राजनीति भारत की राज्यसभा और लोकतंत्र June 7, 2016 by राकेश कुमार आर्य | Leave a Comment राकेश कुमार आर्य भारत की संसद का निर्माण राज्यसभा, लोकसभा और राष्ट्रपति से मिलकर होता है। राज्यसभा को ऊपरी सदन और लोकसभा को निम्न सदन भी कहा जाता है। राज्यसभा के सदस्यों के द्वारा अपना कोई अध्यक्ष नही चुना जाता है, अपितु भारत का उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होता है। वही राज्यसभा की कार्यवाही […] Read more » Featured Loktantra Rajya Sabha भारत की राज्यसभा राज्यसभा लोकतंत्र
विधि-कानून विविधा लोकतंत्र में न्यायिक सक्रियता May 29, 2016 by श्याम नारायण रंगा | Leave a Comment भारत में आजादी के बाद लोकतांत्रिक गणराज्य की अवधारणा को लागू किया गया और पूरे देश में व्यवस्था को विधायिका, न्यायपालिका एवं कार्यपालिका के रूप में तीन भागों में बांटा गया। इन तीनों अंगों का अपना अपना कार्यक्षेत्र भी निर्धारित किया गया और यह तय किया गया कि कोई भी अंग किसी दूसरे के कार्यक्षेत्र […] Read more » Judicial activism न्यायिक सक्रियता लोकतंत्र
राजनीति उत्तराखण्ड में बहाल हुआ लोकतंत्र May 12, 2016 by प्रमोद भार्गव | Leave a Comment प्रमोद भार्गव देवभूमि उत्तराखंड में निर्णय प्रक्रिया के च्रकव्यूह में उलझा राजनीति संकट शक्ति परीक्षण के बाद समाप्त हो गया है। उच्चतम न्यायालय के आदेश पर उत्तराखंड विधानसभा में हरीश रावत ने अपना बहुमत सिद्ध कर दिया। रावत को 28 कांग्रेस, 6 प्रगतिशील लोग तांत्रिक मोर्चा और 1 नामित विधायक का वोट मिलाकर कुल 33 […] Read more » Featured उत्तराखण्ड लोकतंत्र
राजनीति लोकतंत्र या संख्यातंत्र की जीत May 11, 2016 / May 11, 2016 by नीतेश राय | Leave a Comment हमारे भारतीय समाज में मुखिया या नेतृत्वकर्ता का चुनाव सर्व सम्मति से करने की परिपाटी है ।मुखिया का भी उत्तरदायित्व होता है कि वह परिवार के सभी सदस्यों को साथ लेकर चले । खासकर संयुक्त परिवार या संगठनात्मक ढांचे को सफलता पूर्वक संचालित करने के लिए जरुरी है कि नेतृत्व सर्वमान्य हो।ऐसा नेतृत्व ही ऐसे […] Read more » Featured rawat government लोकतंत्र संख्यातंत्र की जीत
मीडिया विविधा लोकतंत्र में पत्रकारिता September 21, 2015 / September 21, 2015 by शैलेन्द्र चौहान | 1 Comment on लोकतंत्र में पत्रकारिता शैलेन्द्र चौहान स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान पत्रकारिता को एक मिशन बनाकर सहभागी के रूप में अपनाया गया था। स्वतन्त्रता के पश्चात भी पत्रकारिता को व्यावसायिकता से जोड़कर नहीं देखा गया, किन्तु वैश्वीकरण, औद्योगीकरण के इस दौर में पत्रकारिता को व्यवसाय बनाकर प्रस्तुत किया गया। इस कारण से देश के बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों में करोड़ों-अरबों की धनराशि लगाकर इसमें अपना सशक्त हस्तक्षेप करना शुरू […] Read more » Featured journalism in democracy पत्रकारिता लोकतंत्र लोकतंत्र में पत्रकारिता
