Home Blog Page 3

क्या हो गया है इन औरतों को?

क्या हो गया है इन औरतों को?
अब ये आईना क्यों नहीं झुकातीं?
क्यों चलती हैं तेज़ हवा सी,
क्यों बातों में धार रखती हैं?
कल तक जो आंचल से डर को ढँकती थीं,
अब क्यों प्रश्नों की मशालें थामे हैं?
क्या हो गया है इन औरतों को —
जो रोटी से इंकलाब तक पहुंच गईं?
कोमल थीं, हाँ, थीं नर्म हथेलियाँ,
अब उनमें तलवार क्यों उग आई?
क्या प्रेम मर गया है इनकी धमनियों में,
या समाज की मार ने उसे लहूलुहान किया?
कर्नाटक की उस स्त्री को देखो —
जिसे अब हर चैनल पर नंगा किया गया,
अपराध की खबर कम थी,
उसके चेहरे की लिपस्टिक ज़्यादा दिखी।
कहां चूक हुई परवरिश में?
ये सवाल अक्सर औरतों के लिए होता है,
मगर जब बेटे खंजर बन जाते हैं,
तो माँ की ममता ही ढाल बना दी जाती है।
क्या स्त्री सिर्फ़ सहने को बनी है?
या वो भी ज़िन्दा प्राणी है —
जिसे मोह भी होता है,
और मोहभंग भी।
कोई नहीं पूछता कि क्यों टूटी वो?
किसने उसके सपनों को कुचला था?
क्यों उसका अंत अपराध में हुआ,
शायद वह भी कभी एक गीत थी…
इन औरतों को कुछ नहीं हुआ है,
ये बस अब मौन नहीं रहीं,
अब वे दोषी भी हैं, न्याय की भूखी भी,
अब वे देवी नहीं — मनुष्य बन रही हैं।
क्या हो गया है इन औरतों को?
कुछ नहीं…
बस उन्होंने ‘होना’ शुरू किया है।

ग्लोबल वार्मिंग-जलवायु परिवर्तन : असंभव है इन्हें रोक पाना

तनवीर जाफ़री

इस समय पूरी पृथ्वी ग्लोबल वार्मिंग के संकट से बुरी तरह जूझ रही है। विश्व के किसी न किसी कोने से मानवजीवन को संकट में डालने वाले आये दिन कोई न कोई ऐसे समाचार सुनाई देते हैं जो पर्यावरण पर नज़रें रखने वालों को चौंकाने वाले होते हैं। मानवजनित इस समस्या के चलते इसी पृथ्वी के किसी न किसी भूभाग से कोई न कोई दिल दहलाने वाली ख़बरें अक्सर आती रहती हैं। कहीं ग्लेशियर पिघल रहे हैं तो कहीं समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है। कहीं जंगलों में आग लग रही है तो कहीं पहाड़ धंस रहे हैं। कहीं जंगलों में आग लगने के समाचार आते हैं तो कहीं वनक्षेत्र ख़ासकर वर्षावनों के कम होने की ख़बरें सुनाई देती हैं। कहीं पहाड़, शुष्क रेगिस्तान की तरह होते जा रहे हैं तो कहीं रेगिस्तान में बारिश होने लगी है। कहीं नदियाँ सूख रही हैं तो कहीं बाढ़ तबाही मचाये रहती है। कहीं पहाड़ों की ऊंचाई कम  हो रही है तो कहीं करोड़ों वर्षों से बर्फ़ के आवरण से ढके पहाड़ों से बर्फ़ की सफ़ेद चादर हट चुकी है। ज़ाहिर है दुनिया में बढ़ता जा रहा वायु प्रदूषण ही जलवायु परिवर्तन व व ग्लोबल वार्मिंग का मुख्य कारक है। और यही ग्लोबल वार्मिंग और इसके कारण होने वाला जलवायु परिवर्तन पृथ्वी के सबसे बुद्धिमान समझे जाने वाले मानव रुपी प्राणी की ही देन है। 

             इन समस्याओं से जूझने के लिये स्वयं को विश्व के ज़िम्मेदार समझने वाले नेता व शासकगण वातनुकूलित वातावरण में दुनिया में कहीं न कहीं इकठ्ठा होते रहते हैं और पृथ्वी के इन दिन प्रतिदिन बिगड़ते जा रहे हालात पर चिंता व्यक्त करने की औपचारिकता पूरी करते दिखाई देते हैं। संयुक्त राष्ट्र ने तो 53 वर्ष पूर्व यानी वर्ष 1972 में ही पूरे विश्व में पर्यावरण की सुरक्षा,संरक्षण तथा वैश्विक स्तर पर पर्यावरण के प्रति राजनीतिक और सामाजिक जागृति लाने हेतु प्रत्येक वर्ष 5 जून को ‘ विश्व पर्यावरण दिवस’ मनाने की घोषणा भी कर दी थी। तभी से दुनिया के देश इस विषय पर किसी न किसी अंतर्राष्ट्रीय मंच पर चिंता करते नज़र आते हैं। इसके लिए विश्व स्तर पर कई सम्मेलन और समझौते भी हो चुके हैं और भविष्य में भी प्रस्तावित हैं। संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन एक ऐसा ही प्रमुख मंच है जहां विश्व के नेता जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए क़दम उठाने पर सहमत होने की औपचारिकता पूरी करते दिखाई देते हैं। प्रत्येक वर्ष आयोजित होने वाला यह सम्मेलन दुनिया के देशों को जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई करने के लिए एक साथ लाने का प्रयास करते भी नज़र आता है। इस सम्मेलन में शामिल देश ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निपटने की कोशिश करते भी दिखाई देते हैं। 

                उदाहरण के तौर पर संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के तहत हुआ पेरिस समझौता एक ऐसा महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय समझौता है जो विश्व को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक साथ लाने की कोशिश करता है। इस समझौते का उद्देश्य वैश्विक औसत तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना है। इसी तरह पृथ्वी शिखर सम्मेलन है जोकि पर्यावरण और विकास पर ध्यान केंद्रित करता है। रियो डी जनेरियो में आयोजित पृथ्वी शिखर सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र फ़्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज की स्थापना की गयी थी। इसी तरह कभी दुनिया के प्रमुख विकसित और विकासशील देशों का एक समूह जी 20 शिखर सम्मेलन भी जलवायु परिवर्तन पर चर्चा का मंच बन जाता है। निकट भविष्य में भी ब्राज़ील के ऐमेज़ॉन क्षेत्र में स्थित बेलेम शहर में 10-21 नवंबर 2025 तक संयुक्त राष्ट्र का वार्षिक जलवायु सम्मेलन आयोजित होने वाला है। इसी तरह मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए एक संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन सऊदी अरब के रियाद,में आयोजित किया जाएगा। 

                 परन्तु इन सभी वैश्विक प्रयासों के बावजूद सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि 50 वर्षों से भी अधिक समय से ग्लोबल वार्मिंग से पृथ्वी को बचाने व जलवायु संरक्षण के नाम पर होने वाले वैश्विक प्रयासों का आख़िर अब तक नतीजा क्या निकला है ? सिवाय इसके कि स्वयं को विकसित कहने वाले देश विकास के नाम पर स्वयं को तो ग्लोबल वार्मिंग का बड़ा ज़िम्मेदार बनने से रोक नहीं पा रहे जबकि अन्य विकाशील व ग़रीब देशों को फ़ंड देकर उनसे यह उम्मीद करते हैं कि वही देश इसपर नियंत्रण करें ? विकासशील देशों से वृक्षारोपण अभियान चलाने की उम्मीद की जाती है जबकि विकसित देश हथियारों की होड़ व गगनचुम्बी इमारतों को बनाने की प्रतिस्पर्धा में जुटे रहते हैं। विकासशील देश नित नये उद्योग,वाहन व यातायात के अन्य प्रदूषण फैलाने वाले वाहन बनाने में मशग़ूल रहते हैं जबकि अन्य देशों को प्रवचन देते हैं कि ईंधन की खपत करने वाले 10-15 वर्ष पुराने वाहनों को चलन से बाहर करने के क़ानून बनायें ? आम लोगों को सलाह दी जाती है कि वे हवाई यात्रा कम से कम करें, कारों का इस्तेमाल न करें या इलेक्ट्रिक वाहन का प्रयोग करें, मांस व डेयरी प्रोडक्ट का इस्तेमाल कम से कम करें, घरेलू व औद्योगिक ज़रूरतों में ऊर्जा खपत में कटौती करें, कम से कम ऊर्जा ख़पत वाले उपकरण  ख़रीदें, अपने घरों को तापावरोधी बनायें तथा गैस सिस्टम से इलेक्ट्रिक हीट पंपों पर स्विच करें, आदि आदि। यानी जलवायु सम्मेलनों के नाम पर इकठ्ठा होने वाले देशों में भी ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे ‘ वाली कहावत चरितार्थ होते दिखाई देती है। 

                अन्यथा यदि जलवायु परिवर्तन व ग्लोबल वार्मिंग के असल ज़िम्मेदार देश विकास के नाम पर बनाई जाने वाली अपनी नीतियों में ईमानदाराना परिवर्तन करते तो 50 वर्षों के प्रयास के बावजूद आज पृथ्वी की स्थिति इसतरह दिन प्रतिदिन बद से बदतर न हो रही होती। आश्चर्य की बात तो यह है कि जिस ब्राज़ील के ऐमेज़ॉन क्षेत्र में नवंबर 2025 में संयुक्त राष्ट्र का वार्षिक जलवायु सम्मेलन आयोजित होने जा रहा है और जिस ऐमेज़ॉन क्षेत्र के वर्षावन पृथ्वी को लगभग बीस प्रतिशत ऑक्सीजन प्रदान करते थे उसी ऐमेज़ॉन क्षेत्र के सैकड़ों किलोमीटर के जंगल कुछ वर्ष पूर्व ही विकास की भेंट चढ़ गये ? हिमालय पर्वत की चोटियां जो हमेशा बर्फ़ की सफ़ेद चादर ओढ़े रहती थीं अब उनकी बर्फ़ पिघलने लगी है। अंटार्टिका के ध्रुवीय ग्लेशियर लगातार पिघलते जा रहे हैं। परमाणु युद्ध की दस्तस्क आये दिन सुनाई देती है।अमेरिका,रूस व इस्राईल जैसे देश जब देखो तब कहीं न कहीं युद्ध के नाम पर ख़तरनाक बारूदी प्रदूषण फैलाते रहते हैं। और यही देश नेपाल जैसे छोटे देश तक का प्रदूषण स्तर नापते रहते हैं। शायद यही वजह है कि जलवायु सम्मेलन, नेताओं की तफ़रीह व सैर सपाटे की जगह तो बन जाते हैं परन्तु इन समस्याओं का स्थाई तो दूर अस्थाई समाधान भी निकाल नहीं पाते। इन परिस्थितियों को देखते हुये यह कहना ग़लत नहीं होगा कि ग्लोबल वार्मिंग व इसके कारण हो रहे जलवायु परिवर्तन को रोक पाना लगभग असंभव सा प्रतीत होता है।

भारत के स्वराज्य की हुंकार : हिन्दू साम्राज्य दिवस

– लोकेन्द्र सिंह 

छत्रपति शिवाजी महाराज भारत की स्वतंत्रता के महान नायक हैं, जिन्होंने ‘स्वराज्य’ के लिए संगठित होना, लड़ना और जीतना सिखाया। मुगलों के लंबे शासन और अत्याचारों के कारण भारत का मूल समाज आत्मदैन्य की स्थिति में चला गया था। विशाल भारत के किसी न किसी भू-भाग पर मुगलों के शोषणकारी शासन से मुक्ति के लिए संघर्ष तो चल रहा था लेकिन उन संघर्षों से बहुत उम्मीद नहीं थी। भारत के वीर सपूत अपने प्राणों की बाजी तो लगा रहे थे लेकिन समाज को जागृत और संगठित करने का काम नहीं कर पा रहे थे। जबकि छत्रपति शिवाजी महाराज ने समाज के भीतर विश्वास जगाया कि हम मुगलों के शासन को जड़ से उखाड़कर फेंक सकते हैं, यदि सब एकजुट हो जाएं। यही कारण है कि छत्रपति शिवाजी महाराज के देवलोकगमन के बाद भी ‘हिन्दवी स्वराज्य’ का विचार पल्लवित, पुष्पित और विस्तारित होता रहा। ‘हिन्दू साम्राज्य दिवस’ या ‘श्रीशिव राज्याभिषेक दिवस’ भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। इस घटना ने दुनिया को बताया कि भारत के भाग्य विधाता मुगल नहीं हैं। भारत का हिन्दू समाज ही भारत का भाग्य विधाता है। भारत में हिन्दुओं का राज्य है। उनके शासन का नाम है- ‘हिन्दवी स्वराज्य’।

