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गंदगी और बंदगी एक साथ कैसे?

डॉ.वेदप्रकाश

विगत दिनों एक समाचार पढ़ा- साढ़े  चार करोड़ कांवड़ यात्री धर्मनगरी में छोड़ गए 10 हजार मीट्रिक टन कूड़ा। यह समाचार हाल ही में संपन्न हुई कांवड़ यात्रा के संबंध में था। समाचार के विश्लेषण में आगे लिखा था- 11 जुलाई से कांवड़ यात्रा विधिवत रूप से शुरू हुई थी। यात्रा का आधा पड़ाव पूरा होने के बाद कांवड़ यात्रियों ने खाद्य पदार्थ,प्लास्टिक की बोतलें, चिप्स और गुटके के रैपर्स, पॉलिथीन की थैलियां, पुराने कपड़े, जूते- चप्पल आदि सामान कूड़ेदान में डालने के बजाय सड़क और गंगा घाटों पर ही फेंक दिया। हर की पैड़ी के संपूर्ण क्षेत्र में गंदगी फैली है। मालवीय घाट, सुभाष घाट, महिला घाट, रोड़ी बेलवाला,पंतद्वीप, कनखल, भूपतवाला, ऋषिकुल मैदान, बैरागी कैंप आदि क्षेत्रों में गंदगी पसरी है। गौरतलब यह भी है कि हरिद्वार में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण द्वारा प्लास्टिक पर प्रतिबंध के बाद भी कांवड़ यात्रा के दौरान पॉलीथिन और प्लास्टिक का कारोबार जमकर हुआ। क्या यह प्रशासन की मिलीभगत नहीं है?

 संयोग से इस दौरान मुझे भी हरिद्वार और ऋषिकेश गंगा स्नान एवं दर्शन के लिए जाने का सौभाग्य मिला। परमार्थ निकेतन ऋषिकेश में विश्व प्रसिद्ध गंगा आरती के समय प्रतिदिन की भांति पूज्य स्वामी चिदानंद सरस्वती जी उन दिनों भी विशेष रूप से अपने उद्बोधन में कह रहे थे- घाटों पर गंदगी न करें, कूड़ा कूड़ेदान में डालें, प्लास्टिक का प्रयोग न करें, मां गंगा में पुरानी कांवड़ और पुराने कपड़े आदि न फेंके। प्लास्टिक की थैलियों का प्रयोग न हो, इसके लिए उन्होंने एक विशेष अभियान के अंतर्गत कपड़े के लाखों थैले बंटवाए। जगह-जगह स्वच्छ पेयजल हेतु व्यवस्थाएं की। तदुपरांत भी गंगा घाटों पर गंदे कपड़े, कूड़ा और प्लास्टिक की बोतलें सहजता से इधर-उधर पड़ी दिखाई दे रही थी। यहां समझने की आवश्यकता है कि गंदगी न करना, स्वच्छता रखना, प्रकृति- पर्यावरण, नदी और जल स्रोतों को दूषित न करना अपने आप में एक बड़ी भक्ति अथवा बंदगी है। अनेक स्थानों पर लोग भंडारे और अन्य कार्यक्रमों के आयोजन करते हैं, जिसमें प्लास्टिक की प्लेट, चम्मच, गिलास आदि के रूप में ढेर कूड़ा दाएं बाएं बिखरा पड़ा रहता है। भंडारा करना और अन्य धार्मिक आयोजन हर्षोंल्लास से करना बहुत अच्छी बात है लेकिन गंदगी के लिए भी सजग होना पड़ेगा। एक नागरिक के रूप में हमें  यूज एंड थ्रो की संस्कृति को छोड़ना होगा। तीर्थ स्थानों पर अथवा कहीं भी गंदगी फैलाना हमें बंदगी की भावना से दूर करता है। विगत दिनों प्रयागराज में महाकुंभ मेले का आयोजन हुआ। मेले में प्रतिदिन सैकड़ों मीट्रिक टन कूड़ा निकलता था, लेकिन प्रशासन की समुचित योजना और सजगता होने से मेला क्षेत्र लगातार स्वच्छ रहा। कुछ ही स्थानों पर प्लास्टिक की थैलियां, बोतलें और कूड़ा दिखाई दिया।


    भारत विविधताओं का देश है। यहां  विभिन्न जातियां, मत- संप्रदाय एवं पर्व- उत्सव हैं। समूचे देश में विभिन्न नदियों एवं स्थानों पर अनेक तीर्थ हैं। जहां प्रतिदिन भारी संख्या में श्रद्धालु एवं तीर्थयात्री पहुंचते हैं। क्या अपनी इन पवित्र यात्राओं पर जाते समय हम प्रकृति-पर्यावरण और तीर्थों को गंदा न करने और स्वच्छ रखने का संकल्प नहीं ले सकते? स्वच्छता की दृष्टि से लगातार प्रयास करते हुए इंदौर देश का सबसे स्वच्छ शहर बना हुआ है जबकि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में कई जगह कूड़े के पहाड़ बन चुके हैं। लगातार बढ़ती जनसंख्या के बीच शासन- प्रशासन की भी अपनी सीमाएं हैं। ऐसे में प्रत्येक व्यक्ति को यह संकल्प लेना होगा कि मेरा कूड़ा मैं ही संभालूं।
    हरिद्वार और ऋषिकेश की यात्रा के संबंध में गांधी जी ने लिखा है- गंगा तट पर जहां पर ईश्वर दर्शन के लिए ध्यान लगाकर बैठना शोभा देता है- पाखाना, पेशाब करते हुए बडी संख्या में स्त्री-पुरुष अपनी मूढ़ता और आरोग्य के तथा धर्म के नियमों को भंग करते हैं…जिस पानी को लाखों लोग पवित्र समझकर पीते हैं, उसमें फूल, सूत, गुलाल,चावल, पंचामृत वगैरा चीजें डाली गई… मैंने यह भी सुना कि शहर के गटरों का गंदा पानी भी नदी में ही बहा दिया जाता है जोकि एक बड़े से बड़ा अपराध है। आज भी गंगोत्री धाम से लेकर गंगासागर तक मां गंगा, यमुनोत्री से लेकर प्रयागराज संगम तक मां यमुना, कृष्णा, कावेरी, मंदाकिनी, ब्रह्मपुत्र आदि विभिन्न ऐसी नदियां हैं जिनमें व्यापक स्तर पर भिन्न-भिन्न प्रकार का प्रदूषण और गंदगी फैलाई जा रही है। इस गंदगी के लिए न तो प्रशासन सजग है और न ही लोग। दिल्ली, हरियाणा और फिर उत्तर प्रदेश, वृंदावन में भी मां यमुना के किनारे गंदगी सहज ही देखी जा सकती है। यद्यपि भारत सरकार नमामि गंगे मिशन के अंतर्गत गंगा व अन्य नदियों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए प्रयास कर रही है तथापि अभी स्थिति में अधिक बदलाव नहीं हुए हैं।
     स्वच्छता ही सेवा, सेवा ही धर्म आदि महत्वपूर्ण सूत्रों का व्यवहार में आना अभी बाकी है। परमार्थ निकेतन में मां गंगा आरती के समय पूज्य मुनि चिदानंद सरस्वती जी, विभिन्न संत एवं भारतवर्ष की ज्ञान परंपरा के अनेक ग्रंथ लगातार यह कह रहे हैं कि- नदियां जीवनदायिनी हैं, प्रकृति-पर्यावरण के बिना जीवन का अस्तित्व नहीं है, नदियां बचेंगी तो जीवन बचेगा, संतति बचेंगी,संस्कृति बचेगी। पूज्य स्वामी चिदानंद जी अपने उद्बोधन में अक्सर कहते हैं- गंदगी और बंदगी एक साथ नहीं हो सकती। जब आप गंदगी को छोड़ देंगे, स्वच्छता को अपना लेंगे, तो बंदगी की राह बहुत आसान हो जाएगी।
       आइए खूब बंदगी करें, खूब तीर्थ करें, खूब स्नान करें लेकिन प्रकृति-पर्यावरण और नदियों को गंदा न करें। यदि प्लास्टिक की बोतलें, थैली अथवा कुछ कूड़ा हमारे पास है तो उसे यहां वहां न फेंके, कूड़ेदान में डालें ताकि उसे उचित व्यवस्था में ले जाकर समाप्त किया जा सके।


