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योगविद्या को हिंदू आस्था का अंग मानने पर झिझक क्यों?

हरिकृष्ण निगम

आज जब लगभग डेढ़ करोड़ लोग मात्र अमेरिका में ही योगाभ्यास, ध्यान और प्राणायाम से जुड़े हुए हैं इसकी अंतर्राष्ट्रीय लोकप्रियता एवं स्वास्थ जीवन के संदर्भ में प्रासंगिकता को समझा जा सकता है। यह भारतीय वैकल्पिक चिकित्सा पध्दति की बढ़ती हुई स्वीकृति का भी सूचक है जिसके बीच में आस्था, नस्ल, रंगभेद या कोई और विभाजन रेखा नहीं आती हैऔर मानव मात्र के लिए यह उपयोगी सिध्द हो रही है। योग भारत की पहचान का एक नया सांस्कृतिक ब्रांड बन चुका है और यह हमारे समाज के बहुआयामी पक्ष को उजाकर करने के साथ-साथ विदेशों में यह अहसास भी करा चुका है कि योग के बीज हिंदू आस्था में है और इसका अभ्यास करने वालों को स्वाभाविक रूप से स्वतः पुरातन धार्मिक ग्रंथ में विद्यमान इसकी जड़ों तक जाना चाहिए। हमारी आस्था के मूल तत्व यौगिक प्रक्रियाओं को मूलभूत रूप से प्रेरणा के माध्यम बना चुके हैं। स्पष्ट है कि योग-संबंधी विश्वव्यापी लहर हिंदू आस्था का अविभाज्य अंग है और इस शृंखला की जानकारी मनुष्य के शारीरिक और अध्यात्मिक लाभ में उपयोगी सिध्द हो सकता है।

इन्हीं सब बातों को लेकर आज तक आकर विभिन्न चर्च संप्रदाय और हमारे देश के कुछ दुराग्रही बुध्दिजीवी व्यर्थ चिंतित होकर दुष्प्रचार में जुट गए हैं। विडंबना यह है कि हमारे देश के ही अंग्रेजी मीडिया के एक बड़े बर्ग ने जिसमें हमें ‘टाईम्स ऑफ इंडिया’ अगुवाई करता दीखता है हाल में अपने सांप्रदायिक पृष्ठ पर योग को हिंदू आस्था से जोड़ने पर आपति उठा रहा है। यह मानते हुए भी कि योग का आकर्षण वैश्विक है वह कह रहा है इसलिए हिंदू धर्म को इस पर अपनी ऑनरशिप नहीं प्रदर्शित करनी चाहिए। क्या कोई भारतीय योगाभ्यास के प्रारंभिक व शास्त्रोक्त स्वामित्व पर संशय प्रकट कर सकता है? यह एक त्रासदी है कि अंग्रेजी मीडिया में सहधर्मी ही सदियों से स्थापित सत्य को नकारने में लगे हैं। चर्चो के विरोध को तो समझा जा सकता है क्योंकि वे मूल रूप से अपने अनुयाईयों की संख्या में कमी को योग की लोकप्रियता के कारण भी मानते हैं। पर हमारे कुछ सहधर्मियों का अपना ही आस्था पर विषवमन करना एक जघन्य अपराध सा प्रतीत होता है। स्वयं पश्चिम में योग से संबंधित प्रभावी अभ्यासों और क्रियाओं पर आज विपुल साहित्य उपलब्ध है और अमेरिका में हो योग क्रियाओं पर स्वत्वाधिकारों और पेटेंट कराने की होड़ भी लगी है पर इस वास्तविकता की दृष्टि से बावजूद वे सब योग के लिए पुरातन हिंदू धर्म और आचारसंहिता के प्रति ॠृणी दिखते हैं पर हमारे कुछ अंग्रेजीपरस्त बुध्दिजीवियों और कुछ पत्रकारों की विस्मयजनक कुटिलता तो यहां तक प्रकट हुई है कि हमें हिंदू आस्था के अनूठेपन के गुण गाना बंद कर इसकी विशिष्ट जीवन शैली के बौध्दिक संतुलन के कट्टरपंथ को हटाना चाहिए। इस छद्म वाग्जाल से वे सेमिटिक धर्मों को खुशकर हिंदू आस्था को शुध्द मूल्यों की केंद्रीयता को नकारना चाहता है। वे क्यों यह कहने में बेचैनी महसूस करते हैं कि हिंदू आस्था द्वारा ही योग का सृजन हुआ है। मात्र इसलिए कि कुछ लोग अनेक पध्दतियों की चर्चा करते हैं इसलिए संशय पैदा करने के लिए आज कुछ लोग दुराग्रहवश कर रहे हैं कि योगाभ्यास में सांगठनिक क्रमबध्द या व्यवस्थित पाठ्यक्रम जैसा कुछ नहीं है और इसलिए अनेक व्यवसायिक दृष्टिमुक्त व्यक्ति अपने-अपने रूप में इस पर स्वत्वाधिकार जताएं तो कोई आश्चर्य नहीं।

सारांश यह है कि आज हमारे देश में भी एक ऐसा वर्ग पैदा हो चुका है जो मानव जाति को योग द्वारा हिंदू धर्म को दिया हुआ योगदान भी नकारना चाहता है। हिंदू आस्था का योग अभिन्न अंग है, यह तथ्य नकारना अपने मुंह पर थूकने जैसा है। यदि योग को भी धर्मनिरपेक्षता का बाना पहनाने का यत्न चलता रहा तो हिंदू आस्था में परिभाषित उच्चतम लक्ष्यों की प्राप्ति के माध्यम के रूप में इसे तिरस्कृत किया जा सकता है। जब कुछ लोग योग को स्वस्थ और तनावग्रस्त जीवन या ईश्वर प्राप्ति के साधन के रूप में प्रचारित नहीं करना चाहते हैं।

आज प्रतिद्वंद्विता और प्रचार के युग में ऐसे विज्ञापन भी देखने को मिल सकता है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। वजन घटाने के लिए योग, पतले होने के लिए योग, बेहतर सेक्स जीवन के लिए योग, एक्यू-योग द्वारा कायाकल्प, भावनात्मक उपचार पध्दति और योग, प्राकृतिक चिकित्सा, योग, प्रेक्षा, ध्यान, एक्यूप्रेशर, चुंबक, पिरामिड, सुजोक आदि के मिले जुले रूप की खिचड़ी को भी आज वैकल्पिक चिकित्सा को अधिक योगाभ्यास कह कर प्रचारित किया जा रहा है जहां इसे हिंदू आस्था से काट कर एक ‘सेक्यूलरवादी’ रूप देकर भरसक प्रयास किया जा रहा है। कोई इलेक्ट्रोमैगनेट बेल्ट या सुजोक सिम्युलेटर मशीन को भी योग के उपकरण कह कर उनका विपणन कर रहा है। योग न तो ‘रिकी’ है न ‘क्रिस्टल हीलिंग’ अथवा ‘कलर’ या ‘एरोया’ थिरेपी सम्मोहन चिकित्सा। योग वस्तुतः शरीर, मास्तिष्क और आत्मा में संतुलन बनाने की वैज्ञानिक प्रक्रिया है। पर आज के इस दौर में आपको मीडिया और दूसरे प्रचारतंत्र यही परामर्श दे सकते हैं कि आप योगाभ्यास करें और चाहे तो पिजा, बर्गर या मंसाहार व तामसिक भोजन को न छोड़े। आप टी. एल. सी. और दूसरी अनेक टी. वी. चैनलों पर कम-से-कम वस्त्रों में योगाभ्यास अथवा आसनों को करती हुई युवतियों को भी बिना झिझक हीनता ग्रंथि के देख सकते हैं। योग और एक दृश्यातिरेक का आनंद एक नए विकृत समाज का बाजीकरण इससे अच्छा नहीं हो सकता। शायद यह दुष्प्रचार उस साजिश की पूर्वपीठिका है जहां आज योग को हिंदू धर्म से काटकर इसको व्यवसायिक लाभ के दृष्टिाकोण से एक सेक्यूलर गतिविधि कहा जा रहा है।

हम भूलें नहीं कि यह एक दिश अनुभूति है, आत्म-संयम द्वारा शांति-प्राप्ति का दैवी माध्यम है। यह एक उत्पाद नहीं है जिसके विपणन की रणनीति पर हर प्रकार के लटके-झटकों से बनाई जाए जैसा आज हो रहा है। चारित्रिक शुचिता को योग की अवधारणा से पृथक नहीं किया जा सकता है। योग और स्वच्छंद दिनचर्या या खान-पान की अनियमितता व उच्छृंखलता दो अलग-अलग ध्रुव हैं पर आज का परिदृश्य जिस प्रकार का है उसमें मूल लक्ष्य से होने वाला भटकाव स्पष्ट है।

कांग्रेस के दोहरे मापदंड और संघ

साकेंद्र प्रताप वर्मा

कांग्रेसी खानदान आजकल जोर-शोर से संघ परिवार और संपूर्ण हिंदुत्व को आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्त दर्शाने की कोशिश में जुटा है तथा आत्मप्रशंसा में स्वयं को सवा सौ साल की राजनैतिक परंपरा का वाहक बता रहा है। कांग्रेसी यह भूल जाते हैं कि उस परंपरा के बचपन की बचकानी हरकतों तथा जवानी की उदंडता ने भारत माता के शरीर को लहुलूहान करके उसके दो टुकड़े करवा दिए। फिर भी आजकल एक विशेष प्रकार का चश्मा विदेशों से बनवाकर राहुल-सोनिया और कंपनी ने कांग्रेसियों की चाटुकार संतति को वितरित किया है जिससे उन्हें वे सभी दृश्य विशेष दृष्टिकोण से दिखाई पड़ते रहें जो देश के बाकी नागरिकों को दिखाई नहीं पड़ रहे हैं।

अगर थोड़ा गंभीरता पूर्ण अध्ययन करें तो आतंकवाद के नाम पर हजारों की संख्या में पकड़े गये लोगों में से मात्र 10-20 लोग ही फर्जी या असली तौर पर हिंदू समुदाय के हैं। उसमें से भी कुछ ही लोग कथित तौर पर कभी-न-कभी संघ से जुड़े कहे जा सकते हैं। लेकिन बेचारे दिग्विजय सिंह अपनी मजबूत आदताें के कारण सोते-जागते, उठते-बैठते केवल हिंदुत्व विरोधी बयानों को उसी प्रकार से बड़बड़ाने लगते हैं जैसे कोई सन्निपातग्रस्त रोगी अजीबोगरीब बातें ही बड़बड़ाता रहता है। कितना दुर्भाग्य है कि एक अरब से अधिक हिंदू समाज में से अगर 10-12 हिंदूओं की गतिविधियां कथित तौर पर आतंकवाद में शामिल पायी गयी हैं तो इससे क्या संपूर्ण हिंदू समाज ही आतंकवादी हो जाएगा, अगर नहीं तो हिंदू आतंकवाद या भगवा आतंकवाद का शिगूफा छोड़कर आज देश को कहां ले जाना चाहते हैं। सत्यता तो यह है आतंकवाद में पकड़े गए 99 प्रतिशत लोग इस्लामपंथी हैं, ऐसी स्थिति में दिग्विजय सिंह की छाती में इतना साहस है कि आतंकवाद को इस्लामी आतंकवाद कह सके। फिर यह दोहरा मापदंड क्यों?

आज अगर सोचें तो देश में लगभग एक चौथाई लोग संघ विचार से सहमत हैं, भले हीं उनकी राजनैतिक दृष्टि अलग प्रकार की हो । 10-12 लाख लोग तो इस काम में दिन रात जुटे हुए प्रत्यक्ष कार्यकर्ता हैं। कई साल पहले बी. बी. सी. रेडियो ने कहा था कि विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है। उसमें से यदि 8-10 लोग कुछ ऐसा काम कर भी देते हैं, जो आतंकवादी गतिविधियों का हिस्सा कहा जा सकता है, तो क्या इससे पूरा संघ परिवार आतंकी संगठन हो जाएगा? किंतु यह सूक्ष्मतम ज्ञान दिग्विजय सिंह समेत राजस्थान की उस माटी के कुछ ऐसे स्वनामधन्य लोगों को ही प्राप्त हुआ जिन्हें अकबर से भी अपना रिश्ता स्थापित करने में कोई संकोच नहीं था। भले ही राणा को अरावली की पहाड़ियों में खाक छाननी पड़ी हो, किंतु देश को स्मरण है कि घास की रोटियां खाकर भी राणा ने अकबर के सम्मुख देश के स्वाभिमान को नीलाम नहीं किया, उल्टे जयचंदी परंपरा का ही देश में कोई नाम लेवा नहीं बच सक ा।

हमें याद है कि श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेसी ने संगठित रूप से हजारों की संख्या में निर्दोष सिखों का कत्लेआम देश क े कोने-कोने में किया थाा और अपने इस कुकृत्य को वैधानिकता का चोल पहनाने की दृष्टि से कहा था कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो इस प्रकार का भूचाल आ ही जाता है। किंतु गोधरा में 56 निर्दोष कार सेवकों को ट्रेन में जिंदा जला दिया गया। उसकी प्रतिक्रिया में गुजरात में कुछ घटनाएं हो गयी, कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर तक कहने की हिमाकत की। किंतु क्या दिग्विजय सिंह जैसे लोग कांग्रेस को सिक्खों की हत्यारी पार्टी घोषित करने की हिम्मत रखते हैं। देश बखूबी जानता है कि उसी खून के धब्बे धोने के लिए मनमोहन सिंह कांग्रेस के चहेते प्रधानमंत्री हो गए। इटली की गुप्तचर संस्थाओं से सांठगांठ तथा क्वात्रोची से निकट के संबंध देश में किस नेता से हैं यह भी जगजाहिर हो चुका है। क्या उस नेता के नेतृत्व में चलने वाली पार्टी को दिग्विजय सिंह देशद्रोही या देश विरोधी पार्टी कहने की हिम्मत रखते हैं। 2005 में गुजरात में कांग्रेस के पूर्व मंत्री मो. सुरती और उनके पांच सहयोगी कांग्रेस सूरत के बम विस्फोट में दोषी पाए गए। विस्फोट सामग्री उनकी लाल बत्ती लगी गाड़ी में भेजने के सारे प्रमाण मिले ऐसी स्थिति में तो दिग्विजय सिंह को चाहिए कि कांग्रेस को आतंक पार्टी घोषित करने में किसी प्रकार का विलंब न करें। अगर दिग्विजय सिंह इस प्रकार के बातों को नहीं समझ पा रहे है तो सोनियां जी और राहुल जी ही अपना थोड़ा-सा दिव्य ज्ञान उन्हें अवश्य दे दें।

