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क्या ‘कैलाश-मानसरोवर’ बनेगा एशिया का दूसरा ‘येरुशलम’ बनेगा या समझदारी दिखाएंगे भारत-चीन?

कमलेश पांडेय


साल 2025 की गर्मियों में भारत और चीन के बीच कैलाश मानसरोवर यात्रा एक बार फिर से शुरू हो जाएगी क्योंकि दोनों देशों के बीच इस यात्रा को लेकर पुनः सैद्धांतिक सहमति बन चुकी है। वहीं, विगत पांच वर्षों से थमी हुई इस यात्रा को पुनः शुरू करने के लिए दोनों देश डायरेक्ट फ्लाइट शुरू करने को लेकर भी तैयार हो गए हैं। भारतीय विदेश मंत्रालय के अनुसार एक द्विपक्षीय बैठक में इस आशय की सहमति बनी है। 

हालांकि, कैलाश मानसरोवर का जिक्र होते ही सबसे पहले हर किसी के मन में यही सवाल उठता है कि कैलाश मानसरोवर किसका है? जब भगवान शिव देवता भारतीयों के देवाधिदेव महादेव हैं तो फिर यह पुण्यभूमि तिब्बतियों/चीनियों की कैसे हो गई? क्या तिब्बत/चीन ने इस पर जबरन कब्जा किया है? आखिर इससे जुड़ी कैलाश मानसरोवर की वह क्या कहानी है जिस पर इतिहासकारों और विद्वानों के अलग-अलग आलेख उपलब्ध हैं।

वहीं, लोगों के मन में यह विचार पैदा हो रहा है कि यदि ‘कैलाश-मानसरोवर’ की चीन द्वारा जबरिया परिवर्तित स्थिति को पुनः बदलने के लिए भारत सरकार ने समय रहते ही समुचित कदम नहीं उठाए तो भविष्य में रामजन्म भूमि आंदोलन की तरह हिंदुओं की जनभावना भड़केगी और चीनी कब्जे से इस पुण्यभूमि को मुक्त कराने के लिए देशव्यापी/विश्वव्यापी अभियान चलाया जाएगा। इससे यह पावन क्षेत्र एशिया का दूसरा ‘येरुशलम’ बन जाएगा! क्योंकि इस पवित्र भूमि से न केवल हिंदुओं, बल्कि भारतीय जैनियों-बौद्धों की भी जनभावनाएं जुड़ी हुई हैं। 

शायद इसी नजरिए से बौद्ध मतावलंबी देश चीन ने भी इस पर कब्जा जमाया है, जिससे भारतीय हिंदुओं-जैनियों में व्यापक रोष देखा-सुना जाता है। बता दें कि भारत के पूर्व राजदूत पी स्टोबदान ने अपने एक आलेख में लिखा है कि कैलाश मानसरोवर और इसके आसपास का इलाका 1960 के दशक तक भारत के अधिकार क्षेत्र में आता था लेकिन उसके बाद तत्कालीन भारत सरकार की कमजोरी का फायदा उठाते हुए चीन ने इस पर कब्जा कर लिया। 

बता दें कि 1959 में पहली बार चीन ने अपने नक्शे में सिक्किम, भूटान से लगते कैलाश मानसरोवर के बड़े हिस्से को अपने अधिकार क्षेत्र में दिखाया था। हालांकि तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने संसद के बाहर और भीतर इसका जोरदार विरोध दर्ज कराया। इस बारे में  पूर्व राजदूत स्टोबदान ने लिखा है कि नेहरू ने ये जमीन भले ही चीन को सौंपी न हो लेकिन वो इसे बचा नहीं पाए। साथ ही वह चीन को इस हरकत पर रोक भी नहीं पाए जबकि 1961 की आधिकारिक रिपोर्ट में कैलाश के पास के क्षेत्रों पर भारत के ऐतिहासिक, प्रशासनिक और राजस्व अधिकारों का पूरा विवरण दिया गया था। चीन ने तब इसका विरोध नहीं किया था। वहीं, 1947 में जम्मू-कश्मीर रियासत से किए गए समझौते में मेन्सर इलाके को चीन को दिए जाने का जिक्र भी नहीं है। मेन्सर इलाके पर दावे को लेकर कोई कानूनी हल नहीं हुआ है।

समझा जाता है कि तब से ही इस कैलाश पर्वत को गंवाने को लेकर हिंदुओं, जैनियों व बौद्धों के मन में एक कसक है। सभी इसे पुनः पाने को लेकर अपने अपने स्तर से सक्रियता दिखाई है। जनजागृति हेतु अंदरूनी तैयारियां भी चल रही हैं। इसलिए कूटनीतिज्ञ बताते हैं कि कैलाश मानसरोवर क्षेत्र एशिया का दूसरा यरूशलेम बन सकता है क्योंकि जिस तरह से यरूशलेम पर कब्जे को लेकर यहूदी-ईसाई-इस्लाम के बीच अनवरत संघर्ष जारी है, कुछ वैसा ही संघर्ष भविष्य में कैलाश मानसरोवर को लेकर शुरू हो सकता है जो कि हिंदुओं-जैनियों-बौद्धों के प्राचीनतम श्रद्धाकेन्द्रों में शुमार किया जाता है।

पौराणिक धर्मग्रंथों के मुताबिक कैलाश पर्वत हिंदुओं के लिए भगवान शिव का पवित्र निवास है जबकि बौद्ध धर्म में कैलाश पर्वत को कांग रिनपोछे यानी बर्फ के अनमोल रत्न के रूप में नवाजा जाता है जिसे ज्ञान और निर्वाण की प्राप्ति से जुड़ा एक पवित्र स्थल माना जाता है। बौद्ध धर्म में कैलाश पर्वत को ‘मेरु पर्वत’ के नाम से जाना जाता है और इसे डेमचोक का निवास स्थान माना जाता है। वहीं जैनियों के लिए कैलाश पर्वत को अष्टपद के रूप में जाना जाता है। यह उनके पहले तीर्थंकर भगवान ऋषभनाथ से जुड़ा हुआ है। यह आध्यात्मिक जागृति और जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति के स्थान के रूप में महत्व रखता है। 

वहीं, महाकवि माघ की रचना में भी कैलाश का जिक्र मिलता है। महाकवि माघ की लिखी शिशुपालवधम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग में कैलाश का जिक्र मिलता है। बता दें कि भगवान शिव और जैनियों के भगवान आदिनाथ के कारण ही संसार के सबसे पावन स्थानों में कैलाश पर्वत गिना जाता है। दरअसल, कैलाश पर्वत को भगवान शिव का घर कहा गया है जहां बर्फ में भगवान महादेव तपमें लीन बेहद शांत और निश्चल हैं। कैलाश पर्वत के बारे में संस्कृत साहित्य के कई काव्यों में जिक्र मिलता है। 

वहीं, पी स्टोबदान के मुताबिक लद्दाख के राजा त्सावांग नामग्याल का शासन क्षेत्र कैलाश मानसरोवर के मेन्सर नामक जगह तक था। ये पूरा इलाका भारत, चीन से लेकर नेपाल की सीमा तक फैला था। 1911 और 1921 की जनगणना में कैलाश मानसरोवर वाले इलाके के मेन्सर गांव में 44 घर होने की बात सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज है। हालांकि 1958 के जम्मू-कश्मीर समझौते के मुताबिक मेन्सर चीन के कब्जे में चला गया क्योंकि यह इलाका चीन के कब्जे वाले लद्दाख तहसील के 110 गांवों में शामिल था।

वहीं, कैलाश-मानसरोवर की ऐतिहासिक स्थिति के बारे में मशहूर लेखक ओसी हांडा ने अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ उत्तरांचल’ में लिखा है कि मुगल बादशाहों के दौर में उत्तराखंड के कुमाऊं में चांद वंश के राजा बाज बहादुर का शासन (1638-1678) था। जिनका तत्कालीन मुगल बादशाहों- शाहजहां और औरंगजेब से काफी अच्छे संबंध थे। चूंकि उस वक्त पहाड़ों पर हूणों का आतंक था। इसलिए उनके आतंक को खत्म करने के लिए राजा बाज बहादुर ने तिब्बत पर हमला करने की योजना बनाई। तब उन्होंने दर्रा पार करके पूरे मानसरोवर को अपने कब्जे में लिया क्योंकि यह हिंदुओं के आराध्य भगवान शिव के शिवलोक नाम से मशहूर धराधाम है जहां भगवान शिव-पार्वती साक्षात विराजमान समझे जाते हैं।


वहीं स्वनामधन्य लेखक मनमोहन शर्मा की किताब ‘द ट्रेजेडी ऑफ तिब्बत’ में लिखा गया है कि कुमायूं के राजा बाज बहादुर ने जुहार दर्रे के रास्ते अपनी सेना के साथ तिब्बत की ओर बढ़े और हूणों के मजबूत गढ़ टकलाकोट पर कब्जा कर लिया। संभवतया इतिहास में यह पहली बार था कि किसी भारतीय राजा ने तिब्बत के इस गढ़ पर कब्जा किया था। वहीं, इसके बाद 1841 में जम्मू की डोगरा सेना ने भी इस क्षेत्र पर कब्जा किया। उल्लेखनीय है कि राजा बाज बहादुर ने देहरादून और मानसरोवर के पूरे इलाके को 1670 में कुमाऊं साम्राज्य में मिला लिया था, जो उनकी बहुत बड़ी उपलब्धि थी। हालांकि, कैलाश मनसरोवर पर कब्जे को लेकर इतिहास बहुत धुंधला है।

फिलहाल कैलाश मानसरोवर का क्षेत्र चीन अधिकृत तिब्बत में पड़ता है। इस पर ब्रिटिश अभियान साल 1903 में शुरू हुआ और साल 1904 तक चला। अंग्रेजों ने तिब्बत की राजधानी ल्हासा पर आक्रमण किया। फिर अंग्रेजों को इस पर नियंत्रण पाने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ी। हालांकि तिब्बत को 24 अक्टूबर, 1951 को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना ने अपने अधीन कर लिया था। कैलाश पर्वतमाला की सबसे ऊंची चोटियों में से एक कैलाश पर्वत है जो ट्रांस-हिमालय का ही एक हिस्सा है। यह चीन के तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र में स्थित है। यह पर्वत चीन, भारत और नेपाल के पश्चिमी ट्राई जंक्शन पर स्थित है।

स्वामी शिवानंद जी महाराज, राजयोग धाम, तारापीठ ने अपनी रचनाओं में बताया था कि कैलाश मानसरोवर तीर्थ को अष्टपद, गणपर्वत और रजतगिरि भी कहते हैं। कैलाश के बर्फ से ढंके 6,638 मीटर (21,778 फुट) ऊंचे शिखर और उससे लगे मानसरोवर का यह तीर्थ है। इस प्रदेश को मानसखंड कहते हैं। कैलाश की परिक्रमा तारचेन से आरंभ होकर वहीं समाप्त होती है। तकलाकोट से 40 किलोमीटर दूरी पर मंधाता पर्वत स्थित गुर्लला का दर्रा है। इसके मध्य में पहले बायीं ओर मानसरोवर झील है और दायीं ओर राक्षस ताल झील है। वहीं, इसके उत्तर की ओर दूर तक कैलाश पर्वत के हिमाच्छादित धवल शिखर का रमणीय दृश्य दिखाई पड़ता है। यहां दर्रा समाप्त होने पर तीर्थपुरी नामक स्थान है जहां पर गर्म पानी के झरने हैं। इन झरनों के आसपास चूनखड़ी के टीले हैं। लोक मान्यता है कि भस्मासुर ने यहीं पर तप किया और यहीं पर वह भस्म भी हुआ था। 

हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार, रावण ने कैलाश मानसरोवर में ही भगवान शिव की स्तुति में ‘शिव तांडव स्तोत्र’ का पाठ किया था। जबकि हिन्दू मतों के मुताबिक, युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में इस प्रदेश के राजा ने उत्तम घोड़े, सोना, रत्न और याक के पूंछ के बने काले और सफेद चामर भेंट किए थे। वहीं, पौराणिक कथाओं के अनुसार, जैन धर्म के भगवान ऋषभदेव ने यहीं निर्वाण प्राप्त किया। 

हिन्दू धर्मग्रंथों में कहा जाता है कि इस पर्वत का निर्माण 30 मिलियन वर्ष पहले हुआ था। कैलाश मानसरोवर यात्रा एक पवित्र तीर्थयात्रा है, जिसे मोक्ष का प्रवेश द्वार माना जाता है।


कैलाश पर्वत तिब्बत में स्थित एक पर्वत श्रेणी है जिसके पश्चिम और दक्षिण में मानसरोवर एवं राक्षसताल झील स्थित हैं। माना जाता है कि कैलाश पर्वत श्रृंखला का निर्माण हिमालय पर्वत श्रृंखला के शुरुआती चरणों के ही दौरान हुआ था। इसलिए कैलाश पर्वतमाला के निर्माण के कारण हुए भूगर्भीय परिवर्तन से चार नदियां भी जन्मीं जो अलग-अलग दिशाओं में बहती हैं- ये चार नदियां हैं- सिंधु, करनाली, यारलुंग त्सांगपो यानी ब्रह्मपुत्र और सतलुज। उल्लेखनीय है कि कैलाश पर्वतमाला कश्मीर से लेकर भूटान तक फैली हुई है जो भारत और तिब्बत को भौगोलिक रूप से अलग-थलग करती है।

बता दें कि भारत और चीन के बीच सालों तक रिश्तों पर जमी बर्फ अब फिर से पिघलने लगी है. दोनों देश पुनः नए सिरे से दोस्ती का हाथ बढ़ा चुके हैं। शायद पुरानी बातें भूलकर आपसी रिश्तों की नई पटकथा लिखने में जुट चुके हैं। इसका जमीनी असर भी दिखने लगा है। पहले तो एलएसी पर सीमा विवाद सुलझा और दोनों देशों के सैनिक पीछे हटे। फिर जहां-जहां तनाव था, वहां से डिसइंगेजमेंट हो गया। वहीं, अब कैलाश मानसरोवर यात्रा पर सफलता हाथ लगी है। भारत और चीन ने गत सोमवार को ही अपने रिश्तों के पुननिर्माण की दिशा में यह अहम घोषणा की।

जानकार बताते हैं कि कैलाश मानसरोवर यात्रा की शुरुआत भारत और चीन के रिश्तों में मील का पत्थर है क्योंकि वर्ष 2020 के बाद से ही कैलाश मानसरोवर यात्रा के साथ-साथ दोनों देशों के बीच सीधी उड़ानें बंद हैं। दरअसल, साल 2020 में भारत और चीन के बीच पूर्वी लद्दाख में गलवान घाटी और पैंगोंग त्सो झील के पास झड़पें हुई थीं, जिसके बाद दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ गया था। यह तनाव इतना ज्यादा था कि दोनों देशों ने सीमा पर अपने सैनिकों की तैनाती बढ़ा दी थी। साथ ही हर तरह के संबंध तोड़ दिए थे। वहीं, अब रूसी हस्तक्षेप के बाद पुनः शुरू हुई पारस्परिक बातचीत से भारत और चीन के बीच रिश्ते सुधरने लगे हैं। इन्हीं बातचीत का नतीजा है कि अब दोनों देशों के बीच रिश्ते सामान्य होने लगे हैं।

 इसकी पटकथा दिल्ली से 3750 किलोमीटर दूर स्थित रूस के कजान शहर में लिखी गई जब भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच मुलाकात हुई। दरअसल, साल 2024 के अक्टूबर महीने में पीएम मोदी और शी जिनपिंग कजान शहर में ब्रिक्स समिट में शरीक हुए थे। तभी समिट से इतर पीएम मोदी और चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग की मुलाकात हुई थी। तब दोनों नेताओं के बीच करीब एक घंटे तक बातचीत हुई। इस मुलाकात में ही सीमा पर शांति और दोनों देशों के बीच रिश्ते सुधारने पर सहमति बनी थी। इसी दौरान सीमा पर तनाव कम करने, कैलाश मानसरोवर यात्रा और डायरेक्ट फ्लाइट की बहाली पर पीएम मोदी ने जिनपिंग को समझाया था। यही वह मुलाकात थी, जिसके बाद भारत और चीन के बीच बातचीत का चैनल सक्रिय हो गया था।

