व्यंग्य “जब मोदी-लहर से भयभीत हो काँप उठा इन्द्र का सिंहासन” January 2, 2015 / January 3, 2015 by रोहित श्रीवास्तव | Leave a Comment मोदी लहर का कहर अभी तक धरती तक ही सीमित था परंतु अगर इंद्रलोक के विश्वसनीय सूत्रो की माने तो हाल मे भाजपा द्वारा झारखंड भू-खंड जीतने, दुनिया के स्वर्ग कहे जाने वाले जम्मू-कश्मीर मे अप्रत्याशित चुनावी प्रदर्शन करने और एक के बाद एक राज्य को कब्जियाने की मुहिम से स्वर्ग लोक मे मानो ऐसी […] Read more »
व्यंग्य ऊंटरव्यू December 28, 2014 / December 29, 2014 by जगमोहन ठाकन | Leave a Comment अब मीडिया बड़ा ही फ़ास्ट हो गया है . छोटे से छोटी घटना पर ऐसी प्रस्तुति देता है कि जिस व्यक्ति के बारे में समाचार दिखाया जा रहा है , उसे भी शक होने लगता है कि क्या वास्तव में “वो “ वैसा ही है .परन्तु खेद का विषय यह रहा कि हाल में तीन […] Read more » ऊंटरव्यू
व्यंग्य शिकार की तलाश में …. December 23, 2014 / December 23, 2014 by विजय कुमार | Leave a Comment नौकरी से अवकाश प्राप्त करने के बाद शर्मा जी ने कुछ दिन आराम किया। फिर कुछ दिन नाते-रिश्तेदारों से मिलने में खर्च किये। इसके बाद वे सपत्नीक तीर्थयात्रा पर चले गये। वहां से लौटे तो बीमार हो गये। इतना सब करते हुए साल भर निकल गया। लेकिन अब समस्या थी कि खाली समय कैसे […] Read more » शिकार की तलाश
व्यंग्य खाली पेट का सपना, कब आयेगा कालाधन December 19, 2014 / December 19, 2014 by अभिषेक कांत पांडेय | 2 Comments on खाली पेट का सपना, कब आयेगा कालाधन अभिषेक कांत पांडेय एक सपना अपना भी स्विस बैंक में हो खाता अपना, बस 5०० रूपये से ही खुल जाए तो अच्छा है कम से कम हम भी सीना तान कहेंगे, स्विस बैंक में ईमानदारी की कमाई से 5०० का खाता है। क्या ये सपना पूरा हो सकता है? विदेशों जमा काला धन भारत आ […] Read more » कब आयेगा कालाधन खाली पेट का सपना
व्यंग्य चमचे ही चमचे, यहाँ-वहां जहाँ-तहाँ December 17, 2014 by दीपक शर्मा 'आज़ाद' | Leave a Comment मेरे घर के रसोईघर में बर्तनों की भरमार है, होती है सबके घर में होती है| थाली, कटोरी, गिलास, चम्मच और अंत में कप ये न होतो खाना खाने की कल्पना अधूरी सी ही लगती है क्यों सही कहा न| पर इन सबमे भी देखें तो चम्मच सर्वश्रेष्ठ है, वो हर घर में अन्य बर्तनों […] Read more » चमचे ही चमचे
व्यंग्य आलेख : संतन के मन रहत है… December 17, 2014 by विजय कुमार | Leave a Comment पिछले कुछ दिनों से कई साधु और संत विभिन्न कारणों से चर्चा में हैं। मीडिया के बारे में आदमी और कुत्ते की कहावत बहुत पुरानी है। अर्थात कुत्ता किसी आदमी को काट ले, तो यह खबर नहीं होती, क्योंकि यह उसका स्वभाव है; पर यदि आदमी ही कुत्ते को काट ले, तो यह मुखपृष्ठ की […] Read more »
