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जब छात्र हत्यारे बन जाएं: चेतावनी का वक्त

“संवाद का अभाव, संस्कारों की हार, स्कूलों में हिंसा समाज की चुप्पी का फल”

हिसार में शिक्षक जसवीर पातू की हत्या केवल एक आपराधिक घटना नहीं, बल्कि हमारे समाज की संवादहीनता, विफल शिक्षा व्यवस्था और गिरते नैतिक मूल्यों का कठोर प्रमाण है। आज का किशोर मोबाइल की आभासी दुनिया में जी रहा है, जबकि घर और विद्यालय दोनों में उपेक्षित है। मानसिक तनाव, संवाद की कमी और नैतिक शिक्षा के अभाव ने उसे असंवेदनशील बना दिया है। यह घटना एक चेतावनी है कि यदि अब भी हम माता-पिता, शिक्षक और समाज मिलकर समाधान नहीं खोजे, तो शिक्षा का भविष्य गहरे संकट में है।

— प्रियंका सौरभ

हिसार में शिक्षक जसवीर पातू की निर्मम हत्या ने पूरे समाज को झकझोर कर रख दिया है। यह घटना कोई साधारण आपराधिक कृत्य नहीं है, बल्कि यह हमारे गिरते नैतिक मूल्यों, संवादहीन परिवार व्यवस्था, और संवेदनहीन शिक्षा प्रणाली का कठोर दर्पण है। जब एक छात्र ही अपने शिक्षक का हत्यारा बन जाए, तो यह केवल व्यक्ति विशेष का नहीं, बल्कि पूरे समाज का पतन है।

आज विद्यालय शिक्षा का मंदिर नहीं, बल्कि हिंसा, डर और असुरक्षा का केंद्र बनते जा रहे हैं। शिक्षक, जो कभी मर्यादा, संयम और अनुशासन के प्रतीक माने जाते थे, अब अपने ही छात्रों से भयभीत रहने लगे हैं। क्या यही है आधुनिक शिक्षा की सफलता? क्या इसी दिन के लिए हमने विद्यालयों में स्मार्ट कक्षाएं और डिजिटल पठन-पाठन का विस्तार किया था?

इस घटना ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। सबसे बड़ा सवाल यही है कि हमारे बच्चे इतने क्रूर कैसे हो गए? उनके भीतर सहनशीलता, करुणा और विवेक की जगह गुस्सा, हिंसा और प्रतिशोध ने क्यों ले ली है? इसका उत्तर हमें विद्यालयों या सरकार से नहीं, बल्कि अपने घरों और आत्मचिंतन में खोजना होगा।

आज का बच्चा मोबाइल की स्क्रीन में दुनिया ढूंढ रहा है। माता-पिता उसके पास होते हुए भी उसकी दुनिया से दूर हैं। भोजन करते समय, यात्रा करते समय या घर पर बैठते समय भी वह किसी वीडियो, खेल या आभासी मित्र के साथ जुड़ा होता है। उसका वास्तविक जीवन धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है और वह एक कृत्रिम आक्रोशपूर्ण दुनिया में जी रहा है।

विद्यालयों में नैतिक शिक्षा अब केवल पुस्तकों तक सीमित रह गई है। ‘सत्य’, ‘अहिंसा’, ‘क्षमा’ जैसे शब्द अब पाठ्यपुस्तकों की शोभा बनकर रह गए हैं। न शिक्षक के पास समय है, न पालकों के पास धैर्य, और न समाज के पास कोई दिशा। बच्चों के भीतर जो आक्रोश पनप रहा है, वह इसी उपेक्षा और संवादहीनता की उपज है।

मन के भीतर जब दर्द, कुंठा और अस्वीकार का जहर भरता है, तो वह या तो आत्मघात की ओर ले जाता है या फिर हत्या की ओर। और जब यह जहर एक किशोर के भीतर भर जाए, तो परिणाम वही होता है जो हमने जसवीर पातू की हत्या के रूप में देखा।

मनोरोग विशेषज्ञों का स्पष्ट मत है कि किशोरों में बढ़ती हिंसा का कारण संवाद की कमी है। वे अपनी बात कहने, ग़लतियों को साझा करने, और मदद मांगने में संकोच करते हैं। माता-पिता अक्सर बच्चों को डांटते हैं या नकारते हैं, जिससे बच्चा आंतरिक रूप से विद्रोही बनता चला जाता है। विद्यालय में भी उसे एक अंक, एक परीक्षा, एक प्रदर्शन से ही मापा जाता है। उसके मनोभावों, उसकी मानसिक स्थिति और उसके व्यवहार पर कोई ध्यान नहीं देता।

क्या हम यह भूल गए हैं कि शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्री दिलवाना नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण भी है? और चरित्र निर्माण तब तक संभव नहीं जब तक शिक्षक और विद्यार्थी के बीच विश्वास न हो, माता-पिता और बच्चों के बीच संवाद न हो, और समाज के भीतर मूल्य आधारित सोच का विस्तार न हो।

प्रशासन की भूमिका पर भी प्रश्नचिन्ह लगते हैं। जब तक कोई घटना नहीं होती, तब तक सब कुछ सामान्य माना जाता है। लेकिन जब कोई शिक्षक मारा जाता है, तब ज्ञापन दिए जाते हैं, धरने होते हैं, और कुछ समय बाद फिर सब भुला दिया जाता है। यही चक्र लगातार दोहराया जा रहा है।

शिक्षक अब अपने सम्मान और सुरक्षा के लिए प्रशासन से गुहार कर रहे हैं। विद्यालय संचालक बोर्ड अधिकारियों से सख्त कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। लेकिन क्या केवल कार्रवाई से यह समस्या सुलझ जाएगी? हमें मूल में जाकर देखना होगा कि बच्चों के मन में यह हिंसा कैसे जन्म लेती है।

हमारे विद्यालयों में मानसिक परामर्शदाता होना चाहिए, प्रत्येक छात्र की मानसिक स्थिति पर ध्यान देना चाहिए, परिवारों को बच्चों के साथ संवाद का प्रशिक्षण देना चाहिए। विद्यालयों में केवल परीक्षा की तैयारी ही नहीं, जीवन के लिए तैयार करने की भी आवश्यकता है।

आज आवश्यकता है एक “संवाद पुनरुद्धार अभियान” की, जो घर-घर तक पहुंचे। हमें माता-पिता, शिक्षक और छात्र — इन तीनों के बीच विश्वास और सहअस्तित्व की भावना को पुनः जागृत करना होगा। अगर हम बच्चों से सुनना नहीं चाहेंगे, तो वे हिंसा से बोलना सीख जाएंगे।

शिक्षक अब अपने अधिकारों और अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। यह स्थिति शर्मनाक है। एक समाज जो अपने गुरु को सम्मान नहीं दे सकता, वह कभी समृद्ध नहीं हो सकता। अगर हमने अब भी नहीं समझा कि यह शिक्षक की नहीं, बल्कि पूरी पीढ़ी की हत्या है, तो वह दिन दूर नहीं जब हर विद्यालय एक युद्धभूमि बन जाएगा।

हमें यह समझना होगा कि बच्चे गलत नहीं होते, वे केवल अनसुने होते हैं। अगर वे प्यार, समझ और सही दिशा पाएँ तो वही बच्चा दुनिया बदल सकता है। परंतु अगर वह उपेक्षा, अस्वीकार और हिंसा का शिकार बने तो वही बच्चा एक शिक्षक का हत्यारा भी बन सकता है।

सरकार को चाहिए कि वह विद्यालयों में नियमित रूप से मानसिक स्वास्थ्य परीक्षण, संवाद सत्र, और अभिभावक-शिक्षक सम्मेलनों का आयोजन करवाए। माता-पिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों को केवल आज्ञा न दें, बल्कि उनकी बातें भी सुनें। और समाज को चाहिए कि वह शिक्षा को केवल नौकरी पाने का माध्यम न माने, बल्कि एक संवेदनशील, जिम्मेदार नागरिक बनाने की प्रक्रिया के रूप में देखे।

यह घटना हमें नींद से जगाने आई है। यह कोई समाचार पत्र की एक ख़बर नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र के लिए एक चेतावनी है। अगर हम अब भी नहीं चेते, तो आने वाले वर्षों में हमारे विद्यालयों में पुस्तकों से अधिक हथियार मिलेंगे, और शिक्षकों से अधिक सुरक्षा कर्मी।

आज भी समय है कि हम इस चेतावनी को गंभीरता से लें। हम संवाद को पुनर्जीवित करें, शिक्षा को पुनरर्थित करें, और अपने बच्चों को हिंसा से नहीं, समझ से जीतना सिखाएं। तभी हम एक सुरक्षित, संवेदनशील और सशक्त भारत की कल्पना कर सकेंगे।

लेखिका: प्रियंका सौरभ

बुनियादी शिक्षा के विकास से बेहतर नागरिक और आत्मनिर्भरता संभव !(परख राष्ट्रीय सर्वेक्षण रिपोर्ट-2024)

परख राष्ट्रीय सर्वेक्षण रिपोर्ट-2024

हाल ही में शिक्षा मंत्रालय द्वारा ‘परख’ राष्ट्रीय सर्वेक्षण, 2024 की रिपोर्ट जारी की गई है, जो बुनियादी शिक्षा में सुधार की जरूरतों को रेखांकित करती है। वास्तव में आज जरूरत इस बात की है कि प्राथमिक शिक्षा में सुधार किया जाए। कहना ग़लत नहीं होगा कि प्राथमिक शिक्षा ही वास्तव में देश व समाज का भविष्य तय करती है, क्यों कि यहीं से शिक्षा की असली नींव शुरू होती है और यदि प्राथमिक शिक्षा की नींव मजबूत है तो देश और समाज का भविष्य भी उज्ज्वल है। हमारे देश के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद यह बात कहां करते थे कि भारत के भाग्य और भविष्य का निर्माण देश के स्कूलों में ही तय होगा। अगर स्कूलों में शिक्षा व्यवस्था आगे बढ़ेगी, तो भारत भी आगे बढ़ेगा। यह बुनियादी शिक्षा ही होती है जो बच्चों के शारीरिक, मानसिक, नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक विकास को बढ़ावा देती है, लेकिन प्राथमिक शिक्षा अब भी कोरोना महामारी के असर से बाहर नहीं निकल पायी है। परख सर्वे 2024 बताता है कि 9वीं क्लास में पढ़ने वाले 63 प्रतिशत बच्चे बड़ी संख्याओं का गुणा भाग नहीं कर पाते हैं। यह बात भारत के 21 लाख से ज्यादा स्कूली बच्चों पर हाल ही में किए गए सर्वे में सामने आई है। पाठकों को बताता चलूं कि राष्ट्रीय सर्वेक्षण (परख) के तहत पिछले साल दिसंबर में 21,15,022 विद्यार्थियों का सर्वे किया गया था।  इस सर्वेक्षण में 36 राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों के 781 जिलों के 74,229 सरकारी और निजी स्कूलों को शामिल किया गया था। यह सर्वे तीसरी, छठी और नौवीं के विद्यार्थियों को लेकर किया गया था।केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय के सर्वे द्वारा यह पता चला है कि 2024 में देश की बेसिक शिक्षा का स्तर कोरोना के बाद से नीचे आ गया है |रिपोर्ट में सामने आया है कि  कक्षा 6 वीं तक के केवल 53 प्रतिशत बच्चो को ही 10 का पहाड़ा आता है | वही दूसरी ओर कक्षा 3 तक के केवल 55 % बच्चो को ही 1 से लेकर 100 तक की गिनती आती है। इतना ही नहीं, कक्षा 3 के करीब 45 % बच्चे 1 से 100 तक गिनती को बढ़ते या घटते क्रम में भी नहीं लगा पाये। दूसरी ओर करीब 42 % बच्चे संख्याओ के बीच जोड़-घटाना नहीं कर पाए। रिपोर्ट बताती है कि कक्षा 6 के 47 % बच्चे ऐसे हैं ,जिन्हें 4 बेसिक सामान्य गणित ऑपरेशन जोड़, घटाना, गुणा,भाग ठीक से हल करना नहीं आता और न ही इन्हें 10 तक की संख्याओ के ठीक से पहाड़े याद है और न ही उन संख्याओ के बीच गुना करना जानते है। कक्षा 6 में पर्यावरण और सोसाइटी में बच्चों का परफॉर्मेंस 49% है तथा भाषा में औसत परफॉर्मेंस 57% है, जबकि गणित में सबसे कम 46% है| शिक्षा मंत्रालय के अधिकारियों के अनुसार 50 फीसदी से कम छात्रों के सही जवाब देने से उनके सीखने की क्षमता में अंतर का साफ पता चलता है। वहीँ कक्षा 3 में केंद्रीय सरकारी स्‍कूलों का सबसे कम परफॉर्मेंस गणित विषय में ही है। कक्षा 6 में भी गणित सबसे खराब परफॉर्मेंस वाला विषय रहा है। पाठकों को बताता चलूं कि सरकारी और सहायता प्राप्त स्कूलों के नतीजे भी एक जैसे ही रहे, लेकिन गणित में प्रदर्शन सबसे खराब रहा। हालांकि भाषा के मामले में सभी स्कूलों का बेहतरीन प्रदर्शन रहा। सर्वे में ग्रामीण और शहरी स्कूलों के परिणामों पर भी गौर किया गया है। इसमें ग्रामीण इलाकों के कक्षा तीन के विद्यार्थियों ने गणित और भाषा में बेहतर प्रदर्शन किया है, जबकि शहरी क्षेत्रों के छठी और नौवीं के विद्यार्थियों ने ग्रामीण इलाकों के विद्यार्थियों को सभी विषयों में पछाड़ दिया। वास्तव में यह सब दर्शाता है कि प्राथमिक शिक्षा में बच्चों का प्रदर्शन बहुत ही खराब है। दूसरे शब्दों में कहें तो ये आंकड़े इस बात की ओर संकेत करते हैं कि स्कूलों की शैक्षणिक गुणवत्ता में असमानता अभी भी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। वास्तव में कोविड आने से छात्रों की सीखने की क्षमताओं पर व्यापक असर पड़ा, क्यों कि जो लर्निंग (अधिगम) छात्र आफलाइन कक्षाओं में कर पाते थे,कोविड के समय आनलाइन कक्षाओं से छात्रों को वह अधिगम नहीं हो पाया। दूसरे शब्दों में कहें तो महामारी के कारण स्कूल बंद होने और हाइब्रिड/वर्चुअल लर्निंग पर स्विच करने से कई माध्यमों से छात्रों की उपलब्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, जिसमें कौशल संचय में गिरावट और सहकर्मी प्रभाव और सहकर्मी-समूह गठन में व्यवधान शामिल हैं। अंत में यही कहूंगा कि परख-2024 की रिपोर्ट बुनियादी शिक्षा में सुधार किए जाने की बात करती है।बुनियादी शिक्षा को प्रभावी बनाने के लिए, मातृभाषा में शिक्षा दिया जाना आवश्यक है, क्यों कि मातृभाषा ही वह भाषा है जिसमें विद्यार्थियों को अधिगम में सहजता, सरलता महसूस होती है और वे चीजें आसानी से ग्रहण कर पाते हैं। शिक्षा को कार्य-केंद्रित बनाने की भी जरूरत है। टास्क सेंटर्ड लर्निंग से छात्र व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त कर आत्मनिर्भर बन सकते हैं।इसके अतिरिक्त, शिक्षा में लोकतांत्रिक नागरिकता, राष्ट्रीय एकीकरण, और सर्वोदय समाज के विकास के मूल्यों को शामिल करना भी बहुत महत्वपूर्ण है। शिक्षक प्रशिक्षण, मूल्यांकन प्रक्रिया, सामुदायिक भागीदारी, डिजिटल शिक्षा, आधारभूत और जीवन कौशल तथा शिक्षण सामग्री आदि पर भी पर्याप्त ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। इतना ही नहीं, शिक्षा तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए लचीला बुनियादी ढांचा विकसित करने की आवश्यकता है। हमें यह याद रखना चाहिए कि यदि हमारी बुनियादी शिक्षा प्रभावी व अच्छी है तो छात्रों को ज्ञान और कौशल तो प्राप्त होगा ही, साथ ही साथ छात्र देश के बेहतर नागरिक और आत्मनिर्भर व्यक्ति भी बन सकेंगे। कहना ग़लत नहीं होगा कि बुनियादी शिक्षा बालकों के समग्र विकास पर आधारित होनी चाहिए। बुनियादी शिक्षा वह आधारशिला है,जिस पर व्यक्ति और किसी भी राष्ट्र का भविष्य टिका होता है। अतः हमें यह चाहिए कि हम बुनियादी शिक्षा को सुदृढ़ करने की दिशा में आवश्यक और जरूरी कदम उठाएं।