लिहाजा, भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा है कि कैलाश मानसरोवर यात्रा की फिर से बहाली और सीधी उड़ानों को शुरू होने के पीछे पीएम मोदी और शी जिनिपंग के बीच मुलाकात ही है। मंत्रालय ने कहा कि जैसा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच अक्टूबर में कजान में हुई बैठक में सहमति बनी थी, विदेश सचिव मिसरी और चीनी उप विदेश मंत्री सुन ने भारत-चीन द्विपक्षीय संबंधों की स्थिति की ‘व्यापक’ समीक्षा की और संबंधों को ‘‘स्थिर करने और पुनर्निर्माण’ करने के लिए कुछ जन-केंद्रित कदम उठाने पर सहमति व्यक्त की। भारत के विदेश सचिव विक्रम मिसरी चीन से संबंधों को और बेहतर करने के लिए गत रविवार को बीजिंग के दौरे पर गए।

बता दें कि पीएम मोदी और जिनपिंग की पिछली मुलाकात के बाद विदेश मंत्री एस जयशंकर और चीनी समकक्ष वांग यी की मुलाकात हुई थी। तभी दोनों के बीच भारत-चीन सीमा पर सैनिकों की वापसी पर चर्चा हुई थी। साथ ही भारत और चीन के रिश्तों को 2020 से पहले वाली स्थिति में करने पर भी बातचीत हुई थी। इतना ही नहीं, दिसम्बर 2024 में एनएसए यानी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने बीजिंग का दौरा किया था। तब सीमा विवाद पर विशेष प्रतिनिधि (एसआर) वार्ता के ढांचे के तहत उन्होंने चीनी विदेश मंत्री वांग यी के साथ बातचीत की थी। इन बातचीत और मुलाकातों ने भारत और चीन के बीच रिश्तों को नया मुकाम दिया। इसका असर हुआ कि अब भारत और चीन के बीच रिश्ते सुधरते दिख रहे हैं। इसका एक और उदाहरण यह भी है कि चीन अब भारत का सबसे बड़ा कारोबारी भागीदार बन चुका है। पहले यह तमगा अमेरिका के पास था।

गौरतलब है कि कैलाश मानसरोवर तीर्थ यात्रा का आयोजन भारत का विदेश मंत्रालय करता है, जो उत्तराखंड, सिक्किम और तिब्बत से होती है। भारत तिब्बत सीमा पुलिस के हवाले इस यात्रा की पूरी सुरक्षा होती है। वहीं, कुमायूं मंडल विकास निगम और सिक्किम पर्यटन विकास निगम कैलाश की यात्रा कर रहे श्रद्धालुओं को मदद देती है। वहीं, दिल्ली हार्ट एंड लंग इंस्टीट्यूट की ओर से यात्रा पर जाने वाले लोगों का फिटनेस टेस्ट किया जाता है। यात्री के अनिफट पाए जाने पर उसकी यात्रा कैंसिल हो सकती है। यदि आप भी कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर जाना चाहते हैं तो विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर जाकर आप कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन करवा सकते हैं। यात्रा के लिए अपने पास पासपोर्ट साइज फोटो, पासपोर्ट का पहला और आखिरी पेज का फोटो, फोन नंबर और ईमेल अपने पास रखें। इस यात्रा को पूरा करने में तकरीबन 25 दिन का समय लगता है। इसमें 2 से 3 लाख तक खर्चा आ सकता है।

कमलेश पांडेय

एक मल्‍टी टेलेंटेड एक्‍टर हैं पीयूष मिश्रा

सुभाष शिरढोनकर 

एक्टिंग के साथ सिंगिंग और रा‍इटिंग जैसी कलाओं में भी माहिर पीयूष मिश्रा एक मल्‍टी टेलेंटेड एक्‍टर के रूप में अलग पहचान बना चुके हैं।

13 जनवरी, 1962 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर में जन्मे पीयूष मिश्रा का वास्‍तविक नाम प्रियकांत शर्मा था। उनकी बुआ तारा देवी मिश्रा ने कोई संतान न होने के कारण उन्हें गोद लिया था। इस तरह वह प्रियकांत शर्मा से पीयूष मिश्रा बन गए।

पीयूष मिश्रा को बचपन से एक्टिंग में दिलचस्‍पी थी। 1983 में उन्‍होंने दिल्‍ली के एनएसडी में दाखिला लिया। जब वह एनएसडी के सेकंड ईयर में थे, जर्मन निर्देशक, फ्रिट्ज़ बेनेविट्ज़ ने उन्हें ‘हेमलेट’ की शीर्षक भूमिका में निर्देशित करते हुए अभिनय की बारीकियों से परिचित कराया।

साल 1986 में वे एनएसडी से पास आउट हुए। उसके बाद उन्‍होंने थियेटर शुरू किया। 1988 में श्‍याम बेनेगल के टीवी सीरियल ‘भारत एक खोज’ के एक सीरियल में पीयूष नजर आए।

1990 में वे फाउंडर-डायरेक्‍टर एन के शर्मा के थियेटर ग्रुप ‘एक्‍टर वन’ से जुड़ गए। इस ग्रुप में उन्‍होंने मनोज बाजपेयी, गजराज राव और आशीष विद्यार्थी जैसे एक्‍टर्स के साथ जमकर थियेटर किया। उस दौरान पीयूष मिश्रा ने कई नाटक लिखे और उनमें एक्टिंग की। कुछ नाटक उन्‍होंने निर्देशित भी किए।

कुछ ही बरसों में पीयूष ने खुद को एक थियेटर निर्देशक, एक्‍टर, गीतकार और गायक के रूप में स्‍थापित कर लिया। जब 1993 में उन्हें फिल्‍म ‘सरदार’ में एक कैमियो का आफर मिला, तब वह दिल्‍ली से मुंबई आ गए।

मणिरत्नम की फिल्म ‘दिल से’ (1998) में उन्‍होंने सीबीआई इन्‍वेस्टिगेटर का जो किरदार निभाया, उसके लिए उनके काम की जमकर प्रशंसा हुई।  ‘मकबूल’ (2003) और ‘गैग्‍स ऑफ वासेपुर’ (2012) के लिए भी उनके काम को काफी अधिक पसंद किया गया।   

इसके बाद उन्होंने ढेर सारी तमिल, तेलुगु फिल्‍मों के अलावा ‘गुलाल’, ‘ब्लैक फ्राइडे’, ‘द शौकीन्स’, ‘तेरे बिन लादेन’, ‘लफंगे परिंदे’, ‘दैट गर्ल इन येलो बूट्स’, ‘रॉकस्टार’, ‘तमाशा’, ‘पिंक’, ‘संजू’ जैसी हिंदी फिल्‍मों के साथ ही साथ एक दर्जन से अधिक शोर्ट फिल्‍में और अनेक वेब सीरीज में अपनी यादगार अदाकारी से गहरी छाप छोड़ी।

वेब सीरीज ‘इल्‍लीगल’ (2020) और  ‘इल्‍लीगल 2’ (2021) में एडवोकेट जनार्दन जेटली के किरदार में उन्‍होंने अपने शानदार एक्टिंग टेलेंट से हर किसी का दिल जीत लिया।

‘गुलाल’, ‘लाहौर’, ‘टशन’, ‘आजा नचले’, जैसी फिल्‍मों के लिए पीयूष ने गीत भी लिखे । फिल्म ‘गुलाल’ (2009) के लिए पीयूष मिश्र का एक गाना ‘आरंभ है प्रचंड’ काफी लोकप्रिय हुआ था। इसी फिल्‍म में पीयूष मिश्रा के दो अन्‍य गाने ‘शहर’ और ‘दुनिया’ को भी लोगे ने बेशुमार प्यार दिया था।

फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर (2002) में भी पीयूष मिश्रा के गाने दर्शकों को बेहद पसंद आए। खासकर उनका गाना ‘इक बगल’ काफी लोकप्रिय हुआ था।  

पीयूष मिश्रा ने 2012 में यूट्यूब चैनल पर रिलीज कोक स्टूडियो के सीजन 2 में ‘हुस्ना’ गाना गाया।  इसके बाद साल 2013 में कोक स्टूडियो के यूट्यूब चैनल पर रिलीज पीयूष मिश्रा का गाना ‘घर’ भी काफी  था। शीश महल एल्बम का गाना ‘भोला सा मन’ साल 2016 में रिलीज हुआ था। इस 5 मिनट 49 सेकेंड के गाने को लोगों ने बेहद पसंद किया था

पीयूष मिश्रा ने ‘गजनी’, ‘लाहौर’, ‘अग्निपथ’, ‘द लेजेंड ऑफ भगत सिंह’ जैसी फिल्मों के डॉयलोग भी लिखे हैं। वह एक कवि भी हैं। उनकी कविता ‘कुछ इश्क किया कुछ काम किया’ खूब मशहूर हुई थी। इसी नाम से उन्‍होंने एक कविता संग्रह भी लिखा।

1995 पीयूष ने में प्रिया नारायणन से शादी की जिनसे उनकी मुलाकात 1992 में स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर में एक नाटक का निर्देशन करते समय हुई थी। प्रिया नारायणन पेशे से एक आर्किटेक्‍ट हैं। प्रिया से पीयूष को दो बेटे जय और जोश हैं।

सुभाष शिरढोनकर

वित्तीयवर्ष 2025-26 के केंद्रीय बजट से मिल सकती हैं कई सौगातें

वित्तीय वर्ष 2024-25 की पहली छमाही (अप्रेल-सितम्बर 2024) में भारत की आर्थिक विकास दर कुछ कमजोर रही है। प्रथम तिमाही (अप्रेल-जून 2024) में तो सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर गिरकर 5.2 प्रतिशत के निचले स्तर पर आ गई थी। इसी प्रकार द्वितीय तिमाही (जुलाई-सितम्बर 2024) में भी सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर 5.4 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है। इससे वित्तीय वर्ष 2024-25 में यह वृद्धि दर घटकर 6.6 प्रतिशत से 6.8 प्रतिशत के बीच रहने का अनुमान है, जबकि वित्तीय वर्ष 2023-24 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर 8.2 प्रतिशत की रही थी। वित्तीय वर्ष 2024-25 की प्रथम छमाही में आर्थिक विकास दर के कम होने के कारणों में मुख्य रूप से देश में सम्पन्न हुए लोक सभा चुनाव है और आचार संहिता के लागू होने के चलते केंद्र सरकार के पूंजीगत खर्चों एवं अन्य खर्चों में भारी भरकम कमी दृष्टिगोचर हुई है। साथ ही, देश में मानसून की स्थिति भी ठीक नहीं रही है। 

केंद्र सरकार ने हालांकि मुद्रा स्फीति पर अंकुश लगाने में सफलता तो अर्जित कर ली है परंतु उच्च स्तर पर बनी रही मुद्रा स्फीति के कारण कुल मिलाकर आम नागरिकों, विशेष रूप से मध्यमवर्गीय परिवारों, की खर्च करने की क्षमता पर विपरीत प्रभात जरूर पड़ा है और कुछ मध्यमवर्गीय परिवारों के गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे परिवारों की श्रेणी में जाने का खतरा उत्पन्न हो गया है। किसी भी देश में मध्यमवर्गीय परिवारों की जितनी अधिक संख्या रहती है, उस देश की आर्थिक विकास दर ऊंचे स्तर पर बनी रहती है क्योंकि मध्यमवर्गीय परिवार ही विभिन्न प्रकार के उत्पादों (दोपहिया वाहन, चारपहिया वाहन, फ्रिज, एयर कंडीशनर  जैसे उत्पादों एवं नए फ्लेट्स एवं भवनों आदि) को खरीदने पर अपनी आय के अधिकतम भाग का उपयोग करता है। इससे आर्थिक चक्र में तीव्रता आती है और इन उत्पादों की बाजार में मांग के बढ़ने के चलते इनके उत्पादन को विभिन्न कम्पनियों द्वारा बढ़ाया जाता है, इससे इन कम्पनियों की आय एवं लाभप्रदता में वृद्धि होती है एवं देश में रोजगार के नए अवसर निर्मित होते हैं। 

भारत में पिछले कुछ समय से मध्यमवर्गीय परिवारों की व्यय करने की क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ा है अतः दिनांक 1 फरवरी 2025 को केंद्र सरकार की वित्त मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारामन से अब यह अपेक्षा की जा रही है कि वे वित्तीय वर्ष 2025-26 के केंद्र सरकार के बजट में मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए विशेष रूप से आय कर में छूट की घोषणा करेंगी। देश के कई अर्थशास्त्रियों का तो यह भी कहना है कि न केवल आय कर में बल्कि कारपोरेट कर में भी कमी की घोषणा की जानी चाहिए। इनफोसिस के संस्थापक सदस्यों में शामिल श्री मोहनदास पई का तो कहना है कि 15 लाख से अधिक की आय पर लागू 30 प्रतिशत की आय कर की दर को अब 18 लाख से अधिक की आय पर लागू करना चाहिए। आय कर मुक्त आय की सीमा को वर्तमान में लागू 7.75 लाख रुपए की राशि से बढ़ाकर 10 लाख रुपए कर देना चाहिए। आयकर की धारा 80सी के अंतर्गत किए जाने निवेश की सीमा को भी 1.50 लाख रुपए की राशि से बढ़ाकर 2 लाख रुपए कर देना चाहिए। मकान निर्माण हेतु लिए गए ऋण पर अदा किए जाने वाले ब्याज पर प्रदान की जाने वाली आयकर छूट की सीमा को 2 लाख रुपए से बढ़ाकर 3 लाख रुपए किया जाना चाहिए। 

फरवरी 2025 माह में ही भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा मोनेटरी पोलिसी की घोषणा भी होने जा रही है। भारतीय रिजर्व बैंक से अब यह अपेक्षा की जा रही है कि वे रेपो दर में कम से कम 25 अथवा 50 आधार बिंदुओं की कमी तो अवश्य करेंगे। क्योंकि, पिछले लगातार लगभग 24 माह तक रेपो दर में कोई भी परिवर्तन नहीं करने के चलते मध्यमवर्गीय परिवारों द्वारा मकान निर्माण एवं चार पहिया वाहन आदि खरीदने हेतु बैकों से लिए गए ऋण की किश्त की राशि का बोझ बहुत अधिक बढ़ गया है। बैकों से लिए गए इस प्रकार के ऋणों एवं माइक्रो फाइनैन्स की किश्तों की अदायगी में चूक की घटनाएं भी बढ़ती हुई दिखाई दे रही हैं। अब मुद्रा स्फीति की दर खाद्य पदार्थों (फलों एवं सब्जियों आदि) के कुछ महंगे होने के चलते ही उच्च स्तर पर आ जाती है जबकि कोर मुद्रा स्फीति की दर तो अब नियंत्रण में आ चुकी है। खाद्य पदार्थों की मंहगाई को ब्याज दरों को उच्च स्तर पर बनाए रखकर कम नहीं किया जा सकता है। अतः भारतीय रिजर्व बैंक को अब इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।      

