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उत्तराखंड की आपदा: जब हिमालय ने चुप्पी तोड़ी, और हमारे तैयार न होने की कीमत चुकाई गई

दोपहर का वक्त था। बादल घिरे थे, पर कोई डर नहीं था। यह तो पहाड़ों का रोज़ का मिज़ाज है। लेकिन अचानक, जैसे किसी ने आसमान के दरवाज़े को खोल दिया हो।
एक गगनचुंबी जलधारा सीधी पहाड़ से उतरती हुई धाराली की गलियों में घुस गई। जो सामने आया, उसे बहा ले गई। घर, दुकान, पुल, सड़क… सब कुछ।

स्थानीय लोगों को पहले लगा कि यह सामान्य बादल फटना होगा, लेकिन जब आवाज़ें तेज़ होती गईं, पानी का रंग गाढ़ा होता गया, और ज़मीन कांपने लगी—तब सब समझ गए, यह एक और जलवायु-जनित आपदा है।

लेकिन क्या यह वाकई ‘अचानक’ हुआ? या फिर यह वह तबाही थी, जिसकी चेतावनी हमें सालों से मिल रही थी… और जिसे हमने बार-बार नजरअंदाज़ किया?

बदलता मानसून और पहाड़ों पर बढ़ता ख़तरा

जलवायु वैज्ञानिकों का कहना है कि मानसून अब पुराने ढर्रे पर नहीं चलता। अरब सागर पर गर्म होती हवाएं, मध्य एशिया में तेज़ी से बढ़ते तापमान और दक्षिण-पश्चिमी हवाओं का उत्तर की ओर झुकाव, ये सब मिलकर उत्तर भारत के हिमालयी क्षेत्रों में बारिश के ‘तूफानी पैटर्न’ बना रहे हैं।

स्कायमेट वेदर के महेश पलावत समझाते हैं:
“जब गर्म समुद्री हवा भारी नमी लेकर हिमालय से टकराती है, तो पहाड़ उसे रोकते हैं। नतीजा होता है Cumulonimbus बादलों का बनना—ऐसे बादल जो 50,000 फीट तक ऊंचे जा सकते हैं। ये बादल जब फटते हैं, तो अपने साथ पूरी घाटी में तबाही ला सकते हैं।”

यह सिर्फ एक स्थानीय घटना नहीं थी, यह उस मानसूनी सिस्टम का परिणाम था जिसे Middle East Spring Heating ने और अस्थिर कर दिया है।

पिघलते ग्लेशियर और कमजोर होती चट्टानें
DRDO और MoES के आंकड़ों के मुताबिक, हिमालय के ग्लेशियर हर साल औसतन 15 मीटर पीछे हट रहे हैं। कुछ इलाकों में यह दर 20 मीटर से भी ज़्यादा है।
गंगा बेसिन: 15.5 मीटर/वर्ष
इंडस बेसिन: 12.7 मीटर/वर्ष
ब्रह्मपुत्र: 20.2 मीटर/वर्ष

Wadia Institute of Himalayan Geology के वैज्ञानिक बताते हैं कि जैसे-जैसे ग्लेशियर पिघलते हैं, नीचे की ज़मीन अस्थिर होती जाती है।
पिघलती बर्फ, बहती चट्टानें और अचानक बनने वाले झीलें, जिनके टूटने पर कई गांव बह जाते हैं।

2018 तक Karakoram और Hindu Kush जैसे इलाकों में 127 बड़े glacier-related landslides रिकॉर्ड किए गए हैं।

हिमालय अब चेतावनी नहीं दे रहा, वो सीधे जवाब दे रहा है

IPCC की Cryosphere रिपोर्ट साफ़ कहती है कि high-elevation regions में हर 1°C तापमान बढ़ने पर वर्षा की तीव्रता 15% बढ़ जाती है। यह सामान्य विज्ञान से दुगुनी दर है।

अब ऊंचे इलाकों में बारिश बर्फ की जगह होती है। क्यों? क्योंकि zero-degree isotherm, वो स्तर जिस पर बर्फ गिरती है, ऊपर चला गया है। जहां बर्फ गिरती थी, अब मूसलधार बारिश होती है। और जब बारिश होती है, तो वह बर्फ की तरह शांत नहीं होती, वो मिट्टी, चट्टान और पेड़ों को बहाकर ले जाती है।

अंधाधुंध विकास: विकास या विनाश का न्योता?

2013 का केदारनाथ
2021 की ऋषिगंगा
और अब 2025 की धाराली आपदा, तीनों एक जैसी कहानियां कहती हैं:
“प्राकृतिक आपदाएं हमारी नीतिगत विफलता का आइना हैं।”

होटल, सड़कें, सुरंगें, और हाइड्रो प्रोजेक्ट, इन सबका निर्माण बिना भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण के किया गया।
दून यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर वाईपी सुंद्रियाल कहते हैं:
“हिमालय दुनिया की सबसे युवा पर्वत श्रृंखला है—अभी यह भूगर्भीय दृष्टि से अधपका है। और हम इसमें निर्माण कर रहे हैं, जैसे यह किसी पठार पर बना शहर हो। बारिश की हर बूंद अब विनाशक बन सकती है।”

समाधान क्या है? और क्यों हम अब भी टाल रहे हैं?

IIT मुंबई के डॉ. सुभीमल घोष कहते हैं,
“जैसे हमने चक्रवातों के लिए चेतावनी प्रणाली बनाई है, वैसे ही हमें पहाड़ी इलाकों के लिए भी Floodplain Zoning, Early Warning Systems और खतरे की लेवल आधारित प्लानिंग करनी चाहिए।”

Automatic Weather Stations (AWS), खासकर हिमालय की ऊपरी पहाड़ियों में, जान बचाने में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं।
ISB के प्रोफेसर अंजल प्रकाश, जो IPCC के लेखक भी हैं, चेतावनी देते हैं:
“हमें AWS का जाल फैलाना होगा। हर घाटी, हर जलग्रहण क्षेत्र, हर पहाड़ी की नब्ज़ हमें पढ़नी होगी—तभी हम समय रहते अलर्ट जारी कर पाएंगे।”

हम क्या खो रहे हैं, ये सिर्फ आंकड़े नहीं बताते, वो ज़मीनी कहानियां हैं

हर बार जब एक घर बहता है, कोई अपनी ज़मीन छोड़ता है, या कोई बच्चा अपने स्कूल का रास्ता खो बैठता है, हम सिर्फ जलवायु परिवर्तन की मार नहीं झेल रहे, हम अपनी योजनात्मक अक्षमता की कीमत चुका रहे हैं।

हिमालय कोई ‘अदृश्य खतरा’ नहीं है। वो हर साल, हर मानसून, हर जलप्रलय में हमें याद दिला रहा है:
“मैं थक चुका हूं सहन करते करते। अब आपकी बारी है सीखने की।”

क्या हम तैयार हैं? या फिर अगली बार की बारी किसी और धाराली की होगी?

संसद संवाद की बजाय संघर्ष का अखाड़ा कब तक?

– ललित गर्ग –

बिहार में वोटर लिस्ट रिवीजन पर संसद में गतिरोध जारी है, जिससे कामकाज बाधित हो रहा है। आज संसद का दृश्य सार्थक संवाद की बजाय किसी अखाड़े से कम नहीं लगता। बहस के स्थान पर बैनर, तख्तियां और नारों की गूंज सुनाई देती है। संसद जहां नीति निर्माण होना चाहिए, वहां प्रतिदिन कार्यवाही स्थगित हो रही है। यह विडंबना है कि जनप्रतिनिधि जिन मुद्दों को लेकर चुने जाते हैं, उन्हीं मुद्दों पर चर्चा की बजाय वे मेजें थपथपाने, वेल में उतरने और माइक बंद कराने में लगे हैं। संसद का हंगामा केवल दृश्य नहीं, एक राजनीतिक पतन की ओर संकेत करता है। जब एक ओर सरकार संवाद से बच रही है और दूसरी ओर विपक्ष केवल दिखावटी विरोध में लिप्त हंगामें बरपा रहा है, इन त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थितियों में देश की जनता के मुद्दे पीछे छूट रहे हैं। विपक्ष और सत्ता के बीच जारी इस टकराव में बहस के बजाय बहिष्कार और गतिरोध हावी हो चुका है। मानसून सत्र की शुरुआत उम्मीदों से भरी थी, नए विधेयकों, जनहित की बहसों और लोकतांत्रिक विमर्शों की। लेकिन यह सत्र भी पुराने ढर्रे पर चल पड़ा, विरोध, स्थगन, नारेबाजी और हंगामे की भेंट चढ़ता लोकतंत्र।
विपक्ष बिहार में चल रहे वोटर लिस्ट रिवीजन पर चर्चा चाहता है। इसमें ईवीएम की पारदर्शिता, मतदाता सूची में गड़बड़ी और चुनाव आयोग की निष्पक्षता जैसे गंभीर मुद्दे शामिल हैं। इसके साथ ही मणिपुर की स्थिति, बेरोजगारी, महंगाई, पेगासस जासूसी, किसानों की समस्याएं और हाल ही में आई बाढ़ एवं आपदा राहत जैसे मुद्दे भी विपक्ष के एजेंडे में हैं। लेकिन विपक्ष इन और ऐसे जरूरी मुद्दों पर चर्चा का माहौल बनाने की बजाय सरकार को घेरने की मानसिकता से ग्रस्त है। संसद की प्रासंगिकता तभी है जब उसमें देश की सच्चाइयों की प्रतिध्वनि हो और विपक्ष इसमें सकारात्मक भूमिका निभाये। गतिरोध के कारण दर्जनों विधेयक लंबित हैं, डेटा प्रोटेक्शन बिल, महिला आरक्षण बिल, वन नेशन वन इलेक्शन पर चर्चा, कृषि कानूनों में संशोधन, आदि। ये सब विधेयक केवल कानून नहीं हैं, बल्कि करोड़ों भारतीयों के जीवन से जुड़े ज्वलंत प्रश्न हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश, विपक्ष सार्थक बहस से भाग रहा है या बहस में अड़ंगा डाल रहा है। सत्ता पक्ष भी कोई बीच का रास्ता निकालता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। दोनों की यह रस्साकशी देश के लोकतांत्रिक स्वास्थ्य को कमजोर कर रही है। कोई भी पक्ष झुकने को तैयार नहीं दिख रहा। लेकिन, इसका असर संसद के कामकाज पर पड़ रहा है। दोनों सदनों का कीमती वक्त हंगामे में जाया हो रहा है और यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है। पिछले वर्षों में इस तरह की गतिविधियां आम हो गई हैं।
विपक्ष चाहता है कि सरकार एसआईआर पर चर्चा कराए। लेकिन, सरकार नियमों का हवाला देकर कह रही है कि चुनाव आयोग स्वायत्त संस्था है और मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, इसलिए चर्चा नहीं हो सकती। जवाब में, राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खरगे ने भी 2023 की एक रूलिंग निकाल कर उपसभापति को पत्र लिख दिया है। दोनों पक्ष नियमों के सवाल पर अड़े हैं, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि ये नियम सदन की कार्यवाही को सुचारू रूप से चलाने के लिए बनाए गए हैं, न कि कामकाज ठप्प कराने के लिए। मानसून सत्र शुरू होने के पहले ही अंदाजा था कि एसआईआर पर हंगामा होगा। इसके पीछे विपक्ष की अपनी आशंकाएं हैं। शुरुआत से ही यह प्रक्रिया विवादों में रही है। आधार और वोटर कार्ड को मान्य डॉक्युमेंट्स में शामिल न करने से लेकर बड़ी संख्या में लोगों को वोटर लिस्ट से बाहर निकालने तक, इसमें कई पेच फंसे हैं। चुनाव आयोग ने संशोधित वोटर लिस्ट का ड्राफ्ट जारी कर दिया है और इसमें 65 लाख नाम हटाए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इन लोगों की पूरी जानकारी मांगी है।
संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने पिछले दिनों कहा था कि अगर विपक्षी दलों का हंगामा जारी रहता है, तो देशहित में सरकार के सामने विधेयक पारित कराने की मजबूरी होगी। लेकिन, लोकतंत्र के लिए यही बेहतर होगा कि दोनों पक्ष सदन का इस्तेमाल रचनात्मक बहस के लिए करें। आम नागरिक संसद से समाधान की उम्मीद करता है, न कि शोरशराबा। जब लाखों युवा रोजगार की बाट जोह रहे हैं, किसान कर्ज में डूब रहे हैं, और आमजन महंगाई से त्रस्त है, तब संसद में ठहाके नहीं, तकलीफों की चर्चा जरूरी है। यह सवाल अब बार-बार उठ रहा है कि क्या संसद केवल दिखावटी बन गई है? अगर सरकार विपक्ष को केवल बाधा मानकर चलती है और विपक्ष केवल विरोध के लिए विरोध करता है, तो लोकतंत्र की आत्मा मरती है। जैसाकि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था, “संसद को ठप्प करना आसान है, लेकिन संसद को चलाकर देश की उम्मीदों को साधना ही असली लोकतंत्र है।”चुनाव आयोग एसआईआर की जरूरत को बता चुका है और शीर्ष अदालत ने भी उसे माना है। यह जरूरी भी है, क्योंकि भ्रष्ट वोटरों से चुनी जाने वाली सरकारें भी भ्रष्ट ही होती है। इसलिये चुनाव की इस विसंगति की सफाई होना जरूरी है, इस पर चर्चा की मांग को लेकर सत्ता पक्ष-विपक्ष के बीच गतिरोध बना हुआ है तो बातचीत से इसका हल निकालना होगा ताकि संसद का कामकाज सुचारुरूप से चल सके। लोकतंत्र में सदन चलाने की जिम्मेदारी सरकार की होती है। लेकिन इसमें विपक्ष का सहयोग भी अपेक्षित होता है, दोनों को अपना यह दायित्व समझना चाहिए।
संसद का हर सत्र, हर मिनट करदाताओं की गाढ़ी कमाई से चलता है। हर व्यवधान लाखों रुपये की बर्बादी है। यह नैतिक रूप से भी चिंताजनक है कि जनप्रतिनिधि बहस से अधिक हंगामे में समय गंवा रहे हैं। समाधान यही है कि सत्ता पक्ष विपक्ष की बात सुने, संवाद को प्राथमिकता दे। विपक्ष भी रचनात्मक विरोध करे, अनावश्यक बहिष्कार से बचे। लोकतंत्र बहस से ही मजबूत होता है, बहिष्कार से नहीं। वोटर लिस्ट रिवीजन पर चर्चा होनी चाहिए। जरूरी विधेयकों पर बहस होनी चाहिए। संसद को संकल्प का मंच बनना चाहिए, संग्राम का नहीं। जब तक संसद जनहित के सवालों पर गूंजेगी नहीं, तब तक लोकतंत्र अपंग ही रहेगा। जैसा कि डॉ. राधाकृष्णन ने कहा था-संसद केवल कानून बनाने का स्थान नहीं, यह राष्ट्र के विवेक की आवाज है।’ लेकिन जब यह विवेक ही हंगामे में दब जाए, तो संविधान की आत्मा कराह उठती है। आज जरूरत है कि संसद को नई दिशा, नया दृष्टिकोण और नई मर्यादा मिले। संसद की गरिमा केवल आसनों से नहीं, आचरण से बनती है। संसद में वही नेता दिशा दे सकते हैं, जो अपने निजी या दलगत हित से ऊपर उठकर राष्ट्रहित की सोच रखते हैं। जब तक संसद के सदस्य यह नहीं समझेंगे कि वे जनता के प्रतिनिधि हैं, न कि अपने दल के प्रचारक, तब तक दिशा भटकती रहेगी।
विपक्ष लोकतंत्र की आंख है। लेकिन जब यह आंख केवल अंधविरोध में अंधी हो जाए, तो लोकतंत्र की दृष्टि धुंधली हो जाती है। विपक्ष को सद्बुद्धि दे सकता है, जनता का दबाव। जब जनता यह स्पष्ट रूप से जताए कि उसे रचनात्मक, नीति आधारित विपक्ष चाहिए न कि नारेबाज नेता, तब विपक्ष को भी सुधरना पड़ेगा। विपक्ष को आत्मचिंतन करना चाहिए कि क्या वह जनता की लड़ाई लड़ रहा है या केवल सत्तालोलुप राजनीति कर रहा है? मीडिया को चाहिए कि वह हंगामे को महिमामंडित करने के बजाय, नीति और तर्क आधारित बहस को आगे बढ़ाए। संसद में विवाद होना लोकतंत्र की शक्ति है, लेकिन वही विवाद अगर दिशा विहीन हो जाए, तो वह कमजोरी बन जाता है। आज जरूरत है कि संसद की गरिमा को पुनर्स्थापित किया जाए, विपक्ष अपनी भूमिका को गंभीरता से निभाए और सरकार भी अहंकार छोड़कर संवाद को अवसर दे। संसद यदि सचमुच “लोक का मंदिर” है, तो वहाँ केवल सत्ता की पूजा नहीं, लोकमंगल की बात होनी चाहिए।

