संदर्भः शोध विकास संस्थानों के बजट में कमी
प्रमोद भार्गव
पक्षियों के पंख अपने आप में संपूर्ण रूप में विकसित होते हैं, लेकिन हवा के बिना कोई भी पक्षी उड़ान नहीं भर सकता। यही स्थिति भारत में नवाचारी प्रयोगधर्मियों के साथ रही है। उनमें कल्पनाशील असीम क्षमताएं हैं, लेकिन कल्पनाओं को आकार देने के लिए प्रोत्साहन एवं वातावरण नहीं मिल पाता है। हालांकि 11 साल से सत्तारुढ़ नरेंद्र मोदी सरकार ने इस वातावरण के निर्माण में अकल्पनीय काम किया है, किंतु अब अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के अनर्गल फैसलों के चलते जरूरी हो गया है कि हम अपने उच्च शिक्षण संस्थानों में अध्यनरत विद्यार्थियों की मौलिक सोच को शोध की दिशा में प्रेरित करें। क्योंकि हाल ही में ट्रंप ने नासा और नेशनल साइंस फाउंडेशन जैसे शोध विकास संस्थानों के बजट में 50 प्रतिशत से ज्यादा की कटौती कर दी है। दूसरी तरफ एच-1 बी वीजा की शुल्क में आवेदान के लिए एक लाख डॉलर, यानी करीब 86 लाख रुपए का अतिरिक्त भुगतान करने की शर्त लगा दी है। इस किस्म के वीजा के सबसे ज्यादा लाभार्थी वे दक्ष युवा भारतीय हैं, जो अमेरिका की आईटी कंपनियों में नौकरी करने के इच्छुक रहते हैं। ट्रंप भविष्य में ऐसे और कानूनी उपाय कर सकते हैं, जिससे युवा उद्यमियों को अवसर मिलने में कमी आए। अतएव भारत को ऐसे कल्पनाशील शोधार्थियों को बढ़ावा देना जरूरी है, जिनमें नवाचारी प्रतिभा है।
हालांकि नासा और नेशनल फाउंडेशन के बजट में भारी कटौती के बाद यूरोप ने ‘चूज यूरोप फॉर साइंस‘ थीम पर मई-2025 में एक बैठक कर दुनिया के शोधार्थियों के लिए अपने संस्थानों के द्वार खोल दिए हैं। फ्रांस और भारत ने बजट बढ़ा दिया है। चीन पूर्व से ही स्कूल स्तर पर छात्रों की मौलिक सोच एवं नूतन आविष्कार की संभावनाओं की पहचान कर छात्रों को अनुसंधान की दिशा में उन्मुक्त करने लग गया है। भारत ने नेशनल रिर्सच फाउंडेशन बनाकर एक लाख करोड़ रुपए की धनराशि आवंटित की है। जिससे शोध की सोच को आविष्कार के रूप में साकार किया जा सके। अब छात्र वित्तीय स्वतंत्रता के साथ अपने शोध आगे बढ़ा सकेंगे। वर्तमान और भविष्य के शोध एआई, रोबोटिक्स, क्वांटम कंप्यूटर, अंतरिक्ष विज्ञान, गणित और स्टेम साइंस के अनुसंधानों से जुड़े होंगे। आज के समय में नासा और भारत सुपर कंप्यूटर और डिजिटल संचार के माध्यमों में पाणिनि के अष्टाध्यायी में उल्लेखित संस्कृत को इनकी भाषा बनाने के संयुक्त अनुसंधान में लगे हैं। संस्कृत की भाषाई सटीकता और तार्किकता के चलते इसे कृत्रिम बुद्धि और रोबोटिक्स जैसी आधुनिक प्रौद्योगिकी में प्रयोग की संभावनाएं बढ रही हैं।
संस्कृत की व्याकरण प्रणाली को तीन हजार से अधिक वर्ष पहले महर्षि पाणिनि ने संहिताबद्ध किया था। वैज्ञानिक इसे भाषाई विज्ञान का एक अद्वितीय नमूना मानते हैं। पाणिनि व्याकरण संस्कृत भाषा के लिए रचित अष्टाध्याई नामक ग्रंथ पर आधारित है। जिसमें लगभग 4000 सूत्र हैं। यह व्याकरण एक अत्यधिक वैज्ञानिक और सूक्ष्म विश्लेषण प्रस्तुत करता है। संस्कृत को इसी ने परिनिष्ठित और मानकीकृत किया है। पाणिनि की यह पद्धति दुनिया की पहली औपचारिक विधि मानी जाती है। इसके सहायक प्रतीकों (प्रत्यय) की प्रणाली ने कंप्यूटर प्रोग्रामिंग भाषाओं के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। क्योंकि संस्कृत सुसंगत ‘कंप्यूटर अनुकूल भाषा ‘ हैं। इसलिए इसे एआई और रोबोटिक्स तकनीक के लिए उपयोगी भाषा माना जा रहा है। चूंकि भारतीय युवा अपनी मातृभाषा में प्राकृतिक रूप से दक्ष रहते हैं और इन भाषाओं की जननी संस्कृत है, इसलिए उन्हें उपरोक्त क्षेत्रों में नए शोध करने में आसानी होगी।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संबंधी साहित्य सृजन में केवल पाश्चात्य लेखकों का ही बोलबाला है। पश्चिमी देशों के वैज्ञानिक आविश्कारों से ही यह साहित्य भरा पड़ा है। भारत में भी इसी साहित्य का पाठ्य पुस्तकों में अनुकरण है। इस साहित्य में न तो हमारे प्राचीन वैज्ञानिकों की चर्चा है और न ही आविष्कारों की। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि हम खुद न अपने आविष्कारकों को प्रोत्साहित नहीं करते हैं और न ही उन्हें मान्यता देते हैं। इन प्रतिभाओं के साथ हमारा व्यवहार भी कमोबेश उपहासपूर्ण अभद्र रहता है। हालांकि अब निरंतर ऐसी प्रामाणिक सूचनाएं मीडिया में आ रही हैं, जिनसे निश्चित होता है कि प्राचीन भारत विज्ञान की दृष्टि से अत्यंत समृद्धशाली था। संस्कृत ग्रंथों से यही ज्ञान अंग्रेजी, फारसी और अरबी भाषाओं में अनुदित होकर पश्चिम पहुंचा और वहां के कल्पनाशील जिज्ञासुओं ने भारतीय सिद्धांतों को वैज्ञानिक रूप में ढालकर अनेक आविष्कार व सिद्धांत गढ़कर पेटेंट करा लिए। इनमें से ज्यादातर पश्चिमी वैज्ञानिक उच्च शिक्षित नहीं थे। बल्कि उन्हें मनबुद्धि होने का दंड देकर विद्यालयों से कर दिया गया था।
आविष्कारक शोधार्थी को जिज्ञासु एवं कल्पनाशील होना जरूरी है। कोई शोधार्थी कितना भी शिक्षित क्यों न हो, वह कल्पना के बिना कोई मौलिक या नूतन आविष्कार नहीं कर सकता है। शिक्षा संस्थानों से विद्यार्थी जो शिक्षा ग्रहण करते हैं, उसकी एक सीमा होती है, वह उतना ही बताती व सिखाती है, जितना हो चुका है। आविष्कार कल्पना की वह श्रृंखला है, जो हो चुके से आगे की अर्थात कुछ नितांत नूतन करने की जिज्ञासा को आधार-तल देती है। स्पश्ट है, आविश्कारक लेखक या नए सिद्धांतों के प्रतिपादकों को उच्च शिक्षित होने की कोई बाध्यकारी अड़चन पेश नहीं आनी चाहिए। अतएव हम जब लब्ध-प्रतिश्ठित वैज्ञानिकों की जीवन-गाथाओं को पढ़ते हैं, तो पता चलता है कि न तो वे उच्च शिक्षित थे, न ही वैज्ञानिक संस्थानों में काम करते थे और न ही उनके इर्द-गिर्द विज्ञान-सम्मत परिवेश था। उन्हें प्रयोग करने के लिए प्रयोगशालाएं भी उपलब्ध नहीं थीं। गोया, हम कह सकते हैं कि मौलिक प्रतिभा जिज्ञासु के अवचेतन में कहीं छिपी होती है। इसे पहचानकर गुणीजन या शिक्षक प्रोत्साहित कर कल्पना को पंख देने का माहौल दें ंतो भारत की ग्रामीण धरती से अनेक वैज्ञानिक-आविष्कारक निकल सकते हैं। इस दिशा में एक अच्छी पहल आईआईटी मद्रास में ‘सोच का पाठ‘ पढ़ाने के पाठ्यक्रम शुरू करने के साथ की है। यदि शिक्षक विद्यार्थी के अवचेतन में पैठ बनाए बैठे इस कल्पनाशील सोच को पहचानने में सफल होते हैं तो इस पाठ्यक्रम की सार्थकता निकट भविष्य में सिद्ध हो जाएगी।
दुनिया में वैज्ञानिक और अभियंता पैदा करने की दृष्टि से भारत का तीसरा स्थान है। भारतीय शोधार्थियों का वैश्विक प्रतिशत 2 हैं, सबसे उत्तम और चर्चित शोध-पत्रों की प्रस्तुति में हमारा योगदान 2.4 प्रतिशत है। लेकिन यह प्रसन्नता की बात है कि दुनिया के 29 प्रौद्योगिकी संपन्न देशों में भारत का स्थान पांचवां है। भारत ने उस प्रत्येक परिस्थिति को चुनौती और अवसर माना, जिसे दूसरे देशों के देने से मना कर दिया था। एक समय रूस ने भारत को अंतरिक्ष मिसाइल प्रक्षेपण से जुड़े क्रायोजनिक इंजन की तकनीक देने से मना कर दिया था। तब एपीजे अब्दुल कलाम ने इसे अपनी बुद्धि और देशज संशाधनों से विकसित किया और आज हम अंतरिक्ष में प्रमुख वैश्विक षक्ति हैं। इसी तरह 1987 में अमेरिका ने हमें सुपर कंप्यूटर देने से मना कर दिया था। तब भौतिक शास्त्री विजय पांडुरंग भटकर ने इस स्थिति को एक चुनौती माना और भारत का पहला सुपर कंप्यूटर परम स्वयं की मेधा से विकसित किया। अतएव ट्रंप के अवरोधों को हमें एक अवसर के रूप में देखने की जरूरत है।
प्रमोद भार्गव
भारतीय शोधार्थियों को प्रोत्साहन की जरूरत
भारत के इतिहास के गौरव : छावा संभाजी अध्याय – १
संभाजी के पिता छत्रपति शिवाजी
मैथिलीशरण गुप्त जी भारत के स्वर्णिम अतीत को रेखांकित करते हुए लिखते हैं :-
उनके चतुर्दिक-कीर्ति-पट को है असम्भव नापना,
की दूर देशों में उन्होंने उपनिवेश-स्थापना ।
पहुँचे जहाँ वे अज्ञता का द्वार जानो रुक गया,
वे झुक गये जिस ओर को संसार मानो झुक गया॥”
भारत के जिन वीर इतिहास नायकों के साथ अन्याय करते हुए उनके चरित्र चित्रण के साथ इतिहासकारों ने छल किया है उनमें संभाजी महाराज के पिता छत्रपति शिवाजी महाराज का नाम सर्वोपरि है। छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपने जीवन काल में हिंदवी स्वराज्य के लिए कार्य किया । उनके हिंदवी स्वराज्य का अर्थ था – संपूर्ण भारतवर्ष पर भगवा का राज्य स्थापित करना । स्पष्ट है कि छत्रपति शिवाजी महाराज अपने इस अभियान के माध्यम से संपूर्ण भारतवर्ष से मुगलिया शासन को उखाड़ देना चाहते थे। भारतवर्ष के किसी व्यक्ति के द्वारा लिया गया यह संकल्प समकालीन इतिहास की एक चमत्कारिक घटना है। क्योंकि शिवाजी जैसा एक छोटे कद का और छोटे पद का व्यक्ति कुछ ऐसा संकल्प ले रहा था जो उन परिस्थितियों में पूर्ण होना सर्वथा असंभव दिखाई देता था। परंतु यदि शिवाजी इस संकल्प को नहीं लेते तो समझ लीजिए कि शिवाजी ही नहीं होते। अतः मान लेना चाहिए कि शिवाजी को छत्रपति शिवाजी बनाना उनके इसी संकल्प में अंतर्निहित था। आज संपूर्ण राष्ट्र यदि शिवाजी महाराज के समक्ष नतमस्तक होकर उनका अभिनंदन करता है तो वह केवल उनके इसी संकल्प के कारण करता है कि उन्होंने सर्वथा असंभव को संभव करके दिखा दिया था। हमने फ्रांस के नेपोलियन बोनापार्ट के बारे में सुना है कि वह कहा करता था कि असंभव शब्द मूर्खों की डायरी में लिखा होता है । परंतु एक समय आया था – जब अहंकारी नेपोलियन बोनापार्ट का अहंकार टूट गया था और वह समझ गया था कि असंभव शब्द उसके अपने शब्दकोश में भी कहीं दिखाई देता है। वाटरलू के पश्चात उसके जीवन में कई बड़े परिवर्तन हुए थे। उन परिवर्तनों ने उसका अहंकार तोड़ दिया था। उसके पश्चात उसे पता चल गया था कि मृत्यु मांगना तो संभव है, परन्तु मांगने पर मृत्यु आ ही जाएगी, यह सर्वथा संभव है।