भाषाई राजदूत मध्यप्रदेश

प्रो. मनोज कुमार

मध्यप्रदेश के भौगोलिक गठन को लेकर निराश होता था. लगता था कि देश का ह्दयप्रदेश कहलाने वाले मध्यप्रदेश की कोई एक भाषा, एक संस्कृति नहीं है. यहाँ तक कि दो दशक पहले मध्यप्रदेश से अलग हुए छत्तीसगढ़ की भाषा छत्तीसगढ़ी है. लेकिन आज लग रहा है कि मेरा मध्यप्रदेश सचमुच में अनुपम है. अलग है और एक धडक़ते दिल की तरह वह भारत का प्रतिनिधि प्रदेश है. यहाँ भाषा और संस्कृति को लेकर कोई विवाद नहीं है. वह बाँहें पसारे खुले मन से सबका स्वागत कर रहा है. यह प्रदेश भावभूमि है. यहाँ देश के सभी प्रदेशों के भाषा-भाषी निवास करते हैं. उनकी संस्कृति और संस्कार को मध्यप्रदेश के रहने वाले स्वागत करते हैं. सच कहा जाए तो देश दिल मध्यप्रदेश भाषा और संस्कृति का राजदूत है. आज जब भाषा विवाद चरम पर है तब मध्यप्रदेश मुस्करा रहा है. शायद वह कह रहा है कि आओ, मुझसे सीखो कि भारत की बहुभाषी और संस्कृति को कैसे सम्मान दिया जाता है. पंडित नेहरू ने कभी मध्यप्रदेश को बेडौल प्रदेश कहा था लेकिन इसी बेडौल भू-भाग वाला मध्यप्रदेश भारत का आदर्श प्रदेश के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है. 

मध्यप्रदेश का मुआयना करें तो आपको कई रीजन मिलेंगे. इनमें मालवा, महाकोशल, विंध्य, बुुंदेलखंड, चंबल और कभी छत्तीसगढ़ भी इसका हिस्सा हुआ करता था. अपनी स्थापना के सात दशक बाद भी कभी यहाँ भाषा विवाद सुलगा नहीं और ना ही संस्कृति को लेकर कोई विवाद हुआ. बहुभाषी साहित्य को जितना बड़ा मंच मध्यप्रदेश में मिला, वह कहीं और नहीं. भारत के इस प्रतिनिधि प्रदेश में हर प्रदेश का स्वागत है. भरोसा ना हो तो एक बार भारत भवन के आयोजन का कैलेंडर उठा कर देख लीजिए. प्रतिवर्ष देश के सभी राज्यों की कलाओं का प्रदर्शन होता है, भागीदारी होती है. विविध भाषाओं के साहित्य पर चर्चा होती है. यही नहीं, मध्यप्रदेश की साहित्यिक सांस्कृतिक संगठन में हर भाषा को स्थान दिया गया है. मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद में मराठी, सिंधी, पंजाबी, भोजपुरी अकादमी है तो मध्यप्रदेश ने माँग की कि हम सिंधी की शिक्षा देंगे तो हाल ही में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में इस पाठ्यक्रम की अनुमति मिल गई और जल्द ही औपचारिक शिक्षा भी शुरू हो जाएगी. देश के ह्दयप्रदेश का ह्दय हर प्रदेश के लिए धडक़ता है और यही कारण है कि मध्यप्रदेश राजभवन में एक-एक कर विभिन्न राज्यों का स्थापना दिवस उत्सव मनाया जाता है.

भारत देश बहुभाषी संस्कृति और साहित्य का देश है. भाषा और बोली की यह खूबसूरती है कि हम सब मिलकर सतरंगी दुनिया गढ़ते हैं. गर्व के साथ मैं कह सकता हूँ कि मध्यप्रदेश भारत की इस छवि का प्रतिनिधि प्रदेश है. राजदूत है जो शांति, समन्वय और सद्भाव के संदेश को भेजता है. राज्य सरकार के अथक कोशिश से मध्यप्रदेश में लगातार फिल्मों, टीवी सीरियल्स और ओटीटी प्लेटफार्म के लिए निर्माण हो रहा है. इमदाद और मदद दोनों फिल्ममेकर्स को मिल रहा है लेकिन परदे पर कहीं एक पंक्ति नहीं दिखता ‘धन्यवाद मध्यप्रदेश’, बावजूद इसके हम उनका हमेशा से स्वागत करने तिलक रोरी लिए खड़े होते हैं. वर्तमान सरकार तो पीले चावल लेकर प्रदेश-दर-प्रदेश जा रही है कि आइए, हमारे प्रदेश में उद्योग लगाइए. मध्यप्रदेश इतना कर रहा है लेकिन सवाल है कि क्या मध्यप्रदेश जैसी सुंदर, सुखद पहल कोई और कर रहा है? क्या हम सब भारत माता के लाल नहीं हैं? इस पर विचार करना जरूरी हो जाता है.   

देश में छिड़ा भाषा विवाद नया नहीं है. समय-समय पर यह विवाद होता रहा है. इसमें सबसे अहम बात यह है कि भाषा का विरोध अर्थात हिन्दी का विरोध. हर प्रदेश की एक भाषा है और उसका सम्मान किया जाना चाहिए, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है. इसी बहुभाषी संस्कृति से भारत की विश्व में अलग पहचान है. भाषा विवाद के संकट बड़े हैं. वह ना केवल राष्ट्रीय एकता और संप्रुभता को संकट में डालता है बल्कि रोजी-रोजगार पर भी असर होता है. इस विवाद में एक उपाय यह भी हो सकता है कि आक्रामक होने के बजाय भाषा प्रशिक्षण केन्द्र हर राज्य में आरंभ कर दे. जिन्हें यह भाषा नहीं आती, उन्हें सीखने और समझने का अवसर दे. इससे शायद कोई रास्ता सुंदर निकल आए. रास्ता ना सही, एक पगडंडी तो मिल ही जाएगी. वैसे भी हिन्दी की खूबसूरती देखिए जिसका आप विरोध कर रहे हैं, वही आपको एक कर रही है.

भगवान भोलेनाथ को “मनाने” चले भक्त कावड़िये

प्रदीप कुमार वर्मा

मन में भगवान भोलेनाथ के प्रति अगाध श्रद्धा। जुबान पर बम बम भोले का जय घोष। कंधों पर पवित्र गंगाजल से भरी कावड़। और गंगाजल को शिव मंदिर में चढ़ाने का जुनून। सावन के महीने में पवित्र कावड़ यात्रा का यही नजारा इन दिनों दिखाई पड़ रहा है। आदि देव महादेव की आराधना का पर्व कहे जाने वाले सावन के महीने में गंग तीर्थ से कावड़ लाकर शिव मंदिरों पर जलाभिषेक करने की परंपरा काफी प्राचीन है। कावड़ यात्रा का शुभारंभ सावन माह के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से होता है। इस साल देश में कावड़ यात्रा 11 जुलाई से शुरू जो रही है। इस साल सावन मास में कुल चार सोमवार पड़ेंगे। कांवड़ यात्रा सावन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से शुरू होकर कृष्ण चतुर्दशी तक यानि सावन की  शिवरात्रि तक चलती है। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शिवरात्रि होती है, इसलिए कृष्ण पक्ष को भगवान शिव के जलाभिषेक के लिए अच्छा माना जाता है।

      ऐसी पौराणिक मान्यता है कि जब समुद्र मंथन के दौरान विषपान करने से भगवान शिव का कंठ नीला पड़ गया था, तब उसके प्रभाव को कम करने के लिए शिवलिंग पर जलाभिषेक किया गया। इसी तरह आज भी शिवलिंग पर जलाभिषेक से प्रसन्न होकर भोलेनाथ भक्‍तों की मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। कावड़ यात्रा शिव की असीम भक्ति का प्रतीक मानी जाती है। इस दौरान कावड़िए पैदल चलकर पवित्र तीर्थस्थानों से गंगाजल लेकर आते हैं और उससे शिवलिंग का अभिषेक करते हैं। कावड़ के प्रकार की बात करें तो वर्तमान में चार प्रकार की कावड़ प्रचलन में है जिनमें साधारण, डाक, खड़ी, और झूला कांवड़ शामिल हैं। पवित्र कावड़ यात्रा के संबंध में एक प्राचीन मत यह भी है कि  त्रेतायुग में श्रवण कुमार ने कांवड़ यात्रा की नींव रखी थी। कथा के अनुसार अपने अंधे माता-पिता की तीर्थ यात्रा की इच्छा पूरी करने के लिए उन्होंने उन्हें कांवड़ में बैठाकर हरिद्वार लाया और गंगा स्नान कराया। 

          लौटते समय वे साथ में गंगाजल भी ले गए, जिससे यह परंपरा शुरू हुई। वैसे तो भारत मे कावड़ यात्रा में कई प्रमुख रास्ते शामिल हैं। लेकिन हरिद्वार, गौमुख और गंगोत्री इसके मुख्य शुरूआती स्थल माने जाते हैं। भक्त यहां से पवित्र गंगा जल लेकर अलग-अलग शिव मंदिरों की ओर रवाना होते हैं। हरिद्वार वाला रास्ता सबसे लोकप्रिय है, जिसमें श्रद्धालु हरिद्वार से ऋषिकेश के नीलकंठ महादेव मंदिर या उत्तर प्रदेश के बागपत में स्थित पूरा महादेव मंदिर तक यात्रा करते हैं। कुछ भक्त गौमुख जाकर वहां से गंगाजल लेते हैं और फिर अपनी पसंद के शिव मंदिर तक यात्रा करते हैं। गंगोत्री भी एक पवित्र स्थान है, जहां से भक्त गंगाजल लेकर वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर या झारखंड के देवघर स्थित बैद्यनाथ धाम तक पहुंचते हैं। इसी तरह, देश में कई जगहें हैं जहां से लोग गंगाजल लेकर अपने-अपने शिव मंदिरों तक जाते हैं और वहां शिवलिंग पर जल चढ़ाकर पूजा करते हैं। 

         धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, कांवड़ यात्रा करने से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं और जीवन में सुख, शांति और समृद्धि आती है। कहा तो यह भी जाता है कि इस यात्रा से व्यक्ति के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और उसकी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। कुछ मान्यताओं के अनुसार, इससे अश्वमेघ यज्ञ के समान फल मिलता है। मान्यता यह भी है कि जो भक्त पूरी श्रद्धा, नियम और संयम से यह यात्रा करते हैं, उन्हें जीवन में सुख-समृद्धि प्राप्त होती है।  गंग तीर्थ से पवित्र गंगाजल लाकर अपने इलाके के शिवालयों में भगवान भोलेनाथ का जलाभिषेक करने की यह प्राचीन परंपरा सर्वाधिक रूप से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश,राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा तथा बिहार और पश्चिम बंगाल में है। सावन के महीने में इन दोनों कावड़ यात्रा के चलते काफी रौनक देखने को मिलती है बता भगवान भोलेनाथ के भक्ति कावड़ चढ़कर पुण्य लाभ अर्जित करते हैं।  इसके अलावा कई भक्त विशेष मनोकामना की पूर्ति के लिए भी कावड़ यात्रा करते हैं। 