डॉ.वेदप्रकाश

दिल्ली में लैंडफिल गैसें बन रही हैं मुसीबत

प्रमोद भार्गव 
  दिल्ली की आबोहवा खराब करने में कचरों के ऐसे ठिकाने  खतरनाक साबित हो रहे हैं, जिनसे लैंडफिल गैसें हवा और जल स्रोतों को एक साथ प्रदूषित करते हैं। दिल्ली समेत समूचे राजनीति क्षेत्र में अनेक लैंडफिल ठिकाने हैं। इसलिए इस पूरे क्षेत्र में कचरे के इन ढेरों से फूटती लैंडफिल नामक षैतानी गैसों से एक बड़ी आबादी का जीना कठिन हो गया है। इन ठिकानों को हटाने और कचरे का वैज्ञानिक ढंग से निस्तारण करने के लिए विभिंन्न संस्थाएं राश्ट्रीय हरित प्राधिकरण और सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा चुकी हैं, लेकिन अब तक नतीजा ढांक के तीन पांत ही रहा है। अब मौसम विभाग की तर्ज पर लैंडफिल ठिकानों पर ‘अर्ली वार्निंग सिस्टम‘ जैसी व्यवस्था होगी। इस कचरे से उत्सर्जित होने वाली तीव्र ज्वलनशील मीथेन गैस को चिन्हित करने वाले डिटेक्टर भी लगाए जाएंगे। इन ठिकानों के तापमान पर भी निगरानी रखने के लिए ‘नान कांटेक्ट इंफ्रारेड थर्मामीटर‘ लगाए जाएंगे। वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (सीक्यूएम) ने इन साइटों पर आग लगने की घटनाओं को थामने और इससे होने वाले प्रदूषण की रोकथाम के लिए 8 सूत्रीय निर्देश भी जारी किए हैं। इन निर्देशों का पालन दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान सरकार को एनसीआर नगरों की सभी लैंडफिल साइटों पर इन निर्देशों का पालन करना होगा।    
दिल्ली में गाजीपुर, भलस्वा तथा ओखला में लैंडफिल ठिकाने हैं। इनमें रोजाना हजारों टन कचरा डाला जाता है। इसके वैज्ञानिक ढंग से निस्तारण के कोई तकनीकी इंतजाम नहीं हैं। एनजीटी ने एक समिति का गठन कर उससे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के कचरे से बिजली पैदा करने की संभावना तलाशने को कहा था, लेकिन दिल्ली सरकार, दिल्ली प्रदूशण नियंत्रण समिति और केंद्रीय प्रदूशण नियंत्रण बोर्ड किसी परिणाम तक नही पहुंच पाए। इन ढेरों में अचानक आग भी लग जाती है, इस कारण समूचे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु प्रदूषण जानलेवा साबित होने लगता है। पर्यावरणीय मामलों के प्रमुख वकील गौरव बंसल का कहना है कि ये लैंडफिल कचरों के ठिकाने नहीं हैं। क्योंकि ऐसे ठिकानों के लिए विशेष डिजाइन और कायदे-कानून का प्रावधान है। कचरा डालने से पहले इन मैदानों में मिट्टी, प्लास्टिक, जैव और जैव-चिकित्सा जैसे कचरे को अलग किया जाता है। जबकि इन ठिकानों पर ऐसा कुछ भी नहीं होता है। इसलिए ये ठिकाने वेस्ट डंपिंग ग्राउंड बनकर रह गए हैं। दरअसल मीथेन गैस अत्यधिक ज्वलनशील गैस है। अन्य स्रोतों के अलावा लैंडफिल ठिकाने पर जमा जैविक कचरे के विघटित होने से मीथेन गैस का उत्सर्जन होता है। इस गैस में रंग और गंद नहीं होते है। इस कारण इसके रिसाव का पता नहीं चलता है। माना जाता है कि हवा में 5 से 15 प्रतिशत की सांद्रता से भी आग लग सकती है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पूर्व अपर निदेशक डॉ एसके त्यागी का कहना है कि मीथेन ग्रीन हाउस गैस है। उपग्रह से इसकी निकली छवि को देखा जा सकता है। इसे ट्रेप कर इसका उपयोग करने पर काम होना चाहिए। लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी है कि महानागरों में इस तरह के बड़े कचरे के ढेरों को एकत्रित करने से रोका जाए। इसके लिए कचरे को अलगाने, उसे रिसाइकल करने एवं उससे खाद एवं ईंधन तैयार करने पर विचार होना चाहिए।
दरअसल लैंडफिल गैसें उन स्थलों से उत्सर्जित होती हैं, जहां गड्ढों में शहरी कचरा भर दिया गया हो। इस कचरे में औद्योगिक कचरा भी षमिल हो तो इसमें प्रदूशण की भयानकता और बढ़ जाती है। नए षोधों से पता चला है कि नियम-कानूनों को ताक पर रखकर लापरवाही से तैयार किए भूखंडों पर खड़ी इमारतों में चल रहे सूचना तकनीक के कारोबार में प्रयुक्त चांदी, तांबा और पीतल के कल-पूर्जों की सेहत लैंडफिल गौसों के संपर्क में आकर बिगड़ जाती है। इनका हमला निर्जीव यांत्रिक उपकरणों पर ही नहीं मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल असर डालता है। हमारे देष की महानगर पालिकाएं और भवन-निर्माता गड्ढो वाली भूमि के समतलीकरण का बड़ा आसान उपाय इस कचरे से खोज लेते हैं। रोजाना घरों से निकलने वाले कचरे और इलेक्ट्रॉनिक कचरे से गड्ढों को पाटने का काम बिना किसी रासायनिक उपचार के कर दिया जाता है। इस मिश्रित कचरे में मौजूद विभिन्न रसायन परस्पर संपर्क में आकर जब पांच-छह साल बाद रासायनिक क्रियाएं करते हैं, तो इसमें से जहरीली लैंडफिल गैसें पैदा होने लगती हैं। इनमें हाइड्रोजन पेरोक्साइड, हाइड्रोजन ऑक्साइड, मीथेन, कार्बन मोनोऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड इत्यादी होती हैं।
कचरे के सड़ने से बनने वाली इन बदबूदार गैसों को वैज्ञानिकों ने लैंडफिल गैसों के दर्जे में रखकर एक अलग ही श्रेणी बना दी है। दफन कचरे में भीतर ही भीतर जहरीला तरल पदार्थ जमीन की दरारों में रिसता है। यह जमीन के भीतर रहने वाले जीवों के लिए प्राणघातक होता है। भूगर्भ में निरंतर बहते रहने वाले जल-स्रोतों में मिलकर यह शुद्ध पानी को जहरीला बना देता है। गंधक के अनेक जीवाणुनाशक यौगिक भूमि में फैलकर उसकी उर्वरा क्षमता को नष्ट कर देते हैं।
आधुनिक जीवन शैली बहुत अधिक कचरा पैदा करती है। इसलिए भारत ही नहीं, दुनिया के ज्यादातर विकसित और विकासशील देश कचरे को ठिकाने लगाने की समस्या से जूझ रहे हैं। लेकिन ज्यादातर विकसित देशों ने समझदारी बरतते हुए इस कचरे को अपने देशों में ही नष्ट कर देने की कार्यवाही पर रोक लगा दी है। दरअसल पहले इन देशों में भी इस कचरे को धरती में गड्ढे खोदकर दफना देने की छूट थी। लेकिन जिन-जिन क्षेत्रों में यह कचरा दफनाया गया, उन-उन क्षेत्रों में लैंडफिल गैसों के उत्सर्जन से पर्यावराण बुरी तरह प्रभावित होकर खतरनाक बीमारियों का जनक बन गया। जब ये रोग लाइजाज बीमारियों के रूप में पहचाने जाने लगे तो इन देषों का शासन-प्रशासन जागा और उसने कानून बनाकर औद्योगिक व घरेलू कूड़े-कचरे को अपने देष में दफन करने पर सख्त प्रतिबंध लगा दिए। तब इन देषों ने इस कचरे को ठिकाने लगाने के लिए लाचार देषों की तलाष की और सबसे लाचार देष निकला भारत। दुनिया के 105 से भी ज्यादा देष अपना औद्योगिक कचरा भारत के समुद्री तटवर्ती इलाकों में जहाजों से भेजते हैं। इन देषों में अमेरिका, चीन, ब्राजील, आस्ट्रेलिया, जर्मनी और ब्रिटेन प्रमुख हैं।
नेषनल एनवायरमेंट इंजीनियारिंग रिसर्च इंस्टीयूट के एक षोध पत्र के अनुसार वर्श 1997 से 2005 के बीच भारत में प्लास्टिक कचरे के आयात में 82 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। ये आयात देष में पुनर्षोधन व्यापार को बढ़ावा देने के बहाने किया जाता है। इस क्रम में विचारणीय पहलू यह है कि इस आयातित कचरे में खतरनाक माने जाने वाले ऑर्गेनो-मरक्यूरिक यौगिक निर्धारित मात्रा से 1500 गुना अधिक पाए गए हैं, जो कैंसर जैसी लाइजाज और भयानक बीमारी को जन्म देते हैं। सर्वोच्च न्यायालय की मुल्याकांन समीति के अनुसार देष में हर साल 44 लाख टन कचरा पैदा होता है। ऑर्गेनाइजेशन फॉर कॉरपोरेशन एंड डवलपमेंट ने इस मात्रा को 50 लाख टन बताया है। इसमें से केवल 38.3 प्रतिशत कचरे का ही पुनर्शोधन किया जा सकता है, जबकि 4.3 प्रतिशत कचरे को जलाकर नष्ट किया जा सकता है। लेकिन इस कचरे को औद्योगिक इकाईयों द्वारा ईमानदारी से पूनर्षोधित न किया जाकर ज्यादातर जल स्रोतों में धकेल दिया जाता है।
कचरा भण्डारों को नश्ट करने के ऐसे ही फौरी उपायों के चलते एक सर्वे में पर्यावरण नियोजन एवं समन्वय संगठन ने पाया है कि हमारे देष के पेयजल में 750 से 1000 मिलिग्राम प्रति लीटर तक नाइट्रेट पानी में मिला हुआ है और अधिकांष आबादी को बिना किसी रासायनिक उपचार के पानी प्रदाय किया जा रहा है, जो लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डालता है। एप्को के अनुसार नाइट्रेट बढ़ने का प्रमुख कारण औद्योगिक कचरा, मानव व पषु मल है।
ऐसे ही कारणों से लैंडफिल गैंसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। नतीजतन बच्चों में ब्लू बेबी सिंड्रोम जैसी बीमारी फैल रही है। इन गैसों के आंख, गले और नाक में स्थित ष्लेश्मा परत के संपर्क में आने से दमा, सांस, त्वचा और एलर्जी की बिमारियां बढ़ रही हैं। कचरा मैदानों के ऊपर बने भवनों में रहने वाले लोगों में से, खास तौर से महिलाओं में मूत्राशय का कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है। लैंडिफल गैंसें इन खतरों को चार गुना बढ़ा देती हैं। यह प्रदूशण गर्भ में पल रहे शिशु को भी प्रभावित करता है।
नियमानुसार कचरा मैदानों में भवन निर्माण का सिलसिला 15 साल बाद होना चाहिए। इस लंबी अवधि में कचरे के सड़ने की प्रक्रिया पूर्ण होकर लैंडफिल गैसों का उत्सर्जन भी समाप्त हो जाता है और जल में घुलनशील तरल पदार्थ का बनना भी बंद हो जाता है। लेकिन प्रकृति की इस नैसर्गिक प्रक्रिया के पूर्ण होने से पहले ही हमारे यहां जमीन के समतल होने के तत्काल बाद ही आलीशान इमारतें खड़ी करने का सिलसिला शुरू कर देते हैं। जिसका नतीजा उस क्षेत्र में रहने वाली आबादी और इलेक्ट्रोनिक उपकरणों को भुगतना होता है।
अब इस औद्योगिक व घरेलू कचरे को नश्ट करने के प्राकृतिक उपाय भी सामने आ रहे है। हालांकि हमारे देश के ग्रामीण अंचलों में घरेलू कचरे व मानव एवं पशु मल-मूत्र को घर के बाहर ही घरों में प्रसंस्करण करके खाद बनाने की परंपरा रही है। इसके चलते कचरा महामारी का रूप धारण कर जानलेवा बीमारियों का पर्याय न बनते हुए खेत की जरूरत के लिए ऐसी खाद में परिवर्तित होता है, जो फसल की उत्पादकता व पौश्टिकता बढ़ाता है। अब एक ऐसा ही अद्वितीय व अनूठा प्रयोग औद्योगिक व घरेलू जहरीले कचरे को नष्ट करने में सामने आया है। अभी तक हम केंचुओं का इस्तेमाल खेतों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए वर्मी कंपोस्ट खाद कें निर्माण में करते रहे हैं। हालांकि खेतों की उर्वरा क्षमता बढ़ाने में केंचुओं की उपयोगिता सर्वविदित है, पर अब औद्योगिक कचरे को केंचुओं से निर्मित वर्मी कल्चर से ठिकाने लगाने का सफल प्रयोग हुआ है। अहमदाबाद के निकट मुथिया गांव में एक पायलट परियोजना शुरू की गई है। इसके तहत जमा 60 हजार टन कचरे में 50 हजार केंचुए छोड़े गए थे। चमत्कारिक ढंग से केंचुओं ने इस कचरे का सफाया कर दिया। फलस्वरूप यह स्थल पूरी तरह प्राकृतिक ढंग से जहर के प्रदूषण से मुक्त हो गया। लैंडफिल गैसों से सुरक्षा के लिए कचरे को नष्ट करने के कुछ ऐसे ही प्राकृतिक उपाय अमल में लाने होंगे, जिससे कचरा मैदानों में बसी आबादी के लोग और इलेक्ट्रॉनिक उपकरण सुरक्षित रहें।


 प्रमोद भार्गव

मांसाहारी दूध पर भारत-अमेरिका विवाद: सांस्कृतिक मूल्यों और व्यापारिक हितों का टकराव

अमेरिका द्वारा भारतीय वस्तुओं के आयात पर 50 % टेरीफ लगाने के बाद भारत और अमेरिका के बीच व्यापारिक तनाव कई क्षेत्रों में देखा जा रहा हैं। लेकिन डेयरी उत्पादों को लेकर उठा विवाद विशेष रूप से संवेदनशील और गंभीर है। इस तनाव का प्रमुख कारण अमेरिका द्वारा भारत को गाय का दूध निर्यात करने की इच्छा है, जो भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक और नैतिक मान्यताओं से टकराता है। भारत का आरोप है कि अमेरिका का दूध “मांसाहारी दूध” है, क्योंकि वहां की डेयरी गायों को मांस और पशु अवशेषों से बने चारे का सेवन कराया जाता है।

भारत में दूध को न केवल पोषण का स्रोत बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से पवित्र माना जाता है। सनातन परंपरा में गाय को “गौ माता” के रूप में पूजा जाता है और उसके दूध को सात्विक, शाकाहारी व रोगनिवारक आहार माना जाता है। ऐसे में यदि दूध उत्पादन की प्रक्रिया में मांस या पशुजन्य अवयवों का उपयोग हो, तो भारतीय दृष्टिकोण से यह दूध अपवित्र और मांसाहारी माना जाएगा। यही कारण है कि भारत ने स्पष्ट रूप से ऐसे दूध और उससे बने उत्पादों के आयात पर प्रतिबंध लगा रखा है।

मांसाहारी चारे की वास्तविकता
अमेरिका और कई अन्य पश्चिमी देशों में डेयरी उत्पादन की लागत कम करने और गायों की दूध देने की क्षमता बढ़ाने के लिए उच्च प्रोटीन वाले “एनिमल बाय-प्रोडक्ट फीड”का इस्तेमाल किया जाता है। यह चारा प्रायः पोल्ट्री फार्म, मांस उद्योग और मछली उद्योग से बची-खुची सामग्री से तैयार होता है। इसमें शामिल होते हैं:

मुर्गियों और मछलियों के आंतरिक अंग, हड्डी और रक्त का पाउडर,
पशुओं के मांस के बचे हुए टुकड़े,
हड्डियों को पीसकर बनाया गया बोन मील,
मछली से निकले तेल और चूर्ण
इस मिश्रण को अन्य अनाज और विटामिन सप्लीमेंट्स के साथ मिलाकर पशु-आहार बनाया जाता है। अमेरिका में इसे “सामान्य फार्मिंग प्रैक्टिस” के रूप में स्वीकार किया गया है, क्योंकि उनके दृष्टिकोण में यह पोषण बढ़ाने और वेस्ट मैनेजमेंट का एक व्यावहारिक तरीका है। लेकिन भारतीय परंपरा में, यह पूरी प्रक्रिया नैतिक रूप से अनुचित और धार्मिक मान्यताओं के विपरीत मानी जाती है।
भारत का रुख और अमेरिका की प्रतिक्रिया
भारत ने अमेरिका से साफ कहा है कि या तो वे अपनी गायों को मांसाहारी चारा देना बंद करें, या फिर ऐसे दूध और डेयरी उत्पादों पर स्पष्ट लेबल लगाएं, जिससे उपभोक्ताओं को सही जानकारी मिल सके। लेकिन अमेरिका का तर्क है कि उनकी कृषि प्रणाली में यह सामान्य प्रक्रिया है और वे इसे बदलने के लिए बाध्य नहीं हैं। अमेरिका का मानना है कि लेबलिंग की ऐसी शर्तें गैर-जरूरी बाधाएं हैं और अंतरराष्ट्रीय व्यापार नियमों के विपरीत हैं।

