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स्मोकिंग और सांसें – ये रिश्ता क्या कहलाता है


                                 – भाषणा बंसल गुप्ता

हमें जिंदा रहने के लिए क्या चाहिए? आप शायद इस सवाल पर हंस रहे होंगे कि कितना बचकाना सवाल है। बच्चा-बच्चा जानता है, कि जीवित रहने के लिए हमारी सांसों का चलना बहुत जरूरी है। सांसें गईं, तो सब गया। मतलब इन्सान खत्म। जितना सच ये है कि, सांसों की जरूरत के बारे में सबको पता है, उतना ही बड़ा सच ये भी है कि, शायद ही कोई ऐसा इन्सान होगा, जिसे पता नहीं होगा कि स्मोकिंग और सांसों के बीच क्या रिश्ता है। स्मोकिंग का सीधा संबंध, हमारे फेफड़ों से है। स्मोकिंग चाहे किसी भी रूप में हो, वो इन्सान के फेफड़ों को तबाह कर देती है। फेफड़े ही हैं, जो हमारी सांसों को चलता रखते हैं। ये खराब होते हैं, तो सांसों की लड़ी भी टूटने लगती है, बिखरने लगती है। 

इस बात में भी सौ प्रतिशत सच्चाई है कि सब जानते हैं कि स्मोकिंग करना गलत है। इससे फेफड़े खराब होते हैं। सिगरेट की डिब्बी पर भी लिखा होता है कि ये स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इससे कैंसर होने का डर होता है। लेकिन फिर भी स्मोकिंग का चलन कम होने की बजाय, बढ़ता ही जा रहा है। ऐसा क्यों है?

हर जगह मौजूद हूं मैं

इसका मुख्य कारण है – स्मोकिंग प्रोडक्ट आसानी से मिलना। 18 साल से ऊपर का कोई भी व्यक्ति बड़े आराम से इन्हें खरीद सकता है। ये हर किसी के लिए आसानी से उपलब्ध हैं। और कुछ मिले न मिले, हर गली-नुक्कड़ की दुकान मिल जाती है, जहां इन्सान के फेफड़ों को गलाने का सामान धड़ल्ले से बेचा जाता है।

डिटेक्टिव गुरू राहुल राय गुप्ता कहते हैं, “मैंने जबसे अपनी कंपनी खोली है, तब से यही नियम बनाया है कि, स्मोकिंग करने वाला कोई भी इन्सान हमारी कंपनी में काम नहीं करेगा। इंटरव्यू के दौरान, कैंडिडेट से पूछा जाता है कि वो स्मोकिंग तो नहीं करता। मेरे ख्याल से हर ऑफिस में यही नियम होना चाहिए। मेरी कंपनी में ही नहीं, बल्कि मेरे घर में भी कोई स्मोकिंग नहीं कर सकता। मैं अपनी गाड़ी में किसी को स्मोकिंग करने की परमिशन नहीं देता, चाहे वो इन्सान कितना भी खास क्यों न हो। लेकिन बड़े अफसोस की बात है कि, बड़ी-बड़ी कंपनियां अलग से ‘स्मोकिंग ज़ोन’ बनाती हैं, जहां लोग ‘स्मोक ब्रेक’ के लिये जाते हैं। ये एक तरह से उन लोगों के साथ सहानुभूति की तरह लगता है। उनकी जरूरत बना दिया गया है। जिसको पूरा करना कंपनी अपना फर्ज समझती है। हर एयरपोर्ट पर ऐसे ज़ोन बने होते हैं। ऐसे जोन्स की जरूरत ही बताती है कि हम स्मोकिंग रोकने को कितना सीरियसली लेते हैं।”

बड़ी-बड़ी हस्तियां गुलाम हैं मेरी

स्मोकिंग के बढ़ते चलन का एक और बड़ा कारण है – फिल्मों, सीरीज में इसका बहुत ज्यादा प्रयोग। बॉलिवुड की फिल्में हों, या टॉलिवुड की या फिर हॉलिवुड की, हर जगह पात्रों से इतनी ज्यादा स्मोकिंग करवाई जाती है, कि दर्शकों को लगने लगता है कि, स्मोकिंग इन्सान की ज़िंदगी का एक अभिन्न अंग है। ये कोई खराब बात नहीं है। आपने देखा होगा कि, जैसे ही फिल्म या सीरीज के मुख्य पात्र को कोई टेंशन होती है, तो वो झट से सिगरेट सुलगा लेता है। इससे दर्शकों के मन में ये संदेश जाता है कि, स्मोकिंग, तनाव को दूर करती है। 

जब लोग अपने मनपसंद हीरो को पर्दे पर स्मोकिंग करते देखते हैं, तो उनको लगता है कि ये तो आम बात है। ऐसा सब करते हैं। यही नहीं, जब असली ज़िंदगी में भी लोग, बड़े-बड़े एक्टर्स के बारे में पढ़ते हैं, कि उसे स्मोकिंग करने की लत है, तो वो उनको और ज्यादा प्रोत्साहन मिलता है। उनको लगता है कि, एक्टर्स तो अपने स्वास्थ्य को बेहद गंभीरता से लेते हैं। क्या उनको अपनी ज़िंदगी की फिक्र नहीं है? मतलब, वो ये मान लेते हैं कि ये इतनी बड़ी या गलत बात नहीं है।

फिल्मों और सीरीज में बेवजह ही ऐसे सीन ठूंस दिए जाते हैं। कहानी की मांग कहकर, निर्माता-निर्देशक इससे अपना पीछा छुड़ा लेते हैं। लेकिन हर कहानी की मांग ऐसी नहीं होती कि फ्लां व्यक्ति चेन स्मोकर है। पूरा दिन स्मोकिंग करता रहता है। कुछेक कहानियां ऐसी होती हैं, जहां पर इसका जिक्र होता है, उसे माना जाएगा कि कहानी की मांग है, स्मोकिंग।

मुझसे छुटकारा आसान नहीं

स्मोकिंग की लत को छोड़ना बेहद मुश्किल जरूर है, लेकिन नामुमकिन तो बिल्कुल भी नहीं है। अगर इच्छाशक्ति हो तो इसे छोड़ा जा सकता है। इससे छुटकारा पाने के लिए पहले अपने अवचेतन मन को तैयार करना होगा। उसे बताना होगा कि ये आपके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। हमारा अवचेतन मन बेहद मजबूत है। उसमें एक बार जो बात फिट हो जाती है, वो फिर मिटाए नहीं मिटती। इसलिए मन की गहराईयों से कहें कि स्मोकिंग आपके फेफड़े गला रही है। आपकी सांसों को खराब कर रही है। आपकी उम्र को कम कर रही है। रोजाना दिन में एक-दो बार भी ऐसा सोचेंगे तो आपका अवचेतन मन इसे ग्रहण कर लेगा और इसमें बैठ जाएगा कि जिंदा रहना है तो स्मोकिंग छोड़नी ही होगी। अच्छा स्वास्थ्य चाहते हैं, तो स्मोकिंग से किनारा करना ही होगा।

हमारा मन ही है, जो हमसे अच्छे या बुरे काम करवाता है। बस उसको बोल दें कि, आपको खुश रहना है, जिंदा रहना है, स्वस्थ रहना है, आपका काम हो जाएगा। फिर मन आपको ऐसे-ऐसे सुझाव देगा कि आपका मन ही नहीं करेगा कि आप स्मोकिंग करें। यकीन मानिए, ऐसा जरूर होगा, बस मन में इस लत को छोड़ने की धुन पाल लें। फिर देखना, कैसे चमत्कार होगा।

                        भाषणा बंसल गुप्ता

भारत में प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने के तरीके

शिवानन्द मिश्रा

भारत जापान को पछाड़कर चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है।स्टॉक मार्केट रॉकेट बनकर उड़ रहा है। खबर सुकून वाली है लेकिन बस एक ही आंकड़ा है जो व्यथित करता है, जापान की आबादी 12 करोड़ है हमारी 150 करोड़। हर जापानी साल का 29 लाख रूपये कमा रहा है और हम 2.5 लाख भी नहीं। इसमें ये भी एक फैक्टर है कि जापान के सर्विस सेक्टर में काम करने वालो की डिमांड ज्यादा है जबकि लोग कम है। इस वज़ह से जॉब पैकेज अच्छे ही होते हैं लेकिन ये एक्सक्यूज़ तब काम करता ज़ब हमारी भी प्रति व्यक्ति 12 लाख रूपये सलाना के आसपास होती।

औसत भारतीय परिवार में चार लोग होते हैं। उनमें से एक कमाता है मान लीजिए कि उसकी सैलरी 60 हजार भी है. घर के खर्चे तो ठीक चल रहे है लेकिन ज़ब प्रति व्यक्ति आय की गणना होंगी तो इसे 15 हजार रूपये महीना ही गिना जाएगा और कुछ पश्चिमी लोग इसे पोवर्टी बोलेंगे।

भारत में परिवारो में रहने की परंपरा है. बच्चे नौकरी पर लगते हैं तो चाहते हैं कि पिता अब जॉब छोड़ दे और लाइफ एन्जॉय करें। इन सामाजिक मूल्यों के बीच प्रतिव्यक्ति आय सदा ही चुनौती रहेगी। परिवार का हर व्यक्ति कमाये ये पश्चिम का कॉन्सेप्ट है।

इसलिए हम खुद को अपने स्तर पर निखारे। भारत मे बड़े राज्यों मे सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति आय हरियाणा और गुजरात की है जो 4.5 लाख रूपये के आसपास है।

हम प्रयास करते है कि अगले 10 सालो में अन्य राज्य भी इस आंकड़े के करीब आ जाए. जाहिर है तब तक गुजरात हरियाणा और आगे भाग चुके होंगे, तब हम उस नंबर का पीछा करेंगे। इस तरह से काम करें तो दूर भविष्य में आर्थिक असमानता का मुद्दा हल हो सकता है।

इन आंकड़ों मे एक डरा देने वाला तथ्य यह है कि भारत के यदि टॉप 5% उद्योगपति ये देश छोड़ दे तो हमारी प्रतिव्यक्ति आय 1 लाख के इर्द गिर्द रह जायेगी जो भयावह है क्योंकि ये अफ़्रीकी देशो से नीचे हो जायेगी।

इसलिए ज़ब कोई नेता पूंजीवाद के विरुद्ध बात करके सामजिक न्याय और समानता का ढ़ोल पीटे तो आप समझ जाइये कि आप किसी अंतर्राष्ट्रीय प्रोपोगंडा के शिकार हो रहे है क्योंकि वोट की राजनीति ने आज तक किसी को न्याय नहीं दिलाया है।

दूसरा डर जो मन मे होना चाहिए वह ये कि समाज नशे से जितना दूर हो, उतना ठीक। शराब का चलन आज भी कायम है. ये जहर है. 40-45 की आयु तक लोगो के लीवर गल रहे है। ज़ब इस आयु का व्यक्ति मरता है तो वो परिवार को नहीं, देश को भी नुकसान देकर जा रहा है।

इस आयु मे समाज आशा करता है कि वह अब रिटर्न मे समाज को कुछ देगा फिर चाहे वो नई तकनीक हो, नया व्यापार हो, नया आविष्कार हो या नया विचार हो लेकिन शराब यहाँ आतंकवादी से कम किरदार नहीं निभाती।

तीसरी आवश्यक बात है कि महिलाओ को आगे आने दे क्योंकि वे जनसंख्या मे आधी है. इतिहास गवाह है रानी कैकयी युद्ध मे अपने पति दशरथ की सारथी बनी है. राज दरबारो मे महिलाओ ने शास्थार्थ मे पुरुषो को मात दी है। महिलाओ को घर मे कैद रखना हमारी परंपरा नहीं है। मुग़ल काल की मजबूरियों को आप प्रथा का नाम नहीं दे सकते,ये दासत्व का प्रतीक है, किसी स्थानीय शान का नहीं।बढ़ते तलाक, विवाह उपरांत संबंध और घर के आपसी झगड़ो के लिये नारी सशक्तिकरण उत्तरदायी नहीं है अपितु सामाजिक विचारो मे हो रहा परिवर्तन उसका दोषी है।

 ये तीन वे बिंदु है जिन पर हमें मंथन या कहे पुनः मूल्यांकन की आवश्यकता है। सरकार तो एक इंजन है ही लेकिन नागरिको को भी उस इंजन का अग्रदीप बनना होगा।

शिवानन्द मिश्रा

राजस्थान लोक सेवा आयोग की बिगड़ी छवि को पुनः बहाल करेंगे यूआर साहू !

