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संयुक्त राष्ट्र: दंतहीन, विषरहित 

सचिन त्रिपाठी

दुनिया जब जलती है तो कोई ऐसा मंच चाहिए जो केवल आग बुझाने की अपील न करे बल्कि पानी लेकर पहुंचे लेकिन 21वीं सदी के तीसरे दशक में जब-जब युद्धों की चिंगारियां उठीं, तब-तब संयुक्त राष्ट्र केवल बयानों और प्रस्तावों की राख उड़ाता नजर आया। क्या यह वही संस्था है जिसे 1945 में दुनिया ने आशा के प्रतीक के रूप में देखा था? जब दूसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका से कराहती मानवता ने संयुक्त राष्ट्र की नींव रखी, इसका उद्देश्य था वैश्विक शांति, मानवाधिकारों की रक्षा और देशों के बीच सहयोग की भावना लेकिन आज जब गाजा में बम गिरते हैं, यूक्रेन में टैंक चलते हैं, सूडान में गृहयुद्ध की आग जलती है और हैती में सरकार ही लुप्त हो जाती है, तब यह सवाल जरूरी हो जाता है कि क्या संयुक्त राष्ट्र अपने उद्देश्य से भटक चुका है या दंतहीन, विषरहित सर्प की भांति हो गया। ताजा घटनाक्रमों को देख के तो फिलहाल यही लग रहा है। 

गाजा पट्टी में 2023 से शुरू हुआ इजराइल-फिलिस्तीन युद्ध अब तक 40 हजार से अधिक लोगों की जान ले चुका है। इनमें बड़ी संख्या महिलाओं और बच्चों की है। संयुक्त राष्ट्र ने प्रस्ताव पारित किए, मानवीय मदद की घोषणाएं कीं लेकिन अमेरिका जैसे देशों के वीटो ने हर कोशिश को निष्फल कर दिया। इसी प्रकार रूस-यूक्रेन युद्ध, जो 2022 में शुरू हुआ था, अब तीसरे साल में प्रवेश कर चुका है। हजारों लोग मारे जा चुके हैं, लाखों विस्थापित हो गए हैं लेकिन सुरक्षा परिषद में रूस की वीटो शक्ति के आगे बाकी सदस्य विवश हैं। यह केवल दो उदाहरण नहीं हैं। 

आर्मेनिया-अज़रबैजान, सूडान, माली, सोमालिया, यमन, कांगो आदि  दुनिया के अलग-अलग कोनों में हिंसा और युद्ध की स्थिति बनी हुई है। हैती जैसे देश तो शासनहीनता की स्थिति में पहुंच गए हैं। हर बार संयुक्त राष्ट्र कुछ कड़े बयान देता है, प्रस्ताव पारित करता है, मानवीय सहायता भेजता है, परंतु शांति की ठोस स्थापना नहीं कर पाता।

इस विफलता का सबसे बड़ा कारण है सुरक्षा परिषद की संरचना। पांच स्थायी सदस्य अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन (पी पांच) किसी भी प्रस्ताव को वीटो कर सकते हैं। यानी अगर चार देश मान भी लें कि युद्ध रुकना चाहिए पर एक देश ‘ना’ कह दे, तो प्रस्ताव रद्द। यह व्यवस्था आज के बहुपक्षीय विश्व में अप्रासंगिक हो चुकी है। भारत, ब्राजील, जर्मनी और जापान जैसे देश दशकों से सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की मांग कर रहे हैं लेकिन पी पांच के हितों के टकराव के कारण यह मांग आज भी अधूरी है। क्या यह उचित है कि 140 करोड़ की आबादी वाला भारत, जो संयुक्त राष्ट्र का सबसे बड़ा शांतिरक्षक बल भेजने वाला देश है, उसे नीति-निर्धारण की टेबल पर बैठने का अधिकार न हो?

आज संयुक्त राष्ट्र में शक्ति, मानवता से अधिक मूल्यवान हो गई है। शक्तिशाली देश अपने राष्ट्रीय हितों को वैश्विक हितों से ऊपर रखते हैं। फिलिस्तीन में बच्चों की मौत हो या यूक्रेन में नागरिकों के खिलाफ ड्रोन हमले, ये सब ‘भू-राजनीति’ के खेल में आंकड़ों तक सीमित होकर रह जाते हैं। यूएन महासभा में 150 देश अगर युद्ध रोकने की बात कहें भी, तब भी सुरक्षा परिषद में केवल एक वीटो सबको चुप करवा देता है। यूएन की शांति सेनाएं आज भी कई जगह तैनात हैं लेकिन न तो उनके पास आवश्यक संसाधन हैं, न ही स्वतंत्र निर्णय की शक्ति। माली, कांगो, लेबनान जैसे देशों में तैनात सेनाएं स्थानीय हथियारबंद गुटों के सामने बेबस हैं। अफगानिस्तान में अमेरिका की वापसी के बाद वहां की स्थिति पर यूएन पूरी तरह असहाय नजर आया।

2025 की शुरुआत में भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों ने फिर से मांग उठाई कि संयुक्त राष्ट्र में संरचनात्मक सुधार हो। यूएन महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने खुद कहा: “अगर हम बदलते नहीं हैं तो इतिहास हमें माफ नहीं करेगा।” उन प्रस्तावित सुधारों में सुरक्षा परिषद में नए स्थायी सदस्यों को शामिल करना, वीटो पावर को सीमित करना, खासकर युद्ध से जुड़े प्रस्तावों में, यूएन शांति सेना को स्वतंत्र और प्रभावी बनाना और बजटीय तथा प्रशासनिक विकेंद्रीकरण। जनवरी 2025 में आईपीएसओएस के एक वैश्विक सर्वे के अनुसार 68% लोग संयुक्त राष्ट्र को युद्ध रोकने में अक्षम मानते हैं।, 82% युवा चाहते हैं कि यूएन में आमूलचूल बदलाव हो। भारत, नाइजीरिया और ब्राज़ील में विशेष रूप से यूएन की भूमिका पर निराशा देखी गई। यह स्पष्ट संकेत है कि केवल कूटनीतिक भाषा और औपचारिक बयान अब लोगों को संतुष्ट नहीं करते।

आज जब युद्ध की लपटें फैली हुई हैं और मानवता कराह रही है, तब संयुक्त राष्ट्र को केवल ‘संयुक्त’ दिखने के बजाय वास्तव में ‘संवेदनशील’ बनना होगा। उसकी चुप्पी अब केवल विफलता नहीं, अपराध की श्रेणी में गिनी जाने लगी है। संयुक्त राष्ट्र का यह दौर, रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियों में जैसे जीवंत हो उठा है –

“क्षमा शोभती उस भुजंग को,

जिसके पास गरल हो।

उसको क्या जो दंतहीन,

विषरहित, विनीत, सरल हो।”

संयुक्त राष्ट्र की भूमिका भी इन दिनों उस दंतहीन, विषरहित सर्प की भांति है जो फुंफकार तो सकता है, लेकिन उसके अलावा कुछ और नहीं कर सकता है क्योंकि उसकी क्षमता इससे अधिक नहीं है। यही नहीं, वर्तमान परिदृश्य में संयुक्त राष्ट्र की स्थिति किसी निष्क्रिय परिवार के ऐसे बुजुर्ग की तरह हो गई है जिसकी बात तो सभी सुनते हैं लेकिन उनकी बात पर अमल कोई नहीं करता। अगर यह संस्था वास्तव में विश्व शांति का मंच बनना चाहती है, तो उसे केवल प्रस्ताव पारित करने से ऊपर उठकर साहसिक निर्णय लेने होंगे भले ही वे शक्तिशाली देशों के खिलाफ क्यों न हों नहीं तो इतिहास में इसका नाम एक ‘संवैधानिक शव’ के रूप में दर्ज होगा जो जीवित तो था पर कार्यरत नहीं।

राष्ट्रानुरागी ‘तूफानी हिंदू’ थे विवेकानंद

4 जुलाई विवेकानन्द पुण्यतिथि पर :

डॉ० घनश्याम बादल

भगवा वेश, सिर पर पगड़ी और तेजस्वी ओजपूर्ण मुखमंडल के साथ अद्भुत वक्ता की जब बात की जाती है तो एक ही नाम स्मृति में आता है वह स्वामी विवेकानंद का। बरबस अपनी और आकृष्ट करने वाले व्यक्तित्व, ऊर्जस्वी विचार और राष्ट्रवादी चिंतन ने स्वामी विवेकानन्द को ‘तूफानी हिंदू’  बनाया । 

   आत्मचिंतन ने ईश्वर को जानने और  प्राप्त करने की इच्छाशक्ति ने  25 वर्ष की आयु में नरेंद्र को विवेकानंद बनने की ओर अग्रसर कर दिया था इसलिए संन्यासी बन वे गुरु की खोज में निकल पड़े। पर एक भी संत उन्हे स्वयं ईवर को देखने का यकीन नहीं दिला पाया केवल स्वामी रामकृण परमहंस ही उन्हे पहचान पाए ।  कहते हैं कि उन्होंने  युवा नरेंद्र को ईश्वर के दर्शन भी कराए इसीलिए विवेकानंद आजीवन उनके शिष्य बन कर रहे । 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में जन्मे जिज्ञासु नरेन्द्र, विवेकानन्द बनने से पहले  16 वर्ष की आयु में युवावस्था में पाश्चात्य दार्शनिकों के भौतिकतावाद व नास्तिकवाद की चपेट में भी आए पर बाद में ब्रह्म समाज में शामिल हो हिन्दू धर्मसुधार की मुुहिम में जुट गए ।

    गुरु रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें विश्वास दिलाया कि ईश्वर वास्तव में है और मनुष्य ईश्वर को पा सकता है। उन्होंने ही सर्वव्यापी परमसत्य के रूप में ईश्वर की सर्वोच्च अनुभूति पाने में उनका मार्गदर्शन किया, शक्तिपात के कारण कुछ दिनों तक नरेन्द्र उन्मत्त से रहे पर गुरु ने आत्मदर्शन कराया तो विश्व कल्याण के लिए निकल पड़े । 

    विवेकानंद को युवकों से बड़ी आशाएं थीं उनकी कल्पना के समाज में धर्म या जाति के आधार पर भेद नहीं था । समता के सिद्धांत के आधार पर समाजनिर्माण आंदोलन खड़ा करने वालें विवेकानंद का उद्घोषथा – ‘‘उतिष्ठ जाग्रत प्राप्यवरान्निबोधियत’’ उनका मानना था कि ‘युवा बदलेंगें तो भारत बदलेगा ’। विवेकानंद वर्षों घूम-घूमकर राजाओं,  दलितों अगड़ों,पिछड़ों सबसे मिले । 

     राष्ट्रानुरागी विवेकानंद का माना था कि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण वैरागियों और जनसाधारण की सुप्त दिव्यता के जागरण से ही इस देश में नवजागरण का संचार किया जा सकता है। भारत पुनर्निर्माण के लगाव से ही वें 11 सितंबर 1893 को शिकागो धर्म संसद में गए । वहां उन्होने अपने भाषण से भारत और हिन्दू धर्म की भव्यता स्थापित कर जबरदस्त प्रभाव छोड़ा।  विवेकानन्द के चमत्कारी भाषण ने विश्व भर में भारत की धाक जमा दी ।

   वहां विवेकानंद ने कहा था ‘‘मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूँ जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढाया है । हम सिर्फ  सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। हमने अपने हृदय में उन इस्राइलियों के शुद्धतम स्मृतियाँ बचा कर रखीं हैं, जिनके मंदिरों को रोमनों ने तोड़-तोड़ कर खँडहर बना दिया, तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली । मानवधर्म के हामी विवेकानंद  ने कहा – सांप्रदायिकता, कट्टरता, और इसके भयानक वंशज, हठधर्मिता लम्बे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं । कितनी बार ही ये धरती खून से लाल हुई है, कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और कितने देश नष्ट हुए हैं । अगर यह भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता  लेकिन अब मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद  सभी हठधर्मितओं, हर  तरह के क्लेश ,चाहे वो तलवार से हों या कलम से, और हर एक मनुष्य, जो एक ही लक्ष्य की तरफ बढ़ रहे हैं उनके बीच की  दुर्भावनाओं  का विनाश करेगा…।”

 विवेकानंद केवल धार्मिक कर्मकांड के हामी नहीं थे अपितु उन्होंने सर्व धर्म समभाव के साथ हिंदू धर्म का उन्नयन करते हुए वैश्विक भ्रातृत्व का संदेश दिया विवेकानंद शांति के हामी थे लेकिन उनका कहना था कि यदि कोई प्रताड़ना पर उतरे तो उसका प्रतिरोध करना भी शांति की स्थापना करने का ही काम है । 

 विवेकानंद के आह्वान के फलस्वरूप गांधीजी को आजादी की लड़ाई में जन-समर्थन मिला, वें स्वतंत्रता-संग्राम प्रमुख प्रेरणा-स्रोत बने। उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है । विवेकानंद ने कहा ‘‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक रुको नहीं जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।’’

भारत की आत्मा को जगाने का लक्ष्य ले कर चले कर्म योगी विवेकानंद ने जीवन के अंतिम दिन 4 जुलाई, 1902 को भी ध्यान किया। बेलूर में रामकृष्ण मठ में महासमाधि लेकर प्राण त्यागने वाले विवेकानंद को षड़यंत्र पूर्वक जिस वेश्या के हाथों जहर दिलवाया गया था उसके लिए भी उन्होंने मरते मरते प्रार्थना की थी । भारत को विश्वगुरु बनाने का सपना देखने वाले विवेकानंद केवल 39 बरस ही जी पाए  उन्होने भारत में चरित्र व नैतिकता को पुर्नजीवित किया। विवेकानंद तथा उनके गुरु रामकृष्ण के संदेशों के प्रचार के लिए दुनियाभर में रामकृष्ण मठों के रूप में 130 से अधिक केंद्र हैं जो खास तौर पर पश्चिमी जगत के लिए आकर्षणके केन्द्र बने हुए हैं । 

डॉ० घनश्याम बादल

अमरनाथ यात्रा : देश और दुनिया में आस्था और श्रद्धा की अनूठी “मिसाल”

तीन जुलाई से शुरू हो रही पवित्र अमरनाथ यात्रा पर विशेष….