संस्कृति बनाम वाणिज्य का सवाल
यह विवाद केवल दूध के आयात-निर्यात का नहीं, बल्कि सांस्कृतिक मूल्यों और व्यावसायिक हितों का टकराव है। भारत के लिए यह मामला धार्मिक और नैतिक आस्था से जुड़ा है, जबकि अमेरिका इसे महज व्यापारिक अवसर और कृषि पद्धति का हिस्सा मानता है। यही कारण है कि दोनों देशों के बीच डेयरी उत्पादों पर कोई ठोस व्यापारिक समझौता अब तक नहीं हो पाया है।
गाय, दूध और उससे जुड़ी पवित्रता भारतीय समाज की गहराई में बसी है। अमेरिका से आने वाला “मांसाहारी दूध” इस भावनात्मक और सांस्कृतिक ताने-बाने से मेल नहीं खाता। यदि भारत अपनी परंपराओं और उपभोक्ता अधिकारों की रक्षा करना चाहता है, तो उसे अपने प्रतिबंध और लेबलिंग की शर्तों पर दृढ़ रहना होगा। यह विवाद एक बार फिर यह साबित करता है कि वैश्विक व्यापार में केवल मुनाफा ही मायने नहीं रखता, बल्कि सांस्कृतिक संवेदनशीलता और स्थानीय मान्यताओं का सम्मान भी उतना ही आवश्यक है।
-सुरेश गोयल धूप वाला

कांग्रेस का ‘भगवा आतंकवाद’ और न्यायालय का निर्णय

राष्ट्रीय जांच एजेंसी की एक विशेष अदालत ने मालेगांव बम विस्फोट मामले में सभी सात आरोपियों को बरी कर दिया है। न्यायालय के इस आदेश के आने के बाद कांग्रेस और उसके नेताओं के द्वारा फैलाए गए इस भ्रम की भी पोल खुल गई है कि देश में कोई “भगवा आतंकवाद” नाम की चिड़िया भी रहती है। 17 वर्ष तक इस मामले के कथित आरोपियों को न्याय की प्रतीक्षा करनी पड़ी है। बहुत धीमी गति से न्याय इनके पास पहुंचा है अर्थात जीवन के 17 वर्ष अपने आप को दोष मुक्त कराने में इनको लग गए। विश्व हिंदू परिषद के राष्ट्रीय प्रवक्ता विनोद बंसल ठीक कहते हैं कि “आज जिन कथित हिंदू आतंकवादियों के बारे में न्यायालय ने यह निर्णय दिया है, वास्तव में यह निर्णय कांग्रेस के गाल पर एक करारा तमाचा है। इस निर्णय के आने के पश्चात कांग्रेस को हाथ जोड़कर हिंदू समाज से माफी मांगनी चाहिए। क्योंकि उनकी स्टोरी झूठी सिद्ध हो चुकी है। “
मालेगांव विस्फोट में कुल 14 आरोपी थे। जिनमें से 7 पर मुकदमा चला। उनके नाम हैं – साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, श्रीकांत पुरोहित, सेवानिवृत्त मेजर रमेश उपाध्याय,समीर कुलकर्णी,अजय रहिरकर, सुधाकर धर द्विवेदी, सुधाकर चतुर्वेदी। मालेगांव के इन आरोपियों पर आरोप लगाया गया था कि उनके द्वारा आरडीएक्स लाया गया और उसका प्रयोग किया गया, परंतु किसी भी आरोपी के घर में आरडीएक्स के होने के सबूत नहीं मिले। देश के लिए यह बहुत ही दुखद स्थिति है कि यहां पर हिंदू अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए यदि कान भी हिलाता है तो भी वह अपराधी हो जाता है।
दूसरे के अत्याचारों को झेले तो भी गलत है और अत्याचारों का प्रतिशोध करें तो भी गलत है। इसी प्रकार की स्थिति में हिंदू मुगल काल में जीता था। जब उसका पूर्ण रूपेण निशस्त्रीकरण कर दिया गया था। उसे हथियार रखने की अनुमति नहीं थी, यदि कोई मुस्लिम आगे से घोड़े पर चढ़कर आ रहा है तो हिंदू को अपने घोड़े से उतरना पड़ता था। पहले मुस्लिम को रास्ता देना पड़ता था। हिंदू अपने घरों में किसी की मृत्यु होने पर रुदन भी नहीं कर सकते थे। रामधारी सिंह दिनकर जी की पुस्तक “संस्कृति के चार अध्याय ” से हमें इन तथ्यों की जानकारी होती है। स्वाधीन भारत में भी कांग्रेस के शासनकाल में न्यूनाधिक हिंदू की यही स्थिति बनी रही है। देश को अस्थिर करने में लगी शक्तियों के संकेत पर सोनिया गांधी सांप्रदायिक हिंसा निषेध अधिनियम लाकर हिंदू के दमन को कानूनी परिधान पहनाकर और भी तेज करने पर उतारू हो गई थीं। वह आज भी इसी पहले हैं भारतीय बाद में । जिस प्रकार मालेगांव मामले को तूल दिया गया, वह कांग्रेस की इसी प्रकार की मानसिकता को लागू करने के संकेत था । यदि समय पर सांप्रदायिक हिंसा निषेध अधिनियम को लेकर हिंदूवादी संगठन और राजनीतिक दल उठ खड़े न होते तो आज मालेगांव मामले के सातों अभियुक्तों को बहुत संभव था कि हम अपने बीच ही न पाते अर्थात उन्हें फांसी दे दी गई होती। तनिक सोचिए कि उसके बाद यह सिलसिला कहां जाकर रुकता ?
साध्वी प्रज्ञा सिंह के साथ क्या-क्या किया गया है अर्थात उन्हें किस-किस प्रकार की यातनाएं दी गई हैं,उन्हें सुनकर भी आत्मा कांप उठती है। स्वतंत्र भारत में कांग्रेस की सरकारों के समय में किए गए इस प्रकार के अत्याचारों ने मुगलों और अंग्रेजों के अत्याचारों की यादों को ताजा कर दिया है।
इन अभियुक्तों में से एक मेजर रमेश उपाध्याय जी के साथ कई बार बैठने का और बातचीत करने का अवसर मुझे मिला है। उनकी सादगी, उनकी देशभक्ति, हिंदुत्व के प्रति समर्पण और राष्ट्र के प्रति निष्ठा सराहनीय है। किसी भी दृष्टिकोण से यह नहीं लगता कि वे अपराधी हो सकते हैं। यही स्थिति अन्य 6 लोगों के बारे में भी कही जा सकती है । उन्होंने अपनी राष्ट्रभक्ति का प्रदर्शन किया या करते रहे हैं , यही उनका अपराध था और उस अपराध के लिए इतनी यातनाओं से उन्हें गुजरना पड़ेगा, ऐसा स्वतंत्र भारत में सोचा भी नहीं जा सकता था। इन सभी लोगों पर गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की विभिन्न धाराओं के अंतर्गत आरोप लगाए गए थे।
इस निर्णय के आने के उपरांत कांग्रेस के नेता मुंह दिखाने योग्य नहीं रहे हैं। इसके उपरांत भी बहुत निर्लज्जता के साथ कहे जा रहे हैं कि उन्होंने कभी नहीं कहा कि देश में हिंदू आतंकवाद है। जबकि सच यह है कि कांग्रेस वोट बैंक की राजनीति करते हुए और मुस्लिम तुष्टिकरण का खेल खेलते हुए भगवा आतंकवाद का हव्वा खड़ा करके अपनी सत्ता को चिरस्थाई बना देना चाहती थी। देश के लोगों को सोचना चाहिए कि अपनी सत्ता की भूख को मिटाने के लिए कांग्रेस कितने निम्न स्तर तक जा सकती थी या जा सकती है? कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह और शिंदे ‘हिंदू आतंकवाद’ की बात करते थे। सारे संसार के लोग यह भली प्रकार जानते हैं कि हिंदू कभी आतंकवादी नहीं हो सकता । क्योंकि वह वेदों के मानवतावाद में विश्वास रखता है। इसके उपरांत भी कांग्रेस संसार भर के विद्वानों के इस विमर्श को झुठलाने पर उतारू थी।
एक अंग्रेजी पत्रिका ने 4 जुलाई को प्रेस नोट जारी किया था। इनमें कराची आधारित लश्करे तैयबा के आतंकी आरिफ 2009 के अंक में रक्षा विशेषज्ञ बी. रमन का लेख प्रकाशित हुआ। उस लेख से कांग्रेस की घृणित सोच का पता चलता है। उक्त रिपोर्ट के अंश यहाँ उद्धृत हैं, ‘आरिफ कासमानी अन्य आतंकी संगठनों के साथ लश्करे तैयबा का मुख्य समन्वयकर्ता है और उसने लश्कर की आतंकी गतिविधियों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कासमानी ने लश्कर के साथ मिलकर आतंकी घटनाओं को अंजाम दिशा, जिनमें जुलाई 2006 में मुंबई और फरवरी 2007 में पानीपत में समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाके शामिल हैं। सन् 2005 में लश्कर की ओर से कासमानी ने धन उगाहने का काम किया और भारत के कुख्यात अपराधी दाऊद इब्राहीम से जुटाए गए धन का उपयोग जुलाई 2006 में मुंबई की ट्रेनों में बम धमाकों में किया। कासमानी से अलकायदा को भी वित्तीय व अन्य मदद दी। कासमानी के सहयोग के लिए अलकायदा ने 2006 और 2007 के बम धमाकों के लिए आतंकी उपलब्ध कराए।’
इतने प्रमाणों के होने के उपरांत भी कांग्रेस के नेताओं को देश में भगवा आतंकवाद तो दिखाई दिया, परन्तु उनके मुंह पर इस्लामिक आतंकवाद कहने के लिए ताले पड़ गए।

डॉ राकेश कुमार आर्य

राहुल के आरोपों पर सर्वोच्च सवाल?

विजय सहगल 

संसद मे विपक्ष के नेता राहुल गांधी एक बार फिर विवादों के घेरे मे हैं। 4 अगस्त 2025 को देश की सर्वोच्च नयायालय की पीठ ने राहुल गांधी को भारतीय सेना पर अपमान जनक टिप्पणी  और चीन द्वारा भारत की  भूमि पर कब्जे के उनके गैरजिम्मेदाराना बयान के लिये जहां एक तरफ लताड़ लगाई, वही दूसरी ओर सीमा सड़क संगठन के पूर्व निदेशक  उमाशंकर श्रीवास्तव द्वारा उनके विरुद्ध मानहानि के एक लंबित आपराधिक वाद मे लखनऊ  और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक लगा कर राहत भी दे दी है। विदित हो कि अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान  राहुल गांधी ने 25 अगस्त  2022 को कारगिल की एक सभा को संबोधित  करते हुए उन्होने, गलवान घाटी संघर्ष पर टिप्पणी  करते हुए आरोप लगाया था कि चीन ने भारत की 2000 वर्ग किमी॰ भूमि पर कब्जा कर लिया। इस संघर्ष मे भारत के 20 सैनिक शहीद हुए थे। उन्होने यह भी आरोप लगाया था कि चीनी सैनिक अरुणाचल मे हमारे सैनिकों की पिटाई कर रहे है!! राहुल गांधी का ये  बयान  न केवल काफी मर्मांतक, वेदना और आहत करने वाला था अपितु उन सैनिकों का अपमान था जिन्होने वीरता पूर्वक देश के लिये लड़ते हुए अपना आत्मबलिदान कर प्राणों की आहुति दे दी। उस वीडियो को देश के करोड़ों करोड़ देशवासियों ने स्वयं देखा।

