक्त टावर का निर्माण कराया था।इतिहासकार बताते हैं कि जब संथालों द्वारा विद्रोह किया गया तो उन पर नजर रखने और प्रतिरोध करने के लिए अंग्रेजी सैनिकों ने मार्टिलो टावर का सहारा लिया। इसमें करीब 20 हज़ार वनवासियों ने अपनी जान दी थी।

संथालों के आदिम हथियार ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के बारूद के हथियारों का मुकाबला करने में असमर्थ साबित हुए। 7वीं नेटिव इन्फैंट्री रेजिमेंट, 40वीं नेटिव इन्फैंट्री और अन्य से टुकड़ियों को कार्रवाई के लिए बुलाया गया। प्रमुख झड़पें जुलाई 1855 से जनवरी 1856 तक कहलगाँव, सूरी, रघुनाथपुर और मुनकटोरा जैसी जगहों पर हुईं।

इतिहासकारों के अनुसार संथाल परगना के लोग प्रारंभ से ही आदिवासी स्वभाव से धर्म और प्रकृति के प्रेमी और सरल होते हैं। इसका ज़मींदारों और बाद में अंग्रेज़ों ने खूब लाभ उठाया। इतिहासकारों का कहना है कि इस क्षेत्र में अंग्रेज़ों ने राजस्व के लिए संथाल, पहाड़ियों तथा अन्य निवासियों पर मालगुज़ारी लगा दी थी। इसके बाद न केवल यहाँ के लोगों का शोषण होने लगा बल्कि उन्हें मालगुज़ारी भी देनी पड़ रही थी। इस कारण यहाँ के लोगों में विद्रोह पनप रहा था।

“यह विद्रोह भले ही ‘संथाल हूल’ हो, परंतु संथाल परगना के समस्त गरीबों और शोषितों द्वारा शोषकों, अंग्रेज़ों एवं उसके कर्मचारियों के विरुद्ध स्वतंत्रता आंदोलन था। 

इन चारों भाइयों ने लगातार लोगों के असंतोष को एक आंदोलन का रूप दिया। उस समय संथालों को बताया गया कि सिद्धू को स्वप्न में बोंगा, जिनके हाथों में बीस अंगुलियां थीं, ने बताया है कि “जुमीदार, महाजन, पुलिस राजदेन आमला को गुजुकमाड़”, अर्थात “जमींदार, महाजन, पुलिस और सरकारी अमलों का नाश हो।” ‘बोंगा’ की ही संथाल लोग पूजा-अर्चना किया करते थे। इस संदेश को डुगडुगी पिटवाकर स्थानीय मोहल्लों तथा ग्रामों तक पहुंचाया गया। इस दौरान लोगों ने साल वृक्ष की टहनी को लेकर गाँव-गाँव की यात्राएँ की।

आंदोलन को कार्यरूप देने के लिए परंपरागत शास्त्रों से लैस होकर 30 जून, सन 1855 ई. को 400 गाँवों के लगभग 50,000 आदिवासी लोग भोगनाडीह पहुंचे और आंदोलन का सूत्रपात हुआ। इसी सभा में यह घोषणा कर दी गई कि वे अब मालगुज़ारी नहीं देंगे। इसके बाद अंग्रेज़ों ने, सिद्धू, कान्हू, चांद तथा भैरव- इन चारों भाइयों को गिरफ़्तार करने का आदेश दिया परंतु जिस पुलिस दरोगा को वहाँ भेजा गया था, संथालियों ने उसकी गर्दन काट कर हत्या कर दी। इस दौरान सरकारी अधिकारियों में भी इस आंदोलन को लेकर भय प्राप्त हो गया था।

भागलपुर की सुरक्षा कड़ी कर दी गई थी। इस क्रांति के संदेश के कारण संथाल में अंग्रेज़ों का शासन लगभग समाप्त हो गया था। अंग्रेज़ों द्वारा इस आंदोलन को दबाने के लिए इस क्षेत्र में सेना भेज दी गई और जमकर आदिवासियों की गिरफ़्तारियाँ की गईं और विद्रोहियों पर गोलियां बरसने लगीं। आंदोलनकारियों को नियंत्रित करने के लिए मार्शल लॉ लगा दिया गया। आंदोलनकारियों की गिरफ़्तारी के लिए अंग्रेज़ सरकार द्वारा पुरस्कारों की भी घोषणा की गई। अंग्रेज़ों और आंदोलनकारियों की लड़ाई में चांद और भैरव शहीद हो गए। प्रसिद्ध अंग्रेज़ इतिहासकार हंटर ने अपनी पुस्तक ‘एनल्स ऑफ़ रूलर बंगाल’ में लिखा है कि “संथालों को आत्मसमर्पण की जानकारी नहीं थी, जिस कारण डुगडुगी बजती रही और लोग लड़ते रहे।”

