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युवा पीढ़ी के साथ सामंजस्य बिठाते हुए बढ़ें आगे

हाल ही में हरियाणा के गुरुग्राम में नेशनल लेवल की टेनिस खिलाड़ी राधिका यादव(25 वर्ष) की उसके ही पिता द्वारा गोली मारकर हत्या कर दी गई, वास्तव में यह  बहुत ही दुखद और त्रासद है। अब यहां सवाल यह उठता है कि यह मामला ऑनर किलिंग का है या इसके पीछे बात कुछ और थी ? जो भी हो निर्मम हत्या की खबर ने हर किसी को झकझोर के रख दिया है। राधिका यादव की घटना के अलावा इधर नारनौंद उपमंडल के गांव बास के एक निजी स्कूल संचालक पर भी दो छात्रों ने हमला कर दिया, जहां इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई, यह बहुत ही दुखद है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार गुरुवार गुरू पूर्णिमा के दिन, नारनौंद के एक स्कूल के दो छात्रों ने स्कूल संचालक पर चाकू से हमला कर दिया था, जहां एक निजी अस्पताल में इलाज के दौरान स्कूल संचालक की मौत हो गई तथा हमले के बाद दोनों आरोपी छात्र मौके से फरार हो गए। दोनों ही घटनाओं में रिश्तों और आत्मीय अहसासों का कत्ल हुआ है।यह बहुत ही दुखद है कि आज हमारे समाज में रिश्ते तार-तार होते चले जा रहे हैं और रिश्तों में एक घुटन पैदा हो चुकी है। यह ठीक है कि समय के साथ आज मनुष्य की जरूरतें, इच्छाएं और प्राथमिकताएं बदलीं हैं,शादी, बच्चे, नौकरी, या किसी अन्य शहर में रिहायश से रिश्तों में आमूलचूल परिवर्तन आएं हैं। पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव भी हमारे रिश्तों-नातों पर कहीं न कहीं अवश्य ही पड़ा है।काम के दबाव, सामाजिक दबाव, या परिवार के सदस्यों के हस्तक्षेप जैसे बाहरी कारकों ने भी रिश्तों को कहीं न कहीं प्रभावित किया है। आपसी विश्वास, भरोसे की कमी रिश्तों में दूरियां पैदा कर रही है।समय के साथ, मनुष्य की रुचियां और प्राथमिकताएं बदलीं हैं, जिससे रिश्तों में बदलाव आएं हैं।एकल परिवार भी एक बड़ा कारण है, लेकिन रिश्तों को निभाने के लिए आपसी संवाद, विश्वास, भरोसा एक दूसरे की भावनाओं और जरूरतों को समझने के साथ ही साथ एक दूसरे के लिए समय निकालने, तथा जब कोई समस्या या परेशानी आती है, तो उसे नज़रअंदाज़ करने के बजाय, एक-दूसरे के साथ मिलकर उसका समाधान खोजने का प्रयास करने की आवश्यकता होती है। वास्तव में, कहना ग़लत नहीं होगा कि रिश्तों को बनाए रखने के लिए, धैर्य, समझ, और प्रयासों की आवश्यकता होती है। हमें यह बात अपने जेहन में रखनी चाहिए कि रिश्ते समय के साथ विकसित होते हैं, और कभी-कभी बदलाव होना स्वाभाविक है।गुरू ग्राम और नारनौंद में जो घटना हुई है,इन घटनाओं ने हर किसी के मन और आत्मा को विचलित किया है कि आखिर क्यों ऐसी घटनाएं हमारे समाज में क्योंकर घटित हो रहीं हैं ? आज हमारे में न सहनशीलता ही रही है और न ही धैर्य और संयम।हम छोटी-छोटी या यूं कहें कि ज़रा-जऱा सी बातों को अपने ‘इगो’ (अहम्) हिस्सा बना लेते हैं और क्रोध या तैसे में आकर ऐसा कुछ कर बैठते हैं कि फिर पश्चाताप के अलावा हमारे पास करने को कुछ शेष नहीं बचता है। आज आए दिन मीडिया की सुर्खियों में हम रिश्तों के कत्ल की खबरें पढ़ते-सुनते हैं, यह दर्शाता है कि आज हमारा समाज एक ग़लत दिशा में और अनैतिकता की ओर जा रहा है। गुरू ग्राम घटना के संदर्भ में सोशल मीडिया पर राधिका यादव का एक वीडियो वायरल हो रहा है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार यह वीडियो एक साल पहले शूट किया गया था। सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या यह वीडियो तो राधिका की हत्या की वजह नहीं? मीडिया में आई खबरों के अनुसार राधिका यादव ने एक साल पहले म्यूजिशियन इनामुल के साथ एक वीडियो बनाया था। इसमें लव स्टोरी दिखाई गई थी। राधिका की हत्या के बाद यह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है। हालांकि घटना के पीछे का सारा सच क्या है यह तो जांच पड़ताल के बाद ही सामने आ पाएगा। बहरहाल, यहां सवाल यह भी उठता है कि क्या जनरेशन गैप के कारण समाज में ऐसी घटनाएं जन्म ले रही हैं  अथवा इसके पीछे कोई अन्य कारण हैं ? यह ठीक है कि अलग-अलग पीढ़ियों के लोगों के बीच सोच, मूल्यों, व्यवहार और दृष्टिकोणों में अंतर पाया जाता है, लेकिन जरूरत इस बात की है कि दोनों ही पीढ़ियां (बुजुर्ग और युवा) एक दूसरे के दृष्टिकोण, व्यवहार और मूल्यों को समझें। यह ठीक है कि युवा पीढ़ी निर्णयों में बुजुर्गों की तुलना में कुछ ज्यादा उतावली व आक्रामक होती है, लेकिन बुजुर्गों का यह दायित्व बनता है कि वे युवा पीढ़ी का नैतिक व सही मार्गदर्शन करें, उन्हें समझाएं-बुझाएं। जानकारी के अनुसार राधिका सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर बनना चाहतीं थी,उनकी हत्या से खेल जगत गमगीन है। आज ‘बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ’ का जमाना है और हरियाणा की लड़कियां तो वैसे भी दुनिया में हर क्षेत्र में बेहतरीन काम कर रहीं हैं। इस संदर्भ में ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने वाले नीरज चोपड़ा ने यह बात कही है कि परिवार को लड़कियों को हर तरह का सहयोग देना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य की तरह ही एक लड़की के भी अपने अरमान और सपने होते हैं, ऐसे में यदि कोई लड़की कुछ बनना चाहती है, अथवा अपने सपनों को पंख देना चाहती है तो परिवार का यह दायित्व बनता है वह उसके सहयोग के लिए आगे आए, न कि उसके सपनों,अरमानों के आगे रोड़ा बने।दो साल पहले लगी चोट के कारण टेनिस में करियर बनाने से दूर रहने के बाद, राधिका सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर बनने की ख्वाहिश रखती थीं और वह अक्सर इंस्टाग्राम पर रील बनाकर अपलोड करती थीं। दीपक अपनी बेटी की सोशल मीडिया पर मौजूदगी से नाराज था। उसने उसे रील डिलीट करने को भी कहा था।जानकारी के अनुसार दीपक अपनी बेटी के टेनिस अकादमी चलाने, उसके बढ़ते कद और आर्थिक आजादी से भी खुश नहीं था। दीपक ने पुलिस के सामने यह कबूल किया है कि गांव वालों के तानों ने उसके गुस्से को और भड़का दिया, जो यह कहते थे कि वह अपनी बेटी की कमाई पर पल रहा है। गौरतलब है कि राधिका ने विभिन्न टेनिस टूर्नामेंटों में हरियाणा और देश का प्रतिनिधित्व किया था और कई पदक और पुरस्कार जीते थे। विभिन्न समाचार-पत्रों में गुरुग्राम में राज्य स्तरीय टेनिस खिलाड़ी की हत्या की वजह उसके रील बनाने का जुनून बताया गया है, तो अन्य पत्रों में बेटी द्वारा टेनिस अकादमी खोलने से पिता का नाराज होना बताया गया है, लेकिन वास्तव में  ये कोई ऐसी वजह नजर नहीं है कि पिता ही अपने ही जिगर के टुकड़े को गोली मार दे। जाहिर है विवाद व टकराव की लंबी पृष्ठभूमि रही होगी। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि आज हमारे सामाजिक परिवेश में लगातार बदलाव आ रहें हैं। नई पीढ़ी के सोचने-समझने के तरीके बुजुर्ग पीढ़ी से अलग व जुदा हैं। ऐसे में हमारी युवा पीढ़ी, बुजुर्गों के साथ सामंजस्य नहीं बिठा पा रही है।नई पीढ़ी की स्वच्छंदता व स्वतंत्रता और अपने बड़े फैसले स्वयं लेने की प्रवृत्ति बुजुर्ग पीढ़ी को रास नहीं आ रही है, जिसका प्रतिकार या यूं कहें कि विरोध वे हिंसक तरीके से करने लगे हैं। वहीं नारनौंद में हुई घटना हमें आक्रामक होते किशोरों की हकीकत पर विचार करने को बाध्य करती है। दो छात्रों ने प्रिंसिपल की हत्या किस वजह से की, उसकी हकीकत की असली तस्वीर हालांकि पूरी जांच के बाद ही सामने आ पाएगी, लेकिन बात कोई भी हो किसी छात्र द्वारा गुरु की हत्या करने की वजह नहीं हो सकती।कहा जा रहा है कि प्रिंसिपल सख्त और बेहद अनुशासनप्रिय थे, लेकिन ये वजह किसी शिक्षक की हत्या को तार्किकता नहीं दे सकती। अनुशासनप्रिय होना अच्छी बात है, लेकिन यह बहुत ही दुखद है कि आज की युवा पीढ़ी अनुशासन में कम ही रहना चाहती है। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज की युवा पीढ़ी कड़े अनुशासन को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। पहले के जमाने में तो शिक्षा अध्यापक केंद्रित थी और अनुशासन तोड़ने पर छात्रों की पिटाई आम बात हुआ करती थी, लेकिन आज की शिक्षा छात्र केंद्रित हो गई है। इसका यह मतलब तो नहीं है कि छात्र अपनी मनमर्जी से किसी भी तरह का व्यवहार करें। छात्रों को यह चाहिए कि वे अनुशासन में रहें और अपने अध्यापकों की नसीहतों, उनके सुझावों,उनकी बातों को ध्यान में रखकर उनका पालन करें, न कि उनका बात-बात में विरोध करें। कोई भी अध्यापक किसी भी छात्र को कभी भी ग़लत राय या ग़लत शिक्षा नहीं देता है। छात्रों को संयम व धैर्य रखते हुए नैतिकता व अच्छे स्वभाव का परिचय देना चाहिए।हमारे सोशल साइंटिस्ट को भी ऐसी घटनाओं(नारनौंद घटना) के आलोक में बदलते परिवेश में किशोरों की आक्रामकता के कारणों का मंथन करने की आवश्यकता महत्ती है। बहरहाल, गुरू ग्राम की घटना के संदर्भ में राधिका के पिता ने बेटी को तब गोली मारी, जब वह रसोई बना रही थी, तथा उस दिन उसकी मां का जन्मदिन भी था।इस संदर्भ में जांच-पड़ताल लगातार जारी है, तथा पुलिस हर कोण से पूछताछ कर रही है। पिता ने हत्या की बात कुबूल ली है और उसके शुरुआती जवाब से यही लगता है कि कथित सम्मान के नाम पर हत्या हुई है। राधिका ‘वर्सेटाइल जीनियस'(बहुआयामी प्रतिभा) थी और जाहिर है, उसे जीनियस बनाने में उसके पिता का बड़ा हाथ था। ऐसे में यहां सवाल यह उठता है कि क्या राधिका के पिता से राधिका की ख्याति, तरक्की और उसकी आत्मनिर्भरता देखी नहीं गई ? राधिका अपनी टेनिस अकादमी के अलावा, सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर बनकर सोशल मीडिया से भी कमाई कर रही थी। वह अपने पिता या परिवार पर किसी भी तरह से बोझ नहीं थी, तो फिर आखिर क्यों उसका पिता ही अपनी ही बेटी का दुश्मन हो गया ?अगर पिता ने यह बताया है कि लोग उसे बेटी की कमाई खाने वाला बताकर अपमानित करते थे, तो यह बहुत ही शर्मनाक और निंदनीय बात है। बहरहाल, कहना चाहूंगा कि आज बेटियाँ हर क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर देश का नाम रोशन कर रही हैं और वे बोझ नहीं हैं बल्कि हमारे समाज, हमारे देश का अभिमान हैं। यह बहुत ही दुखद है कि आज भी बेटियों को समाज में बेटों के समान स्थान प्राप्त नहीं है। हमें जरूरत इस बात की है कि हम समाज की बेटियों के प्रति इस मानसिक सोच को बदलें, इसमें परिवर्तन लाएं। इससे बड़ी बात भला और क्या हो सकती है कि आज के इस आधुनिक युग में भी बेटियों को कमतर आंकने वालों या पराया धन मानने वालों की कमी नहीं है। बहरहाल, आज जरूरत इस बात की है कि हम महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत रूप से सशक्त बनाने की दिशा में काम करें, ताकि वे जीवन में अपने लक्ष्यों, उद्देश्यों को प्राप्त कर सकें और आगे बढ़ सकें। वास्तव में, इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक अवसर और राजनीतिक भागीदारी जैसे क्षेत्रों में महिलाओं के लिए समान अवसर और अधिकार सुनिश्चित करना शामिल है। आज जरूरत इस बात की है कि हमारे समाज में नये बदलावों को स्वीकार करें और अपनी युवा पीढ़ी के साथ सामंजस्य बिठाते हुए आगे बढ़ें।

सुनील कुमार महला

सदानंदन मास्टर -पैर कटे पर विचारधारा नहीं बदली, अब राज्यसभा के लिए नामित

रामस्वरूप रावतसरे

देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने 4 हस्तियों को राज्यसभा के लिए मनोनीत किया है। राज्यसभा के लिए मनोनीत किए जाने वालों में पूर्व विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला, अजमल कसाब के खिलाफ केस लड़ने वाले वकील उज्जवल निकम, इतिहासकार मीनाक्षी जैन और सामाजिक कार्यकर्ता सी सदानंदन मास्टर हैं।

राज्यसभा में 12 ऐसे सदस्य राष्ट्रपति मनोनीत करते हैं लेकिन इस बार मनोनीत होने वाली हस्तियों में एक नाम सबसे अलग है। यह नाम केरल से आने वाले स्वयंसेवक सी सदानंदन मास्टर का है जिनके पैर कम्युनिस्टों ने 1994 में काट दिए थे।

सदानंदन मास्टर को राज्यसभा में मनोनीत किए जाने को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी बधाई दी है। उन्होंने एक्स (पहले ट्विटर) पर लिखा. “श्री सी सदानंदन मास्टर का जीवन साहस और अन्याय के आगे न झुकने की प्रतिमूर्ति है। हिंसा और धमकी भी राष्ट्र विकास के प्रति उनके जज्बे को डिगा नहीं सकी।” उन्होंने आगे लिखा, “एक शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी उनके प्रयास सराहनीय हैं। युवा सशक्तिकरण के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता है। राष्ट्रपति जी द्वारा राज्यसभा के लिए मनोनीत होने पर उन्हें बधाई। सांसद के रूप में उनकी भूमिका के लिए शुभकामनाएँ।”

केरल से 61 साल के सी सदानंदन मास्टर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य रहे हैं। वह बीते लगभग 5 दशक से आरएसएस के स्वयंसेवक हैं। केरल के कन्नूर के रहने वाले सदानंदन मास्टर पेशे से शिक्षक रहे हैं। सदानंदन मास्टर का पूरा परिवार ही कम्युनिस्टों का था। उनके पिता और भाई सक्रिय वामपंथी कार्यकर्ता थे। सदानंदन मास्टर के भाई वामपंथी छात्र संगठन एसएफआई के पुराने काडर थे। घर में सभी के कम्युनिस्ट होने के बावजूद सदानंदन मास्टर का झुकाव आएसएस की तरफ था।

2016 में द न्यूज मिनट को दिए एक इंटरव्यू में सदानंदन मास्टर ने बताया था कि वह 12वीं कक्षा तक लगातार संघ के कामों में लगे हुए थे। उन्होंने बताया था कि इसके बाद वह जब आगे की पढ़ाई के लिए कॉलेज पहुँचे तो वह वामपंथ के प्रभाव में आ गए और कुछ दिनों तक खुद भी कम्युनिस्ट बन गए। उन्होंने बताया कि कम्युनिस्ट बनने के बावजूद उनका झुकाव संघ की तरफ होता रहा और उनको यह प्रतीत हुआ मार्क्सवाद नहीं बल्कि राष्ट्रवाद की विचारधारा ही सही है। उन्होंने बताया था कि इसके बाद वह मलयालम कवि की ‘भारत दर्शानांगल’ कविता पढ़ने के बाद पूरी तरह वापस स्वयंसेवक हो गए।

सदानंदन मास्टर की लगातार समाजसेवा और उनके संघर्ष को देखते हुए 2016 में उन्हें भाजपा ने कूथूपरम्बू विधानसभा से टिकट भी दिया था। हालाँकि, वह कम्युनिस्ट उम्मीदवार केके शैलजा से हार गए थे। केके शैलजा बाद में केरल की स्वास्थ्य मंत्री बनी थीं।

सदानंदन मास्टर की कहानी इन सबसे अलग एक और है। यह कहानी उनके विचारधारा के प्रति समर्पण और कम्युनिस्टों की हिंसा से जुड़ी हुई है। सदानंदन मास्टर की यह कहानी 1994 में पैर काटे जाने से जुड़ी है। यह कीमत उन्हें वामपंथी विचारधारा छोड़ने के लिए चुकानी पड़ी थी।

