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क्या कभी आपने संघ के पथ-संचलन का राष्ट्रीय मीडिया कवरेज देखा है?

सुरेश चिपलूनकर

संघ की परम्परा में “भगवा ध्वज” ही सर्वोच्च है, कोई व्यक्ति, कोई पद अथवा कोई अन्य संस्था महत्वपूर्ण नहीं है। प्रतिवर्ष के अनुसार इस वर्ष भी यह बात रेखांकित हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा उज्जैन में विजयादशमी उत्सव के पथसंचलन समारोह में भाजपा के पार्षद, निगम अध्यक्ष, वर्तमान एवं पूर्व विधायक, सांसद एवं राज्य मंत्री सभी के सभी सामान्य स्वयंसेवकों की तरह पूर्ण गणवेश में कदमताल करते नज़र आए। जिन गलियों से यह संचलन गुज़रा, निवासियों ने अपने घरों एवं बालकनियों से इस पर पुष्प-वर्षा की।

अन्त में सभा के रूप में परिवर्तित, स्वयंसेवकों के विशाल समूह को सम्बोधित किया संघ के युवा एवं ऊर्जावान प्रवक्ता राम माधव जी ने, इस समय सभी “सो कॉल्ड” वीआईपी भी सामान्य स्वयंसेवकों की तरह ज़मीन पर ही बैठे, उनके लिए मंच पर कोई विशेष जगह नहीं बनाई गई थी…। मुख्य संचलन हेतु विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले स्वयंसेवकों के उप-संचलनों को जो समय दिया गया था, वे पूर्ण समयबद्धता के साथ ठीक उसी समय पर मुख्य संचलन में जा मिले। कांग्रेस (यानी एक परिवार) के “चरणचुम्बन” एवं “तेल-मालिश” संस्कृति को करीब से देखने वाले, संघ के आलोचकों के लिए, यह “संस्कृति” नई है, परन्तु एक आम स्वयंसेवक के लिए नई नहीं है।

“परिवारिक चमचागिरी” से ग्रस्त, यही दुरावस्था हमारे मुख्य मीडिया की भी है…। ज़रा दिमाग पर ज़ोर लगाकर बताएं कि क्या आपने कभी किसी मुख्य चैनल पर वर्षों से विशाल स्तर पर निकलने वाले संघ के पथसंचलन का अच्छा कवरेज तो दूर, कोई खबर भी सुनी हो? कभी नहीं…। हर साल की तरह प्रत्येक चैनल रावण के पुतला दहन की बासी खबरें दिखाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। कल तो हद कर दी गई… भाण्ड-भड़ैती चैनलों ने दिल्ली के रामलीला मैदान में राहुल गाँधी ने चाट खाई, उसमें मिर्ची कितनी थी, उसमें चटनी कितनी थी… तथा लालू यादव ने कहाँ तंत्र क्रिया की, कौन सी क्रिया की, क्या इस तंत्र क्रिया से लालू को कांग्रेस के नजदीक जाने (यानी चमचागिरी) में कोई फ़ायदा होगा या नहीं?, जैसी मूर्खतापूर्ण और बकवास खबरें “विजयादशमी” के अवसर पर दिखाई गईं, परन्तु हजारों शहरों में निकलने वाले लाखों स्वयंसेवकों के पथ-संचलन का एक भी कवरेज नहीं…।

असल में मीडिया को यही काम दिया गया है कि किस प्रकार हिन्दू परम्पराओं, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू मन्दिरों, हिन्दू संतों की छवि मलिन की जाए, क्योंकि चर्च के पैसे पर पलने वाले मीडिया को डर है कि अनुशासित, पूर्ण गणवेशधारी, शस्त्रधारी स्वयंसेवकों के पथ संचलन को प्रमुखता से दिखाया तो “हिन्दू गौरव” जागृत हो सकता है।

ज़ाहिर है कि मीडिया की समस्या भी कांग्रेस और वामपंथ से मिलती-जुलती ही है… अर्थात “भगवा ध्वज” देखते ही “सेकुलर दस्त” लगना।

कहो कौन्तेय-३९ (महाभारत पर आधारित उपन्यास-अंश)

(दुर्योधन, कर्णादि की गंधर्वों के हाथ पराजय)

विपिन किशोर सिन्हा

द्वैतवन के विशाल और कई योजन तक फैले हुए मनोरम सरोवर के एक किनारे हमारी पर्णकुटी थी। उसी में हम निवास करते थे। महर्षि धौम्य के परामर्श पर हमने एक पवित्र यज्ञ – राजर्षि, संपन्न करने का निर्णय लिया। सरोवर के तट पर यज्ञवेदी बनाई गई और द्रौपदी के साथ अग्रज युधिष्ठिर ने यज्ञ आरम्भ किया। दिवस के अन्तिम प्रहर में हमने यज्ञ निर्विघ्न संपन्न किया। विश्राम के लिए हम पांचो भ्राता आसन ग्रहण कर ही रहे थे कि दुर्योधन के मंत्रियों के क्रन्दन ने हमारा ध्यान भंग किया। दुर्योधन के विश्वस्त मंत्री युधिष्ठिर के सम्मुख शरणागत हो सहायता की याचना कर रहे थे –

“महाराज! महाबाहु दुर्योधन को चित्रसेन गंधर्व बलपूर्वक बन्दी बनाकर लिए जा रहा है। उसने दुशासन, दुर्विषय, दुर्मुख, दुर्जन तथा सभी रानियों को भी बन्दी बना लिया है। अंगराज कर्ण पराजित होकर युद्धभूमि से पलायन कर चुके हैं। कुरुकुल की प्रतिष्ठा धूल-धूसरित हो रही है। हे अजातशत्रु। आपके सिवा कौन है जो इस समय उनकी रक्षा करे। कृपया उनकी रक्षा में प्रवृत्त हों।”

“यह कैसे हुआ मंत्रिवर? कुरुराज्य की विशाल सेना, महारथी सुयोधन, सुशासन और कर्ण को पराजित कर, गंधर्वराज चित्रसेन ने समस्त गान्धारीपुत्रों एवं रानियों को बन्दी बना लिया, विश्वास नहीं होता! इस घोर वन में उनके आने का क्या प्रयोजन था? कृपया समस्त घटनाओं का वृत्त विस्तार से दें।” युधिष्ठिर ने मंत्रीवर से प्रश्न किया।

“महाराज कूटनीति क्षणिक सफलता तो दे सकती है, स्थाई शान्ति नहीं। आप वन में रहकर भी शान्त, स्थिर और प्रसन्नचित्त दृष्टिगत हो रहे हैं, दूसरी ओर महाराज दुर्योधन राजप्रासाद में रहते हुए भी सदा आशंकित, अशान्त और भविष्य के प्रति अनिश्चित दिखाई देते थे। अपने विश्वस्त गुप्तचरों के माध्यम से सतत आपके विषय में सूचनाएं एकत्रित करते रहते थे। जैसे-जैसे आपकी तपस्या और धनुर्धर अर्जुन के दिव्यास्त्र प्राप्ति की सूचना उन्हें मिलती, वे उद्विग्न हो जाते, उनके नेत्रों से निद्रा का लोप होने लगता। आपके यश और वीरवर अर्जुन की शौर्यगाथा ने महाराज दुर्योधन, दुशासन और कर्ण समेत समस्त कौरवों को ईर्ष्या के सागर में डुबो दिया। कुछ ही दिन पूर्व एक गुप्तचर ने द्वैतवन में आपकी उपस्थिति की सूचना महाराज धृतराष्ट्र को दी। सभा में दुर्योधन, कर्ण और शकुनि भी उपस्थित थे। यह सूचना पाकर कि आप सभी द्वै्तवन में भीषण कष्ट पा रहे हैं, वायु और धूप के प्रहार से शरीर कृश हो गए हैं, पांचाल राजकुमारी वल्कला धारण कर तपस्विनी बनी हुई हैं, दुर्योधन के हर्ष की सीमा नहीं रही। कर्ण और शकुनि भी अत्यन्त प्रसन्न हुए। दोनों ने दुर्योधन को परामर्श दिया –

“राजन! जिस तरह सूर्य अपने तेज से संपूर्ण सृष्टि को तपाता है, उसी तरह आप भी अपने तप से पाण्डवों को संतप्त करें। यह समय गायों और बछड़ों की गणना करने तथा उनके रंग और आयु का विवरण एकत्र करने के लिए बहुत उपयुक्त है। यह एक सुखद संयोग है कि आजकल अपनी गौवों के गोष्ठ द्वैतवन में ही हैं। हम सभी वहां सेना के साथ घोषयात्रा के बहाने चलें। आपकी महीषियां भी आपके साथ बहुमूल्य आभूषणों से सुसज्जित होकर चलें और मृगचर्म एवं वल्कलवस्त्र धारिणी द्रौपदी को देखकर अपनी छाती ठंढ़ी करें तथा अपने ऐश्वर्य से उसका जी जलाएं।

हमलोगों को देखकर भीम अपना क्रोध नहीं रोक पाएगा। हमलोग भी विभिन्न उपायों से उसकी क्रोधाग्नि भड़काएंगे। वह निश्चित रूप से हमलोगों से युद्ध करेगा। इस समय शत्रु कृशकाय और दुर्बल हैं। उनका वध कर हम सदा के लिए अपना मार्ग निष्कंटक कर लेंगे।”

महाराज दुर्योधन को यह योजना भा गई। महाराज धृतराष्ट्र की भी स्वीकृति प्राप्त कर ली गई। अपने समस्त बन्धुओं, महीषियों और सेना के साथ उन्होंने द्वैतवन के लिए प्रस्थान किया। यहां से एक योजन की दूरी पर इस मनोरम सरोवर के किनारे पड़ाव डाला गया। दुर्योधन कुछ और सोच रहे थे, नियति कुछ और ही योजना बना रही थी। हमलोगों ने देखा – गन्धर्वराज चित्रसेन अपने सेवक, सेना और अप्सराओं के साथ उसी सरोवर में जलक्रीड़ा कर रहे थे। उन्होंने कौरवों को सरोवर प्रयोग करने की अनुमति प्रदान नहीं की। सेनापति द्वारा हठ किए जाने पर उन्होंने सबको अपमानित करते हुए, दुर्योधन के शिविर में खदेड़ दिया। दुर्योधन भला इतना बड़ा अपमान कैसे सह सकते थे? शीघ्र ही युद्ध की घोषणा कर दी गई।

एक ओर कर्ण के नेतृत्व में कौरव सेना थी, तो दूसरी ओर चित्रसेन के नेतृत्व में गन्धर्व सेना। दोनों ओर से बड़ा ही भीषण और रोमांचकारी युद्ध छिड़ गया। महारथी दुर्योधन और महारथी कर्ण की बाण वर्षा ने गंधर्वों के शिकंजे ढीले कर दिए। गंधर्वों को भयभीत देख चित्रसेन के क्रोध का पारावार नही रहा। उन्होंने विशेष मायास्त्र का प्रयोग किया। कौरवों के पास इसका प्रत्युत्तर नहीं था। हमारे एक-एक कौरव वीर को दस-दस गंधर्वों ने घेर लिया। उनके प्रहार से पीड़ित हो वे रणभूमि से प्राण लेकर भागे। कौरवों की सारी सेना तितर-बितर हो गई। अकेले कर्ण अपने स्थान पर पर्वत के समान अविचल खड़े रहे। अन्त में हजारों की संख्या में गंधर्वों ने कर्ण को घेर लिया। उनके रथ के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। उनके प्राण संकट में पड़ गए। कोई उनकी सहायता के लिए आगे नहीं बढ़ पा रहा था। उनके पास युद्ध से पलायन के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं बचा। हाथ में ढाल-तलवार ले, वे रथ से कूद पड़े और विकर्ण के रथ पर बैठकर तेजी से युद्धभूमि से बाहर निकल आए।

दुर्योधन के देखते-देखते, कौरव सेना में भगदड़ मच गई। उन्होंने अकेले ही गंधर्वों का सामना किया लेकिन विजय चित्रसेन की ही हुई। उसने सभी बन्धुओं और राजमहीषियों के साथ दुर्योधन को बन्दी बना लिया।”

मंत्री के तरल नेत्र, धर्मराज युधिष्ठिर के मुखमण्डल पर केन्द्रित हो गए। ऐसी विषम परिस्थिति में आशा के एकमात्र केन्द्र वे ही थे। मन्त्रियों के मन के भीतर एक भय पहले से ही विराजमान था – कही महाराज युधिष्ठिर ने दुर्योधन के विगत व्यवहारों को स्मरण कर ‘ना’ कर दिया, तो क्या होगा?

युधिष्ठिर विचारमग्न थे। सहसा भीम के अट्टहास ने वातावरण की नीरवता भंग की –

“जो कार्य हमलोग कई अक्षौहिणी सेना, गजारोही, अश्वारोही और भांति-भाति के दिव्यास्त्रों की सहायता से, लक्ष-लक्ष सेनाओं के बलिदान के उपरान्त करते, आज वही कार्य गंधर्वराज चित्रसेन ने कर दिया। आज का दिन हर्षित होने का है, महाराज! जो लोग असमर्थ पुरुषों से द्वेष करते हैं, उन्हें दैव भी नीचा दिखा देता है। हम लोगों का संपूर्ण राज छल से हस्तगत कर, हमें धूप, शीत, वायु का कष्ट सहने के लिए घनघोर वन में भेज कर भी दुरात्मा दुर्योधन को शान्ति नहीं प्राप्त हुई। वह दुर्मति हमलोगों को इस विषम परिस्थिति में देखकर हृदय शीतल करना चाहता था। उस दुष्ट को बन्धुओं समेत उचित दण्ड मिलने दें और दुर्योधन को अपने कर्मों का उचित फल भोगने दें।”

“नहीं भ्राता भीम! तुम क्रोध और प्रतिक्रिया में ऐसा कह रहे हो। यह समय कड़वी बातें कहने का नहीं है। कुटुम्बियों में लड़ाई-झगड़े और मतभेद तो होते ही रहते हैं। जब बाहर का कोई शत्रु कुल पर आक्रमण करता है, तो उसका प्रतिकार न करना, मर्यादा के प्रतिकूल है। गंधर्वराज चित्रसेन हमारी कुलवधुओं को बन्दी बना, लिए जा रहा है। शरणागत की रक्षा करना तथा अपने कुल की लाज बचाना, इस समय हम सबका धर्म है। अतएव विगत को विस्मृत कर, अर्जुन, नकुल और सहदेव को साथ लेकर अपनी कुलवधुओं और सुयोधन आदि को मुक्त कराकर ले आओ।” युधिष्ठिर ने धीर-गंभीर वाणी में आदेश दिया।

मंत्री की आंखों में चमक लौट आई। यन्त्र की भांति भीमसेन के नेतृत्व में, नकुल, सहदेव और मैंने युद्ध के लिए प्रस्थान किया।

सर्वप्रथम मैंने गंधर्वों को समझाने का प्रयास किया। उन्हें बताया कि युद्ध में स्त्रियों को बन्दी बनाना और मनुष्यों के साथ युद्ध करना उनके लिए निन्दनीय कार्य है। उनसे दुर्योधन और कुरुकुल वधुओं को मुक्त करने का आग्रह भी किया, लेकिन उन्होंने मेरी एक न सुनी। अन्त में, अपने मित्र चित्रसेन से मुझे दूसरी बार युद्ध करना पड़ा। मेरे दिव्यास्त्रों और भैया भीम के भीषण प्रहारों से गंधर्व तिलमिला उठे। कुछ समय तक युद्ध करने के उपरान्त चित्रसेन ने अस्त्र डाल दिए। हमने दुर्योधन, उसके समस्त भ्राताओं और कुलवधुओं को मुक्त करा लिया। सबको साथ ले हम युधिष्ठिर के पास आए।

दुर्योधन के नेत्र एकबार पृथ्वी में गड़े तो गड़े ही रह गए। मुखमण्डल पीत वर्ण हो रहा था। लज्जा रोम-रोम से फूट रही थी। वाणी लड़खड़ा रही थी। उसने धीमे-धीमे बोलना आरंभ किया –