देश के सर्वोच्च न्यायालय ने राहुल गांधी के कानूनी सलाहकार अभिषेक मनु सिंघवी से तीखे सवाल करते हुए बड़ी आधारभूत टिप्पणी  की, कि राहुल गांधी को कैसे पता कि चीन ने भारत की 2000 वर्ग किमी॰ जमीन पर कब्जा कर लिया? चीन द्वारा जमीन कब्जाने का आधार क्या है? चीनी सेना द्वारा भारतीय सैनिकों की पिटाई जैसे आरोपों पर माननीय न्यायालय ने राहुल गांधी के भारतीय होने पर तीखी और सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि जब सीमा पर पड़ौसी  देश के साथ युद्ध की स्थिति और तनाव हो तो  कोई सच्चा भारतीय कैसे सेना का अपमान कर ऐसे वक्तव्य दे सकता है? माननीय न्यायाधीशों ने अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर कुछ भी कहने और बोलने पर आपत्ति की। संसद मे विपक्षी दल के मुखिया जैसे संवैधानिक पद रहते हुए, सरकार से सवाल पूंछने  के अपने अधिकार का प्रयोग न कर सोश्ल मीडिया पर सवाल पूंछ सनसनी फैलाना अनुचित और असंगत है। उच्चतम न्यायालय द्वारा उक्त आशय के सवाल पर न केवल राहुल गांधी अपितु सभी राजनैतिक पदों पर बैठे महत्वपूर्ण व्यक्तियों के लिये भी एक संदेश हैं कि “बोलने की आज़ादी के नाम पर बगैर किसी प्रमाण और आधार के आरोप-प्रत्यारोप अनुचित, असंगत और अन्यायपूर्ण है।

चीन द्वारा भारत की भूमि पर कब्जा करने के आरोपों पर राहुल गांधी की गंभीरता को इस बात से समझा जा सकता है कि अक्टूबर 2020 राहुल गांधी ने चीन द्वारा भारत की 1200 वर्ग किमी॰ जमीन कब्जाने का आरोप लगाया, वहीं दिसंबर 2022 मे 2000 वर्ग किमी॰  और अप्रैल 2025 मे 4000 वर्ग किमी भारतीय जमीन को चीन द्वारा कब्जाने का आरोप लगाया। कहने का तात्पर्य यह है कि राहुल गांधी किसी भी आरोप पर संजीदा नहीं रहते। वे बड़े चलताऊ ढंग से स्वयं ही  मामले को उठा कर उसकी विश्वसनीयता पर स्वयं ही प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देते हैं जो उचित प्रतीत नहीं होता।     

लेकिन दक्ष और सक्रिय राजनैतिक पंडितों को माननीय उच्चतम न्यायालय की राहुल गांधी के  विरुद्ध तीखी फटकार और टिप्पणियों पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ होगा क्योंकि ये कोई पहला मौका नहीं था जब माननीय न्यायालय द्वारा उनके वक्तव्यों  और कथनों पर उनके विरुद्ध सख्त और अप्रिय टिप्पणी या कठोर निर्णय न लिये गए  हों। राहुल गांधी द्वारा पहले भी बिना किसी आधार और सबूतों  के व्यक्तियों, समुदायों और अपने विरोधियों पर  असहज, अशोभनीय और अपमानजनक टिप्पणियाँ की जाती रही हैं । राहुल गांधी के इन कृत्यों पर विभिन्न न्यायालयों ने  समय समय पर डांट और फटकार कर माफी मांगने, चेतावनी देने और सजा देने के निर्णय दिये हैं। माननीय पाठकों को स्मरण होगा कि मई 2019 मे “चौकीदार चोर है” पर अदालत को गलत ढंग से उद्धृत करने के लिये सुप्रीम कोर्ट से बिना शर्त माफी मांगी थी।

13 अप्रैल 2019 को कर्नाटक के कोलार मे एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने आरोप लगाया था कि “सभी चोरों के सरनेम मोदी क्यों?” इस  आरोप के विरुद्ध मानहानि के  केस मे सूरत के एक न्यायालय ने 23 मार्च 2023 को राहुल गांधी  को दोषी ठहराते हुए  दो साल की सजा सुनाई  जिसके कारण उनकी संसद सदस्यता समाप्त हो गयी थी पर उच्चतम न्यायालय द्वारा रोक के बाद अभी मामला कोर्ट मे लंबित है।

14 दिसम्बर 2018 मे  राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद पर राहुल गांधी द्वारा बेबुनियाद, निरधार और तथ्यहीन आरोपों पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय मे किसी भी तरह की अनियमिताओं और भ्रष्टाचार से इंकार किया। 14 नवंबर 2019 को अपने निर्णय पर पुनर्विचार की याचिका को खारिज करते हुए अपने निर्णय को कायम रक्खा। इस तरह राहुल गांधी के झूठे आरोपों की हवा निकाल दी। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय पर सरकार ने  इसी बात का संज्ञान लेते हुए राहुल गांधी को संसद के भीतर और बाहर जनता से माफी मांगने की मांग की थी। आरएसएस पर आरोप, स्वतन्त्रता सेनानी वीर सावरकर पर अशिष्ट टिप्पणी, अमित शाह को मर्डर अभियुक्त कहने जैसे  अनेक मामले हैं, जब राहुल गांधी ने आरोप लगा कर सनसनी फैला कर वाहवाही लूटी पर कभी कोई प्रमाण आदि नहीं दिये। राहुल का ये स्वभाव है,  लोकतन्त्र मे बोलने की आज़ादी के नाम पर आरोप लगाओ और भाग जाओ।                  

राहुल गांधी जैसे जिम्मेदार नेता चीनी सेना के सैनिकों द्वारा भारतीय “सैनिकों की पिटाई” जैसे गली छाप, ओछे  शब्दो का उपयोग कैसे कर सकते है? बड़ा खेद और अफसोस है नेहरू-गांधी जैसे देश के सबसे बड़े प्रभावशाली राजनैतिक परिवार के सदस्य होने के नाते राहुल गांधी, क्या  अपने आप को देश के कानून और संविधान से उपर समझते हैं? लेकिन लोकतन्त्र का तक़ाज़ा हैं कि राहुल गांधी को संवैधानिक संस्थाओं, लोगों, समूहों के स्वाभिमान और  सम्मान को ठेस पहुंचाये बिना, उनके विरुद्ध अनर्गल, आधारहीन और ओछे आरोप लगाने से बचना चाहिये। माननीय सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी राहुल गांधी सहित उन सभी नेताओं को चेतावनी है कि बिना किसी आधार और प्रमाण के गैरजिम्मेदाराना टिप्पणी से बचें।

विजय सहगल 

प्रकृति के पुत्र और संस्कृति के प्रहरी हैं आदिवासी

विश्व आदिवासी दिवस- 9 अगस्त 2025
– ललित गर्ग –

विश्व आदिवासी दिवस, 9 अगस्त, केवल एक संवैधानिक औपचारिकता नहीं, बल्कि यह सभ्यता की जड़ों और संवेदनशीलता के स्रोत को स्मरण करने का दिन है। यह दिन न केवल आदिवासियों के अस्तित्व, अधिकारों यानी जल, जंगल, जमीन और उनके जीवन की रक्षा का उद्घोष है, बल्कि यह नए भारत के पुनर्निर्माण में उनके अमूल्य योगदान को रेखांकित करने का भी अवसर है। आदिवासी समाज कोई पिछड़ा समूह नहीं, बल्कि वह सांस्कृतिक ऊर्जा का अक्षय स्रोत है, जिसने स्वतंत्रता संग्राम से लेकर पर्यावरण रक्षा तक, सामाजिक समरसता से लेकर आध्यात्मिक परंपराओं तक, हर दिशा में क्रांतिकारी भूमिका निभाई है।
आदिवासी प्रकृति के पुत्र और संस्कृति के प्रहरी है। ‘जो प्रकृति से जुड़ा है, वही मनुष्यत्व का संरक्षक है’-यह वाक्य आदिवासी समाज पर अक्षरशः लागू होता है। आदिवासी शब्द मात्र एक सामाजिक पहचान नहीं, बल्कि एक दर्शन है, सहजता, सामूहिकता, संतुलन और सह-अस्तित्व का दर्शन। करीब 90 प्रतिशत खनिज सम्पदा, वनौषधियां और जैव विविधता इन्हीं के क्षेत्रों में विद्यमान है। उनका जीवन सभ्यता के केंद्र से नहीं, बल्कि संवेदना के मूल से संचालित होता है। वे भले ही ‘वनवासी’ कहलाए गए, परंतु उनका जीवन दर्शन हमें शहरीकरण के आडंबर से बाहर निकालकर स्वाभाविक जीवन की राह दिखाता है। नए भारत में विकास का पर्याय यदि केवल बहुराष्ट्रीय निवेश, चकाचौंध और स्मार्ट सिटी बन गया है, तो आदिवासी समाज उसके विस्थापित मूल्य हैं। जल-जंगल-जमीन के नाम पर किए गए सौदे, खनिज लूट, धार्मिक कन्वर्जन, सांस्कृतिक विघटन और जबरन भूमि अधिग्रहण की घटनाएं केवल उनकी आर्थिक दशा ही नहीं बिगाड़ती, बल्कि उनकी पहचान, संस्कृति, भाषा और परंपरा को भी निगलती जा रही हैं। आज आदिवासी समाज ऋण, अशिक्षा, पलायन, अस्वास्थ्यकर जीवन, बेरोजगारी जैसी समस्याओं से ग्रस्त है। तथाकथित विकास ने उन्हें ‘पराया’ बना दिया है। वे भारत में रहकर भी अपने ही देश में अदृश्य नागरिक बन गए हैं, जिनके पास न राशन कार्ड है, न पहचान पत्र, न ही राजनीतिक प्रतिनिधित्व की शक्ति।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नए भारत की कल्पना में अगर “सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास” का सूत्र वाक्य सार्थक करना है, तो आदिवासी पुनर्जागरण सबसे पहली शर्त है। इस दिशा में गुजरात के प्रसिद्ध जैन संत गणि राजेन्द्र विजयजी का कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनका जीवन आदिवासी क्षेत्रों के लिए संघर्ष, सेवा और सद्भाव की त्रयी बन गया है। वे वर्षों से आदिवासी समाज के उत्थान हेतु शिक्षा, स्वास्थ्य, नशामुक्ति, रोजगार और संस्कृति संवर्धन के अभियान चला रहे हैं। उनका “सुखी परिवार अभियान” केवल परिवार को नहीं, बल्कि पूरे आदिवासी समाज को जागृत करने का एक जनांदोलन बन चुका है। वे आदिवासियों में आत्मबल, आत्मगौरव और आत्मनिर्भरता की भावना जगा रहे हैं। बालिका शिक्षा केंद्र, नैतिक शिक्षा अभियान, युवाओं के लिए स्वावलंबन कार्यशालाएं, महिलाओं के लिए स्वास्थ्य, आदिवासी ग्रामोद्योग, आदिवासी संस्कृति उन्नयन और स्व-सहायता समूहों का गठन-ये सभी उनके प्रयासों का हिस्सा हैं। वे जनजातीय समाज में अहिंसा, नैतिकता और भारतीय संस्कृति के बीज बो रहे हैं, ताकि वे अपने मूल से कटे नहीं, बल्कि गौरव से जुड़े रहें।
आज आदिवासी समाज को जितना खतरा बाह्य आर्थिक और राजनीतिक शोषण से है, उससे कहीं अधिक सांस्कृतिक अस्मिता के विघटन से है। धर्मान्तरण की गतिविधियाँ न केवल धार्मिक परिवर्तनों का परिणाम देती हैं, बल्कि उससे जुड़ी मानसिक गुलामी और राष्ट्र-विरोधी मानसिकता भी पनपती है। गणि राजेन्द्र विजयजी इस खतरे को भली-भांति समझते हैं। उन्होंने धर्मान्तरण के विरुद्ध शांति, संवाद और आध्यात्मिक पुनर्जागरण का मार्ग अपनाया है। उन्होंने जैन धर्म के मूल्यों के साथ-साथ सभी धर्मों के सकारात्मक मूल्यों को आदिवासी जनजीवन से जोड़ा है ताकि वे किसी भी प्रकार की सांस्कृतिक हिंसा से बचें। गणिजी का स्पष्ट मत है कि हर आदिवासी को अपनी जड़ों में झांकना होगा। उसे यह पहचानना होगा कि वह केवल वनवासी नहीं, अपितु संस्कृति का संवाहक है।’ वे आदिवासियों को आत्म निरीक्षण की प्रेरणा देते हैं कि “जो अपने मूल से कट जाता है, वह किसी भी विकास का अधिकारी नहीं बन सकता।” उनकी प्रेरणा से कई आदिवासी युवाओं ने शिक्षा ग्रहण की, रोजगार स्थापित किए, कुटीर उद्योगों की ओर बढ़े और सबसे महत्वपूर्ण, अपने आत्मगौरव को पुनः प्राप्त किया।
आज जब दुनिया कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई), ब्लॉकचेन, ड्रोन टेक्नोलॉजी और डिजिटल नवाचार की ओर अग्रसर हो रही है, तब आदिवासी समाज को भी इस बदलाव की मुख्यधारा से जोड़ना आवश्यक है। तकनीक उनके जीवन में केवल बदलाव का कारक नहीं, बल्कि संरक्षण और सशक्तिकरण का माध्यम बन सकती है। एआई आधारित भाषाई अनुवाद तकनीकों से उनकी बोली और लोककथाओं को डिजिटल रूप में संरक्षित किया जा सकता है, जिससे उनकी सांस्कृतिक विरासत विश्व तक पहुंचे। ड्रोन एवं जीआईएस तकनीक से आदिवासी क्षेत्रों के भू-अधिकार सुरक्षित किए जा सकते हैं। मोबाइल हेल्थ यूनिट्स, टेलीमेडिसिन और डिजिटल शिक्षा से वे दुर्गम क्षेत्रों में भी उन्नत जीवन स्तर पा सकते हैं। नवाचार तभी सार्थक होगा जब वह जंगलों में बसे एक युवा को भी ग्लोबल लर्निंग का अवसर प्रदान करे, न कि उसे अपनी जड़ों से काटे।
आज की वैश्विक दुनिया ‘लोकल टू ग्लोबल’ की सोच को प्रोत्साहित कर रही है और आदिवासी समाज इसमें एक अनमोल भागीदार बन सकता है। उनका पारंपरिक ज्ञान, जैविक खेती, वन औषधियों की समझ, हस्तशिल्प और पर्यावरण संतुलन की परंपराएं विश्व समुदाय के लिए एक वैकल्पिक जीवनदर्शन बन सकती हैं। इसके लिए जरूरी है कि आदिवासी युवा आधुनिक शिक्षा को अपनाएं, लेकिन अपनी संस्कृति और जीवनमूल्यों से जुड़े रहें। उन्हें अपने उद्यमिता कौशल को पहचानने और विकसित करने की आवश्यकता है, जैसे वनोपज आधारित उद्योग, इको-टूरिज्म, वन-हस्तशिल्प, संगीत-नृत्य उत्सव आदि के माध्यम से वे आर्थिक रूप से सशक्त हो सकते हैं। डिजिटल मार्केट प्लेस के जरिए उनके उत्पादों को वैश्विक बाज़ार में पहुंचाया जा सकता है। आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा तभी पूर्ण होगी जब आदिवासी समाज भी अपने भीतर से आत्मनिर्भर बनकर आगे बढ़े।
भारत की स्वतंत्रता केवल मैदानों और दरबारों में नहीं, बल्कि जंगलों और पहाड़ियों में भी लड़ी गई थी, जहाँ आदिवासी वीरों ने अंग्रेजी साम्राज्य की नींव हिला दी थी। बिरसा मुंडा जैसे अद्भुत योद्धा और आध्यात्मिक नेता ने न केवल अंग्रेजों के भूमि अधिग्रहण और धर्मान्तरण के विरुद्ध जनजागरण किया, बल्कि एक सशस्त्र संघर्ष को भी नेतृत्व प्रदान किया। झारखंड में चला उनका उलगुलान आंदोलन (महाविप्लव) आदिवासी अस्मिता और स्वाभिमान की एक ऐतिहासिक घोषणा थी। इसी तरह सिद्धू-कान्हू, रानी दुर्गावती, तेलंगाना के कोमराम भीम, भील आंदोलन के गोविंद गुरु, तेनालीराम बावरी, और नारायण सिंह जैसे अनेक आदिवासी सेनानियों ने अपने प्राणों की आहुति देकर यह सिद्ध किया कि भारत की आज़ादी की चिंगारी सबसे पहले आदिवासी अंचलों में धधकी थी। बिरसा मुंडा और आदिवासी वीरों का आजादी में अविस्मरणीय योगदान रहा लेकिन दुर्भाग्यवश, इतिहास की मुख्यधारा में इनके योगदान को उतनी जगह नहीं मिली, जितनी मिलनी चाहिए थी। आज विश्व आदिवासी दिवस हमें इन भूलाए गए नायकों को स्मरण करने, उनका गौरव गान करने और नई पीढ़ी में उनकी प्रेरणा जगाने का अवसर देता है।
विश्व आदिवासी दिवस एक प्रतीक दिवस है, परंतु नीति, नीयत और निष्ठा से इसका पालन आवश्यक है। केवल भाषण, घोषणाएं और योजनाओं से आदिवासी समाज नहीं बदलेगा। उन्हें सुनने, समझने और साथ चलने की आवश्यकता है। उनके जल, जंगल, जमीन के अधिकार की कानूनी एवं नैतिक सुरक्षा हो। उनकी भाषा, परंपरा और नृत्य-संगीत को संरक्षित किया जाए। शिक्षा और स्वास्थ्य के अवसर स्थानीय सांस्कृतिक परिवेश में उपलब्ध कराए जाएं। आदिवासी नेतृत्व को राजनीतिक सशक्तिकरण मिले। नया भारत आदिवासी आत्मा के बिना अधूरा है क्योंकि भारत की आत्मा आदिवासियों की थापों में बसती है, उनके ढोल, मांदर, बांसुरी, उनके लोकगीत, उनके नृत्य और उनकी सरलता में। यदि हमें नया भारत बनाना है तो हमें आदिवासी समाज के साथ खड़ा होना होगा, उनके लिए नहीं, उनके साथ। गणि राजेन्द्र विजयजी जैसे संत इस दिशा में दीपशिखा बनकर मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। इस विश्व आदिवासी दिवस पर हम केवल स्मरण नहीं, संवेदना, संरक्षण और सहभागिता के साथ इस अद्वितीय समाज के साथ जुड़ें, यही होगा सच्चा राष्ट्रधर्म।