सदानंदन की उम्र 30 साल की थी जब यह भयावह घटना हुई थी। वह पेरिनचरी, मट्टनूर नगर पालिका में सरकार-एडेड कुजिक्कल लोअर प्राइमरी स्कूल में एक शिक्षक थे। 25 जनवरी, 1994 को सदानंदन मास्टर अपनी बहन की शादी की व्यवस्था पर बात करने के बाद शाम को अपने चाचा के घर से लौट रहे थे। जैसे ही वह बस से नीचे उतरे और अपने घर की ओर चलना शुरू कर दिया, कुछ लोगों ने उन्हें घेर लिया। उन्होंने उनकी पिटाई चालू कर दी। यह सीपीआई (ड) के गुंडे थे। जिन्होंने न केवल मास्टर को बेरहमी से पीटा बल्कि उनके दोनों पैरों को बीच सड़क पर काट दिया।

खून के प्यासे वामपंथियों ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि सदानंदन मास्टर अब उनकी विचारधारा से ताल्लुक नहीं रखते थे और आरएसएस का हिस्सा बन चुके थे। कम्युनिस्ट इसे एक धमकी के तौर पर दिखाना चाहते थे कि जो भी वामपंथ छोड़ेगा, उसका यही हश्र होगा। कन्नूर की भीड़ में मौजूद कोई व्यक्ति उन्हें बचाने ना आए, इसके लिए वामपंथियो ने वहाँ पर एक बम धमाका भी किया। इसके बाद उन्हें वहीं मरा समझ कर ऐसे छोड़ दिया। उनको बाद में अस्पताल में भर्ती करवाया गया और उनके कटे पैर भी अस्पताल ले जाए गए पर उनका कुछ भी नहीं हो सका।

पैर काटे जाने के चलते मास्टर सदानंदन चलने-फिरने में सक्षम नहीं रहे थे। उनका कई दिनों तक अस्पताल में इलाज चला। सदानंदन मास्टर को इसके बाद प्रोस्थेटिक लेग्स यानी नकली पैर लगाए गए। उन्होंने इनसे चलना 6 महीने में सीख लिया और वापस संघ के काम में लग गए।

कम्युनिस्टों का जानलेवा हमला भी उन्हें रोक नहीं पाया। निरंतर वह समाजसेवा में जुटे रहे। सदानंदन मास्टर ने इसके बाद केरल में भाजपा को खड़ा करने में सहयोग दिया। उनके चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी हिस्सा लिया था और उनके साहस की प्रशंसा की थी। वर्ष 2007 में उन्हें न्याय मिला था और उन पर हमला करने वाले कम्युनिस्टों को सजा और जुर्माना दोनों दिया गया था। बाद में हाई कोर्ट ने भी कम्युनिस्टों की यह सजा बरकरार रखी थी। 2025 में भी केरल हाई कोर्ट ने इस सजा बरकरार रखा था।

जानकारों के अनुसार सदानंदन मास्टर को राज्यसभा में मनोनीत किए जाना उनके द्वारा की गई समाज सेवा एवं अपने कर्तव्य के प्रति समर्पण का ही परिणाम है।

रामस्वरूप रावतसरे

अंतरिक्ष में खेती-किसानी और हिरण्यगर्भ

स्तम्भ : विज्ञान- नूतन पुरातन
संदर्भः शुभांशु शुक्ला ने की अंतरिक्ष में खेती-किसानी



प्रमोद भार्गव
अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आइएसएस) के प्रवासी भारतीय शुभांशु शुक्ला ने भविष्य की सुरक्षित खेती-किसानी के लिए अंतरिक्ष में बीज बो दिए हैं। यह सुनने में आश्चर्य होता है कि अंतरिक्ष लोक में खेती ? आखिर कैसे संभव है ? मनुष्य धरती का ऐसा प्राणी है, जिसकी विलक्षण बुद्धि नए-नए मौलिक प्रयोग करके धरती के लोगों का जीवन सरल व सुविधाजनक बनाने में लगी है। इसी क्रम में अब अंतरिक्ष में किया जा रहा खेती करने का प्रयोग है। परंतु ऋग्वेद के हिरण्यगर्भ सूक्त में हम देखते हैं कि अंतरिक्ष में जीव-जगत को पैदा करने वाले सभी सूक्ष्म जीवों के रूप में पूर्व से ही विचरण कर रहे हैं।
हमें ज्ञात है कि 11 जून 2025 को अपने तीन अन्य साथी यात्रियों के साथ शुभांशु ने एक्सिओम-4 अभियान के अंतर्गत अंतरिक्ष की उड़ान भरी थी। यहां यह भी हैरानी पाठकों की हो सकती है कि जब फाल्कन-9 ड्रैगन रॉकेट की गति 27 हजार किमी थी, फिर इतना समय कैसे लग गया ? प्रश्न तार्किक है। इसकी मुख्य वजह है, वायुमंडल का गुरुत्वाकर्षण! असल में यहां शून्य गुरुत्वाकर्षण के साथ ‘निर्वात‘ यानी खाली जगह की मौजदूगी है। अर्थात यह ऐसी स्थिति दर्शाता है, जहां कोई हवा या गैस उपस्थित नहीं होती है। इस कारण यान की गति धीमी होती है। अब तक 633 यात्री अंतरिक्ष स्टेशन पर अपने कदम रख चुके हैं। शुभांशु 634वें यात्री हैं। इस अभियान का लक्ष्य इस अंतरिक्ष ठिकाने पर विशेष खाद्य पदार्थ और उनके पोषण संबंधी 60 प्रयोग करना है। इनमें सात इसरो यानी भारतीय अनुसंधान संगठन के हैं। हम इन्हीं खाद्य बीजों की बात करेंगे।
शुभांशु शुक्ला अपने साथ गाजर और मूंग की दाल का हलवा और आमरस ले गए थे। ये सब उनकी मां ने अपने हाथों से बनाए थे। मां के हाथ से बनी भोज्य सामग्री में मीठा स्वाद तो होता ही है, साथ ही पुत्र के सुखी और उपलब्धियों से भरे मनोभाव की उन विद्युतीय तरंगें का समावेश भी होता है, जो प्रतिपल अंगुलियों से फूटती रहती हैं। उन्होंने यह भोजन अपने साथियों को भी खिलाया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुभांशु से हुई अठारह मिनट की बातचीत में यह पूछा भी ‘क्या अपने साथियों को भारतीय व्यंजन खिलाए ?‘ शुभांशु ने बताया, ‘हम सभी ने इसे खाया और सभी को यह पसंद भी आया।‘ भला इन शाकाहारी व्यंजनों की दुनिया में तुलना कहां ?
अंतरिक्ष स्टेशन प्रतिदिन पृथ्वी की 16 बार परिक्रमा करता है। यात्रियों को विभिन्न 16 सूर्योदय और 16 सूर्यस्त देखने का रोमांच और आनंद मिलता है। ऋग्वेद के एक मंत्र में कहा गया है, सूर्य अनेक हैं। सात दिशाएं हैं, उनमें नाना सूर्य हैं,
सप्त दिशो नानासूर्याः सप्त होतार ऋत्विजः।
ऋग्वेदः9.114.3
अथर्ववेद में सात विशाल सौर मंडल उल्लेखित हैं..,
यस्मिन् सूर्या अर्पिताः सप्त साकम।
अथर्ववेदः 13.3.10
मेथी और मूंग की दाल के बीज अंतरिक्ष में बोकर अंकुरित करने के प्रयोग का नेतृत्व धरती से दो कृषि विज्ञानी रविकुमार होसामणि और सुधीर सिद्धपुरेड्डी कर रहे हैं। एक्सिओम स्पेस अभियान की ओर से जारी एक बयान में कहा है कि यात्रियों के धरती पर लौटने के बाद बीजों को कई पीढ़ियों तक उगाया जाएगा। तंत्र और पोषण की क्रमिक विकास की संरचना होने वाले बदलावों को ज्ञात किया जा सके। शुभांशु एक अन्य प्रयोग के लिए सूक्ष्म शवाल ले गए हैं, जिससे भोजन, प्राणवायु (ऑक्सीजन) और यहां तक की जैव ईंधन उत्पन्न करने की क्षमता को वैज्ञानिक ढंग से परखा जा सके।
अंतरिक्ष में आनुवंशिकी सूक्ष्मजीवी पारिस्थितिकी तंत्र और उनकी पोशण संरचना की जानकारी हमें अपने प्राचीन संस्कृत ग्रंथ श्रीमद्भागवत में भी मिलती है। कश्यप-दिति पुत्र हिरण्यकश्यप केवल बाहुबलि ही नहीं है, अपितु अपनी मेधा और अनुसंधानमयी साधना से उन्होंने चमत्कारिक वैज्ञानिक उपलब्धियां भी प्राप्त की हुई हैं। सभी बुद्धिमान जानते हैं कि प्रकृति में उपलब्ध प्रत्येक पदार्थ के सूक्ष्म कण स्वमेव संयोजित होकर केवल नव-सृजन ही नहीं करते हैं, अपितु उन्हें संयोजित और वियोजित (विघटित) भी करते हैं। अतएव इस अनंत ब्रह्मांड में दृश्य एवं अदृश्यमान संपूर्ण पदार्थों के तत्व उपलब्ध हैं। सूर्य की किरणों में भी सभी पदार्थों को उत्सर्जित करने वाले तत्वों की उपस्थिति मानी जाती है। हिरण्यकश्यप वायुमंडल में विचरण कर रहे इन मूलभूत तत्वों पर नियंत्रण की वैज्ञानिक विधि में निपुण थे। श्रीमद्भागवत के स्कंध-1, अध्याय-4 में कहा है..,
अकृश्टपच्या तस्यासीत सप्त द्वीपवतीमही।
तथा कामुधाद्यौस्तु नानाश्चर्य पदं नभः।।
अर्थात दैत्यराज हिरण्यकश्यप अपने तप और योग से इतना तेजस्वी हो गया था कि पृथ्वी के सातों द्वीपों पर उसका एक छत्र राज था। बिना जोते-बोए ही धरती से सभी प्रकार के अन्न पैदा होते थे। ‘अकृश्टपच्या‘ का अर्थ, भूमि को बिना जोते-बोए फसल उत्पन्न करने की विधि कहा जाता था। यानी अंतरिक्ष में या तो बीज अंकुरित किए जाते थे या प्राकृतिक रूप में उन्हें हासिल कर लिया जाता था। क्योंकि उनके उत्सर्जन के सूक्ष्म जीव वायुमंडल में हमेशा मौजूद रहते हैं।
अब दुनिया के भौतिक विज्ञानी मानने लगे हैं कि अंतरिक्ष और अनंत ब्रह्मांड में विविध रूपों में जीव-जगत व वनस्पतियों का सृजन करने वाले बीजों के सूक्ष्म कण हमेशा विद्यमान रहते हैं। गन्ना (ईख) एक बार बोने के बाद कई साल तक फसल देता है। रूस के वैज्ञानिकों ने ऐसे संपुटिका (कैपस्यूल) बना लिए हैं, जिनमें बीजों के कई-कई मूल कण संयोजित रहते हैं। आनुवंशिक रूप से बीजों को परिवर्धित करके कुछ इसी तरह के उपाय किए जा रहे हैं।
हमारे दिव्यज्ञानी ऋशियों ने ऋग्वेद के दसवें मंडल के ‘हिरण्यगर्भ‘ सूक्त में सृजन के सूक्ष्म जीव को हजारों वर्श पहले ज्ञात कर लिया था.., हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक असीत।
स दाधार पृथिवीं धामुतेमां कस्मै देवाय हविशा विधेम।।
अर्थात, इस सृश्टि के निर्माण से पहले इसके आदि स्रोत के रूप में हिरण्यगर्भ अत्यंत सूक्ष्म रूप में विद्यमान था। इसी सूक्ष्म से सृश्टि का विस्तार हुआ। इस विशाल सृश्टि के आधारभूत मूल में प्रकृति अत्यंत सूक्ष्म है, जिसे केवल अनुमान से ही जाना जा सकता है। हिरण्यगर्भ में हिरण्य स्वर्ण सी चमकने वाली ऊर्जा का प्रकाशपुंज है। ‘गर्भ‘ से आशय कोख या अंडे से है। यही वह प्राकृतिक अवयव, अंग, बीज या उपकरण हैं, जिनसे संपूर्ण जीव-जगत पैदा होता है।

प्रमोद भार्गव

टैरिफ युद्ध अमेरिका पर ही भारी पड़ सकता है

The tariff war could backfire on the US

अमेरिका में श्री डानल्ड ट्रम्प के दूसरी बार राष्ट्रपति बनने के साथ ही दुनिया के लगभग समस्त देशों के साथ ट्रम्प प्रशासन द्वारा टैरिफ युद्ध की घोषणा कर दी गई है। अमेरिका में विभिन्न देशों से होने वाले आयात पर भारी भरकम टैरिफ लगाकर एवं टैरिफ की दरों में बार बार परिवर्तन कर तथा इन टैरिफ की दरों को लागू करने की तिथि में परिवर्तन कर ट्रम्प प्रशासन टैरिफ युद्ध को किस दिशा में ले जाना चाह रहा है, इस सम्बंध में अब स्पष्टता का पूर्णत: अभाव दिखाई देने लगा है। अब तो विभिन्न देशों को ऐसा आभास होने लगा है कि अमेरिकी प्रशासन विभिन्न देशों पर टैरिफ की दरों के माध्यम से अपना दबाव बनाने का प्रयास कर रहा है ताकि ये देश अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते को अमेरिकी शर्तों पर शीघ्रता के साथ सम्पन्न करें। 

श्री ट्रम्प द्वारा कई बार यह घोषणा की गई है कि भारत के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौता शीघ्र ही सम्पन्न किया जा रहा है। अमेरिका एवं भारत के बीच द्विपक्षीय व्यापार समझौते को अंतिम रूप देने के उद्देश्य से भारतीय प्रतिनिधि मंडल अमेरिका में गया था तथा निर्धारित समय सीमा से अधिक समय तक वहां रहा एवं ऐसा कहा जा रहा है कि द्विपक्षीय समझौते के अंतिम रूप को अमेरिकी राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जा चुका है परंतु अभी तक अमेरिका द्वारा अमेरिका एवं भारत के बीच द्विपक्षीय व्यापार समझौते की घोषणा नहीं की जा रही है। हालांकि, इस बीच अमेरिका द्वारा कई देशों के विरुद्ध टैरिफ की दरों को बढ़ा दिया गया है। विशेष रूप से जापान एवं दक्षिणी कोरिया से अमेरिका को आयात होने वाली वस्तुओं पर 1 अगस्त 2025 से 25 प्रतिशत की दर से टैरिफ लगाया जाएगा। इसी प्रकार, 12 अन्य देशों से अमेरिका में होने वाले आयात पर भी टैरिफ की बढ़ी हुई नई दरें लागू किये जाने का प्रस्ताव किया गया है। इस सम्बंध में अमेरिकी राष्ट्रपति ने इन 14 देशों के राष्ट्राध्यक्षों को पत्र भी लिखा है। इस सूची में भारत का नाम शामिल नहीं है। 

पूर्व में अमेरिका द्वारा चीन से आयात होने वाले उत्पादों पर भारी भरकम टैरिफ की घोषणा की गई थी। चीन ने भी अमेरिका से होने वाली आयातित वस्तुओं पर लगभग उसी दर पर टैरिफ लागू करने की घोषणा कर दी थी। साथ ही, चीन ने विभिन्न देशों को दुर्लभ खनिज पदार्थों (रेयर अर्थ मिनरल) के निर्यात पर रोक लगा दी थी। अमेरिका में चीन के इस निर्णय का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था। जिसके दबाव में अमेरिका ने चीन के साथ व्यापार समझौता करते हुए चीन से आयात होने वाली विभिन्न वस्तुओं पर टैरिफ की दरों को तुरंत कम कर दिया। अमेरिका द्वारा इसी प्रकार का एक द्विपक्षीय व्यापार समझौता ब्रिटेन के साथ भी सम्पन्न किया जा चुका है। पूर्व में, ट्रम्प प्रशासन ने 90 दिवस की अवधि में 90 देशों के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते करने की बात कही थी तथा 90 दिवस की समयावधि 9 जुलाई को समाप्त होने के पश्चात भी केवल दो देशों ब्रिटेन एवं चीन के साथ ही द्विपक्षीय व्यापार समझौता सम्पन्न हो सका है। भारत के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते को अंतिम रूप दिया जा चुका है परंतु इसकी अभी तक घोषणा नहीं की गई है। द्विपक्षीय समझौते के लिए शेष देशों पर दबाव बनाने की दृष्टि से ही इन देशों से अमेरिका को होने वाले आयात पर टैरिफ की दरों को एक बार पुनः बढ़ाये जाने का प्रस्ताव है और इन बढ़ी हुई दरों को 1 अगस्त 2025 से लागू करने की योजना बनाई गई है। 