जब तक एक भी आंदोलनकारी जिंदा रहा, वह लड़ता रहा। इतिहासकार हंटर की पुस्तक में लिखा गया है कि अंग्रेज़ों का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था, जो इस बलिदान को लेकर शर्मिदा न हुआ हो। इस युद्ध में करीब 20 हज़ार वनवासियों ने अपनी जान दी थी। विश्वस्त साथियों को पैसे का लालच देकर सिद्धू और कान्हू को भी गिरफ़्तार कर लिया गया और फिर 26 जुलाई को दोनों भाइयों को भगनाडीह ग्राम में खुलेआम एक पेड़ पर टांगकर फ़ाँसी की सज़ा दी गयी।

संथालों के यह हूल आदिवासियों पर शोषण करने वाले सभी गैर आदिवासियों के लिए एक चेतावनी थी। प्रत्येक आदिवासी को इस हूल की कहानी जाननी चाहिए ताकि पता चल सके कि हमारे पूर्वज ने कितने संघर्षों द्वारा हमारी जल जंगल जमीन को बचाए रखा है। 

यह विद्रोह ब्रिटिश शासन के तहत आदिवासियों पर हो रहे अन्याय और शोषण के खिलाफ एक महत्वपूर्ण आवाज था। संथालों ने अपनी जमीनें खो दीं और साहूकारों और जमींदारों द्वारा उनका शोषण किया गया, जिसके कारण उन्होंने विद्रोह किया। यह विद्रोह आज भी आदिवासी समुदायों के अधिकारों और भूमि अधिकारों के लिए संघर्ष में प्रेरणा का काम करता है। 

संथाल विद्रोह के परिणामस्वरूप, ब्रिटिश सरकार ने 1876 में संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम पारित किया, जिससे कुछ आदिवासी सदस्यों को सुरक्षा प्रदान की गई। इसके अलावा, 1856 में भूमि राजस्व सुधार और नया सर्वेक्षण किया गया, और संथाल शिकायतों को दूर करने के लिए संथाल परगना सिविल नियमों का कार्यान्वयन किया गया।

कुमार कृष्णन 

एससीओ में आतंकवाद पर चले पारस्परिक दांवपेंच के मायने

कमलेश पांडेय

जब इजरायल जैसा छोटा-सा यहूदी देश अपने शौर्य, पराक्रम और कूटनीति जनित तकनीकी विकास के बल पर ईरान जैसे कट्टर शिया इस्लामिक देश का मुकाबला कर सकता है तो भारत जैसा विशाल हिन्दू राष्ट्र अपने शौर्य, पराक्रम और कूटनीति जनित तकनीकी विकास के बल पर पाकिस्तान / पूर्वी पाकिस्तान (बंगलादेश) जैसे कट्टर सुन्नी देश का मुकाबला कर सकता है। बस जरूरत सिर्फ इस बात की है कि जैसे अमेरिका के प्रति इजरायल समर्पित होकर उसका साथ लेता रहता है, वैसे ही हमें रूस के प्रति वफादारी निभाकर (क्योंकि वह हमारे दुःख का जांचा-परखा भरोसेमंद अंतरराष्ट्रीय साथी है) उसका पक्का साथ हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए।

ऐसा इसलिए कि रूस जब भारत के साथ रहेगा तो अमेरिका, यूरोप, चीन और इस्लामिक देश भी अपनी हद में रहेंगे। वहीं, जब रूस को भारत का खुला साथ मिलेगा तो अमेरिका, यूरोप, चीन और इस्लामिक देश रूस को आंख नहीं दिखा पाएंगे। सच कहूं तो रूस के तकनीकी विकास को यदि भारत की जनसंख्या का साथ और सैन्य सहयोग मिल जाए तो वह दुनिया फतह तो करेगा ही, भारत की रक्षा भी होती रहेगी। इसके अलावा, इजरायल और रूस के बीच भारत जैसी दोस्ती कैसे बनेगी, इस दिशा में भी भारत को सोचना होगा क्योंकि ग्रेटर इजरायल, ग्रेटर इंडिया और ग्रेटर रूस की अवधारणा को साकार करके न केवल यूरोप को काबू में रखा जा सकता है बल्कि चीन भी इस त्रिकोण के बनने के बाद अपनी शैतानी भूल जाएगा, खासकर पड़ोसियों के खिलाफ।