रक्षाबंधन के बदलते मायने: परंपरा से आधुनिकता तक

रक्षाबंधन का धागा सिर्फ कलाई पर नहीं, दिल पर बंधता है। यह एक वादा है—साथ निभाने का, सुरक्षा का, और बिना कहे समझ लेने का। बहन की राखी में वो मासूम दुआ होती है जो शब्दों में नहीं कही जाती, और भाई की आंखों में वो संकल्प होता है जो हर चुनौती से लड़ने का हौसला देता है। समय चाहे जितना बदल जाए, दूरियाँ जितनी भी हो, ये धागा हर बार रिश्तों की गर्मी लौटा लाता है। रक्षाबंधन एक उत्सव नहीं, एक एहसास है—जो हर साल हमें जोड़ता है।

लेखिका: डॉ. प्रियंका सौरभ

भारत विविधताओं से भरा देश है, जहां हर त्यौहार न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक होता है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक रिश्तों को भी मजबूत करता है। इन्हीं में से एक विशेष पर्व है — रक्षाबंधन, जो भाई-बहन के रिश्ते की मिठास, प्रेम और सुरक्षा का प्रतीक है। लेकिन बदलते समय, समाज, तकनीक और सोच के साथ-साथ रक्षाबंधन के मायने भी बदल रहे हैं। यह बदलाव केवल रस्मों तक सीमित नहीं है, बल्कि इस पर्व की आत्मा, इसके उद्देश्य और इसके सामाजिक संदर्भ में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

रक्षाबंधन की जड़ें भारतीय इतिहास, पौराणिक कथाओं और सामाजिक परंपराओं में गहराई से जुड़ी हैं। द्रौपदी और श्रीकृष्ण की कथा हो या रानी कर्णावती द्वारा हुमायूं को भेजी गई राखी, यह पर्व सदा से रक्षक और संरक्षित के बीच एक नैतिक संकल्प का प्रतीक रहा है। पहले के समय में राखी केवल भाई-बहन के खून के रिश्ते तक सीमित थी। बहन भाई की कलाई पर राखी बाँधती थी और भाई जीवनभर उसकी रक्षा करने का वचन देता था। यह रिश्ता स्नेह, विश्वास और समर्पण से भरा होता था।

अब रक्षाबंधन का दायरा केवल खून के रिश्तों तक सीमित नहीं रहा। आज कई महिलाएं अपने दोस्तों, सहकर्मियों, शिक्षकों, सैनिकों और यहां तक कि प्रकृति को भी राखी बाँधती हैं। यह दर्शाता है कि “रक्षा” अब केवल एक व्यक्ति विशेष का दायित्व नहीं, बल्कि सामाजिक और भावनात्मक संबंधों की व्यापक जिम्मेदारी बन चुका है। इसका सबसे सुंदर उदाहरण है कि अब बहनें भी अपने छोटे भाइयों को कहती हैं — “मैं भी तेरी रक्षा करूँगी।” यानी सुरक्षा का रिश्ता अब एकतरफा नहीं रहा, यह परस्पर बन गया है।

तकनीक ने आज रिश्तों के समीकरण ही बदल दिए हैं। पहले जहां राखी भेजने के लिए डाकघर जाना पड़ता था, अब एक क्लिक में डिजिटल राखियाँ, वीडियो कॉल, ऑनलाइन गिफ्टिंग और वर्चुअल सेरेमनी हो रही हैं। विदेशों में बसे भाई-बहन अब भले दूर हों, लेकिन वीडियो कॉल पर राखी बाँधने की परंपरा, स्क्रीन पर तिलक और डिजिटल मिठाई ने एक नई तरह की जुड़ाव की भावना पैदा की है। कुछ लोग भले इसे भावनाओं की कमी कहें, लेकिन सच्चाई यह है कि तकनीक ने दूरी को पाटने का जरिया भी दिया है।

पहले रक्षाबंधन पर भाई बहन को मिठाई और उपहार देता था। यह एक तरह से प्रेम की अभिव्यक्ति थी। लेकिन अब कई बहनें कहती हैं — “भैया, गिफ्ट नहीं चाहिए, थोड़ी सी फुर्सत चाहिए, समय चाहिए, समझ चाहिए।” आज की बहन आत्मनिर्भर है। वह भावनात्मक सुरक्षा, मानसिक सहयोग और बराबरी की भागीदारी चाहती है। उपहार की जगह अब रिश्तों में पारदर्शिता, संवाद और समय की मांग अधिक हो गई है।

पुराने जमाने में रक्षाबंधन का अर्थ था — “भाई बहन की रक्षा करेगा।” परंतु आज यह परिभाषा बदल रही है। लड़कियाँ भी आज आत्मनिर्भर हैं, अपने भाइयों की मदद कर रही हैं, उन्हें मानसिक और आर्थिक संबल दे रही हैं। रक्षाबंधन अब यह नहीं कहता कि केवल भाई ही रक्षक होगा, बल्कि यह दर्शाता है कि भाई और बहन दोनों एक-दूसरे की ज़िंदगी में सुरक्षा, समर्थन और प्रेरणा बन सकते हैं।

आज के समय में रक्षाबंधन केवल भाई-बहन का पर्व नहीं रहा, यह प्रकृति की रक्षा, सामाजिक सौहार्द और समानता का प्रतीक भी बन चुका है। कई स्थानों पर पेड़ों को राखी बाँधने की परंपरा चल पड़ी है — “वृक्ष-रक्षा बंधन”। बच्चें और महिलाएं वृक्षों को राखी बाँधकर यह संदेश दे रही हैं कि हम केवल मानव की नहीं, प्रकृति की भी रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं। इसी तरह से सैनिकों को राखी भेजना यह बताता है कि देश की रक्षा करने वाले वीरों के साथ भी हम भावनात्मक रूप से जुड़े हैं।

बहनें अब केवल रक्षा की याचक नहीं, बल्कि स्वाभिमानी, आत्मनिर्भर और संवेदनशील भी हैं। कई परिवारों में बहनें ही भाइयों की आर्थिक, शैक्षणिक या सामाजिक मदद कर रही हैं। यह बदलाव यह संकेत करता है कि रक्षाबंधन अब पौरुष और स्त्रीत्व के सांचे से बाहर निकल कर इंसानी मूल्यों और बराबरी के धरातल पर खड़ा हो रहा है।

आज के इस व्यस्त जीवन में भावनाओं की अभिव्यक्ति के तरीके भले बदल गए हों, लेकिन उनकी अहमियत कम नहीं हुई है। भाई-बहन अब केवल राखी के दिन नहीं, सालभर एक-दूसरे के जीवन में सहयोगी बने रहते हैं। रक्षाबंधन एक बहाना है उन रिश्तों को फिर से जीने का, जिनमें कभी झगड़े थे, कभी मिठास, कभी नाराज़गी और कभी अपार स्नेह। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि रिश्ते बनाए नहीं जाते, निभाए जाते हैं।

आज रक्षाबंधन केवल हिंदू धर्म या भारतीय संस्कृति तक सीमित नहीं रहा। यह पर्व अब सांप्रदायिक सौहार्द, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समरसता का प्रतीक भी बन चुका है। कई जगह मुस्लिम लड़कियाँ हिंदू भाइयों को राखी बाँधती हैं, ईसाई बच्चे सैनिकों को राखी भेजते हैं — यह सब इस बात का संकेत हैं कि रक्षा का संकल्प मानवता का संकल्प है, न कि केवल किसी धर्म, जाति या समुदाय का।