प्रदीप कुमार वर्मा

जय बाबा बर्फानी,भूखे को अन्न प्यासे को पानी। चलो अमरनाथ दर्शन को। जय हो बाबा अमरेश्वर।  यह भक्तों के भाव के साथ जय घोष है अमरनाथ यात्रा का। हिंदू धर्म की प्रमुख धार्मिक यात्रा के रूप में देश और दुनिया में चर्चित अमरनाथ तीर्थयात्रा आज से यानि तीन जुलाई से शुरू हो रही है। आदिदेव भगवान शिव को समर्पित अमरनाथ यात्रा का अत्यधिक धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व है।यह यात्रा भगवान शिव के भक्तों के लिए एक पवित्र तीर्थ है। जहाँ वे वर्ष में एक बार प्राकृतिक रूप से बने बर्फ के शिवलिंग “बाबा बर्फानी” के दर्शन कर मोक्ष की प्राप्ति की कामना करते हैं। ऐसी मान्यता है कि अमरनाथ की पवित्र यात्रा करने से व्यक्ति के सभी दुख व परेशानी दूर हो जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है। अमरनाथ तीर्थयात्रा हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है,क्योंकि अमरनाथ की गुफा को भगवान शिव का निवास भी माना जाता है। 

        जम्मू-कश्मीर के गंदेरबल जिले के हिमालय में स्थित अमरनाथ गुफा साल के अधिकांश समय बर्फ से ढकी रहती है। लेकिन यह गर्मियों के महीनों में भक्तों के लिए खुलती है। अमरनाथ यात्रा का बालटाल मार्ग 14 किलोमीटर का है वहीं, पहलगाम के रास्ते अमरनाथ गुफा की कुल दूरी 48 किलोमीटर है। तीर्थयात्री इन दोनों रूट से करीब 3 हजार 880 मीटर की ऊंचाई पर स्थित अमरनाथ गुफा मंदिर तक जाते हैं। पौराणिक मान्यता एवं किवदंतियों के मुताबिक माना जाता है कि महर्षि भृगु पवित्र अमरनाथ गुफा के दर्शन करने वाले पहले व्यक्ति थे। पुराणों में पवित्र अमरनाथ गुफा के अस्तित्व का उल्लेख किया गया है। इसके साथ ही इतिहासकार कल्हण ने भी अपनी पुस्तक ‘राजतरंगिणी’ में अमरनाथ गुफा का जिक्र किया है। फ्रांस के यात्री फ्रांस्वा बर्नियर ने भी अपनी पुस्तक में अमरनाथ यात्रा का विस्तार से जिक्र किया है।  

             प्राचीन अमरनाथ गुफा के संबंध में एक कहानी यह भी प्रचलित है कि साल वर्ष 1850 में बूटा मलिक नाम के एक चरवाहे ने अमरनाथ गुफा की फिर से खोज की थी। इस चरवाहे ने वहां पर पवित्र गुफा और बर्फ से बने शिवलिंग को देखा। इसके बाद उसने इस खोज के बारे में ग्रामीणों को बताया। तभी से यह तीर्थयात्रा का एक पवित्र स्थल बन गया। लोक कथाओं के अनुसार ऐसा माना जाता है कि एक बार माता पार्वती ने भगवान शिव से उनके अमरत्व का कारण जानना चाहा, तो भगवान शिव ने माता पार्वती को कहा कि इसके लिए आपको “अमर कथा” सुननी पड़ेगी। इसके लिए उन्होंने ऐसे स्थान की तलाश करना शुरू किया, जहां कोई और इस अमर कथा को नहीं सुन सकता था। अतः वे अमरनाथ गुफा पहुंचे। 

      भगवान शिव ने जब माता पार्वती के साथ में अमरनाथ गुफा की ओर प्रस्थान किया, तो रास्ते में सबसे पहले उन्होंने पहलगाम में अपने नंदी का परित्याग किया। इसके बाद चंदनवाड़ी में भगवान शिव ने अपनी जटाओं से चंद्रमा को मुक्त किया। शेषनाग नामक झील के तट पर उन्होंने अपने गले से सर्पों  को भी मुक्त कर दिया। इसके बाद उन्होंने अपने पुत्र गणेश को महागुनस पर्वत पर छोड़ने का फैसला किया। फिर पंचतरणी नामक स्थान पर पहुंचकर भगवान शिव ने पंच तत्वों पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश का भी त्याग कर दिया। इन सब को पीछे छोड़कर भगवान शिव ने माता पार्वती के साथ अमरनाथ गुफा में प्रवेश किया और वहां पर समाधि ले ली। इसके बाद भगवान शिव ने कालाग्नि बनाई।

        महादेव ने कालाग्नि गुफा के आसपास मौजूद हर जीवित प्राणी को नष्ट करनेका आदेश दिया, जिससे माता पार्वती को छोड़कर कोई भी अमर कथा न सुन सके। फिर भगवान शिव माता पार्वती को “अमरत्व” का रहस्य बताने लगे। लेकिन तभी अचानक कबूतरों का एक जोड़ा वहां पर पहुंचा और उन्होंने अमरत्व के रहस्य को सुन लिया। इसके साथ ही कबूतरों का यह जोड़ा अमरत्व को प्राप्त हो गया। कई तीर्थयात्री कबूतरों के इस जोड़े को देखने का दावा करते हैं और उन्हें यह देखकर आश्चर्य होता है कि ये पक्षी इतने ठंडे और ऊंचाई वाले क्षेत्र में कैसे जीवित रह सकते हैं। अमरनाथ की पवित्र गुफा गर्मी के कुछ दिनों को छोड़कर साल के अधिकांश समय बर्फ से ढंकी रहती है। दिलचस्प बात यह है कि इस पवित्र गुफा में प्रत्येक वर्ष बर्फ का शिवलिंग प्राकृतिक रूप से बनता है।

          बताते हैं कि इस गुफा की छत की एक दरार से पानी की बूंदें टपकती हैं, जिससे बर्फ का शिवलिंग बनता है। इस शिवलिंग के बगल में दो छोटे और आकर्षक बर्फ के शिवलिंग भी बनते हैं, जिन्हें माता पार्वती और भगवान गणेश का प्रतीक माना जाता है। यह दुनिया का एकमात्र ऐसा शिवलिंग है, जो चंद्रमा की रोशनी के चक्र के साथ बढ़ता और घटता है। यह शिवलिंग श्रावण शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को पूरे आकार में रहता है और अमावस्या तक इसका आकार घटने लगता है। ऐसा प्रत्येक साल होता है।गुफा में भगवान शिव ने माता पार्वती को अमरता का रहस्य बताया था, जिसके कारण इस गुफा का नाम अमरनाथ पड़ा। इसी बर्फ के शिवलिंग के दर्शन के लिए ही हर साल लाखों की संख्या में श्रद्धालु अमरनाथ की पवित्र गुफा की यात्रा करते हैं। 

      प्राचीन काल में इस गुफा को ‘अमरेश्वर’ भी कहा जाता था। बर्फ से शिवलिंग बनने के चलते इसे ‘बाबा बर्फानी’ भी कहा जाता है। मान्यता यह है कि जो भी श्रद्धालु सच्चे मन से इस पवित्र गुफा में बने शिवलिंग का दर्शन करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।  कई पुराणों जैसे बृंगेश संहिता, नीलमत पुराण आदि में अमरनाथ यात्रा के महत्व का वर्णन मिलता है। हिन्दू शास्त्रों एवं पुराणों के अनुसार अमरनाथ यात्रा से साधक को 23 तीर्थों के दर्शन करने जितना पुण्य प्राप्त होता है।  पुराणों के अनुसार काशी में लिंग दर्शन और पूजन से दस गुना, प्रयाग से सौ गुना और नैमिषारण्य तीर्थ से हजार गुना अधिक पुण्य बाबा अमरनाथ के दर्शन करने से मिलता है। मान्यता यह भी है कि अमरनाथ गुफा के ऊपर पर्वत पर श्री राम कुंड है। अमरनाथ गुफा में स्थित पार्वती शक्तिपीठ 51 शक्तिपीठों में से एक हैं। 

          प्रारंभ में अमरनाथ यात्रा का प्रबंधन का जिम्मा बूटा मलिक के वंशज और दशनामी अखाड़े के पंडित और पुरोहित सभा के हाथों में था। साल 2000 में जम्मू-कश्मीर सरकार ने श्रीअमरनाथ जी श्राइन बोर्ड का गठन किया और इसका अध्यक्ष राज्यपाल को बनाया गया। श्रीअमरनाथ जी श्राइन बोर्ड के तत्वावधान में  इस वर्ष अमरनाथ यात्रा 3 जुलाई, 2025 से शुरू हो रही है और 9 अगस्त, 2025 तक चलेगी। यह पवित्र यात्रा 38 दिनों तक चलेगी और देशभर से श्रद्धालु इसमें भाग लेंगे। बोर्ड द्वारा इस यात्रियों के ठहरने और खाने-पीने की व्यवस्था की गई है।  कुछ महीने पूर्व पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद केंद्र सरकार की सुरक्षा एजेंसियां पूरी तरह से मुस्तेद हैं और अमरनाथ यात्रा को सुखद, सफल और सुरक्षित बनाने में जुटी हैं। वहीं, श्रद्धालु पूर्ण श्रद्धा एवं आस्था भाव के साथ बाबा बर्फानी के दर्शन के लिए निकल चुके हैं।

प्रदीप कुमार वर्मा

संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी ‘और ‘धर्मनिरपेक्ष ‘पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।

डॉ. बालमुकुंद पांडेय 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के  सरकार्यवाह श्रीमान  दत्तात्रेय होसवाले जी ने’ इमरजेंसी के 50 साल ‘ के कार्यक्रम में कहा कि ‘ समाजवादी’ और’ धर्मनिरपेक्ष ‘ शब्दों को आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया था । इन शब्दों को सत्ता की सुरक्षा के लिए शामिल किया गया था । उनका कहना हैं कि इन शब्दों को “प्रस्तावना में रहना चाहिए या नहीं, इस पर विचार किया जाना चाहिए।” “आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में दो शब्द जोड़े गए थे। ये  दो शब्द ‘ समाजवादी’ और’ धर्मनिरपेक्ष’ है। यह प्रस्तावना में पहले नहीं थे।

भारत के संविधान को 26 नवंबर, 1949 को  भारत के लोगों द्वारा अंगीकार किया गया था। संविधान भारत की सर्वोच्च विधि हैं एवं इस भू- भाग का सर्वोच्च विधि है। सभी विधायिका ,कार्यपालिका, एवं  न्यायपालिका से सर्वोच्च है । संविधान भारत भूमि पर ईश्वर का साक्षात् पदार्पण है। संविधान सभा ने जिस संविधान को अंगीकृत किया था , उसमें ‘ समाजवादी’ और ‘ धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों का समावेश नहीं था। आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकार निलंबित थे, संसद शक्तिहीन थीं एवं न्यायपालिका पंगु थीं। लोकतंत्र निर्देशित लोकतंत्र की तरह चल रहा था। संवैधानिक शब्दों में कहा जाए तो लोकतंत्र  मुठ्ठी भर लोगों के द्वारा ही संचालित हो रहा था. इस तरह तत्कालीन परिस्थितियों में संविधान, राजनीतिक व्यवस्था और सरकार  गुट तंत्र का पर्याय  था।

 सरकार के दिनोदिन के कार्यों में राज्येतर कर्ताओं का अनावश्यक हस्तक्षेप था। ऐसी परिस्थितियों में संविधान संवैधानिक सरकार की अभिव्यक्ति नहीं रह चुकी थीं। सरकार जनता और लोकसभा (जनता के सदन) से विश्वास खो चुकी थीं।

ऐसी परिस्थितियों में संविधान की मूल भावना एवं संविधान की आत्मा का संशोधन करना लोकतांत्रिक मूल्यों एवं  आदर्शों के विरुद्ध था। प्रस्तावना की मूल भावना लोक संप्रभुता है। भारत के संविधान में संप्रभुता जनता में निवास करती हैं । जन संप्रभुता की उपेक्षा करके संशोधन लोकहित एवं समाजहित में नहीं था।

24 जनवरी ,1993 को तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी  ने भी संविधान पर नए सिरे से विचार की मांग दोहराई थीं। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी  वाजपेई जी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी थीं तो उन्होंने भी संविधान की समीक्षा के लिए एक विशेषज्ञ समिति सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति MM poonchhi  के अंतर्गत गठित करने का फैसला किया था।” जब बीजेपी सत्ता में नहीं थी, तब ऐसे मुद्दों पर आरएसएस के विचार का अलग महत्व था और  बीजेपी सत्ता में है  और संगठन का प्रभाव है तो इसका प्रासंगिक महत्व है।” साल 2014 में नरेंद्र मोदीजी पूर्ण बहुमत की सरकार के मुखिया बनते ही” संविधान को भारत का एकमात्र पवित्र ग्रंथ” और “संसद को लोकतंत्र का मंदिर” कहकर साष्टांग  प्रणाम और प्रशंसा की थी ।

साल 2018 में दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित कार्यक्रम में संघ के संघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा ” भारत के संविधान को भारत के लोगों ने तैयार किया है और संविधान का अंगीकार आम सहमति (कंसेंसस) से हुआ है , इसलिए संविधान के अनुशासन का पालन करना सबका कर्तव्य है।” राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पहले से ही मानता हैं कि………… हम स्वतंत्र भारत के सब प्रतीकों का  एवं संविधान की भावना का पूर्ण सम्मान करते है, अर्थात भारत के लोगों द्वारा तैयार मूल संविधान को  लोगों ने आत्मा से अंगीकार किया  हैं जबकि 1976 में प्रस्तावना में संशोधनों के पश्चात ‘ समाजवादी ‘ और ‘ पंथनिरपेक्ष’ आमसहमति (कंसेंसस )की अभिव्यक्ति  नहीं थीं क्योंकि विपक्ष के निर्वाचित सांसदों को सरकार ने बलात् कारावासित कर दिया था । तत्कालीन परिस्थितियों में जनता को  भय  एवं डर के  वातावरण में रखा गया था। सरकार के विरोध में खड़े होने पर सलाखों के भीतर कर दिया जाता था। समाचार पत्रों को सरकार के आलोचना करने पर यातनाएं एवं प्रताड़ित किया जाता था। मूल संविधान कानूनी संप्रभुता की अभिव्यक्ति थीं जबकि 1976 में प्रस्तावना में जोड़े गए शब्द  दबावजनित राजनीति  एवं लोक संप्रभुता का असम्मान था।