आतंकवाद के निर्यातक देश ईरान (शिया बहुल आतंकी) और पाकिस्तान (सुन्नी बहुल आतंकी) की जैसी अप्रत्याशित धुनाई इजरायल-अमेरिका और भारत-रूस ने की है, वह हर आतंकवादी घटना के बाद जोर पकड़नी चाहिए। यही वजह है कि भारत का ऑपरेशन सिंदूर और इजरायल का ऑपरेशन………….. अभी भी जारी रहेगा। रही बात सोवियत संघ के पतन के बाद रूस-चीन के नेतृत्व में बने एससीओ की जिसे नाटो और विघटित सीटो से जुड़े अमेरिका-यूरोप परस्त एशियाई देशों  से मुकाबला करने के लिए बनाया गया है, उससे रूस की सहमति लेकर भारत तब तक अलग रहे जब तक कि चीन-पाकिस्तान जैसे देश आतंकवादियों के खिलाफ भारतीय दृष्टिकोण को स्वीकार न कर लें। वहीं, भारत-रूस-इजरायल और आतंकवाद विरोधी मुस्लिम देशों का एक ऐसा संगठन तैयार करे जो अमेरिका-चीन प्रोत्साहित आतंकवादी हरकतों से न केवल ऑन द स्पॉट निबटे बल्कि इनको हथियार देने वाली कम्पनियों पर भी हमले की रणनीति बनाए। उन्हें ब्लैकलिस्ट करे। यह यूएनओ का कार्य है लेकिन यह अमेरिका-चीन तिकड़म पसंद सफेद हाथी बन चुका है।

यह बात मैं इसलिए कह रहा हूँ कि जिस तरह से दुनिया के दो पुराने धर्मों हिन्दू व यहूदी धर्म के खिलाफ इस्लामी देश और पाकिस्तान आक्रामक हैं, आतंकवादी पैदा करते हैं, अमेरिका-चीन से हथियार व आर्थिक मदद लेकर इनकी हथियार व सुरक्षा उपकरण निर्माता कम्पनियों के कारोबार विस्तार में मदद करते हैं, उसकी रीढ़ तोड़नी होगी। यह कार्य गुटनिरपेक्ष देश भारत कर सकता है लेकिन उसे रूस, इजरायल के अलावा जापान, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, फ्रांस, जर्मनी, ब्राजील, दक्षिण अफ़्रीका, सऊदी अरब जैसे दूसरी पंक्ति के देशों को साधकर चलना होगा।

यही वजह है कि जब शंघाई को-ऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन (एससीओ) के सम्मेलन में चीन और पाकिस्तान ने आतंक के खिलाफ भारत की लड़ाई को कमजोर करने का प्रयास किया तो भारत ने संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया। इस अप्रत्याशित घटनाक्रम में जब भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर करने से इनकार करके स्पष्ट संदेश दिया है कि आतंकवाद पर कोई समझौता नहीं किया जाएगा।

एससीओ बैठक में रक्षा मंत्री ने साफ शब्दों में कहा कि आतंकियों, उनके समर्थकों फडिंग करने वालों और सीमा पार से आतंक फैलाने वालों को जवाबदेह ठहराना जरूरी है लेकिन, जब भारत ने यह प्रस्ताव दिया कि पहलगाम में हुए आतंकी हमले को संयुक्त बयान में शामिल किया जाए तो चीन और पाकिस्तान ने इसका विरोध किया। जबकि पाकिस्तान की ओर से यह कोशिश की गई कि बलूचिस्तान में हुई घटनाओं और वहां की स्थिति को संयुक्त बयान में जगह मिले। इससे साफ है कि यह सब कुछ एक सोची-समझी रणनीति थी। 