रक्षाबंधन और सनातन संस्कृति

 डॉ शिवानी कटारा

सनातन संस्कृति में ‘रक्षा’ और ‘बंधन’ दोनों ही अत्यंत महत्वपूर्ण अवधारणाएं हैं। ‘रक्षा’ का अर्थ केवल शारीरिक सुरक्षा नहीं, बल्कि भावनात्मक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रक्षा भी है। वहीं ‘बंधन’ किसी को बाधित करने वाला नहीं, बल्कि प्रेम, विश्वास और मर्यादा से जुड़ा आत्मिक संबंध है। रक्षाबंधन का मूल बहुत प्राचीन है । इसका सबसे प्रारंभिक उल्लेख वेदों में “रक्षासूत्र” के रूप में मिलता है। यजुर्वेद में ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा यज्ञ या धार्मिक अनुष्ठानों के समय राजा या यजमान की कलाई में रक्षासूत्र बाँधने की परंपरा थी, जिससे उसकी रक्षा दैविक  शक्तियों के द्वारा हो सके। मंत्र था:
“येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबलः। तेन त्वाम् प्रतिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥” यह रक्षासूत्र केवल बहन-भाई के रिश्ते का प्रतीक नहीं था, बल्कि धर्म, शक्ति और रक्षा का सूचक था। रक्षासूत्रों का उपयोग सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु हुआ। उदाहरण के लिए, भगवान श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की रक्षा तब की जब उसने उन्हें रक्षासूत्र बाँधा था। भागवत पुराण में आता है कि जब देवासुर संग्राम में इंद्र परेशान थे, तब उनकी पत्नी इंद्राणी ने उनके हाथ में रक्षासूत्र बाँधा। उसी दिन श्रावण पूर्णिमा थी, और तभी से इस दिन को “रक्षा बंधन” का पर्व माना गया। राजनीतिक संदर्भ में रानी कर्णावती ने मुगल सम्राट हुमायूं को रक्षासूत्र भेजकर अपने राज्य की रक्षा का अनुरोध किया था। यह एक ऐसा पर्व है जो कर्तव्यबोध, नारी सम्मान, सामाजिक समरसता और पारिवारिक एकता को प्रेरित करता है और धर्म, समाज और आत्मीयता के बीच पुल का कार्य करता है। आज जब समाज में आत्मीय रिश्ते कमजोर पड़ते जा रहे हैं, तब रक्षाबंधन हमें स्मरण कराता है कि रक्षा का  अर्थ केवल सुरक्षा नहीं, बल्कि सम्मान, विश्वास और स्नेह  का संवाहन है।   रक्षाबंधन भारत का एक पारंपरिक पर्व है, लेकिन इसका प्रभाव और महत्त्व अब केवल भारत तक सीमित नहीं रह गया है। प्रवासी भारतीयों की बढती संख्या के कारण यह पर्व अब सांस्कृतिक कूटनीति, वैश्विक भाईचारे और मानवीय संबंधों के प्रतीक के रूप में उभर रहा है और अब  एक  सांस्कृतिक आदान-प्रदान का माध्यम बन रहा है। सांस्कृतिक संगठनों, भारतीय दूतावासों और विश्वविद्यालयों के माध्यम से भी इसे मनाया जाता है। भारत सरकार के इंडियन काउंसिल फॉर कल्चरल रिलेशंस (ICCR) जैसे संस्थान रक्षाबंधन जैसे पर्वों को विदेशी धरती पर मनाकर भारत की “soft power” को सशक्त करते हैं। वैश्विक मानवीय मूल्यों से साम्यता होने के कारण कई अंतरराष्ट्रीय संगठन और स्कूल इसे Brotherhood Day या Universal Bond Day की तरह मनाने लगे हैं। कई मुस्लिम, सिख और ईसाई परिवार भी इस पर्व को मानवीय रिश्तों के प्रतीक के रूप में अपनाते हैं। रक्षाबंधन  धर्मनिरपेक्ष सौहार्द का एक सुंदर उदाहरण है जिसे कि भारत की सांस्कृतिक विरासत (Intangible Cultural Heritage)  के  रूप में भी देखा जाता  है। योग,  आयुर्वेद, और दीपावली की तरह यह त्योहार भी विश्व पटल पर भारत की पहचान बनता जा रहा है। आज की युवा पीढ़ी, जो तकनीक, वैश्वीकरण और आधुनिक जीवनशैली के बीच बड़ी हो रही है, उसके लिए रक्षाबंधन एक संभावना और चुनौती  दोनों बन चुका है — संभावनाएं अपनी जड़ों से जुड़ने की, और चुनौती इन परंपराओं को अपने व्यस्त जीवन में सहेजने की। भले ही कई बार व्यस्त जीवन और दूरी के कारण भाई-बहन एक-दूसरे से दूर होते हैं, लेकिन रक्षाबंधन के दिन डिजिटल माध्यमों से, वीडियो कॉल पर, या ऑनलाइन उपहार भेजकर इस पर्व को मनाने की भावना अब भी जीवित है। आज की पीढ़ी रक्षाबंधन को केवल भाई द्वारा बहन की रक्षा की जिम्मेदारी के रूप में नहीं देखती, बल्कि वह इसे बराबरी और परस्पर सम्मान के रूप में देखती है। युवा वर्ग अब इस त्योहार को सामाजिक सीमा से ऊपर उठाकर मित्रों, गुरुओं, और यहाँ तक कि सैनिकों तक भी फैला रहा है। इससे यह पर्व केवल पारिवारिक बंधन तक सीमित न रहकर एक व्यापक सामाजिक भावना का प्रतीक बन चुका है। रक्षाबंधन का असली संदेश – “रक्षा, विश्वास और प्रेम” – आज भी उतना ही प्रासंगिक है, चाहे वह पारंपरिक धागे में बंधा हो या डिजिटल संदेश में। रक्षाबंधन अब केवल एक पारिवारिक या धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि वैश्विक समाज को जोड़ने वाला एक अद्भुत सांस्कृतिक सूत्र बन चुका है। यही सनातन संस्कृति की विशेषता है — “वसुधैव कुटुंबकम्”  (सारी पृथ्वी एक परिवार)।

पहाड़ों का सर्वनाश: उत्तराखंड की आखिरी चेतावनी

“देवभूमि का दर्द: विकास के नाम पर विनाश”

उत्तरकाशी के थराली में बादल फटने से हुई भीषण तबाही उत्तराखंड के पर्यावरणीय संकट की गंभीर चेतावनी है। विकास के नाम पर हो रही पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई, अवैज्ञानिक निर्माण और बेतरतीब पर्यटन ने पहाड़ों की सहनशीलता को खत्म कर दिया है। जमीन की लूट, संस्कृति का क्षरण और लगातार बढ़ता तापमान, उत्तराखंड को विनाश की ओर धकेल रहे हैं। यह लेख केवल एक त्रासदी का बयान नहीं, बल्कि उस गूंगी प्रकृति की पुकार है जिसे हमने वर्षों से नजरअंदाज किया। अब वक्त है रुकने, सोचने और सुधरने का — वरना अगली आपदा आपके दरवाज़े पर होगी।

उत्तरकाशी के थराली में बादल फटा। चार लोग मारे गए, पचास से अधिक लापता हैं। पूरा का पूरा गांव मिट्टी में मिल गया। पहाड़ एक बार फिर चीख पड़ा है — मगर इस बार उसकी चीख में सिर्फ पीड़ा नहीं, बल्कि आक्रोश है। वर्षों से सहते-सहते अब पहाड़ों ने जवाब देना शुरू कर दिया है। और यह सिर्फ एक प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि हमारी बनाई हुई त्रासदी है। हमने पहाड़ों को छेड़ा, उन्हें काटा, उन्हें चीर दिया — और अब वे टूटने लगे हैं, बिखरने लगे हैं।

उत्तराखंड, जिसे देवभूमि कहा जाता था, अब आपदाओं की भूमि बन गया है। बारिश, भूस्खलन, बादल फटना, नदी का रुख बदल जाना — अब ये आम हो गया है। हर मानसून एक गांव बहा ले जाता है, हर बरसात किसी के घर उजाड़ जाती है, और हर बारिश एक नई लाश गिनती है। लेकिन इसके बावजूद सरकारें चुप हैं, योजनाएं गूंगी हैं और जनता बेबस।

जिसे हम विकास कहते हैं, दरअसल वह विनाश का दूसरा नाम बन चुका है। पहाड़ों पर सड़कें बनाने के लिए डायनामाइट से विस्फोट किए जाते हैं। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई होती है। पूरी की पूरी पर्वत श्रृंखलाएं काटी जाती हैं, ताकि टनल बने, चौड़ी सड़कें बनें, जल परियोजनाएं बनें। लेकिन ये सब किस कीमत पर? प्रकृति की शांति और संतुलन को तोड़कर हम क्या हासिल कर रहे हैं? जो सड़कें सुरक्षा लानी चाहिए थीं, वे अब मौत की राह बन गई हैं। जो टनल सुगमता का वादा करती थीं, वे अब आपदा का द्वार बन चुकी हैं।

पर्यटन के नाम पर उत्तराखंड का जिस तरह से दोहन किया जा रहा है, वह अभूतपूर्व है। सैकड़ों गाड़ियाँ, हजारों पर्यटक, प्लास्टिक का पहाड़, ट्रैफिक की कतारें — यह सब मिलकर उत्तराखंड के पर्यावरण पर ऐसा बोझ डाल रहे हैं, जिसे अब पहाड़ सह नहीं पा रहे। कभी यहां गर्मियों में पंखा नहीं चलता था, अब अक्टूबर में भी लोग एसी चला रहे हैं। यह सिर्फ जलवायु परिवर्तन नहीं, यह चेतावनी है कि हमने अपनी सीमाएं पार कर दी हैं।

बाहरी लोग भारी संख्या में आकर जमीनें खरीद रहे हैं, घर बना रहे हैं, कॉलोनियां उगा रहे हैं। स्थानीय लोगों की जमीनें औने-पौने दामों में छीनी जा रही हैं। संस्कृति खतरे में है, भाषा गुम हो रही है, और पहचान मिट रही है। उत्तराखंड अब उत्तर-हाउसिंग प्रोजेक्ट बन चुका है। जो भूमि कभी साधु-संतों की थी, अब रियल एस्टेट माफिया की गिरफ्त में है। और सरकारें बस तमाशबीन बनी बैठी हैं।

दिल्ली से उत्तराखंड तक एक्सप्रेसवे बनने वाला है। इस पर कोई गर्व महसूस कर सकता है, लेकिन जो लोग उत्तराखंड की आत्मा को जानते हैं, उन्हें पता है कि यह सड़क उस दरवाजे की आखिरी कड़ी होगी जो शांति की ओर जाता था। यह मार्ग विकास के नाम पर उत्तराखंड की आत्महत्या की कहानी बन जाएगा। अभी तो वीकेंड में ही दिल्ली से हजारों लोग आते हैं, सोचिए जब यह सड़क पूरी होगी और हर दिन लाखों की भीड़ पहाड़ों पर चढ़ेगी — तब क्या बचेगा यहां?