“धर्मराज! मैं बहुत लज्जित हूं। आज जो कुछ मैंने पाया है, वह मेरे ही दुष्कर्मों का फल है। आपने मुझे प्राणदान दिया है। मैं इस उपकार का बदला कभी चुका नहीं सकता। मैंने छल से आपका राज्य द्युतक्रीड़ा में जीत लिया था। सिंहासन के असली उत्तराधिकारी आप ही हैं। आप मेरे साथ हस्तिनापुर चलें और अपना अधिकार प्राप्त करें।”

“नहीं सुयोधन नहीं। मैं तुम्हारे प्रस्ताव से रंचमात्र भी सहमत नहीं। दूसरे की विवशता का लाभ उठाना धर्मसंगत नही है। हमने धर्म और कुल की रक्षा के लिए ही समस्त कष्ट सहे हैं। हमें अपने कर्त्तव्य-पथ से विचलित करने का प्रयत्न न करो, मेरे अनुज। तुम्हें सफलताओं के लिए हम शुभकामनाएं देते हैं।” युधिष्ठिर ने दुर्योधन को सांत्वना दी।

लज्जा के बोझ से दबे दुर्योधन ने हस्तिनापुर के लिए विदा ली।

क्रमशः 

रामविलास शर्मा और सीताराम गोयल

 शंकर शरण

अक्तूबर में दो वैचारिक योद्धाओं का जन्म-दिवस पड़ता हैः डॉ. रामविलास शर्मा (1912-2000) और सीताराम गोयल (1921-2003)। वैयक्तिक जीवन में दोनों ही निःस्वार्थ, सादगी पसंद थे। इस के बाद समानता समाप्त हो जाती है। जहाँ सीताराम जी ने कम्युनिस्ट और इस्लामी राजनीति के कड़वे सत्य को सामने लाने के लिए आजीवन संघर्ष किया, वहाँ शर्मा जी ने स्तालिनवादी कम्युनिज्म के प्रचार में ही अपनी लेखनी समर्पित कर दी। सीताराम जी ने अपना अधिकांश लेखन अंग्रेजी में किया। जब कि शर्मा जी ने सारा लेखन हिन्दी में किया। शर्मा जी अंग्रेजी को जनता का शोषण जारी रखने की भाषा मानते थे, इसलिए अंग्रेजी के प्रोफेसर हो कर भी उन्होंने अपना लेखन अंग्रेजी में नहीं किया।

इस के उलट सीताराम जी ने प्रायः अपना संपूर्ण लेखन अंग्रेजी में किया। सोच-समझकर। उन का विश्वास था कि भारतीय भाषा-भाषी जनता स्वभाव से ही देशभक्त है। केवल अंग्रेजी भाषी भारतीय विविध विदेशी साम्राज्यवादी धारणाओं से ग्रस्त हैं। यही लोग राजनीतिक, आर्थिक रूप से प्रभावी भी हैं। अतः इन्हीं भारतीयों का वैचारिक भ्रम तोड़ने का लक्ष्य सीताराम जी ने अपने सामने रखा था। लगभग आधी शती तक वे निरंतर शोध व लेखन करते रहे। अपने लक्ष्य में वह कितने सफल हुए हुए यह अभी कहना कठिन है। किंतु हम इतना जानते हैं कि में सीताराम जी के निधन का समाचार भी अंग्रेजी मीडिया ने न छापा। श्रद्धांजलि देना तो दूर रहा। यह हमारे देश में प्रचलित विचित्र सेक्यूलरिज्म और बड़बोले वामपंथ के दबदबे का ही फल था।

सीताराम गोयल ने सन् 1951 से ही सोवियत संघ और लाल चीन की सच्चाइयों से देशवासियों को अवगत कराने का बीड़ा उठाया था। तब आम शिक्षितों की कौन कहे, स्वयं प्रधानमंत्री नेहरू कम्युनिस्ट देशों के बारे में भारी गलतफहमियों से ग्रस्त थे। ऐसे प्रतिकूल समय में सीताराम जी ने बिना आर्थिक साधन या अकादमिक पद के जिस तरह साम्यवादी सिद्धांत, व्यवहार और विश्वव्यापी अनुभवों के बारे में लिख और अनुवाद करके प्रचुर सामग्री उपलब्ध कराई – उस से निस्संदेह किसी योद्धा लेखक की ही तस्वीर उभरती है। संपूर्ण जीवन उन्होंने जो शोध, अध्ययन और लेखन किया वह बिना किसी सरकारी या गैर-सरकारी सहायता के। इसी से समझा जा सकता है कि कितने परिश्रम, अध्वसाय और देशसेवा से प्रेरित होकर उन्होंने लगभग पाँच दशक तक सरस्वती सेवा की!

हिन्दी पाठकों को डॉ. रामविलास शर्मा के लेखन और विचारों के बारे में पर्याप्त जानकारी है – शायद ही कोई हिन्दी पत्रिका होगी जिसने शर्मा जी का कोई लेख, निबंध या साक्षात्कार अथना उनके बारे में लेख कई बार न प्रकाशित किया हो – इसलिए यहाँ सीताराम गोयल की विद्वत प्रखरता की अधिक चर्चा उपयुक्त होगी। सीताराम जी की बौद्धिक हस्ती को उनके सतर्क विरोधी बखूबी जानते थे। हरियाणा के बारे में एक बार किसी ने परिहास में कहा था कि वहाँ तो ‘ढाई व्यक्ति’ ही विद्वान हैं। खुशवन्त सिंह ने नोट किया है कि इन में एक सीताराम जी थे।

1921 में एक गरीब परिवार में जन्मे सीताराम गोयल पहले गाँधीजी से प्रभावित थे। विद्यार्थी जीवन में उन्होंने हरिजन आश्रम के लिए काम किया। छात्रों के बीच अध्ययन केंद्र भी चलाया। बीस वर्ष के होते-होते वे मार्क्सवाद के प्रभाव में आए। उन्होंने 1944 में दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में एम.ए. किया। मेधावी छात्र के रूप में उन्हें कई पुरस्कार भी मिले। उन्होंने कम्युनिस्टों द्वारा 1947 में भारत-विभाजन की सक्रिय पैरोकारी का विरोध किया। फिर भी 1948 में वे कलकत्ता में कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बनने जा रहे थे, जब रामस्वरूप (चिंतक और योगी) के संपर्क में आने से उनका भ्रम टूटा। तब से रामस्वरूप का सीताराम जी के विचारों पर अत्यधिक प्रभाव रहा। फिर उन का संपूर्ण जीवन मानो कम्युनिस्ट कपट से भारतवासियों को सावधान करने में समर्पित हो गया। चीन और माओवाद के यथार्थ पर 1952-55 के बीच ही उन्होंने सात पुस्तकें लिखी थीं। आर्थर कोएस्लर, आंद्रे जीद, विक्टर क्रावचेंको, फिलिप स्प्रैट जैसे लब्ध-प्रतिष्ठित विदेशी लेखकों एवं पूर्व-कम्युनिस्टों की रचनाओं के अनुवाद इस से अलग थे।

1957 में सीताराम जी दिल्ली आ गए। कुछ समय तक जयप्रकाश नारायण के सहयोगी का भी काम किया। सांप्रदायिकता पर जे.पी. के एकांगी विचारों को सीताराम जी ने एकाधिक बार जबर्दस्त झटका देकर सुधारा था, जो अलग प्रसंग है। मार्क्सवाद और कम्युनिज्म की आलोचना से बढ़ते-बढ़ते गोयल इतिहास की ओर प्रवृत्त हुए। यह स्वभाविक था। यहाँ बौद्धिक क्षेत्र में मार्क्सवादी प्रहार इतिहास की मार्क्सवादी कीमियागिरी के माध्यम से ही हो रहा था। भारतीय मार्क्सवाद में सोवियत संघ व चीन का गुण-गान, इस्लाम का महिमामंडन तथा हिंदुत्व के प्रति शत्रुता – यही तीन तत्व सदैव केंद्रीय रहे। अतएव मार्क्सवादियों से उलझने वाले के लिए भी इन विषयों में उतरना लाजिमी हो जाता है। उसे हिंदुत्व के पक्ष में खड़ा होना ही पड़ता है। सीताराम जी ने भी कम्युनिज्म की घातक भूमिका, भारतीय इतिहास के इस्लामी युग, हिंदुत्व पर हो रहे इस्लामी तथा ईसाई मिशनरी हमलों के बारे में अथक रूप से लिखा। इस के लिए ही उन्होंने ‘वॉयस ऑफ इंडिया’ (हिंदी में ‘भारत-भारती’) नामक प्रकाशन संस्था कायम की जो आज भी चल रही है। 1951 से 1998 तक गोयल ने स्वयं तीस से भी अधिक पुस्तकें तथा सैकड़ों लेख लिखे। किंतु नेहरूवादी, वामपंथी बौद्धिक वर्ग द्वारा सत्ता के दुरुपयोग तथा मौन के षड्यंत्र द्वारा उसका दमन करने की कोशिशें चलती रही। परन्तु, जैसा बेल्जियन विद्वान कोएनराड एल्स्ट ने नोट किया है, गोयल की बातों का या उनकी पुस्तकों में दिए तथ्यों का आज तक कोई खंडन नहीं कर सका है। उसके प्रति एक सचेत मौन रखने की नीति रही। इसीलिए उनके लेखन से हमारे आम शिक्षित जन काफी-कुछ अनजान से ही हैं। इसे भारत में कांग्रेसी-मार्क्सवादी वैचारिक मोर्चेबंदी के संदर्भ में ही समझा जा सकता है।

भारतीय इतिहास के बारे में सीताराम जी द्वारा प्रस्तुत सामग्री से मार्क्सवादी प्रोफेसर सदैव कतराते रहे। ऐसे कई प्रोफेसर जब स्कूली विद्यार्थी रहे होंगे या पैदा भी न हुए होंगे, तब से गोयल चुनौतीपूर्ण लेखन कर रहे थे। फिर भी यह उपेक्षा-भंगिमा अपनाई गई कि ‘गोयल के लेखन का महत्व नहीं’। किंतु वस्तुतः मार्क्सवादी उनसे इतना डरते थे कि पुस्तक या लेख में तो क्या, किसी संदर्भ-उल्लेख में भी गोयल का नाम न आने पाए, इस का पक्का उपाय किया। किसी विषय पर अध्ययन-सूची बनाते हुए चलताऊ अखबारी लेखों तक को जगह दे दी जाती है। ऐसी स्थिति में संबंधित विषय की पुस्तक सूची में प्रमाणिक, मूल संदर्भों से समृद्ध पुस्तकों का कहीं जिक्र न करना और क्या दर्शाता है? सीताराम जी के साथ मार्क्सवादियों ने यही किया। उदाहरणार्थ, सीताराम जी की दो खंडों की पुस्तक ‘हिंदू टेम्पल्सः ह्वाट हैपेन्ड टू देम? द इस्लामिक एविडेंस’ (1990, 1991) भारत में इस्लामी दौर में मंदिरों के विध्वंस का प्रमाणिक दस्तावेज है। लेकिन इसका जिक्र उस युग पर लिखी मार्क्सवादी इतिहासकारों की पुस्तकों, भाषणों या लेखों में नहीं मिलता। केवल इसलिए कि कहीं कोई उत्सुक विद्यार्थी उसे खोजकर देखने न लगे! क्योंकि तब उस झूठे इतिहास की कलई तुरत उतर जाएगी जो मार्क्सवादी इतिहासकारों ने बड़े जतन से चढ़ाई है।

सीताराम जी के लेखन चिंतन से परिचय के लिए यहाँ दो प्रसंग दिए जा रहे हैं। उससे सीताराम जी के सत्यनिष्ठ, प्रमाणिक लेखन और साथ ही, केवल उदाहरणार्थ, हमारे बड़े मार्क्सवादी लेखकों के खोखलेपन का भी परिचय मिल जाता है।

अक्तूबर 1990 में सीताराम जी गाँधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली में मंडल कमीशन रिपोर्ट पर एक सेमिनार सुनने गए थे। वहाँ वरिष्ठ जनता दल सांसद हुकुमदेव नारायण सिंह यादव ने ‘ब्राह्मणों के अत्याचार’ पर बोलते हुए उस काल की चर्चा की “जब बुद्ध-विहारों में बौद्ध भिक्षुओं के रक्त की नदियाँ बहाई गई थी”। सीताराम गोयल लिखते हैं:

सेमिनार खत्म होने के बाद वक्ता और मेरे बीच यह बात-चीत हुईः

मैं – क्या आप कृपा करके उन बौद्ध विहारों का नाम बताएंगे जहाँ ऐसी घटनाएं हुई थीं?

वक्ता – मैं यह दावा नहीं करूँगा कि मैं जानता हूँ। जरूर मैंने कहीं सुना होगा, या कहीं पढ़ा होगा।

मैं – मैं आपको छः महीने का समय देता हूँ कि आप हिंदुओं द्वारा बौद्ध भिक्षुओं की हत्या किए जाने का एक भी उदाहरण खोज कर दें। मैं केवल एक उदाहरण की माँग कर रहा हूँ, दो भी नहीं।

वक्ता – मैं कोशिश करूँगा।

यह वक्ता मुझे उन बेहतरीन, भले और सज्जन लोगों में से एक लगे जिनसे मैं आज तक मिला होऊँगा। उनकी बात-चीत में सच्चाई का भाव झलकता था। अपनी बात रखने में वे बेहद विनम्र थे। मुझे आशा थी कि वे मेरा सवाल याद रखेंगे और उत्तर देंगे। किंतु तीन साल बीत गए। और इस देश के सार्वजनिक जीवन में उच्च पद पर रहने वाले एक जाने-माने राजनीतिज्ञ की तरफ से कोई जबाव नहीं आया।

कोई कह सकता है कि हुकुमदेव जी ने प्रयास न किया होगा, या भूल गए, आदि। लेकिन जब स्वयं ऐसे प्रपंच फैलाने वालों से प्रमाण माँगा जाता है तब क्या होता है? एक अन्य प्रसंग से यह देखा जा सकता है।

जब सीताराम जी के शोध-ग्रंथ ‘हिंदू टेम्पल्सः ह्वाट हैपेन्ड टू देम, द इस्लामिक एविडेंस’ का दूसरा खंड 1991 में प्रकाशित हुआ तो उन्होंने इसकी एक प्रति मार्क्सवादी इतिहसकार रोमिला थापर को भेजी। थापर तथा मार्क्सवादी संप्रदाय लंबे समय से एक अभियान चला रहा था। जिसमें बार-बार बताया जाता था कि मंदिरों का ध्वंस केवल इस्लामी शासकों ने ही नहीं किया।

जैसे, 2 अक्तूबर 1986 को ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में रोमिला थापर व बारह मार्क्सवादी इतिहासकारों का एक सामूहिक पत्र छपा। अखबार ने कुतुब मीनार और मथुरा संबंधी दो रिपोर्टें छापी थी, जिनसे इस्लामी शासकों द्वारा हिंदू उपासना-स्थलों के ध्वंस की बात सामने आती थी। उस पर रोमिलाजी ने उपदेश देते हुए अंत में कृष्ण-जन्मभूमि मुक्त कराए जाने के मुद्दे पर यह पूछा, “आखिर हम कितना पीछे जाएंगे ? क्या हम हिंदुओं द्वारा तोड़ी गई बौद्ध और जैन मूर्तियों की पुनर्स्थापना तक इस मामले को ले जा सकते हैं? या हिंदुओं से पहले के भी एनीमिस्ट स्थलों तक?” यह एक पुरानी मार्क्सवादी तकनीक है। निराधार दावा भी ऐसे प्रस्तुत करना जैसे जगजाहिर सत्य हो। इससे मनोवैज्ञानिक दबाव दिया जाता है कि मार्क्सवादियों के दावे पर संदेह करते ही आपको अज्ञानी, पिछड़ा या सांप्रदायिक बताया जा सकता है। यहाँ रोमिला थापर ने एनीमिस्ट (जानवरों की उपासना करने वाले) शब्द का प्रयोग उसी अंदाज में किया, मानो वह मान्य सत्य हो। जबकि इसे ईसाई मिशनरियों ने यहाँ हिंदुओं को तोड़ने, और अपने धर्मांतरण जाल में फँसाने के लिए चलाया था। ब्रिटिश भारत की जनगणना में एक बार अलग एनीमिस्ट श्रेणी का प्रयोग हुआ, मगर बाद में ब्रिटिश अधिकारियों ने ही कहा कि हिंदुओं से एनीमिस्टों को अलग करना कठिन काम है। फिर इसे छोड़ दिया गया। मगर मार्क्सवादी उस औपनिवेशिक, मिशनरी, मनगढ़ंत धारणा को सिर्फ इसलिए पकड़े हुए हैं क्योंकि इनके भी निशाने पर हिंदू ही हैं।