इधर हम अपने छत्रपति शिवाजी महाराज को देखते हैं जिन्होंने मिट्टी में से स्वराज्य ( साम्राज्य नहीं, इस पुस्तक में जहां कहीं भी उनके लिए या उनके वंशजों के लिए साम्राज्य शब्द का प्रयोग किया जाए, उसे स्वराज्य के संदर्भ में ही ग्रहण करने का कष्ट करें। क्योंकि साम्राज्य दूसरों की भावनाओं को मिटाकर या उनके साथ खिलवाड़ करके स्थापित किए जाते हैं। जबकि स्वराज्य जनभावनाओं का सम्मान करते हुए स्थापित किए जाते हैं। ) खड़ा किया और उस विशाल स्वराज्य को वे अपनी आने वाली पीढ़ियों को सौंप कर गए। उनके इस स्वराज्य अभियान को विदेशी इतिहास लेखकों और उनके चाटुकार भारतीय लेखकों ने भी उसी दृष्टिकोण से देखा, जिस दृष्टिकोण से तत्कालीन मुगल सत्ता देखने की अभ्यासी हो चुकी थी। अपने इतिहासनायकों को शत्रु के दृष्टिकोण से देखना किसी भी देश के लिए संभव नहीं है, यद्यपि यह भारत में संभव है। यहां देशभक्ति को उपेक्षित किया जाता है और दूसरों के तलवे चाटने को महिमा मंडित किया जाता है। यही कारण है कि मुगल काल में हमारे जितने भर भी देशभक्त मुगल सरकार से लड़कर देश को स्वाधीन करने के लिए काम करते रहे , उन सबको उपेक्षित किया जाता है। यही स्थिति ब्रिटिश काल में भी रही। कांग्रेसी और कम्युनिस्ट विचारधारा के इतिहास लेखकों ने इस परंपरा को स्वाधीनता के पश्चात भी जारी रखा।
पहाड़ी चूहा थे शिवाजी
इसी सोच के चलते अंग्रेज व मुस्लिम इतिहासकारों ने शिवाजी को औरंगजेब की दृष्टि से देखते हुए ‘पहाड़ी चूहा’ या एक लुटेरा सिद्घ करने का आपराधिक कृत्य किया है। जिस महानायक ने मां भारती के सम्मान और सुरक्षा के लिए अपना जीवन दांव पर लगाया, उसके साथ इतना बड़ा अन्याय करते हुए इन इतिहासकारों को तनिक भी लज्जा नहीं आई ? इतिहास को इन्होंने नीलाम कर दिया। इतिहास की परंपरा को बेच दिया। इतिहास के मर्म के साथ छल किया और इतिहास के धर्म को इन्होंने इतिहास की ही दृष्टि में कटघरे में खड़ा कर दिया। इतिहास के आंसुओं की ओर इन निर्मम लोगों का तनिक भी ध्यान नहीं गया। वह रोता रहा और लेखनी का सौदा कर चुके ये निर्दयी लोग कसाई की भांति उसे देखते रहे। इनकी लेखनी कागज पर चलते हुए कांपती रही, परन्तु इनकी आत्मा में तनिक भी दया नहीं आयी। पाप करते हुए इनके हाथ लड़खड़ाते रहे , परंतु उनका हृदय तनिक भी नहीं पसीजा।
इतिहास के साथ इस प्रकार का छल करने वाले इन लोगों के आचरण और व्यवहार को देखकर हमें सावधान होना चाहिए। यह समझना चाहिए कि इन लोगों का दृष्टिकोण भारत की वीर परंपरा का अपमान करना है। जिससे कि भारत के वैदिक धर्मी हिंदू लोगों के भीतर वीरता का भाव भूल कर भी संचार न करने पाए । इनका उद्देश्य है कि वैदिक धर्मी हिंदू को उसके अतीत से काट कर रखा जाए । क्योंकि यदि उसे उसके अतीत की महानता और वीरता का बोध करा दिया गया तो उसे संभाला नहीं जा सकेगा।
शिवाजी की हिंदू राष्ट्र नीति और इतिहासकार
ऐसे इतिहासकारों ने शिवाजी के द्वारा हिंदू राष्ट्रनीति के पुनरूत्थान के लिए जो कुछ महान कार्य किया गया उसे मराठा शक्ति का पुनरूत्थान कहा न कि हिंदू शक्ति का पुनरूत्थान ? वास्तव में इन इतिहासकारों का यह शब्दों का खेल भारतीय राष्ट्रवाद के संदर्भ में बहुत ही अधिक हानिकारक रहा है। तनिक देखिए कि शब्दों की इस जादूगरी में कितनी मिठास घुली हुई है ? और वह मिठास भी यथार्थ सी लगती है। जब पाठक पढ़ता है कि भारत में मराठा शक्ति का किस प्रकार उत्थान हुआ तो वह कस्तूरिया मृग की भांति इस मिठास में उलझ कर रह जाता है। हर पाठक के मस्तिष्क को इस बात से बांध दिया जाता है कि वह मराठा शक्ति से बाहर जाकर वैदिक धर्मी हिंदू शक्ति के विषय में सोच भी न पाए। बस इसी शब्दजाल में वह थके हुए मृग की भांति फंसकर रह जाता है और शत्रु उसका बड़ी सहजता से शिकार कर लेता है।
शब्दजाल के इसी भ्रमजाल में फंसा कर पाठक को प्रत्येक मुगल बादशाह के जीवन की प्रत्येक घटना से अवगत कराने का प्रयास किया जाता है। जबकि छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे राष्ट्रभक्त के जीवन की घटनाओं को उतनी ही तीव्रता से विस्मृत करने का प्रयास किया जाता है। बहुत बड़ी संघर्ष गाथा को कुछ शब्दों में समेट कर रख दिया जाता है।
लाला लाजपत राय जैसे राष्ट्रवादी लेखक बहुत कम हैं जिन्होंने शिवाजी महाराज पर कुछ प्रेरणास्पद लिखकर जाने का स्तवनीय कार्य किया। अपनी पुस्तक “छत्रपति शिवाजी” के पृष्ठ संख्या ११७ पर वह लिखते हैं :- “ शिवाजी अपने राज्य प्रबंध में लगे हुए थे कि मार्च सन १६८० ई० के अंतिम दिनों में उनके घुटनों में सूजन पैदा हो गई। यहां तक कि ज्वर भी आना आरंभ हो गया। जिसके कारण ७ दिन में शिवाजी की आत्मा अपना नश्वर कलेवर छोड़ परम पद को प्राप्त हो गई। १५ अप्रैल सन १६८० को शिवाजी का देहावसान हो गया।” ( संदर्भ : “छत्रपति शिवाजी” लेखक लाला लाजपतराय, प्रकाशक: सुकीर्ति पब्लिकेशंस, ४१ मेधा अपार्टमेंट्स, मयूर विहार 0१, नई दिल्ली ११००९१)
इन शब्दों में लेखक की पीड़ा स्पष्ट झलकती है। वह जीवन की एक संघर्ष गाथा को पूर्णविराम देने से पहले अपनी पीड़ा इन श्रद्धांजलि स्वरुप शब्दों में अभिव्यक्त कर जाते हैं। लेखक के इन शब्दों में स्पष्ट झलकता है कि शिवाजी की संघर्ष गाथा संघर्ष करते-करते जीवन की संध्या में विलीन हो गई।
शिवाजी की नीति
छत्रपति शिवाजी महाराज ने आर्य संस्कृति में परिभाषित राजधर्म का पूर्ण निष्ठा से पालन किया। उन्होंने भाषा, संप्रदाय या और इसी प्रकार के किसी संकीर्ण मानसिकता को स्पष्ट करने वाले वाद को अपनी नीतियों में आड़े नहीं आने दिया। उन्होंने राज्यसत्ता संभाली तो वह केवल राष्ट्र सेवा और मानव सेवा के लिए संभाली। उनकी नीतियां धर्म से प्रेरित रहीं । यही कारण रहा कि राजा के सर्वोच्च पवित्र कर्तव्यों का उन्होंने बहुत ही निष्ठा से पालन किया। यदि सूक्ष्मता से देखा जाए तो छत्रपति शिवाजी महाराज की नीति धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करने की थी। तत्कालीन मुगलों की शासन प्रणाली में जिस प्रकार गैर मुस्लिम महिलाओं के साथ अत्याचार किए जाते थे, उनका तनिक सा भी प्रभाव शिवाजी पर नहीं पड़ा। इस प्रकार वह कीचड़ में कमल की भांति रहकर अपने पवित्र राजधर्म का निर्वाह कर रहे थे । ऐसे अनेक हिंदू राजा हुए हैं जिन पर मुगलों के व्यभिचार और महिलाओं पर अत्याचार करने के आचरण व्यवहार का गहरा प्रभाव पड़ा। इस सबके बीच यदि शिवाजी इस प्रकार की सोच और मानसिकता से दूर रहे तो निश्चय ही उन्हें सच्चरित्र और जितेंद्रिय राजा कहकर इतिहास में स्थान मिलना अपेक्षित था।
खानखां जैसे मुस्लिम इतिहासकार ने भी उनके लिए कहा है कि “शिवाजी के राज्य में किसी अहिंदू महिला के साथ कभी कोई अभद्रता नही की गयी।” वास्तव में शिवाजी के चरित्र की यह विशेषता उनके गुणों के महिमामंडन के लिए इतिहास में अनुकरणीय बननी चाहिए थी। उनके इस प्रकार के चरित्र को स्कूल में विद्यार्थियों को पढ़ाया जाता । उन्हें सच्चरित्र बनने की शिक्षा दी जाती। उपरोक्त मुस्लिम इतिहासकार ने यह भी लिखा है कि ” उन्होंने एक बार कुरान की एक प्रति कहीं गिरी देखी तो अपने एक मुस्लिम सिपाही को बड़े प्यार से दे दी।”
इन तथ्यों का लाला लाजपत राय जी ने अपनी पुस्तक “छत्रपति शिवाजी ” में उल्लेख किया है। जिससे स्पष्ट होता है कि छत्रपति शिवाजी महाराज के भीतर किसी भी प्रकार की सांप्रदायिकता छू भी नहीं गई थी। याकूत नाम के एक पीर ने उन्हें अपनी दाढ़ी का बाल प्रेमवश दे दिया तो उसे उन्होंने ताबीज के रूप में बांह पर बांध लिया। साथ ही बदले में उस मुस्लिम फकीर को एक जमीन का टुकड़ा दे दिया। उनकी ऐसी ही सोच हिंदुओं के मंदिरों के प्रति थी।
जब राजा समदर्शी होता है, समभाव और सद्भाव में उसकी प्रवृत्ति होती है तो उसका प्रभाव जनमानस पर पड़ता है। जिसका परिणाम यह निकलता है कि जनसामान्य भी एक दूसरे के प्रति समभाव और सद्भाव की नीति अपनाने लगता है। आर्य राजाओं की दीर्घकालिक परंपरा में राष्ट्र में शांति इसीलिए व्यापक व्याप्त रहती थी कि राजा का दृष्टिकोण अपनी प्रजा के प्रति न्याय पूर्ण होता था। लोग अपने राजा से स्वाभाविक रूप से प्रेम करते थे। क्योंकि उन्हें अपने राजा से हर स्थिति में न्याय मिलने का पूर्ण विश्वास रहता था।
शुद्धि के समर्थक शिवाजी
छत्रपति शिवाजी एक सजग राष्ट्रभक्ति राजा थे। यह ठीक है कि उन्होंने अपनी मुस्लिम प्रजा के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया, परंतु इसके उपरांत भी वह शुद्धि के समर्थक थे। वह मुसलमानों के मौलिक अधिकारों के तो समर्थक थे, परंतु इस बात को भी भली प्रकार जानते थे कि मुस्लिम जनसंख्या का बढ़ना हिंदुओं के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। यही कारण था कि जो लोग किसी भी प्रकार के लोभ लालच में फंसाकर मुसलमान बना लिए गए थे, उनकी घर वापसी के लिए भी वह चिंतित रहे। वह किसी भी प्रकार के तुष्टीकरण के विरोधी थे। उनके लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि था। मुसलमानों को सर्व सुविधा उपलब्ध कराने के समर्थक होकर भी वह सनातन के प्रति सजग और सावधान रहे। उन्होंने हिंदू को संगठित कर उसे संगठन बल का पाठ पढ़ाया। हिंदू समाज को ऊर्जावन्त बनाए रखने के लिए उन्होंने लोगों को अपने अधिकारों के लिए लड़ना सिखाया। निम्बालकर जैसे प्रतिष्ठित हिंदू को मुसलमान बनने पर पुन: हिंदू बनाकर शुद्घ किया। साथ ही निम्बालकर के लड़के के साथ अपनी पुत्री का विवाह किया। नेताजी पालेकर को 8 वर्ष मुस्लिम बने हो गये थे-शिवाजी ने उन्हें भी शुद्घ कराया और पुन: हिंदू धर्म में लाए।