राजनीति लोकतंत्र के लिए सबसे शर्मनाक सत्र August 14, 2015 by मृत्युंजय दीक्षित | 1 Comment on लोकतंत्र के लिए सबसे शर्मनाक सत्र मृत्युंजय दीक्षित संसद का वर्तमान मानसून सत्र संभवतः 68 वर्षो में सबसे शर्मनाक सत्र के रूप में याद किया जायेगा। 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद देश के जनमानस मे आशा व उम्मीदों का एक नया दीप जला था लेकिन कांग्रेस पार्टी के केवल दो बड़े नेताओं श्रीमती सोनिया गांधी व राहुल गांधी […] Read more » लोकतंत्र लोकतंत्र के लिए सबसे शर्मनाक सत्र
राजनीति लोकतंत्र की जीत June 25, 2015 / June 28, 2015 by अनिल गुप्ता | Leave a Comment आज देश में लोकतंत्र की हत्या की चालीसवीं बरसी है.आज ही के दिन चालीस वर्ष पूर्व श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय से भरष्ट आचरण के कारण उनका रायबरेली से चुनाव रद्द कर दिए जाने से उत्पन्न हुए राजनितिक संकट से निबटने के लिए देश में आंतरिक आपात स्थिति लागू कर दी […] Read more » emergency during Indira Gandhi Featured लोकतंत्र लोकतंत्र की जीत लोकतंत्र की हत्या की चालीसवीं बरसी
जरूर पढ़ें लोकतंत्र के सशक्तिकरण में नए प्रयोगों की आवश्यकता May 14, 2015 / May 14, 2015 by सत्यव्रत त्रिपाठी | Leave a Comment -सत्यव्रत त्रिपाठी- गतिशील लोकतंत्र के लिए मतदाताओं की भागीदारी बढ़ाना जरूरी है। लोकतांत्रिक मशीनरी को ठीक से चलाने के लिए मतदाताओं की सहभागिता तेल की तरह काम करती है। इसके अलावा मतदातओं की बढ़ी हुई सहभागिता विविध जगहों के लोगों को मुख्यधारा में लाकर सामाजिकरूप से एकीकृत करती है। यह एकीकरण उम्र उदाहरण के तौर पर युवाओं का समाज से एकीकरण लिंग, श्रेणी, क्षेत्र और कई अन्य उप समूहों के बंधनों को तोड़ देता है। इसलिए चुनाव सहभागिता सामाजिक समावेश सुनिश्चित करती है। साथ ही ऐसी नीतियों की ओर उन्मुख करतीहै जो समाज के विभिन्न खंडों और विविध हितों का ध्यान रखती हैं। भारत के संदर्भ में यह अभिकथन इस मायने में ज्यादा महत्व रखता है जहां राजनीतिक दलों और उनके प्रत्याशियों की तरफ से मतदाताओं को जानबूझकर हिस्सों में बांटना एक आम रणनीति है। कई बारपार्टी और उसके प्रत्याशी अपने वोट बैंक का उल्लेख करते हैं। ये वोट बैंक प्रत्याशियों की तरफ से जाति, धर्म और क्षेत्र की छोटी संकुचित सोच के आधार पर बनाए जाते हैं। वर्तमान की एफपीटीपी व्यवस्था में (झूठ और धोखे के कारण जो कि भारत में व्याप्त हैं) अगर कोईप्रत्याशी अपने क्षेत्र में किसी बेहद छोटे और अमहत्वपूर्ण समूह को अपने पक्ष में कर लेता है तो सीट हासिल करना आसान होता है। इसीलिए प्रत्याशी या राजनीतिक दल एक छोटा मतदाता वर्ग बनाने की रणनीति पर केंद्रित करते हैं या संकीर्ण सोच के आधार पर विशेष वोट बैंकपर निर्भर रहते हैं। यह कोशिश हमारे देश के लोकतंत्र को बर्बाद करने वाली है क्योंकि यह राजनीतिक दलों की प्राथमिकताओं को गलत तरीके से बदल देती है। उनका ध्यान बिंदु सभी के विकास के लिए नीतियां बनाने और इसे लागू कराने की जरूरत से बदल जाता है। उपचार केतौर पर वह लोग जो किसी विशेष वोट बैंक का हिस्सा