इसी तरह उन्होंने हिंदुओं द्वारा बौद्ध, जैन मंदिरों के विध्वंस का झूठा प्रचार करके उसे ‘जाने-माने तथ्य’ के रूप में स्थापित किया है। हुकुमदेव जी उसी के शिकार हुए थे। उन्हें पता भी न था कि कब उन्होंने यह मनगढ़ंत बात स्वीकार कर ली। क्यों कर ली, सोचने पर पता चल जाता – क्योंकि हिंदू समाज को बाँटने, तथाकथित सवर्णों के विरुद्ध अन्य जातियों को उभारने, दलितवाद की धौंस-पट्टी का एक नया तर्क मिलने एवं आरक्षणवादी राजनीति को बल पहुंचाने में यह ‘तथ्य’ उपयोगी था। इसलिए उसकी जाँच की जरूरत नहीं हुई। इच्छा ही नहीं हुई। मार्क्सवादी जानते हैं कि कब किसे कौन सा झूठ बेचा जा सकता है।

किंतु सीताराम जी जैसे इतिहासविदों को ‘हिंदुओं द्वारा बौद्ध मंदिरों के ध्वंस’ की इस कथा की धूर्तता से कष्ट होता था। इसीलिए जब उन्होंने ठीक इसी विषय पर शोध कर ग्रंथ लिखे तो मार्क्सवादियों को विचार के लिए आमंत्रित किया। 27 जून 1991 को सीताराम जी ने रोमिला थापर को अपनी पुस्तक के साथ एक प्रश्नावली भेजी। इसमें रोमिला जी से वैसी सामग्री देने का आग्रह था, ताकि हिंदुओं द्वारा मंदिरों के ध्वंस की तस्वीर भी सामने आ सके। जिस तरह इस्लाम द्वारा हिंदू मंदिरों के विध्वंस का इतिहास लिपिबद्ध है, उसी तरह इस विध्वंस का रिकॉर्ड भी सामने लाया जाए। यही आग्रह करते हुए सीताराम जी ने मार्क्सवादियों से ऐसे साक्ष्य व विवरणों की माँग कीः

1. अभिलेखों की सूची जिसमें किसी भी काल में, कहीं भी, किसी हिंदू द्वारा बौद्ध, जैन व एनीमिस्ट मूर्तियों के विध्वंस का उल्लेख हो; 2. हिंदू साहित्यिक स्त्रोतों का संदर्भ जिसमें किसी भी काल में, कहीं भी, किसी हिंदू द्वारा बौद्ध, जैन व एनीमिस्ट मूर्तियों के विध्वंस का वर्णन हो; 3. हिंदू धार्मिक ग्रंथों, शास्त्रों के वह अंश जो अन्य धर्मावलंबियों के पूजा-स्थलों को तोड़ने, लूटने या अपवित्र करने के लिए कहते हों या संकेत भी करते हों; 4. उन हिंदू राजाओं, सेनापतियों के नाम जिन्हें बौद्ध, जैन या एनीमिस्ट पूजा स्थलों को तोड़ने, अपमानित करने या उन्हें हिंदू स्थलों में बदलने के लिए हिंदू जनता अपना महान नायक मनती हो; 5. उन बौद्ध, जैन व एनीमिस्ट पूजा-स्थलों की सूची जिसे हाल में या कभी भी अपवित्र या ध्वस्त या हिंदू स्थलों में परिवर्तित किया गया हो; 6. उन हिंदू मूर्तियों और स्थानों के नाम जो उन स्थानों पर खड़े हैं जहाँ पहले बौद्ध, जैन या एनीमिस्ट पूजा-स्थल थे; 7. बौद्ध, जैन व एनीमिस्ट नेताओं या संगठनों के नाम जो दावा करते हों कि फलाँ-फलाँ हिंदू स्थल उनसे छीने गए थे, और अब उसके पुनर्स्थापन की माँग कर रहे हों; 8. हिंदू नेताओं और संगठनों के नाम जो बौद्ध, जैन या एनीमिस्टों द्वारा अपने पूजा-स्थलों के पुनर्स्थापन की माँग का विरोध कर रहे हों, या जो ऐसे किसी स्थल के लिए यथावत स्थिति बनाए रखने के लिए कानून बनाने की माँग कर रहे हों, या जो ‘हिंदुत्व खतरे में है’ का शोर मचा रहे हों, या अपने जबरन कब्जे के समर्थन में दंगे कर रहे हों।

कोई भी सत्यनिष्ठ व्यक्ति मानेगा कि ‘हिंदुओं द्वारा तोड़ी गई बौद्ध और जैन मूर्तियों की पुनर्स्थापना’ का प्रश्न केवल उपर्युक्त आधारों पर ही हल हो सकता है। लेकिन रोमिला थापर या अन्य किसी मार्क्सवादी इतिहासकार ने इन विंदुओं पर कोई सामग्री सीताराम जी को नहीं दी। न अलग से कोई पुस्तक लिखी। ध्यान रहे, बारह इतिहासकारों ने टाइम्स ऑफ इंडिया को लिखे उस पत्र पर हस्ताक्षर किए थे जिसमें ‘हिंदुओं द्वारा तोड़ी गई बौद्ध और जैन मूर्तियों’ का हवाला दिया गया था। स्वतः नहीं, तो चुनौती देने पर भी वे – 25 वर्ष बीत जाने के बाद भी – कोई पुस्तक तो क्या, एक लेख भी नहीं लिख पाए जो हिंदुओं द्वारा बौद्ध, जैन मूर्तियों को तोड़ने के विषय पर कोई प्रकाश डालता हो!

जबकि सीताराम जी ने इस्लामी हमलावरों द्वारा भारत में हिंदू (बौद्ध और जैन भी) मंदिरों, मूर्तियों को तोड़ने की घटनाओं, स्थलों की जो सूची और इस विषयक पुस्तकें लिखी, उस में दिए एख भी तथ्य को आज तक किसी ने चुनौती नहीं दी। मार्क्सवादी इतिहासकार सदैव गोयल पर सामान्य लांछन लगा, उन्हें सांप्रदायिक, अज्ञानी आदि कहकर हमेशा कतराते रहे। जैसे रोमिला थापर ने उक्त प्रश्नावली के उत्तर में 10 अगस्त 1991 को गोयल को लिखा, “…जहाँ तक आपकी प्रश्नावली में उठाए गए मुद्दों की बात है, आप इस विषय पर विभिन्न विचारधारा के असंख्य इतिहासकारों द्वारा हाल में किए गए शोध-कार्यों से संभवतः अनजान हैं। इसलिए शुरुआत के लिए मैं आपको अपना एक प्रकाशित लेक्चर पढ़ने की सलाह देती हूँ, जिसका शीर्षक है ‘कल्चरल ट्रांजैक्शन एंड अरली इंडिया’”।

रोमिला थापर के इस उत्तर में घोर अहंकार तो टपकता ही है, जो सच्चे विद्वान का लक्षण ही नहीं होता! पर ध्यान देने की बात यह है कि थापर ने न तो सीताराम जी की पुस्तक पर कोई टिप्पणी की, न जिन विंदुओं को गोयल ने उठाया था उन का उत्तर देने वाली किसी पुस्तक का संदर्भ दिया। वे उन ‘असंख्य’ इतिहासकारों के किसी शोध-कार्य का कोई ठोस हवाला भी दे सकती थीं जो सीताराम जी के प्रश्नों का सटीक उत्तर देती हो। इसके बजाए वे अपना लेक्चर पढ़ने से ‘शुरुआत’ करने की सलाह ऐसे विद्वान को 1991 में दे रही थीं, जिसने लगभग आधी शताब्दी पहले दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास से एम.ए. किया था और अब तक दर्जनों विद्वत् पुस्तकें लिखी थीं। सबसे विचित्र बात यह कि इस लेक्चर में भी उस प्रश्नावली के एक भी प्रश्न का उत्तर नहीं है। सीताराम गोयल अब नहीं रहे, किंतु मार्क्सवादी इतिहासकारों को दी गई उनकी प्रश्नावली आज भी अनुत्तरित है। किसी ने उसे उठाने की हिम्मत नहीं की।

यह भी विडंबना है कि एक ओर मार्क्सवादी इतिहासकार सीताराम गोयल को संघ-परिवार का लेखक बताकर डिसमिस करते रहे, जबकि दूसरी तरफ स्वयं संघ-परिवार ने सीताराम जी से खुद को प्रायः दूर ही रखा। गाहे-बगाहे उनकी सेवाएं जरूर ली गई। लेकिन संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर में उनके लेख दो बार (1962, 1982) बंद कराए गए। कारण कि कई बुनियादी मुद्दों पर दोनों के विचार मूलतः भिन्न थे। जैसे, संघ के नेता मानते रहे कि इस्लाम में नहीं, मुसलमानों में गड़बड़ी है। जबकि सीताराम जी का विचार ठीक उल्टा था। उनके अनुसार मुसलमान तो भारतीय समाज का वह हिस्सा हैं जिसे इस्लाम ने प्रताड़ित किया और बरगलाया। अतः वैचारिक संघर्ष इस्लामी मतवाद के साथ करना होगा ताकि मुसलमानों में आत्म-चिंतन शुरू हो और वे प्रवंचना से मुक्त हो सकें।

संघ परिवार से इस बुनियादी मतभेद के आधार पर सीताराम जी ने 1990 में ही अयोध्या आंदोलन के मुसीबत में फंसने की भविष्यवाणी की थी। तब हिंदुत्ववादियों ने बार-बार मुसलमानों से अपील की कि वे विवादित स्थल पर दावा छोड़ दें। यह कहकर कि इस्लाम में विवादित स्थलों पर मस्जिद बनाने की मनाही है, कि इस्लाम शांति का मजहब है, आदि आदि। जबकि सीताराम गोयल का कहना भिन्न था। उन के शब्दों में, “मंदिरों के पुनर्स्थापन का आंदोलन रामजन्मभूमि में उलझ कर रह गया है। ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल का जिक्र तक नहीं हुआ कि इस्लामी हमलावरों के हाथों मंदिरों का वह हश्र क्यों हुआ। हिंदू नेता इस्लामी प्रचारकों की लफ्फाजी स्वीकार कर बैठे हैं कि इस्लाम में दूसरों के पूजा-स्थलों पर मस्जिद बनाने की मनाही है। … जो आंदोलन सच्चाई से मुँह चुराए, उस की सफलता की संभावना कम ही है। आत्म-छलना पर बनी रणनीति शुरू में ही ध्वस्त हो जाती है।”

इस प्रकार, सीताराम जी हिंदुत्ववादियों द्वारा इस्लाम के बारे में गोल-गोल बातें कहना भी ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ का ही एक प्रकार मानते थे। चूँकि सीताराम जी मुसलमानों को ऐतिहासिक रूप से हिंदू समाज का अंग समझते थे जिन्हें इस्लामी मतवाद ने अपने इतिहास और पूर्वजों से दूर कर दिया है। इसलिए मुसलमानों में चेतना जगाकर उनके हृदय और मानस को पुनः जीतने के प्रयत्न के अतिरिक्त कोई कर्तव्य नहीं। इसके लिए विभिन्न धर्मों के दर्शन, लक्ष्य और ऐतिहासिक अनुभवों के बारे में सही शिक्षा देना अपरिहार्य है।

सीताराम गोयल जैसे मनीषियों की बातें कितनी सही थीं, इसका फैसला तो इतिहास करेगा ही। जब बौद्धिक परिदृश्य से मार्क्सवादी व सेक्यूलर प्रवंचनाओं का धुँधलका छँटेगा और भारत का बीसवीं सदी का बौद्धिक आकलन किया जाएगा, तब सीताराम जी जैसे विद्वानों का महत्व अधिक स्पष्ट होगा। वे पहले ‘सांप्रदायिक’ लेखक थे जिन्होंने ईसाई, इस्लामी और मार्क्सवादी – इन तीनों साम्राज्यवादी विचारधाराओं द्वारा लादे गए भारत संबंधी विश्लेषणों का मुँहतोड़ जबाव दिया।

परन्तु अभी यह विचारणीय है कि हमारे बुद्धिजीवी वर्ग ने सीताराम गोयल से क्यों किनारा किए रखा?

दूसरी ओर रामविलास शर्मा को सरकार और विद्वत जगत दोनों से भरपूर प्रचार और सम्मान मिला। जबकि शर्माजी का लेखन मार्क्सवादी अंधविश्वास और तदनुरूप एकांगी तर्कों, छिद्रान्वेषण और लफ्फाजी पर आधारित था। उनकी किसी भी पुस्तक में देखा जा सकता है कि उन के लिए तथ्यों का मूल्य भी सदैव लेनिन-स्तालिनवादी विचारधारा के अधीन था। अर्था्त्, जो तथ्य इस विचारधारा की सेवा में उपयोग किए जा सकते थे, शर्मा जी के लिए केवल वही तथ्य थे। जब कि ऐसी बातों, घटनाओं, तथ्यों का विशाल भंडार जो कम्युनिस्ट व इस्लामी राजनीति को खंडित करते या कठिनाई में डालते, शर्मा जी के लिए अस्तित्वहीन थे। जीवन के अंतिम चरण में अवश्य शर्मा जी ने हिंदू मनीषा को गंभीरता से देखना आरंभ किया था, जो अनंतर उन के मार्क्सवादी अंधविश्वासों को काट सकती थी। किंतु आयु पूरी हो जाने से वह काम अधिक दूर न जा सका। अतएव उन का संपूर्ण लेखन प्रायः मार्क्सवादी-स्तालिनवादी मताग्रहों को फैलाना भर ही रहा।

शर्मा जी का वैचारिक कार्य कितना सफल रहा यह इसी से स्पष्ट है कि हिंदी की कोई पत्र-पत्रिका नहीं, जिस के पाठक उन के नाम से अपरिचित हों। इतना ही नहीं, देश की विभिन्न ‘बुर्जुआ’ सरकारों, संस्थानों ने बुर्जुआ सत्ता उखाड़ फेंकने की प्रतिज्ञा वाले इस मार्क्सवादी-लेनिनवादी लेखक को बार-बार पुरस्कृत किया! शर्मा जी की पुस्तकें ही नहीं, भाषण और पुराने लेख भी विभिन्न ‘बुर्जुआ’ प्रकाशक और सरकारी संस्थान भी शौक से निरंतर छापते रहे। उन के साक्षात्कारों की तो कोई गिनती ही नहीं। यद्यपि लगभग सब में कुछ लेनिन-स्तालिनवादी अंधविश्वासों, जड़-सूत्रों, घोषणाओं का दुहराव ही है। चाहे 1940 के दशक का या 1980 के दशक का लेखन हो, शर्माजी की किसी भी पुस्तक को उठाकर यह देखा जा सकता है।

केवल भरपूर लिखने मात्र से शर्माजी प्रसिद्धि नहीं हुए। वे स्वयं प्रगतिशील लेखक संघ के तानाशाह नेता भी रहे थे। फिर उन का प्रचार करने वाली संगठित मार्क्सवादी मंडलियाँ भी थीं। साथ ही, सत्तागत सुविधाएं और मान-सम्मान देने के लिए प्रभावशाली नेहरूपंथी राजनीतिक लोग भी थे। ऐसी कोई सुविधा सीताराम जी को जीवनपर्यंत नहीं मिली। उन्होंने अपने साहित्यिक लेखन के लिए ‘एकाकी’ उप-नाम यों ही नहीं रखा था।

