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तू दयानंद का वीर सिपाही ….

यदि रगों में तेरे लहू नहीं
तो जीने का क्या अर्थ हुआ ?
यदि देशहित कुछ किया नहीं
तो जीवन तेरा व्यर्थ हुआ।
है मातृभूमि का ऋण तुझ पर
उसको भी चुकाना है तुझको,
यदि आतंकी खेती करता रहा
तो समझो बेड़ा गर्क हुआ।।

तू राम की सेना का सैनिक
आजाद हिंद का नायक है,
तू दयानंद का वीर सिपाही
भगवा ध्वज का वाहक है।
योगीराज का तू अर्जुन है,
हनुमान राम का तू ही है।
राणा की हल्दीघाटी का तू
झाला वीर विनायक है।।

तू ही शिवा है तू ही संभा है,
तू ही विनायक दामोदर भी।
तू ही भारत की बाजू बंधु!
तू ही गर्वोन्नत मस्तक भी।।
सम्मान हिमालय का तू ही
स्वाभिमान देश का तू ही है।
तू ही निर्मल है धार गंग की
हिमालय का मानसरोवर भी।।

तुझसे ही चमन तुझसे गुलशन
तुझसे ही महकता उपवन है।
क्यों व्यर्थ चिंतन में पड़ा हुआ
अनमोल मिला यह जीवन है।।
मत अटक यहां ना भटक यहां
छोड़ द्वंद्व का भव-बंधन भी ।
उसका ध्यान किया कर बंदे,
शुद्ध होता जिससे चिंतन है।।

डॉ राकेश कुमार आर्य

धराली की घटना के निहित – अर्थ

उत्तराखंड के धराली में ऊपर पहाड़ियों पर बादल फटा और उसके साथ जिस प्रकार बड़ा भारी मलबा पहाड़ से नीचे की ओर आया तो उसने धराली गांव को अतीत बना दिया। हम सबके लिए यह घटना बहुत दुखद रही है। परंतु यह घटना हमें बहुत कुछ सिखा कर भी गई है। इसने बताया है कि यदि मनुष्य प्रकृति के साथ छेड़छाड़ जारी रखेगा तो उसको अपनी इस प्रकार की अनुचित हरकतों के गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे।
इस घटना के संदर्भ में हमें अतीत को समझना पड़ेगा, अपनी नैतिक व्यवस्थाओं को समझना पड़ेगा, समाज के विधि विधान को समझना पड़ेगा। जिसमें प्रकृति, मनुष्य और पशु पक्षियों के मध्य उत्तम सामंजस्य स्थापित करने का हर संभव प्रयास किया जाता था। अपने ऋषियों के उस चिंतन को समझना पड़ेगा, जिसके अंतर्गत वे पहाड़ों पर बसने का अधिकार उन योगियों या तपस्वियों ही दिया करते थे जो आत्म साधना के लिए वहां जाना उचित मानते थे। इसके अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति को वहां जाने का कोई अधिकार नहीं होता था। योगी तपस्वी लोग पहाड़ों पर जाकर पहाड़ों के साथ-साथ पहाड़ी जीवन के साथ भी कोई खिलवाड़ नहीं करते थे। वे पहाड़ी जीवन का आनंद लेते थे और उसे अपने अनुकूल बनाकर जीने का प्रयास नहीं करते थे। जिससे उनका जीवन पहाड़ के लिए किसी प्रकार की समस्या नहीं बनता था। पहाड़ी पशु पक्षी भी अपने आप को उन ऋषियों और तपस्वियों के साथ सहज समझते थे ।
जनसाधारण इन पहाड़ियों की ओर स्वाभाविक रूप से ही जाने की नहीं सोचता था। उनके मन मस्तिष्क में एक बात स्थापित कर दी गई थी कि यह क्षेत्र उन आत्मवेत्ताओं के लिए सुरक्षित है जो संसार के विषय भोगों, वासनाओं, लिप्साओं, काम क्रोध, मद , मोह, लोभ इत्यादि से ऊपर उठ चुके हैं और मोक्ष के अधिकारी बन चुके हैं। ऐसी दिव्य आत्माओं का निवास होने के कारण उत्तराखंड ऋषि भूमि कहलाया। यह बात उत्तराखंड पर ही लागू नहीं होती थी, कश्मीर पर भी यही बात लागू होती थी। जनसाधारण का प्रवेश यहां पर किसी धारा 370 जैसी बदनाम धारा के द्वारा वर्जित नहीं था बल्कि बहुत ही सात्विक भाव से उसे लोगों ने अपनी सहमति प्रदान कर दी थी । यहां पर जाकर व्यक्ति के शुद्ध सात्विक भाव बन जाते थे। इसलिए विषय भोगों के लिए इस क्षेत्र को प्रयोग में लाना और यहां जाकर मौज मस्ती करने की बात लोग सोचते भी नहीं थे।
समय परिवर्तनशील होता है। धीरे-धीरे समय ने पलटी खाई तो कई गृहस्थी लोगों को अपने परिवार के बिछड़े हुए लोगों से अर्थात संन्यासी हो गए योगियों से मिलने की अभिलाषा होने लगी। उधर जो लोग पहाड़ों पर जाकर तपस्या कर रहे थे, उनमें से ही कई ऐसे कच्चे सिद्ध हुए, जिन्हें अपने परिजनों से मिलने की इच्छा बनने लगी। दोनों ओर के इस प्रकार के मोह भरे आकर्षण ने पहाड़ों की जिंदगी को बर्बाद करने की ओर पहला कदम रखने के लिए मनुष्य को प्रेरित किया। लोगों ने धीरे-धीरे अपने परिवार से निकले किसी तपस्वी साधक से जाकर मिलना आरंभ किया। कुछ समय तक तो यह परंपरा मिलने के बाद लौट आने तक सीमित रही, परंतु कालांतर में कुछ लोगों ने तपस्वी साधक लोगों के गुरुकुलों या तपस्या स्थली के पास नीचे पहाड़ी में अपना अस्थाई निवास बनाना आरंभ कर दिया। इस प्रकार धीरे-धीरे पहाड़ी जीवन बोझिल होता चला गया।
इसके बाद बारी थी – भारत की ‘गंगा जमुनी संस्कृति’ की। जिसने ऋषियों की तपस्थली, तपोभूमि, ऋषि भूमि ( कश्मीर और उत्तराखंड ) को व्यभिचार का अड्डा बनाने का काम किया। भारत की कथित गंगा जमुनी संस्कृति की सबसे बड़ी विडंबना ऋषि भूमि की तस्वीर को पूर्णतया विकृत कर देना है। मुगलों ने हिंदुस्तान पर अपने शासन करने के दिनों में कश्मीर और उत्तराखंड को अपने लिए सैरगाह ( जिसे शुद्ध शब्दों में व्यभिचार का केंद्र कहा जा सकता है ) के रूप में प्रयुक्त किया। पहाड़ी जीवन के प्रति मुगलों की इस प्रकार की सोच ने पर्वतीय जीवन शैली के प्रति लोगों का दृष्टिकोण परिवर्तित कर दिया। प्रारंभ में तो हिंदू समाज की ओर से इसे मुगलों का अनुचित कृत्य माना गया। परंतु जैसे-जैसे गंगा जमुनी संस्कृति का प्रभाव हिंदुओं की नई पीढ़ी पर चढ़ता गया वैसे-वैसे ही अनेक ‘जहांगीर’ और ‘शाहजहां’ अपनी – अपनी ‘नूरजहांओं’ और ‘मुमताजों’ के साथ इस पहाड़ी जीवन के एकांत जीवन को विकृत करने लगे। पर्वतों का यह शांत वातावरण चीख उठा। पर्यटन के नाम पर लोगों ने अपने घरों को भी सैर करने आए सैलानियों के लिए किराए पर देना आरंभ कर दिया। उन्हें सब पता होता है कि सैर करने के लिए आए ये सैलानी यहां पर क्या करने आए हैं ? इनमें से बड़ी संख्या की सोच क्या है ? और वे यहां आकर क्या पाना चाहते हैं ? परंतु उन्हें भी पैसा चाहिए। इससे आगे उन्हें कुछ नहीं देखना।
आज कुछ ऐसी चीजें हमारी जीवन शैली में स्थाई प्रवास कर चुकी हैं जो कभी हमारे पूर्वजों की जीवन शैली में सम्मिलित होकर भी स्थाई नहीं होती थीं। पश्चिम की संस्कृति के प्रभाव ने इस प्रकार की जीवन शैली को और भी अधिक हवा दी है। इस दुर्गन्धित हवा ने हमारी सांस्कृतिक विरासत को दुर्गन्धित करने का प्रयास किया है। इस प्रकार की दुर्गंध भरी जीवन शैली को और बोझ बनती जा रही मनुष्यों की भीड़ को पहाड़ अपने लिए ‘बाधा’ समझते हैं। पहाड़ों की इस मूक आवाज को हमारे पूर्वज समझते थे। इसलिए उन्होंने पहाड़ों को पहाड़ों की तरह जीने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया था। वह था वास्तविक लोकतंत्र । जिसमें प्रकृति के अधिकारों का भी सम्मान किया जाता था। जब तानाशाह पैदा होने आरंभ हुए तो उन्होंने प्रकृति के अधिकारों का हनन करना आरंभ किया और उसी का परिणाम है आज की धराली जैसी घटनाओं का निरंतर होना।
अभी भी समय है कि हम जागरूक हो जाएं और अपने पूर्वजों की जीवन शैली को अपना लें। इससे पहले कि भयंकर विनाश को हम देखें, हमें गंगा जमुनी संस्कृति की भयावह परिणति से अपने आप को बाहर निकलने का प्रबंध करना चाहिए । विषय भोग और सांसारिक वासनाओं का खेल इंद्रियों को अच्छा लगता है। जिसे यह गंगा जमुनी संस्कृति और पश्चिम की अपसंस्कृति का दुष्प्रभाव हमारी ऋषि संस्कृति पर स्पष्ट दिखाई देने लगा है। हमें ऋषि भूमि को ही नहीं, कृषि भूमि अर्थात भारत को भी बचाने के लिए समय रहते उपाय करने की आवश्यकता है। हमें कठोर कानून बनाने की आवश्यकता नहीं है, अभी तू अपने पूर्वजों की भांति मनुष्य के मानस को कठोर अनुशासन में ढालने की आवश्यकता है।

डॉ राकेश कुमार आर्य

क्या हैं आरएसएस के पंच परिवर्तन

  • डॉ. इंदिरा दाँगी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक शताब्दी पुराना एक ऐसा संगठन है जिसे देश सेवा, आपात स्थितियों में नागरिक-सहायता और सांस्कृतिक उत्थान के अगुआ के रूप में भारत क्या, विश्व के नागरिक जानते हैं। राष्ट्रीय का अर्थ हुआ जिसकी सीमा संपूर्ण राष्ट्र हो; लेकिन वास्तव में ये संगठन विश्व पटल पर अपने सेवा कार्य के कारण जाना जाता है। स्वयं सेवक का अर्थ हुआ जो बिना किसी अपेक्षा या लाभ के सेवा करता है जैसे कि संगठन में कुछ लोग अपना पूरा जीवन समर्पित करने आते हैं तो कुछ अपनी व्यस्त जीवन शैली में से कुछ समय सेवा कार्य में देते हैं जिसे Pay back to society कह सकते हैं। संघ शब्द का अर्थ हुआ सभा। इस प्रकार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का अर्थ हुआ हमारे राष्ट्र की जातीय अस्मिता की पहचान या उत्थान और सनातन धर्म की अंतरराष्ट्रीय पहचान/महत्व के लिए काम करने वाला संगठन। अपनी स्थापना की पिछली एक शती में आरएसएस ने कहीं दुर्गम पहाड़ों में रहकर धर्मांतरण से भोले मूल निवासियों को बचाया …तो कहीं दंगों में जनता की रक्षा की, …बालिकाओं को आत्मरक्षा के गुर सिखाए, …कहीं तूफान में फंसे लोगों तक चिकित्सा और भोजन पहुंचाया। इसी तारतम्य में शताब्दी वर्ष में संगठन ने पंच परिवर्तन से ‘हर गाँव, हर बस्ती, हर घर’ तक जन के गुणवत्तापूर्ण जीवन पर काम करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। ये पंच परिवर्तन हैं :

