समाजिक समरसता और हमारा अनुसूचितजाति समाज

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samajik-samrastaडॉ. मयंक चतुर्वेदी

इतिहास में हर जिज्ञासा का समाधान है, इतिहास हमें हर उस बात का उत्‍तर खोजकर देता है, जिसको लेकर हम समय के प्रभाव के साथ वर्तमान में परेशान होते हैं और कभी-कभी अपने को हीन तक समझने लगते हैं। भारतवर्ष की एक जाति जिसके बारे में हर बच्‍चा अपने जन्‍म से उसे जानने लगता है, बड़ा होने पर वह परंपरागत तरीके से ही उससे व्‍यवहार करता है लेकिन जब वह समझदारी से यह विचार करता है कि समाज की जूठन, गंदगी साफ करते हुए जो जाति संपूर्ण देश में हमारे आस-पास स्‍वच्‍छता रखने के कार्य में दिन-रात लगी हुई है, उसका अतीत क्‍या है, तब वह कोई भी व्‍यक्‍ति इस जाति के प्रति श्रद्धान्‍वत हुए बिना नहीं रह पाता। भारत में भंगियों का इतिहास भी कुछ इसी प्रकार का है, जब जाना कि यह कौन है तो अंदर से यही लगा कि इनके प्रति नतमस्‍तक हो जाओ।

वास्‍तव में यह हमारे इन बन्‍धुओं का बड़प्‍पन ही है कि सदियों से अपने धर्म के मोल पर इन्‍होंने जातिगत छूआछूत को ह्दय से स्‍वीकार कर लिया किंतु हिन्‍दू बने रहना ही श्रेयस्‍कर माना। गीता में भगवान श्रीकृष्‍ण का उपदेश भी है कि दूसरे की नजर में अपना धर्म भले ही छोटा क्‍यों न हो लेकिन दूसरे के धर्म से फिर भी वह श्रेष्‍ठ ही है, इसलिए प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति को अपने धर्म का पालन करना चाहिए। भंगियों ने भी यही किया, काल के गाल में अपने स्‍वाभिमान को समाप्‍त करना तो स्‍वीकार्य कर लिया किंतु धर्म से कोई समझौता नहीं किया। इसलिए ही कहना होगा कि धन्‍य है, हमारा यह अनुसूचित समाज जातिगत रूप से मेहतर, बाल्‍मीक और इस जैसी छोटी, पिछड़ी वह तमाम जातियां जो विपरीत परस्‍थ‍ितियों में संघर्ष करती रहीं किंतु स्‍वधर्म से विचलित नहीं हुईं।

वस्‍तुत: जिन्‍हें आज हम भंगी और मेहतर जाति मानकर अछूत करार देते हुए उनके हाथ का छुआ भोजन तो दूर पानी पीना भी पसंद नहीं करते,  उनका पूरा इतिहास साहस,  त्याग और बलिदान से भरा पड़ा है। मुगलकाल का संघर्ष का इतिहास पढ़ते वक्‍त इस बात के अनेकों उदाहरण मिलते हैं, जिन्‍हें पढ़ने के बाद स्‍पष्‍ट होता है कि कैसे भंगी अथवा मेहतर शब्‍द प्रचलन में आया। प्रख्यात साहित्यकार अमृत लाल नागर ने अनेक वर्षों के शोध के बाद पाया कि जिन्हें “भंगी”, “मेहतर” आदि कहा गया, वे ब्राह्मण और क्षत्रिय हैं। इसका एक प्रमाण स्टेनले राइस ने अपनी पुस्तक “हिन्दू कस्टम्स एण्ड देयर ओरिजिन्स” के जरिए दिया है वे लिखते हैं कि भारत में अछूत मानी जाने वाली जातियों में प्राय: वे बहादुर जातियां भी हैं, जो मुगलों से युद्ध में हार गई थीं तथा उन्हें अपमानित करने के लिए मुसलमानों ने अपने मनमाने काम उनसे करवाए थे।

