Home Blog Page 7

भक्तों के फौजदारी मामले की सुनवाई करते हैं बाबा बासुकीनाथ

कुमार कृष्णन

श्रावण माह भगवान शिव को समर्पित है। भगवान शिव तो ‘संहारक’ है, सृजन कर्ता और ‘नव निर्माण कर्ता’ भी है। ‘शिव’ अर्थात कल्याणकारी, सर्वसिद्धिदायक, सर्वश्रेयस्कर ‘कल्याणस्वरूप’ और ‘कल्याणप्रदाता’ है। जो हमेशा योगमुद्रा में विराजमान रहते है और हमें जीवन में योगस्थ, जीवंत और जागृत रहने की शिक्षा देते है। पुराणों में उल्लेख है कि समुद्र मंथन के दौरान निकले विष के विनाशकारी प्रभावों से इस धरा को सुरक्षित रखने के लिये भगवान शिव में उस हलाहल विष को अपने कंठ में धारण किया और पूरी पृथ्वी को विषाक्त होने से; प्रदूषित होने से बचा लिया। भगवान शिव ने विष शमन करने के लिये अपने सिर पर अर्धचंद्राकार चंद्रमा को धारण किया तथा सभी देवताओं ने माँ गंगा का पवित्र जल उनके मस्तक पर डाला ताकि उनका शरीर शीतल रहे तथा विष की उष्णता कम हो जाये।

चूंकि ये घटना श्रावण मास के दौरान हुई थीं, इसलिए श्रावण में शिवजी को माँ गंगा का पवित्र जल अर्पित कर शिवाभिषेक किया जाता है, कांवड यात्रा इसी का प्रतीक है। शिवाभिषेक से तात्पर्य दिव्यता को आत्मसात कर आत्मा को प्रकाशित करना है। प्रतीकात्मक रूप से शिवलिंग पर पवित्र जल अर्पित करने का उद्देश्य है कि हमारे अन्दर की और वातावरण की नकारात्मकता दूर हो तथा सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड में सकारात्मकता का समावेश हो। 

तीर्थ नगरी देवधर स्थित द्वादश ज्योर्तिलिंग बाबा बैधनाथ और सुलतानगंज की उत्तर वाहिनी गंगा तट पर स्थित बाबा अजगैबीनाथ के साथ दुमका जिला में सुरभ्य वातावरण में स्थित बाबा बासुकीनाथ धाम की गणना बिहार और झारखंड ही नहीं, वरन् राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रमुख शैव-स्थल के रूप में होती है। देवघर-दुमका मुख्य मार्ग पर स्थित इस पावन धाम में श्रावणी- मेला के दौरान केसरिया वस्त्रधारी कांवरिया तीर्थयात्रियों की खास चहल-पहल रहती हैं। ऐसी मान्यता है कि बासुकीनाथ की पूजा के बिना बाबा बैद्यनाथ की पूजा अधूरी है। यही कारण है कि भक्तगण बाबा बैद्यनाथ की पूजा के साथ साथ यहां आकर नागेश ज्योतिर्लिंग के नाम से विख्यात बाबा बासुकीनाथ की आराधना करते हैं।

सावन के महीने में तो हजारों लाखों भक्तगण सुलतानगंज-अजगैबीनाथ से उत्तरवाहिनी गंगा का पवित्र जल अपने कांवरों में भरते हैं। फिर एक सौ किलोमीटर से भी अधिक पहाड़ी जंगली रास्ते पैदल पारकर इसे देवघर में बैधनाथ ज्योतिर्लिंग पर चढ़ाते हैं। इसके बाद वे बासुकीनाथ आकर नागेश ज्योतिर्लिंग पर जल-अर्पण करते हैं। भगवान शिव औघड़दानी कहलाते हैं। भक्तों की भक्ति से प्रसन्न होकर तुरंत वरदान देनेवाले। तभी तो शिवभक्तों की नजरों में यहां भगवान शंकर की अदालत लगती है। शिव-भक्त मानते हैं कि जहां (बैद्यनाथ धाम) भगवान शंकर की दीवानी अदालत है, वही बासुकीनाथ धाम उनकी फौजदारी अदालत है। बाबा बासुकीनाथ के दरबार में मांगी गयी मुरादों की तुरंत सुनवाई होती है। यही कारण है कि साल के बारहों महीने यहां देश के कोने-कोने से भक्तों का आवागमन जारी रहता है।

प्राचीन काल में बासुकीनाथ घने जंगलों से घिरा था। उन दिनों यह क्षेत्र दारूक-वन कहलाता था। पौराणिक कथा के अनुसार इसी दास्क-बन में द्वादश ज्योतिर्लिंग स्वरूप नागेश्वर ज्योतिर्लिंग का निवास था। शिव पुराण में वर्णित है कि दारूक-बन दारूक नाम के असुर के अधीन था। कहते हैं, इसी दारूक-बन के नाम पर संताल परगना प्रमंडल के मुख्यालय दुमका का नाम पड़ा है। बासुकीनाथ शिवर्लिंग के आविर्भाव की कथा अत्यंत निराली है। एक बार की बात है- बासु नाम का एक व्यक्ति कंद की खोज में भूमि खोद रहा था। उसके शस्त्र से शिवलिंग पर चोट पड़ी। बस क्या था- उससे रक्त की धार बह चली। बासु यह दृश्य देखकर भयभीत हो गया। उसी क्षण भगवान शंकर ने उसे आकाशवाणी के द्वारा धीरज दिया – डरो मत, यहां मेरा निवास है। भगवान भोलेनाथ की वाणी सुन बासु श्रद्धा-भक्ति से अभिभूत हो गया और उसी समय से उस लिंग की मूर्ति्-पूजन करने लगा। बासु द्वारा पूजित होने के कारण उनका नाम बासुकीनाथ पड़ गया। उसी समय से यहां शिव-पूजन की जो परम्परा शुरू हुई, वो आज तक विद्यमान है। आज यहां भगवान भोले शंकर और माता पार्वती का विशाल मंदिर है। मुख्य मंदिर के बगल में शिव गंगा है जहां भक्तगण स्नान कर अपने आराध्य को बेल-पत्र, पुष्प और गंगाजल समर्पित करते हैं तथा अपने कष्ट क्लेशों को दूर करने की प्रार्थना करते हैं।

यह माना जाता है कि वर्तमान दृश्य मंदिर की स्थापना 16वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में हुई। हिंदुओं के कई ग्रंथों में सागर मंथन का वर्णन किया गया है, जब देवताओं और असुरों ने मिलकर सागर मंथन किया था। बासुकीनाथ मंदिर का इतिहास भी सागर मंथन से जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि सागर मंथन के दौरान पर्वत को मथने के लिए वासुकी नाग को माध्यम बनाया गया था। इन्हीं वासुकी नाग ने इस स्थान पर भगवान शिव की पूजा अर्चना की थी। यही कारण है कि यहाँ विराजमान भगवान शिव को बासुकीनाथ कहा जाता है

इसके अलावा मंदिर के विषय में एक स्थानीय मान्यता भी है। कहा जाता है कि यह स्थान कभी एक हरे-भरे वन क्षेत्र से आच्छादित था जिसे दारुक वन कहा जाता था। कुछ समय के बाद यहाँ मनुष्य बस गए जो अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दारुक वन पर निर्भर थे। ये मनुष्य कंदमूल की तलाश में वन क्षेत्र में आया करते थे। इसी क्रम में एक बार बासुकी नाम का एक व्यक्ति भी भोजन की तलाश में जंगल आया। उसने कंदमूल प्राप्त करने के लिए जमीन को खोदना शुरू किया। तभी अचानक एक स्थान से खून बहने लगा। बासुकी घबराकर वहाँ से जाने लगा तब आकाशवाणी हुई और बासुकी को यह आदेशित किया गया कि वह उस स्थान पर भगवान शिव की पूजा अर्चना प्रारंभ करे। बासुकी ने जमीन से प्रकट हुए भगवान शिव के प्रतीक शिवलिंग की पूजा अर्चना प्रारंभ कर दी, तब से यहाँ स्थित भगवान शिव बासुकीनाथ कहलाए।

भगवान भोले शंकर की महिमा अपरंमपार है। वे देवों के देव महादेव कहलाते हैं। वे व्याघ्र चर्म धारण करते हैं, नंदी की सवारी करते हैं, शरीर में भूत-भभूत लगाते हैं, श्माशान में वास करते हैं, फिर भी औघड़दानी कहलाते हैं। दिल से जो कुछ भी मांगों, बाबा जरूर देगे। जैसे भगवान भोले शंकर, वैसे उनके भक्तगण! बाबा हैं कि उन्हें किसी प्रकार के साज-बाज से कोई मतलब नहीं, और भक्त हैं कि दुनिया के सारे आभूषण और अलंकार उनपर न्यौछावर करने के लिये तत्पर! अपने आराध्य को प्रसन्न करने के लिये! भक्त और भगवान की यह ठिठोली ही तो भारतीय धर्म और संस्कृति का वैशिष्ट्य है। श्रावण मास में शिव पूजन के अलावा यहां की महाश्रृगांरी भी अनुपम है। कहते हैं कि कलियुग में वसुधैव कुटुम्बकम तथा सर्वे भवंतु सुखिनः जैसी उक्तियों को प्रतिपादित करने के लिये शिव की उपासना से बढ़कर अन्य कोई मार्ग नहीं हैं! और, शिव की उपासना की सर्वोत्तम विधि है – महाश्रृगांर का आयोजन! गंगाजल घी, दूध दही, बेलपत्र आदि शिव की प्रिय वस्तुओं को अर्पित कर उन्हें प्रसन्न करने का सबसे उत्तम उपाय। तभी तो साल के मांगलिक अवसरों पर भक्तगण बाबा बासुकीनाथ की महाश्रृगांरी और महामस्तकाभिषेक का आयोजन करते हैं। महाश्रृंगार के दिन बासुकीनाथ की शिव-नगरी नयी-नवेली दुलहन की तरह सज उठती है-मानों स्वर्ग पृथ्वी पर उतर आया हो। लगता है देव -लोक के सभी देवी— देवता पृथ्वी-लोक पर अवतरित हो गये हैं- भगवान भूतनाथ की रूप-सज्जा देखने के लिये। आये भी क्यों नहीं। देवों के देव महादेव की महाश्रृगांरी जो है।

शिव का स्वरूप विराट् है किंतु इनकी आराधना अत्यंत सरल भी है और कठिन भी। इनकी महाश्रृंगारी तो और भी कठिन। आखिर जगत के स्वामी के महाश्रृगांर की जो बात है। इस हेतु साधन जुटायें भी तो कैसे पर, भगवान की लीला की तरह भक्तों की भक्ति भी न्यारी होती है। शिव की आराधना में उनके श्रृंगार हेतु भक्त मानों अपनी सारी निष्ठा ही लगा देते हैं और, शिव की स्रष्टि की श्रेष्टतम् सामग्रियां लाकर शिव को ही समर्पित करतें हैं।

श्रावण माह प्रकृति और पर्यावरण की समृद्धि, नैसर्गिक सौन्द्रर्य के संवर्धन और संतुलित जीवन का संदेश देता है। नैसर्गिक सौन्द्रर्य के संवर्द्धन के लिये शिवाभिषेक के साथ धराभिषेक; धरती अभिषेक नितांत आवश्यक है। वास्तव में देखे तो श्रावण मास प्रकृति को सुनने, समझने और प्रकृतिमय जीवन जीने का संदेश देता है।

बासुकीनाथ मंदिर के पास ही एक तालाब स्थित है जिसे वन गंगा या शिवगंगा भी कहा जाता है। इसका जल श्रद्धालुओं के लिए दुमका स्थित बासुकीनाथ मंदिर का इलाका पूरे सावन में बोल-बम के नारों से गुंजायमान रहता है।

बासुकीनाथ पहुँचने के लिए निकटतम हवाईअड्डा देवघर है। यहां से 54 किलोमीटर की दूरी है। राँची का बिरसा मुंडा एयरपोर्ट है जो मंदिर से लगभग 280-300 किमी की दूरी पर है। इसके अलावा कोलकाता का नेताजी सुभास चंद्र बोस हवाईअड्डा भी यहाँ से लगभग 320 किमी की दूरी पर है। बासुकीनाथ से सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन दुमका है जो लगभग 25 किमी है और बासुकीनाथ से जसीडीह रेलवे स्टेशन की दूरी लगभग 50 किमी है। बासुकीनाथ, दुमका-देवघर राज्य राजमार्ग पर स्थित है। झारखंड के कई शहरों से बासुकीनाथ पहुँचने के लिए बस की सुविधा उपलब्ध है। बासुकीनाथ, राँची से लगभग 294 किमी और धनबाद से लगभग 130 किमी की दूरी पर स्थित है।

   कुमार कृष्णन

15 वें दलाई लामा की खोज के एलान पर आखिर चीन क्यों परेशान है!