विनाश का यह सिलसिला नियमों की कमी से नहीं, नियत की कमी से है। पर्यावरणीय रिपोर्टें बस एक औपचारिकता बन चुकी हैं। परियोजनाओं को मंजूरी देने वाले अधिकारी जानते हैं कि उनका हर हस्ताक्षर एक पेड़ को मार रहा है, एक चट्टान को कमजोर कर रहा है, एक गांव को डुबो रहा है। लेकिन धन, पद और प्रभाव के आगे ये सारी चेतावनियां बेअसर हो जाती हैं। इसीलिए तो आज स्थिति यह है कि हिमालय जैसा अचल पर्वत भी थरथराने लगा है।

यह केवल प्राकृतिक संकट नहीं, यह हमारी नैतिक विफलता भी है। हमने न सिर्फ पेड़ काटे, बल्कि भरोसे भी काट डाले। नदियों की धारा मोड़ी, तो साथ में भविष्य भी मोड़ दिया। हम भूल गए कि हिमालय सिर्फ बर्फ से नहीं बना, वह आस्था से बना है, संतुलन से बना है। और इस संतुलन को तोड़ने की हमारी कोशिश अब हर बरसात में लाशों की गिनती बढ़ाकर जवाब दे रही है।

समाधान कठिन है, पर असंभव नहीं। हमें तत्काल प्रभाव से नई निर्माण परियोजनाओं पर रोक लगानी होगी। पहाड़ों की सहनशीलता को विज्ञान से नहीं, विवेक से समझना होगा। पर्यटन को सीमित करना होगा — उसके लिए ‘Carrying Capacity’ जैसी अवधारणाओं को गंभीरता से लागू करना होगा। पर्यटकों की संख्या तय हो, वाहनों की सीमा तय हो, और सबसे जरूरी — स्थानीय लोगों की भागीदारी के बिना कोई भी निर्णय न लिया जाए।

जमीन की खरीद-फरोख्त पर रोक लगानी होगी। यह जरूरी है कि कोई बाहरी व्यक्ति पहाड़ में जमीन खरीदने से पहले उस भूमि की संस्कृति और पारिस्थितिकी को समझे। नहीं तो वह सिर्फ एक नया खतरा लेकर आएगा।

शिक्षा के स्तर पर हमें जलवायु संकट और पर्यावरणीय जागरूकता को स्कूलों से जोड़ना होगा। बच्चों को यह सिखाना होगा कि पेड़ सिर्फ ऑक्सीजन नहीं देते, वे पहाड़ों को थामे रहते हैं। नदी सिर्फ पानी नहीं देती, वह जीवन देती है। चट्टानें सिर्फ पत्थर नहीं होतीं, वे इतिहास, भूगोल और संस्कृति की नींव होती हैं।

इस समय जब थराली का गांव कीचड़ में दबा पड़ा है, और सैकड़ों परिजन अपनों को ढूंढ रहे हैं — हमें यह समझना चाहिए कि यह शुरुआत नहीं है, यह आखिरी चेतावनी है। अगर अब भी हम नहीं रुके, तो अगली बार यह हादसा किसी और गांव में नहीं, आपके दरवाजे पर दस्तक देगा। दिल्ली, देहरादून, हल्द्वानी, मसूरी — कोई सुरक्षित नहीं बचेगा।

उत्तराखंड सिर्फ एक राज्य नहीं, वह एक चेतना है। उसे बचाना केवल स्थानीय लोगों की जिम्मेदारी नहीं, यह पूरे देश की जिम्मेदारी है। सरकारों को अब सिर्फ घोषणाएं नहीं, कठोर और साहसी निर्णय लेने होंगे। वरना वह दिन दूर नहीं जब उत्तराखंड का हर गांव एक थराली बन जाएगा — और फिर हम सिर्फ शोक सभा कर पाएंगे, समाधान नहीं।

आज समय है संकल्प लेने का। समय है यह स्वीकार करने का कि हमने गलती की है — और समय है उसे सुधारने का। अगर अभी नहीं चेते, तो हम इतिहास में दर्ज हो जाएंगे — उन लोगों के रूप में, जिन्होंने देवभूमि को विनाशभूमि बना दिया।

– डॉo सत्यवान सौरभ

उत्तराखंड में जल-प्रलय

प्रमोद भार्गव

भगवान भोले नाथ का गुस्सा, प्रतीक रूप में मौत के तांडव नृत्य में फूटता है। देवभूमी उत्तराखंड में शिव के इस तांडव नृत्य का सिलसिला केदारनाथ में 2013 में आई प्राकृतिक आपदा के बाद अभी भी जारी है। उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले की खीर गंगा नदी और धराली में बादल फटने और हर्शिल के तेल गाड़ नाले में बाढ़ आने से बड़ी तबाही हुई है। इन प्राकृतिक आपदाओं को हमें इसी गुस्से के प्रतीक रूप में देखने की जरूरत है। धराली में तो 50 से ज्यादा घर, 30 होटल और 30 होमस्टे मलबे में बदल गए। जो खीर नदी 10 मी. चौड़ी थी, वह जल प्रवाह से 39 मी. चौड़ी हो गई। अतएव जो भी सामने पड़ा उसे लीलती चली गई। प्रशासन चार लोगों की मौत और 100 से अधिक लोगों के लापता होना बता रहा है। लेकिन हिमालय के बीचोंबीच बसा खूबसूरत धराली गांव में सैलाब नीचे उतरते हुए दिखा, उससे लगता है, मौतें कहीं अधिक हुई हैं। प्रलय इतनी तीव्रता से आया की उसकी कान के पर्दे फाड़ देने वाली गर्जना सुनने के बाद लोगों को बचने का समय ही नहीं मिल पाया। अब धराली मलबे में दफन हैं।  
इस भूक्षेत्र के गर्भ में समाई प्राकृतिक संपदा के दोहन से उत्तराखंड विकास की अग्रिम पांत में आ खड़ा हुआ था, वह विकास भीतर से कितना खोखला था, यह इस क्षेत्र में निरंतर आ रही इस आपदाओं से पता चलता है। बरिश, बाढ़, भूस्खलन, बर्फ की चट्टानों का टूटना और बदलों का फटना, अनायास या संयोग नहीं है,बल्कि विकास के बहाने पर्यावरण विनास की जो पृश्ठभूमि रची गई, उसका परिणाम है। तबाही के इस कहर से यह भी साफ हो गया है कि आजादी के 78 साल बाद भी हमारा न तो प्राकृतिक आपदा प्रबंधन प्राधिकरण  आपदा से निपटने में सक्षम है और न ही मौसम विभाग आपदा की सटीक भविश्यवाणी करने में समर्थ हो पाया है। यह विभाग केरल और बंगाल की खाड़ी के मौसम का अनुमान लगाने का दावा तो करता है, किंतु भारत के सबसे ज्यादा संवेदनशील क्षेत्र हिमालय में बादल फटने की भी सटीक जानकारी नहीं दे पाता है। जबकि धराली क्षेत्र में एक साथ दो जगह बादल फटे और कुछ मिनटों में हुई तेज बारिश ने श्रीखंड पर्वत से निकली खीरगंगा नदी को प्रलय में बदलकर 90 प्रतिशत गांव को हिमालय के गर्भ में समा दिया।
बादल फटना अनायास जरूर है, लेकिन ये करीब 10 किमी व्यास की परिधि में फटने के बाद अतिवृष्टि का कारण बनते हैं। 10 सेंटीमीटर या उससे अधिक बारिश को बादल फटने की घटना के रूप में पारिभाषित किया जाता है। बादल फटने की घटना के दौरान किसी एक स्थान पर एक घंटे के भीतर, उस क्षेत्र में होने वाली औसत, वार्षिक वर्षा की 10 प्रतिशत से अधिक बारिश हो जाती है। मौसम विभाग वर्षा का पूर्वानुमान कई दिन या माह पहले लगा लेते हैं। लेकिन मौसम विज्ञानी बादल फटने जैसी बारिश का अनुमान नहीं लगा पाते। इस कारण बादल फटने की घटनाओं की भविष्यवाणी भी नहीं करते हैं।  
समृद्धि, उन्नति और वैज्ञानिक उपलब्धियों का चरम छू लेने के बावजूद प्रकृति का प्रकोप धरा के किस हिस्से के गर्भ से फूट पड़ेगा या आसमान से टूट पड़ेगा, यह जानने में हम बौने ही हैं। भूकंप की तो भनक भी नहीं लगती। जाहिर है, इसे रोकने का एक ही उपाय है कि विकास की जल्दबाजी में पर्यावरण की अनदेखी न करें। लेकिन विडंबना है कि घरेलू विकास दर को बढ़ावा देने के मद्देनजर अधोसंरचना विकास के बहाने देशी-विदेशी पूंजी निवेश को बढ़वा दिया जा रहा है। पर्यावरण संबधी स्वीकृतियों राज्य सरकारें अब अनदेखा करने लगी हैं। इससे साबित होता है कि अंततः हमारी वर्तमान अर्थव्यस्था का मजबूत आधार अटूट प्राकृतिक संपदा और खेती ही हैं। लेकिन उत्तराखंड हो या प्राकृतिक संपदा से भरपूर अन्य प्रदेश उद्योगपतियों की लॉबी जीडीपी और विकास दर के नाम पर पर्यावरण सबंधी कठोर नीतियों को लचीला बनाकर अपने हित साधने में लगी हैं। विकास का लॉलीपॉप प्रकृति से खिलवाड़ का करण बना हुआ है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में आई इन तबाहियों का आकलन इसी परिप्रेक्ष्य में करने की जरूरत है।
उत्तराखंड, उप्र से विभाजित होकर 9 नवंबर 2000 को अस्तिव में आया था। 13 जिलों में बंटे इस छोटे राज्य की जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 1 करोड़ 11 लाख है। 80 फीसदी साक्षरता वाला यह प्रांत 53,566 वर्ग किलोमीटर में फैला है। उत्तराखंड में भागीरथी, अलकनंदा, गंगा और यमुना जैसी बड़ी और पवित्र मानी जाने वाली नादियों का उद्गम स्थल है। इन नादियों के उद्गम स्थलों और किनारों पर पुराणों में दर्ज अनेक धार्मिक व सास्ंकृतिक स्थल हैं। इसलिए इसे धर्म-ग्रंथों में देवभूमि कहा गया है। यहां के वनाच्छादित पहाड़ अनूठी जैव विविधता के पर्याय हैं। तय है,उत्तराखंड प्राकृतिक संपदाओं का खजाना है। इसी बेशकीमती भंडार को सत्ताधारियों और उद्योगपतियों की नजर लग गई है, जिसकी वजह से प्रलय जैसे प्रकोप बार-बार इस देवभूमि में बर्बादी की आपदा वर्शा रहे हैं।
उत्तराखंड की तबाही की इबारत टिहरी में गंगा नदी पर बने बड़े बांध के निर्माण के साथ ही लिख दी गई थी। नतीजतन बड़ी संख्या में लोगों का पुश्तैनी ग्राम-कस्बों से विस्थापन तो हुआ ही, लाखों हेक्टेयर जंगल भी तबाह हो गए। बांध के निर्माण में विस्फोटकों के इस्तेमाल ने धरती के अंदरूनी पारिस्थिकी तंत्र के ताने-बाने को खंडित कर दिया। विद्युत परियोजनाओं और सड़कों का जाल बिछाने के लिए भी धमाकों का अनवरत सिलसिला जारी रहा। अब यही काम रेल पथ के लिए सुरंगे बनाने में सामने आ रहा है। विस्फोटों से फैले मलबे को भी नदियों और हिमालयी झीलों में ढहा दिया जाता है। नतीजतन नदियों का तल मलबे से भर गए हैं। दुश्परिणाम स्वरूप इनकी जलग्रहण क्षमता नश्ट हुई और जल प्रवाह बाधित हुआ। अतएव जब भी तेज बारिश आती है तो तुरंत बाढ़ में बदलकर विनाशलीला में तब्दील हो जाती है। बादल फटने के तो केदारनाथ और अब धराली जैसे परिणाम निकलते है। उत्तरकाशी, जोशीमठ में तो निरंतर बाढ़ और भू-स्खलन देखने में आ रहे हैं, इस क्षेत्र के सैंकड़ों मकानों में भूमि घसंकने से बड़ी-बड़ी दरारें आ गई हैं। भू-स्खलन के अलावा इन दरारों की वजह कालिंदी और असिगंगा नदियों पर निर्माणाधीन जलविद्युत और रेल परियोजनाएं भी रही हैं।