बहुत विचित्र अवस्था है कि रातों-रात ये कांग्रेस शंकाराचार्य जी को जेल में बंद करवा सकती है, कोयंबटूर हमले के मुख्य आरोपी को केरल चुनाव में लाभ लेने के लिए जेल से रिहा करवा सकती है। किंतु मौलाना बुखारी को कोर्ट का सम्मन तामील करवाने में कांग्रेस सरकार की धोती खुल जाती है। अफजल गुरू और कसाब को फांसी से बचाने के लिए अनर्गल बयानबाजी करते हुए मुकदमों को कमजोर करने का षड़यंत्र कर सकती है किंतु दिल्ली में देश की छाती पर चढ़कर भारत विरोधी भाषण देने वाले गिलानी और अरूंधती राय को गिरफ्तार करने में कांग्रेस की सरकार डर जाती है। इनकी दृष्टि में गुजरात देश का दुश्मन है किंतु आतंकवाद की भाषा को प्रोत्साहित करने वाले जम्मू-कश्मीर राज्य का मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला देश का लाडला बेटा है, तभी तो ओबामा के आगमन पर उसे कांग्रेस सरकार भोज पर न्योता देती है। देश के सभी प्रमुख मंदिरों पर सरकारी रिसीवर बैठाकर उसके चढ़ावे को गैर-धार्मिक खर्चों में शामिल करने का कुचक्र रचा जा सकता है। किंतु क्या इस्लामिक संस्थाओं को प्राप्त होने वाले दान का हिस्सा भी दूसरी मदों में खर्च करने के लिए सरकारी रिसीवर बैठाने का साहस कांग्रेस सरकार के पास है। संघ तो खुली किताब है, उसकी तुलना कांग्रेसी सिमी से कर सकते हैं किंतु क्या कांग्रेस के पास यह हिम्मत नहीं है कि वह सिमी की उस वास्तविकता को जनता के सामने रखे, जिसके कारण उसने सिमी पर प्रतिबंध लगा रखा है। वस्तुतः कांग्रेस जिस प्रकार की वेश परंपरा में जन्मी है वहां पर मापदंड और मूल्यों का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए कांग्रेस ने देश को कई न भर सकने वाले घाव दिए हैं। दुःखी मन से 1 जनवरी, 1923 को पं. मोतीलाल नेहरू ने कहा था कि कांग्रेस से भी पवित्र वस्तु है भारत देश और इसकी स्वतंत्रता। किंतु समय के साथ-साथ कांग्रेस का दृष्टिकोण ही बदल गया अब उसके नेताओं को लगता है कि देश चाहे जहां जाय अब तो कांग्रेस ही है सबसे पवित्र वस्तु। भले ही उसके काले कारनामों से देश भ्रष्टाचार में डूब जाए, और आम आदमी के लिए महंगाई डायन का रूप ले ले। चाहे तो कश्मीर ही इस देश से कट कर अलग हो जाए या फिर उसके अनर्गल प्रलापों से असली आतंकवादी बच जाए, परंतु कांग्रेस तो अपने से अधिक पवित्र दूसरा कुछ मान ही नहीं सकती क्योंकि उसे घमंड है कि उसका इतिहास 125 साल पुराना है। भलें ही इस कालखंड में उसने अपना मायावी चेहरा कई बार बदला है। सत्यता यह है कि उसका तो जन्म ही अंग्रेज माता के गर्भ से हुआ है। इतिहास के थोड़े से पन्ने पलटकर देखें तो बात अधिक स्पष्ट हो जाएगी। 1857 के प्रथम संगठित स्वाधीनता संग्राम में क्रांतिवीराें के डर से महिलाओं के परिधान पहनकर भाग जाने वाला इटावा का कमिश्नर ऐलन ऑक्टेवियन हयूम्स (ए. ओ. हयूम्स) कांग्रेस के स्थापना का प्रमुख शिल्पी था। ह्यूम के द्वारा कांग्रेस के महासचिव के रूप में 1905 तक इस पौध को बढ़ाने का प्रयत्न किया गया। इस पलायन वीर अंग्रेज ने भारत के तत्कालीन वायसराय डफरिन सहित डलहौजी, रिपन और जॉन ब्राइट जैसे अंग्रेजों के कई लार्डों से कांग्रेस व्यापक विचार-विमर्श करके 28 दिसंबर, 1885 को गोकुलदास तेजपाल कॉलेज, मुंबई में कांग्रेस की स्थापना की। स्थापना के उद्देश्य तो गुप्त थे फिर भी ह्यूम ने अपनी जीवनी के लेखक वेडर बर्न जो दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष भी चुने गए से कहा था कि दक्षिण भारत का कृषक विद्रोह तथा 1857 की क्रांति की असफलता के बाद क्रांतिकारियों और प्रखर राष्ट्रवादियों की गतिविधियां ज्वालामुखी जैसे भयानक विस्फोट को जन्म दे सकती हैं। इससे बचने और ब्रिटिश राज को निष्कंटक बनाने के लिए एक सेफ्टी वाल्व की जरूरत है। कांग्रेस की स्थापना करके हम उस जरूरत को पूरा करेंगे, जो देखने में तो भारतियों की पार्टी होगीकिंतु होगी हमारी शुभचिंतक। इसलिए कांग्रेस के पहले-पहले अध्यक्ष व्योमेश चन्द्र बनर्जी ने कहा था कि मेरे तथा मेरे मित्रों के समान निष्ठावान और समर्पित राजभक्त मिलना संभव नहीं है। कांग्रेस की बैठकों में बहुत दिनों तक गॉड सेव द किंग गीत गाया जाता था। अनेक बार तो महारानी विक्टोरिया की जमकर नरे लगाते थे तथा उनके यशस्वी जीवन की कामना की जाती थी।

लाला लाजपत राय के अनुसार जनक्रांति की आशंका से बचने के लिए अंग्रेजों का परिणाम थी। इसलिए कई अंग्रेज कांग्रेस के अध्यक्ष बने जिसमें जार्ज यूल, ऐ. बेब, हेनरी कॉटन तथा बेडर बर्न आदि प्रमुख थे। वस्तुतः जिस कांग्रेस की स्थापना इस पृष्ठभूमि के अंतर्गत की गयी थी उससे भारत के हितों की अपेक्षा करना केवल कपोल कल्पना के समान है। इसी कारण आने वाले समय में कांग्रेस का व्यवहार अनुपयुक्त दिखाई पड़ने लगा। 1911 में कांग्रेस ने देश के प्रस्तावित ध्वज में कोने पर यूनियन जैक सहित नौ नीली व लाल पटि्टयां कालील का सुझाव रखा। 1931 में इसी कांग्रेस ने झंडा कमेटी द्वारा एकमत से स्वीकृत सनातन कालीन भगवाध्वज को आजादी प्राप्त कर लेने पर भी राष्ट्रध्वज नहीं बनाने दिया। जबकि इस समिति में स्वयं नेहरू जी, सरदार पटेल, पट्टाभि सीता रमैया, डॉ. हार्डिकर, काका कालेकर, मास्टर तारासिंह और मौलाना आजाद ही थे। जिस कांग्रेस को भगवाध्वज से इतनी चिढ़ थी उसने यदि भगवा आतंकवाद का नया शब्द गढ़ दिया तो इसमें कौन सा आश्चर्य है यह तो कांग्रेस की नीयत का परिचायक हैं हंसी तो तब आयी जब कैबिनेट मिशन और माउंटबेटन के सामने 1946 में महात्मा गांधी ने एक बार जिन्ना को हीं भारत का प्रधानमंत्री बनाया जाना स्वीकार लिया। फिर देश का विभाजन स्वीकार करने में कितनी देर थी। 1911 में बंगभंग योजना तो रद्द हो गयी थी किंतु उसके 36 साल बाद पूरे दश के दो टुकड़े स्वीकार कर लिए गए। 1930 में विभाजन के प्रबल विरोधी रहे पंडित जवाहर लाल नेहरू सत्ताशीर्ष पर बैठने की लालसा से विभाजन पर सहमत हो गए और लेडी माउंटबेटन का सम्मोहन तथा कृष्णा मेनन द्वारा विभाजन के एजेंट के रूप में अपनायी गई भूमिका ने भारतमाता के दो टुकड़े करा दिए। 1906 में ऐसा ही अमेरिका के विभाजन का प्रस्ताव उस समय के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के सामने भी आया था तथा वहां की कैबिनेट और तमाम जनरलों ने विभाजन के पक्ष में अपनी सहमति दी थी किंतु देशभक्त लिंकन ने साफ-साफ अस्वीकार कर दिया था। यद्यपि साढ़े चार सालों तक अमेरिका में गृहयुध्द चलता रहा पर अमेरिका की अखंडता बनी रही, आज वह दुनिया का सर्व शक्तिमान देश है। किंतु ऐसा न तो गांधी जी ने किया, न ही नेहरू ने किया, क्योंकि ऐसा सीखकर कांग्रेस बनी ही नहीं थी। आजादी के बाद भी कांग्रेस की गलत नीतियों के कारण कश्मीर समस्या आज तक विक राल रूप में खड़ी है, चीन हमारी 37,555 वर्ग कि.मी. भूमि हड़प ले गया, विभाजन के समय हमने लाखों लोगों की लाशों को अपने हाथों से उठायी फिर भी ना समझी की सीमाएं आज भी पर की जा रही है। कांग्रेस सावरकर को नहीं पसंद करती, सुभाषचंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, तिलक, अशफाक उल्ला खां को भी पसंद नहीं करती। हजारों बलिदानी वीरों का उससे कोई नाता नहीं, आजादी के बाद तो नाता बना केवल धंधेबाजों से, घोटालों के सरताजों से। बोफोर्स घोटाला तो राजीव गांधी के गले की हड्डी बन गया। देश अगर बीते 63 वर्षों में कांग्रेस द्वारा किए गए अरबों करोड़ों के घोटाला तथा टू जी एस्पेक्ट्रम घोटाला बीते 2-3 महीने की मनमोहन सरकार की विशेष उपलब्धि कैसे भूली जा सकती है जिसमें कई लाख करोड़ रूपये पूरे गिरोह ने मिलकर डकार लिए। इस भीषण लूट के मद्देनजर क्या कोई कम समझदार आदमी भी मान सकता है कि अकेले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री सारा पैसा हजम कर गए। सुरेश कलमाडी सारा पैसा बांध ले गए या फिर ए. राजा ने अकेले सारा बाजा बजा दिया। इसमें पूरा अमला शामिल है 10 जनपथ से 7 रेसकोर्स तक बैठे हुए हर एक व्यक्ति की जांच ही नहीं स्क्रीनिंग भी होनी चाहिए। किंतु कांग्रेस इस बात को कैसे मान ले, आखिर सवा सौ सालों का अनुभव भी तो उसके साथ है। उसे पता है कि जब विपक्ष वाले बिल्कुल न माने तो देश में आपातकाल लगा दो, सभी नेताओं को जेल भेज दो और इंदिरा इज इंडिया की तर्ज पर बता दो सोनिया इज इंडिया, राहुल इज इंडिया, बाकि कुछ सोचा तो देश विरोधी। लेकिन इस बार कांग्रेस समझ गयी कि विपक्षी दल तो एकजुट हो गए, संकट ज्यादा गहरा है कहीं बोफोर्स घोटाले की तरह गद्दी न छिन जाए। इसलिए ‘चोर मचाए शोर’ की तर्ज पर चिल्लाना शुरू कर दिया कि देखो संघ वाले आतंकवाद में संलग्न है, भाजपा इनका साथ दे रही है। कांग्रेस मौका तलाश रही है कि यदि भाजपा ज्यादा उग्र हो तो उसके साथियों को राजग से अलग करने का प्रयास किया जाए किंतु कांग्रेस का मंसूबा सफल नहीं हुआ। क्योंकि सभी जानते हैं कि संघ के बारे में कांग्रेस की दृष्टि अपनी जरूरत के हिसाब से बदलती रहती है। 1947 में जब कश्मीर का मुद्दा फंस गया तो संघ याद आया। श्री गुरूजी को महाराजा से वार्ता करने विशेष सरकारी वायुयान से 18 अक्टूबर, 1947 को नेहरू सरकार ने भेजा। किंतु संघ की लोकप्रियता से चिढ़े नेहरू ने गांधी हत्या का आरोप 26 फरवरी, 1948 को लगाकर प्रतिबंध दिया। श्रीगुरूजी पर धारा 302 का मुकदमा कायम हुआ जिसे 2 दिन बाद वापस लेना पड़ा तथा 12 जुलाई, 1949 को प्रतिबंध भी बिना शर्त उठा लिया। चीन के आक्रमण के समय संघ के सहयोग से प्रभावित होकर जवाहर लाल नेहरू ने संघ को सम्मान पूर्वक 26 जनवरी, 1963 की दिल्ली की परेड में आमंत्रित किया जिस संघ को देश में भगवा ध्वज फहराने की एक इंट भी भूमि न देने की गर्वोक्ति बोलते थे। 1965 में पाकिस्तान युध्द के समय इसी कांग्रेस सरकार ने सरसंघचालक श्रीगुरूजी को सर्वदलीय बैठक में आमंत्रित किया था, किंतु इंदिरा गांधी को संघ के बढ़ते कदमों से खतरा लगा और उन्होंने 1975 में आपातकाल के दौरान संघ पर प्रतिबंध लगा दिया किंतु वह प्रतिबंध भी 22 मार्च, 1977 को हटाना पड़ा और सरकार को अपना सिंहासन छोड़ना पड़ा। अयोध्या में विवादित ढांचा गिरने के बाद 10 दिसंबर, 1992 को संघ पर फिर एक बाद इन्हीं लोगों ने प्रतिबंध लगाया किंतु 4 जून, 1993 को यह प्रतिबंध भी हटाना पड़ा।