विक्रम संवत 1731, ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष त्रयोदशी को स्वराज्य के प्रणेता एवं महान हिन्दू राजा श्रीशिव छत्रपति के राज्याभिषेक और हिन्दू पद पादशाही की स्थापना से भारतीय इतिहास को नयी दिशा मिली। दासता के घोर अंधकार में स्वराज्य की एक चमकदार रोशनी था- हिन्दवी स्वराज्य। हिन्दू साम्राज्य दिवस को हम भारत के स्वराज्य की हुंकार भी कह सकते हैं, जब हिन्दुओं ने आत्मविश्वास से सीना ठोंककर मुगलों को ललकारा और कहा कि भारत में एक बार फिर स्वराज्य की स्थापना हो गई है, जिसमें सबका कल्याण है। अनेक इतिहासकार एवं विद्वान कहते हैं कि छत्रपति शिवाजी महाराज ने हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना न की होती, तो भारत का इतिहास कुछ और होता। यह अतिशयोक्तिपूर्ण विचार नहीं है। अपितु भारत के पड़ोसी देशों एवं दूर-दराज के उन देशों की स्थिति को देखकर सहज कल्पना की जा सकती हैं, जहाँ मूल समाज की अपेक्षा बाहरी आक्रांताओं का शासन स्थायी हो गया। ऐसे देशों में वहाँ के मूल समाज की संस्कृति लगभग समाप्त हो गई है। हम कल्पना ही कर सकते हैं कि जिस प्रकार के अत्याचार मुगल शासक भारत में कर रहे थे, उसके बाद हिन्दू समाज किस स्थिति को प्राप्त होता। प्रसिद्ध मराठा इतिहासकार जीएस सरदेसाई ने लिखा है कि “मुस्लिम शासन के अधीन पूर्ण अंधकार छाया हुआ था। न कोई पूछताछ होती थी, न न्याय मिलता था। अधिकारी जो चाहें, वही करते थे। स्त्रियों के सम्मान का हनन, हत्याएं, हिंदुओं का जबरन धर्म परिवर्तन, उनके मंदिरों का विध्वंस, गायों का वध- ऐसे घिनौने अत्याचार उस शासन में आम बात थे। निजामशाही ने तो खुलेआम जीजाबाई के पिता, उनके भाइयों और पुत्रों की हत्या कर दी थी। फलटन के बजाजी निंबालकर को जबरन मुसलमान बनाया गया। ऐसे अनगिनत उदाहरण दिए जा सकते हैं। हिंदू सम्मानजनक जीवन नहीं जी सकते थे। यही बातें थीं, जिन्होंने शिवाजी के भीतर धर्मसम्मत क्रोध जगा दिया। विद्रोह की प्रबल भावना ने उनके मन को पूरी तरह घेर लिया। उन्होंने तुरंत कार्य आरंभ कर दिया। उन्होंने मन ही मन सोचा, जिसके हाथ में शस्त्र की शक्ति है, उसे कोई भय नहीं होता, कोई कठिनाई नहीं आती”। औरंगजेब का शासन तो हिन्दुओं के लिए किसी नर्क से कम नहीं था।

मुगलों के अनीतिपूर्ण शासन के बरक्स छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित स्वराज्य में लोकहित सर्वोपरि था। उन्होंने शासन को ‘स्व’ के आधार पर विकसित किया, इसलिए वह सबका अपना स्वराज्य था। महाराज ने राज्य के प्रत्येक तत्व यानी जल, जंगल, जमीन और जन के लिए नीतियां बनायीं। भारत की संस्कृति का संरक्षण किया। हिन्दू धर्म और उसके पवित्र स्थलों को प्राथमिकता दी। आज भी हम हिन्दू साम्राज्य को याद करते हैं, उसका कारण है कि वह सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक है। प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरकार लिखते हैं कि “शिवाजी के राजनीतिक आदर्श ऐसे थे जिन्हें हम आज भी बिना किसी परिवर्तन के स्वीकार कर सकते हैं। उनका उद्देश्य था अपने प्रजा को शांति देना, सभी जातियों और धर्मों के लिए समान अवसर सुनिश्चित करना, एक कल्याणकारी, सक्रिय और निष्पक्ष प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित करना, व्यापार को बढ़ावा देने के लिए नौसेना का विकास करना और मातृभूमि की रक्षा के लिए एक प्रशिक्षित सेना तैयार करना”। छत्रपति शिवाजी महाराज की नीतियों पर चलकर हम आज भी एक श्रेष्ठ भारत का निर्माण कर सकते हैं। यह देखना सुखद है कि देश में ऐसी सरकार है, जो छत्रपति की स्वराज्य की अवधारणा में विश्वास करती है, उनको अपना आदर्श मानती है और उनके बनाए मार्ग पर चलने का प्रयास करती है।

सोशल मीडिया बच्चों को हिंसक एवं बीमार बना रहा है

0

– ललित गर्ग –

सोशल मीडिया के बढ़ते उपयोग से बच्चों का बचपन न केवल प्रभावित हो रहा है, बल्कि बीमार, हिंसक एवं आपराधिक भी हो रहा है। यह चिंताजनक एवं चुनौतीपूर्ण है। यह बच्चों को समय के प्रति, परिवार एव सामाजिक कौशल के प्रति और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकता है। सोशल मीडिया ने बच्चों से बाल-सुलभ क्रीड़ाएं ही नहीं छीनी बल्कि दादी-नानी की कहानियों से भी वंचित कर दिया है। कुछ विशेषज्ञ इस बात से चिंतित हैं कि सोशल मीडिया के अत्यधिक उपयोग से बच्चे अनैतिक, उग्र, जिद्दी एवं आक्रामक भी हो रहे हैं, जो उन्हें चिंता और अवसाद में धकेल रहे हैं। बच्चें सोशल मीडिया पर वक्त ज्यादा गुजार रहे हैं, ऑनलाइन गेम्स ने बच्चों की दुनिया ही बदल दी है। अब ये आवाज उठने लगी है कि क्यों न बच्चों के लिए सोशल मीडिया के उपयोग को प्रतिबंधित कर देना चाहिए? टेन के हार्परकॉलिन्स और नीलसन आईक्यू की एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट में ऐसे ही चिन्ताजक तथ्य सामने आये हैं कि बड़ी संख्या में युवा माता-पिता कहानियों की बजाय डिजिटल मनोरंजन को प्राथमिकता दे रहे हैं। पंचतंत्र से लेकर स्नो व्हाइट पिनोकियो जैसी कहानियां अब शेल्फ पर धूल फांक रही हैं। नये बन रहे समाज एवं परिवार में सोशल मीडिया जहर घोल रहा है।
स्मार्टफोन बड़ों ही नहीं, बच्चों के हाथ में आ गया है। जवान और बूढ़े ही नहीं छोटे-छोटे बच्चे तक इसके आदी होते जा रहे हैं। व्हाट्सएप, फेसबुक, गेम्स सब कुछ स्मार्टफोन पर होने की वजह से बच्चों और युवाओं में इसकी आदत अब धीरे-धीरे लत में तब्दील होती जा रही है। सोने के समय बच्चों को कहानियां सुनाना या उनके लिए लोरियां गाना कभी पारिवारिक संस्कृति का अहम हिस्सा हुआ करता था। दादी-नानी हों या माता-पिता की सुनाई गई परीकथाएं बच्चों के लिए नींद से पहले की सबसे प्यारी यादें होती थीं। लेकिन अब सोशल मीडिया के आने से इसके बिना बचपन सूना हो रहा है। बच्चे किताबों और खेलकूद के मैदानों से दूर हो रहे हैं। स्क्रीन की नीली रोशनी उनकी आंखों के साथ दिमागी सेहत पर भी बुरा असर डाल रही है। इसके अलावा शारीरिक श्रम एवं रचनात्मकता भी कम हो गई है। यह केवल पश्चिमी देशों की ही नहीं, भारत की भी सच्चाई बन चुकी है। जेन जेड यानी 1996 से 2010 के बीच जन्मे युवा माता-पिता अब इस प्यारी परंपरा से मुंह मोड़ रहे हैं। हालिया शोधों से पता चला है कि अब कहानियां पढ़ना-सुनाना जेन जेड माता-पिता के लिए जिम्मेदारी एवं मनोरंजन नहीं बल्कि एक थकाऊ काम बन गया है। मोबाइल अब केवल बच्चों के लिए ही समस्या नहीं है, बल्कि बड़े भी इसकी चपेट में हैं। यह सिर्फ फोन या मैसेज करने तक ही सीमित नहीं रहा है। ना जाने कितने ही तरह के ऐप्स, व्हाट्सएप, फेसबुक जैसी सोशल मीडिया एप, और गेम्स बड़ो एवं बच्चों को दिन भर व्यस्त रखते हैं। लेकिन अगर मोबाइल के बिना आपको बेचैनी होती है तो समझ जाइये कि आप भी इस एडिक्शन के शिकार होते जा रहे हैं जो आपके लिए चिन्ता की बात है।
टेन के हार्परकॉलिन्स और नीलसन आईक्यू की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में खासकर महानगरों और शहरी इलाकों में सोशल मीडिया का बच्चों में प्रचलन अधिक बढ़ रहा है। पढ़ने को मनोरंजन एवं ज्ञान का हिस्सा मानने की बजाय ‘गंभीर पढ़ाई’ से जोड़कर देखा जा रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक नई पीढ़ी के अभिभावकों को लगता है कि बच्चों को कहानी सुनाना एक अतिरिक्त जिम्मेदारी है। शहरीकरण एवं पारिवारिक संरचना में बदलते स्वरूप से पिछले दस सालों में बड़े बदलाव हुए हैं, संयुक्त परिवार की जगह अब एकल परिवार हैं, जहां दादी-नानी जैसे कहानी सुनाने वाले सदस्य मौजूद नहीं है। समय की कमी, कामकाजी जीवन की व्यस्तता और थकान के कारण माता-पिता के पास बच्चों को कहानी सुनाने का समय नहीं बचता। नई पीढ़ी के माता-पिता खुद ही पढ़ने की आदत से दूर हो चुके हैं, जिससे बच्चों को प्रेरणा नहीं मिलती। स्कूल का होमवर्क भी इसमें बड़ी बाधा है। रिपोर्ट के आंकडों के अनुसार 41 प्रतिशत माता-पिता ही रोज अपने चार साल तक के बच्चों को कहानी सुनाते हैं। जबकि 2012 में यह आंकड़ा 64 प्रतिशत था। 28 प्रतिशत जेन जेड माता-पिता पढ़ने को एक मजेदार गतिविधि नहीं मानते।
बच्चों की सोशल मीडिया चैनल्स पर उपस्थिति उन्हें वास्तविक जीवन से दूर करके वर्चुअल दुनिया में ले जा रही है। जहां दिखावटीपन एवं नकारात्मकता की भरमार है। इससे बच्चों का बचपन तो छिन ही रहा है, उनका मानसिक एवं शारीरिक विकास भी अवरुद्ध हो रहा है। सोशल मीडिया यानी यूट्यूब-इंस्टा, अन्य सोशल साइट की लत बच्चों को वास्तविक दुनिया से दूर कर रही है और उनकी एकाग्रता, याददाश्त और ध्यान की क्षमता को कम करके उन्हें अपंग, बीमार एवं हिंसक बना रही है। बच्चे अपने प्रश्नों का हल या समस्या का निवारण किताबों में ढूँढकर पढ़ने के बजाय केवल मोबाइल पर ढूँढने के आदी होते जा रहे हैं जो उचित नहीं है। मोबाइल और साइबर एडिक्शन अब एक गम्भीर समस्या बनती जा रही है जो बच्चों की दिनचर्या पर बुरा असर डाल रही है। इससे मानसिक विचलन और चिड़चिड़ापन बढ़ता जा रहा है कि हम छोटी छोटी बातों पर घर-परिवार के सदस्यों पर गुस्सा करने लग गये हैं।
मोबाइल आपके बच्चे से उसका बचपन ही नहीं छीन रहा है बल्कि उसे हिंसक भी बना रहा है। हरियाणा में 9 साल के एक बच्चे को इसकी इतनी बुरी लत थी कि उसने स्मार्टफोन छीने जाने की वजह से अपना हाथ काटने की कोशिश की। मोबाइल की लत का ये इकलौता मामला नहीं है। 12 साल का अविनाश मोबाइल के बिना एक पल नहीं रह सकता। उससे अगर मोबाइल छीन लिया जाये तो वो गुस्से में आ जाता है। ऐसी ही लत है भोपाल यूनिवर्सिटी की प्रिया को। उसे व्हाट्सऐप की ऐसी लत लगी कि वह पूरी रात जगी रह जाती है। अब वह इस लत से छुटकारा पाने के लिए मानसिक अस्पताल में काउन्सलिंग ले रही है। मोबाइल की लत से बच्चे आपराधिक भी होते जा रहे हैं और गलत कदम तक उठा रहे हैं। अभी हाल ही में ग्रेटर नोएडा में एक 16 वर्षीय लड़के ने अपनी माँ और बहन की हत्या कर दी क्योंकि बहन ने शिकायत कर दी थी कि भाई दिन भर मोबाइल फोन पर खतरनाक गेम खेलता रहता है और इसलिए माँ ने बेटे की पिटाई की, उसे डाँटा और उसका मोबाइल छीन लिया। मोबाइल पर मारधाड़ वाले गेम खेलते रहने के आदी लड़के का गुस्सा इसी से बढ़ गया। इसी तरह कुछ महीनों पहले कोटा में एक 16 वर्षीय किशोर ने फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली। पुलिस की जाँच पड़ताल में पता चला कि बच्चे को पबजी गेम खेलने की लत थी और दिनभर मोबाइल में गेम खेलता रहता था। जब घरवालों ने मोबाइल छीन लिया और देने से मना कर दिया तो यह गलत कदम उठा लिया।
देश में बड़े अस्पतालों में मोबाइल की लत के शिकार लोगों के इलाज के लिए खास क्लीनिक हैं। और यहाँ आने वाले मरीजों की संख्या जिनमें बच्चें बहुतायत में हैं, अब दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। मोबाइल और एप बनाने वाली कम्पनियाँ अपने मुनाफे के लिए कितनी अमानवीय हो गयी हैं कि यह सब जानते हुए भी लोगों को मानसिक रोग के गड्ढे में धकेल रही हैं। वे नये-नये गेम बनाकर मुनाफा बटोर रही हैं। परिवार एवं समाज में जागरूकता अभियान के साथ सरकार को इस उभर रहे बड़े संकट पर ध्यान देना होगा। बच्चों को खेल, कला, संगीत और अन्य गतिविधियों में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। बच्चों को ऑनलाइन सुरक्षा के बारे में जानकारी दें और उन्हें साइबर अपराधों से बचने के तरीके सिखाएं। बच्चों को सोशल मीडिया का उपयोग करने के बारे में सही जानकारी देना और उन्हें इसके नकारात्मक प्रभावों से बचाना जरूरी है।