प्रस्तावना अपरिवर्तनीय हैं लेकिन आपातकाल के दौरान प्रस्तावना में ‘ समाजवादी’ एवं ‘ पंथनिरपेक्ष ‘ जोड़े गए थे । इन शब्दों को देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू जी जोड़ने के समर्थन में नहीं थे, यहां तक कि उनके  किचेन केबिनेट में भी इन शब्दों के जोड़ने पर आम सहमति नहीं थी । यह सत्य है कि तत्कालीन परिस्थितियों में श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने निर्वाचन के रद्द किए जाने पर एवं इलाहाबाद उच्च न्यायालय के प्रतिकूल निर्णय के कारण आपातकाल जैसे उपबंध को देश पर  थोपा था। तत्कालीन परिस्थितियों में उत्पन्न भय, निराशा, सत्ता से वंचित होने  होने का भय  एवं लोकदबाव को देखते हुए भारत के संविधान में 1976 में 42 वें संविधान संशोधन के द्वारा  ‘ समाजवादी’ और ‘ पंथनिरपेक्ष ‘ शब्दों को जोड़ा गया था। प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ .बी .आर. आंबेडकर  भी संविधान में ‘ पंथनिरपेक्ष ‘ और ‘ समाजवादी’ शब्दों को जोड़ने के पक्ष में नहीं थे।

भारत को” हिंदू राष्ट्र” बनाना है  एवं हिंदू समाज को संगठित एवं एकत्रित  करना है तो इसके लिए सर्वप्रथम प्रस्तावना से ‘ समाजवादी ‘  और’ धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों  को संशोधन करके हटाना होगा।

डॉ.बालमुकुंद पांडेय 

‘सुपर जासूस’ की रिसर्च एंड एनालिसिस विंग के प्रमुख पद पर नियुक्ति

रामस्वरूप रावतसरे

पराग जैन का नाम खुफिया हलकों में ‘सुपर जासूस’ के तौर पर गूँजता है चाहे वह ‘ऑपरेशन सिंदूर‘ में आतंकी ठिकानों को नेस्तनाबूद करना हो, जम्मू-कश्मीर में जमीनी स्तर पर खुफिया नेटवर्क बनाना हो या फिर कनाडा और श्रीलंका में भारत-विरोधी साजिशों को नाकाम करना हो। आईपीएस पराग जैन ने हर मोर्चे पर अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया है। वो हमेशा पर्दे के पीछे रहकर भारत की सुरक्षा की ढाल बने रहे हैं।

पराग जैन ने भारत की बाहरी खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (आर-एडब्ल्यु) का 1 जुलाई 2025 को प्रमुख का पद भार संभाल लिया है। मोदी सरकार ने 28 जून 2025 को पंजाब कैडर के 1989 बैच के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी पराग जैन को रॉ का नया प्रमुख नियुक्त किया था। आज जब भारत को पाकिस्तान, चीन, खालिस्तानी नेटवर्क और साइबर हमलों जैसे कई बाहरी खतरों का सामना करना पड़ रहा है। तब पराग जैन की नियुक्ति एक मजबूत संदेश देती है कि भारत अब अपनी खुफिया रणनीति को और सशक्त करने जा रहा है।

 1989 बैच के पंजाब कैडर के इस आईपीएस अधिकारी ने अपने करियर की शुरुआत तब की, जब पंजाब आतंकवाद की आग में जल रहा था। भटिंडा, मानसा और होशियारपुर जैसे संवेदनशील जिलों में उन्होंने आतंकवादियों के खिलाफ मोर्चा संभाला। उस दौर में जैन ने जमीनी स्तर पर खतरनाक ऑपरेशनों को अंजाम दिया। बाद में वे चंडीगढ़ के एसएसपी और लुधियाना के डीआईजी बने, जहाँ उन्होंने आतंकवाद-विरोधी अभियानों में अहम भूमिका निभाई लेकिन पराग जैन की असली ताकत तब सामने आई, जब वे रॉ से जुड़े। वर्तमान में वे रॉ के विशेष निदेशक हैं और एविएशन रिसर्च सेंटर (एआरसी ) का नेतृत्व कर रहे हैं। एआरसी वो इकाई है जो हवाई निगरानी और तकनीकी खुफिया जानकारी जुटाने में माहिर है। जैन ने इसे और मजबूत किया। उनकी खासियत है कि वे इंसानों से मिली खुफिया जानकारी  और तकनीकी जानकारी को मिलाकर ऐसी रणनीति बनाते हैं, जो दुश्मनों के लिए पहेली बन जाती है।

  जानकारी के अनुसार उनका करियर सिर्फ भारत तक सीमित नहीं रहा। कनाडा और श्रीलंका में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए उन्होंने खालिस्तानी नेटवर्क और भारत-विरोधी साजिशों पर गहरी नजर रखी। 1 जनवरी 2021 को उन्हें पंजाब में पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) का प्रमोशन मिला लेकिन तब वे केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर थे, इसलिए सिर्फ नाममात्र का लाभ मिला। फिर भी उन्हें केंद्रीय डीजीपी के समकक्ष पद पर रखा गया जो उनकी साख को दर्शाता है। पराग जैन का नाम हाल के समय में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के लिए सबसे ज्यादा चर्चा में रहा। ये ऑपरेशन भारत की खुफिया और सैन्य ताकत का एक शानदार नमूना है। इस ऑपरेशन में जैन की अगुआई में रॉ और एआरसी ने पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) में आतंकी ठिकानों की सटीक जानकारी जुटाई जिसके आधार पर मिसाइल हमले किए गए। बाहर से देखने में ये हमले कुछ मिनटों की कार्रवाई लगते हैं लेकिन इसके पीछे सालों की मेहनत थी। जैन और उनकी टीम ने जमीनी स्तर पर खुफिया नेटवर्क बनाया, लोगों से सूचनाएँ जुटाईं, सैटेलाइट तस्वीरों और अन्य तकनीकों से जानकारी को सत्यापित किया। ये काम इतना आसान नहीं था। पाकिस्तान जैसे दुश्मन देश में खुफिया जानकारी जुटाने के लिए साहस, रणनीति और धैर्य चाहिए। जैन ने अपने अनुभव और तकनीकी दक्षता के दम पर इसे मुमकिन बनाया।

‘ऑपरेशन सिंदूर’ ने आतंकी ठिकानों को नेस्तनाबूद करने के साथ-साथ ये संदेश भी दिया कि भारत अपनी सीमाओं से बाहर भी दुश्मनों को जवाब दे सकता है। ये ऑपरेशन भारत की रणनीतिक ताकत का प्रतीक बन गया और इसके पीछे पराग जैन जैसे सिपाही थे, जो पर्दे के पीछे काम करते हैं।

जैन का जम्मू-कश्मीर में गहरा अनुभव और पाकिस्तान से जुड़े मामलों की उनकी समझ उन्हें इस चुनौती से निपटने के लिए सबसे सशक्त बनाती है। अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण और बालाकोट एयर स्ट्राइक जैसे मौकों पर उन्होंने जमीनी खुफिया जानकारी जुटाने में अहम भूमिका निभाई। पाकिस्तान में खुफिया नेटवर्क बनाना आसान नहीं है, क्योंकि वहाँ की खुफिया एजेंसी आईएसआई हर कदम पर नजर रखती है। फिर भी जैन ने अपने नेटवर्क और रणनीति से कई बार पाकिस्तान को चौंका दिया है।

   रॉ का काम भारत की सीमाओं के बाहर खुफिया जानकारी जुटाना और देश की सुरक्षा सुनिश्चित करना है। लेकिन विदेशों में ऑपरेशन्स चलाना बच्चों का खेल नहीं है। सबसे बड़ी चुनौती है गुप्त रूप से काम करना। अगर किसी एजेंट की पहचान उजागर हो जाए तो उसकी जान को खतरा हो सकता है। इसके अलावा, दुश्मन देशों में तकनीकी निगरानी, साइबर हमले और ड्रोन जैसे खतरे बढ़ गए हैं। पाकिस्तान और चीन जैसे देशों में खुफिया नेटवर्क बनाना बेहद जटिल है। वहाँ की सरकारें और उनकी खुफिया एजेंसियाँ भारत के हर कदम पर नजर रखती हैं। फिर भी जैन ने कनाडा में खालिस्तानी नेटवर्क पर नजर रखकर और श्रीलंका में भारत के हितों को बढ़ावा देकर दिखाया कि वे अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी माहिर हैं। कनाडा में उन्होंने खालिस्तानी नेटवर्क की साजिशों को समय रहते उजागर किया और दिल्ली को चेतावनी दी कि ये नेटवर्क बड़ा खतरा बन सकता है। श्रीलंका में उन्होंने तमिल संगठनों और चीन की बढ़ती मौजूदगी पर नजर रखी।

   रॉ भारत की बाहरी सुरक्षा की रीढ़ है। सरकार को इस एजेंसी पर भरोसा इसलिए है क्योंकि ये बार-बार अपनी काबिलियत साबित कर चुकी है। चाहे वह बालाकोट एयर स्ट्राइक हो, ऑपरेशन सिंदूर हो या फिर अनुच्छेद 370 के बाद जम्मू-कश्मीर में स्थिरता बनाए रखना,  रॉ ने हमेशा सटीक और समय पर जानकारी दी। इस एजेंसी की खासियत है कि ये गुप्त रूप से काम करती है और इसके ऑपरेशन्स की जानकारी आम लोगों तक नहीं पहुँचती। रॉ के पास अनुभवी अधिकारी, आधुनिक तकनीक और वैश्विक नेटवर्क हैं। ये न केवल दुश्मन देशों पर नजर रखती है बल्कि दोस्त देशों के साथ रणनीतिक साझेदारी भी बनाए रखती है। पराग जैन जैसे अनुभवी नेतृत्व के साथ सरकार को उम्मीद है कि रॉ और प्रभावी होगी।

    पराग जैन 1 जुलाई 2025 से दो साल के लिए रॉ प्रमुख का कार्यभार संभालेंगे, यानी उनका कार्यकाल जून 2027 तक रहेगा। इस दौरान उनकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी होगी भारत की बाहरी सुरक्षा को मजबूत करना। पाकिस्तान और चीन के अलावा, खालिस्तानी गतिविधियां, साइबर हमले और दक्षिण एशियाई देशों में अस्थिरता जैसे मुद्दों पर उनकी नजर रहेगी।

जैन पर भरोसा  है कि वे रॉ को और आधुनिक बनाएँगे। ड्रोन तकनीक, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और साइबर खुफिया जानकारी जैसे क्षेत्रों में रॉ को और भी मजबूत करना उनकी प्राथमिकता होगी। साथ ही जमीनी नेटवर्क को और गहरा करना भी जरूरी है, ताकि भविष्य में पहलगाम जैसे हमले रोके जा सकें। पराग जैन की नियुक्ति सिर्फ एक प्रशासनिक बदलाव नहीं है बल्कि भारत की खुफिया रणनीति में एक बड़ा कदम है। रॉ प्रमुख की दौड़ में सुनील अचौया जैसे नाम भी चर्चा में थे लेकिन सरकार ने जैन पर भरोसा जताया। इसका कारण है उनकी संतुलित सोच, जमीनी अनुभव और तकनीकी समझ।

जानकारों की माने तो जैन चुपचाप लेकिन असरदार ढंग से काम करते हैं। वे टीम के साथ मिलकर काम करने में यकीन रखते हैं और सिस्टम में बदलाव लाने की कला जानते हैं। उनकी नियुक्ति ये बताती है कि सरकार रॉ को सिर्फ एक जासूसी संस्था नहीं, बल्कि एक रणनीतिक सुरक्षा स्तंभ के रूप में देख रही है।

बताया जाता है जैन की सबसे बड़ी खासियत है कि वे फाइलों और कागजी काम तक सीमित नहीं रहते। वे ग्राउंड लेवल पर मजबूत नेटवर्क बनाते हैं। चाहे वो कनाडा हो, कश्मीर हो या खाड़ी देश, जैन हर जगह भारत की खुफिया मौजूदगी को और मजबूत कर सकते हैं। उम्मीद है कि वे रॉ को ड्रोन तकनीक, साइबर खुफिया, और रॉ जैसे क्षेत्रों में और सशक्त करेंगे। साथ ही, वे जमीनी नेटवर्क को और गहरा करेंगे ताकि भारत को हर खतरे की समय रहते जानकारी मिल सके।

पराग जैन का रॉ प्रमुख बनना सिर्फ एक नियुक्ति नहीं बल्कि भारत की खुफिया रणनीति में एक नया अध्याय है। ऑपरेशन सिंदूर, बालाकोट, और जम्मू-कश्मीर जैसे उनके पिछले कारनामों ने उनकी काबिलियत को साबित किया है लेकिन चुनौतियाँ कम नहीं हैं। पाकिस्तान, चीन, खालिस्तानी नेटवर्क और साइबर हमले जैसे खतरे उनके सामने हैं। ऐसे में जैन का अनुभव और उनकी रणनीतिक सोच रॉ को और मजबूत कर सकती है। आने वाले दो साल भारत की खुफिया और सुरक्षा नीतियों के लिए बेहद अहम होंगे। जैन की अगुआई में रॉ न केवल भारत की सुरक्षा को और सशक्त करेगी बल्कि वैश्विक खुफिया मंच पर भारत को और मजबूत बनाएगी।