मुसलमानों के प्रति शिवाजी का दृष्टिकोण
हम पूर्व में ही यह स्पष्ट कर चुके हैं कि छत्रपति शिवाजी महाराज मुसलमानों के धार्मिक पूजा स्थलों के प्रति सम्मान का भाव रखते थे। किसी भी मस्जिद को किसी सैनिक अभियान में शिवाजी ने नष्ट नही किया। उनकी इस प्रकार की उदारवादी नीतियों और सोच की मुस्लिम इतिहासकारों ने भी प्रशंसा की है। जिस समय छत्रपति शिवाजी महाराज गोलकुंडा के विजय अभियान पर निकले हुए थे, उस समय उन्हें यह सूचना अपने गुप्तचरों के माध्यम से प्राप्त हो गई थी कि वहां का बादशाह शिवाजी के साथ संधि चाहता है, इसलिए उस राज्य में जाते ही शिवाजी ने अपनी सेना को आदेश दिया कि यहां लूटपाट न की जाए , अपितु सारा सामान पैसे देकर ही खरीदा जाए। बादशाह को यह बात प्रभावित कर गयी। जब दोनों (राजा और बादशाह) मिले तो शिवाजी ने बड़े प्यार से बादशाह को गले लगा लिया। शिवाजी महाराज की इस प्रकार की नीति ने मुस्लिम बादशाह को हृदय से प्रभावित किया।
शिवाजी ने गौहरबानो नाम की मुस्लिम महिला को उसके परिवार में ससम्मान पहुंचाया। उनके मर्यादित और संयमित आचरण के ऐसे और भी अनेक उदाहरण हैं, जिनसे उनके व्यवहार और आचरण की उच्चता का पता चलता है। ऐसा भी माना जाता है कि उन्होंने अपने बेटे सम्भाजी को भी एक लड़की से छींटाकशी करने के आरोप में सार्वजनिक रूप से दण्डित किया था। शिवाजी हिंदू पद पातशाही के माध्यम से देश में ‘हिंदू राज्य’ स्थापित करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने हिंदू राष्ट्रनीति के उपरोक्त तीनों आधार स्तंभों (नीति, बुद्घि और मर्यादा) पर अपने जीवन को और अपने राज्य को खड़ा करने का प्रयास किया।
हिंदू राष्ट्र निर्माता शिवाजी
माता जीजाबाई ने अपने पुत्र शिवा का निर्माण एक राष्ट्र निर्माता के रूप में किया था। मां की पीड़ा और राष्ट्र के प्रति समर्पण को शिवाजी ने घुट्टी में पी लिया था। यही कारण था कि उन्होंने मां के सपनों को साकार करने का निर्णय लिया। जिस यौवन को लोग विषय भोग में व्यतीत कर दिया करते हैं, उसे छत्रपति शिवाजी महाराज ने राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया। वास्तव में इतिहास भी उन्हीं का बना करता है जो जीवन के पल-पल को समाज और राष्ट्र के लिए जीते हैं।
माता जीजाबाई ने अपने पुत्र शिव को यही उपदेश दिया था कि जीवन के पल-पल को राष्ट्र के लिए समर्पित करके जीना है। मां का यह मार्गदर्शन शिवाजी के लिए सदा उपयोगी बना रहा। इसी मार्गदर्शन के चलते उन्होंने अनेक किलों को जीतकर विशाल हिंदू स्वराज की स्थापना की। यह ठीक है कि उन्हें हिंदवी स्वराज्य स्थापित करने में कई अपने लोगों ने भी चुनौतियां दीं,परंतु उन चुनौतियों को भी उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। जिस राज्य की उन्होंने स्थापना की थी उसे उनके उत्तराधिकारियों ने और भी अधिक विस्तृत करने में सफलता प्राप्त की। १७०७ ईस्वी में मुगल बादशाह औरंगजेब की मृत्यु हुई तो उसके सही ३० वर्ष पश्चात अर्थात १७३७ ईस्वी में भारत पूर्णतया हिंदू राष्ट्र बना दिया गया। आप तनिक विचार कीजिए कि ३ अप्रैल १६८० में को शिवाजी महाराज का देहांत हुआ । उसके सही ५७ वर्ष पश्चात शिवाजी का वह सपना साकार उठा जो उन्होंने संपूर्ण भारतवर्ष को केसरिया ध्वज के नीचे लाने के रूप में देखा था।
२८ मार्च १७३७ को मराठों ने तत्कालीन मुगल बादशाह को वेतन भोगी सम्राट बनाकर दिल्ली के लाल किले तक सीमित कर दिया था। इस प्रकार २८ मार्च १७३७ भारत के हिंदू राष्ट्र घोषित होने का ऐतिहासिक दिन है। जिसे शिवाजी महाराज की प्रेरणा के कारण ही हम प्राप्त कर सके थे। इतिहास के ऐसे महानायक को शत-शत नमन।
डॉ राकेश कुमार आर्य
अंत्योदय की बदलती परिभाषा: गरीबी से गरिमा तक
पवन शुक्ला
आज का भारत विकास की एक नई परिभाषा गढ़ रहा है। पहले जब हम अंत्योदय की बात करते थे तो इसका अर्थ था कि हर गरीब को अन्न, वस्त्र और आश्रय मिल जाए। लेकिन अब समय बदल चुका है। आज अंत्योदय केवल पेट भरने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, आवास, डिजिटल सुविधा, कौशल विकास और आत्मसम्मान जैसे कई आयाम शामिल हो गए हैं। यही वजह है कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का वह विचार आज और भी सजीव लगता है, जिसमें उन्होंने कहा था—“गरीबी केवल भौतिक अभाव का नाम नहीं, बल्कि शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के विकास में बाधा है।”
गरीबी अब केवल आय की कमी का नाम नहीं है, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और गरिमा से वंचित होना भी गरीबी का ही रूप है। यही कारण है कि आज इसे बहुआयामी गरीबी (Multidimensional Poverty Index) कहा जाता है, जो व्यक्ति की जीवन-गुणवत्ता के कई पहलुओं को मापता है। भारत में 2013-14 में लगभग 29% लोग बहुआयामी गरीबी में थे, पर 2022-23 में यह घटकर केवल 11% रह गया, यानी करीब 25 करोड़ लोग इससे बाहर आए। अकेले उत्तर प्रदेश में लगभग 6 करोड़ लोगों ने गरीबी की इस परिभाषा से मुक्ति पाई। यही अंत्योदय का वास्तविक स्वरूप है—जब विकास केवल अन्न या आवास तक सीमित नहीं रहता, बल्कि जीवन के हर आयाम को गरिमा और अवसर से जोड़ता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था—“भारत की प्रगति मानवता के एक-छठे हिस्से की नियति है।” यह कथन केवल आदर्श नहीं, बल्कि तथ्य है। जब इतने करोड़ लोग गरीबी से बाहर निकलते हैं, तो उसका असर पूरी दुनिया पर पड़ता है। मोदी सरकार की कई योजनाएँ इसी दर्शन को आगे बढ़ाती हैं। उज्ज्वला योजना ने गरीब माताओं के जीवन से धुआँ हटाया, आयुष्मान भारत ने पाँच लाख रुपये तक की स्वास्थ्य सुरक्षा दी, प्रधानमंत्री आवास योजना ने पक्के घर दिए और स्वच्छ भारत मिशन ने शौचालयों के माध्यम से स्वास्थ्य व सम्मान दोनों पहुँचाया। यह सब मिलकर दिखाता है कि अंत्योदय अब केवल बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह गरिमा और आत्मसम्मान से भरे जीवन का नया आधार है।
अटल बिहारी वाजपेयी जी ने कहा था—“गरीबों को गरीबी से बाहर निकालना ही सच्चा राष्ट्रधर्म है।” उनकी यह बात आज और भी गूंजती है क्योंकि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में गरीबी से मुक्ति का अभियान अब जनआंदोलन का रूप ले चुका है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हाल ही में शून्य गरीबी अभियान शुरू किया है। इस अभियान में लाखों परिवार चिन्हित किए गए हैं और उन्हें विभिन्न योजनाओं से जोड़ा जा रहा है, ताकि 2027 तक राज्य को गरीबी-मुक्त घोषित किया जा सके। जब किसी परिवार को एक ही दरवाजे से उज्ज्वला, आयुष्मान, जल जीवन मिशन और आवास योजना का लाभ मिलता है, तब अंत्योदय का वास्तविक अर्थ सामने आता है।
आज का अंत्योदय केवल मदद भर नहीं है, यह आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ता कदम है। मुद्रा योजना, स्टार्ट-अप इंडिया और स्टैंड-अप इंडिया जैसे प्रयासों ने युवाओं और महिलाओं को उद्यमिता के लिए प्रेरित किया है। सड़क, बिजली और इंटरनेट गाँवों तक पहुँचाकर अब अवसरों की खाई घट रही है। इसका सीधा अर्थ है कि अंत्योदय अब “सहायता” से आगे बढ़कर “सशक्तिकरण” का नाम बन गया है।
लेकिन केवल सरकारी योजनाएँ पर्याप्त नहीं हैं। अंत्योदय तभी संपूर्ण होगा जब समाज की चेतना भी साथ आए। जब कोई स्वयंसेवक किसी बच्चे को अक्षरज्ञान देता है, कोई डॉक्टर दूरदराज़ में नि:शुल्क सेवा करता है, या युवा मिलकर किसी गाँव को स्वच्छ बनाते हैं, तो यह भी अंत्योदय है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का यह कथन यहाँ विशेष मार्गदर्शक है—“विकास की धारा तभी पूर्ण होगी जब उसका स्पर्श समाज के अंतिम तट तक पहुँचे।”
आज भारत का सामाजिक सुरक्षा कवरेज 2015 के 19% से बढ़कर 2025 में 64% से अधिक हो गया है। यानी लगभग 94 करोड़ लोग अब किसी न किसी सामाजिक सुरक्षा के दायरे में आ चुके हैं। यह आँकड़ा दर्शाता है कि अंत्योदय अब करोड़ों परिवारों के जीवन में आत्मविश्वास और आशा का दीपक बन गया है। बहुआयामी गरीबी (MPI) की गिरावट और सामाजिक सुरक्षा में यह बढ़ोतरी, दोनों मिलकर यह सिद्ध करते हैं कि अंत्योदय अब केवल नीति की अवधारणा नहीं, बल्कि धरातल पर बदलती हकीकत है।
निष्कर्ष यही है कि अंत्योदय की बदलती परिभाषा अब रोटी-कपड़ा-मकान तक सीमित नहीं है। आज यह स्वास्थ्य, शिक्षा, डिजिटल अवसर, गरिमा और आत्मनिर्भरता का नया नाम है। जब कोई माँ धुएँ से मुक्त होकर स्वस्थ जीवन जीती है, कोई बच्चा डिजिटल शिक्षा से जुड़ता है, कोई किसान सम्मानजनक आय पाता है और कोई गरीब परिवार पक्के घर में सपनों को सँजोता है, तभी राष्ट्र की प्रगति सार्थक होती है।
और अंत में, अटल बिहारी वाजपेयी जी के इन शब्दों से बेहतर इस बदलाव की आत्मा को कोई और व्यक्त नहीं कर सकता—“कोई भी समाज तभी महान कहलाता है जब उसकी सबसे कमजोर कड़ी भी सम्मान और आत्मविश्वास के साथ जीवन जी सके।” यही अंत्योदय की बदलती परिभाषा है, और यही भारत की बदलती तस्वीर।
कृषि मेँ नवाचार – किसान और खेती हेतु नयी क्रांति का प्रसार
चंद्रमोहन
परम्परागत तरीके से अलग से कुछ नया सोचना और उस पर अमल करना. लीक से हट कर नयी पद्धति को अपना कर आकर्षक परिणाम का मिल जाना नवाचार का पहला कदम है.