उत्तराखंड जब स्वंतत्र राज्य नहीं बना था, तब इस देवभूमि क्षेत्र में पेड़ काटने पर प्रतिबंध था। नदियों के तटों पर होटल नहीं बनाए जा सकते थे। यहां तक कि निजी आवास बनाने पर भी रोक थी। लेकिन उत्तर प्रदेश से अलग होने के साथ ही, केंद्र्र से बेहिसाब धनराशि मिलना षुरू हो गई। इसे ठिकाने लगाने के नजरिए स्वयंभू ठेकेदार आगे आ गए। उन्होंने नेताओं और नौकरशाहों का एक मजबूत गठजोड़ गढ़ लिया और नए राज्य के रहनुमाओं ने देवभूमि के प्राकृतिक संसाधनों के लूट की खुली छूट दे दी। दवा (फार्मा) कंपनियां औशधीय पेड़-पौधों और जड़ी-बूटियों के दोहन में लग गई हैं। भागारथी, खीरगंगा और अलंकनदा के तटो पर बहुमंजिला होटल और आवासीय इमारतों की कतार लग गई। पिछले 25 साल में राज्य सरकार का विकास के नाम पर प्रकृति के दोहन के अलावा कोई उल्लेखनीय काम नहीं है। जबकि इस राज्य का निर्माण का मुख्य लक्ष्य था कि पहाड़ से पलायन रुके। रोजगार की तलाश में युवाओं को महानगरों की और ताकना न पड़े। लेकिल 2011 में हुई जनगणना के जो आंकड़े सामने आए हैं,उनके अनुसार पौढ़ी-गढ़वाल और अल्मोड़ा जिलों की तो आबादी ही घट गई है। तय है, क्षेत्र में पलायन और पिछड़ापन बढ़ा है। विकास की पहुंच धार्मिक स्थलों पर ही सीमित रही है,क्योंकि इस विकास का मकसद महज श्रद्धालुओं की आस्था का आर्थिक दोहन रहा था। यही वजह रही कि उत्तराखंड के 5 हजार गांवों तक पहुंचने के लिए सड़कें नहीं हैं। खेती आज भी वर्शा पर निर्भर है। उत्पादन बाजार तक पहुंचाने के लिए परिवहन सुविधाएं नदारद हैं। तिस पर भी छोटी बड़ी प्राकृतिक आपदाएं कहर ढाती रहती हैं। इस प्रकोप ने तो तथाकथित आधुनिक विकास को मिट्टी में मिलाकर जल के प्रवाह में बहा दिया। ऐसी आपदाओं की असली चुनौती इनके गुजर जाने के बाद खड़ी होती है, जो अब जिस भयावह रूप में देखने में आ रही है, उसे संवेदनशील आंखों से देखा जाना भी मुश्किल है।

प्रमोद भार्गव

रक्षाबंधनः नारी रक्षा का संकल्प, एक सामाजिक चेतना

– ललित गर्ग –
भारत की सांस्कृतिक परंपराओं और त्योहारों की भूमि पर रक्षाबंधन एक ऐसा पर्व है जो केवल भाई-बहन के रिश्ते तक सीमित नहीं, बल्कि संपूर्ण समाज में आत्मीयता, कर्तव्यबोध, और नैतिक मूल्यों के पुनर्संवेदन का पर्व है। यह पर्व नारी अस्मिता, समानता, सुरक्षा और प्रेम की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है। राखी का धागा जितना कोमल दिखता है, उतनी ही उसमें गहराई और दृढ़ता होती है, यह एक ऐसा लौकिक बंधन है, जो प्रेम, आदर्शों और जिम्मेदारियों से बंधा होता है। रक्षाबंधन कोई साधारण पर्व नहीं, यह आदर्शों का हिमालय है, संकल्पों का सोपान है। यह पर्व सिर्फ भाई-बहन के प्रेम की रस्म नहीं, बल्कि पुरुष समाज द्वारा नारी को आश्वस्त करने, उसका मान-सम्मान बनाए रखने की शपथ का दिन है। यह दिन हमें याद दिलाता है कि नारी केवल स्नेह की पात्र नहीं, वह शक्ति, श्रद्धा और समाज की दिशा तय करने वाली एक सशक्त प्रेरणा भी है।
आज जब महिलाएं समाज के हर क्षेत्र में बुलंदियों को छू रही हैं, सेना से लेकर विज्ञान, शिक्षा से लेकर खेल तक तब रक्षाबंधन उन्हें केवल भावनात्मक सुरक्षा नहीं, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक सम्मान दिलाने का भी माध्यम बनता है। रक्षाबंधन की महत्ता को समझने के लिए उसके ऐतिहासिक संदर्भों को जानना आवश्यक है। भविष्य पुराण में उल्लिखित कथा के अनुसार जब देव-दानव युद्ध में दानव भारी पड़ने लगे, तब इंद्राणी ने अपने पति इन्द्र की रक्षा हेतु रेशम का धागा मंत्रों के साथ उनके हाथ पर बांधा, जिससे इंद्र विजयी हुए।
मुगल काल में रानी कर्मवती ने जब चितौड़ पर संकट देखा, तो बादशाह हुमायूं को राखी भेजकर रक्षा की याचना की। हुमायूं ने धर्म, संप्रदाय और सत्ता से ऊपर उठकर उस धागे की लाज रखी और चितौड़ की रक्षा में अपनी ताकत झोंक दी। महाभारत में जब भगवान श्रीकृष्ण की उंगली से रक्त बहा, द्रौपदी ने अपनी साड़ी का पल्लू फाड़कर पट्टी बांध दी। श्रीकृष्ण ने उस प्रेम को जीवन भर निभाया और चीरहरण के समय द्रोपदी की रक्षा की। यह केवल ऋण चुकता नहीं था, यह आदर्शों की प्रतिज्ञा थी। इसी तरह सिकंदर और पुरू की कथा इस बात को दर्शाती है कि राखी का एक धागा युद्ध भूमि में भी जीवनदान का कारण बन सकता है। ये प्रसंग हमें बताते हैं कि राखी केवल प्रेम का प्रतीक नहीं, बल्कि रक्षा, आदर्श और सम्मान की जीवंत प्रतिमा है।
रक्षाबंधन आज सिर्फ पारंपरिक पर्व नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक आंदोलन जैसा है। लेकिन दुख इस बात का है कि इस पर्व की आत्मा धीरे-धीरे खोती जा रही है। आज बहनों के लिए यह पर्व सजने-संवरने और उपहार पाने का माध्यम बनता जा रहा है, जबकि भाइयों के लिए यह केवल एक औपचारिकता बनकर रह गया है। राखी के धागों की वह पवित्रता, भावनाओं की वह गहराई, अब कम होती जा रही है। यह पर्व अब बाज़ारवाद और दिखावे के जाल में उलझता नजर आ रहा है। इस बदलती सोच को थामना और मूल भावनाओं को पुनः प्रतिष्ठित करना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इस पर्व का मूल उद्देश्य नारी के प्रति श्रद्धा, सुरक्षा और कर्तव्य का निर्वहन है, न कि केवल उपहार और दिखावे का आदान-प्रदान। भाइयों को चाहिए कि वे बहन की रक्षा की शपथ केवल शब्दों में नहीं, जीवन के प्रत्येक व्यवहार में निभाएं। बहनें भी राखी को केवल संबंध या औपचारिकता न समझें, बल्कि इस पर्व को नारी स्वाभिमान और सामाजिक बदलाव के एक माध्यम के रूप में लें।
आज जब समाज में महिलाओं के साथ अपराध बढ़ रहे हैं, जब बच्चियों से लेकर वृद्धाओं तक को भय और असुरक्षा का सामना करना पड़ रहा है, तब रक्षाबंधन एक ऐसा अवसर है जब हम केवल बहन नहीं, संपूर्ण नारी समाज की रक्षा का संकल्प लें। एक ऐसा संकल्प जो केवल राखी तक सीमित न हो, बल्कि जीवन भर के आचरण में झलके। यह पर्व हमें यह संदेश देता है कि नारी केवल स्नेह की नहीं, सम्मान की अधिकारिणी है। रक्षाबंधन भारत के विभिन्न अंचलों में अलग-अलग नामों से मनाया जाता है। उत्तर भारत में यह भाई-बहन के रिश्ते का पर्व है, वहीं महाराष्ट्र में नारली पूर्णिमा के रूप में समुद्र देवता को नारियल अर्पण कर मछुआरे समुद्र से अपने रिश्ते की रक्षा की प्रार्थना करते हैं। दक्षिण भारत में ‘अवनी अविट्टम’ के रूप में यह ब्राह्मणों का यज्ञोपवीत संकल्प का पर्व है। वहीं स्कन्द पुराण और श्रीमद्भागवत में उल्लिखित वामन अवतार की कथा में रक्षाबंधन को ‘बलेव’ के रूप में जाना जाता है, जब भगवान विष्णु ने तीन पग भूमि मांगकर राजा बलि का अभिमान तोड़ा था। इन सब कथाओं में एक ही संदेश है – अहंकार के स्थान पर समर्पण, दंभ के स्थान पर रक्षा, और स्वार्थ के स्थान पर सेवा।
आज रक्षाबंधन जैसे भावनात्मक और सांस्कृतिक पर्व भी कृत्रिम बुद्धिमता एवं संचार-क्रांति की आंधी में अपनी मूल आत्मा और संवेदना खोते जा रहे हैं। उपहारों की होड़, ब्रांडेड राखियों का प्रदर्शन, सोशल मीडिया पर दिखावे की होड़ ने इस पर्व को एक उपभोक्तावादी उत्सव में बदल दिया है। जहाँ पहले राखी एक भावनात्मक संबंध का प्रतीक थी, वहीं आज यह अधिकतर लेन-देन और औपचारिकता का माध्यम बनती जा रही है। इस प्रवृत्ति से पर्व की आत्मा, जिसमें बहन के प्रेम और भाई की जिम्मेदारी का गहन बोध निहित था, वह पीछे छूटता जा रहा है। इसलिए आवश्यक है कि हम रक्षाबंधन की प्रासंगिकता को केवल उपहारों और खर्च की दृष्टि से नहीं, बल्कि नारी सम्मान, आत्मीय रिश्तों और सामाजिक जिम्मेदारियों के दृष्टिकोण से समझें और मनाएं।
राखी का पर्व हमें मानवीय रिश्तों की फिर से व्याख्या करने का अवसर देता है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि हर स्त्री हमारी बहन है, समाज की, संस्कृति की, मानवता की। उसकी रक्षा केवल सामाजिक कर्तव्य नहीं, बल्कि मानवीय धर्म है। जब हर पुरुष स्त्री के प्रति अपने कर्तव्य को राखी की तरह पवित्र समझेगा, जब हर बहन अपने भाई में केवल उपहार देने वाला नहीं, बल्कि एक मूल्य-धारी रक्षक देखेगी, तब रक्षाबंधन केवल एक पर्व नहीं, एक क्रांति का आरंभ बनेगा। रक्षाबंधन कोई मंच या मंचन नहीं है। यह प्रदर्शन का नहीं, आत्मचिंतन का पर्व है। हमें इस पर्व को बाजारवाद और औपचारिकता से निकालकर पुनः उसकी असली पहचान देना होगा। यह प्रेम और कर्तव्य के बीच की एक खूबसूरत कड़ी है। इस बार राखी के धागों को केवल कलाई तक न सीमित रखें, इन्हें हृदय से बाँधें, ताकि यह पर्व भाई-बहन के रिश्तों से आगे बढ़कर पूरे समाज में एक सशक्त और सुरक्षित वातावरण का निर्माण कर सके। तभी राखी के ये धागे सच्चे अर्थों में आदर्श बनेंगे और संकल्पों का सोपान।

आदिवासी अस्मिता के प्रतीक दिशोम गुरु – शिबू सोरेन

कुमार कृष्णन

शिबू सोरेन के निधन के बाद झारखंड की राजनीति में एक युग का अंत हो गया है। उनके समर्थक प्यार से उन्हें ‘दिशोम गुरु’ यानी ‘देश के गुरु’ कहते थे। उनका जीवन आदिवासी अधिकारों की लड़ाई, संघर्ष और झारखंड को अलग राज्य बनाने के आंदोलन से जुड़ा रहा है। उनका जन्म 11 जनवरी 1944 को रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में हुआ था। उनके पिता की हत्या के बाद उन्होंने कम उम्र में ही सामाजिक अन्याय के खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी थी जिसने उन्हें आगे चलकर एक बड़े नेता के रूप में स्थापित किया।

शिवचरण मांझी यानी शिबू सोरेन की प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही स्कूल में हुई। बेटे का भविष्य बेहतर हो, इसलिए सोबरन सोरेन ने शिबू का दाखिला गोला प्रखंड के हाई स्कूल में करा दिया। यहां शिबू सोरेन आदिवासी छात्रावास में रहकर पढ़ाई कर रहे थे। जब शिबू महज 13 साल के थे, तब सब कुछ बदल गया। 27 नवंबर 1957 को शिबू को पता चला कि उनके पिता सोबरन की महाजनों ने निर्ममता से हत्या कर दी है। पिता के हत्यारों को अदालत से सजा दिलाने के लिए शिबू सोरेन और उनके परिवार को ढ़ेर सारी दुश्वारियों का सामना करना पड़ा। पिता की हत्या ने शिबू सोरेन को अंदर से झकझोर कर रख दिया था। उन्होंने कलम छोड़कर हथियार थाम लिया। महाजनों के खिलाफ संग्राम का बिगुल फूंक दिया मगर महाजनों के खिलाफ यह लड़ाई आसान नहीं थी। गांव के गरीब ग्रामीण और आदिवासी महाजनों के कर्ज तले दबे हुए थे। महाजनों ने गरीब किसानों की जमीनें हड़प ली थी। वह किसानों को शराब पिलाकर उनसे कागजों पर अंगूठे का निशान लगवाकर जमीनें हड़प लिया करते थे।