वैश्विक स्तर पर अमेरिका द्वारा छेड़े गए इस टैरिफ युद्ध से निपटने के लिए भारत एक विशेष रणनीति के अंतर्गत कार्य करता हुआ दिखाई दे रहा है। भारत ने वैश्विक मंच पर न तो अमेरिका के टैरिफ की दरों में वृद्धि सम्बंधी निर्णयों की आलोचना की है और न ही भारत में अमेरिका से आयातित वस्तुओं पर टैरिफ बढ़ाने की धमकी दी है। बल्कि, भारत ने तो अमेरिका से आयात होने वाली कुछ विशेष वस्तुओं पर टैरिफ को कम कर दिया है। दरअसल, भारत इस समय विकास के उस चक्र में पहुंच गया है जहां पर भारत को अपना पूरा ध्यान आर्थिक क्षेत्र को आगे बढ़ाने पर केंद्रित करने की आवश्यकता है। भारत को यदि वर्ष 2047 तक विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में शामिल करना है तो आगे आने वाले लगभग 20 वर्षों तक लगातार लगभग 8 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर को बनाए रखना अति आवश्यक है। इसलिए भारत एक विशेष रणनीति के अंतर्गत अपने आर्थिक विकास पर अपना ध्यान केंद्रित करता हुआ दिखाई दे रहा है। भारत के रूस के साथ भी अच्छे सम्बंध हैं तो अमेरिका से भी अपने सम्बन्धों को सामान्य बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील है। भारत के इजराईल के साथ भी अच्छे सम्बंध हैं तो ईरान के साथ भी भारत के व्यापारिक सम्बंध हैं। रूस एवं यूक्रेन युद्ध के बीच भी भारत ने दोनों देशों के साथ अपना संतुलित व्यवहार बनाए रखा है। इसी कड़ी में, चीन के साथ भी आवश्यकता अनुसार बातचीत का दौर जारी रखा जा रहा है, बावजूद इसके कि कई बार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर चीन अप्रत्यक्ष रूप से भारत के विरुद्ध कार्य करता हुआ दिखाई देता है। 

अभी हाल ही में चीन ने भारत को दुर्लभ खनिज पदार्थों (रेयर अर्थ मिनरल) की आपूर्ति पूर्णत: रोक दी है। साथ ही, मानसून का मौसम भारत में प्रारम्भ हो चुका है एवं भारत में कृषि क्षेत्र में गतिविधियां अपने चरम स्तर पर पहुंच गई हैं, ऐसे अत्यंत महत्वपूर्ण समय पर चीन द्वारा भारत को उर्वरकों की आपूर्ति पर परेशनियां खड़ी की जा रही हैं। चीन द्वारा समय समय पर भारत के लिए खड़ी की जा रही विभिन्न समस्याओं के हल हेतु भारत ने विश्व के पूर्वी देशों एवं विश्व के दक्षिणी भाग में स्थित देशों की ओर रूख किया है। अभी हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने घाना, नामीबिया, अर्जेंटीना, ब्राजील, त्रिनिदाद एवं टोबैगो जैसे देशों की यात्रा इस उद्देश्य से सम्पन्न की है ताकि दुर्लभ खनिज पदार्थों की आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके। इन देशों में दुर्लभ खनिज पदार्थ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। 

भारत में 140 करोड़ नागरिकों का विशाल बाजार उपलब्ध है, जिसे अमेरिका एवं चीन सहित विश्व का कोई भी देश नजर अन्दाज नहीं कर सकता है। यदि अमेरिका एवं चीन भारत के साथ अपने सम्बन्धों को किसी भी कारण से बिगाड़ने का प्रयास करते हैं तो लम्बी अवधि में इसका नुक्सान इन्हीं देशों को अधिक होने जा रहा है है क्योंकि ऐसी स्थिति में वे भारत के विशाल बाजार से वंचित हो जाने वाले हैं। भारत तो वैसे भी पिछले लम्बे समय से आत्मनिर्भर होने का लगातार प्रयास कर रहा है एवं कई क्षेत्रों में भारत आज आत्मनिर्भर बन भी गया है। अतः भारत की निर्भरता अन्य देशों पर अब कम ही होती जा रही है। भारत आज फार्मा, ऑटो, कृषि, इंजीनीयरिंग, टेक्नॉलोजी, स्पेस तकनीकी, सूचना प्रौद्योगिकी, आदि क्षेत्रों में बहुत आगे निकल चुका है। आज भारत विकास के उस पड़ाव पर पहुंच चुका है, जिसकी अनदेखी विश्व का कोई भी देश नहीं कर सकता है। भारत को हाल ही में अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में कच्चे तेल के अपार भंडार होने का भी पता लगा है। एक अनुमान के अनुसार, यह भंडार इतने विशाल हैं कि आगामी 70 वर्षों तक भारत को कच्चे तेल की आपूर्ति होती रहेगी। इसी प्रकार, भारत में कर्नाटक स्थित कोलार स्वर्ण खदानों में भी एक बार पुनः खुदाई का कार्य प्रारम्भ किया जा रहा है। आरम्भिक अनुमान के अनुसार, प्रतिवर्ष लगभग 750 किलोग्राम स्वर्ण की आपूर्ति भारत को इन खदानों से हो सकती है।        

पूरे विश्व में आज केवल भारत ही युवा देश की श्रेणी में गिना जा रहा है क्योंकि भारत की 65 प्रतिशत से अधिक आबादी 35 वर्ष से कम आयुवर्ग में हैं तथा लगभग 40 प्रतिशत आबादी 15 से 35 वर्ष के आयुवर्ग में शामिल हैं। अतः एक तरह से भारत आज विश्व के लिए श्रम का आपूर्ति केंद्र बन गया है। लम्बे समय से रूस एवं यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध के बाद जब इन देशों में आधारभूत सुविधाओं को पुनर्विकसित करने का कार्य प्रारम्भ होगा तो इन्हें भारतीय श्रमिकों एवं इंजीनियरों की आवश्यकता पड़ने जा रही है, एक अनुमान के अनुसार अकेले रूस द्वारा में लगभग 10 लाख भारतीयों की मांग की जा सकती है। इसी प्रकार, इजराईल एवं हम्मास तथा ईरान के बीच युद्ध की समाप्ति के पश्चात इन देशों में भी बुनियादी ढांचे को पुनः मजबूत करने का कार्य जब प्रारम्भ होगा तो इन देशों को भी भारतीय नागरिकों की आवश्यकता पड़ेगी। इजराईल, जापान सिंगापुर एवं ताईवान आदि देशों द्वारा तो पूर्व में भी भारतीय इंजिनीयरों की मांग की जाती रही है। अमेरिका, ब्रिटेन एवं अन्य यूरोपीय देशों में तो डॉक्टर एवं इंजीनियरों की भारी मांग पूर्व से ही बनी हुई है। अतः आज भारत पूरे विश्व में डॉक्टर, इंजीनियर तथा श्रमिक उपलब्ध कराने के मामले बहुत आगे है। अतः भारत की इस ताकत की अनदेखी आज कोई भी देश नहीं कर सकता है।  

प्रहलाद सबनानी 

ट्रांसफर नीति 2025: नतीजे तैयार, पर इरादे अधूरे!, सीलबंद लॉकरों में बंद शिक्षक की उम्मीदें

 डॉ. सत्यवान सौरभ

हरियाणा के शिक्षक एक बार फिर से असमंजस, अफवाहों और अधूरी सूचनाओं के बीच फंसे हुए हैं। स्कूलों में रोज़ सुबह की शुरुआत चाय और स्टाफरूम की बातचीत से होती है – “ट्रांसफर कब होंगे?” इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं, पर अनुमान सबके पास है। कोई कहता है अगस्त में, कोई कहता है कैबिनेट के बाद, कोई मानता है अब तो सत्र बीच में आ चुका है, इसलिए विभाग कुछ नहीं करेगा। सब कुछ ठहरा हुआ, धुंधला और अधर में लटका हुआ प्रतीत होता है।

मॉडल संस्कृति विद्यालयों और प्रधानमंत्री श्री योजना के तहत चयनित स्कूलों में शिक्षक तैनाती हेतु जो परीक्षा हुई थी, उसके परिणाम बनकर तैयार हैं। लेकिन घोषणा इसलिए नहीं हो रही क्योंकि सामान्य तबादला नीति 2025 को अभी तक कैबिनेट की स्वीकृति नहीं मिली है। यहां यह प्रश्न अनिवार्य हो जाता है कि क्या परीक्षा करवाने से पहले यह सुनिश्चित नहीं किया गया था कि नीति बन चुकी है या उसके अनुमोदन की समयसीमा क्या होगी? यदि परीक्षा का परिणाम नीति पर टिका है, तो उसे पहले क्यों लिया गया? यह एक प्रशासनिक चूक है या राजनीतिक विलंब?

परिणाम न घोषित करने का तर्क यह भी दिया जा रहा है कि वे सीलबंद लिफाफों में रखे गए हैं जिन्हें किसी ने नहीं देखा, ताकि कोई हस्तक्षेप संभव न हो। यह “सीलबंद ईमानदारी” की परंपरा एक ओर दिखाती है कि विभाग पारदर्शिता का ढोंग कर रहा है और दूसरी ओर यह भी स्पष्ट करता है कि परिणामों के साथ कुछ न कुछ संभावित ‘खेल’ से विभाग खुद भी डरता है।

इस स्थिति को और अधिक हास्यास्पद बनाती है विभाग की दोहरी प्रवृत्ति – जब वह SMC (School Management Committee) जैसी संरचना बनाकर एक महीने में ही भंग कर देता है। यही विभाग है जो दिसंबर से तबादले करवाने की बात कर रहा है और जुलाई तक कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया। हर सप्ताह एक नया आदेश आता है और अगले सप्ताह कोई दूसरा अधिकारी उसे रद्द करा देता है। इससे यह साफ हो जाता है कि विभाग में समन्वय का सर्वथा अभाव है। हर कोई अपने स्तर पर “फैसला” लेने को तत्पर है, लेकिन शिक्षा व्यवस्था को दिशा देने वाला कोई नहीं।

शिक्षक वर्ग इस भ्रम और अपारदर्शिता से मानसिक थकावट का शिकार हो चुका है। हर विद्यालय में इसी एक मुद्दे पर बातचीत होती है – कोई ट्रांसफर की फाइल बनवा रहा है, कोई CCL फॉर्म भरवा रहा है, कोई रिजल्ट आने की प्रतीक्षा में है, और कोई अपने संपर्कों से जानकारी जुटाने की कोशिश में है। एक प्रकार का मानसिक खिंचाव और अस्थिरता है जो शिक्षकों के काम को प्रभावित कर रहा है। ऐसे में यह सोचने योग्य है कि जिस व्यवस्था पर भविष्य की पीढ़ी टिकी है, वह खुद अस्थिर और भ्रामक हो गई है।

इसके पीछे प्रशासन की निर्णयहीनता तो है ही, साथ ही यह राजनीतिक प्राथमिकताओं की भी उपेक्षा है। चुनावों, घोषणाओं, और दिखावटी योजनाओं में सरकारें व्यस्त हैं लेकिन शिक्षक तबादला नीति जैसी बुनियादी जरूरतों को लेकर कोई स्पष्टता नहीं है। जब शिक्षक मानसिक रूप से अस्थिर रहेंगे, तो बच्चों की पढ़ाई कैसे स्थिर रह पाएगी? हरियाणा के कई जिलों में एक ही शिक्षक दो-दो स्कूलों में पढ़ा रहा है, कुछ स्कूलों में विषय विशेषज्ञ ही नहीं हैं, और दूसरी ओर जिनका तबादला होना चाहिए, वे वर्षों से एक ही स्थान पर टिके हैं।

MIS (मैनजमेंट इंफॉर्मेशन सिस्टम) को आधार बनाकर ऑनलाइन तबादला प्रणाली की बात की गई थी। पर नीति न बनने के कारण यह सिस्टम भी अपडेट नहीं हो पा रहा। तकनीक का नाम लेकर प्रक्रियाओं को पारदर्शी बनाने का दावा तो किया गया, लेकिन जब तक नीति नहीं आती, तब तक सब कुछ एक क्लिक से दूर है। यह एक ऐसा डिजिटल सपना है जो अभी तक साकार नहीं हुआ।

शिक्षकों का प्रमोशन हुआ, कई स्थान रिक्त हो गए। अब सवाल यह है कि क्या ट्रांसफर प्रमोशन के बाद होंगे? अगर हां, तो फिर कितने और प्रमोशन लंबित हैं? इन सवालों का कोई जवाब विभागीय वेबसाइट पर नहीं है, केवल शिक्षक संगठनों के व्हाट्सएप ग्रुप में अफवाहें हैं। यही नहीं, विभाग के ही एक अधिकारी के अनुसार कैबिनेट की बैठक अगस्त में प्रस्तावित है। इसका मतलब है कि नीति अगस्त के अंतिम सप्ताह तक आएगी, तब तक तो सत्र का मध्य आ जाएगा। और फिर यही तर्क दिया जाएगा कि बच्चों की पढ़ाई बाधित न हो, इसलिए तबादले अगले सत्र तक स्थगित किए जाएं।

यह चक्र हर साल दोहराया जाता है। नीति नहीं बनती, फिर कहा जाता है सत्र बीच में है। शिक्षक अपनी योजना नहीं बना पाते। न वे CCL ले सकते हैं, न मानसिक रूप से तैयार हो सकते हैं कि उन्हें स्थानांतरण मिलेगा या नहीं। विभाग एक गंभीर संकट में है – जहाँ फाइलें चल रही हैं पर निर्णय नहीं।

इस असमंजस का सबसे बड़ा नुकसान विद्यार्थी झेलते हैं। जब कोई शिक्षक दो साल से ट्रांसफर की प्रतीक्षा में है, तो उसका ध्यान स्वाभाविक रूप से पढ़ाई से हटता है। कई शिक्षक ऐसे हैं जो घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर कार्यरत हैं और पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के कारण मन से अशांत हैं। क्या यही मानसिकता लेकर वे बच्चों को शिक्षा दे पाएंगे?

यह भी सत्य है कि हरियाणा में तबादलों के नाम पर वर्षों से राजनीति हुई है। कभी ट्रांसफर लिस्ट में भाई-भतीजावाद होता है, कभी पंचायत चुनावों से पहले तबादले रुक जाते हैं, कभी किसी नेता के कहने पर नाम जोड़ या घटा दिए जाते हैं। पारदर्शिता की बात केवल नीति पत्रों में होती है, ज़मीन पर उसका कोई संकेत नहीं मिलता।

यदि सरकार और विभाग वास्तव में शिक्षा सुधार को गंभीरता से लेना चाहते हैं, तो उन्हें इस स्थिति को सुधारने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। सबसे पहले – स्पष्ट समयसीमा दी जाए कि तबादला नीति कब आएगी। दूसरा – जब तक नीति नहीं आती, तब तक परीक्षा परिणामों को लेकर भ्रम न फैलाया जाए। तीसरा – विभागीय समन्वय बढ़ाया जाए ताकि एक आदेश आने के बाद कोई दूसरा अधिकारी उसे रद्द न कर सके। और सबसे महत्वपूर्ण – हर प्रक्रिया को ऑनलाइन ट्रैक करने योग्य बनाया जाए।

ट्रांसफर कोई कृपा नहीं, यह शिक्षक का अधिकार है। उसे “फेवर” की तरह प्रस्तुत करना, एक अपमानजनक प्रवृत्ति है। शिक्षक न तो कोई राजनैतिक कार्यकर्ता हैं, न ही किसी गुट का हिस्सा। वे उस नींव के पत्थर हैं, जिन पर समाज का भविष्य खड़ा है। और यदि नींव को ही अनिश्चितता में रखा जाएगा, तो शिखर कैसे मजबूत बनेगा?

यह लेख एक आग्रह है – शिक्षा विभाग और सरकार से, कि वह इस भ्रम, ढुलमुल रवैये और प्रशासनिक कायरता से बाहर आए। तबादला नीति को केवल फाइलों और लॉकरों में बंद करने के बजाय, ज़मीन पर उतारें। क्योंकि शिक्षक अब थक चुका है। और जब शिक्षक थकता है, तो पूरा समाज सुस्त हो जाता है।

लेखक: डॉ. सत्यवान सौरभ

सरस्वतीः भूगर्भ में अंगड़ाई लेती नदी के नए प्रमाण

संदर्भः- राजस्थान के भरतपुर जिले में हुए पुरातत्व सर्वेक्षण में मिले सरस्वती नदी के प्रमाण
प्रमोद भार्गव