  1. स्व धारित जीवन शैली
  2. पर्यावरण संरक्षण
  3. सामाजिक समरसता
  4. कुटुंब प्रबोधन
  5. नागरिक कर्तव्य  
  1. स्व धारित जीवन शैली : अपनी स्कूली किताबों में हम स्वाधीनता और इंडिपेंडेंस  का अंतर पढ़ते थे। इंडिपेंडेंट वो जिस पर किसी का नियंत्रण न हो, स्वाधीन वो जो स्वयं के अधीन हो। यही ‘स्वयं के अधीन’ स्व धारित जीवन शैली का मूल है। वास्तव में भारतीय जीवन शैली स्वयं के अधीन जीवन शैली है। एक गाँव की कल्पना कीजिए जहाँ मिट्टी के बर्तन बनाने वाला कुम्हार है, जूते बनाने वाला मोची है, बाँस के सूप और टोकरियाँ बनाने वाला बाँसोर है, विभिन्न अन्न बेचने वाला किसान और उन्हें पीसने को चक्की वाला है। एक आत्म निर्भर संरचना जो बाहर से खरीदने को कम-कम निर्भर है। जहाँ बच्चों को अकादमिक शिक्षा के अलावा हुनर सीखने के भी अवसर हैं। …आप स्वयं ही सोचिए, Nine to five जॉब के योग्य बनने के लिए ही तो अंकों की इतनी प्रतिस्पर्धा है बच्चों में। रोजगार मांगने वाला नहीं बल्कि रोजगार देने वाला बनाना ही नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का भी लक्ष्य है, पंच परिवर्तन का भी। स्थानीय कुटीर उद्योगों का तंत्र जब अपने होने में सफल होता है …तो न सिर्फ पलायन रुकता है …बल्कि स्थानीय बोलियाँ भी मरने से बच जाती हैं …और बच जाते हैं वे बच्चे भी जो किताबी पढ़ाई में असफलता के कारण सैकड़ों की संख्या में हर वर्ष आत्महत्या कर लेते हैं ! जिसे ‘क्वालिटी ऑफ़ लाइफ’ कहा जाता है, उसी को जन के जीवन में उतारना यहाँ लक्ष्य है। एक प्रसंग याद आता है। ब्रिटेन में रहने वाली मेरी एक सहेली ने एक बार मुझे कुछ चित्र भेजे। उसके पति को वहाँ की नागरिकता मिल गई थी; और दंपति बेहद प्रसन्न थे। चित्र में दिख रहा था कि वे महाशय घुटनों पर झुककर ब्रिटेन की महारानी के फोटो के सामने शपथ ले चुके थे कि वे उनके प्रति वफादार रहेंगे। इसके बाद घुटनों पर झुके उस भारतीय को एक ब्रिटिश अधिकारी ने नागरिकता का कागज़ दिया। …चित्र देख, मैं दुख से सोचती हूँ, उस प्रतिभाशाली नौजवान के लिए अपने देश में, स्वदेश में क्या कम अवसर रहे होंगे रोजगार के ? व्यापार के ? मुझे गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ की कविता याद आती है,


जिसकी मिट्टी में उगे बढ़े, 
पाया जिसमें दाना-पानी। 
है माता-पिता बंधु जिसमें, 
हम हैं जिसके राजा-रानी॥

वह हृदय नहीं है पत्थर है, 
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं॥ 

  • पर्यावरण संरक्षण :

                    माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः 

(भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ।) मानने वाला यह देश सदा ही अपनी नदियों, वनों और पहाड़ों को पूजता रहा है। आज पर्यावरण के जिस वैश्विक संकट से संसार पीड़ित है, उसका हल भी यही जीवन शैली पुन: अपनाना है जिसमें हम विश्व प्रकृति से अपनी आवश्यकतानुसार न्यूनतम लेते हैं और बदले में अपनी कृतज्ञता भी ज्ञापित करते हैं, पेड़ लगाकर, उनका संरक्षण कर, नदियों को स्वच्छ रखकर और पर्यावरण के अनुकूल जीवन शैली अपनाकर। मैं अपने विद्यार्थियों से कभी कक्षा में पूछती हूँ, आप प्रकृति से सब कुछ लेते हैं; कभी सोचा है पलटकर देते क्या है ? क्या आप पढ़े लिखे मोनस्टर हैं जो जीवन भर नेचर मदर को लूटने के लिए जन्मे हैं ? …बात कुल इतनी-सी है कि अपने आप को धरती की, प्रकृति की संतान मानते ही जीवन दृष्टि ही बदल जाती है। तब पेड़, जंगल, नदी, पहाड़ और पशु-पक्षी हमारे सहोदर और सहोदरायें बन जाते हैं। एक विराट कुटुंब के सदस्य होकर हम अपना भी, और दूसरों का भी जीवन श्रेष्ठ बनाते हैं। प्रसन्न, स्वस्थ और दीर्घायु होने का रहस्य भी यही है। 

  1. सामाजिक समरसता :

             भिन्नता ही योग्यता है। और इस भिन्नता का सम्मान सदैव हमारी संस्कृति में रहा है। वास्तव में दूसरे की भिन्नता यानि ‘अलग होने’ को स्वीकार करने से ही समाज में सौहार्द, शांति और समन्वय संभव है। यहाँ समानता और समरसता की अवधारणाओं के अंतर को समझना आवश्यक है। समानता की अवधारणा कहती है कि सभी को समान अवसर और संसाधन हों। समरसता कहती है कि लोग की आवश्यकताओं और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अवसर और संसाधन हों। समरसता हमारे देश की परिस्थितियों में बहुत व्यवहारिक आवश्यकता है। सीता त्रिजटा को माता कहती हैं तो यह समरसता है। …राम शबरी के झूठे बेर खाते हैं, यह समरसता है।  …कोल-किरात राम का साथ पाते हैं, तो यह समरसता है। समरस शब्द का तिब्बती में अर्थ होता है ‘रोग्यांग’ जिसका अर्थ होता है -एक समान स्वाद। जैसे परिवार में सब विशिष्ट और भिन्न होते हुए भी एक हैं; ऐसे ही समाज में सब एक-दूसरे के लिए सम-रस रहें, इसकी आज के इस समय में और सदैव ही नितांत आवश्यकता है।          

  • कुटुंब प्रबोधन :

            एक संस्कार से अपनी बात शुरू करना चाहूँगी। पुंसवन संस्कार स्वस्थ संतान की प्राप्ति की कामना है और गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क के विकास के लिए भी महत्वपूर्ण माना जाता है। यह संस्कार, यह व्यवस्था समाज को और देश को श्रेष्ठ और प्रतिभाशाली नागरिक देने के लिए है। माँ के आचार–विचार का प्रभाव होने वाले शिशु पर पड़ता है। शिशु परिवार का हिस्सा बनता है। परिवार कुटुंब का हिस्सा है और कुटुंब समाज का अतः एक-एक शिशु को संस्कारित करने की आवश्यकता है। सोचिये, जब गर्भस्थ शिशु पर माँ के आचार-विचार का प्रभाव पड़ने की इतनी चिंता हमारे पूर्वजों को रही थी, तो जन्म लेने के बाद पूरी परवरिश का कितना महत्व है !! बच्चा अपने परिवार से जो सीखता है, वही बर्ताव वह समाज में करता है। …आज हम सड़कों पर इतने विक्षिप्तों को देखते हैं, …परिवारों में होने वाले अपराधों में बार-बार ‘साइको’ शब्द सुनाई देता है, …समाज में कितने ही लोग आत्महत्या कर लेते हैं और कोई उनकी पीड़ा समझ भी नहीं पाता। इन सब सामाजिक समस्याओं के मूल में परिवार नाम इकाई की टूटन है। माइक्रो परिवारों के इस दौर में माता-पिता दोनों व्यस्त हैं, कुछ काम में, कुछ अपने मोबाइल में; और बच्चों को बताने वाला कोई नहीं कि हमारी बोली, संस्कृति, संस्कार, रीति-रिवाज, पुरखे और मान्यतायें क्या हैं।

                    समाज में बदलाव लाना है तो परिवार पर काम करना होगा क्योंकि अनेक समाजों-समूहों से प्रदेश और देश बनता है और कोई देश तभी श्रेष्ठ बन सकता है जब उसके नागरिक श्रेष्ठ हों। मानव पूंजी पर सबसे अधिक काम किए जाने की आवश्यकता है। बेटे संस्कारित होंगे तो समाज में अपराध घटेंगे और बेटियाँ संस्कारित होंगी तो वे अपराधों का शिकार होने से बचेगीं। बड़ों का सम्मान होगा तो समाज सुखी और सम्पन्न होगा। लोग दीर्घायु होंगे। देश नए-नए प्रयोग, नवाचारों, उपलब्धियों से सम्पन्न होगा और विश्व की प्रगति में योगदान देगा। …पूरे विश्व की प्रगति के लिए अपने एक-एक शिशु को संस्कारित करने पर परिवारों को काम करना होगा। यही कुटुंब प्रबोधन है।

  1. नागरिक कर्तव्य :

               किस देश को इसकी आवश्यकता नहीं ?? नियम तो बहुत हैं जो सरकार ने बनाए हैं, कानून ने बनाए हैं, समाज ने अपने सहज लोक बोध से बनाए हैं लेकिन उनका पालन कितने नागरिक करते हैं ? कितने लोगों में नागरिक बोध है ? मतदान हमारा अत्यंत आवश्यक कर्तव्य हैं लेकिन कितने अधिक नागरिक यह कर्तव्य नहीं निभाते हैं यह चुनाव के बाद, आँकड़ों से पता चलता है। सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है … पर्यावरण की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है … स्वच्छता बनाए रखना हमारा कर्तव्य है। ऐसे न जाने कितने ही कर्तव्य हैं जिन्हें हम जानते तो हैं लेकिन मानते नहीं। एक उदाहरण बताती हूँ। हाईवे पर मैं सदा ही देखती हूँ कि जो कट पॉइंट बने होते हैं, वहाँ लोग आम तौर पर ट्रैफिक नियमों का पालन नहीं करते। कई एक दुपहिया चालक ऐसे होते हैं जिनके वाहन में न तो साइड-व्यू मिरर होते हैं और न ही सिर पर हेलमेट। तीन से लेकर पाँच और छह तक सवारियाँ एक दुपहिया पर दिखना आम है। इससे दुर्घटनायें होती हैं और सैकड़ों-हज़ारों मनुष्यों की अकाल मृत्यु होती है; फिर भी बहुत लोगों में नागरिक बोध नहीं जागता। वे नागरिक कर्तव्य जिन्हें हम पहले से जानते हैं लेकिन निभाते नहीं, उन्हीं पर काम करने की आवश्यकता है।

   इस तरह संघ के ये पंच परिवर्तन स्व धारित जीवन शैली, पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक समरसता, कुटुंब प्रबोधन, नागरिक कर्तव्य समाज के आचरण में सुधार लाने, जन का जीवन गुणवत्तापूर्ण बनाने और देश की प्रगति को और और गति देने का प्रयास है। ये वे पंच प्रण हैं जो भारत ही नहीं वरन् विश्व के किसी भी राष्ट्र के आचरण में आ जाएं तो उसकी अखंडता, प्रगति और सौहार्द की नींव तो दृढ़ करते ही हैं; जन का जीवन भी गुणवत्तापूर्ण बना देते हैं। गुणवत्ता पूर्ण जीवन का अर्थ है -स्वस्थ, समृद्ध, सफल, और दीर्घायु होना ! वेद यही तो हमें सिखलाते हैं –

सर्वे भवन्तु सुखिनः …

आर्थिक व सैन्य मोर्चे पर अमेरिका-चीन को मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम हुआ भारत, अब बराबरी से ही करेगा बातचीत

कमलेश पांडेय

दुनिया के आर्थिक और सैन्य मंच पर तेजी से कद्दावर बन चुके गुटनिरपेक्ष देश भारत ने रूस को साधकर नम्बर वन  अमेरिका और नम्बर टू चीन को रणनीतिक मुश्किल में डालते हुए भींगी बिल्ली बना दिया है। इससे समकालीन विश्व के जी-7, नाटो, जी–20, ,ब्रिक्स और एससीओ जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों में ग्लोबल साउथ की पूछ-परख बढ़ गई है क्योंकि इनका अगुवा अब भारत बन चुका है।

जानकार बताते हैं कि अमेरिकी दांवपेंचों और चीनी पैंतरों से आजिज आ चुके इन ग्लोबल साउथ के देशों को भारत की सदाशयी नीतियों से जो नीतिगत राहत और वैश्विक सहयोग मिला है, वह इनकी प्राथमिक जरूरत भी है। चूंकि मौजूदा अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में भारत सबसे तेज़ इकॉनमी बन चुका है, मजबूत सैन्य ताकत के रूप  में छा चुका है, इसलिए भारत की मुखालफत दुनियावी थानेदारों को भी भारी पड़ सकती है।

यह ठीक है कि सीजफायर और टैरिफ को लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के दावों-आरोपों का भारत ने अभी तक जो भी जवाब दिया, उसमें भाषा विनम्र और सांकेतिक रखी गई, खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से लेकिन रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने गत दिनों जो ठोक-पीटकर जोशीला राजपूती बयान दिया है, इसके कूटनीतिक और राजनीतिक मायने में बिल्कुल अलग और अहम हैं। ऐसा इसलिए कि ट्रंप का नाम भी उन्होंने नहीं लिया लेकिन इस बार जवाब ज्यादा सख्त था। 