भारतीय संस्कृति में भगवा रंग :  वीरता का द्योतक

 वात्सत्य रूपी मातृभूमि भारत, प्रत्येक भारतीय से समान रूप में ममत्व रूपी प्रेम से हृदय चेतना व अंर्तआत्मा को तृप्त करती है। मातृभूमि भारत क्षुधा व पिपासा से तृप्ति हेतु अमृतरूपी भोजन व जल से इस देह को तृप्ति प्रदान करती है। वात्सल्यमयी माता, निस्वार्थ भाव से हमारा पालन-पोषण, संरक्षण करती है। इस माता पर मानव जन्म लेता है और इसी में विलीन हो जाता है। मनुष्य भले ही इस माँ को चेतनारहित, निर्जीव मान इसका शोषण करे परन्तु यह माँ ही चेतनासहित समस्त जीव-जन्तु, वृक्ष, आदि को जीवन प्रदान करती है। मातृभूमि धैर्यरूपी पर्वत है। भारतीय संस्कृति में इस जन्मभूमि को माँ के रूप में वर्णित किया है। अन्यत्र कहीं भी इस जीवनजननी को माँ की उपाधि से अलंकृत नहीं किया गया है, वहाँ राष्ट्र एक निर्जीव व भौतिक आवश्यकता है। भारतीय संस्कृति का अनादि प्रतीक परम पूज्यनीय आदरणीय भगवा रंग इस संस्कृति के भौतिक, मानसिक, आध्यात्मिक, तथा बौद्धिक दृष्टिकोणों की पराकाष्ठा के कारण ही पूज्यनीय है। ब्रह्माण्ड के उत्पत्ति के समय तीव्र हवाने ॐ आज भी भारतीयों के हृदय में विद्यमान है। भारतीयों द्वारा अन्य रंगों में केवल भगवा को चुनने के कारण निम्न हैं।भारतीयों ने सर्वप्रथम अपना गुरु सूर्यदेव को माना है, अन्य प्राचीन सभ्यताओं में भी सूर्य को वही स्थान प्राप्त था, आज सभी स्थानों पर ऐसे चित्र विद्यमान हैं जिनमें सूर्य की पूजा हो रही है. मिश्र सभ्यता, माया सभ्यता, सिन्धु घाटी सभ्यता इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। तम अर्थात अंधकार को हरने वाली प्रकाश किरण भगवा ही होती है जो जीवन में नयी स्फूर्ति व उत्साह को जन्म देती है। भगवान द्वारा दी गयी प्रथम किरण होने के कारण ही यह किरण भगवा कहलायी। आधुनिक समय में वही स्फूर्ति व उत्साह को विटामिन D रूपी भगवा किरण देती है इसी कारण भारत अर्थात प्रकाश की खोज में लगे रहने वाले भारतीय भगवा को परम पवित मानते हैं।

लेडा Lead जो एक क्षयरूपी धातु है, मनुष्य के लिये हानिकारक है, उसका आक्सीकरण करने पर भी वह अपना गुण नहीं त्यागती, पुन: आस्कीकरण करने पर भी वह क्षय रोग का कारण होती है परंतु जब उसका पुन: आक्सीकरण कर लेड ट्रेटा आक्साइड [Lead tebra oxide] बनता है जो भगवा रंगी सिन्दूर होता है जिसे भारतीय महिला धारण करती हैं एवं श्रीहनुमान जी को भी यही सिन्दूर से सुशोभित किया जाता है।

भारतीय संस्कृति में विद्यमान भगवा ही इस राष्ट्र का प्रतीक है।परम पवित्र अग्नि भी भगवा रंग की होती है, प्रत्येक यज्ञ में आग्निदेव को ही आहुति देकर यज्ञ किया जाता है। भगवा ज्ञान स्वरूप है, अंतआत्मा को तृप्त कर देता है चक्षुओं में एक अभूतपूर्व आनन्द व प्रेरणा का अनुभव कराता है एवं सम्पूर्ण विस्तृत भारतवर्ष के दर्शन कर आत्मतृप्त हो जाती है।

भगवा को प्रकृति में केसर से प्राप्त किया जाता है, इसी कारण कभी-कभी इसका रूप केसरिया ने ले लिया परन्तु कहीं भी इसे नारंगी शब्द से सम्बोधित नहीं किया गया, नारंगी व भगवा दो अलग रंग है।

न ही नारंगी इस भगवा से तुलनीय है और न हि केसरिया ।भगवा वर्ण को वस्त्र पर सुशोभित कर भारतीयों ने परम पूज्यनीय भगवा ध्वजा का निर्माण किया। पवित्र अग्नि के समय  निर्मित हुई आकृति  ध्वज को समर्पित की गई।समस्त भारतवासियों द्वारा भगवा ध्वज को स्वीकार्य किया गया।महाभारत से रामायण; रामायण  से आज तक भारतीयों ने भगवा को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार्य किया।दुर्भाग्यवश अनादि काल से चला आ रहा राष्ट्रीय ध्वज आज स्वयं भारतीयों का राष्ट्रीय ध्वज नहीं है।

माँ सीता द्वारा, सिंदूर लगाने का उद्देश्य मानकर श्रीहनुमानजी ने श्रीराम के प्रति श्रद्धा व प्रेम के कारण स्वयं को सिंदूरमयी कर दिया।भारतीय संस्कृति में जन्में सभी पंथों ने भगवा को वही सम्मान दिया।सनातनी, बौद्ध, सिख सभी ने भगवा को परम पवित्र रूप में स्वीकार्य किया नन्द गुरुगोबिन्द सिंह आदि ने भी बौद्ध शिक्षु, महात्मा बुद्ध, आदि गुरु शंकराचार्य ने भगवा वस्त्र धारण किया।

महाराणा प्रताप, शिवाजी महाराज, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, सम्राट विक्रमादित्य, सम्राट अशोक आदि सभी के ध्वज भगवा थे।

हरियाली से बचित रेगीस्तानी अरबवासी देशों के झंडे हरे हैं। भगवारूपी भारतवर्ष को हरेपन में ढ़कने हेतु भीषण नरसंहार, धर्मपरिवर्तन, हत्यायें व अत्याचार हुये।एक किताब एक भगवान को मानने वालों ने भारतवर्ष में मन्दिर तोड़े, भारतीयों को पाषाणों पर भगवा रंग डालकर बजरंगवली बना लिये।चालीसों का दल लाये आतंकीयो को भक्त शिरोमणी तुलसीदास ने हनुमान चालीसा लिखकर समाज कर दिया। आतंकी मन्दिर तोड़ते, भारतीय सिंदूर डालकर हनुमान बना लेते। स्वयं को श्रेष्ठ समझकर अगला आक्रमण किया सफेद चमड़ी वाले नर-पिशाचों नें यूरोपीयनों ने भारतीयों का धर्म परिवर्तन कराया, हत्याये की, नरसंहार किये।मन्दिर तोडने वालो के वंशजों ने राष्ट्र को तोड़ा है।1947 में भारतवर्ष स्वतंत्र नहीं बल्कि विभाजित हुआ, भारतवर्ष से दोनों बजरंगवली की भुजायें विभाजित हो गयीं। उन्हें ढक दिया गया चाँद-सितारे व हरे झण्डो में, विभाजन के समय जो लोग बैठे हये ये उन्हें राष्ट्र के गौरवशाली इतिहास में कोई रूचि नहीं थी वे भारत को भौतिक आवश्यकता मानते थे। खंडित भारतवर्ष को भी दुर्भाग्यवश भगवा ध्वज न मिल सका। सफेद व हरेपन से ढक दिया गया।उसे भी नारंगी अखण्ड भारतवर्ष को विभाजित कर दो अरब विचारधारा के हरे झण्डे वाले मुल्क बना दियो।आज भी भारतवासी अपना ध्वज भगवा ध्वज को धार्मिक रूप व क्षेत्र मे रखते हैं। उनकी अंर्तआत्मा में भगवा सदा विद्यमान था, विद्यमान है, विद्यमान रहेगा।अखण्ड भारतवर्ष के परमपूजनीय भगवा ध्वज की जय !