शिबू ने एक-एक करके ग्रामीणों और आदिवासियों को महाजनों के खिलाफ एकजुट करना शुरू किया। महाजनों के खिलाफ मोर्चा खोलने के बाद लोग अब शिबू सोरेन का नाम जानने लगे थे। पेटरवार, जैनामोड़, बोकारो और धनबाद में भी शिबू सोरेन के नाम की चर्चा होने लगी।महाजनों के खिलाफ मोर्चाबंदी उलगुलान और समाज सुधार ने तत्कालीन बिहार में शिबू को नई पहचान दी। खासकर धनबाद के टुंडी आंदोलन के बाद वह अविभाजित बिहार में सुर्खियों में आने लगे थे। 1972 से 1976 के बीच उन्होंने महाजनों के कब्जे से जमीनें छुड़वाई।

इस आंदोलन का मकसद आदिवासियों को सूदखोरों के चंगुल से छुड़ाना था जो उन्हें ऊंची ब्याज दरों पर कर्ज देकर उनकी जमीनें हड़प लेते थे। इस आंदोलन ने उन्हें आदिवासियों के बीच एक मजबूत नेता के रूप में पहचान दिलाई।

महाजनों के शोषण के खिलाफ आंदोलन चलाने के साथ ही शिबू सोरेन ने शराब को भी गरीब और आदिवासियों का दुश्मन करार दिया। शिबू सोरेन लगातार अपने समाज के लोगों को यह समझाने की कोशिश में रहे कि ज्यादा शराब पीने के कारण ही उनकी जमीन पर महाजन और साहूकार कब्जा जमाने में सफल हो रहे है। इसलिए शराबबंदी को लेकर भी शिबू सोरेन ने एक बड़े आंदोलन की शुरुआत की। झारखंड मुक्ति मोर्चा नेताओं का कहना है कि शराबबंदी के खिलाफ आंदोलन भी काफी सफल रहा। जिस तरह से महाजनी प्रथा के खिलाफ आंदोलन को व्यापक सफलता मिली, उसी तरह से शिबू सोरेन के शराबबंदी आंदोलन को भी आदिवासी बहुल इलाकों में जबरदस्त सफलता मिली।

शिबू सोरेन के शराबबंदी आंदोलन के दौरान अवैध शराब बनाने-बेचने और पीने वालों की जमकर पिटाई की जाती थी। शराब पीने वाले से ज्यादा पिटाई शराब बनाने और बेचने वालों की होती थी। पहले शराब बनाने वाले को पकड़ कर गांव में लाया जाता, फिर उसे खुले मैदान में एक खूंटा में बांध दिया जाता। फिर कुछ लोग उस पर थूकते थे और भविष्य में शराब बेचने पर सख्त कार्रवाई की चेतावनी दी जाती। इस दौरान खूंटा में बांधे शराब कारोबारी पर एक व्यक्ति पानी डालता रहता था और दूसरा व्यक्ति उसकी पिटाई करता था लेकिन इस पूरे प्रकरण में इस बात को ध्यान में रखा जाता था कि शराब कारोबारी की मौत ना हो। पिटाई के बाद उसे भविष्य में ऐसी हरकत नहीं करने की चेतावनी के साथ छोड़ दिया जाता था।

इस अभियान के दौरान शिबू सोरेन ने ‘चलो पढ़ो रात्रि पाठशाला’ अभियान की शुरुआत की। वो खुद रात्रि पाठशाला में आदिवासियों को पढ़ाया करते। इस दौरान शिबू सोरेन अपने समाज के लोगों को शिक्षा के प्रति जागरूक करने के साथ ही शराब पीने से होने वाले नुकसान से भी अवगत कराते थे। इस अभियान का पूरे इलाके में जबरदस्त प्रभाव पड़ा। शिबू सोरेन से प्रभावित होकर कई लोगों ने हड़िया-दारू छोड़ने का फैसला लिया। शिबू सोरेन ने धनबाद में शिवलाल मुर्मू के घर से ही रात्रि पाठशाला की शुरुआत की और इसी अभियान के कारण वो संताल आदिवासियों के गुरुजी बन गए। अब शिबू सोरेन की एक आवाज पर तीर, भाला, तलवार लिए आदिवासी समाज के लोग जुट जाते थे। आदिवासी समाज के लोग हड़पी गई खेतों पर लगी फसल काट देते थे। उन्होंने धनबाद के टुंडी के पोखरिया में एक आश्रम बनाया था। इसे लोग शिबू आश्रम कहने लगे। इस दौरान लोग उन्हें गुरुजी और दिशोम गुरु के नाम से पुकारने लगे।

संघर्ष के दौरान शिबू सोरेन कई बार अंडरग्राउंड रहे। बाद में धनबाद के जिलाधिकारी के.बी. सक्सेना और कांग्रेस नेता ज्ञानरंजन के सहयोग से उन्होंने आत्मसमर्पण किया। दो महीने बाद जेल से बाहर आए। इसके बाद उन्होंने सोनोत संताल संगठन बनाकर आदिवासियों को एकजुट किया। विनोद बिहारी महतो के शिवाजी समाज और सोनोत संताल का विलय हुआ और झारखंड मुक्ति मोर्चा वुनियाद डाली गयी। इसमें ट्रेड यूनियन लीडर ए.के. राय की महत्वपूर्ण भूमिका रही। विनोद बिहारी महतो पार्टी के पहले अध्यक्ष और शिबू सोरेन पहले महासचिव बने।

1973 में उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना की। इस पार्टी का मुख्य लक्ष्य झारखंड को बिहार से अलग करके एक नया राज्य बनाना था। यह आंदोलन कई सालों तक चला और शिबू सोरेन ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर इसके लिए अथक प्रयास किए। इस दौरान उन्हें कई बार गिरफ्तार भी किया गया, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उनका संघर्ष आखिरकार रंग लाया और 15 नवंबर 2000 को झारखंड एक अलग राज्य बन गया।

झारखंड बनने के बाद शिबू सोरेन तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री बने हालांकि उनका कार्यकाल हमेशा छोटा रहा। पहले कार्यकाल के दौरान (2005)में वे 2 मार्च 2005 को पहली बार मुख्यमंत्री बने लेकिन बहुमत साबित न कर पाने के कारण सिर्फ 10 दिनों में ही उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।

दूसरे कार्यकाल में (2008) वे 27 अगस्त 2008 को दोबारा मुख्यमंत्री बने लेकिन लगभग चार महीने बाद ही उन्हें पद छोड़ना पड़ा। तीसरे कार्यकाल (2009-2010) के दौरन उनका सबसे लंबा कार्यकाल दिसंबर 2009 से मई 2010 तक रहा। मुख्यमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल छोटे रहे लेकिन झारखंड की राजनीति में उनका प्रभाव हमेशा बना रहा। वे कई बार लोकसभा सांसद भी चुने गए और केंद्रीय मंत्री भी रहे।

विधानसभा के साथ-साथ शिबू सोरेन का दबदबा लोकसभा एक चुनावों में भी था। उन्होंने 1980 से लेकर 2000 के दशक तक दुमका लोकसभा सीट से कई बार जीत हासिल की। दुमका को झारखंड मुक्ति मोर्चा का गढ़ माना जाता था और शिबू सोरेन वहां से पार्टी के सबसे बड़े चेहरे थे हालांकि, 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। उनकी राजनीतिक विरासत को अब उनके बेटे और वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन आगे बढ़ा रहे हैं जो फिलहाल झारखंड के मुख्यमंत्री हैं।

कुमार कृष्णन

शिबू सोरेन: जंगल से संसद तक —दिशोम गुरु की राजनीतिक दास्तान

ओंकारेश्वर पांडेय

दिशोम गुरु शिबू सोरेन चले गए। 10 बार सांसद, 3 बार मुख्यमंत्री और उससे भी बढ़कर—वो शख्स जिसने तीर-कमान से नहीं बल्कि संघर्ष और अपनी सियासी चालों से बिहार के आदिवासियों को उनका हक दिलाया। अलग झारखंड का सपना उठाने वाले कई थे पर उसे सच करने वाला सिर्फ एक नाम था—दिशोम गुरु।
लोग कहते हैं, “गुरुजी सिर्फ नेता नहीं थे, आंदोलन की आत्मा थे।” उनके समर्थकों के लिए वे एक विचार थे, एक प्रतिरोध की पहचान।

 नेमरा से उठी हुंकार, जिसने पूरा बिहार हिला दिया

भारतीय राजनीति में झारखंड आंदोलन दरअसल  आदिवासी पहचान की वह कहानी है, जिसे दिशोम गुरु ने खून-पसीने से लिखा।

11 जनवरी 1944 को रामगढ़ के नेमरा गांव में जन्मे शिबू सोरेन ने बचपन में साहूकारों की लूट देखी, खनन कंपनियों का लालच देखा। 1969 का अकाल, जब सरकारी गोदामों में अनाज सड़ रहा था और आदिवासी भूख से मर रहे थे, ने उनके भीतर ज्वाला भर दी। उन्होंने कसम खाई—“जल, जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ी जाएगी।”

नेमरा (रामगढ़) की गलियों से उठी उनकी आवाज़ ने 1960–70 के दशक में आवाम को झकझोरा। जब धनकटनी आंदोलन शुरू हुआ, तब आदिवासी महिलाएँ खेतों से धान काटकर ले जाती थीं, पुरुष तीर-कमान लिए पहरे पर खड़े रहते थे पर सिस्टम भी था—सरेंडर, गिरफ्तारी, गिरफ्तारी वारंट तक जारी।

उनकी शुरुआत छोटी थी पर असर बड़ा। धान जब्ती आंदोलन से शिबू सुर्खियों में आए। साहूकारों के गोदामों से अनाज निकालना, तीर-कमान लिए आदिवासी पहरेदारों का पहरा— यह केवल विरोध नहीं था, यह सिस्टम को सीधी चुनौती थी।

एक दिन शिबू सोरेन पारसनाथ के जंगलों में छिप गए, वहीं से आंदोलन चला—“बाहरी” लोगों को निकालो, “झारखंड को शोषण से मुक्त करो”—सपनों के इस आंदोलन ने उन्हें ‘दिशोम गुरु’ की पहचान दी।

1973 में उन्होंने ए.के. रॉय और बिनोद बिहारी महतो के साथ झारखंड मुक्ति मोर्चा बनाई। उस समय उनके नारे गूंजते थे—“हमारी जमीन हमारी है, कोई दीकु (बाहरी) नहीं छीन सकता।”
इसके साथ ही झारखंड आंदोलन तेज होने लगा।

उस समय JMM का बनना कोई आसान बात नहीं थी—राजनीतिक विरोध, विभाजन और मानसिक खींचतान के बीच उन्होंने पार्टी को जीवंत रखा। तब लालू यादव ने 1998 में कहा था, “झारखंड मेरी लाश पर ही बनेगा,”।

लेकिन शिबू सोरेन ने सभी विरोधों को पार करते हुए, कांग्रेस, RJD और BJP से गठबंधन बनाया और बातचीत से राज्य का मामला संसद तक पहुँचाया।

राजनीति के शतरंज में माहिर खिलाड़ी

शिबू सोरेन ने समझ लिया था कि झारखंड का सपना सिर्फ जंगलों में धरना देकर पूरा नहीं होगा, इसके लिए दिल्ली की सत्ता के दरवाजे खोलने होंगे। और यही उन्होंने किया।

1989 में वी.पी. सिंह की सरकार को समर्थन, 1993 में नरसिम्हा राव को अविश्वास मत से बचाना, फिर 1999 में वाजपेयी की NDA सरकार से डील—शिबू हर बार सही मोड़ पर सही दांव खेलते रहे। कहते हैं, “गुरुजी का भरोसा सिर्फ लिखित वादों पर था, शब्दों पर नहीं।”
और हुआ भी वही।

15 नवंबर 2000 को बिहार से अलग होकर झारखंड बना। जयपाल सिंह मुंडा ने आंदोलन की शुरुआत की थी लेकिन उसे मंज़िल तक पहुंचाने वाला नाम था शिबू सोरेन।

 कॉरपोरेट से जंग, जीती भी, हारी भी

शिबू सोरेन की राजनीति का मूल था—आदिवासी पहचान और जल-जंगल-जमीन की रक्षा। उन्होंने सरहुल जैसे त्योहारों को विरोध का मंच बनाया। खदान मजदूरों को संगठित किया और खनन कंपनियों की नाक में दम किया। उनकी पहल पर PESA कानून आया जिसने ग्राम सभाओं को जमीन पर फैसला लेने का अधिकार दिया। 2006 का वन अधिकार कानून भी उनकी जिद का नतीजा था।

सरहुल जैसे त्योहारों को विरोध-अवसर में बदला, कंपनियों की चौकी को बाधित किया लेकिन फिर भी व्यापार-शक्ति रास्ते में आई— कॉरपोरेट का कॉकस नहीं टूटा। खनिज संपदा पर कंपनियों की पकड़ कायम रही। झारखंड से अरबों का कोयला और लौह अयस्क दिल्ली तक गया पर गांवों तक सिर्फ गरीबी पहुंची।

यही विडंबना है—राज्य तो बना, पहचान मिली पर आर्थिक न्याय अब भी अधूरा है।

झारखंड देश के सबसे समृद्ध खनिज राज्यों में है। कोयले, लौह अयस्क और अन्य खनिजों से केंद्र को सालाना 40-45 हजार करोड़ से ज्यादा का हिस्सा मिलता है जबकि राज्य को खुद के टैक्स से करीब 34 हजार करोड़ की आमदनी होती है। केंद्र से टैक्स शेयर और ग्रांट्स मिलाकर राज्य को कुल राजस्व का लगभग आधा हिस्सा ही मिलता है।