 रामस्वरूप रावतसरे

  राज्यपाल हरिभाऊ बागडे ने राज्य सरकार की सिफारिश पर आईपीएस उत्कल रंजन साहू (यूआर साहू) को राजस्थान लोक सेवा आयोग का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया है। आयोग का अध्यक्ष बनने के लिए साहू ने पिछले दिनों ही राज्य के पुलिस महानिदेशक के पद से इस्तीफा दे दिया था। अब राज्य सरकार के निर्देश मिलते ही साहू अजमेर आकर आयोग के अध्यक्ष का पद संभाल लेंगे। राज्यपाल के नियुक्ति आदेश के बाद यूआर साहू ने कहा कि उनके लिए यह सम्मान की बात है कि सरकार ने राज्य लोक सेवा आयोग का अध्यक्ष बनाया है। उन्होंने कहा कि आयोग में पूर्व में हुई गड़बडिय़ों पर वे कोई टिप्पणी नहीं करना चाहते लेकिन इतना जरूर कहना चाहते हैं कि पिछले डेढ़ वर्ष में (भाजपा शासन) आयोग में सराहनीय कार्य हुआ है। इस डेढ़ वर्ष की अवधि में किसी भी परीक्षा का न तो प्रश्न पत्र लीक हुआ और न ही परीक्षा में गड़बड़ी का कोई समाचार सामने आया जबकि इससे पूर्व में जो गड़बडिय़ां हुई उनकी जांच एसआईटी ने की है। उन्होंने माना कि एसआईटी की जांच डीजीपी के तौर पर उन्हीं के दिशा निर्देश पर हुई थी। एसआईटी ने जांच का काम बखूबी किया है। उन्होंने कहा कि उनका प्रयास होगा कि आयोग में परीक्षाएं नियमित तिथियों पर हों और परीक्षा में पारदर्शिता बनी रहे, जो युवा परीक्षा देता है वह यह भी उम्मीद करता है कि ईमानदारी से चयन प्रक्रिया हो।

     श्री साहू के अनुसार ’’मेरा प्रयास होगा कि परीक्षार्थियों का भरोसा आयोग पर बना रहे। जहां तक जनता में मेरी ईमानदार छवि का सवाल है तो जनता ने मुझे डीजीपी और अन्य पदों पर काम करते हुए देखा है।’’ यहां यह उल्लेखनीय है कि यूआर साहू की नियुक्ति ऐसे समय में हुई जब आयोग बदनामी के दौर से गुजर रहा है। बाबूलाल कटारा जैसे सदस्य को प्रश्न पत्र बेचने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है तो पूर्व सदस्य रामूराम राईका पर भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं। आयोग में पिछले दस माह से अध्यक्ष का पद रिक्त पड़ा था जिसकी वजह से आयोग का कामकाज बुरी तरह प्रभावित हो रहा था। आयोग में मौजूदा समय में पांच सदस्य हैं। अध्यक्ष का काम केसी मीणा संभाल रहे थे लेकिन स्थाई अध्यक्ष न होने के कारण इंटरव्यू प्रक्रिया में भी विलंब हो रहा था। उम्मीद है कि एक दो दिन में ही यूआर साहू आयोग के अध्यक्ष का पद संभाल लेंगे।

  आरपीएससी में अध्यक्ष पद पर नियुक्ति नहीं किए जाने पर कांग्रेस ने कई बार भाजपा सरकार पर सवाल उठाए थे। एक दिन पहले ही पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा था कि भाजपा सरकार युवाओं के साथ छलावा कर रही है। गहलोत ने कहा था कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भाजपा सरकार आरपीएससी में अध्यक्ष की नियुक्ति नहीं कर पा रही है। अध्यक्ष के नहीं होने से भर्ती प्रक्रियाओं को पूरा करने में समय लग रहा है। इन दिनों आरपीएससी में आरएएस भर्ती 2023 के इंटरव्यू भी चल रहे हैं। आरएएस भर्ती 2024 की मुख्य परीक्षा सहित कई भर्ती परीक्षाएं भी आगामी दिनों में होने वाली है।

    आरपीएससी के नए चेयरमैन यूआर साहू ओडिशा के रहने वाले हैं। वे राजस्थान के सबसे सीनियर आईपीएस अधिकारी होने के साथ पुलिस महानिदेशक भी हैं। राज्य सरकार की सिफारिश के बाद राज्यपाल महोदय ने साहू की नियुक्ति आरपीएससी के अध्यक्ष पद पर की है। अब पुलिस महानिदेशक के पद से त्याग पत्र देकर वे आरपीएससी अध्यक्ष का पदभार ग्रहण करेंगे। साहू फरवरी 2024 में राजस्थान पुलिस के महानिदेशक बने थे। भाजपा की सरकार बनने के बाद उमेश मिश्रा द्वारा वीआरएस (स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति) लेने के बाद यूआर साहू डीजीपी बने थे।

    उत्कल रंजन साहू वर्ष 1988 बैच के आईपीएस अफसर हैं। 61 वर्षीय साहू की गिनती प्रदेश के ईमानदार अफसरों में रही है। इसी वजह से राज्य सरकार ने उन्हें बड़ी जिम्मेदारी दी है। राजस्थान में प्रशासनिक पदों पर अफसरों की भर्ती करने का जिम्मा राजस्थान लोक सेवा आयोग के पास है। ऐसे में योग्य अफसरों का चयन करना आरपीएससी की जिम्मेदारी है। पिछले कुछ वर्षों से आरपीएससी की छवि काफी  धूमिल हुई क्योंकि आरपीएससी के सदस्यों द्वारा ही प्रतियोगिता परीक्षाओं के पेपर बेचे जाने के आरोप लगे। पूर्व सदस्यों की गिरफ्तारियां भी हुई। अब साहू की जिम्मेदारी है कि वे आरपीएससी की छवि में सकारात्मक सुधार लाए।

मैकेनिकल इंजीनियरिंग में मास्टर डिग्री होल्डर यूआर साहू वर्ष 2020 में ही डीजी रैंक के अफसर बन गए थे। डीजी रैंक मिलने के बाद करीब चार महीने तक वे पुलिस प्लानिंग, मॉडर्नाइजेशन और वेलफेयर की जिम्मेदारी निभाते रहे। बाद में करीब दो महीने तक वे डीजी होमगार्ड भी रहे। 10 फरवरी 2024 को भजनलाल सरकार ने उन्हें पुलिस मुखिया की जिम्मेदारी दी। पिछले करीब 15 महीनों से साहू पुलिस मुखिया के पद पर कार्यरत हैं। अब वे नई पारी शुरू करने वाले हैं।

     अमूमन प्रदेश के आईएएस और आईपीएस अफसर केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर सेवाएं देने जाते हैं। केंद्र सरकार द्वारा दी जाने वाली जिम्मेदारियों को निभाते हैं लेकिन यूआर साहू ऐसे अफसरों में से हैं जो कभी केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर नहीं गए। आईपीएस बनने से बाद से लेकर डीजीपी तक की सेवाएं उन्होंने राजस्थान में ही दी है। बेहतरीन कामकाज के लिए इन्हें जनवरी 2016 में राष्ट्रपति पुलिस पदक से सम्मानित किया जा चुका है। इससे पहले वर्ष 2005 में इन्हें पुलिस पदक से सम्मानित किया जा चुका है।

यूआर साहू आठ जिलों में एसपी रह चुके हैं। सबसे पहले फरवरी 1994 से जून 1995 तक वे धौलपुर के एसपी रहे बाद में सीमावर्ती जिले बाड़मेर में करीब दो साल तक एसपी रहे। फिर हनुमानगढ, सीकर, बांसवाड़ा, श्रीगंगानगर, भीलवाड़ा और जोधपुर में भी एसपी की जिम्मेदारी निभाई। आईजी के पद पर पदोन्नत होने के बाद वे करीब पौने दो साल तक एसीबी की विजिलेंस विंग में भी रहे।

श्री साहू को राजस्थान लोक सेवा आयोग का अध्यक्ष बनाने से उम्मीद की जा सकती है कि अब आयोग का कामकाज पूर्णतया निष्पक्षता एवं पादर्शिता से होगा। अब तक आरपीएससी पर लगे दाग गहराने के बजाय साफ होने का काम होगा। आयोग के अन्दर हो रहे भ्रष्ट कारनामों से प्रदेश के बेरोजगारों एवं आमजन का जो विश्वास से उठ गया था, वह पुनः स्थापित होगा।

रामस्वरूप रावतसरे

इंस्टाग्राम संस्कृति में तीर्थयात्रा बनाम पर्यटन 

सचिन त्रिपाठी 

आज की दुनिया में जहां हर क्षण एक स्टोरी है, हर भाव एक फिल्टर में ढलता है, वहां तीर्थयात्रा और पर्यटन के बीच की रेखा धुंधली हो गई है। यह वह युग है, जहां नयनाभिराम दृश्य नयन नहीं, लेंस से देखे जाते हैं; और जहां यात्रा का उद्देश्य आत्मशांति नहीं, ‘एंगेजमेंट’ होता है। यथा एक यूट्यूबर ने एक बार केदारनाथ धाम में ध्यानमग्न एक साधु से पूछा कि इतने वर्षों से आप मंदिर में दर्शन को आ रहे हैं। आपको क्या अंतर प्रतीत हुआ? साधु का उत्तर था, पहले लोग दोनों हाथ जोड़कर मंदिर के सम्मुख खड़े होते थे। अब एक हाथ में मोबाइल आ गया है। यह आलेख ऐसी ही जीवंत घटनाओं के उदाहरणों के साथ साथ एक आत्मविश्लेषण है उस परिवर्तन का जो आस्था को ‘हैशटैग’ में और मोक्षमार्ग को ‘रील्स’ में बदल रहा है।

भारत जैसे देश में, जहां हजारों सालों से तीर्थयात्राएं आध्यात्मिक साधना रही है, वहां यह सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं अपितु जीवन की तपस्या रहीं। काशी, गया, द्वारका, बद्रीनाथ, जगन्नाथ, वैष्णो देवी, सोमनाथ, वृंदावन या अयोध्या..। ये स्थान आत्मबोध की भूमि थे। यहां धर्मावलंबी, श्रद्धालु अपने पाप धोने, आत्म शांति खोजने एवं मोक्ष की ओर बढ़ने के भाव से आते थे। चिलचिलाती धूप, कंधों पर कांवड़, नंगे पांव की यात्रा और मन में सिर्फ ईश्वर का नाम यही तीर्थयात्राओं का मूल भाव रहा है। परंतु; आज वही तीर्थयात्राएं, इंस्टाग्राम स्टोरीज़ की ‘वाइब्रेंट रील्स’ में तब्दील हो गई हैं। अब यात्री की चिंता यह नहीं कि मन कितनी श्रद्धा में डूबा है, अपितु, यह है कि फोटो में कितना ‘एस्थेटिक’ बैकग्राउंड है।

पर्यटन हमेशा से आनंद, मनोरंजन और सांस्कृतिक खोज का जरिया रहा है। लोग पहाड़ों, समुद्रों, ऐतिहासिक स्थलों और बाजारों में घूमते थे ताकि वे अपनी दुनिया से हटकर कुछ नया देख सकें। मगर अब पर्यटन भी प्रदर्शन का माध्यम बन गया है – ‘;अगर तुमने पोस्ट नहीं किया, तो क्या तुम गए भी थे?”