                      रामस्वरूप रावतसरे

    तिब्बती बौद्ध समुदाय के सबसे बड़े धर्मगुरु दलाई लामा ने ऐलान किया है कि उनका पद उनके निर्वाण के बाद भी जारी रहेगा। उन्होंने कहा है कि उनके जाने के बाद भी दलाई लामा का पद जारी रहेगा और नए दलाई लामा की खोज उनका ट्रस्ट करेगा। उन्होंने यह भी साफ़ कर दिया है कि उनका पुनः अवतार किसी ‘आजाद देश’ में होगा। दलाई लामा ने यह घोषणा अपने 90वें जन्मदिन से पहले की हैं। दलाई लामा के बयान पर चीन बौखला भी गया है।

     धर्मगुरु दलाई लामा द्वारा 2 जुलाई, 2025 को इस संबंध में अपना बयान जारी कर उन्होंने कहा, “24 सितंबर 2011 को तिब्बती आध्यात्मिक परंपराओं के प्रमुखों की एक बैठक में, मैंने तिब्बत में और उसके बाहर रहने वाले साथी तिब्बतियों, तिब्बती बौद्ध धर्म के अनुयायियों के सामने एक बयान दिया था। इसमें मैंने पूछा था कि क्या दलाई लामा की पदवी जारी रहनी चाहिए। 1969 में ही मैंने स्पष्ट कर दिया था कि यह सम्बन्धित लोगों को तय करना होगा कि यह जारी रहे या नहीं।‘ उन्होंने 2011 में बताया था, “जब मैं लगभग 90 वर्ष का हो जाऊँगा तो मैं तिब्बती बौद्ध परंपराओं के लामाओं, तिब्बती जनता और तिब्बती बौद्ध धर्म का पालन करने वाले अन्य लोगों से विचार करूँगा कि दलाई लामा की संस्था जारी रहे या नहीं।,

धर्मगुरु दलाई लामा ने इस बयान में कहा कि उन्होंने कोई सार्वजनिक चर्चा नहीं की है कि लेकिन उनसे अलग-अलग जगह के तिब्बतियों और तिब्बती धर्म गुरुओं और यहाँ तक चीन के लोगों ने यह संस्था बनाए रखने का आग्रह किया है। उन्होंने कह़ा, ” इन सभी अनुरोधों के अनुसार, मैं पुष्टि कर रहा हूँ कि दलाई लामा की संस्था जारी रहेगी।‘

   सर्वाच्च तिब्बती बौद्ध धर्म गुरु ने यह भी स्पष्ट किया कि अगला दलाई लामा कौन होगा, इसकी प्रक्रिया 2011 में ही तय कर ली गई थी। उन्होंने कहा कि नए दलाई लामा का चुनाव करने की जिम्मेदारी केवल गादेन फोडरंग ट्रस्ट के लोगों पर होगी। यह दलाई लामा का कार्यालय है। दलाई लामा ने कहा कि इस प्रक्रिया में और कोई दखल नहीं दे सकता है। उन्होंने नए दलाई लामा के चुनाव को लेकर यह भी स्पष्ट किया है कि वह किसी ‘आजाद देश’ में पैदा होंगे। दलाई लामा ने यह ऐलान 6 जुलाई, 2025 को उनके 90वें जन्मदिन से पहले किया हैं।

तिब्बत से बौद्धों और दलाई लामा को बाहर करके 1950 के दशक में कब्जा करने वाला चीन इस ऐलान के बाद भड़क गया है। उसने इसको लेकर एक बयान जारी किया है। चीन ने कहा है कि वर्तमान दलाई लामा के उत्तराधिकारी की नियुक्ति को चीनी सरकार से अनुमति लेनी होगी। चीन ने यह भी कहा है कि नए दलाई लामा की पहचान भी उसी के यहाँ की जाएगी। चीनी विदेश मंत्रालय ने कहा, “दलाई लामा, पंचेन लामा और अन्य महान बौद्ध हस्तियों के पुनर्जन्म का चयन सोने के कलश से लॉटरी निकालकर किया जाना चाहिए और चीन की केन्द्रीय कमिटी द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए।‘  चीन ने एक और बयान जारी किया है जिसमें  उसने एक एक्सपर्ट ली देचेंग के हवाले से कहा है कि कभी भी पवित्र बौद्ध पदवियों का पुनर्जन्म उनके जीवित रहते डिसाइड नहीं होता। उसने कहा है कि यह दलाई लामा के मामले में सीधे सोने के बॉक्स से लॉटरी निकाल कर जारी होता है। दलाई लामा को चुनने और उनकी नियुक्ति का क्या इतिहास रहा है, इसका पूरा इतिहास बखान करते हुए चीन ने 14वें और वर्तमान दलाई लामा का विरोध किया है।

जानकारी के अनुसार वर्तमान दलाई लामा 1950 के बाद तिब्बत से भारत आ गए थे। उनके साथ हजारों तिब्बती भी भारत आ गए थे। दलाई लामा तिब्बत के प्रमुख माने जाते हैं लेकिन चीन के कब्जे के खिलाफ जब तिब्बती सेना नहीं लड़ पाई, तो उन्होंने भारत आने का फैसला लिया और हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में तिब्बत की निर्वासित सरकार बनाई। वह तिब्बत को चीन का हिस्सा नहीं मानते और कम्युनिस्ट सरकार की तिब्बत की संस्कृति मिटाने के प्रयासों के खिलाफ खड़े रहे हैं। तिब्बत की बौद्ध जनता का बड़ा हिस्सा उनके वहाँ से आने के 7 दशकों के बाद भी उनके प्रति समर्पित हैं। चीन, तिब्बत को अपना हिस्सा बताता है और दलाई लामा उसका विरोध करते हैं।

दलाई लामा ने चीन की नास्तिक सरकार से समझौता करने से इनकार भी कर दिया था। ऐसे में वहाँ की कम्युनिस्ट सरकार उनके प्रति जहर उगलती रहती है। तिब्बत के लोगों को अपने पाले में करने के लिए वह दलाई लामा के विरोध में खड़ी है। चीन ने तिब्बत में अपना प्रभाव जमाने को एक फर्जी पंचेन लामा भी नियुक्त किया हुआ है। पंचेन लामा तिब्बती बौद्ध धर्म में दूसरी सबसे बड़ी पदवी है। वर्ष 1995 में 6 वर्ष के एक बच्चे को दलाई लामा ने 11वां पंचेन लामा घोषित किया था। चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने उन्हें किडनैप कर लिया और अपना आदमी उनकी जगह नियुक्त कर दिया। दलाई लामा की नियुक्ति के मामले में भी चीन यही करना चाहता था लेकिन उन्होंने अब पुनः अवतार की बात करके चीन की नींद उड़ा दी है। इसलिए वह अलग-अलग तरह से प्रोपेगेंडा कर रहा है और उन्हें झुठलाने का प्रयास कर रहा है।

जानकारी के अनुसार तिब्बती बौद्ध धर्म में अब तक 14 दलाई लामा हुए हैं। सारे दलाई लामा बोधिसत्व का अवतार माने जाते हैं। दलाई लामा को खोजने के लिए एक प्रक्रिया पहले से ही निर्धारित है। यह प्रक्रिया दलाई लामा की मृत्यु के बाद चालू होती है। मृत्यु के बाद दुख का एक काल होता है जिसके बाद नए दलाई लामा को ढूंढा जाता है। यह काम तिब्बती बौद्ध धर्म के बड़े धर्मगुरु या लामा करते हैं। उनका एक समूह इसके लिए संकेतों का सहारा लेते हैं। नए दलाई लामा की तलाश के लिए, निवर्तमान दलाई लामा के अंतिम संस्कार के दौरान उनके सिर की दिशा, उनकी मृत्यु के समय उनके देखने की दिशा समेत तमाम ऐसे संकेत इस्तेमाल किए जाते हैं।

    इसके बाद उस दिशा में तलाश के लिए बौद्ध धर्मगुरु और बाकी विद्वान जाते हैं। सामान्यतः, इन दिशाओं में और संकेत मिलते हैं तथा इसके बाद कुछ बच्चों को इस प्रक्रिया में सेलेक्ट किया जाता है। हालाँकि, असल दलाई लामा पहचानने के लिए मृत हुए दलाई लामा से जुड़ी बातें पूछी जाती हैं और उसने जुड़ी चीजें दिखाई जाती हैं। बौद्ध धर्मगुरु पूरी संतुष्टि के बाद ही यह ऐलान करते हैं कि नए दलाई लामा का आगमन हो चुका है। दलाई लामा के मिलने के बाद उनकी शिक्षा दीक्षा होती है और उनकी ताजपोशी भी होती है। वर्तमान दलाई लामा को वर्ष 1937 में तिब्बत में ऐसी ही एक प्रक्रिया में ढूँढा गया था।

    वर्तमान दलाई लामा का जन्म 1935 में हुआ था। दलाई लामा के माता-पिता छोटे किसान थे जो ज़्यादातर जौ, अनाज और आलू उगाते थे। उनके पिता मध्यम बहुत जल्दी गुस्सा हो जाते थे।

दलाई लामा के अनुसार, “मुझे याद है कि एक बार मैंने उनकी मूंछें खींची थीं और मेरी इस हरकत के लिए मुझे बहुत मारा गया था, फिर भी वे एक दयालु व्यक्ति थे और उन्होंने कभी किसी से द्वेष नहीं रखा।‘ दलाई लामा 7 भाई-बहन थे। दलाई लामा बताते हैं, “किसी को भी इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि मैं एक साधारण बच्चे के अलावा कुछ और हो सकता हूँ। यह अकल्पनीय था कि एक ही परिवार में एक से ज़्यादा तुल्कु (लामा) पैदा हो सकते हैं और निश्चित रूप से मेरे माता-पिता को इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि मुझे दलाई लामा घोषित किया जाएगा।‘

उनकी तलाश के लिए 1937 में एक पार्टी भेजी गई थी। इस दौरान तिब्बती सरकार द्वारा दलाई लामा के नए अवतार को खोजने के लिए भेजा गया एक खोज दल कुंबुम बौद्ध मठ में पहुँचा। यह लोग कई संकेतों के आधार पर यहाँ पहुँचे थे। इनमें से एक उनके पूर्ववर्ती, 13वें दलाई लामा की मौत के बाद मिला था। 13वें दलाई लामा थुप्तेन ग्यात्सो की शव ममीकरण प्रक्रिया के दौरान, सिर दक्षिण की ओर से उत्तर-पूर्व की ओर मुड़ा हुआ पाया गया। इसके बाद एक वरिष्ठ को एक स्वप्न आया।

इस सपने में उन्होंने दक्षिणी तिब्बत में पवित्र झील, ल्हामोई ल्हात्सो के पानी में तिब्बती अक्षरों आह, का और मा को तैरते हुए देखा। उन्हें इसके बाद एक तीन मंजिला इमारत और एक रास्ता भी दिखा। एक और सपने में उन्हें अजीब सी नालियों वाला एक खर दिखा। यह पार्टी सपने में दिखे पहले अक्षर ‘अह’ के चलते आमदो राज्य गई। इसके बाद दूसरे अक्षर ‘क’ के चलते कुम्बुम मठ गई। इसके बाद वह आसपास के गाँवों में गए जहाँ उन्हें वर्तमान दलाई लामा का घर दिखा जो अजीब तरह की नालियों वाला था।

इस सर्च पार्टी में शामिल लोगों ने इसके बाद वर्तमान दलाई लामा, जो तब 2 वर्ष के थे, को ध्यान से देखा और उनकी हरकतें नोटिस की। कुछ दिन बाद यह सर्च पार्टी वापस आई और उन्होंने 13वें दलाई लामा की चीजें भावी दलाई लामा को दिखाई। उन्होंने तुरंत ही यह पहचान ली, और कहा कि वह उनके हैं। इसके कुछ वर्षों के बाद उन्हें ल्हासा ले जाया गया और बौद्ध धर्म की शिक्षाएँ दी गईं।

चीन ने जिस प्रकार तिब्बत पर अनाधिकृत रूप से कब्जा किया है। उसी प्रकार वह तिब्बती लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता पर भी अतिक्रमण कर तिब्बत की सांस्कृतिक एवं धार्मिक विरासत को भी खत्म करने की सोच रखता है। इसीलिए वह 15 वें दलाईलामा की चयन प्रक्रिया को गलत बताकर विरोध कर रहा है।

रामस्वरूप रावतसरे

जनगणना में जाति के निहितार्थ

डॉ घनश्याम बादल

जनसंख्या दिवस पर चारों तरफ से एक जैसी ही आवाज़ें भारत में चारों तरफ़ से उठती हैं कि जैसे भी हो, सुरसा के मुख सी बढ़ती जनसंख्या पर लगाम लगे । बेशक, भारत में जनविस्फोट एक बड़ी समस्या है और बावजूद सारे उपाय के जनवृद्धि दर पर नियंत्रण दुष्कर सिद्ध हो रहा है ।

   आज़ादी के बाद से ही जनसंख्या हैरतअंगेज तेजी से बढ़ी है। ‌बेतहाशा बढ़ती हुई जनसंख्या ने अच्छी खासी विकास दर को भी बेमानी सिद्ध कर दिया है। 

  अशिक्षा, गरीबी, रूढ़िवादिता, धार्मिक कट्टरता और अपने संप्रदाय विशेष को हावी करने की कुटिल इच्छा जैसे कितने ही कारण हैं जनसंख्या के निरंतर बढ़ते जाने के । 1947 में 36 करोड़ लोगों का देश महज 78 साल में ही 143 करोड़ जनसंख्या वाले राष्ट्र में बदल गया यानि आज़ादी के बाद भारत की जनसंख्या 3 गुना से भी ज़्यादा बढ़ी । 

    प्रतिवर्ष न्यूजीलैंड व ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की कुल जनसंख्या से भी ज़्यादा लोग हमारे देश की जनसंख्या में जुड़ रहे हैं । स्वाभाविक रूप से इससे खाने, पहनने और रहने की समस्याएं विकराल रूप लेती गईं। राष्ट्रीय सरकारों ने जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न समस्याओं पर ध्यान तो दिया मगर जो प्रतिबद्धता चाहिए थी वह नज़र नहीं आई। इसके पीछे  सबसे बड़ी वजह रही देश के एक खास वर्ग का वोट पैकेज में तब्दील हो जाना। 