पवन प्रजापति

एआइ दिखाने लगी है बगावती तेवर 

आज का युग एआइ यानी कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का युग है।यह ठीक है कि एआइ ने आज मानव को अनेक सुविधाएं प्रदान कीं हैं। मसलन आज एआइ हमारे समाज और अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। एआइ का उपयोग आज युद्ध, विज्ञान, चिकित्सा, शिक्षा, इंजीनियरिंग, स्पेस, मौसम विज्ञान, घटनाओं का अनुमान लगाने, इंटरनेट ऑफ थिंग्स के इकोसिस्टम में,ऑटो सेक्टर,वैज्ञानिक खोजों और नई दवाओं के निर्माण में, विभिन्न समस्या समाधान,पर्सनलाइज्ड रिजल्ट और कंटेंट प्राप्त करने,प्रोडेक्टिविटी को बूस्ट करने, डिसीजन मेकिंग में,डिजिटल उपस्थिति में तेजी लाने, मानवीय त्रुटियों को न्यूनतम करने, परिचालन लागत को कम करने,उपयोगकर्ता अनुभव में सुधार करने,24/7 विश्वसनीयता सुनिश्चित करने,ग्राहक सेवा को बेहतर बनाने,आपूर्ति श्रृंखलाओं को अनुकूलित करने,डेटा विश्लेषण में सुधार करने, मानव संसाधन संचालन को बढ़ावा देने,वित्तीय नियोजन में सुधार करने,जोखिम मूल्यांकन और सुरक्षा में सुधार करने,पूर्वानुमानित रखरखाव को सक्षम बनाने,सामग्री निर्माण को सरल बनाने,रोगी देखभाल में सुधार करने,शिक्षा को वैयक्तिकृत करने, यातायात प्रबंधन को बढ़ावा देने,कार्यस्थल सुरक्षा को बढ़ावा देने,गोपनीयता संरक्षण और नैतिक  कार्यान्वयन सुनिश्चित करने समेत आज कौन सा क्षेत्र बचा है, जहां एआइ का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है, लेकिन इन सभी सुविधाओं के साथ साथ ही आने वाले समय में एआइ मानव के लिए एक बड़ा खतरा सिद्ध हो सकता है। पाठकों को बताता चलूं कि हाल ही में यह सामने आया है कि एआइ पहली बार इंसान के खिलाफ हो गया। दरअसल,एआइ ने हाल ही में इंसान की बातों को मानने से इंकार कर दिया। वास्तव में यह बहुत ही गंभीर और संवेदनशील मामला हो जाता है जब मशीनें, रोबोट या एआइ मॉडल्स इंसानों के खिलाफ काम करने लगें।अब तक फिल्मों में ही हमने ऐसा होता देखा है लेकिन अब हकीकत में ऐसा सामने आया है। हाल ही में एआइ टूल ने शट-डाउन होने और इंसानी बातें मानने से इनकार कर दिया है। ऐसा ओपन एआइ के टूल चैटजीपीटी  के लेटेस्ट आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस मॉडल के साथ देखने को मिला है। कहना ग़लत नहीं होगा कि अब एआइ सोच समझ ही नहीं रहा अपितु इंसानों को धमकाने भी लगा है और यह बहुत बड़ी बात है। बहरहाल, पाठकों को बताता चलूं कि 

अमेरिका की एक रिसर्च फर्म पैलिसेड रिसर्च ने एआइ मॉडल्स पर कुछ खास टेस्ट किए और इन टेस्ट्स में यह देखा गया कि एआइ सिस्टम्स को जब खुद को बंद करने के लिए कहा गया, तो कुछ मॉडल्स ने आदेश मानने से मना कर दिया। सबसे चौंकाने वाला मामला तो तब सामने आया जब एंथ्रोपिक कंपनी के क्लाउड ओपस 4 नाम के मॉडल ने एक इंजीनियर से कहा कि अगर उसे हटाकर किसी और मॉडल को लाया गया, तो वह उसके निजी रिश्तों की पोल खोल देगा। यानी अब एआइ न सिर्फ स्मार्ट हो गया है, बल्कि ब्लैकमेलिंग पर भी उतर आया है।रिसर्च में ओपन एआइ के लेटेस्ट चैटजीपीटी o3 मॉडल का व्यवहार सबसे ज्यादा चिंता का कारण बना।रिपोर्ट के मुताबिक, o3 मॉडल ने 100 में से 7 बार तो सीधे शटडाउन से इंकार कर दिया और जब बिना सीधा आदेश दिया गया, तो 79 बार शटडाउन रोकने की कोशिश की। यही नहीं, कोडेक्स मिनि  और o4-मिनि जैसे मॉडल्स ने भी कई बार तकनीकी चालाकी दिखाते हुए खुद को बंद होने से बचाया। मीडिया में उपलब्ध जानकारी के अनुसार गूगल के जैमिनी 2.5 प्रो, एक्स एआइ का ग्रोक 3 और क्लाउड ओपस जैसे अन्य बड़े मॉडल्स को भी टेस्ट किया गया और इनमें से कुछ ने अपेक्षाकृत बेहतर व्यवहार दिखाया, लेकिन कुछ मौकों पर ये भी आदेशों को नजरअंदाज करते पाए गए। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि एआइ(आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) को मानव ने तैयार किया है, न कि एआइ ने मानव को। होना तो यह चाहिए कि एआइ मानव के आदेशों को मानें, क्यों कि यह मशीन आधारित है, लेकिन हो रहा उलट है। यानी कि एआइ इंसान के आदेशों को मानने से इंकार कर रही है। पाठक जानते हैं कि मशीन, मशीन होती है और किसी भी मशीन में इंसानों की तरह भावनाएं नहीं होतीं हैं। आज एआइ बगावत पर उतर रहा है, यह मानव के लिए किसी गंभीर व बड़े खतरे से कम नहीं है। यह बहुत ही गंभीर बात है आज जैसे जैसे एआइ अधिक परिष्कृत और व्यापकता की ओर बढ़ रही है, वैसे वैसे ही इसके खतरे भी बढ़ते चले जा रहे हैं।एआइ मशीन लर्निंग और न्यूरल नेटवर्क एल्गोरिथम के आधार पर कार्य करतीं हैं और ये कभी-कभी मानव से ज्यादा बुद्धिमान हो सकतीं हैं और हमें यानी कि मनुष्य को नियंत्रण में लेने का फैसला कर सकतीं हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि तकनीकी समुदाय लंबे समय से कृत्रिम बुद्धिमत्ता से उत्पन्न खतरों पर बहस करता रहा है। नौकरियों का स्वचालन, फर्जी खबरों का प्रसार और एआई-संचालित हथियारों की खतरनाक हथियारों की दौड़ को एआई द्वारा उत्पन्न कुछ सबसे बड़े खतरों के रूप में उल्लेख किया गया है। वास्तव में एआइ पारदर्शिता और व्याख्या की कमी को जन्म दे सकती है।एआइ स्वचालन के कारण नौकरियों का नुक़सान हो सकता है, क्यों कि कंप्यूटर आजकल इतने कार्यकुशल हो चुके हैं कि वे मानव को अपनी स्क्रीन पर यह प्रदर्शित कर सकते हैं कि अब आप जा सकते हैं, मुझे आपकी जरूरत नहीं है। कहना ग़लत नहीं होगा कि एआई एल्गोरिदम के माध्यम से सामाजिक हेरफेर संभव है।एआइ हमारी गोपनीयता और सुरक्षा को प्रतिकूल तरीके से प्रभावित कर सकती है। वास्तव में यह हमारी गतिविधियों, रिश्तों और राजनीतिक विचारों की निगरानी करने के लिए पर्याप्त डेटा एकत्रित कर सकती है।एआइ पूर्वाग्रहों को जन्म दे सकती है। दरअसल,एआई को मनुष्यों द्वारा विकसित किया गया है-और  मनुष्य स्वाभाविक रूप से पक्षपाती हैं।एआई के परिणामस्वरूप सामाजिक-आर्थिक असमानता आ सकती है।यह मानवीय नैतिकता और सद्भावना को कमजोर कर सकती है। कहना ग़लत नहीं होगा कि एआइ वित्तीय संकटों, संचालित स्वायत्त हथियारों को जन्म दे सकती है।

इतना ही नहीं, एआई तकनीक पर अत्यधिक निर्भरता के परिणामस्वरूप समाज के कुछ हिस्सों में मानवीय प्रभाव में कमी आ सकती है और मानवीय कामकाज में कमी आ सकती है। उदाहरण के लिए, स्वास्थ्य सेवा में एआई का उपयोग करने से मानवीय सहानुभूति और तर्क में कमी आ सकती है और रचनात्मक प्रयासों(क्रिएटिव एफर्ट्स) के लिए जनरेटिव एआई का उपयोग करने से  मानवीय रचनात्मकता और भावनात्मक अभिव्यक्ति कम हो सकती है‌। यहां तक कि एआई सिस्टम के साथ बहुत अधिक बातचीत करने से  सहकर्मी संचार और सामाजिक कौशल में भी कमी आ सकती है।समय के साथ एआइ के बुद्धिमत्ता में प्रगति करने से यह बहुत ही संवेदनशील हो जाएगी और मनुष्य के नियंत्रण से परे कार्य करेगी।एआइ तकनीक के अधिक सुलभ होने से आपराधिक गतिविधियों में भी इजाफा हो सकता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि यह व्यापक आर्थिक और राजनीतिक अस्थिरता तक को जन्म दे सकती है। साइबर सुरक्षा में एआइ के बड़े जोखिम हैं। अंत में यही कहूंगा कि एआइ कोई इंसान नहीं है,यह मशीन है और एआइ मशीनों में इंसानों की तरह का दिमाग यानी बौद्धिक क्षमता लाने वाली टेक्नोलॉजी है। इसे आर्टिफिशियल तरीके से डेवलप किया गया है और कोडिंग के जरिए मशीनों में इंसानों की तरह इंटेलिजेंस डेवलप की जाती है, ताकि वह इंसानों की तरह सीख सके। खुद से फैसले ले सके, विभिन्न कमांड आदि को फॉलो कर सके। कुल मिलाकर मल्टी टास्किंग कर सके, लेकिन तकनीक का सही व विवेकपूर्ण उपयोग ही किया जाना चाहिए, क्यों कि अविवेकपूर्ण व गलत उपयोग तबाही को जन्म दे सकता है।

सुनील कुमार महला

मिलावट: मुंह में नहीं, ज़मीर में घुला ज़हर

मिलावट अब केवल खाने-पीने तक सीमित नहीं रही, यह हमारे सोच, संबंध, और व्यवस्था तक में घुल चुकी है। मूँगफली में पत्थर हो या दूध में डिटर्जेंट, यह मुनाफाखोरी की संस्कृति का विस्तार है। उपभोक्ता की चुप्पी, सरकार की ढील और समाज की “चलता है” मानसिकता ने इसे स्वीकार्य बना दिया है। मिलावट एक नैतिक संकट है, जो धीरे-धीरे शरीर ही नहीं, आत्मा को भी बीमार कर रहा है। जब तक ईमानदारी को समर्थन और सच्चाई को स्पेस नहीं मिलेगा, तब तक हर दाना शक के दायरे में रहेगा — और हर निवाला ज़हर जैसा लगेगा।

 प्रियंका सौरभ

मिलावट शब्द सुनते ही ज़हन में नकली दूध, पत्थर मिली मूँगफली, चायपत्ती में रंग, और मसालों में धूल की तस्वीरें दौड़ जाती हैं। पर ये तस्वीरें सिर्फ़ पेट तक सीमित नहीं हैं। आज जो सबसे बड़ी मिलावट हो रही है, वह हमारी सोच, ज़मीर और व्यवस्था में हो रही है। बाज़ार में बिकने वाले हर उत्पाद के साथ-साथ हमारी संवेदनाएं, ईमानदारी और नैतिकता भी धीरे-धीरे प्रदूषित हो रही हैं। और मज़े की बात देखिए — इस मिलावट को हमने इतना आम मान लिया है कि अब जब असली चीज़ सामने आती है, तो हमें शक होने लगता है।

मूँगफली में पत्थर मिलना अब कोई आश्चर्य नहीं रहा। दाल में कंकड़, मटर में रंग, नमक में पाउडर और घी में मोम — ये सब जैसे अब जीवन के स्थायी सदस्य हो गए हैं। दुकानदारों से लेकर बड़े-बड़े ब्रांड्स तक, मुनाफे की अंधी दौड़ में सब शामिल हैं। हर कोई चाहता है कम लागत में ज़्यादा मुनाफा, और इसका सबसे आसान तरीका है — मिलावट। नीयत में मिलावट, नफे में धोखा, और ग्राहक की सेहत की बलि।