इंस्टाग्राम कल्चर में पर्यटन अब सिर्फ घूमने का नाम नहीं रह गया बल्कि वह एक डिजिटल परफॉर्मेंस है। यह दिखाने का मंच है कि आप कितने ‘एक्सप्लोरर’, कितने ‘एस्थेटिक ट्रैवलर’, कितने ‘फ्री स्पिरिट’ हैं।

आज अगर आप वाराणसी जाएं तो घाटों पर उतनी प्रार्थनाएं नहीं दिखेंगी जितने मोबाइल कैमरे। केदारनाथ में श्रद्धालु से ज़्यादा कंटेंट क्रिएटर दिखते हैं। अमरनाथ के रास्ते में जितनी पवित्रता नहीं, उतना ट्रैवल व्लॉग दिखता है। तीर्थ अब पर्यटन स्थल बन गए हैं और श्रद्धा अब ‘हैशटैग’ में तब्दील हो गई है। लोग मंदिरों में प्रवेश से पहले जूते नहीं, कैमरा ट्राइपॉड उतारते हैं। दर्शन से पहले ‘सेल्फी विद गॉड’ जरूरी हो गई है। क्या यह सिर्फ आलोचना है या परिवर्तन की स्वाभाविक धारा है? यह जरूरी नहीं कि हर बदलाव बुरा ही हो। सोशल मीडिया के माध्यम से तीर्थ स्थलों को नई पीढ़ी जान रही है, देख रही है और वहां जाने की प्रेरणा ले रही है। कई युवाओं के लिए यह माध्यम धार्मिक रुचि जगाने का साधन भी बना है। इंस्टाग्राम पर जब कोई केदारनाथ में शिव की भक्ति में डूबी तस्वीर साझा करता है तो वह केवल दिखावा नहीं होता। कई बार वह श्रद्धा की डिजिटल अभिव्यक्ति भी होती है।

मूल समस्या तब आती है जब यात्रा का केंद्र बिंदु बदल जाता है। अगर तीर्थयात्रा केवल सुंदर तस्वीरों और वीडियो के लिए की जाती है और आस्था केवल ‘ रील्स’ के लिए होती है तो वह तीर्थ नहीं पर्यटन है और जब पर्यटन भी केवल दूसरों को दिखाने का माध्यम बन जाता है, तब वह अनुभव नहीं, अभिनय बन जाता है। तीर्थ का अनुभव कभी मौन होता था,  भीतर उतरने वाला। अब वह डीजे वाले भजन, ड्रोन शॉट्स और ‘फुल सिनेमैटिक एक्सपीरियंस’ में तब्दील हो गया है। जो भाव पहले मन में जागते थे, अब वे एडिटिंग ऐप में डाले जाते हैं।

जब यात्रा का मकसद आध्यात्मिक नहीं, सामाजिक मान्यता हो तो यह एक भीड़ पैदा करता है – एक ऐसी भीड़ जो दर्शन के लिए नहीं, ‘फ्रेम’ के लिए आती है। यह भीड़ धार्मिक स्थलों की पवित्रता को भी प्रभावित करती है। गंदगी, शोर, अनुशासनहीनता, व्यवसायीकरण – यह सब तीर्थ स्थलों पर दिखने लगा है। इंस्टाग्राम के ट्रेंड ने कई तीर्थ स्थलों को पर्यटन हब में बदल दिया है। होटल, कैफे, इंस्टा फ्रेंडली कॉर्नर, भव्य गेटवे। यह सब अब तीर्थ स्थलों की पहचान बन रहे हैं। यहां तक कि मंदिरों के बाहर ‘फोटो बूथ’ बनने लगे हैं – “हैशटैग श्रीराम जोन”, “हैशटैग हरहरमहादेव स्पॉट” । इस बदलाव को नकारना व्यर्थ है लेकिन इस पर नियंत्रण जरूरी है। तीर्थयात्रा को पर्यटन में तब्दील होने से बचाने के लिए धार्मिक स्थलों की अपनी आचार संहिता होनी चाहिए, जैसे –कैमरा उपयोग की सीमा तय हो, फोटोशूट की अनुमति मंदिर के भीतर न हो, मौन, अनुशासन और स्वच्छता को बढ़ावा दिया जाए, यात्रा का उद्देश्य प्रचार न होकर प्रेरणा हो। 

इंस्टाग्राम संस्कृति ने हमारे यात्रा अनुभवों में दृश्यता और साझा करने की सुविधा दी है लेकिन इसने आत्मिक अनुभवों को सतही भी बना दिया है। तीर्थयात्रा आत्मा की भूख है जबकि पर्यटन मन का सुख। अगर हम तीर्थ को भी सिर्फ कैमरे की नजर से देखेंगे तो उसकी पवित्रता खो जाएगी। तीर्थ को अनुभव करना है, दर्शाना नहीं। इसलिए अगली बार जब आप तीर्थ जाएं, तो एक तस्वीर खींचिए… पर एक क्षण अपने भीतर भी उतारिए – क्योंकि वहां कोई ‘फिल्टर’ नहीं, सिर्फ सच्चाई है।

सचिन त्रिपाठी 

भारत: आत्म बल से आगे बढ़ता राष्ट्र


प्रो. महेश चंद गुप्ता


भारत ने हाल ही में जिस ‘ऑपरेशन सिंदूर’ को सफलतापूर्वक अंजाम दिया है, वह केवल एक सैन्य ऑपरेशन नहीं बल्कि उसकी रणनीतिक सोच, वैश्विक दृष्टिकोण और राष्ट्र की सामूहिक ताकत का प्रतीक बन गया है। इस ऑपरेशन की सफलता ने भारत को एक बार फिर यह साबित करने का मौका दिया कि वह केवल एक बड़ी जनसंख्या या पुरातन संस्कृति वाला देश नहीं बल्कि एक रणनीतिक, तकनीकी और सैन्य शक्ति भी है जो वैश्विक समीकरणों को प्रभावित करने में सक्षम है। भारत अब आत्म बल से आगे बढ़ता हुआ राष्ट्र है।


भारत की बढ़ती शक्ति और वैश्विक पहचान देशवासियों के लिए गौरव का विषय है। ऑपरेशन सिंदूर ने भारत की रक्षा क्षमता को दुनिया के सामने एक बार फिर मजबूती से प्रस्तुत किया है। संदेश स्पष्ट है कि भारत अपनी ताकत का प्रयोग केवल आवश्यकता पडऩे पर करता है लेकिन जब करता है तो पूरी सटीकता और सफलता के साथ करता है। इस अभियान के बाद अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नजरें भारत की ओर टिक गई हैं। अमेरिका और चीन जैसे वैश्विक शक्ति केंद्रों को अब यह समझ आने लगा है कि भारत केवल उभरती हुई अर्थव्यवस्था नहीं, बल्कि एक संभावित नेतृत्वकर्ता राष्ट्र है जो ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के सिद्धांत के साथ आगे बढ़ रहा है।


भारत की सोच केवल अमेरिका या चीन की बराबरी करने की नहीं है बल्कि उनसे आगे निकलने और विश्वगुरु के रूप में स्थापित होने की है।  ऑपरेशन सिंदूर की सबसे रोचक बात यह रही कि इससे भारतीय राजनीति में भी एक नई चेतना का संचार हुआ। ओवैसी और शशि थरूर जैसे जो नेता पहले सरकार विरोधी माने जाते थे, उन्होंने भी इस ऑपरेशन की सराहना की और राष्ट्रहित को सर्वोपरि माना। इन नेताओं ने भारतीय प्रतिनिधि मंडल के सदस्य के रूप मेंं विश्व के विभिन्न देशों मेंं जा कर जिस मजबूती से भारत का पक्ष रखा और पाकिस्तान को बेनकाब किया है, उससे यह स्पष्ट हुआ कि जब बात देश की सुरक्षा और प्रतिष्ठा की होती है, तो राजनीतिक मतभेद पीछे छूट जाते हैं और ‘भारत पहले’ की भावना सर्वोपरि हो जाती है।


यह राष्ट्रवाद का वही रूप है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पिछले एक दशक से भारतीय जनमानस में गहराता गया है। 2014 से जो राष्ट्र निर्माण की लहर शुरू हुई, वह अब स्पष्ट परिणाम देने लगी है। भारत की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था ने उसे वैश्विक निवेश और तकनीकी साझेदारी का केंद्र बना दिया है। ऑपरेशन सिंदूर की सफलता के साथ-साथ भारत ने तकनीकी मोर्चे पर भी बड़ी उपलब्धियां हासिल की हैं।


कश्मीर में बना चिनाब नदी पर दुनिया का सबसे ऊंचा चिनाब रेलवे ब्रिज केवल एक निर्माण परियोजना नहीं बल्कि इंजीनियरिंग कौशल और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का आश्चर्यजनक नमूना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चिनाब ब्रिज के साथ श्रीनगर के लिए पहली वंदे भारत ट्रेन को हरी झंडी दिखाकर लंबे अरसे से देखे जा रहे सपने को साकार कर दिया है। इसी के साथ कश्मीर देश के बाकी हिस्सों से जुड़ गया है। अब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सीधी ट्रेन यात्रा संभव हो सकेगी। यह जम्मू और कश्मीर के डोगरा राजा महाराजा प्रताप सिंह का सपना था, जिन्होंने 1880 के दशक के अंत में इस मार्ग की कल्पना की थी और सर्वेक्षण के लिए ब्रिटिश इंजीनियरों को लगाया था। कश्मीर घाटी के लोगों के लिए ये ट्रेन न सिर्फ हर मौसम में आने-जाने के लिए एक भरोसेमंद साधन बन गई है बल्कि इससे इलाके में पर्यटन और व्यापार को बढ़ावा मिलने की भी उम्मीद है। इससे पहले अप्रेल में मोदी ने तमिलनाडु के रामेश्वरम में भारत के पहले वर्टिकल लिफ्ट पंबन सी ब्रिज का उद्घाटन किया था। समुद्र के ऊपर बना यह रेलवे ब्रिज अतीत और भविष्य को जोड़ता है।


 भारत में अब राफेल लड़ाकू विमानों के मुख्य ढांचे का निर्माण हैदराबाद में किया जाएगा जो कि ‘मेक इन इंडिया’ पहल की एक ऐतिहासिक उपलब्धि है। इसके लिए टाटा एडवांस्ड सिस्टम्स लिमिटेड और फ्रांस की डसॉल्ट एविएशन के बीच हुआ एग्रीमेंट बताता है कि अब भारत केवल आयातक नहीं बल्कि रक्षा उत्पादों का निर्माता और निर्यातक भी बन रहा है। भारत अब हथियारों का सिर्फ उपभोक्ता नहीं, निर्माता और निर्यातक भी बन रहा है। डिफेंस सेक्टर में प्राइवेट कंपनियों की भागीदारी भारत को आत्मनिर्भर बना रही है। रक्षा उत्पादन में भारत का भविष्य बेहद उज्ज्वल है।