रक्षा मंत्री सिंह के तल्खी भरे बयान यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि अब भारत अपने राष्ट्रीय, मित्रगत और पड़ोसी हितों से कोई समझौता नही करेगा और जो इस रास्ते में अड़चनें पैदा करने की कोशिश करेगा, या वैसी ताकतों को शह देगा, उससे सख्तीपूर्वक ही निपटा जाएगा। इस बार सीजफायर वाली हड़बड़ाहट भी नहीं दिखाई जाएगी। इसलिए अब कोई भी बातचीत बराबरी के स्तर पर ही होनी चाहिए, वो भी अमेरिका-चीन जैसे देशों के साथ अनिवार्य तौर पर। लिहाजा, केंद्रीय मंत्री संजय सेठ ने ठीक ही कहा है कि नया भारत शेर की तरह दहाड़ता है। शक्तिशाली नेताओं की आंखों में देखकर बात करता है।

उल्लेखनीय है कि भारत के साथ अपने मनमाफिक डील करने में नाकाम रहे अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने भारत की इकॉनमी को ही ‘डेड’ बताया था। इसलिए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने उनकी इसी निकृष्ट मानसिकता का दबंग अंदाज में जवाब देते हुए कहा कि भारत की अर्थव्यवस्था को दुनिया की सबसे दबंग और गतिशील अर्थव्यवस्था करार दिया जबकि ‘सबके बॉस तो हम है’ का भाव रखने वाले कुछ देशों को भारत का तेजी से विकास रास नहीं आ रहा है। समझा जाता है कि भारत से होने वाले आयात पर अमेरिका के 50 प्रतिशत टैक्स लगाए जाने के बाद उनका यह बयान सामने आया है। 

रक्षा मंत्री ने आगे कहा कि ऐसी कोशिश की जा रही है कि हमारी चीजें बाहर महंगी हो जाएं। फिर भी कोई ताकत दुनिया की बड़ी शक्ति बनने से भारत को नहीं रोक सकती है। तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था अगर किसी देश की है तो वह हमारे भारत की है। अब भारत ₹24000 करोड़ का रक्षा उत्पाद दुनिया को निर्यात कर रहा है। अब हमने भी ठान लिया है कि आतंकियों को उनके धर्म देखकर नहीं बल्कि उनका कर्म देखकर मारेंगे। जो हमें छेड़ेगा, उसे छोड़ेंगे नहीं।

यह महज संयोग नहीं कि रविवार को ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी देश की अर्थव्यवस्था पर बात की और भारत की अर्थव्यवस्था के तेज रफ्तार के बारे में संकेत देते हुए साफ कहा कि दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में भारत सबसे तेज गति से आगे बढ़ रहा है। पीएम मोदी ने कहा कि भारत दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर तेजी से बढ़ रहा है। यह गति सुधार, प्रदर्शन और परिवर्तन की भावना से हासिल की गई है। पिछले 11 वर्षों में भारत की अर्थव्यवस्था विश्व स्तर पर 10वें स्थान से बढ़कर पहले शीर्ष पांच में पहुंच गई है और अब तेजी से शीर्ष चार से शीर्ष तीन अर्थव्यवस्थाओं में से एक बनने की ओर अग्रसर है। 

बता दें कि अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के भारतीय अर्थव्यवस्था पर निशाना साधने के कुछ दिन बाद पीएम की यह प्रतिक्रिया सामने आई है। पीएम ने यहां तक कहा कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की सफलता के पीछे भारतीय टेक्नॉलजी और मेक इन इंडिया का हाथ था। उसने कुछ ही घण्टों में पाकिस्तान को घुटनों पर ला दिया। गौरतलब है कि रिजर्व बैंक ने पिछले हफ्ते ही भारत की जीडीपी ग्रोथ का 2025-26 के लिए अनुमान 6.5 प्रतिशत पर बनाए रखा जबकि दुनिया की बाकी इकॉनमी की ग्रोथ के लिए यह अनुमान तकरीबन 3 फीसदी ही है। 

वहीं, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के डेटा बताते हैं कि 2024 में भारत ने ग्लोबल जीडीपी ग्रोथ में लगभग 17 प्रतिशत का योगदान दिया और अगले 5 साल में यह आंकड़ा 20 प्रतिशत तक पहुंच सकता है। इस तरह से कोरोना महामारी के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था ने सबसे शानदार रिकवरी की और दुनियावी युद्धों व वैश्विक उथल-पुथल के बीच भी वह बढ़त बनाए हुए है। 

दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय विकसित अर्थव्यवस्था की हकीकत यह है कि खुद अमेरिका की अर्थव्यवस्था इस समय संकट के दौर में गुजर रही है। वहां पर ट्रंप की अव्यवहारिक नीतियों के चलते महंगाई दर बढ़ने का डर है, जिससे आर्थिक विकास दर पर बुरा असर होगा। ऐसा अमेरिकी अर्थशास्त्रियों का भी मानना है। समझा जाता है कि ट्रंप की टैरिफ पॉलिसी के कारण अगर अमेरिका में मंदी के हालात बनते हैं, तो इसका असर दूसरे मुल्कों पर भी होगा।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि ट्रेड और टैरिफ पर ट्रंप का सख्त रुख किसी के लिए भी सही नहीं है। अब तो इसे टैरिफ टेरर या टैरिफ फतवा तक करार दिया जाने लगा है। आखिरकार इस बढ़े टैक्स की कीमत अमेरिकियों को ही चुकानी पड़ेगी। ऐसे में बेहतर है कि समाधान बातचीत से निकाला जाए लेकिन, वह बातचीत एकतरफा और अपनी मर्जी थोपने वाली नहीं हो सकती। इसलिए अपनी ग्रोथ को बनाए रखने के लिए भारत की एनर्जी संबंधी जरूरतें अमेरिका से बिल्कुल अलग है। इसी तरह, विशाल किसान व पशुपालक आबादी को लेकर भी भारत की कुछ स्वाभाविक चिताएं हैं। लिहाजा किसी भी समझौते में इन पहलुओं को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।

वहीं, केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कहा, झुकती है दुनिया, झुकाने वाला चाहिए। उनका संकेत पीएम मोदी, एचएम शाह और डीएम सिंह के सख्ती भरे फैसलों व बयानों की तरफ था जिन्होंने रविवार को धूम मचा दिया। केंद्रीय मंत्री गडकरी ने नागपुर में ठीक ही कहा कि आज दुनिया में जो देश दादागिरी कर रहे हैं, वे ऐसा इसलिए कर पा रहे हैं क्योकि वे आर्थिक रूप से मजबूत हैं और उनके पास उन्नत तकनीक है। फिर भी उन्होंने चुटकी भरे अंदाज में कहा कि, दुनिया झुकती है बस झुकाने वाला चाहिए।

उन्होंने कहा कि भारत को अपना निर्यात बढ़ाना होगा और आयात घटाने होंगे। अगर हमारी अर्थव्यवस्था और निर्यात की दर बढ़ेगी, तो हमें किसी के पास जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। उन्होंने कहा, जिनके पास अच्छी तकनीक और संसाधन हैं, वही दबदबा दिखा रहे हैं। अगर हमारे पास भी यह सब होगा तो हम किसी पर जुल्म नहीं करेंगे, क्योंकि  हमारी संस्कृति दुनिया के कल्याण की सोच रखती है।

उन्होंने यह भी कहा कि दुनिया की कई समस्याओं का हल विज्ञान और तकनीक है और यह ज्ञान ही शक्ति है। अगर भारत को विश्वगुरु बनना है तो हमें निर्यात बढ़ाना और आयात कम करना होगा। गडकरी ने सुझाव दिया कि शोध संस्थान, आईआईटीज और इंजिनियरिंग कॉलेज देश की जरूरतों को ध्यान में रखकर शोध करें, हालांकि अन्य क्षेत्रों में भी शोध जरूरी है।

कमलेश पांडेय

फट रहे अविश्वास और आरोपों के बम- ख़तरनाक मोड़ पर राजनीति

 

डॉ घनश्याम बादल

कांग्रेस के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी ने प्रेस कांफ्रेंस करके जिस तरह के आरोप चुनाव आयोग पर लगाए हैं, वे काफी सनसनीखेज हैं। 

इन आरोपों के माध्यम से राहुल गांधी ने अपना तथा कथित ‘एटमबम’ फोड़ा है जिसके बारे में उन्होंने कहा था कि इस बम के फटते ही चुनाव आयोग उड़ जाएगा। 

    2024 के लोकसभा के चुनावों से ही राहुल गांधी काफी ‘लाउड पॉलिटिक्स’  कर रहे हैं । वे लगातार भाजपा मोदी एवं चुनाव आयोग तथा सरकार के खिलाफ बोल रहे हैं । एक तरह से उन्होंने आरोपों की झड़ी लगा रखी है और चुनाव आयोग तथा सरकार के प्रति जनता में वे एक अविश्वास की भावना पैदा करने में लगे हुए हैं। विपक्षी नेता होने के नाते  यह बहुत स्वाभाविक  है और यह भी सच  है कि सत्ता पक्ष के नेता भी राहुल गांधी को उकसाने, कोसने व खिझाने में कोई कमी नहीं छोड़ रहे हैं। उनके जाल में फंस  राहुल गांधी अति उत्साह में भी कुछ ऐसी बातें कह जाते हैं कि  हंसी के पात्र बन जाते हैं। ‌

   54 साल के राहुल की ऐसी बड़बोलेपन की टिप्पणियां उन्हें मीडिया में उपहास का पात्र भी बनवा देती हैं । इसके कई उदाहरण पिछले समय में देखने को मिले हैं जैसे लोकसभा में अपने भाषण के तुरंत बाद अपने ही एक साथी की तरफ देखकर अति उत्साह में संसद में आंख मारना, मैं संसद में बोलूंगा तो मोदी टिक नहीं पाएंगे, चौकीदार चोर है, नरेंद्र सरेंडर और  ऐसे ही दूसरे वक्तव्यों  से  राहुल गांधी को फायदा कम और नुकसान ज्यादा हुआ है लेकिन इस बार जब बिहार में सरकार ने वोटर लिस्ट में संशोधन (SIR) का बीड़ा उठाया, तब राहुल गांधी व विपक्षी दलों ने इस पर यह कहते हुए एतराज़ किया कि यह सब वोटों की चोरी के लिए किया जा रहा है । उनका आरोप है कि ऐसा  इंडिया के समर्थक वोटरों को वोटर लिस्ट से हटाने एवं एनडीए समर्थकों को वोटर लिस्ट में जोड़ने के लिए यह सब ड्रामा किया जा रहा है‌ जबकि इतिहास बताता है कि चुनावों से पूर्व इस प्रकार की प्रक्रिया पहले भी होती रही है। राहुल और तेजस्वी यादव दोनों मिलकर बिहार की मतदाता सूची में न केवल कटने जा रहे 65 लाख मतदाताओं की और इशारा करते हुए इस पर आपत्ति कर रहे हैं अपितु वोटर लिस्ट की अंतिम कमियां भी गिना रहे हैं. यहां एक बड़ा प्रश्न उठता है कि एक ओर आप महाराष्ट्र मध्य प्रदेश हरियाणा आदि राज्यों में वोटर लिस्ट की कमियों को वोटो की चोरी बताते हैं तो वहीं बिहार में जब मतदाता सूचियों में सुधार की बात आती है, तब आप उसका विरोध करते हैं। 

     राहुल लगातार  ही चुनाव आयोग  को घेर रहे हैं और सरकार पर भी गंभीर आरोप लगा रहे हैं। मध्यप्रदेश, कर्नाटक एवं महाराष्ट्र तथा हरियाणा में आशा के विपरीत परिणाम आए तो वह और भी मुखर होकर बोले। उनके अनुसार कर्नाटक एवं महाराष्ट्र के चुनावों पर छह महीने उनकी टीम ने  कार्य किया और पाया कि अचानक ही वोटर लिस्ट में एक करोड़ नए नाम जोड़ दिए गए हैं । इतना ही नहीं, प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने डुप्लीकेट वोटर , गलत पते वाले वोटर एवं बहुत छोटे फोटो वाले वोटर्स के साथ-साथ एक ही छोटे से घर में अप्रत्याशित रूप से अत्यधिक वोटर होने का प्रमाण देने वाली वोटर लिस्ट दिखाई । उन्होंने अपने पॉवर पॉइंट प्रेजेंटेशन के माध्यम से यह भी बताया कि किस तरह फॉर्म सिक्स का दुरुपयोग करते हुए उसमें 70 वर्षीय मतदाताओं के नाम भी वोटर लिस्ट में जोड़ने का खेल खेला गया‌ जबकि इस फार्म के माध्यम से केवल उन्हीं मतदाताओं के नाम जोड़े जा सकते हैं जो आने वाले चुनाव के समय ही 18 वर्ष की आयु के हुए हैं, यानी इस बार राहुल जो बात कर कर रहे हैं, प्रमाण के साथ कर रहे हैं। यदि राहुल गांधी  पर विश्वास करें तो लगता  है कि वोटर लिस्ट में कमियां हैं और एक ही व्यक्ति के नाम अनेक जगहों पर भी अक्सर पाए जाते रहे हैं यानी माना जा सकता है कि इस विषय में उनके प्रमाण काफी पुख्ता हैं लेकिन वे जिस तरह  चुनाव आयोग को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं वह बहुत ख़तरनाक  है और यदि जैसा कि राहुल कहते हैं न्यायालय एवं चुनाव आयोग तथा सरकार एवं उनकी एजेंसियां मिलकर लोकतंत्र को चुरा रहे हैं तो फिर यह और भी चिंताजनक बात है तथा भारत में सच्चे लोकतंत्र की उपस्थिति पर गहरा सवालिया निशान खड़ा करते हैं। 