राजस्थान के डीग जिले के बहज गांव में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा जारी उत्खनन में 5500 से भी ज्यादा साल पुरानी प्राचीन भारतीय सभ्यता के अनेक अवशेश मिले हैं। इनमें सबसे प्रमुख ऋग्वेद में वर्णित सबसे प्रसिद्ध सरस्वती नदी प्रणाली के ठोस प्रमाण एक बार फिर मिले हैं। इस खुदाई में ब्राह्मी लिपि की मोहरों, मूर्तियों, हड्डी के औजार, षंख, मोती, चूड़ियां और सिक्कों के साथ मिट्टी के खंभों से बने भवन, ईटों की परतदार दीवारों वाली खंदकें, भट्यिं एवं यज्ञवेदियां भी मिले हैं। इन साक्ष्यों से प्रमाणित होता है कि उस समय के लोग वास्तुकला के साथ धातु विज्ञान और हथियार बनाने में दक्ष थे। ऋग्वेद में वर्णित सिंधु-सारस्वत सभ्यता में इन सब वस्तुओं और सरस्वती नदी से जुड़े अनेक मंत्र मिलते हैं। इन्हीं मंत्रों से प्राचीन आर्यावर्त का भूगोल, समाज, जीवनशैली और आर्य व अनार्यों के संघर्श से जुड़ी अनेक गाथाओं का जीवंत चित्रण है। इन अवशेशों और नदी-तंत्र को 3500 ईसा पूर्व से 1000 ईसापूर्व तक की सभ्यता के प्रमाण माना जा रहा है।    
वैदिक कालीन नदी सरस्वती के अस्तित्व और उसकी भूगर्भ में अंगड़ाई ले रही जलधारा को लेकर भूगर्भशास्त्री,पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारों में लंबे समय से मतभेद बना रहा है। यह मतभेद सैटेलाइट मैंपिग के बावजूद कायम रहा। यहां तक कि 6 दिसंबर 2004 को भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्री ने संसद में भी यह घोषणा कर दी थी कि इस नदी का कोई मूर्त प्रमाण नहीं है। यह मिथकीय है। दरअसल ये विरोधाभास किसी शोध के निष्कर्ष से कहीं ज्यादा वामपंथी सोच को पुख्ता करने के नजरिए से सामने आते रहे हैं,जिससे भारत की प्राचीन ज्ञान-परंपरा को नकारा जा सके। किंतु अब न केवल हरियाणा के यमुनानगर जिले के आदिबद्री में सरस्वती का उद्गम स्थल खोज लिया गया है, बल्कि मुगलवाली गांव में धरातल से सात फीट नीचे तक खुदाई करके नदी की जलधारा भी खोज निकाली है। इस धारा का रेखामय प्रवाह तीन किमी की लंबाई में नदी के रूप में सामने आया था। एक मृत पड़ी नदी के इस पुनर्जीवन से उन सब अटकलों पर विराम लगा है,जो वेद-पुरणों में वार्णित इस नदी को या तो मिथकीय ठहराते थे या इसका अस्तित्व अफगानिस्तान की ‘हेलमंद‘ नदी के रूप में मानते थे।
सरस्वती की भौगोलिक स्थिति का बखान ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण  महाभारत, ऐतरेय ब्राह्मण, भागवत और विष्णु पुराणों में है। ऋग्वेद में सप्तसिंधु क्षेत्र की महिमा को प्रस्तुत करते हुए जिन सात नदियों का वर्णन किया गया है, उनमें से एक सरस्वती है। अन्य छह शतद्रु;सतलुज, विपासा;व्यास, असिकिनी;चिनाव, पुरुष्णी;रावी वितस्ता;झेलम द्ध  और सिंधु नदियां हैं। इनमें सरस्वती और सिंधु बड़ी नदियां थीं। सतलुज और यमुना सरस्वती  की सहायक नदियां रही हैं। सरस्वती का प्रवाह पूरब से पश्चिम की ओर था, लेकिन हजारों साल पहले आए भयंकर भूकंप के कारण यमुना और सतुलज सरस्वती से अलग हो गईं। इन दोनों नदियों के मार्ग बदलने के बाद सरस्वती धीरे-धीरे अस्तित्व खोती हुई भूगर्भ में विलीन हो गई। कुछ भूगर्भशास्त्रियों का ऐसा मानना है कि 12 हजार साल पहले तक नदी स्वच्छ जलधारा के रूप में प्रवाहमान थी। लेकिन ऋग्वेद और अन्य प्राचीन ग्रंथों में सरस्वती की महिमा का गुणगान है, उससे लगता है पांच से सात हजार साल पहले तक यह नदी धरा पर बहती थी। क्योंकि नदी के धरती की कोख में समा जाने का वर्णन ऋग्वेद में नहीं है। जबकि ऋग्वेद की 60 ऋचाओं में सरस्वती का उल्लेख है। इनमें कहा गया है,सरस्वती हिमालयी पर्वतों से निकलकर,सप्तसिंधु क्षेत्र में बहती हुई कच्छ के रण में जाकर समुद्र में गिरती है। यह क्षेत्र वर्तमान में पाकिस्तान और भारत के पंजाब व हरियाणा में है।
 किंतु सरस्वती का जो वर्णन महाभारत में है, उसमें इस नदी के विलोप होने के संकेत मिलते हैं। महाभारत के अनुसार सरस्वती समुद्र में समाने से पहले राजस्थान के रेगिस्तान विनसन में ही लुप्त हो जाती है। विष्णु पुराण में नदी के सिमटने के संकेत कवश नाम के एक मल्लाह द्वारा सरस्वती की वंदना करने की कथा के रूप में मिलते हैं। इस कथा के अनुसार पृथु द्वारा कराए जा रहे यज्ञ में जब कवश ने हिस्सा लेने की कोशिश की तो ऋषियों ने उसे बाहर कर दिया। निराश कवश ने मरुस्थल में जाकर सरस्वती की स्तुति की। फलतः सरस्वती की जलधार उसके चारों और फूट पड़ी। इस चमत्कार से प्रभावित होकर ऋृशियों ने कवश को यज्ञ में भागीदारी करने की अनुमति दे दी। यही कथा ऐतरेय ब्रह्मण और भागवत पुराण में भी कही गई है।
कॉर्बन डेटिंग भी इस तथ्य की पुष्टि करती है कि 2000 से 1800 वर्ष ईसा पूर्व यह नदी विलुप्त हुई। महाभारत,विष्णु पुराण,भागवत पुराण और ऐतरेय ब्राह्मण ग्रंथों की रचना लगभग इसी समय हुई बताई जाती है। साफ है, प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में सरस्वती का जो वर्णन है, वह कपोल कल्पित न होते हुए,वास्तविक है। नदी के सूखने के बाद हड़प्पा-मोहनजोदड़ो संस्कृति के उपासक गंगा यमुना के मैदानों की और पलायन कर गए। चूंकि इन लोगों की स्मृति में सरस्वती जीवंत थी,इसलिए इन्होंने प्रयाग में त्रिवेणी स्थल पर गंगा और यमुना के साथ सरस्वती के अंतसलिला होने की कथा गढ़ ली। सिंधु घाटी सभ्यता का नाम,हालांकि सिंधु नदी के नाम पर पड़ा था। इसे ही सरस्वती संस्कृति, सरस्वती सभ्यता और सिंधु सरस्वती सभ्यता के नामों से जाना जाता है। इसी सभ्यता में हड़प्पा संस्कृति फली-फूली थी। ऋग्वेद में हड़प्पा दुर्ग की गाथा हरियूपिया नाम से मंत्रों में कही गई है।
प्राचीन ग्रंथों में दर्ज सरस्वती के अस्तित्व को लेकर देशी-विदेशी भूविज्ञानी और भारतीय संस्कृति के अध्येता इसकी षोध और जमीनी खोज में जुटे रहे हैं। फ्रांस के भूविज्ञानी विवियेन सेंट मार्टिन ने ‘वैदिक भूगोल‘ की रचना की थी। 1860 में लिखी इस पुस्तक में सरस्वती के साथ घग्गर और हाकड़ा की भी पहचान की थी। इसके बाद 1886 में अंगेजी हुकूमत ने भारत का भौगोलिक सर्वेक्षण कराया था। इसके अधीक्षक आरडी ओल्ढ़म की रिपोर्ट बगांल के एशियाटिक सोसायटी जर्नल में छपी थी। इस रिपोर्ट में सरस्वती के नदी तल और इसकी सहायक नदियों, सतुलज व यमुना के पथ रेखांकित किए गए है। 1893 में इस रिपोर्ट ने प्रसिद्ध भूवैज्ञानिक सीएफ ओल्ढ़म को प्रभावित किया। ओल्ढ़म ने इसी जर्नल में सरस्वती के भूगर्भ में उपस्थित होने की पुश्टि की है। साथ ही घग्धर और हाकड़ा के सूखे पथों का भी ब्यौरा दिया है। ये नदियां पंजाब में बहती थीं। पंजाब की लोकश्रुतियों में आज भी ये नदियां विद्यमान हैं। इन्हीं नदियों के पथ पर एक समय सरस्वती बहती थी। इसके बाद 1918 में टैसीटोरी,1940-41 में औरेल स्टाइन और 1951-53 में अमलानंद घोष ने सरस्वती की खोज में अहम भूमिका निभाई। इन सब विद्वानों ने अपने निष्कर्षों में सिद्ध किया कि सरस्वती के विलोपन का मुख्य कारण सतलुज और यमुना की धार बदलना था। सतलुज की धार सरस्वती से अलग होकर सिंधु में जा मिली। लगभग इसी समय यमुना ने भी अपनी धारा का प्रवाह बदल दिया और वह पश्चिम अपने बहने का रुख बदलकर पूर्व में बहकर गंगा में जा मिली। नतीजतन सरस्वती सूखती चली गई।
बाद में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने इस विलुप्त नदी को खोजने की पहल की। 15 जून 2002 को केंद्रीय संस्कृति मंत्री जगमोहन ने सरस्वती के नदीतलों का पता लगाने के लिए खुदाई की घोषणा की। इस खोज को संपूर्ण वैज्ञानिक धरातल देने की दृष्टि से इसमें इसरो के वैज्ञानिक बलदेव साहनी,पुरातत्वविद् एस कल्याण रमन हिमशिला विशेषज्ञ वाईके पुरी और जल सलाहकार माधव चितले को शामिल किया गया। हरियाणा में आदिबद्री से लेकर भगवान पुरा तक पहले चरण में और भगवान पुरा से लेकर राजस्थान सीमा पर स्थित कालीबंगा की खुदाई प्रस्तावित थी। यह खोज कोई ठोस परिणाम दे पाती इससे पहले राजग सरकार गिर गई और डॉ मनमोहन के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने 6 दिसंबर 2004 को संसद में यह बयान देकर कि इस नदी का कोई मूर्त रूप नहीं है, इसे मिथकीय नदी ठहरा दिया। नतीजतन वाजपेयी सरकार की पहल अधूरी रह गई।
लेकिन राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के दर्शन लाल जैन ‘सरस्वती शोध संस्थान‘ की अगुवाई में नदी की खोज की सार्थक पहल करते रहे। उन्होंने अपनी खोज के दो प्रमुख आधार बनाए। एक विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन में प्राचीन इतिहास विभाग के प्राध्यापक रहे डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर की सरस्वती खोज पदयात्रा और दूसरा 2006 में आए तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग के सर्वे खुदाई को। वाकणकर की यात्रा आदि बद्री से शुरू होकर गुजरात के कच्छ के रण पर जाकर समाप्त हुई। ओएनजीसी ने डॉ एमआर राव के नेतृत्व में सरस्वती के पथ व नदीतलों के पहले तो उपग्रह-मानचित्र तैयार किए, फिर धरातलीय साक्ष्य जुटाए। हिमाचल प्रदेश में सिरमौर जिले के काला अंब के पास सरस्वती टियर फाल्ट का गंभीर अध्ययन किया। अध्ययन के परिणाम में पाया कि हजारों साल पहले आए भूकंप के कारण यमुना और सतलुज ने अपने मार्ग बदल दिए थे। यमुना पूरब में बहती हुई दिल्ली पहुंच गई और सतलुज पश्चिम होते हुए सिंधु नदी में जा मिली। जबकि पहले इन दोनों नदियों का पानी सरस्वती में मिलकर हरियाणा, राजस्थान व गुजरात होते हुए कच्छ में मिलता था।
अवशेशीय अध्ययन के बाद ओएनजीसी ने राजस्थान के जैसलमेर से सात किलोमीटर दूर जमीन में करीब 550 मीटर तक गहरा छेद किया। यहां 7600 लीटर प्रति घंटे की दर से स्वच्छ जल निकला। इस प्रमाण के बाद ओएनजीसी ने भारत विभाजन के बाद भारतीय पुरातत्व संस्थान द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण का भी अध्ययन किया। इससे पता चला कि हरियाणा व राजस्थान में करीब 200 स्थलों पर सरस्वती के पानी के निशान हैं। डीग में एक बार फिर सरस्वती के नए प्रमाण मिलने से इसके ऋग्वैदिक अस्तित्व को प्रामाणिकता मिली है।

प्रमोद भार्गव

ललद्यद : जीवन और कृतित्व

डा० शिबन कृष्ण रैणा

ललद्यद को कश्मीरी जनता ललेश्वरी, ललयोगेश्वरी, लला, लल, ललारिफ़ा आदि नामों से जानती है। इस कवयित्री का जन्मकाल विद्वानों के बीच विवाद का विषय बना हुआ है। डा० ग्रियर्सन तथा आर० सी० टेम्पल ने लल द्यद की जन्मतिथि न देकर उसकी जन्मशती का उल्लेख किया है। उनके अनुसार कवयित्री का आविर्भाव १४वीं शताब्दी में हआ था तथा वह प्रसिद्ध सूफ़ी संत सय्यद अली हमदानी के समकालीन थी। डा० जी० एम० सूफ़ी तथा प्रेमनाथ बजाज़ ललद्यद का जन्म सन् १३३५ ई० में मानते हैं। श्री जियालाल कौल के मतानुसार लल द्यद का जन्म १४वीं शती के मध्य में सुल्तान अलाउद्दीन (१३४७ ई०) के समय हआ था। श्री जियालाल कौल जलाली ललद्यद का जन्म १४वीं शती के दूसरे दशक में भाद्रपद की पूर्णिमा को मानते हैं। “वाकयाते कश्मीर” में लल द्यद का जन्मकाल ७४८ हिजरी तदनुसार १३४८ दिया गया है। कश्मीर के सुप्रसिद्ध इतिहासकार हसन-खूयामी ने तारीख-ए कश्मीर में लल द्यद का जन्म वर्ष ७३५ हिजरी तदनुसार १३३५ ई० दिया है। विद्वानों द्वारा निर्दिष्ट विभिन्न जन्म-तिथियों का विश्लेषण करने पर ललद्यद का जन्मकाल १३३५ ई० अधिक उपयुक्त ठहरता है।संभव है कि ललद्यद का जन्म-नाम कुछ और रहा होगा। ‘लल’ कश्मीरी में तोंद को कहते हैं तथा ‘द्यद’ किसी भी आदरणीया प्रौढ़ा के लिए प्रयुक्त होनेवाला आदर-सूचक शब्द है। कहते हैं कि ललद्यद प्रायः अर्धनग्नावस्था में घूमती रहती थी और उसकी तोंद इतनी विकसित थी कि उसके गुप्तांग उस तोंद से ढके रहते थे। पं० गोपीनाथ रैना ने अपनी पुस्तक “ललवाक्य” में लल द्यद का जन्म-नाम पद्मावती बताया है ।(‘लल वाक्यानि’ १९२०, पृ० ३ तथा “द वर्ड आफ लला प्राफ़ेट्स” १९२९) यह भी कहा जाता है कि ललद्यद ने अपने जीवनकाल में तत्कालीन युवराज शहाबुद्दीन, प्रसिद्ध मुसलमान सन्त सैयद जलालुद्दीन बुखारी, सैयद हुसैन समनानी, सैयद अली हमदानी आदि से भेंट की थी। ये घटनायें क्रमशः ७४८ हि०, ७७३ हि०, और ७८१ हि० की हैं। स्पष्ट है कि ललद्यद का इन हिजरी वर्षों के पूर्व न केवल जन्म हुआ था अपितु वह पूर्णतया सयानी भी हो चुकी थी।  लल द्यद की मरण-तिथि जन्म-तिथि के समान अनिश्चित है। केवल इतना कहा जाता है कि जब ललद्यद ने प्राण त्यागे तो उस समय उसकी से देह कुन्दन के समान दमक उठी। यह घटना इस्लामाबाद/अनंतनाग के निकट विजबिहारा में हई बतायी जाती है। ललद्यद का पार्थिव शरीर बाद में किधर गया, उसे कहाँ जलाया गया आदि, इस सम्बन्ध में कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता। किंवदन्ती है कि प्रसिद्ध सन्त-कवि शेख नरुद्दीन वली ने जिसका जन्म १३७६ ईसवी में हुआ, लल द्यद के फटकारने पर अपनी माँ के स्तनों से दुग्ध-पान किया था। इससे लल द्यद का कम से र कम १३७६ ई० तक जीवित रहना सिद्ध होता है।  

ललद्यद का जन्म पांपोर के निकट सिमपूरा गाँव में एक ब्राह्मण किसान के घर हुआ था । यह गाँव श्रीनगर से लगभग ९ मील की दूरी पर स्थित है। तत्कालीन प्रथानुसार ललद्यद का विवाह उसकी बाल्यावस्था में ही पांपोर ग्राम के एक प्रसिद्ध ब्राह्मण घराने में हुआ। उसके पति का नाम सोनपंडित बताया जाता है। बाल्यकाल से ही इस आदि-कवयित्री का मन सांसारिक वन्धनों के प्रति विद्रोह करता रहा जिसकी चरम-परिणति बाद में भाव-प्रवण दार्शनिक “वाख-साहित्य” के रूप में हुई। लल द्यद को प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा अपने कुल-गुरु श्री सिद्धमोल से प्राप्त हुई। सिद्धमोल ने उसे धर्म, दर्शन, ज्ञान और योग सम्बन्धी विभिन्न ज्ञातव्य रहस्यों से अवगत कराया तथा गुरुपद का अपूर्व गौरव प्राप्त कर लिया। अपनी पत्नी में बढ़ती हुई विरक्ति को देखकर एक बार सोनपंडित ने सिद्धमोल से प्रार्थना की कि वे लल द्यद को ऐसी उचित शिक्षा दें जिससे वह सांसारिकता में रुचि लेने लगे। कहते हैं कि सिद्धमोल स्वयं लल द्यद के घर गये। उस समय सोनपण्डित भी वहाँ पर मौजूद थे। इससे पूर्व कि गुरुजी लल द्यद को सांसारिकता का पाठ पढ़ाते, एक गम्भीर चर्चा छिड़ गई। चर्चा का विषय था- १. सभी प्रकाशों में कौन-सा प्रकाश श्रेष्ठ है, २. सभी तीर्थों में कौन-सा तीर्थ श्रेष्ठ है, ३. सभी परिजनों में कौन-सा परिजन श्रेष्ठ है, और ४. सभी सुखद वस्तुओं में कौन-सी वस्तु श्रेष्ठ है ? सर्वप्रथम सोनपण्डित ने अपनी मान्यता यों व्यक्त की: ‘सूर्य-प्रकाश से बढ़कर कोई प्रकाश नहीं है, गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है, भाई के बराबर कोई परिजन नहीं है, तथा पत्नी के समान और कोई सुखद वस्तु नहीं है।‘ गुरु सिद्धमोल का कहना था नेत्र-प्रकाश के समान और कोई प्रकाश नहीं है, घुटनों के समान और कोई तीर्थ नहीं है, जेब के समान और कोई परिजन नहीं है, तथा शारीरिक स्वस्थता के समान और कोई सुखद वस्तु नहीं है।‘ योगिनी लल द्यद ने अपने विचार यों रखे :‘मैं अर्थात आत्मज्ञान के समान कोई प्रकाश नहीं है, जिज्ञासा के बराबर कोई तीर्थ नहीं है, भगवान् के समान और कोई परिजन नहीं है तथा ईश्वर-भय के समान कोई सुखद वस्तु नहीं है। लल द्यद का यह सटीक उत्तर सुनकर दोनों सोनपण्डित तथा सिद्धमोल अवाक रह गये ।

