कविता साहित्य क्योंकि मोबाइल है… June 16, 2017 by बीनू भटनागर | Leave a Comment घड़ी पहनने की आदत छूट गई, पहले पैन साथ लेके चलते थे वो आदत भी छूट गई अब तो क्योंकि मोबाइल है……,, कैमरे की भी ज़रूरत नहीं है अब, पहले वीडियो बनाना मुश्किल था, अब स्टिंग इतने होते हैं क्योंकि मोबाइल है…………. पहले कैसेट सी डी से गाने सुनतेथे साथ बैठकर रेडियो भी सुनते थे […] Read more » क्योंकि मोबाइल है...
कविता साहित्य सोने नहीं देते…… June 15, 2017 by बीनू भटनागर | Leave a Comment कभी कभी कुछ शब्द, सोने नहीं देते…… जब तक उन्हे किसी कविता का आकार न दे दूँ। कभी कभी कोई धुन, सोने नहीं देती….. जब तक उसमे शब्द पिरोकर, गीत का कोई रूप न दे दूँ। कभी कभी कोई विचार सोने नहीं देते….. जब तक विचारों को संजोकर आलेख का आकार न […] Read more » sleeplessness कुछ शब्द सोने नहीं देते
कविता साहित्य आदमी June 13, 2017 by बीनू भटनागर | Leave a Comment हज़ारों की भीड़ में भी, अकेला है आदमी! आदमी ही आदमी को, नहीं मानता आदमी! संवेदनायें खो गईं, चोरी क़त्ल बढ़ गये, कोई भी दुष्कर्म करते, डरता नहीं अब आदमी। भगवान ऊपर बैठकर ये सोचता होगा कभी, ऐसा नहीं बनाया था मैने क्या बन गया है आदमी! स्वार्थ की इंतहा हुई , भूल गया दोस्ती […] Read more » आदमी
कविता तोहफे June 13, 2017 / June 13, 2017 by बीनू भटनागर | Leave a Comment मै नहीं कोई ताल तलैया ना ही मैं सागर हूँ। मीठे पानी की झील भी नहीं, मैं बहती सरिता हूँ। सरल नहीं रास्ते मेरे चट्टनों को काटा है। ऊपर से नीचे आने.में झरने कई बनाये मैने इन झरनों के गिरने पर प्रकृति भी मुस्काई है पर मेरी इक इक बूँद ने यहाँ हर पल चोट […] Read more » तोहफे
कविता ये ज़रूरी तो नहीं June 8, 2017 by बीनू भटनागर | Leave a Comment मैं ख़ुद से ही रूठी रहती हूँ, कोई मनाये मुझको आकर, ये ज़रूरी तो नहीं, मैं ख़ुद को ही मना लेती हूँ। कुछ भी लिखूं या करूँ मैं जब अपनी प्रशंसा भी कर लेती हूँ , कोई और भी मेरा प्रशंसक हो, ये ज़रूरी तो नहीं………… जो भी काम पूरा कर लेती हूँ, […] Read more » ये ज़रूरी तो नहीं
कविता साहित्य एक क़दम तुम बढ़ाओ…… June 6, 2017 by बीनू भटनागर | Leave a Comment एक क़दम तुम बढ़ाओ, दो हम बढ़ायेंगे। फ़ासले जो दरमियां हैं, दूर होते जायेंगे। दूरियाँ मन की नहीं थीं, विचारों के द्वन्द थे, आओ बैठो, बातें करो,मसले सब सुलझ जायेंगे। वक़्त मिलता ही नहीं…,…… कहने से उलझने बढ़ जायेंगी। वक़्त को वक़्त से चुराकर, कुछ वक़्त तो देना पड़ेगा। एक छोर तुम पकड़ना, मैं हर […] Read more » एक क़दम तुम बढ़ाओ
कविता ‘आज’ का क्या करूं मै June 6, 2017 by बीनू भटनागर | Leave a Comment वो शाम चुलबुली सी रातें खिली खिली सी वक़्त के समंदर में वो वक़्त ही घुल गया है। अब शांत सी शामें हैं, चादर में नहीं हैं सिलवट नींद से रूठा मनाई, यादें आईं नई पुरानी, बचपन की कोई कहानी या जवानी की नादानी, रातों को आंखो में आकर, नीदें चुराने लगी हैं। भविष्य भी […] Read more » ‘आज' का क्या करूं मै
कविता साहित्य मैं मैं हूँ मैं ही रहूँगी June 6, 2017 by बीनू भटनागर | 10 Comments on मैं मैं हूँ मैं ही रहूँगी मै नहीं राधा बनूंगी, मेरी प्रेम कहानी में, किसी और का पति हो, रुक्मिनी की आँख की किरकिरी मैं क्यों बनूंगी मै नहीं राधा बनूँगी। मै सीता नहीं बनूँगी, मै अपनी पवित्रता का, प्रमाणपत्र नहीं दूँगी आग पे नहीं चलूंगी वो क्या मुझे छोड़ देगा मै ही उसे छोड़ दूँगी, मै सीता नहीं बनूँगी। मै […] Read more » मैं मैं हूँ मैं ही रहूँगी
कविता लपक लिए आम June 3, 2017 by प्रभुदयाल श्रीवास्तव | Leave a Comment प्रभुदयाल श्रीवास्तव लपकी ने लपक लिए, थैले से आम। अम्मा से बोली है, आठ आम लूँगी मैं। भैया को दीदी को, एक नहीं दूँगी मैं। जो भी हो फिर चाहे, इसका अंजाम। न जाने किसने कल ,बीस आम खाये थे। अम्मा ने दिन में जो, फ्रिज में रखवाए थे। शक के घेरे में था, मेरा […] Read more » लपक लिए आम
कविता साहित्य वीरवार बाज़ार May 25, 2017 by बीनू भटनागर | Leave a Comment महानगरों में भी लगता है, हफ्ते का हाट, मौलों की चकाचौंध और एयर कंडीशन्ड बड़े बडे शो रूमों नये से नये रैस्टोरैंट के बीच ज़िन्दा है अभी भी हफ्ते का हाट! हमारा वीर बाजार! यहाँ सब कुछ मिलता है…. सब्ज़ी फल के लियें लोग यहाँ आते है बड़ी बड़ी गाड़ियों वाले भी भर के ले […] Read more » वीरवार बाज़ार
कविता बाल्कनी May 25, 2017 by बीनू भटनागर | Leave a Comment महानगरों में, ऊँची उँची इमारते, यहाँ कोई पिछवाड़ा नहीं, ना कोई सामने का दरवाज़ा, इमारत के चारों तरफ़ , बाल्कनी का नज़ारा, धुले हुए कपड़े……… बाल्कनी में लहराते सूखते, कभी झाड़न पोछन सूखते, कभी कालीन या रजाई को धूप मिलती, घर के फालतू सामान को पनाह देती है ये बाल्कनी, घर का अहम हिस्सा है […] Read more » बाल्कनी
कविता साहित्य मेरा एकालाप May 15, 2017 by आशुतोष माधव | Leave a Comment बोल उठी तब त्रिपुरसुंदरी तू डूबे क्यों,क्यों पार तरे? तेरे समस्त गान, रुदन औ' हास ऊँ नमो मणिपद्मे हुं का पाठ तेरा प्रचलन मेरी प्रदक्षिणा तेरा कुछ भी मेरा सबकुछ ओ मेरे प्यारे अबोध शिशु गोद भरे,तू मुझमें नित-नूतन मोद भरे। Read more » Featured चन्द्रमा देवदारु हिमालय