रक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता भारत की बड़ी उपलब्धि है। भारत ने रक्षा क्षेत्र में निजी क्षेत्र को प्रवेश देने की नीति अपनाकर एक बड़ा बदलाव किया है। इससे प्रतिस्पर्धा, नवाचार और गुणवत्ता को बढ़ावा मिला है। भारत और रूस के संयुक्त प्रयास से विकसित हुई ब्रह्मोस मिसाइल की ऑपरेशन सिंदूर के विश्व बाजार में मांग बढ़ी है और कई देश अब भारत से रक्षा उपकरण खरीदने में रुचि दिखा रहे हैं।


उम्मीद है, भारत अगले दस वर्षों में रक्षा क्षेत्र में वैश्विक प्रतिस्पर्धा को पीछे छोड़ देगा। इतना ही नहीं, स्वदेशी तकनीक और स्टार्टअप्स के जरिए भारत अपने डिफेंस सेक्टर को पूरी तरह आत्मनिर्भर बनाने की ओर अग्रसर है।
भारत ने सिर्फ रक्षा नहीं बल्कि ऊर्जा, स्वास्थ्य और तकनीक के क्षेत्रों में भी उल्लेखनीय प्रगति की है। सौर ऊर्जा के क्षेत्र में भारत विश्व में अग्रणी बन रहा है। सरकार की योजनाओं और प्राइवेट निवेश के समन्वय से भारत अब ऊर्जा निर्यातक देश बनने की राह पर है।


अब भारत में सेमीकंडक्टर निर्माण शुरू हो चुका है। यह वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला का सबसे अहम हिस्सा है। अब भारत में इससे भारत को इलेक्ट्रॉनिक्स मैन्युफैक्चरिंग और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे क्षेत्रों में भी आत्मनिर्भरता मिलेगी।
भारत की विदेश नीति अब केवल अपने हितों तक सीमित नहीं रही बल्कि दुनिया को साथ लेकर चलने की नीति पर केन्द्रीत है। प्रधानमंत्री मोदी का यह स्पष्ट दृष्टिकोण रहा है कि भारत वैश्विक नेतृत्व में केवल भागीदार नहीं बल्कि मार्गदर्शक की भूमिका निभाना चाहता है। जी 20 की अध्यक्षता, वैश्विक मंचों पर भारत की सक्रिय भागीदारी, ऑपरेशन सिंदूर के बाद बदला परिदूश्य इस बात के संकेत हैं कि भारत अब एक संतुलनकारी शक्ति बनकर उभर रहा है।
हालांकि भारत की प्रगति उल्लेखनीय है लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं हैं। तमाम चुनौतियों से जूझते हुए भारत आगे बढऩे को दृढ़ संकल्पित है। समग्र विकास और समग्र क्रांति की सोच वाले भारत की नीति अब स्पष्ट है।


2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का सपना केवल एक राजनीतिक घोषणापत्र नहीं बल्कि एक राष्ट्रीय लक्ष्य है। इसके लिए नीति, नियत और नागरिक तीनों का सहयोग आवश्यक है और यही तीनों आज एकजुट होकर भारत को आगे ले जा रहे हैं।


ऑपरेशन सिंदूर ने भारत की सैन्य क्षमता को दिखाने के साथ-साथ एक संदेश भी दिया है कि भारत अब अपने हितों को लेकर संकोच नहीं करता। वह शांति चाहता है, लेकिन किसी भी हस्तक्षेप या चुनौती का जवाब देने में सक्षम है। भारत अब उस मुकाम पर है जहां से वह केवल अपनी समस्याएं ही नहीं सुलझा रहा  बल्कि वैश्विक समस्याओं के समाधान में भी भागीदारी निभा रहा है। यही है नया भारत, जो आत्मनिर्भर, शक्तिशाली, तकनीकी रूप से उन्नत, और दुनिया के साथ कदम मिलाकर चलने को तत्पर है । यह उस नये भारत की झलक है जो आत्म विश्वास, एकता, नवाचार और नेतृत्व की भावना से परिपूर्ण है।

प्रो. महेश चंद गुप्ता

भारत और इस्लामिक देश

शिवानन्द मिश्रा

इस्लामिक देशों से भारत की दोस्ती कितनी गहरी और कितनी सांस्कृतिक है, मलेशिया की घटना से समझ लीजिए। यूँ तो सभी जानते हैं कि सऊदी अरब, अबुधाबी,कतर,संयुक्त अरब अमीरात आदि भारत के कितने खास दोस्त हैं, इतने खास कि मक्का मदीना और इस्लाम के जनक देशों में उन्हें मंदिर बनवाने तक से कोई परहेज नहीं । 

मलेशिया और इंडोनेशिया तो प्राचीन आर्यावर्त का ऐसा हिस्सा हैं जहां रामलीला होती है। गरुड़ एयरवेज है और जहां के राष्ट्रपति का नाम सुकर्ण हुआ करता था। स्त्रियों के नाम आज भी विद्योतमा, वीरोशिखा, अपराजिता, परिणिता आदि होते आ रहे हैं। इन देशों का धर्म अब इस्लाम है पर संस्कृति आज भी सनातनी। भारत के परममित्र देशों को यदि कोई भारत के नाम पर भड़काए तो हंसी आती है ।

ऑपरेशन_सिंदूर की जानकारी देने भारत से सर्वदलीय सांसदों के 7 दल दुनिया के 36 देशों में भेजे गए। सभी जगह भारत के इन डेलिगेशन्स को पूर्ण समर्थन एवम् आतिथ्य मिला।

नकल करते हुए शाहबाज और मुनीर भी चार देशों में गए और पाकिस्तान में जिन्हें जोकर कहा जाता है, वह बिलावल भुट्टो भी पर हिमाकत देखिए लादेन को बसाने वाले आतंकी देश पाकिस्तान की? 

मलेशिया से कहा कि हम मुस्लिम मुस्लिम बिरादर बिरादर, इंडियन डेलिगेशन को आने की परमिशन न दें। 

मलेशिया ने कहा शाहबाज अपनी तशरीफ ले जाइए। हिन्दुस्तान हमारा दोस्त है, उसका स्वागत तहेदिल से करेंगे। वही हुआ। भारतीय डेलिगेशन का जमकर स्वागत किया, पाकिस्तानी आतंकवाद की भर्त्सना की। सनद रहे कि अफगानिस्तान से पाकिस्तान ने कश्मीर भेजने को जब तालिबानी मांगे तो तालिबान ने उसे फटकारते हुए भारत को अपना बिरादर मुल्क बताया था। भारत ने संकट की घड़ी में तुर्की का साथ दिया पर ऐर्दुआन गद्दार निकला।

अमेरिका में बिलावल भुट्टो ने पीसी में कहा कि कश्मीर में सेना मुसलमानों का उत्पीड़न कर रही है। तब पाकिस्तान के एक मुस्लिम पत्रकार ने कहा कि गलत है। सेना के अभियान की प्रेस ब्रीफिंग ही कर्नल सोफिया कुरैशी कर रही हैं जो खुद एक मुस्लिम हैं ? तब बिलावल बगलें झांकने लगे। यही हाल अब भारत में होने वाला है। शशि थरूर,असाउद्दीन ओवैसी, कनीमोजी, सलमान खुर्शीद, सुप्रिया सुले, मनीष तिवारी, प्रियंका चतुर्वेदी,अभिषेक बनर्जी आदि विपक्षी नेता देश के नायक बनकर लौटे हैं। 

अभी हाल तक वे अपनी पार्टियों के सांसद थे, अब छवि और बौद्धिकता के बारे में अपनी पार्टियों के नायकों को बहुत पीछे छोड़ आए हैं। सत्र बुलाने के सवाल से केजरीवाल ,उमर और शरद पवार ने किनारा कर लिया है। अखिलेश और तेजस्वी भी अब मौन अधिक रहते हैं।

वैसे कांग्रेस के लिए उनका होना अपशकुन के समान है। उनके बोल बीजेपी के काम आते हैं । तभी बीजेपी उनके बोलते रहने की इच्छा जाहिर करती रहती है।

शिवानन्द मिश्रा

शिमला समझौता : सवालों के घेरे में पाकिस्तान की मंशा

डॉ. ब्रजेश कुमार मिश्र

पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने हाल ही में 1972 के शिमला समझौते को “मृत दस्तावेज़” करार देते हुए कहा कि पाकिस्तान अब कश्मीर पर 1948 की स्थिति पर लौट आया हैजहां नियंत्रण रेखा सिर्फ एक संघर्ष-विराम रेखा है। यह बयान पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत द्वारा ऑपरेशन सिंदूर के स्थगन के पश्चात आया। आसिफ ने कहा कि भारत-पाक द्विपक्षीय ढांचा समाप्त हो चुका है और शिमला समझौता अब लागू नहीं रहा। उन्होंने यह भी जोड़ा कि चाहे सिंधु जल संधि निलंबित हो या नहींशिमला समझौते का अंत हो चुका है।वास्तव में ख्वाजा आसिफ के इस बयान के पीछे मकसद क्या है ? क्या यह वास्तव में पाकिस्तान की गीदड़ भभकी है या फिर इसके पीछे कुछ यथार्थता भी है ? वस्तुतः इसे  जानने से पूर्व शिमला समझौता और पाकिस्तान का उस पर क्या स्टैंड है जानना आवश्यक है।

पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान की सरकारों ने एक दूसरे के खिलाफ  ठोस कदम उठाए। भारत ने 1960 की सिंधु जल संधि को एकतरफा रूप से स्थगित करने की घोषणा की जो पाकिस्तान की जीवन रेखा मानी जाती है। इस कदम का सीधा प्रभाव पाकिस्तान पर पड़ा और भारत को कूटनीतिक लाभ मिला। इसके प्रत्युत्तर में पाकिस्तान ने भी भारत जैसी ही प्रतिक्रिया दी और 1972 के शिमला समझौते को एकतरफा निलंबित करने की घोषणा कर दी। शिमला समझौता एक युद्धोत्तर समझौता थाजिसमें यह निर्धारित किया गया था कि 1949 की संघर्ष-विराम रेखा को नियंत्रण रेखा में बदला जाएगा और भारत-पाकिस्तान आपसी विवादों का समाधान शांतिपूर्ण तरीकों सेबिना किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता के करेंगे। भारत और पाकिस्तान के बीच 3 जुलाई 1972 को हुए इस ऐतिहासिक समझौते पर तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने हस्ताक्षर किए थे।