1911 के बाद 1921 में होने वाली जनगणना चार साल पिछड़ चुकी है लेकिन जल्दी ही भारत में एक बार फिर से जनगणना शुरू होने वाली है । विपक्ष और बिहार में नीतीश कुमार द्वारा बार-बार की जाने वाली मांग के बाद केंद्र सरकार ने भी स्वीकार कर लिया है कि इस बार इस जनगणना में लोगों का जातिगत ब्यौरा भी दर्ज किया जाएगा ।

     जातिगत ब्यौरे का इस्तेमाल कैसे किया जाएगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा लेकिन फिलहाल आशंकाएं हैं कि यदि इस आंकड़े का उपयोग राजनीतिक लक्ष्य साधना के लिए किया गया तो फिर ‘सबका साथ, सबका विकास’ जैसा मुद्दा पीछे छूट जाएगा एवं जातिगत जनगणना एक राजनीतिक औजार बनकर रह जाएगी। 

   राजनीति के एक खास वर्ग द्वारा लंबे समय से आरोप लगते रहे हैं कि कभी धर्मग्रंथों का हवाला देकर तो कभी इस्लामिक स्टेट के सपने दिखाकर वर्ग विशेष के कट्टर धार्मिक नेता बरगलाते हैं और जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि जारी रहती है । हालांकि शिक्षा एवं जागरूकता बढ़ने के साथ जहां उच्च वर्गों में ‘हम दो हमारे दो’ के नारे से जन जागृति आई ,वहीं अब तो ‘बच्चा एक ही अच्छा’ के सिद्धांत पर एक बहुत बड़ा वर्ग चल रहा है. साफ सी बात है इस वर्ग ने जनसंख्या की वृद्धि पर काफी हद तक नियंत्रण कर लिया है हालांकि समाज के भी निचले तबकों में अभी वह जागृति देखने को नजर नहीं आती जो होनी चाहिए । जहां भारत क्षेत्रफल के हिसाब से दुनिया में सातवें नंबर पर है, वहीं जनसंख्या की दृष्टि से शिखर पर है। अब यह समय की मांग है कि सरकारों को निष्पक्ष तरीके से बिना डरे पूरी प्रतिबद्धता के साथ पूरे देश में जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू कर ही देना चाहिए । 

   बढ़ती हुई जनसंख्या के दृष्टिगत जनसंख्या नियंत्रण कानून के अंतर्गत इस प्रकार के प्रावधानों का होना आवश्यक हो कि एक सीमित संख्या तक परिवार बढ़ने पर ही लोगों को सब्सिडी, लोन या राशन आदि की सुविधा मिले। निर्धारित संख्या से ऊपर संतान उत्पत्ति पर प्रतिबंधात्मक प्रावधान हों ।

   यह सच है कि ऐसी नीति एकदम लागू नहीं की जा सकती और  इसमें धार्मिक एवं सामाजिक प्रतिरोध भी आड़े आएगा । तब जनसंख्या नियंत्रण कानून को चरण दर चरण लागू करने की नीति अपनाई जा सकती है । जिस प्रकार से कई दूसरे देशों में संतान उत्पत्ति के नियम हैं उसी प्रकार से देश की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए हमारी सरकारों को भी ऐसे प्रावधान अस्तित्व में लाने ही चाहिएं।

  तार्किक तो यह होगा कि जबरदस्ती कानून थोपने के बजाय प्रेरक तरीके से जन जागरण अभियान चलाए जाएं खास तौर पर कम शिक्षित या अशिक्षित एवं धार्मिक अंधविश्वास से अधिक प्रभावित लोगों के लिए ऐसे धार्मिक संस्थानों की सहायता ली जा सकती है जो उन्हें बताएं कि संतान केवल ईश्वर की देन नहीं है अपितु यह एक शारीरिक प्रजनन क्षमता का परिणाम है। उन्हें यह समझाया जाए कि जितने अधिक बच्चे होंगे उसी अनुपात में उन्हें उतना ही कम खाना-पीना,  पहनना एवं रहने का स्थान उपलब्ध हो पाएगा जिसके परिणाम स्वरूप उनका जीवन स्तर भी निम्न श्रेणी का ही रहेगा। 

     स्कूलों एवं कॉलेजों तथा दूसरे प्रशिक्षण संस्थानों में भी विभिन्न पाठ्यक्रमों के माध्यम से जन वृद्धि के दुष्परिणाम एवं उन्हें रोकने की व्यवहारिक उपायों की जानकारी दी जानी जरूरी है ।  यह कार्य केवल सरकारी स्कूलों वह कॉलेजों में ही नहीं अपितु धार्मिक स्कूलों व महाविद्यालय में भी लागू किया जाए । साथ ही साथ कम बच्चे पैदा करने वाले लोगों के लिए मुफ्त शिक्षा एवं अन्य सुविधाएं बढ़ाई जानी चाहिए इससे भी एक सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। यदि सरकारों में प्रतिबद्धता हो तो बिजली, पानी जैसी आवश्यक आपूर्ति वाली वस्तुओं की दरें भी एकल परिवारों के सदस्यों की संख्या के आधार पर तय  करने में भी कोई बुराई नहीं है । 

   यदि जनसंख्या नियंत्रण पर ढुलमुल नीति जारी रही और प्रतिबंधात्मक व नकारात्मक प्रेरणा देते उपाय नहीं किए गए तो देश में प्रति व्यक्ति आय, प्रति व्यक्ति उपलब्ध संसाधन, रोटी, कपड़ा, मकान और क्रय क्षमता जैसी चीजों में हम नीचे की ओर खिसकते चले जाएंगे । यदि हमें गर्त में जाने से बचना है तो जनसंख्या पर नियंत्रण करना ही होगा, कैसे भी और किसी भी तकनीक से, उसके लिए चाहे जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाना पड़े या लोगों में जन जागरण करके एक चेतना लानी पड़े अथवा कुछ और करना पड़े ।

   आज हम उस स्थिति में खड़े हैं जहां एक ओर देश को जहां जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण करना पड़ेगा, वहीं ऐसी नीतियां भी बनानी पड़ेगी जिसमें जनसंख्या एक बोझ नहीं बल्कि ताकत बनकर सामने आए. चीन का उदाहरण हमारे सामने है. हम इस प्रकार की योजनाएं चलाएं जिसमें देश का प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी तरह से दक्षता पूर्वक देश के विकास एवं उन्नयन में निरंतर सहयोग दे सके तो जनसंख्या एक बोझ नहीं, ताकत बन जाएगी। 

  बुद्धिमता इसी में है कि जो अभी दुनिया में हैं, उन्हें संभाला जाए, उनके जीवन स्तर को उच्च किया जाए, लोगों में नव चेतना एवं जागृति पैदा की जाए और जिन्हें दुनिया में आना है उनके आने को नियंत्रित करके उनके लिए एक बेहतर संसार और बेहतर देश बनाने की ओर कदम बढ़ाया जाए।

साथ ही साथ सह भी तय करना होगा कि जहां जनगणना के आंकड़े यथार्थपरक हों, वहीं उसमें जाति का ब्यौरा जोड़ने के बाद इस बात की भी पुख्ता व्यवस्था होनी चाहिए कि इन आंकड़ों का उपयोग राजनीतिक स्वार्थसिद्धि के लिए नहीं किया जाएगा अन्यथा राजनीतिक दलों के हाथ में यह एक ऐसा हथियार लग जाएगा जो देश में विभेदीकरण को और अधिक बल देगा तथा इससे जाति संप्रदाय एवं धर्म तथा क्षेत्र के नाम पर जनसंघर्ष बढ़ने की संभावनाएं भी बलवती होंगी।

डॉ घनश्याम बादल 

देश में नशे के सौदागरों का बढ़ता जाल

भारत में नशे का संकट अब व्यक्तिगत बुराई नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आपदा बन चुका है। ड्रग माफिया, तस्करी, राजनीतिक संरक्षण और सामाजिक चुप्पी—सब मिलकर युवाओं को अंधकार में ढकेल रहे हैं। स्कूलों से लेकर गांवों तक नशे की जड़ें फैल चुकी हैं। यह सिर्फ स्वास्थ्य नहीं, सोच और सभ्यता का संकट है। समाधान केवल कानून से नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना, संवाद, शिक्षा और सामाजिक नेतृत्व से आएगा। अगर आज हम नहीं जगे, तो कल हम एक खोई हुई पीढ़ी का मातम मनाएंगे।

 डॉ. सत्यवान सौरभ

भारत आज एक दोहरी लड़ाई लड़ रहा है—एक तरफ तकनीक और विकास की उड़ान है, और दूसरी ओर समाज के भीतर नशे का अंधकार फैलता जा रहा है। नशा अब सिर्फ एक व्यक्तिगत बुराई नहीं रह गया, बल्कि यह एक संगठित उद्योग, एक अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र और एक सामाजिक महामारी का रूप ले चुका है। देश के गाँव से लेकर शहर तक, स्कूलों से लेकर कॉलेजों तक, और अमीरों की पार्टियों से लेकर गरीबों की गलियों तक, नशे के सौदागर अपना जाल फैलाए बैठे हैं।

सबसे चिंताजनक बात यह है कि अब यह जाल केवल शराब या गांजे तक सीमित नहीं रहा। सिंथेटिक ड्रग्स, केमिकल नशे, हेरोइन, ब्राउन शुगर, कोकीन जैसे घातक पदार्थ अब भारत के युवाओं के जीवन को खोखला कर रहे हैं। पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली, मणिपुर, गोवा जैसे राज्यों में तो यह जहर सामाजिक ताने-बाने को चीर चुका है। एक ओर सरकार “युवाओं को स्किल्ड बनाने” की बात करती है, दूसरी ओर लाखों नौजवान नशे की गिरफ्त में अपनी ऊर्जा, जीवन और भविष्य गंवा रहे हैं।

नशे के पीछे एक पूरा तंत्र सक्रिय है—पैसे के लिए इंसानियत का सौदा करने वाले ड्रग माफिया, पुलिस और राजनीति में मिलीभगत, विदेशों से आने वाली तस्करी की खेप, और स्थानीय स्तर पर युवाओं को इस दलदल में धकेलने वाले एजेंट। ये सब मिलकर देश को अंदर से खोखला कर रहे हैं। यह कोई संयोग नहीं कि हर बड़ी ड्रग बरामदगी के पीछे किसी न किसी रसूखदार का नाम सामने आता है, लेकिन मामला वहीं दबा दिया जाता है।

एक वर्ग ऐसा भी है जो नशे को “लाइफस्टाइल” का हिस्सा मानने लगा है। ऊंचे दर्जे की पार्टियों में ड्रग्स फैशन बन चुकी है। वहां कोई इसे सामाजिक अपराध नहीं मानता, बल्कि ‘कूलनेस’ का प्रतीक बना दिया गया है। वहीं दूसरी तरफ गरीब युवा—जो बेरोजगारी, हताशा और टूटी हुई उम्मीदों के शिकार हैं—उन्हें नशा एक अस्थायी राहत की तरह दिखता है। दोनों ही हालात समाज को विनाश की ओर ले जा रहे हैं।

स्कूलों और कॉलेजों में नशा जिस तरह से प्रवेश कर चुका है, वह आने वाली पीढ़ियों के लिए एक गहरी चेतावनी है। कई रिपोर्टें बताती हैं कि स्कूल के बच्चे तक ड्रग्स की चपेट में हैं। छोटे-छोटे पाउच, चॉकलेट जैसे पैकेट्स, खुशबूदार पाउडर—इनके ज़रिए नशा परोसा जा रहा है। और जब बच्चे इसकी गिरफ्त में आते हैं, तो परिवार, शिक्षक और समाज—सभी असहाय हो जाते हैं।

भारत के संविधान ने हमें एक ‘स्वस्थ राष्ट्र’ का सपना दिया था, लेकिन जिस देश के युवा ही बीमार और नशे में हों, उस राष्ट्र की कल्पना कैसे साकार होगी? युवा ही देश की रीढ़ होते हैं—यदि वही झुक जाएं, टूट जाएं या खोखले हो जाएं, तो देश भी खड़ा नहीं रह सकता।

नशा केवल शरीर को नहीं, आत्मा को भी मारता है। यह निर्णय क्षमता को खत्म करता है, रिश्तों को तोड़ता है, अपराध को जन्म देता है और समाज में हिंसा और उदासी का माहौल फैलाता है। नशे की लत में पड़ा व्यक्ति अपने परिजनों के लिए बोझ बन जाता है। वह चोरी करता है, झूठ बोलता है, आत्महत्या तक कर लेता है।

यह एक मात्र स्वास्थ्य या क़ानून व्यवस्था की समस्या नहीं है—यह नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संकट है।

माफिया नेटवर्क में पुलिस और राजनीतिक संरक्षण की बात करना कोई षड्यंत्र नहीं है, बल्कि कई बार कोर्ट और जांच एजेंसियों के रिकॉर्ड में यह स्पष्ट रूप से सामने आ चुका है। NDPS एक्ट (Narcotic Drugs and Psychotropic Substances Act) जैसे कानून मौजूद हैं, लेकिन इनका क्रियान्वयन बेहद कमजोर और पक्षपाती है। कई मामलों में पकड़ में आए ड्रग तस्करों को तकनीकी खामियों के चलते छोड़ दिया जाता है। वहीं गरीब या छोटे उपयोगकर्ता जेल में सड़ते हैं।