माना जाता है कि “लल्द्यद की तबियत में वचपन से ही कुछ ऐसी बातें थीं जिनसे जाहिर होता है कि इसके दिल व दिमाग पर प्रारम्भ से ही गैर मामूली प्रभाव था। वह प्रायः अकेली बैठती और गहरे सोच में डबी रहती। दुनिया की कोई दिलचस्पी उसके लिए आकर्षण का केन्द्र न बन सकी। वह प्रायः इस असाधारण स्वभाव के कारण अपनी सहेलियों के बीच हास-परिहास का विषय बन जाती । (“कश्मीरी ज़बान और शायरी, पृष्ठ ११३ भाग २) 

विवाह के पश्चात् ससुराल में ललद्यद को अपनी सास की कटु आलोचनाओं एवं यन्त्रणाओं का शिकार होना पड़ा। किन्तु वह उदारशीला यह सब पूर्ण धैर्य के साथ झेलती रही।। एक दिन ललद्यद पानी भरने घाट पर गई हुई थी। मां ने पुत्र को उकसाया-देख तो यह चुडैल घाट पर इतनी देर से क्या कर रही है! सोनपण्डित लाठी लेकर घाट पर गये । सामने से ललद्यद सिर पर पानी का घड़ा लिए आ रही थी। सोनपण्डित ने जोर से लाठी घड़े पर चलाई। घड़ा फूट कर खण्डित हो गया, किन्तु कहते हैं कि पानी ज्यों-का-त्यों उस देवी के सिर पर टिका रहा। घर पहुँचकर ललद्यद ने इस पानी से बर्तन भरे तथा जो पानी बचा रहा उस पानी को खिड़की से बाहर फेंक दिया। थोड़े दिनों के बाद उस स्थान पर एक तालाब बन गया जो अभी भी “लल नाग” (तडाग) के नाम से प्रसिद्ध है। इसी प्रकार एक दिन ललद्यद के ससुर ने एक भोज का आयोजन किया।ललद्यद अपनी दैनिक चर्या के अनुसार घाट पर पानी भरने के लिए गई। वहाँ बातों ही बातों में सहेलियों ने उसे छेड़ा-‘आज तो तेरे घर में तरह-तरह के पकवान बने हैं, आज तो पेट भर तुझे स्वादिष्ट पदार्थ खाने को मिलेंगे।‘ लल द्यद ने दीनतापूर्वक उत्तर दिया 

“घर में चाहे मिठाई(भाजी) बने या लड्डू मेरे भाग्य में तो पत्थर के टुकड़े ही लिखे हैं।” कहते हैं कि लल द्यद की निर्दयी सास उसे कभी भरपेट भोजन नहीं देती थी। दिखावे के लिए थाली में एक पत्थर रखकर उसके ऊपर भात का लेप करती, नौकरों की तरह काम लेती आदि। (इस घटना का आधार लेकर कश्मीर में एक कहावत प्रचलित हो गई है – “ललि नीलवठ चलि न जांह” अर्थात् लल के भाग्य से पत्थर कहाँ टलेंगे।) 

इस समय तक ललद्यद की अन्तर्दृष्टि दैहिक चेष्टाओं की संकीर्ण परिसीमाओं को लांघकर असीम में फैल चुकी थी। वह वन-वन अन्तर्ज्ञान का रहस्य अन्वेषित करने के लिये डोलने लगी। यहाँ तक कि उसने वस्त्रों की भी उपेक्षा कर  दी। उसकी आचार-मर्यादा कृत्रिम व्यवहारों से बहुत ऊपर उठकर समष्टि  में गोते लगाने लगी। नाचती, गाती तथा आनन्दमग्न होकर विवस्त्र क घूमती रहती। पुरुष उन्हीं को मानती जो भगवान से डरते हों और  ऐसे पुरुष उसके अनुसार इस संसार में बहुत कम थे। शेष के सामने दि नग्नावस्था में फिर घूमने-फिरने में शर्म कैसी? कहते हैं कि एक दिन ललद्यद को  प्रसिद्ध सूफ़ी संत मीर सैयद हमदानी सामने से आते दिखाई पडे। उसने कि एकदम अपनी देह को आवृत्त करने का प्रयास किया। निकट पहुँचकर  संत हमदानी ने पूछा ‘हे देवि, तुमने अपनी देह की यह क्या हालत बना रखी है ? तुम्हें नहीं मालूम कि तुम नंगी हो।‘ ललद्यद ने सकुचाते  हए उत्तर दिया-‘हे खुदा-दोस्त, अब तक मेरे पास से केवल औरतें गुजरती रहीं, उनमें से कोई पुरुष अथवा आँखवाला नहीं था। आप मुझे मर्द  तथा तत्त्वज्ञानी दीख पड़े, इसलिए आपसे अपनी देह छिपा रही हैं। एक और घटना इस प्रकार है। कहते हैं कि जब ललद्यद संत हमदानी को दूर ने से आते देखा तो वह चिल्लाती हुई दौड़ पड़ी कि आज मुझे असली पुरुष के दर्शन हो रहे हैं, असली पुरुष के दर्शन हो रहे हैं—‘। वह एक बनिये के पास गई और तन ढकने  के लिए वस्त्र मांगे। बनिये ने कहा कि आज तक तुम्हें कपड़ों की आवश्यकता नहीं पड़ी तो इस समय क्यों माँग रही हो? ललद्यद ने उत्तर दिया-‘वे जो महापुरुष सामने से आ रहे हैं, मुझे पहचानते हैं और मैं उन्हें।‘ इतने में सन्त हमदानी समीप पहुँच गये। पास ही एक नानबाई का तन्दूर जल रहा था। लल द्यद तुरंत उसमें कूद पड़ी। मुस्लिम सन्त पूछ-ताछ करते वहाँ पहुँच गये और उन्होंने आवाज़ दी ‘ऐ लला, बाहर आओ, देखो तो कौन खड़ा है।‘कहते हैं उसी क्षण ललद्यद सुन्दर व दिव्य वस्त्र धारण किये प्रत्यक्ष हो गईं । ( इस घटना पर भी कश्मीरी में एक कहावत प्रचलित है- “आये  वआ’निस त गयि काँदरस” )अर्थात् आयी तो थी बनिये के पास किन्तु गई नानबाई के पास। 

ललद्यद के कोई सन्तान नहीं हुई थी। प्रकृति ने इस बन्धन से उसे मुक्त रखा था। कवयित्री ने स्वयं एक स्थान पर कहा है-“न प्यायस, न जायस, न खेयम हंद तने शोंठ” (न मैं प्रसूता बनी और न मैंने प्रसूता का आहार ही किया।) 

विपरीत पारिवारिक परिस्थितियों ने लल द्यद को एक नई जीवन-दृष्टि प्रदान की। उसने अपनी समस्त अभीष्ट पूर्तियों को व्यापक रूप दे दिया तथा अपनी आत्मा के चिर अन्वेषित सत्य को ज्ञान एवं भक्ति की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्तियों में साकार कर दिया। ये स्फुट किन्तु सरस अभिव्यक्तियाँ “वाख” कहलाती हैं। कबीर की भाँति ललद्यद ने भी “मसि-काग़ज़” का प्रयोग कभी नहीं किया। उसके वाख गेय हैं जो प्रारम्भ में मौखिक परम्परा में ही प्रचलित रहे तथा उन्हें बाद में लिपिबद्ध किया गया। इस दिशा में सर्वप्रथम ग्रियर्सन महोदय का नाम उल्लेखनीय है। उन्होंने महामहोपाध्याय पं० मुकुन्दराम शास्त्री की सहायता से १०६ वाख एकत्रित किये तथा उन्हें “ललवाक्यानि” के अन्तर्गत सम्पादित किया। यह पुस्तक सन् १९२० में ‘रायल एशियाटिक सोसाइटी,’ लन्दन से प्रकाशित हुई है। श्री आर०सी० टेम्पल की पुस्तक “द वर्ड आफ़ लला” में लल द्यद के वाक्यों का गम्भीर अध्ययन मिलता है । यह पुस्तक सन् १९२४ में विश्वविद्यालय प्रेस, कैम्ब्रिज में प्रकाशित हुई है। राजानक भास्कराचार्य का लल द्यद के ६० वाखों का संस्कृत रूपान्तरण भी मिलता है। ललद्यद के वाखों (वाक्यों) का संकलन व अनुवाद करने में जिन दूसरे विद्वानों ने उल्लेखनीय कार्य किया है, उनके नाम हैं-सर्वश्री सर्वानन्द चरागी, आनन्द कौल बामजई, रामजू कल्ला, जियालाल कौल जलाली, गोपीनाथ रैना, प्रो० जियालाल कौल, आर. के. वांचू तथा नन्दलाल तालिब। श्री सर्वानन्द चरागी ने “कलाम-ए-ललारिफ़ा” के अन्तर्गत लल द्यद के १०० वाखों का हिन्दी में अनुवाद किया है। श्री आनन्द कौल वामजई ने ७५ तथा रामजू कल्ला ने “अमृतवाणी” में १४६ ललवाखों को प्रकाशित किया है। 

कहते हैं कि सन् १९१४ में ग्रियर्सन ने ललवाक् एकत्रित कर उन्हें पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित करने की इच्छा प्रकट की। इस कार्य के लिए उन्होंने उस समय के प्रसिद्ध कश्मीरी विद्वान पं० मुकुन्दराम शास्त्री का सहयोग लिया। मुकुन्दराम ने काफ़ी खोज की किन्तु ललवाख सम्बन्धी कोई भी सामग्री उनको हाथ न लगी। एक बार  वे बारामूला से ३० मील दूर “गअश” नाम के गांव में पहुँचे। वहाँ पर उनकी भेंट धर्मदास नामक एक हिन्दू सन्त से हुई। इस सन्त को ललद्यद के अनेक वाख (वाक्) कण्ठस्थ थे। मुकुन्दराम ने इन वाकों का संग्रह कर उन्हें संस्कृत व हिन्दी रूपान्तर के साथ ग्रियर्सन महोदय को सौंप दिया। इन्हीं “वाकों” को बाद में ग्रियर्सन ने सन् १९२० में लन्दन से प्रकाशित करवाया। 

पं० जियालाल कौल जलाली ने अपनी पुस्तिका “ललवाख” में ३८ वाखों का हिन्दी में अनुवाद किया है। जम्मू व कश्मीर कल्चरल अकादमी द्वारा प्रकाशित “ललद्यद” (१९६१) में लगभग १३५ वाख आकलित हैं। इस पुस्तक के सम्पादक श्री जियालाल कौल तथा श्री नन्दलाल तालिब हैं। 1355 लल द्यद के “वाख” प्रायः छन्द-मुक्त हैं। चार-चार पादों के ये स्फुट ‘वाख’ लययुक्त हैं। इनमें कवयित्री ने जीवन दर्शन की गूढ़तम गुत्थियों को सहज-सरल रूप में गंथ दिया है। लल द्यद के कृतित्व का परिचय पहली बार “तारीख-ए-कश्मीर” (१७३० ई०) में मिलता है। इसके पूर्व वह उपेक्षिता ही रही है। श्रीवर की “जैनराज तरंगिणी” तथा जोनराज की “जैनतरंगिणी” में भी उसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है।वस्तुतः १८वीं शती के पूर्वार्द्ध में ललद्यद के कृतित्व की ओर जनता का ध्यान गया और उसका विधिवत् महत्त्वांकन होने लगा।

ललद्यद के वाख-साहित्य का मूलाधार दर्शन है। उसका प्रत्येक वाख दार्शनिक चेतना को आगार है जिस पर प्रमुखतः शैव, वेदान्त, तथा सूफ़ी दर्शन की छाप स्पष्ट है। जिस समय लल द्यद का आविर्भाव हआ उस समय कश्मीर में इस्लाम धर्म का एक विचार-पदधति के रूप में आगमन हो चका था। देश में घोर अशान्ति व धामिक अव्यवस्था व्याप्त थी। धर्मान्ध कट्टरपन्थी अपने-अपने धर्म-सम्प्रदायों का प्रचार प्रसार करने में दत्तचित्त थे। सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक विषमतायें भी जनता को आड़े हाथों ले रही थीं। ऐसे विकट क्षणों में ललद्यद ने जनता के समक्ष धर्म के वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट करते हुए जनवाणी में परम सत्य की सार्थकता को ऐसी व्यापक तथा सर्वसुलभ  शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया जिसमें न कोई दुराव था, न कोई आवरण, और न कोई विक्षेप । लल द्यद की यह सत्य-प्रतिष्ठा विशुद्धतः उसकी अन्तरानुभूति की देन है। लल द्यद विश्वचेतना को आत्मचेतना में तिरोहित मानती है। सूक्ष्म अन्तर्दष्टि द्वारा उस परमचेतना का आभास होना सम्भव है। यह रहस्य उसे अपने गुरु से ज्ञात हुआ था:-‘ गोरन दोपनम कुनय वचन, न्यबरअ  दोपनम अंदर तवय ह्यातुम नगय नचुन (गुरु ने मुझे एक रहस्य की बात बताई-बाहर से मुख मोड़ और अपने अन्तर को खोज । बस, तभी से यह बात हृदय को छू गई और मैं विवस्त्र नाचने लगी।)

दरअसल, लल द्यद उस सिद्धावस्था को पहुँच चुकी थी जहाँ स्व और पर की भावनायें लुप्त हो जाती हैं। जहाँ मान-अपमान, निन्दा-स्तुति आदि भावनायें मन की संकुचितता को लक्षित करती हैं। जहाँ पंचभौतिक काया मिथ्याभासों एवं क्षुद्रताओं से ऊपर उठकर विशुद्ध स्फुरणाओं का केन्द्रीभूत पुंज बन जाती है: 

युस हो मालि हैड्यम, गेल्यम मसखरु करुयम,

सुय हो मालि मनस खट्यम न जांह । 

शिव पनुन येलि अनुग्रह कर्यम, 

लुकहुन्द हेडुन व मे कर्यम क्याह ।। 

(चाहे कोई मेरी अवहेलना करे या तिरस्कार, मैं कभी मन में उसका बुरा न मानूंगी। जब मेरे शिव का मुझ पर अनुग्रह है तो लोगों के भला-बुरा कहने से क्या होता है ?) 

इस असार-संसार में व्याप्त विभिन्न विरोधाभासों को देखकर लल द्यद का अन्तर्मन विह्वल हो उठा और उसे स्वानुभूति का अनूठा प्रसाद मिल गया: 

गाटुला अख वुछुम बौछि सुत्य मरान,

पन ज़न हरान पोहुन्य वाव लाह । 

निश बौद अख छुम वाजस मारान, 

तनु लल बु प्रारान छैन्यम न प्राह । 

(एक प्रबुद्ध को भूख से मरते देखा, पतझर सा जीर्ण-शीर्ण हुआ पड़ा। एक निर्बुद्ध से रसोइये को पिटते देखा, तभी से यह मन बाहर निकल पड़ा।) 

शंकर के अद्वैत का लल द्यद ने पूर्ण सहृदयता के साथ निरूपण किया है। सकल सृष्टि में जो गोचर है वह परमात्मा का ही व्यक्त रूप है। “मैं ही ब्रह्म हूँ”, वह मेरे पास है-मुझसे अलग नहीं है। उसे है ढंढ़ने के लिए तनिक एकाग्रता, लगन तथा त्याग की आवश्यकता है। कुत्सित स्वार्थ, सीमित मनोवृत्ति आदि का विसर्जन भी अनिवार्य है: 

लल बु द्रायस लोलरे, 

छांडन रूज़स दौह क्यौह राथ ।

वुछुम पंडिता पननि गरे, 

सुय में रौटमस न्यछतुर तु साथ ॥ 

(मैं उस परम शक्ति को घर से ढूंढते-ढूंढ़ते निकल पड़ी। उसे ढूंढते ढंढ़ते रात-दिन बीत गये। अन्त में देखा, वह मेरे ही घर में विद्यमान है। बस, तभी से मेरी परमात्म-साधना का उचित मुहूर्त निकल आया।) 

ललद्यद ने धर्म के नाम पर प्रचलित मिथ्याचारों, बाह्याडम्बरों तथा विक्षेपों का खुलकर खण्डन किया है। कबीर की भाँति उसने दोनों हिन्दुओं तथा मुसलमानों को खरी-खोटी सुनाई है। धर्म का वास्तविक अर्थ है मन की शुद्धता। वस्तुत: यही शुद्धता जीव को परमतत्व तक पहुँचा सकती है। 

बुथ क्याह जान छुय,वौंदु छुय कन्य, 

असलुच कथ जांह संनिय नो।

परान तु लेखान वुठ तु औं गजि गजी, 

अंदरिम दुय जांह चजिय नो ।। 

(मुखाकृति अत्यन्त सुन्दर है किन्तु हृदय पत्थर-तुल्य है-उस में तत्व की बात कभी समायी नहीं। पढ़-पढ़ व लिख-लिखकर तुम्हारे होंठ व तेरी उंगलियाँ घिस गईं मगर तेरे अन्तर का दुराव कभी दूर न हुआ।) 