वस्तुतः संघ प्रखर देशभक्त संगठन है तथा सत्य पथ अनुगामी है इसलिए असत्य के मार्ग पर चलने वाले नए-नए शिगूफों से संघ का कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। हां, देशभक्ति की प्रखर ज्वाला को बुझाने में अपने हाथ मुंह झुलसा लेने की गलती कर सकते हैं। अगर हम महापुरू षों को याद करें तो 1928 में कलकत्ता में सुभाष बाबू ने कहा था कि संघ कार्य से ही राष्ट्र का पुनरूध्दार हो सकता है। 1938 में पंजाब के मुख्यमंत्री सिकंदर हयात खां ने कहा था कि संघ एक दिन भारत की बड़ी ताकत बनेगा। 1939 मे डॉ. अंबेडकर ने पूना शिविर में संघ को बिना भेदभाव वाला संगठन बताया था। 1940 में पूना में वीर सावरकर ने संघ को एकमात्र आशा की किरण कहा था। 16 सितंबर, 1947 को दिल्ली में महात्मा गांधी ने कहा था कि संघ शक्तिमान हुए बिना नहीं रहेगा। सरदार पटेल, जनरल करियप्पा, कोका सुब्बाराव, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्ध्दन समेत बिटिश प्रधानमंत्री मार्गेट थैचर ने संघ की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। ऐसी स्थिति में दिग्विजय सिंह जैसों के बयान वैसा ही कृत्य है जैसे कोई सूर्य पर थुकने की कोशिश करेगा तो उसका चेहरा, उसी के थूक से गंदा होगा। किसी कवि ने ठीक ही कहा है ः- चंद मछेराें ने साजिश कर, सागर की संपदा चुरा ली। कांटो ने माली से मिलकर, फूलों की कुर्की करवा ली। सुशियां सब नीलाम हुई है, सुख की तालाबंदी है। आने को आई आजादी, मगर उजाला बंदी है॥

* लेखक स्वतंत्र लेखक/स्तंभकार हैं।

गणतंत्र दिवस पर मिलावटखोर तेल माफिया का नंगा नाच

निर्मल रानी

गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर देश की महामहिम राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल द्वारा राष्ट्र के नाम अपना संदेश प्रसारित किए जाने में अभी कुछ ही घंटे का समय बाकी था कि इसी बीच महाराष्ट्र राज्‍य के नासिक ज़िले के करीब मनमाड नामक स्थान से एक दिल दहला देने वाला सनसनीखेज समाचार प्राप्त हुआ। खबर आई कि पेट्रोल में मिट्टी के तेल की मिलावट करने वाले तेल माफियाओं ने एक ईमानदार व होनहार अतिरिक्त जिलाधिकारी को 25 जनवरी, मंगलवार को दोपहर ढाई बजे के करीब मुख्‍य मार्ग पर सरेआम जिंदा जला कर मार डाला। हाल ही में पदोन्नति प्राप्त करने वाले अतिरिक्त जिलाधिकारी यशवंत सोनावणे ने पानीवाडी ऑयल डिपो में छापा मारा तथा यह पाया कि एक कैरोसीन टैंकर से तेल निकाल कर पैट्रोल में मिलाया जा रहा है। उन्होंने इस पूरे अपराधिक घटनाक्रम की वीडियो भी अपने मोबाईल द्वारा बनाई। जब उन्होंने रंगे हाथों अपराधियों द्वारा की जाने वाली मिलावट खोरी का पर्दांफाश किया तथा आवश्यक कार्रवाई के लिए संबंधित विभाग के अधिकारियों को बुलाया उसी समय मोटर साईकलों पर सवार कई व्यक्ति पानीवाडी ऑयल डिपो पर पहुंचे तथा अतिरक्ति जिलाधिकारी यशवंत सोनावणे से उलझ बैठे। देखते ही देखते वे अपराधी यशवंत के प्रति आक्रामक हो गए। उनकी आक्रामकता तथा अधिकारी के साथ की जा रही मारपीट से भयभीत होकर यशवंत सोनावणे का ड्राईवर तथा उनके निजी सचिव घटना स्थल से भाग गए तथा पुलिस की सहायता लेने हेतु करीबी पुलिस स्टेशन पर जा पहुंचे। जब तक पुलिस घटना स्थल पर पहुंचती तब तक यशवंत सोनावणे के रूप में एक और ईमानदार अधिकारी अपने कर्तव्यों की बलिबेदी पर अपनी जान न्यौछावर कर चुका था। मिलावटखोर तेल माफिया ने उन्हें मिटटी का तेल छिड़क कर सड़क पर ही जिंदा जला कर मार डाला।

अभी अधिक समय नहीं बीता है जबकि देश ने इंडियल ऑयल के मार्केटिंग अधिकारी एस मंजूनाथन के रूप में ऐसे ही तेल के मिलावटखोरों के विरूद्ध अपनी आवाज बुलंद करते हुए उत्तर प्रदेश के लखीमपुरखीरी जिले के एक मिलावटखोरी करने वाले पेट्रोल पंप पर अपनी शहादत दी थी। सत्येंद्र दूबे नामक उस ईमानदार व होनहार परियोजना अधिकारी को भी अभी देश नहीं भूल पाया है जिसे स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क परियोजना के निर्माण के दौरान बिहार के गया जिले में 27 नवंबर 2003 को ऐसे ही भ्रष्टाचारियों द्वारा शहीद कर दिया गया था। दूबे ने परियोजना में बड़े पैमाने पर हो रही धांधली की शिकायत तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यालय में की थी । इसी शिकायत के तत्काल बाद दूबे की हत्या कर दी गईथी। ‘वाईब्रेंट गुजरात’ में एक भारतीय जनता पार्टी के सांसद दीनू सोलंकी के भतीजे ने अमित जेठवा नामक एक सामाजिक कार्यकर्ता की 20 जुलाई 2010 को हत्या कर दी थी। इसी हत्या के आरोप में इन दिनों वह जेल की सलांखों के पीछे है। अमित जेठवा का भी यही कुसूर था कि उसने भाजपा सांसद दीनू सोलंकी द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार तथा सरकारी संपत्ति की व्यापक लूट के विरू ध्दअपनी आवाज उठाने की कोशिश की थी।

यशवंत सोनावणे की हत्या केबाद, ख़ासतौर पर गणतंत्र दिवस समारोह से मात्र चंद घंटे पूर्व किए गए इस बेरहमी पूर्व कत्ल के बाद एक बार फिर यह सवाल जीवंत हो उठा है कि क्या हमारा गणतंत्र वास्तव में गणतंत्र एवं जनतंत्र कहे जाने योग्य है? कहीं यह गणतंत्र वास्तव में भ्रष्टतंत्र के रूप में परिवर्तित होने तो नहीं जा रहा? कब तक इस देश को भ्रष्टचारियों व मिलावटखोरों तथा माफियाओं व अपराधियों केचंगुल से मुक्त कराने में मंजू नाथन, सत्येंद्र दूबे, अमित जेठवा और अब यशवंत सोनावणे जैसे होनहार राष्ट्रभक्त देशवासी हमसे इसी प्रकार छीने जाते रहेंगे? एक और अहम सवाल आम लोगों के जेहन में यह उठने लगा है कि कहीं देश का मुट्ठी भर संगठित अपराधी, भ्रष्ट एवं मिलावटखोर माफिया देश के एक अरब से अधिक की आबादी वाले असंगठित लोगों पर हावी तो नहीं होने जा रहा है?इस प्रकार की घटनाएं आम लोगों को बार-बार यह सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि आजाद देश की परिभाषा आंखिर है क्या? किस बात की आजादी और कैसी आजादी? क्या तांकतवर मांफिया को अपने सभी काले कारनामे, अपराध, मिलावटखोरी, भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, कालाबाजारी व जमाखोरी यहां तक कि दिनदहाड़े हत्या जैसे कृत्य करने की पूरी आजादी है? परंतु एक ईमानदार व होनहार अधिकारी को आज अपना कर्तव्य निभाने की आजादी हरगिज नहीं? गोया स्वतंत्रता की परिभाषा ही खतरे में पड़ती दिखाई देने लगी है। यशवंत सोनावणे की हत्या के बाद समाचार यह है कि महाराष्ट्र के लगभग 17 लाख कर्मचारी बृहस्पतिवार को अर्थात् 27 जनवरी को हड़ताल पर चले गए थे। इनमें लगभग एक लाख दस हजार राजपत्रित अधिकारी भी शामिल थे जिन्होंने मुंबई में आयोजित एक विरोध मार्च में भागग लिया। इस विरोध प्रदर्शन एवं हड़ताल को राय के कर्मचारियों की लगभग सभी ट्रेड यूनियन का भी समर्थन प्राप्त था। बेशक अपराधियों व माफियाओं के विरुद्ध कर्मचारियों का इस प्रकार संगठित होना बहुत सकारात्मक लक्षण है। परंतु क्या एक राज्‍य के एक उच्च अधिकारी की हत्या के बाद ही इनके संगठित होने मात्र से तथा विरोध प्रदर्शन कर लेने भर से इस प्रकार के मिलावटखोर माफियाओं का संपूर्ण नाश या दमन संभव हो पाएगा? क्या इस विरोध प्रदर्शन व हड़ताल में शामिल लोगों में वे कर्मचारी या अधिकारी शामिल नहीं होंगे जो इन्हीं माफियाओं या मिलावटखोरों से पिछले दरवाजे से अपनी सांठगांठ बनाए रखते हैं? आखिर इन मिलावटखोरों के हौसले इस कद्र कैसे बुलंद हो गए कि एक प्रशासनिक सेवा स्तर के ईमानदार अधिकारी को इन्होंने बेरहमी से दिन के उजाले में जिंदा जला कर मार डाला? क्या ऐसा संभव है कि सरेआम इतना बड़ा अपराध अंजाम देने वालों पर तथा विगत् काफी लंबे समय से इसी प्रकार मिलावटी तेल बेचते रहने वालों पर किसी प्रकार का राजनैतिक, प्रशासनिक अथवा शासकीय संरक्षण न हो? इलाके की पुलिस स्वयं यह स्वीकार कर रही है कि इस घटना को अंजाम देने वाला व्यक्ति इस क्षेत्र का सबसे बदनाम तेल का मिलावटखोर तथा तेल की ब्लैक मार्किटिंग करने वाला व्यक्ति है। इस घटना में शामिल एक अपराधी पोपट शिंदे पहले भी दो बार तेल में मिलावट करने तथा तेल ब्लैक करने जैसे अपराध में गिरफ्तार किया जा चुका है। इसी इलाके से एक और खबर यह भी प्राप्त हुई है कि कुछ ही समय पूर्व वसई नामक स्थान पर एक ट्रैंफिक कर्मचारी को भी गुंडों द्वारा इसी प्रकार जिंदा जलाकर मार दिया गया था। यानी यह भी गणतंत्र पर गुंडातंत्र के हावी होने की एक जीती-जागती मिसाल थी।

बहरहाल इस प्रकार की घटनाएं जहां हमारे देश की न्याय व्यवस्था, शासन व प्रशासन को बहुत कुछ सोचने तथा अभूतपूर्व किस्म के फैसले लेने पर मजबूर कर रही हैं वहीं देश की साधारण एवं आम जनता का भी और अधिक देर तक मूकदर्शक व असंगठित बने रहना भी ऐसे माफियाओं व भ्रष्टाचारियों की हौसला अफजाई करने से कम हरगिज नहीं है। कमोबेश देश के सभी जिलों, शहरों, कस्बों व नगरों के आम लोगों को अपने-अपने क्षेत्र के ऐसे भ्रष्टाचारियों, मिलावटखोरों तथा माफियाओं के संबंध में सारी हकीकतें भलीभांति मालूम होती हैं। जरूरत केवल इस बात की है कि यही उपभोक्ता रूपी आम जनता जोकि स्वयं किसी न किसी रूप में ऐसे भ्रष्टाचारियों का कभी न कभी कहीं न कहीं शिकार जरूर होती है वही आम जनता न केवल संगठित हो बल्कि शासन व प्रशासन को ऐसे लोगों के विरुद्ध सहयोग भी दे। संभव है कि ऐसा करते समय मंजुनाथन, दूबे तथा सोनावणेया जेठवा की ही तरह कुछ और वास्तविक राष्ट्रभक्त भी देश की वास्तविक स्वतंत्रता एवं वास्तविक गणतंत्र के निर्माण के लिए अपनी जान कुर्बान कर बैठे। परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि इन मुट्ठीभर माफियाओं, मिलावटखोरों व भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध यदि जनता संगठित हो गई तो निश्चित रूप से इनके हौसले पस्त हो कर ही रहेंगे। अन्यथा ऐसे माफियाओं का निरंतर कसता शिकंजा न केवल हमारे गणतंत्र को पूरी तरह भ्रष्टतंत्र में परिवर्तित कर देगा बल्कि हमारी आने वाली वह नस्लें जिन पर हम देश के भावी कर्णधार होने का गुमान करते हैं वह भी इनसे भयभीत व प्रभावित होने से स्वयं को नहीं बचा सकेंगी। यशवंत सोनावणे की बेरहमी से की गई हत्या से दु:खी हो का प्रसिध्द गांधीवादी एवं सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने अपना मौन व्रत तोड़ते हुए यह मांग की है कि जिस प्रकार मिलावटखोर तेल माफिया ने एक होनहार व ईमान दार अधिकारी को जिंदा जलाकर दिनदहाड़े मार डाला है उसी प्रकार इन जैसे अपराधियों को भी सरेआम फांसी के फंदे पर लटका दिया जाना चाहिए। हमारे कानून निर्माताओं को इस विषय पर भी गंभीरता से चिंतन करते हुए तत्काल ऐसे कानून बनाए जाने चाहिए तथा ऐसे कुछ अपराधियों को यथाशीघ्र फांसी के फंदे तक पहुंचा भी देना चाहिए ताकि हमारा देश न्यायपूर्ण एवं वास्तविक गणतंत्र स्वीकार किया जा सके।