सरकारें अक्सर ड्रग्स के खिलाफ “जागृति अभियान”, “स्लोगन प्रतियोगिता”, या “परेड” जैसे प्रतीकात्मक कार्यक्रम करती हैं, लेकिन सवाल है कि क्या इससे कुछ बदलता है? ज़रूरत है एक मजबूत नीति, ईमानदार क्रियान्वयन और सबसे बड़ी बात—राजनीतिक इच्छाशक्ति की।

नशे की तस्करी अक्सर सीमावर्ती इलाकों से होती है—पंजाब-पाकिस्तान सीमा, मणिपुर-म्यांमार सीमा, गुजरात समुद्री तट और मुंबई बंदरगाह जैसे स्थानों से। इन इलाकों में हाई अलर्ट की जरूरत है, लेकिन अक्सर सुरक्षा तंत्र या तो लापरवाह होता है या भ्रष्ट। पिछले कुछ वर्षों में टनों की मात्रा में ड्रग्स पकड़े जाने के बावजूद, ड्रग लॉर्ड्स पर कार्यवाही न के बराबर हुई है। इससे अपराधियों का मनोबल और बढ़ता है।

इसमें मीडिया की भूमिका भी कमज़ोर रही है। कुछ चुनिंदा मामलों में मीडिया टीआरपी के लिए “ड्रग्स ड्रामा” दिखाता है, लेकिन अधिकतर समय वह इस गंभीर मुद्दे को उपेक्षित छोड़ देता है। और जब बॉलीवुड जैसी चमकती दुनिया में ड्रग्स की चर्चा होती है, तो उसे भी ‘गॉसिप’ बना दिया जाता है, असल सामाजिक विमर्श नहीं।

इस पूरे संकट का सबसे दुखद पहलू यह है कि इससे जुड़ा व्यक्ति अकेला नहीं मरता—उसके साथ पूरा परिवार, और धीरे-धीरे एक पीढ़ी मुरझा जाती है। मां-बाप अपनी औलाद को नशे में खोते हैं, भाई-बहन रिश्तों की राख में बदल जाते हैं, और गांव-शहर अपने युवाओं को खोकर बस मौन शोक में डूब जाते हैं।

समाधान केवल दवाओं या जेलों में नहीं है। समाधान है—सशक्तिकरण में, संवाद में, शिक्षा में, और सामूहिक सामाजिक प्रयास में।

हर पंचायत, हर स्कूल, हर मोहल्ले में नशे के खिलाफ ईमानदार मुहिम चलानी होगी। युवा मंडलों, महिला समूहों और शिक्षकों को इस मुद्दे पर नेतृत्व देना होगा। समाज को यह समझना होगा कि नशा केवल “व्यक्ति की कमजोरी” नहीं है, बल्कि यह एक षड्यंत्र है—जिसका शिकार पूरा समाज बन सकता है।

हमें ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनानी होगी जो युवाओं को केवल परीक्षा पास करने के लिए नहीं, बल्कि जीवन जीने की समझ दे। जीवन के संघर्षों से लड़ने का हौसला दे, असफलता को स्वीकार करने की शक्ति दे और आत्म-नियंत्रण का संस्कार दे।

माता-पिता को भी बच्चों की मानसिक स्थिति, व्यवहार और संगति पर सतर्क रहना होगा। संवाद और विश्वास के बिना कोई समाधान संभव नहीं। डर या दंड से बच्चे छिपते हैं, लेकिन संवाद से खुलते हैं।

और अंततः, जब तक समाज नशे को “अपराध” की तरह नहीं, बल्कि एक “आपदा” की तरह देखेगा—जिसमें पीड़ित को मदद और माफिया को सज़ा मिलनी चाहिए—तब तक यह जहर फैलता रहेगा।

नशा एक धीमा ज़हर है—जो शरीर से पहले सोच को मारता है। आज ज़रूरत है उस सोच को जगाने की, जो कहे—नशा छोड़ो, जीवन चुनो।

सावन मनभावन: भीगते मौसम में साहित्य और संवेदना की हरियाली

सावन केवल एक ऋतु नहीं, बल्कि भारतीय जीवन, साहित्य और संस्कृति में एक गहरी आत्मिक अनुभूति है। यह मौसम न केवल धरती को हरा करता है, बल्कि मन को भी तर करता है। लोकगीतों, झूले, तीज और कविता के माध्यम से सावन स्त्रियों की अभिव्यक्ति, प्रेम की प्रतीक्षा और विरह की पीड़ा का स्वर बन जाता है।

साहित्यकारों ने इसे कभी श्रृंगार में, कभी विरह में, तो कभी प्रकृति के प्रतीक रूप में देखा है। लेकिन आज का आधुनिक मन सावन को केवल मौसम समझता है, महसूस नहीं करता। यह लेख सावन के सांस्कृतिक, साहित्यिक और भावनात्मक पक्षों को उजागर करते हुए हमें स्मरण कराता है कि भीगना केवल शरीर से नहीं, आत्मा से भी ज़रूरी है।

सावन हमें सिखाता है — प्रकृति से जुड़ो, भीतर झाँको, और संवेदना को जीयो।

 डॉ सत्यवान सौरभ

सावन आ गया है। वर्षा ऋतु की पहली दस्तक के साथ ही जब बादल घिरते हैं और बूँदें धरती को चूमती हैं, तो केवल पेड़-पौधे ही नहीं, मनुष्य का अंतर्मन भी हरा होने लगता है। यह महीना केवल वर्षा का नहीं, स्मृति, संवेदना और सृजन का है। सावन जब आता है, तो कविता झरने लगती है, लोकगीत गूंजने लगते हैं, पायलें छनकने लगती हैं और रूठा प्रेम भी नमी में घुलकर लौट आता है।

🌿 सावन – एक ऋतु नहीं, एक मनःस्थिति है

भारतीय मानस में ऋतुएँ केवल मौसम नहीं, जीवन के प्रतीक रही हैं। वसंत प्रेम का, ग्रीष्म तपस्या का और सावन प्रतीक्षा का महीना बनकर आता है। सावन में अक्सर प्रेयसी अकेली होती है, प्रियतम किसी दूर देश गया होता है, और प्रतीक्षा के बीच में विरह का काव्य जन्म लेता है। इसलिए साहित्य में सावन का आगमन केवल प्राकृतिक नहीं, आत्मिक घटना है।

“नइहर से भैया बुलावा भेजवा दे”, “कजरारे नयनवा काहे भर आईल”, जैसे कजरी गीत सिर्फ आवाज नहीं, पीड़ा का पानी बनकर झरते हैं।

🌦️ लोक संस्कृति में सावन का रंग

सावन का महीना भारतीय लोक परंपरा का सबसे रंगीन अध्याय है। कहीं तीज मनाई जा रही होती है, कहीं झूले पड़ रहे होते हैं, कहीं मेंहदी लग रही होती है तो कहीं बहनों के लिए राखी के गीत तैयार हो रहे होते हैं। यह महीना नारी मन की सृजनात्मक उड़ान का समय होता है। दादी-नानी की कहानियाँ, माँ के गीत, और बेटियों की प्रतीक्षा – सब कुछ सावन की हवा में घुल जाता है।

हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और राजस्थान जैसे राज्यों में कजरी, झूला गीत, सावनी और हरियाली तीज लोककाव्य का रूप ले लेती हैं। ये गीत सिर्फ मनोरंजन नहीं, महिला सशक्तिकरण के सांस्कृतिक दस्तावेज हैं — जहाँ स्त्रियाँ अपनी भावनाएँ, शिकायतें, प्रेम और विद्रोह तक गा डालती हैं।

☁️ साहित्य में सावन: बरसते बिम्ब और प्रतीक

साहित्यकारों ने सावन को केवल प्रकृति-चित्रण के लिए ही नहीं, बल्कि मानवीय भावनाओं के प्रतिनिधि के रूप में देखा है।

महादेवी वर्मा के शब्दों में सावन अकेलेपन की पीड़ा है:

“नीर भरी दुख की बदली”।

मैथिलीशरण गुप्त ने सावन को श्रृंगार रस में देखा –

“चपला की चंचल किरणों से, छिटकी वर्षा की बूँदें”

गुलज़ार की कविता हो या नागार्जुन की भाषा, सावन हर किसी के लिए कुछ कहता है। किसी के लिए वो टूटे रिश्तों की याद है, किसी के लिए माँ की गोद में बिताया बचपन, और किसी के लिए प्रेम की भीगी पहली रात।

🌧️ भीतर की बारिश को समझना जरूरी है

आज जब हम एसी कमरों में बैठे, मोबाइल पर मौसम का अपडेट पढ़ते हैं, तब सावन की असली ख़ुशबू कहीं खो जाती है। हमने बारिश को केवल ट्रैफिक की समस्या बना दिया है। सावन अब इंस्टाग्राम स्टोरी बनकर रह गया है।

पर क्या हमने कभी भीतर की बारिश को महसूस किया है?

वह बारिश जो हमें धो देती है — अहंकार से, शुष्कता से, थकान से। सावन हमें फिर से नम करता है — हमें इंसान बनाता है। प्रकृति की गोद में लौटने का आमंत्रण है ये मौसम।

🪶 आज के कवियों के लिए सावन क्या है?

आज के कवियों को सावन का सिर्फ चित्रण नहीं करना चाहिए, बल्कि उसके भीतर छिपी विसंगतियों को भी पकड़ना चाहिए। जब ग्रामीण भारत के खेतों में पानी नहीं और शहरों में जलभराव है, तब यह असमानता भी साहित्य का विषय बननी चाहिए।

कविता को झूले और कजरी के अलावा किसानों के अधूरे सपनों, बर्बाद फसलों, और जलवायु परिवर्तन के संकट को भी शब्द देना होगा।

🎭 सावन और रंगमंच: नाट्य का मौसम

सावन केवल काव्य का विषय नहीं, रंगमंच और लोकनाट्यों का भी प्रिय समय है। उत्तर भारत के कई हिस्सों में इस मौसम में झूला महोत्सव, सावनी गीत प्रतियोगिताएँ, लोकनाट्य और कविता गोष्ठियाँ आयोजित होती हैं।

यह मौसम कलाकारों के पुनर्जन्म जैसा होता है। उनके रंग, उनके स्वर और उनके मंच, सभी में नमी आ जाती है — जो सीधे दर्शक के हृदय तक पहुँचती है।

🧠 आधुनिक मन और सावन की चुनौती

आज का मानव सावन को देख तो रहा है, पर महसूस नहीं कर रहा। उसका मन इतनी सूचनाओं, मशीनों और तथ्यों में उलझ गया है कि वह बारिश को केवल मौसम विभाग के पूर्वानुमान के रूप में लेता है।

पर सावन को समझना है तो, खिड़की खोलनी होगी – मन की भी और कमरे की भी।

बूँदों को केवल त्वचा पर नहीं, आत्मा पर भी गिरने देना होगा।

🌱 प्रकृति का मौसमी संदेश

सावन हमें याद दिलाता है कि विकास और विनाश के बीच संतुलन जरूरी है।

बारिश से पहले आई भीषण गर्मी, जल संकट, जंगलों में आग — यह सब बताता है कि हमने प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ा है।

सावन की बारिश इस बिगाड़ को थोड़ी राहत देती है, पर चेतावनी भी देती है कि अगर हमने अब भी नहीं सुधारा, तो सावन केवल स्मृति बनकर रह जाएगा।

📜 समाप्ति की ओर एक सादगी भरा संदेश

सावन को आने दो।

उसे भीतर आने दो।

जब वह बूँद बनकर गिरे, तो केवल छतों पर नहीं, तुम्हारी कविता में भी गिरे।

जब वह झूला बनकर डोले, तो केवल पेड़ों पर नहीं, तुम्हारी कल्पना में भी डोले।

यह मौसम मन का है, बस उसे पहचानने की ज़रूरत है।

बचपन के वे झूले, माँ के लगाए मेंहदी के रंग, छत पर रखे बर्तन, और खेत में दौड़ता नंगाधड़ंग बच्चा — सब अब भी हमारे भीतर कहीं जिंदा हैं। उन्हें ज़रा सावन में बाहर आने दो।

🟠 निवेदन:

जब भी बादल घिरें, मोबाइल मत उठाना, खिड़की खोल लेना।

और मन करे तो एक पुराना गीत गा लेना –

“कभी तो मिलने आओ सावन के गीत गाने…”