वित्तीय वर्ष 2024-25 की प्रथम तिमाही में सम्पन्न हुए लोक सभा चुनाव के चलते देश में पूंजीगत खर्चों में कमी दिखाई दी है। इसीलिए अब लगातार यह मांग की जा रही है कि देश में वन नेशन वन इलेक्शन कानून को शीघ्र ही लागू किया जाना चाहिए क्योंकि बार बार देश में चुनाव होने से केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा आचार संहिता के लागू होने के चलते अपने बजटीय खर्चों को रोक दिया जाता है जिससे देश का आर्थिक विकास प्रभावित होता है। अतः वित्तीय वर्ष 2025-26 के लिए लोक सभा में पेश किए जाने वाले बजट में पूंजीगत खर्चों को बढ़ाने पर गम्भीरता दिखाई जाएगी। हालांकि वित्तीय वर्ष 2022-23 के बजट में 7.50 लाख करोड़ रुपए के पूंजीगत खर्चों का प्रावधान किया गया था, वित्तीय वर्ष 2023-24 के बजट में 10 लाख करोड़ रुपए एवं वित्तीय वर्ष 2024-25 के बजट में 11.11 लाख करोड़ रुपए के पूंजीगत खर्चों का प्रावधान किया गया था। अब वित्तीय वर्ष 2025-26 के लिए कम से कम 15 लाख करोड़ रुपए के पूंजीगत खर्चों का प्रावधान किये जाने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। इससे देश में धीमी पड़ रही आर्थिक गतिविधियों को तेज करने में सहायता मिलेगी और रोजगार के करोड़ों नए अवसर भी निर्मित होंगे, जिसकी वर्तमान समय में देश को अत्यधिक आवश्यकता भी है। 

विभिन्न राज्यों द्वारा चलायी जा रही फ्रीबीज की योजनाओं पर भी अब अंकुश लगाए जाने के प्रयास किए जाने चाहिए। इन योजनाओं से देश के आर्थिक विकास को लाभ कम और नुक्सान अधिक होता है। केरल, पंजाब, हिमाचल प्रदेश एवं दिल्ली की स्थिति हम सबके सामने है। इस प्रकार की योजनाओं को चलाने के कारण इन राज्यों के बजटीय घाटे की स्थिति दयनीय स्थिति में पहुंच गई है। पंजाब तो किसी समय पर देश के सबसे सम्पन्न राज्यों में शामिल हुआ करता था परंतु आज पंजाब में बजटीय घाटा भयावह स्थिति में पहुंच गया है। जिससे ये राज्य आज पूंजीगत खर्चों पर अधिक राशि व्यय नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि इन राज्यों की न तो आय बढ़ रही है और न ही बजटीय घाटे पर नियंत्रण स्थापित हो पा रहा है।    

पिछले कुछ समय से भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भी कम हो रहा है। यह सितम्बर 2020 तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद का 4.3 प्रतिशत था जो अब गिरकर सकल घरेलू उत्पाद का 0.8 प्रतिशत के स्तर तक नीचे आ गया है।  वित्तीय वर्ष 2025-26 के बजट में इस विषय पर भी गम्भीरता से विचार किया जाएगा। वित्तीय वर्ष 2019 के बजट में कोरपोरेट कर की दरों में कमी की घोषणा की गई थी, जिसका बहुत अच्छा प्रभाव विदेशी प्रत्यक्ष निवेश पर पड़ा था और सितम्बर 2020 में तो यह बढ़कर सकल घरेलू उत्पाद का 4.3 प्रतिशत तक पहुंच गया था। अब एक बार पुनः इस बजट में कोरपोरेट कर में कमी करने पर भी विचार किया जा सकता है। 

वित्तीय वर्ष 2025-26 के बजट में रोजगार के अधिक से अधिक अवसर निर्मित करने वाले उद्योगों को भी कुछ राहत प्रदान की जा सकती है क्योंकि आज देश में रोजगार के करोड़ों नए अवसर निर्मित करने की महती आवश्यकता है। विशेष रूप से सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग को विशेष सुविधाएं प्रदान की जा सकती हैं। हां, साथ में तकनीकी आधारित उद्योगों को भी बढ़ावा देना होगा क्योंकि वैश्विक स्तर पर भी हमारे उद्योगों को हमें प्रतिस्पर्धी बनाना है। ग्रामीण इलाकों में आज भी भारत की लगभग 60 प्रतिशत आबादी निवास करती है अतः कृषि क्षेत्र एवं ग्रामीण क्षेत्र में कुटीर एवं लघु उद्योगों पर अधिक ध्यान इस बजट के माध्यम से दिया जाएगा, ताकि रोजगार के अवसर ग्रामीण इलाकों में ही निर्मित हों और नागरिकों के शहर की ओर हो रहे पलायन को रोका जा सके। 

अमेरिका की फंडिंग बन्द होने से बीमार होता विश्व स्वास्थ्य संगठन

-प्रियंका सौरभ

यू.एस. विश्व स्वास्थ्य संगठन की वित्तीय स्थिति वापसी के कारण तनावपूर्ण है। यू.एस. विश्व स्वास्थ्य संगठन के बजट का सबसे बड़ा दाता था, जो 2023 में स्वैच्छिक योगदान का 13% और मूल्यांकन किए गए योगदान का 22.5% था। फंडिंग के अचानक बंद होने से एक बड़ा संसाधन अंतराल पैदा हुआ, जिससे महत्त्वपूर्ण स्वास्थ्य पहलों को ख़तरा हुआ, खासकर निम्न और मध्यम आय वाले देशों (कम और मध्यम आय वाले देशों) में। यू.एस. ने रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्र (सीडीसी) जैसे संगठनों के माध्यम से विश्व स्वास्थ्य संगठन समितियों को वैज्ञानिक ज्ञान का योगदान दिया, जिसमें एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वापसी ने वैश्विक निगरानी और महामारी की तैयारी के लिए आवश्यक साझेदारियों को तोड़ दिया। महामारी की तैयारी, निष्पक्ष टीका वितरण और प्रतिक्रिया समन्वय के लिए एक एकल विश्वव्यापी ढांचा बनाने के अमेरिका के प्रयासों को विश्व स्वास्थ्य संगठन के नेतृत्व वाली महामारी संधि वार्ता से बाहर निकलने के फैसले से बाधा पहुँची। क्योंकि वापसी ने राष्ट्रीय हितों को अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता से आगे रखा, इसने बहुपक्षवाद को कमजोर किया। अन्य देश भी ऐसा ही कर सकते हैं, जिससे विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे वैश्विक संगठनों में विश्वास कम हो सकता है। वैश्विक स्वास्थ्य शासन का पहला प्रभाव शक्ति संतुलन में बदलाव है। अमेरिका के बाहर निकलने से चीन और वैश्विक दक्षिण को अंतर को भरने का मौका मिला। जैसे-जैसे चीन ने अपने संसाधनों और प्रभाव का विस्तार किया, भारत जैसे देश निम्न और मध्यम आय वाले देशों के बारे में अधिक मुखर हो गए और निष्पक्ष स्वास्थ्य नीतियों को बढ़ावा दिया। निम्न और मध्यम आय वाले देशों में कमजोर आबादी विश्व स्वास्थ्य संगठन की टीकाकरण कार्यक्रमों और रोग उन्मूलन पहलों का समर्थन करने की कम क्षमता से असमान रूप से प्रभावित हुई थी। यू.एस.-विश्व स्वास्थ्य संगठन साझेदारी की समाप्ति ने महत्त्वपूर्ण अनुसंधान और नवाचारों के प्रसार में देरी की और अंतरराष्ट्रीय महामारी निगरानी नेटवर्क में हस्तक्षेप किया। भारत और अन्य वैश्विक दक्षिण देशों के लिए वैश्विक स्वास्थ्य शासन के पुनर्गठन पर अधिक प्रभाव डालने का एक मौका है। वैक्सीन कूटनीति और समग्र स्वास्थ्य पहलों में अपने नेतृत्व के कारण भारत एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में स्थित है। हालांकि, संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा छोड़ी गई नेतृत्व की भूमिका को संभालने की उनकी क्षमता संसाधनों की कमी और परस्पर विरोधी प्राथमिकताओं, जैसे क्षेत्रीय संघर्षों से बाधित है।

जब तक सरकार अनुमति देती है, विश्व स्वास्थ्य संगठन राष्ट्रीय स्वास्थ्य पहलों में भाग लेता है। इसके अतिरिक्त, यह भारत सरकार द्वारा चलाए जा रहे कई स्वास्थ्य पहलों के साथ सहयोग करता है और उनका समर्थन करता है, जिनमें एचआईवी, मलेरिया, तपेदिक, उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोग (एनटीडी), रोगाणुरोधी प्रतिरोध और बहुत कुछ शामिल हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन भारत के टीकाकरण कार्यक्रम के लिए महत्वपूर्ण है; विश्व स्वास्थ्य संगठन की टीमें वैक्सीन कवरेज पर भी नज़र रखती हैं। यदि अमेरिकी फंडिंग बंद हो जाती है, तो विश्व स्वास्थ्य संगठन भारत सहित इन पहलों को पूरा करने में असमर्थ होगा। अमेरिका अब अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाएगा। आज, संयुक्त राज्य अमेरिका सार्वजनिक स्वास्थ्य कूटनीति का उपयोग यह प्रभावित करने के लिए करता है कि बाकी दुनिया लोगों के स्वास्थ्य के प्रति कैसे प्रतिक्रिया करती है और उसे कैसे सुरक्षित रखती है। अल्बानिया, बुल्गारिया, बेलारूस, चेकोस्लोवाकिया, हंगरी, रोमानिया और यूक्रेन के साथ-साथ सोवियत संघ सहित कई पूर्वी यूरोपीय देशों ने 1949 में विश्व स्वास्थ्य संगठन से हटने का इरादा घोषित किया। इन देशों ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रयासों और उन पर अमेरिका के प्रभाव के प्रति अपनी नाराजगी व्यक्त की।यू.एस. वैश्विक स्वास्थ्य के शासन में एक महत्त्वपूर्ण क्षण ट्रम्प के विश्व स्वास्थ्य संगठन से हटने से चिह्नित किया गया था वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य सुरक्षा और लचीलेपन की गारंटी देने के लिए, भारत और ग्लोबल साउथ के अन्य सदस्यों जैसे देशों को इन मुद्दों को हल करने और एक निष्पक्ष और सहयोगी ढांचे को बढ़ावा देने के लिए पहल करनी चाहिए। अमेरिका को वापस लाना। वैश्विक स्वास्थ्य के शासन में स्थिरता और विश्वास बहाल करना अभी भी भागीदारी पर निर्भर करता है।

संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए विदाई देना क्यों महत्वपूर्ण है? सबसे पहले, ट्रम्प सही हैं: संयुक्त राज्य अमेरिका विश्व स्वास्थ्य संगठन (विश्व स्वास्थ्य संगठन) का सबसे बड़ा वित्तीय समर्थक है, जो इसके कुल वित्त पोषण का लगभग 18% प्रदान करता है। इन फंडों को वापस लेने से कई वैश्विक स्वास्थ्य पहलों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा, जैसे कि तपेदिक, एचआईवी/एड्स और कुछ संक्रामक रोगों के उन्मूलन के प्रयास। विश्व स्वास्थ्य संगठन रोग के प्रकोप को रोकने और पता लगाने, मजबूत स्वास्थ्य प्रणालियों का निर्माण करने और यह गारंटी देने के लिए भी काम करता है कि दुनिया में हर किसी के पास जीवन रक्षक दवाओं तक उचित पहुंच हो। ट्रम्प की झुंझलाहट से यह स्पष्ट है कि सख्त आसन और भौतिक सीमाएं रोगाणुओं को किसी के क्षेत्र से बाहर नहीं रख सकती हैं और वैश्विक स्वास्थ्य प्रयास शून्य में काम नहीं करते हैं। कोविड-19 महामारी ने हमें सिखाया कि जब तक सभी सुरक्षित नहीं हैं, तब तक कोई भी सुरक्षित नहीं है इस उम्मीद में कि वह अपना मन बदल लेगा और फिर से उनके साथ जुड़ जाएगा, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अमेरिका से संपर्क किया है। यह सुनने में भले ही कितना भी अद्भुत लगे, लेकिन वैज्ञानिक चमत्कारों ने चिकित्सा क्षेत्र को भी प्रभावित किया है, और चिकित्सा समुदाय को उम्मीद है कि एक और चमत्कार संयुक्त राज्य अमेरिका को विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ फिर से जोड़ देगा।

-प्रियंका सौरभ 

दिल्ली चुनाव में महिला वोटरों की उदासीनता

डॉ. रमेश ठाकुर

अरविंद केजरीवाल ने अपने चुनावी घोषणापत्र में एक बार फिर फ्रीबीज की झड़ी लगाई है। कितने सफल होंगे, ये तो आने वाला समय ही तय करेगा पर अब इतना जरूर है, लोग फ्री की सौगातों से ऊबने लगे है। श्रमबल को तरजीह देने वाली आधी आबादी, भी अब मुफ्त की चुनावी रेबड़ियों पर ध्यान नहीं देगी। इसी कारण जारी दिल्ली विधानसभा चुनाव के प्रचार-प्रसार में महिला वोटरों की उदासीनता बड़े पैमाने पर दिखने लगी है। पांच फरवरी को होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव के कूदे कुल 699 उम्मीदवारों में 96 महिला कैंडिडेट भी हैं पर, वैसा उत्साह नहीं दिखता जितना पिछले चुनावों में दिखा था जबकि, प्रमुख दल आम आदमी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस तीनों महिला वोटरों को रिझाने में  मुफ्त के वादों की झड़ी लगाए हुए हैं। कोई 2100 रूपए देने का वादा कर रहा है तो 2500 और 3000 तक भी? फ्री बस सेवा सभी के एजेंड़ों में हैं।

अब, सवाल यहां ये उठता है, इतने लुभावने वादों के बाद भी महिला वोटरों में उत्साह क्यों नहीं है? इस डरावनी तस्वीर से न सिर्फ सफेदपोश परेशान हैं बल्कि चुनाव आयोग भी चिंतित है। चुनावी समर में लगातार तेजी से गिरता वोटिग प्रतिशत चुनावी प्रक्रिया के अलावा लोकतंत्र के लिए भी घातक है जबकि बीते 2019 और 2024 के लोकसभा चुनावों में महिलाओं का वोटिंग स्कोर पुरुषों के मुकाबले अधिक था।


शायद, महिलाएं भी अब समझ चुकी हैं कि फ्री के नाम पर राजनीतिक दल उन्हें वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल करने लगे हैं? महिलाएं बुनियादी मुद्दों की गंभीरताओं को अच्छे से समझती हैं। राज्य तरक्की करे उसमें उनकी भागीदारी हो, को ध्यान में रखकर ज्यादातर महिलाओं ने मुफ्त की रेवड़ियों से तौबा करना शुरू कर दिया है। इस संबंध में एक ताजा और बेहतरीन उदाहरण सामने है। पिछले विधानसभा चुनाव में बिहार में जब नीतीश कुमार ने शराबबंदी का ऐलान करके चुनाव लड़ा तो महिलाओं ने बढ़चढ कर हिस्सा लिया और उन्हें सत्ता पर बैठा दिया। देश और सामाजिक उद्धार  वाले मुद्दों के प्रति महिलाएं कितनी सजग हैं, इससे ख़ूबसूरत उदाहरण दूसरा कोई नहीं हो सकता। केंद्रीय स्तर पर जब से आत्मनिर्भरता की अलख चहुं ओर जगी है, तब, से महिलाएं भी श्रमबल को ज्यादा तवज्जो देनी लगी हैं। ये अच्छी बात है, इससे राजनीतिक दल अपनी हरकतों से बाज आएंगे। शायद यही कारण है दिल्ली में महिलाओं की चुनाव के प्रति उदासीनता है क्योंकि, सभी दल मुद्दों-समस्याओं को छोड़कर फ्री की सेल लगाकर बैठे हैं। ऐसे दलों का पुरजोर विरोध होना ही चाहिए। विरोध से ही सरकारें टैक्सपेयर्स का पैसा बर्बाद करने से पीछे हटेंगी।  