   लेकिन उनकी प्रेस कांफ्रेंस के बाद चुनाव आयोग ने उन्हें एफिडेविट देकर प्रक्रिया के अनुसार अपनी बात रखने को कहा तो राहुल इसके लिए तैयार नहीं होते।

अब क्या सही है और क्या ग़लत, यह मीडिया में तो तय नहीं हो सकता बल्कि इसके लिए तो संविधान सम्मत तरीके से ही फैसला हो पाएगा लेकिन राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, तेजस्वी यादव अखिलेश यादव और कांग्रेस व विपक्ष के दूसरे दलों के नेता यह कहकर चुनाव आयोग की एक तरह से खिल्ली उड़ा रहे हैं कि ग़लती चुनाव आयोग की है तो फिर वह शपथ पत्र क्यों दें। यदि आप सही हैं तो फिर आगे बढ़िए और अपनी बात को सिद्ध कीजिए। इसमें डरना क्या और यदि आप यह सिद्ध कर पाए तो आपकी यह बहुत बड़ी सफलता होगी

   दूसरी तरफ सत्ताधारी दल  राहुल गांधी की प्रेस कॉन्फ्रेंस एवं चुनाव आयोग को दी गई चुनौती को राहुल गांधी पर बिहार में हार सामने खड़ी देखकर बहाने ढूंढने का तंज कस रहे हैं तो राहुल गांधी चुनाव आयोग से पांच सवाल पूछ कर पलटवार कर रहे हैं । 

  राहुल का एक यह सवाल भी वाजिब है कि यदि चुनाव आयोग सही है तो फिर उसने वेबसाइट से हरियाणा, उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश जैसे राज्यों के आंकड़े क्यों हटा लिए हैं और वह केवल 45 दिन में ही सीसीटीवी की फुटेज क्यों नष्ट कर देने पर अड़ा हुआ है । इधर चुनाव आयोग का भी कहना है कि इतने विशाल आंकड़े का विश्लेषण करना बहुत दुष्कर कार्य है और चुनाव आयोग के अनुसार इसमें यदि वह जी जान से भी जुटे तो 273 वर्ष का समय लग सकता है‌ जबकि राहुल गांधी का कहना है कि यदि वोटर लिस्ट उपलब्ध करा दी जाए तो यह पांच सात दिन का ही कार्य होगा. अब इसमें समय लगे या ना लगे लेकिन यदि ऐसी लिस्ट मांगी जाती है तो इसे उपलब्ध कराना चुनाव आयोग का दायित्व है। 

       अब प्रमाणिक तौर पर यह कहना कि  कौन कितना सही है, बहुत मुश्किल कार्य है।  क्या राहुल गांधी के प्रमाण पुख्ता हैं ? या चुनाव आयोग का जवाब सही है अथवा सत्ताधारी दल सही है ? इस पर देश को मंथन करने की ज़रूरत है । 

   यदि सचमुच पिछले कुछ चुनावों में ई वी एम में तथाकथित खेला हुआ है या वोट चोरी जैसी बातें हुई है तो फिर यह बहुत ही ख़तरनाक और चिंताजनक  है लेकिन यदि राहुल केवल सत्ता और राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने के लिए  आरोप लगा रहे हैं तो इससे लोकतांत्रिक भारत की छवि और संविधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता एवं उनकी छवि पर आघात करने का खेल उससे भी ज़्यादा ख़तरनाक है। 

   अब इन आरोपों प्रत्यारोपों का सच क्या है, इसके लिए  निष्पक्ष एवं तीव्रगामी जांच का होना ज़रूरी है । साथ ही साथ राजनीतिक सत्ता का खेल, विपक्ष के आरोपों का तमाशा इन सबके लिए भी एक उत्तरदायित्व तय करने वाली प्रणाली का विकास बहुत जरूरी हो गया है ।

   आज जिस तरह मीडिया ट्रायल करके छवि निर्माण या ध्वस्त करने का खेल हो रहा है, उस पर लगाम कसने की आवश्यकता है अन्यथा दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माने जाने वाला भारत दुनिया भर में हंसी का पात्र बन जाएगा।   अब एक ही तरीका है कि चुनाव प्रणाली को एकदम इतना सटीक बनाया जाए कि उसमें किसी तरह के घाल मेल की गुंजाइश न रहे और  साथ ही साथ निराधार आरोप लगाने वह विश्वास पैदा करने तथा देश की छवि खराब करने के अपराध के लिए भी कड़ी सजा का प्रावधान किया जाए। 

डॉ घनश्याम बादल

विवादों में फंसी सौम्या टंडन की फिल्म ‘फाइल नंबर 323’

सुभाष शिरढोनकर

03 नवंबर, 1984 को भोपाल में पैदा हुईं एक्‍ट्रेस सौम्या टंडन के जीवन के शुरूआती दिन उज्जैन में बीते। उनके पिता बी जी टंडन, उज्जैन विश्वविद्यालय में प्रोफसर थे। सौम्या की स्कूल शिक्षा उज्‍जैन के सैंट मैरी कॉन्वेंट स्कूल में हुई।

सौम्या ने अपने कैरियर की शुरूआत मॉडलिंग के साथ की। वह साल 2006 में ’फेमिना कवर गर्ल फर्स्‍ट रनरअप  रहीं। उसी साल उन्होंने अपने एक्टिंग करियर की शुरूआत टीवी सीरियल ’ऐसा देस है मेरा’ (2006) से की। उसके बाद टीवी शो ‘मेरी आवाज को मिल गई रोशनी’ (2007) में वह रिया साहनी के नेगेटिव रोल में नजर आईं।

सौम्या टंडन ने साल 2007 की फिल्म ‘जब वी मेट’ (2007) के जरिए फिल्‍मों में डेब्‍यू किया और इस फिल्‍म में उन्‍होंने करीना कपूर की बहन रूप ढिल्लों का किरदार निभाया ।

अफगानी टीवी सीरियल ’खुशी’ (2008) में सौम्या ने एक अफगानी महिला डॉक्टर का किरदार निभाया।

शाहरूख खान के साथ रियलिटी शो ’जोर का झटका, टोटल वाइपआउट’ (2011) की सौम्या ने सह मेजबानी की लेकिन इस शो को वो अपने करियर का सबसे बड़ा फ्लॉप शो मानती हैं।

 उसके बाद साल 2009 से साल 2012 तक सौम्‍या ने ’डांस इंडिया डांस’ (2009-2012) के तीन सीजन की मेजबानी  की। इस काम के लिए उन्हें  सर्वश्रेष्ठ एंकर का पुरस्कार भी मिला।

सौम्या टंडन ने ’एल जी मल्लिका-ए-किचन’ (2010-2013) और ’बोर्नविटा क्विज प्रतियोगिता’ (2011-2014) के तीन-तीन सीजन की मेजबानी की। 

‘जब वी मेट’ (2007)  के बाद सौम्‍या की दूसरी फिल्‍म ‘वेलकम टू पंजाब’ (2011) थी लेकिन बॉक्‍स ऑफिस पर फिल्‍म का प्रदर्शन कुछ खास नहीं रहा।

’कॉमेडी नाइट विथ कपिल’ (2014) में सौम्‍या स्पेशल अपीयरेंस में नजर आईं। उसके बाद सौम्‍या टंडन को कॉमेडी धारावाहिक ‘भाभीजी घर पर हैं’ (2015) में गोरी मैम अनीता विभूति नारायण मिश्रा का आइकॉनिक रोल प्ले करने का अवसर मिला।

इस किरदार ने सौम्‍या की तकदीर को पलट कर रख दिया। अनीता भाभी के किरदार से उन्‍होंने खूब लोकप्रियता बटोरी । इसके व्दारा उन्होंने घर-घर में अपनी जगह बना ली है।

‘भाभीजी घर पर हैं’ में सौम्या टंडन का अंदाज फैन्स को काफी पसंद आया। एक्टिंग के साथ-साथ सौम्या टंडन ने अपनी बेपनाह खूबसूरती से दर्शकों का दिल जीत लिया था लेकिन साल 2020 में सौम्या टंडन ने यह शो छोड़ दिया था ।

‘भाभीजी घर पर हैं’ (2015) से  सौम्या टंडन के जाने के बाद उनके फैंस काफी दुखी हो गए थे। शो में सौम्या की जगह नेहा पेंडसे ने ली लेकिन वह शो में ज्यादा समय तक नहीं टिक सकीं। उसके बाद विदिशा श्रीवास्तव ने ‘अनीता भाभी’ बनकर लोगों को एंटरटेन किया लेकिन सौम्‍या वाली बात वह भी पैदा नहीं कर सकीं।

सौम्या टंडन ने साल 2016 में सौरभ देवेंद्र सिंह संग सात फेरे लिए । साल 2019 में सौम्या टंडन एक बेटे की मां बनी। उन्‍होंने उनके बेटे का नाम मिरान रखा।

कुछ समय पहले सौम्‍या के फैंस के लिए एक अच्‍छी खबर आई थी कि कार्तिक कुमार व्‍दारा निर्देशित फिल्म ‘फाइल नंबर 323’ के जरिए पूरे छह साल बाद वह बॉलीवुड में वापसी करने जा रही हैं।

लिकर किंग के नाम से मशहूर विजय माल्या पर बेस्‍ड इस फिल्‍म में सौम्‍या विजय माल्‍या की पत्‍नी का किरदार निभाने वाली थीं लेकिन अब खबर आ रही है कि मेहुल चौकसी के एतराज के बाद फिल्‍म विवादों में फंस चुकी है।  

सुभाष शिरढोनकर

टूटी छतों और दीवारों के बीच कैसे पलेगी शिक्षा की नींव?

जर्जर स्कूल, खतरे में भविष्य

भारत में लाखों सरकारी विद्यालय जर्जर हालत में हैं। टूटी छतें, दरारों वाली दीवारें, पानी व शौचालय का अभाव—ये बच्चों की सुरक्षा और पढ़ाई दोनों पर खतरा हैं। पिछले नौ वर्षों में 89 हज़ार सरकारी स्कूल बंद हुए, जिससे शिक्षा में अमीर-गरीब की खाई और गहरी हुई। शिक्षा का अधिकार कानून सुरक्षित भवन की गारंटी देता है, लेकिन ज़मीनी हकीकत अलग है। सरकार, समाज और नागरिकों को मिलकर विद्यालय भवनों की मरम्मत और सुविधाओं में निवेश करना होगा, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ मलबों पर नहीं, मजबूत नींव पर अपने सपने खड़ी कर सकें।

-डॉ. सत्यवान सौरभ

शिक्षा किसी भी राष्ट्र की आत्मा होती है और विद्यालय उसके मंदिर। यह वह स्थान है जहाँ बच्चों के सपनों को आकार मिलता है, विचारों को पंख मिलते हैं और भविष्य की नींव रखी जाती है। परंतु दुख की बात है कि भारत में, विशेषकर ग्रामीण इलाकों और आर्थिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में, इन मंदिरों की स्थिति अत्यंत चिंताजनक है। अनेक विद्यालयों में छतें टूटी हुई हैं, दीवारों में बड़ी-बड़ी दरारें हैं, बरसात में पानी टपकता है, खिड़कियाँ टूटी हुई हैं, बेंच जर्जर हो चुकी हैं और पीने के पानी तथा शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव है।

हाल ही में राजस्थान के झालावाड़ ज़िले में एक सरकारी विद्यालय की जर्जर दीवार गिरने से सात मासूम बच्चों की मौत हो गई। यह घटना किसी एक विद्यालय या राज्य तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए चेतावनी है। हर बार जब ऐसी दुर्घटना होती है, तो कुछ दिन तक चर्चा होती है, परंतु फिर सब सामान्य हो जाता है, और समस्या जस की तस बनी रहती है। सवाल यह है कि क्या हमें बच्चों की जान जाने के बाद ही जागना होगा?