— स्थानीय कर-रकम 34 हजार करोड़
— टैक्स शेयर एवं ग्रांट ~45–50 हजार करोड़

आसान शब्दों में—खनिज निकलता है झारखंड से, फायदा जाता है दिल्ली को। यही सबसे बड़ी लड़ाई रही है। और यह लड़ाई आज भी जारी है।

 मुकदमे, सज़ा और जनता का अटूट विश्वास

दिशोम गुरु का सफर सियासत और मुकदमों की सफेद-स्याह परछाइयों और विवादों से भरा रहा।

1975 में ‘बाहरी-विरोधी अभियान’ जिसमें 11 मौतें हुईं, उन पर हत्या का आरोप लगा। 1993 के अविश्वास मत में रिश्वत का आरोप, 1994 में उनके निजी सचिव शशिनाथ झा की हत्या का मामला— 2006 में सजा हुई, फिर 2007 में बरी हुए।

“आरोप जितने भी लगे, शिबू सोरेन बरी हो गए।”
फिर भी जनता ने उनका साथ नहीं छोड़ा। जेल से निकलकर भी चुनाव जीते। तीन बार मुख्यमंत्री बने। दस बार सांसद रहे। पार्टी के एक नेता कहते हैं—“एक आदिवासी जब खड़ा होता है तो उसे राजनीति में फंसाया भी जाता है। हेमंत सोरेन को भी जेल में डाला गया पर क्या साबित हुआ?  जनता अब इन चालों को अच्छी तरह समझने लगी है।”

शिबू सोरेन के उपर मुकदमे, सज़ा और विवादों का बोझ था, पर जनता ने उनका साथ नहीं छोड़ा।


उनके योगदान को लोग याद करते हैं— उन्होंने झारखंड का सपना रखा, आदिवासी पहचान को राष्ट्रीय विमर्श में रखा, और सबसे बड़ी बात— कारपोरेट पावर को चुनौती दी।

आज के दौर में विकास की जो रफ़्तार है, वह आर्थिक अधिकारों के सवाल को और गहरा कर देती है—क्या राज्य की खनिज संपदा उसी जनता को लाभान्वित कर पाएगी जिसने इसे जन्म दिया?
गुरुजी चले गए, पर सवाल वहीं हैं।

 समझदारी या सौदेबाजी?
शिबू सोरेन ने कभी BJP का समर्थन किया, फिर RJD से हाथ मिलाया, कभी कांग्रेस से तालमेल किया—हर कदम पर साबित किया कि राजनीतिक दृढ़ता और पहचान की चुनौतियाँ गठबंधन नीति से होकर गुजरती हैं। “गुरुजी का भरोसा सिर्फ लिखित वादों पर था, शब्दों से नहीं।” भाषणों की नहीं, जमीन की राजनीति की गई। यह उन्हें अलग बनाता है।

 जनता का भरोसा और हेमंत की अग्निपरीक्षा

शिबू सोरेन ने झारखंड का सपना देखा, उसे संसद में गूँजाया, और आखिरकार राज्य के रुप में राजनीतिक हक की लड़ाई जीत ली।

“इतिहास उन्हें सिर्फ नेता नहीं, बगावत और पहचान का प्रतीक लिखेगा…” 

लेकिन गरीबी, बेरोजगारी, और आर्थिक आत्मनिर्भरता का संघर्ष जारी है। आज JMM फिर सत्ता में है। हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री हैं। यह भरोसा सिर्फ बेटे पर नहीं बल्कि उस इतिहास पर है जो शिबू सोरेन ने लिखा।

चुनौती बड़ी है—खनिज संपदा पर कॉरपोरेट कब्जा, विकास की जरूरत और आदिवासी अस्मिता का सवाल। हेमंत कहते हैं—“विकास जरूरी है, पर वह हमारी पहचान को मिटाए नहीं।”

उन्होंने केंद्र से बकाया खनन राशि 1.40 लाख करोड़ रूपये  मांगी है। टैक्स शेयर बढ़ाने की मांग की है।
आदिवासियों को राजनीतिक हक मिला, पर आर्थिक हक का सवाल अब भी अधूरा है। यही वह लड़ाई है जो आज हेमंत को लड़नी है। क्या हेमंत वह कर पाएंगे जो गुरुजी के दौर में अधूरा रह गया? मोदी सरकार के अधीन केंद्र को मिले कोयला रॉयल्टी की मांग, लंबित बकाया —यह संकेत है आर्थिक आत्मनिभरता की दिशा में संघर्ष की।

जमीनी राजनीति की बिसात पर सतर्कता और सफलता से चल रहे हेमंत सोरेन के सामने 
उनका नारा—“जल, जंगल, जमीन” अब भी गूँजता है। और ये सवाल झारखंड तक सीमित नहीं है। झारखंड में फिर झामुमो की सफलता के बाद अन्य राज्यों के आदिवासी इस दल को हसरत से देखने लगे हैं।

सवाल है कि—क्या यह नारा सिर्फ झारखंड तक सीमित रहेगा या पिता की राह पर आग चलते हुए हेमंत सोरेन झारखंड मुक्ति मोर्चा को आदिवासी मुक्ति मोर्चा के रूप में स्थापित कर पाएंगे।

ओंकारेश्वर पांडेय

भारत को सनातन ने नहीं, विदेशी आक्रांताओं और कांग्रेस ने बर्बाद किया

कमलेश पांडेय

 भारतीय पृष्ठभूमि वाली दुनिया की सबसे पुरातन सभ्यता-संस्कृति ‘सनातन धर्म” पर सियासी वजहों से जो निरंतर हमले हो रहे हैं, उनका समुचित जवाब देने में अब कोई कोताही नहीं बरती जानी चाहिए अन्यथा इसकी सार्वभौमिक स्थिति और महत्ता को दरकिनार करने वाले  ऐसे ही बेसिरपैर वाले क्षुद्र सवाल उठाए जाते रहेंगे। 

हाल ही में तथाकथित धर्मनिरपेक्ष और अवसरवादी क्षेत्रीय पार्टी एनसीपी शरद पवार के विधायक जितेंद्र आव्हाड ने एक नया विवाद छेड़ते हुए जो कहा है कि सनातन धर्म ने भारत को बर्बाद कर दिया और इसकी विचारधारा को विकृत बताया, वह निहायत ही बेहूदगी भरी, अपरिपक्व और पूर्वाग्रह ग्रसित बयानबाजी है, उसकी जितनी भी निंदा की जाए, वह कम है। 

वहीं, भारत की आत्मा समझी जाने वाली सनातन सभ्यता-संस्कृति पर ऐसी अपमानजनक टिप्पणी करने वाले जनप्रतिनिधियों के खिलाफ उनकी पार्टी को अपना स्टैंड क्लियर करते हुए उनका इस्तीफा लिया जाना चाहिए अन्यथा चुनाव आयोग को ऐसे जनप्रतिनिधियों के खिलाफ कार्रवाई करते हुए उनसे सम्बन्धित राजनीतिक दल की मान्यता अविलंब समाप्त की जानी चाहिए अन्यथा जनमानस में यही संदेश जाएगा कि भारतीय संविधान के मातहत जारी कार्यपालिका प्रशासन और न्यायपालिका प्रशासन में धर्मनिरपेक्षता की पक्षधरता करने वाले ऐसे ऐसे सनातन विरोधी लोग बैठे हैं जो भारत की सबसे पुरानी सभ्यता-संस्कृति के हमलावरों पर भी उसी तरह से उदार हैं जैसे कभी मुगल या अंग्रेज प्रशासक या कांग्रेसी राजनेता हुआ करते थे। 

उल्लेखनीय है कि उपरोक्त विधायक का यह बयान 2008 मालेगाव विस्फोट मामले में सभी सात आरोपियों के विशेष एनआईए अदालत द्वारा बरी किए जाने के बाद आया है जिसने भगवा/हिन्दू आतंक शब्द को लेकर पिछले डेढ़ दशकों से जारी राजनीतिक बहस को एक बार फिर से गरमा दिया है। 

यह अजीबोगरीब है कि पत्रकारों से बात करते हुए आव्हाड ने कहा कि सनातन धर्म ने भारत को बर्बाद कर दिया। कभी कोई धर्म सनातन धर्म नाम से नहीं था। हम हिंदू धर्म के अनुयायी हैं। यही कथित सनातन धर्म था जिसने हमारे छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक में बाधा डाली। इसी सनातन धर्म ने हमारे छत्रपति संभाजी महाराज को बदनाम किया। इसी सनातन धर्म के अनुयायियों ने ज्योतिराव फुले की हत्या का प्रयास किया। 

इन्होंने सावित्रीबाई फुले पर गोबर और गंदगी फेंकी। यही सनातन धर्म शाहू महाराज की हत्या की साजिश में शामिल था। इसने आंबेडकर को पानी पीने या स्कूल में पढ़ने की अनुमति तक नहीं दी। वहीं, आव्हाड के सनातन धर्म और सनातन समाज विरोधी बयान पर राणे और संजय निरुपम ने भी ठोककर जवाब दिया है। महाराष्ट्र के कैबिनेट मंत्री नितेश राणे ने जितेंद्र आव्हाड के बयान पर कहा कि ‘हिंदू आतंकवाद’ या ‘सनातनी आतंकवाद’ जैसी भाषा भारत की हिंदू और संत परंपरा को बदनाम करने के लिए गढ़ी गई एक परिभाषा है।

राणे की इस प्रतिक्रिया का लब्बोलुआब यह है कि हिन्दू समाज के प्रति हद से ज्यादा नकारात्मक हो चुकी कांग्रेस को देशवासियों ने सजा दी और केंद्रीय सत्ता से बाहर कर दिया जिससे कांग्रेसी बौखलाये हुए हैं। उसके लोग मुस्लिम वोटों को समाजवादियों से खींचने के लिए रणनीतिक गलतियां दर गलतियां करते जा रहे हैं। ऐसा करके वे लोग विपक्ष की राजनीति तो कब्जा सकते हैं लेकिन केंद्रीय सत्ता 15 साल बाद भी उनके लिए दिल्ली दूर ही साबित होगी।

वहीं, बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता और सांसद संबित पात्रा ने  कांग्रेस के तथाकथित “इकोसिस्टम” पर निशाना साधते हुए कहा कि वह सनातन धर्म को बदनाम करने और हिंदू आतंक जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने पर आमादा है। उन्होंने कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण के उन हालिया बयानों का भी जिक्र किया जिसमें उन्होंने सनातन आतंकवाद का नया जुमला गढ़ा है।

श्री पात्रा ने एनसीपी विधायक जितेंद्र आव्हाड के ताजा विवादित बयान का हवाला देते हुए कहा कि, “आव्हाड महाराष्ट्र के नेता हैं और शरद पवार की पार्टी से ताल्लुक रखते हैं। एक बार फिर उन्होंने सनातन धर्म के लिए अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल किया है। आपने सत्य का अपमान किया है, शिव के खिलाफ बोला है और उस भारत की सुंदरता का विरोध किया है। वह भारत जिसकी खूबसूरती सबके सम्मान में निहित है। मैं शरद पवार से पूछना चाहता हूं कि क्या यह आपकी पार्टी भी यही सोचती है, स्पष्ट कीजिए।”

वहीं, शिवसेना नेता संजय निरुपम ने सोशल मीडिया पर लिखा, ‘जितेंद्र आव्हाड ने सनातन धर्म को बदनाम करने के लिए खूब सारी फर्जी कहानियां सुनाई हैं। वे यह बताना भूल गए कि अगर सनातन धर्म नहीं होता तो वे अब तक  जितेंद्र नहीं जित्तुद्दीन हो जाते। अगर सनातनी नहीं होते तो देश सऊदी अरब बन जाता।

बता दें कि महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने भगवा शब्द की जगह सनातन या हिंदुत्ववादी शब्दों के उपयोग की वकालत की है। मालेगांव ब्लास्ट मामले में सभी दोषियों को बरी किए जाने के बाद चव्हाण ने सनातन संगठन की आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्तता का हवाला देते हुए उस पर प्रतिबंध का समर्थन किया। उन्होंने कहा है कि आतंकवादियों के लिए ‘भगवा’ शब्द का प्रयोग न करके ‘सनातन’ या ‘हिंदुत्ववादी’ शब्दों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. उन्होंने अपने विचारों के समर्थन में ऐतिहासिक संदर्भ भी दिए। 

चव्‍हाण ने कहा, ‘मेरे मुख्यमंत्री काल में ‘सनातन’ संगठन की आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्तता थी।’ इस संगठन पर प्रतिबंध लगाने के लिए मैंने एक गोपनीय रिपोर्ट केंद्रीय गृह मंत्रालय को भेजी थी। उसी संदर्भ में मैंने ‘सनातन’ शब्द का उपयोग किया था क्योंकि उस संगठन का कार्य आतंकवादी प्रवृत्ति का था। इस संगठन पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए था।’ 

उन्होंने डॉ. नरेंद्र दाभोलकर और कॉ. गोविंद पानसरे की हत्याओं का जिक्र करते हुए कहा कि उनके साथ क्या हुआ और आज तक न्याय क्यों नहीं मिला, यह गंभीर प्रश्न है।

उन्होंने सवाल उठाया और कहा, ‘ऑपरेशन सिंदूर पर सदन में चर्चा होनी थी, उसी समय मुंबई सीरियल ब्लास्ट और मालेगांव फैसले का आना संयोग है या साजिश? मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने जब मालेगांव केस चल रहा था, तब जो बयान दिया था, उसका असर कोर्ट के निर्णय पर पड़ा हो, तो यह गंभीर मामला है।