रामस्वरूप रावतसरे

महिला आरक्षण की दहलीज़ पर लोकतंत्र: अब दलों को जिम्मेदारी उठानी होगी

2023 में पारित नारी शक्ति वंदन अधिनियम भारत में राजनीति के स्वरूप को बदलने का ऐतिहासिक अवसर है। हालांकि इसका क्रियान्वयन 2029 के लोकसभा चुनाव से पहले संभव है, लेकिन यह तभी सफल होगा जब राजनीतिक दल अभी से महिलाओं के लिए अनुकूल वातावरण बनाएँ। केवल आरक्षित सीटें देना पर्याप्त नहीं; दलों को आंतरिक कोटा, वित्तीय सहयोग, प्रशिक्षण, मेंटरशिप और निर्णयकारी भूमिका में महिलाओं को प्राथमिकता देनी होगी। अगर यह मौका चूक गया तो आरक्षण भी दिखावा बन जाएगा। समावेशी और सशक्त लोकतंत्र के लिए अब निर्णायक और नीतिगत पहल ज़रूरी है।

—प्रियंका सौरभ

2023 में पारित नारी शक्ति वंदन अधिनियम, यानी संविधान का 106वां संशोधन, भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने का ऐतिहासिक प्रयास है। यह अधिनियम लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण सुनिश्चित करता है, लेकिन इसकी सफलता महज संविधान में दर्ज होने से नहीं होगी—बल्कि इस पर अमल करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति से तय होगी। वर्ष 2029 के आम चुनावों में यदि यह आरक्षण प्रभावी होता है, तो यह न केवल भारत के लोकतंत्र के लिए निर्णायक मोड़ होगा, बल्कि महिलाओं के नेतृत्व की दिशा भी तय करेगा। इसके लिए राजनीतिक दलों को अभी से व्यापक और दूरदर्शी कदम उठाने होंगे।

भारतीय राजनीति में महिलाओं की उपस्थिति हमेशा सीमित रही है। 2024 में चुनी गई 18वीं लोकसभा में सिर्फ 74 महिलाएं चुनकर आईं, जो कुल सीटों का मात्र 13.6% हैं। यह आंकड़ा 2019 की तुलना में भी घटा है और वैश्विक औसत 26.9% से काफी पीछे है। राज्य विधानसभाओं की स्थिति और भी चिंताजनक है, जहां औसतन केवल 9% ही महिलाएं विधायक हैं। यह न केवल लैंगिक असमानता को दर्शाता है बल्कि नीति-निर्धारण की उस प्रक्रिया को भी प्रभावित करता है जिसमें आधी आबादी की हिस्सेदारी नगण्य है।

राजनीति में महिलाओं की भागीदारी के निम्न स्तर के कई सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारण हैं। सबसे बड़ा कारण है भारतीय समाज की गहरी पैठी हुई पितृसत्तात्मक सोच। महिलाओं को पारिवारिक भूमिकाओं तक सीमित कर दिया जाता है, जिससे नेतृत्व के अवसर स्वाभाविक रूप से पुरुषों को मिलते हैं। ‘सरपंच पति’ जैसी प्रथाएँ इस सोच को और भी स्पष्ट करती हैं।

राजनीतिक दलों के भीतर भी यह धारणा प्रचलित है कि महिलाएं चुनाव जीतने की दृष्टि से कमज़ोर प्रत्याशी होती हैं। लेकिन यह एक मिथक है, जिसे हाल के आंकड़े खारिज करते हैं। उदाहरण के लिए, 2024 लोकसभा चुनाव में महिलाएं केवल 9.6% उम्मीदवार थीं, लेकिन उनकी सफलता दर पुरुषों से अधिक थी – उन्होंने 13.6% सीटें जीतीं।

महिलाओं के सामने आर्थिक संसाधनों की कमी भी एक बड़ी बाधा है। भारत में चुनाव लड़ना अत्यंत महंगा है, और अधिकांश महिलाएं—खासकर ग्रामीण व पिछड़े वर्गों से—स्वतंत्र रूप से इतने संसाधन नहीं जुटा सकतीं। इसके अलावा, राजनीति का वातावरण भी महिलाओं के लिए असुरक्षित और शत्रुतापूर्ण रहता है। उन्हें ट्रोलिंग, चरित्र हनन, और मानसिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है, जिससे उनका आत्मविश्वास डगमगाता है।

राजनीतिक दलों में महिलाओं के लिए मार्गदर्शन, प्रशिक्षित नेतृत्व विकास, और निर्णय लेने वाली इकाइयों में शामिल करने जैसी संस्थागत व्यवस्थाएँ भी अक्सर अनुपस्थित रहती हैं। महिला मोर्चा बनाकर उन्हें पार्टी के मुख्य ढांचे से अलग कर दिया जाता है, जिससे वे सत्ता के निर्णायक केंद्रों से दूर रह जाती हैं।

2029 के आरक्षण को सार्थक बनाने के लिए राजनीतिक दलों को अब से ही तैयारी करनी होगी। सबसे पहला कदम है—स्वैच्छिक आंतरिक कोटा। टिकट वितरण में 33% महिला उम्मीदवारों को प्राथमिकता देना केवल आरक्षण की तैयारी नहीं, बल्कि समावेशी लोकतंत्र की दिशा में पहल होगी। ऑस्ट्रेलिया की लेबर पार्टी जैसी मिसालें बताती हैं कि आंतरिक कोटा राजनीति की संस्कृति को सकारात्मक रूप से बदल सकते हैं।

दूसरा आवश्यक कदम है—वित्तीय सहायता और संरचित प्रशिक्षण। राजनीतिक दलों को महिला उम्मीदवारों के लिए अलग चुनावी फंड बनाना चाहिए ताकि वे चुनावी खर्च का बोझ उठा सकें। कनाडा का जूडी लामार्श फंड इसका अच्छा उदाहरण है। साथ ही, पंचायतों और नगरपालिकाओं में सक्रिय महिला प्रतिनिधियों को विधानसभा और संसद स्तर के लिए तैयार करने का नेतृत्व कार्यक्रम भी चलाया जाना चाहिए।

महिलाओं को पार्टी की कोर कमेटियों, नीति निर्माण इकाइयों और प्रवक्ता मंडल में भी सक्रिय भूमिका देनी चाहिए। केवल महिला मोर्चा या सांस्कृतिक आयोजनों तक सीमित रखकर नेतृत्व नहीं उभरेगा। IUML जैसी पार्टियों ने हाल ही में कोर नेतृत्व में महिलाओं को शामिल किया है—अन्य दलों को भी यही दिशा लेनी चाहिए।

मेंटोरशिप भी एक सशक्त उपकरण हो सकता है। अनुभवी महिला नेता अगर नवोदित उम्मीदवारों को मार्गदर्शन दें, तो आत्मविश्वास, नीति की समझ, और रणनीतिक कौशल विकसित हो सकता है। इसके साथ ही, पार्टी के भीतर महिलाओं के खिलाफ उत्पीड़न या असम्मानजनक व्यवहार को रोकने के लिए सख्त आचार संहिता और त्वरित कार्रवाई की व्यवस्था ज़रूरी है।

राजनीतिक दलों के प्रयासों के साथ-साथ मीडिया और नागरिक समाज की भी भूमिका अहम है। मीडिया को महिला नेताओं की नीतिगत भूमिका, वैचारिक दृष्टिकोण और सामाजिक योगदान पर केंद्रित करना चाहिए—ना कि उनके पहनावे, निजी जीवन या विवादों पर। नागरिक संगठनों को भी प्रशिक्षण, जनजागरण और महिला नेतृत्व को प्रोत्साहित करने की दिशा में पहल करनी चाहिए।

महिलाओं का राजनीति में प्रतिनिधित्व केवल लैंगिक समानता का सवाल नहीं, बल्कि लोकतंत्र की गुणवत्ता का भी मापदंड है। यदि प्रतिनिधित्व का आधार केवल पुरुषों की पहुंच और दबदबे तक सीमित रहेगा, तो लोकतंत्र का स्वरूप अधूरा ही रहेगा। महिला आरक्षण केवल एक नीति नहीं, बल्कि नेतृत्व को समावेशी, संवेदनशील और संतुलित बनाने का औजार है।

2029 का चुनाव भारत के लिए एक ऐतिहासिक अवसर लेकर आएगा। लेकिन यदि राजनीतिक दल अभी से महिला नेतृत्व को गढ़ने में निवेश नहीं करते—तो यह आरक्षण भी केवल सत्ता में वंशवाद और प्रतीकात्मकता का विस्तार बनकर रह जाएगा।

अब वक्त है कि दल “औरतों के लिए सीट छोड़ने” की बात नहीं करें, बल्कि “औरतों को नेतृत्व के लिए खड़ा करने” की पहल करें। लोकतंत्र को मजबूत बनाने का यही असली रास्ता है।

प्रियंका सौरभ

सहयोग की शक्ति और सामाजिक समरसता का उत्सव

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अन्तर्राष्ट्रीय सहकारिता दिवस- 4 जुलाई, 2025
 ललित गर्ग 

हर वर्ष जुलाई के पहले शनिवार को अंतरराष्ट्रीय सहकारिता दिवस मनाया जाता है। यह दिन सहकारी संस्थाओं की उपलब्धियों को रेखांकित करने और उनके सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक योगदान को सम्मानित करने का अवसर होता है। सहकारिता एक ऐसा आंदोलन है जो ‘एकता में शक्ति’ की भावना को मजबूत करता है और लोकतांत्रिक, समावेशी और न्यायसंगत आदर्श समाज के निर्माण में सहायक बनता है। सहयोग की शक्ति और सामाजिक समरसता के इस उत्सव का 2025 की थीम है ‘सहकारिताः एक बेहतर दुनिया के लिए समावेशी और टिकाऊ समाधान लाना।’ यह थीम पर्यावरण-संरक्षण, स्वच्छ ऊर्जा, और सामाजिक समावेशन जैसे विषयों को सहयोग के माध्यम से हल करने की प्रेरणा देती है। आज के समय में जब आर्थिक विषमता और सामाजिक असंतुलन बढ़ रहा है, सहकारिता एक वैकल्पिक और मानवीय मॉडल प्रस्तुत करती है। यह न केवल आर्थिक विकास की राह दिखाती है, बल्कि सामाजिक विश्वास, सह-अस्तित्व और भाईचारे को भी बढ़ावा देती है।
इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र द्वारा मान्यता प्राप्त यह 29वां अंतर्राष्ट्रीय सहकारी दिवस और 101वां अंतर्राष्ट्रीय सहकारी दिवस होगा। यह सहकारी आंदोलन का एक वार्षिक उत्सव है जो अंतर्राष्ट्रीय सहकारी गठबंधन द्वारा 1923 से जुलाई के पहले शनिवार को मनाया जाता है। इस उत्सव का उद्देश्य सहकारिता के बारे में जागरूकता बढ़ाना, संयुक्त राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय सहकारी आंदोलन के पूरक लक्ष्यों और उद्देश्यों को उजागर करना, संयुक्त राष्ट्र द्वारा संबोधित प्रमुख समस्याओं के समाधान में आंदोलन के योगदान को रेखांकित और विस्तारित करना है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2025 को अंतर्राष्ट्रीय सहकारिता वर्ष के रूप में घोषित किया है। यह घोषणा 2012 में पहले सफल आयोजन के बाद की गई है और वैश्विक स्तर पर सतत विकास को बढ़ावा देने में सहकारी समितियों की महत्वपूर्ण भूमिका को मान्यता देती है। दुनिया भर की सहकारी समितियां दिखाएंगी कि कैसे वे एकजुटता और लचीलेपन के साथ युद्ध, महामारी एवं प्राकृतिक आपदा संकट का सामना कर रही हैं और समुदायों को जन-केंद्रित और पर्यावरण की दृष्टि से न्यायसंगत पुनर्प्राप्ति की पेशकश कर रही हैं।
सहकारिता दिवस इस बात का प्रचार करने का अवसर है कि किस प्रकार मानव-केन्द्रित व्यवसाय मॉडल, जो स्वयं-सहायता और एकजुटता के सहकारी मूल्यों तथा सामाजिक उत्तरदायित्व और समुदाय के प्रति चिंता के नैतिक मूल्यों द्वारा समर्थित है, असमानता को कम कर सकता है, साझा समृद्धि का सृजन कर सकता है। सहकारी समितियां, जो आर्थिक सफलता को सामाजिक और पर्यावरणीय जिम्मेदारी के साथ संतुलित करने की अपनी अनूठी क्षमता के लिए जानी जाती हैं, उन्हें सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) को प्राप्त करने में प्रमुख खिलाड़ी के रूप में देखा जाता है। संयुक्त राष्ट्र का प्रस्ताव सदस्य देशों को सहकारी समितियों के लिए एक सहायक कानूनी और नीतिगत माहौल को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहित करता है, जिसमें कृषि, वित्त और खुदरा सहित विभिन्न क्षेत्रों में उनके महत्व पर जोर दिया गया है।
अंतर्राष्ट्रीय सहकारी गठबंधन (आईसीए) ने इस पहल का गर्मजोशी से स्वागत किया है। आईसीए के अध्यक्ष एरियल ग्वार्काे ने इस घोषणा को संगठन के सतत विकास के लिए चल रहे प्रयासों के साथ संरेखित करने पर प्रकाश डाला। इस घोषणा से वैश्विक स्तर पर समानतापूर्ण और लचीली अर्थव्यवस्था बनाने में सहकारी समितियों के महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ने की उम्मीद है, खासकर जलवायु परिवर्तन और आर्थिक असमानता जैसी वैश्विक चुनौतियों के सामने। सहकारिता पर ध्यान केंद्रित करके, संयुक्त राष्ट्र का उद्देश्य टिकाऊ, समुदाय-केंद्रित समाधान प्रदान करने में मॉडल की प्रभावशीलता को प्रदर्शित करना है।
सहकारिता, जिसे अंग्रेजी में कोआपरेटिव कहते हैं, एक ऐसा संगठन है जिसमें लोग स्वेच्छा से मिलकर काम करते हैं ताकि अपनी सामान्य आर्थिक, सामाजिक या सांस्कृतिक आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। यह एक लोकतांत्रिक रूप से नियंत्रित व्यवसाय है जहां सदस्य ही मालिक होते हैं और व्यवसाय का संचालन और लाभ का वितरण भी सदस्यों के बीच ही होता है। सहकारिता का अर्थ है, ‘मिलजुल कर काम करना’ या ‘आपस में सहयोग करना’। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें लोग स्वेच्छा से एक साथ मिलकर काम करते हैं, ताकि वे अपने सामान्य आर्थिक, सामाजिक या सांस्कृतिक लक्ष्यों को प्राप्त कर सकें. सहकारिता का मुख्य उद्देश्य आपसी सहयोग, समानता और सामूहिक हित को बढ़ावा देना है। इसका मूल मंत्र है ‘सभी के लिए एक, और एक सभी के लिए।’
भारत में सहकारिता की भावना एवं विचारधारा आजादी से पहले से जन-जन में रची-बसी है। भारत की जनता के स्वभाव में सहकारिता घुली मिली है, ये कोई उधार लिया विचार नहीं है। सहकारिता भारत के संस्कार में है। भारत में सहकारिता आंदोलन कभी भी अप्रासंगिक नहीं हो सकता। सहकारिता की जड़े 1904 के सहकारी ऋण समितियां अधिनियम से जुड़ी हैं। स्वतंत्रता के बाद यह आंदोलन और भी सशक्त हुआ। चाहे अमूल जैसी डेयरी सहकारी संस्थाएं हों या सहकारी बैंकों और किसान समितियां, उन्होंने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में जब सहकारिता आंदोलन की सबसे अधिक जरूरत थी, तब यशस्वी एवं दूरदर्शी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने सहिकारिता मंत्रालय का गठन करके सहकार से समृद्धि के स्वप्न को साकार करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की है। केंद्रीय सहकारिता मंत्री अमित शाह ने सहकारिता को नये आयाम दिये हैं। उनके नेतृत्व में केंद्र सरकार सहकारिता क्षेत्र के माध्यम से करोड़ों किसानों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने पर जोर दिया जा रहा है। सभी राज्यों के सहकारिता मंत्री अपने-अपने राज्यों में कृषि मंत्रियों के साथ समन्वय कर प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दे रहे हैं ताकि आम लोगों के साथ-साथ धरती माता का स्वास्थ्य भी बेहतर हो सके।
गरीब कल्याण और गरीब उत्थान, बिना सहकारिता के सोचा नहीं जा सकता। नरेन्द्र मोदी के मन की इच्छा है कि छोटे से छोटे व्यक्ति को विकास की प्रक्रिया में हिस्सेदार बनाना, सहकारिता की प्रक्रिया से हर घर को समृद्ध बनाना और हर परिवार की समृद्धि से देश को समृद्ध बनाना, यही सहकार से समृद्धि का मंत्र है। देश पर जब-जब कोई विपदा आई है, सहकारिता आंदोलनों ने देश को बाहर निकाला है। कॉपरेटिव बैंक बिना मुनाफे की चिंता किए लोगों के लिए काम करते हैं क्योंकि, भारत के संस्कारों में सहकारिता है। आज देश में लगभग 91 प्रतिशत गांव ऐसे हैं जहां छोटी-बड़ी कोई न कोई सहकारी संस्था काम करती है। सहकारिता गरीबों और पिछड़ों के विकास के लिए है। राष्ट्रीय सहकारिता विकास निगम-(एनसीडीसी) और सहकारिता मंत्रालय जैसे संस्थान इस क्षेत्र को संगठित और सशक्त बनाने का कार्य कर रहे हैं। भारत की सहकारिता सोच एवं मोदी सरकार की प्रतिबद्धताएं दुनिया के लिये एक प्रेरक मॉडल है। अंतरराष्ट्रीय सहकारिता दिवस केवल एक दिवस नहीं, बल्कि एक विचारधारा है, एक ऐसा आंदोलन जो समाज को जोड़ने, ऊपर उठाने, संतुलित विकास और ग्रामीण जीवन को टिकाऊ बनाने की क्षमता रखता है। यह दिन हमें स्मरण कराता है कि यदि हम साथ मिलकर कार्य करें, तो कोई भी लक्ष्य असंभव नहीं। सहयोग ही सशक्तिकरण की कुंजी है।

