– ललित गर्ग –
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने इंदौर के एक किफायती कैंसर अस्पताल के उद्घाटन अवसर पर जो बात कही, वह आज की सबसे बड़ी सामाजिक-आर्थिक और नैतिक आवश्यकता को उजागर करती है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि शिक्षा और चिकित्सा जैसे बुनियादी क्षेत्रों को मुनाफाखोरी से मुक्त होना चाहिए, क्योंकि ये सेवा के क्षेत्र हैं, व्यापार के नहीं। हाल के वर्षों में शिक्षा और चिकित्सा का जिस तेजी से बाजारीकरण एवं व्यावसायीकरण हुआ है, सरकार के साथ-साथ निजी क्षेत्र ने इसे धन कमाने का जरिया बनाया है, वह न केवल नये समाज निर्माण की चिन्ताओं बल्कि एक दूषित सोच को दर्शाता है। क्योंकि उसने आम आदमी को बदहाली के कगार पर पहुंचाया है। महंगी शिक्षा ने जहां अभिभावकों का बजट हिला दिया है, वहीं चिकित्सा के नाम पर मुनाफाखोरी ने लाखों परिवारों को गरीबी के दलदल में धकेलते हुए जरूरी चिकित्सा से वंचित किया है। इस मर्ज की रग पर हाथ रखते हुए भागवत द्वारा दी गई चेतावनी सत्ताधीशों की आंख खोलने वाली है।
भारत में स्वास्थ्य-शिक्षा को प्रारंभ से ही सामाजिक दायित्व मानने की परंपरा रही है। लेकिन दुर्भाग्य से आज स्कूल-कॉलेज और अस्पताल लाभ संचालित उपक्रमों में तब्दील हो गए हैं और सेवा की बजाय धन कमाने के अड्डे बन गये हैं। आज निजी क्षेत्र के साथ-साथ सरकारों की मानसिकता भी धन-केन्द्रित होती जा रही है, जिससे आमजन को सस्ते एवं किफायती शिक्षा एवं चिकित्सा के साधन-सुविधाएं सुलभ नहीं हो रही है। मुनाफाखोरी की अंतहीन लिप्सा ने कथित गुणवत्ता वाले स्कूलों व अस्पतालों को आम आदमी की पहुंच से दूर किया है। इन जटिल होती स्थितियों के बीच भागवत का यह बयान केवल एक सामान्य टिप्पणी नहीं, बल्कि एक चेतावनी है-सरकार, नीति-निर्माताओं और समाज के लिए। शिक्षा और स्वास्थ्य, दोनों ही मानव जीवन के मूलभूत स्तंभ हैं। लेकिन आज इन दोनों क्षेत्रों में तेजी से बढ़ती व्यावसायिक प्रवृत्तियां इन्हें सेवा के बजाय मुनाफे की मशीन बना रही हैं। निजी स्कूलों की भारी फीस, कोचिंग संस्थानों की प्रतिस्पर्धा और महंगे मेडिकल कॉलेजों की ट्यूशन-इन सबने शिक्षा को गरीब और मध्यम वर्ग की पहुंच से दूर कर दिया है। इसी तरह, अस्पतालों और दवा कंपनियों का अत्यधिक मुनाफा-उन्मुख मॉडल स्वास्थ्य को एक महंगे उत्पाद में बदल रहा है।
निस्संदेह, मोहन भागवत की यह चिंता हमारे समय की विसंगतियों एवं विकृत आर्थिक सोच पर तीखा प्रहार करती है। आज आम भारतीय परिवारों पर स्वास्थ्य सेवाओं का भारी वित्तीय बोझ बढ़ रहा है। विडंबना यह है कि इस खर्च का छोटा हिस्सा ही सरकारी खजाने से वहन किया जाता है, जो कि स्वास्थ्य खर्च का महज 17 फीसदी है। वहीं करीब 82 फीसदी स्वास्थ्य खर्च लोगों को मुश्किल हालात में वहन करना पड़ता है। इन स्थितियों के चलते अस्पताल में भर्ती होने के बाद कई परिवार जीवन भर के लिये कर्ज में डूब जाते हैं। तो कई परिवार हमेशा के लिये गरीबी की दलदल में धंस जाते हैं। आज देश की बड़ी आबादी गैर संक्रामक रोगों, मसलन हृदय रोग, मधुमेह व उच्च रक्तचाप आदि से जूझ रही है। इनकी जांच, चिकित्सकीय परामर्श और उपचार के लिये मरीजों को एक बड़ी रकम चुकाने को मजबूर होना पड़ता है। जो कि बीमा योजनाओं के द्वारा बमुश्किल ही पूरी की जाती है। इन विडम्बनापूर्ण एवं चिन्ताजनक स्थितियों के बीच मोहन भागवत का यह संदेश न केवल आर्थिक सुधार का आह्वान है, बल्कि सामाजिक पुनर्जागरण का भी। शिक्षा और चिकित्सा को व्यापार से मुक्त करना सिर्फ भावनात्मक या नैतिक मुद्दा नहीं, बल्कि राष्ट्र की स्थिरता और समानता का प्रश्न है। जब गरीब को इलाज न मिले, और होनहार छात्र को शिक्षा से वंचित रहना पड़े, तब असमानता, असंतोष और सामाजिक अशांति बढ़ती है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नया भारत, विकसित भारत, विश्वासभरा भारत का नारा कोरा दिखावा ही प्रतीत होता है।