देखा जाए तो वर्तमान एससीओ अध्यक्ष होने के नाते सदस्यों के बीच संतुलन की जिम्मेदारी चीन की थी लेकिन उसने हमेशा की तरह पाकिस्तानी अजेंडे को आगे बढ़ाया। हालांकि भारत के दो टूक रुख से उसे करारा झटका लगा है क्योंकि संयुक्त बयान जारी न होना उसकी अध्यक्षता की एक बड़ी नाकामी है। वहीं, पुरानी चाल चलते हुए  बलूचिस्तान के मानवीय संकट को आतंकवाद का रूप देकर पाकिस्तान वहां के लोगों पर हो रहे अत्याचारों को छिपाना चाहता है। इसके अलावा, वह भारत पर झूठे आरोप लगाकर अंतरराष्ट्रीय सहानुभूति बटोरने की पुरानी रणनीति पर चल रहा है। चीन इसमें पाकिस्तान का हर कदम पर समर्थन कर रहा है। इससे स्पष्ट हैं कि चीन एससीओ के गठन के मकसद को भुला दिया है।

बता दें कि एससीओ की स्थापना इसलिए की गई थी ताकि सोवियत संघ के विघटन के बाद एशियाई इलाके में शांति और सुरक्षा बनी रहे जबकि चीन और पाकिस्तान ने एससीओ की इस मूल भावना के विपरीत काम किया है। ऐसा इसलिए कि दोनों देश अमेरिका के एजेंट्स हैं। कोई पहले रह चुका है और कोई अब तलक है। यह स्थिति रूसी रणनीति के खिलाफ है क्योंकि अपने तुच्छ हितों के लिए चीन-पाकिस्तान के नापाक गठजोड़ ने ऑर्गनाइजेशन के मकसद को भुलाकर एक नया कूटनीतिक संकट पैदा कर दिया जिससे संगठन पर असर पड़ सकता है क्योंकि भारत का अब इसमें बने रहने का कोई औचित्य नहीं है।

भारत को उन सभी संगठनों से अलग हो जाना चाहिए जो अमेरिका विरोधी हो और जिसमें चीन-पाकिस्तान मौजूद हैं।

चूंकि भारत, अपने मित्र रूस के कहने पर इन संगठनों की सदस्यता लेता है, इसलिए भारत के हितों की रक्षा की जिम्मेदारी रूस की भी बनती है।

कहा जाता है कि जब कोई संगठन अपने ही मूल सिद्धांतो से पीछे हटने लगे तो फिर उसका अंतरराष्ट्रीय कद और प्रभाव भी गिरने लगता है। कहीं अमेरिकी इशारे पर एससीओ इसका शिकार न हो, इसके लिए दूसरे सदस्य देशों यथा रूस व रूसी गणराज्य से अलग हुए मध्य एशियाई देशों को चीन-पाकिस्तान की चालबाजियों को समझना होगा और इनकी स्थायी काट तलाशनी होगी क्योंकि ये अमेरिकी एजेंट्स की भांति कार्य करते हैं और रूस को मजबूत नहीं होने देना चाहते हैं। 

इसलिए भारत को चाहिए कि वह अमेरिका और चीन विरोधी देशों यानी ग्लोबल साउथ का एक अलग गुट बनाये और उन्हें सशक्त सैन्य नेतृत्व दे। वहीं अमेरिका-रूस के नेतृत्व वाले संगठनों की सदस्यता ले क्योंकि चीन व इस्लामिक देशों, यथा- पाकिस्तान, बंगलादेश (पूर्वी पाकिस्तान) के संयुक्त षड्यंत्रों और धर्म के नाम पर इन्हें समर्थन देने वाले देशों के समूल नाश के लिए यह जरूरी है। इससे इजरायल से बेहतर अंतररराष्ट्रीय पार्टनर कोई नहीं हो सकता। हां, अमेरिका-चीन के साथ चूहे-बिल्ली वाली कूटनीति जारी रहनी चाहिए और पाकिस्तान-बंगलादेश को कूटने वाली रणनीति से भी कोई समझौता नहीं करना चाहिए। इसके अलावा, चीन से व्यापार घाटे को कम करने या उससे व्यापार शून्य करने की स्पष्ट रणनीति बनानी चाहिए ताकि हमसे कमाकर ही वह हमारे खिलाफ अपनी सेना को मजबूत नहीं कर पाए।

कमलेश पांडेय