जब कि सीताराम जी का सत्यनिष्ठ, सुसंगत, सशक्त लेखन भी हमारे वृहत बुद्धिजीवी वर्ग के बीच लगभग अपरिचित ही बना रहा है। यद्यपि उन्होंने भी उतनी ही निष्ठा से, उतनी ही लंबी अवधि – लगभग आधी शती –– तक अपना लेखन किया। सीताराम जी द्वारा लिखित और संपादित ग्रंथों की सूची शर्मा जी द्वारा लिखित ग्रंथों से अधिक ही है। किंतु उन्हें अकादमिक जगत की मान्यता नहीं के बराबर मिली। इस में निश्चय ही उस सचेत राजनीतिक-वैचारिक दुराग्रह का हाथ था जो सेक्यूलरिज्म व प्रगतिवाद के नाम से हावी है। फिर, शर्मा जी की मार्क्सवादी मंडलियों की तरह सीताराम जी के लेखन को प्रचारित करने वाली कोई कटिबद्ध राष्ट्रवादी या हिन्दूवादी मंडली नहीं थी। यह विडंबना ही है कि अकादमिक जगत उन्हें ‘संघ परिवार का लेखक’ बताकर उपेक्षित करता रहा, जब कि संघ परिवार ने सीताराम जी के लेखन को सुधी जनों तक पहुँचाने के कार्य को कभी महत्व नहीं दिया, जो अनिवार्यतः होना चाहिए था।

सीताराम जी ने तीस से अधिक पुस्तकें लिखी हैं, इस से उनकी महत्ता का पता नहीं चलेगा। उसका पता इस से चल सकता है कि उनकी लिखी पुस्तकों में एक भी ऐसी नहीं है, जिसे कोई खुले मस्तिष्क का पाठक पढ़कर वही रह जाए जो वह पहले था। दूसरे शब्दों में, उनका संपूर्ण लेखन मौलिक चिंतन, शोध और सत्यनिष्ठा से ओत-प्रोत है। इसी कारण, हमारे घोषित ‘व्यवस्था विरोधी’ प्रगतिवादी संपादकों, प्रोफेसरों ने पाठकों, विद्यार्थियों को सीताराम जी के लेखन से प्लेग की तरह बचा कर रखा है। क्योंकि उसे पढ़कर कोई भी विद्यार्थी वामपंथी मिथ्याचार और छल-प्रपंच को समझे बिना नहीं रह सकता। उसमें आज भी इतना विचारोत्तेजक नयापन महसूस होती है।

सीताराम जी के अध्ययन-विशेल्षण के मुख्य विषय थे: सोवियत-चीनी समाजवादों की असलियत, लेनिनवादी वैचारिक जड़ता, कम्युनिस्ट पार्टियों का अंधविश्वास, ईसाई मिशनरी संगठनों का साम्राज्यवादी-धर्मांतरणकारी लक्ष्य, इस्लामी राजनीति की एकांतिकता-असहिष्णुता-छल-कटिबद्धता और इन सब का भारतीय बौद्धिक-राजनीतिक जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव। इन संबंधी उन के संपूर्ण लेखन, विश्लेषण को परख कर कोई भी स्वयं देख सकता है कि उन के आकलन प्रमाणिक और निष्कर्ष सटीक थे। तब भी और आज भी। इसीलिए देश के प्रभावी सेक्यूलर-वामपंथी बौद्धिकों ने सीताराम जी को गुम रखने का प्रयास किया।

यदि सीताराम जी का लेखन सतही, संकीर्ण और दुराग्रही होता, तो उस पर मौन रखने की बजाए वामपंथी अकादमिक-प्रचारक वर्ग ने बड़े शौक से उसे सामने रखकर, उस का खंडन कर, बौद्धिक अंक अर्जित करने का अवसर न छोड़ा होता। वामपंथी वैसे भी खंडन-मंडन के प्रेमी हैं। किंतु सीताराम जी के लेखन का खंडन करना ही असंभव था! इसीलिए उन के लेखन को जितना उपेक्षित किया जा सकता था, किया गया, ताकि उस के प्रभावी जीवाणु पाठकों तक पहुँच ही न सकें।

जब कि शर्मा जी की सभी बुनियादी धारणाओं – मार्क्सवाद की वैज्ञानिकता, सोवियत आदर्श, वर्ग-संघर्ष की केंद्रीयता और विश्व-साम्यवाद की अबाध अग्रगति – को काल ने कूड़ेदान में फेंक दिया है। 1946 ई. से 1994 तक लिखी हुई उन की तमाम पुस्तकों, लेखों के आम निष्कर्ष आज किसी को भी स्वतः हास्यास्पद जान पड़ेंगे। आज कोई प्रगतिवादी भी उन्हें उद्धृत नहीं करता! क्योंकि वह सब जड़-विचारधारा के अंधविश्वास और जिद के आधार पर लिखा गया प्रचारात्मक पार्टी-लेखन था। ध्यान रहे: शर्मा जी के लेखन की मूल्यवत्ता आज नहीं गिर गई है। तथ्य, प्रमाण और तर्क की कसौटी पर वह तब भी नहीं टिकती जब वह लिखी गई थी। आज तो उस का कोई मूल्य इसलिए नहीं रह गया, क्योंकि दुनिया की अनवरत घटनाओं ने जगजाहिर कर दिया है कि ‘इतिहास की गति के नियम’ और उन समाजवादी स्वर्गों का सत्य क्या था जिन को ध्रुवतारा मान कर शर्मा जी जैसे लेखक दशकों अपनी लेखनी चलाते रहे।

प्रबुद्ध पाठकों के लिए सीताराम गोयल और राम विलास शर्मा के संपूर्ण वांङमय उपलब्ध हैं। दोनों के लेखन के सभी आकलनों, विश्लेषणों, निष्कर्षों को देखें तो निस्संदेह किसी भी निष्पक्ष निर्णायक मंडल का यही निर्णय होगा कि समय ने सीताराम जी के सभी विचारों की पुष्टि की और शर्मा जी की सभी मान्यताओं को निर्ममता से ठुकराया है।

सामान्य पाठक को किसी लेखक की बातों को प्रमाणिकता, अनुभव और सुसंगत तर्क पर तोलने में कोई दुविधा नहीं रहती है। उस के कोई निहित स्वार्थ नहीं जो उसे सत्य को पीछे धकेल किसी वैचारिक पाखंड को दुहराने के लिए विवश करें। यही कारण है कि दशकों से मार्क्सवादी-प्रगतिवादी लेखकों के प्रचार के बाद भी यहाँ किसी मार्क्सवादी लेखक के प्रति वह ललक नहीं बन सकी जो आज भी बंकिमचंद्र, रवीन्द्रनाथ, निराला, प्रेमचंद, अज्ञेय जैसे अनमोल लेखकों के प्रति मौजूद है। यदि सीताराम जी का वैचारिक लेखन उसी श्रेणी का है, यह कोई पाठक स्वयं परख सकता है।

पर सीताराम जी का लेखन नेहरूवादी, सेक्यूलर-वामपंथी, हिंदू विरोधी, भारत-विमुख, अमेरिका-उन्मुख एलीट वर्ग और उन के अनुगामियों को नहीं रुचा। क्योंकि यह उनके राजनीतिक-आर्थिक स्वार्थों से मजबूती से जुड़ा था, और इसलिए अपने संकीर्ण हितों के प्रति सचेत था। उसे सीताराम जी के लेखन की कोई जरूरत नहीं थी। बल्कि वह उन्हें खामखाह मुसीबत खड़ा करने वाला, अपनी स्वार्थी, आरामदायक दुनिया में खलल डालने वाला प्रतीत होता था। ऊपर रोमिला थापर का उदाहरण देखा जा सकता है, कि सीताराम जी द्वारा भेजे गए प्रश्न उनके लिए कितनी मुसीबत साबित हुए!

सीताराम जी ने निस्संदेह सच लिखे थे। किंतु उन्हें सामने लाने, विचार करने का परिणाम क्या होता? पहला, देश की अर्थव्यवस्था को समाजवादी दुराग्रहों से मुक्त करना। इस से शासकीय हितों के अनुरूप बनी नौकरशाही और सत्ताधारी नेताओं की ऊपरी आमदनी व शाही सुविधाओं का बड़ा स्त्रोत खत्म हो जाता। दूसरे, इस्लामी राजनीति-विचारधारा आदि की कठिन वास्तविकता स्वीकार करनी होती। तब देश के मुस्लिमों के साथ वैचारिक शिक्षण और विमर्श का कठिन कार्य हाथ में लेना होता। तीसरे, ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों पर कमोबेश अंकुश लगाना होता। अर्थात् धनी, कटिबद्ध मिशनरी संगठनों तथा यूरोपीय सरकारों, संगठनों से यदा-कदा कूटनीतिक दो-दो हाथ करने के लिए हमेशा तैयार रहना पड़ता। अनेक कठिन कानून बनाने और उन्हें लागू करने की जहमत भी उठानी पड़ती।

इस प्रकार, सीताराम जी के जैसे लेखन को सामने लाने और सब के समक्ष रखने से यह कर्तव्य अपने-आप बनते थे। इन कर्तव्यों को हाथ में लेने के लिए हमारे पश्चिमोन्मुख, स्वार्थी, जनता से दूरी रखने वाले बुद्धिजीवी, प्रशासक वर्ग में क्या दिलचस्पी हो सकती थी? यही कारण है प्रमाणिक और अंग्रेजी में होने के बाद भी सीताराम जी का लेखन हमारे प्रभावी बुद्धिजीवियों के लिए भी उपेक्षणीय रहा। जब कि शर्माजी का लेखन घोर क्रांतिवादी होते हुए भी पूर्णतः काल्पनिक, इसलिए हानिरहित था! उस में विचारशील लोगों को प्रभावित करने, और शासकों-प्रशासकों के लिए कोई ठोस समस्या खड़ी करने जैसी कोई सामर्थ्य न थी। बल्कि उसका उपयोग राष्ट्रवादी और हिन्दूवादी राजनीतिक शक्तियों को लांछित करने में खूब हो सकता था। नेहरूपंथी राजनीतिक दलों, नेताओं को इसका आभास था। उनकी राजनीतिक संवेदना जिस सतर्कता से सीताराम गोयल जैसे विद्वान को उपेक्षित करती थी, उसी सावधानी से हर तरह के प्रगतिवादी को प्रोत्साहित भी करती थी। यह एक ही कार्य के दो पहलू भर थे। इसीलिए रोमिला थापर और रामविलास शर्मा जैसे मार्क्सवादी विद्वानों को भरपूर आदर, सम्मान, पद और पुरस्कार देते रहने में उन का उत्साह कभी मंद न पड़ा।

दिशा शूल

विजय कुमार

कल मैं दफ्तर से आकर बैठा ही था कि शर्मा मैडम का फोन आ गया। उनकी आवाज से लग रहा था कि वे किसी संकट में हैं। पूछने पर पता लगा कि संकट में वे नहीं, उनके पति हैं।

शर्मा जी मेेरे पुराने मित्र हैं। वे संकट में हों, तो मेरा घर में बैठे रहना उचित नहीं था; पर दिन भर फाइलों में घुसे रहने के कारण मेरे सिर में दर्द हो रहा था। मैंने जल्दी से चाय पी और उनके घर जा पहुंचा। वहां पता लगा कि शर्मा जी अस्पताल में हैं। कारण पूछने पर यह कहानी पता लगी।

शर्मा जी यों तो पढ़े-लिखे हैं; पर फिर भी न जाने क्यों वे शगुन, अपशगुन, टोने-टोटके और दिशा शूल आदि पर बहुत विश्वास करते हैं। अखबारों में छपने वाले ज्योतिष के कॉलम को वे बहुत ध्यान से पढ़ते हैं। प्रायः कागज-कलम लेकर उसमें से कुछ बातें लिख भी लेते हैं। दूरदर्शन के कई चैनलों पर आने वाले ‘आज का दिन’ और ‘कल का भविष्य’ जैसे कार्यक्रमों को भी वे बड़े गौर से देखते हैं। चौराहे पर पीपल के नीचे बैठने वाले पंडित तोताराम ज्योतिषाचार्य के पास भी उन्हें प्रायः देखा जाता है। कभी-कभी वे गूगल बाबा की शरण में भी चले जाते हैं।

वैसे इन भविष्यवाणियों का सिर-पैर मेरी समझ में नहीं आता। एक अखबार धन के लाभ की बात कहता है, तो दूसरा हानि की। एक लिखता है कि मित्रों से सुख मिलेगा, तो दूसरा उनसे सावधान रहने को कहता है। मैंने शर्मा जी को कई बार समझाया कि ज्योतिष के नाम पर दुकान खोले हुए अधकचरे लोगों ने इस विज्ञान को मजाक बना दिया है। अतः इनकी बातों में न आयें; पर शर्मा जी अपना विश्वास तोड़ने को तैयार नहीं थे। इनके अनुसार कई बार वे बने-बनाये कार्यक्रम भी बदल देते थे। इस आदत से मित्र ही नहीं, उनकी पत्नी और बच्चे भी परेशान थे।

आज दोपहर में उन्हें अपने एक मित्र की दुर्घटना के बारे में पता लगा। एक संवेदनशील प्राणी होने के नाते उन्होंने साइकिल उठाई और अस्पताल की ओर चल दिये; पर तभी उन्हें ‘आज का दिन’ वाले कागज का ध्यान आया। उसमें उन्हें दक्षिण दिशा में न जाने को कहा गया था; पर वह अस्पताल तो उनके घर के दक्षिण में ही था। इससे बचने के लिए शर्मा जी चौराहे से उत्तर वाली सड़क पर चल दिये। इस रास्ते से यद्यपि दो कि.मी फालतू चक्कर लगाना पड़ता था; पर दिशा शूल वाली सड़क को तो छोड़ना ही था।

पर उत्तर वाली सड़क पर दो कदम चलते ही एक बिल्ली रास्ता काट गयी। शर्मा जी की दृष्टि में यह बड़ा भारी अपशगुन था। वे लौटे और पश्चिम वाली सड़क पर चल दिये; पर वहां एक घड़ा टूटा हुआ पड़ा था। पास की गली से निकलना चाहा, तो किसी ने छींक दिया। शर्मा जी बड़े असमंजस में फंस गये। दक्षिण में दिशा शूल, उत्तर और पश्चिम में अपशगुन, और पूर्व में तो उनका अपना घर ही था।

शर्मा जी वापस चौराहे पर आकर आकाश की ओर देखने लगे। मानो भगवान से पूछ रहे हों कि अब क्या करूं ? सूरज की गर्मी, उच्च रक्तचाप और मन के संशय में वे ऐसे घिरे कि चक्कर खाकर साइकिल समेत नीचे गिर पड़े। कपड़े तो फटे ही, कई जगह चोट भी आ गई। यहां तक कि चश्मा भी चूर-चूर हो गया।

मोहल्ले के सब लोग उन्हें जानते ही थे। उन्हें हिलाडुला कर देखा, तो हाथ की हड्डी टूटने के स्पष्ट संकेत थे। वर्मा जी तत्काल अपनी कार ले आये। सबने मिलकर उन्हें अस्पताल के उसी वार्ड में पहुंचा दिया, जहां उनका मित्र भर्ती था।

इस प्रकार उनकी मित्र से भेंट तो हुई; पर विपरीत परिस्थितियों में। अगले दिन उनके हाथ का ऑपरेशन हो गया। ईश्वर की कृपा से सब ठीकठाक रहा। पैसे तो खर्च हुए; पर हड्डी ठीक से जुड़ गयी। कुछ दिन अस्पताल में रहने के बाद डॉक्टर ने घर जाने की अनुमति दे दी।

मैंने शर्मा जी से पूछा, किस रास्ते से चलें; आज दिशा शूल किस दिशा में है ?