         उधर, सावन का महीना आते ही श्रद्धा, विश्वास और आस्था का प्रतीक मानी जाने वाली कावड यात्रा पर राजनीति शुरू हो जाती है।  पिछले पांच सालों से यात्रा हर बार किसी न किसी विवाद के कारण सुर्खियों में रही है। फिर  चाहे वह कांवड़ियों पर हेलिकॉप्टर से पुष्पवर्षा हो, कांवड़ की ऊंचाई को लेकर नियम हो, या फिर कांवड़ मार्ग पर होटलों और दुकानों के मालिकों की पहचान की अनिवार्यता संबंधी सरकारी फरमान। इस बार भी उत्तर प्रदेश की योगी तथा उत्तराखंड की धामी सरकार ने कावड़ यात्रियों की सुविधा, सुरक्षा तथा सुगमता के साथ-साथ कावड़ यात्रियों की आस्था और धार्मिक मान्यताओं के चलते कावड़ यात्रा पर पड़ने वाले मार्ग पर स्थित दुकानों पर नेम प्लेट लगाने का आदेश जारी किया है। इस आदेश के पीछे सरकार की मंशा यह है कि कावड़ यात्रियों के लिए शुद्ध एवं पवित्र भोजन तथा जलपान की व्यवस्था सुनिश्चित की जा सके।

        इसके उलट विपक्ष इसे हिंदू-मुसलमान में बांटने की कोशिश बता रहा है।  कावड़ जल चढ़ाने के सबसे शुभ दिनों की बात करें तो सावन सोमवार, सावन प्रदोष व्रत और सावन शिवरात्रि का दिन जल चढ़ाने के लिए सबसे उत्तम माना जाता है। वैसे ज्यादातर श्रद्धालु सावन शिवरात्रि के दिन कावड़ जल शिवलिंग को अर्पित करते हैं। धार्मिक उत्सव के साथ-साथ पवित्र कावड़ यात्रा बीते सालों में विवाद का कारण बनी है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने कावड़ियों के लिए जहां ऐतिहासिक इंतजाम किए हैं वहीं, विपक्ष से एक धर्म विशेष को खुश करने की कोशिश बता रहा है। पूर्व की भांति ही इस बार कावड़ यात्रा के मार्ग पर पड़ने वाली दुकानों पर दुकानदारों तथा उस पर काम करने वाले लोगों को नाम और पते लिखना अनिवार्य किया गया है। जिसको लेकर भी सियासी खिंचतान देखनो को मिल रही है। कावड़ यात्रा पर हुए विवाद के इतिहास पर गौर करें तो वर्ष 2022 में मांस और शराब की बिक्री पर प्रतिबंध को लेकर विवाद हुआ। 

         विपक्ष ने इसे धार्मिक आधार पर भेदभाव बताया, जबकि सरकार ने इसे कांवड़ियों की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करने का कदम करार दिया। इससे एक साल पूर्व वर्ष 2023 में कांवड़ियों पर हेलfकॉप्टर से पुष्पवर्षा और यात्रा मार्गों पर विशेष सुविधाओं को लेकर सवाल उठे थे। बीते साल 2024 में कांवड़ मार्ग पर दुकानों और ढाबों के लिए नेमप्लेट अनिवार्य करने का आदेश सबसे बड़ा विवाद बना। मुजफ्फरनगर में शुरू हुआ यह नियम पूरे प्रदेश में लागू किया गया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे निजता के अधिकार का उल्लंघन मानते हुए अंतरिम रोक लगा दी थी। वर्ष 2025 में भी नेमप्लेट विवाद ने फिर से जोर पकड़ा है। उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश सरकार ने कांवड़ मार्ग पर दुकानदारों के लिए नाम और लाइसेंस प्रदर्शित करने का नियम बनाया, जिसे विपक्ष ने सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने वाला कदम बताया है। लेकिन इस सब को भुला कर भगवान भोलेनाथ के भक्त अपने कंधों पर कावड़ लेकर उन्हें मनाने के लिए अपने गंतव्य और शिवालयों की ओर निकल पड़े हैं।

प्रदीप कुमार वर्मा

समावेशी शासन की प्राथमिकता

डॉ.बालमुकुंद पांडेय

समावेशी शासन के लिए सरकार ने ‘ सेवा ,सुशासन एवं गरीब कल्याण’ के 11 वर्ष पूरे कर लिए हैं। यह 11 वर्ष गरीबों का कल्याण करने, मध्यम वर्ग को सुविधानुकूल वातावरण प्रदान करने, महिलाओं को सशक्त बनाने, किसानसमर्थक नीतियों को क्रियान्वित करने, देश के युवाओं को शैक्षणिक एवं रोजगारनुमुख माहौल देने, पड़ोसी देशों के साथ शांति, सहयोग ,स्थिरता एवं सौहार्द की नीति को क्रियान्वित करने ,वैश्विक पटल पर भारत को सम्मान दिलाने, देश के भीतर उपद्रव उत्पन्न करने वालों को त्वरित दंड की प्रक्रिया को उपलब्ध करवाने एवं सौहार्दपूर्ण माहौल में अव्वल रहने के द्वारा सरकार ने पूरे किये हैं। 11 सालों के समग्र मूल्यांकन से यह पता चलता है कि वैश्विक स्तर पर भारत का सम्मान एवं गौरव उन्नयन हुआ है। प्रत्येक भारतीय का जीवन सुखमय , बेहतर और सुरक्षित हुआ है।

                                             विगत 11 वर्षों में सार्वजनिक सेवा वितरण प्रणाली उत्कृष्टता के शिखर पर पहुंची हैं ,साथ ही  सरकारी योजनाओं एवं आधारभूत संरचना परियोजनाओं के कार्यान्वयन में एक आदर्श परिवर्तन देखा गया हैं कि दशकों से विलंबित आधारभूत परियोजनाओं के पूरा होने से लेकर बुनियादी मौलिक सुविधाएं मुहैया कराने तक, जो पहले की सरकार प्रदान करने में असफल  रहे हैं परंतु वर्तमान सरकार के तहत भारत सरकार एवं शासन में बदलाव आया है। सरकार ने विभिन्न  उपेक्षित समूहों  के लिए  अपरिवर्तनीय  सशक्तिकरण सुनिश्चित किया हैं जिससे उन्हें सामाजिक सुरक्षा कवच प्रदान करके आत्मनिर्भर बनने में मदद मिली हैं । सरकार ने हमेशा यह सुनिश्चित करने पर विशेष ध्यान दिया हैं कि बुनियादी सुविधाओं से कोई वंचित न हों। विगत 11 वर्षों में लोक कल्याणकारी पहुंच बृहद पैमाने पर विस्तार ने भारत को अंततः शत – प्रतिशत परिपूर्णता को प्राप्त करने पर जोर दिया है।

                                           बैंकिंग ,शौचालय ,एलपीजी सिलेंडर, नल से जल ,विद्युत उपभोक्ताओं की संख्या एवं स्वास्थ्य जैसी बुनियादी मौलिक सुविधाएं सभी को प्राप्त हो रहे हैं। सरकार की मजबूत इच्छा शक्ति एवं अथक प्रयासों से अब 21वीं सदी में यह मूलभूत सुविधाएं सभी भारतीयों तक आसानी से पहुंच रही हैं। सरकार ने 2014 में प्रारंभ की गई सभी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ सभी भारतीयों तक व्यापक स्तर पर पहुंच रहा हैं ।सरकार ने यह सुनिश्चित किया है कि लोगों को यह बुनियादी सुविधाएं लोगों का चुनाव, धर्म ,जाति, लिंग, क्षेत्र, आर्थिक स्थिति एवं राजनीतिक पसंद के आधार पर करने के बजाय प्रत्येक हकदार को योजनाओं का पूरा लाभ मिले। अब योजनाओं की परिपूर्णता शत – प्रतिशत लक्ष्य की तरफ बढ़ने पर केंद्रित हो रही हैं। इससे सभी भारतीयों की बुनियादी मौलिक सुविधाओं तक सभी भारतीयों तक परिपूर्णता की प्राप्ति सरकार के अथक प्रयासों की देन है। सरकार ने सार्वजनिक सेवाओं का लाभ लोगों तक पहुंचने में होने वाले रिसाव (लीकेज ) को रोकने में सफलता प्राप्त की है। सरकार के कल्याणकारी योजनाओं के सरकारी उपायों एवं गरीबी उन्मूलन के प्रयासों पर वैश्विक स्तर के संस्थानों ने स्वीकृति प्रदान की हैं । अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के एक हालिया शोध पत्र में भारत से अत्यधिक गरीबी को खत्म करने का श्रेय वर्तमान सरकार को दिया गया है।

                                     समावेशी शासन के अथक प्रयासों एवं सद इच्छा से सभी भारतीयों में प्रसन्नता की भावना आ रही हैं । 81.75 करोड़ लोगों को पीएम गरीब कल्याण अन्न योजना के जरिए मुफ्त अनाज प्रदान किया गया हैं ।15 करोड़ परिवारों को नल से जल कनेक्शन प्रदान किया गया हैं जिससे उनके जीवन में गुणात्मक परिवर्तन एवं संतुष्टि प्राप्त हो रही है। सरकार ने रेहड़ी – पटरी वालों को पीएम स्वनिधि से लोन प्रदान किया हैं ,जो उनके जीवन में भौतिक सुख, संतुष्टि एवं जीवन में गुणात्मक सुख प्रदान कर रहा हैं।

गरीबों एवं वंचितों के जीवन में गुणात्मक एवं भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए चार करोड़ पक्के मकानों को प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत स्वीकृति प्रदान की गई हैं जिससे उनके जीवन में गुणात्मक संतुष्टि प्राप्त हो । सरकार की जनहित हितैषी अनगिनत योजनाएं वर्तमान में प्रत्येक गरीब का मान, सम्मान एवं स्वाभिमान बढ़ा रही हैं ।यह भौतिक चेतना की उत्क्रांती ही वास्तविक विकास है। वर्तमान में भारत के 64 % आबादी यानी 95 करोड़ लोगों को किसी – ना – किसी सामाजिक सुरक्षा योजना का लाभ मिल रहा है।

                                               सरकार ने 2014 में ‘ सबका साथ, सबका विकास और सब का विश्वास ‘ के मूल मंत्र से अपने शासन का श्री गणेश किया। यह समावेशी शासन का नवीन स्वरूप हैं । समाज के सभी वर्गों  विशेषकर पिछड़ों एवं दलितों को सत्ता में सहभागिता दिया जा रहा है। सरकार की शासकीय स्थिरता सभी वर्गों की सहभागिता से होती हैं ।महिलाओं ,किसानों, गरीबों, दलितों एवं अल्पसंख्यकों को आर्थिक मजबूती के लिए शासकीय योजनाओं का क्रियान्वयन इन वर्गों तक किया जा रहा है। सरकार ने अनेक जनहित कार्य योजनाओं की धनराशि सीधे जन- धन खातों में हस्तांतरित कर उनका आर्थिक उन्नयन किया है। बिना भेदभाव के सभी वर्ग लाभान्वित हो रहे हैं।

                                          सरकार ने हमेशा यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया हैं कि विकास की प्रक्रिया में सभी की सहभागिता हों । शासकीय योजनाओं एवं कल्याणकारी योजनाओं का लाभ समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुंच सके। व्यक्तियों को सामाजिक एवं आर्थिक सशक्तिकरण के लिए बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच हो सकें। 11 वर्षों के मजबूत एवं स्थिर शासकीय व्यवस्था के द्वारा कल्याणकारी योजनाओं की परिपूर्णता शत – प्रतिशत हो रही है। सुशासन एवं जाति भेद विहीन  शासकीय प्रणाली परिपूर्णता की नीति को सफल बना रहे हैं।

                                           पिछले 11 वर्षों में सरकार के अथक प्रयासों से भारतीय संस्कृति, मूल्योंत एवं आदर्शों को उचित मान्यता प्राप्त हुआ है, एवं दुनिया भर में भारत की समृद्ध एवं उन्नत  सभ्यतागत विकास एवं ऐतिहासिक विरासत को उन्नयन किया जा रहा हैं ।सरकार के प्रयासों से कल्याण से लेकर संस्कृति तक, व्यापार के सुगम पहुंच से राष्ट्रीय सुरक्षा तक, आर्थिक विकास से लेकर जीवन यापन की सुगमता तक चहुमुखी विकास हो रहा है। सरकार के प्रयासों से भारत वैश्विक स्तर पर उभरता महाशक्ति, उदीयमान आर्थिक विकास वाला देश,सामरिक क्षेत्र में ताकतवर एवं घरेलू स्तर पर आत्मनिर्भर भारत बन रहा हैं ।विकास की गति लोकतांत्रिक स्तर पर लोगों की प्रसन्नता एवं सामरिक स्तर पर सफलता………. 2047 में विकसित भारत की सफलता की आधारशिला को मजबूती दे रहा है।

                              समावेशी शासन के लिए निम्न सुझाव हैं:-

1.) समावेशी शासकीय नीतियों से ही भारत सबसे बड़े लोकतंत्र के साथ-साथ वैश्विक स्तर का वृहद सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र बन सकता है; 2.) समावेशी शासन के द्वारा भारत की जनता लोकतंत्र एवं लोकतांत्रिक शासकीय संस्थाओं के प्रति संतोषजनक, प्रसन्न , सहभागी और विश्वास की अभिव्यक्ति कर रही है; 3.) इन नीतियों के क्रियान्वयन से भारत 2047@ विकसित भारत के लक्ष्य को प्राप्त कर सकेगा; 4.) समावेशी शासकीय नीतियों के कारण राष्ट्रीय आपदा एवं राष्ट्रीय असुरक्षा के वातावरण में सभी राजनीतिक दल एक स्वर में सरकार के साथ खड़े हैं; एवं 5.)समावेशी शासन के द्वारा ‘ सबका साथ ,सबका विश्वास एवं सबका विकास ‘ के मूल मंत्र को सार्थक एवं प्रासंगिक सिद्ध हो रहा है।