किसी भी काम मेँ चाहे वह खेती – बाड़ी ही क्यों ना हो,
नवाचार की अपनी एक खास भूमिका रहती है.
इसी महत्वपूर्ण भूमिका की वजह से ही नवाचार हमेशा अग्रणी रहा है. यहीं से नव क्रांति की शुरुआत होती है.
तकनीक और मशीनीकरण, 20वीं सदी के मध्य में शुरू हुआ, खासकर हरित क्रांति के दौरान.
कृषि का इतिहास लगभग 12,000 साल पहले शुरू हुआ जब मानव ने पौधों और जानवरों को पालतू बनाना शुरू किया जिससे खानाबदोश जीवनशैली से स्थायी कृषि जीवनशैली में बदलाव आया।
कृषि का विकास नवपाषाण युग (लगभग 10,000 ईसा पूर्व) में हुआ जिसे कृषि क्रांति भी कहा जाता है.
माना जाता है कि कृषि का जन्मस्थान उपजाऊ अर्धचंद्राकार क्षेत्र था जो पूर्वी भूमध्यसागरीय तट से लेकर फ़ारस की खाड़ी तक फैला हुआ था.
इस क्षेत्र में लोग सन, छोले, दाल, मटर और छिलके वाली जौ जैसी फ़सलें उगाते थे.
मिस्र और मेसोपोटामिया के लोगों ने नदी के प्रवाह को नियंत्रित करने और फसलों के लिए पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए सिंचाई प्रणालियों का उपयोग किया.
भारत में कृषि-
भारत में कृषि का सबसे पुराना साक्ष्य उत्तर-पश्चिम भारत में मेहरगढ़ नामक स्थान पर मिलता है जिसकी तिथि लगभग 7000 ईसा पूर्व है.
भारतीय उपमहाद्वीप में लोगों ने जल्द ही जीवन को स्थापित कर लिया और कृषि के लिए औजारों और तकनीकों का विकास किया.
मिट्टी में पोषक तत्वों की पूर्ति के लिए फसल चक्र का उपयोग किया जाने लगा.
1400 ईस्वी में ब्रिटिश कृषि क्रांति ने नई सब्जियाँ उगाने के तरीकों में फसल विज्ञान और कृषि प्रौद्योगिकी को आगे बढ़ाया.
कृषि का मशीनीकरण-
1600-1800 ईस्वी में कृषि के मशीनीकरण से अधिक फसल उत्पादन संभव हुआ.
हरित क्रांति-
1960 के दशक में उच्च उपज वाले बीजों (HYV) का प्रयोग शुरू हुआ, जिससे सिंचाई और रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का प्रयोग बढ़ा.
कृषि का विकास विश्व के सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन में महत्त्वपूर्ण कारक रहा है.
1960 के दशक में, भारत में हरित क्रांति के दौरान, उच्च पैदावार वाले बीजों, उर्वरकों और सिंचाई तकनीकों का उपयोग करके कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई.
पिछले 70 वर्षों में, बीजों, उर्वरकों और फसल सुरक्षा उत्पादों में नवाचार ने कृषि बाजार को नया आकार दिया है और दुनिया भर में अरबों लोगों के जीवन को बदल दिया है.
कृषि में मशीनीकरण-
कृषि में मशीनीकरण से भी उत्पादन में वृद्धि हुई है, जिससे काम आसान और समय की बचत हुई है.
1996-97 से कृषि सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर औसतन 1.75% प्रति वर्ष रही है जबकि आवश्यक दर 4 प्रतिशत है.
राष्ट्रीय कृषि नवाचार परियोजना-
कृषि अनुसंधान और प्रौद्योगिकी विकास प्रणाली को नवोन्मेषी मॉडलों के माध्यम से स्पष्ट विकास और व्यावसायिक परिप्रेक्ष्य प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय कृषि नवाचार परियोजना (एनएआईपी) की शुरुआत हुई.
कृषि में नवाचार के प्रकार-
कृषि में नवाचार में बीज की गुणवत्ता सुधारना, पौध संरक्षण और मशीनीकरण जैसे तकनीकी परिवर्तन शामिल हैं.
कृषि नवाचार प्रणाली-
कृषि नवाचार प्रणाली कृषि और संबंधित क्षेत्रों में सहायक संस्थानों और नीतियों के साथ-साथ अभिनेताओं (व्यक्तियों, संगठनों और उद्यमों) का एक नेटवर्क है जो मौजूदा या नए उत्पादों, प्रक्रियाओं और संगठन के रूपों को सामाजिक और आर्थिक उपयोग में लाता है.
कृषि में नवाचार के लाभ-
कृषि में नवाचार से खाद्य सुरक्षा में सुधार हुआ है, उत्पादन बढ़ा है, और किसानों की आय में वृद्धि हुई है.
आधुनिक कृषि तकनीकें-
आज, किसान ड्रोन, स्मार्ट सेंसर, और डेटा विश्लेषण जैसी आधुनिक तकनीकों का उपयोग कर रहे हैं.
चंद्रमोहन
चरमपंथी अपने हितों के लिए पवित्र धार्मिक ग्रंथों की तोड़-मरोड़ कर करते हैं व्याख्या
गौतम चौधरी
किसी भी आस्था के साथ खिलवाड़ किया जा सकता है। यह आसान है और इसे करना कठिन नहीं है। धर्म मानवता को संमृद्ध करने और समाज को आगे बढ़ाने के लिए काम करने वाला चिंतन है लेकिन इसी चिंतन को कभी-कभी चरमपंथी अपने हितों के लिए उपयोग करने लगते हैं। यह किसी भी आस्था और धर्म के साथ हो सकता है। चूंकि इस्लाम रेगिस्तान में विकसित होने वाला चिंतन है, इसलिए इसमें आसानी से चरमपंथी गुट प्रवेश कर जाते हैं और पवित्र धार्मिक ग्रंथों की अपने अनुसार व्याख्या कर उसका दुरूपयोग करने लगते हैं। लंबे समय से इस्लाम के पवित्र ग्रंथों की कुछ चुनिंदा आयतों को हिंसा और नफ़रत को सही ठहराने के लिए उद्धृत किया जा रहा है। ये वो लोग नहीं कर रहे हैं, जो इस्लाम के सच्चे सिपाही हैं अपितु वो कर रहे हैं जिनका अपना एक एजेंडा और स्वार्थ है। पवित्र ग्रंथ में एक स्थान पर यह कहा गया है कि ‘‘उन्हें मार डालो, जहाँ कहीं भी पाओ,’’ स्वार्थी तत्व, इस्लाम की पवित्र किताब को अंधाधुंध आक्रामकता का समर्थन करती हुई दिखाते हैं। वास्तव में मुख्यधारा के इस्लामी विद्वान बिल्कुल इसके अलग व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। वही आयतें जब संदर्भ में समझी जाती हैं तो वे आत्मरक्षा, न्याय और दया पर बल देती हैं, न कि असीमित हिंसा पर। समस्या साफ़ है। चरमपंथी पवित्र ग्रंथों के पाठ का दुरुपयोग करते हैं जबकि इस्लाम के असली विद्वानों की सावधानीपूर्वक व्याख्या उनकी सोच को पूरी तरह खारिज कर देती है।
अल्लाह के द्वारा प्रदत आसमानी पवित्र आसमानी ग्रंथ की कई आयतें निःसंदेह रूप से युद्ध का ज़िक्र करती हैं लेकिन वे इस्लाम के शुरुआती दौर की विशेष रक्षात्मक लड़ाइयों से जुड़ी हैं, न कि हिंसा की खुली छूट से। इसका प्रमुख उदाहरण है सूरह 9, आयत 5, जिसे अक्सर ‘‘तलवार की आयत’’ कहा जाता है। ‘‘जब हराम महीने बीत जाएँ, तो मुशरिकों को जहाँ पाओ, क़त्ल करो,’’ सतही तौर पर यह आयत डरावनी लग सकती है। उग्रवादी इसका हवाला देकर दावा करते हैं कि मुसलमानों को परम सत्ता की ओर से सब गैर-मुसलमानों को मारने का आदेश है लेकिन विद्वानों का कहना है कि क़ुरआन 9-5 दरअसल 7वीं सदी के एक विशेष संघर्ष से संबंधित है। यह उन अरब मुशरिकों (मक्का के बहुदेववादियों) के बारे में उतरी जिन्होंने संधि तोड़ी और मुसलमानों पर हमला किया, यानी यह आदेश सिर्फ़ उन्हीं गद्दार दुश्मनों के ख़िलाफ़ था न कि सभी गैर-मुसलमानों पर यह लागू होता है। यहाँ तक कि पवित्र ग्रंथ ने युद्ध से पहले उन्हें चार महीने का समय दिया ताकि वे हमले बंद कर दें और जब युद्ध अपरिहार्य हो गया, तब भी 9-5 अंत में कहता है कि अगर वे तौबा कर लें तो उन्हें जाने दो। अगली ही आयत, 9-6, आदेश देती है कि जो दुश्मन शरण या सुलह चाहता है, उसे सुरक्षा दो और सुरक्षित जगह तक पहुँचाओ। इन विवरणों से साफ़ है कि क़ुरआन ने कभी अंधाधुंध हत्या का समर्थन नहीं किया बल्कि विद्वानों के अनुसार यह आदेश सिर्फ़ गद्दार और हमलावरों तक सीमित था। चरमपंथियों के द्वारा फैलाये गए झूठ से पवित्र ग्रंथ सकारात्मक व्याख्या से वंचित हो जाता है। ऐसा कभी संभव ही नहीं है कि सार्वभौमिक सत्ता किसी असहमति रखने वाले अच्छे व्यक्ति की हत्या का आदेश पारित करे।
यह एक व्यापक सिद्धांत को दर्शाता है। इस्लाम के पवित्र ग्रंथ केवल आत्मरक्षा या स्पष्ट उत्पीड़न के ख़िलाफ़ लड़ाई की अनुमति देता है न कि आक्रामक युद्ध की। स्पष्ट तौर पर कहा गया है। ‘‘अल्लाह की राह में उनसे लड़ो जो तुमसे लड़ते हैं लेकिन हद से न बढ़ो; निस्संदेह, अल्लाह हद से बढ़ने वालों को पसंद नहीं करता’’ (पवित्र ग्रंथ का हिन्दी रूपांतरण)। शुरुआती मुसलमानों को केवल तब हथियार उठाने की अनुमति मिली जब वे वर्षों तक उत्पीड़न और निर्वासन झेल चुके थे। पहली आयत (22-39) में कहा गया-‘‘लड़ने की अनुमति उन्हें दी गई है जिन पर ज़ुल्म हुआ है।’’ इस्लामी शिक्षाएँ युद्ध में भी कड़े आचरण पर ज़ोर देती हैं। मसलन, निहत्थों, औरतों, बच्चों या संपत्ति को नुकसान पहुँचाना मना है। संक्षेप में, पवित्र ग्रंथ की यही व्याख्या है कि तथाकथित ‘‘युद्ध आयतें’’ सिर्फ़ विशेष परिस्थितियों में रक्षात्मक युद्ध से संबंधित हैं।
उग्रवादी न केवल युद्ध की आयतों को तोड़ते-मरोड़ते हैं बल्कि गैर-मुसलमानों से संबंधों पर आधारित आयतों की भी अपने तरीके से व्याख्या कर लेते हैं। आमतौर पर एक ऐसी आयत है जिसका चरमपंथी खूब दुरूपयोग करते हैं। पवित्र ग्रंथ की व्याख्या 5-51, ‘‘ऐ ईमान वालो! यहूदियों और ईसाइयों को दोस्त न बनाओ,’’ कट्टरपंथी और इस्लाम विरोधी दोनों ही इसे सब यहूदियों और ईसाइयों से नफ़रत का आदेश बताते हैं जबकि असल में यह गलतफहमी एक शब्द पर आधारित है। ‘‘औलिया’’ का अर्थ साधारण मित्र नहीं बल्कि राजनीतिक/सैन्य संरक्षक या सहयोगी है। क्लासिकल तफ़्सीर बताती है कि यह आयत मदीना के एक मुस्लिम नेता (अब्दुल्लाह बिन उबय्य) के बारे में उतरी गयी थी, जिसने एक यहूदी क़बीले (बनू कैनुक़ा) के साथ मिलकर मुसलमानों के ख़िलाफ़ ग़द्दारी की थी। इस आयत का उद्देश्य सिर्फ़ ऐसे गद्दारों को संरक्षक न बनाने की चेतावनी देना था न कि सामान्य यहूदियों और ईसाइयों से दोस्ती करने पर रोक की बात करता है। वास्तविकता तो यह है कि पवित्र ग्रंथ में कुछ ऐसी भी आयतें हैं जो ईसाइयों की न्यायप्रियता की प्रशंसा करती हैं और अन्य जगह पर गैर-मुसलमानों के साथ न्याय और भलाई करने की अनुमति देती हैं ।
इसी तरह क़ुरआन 60-1 का दुरुपयोग भी होता है, जिसमें कहा गया कि ‘‘अल्लाह के दुश्मनों से दोस्ती मत करो।’’ इस आयत से ‘‘वाला-बर्रा’’ जैसी चरमपंथी विचारधारा निकाली गई कि मुसलमानों को सभी गैर-मुसलमानों से नफ़रत करनी चाहिए लेकिन संदर्भ साफ़ है-यह आयत उन मक्कावालों के बारे में उतरी थी जो युद्धरत दुश्मन थे न कि आम गैर-मुसलमानों के बारे में। उसी सूरह (60) में आगे कहा गया कि जो गैर-मुसलमान तुमसे नहीं लड़ते, उनके साथ इंसाफ़ और नेकी करो। पैग़म्बर मुहम्मद साहब ने भी कई गैर-मुसलमानों से दोस्ताना और सम्मानजनक संबंध रखे। ऐतिहासिक रिकार्ड बताते हैं कि उनके यहूदी मित्र भी थे। यह इस बात का सबूत है कि गैर-मुसलमानों से मित्रता इस्लामी सिद्धांतों के अनुरूप है।