शर्मा जी ने शर्म से आंखें झुका लीं।

पारदर्शिता के पक्षधर

विजय कुमार

शर्मा जी हमारे मोहल्ले के एक जागरूक नागरिक हैं। देश में कोई भी घटना या दुर्घटना हो, उसका प्रभाव उनके मन-वचन और कर्म पर जरूर दिखाई देता है।

15 अगस्त और 26 जनवरी को वे मोहल्ले में झंडारोहण कराते हैं। कहीं बाढ़ या तूफान से जनहानि हो जाए, तो वे चंदा जमा करने निकल पड़ते हैं। उन्हें समाज सेवा की धुन सवार है। यद्यपि कई लोग उन्हें सनकी और झक्की भी कहते हैं; पर शर्मा जी इस ओर ध्यान न देते हुए काम में लगे रहते हैं।

अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने पिछले कुछ समय से सरकारी कामकाज में पारदर्शिता के लिए आंदोलन चला रहे हैं; पर शर्मा जी सदा से ही पारदर्शिता के पक्षधर हैं। उन्होंने जो भी काम किया, जहां भी नौकरी की, वहां इसे जीवन का मूल मंत्र बनाया। यह बात दूसरी है कि इस कारण वे कहीं भी अधिक समय तक टिक नहीं सके। इसके बाद भी उन्होंने पारदर्शिता की नीति नहीं छोड़ी। कई लोग तो मजाक में उन्हें शर्मा जी की बजाय ‘पारदर्शी जी’ कहने लगे।

जब दफ्तर और व्यापार में पारदर्शिता का सूत्र नहीं चला, तो उन्होंने अपने घरेलू जीवन में पारदर्शिता अपनाने का निश्चय किया। सुबह की चाय वे दरवाजे के बाहर खड़े होकर पीने लगे। कुछ दिन तो उन्होंने नाश्ता भी सड़क पर ही किया; पर एक दिन उसमें शामिल होने कुछ कुत्ते भी आ गये। मजबूरी में उन्हें अंदर जाना पड़ा।

इस पर भी शर्मा जी ने पारदर्शिता का सूत्र नहीं छोड़ा। अब वे मेज पर कप-प्लेट के साथ लाठी भी रखने लगे। एक दिन कान से मोबाइल लगाये एक नौजवान मोटर साइकिल वाला मेज से टकरा गया। शर्मा जी को चोट तो लगी ही, सारी खाद्य सामग्री भी बेकार हो गयी। चाय से उस युवक के कपड़े खराब हो गये। अतः वह गाली बकने लगे। जैसे तैसे जान छुड़ाकर वे घर में आये, तो पत्नी ने दुबारा नाश्ता बनाने से मना कर दिया। बेचारे शाम तक भूखे बैठे रहे, तब से उन्होंने खानपान में पारदर्शिता का विचार त्याग दिया।

फिर उन्हें एक और धुन सवार हुई। वे खुली छत पर जाकर नहाने लगे। इस पर पड़ोसियों ने आपत्ति की। मजबूरी में यह विचार भी उन्हें छोड़ना पड़ा। एक दिन वे बहुत पुराने, लगभग पारदर्शी हो चुके कपड़े पहनकर मैदान में घूमने निकल पड़े। कई लोग यह देखकर हंसने लगे, तो कुछ ने शर्म से मुंह घुमा लिया। एक पुरातत्वप्रेमी इतिहासकार उन्हें हड़प्पा की खुदाई से निकले कपड़े समझकर खरीदने की बात करने लगा।

मोहल्ले के कुछ शरारती बच्चे ताली बजाते और हो-हो करते हुए उनके पीछे लग गये। एक बच्चा न जाने कहां से एक टूटा कनस्तर ले आया। उसे बजाने से बच्चों का वह हुजूम एक जुलूस की तरह लगने लगा। हंगामा होता देख पुलिस वालों ने उन्हें पागल समझकर पकड़ लिया। कुछ जान-पहचान वालों ने बीच बचाव करा लिया, वरना वे उन्हें पागलखाने ले ही जा रहे थे। शर्मा जी के बच्चों को पता लगा, तो उन्होंने उनके सब पुराने कपड़े फाड़ दिये। पारदर्शिता के जंगल में शर्मा जी फिर अकेले रह गये।

अब शर्मा जी को समाज सेवा की धुन सवार है। सुबह से शाम तक वे समाज सेवा में सक्रिय रहते हैं। इस सक्रियता का एक कारण और भी है। वे दुकान पर जाते हैं, तो बच्चे वहां बैठने नहीं देते। शर्मा जी पारदर्शी ढंग से व्यापार करना चाहते हैं; पर अब जमाना तेजी का है। एक रुपये की चीज जब उनके बच्चे पांच रुपये में बेच देते हैं, तो शर्मा जी का मुंह खुला रह जाता है। वे कुछ बोलना चाहते हैं; पर बच्चों के भय से बोल नहीं पाते। शर्म से उनकी आंखें झुक जाती हैं। इसलिए जब कभी वे दुकान पर जाते हैं, तो बच्चे किसी न किसी बहाने से उन्हें घर भेज देते हैं।

लेकिन घर पर भी उन्हें आराम नहीं मिलता। वे कभी-कभी रसोई में जाकर पारदर्शिता की जांच करने लगते हैं। इससे उनकी श्रीमती जी नाराज हो जाती हैं। वे उन्हें दो-चार घंटे दुकान पर जाकर बच्चों का सहयोग करने को कहती हैं।

शर्मा जी काफी समय तक चक्की के इन दो पाटों के बीच पिसते रहे। तब किसी ने उन्हें समाज सेवा करने का सुझाव दिया। बस, तब से वे इसी में जुटे हैं। सुबह नाश्ता कर निकलते हैं, तो रात को ही घर लौटते हैं। अब घर भी ठीक चल रहा है और दुकान भी। इसलिए बच्चे भी खुश हैं और पत्नी भी। पीर-बावर्ची भिश्ती-खर जैसा आदमी मिलने से ‘मोहल्ला कल्याण सभा’ वाले भी गद्गद हो गये, चूंकि शर्मा जी हर काम करने को तैयार रहते थे।

लेकिन अफसोस, यहां भी बात लम्बे समय तक नहीं चल सकी। शर्मा जी आय-व्यय और चंदे आदि में पारदर्शिता चाहते थे; पर मोहल्ला कल्याण सभा वाले इतने पारदर्शी नहीं थे। नाराज होकर शर्मा जी ने ‘मोहल्ला उद्धार सभा’ बना ली। आजकल वे उसकी सदस्यता में जुटे हैं।

देश के राजकाज में पारदर्शिता लाने के लिए पिछले दिनों बाबा रामदेव और अन्ना हजारे ने उपवास किये। उनके साथ देश के लाखों लोगों ने सच्चे मन से उपवास किया। उमा भारती ने गंगा की रक्षा के लिए, तो नरेन्द्र मोदी ने राज्य में सद्भावना फैलाने के लिए उपवास किया। नरेन्द्र मोदी का विरोध करने के लिए गुजरात के हजारों कांग्रेसी भी भूखे रहे। कुछ प्रसिद्ध लोगों ने अनशन किया, तो कुछ लोगों ने अनशन से प्रसिद्धि पाई।

यों तो शर्मा जी ‘भूखे भजन न होय गोपाला, ये ले अपनी कंठी माला’ के अनुयायी हैं; पर एक जागरूक नागरिक एवं सक्रिय समाजसेवी होने के नाते उन्होंने भी उपवास का निश्चय किया।

इन दिनों वे ‘मौहल्ला कल्याण सभा’ के काम में पारदर्शिता लाने के लिए ‘मोहल्ला उद्धार सभा’ के बैनर तले चौराहे पर तख्त डालकर उपवास कर रहे हैं। उन्होंने उस चौक को ही मिनी जंतर मंतर घोषित कर दिया है; पर न मोहल्ले वालों का ध्यान उनकी ओर है और न मीडिया का।

पिछले तीन दिन से उनकी आंतें कुलबुला रही हैं। पेट में चूहे कबड्डी खेल रहे हैं। चौराहे की हलचल में दिन तो कट जाता है; पर रात को अकेले सोते हुए डर लगता है। पत्नी और बच्चे कई बार खाना लेकर आये; पर पारदर्शिता के पक्षधर शर्मा जी मोहल्ले और मीडिया वालों की उपस्थिति में किसी बच्चे के हाथ से नीबू पानी पीकर अनशन तोड़ना चाहते हैं।

क्या आप पारदर्शी जी की सहायता करेंगे ?

बेटी बचाओ का प्रहसन कब तक…?

विनोद उपाध्याय

मध्य प्रदेश में बेटियों को बचाने के नाम पर सरकार द्वारा हर वर्ष करोड़ों रूपए स्वाहा किए जा रहे हैं लेकिन न तो बेटियां बच रही हैं और ना ही उनकी अस्मत। हालात यह है कि देश में बालिकाओं के साथ सवार्धिक बलात्कार और अत्याचार मध्य प्रदेश में हो रहा है। अब जब प्रदेश में हालात नाजुक हो गए हैं तो सरकार ने बेटी बचाओ अभियान शुरू किया है। सरकार के इस कदम को चहूं ओर सराहा जा रहा है। लेकिन विसंगति की एक तस्वीर यह देखिए की ‘बेटी बचाओ’ अभियान के नाम पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जिस समय अपने निवास पर बेटियों की चरण वंदना कर खुश हो रहे थे, उसी समय एक ऐसी बच्ची भी खबरों में थी, जिसके तीन पिता हैं? प्राइमरी स्कूल में पढऩे वाली इस बच्ची के प्रमाण-पत्र में तीन ‘पिताओं’ के नाम दर्ज है? इन पिताओं की महानता यह है कि इन पर बच्ची की मां का बलात्कार का आरोप था।

मामले की तह तक जाने के लिए हमें आज से आठ साल पीछे जाना होगा। जबलपुर के डिंडोरी के निगवानी गांव में वर्ष 2003 पंद्रह साल की एक लड़की अपने गरीब बाप का हाथ बंटाने के लिए मजदूरी का काम करती है। मजदूरी कराने वाला ठेकेदार लड़की पर बुरी नजऱ रखता था और एक दिन मौका देखकर अपने दो साथियों के साथ उसकी अस्मत को तार-तार कर देता है। लड़की डर के मारे घर पर कुछ नहीं बताती,लेकिन कब तक ? खुद तो मुंह सिल सकती थी, लेकिन पेट में आई नन्ही जान को कब तक छुपाती। आखिर पिता को बताना ही पड़ा कि किन तीन वहशियों ने उसके साथ दरिंदगी की थी। ठेकेदार समेत तीनों आरोपियों के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज की गई,लेकिन पैसे और रसूख के आगे बेचारी लड़की और उसके गरीब पिता की लड़ाई कहां तक चल पाती। पीडि़ता के पिता ने जिन तीन लोगों का नाम लिया, ठेकेदार- मल्लेसिंह, ओमप्रकाश और बसंत दास। मुकदमे के दौरान ही लड़की आरोपों से मुकर गई, क्योंकि परिवार झंझट में नहीं पडऩा चाहता था। पिताओं की महान परंपरा और पौरुषेय उद्दंडता का इससे असंवेदनशील वाकया सुना है क्या?

यहां तक तो थी लड़की की कहानी। लेकिन लड़की ने जिस मासूम को जन्म दिया उसके साथ क्या हुआ ये जानकार किसी का भी कलेजा मुंह को आएगा। मासूम का नाना निगवानी पंचायत से उसका जन्म प्रमाण पत्र बनवाने गया तो ऐसा भद्दा मज़ाक किया गया जिसका दर्द बलात्कार से भी बड़ा है। बच्ची का जो जन्म प्रमाणपत्र जारी किया गया उसमें पिता के नाम के तौर उन तीनों लोगों का नाम लिख दिया गया, जिन पर बलात्कार का आरोप लगा था।

आज सात साल की हो गई उस लड़की का कोई जायज पिता भले न हो, पर उसके जन्म प्रमाणपत्र में ‘पिता का नाम’ वाले स्थान में तीन लोगों के नाम हैं। लेकिन यह सवाल आज हर किसी को सोचने पर मजबूर कर रहा है कि उक्त जन्म प्रमाणपत्र जारी करते हुए एक बार भी नहीं सोचा गया कि बच्ची बड़ी होगा तो उस पर क्या बीतेगी। सात साल की मासूम अब दूसरी क्लास में पढ़ रही है। औसत बच्चों से वह ज़्यादा होशियार है। अभी उन बातों को मतलब नहीं समझता होगा जो उसकी मां के साथ बीती। लेकिन जैसे जैसे यह बच्ची बड़ी होगी, समझने लायक होगी तो भावनात्मक रूप से उस पर क्या असर होगा, ये सोच कर ही दहल उठता है। इस मामले को संवेदनहीनता की मिसाल मानते हुए एसडीएम (डिंडोरी) कामेश्वर चौबे ने कहा कि वे निजी तौर पर मानते हैं कि अगर यह प्रमाण पत्र सही है, तो भी यह कैसे जारी किया गया और इस मामले में सख्त कार्रवाई करेंगे। चौबे ने बताया कि जिस प्राइमरी स्कूल में बच्ची पढ़ती है, वहां के रिकार्ड में ‘पिता का नामÓ वाला कॉलम खाली रखा गया था। उसके जन्म प्रमाणपत्र में यह असमान्य प्रविष्टि उस समय सामने आई जब बच्ची को दाखिले के लिए स्कूल लाया गया। यह जन्म प्रमाणपत्र पंचायत ने जारी किया था। यह व्यथा भले ही एक बच्ची की है लेकिन इसी की तरह हजारों और बच्चियां हैं जो अपने अस्तित्व को लेकर संघर्षरत हैं।

प्रदेश में लाडली को बचाने की योजना का फायदा आम जनता को कितना हो रहा है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जिस दिन मुख्यमंत्री ने बेटी बचाओ योजना की शुरूआत की उसके अगले दिन बुरहानपुर जिले के शिकारपुरा थाना क्षेत्र के बोहरड़ा गांव में एक नवजात बालिका को जिंदा जमीन में दफनाने का मामला सामने आया। हालांकि नवजात बच्ची को बचा लिया गया। यही नहीं मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के पूर्व विधायक और कांग्रेस जिला अध्यक्ष पीसी शर्मा ने कुछ ऐसी बच्चियों को सामने लाकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से सवाल करते हैं कि इन बेटियों को बचाने के लिए सरकार कब कदम उठाएगी। शर्मा कहते हैं कि भाजपा सरकार और उसके मुख्यमंत्री द्वारा बेटी बचाने का आह्वान करने वाले विज्ञापनों और होर्डिगों से किस क्रांति की कल्पना की जा रही है, यह तो प्रदेश का मुखिया ही बता सकता है। समूचे देश में ही औरतों की ऐसी दुर्दशा है कि हर तरफ बचाओ-बचाओ की पुकार मची है।

सवर्ण समाज पार्टी की अध्यक्ष अर्चना श्रीवास्तव कहती हैं कि औरत और मर्द को ऊपर वाले ने एक ही माटी से रचा है, लेकिन मां के गर्भ में आने के साथ की औरत (कन्या भ्रूण) को बचाओ-बचाओ का सहारा लेना पड़ता है जो जीवन पर्यंत जारी रहता है। आखिर इस बचाओ-बचाओ से कब तक मुक्ति मिलेगी। वे कहती हैं कि सूचना प्रसारण मंत्रालय को किसी फिल्म में नायिका के वक्ष की नग्नता कुछ दृश्यों में इतनी खटकी है कि उसे यह स्त्री को अपमानित करने वाली लगती है, जिसके खिलाफ वह गंभीर कदम उठाने को उतावला हो जाता है। लेकिन उनको बच्ची के प्रमाण पत्र पर चस्पा तीन बाप नहीं दिख सकते, इनके नामों से किसी को जलालत नहीं होती।

राज्य की पूर्व मुख्य सचिव तथा बाल अधिकार संरक्षण (चाइल्ड राइट ऑब्जर्वेटरी) की निर्मला बुच कहती हैं कि योजनाओं व रैलियों से बालिकाओं की रक्षा नहीं होने वाली है। इसके लिए जरूरी है कि कानून का सहारा लिया जाए।

मध्य प्रदेश महिला कांग्रेस की अध्यक्ष अर्चना जायसवाल कहती हैं कि भाजपा का बेटी बचाओ अभियान महज छलावा मात्र है। सरकार ने प्रदेश में बच्चियों तथा महिलाओं के संरक्षण के लिए पीछले आठ सालों से दावे कर रही है लेकिन पिछले तीन सालों में ही साढ़े तीन सौ महिलाओं को जिन्दा जलाए जाने के मामले प्रकाश में आए हैं। व कहती हैं कि पिछले तीन सालों में ग्वालियर में 23, दतिया में 21, इंदौर में 20, सागर में 17, छिंदवाड़ा और विदिशा में 15 -15, सतना में 13, राजधानी भोपाल में 12, नरसिंहपुर में 11 तो संस्कारधानी जबलपुर में 10, देवास, छतरपुर, भिण्ड, शिवपुरी में 9-9, डिंडोरी, धार कटनी में 8-8, मुरेना, मंदसौर, उज्जैन एवं बड़वानी में 7-7, हरदा, गुना, टीकमगढ़ और खरगोन में 6-6, मण्डला, अशोक नगर, सीहोर और होशंगाबाद में 5-5, शाजापुर और नीमच में 4-4, बैतूल व खण्डवा में 3-3, रीवा बुरहानपुर में 2-2 तथा रतलाम, सिंगरोली, उमरिया, पन्ना और झाबुआ में 1-1 महिलाओं को जिन्दा जला दिया गया। ऐसे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि भाजपा सरकार का बेटी बचाओ अभियान की हकीकत क्या है।