ललद्यद का कृतित्व सांस्कृतिक पुनर्जागरण, मानव-कल्याण तथा सामाजिक पुनरुत्थान की दार्शनिक अभिव्यक्ति है जिसमें सरसता, स्पष्टता एवं सजीवता एक साथ गुम्फित है। उसके वाकों में धर्मदर्शन सम्बन्धी तथ्यों की प्रधानता के साथ-साथ काव्यात्मक सौन्दर्य की गहनता भी विपुल मात्रा में दृष्टिगत होती है। अपनी भावनाओं को मूर्तरूप प्रदान करने के लिए कवयित्री ने प्रमुखतया उपमा, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास अनुप्रास आदि अलंकारों का प्रयोग किया है। अप्रस्तुत-विधान के अन्तर्गत संयोजित कार्य-व्यापार साधारण जन-जीवन से लिये गये हैं, जिनमें सहजता के साथ-साथ पर्याप्त अभिव्यञ्जना शक्ति समाहित है। रस परिपाक की दृष्टि से सम्पूर्ण वाक्-साहित्य में प्रायः शान्त रस की प्रबलता है। 

भाषागत दृष्टि से ललद्यद के वाख विशेष महत्व के हैं। लल द्यद के पूर्व कोई भी संरचना ऐसी नहीं मिलती जो कश्मीरी में लिखी गई हो। यद्यपि कुछ विद्वान् शितिकण्ठ की “महानय प्रकाश” को कश्मीरी की प्रथम कृति मानते हैं किन्तु उसकी भाषा कश्मीरी के उतनी निकट नहीं है जितनी लल द्यद के वाकों की है। भाषा-वैज्ञानिक-दृष्टि से इन वाकों का अध्ययन अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकता है। लल द्यद की भाषा मूलतः संस्कृत निष्ठ है, जिस पर यत्र-तत्र फ़ारसी-अरबी शब्दों का प्रभाव भी मिलता है। संस्कृत के अनेक शब्द कवयित्री ने अपने मूल रूप में प्रयुक्त किये हैं, जैसे प्रकाश, तीर्थ, अनुग्रह, कर्म, बान्धव, मूढ़, मनुष्य, नारायण, मन, शीत, तृण, उपदेश, अचेतन, आहार, शिव, हर, गगन, भूतल, पवन, फल, दीप, तीन शम्भु, अर्घ्य, ज्ञान, राम, गीता, मूर्ख, पंडित, मान, संन्यास आदि। किन्हीं डाक संस्कृत शब्दों का कश्मीरी-संस्करण करके प्रयोग किया गया है, जैसे समसार = संसार, दर्शन = दर्शन, बौद = बुद्धि, गोपत = गुप्त, सीख = सुख, मोख = मुख, शिन्य = शून्य, लज़ = लज्जा, रुख = रेखा, त्रेशना = तृष्णा आदि। अरबी फ़ारसी से लिये गये कुछ शब्द इस प्रकार हैं–साहिब, दिल, जिगर, मुश्क, गुल, खार, बाग, कलमा, शिकार आदि ।

ललद्यद का कोई भी यथेष्ट स्मारक, समाधि या मंदिर कश्मीर में नहीं मिलता है। शायद वे इन सब बातों से ऊपर थीं। वे, दरअसल, ईश्वर (परम विभु) की प्रतिनिधि बन कर अवतरित हुर्इं और उसके फरमान को जन-जन में प्रचारित कर उसी में चुपचाप मिल गर्इं, जीवन-मरण के लौकिक बंधनों से ऊपर उठ कर- ‘मेरे लिए जन्म-मरण हैं एक समान/ न मरेगा कोई मेरे लिए/ और न ही/ मरूंगी मैं किसी के लिए!’

योगिनी ललद्यद संसार की महानतम आध्यात्मिक विभूतियों में से एक हैं, जिसने अपने जीवनकाल में ही ‘परमविभु’ का मार्ग खोज लिया था और ईश्वर के धाम/ प्रकाश-स्थान में प्रवेश कर लिया था।वह जीवनमुक्त थीं और उसके लिए जीवन अपनी सार्थकता और मृत्यु भयंकरता खो चुके थे। उसने ईश्वर से एकनिष्ठ होकर प्रेम किया था और उसे अपने में स्थित पाया था। ललद्यद के समकालीन कश्मीर के प्रसिद्ध सूफी-संत शेख नूरुद्दीन वली/ नुंद ऋषि ने कवयित्री के बारे में जो विचार व्यक्त किए हैं, उनसे बढ़ कर इस महान कवयित्री के प्रति और क्या श्रद्धांजलि हो सकती है:

‘उस पद्मपोर/ पांपोर की लला ने/ दिव्यामृत छक कर पिया/ वह थी हमारी अवतार/ प्रभु! वही वरदान मुझे भी देना।’

डिजिटल-क्रांति से ही नकली नोटों पर नियंत्रण संभव

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-ललित गर्ग-

भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) द्वारा हाल ही में जारी एक चौंकाने वाली रिपोर्ट ने न केवल अर्थव्यवस्था को, बल्कि राष्ट्र की सुरक्षा और नागरिकों की जागरूकता को भी झकझोर कर रख दिया है। आरबीआई के गवर्नर द्वारा संसदीय समिति में प्रस्तुत एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2024-25 में 500 रूपये के लगभग 1.8 लाख नोट नकली पाए गए, जो पिछले वर्ष की तुलना में 37 प्रतिशत अधिक हैं। यह संख्या किसी सामान्य अपराध की नहीं, बल्कि राष्ट्र के विरुद्ध एक षड्यंत्र की कहानी कहती है। जो यह दर्शाता है कि कालाबाजारी करने वाले राष्ट्र विरोधी तत्व देश में मुद्रा की मांग का गलत फायदा उठा रहे हैं। विडंबना यह है कि राजस्व खुफिया निदेशालय द्वारा नोट में इस्तेमाल होने वाले आयातित कागज और नकली नोट छापने में शामिल ऑपरेटरों पर लगातार कार्रवाई के बावजूद यह गंभीर समस्या बनी हुई है। यह न केवल नकली मुद्रा के बढ़ते खतरे को रेखांकित करता है, बल्कि राष्ट्रविरोधी तंत्र की सुनियोजित साजिश का भी पर्दापाश करता है। जबकि 2016 में नोटबंदी के ऐतिहासिक निर्णय के साथ ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह स्पष्ट कर दिया था कि भ्रष्टाचार, कालेधन और नकली नोटों के खिलाफ लड़ाई उनकी प्राथमिकताओं में है। नोटबंदी केवल एक आर्थिक सुधार नहीं, बल्कि डिजिटल अर्थव्यवस्था की नींव रखने वाला साहसी एवं युगांतरकारी कदम था।
आज भारत को सिर्फ बाहरी सीमाओं पर नहीं, बल्कि आर्थिक मोर्चे पर भी एक युद्ध लड़ना पड़ रहा है, नकली मुद्रा के खिलाफ, भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ और राष्ट्रविरोधी मानसिकता के खिलाफ। इसमें विजय तभी संभव है, जब हम सब डिजिटल भारत के निर्माण में सहभागी बनें। नकली मुद्रा का मुद्दा केवल एक आर्थिक अपराध नहीं है। यह एक प्रकार का आर्थिक आतंकवाद है, जिसका उद्देश्य भारत की अर्थव्यवस्था को अस्थिर करना, महंगाई को बढ़ाना, काले धन को बढ़ावा देना और आतंकवाद को वित्त पोषण देना है। ये नकली नोट अधिकतर सीमापार से संचालित तंत्रों द्वारा भारत में भेजे जाते हैं, जो भारत की राजनीतिक स्थिरता, आर्थिक विकास और आंतरिक सुरक्षा को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं। इस तरह राष्ट्र के विरुद्ध षड़यंत्र, साजिश एवं बड़े खतरों को अंजाम दिया जा रहा है। क्योंकि नकली नोट बाज़ार में असली नोटों के साथ मिलकर मुद्रा व्यवस्था को प्रभावित करते हैं। आम नागरिक अनजाने में इन्हें ले लेता है और आर्थिक नुकसान उठाता है। यह काले धन और आतंकवाद को पोषित करता है। नकली नोट सरकारी योजनाओं की निष्पक्षता और वितरण प्रणाली को भी प्रभावित करते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी की डिजिटल क्रांति न केवल नकली नोटों को नियंत्रित करने का बल्कि राष्ट्र-विरोधी तत्वों को नेस्तनाबूद करने का सशक्त माध्यम है। यह मोदी की दूरदृष्टि एवं नये भारत-विकसित भारत के विजन की विजय है, उनके ही विचारों में डिजिटल लेन-देन केवल तकनीक नहीं, यह राष्ट्र निर्माण का माध्यम है। आज के भारत की अर्थव्यवस्था एक निर्णायक दौर से गुजर रही है। डिजिटल ग्राम योजना, ई-गवर्नेंस, डिजिटल साक्षरता अभियान यानी तकनीक को गाँव और गरीब तक पहुँचाने की पहल है। एक ओर प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में देश डिजिटल इंडिया की ओर तेजी से बढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर नकली नोटों की बाढ़ एक अदृश्य आतंकवाद बनकर देश की अर्थव्यवस्था, समाज और सुरक्षा को चुनौती दे रही है। निस्संदेह, हाल के वर्षों में, भारत ने नकली नोटों की कालाबाजारी पर अंकुश लगाने व काले धन पर रोक के लिये डिजिटल भुगतान को प्रोत्साहित करने के लिये अपनी स्थिति खासी मजबूत की है। सरकार की सोच है कि काले धन पर रोक लगाने के लिए नगद लेन-देन को हतोत्साहित किया जाए।
इस संकट की घड़ी में डिजिटल लेन-देन एक बड़ी राहत और समाधान बनकर उभरा है। यूपीआई, भीम मोबाइल वॉलेट्स, नेट बैंकिंग और कार्ड पेमेंट्स जैसे साधन नकली नोटों की समस्या को जड़ से समाप्त करने में सहायक हो सकते हैं। डिजिटल लेन-देन के लाभ ही लाभ है, पूर्ण पारदर्शिता यानी हर लेन-देन का डिजिटल रिकॉर्ड होता है, जिससे भ्रष्टाचार में कमी आती है। कर चोरी, हवाला, और मनी लॉन्ड्रिंग जैसी काली प्रवृत्तियाँ समाप्त होेती है। नकली मुद्रा की संभावनाओं पर विराम लगता है, जिससे राष्ट्र-विरोधी तत्वों के षड़यंत्र एवं साजिशें नाकाम होती है। लेन-देन सेकंडों में पूरा होता है और उनमें सरलता भी रहती है। पासवर्ड आधारित सुरक्षा व्यवस्था से लेन-देन सुरक्षित रहता है। सरकारी योजनाओं का सीधा लाभ लाभार्थियों तक पहुंचता है, पैसा सीधे उनके खातों में पहुँचता है, बिचौलियों की भूमिका समाप्त होती है। जिससे भ्रष्टाचार पर नियंत्रण होता है।
प्रधानमंत्री मोदी ने हर मंच पर डिजिटल लेन-देन को बढ़ावा देने की बात कही है। उन्होंने गाँव-गाँव जाकर लोगों को मोबाइल बैंकिंग, क्यूआर कोड, और कार्ड से भुगतान की शिक्षा देने की मुहिम चलाई है। इसका असर यह है कि आज भारत यूपीआई ट्रांजैक्शन में दुनिया में नंबर 1 है। डिजिटल इंडिया गरीब को ताकत देता है, मिडल क्लास को सुविधा देता है और राष्ट्र को मजबूती देता है। भारत की असली शक्ति अब डिजिटल प्रचलन बन रही है, जहाँ एक बटन से करोड़ों का ट्रांजैक्शन सुरक्षित होता है। मोदी की डिजिटल क्रांति ने भारत को इक्कीसवीं सदी की आर्थिक महाशक्ति बनने की दिशा में मजबूत आधार दे दिया है। हम सबकी जिम्मेदारी है कि इस डिजिटल युद्ध में सहभागी बनें, नकली नोटों को ना कहें, डिजिटल लेन-देन को अपनाएं। यही राष्ट्रभक्ति है, यही समय की माँग है। संदिग्ध नकदी की सूचना तुरंत संबंधित एजेंसियों को दें। नकली नोटों की पहचान करना सीखें और दूसरों को भी जागरूक करें। निश्चित ही जहाँ नकली नोट देश की आत्मा को खोखला करते हैं, वहीं डिजिटल मुद्रा राष्ट्र की नींव को मजबूत करती है।
निस्संदेह, यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस यानी यूपीआई ने भारत के आर्थिक लेन-देन तंत्र में क्रांति ला दी है। भुगतान के तमाम विकल्पों ने भारतीय नागरिकों के आर्थिक व्यवहार को बहुत आसान बना दिया है। हालांकि, अभी भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो डिजिटल माध्यम से लेन-देन में परहेज करते हैं। निस्संदेह, नकदी पर उनकी निर्भरता का मूल कारण डिजिटल शिक्षा का अभाव ही है। साथ-ही-साथ डिजिटल भुगतान से जुड़े घपल्ले एवं घोटाले भी है। साथ ही इसके कारणों में भ्रष्टाचार और कर चोरी की नीयत भी शामिल है। ऐसे में सरकार को डिजिटल खाई को पाटने की दिशा में रचनात्मक पहल करनी चाहिए। वहीं दूसरी आर्थिक अनियमितताएं करने वाले तत्वों से भी सख्ती से निबटा जाना चाहिए। हालांकि, दो हजार के नोट अब प्रचलन से बाहर हो चुके हैं, लेकिन उनका कानूनी आधार बना हुआ है। इस दिशा में यथाशीघ्र निर्णय लिया जाना चाहिए। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि नकली मुद्रा के पीछे कुछ संगठित राष्ट्रविरोधी शक्तियाँ सक्रिय हैं। पाकिस्तान स्थित आईएसआई और उसके सहयोगी संगठनों पर पहले भी ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि वे नकली भारतीय मुद्रा भारत में भेजकर आतंकवाद और अलगाववाद को आर्थिक समर्थन देते हैं। देश की सरकार ने डिजिटल इंडिया, जनधन योजना, आधार लिंकिंग, और यूपीआई जैसी क्रांतिकारी योजनाओं के ज़रिए नकदी पर निर्भरता घटाने का प्रयास किया है। लेकिन यह लड़ाई अकेली सरकार नहीं जीत सकती।
नकदी रहित अर्थव्यवस्था का सरकारी महत्वाकांक्षी लक्ष्य हासिल करने के मार्ग में अभी तमाम बाधाएं विद्यमान है। यह और भी बड़ी चिंता की बात है कि नोटबंदी के आठ साल बाद भी रियल एस्टेट क्षेत्र में काले धन का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल बना हुआ है। निस्संदेह, डिजिटल युग में भी ‘नकदी ही राजा है’ मानने वालों को रोकने के लिये जांच और कानूनों को सख्ती से लागू करने की जरूरत है। साथ ही इस दिशा में भी गंभीरता से विचार करना चाहिए कि भारतीय अर्थव्यवस्था को कमजोर करने की कोशिश में लगी विदेशी ताकतों की नकली करेंसी के प्रसार में कितनी बड़ी भूमिका है। विगत में पाकिस्तान से ड्रग मनी व आतंकी संगठनों की मदद के लिये नकली करेंसी के उपयोग की खबरें सामने आती रही हैं।

जाने से पहले

पत्नीजी गर्मी की छुट्टियों में मायके जाने लगीं ।साले साहब लेने आये थे और उस पर तुर्रा यह था कि चार
पहिया से लेने आये थे। बरसों पहले एम्बेसडर से ब्याह कर मेरे घर आई पत्नी अब स्कार्पियो से मायके जा
रही थी ये और बात है कि मेरी मोटरसाइकिल भी ईयमआई पर चल रही थी।
बाहर गाड़ी में सब सामान रखा जा चुका था और बच्चे भी गाड़ी में बैठ गए थे। साले साहब कार का हॉर्न
जल्दी चलने के लिये बजाते ही जा रहे थे आखिर नई स्कार्पियो जो ठहरी। पर मेरी पत्नी इतनी आसानी से
कोई सफर शुरू कर दे तो फिर कहना ही क्या ?
मुझे कहना ही पड़ा “अरी भागवान,अब निकलो भी। तुम्हारा भाई कब से हॉर्न पे हॉर्न दिए जा रहा है ? सफर
का सब सामान ठीक से रख लिया है ना ? ”
“ मैंने तो सब सामान ठीक से रख लिया है पर आप मेरे जाते ही घर को कबाड़खाना मत बना लेना । पिछली
बार तुमने टांड़ पर पांच-सात बोतलें ये समझ कर फेंक दी थी कि उन पर मेरी कभी नजर ही नहीं पड़ेगी।
अबकी बार ऐसा हुआ तो सारी पियक्कड़ी भुलवा दूंगी” उसने आंखे तरेरते हुए कहा।
“अरे नहीं, अबकी ऐसा कुछ नहीं होगा।मैं घर का ख्याल बिल्कुल उसी तरह रखूंगा जैसे तुम रखती
हो।कामवाली बाई से मैं सब चीजें साफ करवा कर रखूंगा। उसे कुछ रुपये एक्स्ट्रा दे दूँगा तो सब चकाचक
रखेगी” मैंने पत्नीजी को आश्वासन दिया।
“उसे तनख्वाह मैं दे चुकी हूँ ।उसे एक्स्ट्रा पैसे देने की कोई जरूरत नहीं है।रुपया और लाड़ प्यार उस पर
निछावर मत करो। उसका काम ही साफ-सफाई है तो वह कर ही देगी,बिना तुम्हारे प्यार जताए भी । अलग से
लाड़ -प्यार उड़ेलने की कोई जरूरत नहीं है उस पर” पत्नीजी ने निर्विकार स्वर में कहा।
उसके इस हमले से मैं असहज हो गया। मैंने बात संभालने की सोची और माहौल बनाते हुए पूछा –
“क्या उल्टा-सीधा कहे जा रही हो ? मेरी तुम्हारी उम्र थोड़े ना है ये सब बातें करने की ?
“छिछोरेपन का उम्र से क्या लेना -देना? मैं कभी ऐसी नहीं थी तुम हमेशा से ऐसे ही थे । मौका मिलते ही
मुंह ,,,, ” ये कहते हुए उसने बात अधूरी छोड़ दी। भले ही उसने अपनी बात अधूरी छोड़ दी थी मगर
उसकी बात का मैं पूरा मतलब समझ गया था। उसके जाने से मुझे खुशी तो हो रही थी मगर जाने से पहले
मुझ पर लगाई गई उसकी इस तोहमत से क्रोध के मारे मेरी आंखों में खून उतर आया था। मैंने उसे आग्नेय
नेत्रों घूरा।
मगर मेरे नैनों के क्रोध भरे बाणों से अप्रभावित होते हुए पत्नीजी ने कहा