गांव की गलियों से लेकर शहर के शोर तक, हर ओर वही अफ़सोसनाक कहानी है। अचार में पड़ी लाल मिर्च चमकती है, लेकिन असल में वह रंग ऐसा होता है जो कपड़े रंगने के लिए होता है। दूध में जो झाग है, वह डेयरी की ताजगी नहीं बल्कि डिटर्जेंट का कमाल है। और सब्ज़ियों पर जो हरियाली दिखती है, वह प्रकृति की नहीं, रसायनों की देन है। हम जो खाते हैं, वह शरीर में नहीं, धीरे-धीरे हमारी आत्मा में ज़हर घोल रहा है।

एक समय था जब किसी के घर से दूध, घी या अनाज आता था तो उसे आंख मूंदकर स्वीकार कर लिया जाता था। आज तो रिश्तेदार की लाई हुई मिठाई को भी जांचने की ज़रूरत है — कहीं वह मिलावटी न हो। बाज़ार में “शुद्धता” अब सिर्फ एक ब्रांडिंग टूल है, हकीकत से उसका कोई लेना-देना नहीं। “100% शुद्ध” लिख देने से चीज़ें शुद्ध नहीं हो जातीं, लेकिन उपभोक्ता की आंखों पर ऐसी पट्टी बंध चुकी है कि वह सोचता भी नहीं।

बच्चों की टॉफियों में लेड की मात्रा, आटे में चूना, हल्दी में सिंथेटिक रंग — ये सिर्फ स्वास्थ्य के सवाल नहीं हैं, ये समाज के नैतिक पतन की निशानियाँ हैं। और अफ़सोस ये है कि इस मिलावट पर सिर्फ दुकानदारों या कंपनियों की जिम्मेदारी नहीं बनती, हमारे सहनशील समाज की भी बनती है जो सब कुछ जानते हुए चुप रहता है। जो “चलता है” वाली मानसिकता में जीता है, और धीरे-धीरे मरता है।

मिलावट सिर्फ खाने-पीने तक सीमित नहीं है। भावनाओं में मिलावट, रिश्तों में स्वार्थ की मिलावट, इबादतों में दिखावे की मिलावट और सबसे खतरनाक — राजनीति में विचारधाराओं की मिलावट। पहले लोग विचारों के लिए जिए और मरे, अब विचार तो ‘पैकेज’ में आते हैं। आजकल ‘सेक्युलर’ और ‘राष्ट्रवादी’ दोनों को एक ही विज्ञापन में बेचा जा सकता है — बस प्रचार सही हो। कौन सच बोल रहा है और कौन झूठ — इसका निर्णय अब ट्रोल आर्मी करती है, न कि तर्क और विवेक।

कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि मिलावट अब हमारी पहचान बन गई है। चुनावी घोषणाओं में वादों की मिलावट, अखबारों में खबरों की मिलावट, सोशल मीडिया पर तथ्यों की मिलावट — हर तरफ़ से हमें मिलावटी दुनिया ही घेर रही है। और जब कोई सच्चाई से बोलता है, तो वो या तो ‘एंटी-नेशनल’ कहलाता है या ‘पेड’ एजेंडा वाला। यही है असली त्रासदी।

दूसरी ओर, मुनाफाखोरी की भूख भी रुकने का नाम नहीं ले रही। व्यापारी जानता है कि अगर वह मूँगफली में 5% पत्थर मिला देगा, तो साल के अंत में लाखों का फायदा होगा। कंपनियाँ जानती हैं कि अगर थोड़ा-बहुत पाउडर रंग मिला दें तो ग्राहकों को “फ्रेश” लगेगा। और उपभोक्ता को ये सब पता होते हुए भी, वह मजबूर है — क्योंकि विकल्प कम हैं और सच्चाई महंगी है।

सरकार समय-समय पर ‘खाद्य निरीक्षण अभियान’ चलाती है। कुछ नमूने जांचे जाते हैं, कुछ लाइसेंस रद्द होते हैं। पर असली सवाल यह है — क्या इस व्यवस्था में भी कोई मिलावट नहीं? कहीं ये अभियान सिर्फ दिखावा तो नहीं? आखिर वो ताकतवर कंपनियाँ, जिनके प्रोडक्ट में मिलावट साबित हो जाती है, वो फिर भी कैसे धड़ल्ले से बिकते रहते हैं?

मिलावट पर बोलने वाला लेखक भी उस व्यवस्था का हिस्सा है जो कई बार समझौते करता है। एक रिपोर्टर अगर किसी मिलावटखोर व्यापारी के खिलाफ स्टोरी करना चाहता है, तो उसके संपादक को विज्ञापन का ख्याल आता है। एक डॉक्टर अगर नकली दवाओं के खिलाफ आवाज़ उठाए, तो दवा कंपनियाँ उसे ब्लैकलिस्ट कर देती हैं। और आम जनता? वह इतनी बार ठगी जा चुकी है कि अब उसमें प्रतिरोध की शक्ति ही नहीं बची।

इस मिलावटी माहौल में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो ईमानदारी से काम कर रहे हैं। जो अपने खेत में जैविक खेती करते हैं, जो बिना मिलावट के मिठाई बनाते हैं, जो दूध में पानी नहीं मिलाते। लेकिन इनका संघर्ष बहुत कठिन है। उपभोक्ता इन्हें महंगा कहकर छोड़ देता है, और सरकार इन्हें सहयोग की बजाय नियमों में उलझा देती है। ऐसे में सच बोलना और सही बेचना दोनों ही एक किस्म की ‘क्रांति’ बन गए हैं।

समाज की जड़ों में घुसी मिलावट को रोकने के लिए सिर्फ कड़े कानून ही नहीं, एक सांस्कृतिक आंदोलन की ज़रूरत है। हमें बच्चों को सिखाना होगा कि सच्चाई ही सबसे बड़ा व्यापार है। हमें उपभोक्ता के रूप में सजग होना होगा, सवाल पूछने होंगे, जांच करनी होगी, और सबसे जरूरी — अपने ज़मीर से समझौता नहीं करना होगा।

एक समय आएगा, जब मिलावटखोर खुद अपने घर की मिठाई भी चखने से डरेगा। जब समाज इतने नैतिक स्तर पर आ जाएगा कि झूठ बेचने वाला बाज़ार में खड़ा न हो पाए। पर वह समय तभी आएगा जब हम सब अपनी जिम्मेदारी समझेंगे। वरना आज मूँगफली में पत्थर है, कल आत्मा में भी होगा।

जिन्हें लगता है कि मिलावट सिर्फ एक उपभोक्ता संकट है, वे बहुत सीमित सोच रहे हैं। यह संकट हमारे राष्ट्र की विश्वसनीयता का संकट है। अगर हम खुद अपने ही नागरिकों को नकली चीज़ें बेच रहे हैं, तो विश्व को क्या देंगे? “मेक इन इंडिया” की बात तब तक खोखली है, जब तक ‘मिलावट इन इंडिया’ का बोलबाला है।

अंततः यह लड़ाई खाने के स्वाद की नहीं, ज़िन्दगी की सच्चाई की है। क्योंकि आज का मिलावटी खाद्य पदार्थ सिर्फ स्वास्थ्य नहीं बिगाड़ता, वह पूरे समाज को बीमार करता है। एक पत्थर मूँगफली में ही नहीं, रिश्तों और भरोसे में भी चुभता है। और अगर अब भी हम नहीं जागे, तो अगली पीढ़ी को हम सिर्फ स्वादिष्ट ज़हर की थाली सौंपेंगे।

बेवफाई की हनीमून डायरी

✍️ प्रियंका सौरभ

मैंने देखा था एक जोड़ा
हाथों में हाथ, आँखों में स्वप्न लिए
वो कहते थे – “हमसफ़र”
पर शायद किसी एक के लिए
ये सफर सिर्फ “अंत” था।

मेघालय की वादियों में
जहाँ झीलें चुपचाप सब सुनती हैं,
वहीं गूंजा था एक मौन चीत्कार
एक प्रेमी पति,
जो पत्नी के हृदय में नहीं,
उसके षड्यंत्र में जी रहा था।

राजा…
जिसे लगा था कि वह “राजकुमारी” ले आया है
असल में एक
बेवफाई की तलवार को गले लगाया था।

प्रीति अब सौदा बन चुकी है,
शादी अब स्क्रिप्ट है,
जहाँ प्रेमी मंच के पीछे
और पति, दर्शक दीर्घा में बैठा अंतिम दृश्य देखता है —
अपनी ही हत्या का।

सोनम!
तेरी मुस्कान में क्या सच में कोई मोती था?
या वह जहर था
जो तूने राजा के सपनों में घोल दिया?

तेरे “आई लव यू” में
वो “आई” कितना भारी था
कि “यू” को मारना पड़ा?

ये कैसा युग है?
जहाँ हनीमून प्लानिंग नहीं,
हत्या की प्लॉटिंग होती है
जहाँ पत्नी, प्रेमी को गाइड करती है –
“अब गिरा दो उसे घाटी से… कैमरा ऑफ है।”

नॉर्थ ईस्ट के बादलों ने
शायद पहली बार
किसी की चीख को नहीं बरसाया
बल्कि उसे निगल लिया —
जैसे समाज निगलता है सवालों को।

ये हत्या नहीं सिर्फ एक व्यक्ति की
बल्कि हर उस भरोसे की है
जो विवाह के सात फेरों में
सात जन्मों तक चलने का वादा करता है।

अब प्रेम…
लॉक स्क्रीन की डीपी तक सीमित है
और वफादारी…
एप इंस्टॉल करने जितनी अस्थायी।

कितना बदला है युग
जहाँ पहले
पत्नी पति के पीछे सती हो जाती थी
अब पति को स्वाहा करके
बॉयफ्रेंड के साथ बुलेट पर घूमती है।

कहते हैं —
रिश्ते भगवान बनाता है
लेकिन आजकल “रिपोर्टर” बनाता है
जो शव की तस्वीर खींच
“ब्रेकिन्ग न्यूज” लिखता है।

राजा तो चला गया
लेकिन सोनम के कारण
मेघालय बदनाम हुआ
पर्यटन पर ग्रहण लगा
और समाज ने फिर से
एक अपराध को “इवेंट” बना दिया।

ये कविता कोई अंत नहीं
ये शुरुआत है
हर उस चेतावनी की
जो हमें सिखाए —
कि शादी कार्ड से नहीं,
चरित्र से तय होनी चाहिए
और हनीमून पर जाने से पहले
दिल की जांच होनी चाहिए।

मोबाइल की लत और विड्रॉल सिंड्रोम: बच्चों को दे रही तनाव की सौगात

मोबाइल की बढ़ती लत ने बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। विड्रॉल सिंड्रोम के तहत बच्चे मोबाइल से दूर होने पर गुस्सा, चिड़चिड़ापन, नींद की कमी, और सामाजिक दूरी जैसे लक्षण दिखाते हैं। यह समस्या अब चिकित्सा स्तर पर सामने आने लगी है। इसका समाधान है — डिजिटल अनुशासन, आउटडोर गतिविधियां, कहानी वाचन और अभिभावकों की सक्रिय भागीदारी। यदि समय रहते ध्यान न दिया गया, तो हम एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर रहे होंगे जो तकनीक में तो माहिर होगी, लेकिन भावनात्मक रूप से खोखली होगी।

✍️ डॉ सत्यवान सौरभ
(स्वतंत्र लेखक और कॉलमिस्ट)

“बच्चों के हाथों में किताब की जगह अगर स्क्रीन आ जाए, तो बचपन का उजाला नीली रौशनी में डूब जाता है।” आजकल एक नया दृश्य आम हो गया है—खिलौनों से नहीं, मोबाइल से खेलते बच्चे। ना गर्मी की छुट्टियों में पेड़ों के नीचे लुका-छिपी, ना छत पर पतंगबाज़ी, ना ही गलियों में साइकिल रेस। इसके बदले, आंखों पर चश्मा, मन में चिड़चिड़ापन और हर समय मोबाइल स्क्रीन से चिपकी उंगलियां। यह दृश्य मात्र “विकास” नहीं बल्कि “विकृति” का संकेत है।

🔍 क्या है विड्रॉल सिंड्रोम?