शिक्षा मंत्रालय के ताज़ा आँकड़े बताते हैं कि भारत में पंद्रह लाख से अधिक प्राथमिक और डेढ़ लाख से अधिक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय हैं। इनमें से एक बड़ा हिस्सा ग्रामीण क्षेत्रों में है, जहाँ भवनों की देखभाल पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। लाखों विद्यालयों में आज भी लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं हैं, पीने के पानी की व्यवस्था अधूरी है और अनेक राज्यों में लगभग एक-तिहाई विद्यालय जर्जर या अर्ध-जर्जर स्थिति में हैं।

शिक्षा का अधिकार कानून दो हज़ार नौ ने छह से चौदह वर्ष के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की गारंटी दी थी। इस कानून में यह भी स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि प्रत्येक विद्यालय का भवन सुरक्षित, सुसज्जित और बच्चों के अनुकूल होना चाहिए। लेकिन सच्चाई यह है कि काग़ज़ी प्रावधान ज़मीन पर लागू नहीं हुए। जर्जर भवनों में पढ़ने वाले बच्चों पर हर दिन खतरा मंडराता है, और शिक्षा का अधिकार केवल पुस्तकों में सीमित होकर रह जाता है।

बीते नौ वर्षों में देश भर में नवासी हज़ार से अधिक सरकारी विद्यालय बंद हो चुके हैं। कारण बताया जाता है कि इन विद्यालयों में नामांकन कम हो गया, लेकिन असली वजह यह है कि विद्यालयों की बदहाली, शिक्षकों की कमी और सुविधाओं के अभाव ने बच्चों और अभिभावकों का विश्वास तोड़ दिया। अभिभावक चाहते हैं कि बच्चे सुरक्षित वातावरण में पढ़ें, इसलिए वे निजी विद्यालयों का रुख करते हैं, भले ही उसके लिए उन्हें कर्ज़ क्यों न लेना पड़े। परिणाम यह है कि अमीर परिवारों के बच्चे बेहतर सुविधाओं वाले विद्यालयों में पढ़ते हैं, जबकि गरीब और ग्रामीण परिवारों के बच्चे जर्जर सरकारी विद्यालयों में पढ़ाई करते हैं या फिर पढ़ाई बीच में छोड़ देते हैं।

इससे शिक्षा में गहरी असमानता पैदा हो रही है। जब एक बच्चा वातानुकूलित कक्ष, आधुनिक शिक्षण सामग्री और पुस्तकालय में पढ़ता है और दूसरा बच्चा टूटी बेंच, सीलनभरी दीवारों और टपकती छत के नीचे बैठता है, तो दोनों के लिए समान अवसर कैसे संभव होंगे? यह असमानता केवल शिक्षा तक सीमित नहीं रहती, बल्कि आगे चलकर रोजगार, आय और सामाजिक स्थिति पर भी असर डालती है।

शोध बताते हैं कि असुरक्षित और असुविधाजनक वातावरण में पढ़ने वाले बच्चों में तनाव अधिक होता है, वे विद्यालय में नियमित रूप से उपस्थित नहीं हो पाते और पढ़ाई छोड़ने की संभावना भी बढ़ जाती है। बरसात के मौसम में कक्षाओं में पानी भर जाता है, गर्मियों में बिना पंखे और हवा के क्लास में बैठना मुश्किल हो जाता है, और सर्दियों में टूटी खिड़कियों से आती ठंडी हवा बच्चों के स्वास्थ्य पर असर डालती है।

हमारे देश में शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का लगभग दो दशमलव नौ प्रतिशत ही खर्च होता है, जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कम से कम छह प्रतिशत की सिफारिश की जाती है। भवनों की मरम्मत और रखरखाव के लिए जो राशि तय होती है, वह ज़रूरत के मुकाबले बहुत कम है। इसके अलावा, जो राशि मंजूर होती भी है, वह अक्सर नौकरशाही की धीमी प्रक्रिया, ठेकेदारी में भ्रष्टाचार और निगरानी की कमी के कारण पूरी तरह खर्च नहीं हो पाती।

यदि स्थिति सुधारनी है तो सबसे पहले विद्यालय भवनों की मरम्मत और सुरक्षा के लिए विशेष कोष बनाया जाए, जिसमें राज्य और केंद्र दोनों मिलकर धन दें। इस कोष का उपयोग पारदर्शी ढंग से हो और प्रत्येक खर्च का हिसाब सार्वजनिक किया जाए। हर सरकारी विद्यालय का वार्षिक सुरक्षा परीक्षण अनिवार्य हो, जिसमें भवन की मजबूती, फर्नीचर, बिजली और पानी की व्यवस्था, शौचालय और खेल के मैदान जैसी सुविधाओं का मूल्यांकन किया जाए। पंचायत, अभिभावक और स्थानीय समाजसेवी संस्थाएँ निगरानी में शामिल हों, ताकि धन के दुरुपयोग पर रोक लग सके।

प्रत्येक खंड स्तर पर ऐसे त्वरित मरम्मत दल बनाए जाएँ, जो वर्षा, भूकंप, तूफान या किसी अन्य आपदा के बाद तुरंत विद्यालयों की मरम्मत कर सकें। मरम्मत और निर्माण के काम में स्थानीय मज़दूरों और कारीगरों को प्राथमिकता दी जाए, ताकि गाँव में ही रोज़गार भी पैदा हो और काम की गुणवत्ता पर भी निगरानी बनी रहे।

लेकिन केवल भवन सुधारने से समस्या हल नहीं होगी। शिक्षकों की पर्याप्त नियुक्ति, पुस्तकालय, प्रयोगशालाएँ, खेल का सामान और आधुनिक शिक्षण साधनों की उपलब्धता भी उतनी ही ज़रूरी है। विद्यालय का वातावरण तभी प्रेरणादायक बनेगा, जब बच्चे वहाँ सुरक्षित महसूस करें और उन्हें सीखने के लिए सभी साधन उपलब्ध हों।

विद्यालय भवन केवल ईंट-पत्थर का ढाँचा नहीं होते, वे बच्चों के सपनों और भविष्य की रक्षा करने वाले किले होते हैं। जब यह किला ही कमजोर और जर्जर हो, तो शिक्षा की नींव कैसे मजबूत होगी? समय आ गया है कि सरकार, समाज और नागरिक सभी मिलकर इन मंदिरों की मरम्मत में जुट जाएँ। शिक्षा में निवेश केवल खर्च नहीं है, बल्कि सबसे लाभकारी पूँजी-निवेश है, क्योंकि एक सुरक्षित और शिक्षित बच्चा ही कल का जिम्मेदार नागरिक बनता है।

यदि हम आज इन टूटी दीवारों और छतों को नहीं सँभालेंगे, तो कल हमारी आने वाली पीढ़ियाँ इन्हीं मलबों के बीच अपने सपनों की तलाश करेंगी। यह केवल विद्यालय भवनों को सँभालने का सवाल नहीं है, यह भारत के भविष्य को सँभालने का सवाल है।

स्वतंत्रता का अधूरा आलाप

“आज़ादी केवल तिथि नहीं, एक निरंतर संघर्ष है। यह सिर्फ़ झंडा फहराने का अधिकार नहीं, बल्कि हर नागरिक को समान अवसर और सम्मान देने की जिम्मेदारी है।

जब तक यह जिम्मेदारी पूरी नहीं होती, हमारी स्वतंत्रता अधूरी है।” — डॉ. प्रियंका सौरभ

15 अगस्त 1947 को हमने विदेशी शासन की बेड़ियों को तोड़ दिया था। तिरंगे की फहराती लहरों में वह रोमांच था, जो सदियों की गुलामी और अत्याचार के बाद जन्मा था। हर चेहरे पर एक ही उम्मीद थी—अब अपना देश अपनी मर्ज़ी से चलेगा, अब हर नागरिक को बराबरी का हक़ मिलेगा, अब हम अपने भविष्य के निर्माता होंगे। लेकिन आज़ादी के 78 साल बाद यह सवाल कचोटता है—क्या वह सपना पूरा हुआ?

आज हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं, हमारी अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ रही है, विज्ञान और तकनीक में नए मुकाम हासिल हो रहे हैं। मेट्रो ट्रेन, डिजिटल पेमेंट, सैटेलाइट मिशन और वैश्विक मंच पर बढ़ता प्रभाव हमें गर्व से भर देता है। लेकिन इस चमक के पीछे एक सच छुपा है—हमारी आज़ादी अब भी अधूरी है। यह अधूरापन केवल गरीबी या बेरोज़गारी का नहीं, बल्कि सोच, व्यवस्था और व्यवहार में गहरे बैठी असमानताओं का है।

हमारे यहां लोकतंत्र का मतलब अक्सर सिर्फ़ चुनाव रह गया है। हर पाँच साल में वोट डालने को ही हम अपनी भागीदारी मान लेते हैं, लेकिन उसके बाद नेता और जनता के बीच एक अदृश्य दूरी बन जाती है। जनता शिकायत करती है, सरकार सफ़ाई देती है, और इसी बहाने असली मुद्दे पीछे छूट जाते हैं। आज़ादी का असली मतलब यह है कि सत्ता का केंद्र नागरिक हो, और उसकी आवाज़ सिर्फ़ चुनावी भाषणों में नहीं, नीतियों और फैसलों में भी सुनी जाए।

हम तकनीक के युग में जी रहे हैं। इंटरनेट और सोशल मीडिया ने बोलने की आज़ादी को अभूतपूर्व विस्तार दिया है। लेकिन इसी आज़ादी का दुरुपयोग भी बढ़ा है—झूठी खबरें, नफ़रत फैलाने वाले संदेश, और डिजिटल विभाजन ने समाज में नई खाइयाँ बना दी हैं। आज़ादी तभी सार्थक है जब अभिव्यक्ति जिम्मेदारी के साथ हो, और डिजिटल स्पेस का इस्तेमाल जागरूकता और प्रगति के लिए किया जाए, न कि भड़काने और बांटने के लिए।

आर्थिक मोर्चे पर भारत ने लंबी दूरी तय की है, लेकिन यह सफ़र सबके लिए एक जैसा नहीं रहा। एक ओर हम अरबपतियों की संख्या में दुनिया में आगे हैं, तो दूसरी ओर करोड़ों लोग अब भी रोज़गार, भोजन और इलाज के लिए संघर्ष कर रहे हैं। महानगरों की ऊँची-ऊँची इमारतों की छाया में झुग्गियों की ज़िंदगी किसी को दिखाई नहीं देती। सच्ची आर्थिक स्वतंत्रता का मतलब है कि हर नागरिक को अपनी मेहनत के दम पर जीवन सुधारने का अवसर मिले, और बुनियादी जरूरतों के लिए वह किसी के रहम पर न हो।

सामाजिक स्तर पर भी चुनौतियाँ कम नहीं हैं। जाति, धर्म और लिंग के आधार पर भेदभाव आज भी हमारे समाज में गहराई से मौजूद है। महिलाओं को शिक्षा, रोजगार और सुरक्षा में बराबरी का अधिकार कागजों पर है, लेकिन हकीकत में वे आज भी असमान अवसरों और हिंसा का सामना करती हैं। यह विडंबना है कि एक ओर हम मंगल पर पहुँचने की तैयारी कर रहे हैं, और दूसरी ओर लड़कियों की शिक्षा को बोझ समझने वाले विचार अब भी जिंदा हैं।

शिक्षा आज़ादी की असली नींव है। लेकिन हमारे यहां शिक्षा की गुणवत्ता और पहुंच दोनों में भारी असमानता है। महानगरों के निजी स्कूल और ग्रामीण इलाकों के जर्जर सरकारी स्कूल एक ही देश के हिस्से हैं, लेकिन दोनों की दुनिया अलग है। बिना मजबूत और समान शिक्षा व्यवस्था के हम एक जागरूक और सक्षम नागरिक समाज नहीं बना सकते, और बिना ऐसे समाज के लोकतंत्र भी मजबूत नहीं हो सकता।

स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी हालात चुनौतीपूर्ण हैं। कोविड-19 महामारी ने हमारी व्यवस्था की कमजोरियों को उजागर कर दिया। बड़े-बड़े अस्पताल शहरों में हैं, लेकिन छोटे कस्बों और गांवों में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं भी सपना हैं। स्वतंत्रता का मतलब यह भी है कि कोई नागरिक इलाज की कमी से अपनी जान न गंवाए, और स्वास्थ्य सेवाएं केवल पैसे वालों के लिए न हों।

आज के दौर की सबसे बड़ी चुनौती है—मानसिक गुलामी। हम में से कई लोग आज भी परंपराओं, अंधविश्वासों और पूर्वाग्रहों की जंजीरों में बंधे हैं। बदलाव को अपनाने के बजाय हम अक्सर उसे खतरा मान लेते हैं। असली आज़ादी तब होगी जब हम सोचने, सवाल पूछने और नई राह अपनाने से नहीं डरेंगे।

पर्यावरण संकट भी हमारी स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ मुद्दा है। अगर हवा, पानी और मिट्टी जहरीली होती जाएगी, तो नागरिक का स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार भी खोखला हो जाएगा। विकास और पर्यावरण संतुलन के बीच सामंजस्य बैठाना आज के भारत के लिए अनिवार्य है।

स्वतंत्रता केवल अधिकार लेने का नाम नहीं, बल्कि कर्तव्य निभाने का भी है। हम ट्रैफ़िक सिग्नल तोड़ते हैं, टैक्स चोरी करते हैं, सफाई की अनदेखी करते हैं, और फिर भ्रष्टाचार व अव्यवस्था पर सवाल उठाते हैं। अगर नागरिक अपने कर्तव्य निभाने में ईमानदार नहीं होंगे, तो शासन भी ईमानदार नहीं हो सकता।