चव्‍हाण ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह पर भी सवाल उठाए हैं। उन्‍होंने कहा, ‘बीते 15 वर्षों से अमित शाह केंद्रीय गृह मंत्री हैं लेकिन इस अवधि में जांच एजेंसियों ने न्यायोचित कार्य नहीं किया है। ये सब सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया है।’ मुंबई विस्फोट और मालेगांव दोनों मामलों में सरकार को उच्च न्यायालय में अपील करनी चाहिए।’ 

चव्‍हाण के अनुसार, कोई भी धर्म आतंकवादी नहीं होता लेकिन नाथूराम गोडसे की विचारधारा संघ की थी। सरदार वल्लभभाई पटेल ने एक समय संघ पर प्रतिबंध लगाया था। उन्होंने यह भी साफ किया कि चिदंबरम, सुशील कुमार शिंदे और दिग्विजय सिंह ने ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द का उपयोग किया था लेकिन मैं और मेरी पार्टी उस शब्द से सहमत नहीं थे और आज भी नहीं हैं। इसलिए सनातनी आतंकवाद कहते हैं।

तल्ख हकीकत यह है कि भारत को सनातन ने नहीं, विदेशी आक्रांताओं और कांग्रेस ने बर्बाद किया। आजादी की प्राप्ति के बाद तुष्टिकरण की राजनीति करते हुए तत्कालीन हिंदूवादी कांग्रेस ने हिंदुओं के साथ छल किया। जब तक हिन्दू समाज इसे समझ पाया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। हिन्दू हित के जो कार्य 1947 में ही शुरू कर दिए जाने चाहिए थे, वो 1998-99 में प्रारंभ हुए लेकिन उन्हें सही गति 2014 के बाद मिल पाई। 

अभी भी तथाकथित धर्मनिरपेक्षता इस राह में सबसे  बड़ी  बाधक है। यह इस्लामिक व ईसाइयत को संरक्षण देती  है तो हिंदुओं को सिख, बौद्ध, जैन आदि पंथ को धर्म ठहराकर तोड़ती है। इससे हिन्दू समाज आंदोलित है। उसे योगी शासन का इंतजार है ताकि यूपी की तरह पूरे देश का कायाकल्प संभव हो सके।

कमलेश पांडेय

चुनाव आयोग पर हमला गंभीर रूप ले चुका है

राजेश कुमार पासी

राहुल गांधी और विपक्ष के दूसरे नेताओं का चुनाव आयोग पर हमला अब बहुत गंभीर हो चुका है क्योंकि अब ये लोकतंत्र और संविधान पर सवाल खड़े करने तक पहुँच गया है। कुछ लोग कह सकते हैं कि विपक्ष तो संविधान और लोकतंत्र बचाने की जंग लड़ रहा है तो फिर चुनाव आयोग के खिलाफ उसकी मुहिम लोकतंत्र और संविधान के लिए खतरा कैसे हो सकती है। वास्तव में संविधान और लोकतंत्र तब तक सुरक्षित हैं तब तक कि जनता का उनमें विश्वास है । जिस दिन देश की जनता का विश्वास लोकतंत्र और संविधान से उठ गया, उस दिन से इनकी समाप्ति का वक्त शुरू हो जाएगा। भारत की सारी व्यवस्था संविधान से उत्पन्न हुई है. अगर संविधान के ऊपर से विश्वास खत्म हो गया तो व्यवस्था से भी जनता का भरोसा खत्म हो जाएगा।

 चुनाव आयोग के पास वो काम है जो लोकतंत्र का आधार है. अगर चुनाव आयोग की विश्वसनीयता ही खत्म हो गई तो फिर लोकतंत्र कैसे बच सकता है । लोकतंत्र का मतलब ही है जनता द्वारा चुनी गई जनता की सरकार लेकिन जब चुनाव आयोग बेईमानी करके सरकार बनाने लगेगा तो फिर सरकार जनता द्वारा चुनी हुई कैसे मानी जायेगी। जो सरकार जनता द्वारा नहीं चुनी गई होगी, वो जनता द्वारा और जनता के लिए बनी सरकार कैसे मानी जायेगी। संविधान का संरक्षक सुप्रीम कोर्ट है लेकिन जब उसकी भी बात नहीं सुनी जाएगी तो संविधान का संरक्षण कौन करेगा । प्रधानमंत्री मोदी को तीसरा कार्यकाल मिलने के बाद विपक्ष को लग रहा था कि इस बार उनके पास पूर्ण बहुमत नहीं है, वो सहयोगी दलों पर निर्भर हैं इसलिए उनकी सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाएगी । सरकार ने जिस तरह से अपने कार्यकाल का एक साल पूरा किया है और मोदी जी आत्मविश्वास के साथ सभी को साथ लेकर चल रहे हैं, उससे विपक्ष को अहसास हो गया है कि ये सरकार अपना कार्यकाल पूरा करने वाली है। इस अहसास ने विपक्ष को हताशा और निराशा से भर दिया है जिसके कारण वो कुंठित हो गया है। 

                 विपक्ष को अहसास हो चला है कि उसके लिए केंद्र की सत्ता पाना बहुत मुश्किल होने वाला है । आने वाले  कौन से चुनाव में उसे सत्ता मिलेगी, यह भी उसे पता नहीं है । अपनी कुंठा में राहुल गांधी चुनाव आयोग पर उल्टे-सीधे आरोप लगाने में सारी हदें पार करते जा रहे हैं । वो सीधे तौर पर चुनाव आयोग पर भाजपा के लिए चुनाव चोरी करने का आरोप लगा रहे हैं । अब तो उनकी हालत यह हो गई है कि उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव में भी धांधली का आरोप लगा दिया है । हैरानी की बात है कि उनकी सरकार के अधीन  होने वाले चुनाव में चुनाव आयोग कैसे धांधली कर गया । दूसरी बात यह है कि उस चुनाव आयोग का चयन तो यूपीए सरकार द्वारा ही किया गया था तो वो कैसे भाजपा के साथ चला गया । राहुल गांधी चुनाव आयोग को सार्वजनिक रूप से धमकी देने लगे हैं कि जब उनकी सरकार आएगी तो सबका हिसाब होगा। अगर कोई रिटायर भी हो गया होगा तो उसके खिलाफ भी कार्यवाही की जाएगी ।

कांग्रेस के  दूसरे नेता भी राहुल गांधी की शह पर चुनाव आयोग के खिलाफ उल्टे-सीधे बयान देने लगे हैं । पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने बिहार में मतदाता सूची के पुनरीक्षण को लेकर कहा है कि चुनाव आयोग अपनी शक्तियों को दुरुपयोग कर रहा है और इसका मुकाबला कानूनी तरीके से किया जाएगा । सवाल यह है कि चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची के पुनरीक्षण का काम उसका संवैधानिक कर्तव्य है और वो अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है तो विपक्ष क्यों परेशान है । अगर चुनाव आयोग के काम में कुछ गलत है तो उसे इसकी शिकायत करनी चाहिए लेकिन चुनाव आयोग ने कहा है कि उसने मतदाता सूची का जो  प्रारूप तैयार किया है उस पर अभी तक उसे किसी भी राजनीतिक दल की आपत्ति नहीं मिली है । सवाल यह है कि चुनाव आयोग के खिलाफ विपक्ष सुप्रीम कोर्ट भी जा  चुका है और सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक नहीं लगाई है तो विपक्ष क्यों बवाल कर रहा है । दूसरी बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट जब मामले की सुनवाई कर रहा है तो उसे विपक्ष के झूठे आरोपों का संज्ञान लेना चाहिए लेकिन वो ऐसा क्यों नहीं कर रहा है । 

             राहुल  गांधी ने बयान दिया है कि उनके पास एटम बम है, जब वो इसे फोड़ेंगे तो चुनाव आयोग दिखाई नहीं देगा । उनके कहने का मतलब है कि उनके पास चुनाव आयोग की धांधली के पक्के सबूत हैं जिन्हें वो जनता के सामने रखेंगे तो चुनाव आयोग की विश्वसनीयता खत्म हो जाएगी । केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने उन्हें चुनौती देते हुए कहा है कि वो जल्दी से जल्दी यह एटम बम फोड़ दें और सारे सबूत जनता के सामने रख दें । सवाल यह है कि अगर राहुल गांधी के पास कोई सबूत है तो वो उसे सुप्रीम कोर्ट में क्यों नहीं पेश कर देते या संसद के पटल पर क्यों नहीं रखते । वास्तव में राहुल गांधी को सनसनीखेज बयान देने का शौक है. कभी वो भूकंप लाने की बात करते हैं, कभी सुनामी ले आते हैं और अब एटम बम फोड़ने वाले हैं हालांकि उनकी हालत खोदा पहाड़, निकली चुहिया से भी ज्यादा बुरी है ।

 झूठ बोलना राहुल की फितरत बन गई है और इसके लिए वो कई बार सुप्रीम कोर्ट की डांट खा चुके हैं । उन्होंने भारत जोड़ो यात्रा के दौरान बयान दिया था कि चीन ने भारत की 2000 वर्ग किलोमीटर जमीन कब्जा कर ली है और 20 भारतीय जवानों को शहीद कर दिया है । उन्होंने कहा कि चीन की सेना भारतीय जवानों को पीट रही है । सुप्रीम कोर्ट ने राहुल को फटकार लगाते हुए कहा है कि आपको कैसे पता कि भारत की जमीन कब्जा हो गई है. क्या आपके पास कोई दस्तावेज है? और दो देशों की लड़ाई में दोनों पक्षों का नुकसान होता है तो आप कैसे बयान दे रहे हैं । राहुल को झाड़ लगाते हुए माननीय अदालत ने कहा है कि कोई भी सच्चा भारतीय ऐसी बात नहीं कर सकता लेकिन राहुल गांधी इतने ज्यादा कुंठित हैं कि उन पर कोई असर नहीं होता । ऑपरेशन सिंदूर के बाद भी वो सरकार से लगातार सवाल कर रहे हैं कि भारत के कितने जहाज पाकिस्तान ने गिराए हैं । सवाल यह है कि 1962, 1965 और 1971 की जंग में भारत का कितना नुकसान हुआ था, क्या तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने मीडिया या संसद को बताया था । राहुल गांधी को इतनी छोटी सी बात समझ नहीं आती है लेकिन एक पूरा इको सिस्टम उन्हें भारत पर प्रधानमंत्री बनाकर थोपना चाहता है । 

              सवाल यह है कि विपक्ष को चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट, सेना और मीडिया पर भरोसा नहीं है लेकिन उसे लोकतंत्र और संविधान बचाने की लड़ाई लड़नी है । वो समझ नहीं पा रहा है कि भारत में लोकतंत्र और संविधान पर सबसे बड़ा खतरा विपक्ष का रवैया ही बन गया है ।  2014 के चुनाव में धांधली का आरोप लगाकर राहुल गांधी ने बता दिया है कि उन्हें भाजपा से परेशानी नहीं है बल्कि लोकतंत्र और संविधान से ही परेशानी है । जब अपनी ही सरकार के शासन में हुए चुनाव में भी उन्हें धांधली  दिखाई देने लगी है तो इसका स्पष्ट संकेत है कि उन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों में बिल्कुल भरोसा नहीं है। वो मोदी को एक प्रधानमंत्री के रूप में अभी तक स्वीकार नहीं कर पाए हैं । वो गांधी परिवार का वारिस होने के कारण अपने अलावा किसी और को प्रधानमंत्री बनते देखना बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। इसलिये वो सरकार और देश के विरोध में अंतर को भी भूल गए हैं। जिस संविधान को सिर पर उठाकर घूमते हैं, वास्तव में उनके मन में उसके प्रति नफरत भरी हुई है, इसलिए वो संवैधानिक संस्थाओं पर हमला कर रहे हैं। उन्हें कोई समझाने वाला नहीं है कि संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता खत्म करके संविधान को बचाया नहीं जा सकता ।

उन्होंने स्वर्गीय अरुण जेटली जी पर आरोप लगाया कि उन्होंने किसान आंदोलन के दौरान उन्हें किसानों का समर्थन करने पर धमकी दी थी जबकि जेटली जी डेढ़ साल पहले ही दुनिया से विदा हो चुके थे । मतलब साफ है कि राहुल गांधी ने उन पर झूठा आरोप इसलिए लगाया था क्योंकि अब वो सफाई नहीं दे सकते थे लेकिन उन्हें यह पता नहीं था कि किसान आंदोलन शुरू होने से बहुत पहले उनकी मौत हो गई थी। डोनाल्ड ट्रंप ने भारतीय अर्थव्यवस्था की मरती हुई अर्थव्यवस्था बताया तो राहुल गांधी ने उनका समर्थन कर दिया ।  मेरा मानना है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में विपक्ष कुंठाग्रस्त होकर देशविरोधी कामों में जुट गया है । अगर देश की किसी भी संस्था से उसे शिकायत है तो उसे संवैधानिक तरीके से लड़ना चाहिए । देश की आधी से ज्यादा जनता विपक्ष की समर्थक है और उसकी बातों पर भरोसा करती है । अगर इस तरीके से विपक्ष भाजपा से लड़ेगा तो उसके समर्थकों की संख्या कम होती जाएगी । दूसरी बात यह है कि विपक्ष के गैर जिम्मेदाराना रवैये से उसके समर्थकों में लोकतंत्र, संविधान और व्यवस्था के खिलाफ गुस्सा बढ़ता जाएगा । विपक्ष को चुनाव आयोग के खिलाफ अपने अभियान पर गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए क्योंकि चुनाव आयोग पर उसके हमले का गंभीर परिणाम निकल सकता है ।