ये सभी उदाहरण एक सरल सच्चाई दिखाते हैं। आयतों को समझने में संदर्भ बहुत अहम है। इस्लामी विद्वान सर्वसम्मति से कहते हैं कि इस्लाम के पवित्र ग्रंथों को ऐतिहासिक परिस्थिति और उसकी मूल शिक्षाओं के आलोक में पढ़ना चाहिए। उग्रवादी संदर्भ काटकर हिंसा का नैरेटिव गढ़ते हैं जबकि पवित्र ग्रंथ लगातार दया और न्याय पर बल देता है। यह कहता है-‘‘अगर वे शांति की ओर झुकें, तो तुम भी शांति की ओर झुको’’ (पवित्र ग्रंथ की हिन्दी व्याख्या 8-61) और ‘‘धर्म में कोई जबरदस्ती नहीं’’ (पवित्र ग्रंथ की हिन्दी व्याख्या 2-256)। अन्याय, ज़बरदस्ती और बेमतलब हिंसा की इसमें कोई जगह नहीं। आधुनिक इस्लामी विद्वान बार-बार दोहराते हैं कि आतंकवादी समूहों की हिंसा इस्लाम की शिक्षाओं से बहुत दूर है।
निष्कर्ष के तौर पर देखें तो बरेलवी संप्रदाय के इस्लामिक विद्वान, मुफ्ती तुफैल कादिरी साहब कहते हैं, वे आयतें जिनका हवाला उग्रवादी देते हैं, वास्तव में वह अर्थ नहीं रखतीं। जब हम पवित्र ग्रंथ को संदर्भ, भाषा और विद्वानों की व्याख्या के साथ पढ़ते हैं, तो स्पष्ट हो जाता है। इस्लामिक पवित्र ग्रंथ केवल अत्याचार के ख़िलाफ़ या आत्मरक्षा में लड़ाई की अनुमति देता है, शांति और माफी को प्राथमिकता देता है और युद्ध में भी नैतिक आचरण पर ज़ोर देता है। यह न तो गैर-मुसलमानों से नफ़रत सिखाता है और न ही निर्दोषों के ख़िलाफ़ हिंसा।
गौतम चौधरी
असम -जंगल की जमीन कब्जा कर बनी यूएसटीएम पर संकट के बादल
रामस्वरूप रावतसरे
असम के गुवाहाटी में 5 अगस्त 2024 को भारी बारिश के बाद अचानक बाढ़ आ गई थी। पहाड़ी इलाकों से आया पानी जराबात और मालीगाँव जैसे निचले इलाकों में भर गया जिससे सड़कें डूब गईं, ट्रैफिक रुक गया और भारी नुकसान हुआ। उस समय असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने मेघालय की यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी (यूएसटीएम) पर ‘जमीन कब्जाने’ का आरोप लगाते हुए इसे ‘फ्लड जिहाद’ कहा था। इस बयान पर काफी विवाद हुआ।
यूएसटीएम के चांसलर महबूब-उल-हक ने तब दावा किया था कि यूनिवर्सिटी पूरी तरह वैध है और मेघालय सरकार से सभी मंजूरी ली गई है। उन्होंने गुवाहाटी की खराब ड्रेनेज व्यवस्था को बाढ़ का असली कारण बताया था लेकिन अब, एक साल बाद, सुप्रीम कोर्ट की नियुक्त सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी (सीईसी) की जाँच में यूएसटीएम पर गंभीर गड़बड़ियाँ सामने आई हैं। जाँच में पाया गया कि यूनिवर्सिटी ने बड़े पैमाने पर अवैध तरीके से जमीन पर कब्जा किया, पहाड़ काटे और पर्यावरण को भारी नुकसान पहुँचाया। इन कामों की वजह से ही गुवाहाटी के निचले इलाकों में बाढ़ की स्थिति बनी।
यूएसटीएम एक निजी संस्था है जिसकी स्थापना 2008 में एजुकेशन रिसर्च एंड डेवलपमेंट फाउंडेशन ने की थी। यह मेघालय के री-भोई जिले के 9जी माइल इलाके में, असम की सीमा से लगे जराबात के पास स्थित है।
असम सरकार लंबे समय से इस यूनिवर्सिटी पर जंगल काटने और पहाड़ नुकसान पहुँचाने के आरोप लगाती रही है। असम में रहने वाले एक युवक ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर री-भोई और ईस्ट खासी हिल्स (मेघालय) में हो रहे पर्यावरण नुकसान और उसका असर असम पर पड़ने की शिकायत की थी। मई 2025 में असम सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया कि ब्म्ब् इस मामले की निगरानी और जाँच करे।
यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी मेघालय (यूएसटीएम ) का कैंपस लगभग 100 एकड़ पहाड़ी इलाके में फैला हुआ है। यहाँ अकादमिक इमारतों के साथ-साथ पीए संगमा मेमोरियल मेडिकल कॉलेज, ऑडिटोरियम और अन्य ढाँचे बनाए गए हैं। रिपोर्टों के अनुसार, 2011 से अब तक यूनिवर्सिटी ने कम से कम 5 पहाड़ों को समतल कर दिया ताकि निर्माण के लिए जमीन तैयार हो सके। खास बात यह है कि ज्यादातर कटाई मेघालय की तरफ नहीं बल्कि गुवाहाटी की दिशा वाली ढलानों पर की गई।
पहाड़ों और प्राकृतिक अवरोधों को काटने से जो पहले बारिश के पानी की रफ्तार को धीमा करते थे, अब पानी सीधे और तेजी से नीचे की ओर बहने लगा। इसका नतीजा यह हुआ कि मानसून का पानी सीधे उमखराह और बासिष्ठा नदियों में पहुँचने लगा, जो आगे गुवाहाटी में बाढ़ की स्थिति पैदा करता है। भारी जंगल कटाई और खुदाई से मिट्टी ढीली हो गई जिससे बड़े पैमाने पर कटाव और भूस्खलन शुरू हो गए। इसके कारण नदियों में भारी मात्रा में मिट्टी जमा होने लगी। सबसे अहम बात यह भी है कि जिन इलाकों में यह खुदाई और पहाड़ काटे गए, वह ‘डिम्ड फॉरेस्ट’ क्षेत्र थे, जिन्हें फॉरेस्ट कंजर्वेशन एक्ट, 1980 के तहत सुरक्षित माना जाता है। यहाँ प्राकृतिक ढलान और पेड़-पौधे बरसात के पानी को नियंत्रित करने के लिए बेहद जरूरी थे।
सुप्रीम कोर्ट की कमेटी ( सीईसी ) की रिपोर्ट में यह भी दर्ज है कि केवल मौजूदा मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ही नहीं, बल्कि पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने भी पहले कई बार जराबात इलाके को बाढ़ का बड़ा कारण बताते हुए सीमा पार हो रही जंगल कटाई पर चिंता जताई थी।
सुप्रीम कोर्ट की सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी ( सीईसी ) की जाँच में सामने आया है कि यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी मेघालय (यूएसटीएम) ने बड़े पैमाने पर पर्यावरणीय नियमों का उल्लंघन किया है। रिपोर्ट के मुताबिक यूनिवर्सिटी ने लगभग 25 हेक्टेयर ‘डिम्ड फॉरेस्ट’ जमीन पर बिना अनुमति कब्जा कर लिया, जिसमें से 15.71 हेक्टेयर क्षेत्र पर निर्माण हुआ है। इसमें से 13.62 हेक्टेयर यानी 87 प्रतिशत जमीन असल में जंगल थी। इसी तरह, पीए संगमा मेमोरियल मेडिकल कॉलेज के लिए तय 12.13 हेक्टेयर जमीन में से करीब 7.64 हेक्टेयर (63 प्रतिशत) को तोड़ दिया गया। बाकी जमीन को 2021 तक जंगल माना जाता था लेकिन उस पर भी अवैध कब्जा कर लिया गया, जो 1973 के मेघालय फॉरेस्ट रेगुलेशन का सीधा उल्लंघन है।
जाँच में यह भी पाया गया है कि 2017 से लगातार बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई और खुदाई की गई है। केंद्र सरकार के पर्यावरण मंत्रालय के आदेशों के बावजूद यूनिवर्सिटी ने कभी भी क्षतिपूरक वनीकरण नहीं किया। स्थिति यह है कि यूनिवर्सिटी का करीब 93 प्रतिशत हिस्सा अब नष्ट, खुदाई की गई और अवैध रूप से कब्जाई गई जंगल की जमीन है जिसे सीईसी ने ‘भयानक पर्यावरणीय आपदा’ बताया है। रिपोर्ट के अनुसार,असम की तरफ ढलानों पर बड़े पैमाने पर मिट्टी काटी गई और कृत्रिम नाले बनाए गए, जिससे पानी का बहाव और तेज हो गया। इसके बावजूद यूनिवर्सिटी ने कभी भी पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (ईआईए) नहीं कराया। इतना ही नहीं, री-भोई जिले में अवैध खनन भी जारी है। कुल मिलाकर, सीईसी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि 100 हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्र में जंगल और पहाड़ काटने से गुवाहाटी में 2024 की बाढ़ और भी विनाशकारी हो गई, यहाँ तक कि सात किलोमीटर दूर तक के इलाके भी पानी में डूब गए।
सुप्रीम कोर्ट की सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी ( सीईसी ) ने यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी मेघालय (यूएसटीएम ) पर कड़ा कदम उठाते हुए कुल 150.35 करोड़ का जुर्माना लगाया है। यह जुर्माना जंगल की जमीन के अवैध इस्तेमाल, पेड़ कटाई, पर्यावरण क्षतिपूर्ति और बहाली की लागत को ध्यान में रखकर लगाया गया है, जिसकी गणना 2017 से हुई उल्लंघनों के आधार पर की गई है। सीईसी ने आदेश दिया है कि 25 हेक्टेयर क्षेत्र को एक साल के भीतर प्राकृतिक जंगल में बहाल किया जाए और वहां बने सभी अवैध ढाँचे हटाए जाएँ। साथ ही, बराबर क्षेत्रफल की गैर-जंगल जमीन पर क्षतिपूरक वनीकरण करने का भी निर्देश दिया गया है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि री-भोई जिले में फिलहाल चल रहे सभी अवैध खनन, पत्थर तोड़ाई और क्रशिंग कार्यों को तुरंत रोका जाए, जब तक कि इस पर व्यापक समीक्षा पूरी न हो जाए। सुप्रीम कोर्ट अब जल्द ही इस पूरे मामले की सुनवाई करेगा।
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा लंबे समय से यूएसटीएम और उसके संस्थापक महबूब-उल-हक की अवैध गतिविधियों पर सवाल उठाते रहे हैं लेकिन कांग्रेस और अन्य लिबरल समूह इसे राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप बताते हुए महबूब-उल-हक का बचाव करते रहे है लेकिन सुप्रीम कोर्ट की सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी ( सीईसी ) ने यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी मेघालय (यूएसटीएम ) को लेकर जो जांच रिपोर्ट दी है उसके बाद मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा की बात को बल मिला है।
रामस्वरूप रावतसरे
सऊदी-पाक सुरक्षा समझौते से भारत चिंतित क्यों
राजेश कुमार पासी