देश राग के सर्वोत्तम स्वर: पंडित भीमसेन जोशी

विजय कुमार

1985 में दूरदर्शन पर अनेक कलाकारों को मिलाकर बना कार्यक्रम‘देश-राग’ बहुत लोकप्रिय हुआ था। सुरेश माथुर द्वारा लिखित गीत के बोल थे,‘‘मिले सुर मेरा तुम्हारा, तो सुर बने हमारा।’’ उगते सूर्य की लालिमा, सागर के अनंत विस्तार और झरनों के कलकल निनाद के बीच जो धीर-गंभीर स्वर और चेहरा दूरदर्शन पर प्रकट होता था, वह था पंडित भीमसेन जोशी का। इस गीत की मूल धुन भी उन्होंने ही बनाई थी। राग भैरवी में निबद्ध इस गीत ने शास्त्रीय संगीत एवं भीमसेन जी को पूरे भारत में लोकप्रिय कर दिया।

भीमसेन जी का जन्म कर्नाटक के धारवाड़ जिले में स्थित एक छोटे नगर गडग में चार फरवरी, 1922 को एक अध्यापक श्री गुरुराज जोशी के घर में हुआ था। अपनी माता जी के भजन और दादाजी के कीर्तन सुनकर इनकी रुचि भी गीत और संगीत की ओर हो गयी। एक बार गांव का एक दुकानदार ‘किराना घराने’ के संस्थापक अब्दुल करीम खां के कुछ रिकार्ड लाया। उन्हें सुनकर भीमसेन ने निश्चय कर लिया कि उन्हें ऐसा ही गायक बनना है।

1932 में गडग में अब्दुल करीम खां के शिष्य प्रसिद्ध गायक रामभाऊ कुंदगोलकर (सवाई गंधर्व) के कार्यक्रम से प्रभावित होकर बालक भीमसेन ने घर छोड़ दिया। कई महीने तक खाली जेब, बिना टिकट घूमते हुए उन्होंने जालंधर, लखनऊ, रामपुर, कोलकाता, बीजापुर, ग्वालियर आदि में संगीत सीखा। इसके बाद वे भाग्यवश सवाई गंधर्व के पास ही पहुंच गये। सवाई गंधर्व ने इन्हें शिष्य बनाकर पूरे मनोयोग से गायन सिखाया।

धीरे-धीरे गीत और संगीत भीमसेन जी के जीवन की साधना बन गयी। 1946 में अपने गुरु सवाई गंधर्व के 60वें जन्मदिन पर पुणे में हुए कार्यक्रम से ये प्रसिद्ध हुए। फिर तो देश भर में इन्हें बुलाया जाने लगा। अब लोग इन्हें अब्दुल करीम खां और सवाई गंधर्व से भी बड़ा गायक मानने लगे; पर भीमसेन जी सदा विनम्र बने रहे। किराना घराना भावना प्रधान माना जाता है; पर भीमसेन जी ने उसमें शक्ति का संचार कर नया रूप दे दिया।

बहुभाषी भीमसेन जी मुख्यतः खयाल और भजन गाते थे। अभंग गाते समय वे मराठी, जोगिया राग गाते समय पंजाबी, वचन गाते समय कन्नड़भाषी और मीरा या सूर के पद गाते समय हिन्दीभाषी लगते थे। उन्होंने श्री हरिप्रसाद चौरसिया, पंडित रविशंकर तथा डा0 बाल मुरलीकृष्ण जैसे श्रेष्ठ संगीतकारों के साथ जुगलबंदी की। शुद्ध कल्याण उनका सबसे प्रिय राग था। उन्होंने कई राग मिलाकर कलाश्री और ललित भटियार जैसे कुछ नये राग भी बनाये। उन्होंने कुछ फिल्मों में भी अपने गायन और संगीत विधा का प्रदर्शन किया।

पुणे में अपने गुरु की स्मृति में प्रतिवर्ष सवाई गंधर्व महोत्सव करते थे। इसमें विख्यात और नये दोनों ही तरह के कलाकारों को बुलाया जाता था। विश्व पटल पर स्थापित ऐसे कई कलाकार हैं, जो इस समारोह से ही प्रसिद्ध हुए। इसमें पूरे महाराष्ट्र से श्रोता आते हैं। कई बार तो गायक के साथ संगत करने वाले को हल्का पड़ते देख भीमसेन जी स्वयं तानपूरा लेकर बैठ जाते थे।

शास्त्रीय गायन के पर्याय पंडित भीमसेन जी को सैकड़ों पुरस्कार मिले। उन्हें पदम्श्री, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, पद्मभूषण, तानसेन सम्मान और 2008 ई0 में ‘भारत रत्न’ से विभूषित किया गया। एक बार प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें राज्यसभा में भेजना चाहा, तो उन्होंने अपने दोनों तानपूरों की ओर संकेत कर कहा कि मेरे लिए ये दोनों ही लोकसभा और राज्यसभा हैं।

देश-राग का यह सर्वोत्तम स्वर 24 जनवरी, 2011 को सदा के लिए मौन हो गया; पर अपने गायन द्वारा वे सदा अमर रहेंगे।

भारतीय गणतंत्र और तिरंगा

अशोक बजाज

किसी भी नागरिक को अपने देश के किसी भी भू-भाग में राष्ट्रीय ध्वज फहराने की स्वतंत्रता है। स्वतंत्र भारत का ध्वज तिरंगा है और इसे भारतीय गणतंत्र के किसी भी भू-भाग में फहराया जा सकता है यह विडंबना ही है कि भारत एक मात्र देश है जहॉं पर राष्ट्रीय पर्व के दिन ध्वज फहराने को लेकर विवाद उत्पन्न हो रहा है। विवाद उत्पन्न करने वाले लोग यह तर्क दे रहे हैं कि तिरंगा अगर फहराया गया तो कश्मीर में शांति भंग हो जायेगी। जिस तिरंगे की आन-बान और शान के लिए लाखों लोगों ने अपनी कुर्बानी दी तथा अनेक वीर सपूत हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर लटक गये और जिस तिरंगे के बारे में यह कहा गया कि —-

‘शान न इसकी जाने पाये ,

चाहे जान भले ही जाये ,

विश्व विजय करके दिखलायें ,

तब होवे प्रण पूर्ण हमारा,

झण्डा उँचा रहे हमारा ;

आज देश की राजनैतिक स्थिति ऐसी हो गई है कि भारत के मुकुट मणि कश्मीर में झण्डा फहराने से रोका जा रहा है, कुछ लोगों को इसमें आपत्ति है, आपत्ति करने वाले लोग बड़े शान से कह रहे हैं कि इससे शांति भंग होगी, न फहरायें। कभी तिरंगे को फहराना शान की बात समझी जाती थी, तो आज इन लोगों की नजर में तिरंगा न फहराना शान की बात समझी जा रही है। जहॉं तक शांति भंग का सवाल है तो स्वतंत्रता आंदोलन के समय अंग्रेजी हुकूमत भी यही कहती थी कि आंदोलनकारियों के कारण शांति भंग हो रही है, देश में अराजकता फैल रही है। महात्मा गांधी तक को शांति भंग के आरोप में कई बार गिरफ्तार किया गया। जो लोग तिरंगा फहराने को लेकर आपत्तियां कर रहे हैं, उन्हें तिरंगे की आन-बान और शान की परवाह नहीं है। प्रधानमंत्री डॉ0 मनमोहन सिंह एवं जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला अंग्रेजों की भाषा में बोल रहे हैं। 1947 के पहले जो बात अंग्रेज बोलते थे, वही बात आज हमारे प्रधानमंत्री और कश्मीर के मुख्यमंत्री बोल रहे हैं।

यह विचित्र विडंबना है कि जिस कांग्रेस पार्टी के बैनर तले देश की आजादी की लड़ाई लड़ी गयी, केन्द्र में उसी कांग्रेस पार्टी की आज हुकूमत है। 1947 के पहले कांग्रेस के नेता झण्डा फहराने के लिए मरते थे और आज झण्डा फहराने वालों को मार रहे हैं, देश की जनता यह सब देख रही है । केन्द्र सरकार ने तुष्टिकरण की नीति के चलते अलगाववादियों के सामने घुटने टेक दिए, देश की सीमा खतरे में है। उमर अब्दुल्ला ने आज तक कभी-भी कश्मीर के लाल चौंक में पाकिस्तानी झण्डा फहराने वालों को नहीं रोका। भारत और भारतीयों के खिलाफ जगह-जगह वहॉं नारे लिखे गये, उसके बारे में कभी नहीं टोका। आज जब देश के नौजवान वहॉं तिरंगा फहराने की बात कर रहे हैं तो इनको आपत्ति हो रही है। युवाशक्ति के इस इरादे को भांपकर, बेहतर होता कि स्वयं प्रधानमंत्री डॉ0 मनमोहन सिंह यह कहते कि नौजवानों तुमको लाल चौंक जाने की जरूरत नहीं है, मैं स्वयं वहॉं जाकर तिरंगा फहराउंगा, तो शायद उनकी इज्जत में बढ़ोत्तरी होती, लेकिन तिरंगा फहराने वालों की आलोचना करके उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से यह सिद्ध कर दिया है कि वे कश्मीर को भारत का भू-भाग नहीं मानते। इस घटनाक्रम से एक बात का खुलासा तो हो ही गया कि कौन तिरंगे का पक्षधर है और तिरंगे का विरोधी । जो लोग लालचौंक में तिरंगा फहराने का विरोध कर रहे हैं, उनमें और अलगाववादियों में फर्क क्या रह गया है ?

जहॉं तक कश्मीर समस्या का सवाल है, यह समस्या धारा 370 की वजह से उत्त्पन्न हुई है, अगर पंडित नेहरू ने सरदार वल्लभ भाई पटेल की बात मान ली होती तो आज कश्मीर की सूरत ही कुछ और होती ।आज कश्मीर की हालत यह हो गयी है कि समूचा राज्य अलगाववादियों के हवाले कर दिया गया है तथा दिल्ली की सरकार विवश और लाचार बन कर बैठी है।

क्या वाकई लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है मीडिया?

शिवा नन्द द्विवेदी “सहर”

जब भी बात लोकतंत्र के निहित स्तंभों की होती है तो “मीडिया” का नाम अवश्य आता है। ऐसा पढ़ता एवं सुनता आया हूँ कि मीडिया लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में अपना दायित्व निर्वहन कर रहा है। यानी “इट इज वन ऑफ़ द फोर पिलर्स ऑफ़ डेमोक्रेसी”। सैद्धांतिक रूप से ऐसा कहा एवं माना जाता है कि लोकतंत्र के चार स्तम्भ होते हैं जो इस लोकतान्त्रिक व्यवस्था रूपी छत को सुदृढ़, स्वस्थ एवं परिशुद्ध बनाते हैं। परन्तु जब भी इस विषय पर मैं किसी विद्वान् अथवा राजनीति विश्लेषक के कथन से अलग हट कर सोचता हूँ हमेशा यही भ्रम-स्थिति बनी रहती है कि क्या वाकई “मीडिया” शब्द अथवा इसका अर्थ लोकतंत्र के स्तम्भ होने के मानकों पर खरा उतरता है? क्या यह तथाकथित स्तम्भ शेष तीन स्तंभों के साथ समानांतर सामंजस्य बना पाता है? मुझे स्पष्ट याद है कि लोकतंत्र शब्द पर विशेष अध्ययन का अवसर मुझे बी-ए प्रथम वर्ष में मिला और संयोगवश मेरा प्रथम अध्याय ही था “सरकार एवं व्यवस्था”! उक्त विषय पर मेरे शिक्षकगण से अकसर बहस होती रहती थी कि “क्या वाकई लोकतंत्र का कोई चौथा स्तम्भ भी है?”