व्यंग्य सामूहिक आत्महत्या December 13, 2014 by विजय कुमार | Leave a Comment आत्महत्या के बारे में मैंने कभी गंभीरता से नहीं सोचा। क्या बताऊं, कभी इसकी नौबत ही नहीं आयी। एक बार मेरा एक मित्र इस समस्या से पीड़ित हुआ, तो मैंने उसे एक बड़े लेखक की विश्व प्रसिद्ध पुस्तक ‘आत्महत्या से कैसे बचें ?’ दे दी। उसे पढ़कर मेरे मित्र ने यह नेक विचार सदा को […] Read more » group suicide सामूहिक आत्महत्या
कविता व्यंग्य हाथी और कुत्ते December 9, 2014 / December 9, 2014 by डॉ. सुधेश | Leave a Comment हाथी चल रहा है अपनी चाल कुत्ते भौंकते हैं पीछे पीछे भौंकते ही भौंकते बस भौंकते हैं कर न सकते कुछ मगर क्यों भौंकते क्या उस से डरते नहीं वे हैं वाग्वीर फिर क्यों भौंकते उन्हें हाथी से घृणा है उस की बेढब शक्ल से उस के तीखे बोल से उस की चाल से […] Read more » कुत्ते हाथी
व्यंग्य व्यंग्य बाण : अराउंड दि वर्ड, बैकवर्ड November 26, 2014 by विजय कुमार | Leave a Comment पाठक अंग्रेजी शीर्षक के लिए क्षमा करें; पर आज मैं मजबूर हूं। आप जानते ही हैं कि कई लोगों को कीर्तिमान (रिकार्ड) तोड़ने या नये बनाने का जुनून होता है। वे इसके लिए किसी भी सीमा तक चले जाते हैं। ये रिकार्ड काम के भी हो सकते हैं और बेकार भी। फिर भी ये […] Read more » बैकवर्ड
व्यंग्य हाजमोला खाओ, मौज मनाओ November 24, 2014 by अशोक गौतम | Leave a Comment घर में अकेला था सो दरवाजे पर दस्तक हुई तो मैंने दफ्तर न जाने का पक्का मूड बनाए सोफे पर पसरे- पसरे ही पूछा, ‘कौन?’ ’ रामबोला!‘ ‘ ताजी- ताजी टीवी पर इबोला की खबर सनसनी फैला रही थी सो सहमता पूछ बैठा,‘ इबोला??’ ‘नहीं साहब! रामबोला!’ ‘कौन रामबोला?’ ‘ रामबोला बोले तो तुलसीदास!’ […] Read more » मौज मनाओ हाजमोला खाओ
व्यंग्य मैया मोरी! गांव सहा न जायौ!! November 24, 2014 by अशोक गौतम | Leave a Comment लेओ जी ! फिर मुझ दुखियार के काने कौवे की आंख से बिटुआ का काॅल आई गवा! सच कहूं जब -जब बिटुआ का गांव से फोनवा आता है, अपना तो ये फटा कलेजा सुनने से पहले ही मुंह को आ जाता है। हे भगवान तुमने मुझे मां क्यों बनाया। अपना बिटुआ दिल्ली छोड़ जबसे गांव […] Read more »
व्यंग्य संती-महंती का ठेला, मेला ही मेला November 22, 2014 by अशोक गौतम | 1 Comment on संती-महंती का ठेला, मेला ही मेला अशोक गौतम थका हारा ठेले के डंडे में बुझी लालटेन लटकाए किलो के बदले साढ़े सात सौ ग्राम सड़ी गोभी तोल रहा था कि एकाएक कहीं से प्रगट हुए बाबा ने मुझसे पूछा, ‘ सब्जी के ठेले पर किलो के बदले सात सौ ग्राम तोल अपना ये लोक तो ये लोक,परलोक तक क्यों खराब कर […] Read more » व्यंग्य/ संती-महंती का ठेला संती-महंती संती-महंती का ठेला