नहीं हैं और अगर उनकी भागीदारी बढ़ाई जाए तो अलग-अलग राजनीतिक दलों और उनके प्रत्याशियों के लिए ये लोग महत्वपूर्ण होंगे और वे संकीर्ण सोच को व्यापक करने को मजबूर होंगे। यह स्पष्ट है कि कई जनतंत्रों में मतदाताओं की सहभागिता लगातार गिरावट की ओर है। कई देश इस गिरावट को रोकने के लिए नए रास्ते निकाल रही हैं। इन सभी प्रयासों का मुख्य उद्देश्य मतदान न करने की प्रवृत्ति कम करना है। यह कई तरीकों जैसे पंजीकरण करने कीप्रक्रिया को कम कष्टकर और कम महंगा बनाने, मतदाताओं का श्रम घटाने जिससे सहभागिता घटती है, चुनावों की बारंबारता और जटिलता घटाने, जागरूकता अभियान चलाकर मतदान को आदत और सामाजिक नियम बनाने से किया जा रहा है। भारत में चुनाव सुधारों के क्षेत्र मेंसक्रिय लोगों ने कई सुझाव दिए हैं। उदाहरण के तौर पर चुनाव सुधार के क्षेत्र के चमकते तारे प्रोफेसर सुभाष कश्यप ने मतदान को संवैधानिक तौर पर हर नागरिक को मौलिक कर्तव्य बनाने का सुझाव दिया है। इसे मौलिक कर्तव्यों की सूची में शामिल किया जाना चाहिए। उन्होंने मतदाताओं की सहभागिता बढ़ाने केलिए प्रोत्साहनों और दंडात्मक कार्रवाई की एक श्रृंखला का भी सुझाव दिया है। उनके अनुसार, हर मतदाता को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके पास मतदान का प्रमाणपत्र हो। यह प्रमाणपत्र अन्य महत्वपूर्ण दस्तावेजों जैसे गरीबी रेखा के नीचे का राशन कार्ड आदि के लिएमुख्य प्रपत्र के तौर पर काम करेगा। प्रोफेसर कश्यत खास तौर पर मतदान सहभागिता में शहरी आबादी के घटते रुझान से चिंतित हैं। इसके लिए वह सुझाव देते हैं कि पासपोर्ट और ड्राइविंग लाइसेंस सिर्फ मतदान प्रमाणपत्र प्रस्तुत करने की दशा में ही जारी किए जाने चाहिए। हालांकि वक्त की जरूरत परंपरागत तरीकों के साथ ही तकनीक में हुई प्रगति का निर्वाचन प्रक्रिया में प्रयोग है। इससे मतदान प्रक्रिया में समय और लागत दोनों घटेंगे। ऐसा ही एक विकल्प ई-मतदान है जिसका कई देशों में प्रयोग किया जा रहा है। यह विकल्प प्रयोग करने वालेकई देशों में मतदाताओं की सहभागिता और आम नागरिकों के उत्साह में काफी अच्छे नतीजे आए हैं। जहां तक भारत का प्रश्न है, हम भी मतदान सहभागिता में गिरावट के चिंताजनक मुद्दे से लड़ रहे हैं। यद्यपि भारत के चुनाव आयोग ने कई सालों में इस संबंध में प्रशंसनीयऔर गंभीर कदम उठाए हैं लेकिन परिणाम संतुष्टिजनक नहीं हैं। इसके अतिरिक्त, शहरी उच्च मध्य वर्ग नागरिक लगातार राजनीतिक प्रक्रिया के प्रति उदासनीता दिखा रहे हैं। उनकी सहभागिता भी चिंता का एक विषय है। इसलिए चुनाव क्षेत्र में नए आविष्कारों की तत्काल जरूरत हैजिससे आबादी के इस हिस्से में वोट न डालने की आदत को बड़े पैमाने पर घटाया जा सके। गुजरात के पालिका चुनावों में कुछ क्षेत्रों में ई-मतदान का सहारा लेकर इस संबंध में राह दिखाई गई है। यह मॉडल विशेष तौर पर उच्च मध्यम वर्ग को लक्षित करने में उपयुक्त हो सकता है ताकि इनकी वोट न डालने की आदत खत्म की जा सके और इनको चुनावों में बड़ेपैमाने पर भागीदारी