महिलाओं की उदासीनता के बूते ही दिल्ली चुनाव इस बार नई तस्वीर पेश करेगा। मौजूदा सरकार की शराब पॉलिसी को लेकर महिलाएं खासी नाराज हैं। सरकार की नई शराब नीति में ‘एक पर एक फ्री बोतल’ पॉलिसी ने कईयों के घर बर्बाद कर दिए। जो नहीं पीता था, वो भी फ्री के चक्कर में पीने लगा। मौजूदा सरकार अगर सत्ता से बेदखल होती है तो शराब ऑफर उसका मुख्य कारण होगा। वैसे, कम होती वोटिंग विधा की तल्ख सच्चाई से चुनाव और सियासी दल अच्छे से वाकिफ हैं लेकिन उस हकीकत को दोनों कभी उजागर नहीं करना चाहेंगे। हकीकत ये है, चुनावों में अगर ग्रामीण, मध्यमवर्ग और महिलाएं हिस्सा न लें तो वोटिंग प्रतिशत और धरातल में घुस जाए। वोटिंग से शिक्षित वर्ग, वर्किंग लोग लगातार दूरियां बनाने लगे हैं। मतदान के दिन वह छुट्टियां मनाते हैं, बा-मुश्किल ही घरों से उस दिन बाहर निकलते हैं।  

दिल्ली में इस बार जितने नए वोटर जुड़ें हैं उनमें पुरूषों के मुकाबले महिलाएं मतदाता काफी पीछे हैं। ये स्थिति तब है, जब दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने की कोशिश कर रहे तीनों प्रमुख दलों के घोषणाओं में महिलाओं से जुड़ी योजनाओं की मूसलाधार भरमारें हैं। आप, भाजपा व कांग्रेस तीनों दल आधी आबादी को अपने पाले में करने की भरसक कोशिशें में हैं। मुख्य निर्वाचन अधिकारी द्वारा जारी अंतिम मतदाता सूची पर अगर गौर करें, तो पुरुष मतदाताओं से महिलाओं की संख्या काफी कम है। इस बार दिल्ली में कुल 1,55,24,858 मतदाता अपने मतों का 5 फरवरी को इस्तेमाल करेंगे जिनमें पुरुषों की संख्या 85,49,645 और महिलाओं की संख्या 71,73,952 है। बीच में अंतर अच्छा खासा है। 

हालांकि, दिल्ली चुनाव आयोग ने मतदान बढ़ाने को लेकर एक नायाब तरीका अपनाया है। उन्होंने दिल्ली के तकरीबन स्कूलों को आदेशित किया है कि वह छात्रों के जरिए उनके माता-पिता व अन्य परिवारजनों से वोटिंग करने को लेकर लिखित में संकल्पित करवाएं। इसके लिए बाकायदा छात्रों से एक संकल्प पत्र दिया गया हैं जिस पर उनके अभिभावक वोट देने की कसम को लिखित हस्ताक्षर के साथ स्कूलों में जमा करवा रहे है। हैरत यही है कि नौबत ऐसी आ गई कि वोटिंग ब़ढ़ाने के लिए सरकारी सिस्टम ने स्कूलों और छात्रों का सहारा लेना शुरू कर दिया है।


बहरहाल, दिल्ली चुनाव में दो धड़े ऐसे हैं जो सियासी दलों की इस बार नैया पार लगा सकते हैं। अव्वल, महिला वोटर और दूसरे पूर्वांचल से वास्ता रखने वाले लोग? दिल्ली में प्रत्येक 10 वोटरों में तीसरा वोटर पूर्वांचली है। अगर इन दोनों की उदासीनता  चुनाव पर हावी रही तो वोटिंग प्रतिशत और नीचे गिर जाएगा। पिछले दिनों कुछ राज्यों में विधानसभा सीटों पर उप-चुनाव हुए जिनमें दिल्ली से सटी गाजियाबाद सीट पर मात्र 33 फीसदी ही मतदान हुआ जिसे देखकर आयोग के ही नहीं, नेताओं के कान खड़े हो गए जबकि गाजियाबाद सीट पर महिला वोटरों की संख्या बहुत अच्छी है।

 सवाल यहां एक ये भी उठने लगा है कि क्या महिलाएं भी मुफ्त रेवड़ियों से परहेज करने लगी हैं। अगर ऐसा है तो सुखद तस्वीर कही जाएगी। निश्चित रूप से देश की शिक्षित महिलाएं अब अपने श्रमबल को तरजीह देने लगी हैं। उन्हें देखकर ग्रामीण आबादी भी सजग हुई है। वोटिंग प्रक्रियाओं में महिलाओं की चुप्पी क्या कहती है, उसे समझना चुनाव आयोग और राजनेताओं को अब आवश्यक हो गया है।


डॉ. रमेश ठाकुर

भाजपा के अगले राष्ट्रीय अध्यक्ष को लेकर पार्टी से लेकर संघ तक चल रही है माथापच्ची !


कमलेश पांडेय

भारतीय जनता पार्टी का अगला अध्यक्ष कौन होगा, इसको लेकर अब सियासी हल्के में तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं क्योंकि जो भी अध्यक्ष बनेगा, वह कई मायने में महत्वपूर्ण होगा। भाजपा के मिशन 2029 की सफलता का सारा दारोमदार उसी के ऊपर होगा। इससे पहले मिशन यूपी 2027 को सफल बनाने का नैतिक भार भी उसी के कंधे पर होगा हालांकि, पार्टी अध्यक्ष का चयन इस बार उतना आसान नहीं है जितना कि पहले हुआ करता था क्योकि पार्टी-संघ के सभी गुट एक बेहतर समन्वय स्थापित रखने वाला राष्ट्रीय अध्यक्ष चाहते हैं जो उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम हर जगह लोकप्रिय हो और उस पर गुट विशेष की छाप भी नहीं पड़े।

भाजपा में अटल-आडवाणी युग को समाप्त करके मोदी-शाह युग का आगाज करने वाली ऊर्जावान टीम अगले अध्यक्ष के चयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। जबकि संघ की पीठ पर सवार होकर पार्टी की तीसरी पीढ़ी के नेता अपना-अपना अनुभव और अपनी-अपनी भावी भूमिका के दृष्टिगत अपनी-अपनी गोटी सेट करने के जुगाड़ में लगे हुए हैं। ये नेता पार्टी व संघ के सभी गुटों से समुचित तालमेल बिठाने में जुटे हुए हैं। वहीं, दूसरी पीढ़ी के नेता खासकर गृहमंत्री अमित शाह चाहते हैं कि पार्टी की कमान अभी उन्हीं के समर्थक के हाथ में रहे ताकि वर्तमान और भावी सत्ता संतुलन बना रहे और पार्टी लाभान्वित होती रहे। 

उधर, आरएसएस भी चाहता है कि अगला अध्यक्ष वही बने जो उसकी उपेक्षा नहीं करे, खासकर मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा की तरह क्योंकि संघ से नीतिगत हठधर्मिता के सवाल पर बाजपेयी, आडवाणी, मोदी, शाह आदि सबकी कभी न कभी ठनी जरूर लेकिन नड्डा ने जैसी सार्वजनिक फजीहत करवाई, वैसी हिमाकत किसी ने नहीं। कुछ यही साइड इफेक्ट्स पड़ा कि आज भाजपा को यदि गठबंधन की बैशाखी चाहिए तो सिर्फ इसलिए कि लोकसभा चुनाव 2024 में आरएसएस न्यूट्रल हो गया था, जिससे भाजपा रिवर्स गियर में चली गई जबकि 2014 और 2019 में उसने भाजपा का पूरा साथ दिया था। वहीं, हाल ही में हुए हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में भी उसने भाजपा का खुलकर साथ दिया जिससे भाजपा लाभान्वित रही और अपनी खोई प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकी। इसलिए जो भी अगला अध्यक्ष बनेगा, उसके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से संबंध और संगठन के अनुभव के साथ-साथ उसके लो प्रोफाइल पर भी गौर किया जाएगा।

भाजपा रणनीतिकार व गृहमंत्री अमित शाह चाहते हैं कि पार्टी का अगला अध्यक्ष जो भी बने, वह उनकी टीम के लिए कभी चुनौती नहीं बन पाए। इसलिए किसी भी दुधारी फेस वाले व्यक्ति को इस पद तक वह पहुंचने ही नहीं देना चाहते हैं। उन्होंने अपनी भावनाओं से संघ तक को अवगत करा रखा है। वहीं, उनके प्रबल प्रतिद्वंद्वी समझे जाने वाले यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ संघ और पार्टी की तीसरी पीढ़ी के नेताओं को साधकर कुछ चमत्कार करवाने में जुटे हुए हैं। कुछ यही वजह है कि पिछले साल भर से यह मामला खटाई में पड़ा हुआ है।

ऐसा इसलिए कि यदि वरिष्ठ भाजपा नेता और पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी मौजूदा रक्षा मंत्री और भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह की दोहरी निष्ठा को समय रहते पहचान लिए होते और उनके नाम पर वीटो लगाकर उन्हें पुनः राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं बनने दिए होते तो पीएम इन वेटिंग के रूप में पराजित होने के बावजूद जब दूसरी बार लगातार पुनः पीएम इन वेटिंग बनने की बारी आती तो उनके नाम को चुनौती देना मुश्किल होता लेकिन देखा गया कि अपने ही सियासी शागिर्द और गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले वह लगातार पिछड़ते गए। फिर यहां तक नौबत आ गई कि प्रधानमंत्री तो छोड़िए, राष्ट्रपति पद के लिए भी उनके नाम पर कभी विचार नहीं हुआ जबकि रामनाथ कोविंद और द्रौपदी मुर्मू उनसे ज्यादा काबिल निकलीं। वहीं, उन्हें  उपराष्ट्रपति के काबिल भी नहीं समझा गया और वैंकेया नायडू व जगदीप धनखड़ जैसे नेता उनसे ज्यादा योग्य समझे गए।

उस समय आडवाणी की भरोसेमंद सलाहकार रहीं लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने भी राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली को रणनीतिक मात देने के लिए राजनाथ सिंह के नाम पर रजामंदी जताई थीं जो उनके राजनीतिक जीवन की भी भारी भूल साबित हुई। समझा जाता है कि भाजपा के स्वप्नदृष्टा और उन्नायक लालकृष्ण आडवाणी के लिए बस यही एक चूक उनके राजनीतिक करियर के लिए नासूर साबित हुई। वहीं, भाजपा अध्यक्ष के चयन में सावधानी बरतकर टीम मोदी ने राजनीतिक बुलंदियों का झंडा गाड़ दिया। इसका सारा श्रेय भी अमित शाह को दिया जाता है। आपको याद होगा कि गृहमंत्री बनने के बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह की इस महत्वपूर्ण पद से विदाई की गई। उसके बाद राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में अमित शाह को आरूढ़ किया गया और फिर 2019 में मोदी 2.0 सरकार बनते ही उन्हें गृहमंत्री बनाकर राजनाथ सिंह का नम्बर दो वाला रुतबा कम किया गया। यह सब एक सोची समझी रणनीति थी, जिसे राजनाथ सिंह न चाहते हुए भी मानने को विवश हुए।

वहीं, किसी भी राष्ट्रीय अध्यक्ष को दो से ज्यादा कार्यकाल नहीं देने के पार्टी संविधान के चलते जब अमित शाह के हटने की बारी आई तो उन्होंने न केवल जे पी नड्डा का चुनाव किया बल्कि उन्हें एक सफल राष्ट्रीय अध्यक्ष साबित करने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। चूंकि अमित शाह पीएम मोदी के बाद देश का प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं, इसलिए वह पीएम मोदी को भरोसे में लेकर पार्टी में ऊपर से लेकर नीचे तक अपने खासमखास लोगों को सेट करते जा रहे हैं। अपनी इसी रणनीति के तहत वो आगे की भी गोटी फिट कर रहे हैं। अब जब पार्टी संविधान के तहत जे पी नड्डा की विदाई का समय आ गया है तो उन्होंने मौजूदा वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का नाम आगे बढ़ाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, आरएसएस और भाजपा की तीसरी पीढ़ी के नेताओं की बोलती बंद कर दी है। जबकि कद्दावर भाजपा नेता शिवराज सिंह चौहान, मनोहर लाल खट्टर, भूपेंद्र यादव, धर्मेंद्र प्रधान और विनोद तावड़े जैसे नेताओं के नाम भी भाजपा के अगले राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर शुमार किये जा रहे हैं। जबकि प्रमुख दलित उम्मीदवार के रूप में केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल, पार्टी महासचिव दुष्यंत गौतम और उत्तर प्रदेश की मंत्री बेबी रानी मौर्य के नामों पर विचार हो सकते हैं।

दूसरी ओर किसी भी विवाद से बचने के लिए पीएम नरेंद्र मोदी इस अहम पद के लिए अपने भरोसेमंद हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री और मौजूदा केंद्रीय मंत्री मनोहर लाल खट्टर के नाम पर रजामंदी चाहते हैं। वहीं, संघ और भाजपा का मोदी-शाह विरोधी खेमा भाजपा के पूर्व संगठन मंत्री संजय जोशी को आगे बढ़ाकर राष्ट्रीय अध्यक्ष बनवाना चाहता है ताकि भाजपा और संघ के बीच समुचित समन्वय बना रहे। इसके अलावा, दलित फैक्टर, ओबीसी फैक्टर पर भी सावधानी पूर्वक गौर फरमाया जा रहा है। ऐसे में एक-दूसरे के दुःख के साथ नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत किस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं, इंतजार करना बेहतर होगा, क्योंकि इनके अकाट्य निष्कर्षों का पूर्वानुमान लगाना मीडिया के वश की बात नहीं है।

केंद्रीय सड़क परिवहन व राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी, उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, असम के मुख्यमंत्री हेमंत विश्वशर्मा, बिहार के उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी जैसे नेता अपने राजनीतिक भविष्य की हिफाजत के लिए इस मामले में फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं जबकि रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह पुनः सभी गुटों के लिए संकटमोचक की भूमिका में हैं यानी सबकी अलग-अलग सोच के बीच उचित समन्वयक की भूमिका में। क्योंकि उन पर सबका भरोसा है और वो पार्टी-संघ हित में भरोसे के काबिल भी हैं। भले ही उनकी नीतियों से आडवाणी का भला नहीं हो पाया, लेकिन भाजपा और संघ का काफी भला हुआ, इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता। उनके खास व्यक्ति अरुण सिंह को पार्टी केंद्रीय कार्यालय में इसी लिए तो बैठाया गया है।

दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के सूत्रों के मुताबिक, दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद पार्टी में नए अध्यक्ष के लिए चुनाव होगा। बताया जाता है कि इसी नजरिए से भाजपा ने हाल ही में अपनी सदस्यता अभियान के तहत 10 करोड़ से ज्यादा सदस्यों को जोड़ा है और फिलहाल राज्य इकाइयों के लिए संगठनात्मक चुनाव कर रही है। इसके बाद ही पार्टी का नया अध्यक्ष चुना जाएगा। दरअसल, भाजपा के संविधान के मुताबिक राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने से पहले कम से कम आधे राज्य इकाइयों में संगठनात्मक चुनावों का पूरा होना जरूरी है। 

अभी तक पार्टी ने इस पद के लिए आधिकारिक तौर पर किसी भी उम्मीदवार का ऐलान तो नहीं किया है लेकिन चर्चा है कि नड्डा का उत्तराधिकारी या तो कोई केंद्रीय मंत्री हो सकता है या फिर पार्टी के संगठनात्मक ठांचे से निकला कोई व्यक्ति हो सकता है। बता दें कि फरवरी 2020 में जेपी नड्डा ने अमित शाह से पार्टी की कमान संभाली थी। वैसे तो पार्टी अध्यक्ष का कार्यकाल 3 साल का होता है, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनावों को देखते हुए नड्डा को कार्यकाल विस्तार दिया गया। क्योंकि लोकसभा चुनाव के दौरान पार्टी स्थिर नेतृत्व बनाए रखना चाहती थी। इसका उचित फल भी मिला और 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार लगातार तीसरी बार सत्ता में लौटी और नरेंद्र मोदी एक बार फिर तीसरी बार प्रधानमंत्री बने और कांग्रेस के कई रिकॉर्ड तोड़ दिए और कुछ की बराबरी कर ली। वहीं, भाजपा अध्यक्ष के रूप में नड्डा के कार्यकाल की एक और बड़ी अचीवमेंट हरियाणा में भाजपा की हैट्रिक और महाराष्ट्र में मिली शानदार जीत भी है। दिल्ली विधानसभा चुनावों को लेकर भी कुछ वैसी ही उम्मीदें हैं।