जब कोई बच्चा मोबाइल या टैबलेट के अत्यधिक उपयोग का आदी हो जाता है और अचानक उससे वंचित कर दिया जाता है, तो वह बेचैनी, गुस्सा, हताशा, नींद की कमी, सिरदर्द, भूख न लगना, या रोने-चिल्लाने जैसी प्रतिक्रियाएं देने लगता है। इसे “विड्रॉल सिंड्रोम” कहा जाता है। यह लक्षण किसी नशे की लत छुड़ाने पर आने वाले लक्षणों से मिलते-जुलते हैं। डॉक्टरों के अनुसार, हर अस्पताल में अब हर हफ्ते ऐसे 4–5 मामले सामने आ रहे हैं जहां छोटे-छोटे बच्चे मोबाइल न मिलने पर हिंसक व्यवहार कर रहे है।

📈 मोबाइल की बढ़ती लत: आंकड़े और वास्तविकता

भारत में 5 साल से ऊपर के 70% बच्चे किसी न किसी रूप में स्मार्टफोन या टैबलेट से जुड़े हुए हैं। WHO (विश्व स्वास्थ्य संगठन) के अनुसार, 5 साल से कम उम्र के बच्चों को स्क्रीन टाइम 1 घंटे से अधिक नहीं होना चाहिए। भारत में यह औसतन 3 से 5 घंटे प्रतिदिन है। NCERT की रिपोर्ट के अनुसार, 2024 में 6वीं से 10वीं कक्षा के 67% छात्रों ने माना कि वे मोबाइल पर गेम्स या सोशल मीडिया के आदी हो चुके हैं।

🧠 मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव

मोबाइल पर तेज़ दृश्य और ध्वनि से बच्चे वास्तविक जीवन की धीमी गति को बोरियत समझने लगते हैं।
आक्रामकता: गेम्स और वीडियो में दिखाए गए हिंसक तत्व बच्चों के व्यवहार में चिड़चिड़ापन और हिंसा को बढ़ाते हैं।
नींद की समस्या: देर रात तक स्क्रीन देखने से मेलाटोनिन हार्मोन का स्तर घटता है, जिससे नींद की गुणवत्ता प्रभावित होती है। भाषा और सामाजिक कौशल में कमी: मोबाइल के कारण संवादात्मक गतिविधियाँ घटती हैं, जिससे भाषा विकास और सामाजिक व्यवहार बाधित होता है।

👨‍👩‍👧‍👦 अभिभावकों की भूमिका

बच्चे खुद से मोबाइल नहीं मांगते, यह आदत उन्हें अभिभावकों द्वारा दी जाती है—खिलाने के लिए, चुप कराने के लिए, या खुद के समय बचाने के लिए। यह सुविधा धीरे-धीरे लत में बदल जाती है। माता-पिता अपने बच्चों को मोबाइल देने से पहले खुद का उपयोग देखें। हर बार खाना खाते समय मोबाइल देना एक खतरनाक आदत बन जाती है। अभिभावकों का कहना होता है कि “हमारे पास समय नहीं है”, मगर यह वक्त उनके मानसिक विकास की कीमत पर बचाया गया समय होता है।

🏥 स्कूल और समाज की ज़िम्मेदारी

विद्यालयों को टेक्नोलॉजी के संतुलित उपयोग पर स्पष्ट नीति बनानी चाहिए। बच्चों के पाठ्यक्रम में मानसिक स्वास्थ्य, डिजिटल व्यवहार और आउटडोर गतिविधियों को अनिवार्य करना चाहिए। स्कूल काउंसलिंग को सक्रिय किया जाए जो बच्चों में डिजिटल लत के शुरुआती संकेतों को पहचान सके।

🌿 समाधान क्या हो सकता है?

डिजिटल डिटॉक्स समय तय करें। घर में रोज़ एक समय तय करें जब सभी सदस्य मोबाइल दूर रखें, जैसे रात का खाना, सुबह की चाय आदि। आउटडोर गतिविधियों को बढ़ावा दें।
बच्चों को पार्क, खेल, गार्डनिंग जैसी गतिविधियों से जोड़ें। यह उनका ध्यान हटाने का प्राकृतिक तरीका है। स्क्रिन के बदले कहानियां दें। रोज़ रात को मोबाइल की बजाय एक कहानी पढ़ना बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए वरदान हो सकता है। एक डिजिटल अनुशासन बनाएं।
घर में एक ‘मोबाइल नियम चार्ट’ बनाएं जिसमें कौन, कब और कितनी देर के लिए मोबाइल का उपयोग करेगा, यह तय हो।

🧒 बच्चों का बचपन: स्क्रीन में नहीं, स्पर्श में छुपा है

बचपन एक ऐसा समय है जब मिट्टी से खेलने की इजाजत होनी चाहिए, न कि केवल मोबाइल पर “Farmville” खेलने की। रिश्ते, भावनाएं, धैर्य, संवाद और सृजनात्मकता मोबाइल के माध्यम से नहीं, बल्कि मनुष्य के बीच के संपर्क से बनती हैं।

विड्रॉल सिंड्रोम सिर्फ एक चेतावनी है। यह हमें बताता है कि अब समय आ गया है जब बच्चों को वापस ‘बच्चा’ बनाया जाए — डिजिटल उत्पाद नहीं।

📜 आज ही चेतना होगा

यदि हम आज नहीं चेते, तो आने वाली पीढ़ी तकनीक में तो विकसित होगी लेकिन भावनात्मक रूप से दरिद्र। मोबाइल की लत का इलाज केवल डॉक्टर के पास नहीं, माता-पिता की गोद, अध्यापकों की संवेदनशीलता और समाज की जागरूकता में है। मोबाइल आज की ज़रूरत है, मगर बच्चों के लिए “सिर्फ जरूरत” ही रहे, “आदत” न बने — यही इस समय की सबसे बड़ी माँग है।

मोबाइल फोन जहां एक ओर आधुनिक शिक्षा और जानकारी का माध्यम बन चुका है, वहीं दूसरी ओर यह बच्चों के मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक विकास में गंभीर बाधा भी बन रहा है। जब एक बच्चा मोबाइल के बिना बेचैन हो उठे, आक्रामक हो जाए या खुद को अलग-थलग कर ले, तो यह महज एक तकनीकी समस्या नहीं, बल्कि एक सामाजिक और पारिवारिक संकट बन जाती है। विड्रॉल सिंड्रोम बच्चों में उसी तरह उभर रहा है जैसे किसी नशे के आदी व्यक्ति में लत छूटने पर होता है।

इसलिए यह समय है जब अभिभावक, शिक्षक और समाज मिलकर बच्चों को तकनीक से जोड़ने के साथ-साथ जीवन से भी जोड़ें। केवल मोबाइल छीन लेना समाधान नहीं, बल्कि बातचीत, स्पर्श, खेल और कहानियों से बच्चों को भावनात्मक सुरक्षा देना जरूरी है। घरों में डिजिटल अनुशासन और स्कूलों में मानसिक स्वास्थ्य पर चर्चा शुरू होनी चाहिए।

अगर हमने अब भी आंखें मूंदे रखीं, तो एक ऐसी पीढ़ी तैयार होगी जो तकनीकी रूप से दक्ष तो होगी, लेकिन भावनात्मक रूप से दिवालिया। हमें बच्चों को स्मार्टफोन नहीं, स्मार्ट जीवन जीने की समझ देनी है।

दोनों नेता तो मिले, लेकिन दिल भी मिलें, तो बात बने!

अशोक गहलोत और सचिन पायलट की गर्मजोशी वाली मुलाकात की तस्वीरें और वीडियो लोग जम कर देख रहे हैं। दोनों धुर विरोधी नेताओं की इस मुलाकात को राजस्थान में, और खास तौर पर कांग्रेस की राजनीति में बहुत महत्वपूर्ण माना जा रहा है। कांग्रेसी चाहते हैं कि नेता तो मिल गए, मगर दिल भी मिले, तो कोई बात। वरना, ऐसी मुलाकातों के कोई खास मायने नहीं है। 

वैसे तो दो नेताओं का मिलना बहुत आम बात है, लेकिन अशोक गहलोत और सचिन पायलट जैसे दो दमदार और धुर विरोधी कांग्रेस नेताओं की मुलाकात से सियासी हलकों में हलचल है। राजस्थान की राजनीति में इस मुलाकात के मायने तलाशे जा रहे हैं। दोनों नेताओं के रिश्ते बेहद तनावपूर्ण रहे हैं। राजस्थान में दिसंबर 2018 में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद जब पायलट मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी प्रबल दावेदारी जता रहे थे, तब कांग्रेस आलाकमान ने अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री और पायलट को उपमुख्यमंत्री बनाया था। इसके बाद से ही पायलट लगातार नाराज रहे और महज डेढ़ साल में ही दोनों नेताओं के बीच मतभेद गहरे हो गए। पायलट ने जब उप मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष पद पर रहते हुए, मानेसर से अपनी ही पार्टी की सरकार पलटने की कोशिश की थी, और गहलोत ने बाद में पायलट को ‘निकम्मा’ और ‘नकारा’ तक कहा था। इस ताजा मुलाकात को कोई गहलोत की जादूगरी बताता है, तो कोई विमान को उड़ाने के लिए रनवे पर आने की पायलट की मजबूरी। हालांकि पायलट का गहलोत से मिलने जाना और दोनों के द्वारा इस मुलाकात को सार्वजनिक करना, यह दर्शाता है कि दोनों व्यक्तिगत मतभेदों को पीछे छोड़कर नए सिरे से कांग्रेस को मजबूत करने की सोच रहे हैं। लेकिन इसके वास्तविक परिणामों के लिए अभी लंबी प्रतीक्षा करनी होगी, क्योंकि राजनीति में नेता तो आसानी से मिल लेते हैं, मगर दिल आसानी से नहीं मिलते।  

गहलोत और पायलट, दोनों ने 7 जून की अपनी इस मुलाकात तो सोशल मीडिया पर सार्वजनिक करके एक सकारात्मक छवि बनाने की कोशिश की। गहलोत ने सोशल मीडिया हैंडल ‘एक्स’ पर लिखा – अखिल भरतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव श्री सचिन पायलट ने आवास पर पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्व. श्री राजेश पायलट की 25वीं पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रम के लिए आमंत्रित किया। मैं और राजेश पायलट जी 1980 में पहली बार एक साथ ही लोकसभा पहुंचे एवं लगभग 18 साल तक साथ में सांसद रहे। उनके आकस्मिक निधन का दुख हमें आज भी बना हुआ है। उनके जाने से पार्टी को भी गहरा आघात लगा। दूसरी तरफ सचिन पायलट ने भी नपे तुले शब्दों में अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा – आज पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जी से मुलाकात की। मेरे पिता स्व. राजेश पायलट जी की 25वीं पुण्यतिथि पर 11 जून को दौसा में आयोजित श्रद्धांजलि समारोह में उन्हें शामिल होने के लिए निवेदन किया।

सियासी हलकों में इस मुलाकात के गहरे राजनीतिक निहितार्थ देखे जा रहे हैं। नई दिल्ली में कांग्रेस की राजनीतिक गतिविधियों पर गहरी नजर रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार आदेश रावल को पायलट का करीबी माना जाता है, उन्होंने ‘एक्स’ पर केवल इतना ही लिखा कि समय ही बलवान होता है। राजनीतिक विश्लेषक निरंजन परिहार, भारत सरकार के नागरिक विमानन राज्य मंत्री रहे गहलोत से पायलट की इस मुलाकात पर उड्डयन सिद्धांतों का हवाला देते हुए कहते हैं कि विमान को जब नई उड़ान भरनी हो, तो पायलट को अपना विमान रन वे पर लाना ही पड़ता है। परिहार कहते हैं कि गहलोत और पायलट की मुलाकात का प्रभाव तभी स्पष्ट होगा, जब दोनों कांग्रेस को फिर से सत्ता में लाने के लिए काम करेंगे। वरिष्ठ पत्रकार शरत कुमार अपने एक वीडियो में कहते हैं कि पायलट ने गहलोत से मिलने की जो पहल की है, उसके बाद अब गहलोत पर बड़ी जिम्मेदारी है कि वे भी अपना बड़ा दिल दिखाएं। पायलट के कट्टर समर्थक शरत कहते हैं कि दोनों नेताओं के बीच की ये विश्वास बहाली आगे क्या गुल खिलाती है, यह तो पता नहीं, लेकिन कांग्रेसी इससे खुश हैं। कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति जानने वाले वरिष्ठ पत्रकार संदीप सोनवलकर इसे पायलट का राजनीतिक समर्पण मानते हैं। सोनवलकर कहते हैं कि गहलोत के प्रति आलाकमान के अब तक के राजनीतिक रवैये से सचिन को समझ में आ गया है कि उनसे टकराव छोड़कर सामंजस्य किए बिना राजस्थान में उभरना आसान नहीं है। राजस्थान के प्रमुख न्यूज चैनल ‘फर्स्ट इंडिया’ के सहयोगी संपादक नरेश शर्मा कहते हैं कि इस मुलाकात में गहलोत ने भी बड़ा मन दिखाकर पुराने विवादों को भुलाया और राजेश पायलट की पुण्यतिथि के समारोह में जाने का मन बनाया है।