के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। ई-मतदान की उपयुक्तता को तलाशने और अन्य राज्यों में इसे लागू करने या न करने पर गंभीर शोध किए जाने चाहिए। इसे शुरू करने के लिए हम सभी राज्यों के स्थानीय निकाय के चुनावों में इसकी शुरुआत कर सकतेहैं। अगर परिणाम सकारात्मक आएं तो धीरे-धीरे हर तरह के चुनावों में हम इस व्यवस्था का प्रयोग करना चाहिए। काफी जनसंख्या होने के कारण भारत में चुनाव कराना एक बड़ी करसत है। कई बार चुनाव प्रक्रिया बेहद लंबी हो जाती है। कई अवसरों पर यह आम आदमी की कल्पना से भी ज्यादा जटिल हो जाती है। ई-मतदान की अवधारणा पूरी प्रक्रिया में जटिलताओं को खत्म करेगी औरज्यादा मतदाताओं की सहभागिता सुनिश्चित करेगी। Read more » Featured भारत की राजनीति लोकतंत्र लोकतंत्र के सशक्तिकरण में नए प्रयोगों की आवश्यकता
जन-जागरण जरूर पढ़ें यह लोकतंत्र नहीं, यह तो ‘शोकतंत्र’ है April 22, 2015 / April 22, 2015 by राकेश कुमार आर्य | Leave a Comment -राकेश कुमार आर्य- लोकतंत्र को सभी शासन प्रणालियों में सर्वोत्तम शासन प्रणाली के रूप में दर्शित किया जाता है। वैसे लोकतंत्र का अर्थ लोक की लोक के द्वारा लोक के लिए अपनायी गयी शासन व्यवस्था है। जिसमें हमें अपने सर्वांगीण विकास के सभी अवसर उपलब्ध होते हैं। वेद ने ऐसी व्यवस्था को ‘स्वराज्यम्’ कहा है। […] Read more » Featured भारतीय राजनीति यह तो ‘शोकतंत्र’ है यह लोकतंत्र नहीं राजनीति लोकतंत्र शोकतंत्र
टॉप स्टोरी लोकतंत्र बनाम गिरोह-तंत्र February 9, 2015 / February 9, 2015 by वीरेंदर परिहार | 1 Comment on लोकतंत्र बनाम गिरोह-तंत्र – वीरेन्द्र सिंह परिहार अभी गत दिनों देश के समक्ष एक ऐसा बाकया सामने आया, जिससे यह पता चलता है कि भारतीय लोकतंत्र का असली संकट क्या है ? शारधा चिटफंड घोटाले के सन्दर्भ में जब सी.बी.आई. ने भूतपूर्व मंत्री मतंग सिंह को गिरफ्तार करने का प्रयास कर रही थी तो तात्कालिक केन्द्रीय गृह सचिव […] Read more » अनिल गोस्वामी गिरोह-तंत्र मतंग सिंह लोकतंत्र
कविता पूछ परख के चक्कर में घनचक्कर हुआ लोकतंत्र June 23, 2014 by जावेद उस्मानी | Leave a Comment -जावेद उस्मानी- मर गए अनगिनत गरीब देखते सियासी तंत्र मंत्र महंगाई की ज्वाला से घिरा व्याकुल सारा प्रजातंत्र कहीं बलात्कार तो कहीं हत्या, जंगल बना जनतंत्र पूंजीधीश के गले लगते भजते विकास का महामंत्र हवा पानी तक हजम कर गए जिनके उन्नत सयंत्र अच्छा है यदि जपें न्याय सम्मत जनहित का जंत्र लोकहित के नारों […] Read more » लोकतंत्र लोकतंत्र कविता हिन्दी कविता
राजनीति आपातकाल और लोकतंत्र June 21, 2014 by प्रवक्ता.कॉम ब्यूरो | Leave a Comment -विजय कुमार- -आपातकाल (26 जून) की 39वीं वर्षगांठ पर- जून महीना आते ही आपातकाल की यादें जोर मारने लगती हैं। 39 साल पहले का घटनाक्रम मन-मस्तिष्क में सजीव हो उठता है। छह दिसम्बर, 1975 को बड़ौत (वर्तमान जिला बागपत) में किया गया सत्याग्रह और फिर मेरठ जेल में बीते चार महीने जीवन की अमूल्य निधि […] Read more » आपातकाल इंदिरा गांधी इमरजेंसी लोकतंत्र