ऐसा ही एक प्रमाण गाजीपुर के देवदत्त शर्मा की पुस्‍तक ‘पतित प्रभाकर’ जिसका प्रकाशन सन् 1925 में हुआ था में मेहतर जाति के इतिहास पर विस्‍तृत प्रकाश डालकर दिया गया है। इस छोटी-सी पुस्तक में “भंगी”,”मेहतर”, “हलालखोर”, “चूहड़” आदि नामों से जाने गए लोगों की किस्में दी गई हैं, जो कुछ इस प्रकार हैं (पृ. 22-23) नाम जाति‍-भंगी-वैस, वैसवार, बीर गूजर (बग्गूजर), भदौरिया, बिसेन, सोब , बुन्देलिया, चन्देल, चौहान, नादों, यदुवंशी, कछवाहा, किनवार-ठा कुर, बैस, भोजपुरी राउत,गाजीपुरी राउत, गेहलौता, मेहतर, भंगी, हलाल, खरिया, गाजीपुरी राउत, दिनापुरी राउत, टांक, गेहलोत, चन्देल, टि पणी। देखा जाए तो इन जातियों के जो यह सभी भेद हैं, वे सभी क्षत्रिय जाति के ही भेद या किस्में हैं। इस बात को और प्रमाणिकता के साथ ट्राइब एण्ड कास्ट आफ बनारस, छापा सन् 1872 ई. पुस्‍तक में भी स्‍पष्‍ट किया गया है। इन सभी एतिहासिक तथ्‍यों से स्‍पष्‍ट होता है कि हमारे-आपके पूर्वजों ने जिन ‘भंगी’ और ‘मेहतर’ जाति को अस्‍पृश्‍य करार दिया, वो हमारे ही बहादुर पूर्वजों की संताने हैं। उन्‍होंने मुगलकाल के दौरान इस्‍लाम कबूल नहीं किया पर धर्म के रक्षार्थ मैला ढोने की शर्त को मान लिया। फिर इस्‍लामिक कट्टरवादियों और आतंकियों से अपनी बहू-बेटियों की रक्षा करने के उद्देश्‍य से सूअर पालना शुरू कर दिया जिससे कि उनके घरों और बस्‍तियों से भी मुस्‍लिमों को दूर रखा जा सके।

इसे दो संस्‍कृतियों के तुलनात्‍मक अध्‍ययन से भी समझ सकते हैं। हिंदुओं की उन्‍नत सिंधू घाटी सभ्‍यता में रहने वाले कमरे से सटा शौचालय मिलता है, जबकि मुगल बादशाह के किसी भी महल में चले जाओ, आपको शौचालय नहीं मिलेगा। अंग्रेज और वामपंथी इतिहासकारों ने शाहजहां जैसे मुगल बादशाह को वास्‍तुकला का मर्मज्ञ ज्ञाता बताया है। लेकिन सच यह है कि अरब के रेगिस्‍तान से आए दिल्‍ली के सुल्‍तान और मुगलों को शौचालय निर्माण तक का ज्ञान नहीं था। दिल्‍ली सल्‍तनत से लेकर मुगल बादशाह तक के समय तक सभी धातु एवं मिट्टी के पात्रों में शौच करते थे, जिसे ब्राहमणों, क्षत्रियों और उनके परिजनों से फिकवाया जाता था, जिन्‍हें मुगलो द्वारा युद्ध के दौरान बंदी बना लिया गया था, इन लोगों से जब इस्‍लाम, मौत या मैला उठाने में से किसी एक को चुनने के लिए संभवत: कहा गया होगा तो उन्‍होंने मैला ढोना तो स्‍वीकार कर लिया था,किन्‍तु इस्‍लाम को नहीं अपनाया।

यहां भंगी और मेहतर शब्‍द का मूल अर्थ भी हमें जान लेना चाहिए। वास्‍तव में जिन ब्राहमणों और क्षत्रियों ने मैला ढोने की प्रथा को स्‍वीकार करने के उपरांत अपने जनेऊ को तोड़ दिया, अर्थात उपनयन संस्‍कार को भंग कर दिया, वो भंगी और’मेहतर’ कहलाए। ऐसे में भले ही तत्‍कालीन हिन्‍दू समाज की ब्राह्मण-क्षत्रिय जातियों ने इनसे रोटी-बेटी का सीधा संबंध समाप्‍त कर दिया था किंतु कहीं न कहीं इनके उपकारों को भी स्‍वीकार्य किया था, इसका प्रमाण यह है कि हिन्‍दू समाज ने इनके उपकारों के कारण इनके मैला ढोने की नीच प्रथा को भी ‘महत्‍तर’ अर्थात महान और बड़ा करार दिया, जो अपभ्रंश रूप में ‘मेहतर’ हो गया। भारत में 1000 ईस्‍वी में केवल 1 फीसदी अछूत जाति थीं, लेकिन मुगल वंश की समाप्ति होते-होते इनकी संख्‍या-14 फीसदी हो गई। इसके बारे में यह सोचनीय अवश्‍य है कि 150-200 वर्ष के मुगल शासन में अछूत कही जाने वाली जातियों की संख्‍या में 13 प्रतिशत की बढोत्‍तरी कैसे हो गई ? वस्‍तुत: इसका उत्‍तर भी इतिहास दे देता है।