मध्यमवर्गीय परिवार नहीं फंसे ऋण के जाल में

हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक ने रेपो दर में 50 आधार बिंदुओं की कमी की है। इसके साथ ही, निजी क्षेत्र के बैंकों, सरकारी क्षेत्र के बैंकों एवं क्रेडिट कार्ड कम्पनियों सहित अन्य वित्तीय संस्थानों ने भी अपने ग्राहकों को प्रदान की जा रही ऋणराशि पर लागू ब्याज दरों में कमी की घोषणा करना प्रारम्भ कर दिया है ताकि भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा रेपो दर में की गई कमी का लाभ शीघ्र ही भारत में ऋणदाताओं तक पहुंच सके एवं इससे अंततः देश की अर्थव्यवस्था को बल मिल सके। भारत में चूंकि अब मुद्रा स्फीति की दर नियंत्रण में आ गई है, अतः आगे आने वाले समय में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा रेपो दर में और अधिक कमी की जा सकती है। इस प्रकार, बहुत सम्भव है ऋणराशि पर लागू ब्याज दरों में कमी के बाद कई नागरिक जिन्होंने पूर्व में कभी बैंकों से ऋण नहीं लिया है, वे भी ऋण लेने का प्रयास करें। बैंक से ऋण लेने से पूर्व इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि इस ऋण को चुकता करने की क्षमता भी ऋणदाता में होनी चाहिए अर्थात ऋणदाता की पर्याप्त मासिक आय होनी चाहिए ताकि बैकों द्वारा प्रदत्त ऋण की किश्त एवं ब्याज का भुगतान पूर्व निर्धारित समय सीमा के अंदर किया जा सके। इस संदर्भ में विशेष रूप से युवा ऋणदाताओं द्वारा क्रेडिट कार्ड के उपयोग पश्चात संबंधित राशि का भुगतान समय सीमा के अंदर अवश्य करना चाहिए क्योंकि अन्यथा क्रेडिट कार्ड एजेंसी द्वारा चूक की गई राशि पर भारी मात्रा में ब्याज वसूला जाता है, जिससे युवा ऋणदाता ऋण के जाल में फंस जाते हैं।    

बैकों से लिए गए ऋण की मासिक किश्त एवं इस ऋणराशि पर ब्याज का भुगतान यदि निर्धारित समय सीमा के अंदर नहीं किया जाता है तो चूककर्ता ऋणदाता से बैकों द्वारा दंडात्मक ब्याज की वसूली की जाती है। इसी प्रकार, कई नागरिक जो क्रेडिट कार्ड का उपयोग करते हैं एवं इस क्रेडिट कार्ड के विरुद्ध उपयोग की गई राशि का भुगतान यदि वे निर्धारित समय सीमा के अंदर नहीं कर पाते हैं तो इस राशि पर चूक किए गए क्रेडिट कार्ड धारकों से भारी भरकम ब्याज की दर से दंड वसूला जाता है। कभी कभी तो दंड की यह दर 18 प्रतिशत से 24 प्रतिशत के बीच रहती है। क्रेडिट कार्ड का उपयोग करने वाले नागरिक कई बार इस उच्च ब्याज दर पर वसूली जाने वाली दंड की राशि से अनभिज्ञ रहते हैं। अतः बैंकों से ली जाने वाली ऋणराशि एवं क्रेडिट कार्ड के विरुद्ध उपयोग की जाने वाली राशि का समय पर भुगतान करने के प्रति ऋणदाताओं को सजग रहने की आवश्यकता है। 

कुल मिलाकर यह ऋणदाताओं के हित में है कि वे बैंक से लिए जाने वाले ऋण की राशि तथा ब्याज की राशि एवं क्रेडिट कार्ड के विरुद्ध उपयोग की जाने वाली राशि का पूर्व निर्धारित एवं उचित समय सीमा के अंदर भुगतान करें क्योंकि अन्यथा की स्थिति में उस चूककर्ता नागरिक की क्रेडिट रेटिंग पर विपरीत प्रभाव पड़ता है एवं आगे आने वाले समय में उसे किसी भी वित्तीय संस्थान से ऋण प्राप्त करने में कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है एवं बहुत सम्भव है कि भविष्य में उसे किसी भी वित्तीय संस्थान से ऋण प्राप्त ही न हो सके।        

ऋणदाता यदि किसी प्रामाणिक कारणवश अपनी किश्त एवं ब्याज का बैंकों अथवा क्रेडिट कार्ड कम्पनी को समय पर भुगतान नहीं कर पाता है और उसका ऋण खाता यदि गैर निष्पादनकारी आस्ति में परिवर्तित हो जाता है तो इस संदर्भ में चूककर्ता ऋणदाता द्वारा बैकों को समझौता प्रस्ताव दिए जाने का प्रावधान भी है। इस समझौता प्रस्ताव के माध्यम से चूककर्ता ऋणदाता द्वारा सम्बंधित बैंक अथवा क्रेडिट कार्ड कम्पनी को मासिक किश्त एवं ब्याज की राशि को पुनर्निर्धारित किए जाने के सम्बंध में निवेदन किया जा सकता है। परंतु, यदि ऋणदाता ऋण की पूरी राशि, ब्याज सहित, अदा करने में सक्षम नहीं है तो चूक की गई राशि में से कुछ राशि की छूट प्राप्त करने एवं शेष राशि को एकमुश्त अथवा किश्तों में अदा करने के सम्बंध में भी समझौता प्रस्ताव दे सकता है। ऋण की राशि अथवा ब्याज की राशि के सम्बंध के प्राप्त की गई छूट की राशि का रिकार्ड बनता है एवं समझौता प्रस्ताव के अंतर्गत प्राप्त छूट के चलते भविष्य में उस ऋणदाता को बैकों से ऋण प्राप्त करने में कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है, इस बात का ध्यान चूककर्ता ऋणदाता को रखना चाहिए। अतः जहां तक सम्भव को ऋणदाता द्वारा समझौता प्रस्ताव से भी बचा जाना चाहिए एवं अपनी ऋण की निर्धारित किश्तों एवं ब्याज का निर्धारित समय सीमा के अंतर्गत भुगतान करना ही सबसे अच्छा रास्ता अथवा विकल्प है।      

भारत में तेज गति से हो रही आर्थिक प्रगति के चलते मध्यमवर्गीय नागरिकों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है, जिनके द्वारा चार पहिया वाहनों, स्कूटर, फ्रिज, टीवी, वॉशिंग मशीन एवं मकान आदि आस्तियों को खरीदने हेतु बैकों अथवा अन्य वित्तीय संस्थानों से ऋण लिया जा रहा है। कई बार मध्यमवर्गीय परिवार एक दूसरे की देखा देखी आपस में होड़ करते हुए भी कई उत्पादों को खरीदने का प्रयास करते हुए दिखाई देते हैं, चाहे उस उत्पाद विशेष की आवश्यकता हो अथवा नहीं। उदाहरण के लिए एक पड़ौसी ने यदि अपने चार पहिया वाहन का एकदम नया मॉडल खरीदा है तो जिस पड़ौसी के पास पूर्व में ही चार पहिया वाहन उपलब्ध है वह पुराने मॉडल के वाहन को बेचकर पड़ौसी द्वारा खरीदे गए नए मॉडल के चार पहिया वाहन को खरीदने का प्रयास करता है और बैंक के ऋण के जाल में फंस जाता है। यह नव धनाडय वर्ग यदि बैक से लिए गए ऋण की किश्त एवं ब्याज की राशि का निर्धारित समय सीमा के अंदर भुगतान नहीं कर पाता है तो उस नागरिक विशेष के वित्तीय रिकार्ड पर धब्बा लग सकता है जिससे उसके लिए उसके शेष जीवन में बैकों एवं अन्य वित्तीय संस्थानों से पुनः ऋण लेने में कठिनाई आ सकती है। अतः बैकों से ऋण प्राप्त करने वाले नागरिकों को ऋण की किश्त का समय पर भुगतना करना स्वयं उनके हित में हैं, ताकि भारत में तेज हो रही आर्थिक प्रगति का लाभ आगे आने वाले समय में भी समस्त नागरिक ले सकें।  

भारत में तो यह कहा भी जाता है कि जिसके पास जितनी चादर हो, उतने ही पैर पसारने चाहिए। अर्थात,  नागरिकों को बैंकों से ऋण लेते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि ऋण की किश्त एवं ब्याज की राशि का भुगतान करने लायक उनकी अतिरिक्त आय होनी चाहिए, ताकि ऋण की किश्तों एवं ब्याज की राशि का भुगतान निर्धारित समय सीमा के अंदर किया जा सके एवं उनका ऋण खाता गैर निष्पादनकारी आस्ति में परिवर्तित नहीं हो। 

प्रहलाद सबनानी 

भारत का प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान नहीं चीन है

राजेश कुमार पासी

जब अंग्रेजों ने भारत को आजाद किया तो वो जाते-जाते भी भारत के साथ साजिश कर गए । उन्हें अच्छी तरह से पता था कि भारत भविष्य में बड़ी शक्ति के रूप में उभर सकता है । भारत बड़ी शक्ति बनकर उनके लिए भविष्य में चुनौती न बन जाए इसलिए भारत को दो टुकड़ों में बांट गए । यह हमारी गलत सोच है कि भारत का विभाजन हिन्दू-मुस्लिम मतभेद की वजह से हुआ था । वास्तव में उन्होंने दोनों समुदायों के बीच के मतभेदों को बढ़ाकर ऐसे हालात पैदा कर दिये गए कि विभाजन के लिए हमारे नेताओं को मजबूर होना पड़ा । पाकिस्तान बनने से न केवल भारत कमजोर हुआ बल्कि भारत को हमेशा के लिए उसका एक कट्टर दुश्मन मिल गया । पाकिस्तान अपनी पैदाइश से ही भारत को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानता आ रहा है जबकि भारत ने कभी भी पाकिस्तान को अपने दुश्मन के रूप में नहीं देखा । आप सोचकर देखिए कि अगर पाकिस्तान के साथ हुए युद्धों में भारत की हार हुई होती तो पाकिस्तान ने भारत का क्या हाल किया होता । भारत ने कई युद्धों में पाकिस्तान को बुरी तरह से हराने के बावजूद उसके साथ मित्रों जैसा व्यवहार किया ।