यह समझौता 1971 के युद्ध के बाद हुआ, जब पाकिस्तान से विभाजित होकर बांग्लादेश एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में आया। दोनों देशों भारत तथा पाकिस्तान ने अतीत के संघर्षों और टकरावों को समाप्त कर उपमहाद्वीप में स्थायी शांति और सौहार्दपूर्ण संबंधों की स्थापना का संकल्प लिया। समझौते के तहत, भारत और पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र चार्टर के सिद्धांतों का पालन करने, आपसी मतभेदों को शांतिपूर्ण द्विपक्षीय वार्ता के माध्यम से हल करने तथा किसी भी विवाद का अंतिम समाधान होने तक यथास्थिति बनाए रखने पर सहमत हुए। दोनों पक्षों ने बल प्रयोग या उसकी धमकी से दूर रहने, एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता, राजनीतिक स्वतंत्रता और आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने की प्रतिबद्धता जताई। साथ ही, शत्रुतापूर्ण प्रचार को रोकने और मैत्रीपूर्ण सूचनाओं को प्रोत्साहित करने, डाक, तार, सड़क, समुद्र और वायु संपर्क बहाल करने, नागरिकों की यात्रा सुविधाएँ बढ़ाने तथा विज्ञान व संस्कृति के क्षेत्र में सहयोग को प्रोत्साहन देने पर सहमति बनी। भारतीय और पाकिस्तानी सेनाओं को अंतरराष्ट्रीय सीमा पर अपने-अपने स्थानों पर वापस लौटने और जम्मू-कश्मीर में 17 दिसंबर 1971 की युद्धविराम रेखा (लाइन ऑफ कंट्रोल) का सम्मान करने का निर्णय भी लिया गया। यह समझौता दोनों देशों की संवैधानिक प्रक्रियाओं के तहत अनुमोदन के बाद प्रभावी हुआ और भविष्य में प्रतिनिधि स्तर की वार्ताओं और शीर्ष नेतृत्व की बैठकों के माध्यम से संबंधों को सामान्य बनाने की दिशा में आगे बढ़ने पर इस समझौते के द्वारा  सहमति बनी। अंततः, दोनों देश इस बात पर सहमत हुए कि उनके प्रमुख भविष्य में उपयुक्त समय पर फिर मिलेंगे और प्रतिनिधि स्तर की वार्ताओं द्वारा युद्धबंदियों की वापसी, कश्मीर मुद्दे का समाधान और राजनयिक संबंधों की पुनर्बहाली जैसे विषयों पर चर्चा की जाएगी।

इस समझौते के बाद लगभग 93,000 पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों, सैनिकों, अर्धसैनिक बलों के सदस्य और कुछ नागरिकों को जो युद्ध बंदी थे, को 1974  के दिल्ली समझौते के तहत चरणबद्ध तरीके से पाकिस्तान को सौंप दिया गया। साथ ही भारत ने सद्भावना और शांति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाते हुए युद्ध के दौरान सिंधु क्षेत्र में कब्जाए गए 13,000 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्रफल को पाकिस्तान को लौटा दिया। यह कदम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की शांति-प्रिय छवि को दर्शाता है। हालांकि, भारत ने सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण चोरबत घाटी के तुरतुक और चालुंका जैसे इलाकों को अपने नियंत्रण में बनाए रखा। ये क्षेत्र न केवल पाकिस्तान के गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र के करीब स्थित हैं, बल्कि सियाचिन ग्लेशियर की ओर भारत की रणनीतिक पकड़ को और भी मजबूत करते हैं। युद्ध के बाद हुए शिमला समझौते (1972) में इन इलाकों की स्थिति पर भारत की स्थिति स्पष्ट रही और यह क्षेत्र आज भी भारत के प्रशासनिक नियंत्रण में हैं।

यह पहली बार नहीं है जब पाकिस्तान ने शिमला समझौते पर प्रश्न उठाए हैं। उसके द्वारा सियाचीन 1984 और कारगिल 1999 में लाइन ऑफ कंट्रोल को बदलने की कोशिश की गयी थी हालांकि भारत ने पाकिस्तान के दोनों प्रयासों को विफल कर दिया। पिछले कुछ वर्षों से वह इस द्विपक्षीय ढांचे को लेकर असहजता प्रकट करता रहा है। अगस्त 2019 में भारत द्वारा अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के बाद पाकिस्तान ने शिमला समझौते को निलंबित करने की चेतावनी दी थी। पाकिस्तान लगातार इस मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाता रहा है, जबकि भारत ने स्पष्ट किया है कि जम्मू-कश्मीर भारत का आंतरिक विषय है। भारत का हमेशा यह रुख रहा है कि कश्मीर मसला द्विपक्षीय है और किसी भी तीसरे पक्ष की इसमें कोई भूमिका नहीं हो सकती। इसके विपरीत पाकिस्तान बार-बार इसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाने का प्रयास करता रहा है, जिससे क्षेत्रीय स्थिरता पर भी असर पड़ता है।

पाकिस्तान के इस कदम से यह स्पष्ट होता है कि अब वह द्विपक्षीय समझौतों से पीछे हटने की नीति अपना रहा हैजिससे दक्षिण एशिया की स्थिरता पर प्रश्नचिन्ह लग गया है। हालांकि पाकिस्तान द्वारा शिमला समझौते पर कोई अधिकृत पत्र जारी नही किया गया है जिससे यह ज्ञात हो सके कि पाकिस्तान ने स्वयं को इस संधि से अलग कर लिया हो, जैसा भारत के द्वारा सिंधु नदी संधि पर औपचारिक रूप से ज्ञापन जारी किया गया था। सिंधु समझौते की समाप्ति से लेकर अब तक पाकिस्तान भारत से इस विषय पर वार्ता करने के लिए चार बार गुजारिश कर चुका है किन्तु भारत अभी भी अपने स्टैंड पर कायम है। जहाँ तक ख्वाजा आसिफ के बयान का सवाल है तो इतना तो यह तय है कि पाकिस्तान अपने पुराने रवैये पर कायम है। मतलब पाकिस्तान पर कभी भी विश्वास नही किया जा सकता है। हालांकि ख्वाजा आसिफ यह भूल चुके है कि यदि शिमला समझौते से पाकिस्तान वास्तव में पीछे हट गया है तो इसका लाभ भारत को भी मिलेगा। इससे भारत को गुलाम कश्मीर पर अपना वर्चस्व स्थापित करने का अवसर मिल जाएगा।

 पाकिस्तान वस्तुतः रणनीतिक तौर पर अपने को छद्म तरीके से सर्वोच्च साबित करने में लगा है। वह आज इस स्थिति में इस कारण है क्योंकि चीन और तुर्की से उसे ऑपरेशन सिंदूर के दौरान परोक्ष रूप से मदद मिल रही थी। बावजूद इसके भारतीय सेना अभी भी कार्यवाही करने के लिए स्वतंत्र है और यदि पाकिस्तान के द्वारा किसी तरह की नापाक कोशिश की गई तो भारत अब इसका मुहतोड़ जवाब देगा।

डॉ ब्रजेश कुमार मिश्र

संत कबीर : विश्व शांति का मूल है कबीर का “एकेश्वरवाद”

संत कबीर दास जी की जयंती 11 जून पर विशेष…

दुनिया में धार्मिक कट्टरता के लिए नहीं है कोई स्थान, देश के सभी धर्म और संप्रदाय हैं एक समान

प्रदीप कुमार वर्मा

संत कबीर दास15 वीं सदी के मध्यकालीन भारत के एक रहस्यवादी कवि और भक्ति आंदोलन की निर्गुण शाखा के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति थे, जो ईश्वर के प्रति भक्ति और प्रेम पर जोर देते थे। संत कबीर दास को एक ऐसे समाज सुधारक के तौर पर भी जाना जाता है, जो अपनी रचनाओं के जरिए जीवन भर आडंबर और अंधविश्वास का विरोध करते रहा।वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ़ झलकती है। यही वजह है कि समाज में संत कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है। उनकी रचनाएँ हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण शाखा की ज्ञानमार्गी उपशाखा की महानतम कविताओं के  रूप में आज भी प्रसिद्ध हैं। इन कविता और साखियों के माध्यम से पता चलता है कि संत कबीर दास जी का एकेश्वरवाद का सिद्धांत दुनिया में आज भी प्रासंगिक है।

              माना जाता है कि संत कबीर का जन्‍म सन 1398 ईस्वी में काशी में हुआ था। कबीर दास निरक्षर थे तथा ऐसी मान्यता है कि उन्‍हें शास्त्रों का ज्ञान अपने गुरु स्‍वामी रामानंद द्वारा प्राप्‍‍त हुआ था। तत्कालीन भारतीय समाज में कबीर दास ने कर्मकांड और गलत धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ आवाज उठाई और लोगों में भक्ति भाव का बीज बोया। इन्होंने सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त भेद भाव को दूर करने का भी प्रयास किया। वे सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष थे। उन्होंने हिंदू मुसलमानों के बाह्याडंबरों पर समान रूप से प्रहार किया | यदि उन्होंने हिंदुओं से कहा कि-पत्थर पूजै हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहाड़,,तासे तो चक्की भली, पीस खाए संसार ||” तो मुसलमानों से भी यह कहने में संकोच नहीं किया कि ” कंकड़ पत्थर जोड़ि के, मस्जिद लियो बनाय,,ता पर मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय”? 

           संत कबीर ने इस बात पर ज़ोर दिया कि सच्ची पूजा दिल से होती है, बाहरी कर्मकांडों की तुलना में ईश्वर के साथ सच्चे संबंध को प्राथमिकता दी जाती है। उन्होंने यह भी सिखाया कि हृदय की पवित्रता और ईश्वर के प्रति प्रेम ही सर्वोपरि है। यजी नहीं संत कबीर ने खुलेआम खोखले कर्मकांडों और अंधविश्वासों की निंदा की और लोगों से सच्ची भक्ति की तलाश करने का आग्रह किया। उनका मानना था कि सच्ची आस्था से रहित कर्मकांडों का कोई मतलब नहीं होता है। उन्होंने तत्कालीन समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था और सामाजिक असमानताओं को खारिज किया। संत कबीर ने जाति, पंथ या लिंग की परवाह किए बिना सभी मनुष्यों के बीच समानता की वकालत की। उनके छंदों ने लोगों के बीच सद्भाव की वकालत करते हुए एकता और सामाजिक न्याय को बढ़ावा दिया

              कबीरदास निर्गुण भक्ति के उपासक थे। उन्होंने न तो हिंदू धर्म की मूर्तिपूजा को स्वीकार किया, न ही इस्लाम की कट्टरता को। वे एकेश्वरवाद में विश्वास रखते थे और मानते थे कि ईश्वर एक है तथा सर्वत्र व्याप्त है। उनके अनुसार, आत्मा और परमात्मा के बीच का संबंध प्रेम और भक्ति पर आधारित होना चाहिए। कबीर दास पहले भारतीय कवि और संत हैं जिन्होंने हिंदू धर्म और इस्लाम धर्म के बीच समन्वय स्थापित किया और दोनों धर्मों के लिए एक सार्वभौमिक मार्ग दिया। उसके बाद हिंदू और मुसलमान दोनों ने मिलकर उनके दर्शन का अनुसरण किया,जो कालांतर में “कबीर पंथ” के नाम से चर्चित हुआ। कहा तो यह भी जाता है की कबीरदास द्वारा काव्यों को कभी भी लिखा नहीं गया, सिर्फ बोला गया है। उनके काव्यों को बाद में उनके शिष्‍यों द्वारा लिखा गया।  कबीर की रचनाओं में मुख्‍यत: अवधी एवं साधुक्‍कड़ी भाषा का समावेश मिलता है। 

    संत कबीर दास ने दोहा और गीत पर आधारित 72 किताबें लिखीं। उनके कुछ महत्वपूर्ण संग्रहों में कबीर बीजक, पवित्र आगम, वसंत, मंगल, सुखनिधान, शब्द, साखियाँ और रेख्ता शामिल हैं। 

 कबीर दास की रचनाओं का भक्ति आंदोलन पर बहुत प्रभाव पड़ा और इसमें कबीर ग्रंथावली, अनुराग सागर, बीजक और साखी ग्रंथ जैसे ग्रंथ शामिल हैं। उनकी पंक्तियाँ सिख धर्म के धर्मग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में पाई जाती हैं। उनकी प्रमुख रचनात्मक कृतियाँ पाँचवें सिख  गुरु अर्जन देव द्वारा संकलित की गईं। कबीर दास अंधविश्वास के खिलाफ थे। कहा जाता है कबीर दास के समय में समाज में एक अंधविश्वास था कि जिसकी मृत्यु काशी में होगी वो स्वर्ग जाएगा और मगहर में होगी वो नर्क। इस भ्रम को तोड़ने के लिए कबीर ने अपना जीवन काशी में गुजारा, जबकि प्राण मगहर में त्यागे थे। 