डॉ.बालमुकुंद पांडेय

केंद्रीय ट्रेड यूनियंस व उनके सहयोगी संगठनों द्वारा आहूत ‘भारत बंद’ के मायने

कमलेश पांडेय

देश भर की 10 केंद्रीय ट्रेड यूनियनों और उनके सहयोगी संगठनों ने भाजपा नीत राजग के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की कथित ‘मजदूर विरोधी, किसान विरोधी और कॉर्पोरेट समर्थक’ नीतियों के खिलाफ 9 जुलाई दिन बुद्धवार को जो देशव्यापी हड़ताल बुलाई थी और स्पष्ट रूप से भारत बंद का जो ऐलान किया था, वह एक हद तक विफल भी रहा। इसलिए उसके सियासी मायने स्पष्ट हैं क्योंकि विपक्षी दलों के किसान-मजदूर-कामगार संगठनों ने इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया लेकिन उन्हें जनसमर्थन नहीं मिला। लिहाजा, अपनी छिटपुट सफलता के बावजूद यह भारत बंद कामगारों के हित में कितना अनुकूल रहेगा और लाभदायक साबित होगा, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।

कहना न होगा कि इससे पहले भी साल 2020, 2022 और 2024 में भी भारत की सड़कों पर ये ट्रेड यूनियंस उतर चुकी हैं लेकिन अभी तक मनोनुकूल परिणाम नहीं मिल पाया है। लगता भी नहीं कि मोदी सरकार इन्हें तवज्जो देगी। यही वजह है कि साल 2025 में एक फिर से इन्होंने जोर आजमाइश की कोशिश की है। ट्रेड यूनियन से जुड़े लोगों ने बताया कि यह पहली बार नहीं है जब इतने बड़े पैमाने पर आंदोलन किया जा रहा है बल्कि इससे पहले भी ट्रेड यूनियनों ने 26 नवंबर 2020, 28-29 मार्च 2022 और पिछले साल 16 फरवरी 2024 को इसी तरह की देशव्यापी हड़ताल की थी जिसमें लाखों कर्मचारी सड़कों पर उतरे थे और श्रम समर्थक नीतियों और विवादास्पद आर्थिक सुधारों को वापस लेने की मांगें उठाईं थी लेकिन केंद्र सरकार हमेशा इनकी अनदेखी करती आई है।

बताया जाता है कि इस आंदोलन से बैंकिंग, डाक सेवाएं, कोयला खनन, पब्लिक ट्रांसपोर्ट और सरकारी कामकाज भी प्रभावित हुए हैं। कहीं ट्रेनें लेट होने, और कहीं बिजली आपूर्ति में रुकावटें भी आई हैं। फिर भी सरकार की कानों पर जूं रेंगती हुई नहीं प्रतीत हुई क्योंकि वह 1990 के दशक से ही देश में लागू नई आर्थिक नीतियों के मुताबिक कानून बनाने और उसे अमल में लाने के लिए प्रतिबद्ध है ताकि देश में विदेशी निवेश बढ़े और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों-राष्ट्रीय कम्पनियों को कामकाज में सुविधा और सस्ते श्रमिक मिल सकें।

ऐसे में सरकार की मंशा तो स्पष्ट लगती है लेकिन सीधा सवाल है कि तब केंद्रीय ट्रेड यूनियनें और उनके आनुषंगिक संगठन क्या चाहते हैं? आखिर लेबर कोड पर क्या दिक्कतें और क्या डिमांड्स हैं? बताया जाता है कि ट्रेड यूनियन को चार लेबर कोड पर सबसे ज्यादा आपत्ति है। यूनियंस कहती हैं कि नए लेबर कोड हड़ताल के अधिकार को कमजोर करते हैं। ये काम के घंटे बढ़ाते हैं। नियोक्ताओं को सजा से बचाते हैं। ट्रेड यूनियनों की शक्ति छीनते हैं। इसलिए कर्मचारियों के हक छीनने वाले चारों लेबर कोड खत्म किए जाएं। दरअसल, यूनियंस का कहना है कि चार नए लेबर कोड लागू करने से यूनियंस कमजोर होंगी और काम के घंटे बढ़ेंगे? क्या सरकार संविदा नौकरियों और निजीकरण को बढ़ावा दे रही है? क्या पब्लिक सेक्टर में ज्यादा भर्ती और सैलरी बढ़ोतरी की मांगों को नजरअंदाज किया जा रहा है? क्या युवा बेरोजगारी से निपटे बिना ही कर्मचारियों को प्रोत्साहन देने की पेशकश की जा रही है?

ट्रेड यूनियनों ने बिजली कंपनियों के निजीकरण के मुद्दे को भी गरमा दिया है। उन का आरोप है कि बिजली वितरण और उत्पादन को निजी हाथों में देने से नौकरियों की सुरक्षा, वेतन और स्थायित्व खत्म हो जाएगा जिसका सीधा असर कर्मचारियों और उपभोक्ताओं दोनों पर पड़ेगा। वहीं, प्रवासी श्रमिकों का मुद्दा भी गर्माया हुआ है। खासकर श्रमिक उत्पादक राज्य बिहार में मतदाता सूची के विशेष पुनरीक्षण को लेकर आरोप है कि प्रवासी मजदूरों के मताधिकार को सीमित किया जा रहा है, जिससे उनका राजनीतिक हक छीना जा रहा है।

अब तो यूनियनें कह रही हैं कि सरकार की नीतियां मजदूरों को कमजोर कर रही हैं। किसानों को हाशिए पर डाल रही हैं और कॉरपोरेट्स को लाभ पहुंचा रही हैं। सामाजिक क्षेत्र के खर्चों में कटौती, मजदूरी में गिरावट और रोजगार संकट ने हालात बदतर कर दिए हैं। वहीं, बेरोजगारी और महंगाई पर भी बड़ी चिंता जताई जा रही है। सरकार पर नई भर्तियों को रोकने, रिटायर्ड लोगों की दोबारा तैनाती और युवाओं को रोजगार न देने के आरोप हैं। साथ ही जरूरी वस्तुओं की कीमतें और सामाजिक असमानता बढ़ी है। लिहाजा, यूनियनें न्यूनतम वेतन ₹26,000 मासिक तय करने और पुरानी पेंशन योजना की बहाली की मांग कर रही हैं। साथ ही एमएसपी की कानूनी गारंटी और कर्जमाफी भी इनके प्रमुख मुद्दे हैं।

वहीं, इन यूनियनों की मांग है कि सार्वजनिक क्षेत्र में भर्ती शुरू हो और निजीकरण, आउटसोर्सिंग और ठेकाकरण पर रोक लगे। इसके अलावा, मजदूर विरोधी और मजदूर संगठन विरोधी चारों लेबर कोड रद्द हों। मनरेगा की मजदूरी और दिन बढ़ें। शहरी बेरोजगारों के लिए योजना बने। शिक्षा, स्वास्थ्य और राशन पर खर्च बढ़े। साथ ही न्यूनतम वेतन और पेंशन पर भी जोर दिया जा रहा है। जबकि

यूनियन के पदाधिकारियों ने दो टूक शब्दों में बताया है कि किसान और ग्रामीण मजदूर भी इस बार देशभर में हुए विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए, क्योंकि केंद्र सरकार ने हमारी 17 सूत्री मांगों को नजरअंदाज किया है। 

हैरत की बात तो यह भी है कि पिछले 10 सालों में वार्षिक मजदूर सम्मेलन भी नहीं बुलाया है। इतना ही नहीं, सरकार ने संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग कर जन आंदोलनों को अपराधी घोषित कर दिया है, जैसे महाराष्ट्र में पब्लिक सिक्योरिटी बिल और छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश में भी इसी तरह के कानून से पाबंदी लगाई जा रही है। कहीं कहीं पर सरकार ने नागरिकों से नागरिकता छीनने की भी कोशिश की है। यही वजह है कि 17 सूत्रीय मांगें लेकर देशभर में हड़ताल की गई। इस विरोध प्रदर्शन में लगभग 25 करोड़ श्रमिक भारत बंद में हिस्सा लिए।

बता दें कि हड़ताली ट्रेड यूनियंस में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस, भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस, भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र, हिंद मजदूर सभा, अखिल भारतीय संयुक्त ट्रेड यूनियन केंद्र, ट्रेड यूनियन कोऑर्डिनेशन केंद्र, स्व-रोजगार महिला एसोसिएशन, अखिल भारतीय केंद्रीय ट्रेड यूनियन परिषद, लेबर प्रोग्रेसिव फेडरेशन, यूनाइटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस जैसे संगठन शामिल हैं। इन्होंने ही इस बंद का नेतृत्व किया है। इनके साथ संयुक्त किसान मोर्चा और ग्रामीण श्रमिक संगठन भी खड़े हैं।

इस प्रकार स्पष्ट है कि केंद्र सरकार यदि इनकी 17 सूत्री मांगें दरकिनार करती है तो आने वाले वर्षों में सरकार और ट्रेड यूनियंस आमने-सामने होंगे। किसान-मजदूर-कामगार संगठन अपने अपने तरीके से दबाव बनाएंगे, जिससे आमचुनाव 2029 से पहले सरकार झुक भी सकती है। ऐसा इसलिए कि विपक्षी गठबंधन इंडी गठबंधन से इन संगठनों का महत्वपूर्ण रिश्ता है जो केंद्र सरकार को परेशानी में डालने के लिए चरणबद्ध आंदोलन चलाते रहते हैं। जो आगे भी जारी रहेंगे, ब्रेक के बाद, ऐसे आसार प्रबल हैं।

कमलेश पांडेय

मराठी बोलना गर्व की बात, लेकिन हिन्दी से घृणा क्यों ?

अजय जैन ‘विकल्प’