राजेश कुमार पासी

‘विलेन अवतार’ से खुश हैं संजय दत्त

सुभाष शिरढोनकर

संजय दत्त ने अपने करियर की शुरुआत साल 1981 में रिलीज फिल्म ‘रॉकी’ से की थी हालांकि इसके पहले वे होम प्रोडक्‍शन अजंता आर्ट्स की फिल्‍म ‘रेशमा और शेरा’ (1971) के कव्‍वाली सॉंग में बतौर चाइल्‍ड आर्टिस्‍ट नजर आ चुके थे।

‘रॉकी’ (1981) के बाद संजय दत्‍त, ‘जॉनी आई लव यू’ (1982) ‘विधाता’ (1982) ‘बेकरार’ (1983) ‘दो दिलों की दास्तां’ (1985) ‘जमीन आसमान’ (1984) ‘जान की बाजी’ (1985) ‘जीवा’ (1986) और ‘मेरा हक’ (1986) जैसी फिल्मों में नजर आए।

इनमे से फिल्‍म ‘विधाता’ (1982) सुपर हिट रही जबकि ‘जान की बाजी’ (1985) और ‘मेरा हक’ (1986) को भी ऑडियंस ने काफी पसंद किया लेकिन संजय दत्‍त को एक टेलेंटेड एक्‍टर के रूप में पहली बार मान्‍यता फिल्म ‘नाम’ (1986) के साथ मिली।

उसके बाद संजय दत्त ने अपने करियर में ‘वास्तव’ (1991), ‘साजन’ (1991), ‘सड़क’ (1991), ‘खलनायक’ (1993), ‘दुश्मन’ (1998), ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ (2003) ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ (2006) ‘धमाल’ (2007), ‘डबल धमाल’ (2011) और ‘अग्निपथ’ (2012) जैसी कई सुपरहिट फिल्में दीं।

फिल्‍म  ‘अग्निपथ’ (2012) में संजय दत्‍त ने पहली बार एक खूंखार विलेन का रोल प्‍ले किया। उसके बाद फिल्‍म ‘पानीपत’ (2019) ‘केजीएफ चैप्‍टर 2’ (2022), ‘शमशेरा’ (2022), ‘लियो’ (2023) और ‘डबल स्‍मार्ट’ (2024) जैसी फिल्मों में भी वे इसी तरह के किरदारों में नजर आए।

संजय दत्‍त, बॉलीवुड के मोस्ट टैलेटेंड एक्टर्स में से एक हैं। कॉमिक हो या विलेन, संजय दत्त ने हर तरह के रोल में अपनी योग्‍यता साबित की लेकिन कॉमेडी जोनर हमेशा से उनके वरीयता क्रम में सबसे ऊपर रहा है।

कॉमेडी संजय दत्त की मनपसंद अभिनय शैली रही है। इस वजह से इस तरह के किरदारों में वे हमेशा ज्यादा सहज नजर आते हैं। राज कुमार हीरानी से लेकर डेविड धवन तक की फिल्मों में संजय दत्त कॉमेडी में धूम मचा चुके हैं।

संजय दत्त ने राजकुमार हीरानी व्दारा निर्देशित ’मुन्नाभाई सिरीज’ की दो फिल्मों  ’मुन्नाभाई एमबीबीएस’ (2003) और ’लगे रहो मुन्नाभाई’ (2006) में अपने कॉमेडी किरदारों को बड़ी शिद्दत के साथ निभाया। 

69 साल की उम्र में जब संजय दत्‍त की हीरो वाली पारी लगभग खत्‍म हो चुकी है, ऐसे में वह विलेन बनकर पर्दे पर छाए हुए हैं। कई उतार-चढ़ाव का सामना कर चुके एक्‍टर संजय दत्त ने अनेक फिल्‍मों में लीड हीरो के किरदार निभाने के बाद अब करियर के इस मोड पर बॉलीवुड के साथ  साउथ फिल्मों में खलनायक के किरदार निभाते हुए नई पारी का आगाज़ किया है।

नेगेटिव रोल निभाते हुए न केवल संजय दत्त बेहद उत्‍साहित हैं बल्कि खुश भी हैं। संजय दत्त  अपने ‘विलेन अवतार’ से ऑडियंस के दिलों में खास जगह बना चुके है।

संजय दत्‍त एक बार फिर इसी ‘विलेन अवतार’ के साथ अपकमिंग हॉरर-कॉमेडी फिल्‍म  ‘द राजा साब’ में साउथ स्‍टार प्रभास से दो दो हाथ करने आ रहे हैं।

इस साल रिलीज एक और हॉरर-कॉमेडी फिल्म ‘द भूतनी’ (2025) में संजय दत्‍त मौनी रॉय, पलक तिवारी, सनी सिंह के साथ  नजर आए थे। फिल्म में मौनी रॉय भूतनी के किरदार में थीं जबकि संजय दत्त ने एक मॉर्डन तांत्रिक का किरदार निभाया। यह फिल्‍म बुरी तरह फ्लाप साबित हुई थी।   

लेकिन संजय दत्‍त के फैंस को यकीन है कि वे फिल्‍म ‘द राजा साब’ में ‘द भूतनी’ की सारी कसर पूरी कर देंगे। इस फिल्‍म में उनकी एंट्री ने फैंस की एक्साइटमेंट काफी बढ़ा दी है।    ‘

‘द राजा साब’ के अलावा संजय दत्‍त के पास  कन्नड़ फिल्म ‘केडी द डेविल’ और बॉलीवुड फिल्‍म ‘बाप’ व ‘वेलकम टू जंगल’ भी है।  

सुभाष शिरढोनकर

राहुल गांधी का चुनावी एटम बॉम्ब

विजय सहगल   

जब से भारत के चुनाव आयोग ने बिहार चुनाव के पूर्व, चुनाव सूची मे विशेष गहन पुनरीक्षण का कार्य आरंभ किया है, देश के सभी विपक्षी दलों की तोपों के मुंह चुनाव आयोग की तरफ मुड़  गये। कॉंग्रेस के युवा नेता ने तो एक कदम आगे बढ़ 1 अगस्त को चुनाव आयोग पर सरकार के पक्ष मे वोट चोरी का आरोप लगा कर, चुनाव आयोग को खुल्लम खुल्ला  धमकाते हुए इस चोरी के पुख्ता प्रमाण, सबूत और साक्ष्य रूपी एटम बॉम्ब फोड़ने की चेतावनी दी। उन्होने वर्तमान मे हिंदुस्तान मे चुनाव आयोग नाम की कोई चीज के अस्तित्व को नकारते हुए, आगाह किया कि उनके धमाके के बाद तो चुनाव आयोग के अस्तित्व ही नज़र नहीं आयेगा। राहुल गांधी पूर्व मे भी इस तरह के सनसनी खेज वक्तव्य देते रहे हैं। विदित हो कि 8 नवंबर 2016 मे मोदी सरकार द्वारा लागू की गयी नोट बंदी पर भी राहुल गांधी ने 9 दिसम्बर  2016 मे  अपने उत्तेजक वक्तव्य मे, लोक सभा मे बोलने के मौका देने पर भूकंप आने की चेतावनी दी थी और जब वे लोक सभा मे बोले तो, अपने वक्तव्यों के भूकंप से धरती तो दूर, एक तिनका भी नहीं हिला सके। उनके  सनसनी खेज “एटम बॉम्ब” के वक्तव्य पर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने चुटकी लेते हुए सही ही कहा कि यदि राहुल गांधी के पास सौ प्रतिशत पुख्ता सबूतों का “एटम बम” हैं तो उसका परीक्षण तुरंत करिए और सारे प्रमाण देश के सामने रखिये। लेकिन सच्चाई यह हैं कि न तो उनके पास कोई तथ्य हैं, न सबूत। सनसनी फैलाना उनकी पुरानी आदत रही है।           

राहुल गांधी ने चुनाव आयोग के अधिकारियों को डराते और धमकाते हुए कुछ उसी लहजे मे कहा जैसे नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तानी आतंकवादियों को चेताते हुए कहा था। उन्होने चुनाव आयोग के अधिकारियों से कहा, जो भी ये काम कर रहे है, टॉप से बॉटम तक, याद रखिये हम आपको छोड़ेंगे नहीं! ये देश के खिलाफ साजिश है। उन्होने कहा कि आप रिटायार्ड हों या कहीं भी हों, हम आपको ढूंढकर निकाल लेंगे! देश की सबसे पुराने दल कॉंग्रेस के नेता द्वारा, देश की संवैधानिक संस्था के अधिकारियों के विरुद्ध इस तरह की भाषा का प्रयोग करना  करना उचित है? वहीं दूसरी ओर चुनाव आयोग ने कहा, कि राहुल गांधी चुनाव आयोग पर बेबुनियाद आरोप लगा रहे हैं। आयोग के कर्मचारियों को धमकाने वाली ये भाषा निंदनीय है। आयोग ने कहा कि वह ऐसे गैर जिम्मेदाराना बयानों को नज़र अंदाज़ करता है और निष्पक्ष व पारदर्शी रूप से अपना काम सतत रूप से करता रहेगा। आयोग ने इस बात का भी उल्लेख किया कि उसके द्वारा 12 जून को भेजा  गया मेल और पत्र के प्रतिउत्तर अब तक अप्राप्त है। कॉंग्रेस या राहुल गांधी  द्वारा आयोग को कभी कोई शिकायत नहीं की गयी।

तीन-तीन प्रधानमंत्रियों के घर चाँदी की चम्मच ले कर पैदा हुए माननीय राहुल गांधी  अब तक भारतीय लोकतन्त्र और भारतीय मतदाताओं की ताकत और मिजाज को शायद नहीं समझ पाये? इसलिये ही राहुल गांधी ने राजधानी दिल्ली मे कॉंग्रेस के वार्षिक कानूनी सम्मेलन को संबोधित करते हुए चुनाव आयोग पर 2014 के गुजरात विधान  चुनाव पर  सवाल उठाते हुए कहा कि, किसी एक पार्टी (भाजपा) की भारी मतों से विजय का रुझान शक पैदा करता हैं। शायद उन्हे स्मरण नहीं कि आपात काल के बाद जिस कॉंग्रेस की 1977 लोक सभा चुनाव मे सदस्यों की संख्या 350 से घट कर 153 रह गयी थी उन्ही  श्रीमती इंद्रा गांधी   को 1980 मे मतदाताओं ने भारतीय नागरिकों पर, आपातकाल मे किए गये  तानाशाही पूर्ण रवैये को भुला कर उन्हे फिर सत्ता सौंपी। ठीक इसी तरह भारत के ये मतदाता ही थे जिन्होने,  श्रीमती इन्दिरा गांधी की नृशंस हत्या के बाद राजीव गांधी से सहानभूति रखते हुए  उनकी सरकार को  दो तिहाई से भी अधिक सीटें (404) देकर कॉंग्रेस को सत्ता सौंपी। तब किसी नेता या दल ने कॉंग्रेस की विजय पर कोई शक, संशय या संदेह व्यक्त नहीं किया, आज राहुल गांधी गुजरात और अन्य प्रदेश के उन्ही मतदाताओं पर शक व्यक्त कर सवाल उठाते हैं जो न्यायोचित प्रतीत नहीं होता।

चुनाव आयोग पर मिथ्या आरोप लगाने मे कॉंग्रेस ही नहीं बिहार की राजद के नेता तेजस्वी यादव भी पीछे  नहीं रहे। शनिवार, 2 अगस्त को जब चुनाव आयोग ने ड्राफ्ट वोटर लिस्ट प्रकाशित की तो उन्होने एक सार्वजनिक कार्यक्रम मे चुनाव आयोग पर वोटर लिस्ट मे अपना नाम न होने का गंभीर आरोप लगाते हुए सवाल किया कि अब वे कैसे चुनाव लड़ेंगे? जब लिस्ट से राजद के मुख्यमंत्री दल के प्रत्याशी का नाम हटाया जा सकता है तो जनसमान्य के साथ क्या होगा? लेकिन कुछ ही समय बाद ही  चुनाव आयोग ने तेजस्वी यादव के मिथ्या आरोप के दावे का खंडन करते हुए मतदाता सूची क्रमांक 416 मे उनके नाम होने की पुष्टि की। तेजस्वी यादव ने  प्रेस कॉन्फ्रेंस मे जिस एपेक संख्या दर्ज़ कर, चुनाव आयोग पर अपना नाम मतदाता सूची मे न होने का आरोप लगाया था उस एपेक संख्या के आधार पर राजनैतिक विरोधियों ने उन पर दो मतपत्र रखने के आरोप लगाते हुए जांच की मांग कर दी और तेजस्वी यादव पर “होम करते हाथ जलना” वाली   कहावत को चरितार्थ कर दिया।  विदित हो कि दो मतदातापत्र रखना कानूनन अपराध है।   

चुनाव के दौरान राजनैतिक दलों द्वारा एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाना स्वाभाविक हैं लेकिन देश की चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं पर निरर्थक, बेबुनियाद और मिथ्या आरोप लगाना उचित नहीं। चुनाव आयोग जैसी संस्था की ये कानूनी और नैतिक ज़िम्मेदारी हैं कि वो देश मे स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी  चुनाव कराना सुनिशिचित करे। इस हेतु चुनाव आयोग द्वारा विशेष गहन पुनरीक्षण का कार्य करने पर सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी सहमति प्रदान कर दी ताकि निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव की प्रक्रिया सम्पन्न की जा सके। इसलिये ये देश के सभी नागरिकों और राजनैतिक दलों की भी ज़िम्मेदारी है कि वे चुनाव आयोग को इस हेतु अपना सहयोग प्रदान करें।

विजय सहगल