सूत्र बता रहे हैं कि भाजपा नेतृत्व नए भाजपा अध्यक्ष का चयन करते समय जाति पर भी ज्यादा ध्यान दे सकता है क्योंकि नड्डा ब्राह्मण हैं और मोदी अन्य पिछड़ा समुदाय (ओबीसी) से आते हैं। साथ ही बीआर अंबेडकर के मुद्दे पर घिरने के बाद और खुद पर लगने वाले दलित विरोधी आरोपों को धोने के लिए भाजपा इस बार किसी दलित को भी यह जिम्मेदारी दे सकती है क्योंकि कांग्रेस ने हाल ही में गृह मंत्री अमित शाह को आंबेडकर के मुद्दे पर संसद में जमकर घेरा था। इसके अलावा, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे हैं, जो दलित समाज से आते हैं। इसको लेकर भी कांग्रेस अक्सर भाजपा पर को दलितों की अनदेखी का आरोप लगाती रहती है। ऐसे में भाजपा विपक्ष को शांत करने के लिए दलित नेता की नियुक्ति कर सकती है। इस रूप में प्रमुख उम्मीदवार केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल, पार्टी महासचिव दुष्यंत गौतम और उत्तर प्रदेश की मंत्री बेबी रानी मौर्य के किस्मत बुलंद हो सकते हैं। 

वहीं, भाजपा के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए उम्र भी एक अहम भूमिका अदा करेगी। क्योंकि विपक्ष में युवा नेताओं के उभार को देखते हुए यह और भी ज्यादा जरूरी हो जाता है क्योंकि विपक्ष में कांग्रेस से राहुल गांधी और प्रियंका गांधी, समाजवादी पार्टी से अखिलेश यादव, तृणमूल कांग्रेस से अभिषेक बनर्जी और राष्ट्रीय जनता दल से तेजस्वी यादव, आप के अरविंद केजरीवाल, एनसी के उमर अब्दुल्ला ऐसे चेहरे हैं जो अपनी-अपनी पार्टियों के मुख्य चेहरे बने हुए हैं और युवा भी हैं। ऐसे में कई बार भाजपा के मौजूदा नेतृत्व को यह आरोप भी झेलना पड़ जाता है कि वो नई नस्ल को बढ़ावा नहीं दे रही। वहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बार-बार ये कहते हुए देखा-सुना जा सकता है कि युवाओं को राजनीति में आगे आकर हिस्सा लेना चाहिए।

इसके अलावा, यह भी चर्चा है कि भाजपा इस बार किसी महिला को भी अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन सकती है क्योंकि इस पार्टी में अभी तक किसी भी महिला को इस अहम पद तक पहुंचने का मौका नहीं मिला है। इस दृष्टि से केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण या पूर्व केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के नामों पर भी विचार किया जा सकता है। वहीं, भाजपा दक्षिण भारत से भी अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन सकती है क्योंकि इस समय पार्टी में दक्षिण का कोई भी नेता बड़े पद पर नहीं है। ऐसे में संतुलन बनाने के लिए भाजपा ऐसा कदम उठा सकती है। 

हालांकि, इसमें कोई संदेह नहीं है कि नए अध्यक्ष के चयन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छाप और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का समर्थन होगा जो मौजूदा व्यवस्था को बनाए रखेगा लेकिन इसमें आरएसएस की दखल को भी अहम माना जाता है क्योंकि भाजपा का असंतुष्ट खेमा अकसर संघ को आगे करके ही अपना एजेंडा मनवाता आया है। इसलिए ऐसा कहा जाता है कि पार्टी के गठन के बाद से बीजेपी हमेशा अपना अध्यक्ष आरएसएस के साथ ‘बैठक’ के बाद चुनती है जहां दोनों पक्षों की सहमति से बहुमत समर्थन वाले उम्मीदवार का चयन होता है। वहीं, पार्टी के संगठन महामंत्री जैसा अहम पद भी संघ पृष्ठभूमि के मजबूत व्यक्ति को ही दिया जाता है जो भाजपा-संघ के बीच का मुख्य सूत्रधार समझा जाता है।

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने नाम नहीं छापे जाने की शर्त पर साफ शब्दों में कहा कि, ‘मोदी जी की पिछली पसंद को देखते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भाजपा का अगला राष्ट्रीय अध्यक्ष, एक लो-प्रोफाइल नेता और विश्वासपात्र हो सकते हैं। फिर भी उन्हें ऐसा नेता होना चाहिए जो शीर्ष नेतृत्व के विचारों और कार्यक्रमों को लागू कर सके।’ कुलमिलाकर भारतीय जनता पार्टी को जल्द ही नया राष्ट्रीय अध्यक्ष मिलने जा रहा है क्योंकि संगठन को फरवरी तक चयन प्रक्रिया पूरी होने की उम्मीद है। 

पार्टी सूत्रों का कहना है फरवरी के दूसरे पखवाड़े में बीजेपी अध्यक्ष का चुनाव हो सकता है क्योंकि बीजेपी में संगठन चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। मंडल से लेकर जिला और प्रदेश इकाई के अध्यक्ष चुने जा रहे हैं। इसके अलावा, भाजपा की राष्ट्रीय परिषद और प्रदेश परिषद के सदस्य भी चुने जा रहे हैं, जो राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव में अहम भूमिका निभाएंगे और नए अध्यक्ष का चुनाव करेंगे। हालांकि, अभी तक सिर्फ चार राज्यों के प्रदेश अध्यक्षों का ही चुनाव हुआ है। बता  दें कि बीजेपी संविधान के अनुसार, राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव के लिए कम से कम 50 प्रतिशत राज्य इकाइयों में संगठन के चुनाव पूरे होने जरूरी हैं। लिहाजा बीजेपी नेताओं के अनुसार, पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार ही संगठन चुनाव चल रहा है और इसे समय पर पूरा करा लिया जाएगा। 

फिलहाल, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने अपना तीन साल का कार्यकाल पूरा कर लिया है। वैसे तो बतौर अध्यक्ष नड्डा का कार्यकाल पिछले साल जनवरी में ही समाप्त हो गया था लेकिन लोकसभा चुनाव 2024 के दृष्टिगत उनका कार्यकाल बढ़ाया गया था। नड्डा ने फरवरी 2020 में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद संभाला था। वे इस समय मोदी कैबिनेट का हिस्सा हैं और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री की जिम्मेदारी भी संभाल रहे हैं। नए बीजेपी अध्यक्ष नड्डा की जगह लेंगे।

वहीं, यदि आप हाल में ही बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष चुनने के कुछ खास पैटर्न को समझ लेंगे तो अगले राष्ट्रीय अध्यक्ष के नाम पर अनुमान लगाने में आपको कोई कठिनाई नहीं होगी क्योंकि बीजेपी के नए राज्य अध्यक्षों के चयन में निष्ठावान और विचारधारा में गहरे जुड़े नेताओं का खास ध्यान रखा गया है। जहां असम, गोवा में नए चेहरों पर जोर दिया गया है, वहीं चंडीगढ़ और छत्तीसगढ़ में पुरानी नेतृत्व पर ही भरोसा कायम रखा गया है। इस कड़ी में जातिगत समीकरण भी महत्वपूर्ण रहे हैं। इन प्रदेशाध्यक्षों में से सभी में कुछ बातें समान हैं। इनमें विचारधारा में निहित और आरएसएस से जुड़े होने, संगठन में लंबे समय तक काम करने और अपेक्षाकृत लो प्रोफाइल होना है। 

वहीं, बीजेपी की स्टेट यूनिट के अध्यक्षों के चुनाव में निरंतरता और बदलाव का मिश्रण देखने को मिल रहा है। चंडीगढ़ और छत्तीसगढ़ में बीजेपी ने पुराने नेतृत्व पर भरोसा जताया है जबकि असम, गोवा और महाराष्ट्र में बदलाव का विकल्प चुना है। इससे साफ है कि भाजपा में एक बूथ कार्यकर्ता राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभर सकता है। बस पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए तीन चीजें सबसे ज्यादा मायने रखती हैं – राष्ट्र, संगठन और विचारधारा। वहीं, किसी भी चयन से पहले बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व उन लोगों के नाम पर विचार करता है जो ‘कार्यकर्ता’ के दृष्टिकोण वाले हैं और विचारधारा में गहराई से निहित हैं। साथ ही कई दशकों से संगठन के लिए काम कर रहे हैं। पार्टी नेताओं ने कहा भी है कि शांत और प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं को पुरस्कृत किया जाएगा और आगे भी यही तरीका हो सकता है। 

इससे साफ है कि भाजपा के अगले राष्ट्रीय अध्यक्ष को लेकर पार्टी से लेकर संघ तक में माथापच्ची चल रही है, विचार मंथन चल रहा है। अब देखना यह है कि किस की  किस्मत बुलंद होगी और कौन होगा धराशायी।

कमलेश पांडेय

जलवायु परिवर्तन से बच्चों का जीवन संकट में

-ललित गर्ग –
संयुक्त राष्ट्र बाल कोष यानी यूनिसेफ की रिपोर्ट ‘लर्निंग इंटरप्टेड रू ग्लोबल स्नैपशॉट ऑफ क्लाइमेट-रिलेटेड स्कूल डिसरप्शंस इन 2024’ में चौंकाने वाले तथ्यों एवं खुलासे ने बच्चों को लेकर चिन्ता को बढ़ा दिया है। अब तक कृषि व मौसम के चक्र पर ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों के अध्ययन निष्कर्ष तो सामने आते रहे हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन का बच्चों के शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, शैक्षणिक एवं स्वास्थ्य विषयक ऐसा संवेदनशील अध्ययन पहली बार सामने आया है, जिसने जहां नीति-निर्माताओं और शिक्षाविदों को चिन्ता में डाला है वहीं अभिभावकों की परेशानियों को बढ़ा दिया है। सरकार पर भी दबाव बनाया कि वह बच्चों व शिक्षा पर जलवायु परिवर्तन से होने वाले घातक असर को कम करने के लिये कारगर नीतियां बनाये एवं उन्हें तत्परता से लागू करें। इस रिपोर्ट के अनुसार गत वर्ष सिर्फ भारत में लगभग पांच करोड़ छात्र लू एवं अत्यधिक गर्मी के कारण प्रभावित हुए। जलवायु परिवर्तन सिर्फ हमारे पर्यावरण पर ही असर नहीं डाल रहा है बल्कि बच्चों की शिक्षा पर भी गहरा और खतरनाक असर डाल रहा है। ओस्लो विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान की पोस्ट डॉक्टरल फेलो डॉ केटलिन एम प्रेंटिस और उनके सहयोगियों ने इस बारे में विस्तृत अध्ययन किया है। ‘नेचर क्लाइमेट चेंज’ पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन के अनुसार दक्षिण एशिया, खासकर भारत, बांग्लादेश और कंबोडिया जैसे देशों में अप्रैल महीने में गरम हवा की लहरों (हीटवेव) ने शिक्षा व्यवस्था को बुरी तरह से प्रभावित कर दिया।
जलवायु परिवर्तन के लिहाज से भारत को बेहद संवेदनशील देश करार दिया गया। वर्ष 2024 में दुनिया के 85 देशों में 24.2 करोड़ बच्चों की पढ़ाई चरम मौसम के कारण बाधित हुई। इसका अर्थ यह है कि वर्ष 2024 में दुनिया भर के स्कूल जाने वाले हर सात बच्चों में से एक बच्चा मौसमी बाधाओं के कारण कभी न कभी स्कूल नहीं जा सका। शोध के अनुसार बढ़ती गर्मी एवं गर्म दिनों की अधिक संख्या ने न केवल बच्चों के स्वास्थ्य को बल्कि परीक्षा परिणामों को खराब किया। मौसमी बाधाओं का असर बच्चों की शिक्षा पर लंबे समय तक रहता है। यूनिसेफ ने अपनी रिपोर्ट में चेताया है कि यदि ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन ऐसे ही जारी रहा, तो वर्ष 2050 तक बच्चों के गरम हवाओं के संपर्क में आने की संभावना आठ गुनी बढ़ जाएगी। सार्वभौमिक तापमान में लगातार होती इस वृद्धि के कारण विश्व के पर्यावरण पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है, उससे मुक्ति के लिये जागना होगा, संवेदनशील होना होगा एवं विश्व के शक्तिसम्पन्न राष्ट्रों को सहयोग के लिये कमर कसनी होगी तभी हम जलवायु परिवर्तन से जुड़े बच्चों के संकट से निपट सकेंगे अन्यथा यह विश्व के बच्चों के प्रति बड़ा अपराध होगा, उनके विनाश का कारण बनेगा।
ग्लोबल वार्मिंग के खतरों ने दुनिया को चिन्ता में डाला है, इसने भारतीय जनजीवन, पर्यावरण, जीवजंतु, एवं कृषि के दरवाजे पर ऐसी दस्तक दी है, जो न केवल चिन्ताजनक है बल्कि अनेक खतरों की टंकार है। रिकॉर्ड तोड़ गर्मी से जहां सामान्य जन-जीवन बाधित है, पीने के शुद्ध पानी के स्रोत सूखने लगे है, वहीं खेती किसानी पर भी नया संकट मंडरा रहा है। गत वर्ष भारत मौसम विज्ञान विभाग ने जानकारी दी थी कि वर्ष 2024 में भारत में गर्मी के सारे पुराने रिकॉर्ड टूट गये थे। यह वर्ष 1901 के बाद से सबसे गर्म साल के तौर पर दर्ज हुआ था। यूनिसेफ ने स्पष्ट किया है कि जलवायु संकट न केवल बच्चों की शिक्षा, बल्कि उनके पूरे भविष्य को खतरे में डाल रहा है। यदि इस संकट से निपटने के लिए तत्काल प्रभावी एवं जरूरी कदम नहीं उठाये गये, तो इसके बुरे असर को लंबे समय तक महसूस किया जाएगा और नयी पीढ़ी का जीवन अनेक खतरों से घिर जायेगा। अब जरूरी हो गया है कि सरकार शिक्षा पर जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने के लिए ठोस रणनीतियां बनाने को आगे आये।
जलवायु परिवर्तन से बच्चों की शिक्षा ही नहीं, बल्कि अन्य कई तरह के प्रभाव पड़ते हैं। जलवायु परिवर्तन से बच्चों का शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य, और शिक्षा प्रभावित होती है। विशेषतः गर्मी से होने वाली बीमारियां और मौतों का खतरा बढ़ता है और हैज़ा, मलेरिया, डेंगू, और जीका जैसी बीमारियां खतरनाक तरीके से जीवन को घेरती है। गर्भावस्था के दौरान अत्यधिक गर्मी के संपर्क में आने से जन्म के समय कम वज़न के बच्चे पैदा होने की संभावनाएं बढ़ जाती है। पर्यावरण विषाक्त पदार्थों के संपर्क में आने का खतरा बढ़ता है। अत्यधिक गर्मी की वजह से होने वाली आपदाओं में मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है और अवसाद, चिंता, नींद संबंधी विकार और सीखने की कठिनाइयां उग्रतर हो जाती है। इन्हीं सब कारणों से बच्चों की पढ़ाई प्रभावित होती है एवं परीक्षा परिणाम अपेक्षानुसार नहीं आ पाते हैं। बच्चे वयस्कों की तुलना में जलवायु और पर्यावरणीय झटकों के प्रति शारीरिक और शारीरिक रूप से अधिक संवेदनशील होते हैं। वे बाढ़, सूखा, तूफान और गर्मी जैसी चरम मौसम की मार झेलने और उससे बचने में कम सक्षम होते हैं। बच्चांे को जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक खामियाजा उठाना पड़ता हैं क्योंकि यह उनके अस्तित्व, संरक्षण, विकास और भागीदारी के मौलिक अधिकारों को प्रभावित करता है।
बच्चों पर जलवायु परिवर्तन के अन्य संभावित प्रभाव पड़ते हैं,  जैसे- अनाथ, तस्करी, बाल श्रम, शिक्षा और विकास के अवसरों की हानि, परिवार से अलग होना, बेघर होना, भीख मांगना, आघात, भावनात्मक व्यवधान, बीमारियाँ आदि हैं। यह संकट यूं तो पूरी दुनिया में है लेकिन दक्षिण एशिया के अन्य देशों के मुकाबले दुनिया की सर्वाधिक जनसंख्या वाले भारत में इसका ज्यादा प्रभाव देखा गया है। ग्लोबल वार्मिंग के भयावह संकट को नियंत्रित करना सबसे बड़ी चुनौती है। चिन्ताजनक तथ्य यह भी है कि यदि देश-दुनिया में ग्रीन हाउस गैसों के नियंत्रण के लिये वैश्विक सहमति शीघ्र नहीं बनती तो आने वाले वर्षों में तापमान में और वृद्धि हो सकती है। जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के लिए अमीर एवं शक्तिशाली देशों की उदासीनता एवं लापरवाहपूर्ण रवैया भी विडम्बनापूर्ण है। दुनिया में जलवायु परिवर्तन की समस्या जितनी गंभीर होती जा रही है, इससे निपटने के गंभीर प्रयासों का उतना ही अभाव महसूस हो रहा है। जलवायु परिवर्तन से पिछले एक साल में दुनिया में हालात ज्यादा गंभीर हुए है, बिगड़े हैं। दरअसल कार्बन उत्सर्जन घटाने एवं जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अमीर देशों ने जैसा रुख अपनाया हुआ है, वह इस संकट को गहराने वाला है। जलवायु परिवर्तन के घातक प्रभावों ने भारत ही नहीं पूरी दुनिया की चिंताएं बढ़ा दी हैं। अभी भी नहीं चेते तो यह समस्या हर देश, हर घर एवं हर व्यक्ति के जीवन पर अंधेरा बनकर सामने आयेगी। विशेषतः बच्चों के बचपन पर इससे गहरे धुंधलके छाने वाले हैं। वैज्ञानिक और पर्यावरणविद चेतावनी दे रहे हैं कि आने वाले दशकों में वैश्विक तापमान और बढ़ेगा इसलिए अगर दुनिया अब भी नहीं सर्तक होगी तो इक्कीसवीं सदी के बच्चों को भयानक आपदाओं से कोई नहीं बचा पाएगा।
जलवायु परिवर्तन के बढ़ते घातक परिणाम को नियंत्रित करने के लिये भारत सरकार को जागना होगा एवं प्रभावी कदम उठाने होंगे। विशेषतः अनुकूलित और संवेदनशील सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों का मापन करना जैसे- गर्भवती महिलाओं और बच्चों के लिये अनुदान प्रदान करना, बच्चों और उनके परिवारों पर जलवायु परिवर्तन द्वारा पड़ने वाले प्रभावों की पहचान करना है। जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से पीड़ित देशों को बाल अधिकारों पर सम्मेलन में अपनी प्रतिबद्धता बढ़ाने की आवश्यकता है ताकि प्रत्येक बच्चे को गरीबी से संरक्षित किया जा सके, उदाहरण के लिये बच्चों के जीवन को बेहतर और लचीलापन बनाने के लिये सार्वभौमिक बाल लाभयोजनाओ को क्रियान्वित करना होगा। निस्संदेह, यह अध्ययन देश के नीति-नियंताओं को चेताता है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बच्चों को बचाने के लिये शिक्षा ही नहीं स्वास्थ्य आदि अन्य क्षेत्रों में व्यापक पैमाने पर काम करने की जरूरत है। शिक्षाविदों के साथ ही चिकित्सा बिरादरी के लोगों को भी इस ज्वलंत मुद्दे पर मंथन करने की जरूरत है। इसके अलावा देश में जलवायु परिवर्तन प्रभावों का हमारे जन-जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों के मूल्यांकन के लिये व्यापक अध्ययन व शोध करने की जरूरत महसूस की जा रही है। यदि समय रहते कदम नहीं उठाए गए तो इसके प्रभाव दीर्घकालीन हो सकते हैं।