 वास्तव में पाकिस्तान अपनी पैदाइश से ही एक जिहादी मानसिकता वाले आत्मघाती आतंकवादी ही तरह व्यवहार कर रहा है । वो खुद को मिटाकर भी भारत को खत्म कर देना चाहता है । विदेशी शक्तियां पाकिस्तान की पैदाइश से ही उसका इस्तेमाल भारत को आगे बढ़ने से रोकने के लिए करती रही हैं । पहले अमेरिका और पश्चिमी देश पाकिस्तान को भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर रहे थे, अब चीन पाकिस्तान का इस्तेमाल कर रहा है । पाकिस्तान एक ऐसे गुंडे की तरह है जिसे पैसा देकर कोई  भी भारत के खिलाफ मैदान में उतार सकता है । इसकी एक वजह यह भी है कि पाकिस्तान अपनी शक्ति के बल पर भारत के खिलाफ ज्यादा कुछ नहीं कर सकता । सवाल यह है कि अगर कोई अन्य देश सह नहीं देता तो क्या पाकिस्तान भारत  का दोस्त बन जाता । सच्चाई कड़वी है लेकिन सच यही है कि पाकिस्तान का अस्तित्व ही भारत विरोध पर टिका हुआ है । कहा जाता है कि देशों के पास उनकी सेना होती है लेकिन पाकिस्तान की सेना ऐसी है जिसके पास एक देश है । पाकिस्तानी सेना अपनी जनता को भारत के खिलाफ भड़काती रहती है कि अगर वो न हो तो भारत पाकिस्तान को खत्म कर देगा । यही कारण है कि पाकिस्तान की आम जनता भी भारत के प्रति नफरत से भरी हुई है और वो सेना का भारी-भरकम खर्च उठा रही है ।

               पाकिस्तान के कारण भारत का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि वो अपने असली दुश्मन को कभी पहचान नहीं सका । पूर्व रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस ने कहा था कि चीन भारत का नम्बर वन दुश्मन है लेकिन उनकी यह बात किसी को समझ नहीं आई । प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी चीन को मित्र देश मानते थे और उसके साथ मिलकर शांति के कबूतर उड़ाया करते थे । चीन से मित्रता हासिल करने के लिए उन्होंने भारत के हितों के साथ कई समझौते किये । वो चीन को खुश करते रहे ताकि वो भारत  का दोस्त बना रहे लेकिन उनकी लाख कोशिशों के बावजूद चीन ने 1962 में भारत पर हमला करके भारत के बड़े भूभाग पर कब्जा कर लिया । चीन के इतने बड़े धोखे के बाद कुछ सालों तक भारत सरकार चीन के प्रति सतर्क रही लेकिन फिर एक बार उसकी तरफ  दोस्ती का हाथ बढ़ाया गया । यूपीए शासन के दौरान कांग्रेस ने चीन के साथ एक एमओयू साइन किया है लेकिन इसमें क्या है, यह अभी तक देश की जनता को पता नहीं है । आज  राहुल गांधी चीन के विकास का ढिंढोरा पीटते हैं लेकिन वो यह नहीं बताते कि 1980 तक  चीन भारत के बराबर ही था लेकिन कांग्रेस की नीतियों के कारण भारत पिछड़ता गया और चीन आगे बढ़ गया । कितनी अजीब बात है कि एक लोकतांत्रिक देश होने के बावजूद भारत वामपंथी नीतियों पर चलकर आर्थिक बर्बादी की ओर जा रहा था जबकि चीन वामपंथी देश होकर पूंजीवाद के बल पर आर्थिक विकास की सीढ़ियां तेजी से चढ़ रहा था । वाजपेयी सरकार के समय भारत का चीन के साथ एक अरब डॉलर के घाटे का व्यापार था लेकिन यूपीए शासन के बाद यह घाटा सौ अरब डॉलर तक पहुंच गया । मोदी सरकार के आने के बाद इसमें बढ़ोतरी बेशक न हुई हो लेकिन यह कम नहीं हो पा रहा है । इसकी बड़ी वजह यह है कि यूपीए शासन के दौरान हमारी अर्थव्यवस्था चीन पर इतनी ज्यादा निर्भर हो गई है कि हम चाह कर भी चीन से आयात कम नहीं कर पा  रहे हैं ।   

               सवाल यह है कि हम अपने ही पैसे से दुश्मन को क्यों बढ़ावा दे रहे हैं । वास्तव में चीन ने अमेरिका के सहयोग से अपने आपको दुनिया की फैक्टरी बना लिया है । यह हमारे देश की विदेश नीति की बहुत बड़ी विफलता है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने के बावजूद अमेरिका ने हमें  न चुनकर चीन को इस काम के लिये चुना । जो चीन 1980 में हमारे बराबर था, वो आज हमारे से पांच गुणा बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है । हम पाकिस्तान के साथ ऐसे उलझे रहे कि हम चीन की तरफ देख ही नहीं पाए । हम यह पहचान नहीं सके कि हमारा असली दुश्मन चीन है और उसकी बढ़ती ताकत एक दिन हमारे लिए सबसे बड़ी समस्या बन जाएगी । हम पाकिस्तान से खुद को अलग करना चाहते थे लेकिन आतंकवाद को हथियार बनाकर उसने हमें उलझाये रखा । पाकिस्तान के खिलाफ सख्त कदम इसलिए नहीं उठाए गए क्योंकि पाकिस्तान परमाणु बम की धमकी देता था ।

पाकिस्तान और चीन ने एक जबरदस्त गठजोड़ बना लिया है जो हमारी सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है । 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद चीन के खतरे को सही तरह से पहचाना गया है । यूपीए शासन में चीन सीमा पर बुनियादी ढांचे के विकास की अनदेखी की  गई क्योंकि रक्षा मंत्री का कहना था कि चीन इसका फायदा उठाकर हमारे देश में घुस जाएगा । मोदी सरकार ने बुनियादी ढांचे का विकास करके बता दिया कि यूपीए सरकार की  सोच कितनी गलत थी । मोदी सरकार ने रक्षा क्षेत्र में खुद को आत्मनिर्भर बनाने की ओर कदम बढ़ाए जबकि पहले हम पूरी तरह से विदेशी हथियारों पर निर्भर थे । ऑपरेशन सिंदूर ने साबित कर दिया कि भारतीय हथियारों में कितना दम है और भारत हथियारों के मामले में कितना आत्मनिर्भर हो चुका है । इस युद्ध में पाकिस्तान ने चीनी हथियारों का जबरदस्त इस्तेमाल किया है लेकिन हमारी सेना ने दिखा दिया कि वो चीनी हथियारों का कैसे मुकाबला कर सकती है । 

                भारत की जबरदस्त रक्षा तैयारियां बता रही हैं कि हम पाकिस्तान को ध्यान में रखते हुए अपनी तैयारी नहीं कर रहे हैं । चीन को  भी समझ आ चुका है कि भारत उसका मुकाबला करने की तैयारी कर  रहा है । पहले डोकलाम और फिर गलवान में भारतीय सेना ने बता दिया है कि भारत चीन से मुकाबले के लिए तैयार है । भारत इसकी भी तैयारी कर रहा है कि अगर चीन और पाकिस्तान एक साथ हमला कर दें तो कैसे मुकाबला करना है । ऑपरेशन सिंदूर ने साबित कर दिया है कि पाकिस्तान के मुकाबले हम सैन्य के रूप से इतने ज्यादा सक्षम हैं कि उसकी ज्यादा परवाह करने की जरूरत नहीं है । हमारा असली दुश्मन पाकिस्तान नहीं चीन है और उसकी बढ़ती आर्थिक ताकत है । भारत उसके मुकाबले के लिये  उसके विकल्प के रूप में दुनिया के सामने खुद को पेश कर रहा है और इसका असर दिखाई देने लगा है । विदेशी कंपनियों को भारत में चीन से मुकाबला करने की क्षमता दिखाई दे रही है । आज भारत दुनिया का सबसे किफायती उत्पादन करने वाला देश बन गया है जो कि पहले चीन था । हम जल्दी ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने वाले हैं लेकिन चीन से मुकाबला करना अभी भी मुश्किल दिखाई दे रहा है ।

अब समय आ गया है कि हम पाकिस्तान से खुद को अलग करके चीन की तरफ ध्यान दें । हम बेशक चीन के खिलाफ सैन्य तैयारियां कर सकते हैं लेकिन जब तक आर्थिक रूप से उसके मुकाबले खड़े नहीं होते, तब तक हम कमजोर ही रहेंगे । सैन्य रूप से मजबूत होना जरूरी है लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है कि दुश्मन से आर्थिक रूप से कमजोर न हुआ जाए । अगर किसी वजह से लड़ाई लंबी हो जाए तो आर्थिक ताकत ही काम आती है । चीन के साथ मित्रता रखते हुए हमें उससे मुकाबले को तैयार भी रहना है । जब तक हम आर्थिक रूप से मजबूत नहीं हो जाते, उसके उकसावे में नहीं आना है । हमारा मीडिया और जनता पाकिस्तान को जितना महत्व देते हैं और उससे बेहतर होने की खुशी मनाते हैं, उससे बाहर निकलने की जरूरत है । अब हमारा ध्यान सिर्फ चीन पर होना चाहिए क्योंकि पाकिस्तान भी अब सिर्फ उसका मोहरा भर रह गया है । चीन भारत के खिलाफ बांग्लादेश को भी तैयार कर रहा है । इसके अलावा वो म्यांमार में भी अपना प्रभाव बढ़ा रहा है । हमें चीन की हरकतों पर कड़ी नजर रखनी होगी क्योंकि वो नहीं चाहता है कि भारत एक बड़ी आर्थिक शक्ति बन जाए । 

राजेश कुमार पासी 

सुनता नहीं कोई हमारी, क्या जमाना बहरा हो गया

डाविनोद बब्बर 

गत दिवस देश की राजधानी से सटे नोएडा के एक ओल्डऐज होम में लोगों की दुर्दशा के समाचार ने मानवता के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। वृद्धाश्रम पहुंची पुलिस और समाचार कल्याण विभाग की टीम हैरान थी। एक बुजुर्ग महिला को बांध के रखा गया था तो बेसमेंट के कमरों में जो वृद्ध पुरुष कैद थे, उनके वस्त्र मल मूत्र से सने हुए और दुर्गंध दे रहे थे। पूरा दृश्य किसी नर्क से बढ़कर था। विशेष यह कि इस ओल्ड होम में दयनीय हालत रहने वाले वृद्धों के परिजनों की ओर से मासिक शुल्क भी दिया जा रहा था। 

प्रश्न यह है कि जब परिजन हजारों रुपया प्रतिमा शुल्क देने की स्थिति में है तो वे अपने बुजुर्ग माता-पिता को अपने साथ क्यों नहीं रखते? जिन माता-पिता ने उन्हें पाला संभाला, शिशुपन में उनके मल मूत्र साफ किया और स्वयं कष्ट सहकर भी उनके सुख सुविधा का पूरा ध्यान रखा, उन्हें अपने से अलग करते हुए क्या उन कलयुगी संतानों ने जरा भी नहीं सोचा? पाषाण हृदय संतानों को स्वतंत्रता पसंद है या वे अपने वृद्ध अभिभावकों को बोझ मानते हैं?

दुखद आश्चर्य यह है कि जिस भारत में बुजुर्गो की सेवा-सम्मान की परम्परा रही है। जहां लगातार गाया, दोहराया जाता है-

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम।।

जो अपने बुजुर्गों की सेवा और सम्मान करते हैं उनकी आयु, विद्या, कीर्ति और बल में वृद्धि होती है। वहाँ तेजी से वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ रही है। इस नैतिक पतन के लिए कुछ लोग ऋषि संस्कृति की भूमि भारत में पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव को जिम्मेवार ठहराते हैं तो अधिकांश लोगों के मतानुसार विखण्डित होते संयुक्त परिवार, शहरीकरण, बेलगाम सोशल मीडिया और उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण स्थित बदली है। आश्चर्य है कि आज शहर से गांव तक प्रत्येक व्यक्ति दिन में कई कई घंटेअपने स्मार्टफोन को देता है लेकिन उनके पास अपने ही वृद्ध माता-पिता के पास बिताने के लिए कुछ मिनट भी नहीं है। शायद मान्यताओं में बदलाव के कारण बुजुर्गों को बोझ  बना दिया है। उन्हें न अच्छा खाना दिया जाता है न ही साफ-सुथरे कपड़े। यहां तक कि उनके उपचार को भी जरूरी नहीं समझा जाता। उचित देखभाल के अभाव में वृद्धों को शारीरिक व मानसिक कष्ट बढ़ जाता है। वे छोटे-छोटे कामों और जरूरतों के लिए दूसरों के मोहताज हो जाते हैं।

हर कली अपने यौवन में फूल बनकर अपनी सुगंध बिखेरती है तो एक सीमा के बाद उसमें मुरझाहट दिखाई देने लगती है। मनुष्य जीवन भी प्रकृति के इस चक्र के अनुसार ही चलता है।  बचपन, जवानी के बाद वृद्धावस्था प्रकृति का सत्य है। वृद्धावस्था को जीवन का अभिशाप मानते हैं क्योंकि इस अवस्था के आते-आते शरीर के सारे अंग शिथिल पड़ जाते हैं और इंसान की जिंदगी दूसरों की दया-कृपा पर निर्भर करती है। दूसरों पर आश्रित जिंदा रहना उस बोझ महसूस लगने लगता है और वह चाहता है कि उसे जितनी जल्दी हो सके, ज़िंदगी से छुट्टी मिल जाए।

प्रत्येक व्यक्ति जीवन भर कड़ी मेहनत कर जो कुछ भी बनाता है ताकि जीवन की सांझ सम्मान सहित कम से कम कठिनाई से बीते। लेकिन, जब हम अपने परिवेश में नजर दौड़ाते हैं तो इसके विपरीत दृश्य देखने को मिलते हैं। अनेक बुजुर्गों को बुढ़ापे में दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं। उन्हें न तो सिर छिपाने के लिए छत, खाने को दो जून की रोटी और तन ढकने के लिए कपड़ा भी उपलब्ध नहीं हो पाता। बुढ़ापा आते ही वह अकेला पड़ने लगता है जहां उसकी सुनने वाला कोई नहीं होता। यहाँ तक कि जिन बच्चों की खातिर वह अपना सब कुछ लुटाता है, वही उसे सिरदर्द समझने लगते हैं। उसकी उपेक्षा करते हं। यह दृश्य किसी एक घर, गाँव, या नगर की विेशेष समस्या नहीं है बल्कि हर तरफ ऐसा या लगभग ऐसा देखने, सुनने को मिलता है।