भारत की ताकत उसकी विविधता है। लेकिन यही विविधता हमारे लिए खतरा भी बन सकती है, अगर हम एक-दूसरे को केवल जाति, धर्म या भाषा के चश्मे से देखें। आज के दौर में हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि हम एक-दूसरे की पहचान का सम्मान करें और मतभेदों को दुश्मनी में न बदलने दें।

अब वक्त है कि हम स्वतंत्रता को केवल ऐतिहासिक घटना की तरह न मनाएं, बल्कि इसे एक सतत जिम्मेदारी की तरह जिएं। यह जिम्मेदारी सिर्फ़ सरकार की नहीं, हर नागरिक की है। हमें राजनीति में पारदर्शिता, न्यायपालिका में स्वतंत्रता, मीडिया में निष्पक्षता और समाज में समानता सुनिश्चित करनी होगी।

आज के भारत को ऐसी स्वतंत्रता चाहिए जिसमें हर बच्चा बिना डर और भेदभाव के स्कूल जाए, हर युवा को अपनी मेहनत के दम पर अवसर मिले, हर महिला सुरक्षित महसूस करे, हर बुज़ुर्ग को सम्मान और देखभाल मिले, और हर नागरिक अपने विचार स्वतंत्र रूप से व्यक्त कर सके। यही वह भारत होगा जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने बलिदान दिया था।

राजनीतिक आज़ादी हमारी यात्रा की शुरुआत थी, लेकिन मंज़िल अभी बाकी है। जब तक हम असमानता, भेदभाव, गरीबी, और अज्ञानता को खत्म नहीं करेंगे, तब तक हमारी स्वतंत्रता का आलाप अधूरा ही रहेगा। इस अधूरेपन को पूरा करना हमारी पीढ़ी की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है—क्योंकि आने वाले भारत की पहचान हमारे आज के फैसलों से तय होगी।

प्रकृति से खिलवाड़ की चेतावनी

संदर्भः उत्तराखंड में बादल फटने से हुई ताबाही
प्रमोद भार्गव
भारतीय दर्शन के अनुसार मानव सभ्यता का विकास हिमालय और उसकी नदी-घाटियों से माना जाता है। ऋषि -कश्यप और उनकी दिति-अदिति नाम की पत्नियों से मनुष्य की उत्पत्ति हुई और सभ्यता के क्रम की शुरूआत हुई। एक बड़ी आबादी को शुद्ध और पौश्टिक पानी देने के लिए भागीरथी गंगा को नीचे उतार लाए। यह विकास धीमा था और विकास को आगे बढ़ाने के लिए हिमालय में कोई हलचल नहीं की गई थी। लेकिन आज विकास के बहाने भोग की जल्दबाजी में समूचे हिमालय को दरकाने का सिलसिला अत्यंत तेज गति से चल रहा है। उत्तराखंड के उत्तरकाशी में धराली समेत तीन स्थानों पर आई प्राकृतिक आपदाओं ने सत्ताधारियों को चेतावनी दी है कि प्रकृति से खिलवाड़ कतई उचित नहीं है। यदि खिलवाड़ जारी रहा तो इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। धराली और हर्षिल में फूटे प्रलय के प्रकोप ने जो दृश्य दिखाए हैं, वे भयावह हैं। एक बार फिर सबसे पवित्र चार धाम यात्रा से जुड़े इस मार्ग पर केदारनाथ आपदा की कहानी प्रकृति ने दोहराई है। केदारनाथ की तरह यहां भी देशभर से यात्रा में आए अनेक श्रद्धालुओं को इस त्रासदी ने लील लिया है।
दरअसल वर्तमान में समूचा हिमालयी क्षेत्र आधुनिक विकास और जलवायु परिवर्तन के खतरों से दो-चार हो रहा है। मौसम और प्राकृतिक आपदाओं की जानकारी देने वाले उपग्रह चाहे जितने आधुनिक तकनीक से जुड़े हों, वे अनियमित हो चुके मौसम के चलते बादलों के फटने, हिमखंडो के टूटने और भारी बारिश होने की क्षेत्रवार जानकारी देने में आसमर्थ ही रहे हैं। इसीलिए 2013 में केदारनाथ प्रलय, 2014 में दुनिया का स्वर्ग माने जाने वाले जम्मू-कश्मीर राज्य की नदियों की बाढ़ से नरक में बदल जाने के संकेत नहीं मिल पाए थे। वर्षा की तीव्रता ऐसी मुसीबत बनी थी कि देखते-देखते स्वर्ग की धरती पर इठलाती-बलखाती नदियां झेलम, चिनाब और तवी ने अपनी प्रकृति बदलकर रौद्र रूप धारण कर लिया था। राज्य का जर्रा-जर्रा विनाश की कुरूपता में तब्दील हो गया था। अलगाववाद का प्रपंच अलापने में लगी राज्य सरकार का तंत्र पंगु हो गया था। तब सेना की मदद से इस भीषण त्रासदी से पार पाना संभव हो पाया था। इसी तरह 2021 में नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान के निकट हिमखंड के टूटने से तबाही मची थी। इससे धौलीगंगा नदी में अचानक बाढ़ आई और तपोवन विश्णुगाड पनबिजली परियोजना में काम कर रहे अनेक मजदूर काल के गाल में समा गए थे। हिमाचल प्रदेश में भी भू-स्खलन, बादल फटने और भारी बारिश से तबाही देखने में आ रही है। लेकिन मौसम तकनीक सटीक जानकारी नहीं दे पा रही है।        

मौसम विज्ञानी जता रहे हैं कि मानसून में लंबी बाधा के चलते देश के कई हिस्सों में सूखे के हालात निर्मित हो गए है और हिमाचल व उत्तराखंड में भीषण बारिश ने तबाही का तांडव रच दिया है। मानसून में रुकावट आ जाने से बादल पहाड़ों पर इकट्ठे हो जाते है और यही मूसलाधार बारिश के कारण बनते हैं। यह तबाही इसी का परिणाम है। तबाही के कारण मानसून पर डालकर  जवाबदेही से नहीं बच सकते। केदारनाथ में बिना मानसून के रुकावट के ही तबाही आ गई थी। अतएव यह कहना बेमानी है कि मानसून की रुकावट तबाही में बदली ? हकीकत में तबाही के असली कारण समूचे हिमालय क्षेत्र में बीते एक दशक से पर्यटकों के लिए सुविधाएं जुटाने के परिप्रेक्ष्य में जल विद्युत संयंत्र और रेल परियोजनाओं की जो बाढ़ आई हुई है, वह है। इन योजनाओं के लिए हिमालय क्षेत्र में रेल गुजारने और कई हिमालयी छोटी नदियों को बड़ी नदियों में डालने के लिए सुरंगें निर्मित की जा रही हैं। बिजली परियोजनाओं के लिए भी जो संयंत्र लग रहे हैं, उनके लिए हिमालय को खोखला किया जा रहा है। इस आधुनिक  औद्योगिक और प्रौद्योगिकी विकास का ही परिणाम है कि आज हिमालय ही नहीं, हिमालय के शिखरों पर स्थित पहाड़ दरकने लगे हैं, जिन पर हजारों साल से मानव बसाहटें अपनी ज्ञान-परंपरा के बूते जीवन-यापन करने के साथ हिमालय और वहां रहने वाले अन्य जीव-जगत की भी रक्षा करते चले आ रहे हैं। हिमालय और पृथ्वी सुरक्षित बने रहें, इस दृष्टि से कृतज्ञ मनुष्य ने अथर्ववेद में लिखे पृथ्वी-सूक्त में अनेक प्रार्थनाएं की हैं। इस सूक्त में राष्ट्रीय अवधारणा एवं वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को विकसित, पोषित एवं फलित करने के लिए मनुष्य को नीति और धर्म से बांधने की कोशिश की हैं। लेकिन हमने कथित भौतिक सुविधाओं के लिए अपने आधार को ही नष्ट करने का काम आधुनिक विकास के बहाने कर दिया।
आपदा प्रभावित धराली और हर्षिल क्षेत्र में बहने वाली भागीरथी नदी पर बनी 1300 मीटर लंबी और 80 मी. चौड़ी झील से पानी का रिसाव हो रहा है, इसे पोकलैंड मशीनों से तोड़ने की तैयारी है। जिसे रिसाव की थोड़ा प्रवाह बढ़ जाए और झील का जलस्तर घट जाए। यदि इस झील के बीच कोई बड़ा बोल्डर है, तो इसे नियंत्रित विस्फोटक से तोड़ा जाएगा। पहाड़ों में अतिवृष्टि के चलते इस नदि पर यह झील अस्तित्व में आ गई है। हिमालय में झील, तालाब और हिमनदों का बनना एक आश्चर्यजनक किंतु स्वाभाविक प्रक्रिया है। चूंकि यह झील हर्षिल और धराली के लिए संकट बन गई है, इसे तोड़ा जाना जरूरी हो गया है। यदि यह प्राकृतिक प्रकोप के चलते टूटती है तो धराली एवं हर्षिल को ओर खतरा बढ़ जाएगा। देहरादून सिंचाई विभाग के प्रमुख इंजीनियर सुभाष पांडे के नेतृत्व में अभियंताओं का एक 12 सदस्यीय दल हेलिकॉप्टर से झील के निरीक्षण में लगा है। झील के प्रवाह में यदि कोई चट्टान बाधा है तो उसे रिमोट से नियंत्रित विस्फोटक से तोड़ा जाएगा। इस विधि से वही हिस्सा टूटता है, जितना तोड़ना जरूरी होता है।
हालांकि अभी तक यह निश्चित अनुमान नहीं लगाया जा सका है कि इस जल प्रलय का वास्तविक कारण क्या है ? भू-विज्ञानी असमंजस में हैं। सच्चाई जानने के लिए वे अब रिमोट सेंसिग डाटा एवं सेटेलाइट डाटा की प्रतीक्षा में है। इससे स्थिति स्पष्ट होगी की खीर गंगा नदी में आया सैलाब बादल फटने, हिमनद टूटने, भू-स्खलन से आया या फिर किसी अन्य कारण से आया। इस सिलसिले में सीबीआरआई रुढ़की के मुख्य भू-विज्ञानी डॉ डीपी कानूनगो का कहना है कि नदी में अचानक इतना सैलाब किस कारण से आया यह कहना फिलहाल संभव नहीं है। भू-विज्ञानी प्राध्यापक एसपी प्रधान इस आपदा को प्राकृतिक और मानव निर्मित दोनों ही कारण मान रहे हैं। इन विरोधाभासी अनुमानों से साफ है कि आई आपदा के बारे में कारण संबंधी दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं है। दरअसल पर्वतीय क्षेत्रों में प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर विकास करना आवश्यक होना चाहिए। लेकिन कथित विकास की चकाचौंध में राज्य सरकारें कोई संतुलित नीति बना भी लेती हैं तो उसके क्रियान्वयन में ईमानदारी नहीं बरतती हैं। यही वजह है पूरे हिमालय क्षेत्र में अंधाधुंध विकास की परियोजनाएं हिमालय की आंतरिक सुगठित संरचना को नश्ट कर रही हैं।
इस आपदा ने यह जरूर जता दिया है कि उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियर झीलों के खतरे बढ़ रहे है। राज्य में करीब 1266 ऐसी झीलें हैं। नेशलन डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी (एनडीएमए) ने उत्तराखंड में 13 हिमनदों को खतरनाक श्रेणी के रूप में चिन्हित किया है। इनमें से पांच को उच्च संकट की श्रेणी में रखा है। हालांकि यह मुद्दा कोई नया नहीं है। 2013 में केदारनाथ जल प्रलय के बाद यह मुद्दा महत्वपूर्ण हो गया था। क्योंकि चौड़ाबाड़ी ग्लेशियर झील के फटने से केदारनाथ में भीषण तबाही आई थी। इसके बाद से ही उच्च हिमालयी क्षेत्रों में स्थित हिमनदों की निगरानी और इनसे बचाव के लिए अध्ययन करने की दिशा में पहल की गई थी। लेकिन अध्ययन के क्या निष्कर्ष निकलें और उनके अनुरूप समस्या से निपटने के क्या उपाय किए गए इस दिशा में कोई पारदर्शी जानकारी नहीं है। चामौली में वसुधारा ताल और पिथौरागढ़ की झीलों के अध्ययन की भी तैयारी की जा रही है। लेकिन इन अध्ययनों के कोई कारगार परिणाम निकलेंगे यह कहना मुश्किल है।      
उत्तराखंड भूकंप के सबसे खतरनाक जोन-5 में आता है। कम तीव्रता के भूकंप यहां निरंतर आते रहते हैं। मानसून में हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में भू-स्खलन बादल फटने और बिजली गिरने की घटनाएं निरंतर सामने आ रही हैं। पहाड़ों के दरकने के साथ छोटे-छोटे भूकंप भी देखने में आ रहे हैं। उत्तराखंड और हिमाचल में बीते सात साल में 130 बार से ज्यादा छोटे भूकंप आए हैं। हिमाचल और उत्तराखंड में जल विद्युत और रेल परियोजनाओं ने बड़ा नुकसान पहुंचाया है। टिहरी पर बंधे बांध को रोकने के लिए तो लंबा अभियान चला था। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक भी हिदायतें देते रहे हैं कि गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरल धारा बाधित हुई तो गंगा तो अस्तित्व खोएगी ही, हिमालय की अन्य नदियां और झीलें भी अस्तित्व के संकट से जूझेंगी।
प्रमोद भार्गव