लॉस एंजेलेस में भीषण जंगल की आग: जलवायु परिवर्तन बना खलनायक

लॉस एंजेलेस में जनवरी 2025 की शुरुआत में लगी जंगल की आग ने इतिहास में सबसे विनाशकारी आग के रूप में अपनी छाप छोड़ी है। 28 लोगों की मौत, 10,000 से अधिक घरों का नष्ट होना, और लाखों लोगों का जहरीले धुएं से प्रभावित होना इस त्रासदी की भयावहता को दर्शाता है। वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन (WWA) की हालिया रिपोर्ट बताती है कि मानव-जनित जलवायु परिवर्तन ने इस आपदा को और घातक बना दिया।

आग के फैलने के कारण

वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के चलते तेल, गैस और कोयले के अत्यधिक उपयोग से:

आग के लिए अनुकूल गर्म, शुष्क और तेज़ हवाओं वाले हालात 35% अधिक संभावित हो गए हैं।

अक्टूबर-दिसंबर के बीच होने वाली बारिश में भारी कमी देखी गई है, जिससे सूखी वनस्पति ज्वलनशील बन रही है। यह कमी अब पूर्व-औद्योगिक समय की तुलना में 2.4 गुना अधिक संभावित है।

आग के अनुकूल स्थितियां अब हर साल लगभग 23 दिन अधिक समय तक बनी रहती हैं, जिससे सर्दियों में भी जंगल की आग का खतरा बढ़ गया है।

विशेषज्ञों की राय

इंपीरियल कॉलेज लंदन के सेंटर फॉर एनवायर्नमेंटल पॉलिसी की डॉ. क्लेयर बार्न्स का कहना है, “जलवायु परिवर्तन ने इन आगों के जोखिम को और अधिक बढ़ा दिया है। सर्दियों में सूखा और तेज़ हवाएं, जो पहले कम होती थीं, अब जंगल की आग को बड़े पैमाने पर फैलाने में अहम भूमिका निभा रही हैं।”

यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफ़ोर्निया के प्रोफेसर पार्क विलियम्स ने इस घटना को “परफेक्ट स्टॉर्म” कहा। उन्होंने कहा, “तेज़ हवाएं, सूखी वनस्पतियां, और शहरी क्षेत्रों में आग का प्रवेश एक ऐसी स्थिति पैदा करते हैं जहां नुकसान को नियंत्रित करना लगभग असंभव हो जाता है।”

आग की भयावहता

इस आग की शुरुआत 7 जनवरी को हुई, जब सांता आना पहाड़ियों से चलने वाली तेज़ हवाओं ने सूखी घास और झाड़ियों को जलाने में मदद की। आग तेजी से शहरी क्षेत्रों में फैल गई, जिससे लाखों लोगों की जिंदगी खतरे में पड़ गई।

28 लोगों की मौत में से 17 मौतें वेस्ट ऑल्टाडेना इलाके में हुईं, जहां चेतावनी प्रणाली में देरी दर्ज की गई।

आग ने शहरी इलाकों में प्रवेश करके 10,000 से अधिक घरों को नष्ट कर दिया।

विषैली धुएं की वजह से वायु गुणवत्ता खतरनाक स्तर तक गिर गई, जिससे लाखों लोगों की सेहत पर असर पड़ा।

समाधान की दिशा में कदम

रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने और नुकसान कम करने के लिए:

1. जल वितरण प्रणाली को मजबूत करना: ईटन और पालिसैड्स क्षेत्रों में पानी की कमी ने आग बुझाने के प्रयासों को बाधित किया।

2. हाई-रिस्क इलाकों में निर्माण के मानक: घरों को आग-रोधी डिज़ाइन के साथ बनाना होगा।

3. प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली में सुधार: आग के खतरे वाले क्षेत्रों में तेजी से चेतावनी और निकासी सुनिश्चित करनी होगी।

भविष्य की चेतावनी

वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर वर्तमान दर पर जलवायु परिवर्तन जारी रहा, तो ऐसे हालात और गंभीर हो सकते हैं। 2100 तक तापमान 2.6°C बढ़ने की संभावना है, जिससे आग के लिए अनुकूल स्थितियां 35% अधिक बार हो सकती हैं।

डॉ. फ्रेडरिक ओटो ने चेताया, “चाहे यह विनाशकारी आग हो या भयंकर तूफान, जलवायु परिवर्तन के खतरनाक प्रभाव अब हर कोने में महसूस किए जा रहे हैं। अगर जीवाश्म ईंधनों का जलना बंद नहीं हुआ, तो आने वाले समय में हालात और बदतर होंगे।”

निष्कर्ष

लॉस एंजेलेस की इस आग ने दुनिया को एक और चेतावनी दी है कि जलवायु परिवर्तन अब केवल भविष्य की समस्या नहीं है, बल्कि वर्तमान का संकट है। अब समय आ गया है कि हम नवीकरणीय ऊर्जा की ओर बढ़ें और एक सुरक्षित और टिकाऊ भविष्य सुनिश्चित करें।

ग्रामीण भारत की कहानी बदल रही है स्वामित्व योजना

-डॉ सत्यवान सौरभ

स्वामित्व की आवश्यकता भारत में ग्रामीण भूमि सर्वेक्षण और बंदोबस्त का दशकों से अभाव रहा है। कई राज्यों में गांवों के आबादी क्षेत्रों के नक़्शे और दस्तावेज़ीकरण का अभाव रहा है। आधिकारिक रिकॉर्ड की अनुपस्थिति के कारण, इन क्षेत्रों में संपत्ति के मालिक अपने घरों को अपग्रेड करने या अपनी संपत्ति को ऋण और अन्य वित्तीय सहायता के लिए वित्तीय संपत्ति के रूप में उपयोग करने में असमर्थ थे जिससे उनके लिए संस्थागत ऋण प्राप्त करना मुश्किल हो गया। इस तरह के दस्तावेज़ीकरण की कमी ने 70 से अधिक वर्षों तक ग्रामीण भारत के आर्थिक विकास में बाधा डाली। यह स्पष्ट हो गया कि आर्थिक सशक्तिकरण के लिए कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त संपत्ति रिकॉर्ड के महत्त्व के आलोक में एक समकालीन समाधान की आवश्यकता थी। गाँव के आबादी क्षेत्रों के सर्वेक्षण और मानचित्रण के लिए अत्याधुनिक ड्रोन तकनीक का उपयोग करने के लिए, स्वामित्व योजना विकसित की गई थी। पीएम स्वामित्व ने जल्द ही ख़ुद को इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ साबित कर दिया।

पंचायती राज मंत्रालय की एक केंद्रीय क्षेत्र की पहल को स्वामित्व (ग्रामीण क्षेत्रों में सुधारित प्रौद्योगिकी के साथ गांवों का सर्वेक्षण और मानचित्रण) कहा जाता है। इसे नौ राज्यों में कार्यक्रम के पायलट चरण (2020-2021) के सफल समापन के बाद 24 अप्रैल, 2021 को राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस पर देश भर में पेश किया गया था। यह कार्यक्रम भूमि के टुकड़ों का मानचित्रण करने और गाँव के घरेलू मालिकों को “अधिकारों का रिकॉर्ड” प्रदान करने के लिए ड्रोन तकनीक का उपयोग करता है। कानूनी स्वामित्व कार्ड, जिन्हें संपत्ति कार्ड या शीर्षक विलेख के रूप में भी जाना जाता है, तब संपत्ति के मालिकों को जारी किए जाते हैं, जो ग्रामीण आबादी वाले (आबादी) क्षेत्रों में संपत्ति के स्पष्ट स्वामित्व की स्थापना की दिशा में एक सुधारात्मक क़दम है।

सर्वे ऑफ इंडिया और सम्बंधित राज्य सरकारों के बीच एक समझौता ज्ञापन स्वामित्व योजना को लागू करने के लिए रूपरेखा द्वारा प्रदान की गई बहु-चरणीय संपत्ति कार्ड निर्माण प्रक्रिया में पहला क़दम है। सभी पैमानों पर राष्ट्रीय स्थलाकृतिक डेटाबेस तैयार करने के लिए, विभिन्न पैमानों पर स्थलाकृतिक मानचित्रण के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग करता है, जैसे उपग्रह इमेजरी, मानव रहित हवाई वाहन या ड्रोन प्लेटफॉर्म और हवाई फोटोग्राफी ड्रोन। समझौता ज्ञापन के पूरा होने के बाद, एक सतत संचालन संदर्भ प्रणाली स्थापित की जाती है। एक आभासी बेस स्टेशन जो लंबी दूरी की, अत्यधिक सटीक नेटवर्क आरटीके (रियल-टाइम किनेमेटिक) सुधार प्रदान करता है, संदर्भ स्टेशनों के इस नेटवर्क द्वारा प्रदान किया जाता है। अगला चरण यह निर्धारित करना है कि किन गांवों का सर्वेक्षण किया जाएगा और जनता को संपत्ति मानचित्रण प्रक्रिया के बारे में सूचित करना है। प्रत्येक ग्रामीण संपत्ति को चूना पत्थर (चुन्ना) से चिह्नित किया जाता है, जो गाँव के आबादी क्षेत्र (आबाद क्षेत्र) को चित्रित करता है यह जांच / आपत्ति प्रक्रिया का समापन है, जिसे संघर्ष / विवाद समाधान के रूप में भी जाना जाता है। फिर सम्पत्ति पत्रक या अंतिम संपत्ति कार्ड / शीर्षक विलेख तैयार किए जाते हैं। आप इन कार्डों को खरीद सकते हैं।

इस कार्यक्रम के लाभों में एक समावेशी समाज शामिल है। गांवों में कमजोर आबादी की सामाजिक-आर्थिक स्थिति संपत्ति के अधिकारों तक उनकी पहुँच के साथ सकारात्मक रूप से सहसम्बद्ध है। स्वामित्व योजना इसे संभव बनाने का प्रयास करती है। आबादी की स्पष्ट रूप से परिभाषित सीमा की कमी के कारण भूमि-संघर्ष के मामलों की संख्या बहुत अधिक है। स्थानीय स्तर पर संघर्षों के अंतर्निहित कारणों को सम्बोधित करना स्वामित्व योजना का लक्ष्य है। बेहतर ग्राम पंचायत विकास योजनाएँ जो उच्च-रिज़ॉल्यूशन वाले डिजिटल मानचित्रों का उपयोग करती हैं, सड़कों, स्कूलों, सामुदायिक स्वास्थ्य सुविधाओं, नदियों, स्ट्रीटलाइट्स और अन्य बुनियादी ढाँचे में सुधार लाती हैं। अधिक सुलभ संसाधनों और प्रभावी वित्तीय प्रबंधन के माध्यम से। लोगों को अपनी संपत्ति को संपार्श्विक के रूप में मुद्रीकृत करने में मदद करना मुख्य लक्ष्य है। इसके अतिरिक्त, जिन राज्यों में संपत्ति कर लगाया जाता है, वहाँ इसे सरल बनाने से निवेश को बढ़ावा मिलता है और व्यापार करना आसान हो जाता है, जिससे भारत की आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा मिलता है।