“क्रोध से आंखे जलाने की कोई जरूरत नहीं है। अभी तुम घूर रहे हो तो मैंने देख लिया मैं घूरूँगी तो तुम तो
मेरा गुस्सा देख भी नहीं पाओगे,क्योंकि चश्मा तुम्हारा फ्रिज के ऊपर रखा है। चश्मा ,चश्मे के केस में ही
रखना और फ्रिज के ऊपर ही रखना जिससे इधर-इधर खोजने के लिये भटकना न पड़े। और हाँ, चश्मे से
याद आया कि सुबह-सुबह ब्रश करने के बाद चश्मा लगाते ही अखबार मत खोजने लगना हमारा पेपर वाला
देर से आता है। पेपर पता करने के बहाने सुबह -सुबह पड़ोसियों के घर खींस निपोरने मत पहुंच जाना। हमारा
पेपर और पेपर वाला भी सबसे अलग है। हमारे घर हिंदी का अखबार आता है पड़ोस के सभी घरों में अंग्रेजी
का अखबार आता है। और अंग्रेजी पेपर तुम्हारे लिये चश्मे जैसा है , न तो तुम चश्मे के बिना पढ़ सकते हो
और न ही अंग्रेजी पढ़ सकते हो।इसलिये अपनी बेइज्जती मत करवाना सुबह -सुबह”।
मैं कुछ कड़वा बोलने ही वाला था कि उसके पहले ही उसने अपनी बातों का गियर बदलते हुए कहा –
“तुम्हारी सारी बनियान और अंडरवियर कबर्ड के ऊपरी खाने में एक जगह तह करके रख दी है। तुम्हारे
अंडरगारमेंट्स का नम्बर 95 है । देख-भाल कर ही पहनना । बच्चों की न पहन लेना। पिछली बार तुमने
बच्चों की चड्ढी -बनियान पहन ली थी । तुम्हारी तोंद और चौखटे जैसी कमर पर पहनने की वजह से बच्चों
के चड्ढी-बनियाइन ढीले होकर झोला हो गए। इसलिये अपनी चीजों पर ही फोकस रखा करो, दूसरों की चीजों
पर नहीं। फिर चाहे वो अपने कपड़े हों या अपनी पत्नी” यह कहते हुए पत्नी कुटिलता से हंसी।
उसके इस व्यंग्य बाण से मैं बुरी तरह से आहत हो गया । मैंने उससे आर या पार पूछने का निर्णय किया ।
उसकी बातों से मैं क्रोध से उबलने लगा था ।
मेरे तमतमाये चेहरे को देखकर वह निर्विकार स्वर में बोली-
“बेकार में खून जलाकर अपना ब्लड प्रेशर बढ़ाने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारी सब मेडिकल रिपोर्ट्स
नार्मल हैं।बार -बार उस लेडी डॉक्टर अल्का गुप्ता को दिखाने की जरूरत नहीं है। वैसे भी वह
गायनकालोजिस्ट है। महिलाओं के जच्चा-बच्चा का इलाज करती है मर्दों के बीपी -शुगर का नहीं जो एक रुपये
का सरकारी पर्चा बनवा कर आधे दिन उसे निहारने में गुजार देते हो”।
मैं हैरान रह गया कि मेरे इलाज की इतनी महीन बात इसे कैसे पता ? इसका तो बरसों से पढ़ाई -लिखाई से
कोई नाता ही नहीं रहा है।
वह मेरी मनोदशा भांप कर बोली-
“बहुत हैरान – परेशान होने की जरूरत नहीं है कि यह सब मुझे कैसे पता? यह सब तिवाराइन चाची ने
बताया है। उनकी छोटी बहू प्रेग्नेंट है । वह डॉक्टर अल्का गुप्ता को रेगुलर दिखाने जाती हैं आजकल।
डाक्टरनी ने बताया कि एक अधेड़ उम्र के मोटे से और गंजे अंकल हैं जो हर तीसरे दिन बेवजह उन्हें दिखाने
चले आते हैं। उस आईटॉनिक के तलबगार से वह डाक्टरनी बहुत इरीटेट हो जाती है। उस यंग डाक्टरनी ने

मोटा ,गंजा अंकल तुम्हे ही कहा है।जानते हो, वही तिवाराइन चाची जिनसे तुम इतनी गप्पें लड़ाते हो और
उन्हें अपना हमदर्द समझते हो। अब वही चाची डॉक्टर अल्का की बात का नमक मिर्च लगाकर तुम्हे सारे
मोहल्ले में गंधवा रही हैं। मैं कहा करती थी न कि पराई नारी से ज्यादा गप्प न लड़ाओ। अब झेलो चाची की
फजीहत”।
मुझे तिवाराइन चाची से ये उम्मीद नहीं थी। उन्होंने ही मुझे डॉक्टर अल्का के बारे में बताया था कि बड़े वाले
सरकारी अस्पताल में एक बहुत अच्छी लेडी डॉक्टर आई है,जाकर दिखा लो। अब बाद में वही चाची अब ये
सब कर रही हैं।
“क्या सोच रहे हो मन ही मन। जो मन की बात है वह अपनी अर्धांगिनी से कहो। न कि मोहल्ले की
ओझाइन, शुक्लाइन, ठकुराइन और चौधराइन से कहो। पर तुमको तो पड़ोस की महिलाओं की कुशल -क्षेम की
फिक्र लगी रहती है। उन सबकी फिक्र मत करो।उनकी फिक्र करने के लिए उनके पति और बच्चे हैं। वो सब
भी गर्मियों में अपने मायके या गांव जाएंगी । सबने अपने जाने का इंतजाम कर लिया है।तुम्हे उनके ट्रेन या
बस की टाइमिंग और रूट बताने की कोई जरूरत नहीं है अपने मोबाइल से चेक करके। सबके घर में मोबाइल
है सब चेक करवा लेंगी ट्रेन-बस।तुम्हारी समाज सेवा की जरूरत नहीं है उन्हें।”
मेरा मन कर रहा था कि मैं इस औरत का मुंह नोच लूं। इसने तो मेरी बुरी तरह से किलेबंदी कर दी थी। पर
वह मेरे जीवन में किष्किन्धा नरेश बाली की तरह थी ।उस महिला के सामने मेरा बल सदैव आधा ही रह
जाता था और आत्मबल जीरो ।
मैंने अपने मनोभावों को जब्त करते हुए उसकी तरफ मुस्करा कर देखा ।
पत्नी कुछ देर सोचती रही फिर कुछ याद करते हुए बोली “और हाँ, घर के पीछे उस ब्यूटी पार्लर वाली गोरी
मेम सिंथिया से दूध, शक्कर ,काफी मांगने के बहाने उसके घर में न चले जाना। तुम्हे बड़ी जिज्ञासा रहती है
कि ब्यूटी पार्लर में क्या -क्या होता है ? पहले ही बता देती हूं कि ब्यूटी पार्लर में भी वही सब होता है जो नाई
की दुकान में होता है। इसलिये होशियार रहना।नहीं तो लेने के देने पड़ जाएंगे”।
अचानक बाहर से स्कार्पियो का हॉर्न साले साहब तेजी से बजाने लगे । पत्नी ने अपना हैंडबैग सम्भाला और
जाते -जाते आंखें तरेरती हुई बोली- “तुम पर हर पल मेरी नजर रहेगी । इसलिये मैं कितने दिनों तक बाहर हूँ,
ये गिन कर ज्यादा ओवर स्मार्ट बनने की कोशिश मत करना। और याद रहे मैं कभी भी वापस आ सकती हूँ”
यह कहते हुए वह बाहर निकल गई, मुझे कयासें लगाता हुआ छोड़कर ।
बाहर साले साहब की स्कार्पियो में एक फिल्मी गीत बज रहा था-
“मैं मायके चली जाऊंगी तुम देखते रहियो”।

शिव प्रकाश-पुंज स्वरूप हैं 

सनातन भारतीय संस्कृति में सावन का महीना व्रत और पूजा का महीना है। हिंदू पंचांग के अनुसार, सावन माह का आरंभ 11 जुलाई 2025 को हो चुका है और समापन पूर्णिमा तिथि यानी 9 अगस्त 2025 को होगा। ऐसे में इस बार सावन में 30 नहीं, बल्कि 29 दिन के होंगे। शिवपुराण और अन्य भारतीय धार्मिक ग्रंथों में सावन और भगवान शिव की महिमा का विस्तार से वर्णन मिलता है। कहा जाता है कि शिवजी बहुत जल्दी प्रसन्न होने वाले देवता हैं, वे भोले हैं।इतने भोले हैं कि उन्हें सच्चे मन से अगर कोई एक बेलपत्र और जल भी अर्पित करे, तो वे प्रसन्न हो जाते हैं।सावन के इस महीने में भगवान शिव शंकर की विशेष पूजा-अर्चना होती है। शिव एक अद्भुत शक्ति के प्रतीक हैं, वे तपस्वी हैं, विध्वंस के देवता हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो शिव को विनाश और परिवर्तन का देवता माना जाता है, लेकिन उनका विनाश भी रचनात्मक होता है, क्योंकि वे अज्ञान और माया को नष्ट करके ज्ञान और प्रकाश लाते हैं।वे योग और ध्यान के देवता हैं। इसीलिए उनको ‘आदियोगी’ कहा गया है। शिव का अर्थ ‘मंगलकारी’ है, और वे शुभ, दयालु, और परोपकारी हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि शिव वह चेतना हैं, जहाँ से सब कुछ आरम्भ होता है, जहाँ सबका पोषण होता है और जिसमें सब कुछ विलीन हो जाता है। मनुष्य मन, शरीर और सब कुछ केवल शिव तत्व से ही बना हुआ है, इसीलिए शिव को ‘विश्वरूप’ कहते हैं, जिसका अर्थ है कि सारी सृष्टि उन्हीं का रूप है। शिव का कोई आदि और अंत नही है। बड़े ही सुंदर शब्दों में कहा गया है कि-‘नमामि शमीशाननिर्वाण रूपम विभुं व्यापकं ब्रह्म वेद स्वरूपं।निजम निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेहं।।’ इसका तात्पर्य यह है कि यह परमात्मा हैं, यह सर्वशक्तिमान हैं, यह सर्वत्र विद्यमान हैं। ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ शिव न हों। यह वह आकाश हैं; वह चेतना हैं, जहाँ सारा ज्ञान विद्यमान है। वे अजन्मे हैं और निर्गुण हैं। वे समाधि की वह अवस्था हैं जहाँ कुछ भी नहीं है, केवल भीतरी चेतना का खाली आकाश है। वही शिव हैं।हिंदू धर्म में उन्हें शंकर, शंभु,महेश, रूद्र, भोलेनाथ, कैलाशपति, त्रिकालदर्शी आदि अन्य नामों से भी जाना जाता है। हिंदू धर्म में यह मान्यता है कि भगवान शिव ‘देवों में देव महादेव’ हैं जो पूर्ण परमात्मा हैं। कुछ लोग शिव को भगवान महाशिव,महाकाल,सदाशिव, साम्ब सदाशिव,बाबा विश्वनाथ तथा पशुपतिनाथ के रूप में भी पूजते हैं। शिव कहते हैं, मृत्यु भी मैं हूं, महाविनाश का सूत्र भी मैं ही हूं।सावन के महीने में शिवलिंग पर जल अर्पित करना सबसे सरल और पवित्र कृत्य माना जाता है। यह क्रिया हमारे भीतर के क्रोध, तनाव और अस्थिरता को शांत करती है। शिवलिंग पर जलाभिषेक करने से हमारा मन शांत और स्वभाव विनम्र होता है। शिवलिंग पर दूध अर्पित करने से स्वास्थ्य का वरदान मिलता है।दही शिवलिंग पर चढ़ाने से हमारे स्वभाव में गंभीरता और स्थिरता आती है। यह मन को चंचलता से बचाता है और सोचने-समझने की शक्ति को बढ़ाता है।शिवलिंग पर शक्कर चढ़ाने से घर में सुख-शांति और आर्थिक उन्नति आती है। यह जीवन में मीठे रिश्तों और खुशियों का संचार करता है।शहद को अर्पित करने से वाणी में मधुरता और सौम्यता आती है। घी, जो ऊर्जा और तेज का प्रतीक है, शिव को चढ़ाने से हमारे भीतर शक्ति, आत्मविश्वास और सहनशक्ति की वृद्धि होती है। शिवलिंग पर इत्र अर्पित करने से पवित्रता सकारात्मकता, चंदन अर्पित करने से सम्मान, प्रतिष्ठा और सामाजिक स्तर में वृद्धि होती है।महादेव को भांग अति प्रिय है। इसे अर्पित करने का तात्पर्य है अपने अंदर मौजूद विकारों, बुराइयों और बंधनों का विसर्जन। यह आत्मिक शुद्धि और संयम का प्रतीक है।केसर शिव को चढ़ाने से हमारे स्वभाव में सौम्यता, कोमलता और धैर्य आता है। यह आत्मिक संतुलन को बनाए रखने में मदद करता है और मानसिक उन्नयन का मार्ग प्रशस्त करता है।शिव का पंचाक्षर मंत्र ‘ॐ नमः शिवाय’ है। ज्योतिषाचार्यों का यह मानना है कि सावन के महीने में महामृत्युंजय मंत्र- ‘ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्, उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्’ का जाप करना चाहिए। बहरहाल, यहां पाठकों को बताता चलूं कि भगवान शिव और शंकर में अंतर है। शिव पुराण के अनुसार, महादेव जब अस्तित्व में आए थे, तो वो साकार रूप में नहीं आए थे, बल्कि सबसे पहले प्रकाश पुंज की उत्पत्ति हुई थी। जानकारी मिलती है कि इसी प्रकाश पुंज द्वारा ब्रह्मा जी और विष्णु जी की भी उत्पत्ति हुई थी। कहते हैं कि उस प्रकाश पुंज का कोई और अथवा छोर नहीं था। कथा के अनुसार, ब्रह्मा जी ने अंततः उस प्रकाश पुंज से पूछा कि ‘आप कौन हैं’, तो उस पुंज ने जवाब दिया कि ‘मैं शिव हूं।’ जवाब सुनकर ब्रह्मा जी ने प्रकाश पुंज से साकार रूप में दिखने की इच्छा जताई। कहते हैं कि इसके बाद ही ‘प्रकाश पुंज’ ने साकार रूप में दर्शन दिए और भगवान शिव के इस साकार रूप को ही भगवान शंकर कहा जाता है। भगवान शिव और शंकर एक ही शक्ति के अंश हैं, परंतु एक निराकार रूप है और दूसरा साकार रूप। वास्तव में,शिव केवल एक हिंदू देवता नहीं हैं, बल्कि एक अवस्था, एक अनुभव, एक आंतरिक ऊर्जा है। दूसरे शब्दों में कहें तो शिव वह अवस्था है, जहां व्यक्ति अपने भीतर की अनंत ऊर्जा को पाता है और आनंदित होता है। दूसरे शब्दों में यह कहना ग़लत नहीं होगा कि शिव को एक देवता के रूप में न देखकर, एक ऐसी अवस्था के रूप में देखा जाता है जो हर इंसान के भीतर मौजूद है। शिव ‘अर्धनारीश्वर’ के रूप में आधा पुरुष और आधा महिला है। यह प्रतीक इस विचार को दर्शाता है कि पुरुष और महिला दोनों में ही शिव का वास है। वास्तव में, शब्द ‘शिव’ का सही अर्थ है, ‘वह जो नहीं है।’ शिव, ब्रह्म लोक में परमधाम के निवासी हैं और शंकर सूक्ष्म लोक में रहने वाले हैं। साकार रूप में वे अनंत ज्ञान के प्रतीक और अद्वितीय हैं,योगी हैं।वहीं शिव, प्रकाश पुंज स्वरूप हैं, जिनकी हम शिवलिंग के रूप में पूजा करते हैं। भगवान शंकर भी निराकार शिव की पूजा शिवलिंग के रूप में करते हैं क्योंकि शिव सबके स्रोत हैं। शंकर की प्रकृति है, शरीर है, स्वभाव है, परिवार है, विकार है जबकि शिव निर्विकार, निर्लिप्त, अनादि-अनंत ज्योति है। इस प्रकार शिव और शंकर एक होकर भी अलग-अलग हैं। निराकार रूप में भगवान् शिव की महिमा, ऊर्जा और शक्ति भगवान् शंकर से कहीं अधिक प्रभावशाली है और इस कारण सम्पूर्ण जगत के साथ-साथ त्रिदेव् और समस्त देव भी उनकी आराधना करते हैं। जीवन के तीन पहलू हैं- उत्पत्ति, स्थिति और विनाश। मतलब यह है कि जो बना है,वह एक न एक दिन मिटेगा भी,उसका विनाश भी होना तय है। बनना और मिटना, सृजन और संहार, एक ही प्रक्रिया के अंग हैं। शिव को अराजकता और सृजन दोनों का प्रतीक माना जाता है। वे विनाश के देवता हैं, लेकिन विनाश के बाद ही सृजन होता है, और वे इस प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं।हर मनुष्य को यह बात अपने जेहन में रखनी चाहिए कि समस्त सृजन विनाश को पैदा करता है, और समस्त विनाश नए सृजन को जन्म देता है। इसलिए कृष्ण अर्जुन से यह कहते हैं कि-‘ विनाश से तुम परेशान और पीड़ित मत हो। मृत्यु भी तुमको भयभीत न करे। तुम मृत्यु में भी मुझे देख सकते हो, क्योंकि विनाश की अंतिम शक्ति भी मैं ही हूं।’ संक्षेप में, कृष्ण अर्जुन को कर्मयोग, निष्काम कर्म और आत्मा की अमरता का उपदेश देते हैं, जिससे अर्जुन युद्ध के दौरान होने वाले विनाश से पीड़ित न हों। वास्तव में, मृत्यु जीवन का ही एक अंग है, हिस्सा है।सच तो यह है कि मृत्यु को समझे बिना जीवन को समझा ही नहीं जा सकता। वे जीवन के दो छोर हैं: एक तरफ से आना, दूसरी तरफ से जाना। संक्षेप में, यही कहूंगा कि शिव जीवन और मृत्यु दोनों के प्रतीक हैं, लेकिन वे मृत्यु से परे, शाश्वत और अमर हैं। 

सुनील कुमार महला

बचपन में दिल का दर्द: क्या हमारी जीवनशैली मासूम धड़कनों की दुश्मन बन गई है?