रक्षाबंधन के बदलते मायने हमें यह समझाते हैं कि त्योहार केवल रस्में नहीं होते, वे विचार होते हैं, भावना होते हैं। आज का रक्षाबंधन हमें यह सीख देता है: कि रक्षा एकतरफा नहीं, परस्पर होती है। कि रिश्ते खून से नहीं, भावना से बनते हैं। कि प्रकृति, समाज और देश भी हमारी रक्षा के हकदार हैं। और यह कि महिला केवल संरक्षित नहीं, संरक्षक भी हो सकती है। रक्षाबंधन अब केवल एक पर्व नहीं, एक दार्शनिक दृष्टिकोण है — जो कहता है कि प्रेम, समर्पण और समानता से ही समाज और रिश्ते टिक सकते हैं।

अमेरिकी दादागिरी पर मोदी की ललकार

– ललित गर्ग –

देश के अग्रणी कृषि वैज्ञानिक एवं कृषि-क्रांति के जनक एम.एस. स्वामीनाथन के शताब्दी समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसान हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए ललकारभरे शब्दों में अमेरिकी टैरिफ पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि भारत किसानों के हितों से समझौता नहीं करेगा, भारत की बढ़ती वैश्विक ताकत का द्योतक है। ट्रंप प्रशासन द्वारा लगाए गए टैरिफ को भारत ने अनुचित एवं दुर्भावनापूर्ण बताया है। भारत अमेरिकी कृषि उत्पादों के लिए बाजार खोलने के दबाव कभी नहीं आयेगा क्योंकि भारत के लिये यह एक राजनीतिक रूप से संवेदनशील मुद्दा है। इस समारोह में मोदी ने जो शब्द कहे, वे केवल एक श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि नये भारत, सशक्त भारत की एक स्पष्ट नीति का घोषणा पत्र है, भारत की नई कृषि रणनीति, आत्मनिर्भरता की भावना और अमेरिकी टैरिफ की दादागिरी को खुली चुनौती है। भारत अब पीछे हटने वाला नहीं है और दुनिया की कोई भी ताकत उसे नुकसान नहीं पहुंचा सकती।
प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिकी टैरिफ पर पहली बार प्रतिक्रिया दी, और अमेरिका या डॉनल्ड ट्रंप का नाम लिए बगैर कहा कि किसानों, पशुपालकों और मछुआरों के हितों के साथ भारत कभी समझौता नहीं करेगा। भारत ने इससे पहले ट्रंप के 50 प्रतिशत टैरिफ को अनुचित, अन्यायपूर्ण और तर्कहीन बताया था। यह विडम्बनापूर्ण एवं विसंगतिपूर्ण है कि ट्रंप बातें रूस की कर रहे हैं, लेकिन यह समझना आसान है कि उनकी निराशा के मूल में भारत के साथ अटकी कृषि ट्रेड डील भी है। वह चाहते हैं कि भारत अमेरिकी कृषि उत्पादों और डेयरी प्रॉडक्ट्स के लिए अपना बाजार खोले। लेकिन देश की बड़ी आबादी खेती पर आश्रित है और किसान आर्थिक रूप से सशक्त नहीं हैं। इसलिये वे सब्सिडाइज्ड अमेरिकी प्रॉडक्ट्स से होड़ नहीं कर सकते। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण के जरिये भारत का यही पक्ष एवं किसानों की चिन्ता को रखा है। लेकिन ट्रंप इस चिंता को शायद ही समझें, क्योंकि अब ऐसा लग रहा है कि अपनी हर नाकामी का ठीकरा फोड़ने के लिए उन्हें कोई देश चाहिए। अमेरिका में बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी का दबाव व यूक्रेन युद्ध न रुकवा पाने की हताशा ट्रंप के फैसलों में बौखलाहट के रूप में झलक रही है। पहले उन्होंने चीन पर दबाव बनाने की कोशिश की, लेकिन जब वहां से ‘रेयर अर्थ मिनरल्स’ के रूप में झटका लगा, तो भारत और रूस से अपनी बात मनवाना चाहते हैं।
हाल ही में अमेरिका द्वारा भारतीय कृषि उत्पादों पर टैरिफ बढ़ाने की घोषणा को प्रधानमंत्री मोदी ने न केवल अनुचित और एकतरफा करार दिया, बल्कि यह स्पष्ट कर दिया कि भारत अब वैश्विक मंच पर दबाव में आने वाला नहीं है। अमेरिका की यह टैरिफ नीति, डब्ल्यूटीओ के सिद्धांतों के विरुद्ध और विकासशील देशों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार का प्रतीक है। भारत पर विशेषकर चावल, गेहूं, दलहन, और मसालों के निर्यात में टैरिफ लगाना सीधे-सीधे भारतीय किसानों की आय पर प्रहार है। ऐसे समय में जब भारत कृषि निर्यात को बढ़ावा देकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सशक्त बना रहा है, अमेरिका की यह नीति दादागिरीपूर्ण व्यापारवाद का उदाहरण है। भले ही ट्रंप की टैरिफ पैंतरों ने दुनिया के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी हो, लेकिन भारत ऐसी चुनौतियों के सामने झुकने वाला नहीं है।
भारत अब केवल अमेरिका या यूरोप पर निर्भर नहीं रहना चाहता। अफ्रीका, खाड़ी देशों, दक्षिण एशिया और पूर्वी एशियाई देशों के साथ द्विपक्षीय कृषि व्यापार समझौते तेजी से किए जा रहे हैं। स्थानीय उत्पादन का प्रोत्साहन, ‘मेक इन इंडिया’ और ‘वोकल फॉर लोकल’ के तहत कृषि प्रसंस्करण इकाइयों को बल दिया जा रहा है, जिससे निर्यात योग्य उत्पादों का मूल्यवर्धन हो सके। डिजिटल एग्रीकल्चर मिशन, तकनीक के माध्यम से किसानों को वैश्विक बाजार की जानकारी, टैरिफ डाटा और निर्यात संभावनाओं से जोड़कर किसानों की ताकत को बढ़ाया जा रहा है। भारत टैरिफ के जवाब में टैरिफ की राह पर बढ़ते हुए यदि आवश्यकता पड़ी, तो प्रतिस्पर्धी टैरिफ नीति के तहत अमेरिकी उत्पादों पर शुल्क बढ़ाने से नहीं हिचकिचाएगा। भारत डब्ल्यूटीओ और जी20 आदि मंचों पर आक्रामक कूटनीति का सहारे लेकर अब विकासशील देशों की आवाज बनकर, अमेरिका की एकतरफा नीतियों का जवाब दे रहा है।
देश को धीरे-धीरे समझ आने लगा है कि भारतीय कृषि व डेरी क्षेत्र में अमेरिकी उत्पाद खपाने के लिये ही डोनाल्ड ट्रंप टैरिफ आंतक फैला रहे हैं। यही वजह है कि पहले संयम दिखाने के बाद भारत ने निरंकुश ट्रंप सरकार को चेता दिया है कि भारतीय किसानों व दुग्ध उत्पादकों के हितों की बलि नहीं दी जा सकती। हमारे लिये यह देश की एक बड़ी कृषि व डेरी उद्योग से जुड़ी आबादी के जीवन-यापन का भी प्रश्न है। बहरहाल, यह तय हो गया है कि भारत वाशिंगटन के उन मंसूबों पर पानी फेरने के लिये खड़ा हो गया है, जिनके तहत अमेरिका मक्का, सोयाबीन, सेब, बादाम और इथेनॉल जैसे उत्पादों से कम टैरिफ के साथ भारत के बाजार को पाटना चाहता है। निस्संदेह, भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले तीन प्रमुख क्षेत्रों कृषि, डेरी फार्मिंग और मत्स्य पालन से जुड़े करोड़ों लोगों की अजीविका की रक्षा करने के लिये प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता सराहनीय है।
एम.एस. स्वामीनाथन का नाम आते ही भारतीय कृषि का वह स्वर्णिम अध्याय सामने आता है, जब देश अन्न के लिए विदेशों पर आश्रित था और अकाल एक आम त्रासदी हुआ करती थी। 1960 के दशक में स्वामीनाथन ने नॉर्मन बोरलॉग के साथ मिलकर उच्च उपज वाली किस्मों (एचवाईवी), उर्वरकों और सिंचाई तकनीक का ऐसा संगम किया जिसने भारत को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बना दिया। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में शुरू हुई हरित क्रांति ने न केवल खाद्यान्न सुरक्षा सुनिश्चित की, बल्कि भारत की कृषि पहचान को वैश्विक पटल पर स्थापित किया। उनकी रिपोर्टें, विशेष रूप से स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें, आज भी किसानों की आय दोगुनी करने और उन्हें बाजार से न्याय दिलाने की कुंजी मानी जाती हैं। उन्होंने ‘किसान केंद्रित कृषि नीति’ का विचार दिया, जिसमें किसानों को केवल उत्पादनकर्ता नहीं, बल्कि राष्ट्रनिर्माता माना गया। मोदी इसी नीति को आगे बढ़ाते हुए न केवल किसानों के हितों के साध रहे हैं, बल्कि भारतीय कृषि को नये भारत का आधार बनाने के लिये संकल्पबद्ध है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि भारतीय राजनीति में किसान उत्पादक व उपभोक्ता से इतर बड़ा राजनीतिक घटक भी है। ऐसे में जाहिर है कि प्रधानमंत्री मोदी कृषक समुदाय को किसी भी कीमत पर नाराज नहीं करना चाहेंगे।
प्रधानमंत्री मोदी का जोर अब ‘अन्नदाता को ऊर्जादाता’ बनाने पर है। इसके लिए कृषि के तीन प्रमुख मोर्चों पर काम हो रहा है- न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को अधिक न्यायसंगत और पारदर्शी बनाना। कृषि निर्यात को 50 बिलियन डॉलर से ऊपर ले जाना। स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को चरणबद्ध लागू करना, जिससे किसानों को लागत से 50 प्रतिशत अधिक लाभ मिल सके। आज जब हम एम.एस. स्वामीनाथन की वैज्ञानिक दृष्टि को याद करते हैं, तो स्पष्ट होता है कि उनकी सोच सिर्फ उत्पादन बढ़ाने तक सीमित नहीं थी, बल्कि किसान को सशक्त करने, आत्मनिर्भर बनाने और वैश्विक ताकतों के सामने टिके रहने योग्य बनाने की थी। मोदी की यह नई नीति उसी दर्शन की राजनीतिक अभिव्यक्ति है।
सही मायनों में भारतीय कृषि में उन आमूल-चूल परिवर्तनों की आवश्यकता है जो न केवल किसान की आय बढ़ाएं बल्कि कृषि उत्पादों को विश्व बाजार की चुनौतियों से मुकाबला करने में भी सक्षम बनायें। एक सौ चालीस करोड़ आबादी वाला देश भारत दुनिया में सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला देश है। इस आबादी की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना भी देश की प्राथमिकता होनी चाहिए। ऐसे में हरित क्रांति के जनक एम.एस. स्वामीनाथन को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम हर हालात में मेहनतकश अन्नदाता को पूरे दिल से समर्थन दें। भारत अब ‘झुककर व्यापार’ नहीं करेगा, बल्कि ‘सम्मान के साथ साझेदारी’ करेगा। अमेरिका जैसे देशों को यह समझना होगा कि भारतीय किसान अब केवल हल चलाने वाला नहीं, बल्कि वैश्विक बाजार का खिलाड़ी है। और जब उसके पीछे स्वामीनाथन की विरासत और मोदी की नेतृत्वशक्ति हो, तो कोई भी टैरिफ, कोई भी दबाव, भारत की कृषि शक्ति को झुका नहीं सकता।

भजन : प्रभु शरणम

तर्ज : बच्चे मन के सच्चे

दोहा: ईश कृपा बिन गुरु न मिले, गुरु बिन मिले न ज्ञान
ज्ञान बिना आत्मा न मिले, सुन ले चतुर सुजान।।
दुःख रूप संसार यह,जन्म मरण की खान।।
हमे निकालो दया कर, मेरे गुरुवार जल्दी आन।।

बिन हरी भजन न होगा जीव तेरा कल्याण |
गुरु कृपा बिन है नहीं यह इतना आसान ||

मु: जा रे मनवा जा रे , तज लोभ मोह हरिद्वारे |
अवगुण हो जाएं माफ़, प्रेम से जो प्रभु नाम पुकारे।।
जा रे मनवा जा रे , तज लोभ मोह हरिद्वारे ||

