कविता पाषाण-मूर्ति February 24, 2013 / February 24, 2013 by विजय निकोर | 4 Comments on पाषाण-मूर्ति मैं पाषाण-मूर्ति-सी खड़ी रही, तुम असीम नम्रता के प्रतीक पेड़ की शाख़ा-से झुके रहे, और हर बार और भी झुकते गए। तुम्हारी स्नेह-दृष्टि अनुकंपा-सरोवर, तुम्हारे बोल संवेदना से भरपूर , शब्द मख़मली, मैं अनजाने में कभी बे-मुरव्वत कभी जाने में बेलिहाज़ , तुम अकृत्रिम, अप्रभावित सदैव विनम्र रहे, निरहंकार रहे , और इसीलिए अब […] Read more »
कविता ‘वो हिन्दू थे ‘ February 23, 2013 / February 23, 2013 by सुधीर मौर्य 'सुधीर' | 3 Comments on ‘वो हिन्दू थे ‘ सुधीर मौर्य ‘सुधीर’ उन्होंने विपत्ति को आभूषण की तरह धारण किया उनके ही घरों में आये लोगों ने उन्हें काफ़िर कहा क्योंकि वो हिन्दू थे। उन्होंने यूनान से आये घोड़ो का अभिमान चूर – चूर कर दिया सभ्यता ने जिनकी वजह से संसार में जन्म लिया वो हिन्दू थे। जिन्होंने तराइन के […] Read more » 'वो हिन्दू थे '
कविता एहसास ‘आधुनिकता’ का February 20, 2013 / February 20, 2013 by ऋषभ कुमार सारण | 1 Comment on एहसास ‘आधुनिकता’ का ऋषभ कुमार सारण थके हारे काम से आकर, एक कोरे कागज को तख्ती पे लगाया, मन किया कागज की सफेदी को अपने ख्वाबों से रंगने को, उंगिलया मन की सुन के चुपचाप लिखने लगी, और लेखनी भी कदम से कदम लाने लगी, पर दिमाग “डिक्शनरी” में लफ़्ज ढूंढ़ रहा था ! और मेरा “जिया” […] Read more » एहसास ‘आधुनिकता’ का
कविता कविता – अस्तित्व February 20, 2013 / February 20, 2013 by मोतीलाल | Leave a Comment घुप्प अंधेरे में टिमटिमाता है एक दीया मेरे कमरे में । जानता हूँ अच्छी तरह नहीं मिटा सकती अंधेरे को उसकी रोशनी । उधर चाँद झांकता है और कतरा-दर-कतरा घुसता है उसकी रोशनी मेरे अंधेरे कमरे में । फिरभी नहीं मिटता अंधेरा और मैं टटोलता हूँ दो दिन की पड़ी बासी रोटी […] Read more » कविता - अस्तित्व
कविता दूरियों की दूरी February 18, 2013 / February 18, 2013 by विजय निकोर | Leave a Comment विजय निकोर मंज़िल की ओर बढ़ने से सदैव दूरियों की दूरी … कम नहीं होती। बात जब कमज़ोर कुम्हलाय रिश्तों की हो तो किसी “एक” के पास आने से, नम्रता से, मित्रता का हाथ बढ़ाने से, या फिर भीतर ही भीतर चुप-चाप अश्रुओं से दामन भिगो लेने से रिश्ते भीग नहीं जाते, उनमें पड़ी […] Read more » दूरियों की दूरी
कविता मैने कहाँ मांगा था… February 10, 2013 by बीनू भटनागर | 2 Comments on मैने कहाँ मांगा था… मैने कहाँ मांगा था सारा आसमा, दो चार तारे बहुत थे मेरे लियें, दो चार तारे भी नहीं मिले तो क्या.. चाँद की चाँदनी तो मेरे साथ है। मैने नहीं माँगा था कभी इन्द्रधनुष, जीवन मे कुछ रंग होते बहुत था, दो रंग भी नहीं मिला तो क्या.. श्वेत-श्याम ही बहुत हैं मेरे लियें। […] Read more » मैने कहाँ मांगा था...