सऊदी अरब और पाकिस्तान ने नाटो देशों की तरह सुरक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं जिसके बारे में कहा जा रहा है कि एक देश पर हमला दोनों देशों पर हमला माना जाएगा और दोनों देश मिलकर उसका जवाब देंगे । इस समझौते का पूरा वर्णन अभी हासिल नहीं हुआ है क्योंकि हो सकता है कि इस समझौते में गुप्त प्रावधान भी रखे गए हों । इस समझौते के कारण न केवल सुरक्षा और कूटनीति विशेषज्ञ परेशान हैं बल्कि भारत की आम जनता भी चिंतित है। इस चिंता की वजह यह है कि नाटो देश भी ऐसे ही समझौते से बंधे हुए हैं, इसलिए कोई भी देश उन पर हमला नहीं करता है क्योंकि सबको पता है कि अगर उसने एक देश पर हमला किया तो उस पर सारे नाटो देश टूट पड़ेंगे। पाकिस्तान की जनता बहुत खुश है क्योंकि उसे लगता है कि अगर भारत ने पाकिस्तान पर हमला किया तो सऊदी अरब पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत का मुकाबला करेगा । पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को इसके लिए पाकिस्तानी जनता बधाई दे रही है जबकि भारत की जनता चिंतित है क्योंकि उसे लगता है कि ऑपरेशन सिंदूर जारी है और अगर भारत ने पाकिस्तान पर हमला किया तो सऊदी अरब की मदद से पाकिस्तान पूरी ताकत से भारत का मुकाबला करने की कोशिश करेगा ।
भारतीय विदेश विभाग इसको बड़ी संवेदनशीलता से देख रहा है और उसने बयान दिया है कि वो देख रहा है कि इस समझौते का भारत पर क्या असर हो सकता है । ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध जैसी परिस्थितियां उत्पन्न हो गयी थी, अब भारत को देखना है कि अगर दोबारा ऐसा होता है तो सऊदी अरब पाकिस्तान की कैसी मदद कर सकता है । सऊदी अरब को पाकिस्तान की मदद करने से रोकने के लिए भारत क्या कर सकता है, इस पर भारतीय सरकार और सेना ने विचार करना शुरू कर दिया होगा । वैसे देखा जाए तो यह समझौता भारत को देखते हुए नहीं किया गया है और इसकी पहल भी पाकिस्तान की तरफ से नहीं हुई है । इजराइल द्वारा कतर की राजधानी दोहा पर किया गया हमला इसकी मुख्य वजह है जो हमास नेताओं को निशाना बनाकर किया गया था ।
इस हमले के कारण पूरे अरब जगत में भय का वातावरण पैदा हो गया है क्योंकि सऊदी अरब सहित ज्यादातर अरब देशों की सुरक्षा की जिम्मेदारी अमेरिका ने संभाल रखी है । इस हमले पर अमेरिका ने चुप्पी साध ली है जिसके कारण सभी अरब देश परेशान हैं । इससे पहले सऊदी पर ईरान समर्थित आतंकवादी संगठन हमला कर चुके हैं । अमेरिका के रवैये से लग रहा है कि वो अब अरब देशों की सुरक्षा देने का इच्छुक नहीं है । सऊदी को लगता है कि अब सिर्फ अमेरिका के भरोसे नहीं रहा जा सकता, उसे दूसरे विकल्पों पर भी विचार करना होगा । पाकिस्तान सऊदी अरब का पुराना सहयोगी है और उसकी सेना का प्रशिक्षण भी पाकिस्तानी सेना द्वारा किया जाता है । पाकिस्तान परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र है इसलिए सऊदी ने पाकिस्तान को अपने विकल्प के रूप में चुना है । वैसे दोनों देशों का कहना है कि उनका समझौता किसी देश को देखकर नहीं किया गया है लेकिन सबको पता है कि पाकिस्तान का दुश्मन कौन है और सऊदी का कौन है । इस समझौते ने नए समीकरण पैदा कर दिए हैं और अमेरिका का महत्व इस क्षेत्र में कम करने का काम किया है ।
आने वाले समय में दूसरे अरब देश भी इस समझौते से जुड़ सकते हैं । पाकिस्तान कह चुका है कि सभी मुस्लिम देशों को नाटो जैसा समझौता करना चाहिए ताकि वो आने वाले खतरों से निपट सके । अमेरिका अब्राहम समझौते से अरब देशों को इजराइल के साथ जोड़ना चाहता था, अब उसकी संभावना लगभग खत्म हो चुकी है । पाकिस्तान की परमाणु शक्ति सऊदी अरब के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकती है । इजराइल पर इस समझौते का क्या असर होगा, ये एक अलग विषय है लेकिन भारत के लिए सऊदी बहुत महत्वपूर्ण है । सऊदी भारत का महत्वपूर्ण सहयोगी है इसलिए हमें ज्यादा चिंता करने की जरूरत है । पिछले दस सालों में सऊदी भारत का रणनीतिक साझेदार बन चुका है । सऊदी कुछ भी कहे लेकिन संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता । भारत सऊदी के साथ रिश्तों को आगे बढ़ाते हुए इस समझौते की अनदेखी नहीं कर सकता ।
डोनाल्ड ट्रंप के फैसलों के कारण सभी देशों में संशय पैदा हो गया है और विश्व राजनीति में एक शून्य नजर आ रहा है । चीन इस शून्य को भरने की कोशिश कर सकता है । वैसे यह समझौता ईरान के लिए भी नई परिस्थितियां लेकर आया है । दोनों देशों के साथ रिश्ते उसके लिए चिंता का विषय हैं । अब भारत को इजराइल के साथ अपने संबंधों में सतर्कता बरतनी होगी और देखना होगा कि उसकी इजराइल के साथ मित्रता दूसरे देशों को गलत संदेश न दे । समस्या यह है कि इजराइल भारत का महत्वपूर्ण रक्षा साझेदार है और इस समझौते के बाद भारत को अपनी सुरक्षा के लिए इजराइल के साथ संबंधों को बढ़ाना होगा । भारतीय कूटनीति की समस्या यह है कि उसे ऐसी परिस्थितियों से निपटना पड़ रहा है जिसके बारे में अभी तक सोचा नहीं गया है । अमेरिका के कारण भारतीय कूटनीति पहले ही एक बड़े खतरे से जूझ रही है और इस समझौते ने नई समस्या पैदा कर दी है । बेशक इस समझौते का तात्कालिक कारण दोहा पर इजराइल का हमला हो लेकिन यह समझौता जल्दबाजी में नहीं हो सकता । पर्दे के पीछे इसकी तैयारियां कई वर्षों से चल रही होंगी ।
भारत के लिए यह भी चिंता का विषय है कि ऑपरेशन सिंदूर के बावजूद सऊदी ने पाकिस्तान के साथ यह समझौता कर लिया है। भारत को इस समझौते के होने का कुछ तो एहसास रहा होगा । वैसे देखा जाए तो कूटनीति में सिर्फ समझौता हो जाने से कुछ नहीं होता बल्कि यह भी देखना होता है कि दोनों देश एक दूसरे की क्या मदद कर सकते हैं । अगर भारत पाकिस्तान पर हमला कर देता है तो सऊदी पाकिस्तान की कैसे मदद कर सकता है, इस बारे में भारत ने तैयारियां शुरू कर दी होंगी । सऊदी भी जानता है कि आतंकवाद के कारण पाकिस्तान पर भारत का हमला कभी भी हो सकता है तो उसने भी पाकिस्तान की मदद के बारे में कुछ तो वादे किये होंगे । देखा जाए तो सऊदी के पास कोई बड़ी सैन्य शक्ति नहीं है लेकिन उसका सुरक्षा बजट पाकिस्तान से कहीं ज्यादा बड़ा है । सऊदी के पास अमेरिका से लिए गए घातक हथियार हैं लेकिन उनको चलाने के लिए प्रशिक्षित सेना नहीं है । यही कारण है कि वो भारी भरकम खर्च के बावजूद अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिका पर निर्भर है ।
पाकिस्तान को सऊदी कोई सैन्य सहायता नहीं दे सकता लेकिन अपने हथियार तो दे सकता है । एक तरह से देखा जाए तो सऊदी और पाकिस्तान एक दूसरे के पूरक हैं। पाकिस्तान सऊदी को सेना दे सकता है और सऊदी पाकिस्तान को हथियार दे सकता है। हो सकता है कि पाकिस्तान को अमेरिकी मदद पहुंचाने का रास्ता सऊदी से होकर जाने का कार्यक्रम इस समझौते के माध्यम से बनाया गया हो । जो हथियार अमेरिका युद्ध के समय सीधे पाकिस्तान को नहीं दे सकता, वो भविष्य में सऊदी के जरिये पाकिस्तान को मुहैया करवाए जा सकते हैं । इस समझौते की वास्तविकता की बात करें तो भारत को ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है । ऑपरेशन सिंदूर ने बता दिया है कि पाकिस्तान कितने पानी में है और वो भारतीय सेना का कितनी देर मुकाबला कर सकता है । जहां तक सऊदी की बात है तो उसके महत्वपूर्ण आर्थिक ठिकाने भारतीय मिसाइलें कुछ ही मिनटों में तबाह कर सकती हैं । वो भी भारतीय सेना की ताकत को अच्छी तरह से जानता है, इसलिए वो पाकिस्तान के लिए सीधे भारत से टकराने की हिम्मत नहीं कर सकता । समझौता कुछ भी कहता हो लेकिन सऊदी पाकिस्तान की बेवकूफी के लिए अपने देश को बर्बाद नहीं कर सकता । भारत के साथ उसके इतने अच्छे रिश्ते हैं कि वो भारत को दुश्मन बनाना कभी नहीं चाहेगा ।
दूसरी बात ,सऊदी पाकिस्तान की आर्थिक मदद कर सकता है लेकिन क्या सिर्फ आर्थिक मदद से युद्ध लड़ा जा सकता है । भारत के लिए दोनों देशों की भौगोलिक स्थिति भी महत्वपूर्ण है । दोनों देशों के बीच कोई सीधा सम्पर्क नहीं है बल्कि हजारों किलोमीटर लंबा समुद्र है, जहां भारत की शक्तिशाली नौसेना खड़ी रहती है । भारतीय नौसेना इतनी शक्तिशाली है कि वो दोनों देशों के बीच खड़ी हो गई तो दोनों देशों का सम्पर्क टूट जाएगा और कोई भी एक दूसरे की मदद नहीं कर पाएगा । जहां तक वायुसेना की बात है तो उसकी ताकत को भी पूरा विश्व देख चुका है । क्या वायुसेना दोनों देशों को एक दूसरे की मदद करने देगी । अंत में इतना कहा जा सकता है कि भारत को फिलहाल इस समझौते से कोई खतरा नहीं है लेकिन भविष्य के लिए भारत को सतर्कता बरतने की जरूरत है । भारत अपनी सुरक्षा के लिए किसी दूसरे पर निर्भर नहीं है, इसलिए आने वाले खतरों से निपटने की तैयारियां कर लेगा ।
राजेश कुमार पासी
अपने हुनर पर गर्व करते हैं ऋतिक रोशन
सुभाष शिरढोनकर
बॉलीवुड के ‘ग्रीक गॉड’ कहे जाने वाले एक्टर ऋतिक रोशन पिछले 25 साल से फिल्मी पर्दे पर सक्रिय हैं। हिंदी सिने जगत में इनके नाम का डंका बजता है और इनके स्टारडम की मिसालें दी जाती हैं। आज उनका नाम इस इंडस्ट्री के हाई पेड एक्ट्रेस की लिस्ट में शामिल है।
ऋतिक रोशन की फैन फॉलोविंग काफी जबर्दस्त है लेकिन पिछले 6 साल इनकी एक भी फिल्म हिट नहीं हो पाई। उनकी आखिरी हिट फिल्म ’वॉर’ साल 2019 में आई थी। 300 करोड़ के क्लब में शामिल होने के बाद इस फिल्म के साथ ऋतिक रोशन भी सलमान की तरह ओवरसीज के बड़े स्टार बन गए थे लेकिन इसके बाद से लगातार उनकी फ्लॉप फिल्मों का सिलसिला जारी है।
ऋतिक रोशन की रियल लाइफ स्टोरी पर बेस्ड फिल्म ‘सुपर 30’ भी साल 2019 में ही रिलीज हुई थी। इस फिल्म की सराहना तो खूब हुई लेकिन बॉक्स ऑफिस पर वह कुछ खास कमाई नहीं कर सकी।
साल 2022 में ऋतिक रोशन की फिल्म ‘विक्रम वेधा’ रिलीज हुई लेकिन ये भी बॉक्स ऑफिस पर किसी तरह का कोई कमाल नहीं कर पाई।
इतना ही नहीं, फिल्म ‘फाइटर’ (2024) भी उनकी बाकी फिल्मों की तरह बॉक्स ऑफिस पर पिट गई। इस तरह पिछले 6 सालों में ऋतिक कोई भी सोलो हिट फिल्म नहीं दे पाए हैं।
14 अगस्त को ऋतिक रोशन की फिल्म ‘वॉर 2’ रिलीज हुई. इसमें उनके साथ जूनियर एनटीआर और कियारा आडवाणी जैसे बड़े स्टार्स को देखा गया। इस फिल्म से जूनियर एनटीआर बॉलीवुड डेब्यू किया।
उम्मीदें की जा रही थी कि ऋतिक रोशन की ये फिल्म उनके लिए गेम चेंजर साबित हो सकती है लेकिन इस फिल्म ने भी उनका साथ नहीं दिया।