एनसीआरबी द्वारा 2009-10 के आंकड़ों के अनुसार मप्र में 1071 बालिकाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं हुईं। यह देश में हुई इन घटनाओं का 20 प्रतिशत थी। उधर, राष्ट्रीय महिला आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक सबसे ज्यादा बाल विवाह भी मप्र में ही होते हैं। इसके अनुसार मप्र में लगभग 70 प्रतिशत बालिकाओं का विवाह 18 वर्ष के पहले हो जाता है। ये सभी आंकड़े मप्र में बच्चों एवं महिलाओं से संबंधित चल रहे विभिन्न कल्याणकारी कार्यो पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।

शिवराजसिंह ने ‘लाड़ली’ को बचाने के लिए यह अच्छी तरकीब तजवीज की है और इसके नतीजे अच्छे आ सकते हैं। इसके लिए सरकार को सजग होना पड़ेगा। अभी हाल ही में राज्य सरकार ने लड़कियों की आबादी बढ़ाने की गरज से लड़कियों के मां-पिता को पेंशन देने की योजना शुरू की है।

पेंशन की धनराशि ही तय करेगी कि बच्ची का पैदा होना कम होगा या ज्यादा। फिर पचपन साल के होने पर मिलेगी यह पेंशन। तब तक तो लड़की ‘परायी’ कर दी जाएगी। इतना धैर्य अगर मां-पिता देखने लगे तो बेटी-हत्या बंद ही हो जाए। यह भी सच है कि पेंशन के लिए कोई बेटी पैदा नहीं करना चाहेगा, लेकिन यह जरूर हो सकता है कि पेंशन के लालच में बेटी को पैदा होने दिया जाए। यहां यह विचार आ सकता है कि बेटी के बदले पेंशन क्या इसलिए दी जा रही है कि बेटा होता तो मां-बाप की सेवा करता, उन्हें अपने पास रखता या पालता क्या सारे बेटे ऐसे ही होते हैं क्या बेटों के मां-पिता भी अनाथालय में दिन नहीं गुजार रहे हैं क्या जमीन-जायदाद के लिए मां- पिता को ठिकाने लगाने वाले बेटों के नमूने कम हैं सबसे अहम बात यही है कि बेटे और बेटी का फर्क महसूस करने वाली मानसिकता को बदलना होगा। क्या आज भी पढ़े-लिखे और अपने आपको बुद्धिजीवी समझने और कहलाने वाले लड़के की चाह में लड़कियां पैदा नहीं करते रहे हैं इस वक्त में एक परिवार-एक बच्चे की सबसे ज्यादा जरूरत है…फिर वह लड़की ही क्यों न हो। चीन को हम और किसी तरह तो नहीं लेकिन हां, आबादी के मामले में जरूर पछाडऩे जा रहे हैं। सरकार तो पैसा दे सकती है, लेकिन अच्छे-बुरे के फैसले हमें खुद ही करना होंगे। मध्यप्रदेश में लड़कियों की घटती आबादी को रोकने के लिए हमारी समझ ज्यादा जरूरी है…बजाय किसी लालच के!

बेटी बचाओ अभियान बनेगा जन-आंदोलन

मुख्यमंत्री श्री चौहान ने की जन-जागृति यात्रा की शुरूआत 

मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने बेटी बचाओ अभियान’ को जन आंदोलन का रूप देने के लिए दतिया से जन-जागृति यात्रा की शुरूआत की। यात्रा की शुरूआत में मुख्यमंत्री ने प्रतीक स्वरूप पांच बेटियों की पारंपरिक ढंग से पूजा करते हुये उनके पांव पूजे। इस मौके पर मुख्यमंत्री की पत्नी श्रीमती साधना सिंह भी उपस्थित थीं। मुख्यमंत्री ने इसके बाद सपत्नीक रोली चंदन के टीके लगाकर ढाई सौ से अधिक कन्याओं को सामूहिक रूप से भोज भी कराया। मुख्यमंत्री ने इस अवसर पर कहा बेटियों को बचाने के लिए समाज की सोच में बदलाव की जरूरत है। इसी मकसद से प्रदेश सरकार ने सभी की भागीदारी से बेटी बचाओ अभियान चलाने का फैसला किया है।

मुख्यमंत्री ने कहा समाज से लगातार घट रही बेटियों की संख्या की वजह से सामाजिक असंतुलन पैदा हो रहा है। इससे आगे चल कर सामाजिक ताने बाने पर अत्याधिक विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इसलिए हम सबको एक जुटता के साथ बेटियों को बचाने के लिए प्रभावी पहल करनी होगी। श्री चौहान ने कहा बेटी है तो कल है” इस वाक्य को गांठ बांध कर हमें बेटी बचाओ अभियान में सक्रिय भागीदारी निभानी होगी। उन्होंने कहा कि बेटी बचाओ अभियान में समाज का पुरजोर समर्थन मिल रहा है। जन-जागृति यात्रा से यह अभियान और तेजी से अपनी मंजिल की ओर बढ़ेगा। मुख्यमंत्री ने कहा आरंभ में उन क्षेत्रों से जन-जागृति यात्रा की शुरूआत की गई है, जहां स्त्री-पुरुष अनुपात की विषमता सबसे अधिक है। बाद में यह यात्रा संपूर्ण प्रदेश में जारी रहेगी। श्री चौहान ने आशा व्यक्त की कि इस अभियान से मुकम्मल तौर पर समाज में बेटियों के प्रति सकारात्मक बदलाव सामने आयेंगे।

जन जागृति यात्रा के शुभारंभ के अवसर पर लोक स्वास्थ्य परिवार कल्याण एवं संसदीय कार्य मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्र, महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती रंजना बघेल, सांसद श्री प्रभात झा, ग्वालियर की महापौर श्रीमती समीक्षा गुप्ता, पिछड़ा वर्ग कल्याण निगम के अध्यक्ष श्री रुस्तम सिंह, सांसद श्री अशोक अर्गल व पूर्व मंत्री श्री ध्यानेन्द्र सिंह सहित बड़ी संख्या में स्थानीय जन-प्रतिनिधिगण मौजूद थे।

मामाजी ऑटोग्राफ प्लीज……….

मां पीताम्बरा पीठ के पवित्र प्रांगण में आयोजित सामूहिक कन्या भोज में मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह के बुलावे पर आई बेटियों की खुशी व उत्साह देखते ही बनता था। बेटी – बचाओ अभियान के तहत आयोजित इस कन्या भोज में आई हर बेटी के हाथ में कोरे कागज दिखाई दे रहे थे। जैसे ही मुख्यमंत्री यहां कन्याओं को भोजन परोसने के लिए पधारे वैसे ही कन्याएं अपने अपने कागज लेकर मुख्यमंत्री से आग्रह करने लगीं कि मामा जी ऑटोग्राफ प्लीज। सामूहिक कन्या भोज में शामिल कुछ कन्याओं की आटोग्राफ लेने की हसरत मुख्यमंत्री ने पूरी की तो कुछ के सिर पर ममतामई हाथ फेरकर कहा चिंता मत करो आपका मामा सदैव आप सब के साथ दिखाई देगा।

जन-जन ने लिया बेटी बचाने का संकल्प

झलकियाँ

  • मुख्यमंत्री ने मंच पर देवियों के रूप में मौजूद कन्याओं का पूजन किया।
  • मुख्यमंत्री ने बेटियों के संरक्षण व पालनपोषण का संकल्प दिलाया।
  • विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट कार्य करने वाली महिलाओं को सम्मानित किया गया।
  • कृषि उपज मंडी प्रांगण में लगाया गया विशाल पंडाल भारी भीड़ से खचाखच भरा था।
  • कार्यक्रम में बड़ी संख्या में छात्राएं तथा महिलाएं मौजूद थी।
  • मुख्यमंत्री ने आयोजन स्थल पर जनसंपर्क विभाग द्वारा विकास और जनकल्याणकारी कार्यक्रमों तथा महिला बाल विकास द्वारा महिला संशक्तिकरण संबंधित प्रदर्शनी का अवलोकन किया।
  • लोक कलाकारों ने संगीतबद्ध गीतों के माध्यम से बेटी के महत्व को प्रस्तुत कर सबका मन मोह लिया।
  • इस मौके पर नाटक बेटी है तो कल है’ की उत्कृष्ट प्रस्तुति हुई जिसे देखकर मुख्यमंत्री सहित उपस्थितजन मंत्रमुग्ध हो गए।
  • मांझी समाज ने बेटियों की नैया, कौन खिवइया, शिवराज भइया- शिवराज भइया की झांकी लगाई।
  • मुस्लिम समाज ने भी बैनर लगाकर अभियान का समर्थन किया।
  • एक- दो बेटियों के बाद आपरेशन कराने वाले माता-पिता सम्मानित किए गए।
  • मुख्यमंत्री ने बेटी नहीं बचाओंगे तो बहू कहां से लाओगे’ के नारे लगवायें।
  • पूरे रास्ते में विभिन्न धर्मो और समाज के लोगों ने गर्मजोशी से स्वागत किया तथा बेटी बचाओ अभियान में सहयोग की सहमति व्यक्त की।
  • मुख्यमंत्री ने सफलता पूर्वक अपने दायित्वों के निर्वहन कर रही राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल, लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमारी, कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी, लोकसभा नेता प्रतिपक्ष श्रीमती सुषमा स्वराज, उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती, दिल्ली शीला दीक्षित, पश्चिम बंगाल सुश्री ममता बनर्जी तथा तमिलनाडु की मुख्यमंत्री सुश्री जयललिता का उदाहरण भी दिया।
  • मुख्यमंत्री ने इंदरगढ़ में महाविद्यालय खोलने की घोषणा की। (दिनेश मालवीय)

सच्चा जननायक ही बने प्रधानमंत्री

डॉ. घनश्याम वत्स

भ्रष्टाचार के गरमागरम मुद्दे के साथ चुनाव सुधारों का मुद्दा भी अब धीरे धीरे गरम होने लगा है । कभी राइट टू रीकाल और कभी राइट टू रेजक्ट की बात होती है । ये सभी मुद्दे जनता की सत्ता में भागीदारी और सरकार की जनता के प्रति जवाबदेही बढाने के लिए ही हैं किन्तु जनता की भागीदारी सत्ता में बढाने का तथा सरकार को और अधिक जवाबदेह बनाने का एक तरीका और भी हो सकता है ।

भारत की संसद के दो सदन हैं । लोकसभा ( निम्नसदन ) एवं राज्यसभा (उच्च सदन ) जिसमे से लोकसभा के सदस्यों का चयन भारत की जनता के द्वारा प्रत्यक्ष तौर पर मतदान से और राज्यसभा के सदस्यों का चयन अप्रत्यक्ष रूप से होता है । उसी प्रकार भारत की शासन प्रणाली के दो महत्वपूरण पद प्रधानमंत्री एवं राष्टपति हैं किन्तु इन दोनों का ही चयन जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि करते हैं न की भारत की जनता । कौनसा सांसद ज्यादा सुविधाजनक है अथवा कौन जोड़ तोड़ में ज्यादा माहिर है इसी पक्ष पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है । भारत की जनता किसे पसंद अथवा न पसंद करती है ऐसा कोई विचार इन दोनों में से किसी एक के भी चयन में नहीं किया जाता । जब तक देश के शीर्ष पदों के चयन में जनता की पसंद अथवा न पसंद का ध्यान नहीं रखा जायेगा क्या तब तक सभी चुनाव सुधर व्यर्थ नहीं हैं ?

जिस प्रकार संसद में लोकसभा भारत की जनता का प्रत्यक्ष प्रतिनिधत्व करती है । उसी प्रकार कम से कम प्रधानमंत्री को भी शासन व्यवस्था में भारत की जनता का प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व करना चाहिए । इसलिए प्रधानमंत्री का चयन प्रत्यक्ष तौर पर भारत की जनता द्वारा करवाया जाना चाहिए ताकि भारत के प्रधानमंत्री सच्चे अर्थों में भारत के प्रधानमन्त्री हो न की केवल कहने के लिए और उनके माध्यम से भारत की जनता सरकार में अपनी प्रत्यक्ष भागीदारी अनुभव करे ।

इस प्रक्रिया के निम्न लाभ होंगे –

१. भारत में कोई प्रधानमंत्री उत्तर का तो कोई दक्षिण का होता है । कभी उत्तरप्रदेश का तो कभी किसी अन्य प्रदेश का होता है किन्तु आज तक कभी भी कोई प्रधानमंत्री पूरे भारत का नहीं हुआ । यदि प्रधान मंत्री का चुनाव सीधे तौर पर भारत की जनता करेगी तो वह प्रधानमंत्री भारत का होगा न की किसी क्षेत्र अथवा राज्य विशेष क़ा । इस प्रकार भारत प्रधान मंत्री के चुनाव के मध्यम से एकता के सूत्र में बंधेगा जो की भारत के लिए एक शुभ परिणाम देने वाला होगा ।

२. सम्पूरण देश का प्रधानमंत्री बनने वाला व्यक्ति केवल किसी जाति, धर्म, अथवा समुदाय विशेष का प्रतिनिधि न होकर सम्पूरण भारत का होगा तो वह भारतीय जनता के हित की बात बिना किसी जाति धर्म अथवा समुदाय विशेष को ध्यान में रख कर । भारत के लोकतान्त्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष ढाँचे के लिए यह भी एक अच्छी पहल होगी ।

३. भारत के प्रधान मंत्री कहने को तो आज भी जनता के प्रति जवाब देह हैं किन्तु जब उनका चयन प्रत्यक्ष तौर पर भारत की जनता करेगी तो वे भारत की जनता के प्रति और अधिक जवाबदेह होंगे और उनके द्वारा जन भावनाओं का आदर न करने पर जनता उन्हें सीधे तौर पर सजा दे सकेगी । क्योंकि जब कोई सांसद जनता की भावनाओं के विरुद्ध आचरण करता है तो अगले चुनावों में विभिन्न लोकसभा क्षेत्रों की जनता विभिन्न परिस्तिथियों में, एवं भिन्न भिन्न राज्यों में अलग अलग तरीके से वोट देती है तो खंडित जनादेश आता है और हर कोई ये दावा करता है की जनता ने उसके पक्ष में जनादेश किया है । कोई सबसे बड़ी एकल पार्टी होने का दावा करता है तो कोई सबसे बड़ा चुनावी गठजोड़, सब सत्ता पाने के लिए अपने अपने तर्क देते हैं किन्तु जब प्रधान मंत्री का चयन सीधे जनता करेगी तो जनादेश प्रधानमंत्री के रूप में मिलेगा और वो भी खंडित नहीं होगा क्योंकि वो स्पष्ट हाँ या न में होगा संसद में दलीय स्थिति चाहे कैसी भी हो ।

४. अभी तक प्रधानमंत्री मात्र एक सांसद होता है और वह केवल अपने लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है । किन्तु जब वह पूरे देश की जनता के द्वारा चुना जाएगा तो प्रधानमंत्री के पद की गरिमा बढ़ेगी और प्रधानमंत्री के आत्मविश्वास में इजाफा होगा और वह कभी भी रबड़ स्टंप का काम नहीं करेगा ।

५. अभी तक मंत्री परिषद् में प्रधान मंत्री की स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है । वे मंत्रिपरिषद के अन्य मंत्रियों के बराबर ही है और वे तो केवल मात्र शासन चलाने के लिए मंत्रिपरिषद के मुखिया हैं एवं कभी भी उन्हें बदला जा सकता है । किन्तु प्रधान मंत्री के सीधे चुनाव से पूरी शासन व्यवस्था के साथ साथ मंत्री परिषद् में भी प्रधान मंत्री के पद की गरिमा एवं धाक बढ़ेगी । वह अपनी बात मंत्रिपरिषद में और अच्छी तरह से रख सकेंगे मंत्रिपरिषद के सहयोगी अन्य मत्री उनकी इज्ज़त करेंगे एवं उनकी अवज्ञा करने से डरेंगे ।