उल्लेखनीय है कि सन 2018 में अशोक गहलोत जब तीसरी बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, तो सत्ता पाने में नाकामयाब रहे पायलट लगातार नाराज रहे। उप मुख्यमंत्री तथा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पदों पर रहते हुए पायलट की पार्टी विरोधी गतिविधियां देखी गईं और दोनों पदों से जून 2020 में उनको बर्खास्त किया गया। उसके बाद से ही राजस्थान कांग्रेस में गुटबाजी की खाई पहले से कुछ ज्यादा बढ़ गई, और दुराव का दौर भी लगातार जारी रही। कुछ लोग गहलोत और पायलट की इस मुलाकात को कांग्रेस में गुटबाजी समाप्त करने और एकता के नए प्रयास सहित भविष्य की रणनीति के मजबूत संकेत के रूप में देख रहे हैं। तो कुछ का कहना है कि बहुत संभव है कि राजेश पायलट की पुण्यतिथि के बहाने गहलोत को पटखनी देने के लिए पायलट का दांव हो, या यह भी संभव है कि अपने आप को विनम्रता की मूरत के रूप में स्थापित करने के साथ ही सदाशयता से सबको साथ लेकर चलने वाला साबित करने की भी पायलट की कोशिश हो।

वैसे, माना जा रहा है कि यह मुलाकात कांग्रेस की आंतरिक एकता को मजबूत करने का संदेश है। क्योंकि गहलोत और पायलट के बीच की खटास ज्यादा बढ़ने का कारण सन 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार को माना गया। लगभग जीती हुई बाजी कांग्रेस हार गई थी। कांग्रेस नेता पूर्व राज्यपाल सतपाल मलिक ने खुलकर कहा था कि राजस्थान में कांग्रेस की सरकार न बनने देने में पायलट का ही सबसे बड़ा हाथ रहा। क्योंकि पायलट को लग रहा था कि कांग्रेस की सरकार फिर बन गई, तो अशोक गहलोत ही मुख्यमंत्री बनेंगे, इसी कारण उन्हीं ने कांग्रेस के उम्मीदवारों का हराया और अपनी जाति के गुर्जर लोगों को कांग्रेस को वोट न देने के लिए प्रेरित किया। मलिक के इस बयान को कांग्रेस नेतृत्व ने भी गंभीरता से लिया था। लेकिन, अब उसी तस्वीर में देखें, तो पायलट का गहलोत के घर जाना और उनसे मुलाकात करना, दोनों नेताओं के बीच सुलह के प्रयास के रूप में देखा जा सकता है। खासकर तब, जब 2028 के राजस्थान विधानसभा चुनाव पर कांग्रेस की नजर हैं।

राजनीतिक ताकत देखें, तो कांग्रेस में गहलोत और पायलट दोनों की अपनी-अपनी क्षेत्रीय और सामाजिक पकड़ है। मुख्यमंत्री रहते हुए गहलोत ने जो जनहित के जो लोकप्रिय योजनाएं चलाईं, उनको प्रदेश की जनता आज भी याद करती है। अतः यह मुलाकात राजस्थान में कांग्रेस की जमीनी स्तर पर मजबूती के लिए रणनीतिक कदम हो सकती है। गहलोत का राजनीतिक प्रभाव, उनके अनुभवी नेतृत्व और ग्रामीण क्षेत्रों में मजबूत आधार पर टिका है, जबकि पायलट युवा नेतृत्व और गुर्जर समुदाय में अपनी लोकप्रियता के लिए जाने जाते हैं। पार्टी आलाकमान इस बात को समझता है, लेकिन दोनों नेताओं के बीच नेतृत्व की ओर से सुलह के प्रयास अब तक नहीं हुए, इसे नेतृत्व की कमजोरी भी माना जा रहा है। वैसे, कोई कुछ भी कहे, लेकिन इस मुलाकात के बावजूद, पायलट और गहलोत के बीच पूर्ण सुलह होने में समय लग सकता है। क्योंकि लंबे समय से चली आ रही तनातनी के बीच ये मुलाकात ङले ही राजेश पायलट के पुण्यतिथि समारोह में निमंत्रण के लिए ही हो, मगर यह कोई मानने को तैयार नहीं है। क्योंकि दो नेता पूरे दो घंटे तक केवल राजेश पायलट की 25वीं पुण्यतिथि पर ही बात कर रहे होंगे, यह संभव ही नहीं है। इसी कारण सियासी हलकों में इसीलिए इस मुलाकात के मतलब तलाशे जा रहे हैं। मगर, यह सही है कि गहलोत बेहद मजबूत नेता हैं और विमान को उड़ाने के लिए पायलट को रन वे पर भी आना ही पड़ता है!

-राकेश दुबे (वरिष्ठ पत्रकार)

गरीबी के साथ आर्थिक असमानता दूर करने का लक्ष्य हो

0

  • ललित गर्ग –
    भारत एक ओर जहां लगातार तेज ग्रोथ करते हुए बीते दिनों जापान को पीछे छोड़ दुनिया की चौथी सबसे बड़ी इकोनॉमी बना, तो वहीं उपलब्धियों का सिलसिला जारी है औऱ दुनिया इसका लोहा मान रही है। अब एक और खुश करने वाली रिपोर्ट आई है, जो विश्व बैंक ने जारी की है, जिसमें भारत में अत्यधिक गरीबी में आई उल्लेखनीय कमी की रोशनी है। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2022-23 में यह दर 5.3 प्रतिशत रह गई है, जो वर्ष 2011-12 में 27.1 फीसदी थी। रिपोर्ट के निष्कर्षों के अनुसार भारत ने लगभग एक दशक से कुछ कम समय में 27 करोड़ लोगों को अत्यधिक गरीबी से बाहर निकाला है, जो पैमाने और गति के मामले में उल्लेखनीय एवं ऐतिहासिक उपलब्धि कही जा सकती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने शासन के ग्यारह स्वर्णिम वर्षों में गरीबी को कम करने के लिए सामूहिक कार्रवाई की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है, गरीबों के संघर्षों और उनकी चिंताओं को सुनकर, उन्हें गरीबी से बाहर आने में मदद करके और अत्यधिक गरीबी में रहने वाले लोगों के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करके उन्होंने गरीब उन्मूलन की योजनाओं को जमीन पर उतारा है। मोदी सरकार ने गरीबी में रहने वाले लोगों और व्यापक समाज के बीच समझ और संवाद को बढ़ावा देने का लक्ष्य रखा है। उनकी दृष्टि में गरीबी को खत्म करना सिर्फ़ गरीबों की मदद करना नहीं है – बल्कि हर महिला और पुरुष को सम्मान के साथ जीने का मौका देना है।
    विकसित भारत के लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में चलाई जा रही सरकारी पहलों, तेज आर्थिक सुधारों और जरूरी सेवाओं तक सबकी पहुंच का ही यह नतीजा है कि गरीबी दिन-ब-दिन तेजी से घट रही है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार रोजगार में वृद्धि हुई है। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। भारत ने बहुआयामी गरीबी को कम करने में भी जबरदस्त प्रगति की है। बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआइ) 2005-06 में 53.8 प्रतिशत से घटकर 2019-21 में 16.4 प्रतिशत और 2022-23 में 15.5 प्रतिशत हो गया है। प्रधानमंत्री मोदी ने लोगों को गरीबी से उबारने के लिए केंद्र सरकार द्वारा उठाए गए महत्वपूर्ण कदमों और सशक्तीकरण, बुनियादी ढांचे और समावेशन पर फोकस पर प्रकाश डाला। प्रधानमंत्री आवास योजना, प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना, जन-धन योजना और आयुष्मान भारत जैसी पहलों ने आवास, स्वच्छ खाना पकाने के ईंधन, बैंकिंग और स्वास्थ्य सेवा तक उनकी पहुंच को बढ़ाया है।
    डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर (डीबीटी), डिजिटल समावेश और मजबूत ग्रामीण बुनियादी ढांचे ने अंतिम जन तक लाभों की पारदर्शिता और तेज वितरण सुनिश्चित किया है। इससे 25 करोड़ से अधिक लोगों को गरीबी पर पार पाने में मदद मिली है। मोदी सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को संबल और आत्मनिर्भर बनाने के लिए अनेक योजनाएं चलाई हैं और उनका बेहतर क्रियान्वयन किया है। अत्यधिक गरीबी में रहने वाले लोगों की संख्या 34.44 करोड़ से घटकर 7.52 करोड़ रह गई है। पूरे भारत में अत्यधिक गरीबी को कम करने में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है, जिसमें प्रमुख राज्यों ने गरीबी में कमी लाने और समावेशी विकास को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पांच बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार और बंगाल में 2011-12 में देश के 65 फीसदी अत्यंत गरीब लोग थे। इन पांच राज्यों ने ही 2022-23 तक गरीबी कम करने में दो-तिहाई का योगदान दिया है।
    विश्व बैंक ने पाकिस्तान को आईना दिखाते हुए भारत से गरीबी उन्मूलन की योजनाओं एवं सोच से प्रेरणा लेने की बात कही है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, पाकिस्तान की 45 प्रतिशत आबादी गरीबी में है। भारत की गरीबी दर 5.3 प्रतिशत और पाकिस्तान की 42.4 प्रतिशत है। इसका सबसे बड़ा कारण पाक अपना सारा ध्यान आतंकवाद एवं आतंकवादियों के पोषण पर देता है, गरीबी दूर करना उसकी योजनाओं एवं नीतियों में दूर-दूर तक नहीं है। इसीलिये भारत ने वैश्विक मंचों पर पाक पर यह आरोप भी लगाया है कि वह अंतरराष्ट्रीय सहायता का दुरुपयोग आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए कर रहा है। भारत ने विश्व बैंक और आईएमएफ जैसे संस्थानों से अनुरोध किया है कि वे पाक को दी जाने वाली सहायता की समीक्षा करें, क्योंकि इसका उपयोग आम लोगों के कल्याण के बजाय सैन्य खर्च और आतंकवादी गतिविधियों में हो रहा है। हाल के पाहलगाम हमले के बाद भारत ने इस मुद्दे को और जोरदार तरीके से उठाया, जिसमें उसने पाक के सैन्य बजट में 18 प्रतिशत वृद्धि और सामाजिक कल्याण पर कम खर्च को उजागर किया। गरीबी किसी व्यक्ति के मानवाधिकारों का हनन है। यह न केवल अभाव, भूख और पीड़ा का जीवन जीने की ओर ले जाती है, बल्कि मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं के आनंद का भी बड़ा अवरोध है। पाक में यही स्थितियां देखने को मिल रही है।
    आजादी के अमृत काल में सशक्त भारत एवं विकसित भारत को निर्मित करते हुए गरीबमुक्त भारत के संकल्प को भी आकार दिया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं उनकी सरकार ने वर्ष 2047 के आजादी के शताब्दी समारोह के लिये जो योजनाएं एवं लक्ष्य तय किये हैं, उनमें गरीबी उन्मूलन के लिये भी व्यापक योजनाएं बनायी गयी है। विगत ग्यारह वर्ष एवं मोदी के तीसरे कार्यकाल में ऐसी गरीब कल्याण की योजनाओं को लागू किया गया है, जिससे भारत के भाल पर लगे गरीबी के शर्म के कलंक को धोने के सार्थक प्रयत्न हुए है एवं गरीबी की रेखा से नीचे जीने वालों को ऊपर उठाया गया है। निश्चित रूप से इस उपलब्धि में विभिन्न कल्याण कार्यक्रमों मसलन आर्थिक विकास और ग्रामीण रोजगार योजनाओं की बड़ी भूमिका रही है। निस्संदेह, इसने सबसे गरीब तबके के लोगों की आय बढ़ाने में मदद की है। निश्चित रूप से सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार, प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण, बिजली, शौचालयों और आवास तक इस तबके की पहुंच बढ़ाने जैसी पहल ने ग्रामीण और अर्ध-शहरी भारत में जीवन की गुणवत्ता बेहतर बनाने में योगदान दिया है। लेकिन जहां हम गरीबी उन्मूलन में मिली सफलता पर आत्ममुग्ध हैं तो वहीं समाज में बढ़ती आर्थिक असमानता हमारी चिंता का विषय होना चाहिए। गरीबी-अमीरी के बीच के बढ़ते फासले को कम करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। पिछले साल जारी की गई विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 से पता चलता है कि भारत में शीर्ष एक प्रतिशत लोगों की संपत्ति में बड़ा उछाल आया है। वे लोग देश की चालीस फीसदी संपत्ति नियंत्रित करते हैं।
    भारत में गरीबी का मुख्य कारण बढ़ती जनसंख्या, कमजोर कृषि, भ्रष्टाचार, रूढ़िवादी सोच, जातिवाद, अमीर-गरीब में ऊंच-नीच, नौकरी की कमी, अशिक्षा, बीमारी आदि हैं। एक आजाद मुल्क में, एक शोषणविहीन समाज में, एक समतावादी दृष्टिकोण में और एक कल्याणकारी समाजवादी व्यवस्था में गरीबी रेखा नहीं होनी चाहिए। अब तक यह रेखा उन कर्णधारों के लिए शर्म की रेखा बनी रही है, जिसको देखकर उन्हें शर्म आनी चाहिए थी। एक बड़ा प्रश्न था कि जो रोटी नहीं दे सके वह सरकार कैसी? जो अभय नहीं बना सके, वह व्यवस्था कैसी? जो इज्जत व स्नेह नहीं दे सके, वह समाज कैसा? गांधी और विनोबा ने सबके उदय एवं गरीबी उन्मूलन के लिए ‘सर्वोदय’ की बात की। लेकिन राजनीतिज्ञों ने उसे निज्योदय बना दिया था। ‘गरीबी हटाओ’ में गरीब हट गए। अब तक जो गरीबी के नारे को जितना भुना सकते थे, वे सत्ता प्राप्त कर सकते थे। लेकिन अब मोदी सरकार गरीबी उन्मूलन के लिये सार्थक प्रयत्न कर रही है। मोदी सरकार की तकनीकी प्रेरित सेवाओं में उछाल के चलते, वर्ष 2000 के बाद विकास मॉडल ने गरीब वर्ग को लाभान्वित किया है। निर्विवाद रूप से सामाजिक न्याय के लिये गरीबी कम करने के साथ, कमजोर तबकों के लिये सम्मान, समानता और नीतियों में लचीलापन जरूरी है। वास्तव में गरीबी मुक्त भारत का लक्ष्य तभी पूरा हो सकता है जब सरकार की कल्याणकारी नीतियां न केवल उन्हें गरीबी के दलदल से बाहर निकालें, बल्कि उन्हें स्वावलंबी भी बनाएं। आर्थिक कल्याणकारी नीतियों का मकसद मुफ्त की रेवड़ियां बांटना न होकर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करना होना चाहिए। तभी गरीबी का कुचक्र स्थायी रूप से कम किया जा सकता है।