   कबीर संपूर्ण जीवन काशी में रहने के बाद, मगहर चले गए। उनके अंतिम समय को लेकर मतांतर रहा है, लेकिन कहा जाता है कि 1518 के आसपास, मगहर में उन्‍होनें अपनी अंतिम सांस ली और एक विश्‍वप्रेमी और समाज को अपना सम्पूर्ण जीवन देने वाला दुनिया को अलविदा कह गया…। संत कबीरदास का प्रभाव न केवल उनके समकालीन समाज पर पड़ा, बल्कि आज भी उनके विचार प्रासंगिक हैं। उनकी शिक्षाओं ने नानक, दादू, रैदास और तुलसीदास जैसे संतों को प्रभावित किया। आधुनिक युग में भी उनके विचार धार्मिक सहिष्णुता, सामाजिक समरसता और आत्मज्ञान के लिए प्रेरणा देते हैं। आज के दौर पर जब धर्म और मजहब के नाम पर देश और दुनिया में अशांति और हिंसा का माहौल है। तब संत कबीर दास जी का धार्मिक चिंतन तथा एकेश्वरवाद अत्यंत प्रासंगिक हो जाता है कि हम धार्मिक कट्टरता और मजहबी उन्माद के नाम पर आपस में ना तो,नफरत करें और ना ही जंग।

प्रदीप कुमार वर्मा

विकसित भारत के संकल्प में सहयोगी क्रांतियाँ

डॉ. नीरज भारद्वाज

विकसितभारत के संकल्प को पूरा करने में देश के हर क्षेत्र और व्यक्ति का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। विकसित भारत के संकल्प को साकार करने में और देश को आगे बढ़ाने में आजादी के बाद से ही समय-समय विभिन्न क्रांतियों ने एक बड़ी भूमिका निभाई है। क्रांति शब्द सुनकर माना यह जाता है कि लोगों का बड़ा समूह, राजनीतिक हलचल आदि। विचार करें तो क्रांति परिवर्तन का सूचक है। किसी भी क्षेत्र में परिवर्तन से पहले उसमें क्रांति होती है।

 स्वतंत्रता के बाद देश में अनाज की पैदावार को बढ़ाने के लिए हरित क्रांति लाई गई। 1960 के दशक के आखिरी दौर में पंजाब से हरित क्रांति की शुरुआत हुई। उस समय  खेती के तरीकों में बड़ा बदलाव हुआ। पारंपरिक तरीकों से अलग औद्योगिक व्यवस्था की ओर ध्यान दिया गया और ज़्यादा उपज वाली किस्म के बीजों को लाया गया।  खेती में मशीनी उपकरण, सिंचाई तंत्र, खाद और कीटनाशक के प्रयोग पर ज़ोर दिया गया। विचार करें तो आजादी के बाद देश में खाद्य सामग्री को लेकर बड़ा संकट रहा। अंग्रेज यहाँ से सभी कुछ लूट कर ले गए थे, हमें अपना जन और भूखंड मिला। अंग्रेज जन और भूखंड के भी दो हिस्से करके, दो देश बनाकर चले गए। उस समय देश के सामने कई बड़ी चुनौतियाँ थी। हमने धीरे-धीरे उन सभी का सामना करके समाधान निकाल लिए।

1970 के दशक में भारत में श्वेत क्रांति (दुग्ध क्रांति) की शुरुआत हुई। इस क्रांति को ‘ऑपरेशन फ़्लड’ के नाम से भी जाना जाता है। इसने दूध की कमी झेल रहे देश को दुनिया में सबसे ज़्यादा दुग्ध उत्पादन करने वाला देश बना दिया। देश अब नई चाल से चलने लगा। लाल क्रांति ने टमाटर और मांस के उत्पादन को काफी बढ़ावा दिया है। यह क्रांति काल 1980 के दशक में शुरू हुआ और 2008 तक चला। विचार करें तो आज भी हम इन सभी क्रांतियों का सहयोग ले रहे हैं। भारत में नीली क्रांति मत्स्य पालन का एकीकृत विकास और प्रबंधन योजना के कार्यान्वयन के लिए है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह सरकार द्वारा जलीय कृषि उद्योग के विकास के लिए की गई एक पहल है। इसका उद्देश्य इस व्यापार से जुड़े लोगों के जीवन यापन में सुधार करना है।

पीली क्रांति भारत में खाद्य तेलों और तिलहन फसलों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए है। शुरूआत में इसका उद्देश्य भारत को तिलहन उत्पादन में आत्म निर्भर बनाना रहा और आज भारत इस क्षेत्र में आत्म निर्भर बन गया है। गुलाबी क्रांति जिसे पिंक रिवोल्यूशन भी कहा जाता है। भारत में गुलाबी क्रांति मांस और मुर्गी पालन क्षेत्र में तकनीकी तथा प्रक्रियागत सुधारों को दर्शाती है। काली क्रांति पेट्रोलियम खनिज तेलों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए है। इसमें एथेनोल का उत्पादन भी बढ़ाया जायेगा, इस विचार को रखा गया साथ ही इसका संबंध कोयला उत्पादन से भी है। धूसर क्रांति उर्वरक उत्पादन में वृद्धि से है। रजत क्रांति भारत में अंडा उत्पादन और मुर्गियों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए है। देश में आंध्र प्रदेश राज्य इसका सबसे बड़ा उत्पादक है। सुनहरी क्रांति का संबंध बागवानी उत्पादन में वृद्धि से है, जिसमें फल विशेषकर सेब उत्पादन से है। इसे शहद उत्पादन से भी जोड़ा जाता है। भारत सब्जी और फल उत्पादन में विश्व में दूसरे स्थान पर है।

इन्द्रधनुषी क्रांति इसमें हरित, पीली, नीली, लाल, गुलाबी, धूसर आदि अन्य सभी क्रांतियों को साथ लेकर चलने का लक्ष्य है। जुलाई 2000 में नई कृषि नीति को लागू किया गया, इसी को इन्द्रधनुषी क्रांति कहा गया है। सदाबहार क्रांति का उद्देश्य देश की मिट्टी को उन्नत बनाना, किसानों को लोन दिलाना, रेन वाटर हार्वेस्टिंग तथा कृषि शोध को बढ़ाना है। गोल क्रांति का संबंध देश में आलू के उत्पादन को बढ़ाना है। भारत चीन के बाद विश्व का दूसरा सबसे बड़ा आलू का उत्पादक देश है। भारत में सबसे अधिक आलू उत्तर प्रदेश में होता है। इन क्रांतियों से अलावा भी देश में अलग-अलग क्षेत्रों में क्रांतियाँ होती रही हैं। प्रेरित प्रजनन (induced breeding) क्रांति, स्वर्णिम क्रांति सिल्वर क्रांति आदि।

 इन सभी क्रांतियों के साथ आज तकनीकी क्रांति भी देश में तेजी से आगे बढ़ रही है। आज हमारा देश जवान, किसान, विज्ञान और अनुसंधान हर क्षेत्र में तेजी से कार्य कर रहा है। हमें राजनीतिक बातों के साथ-साथ इन सभी विषयों पर भी चर्चा-परिचर्चा करते रहना चाहिए।

डॉ. नीरज भारद्वाज

राहुल गांधी का चुनाव आयोग पर हमला क्यों

राजेश कुमार पासी

ऑपरेशन सिंदूर की सफलता के बाद ऐसा लगता है कि राहुल गांधी बौखला गए हैं । उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि भाजपा का मुकाबला कैसे किया जाए, इसलिए वो उल्टे-सीधे बयान दे रहे हैं । पिछले 11 सालों से वो मोदी से लड़ते-लड़ते थक गए हैं और उन्हें आगे कोई उम्मीद दिखाई नहीं दे रही है । उनकी हालत उस बच्चे जैसी हो गई है जो खिलौना न मिलने पर उसे तोड़ने की हद तक चला जाता है । कुछ ऐसा ही राहुल गांधी करते दिखाई दे रहे हैं । उन्हें न तो अब जनता पर भरोसा रहा है और न ही संविधान पर, बेशक वो संविधान को सिर पर उठाये घूम रहे हों । लगातार हार की हताशा में वो अब संवैधानिक संस्थाओं पर हमले कर रहे हैं । आज जो संस्थाएं पहले से कहीं ज्यादा स्वतंत्र और पारदर्शी तरीके  से काम कर रही हैं, उन पर वो लगातार सवाल  खड़े कर रहे हैं ।

 विपक्षी नेता होने के कारण यह उनका अधिकार है लेकिन भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को बदनाम करने और कमजोर करने का हक किसी को नहीं है । वो केंद्रीय एजेंसियों पर हमला करते हैं जो कि इतना गलत नहीं है क्योंकि वो सीधे सरकार के नियंत्रण में काम करती हैं । सवाल यह है कि संवैधानिक संस्थाओं पर हमला करना कैसे सही कहा जा सकता है । उन्होंने राष्ट्रीय समाचार पत्रों में एक लेख लिखकर चुनाव आयोग पर बड़ा हमला किया है । वैसे वो चुनाव आयोग के खिलाफ बयान देते रहते हैं लेकिन इस लेख के माध्यम से उन्होंने यह बताने की कोशिश की है कि चुनाव आयोग भाजपा के साथ मिलकर उसे फायदा पहुंचा  रहा है । लगातार तीन लोकसभा और दर्जनों विधानसभा चुनाव हारने के बाद वो अपनी राजनीति बदलने को तैयार नहीं हैं ।

कांग्रेस भी यह देखने को तैयार नहीं है कि उनका नेता मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के सामने कहीं नहीं टिकता है, वो अपना नेता बदलने को तैयार नहीं है । वास्तव में कांग्रेस के पास कोई विकल्प ही नहीं है क्योंकि वो गांधी परिवार से आगे देख नहीं सकती । कांग्रेस को आज भी लगता है कि गांधी परिवार के अलावा उसके पास ऐसा कोई नेता नहीं है जो उसका नेतृत्व कर सके । चुनाव आयोग पर राहुल गांधी ने वही सवाल उठाए हैं जो पिछले कई सालों से दोहराते आ रहे हैं । लेख लिखकर उन्होंने चुनाव आयोग के खिलाफ एक मुहिम चलाने की कोशिश की है । 

             ऐसा  लगता है कि उन्होंने बिहार में अपनी संभावित करारी हार को सूंघ लिया है इसलिए वो महाराष्ट्र चुनाव में चुनाव आयोग की भूमिका को संदेह के घेरे में लेना चाहते हैं । जैसे आरोप उन्होंने लेख में लगाए हैं, उनके आधार पर वो चुनाव आयोग के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जा सकते थे लेकिन वो मीडिया के माध्यम से उसे घेरना चाहते हैं । इसकी मुख्य वजह यह है कि चुनाव आयोग अब कुछ भी कहे लेकिन चुनाव आयोग की निष्पक्षता तो संदेह के घेरे में आ ही गई है । इस देश में आरोपों के पीछे की सच्चाई कोई देखना नहीं चाहता और सिर्फ आरोपों के आधार पर ही आरोपी को अपराधी मान लिया जाता है । कांग्रेस और विपक्ष के ज्यादातर समर्थक राहुल गांधी के लेख के आधार यह मान चुके होंगे कि भाजपा ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में जीत चुनाव आयोग की मदद से हासिल  की है । जिस चुनाव आयोग और संविधान के रहते कांग्रेस 55 साल तक शासन करती रही, अब उसे लगता है कि इसके गलत इस्तेमाल से भाजपा  चुनाव जीत रही है जबकि इस बार लोकसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत भी नहीं मिला है ।  इस सवाल का जवाब कांग्रेस और उसके समर्थकों को देना चाहिए कि भाजपा अभी तक बंगाल, केरल और तमिलनाडु में जीत हासिल क्यों नहीं कर पाई है । 