– डॉo सत्यवान सौरभ

ब्रिक्स में भारत का बढ़ता वर्चस्व संतुलित दुनिया का आधार

0

-ललित गर्ग –
ब्राजील के रियो डी जनेरियो में रविवार को हुए 17वें ब्रिक्स सम्मेलन में सदस्य देशों ने 31 पेज और 126 पॉइंट वाला एक जॉइंट घोषणा पत्र जारी किया। इसमें पहलगाम आतंकी हमले और ईरान पर इजराइली हमले की निंदा की गई। इससे पहले 1 जुलाई को भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की मेंबरशिप वाले क्वाड ग्रुप के विदेश मंत्रियों की बैठक में भी पहलगाम हमले की निंदा की गई थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस समिट में पहलगाम की आतंकी घटना पर कठोर शब्दों में कहा कि पहलगाम आतंकी हमला सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि पूरी इंसानियत पर चोट है। आतंकवाद की निंदा हमारा सिद्धांत होना चाहिए, सुविधा नहीं। मोदी ने शांति एवं सुरक्षा सत्र में कहा कि पहलगाम में हुआ ‘कायरतापूर्ण’ आतंकवादी हमला भारत की ‘आत्मा, पहचान और गरिमा’ पर सीधा हमला है। इसके साथ ही उन्होंने एक नई विश्व व्यवस्था की मांग उठाई। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस समिट में महत्वपूर्ण मुद्रा में दिखाई दिये। उन्होंने एक बार फिर इसके विस्तार की बात की और सदस्य देशों से भी आग्रहपूर्ण ढंग से दबाव बनाया कि कि ब्रिक्स को विस्तार होना चाहिए। ब्रिक्स यानी बी से ब्राजील, आर से रूस, आई से इंडिया (भारत), सी से चीन और एस से दक्षिण अफ्रीका- ये दुनिया की पांच सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों का एक समूह है। ब्रिक्स एक ऐसा बहुपक्षीय मंच है, जो उभरती अर्थव्यवस्थाओं के बीच सहयोग, वैश्विक विकास और सामूहिक सुरक्षा की भावना को बल देता है।  ब्रिक्स समिट काफी सफल एवं निर्णायक रहा है।
ब्रिक्स सम्मेलन में आतंकवाद, विशेषकर कश्मीर में फैले इस्लामी आतंकवाद को लेकर चर्चा ने इस मंच को वैश्विक राजनीति की दिशा तय करने वाले संगठनों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर दिया है। इसमें भारत की भूमिका, विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की निर्णायक भूमिका रही है। इन शक्तिसम्पन्न पांचों देशों का वैश्विक मामलों पर महत्वपूर्ण प्रभाव है और दुनिया की लगभग 40 फीसदी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। चीन इसे अपने हित के लिए इस्तेमाल करना चाहता है, जबकि भारत इसे सही मायनों में लोकतांत्रिक संगठन बनाना चाहता है। भारत चाहता है कि ब्रिक्स समूह मिलकर दुनिया में शांति, सह-जीवन, अहिंसा, लोकतांत्रिक मूल्य, समानता एवं सह-अस्तित्व पर बल देते हुए दुनिया को युद्ध, आतंक एवं हिंसामुक्त बनाया जाये।  ब्रिक्स देशों के इस सम्मेलन में एक विशेष बिंदु जो उभरकर सामने आया वह था-अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का बदलता स्वरूप और इसके कश्मीर जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में प्रभाव। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्पष्ट रूप से यह रेखांकित किया कि आतंकवाद अब किसी एक राष्ट्र की समस्या नहीं रह गई है, बल्कि यह एक वैश्विक संकट बन चुका है। उन्होंने कश्मीर में हो रहे आतंकवादी हमलों, पाकिस्तान समर्थित गतिविधियों और भारत की सीमाओं पर हो रही हिंसक घटनाओं को उदाहरण के रूप में सामने रखा। मोदी ने ब्रिक्स मंच से यह भी स्पष्ट किया कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, लेकिन जब आतंक का राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल होता है, तो वह मानवता के लिए सबसे बड़ा खतरा बन जाता है।
भारत ने लंबे समय से कॉम्प्रेहेंसिव कॉन्वेंशन ऑन इन्टरनेशनल टेरिजम्स (सीसीआईटी) की पैरवी की है। इस बार ब्रिक्स मंच पर मोदी ने इस प्रस्ताव को फिर से प्रमुखता से उठाया और एक साझा परिभाषा व वैश्विक नीति की मांग की ताकि आतंकवादियों को सुरक्षा और राजनीतिक सहारा न मिल सके। प्रधानमंत्री मोदी ने यह भी सुझाव दिया कि ब्रिक्स को एक साझा आतंकवाद निरोधी तंत्र बनाना चाहिए, जो सूचनाओं का आदान-प्रदान, निगरानी तंत्र और आतंक के वित्तपोषण को रोकने में सहयोग करे। भारत ने इस बार पाकिस्तान का नाम लिए बिना यह सिद्ध किया कि कश्मीर में आतंकवाद एक स्थानीय असंतोष नहीं, बल्कि बाहरी प्रायोजित आतंक है। ब्रिक्स देशों, विशेषकर रूस और ब्राज़ील ने इस बात को स्वीकारा कि कश्मीर में फैले आतंकवाद पर चिंता जायज़ है और उन्होंने भारत के दृष्टिकोण का समर्थन किया। यह कूटनीतिक जीत प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व कौशल को रेखांकित करती है। उन्होंने न केवल भारत के राष्ट्रीय हितों की रक्षा की, बल्कि वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध एक नैतिक और व्यावहारिक आधार भी प्रस्तुत किया।
भारत 2026 में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन की अध्यक्षता करने जा रहा है। यह भारत के लिए भविष्य को गढ़ने का एक सुनहरा अवसर है। भारत अब न केवल आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देगा, बल्कि यह भी सुनिश्चित करेगा कि ब्रिक्स एक न्यायसंगत, सुरक्षित और आतंकवादमुक्त विश्व के निर्माण की दिशा में कार्य करे। ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में भारत की भूमिका न केवल आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक स्वरूप में दिखाई दी, बल्कि यह भी स्पष्ट हुआ कि भारत अब एक वैश्विक नेतृत्वकर्ता राष्ट्र के रूप में उभर चुका है। नरेंद्र मोदी ने जिस सूझबूझ, तर्कशक्ति और साहस के साथ कश्मीर मुद्दे को वैश्विक मंच पर प्रस्तुत किया, वह भारत की कूटनीति के नए युग की शुरुआत है। आगामी वर्ष में जब भारत ब्रिक्स की अध्यक्षता करेगा, तब यह विश्वास किया जा सकता है कि न केवल भारत, बल्कि समूचा विश्व भारत की नीति, नैतिक दृष्टि और नेतृत्व क्षमता का सम्मान करेगा। इस मंच से भारत केवल आर्थिक विकास नहीं, बल्कि मानवता, शांति और न्याय की नई इबारत लिखेगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक नई विश्व व्यवस्था की मांग उठाई उन्होंने कहा कि आज दुनिया को एक बहुध्रुवीय और समावेशी व्यवस्था की जरूरत है। इसकी शुरुआत वैश्विक संस्थाओं में बदलाव से करनी होगी। मोदी ने कहा, ‘बीसवीं सदी में बनाई गई वैश्विक संस्थाएं इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों से निपटने में नाकाम हैं। एआई यानी कृत्रिम बुद्धिमता के दौर में तकनीक हर हफ्ते अपडेट होती है, लेकिन एक वैश्विक संस्थान 80 सालों में एक बार भी अपडेट नहीं होती। बीसवीं सदी के टाइपराइटर इक्कीसवीं सदी के सॉफ्टवेयर को नहीं चला सकते। प्रधानमंत्री ने कहा, ग्लोबल साउथ के देश अक्सर डबल स्टैंडर्ड का शिकार रहे हैं। चाहे विकास हो, संसाधनों की बात हो, या सुरक्षा से जुड़े मुद्दों की, ग्लोबल साउथ को कभी प्राथमिकता नहीं दी गई है। इनके बिना, वैश्विक संस्थाएं ऐसे मोबाइल की तरह हैं, जिसमें सिम कार्ड तो है लेकिन नेटवर्क नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, वैश्विक अर्थव्यवस्था में जिन देशों का योगदान ज्यादा है, उन्हें फैसले लेने का हक नहीं है। यह सिर्फ प्रतिनिधित्व का नहीं, बल्कि विश्वसनीयता और प्रभावशीलता का भी सवाल है।
भारत का मानना था कि समान सोच वाले देशों को साथ लेकर चला जा सकता है। आनेवाले समय में ब्रिक्स दुनिया की आधी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने लगेगा। निश्चित ही ब्रिक्स की ताकत से एक वैश्विक संतुलन स्थापित हो रहा है और अमेरिका एवं पश्चिमी देशों के अहंकार एवं दुनिया पर शासन करने की मंशा पर पानी फिरा है। हमारा भविष्य सितारों पर नहीं, जमीन पर निर्भर है, वह हमारा दिलों में छिपा हुआ है, दूसरे शब्दों में कहें तो हमारा कल्याण अन्तरिक्ष की उड़ानों, युद्ध, आतंक एवं शस्त्रों में नहीं, पृथ्वी पर आपसी सहयोग, शांति, सह-जीवन एवं सद्भावना में निहित है। ’वसुधैव कुटुम्बकम का मंत्र इसलिये सारी दुनिया को भा रहा है। इसलिये बदलती हुई दुनिया में, बदलते हुए राजनैतिक हालात में सारे देश एक साथ जुड़ना चाहते हैं। ब्रिक्स का संगठन ऐसा सपना है जिसे भारत रत्न स्व. प्रणव मुखर्जी ने भारत के विदेश मन्त्री के तौर पर 2006 में देखा था। प्रणव दा बदलते विश्व शक्ति क्रम में उदीयमान आर्थिक शक्तियों की समुचित व जायज सहभागिता के प्रबल समर्थक थे और पुराने पड़ते राष्ट्रसंघ के आधारभूत ढांचे में रचनात्मक बदलाव भी चाहते थे। इसके साथ ही वह बहुधु्रवीय विश्व के भी जबर्दस्त पक्षधर थे जिससे विश्व का सकल विकास न्यायसंगत एवं लोकतांत्रिक तरीके से हो सके। अब नरेन्द्र मोदी ने इसमें सराहनीय भूमिका निभाई है। उनके दूरगामी एवं सूझबूझ भरे सुझावों का ब्रिक्स देशों ने लोहा माना है। ब्रिक्स संगठन में भारत का वर्चस्व चीन की तुलना में बढ़ा है जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की दूरदर्शिता एवं कूटनीति का परिणाम है।

लुप्त होता समाज भारतीय समाज

शिवानन्द मिश्रा

सावधान हो जाइए ! भारत सहित पश्चिमी देशों में कुछ ही दशक बाद फैमिली सिस्टम का अंत निकट है। परिवार लगातार टूट रहे हैं , बिखर रहे हैं , समाप्त हो रहे हैं। इस समय फैमिली सिस्टम को बचाना पश्चिमी जगत का सबसे बड़ा मुद्दा है। भारत के सनातनी समाज में भी फैमिली सिस्टम बड़ी तेजी से सिमट रहा है । फैमिली सिस्टम यूँ ही बिखरता रहा तो भविष्य खराब है । आज पश्चिमी समाज को तबाही का दृश्य दिखाई पड़ने लगा है । कल भारत भी इसी दौर से गुजरनेवाला है। 

मशहूर पश्चिमी लेखक डेविड सेलबोर्न की किताब ” loosing battle with islam ” में आँखें खोलने वाले खुलासे किए गए हैं । बताया गया है कि ईसाई जगत के समान सनातनी जगत के सामने भी ऐसा ही खतरा है। यहूदियों ने इस खतरे पर पार पा लिया है। डेविड के अनुसार इस्लाम के सशक्त फेमिली सिस्टम से पश्चिमी दुनिया हार रही है। पश्चिम में लोग शादी करना पसंद नहीं करते। समलैंगिकता , अवैध सम्बन्ध , लिव इन रिलेशनशिप आदि से फैमिली सिस्टम टूट गया है ।

पश्चिम में ऐसे बच्चों की तादाद बढ़ती जा रही है , जिन्हें अपने पिता का पता नहीं । मां बाप के साथ रहने का चलन पश्चिम पूरी तरह भूल चुका है । लोगों का बुढ़ापा ओल्ड एज होम्स में गुजर रहा है । नतीजा यह कि पश्चिमी बच्चे दादा दादी , नाना नानी , चाचा ताऊ जैसे रिश्तों के नाम भी भूल चुके हैं ।अब तो नो चाइल्ड लाइफ स्टाइल बहुत शीघ्र पश्चिम को बर्बाद कर देगा । आबादी घटने से उत्पन्न अकेलेपन के सबसे बड़े शिकार जापान और दक्षिण कोरिया हैं । कारण , खाओ पियो ऐश करो , नो चाइल्ड ऑनली प्लेजर, ऑनली मस्ती। 

गौर से देखने पर पता चल जाता है कि भारत का हिन्दू समाज भी उधर बढ़ चुका है जहां से पश्चिमी जगत के सामने अंधेरा ही अंधेरा नजर आ रहा है । सॉलिड फेमिली सिस्टम के कारण अमेरिका , ब्रिटेन , जर्मनी और फ्रांस में इस्लाम  की संख्या बढ़ती जा रही है। इस्लाम धर्म में परिवार वास्तव में मजबूत इकाई है । परिवार को जोड़े रखने की कला यहूदियों ने इस्लाम से सीखी है और अपनी आबादी बढ़ाई है। पश्चिम में अकेला होता जा रहा आदमी भयावह ऊब और घुटन का शिकार है। भारत के शहरों में ही नहीं , कस्बाई जीवन में भी अकेलापन प्रवेश कर चुका है ।

भारत में भी पाएंगे कि समाज में भी चाचा , भतीजा , बुआ , ताऊ , मामा , मौसी और यहां तक कि सगे भाई सगी बहन के रिश्ते भी धीरे धीरे समाज में खत्म हो रहे है । यह घोर चिन्ता का विषय है , दुर्भाग्य से इस पर चिंतन अभी शुरू भी नहीं हुआ है । इसका एक प्रमुख कारण विवाहित बेटियों का अपने मैके में दखल देना तथा बेटियों के मां को उनके ससुराल में दखलंदाजी है। विवाहित बहन भी अपनी उल्लू सीधा कर भाइयों को आपस में खूब लड़वाते हैं। याद कीजिए चीन ने वन चाइल्ड पॉलिसी लागू कर अपनी आबादी घटाई जो अब भारत से कम हो गई । वहां भी चीनी जनता ने जब वन चाइल्ड के बजाय नो चाइल्ड अपनाना शुरू किया तब चीन ने दो बच्चों की इजाजत दी । 