अपने विचार को रखने से पहले मैं लोकतंत्र के तीन स्तंभों का संक्षिप्त विश्लेषण करना चाहूंगा। सैद्धांतिक रूप से लोकतंत्र के क्रमश: प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय स्तम्भ व्यवस्थापिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका है। इसके बाद तथाकथित स्थान आता है मीडिया का जो किसी भी दृष्टिकोण से ना तो इन तीन स्तंभों के तटस्थ समानांतर और ना ही लोकतंत्र कि स्थापना, संरचना, क्रियान्वन एवं संरक्षण के लिए अनिवार्य प्रतीत होता है। मेरे मत में “मीडिया” ठीक वैसी ही एक संस्था है जैसे कोई चिकित्सालय, पशुपालन, वन्य-संरक्षण संस्थान, स्कूल-विद्यालय एवं अन्य सरकारी – गैरसरकारी संस्थान। एक संक्षिप्त तुलनात्मक अध्यन के तौर पर अगर हम बात “व्यवस्थापिका” कि करें तो यह सर्व-विदित है कि “व्यवस्थापिका एक पूर्णतया गैर-निजी, एकल, लोक प्रतिनिधित्व की राष्ट्रीय संस्था या सभा है”! यहाँ व्यवस्थापिका को गैर-निजी कहने का सीधा तात्पर्य यह है कि इस सभा को ना तो किसी आम अथवा ख़ास द्वारा पंजीकृत कराया जा सकता है और ना ही व्यक्तिगत आधार पर संचालित एवं क्रियान्वित किया जा सकता है। इसे अद्वितीय कहने का आशय यह है कि किसी एक व्यवस्थित लोकतांत्रिक संरचना में राष्ट्रनिहित संवैधानिक सिद्धांतों के आधार पर संभव है किसी कि निजी इच्छा पर नहीं। व्यवस्थापिका में प्रतिनिधित्व का अवसर मिल सकता है जो जनता के द्वारा प्रत्यक्ष(लोकसभा) अथवा परोक्ष(राज्यसभा) रूप से निर्वाचित हों और अपने निर्वाचकों के प्रति संवैधानिक रूप से उत्तरदायी हों। संवैधानिक रूप से जनता के प्रति उत्तरदायी होना इस सभा को लोकतंत्र के प्रथम स्तम्भ होने के तटस्थ ले जाता है और साथ ही लोकतंत्र के स्तम्भ होने कि पुष्टि भी करता है।

द्वितीय स्तम्भ के रूप में बात होती है “कार्यपालिका” की। लोकतंत्र के द्वितीय स्तम्भ के रूप में इसकी स्वत: पुष्टि इसलिए हो जाती है कार्यपालिका का सदस्य होने के व्यवस्थापिका का सदस्य होना अनिवार्य है अथवा लोकतांत्रिक पद्धति से निर्वाचित होना अनिवार्य है। लोकतांत्रिक व्यवस्था को कायम रखने के लिए लोक महत्त्व कि आवश्यकताओं को समझना एवं उनको उपलब्ध कराना, लागू कराना, व्यवस्थापिका से पास विधेयक को कानून के रूप लागू कराना, राष्ट्र प्रबंधन जैसी चीजें कार्यपालिका के मूल कर्तव्य में निहित होती हैं एवं कार्यपालिका अपने कर्तव्यों के लिए व्यवस्थापिका के प्रति शत-प्रतिशत उत्तरदायी होती है! “लोकतंत्र के प्रथम स्तम्भ के प्रति उत्तरदायित्व कि अनिवार्यता ही कार्यपालिका के कार्यपालिका के द्वितीय स्तम्भ होने कि पुष्टि करता है ”

लोकतंत्र के तृतीय स्तम्भ न्यायपालिका की बात करें तो इसकी कार्य एवं संरचना पद्धति थोड़ी सी भिन्न है, परन्तु सैद्धांतिक रूप से यह पूर्णतया लोकतान्त्रिक ढांचे को मजबूत बनाने एवं संवैधानिक संरक्षण का कार्य करती है। कार्यपालिका द्वारा लाये गए विधेयक को व्यवस्थापिका से पारित होने के पश्चात न्यायपालिका उस विधेयक कि संवैधानिकता कि जाँच करने के साथ ही आवश्यकतानुसार उस कानून कि व्याख्या भी करती है। न्यायपालिका द्वारा किया गया यह कार्य ही “न्यायिक पुनराविलोकन” कहलाता और यही न्यायपालिका कि सबसे बड़ी शक्ति है जो व्यवस्थापिका को भी काफी हद तक नियंत्रित कर संतुलित लोकतंत्र कि स्थापना में विशेष दायित्व का निर्वहन करती है। अगर न्यायपालिका को लगता है कि उक्त विधेयक असंवैधानिक है तो उसे निरस्त भी कर सकती है। संविधान के संरक्षण का दायित्व भी न्यापालिका में निहित है। इन तथ्यों से यह साफ़ होता है कि संविधान के मूल स्वरुप के संरक्षण का विशेष दायित्व भी न्यायपालिका के कन्धों पर है एवं न्यायपालिका संविधान के प्रति पूर्णतया उत्तरदायी है। यह कहना गलत नहीं होगा कि शासन एवं तंत्र को संचालित एवं परिभाषित करने के लिए संवैधानिक पद्धति ही सबसे बेहतर विकल्प है और न्यायपालिका संविधान के प्रति उत्तरदायी है। “संविधान के प्रति न्यायपालिका का यह उत्तरदायित्व ही उसे लोकतांत्रिक स्तम्भ के रूप खडा करता है।” इन तीनो स्तंभों के बीच सबसे बड़ी समानता यह है कि तीनो का निजीकरण नहीं हो सकता है और और तीनो में से कोई भी किसी व्यक्ति संप्रभु के अधीन नहीं हो सकती।

अब बात करें लोकतंत्र के कथित चौथे स्तंभ मीडिया की। सर्वप्रथम प्रश्न यह उठता है कि आखिर यह कथित चौथा स्तम्भ संवैधानिक रूप से किसके प्रति उत्तरदायी है? इसके निर्माण में जनता कौन सी लोकतान्त्रिक पद्धति का प्रयोग होता है? क्या इसमें राष्ट्रीय एकल एवं अद्वितीय संस्था होने के कोई लक्षण हैं? क्या यह पूर्णतया गैर-निजी तौर पर संचालित है?क्या यह पूर्णतया गैर-व्यावसायिक है? लोकतंत्र का यह चौथा स्तम्भ सिर्फ सवाल पूछने का कर्तव्य रखता है या संवैधानिक रूप से इसके उत्तरदायित्व का भी कोई निर्धारण है? क्या यह पूर्णतया व्यक्ति संप्रभु के अधीन नहीं है? मेरे मत में उपरोक्त सभी सवालों पर गौर करें तो एक बात साफ़ तौर पर नज़र आती है कि “मीडिया” में लोक उत्तरदायित्व कि अनिवार्यता बिलकुल नहीं है। मीडिया के निर्माण में जनता का योगदान एक पेशेवर से ज्यादा कुछ भी नहीं है जैसे – टीचर, डॉक्टर ठीक वैसे ही पत्रकार। इसके निर्माण एवं गठन कि कोई लोकतान्त्रिक पद्धति नहीं बल्कि प्रशासनिक पद्धति है। इसके गैर निजी होने का तो सवाल करना ही बेमानी है क्योंकि आज का हर तीसरा पूंजीपति अखबार, पत्रिका, चैनल में निवेश करने में ज्यादा उत्सुक है और इसकी परिशुद्धता का आकलन इसी से किया जा सकता है।

अब मैं जिक्र करूंगा मीडिया के कार्यों की, जिसमें प्रथम कार्य है संचार प्रेषण। यह एक संचार का माध्यम है जो जनता को घटित अघटित घटनाक्रमों, सरकार एवं प्रशासन के कार्यों अथवा समाज कि हर छोटी बड़ी चीजों कि जानकारी उपलब्ध कराता है। मीडिया के पक्ष में एक सकारात्मक पहलू यह है कि अक्सर लोकचेतना को जागृत करने में मीडिया का बहुत बड़ा योगदान रहता है। परन्तु यह ठीक वैसा ही है जैसा स्वास्थ्य कल्याण विभाग द्वारा पोलियो ड्रॉप घर घर जाकर पिलवाना, बीमारियों से लोगों को अवगत कराना। तमाम संस्थाएं अलग-अलग स्तर पर राष्ट्रहित में कार्य कर रही है तो क्या सबको एक स्तम्भ के तौर पर देखा जाना उचित है? मीडिया ठीक वैसे ही काम कर रहा है जैसे स्कुल, अस्पताल एवं अन्य। मीडिया द्वारा किये जा रहे कार्य राष्ट्रहित एवं लोकहित में अवश्य हैं परन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं कि इसे व्यवस्थापिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के साथ चौथे स्तम्भ के रूप में देखा जाय। जहां तक मुझे ज्ञात है लोकतंत्र का इतिहास आधुनिक मीडिया के इतिहास से ज्यादा पुराना। ११वीं शताब्दी में जब प्रथम बार ब्रिटेन में लोकतंत्र कि स्थापना हुई थी उस दौरान मीडिया(ब्रोडकास्ट) नाम की कोई चीज़ नहीं थी।

उपरोक्त विश्लेषण के पश्चात मैं इस निष्कर्ष पर पहुंच पा रहा हूँ कि लोकतंत्र कि छत सिर्फ टीन स्तंभों पर टिकी है। इस क्रम में मीडिया की स्थिति एक विभाग विशेष से ज्यादा नहीं परिलक्षित होती है और राष्ट्र का यह विभाग अन्य विभागों से ज्यादा प्रभावी, सक्रिय एवं महत्वपूर्ण है।

डॉ. अरुण दवे की कविताएं

फक्कड़वाणी

(1)

आजादी के बाद भी, हुए न हम आबाद

काग गिद्ध बक कर रहे, भारत को बर्बाद

भारत को बर्बाद, पनपते पापी जावे

तस्कर चोर दलाल, देश का माल उड़ावे

कहे फक्कड़ानन्द, दांत दुष्‍टों के तोड़ो

गद्दारों से कहे, हमारा भारत छोडो

(2)

कहता है इक साल में, लाल किला दो बार

झोपड़ियाँ चिन्ता तजे, मुझको उनसे प्यार

मुझको उनसे प्यार, कष्ट उनका हरना है

दुख लेना है बाँट, सौख्य-झोली भरना है

कहे फक्कड़ानन्द, याद फिर तनिक न आती

झोपड़ियों की आस अधूरी ही रह जाती

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कैसा स्वाभिमान हमारा ……..?

भूल गए हम मातृभूमि का पावन गौरव गान

कैसा स्वाभिमान हमारा कैसा स्वाभिमान?

भूल गए हम देशभक्ति की बानी को

भूल गए राणा प्रताप सैनानी को

भूल गए हम झांसी वाली रानी को

भूल गए हम भगतसिंह बलिदानी को

यौवन के आदर्श फकत शाहरुख एवं सलमान

कैसा स्वाभिमान हमारा कैसा स्वाभिमान ?

नैतिकता का पथ अब रास न आता है

सच्चाई से धक धक दिल घबराता है

सद्ग्रंथों को पढ़ना हमें न भाता है

रामायण-गीता से टूटा नाता है

पढ़ते सुनते और देखते कामुकता आख्यान

कैसा स्वाभिमान हमारा कैसा स्वाभिमान ?

तेरी मेरी सबकी रामकहानी है

चुप्पी ओढ़े बैठी दादी-नानी है

सीता-सावित्री की कथा पुरानी है

नवयुग की नारियां सयानी-ज्ञानी है

फैशन नखरों कलह-कथा का रहता केवल ध्यान

कैसा स्वाभिमान हमारा कैसा स्वाभिमान ?

भौतिकता के मद में हम सब फूल गए

स्वार्थ लोभ नफरत के बोते शूल गए

गांधी गौतम के सब छोड़ उसूल गए

पछुआ की आंधी में पुरवा भूल गए

आपस में लड़ झगड़ रहे हैं जैसे पागल श्‍वान

कैसा स्वाभिमान हमारा कैसा स्वाभिमान?

अभाविप ने किया जेएनयू में अलगाववादियों का पुतला दहन

जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् इकाई ने गत ‘केंद्र सरकार, जम्मू और कश्मीर सरकार तथा अलगाववादियों’ का पुतला गंगा ढाबा पर 26 जनवरी को शाम सात बजे फूँका। विद्यार्थी परिषद् ने आरोप लगाया कि केंद्र और कश्मीर की उमर अब्दुल्ला सरकार ने अलगाववादियों के सामने घुटने टेक दिए हैं। देश की जनता को अपने संवैधानिक अधिकार से वंचित किया जा रहा है और ‘राष्‍ट्रीय ध्‍वज तिरंगा’ को फहराने नहीं दिया जा रहा है।

परिषद् अध्यक्ष सुश्री गायत्री दीक्षित ने कहा, ‘आज जहाँ अलगाववादियों के पक्ष में बोलने वाली अरुंधती रॉय जैसे लोगों का सरकार कुछ नहीं करती है, वहीं देश के राष्ट्रभक्त संगठन को ‘जम्मू-कश्मीर’ के अन्दर घुसने तक नहीं दिया जा रहा है। आज देश को तोड़ने की साजिश रची जा रही है। इस अवसर पर श्रेन्या मल्लिक, एकता खंडवे, सौरभ कुमार, रोबिन मुखर्जी, दिलीप यादव, मनोज कुमार, सुमित कुमार मौर्या, अभिषेक मित्रा, विवेक विशाल एवं अभिषेक श्रीवास्तव सहित अनेक छात्रनेता उपस्थित थे। इस कार्यक्रम के दौरान भारी संख्या में छात्र एवं छात्राओं ने एकत्रित होकर अलगाववादी ताकतों के विरूद्ध नारेबाजी की।

गणतंत्र दिवस के बहाने

सतीश सिंह

राष्ट्रध्वज को फहराने का अधिकार नागरिकों के मूलभूत अधिकार और अभिव्यक्ति के अधिकार का ही एक हिस्सा है। यह अधिकार केवल संसद द्वारा ऐसा परितियों में ही बाधित किया जा सकता है जिनका उल्लेख संविधान की कण्डिका 2, अनुच्छेद 19 में किया गया है। खण्डपीठ में साफ तौर पर कहा गया है कि नागरिकों के द्वारा राष्ट्रध्वज का सम्मान किया जाना चाहिए। इसके उचित उपयोग पर कोई बंदिश नहीं है। साथ ही उक्त खण्डपीठ में इस बात पर भी जोर दिया गया कि भारतीय नागरिकों को ध्‍वज संहिता के द्वारा भविष्य में शिक्षित किया जाए। सर्वोच्च न्यायलय के 22 सितंबर, 1995 के निर्णय के अनुसार भी भारत का हर नागरिक राष्ट्रीय ध्वज के घ्वजारोहण के लिए स्वतंत्र है। परन्तु यह देश की विडम्बना ही है कि आज भी हमारे देश के नागरिक अपने अधिकारों से तो अवगत हैं, लेकिन कर्तव्‍यों से जान-बूझकर विमुख।

आजादी के 63 साल बीत जाने के बाद भी अधिकांश भारतीय नागरिकों को न तो राष्ट्रध्वज के बारे में किसी तरह की जानकारी है और न ही उनके मन में है राष्ट्रध्वज के प्रति किसी तरह का सम्मान।