६. जब भी कभी सरकार पर संकट आता है अथवा संसद भंग होने की स्थिति पैदा होती है तो हर सांसद को अपने संसदीय क्षेत्र , पुनः चुनाव और फिर वही चुनावी खर्चा दिखाई देता है और वह इन सबसे डर जाता है और डर कर समझौते करने लगता ही । सांसदों की खरीद फरोख्त चालू हो जाती है क्योंकि कोई भी सांसद पांच वर्ष से पूर्व जनता के बीच नहीं जाना चाहता ठीक ऐसा ही विचार प्रधानमंत्री के मन में भी आता है क्योंकि वह भी तो एक सांसद हैं और वह भी समझौते करने लगते हैं और देश की जनता के विषय में न सोचकर सरकार चलाने के बारे में सोचना शुरू कर देते हें । किन्तु जब प्रधानमंत्री का चुनाव भारत की जनता करेगी तो ऐसी किसी भी स्थिति में प्रधानमंत्री को देश एवं देश की जनता नज़र आयेगी न की कोई संसदीय क्षेत्र और वह सही कदम उठाएगा ।

७. प्रधानमन्त्री का चुनाव पांच वर्षों के लिए होना चाहिए क्योंकि इससे प्रधान मंत्री एक आम सांसद से थोडा अलग और ऊपर होंगे उनके पास अगले पांच वर्षों की स्थिरता होगी । वे बिना किसी डर के वह जनता के पक्ष में कुछ बोल्ड कदम उठा सकेंगे । देश एक दिशा में और तेज़ी के साथ तरक्की करेगा , वह कुछ नए क्रांतिकारी कदम भी उठा सकेंगे ।

८. हर प्रधान मंत्री जनता के साथ सीधे तौर पर जुडा होगा और जनता भी इस सम्बन्ध को अनुभव करेगी और आवश्यकता पड़ने पर उसकी बात मानेगी ।

हो सकता है की कभी प्रधानमंत्री निरंकुश हो जाए तो जनता राइट टू रीकाल के द्वारा या फिर संसद में अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा के उन्हें अपने पद से हटाया जा सके । ऐसा भी प्रावधान होना चाहिए । प्रधानमंत्री पद के लिए प्रत्याशी २-३ से अधिक नहीं होने चाहियें ताकि मतदान स्पष्ट तौर पर हाँ या ना में हो सके और जनता की सही राय जाहिर हो सके । जीतने वाले प्रत्याशी को कम से कम ५१ % मत मिलें और जनादेश खंडित न हो । जिस दल अथवा गठबंधन का प्रधानमंत्री होगा । वह अपने दल अथवा गठबंधन के चुने हुए सांसदों में से अपनी मंत्री परिषद् का निर्माण कर सकता है जैसा की आज कल भी हो रहा है ।

और अधिक विश्लेषण नियम कायदे क़ानून तो कानून के जानकार ही कर सकते हैं किन्तु एक बात तय है जिसे भी प्रधानमंत्री बनना होगा उसे जनता का वोट लेने के लिए सच्चा , इमानदार , धर्मनिरपेक्ष और सच्चा जननायक बनना ही होगा नहीं तो उसका चुनाव नहीं हो सकेगा

एस बन्त सिंह दूबरजी, आल इंडिया लेबर मनरेगा मानिटरिंग कमेटी पंजाब प्रांत के प्रभारी नियुक्त

पंजाब, 10 अक्तूबर 2011, आल इंडिया लेबर मनरेगा मानिटरिंग कमेटी के राष्ट्रीय चेयरमेन प्रमोद त्यागी ने आज एस बन्त सिंह दूबरजी को आल इंडिया लेबर मनरेगा मानिटरिंग कमेटी पंजाब प्रांत का प्रभारी नियुक्त किया।

उन्होंने इस मौके पर यह कहाकि ग्रामीण भारत के लिए अति महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना संचालित की गर्इ है। इस योजना के सफल क्रियान्वयन, निगरानी एवं प्रचार, प्रसार का प्रथम दायित्व हम सबका है।

उनहोंने यह भी कहाकि अतिशीघ्र प्रदेश के सभी जनपदों में तहसील, ब्लाक, न्याय पंचायत एवं ग्राम पंचायत स्तर तक निगरानी समितियों का गठन कर दिया जाएगा जिससे मनरेगा के अकुशल श्रमिकों के उज्जवल भविष्य हेतु इस योजना का जन-जन तक लाभ पहुँचाया जा सके।

टीम अन्ना के ‘कांग्रेस विरोध’ के निहितार्थ

तनवीर जाफरी

समाजसेवी अन्ना हज़ारे की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम तथा जनलोकपाल विधेयक संसद में पेश किए जाने की उनकी मांग को लेकर पिछले दिनों जिस प्रकार देश की जनता उनके साथ व उनके समर्थन में खड़ी दिखाई दे रही थी अब वही आम जनता उनके ‘राजनैतिक तेवर’ को देखकर उनके आंदोलन को संदेह की नज़रों से देखने लगी है। प्रश्र उठने लगा है कि आखिर अन्ना हज़ारे व उनके चंद सहयोगियों का राजनैतिक मकसद वास्तव में है क्या? जनलोकपाल विधेयक को संसद में पारित कराए जाने के लिए संघर्ष करना या कांग्रेस पार्टी का विरोध करना ? हालांकि अभी तक कांगे्रस पार्टी के कई वरिष्ठ व जि़म्मेदार नेताओं द्वारा अन्ना हज़ारे पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व भारतीय जनता पार्टी की कठपुतली होने जैसे जो आरोप लगाए जा रहे थे उसे देश की जनता गंभीरता से नहीं ले रही थी। इन आरोपों के विषय में जनता यही समझ रही थी कि अन्ना हज़ारे व उनके साथियों को बदनाम करने के लिए तथा अन्ना के आंदोलन से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए कांग्रेस द्वारा अन्ना हज़ारे पर इस प्रकार के आरोप लगाए जा रहे हैं। परंतु गत् दिनों जिस प्रकार हिसार लोक सभा के उपचुनाव में अन्ना हज़ारे के प्रमुख सहयोगियों मनीष सिसोदिया व अरविंद केजरीवाल द्वारा कांगेस पार्टी के प्रत्याश्ी को हराए जाने की सार्वजनिक अपील एक जनसभा में की गई उसे देखकर अब तो यह स्पष्ट दिखाई देने लगा है कि टीम अन्ना का मकसद जनलोकपाल विधेयक के लिए संघर्ष करना कम तथा कांग्रेस पार्टी को हराना,उसे नुकसान पहुंचाना व कांगेस का विरोध करना अधिक है।

 

 

हिसार लोकसभा उपचुनाव में केवल अन्ना हज़ारे के सहयोगियों ने ही वहां जाकर कांग्रेस प्रत्याशी का विरोध नहीं किया बल्कि स्वयं अन्ना हज़ारे ने भी मीडिया के माध्यम से हिसार के मतदाताओं से कांग्रेस पार्टी को हराने की अपील जारी की है। टीम अन्ना के इस राजनैतिक पैंतरे को देखकर उन पर तरह-तरह के संदेह पैदा होने लगे हैं। प्रश्र यह उठने लगा है कि यदि टीम अन्ना द्वारा हिसार लोक सभा के उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी को हराने की अपील की जा रही है ऐसे में आखिर अन्ना हज़ारे व उनके साथी दूसरे किस राजनैतिक दल को लाभ पहु़ंचाना चाह रहे हैं? ज़ाहिर है इस समय देश में कांग्रेस के समक्ष मुख्य विपक्षी दल के रूप में भारतीय जनता पार्टी ही है। हिसार में भी भारतीय जनता पार्टी समर्थित उम्मीदवार के रूप में हरियाणा जनहित कांगेस के उम्मीदवार कुलदीप बिश्रोई चुनाव लड़ रहे हैं। ज़ाहिर है यदि अन्ना हज़ारे की अपील से हिसार के मतदाता प्रभावित होते हैं तो इसका लाभ भाजपा समर्थित उम्मीदवार कुलदीप बिश्रोई को मिल सकता है। या फिर इंडियन नेशनल लोकदल के प्रत्याशी अजय चौटाला क ो। अब यहां इस बात पर चर्चा करने की ज़रूरत नहीं कि भ्रष्टाचार को लेकर स्वयं चौटाला परिवार या स्वयं स्व० भजनलाल की अपनी छवि कैसी रही है।

 

हालांकि टीम अन्ना के प्रवक्ताओं द्वारा कांग्रेस की ओर से अन्ना पर आर एस एस व भाजपा समर्थित होने के आरोपों पर तरह-तरह की सफाई व तर्क दिए जा रहे हैं। अन्ना के समर्थन में खड़े होने वाले भूषण परिवार तथा मेधा पाटकर जैसे लोगों के नाम बताकर यह सफाई दी जा रही है कि मुहिम अन्ना पर संघ या भाजपा का न तो कोई प्रभाव है न ही इसे संचालित करने में संघ या भाजपा कोई भूमिका अदा कर रहा है। परंतु यदि अन्ना व उनके साथियों द्वारा अपने मुख्य लक्ष्य अर्थात् जनलोकपाल विधेयक को संसद में लाए जाने व इसे पारित कराए जाने के लक्ष्य से भटक कर अपने समर्थकों को या भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में अपने साथ जुड़े आम लोगों को कांग्रेस का विरोध करने के लिए प्रेरित किया गया और आगे चलकर इसका लाभ मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी को मिला तो ऐसी सूरत में दिग्विजय सिंह सहित कांग्रेस पार्टी के उन सभी प्रवक्ताओं व नेताओं के अन्ना पर संघ व भाजपा समर्थित होने संबंधी लगाए जाने वाले आरोप सही साबित हो जाएंगे। और यदि ऐसा हुआ तो देश की मासूम व भोली-भाली वह जनता जो अपना $गैर राजनैतिक स्वभाव रखती है तथा बिना किसी छल-कपट या बिना किसी

राजनैतिक विद्वेष अथवा पूर्वाग्रह के केवल देश में एक भ्रष्टाचार मुक्त राजनैतिक व्यवस्था की आकांक्षा रखती है वह निश्चित रूप से स्वयं को बहुत ठगा हुआ महसूस करेगी।

 

हिसार लोकसभा उपचुनाव में टीम अन्ना सदस्यों द्वारा कांग्रेस पार्टी के विरोध में खुलकर आने से जहां अब उनकी राजनैतिक महत्वाकांक्षा उजागर होती दिखाई देने लगी है वहीं अब यदि क्रांति अन्ना के पिछले पन्नों को पलटकर देखा जाए तो उनके भविष्य के इरादे निश्चित रूप से संदेहपूर्ण व राजनैतिक महत्वाकांक्षा से लबरेज़ दिखाई देते हैं। उदाहरण के तौर पर अन्ना हज़ारे द्वारा जिस समय जंतर-मंतर व उसके बाद रामलीला मैदान में अनशन किया गया उस दौरान देश में अधिकांश जगहों पर अन्ना के समर्थन में अनशन आयोजित करने वालों मे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व भारतीय जनता पार्टंी से जुड़े लोग ही आगे-आगे चल रहे थे। यहां तक कि तमाम जगहों पर अनशन का पूरा का पूरा प्रबंध व $खर्च भी इन्हीं संगठनों के लोगों द्वारा उठाया गया। हालांकि आम लोगों को अन्ना हज़ारे के नाम पर अपने साथ जोडऩे के लिए तथा अनशन में अन्ना के नाम पर लोगों को बुलाने के लिए इन संगठनों ने अपने झंडे व पोस्टर आदि लगाने से गुरेज़ किया था। परंतु जिस प्रकार हिसार में अब टीम अन्ना बेनकाब हुई है उसे देखकर तो अब यही लगने लगा है कि कहीं कांग्रेस के नेतृत्व में केंद्र में चल रही संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार को कमज़ोर व अस्थिर करने की विपक्ष की साजि़श का ही तो क्रांति अन्ना एक हिस्सा नहीं?

 

देश का प्रत्येक व्यक्ति इस समय निश्चित रूप से भ्रष्टाचार से बेहद त्रस्त व दु:खी है। इसमें भी कोई शक नहीं कि भ्रष्टाचार के जितने मामले वर्तमान यूपीए सरकार के शासनकाल में उजागर हुए हैं उतने बड़े घोटाले देश के लोगों ने पहले कभी नहीं सुने। परंतु इस बात से भी कोई इंकार नहीं कर सकता कि देश में इस समय शायद ही कोई ऐसा राजनैतिक दल हो जो स्वयं को शत-प्रतिशत भ्रष्टाचार से मुक्त होने का दावा कर सके। हां इतना ज़रूर है कि किसी पर भ्रष्टाचार के कम छींटे पड़े हैं तो किसी पर ज़्यादा। यानी किसी को चोर की संज्ञा दी जा सकती है तो किसी को डाकू की और किसी को महाडाकू की। कांग्रेस पार्टी में यदि केंद्रीय मंत्री स्तर के कई लोग भ्रष्टाचार में संलिप्त नज़र आ रहे हैं या संदेह के घेरे में हैं तो भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष से लेकर उनके भी कई केंद्रीय मंत्री,सांसद व कई-कई मुख्यमंत्री भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों का सामना कर रहे हैं। ऐसे में यदि अन्ना हज़ारे की कांग्रेस के विरोध की अपील का प्रभाव कांग्रेस पर पड़ा तथा विपक्ष ने इसका लाभ उठाया तो उनकी कथित भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को क्या कहा जाएगा?

 

इसके अतिरिक्त हालांकि अन्ना हज़ारे स्वयं भी संघ या भाजपा द्वारा निर्देशित होने के कांग्रेस के आरोपों का खंडन कर चुके हैं । परंतु राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ,विश्व हिंदू परिषद् तथा भाजपा के नेताओं द्वारा कई बार यह कहा जा चुका है कि वे तथा उनके कार्यकर्ता पूरी तरह से अन्ना हज़ारे की मुहिम व उनके आंदोलन के साथ रहे हैं। देश में तमाम जगहों पर स्थानीय स्तर पर इन कार्यकर्ताओं को अन्ना मुहिम से जुड़े हुए देखा भी गया है। अब यदि राजनैतिक हल्कों में छिड़ी इस चर्चा पर ध्यान दें तो टीम अन्ना द्वारा कांग्रेस का हिसार से विरोध किए जाने का कारण कुछ न कुछ ज़रूर समझ में आने लगेगा। $फौज में मामूली पद पर रहने वाले तथा मुंबई में $फुटपाथ पर फूल बेचने वाले साधारण व्यक्तित्व के स्वामी अन्ना हज़ारे ने जब भ्रष्टाचार के विरुद्ध देश की केंद्र सरकार की चूलें हिलाकर रख दीं तो देश की जनता एक बार तो यही महसूस करने लगी थी कि देश को दूसरा ‘गांधी’ मिल गया है।

 

जो कि साधारण व गरीब लोगों के ज़मीनी हालात को समझते हुए भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध इतनी बड़ी मुहिम छेड़ रहा है। परंतु अब राजनैतिक हल्क़ों में इस बात की चर्चा ज़ोर पकड़ रही है कि विपक्षी दल अन्ना हज़ारे के कंधे पर बंदूक़ रखकर चला रहे हैं। और कांग्रेस पार्टी को निशाना बना रहे हैं। और यदि भविष्य में सबकुछ इन सब की योजनाओं के अनुरूप चलता रहा तो अन्ना हज़ारे को विपक्ष देश के राष्ट्रपति के रूप में अपना उम्मीदवार प्रस्तावित कर एक तीर से कई शिकार खेल सकता है। यानी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के इस नायक को सडक़ों से उठाकर राष्ट्रपति भवन में सम्मान $खामोशी से रहने की राह हमवार कर सकता है तथा स्वयं अन्ना हज़ारे भी संभवत: देश के इस सबसे बड़े संवैधानिक पद को अस्वीकार करने का साहस भी नहीं जुटा सकते। कुल मिलाकर देश का राजनैतिक समीकरण क्या होगा यह तो आने वाले दो-तीन वर्षों में ही पता चल सकेगा। परंतु अन्ना हज़ारे के राजनैतिक दांव-पेंच में उलझने के बाद उनके साथ लगे गैर राजनैतिक मिज़ाज के लोग स्वयं को एक बार फिर ठगा सा ज़रूर महसूस कर रहे हैं।