 आज दुनिया के अनेक देशों में आबादी बढ़ाने के अभियान चल पड़े हैं । भारत में भी कुछ धार्मिक गुरु ज्यादा बच्चे पैदा करने को कह रहे हैं । बहरहाल एक समस्या तो है जिसका समाधान खोजना पूरी दुनिया के लिए जरूरी है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है । समाज तभी बनता है जब परिवार हो। समाज की सबसे बड़ी ताकत संयुक्त परिवार थी जो अब लगभग मर चुका है । मैं , मेरी बीबी और मेरे बच्चे सिद्धांत ने परिवारों के बीच दीवारें खड़ी कर दी है। नारी को इस बाबत सबसे ज्यादा विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि वो जननी है उसको अपना स्वहित त्याग समाज हित को देखना होगा । अपना फिगर अपना कैरियर अपनी फ्री लाइफ अपने आनन्द से ऊपर उठ परिवार समाज व सनातन धर्म के लिये संकल्प लेना होगा। आप देखिए , पश्चिम में फैले अवसाद , अकेलापन और डिप्रेशन भारत में भी बहुत गहरे प्रवेश कर चुके है।  इन्हें अब रोकना होगा रोकना होगा और यह कार्य भारतीय नारी ही कर सकती है। 

शिवानन्द मिश्रा

भीगे मौसम का कड़वा सच : सावधानी नहीं तो संक्रमण तय

जब पहली बारिश की बूंदें ज़मीन से टकराती हैं, तो मिट्टी की सौंधी खुशबू के साथ एक उम्मीद जन्म लेती है। लगता है जैसे तपती गर्मी के बाद प्रकृति ने हमें अपने आँचल में ले लिया हो।

पर क्या आपने कभी गौर किया है? इसी आँचल में छिपा है बीमारियों का एक अदृश्य जाल, जो हर साल हजारों जिंदगियों को बीमारी, पीड़ा और कभी-कभी मौत की ओर धकेल देता है।

बरसात का मौसम केवल प्राकृतिक बदलाव नहीं है। यह हमारी जीवनशैली, स्वास्थ्य व्यवस्था और व्यक्तिगत सतर्कता की कड़ी परीक्षा है।

जब बारिश रूमानी नहीं, रोगकारी हो जाती है 

बारिश कभी कवियों की प्रेरणा होती थी। आज यह डॉक्टरों की चिंता बन गई है।

कारण साफ है, जलभराव, गंदगी, नमी और वायरस का खुला तांडव।

हर गली, हर मोहल्ला एक संभावित संक्रमण-स्थल बन चुका है।

कुछ बेहद आम पर घातक बीमारियाँ जो इस मौसम में फैलती हैं :-

डेंगू, मलेरिया और चिकनगुनिया : मच्छर जनित रोग जो जानलेवा हो सकते हैं।

वायरल फीवर और फ्लू : हवा में नमी वायरस को लंबे समय तक जीवित रखती है।

टाइफाइड, हैजा और दस्त : दूषित पानी और भोजन से तेजी से फैलते हैं।

फंगल इंफेक्शन और स्किन डिज़ीज़ : लगातार गीले कपड़े और पसीने से त्वचा कमजोर हो जाती है।

लक्षणों को पहचानिए, नज़रअंदाज़ मत कीजिए

बरसात में शरीर के छोटे से बदलाव को भी हल्के में लेना भारी पड़ सकता है।

लक्षण जो आपके भीतर खतरे की घंटी बजा रहे हों :-

• बार-बार बुखार आना या ठंड लगना

• शरीर में टूटन और थकान

•पेट में मरोड़, उल्टी या डायरिया

•आँखों में जलन, त्वचा पर लाल चकत्ते

•जोड़ों में तेज दर्द और कमजोरी

ये सभी लक्षण सामान्य नहीं होते। ये आपके शरीर की SOS कॉल हैं “अब इलाज जरूरी है!”

सिर्फ दवा नहीं, बचाव है असली इलाज

बरसात में बीमारियों से लड़ने के लिए सबसे बड़ा हथियार है – सावधानी और जागरूकता।

इन छोटे मगर असरदार उपायों से आप और आपका परिवार सुरक्षित रह सकते हैं:

1. पानी की पवित्रता ही जीवन है

पानी हमेशा उबालकर या फिल्टर किया हुआ ही पिएं। बारिश में पानी के ज़रिए संक्रमण सबसे तेज़ी से फैलता है।

2. मच्छरों को घर से बाहर रखिए

फुल बाजू कपड़े पहनें, मच्छरदानी का उपयोग करें, और आसपास कहीं पानी जमा न होने दें।

3. संयमित भोजन ही अमृत है

बाहर के चाट-पकौड़े का मोह न करें। ताजा, गर्म और घर का बना खाना ही खाएं। विटामिन-C से भरपूर फल (नींबू, आंवला, कीवी) रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं।

4. नमी से नजदीकी, बीमारी से दोस्ती

भीगने के बाद गीले कपड़े तुरंत बदलें। गीले मोज़े, जूते या तौलिए संक्रमण के स्रोत बन सकते हैं।

5. योग और धूप: शरीर की ढाल

हर दिन 20 मिनट धूप लें और हल्का व्यायाम करें। यह शरीर को भीतर से मज़बूत करता है।

बुज़ुर्गों और बच्चों पर विशेष ध्यान दें

इस मौसम में सबसे ज्यादा खतरा उन्हीं को होता है जिनकी इम्यूनिटी कमजोर होती है। बच्चों को बारिश के पानी में खेलने से रोकें, और बुज़ुर्गों को भीगने या ठंडी हवा से बचाएं।

अब सवाल यह नहीं कि बारिश होगी या नहीं?

सवाल यह है कि आप तैयार हैं या नहीं? 

बूँदें रोकना हमारे हाथ में नहीं। लेकिन हर बूंद से निकलती बीमारी की चुपचाप दस्तक को अनसुना करना हमारी लापरवाही है।

हर साल के आंकड़े गवाही देते हैं, डेंगू और मलेरिया से हज़ारों मौतें होती हैं, जिनमें से ज्यादातर रोकी जा सकती थीं, यदि थोड़ी सी सतर्कता बरती जाती।

अंत में एक विनम्र अपील, एक ज़िम्मेदारी

इस बार जब बारिश की पहली बूँद आपके चेहरे को छूए, तो ज़रा रुकिए…उसके पीछे छिपी संभावित बीमारी को याद कीजिए।

सिर्फ अपने लिए नहीं, अपने बच्चों, माता-पिता और समाज के लिए सतर्क बनिए।

क्योंकि बरसात आएगी और जाएगी, पर सावधानी रही तो ज़िंदगी मुस्कुराएगी।

उमेश कुमार साहू

क्या भारत ग्लोबल साउथ में अपनी खोई विरासत फिर हासिल कर पाएगा?

मोदी का घाना दौरा -: कूटनीति का वही ढोल या साख लौटाने की ठोस कवायद?

ओंकारेश्वर पांडेय

‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद तमाम सवालों से घिरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब घाना की धरती पर उतरे, तो उनके कदमों में 75 साल की उम्र की थकान और हार न मानने की जिद एकसाथ झलक रही थी। अक्रा के हवाई अड्डे पर, हल्के नीले नेहरू जैकेट में सजे मोदी का चेहरा तनाव और सुकून के मिश्रित भाव लिए था। शायद यह नेहरू जैकेट सिर्फ एक परिधान नहीं, बल्कि उस नेहरू की याद का प्रतीक था, जिन्होंने कभी घाना की जनता को आजादी और ग्लोबल साउथ की एकजुटता का सपना दिखाया था। घाना के राष्ट्रपति जॉन ड्रामानी महामाहा ने उनका स्वागत किया, लेकिन हवा में सवाल गूँज रहे थे। ऑपरेशन सिंदूर की आधी-अधूरी कहानी, अमेरिका की मध्यस्थता की खबरों ने भारत की स्वायत्तता को कटघरे में खड़ा किया है, और हालिया भारत-पाक तनाव में चीन की सैन्य मदद ने ग्लोबल साउथ में भारत की साख को दांव पर ला दिया है। 

क्या यह घाना, जो कभी गांधी और नेहरू की अहिंसा व साझेदारी से प्रेरित था, मोदी के नेतृत्व में भारत के ग्लोबल साउथ के सपने को नया जीवन दे पाएगा? क्या यह यात्रा, गंभीर सवालों से जूझ रही विदेश नीति को पुनर्परिभाषित करने की बजाय, एक और कूटनीतिक शो बनकर रह जाएगी?

ऑपरेशन सिंदूर और कूटनीतिक भंवर

पिछले महीने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के तहत भारत ने सीमित सैन्य कार्रवाई की। सेना निर्णायक कदम के लिए तैयार थी, मगर आखिरी पल में राजनीतिक नेतृत्व ने कदम पीछे खींच लिए। इंडोनेशिया में तैनात नौसेना अधिकारी कैप्टन शिव कुमार ने खुलासा किया, “हम तैयार थे, लेकिन रणनीति में स्पष्टता की कमी ने हमें रोका।” इस खुलासे ने देश में हलचल मचा दी। अमेरिका की मध्यस्थता की खबरों ने भारत की स्वायत्त कूटनीति पर सवाल उठाए। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने तंज कसा, “मोदी सरकार की विदेश नीति अब फोटो सेशन और खोखली घोषणाओं तक सिमट गई है। नीतिगत दृढ़ता गायब है।” 

पर्दे के पीछे, चीन की भूमिका ने आग में घी डाला। हालिया भारत-पाक तनाव में चीन ने पाकिस्तान को फाइटर जेट, मिसाइल, और सैटेलाइट डेटा देकर समर्थन दिया, जिसे विशेषज्ञ भारत के खिलाफ रणनीतिक चाल मानते हैं।

घाना यात्रा: अवसर या मजबूरी?

इस तूफानी माहौल में मोदी अक्रा पहुंचे। घाना की संसद में उनका स्वागत पारंपरिक ढोल की थाप और स्थानीय गीतों ने किया। मोदी ने ट्वीट किया, “अक्रा पहुंचना सम्मान की बात है। राष्ट्रपति महामाहा का स्वागत हमारे पुराने, भरोसेमंद रिश्तों का प्रतीक है। हम भारत-घाना संबंधों को नई ऊँचाइयों पर ले जाएंगे।” 

लेकिन सवाल वही है—क्या यह यात्रा ऑपरेशन सिंदूर की चूक, अमेरिका पर निर्भरता, और चीन की बढ़ती चुनौती को पार कर भारत की साख सुधारेगी? या यह सिर्फ एक और कूटनीतिक चमक-दमक बनकर रह जाएगी?

भारत-घाना: ऐतिहासिक बंधन और रोचक किस्से

अक्रा के बाजारों में भारतीय मसालों की खुशबू और बॉलीवुड गानों की गूँज घाना को भारत से जोड़े रखती है। यह रिश्ता कागजी कूटनीति से कहीं गहरा है—यह साझा संघर्ष और सपनों की कहानी है। 1950 के दशक में घाना के पहले राष्ट्रपति क्वामे एनक्रूमा भारत आए। गांधी की अहिंसा और नेहरू की ‘ग्लोबल साउथ’ की सोच ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि उन्होंने घाना की आजादी की लड़ाई को नई दिशा दी। 1957 में घाना के आजाद होने पर भारत ने वहाँ अपना पहला दूतावास खोला।

एक पुराना किस्सा है—1960 में नेहरू की घाना यात्रा के दौरान एनक्रूमा ने उन्हें एक शानदार ‘केन्टे’ कपड़ा भेंट किया, जो आज अक्रा के नेशनल म्यूजियम में प्रदर्शित है। उस स्वागत में स्थानीय जनजातियों ने ढोल-नगाड़ों के साथ नृत्य किया, और नेहरू की सादगी ने सबका दिल जीत लिया।

2011 में मनमोहन सिंह की यात्रा भी कम यादगार नहीं थी। नीली पगड़ी और सादे सूट में वह घाना की संसद में बोले, “भारत अफ्रीका का प्राकृतिक सहयोगी है। हमारा रिश्ता संसाधनों या निवेश तक सीमित नहीं, बल्कि साझा विकास और मानवीय सहयोग पर आधारित है।” उनकी बातों में गहराई थी, और स्वागत में घानाई गायकों ने पारंपरिक गीत गाए।

आर्थिक समीकरण: प्रगति और चुनौतियाँ

भारत-घाना व्यापार नेहरू काल से लंबा सफर तय किया है। 2004 में यह महज 213 मिलियन डॉलर था, जो मनमोहन सिंह के कार्यकाल में 2013-14 तक 1.2 अरब डॉलर पहुंचा। मोदी सरकार में यह 2017-18 में 3.34 अरब और 2018-19 में 4.48 अरब डॉलर तक गया, लेकिन 2023-24 में 2.51 अरब तक सिमट गया। 2024-25 (अप्रैल-अक्टूबर) में शुरुआती व्यापार 3.13 अरब डॉलर रहा। भारत का व्यापार घाटा बढ़ा है, क्योंकि घाना से सोना और तेल (घाना के निर्यात का 70%) तेजी से आयात हो रहा है।

भारत ने घाना को 450 मिलियन डॉलर की लाइन ऑफ क्रेडिट (LoC) दी, जिससे गांवों में बिजली, आईटी पार्क, और स्वास्थ्य सुविधाएँ बनीं। लेकिन चुनौती सामने खड़ी है—चीन। घाना इन्वेस्टमेंट प्रमोशन सेंटर (GIPC) के मुताबिक, भारत प्रोजेक्ट संख्या में दूसरे स्थान पर है, लेकिन निवेश राशि में चीन, स्पेन, और मिस्र से पीछे है। 1994-2024 में भारत का निवेश 1.92 अरब डॉलर रहा, जबकि चीन का इससे कहीं अधिक। 2023 में भारत का निवेश 77.93 मिलियन डॉलर था, लेकिन चीन की आर्थिक पकड़ मजबूत है।

ग्लोबल साउथ में चीन को चुनौती?