अ १: प्रभु कीर्तन में जायेगा, प्रेम से उससे रिझायेगा।
हरी प्रसन्न हो कर तुझे सद्गुरु से मिलवाएगा।।
सतगुरु से तुझे ज्ञान मिले, आत्म तत्व का कमल खिले।।
मि: समता का सद्गुरु भाव जगा कर, कर देंगे निस्तारे ||
जा रे मनवा जा रे , तज लोभ मोह हरिद्वारे ||

अ २ : राग द्वेष सब छूट जायेगा, ममता मोह भी हट जायेगा।।
सतगुरु की दीक्षा पा कर के, जीवन तेरा बदल जायेगा।।
मिथ्या ये संसार लगे, राम में सच्चा प्रेम जगे ||
मि: राम कृपा से हर पल हर क्षण, राम ही राम उचारे।
जा रे मनवा जा रे , तज लोभ मोह हरिद्वारे ||

अ ३: आत्म मस्ती में मगन रहे, नित दिन प्रभु का ध्यान धरे।
छोड़ के जग के जंजालों क़ो सत्संग का रास पान करे।।
ऐसा सुख तू पायेगा, दुःख दरिद्र मिट जायेगा।
दीन हीन न कहला कर मौज में समाये गुजारे।।
जा रे मनवा जा रे , तज लोभ मोह हरिद्वारे ||

अ ४: नन्दो मन निर्मल कर ले, सुबह शाम हरी क़ो भेज ले।
अहंकार अपना तज कर, गुरु की आज्ञा में चल ले।।
गुरु ही भाव से पार करे, सारे संकट आप हरे।
राकेश गुरु (बापू) की शरण में आजा, भव से पार उतारे।
जा रे मनवा जा रे , तज लोभ मोह हरिद्वारे ||

नन्दो भैया हाथरसी

सफाई कर्मियों को भी चाहिए मौत के खतरों से आजादी

ओ पी सोनिक

 स्वच्छ भारत अभियान के एक पखवाड़े में देश की राजधानी दिल्ली में कूड़े से आजादी का अभियान चलाया जा रहा है। पिछले दिनों भी दिल्ली के विज्ञान भवन में स्वच्छता सर्वेक्षण 2024-25 पुरस्कारों का जश्न मनाया गया। यह लोगों में स्वच्छता के प्रति बढ़ती जागरूकता का ही परिणाम है कि स्वच्छता में उल्लेखनीय कार्य करने वाले विभिन्न शहरों को पुरस्कृत किया गया पर शहरों को साफ रखने में जुटे सफाई कर्मचारियों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने में उदासीनता क्यों नजर आती है। दिल्ली में पिछले महीने  सीवर एवं सेप्टिक टैंक की सफाई करते हुए चार लोगों की मौत हो गयी।

राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में 120 से अधिक सीवर कर्मियों की मौतें हो चुकी हैं जो देश के विभिन्न शहरों की अपेक्षा सबसे ज्यादा हैं, यानी कि देश की राजधानी दिल्ली सीवर कर्मियों की मौतों के मामले में डैथ केपिटल बनती नजर आ रही है। दिल्ली उन टाप 10 राज्यों में भी शामिल है, जहाँ सबसे ज्यादा मौतें हुई हैं। देश के विभिन्न शहरों में हर साल दर्जनों सफाईकर्मी सीवर एवं सेप्टिक टैंकों की सफाई के दौरान अपनी जान गंवा देते हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में एक हजार 3 सौ से अधिक सीवर कर्मियों की मौतें हो चुकी हैं।
उक्त मामलों में से एक हजार 160 मृतकों के परिवारों को ही मुआवजा मिल पाया और करीब 50 मामले मृतकों के वारिसों की अनुपलब्धता के कारण बंद कर दिए गए। गुजरात में सबसे ज्यादा मामले बंद किए गए। वर्ष 2014 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सीवर कर्मियों की मौत होने पर 10 लाख का मुआवजा अनिवार्य रूप से देने का फैसला सुनाया था। फिर भी सभी मृतकों के परिवारजनों को मुआवजा नहीं मिल पाता है। सीवर कर्मियों की मौतों के मामलों में तमिलनाडू, गुजरात, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, कर्नाटक, महाराष्ट्र राजस्थान, पंजाब और पश्चिम बंगाल टाप 10 राज्यों में क्रमशः शामिल हैं। टाप 10 शहरों की बात करें तो, अन्य शहरों चैन्नई में 95, अहमदाबाद 76, बैंगलोर 51, कांचीपुरम 35, सूरत 33, त्रिवैल्लूर 32, गाजियाबाद 26, फरीदाबाद 25, और नोएडा में 21 मौतें हो चुकी हैं। राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के आंकड़ों का मीडिया में प्रकाशित एवं प्रसारित मामलों से मिलान करने पर पता चला कि विभिन्न राज्यों में आंकड़ों की तस्वीर को संवारने के प्रयासों में अनेकों मामले दर्ज नहीं हो पाते। कुछ मामलों को अन्य अपराधों की श्रेणी में दर्ज कर सीवर में हुई मौतों की गंभीरता को हल्का कर दिया जाता है।
अगर सीवर कर्मियों की मौतों के मामलों को सही से दर्ज किया जाए तो आंकड़ों की तस्वीर और भी अधिक भयावह होगी। माननीय सर्वोच्च न्यायालय उक्त मौतों के मामलों में समय-समय पर कड़े फैसले लेता रहा है। केन्द्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय और केन्द्रीय आवास एवं शहरी विकास मंत्रालय भी सफाई कर्मियों की सुरक्षा के लिए दिशा-निर्देश जारी करते रहे हैं। दिशा-निर्देशों में सीवर की सफाई के लिए 40 से अधिक सुरक्षा उपकरणों की सूची जारी की गयी है। बावजूद इसके सफाई कर्मियों को बगैर सुरक्षा उपकरणों के सीवर में उतार दिया जाता है जिससे सीवर की जहरीली गैसों के कारण सफाई कर्मियों की मौत हो जाती है।

भारत में 2013 में मैनुअल स्कैवेंजिग को यानी हाथ से मैला ढ़ोने और बगैर सुरक्षा उपकरणों के सीवर की सफाई करने को पूर्णतः प्रतिबंधित किया गया है। आजाद भारत के सभी नागरिकों को अपनी पसंद का व्यवसाय चुनने की आजादी है पर भारत में सफाई कर्मियों का आंकड़ाई समाजशास्त्र पेशेगत आजादी के पैरों की बेड़ियां साबित हो रहा है। मसलन भारत में जो सफाई कर्मी सीवर में सफाई के लिए उतरते हैं, उनमें से करीब 90 फीसदी दलित वर्ग से आते हैं।
केन्द्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार नमस्ते योजना जुड़े करीब 70 फीसदी सफाई कर्मचारी अकेले दलित समुदाय से हैं। सरकारी नौकरियों में दलितों को 15 फीसदी आरक्षण का संवैधानिक प्रावधान है जिसे कभी पूरा नहीं किया गया। ऐसे में उक्त कर्मचारियों में 70 फीसदी की भागीदारी अधिक चौंकाने वाली है। सफाई कर्मचारियों के प्रति सिस्टम की उदासीनता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आए दिन सीवर में हुई मौतें भी हमारे सिस्टम की सोई हुई संवेदनाओं को जगा नहीं पातीं। भारतीय मीडिया संबंधित खबरों को प्रकाशित-प्रसारित करके अपने हिस्से की जिम्मेदारी जरूर निभाता है पर जिस व्यवस्था के हाथों में सफाई कर्मियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी है, वो सीवर कर्मियों की मौतों पर हर बार हाथ मलते रह जाती है और फिर मौतों का मंजर बदस्तूर जारी रहता है।

  आगामी 15 अगस्त को पूरा देश आजादी का जश्न मनाने जा रहा है। सफाई कर्मियों खासतौर पर सीवर कर्मियों को भी आजादी की अनुभूति का पूरा हक है। विचार करना होगा कि पेशेगत जोखिमों से जूझ रहे सफाई कर्मियों को उक्त अनुभूति का कितना हक मिल पा रहा है। सदियों से जातिगत व्यवस्था ने इन्हें गंदगी भरे कार्यां से जोड़ कर अछूत करार दिया है। भले ही भारत ने संवैधानिक रूप से लोकतंत्र और समानता को स्वीकार कर लिया है पर समाज में दलित समुदाय की सामाजिक समानता की स्वीकार्यता आजादी के 78 वर्षों में भी सामाजिक विषमताओं की गिरफ्त में है। सवाल केवल सही नीतियों का नहीं बल्कि नेक नीयत का भी है। जब राष्ट्रीय स्तर पर स्वच्छता अभियान यानी कि कूड़े से आजादी के अभियान चलाए जा सकते हैं जो कि जरूरी हैं तो सफाई कर्मियों खासतौर पर सीवर कर्मियों को मौत के खतरों से आजादी दिलाने के अभियान क्यों नहीं चलाए जा सकते।

ओ पी सोनिक

राष्ट्रीय समस्या बनती कुत्ता काटने की खूनी घटनाएं?

डॉ. रमेश ठाकुर


पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं भाजपा के वरिष्ठतम नेता विजय गोयल ने कटखने कुत्तों से उत्पन्न हुई समस्याओं पर अंकुश लगवाने के लिए न सिर्फ अभियान छेड़ा हुआ है, बल्कि कुछ महीने पहले जंतर-मंतर पर धरना भी दिया था। आवारा और कटखने कुत्तों का आतंक पिछले कुछ समय से समूचे देश में तेजी से फैला है। रोजाना कुत्तों के हमले से जुड़े सैकड़ों मामले सामने आ रहे हैं। पिछले सप्ताह में दिल्ली-एनसीआर में दर्जनों ऐसी घटनाएं घटी जहां राह चलते लोगों पर कुत्तों ने जानलेवा हमला किया. दिल्ली में ऐसे दो हजार कटखने कुत्तों को नगर निगम ने चिन्हित किया है। देश भर में ऐसे कुत्तों का आंकड़ा 32 लाख से भी ज्यादा बताया गया है।

 वर्ष 2016 में कटखने कुत्तों के आतंक से निजात के लिए केंद्र सरकार से लेकर तमाम राज्यों की सरकारों ने ‘स्ट्रीट डॉग्स शेल्टर’ बनाए जाने की योजना बनाई थी। कुछके राज्य इस दिशा में आगे बढ़े, बाकी राज्य निल बटे सन्नाटा रहे। कुल मिलाकर कागजी प्रयासों मात्र से विकराल रूप धारण कर चुकी यह समस्या नहीं सुलझेगी. इस गंभीर मुद्दे को संसद सत्र जैसे मंचों पर रखकर कोई कारगर
कानून बनाए जाने की जरूरत है। अंकुश लगाने के लिए व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है जिसमें जागरूकता, जिम्मेदार पालतू पशुपालन, नसबंदी और टीकाकरण कार्यक्रम और पशु नियंत्रण शामिल हैं।

 
डॉग्स नसबंदी और एंटी रैबीज वैक्सीनेशन की भी कोई कमी नहीं है, बावजूद इसके आवारा कुत्तों की संख्या लगातार बढ़ रही है। कुत्तों के काटने की घटनाओं ने लोगों को खासा भयभीत किया हुआ है। यही कारण है कि डर से लोगों ने सुबह की सैर करना और बच्चों ने पार्क में खेलना तक बंद कर दिया है। बीते सोमवार की ही घटना है जब गुरूग्राम में सुबह पार्क में टहल रही महिला पर एक पालतू कुत्ते ने जानलेवा हमला कर गंभीर रूप से घायल कर दिया। ऐसी घटनाएं अब आम हो गई हैं। पूरे देश में रोजाना करीब 8 हजार मामले दर्ज होते हैं जिनमें दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब राज्य प्रमुख हैं।

ये खबर निश्चित रूप सुखद कही जाएगी कि पूर्व केंद्रीय मंत्री विजय गोयल आवारा कुत्तों की बढ़ती समस्याओं को लेकर अपनी ही सरकार को आईना दिखा रहे हैं। ऐसा कदम अन्य दलों के नेताओं को भी उठाना चाहिए ताकि समस्या का निजात जल्द निकल सके। उन्होंने अपनी सरकार को चेतावनी भी दी है कि अगर कोई कदम नहीं उठाया गया तो वो जनआंदोलन भी छेडेंगे।


पशु-अधिनियम कानूनों में बदलाव की अब सख्त जरूरत है। पुरानी चरमराती व्यवस्था में बदलाव करना होगा। कटखने और आवारा पशुओं को पकड़कर कर एकांत शहरों से कहीं दूर-दराज क्षेत्रों में ले जाकर सुरक्षित ढंग से रखने की व्यवस्था बनाई जाए जहां उन्हें एंटी रैबीज इंजेक्शन दिया जाए जिससे उनके भीतर विष को नष्ट किया जाए। और सबसे जरूरी कदम, शहरों में नॉन वेज की दुकानों के आसपास से कुत्तों को हटाया जाए जिससे वह ज्यादा हिंसक होते हैं क्योंकि लोग मांस की हड्डिया इधर-उधर फेंकते हैं जिसको लेकर कुत्ते आपस में लड़ते हैं जो इनके हिंसक होने का बड़ा कारण है। भय इस कदर व्याप्त है कि कुत्ता पकड़ने जैसे काम में कोई हाथ तक नहीं डालना चाहता। कुत्तों को पकड़ने का जिम्मा नगर निगम के पशुधन विभाग का होता है जहां कर्मचारियों का हमेशा टोटा रहता है। कोई भी कर्मचारी इस विभाग में अपनी सेवाएं देने को राजी नहीं है. जो आते भी हैं तो वह ज्यादा रुचि नहीं लेते?