अपनी स्थापना से ही भारत विविधताओं का देश बना हुआ है और भाषा इसकी सबसे खूबसूरत विशेषताओं में से एक है। इसलिए यहाँ अनेकता के बावजूद एकता है, चाहे फिर कोई भी मुद्दा हो, यानी कभी अपने को श्रेष्ठ बताकर किसी अन्य को बुरा नहीं कहा गया, किन्तु इस देश के राज्य महाराष्ट्र की राजधानी मुम्बई में फिलहाल यही बुरा देखा जा रहा है, जो अनुचित है और देश की भाषाई एकता के लिए घातक भी है।
  मुम्बई न केवल आर्थिक राजधानी है, बल्कि भाषाओं, संस्कृतियों और समुदायों का संगम स्थल भी है। इस महानगर में मराठी का बोलबाला होना स्वाभाविक है, यह इस मिट्टी की आत्मा है, लेकिन आज एक चिंताजनक प्रवृत्ति उभर रही है:हिन्दी के प्रति अघोषित घृणा दिख रही है, जिसके पीछे असहिष्णुता, राजनीतिक विद्वेष एवं स्वयं को सर्वश्रेष्ठ बताने की अजीब मानसिकता है। मराठी को सम्मान देने में किसी को भी कोई आपत्ति नहीं हो सकती है। आपत्ति तब होती है, जब इस सम्मान के नाम पर हिन्दी को हाशिए पर धकेला जाता है, हिन्दी भाषियों को ‘बाहरी’ करार दिया जाता है, और उनके साथ दुर्व्यवहार होता है। यह केवल भाषाई टकराव नहीं, एक गहरी राजनीतिक साजिश है, जिसे समझना, उजागर करना और विरोध करते हुए हिन्दी के लिए खड़े रहना बहुत आवश्यक है। यह समझना होगा कि मराठी स्वाभिमान की भाषा है, लेकिन हिन्दी के प्रति संकीर्णता सही नहीं है। मराठी केवल एक भाषा नहीं, बल्कि सभ्यता, इतिहास और गौरव है। छत्रपति शिवाजी महाराज, संत तुकाराम, लोकमान्य तिलक और बाल गंगाधर तिलक आदि महापुरुषों ने मराठी को जनचेतना और क्रांति का माध्यम बनाया, तो कैद में रहते हुए भी राष्ट्रीय एकता के लिए वीर विनायक सावरकर ने हिन्दी कविताएं रचीं एवं हिन्दी सिखाई। आज भी महाराष्ट्र में मराठी साहित्य, नाटक, संगीत और संस्कृति की धारा बह रही है।
         मराठी बोलना, मराठी में गर्व करना, उस विरासत को आगे बढ़ाना हर मराठीभाषी का हक़ और कर्तव्य है मगर जब यह गर्व दूसरों की भाषा के प्रति घृणा में बदल जाता है, तो यह स्वाभिमान नहीं, संकीर्णता बन जाता है।
   सबको समझना पड़ेगा कि हिन्दी एकता का सेतु और मुम्बई का मौन आधार है। हिन्दी भारत की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है, जो उत्तर भारत से लेकर भारत के कोने-कोने तक संवाद का माध्यम है। मुम्बई जैसे महानगर में हिन्दी केवल उत्तर भारतीयों की नहीं, बल्कि लाखों मराठी, गुजराती, बिहारी, तमिल, मलयाली और बंगालियों के भी दैनिक संवाद की भाषा बनी हुई है।
   मुम्बई यानी बॉलीवुड सहित रेडियो, टेलीविजन, विज्ञापन, सेवा क्षेत्र और मीडिया के अधिकतर प्रमुख उद्योग हिन्दी के दम पर खड़े हैं। यही नहीं, लाखों मेहनतकश मजदूर, वाहन चालक, नौकर, घरेलू कामगार, उद्घोषक, पत्रकार और कलाकार भी हिन्दी के माध्यम से ही रोज़ी-रोटी व पहचान प्राप्त करते हैं, तो बड़ा सवाल है कि इस हिन्दी से इतनी घृणा क्यों, मारपीट क्यों, प्रदर्शन क्यों…?
    स्थानीय राजनीतिक कारण देखें तो पता चलता है कि ‘मराठी बनाम हिन्दी’ की कृत्रिम खाई बनाई गई है, क्योंकि उसी से तो सत्ता प्राप्ति का मार्ग मिलेगा। भाषा का यह संघर्ष अचानक नहीं पनपा है, बल्कि यह कुछ राजनीतिक दलों और संगठनों की योजनाबद्ध रणनीति का परिणाम है। ‘मराठी मानुस’ के नारे के पीछे वर्षों से एक ‘अपराध-बोध’ और ‘भय’ को बोया गया, कि हिन्दी भाषी मुम्बई को ‘हड़प’ रहे हैं, जबकि सत्यता इससे अलग है और धरातल पर ऐसा कुछ भी नहीं है। हिन्दी बोलने वाला अपना काम कर रहा है, तो मराठी एवं अन्य भाषा बोलने वाला अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है, इनमें कोई झगड़ा नहीं है। राज्य और मुम्बई को निगलने के ऐसे विचार न केवल झूठे हैं, बल्कि सामाजिक सौहार्द के लिए खतरा हैं, क्योंकि मुम्बई की आत्मा में तो हिन्दी हमेशा रही है। १९५० के दशक में भी जब बम्बई राज्य बना था, तब भी हिन्दीभाषी इसके विकास में बराबरी से सहभागी थे।
     हिन्दी को ‘बाहरी भाषा’ कहने वाले यह भूल जाते हैं कि संविधान में यह राजभाषा घोषित है और इसे पूरे भारत में समान सम्मान प्राप्त है। ऐसा भी लगता है कि असल डर हिन्दी से नहीं, बल्कि उस जनसांख्यिकी बदलाव से है, जो उत्तर भारत से आए श्रमिकों और युवाओं के कारण मुम्बई में हो रहा है। बेरोज़गारी, शिक्षा में गिरावट और स्थानीय युवाओं को नौकरियों नहीं मिलने का दोष भी हिन्दी भाषियों पर डाल देना आसान बहाना बन गया है, लेकिन इसका उचित समाधान खोजने की अपेक्षा हिन्दी को रोककर गुंडागर्दी करना कहाँ से सही हो गया है ? क्या हिन्दी भाषियों को निकाल देने से, हिन्दी नहीं बोलने देने से, राजनीति करने से एवं सिर्फ मराठी की जिद लगाने से युवाओं को रोज़गार मिल जाएगा ? राज्य तरक्की कर लेगा, हिन्दी और मराठी का स्नेह बना रहेगा ?
    उत्तर साफ़ है-नहीं, क्योंकि विकास की कुंजी भाषाओं को सीमित करने में नहीं, बल्कि उन्हें सर्वव्यापी व समावेशी बनाने में है। राजनीति के चक्कर में यह भूलना घातक है कि हिन्दी को अपमानित करना आसान है। वास्तव में यह संविधान का अपमान है, क्योंकि संविधान की धारा ३४३ हिन्दी को राजभाषा घोषित करती है। अनुच्छेद १९ हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, तो कोई भी राज्य, नगर या संस्था किसी भाषा विशेष को किसी को बोलने से कैसे रोक सकता है। मुम्बई में हिन्दी बोलने वाले पर तंज कसना, दुकानों के बोर्ड बदलवाना या हिन्दी में सेवा देने से इनकार करना सीधे तौर पर संविधान का सीधा उल्लंघन यानी राष्ट्रद्रोह है।
     मुम्बई में हिन्दी का विरोध करने वालों एवं भाषा के बँटवारे पर मौन रहने वालों को भाषाई सौहार्द के उदाहरण दक्षिण भारत से सीख लेनी चाहिए। तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक जैसे राज्यों ने अपनी भाषाओं को मज़बूत किया, लेकिन कभी हिन्दी को दुश्मन नहीं बनाया। बेंगलुरु जैसे शहर में भी कन्नड़ प्रमुख है, लेकिन हिन्दी स्वीकार है। वहाँ के लोग हिन्दी सीखते हैं, सिखाते हैं और साथ रहते हैं।
      मुम्बई, जो देश का सबसे बड़ा समावेशी शहर कहलाता है, वहाँ से हिन्दी फ़िल्म और टी.वी. उद्योग निकाल दिया जाए, तो कल्पना करें कि क्या बचेगा ? अगर हिन्दी बोलने वाला अपने ही देश में पराया महसूस करे, तो यह केवल शर्मनाक नहीं, बड़ा जहर है।
सबको इस बात को महसूस करना होगा कि भाषाई टकराव से कुछ नहीं सधेगा। मराठी और हिन्दी दोनों समृद्ध भाषाएं हैं। दोनों में साहित्य, संस्कृति, ज्ञान और इतिहास की गहराइयाँ हैं। इसलिए कुछ सकारात्मक कदम एवं उदारता लेकर विद्यालयों में मराठी और हिन्दी दोनों को सम्मानजनक स्थान दिया जाए। सार्वजनिक बोर्डों में मराठी प्रमुख हो, लेकिन हिन्दी को न हटाया जाए। सरकार ऐसे कार्यक्रम चलाए, जो भाषाई सौहार्द को बढ़ावा दें। यानी नेता ‘वोट बैंक’ के लिए भाषा को हथियार न बनाएं।
       राजनीति से पनपाए गए इस विवाद का समाधान बनाम निष्कर्ष यही है कि मुम्बई की आत्मा मराठी और हिन्दी का संगम है, यानी मुम्बई केवल मराठी या हिन्दी की नहीं, बल्कि पूरे भारत की है। जैसे कश्मीर भारत का स्वर्ग है, ऐसे ही महाराष्ट्र और मुम्बई का असली सौंदर्य विविधता-अनेकता में है। हिन्दी से घृणा करके हम न तो मराठी को मजबूत कर सकते हैं, न मुम्बई को।
   मराठी और हिन्दी २ भाषाएं नहीं, २ आत्माएं हैं-जिन्हें जोड़कर ही भारत एकता और शक्ति की मिसाल बनेगा। कारण कि किसी भी भाषा से प्रेम करना अच्छी बात है, लेकिन किसी भाषा से घृणा करना अपने ही देश और उसके नियम-कायदों से घृणा करने जैसा है।
       यह भी तय है कि मुम्बई और राज्य के अन्य हिस्सों में मराठी बनाम गैर-मराठी भाषा विवाद को लेकर चल रहे राजनीतिक और सामाजिक तनाव, प्रदर्शन, गुंडागर्दी और जबरदस्ती से भाषा एवं क्षेत्रीय अस्मिता का मुद्दा हल नहीं होगा, बल्कि इससे आमजन के बीच विश्वास घटकर विष फैलेगा। बेहतर यह है कि सरकार और सभी को राज्य-देश हित में इस घमासान को टालते हुए देशप्रेम दिखाकर दोनों भाषा का सम्मान स्वीकारना चाहिए।

अजय जैन ‘विकल्प’

मतदाता सूची में सुधार पर सुप्रीम सहमति सराहनीय

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-ललित गर्ग-

बिहार में मतदाता सूची सुधार पर सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी सिर्फ एक न्यायिक फैसला नहीं, बल्कि लोकतंत्र के मूल्य को पुष्ट करने वाला ऐतिहासिक एवं प्रासंगिक निर्णय है। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को बिहार में मतदाता सूची की समीक्षा के लिए आधार, राशन और वोटर कार्ड को भी मान्यता देने का सुझाव देकर आम लोगों की मुश्किल हल करने की कोशिश की है। इससे प्रक्रिया आसान होगी और आशंकाओं को कम करने में मदद मिलेगी। बेशक, फर्जी नाम मतदाता सूची में नहीं होने चाहिए लेकिन ऐसे अभियानों के दौरान आयोग का जोर ज्यादा से ज्यादा नाम वोटर लिस्ट से निकालने के बजाय, इस पर होना चाहिए कि एक भी नागरिक चुनावी प्रक्रिया में शामिल होने से वंचित न रह जाए। विपक्ष को चाहिए कि वह इस फैसले को राजनीतिक हार न माने, बल्कि इसे एक अवसर माने, जनविश्वास अर्जित करने का, लोकतंत्र में आस्था बढ़ाने का और सबसे जरूरी, राष्ट्रहित को राजनीति से ऊपर रखने का। मतदाता सूची में विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) का कार्य केवल बिहार ही नहीं, देश के अन्य राज्यों में प्राथमिकता के आधार पर प्रारंभ करना चाहिए।
भारतीय लोकतंत्र में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय सर्वाेपरि होता है। चुनाव आयोग यदि चुनाव कराने को तैयार है, और इसकी जुड़ी किन्हीं प्रक्रियाओं में कोई त्रुटि या खामी है तो उसका सुधार करना संविधान सम्मत है, तो फिर इस पर प्रश्नचिन्ह लगाने का अधिकार किसी भी राजनीतिक दल को नहीं होना चाहिए। लेकिन जो प्रश्न जनता के मानस को उद्वेलित करता है, वह यह है कि विपक्ष बार-बार चुनावी प्रक्रियाओं, राष्ट्रीय हितों या सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर भी एकमत होकर विरोध करता है, आखिर क्यों? बिहार में एसआईआर को लेकर जो याचिकाएं और बहसें सामने आईं, उनमें एक प्रमुख तर्क यह था कि समय उपयुक्त नहीं है, सरकार अस्थिर है, या सामाजिक समीकरण तैयार नहीं हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जनता को प्रतिनिधित्व देने का अधिकार सर्वाेपरि है। लेकिन त्रुटिपूर्ण या फर्जी मतदाता सूची से चुनाव कराना भी लोकतंत्र का अपमान है। अदालत ने यह भी संकेत दिया कि देर-सवेर नहीं, संवैधानिक कर्तव्य को समय पर निभाना जरूरी है।
अदालत ने एसआईआर पर कोई आदेश नहीं दिया है, लेकिन अपने इरादे की ओर इशारा तो कर ही दिया है। अदालत ने टाइमिंग को लेकर जो सवाल उठाया, वह उचित प्रतीत होता है। बिहार में इसी साल के आखिर तक विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में इतनी विस्तृत कवायद के लिए शायद उतना वक्त न मिल पाए, जितना मिलना चाहिए। बिहार में एसआईआर को लेकर जो असमंजस है, उसकी एक वजह निश्चित ही टाइमिंग है। जिनके पास जरूरी डॉक्युमेंट नहीं हैं, वे इतनी जल्दी उनका इंतजाम नहीं कर पाएंगे। हालांकि आयोग ने भरोसा दिलाया है कि किसी भी व्यक्ति को भी अपनी बात रखने का मौका दिए बिना मतदाता सूची से बाहर नहीं किया जाएगा। वैसे बिहार में चुनाव को देखते हुए ही फर्जी मतदाताओं की संख्या बढ़ी या तथाकथित राजनीतिक दलों ने इन फर्जी मतदाताओं को बढ़ाया है। ऐसे में इन फर्जी मतदाताओं पर कार्रवाई अपेक्षित है। यह मामला केवल बिहार तक सीमित नहीं रहना चाहिए। दूसरे राज्यों में मतदाता सूचियों की समीक्षा किस तरह होगी, यह बिहार में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया पर निर्भर करेगा। ऐसे में स्वाभाविक ही नजरें इस बात पर टिकी हैं कि सुप्रीम कोर्ट में आखिरकार इस प्रक्रिया का कैसा स्वरूप तय होता है?
भारतीय राजनीति में विपक्ष का कार्य सरकार की नीतियों पर निगरानी रखना है, आलोचना करना है, लेकिन वह आलोचना रचनात्मक होनी चाहिए, राष्ट्र-विरोधी नहीं। आज हम देख रहे हैं कि आर्टिकल 370 हटाना हो, नागरिकता संशोधन अधिनियम-सीएए, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर-एनआरसी जैसे कानून हों, अग्निपथ योजना हो, या राम मंदिर निर्माण-लगभग हर मुद्दे पर विपक्ष ने एकमत होकर विरोध किया है। चाहे चीन या पाकिस्तान से जुड़ी संवेदनशील मसले हों, या फिर राष्ट्रीय सुरक्षा के निर्णय, विपक्ष अक्सर उन बिंदुओं पर एक सुर में सरकार का विरोध करता है, जबकि ऐसे राष्ट्रीयता के मुद्दों पर विपक्ष को सरकार एवं देश के साथ एकजुटता दिखानी चाहिए। यह संयोग नहीं, एक दूषित राजनीतिक रणनीति बनती जा रही है कि ‘जो सरकार करे, उसका विरोध करो’, चाहे मुद्दा देशहित का ही क्यों न हो। इन स्थितियों में आम जनता का एक बड़ा सवाल है कि विपक्ष देश के साथ है या सिर्फ सत्ता की भूख के साथ? क्या चुनाव प्रक्रिया पर विरोध करना लोकतंत्र का मज़ाक नहीं है? क्या न्यायपालिका के निर्णयों को चुनौती देना सिर्फ स्वार्थ की राजनीति नहीं? क्या राष्ट्रीय मुद्दों पर सरकार के साथ खड़े होने से विपक्ष की राजनीति कमजोर हो जाएगी? जब विपक्ष सिर्फ विरोध करने के लिए विरोध करता है, तो उसका नैतिक बल कमजोर होता है, और जनता का विश्वास टूटता है।
भारतीय राजनीति को अब रचनात्मक विपक्ष की ज़रूरत है, ऐसा विपक्ष जो सत्ता में नहीं है, फिर भी राष्ट्र के लिए सत्ता के साथ खड़ा हो सकता है। जो यह समझ सके कि लोकतंत्र सरकार और विपक्ष दोनों से चलता है, लेकिन राष्ट्र सबसे ऊपर है। बिहार में चुनाव आयोग को सुप्रीम कोर्ट की अनुमति इस बात का प्रतीक है कि संस्थाएं अभी भी न्याय और संवैधानिकता की रक्षा कर रही हैं। लेकिन विपक्ष यदि इस निर्णय पर भी नकारात्मक रवैया अपनाता है, तो यह जनता की आकांक्षाओं, लोकतांत्रिक मूल्यों और विकासशील भारत की दिशा के विरुद्ध होगा। विपक्ष को चाहिए कि वह अपनी राजनीति को जनहित से जोड़े, जनविरोध से नहीं। विपक्ष यदि राष्ट्रहित में सोचने की दिशा में खुद को परिवर्तित नहीं करता, तो वह धीरे-धीरे प्रासंगिकता खो देगा।
भारतीय लोकतंत्र की नींव निष्पक्ष, पारदर्शी और समावेशी चुनावों पर टिकी होती है। इसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मज़बूत बनाने की दिशा में बिहार में चुनाव आयोग द्वारा शुरू किया गया मतदाता सूची सुधार अभियान हाल ही में राष्ट्रीय बहस का केंद्र बना। लेकिन जिस बात ने सबसे अधिक ध्यान खींचा, वह यह है कि इस पूरी कवायद के दौरान विपक्ष एक बार फिर एकजुट होकर इसका विरोध करता नजर आया, भले ही मामला राष्ट्रहित और लोकतंत्र की मजबूती से जुड़ा हो। बिहार में राज्य निर्वाचन आयोग ने वोटर लिस्टों को दुरुस्त करने, फर्जी वोटरों की छंटनी, और नए योग्य मतदाताओं को जोड़ने का जो कार्य प्रारंभ किया, वह एक सामान्य प्रशासनिक कार्य नहीं था, बल्कि एक लोकतांत्रिक शुद्धिकरण था। यह सुधार न केवल चुनावों को पारदर्शी बनाता है, बल्कि नागरिक अधिकारों की रक्षा भी करता है। परन्तु कुछ राजनीतिक दलों ने इस प्रक्रिया पर आपत्ति जताई और इसे जातीय आंकड़ों, राजनीतिक संतुलन और चुनावी गणित से जोड़कर कोर्ट का रुख किया।
सुप्रीम कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा कि मतदाता सूची का शुद्धिकरण संविधान सम्मत प्रक्रिया है और इसे बाधित नहीं किया जा सकता। अदालत ने चुनाव आयोग की कार्रवाई को न केवल वैध बताया, बल्कि उसे लोकतंत्र के लिए आवश्यक भी बताया। यह फैसला यह भी दर्शाता है कि अब समय आ गया है जब चुनावी ईमानदारी को राजनीतिक शोरगुल और वोट बैंक की राजनीति के शोर में दबाया नहीं जा सकता। विपक्ष की प्रतिक्रिया लगभग स्वचालित होती जा रही है, चाहे मुद्दा हो आर्थिक सुधार का, रक्षा नीति का, विदेश नीति का, या अब मतदाता सूची सुधार का। प्रश्न यह उठता है कि क्या हर सुधार प्रक्रिया, चाहे वह कितनी भी लोकतांत्रिक या पारदर्शी हो, विपक्ष के लिए मात्र एक राजनैतिक खतरा है? विपक्ष का यह रवैया यह दर्शाता है कि उसे संवैधानिक संस्थाओं पर भरोसा कम और अपनी राजनीतिक गणनाओं पर भरोसा अधिक है।
एक सामान्य नागरिक के लिए सबसे बड़ा अधिकार है वोट देना। यदि कोई सुधार प्रक्रिया यह सुनिश्चित करती है कि एक भी फर्जी वोटर सूची में न हो, कोई भी योग्य मतदाता छूटे नहीं, जाति, धर्म या राजनीति से ऊपर उठकर नागरिकता के आधार पर मतदाता सूची बने, तो फिर उसका विरोध क्यों?विपक्ष इस डर से ग्रस्त है कि यदि मतदाता सूची साफ-सुथरी हो गई, तो उनके कथित परंपरागत वोट बैंक कमजोर हो सकते हैं। उन्हें डर है कि जातीय और क्षेत्रीय समीकरण बदल सकते हैं। लेकिन यह तर्क लोकतंत्र के मूल सिद्धांत के विरुद्ध है। लोकतंत्र ‘जो है, उसे प्रतिबिंबित करे’, न कि ‘जो चाहिए, उसे निर्मित करे’।