450 करोड़ के भारी-भरकम बजट वाली ये स्पाई थ्रिलर फिल्म महज 2 हफ्तों में ही फीकी पड़ गई जबकि रिपोर्ट्स के मुताबिक इस फिल्म के लिए ऋतिक ने करीब 50 करोड़ रुपये की फीस भी ली थी।
खबरें आ रही हैं कि बॉलीवुड के बाद अब ऋतिक रोशन साउथ में भी धमाल मचाने के लिए तैयार है। ‘केजीएफ’, ‘कांतारा’ और ‘सालार’ जैसी ब्लॉकबस्टर फिल्में बनाने वाली होम्बले फिल्म्स ने ऋतिक के साथ एक मेगा पैन-इंडिया प्रोजेक्ट साइन किया है।
ऋतिक के करियर और उनके काम पर नजर डालें तो साफ हो जाता है कि उन्होंने बॉक्स ऑफिस के आंकड़ों की कभी परवाह नहीं की। दूसरे एक्टर्स की तरह अवार्ड बटोरने में भी उनकी कभी दिलचस्पी नजर नहीं आई।
बस उनकी एक ही ख्वाहिश रहती है कि उनकी फिल्मों के साथ ज्यादा से ज्यादा दर्शक जुड़े और वह उनका ज्यादा से ज्यादा मनोरंजन कर सकें। हर बार उनकी यही कोशिश होती है कि वह अपनी फिल्मों में वह सब कुछ दे सकें जिसकी दर्शक उनसे अपेक्षा करते हैं।
अदम्य इच्छा शक्ति, साहस और अनुशासन ऋतिक रोशन की सबसे बड़ी पूंजी हैं। ये चीजें क्रिएटिव वर्क में उनके लिए काफी मददगार सबित हुई हैं। एक पॉपुलर स्टार होने के नाते वह जब कोई फिल्म करते हैं तब वो उसकी जिम्मेदारी का प्रेशर फील करते हैं। उन्हें पता होता है कि दर्शक उनसे काफी अधिक उम्मीदें रखते हैं। इसलिए उनकी कोशिश यही होती है कि उनके लिए वह कुछ नया दे सकें।
30 फिल्में कर चुके ऋतिक रोशन, मुकाबले की लड़ाई के इस दौर में अपने लक्ष्य और मिशन को लेकर एकदम क्लीयर हैं । उनका मानना है कि सब एक्टर करीब करीब एक जैसे हैं और सभी का काम भी एक जैसा ही है लेकिन एक एक्टर की सबसे बड़ी शक्ति उसका अनोखा होना होती है। आपके पास जो कुछ भी है, उससे आप संतुष्ट भले ही न हों लेकिन उससे, आपको खुश रहना चाहिए। आपको अपने हुनर पर गर्व होना चाहिए।
सुभाष शिरढोनकर
‘राष्ट्रवाद के पथ प्रदर्शक और एकात्म मानव दर्शन के प्रवर्तक- पंडित दीनदयाल उपाध्याय
(25 सितंबर 2025, 109वीं जयंती पर विशेष आलेख)
भारत की पावन भूमि सदैव से महापुरुषों की जन्मभूमि रही है। समय-समय पर यहाँ ऐसे युगपुरुष अवतरित हुए जिन्होंने अपने विचारों, कर्मों और त्याग से राष्ट्र को नई दिशा प्रदान की। ऐसी ही पुण्य भूमि पर 25 सितंबर 1916 को मथुरा जिले के नगला चन्द्रभान नामक गाँव में एक महान चिंतक, दार्शनिक और राष्ट्रनायक पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का जन्म हुआ।
उनके पिता श्री भगवती प्रसाद उपाध्याय रेलवे विभाग में कार्यरत थे और माता श्रीमती रामप्यारी धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। किंतु दीनदयाल जी के जीवन में प्रारंभ से ही संघर्ष की लंबी परछाई पड़ गई। मात्र तीन वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पिता को खो दिया और सात वर्ष की आयु में माँ भी चल बसीं। बाल्यावस्था में ही माता-पिता के स्नेह से वंचित होकर भी उन्होंने धैर्य, अध्ययन और आत्मबल से जीवन को नई दिशा दी।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। वे केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्पित स्वयंसेवक ही नहीं, बल्कि गहरे दार्शनिक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, इतिहासकार और पत्रकार भी थे। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन राष्ट्र की सेवा के लिए समर्पित कर दिया।
सन् 1951 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की स्थापना की, जिसके सह-संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय थे। उन्हें जनसंघ का संगठन मंत्री नियुक्त किया गया। मात्र दो वर्षों में वे अखिल भारतीय जनसंघ के महामंत्री निर्वाचित हुए और लगभग 15 वर्षों तक संगठन को अपनी अद्वितीय कार्यक्षमता से सशक्त किया। 1967 में कालीकट में हुए 14वें अधिवेशन में उन्हें जनसंघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने साहित्य और चिंतन के क्षेत्र में भी अमूल्य योगदान दिया। उनकी प्रमुख कृतियों में दो योजनाएं, राजनीतिक डायरी, भारतीय अर्थनीति का अवमूल्यन, सम्राट चन्द्रगुप्त, जगद्गुरु शंकराचार्य, एकात्म मानववाद और राष्ट्र जीवन की दिशा प्रमुख हैं। कहा जाता है कि उन्होंने चन्द्रगुप्त नाटक केवल एक ही बैठक में लिख डाला था।
उनकी सबसे महत्वपूर्ण देन थी “एकात्म मानववाद” – एक ऐसी विचारधारा जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के बीच सामंजस्य स्थापित करती है। उनके अनुसार हमारी राष्ट्रीयता का आधार केवल भूमि नहीं, बल्कि “भारत माता” है। यदि “माता” शब्द हटा दिया जाए तो भारत केवल भूमि का टुकड़ा रह जाएगा। एकात्म मानववाद में एकता, ममता, समता और बंधुता का दर्शन निहित है। यह विचारधारा मनुष्य को मानवता के मूल्यों के साथ जीना सिखाती है और ऐसे समाज के निर्माण का मार्ग दिखाती है जहाँ विभाजन के बजाय प्रेम और भाईचारा हो।
11 फरवरी 1968 को उनका जीवनकाल अकस्मात समाप्त हो गया। उनका मृत शरीर मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर मिला। यह रहस्यमयी घटना आज भी एक अनुत्तरित प्रश्न बनी हुई है। उनके निधन से सम्पूर्ण राष्ट्र शोकाकुल हो गया था। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जीवन हम सबके लिए प्रेरणा है। वे सच्चे अर्थों में एक राष्ट्रदृष्टा, संगठनकर्ता और प्रखर चिंतक थे, जिनकी विचारधारा आज भी राष्ट्र निर्माण का पथ प्रशस्त करती है।
लेखक
– ब्रह्मानंद राजपूत
जातिवाद पर प्रतिबंध योगी सरकार का ऐतिहासिक कदम
-ललित गर्ग-
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हाल ही में एक ऐतिहासिक और साहसिक कदम उठाया है। उन्होंने समाज में जाति आधारित विद्वेष को ही नहीं बल्कि विभेद को भी समाप्त करने की आवश्यकता को महसूस करते हुए सद्भाव के साथ सबके विकास को बल देने का सूझबूझभरा फैसला लिया है। इस फैसले के अन्तर्गत उन्होंने जाति-आधारित रैलियों, सार्वजनिक प्रदर्शनों और पुलिस रिकॉर्ड में जाति संबंधी उल्लेखों पर रोक लगा दी है। यह निर्णय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश के बाद लिया गया, लेकिन इसका वास्तविक महत्व इससे कहीं अधिक है। यह केवल एक प्रशासनिक पहल नहीं बल्कि समाज को जातिगत बंधनों से मुक्त करने की दिशा में क्रांतिकारी प्रयास है। राजनीतिक दलों ने जाति आधारित वोटों को लुभाने एवं राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां सेंकने के लिये समाज को बांटा है। यह गौर करने की बात है कि जाति आधारित संगठनों और रैलियों की बाढ़ आ गई है, जिससे एक-एक जाति के अनेक संगठन बने और इन जातिगत संगठनों ने सड़कों पर उतर कर न केवल सार्वजनिक व्यवस्था, इंसान-इंसान के बीच दूरियां-विद्वेष बढ़ा दिया बल्कि राष्ट्रीय एकता को भी क्षत-विक्षत कर दिया।
भारतीय समाज में जातिवाद की जड़ें गहरी हैं। जाति व्यवस्था ने कभी सामाजिक पहचान और श्रम विभाजन का आधार बनकर काम किया, लेकिन समय के साथ यह भेदभाव, असमानता और सामाजिक विद्वेष का कारण बन गई। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था- “जातिवाद समाज की आत्मा को खोखला करता है।” डॉ. भीमराव आंबेडकर ने तो इसे भारतीय प्रगति की सबसे बड़ी बाधा बताया था। दुर्भाग्य से आज़ादी के बाद भी जातिवाद ने राजनीति और समाज दोनों में गहरी पैठ बनाई और देश की एकता को कमजोर करने का काम किया। जाति-आधारित राजनीति ने सत्ता के समीकरण तो बदले लेकिन समाज को बांटने का काम किया। चुनाव के समय उम्मीदवारों का चयन जातिगत समीकरणों के आधार पर होता रहा। समाज के बंटवारे का यह खेल लोकतंत्र के स्वस्थ आदर्शों के लिए चुनौती बना। जातिगत रैलियां और प्रदर्शन सामाजिक ताने-बाने को कमजोर करते रहे। पुलिस रिकॉर्ड में जाति का उल्लेख अपराधी को अपराधी नहीं बल्कि किसी जाति का प्रतिनिधि बना देता था, जिससे कानून-व्यवस्था पर भी प्रतिकूल असर पड़ता था। इन जटिल स्थितियों में योगी सरकार का यह निर्णय विषमताओं एवं विसंगतियों को समाप्त करने की दिशा में एक नया अध्याय है। यदि इसे सख्ती और ईमानदारी से लागू किया गया तो निश्चित ही समाज में सौहार्द, भाईचारा और समानता का वातावरण बनेगा। जाति-आधारित पहचान की जगह व्यक्ति की योग्यता, आचरण और योगदान को महत्व मिलेगा।
किसी जाति के प्रति लगाव दर्शाने के लिए किसी अन्य जाति को नीचा दिखाने की भी गलत परंपरा पड़ती दिख रही है। जाति आधारित पोस्टर या प्रतीक न केवल गलियों में, मकानों पर बल्कि अपने वाहनों पर भी लगाए जा रहे हैं। ऐसे में, परस्पर भेद, ऊंच-नीच की भावना बढ़ती जा रही है। ऐसे भेद को मिटाने की मांग उठती रही है। समाज के लिए चिंतित रहने वाले लोग यही चाहते हैं कि जातिगत झंडों और पोस्टरों पर एक हद तक लगाम लगनी चाहिए, लेकिन ऐसा साहस राजनीतिक स्वार्थों के चलते अब तक किसी भी राजनेता ने नहीं दिखाया, लेकिन योगी सरकार ने यह साहस दिखाया है तो उसका स्वागत होना ही चाहिए। योगी सरकार द्वारा जारी 10 सूत्रीय दिशा-निर्देश में यह बात विशेष रूप से गौर करने लायक है कि अब जाति के नाम, नारे या स्टिकर वाले वाहनों का केंद्रीय मोटर वाहन अधिनियम, 1988 के तहत चालान किया जाएगा। यहां तक कि प्रथम सूचना रिपोर्ट में भी जाति को दर्शाने से बचा जाएगा। अभी तक होता यह है कि अपराधी जाति के आधार पर अपनी पहचान बना लेते हैं और मजबूत हो जाते हैं।