 दूसरा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस 55 साल तक चुनाव आयोग की मदद से ही चुनाव जीत रही थी। नेहरू, इंदिरा, राजीव और मनमोहन सिंह इसलिये देश के प्रधानमंत्री बने क्योंकि उन्होंने चुनाव आयोग की मदद ली थी । कांग्रेस क्या अभी तक देश को मूर्ख बनाकर शासन करती आ रही है। इसका दूसरा मतलब यह भी है कि आज तक जो भी सरकारें बनी हैं उन्हें जनता ने नहीं चुना था, वो इसलिए बनी क्योंकि चुनाव आयोग ने मदद की थी । ऐसी बातें राहुल गांधी विदेशों में भी करते हैं जिससे पूरी दुनिया मे संदेश जा रहा है कि भारत में लोकतंत्र नाम का है, जो कुछ है चुनाव आयोग है । वो जिसे चाहे जीता सकता है। ईवीएम से भी चुनाव जीता जा सकता है और भाजपा ईवीएम में छेड़छाड़ करके लगातार शासन कर रही है।   

              राहुल गांधी ने अपने लेख को शीर्षक दिया है, ये मैच फिक्स है और चुनाव की चोरी का खेल समझिए । उन्होंने चुनाव आयुक्त के सरकार के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री द्वारा 2-1 के बहुमत से चुने जाने पर सवाल उठाया है । उनका कहना है कि ऐसे विपक्ष के नेता के वोट को अप्रभावी बना दिया गया है । उनका कहना है कि जिन लोगों ने चुनाव लड़ना है, वही अंपायर तय कर रहे हैं । सवाल यह है कि जो प्रक्रिया 77 सालों तक ठीक थी वो अब कैसे गलत हो गई । 2014 से पहले तो कोई प्रक्रिया ही नहीं थी, जिसे प्रधानमंत्री चाहे चुनाव आयुक्त बना देते थे । सिर्फ प्रधानमंत्री तय करता था कि चुनाव आयुक्त कौन होगा और घोषणा हो जाती थी । राहुल गांधी को बताना होगा कि नेहरू, इंदिरा, राजीव और मनमोहन सिंह जी ने चुनाव आयुक्त चुना तो वो निष्पक्ष कैसे था और अब मोदी सरकार चुन रही है तो वो पक्षपाती कैसे हो गया। तब वो  लोकतांत्रिक तरीका था, अब वो अलोकतांत्रिक कैसे हो गया । उन्होंने चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची तैयार करने में गड़बड़ी का आरोप लगाया है । सच्चाई यह है कि मतदाता सूची तैयार करने की प्रक्रिया में सभी पार्टियों के कार्यकर्ता शामिल होते हैं । अगर सूची बनाते समय गड़बड़ी की गई तो उनके कार्यकर्ताओं ने शिकायत क्यों नहीं की और अगर की तो उसे देश के सामने क्यों नहीं रखा गया ।

दूसरी बात यह है कि यह सूची चुनाव के समय सभी पार्टियों को उपलब्ध करवाई जाती है । अगर उसमें फर्जी वोटर थे तो कांग्रेस पार्टी ने उनके खिलाफ शिकायत क्यों नहीं की । उन्होंने मतदान प्रक्रिया में गड़बड़ी का आरोप लगाया है । अब सवाल उठता है कि जब मतदान के समय गड़बड़ी की जा रही थी तो कांग्रेस और उनके सहयोगी दलों के चुनावी एजेंट क्या कर रहे थे । चुनावी एजेंट तो मतदान की प्रक्रिया पूरी होने तक वही रहता है । मतदान प्रक्रिया खत्म होने के बाद एजेंटों ने फॉर्म सी पर हस्ताक्षर क्यों किये । बड़ा सवाल यह है कि मतदान केन्द्र पर सारा दिन बैठने वाले एजेंट कुछ नहीं देख पाये लेकिन राहुल गांधी ने घर बैठे सब कुछ देख लिया । उन्होंने फर्जी वोटिंग का मुद्दा उठाया है लेकिन सवाल फिर यह है कि उनके एजेंटों के सामने फर्जी वोटिंग कैसे हो गई जबकि एजेंट अपने इलाके के लोगों को पहचानते हैं । मतदान केंद्र पर गड़बड़ी होने पर एजेंट की शिकायत पर चुनाव आयोग कार्यवाही करता है । एजेंट चुप हैं लेकिन राहुल गांधी बोल रहे हैं । क्या राहुल गांधी को अपने कार्यकर्ताओं पर भरोसा नहीं है या उनका मानना है कि वो भाजपा के साथ मिल गए हैं ।  

                अगर राहुल गांधी मानते हैं कि उन्होंने सच लिखा है तो मामला बहुत गंभीर है, सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी और कांग्रेस इसे सच मानते हैं। अगर उन्हें पता है कि यह सच है तो उनके पास सबूत और गवाह भी होंगे तो वो अब तक चुप क्यों है, चुनाव आयोग या सुप्रीम कोर्ट क्यों नहीं गए। चुनाव परिणाम  घोषित होने से पहले  ही कांग्रेस शोर मचा सकती थी । अगर चुनाव परिणाम घोषित होने तक कांग्रेस सो रही थी तो वो सुप्रीम कोर्ट जा सकती थी और चुनावी गड़बड़ी के सारे सबूत वहां प्रस्तुत कर सकती थी । चुनाव आयोग ने कहा है कि वो तभी कार्यवाही करेगा जब इसकी लिखित में राहुल गांधी, उनकी पार्टी या कार्यकर्ता शिकायत करेंगे। वैसे भी परिणाम घोषित होने के बाद चुनाव आयोग कुछ नहीं कर सकता, तब अदालत ही कुछ कर सकती है ।

अगर राहुल गांधी और कांग्रेस कुछ करना नहीं चाहते तो दो बातें हो सकती है। पहली तो उनके पास कोई सबूत और तर्क नहीं है दूसरी कि जब उनके पास कोई तर्क और तथ्य नही है तो मुद्दे को गर्माते रहो और शोर मचाओ ताकि जनता को लगे कि चुनाव आयोग गड़बड़ कर रहा है । चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है, उस पर राजनीति के लिए आरोप लगाना मतलब संविधान और लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ करना है। चुनाव आयोग की विश्वसनीयता को खत्म करना है। ऐसा लगता है कि राहुल गांधी का मकसद जनादेश को अस्वीकार करना और चुनाव आयोग की विश्वसनीयता को खत्म करना है ।  राहुल  गांधी समझ चुके हैं कि राजनीति करना उनके बस की बात नहीं है इसलिए वो अराजकता पैदा करना, संविधान को खत्म करना, लोकतंत्र को कमजोर करना और देश को बर्बाद करना चाहते हैं । अगर जनता में लोकतंत्र से आस्था खत्म हो गई तो देश बर्बाद हो जायेगा, राहुल गांधी उसी राह पर जाते दिखाई दे  रहे हैं ।  अपने शासनकाल में कांग्रेस ने संविधान को कई बार कुचला है, लोकतंत्र का मजाक बनाया है । आपातकाल लगाने वाली कांग्रेस से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है ।  

भाजपा और मोदी पर बेतुके आरोप लगाना एक अलग मुद्दा है लेकिन चुनाव आयोग पर आरोप लगाना अलग मुद्दा है । अगर कांग्रेस साबित नही कर सकती तो आरोप नहीं लगाना चाहिए, आपको सुप्रीम कोर्ट और देश की सेना पर भरोसा नहीं है। यहां तक कि आपको तो अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं पर भी भरोसा नहीं है। कांग्रेस को बताना चाहिए कि अगर संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता खत्म हो जायेगी तो संविधान और लोकतंत्र कैसे बचेंगे । मेरा मानना है कि राहुल खिलौना तोड़ने की जिद्द छोड़कर उसे पाने के लिए मेहनत करें । उनके पूर्वजों ने तो उन्हें खिलौना लाकर  दे दिया था लेकिन वो उसे संभाल नहीं पाए तो ये उनकी गलती है लेकिन अपनी गलती की सजा वो देश को न दें । 

राजेश कुमार पासी

साउथ के टॉप 5 मेल एक्टर्स

सुभाष शिरढोनकर

तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम सिनेमा को समेकित करने वाली साउथ फिल्म इंडस्ट्री ने हाल के वर्षों में न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर अपनी जबर्दस्‍त धाक जमाई है।

साउथ फिल्म इंडस्ट्री में काम करने वाले एक्‍टर्स का क्रेज आज बॉलीवुड एक्‍टर्स से कहीं ज्‍यादा नजर आने लगा है। इनमें से कुछ एक्‍टर्स तो ऐसे हैं जो अपने शानदार एक्टिंग टेलेंट, बॉक्‍स ऑफिस पर उन्हें मिल रही कामयाबी और जबर्दस्‍त फैन फॉलोइंग के मामले में शाहरूख और सलमान से कहीं आगे हैं।

अल्लू अर्जुन से लेकर यश जैसे पैन-इंडिया स्टार्स, साउथ सिनेमा को नई ऊँचाइयों पर ले जा रहे हैं। इनकी फिल्में अब साउथ की सीमा से बाहर निकलकर न केवल हिंदी बेल्ट बल्कि अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भी धूम मचा रही हैं।

इस लेख के जरिए जानते हैं कि आज साउथ में जबर्दस्‍त दबदबा रखने वाले टॉप 5 एक्‍टर कौन-कौन हैं।

अल्लू अर्जुन

8 अप्रैल 1982, को चेन्नई में पैदा हुए एक्‍टर अल्‍लू अर्जुन अपने स्टाइलिश लुक, शानदार डांस मूव्स और दमदार एक्टिंग के लिए मशहूर हैं। उनकी फिल्‍म ‘पुष्पा: द राइज़’ (2021) ने 350 करोड़ और ‘पुष्पा: द रूल’ (2024) ने 1500 करोड़ रूपये से ज्यादा की कमाई की।

इस फिल्‍म फ्रेंचाइजी में ‘सामी सामी’ और ‘झुकने का नहीं’ जैसे डायलॉग्स ने अल्‍लू अर्जुन को युवाओं का सबसे ज्‍यादा चहेता एक्‍टर बना दिया। इसके बाद आज वह साउथ के सबसे ज्‍यादा कामयाब एक्टर्स में से एक हैं।  

8 जनवरी 1986, कर्नाटक के हासन में पैदा हुए एक्‍टर यश का एक्शन स्टाइल और स्क्रीन प्रजेंस लाजवाब है। उनकी प्रमुख फिल्‍मों में ‘केजीएफ: चैप्टर 1’, ‘केजीएफ: चैप्टर 2’  शामिल हैं। ‘केजीएफ: चैप्टर 2’ (2022) ने 1250 करोड़ की जोरदार कमाई की थी।

इस सीरीज की फिल्‍मों के साथ यश ने कन्नड़ सिनेमा को वैश्विक स्‍तर पर पहचान दिलाई। वह कन्नड़ सिनेमा के सबसे बड़े स्टार हैं और पैन-इंडिया स्तर पर लोकप्रिय हैं। उनकी अगली फिल्म ‘टॉक्सिक’ रिलीज पर है।  