नये भारत में जब आम जनता से करो के रूप में भारी भरकम रकम वसूली जा रही है, जो उस रकम को जनकल्याण एवं जनसेवा में खर्च किया जाना चाहिए। आजादी के बाद से सरकार पर शिक्षा एवं चिकित्सा की ही जिम्मेदारी डाली गयी थी, जिसको सरकारों ने बड़ी चतुराई से धीरे-धीरे निःशुल्क की बजाय सशुल्क करने की कारगरी दिखाई है, जो जनता के विश्वास को आहत करने वाली है। इसलिये भागवत का यह बयान सरकार के लिए आंख खोलने वाला होना चाहिए। नीति-स्तर पर ऐसे कदम जरूरी हैं जिनसे-सरकारी शिक्षा और स्वास्थ्य संस्थानों को उच्च गुणवत्ता के साथ सशक्त एवं जनसुलभ किया जाए। निजी क्षेत्र में फीस और इलाज की दरों पर प्रभावी नियंत्रण हो। सेवा-भाव को बढ़ाने के लिए कर-छूट और प्रोत्साहन मिलें, जबकि मुनाफाखोरी पर कठोर दंड लागू हो। स्वास्थ्य और शिक्षा में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को पारदर्शिता और जवाबदेही के साथ लागू किया जाए, इन दोनों क्षेत्रों से धन कमाने की प्रवृत्तियों को अपराध माना चाहिए। यह भी तय किया जाये कि इन दोनों क्षेत्रों में सेवा एवं मिशन भावना से आने वालों को ही मान्य किया जाये, धन कमाने वालों के लिये इन दोनों क्षेत्रों के दरवाजे बन्द हो।
शिक्षा और स्वास्थ्य में मुनाफाखोरी को रोकना केवल कानून से संभव नहीं, इसके लिए समाज में मूल्य-आधारित सोच का विकास भी आवश्यक है। सेवा-भाव, मानवीय संवेदनशीलता और न्यायपूर्ण मूल्याधारित आर्थिक ढांचा-यही स्थायी समाधान हैं। मोहन भागवत की यह पहल यदि नीतिगत बदलावों में परिणत होती है, तो यह भारत को न केवल आर्थिक दृष्टि से, बल्कि नैतिक दृष्टि से भी मजबूत बनाएगी। भागवत ने कॉर्पाेरेट शैली के कथित कॉर्पाेरेट सामाजिक उत्तरदायित्व यानी सीएसआर के जुमले के बजाय लोककल्याण के धार्मिक सिद्धांतों के अनुसरण की भी अपील की। वर्तमान में कॉर्पाेरेट जगत ने सीएसआर फण्ड को स्वयं के बनाये ट्रस्टों में दिखाकर सरकार के सीएसआर प्रावधानों की धज्जियां उडा रखी है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सोच और दर्शन में शिक्षा और चिकित्सा हमेशा “सेवा और संस्कार” के मूल्यों से जुड़ी रही है। संघ मानता है कि राष्ट्र निर्माण का असली आधार स्वस्थ और शिक्षित नागरिक हैं, और इन दोनों आवश्यकताओं को समाज के हर वर्ग तक सस्ती, सुलभ और समान रूप से पहुंचाना ही सच्ची देशभक्ति है। डॉक्टर को केवल इलाज का शुल्क लेने वाला पेशेवर नहीं, बल्कि रोगी की पीड़ा का साझेदार मानना और शिक्षक को केवल पाठ पढ़ाने वाला कर्मी नहीं, बल्कि जीवन-निर्माता के रूप में देखना-यही संघ का दृष्टिकोण है। इसी सोच के तहत भागवत का यह आह्वान है कि शिक्षा और स्वास्थ्य को मुनाफाखोरी के पंजे से मुक्त कर, इन्हें सेवा के आदर्श पर स्थापित किया जाए, ताकि कोई भी बच्चा गरीबी के कारण शिक्षा से वंचित न हो और कोई भी रोगी आर्थिक बोझ के कारण इलाज से दूर न रहे। सरस्वती के मंदिर एवं सेवा के आश्रय-स्थल आज व्यापार के केंद्र बन गये हैं, ये मिशन नहीं, व्यवसाय बन गये हैं। पिछले दिनों इससे जुड़ा जनाक्रोश तब चरम पर नजर आया जब हैदराबाद के एक स्कूल में नर्सरी में दाखिले की सालाना फीस ढाई लाख रुपये बतायी गई। जिससे अभिभावकों में भारी रोष व्याप्त हो गया। जिसके बाद महंगी होती शिक्षा को लेकर नई बहस छिड़ गई। निस्संदेह, बढ़ती फीस के ये आंकड़े शिक्षा के बढ़ते व्यवसायीकरण एवं बाजारीकरण को भी रेखांकित करते हैं। ऐसे में भागवत की हालिया अपील सत्ताधीशों को नीतिगत बदलावों के बारे में सोचने को विवश कर सकती है, अब समय आ गया है कि सरकार शिक्षा एवं चिकित्सा को लेकर नीतिगत कठोर मानवतापूर्ण बदलाव करें एवं इन्हें मुनाफा कमाने की मशीन न बनने दे। निस्संदेह, भागवत के संदेश पर मोदी सरकार को गंभीरता से विचार-विमर्श करना चाहिए। दरअसल, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा को बाजार की वस्तु के बजाय नागरिक अधिकारों के दायरे में लाने की जरूरत है। इन क्षेत्रों को राजस्व स्रोत के बजाय नागरिक दायित्वों के रूप में मानकर सरकार समता, संतुलन एवं सेवा का समाज स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ सकती है।