सच्ची बात कही थी मैंने…

लोकेन्‍द्र सिंह राजपूत

उस दिन ग्वालियर की गुलाबी ठंडी शाम थी। वाकया नवंबर २००४ का है। मौका था रूपसिंह स्टेडियम में आयोजित ‘जगजीत नाइट’ का। कार्यक्रम में काफी भीड़ पहुंची थी। मैंने ‘भीड़’ इसलिए लिखा है क्योंकि वे सब गजल रसिक नहीं थे। यह भीड़ गजल के ध्रुवतारे जगजीत सिंह को सुनने के लिए नहीं शायद देखने के लिए आई थी। बाद में यह भीड़ जगजीत सिंह की नाराजगी का कारण भी बनी। दरअसल गजल के लिए जिस माहौल की जरूरत होती है। वैसा वहां दिख नहीं रहा था। लग रहा था कोई रईसी पार्टी आयोजित की गई है। जिसमें जाम छलकाए जा रहे हैं। गॉसिप रस का आनंद लिया जा रहा है। जगजीत सिंह शायद यहां उस भूमिका में मौजूद हैं, जैसे कि किसी शादी-पार्टी में कुछेक सिंगर्स को बुलाया जाता है, पाश्र्व संगीत देने के लिए। गजल सम्राट को इस माहौल में गजल की इज्जत तार-तार होते दिखी। आखिर गजल सुनने के लिए एक अदब और सलीके की जरूरत होती है। यही अदब और सलीका आज की ‘जगजीत नाइट’ से नदारद था। गजल के आशिक और पुजारी जगजीत सिंह से गजल की यह तौहीन बर्दाश्त नहीं हुई। उनका मूड उखड़ गया। उन्होंने महफिल में बह रहे अपने बेहतरीन सुरों को और संगीत लहरियों को वापस खींच लिया। इस पर आयोजक स्तब्ध रह गए। सभी सन्नाटे में आ गए। आयोजकों ने जगजीत जी से कार्यक्रम रोकने का कारण पूछा। इस पर गजल सम्राट ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा था कि ‘गजल मेरे लिए पूजा है, इबादत है। यहां इसका सम्मान होता नहीं दिख रहा है। अगर गजल सुननी है तो पहले इसका सम्मान करना सीखें और सलीका भी। मैं कोई पार्टी-शादी समारोह में गाना गाने वाला गायक नहीं हूं। गजल से मुझे इश्क है। मैं इसका अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकता। यहां उपस्थित अधिकांश लोग मुझे गजल श्रोता, गजल रसिक नहीं दिखते। संभवत: आप लोग यहां सिर्फ जगजीत सिंह को देखने के लिए आए हैं। ऐसे में मेरे गजल कहने का कोई मतलब नहीं है। मैं खामोश ही भला। उनका इतना कहना था कि आयोजकों के चेहरे देखने लायक थे। काफी अनुनय, विनय और माफी मांगने पर जगजीत सिंह फिर से गाने के लिए तैयार हुए। लेकिन, उन्होंने चिट्ठी न कोई संदेश… गाकर ही कार्यक्रम को विराम दे दिया। जगजीत सिंह की महफिलों में अक्सर यही आखिरी गजल होती है। यह घटनाक्रम दूसरे दिन शहर के सभी अखबारों की सुर्खियां बना। उस दिन ग्वालियरराइट्स के दिलों में गजल के लिए सम्मान के भाव जगा दिए थे। इस पूरे वाकए पर उनकी लोकप्रिय गजलों में से एक ‘सच्ची बात कही थी मैंने…’ सटीक बैठती है।

गजल के प्रति यह समर्पण देखकर ही गुलजार साहब उन्हें ‘गजल संरक्षक’ कहते हैं। यह उनकी आवाज का ही जादू था कि इतने लम्बे समय तक गजल और जगजीत सिंह एक दूजे का पर्याय बने रहे। वर्ष २००४ के दौरान मैंने जब अपने पसंदीदा गजल गायक के बारे अधिक जानने की कोशिश की तो पता चला कि आपकी जीवनसंगिनी चित्रा सिंह भी बेहतरीन गजल गायिका हैं। चित्रा से जगजीत जी का विवाह १९६९ में हुआ था। दोनों ने १९७० से १९८० के बीच संगीत की दुनिया में खूब राज किया। बाद में सड़क दुर्घटना में बेटे विवेक की मौत के बाद चित्रा सिंह ने गाना छोड़ दिया। जबकि जगजीत सिंह बेटे के गम में डूबने से बचने के लिए गजल और आध्यात्म में और अधिक डूब गए। गजल को अधिक लोकप्रिय बनाने में जगजीत सिंह का योगदान अतुलनीय है। ऑर्केस्ट्रा के साथ गजल प्रस्तुत करने का सिलसिला भी इन्हीं की देन है। यह फॉर्मूला बेहद हिट हुआ। जगजीत सिंह गजल गायक, संगीतकार, उद्योगपति के साथ ही बेहतरीन इंसान भी थे। वे कई कलाकारों की तंगहाली में मदद करते रहे, क्योंकि उन्होंने भी शुरूआती दिनों में संघर्ष की पीड़ा का डटकर सामना किया। आखिर में इस महान गायक का जन्म ८ फरवरी १९४१ को राजस्थान के श्रीगंगानगर में हुआ था। ७० वर्ष का सफर तय कर मुंबई में १० अक्टूबर २०११ को निधन हो गया। पिता ने उनका नाम जगमोहन रखा था। उनके गुरु ने ही उन्हें जगजीत सिंह नाम दिया। गुरु का मान रखते हुए उन्होंने ‘जग’ से विदा लेते-लेते इसे ‘जीत’ लिया था।

बढ़ती असमानता : बारूद के ढ़ेर जैसी खतरनाक

डॉ.किशन कछवाहा

सत्ता का एक बड़ा पक्ष होने के नाते यह आशा की जाती है कि कांग्रेस लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में विश्वास रखे। लेकिन उसके व्यवहार से जनता को कभी यह आभास नहीं होता कि उसका परस्पर बातचीत में विश्वास है। गत एक वर्ष के दौरान घटी घटनाओं से तो यही निष्कर्ष निकल कर आया है। बाबा रामदेव के आंदोलन को जिस तरह आधीरात को कुचला गया। अण्णा साहब के जंतर मंतर के अनशन के बाद साझा समिति गठित करना और उसका गला घोंटना। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर जे.पी.सी. की मांग पर एक पूरे सत्र की बलि चढ़ाया जाना आदि। मंहगाई, भ्रष्टाचार, कालाधन, आतंकवाद ये सब एक व्यक्ति या एक दल से जुड़े मामले नहीं हैं। ये राष्ट्रहित से जुड़े मुद्दे हैं। बातचीत से गतिरोध दूर करने की यदि कांग्रेस की मानसिकता दृढ़ होती तो 42 साल से लटका लोकपाल विधेयक कानून की राह पर होता ।

वर्तमान प्रधानमंत्री विश्वविख्यात अर्थशास्त्री है। देश-विदेश में उनके ज्ञान की चर्चा होती है। बीस साल पहले जब वे वित्त मंत्री थे तब उन्होंने देश वासियों को एक सपना दिखाया था कि सन् 2010 तक देश से बेरोजगारी को समाप्त कर दिया जायेगा। सारी सड़कों का पक्कीकरण हो जायगा, बिजली की कमी का रोना भी नहीं रहेगा, किसान खुशहाल होंगे। मजदूरों की कोई समस्या नहीं रहेगी, उनकी जरूरतें पूरी होंगी। उस समय से आज तक जनता उस आश्वासन को पूरा होने की बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही है। एक भी लक्षण सार्थक नजर नही आ रहे।

मंहगाई बेकाबू हो गई है। करों का बोझ बढ़ा दिया गया है। कृषि क्षेत्र को अनदेखा किये जाने के कारण किसान आत्महत्या करने मजबूर है। भ्रष्टाचार मिटाने के मामले में प्रधानमंत्री जी की बेबसी साफ झलकती दिखाई दे रही है। जबकि भ्रष्टाचार अन्य सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक है।

अण्णा साहब के आन्दोलन में आम आदमी, रिक्शाचालकों से लेकर प्रतिष्ठित वर्ग वकील, डाक्टरों का जुड़ना केन्डल मार्च निकालना, सड़कों पर आकर नारेबाजी करना इस बात का घोतक है कि जिन मुद्दों पर सरकारी पक्ष आंख मूंदे हुये हैं, उससे उनमें रोष व्याप्त है। यह देश की वह अस्सी प्रतिशत जनता है जो खेतों-खलिहानों से लेकर कारखानों में दिन-रात अपना सक्रिय योगदान दे रही है। सुई से लेकर हवाईजहाज तक उत्पादन में लगी हुयी है लेकिन उसका उस पर कोई नियंत्रण अधिकार नही होता । असल में यह सारा दोष उस पूंजीवादी व्यवस्था में हैं जहां से भ्रष्टाचार की त्रिवेणी प्रवाहित होती है। वहीं से बहुसंख्यक मेहनतकश जनता की लूट की बयार बह रही है। जनतंत्र में जनता की उपेक्षा का भाव और पूंजी को प्रश्रय देनेवाली सरकार द्वारा कानूनी जामा पहना दिये जाने के कारण मामला और भी पेचीदा बनता चला जा रहा है। क्या इस सबके चलते भ्रष्टाचार को समाप्त करने का दावा किया जा सकता है ।

12 दिन तक चले अण्णा साहब के अनशन की सुखद समाप्ति से देशवासियों ने राहत की सांस ली। लोकप्रिय जनभावनाओं का कद्र करने की आदत सरकार की बनी होती तो एक 74 वर्षीय वृध्द व्यक्ति को भूखे रखने के पाप से इस आध्यात्मिक आत्मा वाले देश को बचा लिया गया होता। एक तो जनभावनाओं का आदर नहीं किया गया दूसरे तरह तरह के घिनौने आरोपों और अपशब्दों की सत्ता पक्ष की ओर से बौछारें की गयीं। तरह तरह की दलीलें दी गई कि संसद लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था है । नि:संदेह सर्वोच्च है। चुनौती कौन दे रहा था ?

अण्णा साहब और उनकी टीम ने एक मसविदा बनाया था। उसे सरकार और आम जनता के सामने रखा गया था। जनतंत्र में क्या माँग उठाना आपत्तिजनक है ? इसका अर्थ तो यह हुआ कि जनसेवा का व्रत लेने वाले हमारे ये जनप्रतिनिधि कुछ भी करें जनता चूं-चपाट भी न करें। ये बात क्यों नही समझी जानी चाहिये कि अंतिम शक्ति तो इसी जनता में निहित है। रही तथ्य की बात तो यह भी स्पष्ट है कि देश में एक भी दल ऐसा नहीं है जो यह दावा कर सके कि उसे पचास प्रतिशत से अधिक जनता का प्रतिनिधित्व प्राप्त है।

प्रधानमंत्री जी ने स्वयं लालकिले की प्राचीर से कहा था कि ‘अनशन ठीक नहीं है’। संसदीय लोकतंत्र को चुनौती नहीं दी जा सकती। तो क्या गांधी के इस देश में अनशन और सत्याग्रह को नकारे जाने की मानसिकता को बल दिया जा रहा है। उन्होंने यह भी कहा था कि भ्रष्टाचार को मिटाने उनके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। लेकिन जनता ने यह अवश्य देखा है कि आंदोलनों को कुचलने के लिये उनके पास पुलिस की लाठी जरूर है। जनता की उपेक्षा का आलम यह है कि गैर बराबरी सीमा को लांघ चुकी है । सतहत्तार प्रतिशत जनता बीस रूपये से कम आमदनी पर जहां अपना जीवन निर्वाह करने मजबूर है, वही सत्तार प्रतिशत हमारे जनप्रतिनिधि सांसद करोड़पति हैं । इनमें से 162 पर अपराधिक मामले चल रहे हैं । इतना ही नहीं देश के नेताओं और अधिकारियों की अरबो-खरबों की काली कमाई प्रतिवर्ष जमीन जायजाद की खरीदी, खनन के पट्टे, शेयर बाजार, मीडिया और मनोरंजन जगत और अवैघ उद्योगों-व्यापारों, भवन निर्माण, साहूकारी, स्कूल, कालेजों के धंधे तथा सोने जवाहरात हीरे आदि की खरीद में लगी होती है। अधिकतर पेट्रोल पम्प, गैस एजेन्सियां, पत्थर की खदानें, टोलटेक्स आदि के ठेके इन्हीं नेताओं के परिवारों और रिश्तेदारों के अलावा किसी और को प्राप्त ही नहीं हो सकते। सरकारी पक्ष रट लगाये है कि विकास हो रहा है। किसका विकास हो रहा है ? सरकार में बेठे लोगों का विकास हो रहा है। सरकार ने देश के विकास का एक मात्र पैमाना माना है सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) को । सरकार के पास आंकड़ों की जादूगरी है जिसमें वह आम आदमी को उलझा कर रखने में माहिर है।

‘ग्लोबल फाइनेंसियल इंट्रीग्रिटी रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ सन् 2000-2008 के बीच एक सौ पच्चीस अरब डालर की रकम कालेधन के रूप में देश से बाहर गयी है। स्विस बैंक के अलावा लगभग चालीस और सुरक्षित ठिकाने है जहां इस तरह की पूंजी (कालाधन) रखी गयी है। वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था ने अमीर और गरीब के बीच खाई को चौड़ा किया है। इसे लेकर स्थायी शांति का झूठा दावा ही किया जा सकता है । अभी हाल ही में लंदन में भड़के दंगों से सबक लिया जाना चाहिये। बिछे हुये बारूद के लिये एक चिन्गारी भी पर्याप्त होती है। अण्णा की मुहिम से सारा देश सहमत है । कतिपय निहित स्वार्थी तत्वों को छोड़कर ऊपर से नीचे तक फैले भ्रष्टाचार ने देश को खोखला कर दिया है। अण्णा ने व्यवस्था पर सवाल उठाया है। सरकार उनकी बात सुनने के बजाय दबाने की ही कोशिश करती रही। बाबा रामदेव के अभियान को आधी रात को बलपूर्वक कुचला है। अण्णा के खिलाफ भी हठधर्मिता के साथ आरोप-प्रत्यारोप के दौर पूरी ताकत के साथ चलाये गये ।

अर्थशास्त्री और विशेषज्ञों का मानना है कि गत वर्षों मे जो भारीभरकम घपले-घोटालों की तथा-कथा सामने आयी है उसका गहरा सम्बंध उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों से है जिन्हें सन् 1991 से देश में लागू किया गया है। इसमें देशी और विदेशी कम्पनियों का गोरखधंधा स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार के साथ साथ आम लोगों को बाजार के भ्रष्टाचार से भी जूझना पड़ रहा है। शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में क्या कम लूट मची है ? इसमें आम आदमी की गाढ़ी कमाई के पैसे को फलता-फूलता व्यवसाय बनाकर खुले आम लूटा जा रहा है। जल, जंगल जमीन तो प्राकृतिक संसाधन थे। इन्हें कंपनी और उद्योगों को सौंपने का रास्ता किसने आसान किया है ? यह देखने और समझने की बात है।

अण्णा का यह कदम एक शुरूआती संकेत है। भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये लम्बी लड़ाई की जरूरत है । अण्णा की इस मशाल को जलाये रखा जाना चाहिये। और सबसे ज्यादा जरूरी बात यह है कि जनता को छोटे बड़े आन्दोलनों के माध्यम से जागरूक बनाये रखा जाना है। कालाधन और भ्रष्टाचार एक परिवार के सगे संबंधी हैं । इनके चरित्र को अलग अलग देखने की गलती नहीं की जाना चाहिये। ट्रांसपरेन्सी इंटरनेशनल द्वारा जारी ग्लोबल करप्शन बैरोमीटर 2009 के अनुसार भारत में सबसे ज्यादा भ्रष्ट नेता हैं। नेतागिरी एक फलता-फूलता व्यवसाय बन चुका है जिसके कारण आम आदमी का जीवन कठिनतर होता जा रहा है। एक तरफ रोजमर्रा के उपयोग में आने वाली वस्तुओं के दाम बेतहासा बढ़ते जा रहे हैं वही करों का बोझ भी बढ़ता चला जा रहा है।

(लेखक प्रसिध्द स्तंभकार है)