प्रभास  

23 अक्टूबर 1979 को चेन्नई में पैदा हुए प्रभास को ‘बाहुबली’ ‘साहो’, ‘राधे श्याम’, ‘कल्कि 2898 AD’ (2024) जैसी बड़े बजट की भव्यता लिए हुए फिल्‍मों के लिए जाना जाता है।  

खासकर ‘बाहुबली’ के बाद वे पैन-इंडिया स्टार बन गए। उनकी फिल्‍म ‘कल्कि 2898 AD’ ने 1100 करोड़ से अधिक की कमाई की जिसने उन्हें 2024 के सबसे सफल अभिनेताओं में शुमार किया। इन दिनों वह संदीप रेड्डी वांगा के साथ उनकी अगली फिल्म ‘स्पिरिट’ को लेकर चर्चा में है।   

विजय थलापति

चेन्नई में पैदा हुए विजय थलपति अपनी बहुमुखी प्रतिभा, डांस और एक्शन के लिए जाने जाते हैं। रजनीकांत के बाद वह तमिल सिनेमा के सबसे बड़े स्टार्स में से एक हैं। ‘मास्टर’, ‘बीस्ट’, ‘वरिसु’ या फिर ‘लियो’ (2023)  उनकी चाहे कोई भी फिल्‍म हो, वह  बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड अवश्‍य तोड़ती हैं।

विजय की फिल्‍म ‘लियो’ (2023) ने 600 करोड़ से अधिक कमाई की थी। पिछले साल की उनकी फिल्म ‘द गोट’ भी जबर्दस्‍त हिट रही। हाल ही में विजय ने राजनीति में कदम रखा है। इसके बाद उनकी लोकप्रियता में जबर्दस्‍त उछाल आया  है।   

महेश बाबू

9 अगस्त 1975 को चेन्नई में पैदा हुए एक्‍टर महेश बाबू अपने हैंडसम लुक और दमदार अभिनय के लिए मशहूर हैं। तेलुगु सिनेमा के ‘प्रिंस’ कहे जाने वाले महेश बाबू की फैन फॉलोइंग जबरदस्त है।

उनकी  उल्‍लेखनीय फिल्‍मों में ‘पोकरी’, ‘भारत अने नेनु’ और ‘सर्कारू वारी पाटा’ के नाम शामिल हैं। फिल्‍म ‘सर्कारू वारी पाटा’ (2022) ने बॉक्‍स ऑफिस पर 180 करोड़ से अधिक की कमाई की।

महेश बाबू की फिल्में व्यावसायिक और सामाजिक संदेशों का मिश्रण होती हैं। इन दिनों वे एसएस राजामौली के साथ उनकी अगली फिल्म ‘SSMB29’ कर रहे है।  

सुभाष शिरढोनकर

रिश्तों के लाश पर खड़ा आधुनिक प्रेम

इंदौर के राजा और सोनम के मेघालय हनीमून पर हुई हत्या की घटना न केवल व्यक्तिगत त्रासदी है, बल्कि सामाजिक, नैतिक और मानसिक स्तर पर गहरी चिंता पैदा करती है। यह अपराध आधुनिक प्रेम और विवाह संबंधों में फैलते अविश्वास और स्वार्थ की भयावह तस्वीर पेश करता है। साथ ही, मेघालय जैसे पर्यटन स्थलों की छवि भी प्रभावित होती है। ऐसी घटनाएँ भावनात्मक शिक्षा, रिश्तों में पारदर्शिता और समाज के नैतिक मूल्यों की पुनर्समीक्षा की मांग करती हैं।

भारत के सामाजिक परिदृश्य में प्रेम, विवाह और रिश्तों को पवित्र बंधन माना जाता रहा है। लेकिन जब हनीमून जैसी कोमल, सुंदर और विश्वास से भरी यात्रा हत्या का मंच बन जाए, तो यह सिर्फ एक अपराध नहीं होता, यह पूरे समाज की अंतरात्मा पर चोट करता है।

इंदौर के राजा और मेघालय की सोनम का हनीमून मर्डर केस केवल एक युवक की जान नहीं ले गया, उसने नॉर्थ ईस्ट की छवि को भी कलंकित किया, टूरिज्म सेक्टर पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए और सबसे बड़ी बात — विश्वास की नींव पर टिके रिश्तों को ध्वस्त कर दिया।

इंदौर निवासी युवक राजा की शादी हाल ही में सोनम नामक युवती से हुई। नवविवाहित जोड़ा हनीमून मनाने मेघालय पहुंचा। वहाँ की खूबसूरत वादियों, शांत झीलों और पहाड़ी रास्तों के बीच ऐसा कुछ हुआ जिसकी कल्पना कोई नहीं कर सकता था।

हनीमून के बहाने सोनम ने अपने प्रेमी के साथ मिलकर अपने पति की हत्या की योजना बनाई और उसे अंजाम भी दे डाला।

शुरुआत में राजा का गायब होना एक दुर्घटना माना गया। लेकिन जब पुलिस ने जांच आगे बढ़ाई, मोबाइल लोकेशन, चैट्स, बैंक ट्रांजैक्शन और सीसीटीवी फुटेज सामने आए, तब जाकर पूरी साजिश बेनकाब हुई।

सवाल यह है कि एक नवविवाहिता ऐसा क्यों करती है? जवाब आसान नहीं है, पर चिंतन जरूरी है। यह मामला केवल व्यक्तिगत धोखा नहीं, समाज की उस बनती मानसिकता का भी परिणाम है, जिसमें रिश्तों में धैर्य, संवाद और समर्पण की जगह जल्दबाजी, लालच और अवसरवाद ने ले ली है।

सोनम पहले से एक अन्य युवक से प्रेम करती थी, और राजा से विवाह सिर्फ परिवार या आर्थिक मजबूरियों के चलते हुआ। लेकिन विवाह के बाद भी उसने उस प्रेमी को छोड़ा नहीं, बल्कि पति को रास्ते से हटाने की योजना बना डाली।

आज के दौर में रिश्तों की शुरुआत इंस्टाग्राम और स्नैपचैट से होती है, और अंत क्राइम पेट्रोल या पुलिस स्टेशन पर। भावनात्मक गहराई, एक-दूसरे को समझने का समय और परख की प्रक्रिया लगभग न के बराबर रह गई है।

विवाह को लेकर जिस जल्दबाजी और सामाजिक दबाव की संस्कृति बन गई है, उसमें युवक-युवती को खुद की इच्छाओं और संबंधों को समझने का समय ही नहीं मिलता। भावनात्मक अपरिपक्वता, आत्मकेंद्रित निर्णय और रिश्तों के प्रति गैर-जिम्मेदारी, इन सबका सम्मिलन इस हत्याकांड जैसी घटनाओं को जन्म देता है।

यह घटना मेघालय के खूबसूरत पर्यटन स्थलों जैसे शिलॉंग, चेरापूंजी, डावकी, उमगोट नदी आदि की छवि पर भी असर डाल गई। सोशल मीडिया पर कुछ यूजर्स ने इसे “मेघालय हनीमून मर्डर केस” कहना शुरू कर दिया, जिससे नॉर्थ ईस्ट राज्यों के प्रति अनावश्यक संदेह और डर का वातावरण बन रहा है।

लेकिन प्रश्न यह है: क्या एक महिला की निजी आपराधिक साजिश पूरे क्षेत्र को बदनाम कर सकती है? उत्तर है — नहीं। यह वही मानसिकता है जो किसी मुस्लिम अपराधी को देख पूरे धर्म पर टिप्पणी कर देती है, या किसी एक दलित व्यक्ति के कारण पूरी जाति को दोषी ठहराती है। यह सोच भी उतनी ही खतरनाक है जितनी खुद वह घटना।

शादी अब समझौता नहीं, सौदा बन रही है।

प्रेम अब समर्पण नहीं, स्वार्थ बन गया है।

और भरोसा अब भावना नहीं, बिजनेस जैसा व्यवहार हो गया है।

जिस तरह से सोनम ने योजनाबद्ध तरीके से पति की हत्या की, वह दिखाता है कि क्रूरता अब हथियार से नहीं, रिश्तों के माध्यम से भी हो रही है।

मीडिया ने इस घटना को सनसनीखेज ढंग से दिखाया।

शीर्षक आए —

“हनीमून बना हत्याकांड का अड्डा”

“बेवफा बीवी की खूनी प्लानिंग”

“राजा गया, सोनम हँसी”

लेकिन इन सुर्खियों के पीछे की वास्तविक पीड़ा, राजा के माता-पिता का दुःख, और समाज में बनती विडंबनाओं की चर्चा लगभग नदारद रही।

सोशल मीडिया पर भी मामला जल्दी ही मेमे और चुटकुलों का विषय बन गया —

“पूरा नॉर्थ ईस्ट सोनम की बेवफाई से बदनाम हो गया।”

“हनीमून पर जाने से पहले पुलिस वेरिफिकेशन जरूरी कर लो।”

यह हास्य के नाम पर एक मानवीय त्रासदी का उपहास है।

कुछ लोग कह सकते हैं कि यह एक अलग-थलग मामला है। लेकिन सच यह है कि ऐसे रिश्ते-जनित अपराध बढ़ रहे हैं।

कहीं पति पत्नी को दहेज के लिए मार रहा है।

कहीं पत्नी प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या कर रही है।

कहीं दोनों मिलकर बच्चों को मार डालते हैं।

यह सब संकेत हैं — कि हमारा समाज कहीं न कहीं भावनात्मक पतन, सामाजिक अस्थिरता और नैतिक विघटन की ओर बढ़ रहा है।

ऐसे में अब सवाल समाधान का है।

स्कूलों और कॉलेजों में सिर्फ करियर या डिग्री की बात न हो, बल्कि भावनात्मक बुद्धिमत्ता (emotional intelligence), रिश्तों की समझ, संवाद की कला और वैवाहिक जीवन की जिम्मेदारियों की चर्चा हो।

जैसे स्वास्थ्य चेकअप होता है, वैसे ही शादी से पहले मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग अनिवार्य हो।

सोशल मीडिया को ऐसी घटनाओं को सनसनी नहीं, संवेदना के साथ पेश करने की जिम्मेदारी निभानी होगी।

परिवारों को संवादशील बनना होगा, ताकि युवा खुलकर अपनी उलझनों को साझा कर सकें।

जब एक युवती अपने पति की हत्या करती है, तो हम उसे “डायन”, “खूनी”, “बेवफा” कह देते हैं — और सही भी है, अगर वह दोषी है। लेकिन क्या हमने कभी उन हज़ारों बेटियों की सुध ली जो दहेज, बलात्कार, या मारपीट में मर जाती हैं?

क्या हम अपराध को सिर्फ लिंग के आधार पर देखेंगे या सिद्धांतों और संवेदनाओं के आधार पर?

राजा की हत्या कोई फिल्मी सस्पेंस नहीं, यह हकीकत है।

एक मां का बेटा गया, एक बहन का भाई और एक परिवार की खुशियाँ छिन गईं।

वहीं दूसरी ओर — एक राज्य बदनाम हो गया, और पूरे पर्यटन क्षेत्र पर प्रश्नचिन्ह लग गया।

हम इस घटना को केवल एक अपराध के रूप में न देखें, बल्कि एक सामाजिक चेतावनी के रूप में लें। यह हमें बताती है कि अब वक़्त आ गया है — जब हमें केवल रिश्ते जोड़ने की नहीं, उन्हें निभाने की शिक्षा भी देनी होगी।