ट्रंप की वापसी और व्यापार युद्ध की वैश्विक आग: दुनिया के लिए चेतावनी की घंटी

डोनाल्ड ट्रंप की संभावित वापसी के साथ वैश्विक व्यापार युद्ध का खतरा फिर गहराने लगा है। उन्होंने विभिन्न देशों को शुल्क बढ़ोतरी की चेतावनी देते हुए पत्र भेजे हैं। इससे भारत सहित दुनिया भर में आर्थिक अस्थिरता बढ़ सकती है। भारत को आत्मनिर्भर बनते हुए, नए साझेदारियों पर ध्यान देना चाहिए और विश्व मंचों पर व्यापार नीति में संतुलन की वकालत करनी चाहिए। व्यापार को सहयोग का माध्यम बनाना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

– डॉ सत्यवान सौरभ

जब दुनिया जलवायु परिवर्तन, युद्ध और महंगाई जैसे संकटों से जूझ रही है, ऐसे में एक बार फिर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की वापसी की संभावनाओं के साथ वैश्विक व्यापार युद्ध की आहट सुनाई देने लगी है। हाल ही में ट्रंप द्वारा कई देशों को भेजे गए पत्रों और उनकी सख्त व्यापार नीति के बयान इस बात का संकेत हैं कि यदि वे फिर से सत्ता में आते हैं, तो ‘अमेरिका सर्वप्रथम’ की नीति के तहत विश्व व्यापार व्यवस्था को झकझोर देने में वे पीछे नहीं हटेंगे।

यह केवल अमेरिकी चुनावी राजनीति का हिस्सा नहीं, बल्कि एक ऐसी सोच है जो पूरी दुनिया की आर्थिक स्थिरता, व्यापारिक समझौतों और राजनयिक संतुलन को प्रभावित कर सकती है। ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वे व्यापार को कोई कूटनीतिक माध्यम नहीं, बल्कि दबाव बनाने का साधन मानते हैं। चीन, मैक्सिको, यूरोपीय संघ, भारत—किसी को भी नहीं छोड़ा। उन्होंने आयात शुल्क को हथियार बनाकर अपने हित साधे और जबरदस्ती शर्तें मनवाईं। अब एक बार फिर, ट्रंप ने अपने बयानों में यह चेताया है कि यदि अन्य देश अमेरिका के साथ ‘उचित’ व्यापार समझौते नहीं करते, तो उन्हें भारी शुल्क देना होगा। उनके हालिया पत्रों में स्पष्ट रूप से 10 प्रतिशत से 60 प्रतिशत तक शुल्क लगाने की चेतावनी दी गई है। यह सिर्फ धमकी नहीं, बल्कि एक रणनीति है जो वैश्विक व्यापार सहयोग को प्रतिस्पर्धा और भय में बदल देती है।

भारत को ट्रंप की इन नीतियों से दोहरे परिणाम मिल सकते हैं। एक ओर, अमेरिका चीन से दूरी बनाकर भारत जैसे देशों की ओर रुख कर सकता है, जिससे भारत को व्यापारिक अवसर मिल सकते हैं। दूसरी ओर, ट्रंप की ‘कड़ी शर्तों वाली’ व्यापार नीति भारत को अमेरिकी दबाव में ला सकती है। भारत पहले भी ट्रंप प्रशासन के दौरान कुछ उत्पादों पर शुल्क बढ़ोतरी का शिकार बन चुका है — जैसे इस्पात और एल्यूमिनियम। यदि ट्रंप फिर सत्ता में लौटते हैं, तो यह दबाव और अधिक हो सकता है। विशेष रूप से औषधि उद्योग, सूचना प्रौद्योगिकी सेवाएं, और वस्त्र उद्योग जैसे क्षेत्रों में भारत को नई चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।

व्यापार युद्ध किसी एक देश की समस्या नहीं होती — यह पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है। जब अमेरिका शुल्क बढ़ाता है, तो बदले में अन्य देश भी प्रत्युत्तर में शुल्क लगाते हैं। इससे वैश्विक आपूर्ति तंत्र टूटता है, महंगाई बढ़ती है, और आर्थिक मंदी का खतरा मंडराता है। 2018-19 के दौरान ट्रंप और चीन के बीच चले व्यापार युद्ध से अंतरराष्ट्रीय बाजारों में अस्थिरता आई थी। विश्व व्यापार संगठन को भी झटका लगा था, और अंतरराष्ट्रीय व्यापार की वृद्धि दर में गिरावट देखी गई थी। वही स्थिति अब फिर से उत्पन्न हो सकती है।

ट्रंप के पत्रों में स्पष्ट रूप से लिखा है — “या तो आप व्यापार समझौता करें, या 60 प्रतिशत शुल्क भरें।” यह भाषा किसी सभ्य कूटनीतिक वार्ता की नहीं, बल्कि व्यापारिक दबाव की है। वे अमेरिका को ‘व्यापार का सर्वश्रेष्ठ केंद्र’ समझते हैं और अन्य देशों को केवल ग्राहक। उनकी यह शैली ‘राजनयिक आतंकवाद’ जैसी प्रतीत होती है — जहां व्यापार एक हथियार है, और विरोध का अर्थ है दंड। यह नीति न केवल व्यापारिक संतुलन को प्रभावित करती है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों को भी तनावपूर्ण बना सकती है। उनके दृष्टिकोण में दीर्घकालिक सहयोग के लिए कोई स्थान नहीं है, केवल तात्कालिक लाभ सर्वोपरि है।

ट्रंप ने उच्च तकनीक उद्योगों और सेमीचालक निर्माण क्षेत्र को भी निशाना बनाया है। वे चाहते हैं कि अमेरिका के बाहर बनने वाले उन्नत तकनीकी उत्पादों पर भारी शुल्क लगाया जाए, ताकि कंपनियाँ अमेरिका में उत्पादन करें। इससे भारत की सूचना प्रौद्योगिकी आधारित कंपनियों को भी झटका लग सकता है, जो अमेरिकी तकनीकी कंपनियों को सेवाएं देती हैं। यदि ट्रंप ने कामकाजी वीज़ा नीति को फिर से कठोर किया, तो भारतीय तकनीकी विशेषज्ञों को अमेरिका में नौकरी पाने में कठिनाइयाँ होंगी।

ट्रंप का ‘अमेरिका सर्वप्रथम’ नारा वैश्वीकरण की भावना के विपरीत है। यह राष्ट्रवाद को व्यापार के केंद्र में रखता है और सहयोग की बजाय प्रतियोगिता को महत्व देता है। लेकिन आज की अंतरसंबंधित विश्व अर्थव्यवस्था में कोई देश अकेले आगे नहीं बढ़ सकता। आज की दुनिया साझेदारी आधारित विकास की मांग करती है — जहां तकनीक, व्यापार और नवाचार एक साथ चलते हैं। ट्रंप की नीति इस ताने-बाने को तोड़ सकती है।

ट्रंप की इस नीति से अमेरिका और अन्य देशों के बीच अविश्वास बढ़ सकता है। चीन और रूस पहले से अमेरिका से दूरी बनाए हुए हैं। अब यदि ट्रंप दक्षिण एशियाई और यूरोपीय देशों पर भी इसी प्रकार दबाव डालते हैं, तो एक नया राजनयिक विभाजन देखने को मिल सकता है। यह व्यापार युद्ध धीरे-धीरे एक नया वैश्विक ध्रुवीकरण बन सकता है — जहां देश अलग-अलग समूहों में बंट जाएंगे।

भारत को चाहिए कि वह इस व्यापार युद्ध की स्थिति में न तो अमेरिका पर पूरी तरह निर्भर हो, और न ही चीन या रूस की ओर झुके। उसे ‘आत्मनिर्भर भारत’ अभियान को सशक्त बनाते हुए यूरोप, अफ्रीका, और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ वैकल्पिक व्यापारिक संबंध मजबूत करने चाहिए। साथ ही, भारत को विश्व व्यापार संगठन जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ट्रंप की व्यापार नीति का तर्कसंगत विरोध भी करना चाहिए।

अमेरिका द्वारा लगाए गए शुल्कों का सीधा असर भारत के निर्यात पर पड़ता है। इससे भारत के उत्पाद महंगे हो जाते हैं और उनकी प्रतिस्पर्धा घटती है। भारतीय कंपनियों का मुनाफा कम होता है, जिससे उत्पादन घटता है और नौकरियाँ जाती हैं। वहीं अमेरिका में भी उपभोक्ताओं को वही वस्तुएं अधिक मूल्य पर खरीदनी पड़ती हैं। इस प्रकार यह स्थिति दोनों देशों की आम जनता के लिए घातक होती है। व्यापार युद्ध से केवल उद्योगपति नहीं, बल्कि श्रमिक, किसान, लघु उद्यमी और उपभोक्ता सभी प्रभावित होते हैं।

ट्रंप की वापसी और व्यापार युद्ध की धमकी को भारत और विश्व को हल्के में नहीं लेना चाहिए। यह केवल एक व्यक्ति की नीति नहीं, बल्कि एक ऐसी विचारधारा है जो पूरी वैश्विक व्यापारिक संरचना को चुनौती देती है। भारत को दूरदर्शिता से काम लेते हुए, वैकल्पिक साझेदारियाँ, आत्मनिर्भर आर्थिक ढांचा और वैश्विक मंचों पर सक्रिय भागीदारी के द्वारा इस संकट का समाधान खोजना होगा।

यदि व्यापार को युद्ध में बदल दिया गया, तो कोई भी राष्ट्र विजेता नहीं बनेगा — केवल दुनिया हारेगी।

ई-वोटिंग: लोकतंत्र की मजबूती या तकनीकी जटिलता?

ई-वोटिंग मतदान प्रक्रिया को सरल, सुलभ और व्यापक बनाने की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम हो सकता है। बिहार के प्रयोग से स्पष्ट है कि मोबाइल ऐप के माध्यम से मतदान प्रतिशत में बढ़ोतरी संभव है। हालांकि, तकनीकी पहुंच, साइबर सुरक्षा, मतदाता की पहचान और गोपनीयता जैसी चुनौतियाँ इस प्रणाली के समक्ष खड़ी हैं। डिजिटल असमानता और भरोसे की कमी को दूर किए बिना इसका व्यापक क्रियान्वयन उचित नहीं होगा। ई-वोटिंग का भविष्य उज्ज्वल है, बशर्ते इसे संतुलित, सुरक्षित और समावेशी ढंग से लागू किया जाए।

 डॉ. सत्यवान सौरभ

भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत है– जनभागीदारी। यह भागीदारी जितनी व्यापक होती है, उतना ही लोकतंत्र मजबूत होता है। लेकिन जब आम चुनावों में भी 100 में से केवल 60-65 लोग ही अपने मताधिकार का उपयोग करते हैं, तो सवाल उठता है कि शेष 35-40 प्रतिशत वोटर क्यों चुप रह जाते हैं? क्या यह निष्क्रियता है, उदासीनता है, या व्यवस्था की असुविधा?