वर्तमान की संस्कारविहीन शिक्षा के कारण अपनी संतान ही अपनी नन्हीं अंगुलियां थामने वाले बूढ़े माँ-बाप से छुटकारा पाने के बहाने तलाशने लगी है। उन्हें यह स्मरण नहीं रहता कि वह उन्हीं माँ-बाप की कड़ी मेहनत, त्याग, समर्पण के कारण ही किसी मुकाम तक पहुंचे हैं। जिन्होंने अपनी संतान को सुखी, समृद्ध, सम्मानपूर्वक जीवन जीने के योग्य बनाने का सपना साकार करने के लिए अपना जीवन होम किया हो, यदि वे जीवन की संध्या में असहाय, अभावग्रस्त है तो लानत है उस संतान पर। वास्तव में वे संताने अधम हो धरती पर बोझ हैं।

वृक्ष जब तक छायादार और फलदार रहता है, अपनी सेवाएं देता है। सूखने और जर्जर होने पर भी वह जाते जाते लकड़ी देकर जाता है। वृद्धावस्था जीवन का अखिरी चरण है, जब परिवार को उन्हें ऐसा वातावरण उपलब्ध कराना चाहिए जिससे उन्हें अपनी संतति पर गर्व हो। उनके पास अनुभवों, संस्मरणों, स्मृतियों की अमूल्य धरोहर हैं जिसे प्रापत कर सुरक्षित, संरक्षित करना उनके बाद की पीढ़ी का कर्तव्य है। ऐसा भी नहीं है कि समाज से वृद्धों के सम्मान की भावना लृप्त हो चुकी है। आज भी अनेकानेक ऐसे परिवार है जहां अपने बुजुर्गों का बहुत सम्मान होता है। लेकिन ऐसे परिवारों की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है। आज विवाह के पश्चात ‘पति-पत्नी ही संसार है, शेष सब बेकार है’ की अवधारणा बलवती हो रही है।

वृद्धों के सम्मान की श्रेष्ठ मानवीय गुणों को प्रसारित करने वाली भारतीय संस्कृति से विचलित होने के दुष्परिणाम समाज को उस रहे हैं। श्रवण कुमार के देश में आत्मकेन्द्रित होती पीढ़ी संयुक्त परिवार के तमाम गुणों और लाभों को समझने को तैयार ही नहीं है। एकाकी परिवार भी लगता है पीछे छूट रहा है। हर व्यक्ति एकाकी हो रहा है। क्योंकि उन्हें स्वतंत्रता नहीं, ‘स्वच्छन्दता’ चाहिए। सुविधाएं तो सारी चाहिए लेकिन जिम्मेवारी एक भी नहीं। ऐसे में वृद्धावस्था उपेक्षित हो रही है। यह स्थिति केवल वृद्धों के लिए ही कष्टकारी नहीं है बल्कि भावी पीढ़ी के साथ भी बहुत बढ़ा अन्याय और अत्याचार है। आज जब माता-पिता दोनो कामकाजी हैं ऐसे में बच्चे क्रैच में या नौकरों के हवाले। उन्हें लाड़ और संस्कार कौन दें? यदि हम दादा-दादी को पाते-पोतियों से जोड़ दें तो ‘विवशता’ और ‘आवश्यकता’ मिलकर समाज की ‘कर्कशता’ को काफी हद तक दूर कर सकते हैं।

 शहरों की इस नई आधुनिक शैली में लोग अपने-आपको इतना व्यस्त पाते है कि उनके पास परिवार में एक-दूसरे से बात करने का समय तक नहीं है या वे एक- दूसरे के साथ बैठकर बातचीत करने की जरूरत ही नहीं समझते। बूढ़ों से बातचीत करना तो आज के युवक समय की बर्बादी ही समझते हैं तो क्या वृद्धों की समाज में उपयोगिता नहीं? पूरे जीवन में अनगिनत कष्ट उठाकर अर्जित किया गया अनुभव क्या समाज के किसी काम का नहीं? यह सही है कि आज के जीवन में मनुष्य की व्यस्तताएं बहुत बढ़ गई हैं। लेकिन सोशल मीडिया और टीवी में डूबे रहने वाले समय की कमी का बहाना नहीं बना सकते। आज बुजुर्गों की स्थिति उस कैलेण्डर जैसी हो गई है जिसे नये वर्ष का केलेण्डर आते ही रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाता है या फिर कापी किताबों पर जिल्द चढ़ाने के काम में लिया जाता है। इसे ‘पीढ़ियों का अंतर’ कहकर अनदेखा करना मानव होने पर प्रश्नचिन्ह है।

तेजी से स्मार्ट (?) हो रहे दौर में परिवार के मुखिया रहे व्यक्ति की दुर्दशा स्मार्टनेस का नहीं, शेमलेस होने का प्रमाण है। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह किसी एक परिवार, एक नगर, प्रदेश अथवा देश की कहानी नहीं है।पूरे विश्व में बुजुर्गों के समक्ष न केवल अपने आपको बचाने बल्कि शारीरिक सक्रियता, आर्थिक विपन्नता की बढ़ी चुनौती है। यूरोप के विकसित देशों में वृद्धों को सरकार की ओर से अनेक प्रकार की सुविधा दी जाती है लेकिन हमारे अपने देश में रेल यातायात में मिलने वाली छूट को हटाने की ताक में बैठे नौकरशाहों को कोरोना ने अवसर उपलब्ध करा दिया। आज देश भर में बुजुर्गों को यातायात के नाम पर कोई छूट नहीं है। गुजरात सहित कुछ राज्यों में तो राज्य परिवहन की बसों में महिलाओं के लिए तो कुछ सीटे आरक्षित है परंतु वृद्धों के लिए एक भी सीट आरक्षित नहीं है। भारत जैसे देश में जहां वृद्धों की संख्या तेजी से बढ़ रही है परंतु उनकी समस्याओं की ओर समाज और सरकार का ध्यान बहुत कम है।

 पश्चिम के समृद्ध देशों की छोड़िये, भारतीय मूल के छोटे देश मॉरीशस में भी वृद्धों के कल्याण के लिए अनेक कार्यक्रम है। वहां प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक को आकर्षक पेंशन, आजीवन निःशुल्क यातायात और स्वास्थ्य सेवाएं सहित अनेक सुविधाएं प्रदान की जाती है जबकि दूसरी ओर हमारे यहां  बुजुर्ग महिलाओं तथा ग्रामीण क्षेत्र में रहनेवाले बुजुर्गो आर्थिक संकटों से जूझने को विवश है। यदि कही पेंशन योजना है भी तो नाममात्र की राशि के साथ बहुत सीमित लोगों को ही उपलब्ध है। ऐसे में वे किसी तरह जीवन को घसीट रहे हैं। अकेले रहने को विवश बुजुर्गों को नित्य प्रति बढ़ रहे अपराधों से हर समय खतरा बना रहता है। इधर सर्वत्र ऑनलाइन लेन-देन के कारण उनके विरूद्ध साइबर क्राइम भी बढ़ रहे है।

यह संतोष की बात है मोदी सरकार ने 70 से अधिक आयु वाले सभी नागरिकों के उपचार की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए आयुष्मान योजना लागू की है। इस योजना के अंतर्गत केंद्र सरकार की ओर से पांच लाख रुपए तक के वार्षिक उपचार निजी अस्पताल में करने का प्रावधान है। दिल्ली सहित कुछ राज्यों ने इस योजना में अपना अंशदान देते हुए उपचार की राशि को 5 से बढ़कर 10 लख रुपए कर दिया है  लेकिन सरकार स्वयं 60 वर्ष के व्यक्ति को सेवानिवृत्ति कर देती है तो असंगठित क्षेत्र की स्थिति को समझा जा सकता है। अच्छा हो यदि इस  योजना का लाभ सभी वरिष्ठ नागरिकों को दिया जाए।

इस योजना के अंतर्गत अस्पताल में दाखिल होने पर ही उपचार के प्रावधान को बदल जाना चाहिए ताकि जीवन भर परिवार समाज को अपना श्रेष्ठ देने वाले वरिष्ठ नागरिकों की नियमित जांच सुनिश्चित हो सके।

कुछ राज्य सरकारें कुछ वरिष्ठ नागरिकों को बुढ़ापा पेंशन देती है जबकि आवश्यकता है कि प्रत्येक वृद्ध व्यक्ति को बुढ़ापा पेंशन के साथ-साथ, अकेले वृद्धों का पुनर्वास सुनिश्चित करना चाहिए। वृद्धाश्रम (ओल्डहोम) में रहने वालों के लिए देहदान का नियम हो ताकि माता-पिता की उपेक्षा करने वालों को उनकी मृत्यु के बाद नाटक करने और नकली टस्सुए बहाने का मौका ही न मिलें। जीते जी माँ-बाप को न पूछने वालों द्वारा आयोजित दिखावे के श्राद्ध का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए।  

वरिष्ठ नागरिकों को भी अपनी सक्रियता और वाणी में मधुरता बरकरार रखनी चाहिए। यदि वे समाज ‘उपयोगी’ बने रहेंगे तो उनकी स्थिति निश्चित रूप से बेहतर होगी। अपने पास यदि कुछ धन, सम्पत्ति है तो उसकी वसीयत जरूर करें लेकिन सब सौंपने से पूर्व भावना के बहाव में बहने से बचते हुए गंभीर होकर निर्णय करें। 