भारत में बच्चों में हार्ट अटैक की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। इसका संबंध बच्चों की बदलती जीवनशैली, खान-पान, मानसिक तनाव और स्क्रीन टाइम से है। स्कूलों में नियमित हेल्थ जांच, योग, पोषण शिक्षा और अभिभावकों की जागरूकता से ही इस खतरे को रोका जा सकता है। यह केवल स्वास्थ्य नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय चेतावनी है।

 प्रियंका सौरभ

जब भी हम “हार्ट अटैक” शब्द सुनते हैं, हमारे ज़ेहन में पचास-पैंसठ साल का कोई अधेड़ उम्र का व्यक्ति सामने आता है—भागदौड़ भरी ज़िंदगी में उलझा, तनाव और थकान से लदा हुआ। पर आज हकीकत इससे कहीं अधिक डरावनी और चौंकाने वाली है। आज दिल के दौरे सिर्फ बड़ों का ही नहीं, बल्कि मासूम बच्चों का भी पीछा कर रहे हैं। देश के कई हिस्सों से ऐसी खबरें सामने आ रही हैं, जहां स्कूल जाते बच्चे अचानक गिर जाते हैं और डॉक्टर उसे “कार्डियक अरेस्ट” या “सडन हार्ट फेल्योर” बता देते हैं। क्या यह केवल संयोग है? या फिर हमारी जीवनशैली ने नन्हे दिलों पर हमला बोल दिया है?

पिछले कुछ महीनों में देशभर से कई ऐसी घटनाएं सामने आईं हैं, जो इस खतरे की गंभीरता की पुष्टि करती हैं। ताजा मामला मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले का है, जहां आठ साल की मासूम बच्ची स्कूल गेट पर पहुंचते ही गिर पड़ी और उसकी मौत हो गई। इससे पहले गुजरात, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, महाराष्ट्र जैसे राज्यों से भी स्कूली बच्चों की हार्ट अटैक से हुई मौत की घटनाएं सामने आ चुकी हैं। इंडियन मेडिकल जर्नल्स के अनुसार, 2021 और 2022 के बीच 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों में अचानक कार्डियक अरेस्ट से मौत के मामलों में 35% की वृद्धि दर्ज की गई है। वर्ष 2022 में अकेले भारत में 32,457 युवाओं की मौत हृदयाघात से हुई। इनमें बड़ी संख्या 10 से 18 वर्ष के बीच के किशोरों की थी।

सवाल यह है कि ऐसा हो क्यों रहा है? क्या यह सिर्फ अनुवांशिकता का मामला है? क्या बच्चों में जन्मजात हृदय रोग अचानक सक्रिय हो रहे हैं? या फिर इसके पीछे हमारी बदलती जीवनशैली, खान-पान, स्क्रीन टाइम, मोटापा, मानसिक तनाव और शारीरिक निष्क्रियता का कोई बड़ा योगदान है?

विशेषज्ञ कहते हैं कि इसका कारण “मल्टी फैक्टोरियल” है—अर्थात यह कई कारकों का मिश्रण है। आज के बच्चे ब्रेड-बर्गर, पिज़्ज़ा, कोल्ड ड्रिंक और पैकेज्ड स्नैक्स पर निर्भर हैं। पौष्टिक आहार, जैसे हरी सब्जियाँ, दालें, फल, दूध अब उनके भोजन का हिस्सा नहीं रह गया है। पहले बच्चे गली-मोहल्ले में दौड़ते-खेलते थे। अब मोबाइल और गेमिंग कंसोल्स ने उनका बचपन छीन लिया है। खेल के मैदानों की जगह टैबलेट ने ले ली है। स्कूलों में अत्यधिक होमवर्क, कोचिंग की दौड़, माता-पिता की अपेक्षाएं और हर क्षेत्र में ‘बेस्ट’ बनने का दबाव बच्चों में मानसिक तनाव पैदा कर रहा है। यह तनाव शरीर में कोर्टिसोल और अन्य हॉर्मोन को असंतुलित कर देता है, जिससे हृदय पर असर पड़ता है।

देर रात तक मोबाइल चलाना, रील्स देखना और ऑनलाइन गेम खेलना बच्चों की नींद को प्रभावित करता है। नींद की कमी सीधे दिल की सेहत से जुड़ी है। बाल हृदय रोग विशेषज्ञों का मानना है कि बच्चों में हार्ट अटैक आमतौर पर “कॉन्जेनिटल हार्ट डिजीज”, “कार्डियोमायोपैथी”, “इलेक्ट्रिकल डिसऑर्डर्स” या “मायोकार्डिटिस” के कारण होता है। लेकिन इनका समय पर पता न चलने के कारण बच्चे अचानक मौत का शिकार हो जाते हैं। दुर्भाग्यवश, हमारे देश में बाल स्वास्थ्य की जांच प्रणाली बहुत कमजोर है। अधिकतर स्कूलों में नियमित हेल्थ चेकअप नहीं होते, और माता-पिता भी बच्चों के थकान या सांस फूलने जैसे लक्षणों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।

इस संकट से निपटने के लिए हमें एक बहुआयामी रणनीति अपनानी होगी। सरकार को सभी निजी और सरकारी स्कूलों में हर 6 महीने में हृदय जांच, ईसीजी और सामान्य स्वास्थ्य परीक्षण अनिवार्य करना चाहिए। स्कूलों में ‘फिट इंडिया’ जैसे अभियानों को गंभीरता से लागू किया जाए। बच्चों को योग, प्राणायाम, ध्यान और नियमित शारीरिक व्यायाम के लिए प्रेरित किया जाए। माता-पिता को अपने बच्चों के खान-पान, नींद और स्क्रीन टाइम पर सतर्क निगरानी रखनी होगी। बच्चे की थकान, चिड़चिड़ापन या किसी भी असामान्य शारीरिक लक्षण को गंभीरता से लें।

विद्यालयी पाठ्यक्रम में ‘पोषण शिक्षा’ को शामिल किया जाए ताकि बच्चे कम उम्र से ही हेल्दी फूड और शरीर के महत्व को समझ सकें। टेलीविजन और डिजिटल मीडिया को केवल उत्पाद बेचने के बजाय समाज को स्वस्थ जीवनशैली के लिए शिक्षित करने की भूमिका निभानी चाहिए। यह विडंबना ही है कि जब भारत “विकसित राष्ट्र” बनने की दौड़ में है, तब उसका भविष्य यानी बच्चे हृदय रोगों से जूझ रहे हैं। नीति आयोग, स्वास्थ्य मंत्रालय और शिक्षा मंत्रालय को मिलकर एक समन्वित नीति बनानी चाहिए, ताकि बच्चों की स्क्रीनिंग, हेल्थ एजुकेशन और इमरजेंसी सुविधाएं हर स्कूल में सुनिश्चित हो सकें। यह केवल स्वास्थ्य का नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और मानव संसाधन विकास का मामला है।

बचपन धड़कनों का त्योहार होता है, न कि जीवन का अंतिम पड़ाव। जब कोई बच्चा दिल के दौरे से दम तोड़ता है, तो केवल एक जीवन नहीं जाता—एक भविष्य, एक सपना और एक परिवार उजड़ जाता है। हमें यह स्वीकारना होगा कि बच्चों का दिल अब पहले जैसा मजबूत नहीं रहा—क्योंकि हमने उसे कमजोर बना दिया है। अब समय आ गया है कि हम सिर्फ ‘हार्ट डे’ पर भाषण न दें, बल्कि हर दिन बच्चों के दिल की चिंता करें। नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब स्कूल का बस्ता नहीं, स्ट्रेचर उठाना पड़ेगा।

सादगी की सियासत: मनोहर लाल की राजनीति और परछाइयाँ

मनोहर लाल खट्टर हरियाणा की राजनीति में सादगी, ईमानदारी और पारदर्शिता के प्रतीक बनकर उभरे हैं। जहाँ अधिकतर नेता सत्ता से वैभव कमाते हैं, वहीं खट्टर जी ने जनता का भरोसा कमाया। उनके शासन में लाखों नौकरियाँ बिना सिफारिश और रिश्वत के दी गईं। निजी संपत्ति की बजाय उन्होंने मेहनती युवाओं की दुआएँ कमाईं। स्वयंसेवक से मुख्यमंत्री तक का सफर तय करते हुए वे दिखावे नहीं, सेवा में विश्वास रखते हैं। उनके पास महल नहीं है, पर जनता के दिलों में स्थान ज़रूर है — यही है सच्चे जनसेवक की पहचान।

-प्रियंका सौरभ

जब भी हरियाणा की राजनीति पर नज़र डालते हैं, एक बात तुरंत सामने आती है — सत्ता में आते ही नेताओं की कोठियों की संख्या बढ़ जाती है, गाड़ियों के काफिले लम्बे हो जाते हैं, और रिश्तेदारों के व्यापार अचानक बढ़ने लगते हैं। मगर इन सब के बीच एक नाम ऐसा भी है जो न कोठी वाला है, न खानदान का ठेकेदार — मनोहर लाल खट्टर।

तो सवाल यही है — क्या कमाया मनोहर लाल ने राजनीति में?

उत्तर साफ है — उन्होंने कमाया विश्वास। उन्होंने कमाई उन लाखों मेहनती, पढ़ने-लिखने वाले गरीब बच्चों की दुआएँ, जो कभी सोच भी नहीं सकते थे कि बिना सिफारिश, बिना रिश्वत, सिर्फ मेहनत के दम पर उन्हें भी सरकारी नौकरी मिल सकती है।

जहाँ अधिकतर नेता राजनीति को वैभव और व्यक्तिगत लाभ का ज़रिया मानते हैं, वहीं मनोहर लाल खट्टर सादगी और पारदर्शिता का प्रतीक बनकर सामने आए। वे मुख्यमंत्री हैं लेकिन उनका खुद का कोई निजी मकान नहीं है। न पंचकूला, न गुरुग्राम, न चंडीगढ़ में कोई कोठी या फार्महाउस। आज भी वे दो कमरों के सरकारी क्वार्टर में रहते हैं।

उन्होंने न केवल अपने निजी जीवन को सादा और संयमित रखा, बल्कि सरकार चलाते समय भी जनता के पैसे को जनता के काम में लगाया। जहाँ अन्य नेता अपनी संतानों और नातेदारों को सत्ता में भागीदार बनाते रहे, वहीं खट्टर ने व्यवस्था को मजबूत करने और भरोसे को लौटाने की कोशिश की — वह भी बिना किसी शोर-शराबे के।

मनोहर लाल खट्टर का जन्म पाँच मई उन्नीस सौ चौवन को निंदाना गाँव, ज़िला रोहतक (अब झज्जर), हरियाणा में हुआ। उनका परिवार देश के विभाजन के समय पाकिस्तान से भारत आया था। प्रारंभिक शिक्षा रोहतक में प्राप्त की और फिर दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई की। पढ़ाई के बाद उन्होंने पूरी तरह से स्वयंसेवक संगठन को समर्पित कर दिया और लंबे समय तक पूर्णकालिक प्रचारक रहे।

वे लगभग चालीस वर्षों तक स्वयंसेवक संगठन से जुड़े रहे और संगठनात्मक अनुभव के साथ वर्ष उन्नीस सौ चौरानवे में भारतीय जनसंघ से सक्रिय राजनीति में आए। दो हजार चौदह में जनसंघ की ऐतिहासिक जीत के बाद उन्हें हरियाणा का मुख्यमंत्री बनाया गया — यह नियुक्ति जाति, जातिगत संतुलन या जोड़तोड़ से नहीं, बल्कि विचार, व्यवहार और संगठन की निष्ठा के आधार पर हुई।

हरियाणा में एक समय ऐसा भी था जब नौकरी पाना मतलब किसी विधायक या मंत्री की पहचान ढूंढना होता था। पैसे लेकर नौकरियाँ बेची जाती थीं, परीक्षाएँ लीक होना आम बात थी। मनोहर लाल खट्टर के शासन में यह व्यवस्था बदली। चयन बोर्ड और लोक सेवा आयोग की प्रक्रियाएँ पारदर्शी बनीं, आवेदन और चयन की प्रक्रियाएँ ऑनलाइन हुईं, परिणामों में निष्पक्षता आई।

अब एक साधारण परिवार का बच्चा भी कह सकता है — अगर पढ़ाई की है, तो नौकरी मेरी है।

उनके कार्यकाल में लाखों नौकरियाँ बिना सिफारिश, बिना रिश्वत के दी गईं। इसका परिणाम यह हुआ कि गाँव-गाँव में युवाओं का आत्मविश्वास लौटा। अब युवा किसी नेता की सिफारिश नहीं ढूंढते, बल्कि अपने पुस्तकालय में और अधिक समय बिताने लगे हैं।

यह कहना गलत नहीं होगा कि उन्होंने लाखों युवाओं को सिर उठाकर जीने का हक़ दिया है — बिना किसी समझौते के।

बेशक, मनोहर लाल खट्टर पर भी आलोचनाएँ हुईं — कभी किसान आंदोलन को लेकर, कभी पुलिस व्यवस्था या कर्मचारियों की माँगों को लेकर। लेकिन उन्होंने कभी भाषा की मर्यादा नहीं तोड़ी, न ही किसी आंदोलनकारी को दुश्मन की तरह देखा। उन्होंने संवाद और संयम की नीति अपनाई। यह उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता है — काम को प्रचार नहीं बनाना, और आलोचना को अवसर की तरह लेना।

उनके शासनकाल में कई नवाचार हुए — परिवार पहचान पत्र की योजना, सरल पोर्टल, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का प्रभावी संचालन, डिजिटल सेवा केंद्रों की स्थापना, पारदर्शी शिकायत निवारण प्रणाली — ये सब व्यवस्थागत सुधार हैं, जिनका सीधा लाभ आम आदमी तक पहुँचा है।

आज जब राजनीति में जाति, धर्म और बाहरी प्रदर्शन प्राथमिक हो गया है, मनोहर लाल खट्टर उन चंद नेताओं में हैं जो विचार, व्यवहार और परिणाम से अपनी पहचान बनाए हुए हैं।

उनका जीवन यह सिखाता है कि सत्ता का असली सौंदर्य दिखावे में नहीं, सेवा में है। वे युवाओं के लिए इस मायने में आदर्श हैं कि ईमानदारी केवल आदर्श नहीं, एक जीवन पद्धति हो सकती है।

उनके कार्यकाल में न कोई बड़ा भ्रष्टाचार हुआ, न उनके नाम कोई आय से अधिक संपत्ति की चर्चा हुई। न उनके परिवार ने सत्ता का लाभ उठाया, न कोई मित्र-मंडली मलाईदार पदों पर बैठाई गई।

तो राजनीति में क्या कमाया उन्होंने?

उन्होंने कमाया एक ऐसा नाम, जिस पर हरियाणा का आम नागरिक आँख मूँदकर भरोसा कर सके। उन्होंने कमाया जनता का मन — बिना लोभ, बिना भय, केवल अपने आचरण से।

हरियाणा की राजनीति में मनोहर लाल खट्टर किसी अवरोध की तरह नहीं, एक विकल्प की तरह उभरे हैं। उन्होंने यह साबित किया कि राजनीतिक ईमानदारी कोई कल्पना नहीं, बल्कि एक जीवंत सच्चाई भी हो सकती है।

हो सकता है उनके पास अपनी कोठी न हो,

मगर उन्होंने लाखों युवाओं को मेहनत से नौकरी पाने का सपना दिया।

हो सकता है उनके पास गाड़ियों का काफिला न हो,

मगर उन्होंने आम आदमी को पारदर्शिता, सुरक्षा और सेवा का भरोसा दिया।

सत्ता को साधन नहीं, साधना मानने वाले मनोहर लाल जैसे नेता राजनीति में बहुत कम आते हैं।

और जब आते हैं, तो महलों में नहीं,

जनता के दिलों में घर बना लेते हैं।

— प्रियंका सौरभ