भारत के साहसिक कदम से अमेरिका की दादागिरी पर लग सकता है ‘ग्रहण’।

संतोष कुमार तिवारी 

अमेरिका की तरफ से भारत पर टैरिफ लगाने का सिर्फ रूस से तेल खरीदना ही एक कारण नहीं है बल्कि इसके पीछे कई और भी कारण हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्‍ड ट्रंप ने भारत पर 25% टैरिफ लगा दिया है, जो 7 अगस्‍त से प्रभावी है और वहीं इस टैरिफ को बढ़ाकर 50 प्रतिशत करने की चेतावनी दे चुके हैं, जिसके पीछे की वजह भारत द्वारा रूसी तेल खरीदना बताया जा रहा है जबकि भारत का रूस सबसे बड़ा दोस्त है जो हमेशा भारत के साथ बड़े भाई की तरह खड़ा रहता है। इधर अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्‍ड टंप ने गीदड़भभकी दिखाते हुए भारत के खिलाफ सख्‍त रुख अपनाते हुए कहा कि जब तक टैरिफ को लेकर मसला नहीं सुलझ जाता है, तब तक कोई बातचीत नहीं होगी जबकि अमेरिका के राष्ट्रपति को ज्ञात है कि भारत में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री है जो अपने देश के हित के आगे अमेरिका क्या दुनिया की किसी ताकत के साथ नहीं झुक सकते है।

 ट्रम्प के टैरिफ़ बढ़ाने की गीदड़भभकी के बाद ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ-साफ कह दिया कि देश के किसानों, पशुपालकों और मछुवारों के हितों के साथ कोई समझौता नहीं होगा। उन्होंने कहा कि व्यक्तिगत रूप से मुझे बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी, लेकिन मैं इसके लिए तैयार हूं।प्रधानमंत्री का यह बयान अमेरिका को और चुभ गया और ट्रम्प को समझ में आ गया कि भारत को झुकाना अब सरल नहीं है। प्रधानमंत्री के इस बयान के बाद देश के किसान, पशुपालक और मछुवारा व्यवसाय से जुड़े लोग काफ़ी खुश है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यों और हिम्मत की सराहना कर रहे है।

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप यह चाहते हैं कि भारत अमेरिकी कृषि उत्‍पाद और डेयरी प्रोडक्‍ट्स पर टैरिफ कम करे ताकि भारत जैसे बड़े बाजार में अमेरिका के इन उत्पादों को बेचा जा सके लेकिन भारत इन क्षेत्रों को देश में ज्‍यादा प्राथमिकता देता है. अगर भारत इन क्षेत्रों को अमेरिका के लिए खोलता है तो भारत के किसानों की आय पर असर होगा जिसे लेकर भारत कभी भी समझौता नहीं करना चाहेगा जबकि अमेरिका कृषि और दुग्ध उत्पादों के लिए शत प्रतिशत टैरिफ़ कम करने की मांग कर रहा है। इसके अलावा अमेरिका यह भी चाहता है कि भारत रूसी तेल का आयात कम करे और अमेरिका से ज्‍यादा तेल का आयात करे जबकि भारत को अमेरिका की तुलना में सस्‍ता तेल रूस से मिल रहा है तो अमेरिका से भारत तेल क्यों ख़रीदे।

भारत जैसे बड़े बाजार में अमेरिका के मुंह खाने के बाद अमेरिका के दादागिरी पर ग्रहण लगने की आशंका बन रही है क्योंकि अमेरिकी डॉलर दुनिया भर में इस्‍तेमाल की जाने वाली करेंसी है। वर्ष 1944 से ही अमेरिकी डॉलर का इस्‍तेमाल सभी देश व्‍यापार के लिए कर रहे हैं। दुनिया भर के सेंट्रल बैंक अपने यहां डॉलर का रिजर्व रखते हैं। करीब 90 फीसदी विदेशी मुद्रा लेन-देन डॉलर में ही होती है लेकिन ब्रिक्‍स देशों ने इस पर निर्भरता कम करने के लिए कदम उठाये जिसे लेकर ट्रंप बौखलाए हुए हैं क्‍योंकि ब्रिक्स संगठन के देश मिलकर वर्ल्‍ड इकोनॉमी में कुल 35 प्रतिशत का योगदान देते हैं। ऐसे में अगर इन देशों ने अमेरिका और डॉलर का विरोध किया तो अमेरिका के सुपर पॉवर बने रहने का स्थिति छिन सकती है। साथ ही डॉलर वर्ल्‍ड करेंसी से हट भी सकता है और अमेरिकी दादागिरी में ग्रहण लग सकता है।

  भारत और रूस के तेल व्यापार की बात की जाये तो भारत रूस से 2022 से तेल का आयात बढ़ाया है। भारत अभी रूस से हर दिन 1.7 से 2.2 मिलियन बैरल तक का रूसी तेल आयात करता है। भारत रूसी तेल का करीब 37 फीसदी हिस्‍सा आयात कर रहा है। वहीं सबसे ज्‍यादा चीन रूस से  तेल खरीद रहा है। साल 2024 में भारत ने रूस से 4.1 लाख करोड़ रुपये का कच्‍चा तेल आयात किया है। जो अमेरिका को पच नहीं रहा है और अपनी दादागिरी के दम पर अपने देश के कृषि और दुग्ध उत्पाद को भारत जैसे बड़े बाजार में बिना टैरिफ़ के बेचने के लिए बेताब है और भारत द्वारा अमेरिका की बात न मामने पर 50 प्रतिशत टैरिफ़ बढ़ाने की बात कहीं जा रही है। जबकि अमेरिका के इस फैसले से भारत के विरोध में रहने वाला चीन भी अमेरिका के इस कदम को गलत बताया है। अब अमेरिका के लिए एक चिंता और हो रही है कि भारत,रूस और चीन जैसे महाशक्ति यदि एक हो जाएगी तो अमेरिका की दादागिरी भी खतरे में पड़ सकती है। अमेरिका के इस मनमानी टैरिफ़ पर न चीन बल्कि विश्व के कई देशों ने सही नहीं करार दिया है। भारत द्वारा रूस से तेल खरीदने का विरोध तो अमेरिका का बहाना है, अमेरिका का मुख्य दर्द भारत जैसे बड़े बाजार में अमेरिका के कृषि और दुग्ध उत्पाद को बेचने का मौका न मिलना प्रमुख है। 

 अमेरिका चाहता है कि उसके कृषि और दुग्ध उत्पाद जैसे दूध, पनीर, घी आदि को भारत में आयात की अनुमति मिले। अमेरिका का तर्क  हैं कि उनका दूध स्वच्छ और गुणवत्ता वाला है और भारतीय बाजार में सस्ता भी पड़ सकता है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है और इस क्षेत्र में करोड़ों छोटे किसान लगे हुए हैं। भारत सरकार को डर है कि अगर अमेरिकी दुग्ध उत्पाद भारत में आएंगे तो वे स्थानीय किसानों को भारी नुकसान पहुंचा सकते हैं। भारत में ज्यादातर लोग शुद्ध शाकाहारी दूध उत्पाद चाहते हैं जबकि अमेरिका में कुछ दुग्ध उत्पादों में जानवरों की हड्डियों से बने एंजाइम का इस्तेमाल होता है।

इसके साथ ही अमेरिका चाहता है कि गेहूं, चावल, सोयाबीन, मक्का और फलों जैसे सेब, अंगूर आदि को भारत के बाजार में कम टैक्स पर बेचा जा सके और भारत अपनी इम्पोर्ट ड्यूटी को कम करे। इसके अलावा, अमेरिका जैव-प्रौद्योगिकी फसलों को भी भारत में बेचने की कोशिश करता रहा है लेकिन भारत की सरकार और किसान संगठन इसका कड़ा विरोध करते हैं। इसको लेकर खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि देश के किसानों, पशुपालकों और मछुवारों के हितों के साथ समझौता नहीं हो सकता है। प्रधानमंत्री के इस बयान से अमेरिका समेत पूरे विश्व ने भारत के रुख को समझ लिया और सभी ने मान लिया कि भारत अमेरिका के आगे झुकने वाला देश नहीं है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रहित सर्वोपरि है, इसके लिए जो भी कीमत चुकानी पड़े उसके लिए वह तैयार रहते है।  इसलिए इस समय पुरे देश के पक्ष और विपक्ष दलों के नेताओं, किसानों, पत्रकारों, बुद्धजीवियों और आम लोगो को अमेरिका के इस कड़े कदम का विरोध करते हुए सरकार के साथ खड़े होने की जरूरत है।

संतोष कुमार तिवारी

आखिर कितना उपयोगी साबित होगा ओपन बुक असेसमेंट ?