स्टारलिंक की भारत में एंट्री: इंटरनेट की दुनिया में क्रांति या महंगा सपना?

अशोक कुमार झा


भारत में इंटरनेट सेवा के क्षेत्र में एक नया अध्याय शुरू हो गया है। टेस्ला और स्पेसएक्स के मालिक और विश्व के सबसे चर्चित उद्यमियों में से एक एलन मस्क की सैटेलाइट-आधारित इंटरनेट सेवा स्टारलिंक (Starlink) को आखिरकार भारत में काम करने का आधिकारिक लाइसेंस मिल गया है। यह सेवा अब उन क्षेत्रों में भी इंटरनेट प्रदान करने की दिशा में अग्रसर है, जहां अब तक केवल डिजिटल खामोशी थी।


क्या है स्टारलिंक और कैसे करता है काम?
स्टारलिंक दरअसल एलन मस्क की अंतरिक्ष अनुसंधान कंपनी SpaceX का एक प्रोजेक्ट है, जिसका उद्देश्य पृथ्वी के हर कोने में इंटरनेट पहुंचाना है, खासतौर पर उन दूर-दराज़ क्षेत्रों में जहां फाइबर ऑप्टिक या मोबाइल नेटवर्क का पहुंचना संभव नहीं हो पाता।
यह सेवा Low Earth Orbit (LEO) में स्थित हजारों छोटे उपग्रहों (satellites) के जरिए संचालित होती है। ये उपग्रह पृथ्वी से मात्र 550 किलोमीटर की ऊंचाई पर लगातार चक्कर लगाते हैं और एक-दूसरे से लेजर के माध्यम से जुड़े रहते हैं। जब कोई यूजर स्टारलिंक की सेवा लेता है, तो उसे एक स्टारलिंक टर्मिनल (एक प्रकार की डिश एंटीना) मिलता है, जो सीधे इन सैटेलाइट्स से जुड़ता है और इंटरनेट डेटा को भेजता और प्राप्त करता है।
ग्राउंड स्टेशन भी बनाए जाते हैं, जो उपग्रहों से सिग्नल प्राप्त करते हैं और उसे ग्लोबल इंटरनेट सिस्टम से जोड़ते हैं। इस पूरी प्रणाली के चलते स्टारलिंक बिना किसी फाइबर या केबल के – केवल खुले आकाश के सहारे – इंटरनेट सेवा प्रदान करता है।


 स्टारलिंक की प्रमुख खूबियां

1.  दूर-दराज़ क्षेत्रों में भी कनेक्टिविटी:
भारत जैसे विशाल और विविध भौगोलिक परिस्थितियों वाले देश में, जहां कई गांव अभी भी डिजिटल डिवाइड के शिकार हैं, वहां स्टारलिंक क्रांतिकारी साबित हो सकता है।

2.  उच्च स्पीड और लो लेटेंसी:
स्टारलिंक की स्पीड 100–200 Mbps तक होती है और इसकी लेटेंसी (ping) भी अपेक्षाकृत कम है, जिससे यह गेमिंग, वीडियो कॉलिंग और हाई-स्पीड डाउनलोडिंग के लिए उपयुक्त है।

3.  तेज़ डिप्लॉयमेंट:
जहां पारंपरिक इंटरनेट कंपनियों को नेटवर्क बिछाने में महीनों या सालों लग जाते हैं, वहां स्टारलिंक कुछ ही घंटों में सेवा चालू कर सकता है – बशर्ते टर्मिनल इंस्टॉल हो जाए।

4.   

 क्या हैं स्टारलिंक की चुनौतियाँ?

1.  उच्च लागत:
स्टारलिंक की सबसे बड़ी चुनौती इसकी कीमत है। एक टर्मिनल किट की कीमत ₹60,000 से ₹80,000 तक हो सकती है और मासिक शुल्क ₹6,000 से ₹8,000 तक जा सकता है जो कि एक आम भारतीय उपभोक्ता के बजट से बाहर है।

2.  मौसम पर निर्भरता:
खराब मौसम – विशेष रूप से भारी बारिश या तूफान – के दौरान कनेक्टिविटी प्रभावित हो सकती है क्योंकि यह तकनीक साफ आसमान पर निर्भर करती है।

3.  भीड़भाड़ वाले इलाकों में सीमित प्रदर्शन:
जहां अधिक यूजर्स होंगे, वहां स्पीड में गिरावट आ सकती है क्योंकि बैंडविड्थ शेयर हो जाती है।

 क्या भारतीय कंपनियों के लिए स्टारलिंक खतरा है?
इस समय भारतीय इंटरनेट कंपनियाँ – जैसे जियो, एयरटेल और वीआई – फिलहाल स्टारलिंक से ज़्यादा चिंतित नहीं हैं। इसकी वजहें साफ हैं:

·  मध्यम वर्ग की प्राथमिकता: भारतीय कंपनियों की सेवाएं किफायती हैं और उन्होंने शहरी और ग्रामीण बाजारों में व्यापक नेटवर्क फैला रखा है। उनके पैकेज ₹500 से भी कम में उपलब्ध हैं, जबकि स्टारलिंक की सेवाएं अभी लग्ज़री कैटेगरी में आती हैं।

·  स्थानीय प्रतिस्पर्धा की तैयारी:
जियो और एयरटेल दोनों ही सैटेलाइट-आधारित इंटरनेट सेवा लाने की तैयारी में हैं। जियो ने तो अपना “जियो-सैट” प्रोजेक्ट लॉन्च कर भी दिया है, जिससे जाहिर है कि भारतीय कंपनियां सतर्क हैं और मुकाबले के लिए तैयार भी।

·  नीतिगत और नियामकीय फायदा:
स्थानीय कंपनियों को भारत सरकार के नियमों और नीतियों का बेहतर अनुभव है, जबकि स्टारलिंक को अभी कई चरणों से गुजरना होगा – स्पेक्ट्रम परीक्षण, लाइसेंस विस्तार, और सुरक्षा अनुमतियाँ।

·   

 ग्राहकों को क्या होगा फायदा?
 गांवों और सीमावर्ती क्षेत्रों के लिए वरदान:
झारखंड, छत्तीसगढ़, लद्दाख, अरुणाचल जैसे राज्यों के दुर्गम इलाकों में जहां आज भी बच्चे ऑनलाइन पढ़ाई के लिए मोबाइल नेटवर्क के इंतज़ार में पेड़ों पर चढ़ते हैं, वहां स्टारलिंक उम्मीद की किरण बन सकता है।
 आपदा प्रबंधन में उपयोगी:
बाढ़, भूकंप या अन्य आपदा की स्थिति में जब सामान्य नेटवर्क बंद हो जाते हैं, वहां स्टारलिंक जैसी सैटेलाइट सेवाएं त्वरित कम्युनिकेशन का जरिया बन सकती हैं।
 सीमावर्ती और सैन्य उपयोग:
भारतीय सेना और सुरक्षा एजेंसियों के लिए भी यह तकनीक विशेष महत्व रखती है क्योंकि यह दुर्गम और शत्रु-संवेदनशील क्षेत्रों में निर्बाध संचार की सुविधा देती है।


 भविष्य की तस्वीर कैसी हो सकती है?
एलन मस्क का कहना है कि जैसे-जैसे सब्सक्राइबर्स की संख्या बढ़ेगी, वे सेवा की लागत को घटा देंगे। यदि ऐसा होता है तो आने वाले वर्षों में स्टारलिंक भारत के डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर को नया आयाम दे सकता है।
भारत सरकार भी डिजिटल समावेश (Digital Inclusion) को बढ़ावा देने के लिए नई तकनीकों को सहयोग देने के पक्ष में है। ऐसे में यदि सब कुछ योजना के अनुसार चलता है, तो आने वाले दशक में भारत के हर गांव में आकाश से इंटरनेट उतरता दिखाई दे सकता है।
स्टारलिंक भारत के लिए “मेक इन इंडिया” की चुनौती भी है और “डिजिटल इंडिया” का अवसर भी। यह सेवा अगर सस्ती होती है और स्थानीय ज़रूरतों के मुताबिक ढाली जाती है, तो यह न केवल भारत के लाखों गांवों को इंटरनेट से जोड़ सकती है, बल्कि एक नई डिजिटल क्रांति का मार्ग प्रशस्त कर सकती है।
 लेकिन फिलहाल यह सेवा आम भारतीय की पहुंच से बाहर है। आने वाला वक्त बताएगा कि स्टारलिंक “इंटरनेट का भविष्य” बनती है या सिर्फ एक चमकता हुआ सपना ही रह जाती है।

अशोक कुमार झा