इस संदर्भ में ई-वोटिंग (इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग, मोबाइल या इंटरनेट के माध्यम से) को भविष्य का समाधान बताया जा रहा है। हाल ही में बिहार में हुए नगर निकाय उपचुनाव में एक ऐतिहासिक प्रयोग हुआ — मोबाइल ऐप के जरिए कुछ क्षेत्रों में वोटिंग करवाई गई और उस क्षेत्र में मतदान प्रतिशत उल्लेखनीय रूप से बढ़ा। यह प्रयोग कई मायनों में संकेत देता है कि यदि तकनीक को सही तरीके से अपनाया जाए तो चुनावी भागीदारी क्रांतिकारी रूप से बढ़ सकती है।

कई बार यह माना जाता है कि जो लोग वोट नहीं डालते, वे लोकतंत्र को गंभीरता से नहीं लेते। लेकिन यह दृष्टिकोण अधूरा है। प्रवासी मजदूर, जो चुनाव के समय अपने घर नहीं लौट पाते; वृद्ध या अस्वस्थ नागरिक, जो लंबी कतारों में खड़े नहीं हो सकते; और दूरदराज क्षेत्रों के नागरिक, जहाँ मतदान केंद्र तक पहुँचना एक कठिनाईपूर्ण कार्य है – इन सभी को यदि घर बैठे सुरक्षित और विश्वसनीय माध्यम से वोट डालने का विकल्प मिले, तो शायद भारत का मतदान प्रतिशत 90% तक पहुँच सकता है।

ई-वोटिंग का सबसे बड़ा लाभ है सुलभता। मोबाइल फोन आज हर हाथ में है। यदि बैंकिंग, शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन, नौकरी आवेदन – सब कुछ मोबाइल से हो सकता है, तो मतदान क्यों नहीं? ई-वोटिंग से लाइन में लगने की आवश्यकता नहीं रहती, दिव्यांगजन और बुजुर्गों के लिए राहत होती है, कामकाजी वर्ग को कार्यालय से छुट्टी लेने की बाध्यता नहीं होती और प्रवासी नागरिक भी मतदान कर सकते हैं। यह तकनीक ‘हर मतदाता तक पहुंचने’ के लक्ष्य को साकार कर सकती है।

ई-वोटिंग जितनी आकर्षक है, उतनी ही चुनौतियों से घिरी भी है। सबसे पहले साइबर सुरक्षा का प्रश्न आता है – क्या वोट सुरक्षित रहेंगे? क्या हैकिंग या डेटा लीक से लोकतंत्र खतरे में पड़ सकता है? दूसरा प्रश्न है प्रामाणिकता – मोबाइल पर वोट डालने वाले व्यक्ति की पहचान कैसे सुनिश्चित होगी कि वह वही मतदाता है? तीसरा प्रश्न है गोपनीयता – वोट की गोपनीयता कैसे कायम रहेगी जब व्यक्ति अपने घर में बैठकर वोट डाल रहा है? चौथा प्रश्न है टेक्नोलॉजी की पहुंच – क्या भारत का हर नागरिक स्मार्टफोन, इंटरनेट और ऐप का उपयोग करने में सक्षम है?

बिहार नगर निकाय चुनाव में ई-वोटिंग को पायलट प्रोजेक्ट के रूप में लागू किया गया था। मोबाइल ऐप आधारित वोटिंग से बूथ स्तर पर बढ़ा हुआ मतदान प्रतिशत दर्ज किया गया। इससे यह प्रमाणित हुआ कि तकनीक अपनाने से न केवल सुविधा बढ़ती है, बल्कि मतदाता सक्रियता भी। लेकिन इसे पूर्णतः सफल मानना जल्दबाजी होगी। यह प्रयोग सीमित क्षेत्र, चयनित मतदाताओं, और निगरानी में किया गया था। पूरे देश में इस मॉडल को लागू करना वृहद तैयारी, भरोसेमंद तकनीकी आधारभूत ढाँचा और कानूनी वैधता की मांग करेगा।

भारत में आज भी 70 करोड़ से अधिक लोग ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं, जिनमें से बहुतों के पास स्मार्टफोन या तेज इंटरनेट नहीं है। डिजिटल साक्षरता की कमी, महिलाओं की तकनीकी पहुंच, बुजुर्गों का तकनीक के प्रति झुकाव – यह सभी कारक ई-वोटिंग को समावेशी नहीं, बल्कि विभाजनकारी बना सकते हैं, यदि इसे बिना तैयारी के लागू किया जाए।

इसलिए आवश्यक है कि वोटर वेरिफिकेशन सिस्टम तैयार किया जाए, जैसे आधार कार्ड आधारित OTP, फेस रिकग्निशन, या बायोमेट्रिक लॉगिन। पहले कुछ महानगरों या संस्थानों में स्वैच्छिक रूप से इसे लागू कर प्रभाव का अध्ययन किया जाए। हर चरण पर डेटा एन्क्रिप्शन और ट्रैकिंग सिस्टम का निर्माण हो। ग्रामीण और अशिक्षित वर्ग को तकनीकी मतदान की प्रक्रिया समझाई जाए। यह भी आवश्यक है कि कोई भी वोटर दबाव में या निगरानी में वोट न करे, इसके लिए गोपनीयता कानून स्पष्ट हों।

ई-वोटिंग लोकतंत्र को और भी पारदर्शी बना सकती है, बशर्ते उस पर जनविश्वास हो। यदि सही तकनीक, मजबूत साइबर सुरक्षा, पारदर्शिता, और व्यापक जनशिक्षा को मिलाया जाए, तो ई-वोटिंग न केवल मतदान प्रतिशत बढ़ा सकती है, बल्कि लोकतंत्र को सशक्त, समावेशी और समयानुकूल बना सकती है।

कोई भी प्रणाली तभी सफल होती है जब उस पर जनविश्वास हो। ई-वोटिंग में सबसे बड़ी चुनौती है लोगों का भरोसा जीतना। जिस दिन यह विश्वास बन जाएगा कि “मोबाइल पर दिया गया मेरा वोट उतना ही सुरक्षित और गोपनीय है जितना मतदान केंद्र पर”, उसी दिन भारत में 90% से अधिक मतदान हो सकता है।

ई-वोटिंग कोई कल्पना नहीं, बल्कि एक संभावनाशील भविष्य है। लेकिन इसे जल्दबाजी में नहीं, बल्कि संवेदनशीलता, समावेशिता और सुरक्षा के साथ अपनाना होगा। लोकतंत्र की मजबूती केवल कानूनों से नहीं, बल्कि हर नागरिक की भागीदारी से बनती है। और यदि तकनीक उस भागीदारी को सहज बना सकती है, तो क्यों न उसका स्वागत किया जाए – सोच-समझकर, संतुलन के साथ।

चातुर्मास है अध्यात्म की फसल उगाने का अवसर

चातुर्मास शुभारंभ-06 जुलाई 2025 पर विशेष
– मंत्र महर्षि डॉ. योगभूषण महाराज –

सृष्टि का चक्र अनवरत गतिशील है-गर्मी, वर्षा और शीत ऋतु इसका पर्याय हैं। इन्हीं ऋतुओं में से एक वर्षा ऋतु-न केवल पर्यावरणीय दृष्टि से, बल्कि आध्यात्मिक और धार्मिक जगत के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। जैन धर्म में इस अवधि को “चातुर्मास” या “वर्षायोग” कहा जाता है, जैन परम्परा में आषाढ़ी पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक का समय तथा वैदिक परम्परा में आषाढ़ से आसोज तक का समय चातुर्मास कहलाता है। इस दौरान दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परंपराओं के मुनि स्थिर एक ही स्थान पर विराजमान रहते हैं। यह नियम प्राकृतिक कारणों से भी जुड़ा है-जैसे वर्षा ऋतु में जीव-जंतु अधिक उत्पन्न होते हैं, जिससे भ्रमण करने से अहिंसा का उल्लंघन हो सकता है। वास्तव में आज के व्यस्त, तनाव एवं हिंसाग्रस्त और भौतिकतावादी युग में चातुर्मास हमें आत्ममूल्यांकन और आंतरिक शांति की प्रेरणा देता है। यह समय पर्यावरणीय संतुलन, नैतिक जीवनशैली और आध्यात्मिक चिंतन की ओर समाज को मोड़ने में सक्षम है। यदि युवा वर्ग इसे आत्मसात करे, तो समाज में सकारात्मक परिवर्तन आ सकता है।
वास्तव में पुराने समय में वर्षाकाल पूरे समाज के लिए विश्राम काल बन जाता था किन्तु संन्यासियों, श्रावकों, भिक्षुओं आदि के संगठित संप्रदायों ने इसे साधना काल के रूप में विकसित किया। इसलिए वे निर्धारित नियमानुसार एक निश्चित तिथि को अपना वर्षावास या चातुर्मास शुरू करते थे और उसी तरह एक निश्चित तिथि को उसे समाप्त करते थे। धन-धान्य की अभिवृद्धि के कारण उपलब्धियों भरा यह समय स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार, आत्म-वैभव को पाने एवं अध्यात्म की फसल उगाने की दृष्टि से भी सर्वोत्तम माना गया है। इसका एक कारण यह है कि निरंतर पदयात्रा करने वाले जैन साधु-संत भी इस समय एक जगह स्थिर प्रवास करते हैं। उनकी प्रेरणा से धर्म जागरणा में वृद्धि होती है। जन-जन को सुखी, शांत और पवित्र जीवन की कला का प्रशिक्षण मिलता है। गृहस्थ को उनके सान्निध्य में आत्म उपासना का भी अपूर्व अवसर उपलब्ध होता है।
जैन धर्म एक अत्यंत अनुशासित और तपोमयी परंपरा है, जिसमें आत्मशुद्धि, अहिंसा, संयम और साधना को सर्वाेपरि माना गया है। वर्षभर की विविध धार्मिक गतिविधियों में चातुर्मास का विशेष स्थान है। यह समय आत्मनिरीक्षण, तप, स्वाध्याय और उपवास जैसी साधनाओं का काल है, जिसमें श्रावक और साधु-साध्वियाँ दोनों ही अपनी आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर होते हैं। श्रावक इस दौरान अधिक समय धर्म, पूजन, व्रत, स्वाध्याय और दान में लगाते हैं। यह आत्म-निरीक्षण और जीवन शैली को बदलने का काल बन जाता है। चातुर्मास में पर्युषण पर्व, दशलक्षण पर्व, अनंत चतुर्दशी जैसे पर्व आते हैं जो धर्म की गहराई को समझने का अवसर प्रदान करते हैं। इस समय एकासन, उपवास, अनेक तरह के त्याग जैसे अनेक व्रतों का पालन किया जाता है। इससे आत्मिक बल और संयम में वृद्धि होती है। चातुर्मास में मुनियों के प्रवचनों के माध्यम से धर्म ग्रंथों की गूढ़ व्याख्या होती है, जिससे श्रद्धालु ज्ञान और विवेक के पथ पर आगे बढ़ते हैं। संयमित जीवन और वैराग्य की भावना इस काल में जागृत होती है, जिससे सांसारिक मोह कम होता है।
जैन चातुर्मास केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि आत्मिक उत्कर्ष की एक सुंदर प्रक्रिया है। यह काल हमें भीतर झाँकने, अपनी त्रुटियों को पहचानने और एक संतुलित, अहिंसात्मक जीवन की ओर बढ़ने का अवसर देता है। साधना और संयम की यह अनूठी परंपरा न केवल जैन समाज को बल्कि सम्पूर्ण मानवता को आध्यात्मिक दिशा देने की सामर्थ्य रखती है। चातुर्मास धार्मिक संस्कृति की आत्मा है। यह काल समाज को एक साथ जोड़ता है-सामूहिक साधना, संयम और सेवा की भावना को पोषित करता है। संतों की सेवा, रोगी-वृद्ध मुनियों की देखभाल, आहार-विहार की व्यवस्था, सत्संग और स्वाध्याय में सहयोग देना-ये सभी कार्य श्रावकों के लिए धर्म का अंग बन जाते हैं। चातुर्मास न केवल तपस्वियों के जीवन का अमृतकाल है, अपितु पूरे समाज के लिए जागृति और नवचेतना का समय है। यह चार महीने धर्म के बीज को बोने, सेवा का जल सींचने, संयम की धूप में तपाने और श्रद्धा के वृक्ष को विकसित करने का सर्वाेत्तम काल है। जब मन, वचन और काया तीनों पवित्र हों-तभी चातुर्मास सफल होता है। अपेक्षा है कि सभी संकल्प करें- इस चातुर्मास को केवल परंपरा के निर्वाह के रूप में नहीं, बल्कि आत्मिक विकास और सामाजिक समर्पण के माध्यम के रूप में अपनाएं।
 हिन्दू धर्म में देवशयनी एकादशी से ही चातुर्मास की शुरुआत होती है जो कार्तिक के देव प्रबोधिनी एकादशी तक चलती है, इस समय में श्री हरि विष्णु योगनिद्रा में लीन रहते हैं इसलिए किसी भी शुभ कार्य को करने की मनाही होती है। इसी अवधि में ही आषाढ़ के महीने में भगवान विष्णु ने वामन रूप में अवतार लिया था और राजा बलि से तीन पग में सारी सृष्टी दान में ले ली थी। उन्होंने राजा बलि को उसके पाताल लोक की रक्षा करने का वचन दिया था। फलस्वरूप श्री हरि अपने समस्त स्वरूपों से राजा बलि के राज्य की पहरेदारी करते हैं। इस अवस्था में कहा जाता है कि भगवान विष्णु निद्रा में चले जाते हैं। यों तो हर व्यक्ति को जीने के लिये तीन सौ पैंसठ दिन हर वर्ष मिलते हैं, लेकिन उनमें वर्षावास की यह अवधि हमें जागते मन से जीने को प्रेरित करती है, यह अवधि चरित्र निर्माण की चौकसी का आव्हान करती है ताकि कहीं कोई कदम गलत न उठ जाये। यह अवधि एक ऐसा मौसम और माहौल देती है जिसमें हम अपने मन को इतना मांज लेने को अग्रसर होते हैं कि समय का हर पल जागृति के साथ जीया जा सके। संतों के लिये यह अवधि ज्ञान-योग, ध्यान-योग और स्वाध्याय-योग के साथ आत्मा में अवस्थित होने का दुर्लभ अवसर है। वे इसका पूरा-पूरा लाभ लेने के लिये तत्पर होते हैं। वे चातुर्मास प्रवास में अध्यात्म की ऊंचाइयों का स्पर्श करते हैं, वे आधि, व्याधि, उपाधि की चिकित्सा कर समाधि तक पहुंचने की साधना करते हैं। वे आत्म-कल्याण ही नहीं पर-कल्याण के लिये भी उत्सुक होते हैं। यही कारण है कि श्रावक समाज भी उनसे नई जीवन दृष्टि प्राप्त करता है। स्वस्थ जीवनशैली का निर्धारण करता है। संतों के अध्यात्म एवं शुद्धता से अनुप्राणित आभामंडल समूचे वातावरण को शांति, ज्योति और आनंद के परमाणुओं से भर देता है। इससे जीवन-रूपी सारे रास्ते उजालों से भर जाते हैं। लोक चेतना शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक तनावों से मुक्त हो जाती है। उसे द्वंद्व एवं दुविधाओं से त्राण मिलता है। भावनात्मक स्वास्थ्य उपलब्ध होता है।
वर्षावास में सभी श्ऱद्धालु आत्मा से परमात्मा की ओर, वासना से उपासना की ओर, अहं से अर्हम् की ओर, आसक्ति से अनासक्ति की ओर, भोग से योग की ओर, हिंसा से अहिंसा की ओर, बाहर से भीतर की ओर आने का प्रयास करते हैं। वह क्षेत्र सौभाग्यशाली माना जाता है, जहां साधु-साध्वियों का चातुर्मास होता है। उनके सान्निध्य का अर्थ है- बाहरी के साथ-साथ आंतरिक बदलाव घटित होना। जीवन को सकारात्मक दिशाएं देने के लिये चातुर्मास एक सशक्त माध्यम है। यह आत्म-निरीक्षण का अनुष्ठान है। चातुर्मास संस्कृति की एक अमूल्य धरोहर है।
चातुर्मास का महत्व शांति और सौहार्द की स्थापना के साथ-साथ भौतिक उपलब्धियों के लिये भी महत्वपूर्ण माना गया है। इतिहास में ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जहां चातुर्मास या वर्षावास और उनमें संतों की गहन साधना से अनेक चमत्कार घटित हुए हैं। जिस क्षेत्र की स्थिति विषम हो। जनता विग्रह, अशांति, अराजकता या अत्याचारी शासक की क्रूरता की शिकार हो, उस समस्या के समाधान हेतु शांति और समता के प्रतीक साधु-साध्वियों का चातुर्मास वहां करवाया जाकर परिवर्तन को घटित होते हुए देखा गया है। क्योंकि संत वस्तुतः वही होता है जो औरों को शांति प्रदान करे। जरूरत है इस सांस्कृतिक परम्परा को अक्षुण्ण बनाने की। ऐसी परम्पराओं पर हमें गर्व और गौरव होना चाहिए कि जहां जीवन की हर सुबह सफलताओं की धूप बांटें और हर शाम चारित्र धर्म की आराधना के नये आयाम उद्घाटित करें। क्योंकि यही अहिंसा, शांति और सह-अस्तित्व की त्रिपथगा सत्यं, शिवं, सुंदरम् का निनाद करती हुई समाज की उर्वरा में ज्योति की फसलें उगाती है।
(लेखक आध्यात्मिक गुरु, सोऽहम् योग प्रवर्तक एवं संस्थापक धर्मयोग फाउंडेशन है।)
प्रेषकः