कविता मौन February 10, 2013 by विजय निकोर | 2 Comments on मौन विजय निकोर तुम्हारी याद के मन्द्र – स्वर धीरे से बिंध गए मुझे कहीं सपने में खो गए और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ अपने विस्मरण से खीजता बटोरता रहा रात को और उस में खो गए सपने के टुकड़ों को | कोई गूढ़ समस्या का समाधान करते विचारमग्न रात अँधेरे में डूबी कुछ और रहस्यमय हो गयी […] Read more »
कविता बसंत बहार February 10, 2013 by बीनू भटनागर | 1 Comment on बसंत बहार गूंजा राग बसंत बहार दिशा दिशा सम्मोहित हैं, फूल खिले तो रंग बिखरे हैं, गूंजा जब मधुरिम आलाप। भंवरों पर छाया उन्माद, स्वरों की हुई जो बौछार, तितली भंवरे और मधुलिका, पुष्पों के रस मे डूब रहे हैं। प्रकृति और संगीत एक रस, स्वर ताल के संगम में अब, झूल रहे हैं फूलों के दल, […] Read more » बसंत बहार
कविता हम हिन्दु अब आतन्कवादी हो गये… February 6, 2013 / February 6, 2013 by अभिनव शंकर | 1 Comment on हम हिन्दु अब आतन्कवादी हो गये… जाँत-पाँत पर,ऊँच-नीच पर तोड़-तोड़ कर, परम्पराओं को,पुराणों को मोड़-मोड़ कर, पश्चिमीकरण की अखिल भारतीय आंधी चला , स्वदेशी को गाँधी की सती बना, चिता जला, नर-पिशाच वो खडे आज पहन खादी हो गये, हम हिन्दु अब आतंकवादी हो गये … जिसके प्रतिष्ठा को लड़े-भिड़े, हुएँ खेत शिवाजी, जिसके लिए महाराणा हुएँ घास खाने को […] Read more »
कविता कविता – यायावर February 2, 2013 by मोतीलाल | Leave a Comment वह मेरे खाने के पीछे पड़ा था जब मैं खाना चाहता था अपना रुखा-सूखा खाना । वह मेरी नींद चुराना चाहता था जब मैं सोना चाहता था थक-हारकर एक पूरी नींद । वह मेरे प्यास के पीछे भी पड़ गया जब मैं पीना चाहता था चुल्लू भर पानी । वह मेरे घर […] Read more »
कविता चिन्ह February 2, 2013 / February 2, 2013 by विजय निकोर | 2 Comments on चिन्ह कोई अविगत “चिन्ह” मुझसे अविरल बंधा, मेरे अस्तित्व का रेखांकन करता, परछाईं-सा अबाधित, साथ चला आता है । स्वयं विसंगतिओं से भरपूर मेरी अपूर्णता का आभास कराता, वह अनन्त, अपरिमित विशाल घने मेघ-सा, अनिर्णीत, मेरे क्षितिज पर स्वछंद मंडराता है । उस “चिन्ह” से जूझने की निरर्थकता मुझे अचेतन करती, निर्दयता से घसीट […] Read more »
कविता सू्र्यदेव का स्वागत February 1, 2013 / February 1, 2013 by बीनू भटनागर | 1 Comment on सू्र्यदेव का स्वागत सू्र्यदेव का स्वागत मै बाँहें फैला कर करता हूँ, आग़ोश मे लेलूँ सूरज को, महसूस कभी ये करता हूँ। उदित भास्कर की किरणे, जब मेरे तन पर पड़ती हैं, स्फूर्ति सी तन मे आती है, जब सूर्य नमन मै करता हूँ। स्वर्णिम आरुषि मे नहाकर मै, भानु को जल-अर्घ भी देता हूँ, फिर […] Read more »