हमारे राष्ट्रध्वज को 22 जुलाई 1947 को संविधान ने स्वीकार किया था और 14 अगस्त, 1947 को संविधान सभा के अर्धरात्रि के अधिवेशन में भारत के महिलाओं के तरफ से श्रीमती हंसीबेन मेहता ने राष्ट्रध्वज को संविधान सभा के अध्यक्ष श्री राजेन्द्र प्रसाद को प्रतीक स्वरुप भेंट किया था। राष्ट्रीय ध्वज को एक निश्चित आकार देने के लिए 23 जून, 1947 में एक अस्थायी समिति का गठन किया गया, जिसके अध्यक्ष बने राजेन्द्र प्रसाद और सदस्य क्रमश: मौलाना अबुल कलाम आजाद, श्री के. एम. पणीकर, सुश्री सरोजिनी नायूड, श्री के. एम. मुंशी, और डॉ बी. आर. अम्बेडकर को बनाया गया।

18 जुलाई, 1947 को हमारे तिरंगा को एक मानक रुप प्रदान किया गया तथा इसे अंतिम स्वीकृति के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरु को अधिकृत किया गया। श्री नेहरु की स्वीकृति के पश्‍चात् 22 जुलाई, 1947 को हमारा राष्ट्रीय ध्वज अपने मूर्त रुप में हमारे समक्ष आया।

ज्ञातव्य है कि राष्ट्रीय ध्वज का केसरिया रंग क्रांति, साहस और बलिदान का प्रतीक है, वहीं सफेद रंग और हरा रंग क्रमश: सत्य व शांति एवं श्रद्धा व शौर्य का प्रतीक है। 24 श्‍लाकाओं वाला गहरा नीला चक्र निरंतर गतिमान समय एवं विकास का प्रतीक है।

जाहिर है राष्ट्रीय ध्वज देश के मान-सम्मान का प्रतीक है। इसका ध्‍वजारोहण हम अपनी मर्जी से नहीं कर सकते हैं। लिहाजा राष्ट्रीय ध्वज से जुड़ी हर जानकारी का होना आम लोगों के लिए अति-आवश्‍यक है। ध्‍वज संहिता में भी इस बात पर बल दिया गया है। बावजूद इसके हालात अभी भी गंभीर है। आम व खास लोगों के सतही व अधकचरे ज्ञान की वजह से अक्सर राष्ट्रध्वज का अपमान होता रहता है। आश्‍चर्यजनक रुप से इसके बावजूद भी उनको अपनी गलती का अहसास कभी नहीं होता है। लिहाजा जरुरत इस बात कि है सभी राष्ट्रीय ध्वज का ध्‍वजारोहण करने से पहले निम्नवत् सावधानियाँ बरतें:-

• नागरिकों को राष्ट्रीय ध्‍वज के आकार का ज्ञान होना चाहिए। सामान्य तौर पर ध्‍वज की लंबाई, चौड़ाई से डेढ़ गुना होती है।

• राष्ट्रीय ध्‍वज साफ-सुथरा तथा कटा-फटा नहीं होना चाहिए।

• राष्ट्रीय ध्‍वज का ऊपरी रंग केसरिया और नीचे का रंग हरा होना चाहिए। मध्य में स्थित अशोक चक्र में 24 श्‍लाकाएँ हैं या नहीं हैं इसका भी ध्यान सभी को रखना चाहिए।

• राष्ट्रीय ध्‍वज को सदैव सम्मानजनक स्थान पर फहराना चाहिए। ऊँचाई इतनी हो कि वह दूर से ही दिखाई दे। ध्‍वजारोहण के समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वह जमीन, दीवार, वृक्ष या मुण्डेर इत्यादि से न सटे।

• राष्ट्रीय ध्‍वज और स्तंभ को माला इत्यादि से विभूषित नहीं करना चाहिए।

• निजी वाहनों पर कदापि राष्ट्रीय ध्‍वज न फहराएँ।

• एक स्तंभ पर राष्ट्रीय ध्‍वज के साथ कभी भी दूसरा ध्‍वज नहीं फहराएँ।

• राष्ट्रीय ध्‍वज का इस्तेमाल कभी भी सजावट की वस्तु की तरह नहीं करें।

• सूर्योदय पर राष्ट्रध्वज फहराएँ तथा सूर्यास्त होने पर सम्मानपूर्वक उसे उतार लें।

• राष्ट्रीय ध्‍वज का मौखिक या लिखित शब्दों या किसी भी प्रकार की गतिविधि के द्वारा उसका अपमान करना राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के अपमान निवारण अधिनियम 1971 के अधीन दंडनीय अपराध है।

• बिना केन्द्रीय सरकार की अनुमति के राष्ट्रीय ध्‍वज का प्रयोग करना ‘प्रिवेंशन ऑफ इम्प्रापर यूज’ एक्ट 1950 के तहत अपराध है।

गौरतलब है कि राष्ट्रीय ध्वज के ध्‍वजारोहण के लिए भी खास दिन निर्धारित हैं। पर इसकी जानकारी भी बहुत कम लोगों को है। अपनी मर्जी से कभी भी राष्ट्रीय ध्वज का ध्‍वजारोहण करके हम उसका अपमान करते रहते हैं। ध्यातव्य है कि राष्ट्रीय ध्वज का ध्‍वजारोहण हम 26 जनवरी और 15 अगस्त के अलावा निम्न अवसरों पर भी कर सकते हैं:-

• बिटिंग-रिट्रीट कार्यक्रम के सम्पन्न होने तक यानि 26 जनवरी से 29 जनवरी तक राष्ट्रीय ध्वज का ध्‍वजारोहण किया जा सकता है।

• जालियावालाँ बाग के शहीदों की स्मृति में मनाये जाने वाले राष्ट्रीय सप्ताह में भी राष्ट्रीय ध्वज को हम फहरा सकते हैं।

• राज्य के स्थापना दिवस समारोह में।

• भारत सरकार द्वारा निर्धारित किए गये राष्ट्रीय उल्लास के दिन भी राष्ट्रीय ध्वज को फहराया जा सकता है।

इसके अलावा राष्ट्रीय ध्वज को फहराते समय और उसको उतारने के दरम्यान या फिर निरीक्षण के समय वहाँ पर उपस्थित सभी लोगों को अपना मुख राष्ट्रीय ध्वज के तरफ रखते हुए सावधान मुद्रा में रहना चाहिए और जब भी ध्वज आपके सामने से गुजरे तो उसका अभिवादन या सम्मान करना चाहिए। ध्यान देने योग्य बात यहाँ पर यह है कि विशिष्ट व्यक्ति बिना शिरोवस्त्र के भी सलामी ले सकते हैं।

राष्ट्रीय ध्वज के निर्माण का भी एक इतिहास रहा है। शुरु में राष्ट्रीय ध्वज के कपड़े का निर्माण स्वाधीनता सेनानियों के एक समूह के द्वारा उत्तारी कर्नाटक के धारवाड़ जिला के बंगलोर-पूना मार्ग में अवस्थित गरग गाँव में किया जाता था। उल्लेखनीय है कि इसकी स्थापना 1954 में की गई थी। गरग गाँव लंबे समय तक खादी के तिरंगे के निर्माण का केन्द्र बना रहा। अब राष्ट्रीय ध्वज का निर्माण क्रमश: आर्डिनेंस फैक्टरी, शाहजहाँपुर और खादी ग्रामोद्योग आयोग, दिल्ली में किया जा रहा है। वैसे निजी निर्माता भी राष्ट्रीय ध्वज का निर्माण कर सकते हैं। लेकिन उन्हें राष्ट्रीय ध्वज के मानकों व मान-सम्मान का पूरा ध्यान रखना चाहिए।

निश्चित रुप से हमारे राष्ट्रीय ध्वज का स्वर्णिम इतिहास है। हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने अपनी जान देकर इसके मान-सम्मान की रक्षा की है। राष्ट्रीय ध्वज को सिर्फ एक ध्वज की संज्ञा नहीं दी जा सकती है। वस्तुत: यह देश की स्वतंत्रता, स्वाभिमान, आकांक्षा तथा आदर्श का प्रतीक है। अगर हम स्वंय इसका सम्मान नहीं करेंगे तो दूसरे देश से क्या अपेक्षा रखेंगे?

जन-गण-मन में लोकतंत्र कहाँ है?

कुन्दन पाण्डेय

भारत में लोकतंत्र कहाँ है ? कहीं नहीं लेकिन अराजकता हर कहीं हैं। संसद में, विधानसभाओं में, विधानसभाओं में होने वाली मारपीट में, केन्द्र सरकार में, राज्य सरकार में, मंत्रियों में, नेताओं में, राजनीतिक दलों में, सांसदों में, सांसदों द्वारा संसद में प्रश्न पूछने के लिए पैसा लेने में, विधायकों में, चुनावों में, चुनावी प्रत्याशियों में, केन्द्रीय विभागों व कर्मचारियों में, राज्य सरकार के विभागों व कर्मचारियों में, पुलिस में, सेना में, गरीबों के शोषण में, विदर्भ के कपास किसानों की आत्महत्याओं में, गन्ना किसानों को महीनों बाद मिलने वाले भुगतानों में, ठेकेदारों के मानकों के विपरीत निर्माणों में, अभियंताओं सहित सभी सरकारी कर्मचारियों के ऊपरी आमदनी में, उद्योगपतियों के करापवंचन में, आदिवासियों को उनकी जंगली जमीन से बेदखल करके नक्सलियों के रहमोकरम पर छोड़ने में, उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के हरैया में इंजिनियर मनोज गुप्ता, दिल्ली के बार में माडल जेसिका लाल, पत्रकार शिवानी भटनागर व निरुपमा पाठक, कवियित्रि मधुमिता शुक्ला, विधायक कृष्णानंद राय व राजू पाल तथा बह्मदत्त द्विवेदी आदि की हत्याओं में तो केवल अराजकता ही अराजकता है लोकतंत्र कहीं है ही नहीं।

कांग्रेस भाजपा दोनों के चुनावी चन्दों में, सभी राजनीतिक दलों की जाति व वोटबैंक की राजनीति में, मुस्लिमों का विकास के लिए नहीं बल्कि केवल वोटबैंक के लिए तुष्टिकरण में, बंग्लादेशी घुसपैठियों को भारत का नागरिक व मतदाता बनाने में, बोफोर्स तोप दलाली के अभियुक्तों के न पकड़े जाने में, संसद हमले के सजायाफ्ता अफजल की फाँसी की दया याचिका का निपटारा न होने में, इंदिरा गाँधी द्वारा 25 जून, सन् 1975 से लगभग 19 माह तक थोपे गये असंवैधानिक आपातकाल में, आपातकाल लागू होने के ठीक पहले तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ के इस कथन में कि “इंदिरा ही भारत है और भारत ही इंदिरा है” संजय गांधी के पं. जर्मनी के एक अखबार को दिए एक साक्षात्कार में कि “मुझे डिक्टेटरशिप पसंद है, लेकिन हिटलर जैसी नहीं।” क्या इस डिक्टेटरशिप में कहीं लोकतंत्र होगा ? ताज्जुब की बात यह है कि सिर्फ इंदिरा गाँधी के बेटे होने के कारण ऐसा आसानी से कहा गया। देश के लगभग सभी राज्यों में राजनीतिक प्रतिनिधित्व रखने वाली कांग्रेस पार्टी में इंदिरा गांधी के वंशजों के एकछत्र राज में । इन सभी तथ्यों में भी कहीं लोकतंत्र है ? नहीं है।

सातवें दशक के प्रारम्भ में संसद के अपने पहले भाषण में प्रखर समाजवादी डॉं. राममनोहर लोहिया ने कहा था कि “यह हमेशा याद रखा जाय कि 27 करोड़ आदमी 3 आने रोज के खर्च पर जिंदगी गुजर-बशर कर रहे हैं जबकि प्रधानमंत्री नेहरु के कुत्ते पर 3 रुपए रोज खर्च करना पड़ता है।” क्या नेहरु के इस कृत्य में लोकतंत्र है ? “अर्जुन सेन गुप्ता की रिपोर्ट के अनुसार देश की 70 प्रतिशत से अधिक जनता की दैनिक आमदनी 20 रुपए से कम है।” उसी लोकतांत्रिक भारत में तथाकथित (कांग्रेसी) युवराज राहुल गांधी हाल ही में डेढ़ दिवसीय यात्रा पर दक्षिण भारत गए थे। चेन्नई से प्रकाशित एक प्रतिष्ठित दैनिक में छपे ब्यौरे के मुताबिक “उनकी इस यात्रा पर मोटामोटी लगभग 2 करोड़ रुपए व्यय हुए।” सत्ताधारी दल के महासचिव की गैर सरकारी यात्रा पर 2 करोड़ खर्च करना कैसे लोकतांत्रिक हो सकता है?