( बरुणकुमार सिंह)

दलाई लामा के चयन पर चीन का साजिशपूर्ण हस्तक्षेप

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 ललित गर्ग 

तिब्बत के आध्यात्मिक नेता एवं वर्तमान 14वें दलाई लामा, तेनजिन ग्यात्सो की उत्तराधिकार प्रक्रिया न केवल बौद्ध धर्म और तिब्बत की संस्कृति से जुड़ा विषय है, बल्कि यह अंतरराष्ट्रीय राजनीति, मानवाधिकार और भारत-चीन संबंधों के संदर्भ में भी अत्यंत महत्वपूर्ण हो गया है। चीन द्वारा इस धार्मिक एवं सांस्कृतिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने का प्रयास न केवल धार्मिक स्वतंत्रता का हनन है, बल्कि यह वैश्विक जनमत की भी अवहेलना है। इन स्थितियों में उत्तराधिकार के मसले पर भारत की भूमिका एक निर्णायक मार्गदर्शक के रूप में उभरती है और इसे दृष्टि में रखते हुए भारत ने दलाई लामा का पक्ष लिया है। ऐसा करने में कुछ भी अप्रत्याशित नहीं हैं। भारत शुरू से तिब्बतियों के अधिकार, उनके हितों और उनकी परंपराओं व मूल्यों के समर्थन में खड़ा रहा है। केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू का बयान चीन के लिए यह संदेश भी है कि इस संवेदनशील मसले पर उसकी मनमानी नहीं चलेगी।
चीन, दलाई लामा के उत्तराधिकारी के चयन में हस्तक्षेप करने की कोशिश कर रहा है, यह दावा करते हुए कि यह धार्मिक और ऐतिहासिक प्रक्रिया का हिस्सा है। हालांकि, दलाई लामा और तिब्बती समुदाय का कहना है कि यह अधिकार केवल उनके पास है और चीन का हस्तक्षेप धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है। चीन, ‘स्वर्ण कलश’ प्रणाली का उपयोग करके अपने पसंदीदा उम्मीदवार को स्थापित करना चाहता है। चीन का कहना है कि दलाई लामा का उत्तराधिकारी चुनने का अधिकार उसे ‘स्वर्ण कलश’ प्रणाली के माध्यम से है, जो 1793 में किंग राजवंश के समय से चली आ रही है। इस प्रणाली में, संभावित उत्तराधिकारियों के नाम एक कलश में डाले जाते हैं और फिर एक नाम निकाला जाता है।
दलाई लामा केवल तिब्बत के धार्मिक नेता नहीं हैं, वे तिब्बती अस्मिता, स्वतंत्रता और आत्म-सम्मान के प्रतीक हैं। वर्तमान 14वें दलाई लामा, तेनजिन ग्यात्सो, 1959 में चीन की दमनकारी नीतियों के कारण तिब्बत छोड़कर भारत आए और धर्मशाला में निर्वासित तिब्बती सरकार की स्थापना हुई। भारत ने न केवल उन्हें शरण दी, बल्कि एक शांतिपूर्ण संघर्ष के पथप्रदर्शक के रूप में वैश्विक स्तर पर उनके विचारों को मंच भी प्रदान किया। वर्तमान दलाई लामा ने इस पद के लिए अगले शख्स को चुनने की सारी जिम्मेदारी गाडेन फोडरंग ट्रस्ट को दे दी है। उन्होंने कहा है कि इस मामले में किसी और को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। उनका इशारा चीन की ओर था। रिजिजू ने भी इस बात का समर्थन किया है। वहीं, चीन ने इस मसले में साजिशपूर्ण हस्तक्षेप करते हुए कहा है कि उत्तराधिकारी का चयन चीनी मान्यताओं के अनुसार और पेइचिंग की मंजूरी से होना चाहिए। चीन दलाई लामा की उत्तराधिकार प्रक्रिया पर नियंत्रण चाहता है ताकि तिब्बती जनता को अपने ही धार्मिक नेता से अलग किया जा सके। 2007 में चीनी सरकार ने एक ‘धार्मिक मामलों पर नियंत्रण कानून’ लागू किया जिसके अंतर्गत दलाई लामा जैसे धार्मिक नेताओं की नियुक्ति भी राज्य की अनुमति से ही संभव बताई गई। यह न केवल बौद्ध धर्म के सिद्धांतों के विरुद्ध है, बल्कि यह तिब्बती जनता की आस्था और पहचान का गला घोंटने जैसा है।
1959 में जब दलाई लामा को कम्युनिस्ट सरकार के दमन के चलते भारत में शरण लेनी पड़ी थी, तब से हालात बिल्कुल बदल गए हैं- चीन बेहद ताकतवर हो चुका है और तिब्बत कमजोर। इसके बाद भी अगर तिब्बत का मसला जिंदा है, तो वजह हैं दलाई लामा। चीन इसे समझता है और इसी वजह से इस पद पर अपने प्रभाव वाले किसी शख्स को बैठाना चाहता है। चीन की योजना यह है कि जब वर्तमान दलाई लामा का देहांत हो, तो वह अपनी पसंद का एक ‘दलाई लामा’ घोषित करे, जिसे वैश्विक समुदाय भले ही स्वीकार न करे, लेकिन चीन उसकी पहचान को जबरन वैधता प्रदान करे। यह एक “राजनीतिक कठपुतली” खड़ी करने जैसा है, जिससे तिब्बत पर उसका शासन वैचारिक रूप से मजबूत हो सके। लेकिन भारत, जो दलाई लामा और तिब्बती निर्वासित समुदाय का स्वागत करता रहा है, अब उस नाजुक मोड़ पर है जहाँ केवल नैतिक समर्थन पर्याप्त नहीं होगा। चीन की विस्तारवादी नीति और आक्रामक कूटनीति को देखते हुए भारत को अपनी रणनीतिक स्थिति स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करनी होगी।
चीन ने तिब्बत की पहचान को मिटाने की हर मुमकिन कोशिश कर ली है। दलाई लामा के पद पर दावा ऐसी ही एक और कोशिश है। उसकी वजह से यह मामला धर्म से आगे बढ़कर वैश्विक राजनीति का रूप ले चुका है, जिसका असर भारत और उन तमाम जगहों पर पड़ेगा, जहां तिब्बत के लोगों ने शरण ली है। भारत पर तो चीन लंबे समय से दबाव डालता रहा है कि वह दलाई लामा को उसे सौंप दे। चीन और तिब्बत की लड़ाई भारतीय भूमि पर दशकों से चल रही है और नई दिल्ली-पेइचिंग के बीच तनाव का एक बड़ा कारण बनती रही है। दलाई लामा की घोषणा के अनुसार, उनका उत्तराधिकारी तिब्बत के बाहर का भी हो सकता है- अनुमान है कि भारत में मौजूद अनुयायियों में से कोई एक, तो यह तनाव और बढ़ सकता है। लेकिन, इसमें भारत के लिए मौका भी है। वह चीन पर कूटनीतिक दबाव डाल सकता है, जो पहलगाम जैसी घटना में भी पाकिस्तान के साथ खड़ा रहा और बॉर्डर से लेकर व्यापार तक, हर जगह राह में रोड़े अटकाने में लगा है।
धर्मशाला, जहाँ वर्तमान दलाई लामा रहते हैं, अब विश्व स्तर पर तिब्बती संस्कृति एवं बौद्ध परंपराओं का केंद्र बन गया है। भारत को इस केंद्र को आधिकारिक मान्यता देनी चाहिए और संयुक्त राष्ट्र जैसे मंचों पर इस धार्मिक स्वतंत्रता के प्रश्न को उठाना चाहिए। अब जबकि दलाई लामा स्वयं कह चुके हैं कि उनके उत्तराधिकारी का चयन भारत में हो सकता है तो भारत सरकार को इस पर एक स्पष्ट नीति बनानी चाहिए कि वह चीन द्वारा घोषित किसी भी ‘नकली’ दलाई लामा या अनुचित हस्तक्षेप को मान्यता नहीं देगा। भारत को अमेरिका, जापान, यूरोपीय संघ जैसे लोकतांत्रिक देशों के साथ समन्वय स्थापित करके इस विषय पर वैश्विक समर्थन, कूटनीतिक दबाव और अंतरराष्ट्रीय समन्वय तैयार करना चाहिए। अमेरिका भी पहले ही कह चुका है कि दलाई लामा का उत्तराधिकारी केवल तिब्बती परंपराओं के अनुसार चुना जाएगा। अमेरिका में तिब्बती बौद्धों की धार्मिक स्वायत्तता को लेकर डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन पार्टी दोनों ही मुखर रही हैं। इतना ही नहीं अमेरिकी सरकार अगले दलाई लामा के चयन में चीन के दखल को भी अमान्य करार देती आई है।
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक माओत्से तुंग की कमान में चीनी सेना लंबे समय तक तिब्बत पर कब्जे की कोशिश में जुटी रही। इसके खिलाफ जब दलाई लामा के नेतृत्व में तिब्बती बौद्धों ने आवाज उठाई तो चीनी सेना ने इसे बर्बरता से कुचल दिया। इसके बाद 1959 में चीन के तिब्बत पर कब्जा करने के बाद दलाई लामा तिब्बतियों के एक बड़े समूह के साथ भारत आ गए और यहां से ही तिब्बत की निर्वासित सरकार का संचालन करने लगे। तिब्बत में इस घटना ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। तब से दलाई लामा ने हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला को अपना घर बना लिया, जिससे बीजिंग नाराज हो गया और वहां उनकी उपस्थिति चीन और भारत के बीच विवाद का विषय बनी रही। भारत में बसे तिब्बती शरणार्थियों को शिक्षा, रोज़गार और यात्रा से संबंधित नागरिक अधिकार देने की दिशा में ठोस कदम उठाकर भारत उनके प्रति अपनी प्रतिबद्धता को और मजबूत कर सकता है। भारत में इस वक्त करीब 1 लाख से ज्यादा तिब्बती बौद्ध रहते हैं, जिन्हें पूरे देश में पढ़ाई और काम की स्वतंत्रता है। दलाई लामा को भारत में भी काफी सम्मान दिया जाता है।
दलाई लामा के उत्तराधिकारी का प्रश्न केवल एक व्यक्ति के चयन का विषय नहीं, बल्कि यह बौद्ध संस्कृति, तिब्बती आत्मनिर्णय और धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा का सवाल है। चीन की तानाशाही मानसिकता इसे नियंत्रित करना चाहती है, जबकि भारत को इसकी स्वतंत्रता की रक्षा करनी है। भारत को इस धर्म-राजनीति के संघर्ष में विवेकपूर्ण, दृढ़, निर्णायक और न्यायोचित भूमिका निभाते हुए न केवल तिब्बती जनता का, बल्कि विश्व भर के धार्मिक अधिकारों का भी संरक्षक बनना चाहिए। यही भारत की ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की नीति की सच्ची अभिव्यक्ति होगी।