भूमि स्वामित्व से जुड़े लंबे समय से चले आ रहे मुद्दों को विकास और सशक्तिकरण के अवसरों में बदलकर, स्वामित्व योजना ग्रामीण भारत की कहानी बदल रही है। यह योजना, जिसमें डिजिटल संपत्ति कार्ड और परिष्कृत ड्रोन सर्वेक्षण शामिल हैं, केवल सीमाओं और नक्शों के बजाय संभावनाओं और सपनों के बारे में है। स्वामित्व सिर्फ़ एक सरकारी कार्यक्रम से कहीं ज़्यादा बन गया है क्योंकि गाँव इस बदलाव का स्वागत करते हैं; यह बढ़ी हुई आज़ादी, ज़्यादा चतुराईपूर्ण योजना और ज़्यादा एकजुट, शक्तिशाली ग्रामीण भारत के पीछे एक प्रेरक शक्ति है। स्वामित्व योजना के परिणामस्वरूप ग्रामीण भारत बदल रहा है। भूमि स्वामित्व से जुड़ी लंबे समय से चली आ रही कठिनाइयाँ विकास और आत्मनिर्णय के अवसरों में बदल रही हैं। बाधाओं को दूर करने, विवादों को निपटाने और संपत्ति को आर्थिक उन्नति के लिए एक शक्तिशाली साधन में बदलने के लिए नवाचार और समावेशिता को जोड़ा जा रहा है। डिजिटल संपत्ति कार्ड और परिष्कृत ड्रोन सर्वेक्षण इस बात के दो उदाहरण हैं कि कैसे योजना सरल सीमाओं और मानचित्रों से आगे जाती है। यह अवसरों और आकांक्षाओं से भरपूर है। गाँव इस बदलाव को अपना रहे हैं और स्वामित्व महज़ सरकारी कार्यक्रम से आगे बढ़ रहा है। आत्मनिर्भरता, बेहतर योजना और अधिक एकजुट ग्रामीण भारत सभी इसके द्वारा गति प्राप्त कर रहे हैं।

डॉo सत्यवान सौरभ

दिल्ली-देवी से मुलाक़ात

    कस्तूरी दिनेश

                                     कल शाम दिल्ली-देवी से मुलाक़ात हो गई |तुम हंस रहे हो …? अरे मजाक नहीं कर रहा हूँ भाई…!हमारे यहाँ वन-देवी,ग्राम देवी,कुल-देवी होती हैं कि नहीं…?गावों में चले जाओ,अक्सर वे घोड़े पर चढ़कर,बैल या शेर पर सवारी करके रात-बेरात लोगों को दिखाई पड़ती हैं कि नहीं ? तो दिल्ली-देवी से मुलाक़ात हो गई,कहने पर तुम हंस क्यों रहे हो…?जब वो मुझे मिलीं तो वे एक ठूंठी-घिसी झाड़ू पर सवार,हिचकोले खाती उड़ी चली जा रही थीं |लगता था अब गिरी,तब गिरी…! अरे तुम फिर हंस रहे हो…? अंग्रेजी की ’हेरी पाटर’ फिल्म देखी कि नहीं…? उसमें बच्चे झाड़ू में बैठकर कैसे उड़ते थे,तो दिल्ली देवी कैसे नहीं उड़ सकतीं ? तो अब मान रहे हो न..?                                                                                                                   जब वो मिलीं तो खुश नहीं दिखीं पर लोक-व्यवहार में आज भी वे वैसे ही पटु लगीं,जैसे पुरातन काल में उनके बारे में सुनाई पड़ता था ! उन्होंने मुझे देखकर झाड़ू का मूठ दबाकर ब्रेक मारा और मेरे सामने आकर उतर गईं | मैंने दंडवत करते हुए कहा—‘प्रणाम माते..!अहोभाग्य मेरे जो मेरे देश की महान राजधानी के अनायास दर्शन हुए !’ वे नाराज होती हुई बोलीं—‘यह शिष्टाचार-विष्टाचार छोड़ और ये बता कि तू गणतन्त्र दिवस के अवसर पर मेरे पास आकर परेड देखना और घूमना चाहता था न…फिर आया क्यों नहीं…?’

मैंने हिचकिचाते हुए नीची आँखें करते हुए कहा—‘देवी बुरा तो नहीं मानेगीं…? मैं अब आपके नाम से डरने लगा हूँ…!’ वे चिढ़कर त्योरी चढ़ाते बमकीं—‘क्यों क्या हुआ रे…?’मैंने मिनमिनाते हुए कहा—‘मैं आना चाहता था,ट्रेन में मेरा और श्रीमती जी का रिजर्वेशन भी करा लिया था पर माते वो आपका…!’ वे मुझे घूरती हुई बोलीं—‘मेरा क्या…?’ मैं अपने को थोड़ा  सम्हालते हुए बोला—वो आपके यहाँ इलेक्शन का जो भयानक माहौल हैं न,उसने मुझे एकदम डरा दिया |’ दिल्ली देवी भौंह चढ़ाती हुई पूछीं—‘क्या बोल रहा है तू …कैसा माहौल…?’

मैं फिर मिनमिनाया—‘सत्ताधारी झाड़ूवाले खुद कह रहे हैं, यहाँ क्राइम का ये हाल है कि रोज खुलेआम रेप,मर्डर,लूट,डकैती आम बात है | क़ानून व्यवस्था का कोई माई-बाप नहीं..! रात को कोई महिला घर से बाहर नहीं निकल सकती…! विपक्षी कमल और पंजे वाले कह रहे हैं कि यमुना मैया का पानी इतना दूषित हो गया है कि पीना तो पीना उसमे एक डुबकी भी नहीं लगा सकते ! पूरी दिल्ली में पानी सप्लाई के पाइप इतने जर्जर हो चुके हैं कि उसमें सीवर का गंदा पानी लिंक होकर आ रहा है…! अब आप बताइए माते,ऐसे में मैं आपके पास आने की कैसे हिम्मत करता ! मेरे मन में गणतंत्र दिवस का परेड देखने और आपके दर्शन की बड़ी मनोकामना थी | इसी मनोकामना को लेकर मेरे पूजनीय दादा मर गये,पूज्य पिता भी देवलोकवासी हो गये |कितने दुःख की बात है,अब मैं भी वंचित ही रह गया | सोचता था श्रीमती जी के साथ जाऊँगा तो,लालकिला,इण्डियागेट,जन्तर-मन्तर,राजघाट,क़ुतुब मीनार,राष्ट्रपति भवन घूमूंगा | क्या करूं,रोज टीवी में यह तमाशा देख-सुनकर बीवी एक दिन आँखें तरेरती हुई गुस्से से बोलीं—‘मर्डर,रेप,लूट डकैती करवाने और यमुना का सीवर वाला गंदा पानी पीकर हैजा भुगतने के लिए नहीं जाना हमको दिल्ली…!’ तो आप ही बोलिए,टिकट केंसिल करवाने के सिवाय मेरे पास और क्या चारा था…?                                                                                                                                                 मेरी बात सुनकर,किसी जमाने की वह महान हस्तिनापुर नगरी यानी दिल्ली देवी के चेहरे का रंग,झाग भरे यमुना के मटमैले पानी जैसा हो आया | वे गहरी सांस लेती हुई एक बार मेरी तरफ रो देनेवाली नजरों से देखीं. फिर बिना कुछ बोले अपनी ठूंठी झाड़ू के मूठ का बटन दबाकर वहां से धीरे से उड़ गईं !

  कस्तूरी दिनेश

अब बनने लगा है गांधी के सपनों का भारत

गांधी निर्वाण दिवस -30 जनवरी 2025 पर विशेष
-ललित गर्ग –

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के निर्वाण दिवस जब हम नये भारत-सशक्त भारत को विकसित होते हुए देखते है तो प्रतीत होता है कि यह गांधी के ही सपनों का भारत बन रहा है। कांग्रेस की पूर्व सरकारों ने गांधी की केवल मूर्तियां स्थापित की, लेकिन भाजपा सरकार अपनी नीतियों में गांधी दर्शन को लागू कर रही है। गांधी के अहिंसा दर्शन को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी न केवल देश में बल्कि दुनिया में स्थापित कर रहे हैं। गांधी की अहिंसा ने भारत को गौरवान्वित किया है, भारत ही नहीं, दुनियाभर में अब उनकी जयन्ती को बड़े पैमाने पर अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। महात्मा गांधी महानायक के रूप में ही नहीं, देवनायक के रूप में लोकतंत्र के मजबूत आधार एवं संकटमोचक है। संसद से लेकर सड़क तक, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और व्यक्ति से लेकर विचार बनने तक जीवन के हर नीति में, हर दृष्टिकोण में, हर मोड़ पर गांधी की व्याप्ति है। भारत का स्वतंत्रता संग्राम हो या फिर नये भारत की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिस्थितियां हमारी हर सोच में, हर क्रियाएं में, हर नीति में गांधी का होना यह दर्शा रहा है कि आज गांधी पूर्व सरकारों की तुलना में ज्यादा जीवंत बने हैं।  
महात्मा गांधी के विचार एवं दर्शन पर ही मोदी सरकार की योजनाएं एवं नीतियां आगे बढ़ रही है। इस बात का खुलासा स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने करते हुए कहा है कि उनके सबका साथ, सबका विकास के विचार की प्रेरणा 1980 के दशक की है। मोदी ने अपने हाथ से लिखे एक नोट्स में इस विचार के बारे में काफी पहले ही लिख दिया था। मोदी द्वारा लिखे गए नोट्स से पता चलता है कि महात्मा गांधी के आदर्शों ने उनके जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ा है, जो केंद्र सरकार की कल्याणकारी योजनाओं में भी स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। जिसमें युवा मोदी ने महात्मा गांधी के विचारों उद्धरत करके लिखा था, मैं सबसे बड़ी संख्या की सबसे बड़ी भलाई के सिद्धांत में विश्वास नहीं करता। यह 51 प्रतिशत की अच्छाई के लिए 49 प्रतिशत की भलाई का त्याग करना है। यह सिद्धांत एक क्रूर सिद्धांत है। इसके माध्यम से मानवता को काफी नुकसान हुआ है। मानवता के लिए एक मात्र सिद्धांत है कि सभी के लिए भलाई के काम में विश्वास करना।’ मोदी सरकार सभी की भलाई के लिये काम करते हुए गांधी दर्शन को ही आगे बढ़ा रही है।
मोदी का स्वच्छता मिशन गांधी की स्वच्छता सोच को ही आगे बढ़ाने का उपक्रम है। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) भी गांधी के नाम पर चल रही योजना है। भारतीय मुद्रा से लेकर शासन-प्रशासन के हर कार्यस्थल पर गांधी है। हम गांधी के संवाद और सहिष्णुता के सिद्धान्तों को अपनाते हुए युद्ध, आतंकवाद और हिंसा को निस्तेज बना रहे हैं। दलित-आदिवासियों को न्याय और सम्मानपूर्ण जीवन प्रदत्त कर रहे हैं तो भारतीय संस्कृति एवं सांस्कृतिक पुनरुत्थान में जुटे हैं। भारत माता, गौ माता और गंगा माता के सांस्कृतिक एवं धार्मिक चिन्तन को आगे बढ़ाते हुए गांधी की मूल अवधारणा को ही आगे बढ़ते हुए देख रहे हैं। आज गांव, गरीब और स्वराज में गांधी की ही सोच आगे बढ़ रही है कि आज भारत में लोकतंत्र की चाल, चेहरा और चरित्र बदला जा रहा है तथा आस्थाओं की राजनीति को बल देते हुए जाति-धर्म का उन्माद नियंत्रित किया जा रहा है। महात्मा गांधी, आंबेडकर और दीनदयाल उपाध्याय आज इसलिए भारत निर्माण की नई व्याख्याओं में सबसे आगे हैं। वसुधैव कुटुम्बकम एवं सर्वधर्म सद्भाव का विचार आज सर्वाधिक बलशाली बन कर दुनिया के लिये आदर्श बन गया है।
मानव ने ज्ञान-विज्ञान में आश्चर्यजनक प्रगति की है। परन्तु अपने और औरों के जीवन के प्रति सम्मान में कमी आई है। विचार-क्रान्तियां बहुत हुईं, किन्तु आचार-स्तर पर क्रान्तिकारी परिवर्तन कम हुए। शान्ति, अहिंसा और मानवाधिकारों की बातें संसार में बहुत हो रही हैं, किन्तु सम्यक्-आचरण का अभाव अखरता है। गांधीजी ने इन स्थितियों को गहराई से समझा और अहिंसा को अपने जीवन का मूल सूत्र बनाया। यदि अहिंसा, शांति और समता की व्यापक प्रतिष्ठा नहीं होगी तो भौतिक सुख-साधनों का विस्तार होने पर भी मानव शांति की नींद नहीं सोे सकेगा। महात्मा गांधी के सच्चे उत्तराधिकारी के रूप में नरेन्द्र मोदी हमारे सामने हैं, उनके प्रभावी एवं चमत्कारी नेतृत्व में हम अब वास्तविक आजादी का स्वाद चखने लगे हैं, आतंकवाद, जातिवाद, क्षेत्रीयवाद, अलगाववाद की कालिमा धूल गयी है, धर्म, भाषा, वर्ग, वर्ण और दलीय स्वार्थो के राजनीतिक विवादों पर भी नियंत्रण हो रहा है। इन नवनिर्माण के पदचिन्हों को स्थापित करते हुए हम गांधी को जीवंत बनाये हुए है, यही कारण है कि कभी हम स्कूलों में शोचालय की बात सुनते है तो कभी गांधी जयन्ती के अवसर पर स्वयं झाडू लेकर स्वच्छता अभियान का शुभारंभ करते हुए मोदी को देखते हैं। मोदी कभी विदेश की धरती पर हिन्दी में भाषण देकर राष्ट्रभाषा को गौरवान्वित करते है तो कभी “मेक इन इंडिया” का शंखनाद कर देश को न केवल शक्तिशाली बल्कि आत्म-निर्भर बनाने की ओर अग्रसर करते हैं। नई खोजों, दक्षता, कौशल विकास, बौद्धिक संपदा की रक्षा, रक्षा क्षेत्र में स्वदेशी उत्पादन, श्रेष्ठ का निर्माण-ये और ऐसे अनेकों गांधी के सपनों को आकार देकर सचमुच लोकतंत्र एवं राष्ट्रीयता को सुदीर्घ काल के बाद सार्थक अर्थ दिये जा रहे हैं।
हम देशवासियों के लिये अपूर्व प्रसन्नता की बात है कि गांधी की प्रासंगिकता चमत्कारिक ढंग से बढ़ रही है। देश एवं दुनिया उन्हें नए सिरे से खोज रही है। उनको खोजने का अर्थ है अपनी समस्याओं के समाधान खोजना, युद्ध, हिंसा एवं आतंकवाद की बढ़ती समस्या का समाधान खोजना। शायद इसीलिये कई विश्वविद्यालयों में उनके विचारों को पढ़ाया जा रहा है, उन पर शोध हो रहे हैं। आज भी भारत के लोग गांधी के पदचिन्हों पर चलते हुए अहिंसा, शांति, सह-जीवन, स्वदेशी का समर्थन करते हैं। गांधीजी आज संसार के सबसे लोकप्रिय भारतीय बन गये हैं, जिन्हें कोई हैरत से देख रहा है तो कोई कौतुक से। इन स्थितियों के बावजूद उनका विरोध भी जारी है। उनके व्यक्तित्व के कई अनजान और अंधेरे पहलुओं को उजागर करते हुए उन्हें पतित साबित करने के भी लगातार प्रयास होते रहे हैं, लेकिन वे हर बार ज्यादा निखर कर सामने आए हैं, उनके सिद्धान्तों की चमक और भी बढ़ी है। वैसे यह लम्बे शोध का विषय है कि आज जब हिंसा और शस्त्र की ताकत बढ़ रही है, बड़ी शक्तियां हिंसा को तीक्ष्ण बनाने पर तुली हुई हैं, उस समय अहिंसा की ताकत को भी स्वीकारा जा रहा है। यह बात भी थोड़ी अजीब सी लगती है कि पूंजी केन्द्रित विकास के इस तूफान में एक ऐसा शख्स हमें क्यों महत्वपूर्ण लगता है जो आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की वकालत करता रहा, जो छोटी पूंजी या लघु उत्पादन प्रणाली की बात करता रहा। सवाल यह भी उठता है कि मनुष्यता के पतन की बड़ी-बड़ी दास्तानों के बीच आदमी के हृदय परिवर्तन के प्रति विश्वास का क्या मतलब है? जब हथियार ही व्यवस्थाओं के नियामक बन गये हों तब अहिंसा की आवाज कितना असर डाल पाएगी? एक वैकल्पिक व्यवस्था और जीवन की तलाश में सक्रिय लोगों को गांधीवाद से ज्यादा मदद मिल रही है।
आज जबकि समूची दुनिया में संघर्ष की स्थितियां बनी हुई हैं, हर कोई विकास की दौड़ में स्वयं को शामिल करने के लिये लड़ने की मुद्रा में है, कहीं सम्प्रदाय के नाम पर तो कहीं जातीयता के नाम पर, कहीं अधिकारों के नाम पर तो कहीं भाषा के नाम पर संघर्ष हो रहे हैं, ऐसे जटिल दौर में भी संघर्षरत लोगों के लिये गांधी का सत्याग्रह ही सबसे माकूल हथियार नजर आ रहा है। पर्यावरणवादी हों या अपने विस्थापन के विरुद्ध लड़ रहे लोग, सबको गांधीजी से ही रोशनी मिल रही है। गांधी की अहिंसा से सहयोग, सहकार, सहकारिता, समता और समन्वय जैसे उत्तम व उपयोगी मानवीय मूल्य जीवन्त हो रहे हैं। समस्त समस्याओं का समाधान भी एक ही है, वह है-अहिंसा। अहिंसा व्यक्ति में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की विराट भावना का संचार करती है। मनुष्य जाति युद्ध, हिंसा और आतंकवाद के भयंकर दुष्परिणाम भोग चुकी है, भोग रही है और किसी भी तरह के खतरे का भय हमेशा बना हुआ है। मनुष्य, मनुष्यता और दुनिया को बचाने के लिए गांधी से बढ़कर कोई उपाय-आश्रय नहीं हो सकता।

आखिर कौन लागू करवाएगा दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में आचार संहिता? 