हालिया भारत-पाक तनाव में चीन ने पाकिस्तान को फाइटर जेट, मिसाइल, और सैटेलाइट डेटा देकर समर्थन दिया, जिसे विशेषज्ञ भारत के खिलाफ रणनीतिक चाल मानते हैं। घाना की सड़कों पर पारंपरिक नृत्यों की रौनक के बीच मोदी की यह यात्रा सिर्फ भारत-घाना दोस्ती की कहानी नहीं है। यह ग्लोबल साउथ में भारत की साख को पुनर्जनन करने और चीन की आक्रामकता को टक्कर देने की कोशिश है। चीन ने अफ्रीका में 200 बिलियन डॉलर से अधिक का निवेश किया है, जबकि भारत 80 बिलियन के आसपास है। घाना में चीन की पकड़ इंफ्रास्ट्रक्चर और खनन में मजबूत है। लेकिन भारत की ताकत उसकी सॉफ्ट पावर में है—ऐतिहासिक दोस्ती, सांस्कृतिक जुड़ाव, और लोकतांत्रिक मूल्य।

मोदी की यह यात्रा आर्थिक प्रतिद्वंद्विता का नया अध्याय भी शुरू कर सकती है। घाना के तेल-गैस भंडार, समुद्री मार्गों की सुरक्षा, और ग्लोबल साउथ में नेतृत्व के लिए भारत के पास मौका है। यह भारत के लिए न सिर्फ घाना, बल्कि पूरे अफ्रीका में अपनी स्थिति मजबूत करने का अवसर है, बशर्ते यह चीन की रणनीति को संतुलित करने के लिए स्पष्ट कदम उठाए।

सांस्कृतिक ताकत और जनमानस

अक्रा के बाजारों में भारतीय मसालों की खुशबू और अमिताभ बच्चन व शाहरुख खान की फिल्मों की गूँज घाना को भारत से जोड़े रखती है। 15,000 भारतीय समुदाय, योग, और क्रिकेट यहाँ भारत की सॉफ्ट पावर हैं। एक पुराना किस्सा है—1980 के दशक में ‘डिस्को डांसर’ ने घाना के सिनेमाघरों को फिर से जिंदा कर दिया। आज भी वहाँ के बुजुर्ग “आओ, ओम शांति ओम” गुनगुनाते हैं। लेकिन चीन और यूरोपीय देशों की आक्रामक मौजूदगी ने भारत के लिए मुकाबला कठिन कर दिया। घाना की सड़कों पर बच्चों के नृत्य और पारंपरिक गीत भारत-घाना की दोस्ती की गर्मी दिखाते हैं, मगर क्या यह नीतिगत ठोस कदमों में बदलेगा? 

मोदी का इम्तिहान

घाना की संसद से लेकर अक्रा की सड़कों तक, मोदी की यह यात्रा कोई साधारण कूटनीति नहीं। यह भारत की विदेश नीति की अग्निपरीक्षा है। भारत कई मोर्चों पर जूझ रहा है। ऑपरेशन सिंदूर का अधूरा नतीजा जनता के मन में सवाल छोड़ गया है। कैप्टन शिव कुमार जैसे सैन्य अधिकारियों ने सरकार की रणनीतिक अस्पष्टता पर उंगली उठाई है। अमेरिका की मध्यस्थता की खबरों ने भारत की स्वायत्तता को कटघरे में खड़ा किया। और अब, चीन की पाकिस्तान को सैन्य मदद ने भारत को ग्लोबल साउथ में अपनी साख बचाने की चुनौती दी है।

मोदी के सामने सवाल है—कि क्या वह इस यात्रा को भाषणों और ट्वीट्स से आगे ले जा पाएंगे? यह मौका है—नेहरू और एनक्रूमा की ऐतिहासिक दोस्ती को नया जीवन देने का, ग्लोबल साउथ में भारत की पुरानी साख को पुनर्जीवित करने का, और चीन की आक्रामकता का मुकाबला करने का। अगर यह यात्रा भाषणबाजी तक सिमट गई, तो विपक्ष का तंज—“विदेश नीति उड़ानों और उद्घाटनों तक सीमित है”—और गहरा हो जाएगा।

घाना क्यों ज़रूरी है?

घाना भारत के लिए एक रणनीतिक खजाना है। इसके बाजारों में कोको और सोने की चमक भारत की आर्थिक भूख को ललचाती है। यह देश तेल, बॉक्साइट, और कोको का पावरहाउस है। भारत ने यहाँ आईसीटी, हेल्थकेयर, कृषि, और इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश किया है। 450 मिलियन डॉलर की लाइन ऑफ क्रेडिट ने घाना के गाँवों में बिजली, आईटी पार्क, और अस्पताल बनाए हैं। घाना का तेल भारत की ऊर्जा जरूरतों को मिटा सकता है। अटलांटिक महासागर के समुद्री मार्ग भारत की सुरक्षा रणनीति का हिस्सा हैं। और सबसे बड़ी बात, घाना ग्लोबल साउथ में भारत के नेतृत्व को मजबूत करने का रास्ता खोल सकता है।

घाना की सामाजिक ताकत भी अनोखी है। यहाँ महिलाओं की आबादी पुरुषों से अधिक है, जो सामाजिक बदलाव की मिसाल है। भारत के लिए यह मौका है—साझा लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देने का, और अफ्रीका में अपनी सॉफ्ट पावर को चमकाने का। लेकिन चीन की गहरी आर्थिक पकड़ और यूरोपीय देशों की नई सक्रियता रास्ते में रोड़े हैं। घाना की सड़कों पर पारंपरिक नृत्यों की रौनक भारत-घाना की दोस्ती की गर्मी दिखाती है। मोदी की इस यात्रा से भारत और घाना नये बदलते वैश्विक दौर में रिश्तों की नयी परिभाषा लिखें, यह दोनों देशों की जनता चाहेगी। इसके लिए दोनों देशों को दिखावे से अलग जमीनी हकीकत और ज़रूरत के हिसाब से ठोस कदम उठाने होंगे। 

यह यात्रा तस्वीरों और ट्वीट्स की चमक से आगे बढ़नी चाहिए। यह भारत के लिए मौका है—ग्लोबल साउथ में नेतृत्व को नई परिभाषा देने का, ऐतिहासिक साझेदारी को ठोस नीतियों में बदलने का, और चीन से मुकाबले के लिए रणनीतिक स्पष्टता लाने का।

घाना का इतिहास हमें सिखाता है कि सच्ची दोस्ती परस्पर विश्वास और ठोस कदमों से बनती है। नेहरू और एनक्रूमा ने यह दिखाया था। क्या मोदी इस बार उस विरासत को नया जीवन दे पाएंगे, या यह यात्रा एक और कूटनीतिक सैर-सपाटा बनकर रह जाएगी? भारत को चाहिए रणनीतिक स्पष्टता, आर्थिक ताकत, और सांस्कृतिक जुड़ाव। अगर यह मौका चूक गया तो सुर्खियाँ भले बनें, मगर भारत का अफ्रीकी सपना अधूरा रह जाएगा।

ओंकारेश्वर पांडेय

क्यों न हम बूंदों की खेती करें …

सचिन त्रिपाठी 

क्यों न हम बूंदों की खेती करें? यह प्रश्न अब एक सुझाव नहीं बल्कि एक निर्णायक आग्रह है। भारत, जो अपनी पहचान एक कृषि प्रधान देश के रूप में करता है, आज उस बिंदु पर खड़ा है जहां उसके खेतों में पानी की कमी, अनियमित वर्षा और सूखते जल स्रोत एक चुपचाप आती हुई आपदा का संकेत दे रहे हैं। देश की 60 प्रतिशत से अधिक खेती अब भी वर्षा पर आधारित है और जब मानसून कभी समय से न आए या कम वर्षा हो जाए तो किसान की पूरी आजीविका डगमगा जाती है। ऐसे में ‘बूंदों की खेती’ यानी माइक्रो इरिगेशन,  विशेषतः ड्रिप और स्प्रिंकलर पद्धति केवल विकल्प नहीं बल्कि समय की सख्त मांग बन चुकी है।

बूंदों की खेती एक ऐसी तकनीक है जिसमें पानी को सीधे पौधों की जड़ों तक बहुत धीमी गति से पहुंचाया जाता है जिससे प्रत्येक बूंद का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित होता है। यह पारंपरिक नहर या बाढ़ सिंचाई की तुलना में कई गुना अधिक कुशल पद्धति है। यह तकनीक भारत जैसे जल-अभाव वाले देश के लिए वरदान साबित हो सकती है। औसतन भारत में 1170 मिमी वार्षिक वर्षा होती है लेकिन उसका 80 प्रतिशत हिस्सा मात्र तीन-चार महीनों में गिरता है। बाकी समय खेत सूखे रहते हैं और भूजल पर निर्भर रहते हैं, जो दिन-ब-दिन नीचे खिसक रहा है। नीति आयोग की रिपोर्ट 2023 बताती है कि 2030 तक देश की 40 प्रतिशत आबादी को पीने के पानी तक सीमित पहुंच रह जाएगी। ऐसे में कृषि को पानी का विवेकपूर्ण उपयोग सिखाना होगा।

माइक्रो इरिगेशन से पानी की 30 से 70 प्रतिशत तक बचत होती है। भारत सरकार के अनुसार यदि देश की 50 प्रतिशत खेती इस पद्धति को अपनाएं तो लगभग 65 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी की सालाना बचत संभव है। केवल जल ही नहीं, इससे उर्वरकों और बिजली की भी बचत होती है। जब पानी सीधा जड़ तक जाता है, तो खाद भी उसी माध्यम से जड़ों में मिलाई जा सकती है जिससे ‘फर्टीगेशन’ के माध्यम से 30 से 40 प्रतिशत तक उर्वरक की बचत होती है। बिजली की खपत भी घटती है क्योंकि पंपों को लंबे समय तक चलाने की आवश्यकता नहीं होती। इसके अतिरिक्त खरपतवार और फंगल रोगों की आशंका कम होती है क्योंकि खेत के सभी हिस्सों में नमी नहीं फैलती।

इस तकनीक का एक और महत्वपूर्ण पहलू है उत्पादन में बढ़ोतरी। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के शोध बताते हैं कि ड्रिप इरिगेशन से टमाटर, मिर्च, अंगूर, केला, कपास जैसी फसलों की उपज में 20 से 90 प्रतिशत तक की वृद्धि दर्ज की गई है। इसका सीधा लाभ किसान की आय पर पड़ता है, जो प्रधानमंत्री की आय दोगुनी करने की परिकल्पना के अनुरूप है। बावजूद इसके, भारत में केवल 12 प्रतिशत कृषि भूमि ही माइक्रो इरिगेशन के अंतर्गत आती है। यह आंकड़ा खुद ही स्थिति की गंभीरता को दर्शाता है।

बाधाएं भी अनेक हैं। सबसे बड़ी चुनौती है इसकी प्रारंभिक लागत। एक हेक्टेयर भूमि पर ड्रिप प्रणाली लगाने में 30,000 से 70,000 रूपए तक खर्च आता है जो सीमांत और लघु किसानों के लिए संभव नहीं। सरकार ‘प्रति बूंद अधिक फसल’ योजना के तहत अनुदान देती है, लेकिन यह प्रक्रिया जटिल, कागजी और भेदभावपूर्ण मानी जाती है। वहीं, बहुत से किसानों को इस तकनीक की सही जानकारी नहीं है। उन्हें न मरम्मत आती है, न फिल्टरिंग की समझ। स्थानीय स्तर पर तकनीकी सहयोग की भारी कमी है। इसके अलावा कई ऐसे क्षेत्र भी हैं जहां पानी का स्रोत ही नहीं है, वहां माइक्रो इरिगेशन की उपयोगिता सीमित रह जाती है। इसलिए यह आवश्यक है कि वर्षा जल संग्रहण, तालाब निर्माण, बंधा प्रणाली और चेक डैम जैसी संरचनाओं को गांवों में प्राथमिकता दी जाए ताकि माइक्रो इरिगेशन को स्थायी आधार मिल सके।

अगर भारत को जल संकट से उबारना है और कृषि को सतत बनाना है तो नीति, प्रोत्साहन और व्यवहार में एक ठोस परिवर्तन की आवश्यकता है। किसानों को सूचनाएं मोबाइल ऐप्स, रेडियो और पंचायतों के माध्यम से सरल भाषा में दी जानी चाहिए। कृषि विज्ञान केंद्रों को माइक्रो इरिगेशन पर मासिक प्रशिक्षण शिविर अनिवार्य रूप से चलाने चाहिए। इसके साथ ही फसलों के चयन में बदलाव आवश्यक है। अत्यधिक जल खपत करने वाली फसलें जैसे धान और गन्ना की जगह कम पानी में उगने वाली फसलें जैसे बाजरा, ज्वार, दालें और सब्जियों को प्रोत्साहित किया जाए। किसानों को फसल विविधीकरण की तरफ प्रेरित करना ही दीर्घकालिक समाधान है।

बूंदों की खेती कोई नवीन विचार नहीं है बल्कि एक परख चुकी तकनीक है जिसे इजराइल जैसे रेगिस्तानी देशों ने अपनाकर खेती को लाभकारी और जल-संरक्षण युक्त बना दिया है। भारत के लिए यह कोई विकल्प नहीं बल्कि आवश्यक विकल्प है। हमें हर खेत तक सिंचाई पहुँचाने के पुराने संकल्प को अब ‘हर बूंद से हर खेत तक’ की नई सोच में बदलना होगा। जब पानी की हर बूंद को बचाया जाएगा, तभी धरती की हर नस में हरियाली बहेगी। इसलिए अब समय आ गया है कि हम केवल नारे न दें, बल्कि ठोस निर्णय लें। क्यों न हम हर खेत में बूंदों से हरियाली बो दें, ताकि भविष्य की पीढ़ियों को पानी और अन्न दोनों की कमी न हो। यही कृषि की सतत यात्रा की शुरुआत होगी – एक बूंद से।

सचिन त्रिपाठी 

रिटायरमेंट के बारे में सोच रहे हैं आमिर खान ?