वामपंथी इतिहासकारों की माने तो भारत में सूफियों के प्रभाव से हिंदुओं ने इस्‍लाम स्‍वीकार किया लेकिन अन्‍य जमीनी साक्ष्‍य कुछ ओर ही बताते हैं। गुरु तेगबहादुर एवं उनके शिष्‍यों के बलिदान तथा इस प्रकार के अनेक साक्ष्‍य आज इतिहास में भरे पड़े हैं। जिस पर ज्‍यादातर वामपंथी इतिहासकार मौन हैं या फिर इस विषय को हल्‍के से बताते हैं। गुरु तेगबहादुरर के600 शिष्‍यों को इस्‍लाम न स्‍वीकार करने के कारण आम जनता के समक्ष आड़े से चिड़वा दिया गया, फिर गुरु को खौलते तेल में डाला गया और आखिर में उनका सिर कलम करवा दिया गया था। भारत में इस्‍लाम का विकास इस तरह से हुआ।

डॉ॰ सुब्रह्मण्यम् स्वामी लिखते हैं, ” अनुसूचित जाति उन्‍हीं बहादुर ब्राह्मण व क्षत्रियों के वंशज हैं, जिन्‍होंने जाति से बाहर होना स्‍वीकार किया, लेकिन मुगलों के जबरन धर्म परिवर्तन को स्‍वीकार नहीं किया। आज के हिंदू समाज को उनका शुक्रगुजार होना चाहिए, उन्‍हें कोटिश: प्रणाम करना चाहिए, क्‍योंकि उन लोगों ने हिंदू के भगवा ध्‍वज को कभी झुकने नहीं दिया, भले ही स्‍वयं अपमान व दमन झेला।” इसके इतर यह भी गौर करने लायक है कि सबसे अधिक इन अनुसूचित जातियों के लोग देश में कहां मौजूद हैं ? चहूंओर नजर दौड़ाने पर ध्‍यान आता है कि ये लोग उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल, मध् य भारत में है, जहां मुगलों के शासन का सीधा हस्तक्षेप था और जहां अत्‍यधिक धर्मांतरण हुआ। आज सबसे अधिक मुस्लिम आबादी भी इन्हीं प्रदेशों में है जो यह स्‍पष्‍ट करती है कि इन क्षेत्रों में इस्‍लाम का संघर्ष सर्वाधिक चला है, जिसमें परिणाम स्‍वरूप सनातन उपासना पद्धति के लोग तीन जगह बंट गए, एक अपने मूल धर्म में उच्‍चवर्णीय रहे, दूसरे विवश होकर धर्मांतरित हो गये और तीसरे वे लोग हैं, जिन्‍हें आज की भाषा में अनुसूचित जाति वर्ग में नाम से जाना जाता है।

वस्‍तुत: इस सत्‍य को जानने के बाद, अब जरूरत इस बात की है कि सभी स्‍वयं को हिंदू कहने वाले लोग अनुसूचित जाति बंधुओं को आगे बढ़कर गले लगाएं। जहां शिक्षा से लेकर तमाम प्रकार की योग्‍यताएं मौजूद है, वहां जाति आधार पीछे रखते हुए सभी परस्‍पर रोटी-बेटी का संबंध रखने की दिशा में आगे आएं। आज भी तमाम पढ़े-लिखे और उच्च वर्ण के हिंदू जातिवादी बने हुए हैं, लेकिन वह नहीं जानते कि यदि आज वह बचे हुए हैं तो अपने ऐसे ही भाईयों के कारण जिन्होंने नीच कर्म करना तो स्वीकार किया, लेकिन इस्लाम को नहीं अपनाया।

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मयंक चतुर्वेदी
मयंक चतुर्वेदी मूलत: ग्वालियर, म.प्र. में जन्में ओर वहीं से इन्होंने पत्रकारिता की विधिवत शुरूआत दैनिक जागरण से की। 11 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय मयंक चतुर्वेदी ने जीवाजी विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के साथ हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर, एम.फिल तथा पी-एच.डी. तक अध्ययन किया है। कुछ समय शासकीय महाविद्यालय में हिन्दी विषय के सहायक प्राध्यापक भी रहे, साथ ही सिविल सेवा की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों को भी मार्गदर्शन प्रदान किया। राष्ट्रवादी सोच रखने वाले मयंक चतुर्वेदी पांचजन्य जैसे राष्ट्रीय साप्ताहिक, दैनिक स्वदेश से भी जुड़े हुए हैं। राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखना ही इनकी फितरत है। सम्प्रति : मयंक चतुर्वेदी हिन्दुस्थान समाचार, बहुभाषी न्यूज एजेंसी के मध्यप्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं।

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