सुनील कुमार महला

आज हम इक्कीसवीं सदी में सांस ले रहे हैं और इस सदी की आवश्यकताओं के मद्देनजर हमारे देश में नई शिक्षा नीति-2025 भी लागू की गई है, जो कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 का ही एक उन्नत रूप या संस्करण है, लेकिन इसमें भारतीय शिक्षा प्रणाली को अधिक समावेशी, लचीला और कौशल आधारित(स्किल बेस्ड) बनाने पर जोर दिया गया है।नई शिक्षा नीति (एनईपी) 2025 की प्रमुख विशेषताओं की यदि हम यहां पर बात करें तो इसमें क्रमशः संरचनात्मक बदलाव(5+3+3+4 मॉडल) किया गया है। वहीं पर दूसरी ओर इसमें कक्षा 5 तक की शिक्षा मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में दिए जाने, व्यावसायिक व कौशल शिक्षा(आलोचनात्मक सोच, रचनात्मकता, संचार और सहयोग जैसे कौशल), बहु-विषयक शिक्षा जैसे कि विज्ञान, कला, वाणिज्य के पारंपरिक सीमाओं से हटकर, छात्र अपने रुचि के अनुसार विषय चुनना (उदाहरण के तौर पर गणित के साथ संगीत, भौतिकी के साथ इतिहास आदि), परीक्षा और मूल्यांकन प्रणाली में सुधार, डिजिटल और तकनीकी शिक्षा, उच्च शिक्षा में सुधार (विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता, अधिक अनुसंधान और वैश्विक सहयोग का अवसर प्रदान करना), तथा समावेशी और समरस शिक्षा को भी शामिल किया गया है।इसी क्रम में हाल ही में, सीबीएसई ने एक साहसिक निर्णय लिया है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार अगले शैक्षणिक सत्र 2026-27 से कक्षा 9 के विद्यार्थियों को ‘ओपन बुक असेसमेंट’ (ओबीए) के तहत प्रमुख विषयों में खुली किताब लेकर परीक्षा देने की अनुमति होगी। दूसरे शब्दों में कहें तो साल में दो बार परीक्षा के साथ-साथ अब 9वीं की परीक्षा को ओपन बुक कर दिया गया है।राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा के अनुसार, ओपन बुक असेसमेंट वह परीक्षा है जिसमें छात्र प्रश्नों के उत्तर देते समय पाठ्यपुस्तक, कक्षा नोट्स, पुस्तकालय की पुस्तकें जैसी संदर्भ सामग्री का उपयोग कर सकते हैं। वास्तव में सीबीएसई इस पहल का मुख्य उद्देश्य छात्रों में रटने की प्रवृत्ति को कम करना(टू रिड्यूस टेंडेंसी आफ क्रेमिंग इन स्टूडेंट्स) और योग्यता-आधारित शिक्षा को बढ़ावा देना है। दरअसल, इस संबंध में बोर्ड का यह मानना है कि इससे बच्चों में परीक्षा के प्रति तनाव घटेगा, छात्रों की वैचारिक समझ मजबूत होगी और ज्ञान का व्यावहारिक उपयोग बढ़ेगा। यहां पाठकों को बताता चलूं कि यह प्रस्ताव दिसंबर 2023 में स्वीकृत एक पायलट प्रोजेक्ट के बाद आया है, जिसमें कक्षा 9 से 12 तक ओपन-बुक परीक्षाओं का परीक्षण किया गया था, जिसमें छात्रों का प्रदर्शन 12 प्रतिशत से 47 प्रतिशत के बीच रहा। वास्तव में यह संसाधनों के प्रभावी उपयोग और विषय अवधारणाओं को समझने में चुनौतियों का संकेत देता है। गौरतलब है कि सीबीएसई का यह ओपन-बुक असेसमेंट फॉर्मेट भाषा, गणित, विज्ञान और सामाजिक विज्ञान जैसे मुख्य विषयों को कवर करेगा। एग्जाम के दौरान छात्र टेक्‍स्‍ट बुक, क्‍लास नोट्स और अन्‍य स्‍वीकृत रिसोर्सेज का संदर्भ ले सकते हैं। सीबीएसई ने कहा है कि ये स्कूलों पर निर्भर करता है कि  इस फॉर्मेट को अपनाना है नहीं, ये बिल्कुल ऑप्शन होगा।असेसमेंट हर शैक्षणिक सत्र में होने वाली तीन पेन-पेपर टेस्‍ट का हिस्सा होगा।इस संबंध में सीबीएसई ने बताया है कि ये परीक्षा दूसरी बार वाली परीक्षा स्टूडेंट्स के लिए ऑप्शनल होगी। दूसरे चरण की परीक्षाएं विशेष रूप से सुधार के लिए होंगी। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि सीबीएसई के इस फैसले के दूरगामी प्रभावों पर शिक्षा जगत में एक गंभीर बहस छिड़ गई है। सवाल यह उठता है कि क्या सीबीएसई यह प्रयोग वास्तव में हमारे बच्चों को सशक्त बनाएगा या उन्हें आत्मनिर्भरता और स्मरण शक्ति से दूर ले जाएगा ? हाल फिलहाल, सीबीएसई का यह मानना है कि यह बदलाव छात्रों के मानसिक दबाव को कम करेगा, खासकर उन विषयों में जहां तथ्यों की मात्रा या संख्या अधिक है। सीबीएसई के इस बदलाव से छात्रों में समस्या समाधान कौशल विकसित हो सकेगा। बोर्ड का यह दावा है कि सैंपल पेपर और प्रशिक्षण सत्रों के माध्यम से छात्रों को संदर्भ सामग्री का सही उपयोग सिखाया जाएगा। साथ ही, स्कूलों को इस पद्धति को लागू करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा, हालांकि इसे अनिवार्य नहीं किया गया है, जैसा कि इस संदर्भ में ऊपर जानकारी दी जा चुकी है।हाल फिलहाल,देखा जाए तो इस पद्धति के खतरे भी कुछ कम नहीं हैं। इससे आत्मनिर्भरता में कमी आएगी। कहना ग़लत नहीं होगा कि नौवीं कक्षा वह आधारभूत स्तर है, जहां छात्रों को विषयों की गहराई में जाने, तथ्यों को याद रखने और तर्कशक्ति विकसित करने की आदत डाली जानी चाहिए। यह नई व्यवस्था बोर्ड परीक्षा की तैयारी पर अवश्य ही असर डालेगी, जैसा कि कक्षा 10 की बोर्ड परीक्षा में यह सुविधा उपलब्ध नहीं होगी। कहना ग़लत नहीं होगा कि सीबीएसई के कक्षा नौवीं में इस बदलाव से छात्र ‘ओपन बुक असेसमेंट'(ओबीए) के आदी हो जाएंगे और अगली कक्षा यानी कि बोर्ड की दसवीं की परीक्षा में कहीं न कहीं कठिनाइयों को महसूस करेंगे। शिक्षा की गुणवत्ता पर भी इससे व्यापक असर पड़ेगा। परिणामस्वरूप, बोर्ड परीक्षाओं का औसत परिणाम गिर सकता है, जो सीधे देश की शिक्षा गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव डालेगा। यहां पाठकों को बताता चलूं कि अमेरिका और यूरोप के कुछ हिस्सों में ओपन बुक परीक्षा पद्धति पहले से प्रचलित है, लेकिन वहां यह केवल उच्च शिक्षा स्तर (कॉलेज और यूनिवर्सिटी) में ही लागू होती है, जहां छात्र परिपक्व, शोधोन्मुख और विश्लेषणात्मक सोच में दक्ष होते हैं। नीदरलैंड की ज्यादातर यूनिवर्सिटीज, सिंगापुर और हांगकांग के कई संस्थान, और कनाडा के कुछ राज्यों में हाईस्कूल स्तर तक यह सिस्टम अपनाया जाता रहा है।कहना ग़लत नहीं होगा कि स्कूली स्तर पर, खासकर 14-15 साल के किशोरों में, यह पद्धति(ओबीए) अनुशासन और स्मरण शक्ति के विकास में बाधा डाल सकती है। यह ठीक है कि आज भारत में स्कूली स्तर पर बच्चों में रटने की प्रवृत्ति कहीं अधिक है लेकिन इस प्रवृत्ति को कम करने के लिए समझ पर ध्यान केंद्रित करना, विभिन्न शिक्षण विधियों का उपयोग करना, और एक संरचित अध्ययन कार्यक्रम बनाना बहुत महत्वपूर्ण है। यदि वास्तव में सीबीएसई का उद्देश्य रटने की प्रवृत्ति को कम करना है, तो इसे धीरे-धीरे और वैकल्पिक रूप में लागू किया जाना चाहिए। अमेरिका और यूरोप की भांति इसे देश में पहले उच्च कक्षाओं में प्रयोगात्मक तौर पर शुरू किया जाए।कक्षा 9 में ओबीए के बजाय प्रोजेक्ट-आधारित मूल्यांकन, केस स्टडी और मौखिक परीक्षा जैसे तरीकों को बढ़ावा दिया जा सकता है।सच तो यह है कि व्यावहारिक गतिविधियाँ, समस्या-समाधान अभ्यास, और इंटरैक्टिव शिक्षण अनुभव, 9 वीं कक्षा के छात्रों के उपयोगी और महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं। वास्तव में, आज जरूरत इस बात की है कि हम छात्रों में संदर्भ सामग्री का सही इस्तेमाल सिखाने के साथ-साथ बिना किताब के उत्तर देने की क्षमताएं भी विकसित करें। सच तो यह है कि छात्र-छात्राएं मानसिक रूप से सशक्त होने चाहिए। शिक्षा की गुणवत्ता और स्तर को बनाए रखने के लिए संतुलित, चरणबद्ध और परीक्षण-आधारित दृष्टिकोण को अपनाया जाना बहुत ही महत्वपूर्ण और आवश्यक है। बहरहाल, पाठकों को यहां बताता चलूं कि परीक्षा प्रणाली में ऐसा नवाचार सीबीएसई ने पहली बार नहीं किया है। करीब आठ-दस साल पहले भी ओपन टेक्स्ट बेस्ड असेसमेंट (ओटीबीए) भी कमोबेश इसी तरह का था, जिसमें नौवीं व ग्यारहवीं कक्षा के कुछ विषयों में विद्यार्थियों को संदर्भ सामग्री चार माह पहले ही दे दी जाती थी। लेकिन, दो-तीन साल बाद ही इसे हटा दिया गया था। ओपन बुक असेसमेंट का नुक़सान यह है कि बिना तैयारी के किताब साथ होने का कोई फायदा नहीं है। साथ ही, किताब से जवाब ढूंढना और फिर समझकर लिखना काफी समय ले सकता है। इतना ही नहीं, अलग-अलग छात्रों की भाषा और प्रस्तुति अलग होगी, जिससे मार्किंग में भी चुनौती आ सकती है। वास्तव में, ओपन बुक परीक्षा को एक के बाद आगे की दूसरी कक्षा में साल-दर-साल लागू किया जाना चाहिए। होना तो यह भी चाहिए कि भले ही शिक्षा प्रणाली में कोई भी प्रकार की व्यवस्थाएं की जाएं, लेकिन उनको लागू करने से पहले उस प्रणाली के गुण-दोषों के बारे में भली प्रकार आकलन करके ही उन्हें लागू किया जाना चाहिए।देश की शिक्षा के नीति नियंताओं को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि ओपन बुक एसेसमेंट का नवाचार पुराने कई प्रयोगों की तरह फाइलों में बंद होकर नहीं रह जाए। सीबीएसई ही नहीं, राज्यों के शैक्षिक मंडलों के भी कई प्रयोग विफल हुए हैं। कभी पांचवी आठवीं में परीक्षा बोर्ड बन जाता है, तो कभी हट जाता है। ऐसी चिंता व विफलता की आशंका नए मॉडल में न रहे, यह सुनिश्चित करना होगा। 

सुनील कुमार महला

मिठाई के नाम पर जहर – हिसार में नकली मावा कांड से सबक

रक्षा बंधन जैसे पवित्र त्यौहार के तुरंत बाद हरियाणा के हिसार शहर से आई एक चौंकाने वाली खबर ने लोगों को झकझोर कर रख दिया। सीएम फ्लाइंग टीम, स्वास्थ्य विभाग और पुलिस की संयुक्त कार्रवाई में एक ऐसे गिरोह का भंडाफोड़ हुआ, जो मिठाई की दुकानों पर नकली और गला-सड़ा मावा सप्लाई कर रहा था। दो अलग-अलग स्थानों पर छापेमारी कर 8.55 क्विंटल सड़ा हुआ मावा बरामद किया गया, जो गंदगी के बीच भंडारित था।

त्यौहारों पर मिठाई का सेवन भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है, खासकर रक्षा बंधन पर लगभग हर घर में मिष्ठान जरूर बनता या खरीदा जाता है। लेकिन, इसी भावनात्मक जुड़ाव का फायदा उठाते हुए कुछ लोग न केवल मुनाफाखोरी कर रहे हैं, बल्कि सीधे लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ भी कर रहे हैं। जांच में सामने आया कि यह गिरोह मात्र ₹130 प्रति किलो के भाव से मावा शहर की नामी-गिरामी दुकानों तक पहुंचा रहा था, जबकि वही मावा उपभोक्ताओं को ₹500 किलो तक के भाव में बेचा जा रहा था। इस तरह उपभोक्ता न केवल लुट रहे थे, बल्कि ज़हर को मिठाई के रूप में खा भी रहे थे।

इस नकली व सिंथेटिक मावे का असर स्वास्थ्य पर कितना घातक हो सकता है, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि शहर के अस्पतालों में पेट और पाचन से संबंधित रोगियों की लंबी कतारें लगनी शुरू हो गई हैं। डॉक्टरों के अनुसार, ऐसे मिलावटी मावे में हानिकारक रसायन, सड़ा दूध और कृत्रिम रंग होते हैं, जो फूड प्वॉइजनिंग, अल्सर, लीवर व किडनी की गंभीर बीमारियों का कारण बन सकते हैं। कई मामलों में यह स्थिति जानलेवा भी साबित हो सकती है।

चिंता की बात यह है कि यह कोई पहली या आखिरी घटना नहीं है। यह गोरखधंधा कितने समय से चल रहा था, इसकी कोई ठोस जानकारी नहीं है। सवाल यह भी है कि जिन मिठाई विक्रेताओं ने सस्ते भाव में यह मावा खरीदा, क्या उन्हें इसकी असलियत का अंदाजा नहीं था? क्या उन्हें नहीं पता था कि इतनी कम कीमत में मिलने वाला मावा असली नहीं हो सकता? यदि उन्हें मालूम था, तो यह और भी गंभीर अपराध है, क्योंकि उन्होंने  जानबूझ कर  उपभोक्ताओं को मौत परोसी।

इस पूरे मामले में दोषी केवल नकली मावा बनाने वाले ही नहीं, बल्कि वे व्यापारी भी हैं, जिन्होंने मुनाफे के लालच में बिना गुणवत्ता जांच किए इसे बेचा। उपभोक्ता के भरोसे और स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करना किसी भी सूरत में माफ नहीं किया जा सकता।

प्रशासन की इस कार्रवाई की सराहना की जानी चाहिए, लेकिन यह भी सच है कि ऐसे मामलों पर अंकुश लगाने के लिए केवल छापेमारी ही काफी नहीं है। आवश्यक है कि—

नकली और मिलावटी खाद्य पदार्थों के मामलों में दोषियों को सख्त से सख्त सजा दी जाए।

खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता जांच के लिए नियमित निरीक्षण हों।

दुकानों पर बिकने वाले मावे व मिठाई के नमूनों की लैब टेस्ट रिपोर्ट सार्वजनिक की जाए।

उपभोक्ताओं में जागरूकता फैलाई जाए ताकि वे सस्ते और संदिग्ध उत्पाद खरीदने से बचें।

त्यौहार खुशियों का प्रतीक होते हैं, न कि अस्पतालों की लंबी कतारों का कारण। इसलिए ज़रूरी है कि समाज, प्रशासन और व्यापारी—सभी मिलकर यह सुनिश्चित करें कि मिठास के नाम पर किसी की जिंदगी से खिलवाड़ न हो। हिसार का यह मामला एक चेतावनी है कि यदि समय रहते सख्ती नहीं बरती गई, तो नकली खाद्य पदार्थों का यह जाल हमारे घरों तक पहुंचकर स्वास्थ्य को चौपट कर देगा।

मिठाई का स्वाद तभी तक मीठा है, जब तक वह सुरक्षित है; वरना यह मीठा ज़हर हमारे जीवन की सबसे बड़ी कड़वाहट बन सकता है।

– सुरेश गोयल धूप वाला