यह बहुत अफसोस की बात है कि विशेष रूप से चुनाव के समय जाति आधारित बैनरों की बाढ़ आ जाती है। राजनीतिक दल एवं नेता जातिगत समीकरणों से समाज को बांटने में जुट जाते हैं। लेकिन अब यूपी सरकार की मंशा सराहनीय है और इन दिशा-निर्देशों को पूरी तरह से लागू करने की जरूरत है। वाकई समाज से अपराध को मिटाने के लिए अपराधी की जाति देखना गैर-वाजिब है। हां, यह सावधानीपूर्वक कुछ मामलों में जाति का उल्लेख करने की छूट दी गई है। जैसे, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत मामलों में जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल होता रहेगा। वाकई, कुछ मामले ऐसे होते हैं, जहां जाति की चिंता या उल्लेख जरूरी हो जाता है। यह भूलना नहीं चाहिए कि जाति आधारित भेदभाव अभी भी कई जगहों पर देखने को मिल जाता है। विशेष रूप से सोशल मीडिया पर भेदभाव की शिकायतें अक्सर आती हैं, ऐसे में, प्रशासन को ज्यादा सजग रहना पड़ेगा। निर्देश जारी हो जाना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि जातिगत भेदभाव के बिंदुओं को खोज-खोजकर मिटाने की ईमानदार पहल भी जरूरी है। सामाजिक चिंतक विनोबा भावे कहा करते थे “जाति का भेद मिटेगा तो समाज में भाईचारा और सहयोग की भावना पनपेगी।” वास्तव में जातिवाद केवल सामाजिक समस्या नहीं बल्कि मानसिकता का रोग है। जब तक समाज इसे स्वीकार करता रहेगा, तब तक सच्चा विकास संभव नहीं।
योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश में एक आदर्श समाज व्यवस्था निर्मित करने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं। उन्होंने जातिवाद के विरुद्ध आवाज ही नहीं उठाई, अपने राजनीतिक जीवन के अनेक उदाहरणों से समाज को सक्रिय प्रशिक्षण भी दिया। वे समता के पोषक हैं, इसलिये उन्होंने पूरी शक्ति के साथ जाति के दंश, प्रथा एवं विसंगति पर प्रहार कर मानवीय एकता का स्वर प्रखर किया। उनके शासन की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि उन्होंने कानून-व्यवस्था को प्राथमिकता दी, जिससे राज्य में अपराध और अराजकता पर काफी हद तक नियंत्रण पाया गया। “सबका साथ-सबका विकास-सबका विश्वास” की नीति पर चलते हुए उन्होंने गरीबों, किसानों, युवाओं और महिलाओं के उत्थान के लिए अनेक योजनाएं लागू कीं। बुनियादी ढांचे के विकास, धार्मिक स्थलों के पुनरोद्धार, निवेश को आकर्षित करने और रोजगार सृजन में भी उनके प्रयास उल्लेखनीय हैं। उनकी सकारात्मक सोच का ही परिणाम है कि उत्तर प्रदेश आज तेजी से विकासशील राज्यों में गिना जाने लगा है और जातिवाद, भ्रष्टाचार और असुरक्षा की छवि से बाहर निकलकर एक नए आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ रहा है। उनकी ताजा पहल समाज को बताती है कि नई पीढ़ी को जाति नहीं, योग्यता और नैतिकता के आधार पर आगे बढ़ना चाहिए। यह निर्णय राजनीतिक दलों के लिए भी चेतावनी है कि उन्हें जातिगत समीकरणों की राजनीति छोड़कर राष्ट्रहित और जनहित की राजनीति करनी होगी।
जाति, रंग, भाषा आदि के मद से सामाजिक एवं राजनीतिक विक्षोभ पैदा होता है, इसीलिये यह पाप की परम्परा को बढ़ाने वाला पाप है। इसके कारण राष्ट्रीयता को भूल कर जातिगत संकीर्णताओं को लोग आगे बढा़ते रहे हैं, एक जाति के लोग मजबूत होने के बाद वे अपनी जाति को लाभ पहुंचाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं। यह धारणा भी बढती़ रही है कि सबको अपनी जाति की चिंता करनी चाहिए। यह भ्रांति भी फैल रही है कि अपनी जाति के लोग या अधिकारी या नेता ही अपनी जाति के समुदाय या लोगों की मुसीबत में साथ खड़े होते हैं। ऐसी तमाम सामाजिक व प्रशासनिक खामियों एवं विडम्बनाओं से उबरने की जरूरत योगी सरकार ने महसूस की है। अन्यायी के खिलाफ बिना जाति देखे खड़ा होना चाहिए। संविधान की भी मंशा यही है कि हर नागरिक को अपने समाज की ताकत बनकर आगे बढ़ना चाहिए और ध्यान रहे, यह समाज मात्र एक जाति आधारित न रहे। हर जाति महत्वपूर्ण है और सबका विकास हो, पर जाति आधारित लगाव या राजनीति का दिखावा खत्म होना चाहिए। योगी आदित्यनाथ सरकार का यह कदम भारतीय समाज को जातिवाद की जंजीरों से मुक्त कराने का बड़ा अवसर है। यह केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं, पूरे देश के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण बन सकता है। अब आवश्यकता है कि अन्य राज्य भी इसे अपनाएं और भारत को सच्चे अर्थों में समानता, न्याय और बंधुत्व की धरती बनाएं।
स्वस्थ हरियाणा की ओर: गुटखा-पान मसाला पर बैन
हरियाणा सरकार ने गुटखा, पान मसाला और तंबाकू पर पूर्ण बैन लगाने का फैसला किया है। अब इन उत्पादों की बिक्री करने पर 10 लाख रुपये तक का जुर्माना लगेगा। हर महीने राज्य में लगभग 4000 नए कैंसर मरीज सामने आ रहे हैं। गुटखा और तंबाकू न केवल स्वास्थ्य, बल्कि सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से भी हानिकारक हैं। यह कदम लोगों को हानिकारक आदतों से बचाने और नई पीढ़ी को स्वस्थ जीवन की ओर प्रेरित करने के लिए उठाया गया है। जागरूकता और शिक्षा अभियान के माध्यम से इस बैन का प्रभाव और बढ़ाया जा सकता है।
– डॉ प्रियंका सौरभ
हरियाणा सरकार ने हाल ही में एक साहसिक और अहम फैसला लेते हुए पूरे राज्य में गुटखा, पान मसाला और तंबाकू के सेवन और बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की घोषणा की है। इस फैसले के तहत इन उत्पादों को बेचने वाले दुकानदारों और वितरकों पर 10 लाख रुपये तक का जुर्माना लगाया जा सकता है। यह कदम केवल कानूनी कार्रवाई नहीं है, बल्कि यह लोगों के स्वास्थ्य और समाज की भलाई के लिए उठाया गया एक निर्णायक कदम है।
हर महीने हरियाणा में कम से कम 4000 नए कैंसर मरीज सामने आ रहे हैं। यह आंकड़ा न केवल चिंताजनक है, बल्कि यह दर्शाता है कि गुटखा, पान मसाला और तंबाकू जैसी हानिकारक आदतें हमारे समाज में कितनी तेजी से फैल रही हैं। स्वास्थ्य विशेषज्ञ लंबे समय से इस समस्या की ओर इशारा कर रहे थे, और अब सरकार ने ठोस कदम उठाकर इस गंभीर स्थिति से निपटने का प्रयास किया है।
गुटखा, पान मसाला और तंबाकू का सेवन केवल एक आदत नहीं, बल्कि यह गंभीर बीमारियों का कारण भी है। लंबे समय तक इसका सेवन मुंह, गले और पाचन तंत्र के कैंसर का खतरा बढ़ाता है। इसके अलावा, यह हृदय रोग, फेफड़ों की समस्याएं और अन्य गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं को भी जन्म देता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, तंबाकू के सेवन से हर साल लाखों लोग अपनी जान गंवाते हैं। भारत में भी तंबाकू और गुटखा से होने वाली बीमारियों की संख्या लगातार बढ़ रही है।
हरियाणा सरकार का यह बैन इस स्वास्थ्य संकट को कम करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इसका सीधा प्रभाव यह होगा कि लोग इन हानिकारक उत्पादों से दूरी बनाएंगे और नई पीढ़ी भी इनसे बचने के लिए प्रेरित होगी। साथ ही यह कदम उन दुकानदारों और वितरकों के लिए भी चेतावनी है जो इन उत्पादों को बेचकर लोगों की जान को खतरे में डाल रहे हैं।
तंबाकू और गुटखा का सेवन केवल स्वास्थ्य पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से भी हानिकारक है। हरियाणा में कई गरीब परिवार अपनी सीमित आय का एक बड़ा हिस्सा गुटखा और तंबाकू जैसी चीजों पर खर्च कर देते हैं। यह न केवल उनके आर्थिक जीवन को कमजोर करता है, बल्कि बच्चों की पढ़ाई और परिवार की अन्य जरूरी जरूरतों पर भी असर डालता है।
सामाजिक दृष्टि से देखा जाए तो तंबाकू और गुटखा का सेवन युवा पीढ़ी में भी तेजी से बढ़ रहा है। स्कूल और कॉलेज के छात्र इन उत्पादों का प्रयोग कर रहे हैं, जो कि भविष्य में गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं की नींव डालता है। सरकार का यह कदम इस प्रवृत्ति को रोकने और युवाओं को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
सिर्फ बैन लगाना ही पर्याप्त नहीं है। लोगों में जागरूकता और शिक्षा भी उतनी ही जरूरी है। स्कूल, कॉलेज और स्थानीय समुदायों में स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता अभियान चलाना आवश्यक है। जब तक लोग तंबाकू और गुटखा के खतरों के बारे में सही जानकारी नहीं पाएंगे, वे इनसे दूरी नहीं बनाएंगे। स्वास्थ्य मंत्रालय और स्थानीय प्रशासन को मिलकर विभिन्न अभियान चलाने चाहिए, जिसमें कैंसर और अन्य गंभीर बीमारियों के खतरों के बारे में जानकारी दी जाए। इसके साथ ही, लोगों को स्वास्थ्य सुधार के वैकल्पिक उपाय और तंबाकू से मुक्त जीवन जीने के तरीके भी बताने चाहिए।
हरियाणा सरकार का यह निर्णय केवल स्वास्थ्य की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि कानूनी और प्रशासनिक दृष्टि से भी अहम है। 10 लाख रुपये तक का जुर्माना एक ऐसा प्रोत्साहन है जो दुकानदारों को इन उत्पादों की बिक्री से रोकने में मदद करेगा। इसके अलावा, यह कदम समाज में संदेश भेजता है कि स्वास्थ्य से खिलवाड़ करना गंभीर अपराध है। इस बैन के लागू होने के बाद अन्य राज्यों में भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है। यह कदम एक मिसाल बनेगा कि कैसे राज्य स्तर पर स्वास्थ्य सुरक्षा और कानून का संयोजन कर लोगों को सुरक्षित बनाया जा सकता है।
हरियाणा सरकार का यह फैसला न केवल स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से आवश्यक है, बल्कि यह समाज और युवा पीढ़ी के लिए भी एक संदेश है कि हानिकारक आदतों से दूरी बनाना ही बेहतर जीवन की कुंजी है। तंबाकू, गुटखा और पान मसाला जैसी चीज़ें केवल स्वास्थ्य को नुकसान नहीं पहुँचातीं, बल्कि परिवार और समाज पर भी आर्थिक और सामाजिक दबाव डालती हैं। इस बैन से समय के साथ राज्य में तंबाकू और गुटखा से संबंधित बीमारियों की संख्या घटने की उम्मीद है। इसके साथ ही जागरूकता और शिक्षा कार्यक्रमों के माध्यम से लोग स्वस्थ जीवन की ओर प्रेरित होंगे। यह कदम हरियाणा में स्वास्थ्य क्रांति की शुरुआत है और इसे सफल बनाने के लिए पूरे समाज, प्रशासन और परिवारों को मिलकर काम करना होगा।
अंततः, यह निर्णय यह संदेश देता है कि स्वास्थ्य सर्वोपरि है और समाज के हित में ठोस कदम उठाना किसी भी कीमत पर आवश्यक है। हरियाणा का यह उदाहरण पूरे देश के लिए एक प्रेरणा बन सकता है कि स्वास्थ्य सुरक्षा और कानूनी उपायों के माध्यम से भविष्य की पीढ़ियों को बीमारियों से बचाया जा सकता है।