सन् 2000 के एक आंकड़े के अनुसार उस वर्ष एक भारतीय नागरिक की औसत आमदनी केवल 29.50 रुपए थी, जबकि उसी समय राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री व केन्द्रीय मंत्रिमण्डल पर रोजाना 1000 करोड़ रुपए अर्थात् औसत आमदनी का लगभग 70,000 गुना रोजाना खर्च होता था आज तो यह बढ़कर कई गुना हो गया होगा। क्या उपरोक्त आंकड़ें स्वस्थ लोकतंत्र की गाथा बयान करते हैं? नहीं न।

पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के शब्दों में लोकतंत्र की परिभाषा, “ लोकतंत्र जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन है। ” अर्थात् लोकतंत्र की नींव उसका मतदाता होता है जबकि बहुमत का मतदाता अभी भी गाँवों में रहता है, जो लोकतंत्र में अपनी भूमिका से व्यापक रुप से असंतुष्ट है। यही हाल गरीबों, मजदूरों, आदिवासियों व भूमिहीन किसानों का भी है। ये सभी एक स्वर में कहते हैं “कोई नृप होऊ, हमें का हानि।” सामान्यत: भारतीय लोकतंत्र के बहुमत का मतदाता 5 वर्षो में एक बार बतौर चुनाव प्रत्याशी अपने सांसद या विधायक या जनप्रतिनिधि का द्वार पर आये भगवान सरीखा दर्शन करने की ही भागीदारी निभा पाता है। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने एक बार कहा था कि “वे पाते है कि स्थानीय शासन कार्यो में उनका कोई हाथ नहीं है और छोटा से छोटा राजकर्मचारी भी उनके प्रति किसी रुप में उत्तरदायी नहीं है, उल्टे वही उन पर धौंस जमाता है और अंग्रेजों के गुलामी के समय की तरह ही उनसे रिश्वत वसूलता है। लोकनायक आगे कहते है कि इस सच्चाई का सामना करना होगा कि जनता को स्वराज्य-भावना की अनुभूति नहीं हो पायी है। हमारे लोकतांत्रिक क्रियाकलाप में केवल थोड़े से शिक्षित मध्यम वर्ग के लोग संलग्न है और उनमें भी वही हैं जो प्रत्यक्ष रुप से राजनीतिक कार्यों में लगे हुए है।” उपरोक्त कथनों से आशय स्पष्ट है कि 5 वर्ष में एक बार मत देकर जनप्रतिनिधियों व सरकार पर अंकुश नहीं रखा जा सकता।

इंदिरा गाँधी की हत्या की प्रतिक्रिया में हुए सिखों के राष्ट्रव्यापी कत्लेआम के बारे में राजीव गाँधी ने कहा था कि “जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो जमीन काँपती ही है।” क्या भारतीय लोकतंत्र में प्रभावशाली लोगों द्वारा ऐसा बयान देना लोकतांत्रिक है ? गुजरात दंगे के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने कम से कम मोदी को राजधर्म निभाने की नसीहत दी थी। क्या भारतीय लोकतंत्र में गरीबों, बेबसों, लाचारों, वंचितों, अंत्योदयों, भूमिहीन किसानों, मजदूरों, आदिवासियों के जीवन का कोई महत्व नहीं ? क्या उपरोक्त तबकों के जीवन का एक छोटे पौधे के बराबर भी महत्व नहीं है ?

प्रधानमंत्री रहते राजीव गाँधी ने भ्रष्ट सिस्टम को स्वीकारते हुए कहा था कि, “आज देश में सत्ता के दलाल इस तरह बढ़ गए हैं कि हम ऊपर से एक रुपया भेजते हैं तो लक्षित लोगों तक 15 पैसे ही पहुँच पाते हैं।” क्या ऐसी भ्रष्ट व्यवस्था ( सिस्टम) लोकतांत्रिक हैं ? क्या भारत के प्रधानमंत्री के अपने ही लोकतंत्र में भ्रष्टाचार के सामने इतने बेबस और लाचार होने में लोकतंत्र है ? यदि भारतीय प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार से इतने बेबस, लाचार हैं, तो अनपढ़, ग्रामीण, दलित, पिछड़े, भूमिहीन किसान, मजदूर तथा आदिवासी इस भ्रष्ट व्यवस्था (सिस्टम) से कितने बेबस लाचार रहते होगें, इसकी आसानी से कल्पना की जा सकती है।

संविधान की मूल प्रति में राम और कृष्ण के चित्र हैं, पर नेताओं द्वारा काल्पनिक बताये जा रहे हैं। लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर का हमलावर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मृत्यु दंडित राष्ट्रद्रोही है, तो भी उसके नाम पर एक मजहब को लुभाने के प्रयत्न हो रहे हैं। मतदान केवल भारतीय नागरिकों का संवैधानिक अधिकार है, लेकिन बंग्लादेशी घुसपैठिए भी मतदाता सूचियों में दर्ज हैं। जम्मू कश्मीर को विशेषाधिकार प्रदान करने वाली धारा 370, जिसे घिस-घिस कर समाप्त हो जाने की बात कही गयी थी, वो प्रतिदिन मजबूती प्राप्त करने वाला गिरि बनता जा रहा है। नीति निर्देशक तत्वों में उल्लिखित समान नागरिक संहिता बनाने का न्यायालय बारम्बार निर्देश दे रहा है, फिर भी केन्द्र सरकार इसे नहीं बना रही है। क्या इस अवतरण के किसी भी तथ्य में कहीं भी लोकतंत्र हैं ? नहीं।

वास्तव में बहुत से तंत्रों ने मिलकर लोकतंत्र के चारो ओर एक दुष्चक्र बना लिया है, जिससे निकलने के लोकतंत्र के सारे प्रयत्न व्यर्थ होते जा रहे हैं। भारत में लोकतंत्र कहीं है ही नहीं, है तो एक “सुविधाशुल्कतंत्र, घोटालातंत्र या घूसतंत्र” जो की अब व्यवस्था या सिस्टम का सभी लोगों द्वारा अंगीकृत किया जाने वाला सामान्यत: सबसे “शिष्टतंत्र” बन गया है, जिसके माध्यम से केन्द्र से चले 100 पैसे गाँव के अन्त्योदय तक पहुँचते-पहुँचते 15 पैसे ही रह जाते हैं। एक नेतातंत्र है, जिसमें नेता दो संवैधानिक पदों पर रह सके इस हेतु एक पद को लाभ का पद न मानने की व्यवस्था कर दी गयी।

यह नेतातंत्र सभी लाभकारी कार्य करते हैं – यथा किसी न किसी खेल संस्था में वर्चस्व बनाते हैं, आईपीएल की टीम खरीदते हैं, शिक्षण संस्थायें पेट्रोल पम्प व गैस एजेंसी चलाते हैं, खुद व्यवसाय करते हैं, उद्यम चलाते हैं, एन. जी. ओ. इत्यादि चलाते हैं, कभी पत्नी के नाम से, कभी बेटे व अन्य रिश्तेदारों के नाम से।

एक अपराध तंत्र है, जिसमें अत्यधिक ईनाम व ऊँचे राजनीतिक आका तक पहुँच रखने वाले अपराधी बनिए, समाज में, पुलिस में आपका सम्मान बढ़ता जाएगा । एक पुलिस तंत्र है, जो राज्यों के मुख्यमंत्रियों के निजी नौकर की तरह भड़काऊ भाषण के आरोप में वरुण गाँधी पर रासुका लगाकर न्यायालय में पिट जाते हैं।

“कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह है कि लोकतंत्र में एक सर्वशक्तिशाली भ्रष्टतंत्र है जिसमें ऊपर से नीचे तक एक ईमानदार आदमी पिसकर (जीवन जीने की जगह) या तो आत्महत्या कर लेगा या ईमानदारी का सदा सर्वदा के लिए परित्याग कर देगा ।”

तभी होगा सच्चे अर्थों में गण का तंत्र

विनोद बंसल

पूरे विश्व के अंदर सोने की चिड़िया एवं विश्वगुरू कहा जाने वाला मेरा देश आज चारों तरफ आतंकवाद, हिंसा, वैमनस्य, जाति, पंथ, भाषावाद एवं भ्रष्टाचार ने जकड़ा हुआ है। देश के अधिकांश राजनेता अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा के चलते वोट बैंक की भूख में इस देश के सभी सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय मूल्यों को खोते जा रहे हैं। विडम्बना यह है कि राष्ट्र की युवा शक्ति को भी जो संस्कार, आत्मनिर्भरता व राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाया जाना चाहिये उससे हम बहुत दूर हैं। हमारी शिक्षा प्रणाली भी वोट केंद्रित राजनीति के दलदल में फंस गयी है। जब-जब व जहां-जहां राष्ट्र प्रेम की बात होती है, उसमें हमारे राजनेताओं को साम्प्रदायिकता की बू आने लगती है। हर जगह तुष्टीकरण का बोलबाल है। जहाँ पर मतदाता समूह में हैं, उस समूह पर किसी व्यक्ति, संस्था, जाति, मत-पंथ या सम्प्रदाय का बोलबाल है। हमारे राजनेता ऐसे समूहों को रिझाने के लिये कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। चाहे व राष्ट्रद्रोही कदम ही क्यों न हो। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय पर ही रोपा गया साम्प्रदायिकता का बीज देश की चारों ओर की सीमाओं को खोखला कर रहा है। 1947 में मो. अली जिन्ना को खुश करने के लिये हमारे तत्कालीन कर्णधारों ने देश के टुकडे़ करवा दिये। इसी तुष्टीकरण की नीति के चलते जम्मू कश्मीर जेहादी आतंकवाद का शिकार है।

पूर्वी व पूर्वोत्तर के सातों राज्यों में माओवाद अपनी गहरी जड़ें जमा चुका है। इसी प्रकार यदि दक्षिण पूर्व की बात करें तो बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल इत्यादि में नक्सलवाद व माओवाद अपनी पैठ बना चुका है।

प्रत्येक देशवासी आज देश के राजनेताओं की करनी से परेशान हैं। जेहादी आतंकवाद, माओवाद एवं नक्सलवाद जैसी समस्यायें कहीं न कहीं प्रत्येक राज्य में अपनी जड़े जमा चुकी हैं। राजनैतिक संरक्षण के चलते अपराधियों को या तो पकड़ा ही नहीं जाता, यदि पकड़ भी लिया जाये तो देश के कानूनी पेचीदिगियों में उलझा कर उसे सजा नहीं मिल पाती है। यदि किसी को न्यायालय द्वारा फांसी की सजा भी दे दी जाये तो भी हमारे दुष्ट राजनेता राष्ट्रघाती आतंकवादियों को संरक्षण दे देते हैं। आखिर कौन बचायेगा हमें आतंकवाद से?

उपर्युक्त सभी समस्याओं के समाधान के लिये देश के शीर्ष संस्थानों एवं राजनैतिक व्यवस्था में आमूलचूक परिवर्तन करने होंगे। देश के कर्णधारों को जगाने के लिये जहाँ हमें कुछ व्यवस्था में परिवर्तन करने पड़ेंगे तो वहीं दूसरी ओर अपनी जनता को जागरूक कर उसकी राजनैतिक जिम्मेदारी सुनिश्चित करनी होगी।

निम्नांकित बिंदु इस दिशा में कारगर हो सकते हैं:-

1. वोट डालने की अधिकार के साथ कर्त्तव्य का बोध।

2. वोट न डालने पर दण्ड का प्रावधान।

3. यदि चुनाव में खड़े सभी प्रत्याशी अयोग्य हों तो किसी को भी न चुनने का अधिकार।

4. चुनाव में खड़े होने के लिये न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता हो।

5. राजनीतिज्ञों के रिटायरमेंट की भी कोई अवधि हो।

6. जाति, मत, पंथ, संप्रदाय, भाषा, राज्य के आधर पर वोट मांगने वालों के खिलाफ कार्यवाही।

7. सांसदों व विधायकों के द्वारा किये कार्यां का वार्षिक अंकेक्षण (ऑडिट) कर उसे सार्वजनिक करना अनिवार्य हो।

8. संसद व विधान-सभाओं/विधान-परिषदों से अनुपस्थित रहने वाले नेताओं पर कार्रवाई।

यदि राष्ट्र को खुशहाल देखना है तो देश के प्रत्येक मतदाता को सबसे पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि जिस प्रकार शरीर के लिये भोजन व प्राणों के लिये वायु की आवश्यकता है उसी प्रकार राष्ट्र को आपके वोट की आवश्यकता है। कोई भी मतदाता अपने मताधिकार से वंचित नहीं रहने पाये, इसके लिये हमें समुचित प्रबंध करने होंगे। हालांकि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के आने से वोट डालना कुछ आसान एवं प्रमाणिक तो हुआ है किंतु इसे अभी और सरल करने की आवश्यकता है। आज कम्प्यूटर का युग है, हमें ऐसी प्रणालियां विकसित करनी होंगी जिससे देश का तथाकथित उच्च वर्ग, जिसमें उद्योगपति, प्रशासनिक अधिकारी, बुद्विजीवी व बड़े व्यवसायी इत्यादि आते हैं, अपनी सुविधानुसार मताधिकार का प्रयोग कर सके। यह वर्ग सही मायने में देश को चलाता है, किंतु देखा गया है कि ये अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं कर पाते हैं। जहाँ पर एक ओर मतदाताओं को उनके मत की कीमत बतानी होगी, वहीं दूसरी ओर कुछ ऐसे प्रावधान भी करने पड़ंेगे जिनसे प्रत्येक मतदाता इस राष्ट्र यज्ञ में अपनी एक आहूति सुनिश्चित कर सके। पूरे जीवनभर देश से हम कुछ न कुछ लेते ही रहते हैं। आखिर एक वोट भी अपने राष्ट्र के लिये समर्पित नहीं किया तो हमारी नागरिकता किस काम की, ऐसा भाव प्रत्येक नागरिक में जगाना होगा। मतदाता पर यह दबाव न हो कि चुनाव में खड़े हुए किसी न किसी एक प्रत्याशी को चुनना ही है, लेकिन यह दबाव जरूर हो कि उसे वोट डालना ही है। वैलेट पेपर में या वोटिंग मशीन में प्रत्याशियों की सूची के अंत में एक बिंदू यह भी हो ‘‘उपरोक्त में से कोई नहीं,’’ जिससे कि मतदाता यह बता सके कि सभी के सभी प्रत्याशी मेरे हिसाब से चुनने के योग्य नहीं है।

विश्व के कुछ देशों में यह प्रावधान है कि यदि मतदान का एक निश्चित प्रतिशत ‘‘उपरोक्त में से कोई नहीं,’’ को चुनता है तो उस चुनाव में खड़े हुए सभी प्रत्याशियों को अगले कुछ वर्षों के लिये चुनावों से अयोग्य घोषित कर दिया जाता है। ऐसा होने से देश के कानून निर्माताओं (सांसद/विधायक) की सूची में से गुण्डे, आतंकवादी व राष्ट्रविरोधी मानसिकता वाले लोगों को अलग रखा जा सकता है। साथ ही मतदाताओं की इस मजबूरी का फायदा राजनेता नहीं उठा पायेंगे कि उन्हें किसी न किसी को तो चुनना ही है।