डाविनोद बब्बर 

समाजवादी- धर्मनिरपेक्ष शब्दों की समीक्षा की जरूरत

संदर्भः-आपातकाल में दर्ज किए संविधान की प्रस्तावना में संतों को हटाने की जरूरत
प्रमोद भार्गव
     आपातकाल में जब भारतीय लोकतंत्र कारागारों में बंधक था तब 1976 में संविधान की प्रस्तावना में 42वें संविधान संषोधन अधिनियम के तहत बदला गया, जिसमें ‘समाजवादी‘, ‘धर्मनिरपेक्ष‘ और ‘अखंडता‘ शब्द जोड़ दिए गए थे। अब इन शब्दों को विलोपित करने की मांग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उठा दी है। केंद्र सरकार से इन शब्दों की समीक्षा करने का आवाहन संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने किया है। इस मांग के समर्थन में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुर मिलाते हुए कहा कि ‘संविधान की प्रस्तावना परिवर्तनशील नहीं है, लेकिन भारत में आपातकाल के दौरान इसे बदल दिया गया, जो संविधान निर्माताओं की बुद्धिमता के साथ विश्वासघात का संकेत है, जो शब्द जोड़े गए, वे नासूर थे और उथल-पुथल पैदा कर सकते हैं। यह बदलाव हजारों वर्शों से इस देश की सभ्यतागत संपदा और ज्ञान को कमतर आंकने के साथ सनातन की भावना का अपमान भी है। प्रस्तावना संविधान का बीज होती है। इसी के आधार पर संविधान की मूल भावना विकसित होती है। भारत के अलावा किसी दूसरे देश में संविधान की प्रस्तावना में बदलाव नहीं किया गया। अतएव यह बदलाव न्याय का उपहास है।    
  भारतीय समाज के बहुलतावादी धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्वरूप को ध्यान में रखते हुए संवैधानिक गणराज्य की नींव रखी थी। इसीलिए मूल संविधान में भारतीय परंपरा, संस्कृति, आध्यात्म जैसे ऊर्जावान तत्वों का समावेश संभव हुआ। तब संविधान निर्माताओं ने सोचा था कि भारत की संस्कृति, संस्कार और सभ्यतामूलक इतिहास के प्रवाह को भी विभिन्न छवियों के द्वारा स्थान मिलना चाहिए। तब उस समय के प्रसिद्ध चित्रकार नंदलाल बोस से आग्रह कर हजारों वर्शों की सांस्कृतिक सभ्यता के चित्रों की संविधान में जीवंत प्रस्तुति संभव हुई। इस क्रम में मोहनजोदड़ों के चित्रों से लेकर वैदिक युग के गुरुकुल हैं। मौलिक अधिकार के अध्याय में प्रभु राम, सीता और लक्ष्मण का चित्र है। चूंकि राम मौलिक अधिकारों की रक्षा के साथ रामराज्य के प्रतीक हैं। इसलिए उनका चित्र तार्किक है। राज्य के नीति-निदेशक तत्व अध्याय में भगवान कृष्ण द्वारा गीता का उपदेश दिए जाने का चित्र है। यह चित्र एक हताश योद्धा को अपने कर्तव्य पालन के प्रति इंगित करता है। भगवान बुद्ध, महावीर, सम्राट विक्रमादित्य और नालंदा विश्वविद्यालय की चर्चा है। शिव के नटराज नृत्य की छवि प्रदर्शित है। मुगल काल में अकबर और मुगलकालीन स्थापत्य के चित्र हैं। लेकिन बाबर औरंगजेब की चर्चा नहीं है। क्योंकि ये क्रूर और मंदिरों के विध्वंसक रहे हैं। इसी क्रम में वीर शिवाजी, गुरू गोविंद सिंह, महारानी लक्ष्मीबाई, महात्मा गांधी और नेताजी सुभाश चंद्र बोस के योगदान से जुड़े चित्र हैं। इन चित्रों को छापना इसलिए संभव हुआ, क्योंकि संविधान निर्माताओं ने लोकतांत्रिक गणतंत्र के साथ भारतीय सनातन संस्कृति और सभ्यता को जानने पर जोर दिया था। क्या आज के परिप्रेक्ष्य में इन चित्रों का संविधान में प्रदर्शन संभव था ?      
दरअसल स्वतंत्रता के कुछ वर्ष बाद से केवल हिंदू और हिंदुओं से जुड़े प्रतिरोध को धर्मनिरपेक्षता मान लेने की परंपरा सी चल निकली थी। जबकि वास्तविकता तो यह है कि मूल संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवाद‘ शब्द थे ही नहीं। ये शब्द तो आपातकाल के दौरान 42वां संविधान संशोधन लाकर ‘समाजवादी धर्मनिरपेक्ष संविधान अधिनियम 1976’ के माध्यम से जोड़े गए थे। आपातकाल के बाद जब जनता दल की केंद्र में सरकार बनी तो यह सरकार 43वां संशोधन विधेयक लाकर सेक्युलरिज्म मसलन धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या स्पष्ट करना चाहती थी, प्रस्तावित प्रारूप में इसे स्पष्ट करते हुए वाक्य जोड़ा गया था, ‘गणतंत्र शब्द जिसका विशेषण ‘धर्मनिरपेक्ष’ है का अर्थ है, ऐसा गणतंत्र जिसमें सब धर्मो के लिए समान आदर हो,‘ लेकिन लोकसभा से इस प्रस्ताव के पारित हो जाने के बावजूद कांग्रेस ने इसे राज्यसभा में गिरा दिया था। अब यह स्पष्ट उस समय के कांग्रेसी ही कर सकते हैं कि धर्मों का समान रूप से आदर करना धर्मनिरपेक्षता क्यों नहीं है ? गोया, इसके लाक्षणिक महत्व को दरकिनार कर दिया गया।
शायद ऐसा इसलिए किया गया जिससे देश में सांप्रदायिक सद्भाव स्थिर न होने पाए और सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता को अनंतकाल तक वोट की राजनीति के चलते तुष्टिकरण के उपायों के जरिए भुनाया जाता रहे। साथ ही इसका मनमाने ढंग से उपयोग व दुरुपयोग करने की छूट सत्ता-तंत्र को मिली रहे। जहां तक गणतंत्र शब्द का प्रश्न है तो विक्टर ह्यूगो ने इसे यूं परिभाषित किया है, ‘जिस तरह व्यक्ति का अस्तित्व उसके जीने की इच्छा की लगातार पुष्टि है, उसी तरह देश का अस्तित्व उसमें रहने वालों का परस्पर तालमेल नित्य होने वाला जनमत संग्रह है।’ दुर्भाग्य से हमारे यहां नरेंद्र मोदी सरकार के पहले तक परस्पर तालमेल खंडित होता रहा है। अलगाव और आतंकवाद की अवधारणाएं निरंतर देश की संप्रभुता व अखण्डता के समक्ष खतरा बनकर उभरती रही हैं। राष्ट्रवाद और भारत माता की जय को भी संकीर्ण और अल्प-धार्मिक दृष्टि से देखा जाता रहा है। जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय में वामपंथी मानसिकता के चलते जिस तरह से देश के हजार टुकड़े करने के नारे लगते रहे और उन्हें अभीव्यक्ति की आजादी के परिप्रेक्ष्य में संवैधानिक ठहराने की कोशिशें हुईं, उस संदर्भ में लगता है कि धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की आजादी के मायने राश्ट्रद्रोह को उकसाने और उन्हें संरक्षित करने के उपाय ही साबित हुए हैं। अतएव इस तरह की विकृतियों को आधार देने वाले संविधान के अनुच्छेदों में बदलाव जरूरी है।
भारतीय संविधान जिस नागरिकता को मान्यता देता है, वह एक भ्रम है। सच्चाई यह है कि हमारी नागरिकता भी खासतौर से अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक समुदायों में बंटी हुई है। लिहाजा इसका चरित्र उत्तरोत्तर सांप्रदायिक होता रहा है। हिंदु, मुसलमान और ईसाई भारतीय नागरिक होने का दंभ बढ़ता है। जबकि नागरिकता केवल देशीय मसलन भारतीय होनी चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी है,क्योंकि भारत में 4635 समुदाय हैं। जिनमें से 78 प्रतिशत समुदायों की न सिर्फ भाषाई एवं सांस्कृतिक बल्कि सामाजिक श्रेणियां भी हैं। इन समुदायों में 19.4 प्रतिशत धार्मिक अल्पसंख्यक हैं। गोया, धर्मनिरपेक्षता शब्द को विलोपित किया जाना जरूरी है। हालांकि आजादी के ठीक बाद प्रगतिशील बौद्धिकों ने भारतीय नागरिकता को मूल अर्थ में स्थापित करने का प्रयास किया था, लेकिन धर्मनिरपेक्षता के फेर में मूल अर्थ सांप्रदायिक खानों में विभाजित होता चला जा रहा है, जिसका संकट अब कुछ ज्यादा ही गहरा गया है।  
      वर्तमान में हमारे यहां धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के शब्द ‘सेक्युलर’ के अर्थ में हो रहा है। अंग्रेजी के ऑक्सफोर्ड शब्दकोश में इसका अर्थ ‘ईश्वर’ विरोधी दिया है। भारत और इस्लामिक देश ईश्वर विरोधी कतई नहीं हैं। ज्यादातर क्रिश्चियन देश भी ईसाई धर्मावलंबी हैं। हां, बौद्ध धर्मावलंबी चीन और जापान जरूर ऐसे देश हैं, जो धार्मिक आस्था से पहले राष्ट्रप्रेम को प्रमुखता देते हैं। हमारे संविधान की मुश्किल यह भी है कि उसमें धर्म की भी व्याख्या नहीं हुई है। इस बाबत न्यायमूर्ति राजगोपाल आयंगर ने जरूर इतना कहा है, ‘मैं यह जोड़ना चाहता हूं कि अनुच्छेद 25 और 26 में धार्मिक सहिष्णुता का वह सिद्धांत शामिल है, जो इतिहास के प्रारंभ से ही भारतीय सभ्यता की विशेषता रहा है।’ इसी क्रम में यह भी कहा, ‘धर्म शब्द की व्याख्या लोकतंत्र में नहीं हुई है और यह ऐसा शब्द है, जिसकी निश्चित व्याख्या संभव नहीं है।’ संभवतः इसीलिए न्यायालय को कहना पड़ा था कि ‘गणतंत्र का धर्मनिरपेक्ष स्वभाव राष्ट्रनिर्माताओं की इच्छा के अनुरूप होना चाहिए और इसे ही संविधान का आधार माना जाना चाहिए।’ अब यहां संकट यह भी है कि भारत राष्ट्र का निर्माता कोई एक नायक नहीं रहा। गरम, नरम और नेताजी सुभाष के सैन्य दलों के विद्रोह से विभाजित स्वतंत्रता संभव हुई। नतीजतन धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या को किसी एक इबारत में बांधना असंभव है। इसीलिए श्रीमद्भागवत गीता में जब यक्ष धर्म को जानने की दृष्टि से प्रश्न करते हैं तो धर्मराज युधिष्ठिर का उत्तर होता है, ‘तर्क कहीं स्थिर नहीं हैं, श्रुतियां भी भिन्न-भिन्न हैं। एक ही ऋषि नहीं है, जिसका प्रमाण माना जाए। धर्म का तत्व गुफा में निहित है। अतः जहां से महापुरुष जाएं, वही सही धर्म या मार्ग है।’
इसी संदर्भ में केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि ‘सत्य एक है। विद्वान उसे अलग-अलग तरीके से कहते हैं। भारतीय दर्शन इसे ‘मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना‘ कहता है। अर्थात सर्वधर्म सद्भाव भारतीय-संस्कृति का मूल है, धर्मनिरपेक्ष हमारी संस्कृति का मूल नहीं है। इसलिए इसे हटाने पर विचार होना चाहिए।‘ वैसे भी भारतीय परंपरा में धर्म कर्तव्य के अर्थ में प्रचलित है। यानी मां का धर्म, पिता का धर्म, पुत्र का धर्म, स्वामी का धर्म और सेवक का धर्म, इस संदर्भ में कर्तव्य से निरपेक्ष कैसे रहा जा सकता है ? सेक्युलर के लिए शब्दकोश में पंथनिरपेक्ष शब्द भी दिया गया है, पर इसे प्रचलन में नहीं लिया गया। अतएव यह आवश्यक हो गया है कि संविधान में जो भी ठूंसे गए विकार और विसंगतियां हैं, उन्हें जम्मू-कश्मीर को अलग करने वाली धारा 370 की तरह विलोपित कर देना चाहिए। प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई ने ठीक ही कहा है कि ‘डॉ आंबेडकर ने देश को एकजुट रखने के लिए एक संविधान की कल्पना की थी। उन्होंने कभी भी किसी राज्य के लिए अलग संविधान के विचार का समर्थन नहीं किया। इसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद-370 को निरस्त करने के केंद्र के फैसले को बरकरार रखते हुए एक संविधान के तहत एकजुट भारत से संबंधित डॉ आंबेडकर के दृश्टिकोण से प्रेरणा ली है।‘ गवई पांच न्यायाधीषों की उस संविधान पीठ के सदस्य थे, जिसकी अध्यक्षता तब के प्रधान न्यायाधीष डीवाई चंद्रचूड़ ने की थी। इस पीठ ने सर्वसम्मति से अनुच्छेद-370 को निरस्त करने के केंद्र सरकार के फैसले का समर्थन किया था। अतएव धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी जैसे शब्दों को संविधान की प्रस्तावना से विलोपित करके उसे मूल स्वरूप में लाने की जरूरत है।  
प्रमोद भार्गव

‘भगवान शिव’ के किरदार में मोहित रैना

सुभाष शिरढोनकर

फिल्‍म मेकर नितेश तिवारी की अपकमिंग फिल्म ‘रामायण’ का हर किसी को बेसब्री से इंतजार है। फिल्म दो पार्ट में आने वाली है जिसमें से पहला पार्ट दिवाली 2026 को सिनेमाघरों में आएगा और दूसरा पार्ट साल 2027 की दिवाली पर रिलीज होगा।

फिल्म में रनबीर कपूर भगवान श्रीराम और साउथ एक्ट्रेस साई पल्लवी सीता का किरदार निभा रही हैं। रावण की भूमिका में यश और हनुमान की भूमिका में सनी देओल नजर आने वाले हैं। 

इस फिल्‍म में लारा दत्ता कैकेयी और रवि दुबे लक्ष्मण के किरदारों में नजर आएंगे। रामानंद सागर के दूरदर्शन धारावाहिक ‘रामायण’ में भगवान श्रीराम का अमर किरदार निभा चुके एक्टर अरुण गोविल फिल्म में राजा दशरथ का किरदार निभा रहे हैं।

नए अपडेट के अनुसार फिल्‍म में टीवी के पॉपुलर स्टार मोहित रैना की भी एंट्री हो चुकी है। वे इस फिल्म में भगवान शिव की भूमिका में नजर आएंगे। दरअसल इससे पहले भी वे कई टीवी शोज में भगवान शिव का किरदार निभा चुके हैं।

मोहित रैना को भगवान शिव के किरदार में काफी पसंद किया जाता रहा है। वे इस किरदार के लिए एकदम फिट नजर आते हैं। मोहित रैना ने शिव का रोल प्ले करके पहचान बनाई। इस रोल ने उन्हें रातों-रात इतना अधिक फेमस कर दिया था कि सभी उन्हें भगवान की तरह पूजने लगे थे।

फिल्‍म ‘रामायण’ के लिए मोहित रैना के नाम का एलान होते ही  उनके फैंस खुशी से झूमते नजर आ रहे हैं।

14 अगस्त 1982 को जम्मू के एक कश्मीरी पंडित परिवार में जन्मे मोहित ने अपनी पढ़ाई-लिखाई जम्मू के केंद्रीय विद्यालय से की। उसके बाद वहीं, यूनिवर्सिटी ऑफ जम्मू से ग्रेजुएशन किया। 

मोहित रैना ने साल 2005 में ‘ग्रासिम मिस्टर इंडिया मॉडलिंग कॉन्‍टेस्‍ट’ में हिस्सा लिया और टॉप 5 कंटेस्टेंट में जगह बनाई।  एक्टिंग में आने से पहले मोहित रैना हुंडई मोटर्स के शोरूम में काम करते थे। उस दौरान उन्‍होंने कुछ प्रॉडक्‍ट्स के लिए मॉडलिंग भी की।  

मोहित ने एक्टिंग करियर की शुरुआत टीवी सीरियल ‘अंतरिक्ष’ से की। इसके बाद वे ‘मेहर’ ‘भाभी’ ‘चेहरा’, ‘बंदिनी’, ‘गंगा की धीज’ ’21 सरफरोश-सारागढ़ी 1897′, ‘महाभारत’, और ‘चक्रवर्ती अशोक सम्राट’ जैसे अनेक सीरियल में अपनी दमदार उपस्थिति दिखलाते नजर आए।

साल 2011 में उन्हें टीवी शो ‘देवों के देव- महादेव’ में काम करने का अवसर मिला। इस शो में भगवान शिव का निभाया गया किरदार मोहित के करियर के लिए बहुत अहम साबित हुआ। इस रोल ने उन्हें रातों-रात ऊंचाईयों पर पहुंचा दिया।

इस शो में पार्वती  का किरदार छोटे पर्दे की नागिन के रूप में मशहूर मौनी रॉय ने निभाया था। रिपोर्ट्स की माने तो उस वक्त मोहित और मौनी एक-दूसरे के काफी करीब आ गए थे।  

2018 के बाद से मोहित ने टीवी शो से दूरी बनाते हुए फिल्मों और ओटीटी के लिए अपनी किस्मत आजमाना शुरू किया। फिल्‍म ‘डॉन मुथु स्वामी’ से मोहित ने बॉलीवुड में कदम रखा। साल 2019 में वह आदित्‍य धर की फिल्म उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक में नजर आए। इसके बाद वे ‘मिसेज सीरियल किलर’, ‘शिद्दत’ और ‘इश्क-ए नादान’ जैसी फिल्‍मों में काम कर चुके हैं।

मोहित ने ओटीटी के लिए ‘काफिर’, ‘भौकाल’, ‘ए वायरल वेडिंग’, ‘मुंबई डायरीज 26/11’ और ‘फ्रीलांसर’ जैसे शोज किए और खूब पॉपुलरिटी हासिल की।  

मोहित रैना के लुक्स और अदाकारी ने हर किसी को अपना दीवाना बनाया है। ऐसे में स्‍वाभाविक रूप से ‘रामायण’ में उनकी एंट्री को लेकर जबर्दस्‍त बज बना हुआ है।   

सुभाष शिरढोनकर