कमलेश पांडेय

दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में चीनी दबदबे को नियंत्रित करने के लिए एक आदर्श आचार संहिता लागू करने की मांग सही है लेकिन वहां पर इसे लागू कौन करवाएगा, इस बात का उत्तर भारत समेत विभिन्न आसियान देशों के पास नहीं है। ये तो सिर्फ वकालत कर रहे हैं कि दक्षिण चीन सागर ऐसा होना चाहिए जबकि चीन अपनी हठधर्मिता के चलते सैन्य कार्रवाई करने पर उतारू है। इसी दृष्टि से वह लगातार अपनी तैयारी पुख्ता करता जा रहा है लेकिन उसे रोकने में संयुक्त राष्ट्र संघ भी यहां असहाय प्रतीत हो रहा है। 

देखा जाए तो चाहे चीन विरोधी अमेरिका हो या चीन समर्थक रूस या फिर इनके-इनके समर्थक विभिन्न विकसित और विकासशील देश, सबकी नीति इस मामले में अभी तक ढुलमुल ही रही है। इसलिए भारत की भूमिका इस मामले में भी अहम और निर्णायक बताई जा रही है क्योंकि भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के विभिन्न देशों के बहुत पुराने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध भी हैं। वहीं, वैश्विक दुनियादारी में चीन को संतुलित रखने के लिए भी भारत और आसियान देशों को एक-दूसरे की जरूरत है। इसलिए आसियान देशों के साथ भारत की निकटता जगजाहिर है। 

समझा जाता है कि भारत ही अमेरिका और रूस दोनों देशों पर दबाव डालकर आसियान देशों के दक्षिण चीन सागर सम्बन्धी दूरगामी हितों की रक्षा कर सकता है। जानकारों की मानें तो चीन की विस्तारवादी नीति से न केवल भारत बल्कि आशियान देशों के विभिन्न हित प्रभावित हो रहे हैं। उधर, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका की चिंता भी किसी से छिपी हुई नहीं है हालांकि, इन देशों में अमेरिका के बाद भारत ही एक ऐसा मुल्क है जो चीन की बढ़ती महत्वाकांक्षा को नियंत्रित कर सकता है। इसी नजरिए से क्वाड देशों में भी भारत की भागीदारी प्रमुख है। 

इधर भारत-चीन सम्बन्धों में भी ‘तू डाल-डाल, मैं पात-पात’ वाली कहावत चरितार्थ होती है। यही वजह है कि गत 25-26 जनवरी 2025 को भारत ने चीन के खिलाफ एक और बड़ी चाल चलते हुए, दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में आचार संहिता लागू करने का आह्वान किया है। वहीं, इसके दूरगामी वैश्विक मायने को समझते हुए इंडोनेशिया जैसे प्रभावशाली देश ने भी भारत का साथ दिया है। उल्लेखनीय है कि इंडोनेशिया के राष्ट्रपति भारत के 76वें गणतंत्र समारोह में बतौर मुख्य अतिथि शामिल हुए थे। इसी दौरान हुई विभिन्न बैठकों के क्रम में उपर्युक्त आशय की सहमति बनी है।

दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती सैन्य ताकत के बीच भारत और इंडोनेशिया ने प्रासंगिक अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अनुसार इस क्षेत्र में ”पूर्ण और प्रभावी” आचार संहिता लागू करने की वकालत की है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और इंडोनेशिया के राष्ट्रपति प्रबोवो सुबियांटो के बीच गत शनिवार को हुई व्यापक बातचीत में दक्षिण चीन सागर की मौजूदा स्थिति पर भी चर्चा हुई। इस बैठक में दोनों पक्षों ने भारत के हिंद महासागर क्षेत्र स्थित सूचना संलयन केंद्र (इन्फार्मेशन फ्यूजन सेंटर) में इंडोनेशिया से एक संपर्क अधिकारी तैनात करने पर सहमति व्यक्त की।

बता दें कि भारतीय नौसेना ने समान विचारधारा वाले देशों के साथ सहयोगात्मक ढांचे के तहत जहाजों की आवाजाही के साथ-साथ क्षेत्र में अन्य महत्वपूर्ण विकास पर नजर रखने के लिए वर्ष 2018 में गुरुग्राम में इन्फार्मेशन फ्यूजन सेंटर की स्थापना की थी। चूंकि आसियान देश भी दक्षिण चीन सागर पर एक बाध्यकारी आचार संहिता पर जोर दे रहे हैं क्योंकि चीन द्वारा इस क्षेत्र पर अपने व्यापक दावों को स्थापित करने के लगातार प्रयास जारी हैं। 

वहीं, इस मुद्दे पर भारत की अगुवाई में चल रहे कीप एंड बैलेंस की नीति पर चीन का बौखलाना स्वाभाविक है। बीजिंग इस प्रस्तावित आचार संहिता का कड़ा विरोध करता रहा है। वह पूरे दक्षिण चीन सागर पर अपनी संप्रभुता का दावा करता है जो हाइड्रोकार्बन का एक बड़ा स्त्रोत है जबकि, वियतनाम, फिलीपींस और ब्रुनेई सहित कई आसियान सदस्य देशों ने चीन के इस दावे पर आपत्ति जताई है। 

गौरतलब है कि एक ओर दक्षिण चीन सागर में जहां चीन अपनी सैन्य ताकत में निरंतर इजाफा करने में जुटा हुआ है जिससे आसपास के छोटे देश भयभीत हैं। वहीं अब भारत ने चीन के खिलाफ अपनी चाल चलते हुए दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में आचार संहिता लागू करने का आह्वान किया है। सुकून की बात यह है कि भारत को इस मुद्दे पर इंडोनेशिया जैसे महत्वपूर्ण देश का भी साथ मिल गया है जबकि दूसरी तरफ चीन इस क्षेत्र में आचार संहिता का खुलकर विरोध करता है। इसलिए दक्षिण चीन सागर से जुड़े हुए विभिन्न प्रभावित देशों के साथ-साथ भारत और अमेरिका की चिंताएं स्वाभाविक हैं।

बता दें कि अक्टूबर 2024 में भी जब पीएम मोदी ने ईस्ट एशिया सम्मेलन में हिस्सा लिया तो उन्होंने चीन पर इस बाबत निशाना साधा था। इससे एक दिन पहले आसियान-भारत सालाना सम्मेलन में भी उन्होंने चीन की तरफ इशारा करते हुए हिंद प्रशांत क्षेत्र और साउथ चाईना सी को लेकर जो सारी बातें कहीं, वह इस क्षेत्र में आक्रामक रवैया अपना रहे चीन को नागवार गुजर सकती है।

तब पीएम मोदी ने आसियान-भारत सालाना सम्मेलन में  दक्षिण पूर्वी एशियाई क्षेत्र के देशों के भौगोलिक संप्रभुता को समर्थन देकर चीन की तरफ इशारा किया था। वहीं, ईस्ट एशिया सम्मेलन में भी उन्होंने हिंद प्रशांत क्षेत्र और साउथ चाईना सी को लेकर दो टूक चिताएं जताई। मोदी ने समूचे हिंद प्रशांत क्षेत्र को कानून सम्मत बनाते हुए यहां की समुद्री गतिविधियों को संयुक्त राष्ट्र के संबंधित कानून (अनक्लोस) से तय होने की मांग की और साउथ चाईना सी के संदर्भ में एक ठोस व प्रभावी आचार संहिता बनाने की भी बात कही। बता दें कि आसियान के सभी दस सदस्य देश भी इसकी मांग कर रहे हैं।

वहीं, एक दिन पहले चीन के प्रधानमंत्री ली शियांग के साथ बैठक में आसियान नेताओं ने इन मुद्दों को जोरदार तरीके से उठाया था। इसके साथ ही भारतीय प्रधानमंत्री ने दुनिया के दूसरे क्षेत्रों में चल रहे तनाव के संदर्भ में कहा, ‘विश्व के अलग-अलग क्षेत्रों में चल रहे संघर्षों का सबसे नकारात्मक प्रभाव ग्लोबल साउथ के देशों पर हो रहा है। सभी चाहते हैं कि चाहे यूरेशिया हो या पश्चिम एशिया, जल्द से जल्द शांति और स्थिरता की बहाली हो।’ 

तब पीएम मोदी ने यहां तक कहा था, ‘मैं बुद्ध की धरती से आता हूं और मैंने बार-बार कहा है कि यह युद्ध का युग नहीं है। समस्याओं का समाधान रणभूमि से नहीं बल्कि सकारात्मक रणनीति से निकल सकता है। संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता और अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों का आदर करना आवश्यक है। वहीं, मानवीय दृष्टिकोण रखते हुए, डायलॉग और कूटनीति को भी प्रमुखता देनी होगी। विश्वबंधु के दायित्व को निभाते हुए, भारत इस दिशा में हर संभव योगदान करता रहेगा।’ 

तब मोदी ने आतंकवाद को भी वैश्विक शांति और सुरक्षा के लिए एक गंभीर चुनौती बताते हुए मानवता में विश्वास रखने वाली ताकतों को एकजुट होकर काम करने का आह्वान किया। बता दें कि इस सालाना आसियान सम्मेलन में शामिल सभी नेताओं में सबसे ज्यादा बार (नौ बार) पीएम मोदी ने ही हिस्सा लिया है। यह आसियान के मामलों में भारत की बढ़ती भूमिका को भी बताता है। 

वहीं, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने गत रविवार की शाम इंडोनेशिया के राष्ट्रपति प्रबोवो सुबियांतो के सम्मान में डिनर आयोजित किया। इस दौरान इंडोनेशियाई राष्ट्रपति प्रबोवो सुबियांतो ने कुछ ऐसा कहा जिसे सुनकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत सभी गणमान्य लोग खिलखिलाकर हंस पड़े।

दरअसल, इंडोनेशियाई राष्ट्रपति ने भारत और इंडोनेशिया के बीच प्राचीन संबंधों की बात कहते हुए कहा कि हमारी भाषा के कई अहम शब्द संस्कृत भाषा से आते हैं। 

बकौल इंडोनेशिया के राष्ट्रपति प्रबोवो सुबियांतो, ‘भारत और इंडोनेशिया के आपसी संबंधों का इतिहास बेहद पुराना है। दोनों देशों की सभ्यताओं में भी गहरा जुड़ाव रहा है, यहां तक कि हमारी भाषा के कई अहम शब्द संस्कृत भाषा के हैं। हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में भी प्राचीन भारतीय सभ्यता का प्रभाव है। यहां तक कि हमारे जीन्स यानी डीएनए में भी समानता है।’ इंडोनेशियाई राष्ट्रपति ने यहां तक कहा कि ‘कुछ हफ्ते पहले ही मैंने अपनी जेनेटिक्स सीक्वेंसिंग और डीएनए टेस्ट कराया। मुझे बताया गया कि मेरा डीएनए भारतीय है। सभी जानते हैं कि जैसे ही मैं भारतीय संगीत सुनता हूं, तभी मैं थिरकना शुरू कर देता हूं।’ 

वहीं, मासूमियत पूर्वक सुबियांतो ने आगे कहा कि मुझे यहां (भारत) आने पर गर्व है। मैं कोई खांटी राजनेता नहीं हूं, न ही अच्छा कूटनीतिकार हूं. मैं जो भी कहता हूं, दिल से कहता हूं। मुझे यहां आए हुए कुछ ही दिन हुए हैं लेकिन मैंने पीएम मोदी के नेतृत्व और उनके समर्पण से काफी कुछ सीखा है। उनका गरीबी को दूर करने और कमजोर वर्ग की मदद करने के लिए जो समर्पण है, वह हमारे लिए प्रेरणा है।’ इंडोनेशिया ने भारत की समृद्धि, शांति के लिए कामना की और उम्मीद जताई कि भारत और इंडोनेशिया के संबंध आगे भी मजबूत होते रहेंगे। 

यही वजह है कि मोदी और सुबियांटो ने भारत-इंडोनेशिया के आर्थिक संबंधों को बढ़ावा देने के तरीकों पर भी चर्चा की। ताकि मजबूती पूर्वक दोनों देश अपने अंतर्राष्ट्रीय एजेंडे को आगे बढ़ा सकें। इस दौरान उन्होंने द्विपक्षीय लेन-देन के लिए स्थानीय मुद्राओं के उपयोग के लिए पिछले वर्ष हुए समझौता ज्ञापन के शीघ्र कार्यान्वयन के महत्व पर भी बल दिया। उनका मानना है कि द्विपक्षीय लेन-देन के लिए स्थानीय मुद्राओं के उपयोग से व्यापार को और बढ़ावा मिलेगा और दोनों अर्थव्यवस्थाओं के बीच वित्तीय एकीकरण गहरा होगा।


वहीं, मोदी और सुबियांटो ने आतंकवाद के सभी रूपों की कड़ी निंदा करते हुए भारत-इंडोनेशिया आतंकवाद विरोधी सहयोग बढ़ाने का संकल्प दोहराया और बिना किसी ”दोहरे मापदंड” के इस खतरे से निपटने के लिए ठोस वैश्विक प्रयासों का आह्वान किया। दोनों नेताओं ने सभी देशों से संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रतिबंधित आतंकवादी संगठनों और उनके सहयोगियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई करने का आह्वान किया। 

इससे स्पष्ट है कि देर सबेर भारत, चीन पर दबाव बढ़ाने की अपनी रणनीति में कामयाब रहेगा। क्योंकि इस मसले पर उसे अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान के अलावा आसियान देशों का भी साथ मिल रहा है। चूंकि रूस भारत का मित्र देश है, इसलिए उसकी तटस्थता भी भारत के लिए मायने रखेगी।

कमलेश पांडेय