सुभाष शिरढोनकर

एक्‍टर आमिर खान की फिल्म ‘सितारे जमीन पर’ सिनेमाघरों में रिलीज हो चुकी है। इस फिल्म के जरिए आमिर खान ने लगभग तीन साल बाद सिल्‍वर स्‍क्रीन पर कमबैक किया हैं।

फिल्‍म ‘सितारे जमीन पर’ (2025), साल 2007 में आई फिल्‍म ‘तारे जमीन पर’ का सीक्वल है जिसे आमिर खान और किरण राव ने प्रोड्यूस किया है।

आमिर खान इसके पहले साल 2022 में रिलीज फिल्म ‘लाल सिंह चड्ढा’ में नजर आए थे। उनकी यह फिल्‍म हॉलीवुड क्लासिक ‘फॉरेस्ट गंप’ की रीमेक थी लेकिन फिल्म बॉक्स ऑफिस पर फेल हो गई। इस फिल्म के बाद आमिर खान ने एक्टिंग से ब्रेक ले लिया था।

आमिर खान ने ‘सितारे जमीन पर’ के प्रीमियर पर एलान किया कि इस फिल्‍म के बाद अब वे अपने ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ पर फोकस करेंगे। यदि खबरों की माने तो आमिर खान का ड्रीम प्रोजेक्ट ‘महाभारत’ हैं। वे अपने इस ड्रीम प्रोजेक्ट को बिग स्क्रीन पर लाना चाहते हैं।

आमिर ने बताया कि उनके करियर की आखिरी फिल्म उनका ड्रीम प्रोजेक्ट ही होगा जिसके बाद उनके पास करने के लिए कुछ नहीं बचेगा। इसलिए इसके बाद वे रिटायरमेंट के बारे में सोच रहे हैं।

हालांकि आमिर खान अपने इस ड्रीम प्रोजेक्‍ट वाली फिल्‍म के साथ फिल्ममेकर राजकुमार हिरानी के साथ इंडियन सिनेमा के जनक दादा साहेब फाल्के की बायोपिक भी करने जा रहे हैं। फिल्म की स्क्रिप्ट पर विगत चार साल से काम हो रहा था और अब जाकर आमिर के साथ इस फिल्म की अनाउंटमेंट हो चुकी है।

दादा साहेब फाल्के की बायोपिक’ भारत के स्वतंत्रता संग्राम के बैकड्रॉप पर बेस्ड होकर उस व्यक्ति की जर्नी को दर्शाएगी जिसने भारतीय सिनेमा की नींव रखी। फिल्‍म की शूटिंग अक्टूबर से शुरू होने वाली है।

राजकुमार हिरानी के साथ आमिर खान की बॉडिंग गजब की रही है। आमिर पहली बार 2009 में राजकुमार हिरानी व्‍दारा निर्देशित फिल्म ‘3 इडियट्स’ में दिखे थे।

’थ्री ईडियट्स’ (2009) ने कामयाबी का ऐसा इतिहास रचा कि उसने इंडस्ट्री का सारा गणित ही बदलकर रख दिया। उसे आज भी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लिए मील का पत्थर माना जाता है।

इसके बाद राजकुमार हिरानी और आमिर खान, साल 2014 में फिल्म ‘पीके लेकर आए। इस फिल्म ने एक बार फिर सारे रिकॉर्ड ब्रेक कर दिए। अब इसके सीक्‍वल पर भी काम चल रहा है। हो सकता है कि एक बार फिर इसमें आमिर खान नजर आएं।

आमिर खान के बैनर व्‍दारा बनाई गई फिल्‍में न केवल एंटरटेनर होती हैं, बल्कि कहीं न कही उनमें समाज के लिए कोई मैसेज भी रहता है लेकिन इसके बावजूद आमिर का मानना रहा है कि वह सिर्फ एक एंटरटेनर हैं, सोशल टीचर नहीं जो किसी को भी सोशलॉजी लेसन देने लग जाएं।

आमिर का कहना है कि जब लोग थिएटर में टिकट लेकर आते है तो वो सिर्फ एंटरटेनमेंट चाहते हैं। यदि उन्हें सोशलॉजी पढ़नी होगी तो वे कॉलेज जाएंगे। जब वह कॉलेज न जाकर थिएटर आये है, इसका मतलब उन्हें केवल मौज-मस्ती चाहिए।

आमिर आगे यह भी कहते हैं कि ‘लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि क्रिएटिव लोगों का सोसाइटी में कोई योगदान नहीं होना चाहिए। सोसायटी के लिए हर प्रोफेशन से जुडे व्‍यक्ति का कुछ न कुछ योगदान अवश्‍य होता है। डॉक्टर इलाज करते हैं, जज जस्टिस देता है, नेता समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए नियम बनाते हैं।

इसी तरह पेंटर, सिंगर और आर्टिस्ट जैसे जो क्रिएटिव लोग होते हैं, उनका काम भी अपने काम से लोगों का दिल बहलाने का होता हैं और मेरा जो काम है उसे मैं भी ठीक तरह से करने की कोशिश कर रहा हूं। लोगों का दिल बहलाना भी उतनी ही क्रिएटिव चीज है जितनी सोसायटी से जुड़ी दूसरी चीजें। इतनी बड़ी पॉपुलेशन का दिल बहलाना कोई आसान काम नहीं होता।’

स्वामी विवेकानंद: विचारों के युगदृष्टा, युवाओं के पथप्रदर्शक

स्वामी विवेकानंद पुण्यतिथि (4 जुलाई) पर विशेष
– योगेश कुमार गोयल

स्वामी विवेकानंद सदैव युवाओं के प्रेरणास्रोत और आदर्श व्यक्त्वि के धनी माने जाते रहे हैं, जिन्हें उनके ओजस्वी विचारों और आदर्शों के कारण ही जाना जाता है। वे आधुनिक मानव के आदर्श प्रतिनिधि थे और खासकर भारतीय युवाओं के लिए उनसे बढ़कर भारतीय नवजागरण का अग्रदूत अन्य कोई नेता नहीं हो सकता। 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में जन्मे स्वामी विवेकानंद अपने 39 वर्ष के छोटे से जीवनकाल में समूचे विश्व को अपने अलौकिक विचारों की ऐसी बेशकीमती पूंजी सौंप गए, जो आने वाली अनेक शताब्दियों तक समस्त मानव जाति का मार्गदर्शन करती रहेगी। विवेकानंद के बारे में कहा जाता है कि वे स्वयं भूखे रहकर अतिथियों को खाना खिलाते थे और बाहर ठंड में सो जाते थे। मानवता के वे कितने बड़े हितैषी थे, यह उनके इस वक्तव्य से समझा जा सकता है कि भारत के 33 करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी-देवताओं की भांति मंदिरों में स्थापित कर दिया जाए और मंदिरों से देवी-देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाए। विवेकानंद का व्यक्तित्व कितना विराट था, यह गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि अगर आप भारत को जानना चाहते हैं तो आप विवेकानंद को पढि़ए। विवेकानंद का कहना था कि मेरी भविष्य की आशाएं युवाओं के चरित्र, बुद्धिमत्ता, दूसरों की सेवा के लिए सभी का त्याग और आज्ञाकारिता, खुद को और बड़े पैमाने पर देश के लिए अच्छा करने वालों पर निर्भर है। युवा शक्ति का आव्हान करते हुए उन्होंने अनेक मूलमंत्र दिए।
वे एक ऐसे महान व्यक्तित्व थे, जिनकी ओजस्वी वाणी सदैव युवाओं के लिये प्रेरणास्रोत बनी रही। विवेकानंद ने देश को सुदृढ़ बनाने और विकास पथ पर अग्रसर करने के लिए हमेशा युवा शक्ति पर भरोसा किया। युवा वर्ग से उन्हें बहुत उम्मीदें थीं और युवाओं की अहम् भावना को खत्म करने के उद्देश्य से ही उन्होंने अपने एक भाषण में कहा भी था कि यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खड़े हो जाओगे तो तुम्हें सहायता देने के लिए कोई भी आगे नहीं बढ़ेगा। इसलिए यदि सफल होना चाहते हो तो सबसे पहले अपने अहम् का नाश कर डालो। उनका कहना था कि मेरी भविष्य की आशाएं युवाओं के चरित्र, बुद्धिमत्ता, दूसरों की सेवा के लिए सभी का त्याग और आज्ञाकारिता, खुद को और बड़े पैमाने पर देश के लिए अच्छा करने वालों पर निर्भर है। युवा शक्ति का आव्हान करते हुए उन्होंने एक मंत्र दिया था, ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’ अर्थात् ‘उठो, जागो और तब तक मत रूको, जब तक कि मंजिल प्राप्त न हो जाए।’ ऐसा अनमोल मूलमंत्र देने वाले स्वामी विवेकानंद ने सदैव अपने क्रांतिकारी और तेजस्वी विचारों से युवा पीढ़ी को ऊर्जावान बनाने, उसमें नई शक्ति एवं चेतना जागृत करने और सकारात्कमता का संचार करने का कार्य किया।
युवा शक्ति का आव्हान करते हुए स्वामी विवेकानंद ने अनेक मूलमंत्र दिए, जो देश के युवाओं के लिए सदैव प्रेरणास्रोत बने रहेंगे। उनका कहना था, ‘‘ब्रह्मांड की सारी शक्तियां पहले से ही हमारी हैं। वो हम ही हैं, जो अपनी आंखों पर हाथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि कितना अंधकार है। मेरा विश्वास युवा पीढ़ी में है, आधुनिक पीढ़ी से मेरे कार्यकर्ता आ जाएंगे। डर से भागो मत, डर का सामना करो। यह जीवन अल्पकालीन है, संसार की विलासिता क्षणिक है लेकिन जो दूसरों के लिए जीते हैं, वे वास्तव में जीते हैं। जो भी कार्य करो, वह पूरी मेहनत के साथ करो। दिन में एक बार खुद से बात अवश्य करो, नहीं तो आप संसार के सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति से मिलने से चूक जाओगे। उच्चतम आदर्श को चुनो और उस तक अपना जीवन जीयो। सागर की तरफ देखो, न कि लहरों की तरफ। महसूस करो कि तुम महान हो और तुम महान बन जाओगे। काम, काम, काम, बस यही आपके जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। धन पाने के लिए कड़ा संघर्ष करो पर उससे लगाव मत करो। जो गरीबों में, कमजोरों में और बीमारियों में शिव को देखता है, वो सच में शिव की पूजा करता है। पृथ्वी का आनंद नायकों द्वारा लिया जाता है, यह अमोघ सत्य है, अतः एक नायक बनो और सदैव कहो कि मुझे कोई डर नहीं है। मृत्यु तो निश्चित है, एक अच्छे काम के लिए मरना सबसे बेहतर है। कुछ सच्चे, ईमानदार और ऊर्जावान पुरुष और महिलाएं एक वर्ष में एक सदी की भीड़ से अधिक कार्य कर सकते हैं। विश्व एक व्यायामशाला है, जहां हम खुद को मजबूत बनाने के लिए आते हैं।’’
11 सितम्बर 1893 को शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में हिन्दू धर्म पर अपने प्रेरणात्मक भाषण की शुरूआत उन्होंने ‘मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों’ के साथ की तो बहुत देर तक तालियों की गड़गड़ाहट होती रही। अपने उस भाषण के जरिये उन्होंने दुनियाभर में भारतीय अध्यात्म का डंका बजाया। विदेशी मीडिया और वक्ताओं द्वारा भी स्वामीजी को धर्म संसद में सबसे महान व्यक्तित्व और ईश्वरीय शक्ति प्राप्त सबसे लोकप्रिय वक्ता बताया जाता रहा। यह स्वामी विवेकानंद का अद्भुत व्यक्तित्व ही था कि वे यदि मंच से गुजरते भी थे तो तालियों की गड़गड़ाहट होने लगती थी। उन्होंने 1 मई 1897 को कलकत्ता में रामकृष्ण मिशन तथा 9 दिसंबर 1898 को कलकत्ता के निकट गंगा नदी के किनारे बेलूर में रामकृष्ण मठ की स्थापना की थी। 4 जुलाई 1902 को इसी रामकृष्ण मठ में ध्यानमग्न अवस्था में महासमाधि धारण किए वे चिरनिद्रा में लीन हो गए लेकिन उनकी कीर्ति युगों-युगों तक जीवंत रहेगी।