बहरहाल, आवारा कुत्ते ही नहीं, छुट्टा पशुओं के चलते भी नई किस्म की इस आफत ने आतंक मचाया हुआ है। पशु हिंसक क्यों हो रहे हैं? ये एक अनसुलझी पहेली बन गई है। हालांकि, ये भी तथ्य है कि पशु जब तक खूंटे से बंधे होते हैं या मालिकों के कैद में होते हैं, अ-हिंसक रहते हैं पर जैसे ही छूटते हैं, एकाएक खूंखार हो जाते हैं। हिंसक कुत्ते अब बाकायदा झुंड में रहते हैं। सड़कों और मोहल्ले की गलियों में चलना तक दूभर हो गया है। गली, चौक-चौराहों पर अक्सर देखने को मिलता है कि कुत्तों का झुंड रास्ता घेरे बैठे हैं। बच्चों पर कुत्ते ज्यादा अटैक करने लगे हैं। पिछले वर्ष दिल्ली की घटना ने सबको झकझोर दिया था जहां एक मासूम को दिनदहाड़े दो कुत्तों ने मिलकर चबा दिया था। बचाव में दौड़े उसके बड़े भाई को लहूलुहान कर दिया था।

अक्सर, दिन ढलने के बाद कुत्ते और भी खूंखार हो जाते हैं। स्कूटी व अन्य गाड़ियों के पीछे कुत्तों का दौड़ लगाना भी आम हो गया है। कुछ समय की घटना है जब जयपुर में टयूशन पढकर स्कूटी से वापस घर लौट रही 10वीं की छात्रा के पीछे आवारा कुत्ते दौड़ पड़ते हैं जिससे उसकी स्कूटी सामने आ रही कार से जा टकराई। घटना में उसकी एक टांग और रीड की हड्डी टूट गई। ऐसी घटनाओं को देखकर भी नगर निगम के अधिकारियों की नींद नहीं टूटती?

हिंसक जानवरों पर नकेल कसने की दरकार अब ज्यादा होने लगी है। चाहें इसके लिए कानून बनाना पड़े, या कोई और आधुनिक व्यवस्था करनी हो, गंभीरता से विमर्श किया जाना चाहिए। घटनाएं कोई एकाध जगहों पर नहीं, देशभर में घट रही हैं। हाल में दिल्ली, हैदराबाद, बठिडा, बरेली, देहरादून जैसे जगहों पर कुत्तों द्वारा मासूम बच्चों पर हमले और उन्हें मारने की घटनाओं ने सबको झकझोरा है। कभी छिटपुट घटनाएं आम हुआ करती थी जिस पर रेबीज के टीके या घरेलू उपचारों से मरीज ठीक हो जाया करते थे पर अब ऑन स्पॉट कुत्ते जान लेने लगे हैं।

 
तात्कालिक रूप से हुकूमत या प्रशासनिक स्तर पर कोई हल निकले, इसकी भी संभावनाएं नहीं दिखती?  घटनाओं पर अगर उदासीनता ऐसी ही रही तो ना जाने कितने लोग आवारा कुत्तों का निवाला बन जाएंगे। मरीजों की संख्याओं का इजाफा अस्पतालों में एकाएक बढ़ा है। कई बार तो रैबीज के इंजेक्शन अस्पतालों में मिलते भी नहीं? उस स्थिति में मरीज औने-पौने दामों में निजी अस्पतालों से रेबीज का टीका लगवाते हैं। बिना रेबीज टीका लगे मरीज बेमौत मर भी जाते हैं। कटखने कुत्तों के संबंध में जब पीड़ित नगर निगम के कार्यालयों में संपर्क करते हैं तो वहां से संतुष्टिपूर्ण जवाब नहीं मिलता। प्रेसर डालने पर वो प्राइवेट कुत्ता पकड़ने वाली एजेंसियों से बात करने की सलाह दे देते हैं। उनसे बात होती है तो वह मोटा चार्ज करते हैं। पैसे लेने के बाद वह कुत्ते को पकड़कर नसबंदी करके एकाध दिनों में फिर वहीं छोड़ जाते हैं। ये विकराल समस्या है जिसका बिना देर किए निदान होना चाहिए।


डॉ. रमेश ठाकुर

भारत डेड नहीं, एक जीवंत और सनातन अर्थव्यवस्था


पंकज जायसवाल

भारत केवल एक भूगोल नहीं बल्कि एक निरंतर सभ्यता है। इस सभ्यता का मूल चरित्र सनातन है जिसका अर्थ है सस्टेनेबल, शाश्वत, स्थायी, निरंतर और अनश्वर। यही विशेषता भारत की अर्थव्यवस्था में भी परिलक्षित होती है। भारत की अर्थव्यवस्था हमेशा से जीवंत (Vibrant) और रेजिलिएंट रही है क्योंकि इसकी जड़ें प्रकृति, सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक मूल्यों में गहराई से पैठी हुई हैं। इसका आधार सनातन अर्थशास्त्र रहा है. भारत का चरित्र हमेशा से प्रकृति संरक्षण और पारिस्थितिकीय संतुलन को महत्व देता रहा है। धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवहार में यह स्पष्ट दिखता है पेड़ों की पूजा, नदियों का सम्मान, कृषि और लोकल उत्पादन का प्रोत्साहन, ये सब भारत के आर्थिक डीएनए का हिस्सा हैं।

भारतीय समाज में उत्सवधर्मिता एक अद्वितीय तत्व है। हर मौसम में त्योहार, हर महीने कोई न कोई आयोजन, यह न केवल सांस्कृतिक पहचान है बल्कि यह अर्थव्यवस्था के निरंतर गतिशील रहने का रहस्य भी है। शादियों और त्योहारों का मौसम भारत की अर्थव्यवस्था में नियमित अंतराल पर नई जान फूंकता है। यही कारण है कि यहां मंदी का असर भी सीमित रहता है। यदि कोई कहता है कि भारत की इकॉनमी डेड इकॉनमी है तो वह भारत के सनातन अर्थचरित्र को नहीं समझता। भारत सदियों तक आत्मनिर्भर रहा है और आज भी सर्व-सक्षम है। वर्तमान भारत आज भी एक वाइब्रेंट इकॉनमी है. आजादी के बाद के बीते
75 वर्षों में भारत ने लंबा सफर तय किया है, गरीबी, लाइसेंस राज और आयात निर्भरता से निकलकर अब भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। 2027 तक भारत के तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का अनुमान है। यह बदलाव इस बात का प्रमाण है कि भारत एक वाइब्रेंट, ग्रोथ-ड्रिवन और इनोवेटिव इकॉनमी है।

अगर भारत की अर्थव्यवस्था जीवंत नहीं होती तो इतनी विदेशी कंपनियां भारत में निवेश नहीं करतीं। ग्लोबल ब्रांड भारत में आकर अपना माल नहीं बेचते । डेड होती इकॉनमी में कोई अपनी दुकान नहीं खोलता . भारत आज भी फास्टेस्ट ग्रोइंग इकॉनमी है. आज भारत दुनिया के सबसे बड़े और सबसे आकर्षक बाजारों में से एक है। विदेशी निवेशकों को मालूम है कि भारत को नजरअंदाज करना असंभव है। यह अब केवल बाजार नहीं, अवसरों का केंद्र भी है. जीसीसी का खुलना इस बात का प्रमाण है. मेक इन इंडिया और पीएलआई योजनाओं से भारत ने मैन्युफैक्चरिंग में बड़ी छलांग लगाई है। डिजिटल पेमेंट में भारत दुनिया का नेतृत्व कर रहा है। UPI एक वैश्विक मॉडल बन गया है और कई देश इसे अपना रहे हैं। रुपे कार्ड, आधार, डिजिटल इंडिया पहल ने भारत को टेक्नोलॉजी-संचालित अर्थव्यवस्था बना दिया है।

भारत की जीवंत अर्थव्यवस्था के सात स्तंभ हैं. पहला सनातन अर्थचरित्र, प्रकृति, संस्कृति और सस्टेनेबिलिटी पर आधारित मॉडल। दूसरा उत्सवधर्मिता, त्योहार और शादियों से निरंतर आर्थिक प्रवाह। तीसरा डेमोग्राफिक डिविडेंड दुनिया का सबसे बड़ा युवा कार्यबल। चौथा नवाचार और स्टार्टअप बूम, हर महीने नए यूनिकॉर्न, दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा स्टार्टअप इकोसिस्टम। पांचवां डिजिटल इंडिया, 1 बिलियन से अधिक इंटरनेट यूजर्स, UPI, आईटी सेक्टर का वैश्विक नेतृत्व। छठा सस्टेनेबल और सबसे तेज ग्रोथ । सातवां  वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में भूमिका “चीन प्लस वन” स्ट्रेटेजी में भारत सबसे बड़ी पसंद।

अभी हमें इस ताकत और अवसर को कॅश करने के लिए स्वदेशी उपभोग को बढ़ाना है और भारतीय कंपनियों और ब्रांड्स को वैश्विक पहचान दिलाने में अहम भूमिका निभानी है। हमें रिसर्च एंड डेवलपमेंट पर निवेश बढ़ा ज्यादा से ज्यादा पेटेंट हासिल करना है। अपने हर खोज, विधि और प्रोसेस का पेटेंट हासिल करना है. वैल्यू-एडेड मैन्युफैक्चरिंग में दुनिया में नेतृत्व हासिल करना है। शिक्षा, स्किल और टेक्नोलॉजी में निवेश को प्राथमिकता देनी है।  भारत का भविष्य सुरक्षित है क्यूंकि दुनिया की ग्रोथ स्टोरी का केंद्र आज भारत केवल 1.4 अरब उपभोक्ताओं का देश नहीं बल्कि 1.4 अरब क्रिएटर्स और इनोवेटर्स का देश है. बस हमें इसे दृष्टि दिशा और नेतृत्व देना है।

भारत एक वाइब्रेंट, रेजिलिएंट और इनोवेटिव इकॉनमी है जो आने वाले दशक में ग्लोबल ग्रोथ इंजन बनने की राह पर है। भारत का चरित्र सनातन है. यह कभी डेड हो ही नहीं सकता और यही उसे सस्टेनेबल बनाता है। भारत न केवल जिंदा है बल्कि आने वाले समय में दुनिया की सबसे शक्तिशाली आर्थिक कहानी लिखने के लिए भी तैयार है। हमें इस इबारत को लिखने के लिए ताली बजाना है. हौसला नहीं गिराना है.

अंत में मेरी तरफ से सिर्फ एक सलाह है कि भारत के बैंकों और नियामकों को यह ध्यान रखना है कि अगर कोई कंपनी या ब्रांड अच्छा कर रही है, गोइंग कंसर्न है तो उसे मरने नहीं देना है, उसे प्रोत्साहित करना है. पूर्व में देखा गया है कि भारत के बहुत से ब्रांड प्रमोटरों की गलती से बंद हो गए क्यूंकि बैंकों ने प्रमोटरों की गलती की सजा कंपनी को दे दी. यहां सरकार की तरफ से एक सहायता भारत के उभरते ब्रांड और कॉर्पोरेट को चाहिए कि अगर उनका ब्रांड और बिज़नेस सस्टेनेबल है तो कार्रवाई ऐसी हो कि दोषियों को सजा तो मिले लेकिन ब्रांड और कंपनी जीवित रहे. एक कंपनी और ब्रांड में निवेश सिर्फ पूंजी का नहीं होता, उसके हजारों कर्मचारियों और सप्लाई चेन इकोसिस्टम में लगे प्लेयर का होता है. दोषी को सजा देने के चक्कर में हम इन्हें न मारें. बस इतना हो जाए तो भारत और भारत के ब्रांड दुनिया में तहलका मचा देंगे.  

पंकज जायसवाल