कहीं भी यदि नौकरी की तलाश करनी है या अपना कोई व्यवसाय चलाना है तो पढ़ाई-लिखाई बहुत जरूरी है। एक अच्छा पढ़ा लिखा व्यक्ति ही एक अच्छी नौकरी पा सकता है, चाहे सरकारी हो, अर्ध-सरकारी हो या प्राईवेट। साथ ही उसके काम करने की एक अधिकतम आयु भी निश्चित होती है। इसके अलावा बीच-बीच में उसके कार्यां का वार्षिक मूल्यांकन भी होता है। जिसके आधार पर उसके आगे के प्रमोशन निश्चित किये जाते है। आखिर ये सब मापदण्ड हमारे राजनेताओं के क्यों नहीं हो सकते? चुनाव में खड़े होने से पूर्व उनकी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता, आयु, शारीरिक सामर्थ्य की न सिर्फ जांच हो बल्कि रिटायरमेंट की भी आयु सीमा निश्चित हो।

अंग्रेजों ने जाते-जाते देश को साम्प्रदायिक, जातिवाद व भाषावाद में बांट दिया। ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति आज भी हमारे राजनेता अपना वोट अस्त्र समझते हैं, जिसके चलते देश आज जरजर अवस्था में है। कहीं जाति पर, कहीं भाषा पर तो कहीं किसी विशेष सम्प्रदाय को लेकर लोग आपस में भिड़ जाते हैं। जो शब्द कहीं न कहीं, किसी न किसी राजनेता के दिमागी सोच का परिणाम होता है क्योंकि उन्हें तो किसी खास समुदाय के सहानुभूति वाले वोट चाहिये। ऐसी स्थिति में हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी राजनेता किसी भी हालत में हमें इन आधारों पर न बांट सके। चुनावों के दौरान प्रकाशित ऐसे आकड़ों को या समाचारों को भी हमें रोकना होगा जिनमें किसी जाति, भाषा, राज्य, मत, पंथ या सम्प्रदाय का जिक्र हो।

आज देश के प्रत्येक नागरिक को अपने आय-व्यय का लेखा-जोखा व व्यवसाय की वार्षिक रिपोर्ट बनाने की जरूरत होती है। जिससे वह सरकार को उचित कर दे सके तथा गत वर्ष में किये कार्यां का आत्म चिंतन कर आगामी वर्ष की योजना ठीक से बना सके। देश की जनता ने जिन प्रतिनिधियों को संसद व विधान-सभाओं में भेजा उनकी भी अपनी जनता के प्रति एक जबाब देही होनी चाहिए। जिससे यह तय हो सके कि आखिर करदाताओं के खून-पसीने की कमाई के पैसों का कहीं दुरुपयोग तो नहीं हो रहा। वैसे भी एक-एक राजनेता पर देश के करोड़ों रुपये प्रत्येक वर्ष खर्च होते हैं। ऐसे में न सिर्फ करदाता बल्कि मतदाता भी यह जानना चाहेगा कि मेरे द्वारा चुना गया प्रतिनिधि आखिर क्षेत्र में कुछ काम भी कर रहा है या नहीं। प्रत्येक जन-प्रतिनिधि को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि कितने घंटे वह जनता के बीच तथा कितने संसद व विधान-सभाओं में बितायेगा। एक न्यूनतम मापदंड से कम रहने पर, आवंटित धन व योजना का समुचित प्रयोग क्षेत्र के विकास में न करने पर या किसी भी प्रकार के दुराचरण में लिप्त पाये जाने पर कुछ न कुछ दण्ड का प्रावधान भी हो।

जनप्रतिनिधियों के कार्य का वार्षिक अंकेक्षण (ऑडिट) अनिवार्य होना चाहिए। जिससे उस क्षेत्र की जनता उसके कार्यकलापों को जान सके। इसमें न सिर्फ आर्थिक वही-खातों की जांच हो बल्कि वर्ष भर उसके द्वारा किये गये कार्यां की समालोचना भी शामिल हो। इससे जनप्रतिनिधियों एवं जनता के बीच आपसी विश्वास बढ़ेगा तथा उसका कार्य और पारदर्शी बनेगा।

प्रत्येक विधायक या सांसद से यह अपेक्षा रहती है कि क्षेत्र की जनता का वह विधानसभा या संसद में न सिर्फ प्रतिनिधित्व करेगा बल्कि उनकी समस्याओं को सरकार के समक्ष जोरदार तरीके से रखेगा। आम तौर पर देखा जाता है कि ये जनप्रतिनिधि या तो विधानसभाओं या संसद से लापता रहते हैं या क्षेत्र की आवाज कभी उठाते ही नहीं हैं। ऐसी स्थिति में उनका चुना जाना व्यर्थ ही होता है। क्षेत्र की जनता को यह पता लगना चाहिए कि उसके जनप्रतिनिधि ने उनके विकास के लिये क्या-क्या योजनायें लागू करवाईं तथा किन समस्याओं को लोकतंत्र के उन मंदिरों में उठाया। जिस प्रकार नौकरी या स्कूल से एक निश्चित अवधि से अधिक अनुपस्थित रहने पर विद्यार्थी/कर्मचारी को निकाल दिया जाता है। उसी प्रकार संसद या विधान-सभाओं में भी कुछ प्रावधन हो।

इस प्रकार जब देश का प्रत्येक नागरिक स्वछंद रूप से राष्ट्रीय जिम्मेदारी समझते हुए एक योग्य व्यक्ति को अनिवार्य रूप से मतदान कर संसद/विधानसभा में भेजेगा तथा जन-प्रतिनिधि अपने-अपने क्षेत्र की जनता का समुचित प्रतिनिधित्व कर राष्ट्रोन्नति के कार्य में लगेगा तो क्यों नहीं भारत पुनः सोने की चिड़िया या विश्वगुरू कहलायेगा। जब प्रत्येक जन-प्रतिनिधि बिना किसी भय व वोट के लालच में अपनी जनता के लिये कार्य करेगा तभी होगा सच्चे अर्थों में गण का तंत्र।

बढ़ता भ्रष्टाचार–कौन जिम्मेदार?

पंकज चतुर्वेदी

हम शीर्ष पर है, तो इस पर हमें गर्व होना चाहिये लेकिन यदि क्षेत्र और विषय का पता चले तो हमारा सर शर्म से झुक जाता है। हमारा लज्जित होना स्वाभाविक है, क्योंकि हम भ्रष्टाचार के मामले में शीर्ष पर है। यह आंकलन भ्रष्टाचार के खिलाफ दुनिया भर में अलख जागने वाली संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल का है। ताजा सर्वे में हमारी भ्रष्टता के चर्चे आम है। भारत के समकक्ष इस सूची में अफगानिस्तान, नाइजीरिया और ईराक जैसे देश खड़े है। इन देशों के इतिहास और संस्कृति को देखे तो और शर्म आती है, की इतने वैभवशाली अतीत और नैतिक मूल्यों वाला भारत देश किस स्तर पर आ गया है जहाँ हमारे साथ ऐसे छोटे –छोटे देश है,वह भी भ्रष्टाचार जैसे मामले में।

हमें यह सम्मान दिलाने में सबसे ज्यादा अहम भूमिका हमारी पुलिस की है, देशभक्ति और जनसेवा का नारा लगाने वाली भारतीय पुलिस जनसेवा के स्थान पर आत्म सेवा में जुटी है। इनके साथ नगरनिगम से लेकर अस्पताल, राशन, तहसील और नजूल, स्कूल –कालेज, मक़न–दुकान हर जगह रिश्वत।

यह स्तिथि पूरे देश में है और इसमें सभी वे राजनितिक दल और उनकी सरकारें शामिल है, जो वर्तमान में देश की जनता के सामने दूसरे दल को भ्रष्ट और खुद को पाक-साफ बता रहें है। ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार अब एक राष्ट्रीय–रस्म गया है, जिसकी अदायगी के बिना कोई भी काम पूर्ण नहीं होता। तीव्र गति से बढ़ाते इस भ्रष्टाचार के दानव के कद में दिन दुनी रात चौगुनी तरक्की हो रही है। राज नेताओं, नौकरशाहों, व्यापारियों के साथ कर्मचारियों का एक ऐसा गिरोह इस देश में बन गया है जो बिना किसी संवाद और प्रशिक्षण के सिर्फ एक ही भाषा समझता है और वो है भ्रष्टाचार। इस भ्रष्टाचार में धर्म, जात-पात, अगडे-पिछड़े जैसी कथित सामजिक बाधायें भी अड़े नहीं आती, यह सब एक है।

भ्रष्टाचार के इस आंकलन को देश का वर्तमन घटनाक्रम भी सही साबित कर रहा है। कॉमनवेल्थ,टू जी स्पेक्ट्रम, आदर्श सोसयटी, लवासा पूना जैसे मामले इस बात की पुष्टि करते है, कि हमने नैतिकता को गिरवी रख अब सिर्फ और सिर्फ धन को ही प्राथमिकता और उद्देश्य बना लिया है।

भ्रष्ट आचरण को बढ़ावा और संबल देने का पूर्ण जिम्मा सरकारों का ही है, और इसमें राज्यों की सरकारे सिर्फ केंद्र पर दोष देकर अपना दमन नहीं छुडा सकती। भ्रष्टाचार का सांप घटिया किस्म के नेताओं और आधिकारियों के आस्तीन में पल रहा है, लेकिन वह सांप इनको डसने के बजाय देश को ही खा रहा है। इस कथित लोकतंत्र में किसी को भी यह की फुर्सत नहीं है कि क्यों और कैसे देश में नेताओं और अफसरों की संपत्तियां बेहिसाब बढ़ रही है। कैसे देश में करोड़ों लोगो को छोड़ लक्ष्मी जी इन्ही चंद लोगो पर अपनी कृपा सतत बरसा रही है। यह लोक तंत्र की विडंबना ही है की मधु कोड़ा जैसा व्यक्ति भी देश के एक हिस्से के लोगो का भाग्य-विधाता बन जाता है।

वर्तमान परिदृश्य में भारत सहित दुनिया भर में सभी जगह भ्रष्टाचार ऐसा मुद्दा बना हुआ है जिस पर सर्वाधिक चर्चा हो रही है। गरीबी, भूख, बेरोजगारी जिसे बुनियादी मुद्दे पीछे है। अब तो यह एक गंभीर वैश्विक बीमारी बन चुकी है, जिसका इलाज किसी भी विज्ञानं में नहीं है।

अपने देश में यह महामरी विगत दो या तीन दशकों में ज्यादा फ़ैली है। अब हमारा उद्देश्य सिर्फ यह है की कैसे भी हो बस हमारा कम बन जाये। नैतिकता, ईमानदारी जैसे बातें अब सिर्फ किस्सों और किताबों के लिए ही शेष है। नौकरी पाने के लिए रिश्वत, फिर नौकरी बचाने और बढ़िया पोस्टिंग के लिए रिश्वत। आज जितने नेता भ्रष्टाचार को लेकर देश भर में चीख रहें है यदि वो अपने गिरेबान में झांके तो, चुनाव के टिकट के लिए पैसा, चुनाव लड़ने के लिए पैसा और फिर मलाईदार कुर्सी के पैसा और फिर इन सब खर्चों को पूरा करने के लिए भ्रष्टाचार। जनता बेचारी लाचार।

भौतिक सुख सुविधा की लालसा और प्रतिद्वंदिता के इस युग में ईमानदार और चरित्रवान व्यक्ति को आज मूर्ख समझा जाता है। अब इमानदार वो है जी रिश्वत लेकर आपका कम कर दे और बेईमान वो जो रिश्वत लेकर भी आपका कम ना करे।

आधिकारियों और राज-नेताओं के साथ भ्रष्टाचार को उजागर करने वाला मीडिया भी इस गंदगी में मैला होता जा रहा है। टू जी स्पेक्ट्रम मामले देश के कुछ बड़े और नामी पत्रकारों की भूमिका भी प्रथम दृष्टया सन्दिग्ध लगी है। चुनावो के दौरान पैसे देकर खबर के पैकेज अब आम है, जिसे वर्तमान व्यवस्था का अंग मान लिया गया है। पत्रकरिता मिशन से प्रोफेशन में कब बदल गयी पता ही नहीं चला, लेकिन अब पत्रकरिता भी व्यवसाय हो गया है जिसे सब स्वीकार कर चुके है। इस लिए अब इस लोकतंत्र में गरीब आदमी तो नेता नहीं बन सकता। हां नेताओं और अफसरों का शिकार जरुर यही गरीब आदमी है, जिसके कोटे का पैसा,आनाज और वो सब कुछ जो भी सरकार से मिलता है उस ये सब मिलकर खा जाते है। फिर उसी गरीब और आम आदमी को बहलाने के लिए भरष्टाचार से लड़ने और मिटाने के झूटे और खोखले वादे करते रहतें है। आज देश में लोग भारत की बैंको के नाम नहीं जानते पर स्विस बैंक का नाम और काम सब जानते है।

अब तो देश में नेताओं –अफसरों के साथ ही न्याय –पालिका से जुड़े लोगो की संपत्तियां सार्वजनिक होने लगी है, लेकिन इतने से ही काम नहीं बनेगा। जिसकी संपत्ति जरुरत से ज्यादा बढ़ी हो उस पर कठोर कार्यवाही से कुछ सबक मिलेगा और तभी भ्रष्टाचार का यह दानव शांत होगा।

देश की क़ानून कि कमजोरियां भी इन भ्रष्टाचारियों का काम आसान किये हुए है। आयकर के छपे के बाद आप कर और जुर्माना देकर छुट सकते है, ना कोई बड़ी सजा न दंड। यही कमजोरी भ्रष्टों की ढाल बनी हुई है। इस ढाल को हटकर ही भ्रष्टाचार के भाल पर चोट की जा सकती है। और जब तक चोट नहीं होगी तो कुछ भी बदलाव संभव नहीं।